20. यही दृष्टियोग है 
प्यारे लोगो!
 असल में पूछिए तो ईश्वर अवर्णनीय है। उनके बारे में कहा नहीं जा सकता। इसीलिए संत कबीर साहब की साखी श्रीसंतसेवीजी ने कही-
जस कथिये तस होत नहिं, जस है तैसा सोय ।
कहत सुनत सुख ऊपजै, अरु परमारथ होय ।।
 कहते-सुनते परमार्थ भी होता है और सुख भी होता है, इसीलिए कहते हैं। ईश्वर का ज्ञान गंभीर है, उसको कहाँ पाया जाय? इसी की खोज करने के लिए दूर-दूर तक लोग चले जाते हैं, जिनके देश में ऐसा ज्ञान नहीं है। ‘तीन शून्यों के पार में’ श्रीसन्तसेवी जी कह चुके। तीनों शून्यों को कहाँ पाओगे? किधर से जाओगे? हो कहाँ? अपने शरीर में हो। अपने को सोचो कौन हो? शरीर नहीं हो, शरीर में रहनेवाली चेतन-आत्मा हो। जाओगे तो शरीर के अन्दर-अन्दर जाओगे। जो जहाँ बैठा रहता है, वह वहीं से चलता है। अभी सन्तसेवीजी ने कहा-तीन शून्यों के पार जब होना होगा, तब चौथा क्या बचेगा? शब्दातीत बचेगा। शब्द को पार करके शब्दातीत में पहुँचोगे। यह भी अपने अन्दर और बाहर है। यहाँ चीन्होगे कि यही परमात्मा का स्वरूप है। इन तीनों को पार करो, तब शब्दातीत-पद रहेगा, उसी पद को परमात्मा का स्वरूप जानो। जिसका आदि नहीं, अन्त नहीं, उस पद में पहुँचोगे।
 आदि-अन्त-रहित केवल एक ही परमात्मा है। अनादि- अनंत एक ही हो सकता है। दो अनन्त कभी नहीं हो सकते। जरा बुद्धि से विचारो। दो अनन्त रहने से दोनों आदि-अन्तवाले होंगे। परमात्मा को खोजना है, तो अन्दर में खोजो। अन्दर-अन्दर जाओगे वहाँ। कोई बता नहीं देगा कि वही यह पद है। अपने ही होगा। सन्तमत का ज्ञान बड़ा गम्भीर है। थोड़ी-थोड़ी बातों में सन्तों ने बताने की कोशिश की है। बेशी कहने से लोग और नहीं बूझेंगे। इसीलिए थोड़ी-सी बात कही। इस तरह की बातें बहुत देर तक कही नहीं जा सकती। इस घर में बैठे हो, अपने-अपने बासे में जाओगे। हर एक मनुष्य अपने-अपने शरीर में है। जब वह तीन शून्यों की खोज में जाएगा, तो अन्दर-अन्दर जाएगा और शब्दातीत-पद तक जाएगा। वह शब्दातीत-पद सर्वव्यापक होने के कारण तुम्हारे अन्दर भी है। जैसे नदी के पार उतरना चाहते हो, तो पानी-पानी जाओगे। पानी का किनारा आने पर मिट्टी मिलेगी। इसी तरह शब्द की खोज करते-करते शब्द का अन्त हो जाएगा, तब शब्दातीत बचेगा। वह तमाम है, तुम्हारे अन्दर भी है। यही समझिए। यदि कोई पूछे कि ईश्वर की खोज कहाँ करनी है, तो कहो-अपने अन्दर करनी है।
निज तन में खोज सज्जन, बाहर न खोजना ।
अपने ही घट में हरि हैं, अपने में खोजना ।।
दोऊ नैन नजर जोड़ि के एक नोंक बनाके ।
अन्तर में देख सुन-सुन अन्तर में खोजना ।।
तिल द्वार तक के सीधे, सूरत को खैंच ला ।
अनहद धुनों को सुन-सुन, चढ़ चढ़ के खोजना ।।
बजती हैं पाँच नौबतें, सुनि एक एक को ।
प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना ।।
पंचम बजै धुर घर से, जहाँ आप बिराजें ।
गुरु की कृपा से मेँहीँ, तहँ पहुँचि खोजना ।।
         (महर्षि मेँहीँ-पदावली)
 इसमें भेद भी है। ‘दोउ नैन नजर जोड़ि के, एक नोक बना के।’ यही दृष्टियोग है। इसी में पहले एकविन्दुता आती है। दोनां दृष्टियाँ जुड़ जाती हैं, तो एकविन्दुता होती है। जिसको ऐसा हेता है, वह बड़ा भाग्यवान है। इन शब्द को इसीलिए बनाया कि इसको गाओ और अन्तस्साध्ना की झोंक में आ जाओ।
मेरे तुमही राखनहार, दूजा कोइ नहीं ।
यह चंचल चहूँ दिशि जाय, काल तहीं तहीं ।।
मैं बहुतक कियो उपाय, निश्चल ना रहै ।
जहाँ बरजूँ तहाँ जाय, तुमसे ना डरै ।।
तासे कहा बसाय, भावै त्यों करै ।
सकल पुकारे साध, और मैं केता कहा ।
गुरु अंकुश मानै नाहिं, निर्भय होय रहा ।।
मेरे तुम बिन और न कोय, जो इस मन को गहै ।
अब राखो राखनहार, दादू त्यों रहै ।।
   
[संतमत-सत्संग मन्दिर, जमालपुर (मुंगेर), 5.3.1972 ई0]


16. संतमत नहीं सिखाता कि गृहस्थी छोड़ दो

प्यारे धर्म-जिज्ञासु लोगो !
 यह संतमत असल में संतमत एक ही है। परन्तु यह ‘संतमत’ कहने का तात्पर्य यह नहीं कि इसको किसी दूसरे संत के मत से फुटा देते हैं। जैसे कबीर साहब का मत, गुरुनानक साहब का मत, तुलसी साहब का मत, राधास्वामी साहब का मत आदि सब एक ही हैं। यह संतमत कहने का मतलब-हमारे गुरु महाराज जो प्रचार कर गए थे सो। उन्होंने कोई नई बात नहीं कही। उन्होंने वही बात कही, जो संतों ने कही। ऐसा कुछ प्रचार हो गया है कि लोग समझते हैं कि वैरागियों का मत है, सो तो कभी नहीं। बाबा नानक ने कहा-राज्य करता हुआ राज्य में राजा, तप करता हुआ तप में श्रेष्ठ तपी और गृहस्थ-आश्रमी बनकर गृहस्थ भोग में भोगी बनते हुए उस भोग में, योगी, सब-के-सब ध्यान करते थे, यही मूल बात है। उसी ध्यान की विधि देकर हमारे गुरु महाराज ने कहा-सब कोई ध्यान करो। चाहे राजा हो, गृही वा सद्गृहस्थ हो, तपी हो और जो गृहस्थी भोग भोगकर रहता है, उसको करते हुए करो। सब-के-सब ध्यान करो। उनको मालूम था। उन्होंने अपने को भी गृहस्थ-आश्रम में रखा। कौन? गुरु नानक साहब और कबीर साहब के लिए है कि गृहस्थ बनकर उन्होंने सन्तान पैदा किया कि नहीं, कहना कठिन है। कबीर-पंथी लोग कहते हैं कि ब्रह्मचारी बनकर वे ईश्वर-भक्ति का प्रचार करते थे। लेकिन बहुमत है कि वे गृहस्थ थे। असली बात कौन
जानता है? आज से छह सौ वर्ष पूर्व हो गए। उनकी जीवनी ठीक-ठीक कोई नहीं कह सकते।
 जो कहते हैं कि ‘गृही कारज नाना जंजाला।’ जिसने अपने को इसमें रखा उनके लिए कुछ कहना नहीं है। चाहे वे कबीर-पंथी हों वा दूसरे। वे जो काम करते थे, उसमें उनका मन लगता था। कपड़ा बिनते थे, रोजगार करते थे। उसी से अतिथि सत्कार भी करते थे। आपलोगों के जैसा विचार आवे, सो मानिए। चाहे बालब्रह्मचारी कहिए। बालब्रह्मचारी तो वे थे आज भी उनकी डीह को लोग देखने जाते हैं। उसको नीरु का टीला कहते हैं। नीरु के काम को ही कबीर साहब ने अपनाया। कितने संत गृही-काम करते रहे, कितने संत गृही-काम छोड़कर अपना साधन -भजन भी करते थे और सदुपदेश भी संसार को देते थे।
 आपलोगों ने देखा होगा कि इस पार से उस पार जाने के लिए सरयू नदी पर एक पुल बन्धा हुआ है। वह पुल माँझी का पुल कहलाता है। वहाँ एक संत मुंशी रहते थे। उनका नाम था धरनी दासजी। वे एक मुंशी आदमी थे। एक क्षत्रिय बाबू के यहाँ क्लर्क या मुहरील का काम करते थे। मुशहरा पाते थे-नौकरी करते थे। उन्होंने बड़े अच्छे-अच्छे पद कहे हैं-
धरनी अधरे ध्यान धरु, निसिवासर लौलाइ।
कर्म कीच मगु बीच है, (सो) कंचन गच हवै जाइ।।
बहुत अच्छे-अच्छे पद कहे। एक दिन उन्होंने पागल की तरह किया।
स्याही को कागज पर उलटकर हाथ से लेपने लग गए। बाबू ने देखा तो कहा कि मुंशी जी आप पागल हो गए।’ उन्होंने कहा-‘नहीं ! जगन्नाथ के पट में आरती करते आग लग गई और मैंने उसी में पानी डाल दिया।’ उसको ठीक से जाँच करने के लिए बाबू ने जगन्नाथपुरी में घुड़सवार को भेजा। वह दिन, वह तिथि बताई। लोग वहाँ गए तो बताया। तो लोगों ने कहा कि ‘हाँ ! ठीक ही एक आदमी आये थे और पानी डालकर बुझा दिए। जगन्नाथजी की पट में आग लग गई थी।’ संत धरनी दासजी जाति के कायस्थ थे। लिखा-पढ़ी करते उन्होंने सिद्धि पाई। संत पलटू दासजी दूकान पर बैठकर ही भजन करते थे, सत्संग करते थे। फिर वे दूकान छोड़कर भजन-सत्संग करने लगे। साधु बनकर भिक्षाटन करें, ऐसा वे नहीं करते थे। कितने संत भिक्षाटन किए, कितने भिक्षाटन का काम नहीं किए। इस तरह संत लोग हुए हैं।
 आपलोग भी देखते हैं कि हमारे गुरु महाराज ने पहले डाकखाने का काम किया, पीछे उन्होंने छोड़ दिया। मेरी अपनी बात सुनिए। मेरा छोटा मुंह, छोटी बुद्धि यही बात कहती है कि मैंने अवश्य ही घर का काम छोड़ दिया। लेकिन अपने पालन-पोषण के लिए खेती का काम किया। अभी भी मेरा खेत है। सत्संगी के जिम्मे है। वे उपजा कर देते हैं। वे मेरे बेटे और मैं उनका बाप। कुछ दिन ऐसा भी था कि मैं पूजा ग्रहण करता था। पैसे लेता था। उस बात को मैंने छोड़ दिया। इस तरह बनते-बनते मैं नहीं ऐसा कहता कि कबीर साहब या गुरुनानक साहब के जैसा बन गया हूँ। मैं तो उनकी चरण-धूल लेने योग्य भी नहीं हूँ।
 संतमत नहीं सिखलाता है कि घर का काम-गृहस्थी यानी बाल-बच्चों का संग छोड़ दो और ध्यान-भजन करो। यह बताता है कि स्त्री, बाल-बच्चों के साथ रहो, परिश्रम से उपार्जन करो और ईश्वर-भजन भी करो। गुरु नानकदेव ने कहा है-
राज महि राज, जोग महि जोगी। तप में तपीसुर, गृहस्थ महि भोगी।
ध्याय भक्तः सुख पाया। नानक तिस पुरुष का किन अन्त न पाया।।’
 संतमत का बहुत थोड़ा सिद्धान्त है और बहुत भी। थोड़ा यह कि गुरु करो, ध्यान करो और गुरु-सेवा करके ध्यान करने का यत्न लो। गुरु महाराज कहते थे-बहुत सिद्धान्त कहोगे तो लोगों को याद नहीं रहेगा। कुछ बेसी तो हो ही गया। याद के लिए इतना कहा कि गुरु, ध्यान और सत्संग। इसका विस्तार बहुत है। पुस्तक मेरी मौजूद है, लेकर आपलोग पढ़ सकते हैं और मिला सकते हैं, संतमत के विचार से। संतमत क्या सिखलाता है? मैंने कहा-किसी तरह भजन करो, यही जरूरी है। गुरु महाराजजी ने ध्यान करने को भजन करना कहा।
(नन्दलालपट्टी, बाँका 17.03.1972 ई0)