५०. पहले बिजली चमकती है तब ठनका ठनकता है। [23.03.1971]
“बंदऊँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ॥”
प्यारे लोगो!
ध्यान-योग ईश्वर-भक्ति के लिये ऐसी चीज है; जिस तरह शरीर के लिये प्राण है। प्राण नहीं तो शरीर जीवित नहीं रह सकता। ध्यानयोग नहीं तो ईश्वर-भक्ति में सार नहीं। ध्यान मन को एक ओर करने को कहते हैं। मन को एक ओर करने के लिये जप की भी आवश्यकता है। मन को एक ओर करो। क्योंकि जिस ओर मन रहता है, उसी का ध्यान होता है। इसलिये भक्ति-मार्ग में जप की आवश्यकता है। जितने भक्ति-मार्गी संत हुए, सभी जप बता गए हैं। लेकिन केवल जप ही करने कहते हैं; सो नहीं। गो० तुलसीदास जी महाराज ने कागभुशुण्ड जी किस तरह ईश्वर का भजन करते थे, उस तरह को बताया गया है। उसमें जप कहा है; ध्यान कहा है और मानस-पूजा कहा है।
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जग्य पाकरि तर करई॥
आम छाँह कर मानस पूजा। तजि हरि भजन काज नहिं दूजा॥
बट तर कह हरि कथा प्रसंगा। आवहिं सुनहिं अनेक विहंगा ॥
मतलब चौथी चीज है सो सत्संग है। जैसे हमलोग ईश्वरीय-चर्चा करके, ईश्वर का गुणगान करके ईश्वर की प्राप्ति की निस्बत में सन्तवाणी से ठीक-ठीक निर्णय करके पढ़ते हैं, बोलते हैं; समझाते हैं। यह बाहरी सत्संग है। यह भी भक्ति है। इसलिये भक्ति करने के वास्ते गो० तुलसीदास जी ने कहा है
देहि सत्संग निज अंग श्रीरंग भवभंग कारन सरन सोक हारी ॥
कहा है कि हे भगवान हमको सत्संग दीजिये। संसार वाला दुःख जो जीवों को है, वह सत्संग से नाश हो जाता है। जो सत्संग की शरण में जाता है; वह अपने को दु:ख से निवृत्त हुआ पाता है। यह सत्संग बाह्य-सत्संग है। यह भी ईश्वर की भक्ति है। दूसरा जपयज्ञ है। भगवान् कृष्ण ने भी जप को यज्ञ कहा है। फिर कहा है-मानस-पूजा। मानस-पूजा कहते हैं कि मन से इष्ट के रूप को बनाकर मन उस पर लगाना मानस-पूजा है या बाहरी सामग्री को मन में बना-बनाकर इष्ट पर चढाना भी मानस-ध्यान ही है।मानस-पूजा को मानस-ध्यान कहें तो कोई हानि नहीं। मानस-पूजा के बाद फिर ध्यान चाहिये। चारों काम करो तो ईश्वर की भक्ति है। इसके बाद और ध्यान है। वह ध्यान क्या है ? भगवान् श्रीकृष्ण से उद्धव जी ने पूछा कि "मैं आपका ध्यान कैसे करूँ?" तो भगवान् ने कहा- “मेरे सम्पूर्ण शरीर का ध्यान करो, फिर चेहरे का ध्यान करो और तब शून्यध्यान करो।" यही शून्य-ध्यान सूक्ष्म बात है। यही है- "पीपर तरु तर ध्यान सो धरई।" शरीर का वा मुखारविन्द का ध्यान मानस-ध्यान वा मानस-पूजा है। सम्पूर्ण शरीर के ध्यान में फैलाव अधिक है। उससे कम फैलाव है केवल मुखारविन्द में। अधिक फैलाव से कम फैलाव में रखने कहा। उससे आगे शून्य का ध्यान और कम फैलाव होना चाहिए। इसी को– “प्रथमे सुरति जमावै तिल पर, मूल मंत्र गहि लावै।" संत कबीर साहब ने कहा है। इसी को विन्दु-ध्यान कहते हैं। चाहे शून्य-ध्यान कहो, चाहे विन्दु-ध्यान कहो, मन से बनाना नहीं होता। देखने के ढंग से दृष्टि को रखो आप उदय होगा। जैसे कागज पर कलम की नोक रखी गयी; वहीं एक चिन्ह हो गया। उसी को लोग विन्दु कहते हैं। संत पलटू साहब ने कहा है
काजर दिहे से का भया ताकन को ढव नाहिं।
इसका तरीका है। इसकी युक्ति है। युक्ति से दृष्टि को रखो। चित्त को इधर-उधर मत करो। ताकने का ढंग चाहिये। यही गुरु से सीखा जाता है। यही एक विद्या है; जो सारी शक्तियों को प्राप्त करा देने वाली विद्या है। ईश्वर से मिलने का ज्ञान यही विद्या देती है। ईश्वर-मिलन-पथ में जो अनुभूति होती है, एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा, एवं प्रकार से उसमें साधक मन से कुछ बनाता नहीं है। यहाँ मानस-ध्यान का दखल नहीं। इसी को विन्दु-ध्यान कहते हैं। इसके लिये अन्दाजी बात नहीं हो सकती है, गुरु से जानो।
सतगुरु संत कंज में बासा। सुरत लाइ जो चढ़े अकासा ॥
स्याम कंज लीलागिरि सोई। तिल परिमान जान जन कोई ॥
स्त्रुति ठहरानी रहे अकासा। तिल खिरकी में निसदिन वासा ॥
गगन द्वार दीसै एक तारा। अनहद नाद सुनै झनकारा ॥
की अनुभूति होने लगती है। संतों ने इस तरह कहकर भी और पोथी में लिखकर भी विदित कर दिया है। यही वह स्थान है जहाँ से कोई आगे बढ़ता है।
मेरे ख्याल से जो भक्त लोग चन्दन लगाते हैं; वे एक टीका भी लगाते हैं। यह टीका विन्दु का प्रतीक है। मैं कहूँगा शालीग्राम भी इसी का प्रतीक है। यह ईश्वर का सूक्ष्म-रूप है। ईश्वर का रूप क्यों कहा जाय? जो सत्संग करते हैं; वे जानने लगते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापक हैं।
अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा, बसत इति वासना धूप दीजै।
-गो० तुलसीदास जी
विन्दु में भी वह व्यापक है। इसीलिये वह उसका रूप है। शालीग्राम में व्यापक है, इसलिये वह भी उसका रूप है। इसीलिये साधक लोग टीका लगाते हैं। मन को एक ओर करते-करते सूक्ष्मातिसूक्ष्म-दशा में ले आना है। सूक्ष्म-से-सूक्ष्म रूप क्या हो सकता है? विन्दु हो सकता है। जिसमें स्थान है, परिमाण नहीं है। यह अन्दाज से बन नहीं सकता।
तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम्।
- तेजोविन्दूपनिषद् ।
अर्थात्-हृदय-स्थित विश्वात्म-तेजस्-स्वरूप विन्दु का ध्यान परम-ध्यान है।
जिसका मन खूब समेट में आया है, दृष्टि स्थिर है तब जो विन्दु उदय होता है, अभ्यासी उसको देखता है कि ज्योतिर्मय-विन्दु है। अथवा तुलसी साहब का-"गगन द्वार दीसै एक तारा।" तारक-लोक में पहुँच जाता है। देखो तो ऐसा लगे कि फिर देखूँ। देखने में जैसा अच्छा लगता है, मन में बड़ी शान्ति आती है। यह तो आरम्भ की बात है। यह तो प्रथम अव्यक्त रहता है। करते-करते व्यक्त होता है, गोचर होता है। अगर अपना ठहराव ठीक रखा हो तो परमात्मा के नाना-प्रकार के ज्योति-रूप का दर्शन होता है। साधक प्रत्यक्ष तरह से देखता है। जिसको इसकी अनुभूति होती है, उसकी योग-शक्ति बढ़ती है। यहाँ तक कि अष्टसिद्धियों का ज्ञान होता जाता है। अष्टसिद्धि की शक्ति थोड़ी-थोड़ी मिलती जाती है। जो विन्दु-ध्यान करेगा उसको अवश्य होगा। गुरु के बताये अनुकूल जो कोशिश करता है तो दर्शन होता जाता है।शक्ति आती जाती है।सिमटाव होने का फल ऊर्ध्वगति होती है, जैसे-जैसे ऊर्ध्वगति होती है, वैसे-वैसे परमात्मा की विविध-ज्योतियों को देखता है और लाभ प्राप्त करता है। कहने के लिये तुरत हो जाता है, लेकिन करने में समय लगता है। मेहनत लगती है। जो उकताता है, वह असमर्थ होता है। करने को जाता है ध्यान और हो जाती है दूसरी बात ही, जिसको गुनावन कहते हैं। यह इसलिये होता है कि वह प्रत्याहार ठीक से नहीं करता। प्रत्याहार में सचेत नहीं है। जहाँ-जहाँ मन भागे वहाँ-वहाँ से समेट समेटकर लाओ। जितनी बार मन बिछुड़े उतनी बार मन को घेर-घेर कर लाओ जहाँ गुरु ने बताया है। जो बहुत प्रत्याहार करेगा उसको अवश्य धारणा होगी। कुछ काल ठहराव होगा। उसी ठहराव में शान्ति की अनुभूति होगी। दृष्टि का काम है देखने का। गुरुओं का आदेश है कि प्रत्याहार में खूब लगे रहो। प्रत्याहार से हारो मत।
शून्य महल में दियना बारिले, आशा से मत डोल रे ।
- संत कबीर साहब
वे तो खूब अभ्यास किये हुए थे। ज्योति जगेगी, प्रकाश होगा; इस आशा से डोलो मत। ईश्वर की भक्ति ऐसी करो। यह कहना सरल है। सत्संग ईश्वर-भजन की ओर झुकाता है। सत्संग भजन करने में तत्पर करता है। सत्संग भजन करने में कहता है कि हारो मत, करते रहो।
आप देखते हैं कि बादल लगता है, बिजली चमकती है। बिजली की चमक हो जाने पर बादल से आवाज भी आती है। इसी तरह साधक जब अन्तर्साधन करता है, तो पहले ही ठनका ठनकता नहीं है। पहले ज्योति चमकती है तब ठनका ठनकता है। इसीलिये जबतक ज्योति-उदय नहीं हो, तबतक नादानुसन्धान करने की इजाजत संतों की नहीं है। पहले देखो, फिर सुनो। अगर नहीं देखो तो जो सुनोगे, ठीक नहीं सुनोगे।
कुछ लोग निर्गुण-नाम-भजन को नहीं जानते हैं, वे कहते हैं कि “शरीर में वायुपरिभ्रमण होता है, रक्त का संचार होता है, उनकी सब आवाजें हैं, सुनकर क्या होगा?" मुझे एक वृद्ध संन्यासी ने कहा था। मैंने कहा- “महाराज जी! नाद- उपासना इस तरह नहीं होती है।" उन्होंने कहा- 'तब कैसे होती है जी?" मैंने कहा "महाराज! पहले एक विन्दुता का साधन करना होगा। इससे मन सूक्ष्म में प्रवेश कर जाएगा। मन जब सूक्ष्मता में प्रवेश करेगा; तब वह स्थूल-ध्वनियों को नहीं सुनेगा, सूक्ष्म-नादों को सुनेगा।" उन्होंने कहा- "हाँ! हो सकता है।"
लोग कहते हैं कि जो कुछ मैं कहता हूँ, अखण्डनीय है, लेकिन जो वे कहते हैं, खण्डनीय हो जाता है। चौथी अवस्था में रहकर भजन करो। इसमें जो बढ़ते-बढ़ते अधिक बढ़ जाता है, वह उस अखण्ड-नाद को सुनता है। उसके नीचे का जो नाद है; वह भी कारण होता है उसको आगे बढ़ने का। जानना चाहिये शब्द में आकर्षण होता है। जिधर से शब्द आता है, खिंचते-खिंचते उस ओर पहुँचता है। कुत्ता भी पुकार सुनकर निकट आता है। यह सुरत-शब्द-योग में गुण है। इसमें यह ज्ञान है कि शब्द कहाँ से आया। लोग कहते हैं, वह आकाश से आया। मैं कहता हूँ वह भी मायिक-शब्द ही है। पंच भौतिक-शरीर में रहकर जो सुनते हो, वह अन्दर की अनहद-ध्वनि नहीं है। आज्ञाचक्र में अपने को स्थिर करने पर वह ऊपर की ध्वनि सुनाई पड़ती है।
बिना कम्पन के कुछ बन नहीं सकता। शब्द कम्पमय है और कम्प शब्दमय होता है। आदि-कम्प समझिये तो उसी को पराप्रकृति कहते हैं। उस पद को सच्चिदानन्द कहना चाहिये। वह जड़-विहीन है। जड़-विहीन होने के कारण उसको कैवल्य परमपद कहते हैं।
अति दुर्लभ कैवल्य परमपद।
आदि-कम्प की ध्वनि आदि-नाद है। उसको ब्रह्मनाद कहते हैं। अक्षर-ब्रह्म-शब्दब्रह्म कहते हैं। इसी को निर्गुण-शब्दब्रह्म कहते हैं। इसके ऊपर परमात्मा का स्वरूप है। वह सत्-शब्द है।
चुम्बक सत्त शब्द है भाई। चुम्बक शब्दलोक ले जाई ।
लेइ निकारि होखै नहिं पीरा। सत्त शब्द जो बसै सरीरा ।
संत दरिया साहब बिहारी आरे जिले के रहने वाले ने कहा।
संत कबीर साहब ने कहा है--
यही बड़ाई शब्द की। जैसे चुम्बक भाय।
बिना शब्द नहिं ऊबरै, केता करै उपाय ॥
शब्द गहयो जिव संशय नाही, साहब भयो तेरो संग।
इसके लिये पहले सगुण-ध्वनियों का अभ्यास साधु लोग करते हैं। जो एक प्रकार का शब्द सुना गया उसके खिंचाव से ऊपर पहुँचा। फिर उसके केन्द्र पर दूसरे मंडल का केन्द्रीय-शब्द पकड़ा जाता है। इसी प्रकार एक शब्द से दूसरे शब्द को पकड़ता है। शब्द-ही-शब्द को पकड़ाने वाला हुआ। गोया शब्द-ही शब्द का गुरु हुआ। साधन करने से यह आप मालूम होता है। कहने से, सुनने से, विश्वास होगा। श्रद्धायुक्त होकर साधन कीजिये, यही है दीक्षा। लेकिन बिना शिक्षा के दीक्षा नहीं। ईश्वर-भक्ति में यह शिक्षा बहुत काम करने वाली है। ऐसी कोई धारा नहीं जिसके सहारे ईश्वर तक पहुँचा जाय। ईश्वर का यह निर्गुण नाम है।
बंदऊँ राम नाम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को ॥
जितने वेद-मंत्र हैं, सबका यह प्राण है। राम-नाम सगुण भी है; निर्गुण भी है। सगुण रामनाम को जिभ्या से जपते हो। निर्गुण रामनाम को जिभ्या नहीं जानती। नाम-भजन की बड़ी महिमा है। सगुण राम-नाम को भी जपो और निर्गुण-नाम को भी जानो। ऐसा जानो कि कभी विश्वास से डिगे नहीं। हमलोग इसके लिये जो परिश्रम होना चाहिये, करते हैं। दूसरों से भी कहते हैं कि कीजिये। यह बड़ा पवित्र काम है, जैसा ईश्वर पवित्र है, वैसे ही उसका यह काम भी पवित्र है। मन की मलीनता को दूर करो। मलीनता को दूर करने के लिये झूठ नहीं बोलो। चोरी नहीं करो। नशा नहीं खाओ और पीओ। व्यभिचार मत करो। हिंसा नहीं करो। हिंसा के सिलसिले में मत्स्य-मांस का भोजन भी छोड़ो। जो मत्स्य-मांस खाते हैं, उनका मन हिंसा में कुछ-न-कुछ अवश्य रहता है। मनुस्मृति में अष्ट-घातक कहा है--
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्ता चोपहर्ता च खावकश्चेति घातकाः ॥
अर्थात् (१) पशुवध करने की आज्ञा प्रदान करने वाला, (२) शस्त्र से मांस काटने वाला, (३) मारने वाला, (४) बेचने वाला, (५) मोल लेने वाला, (६) मांस को पकाने वाला, (७) परोसने के लिये लाने वाला, (८) खानेवाला; ये आठों घातक हिंसा करने वाले ही कहलाते हैं।
इन पंच पापों से बच जाते हो तो तुम्हारे पास पाप नहीं आने पावेंगे और देश में लोग ऐसे ही बेसी हो जाय तो दुष्ट-कर्म हो सकेंगे? बड़ा सन्तोष वाला लोग सब होगा। जो कोई कहते हैं कि संतलोग कहते हैं कि ईश्वर-भजो, ईश्वर-भजो, पेट का धंधा कुछ बताते नहीं। माता अपने स्तन बच्चे के मुँह में डालती है; लेकिन चूसने के लिये कौन बताता है? पेट का धंधा तो आप ही सब कोई करते हैं। कमाई करो, उसकी मनाही नहीं है। सन्तलोग, देश की मर्यादा के लिये देशवासी-निर्भर हो जाय; ऐसा ज्ञान बताते हैं। देश के लिए संत अस्त्र-शस्त्र भी उठाये मौका पड़ने पर, जैसे गुरु गोविन्द सिंह। फिर भी देखो कैसी दया? युद्ध के मैदान में गिरे हुए सिपाहियों को पानी पिलाने के लिए एक सिक्ख को नियुक्त किया जाता है। लेकिन वह पानी पिलाने वाला दुश्मनों के गिरे हुए सिपाहियों को भी पानी पिलाता है। यह शिकायत गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज के पास गई। उन्होंने उस पानी पिलाने वाले से पूछा"क्यों! तुम दुश्मनों को भी पानी पिलाता है?" उसने कहा- "हाँ! महाराज जो गिर गया, वह दुश्मन कहाँ रहा?" गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज बहुत खुश हुए और कहा तुम बहुत अच्छा करते हो। ऐसा कौन योद्धा होता है? ऐसा नहीं कि संतलोग आलसी बनने के लिए कहते हैं।
हमारे गुरु महाराज कहते थे कि self supporter (सेल्फसपोर्टर-स्वावलम्बी) बनो। जो self supporter (सेल्फसपोर्टर) नहीं बनता, वह भजन नहीं कर सकता। उपार्जन करो, खाओ। दुष्टकर्म नहीं करो। जो स्वावलम्बी होगा, पापों से बचेगा, दुष्ट-कर्म से बचेगा, कितना कल्याण देश में होगा? धन कमाने के लिये दुष्ट-कर्म करके भी कमा सकते हो। लेकिन ईश्वर की भक्ति में दुष्ट कर्म करने से आगे नहीं बढ़ सकते। जिसको संतमत कहते हैं, संसार में लाभ पहुंचाने के लिये इसकी बड़ी आवश्यकता है। केवल भारत को नहीं, सम्पूर्ण संसार में कुशल होगा। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को ठगेगा नहीं। इसलिये भक्ति सब कोई करो। भक्त सब बनो। अपने संगी-साथी को भी भक्त बनाओ। जो भजन अपेक्षित है, उसको करो। भजन नहीं करते हो, केवल वचन कहते हो तो उससे तुम्हारा कल्याण नहीं होगा। उपार्जन करो भजन करो, सत्संग करो, इससे कल्याण होगा। सन्तों के ऐसे विचार को जो कोर्ड आलसी कहे, वह उत्तम-विचार नहीं रखता है। वह सत्संग से मैत्री नहीं करता है। मैंने मुलायम शब्दों में यह बात कही।
यह प्रवचन दिनांक २३-३-१९७१ ई० की रात्रि में अ. भा. संतमत-सत्संग के ६३ वें वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर राजेन्द्रनगर, पटना में हुआ था।