316. मानस जप से मानस बल बढ़ता है
आत्मवत् सर्व मेरे प्रिय लोगो!
इस समय जो मैंने यहाँ आकर तीन व्याख्यानों को सुना, तो मालूम हुआ कि जो मुझे कहना था, प्रयास करना था, उस प्रयासों को तीन व्याख्यानों में व्याख्यान-दाताओं ने वर्णन किया है। ये लोग जैसे श्रेष्ठ पद के लोग हैं, वैसे इनके ज्ञान भी हैं। मैंने सोचा कि क्या कहूँ? ज्ञान एक परोक्ष होता है, दूसरा अपरोक्ष होता है। फिर कहते हैं कि ज्ञान श्रवण का, मनन का, निदिध्यासन का और अनुभव का होता है। श्रवण-मनन और निदिध्यासन परोक्ष ज्ञान होता है। अपरोक्ष ज्ञान निदिध्यासन के अन्त होने पर, अनुभव होने पर होता है। यहीं ईश्वर का दर्शन है। ज्ञान की पहुँच यहाँ तक है; परन्तु यह ज्ञान कुछ तो पहले श्रवण-मनन में होता है। परन्तु निदिध्यासन ज्ञान योग में होता है और योग का अन्त अनुभव में होता है। इसी में ईश्वर-दर्शन होता है। अनुभव करने का अथवा श्रवण-मनन से ऊपर जो निदिध्यासन ज्ञान है, उसकी विधि क्या है? क्या अवलम्ब है? यह भाग मेरे लिये रहा, यही मैं बताऊँगा। इसके लिये चाहिये कि ईश्वर- दर्शन के लिए जो चाहते हैं कि ईश्वर-दर्शन हो और परम शान्ति मिले, सो परम शान्ति-स्वरूप परमात्मा हैं। उनको पाकर मैं शान्त हो जाऊँगा, यह लोभ जो है, अच्छा है। इसी से अन्त तक पहुँचते हैं। कबीर साहब ने कहा है-
भक्ती का मारग झीना रे ।
नहिं अचाह नहिं चाहना, चरणन लौ लीना रे ।।
साधुन के सत्संग में, रहे निसिदिन भीना रे ।
सब्द में सुर्त ऐसे बसे, जैसे जल मीना रे ।।
मान मनी को यों तजे, जस तेली पीना रे ।
दया छिमा संतोष गहि, रहे अति आधीना रे ।।
परमारथ में देत सिर कछु बिलम्ब न कीना रे ।
कहै कबीर मत भक्ति का, परगट कह दीना रे ।।
लोग कहते हैं कि लोभ को हटाओ। कबीर साहब कहते हैं कि ईश्वर की भक्ति में ईश्वर-दर्शन की चाहना रहे। सांसारिक चाहना से हटाकर रखो। तब ग्रहण क्या करना चाहिए? ईश्वर के लिये इच्छा रखनी चाहिए, ईश्वर से मिलने का लोभ रखना चाहिए। हृदय को पवित्र रखना चाहिए। ईश्वर परम पवित्र है। बाबा नानक ने कहा-
सूचै भाड़ै साचु समावै विरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।
अपने हृदय को शुद्ध करके रखना चाहिए। शुद्ध कैसे होता है? कोई जल बाह्य संसार में नहीं है, जो हृदय को शुद्ध कर सके। सत्य का व्यवहार होना चाहिए। सत्य-रूप गंगा-जल में डूबना चाहिए।। सत्य-रूप जल का पान करना चाहिए। सत्य-रूप गंगा के तट पर रहना चाहिए। सत्य का तट क्या है? सत्संग है। विधि-निषेध को जानो।
विधि निषेधमय कलिमल हरनी । करम कथा रवि नन्दनि वरनी।।
यह श्रवण, मनन, निदिध्यासन से इस तरह का ज्ञान होता है।
अपने हृदय को शुद्ध करने के लिए असत् का, व्यभिचार का, नशाओं का, चोरी का और हिंसा का त्याग करना चाहिए। इनके त्याग में जो सद्गुण हैं, उनको ग्रहण करना चाहिए। इस तरह अपने हृदय को शुद्ध करके निदिध्यासन में प्रवेश करना चाहिए। उसके लिये जो कर्म है, विद्या है, सो करना चाहिए। इसका ज्ञान गुरु से सीखना चाहिए।
बिनु गुरु होइ कि ज्ञान, ज्ञान कि होइ विराग बिनु।
गावहिं वेद पुरान, सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु।।
बिनु गुरु भवनिधि तरै न कोई। जौं विरंचि संकर सम होई।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
गुरु क्या बतावेंगे? मन को एकाग्र करने के लिये।
मन आवै मन जाय, मनहिं बटोरो रे ।
मन बुड़वै मन तारै, मनहिं निहारो रे ।।
-कबीर साहब
मन यहाँ आता है, वहाँ जाता है। कभी भगवद्- भक्ति में आता है, कभी विषय-वासना में जाता है; इस मन को बटोरो। यही योग का उपदेश है- मनोवृत्ति का निरोध। यह कैसे होता है? एक तो यह है कि हठयोग की क्रिया करो। प्राणायाम करो, उसकी सिद्धि प्राप्त करो। इसके बाद प्राणायाम का अन्त होने से योग का अन्त हुआ, सो नहीं समझो। आगे बढ़ो। प्रत्याहार, धारणा और फिर ध्यान करो। गुरु जिसमें मन लगाने कहें, जिसका ध्यान करने कहें, जिधर मन को रखने कहें; उधर लगाओ। मन आगे समेटकर लाओ। जो प्रत्याहार करने के डर से भागेगा, उसकी धारणा नहीं होगी। प्रत्याहार के श्रम से भागना नहीं है। अभ्यास करते-करते क्या नहीं होता है? बड़े-बड़े विद्वान एक-एक अक्षर का अभ्यास करते-करते हो गये हैं। थोड़ा-थोड़ा ब्रह्मचर्य का पालन करते-करते ब्रह्मचारी हो गये हैं। थोड़ा-थोड़ा परिश्रम करके बलवान हो गये हैं।
प्रत्याहार के बाद थोड़ा-थोड़ा टिकाव होगा, वह धारणा होगी। धारणा देर तक ठहरने लगेगी, तब ध्यान होगा। ध्यान में अल्पकाल लगा रहा, फिर ज्यादा समय तक लगा रहा। इस तरह ध्यान में अनुभूतियाँ होती रहती हैं। अनुभूतियाँ धारणा से ही होने लगती हैं। कुछ मिलने लग जाता है। उस अल्प टिकाव के अन्दर की अनुभूति होती है कि कुछ मिल गया। वह हाथ से पकड़ने की चीज नहीं है। देखने की चीज है। इससे मन में बड़ी प्रसन्नता होती है। होता है कि जिसके लिये हैरान था, सो मिल गया। शान्ति मिली, यही लालच धारणा कराती है। देर तक अनुभूति होती है। तरह-तरह की अनुभूतियाँ होती हैं। तरह-तरह के रंग-रूप जो देखे जाते हैं, मन उसी ओर देखने का होता रहता है।
ध्यान में जो दर्शन होता है, वह दर्शन फिर लय हो जाता है, तब अनुभूति के अन्दर रूप-दर्शन अब नहीं होता है। तब क्या होता है, जो देखा नहीं जाय? फिर भी मिलता है। जैसे आप भजन-गान सुनने जाते हैं। महफिल सजी रहती है। बहुत रोशनी होती है। गाना-बजाना होता है, तो उस गाने-बजाने की ओर आपका मन हो जाता है। तब क्या देखता है? इसका होश नहीं रहता है। इसी तरह समझना चाहिये कि देखने से परे की बात है। देखने की बात गई और तब जो मिले, वह क्या है? वह अन्तर्नाद है-परमात्मा की पुकार है। इसमें जिसकी वृत्ति फँसी, फिर भटक नहीं सकती। जैसे माता की गोद में बच्चा पड़ जाय, माता गोद में उठा ले, उसी तरह परमात्मा अपनी गोद में उठा लेता है। तब ‘जानत तुम्हहिँ तुम्हइ होइ जाई’ वाली बात हो जाती है।
साधक जिसको परोक्ष रूप में जानता था, उसको तब अपरोक्ष रूप में पाता है। परमात्मा को प्रत्यक्ष पाकर उसमें विलीनता हो जाती है। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ हो जाता है। पहले ‘सोऽहमस्मि’ होता है। यहाँ द्वैत रहता है। और जब ‘अहं ब्रह्मास्मि’ होता है, तब अद्वैत होता है। द्वैत में अनुभूति होती है, अद्वैत में विलीनता होती है। काकभुशुण्डिजी कैसे ध्यान करते थे, सो गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जज्ञ पाकरि तर करई।
आम छाँह कर मानस पूजा। तजि हरि भजन काज नहिं दूजा।।
वट तर कह हरि कथा प्रसंगा। आवहिं सुनहिं अनेक विहंगा।।
मतलब ‘कथा-प्रसंग’-सत्संग करते थे। तुलसी साहब ने कहा है कि-
सखी सीख सुनि गुनि गाँठि बाँधौ। ठाट ठट सत्संग करै।।
काकभुशुण्डिजी सत्संग करते थे, कुछ जप भी करते थे। यज्ञों में जप-यज्ञ श्रेष्ठ यज्ञ है। फिर मानस-पूजा भी करते थे। जो देख लिया है, जान लिया है, उसपर मन को लगाकर रखो। उस रूप को मन से बनाकर मन को उसपर लगाकर रखो। यह मानस पूजा है। मानस पूजा के बाद फिर ध्यान बताया। यह ध्यान क्या है? श्रीमद्भागवत में उद्धव ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा है कि मैं आपका ध्यान कैसे करूँ? इसपर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- पहले मेरे सम्पूर्ण शरीर का ध्यान करो, फिर चेहरे का ध्यान करो, फिर शून्य में ध्यान करो। जबतक कि देखा हुआ रूप रहा और उस रूप को छोड़कर मुखारविन्द रह गया, यह मानस पूजा है। इसी को मानस ध्यान हमलोग कहते हैं।
जप में वाचिक जप, उपांशु जप और मानस जप; ये तीन प्रकार हैं। इन तीनों में मानस जप को श्रेष्ठ बताया है। वाचिक जप में जप के शब्द दूसरे भी सुनते हैं। उपांशु जप में केवल अपना कान सुनता है और मानस जप मन-ही-मन होता है। यह सबके करने योग्य है, चाहे किसी देश का हो, किसी भाषा का जाननेवाला हो। मानस जप से मानस बल बढ़ता है। मानस जप में अपने इष्ट के नाम का जप करते हैं। इसके बाद इष्टदेव के रूप का ध्यान करते हैं। श्रीकृष्ण इष्ट हैं, तो उन्हीं के रूप का ध्यान करो। श्रीराम इष्ट हैं, तो उनके रूप का ध्यान करो। अथवा जो गुरु में विशेष श्रद्धा रखते हैं, वे गुरु के रूप का ध्यान करते हैं। यह मानस पूजा वा मानस ध्यान हुआ। इसकी मजबूती के लिये बारम्बार करना चाहिए। फिर शून्य में ध्यान करना चाहिए। दो सीढ़ियाँ हुईं-एक तो सम्पूर्ण शरीर का ध्यान, दूसरी मुस्कानयुक्त मुख का, समस्त शरीर में ख्याल रहा, तो पूर्ण सिमटाव नहीं हुआ। विशेष पसार रहा। इससे कम पसार हुआ चेहरे का ध्यान। फिर शून्य-ध्यान है। शून्य का ध्यान विस्तृत शून्य का ध्यान नहीं है। बल्कि मुखारविन्द से भी कम पसार होना चाहिये। मानस ध्यान में तो देखा हुआ रूप था। शून्य ध्यान कैसे करो? इसका यत्न गुरु बतावेंगे। फैली दृष्टि से नहीं, सिमटी दृष्टि से देखो। इससे एकविन्दुता होगी। वह ज्योतिर्मय विन्दु होगा।
तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्म हृदि संस्थितम्।
-तेजोविन्दूपनिषद्
अर्थात् हृदय-स्थित विश्वात्म-तेजस्-स्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है। यह उपनिषद्-वाक्य है। कबीर साहब कहते हैं-‘मेरे नजर में मोती आया है।’ तुलसी साहब कहते हैं-
स्रुति ठहरानी रहे आकाशा। तिल खिरकी में निस दिन वासा।
गगन द्वार दीसै एक तारा। अनहद नाद सुनै झनकारा।।
यह ज्योतिर्ध्यान है। सीखना चाहिये। बाबा नानक कहते हैं-
सुखमन कै घरि राग सुनि सुन मण्डल लिव लाइ ।
अकथ कथा वीचारीअै मनसा मनहिं समाइ ।।
अर्थात् वे कहते हैं-शून्य मण्डल में लौ लगाकर सुखमना में रहो, फिर सुनो। जो इड़ा-पिंगला के बीच-सुषुम्ना में रह सकता है, वह ज्योति पाता है। बाबा नानक दूसरे शब्द में कहते हैं-
तारा चड़िआ लम्मा किउ नदरि निहालिआ राम ।
इस तरह सन्त लोग बयान करते हैं। उनकी अनुभूति झूठी नहीं है। जो कोशिश करते हैं, वे अवश्य देखते हैं। लोग कहते हैं कि कुछ नहीं देखता हूँ। मैं कहता हूँ-‘अपने को ठहरा नहीं सकते हो। ठहराकर देखो, अवश्य देखने में आवेगा।’
मैं यह नहीं कहता हूँ कि मैं पूर्ण हूँ। लेकिन पहला कदम मुझे प्रत्यक्ष हुआ है, उसको जानता हूँ। उससे मुझे जो आनन्द हुआ है, वह दूसरों को भी मिलेगा। मैं कुछ नहीं कहता कि इतने समय में पाओगे। जितना करोगे, पाओगे। बाहर में जो प्रकाश देखो, उसी को मन में बनाकर देखो, सो प्रकाश नहीं है। देखे हुए सभी को भूल जाओ, तब देखो कितनी शान्ति आती है, लेकिन यहाँ पूर्ण शान्ति नहीं है। पूर्ण शान्ति अभी बहुत दूर है। स्थूलाकाश का प्रकाश नहीं है। आँख बंद करके अन्धकार में देखो गुरु की युक्ति से। कबीर साहब ने कहा है-
घर घर दीपक बरै, लखै नहिं अन्ध है ।
लखत लखत लखि पड़ै, कटै जम फन्द है ।।
हुजूर तक पहुँचना बहुत दूर है।
लम्बा मारग दूरि घर, विकट पन्थ बहु मार ।
कहो सन्तो क्यूँ पाइये, दुर्लभ हरि दीदार ।।
अनहद बाजै नीझर झरै, उपजै ब्रह्म गियान ।
आवगति अन्तरि प्रगटै, लागै प्रेम धियान।।
प्रेम से ध्यान लगाओ सर्वव्यापी को पाने के लिये। आप अपने अन्दर रहते हो। ईश्वर भी तुम्हारे अन्दर हैं। बाहर भागने की जरूरत नहीं, अन्दर भागो। केवल प्रार्थना ही करो, देखने का काम नहीं करो। कैसे होगा? प्रार्थना भी करो और देखने का काम भी करो। एक कथा है-एक गाड़ीवान था। वह हनुमानजी का भक्त था। गाड़ीवान की गाड़ी कीचड़ में फँस गई। वह हनुमानजी को पुकारने लगा। हनुमानजी मनुष्य-वेश में आये और गाड़ीवान से बोले-केवल हनुमानजी को पुकारते हो और अपना बल तुम लगाते नहीं हो। हनुमानजी तुम्हारी सहायता कैसे करेंगे? गाड़ीवान ने कीचड़ में घुसकर गाड़ी में जोर लगाया। हनुमानजी की कृपा से गाड़ी कीचड़ से निकल पड़ी। अंग्रेजी में एक कहावत है-ळवक ीमसचे जीवेम ूव ीमसच जीमउेमसअमेण्(गॉड हैल्प्स दोज हू हैल्प देमसैल्वस)।
अर्थात् ईश्वर उसकी मदद करते हैं, जो अपनी मदद आप करते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
जौं तेहि पन्थ चलइ मन लाई। तौ हरि काहे न होहिं सहाई।।
कबीर साहब सहज समाधि की बहुत अच्छी बात कहते हैं-
साधो सहज समाधि भली ।
गुरु प्रताप जा दिन से जागी, दिन दिन अधिक चली।।
जहँ जहँ डोलौं सो परिकरमा, जो कुछ करौं सो सेवा।
जब सोवों तब करौं दण्डवत, पूजां और न देवा।।
कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खाँव पियौं सो पूजा।
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावों दूजा।।
आँखि न मूदौं कान न रूँधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
खुले नयन पहिचानौं हँसि हँसि, सुन्दर रूप निहारौं।।
शब्द निरन्तर से मन लागा, मलिन वासना भागी।।
ऊठत बैठत कबहुँ न छूटै, ऐसी ताड़ी लागी।
कहै कबीर यह उनमुनि रहनी, सो परगट कर गाई ।।
दुख सुख से कोई परे परम पद, ता पद रहा समाई।।
यह मनोलय की बात है। बिहार के सन्त दरिया साहब कह गये हैं-
सोवत जागत ऊठत बैठत, टुक विहीन नहिं तारा।
झिन झिन जंतर निस दिन बाजै, जम जालिम पचिहारा।।
ध्यान में एकविन्दुता होने पर पूर्ण सिमटाव होता है। पूर्ण सिमटाव में आप-ही-आप ऊर्ध्वगति होती है। मन बड़ा सूक्ष्म है, इसको समेटिये। पहले स्थूल में उठेगा। स्थूल से सूक्ष्म में उठेगा, वहाँ ज्योतिर्विन्दु को पावेगा। और वहाँ क्या पावेगा? अनहद ध्वनि पावेगा। यह अनहद ध्वनि कहाँ शुरू होती है? आज्ञाचक्र में-दोनों आँखों के मुकाबले अन्दर में। ईश्वर की ओर से आज्ञा मिलती है, शब्द मिलता है। इसलिए उसको आज्ञाचक्र कहते हैं। बाबा नानक के वचन में शब्द को हुक्म कहा है। शब्द वह है, जिससे कोई पार होता है संसार से। शब्द अपने उद्गम-स्थान पर आकर्षित करता है। कुत्ते को ‘तू-तू’ कर पुकारो। जहाँ से शब्द आया है, वहाँ आ जायेगा। जो अपने अन्दर में नाद सुनेगा, वह वहाँ तक पहुँचेगा, जहाँ से शब्द आया है। आदि-शब्द परमात्मा से आया है। कबीर साहब कहते हैं-
‘साधो सब्द साधना कीजै ।
जेहि सब्द से प्रगट भये सब, सोई सब्द गहि लीजै ।।
सब्दहि गुरु सब्द सुनि सिष भे, सब्द सो बिरला बूझे ।
सोई सिष्य सोइ गुरु महातम, जेहि अन्तरगति सूझे ।।
सब्दै वेद पुरान कहत हैं, सब्दै सब ठहरावै ।
सब्दै सुर मुनि सन्त कहत हैं, सब्द भेद नहिं पावै ।।
सब्दै सुनि सुनि भेष धरत हैं, सब्द कहै अनुरागी ।
षट दर्शन सब सब्द कहत हैं, सब्द कहै वैरागी ।।
सब्दै माया जग उतपानी, सब्द केरि पसारा ।
कहै कबीर जहँ सब्द होत है, तवन भेद है न्यारा ।।’
‘शब्द तत्तु वीर्य संसार। शब्दु निरालमु अपर अपार ।।
शब्द विचारि तरे बहु भेषा। नानक भेद न शब्द अलेषा ।।
शब्दै सुरति भया प्रगासा। सभ को करै शब्द की आसा ।।
पंथी पंखी सिऊँ नित राता। नानक शब्दै शब्दु पछाता ।।
हाट बाट शब्द का खेलु। बिनु शब्दै क्यों होवै मेलु ।।
सारी स्रिष्टि शब्द कै पाछै। नानक शब्द घटै घटि आछै ।।’
-गुरु नानक साहब
सबदै बन्ध्या सब रहै, सबदै सबही जाई ।
सबदैं ही सब उपजैं, सबदैं सबै समाई ।।
जंत्र बजाया साजि करि, कारीगर करतार ।
पंचौं कारज नाद है, दादू बोलणहार ।।
पंच ऊपना सबद थैं, सबद पंच सौं होई ।
साईं मेरे सब किया, बूझै बिरला कोई ।।
-सन्त दादू साहब
शब्द-अभ्यास खूब करो। लेकिन पहले सूक्ष्म में प्रवेश करो। किसी ने कहा-‘शब्द-ध्यान करके क्या होगा? यह रग-रेशे की आवाज है, खून का दौरान होता है, वायु का संचार होता है।’ मैंने कहा-‘महाराज ! इस तरह शब्द-ध्यान नहीं होता है।’ उन्होंने बड़े प्रेम से कहा-‘तब कैसे होता है जी?’ मैंने कहा-‘पहले ध्यान करके एकविन्दुता प्राप्त कर लेनी चाहिए। एकविन्दुता प्राप्त कर लेने पर स्थूल में वृत्ति नहीं रहेगी, सूक्ष्म में रहेगी। तब नाद-श्रवण करना चाहिए।’ आर्यसमाज के संन्यासी स्वामी श्रीसर्वदानन्दजी से यह चर्चा हुई थी।
शब्द का भेद जानना चाहिए। अन्तर में प्रवेश के लिये सूक्ष्म मार्ग को जानना चाहिए। अन्दर में साधना ऐसी हो कि एकविन्दुता प्राप्त हो जाय। प्रकाश का अवलम्ब लें और शब्द का अवलम्ब लेकर आगे बढ़ें। अपने से नहीं होगा। गुरु से इसका भेद लो, साधन करते-करते होगा। बड़े-बड़े लोग जो कहलाते हैं, उनसे होगा, महिलाओं से होगा, पुरुषों से भी होगा। इस देश के, उस देश के-सभी देशों के लोगों से होगा।
श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने किसी आसन का नाम नहीं लिया है और नासाग्र में ध्यान करने कहा है। वहाँ प्राणायाम करने की चर्चा नहीं है। टीकाकार ने नासाग्र का अर्थ ‘नाक का अग्र भाग’ किया है। लेकिन भाग शब्द वहाँ नहीं है। जबकि भागवत में शून्य-ध्यान करने कहा और मुखारविन्द को छोड़ने कहा, तब नासिका भी चली गई। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा कि किसी दिशा को नहीं देखते हुए ध्यान करो। यह क्या बात हुई? विधि को ठीक-ठीक जानकर तब उसका ध्यान करो। ध्यान का साथी सदाचार है। इसलिये शुद्धता से रहो। पिछड़ो तो फिर संभलो। सदाचार का पालन करो यानी झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों से बचो। पिछड़-पिछड़ जाओ, तो फिर संभल-संभल जाओ। ध्यान करने में दृष्टि नहीं टिकती है, पिछड़ जाती है, तो संभाल-संभालकर ध्यान करो। दृष्टि स्थिर रखने की कोशिश करो। प्रत्याहार होते-होते धारणा होगी, फिर ध्यान होगा। कबीर साहब ने कहा है-
न जोगी जोग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै ।
सहज में ध्यान से पावै, सुरति का खेल जेहि आवै ।।
बिना प्राणायाम के ध्यान करो। यह सहज योग है।
शब्द खोजि मन बस करै, सहज जोग है येहि ।
सत्त शब्द निज सार है, यह तो झूठी देहि ।।
-कबीर साहब
सब काहू को होत है, तन मन पसरै जाई ।
ऐसा कोई एक है, उलटा माहिं समाइ ।।
क्यों करि उलटा आणिये, पसरि गया मन फेरि ।
दादू डोरी सहज की, यौं आणै घेरि घेरि ।।
सहज की डोरी क्या है? सहज की डोरी शब्द है।
साध शबद सौं मिलि रहै, मन राखै बिलमाय ।
साध शबद बिन क्यौं रहै, तबहीं बीखरी जाय ।।
-दादू दयालजी महाराज
साँप बाहर में टेढ़ा-मेढ़ा चलता है; लेकिन बिल में जाते समय वह सीधा हो जाता है। इसी तरह मन बाहर विषयों में टेढ़ा-मेढ़ा चलता है। शब्द-रूप बिल में सीधा हो जाता है।
मनो मत्त गजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः।
नियामन समर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः।।
अर्थात् नाद मदान्ध हाथीरूप चित्त को, जो विषयों के आनन्द-वाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिये तीव्र अंकुश काम करता है।
नादोऽन्तर¯ सार¯ बन्धने वागुरायते ।
अन्तर¯ समुद्रस्य रोधे बेलायतेऽपि वा ।।
अर्थात् मृगा-रूपी चित्त को बाँधने के लिए यह नाद जाल का काम करता है। समुद्र-तरंग-रूपी चित्त के लिए यह (नाद) तट का काम करता है।
यह वचन नादविन्दूपनिषद् का है। इस तरह मैंने संतवाणी और ऋषि-मुनि-वाणी की खोज की, तो वेद और उपनिषद् में भी शब्द का बहुत वर्णन मिला है। ‘वेद-दर्शन-योग में मैंने लिख दिया है।
जो सदाचार का पालन करेगा, वह पूज्य हो जायेगा। उसका जो साथी होगा, तो उसका समाज बनकर समाज में शान्ति होगी। जिस प्रान्त में, जिस राष्ट्र में ऐसे लोग होंगे, वहाँ दुष्टकर्म नहीं होगा। वहाँ राज्य-कानून का दण्ड नहीं चलेगा। राज्य को बहुत सहुलियत मिलेगी। देश को बहुत लाभ मिलेगा।
हमारे देश में पुरुषार्थी जो स्वराज्य लाए, बहुत अच्छा किया। लगभग हजार वर्ष की गुलामी चली गई। लेकिन दुःख है कि स्वराज्य में सुराज नहीं है। चोरी, डकैती, बेईमानी, घूसखोरी जहाँ है, वहाँ दुःख क्यों न आवे। राज्य सरकार उसको हटाना चाहती है, लेकिन हटता नहीं है। सन्तों ने कहा-लोगों का हृदय-परिवर्तन करो, उपदेश दो। लोगों का हृदय-परिवर्तन होगा, सभी ठीक होंगे। 1909 ई0 में गुरु महाराज ने कहा था-सबसे ऊपर लिखो आध्यात्मिकता, उसके नीचे लिखो राजनीति।
जहाँ की आध्यात्मिकता ऊँची रहेगी, वहाँ के लोग सदाचारी अधिक होंगे। जहाँ के लोग अधिक सदाचारी होंगे, वहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी और जहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी, वहाँ की राजनीति आप ही अच्छी होगी। बिना सदाचार-पालन किए ईश्वर-भक्ति नहीं होगी। ईश्वर-भक्ति में सदाचार पालन आवश्यक है। मैं कहता हूँ-स्वराज्य है, सुराज नहीं है। इसको बुलाना चाहिए। बुलाने की विधि यह है कि ईश्वर-भक्ति करो। लोग ज्ञान का श्रवण-मनन करते हैं और वचन में ऐसा कहते हैं, जैसे उनको परमात्मा प्रत्यक्ष हो गया हो; लेकिन प्रत्यक्ष बाकी ही रह जाता है। प्रत्यक्ष के लिए दृष्टियोग और शब्दयोग करो। दृष्टियोग को ही शाम्भवी मुद्रा-वैष्णवी मुद्रा कहते हैं। शब्द-ध्यान को सुरत-शब्द-योग कहते हैं। यही असली नाम-भजन है। शब्द बिना कम्प के नहीं होता और कम्प बिना शब्द के नहीं होता। दोनों संग-संग रहते हैं, जैसे शब्द और उसका अर्थ।
गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न ।
-गोस्वामी तुलसीदास जी
आदिशब्द को मुँह से कुछ बोलकर कोई कह नहीं सकते। वह है-
अघोषम् अव्यव्जनम् अस्वरं च अकंठताल्वोष्ठम् अनासिकं च ।
अरेफ जातम् उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित्।।
-अमृतनाद उपनिषद्
इसी को टवपबम वि जीम ैपसमदबम (वाईस ऑफ दी साइलेन्स) यानी ‘अबोल वाणी’ कहते हैं। पहले ही वह शब्द पकड़ा नहीं जाता। उस शब्द को पकड़ो, जो इस शब्द को पकड़ा दे। वही शब्द ईश्वर का असली नाम है। यह शब्द त्रयगुणात्मक नहीं है अर्थात् सगुण नहीं है, निर्गुण शब्द है।
बन्दौं रामनाम रघुवर को। हेतु कृषानु भानु हिमकर को।।
विधि हरिहर मय वेद प्राण सो। अगुण अनूपम गुन निधान सो।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
रामनाम निर्गुण भी है और सगुण भी है। सगुण शब्द को मुँह से बोलते हो, कान से सुनते हो। निर्गुण शब्द को कान से सुन सकते हो? कभी नहीं। नाम-भजन, नाम-भजन लोग कहते हैं। वर्णा- त्मक को लोग जानते हैं, ध्वन्यात्मक को भी जानो। बाहर में जिस रूप का दर्शन होता है, वह क्षेत्र का दर्शन है। रूप को धारण करनेवाले का नहीं, क्षेत्रज्ञ का नहीं। इसीलिये आज्ञाचक्र से साधना का आरम्भ करो। वहाँ ज्योति को पाओ, शब्द को पाओ और शब्द से भी शब्द में खिंचकर अनाम तक पहुँचो।
जो कोई चाहे नाम, सो नाम अनाम है ।
लिखन पढ़न में नाहिं, निअच्छर काम है ।।
रूप कहौं अनरूप पवन अनरेखते ।
अरे हाँ रे पलटू गैब दृष्टि से सन्त नाम वह देखते ।।
केवल वर्णात्मक नाम का जानना अपूर्ण है। सगुण को भी जानो और निर्गुण को भी जानो। तब काम पूर्ण होगा। गुरु महाराज ने जो विधि बतायी है, वह मैं जानता हूँ, लोगों को बताता हूँ। जो करेंगे, सबको लाभ होगा। इस सत्संग में केवल मुक्ति-ही-मुक्ति की बात नहीं होती। जो इस मार्ग पर चलते हैं, सदाचारी होंगे। सदाचार से संसार में सुख होगा। कितना भी धन हो, सुख नहीं हो सकता। तुम स्वयं सुखस्वरूप हो। अपने अन्दर प्रवेश करो, अपने को जानो। ईश्वर को जानोगे। यह सन्देश सुनाने के लिए मन में किया था, सो सुना दिया।
यहाँ शासक लोग भली-भली विधि लेकर सुख पहुँचाना चाहते हैं, सो पहुँचावें। स्वराज्य में सुख होगा, ऐसा पहले कहते थे। स्वराज्य हो गया। लेकिन सुराज नहीं हुआ। कानून की लाठी कितने वर्षों से चली, लेकिन सुराज नहीं हुआ। जबतक दुष्टकर्म देश में होंगे, तबतक सुराज नहीं आ सकता। सुराज लाने के लिये लोगों को ईश्वर- भक्ति पर आना चाहिए। इसके साथ सदाचार पालन करना चाहिए। ज्ञान-योग-युक्त भक्ति करें। केवल श्रद्धावाली भक्ति नहीं। ब्रह्माजी ने शिवजी से पूछा था, तो शिवजी ने कहा था-
योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवति ध्रुवम् ।
-योगतत्त्वोपनिषद्
अर्थात्-योग-हीन ज्ञान कैसे मोक्ष-प्रद हो सकता है? ऐसा सन्त लोग नहीं कहते हैं कि घार-वार छोड़ दो। कितने कहते हैं-‘सन्त लोग कहते हैं कि हिंसा नहीं करो। वे परिश्रम से डरते हैं।’ वे नहीं जानते हैं कि ईश्वर-भक्ति में कितना परिश्रम करना पड़ता है।
रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई ।।
इन बातों को जानना चाहिये। लोकमान्य बाल- गंगाधर तिलक ने कहा-ज्ञान भी चाहिए। अन्धी भक्ति ठीक नहीं। जैसे अंधे के कंधे पर लँगड़ा चढ़कर चले, उसी तरह श्रद्धा के संग ज्ञान होना चाहिये। बिना श्रद्धा के ज्ञान नहीं होता। बिना ज्ञान के आँख नहीं होती-‘ज्ञान विराग नयन उरगारी।’ गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है। सभी संसार में उन्नति करते जायँ।
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यह प्रवचन भारत की राजधानी दिल्ली में अ0 भा0 सन्तमत-सत्संग के 62 वें महाधिवेशन के अवसर पर दिनांक 2-3-1970 ई0 को अपराह्नकाल में हुआ था।
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