1970 (प्रवचन संख्या : 308-323)

308. मनुष्य-शरीर मांस-रक्त का पिंजरा (02.01.1970) ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~


308. मांस-रक्त का पिंजरा
प्रभु तोहि कैसे देखन पाऊँ ।
तन इन्द्रिन स¯ माया देखूँ, मायातीत धरहु तुम नाऊँ ।।
मेधा मन इन्द्रिन गहें माया, इन्ह में रहि माया लिपटाऊँ ।
इन्द्रिन मन अरु बुद्धि परे प्रभु, मैं न इन्हें तजि आगे धाऊँ ।।
करहु कृपा इन्ह स¯ छोड़ावहु, जड़ प्रकृति कर पारहि जाऊँ ।
‘मेँहीँ’ अस करुणा करि स्वामी, देहु दरश सुख पाइ अघाऊँ ।।
प्यारे लोगो !
 यह बात बहुत प्रसिद्ध है। शास्त्रीय रूप से प्रसिद्ध है।
नर तन सम नहिं कवनिउँ देही। जीव चराचर जाँचत जेही ।।
 अर्थात् मनुष्य शरीर के समान कोई भी शरीर नहीं है, जिसको जड़-चेतन सभी चाहते हैं। ‘जीव चराचर’-चलनेवाले, नहीं चलनेवाले जितने प्राणी हैं, सभी मनुष्य शरीर चाहते हैं। मनुष्य, पक्षी चलनेवाला है और वृक्ष, पहाड़ चलनेवाला नहीं है। सभी चाहते हैं कि मनुष्य शरीर मिले। किसी मनुष्य से पूछिए कि हाथी बहुत बड़ा जानवर है, वह आप बनना चाहते हैं ? कोई पसन्द नहीं करेगा। गौ की पूजा हम करते हैं, लेकिन गौ या बैल होना कोई पसन्द नहीं करते । मनुष्य-शरीर, उत्तम शरीर है। कितना उत्तम है यह? उपनिषद्कार ने कहा है-‘देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्व देहिनाम्।।’ मनुष्य-देह शिवालय है। इसमें सबको सिद्धि मिलती है। ‘देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्व देहिनाम।’ मनुष्य-देह ठाकुरबाड़ी है, इसमें सबको सिद्धि मिलती है। हाड़-मांस को लोग अपवित्र समझते हैं। लेकिन जबतक जीवित मनुष्य-शरीर में लगा हुआ है, तबतक पवित्र है। संसार में जितने जो कुछ प्राणी हैं, सबसे विशेष मनुष्य है। परमार्थ- साधन, देव-पूजन, मोक्ष का साधन इसी शरीर से होते हैं और ये हैं भी इसी शरीर के लिए। मनुष्य- शरीर ही इस काम को आरम्भ कर सकता है और धीरे धीरे करके समाप्त कर सकता है और किसी शरीर में नहीं। ‘सुर दुर्लभ सब ग्रन्थन्हिं गावा’ क्यों ? इसलिये कि यह शरीर सभी साधनों का घर है। जो यत्न करो, सफल होओगे। और जो मुक्ति में जाना चाहें, वे मनुष्य-शरीर में आकर ही जा सकते हैं। और किसी शरीर में नहीं। मोक्ष पाने का यत्न करना चाहिए, इसी के लिए सन्त उपदेश करते हैं-
 निधड़क बैठा नाम बिनु, चेति न करै पुकार ।
 यह तन जल का बुदबुदा, विनसत नाहीं बार ।।
       -कबीर साहब
 यह शरीर बड़ा अच्छा है। लेकिन क्या बालपन, क्या बुढ़ापा, क्या जवानी का शरीर, यम के फन्दे में जो शरीर पड़ेगा, वह जाएगा ही। लेकिन ठिकाना नहीं कब यम के फन्दे में जाएगा ?
    नहँ बालक नहँ यौवन,े नहँ बिरधी कछु बन्ध ।
    वह अवसर नहिं जानिए, जब आय पड़े जम फन्द ।।
       -बाबा नानक साहब
 इस शरीर से मोक्ष का साधन अवश्य करो। मोक्ष साधन करो और कोई काम नहीं करो, ऐसी बात सन्त लोग नहीं कहते। ऐसा भजन जिससे मोक्ष हो, सो करो। और जबतक जीवन है, तभी तक साधन कर सकते हो। मोक्ष के लिए साधन है। जो अत्यन्त अपेक्षित है, वह करो। जबसे होश हो, सचेत होओ, तबसे भजन करो। हमारे देश का पुराना नियम है, पहले ब्रह्मचर्य का पालन करो। ब्रह्मचर्य का पालन कब से करो ? जब से उपनयन हुआ, अर्थात् जन्म के बाद जो दूसरा संस्कार हो जाय। जन्म-धारण करने पर पाँच-सात वर्ष के बाद उत्सव कराते हैं। उसमें जनेऊ देते हैं। उसी समय से शुचि से रहने के लिए सिखाया जाता है। गायत्री-मन्त्र का जप करने को भी कहा जाता है। इस मन्त्र के साथ प्राणायाम भी बताया जाता है। प्राणायामहीन गायत्री जप निर्जीव होता है-निष्फल होता है। संयम से जप करने से लाभ होता है। उपनयन होने पर विद्या के लिए गुरुकुल जाओ और वहाँ विद्याभ्यास के साथ गायत्री-मन्त्र का जप भी करो। विद्या समाप्त कर घर जाओ। गृहस्थ-जीवन में प्रवेश करो और उपनयन के समय में जो दीक्षा प्राप्त किये हो, सो भी करो। फिर घर छोड़कर संन्यास लेने की बात थी, वह नियम अब खत्म हो गया, लेकिन ऐसा जाना जाता है कि उस समय बचपन से ही लोग योग सिखाने का काम करते थे। लोग योग सीखते थे। इन बातों को जो लोग नहीं जानते हैं, वे कहते हैं कि ‘अभी बच्चे हो, नहीं करो।’ संसार का काम भी करो और मोक्ष का साधन भी करो। यही अपने देश का नियम था। सब-के-सब मोक्ष का साधन भी कीजिए और घर के कामों को भी देखिए। दोनों काम संग-संग करो। कुछ काल ऐसा व्यतीत हुआ कि लोग मोक्ष का साधन भी करते थे और घर के कामों को भी। इसलिए घर में काम-धन्धा भी करो और मोक्ष साधन भी करो। दूसरे की देह का पालन नहीं कर सकते हो तो अपनी देह का पालन-पोषण तो करो।
 बाबा साहब ने मुझसे पूछा था, ‘तुम अपनी जीविका के लिए क्या सोचते हो? मेरे सत्संग में आये हो तो सेल्फ-सपोर्टर (ैमसि.ैनचचवतजमत) यानी स्वाबलम्बी बनो।’ अब मेरा जीवन बहुत अच्छा है, गुरु महाराज की बात मानकर। मोक्ष का साधन परिवार छोड़कर करें, ऐसी बात नहीं। ईश्वर का भजन भी करो जिससे मोक्ष मिले और घर का काम भी करो। यही बात भगवान श्रीकृष्ण ने कही है। कबीर साहब उसके पूर्ण स्वरूप थे। पूर्ण योगी थे। उनको ऐसा नहीं था कि हम जीविका नहीं करें। बचपन से वे जो काम करते थे, सब दिन करते रहे। बाबा नानक भी ऐसे थे। इनके सिलसिले में दशवें गुरु-गुरुगोविन्द सिंहजी थे। इनके यहाँ भी यही बात थी। दशवें गुरु ने सिक्ख धर्म को कायम किया। एक जाति कायम किया। पंच ककार दिया। वे लोग संसार के कामों को करते हुए परमार्थ साधन करते थे। सिर-रक्षा के लिए केश, कोई हथियार नहीं हो तो कड़ा-कृपाण, कच्छा इसलिए कि सदा तैयार, कोई लटपट नहीं। और उन्होंने पंजाब को स्वतंत्र किया। आज के जमाने में परमार्थ का साधन कैसे करना चाहिए? जिसका यह नमूना है। संसार का पालन-पोषण करो और ईश्वर का भजन भी करो। दश गुरुओं ने यह शिक्षा दी।
 बाबा नानक बहुत घूमे। पूर्वीय गोलार्द्ध में बहुत घूमे। पैदल जहाँ तक जाने का था, तमाम गये। कुछ सामुद्रिक यात्रा भी किए, जैसे लंका गये। सन्तों ने बताया है कि तुम्हारा शरीर शिवालय और ठाकुरबाड़ी है। अपने शरीर को तुम ठाकुरबाड़ी बना सकते हो अथवा विष्ठा का घर बना सकते हो। परमार्थ-साधन नहीं जानते हो तो यह शरीर ठाकुरबाड़ी नहीं है। परमार्थ-साधन है तो ठाकुरबाड़ी है। अन्तःकरण पर शौच है, तो वह सदाचार है और बाहरी पवित्रता शुच्याचार है। सबको स्वभावतः भजन का अवलम्ब दिया गया है। उस अवलम्ब को पकड़ना चाहिए। जो पकड़ते हैं, वे ठीक-ठीक भजन करते हैं। सन्त कबीर साहब ने बताया है-
 पाँचो नौबत बाजती, होत छतीसो राग ।
 सो मन्दिर खाली पड़ा, बैठन लागे काग ।।
यहि घट चन्दा यहि घट सूर, यहि घट बाजै अनहद तूर ।
यहि घट बाजै तबल निसान, बहिरा शबद सुनै नहिं कान ।।
 प्रकाश और शब्द; ये दोनों अवलम्ब तुम्हारे अन्दर हैं। इस शरीर के अन्दर पाँच नौबत बजते हैं। मांस, खून, हाड़, चाम, नस; यह स्थूल शरीर का स्थूल भाग है। मांस-रक्त के पिंजड़े में शून्य भी है। शून्य में कहीं अन्धकार भी है, कहीं प्रकाश भी है। लेकिन शब्द से खाली कहीं भी नहीं है। एकान्त में बैठकर ध्यान कीजिए और शब्द पकड़िए। ईश्वर की ज्योति और नाद साधक के हेतु अन्तस्साधना में ये दोनों सहारे हैं। ईश्वर के पास पहुँचने का यह सरल उपाय है। इस मनुष्य-शरीर को पाकर ईश्वर-स्वरूप को जानना चाहिए। इसलिए ईश्वर-भजन करो। केवल खाना-सोना किस काम का ? पशु भी खाता-सोता है। मनुष्य-शरीर इसलिए नहीं है।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत रानीगंज थाना में वार्षिक सत्संग के अवसर पर दिनांक 2. 1. 1970 ई0 को प्रातः काल में हुआ था।
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309. सगुणरूप के दर्शन से मुनियों के मन में भ्रम
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
 हमलोग सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार करते हैं। इसलिए कि संसार के सुखों में शान्ति नहीं आती है, सो सबके लिए प्रत्यक्ष है। संसार के सभी सुख क्षणिक होते हैं, नाश भी हो जाता है। सन्तों ने यह बताया है कि ईश्वर की भक्ति करो। ईश्वर के दर्शन से वह सुख मिलेगा, जो सुख सन्तोषदायक है। कोई तृष्णा बाकी नहीं रह जाती है। ऐसी तृप्ति होती है, जिसमें सारी इच्छाएँ नाश हो जाती हैं। इसलिए ईश्वर की भक्ति करो। लोगों को मालूम होना चाहिए कि गोस्वामी तुलसीदासजी जैसे बड़े भक्त थे, वैसे ही सूरदास जी भी थे। वे कहते हैं कि ईश्वर-भक्ति में क्या है?
    परम स्वाद सबही जू निरन्तर अमित तोष उपजावै ।
 परम स्वाद का नाम सुन तो लो, लेकिन साधारण लोगों को मालूम नहीं है। इन्द्रियों के विषयों में परम स्वाद नहीं है। परम स्वाद कैसा है? उसमें बहुत-बहुत सन्तुष्टि होती है, लेकिन मन को ग्रहण नहीं होता है, उसके लिए अप्रत्यक्ष है। उसको वही जानता है, जो पाता है। भक्ति करते-करते जब ईश्वर-दर्शन हो जाता है, तब ईश्वर-दर्शन का परम स्वाद मिलता है। उसमें तृप्ति होती है, शान्ति होती है। संसार के सुखों में शान्ति नहीं है। ईश्वर की भक्ति करने के लिए ईश्वर- स्वरूप का ज्ञान अवश्य चाहिए। जैसे मुसाफिर को अवश्य ज्ञान होना चाहिये कि उसको कहाँ पहुँचना है? क्या लेना है? यह ज्ञान नहीं है तो वह चलता ही रहेगा। कहाँ पहुँचना है, यह मालूम नहीं तो क्या रास्ता होना चाहिए, उसको क्या मालूम? जैसे मुसाफिर को मालूम नहीं कि क्या लेना है, कहाँ जाना है? तो वह हैरान-ही-हैरान होता रहेगा। इसी तरह ईश्वर-स्वरूप निर्णय के बिना भक्त भटकता रहता है। इसलिये ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान अवश्य होना चाहिये। जहाँ ईश्वर का दर्शन है, वहाँ पहुँचना है। क्या लेना है? ईश्वर-दर्शन। क्या स्वाद मिलेगा। परम स्वाद मिलेगा। कोई इच्छा नहीं रहेगी। कोई तृष्णा नहीं रहेगी। कोई विकार नहीं रहेगा। निर्विकार होकर, ईश्वर से मिलकर एकमेक हो जाता है। फिर भी दुःख होता है? कभी नहीं। ईश्वर-स्वरूप में स्वरूप का अर्थ है-स्वत्रअपना, रूपत्रजो दृश्य है। जो केवल रूप है, वह केवल दृश्यमान है। हर-एक की देह भी दृश्यमान है, वह रूप है। जैसा भी जो कुछ दृश्य है, वह रूप है। किसका रूप है? निज का नहीं, शरीर का रंग-रूप है। जैसे रंग-बिरंग के जो कपड़े पहनते हैं, सो रंग-बिरंग कपड़े के रंग हैं, शरीर के नहीं। अनेक रंग कपड़े के हैं, पहननेवाले के नहीं। इसी में कोई नाटा, कोई लम्बा, कोई तगड़ा है, तो यह शरीर का रूप है। आखिर में शरीर मरता है, जलाया जाता है। यह नाशवान है। यह नाशवान हमारा और आपका शरीर ही नहीं है, संसार में जितने दृश्यमान हैं, सभी नाशवान हैं, माया रूप हैं। कुछ काल है, फिर खत्म हो जाएगा। अपना स्वरूप क्या है? अर्थात् अपने तईं का रूप है आत्मा, जीवात्मा, चेतन आत्मा। इन तीनों में कुछ कहो, एक ही बात है। आत्मा को ही स्वरूप कहते हैं। ईश्वर को लोग सगुण भी कहते हैं और निर्गुण भी। शरीर-रूप को सगुण कहते हैं और निज-रूप को निर्गुण कहते हैं। दृश्यमान रंग-रूप को सगुण कहते हैं। जो शरीर में है, वह निर्गुण है। शरीर सगुण तो है ही, यह साकार भी है। साकार यानी इतना लम्बा-चौड़ा। निर्गुण जो है वह निराकार है। निर्गुण- निराकार सगुण-साकार शरीर में है। जैसे घर बनाकर शरीर को रखते हो, उसी तरह शरीर-रूप घर में तुम निर्गुण निराकार रहते हो। इसी तरह ईश्वर के लिए समझो। मूल में निर्गुण स्वरूप है-
अगुन अखण्ड अलख अज जोई।भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।
        -गोस्वामी तुलसीदासजी
 जब अपनी ही माया से वह सगुण रूपवाला शरीर को धारण करता है, तब वही सगुण कहलाता है। शरीर सगुण-साकार है। उसको धारण करनेवाला निर्गुण-निराकार है। ईश्वर-दर्शन तब पूरा-पूरा होता है, जब पहले सगुण-साकार के माया रूप का दर्शन होता है और पीछे निर्गुण-निराकार का दर्शन हो। सगुण-साकार का भी दर्शन हो और निर्गुण-निराकार का भी। जहाँ पहुँचने पर ऐसा दर्शन हो, वहाँ जाना है। और लेना क्या है ? पहले सगुण-साकार का दर्शन, फिर निर्गुण-निराकार का दर्शन। ईश्वर का दर्शन, यह असली दर्शन है। बिना निर्गुण निराकार-दर्शन के संसार में आना-जाना बना रहेगा। और आने-जाने पर दुःख भोगना पड़ेगा। इसी को समझाने के लिए हमलोगों का सत्संग है। और अन्य भक्ति-परक सत्संग में सगुण- साकार पर जोर दिया जाता है, उसमें अमित तोष नहीं मिलता है। इसके लिए ऐसी भक्ति करो, जो निर्गुण-निराकार तक पहुँचावे। निर्गुण-निराकार भक्ति को बहुत कम लोग जानते हैं। सगुण-साकार को बहुत लोग जानते हैं। कितने कहते हैं कि निर्गुण के लिए कुछ कहना भूसा कूटना है। कोई कहते हैं कि बड़ा कठिन है। अरे ! जो जितने अधिक विद्वान हैं, वे उतने ऊँचे दर्जे पर संसार में रहते हैं। उन्होंने कठिन परिश्रम किया है। कड़ा-से-कड़ा परिश्रम कर वे विद्या उपार्जन कर ही लेते हैं। जैसे बड़ा परिश्रम कर विद्या अर्जन करते हैं, उसी तरह ईश्वर-दर्शन के लिए कड़ा परिश्रम कर ईश्वर-दर्शन करते हैं। सगुण-साकार का दर्शन बाहर में होता है और निर्गुण-निराकार का दर्शन अन्दर में होता है। सगुण-साकार का दर्शन-अदर्शन भी होता है। लेकिन निर्गुण-निराकार का दर्शन-अदर्शन कभी होने की बात ही नहीं है। सगुण-साकार का दर्शन इन्द्रियों के ज्ञान में रहते हुए होता है। निर्गुण-निराकार का दर्शन इन्द्रियों के ज्ञान में नहीं होता है। सगुण-साकार का दर्शन इन्द्रियों से होता है। इन्द्रियों के द्वारा दर्शन-माया है, माया है, माया है। लक्ष्मणजी ने श्रीराम से पूछा था कि ‘माया किसको कहते हैं?’ तो श्रीराम भगवान ने कहा था-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानेहु भाई ।।
 मन-बुद्धिवाला दर्शन माया-दर्शन है। माया- दर्शन से माया में कुछ लाभ करे सकते हो, लेकिन तृप्त नहीं हो सकते हो। इसके लिए मनु-शतरूपा, कश्यप-अदिति और दशरथ-कौशल्या के इतिहास को पढ़कर जानो। मैं जो कहता हूँ, सत्य-सत्य कहता हूँ। तुलसीदास जी ने कहा-
 निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोय ।
 सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होय ।।
 मुनियों के मन में भी भ्रम होता है सगुण रूप के दर्शन से। ब्रह्मा को भी भ्रम हुआ श्री कृष्ण भगवान की बाल-लीला को देखकर। उन्होंने ग्वाल-बाल और गौओं को पहाड़ में छिपा रखा। भगवान ने वैसे ही ग्वाल-बाल और गौवें बना लिये। ब्रह्मा ने देखा, ये सब ग्वाल-बाल और गौवें तो हैं ही, तब उनका भ्रम दूर हुआ। तब भगवान ने अपनी माया हटा ली। जो निर्गुण को केवल बात-ही-बात में कहते हैं, वे निर्गुण-स्वरूप को जानते नहीं हैं। यदि वे बौद्धिक रूप में जानते भी हैं तो लोगों को धोखा देते हैं। ईश्वर का ज्ञान प्रत्यक्ष केवल जीवात्मा को होता है। उसी से मन- बुद्धि में चेतन धारा है। जब-जब वह धारा सिमटती है, तब-तब मन-बुद्धि में ज्ञान नहीं रहता है। जगने पर सभी इिंन्द्रयों में ज्ञान रहता है। स्वप्न में बाह्य इन्द्रियों को ज्ञान नहीं रहता है। लोग समझते नहीं, सोचते नहीं। मन-बुद्धि और इन्द्रियों का ज्ञान चेतन आत्मा का ही ज्ञान है। मन के द्वारा इन्द्रियों को ज्ञान होता है। तो मन का भी अपना ज्ञान है, संकल्प-विकल्प करना। उसी तरह चेतन आत्मा का भी अलग ज्ञान है, और वह है ईश्वर का दर्शन। मन का ज्ञान संकल्प-विकल्प है। लेकिन इन्द्रियों में संकल्प-विकल्प नहीं है। चेतन आत्मा को इन्द्रियों के संग में वह ज्ञान नहीं होता, जो इन्द्रियों का संग छोड़कर होता है। यह समझकर आश्चर्य नहीं करो कि निर्गुण-निराकार का ज्ञान किसको होगा? आत्मा को होगा, इन्द्रियों को नहीं। आत्मा का ज्ञान अपने से होगा। जब चेतन आत्मा को अपना ज्ञान होगा, तभी ईश्वर का भी ज्ञान होगा। इसके लिए अपने अन्दर चलना होगा। अभी अमृत की वर्षा हुई। अध्यात्म ग्रन्थ का सार-सार ज्ञान कह दिया। जिसको याद रहा उसको अमृत मिला। जिसको याद नहीं रहा, वह अमृत को खो दिया।
 सारांश यह कि आदि-अन्त-रहित, असीम, परम सनातन आत्मा को सर्वव्यापी और सर्वव्यापकता के परे भी कहना चाहिए। अन्तःकरण-युक्त शरीरस्थ आत्मा सर्व शरीर को, उसकी सब इन्द्रियों को चेतना, जीवन और ज्ञान देती है तथा इन्द्रियों को जो निज-निज विषय ग्रहण करने की जो ज्ञानमयी शक्ति है, वह चेतन आत्मा की ही है। इस तरह इन्द्रिय-युक्त होकर चेतन आत्मा का ज्ञान मायावी विषयों के अन्तर्गत ही सीमित रहता है। उससे मायातीत पदार्थ ग्रहण नहीं हो सकता। परन्तु इन्द्रियों के संग से असंग होकर चेतन आत्मा का जो निजी ज्ञान होता है, उससे मायातीत का ग्रहण होना पूर्ण रूपेण निश्चित है। इसी ज्ञान के द्वारा उसको ईश्वर का दर्शन होता है। अतएव यह ध्रुव है कि चेतन आत्मा को निजी ज्ञान में जो ग्रहण हो, वही मायातीत परम पुरातन, परम सनातन; असीम, अनन्त, सर्व- व्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे परमात्मा-ईश्वर हैं। ईश्वर-भक्ति ईश्वर-दर्शन के लिये ही की जाती है। इस हेतु चेतन आत्मा को इन्द्रियों के संग से असंग करना अत्यन्त अपेक्षित है। यह पूर्ण ध्यान-योग से ही होने योग्य है। ध्यान-योग की पूर्णता नादानु- सन्धान की समाप्ति पर ही होगी। इसलिये भक्त साधक को चाहिये कि ध्यान-योग के विषय में पूर्ण रूप से जानकर ईश्वर-भक्ति के हेतु साधन करे।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत रानीगंज में वार्षिक सत्संग के अवसर पर दिनांक 2-1-1970 ई0 को अपर्रां में हुआ था।
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310. जहाँ आपस में प्रेम रहता है, वहाँ सुबुद्धि रहती है
प्यारे लोगो !
 आप अपने घर में कई समांग से हैं। सबको आपस में प्रेम रहे-इस भाँति एक साथ रहते रहेंगे तो आप बहुत सुख मालूम करेंगे, चाहे आप थोड़े लोगों से घर में रहें वा अधिक लोगों से। जिनके घरों में मेल से रहते होंगे, कितने सुख से रहते होंगे, समझिये। जहाँ आपस में प्रेम रहता है, वहाँ सुबुद्धि रहती है, जहाँ प्रेम नहीं रहता, वहाँ दुर्बुद्धि रहती है।
जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना।जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना।।
        -गो0तुलसीदासजी
 यह बहुत ठीक बात है। जहाँ सुमति है, वहाँ बहुत सम्पत्ति है, जहाँ कुमति है, वहाँ विपत्ति-ही- विपत्ति है। अपने देश की क्या हालत हो गई है? आपस की सुमति टूटी, दूसरे देश के लोग यहाँ आकर शासन करने लगे। जो इतिहास पढ़े हैं, उनको याद आता होगा-यहाँ के जो बड़े राजा थे। पृथ्वीराज, वे दिल्ली में रहते थे। पृथ्वीराज का घर वहाँ नहीं था, वे नाना के यहाँ रहते थे। उनके नाना को पुत्र नहीं था, इसीलिए इनको राजा बनाया गया था। कन्नौज में राजा जयचन्द रहते थे, वे भी दिल्ली के उन्हीं राजा के नाती थे। पृथ्वीराज और जयचन्द दोनों मौसेरे भाइयों में विवाद हुआ। जयचन्द जाकर दूसरे राजा को, जो देश से बाहर था- खबर दिया। वह पहले से ही दिल्ली दखल करना चाहता था, पर पृथ्वीराज से हार-हारकर अपना देश जाता था। दिल्ली दरवार और कन्नौज दरवार में फूट होने के कारण दूसरे देश का राज्य हो गया। इस्लाम धर्मवालों का सात सौ वर्ष तक राज्य- शासन चला। इसके बाद अंग्रेजों को शासन हुआ। इन बातों को समझनेवाले हमारे देश में हुए। पचास वर्षों तक कोशिश हुई। काँग्रेस यानी बड़ी सभा का शासन होगा, ऐसा हुआ। अंग्रेज बड़े शक्तिशाली थे। उनका देश बहुत छोटा, लेकिन एक मेल के लोग-एक ख्याल के वे लोग थे। वहाँ आज भी राजा है, लेकिन राजा से विशेष अधिकार सभा को है। अंग्रेज यहाँ राज्य करते थे। यहाँ मेल हो जाने पर अंग्रेजों को यहाँ से जाने को कहा गया। होते-होते उनकी शक्ति कम हो गई और वे यहाँ से चले गये।
 हम सबको अब स्वराज्य है, स्वराज्य में कमी है सुराज होने की। सुराज कहते हैं-जहाँ चोरी, बेईमानी, ठगी, घूसखोरी आदि दुष्टकर्म नहीं हो। तब स्वराज्य में सुराज मिल जाये। एक मेल से स्वराज्य मिला है, लेकिन सुराज नहीं। सुराज कौन लावेगा, आज के शासक? कभी नहीं। ये लोग परिश्रम करते हैं, लेकिन सुराज ला नहीं पाते हैं। जैसे-एकमत पहले हो गये थे-विदेशी राज्य को भगाया, वैसे फिर एकमत हो तो सुराज आ जाए।
 खेत में चीज है, तो उसका पहरा करो। घर में सामान की रक्षा के लिए पहरा रखो। बाहर जाओ तो अपनी रक्षा आप करो। यह सब काफी दिक्कतें हैं। क्यों? इसलिये कि सुराज नहीं है। सुराज लाने के लिए सुबुद्धि लानी होगी। सुमति लानी होगी। जो झूठ बोलता है, दुष्टकर्म करता है, उसको लोग कहते हैं कि इसको सुबुद्धि नहीं है-यह पापी है।
नहिं असत्य सम पातक पु०जा।गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा।।
       -गोस्वामी तुलसीदासजी
 अपने देश में झूठ बहुत हो गया है, इसको हटाओ। इसको हटाने कौन कहेगा? अधर्म तो थरथरा गया है। वह यदि आदमी होता तो कहता कि लोगों ने हमारी रीढ़ को तोड़ दिया है-अंग को खण्ड-खण्ड कर दिया है। इसलिए सब कोई धर्म से बँधो। जिससे शरीर ठीक रहे-रीढ़ ठीक रहे, वह है धर्म। पीठ की रीढ़ टूट जाये तो समझो क्या हालत हो? पीठिया घाव होता है तो बड़ा खराब हो जाता है। कितने मर ही जाते हैं। इसलिए सत्य बोलो। धर्म को अपनाओ। ईश्वर को मानना, ईश्वर की भक्ति, यही धर्म का सार है। जिस धर्म में ईश्वर की भक्ति नहीं, वह असार धर्म है। इसलिए हृदय खोलकर भक्ति को अपनाओ। जो भक्ति नहीं अपनाते, उनमें सत्य बोलने की शक्ति नहीं आती। ईश्वर को समझो, उसका प्रत्यक्ष रूप में संसार में दर्शन नहीं कर सकते। यद्यपि वे संसार में हैं, पर पहचानते क्यों नहीं हो? जिस यंत्र से पहचानना चाहिए, वह यन्त्र नहीं है। तो जैसे आँख से रंग-रूप देखते हो, आँख नहीं तो रूप-रंग क्या देखेगा? इसीलिये कहा-‘खोजु रूह के नैना।’ (कबीर साहब) उपनिषद् में भी आया है-आत्मा से ही आत्मा का ग्रहण होता है। कबीर साहब ईश्वर स्वरूप के लिये कहते हैं-‘श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य। ऊँचे-नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य।’ उससे कहीं खाली नहीं है। ‘दृष्टि दृष्टि सों देखा’ यानी दृष्टि की भी दृष्टि जो है, उससे देखो। जो दृष्टि को भी दृष्टि शक्ति प्रदान करता है, वह है चेतन। हमलोग जिस आँख से देखते हैं। वह चर्म दृष्टि है। इससे उस ईश्वर को नहीं देख सकते। किससे देखेंगे? ‘खोजु रूह के नैना।’ कबीर साहब ने कहा है-यह बात बहुत गंभीर है। वह चेतन आत्मा आप स्वयं हैं। आप शरीर और इन्द्रियों से स्वयं बँधे हुए हैं। शरीर-इन्द्रियों के संग का ज्ञान माया का ज्ञान है। शरीर-इन्द्रियों के संग वाला ज्ञान नहीं हो। केवल चेतन आत्मा का ज्ञान ईश्वर-दर्शन का ज्ञान है। जो ज्ञान, जो शिक्षा इस ज्ञान की खोज के लिये हो, उसको प्राप्त करने का प्रयास करना धर्म है। इसकी शिक्षा संत लोग दे गये हैं। उसको जानना चाहिए और उसको करना चाहिए। पुस्तकों को खूब पढ़ लो और करो कुछ नहीं तो पढ़ने का क्या फल मिलेगा? खेती के लिए भी महाविद्यालय है-उसमें पढ़ लिया कि इस समय खेत जोतो, इस समय बोओ और खेत को जोतो-बोओ नहीं तो क्या होगा? बिना किये कुछ होता नहीं। इसी तरह ईश्वर-भक्ति के सम्बन्ध में चेतन आत्मा को शरीर इन्द्रियों के ऊपर उठाना है। इसके लिये जो काम अपेक्षित है-वह है पहला- सत्संग। दूसरा-आचरण ठीक रखो, तीसरा-उपा- सना-ध्यान करो। इन तीनों कामों को करो। सत्संग करो, ठीक से समझो, विधि भी जानो और उपासना करो। सत्संग के द्वारा उस कर्म का विचार दिया जाता है, जो कि नित्य करने के हैं। बनानेवाले बना देते हैं। अच्छे आचरण को सदाचार कहते हैं। अच्छे आचरण से रहोगे, जिसमें-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार पाँचों नहीं हैं। पाँचों पापों को नहीं करते रहोगे तो आपका धर्म अच्छा हो जायेगा। जितने लोग ऐसे बनोगे, एक मन के हो जाओगे। सत्यता आयेगी, झूठ भागेगा, तब आपस में मेल होगा। इसको कोई तोड़ नहीं सकेगा। सुख से रहोगे। तब स्वराज्य के साथ सुराज को भोगोगे। स्वराज्य अपना राज है और सुराज यानी दुष्ट कर्म-रहित राज। इस देश में कभी कोई पहले ताला नहीं लगाता था, जिसके घर में जो कुछ था, वैसे पड़ा रहता था, कोई कुछ लेता नहीं था। झूठ तो जानते ही नहीं थे। जो एकान्त में बात कहते थे, वही दस आदमी के बीच में। ऐसा नहीं कि एकान्त में एक बात हो और दस आदमी के बीच में दूसरी बात हो। महाजन से जो कोई कर्ज-उधार लेते थे, उसकी कागज पर लिखा-पढ़ी नहीं होती थी। लेनेवाले ठीक-ठीक पहुँचा देते थे। सत्य में बरतो-एक धर्म में बरतोगे। आपस में मेल से रहोगे, सुख होगा। इसलिये वेद में आया कि आपस में मेल से रहो। एक मन से ईश्वर की उपासना करो।
 एक दूसरे का खण्डन करते हैं। पहले कोई किसी का खण्डन नहीं करते थे। एक ईश्वर का ज्ञान जैसा दिया गया है, वैसी उपासना करते थे, सभी ईश्वर को अपने अन्दर खोजते थे। यदि सभी नहीं तो ऐसे लोग अधिक थे और ऐसे लोग कम थे, जिनमें धर्म की प्रबलता नहीं थी। धर्म की कमी के कारण देश में सुख की कमी हो गयी है। धर्म धारण होगा, घर में सुख से रहने के लिये। धर्म धारण होगा, मोक्ष पाने के लिये। संतों ने सबके ख्याल को मिलाकर कहा- सबका ईश्वर एक है, ईश्वर को पाने का एक ही रास्ता है। सब कोई अपने को अन्दर-अन्दर चलावेगा, शरीर-इन्द्रियों से अलग होकर अपने स्वरूप में रहकर मोक्ष पावेगा। ईश्वर-दर्शन होगा-सुख से रहोगे। ईश्वर की भक्ति ऐसी है कि उसमें सदाचार का पालन होता है। सदाचार पालन से सुन्दर देश बनता, सुन्दर लोग बनते हैं। पहरा के लिए चौकीदार वा अपराधी को पकड़ने के लिये पुलिस की जरूरत नहीं होती। सभी कोई धर्म को पकड़ो, सुखी रहोगे।
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यह प्रवचन जिला संथालपरगना करमाटाँड़ ग्राम में दिनांक 9-1-1970 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था।
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311. सुख के लिए भटको नहीं अन्दर चलो
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
  मनुष्य को अपने जीवन में सुख से रहने के लिये बहुत इच्छा रहती है। मनुष्य यह भी अवश्य ही जानता है कि यह जीवन समाप्त हो जायेगा। जीवन के समाप्त हो जाने पर मैं यहाँ नहीं रहूँगा। कुछ लोगों का ख्याल है कि जीवन समाप्त हुआ, शरीर जला दिया गया, दफना दिया गया, कुछ बचा नहीं। परन्तु दूसरा ख्याल बतलाता है कि कुछ बचा नहीं सो मत समझो। बचा बहुत कुछ, थोड़ा ही नहीं रहा। जो जला दिया गया, वह बहुत थोड़ा-सा। दूसरा ख्याल बतलाता है कि जो बहुत बच गया, वह क्या है? देखने में तो कुछ नहीं आया। अवश्य ही उसको नहीं देख सकते, लेकिन बचा अवश्य। तुम्हारे देखने में जो शरीर था, वह जल गया। उस शरीर के अन्दर जो था, उसको जीवन-काल में भी नहीं देख सकते थे और मृत्यु होने पर तुम क्या देख सकते हो? देख सकते हो, लेकिन यदि तुम देखने की विधि जानो। यदि बुद्धि से ही काम लो, तो समझो कि जबतक अंकुर नहीं होता, छोटा पौधा नहीं होता। बिना बीज के अंकुर नहीं और बिना अंकुर के पौधा नहीं होता। किसी के होने में बीज होता है, फिर उसके उगने से अंकुर रूप आता है। वही बढ़ते-बढ़ते बड़ा वृक्ष होता है। मतलब बीज, अंकुर और वृक्ष। बीज को कारण समझो, अंकुर को सूक्ष्म समझो और वृक्ष को स्थूल समझो। ये तीनों साथ-साथ हैं। स्थूल शरीर जल गया तो सूक्ष्म और कारण बच गये। इन दोनों के बचने पर यह भी ख्याल करो कि उसके लिये कोई भण्डार है। कारण एक ही किस्म की नहीं है। उसके भण्डार को महाकारण कह सकते हो अथवा अपने देश की शास्त्रीय भाषा में त्रिगुणात्मिका साम्यावस्थाधारिणी जड़ात्मिका मूल प्रकृति कह सकते हो। इससे कारण होता है, कारण से सूक्ष्म होता है, उससे फिर स्थूल होता है। स्थूल तुम देख सकते हो; सूक्ष्म, कारण और महाकारण नहीं देख सकते हो। जीवन-काल में नहीं देख सकते हो, तुम्हारी मृत्यु हो गई तो जो जीवित हैं, वे देखते हैं कि कुछ बचा नहीं। तीन बच गये, लेकिन ये तीनों-चारों जड़ हैं-ज्ञानहीन हैं। जीवन-काल में यह शरीर ज्ञानमय मालूम होता है, तो जाना जाता है कि शरीर के साथ-साथ ज्ञानमय पदार्थ भी है, उसको चेतन आत्मा कहते हैं। वह चेतन आत्मा मूल प्रकृति में व्यापक है। कारण में भी, सूक्ष्म में भी और स्थूल में भी वह चेतन आत्मा है। मृत्यु के उपरान्त तीन शरीरों के साथ जीवात्मा रहता है। मतलब यह कि स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण; इन चारों के अन्दर चेतन आत्मा है। मृत्यु होने पर केवल स्थूल शरीर जलाया वा दफनाया गया। बाकी तीन शरीरों के साथ जीवात्मा निकल गया। उसको तुम नहीं देख सके। जीवित काल में चार जड़ शरीरों के साथ जीवात्मा है। ऊपर से स्थूल शरीर है। स्थूल शरीर को ही जलाया गया। बाकी तीनों को तुम नहीं देख सकते हो। फिर चेतन आत्मा को क्या देखोगे? तुम्हारी दृष्टि सूक्ष्म नहीं है, फिर क्या देखोगे? तुम्हारी दृष्टि तत्त्वतः सूक्ष्म तो है ही; लेकिन स्थूल आवरण के साथ है। इसलिये नहीं देख सकते हो। स्थूल आवरण सहित दृष्टि को चर्मदृष्टि कहते हैं। स्थूल शरीर छूटने पर सूक्ष्म तत्त्व के संग जीवात्मा है। सूक्ष्म दृष्टि कैसे होती है, इसकी युक्ति प्राप्त करानेवाले गुरु के दर्शन तुमको नहीं हुए। उनकी युक्ति के बिना और उनके बताये साधन के किये बिना तुम सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिये स्थूल शरीरधारियों के लिये सूक्ष्म अव्यक्त ही रह गया। मेरे कहने का मतलब यह कि जीवन-काल में लोग सुख से रहना चाहते हैं, तो उनसे पूछो कि शरीर छूटने पर सूक्ष्म शरीर में रहने के लिये सुख चाहते हो कि दुःख? सुख चाहते हो। इसी तरह कारण शरीर में रहकर सुख चाहते हो कि दुःख? स्थूल जड़, सूक्ष्म जड़, कारण जड़; इन जड़ तत्त्वों के साथ रहने पर जड़ के संग जो सुख होना चाहिये, सो होगा। वह कैसा सुख होता है?
   जैसे सड़सी लौह की, छिन पानी छिन आग ।
   तैसे सुख दुःख जगत के, सहजो तू तजि भाग ।।
 कभी आग में, कभी पानी में। कभी सुख में, कभी दुःख में। जो कुछ भी थोड़ा मिलता है, वह बिल्कुल संतुष्ट कर देनेवाला सुख नहीं है। इसी तरह सूक्ष्म का, कारण और महाकारण का भी सुख है कि दुःख के बाद सुख और सुख के दुःख आवेगा, सन्तुष्टि नहीं हो सकेगी। सन्तुष्टिवाला सुख कहाँ है? ढूँढ़ो। शरीरों को छोड़कर, अपने आप में रहकर कैसा होता है? अव्यक्त है। अन्दाज करो कि जड़ के साथ रहते थे, तब सुख कहाँ था? तब भी सुख के मूल तुम ही चेतन आत्मा थे। गोस्वामी तुलसीदासजी ने बड़ा अच्छा कहा है-
ईश्वर अंश जीव अविनाशी । चेतन अमल सहज सुखराशी ।।
तुम स्वयं सुख-रूप हो। ख्याल करो कि जब तुम जगे रहते हो, बाहर के विषयों का संग होता है। बाहर विषयों में इन्द्रियों के संग से सुख मानते हो। सोने पर बाहर का विषय नहीं, फिर भी तुम सुख पाते हो। यह सुख कहाँ है? तुम्हारी जिभ्या पर नीम का पत्ता था। लेकिन स्वप्न में तुम देखते हो कि मिसरी खाता हूँ, तो मिसरी की मिठास मालूम होती है, नीम का कड़वापन नहीं। मिसरी की मिठास कहाँ से आई? अपने अन्दर मिठास का ख्याल किया, मीठा लगने लग गया। असल में सुख-स्वरूप तुम स्वयं हो। यही थोड़ा नमूना है कि जैसा चाहते हो, वैसा हो जाता है। स्वप्न, जाग्रत के बीच तन्द्रा होती है। वहाँ तुमको सरूर वा चैन मालूम होता है। यह सरूर वा चैन कहाँ है? तुम्हारे अन्दर है। सुख-स्वरूप तुम हो, सुख जड़ में नहीं, तुममें है। इस बात को केवल विचार-ही-विचार में रहकर प्रत्यक्ष रूप में नहीं जान सकते हो। जिभ्या में जो षट्रस मालूम होते हैं, ये जबतक जगे रहते हो, मालूम होते हैं। जब तुम सो जाते हो, तुम्हारी शक्ति वा चेतन-धारा बाहर की ओर नहीं है, अन्दर की ओर है, फिर भी तुम सुख पाते हो। विचार करने पर मालूम होता है कि अन्दर का सुख है। लेकिन स्वप्न और तन्द्रा का सुख क्षणिक है। जड़ के संग से छूटकर, अपने आप में रहकर कैसा होगा? जिसने कोशिश की, जिसने पाया, उसने कहा कि अब सुख हुआ। सूरदासजी महाराज ने कहा-
  परम स्वाद सबही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै ।
  मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै ।।
 यहाँ संसार का सुख जो विषयों से मालूम होता है, इससे उस सुख को समझाया नहीं जा सकता। नमक कैसा लगता है, समझाया नहीं जा सकता। जिभ्या पर रखो, तब मालूम होगा। जब इन्द्रिय-सुख का वर्णन नहीं होता है, तब इन्द्रियातीत सुख का वर्णन कोई कैसे कर सकता है? सन्तों ने कहा-सुख के लिये भटको नहीं, अपने अन्दर चलो। जड़-विहीन होकर रहना, अपने आप में रहना अपनी ओर होना है। जो इस ओर जाता है, वह जानता है कि जड़ के संग के कारण से सुख जो मिलता है, वह सन्तुष्टि नहीं दे सकता है। अपनी आपा की ओर चलो। इसके लिये बाहर ढूँढ़ने की जरूरत नहीं। अपने शरीर के अन्दर अपनी आपा है, उसकी खोज अपने अन्दर करो, सन्तों ने कहा है। अवश्य ही ज्ञान चाहिये। ज्ञान के लिये सत्संग चाहिये। सत्संग से ज्ञान होता है कि इसको सिखलानेवाला चाहिये। संसार का ज्ञान सीखने के लिये गुरु की आवश्यकता है। इस अध्यात्म- विद्या वा ज्ञान के लिये गुरु की आवश्यकता नहीं है? गुरु की आवश्यकता है, गोरू की नहीं। गोरू यानी जानवर। अपना ज्ञान चाहिये। सत्संग में क्या है?
 सन्त संग अपवर्ग कर, कामी भव कर पन्थ ।
 कहहिँ सन्त कवि कोविद, स्रुति पुरान सद्ग्रन्थ ।।
        -गोस्वामी तुलसीदासजी
 यह मोक्ष का धर्म है। परन्तु इसके लिये यह बात नहीं कि घर छोड़ो, घर के कर्त्तव्यों को छोड़ो, ऐसी बात नहीं। हमारे देश का शास्त्र सिखाता है कि घर के कर्त्तव्यों का पालन करते हुए मोक्ष का साधन यानी ईश्वर-भजन सभी कोई कर सकते हो। बाबा नानक ने कहा है-
राज महि राज जोग महि जोगी । तप में तपीसुर गृहस्थ महि भोगी ।।
ध्याय ध्याय भक्तः सुख पाया । नानक तिस पुरुष का किन अन्त न पाया ।।
 ये सब-के-सब कर सकते हो। राज्य करते- करते राजा कर सकते हो। गृहस्थ हो, कर सकते हो। पुरुष हों, स्त्रियाँ हों, इस देश के, उस देश के, किसी देश के होओ, ध्यान करो, पाओगे। कबीर साहब ने कहा है-
अवधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भावै ।।
घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि वन नहिं जावै ।
वन के गये कलपना उपजै, तब धौं कहाँ समावै ।।
घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरु अलख लखावै ।
सहज सुन्न में रहै समाना, सहज समाधि लगावै ।।
उनमुनि रहै ब्रह्म को चीन्है, परम तत्त को ध्यावै ।
सुरत निरत सों मेला करि के, अनहद नाद बजावै ।।
घर में बसत वस्तु भी घर है, घर ही वस्तु मिलावै ।
कहै कबीर सुनो हो अवधू, ज्यों का त्यों ठहरावै ।।
 कबीर साहब जो कह गये हैं, सो ठीक है। वे इसके नमूने थे। गुरु नानक और उनके पन्थ के दस गुरु इसके नमूने थे। दादू दयालजी इसके नमूने थे। हमको वे लोग उपदेश देते गये हैं। यदि हम कर्त्तव्य-पालन करते रहेंगे तो किसी-न-किसी जीवन में वह सुख अवश्य पायेंगे। इस जीवन में, इस संसार में सुख के वास्ते कौन काम है? तो वेद मन्त्र में आया है-‘आपस में मेल से रहो।’ घर के अन्दर जितने लोग हैं, मेल से रहो। एक पड़ोसी के साथ दूसरा पड़ोसी मिलकर रहो। एक गाँव के लोग दूसरे गाँव के लोगों से मेल करके रहो। एक प्रान्त के लोग दूसरे प्रान्त से मेल करके रहो। एक देश के लोग दूसरे देश के लोगों से मिलकर रहो। यह मेल कौन करावेगा? सत्य का व्यवहार। सत्य के व्यवहार से आपस की प्रीति रहेगी। कबीर साहब ने कहा है-
  साँचे को साँचा मिले, अधिका जुड़े सनेह ।
  साँचे को झूठा मिले, तड़ दे टूटे नेह ।।
  सब सत्य-सत्य रहो तो सुखमय संसार हो जायेगा। यह बहुत बढ़िया ज्ञान है। सत्य ही धर्म का मूल है। सबको एक साथ धर्म बाँधता है; क्योंकि इसकी जड़ में सत्य है। वह एक धर्म कौन-सा है? अध्यात्म-धर्म है। अध्यात्म-धर्म में सब मिल जाओ। चाहे वैदिक, ईसाई, इस्लाम कोई होओ। नाम चाहे कुछ दे दो। अध्यात्म-धर्म कहो वा और कुछ कहो। हमलोग संतमत कहते हैं। सभी सन्तों का धर्म है। सभी सन्तों का ज्ञान लेते हैं। यही सन्तमत है। सन्तमत किसी एक महात्मा के नाम पर का मत वा धर्म नहीं है। सारे संसार में सबको एक करके रखने के लिये सन्तमत है। सभी एक धर्म से मिलो। जैसे किसी का नाम रामदास, किसी का नाम कृष्णदास है, लेकिन सभी मनुष्य हैं। इसी तरह ईसाई, वैदिक, इस्लाम अलग-अलग धर्म के नाम है; लेकिन सबका मूल सत्य है। जो सत्य में रहता है, वह अध्यात्म में रहता है। जो अध्यात्म में नहीं रहता है, वह सत्य में नहीं रहेगा। जो सत्य धर्म को छोड़ेगा, वह गिरता-पड़ता रहेगा। सब कोई एक धर्म को स्वीकार करो। वैदिक, बौद्ध, ईसाई वा इस्लाम कोई हों, सबके भोजन का एक ही रास्ता है, उसी तरह ईश्वर पाने का सबका रास्ता एक है और वह रास्ता है अन्दर का। स्वराज्य है, बड़ी खुशी है। इसमें सुराज चाहिये। सुराज के लिये एक धर्म को स्वीकार करो। अन्तर्मुख चलो। अन्तर्मुख धर्म सबका एक है। इसी का प्रचार इस सत्संग से होता है।
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यह प्रवचन भारत की राजधानी दिल्ली में अखिल भारतीय सन्तमत सत्संग के 62वें महाधिवेशन के अवसर पर दिनांक 1.3-1970 को प्रातःकाल में हुआ था।
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312. जड़ आवरणों के हटाने पर ईश्वर-दर्शन
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
 मेरे पूज्य गुरु महाराजजी ईश्वर-भक्ति का प्रचार करते थे। मैं भी वही प्रचार करता हूँ। ईश्वर-भक्ति के सम्बन्ध में यह जानकारी पहले ही चाहिए कि ईश्वर किनको कहें? पदार्थ-रूप में वे क्या हैं? और फिर ईश्वर-भक्ति के सम्बन्ध में विशेष जानें। मैं बहुत थोड़े-से शब्दों में कहता हूँ। जैसे रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द; इन पंच विषयों को पंच ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा आप जानते हैं। एक इन्द्रिय का जो विषय है, वह दूसरी इन्द्रिय के ज्ञान में नहीं आता है। पंच ज्ञानेन्द्रियों में जो आता है, सब लोग वही जानते हैं, उससे विशेष नहीं जानते। ईश्वर के लिये कोई कहते हैं कि है; कोई कहते हैं कि नहीं है। आस्तिक लोगों का विश्वास है कि ईश्वर है। बुद्धि से विचारने पर भी ईश्वर का ज्ञान होता है और सद्ग्रन्थों में भी है। कठोपनिषद् में एक वाक्य है-
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
 अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
 ऐसा कुछ है कि नहीं, इस पर बुद्धिमान विचार करें।
 सौर जगत-सूर्य का संसार-इस जगत को कहते हैं। इसके आदि में सूर्य को मानना अवश्य होता है। जो लोग पढ़े-लिखे हैं, वे जानते हैं कि सूर्य के नहीं होने से किसी जीव का कल्याण नहीं हो सकता। इस संसार को पंच भौतिक संसार भी कहते हैं। क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर; इन पाँचों का ज्ञान हमें होता है। इनमें पहले मानने योग्य क्या है? तो कहा-आकाश है। आकाश के अन्दर वायु है। फिर अग्नि, जल और पृथ्वी है। प्रथम आकाश है। क्या आकाश से भी पहले कुछ मानने योग्य है? सद्ग्रन्थ में है-वह है अहंकार- समष्टि अहंकार। उससे भी पहले मानने योग्य है समष्टि बुद्धि। उससे भी पहले मानने योग्य है मूल प्रकृति। उससे भी पूर्व मानने योग्य है? वह है ईश्वर-परमात्मा। उससे भी पहले कुछ मानने योग्य है? कुछ नहीं। ईश्वर-परमात्मा के पहले कुछ मानना ईश्वर को नहीं मानना है। ईश्वर के लिये बाबा नानक कहते हैं-
अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।
जाति अजाति अजोनी सम्भउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।
साचे सचिआर विटहु कुरवाणु ।।
गो0 तुलसीदासजी ने कहा-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार,नेति नेति नित निगम कह ।।
कबीर साहब ने भी कहा-
 श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींहीं तें सब लेखा ।।
 सबके मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।
 चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।।
  मतलब यह कि सन्तों के ज्ञान के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार हो। ज्ञान का प्रचार होता रहे तो सर्वसाधारण समझ सकेंगे। बाबा नानक के वचन को पंजाब के लोग भी और उससे कुछ बाहर के लोग समझ सकेंगे। पंजाबी भाषा वह है। जो कि आज राष्ट्रभाषा है, उसके जानकार भी उसको बहुत कुछ जान सकते हैं। कबीर साहब, गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज; ये सब ईश्वर के विषय में जो कहे हैं, देहात के लोगों को भी ज्ञान हो जाय, इसका प्रयास सन्त लोग किये हैं।
 ईश्वर का ज्ञान इन्द्रिय-ज्ञान में नहीं है; लेकिन वह परम पुरातन, परम सनातन है। उससे खाली जगह कोई नहीं हो सकती है। सबसे प्रथम वही मानने योग्य है। ईश्वर से प्रथम कुछ नहीं। लेकिन ईश्वर की पहचान किसके द्वारा हो? विषयों की पहचान इन्द्रियों के द्वारा होती है और ईश्वर की पहचान आत्मा के द्वारा। इन्द्रियों के द्वारा जिसकी पहचान हो, वह माया है-मिथ्या है। उसका नाश होता रहता है। ईश्वर इसलिये इन्द्रिय का विषय नहीं है कि वह माया नहीं है। ईश्वर की सत्ता है। माया की सत्ता नहीं है। एक अनादि-अनन्त को माने बिना यह निश्चय नहीं होगा कि सबसे पूर्व का क्या है? वह अनादि-अनन्त से पहले का कुछ हो, यह फाजिल बात है। अनन्त के पहले का, असीम के पहले का कुछ कैसे हो सकता है? अनन्त के पहले कुछ नहीं हैं। बहुत-सी चीजों को जोड़कर अनन्त नहीं हो सकता। सारे सान्तों के पार में अनन्त अवश्य है। अनन्त को किसी स्थान पर रखे, हो नहीं सकता। अनन्त सबका अवलम्ब है, अनन्त का कोई अवलम्ब नहीं है। कबीर साहब ने कहा है-
  मूल न फूल बेलि नहिं बीजा, बिना वृच्छ फल सोहै ।
 बिना वृक्ष के वह फल-स्वरूप है। ईश्वर अनादि-अनन्त-स्वरूपी है। ऐसे एक तत्त्व का होना बुद्धि में संभव है। सान्त को पहचानने के लिये जो इन्द्रियाँ हैं, वे उस अनन्त को पहचानने में अशक्य हैं। इसलिये वह इन्द्रियों से अप्रत्यक्ष है। उसको किससे प्रत्यक्ष करें? सन्तों ने कहा-आत्मा से। जो ईश्वर सबमें है, वह पूर्ण रूप से किसी एक रूप में व्यापक कैसे हो सकता है? अंश-रूप से व्यापक है। जैसे महदाकाश मठ में व्यापक होकर मठाकाश कहलाता है। आत्मा कहने से शरीरस्थ आत्मा का और परमात्मा का भी बोध होता है। लेकिन फुटा देने के लिये जीवात्मा और परमात्मा की संज्ञा अलग-अलग हो जाती है। इन्द्रियों का संग छोड़कर केवल अपने तईं में रहकर जिसका दर्शन होता है, वह ईश्वर है। ईश्वर इन्द्रियों के ज्ञान में आने योग्य नहीं है। इसलिये अपने को इन्द्रियों के संग से फुटाओ। पहले तो बहुत प्रेम चाहिये, यही है भक्ति। उसको जानो, यह है ज्ञान। और जिस यत्न से जानो, वह है योग। ज्ञान, भक्ति, योग; तीनों का मेल मिलाकर रखो, यदि ईश्वर-दर्शन चाहते हो। ईश्वर-दर्शन के लिये सरल योग भी है और कठिन योग भी है। किसी रूप को मन में बनाकर ध्यान करते हैं, इतना ही ध्यान नहीं है। यह तो आरम्भ है। आगे है-
   ध्यानं निर्विषयं मनः। ध्यानं शून्यगतं मनः।।
 इसमें पूर्ण एकाग्रता होती है। इतनी एकाग्रता हो कि एकविन्दुता हो जाय। यही है विन्दु-ध्यान। इसी को शाम्भवी मुद्रा-वैष्णवी मुद्रा कहते हैं। जो इसमें प्रवेश करते हैं, वे पूर्ण एकाग्रता पाते हैं। उस एकाग्रता में ऊर्ध्वगति होती है। सूक्ष्म में प्रवेश करता है, तब परमात्मा का प्रकाश व्यक्त हो जाता है। इसी को बाबा नानक ने कहा-
घट घट अन्तरी ब्रह्मु लुकाइआ, घटि घटि जोति सबाई ।
बजर कपाट मुकते गुरमती, निरभै ताड़ी लाई ।।
 मतलब यह कि जो गुरुमति हैं, गुरु की बुद्धि में चलते हैं, गुरु के अनुकूल चलते हैं, वे निडर ध्यान लगाते हैं, तो उनका बज्र-कपाट खुल जाता है और वे आगे बढ़ जाते हैं। कबीर साहब ने कहा है-
गुरुदेव के भेद को जीव जानै नहीं, जीव तो आपनी बुद्धि ठानै ।
गुरुदेव तो जीव को काढ़ि भवसिंधु तें, फेरि लै सुक्ख के सिंधु आनै ।।
बन्द कर दृष्टि को फेरि अन्दर करै, घट का पाट गुरुदेव खोलै ।
कहै कबीर तू देख संसार में, गुरुदेव समान कोई नाहिं तोलै ।।
 ऐसे कोई गुरु मिलें, यत्न बतावें तो जानकर भजन करो।
गुरुदेव बिन जीव की कल्पना ना मिटै,गुरुदेव बिन जीव का भला नाहीं।
गुरुदेव बिन जीव का तिमिर नासे नहीं,समुझि विचारि ले मने माहिं।।
राह बारीक गुरुदेव तें पाइए, जनम अनेक की अटक खोलै।
कहै कबीर गुरुदेव पूरन मिलै, जीव और सीव तब एक तोलै।।
 यह सूक्ष्म मार्ग है। ‘ध्यानं शून्यगतं मनः’ यह है। सन्त लोग ऐसा कहते हैं, बिल्कुल ठीक है। कुछ भी भूल नहीं है, करके देखना चाहिए। ईश्वर के सम्बन्ध में ठीक-ठीक जानकारी हो, तभी साधन-भजन में मन ठीक-ठीक लगता है
 सदाचार का पालन करना चाहिये। श्री मद्भगवद्गीता में कृष्ण भगवान ने जीव के लिए कहा है कि जैसे पुराने कपड़े को छोड़कर प्राणी नया कपड़ा धारण करता है, वैसे ही स्थूल शरीर छूटने पर जीवात्मा सूक्ष्म शरीर धारण करता है। तब जीव सूक्ष्म शरीर में रहता है। उसके बाद कारण शरीर भी है। उसके अन्दर महाकारण शरीर भी है। इन सभी शरीरों में जीवात्मा रहता है। इसके लिये सत्यवान और सावित्री की कथा है कि सत्यवान के स्थूल शरीर से लि¯ शरीर को निकालकर यमराज ले गये। सत्यवान का स्थूल शरीर मर गया। सावित्री के पातिव्रत्य धर्म-पालन के कारण यमराज ने पुनः उसके लि¯ या सूक्ष्म शरीर को स्थूल शरीर में प्रवेश करा दिया तो उसका पति जीवित हो गया। दादू दयालजी ने पाँच शरीरों का वर्णन किया है और कहा है-
    घर माहैं घर निर्मल राखै, पंचौं धोवै काया कपरा ।।
 स्थूल शरीर स्नानादि से पवित्र करो। सूक्ष्म को पवित्र करो और उसके ऊपर से स्थूल शरीर को हटाकर। कारण की पवित्रता होगी और उसके ऊपर से सूक्ष्म शरीर को हटाने से। महाकारण की पवित्रता होगी कारण शरीर को हटाने से और चेतनमय-चिदानन्दमय देह को पवित्र करो महाकारण को हटाकर। तब पूरी-पूरी पवित्रता आवेगी और ईश्वर-दर्शन होगा। यह स्थूल शरीर कुछ काल रहकर समाप्त होता है। लेकिन सूक्ष्म, कारण, महाकारण, ये शरीर योग-साधन-ध्यान-साधन करने से ही छूटते हैं। तब ईश्वर-दर्शन होता है। और कोई उपाय नहीं है। इसका यत्न करो। सन्तों ने इसका ज्ञान दिया है। यही उपदेश सुनाने मैं आया हूँ। यहाँ जो लोग जानते होंगे, जो लोग नहीं सुने हैं, वे भी सुनें, जानें। जो लोग पढ़े-लिखे नहीं हैं, वे भी बारम्बार सुनेंगे तो समझ जायेंगे। वे समझेंगे कि केवल स्थूल शरीर ही नहीं है। इसके अन्दर सूक्ष्म, कारण, महाकारण भी हैं। इन जड़ आवरणों को हटाने पर ईश्वर-दर्शन होगा। यह सूक्ष्म मार्ग है। बाबा नानक ने कहा है-
 भगता की चाल निराली ।
 चाल निराली भगताह केरी विषम मारगि चलणा ।।
 लबु लोभु अहंकार तजि तृष्णा बहुतु नाहिं बोलणा ।
 खंनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा ।।
और उपनिषद् में कहा है-
 क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।
यही सन्त कबीर साहब ने कहा है-
राह बारीक गुरुदेव तें पाइये जन्म अनेक की अटक खोलै।
 यह बाहर का मार्ग नहीं है, अन्दर का है। बारम्बार सुनिएगा तो जानियेगा कि मैं अयुक्त बात नहीं कहता हूँ। सन्त-वाणी में इसका पूरा ज्ञान है। इसका मेल वेद से है और उपनिषद् से भी है। सन्तवाणी पढ़िये और वेद-उपनिषद् से मिलाइये तो एक मेल मिलेगा।
 श्रीमद्भगवद्गीता में कर्म के कौशल को योग कहते हैं। समत्व को योग कहते हैं। जिस-जिस कर्म में मन लगा है, वह योग कहलाता है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि समत्व में योग होता है। समत्व की प्राप्ति समाधि में होती है। यह साधन करो। श्री कृष्ण भगवान की बात मानकर जो इसमें लग जायेंगे, तो किसी-न-किसी जन्म में वे उसको अवश्य पायेंगे। सारे दुःखों से छूट जायेंगे। संसार में रहकर सन्तुष्ट रहेंगे। यहाँ सन्तुष्ट रहेंगे और परलोक में जाकर भी सन्तुष्ट रहेंगे, सुखी रहेंगे। इसी काम को मैं करता हूँ। आपलोग भी करें, सभी सम्प्रदायों में यही बात है कि ईश्वर को पाओ। सदाचारी बनो। ईश्वर-भजन करो। सन्तों के ज्ञान को जानो।
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यह प्रवचन भारत की राजधानी दिल्ली में अ0 भा0 सन्तमत-सत्संग के 62वें महाधिवेशन के अवसर पर दिनांक
1. 3. 1970 ई0 को रात्रिकाल में हुआ था।
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313. चौथी अवस्था में जाने का यत्न
प्यारे लोगो !
 ईश्वर की भक्ति में तीन बातें अति आवश्यक रूप से होती हैं-स्तुति, प्रार्थना और उपासना। ये तीन बातें अति आवश्यक रूप से होती हैं। इनमें से किसी एक को हटा दो, ईश्वर-भक्ति नहीं होगी। सबसे पहले स्तुति करो। ऐसा कुछ भी नहीं, जो ईश्वर को पूजा-रूप में कोई दे सके; क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक हैं। जो कुछ है, ईश्वर के अन्दर है। ऐसा कुछ भोग्य पदार्थ नहीं, जो वे लें। सबके अंदर रहकर वे किसी वस्तु को नहीं लेते। कारण यह कि भोग्य वस्तु इन्द्रियगम्य है। इन्द्रियों के साथ रहनेवाले साधारण जीव हैं। वहाँ इन्द्रियों की पहुँच नहीं है। सबमें रहते हैं, किसी का भोग नहीं भोगते। ऐसा नहीं कि सबमें रहते हैं, तो भोगते ही होंगे। कहा गया है-
आनन रहित सकल रस भोगी।बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।
तन बिन परस नयन बिनु देखा।ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेखा।।
असि सब भाँति अलौलिक करनी।महिमा जासु जाइ नहिं बरनी।।
 ऐसी कोई वस्तु नहीं, जो उनको चढ़ायी जाय। बाबा नानक ने कहा है-
जा साहब से ना कछु चारा ।ताको कीजै सद् नमस्कारा ।।
 दण्डवत् प्रणाम के अन्दर ही स्तुति है। हम जो कुछ भी उपकार पाते हैं, ईश्वर की कृपा से पाते हैं। पहले कई दिनों तक मौसम खराब रहा, पानी पड़ा। सूर्य का प्रकाश हम ठीक-ठीक नहीं पाते थे, गर्मी ठीक-ठीक नहीं पाते थे। कष्ट पाते थे। अब सूर्य का उदय हो गया। गर्मी आ गई, कष्ट दूर हो गया। सूर्य जैसा पदार्थ कौन दे सकता है? ईश्वर के समान और ऐसा कोई शक्तिमान दाता नहीं, जो सूर्य के जैसा पदार्थ हमको दे सके। यदि कहो कि ईश्वर को हम नहीं देखते हैं, उनकी स्तुति हम कैसे करेंगे? तुम नहीं देखते हो; लेकिन वे ईश्वर तुमको देखते हैं। एक कथा है-
 एक राजा था। वह जंगल शिकार खेलने गया। रास्ते में एक मुनि बालक को देखा। बालक बड़ा ज्ञानी था। राजा ने मुग्ध होकर मुनि बालक से कहा, तुम मेरे साथ चलो। मुनि बालक ने कहा- राजन्! तुम मेरी शर्त मानो, तो मैं तुम्हारे साथ जाऊँ। राजा ने कहा- तुम्हारी शर्त क्या है? मुनि बालक ने कहा-मुझे खिलाओ, तुम मत खाओ। मुझे वस्त्र पहनाओ, तुम मत पहनो। जब मैं सो जाऊँ, तुम जगकर पहरा करो। राजा ने कहा-सो नहीं होगा। जो मैं खाऊँगा, सो तुम्हें खिलाऊँगा। जो मैं पहनूँगा, तुम्हें भी पहनाऊँगा। मुनि बालक ने कहा-मेरा राजा ऐसा नहीं है। मुझे खिलाता है, वह नहीं खाता। मुझे पहनाता है, वह कुछ नहीं पहनता। मैं जब सोता हूँ, वह जगकर पहरा करता है। वह है ईश्वर।
 मतलब यह कि परमात्मा ऐसे हैं, जो खाये नहीं, औरों को खिलावें। जो अपने वस्त्र नहीं पहनें, औरों को पहनावें। सब कोई सोते हैं, वे सोते नहीं, जगकर सबका पहरा करते हैं।
 ईश्वर की ऐसी स्तुति करो कि उनके स्वरूप का ज्ञान हो जाय। इसलिए हमलोग प्रातःकाल ईश्वर की स्तुति करते हैं-‘सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर...’ आदि पद्यों को कहकर। जो ईश्वर की स्तुति नहीं करता, वह कृतघ्न है। उपकार के नहीं माननेवाले को कृतघ्न कहते हैं। जितने ईश्वर के माननेवाले धर्म हैं, सबमें ईश्वर-स्तुति की विधि है। इसलिये बराबर ईश्वर की स्तुति कीजिए। ईश्वर की स्तुति के बाद और कोई स्तुति के योग्य हैं? हाँ ! हैं, संतजन। वे ईश्वर के प्रेम में रहते हैं, ईश्वर के भजन में रहते हैं और दूसरों को भी चेताते हैं। इसलिए वे भी स्तुति के योग्य हैं।
राम सिन्धु घन सज्जन धीरा ।चन्दन तरु हरि सन्त समीरा ।।
 राम समुद्र-रूप हैं और उनसे बादल-रूप सन्त निकलकर ज्ञान-रूप जल की वर्षा करते हैं। वे ईश्वर का भक्त बनाकर लोगों का बड़ा उपकार करते हैं। इसलिये सन्त भी स्तुति के योग्य हैं। इसलिए ‘सब सन्तन्ह की बड़ि बलिहारी।’ हमलोग पढ़ते हैं। सन्तों में से कोई हमारे गुरु होते हैं। वे हमारा ख्याल रखते हैं कि हम भूल में न पड़ें। वे हमको साधन-भजन बताते हैं। संसार की हानियों से भी बचाते और मोक्ष के लिये उपाय बताते रहते हैं। इसलिये उनकी भी स्तुति करते हैं। जो ईश्वर की, सन्त की, गुरु की स्तुति नहीं करते हैं, वे आत्महिंसक हैं। जो अपने उपकारक की स्तुति नहीं करे, वह आत्महिंसक की गति में जाता है।
 किसी भी धर्म-सम्प्रदाय में अपने को मानो और उनके सिद्धान्त को नहीं जानो, तो किस काम का? गद्य और पद्य; दोनों में हमलोग सिद्धान्त को पढ़ते हैं। ईश्वर-नाम का कीर्तन भी हमलोग करते हैं-‘अव्यक्त अनादि अनन्त अजय अज...’ आदि। लोग वर्णात्मक शब्द को ही नाम कहते हैं। शब्द वर्णात्मक भी है और ध्वन्यात्मक में भी है। ढोलक, तबले, हारमोनियम आदि की आवाजें ही ध्वन्यात्मक शब्द नहीं हैं, बल्कि वे आपके अन्दर भी हैं। सृष्टि के मूल में जो शब्द हुआ, वह ईश्वर का असली नाम है। जिस नाम से जिसकी पहचान हो, वह शब्द उसका नाम कहलाता है। जिस शब्द के द्वारा ईश्वर की पहचान हो, वह ईश्वर का नाम है। उसी को स्फोट, ओ3म्, उद्गीथ आदि कहते हैं। जैसा सुनने में ये सब आते हैं, वैसा सुनने में वह नहीं है। जैसे ईश्वर सर्वव्यापक हैं, वैसे ही उनका आदि ध्वन्यात्मक नाम भी सर्वव्यापक है। ईश्वर वाच्य है, उसका वह ध्वन्यात्मक नाम वाचक है। वह ध्वन्यात्मक शब्द एक ही है और अव्यक्त है। फिर वह ध्वन्यात्मक शब्द वाच्य है और मनुष्य-भाषा के ये ओ3म्, स्फोट, उद्गीथ आदि वर्णात्मक शब्द कथित ध्वन्यात्मक के वाचक हैं। ईश्वर के नाम का भजन अवश्य करो। वर्णात्मक में ही रह जाओ, ध्वन्यात्मक में नहीं जाओ, यह ठीक नहीं। और केवल ध्वन्यात्मक का ही आदर करो और वर्णात्मक का नहीं, सो भी ठीक नहीं। दोनों का आदर करो। सन्तमत कोई एक महात्मा के नाम का पन्थ नहीं है। सब सन्तों का एक ही मत है। यह सन्तमत की परिभाषा हमलोग रोज पढ़ते हैं-‘शान्ति स्थिरता वा निश्चलता को कहते हैं। शान्ति को जो प्राप्त कर लेते हैं, सन्त कहलाते हैं। सन्तों के मत वा धर्म को सन्तमत कहते हैं।’ आदि।
 भजन की विधि जानकर भजन करना चाहिए। नहीं तो लोग अपने धर्म को भूल जायेंगे। ईश्वर के नाम पर जो भजन नहीं करता, वह ठीक नहीं करता। प्रार्थना उसको कहते हैं कि मनुष्य को अपने सुख के लिये कुछ-न-कुछ इच्छा होती रहती है।
 अपने सुख के लिये ईश्वर से माँग करो- प्रार्थना करो। इसलिए हमलोग विनती और प्रार्थना करते हैं। उपासना कहते हैं, ईश्वर के पास हम जायँ-ईश्वर के निकट हम अपने को करें। इसके लिए जो सुमिरण वा वर्णात्मक जप है, उसके द्वारा ईश्वर की ओर अपने को लगाते हैं। ईश्वर के पास जाने का जरिया हमलोगों ने जाना है, जो सन्तों ने बताया है। आप अपने शरीर में हैं और ईश्वर भी आपके शरीर में हैं, तब ईश्वर के पास जाने के लिए हम किधर जायँ? इन्द्रियों में रहकर केवल माया का ज्ञान होता है। मैं इस शरीर में हूँ और ईश्वर सर्वव्यापक होने के कारण हमारे अन्दर भी हैं, तब बाहर-बाहर क्यों जाओ। अन्दर-अन्दर चलो। जैसे जागते हुए जानते हो कि हम इन्द्रियों के घाटों में हैं और स्वप्न में जाते हो, तो तन्द्रा में अपने को भीतर की ओर सिमटते मालूम करते हो। उस वक्त आपकी वृत्ति शरीर के बाहर नहीं, भीतर रहती है। बाहर के उस समय के ज्ञान से छूट जाते हैं, जब आप भीतर में जाते हैं, अन्दर- अन्दर यात्रा करते हैं। इससे सिद्ध होता है कि अन्दर- अन्दर चलो, तो इन्द्रियों के ज्ञान से छूटते जाओगे, बाहर-बाहर चलने से इन्द्रियों के संग-संग रहोगे, इससे तृष्णा बढ़ती जायेगी। तन्द्रा में जाने से उससे अलग हो जाते हो। कोई बीमार हो जाता है तो लोग चाहते हैं कि उसको नींद हो जाय। नींद होने पर उसको मालूम नहीं पड़ता कि मैं बीमार हूँ। लेकिन इन तीन अवस्थाओं में रहने से स्वाभाविक तौर से इन्द्रियों से छूटना नहीं होता। जो योग करता है, भजन करता है, वह छूटता है। तीन अवस्थाओं में रहते हुए मनुष्य को चैन नहीं होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त ।
 मन क्रम वचन अगोचर व्यापक व्याप्य अनन्त ।।
गोया तीन अवस्थाएँ छोड़कर चौथी अवस्था में रहो। चौथी अवस्था में जाने का जो यत्न है, वही योग है। यह है सरल योग ध्यान-अभ्यास। लोगों के मन में होता है कि योग बड़ा कठिन है। जो काम नहीं करे, वह सरल होने पर भी कठिन है। विद्यार्थी जबतक सीखते नहीं, तबतक कठिन मालूम होता है। सीख लेते हैं तो सरल हो जाता है।
   न जोगी जोग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै ।
   सहज में ध्यान से पावै, सुरति का खेल जेहि आवै ।।
 प्राणायाम नहीं करो, केवल ध्यानयोग करो। एक तो प्राणायाम करके-हठयोग करके ध्यान आरम्भ करते हैं। यह कठिन अवश्य है, लेकिन कबीर साहब कहते हैं-‘न जोगी जोग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै। सहज में ध्यान से पावै, सुरति का खेल जेहि आवै।।’ इसलिए सुरत लगाने का यत्न जानो। कहाँ लगाओगे, सो जानो। क्या गरीब, क्या अमीर, क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या विद्वान, क्या अविद्वान सभी कर सकेंगे। थोड़ा-थोड़ा करते-करते यही बात बड़ी होगी, जैसे छोटा वृक्ष बड़ा हो जाता है। करो तो प्रत्यक्ष हो जाएगा। जिसको पहले अव्यक्त कहते थे, वह व्यक्त हो जायेगा। स्थूल तो देखते ही हो। यदि स्थूल दृष्टि को सूक्ष्म दृष्टि गुरु की बताई विधि से करो, सूक्ष्म दृष्टि होगी और सूक्ष्म को देखोगे। संसार में भी सुखी रहोगे और परलोक में भी। साथ ही स्वराज्य में सुराज हो जायेगा। दुष्ट कर्म नहीं होंगे।
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यह प्रवचन भारत की राजधानी दिल्ली में अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग के 62वें महाधिवेशन के अवसर पर दिनांक 2. 3. 1970 ई0 को प्रातःकाल में हुआ था।
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314. अध्यात्म और सदाचार में मेल
प्यारे उच्च पदाधिकारी महोदयगण तथा धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 कल से आपको विदित है कि मैं ईश्वर-भक्ति का प्रचार करता हूँ। उसमें मैं कह चुका हूँ कि ईश्वर आत्मगम्य है, इन्द्रियगम्य नहीं। ईश्वर की खोज करना चाहें, प्रेम जोड़ना चाहें, वे बाहर की ओर ऐसा कर सकें, ईश्वर की ओर अपने को जोड़ सकें, सो नहीं होगा; क्योंकि बहिर्मुख इन्द्रियगम्य है और अन्तर्मुख कुछ दूर तक इन्द्रियगम्य अवश्य है, पर आगे चलकर ऊपर उठते-उठते इन्द्रिय के संग से छुट्टी मिलती है और अपने को उस शुद्ध भाव में पाते हुए ईश्वर का दर्शन आत्मा से ही होता है। ईश्वर-दर्शन होगा। उनकी दृष्टि ऐसी बन जाती है कि उनकी दृष्टि में अन्दर-बाहर एक हो जाता है।
 इस शरीर को पिण्ड कहते हैं और बाह्य जगत को ब्रह्माण्ड। यह बाह्य जगत (ब्रह्माण्ड) इतना ही बड़ा नहीं है, जितना बड़ा हम देखते हैं। इतना बड़ा यह है कि उस सम्पूर्ण को हम नहीं देख सकते। इसका विस्तार कितना बड़ा है, जान नहीं सकते, फिर भी अपनी आँखों से जितना देख सकते हैं, देखते हैं। इस स्थूल जगत के पूर्व का रूप सूक्ष्म है। सूक्ष्म भी बिना कारण के नहीं बन सकता। कारण भी बिना महाकारण के नहीं बन सकता। ये चारो जड़ हैं, इनमें ज्ञान नहीं। पिण्ड या जड़ शरीर में जो ज्ञानमय तत्त्व है, इससे पता चलता है कि ज्ञानमय तत्त्व भी है यानी चेतन भी है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने इसको-‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखराशी।।’ कहकर जनाया है। इस तरह जड़ के चार और चेतन का एक-सब मिलकर ब्रह्माण्ड कहलाते हैं। पिण्ड और ब्रह्माण्ड का ऐसा घनिष्ठ सम्बन्ध है कि पिण्ड के जिस दर्जे पर रहो, ब्रह्माण्ड के उसी दर्जे पर रहोगे। पिण्ड में रहकर जिस तल पर विचरण करोगे, ब्रह्माण्ड के भी उसी तल पर विचरण करोगे। इसी तरह अपने शरीर के अन्दर के सूक्ष्म दर्जे पर विचरें, तो ब्रह्माण्ड के भी सूक्ष्म दर्जे पर विचरेंगे। पिण्ड के जिस दर्जे को जब हम छोड़ते हैं, ब्रह्माण्ड के भी उसी दर्जे को तब हम छोड़ते हैं। इसी तरह यदि पिण्ड के चारों जड़ात्मक मण्डलों को पार कर जाएँगे।, तो ब्रह्माण्ड के भी चारो जड़ात्मक मण्डलों को पार कर जायेंगे और चिदानन्द मण्डल में पहुँचेंगे। तब जो ईश्वर-दर्शन होगा, फिर वह कभी अदर्शन नहीं होगा। लेकिन वह दर्शन इन्द्रिय-ज्ञान में नहीं होता। जिसको ईश्वर-दर्शन होता है, वह जब शरीर में बर्तता है, तो भी वह उस दर्शन से छूटता नहीं, उसका आवागमन छूट जाता है। किन्तु जिन्होंने इतनी ऊँची साधना नहीं की है, पूरे नहीं हुए हैं, तो वे संसार में जन्म-मरण के चक्र में रहेंगे। किन्तु वह जन्म पहले के जन्म से उत्तम होगा। परम पद को जबतक नहीं प्राप्त करेंगे, तबतक मनुष्य-जन्म अवश्य होता रहेगा और अन्तरात्मा की प्रेरणा से ईश्वर-दर्शन के कर्म में लगेंगे और किसी एक जन्म में अवश्य पूर्ण होंगे।
 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि इस कर्म के आरम्भ का यानी योग के आरम्भ का नाश नहीं होता। भक्त, योग और ज्ञान से भक्ति को भिगोये रहते हैं और भजन करते हैं। ऐसा ही करना चाहिए, सन्तों ने कहा है। इस तरह मनुष्य-जन्म पायेंगे; क्योंकि ईश्वर-भजन का कर्म आगे बढ़ने के लिये अन्य किसी शरीर में नहीं हो पाता है। केवल मनुष्य-शरीर में यह मौका मिलता है, किसी दूसरे शरीर में नहीं। भगवान ने कहा-‘योग का थोड़ा- सा प्रयास भी महाभय से बचाता है। ईश्वर-भजन- वाला कर्म मनुष्य-शरीर के अतिरिक्त किसी दूसरे शरीर पाने का बाधक हो जाता है। इस जन्म में यदि कम ही परिश्रम हुआ है तो महाफलदायक है। उलटा परिणाम नहीं होगा। उलटा परिणाम क्या होना चाहिए? सीधा परिणाम है कि ईश्वर-मार्ग में चलकर ईश्वर तक पहुँचे। उलटा परिणाम है कि ऊपर की ओर नहीं जाकर नीचे की ओर गिरे; सो नहीं होगा। जो भगवान के वचन में विश्वास करते हैं, उनके लिये बहुत विश्वास की बात है। ईश्वर-भजन का संस्कार और शरीर में नहीं होता, मनुष्य-शरीर में होता है। यह भगवान का वचन ठीक है। बारम्बार मनुष्य- शरीर पाता रहेगा और किसी-न-किसी जन्म में अवश्य पूर्ण होगा। इसलिये सन्तों ने कहा है-ईश्वर- भजन करो और अपना कर्त्तव्य कर्म भी करो।’
 अवश्य ही हमारा देश भौतिकता में पिछड़ा हुआ है। दूसरे देश की तरह इसमें प्रगति नहीं है। यह भी कभी वैसा हो जाय, सम्भव है। लेकिन सभी देशों से बढ़कर अध्यात्म-ज्ञान यहाँ बहुत विशेष है। दूर-दूर देश के लोग यहाँ आते हैं, गुरु खोजने यहाँ आते हैं; अध्यात्म-ज्ञान खोजने यहाँ आते हैं। भारत के अन्दर कलकत्ता में विवेकानन्द स्वामी हुए। वे शिकागो गये थे धर्म की बड़ी सभा में। इनको भी उस सभा में मौका दिया गया था अध्यात्म-ज्ञान कहने के लिये। इनके वचन से सभी बड़े प्रभावित हुए और वहाँ के लोगों को मानना पड़ा कि ‘भारत का ज्ञान बहुत विशेष है वहाँ-भारत में दूसरे धर्म का प्रचार नहीं हो सकता।’
 हमारे देश में जो सन्त-महात्मा हुए, वे राजाओं को भी सलाह देते थे। वह कौन बल था? अध्यात्म का बल था, तप का बल था, योग का बल था। तप असल में ब्रह्मचर्य-पालन को कहते हैं। जो अच्छी तरह ब्रह्मचर्य-पालन करे तो वह अच्छा तपी है। शरीर को तपावे और ब्रह्मचर्य का ध्यान नहीं रखे, तो वह उत्तम तप नहीं है।
 सन् 1909 ई0 में हमारे गुरु महाराज ने कहा था। वे उत्तर प्रान्त के रहनेवाले थे। वे बहुत दिनों तक मुरादाबाद में रहे थे। उनका शरीर अलीगढ़ जिले का था। वे कहते थे-‘सबसे ऊँचा समझो आध्यात्मिकता को। उसके नीचे सदाचारिता रखो। उसके नीचे सामाजिक नीति और उसके भी नीचे राजनीति।’ वे समझाते थे-‘जहाँ की आध्यात्मिक नीति उत्तम होती है; वहाँ के लोग सदाचारी अधिक होते हैं। जहाँ सदाचारी अधिक होंगे, वहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी और जहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी, वहाँ की राजनीति बुरी हो नहीं सकती। इसलिये आध्यत्मिकता को अपनाओ।’
 हमलोग कहा करते हैं कि सदाचारिता अच्छी हो यानी सत्य व्यवहार हो। सभी साँच बोलें। कोई चोरी नहीं करें। कोई व्यभिचार नहीं करें। हिंसा नहीं करें। नशाओं को नहीं लें। इन पंच पापों से समाज के लोग बचेंगे, तो दुष्ट कर्म कैसे होगा? समाज के लोग ही दुष्ट कर्म करते हैं और दूसरों को क्लेश पहुँचाते हैं। दुष्ट कर्म नहीं करने से समाज में कष्ट-क्लेश नहीं होगा। तब जो राजनीति है-दुष्टों को सजा दो, सो ऐसा कम जायेगा कि नहीं के बराबर हो जायेगा। आध्यात्मिकता और सदाचारिता का बड़ा मेल है। आध्यात्मिकता की कमजोरी होगी, तो सदाचारिता यानी सदाचार-पालन में भी कमजोरी होगी। आध्यात्मिकता अच्छी है, तो सदाचारिता अच्छी होगी ही।
 जीविका को चलाने के लिये लोग विविध प्रकार के कर्म करते हैं। कुछ लोग अध्यात्म की ओर जाते हैं। योग करते हैं। भक्ति करते हैं। वे सदाचार में अपने को बरताते हैं। बहुत लोग ऐसे हैं जो सदाचार पालन करने में कमजोर हैं और दुष्ट कर्म से जीविका चलाते हैं। इससे उनको शान्ति नहीं मिलती है। आगे चलकर उनको दुःख हो जाता है। सन्त लोग लोगों को ज्ञान-ध्यान में लाते हैं, ज्ञान-ध्यान बताते हैं। जो इसका आचरण करते हैं, उनमें बल आ जाता है राजनीति को पवित्र करने के लिये। मैं कहूँगा कि सरकार इसमें बल दे। अध्यात्म में ऐसा बल मिले, सरकार ऐसी सहायता दे कि देश उन्नति कर सके। सरकार की ओर से भी प्रचार हो, जिससे लोग अध्यात्मिकता में बढ़ें। केवल शासन द्वारा सदाचार का पालन नहीं हो सकता; जैसा कि अभी है।
 अध्यात्म-ज्ञान-द्वारा, बिना कानून के, केवल ज्ञान-उपदेश के द्वारा लोग सदाचार का पालन करेंगे। राज्य की ओर से इसमें लोगों को बहुत प्रोत्साहन मिलना चाहिये। ज्ञान, ध्यान और सदाचार पालन का अधिक प्रचार होना चाहिये। केवल ईश्वर-भक्ति नहीं होती, उसके साथ सदाचार का पालन होता है। इसलिये इसका प्रचार बहुत अच्छा होना चाहिये।
 कोई-कोई ख्याल करते हैं कि शरीर-शरीर चलने से, भीतर-भीतर भक्ति करने से, शरीर छूटने पर शरीर जल जायेगा, तब उन्नति कैसे हो सकती है? यह बहुत अल्प ज्ञान है। मैं कह चुका हूँ कि पिण्ड के जिस तल पर रहोगे, ब्रह्माण्ड के भी उसी तल पर रहोगे। पिण्ड के जिस जल को पार करोगे, ब्रह्माण्ड के भी उसी तल को पार करोगे। जड़ के चार मण्डल हैं और चेतन का एक। इस तरह पिण्ड में पाँच मण्डल और ब्रह्माण्ड
में भी पाँच मण्डल हैं। जबतक महाकारण का अन्त नहीं होता, तबतक जड़ का दर्जा पार नहीं किया जाता। जो कोई महाकारण पार कर चेतन दर्जे में होता है, वह अपने को पहचानता है। जिस जीवन-काल में ऐसा हुआ, उसी जीवन में वह जीवन-मुक्त हो जाता है।
   जीवन मुक्त ब्रह्म पर , चरित सुनहि ँ तजि ध्यान ।
    जे हरि कथा न करहिं रति, तिन्ह के हिय पाषान ।।
          -गोस्वामी तुलसीदासजी
 ऐसे जीवन-मुक्त लोग सत्संग नहीं करें, तो सत्संग का महत्त्व कम होता जाता है। ऐसे लोग सत्संग में आते हैं, चाहे गुप्त होकर, चाहे प्रकट होकर। सब लोगों को इतना याद अवश्य रखना चाहिये कि ईश्वर चेतन आत्मा द्वारा ही प्राप्त होने योग्य है। इसलिये बहिर्मुख होकर खोज नहीं करें, अन्तर्मुख होकर खोज करें तथा गुरु और सत्संग का सहारा लेकर चलें।
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यह प्रवचन भारत की राजधानी दिल्ली में अ0 भा0 सन्तमत-सत्संग के 62वें महाधिवेशन के अवसर पर दिनांक 2. 3. 1970 ई0 को रात्रिकाल में हुआ था।
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315. आत्मवत् सर्वभूतेषु कैसे होगा?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
 जैसा कि आपलोग दो दिनों से सुन रहे हैं, ईश्वर-भक्ति का प्रचार-गुरु-आदेश से मैं कर रहा हूँ। यह जो सत्संग का प्रचार है वा ईश्वर-भक्ति का प्रचार है, इसका अवलम्बन खासकर संतां की वाणी है। गुरुदेव ने कहा कि सन्तों की वाणी का अव- लम्ब लेकर सत्संग करो। इसलिये सन्तवाणी का पाठ करता हूँ और कराता हूँ। सन्तवाणी में बहुत गम्भीरता है। ऊपर-ऊपर सरलता मालूम पड़ती है। गुरु की कृपा से उस गंभीरता को थोड़ा-थोड़ा जाना है। उस गम्भीरता का थोड़ा-थोड़ा प्रकाश करूँ, इससे आपको लाभ हो, इसलिये सन्तांं की वाणी का पाठ करता हूँ और समझाता हूँ। अभी आपलोगों ने सुना-
मेरी सुरत सुहागिनी जाग री ।।
क्या तुम सोवत मोह नींद में, उठि के भजनियाँ में लाग री।
चित से शब्द सुनो सरवन दे, उठत मधुर धुन राग री।
दोउ कर जोड़ि शीश चरणन दे, भक्ति अचल वर माँग री।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, जगत पीठ दै भाग री।।
 सुरत के कई अर्थ हैं। उसकी एक परिभाषा है। कबीर साहब के पन्थ के ग्रन्थ में एक चौपाई है। सन्त कबीर साहब एक अक्षर भी पढ़े-लिखे नहीं थे। उनके नाम से जो ग्रन्थ मिलते हैं, उनमें से एक में लिखा है कि-
आदि सुरत सतपुरुष तें आई । जीव सोहं बोलिये सो ताई ।।
 जिनको आप सच्चिदानन्द ब्रह्म कहते हैं, उसी को कबीर साहब सत्पुरुष कहते हैं। जिस पुस्तक का नाम अनुराग सागर है, उसी में यह है। सुरत का अर्थ ख्याल भी होता है; सुरत का अर्थ तुलसीदासजी ने स्मरण भी किया है। जैसे-
रहत न प्रभु चित चूक किये की । करत सुरत सै बार हिये की ।।
 यह मैं बारम्बार का ख्याल करता हूँ। मेरे जानते परमात्मा परम उदार हैं, महादाता हैं; महाक्षमा- कर्त्ता हैं। यहाँ सुरत का अर्थ स्मरण करना हो जाता है। इसको दूसरी-दूसरी तरह से भी इस्तेमाल करते हैं। तुलसी साहब हाथरस में रहते थे। भारत के किस प्रान्त में उनका जन्म हुआ था, यह पता नहीं। आज के कुछ लोग उनके जीवन पर कुछ लिखे हैं। लेकिन ठीक-ठीक नहीं है। मैंने भी इसकी खोज की, ठीक-ठीक पता नहीं लगा। लोग इनको तुलसीदास, तुलसी साहब और गोसाईं तुलसी भी कहने लगे थे। घटरामायण उनकी पुस्तक है। उसमें लोगों ने कुछ मेल-मिलाप भी कर दिया है। उस पुस्तक की भूमिका में कहते हैं-
  स्रुति बुन्द सिंध मिलाप, आप अधर चढ़ि चाखिया ।
  भाषा भोर भियान, भेद भान गुरु स्रुति लखा।।
 अपने से चढ़ाई की। उसके रस को चखा। स्वयं साधन कर, कोशिश कर, आकाशी मार्ग पर चढ़कर आनन्द को चखा है। यहाँ ‘स्त्रुति’ सुरत के लिये लिखा है। यह सन्तों का पारिभाषिक शब्द है। व्याकरण का शुद्ध-अशुद्ध विचार यहाँ नहीं है। सब लोग सन्तवाणी को पढ़िये और इस अर्थ को भी रखिये। साहित्य के अर्थ को भी रखिये। कहीं यह अर्थ होगा, कहीं वह अर्थ होगा। सुरत, जीव, चेतन आत्मा एक ही बात है। यह सुरत सोई हुई है। मन उससे भिन्न पदार्थ है। मन सोया हुआ है। सुरत असल में सोती नहीं है। अन्तःकरण का संग होने से उसका निजी ज्ञान नहीं है। इसलिये कहते हैं कि सुरत सोई हुई है। हमलोगों की जाग्रत अवस्था सन्तों के विचार में नींद हैं। इस अवस्था में सुरत जगती नहीं है। स्वप्न में भी जगती नहीं। तन्द्रा में भी नहीं जगती है। गहरी नींद में तो क्या जगेगी? चौथी अवस्था-तुरीय में जगेगी। सुरत अपने आपको भूली हुई है। इसलिये वह सोई हुई है-
मोह निसाँ सब सोवनिहारा। देखिय सपन अनेक प्रकारा।।
एहि जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच वियोगी।।
 मोह की नींद में अनेक प्रकार का स्वप्न हो रहा है। जाग्रत अवस्था में जो हम कर रहे हैं, सन्तों के विचार में स्वप्न अवस्था में कर रहे हैं। योगी परमार्थी होते हैं। परम तत्त्व के ज्ञाता होते हैं। जो ब्रह्म का ज्ञान रखते हैं, वे परमार्थी होते हैं। इस परमार्थ तत्त्व को जो ग्रहण करता है, वह जगता है। संसार का ज्ञान जब है, तब सोया हुआ है।
  सपने होई भिखारि नृप, रंक नाकपति होई।
  जागे लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपंच जिय जोई।।
 स्वप्न में राजा दरिद्र हो जाता है और दरिद्र इन्द्र बन जाता है; किन्तु जगने पर न तो दरिद्र को कुछ लाभ होता है और न राजा को कोई हानि होती है। जब कोई चौथी अवस्था में जायेगा, तो इस जाग्रत का हानि-लाभ स्वप्न का हो जायेगा। सुरत को जगने के लिये जो कहते हैं, वह तबतक जगती नहीं है, जबतक चौथी अवस्था में नहीं जाए। इसलिए इस जाग्रत अवस्था में भी जगने के लिये कहते हैं। भजन करोगे, तो जागोगे, नहीं तो क्या जागोगे? क्या भजन करो, तो कहा-
  चित से शब्द सुनो सरवन दे, उठत मधुर धुन राग री ।
 तुरीय अवस्था में जो शक्ति सुनने की होती है, उससे सुनो। इस कान से क्या सुनोगे? कोई सोया रहता है, उसको पुकारकर जगा देते हैं। कुछ काल तक अलसाया रहता है, तब फिर पूरा-पूरा जागता है। इसीलिए अन्दर का शब्द आवेगा और पूरा-पूरा जागोगे? यह साधन में अनुभूति की बात है। जिसको विश्वास नहीं है, तो करके देखो। गुरु के वचन में विश्वास तो था ही, है ही और बाबा नानक ने कहा है-
      अन्तर जोति भई गुरु साखी, चीने राम करंमा ।
 अन्तर की ज्योति गुरु की गवाही हो गई। करनेवाला ठीक-ठीक करे। करने की युक्ति ठीक- ठीक हो, तो अवश्य होगा। ऑक्सीजन और हाईड्रो- जन को मिलाकर देखो, पानी होता है कि नहीं? उसी तरह इस साधना को करके देखो, होता है कि नहीं। गुरु नानकदेवजी शीघ्रतापूर्वक दौड़कर तारे पर चढ़ गए। तारा क्या है? तुलसी साहब कहते हैं-
श्याम कंज लीला गिरि सोई ।तिल परिमान जान जन कोई।।
 वहाँ बहुत लीलाएँ होती हैं। वह पहाड़ कैसा है? तो कहा-‘तिल परिमान जान जन कोई ।’
और भी कहा-
स्रुति ठहरानी रहे अकासा । तिल खिड़की में निसदिन वासा।।
गगन द्वार दीसै एक तारा । अनहद नाद सुनै झनकारा।।
 इस ध्यान-साधना का अभ्यास करके देखो, होता है कि नहीं? करो नहीं, केवल गप हाँको तो क्या होगा? तारा क्या है?
     तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्म हृदि संस्थितम् ।
                            -तेजोविन्दूपनिषद्
 इस ध्यान को जानते हो? नहीं जानते हो, तो जानकार से जानकर करो, होता है कि नहीं?
 सेवक अपने कर्म में पूर्ण है तो सद्गुरु का शब्द मिलता है। सद्गुरु का शब्द वैखरी वाणी नहीं, अन्तर्नाद है। ईश्वर की ओर से यह दया-दान है- अन्तर्ज्योति का प्रगट होना। तो गुरु की गवाही ठीक है। सुरत के जगने पर यह होता है। यह तो पहली सीढ़ी है, पहला कदम रखने के लिये। आगे बहुत है! बहुत है!! बहुत है!!! पहले पहली सीढ़ी तो मिले पैर रखने के लिये। सन्तवाणी में जो गंभीरता है, वह आपके सामने कहता हूँ। आगे चलकर कबीर साहब कहते हैं-‘जगत पीठ दै भाग री।’ कहाँ भागो? ऊपर-नीचे, आग-पीछे, दायें-बायें, चारो कोण, दसो दिशाओं में कहीं भागो-‘जगत पीठ’ नहीं होगा। संसार की ओर पीठ तब होगी, जैसे अभी जगे हो तो संसार को देखते हो। स्वप्न और सुषुप्ति में इस संसार का ख्याल नहीं रहता है, तो संसार की ओर पीठ होती है। लेकिन घोर अंधकार का जगत तुम्हारे सामने रह जाता है। फिर जगत की ओर पीठ कहाँ हुई? ऐसा करो कि संसार का ज्ञान तुमको नहीं रहे। न जाग्रत में, न स्वप्न में, न सुषुप्ति में, कहीं भी संसार का ज्ञान नहीं रहे।
  सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
  सोइ हरिपद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी।।
इसपर विचार करो। वह द्वैत-वियोगी पद कैसा है?
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसीदास एहि दसाहीन, संसय निर्मूल न जाहीं।।
 इन सब सन्तवाणियों को मिला-मिलाकर पढ़ो। पहले तो पढ़ने-समझने में ही अपने को बड़ा आनन्द मिलता है। करो तो और आनन्द मिलता है। ऐसा न समझो कि संसार में कुछ करना नहीं है। ध्यान का समय तो ऐसा ही है, लेकिन संसार में बेवकूफ बनकर भी रहना नहीं है। विद्या-उपार्जन करो और संसार के काम भी करो। संसार के काम के लिए सन्त लोग कहते हैं कि इस दर्जे में पहुँचोगे- ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’, तब सारा संसार आत्मवत् होगा। इंगलैंड वा इस देश, उस देश की बात नहीं। सारे संसार के भूत आत्मवत् होंगे, लेकिन चालाकी से नहीं होगा। कबीर साहब कहते हैं-
       कोई चतुर न पावे पार, नगरिया बावरी ।
 सन्तों की वाणी में बड़ी गम्भीरता है। केवल शब्दार्थ से ही अर्थ नहीं होता है। शब्दार्थ जाने, सन्तों के पारिभाषिक शब्दार्थ जाने और कुछ-कुछ साधन भी करे, तब जानोगे। सन्तवाणी को कुछ नहीं जानकर, केवल भौतिक बुद्धि-विलास में रहकर अपने को सर्वज्ञ जानना गलत बात है। जाग्रत की बात जानो, स्वप्न की बात जानो, सुषुप्ति की बात जानो और इन तीनों के परे कैसे जाओगे, सो भी जानो। तीन अवस्थाएँ स्वाभाविक ही आती-जाती रहती हैं। लेकिन तुरीय अवस्था स्वभाविक ही नहीं आती। इसके लिए कुछ और करो अर्थात् योग करो। योग के साधन में ईश्वर की भक्ति है और योग के अन्त में ईश्वर की प्राप्ति है। ईश्वर- प्राप्ति को ही भक्त अपना असली धन मानता है। यहीं सारी अभिलाषाएँ पूर्ण होती हैं।
परम स्वाद सबही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै ।
मन बानी को अगम अगोचर, सो जाने जो पावै ।।
 मैं 1904 ई0 से इस खोज में लग गया। आज तक इस खोज में हूँ। इसकी गंभीरता में जाता हूँ, तो जैसे-जैसे जाता हूँ, बड़ा आनन्द पाता हूँ। अभी और भी पाने को है। मुझे जो आनन्द मिला है, वह आनन्द सबको मिले। इस संसार में सबसे ऊँची बात है- ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु।’ संसार में बेवकूफ बनकर नहीं रहो, विद्या-अर्जन भी करो और संसार की संभाल भी करो।
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यह प्रवचन भारत की राजधानी दिल्ली में अ0 भा0 सन्तमत-सत्संग के 62वें महाधिवेशन के अवसर पर दिनांक 3. 3. 1970 ई0 को प्रातःकाल में हुआ था।
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316. मानस जप से मानस बल बढ़ता है
आत्मवत् सर्व मेरे प्रिय लोगो!
 इस समय जो मैंने यहाँ आकर तीन व्याख्यानों को सुना, तो मालूम हुआ कि जो मुझे कहना था, प्रयास करना था, उस प्रयासों को तीन व्याख्यानों में व्याख्यान-दाताओं ने वर्णन किया है। ये लोग जैसे श्रेष्ठ पद के लोग हैं, वैसे इनके ज्ञान भी हैं। मैंने सोचा कि क्या कहूँ? ज्ञान एक परोक्ष होता है, दूसरा अपरोक्ष होता है। फिर कहते हैं कि ज्ञान श्रवण का, मनन का, निदिध्यासन का और अनुभव का होता है। श्रवण-मनन और निदिध्यासन परोक्ष ज्ञान होता है। अपरोक्ष ज्ञान निदिध्यासन के अन्त होने पर, अनुभव होने पर होता है। यहीं ईश्वर का दर्शन है। ज्ञान की पहुँच यहाँ तक है; परन्तु यह ज्ञान कुछ तो पहले श्रवण-मनन में होता है। परन्तु निदिध्यासन ज्ञान योग में होता है और योग का अन्त अनुभव में होता है। इसी में ईश्वर-दर्शन होता है। अनुभव करने का अथवा श्रवण-मनन से ऊपर जो निदिध्यासन ज्ञान है, उसकी विधि क्या है? क्या अवलम्ब है? यह भाग मेरे लिये रहा, यही मैं बताऊँगा। इसके लिये चाहिये कि ईश्वर- दर्शन के लिए जो चाहते हैं कि ईश्वर-दर्शन हो और परम शान्ति मिले, सो परम शान्ति-स्वरूप परमात्मा हैं। उनको पाकर मैं शान्त हो जाऊँगा, यह लोभ जो है, अच्छा है। इसी से अन्त तक पहुँचते हैं। कबीर साहब ने कहा है-
     भक्ती का मारग झीना रे ।
    नहिं अचाह नहिं चाहना, चरणन लौ लीना रे ।।
    साधुन के सत्संग में, रहे निसिदिन भीना रे ।
    सब्द में सुर्त ऐसे बसे, जैसे जल मीना रे ।।
    मान मनी को यों तजे, जस तेली पीना रे ।
     दया छिमा संतोष गहि, रहे अति आधीना रे ।।
    परमारथ में देत सिर कछु बिलम्ब न कीना रे ।
    कहै कबीर मत भक्ति का, परगट कह दीना रे ।।
 लोग कहते हैं कि लोभ को हटाओ। कबीर साहब कहते हैं कि ईश्वर की भक्ति में ईश्वर-दर्शन की चाहना रहे। सांसारिक चाहना से हटाकर रखो। तब ग्रहण क्या करना चाहिए? ईश्वर के लिये इच्छा रखनी चाहिए, ईश्वर से मिलने का लोभ रखना चाहिए। हृदय को पवित्र रखना चाहिए। ईश्वर परम पवित्र है। बाबा नानक ने कहा-
     सूचै भाड़ै साचु समावै विरले सूचाचारी ।
     तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।
 अपने हृदय को शुद्ध करके रखना चाहिए। शुद्ध कैसे होता है? कोई जल बाह्य संसार में नहीं है, जो हृदय को शुद्ध कर सके। सत्य का व्यवहार होना चाहिए। सत्य-रूप गंगा-जल में डूबना चाहिए।। सत्य-रूप जल का पान करना चाहिए। सत्य-रूप गंगा के तट पर रहना चाहिए। सत्य का तट क्या है? सत्संग है। विधि-निषेध को जानो।
विधि निषेधमय कलिमल हरनी । करम कथा रवि नन्दनि वरनी।।
 यह श्रवण, मनन, निदिध्यासन से इस तरह का ज्ञान होता है।
 अपने हृदय को शुद्ध करने के लिए असत् का, व्यभिचार का, नशाओं का, चोरी का और हिंसा का त्याग करना चाहिए। इनके त्याग में जो सद्गुण हैं, उनको ग्रहण करना चाहिए। इस तरह अपने हृदय को शुद्ध करके निदिध्यासन में प्रवेश करना चाहिए। उसके लिये जो कर्म है, विद्या है, सो करना चाहिए। इसका ज्ञान गुरु से सीखना चाहिए।
बिनु गुरु होइ कि ज्ञान, ज्ञान कि होइ विराग बिनु।
गावहिं वेद पुरान, सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु।।
बिनु गुरु भवनिधि तरै न कोई। जौं विरंचि संकर सम होई।।
           -गोस्वामी तुलसीदासजी
गुरु क्या बतावेंगे? मन को एकाग्र करने के लिये।
  मन आवै मन जाय, मनहिं बटोरो रे ।
   मन बुड़वै मन तारै, मनहिं निहारो रे ।।
         -कबीर साहब
 मन यहाँ आता है, वहाँ जाता है। कभी भगवद्- भक्ति में आता है, कभी विषय-वासना में जाता है; इस मन को बटोरो। यही योग का उपदेश है- मनोवृत्ति का निरोध। यह कैसे होता है? एक तो यह है कि हठयोग की क्रिया करो। प्राणायाम करो, उसकी सिद्धि प्राप्त करो। इसके बाद प्राणायाम का अन्त होने से योग का अन्त हुआ, सो नहीं समझो। आगे बढ़ो। प्रत्याहार, धारणा और फिर ध्यान करो। गुरु जिसमें मन लगाने कहें, जिसका ध्यान करने कहें, जिधर मन को रखने कहें; उधर लगाओ। मन आगे समेटकर लाओ। जो प्रत्याहार करने के डर से भागेगा, उसकी धारणा नहीं होगी। प्रत्याहार के श्रम से भागना नहीं है। अभ्यास करते-करते क्या नहीं होता है? बड़े-बड़े विद्वान एक-एक अक्षर का अभ्यास करते-करते हो गये हैं। थोड़ा-थोड़ा ब्रह्मचर्य का पालन करते-करते ब्रह्मचारी हो गये हैं। थोड़ा-थोड़ा परिश्रम करके बलवान हो गये हैं।
 प्रत्याहार के बाद थोड़ा-थोड़ा टिकाव होगा, वह धारणा होगी। धारणा देर तक ठहरने लगेगी, तब ध्यान होगा। ध्यान में अल्पकाल लगा रहा, फिर ज्यादा समय तक लगा रहा। इस तरह ध्यान में अनुभूतियाँ होती रहती हैं। अनुभूतियाँ धारणा से ही होने लगती हैं। कुछ मिलने लग जाता है। उस अल्प टिकाव के अन्दर की अनुभूति होती है कि कुछ मिल गया। वह हाथ से पकड़ने की चीज नहीं है। देखने की चीज है। इससे मन में बड़ी प्रसन्नता होती है। होता है कि जिसके लिये हैरान था, सो मिल गया। शान्ति मिली, यही लालच धारणा कराती है। देर तक अनुभूति होती है। तरह-तरह की अनुभूतियाँ होती हैं। तरह-तरह के रंग-रूप जो देखे जाते हैं, मन उसी ओर देखने का होता रहता है।
 ध्यान में जो दर्शन होता है, वह दर्शन फिर लय हो जाता है, तब अनुभूति के अन्दर रूप-दर्शन अब नहीं होता है। तब क्या होता है, जो देखा नहीं जाय? फिर भी मिलता है। जैसे आप भजन-गान सुनने जाते हैं। महफिल सजी रहती है। बहुत रोशनी होती है। गाना-बजाना होता है, तो उस गाने-बजाने की ओर आपका मन हो जाता है। तब क्या देखता है? इसका होश नहीं रहता है। इसी तरह समझना चाहिये कि देखने से परे की बात है। देखने की बात गई और तब जो मिले, वह क्या है? वह अन्तर्नाद है-परमात्मा की पुकार है। इसमें जिसकी वृत्ति फँसी, फिर भटक नहीं सकती। जैसे माता की गोद में बच्चा पड़ जाय, माता गोद में उठा ले, उसी तरह परमात्मा अपनी गोद में उठा लेता है। तब ‘जानत तुम्हहिँ तुम्हइ होइ जाई’ वाली बात हो जाती है।
 साधक जिसको परोक्ष रूप में जानता था, उसको तब अपरोक्ष रूप में पाता है। परमात्मा को प्रत्यक्ष पाकर उसमें विलीनता हो जाती है। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ हो जाता है। पहले ‘सोऽहमस्मि’ होता है। यहाँ द्वैत रहता है। और जब ‘अहं ब्रह्मास्मि’ होता है, तब अद्वैत होता है। द्वैत में अनुभूति होती है, अद्वैत में विलीनता होती है। काकभुशुण्डिजी कैसे ध्यान करते थे, सो गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जज्ञ पाकरि तर करई।
आम छाँह कर मानस पूजा। तजि हरि भजन काज नहिं दूजा।।
वट तर कह हरि कथा प्रसंगा। आवहिं सुनहिं अनेक विहंगा।।
 मतलब ‘कथा-प्रसंग’-सत्संग करते थे। तुलसी साहब ने कहा है कि-
सखी सीख सुनि गुनि गाँठि बाँधौ। ठाट ठट सत्संग करै।।
 काकभुशुण्डिजी सत्संग करते थे, कुछ जप भी करते थे। यज्ञों में जप-यज्ञ श्रेष्ठ यज्ञ है। फिर मानस-पूजा भी करते थे। जो देख लिया है, जान लिया है, उसपर मन को लगाकर रखो। उस रूप को मन से बनाकर मन को उसपर लगाकर रखो। यह मानस पूजा है। मानस पूजा के बाद फिर ध्यान बताया। यह ध्यान क्या है? श्रीमद्भागवत में उद्धव ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा है कि मैं आपका ध्यान कैसे करूँ? इसपर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- पहले मेरे सम्पूर्ण शरीर का ध्यान करो, फिर चेहरे का ध्यान करो, फिर शून्य में ध्यान करो। जबतक कि देखा हुआ रूप रहा और उस रूप को छोड़कर मुखारविन्द रह गया, यह मानस पूजा है। इसी को मानस ध्यान हमलोग कहते हैं।
 जप में वाचिक जप, उपांशु जप और मानस जप; ये तीन प्रकार हैं। इन तीनों में मानस जप को श्रेष्ठ बताया है। वाचिक जप में जप के शब्द दूसरे भी सुनते हैं। उपांशु जप में केवल अपना कान सुनता है और मानस जप मन-ही-मन होता है। यह सबके करने योग्य है, चाहे किसी देश का हो, किसी भाषा का जाननेवाला हो। मानस जप से मानस बल बढ़ता है। मानस जप में अपने इष्ट के नाम का जप करते हैं। इसके बाद इष्टदेव के रूप का ध्यान करते हैं। श्रीकृष्ण इष्ट हैं, तो उन्हीं के रूप का ध्यान करो। श्रीराम इष्ट हैं, तो उनके रूप का ध्यान करो। अथवा जो गुरु में विशेष श्रद्धा रखते हैं, वे गुरु के रूप का ध्यान करते हैं। यह मानस पूजा वा मानस ध्यान हुआ। इसकी मजबूती के लिये बारम्बार करना चाहिए। फिर शून्य में ध्यान करना चाहिए। दो सीढ़ियाँ हुईं-एक तो सम्पूर्ण शरीर का ध्यान, दूसरी मुस्कानयुक्त मुख का, समस्त शरीर में ख्याल रहा, तो पूर्ण सिमटाव नहीं हुआ। विशेष पसार रहा। इससे कम पसार हुआ चेहरे का ध्यान। फिर शून्य-ध्यान है। शून्य का ध्यान विस्तृत शून्य का ध्यान नहीं है। बल्कि मुखारविन्द से भी कम पसार होना चाहिये। मानस ध्यान में तो देखा हुआ रूप था। शून्य ध्यान कैसे करो? इसका यत्न गुरु बतावेंगे। फैली दृष्टि से नहीं, सिमटी दृष्टि से देखो। इससे एकविन्दुता होगी। वह ज्योतिर्मय विन्दु होगा।
    तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्म हृदि संस्थितम्।
       -तेजोविन्दूपनिषद्
 अर्थात् हृदय-स्थित विश्वात्म-तेजस्-स्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है। यह उपनिषद्-वाक्य है। कबीर साहब कहते हैं-‘मेरे नजर में मोती आया है।’ तुलसी साहब कहते हैं-
स्रुति ठहरानी रहे आकाशा। तिल खिरकी में निस दिन वासा।
गगन द्वार दीसै एक तारा। अनहद नाद सुनै झनकारा।।
 यह ज्योतिर्ध्यान है। सीखना चाहिये। बाबा नानक कहते हैं-
  सुखमन कै घरि राग सुनि सुन मण्डल लिव लाइ ।
  अकथ कथा वीचारीअै मनसा मनहिं समाइ ।।
 अर्थात् वे कहते हैं-शून्य मण्डल में लौ लगाकर सुखमना में रहो, फिर सुनो। जो इड़ा-पिंगला के बीच-सुषुम्ना में रह सकता है, वह ज्योति पाता है। बाबा नानक दूसरे शब्द में कहते हैं-
     तारा चड़िआ लम्मा किउ नदरि निहालिआ राम ।
 इस तरह सन्त लोग बयान करते हैं। उनकी अनुभूति झूठी नहीं है। जो कोशिश करते हैं, वे अवश्य देखते हैं। लोग कहते हैं कि कुछ नहीं देखता हूँ। मैं कहता हूँ-‘अपने को ठहरा नहीं सकते हो। ठहराकर देखो, अवश्य देखने में आवेगा।’
 मैं यह नहीं कहता हूँ कि मैं पूर्ण हूँ। लेकिन पहला कदम मुझे प्रत्यक्ष हुआ है, उसको जानता हूँ। उससे मुझे जो आनन्द हुआ है, वह दूसरों को भी मिलेगा। मैं कुछ नहीं कहता कि इतने समय में पाओगे। जितना करोगे, पाओगे। बाहर में जो प्रकाश देखो, उसी को मन में बनाकर देखो, सो प्रकाश नहीं है। देखे हुए सभी को भूल जाओ, तब देखो कितनी शान्ति आती है, लेकिन यहाँ पूर्ण शान्ति नहीं है। पूर्ण शान्ति अभी बहुत दूर है। स्थूलाकाश का प्रकाश नहीं है। आँख बंद करके अन्धकार में देखो गुरु की युक्ति से। कबीर साहब ने कहा है-
       घर घर दीपक बरै, लखै नहिं अन्ध है ।
       लखत लखत लखि पड़ै, कटै जम फन्द है ।।
हुजूर तक पहुँचना बहुत दूर है।
  लम्बा मारग दूरि घर, विकट पन्थ बहु मार ।
  कहो सन्तो क्यूँ पाइये, दुर्लभ हरि दीदार ।।
  अनहद बाजै नीझर झरै, उपजै ब्रह्म गियान ।
  आवगति अन्तरि प्रगटै, लागै प्रेम धियान।।
 प्रेम से ध्यान लगाओ सर्वव्यापी को पाने के लिये। आप अपने अन्दर रहते हो। ईश्वर भी तुम्हारे अन्दर हैं। बाहर भागने की जरूरत नहीं, अन्दर भागो। केवल प्रार्थना ही करो, देखने का काम नहीं करो। कैसे होगा? प्रार्थना भी करो और देखने का काम भी करो। एक कथा है-एक गाड़ीवान था। वह हनुमानजी का भक्त था। गाड़ीवान की गाड़ी कीचड़ में फँस गई। वह हनुमानजी को पुकारने लगा। हनुमानजी मनुष्य-वेश में आये और गाड़ीवान से बोले-केवल हनुमानजी को पुकारते हो और अपना बल तुम लगाते नहीं हो। हनुमानजी तुम्हारी सहायता कैसे करेंगे? गाड़ीवान ने कीचड़ में घुसकर गाड़ी में जोर लगाया। हनुमानजी की कृपा से गाड़ी कीचड़ से निकल पड़ी। अंग्रेजी में एक कहावत है-ळवक ीमसचे जीवेम ूव ीमसच जीमउेमसअमेण्(गॉड हैल्प्स दोज हू हैल्प देमसैल्वस)।
अर्थात् ईश्वर उसकी मदद करते हैं, जो अपनी मदद आप करते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
जौं तेहि पन्थ चलइ मन लाई। तौ हरि काहे न होहिं सहाई।।
 कबीर साहब सहज समाधि की बहुत अच्छी बात कहते हैं-
साधो सहज समाधि भली ।
गुरु प्रताप जा दिन से जागी, दिन दिन अधिक चली।।
जहँ जहँ डोलौं सो परिकरमा, जो कुछ करौं सो सेवा।
जब सोवों तब करौं दण्डवत, पूजां और न देवा।।
कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खाँव पियौं सो पूजा।
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावों दूजा।।
आँखि न मूदौं कान न रूँधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
खुले नयन पहिचानौं हँसि हँसि, सुन्दर रूप निहारौं।।
शब्द निरन्तर से मन लागा, मलिन वासना भागी।।
ऊठत बैठत कबहुँ न छूटै, ऐसी ताड़ी लागी।
कहै कबीर यह उनमुनि रहनी, सो परगट कर गाई ।।
दुख सुख से कोई परे परम पद, ता पद रहा समाई।।
 यह मनोलय की बात है। बिहार के सन्त दरिया साहब कह गये हैं-
सोवत जागत ऊठत बैठत, टुक विहीन नहिं तारा।
झिन झिन जंतर निस दिन बाजै, जम जालिम पचिहारा।।
 ध्यान में एकविन्दुता होने पर पूर्ण सिमटाव होता है। पूर्ण सिमटाव में आप-ही-आप ऊर्ध्वगति होती है। मन बड़ा सूक्ष्म है, इसको समेटिये। पहले स्थूल में उठेगा। स्थूल से सूक्ष्म में उठेगा, वहाँ ज्योतिर्विन्दु को पावेगा। और वहाँ क्या पावेगा? अनहद ध्वनि पावेगा। यह अनहद ध्वनि कहाँ शुरू होती है? आज्ञाचक्र में-दोनों आँखों के मुकाबले अन्दर में। ईश्वर की ओर से आज्ञा मिलती है, शब्द मिलता है। इसलिए उसको आज्ञाचक्र कहते हैं। बाबा नानक के वचन में शब्द को हुक्म कहा है। शब्द वह है, जिससे कोई पार होता है संसार से। शब्द अपने उद्गम-स्थान पर आकर्षित करता है। कुत्ते को ‘तू-तू’ कर पुकारो। जहाँ से शब्द आया है, वहाँ आ जायेगा। जो अपने अन्दर में नाद सुनेगा, वह वहाँ तक पहुँचेगा, जहाँ से शब्द आया है। आदि-शब्द परमात्मा से आया है। कबीर साहब कहते हैं-
‘साधो सब्द साधना कीजै ।
जेहि सब्द से प्रगट भये सब, सोई सब्द गहि लीजै ।।
सब्दहि गुरु सब्द सुनि सिष भे, सब्द सो बिरला बूझे ।
सोई सिष्य सोइ गुरु महातम, जेहि अन्तरगति सूझे ।।
सब्दै वेद पुरान कहत हैं, सब्दै सब ठहरावै ।
सब्दै सुर मुनि सन्त कहत हैं, सब्द भेद नहिं पावै ।।
सब्दै सुनि सुनि भेष धरत हैं, सब्द कहै अनुरागी ।
षट दर्शन सब सब्द कहत हैं, सब्द कहै वैरागी ।।
सब्दै माया जग उतपानी, सब्द केरि पसारा ।
कहै कबीर जहँ सब्द होत है, तवन भेद है न्यारा ।।’
‘शब्द तत्तु वीर्य संसार। शब्दु निरालमु अपर अपार ।।
शब्द विचारि तरे बहु भेषा। नानक भेद न शब्द अलेषा ।।
शब्दै सुरति भया प्रगासा। सभ को करै शब्द की आसा ।।
पंथी पंखी सिऊँ नित राता। नानक शब्दै शब्दु पछाता ।।
हाट बाट शब्द का खेलु। बिनु शब्दै क्यों होवै मेलु ।।
सारी स्रिष्टि शब्द कै पाछै। नानक शब्द घटै घटि आछै ।।’
          -गुरु नानक साहब
         सबदै बन्ध्या सब रहै, सबदै सबही जाई ।
         सबदैं ही सब उपजैं, सबदैं सबै समाई ।।
         जंत्र बजाया साजि करि, कारीगर करतार ।
         पंचौं कारज नाद है, दादू बोलणहार ।।
         पंच ऊपना सबद थैं, सबद पंच सौं होई ।
         साईं मेरे सब किया, बूझै बिरला कोई ।।
         -सन्त दादू साहब
 शब्द-अभ्यास खूब करो। लेकिन पहले सूक्ष्म में प्रवेश करो। किसी ने कहा-‘शब्द-ध्यान करके क्या होगा? यह रग-रेशे की आवाज है, खून का दौरान होता है, वायु का संचार होता है।’ मैंने कहा-‘महाराज ! इस तरह शब्द-ध्यान नहीं होता है।’ उन्होंने बड़े प्रेम से कहा-‘तब कैसे होता है जी?’ मैंने कहा-‘पहले ध्यान करके एकविन्दुता प्राप्त कर लेनी चाहिए। एकविन्दुता प्राप्त कर लेने पर स्थूल में वृत्ति नहीं रहेगी, सूक्ष्म में रहेगी। तब नाद-श्रवण करना चाहिए।’ आर्यसमाज के संन्यासी स्वामी श्रीसर्वदानन्दजी से यह चर्चा हुई थी।
 शब्द का भेद जानना चाहिए। अन्तर में प्रवेश के लिये सूक्ष्म मार्ग को जानना चाहिए। अन्दर में साधना ऐसी हो कि एकविन्दुता प्राप्त हो जाय। प्रकाश का अवलम्ब लें और शब्द का अवलम्ब लेकर आगे बढ़ें। अपने से नहीं होगा। गुरु से इसका भेद लो, साधन करते-करते होगा। बड़े-बड़े लोग जो कहलाते हैं, उनसे होगा, महिलाओं से होगा, पुरुषों से भी होगा। इस देश के, उस देश के-सभी देशों के लोगों से होगा।
 श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने किसी आसन का नाम नहीं लिया है और नासाग्र में ध्यान करने कहा है। वहाँ प्राणायाम करने की चर्चा नहीं है। टीकाकार ने नासाग्र का अर्थ ‘नाक का अग्र भाग’ किया है। लेकिन भाग शब्द वहाँ नहीं है। जबकि भागवत में शून्य-ध्यान करने कहा और मुखारविन्द को छोड़ने कहा, तब नासिका भी चली गई। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा कि किसी दिशा को नहीं देखते हुए ध्यान करो। यह क्या बात हुई? विधि को ठीक-ठीक जानकर तब उसका ध्यान करो। ध्यान का साथी सदाचार है। इसलिये शुद्धता से रहो। पिछड़ो तो फिर संभलो। सदाचार का पालन करो यानी झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों से बचो। पिछड़-पिछड़ जाओ, तो फिर संभल-संभल जाओ। ध्यान करने में दृष्टि नहीं टिकती है, पिछड़ जाती है, तो संभाल-संभालकर ध्यान करो। दृष्टि स्थिर रखने की कोशिश करो। प्रत्याहार होते-होते धारणा होगी, फिर ध्यान होगा। कबीर साहब ने कहा है-
   न जोगी जोग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै ।
   सहज में ध्यान से पावै, सुरति का खेल जेहि आवै ।।
बिना प्राणायाम के ध्यान करो। यह सहज योग है।
    शब्द खोजि मन बस करै, सहज जोग है येहि ।
    सत्त शब्द निज सार है, यह तो झूठी देहि ।।
           -कबीर साहब
    सब काहू को होत है, तन मन पसरै जाई ।
    ऐसा कोई एक है, उलटा माहिं समाइ ।।
    क्यों करि उलटा आणिये, पसरि गया मन फेरि ।
    दादू डोरी सहज की, यौं आणै घेरि घेरि ।।
सहज की डोरी क्या है? सहज की डोरी शब्द है।
      साध शबद सौं मिलि रहै, मन राखै बिलमाय ।
      साध शबद बिन क्यौं रहै, तबहीं बीखरी जाय ।।
          -दादू दयालजी महाराज
 साँप बाहर में टेढ़ा-मेढ़ा चलता है; लेकिन बिल में जाते समय वह सीधा हो जाता है। इसी तरह मन बाहर विषयों में टेढ़ा-मेढ़ा चलता है। शब्द-रूप बिल में सीधा हो जाता है।
     मनो मत्त गजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः।
      नियामन समर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः।।
 अर्थात् नाद मदान्ध हाथीरूप चित्त को, जो विषयों के आनन्द-वाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिये तीव्र अंकुश काम करता है।
     नादोऽन्तर¯ सार¯ बन्धने वागुरायते ।
     अन्तर¯ समुद्रस्य रोधे बेलायतेऽपि वा ।।
 अर्थात् मृगा-रूपी चित्त को बाँधने के लिए यह नाद जाल का काम करता है। समुद्र-तरंग-रूपी चित्त के लिए यह (नाद) तट का काम करता है।
यह वचन नादविन्दूपनिषद् का है। इस तरह मैंने संतवाणी और ऋषि-मुनि-वाणी की खोज की, तो वेद और उपनिषद् में भी शब्द का बहुत वर्णन मिला है। ‘वेद-दर्शन-योग में मैंने लिख दिया है।
 जो सदाचार का पालन करेगा, वह पूज्य हो जायेगा। उसका जो साथी होगा, तो उसका समाज बनकर समाज में शान्ति होगी। जिस प्रान्त में, जिस राष्ट्र में ऐसे लोग होंगे, वहाँ दुष्टकर्म नहीं होगा। वहाँ राज्य-कानून का दण्ड नहीं चलेगा। राज्य को बहुत सहुलियत मिलेगी। देश को बहुत लाभ मिलेगा।
 हमारे देश में पुरुषार्थी जो स्वराज्य लाए, बहुत अच्छा किया। लगभग हजार वर्ष की गुलामी चली गई। लेकिन दुःख है कि स्वराज्य में सुराज नहीं है। चोरी, डकैती, बेईमानी, घूसखोरी जहाँ है, वहाँ दुःख क्यों न आवे। राज्य सरकार उसको हटाना चाहती है, लेकिन हटता नहीं है। सन्तों ने कहा-लोगों का हृदय-परिवर्तन करो, उपदेश दो। लोगों का हृदय-परिवर्तन होगा, सभी ठीक होंगे। 1909 ई0 में गुरु महाराज ने कहा था-सबसे ऊपर लिखो आध्यात्मिकता, उसके नीचे लिखो राजनीति।
 जहाँ की आध्यात्मिकता ऊँची रहेगी, वहाँ के लोग सदाचारी अधिक होंगे। जहाँ के लोग अधिक सदाचारी होंगे, वहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी और जहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी, वहाँ की राजनीति आप ही अच्छी होगी। बिना सदाचार-पालन किए ईश्वर-भक्ति नहीं होगी। ईश्वर-भक्ति में सदाचार पालन आवश्यक है। मैं कहता हूँ-स्वराज्य है, सुराज नहीं है। इसको बुलाना चाहिए। बुलाने की विधि यह है कि ईश्वर-भक्ति करो। लोग ज्ञान का श्रवण-मनन करते हैं और वचन में ऐसा कहते हैं, जैसे उनको परमात्मा प्रत्यक्ष हो गया हो; लेकिन प्रत्यक्ष बाकी ही रह जाता है। प्रत्यक्ष के लिए दृष्टियोग और शब्दयोग करो। दृष्टियोग को ही शाम्भवी मुद्रा-वैष्णवी मुद्रा कहते हैं। शब्द-ध्यान को सुरत-शब्द-योग कहते हैं। यही असली नाम-भजन है। शब्द बिना कम्प के नहीं होता और कम्प बिना शब्द के नहीं होता। दोनों संग-संग रहते हैं, जैसे शब्द और उसका अर्थ।
  गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न ।
       -गोस्वामी तुलसीदास जी
 आदिशब्द को मुँह से कुछ बोलकर कोई कह नहीं सकते। वह है-
अघोषम् अव्यव्जनम् अस्वरं च अकंठताल्वोष्ठम् अनासिकं च ।
अरेफ जातम् उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित्।।
      -अमृतनाद उपनिषद्
 इसी को टवपबम वि जीम ैपसमदबम (वाईस ऑफ दी साइलेन्स) यानी ‘अबोल वाणी’ कहते हैं। पहले ही वह शब्द पकड़ा नहीं जाता। उस शब्द को पकड़ो, जो इस शब्द को पकड़ा दे। वही शब्द ईश्वर का असली नाम है। यह शब्द त्रयगुणात्मक नहीं है अर्थात् सगुण नहीं है, निर्गुण शब्द है।
बन्दौं रामनाम रघुवर को। हेतु कृषानु भानु हिमकर को।।
विधि हरिहर मय वेद प्राण सो। अगुण अनूपम गुन निधान सो।।
      -गोस्वामी तुलसीदासजी
 रामनाम निर्गुण भी है और सगुण भी है। सगुण शब्द को मुँह से बोलते हो, कान से सुनते हो। निर्गुण शब्द को कान से सुन सकते हो? कभी नहीं। नाम-भजन, नाम-भजन लोग कहते हैं। वर्णा- त्मक को लोग जानते हैं, ध्वन्यात्मक को भी जानो। बाहर में जिस रूप का दर्शन होता है, वह क्षेत्र का दर्शन है। रूप को धारण करनेवाले का नहीं, क्षेत्रज्ञ का नहीं। इसीलिये आज्ञाचक्र से साधना का आरम्भ करो। वहाँ ज्योति को पाओ, शब्द को पाओ और शब्द से भी शब्द में खिंचकर अनाम तक पहुँचो।
   जो कोई चाहे नाम, सो नाम अनाम है ।
   लिखन पढ़न में नाहिं, निअच्छर काम है ।।
   रूप कहौं अनरूप पवन अनरेखते ।
   अरे हाँ रे पलटू गैब दृष्टि से सन्त नाम वह देखते ।।
 केवल वर्णात्मक नाम का जानना अपूर्ण है। सगुण को भी जानो और निर्गुण को भी जानो। तब काम पूर्ण होगा। गुरु महाराज ने जो विधि बतायी है, वह मैं जानता हूँ, लोगों को बताता हूँ। जो करेंगे, सबको लाभ होगा। इस सत्संग में केवल मुक्ति-ही-मुक्ति की बात नहीं होती। जो इस मार्ग पर चलते हैं, सदाचारी होंगे। सदाचार से संसार में सुख होगा। कितना भी धन हो, सुख नहीं हो सकता। तुम स्वयं सुखस्वरूप हो। अपने अन्दर प्रवेश करो, अपने को जानो। ईश्वर को जानोगे। यह सन्देश सुनाने के लिए मन में किया था, सो सुना दिया।
 यहाँ शासक लोग भली-भली विधि लेकर सुख पहुँचाना चाहते हैं, सो पहुँचावें। स्वराज्य में सुख होगा, ऐसा पहले कहते थे। स्वराज्य हो गया। लेकिन सुराज नहीं हुआ। कानून की लाठी कितने वर्षों से चली, लेकिन सुराज नहीं हुआ। जबतक दुष्टकर्म देश में होंगे, तबतक सुराज नहीं आ सकता। सुराज लाने के लिये लोगों को ईश्वर- भक्ति पर आना चाहिए। इसके साथ सदाचार पालन करना चाहिए। ज्ञान-योग-युक्त भक्ति करें। केवल श्रद्धावाली भक्ति नहीं। ब्रह्माजी ने शिवजी से पूछा था, तो शिवजी ने कहा था-
      योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवति ध्रुवम् ।
        -योगतत्त्वोपनिषद्
 अर्थात्-योग-हीन ज्ञान कैसे मोक्ष-प्रद हो सकता है? ऐसा सन्त लोग नहीं कहते हैं कि घार-वार छोड़ दो। कितने कहते हैं-‘सन्त लोग कहते हैं कि हिंसा नहीं करो। वे परिश्रम से डरते हैं।’ वे नहीं जानते हैं कि ईश्वर-भक्ति में कितना परिश्रम करना पड़ता है।
रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई ।।
 इन बातों को जानना चाहिये। लोकमान्य बाल- गंगाधर तिलक ने कहा-ज्ञान भी चाहिए। अन्धी भक्ति ठीक नहीं। जैसे अंधे के कंधे पर लँगड़ा चढ़कर चले, उसी तरह श्रद्धा के संग ज्ञान होना चाहिये। बिना श्रद्धा के ज्ञान नहीं होता। बिना ज्ञान के आँख नहीं होती-‘ज्ञान विराग नयन उरगारी।’ गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है। सभी संसार में उन्नति करते जायँ।
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यह प्रवचन भारत की राजधानी दिल्ली में अ0 भा0 सन्तमत-सत्संग के 62 वें महाधिवेशन के अवसर पर दिनांक 2-3-1970 ई0 को अपराह्नकाल में हुआ था।
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317. ज्ञानियों ने ईश्वर की स्थिति को माना है
प्यारे लोगो !
 आपलोग यह बात बहुत सहूलियत से जान सकते हैं कि जो कुछ आप इन्द्रियों से जानते- पहचानते हैं, सब-के-सब नाशवान हैं, बदलनेवाले हैं। यह आप देख सकते हैं, जान सकते हैं, समझकर देखिए। आप सूर्य को, चन्द्र को, ताराओं को देखते हैं। कभी-कभी आप यह देखते हैं कि तारे के टुकड़े होकर उससे नीचे गिरते हैं। इससे जानिए कि सभी तारे ऐसे हैं। पृथ्वी भी ऐसी है। सूर्य चन्द्र भी ऐसे ही हैं। सूर्य की शक्ति भी कम होती जा रही हैं। ये सब नाशवान हैं। पृथ्वी से लेकर प्राकृतिक सभी दृश्य तक समाप्त हो जाएँगे।
 इस संथाल-परगना में घूम-घूमकर मैंने देखा है कि सड़े पत्थर भी यहाँ हैं। पानी पड़ने से उससे गन्ध निकलती है। कितने पत्थर चूर-चूर होकर कण-कण हो गए हैं और जीवित पत्थर भी आप लोग देखते हैं। लोग नाप (माप) करने के लिए वाट रखते हैं, लोहे का वाट तो आपलोग देखते ही हैं, पर पहले पत्थर का वाट होता था। जो मरा पत्थर था, वह घिसते-घिसते कम हो जाता था और जीवित पत्थर बढ़ जाता था। इसलिए वह नहीं रखा गया। लोहे का वाट भी घिसते-घिसते कम हो जाता है, तब सरकार की ओर से उसको बदल दिया जाता है।
 संसार में जिनकी स्थिति है, पर पहचान में नहीं आता है, ऐसा भी है। वह क्या है? ईश्वर है। ईश्वर को सर्वव्यापक कहते हैं। ईश्वर सबमें रहते हैं, सदा रहते हैं। सबके अन्दर रहते हैं, सबके बाहर रहते हैं। यह कैसा सत्य है कि अपने शरीर के भीतर हम रहते हैं, उसको भी नहीं पहचानते। ज्ञानियों ने, साधकों ने संसार को कह दिया कि यदि तुम शरीर में रहते हुए अपने को नहीं पहचानते हो तो क्या तुम नहीं हो? सभी कहेंगे कि मैं हूँ। लेकिन अपने तईं को तुम पहचानते नहीं। ईश्वर तमाम संसार में है और तुम्हारे शरीर के अन्दर भी है। लेकिन उनकी भी पहचान नहीं होती। ज्ञानियों ने ईश्वर की स्थिति को माना है, लेकिन उसकी पहचान हमको नहीं होती; क्योंकि इन्द्रियों से जो ज्ञान होता है, उसी का ज्ञान हमको है। इन्द्रियों से जिसका ज्ञान नहीं, उसका ज्ञान नहीं होता है। इन्द्रियों से विषयों का ज्ञान होता है, वह नाशवान है। जो नाश- वान नहीं है, उसकी पहचान इन्द्रियों से नहीं होती।
 यह संसार पहले नहीं था। तब जो था, वह ऐसा था जिसका कभी नहीं होना, हो नहीं सकता। देश और काल तब भी नहीं था। फिर भी जो था, वह इतना महान था कि उसका शुरू और खत्म (अन्त) नहीं था। वह अनादि, अनन्त, असीम, अपरिमित था। सबका फना (नाश) होता है, उसका फना कभी नहीं होता। वह बना नहीं, वह आता नहीं और वह नाशवान नहीं है। उसका ज्ञान इन्द्रियाँ कैसे पा सकती हैं? इन्द्रियों के द्वारा पहचान उसकी नहीं, अपने तईं से उसकी पहचान होती है। इसका भी नाश नहीं होता। जिन इन्द्रियों से नाशवान पदार्थ को पहचानते हैं, उन इन्द्रियों से जीवात्मा की पहचान नहीं होती। तत्त्वरूप में जो ईश्वर है, जीवात्मा भी वही है। अन्तर यही है कि जीवात्मा अन्तःकरण और शरीर के आवरण से आवृत्त है। इसके लिए और भी ख्याल (विचार) हो सकते हैं, लेकिन हमारे यहाँ ऐसा ही कहते हैं। तत्त्वरूप में- जिस रूप में भेद नहीं है। भेद शरीर और अन्तःकरण में है। शरीर और इन्द्रियों से जो ढका नहीं है, वह परमात्मा है। दोनों तत्त्व एक-ही-एक है। इसलिए अपने आप को अपने से पहचानो, यह कोई आश्चर्य नहीं। जिस तत्त्व का जीवात्मा, उस तत्त्व का परमात्मा, इसलिए जीवात्मा परमात्मा को पावेगा। यही सन्तों ने कहा है। कबीर साहब ने कहा-
    श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
    ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
    बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
    सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
 ‘दृष्टि दृष्टि’ यानी दृष्टि को जो देखने की शक्ति देती हे। चर्म दृष्टि से वह देखा नहीं जाता, रूह से-आत्मा से खोजो। इसी की कोशिश को ईश्वर की असली भक्ति कहते हैं, जिससे ईश्वर की पहचान होती है।
 यहाँ (सत्संग-स्थल में) शून्य पहले से ही है। लेकिन सामियाने का परदा कर दिया है तो इसके अन्दर शून्य घिर गया है। लेकिन बाहर में भी शून्य है, उससे यह मिला-जुला है, अलग नहीं है। तत्त्वरूप में एक ही है। घेरे के अन्दर का आकाश पटाकाश और बाहर का आकाश महदाकाश कहलाता है। परमात्मा विभु है और जीवात्मा अणु है। दोनों में अंश और अंशी का भेद हैं। इसीलिए ‘ईश्वर अंश जीव अविनासी’ कहा गया है।
 एक इन्द्रिय से एक ही चीज को पकड़ सकते हैं। देखने योग्य वस्तु को आँख से ग्रहण कर सकते हैं। रस को जिभ्या से ग्रहण कर सकते हैं। इस तरह पाँच ज्ञानेन्द्रियों के पाँच विषय हैं। आँख का विषय जो है, सो कान का विषय नहीं है। कान को जो विषय है, वह नाक का विषय नहीं है। अलग-अलग विषयों का अलग-अलग इन्द्रियों में होता है। जो आँख से ग्रहण करते हैं उसे रूप, जो कान से ग्रहण करते है, उसको शब्द कहते हैं। इसी तरह जो केवल चेतन आत्मा से पहचान में आ जाए, वह है ईश्वर। इन्द्रियों से जो ग्रहण हो वह है माया। माया नाशवान है, ईश्वर का कभी नाश नहीं होता। इन्हीं बातों को जानकर कोई ईश्वर का भजन कर सकता है। नहीं तो ईश्वर को नहीं जान सकता। वैसे मोटी उपासना नाम-भजन लोभ करते हैं। ये सब बाहरी पूजा, नमाज आदि बेकार तो नहीं है, इससे मन पवित्र होता है, कुछ एकाग्रता आती है। लेकिन बाहर में कितना ही पूजा-पाठ करनेवाला हो, इन्द्रियों से जो दर्शन होता है, वह मायिक दर्शन है। ऐसा कोशिश करो कि मन बुद्धि आदि कुसंगी इन्द्रियों से संग छूट जाय इस बात को जो नहीं जानता, वह माया में भटकता रहता है। जहाँ ईश्वर नहीं वहाँ ईश्वर का भाव रखता है। संतों का मार्ग अंतर का मार्ग है। जन-साधारण को इसका ज्ञान नहीं है। वह कुछ अद्भुत है।
 इन्द्रियों में तुम्हारा (आत्मा का) ही ज्ञान है। एक लालटेन है। जिसका शीशा अलग-अलग रंग का है। लालटेन को जलाने पर एक ओर से लाल रोशनी, दूसरी ओर से हरी, तीसरी ओर से पीली आदि निकलेगी। लेकिन भीतर की रोशनी न लाल है, न हरी है, न पीली या नीली है। इन्द्रियों के ज्ञान में रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द; ये पाँच शीशे हैं, इनका असर लेते हुए जीवात्मा को माया की पहचान होती है। इनका संग छूटने पर चेतन आत्मा अपने तईं में रहता है, तब ईश्वर-दर्शन होता है। ईश्वर से प्रार्थना करो कि, इन्द्रियों से संग छूट जाय। यहाँ तक कि जड़ प्रकृति से भी पार हो जाए। संसार सुख के लिए क्या माँगना? संसार के सुख दुःख तो आते-जाते रहेंगे। कोई भी नवी, पैगम्बर, ऋषि, मुनि, साधु-महात्मा ऐसे नहीं आये कि उनको कोई कष्ट नहीं हुआ हो।
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यह प्रवचन संथाल परगना जिलान्तर्गत महेशलिट्टी, गोड्डा में दिनांक 19.03.1970 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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318. सुरत लगाने का यत्न जानो
प्यारे लोगो !
 कबीर साहब का वचन यहाँ हो रहा था और बलख-बुखारे के सुलतान का जिक्र हो रहा था। आते-ही-आते मुझे कबीर साहब का बीजक याद आ गया। वह है-
    संतो जागत नींद न कीजै ।
    काल ना खाय कल्प नहिं व्यापै, देह जरा नहिं छीजै ।।
 कबीर साहब संतों को कहते हैं कि हे भाई, जागते हुए नींद में मत हो और जागते हुए नींद में हो, यह मत करो। लेकिन यह बड़ी बात है। जो कोई जागता है, वह अपने को पहचानता है। हमलोग सो जाते हैं तो ‘मैं हूँ’ का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता है। जागने पर ‘मैं हूँ’ का ज्ञान होता है, तब औरों का भी ज्ञान होता है। मतलब पहले अपने को जानते हो तो दूसरे को जानते हो।
 जगने पर अपने की पहचान होगी। ‘अपने की’ से तात्पर्य अपने शरीर से नहीं, अंग-प्रत्यंग का नहीं, शरीर के भीतरी हिस्से का स्थूल-सूक्ष्म नहीं। अपने से तात्पर्य है कि आजकल जो डॉक्टरी विद्या का विज्ञान है, उससे जो देह के भीतर-बाहर जाना जाता है, वह भी नहीं। परन्तु शरीर के भीतर में ही तुम हो। कोई पूछे कि तुम शरीर के भीतर हो कि बाहर हो, कोई नहीं कहेगा कि मैं बाहर हूँ। अपने शरीर के अंदर जो अपना वासा है, उसको भौतिक विज्ञान अभी तक नहीं जाना है। अभी बहुत खोज हो रही है, लोग चाहते हैं कि भौतिक यंत्रों के द्वारा भौतिक ज्ञान में रहकर उसको प्रत्यक्ष जानें, जो अपने तईं है। सो न हुआ है, न होगा। प्रत्येक मनुष्य अपने अंदर भौतिक नहीं है, अभौतिक है। भौतिक यानी माया और अभौतिक यानी मायातीत पदार्थ। उसको संतों ने चेतन आत्मा कहा है। उसको ‘आदि सुरत सत्पुरुष से आई। जीव सोहं बोलिये सो ताई।।’ कहा है। बहुत से संतों ने उसको सुरत भी कहा है।
 सत सुरत समझि सिहार साधौ । निरखि नित नैनन रहौ ।। सुरत सत् है, माया असत् है, मायातीत सत् है। चेतनमय सुरत यानी जीवात्मा को अगर समझो तो इसको काल नहीं खाता है और समय के लम्बे अवधि को कल्प कहते हैं। वह कल्प भी नहीं व्यापेगा। चार युगों की चौकड़ी होती है, कितने युगों को जोड़कर कल्प होता है। जैसे यह भौतिक शरीर है, इसको काल भी खाता है। बुढ़ापा आता है, इसमें कमजोरी आती है, शक्ति कम होती है। शक्ति और कमजोरी भाव शरीर में होता है; उसमें (आत्मा में) नहीं होता है। जबतक इसको नहीं चीन्हा, तबतक जगे नहीं। देश की शास्त्रीय भाषा में कहा जाय तो कहेंगे कि जबतक आत्म-ज्ञान नहीं हुआ है, तबतक जगे नहीं है। हमलोग जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति; इन तीनों अवस्थाओं में रहते हैं। अभी का जगना भी एक प्रकार का सोना है। सन्त लोग कहते हैं-
सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि योगी ।
सोइ हरिपद अनुभवइ परम सुख, अतिशय द्वैत वियोगी ।।
 जो कुछ भी दृश्य जगत है, अपने अंदर योगी देखता है और तीन अवस्थाओं को छोड़कर सो जाता है। ‘सो जाता है’ से तात्पर्य है कि तीनों अवस्थाओं के जो भाव हैं उनको छोड़कर-विस्मृत कर-भूलकर रहता है, तभी वह जागता है, ठीक- ठीक जागता है। उसी को हरि-पद का परम सुख मिलता है। वह द्वैत से-दो भेद से हीन हो जाता है। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ लोग कहते हैं, लेकिन उसको प्रत्यक्ष हो जाता है। कहना और है, और प्रत्यक्ष होना और है। जबतक प्रत्यक्ष नहीं है, तबतक सोना ही है।
 सपने होहिं भिखारी नृप, रंक नाकपति होय ।
 जागे लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपंच जिय जोय ।।
 स्वप्न में राजा भिखारी और दरिद्र इन्द्र हो जाता है, पर जग जाने पर न तो राजा को कोई हानि होती है और न दरिद्र को कुछ लाभ होता है। ऐसे ही संसार को मन में स्वप्नवत् जानो।
 यही बात है कि हमलोगों को जगने में जो मालूम होता है, वही ठीक मालूम होता है। लेकिन वह अवस्था आवे तो-
यहि जग जामिनी जागहिं जोगी।परमारथी प्रपंच वियोगी।।
 योग की अवस्था में जागना, सपनाना, गहरी, नींद; तीनों अवस्था नहीं होती है। योगी चौथी अवस्था में जाते हैं। बहुत लोग चौथी अवस्था सुने नहीं हैं। जितने सुने हैं, उतने को प्रत्यक्षता नहीं है। चौथी अवस्था में पहुचने पर यह जाग्रत भी स्वप्न हो जाता है।
   तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त ।
   मन क्रम वचन अगोचर व्यापक व्याप्य अनंत ।।
 चौथी अवस्था में होकर भजन करो, इसमें प्रत्यक्ष पाने का भजन होता है। कबीर साहब ने जो वचन कहा है-‘जागत नींद नहीं कीजै’ उसी आत्मतत्त्व को प्राप्त करने कहा है-चौथी अवस्था प्राप्त करने कहा है। जो ऐसा करते हैं, उन्हीं का आवागमन छूटता है। शरीर धारण करने का जो क्लेश है, सो दूर हो जाता है। संतों ने मोक्ष पाने का यत्न बताया है, सबको करना चाहिए। कितने लोग कहते हैं, इसके सभी अधिकारी नहीं हैं, लेकिन अधिकारी कौन होता है? ज्ञान लाभ करने से ज्ञान होता है। ज्ञानी के पास जाने पर, सत्संग करने पर यदि स्वयं ज्ञानवान हो, वह कहना नहीं जानता है, तो कोई कैसे ज्ञानी बनेगा। जाति-भेद से कोई अधिकारी नहीं होता, ज्ञान-भेद, अवस्था- भेद से अधिकारी होता है। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति का ज्ञान सबको है। जाग्रत का ज्ञान छूटकर स्वप्न का ज्ञान कैसे होता है? कितने जाग्रत में रोगी रहते हैं। स्वप्न में रोग का ज्ञान नहीं रहता है। मुझे बचपन की याद आती है कि बचपन में गेंद खेलने में पैर में चोट लग जाती थी, दुखता था; स्वप्न में चोट का ज्ञान नहीं, फिर गेंद खेलते थे। जो चौथी अवस्था में जाता है, उसको जो ज्ञान होता है, असली ज्ञान वही है। आत्म-ज्ञान होता है। चौथी अवस्था के आरम्भ में वा मध्य में आत्म-ज्ञान पूरा नहीं होता, तुरीय के अन्त में पूर्ण होता है। वह परम सुख भी पाता है-‘सोई हरिपद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी।’ चाहिए कि संतों के ज्ञान-अनूकुल भजन करें। भजन करने की योग्यता वा अधिकार ज्ञानवान के संग से, सत्संग से होता है। जाति-भेद में जो ख्याल करते हैं कि नीच लोग को ज्ञान नहीं होगा, वे गलत हैं। ऐसा तो संतों को हुआ है। ऊँचे ज्ञानवालों का संग करो तो योग्यता होगी। पढ़े-लिखे हो तो भी, नहीं पढ़े-लिखे हो तो भी आत्म-ज्ञान होगा। साधन-भजन करने से प्रत्यक्ष होता है। जो अच्छी तरह ध्यान लगाता है-
    न जोगी जोग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै ।
    सहज में ध्यान से पावै, सुरत का खेल जेहि आवै ।।
 सुरत लगाने का यत्न जानो और करो। सत्संग करो, बिना सत्संग के कुछ नहीं होता है। केवल कुछ कहना-सुनना ही सत्संग नहीं है। कहने-सुनने पर समझो, ऐसा कि कभी भूलो नहीं। दूसरी बात यह है कि जैसा कुछ करने के लिए कहा जाता है, उसको करो भी, तब सत्संग ठीक है। यह बाहरी सत्संग है, जिसमें कहते सुनते हैं। ध्यान जो करते हैं, वह ‘अंतरि सत्संग’ है। इसमें मुँह क्या, मन को भी चुप करना होता है।
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यह प्रवचन संथाल परगना जिलान्तर्गत रामगढ़, दुमका में दिनांक 29 .03. 1970 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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319. भगवान का दर्शन भी हुआ और संदेह भी रहा !
आत्मवत् सज्जन लोगो !
 ईश्वर-भक्ति का प्रचार इस सत्संग के द्वारा किया जाता है। ईश्वर की भक्ति में ईश्वर का दर्शन असली बात है। ईश्वर का दर्शन हो, भक्त खास तरह से यही चाहता है। भक्त को विश्वास होता है कि दर्शन होने से ही जो कुछ दुःख, विपत्ति, जंजाल है, सभी की निवृत्ति हो जाएगी। जैसे सूर्यादय होने पर प्रकाश और गरमी अवश्य मिलेगी, उसी तरह ईश्वर-दर्शन के संबन्ध में समझते हैं। जिन्होंने दर्शन किए, उन्होंने कहा कि दर्शन होने पर दैहिक बंधन, पिण्ड-ब्रह्माण्ड का बंधन समाप्त हो जाता है। लेकिन इसमें दो ख्याल हैं, एक यह कि किसी रूप में ईश्वर का ख्याल करो, उस रूप में आकर ईश्वर-दर्शन देंगे। गोस्वामी तुलसीदासजी भी इस दर्शन के बड़े भूखे थे। भक्त लोग ईश्वर-दर्शन के भूखे होते ही हैं। हनुमानजी से गो0 तुलसीदासजी को बड़ी सहायता मिलती थी। उन्होंने राम के दर्शन के लिए हनुमानजी से प्रार्थना की। हनुमानजी ने कहा कि दर्शन होगा। चित्रकूट के घाट पर मन्दाकिनी के किनारे वे चन्दन घिस रहे थे। दो बालक आए और कहा कि मुझे तिलक लगा दीजिए। उन्होंने तिलक लगा दिया, लेकिन पहचान न सके। उन्होंने हनुमानजी से प्र्र्रार्थना की कि भगवान राम के दर्शन नहीं हुए। हनुमानजी ने कहा-‘दो बालक को जो तिलक लगा दिए, वे ही राम-लक्ष्मण थे।’ उन्होंने कहा-‘मैंने पहचाना नहीं।’ तुलसीदासजी के पुनः आग्रह करने पर हनुमानजी ने कहा-‘अच्छा फिर दर्शन होगा।’ इसके बाद तुलसीदासजी ने एक दिन देखा कि दो सुन्दर किशोर बालक घोड़े पर जा रहे हैं, किन्तु इस बार भी वे उन्हें पहचान न सके। हनुमानजी से भेंट होने पर बताया कि घोड़े पर आपने जिन दो बालकों को देखा, वे ही राम-लक्ष्मण थे।
 दर्शन भी हो और पहचान नहीं हो, यह दर्शन कैसा? ब्रह्माजी को श्रीकृष्ण के दर्शन हुए, लेकिन उनको विश्वास नहीं होता था कि ये विष्णु के अवतार हैं। बाल-लीला से वे भ्रमित थे। ऐसे ही नारदजी भी दर्शन से भ्रमित रहे। दर्शन होने पर भी भ्रमित रहते हैं। यह बात बिल्कुल युक्तियुक्त नहीं है। ऐसे दर्शन में बात बाकी रह जाती है। उपनिषद् में कहा गया है-
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
 उस परे-से-परे तत्त्व को अर्थात् परमात्मा को देख लेने पर जड़-चेतन की ग्रंथि खुल जाती है, जड़-चेतन की पहचान हो जाती है, सारे संशयों का नाश हो जाता है, कर्म-बन्धन खत्म हो जाता है। जिस दर्शन से ऐसा हो, वह ईश्वर-दर्शन असली है। दर्शन भी हुआ, संदेह भी रहा, यह असली दर्शन नहीं, क्लेश कलह भी रहता ही है। पुराण को पढ़कर, रामायण को पढ़कर, महाभारत को पढ़कर, गीता को पढ़कर जान लीजिए। एक तो युद्ध के आरंभ में श्रीमद्भगवद्गीता है और दूसरी गीता है अणुगीता; दोनों पढ़ लीजिए। अणुगीता तब की है, जबकि युद्ध समाप्त हो चुका था। दोनों विश्राम करते थे, घूमते थे। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा कि युद्ध के मैदान में आपने जो उपदेश दिया था, चित्त स्थिर नहीं होने के कारण उसे ठीक-ठीक समझ न सका। आप पुनः मुझे उस ज्ञान का उपदेश करें। भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया-उस समय मैं योगस्थ होकर उपदेश कर रहा था। अभी वैसी स्थिति नहीं है, फिर भी कहता हूँ। तब जो ज्ञान का कथन किए हैं, वह है अणुगीता। भगवान का दर्शन भी है और अर्जुन का संशय भी है और विस्मृति भी है। भगवान ने संशय दूर करने के लिए ज्ञान उपदेश दिया। अर्जुन को पीछे इतना दुःख हुआ, जितना किसी को नहीं। कृष्ण भगवान जब इस संसार से चले गए थे, तब उनका बल, विक्रम सब खत्म हो गया। पंजाब के लुटेरों ने उनको लूट लिया। मेरे कहने का आशय यह कि ऐसे दर्शनों से, दुःखों से छूटा नहीं जाता, विकारों से छूटा नहीं जाता।
सुरपति बसइ बाहँबल जाके। नरपति सकल रहहिं रुख ताके।।
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई।देखहु काम प्रताप बड़ाई।।
सूल कुलिस असि अंगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे।।
 राजा दशरथजी का कितना तप है, वरदान है, फिर भी मनोविकार पर काबू नहीं, जंजाल से छूट जाता नहीं। बात यह है कि श्रीराम से लक्ष्मणजी ने पूछा था कि माया किसको कहते हैं, तो श्रीराम ने कहा था-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 हे भाई! इन्द्रियों को जो कुछ प्रत्यक्ष है और जहाँ तक मन जाता है, वह सब माया ही जानो। इसलिए संतों ने ईश्वर के निर्मायिक स्वरूप के दर्शन के लिए कहा है। तुलसीदासजी लिखते हैं-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 ईश्वर के मायिक रूप के दर्शन से माया में बहुत लाभ होता है, लेकिन मायिक दर्शन से दुःख- जंजाल से छूटा नहीं जाता। दूसरा भक्त कहता है, ईश्वर का दर्शन कहाँ करोगे, कैसे करोगे-शरीर- इन्द्रिय के साथ रहकर कि शरीर इन्द्रियों से छूटकर? शरीर-इन्द्रिय के साथ दर्शन में माया दर्शन होगा, इसमें जंजाल से, दुःखों से छूट नहीं सकते। दूसरे कहते हैं, अपने शरीर को शरीर-इन्द्रिय से ऊपर उठा लो, कैवल्य-दशा में अपने को लाओ, तब जो दर्शन होगा, वही असली दर्शन है। इसमें बुलाना नहीं है, अपने को उस ओर ले जाना है-
  हिय नैन सैन सुचैन सुन्दरि, साजि स्रुति पिउ पै चली।
   गिरि गवन गोह गुहारि मारग, चढ़त गढ़ गगना गली।। यह काम करना है। अपने को ले चलना है, यह बहुत विस्तार बात है, छोटी नहीं। चलना कहाँ से होगा? कौन चलेगा-यह समझिए। शरीर नहीं चलेगा, मन चलेगा। मन के लिए कहते हैं कि माया तक चलेगा। लेकिन करोगे क्या? अभी मन और चेतन आत्मा का वैसा ही साथ है, जैसे दूध और घी का। यही जड़-चेतन का मिलाप है, यही गाँठ है। जो इस गाँठ को खोल सकता है, मन और चेतन को अलग-अलग कर सकता है, ईश्वर की महती कृपा से भजन को जो कर सकता है, वही ईश्वर-दर्शन पाता है। पहले मन और चेतन आत्मा दोनों संग-संग चलेगा। चलें तो कहाँ से चलें? जो जहाँ बैठा रहता है, वहीं से चलेगा। अभी आपलोग जहाँ-जहाँ बैठे हैं, सत्संग समाप्ति के बाद वहाँ-वहाँ से ही घर जायेंगे। यह समझिए कि चलना कब होगा-जागने में कि सोने में? जानो कि तुम शरीर में हो कि नहीं? कोई कह नहीं सकता कि मैं शरीर में नहीं हूँ। कोई कहे कि शरीर के अन्दर नहीं हूँ, तो वह पागल है। शरीर में कहाँ हो? जगने में कहाँ रहते हो, स्वप्न में कहाँ रहते हो, सुषुप्ति में कहाँ रहते हो, तुरीय में कहाँ रहते हो? जागने में आँख में रहते हो। यदि आँख में नहीं रहते तो बाहर का कुछ नहीं देखते। परमात्मा ने सबसे ऊपर आँख को रखा है। वहीं से तमाम शरीर में धार आती है। ब्रह्मोपनिषद् पढ़ो, संतवाणी पढ़ो, तो मालूम हो जाएगा। कबीर साहब का कथन है-
 इस तन में मन कहँ बसै,निकसि जाय केहि ठौर ।
 गुरु गम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और ।।
 नैनों माहीं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर ।
 गुरु गम भेद बताइया, सब संतन सिरमौर ।।
यह उत्तर दिया। बिहार में दरिया साहब हुए थे, उन्होंने कहा है-
जानिले जानिले सत्त पहचानिले, सुरति साँची बसै दीद दाना।
 आँख में वासा है, बुद्धि से समझोगे तो समझो कि मैं शरीर के अन्दर हूँ, ऐसा सब कहते हैं। तो अन्दर में खोजो। अन्दर में कैसे खोजोगे, तो आँख बन्दकर खोजो। आँख बन्दकर देखोगे तो अंधकार मालूम पड़ेगा। तो वह अंधकार कहाँ है? आँख में है, तब पूछो कि कहाँ हूँ, तो उत्तर आवेगा कि अंधकार में हूँ। विचार में देखोगे तो यह होगा और शास्त्र-प्रमाण लो तो शास्त्रों को पढ़ो। जागने की अवस्था में काम करोगे। इसलिए इसको याद रखो, भूलो मत। आँख बन्दकर चलने की कोशिश करो। शरीर को चलाने के लिए पैर चलाना पड़ता है। इसमें क्या करना होगा? उलटा करना होगा।
बैठे ने रास्ता काटा । चलते ने बाट न पायी ।।
है कुछ रहनि गहनि की बाता। बैठा रहे चला पुनि जाता।।
जिसका मन स्थिर होगा, वही चलेगा। जिसका मन स्थिर नहीं हुआ, उसको रास्ता नहीं मिलेगा। इसलिए-
 मन आवै मन जाय, मनहिं बटोर रे ।
 मन बुड़वें मन टारे, मनहिं निहोरे रे ।।
 मन को बटोरो। कहाँ तक बटोरना होगा- एकविन्दुता तक। एकविन्दुता कैसे प्राप्त करोगे, गुरु से जानो। जो एकविन्दुता प्राप्त करता है, उसका पूर्ण सिमटाव हो जाता है। सिमटाव में ऊर्ध्वगति हो जाती है, चाहे वह कठिन पदार्थ हो, तरल हो वा वाष्पीय हो। मन सबसे सूक्ष्म है। इसको समेटोगे तो एकविन्दुता हो, असम्भव बात नहीं है। इसको ध्यान से प्राप्त करता है, मन से बनाता नहीं है। देखने के कौशल से देखता है, एकविन्दुता होती है, ऊर्ध्वगति होती है। ऊर्ध्वगति में आँख ऊपर जाता है। अभी जो जागने की अवस्था है, सो नहीं रहेगी। शरीर में जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति की अवस्था नहीं रहेगी। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
 तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त ।
 मन क्रम वचन अगोचर,व्यापक व्याप्य अनंत ।।
 लोग पढ़ते भी नहीं, किसी से समझते भी नहीं। विनय-पत्रिका में है, पढ़ो। आँख के स्थान से चलना होगा। मन को समेटकर रखने से स्वाभाविक चलना होता है। आपलोग जो किसान हैं, वे अन्न को सुखाने के लिए फैलाते हैं और उसको समेटते हैं, तो ढेर हो जाता है। ऊपर उठो, जागने की अवस्था को छोड़ो। केवल ऊर्ध्वगति में सभी आवरण छूटते हैं। ईश्वर की कृपा की पहचान हो जाती है। गुरु नानक ने कहा है-
 अन्तर जोति भई गुरु साखी चीने राम करंमा ।
 नानक हउमें मारि पतीने तारा चड़िया लंमा ।।
 अन्तर की ज्योति प्रकट हो गई और ईश्वर का दया-दान पहचान में आया, यह होने योग्य है, होना संभव है। हमलोग गुरु से यही विद्या सीखे हैं, करते हैं, दूसरे को सीखाते हैं। यह इतना सत्य है कि कोई इसको असत्य नहीं कर सकता, चाहे विचार से, चाहे ग्रन्थ प्रमाण से। इसी का प्रचार इस सत्संग से होता है। कबीर साहब ने कहा है-‘संतो भक्ति सतोगुर आनि।’
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यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 8. 4. 1970 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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320. परमात्मा की दो प्रकृतियाँ
प्यारे आत्मवत् प्रिय लोगो !
 मैं बहुत थोड़ी-सी बात कहता हूँ। मेरे जानने में है कि सत् दो प्रकार के हैं। एक सत् वह है, जिसमें परिवर्तन नहीं होता, परन्तु कभी-न-कभी उसका अत्यन्ताभाव हो जाता है अर्थात् उसकी विलीनता हो जाती है, यह मानने योग्य है। उसकी उत्पत्ति हुई है। वह क्या है? परा प्रकृति। प्रकृति दो प्रकार के हैं-एक परा और दूसरी अपरा; उच्चकोटि और निम्नकोटि। निम्नकोटि में परिवर्तन होता है, किन्तु परा प्रकृति में परिवर्तन नहीं होता है। लेकिन इसकी विलीनता हो जाएगी ब्रह्म में अर्थात् इसका अत्यन्ताभाव हो जाएगा। दूसरा सत् है, जिसमें परिवर्तन नहीं होता और कभी विलीनता हो, सो नहीं; नहीं रहे, सो नहीं। न अत्यन्ताभाव, न किसी में विलीनता, न परिवर्तन। दोनों सत् के ज्ञान का लाभ जिस संग में हो, उसको सत्संग कहते हैं। अपरा प्रकृति का भी ज्ञान हो और परा प्रकृति का भी। परा प्रकृति का जिसने सृजन किया है, वह सत् है। जो श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ते हैं, वे जानते हैं कि भगवान ने दो प्रकृति का वर्णन किया है-अपरा और परा। अष्टधा को अपरा और चेतन को परा कहा है। मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु, आकाश और मन, बुद्धि, अहंकार; इन सबको मिलाकर आठ धातु जिस प्रकृति में हो, उसे अष्टधा प्रकृति कहते हैं-अपरा प्रकृति कहते हैं। जीव स्वरूप जो चेतन है, उसको परा कहते हैं। खुलासा यह हुआ कि परमात्मा की दो प्रकृतियाँ हैं-एक तो माया के रूप में, असत् रूप में और एक सत् के रूप में। स्वयं परमात्मा इससे परे हैं। क्षर पुरुष-अपरा प्रकृति नाशवान तत्त्व हैं और अक्षर पुरुष जो सब नाशवानों में अनाश होकर वर्तमान है, यही अक्षर पुरुष परा प्रकृति के रूप में जानने योग्य है। इन दोनों से उत्तम पुरुषोत्तम है। दोनों का ज्ञान होना चाहिए। क्षर पुरुष का भी ज्ञान होना चाहिए कि यह नाशवान है, इससे छूट जाना चाहिए। और परा प्रकृति का भी ज्ञान होना चाहिए, जो चेतन- रूपा है। यह जो क्षर पुरुष वा अपरा प्रकृति है, इसका ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा होता है। इन्द्रियों के ज्ञान के लिए रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द है। रूप के वास्ते आँख है, रस के वास्ते जिभ्या है, स्पर्श के वास्ते चमड़ा है, गन्ध के वास्ते नाक है और शब्द के वास्ते कान है। फिर संकल्प-विकल्प करना होता है, इसके लिए मन है। विचार के लिए बुद्धि है। ‘मैं हूँ’ इसके लिए अहंकार है। तीनों को कार्यान्वित करने के लिए चित्त है। इस तरह अपरा प्रकृति से निर्मित इन्द्रियाँ और मायिक विषयों का ज्ञान होता है। इन इन्द्रियों के अतिरिक्त अपने शरीर में आप स्वयं हैं। असल में आप ज्ञानमय हैं, आपही ज्ञान दाता हैं। चेतन को भी ज्ञानमय करना आपका काम है। इन्द्रियों में ज्ञान करा देना आप ही का काम है।
 आपका निजी विषय कुछ है कि नहीं? है अवश्य। वह क्या है? जो इन्द्रियों के ज्ञान के द्वारा नहीं जाना जाता। आप अपने को ही इन्द्रिय से नहीं जानते हैं। जबकि आप अपने को ही नहीं जानते हैं, तो ईश्वर-परमात्मा को क्या जानेंगे! जानना केवल उपदेश सुनने-विचारने में नहीं है, यह तो बिना पहचान के जानना है। महात्माओं के वचन में जाना, पढ़कर जाना, विचारकर जाना; यह परोक्ष ज्ञान है। इसमें लालसा रह जाती है कि पहचान नहीं हुई। इसे पहचानने के लिए अपने से अपने को पहचान सकते हो। चेतन आत्मा-चेतन आत्मा के द्वारा ही पहचानी जाएगी और चेतन आत्मा ही ईश्वर का अपरोक्ष ज्ञान पा सकती है, इसको भूलो मत। इसको जो नहीं जानते, वे ईश्वर का भाव वहाँ भी रखते हैं, जहाँ नहीं रखना चाहिए और उनको होता है कि मैंने ईश्वर को जाना। वे भ्रमित रहते हैं। जैसे आइने में अपने से अपने को देखते हैं, उसी तरह अपने को अपने से देखो। इसके लिए ज्ञान और योगमय भक्ति की जरूरत है। तीनों होना चाहिए। इससे यह होता है कि चेतन आत्मा को इन्द्रियों के ज्ञान से ऊपर उठाया जाता है। इन्द्रियों के आवरण से, शरीरों के आवरण से ऊपर उठाकर शरीरहीन, इन्दियहीन करके अपने ज्ञान में आया जाता है, उसी में अपने को और ईश्वर को पहचाना जाता है। इसके लिए साधन है-मानस जप, स्थूल ध्यान, सूक्ष्म ध्यान। सूक्ष्म ध्यान में ही दृष्टियोग और नादानुसंधान है। संतों के ज्ञान का सार थोड़े रूप में साफ-साफ कह दिया। फिर संतों के ज्ञान में है कि बहुत अधिक सच्चरित्रता चाहिए, सच्चरित्रता में हीन नहीं होना चाहिए। जो सदाचारी हैं, वे ही ज्ञान-योग-युक्त भक्ति में चल सकते हैं, दूसरे नहीं। सच्चरित्रता में है-झूठ नहीं बोलो, चोरी नहीं करो, नशाओं का सेवन नहीं करो, हिंसा मत करो, व्यभिचार मत करो। हिंसा मत करो के सिलसिले में मत्स्य-मांस भी नहीं खाओ। नशा में तम्बाकू भी नहीं लो, यह बड़ा विषैला है। यह बड़ा विषैला से विषैला साँप के मुँह में तम्बाकू दे दो, तो वह मर जाएगा। चाहे जर्दा खाओ, चाहे सिगरेट वा बीड़ी पीओ-नशा है।
 भाँग तमाखू छूतरा, अफयूँ और सराब ।
 कह कबीर इनको तजै, तब पावै दीदार ।।
 मद तो बहुतक भाँति का ताहि न जानै कोय ।
 तन मद मन मद जाति मद, माया मद सब लोय ।।
 विद्या मद और गुनहु मद, राजमद्द उनमद्द ।
 इतने मद को रद करै, तब पावै अनहद्द ।।
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यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 5. 4. 1970 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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321. आनन्द और मंगल की जड़ : सत्संग
प्यारे आत्मवत् प्रिय लोगो!
 मुझको बुलावा में कहा गया था कि मैं चलकर सत्संग का उद्घाटन करूँ। सत्संग मुझे बहुत प्रिय है, गोया जीवन का आधार है। इस आधार के लिए बुलावा हो, मैं उपस्थित नहीं होऊँ, तो मेरे लिए बहुत हानि, लज्जा, अपयश और अवनति का काम होगा, इसलिए आया। आते ही वेद-मंत्रों का पाठ होते पाया, तो मैं समझा- वेद-मंत्र से ही उद्घाटन होगा। फिर मुझे कुछ कहना चाहिए, सो कहता हूँ। आजकल आपके प्रान्त में और दूसरे प्रांतों में भी गोस्वामीजी की रामायण का बड़ा प्रचार है। उसमें लोग पढ़ते हैं, आप भी पढ़ते होंगे-
सत्संगति मूद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला।।
 अर्थ बहुत सीधा है, तब भी थोड़ा-सा कहता हूँ कि गोस्वामीजी ने यह कह दिया कि मुद कहते हैं-खुशी को। आनन्द और मंगल, दोनों की जड़ सत्संग है। सत्संग आनन्द और शुभ की जड़ है। गोया सत्संग से ही आनन्द औैर शुभ होता है। ऐसा कोई नहीं, जो शुभ नहीं चाहे और आनन्द नहीं चाहे। आनन्द और शुभ की जड़ ही मिल जाए, तब तो कहना ही क्या है! जहाँ सत्संग होता है, वे वहाँ से आनन्द पाते हैं और उनका कल्याण होता है। यह बहुत बड़ी बात है कि उन्होंने कहा-सत्संग की सिद्धि फल है कि सब साधन फूल हैं। फूल हों, फल नहीं लगे तो, पूरी संतुष्टि नहीं हो सकती। सत्संग की सिद्धि फल है, इसको समझाने की कोशिश करूँगा। ‘सत’ कहते हैं, जिसमें परिवर्तन नहीं हो, जिसकी स्थिरता रहे और अत्यन्ताभाव नहीं हो। परिवर्तन=बदल जाना, जैसे हमलोगों को शरीर है। बच्चे लोग बैठे हैं, इसी तरह हमलोगों का शरीर था, सुन्दरता और शक्ति चली गयी, फिर भी शरीर वही है; इस तरह परिवर्तन होता है। शरीर मर भी जाता है। कितने शरीर मर भी गए। कहते हैं कि पाँच तत्त्व का था, पाँचो तत्त्वों में मिल गया, तब भी रहा। कहते हैं प्रलय होता है और महाप्रलय भी होता है। प्रलय में कुछ रहता है और महाप्रलय में अत्यन्ताभाव हो जाता है। अत्यन्ताभाव होगा, तब वह सत्य नहीं है। सत्य क्या है? परिवर्तन हानेवाले पदार्थों में एक जीवनी शक्ति है, जिसको ज्ञानमय कहते हैं। उसको इसलिए चेतन कहते हैं, वह चेतन इस शरीर के अन्दर अंतःकरण के साथ रहता है और ब्रह्मतत्त्व-आत्मतत्त्व से भिन्न कोई रह नहीं सकता। शरीर मर गया, उसको जलाया गया, लेकिन ब्रह्मतत्त्व जलाया नहीं गया। इसी के लिए कहा गया है कि इसको हवा सुखाती नहीं, पानी भिंगाता नहीं, अस्त्र छेदता नहीं, अग्नि जलाती नहीं आदि। यह सत्य रह गया, इसलिए इसको ईश्वर का अंश कहते हैं-
ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।
 अपने यहाँ इसका बहुत विश्वास है कि शरीर को जलाया गया, चेतन आत्मा रही। यह अपने कर्मानुसार स्वर्ग-नरक भोगकर संसार में आती-जाती रहती है। शरीर के तरह इसका परिवर्तन नहीं होता। केवल आत्मा का कभी अभाव होता नहीं। कितने लोग चेतन और आत्मा को एक ही समझते हैं, लेकिन ऐसी बात नहीं। चेतन बदलता नहीं, लेकिन सृष्टि का पसार हुआ है, इसकी समाप्ति होगी, उस समय चेतन का भी विलीन हो जाना होगा। कभी-न-कभी अत्यन्ताभाव भी लोग मानते हैं, लेकिन आत्मा का अत्यन्ताभाव कभी होता नहीं।
 ‘सत्’ परा प्रकृति के नाम से, अक्षर के नाम से विख्यात है। नाशवान पदार्थ को क्षर पुरुष कहते हैं और अनाश को अक्षर पुरुष कहते हैं। इन दोनों से जो उत्तम है, वह पुरुषोत्तम है। गीता में इन तीनों का वर्णन है। पुरुषोत्तम में भी न परिवर्तन होता है, न अत्यन्ताभाव होता है। प्रलय, महाप्रलय में इसका कुछ बिगड़ता नहीं। अक्षर पुरुष, चेतन पुरुष, परा प्रकृति का कभी-न-कभी अत्यन्ताभाव होता है, लेकिन यह भी ‘सत्य’ है। और आत्मतत्त्व का कभी परिवर्तन नहीं होता, न अत्यन्ताभाव होता है, यह भी ‘सत्य’ है। उस सत् का इस सत् से मेल हो, यही है सत्संग का फल। चेतन आत्म-तत्त्व का अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करो। शुद्ध आत्म-तत्त्व-ब्रह्मतत्त्व का प्रत्यक्ष ज्ञान हो, सत्संग की यही सिद्धि सत्संग करते-करते जड़-चेतन की भी गाँठ जाए; यह जड़ है, यह चेतन है-ठीक-ठीक पहचान में आ जाए और फिर आत्मतत्त्व का भी पहचान हो; यह सत्संग की सिद्धि है। लेकिन यह बाहर नहीं, अन्दर में होगा। और सब साधन फूल हैं, इसलिए कि संसार में यशस्वी होते हैं, यश की सुगन्धि फैलती है, वे संसार में प्रतिष्ठित होते हैं और यह है कि आत्मतत्त्व का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इसके लिए ध्यान-भजन करना, ज्ञान अर्जन करना, योगाभ्यास करना, भक्ति करनी-ये सब साधन फूल हैं। जो इसको ग्रहण करते हैं तो संसार में सच्चरित्र होते हैं। उनकी सच्चरित्रता की बड़ाई है, वह तमाम होने लगती है। गोया यह है, यह बाहर की सिद्धि है। अंतर में साधन करते-करते जड़-चेतन और शुद्ध आत्मतत्त्व को-तीनों को अलग-अलग कर प्रत्यक्ष जानते हैं, यह फल है। जो बराबर सत्संग करते हैं, उनके लिए है-
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई।।
सो जानब सत्संग प्रभाऊ। लोकहु बेद न आन उपाऊ।।
 बुद्धि, यश, मुक्ति, ऐश्वर्य और भलपन; जब कभी जहाँ कहीं, जिस किसी उपाय से जिसने पाया है, वह सत्संग के प्रभाव से हुआ, जानना चाहिए। लोक और वेद में इसके मिलने का उपाय नहीं। ये पाँच पदार्थ सत्संग करते-करते मिलते हैं। जिनको ये पाँच चीजें मिल जाएँ, संसार में उसको कुछ बाकी नहीं रह जाता है। वे स्वयं लाभान्वित होते हैं और संसार को लाभ पहुँचाते हैं। सत्संग ज्ञानमयी यज्ञ है। गीता में कहा गया है कि द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञानमय यज्ञ श्रेष्ठ है। यहाँ भी होगा। ये शुभ के लिए करते हैं। सबसे बड़ा शुभ है-ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान होना। यह भी सभी प्राप्त कर लेंगे, जो सत्संग करते रहेंगे। कबीर साहब ने कहा-
सत्संग से लागि रहो रे भाई । तेरी बनत बनत बन जाई ।।
 मैंने जो आन्तरिक सत्संग करने के लिए कहा है, वह बड़ा विस्तार है। वह ध्यान से होता है। स्थूल ध्यान को लोग जानते हैं, सूक्ष्म ध्यान कम लोग जानते हैं। सूक्ष्म ध्यान में भी रूप ध्यान और अरूप ध्यान है। जो कोई जानते हैं, वे करें; जो नहीं जानते हैं, जानकर करें। इन्हीं शब्दों के साथ मैं उद्घाटन करता हूँ, सबका कल्याण चाहता हूँ।
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यह प्रवचन बाँका जिलान्तर्गत गाँव पैर में दिनांक 8. 4. 1970 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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322.संतवाणी संतों की प्रतिमूर्ति है
धर्मप्रेमी जनता!
 मैं अधिक अपने को जनाऊँ, यह तो कोई मेरे लिए ठीक बात नहीं है। कुछ कहूँ अपने को, तो सत्संग-सेवक कह सकता हूँ। कुछ नहीं कहूँ तब भी आप यही समझें। सत्संग-संतों के संग का नाम है। संतवाणी संतों की प्रतिमूर्ति है, ऐसा मैं मानता हूँ। इसलिए जहाँ कहीं सत्संग-सेवा में जाता हूँ, वहाँ संतवाणी का पाठ स्वयं करता हूँ और अन्यों से कराता हूँ। गुरु महाराज ने संतवाणी को सत्संग की जड़ बताया है। अभी आपने सुना-
    परमातम गुरु निकट विराजे, जागु जागु मन मेरे ।
    धाइ के सतगुरु चरणन लागो, काल खड़ा सिर तेरे ।।
    छिन छिन पल पल सबही सँवारे, अबहुँ जाग सबेरे ।
    काम क्रोध मद लोभ मोह तजि,छिमा दया दिल हेरे ।।
    भाई बन्धु कुटुम्ब कबीला, सब स्वारथ के चेरे ।
    जब जम जालिम आन पकरिहैं, कोइ न संग चले रे ।।
    भवसागर वाकी है धारा, लख चौरासी फेरे ।
     कहै कबीर सुनो भाई साधो, जग से किए निबेरे ।।
 इस थोड़े-से पद्य के बीच में जितना ज्ञान है, उसको बताने के लिए ठीक-ठीक लिखा जाए तो एक बड़ा ग्रन्थ तैयार हो जाएगा। ईश्वर-परमात्मा सबके नजदीक ही हैं। मेरे नजदीक भी हैं। हमारा मन सोया हुआ है, इसलिए नजदीक नहीं जान रहे हैं। एक विश्वास होता है कि ईश्वर है, लेकिन पता नहीं कहाँ है? प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता है। यही प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होना, मनुष्य का सोना है। इस सोए से जगना चाहिए। इस निस्बत जो ज्ञान है, उसको श्रवण के द्वारा जानना भी जगना है। लेकिन यह जगना साधारण जगना है। पूरा जगने के लिए जड़ में श्रवण-मनन तो अवश्य चाहिए, लेकिन आगे है-
यहि जग जामिनी जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच वियोगी।
 अर्थात् योग से जगते हैं। बिना योग के कोई जग नहीं सकता। योगीजन जगते हैं। कैसे जगते हैं? हमारी तीन अवस्थाएँ हैं-जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। हमलोगों का जगना योगी के ख्याल से सोना है। योगी कहते हैं कि तीन अवस्थाओं के आगे भी अवस्था है, उस अवस्था का ज्ञान प्राप्त करो, तो जगोगे।
 तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त ।
 मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनंत ।।
 तीन अवस्थाओं को छोड़कर ईश्वर का भजन करो। यह कौन अवस्था होगी? जाग्रत वा राम-राम वा जैसा गुरु बतावें, वैसा कहते हैं। अधिक अभ्यास के कारण स्वप्न में भी भजन हो, लेकिन सुषुप्ति में क्या होगा? और इसके परे कौन अवस्था होगी? तीन अवस्था स्वाभाविक है। यह अपने आप प्राप्त होती है। योग अभ्यास करके चौथी अवस्था प्राप्त होती है। भजन चौथी अवस्था को भी पार कराता है। तुरीय से तुरीयातीत अवस्था को पहुँचाता है। यह दूर की बात है। पहले तीन अवस्थाओं को त्यागकर जो तुरीय अवस्था है, उसमें जाओ। यह योगाभ्यास से होगा, बिना योग के नहीं होगा। चित्तवृत्ति-निरोध को योग कहते हैं, मनोनिरोध को योग कहते हैं। कठिन साधन से हो सके तो, सो करो और सरल साधन से हो सके, तो भी करो। संतों ने कहा कि सरल साधन है। सबके लिए वही सुलभ है। कबीर साहब केवल श्रवण-मनन के लिए ही नहीं जगाते हैं। इसके बाद निदिध्यासन और अनुभव ज्ञान होता है।
 योग साधन करते-करते जो ज्ञान होता है, वह निदिध्यासन ज्ञान है। उसका जो चरम लक्ष्य है अर्थात् निदिध्यासन का जब अन्त होता है, तब जो ज्ञान होता है, वह अनुभव ज्ञान है। यह पूरा-पूरा जगना है। साधक ईश्वर का प्रत्यक्ष देखता है, जैसे अपने आप शरीर को देखता है, वैसे ही वह अपने आप को देखता है। सुनना-विचारना पहला काम है, इसके बाद निदिध्यासन करो, फिर उसको भी खत्म करो। यह जगने का यत्न है। चौथी अवस्था में एक पल भी रहो, तो एक पल जग गए और अनुभव तक चले गए, तो ऐसा जगे कि कभी सोएँगे नहीं-
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।। मैं देखता हूँ कि ईश्वर संबंधी ज्ञान में पूर्ण हो, ऐसा बहुत कम लोग हैं। केवल श्रवण-मनन के आधार पर ईश्वर-दर्शन आदि के बारे में सिद्धान्त बताने में कोई गलती हो जाए, असम्भव नहीं है। अपने को किससे जानोगे, इसका निर्णय जानना चाहिए। निर्णय संतवाणियों में और शास्त्र के अन्दर है। लेकिन उस ओर लोग ध्यान नहीं देते, बाहरी बातों में ध्यान देते हैं।
 श्रवण-मनन के बाद निदिध्यासन में जाना है और इससे परे भी जाना है। चौथी अवस्था समाप्त हो जाए, उसका भी ज्ञान अवश्य चाहिए। उस ज्ञान के बिना काम पूरा नहीं होता। मैं जो कुछ कहता हूँ, श्रीसंतसेवीजी लिखते जाते हैं। यह भी प्रकाशित होता है। यह इसलिए मैं कहता हूँ कि श्रीअनूप बाबू कुछ लिखने कहते हैं, सो तो लिखने का काम हो ही रहा है। इन्हें मैं धन्यवाद देता हूँ कि मुझे कुछ लिखने का सुझाव दिया। समेली गाँव से मेरा संबंध 1911 ई0 से है। कोशकीपुर से भी बहुत दिनों से सरोकार है।
 अपने देश में अध्यात्म-ज्ञान की इतनी खोज हुई कि अब बाकी नहीं रही है। कही हुई बात को ही लोग कहा करते हैं। मैंने सबसे पहले संतवाणी का संग्रह किया। केवल तुलसीदासजी, कबीर साहब और नानक साहब की वाणी ही खोज नहीं की; उपनिषद् और वेद-मंत्र को भी साथ किया। आज के विद्वानों का विचार भी उसमें दिया। इसके तीन भाग हुए। फिर उससे मैंने क्या समझा, वह चौथा भाग में लिख दिया। उसका नाम है ‘सत्संग- योग’। फिर श्रीगीता-योग-प्रकाश लिखा। इसलिए कि गीता पर किसी ने ऐसा लिखा कि केवल कर्म पर जोर दिया। कहा-कर्म करो, कर्म करो। ध्यान को गौण कर दिया। इसलिए मैंने श्रीगीता-योग- प्रकाश लिखा। फिर मेरे मित्रों ने और मेरे साथियों ने वेद के संबंध में कहा, तो उसको भी मैंने मँगाया। वह चौदह जिल्दों में है। मैंने उसको पढ़ा और उसके अन्दर निशान लगाया। फिर उसको प्रकाशित किया, उसका नाम है-‘वेद-दर्शन-योग।’
 उत्तर भारत में तमाम संतों के ज्ञान का प्रचार है। दक्षिण में भी संतों का ज्ञान है। केवल कबीर साहब का ज्ञान ही संतमत नहीं है। पहले ऋषियों ने क्या कहा, यह भी देखता हूँ। बिल्कुल एकमेल है। साहित्य को पढ़ना चाहिए और मेधा=बुद्धि चाहिए। धारणावती बुद्धि को मेधा कहते हैं। पढ़ गए, सुन गए, भूल गए; यह मेधा नहीं है। पढ़ा- सुना याद रहा, यह मेधा है। पढ़-सुनकर ही काम नहीं चलता, निदिध्यासन करना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण ने साधन बताया, गीता और भागवत पढ़कर देखिए। संत लोग भी बताए हैं। अपने देश में संत-साहित्य मुख्य साहित्य है। उसे पढ़ना चाहिए और साधन करना चाहिए। साहित्य पढ़ा जाए और साधन नहीं करें, तो अधूरा रहेगा। पढ़-सुनकर साधन भी अवश्य करना चाहिए।
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यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत ग्राम-समेली में दिनांक 11. 4. 1970 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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323. सामूहिक स्तुति अवश्य करो
प्यारे लोगो!
 उपकार करनेवाले की सेवा करना चाहिए। जो नहीं भी उपकार करे, सेवा करने योग्य हो, फिर भी उसकी सेवा करनी चाहिए। जो उपकारक हो, उनकी सेवा तो अवश्य करो। भाँति-भाँति की सेवा होती है-‘आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा।’
 रामायण में है। भरतजी ने कहा था-आज्ञा मानो, आज्ञा पर चलो; इससे बढ़कर कोई सेवा नहीं। संतों की आज्ञा है कि ईश्वर का भजन करो। यह संतों की सेवा हे। जो भजन करते हैं, वे संतों की आज्ञा मानते हैं, इसलिए संतों की सेवा करते हैं। फिर भी, और जो उचित हो, मौके-मौके पर सेवा करनी चाहिए। और ईश्वर ऐसे हैं कि उनकी आज्ञा क्या है, हम नहीं जानते हैं। ऋषि-मुनि, साधु-संत के बताने से जानते हैं। भेद की बात है कि अपने देश में जो योग-विद्या है, इसमें शरीर में स्थान-स्थान का भेद है, अलग-अलग नाम हैं। एक स्थान का नाम है आज्ञाचक्र। यह नेत्र संबंधी स्थान है, उनके नीचे पाँच चक्र और हैं। लेकिन जो नेत्र संबंधी स्थान है, जिसको योगियों ने आज्ञाचक्र कहा है, वहाँ ईश्वरीय आज्ञा होती है। जो उसकी आज्ञा की पूर्ति करता है, वह ईश्वर की ओर खींच जाता है। वहाँ ऐसे शब्दों में आज्ञा नहीं है, जैसे वर्णात्मक शब्दों में हमलोग बोलते हैं। सार्थक शब्द वा वर्णात्मक शब्द में वह आज्ञा नहीं है, सार्थक के अतिरिक्त निरर्थक या ध्वन्यात्मक शब्दों में है। निरर्थक का अर्थ बेकाम नहीं है, उसका अर्थ नहीं है। ध्वनि जो निकलती है-गाजे-बाजे बजते हैं, ध्वन्यात्मक शब्द हैं। इसका अर्थ नहीं होता, लेकिन बड़ा काम का शब्द है, बड़ा आकर्षक है। बाजे बजते हैं, उसका बड़ा आकर्षण होता है। आज्ञाचक्र में जो आवाज होती है, उसको बजानेवाला दूसरा कोई नहीं है, परमात्मा है। वह ईश्वर की ओर से आज्ञा समझो। इसको साधक जानते हैं। आज्ञा में यही भाव है कि ईश्वर कहता है कि तुम मेरे तक आओ। तुमको ध्वन्यात्मक शब्द का सहारा दिया, यहाँ आओ। लेकिन उस आज्ञा को आज्ञाचक्र में जानोगे। जो आज्ञाचक्र में साधना करते हैं, तो उनको खास तरह से विदित होता है कि ध्वन्यात्मक शब्द है, आकर्षक है, अपने उद्गम स्थान पर खींचता है। इस आज्ञा को जो पकड़ता है, उस ओर खींचा जाता है। वह ईश्वर की आज्ञा मानता है। अथवा पकड़ने की कोशिश करता है, वह ईश्वर की आज्ञा को मानता है। अथवा पकड़कर धरे रहता है, वह ईश्वर की आज्ञा को मानता है। भक्ति कहते हैं-सेवा को। जो अपने अन्दर उस शब्द पकड़ता है, वह ईश्वर की आज्ञा को मानता है। यह ऊँचे दर्जे की बात है। इसकी ऊँचाई से भी कम की बात है, वह है कि ईश्वर का गुण गाओ। ईश्वर-भक्ति में तीन बातें होती हैं-स्तुति, प्रार्थना और उपासना। स्तुति कहते हैं गुणगान करने को। प्रार्थना कहते हैं नम्रतापूर्वक कुछ माँगने को, विनती करने को। उपासना है-ईश्वर में मन लगाना। इसके लिए जप और ध्यान खास है, जो कि एकान्त में बैठकर लोग करते हैं। वैसे तो स्तुति और प्रार्थना भी आराधना के अन्दर है, जब स्तुति-प्रार्थना को उससे हटा देते हैं तो जप-ध्यान ईश्वर की आराधना है। ईश्वर का गुणगान सबको करना चाहिए। जप,ध्यान पीछे, लेकिन स्तुति-प्रार्थना पहले। साधु-संत, भक्तजन के संग बैठकर सीखो कि स्तुति कैसे होती है? ईश्वर का गुण गावे, तो वह जान सकता है कि ईश्वर में जो अद्भुत शक्ति है, उससे वे मनुष्य को बहुत लाभ पहुँचाते हैं, बात-बात में पहुँचाते हैं। देखो, हवा का भोजन दिन-रात मिलता है। सिवा ईश्वर के कौन दे सकता है! हवा के बिना जी नहीं सकते। इसलिए स्वप्न में भी श्वास लेते हैं। हमलोग प्रातःकाल सूर्य का दर्शन करते हैं। सूर्य नहीं रहे तो हमारा जीवन नहीं रहे। सूर्य के कारण ही हवा में वेग आता है, बादल बनता है, वर्षा होती है, अन्न-फल होता है, उससे पालन-पोषण होता है। इस सूर्य का देनेवाला ईश्वर के सिवा और कोई हो नहीं सकता। ईश्वर की कृपा से होता है। संसार से सूर्य उठ जाए तो संसार तहस-नहस हो जाए। जो कोई आज्ञा मानते हैं, ईश्वर के शब्द को पकड़ते हैं, तो इस तरह भी ईश्वर की उपासना वा भजन करते हैं। यह अवश्य करना चाहिए।
 मनुष्य को कुछ-न-कुछ इच्छा रहती है। किसी न चाहकर ईश्वर से चाहो, तो ठीक है। ऐसा कुछ नहीं जो ईश्वर के द्वारा नहीं मिल सकता है। इसीलिए स्तुति करो। जो उपकारक की सेवा स्तुति के रूप में नहीं कर सके वा उसका शब्द नहीं पकड़े, तो वह कृतज्ञ नहीं है, कृतघ्न है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने बहुत जोरदार शब्दों में कहा है कि वह आत्मघाती है-‘आतमहन गति जाय।’ अपने से अपने को दुःख में डालना, अपने से अपने को हनन करना ‘आतमहन’ है। किसी को ‘आतमहन’ नहीं होना चाहिए। इसलिए प्रातःकाल ईश्वर की स्तुति करते हैं-
     सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर, औरु अक्षर पार में ।
     निर्गुण सगुण के पार में, सत् असत् हू के पार में ।।..
 जो पढ़े-लिखेे हों, वह याद कर लो; जो पढ़े-लिखे नहीं हों, वह भी सुन-सुनकर सीख लो और रोज करो। सबलोगों के बीच में इसीलिए स्तुति करते हैं कि सुनते-सुनते सीख जाते हैं। इसलिए सामूहिक स्तुति अवश्य करो और अकेले में भी करो। संत के बिना ईश्वर का ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए संत का बड़ा उपकार हमलोगों पर है, उनकी भी स्तुति करो। संत-महात्मा लोग गुजर गए हैं, उनके वचन हमको मिलते हैं। संतलोग जबतक जीवित रहते हैं, बड़ा उपकार करते हैं। जब शरीर नहीं रहता, तो वे अपना ज्ञान छोड़ जाते हैं। दोनां तरहों से हमारा उपकार होता है। इसलिए उनकी भी स्तुति करो। संत तो उपकारक होते ही हैं, गुरु और भी अधिक उपकार करते हैं। संतलोग गंगा की तरह पवित्र धारा है। जैसे गंगा बहती रहती है, वैसे वे चलते-रहते हैं। उन्हीं में से गुरु होते हैं, वे अपने शिष्यों की सम्हाल करते हैं। जहाँ तक हो सकता है उपदेश देते हैं, ज्ञान देते हैं, ध्यान की प्रेरणा देते हैं। इसलिए गुरु की भी स्तुति करो, नहीं तो कृतघ्न होने का पाप लगता है, इस पाप से बचो। पाप कोई भी अच्छा नहीं, लेकिन यह पाप सब पापों का सरदार है, इससे बचो। अपने मन को गुरु-संतों के चरणों में झकाए रहने से ज्ञान की ओर मन लगता है। यह सब लोगों को करना चाहिए। फिर ईश्वर के नाम का लोग बहुत गुणगान करते हैं। जैसे ईश्वर का गुणगान, वैसे ईश्वर के नाम का गुणगान होता है। जितने भी ईश्वर के नाम हैं, सभी शब्द-ही-शब्द हैं। लेकिन यह शब्द वर्णात्मक है, सार्थक है। इसके अतिरिक्त ध्वन्यात्मक शब्द है, वह आज्ञाचक्र में मिलता है, वह पकड़ो-
 श्रवणात्मक ध्वन्यात्मक, वर्णात्मक विधि तीन ।
 त्रिविध शब्द अनुभव अगम,तुलसी कहहिं प्रवीन ।।
 श्रवणात्मक और वर्णात्मक; दोनों को कान से सुनते हैं, लेकिन जो ध्वन्यात्मक है, वह कान से नहीं सुना जाता, सुनने के ढंग से अन्दर में सुना जाता है। श्रवणात्मक शब्द में बाहरी ध्वन्यात्मक शब्द भी है, लेकिन भीतरी शब्द की बात जो पहले कहा, वह शब्द भी जानो। इसलिए-
अव्यक्त अनादि अनन्त अजय, अज आदि मूल परमातम जो।
ध्वनि प्रथम स्फुटित परा धारा, जिनसे कहिए स्फोट है सो।।
 स्फोट शब्द वर्णात्मक में कहा, लेकिन उसका अर्थ नहीं होता। इसीलिए कहा-‘ध्वनि प्रथम स्फुटित परा धारा, जिनसे कहिए स्फोट है सो।’ ईश्वर का ध्वन्यात्मक नाम को भजन से पकड़ा जाता है। ईश्वर के वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक; दोनों नामों को जानो। इस तरह ईश्वर की उपासना करो, ईश्वर की स्तुति करो, प्रार्थना करो। संतों की स्तुति करो, प्रार्थना करो। गुरु की स्तुति करो, प्रार्थना करो। नाम के दोनों भेदों को जानो और करो। फिर अपने सिद्धान्त को भी जानो। किसी मत वा धर्म का कहलाओ और अपने धर्म का सिद्धान्त नहीं जानो, तो उस सिद्धान्त के अनुसार चल नहीं सकोगे। जानो और याद रखो। जो याद नहीं रखेगा, वह क्या करेगा? इसलिए गद्य-पद्य दोनों में पाठ करते हैं। यह धर्म क्या है, संतों का ज्ञान क्या है? इसलिए उसकी परिभाषा पढ़ते हैं। यह भी अवश्य चाहिए। इसकी क्या उपयोगिता है, इसलिए मैं यह कहा। उपकारक का हम कृतघ्न हैं, यदि हम स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करते हैं। जब देशी राजाओं को राज्य था, उन राजाओं की कमजोरी से राज्य रक्षा की व्यवस्था ठीक नहीं रह सकी। दूसरे देश के लोग आए और देशवासी को हजार वर्षों तक दबाए रखा। लोगों को बड़ा अखरा कि हम पराधीन हैं, इसको हटाओ। उस समय के विद्वानों ने, ज्ञानवानों ने विचारा कि उससे लड़ने के लिए हमारे पास लड़ने की विद्या नहीं, धन नहीं, हथियार नहीं कैसे लड़ेंगे? तो कहा कि लड़ने के लिए बुद्धि से लड़ो। जितने कोई हो, एकमत हो जाओ। यही बात हुई और उसको बुद्धि से हटाकर भगा दिया। नहीं तो उनसे लड़कर जीत नहीं सकते थे। वह कटू उक्ति से नहीं, नम्रतापूर्वक कहा तो प्रबल शासक चला गया। एकमत होने से कितना लाभ हुआ, देखिए। एकमत में आनेवाला आपस का प्रेम है और प्रेम में लानेवाला सच्चाई है, ज्ञान है। जो ज्ञान है, वह धर्म-ज्ञान है, इसको रखना चाहिए। धर्म-ज्ञान में दूर-दूर देश के लोग भी मिलकर एक हो जाते हैं। संतों का ज्ञान गंभीर है, उच्च है। ज्ञान में सब एक मेल होकर रहिए। मेल रखनेवाला प्रेम है। प्रेम को दृढ़ करनेवाला है सच्चाई। प्रेम रखिए, मेल रखिए। आपस में मिलकर प्रार्थना कीजिए। आपके यहाँ लोग प्रति शुक्रवार को सामूहिक प्रार्थना करते हैं, उनके भी मन्दिर हैं, उसको मस्जिद कहते हैं। बड़ा अच्छा है। आप भी सब कोई मिल-जुलकर सत्संग करें। अखिल भारतीय सत्संग होता है। यह भी सब कोई मिलकर करें। पहले गाँव के वास्ते, फिर देश के वास्ते, फिर संसार के लिए करें। इस संसार से जो गत हो गया, उसके लिए भी लाभदायक है। सबको चाहिए कि ईश्वर की स्तुति, गुरु की स्तुति, संत की स्तुति करें, फिर स्थूल और सूक्ष्म उपासना करें।
 पहले विद्या लिखी नहीं जाती थी। बड़े-बड़े विद्वानों के मस्तिष्क में रहती थी। मौखिक ही लोग सीखते थे। जबसे स्मरण शक्ति घटी तो विद्वानों ने उसको कागज में लिखकर रखा। जड़ में लिखने की विद्या नहीं थी, स्मरण रखने के लिए कहा जाता था। जो पढ़े-लिखे नहीं हों, वह सत्संग में आकर बैठो, सुनो, समझो। होते-होते हो जाएगा।
यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत ग्राम-गैदूहा में दिनांक 13. 4. 1970 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।


05. माया में सुख नहीं (III)

प्यारे लोगो !
 ज्ञानियों ने कहा है कि यह संसार ईश्वर की माया है। ईश्वर की माया को सब लोग पकड़े हुए हैं। सब इस माया के अन्दर में सुख पाना चाहते हैं। परन्तु कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो ईश्वर की माया को पकड़ना पसन्द नहीं करते। ईश्वर को ही पकड़ लेना पसन्द करते हैं, परन्तु दोनों की एक ही चाह है कि सुख हो। ईश्वर की माया को पकड़कर सुख पाना चाहते हैं। उसी तरह ईश्वर को पकड़कर भी सुख पाना चाहते हैं।
 जो माया को पकड़कर सुख पाना चाहते हैं, वे नहीं समझते हैं। जो ईश्वर को पकड़ कर सुख पाना चाहते हैं, वे समझते हैं। माया उसको कहते हैं, जो जिस तरह मालूम हो उसी तरह नहीं रहे। सुखदाई मालूम पड़े, लेकिन है दुखदाई। उसकी स्थिति मालूम पड़े, लेकिन उसकी स्थिति है नहीं। और इसकी उपमा देकर कहते हैं-
रजत सीप महँ भास जिमि, जथा भानुकर बारि।
जदपि मृषा तिहुँ काल सो, भ्रम न सकइ कोउ टारि।।
एहि विधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
मतलब यह है कि सीप में चाँदी का भास होता है, लेकिन चाँदी है नहीं। इसी तरह ईश्वर की माया भासमान है। उसकी स्थिति जान पड़ती है, परन्तु स्थिति है नहीं। केवल भ्रम से ही ऐसा मालूम होता है। धूप की
चकमकी में, खासकर रेगिस्तान में बालू पर बड़ी चकमकी होती है। इससे जैसे पानी मालूम पड़ता है, पानी का हिलोर मालूम पड़ता है, लेकिन पानी है नहीं। इसी तरह ईश्वर की माया है-मालूम पड़ती है; लेकिन है नहीं। इसको जानना चाहते हो तो अन्दर घुसो तो पता लगेगा कि स्थिति इसकी नहीं है, स्थिति ईश्वर की है। जो ऐसी चीज है, उसको पकड़कर यदि कोई सुखी होना चाहते हैं, तो उसको पकड़कर कैसे सुखी हो सकते हैं? जो ऐसा मालूम पड़ता है कि है, लेकिन है नहीं, तो उसका सुख कैसा होगा? सुख मालूम पड़ता है, लेकिन सुख है नहीं।
 भोजन करते हैं; स्वाद अच्छा लगा, सुख मालूम हुआ, भोजन करना छोड़ दिया, भोजन की रुचि नहीं है, तब जो सुख भोजन करते समय होता था, सो रहा नहीं। इसी तरह संसार का सुख है। स्वाद-सुख के लिये भोजन की ओर लोग चलते हैं और भोग करते चले जाते हैं, कभी तृप्ति नहीं। सब दिन इच्छा बनी रहती है-तृष्णा बढ़ती जाती है। सुख पाने भोजन के पीछे चले थे; लेकिन मिलता दुःख है। यह एक मिसाल कहा। इसी तरह तलाश करनी चाहिए कि सुख है कि नहीं?
 माया के पदार्थों में खोजने पर सुख नहीं है। माया के अतिरिक्त परमात्मा या ईश्वर बच जाते हैं। इनकी निस्बत जो ख्याल करते हैं तो कहते हैं कि वे सुख-स्वरूप हैं, शान्ति-स्वरूप हैं। उन शान्ति-स्वरूप को ही पकड़ा जाय। माया की स्थिति नहीं है, ईश्वर की स्थिति है।
क्योंकि संसार में सब पदार्थों पर ख्याल करने पर ऐसा मालूम होता है कि सभी सान्त है। ईश्वर की माया इन्हीं सान्त-पदार्थों में बँटकर है। यह बाँट लोगों को इन्द्रियों में मालूम पड़ता है। जिभ्या में रस का स्वाद, नासिका में गंध का स्वाद, कान में केवल मीठे-शब्द का स्वाद वा कडुवा-शब्द का कडुवा-स्वाद, नेत्र में केवल रूप का स्वाद, ये बँट-बँट कर स्वाद मालूम पड़ते हैं। रूप-रंग देखो तो और भी बाकी रह जाता है। रूप भी भिन्न है। इसी तरह बाजे-गाजे का शब्द है। किसी में तृप्ति नहीं। इच्छा बढ़ती जाती है, तृष्णा बढ़ती जाती है। इसी तरह घ्राण-शक्ति में है, तृप्ति नहीं होती। त्वचा में नाना प्रकार का स्पर्श हो, लेकिन स्पर्श-सुख भी शान्तिदायक नहीं। वहाँ भी तृष्णा बढ़ती जाती है। इसके वास्ते लोगों की दुर्दशा-दुर्दशा हो गई है। माया के अन्दर यही सुख है-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द। और तो जान पाते नहीं।
 ज्ञानी लोग यह देख कर बताते हैं कि आगे बढो। परमात्मा की माया ऐसी ही है। परमात्मा को पाओ तो परमात्मा में जो सुख है, उसको पाओगे। परमात्मा में जो नित्यानन्द है-परमानन्द है, वही आप को भी मिलेगा, परम-तृप्ति होगी। भक्त सूरदासजी ने कहा है-
परम स्वाद सबही जु निरन्तर, अमित तोष उपजावै।
मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै।।
 वह स्वाद कैसा है? किसी को पता नहीं। वह स्वाद जबसे लगता है कभी छूटता नहीं। परन्तु यह इन्द्रिय के द्वारा जानने योग्य सुख नहीं है। केवल आत्मा के द्वारा ही जानने योग्य है। ईश्वर का दर्शन, ईश्वर की प्रत्यक्षता, ईश्वर में जो आनन्द है, सभी आत्म-गम्य है, इन्द्रिय-गम्य नहीं है। यह बात ज्ञानी लोग कह कर समझा देते हैं। इसलिये कहते हैं कि उधर चलो। ईश्वर की माया में लगे नहीं रहो। ईश्वर की प्राप्ति में ऐसी तृप्ति होगी, कि दुःख का पता नहीं रहेगा। संसार में किधर चलो-उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम? संसार में किसी तरफ जाओ, इन्द्रिय-ज्ञान में ही रहना पड़ेगा। इन्द्रिय-ज्ञान में कभी तृप्ति होती नहीं। ज्ञानी लोग कहते हैं अपने अन्दर जाओ। अपने अन्दर में हो सही, लेकिन जितने अन्दर में हो उससे और अन्दर में जाओ। जैसे बाहर संसार विशाल है, उसी तरह अपने अन्दर का संसार विशाल है।
 जाग्रत में रहते हो, स्वप्न में रहते हो, सुषुप्ति में रहते हो, इनसे ऊपर जाओ। तीन अवस्था में सोया रहता है। सोने की अवस्था में अपनी चीज को नहीं जानता, अपने को नहीं जानता। इसलिए चौथी अवस्था में चलो। तब पता लगेगा कि ब्रह्मानन्द उसका स्वभाव ही है। तृष्णा से छुड़ाकर, पूर्ण सन्तुष्ट बनाकर रखता है। ऐसा सुख ईश्वर की खोज में चलते-चलते ईश्वर को पाकर होगा। अपना भी ज्ञान नहीं है। अपनी भी खोज अपने अन्दर करनी होगी।
सबको प्रत्यक्ष है कि शरीर नाशवान है। शरीर छूटता है, इसको जला देता है; गाड़ देता है। यह शरीर पानी से बना है यानी पानी से पिण्ड बना है। फिर बचपन और जवानी आई, वयस बढ़ा। वयस के अनुकूल शरीर बढ़ता गया। सुन्दरता आती गई और फिर वह सुन्दरता नहीं रहती। फिर ऐसा होता है कि जैसे पहले इसका पता नहीं था, वैसे ही पता नहीं रहता है।
 हर एक को यह विदित है कि मैं अपने शरीर में हूँ। इसलिए अपने अन्दर खोज करो। अपने अन्दर रहकर ही आत्म-ज्ञान होगा। इसके लिये जो अन्दर धँसता है, वह जगता है। जगना ऐसा होता है कि तीन अवस्था से ऊपर उठता है। तीन अवस्थाओं के स्थान आँख से नीचे भिन्न-भिन्न स्थानों को योगियों ने प्रत्यक्ष कर देखा है और लोगों को बताया है। इसका पता योग के ग्रन्थ में है। साधक को ग्रन्थ के अनुकूल अपने आप होता है। अन्दर में जो आँख से ऊपर उठता है, वही यथार्थ-ज्ञान पाता है। ऊपर की ओर उठना वह काम नहीं है जो संसार में है। इसमें तो यह काम है कि अपने को फैलाव से सिमटाव में लाओ। यही चित्तवृति का निरोध है। इतना समेटो कि फिर उससे अधिक सिमटाव नहीं हो। इतना सिमटाव कि एकविन्दुता आ जाए। इसकी बड़ी महिमा है। यह तीन अवस्था से ऊपर ले जाता है।
 सिमटी चीज ऊपर जाती है और फैली चीज नीचे गिरती है। इसलिए चित्तवृत्ति का निरोध करते हैं। पहले जप करते हैं। किसी रूप का ध्यान करते हैं। अच्छे गुरु के ज्ञान से एकविन्दुता प्राप्त करने का यत्न
जानते हैं। तब पूर्ण सिमटाव होता है। एक विन्दुता होने पर तब वह जागता है। वह देखता है कि-
सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी।
सोइ हरि पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाही।
तुलसिदास एहि दशा हीन, संसय निर्मूल न जाहीं।।
 जो इस दशा को पाता है, वही हरि-सुख का पता पाता है।
       गोस्वामी तुलसीदासजी ने एक पद्य में कहा है-
तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त।
मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनन्त।।
भक्त सूरदासजी ने कहा है-
 अपुनपौ आपुन ही में पायो।
सन्त कबीर साहब कहते हैं-
 परमातम गुरु निकट विराजै, जागु जागु मन मेरे।
 परमात्म-गुरु अपने अन्दर हैं। तब इससे निकट और क्या होगा ? तीन अवस्था में रहकर कितना भी ज्ञान बक जाओगे, कितना भी ज्ञान पढ़ लोगे, प्रत्यक्षता नहीं होगी। चौथी अवस्था में जाओ। इसी को कबीर साहब ने कहा है-जगो, परमात्मा प्रत्यक्ष होंगे। इसमें बात है कि कब काल ग्रस लें, ठिकाना नहीं है। इसलिए शीघ्र सद्गुरु की खोज करके उनके चरण में लगो। ध्यान करो; माया की ओर से छुटाव होगा।
पूर्णता की ओर चलकर, पूर्णता में पहुँच कर पूर्ण होओगे।
 वह पूर्णता क्या है? परमात्मा। चाहिए सद्गुरु, सत्संग। सद्ज्ञान जो जानते हैं, सद्भाव की युक्ति जानते हैं। अपने साधन करते हैं, औरों को उसमें लगाते हैं, ऐसे को सद्गुरु कहते हैं। ऐसे की शरण में जाओ, साधन करो। साधन ऐसा कठिन नहीं कि लोग नहीं कर सकें। सरल काम है, ख्याल लगाना सभी से होगा। कैसे ख्याल लगावें, गुरु से जानो। जो इन बातों को जानते हैं, उनको लोग ज्ञानी कहते हैं।
 संयमी होकर रहो। जो संयमी होकर रहते हैं, वे संसार में भी सुखी होते हैं और ईश्वर की ओर बढ़ते-बढ़ते सुखी होते जाते हैं। ईश्वर को पाकर परम-सुखी हो जाते हैं। फिर संसार की कोई इच्छा नहीं रह जाती। चाहिए ऐसा सत्संग किया जाय। संयमित होकर रहना तप है। इसके लिए क्या करना होगा? पहली बात है-झूठ को छोड़ देना। दूसरी बात है-किसी किस्म की चोरी नहीं करनी। तीसरी बात है-व्यभिचार नहीं करना। चौथी बात-नशा नहीं लेना। पाँचवी बात है-हिंसा नहीं करनी। इस सिलसिले में निरामिष-भोजी बनो। यह देश तो ऐसा है कि निरामिष-भोजी होकर रहना सरल है। संसार में ऐसा भी देश है जहाँ निरामिष होकर रहना कठिन है। आमिष में पाशविक-गुण रहता है। पाशविक-गुणों को बढ़ाने से अन्तस्साधना, ईश्वर में प्रेम होना असम्भव है। इसलिए ईश्वर के प्रेमी को पंच पापों से छूटकर रहना आवश्यक
होता है। जो पंच पापों से छूटकर रहता है, संसार में वह पूज्य होता है। उसकी तृष्णा छूटती जाती है। लोभ-लालच छूटते जाते हैं। तब यह छूटने का जो लाभ है, सो होता है। न पैसा बहुत चाहिए, न अन्न बहुत चाहिये। अवगुणों को छोड़ता हुआ सद्गुणों को ग्रहण करते रहने से संसार में सुखी रहता है।
 धर्म वह है जिससे इहलोक और परलोक, दोनों में सुखी रहा जाय। जो पंच पापों से छूट कर रहता है, वह उत्तम परलोक पाता है और अन्त में परमात्मा को भी पाता है । संसार की आसक्ति छूटती जाती है। ईश्वर-भजन में मन लगता है। विकारों से छूटनेवाला ईश्वर की ओर बढ़ता है। जो ईश्वर की ओर बढ़ता है, पापों से छूटता है। लोगों को चाहिए कि ईश्वर का भजन करें। संसार का काम छूटता नहीं। खेती, व्यापार, नौकरी करते हुए लोग ईश्वर-भजन करें। संयमित रहने से नौकरी में, खेती में, वाणिज्य.व्यापार में किसी में हानि नहीं। नित्य सत्संग करना चाहिए।
‘बिनु सत्संग भगति नहिं होई।’
(थाना बिहपुर, भागलपुर, 27.10.1970 ई0)



21. नैन नगर से रास्ता का आरंभ

प्यारे लोगो!
 सन्तमत मनुष्य के उद्धार का ठीक-ठीक मार्ग बता गए हैं। इसी को सन्तमत कहते हैं, सन्त-पन्थ कहते हैं और जिन विचारों के द्वारा उस पन्थ को स्थिर किया जाता है, उन सब विचारों को मिलाकर सन्तमत कहते हैं। पन्थ कहते हैं-रास्ता को, जिस पर कोई चलता है। चलकर कहीं-से-कहीं तक पहुँचता है। रास्ता लकीर है। जिस रास्ते पर हमलोग पृथ्वी पर चलते हैं, वह मोटी लकीर है। ईश्वर तक पहुँचने के लिए भी रास्ता है या परम-कल्याण में पहुँचना है। सन्तों ने बताया है कि ज्ञानी-लोग जो कहते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापक है, तो वह तमाम हई है, जाना कहाँ है? मैं जवाब में कहता हूँ कि ईश्वर तक जाना उनकी सर्वव्यापकता के कारण कहीं नहीं है। वे प्राप्त ही हैं, तो क्या आपको प्राप्त है? केवल ज्ञान का निरूपण नहीं कीजिए। ठीक-ठीक कहिए की ठीक-ठीक प्राप्त आपको है? जो वाद-विवाद वाले नहीं हैं, ठीक जानना चाहते हैं, वे कहते हैं कि नहीं, प्राप्त नहीं है, पहचान नहीं है। मैं कहता हूँ-ईश्वर को पहचानने के लिए ही जाना है। जहाँ जाकर ईश्वर की पहचान हो, वह ईश्वर कैसा है? यह जानना होगा और जिस विधि से उस रास्ते पर जाना होगा, उस विधि को भी जानना होगा। केवल बात की बात में रहो, विधि नहीं जानो, जाओ नहीं, तो ईश्वर प्राप्त नहीं हो सकता। ईश्वर का ज्ञान गंभीर है और तीव्र-बुद्धि के द्वारा उस बात को लोग जान सकते हैं। सुनकर जान लें और अपने में धारण नहीं करें यानी स्मरण नहीं रखें, तो लाभ नहीं हो। सुनो, जानो और अपने अन्दर धारण कर लो। एक तो ग्रहणशीला-बुद्धि होती है। दूसरी बुद्धि समझ सकती है, धारण नहीं कर सकती है। धारण करनेवाली बुद्धि श्रेष्ठ है। इसीलिए लोग विद्याभ्यास करते हैं। जैसे खेत अच्छी तरह जोतते हैं, तो फसल अच्छी होती है; उसी तरह विद्याभ्यास से मस्तिष्क की जुताई होती है और तब जो कुछ कहा जाता है, ग्रहण करता है। सभी कोई विद्यालय नहीं जा सकते, तो सन्तों से कहा-‘सत्संग करो।’ सत्संग ही विद्यालय है। सत्संग करते-करते, बहुत सुनते-सुनते बुद्धि में धारण करने की शक्ति होती है। यह मैंने प्रत्यक्ष देखा है। जो भैंस चराता था, वह सत्संग में बैठकर बहुत बातों को जान गया। मैंने 1922 ई0 में छपरा शहर में देखा। मेरा वासा सरयू के छाड़न में था। लोग सत्संग करते थे। उसी में वह भी आता था। उसकी एक बात सुनकर मैं चकित हो गया। अपनी उक्ति से उन्होंने कैसे कहा? मैंने पूछा-यह कैसे आपने कहा? उन्होंने कहा-एक महात्मा नानकपन्थी थे, उससे सुना। मैंने अपने लिए भी देखा है; सत्संग करते-करते बहुत कुछ सीखा है। विद्यालय में विद्या- धारण करते-करते बहुत विशेष होते हैं। उसी तरह सत्संग करते-करते भी विशेष होते हैं। लोगों को सत्संग में आना चाहिए।
 ईश्वर का ज्ञान सन्तों ने बड़ा विकट कहा है। जैसे सूरदास जी कहते हैं-
अविगत गति कछु कहत न आवै ।
ज्यों गूँगहि मीठे फल को रस, अन्तरगत हो भावै ।
परम स्वाद सबही जु निरन्तर, अमित तोष उपजावै ।।
मन बानी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै ।
रूप रेख गुण जाति जुगति बिनु, निरालंब मन चक्रित धावै ।
सब विधि अगम विचारहिं तातैं, सूर सगुन लीला पद गावै ।।
 उस सर्वव्यापक की गति कहने में नहीं आती है। जैसे कोई गूँगा आदमी है। वह मीठा फल खाया, उसका स्वाद वह जानता है; लेकिन कह नहीं सकता। उसको अन्दर-अन्दर बहुत अच्छा लगता है। संसार में जितने स्वाद हैं, किसी की तरह भी वह स्वाद नहीं है। जब से वह स्वाद लगता है, सदा लगा ही रहता है। संसार का भोग जबतक भोगो, तबतक स्वाद लगता है। भोग छोड़ने पर फिर वैसा स्वाद नहीं लगता; लेकिन उसमें ऐसी सन्तुष्टि होती है-कहा नहीं जा सकता। मन से ग्रहण नहीं होता। वाणी से कहा नहीं जा सकता। उसकी प्राप्ति का गुण उन्होंने गाया। जिसको प्राप्ति होगी, वह किसी दूसरे से नहीं पूछेंगे कि ईश्वर कैसा है? उनकी जानकारी में यह है, वह नहीं, ऐसी बात नहीं। ईश्वर मायातीत है, माया उसकी है। माया क्या है?
          गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानेहू भाई ।।
          -गो0 तुलसीदासजी
 मन की गति और इन्द्रियों को प्रत्यक्ष क्या है? रूप, रस, शब्द, स्पर्श और गन्ध। मन को यही ग्रहण है। मन इन्हीं पाँच विषयों तक जाता है; परन्तु ईश्वर इन विषयों से न्यारा है। वह रूप नहीं, रस नहीं, गंध नहीं, स्पर्श नहीं और शब्द नहीं। मन क्या जानेगा? इन्द्रियों को वह क्या प्रत्यक्ष होगा? ईश्वर को स्वरूपतः जानो, पहचाना तो नहीं; लेकिन जाना। जब पाओगे तो जानोगे कि ईश्वर को पाया। कहाँ तक जाओ कि पहचान हो? मन और इन्द्रिय-ज्ञान को पार करो। मन की जानकारी जहाँ तक है, उसको पार करो।
 रास्ता बहुत लम्बा है। रास्ता का आरंभ वहाँ से है, जहाँ जाग्रत-अवस्था में जीव बैठा रहता है।
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
          -गो0 तुलसीदासजी
 वहाँ तक जाओ। यह रास्ता किसी का बनाया हुआ नहीं है। सन्तों ने पहचानकर जाना है। सन्तों ने कहा कि आरम्भ को पहले जानो। यह रास्ता मिट्टी पर का नहीं है। यही सूक्ष्म-मार्ग है।
 मैं सन्तसेवीजी का प्रवचन सुनता आ रहा था। वे कह रहे थे-‘खंनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा।’ नैन नगर से रास्ता का आरम्भ होता है। जो कोई उसके आरम्भ को जानते हैं, वे बाहर का रास्ता भूल जाते हैं। चाहे अल्प-काल ही हो। अंधकार से रास्ता आरम्भ होता है। कोशिश करो, तो मालूम होता है कि प्रकाश के अन्दर से गुजरना होता है। अन्तर प्रकाश ही नहीं, अन्तर्ज्योति होकर जाना होता है और अन्तर्नाद सुनने को मिलता है। इसकी समाप्ति होने पर रूप, रस आदि कुछ नहीं रहते। माया वाला ज्ञान से छूट जाओगे, तब जो पाओगे, वह ईश्वर है। यह ध्यान का मार्ग है। अंधकार, प्रकाश और शब्द होकर गुजरता है। शब्द के अन्त पर ईश्वर को पाता है। किसी भी अध्यात्म-ग्रन्थ को पढ़िए, सबमें यही बात है।
 इसके लिए अपना आचरण पवित्र रखो। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार-इन पंच पापों को छोड़ो। मन के अभ्यास के कारण यदि बारम्बार गिर जाते हो, तो ऐसा न समझो कि गिरते ही रहोगे। फिर ऐसा भी मालूम होगा कि इनसे छूटा हुआ है। सदाचार का पालन करते हुए जो ध्यान करेगा, वह अगम-अगोचर को पावेगा। ऐसे रहोगे, तो संसार में पूज्य होओगे; साथी अधिक हो जाएँगे। जहाँ ऐसे अधिक लोग होंगे, वहाँ शासन-प्रणाली अच्छी होगी। स्वराज्य में सुराज होगा। मेधवी बनो। सुनकर जिसको याद हो, वह मेधवी है। सुना, याद नहीं रहा, तो वह मेधवी नहीं। यही थोड़ा-सा कह दिया।
 
[महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर, 13.07.1970 ई0]


९३. दो प्रकार के भक्त होते हैं

"बंदऊँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर॥"
प्यारे लोगो!
मैं जो कुछ कहूँगा और मेरे साथी लोग जो कुछ कहते हैं, सो सब ईश्वर-सम्बन्धी बातें ही हैं। ईश्वर की भक्ति के सम्बन्ध में जो बातें चाहिये, वे ही बातें होती हैं। कारण है कि -
श्रुति पुरान सदग्रन्थ कहाहीं। रघुपति भगति बिना सुख नाहीं॥
इस सम्बन्ध में सन्तसेवी जी के प्रवचन में आपलोग बहुत सुन चुके हैं। उस पर मुझे कुछ कहना नहीं है। दो प्रकार के भक्त होते हैं। एक वह कि जैसा रंग-रूप में हम भगवान् को चाहते हैं, वैसे रंग-रूप में आकर वे मुझे दर्शन दें। दूसरा यह चाहता है कि – मैं अपनी ओर से क्या कहूँ आने के लिए, वे तो सर्वव्यापी हैं ही। इसलिये हे प्रभु! मुझे वैसा बना दीजिये कि मैं आपके सर्वव्यापक-स्वरूप को देख सकूँ। सन्तलोग, गुरु-लोग कहते हैं कि तुम ऐसा प्रयास करो कि तुम स्वयं वहाँ जा पहुँचो, जहाँ ईश्वर की पहचान हो। फिर यह ज्ञान उदय होता है कि जाऊँ कहाँ? वह तो सर्वत्र है। तब अड़चन क्या है कि यहाँ पहचान नहीं होती? गुरु कहते हैं- तुम इन्द्रिय-ज्ञान में बराबर रहा करते हो। कभी जाग्रत् में, कभी स्वप्न में, कभी सुषुप्ति में रहते हो। इन तीनों अवस्थाओं में तथा इन्द्रिय-ज्ञान में रहकर ईश्वर-दर्शन नहीं होता है। इस बात को याद रखो। जो इस बात को याद नहीं रखता, वह वहाँ ईश्वर के लिये दौड़ता है, जहाँ ईश्वर की प्रत्यक्षता नहीं है।
अर्जुन अपने पुत्र के निधन पर शोकित था। श्रीकृष्ण भगवान् उसको चन्द्रलोक ले गये और उसके बेटे को दिखलाया। वहाँ बेटा-बेटा कहकर अर्जुन ने उसको पुकारा। वह बड़ा फटकारा और कहा- यहाँ कौन तुम्हारा बेटा है? एक समय था, जब मैं तुम्हारा बेटा था। अब वह समय चला गया, तुम जाओ। आज के वैज्ञानिक लोग चन्द्रलोक गये हैं। लेकिन उनको पता नहीं लगा है कि वहाँ, कहाँ क्या-क्या है? उनको हारमोनियम जैसी आवाज सुनाई दी थी। कहीं भी जाओ जहाँ तक पाँच तत्व हैं, स्थूल वा सूक्ष्म है, जहाँ तक इन्द्रिय-ज्ञान में जाओ; माया का ज्ञान है। कहीं भी ईश्वर-दर्शन नहीं होगा। यह सुनकर लोग समझेंगे कि धामों का खण्डन हो गया और हमलोग धाम-दर्शन के लिये जाते हैं। मैं सत्य कहता हूँ, चाहे खण्डन हो वा मंडन हो। कितने धामों से घूम कर आये उन्होंने कहा कि प्रत्यक्ष-दर्शन नहीं हुआ। यदि मेरी बात का विश्वास नहीं हो तो तीर्थों और धामों में घूम कर देख लो। ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान होने पर कैसा होता है? उपनिषद् कहती है -
भिद्यते हृदय ग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्व संशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे॥
अर्थात् परे-से परे ब्रह्म को देख लेने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं। यहाँ के बड़े-से-बड़े वैज्ञानिक स्थूल-जड़ के सभी सम्पूर्ण बातों को समाप्त नहीं कर सके हैं। सूक्ष्म-जड़ का पता नहीं लगा है। सन्तों का ज्ञान बड़ा विशाल है, जिसमें बड़े-बड़े वैज्ञानिक हैरान हो जायेंगे। लेकिन ईश्वर का ज्ञान इन्द्रिय-ज्ञान में नहीं हो सकता। मेरी बात लिखी जा रही है। यह बात तबतक रहेगी, जबतक पुस्तक रहेगी। यह मेरी बात नहीं, सन्तों की बात है। बड़े-बड़े उपदेशों को सुन जाओ, लेकिन केवल सुनने से ईश्वर-दर्शन नहीं होगा। जहाँ शरीर-इन्द्रिय से छूटना होगा, वहीं ईश्वर-दर्शन होगा। यह नमूना अच्छा है कि लोग धामों के दर्शन के लिये जाते हैं, तो यह जाना भी भक्ति है। लोग दण्डवत्-प्रणाम करते धामों को जाते हैं। कष्टों को उठाकर जाते हैं। मैंने सिकलीगढ़ धरहरा में सड़क पर जाते हुए लोगों को देखा है कि वे साष्टांग-दण्डवत् करते हुए सिंहेश्वर स्थान जाते हैं। कितने वैद्यनाथ जी जाते हैं। यह जाना उन धामों के देवों की भक्ति में दाखिल है। गंगा के किनारे जाते हैं, गंगा की ओर एक-एक डेग चलते हैं, यह चलना भी गंगा की भक्ति में दाखिल है। इसी तरह जो ईश्वर की ओर चलता है; ईश्वर की भक्ति है। ईश्वर की भक्ति कैसी है?
श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै।
रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै॥
नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै।
अङ्ग, बिना मिलिसङ्ग बहुत आनन्द बढ़ावै॥
बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिये रहै।
मिलि परमातम सों आतमा, पराभक्ति सुन्दर कहै॥
- सन्त सुन्दर दास जी
यह पराभक्ति है, स्थूल-भक्ति नहीं है। हाथ से पकड़ो, पैर से दौड़ो सो भक्ति नहीं है। यह तो वह भक्ति है, जिसमें बाहर से बिल्कुल चुप्प और अन्दर में यात्रा। सन्तलोग सरल-उपाय बता गये हैं, लेकिन लोग तो बाहर-बाहर ही दौड़ते हैं। तुलसीदास जी कह गये हैं
सुगम उपाय पाइबे केरे। नर हत भाग्य देहिँ भट भेरे॥
बाहर भ्रमण करते-करते लोगों को क्या-क्या हुआ, सो पुराण पढ़कर देख लो। बाहर में जो दर्शन होगा, वह माया का दर्शन होगा। माया के दर्शन में दुःख अवश्य उठाओगे। मनु-शतरूपा की कथा तुलसीकृत रामायण में लिखी है। और कश्यप-आदिति का तप भी लिखा है।
उन्होंने कितना तप किया? पढ़कर देखो। जैसे रूप का दर्शन चाहते थे वैसे रूप का दर्शन हुआ। वह क्या था? माया-रूप का दर्शन था, सो हुआ। उनसे माया का वरदान माँगा, यानी उनके जैसा पुत्र माँगा। कश्यप जी ब्राह्मण थे और क्षत्रिय हुये। ब्राह्मण का क्षत्रिय होना उनकी उन्नति नहीं कही जा सकती। दशरथ को कष्ट नहीं हुआ, दुःख नहीं हुआ, ऐसा रामायण नहीं बताता। उनको पुत्र नहीं था। तो उसके लिये वे दुःखी थे। तप के कारण शरीर में बहुत बल था। किन्तु मनोविकार नहीं छूटा था। इसलिये माया सम्बन्धी दु:ख उनका नहीं छूटा। गो० तुलसीदास जी साफ-साफ कहते हैं, छिपाते नहीं हैं। वे कहते हैं दशरथ कितने बलवान थे? सुरपति बसइ बाँहबल जाकें। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें।
ऐसे वे प्रभावशाली थे। फिर -
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई।
देखहु काम प्रताप बड़ाई॥
तुलसीदास जी की कलम से ऐसा लिखा गया, आश्चर्य की बात है। लेकिन क्या किया जाय? उन्होंने सत्य-सत्य लिखा जैसा लिखना था।
सूल कुलिस असि अंगबनिहारे।
ते रतिनाथ सुमन सर मारे॥
अब तुलसीदास जी और क्या कहेंगे? इसी से कहता हूँ। अगर रामायण सत्य है तो यह बात सत्य है। मैं अपने से देखकर नहीं कहता। मनोविकार पर दशरथ जी को विजय नहीं थी। लेकिन जो अपने अन्तर्मुख होते हैं और अभिलाषा रखते हैं कि शरीर-इन्द्रिय से हीन हो जाऊँ, तब दर्शन करूँ; तो उनको ये बातें होती हैं कि उनको निर्मायिक-रूप का दर्शन होता है, जहाँ कोई विकार नहीं, कोई कष्ट नहीं। गुणगान हमलोग भी करते हैं। लेकिन इसके आगे भी बढ़ो। केवल इतने में काम खत्म होता तो नौ प्रकार की भक्ति शबरी को भगवान् श्रीराम क्यों बताते? नवधा भक्ति में पहली भक्ति-सन्तों के संग, दूसरी भक्ति-कथा-प्रसंग में प्रेम, तीसरी भक्ति-मानहीन होकर गुरु की सेवा, चौथी भक्ति-कपट छोड़कर ईश्वर का गुणगान, पाँचवीं भक्ति-मन्त्र-जप, छठी भक्ति-दमशीलता, सातवीं भक्ति-शम का साधन, आठवीं भक्ति-यथा लाभ सन्तोष और नौवीं भक्ति में सरल एवं छल-हीन होने का वर्णन है। पाँच भक्ति तक लोग समझते हैं। लेकिन छठी और सातवीं भक्ति क्या है? समझते नहीं हैं।
छठ दमसील बिरति बहुकरमा। निरत निरन्तर सज्जन धरमा॥
सातव सम मोहिमय जग देखा। मोतें सन्त अधिक करि लेखा॥
श्रीराम ने शबरी से इन सभी प्रकार की भक्ति कही। शबरी की सभी भक्ति पूरी थी। श्रीराम ने कहा -
सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।
और उसका फल यह हुआ कि –
तजि जोग पावक देह हरिपद लीन भइ जहँ नहिं फिरे।
शबरी में शम-दम दोनों साधन थे। शम में जो पूर्ण होगा, वह ईश्वर-दर्शन करेगा। और तुलसीदास जी अपनी विनय-पत्रिका में कहते हैं--
रघुपति भगति करत कठिनाई
कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई।
जो जेहि कला कुशल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी॥
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका। बिनु प्रयास ही पावै॥
सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी।
सोइ हरिपद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी॥
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देश काल तह नाहीं।
तुलसिदास एहि दशा हीन, संशय निर्मूल न जाहीं॥
जो अन्तर्साधन करता है, वह ब्रह्माण्ड के अन्दर जाता है और उसको पार भी करता है। कहने के लिये एक मिनट है, लेकिन करने में जन्मों का काम है। अपने को समेटो, अति सूक्ष्म बनो, सफरी-मछली की तरह। जैसे छोटी-चींटी बालू से चीनी निकालकर खाती है, उसी तरह भक्त अपने अन्दर जड़-चेतन को अलग-अलगकर देखता है, और चेतन को ग्रहण करता है। किसी कला में कोई कुशल कैसे होता है? बहुत अभ्यास करते-करते। एक अक्षर सीखते हो, एक-एक अक्षर सीखते-सीखते विद्वान होते हैं। उसी तरह भक्ति-ज्ञान-योग में कोई आता है तो बढ़ते बढ़ते ईश्वर तक पहुँचता है। कोई ऐसा ख्याल नहीं, कि हमसे ऐसा साधन नहीं होगा।
शून्य महल में दियना बारिले, आशा से मत डोल रे।
-कबीर साहब
जौं तेहि पन्थ चलइ मन लाई। तौ हरि काहे न होहिं सहाई।
- गो० तुलसीदास जी
अन्तर में चलना साधन-भजन करने से होगा। जो कोई साधन करेगा, उसका पूर्ण सिमटाव होगा। स्थूल में पूर्ण सिमटाव होना एक विन्दु पर आना है। संसार में जितने रंग-रूप हैं, सबका आरम्भ एक विन्दु से है। पढ़े-लिखे जानो कि लकीर विन्दुमय होती है। विन्दु से लकीर बनती है। विन्दु नहीं तो कोई रेखा नहीं, रूप नहीं। विन्दु ईश्वर का एक विचित्र-रूप है। विन्दु कोई बनाता नहीं, ईश्वर-कृत है। मैं कहता हूँ कि इसका नमूना बाहर में स्थूल-शालिग्राम है। इसमें हाथ, पैर आदि अंग-प्रत्यंग नहीं हैं, लेकिन विष्णु भगवान् कहकर लोग पूजते हैं। वह स्थूल-रूप में भगवान् है और सूक्ष्म-रूप में विन्दु भगवान् है। उसको देखने का कौशल गुरु से सीखो।
बिनु गुरु होइ कि ज्ञान, ज्ञान कि होइ बिराग बिनु।
गावहिं वेद पुरान, सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु॥
-गो० तुलसीदास जी
चलो ईश्वर की ओर –
हिय नैन सैन सुचैन सुन्दरि साजि स्रुति पिउपै चली।
- तुलसी साहब
यहाँ पहचान नहीं होगी। पहचान कहाँ होगी? जहाँ इन्द्रिय-ज्ञान से अपने को ऊपर कर सको। मेरे सत्संग से इस बात को नहीं सीखो तो मेरे सत्संग को धिक्कार है। यही बात मेरे सत्संग में होती है और यही बात मेरे साथी कहते हैं। यही बात मेरे गुरु महाराज सिखा गये हैं। ईश्वर वही है, जिसका दर्शन केवल चेतन-आत्मा से होता है। इसको याद रखो जितने बैठे हुए हो, नहीं तो भ्रम में दौड़ते फिरोगे। तुलसीदास जी का ज्ञान विनय-पत्रिका में है। अलौकिक-ज्ञान कहकर कबीर साहब, गुरु नानक साहब के ग्रन्थों में है। गो० तुलसीदास जी कहते हैं -
एहि तें मैं हरि ज्ञान गंवायो।
परिहरि हृदय-कमल रघुनाथहिं, बाहर फिरत विकल भय धायो।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद, अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल, परम सुगन्ध कहाँ तें आयो॥
ज्यों सर विमल वारि परिपूरन, ऊपर कछु सेवार तृन छायो।
जारत हियो ताहि ताजिहों सठ, चाहत यहि विधि तृषा बुझायो॥
व्यापित त्रिविध ताप तन दारुन, तापर दुसह दरिद्र सतायो।
अपने धाम नाम सुरतरु तजि, विषय बबूर बाग मन लायो।
तुम्ह सम ज्ञान निधान मोहि सम, मूढ़ न आन पुरानन्हि गायो।
तुलसिदास प्रभु यह विचारि जिय, कीजै नाथ उचित मन भायो॥
लोग शरीर-हृदय को जानते हैं, योग-हृदय को नहीं जानते हैं। योग-हृदय को जानो तो पता लगेगा--
श्री गुरु पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती॥
उघरहिं विमल विलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद, अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल, परम सुगन्ध कहाँ तें आयो॥
यह मृगा में ज्ञानहीनता है कि वह कस्तूरी की सुगन्ध बाहर में खोजता है। वैसे ही उसमें ज्ञानहीनता है, जो ईश्वर को बाहर-बाहर खोजता है।
ज्यों सर विमल वारि परिपूरन, ऊपर कछु सेवार तृन छायो।
सरोवर में निर्मल-जल है, लेकिन सेवार और खर से आच्छादित है, उसके आवरण को हटाओ, निर्मल-जल मिलेगा। इसी तरह ईश्वर ने जो स्थूल, सूक्ष्म-रूप में मायिक-आवरण का पसार किया है, उसको पार करो, ईश्वर प्रत्यक्ष मिलेंगे। लोग समझते हैं कि गो० तुलसीदास जी और सूरदास जी सगुणियाँ भक्त थे। मैंने कहा इन्होंने खूब समझा है। अरे! कोई केवल सगुणियाँ-भक्त और कोई केवल निर्गुणियाँ-भक्त नहीं होता। सन्तों के साहित्य को पढ़ो, उसके परिभाषिक-शब्द को भी जानो। जो अपने अन्दर-अन्दर चलता है, वह कहाँ पहुँचता है? तो कहा कि जहाँ देश-काल नहीं है, जहाँ समय और स्थान नहीं है। समय और स्थान नहीं है, वहाँ दिन-रात कहाँ? सूर्य-चन्द्र कहाँ? इसी बात को उपनिषद् में पढ़ो, गीता में पढ़ो, सन्तों के सद्ग्रन्थों में पढ़ो। कबीर साहब ने यह भी कहा कि -
न जोगी जोग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै।
सहज में ध्यान से पावै, सुरति का खेल जेहि आवै॥
पहले हठयोग करके पीछे राजयोग करना "जोगी जोग से ध्यावै" है। और - बिना हठयोग के राजयोग करता है यानी ध्यान करता है तो – “न जोगी जोग से ध्यावै" है। सबसे यह पार लगने को नहीं है कि सभी कोई पहले हठयोग करें और पीछे ध्यान करें। तुम हठयोग करोगे और खाओगे क्या? तुम्हारे लिये दूसरा कोई अन्न उपजावेगा और तुम खाओगे? यदि सभी कोई हठयोग करने लगे तो क्या खाओगे? भागवत में उद्धव जी को भगवान् ने ध्यान करने को कहा- पहले सम्पूर्ण-शरीर का ध्यान करो, फिर चेहरे का ध्यान करो, तब फिर शून्य-ध्यान करो। गीता में नासाग्र में ध्यान करने कहा, लेकिन टीकाकारों ने नासाग्र-भाग करके असली बात को भगा दिया। दिशाओं को देखना छोड़कर देखने कहा। उसके लिये क्या करोगे? आँख खोलकर देखोगे तो कोई-न-कोई दिशा अवश्य देखी जायेगी। इसीलिये आँख बन्दकर ध्यान करो। इसका भेद गुरु से जानो। गो० तुलसीदास जी ने गुरु के लिये कहा है
ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकाश।
निर्गुण कहै जो सगुण बिनु, सो गुरु तुलसीदास॥
त्रिगुण का घेरा-आवरण जहाँ नहीं है, वह निर्गुण है। कितना भी सुन्दर-रूप हो; वह सगुण है, माया है। कोमल हो, कठोर हो, उष्ण हो, शीत हो यह सब माया है। कबीर साहब कहते हैं
गुरु नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोइ।
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोड़॥
मेरे कहने का मतलब है कि ईश्वर को ठीक-ठीक समझिये, गुरु को ठीक-ठीक समझिये। यह बात तो भूल जाओ कि बिना गुरु के तुमको ज्ञान होगा। ए.बी.सी. डी अलिफ, बे और क, ख, ग के लिये गुरु की जरूरत है और अध्यात्म-ज्ञान के लिये गुरु नहीं चाहिये? ऐसे ज्ञान वाले हमारे यहाँ बड़े-बड़े लोग हैं। ये लोग हमारे देश के धर्म की मर्यादा को तोड़ते हैं। सद्गुरु चाहिये, अन्तर्मार्ग चाहिये। योग-हृदय से रास्ता खुलता है। गुरु के बताने से चलो। गुरु की शरण में जाओ। चलना क्या है?
बैठे ने रास्ता काटा, चलते ने बाट न पायी।
-कबीर साहब
है कछु रहनि गहनि की बाता, बैठा रहे चला पुनि जाता।
- राधा स्वामी साहब
मतलब यह कि चञ्चल-मन को थिर करो। मन चलेगा। ईश्वर की ओर चलने वाला तुम्हारा मददगार तुम्हारे साथ है, वह है अन्तर्ज्योति और अन्तर्नाद। लेकिन आँख है नहीं, देखोगे कैसे? श्रवण-शक्ति है नहीं, सुनोगे क्या? जो अन्तर्मार्ग पर चलता है, उसको दिव्य दृष्टि होती है, जिससे दिव्य-रूप देखता है और दिव्य-श्रवण होता है, जिससे दिव्य-नाद सुनता है। अपने ही अन्दर अपने को अवलम्ब मिलता है, दिव्य-ज्योति और अन्तर्नाद ईश्वर की ओर से सहायता है। गुरु नानक ने कहा
अन्तरि जोति भई गुरु साखी, चीने राम करमा।
गुरु ने कहा था- अन्तर में प्रकाश होगा, सो हुआ। यह गुरु की गवाही है। सन्तों की ठीक-ठीक वाणी लो और सभी लोग अपने-अपने घर में सत्संग जारी रखो। त्रयकाल-सन्ध्या अवश्य करो। कभी-न-कभी काम पूरा होगा। न घर छोड़ना है, न जंगल जाना है। ध्यान करने में स्त्री-पुरुष को कोई वर्जन नहीं। सभी कर सकोगे। पढ़ो तो, नहीं पढ़ो तो सभी इसको कर सकते हो। नहीं पढ़े आदमी भी सत्संग में बराबर आओगे तो अनपढ़ होकर भी ज्ञानवान् होओगे। इसी में प्रेम है, भक्ति है, ज्ञान है। सहज-उपाय से ईश्वर को पाओगे। श्रीराम ने कहा था कि - "एहि तन कर फल विषय न भाई" सो हो जाएगा और कृत-कृत्य हो जाओगे। मनुष्य-जीवन सफल होगा। यह काम बहुत पवित्र है। इसलिये पवित्रता से रहो। इतनी पवित्रता होगी कि उसका सूर्य भी स्पर्श नहीं कर सकता। केवल स्नान से कोई पवित्र नहीं होता और स्नान नहीं करो तो रोग होगा। केवल स्नान करके पवित्र समझना भूल है। अन्तःकरण साफ करो। बाहर स्नान से पवित्र करो और भीतर अन्त:करण को पवित्र रखो। दरिया साहब ने कहा है--
भीतर मैल चहल की लागी, बाहर तन का धोवै है।
पंच पाप- झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार नहीं करोगे तो ऊपर की चढ़ाई बहुत-बहुत होगी। अन्त तक पहुँचोगे। जो ध्यान करेगा, वह पंच पापों से छूटने में मजबूत होगा। जो पंच पापों को छोड़ने में मजबूत होगा, वह ईश्वर तक पहुँचेगा। जो पंच पाप नहीं करता, संसार उसको जानता है, वह प्रसिद्ध हो जाता है। उसके साथी बढ़ जाते हैं। उसका समाज बढ़ जाएगा। ऐसा समाज बढ़ने से सामाजिक-नीति अच्छी होगी। फिर राजनीति अच्छी हो जाएगी। अभी स्वराज्य है, लेकिन सुराज नहीं है। जिस किसी भी देश में सोना बहुत है, लेकिन वहाँ सुराज नहीं है, वहाँ हीन-कर्म, पाप-कर्म बहुत होते हैं। जो देश अध्यात्म में अधिक बढ़ेगा, वहाँ पापों से अधिक छूटेगा। वहाँ शान्ति आयेगी। मैं शासक को कुछ नहीं कहता, जनता से कहता हूँ- तुमलोग पवित्र बनो। सभी बढ़िया होगा। पवित्र होकर स्कूल में जाओगे, स्कूल में पढ़ाओगे, बच्चे अच्छे होंगे। देश अच्छा होगा। इसलिये ईश्वर की भक्ति करो। अपना भला होगा। देश का भला होगा। नहीं तो – “आगे समुझ पड़ेगा भाई .......।" यह ज्ञान-यज्ञ है। द्रव्य-यज्ञ से यह श्रेष्ठ है। गीता में भगवान् ने कहा है, इसमें विश्वास करो। नहीं विश्वास करो तो हानि तुम्हारी होगी। उपदेश देने वाला उपदेश देगा। यही सन्तमत है कि सबको एक पथ पर लाओ। वह रास्ता एक ही है - अन्तर-पथ। लोग कहते हैं कि एक गाँव में आने के लिये अनेक रास्ते हैं, इसी तरह एक ईश्वर के पास जाने के अनेक रास्ते हैं। मैं कहता हूँ, रास्ता अनेक नहीं है। उपासनाएँ अनेक हैं, रास्ता एक ही है। जैसे भोजन करने का इस देश, उस देश, सभी देश के लोगों का रास्ता एक ही मुँह है। राम की, शिव की, कृष्ण की, देवी की, मसीह की, मुहम्मद आदि की, इन सब की उपासनाएँ हैं। इन अनेक उपासनाओं को लोग अनेक रास्ते कहते हैं। सो ये अनेक रास्ते नहीं हैं। इन उपासनाओं से अन्तःकरण में पवित्रता और मन में एकाग्रता का बल होगा, जिसके कारण उस स्थान पर ध्यान किया जा सकेगा, जहाँ से अन्तर का रास्ता खुलेगा। बड़े-बड़े लोग भी इस बात को नहीं जानते, वे अपनी विद्या-बुद्धि में भूले हैं।
यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत पुरैनियाँ जिले के गैव्हा ग्राम में दिनांक १४-४-१९७० ई० को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।