297. उन्नीस सौ दस ईस्वी में सत्संग का रूप
प्यारे लोगो !
 मैं तो केवल आपलोगों के दर्शनों के लिये ही उपस्थित होता हूँ। फिर भी कर्त्तव्यवश कुछ कहना चाहिये, इसलिये कुछ कह देता हूँ। आज इस सत्संग का रूप ऐसा है। 1910 ई0 में इसका रूप बहुत छोटा था। इसका आरम्भ पुरैनियाँ जिला के अन्दर श्री गंगा जी के तट पर जो जोतराम राय भवानीपुर ग्राम था, उसी ग्राम से हुआ था। बहुत छोटा रूप था। उस जिला के अन्दर तब केवल 30 आदमी भजन-भेद पाये हुए सत्संगी थे और उनके साथ-साथ सत्संग करनेवाले श्रद्धालु 20 आदमी थे। कुल 50 आदमी एकत्र थे। उस गाँव के लोग भी कोई दिलचस्पी नहीं लेते थे। बहुत थोड़े लोग बैठते थे। उस समय गुरु महाराज भी थे। वे दूर थे। उनको खबर भी नहीं दी गई थी। सत्संग के बाद खबर दी गई तो उन्होंने मंजूर किया और लिखा कि अच्छा किये कि मिल-जुलकर सत्संग कर लिये। उसी का रूप बढ़ता गया। पहले जिला वार्षिक सत्संग के नाम से जाहिर किया। बाद में बिहार प्रान्तीय और उसके बाद अखिल भारतीय नाम से जाहिर किया। इस सत्संग की उन्नति होती जा रही है। विचारने पर मालूम होता है कि ईश्वर की कृपा अब ऐसी है कि संसार में आध्यात्मिकता का विचार बढ़ता जाय और इसीलिये अधिक-अधिक बढ़ रहा है। इसीलिये इसका रूप भी बढ़ता जा रहा है।
 मेरे ही समय में स्वामी विवेकानन्द जी महाराज कलकत्ता में विराजमान थे। कटिहार आश्रम में रहने वाले उनके जो साधु थे, वे कहते थे कि हमारे स्वामी जी कह गये हैं कि अध्यात्म का प्रचार गाँव-गाँव में होगा, सो हो रहा है। कटिहार में अखिल भारतीय वार्षिक सत्संग हमलोगों का था। उसी का विशाल रूप देखकर वे बोले थे। विवेकानन्द जी महाराज ऊँचे दरजे के साधु थे, यह कहने की आवश्यकता नहीं। अपने देश में वे ही ऐसे पहले महात्मा हुए, जिन्होंने विदेश में जाकर भारत का मुख उज्ज्वल किया। पहले पुरुष वे ही थे, जो जल-जहाज पर विदेश के लिये दूर यात्रा किये थे, उस समय समुद्र-यात्रा करनेवाले भारतीय को भारतीय सनातनधर्मी लोग हेय दृष्टि से देखा करते थे।
 आज भौतिकवाद की ठोकर खाते-खाते अध्यात्मवाद की ओर संसार जाना चाहता है-केवल भारत ही नहीं संसार भर की बात है। जहाँ-जहाँ भौतिकता से धन बहुत बढ़ गया है, वहाँ-वहाँ के लोग अब कुछ इस ओर की खोज कर रहे हैं कि जल्द-से-जल्द शान्ति मिल जाय। उनलोगों में इतनी अशान्ति है कि इतना भी नहीं हो पाता है कि वे रात में नींद भर सो सकें। समय भी उनको नहीं मिलता, समय घटता जा रहा है। आप कहेंगे कि समय कैसे घटता है? समय तो 24 घंटे की दिन- रात होती ही है। लोग काम बहुत करने लग गये हैं। काम करते-करते ही समय बहुत निकल जाता है। अध्यात्म-विचार और साधन के लिये समय कमता जा रहा है। लोग दूर-दूर में रहते हुए आपस में बातचीत कर लेते हैं। इतना होने पर भी मन को शान्ति आवे सो नहीं। मन को शान्ति आती नहीं, भौतिकता को बढ़ाकर विशेष ऊँची की गई है, परन्तु इति कहाँ होने को है, पता नहीं। जितनी ऊँची होती जा रही है, मन उतना ही और हो, और हो की तरफ बढ़ रहा है। और हो, और हो की तृष्णा में रहकर शान्ति नहीं आती। किधर शान्ति आती है, इसकी खोज में लोग लग रहे हैं। वे सोचते हैं कि आध्यात्मिकता की ओर चलें तो कैसा हो? अब लोग यह विचारने लगे हैं। अब उन लोगों को भी ऐसा विश्वास हो रहा है कि आध्यात्मिकता में ही शान्ति आयेगी। इसीलिये इस ओर वे लोग बढ़ रहे हैं। ईश्वर की बड़ी कृपा है।
 जिस आध्यात्मिकता का प्रचार इस सत्संग से होता है; उसमें एक तो है ज्ञान, और दूसरा वह ज्ञान जिस तत्त्व को ऊँचा-से-ऊँचा बताता है, उसको प्राप्त करो। तीसरा कैसे प्राप्त करो, इसकी विधि जानो। चौथी बात यह है कि विधि जानकर उसका अभ्यास करो।
 हमारे पुराने लोग कहते आये हैं कि भौतिक तत्त्वों को जानते-जानते थक जाओगे, लेकिन ज्ञान हुआ है, कहा नहीं जायेगा। जानते-जानते बहुत जान गये, लेकिन ज्ञान हुआ नहीं। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि अध्यात्म-ज्ञान ही ज्ञान है और ज्ञान, अज्ञान है। असल में अध्यात्म-ज्ञान को ही ज्ञान कहते हैं। इस ज्ञान के अन्दर केवल श्रवण, मनन रह जाय तो ज्ञान अधूरा रहेगा। यह ज्ञान पूर्ण होगा उस साधन से, जिस साधन के द्वारा ज्ञान से निर्णीत तत्त्व को ठीक-ठीक पहचान लोगे। भारत में बहुत पूर्व काल से यह ख्याल है।
 हमारे पुराने-पुराने ऋषि-मुनियों ने कहा है कि ज्ञान को चार भागों में बाँटो। श्रवण ज्ञान, मनन ज्ञान अर्थात् तो सुनकर जानते हो और सुनकर जो विचारते हो। तीसरा है कि जिसको सुन-विचार कर जाने हो, उसको प्रत्यक्ष करने के लिये अभ्यास करो, उसकी विधि जान कर। जबतक अभ्यास करोगे, तबतक ज्ञान बढ़ता है। क्या बातचीत से? नहीं। अभ्यास करने में जो कुछ प्रत्यक्ष मालूम होने लगता है, अनुभूति होती है; लेकिन अभी अंत नहीं हुआ है, उस अनुभूति में ज्ञान बढ़ता है। यह निदिध्यास ज्ञान है। साधन जब खत्म होता है, दूसरी कोई अनुभूति नहीं होती, उस अन्त की अनुभूति और अन्त के ज्ञान को अनुभव ज्ञान कहते हैं। इधर को चलो।
 आजकल जो अच्छे-अच्छे ज्ञानी हैं, साधक हैं, वे कहते हैं कि साधन करो, शान्ति आयेगी। साधन में सार क्या है? मन को शान्त करो, यही सार है। मन को पूर्णरूपेण स्थिर करने के लिये साधन करो। जैसे-जैसे साधन करते जाओगे, शान्ति मिलती जाएगी। यह प्रत्यक्ष है, इसीलिये विश्वास भी लोगों को होता जाता है। जो साधन-विधि जाने और साधन नहीं करे, तो उसका हाथ खाली रहेगा। साधन इस तरह है कि कोई भी करो-बूढ़े करो, जवान करो, लड़के करो। जो कुछ समझ सकते हो तो समझकर करो। पुरुष वर्ग, स्त्री वर्ग, पढ़े-अनपढ़े जो करोगे, उसी से होगा। विद्या की बड़ी आवश्यकता होती है, लेकिन साधन के पहले तक। साधन के पहले निर्णय कर लेने के लिए विद्या चाहिये। निर्णय के बाद साधन करो। साधन की सफलता वहाँ है, जहाँ साधन करने में मन लगे। जहाँ साधन करने में उथल-पुथल हो, वहाँ सत्संग क्या है? जहाँ केवल वक्तव्य-ही-वक्तव्य हो और एकाग्रता के लिए साधन नहीं हो तो वह किस काम का? ‘धन- धन कहे धनी जो होते, निर्धन रहत न कोई।’ कबीर साहब का वाक्य है। धन कमाने से धन होता है, धन-धन कहने से नहीं। शान्ति पाने की विधि जानो और साधन करो। पूर्ण शान्ति नादानु- सन्धान की पूर्णता में है और बिना दृष्टियोग के नादानुसन्धान विशेष फलदायक नहीं होता। इसलिये नादानुसन्धान का सहायक दृष्टि-साधन है। दृष्टियोग का साधन सूक्ष्म है, इसलिये इसके पूर्व स्थूल-जप- ध्यान की साधन-विधि भी अवश्य ही है। इसीलिये विधि की सहायिका विधि है, ऐसा कहा जाता है।
 जिन बातों से मन में चंचलता प्रवेश करती है, उन बातों को छोड़ो। जहाँ तक बच सको, बचो। जितनी भी विकारी बातें हैं- काम-विकार, क्रोध- विकार, हिंसा-विकार आदि, इन बातों से बचो। जो इन बातों से बचते रहते हैं, कुछ भोजन पर भी काबू रखते हैं तो वे जो साधन करते हैं तो भजन अच्छा बनता है। उनका ही ज्ञान बढ़ता है। नहीं तो बहुत शास्त्र पढ़कर भी ज्ञान नहीं होता।
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यह प्रवचन दिनांक 09.03.1969 ई0 को भागलपुर जिलान्तर्गत अठगामा ग्राम में अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग के 61वाँ वार्षिक अधिवेशन में प्रातःकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।
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298. भक्तिरूपा माता का सुख निराला है
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
 जैसे शिशु को, छोटे बच्चे को एक ही विश्वास रहता है कि मेरे शुभ के लिये, सारी मनोकामनाओं को पूर्ण करने के लिये केवल मेरी माता ही हैं-उसी तरह भक्तों को साथ-साथ मुझको भी यह विश्वास है कि मनुष्य के सब सुखों की एक ही माता है। इसके अतिरिक्त कोई दूसरी और नहीं-एक-ही-एक माता ईश्वर की भक्ति है। ईश्वर की भक्ति-रूपा माता की गोद में जो अपने को रखता है, वह अशुभ कभी नहीं देखता। यही जान कर इसका दृढ़ विश्वास करके संतों ने संसार के लोगों के वास्ते जो शुभ बनाया है, वह शुभ के हेतु ईश्वर की भक्ति को ही बतला दी है।
 ईश्वर की भक्ति से मनुष्य शुभ-ही-शुभ देखता हुआ अन्त में मोक्ष को पाता है। संसार के बंधनों में-जालों में फँसा हुआ मानव शुभ की मात्रा से अधिक अशुभ देखता है। और अशुभ देखते हुए वह संसार के जालों में रहकर कभी नहीं तृप्ति पाता है। तो भक्तगण, संतजन कहते हैं-ईश्वर की भक्ति सब सुख देनेवाली है। सब शुभ के लिए एक ही माता यही है। इस माता को अपना लो-इस माता की गोद में हो जाओ। इसी हेतु से हमारे गुरु महाराज ने ईश्वर की भक्ति का प्रचार जबतक उनका शरीर रहा, तबतक उन्होंने किया और हम लोगों को भी उन्होंने यही प्रचार करने का उपदेश दिया। तो दैनिक सत्संग और अखिल भारतीय वार्षिक सत्संग के द्वारा इसका प्रचार होता रहता है। इसका मूल कारण गुरु-आज्ञा है। तो मुझे इसमें बड़ा विश्वास है। आपलोगों से मैं कहता हूँ कि ईश्वर की भक्ति अच्छी तरह से समझिए। जिन माता के गर्भ से आपने जन्म लिया है, वह माता आपके वास्ते बहुत ही सुखदायिनी और शुभ में रखनेवाली अवश्य हैं; परन्तु भक्ति-रूपा माता आपको जिस सुख में रखेंगी, वह सुख निराला है।
 भौतिक-जगत का सुख जन्मदात्री माता अवश्य देती हैं; परन्तु भौतिक-जगत में केवल सुख-ही-सुख मिले-इसका विश्वास न है, न कभी हुआ और न कभी होगा; होना भी नहीं चाहिए। क्योंकि भौतिक पदार्थों में ऐसा गुण नहीं कि किसी को सुख-स्वरूप कर दे। परन्तु ईश्वर की भक्ति में यह गुण है। तो ईश्वर की भक्ति अवश्य करनी चाहिए।
 हमलोगों का देश जो प्राचीन काल से भारत कहकर या आर्यावर्त्त कहकर विख्यात है, वही देश फिर हिन्दुस्तान कहा जाने लग गया। यह कल- युगी बात है। कलयुग का भी बहुत समय गुजर गया, तब की बात है। आपलोग जब कभी-कभी कर्म-काण्ड विषयक यज्ञ करने को होते हैं और करने लगते हैं तो आपके पुरोहित अवश्य ही उसमें आपके देश के नाम को याद करवा देते हैं- आर्यावर्ते, भरतखण्डे, जम्बूद्वीपे-ये सब नाम याद करवाते है; परन्तु ‘हिन्दुस्ताने’ नहीं याद करवाते हैं। तो यह कर्मकाण्ड की याद दिलवाना-हमारे लिए बड़ा अच्छा है-अपने साविक नाम को हम जानते हैं। अगर यह नहीं होता तो आज पहले का नाम इस तरह गुप्त हो जाता कि जैसे अपने होकर किसी को स्वप्न में वह भूल जाय बिल्कुल। तो, इस अपने नाम को भी आपलोग न भूलें। और जब से अपना देश है, तब से अपने कर्म का जो ग्रन्थ है-परम ज्ञानमय ग्रन्थ है, उसी को वेद कहते हैं।
 वेद के अन्दर ईश्वर की मान्यता-ईश्वर में आस्था का बहुत जोरों के साथ विश्वास दिलाया गया है। वेद केवल यही बता देता है कि-ईश्वर है, ईश्वर है, ईश्वर है- सो नहीं। वेद बता देता है कि ईश्वर है, तुम प्रत्यक्ष में पा भी सकते हो। है, परन्तु अव्यक्त है। व्यक्त पदार्थ ईश्वर नहीं है। व्यक्त-पदार्थ माया है। जो अव्यक्त है-वह ईश्वर है। वह अव्यक्त,अव्यक्त ही नहीं रह जायेगा। अगर तुम उसकी भक्ति ठीक-ठीक करो तो वह तुम्हारे लिए व्यक्त होगा। माया पदार्थ व्यक्त मालूम होता है। इन्द्रियों के ज्ञान में इन्द्रियाँ तुम्हारे देह के साथ-साथ तुम्हारे सब अधीनस्थ चीजें हैं। इनके द्वारा तुम मायिक-तत्त्वों को ही जान सकते हो। मायिक तत्त्वों को जानने का जो यन्त्र है, उसी यन्त्र से तुम निर्मायिक-तत्त्व को भी जानो, ऐसा विश्वास रखना पागलपन है। जिस यन्त्र से तुम मायिक-तत्त्वों को जानते हो, वह यन्त्र तुम्हारे शरीर के साथ-साथ लगी हुई इन्द्रियाँ हैं बाहर और भीतर। यह ज्ञान मेरे गुरुजी ने मुझको सिखलाया है। इतना ही नहीं-उन्होंने सिखलाया अवश्य, परन्तु केवल उन्होंने ही सिखलाया सो नहीं-उन्होंने ही बतलाया कि यह ज्ञान वेदों का है। तो अव्यक्त-ईश्वर जो मायातीत है, अव्यक्त है, इन्द्रियों को प्रत्यक्ष कभी होने योग्य नहीं है। इन्द्रियों में जो ज्ञान है, वह ज्ञान तुम्हारा ही ज्ञान है। तुम अपने क्या हो, इसको नहीं सोच-समझ सकते हो। इसी वास्ते अपने को तुम समझते हो कि यदि इन्द्रियाँ न हों, मैं लूज हूँ- मैं ज्ञान-रहित हो जाऊँगा। ऐसा कुछ समझते हो तो यह तुम्हारी बड़ी गलती है। इन्द्रियों का खोल जैसे-जैसे तुम्हारे ऊपर से उतरेगा, वैसे-वैसे तुम्हारा ज्ञान विशेष जगता जाएगा। यदि इन्द्रियों के खोल सारे-के-सारे दूर हो जाए, तुम ऐसे हो जाओ कि जैसे वस्त्रहीन शरीर-अर्थात् तुम ऐसे हो जाओ कि तुम शरीर विहीन केवल तुम-ही-तुम अर्थात् केवल आत्मा-ही-आत्मा। अगर ऐसा हो जाओ तो तुम सर्वज्ञानमय होओ। तुम सर्वज्ञ होओ। तुमसे छिपा हुआ कुछ नहीं है। बिना यन्त्रों के, बिना इन्द्रियों के सब कुछ तुम जानते हो। तुम्हारा ज्ञान अगम है। अगम तक पहुँचा हुआ है। अगम की पहचान करने वाला है। तुम्हारे ज्ञान से बढ़कर ज्ञान नहीं है। अगर तुम अपना ज्ञान पा जाओ तो फिर तुमको कोई और सिखलानेवाले की जरूरत है-यह नहीं मालूम पड़ेगा। तुमको इसकी आवश्यकता नहीं रहेगी कि तुम किसी के पास जाकर पूछो कि यह बात कैसी है-यह बात कैसे होगी। अव्यक्त किस तरह व्यक्त होगा, यह तुमको पूछना नहीं होगा। ईश्वर अव्यक्त है। इन्द्रियों के ज्ञान से बाहर है- इसी को कहते हैं अव्यक्त।
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
सोइ सच्चिदानन्द घन रामा, अज विज्ञान रूप बलधामा ।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता, अखिल अमोघ शक्ति भगवंता।
निर्मल निराकार निर्मोहा, नित्य निर०जन सुख संदोहा ।
प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी, ब्रह्म निरीह विरज अविनाशी ।
 ईश्वर का स्वरूप यह है। इसके वास्ते जो दर्शन करना चाहेगा, वह अपने को बिल्कुल शरीर आदि से हटा ले। कहने में तो कुछ ऐसा लगता है कि हेय बात है, लेकिन हेय बात नहीं-बड़ी ऊँची बात है। तुम अपने को बिल्कुल नंगा कर लो। जो यह शरीर का पहनावा तुम्हारे पर रखा गया है, यह पहनावा बड़ा दुखकर है। स्थूल-शरीर, सूक्ष्म- शरीर, कारण-शरीर, महाकारण-शरीर; यह बड़ा दुखकर है। इन सबसे रहित होकर ‘चिदानंदमय देह तुम्हारी। विगत विकार जान अधिकारी।।’ इस स्वरूप में हो जाओगे। इस स्वरूप को फिर कहीं से खोज र नहीं लाना पड़ेगा। न गुरु महाराज को जाकर कहना पड़ेगा कि हमको इसी स्वरूप में ला दीजिए। वह कहेंगे कि बच्चा तुम खुद साधन करोगे, तुम तो यह हो ही। ऐसा जब हो जाओेगे, तब अव्यक्त-ईश्वर ऐसा व्यक्त होगा, जैसे इन्द्रियों के सामने सूर्य भगवान व्यक्त हो जाते हैं। रात भर अव्यक्त रहते हैं और प्रातःकाल होते ही सूर्य भगवान व्यक्त हो जाते हैं, लेकिन फिर भी जो जन्मांध हैं, उन बेचारों के लिए अव्यक्त मालूम पड़ते हैं। सूर्य यह तो नहीं कर सकते हैं कि अपनी गर्मी से उसको बता दें कि हम सूर्य आ गए और तुमको गर्मी मालूम हो रही है।
 संत लोग बतला गये हैं कि इस अव्यक्त-रूप को जानने के लिए तुमको क्या करना है? तो ईश्वर की भक्ति करनी है। तो वह भक्ति कैसी होगी, सो तफसीरवार के साथ अच्छी तरह से संतों ने बतला दिया है। यह ठीक-ठीक समझ लो तो ऐसा मालूम पड़ेगा कि कोई बहका नहीं सकता। इसीलिये ईश्वर की भक्ति का प्रचार होता है। हमारा देश अनादि-काल से जबसे यह देश है, पहला दिन कब हुआ, इसका कोई ठिकाना नहीं है। इसीलिए अनादि-काल से कह दिया। अनादि- काल से यह आस्तिक देश कहा जा रहा है। यह आस्तिक-देश है। इसीलिए वेद-ज्ञान यहाँ प्रगट हुआ है। तो यह आस्तिक-देश में ईश्वर का ज्ञान यथार्थ-ज्ञान होना चाहिए। न कि ऐसा ज्ञान कि जो ज्ञान कमजोर हो। इन्द्रिगम्य-रूप को ईश्वर मानना कमजोर ज्ञान है। इन्द्रिगम्य-रूप नहीं-इन्द्रियों के ज्ञान से बाहर जो स्वरूप परमात्मा का है, परमात्मा को उसी स्वरूप में मानना है, यह ज्ञान एकदम मजबूत है। तो इस ज्ञान को सब लोग धारण करें।
 यह मत सोचो कि मैं हल चलानेवाला हूँ, उतना ज्ञान कहाँ पाऊँगा। अरे! देखो तो कोई कुछ पैसा माँगता है? और यह ज्ञान तुमको बाँटता है। कोई माँगता है कुछ? बहुत जगह सत्संग होता है। सत्संगों में जाओ। यह ज्ञान पाओगे। नहीं पढ़े-लिखे हो, तब भी पाओगे। पढ़े-लिखे होकर के भी जो भूलते हो तो भी पाओगे और अपने भूल को समझ जाओगे। जो इस ज्ञान को नहीं पाता है, यदि वह ईश्वर की भक्ति में प्रवृत्त होता है, उसका प्रवृत्त होना वैसा ही है, जैसा कि कोई मार्ग चलने में प्रवृत्त हो जाए, यात्री बन जाए। चलता जाए, लेकिन उसको पता नहीं कहाँ पहुँचना है। कहाँ को जाना है। जब यही नहीं पता कि कहाँ को जाना है तो वह किधर जायेगा, न मालूम भ्रमता-भटकता उसकी क्या गति हो जायेगी। इसीलिए ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान पहले प्राप्त कर लो, फिर भक्ति-मार्ग में प्रवृत्त हो जाओ। और बेसी बात नहीं, इतनी ही बात समझ लो।
 श्रीराम ने बहुत समास-रूप में-मुख्तसर में लक्ष्मणजी के पूछने पर कि माया किसको कहते हैं? तो उन्होंने बहुत समास-रूप में कह दिया कि इन्द्रियों के ज्ञान में, मन के ज्ञान में जो आवे, सब माया है। बस जाओ।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानेहु भाई ।।
 अब सब इन्द्रियों का ज्ञान छूट गया, बाकी क्या रहा, तुम्हारा निजी-ज्ञान। तुम्हारे ज्ञान से सब इन्द्रियों में ज्ञान है। तुम्हारा अपना निजी-ज्ञान कुछ नहीं है, यह कभी मत समझो। तुम्हारा अपना निजी-ज्ञान बड़ा विशाल है।
 पूर्ण से जो निकलता है, वह भी पूर्ण। बाकी बचता है, वह भी पूर्ण। एक अजीब बात है। पूर्ण से जो निकलता है, वह भी पूर्ण और पूर्ण तो अपना पूर्ण है ही। निकलने से जो बच जाता है, वह भी पूर्ण। वही तुम निकले हुए पूर्ण हो। लेकिन अपने को नहीं पहचानते हो। यही बात है।
 हमलोग समझते हैं कि अग्नि-पूंज से एक चिनगारी-एक चिनगारी में अग्नि भी कम, चमक भी कम और दाहक-शक्ति भी कम। लेकिन ईश्वर ऐसा नहीं है, उसकी चिनगारी ऐसी नहीं है। उसमें, स्वयं ईश्वर में जो गुण है, उसके कण-कण में वही गुण है।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखरासी।
 अंश कह करके कुछ दर्जा हो गया, अंश कहकर कुछ कम गुण हो गया, सो नहीं है। अगर उस कण को पहचान जाओ अर्थात् अपने तईं को पहचान जाओ तो यह अच्छी तरह से समझ जाओगे कि पूर्ण से यह कम, गोया जरा-सा जो लिया-सो भी स्वरूपतः वही है, वही गुण है। बाकी बचा हुआ भी पूर्ण ही है और वह जो पहले से पूर्ण है, सो तो पूर्ण है ही।
 वैदिक-ग्रंथ को जो पढ़ते हैं, वे जानते हैं इस बात को। तो ईश्वर की भक्ति करो। ईश्वर की भक्ति करने के लिए ईश्वर-स्वरूप का पहले अच्छी तरह से निर्णय जानो। और तब भक्ति क्या हो सकती है, इसको ठीक-ठीक समझकर वैसा कुछ करो। यह सत्संग इसलिए नहीं होता है कि सुन लो, बस-बहुत तो याद रखो-इसीलिये नहीं कहा जाता है। इसके लिये यह सत्संग कभी सुखी नहीं है। यह सत्संग सुखी है तब-जो सुनो, अपने में रखो, अनुकूल चलने के लिये कोशिश रखो। शुरू तो कर दो। शुरु करो-आरम्भ करो-आहिस्ता- आहिस्ता भी चलोगे, तो कभी-न-कभी पूर्णता को पहुँच जाओगे। यही बात है।
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यह प्रवचन दिनांक 09.03.1969 ई0 को भागलपुर जिलान्तर्गत अठगामा ग्राम में अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग के 61वाँ वार्षिक अधिवेशन में अपर्रांकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।
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299. साकार और निराकार उपासना में भेद
प्यारे लोगो !
 ईश्वर-भक्ति के सम्बन्ध में ईश्वर-स्वरूप का निर्णय अवश्य जानना होता है। उस स्वरूप के अन्दर में निर्गुण और सगुण, साकार और निराकार की बड़ी चर्चा होती है। इन चारों के अतिरिक्त व्यक्त और अव्यक्त यानी इन छहों की चर्चा बहुत होती है। और कहा जाता है कि निर्गुण की उपासना अलग है और सगुण की उपासना अलग है। निराकार की उपासना अलग और साकार की अपासना अलग है। आजकल समय के अनुकूल और विद्या के अनुकूल बड़े-बड़े विद्वान ज्ञान रखते हुए कहते हैं कि संत में दो प्रकार के हैं। एक सगुणियाँ-संत और दूसरे निर्गुणियाँ-संत होते हैं। इन्हीं बातों पर थोड़ा प्रकाश डालता हूँ, गौर कर लीजिए।
 निर्गुण का अर्थ है, जिसमें गुण नहीं है। गुण कहते हैं विशेषण को या तारीफ को। यह एक अर्थ है। किसी में किसी तरह की खूबी होती है, भलपन होता है, तो उसी खूबी और भलपन को उसका गुण कहते हैं। इसी को विशेषण भी कहते हैं। यह ऐसी चीज है कि इसके बिना कोई रह नहीं सकता। किसी की स्थिति नहीं रह सकती। कुछ-न-कुछ विशेषण सब में होता है। चाहे वह और कुछ न जाने। कुछ कहकर जिस नाम से जिसको पुकारें, वह उसका विशेषण है। बहुत दिन हुए, मैं पश्चिम में घूम रहा था। हाजीपुर पहुँचा। मेरा पहरावा ऐसा था कि कुछ लोग मुझको मुसलमान फकीर समझते थे। एक मुसलमान ने मुझको आदर से बुलाकर पूछा, आपकी तारीफ क्या है? मुसलमानों में, उनकी भाषा में उनके नाम के बदले तारीफ पूछते हैं। मुझसे उन्होंने कहा-‘आपकी तारीफ क्या है?’ मैं चकित हो गया। मैं नहीं जानता था। मैं समझ न सका। फिर उन्होंने मेरा नाम पूछा तो मैंने बता दिया। बिना नाम के संसार में किसी की स्थिति नहीं है। जितने लोग संसार में हुए हैं, होंगे, सभी सगुण हुए हैं, निर्गुण कोई नहीं। ईश्वर कहिए, ईश्वर कहने से ही गुण हो गया। इसीलिए ईश्वर भी सगुण है। और पदार्थों में भेद है। स्थूल, सूक्ष्मादि का भेद बताना भी तारीफ है। सब सगुण हैं। क्या जड़-पदार्थ, क्या प्राणयुक्त-पदार्थ, बिल्कुल- के-बिल्कुल सगुण हैं।
 ईश्वर के निस्बत हमलोग लड़कपन से सुनते चले आये हैं कि ईश्वर भी संसार में जन्म लेते हैं। उस समय हम समझते तो नहीं थे, लेकिन इतना विश्वास होता था कि ईश्वर भी संसार में जन्म लेते हैं और सगुण कहलाते हैं। होते-होते कुछ समय व्यतीत हुआ। कुछ विद्या-बुद्धि हुई तो ईश्वर के विषय में यह भी जानकारी हुई की ईश्वर निर्गुण है। कुछ-न-कुछ विशेषण होने से सगुण के अतिरिक्त निर्गुण हई नहीं हैं, लेकिन निर्गुण-शब्द है। सो निर्गुण-शब्द क्या है? ज्ञान के उत्कर्ष में- ज्ञान का थोड़ा भी उत्कर्ष होने से समझ में आता है कि संसार में तीन शक्तियाँ हैं-उत्पादक, पोषक और विनाशक। कोई भी वृक्ष उत्पादक-शक्ति से निकलता है, उसका पोषक-शक्ति से पोषण होता है। और विनाशक-शक्ति से विनाश भी होता है और अंकुर-रूप में नया पौधा हो गया। अंकुर का नाश हो गया। अब तीसरा नाम पड़ जाता है। उस रूप का भी नाश हो गया, तब वृक्ष हो गया। तब उस वृक्ष की एक हद तक वृद्धि हुई, फिर कमने लग गया। कमने लग गया तब क्या हुआ? डाल सूखती जाती है। उसमें विनाश का काम दृष्टि गोचर होने लगा। होते-होते उसका पता नहीं रहा। इस तरह विनाशक-शक्ति का काम भी साथ-साथ होता है। इन तीनों शक्तियों का नाम ज्ञानियों ने अलग-अलग दिया है। उत्पादक का नाम दिया है रजोगुण, पालक का नाम सतोगुण और विनाशक का नाम है तमोगुण। इन तीनों गुणों के सहित जो हो जाय, वह है सगुण। अर्थात् जो इन गुणों के संग नहीं था, वह इन गुणों का संग कर लेने से सगुण हो गया। ईश्वर का मूल-रूप निर्गुण कहते हैं। जब वे तीन गुणों को संग कर लेते हैं, तब सगुण होते हैं। तीन गुणों को कैसे लेते हैं?
 सृष्टि अपने-ही-अपने हो गई, सो हमलोग माननेवाले नहीं हैं। इस पर बहुत बहस भी होती है। एक दूसरे को हरा भी देता है, लेकिन हार कोई मानता नहीं है। सृष्टि हुई। सृष्टि के तत्त्वों के साथ-साथ सृष्टि-फैलाव के साथ-साथ ईश्वर रहा। सृष्टि के स्थूल-सूक्ष्मादि भेदों के साथ-साथ ईश्वर हो गया। सृष्टि के जितने दर्जे और फैलाव हैं, सब के साथ-साथ होकर ईश्वर हैं। लेकिन सृष्टि के तत्त्वों के अन्त होने पर उनका अन्त नहीं होता। अपने स्वरूप में वे रहे ही। सृष्टि के अन्दर भी और सृष्टि के बाहर भी वही हैं। उपनिषद्कार ने इसी को समझाने के लिये इस तरह कहा है-
 वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
 एकस्तथा सर्व भूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
 अर्थात् ‘जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक-रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण-भूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक-रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।’ सृष्टि के तत्त्वों के संग-संग जो हो गया, वह तीन गुणों के संग हुआ। इसीलिए स्थूल-सूक्ष्मादि भेद से सृष्टि त्रैगुणमय है। त्रैगुणमय तत्त्वों के साथ सृष्टि में ईश्वर सगुण कहलाते हैं। क्योंकि गुणों को वे धारण कर लेते हैं। लेकिन वे बदल कर त्रैगुण हो गये, सो नहीं। सगुण-शब्द ऐसा अर्थ देता है कि किसी ने गुणों का संग कर लिया है। सगुण-शब्द एक- ही-एक का ज्ञान नहीं देता। बल्कि कोई गुण के साथ हो गया है, ऐसा ज्ञान देता है। केवल अकेला रहता तो गुण-सहित कैसे कहा जाता? सृष्टि नहीं है, गुणों का पसार नहीं है, तब ईश्वर त्रैगुणरहित अर्थात् निर्गुण हैं। तुलसीदासजी सगुणियाँ हैं एक पंडित ने कहा था। गो0 तुलसीदासजी लिखते हैं-
अगुण अखंड अलरव अज जोई । भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।
 जिसमें त्रैगुण नहीं, जिसका टुकड़ा-पुर्जा नहीं, जो इन्द्रिय-ज्ञान से बाहर है। जो अज अर्थात् उत्पन्न नहीं हुआ। अगर उत्पन्न होता, तब वह निर्गुण नहीं कहलाता। वह निर्गुण-तत्त्व है। कभी नहीं था, इसका पता नहीं। कब से है? जब काल यानी समय नहीं था। स्थान नहीं था। देश और काल सृष्टि के अन्दर की चीज है। लेकिन वह देश कालातीत है। वह सगुण कहने योग्य नहीं है। अखंडत्रजो देश कालातीत है। देश और स्थान के बिना जो हो, उसका टुकड़ा किसी के दिमाग में कैसे आता है? स्थान-विहीन और टुकड़ा-टुकड़ा ऐसा भी कहीं होता है? स्थान भी नहीं था, तब था। इसीलिये वह अखंड है। उसका टुकड़ा नहीं है। इन्द्रियों के ज्ञान से वह बाहर है। उत्पन्न होनेवाला वह नहीं है।
अगुण अखंड अलख अज जोई । भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।
 तुलसीदासजी ईश्वर के अवतार की कथा कहेंगे। इसीलिये वे भूमिका बाँध देते हैं। अवतार क्यों? इसके उत्तर में वे कहते हैं-‘भगत प्रेम बस सगुन सो होई।’ सृष्टि के आरम्भ में जो था, वह ‘भगत प्रेम बस सगुण’ नहीं था। तब आपलोग कहेंगे कि ऐसे विराटरूप का भी वर्णन आया है कि जिसके अन्दर सारी-सृष्टि दर्शित होती थी। हालाँकि उसका आदि-अन्त नहीं मालूम पड़ता था। लेकिन जामवन्त ने दो घड़ी में उस विराटरूप की सात बार प्रदक्षिणा की थी। इस तरह यह उसकी सीमा हो गई।
 अर्जुन को जो विराटरूप दिखाया गया था, वह भी अद्भुत था। लेकिन उसमें भी तो यह बात है कि अर्जुन अलग खड़ा था। अलग खड़ा होने से फिर भी सीमा हो गई। हाथ, पैर, पेट, नाक आदि बहुत थे। यदि प्रत्येक का हद नहीं हो, तो बहुत हाथ, पैर आदि को कैसे गिनेंगे? इसलिये अवतारी-पुरुषों ने कितना भी अद्भुत-रूप बनाया, लेकिन वह अनादि-अनन्त नहीं हो सका। लेखक ने अनंत-रूप बताया। लेकिन अनन्त कैसे है? उसको वे दृढ़ कर नहीं सके।
 एक विद्वान ब्रह्मचारी ने हमारे एक सत्संगी से कहा कि वह विराटरूप तो अनन्त था, उसको सान्त कैसे बताते हो? वह सत्संगी चुप हो गया। दूसरे दिन उस विद्वान ने कहा-‘तुम ठीक कहते हो।’ तर्क में तो अवश्य सान्त हो जाता है। अनन्त कहाँ रहता है? विराटरूप सारी-सृष्टि में व्यापक है तब भी अनन्त कहते बनता नहीं। विराटरूप सगुण किसी भी तरह अनन्त नहीं हो सकता।
 त्रिदेव-महेश, बह्मा, विष्णु जो हैं, इनके लिए भी कहा जाता है कि ये भी ईश्वर हैं। विचारने पर ये भी ईश्वर के सगुण-रूप हैं। किनकी प्रार्थना से ये सगुण हुए? सो भी वर्णन नहीं है। परमात्मा की मौज से हुए। अवतारी-पुरुष जो होते हैं, उन्हीं के लिए खासतौर से है कि ‘भगत प्रेम बस सगुण सो होई।’ एक तो ‘भगत-प्रेम बस सगुण’, दूसरा ब्रह्मा, विष्णु, महेश का सगुण-रूप और तीसरा इन सब में व्यापक होता हुआ विराट सगुण-रूप; ये सभी इनकी खास मौज से हैं। तब भी सारे सगुण में व्यापक होते हुए भी सबसे परे अपना स्वरूप रखते ही हैं। वह है-निर्गुण। गुुरु किसको कहते हैं, तुलसीदासजी कहते हैं-
 ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास ।
 निर्गुन कहै जो सगुन बिनु, सो गुरु तुलसीदास ।।
 इन गुरु को कौन पहचाने। उनमें अज्ञान का लेश मात्र नहीं है। जिस प्रकाश में अन्धकार नहीं है, बिना अन्धकार के प्रकाश को जो कहते हैं। यदि कहो कि सूर्य में तो प्रकाश-ही-प्रकाश है। अन्धकार कहाँ है? तो इस सूर्य से जिसको हम नहीं देख सकते हैं, उसके लिए वह तो अन्धकार ही है। यंत्रों के द्वारा-दूरवीन के द्वारा देखा। स्थूल का जर्रा-जर्रा देखा। सृष्टि के सूक्ष्म-भेद को भी देखा? स्थूल में जितनी बारिकी है, बहुत कुछ देखा और भी देख सकते हैं। लेकिन स्थूल को छोड़कर जो सूक्ष्म है उसको देखा?
 मुझसे कोई पूछे कि स्थूल को छोड़कर सूक्ष्म है? तो मैं कहूँगा हाँ ! है। पूछे कि कहाँ है? तो कहूँगा कि तीन अवस्थाओं के परे है। कोई कहे कि जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति; इन अवस्थाओं के परे भी अवस्था होती है? मैं कहूँगा, हाँ ! होती है। लेकिन बहुतों को पता नहीं है। मैं यह भी कहूँगा, ग्रन्थ में लिखा है, चौथी अवस्था भी है, कोई कहे कि किताब में लिखने से क्या होगा? प्रत्यक्ष दिखाओ। तो मैं कहूँगा एक दृष्टि बनाकर देखो। तब जो देख सकोगे तो चौथी अवस्था हो जाएगी। एक दृष्टि एकविन्दुता में होगी। सबको एक समान देखना ही एक दृष्टि नहीं है। दृष्टि को इतना समेटो कि एकविन्दुता हो जाय। जबतक एकविन्दुता रहेगी, चौथी अवस्था में रहोगे। करके देखो, प्रत्यक्ष होगा। बाहर में निशाना करनेवाले भी दृष्टि को समेटकर देखते हैं, नहीं तो निशाना कैसे करते हैं? दृष्टि समेटना तुम्हारे अधिकार में है। दृष्टि को समेटो, यह योग की अवस्था है। चौथी अवस्था में रहकर देखो, तब जो देखने में आवेगा, वह किसी यंत्र से आज तक किसी ने नहीं देखा है।
 कितना भी प्रखर-प्रकाश रहे, अन्दर में अन्धकार पहले मालूम पड़ता है। स्थूल, सूक्ष्म के भेद को जाना है। उसका थोड़ा-थोड़ा नमूना जाना है, तब विश्वास हुआ है। जो थोड़ा विश्वास था, थोड़ा-थोड़ा नमूना देखते-देखते और अधिक विश्वास हो गया। तुम नहीं-नहीं कहते रहो और हम हाँ-हाँ, कहते रहेंगे। और यहाँ आकर हार जाओगे, जहाँ ‘तम बिनु कहै प्रकाश’ है। वह प्रकाश कहाँ है? बता दो।
 प्रथम का जो मूल-तत्त्व है, सर्व-पर जो तत्त्व है, सबसे पूर्व का जो पदार्थ है; वह निर्गुण है। सगुण में स्थूल, सूक्ष्म का भेद है। सगुण में साकार, निराकार का भेद है और दृश्य-अदृश्य का भेद भी है। साकार-भेदों में भी व्यक्त और अव्यक्त है। जैसे तुरीय-अवस्था में पहुँचो, तब जो देखो, सो सगुण है। लेकिन तीन अवस्थाओं में रहनेवाले के लिये यह अव्यक्त है। इन बातों की जानकारी चाहिये। केवल निर्गुणियाँ और सगुणियाँ कहकर फिरना और साधना करके जानना नहीं, विद्वानों के लिये यह उचित नहीं जँचता। साधना करके जो ज्ञान होता है, उनमें वे नहीं हैं। और वचस्-ज्ञान में बहुत पारंगत हैं, उनकी बड़ी तारीफ भी होती है। लेकिन मैं कहता हूँ, उनको यह ज्ञान भी हो जाय तो सोने में सुगंध है। ये सब भेद सगुण और निर्गुण में हैं। निर्गुण में तो भेद है नहीं, भेद है सगुण में। साधना ऐसी हो कि पहले स्थूल-इन्द्रिय-गोचर, फिर सूक्ष्म-इन्द्रिय-गोचर और फिर ऐसा कि कभी भी इन्द्रियगम्य होने योग्य नहीं। अन्दर-अन्दर चलो तो ऐसा होता है। ईश्वर की उपासना में सगुण-उपासना भी चाहिये। नहीं तो कोई चल नहीं सकेंगे। सगुण- साकार की भी उपासना होनी चाहिए और निर्गुण- निराकार की भी। नहीं तो कोई भक्ति में पूर्ण हो नहीं सकता। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-‘रघुपति भगति करत कठिनाई ।’ यह ठीक है। फुसलाने की बात नहीं है। सगुण-निर्गुण में जो भेद है कितना कहा जाय? सत्संग-योग के चौथा भाग में लिख ही दिया है। पढ़कर, मनन कर रखिये। कोई संत केवल सगुण-भक्त, कोई संत केवल निर्गुण- भक्त नहीं होते। कोई संत पर जबर्दस्ती कुछ लादे, हो नहीं सकता। उनको वचस्-ज्ञान भले बहुत हो, लेकिन यौगिक-दृष्टि से बहुत दूर हैं।
 गोस्वामी तुलसीदासजी, सूरदासजी, कबीर साहब, गुरु नानक साहब आदि के समान आज कोई संत नहीं हैं, जो उनमें झूठ बतावें। कोई कहे कि तुलसीदास के कहने से क्या होगा? तो मैं कहूँगा, आपके कहने से क्या होगा? मैं बहुत जोर देकर कहता हूँ कि तुलसीदासजी और सूरदास जी उसी निर्गुण-तत्त्व तक पहुँचे हुए थे, जहाँ कबीर साहब और गुरु नानक साहब आदि संत पहुँचे थे। आप कहेंगे कि आप निर्गुण-सगुण के पार में कहते हैं, सो क्या? तो मैं कहूँगा, निर्गुण एक शब्द है, उसके परे मैं जाने कहता हूँ। सांख्य-शास्त्र के अनुकूल बहुत पुरुष हैं और वे सब निर्गुण हैं। जो शब्द-ब्रह्म है, वह भी निर्गुण है। इस तरह सांख्य के अनेक निर्गुण-पुरुष से और निर्गुण शब्द-ब्रह्म से परे जो है, वह निर्गुण के परे है। इस तरह निर्गुण के परे तो वे हई हैं और सगुण के परे भी हैं। इसलिये ‘निर्गुण-सगुण के पार में’ मैं कहता हूँ। ऐसा ख्याल रखते हुए लोगों को भक्ति-मार्ग में अपने को रखना चाहिए। जो भक्ति-मार्ग में ऐसा ख्याल नहीं रखता है और जो आज अपने को भ्रमित नहीं मानता है, एक-न-एक दिन उसकी समझ में आयेगी कि मैं भ्रम में था। जो कम पढे़-लिखे हैं, सत्संग करें। सब बातें समझ में आ जाएँगी। समझने की शक्ति पुस्तकों में नहीं, समझने की शक्ति परमात्मा ने सबके मष्तिष्क में दे दी है। जो जितना अधिक धारण-ग्रहण कर सकता है, वह उतना विशेष होता है। परमात्मा ने पुस्तक मस्तिष्क को ही बना दिया है। इसलिये कभी-कभी ऐसे महात्मा यहाँ हुए, जो पढ़े-लिखे नहीं थे। परन्तु उनका मस्तिष्क बड़ा उर्वरा था।
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यह प्रवचन दिनांक 10. 03. 1969 ई0 को भागलपुर जिलान्तर्गत अठगामा ग्राम में अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग के 61वाँ वार्षिक अधिवेशन में प्रातःकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।
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300. गुरु से ज्ञान लेना उनका शिष्य होना है
प्यारे प्रेमीजनो !
 इस सत्संग के विज्ञापन में जिसको पढ़कर, सुनकर, ‘शान्ति-सन्देश’ मासिक-पत्र से जानकर आपलोग यहाँ आये। उसमें अवश्य ही केवल अध्यात्म-विषयक चर्चा, ईश्वर-भक्ति की चर्चा होगी, यह लिखा था। और यही जानकर आपलोग आए। फिर भी इसमें भूदान-यज्ञ* वाली बात चल पड़ी, यह भी आपलोगों को नुकसान नहीं पहुँचावेगी। इस सम्बन्ध में बस इतना ही कहूँगा। लेकिन जिस विषय की जहाँ सभा हो, वहाँ वैसा कहा जाय, यही शोभा है। इसीलिये एक प्रतिष्ठित व्यक्ति को, कुछ अच्छे व्यक्ति कुछ कहने को लाचार हुए। मैं कहूँगा कि ये भी उनलोगों को क्षमा कर देंगे।
 ईश्वर-भक्ति के विषय में कल्ह से चर्चा होती चली आ रही है। ईश्वर-भक्ति के विषय के पहले ईश्वर-स्वरूप को जानना चाहिये। ईश्वर- स्वरूप को जाने बिना जो ईश्वर-भक्ति करता है, वह वैसा ही है, जैसे कि कोई यात्री यात्रा करता है, परन्तु उसको अपनी पहुँच के निर्दिष्ट-स्थान का ज्ञान नहीं हो तो वह किधर जायेगा? कहाँ पहुँचेगा? पता नहीं। भटकने का उसको बहुत डर है। इस तरह ईश्वर-भक्ति करनेवाले को पहले ईश्वर- स्वरूप का निर्णय होना चाहिए। उससे जो निर्णय हो, उस दिशा में चलना चाहिए। ईश्वर-स्वरूप-निर्णय के बिना जो साधक ईश्वर-भक्ति का आरम्भ करता है, वह उपर्युक्त यात्री की तरह ही भटकता है। इन्द्रिय-ज्ञान में जो कुछ आता है, वह माया है। स्थूल-इन्द्रियों के ज्ञान में केवल माया ही पकड़ी जायेगी। वह भी केवल स्थूल-माया ही। इसका सूक्ष्म और कारण-रूप भी इतना झीना है कि उसको पकड़ने के लिये स्थूल-इन्द्रियाँ कभी शक्य नहीं। जो मायातीत है, उसको मन-बुद्धि भीतर की इन्द्रियाँ भी नहीं पा सकती है। इसलिये कहा गया है कि-
    राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
    अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 यह जो बात है बुद्धि पर तत्त्व है। तब किधर को जाना है? बुद्धि से परे तत्त्व को पाने के लिये बाहर-बाहर जाना है? पृथ्वी पर या जल पर अथवा आसमान में वायुयान पर उड़ना है? बाहर में किसी तरह उड़ो, जैसे कि पहले अष्ट-सिद्धि प्राप्त योगी लोग अपने स्थूल-शरीर से आकाश में उड़ते थे, उस तरह उड़ो। अथवा किसी भी तरह वायुयान से उड़ने पर मन, बुद्धि के परे नहीं जा सकते। आप कौन हैं?
    पानी का सा बुल बुला, यह तन ऐसा होय ।
    पीव मिलन को ठानिये, रहिये न पड़ि सोय ।।
    रहिये ना पड़ि सोय, बहुरि नहिँ मनुखा देही ।
    आपुन ही कूँ खोज, मिलै जब राम सनेही ।।
    हरि कूँ भूले जो फिरै, सहजो जीवन छार ।
    सुखिया जबही होयगो, सुमिरेगो करतार ।।
 ‘आपुन ही कूँ खोज’ अर्थात् आप अपना निर्णय करो कौन हो? शरीर पाँच तत्त्व से बना है। यह तुम नहीं हो। इन्द्रियों में से कोई नहीं हो। अन्तःकरण में-मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार; इन चारों में से कोई आप नहीं हो। ये सब इन्द्रियाँ आपकी हैं। जैसे आप शरीर पर कपड़े पहनते हैं। वे कपड़े आप के हैं। लेकिन आप कपड़े नहीं हैं। आप शरीर अथवा बाहरी वा भीतरी कोई भी इन्द्रिय नहीं है। मन, बुद्धि के आगे आप स्वयं है। आप क्या हैं? आप अपने को जैसा कि कहते हैं, आप जीवात्मा हैं। आत्मा केवल कहने से जीवत्व- भाव का नहीं होना साबित होता है। जीवत्व-भाव के सहित जो आप हैं, मन-बुद्धि, इन्द्रियों से परे हैं। यहाँ तक कि जिस मूल-पदार्थ से ये इन्द्रियाँ आदि बनी हैं; उस जड़ात्मिका-प्रकृति से भी आप परे स्वरूपतः आप चेतन-आत्मा हैं। अन्तःकरण के साथ से जीवत्व-दशा आई है। आप को शरीर मिला है। इस तरह समझ सकते हैं। लेकिन आप अपने को पहचान नहीं सकते हैं। मन, बुद्धि आदि इन्द्रियों तथा मायिक-तत्त्वों को मैं यह नहीं हूँ, मैं यह नहीं हूँ कहकर अपने को जान सकते हैं। लेकिन अपने को पहचान नहीं सकते हैं। जबतक पहचान नहीं हो, तबतक का ज्ञान अधूरा है। इसलिये अपने को पहचान लें। अपने को पहचान लेंगे तो ईश्वर को भी पहचान लेंगे। ईश्वर मन आदि इन्द्रियों से परे है, आत्मगम्य है। आप अपने को अपने से ही पहचान सकते हैं। जैसे आँख से आँख को देख सकते हैं ऐना लेकर। इसी तरह भक्तियोग-रूप साधन है, उससे आप अपने से अपने को देखेंगे, फिर पता लग जायगा कि ‘ईश्वर अंश जीव अविनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी है। यह प्रत्यक्ष हो जायगा। क्योंकि जिसको आत्म-दृष्टि होती है, उसका द्वैत दूर हो जाता है। सम्पूर्ण संसार में आत्मज्ञानी के लिये ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ हो जाता है। इसका साधन करना चाहिये। भक्ति करो, भजन करो। भक्ति-भजन का एक ही अर्थ है-सेवा।
 ईश्वर की सेवा क्या है? एक छोटी-सी कहानी कहता हूँ। एक मुनि बालक था। वह जंगल में विचरण करता था। एक राजा ने उस मुनि बालक को देखा। वह बालक देखने में बहुत सुन्दर था। मालूम पड़ता था जैसे वह सनक, सनन्दन, सनत् कुमार, सनातन में से कोई एक हो। बालक को देखकर राजा बड़ा प्रभावित हुआ। राजा ने कहा- आप मेरे साथ चलें। बालक ने कहा-राजन्! मेरा शर्त मंजूर करो तो मैं तुम्हारे साथ जाऊँगा।’ राजा ने कहा- ‘वह शर्त क्या है?’ बालक ने कहा- ‘मुझे खिलाओ, तुम मत खाओ। मुझे पहनाओ, तुम मत पहनो। मैं सोऊँ, तुम जगकर पहरा करो।’ राजा ने कहा-‘सो नहीं होगा। जो मैं खाऊँगा, सो तुझे खिलाऊँगा। जो मैं पहरूँगा, सो तुझे पहराऊँगा। मेरा जो पहरा करेगा, वही तुम्हारा भी पहरा करेगा।’ बालक ने कहा-‘मेरा राजा ऐसा नहीं है। वह स्वयं नहीं खाता, मुझे खिलाता है; वह स्वयं कुछ नहीं पहनता, मुझे पहनाता है; मैं सोता हूँ, वह जगकर हमारा पहरा करता है। अपने ऐसे राजा को छोड़कर मैं तुम्हारे साथ क्यों जाऊँ। वह है ईश्वर।
 सेवा उसकी होती है, जिसको कोई जरूरत होती है। जिसको कोई जरूरत नहीं, उसकी क्या सेवा होगी। लोग गंगा-सेवन करने जाते हैं। कितने श्रद्धालु दंड-प्रणाम करते जाते हैं। कितने देवस्थान में जाते हैं। उस देव के दर्शन वा पवित्र नदी में स्नान के लिये जाना उसकी सेवा है। गंगा किनारे रहकर गंगा-स्नान करते हैं, उसका जल-पान करते हैं, यह गंगा-सेवन है। इससे गंगाजी को कुछ मिला नहीं, कुछ लाभ हुआ नहीं और गंगाजी कुछ चाहती भी नहीं है। इसी तरह जो उधर जाता है, जिधर जाते-जाते ब्रह्मसुख का आभास मिलता है, ब्रह्म-ज्योति की तेज का ज्ञान प्रत्यक्ष होता है, यह है ईश्वर की सेवा। उधर जाते-जाते इतनी पवित्रता आती है, जितनी कि अभी आई नहीं। जिधर जाने से ब्रह्म-दर्शन होता है, उधर जानेवाले को लाभ है। ब्रह्म को या ईश्वर को कोई लाभ नहीं। ब्रह्म या ईश्वर-दर्शन किस ओर होता है? जिधर जाने से शरीर, इन्द्रिय का संग छूट जाता है। तीन अवस्थाओं का संग छूटता है और गोसाईं तुलसीदासजी के लिखे अनुकूल देखता है-
 यथा सुअंजन आँजि दृग, साधक सिद्ध सुजान ।
 कौतुक देखहिँ सैल वन, भूतल भरि निधान ।।
यह भूतल भूरि निधान क्या है? तो कहा-
सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवई निद्रा तजि योगी ।
सोई हरिपद अनुभवइ परम सुख,अतिशय द्वैत वियोगी ।।
 कोई कहे कि हम तुलसीदासजी की बात क्यों मानेंगे; तर्क को मानेंगे। तर्क करो, तो शास्त्रार्थ में जाओ। उसमें गर्मागर्मी हो जाय, माथापच्ची हो जाय तो क्या फायदा हुआ? जिस दिन पाठशाला में प्रथम-प्रथम पढ़ने गये थे, तो अध्यापक ने कहा यह ‘क’ है तो बिना तर्क के बिल्कुल वर्णमाला हमने सीखी। गिनती सीख ली। होते-होते ज्ञान हुआ, तर्क हुआ और ज्ञान, तर्क होने पर वही वर्णमाला, वही गिनती रही, कोई फर्क नहीं पड़ा।
 श्रद्धा भी हो, तो तर्क भी हो और गुरु-वाक्य के साथ मेल भी हो, मानने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए। गोस्वामी तुलसीदासजी, गुरु नानकदेवजी, कबीर साहब आदि सब संतों की बातें मिल जायँ तो क्यों न मानें। श्रद्धा हो और तर्क भी हो। अंधी- श्रद्धा गढ़हे में गिरावेगी और कोरा-तर्क भ्रमित रखेगा। आदमी की शिक्षा श्रद्धा से आरम्भ होती है। और बढ़ते-बढ़ते तर्क भी होता है। यह तो ऐहिक-विद्या के अन्दर की बात है। परमार्थिक-विद्या केवल किताबी-विद्या है, सो नहीं। गुरु द्वारा विद्या- पाठ का दरवाजा खुलता है, तब विद्यार्थी पढ़ता है। गुरु से संकेत लेता है। बिना गुरु के काम नहीं चलता। चाहे सांसारिक-ज्ञान हो, चाहे पारमार्थिक। गुरु में श्रद्धा होनी चाहिये। आप जानते हैं कि महाभारत का युद्ध भाइयों-भाइयों (कौरव-पाण्डव) में हुआ था। । बहुत लोग मारे गये। राज्य पाण्डवों को मिला। पाण्डवों में बड़े युधिष्ठिर थे। ये रोते थे कि हमसे बहुत पाप हुआ। व्यासदेवजी उनको समझाये, लेकिन समझते वे नहीं थे। अन्त में व्यासदेवजी ने उनसे कहा कि तुम अश्वमेध-यज्ञ करो। युधिष्ठिर ने कहा उतना धन मेरे पास कहाँ है? व्यासदेवजी ने रास्ता बताया और धन पाने का अनुष्ठान बताया। युधिष्ठिर ने उनकी बातों में श्रद्धा की, उनके बताये मार्ग से गये और धन प्राप्त कर यज्ञ किये। जैसे वह धन युधिष्ठिर के लिए अव्यक्त था। श्रद्धा-युक्त होकर उन्होंने धन प्राप्त किया। और यज्ञ करके शोक-मुक्त हुए। यदि युधिष्ठिर व्यासजी की बात में श्रद्धा नहीं करते तो रोते रहते। इसी तरह संतों की वाणी में श्रद्धा अवश्य चाहिए।
 कबीर साहब, गुरु नानक साहब, गोस्वामी तुलसीदासजी को देखने की जो दृष्टि थी, मेरी दृष्टि जो है, साधारण लोगों की दृष्टि जो है, सब में अन्तर है। संतों की दृष्टि मोटी-मोटी चीजों को भी देखती है और झीना-मार्ग को भी देखती है।
 भक्ति का मारग झीना रे । -कबीर साहब
        खंनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा ।
           -गुरु नानक साहब
  क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।
                   -कठोपनिषद्
  ऐसी दृष्टि हो तो देखा जाय मन, बुद्धि से आगे जाना होगा ईश्वर-दर्शन के लिये। जैसे गंगा- स्नान के लिए अपने गाँव से बाहर जाना होता है। किन्तु गंगा-स्नान करने से गंगा को लाभ नहीं। स्नान करनेवाले को लाभ होता है। वैसे ही ईश्वर दर्शन के लिए शरीर इन्द्रियों से बाहर जाना होगा। उसी रास्ते में चलकर ईश्वर की भक्ति होती है। ईश्वर का दर्शन होता है। उसपर चलने से आपको लाभ होगा, ईश्वर को कुछ लाभ नहीं। वह रास्ता बाहर संसार में नहीं अन्दर में है। ‘क्ष्ुरस्यधारा वा खंनिअहु तीखी वा झीना-मार्ग’-इस महीन-मार्ग पर चलने के लिये वायुयान से या संसार में किसी तरह से जाना नहीं हो सकता। जानेवाला कौन है? शरीर नहीं। शरीरों से छूट कर जाना है। जाने वाले आप हैं। पहले मन सहित आप जायेंगे। क्योंकि मन का साथ आपको है। जहाँ तक मन जायगा, वहाँ तक आप जायेंगे। जहाँ मन नहीं जाएगा, वहाँ भी आप जायेंगे; क्योंकि मन से भी आप अधिक सूक्ष्म हैं। अन्दर- अन्दर आप जायेंगे। कहाँ से आप जायेंगे? जागने के समय शरीर में आप जहाँ रहते हैं, योगियों ने उसको आज्ञाचक्र कहा है। इसको रहस्यवादी संतों ने कंजाकमल भी कहा है। वहाँ से जाना होगा।
जानिले जानिले सत्त पहिचानिले, सुरत साँची बसै दीद दाना।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै, पलक परवीन दिवदृष्टि ताना।।
      -दरिया साहब, बिहारी
 इस वास्ते आपको जो साधन करना है, उसमें मन को बहुत एकाग्र करना है। उसका पहला स्थूल- अवलम्ब जो है, वह है जप। दूसरा अवलम्ब है- मानस-ध्यान। तीसरा अवलम्ब है- जो तुम नहीं देखे हो, उसको देखो। गुरु जिस तरह बतावें, उस तरह देखो। उलटा देखो, यह रहस्यमयी वाणी है। उलटा देखने का अर्थ है, बहिर्मुख नहीं देखकर अन्तर देखो। फैली-निगाह से नहीं सिमटी-निगाह से देखो। इतना सिमटाव हो कि एकविन्दुता पर रह सको। तब समझो कि अन्दर के रास्ता पर आ गए। यहाँ से स्थूल से सूक्ष्म में जाने का रास्ता है। धीरे- धीरे अभ्यास करने से होता है। बाहर संसार में सदाचार का पालन करो। जो सदाचार-पालन नहीं करेगा, वह झूठ बोलेगा, चोरी करेगा, नशा खाएगा, हिंशा करेगा, व्यभिचार करेगा। इस तरह पाँचो पापों में रहकर कोई सदाचारी नहीं बन सकता।
अकेला मत जाना वह राह । गुरु बिन नहीं होगा निर्वाह ।।
        -राधा स्वामी साहब
 अपने को अपना गुरु मानकर चलना बुद्ध भगवान की तरह हो तो हो सकता है। लेकिन उनके समान और दूसरे कोई नहीं हुए। गुरु से ज्ञान लेना उनका शिष्य होना है। गुरु से शिक्षा प्राप्त कर दीक्षा लेना, गुरु के अधीनस्थ रहना है। और इसी तरह रहकर साधन करना है। जैसे वृक्ष में आम लगा। कच्चा आम खट्टा होता है। होते-होते पक जाता है, तो वही आम मीठा होता है। मेरे पिताजी कहते थे, बुरबक का आम खट्टा होता है। मैं मन में कहता था कि ये क्या कहते हैं। आदमी बुरबक हो वा भला हो, आम सबको एक समान लगता है। मैंने आम का एक पेड़ लगाया। वह फला तो आम खट्टा हुआ। उसी आम को पाल पर रखा तो वह मीठा हो गया। जबतक ठीक-ठीक साधन पूर्ण नहीं हुआ तो आम खट्टा होता है। जबतक परिपक्व नहीं हुआ, तबतक जो गुरु का संग छोड़ता है, गुरु का आदेश नहीं मानता है, तो उसमें ज्ञान पूर्ण नहीं होता है। इसीलिए गुरु महाराजजी का कहना था कि संतमत का अधिक सिद्धान्त नहीं है, केवल गुरु, ध्यान और सत्संग-ये तीन हैं। गुरु से शिक्षा लो, दीक्षा लो। जहाँ रहो उनकी आज्ञा के अनुकूल साधन-भजन करते रहो। तब बनते-बनते बन जाओगे। ध्यान करो और सत्संग भी करो।
 यहाँ पर तो ज्ञान-विचार होता है, उसमें जब सगुण-ब्रह्म का विचार होता है तो वह गंगा की धारा है। ब्रह्म-ज्ञान का विचार सरस्वती की धारा है। और कर्त्तव्य तथा अकर्त्तव्य की जो बात होती है, वह यमुना की धारा है। इस तरह यहाँ त्रिवेणी- धारा बहती है। इसमें अपने कर्म का निर्णय होता है। उसके अनुकूल दीक्षा लेता है और साधन करते-करते पूर्ण होता है। इन्हीं बातों में सन्तमत का ज्ञान पूर्ण होता है। यही हमलोगों को सीखना चाहिये।
 मैं आप लोगों का अभिनन्दन करता हूँ। तथा आचार्य विनोवा भावे के संग से जो पवित्र महिला आयी हैं और जो पवित्र पुरुष आये हैं, इनके दर्शनों से मैं बहुत प्रसन्न हुआ।
[* सत्संग महाधिवेशन के अवसर पर सर्वोदय के महान नेता श्रीबिनोवा भावे के प्राइवेट सेक्रेटरी श्रीकृष्णराज का मेहताजी का प्रवचन भूदानयज्ञ पर हुआ था। श्रोताओं की ओर से आग्रह हुआ कि अभी सत्संग के अनुकूल विषय पर ही प्रवचन हो, इसी पर पूज्यपाद महर्षिजी ने भूदान संबंधी उपर्युक्त बातें कहीं। ]
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यह प्रवचन दिनांक 10. 03. 1969 ई0 को भागलपुर जिलान्तर्गत अठगामा ग्राम में अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग के 61वाँ वार्षिक अधिवेशन में अपर्रांकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।
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301. सहस्त्रदल कमल में जाने पर देवताओं का दर्शन
प्यारे लोगों !
 इस पंच तत्त्वमय संसार के पाँचों में प्रथम का तत्त्व अवश्य ही आकाश मानना पड़ता है। फिर सौर-जगत् के आरम्भ में सूर्य अवश्य ही मानने योग्य है। इसी तरह यह प्रकृति के फैलाव के अन्दर की सब रचनाओं और प्रकृतियों के सहित आरम्भ में जो मानना पड़ता है, उसी को ईश्वर- परमात्मा कहते हैं। वह अत्यन्त-गुप्त है। पंच तत्त्वों के आरम्भ का जो आकाश है, यह तो लोग प्रत्यक्ष ही मालूम करते हैं और सौर जगत के आरम्भ के सूर्य को भी लोग प्रत्यक्ष देखते ही हैं। लेकिन प्रकृति के आरम्भ का जो परमात्मा है, वह अत्यन्त-गुप्त है। वह सबसे दूर है और सबसे नजदीक भी है। यह भी कह सकते हैं, जैसे कि संत कबीर साहब कहा है-
 मंदिर में दीप बहु बारी, नयन बिनु भई अंधियारी ।
इसी तरह वह गुप्त-से-गुप्त और प्रकट-से-प्रकट है। काहे?
   है नेरे सूझत नहीं, ल्यानत ऐसो जिन्द ।
   तुलसी या संसार को, भयो मोतिया बिन्द ।।
        -गोस्वामी तुलसीदासजी
 अपने को ही मोतियाबिन्द है। मोतियाबिन्द वह रोग है, जो आँख की पुतली पर पत्थर का सा परदा हो जाता है। आजकल लोग उसको डॉक्टर से निकलवा देते हैं, जिसको मोतियाबिन्द होता है, उसको सब कुछ रहते हुए कुछ दीखता नहीं। उसी तरह ईश्वर पाने के लिए जो अपेक्षित है, उस पर परदा है। वह नेत्र कैसा है? वह नेत्र का नेत्र है और देखने के दृश्य का देखनेवाला है। वही है- अक्षर। जिसमें परिवर्तन नहीं होता, जो क्षीण होते-होते क्षीण हो जाता है, सो वह नहीं है। वह अक्षर-पुरुष है। वही अक्षर-पुरुष अपने आपको समझो। यह चेतन-रूप है। इसी के ऊपर शरीर और इन्द्रियों का आवरण हो गया है। यही मोतियाबिन्द है। इस आवरण के कारण नहीं देख सकते हो, नहीं दर्शन कर पाते हो, ईश्वर का। जैसे मोतियाबिन्द के कारण बाहर का कुछ नहीं देख पाते। यही अक्षर-पुरुष अन्तःकरण का साथ कर जीवात्मा कहलाता है। इसी की संतों को भाषा में ‘आदि-सुरत’ कहते हैं।
आदि सुरत सत पुरुष तें आई । जीव सोहं बोलिये सो ताई ।।
       -कबीर साहब
 इस अक्षर पुरुष से भी जो परतत्त्व है, वही ईश्वर-परमात्मा है। वही सारे जगत के तत्त्वों के मूल में है और सबसे प्रथम का है। आप अपने शरीर में हैं। वही अक्षर-पुरुष है। उस अक्षर-पुरुष को उस प्रभु का दर्शन होना चाहिए। दर्शन करने की कोशिश को भक्ति हैं। भक्ति को ही सेवा कहते हैं। इस सेवा से ईश्वर को कोई लाभ नहीं। लेकिन अक्षर-पुरुष को बड़ा लाभ है। दर्शन होते ही-जैसे अभी आपको मालूम होता है कि शरीर और संसार कष्टमय है, सो कष्टमय नहीं मालूम होगा। तब आप शरीर और संसार में रहो वा नहीं रहो, दोनों में ब्र्र्र्र्र्र्रह्म-सुख का एक ही ज्ञान रहेगा। इसी के लिये भक्ति अपेक्षित है।
 अभी जो श्रीसंतसेवीजी ने अपने प्रवचन में अन्तस्साधन की बात कही है, उसकी बड़ी आवश्य- कता है। बाहर-बाहर वह भक्ति नहीं होती। अवश्य ही अभी जैसे सत्संग होता है, आरम्भ में मन लगाने के लिये यह बाहर का कुछ अवलम्ब है। लेकिन चाहिए कि अन्तर्वृत्ति हो। आपको बाहर की चीजों को पकड़ने की वृत्ति हो रही है। बाहरी चीजों का ज्ञान-पहचान आप को है। लेकिन अन्तर्वृत्ति करके कैसा होता है, सो आपको मालूम नहीं है। अन्तर्वृत्ति करो, तब अन्तर्दृष्टि होगी। आपका श्वास अन्तर में रूककर रहे, तब अन्तर्वृत्ति होगी, ऐसी बात नहीं है। इसके लिए जिस तरह की अन्तर्वृत्ति होती है, वह ठीक-ठीक तभी जान सकते है, जब आप तीन अवस्थाओं में से अपने को हटाकर चौथी अवस्था में ले जायेंगे। उस अवस्था में ले जाने के लिए पहली बात समझो कि जागने के समय आँख में, स्वप्न के समय कण्ठ में, सुषुप्ति के समय शरीर-हृदय में जीव का वास होता है-योग-हृदय में नहीं। योग-हृदय में ले जाने के लिये साधन करना होता है। यह स्वाभाविक नहीं है। इसी यत्न को योगाभ्यास कहते हैं। यह आसान तरीके से भी होता है। और कठिन तरीके से भी। सन्तों ने सबसे कहा कि करो। और उस अन्तर्वृत्ति होने के साधन को दो भागों में बाँटा। स्थूल-भाग और सूक्ष्म-भाग। स्थूल-भाग में है-
    मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
    मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।
                -कबीर साहब
 स्थूल-भाग यहाँ से आरम्भ किया जाता है। इससे लाभ यह होता है कि वृत्ति जो बहुत फैली हुई होती है, वह कुछ समेट में आ जाती है। लेकिन पूर्ण सिमटाव जिस तरह होता है, उसके करने से ही काम चलेगा। इसलिए उसका भी यत्न बताया है। स्थूल-भाग में जो साधन करते हैं, उनको सगुण- ही-सगुण मिलता है। जहाँ से सूक्ष्म आरम्भ होता है तो निर्गुण में जाने की डगर मिलती है। वहाँ तो ‘मूल ध्यान गुरु रूप है’ और यहाँ ‘प्रथमहिँ सुरत जमावै तिल पर।’ यह है निर्गुण में जाने का साधन, सूक्ष्म में जाने का साधन। ‘मूल ध्यान गुरु-रूप है’ या ‘गुरु की मूरति मन महिं धिआनु।’ से इतना ही समझना चाहिये कि जो स्थूल-सगुण-रूप आप देख चुके हैं, उनको मन में बनाकर देखिये। इसी को गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-‘आम छाँह करि मानस पूजा।’ मानस-पूजा भी इसको कहा है। मानस पूजा और मानस ध्यान एक ही बात है। इससे सूक्ष्म-मंडल में जाने की योग्यता होती है। और जिसको तिल पर स्थिरता होती है, उसका सूक्ष्म-मंडल खुल जाता है। स्वर्ग-नरक उसको मालूम होता है। गुरु महाराज ने लिखा है कि सहस्त्रदल- कमल में जो जाता है, वह वहाँ के देवताओं को भी देखता है। उनके विज्ञापन में छपता था कि ‘कब्र में जाने और चिता में जलने के पहले मोक्ष प्राप्त करो।’
 संतों ने निर्गुण में जाने का रास्ता बताया है। जो परमात्म-स्वरूप है, उसको पाने के लिए यत्न बताया है और कहा है कि तुम्हारा शरीर जो हाड़, चाम, मांस का है, सो इतना ही नहीं है। अन्दर के पहले भाग में अंधकार भरा है, दूसरे भाग में प्रकाश है और तीसरे भाग में ध्वनि-नाद व शब्द भरा है। विविधता इसमें भी और उन दोनों-अंधकार और प्रकाश में भी है। आखिरी में जो आदिनाद- आदि-शब्द मिलता है, वही परम-नाद है। जिसके लिये योगशिखोपनिषद् में ‘अक्षरं परमोनादः शब्द ब्रह्मेति-कथ्यते’ कहा है। उसी को संतों ने राम-नाम, सत्य-नाम आदि कहा है। ‘सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा’ दादू दयालजी ने कहा है। आदि-नाद जो है, वही निर्गुण है। उसके अतिरिक्त और जितने शब्द हैं, सभी सगुण-सगुण हैं। तीन शून्यों के पार में अपने को ले चलो, तो परमात्मा का दर्शन हो। तीन शून्यों को पार करने के लिये कहाँ जाओगे? अन्दर चलो। अन्दर पार करो तो बाहर भी पार हो जाओगे। अन्दर पार नहीं करो, तो बाहर पार नहीं होओगे। तीन शून्यों के परे जो है, उसको न तो निर्गुण कहते बनता है, न सगुण। अपने अन्दर में चलने का अन्त कर दो, तो फिर कहीं नहीं चलना होगा। ‘अविगत अन्त अन्त अन्तर पट’ कहकर तीन शून्यों का इशारा किया है। अपने अन्दर अंधकार को पार करो, आश्चर्य नहीं है। संतों ने स्वयं किया है, तब उन्होंने इसकी युक्ति बताई है। उन्होंने कहा है कि मैंने किया है, मालूम हुआ है। तुम भी करो, तो मालूम होगा। तीनों शून्य खत्म हुए, काम खत्म हुआ। सारा संसार क्षर है और शरीर आपका क्षर है। यानी शरीर और संसार; दोनों क्षर है। इनसे परे अक्षर-चेतन-पुरुष है। इसके परे जो है, उसी को ‘क्षेत्र क्षर अक्षर के पार में’ कहा गया है। उसको क्या कहें, विचार में नहीं आता है। विचार वहाँ तक नहीं जाता है। साधना करके कोई प्रत्यक्ष में देख सकते हैं, सो होगा। लेकिन केवल सुनकर जो जान सकेंगे, सो पूर्ण जानना नहीं होगा। जैसे भूख लगती है तो भोजन करते है, तो भूख खत्म हो जाती है; उसी तरह यह बात है। ईश्वर का दर्शन इसलिए चाहिए कि आपको किसी तरह की भूख नहीं रह जाए। वह कारण नहीं बच जाय, जिससे आपको कष्ट हो। आप उस मूल-पुरुष को पाइयेगा, जिसको पाकर कभी वह छूटेगा नहीं। उसके छूटने का गुण आपमें नहीं होगा। यही ब्रह्म निर्वाण है। यही कारण है कि संतों ने भक्ति-मार्ग का उपदेश दिया है। यह भक्ति-मार्ग ऐसा नहीं कि केवल मोटी-मोटी बातों में रहो। अथवा मोटी-मोटी बातों को छोड़ दो, ऐसा भी नहीं। मोटी-मोटी भक्ति करके फिर सूक्ष्म-भक्ति भी करो। इसी को सुन्दर दासजी ने कहा है कि भक्त बिना कान के सुनता है और बिना आँख के देखता है-
  श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै ।
  रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तरै ।।
  नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै ।
  अंग बिना मिलि संग, बहुत आनन्द बढ़ावै ।।
  बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिये रहै ।
  मिलि परमातम सों आतमा, परा भक्ति सुन्दर कहै ।।
 यह परा-भक्ति है, समझ-बूझकर साधन- भजन अच्छी तरह करना चाहिए।
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यह प्रवचन दिनांक 11. 03. 1969 ई0 को भागलपुर जिलान्तर्गत अठगामा ग्राम में अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग के 61वाँ वार्षिक अधिवेशन में प्रातःकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।
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302. सगुण दर्शन से अष्ट सिद्धि की प्राप्ति
प्यारे लोगो!
 ईश्वर-भक्ति में बहुत-सी बातें हैं, जो आपके सामने कह दी गयी हैं। अब थोड़ी-सी बातें जो बाकी हैं, महत्त्वपूर्ण हैं, मैं कहता हूँ। आप शान्तिपूर्वक बैठे रहते हुए श्रवण करते जाइए और समझते जाइए। ईश्वर-भक्ति में दोनों ख्याल हैं। एक केवल सगुण भाव में रहते हुए भक्ति और दूसरा सगुण- निर्गुण दोनों भाव में रहते हुए भक्ति। दोनों तरह के भक्तों की यही उत्कट अभिलाषा रहती है कि भगवन्त वा परमात्म-दर्शन हो जाये। वे दर्शन के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहते हैं। दर्शन से बढ़कर कोई पदार्थ नहीं जो वे चाहें। सगुण परमात्म-भक्ति में जो दर्शन होता है, वह इन्द्रियगम्य है। वह दर्शन मायामय है। परन्तु सगुण अथवा माया मण्डल के अन्दर उससे बहुत लाभ होता है। अष्ट सिद्धियाँ, नव निधियाँ उससे प्राप्त होती हैं। किन्तु ये ऐसे हैं कि इनको पाकर साधक को पूर्ण संतोष नहीं होता। इच्छा बिल्कुल चली नहीं जाती। ये लोग यदि यहीं तक रह गए तो इहलोक में और परलोक में बहुत सुख पाते रहते हैं और कभी-न-कभी ये सब सुख छूट भी जाते हैं। लेकिन निर्गुण भक्ति में ऐसी बात नहीं है।
 सगुण भक्ति को नहीं करते केवल निर्गुण की ही भक्ति करे, नहीं हो सकता है-नहीं हुआ है। सगुण भक्ति भाव के आगे निर्गुण भाव में चलनेवाले को मायामय दर्शन नहीं है। निर्गुण भाव में मायामय दर्शन से बढ़कर निर्गुण दर्शन होता है। वह इन्द्रियगम्य नहीं, आत्मगम्य है। भक्त जहाँ सगुण भक्ति करता है, वहाँ उसको इन्द्रियगम्य दर्शन होता है। उस दर्शन के लिए कहीं जाना पड़े, सो नहीं। लेकिन निर्गुण दर्शनवाले भक्त को जाना पड़ता है। अगर यह सन्देह हो कि वह निर्गुण परमात्मा सर्वव्यापक होने के कारण सर्वत्र हई है, फिर जाना कहाँ है? तो इसके उत्तर में संतों ने बताया है कि इसमें कोई शक नहीं कि निर्गुण स्वरूप सर्वव्यापक है, लेकिन वह पहचान में नहीं आता। इसलिए सर्वत्र दर्शन नहीं होता। वहाँ जाना होता है, जहाँ जाकर वह दर्शन हो-जहाँ निर्गुण पहचान में आवे। एक बार दर्शन हो जाने पर सर्वत्र दर्शन ही रहता है। कभी दर्शन होता है, कभी नहीं, ऐसा नहीं-
सोवत जागत ऊठत बैठत, टुक विहीन नहिं तारा।
झिन झिन जंतर निसि दिन बाजै, जम जालिम पचिहारा।।
          - दरिया साहब, बिहारी
 जब वह मायामय से ऊपर उठकर समाधि में रहता है, तब जो दर्शन होता है, समाधि से उतरने पर भी वही दर्शन होता है। इसकी मिसाल नहीं। थोड़ा-सा कहता हूँं। जैसे आपने स्वादिष्ट भोजन किया है, वह याद है, वह बहुत याद रहता है। और स्वादों के साथ उसकी भी याद रहती है। यह तो नमूना है। लेकिन वह दर्शन ऐसा है कि माया और निर्माया दोनों में एक ही को जानता है। दो भेद रहते हुए भी वही दर्शन पाता है। श्रीराम वाल्मीकि के सामने उपस्थित थे, लेकिन वाल्मीकिजी कहते हैं-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 यह दर्शन भी और श्रीराम के सगुण रूप का भी दर्शन होता था। भक्त को पहले किसलिए जाना होता है? इसलिए कि मायामण्डल में उसको निर्गुण स्वरूप का दर्शन नहीं होता है। अपने को इन्द्रियगम्य प्रत्यक्ष ज्ञान में रखकर माया मण्डल के परे जो देखना चाहिए, वह माया में रहकर नहीं देख पाता है। अपने को इन्द्रियगम्य प्रत्यक्ष ज्ञान में रखना माया में रखना है। जब माया मण्डल को पार कर दर्शन पाता है, तब निर्गुण दर्शन है। जो सगुण ही सगुण चाहते हैं, उनको माया में ही रहना और मायिक ही दर्शन होता है।
 राजा मनु ने बहुत तप किया। उनको सगुण रूप का दर्शन हुआ। लेकिन वे माया से नहीं छूटे। बल्कि उन सगुण भगवान की तरह पुत्र का वरदान उन्होंने उनसे माँगा। लालसा बन्द नहीं रहने के कारण उनको दूसरा जन्म लेना पड़ा और सांसारिक दुःख से छूट नहीं सके। और मायामण्डल में जो अज्ञानता होती है, वह अज्ञानता भी उन्हें रही और उनसे श्रवण-वध आदि अज्ञानता के कर्म हुए। यह कथा रामायण बताती है।
 सगुण दर्शन में अष्टसिद्धि, नवनिधि, उत्तम- उत्तम मायिक सभी पदार्थ मिलते हैं। लेकिन लालसा नहीं छूटती है। और वह लालसा दुःख में ले जाती है। संतों ने कहा है कि निर्गुण का भी दर्शन करके देखो। उनके दर्शन करके लालसा छूटती है कि नहीं? इधर जाने पर लालसा का पता नहीं रहता। सूरदासजी ने कहा है-‘अमित तोष उपजावै।’
अविगत गति कछु कहत न आवै ।
ज्यों गूँगहिं मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै।।
परम स्वाद सबही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै।
मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै।।
रूप रेख गुन जाति जुगुति बिनु, निरालंब मन चकृत धावै।
सब विधि अगम विचारहि तातें, ‘सूर’ सगुन लीला पद गावै।।
 इसके लिए भक्त को जाना पड़ता है। और अन्दर-अन्दर जाना पड़ता है। बाह्य धरातल पर वा आसमान में नहीं जाना पड़ता है। जिस पिण्ड में हो, उसको ब्रह्माण्ड से ऐसा संबंध है कि पिण्ड के जिस तल पर रहो, ब्रह्माण्ड के उसी तल पर रहोगे। पिण्ड के सब तल छूट जाएँ, तो ब्रह्माण्ड के भी सभी तलों से छूट जाएँगे। ब्रह्माण्ड के सब तल छूट गए तो माया मण्डल को पार कर गए। जो पिण्ड के जिस मण्डल को पार करते हैं, वे ब्रह्माण्ड के भी उस मण्डल को पार कर जाते हैं। इस जागने की अवस्था में आप पिण्ड के स्थूल तल पर ही रहते हो तो ब्रह्माण्ड के भी स्थूल तल ही पर रहते हो। स्वप्न में अपने शरीर के स्थूल तल को थोड़ा भी छोड़ देते हो, तो बाहर संसार को भी छोड़ देते हो। यह थोड़ा-सा नमूना है। इसी तरह पिण्ड के सभी तल छोड़ो तो ब्रह्माण्ड के सभी तल छूट जायेंगे। निर्गुण तल कभी छूटता नहीं, टूटता नहीं, नाश होता नहीं, वहाँ भक्त रहते हैं। आपने तुलसी साहब के एक छन्द के पाठ में सुना-
    हिय नैन सैन सुचैन सुन्दरि, साजि स्रुति पिउ पै चली ।।
 प्रभु के पास सुरत-सुन्दरी चली। जाने की बात यहाँ है, बुलाने की नहीं। संत कबीर साहब कहते हैं-
 भक्ति का मारग झीना रे ।
 नहिं अचाह नहिं चाहना, चरनन लौलीना रे ।।
 साधुन के सत्संग में रहे, निसिदिन भीना रे ।
 सब्द में सुर्त ऐसे बसे, जैसे जल मीना रे ।।
इस सूक्ष्म मार्ग पर चलना है-
 ऊँची नीची राह रपटीली, पाँव नहिं ठहराय ।
 यहाँ भी चलने की ही बात है। इस तरह संतों का जो वर्णन है, तो उसमें हम यही पाते हैं कि भक्त जाते हैं। सशरीर नहीं जाते, शरीर को छोड़ते जाते हैं। शरीर को छोड़ते-छोड़ते ऐसा होता है कि शरीर रहता नहीं। वह मायामय खोल है। इस खोल के उतर जाने पर वह दशा होती है, जो कभी छूटती नहीं। चेतन-स्वरूप रह जाता है। ‘चिदानन्दमय देह तुम्हारी।’ यह केवल भगवान के ही हैं, सो नहीं, भक्त को भी है। भगवान चिदानन्दमय होते हैं, तो भक्त भी अपने को चिदानन्दमय रूप में लाता है। जो अपने को चिदानन्दमय रूप में नहीं लाए हैं, उनकी भक्ति पूरी नहीं हुई है। शरीर और उस पर का जेवर कुछ नहीं। अपना स्वरूप ऐसा है कि इसकी सुन्दरता से बढ़कर कोई सुन्दरता नहीं। शरीर नंगा हो जाए तो कितना भी सुन्दर शरीर हो, तो वह अच्छा नहीं लगता। लेकिन चेतन आत्मा पर से शरीर-रूप खोल-आवरण उतर जाय, नंगा हो जाए, तो इतनी सुन्दरता होती है, जितनी सुन्दरता और किसी में नहीं। ‘सुन्दर दीसत सुन्दर माहिं सु सुन्दरता कहि कौन उहाँ है।’-संत सुन्दरदासजी
 जैसे पानी के अवलम्ब से पानी को पारकर सूखी जमीन पर जाता है।, उसी तरह माया का अवलम्ब लेकर माया को पार कर निर्माया तक जाते हैं। पहले स्थूल नाम और स्थूल रूप का अवलम्ब मिलता है। फिर सूक्ष्म अवलम्ब मिलता है। उसके ग्रहण से आगे बढ़ता है। सूक्ष्म मण्डल में सूक्ष्म सगुण रूप का दर्शन पाता है। वहाँ विविध प्रकार की ज्योतियाँ मिलती हैं। फिर वहाँ भी अवलम्ब पाता है, वही शब्द है। तभी नादानुसन्धान होता है या सुरत-शब्द-योग होता है। नाद का अवलम्ब ईश्वर से मिलाता है। वह नाद ईश्वर से निकला है, इसलिए उस आदिनाद से खि्ांचकर ईश्वर तक पहुँचता है। वहाँ चेतनमय शरीर ही केवल रहता है। इस तरह ज्योति और नाद का अवलम्ब मिलता है। ये नाद और ज्योति ईश्वर के रूप ही हैं। जैसे प्रतिमा को भगवान का रूप मानते हैं। उसी तरह भक्त ज्योति और नाद का बहुत आदर करते हैं। इसलिए कि इसके बिना भक्त आगे नहीं बढ़ सकता। जिस प्रकार बाह्य प्रतिमा को देखकर उसका रूप मन में गठन कर ध्यान करते हैं, उस तरह ज्योति और अंतर्नाद को बाहर में देख व सुनकर भीतर में गठन व ध्यान नहीं किया जाता है। वे गुरु-गम्य युक्ति की साधना से स्वतः ही अन्दर में विदित होते हैं।
 जो कोई निरगुन दरसन पावै ।।टेक।।
 प्रथमे सुरति जमावै तिल पर, मूल मंत्र गहि लावै।
 गगन गराजै दामिनि दमकै, अनहद नाद बजावै।।
 बिन जिभ्या नामहिं को सुमिरै,अमिरस अजर चुवावै ।
 अजपा लागि रहै सूरति पर, नैनन पलक डुलावै।।
 गगन मंदिल में फूल फुलाना, उहाँ भँवर रस पावै।
 इंगला पिंगला सुखमनि सोधै, प्रेम जोति लौ लावै।।
 सुन्न महल में पुरुष विराजै, जहाँ अमर घर छावै।
 कहै कबीर सतगुरु बिनु चीन्हे, कैसे वह घर पावै।।
 मायिक आवरणों से छूटने में किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता। संत कबीर साहब कहते हैं-
 यही बड़ाई शब्द की, जैसे चुम्बक भाय ।
 बिना शब्द नहिं उबरै, केता करै उपाय ।।
चुम्बक सत्त शब्द है भाई, चुम्बक शब्द लोक ले जाई ।
लेइ निकारि होखै नहिं पीरा, सत्त शब्द जो बसै शरीरा ।।
       -दरिया साहब, बिहारी
 सभी संतलोग यही कहते हैं। इसके अलावा और कोई मार्ग है, मुझे विदित नहीं। और कोई मार्ग हई नहीं है। किसी को विदित नहीं है। यदि कोई कहते हैं तो वे प्रमाणित नहीं कर सकते।
 परमात्मा से पहले क्या हुआ? शब्द हुआ। क्यों? इसलिए कि बिना शब्द के कुछ बनता नहीं। शब्द कम्पमय होता है और कम्प शब्दमय होता है। बुद्धि के सामने, समझ के सामने इसके अतिरिक्त और किसी उत्पत्तिकारी तत्त्च को कोई साबित नहीं कर सकता। इसलिए जो ईश्वर की ओर चलते हैं, उनको शब्द का सहारा मिलता है। वे शब्द से खि्ांचते हुए ईश्वर तक पहुँच जाते हैं। जो जाकर ईश्वर-दर्शन करते हैं, उनको अवलम्ब भी मिलता है और ईश्वर भी मिलते हैं। उनके जन्म-मरण के चक्र का कारण ही मिट जाता है। इसी का उपदेश संत महात्मा दे गए हैं। यहीं तक भक्ति की सीमा है। अब कुछ कहने को बाकी नहीं है। भक्ति के अन्दर यह भी कहना है कि संसार में भी सुखी रहो और परलोक में भी। इसलिए चोरी नहीं करो, झूठ मत बोलो, नशा मत लो, व्यभिचार मत करो और हिंसा नहीं करो अर्थात् सदाचार का पालन करो। हिंसा नहीं करो के सिलसिले में मत्स्य-मांस का भोजन नहीं करो। जो मत्स्य-मांस का भोजन करते हैं, उनके अन्दर हिंसा वृत्ति रहती है। भले ही वे नहीं मारें। लेेेकिन जबतक कोई दूसरा मारें नहीं, तो वे खायेंगे कैसे? इसलिए मत्स्य-मांस खानेवाले के अन्दर हिंसावृत्ति रहती है। महाराज मनु ने अष्टघातक का वर्णन किया है-1. मारने के लिए आज्ञा देनेवाला, 2. शस्त्र से मांस काटनेवाला, 3. मारनेवाला, 4. बेचनेवाला, 5. खरीदनेवाला, 6. पकानेवाला, 7. परोसनेवाला, 8. खानेवाला।
 अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
 संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः।।
 इन आठो घातकां से भी बचो। खाने के लिए बहुत चीजें हैं। लोग कहते हैं कि अण्डा में हिंसा नहीं है। लेकिन हिसा नहीं होने पर भी अपवित्र है। और उसकी तासीर देखो कैसी है? शिवानन्द स्वामीजी महाराज कहते थे कि तुम एक महीना मत्स्य-मांस नहीं खाकर डायरी लिखो। और देखो कि तुम्हारा मन कैसा-कैसा रहता है? और एक महीना खाकर डायरी लिखो। फिर दोनों को मिलाकर देखो। जितना पवित्र मन नहीं खाने के दिन में रहेगा, उतनी पवित्रता खाने के दिन में नहीं रहेगी। फिर तो तुम अपने ही छोड़ दोगे। किसी भी नशीली चीज की आदत नहीं रखो।
 भाँग तमाखू छूतरा, अफयूँ और शराब ।
 कह कबीर इनको तजै, तब पावै दीदार ।।
 इसके सेवन से तुम्हारा पैसा खर्च होता है। फजूल आदत के वश होते हो। इसमें नुकसान भी होता है। एक हमारे साथी थे, वे पीते भी थे और छोड़ते भी थे। लेकिन सदा के लिए नहीं छोड़ सकते थे। मैंने उनसे कहा कि इससे नुकसान होता है, छोड़ दीजिए। तो उन्होंने कहा-क्या हानि है? मैंने कहा-भजन करते समय भी उसकी याद आएगी तो मन भजन में नहीं लगेगा।
 संसार में झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; ये पाँचो पाप नहीं होें तो दुष्ट-कर्म बन्द हो जाए। फिर पहरेदार की जरूरत नहीं पड़ेगी। सरकार का बहुत खर्च बच जाएगा। और दुष्ट कर्मों के बन्द हो जाने से उस देश की तारीफ दूसरे देशों में बहुत होगी। सरकार को भी लाभ है, देश को भी लाभ है और अपने लिए भी अच्छा है। अपनी बुरी आदत को छोड़ो। जैसे-जैसे भजन में बढ़ोगे, पाप करने की वृत्ति छूटेगी। पाप कर्मों को छोड़कर भजन करोगे तो भजन में बढ़ोगे। दोनों में लाभ है। भजन में लाभ होगा। संतों की वाणी को मानकर आपलोगों को चलना चाहिए और पापों को छोड़कर भजन करना चाहिए। इससे और कोई विशेष बात नहीं। कहने के लिए बात पर बात और हैं। लेकिन जितनी बातां से अपना काम चलेगा, वह कह दिया गया। सब सुखी-सुखी रहें। दुःखों से छूटते रहें। ज्ञान में वृद्धिशील रहें। एक दूसरों के साथ कुभाव नहीं रखें। सब की एक ही आत्मा है, यह भाव रखें तो अंत में वे एक ही आत्मा को देखेंगे।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत 61वाँ अखिलभारतीय संतमत सत्संग में, ग्राम-अठगामा में दिनांक 11. 3. 1969 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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303. मैत्रेयी और मुनि याज्ञवल्क्य का वैराग्य
प्यारे लोगो !
 कोई काम बिना सोचे-विचारे नहीं करना चाहिये। सोच-समझकर ही काम करना अच्छा होता है। मनुष्य जो सोचता है, उसमें यह ख्याल अच्छा रहता है कि जिस काम के करने से अपना लाभ हो-भला हो, उसको करो और जिस काम के करने से अपना लाभ-अपनी भलाई नहीं हो; उसको नहीं करो। यह सिद्धान्त है, जो सबके लिये एक समान है। किसी के लिये कम, किसी के लिये विशेष नहीं। हमलोग जो सत्संग करते हैं, इसमें लाभ है या नहीं, इससे अपना भला होगा या नहीं, यह समझो। सत्संग से अपना लाभ होगा, भला होगा। क्या लाभ होगा? क्या भला होगा? तो, लाभ और भला को समझने के लिये पहले अपने शरीर को समझो। शरीर सम्बन्धी जितनी वस्तुएँ हैं, हम उनके साथ सुखी रहने की कोशिश करते हैं। उससे क्षणिक-सुख मिलता है, किन्तु तृप्ति नहीं आती है। यह सबके लिये है। सांसारिक वस्तुओं से पूर्ण सुख नहीं मिलता, पूरी तृप्ति नहीं होती। तो यह अपने लिये भला नहीं हुआ। असल में संसार की वस्तु सुखदायक नहीं है।
 याज्ञवल्क्य मुनि बड़े ज्ञानी थे, बड़े योगी थे। उनकी दो पत्नियाँ थीं। उनको वस्तुएँ भी बहुत थीं। उनके मन में वैराग्य हुआ। सोचा कि संसार की वस्तुओं से तृप्ति नहीं होती। इससे मन को अलग रखना अच्छा है, इसमें अनुरागी होना ठीक नहीं। हरि-भजन करना ठीक है। ज्ञान लेना, ज्ञान देना, सत्संग करना, सत्संग कराना ही ठीक है। ऐसा निश्चय करके दोनों पत्नियों यानी कात्यायनी और मैत्रेयी से कहा कि आपलोग वस्तुओं को आपस में बराबर-बराबर बाँट लें। मेरे घर से जाने के बाद घर में झगड़ा हो, ठीक नहीं। कात्यायनी ने मंजूर किया। मैत्रेयी ने पूछा-‘पतिदेव ! इन वस्तुओं को छोड़ देने से आपको बेसी क्या मिलेगा? यदि इनको छोड़ने पर बेसी कुछ मिलेगा, तो मैं भी वही क्यूँ न लूँ? जैसे आप छोड़ते हैं, वैसे मैं भी छोड़ती हूँ।’ आखिर में यही बात हुई, बड़ी पत्नी की सब वस्तुएँ हुईं। मैत्रेयी और मुनि याज्ञवल्क्य; दोनों ने उन वस्तुओं को छोड़ दिया।
 बेसी वस्तु क्या है? याज्ञवल्क्य ने कहा- ज्ञान है। ज्ञान जिसको बताता है, वह साधन-विशेष द्वारा प्राप्त होने योग्य है। और उस साधन से जहाँ पहुँचा जाता है, वह और भी बहुत विशेष है। मैत्रेयी और याज्ञवल्क्य; दोनों का सारा जीवन सत्संग और साधन-भजन में व्यतीत हुआ। दोनों को उसी में आनन्द मालूम होने लगा। सुख मिलने लगा।
 अपने शरीर को अच्छा रखने के लिये संयम रखने पर, मेहनत करने पर ठीक रहता है। और कभी-कभी ऐसा होता है कि शरीर अच्छा नहीं रहता है। और एक अवस्था ऐसी है, जो कि बेरोक-टोक आती है।
देखत ही आई बिरुधाई। जो तैं सपनेहुँ नाहिं बोलाई ।।
ताके गुन कछु कहे न जाहीं। सो अब प्रगट देखु तनु माहीं ।।
सो प्रगट तनु जरजर जराबस, ब्याधि, सूल सतावई ।
सिर कम्प इन्द्रिय-सक्ति प्रतिहत, बचन काहु न भावई ।।
गृहपालहूतें अति निरादर, खान-पान न पावई ।
ऐसि दसा न विराग तहँ, तृष्णा-तरंग बढ़ावई ।।
       -गोस्वामी तुलसीदासजी
 वह भी समय सबको आनेवाला ही होता है। ‘माल मुलुक को कौन चलावे संग न जात शरीर’- कबीर साहब ने कहा है। कितना भी सुन्दर और बल- वान शरीर हो, छूटेगा जरूर। शरीर छूटने पर अपने- बेगाने सभी छूटेंगे। यह सबको होगा। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि शरीर तो है और वस्तुएँ नाश हो गयीं। कभी-कभी किसी-किसी को यह दृश्य भी देखना पड़ता है कि सब सम्बन्धी संग छोड़ देते हैं।
 संसार की यह हालत देखकर यही सोचना अच्छा है कि इससे बढ़िया क्या है? संतों ने कहा है- सबसे बढ़िया साधन-भजन और सत्संग है। इसके द्वारा क्या मिलता है? ईश्वर का दर्शन, ईश्वर से मेल और परम गति; इसका यह फल है। इसमें सबको लगकर रहना चाहिए।
 याज्ञवल्क्यजी को जो वैराग्य हुआ, ऐसा भी लोग करते हैं। लेकिन वस्तुओं के साथ रहकर, सम्बन्धियों के साथ रहकर भी यह किया जाता है। इस नमूने के बड़े-बड़े लोग अपने देश में हुए हैं। यह अच्छा है। बिल्कुल त्याग कठिन है। बाहर में सबसे संग और मन में सबसे असंग रहना, ईश्वर- भजन और सत्संग करना, यह सबके लिये अच्छा है-आराम है। संतों ने यह रास्ता बताया-
अवधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भावै ।।
घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि वन नहिं जावै ।
बन के गये कलपना उपजै, तब धौं कहाँ समावै ।।
घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरु अलख लखावै ।
सहज सुन्न में रहै समाना, सहज समाधि लगावै ।।
उनमुनि रहै ब्रह्म को चीन्है, परम तत्त को ध्यावै ।
सुरत निरत सों मेला करिकै, अनहद नाद बजावै ।।
घर में वसत वस्तु भी घर है, घर ही वस्तु मिलावै ।
कहै कबीर सुनो हो अवधू, ज्यों का त्यों ठहरावै ।।
        -सन्त कबीर साहब
 सहज शून्य का अर्थ है-स्वाभाविक शून्य। ऐसा नहीं कि मन से कुछ बनावे। और सहज समाधि कहते हैं-आसान ध्यान लगावे। सहज शून्य में समाने के लिए वे जानते हैं, जो दृष्टियोग का भेद जानते हैं। वे आसानी से ध्यान लगा सकते हैं। यह ध्यान करते-करते मनोलय होता है। मनोलय की अवस्था को उन्मुनि कहते हैं। मन में जो ख्याल आता था, सो अब नहीं आता है, तो गोया मन नहीं रहा-मन उन्मुन हो गया, मनोलय हो गया। जो मनोलय की अवस्था में रहेगा, वो ईश्वर को पहचान लेगा। परम-तत्त्व सार-शब्द है।
 घर में रहे, घर में खाने-पीने, पहनने की वस्तु है और ब्रह्म-तत्त्व-जो कि लेना है, वह भी घर में ही लेना है। जैसे-का-तैसे घर में ही रहो। इसका नमूना कबीर साहब स्वयं थे। वे घर छोड़े नहीं थे। बाबा नानक भी ऐसे थे। रविदासजी, श्वपच भगत, जगजीवन साहब, शिवनारायण स्वामी, दादू दयाल जी, ये सभी इसी तरह के थे। ये सब इतने ऊँचे थे कि वे संसार को चेताने आये थे या थोड़ी कमी थी तो पूरा करने भी आये थे।
 जो थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करते हैं, तो इसका लसंग लग जाता है। जो कोई आचरण के अच्छे होते हैं, वे भूखे रहने पर भी सन्तुष्ट रहते हैं। वे समझते हैं कि मैंने चोरी तो नहीं की, दुष्ट-कर्म तो नहीं किया। ऐसा समझकर उनका मन सन्तुष्ट रहता है। जो चोरी करके, दुष्ट कर्म करके उपार्जन करते हैं, वे दुःखी रहते हैं। बड़े-बड़े लुटेरे बहुत लूटकर धन इकट्ठा किये, लेकिन मरते समय रोते थे। जबतक जीते रहो, संयम से रहो। साधन- भजन करो, सत्संग करो, घर में रहो। सन्तों ने जो पंच पापों का निषेध किया है, उनसे बचो तो भजन में ही बढ़ोगे और संसार में भी कल्याण से रहोगे। फिर जैसे सूरदास जी, गोस्वामी तुलसीदासजी, पलटू साहबजी आदि घर-वार छोड़ दिये थे, ऐसे भी लोग हुए। लेकिन जिससे अधिक लोगों को लाभ हो, वही अच्छा है। अपने को दुष्टकर्मों से बचाइये, इसके लिये सत्संग से प्रेरणा लीजिए। जिनको मालूम है साधन-भजन कीजिये। जिनको नहीं मालूम है, वे जानकर कीजिये। साधन-भजन स्त्रियाँ कर सकती हैं, पुरुष कर सकते हैं। धनी कर सकते हैं, निर्धन कर सकते हैं। पढ़े कर सकते हैं, अनपढ़े कर सकते हैं। इस तरह आप अच्छे बनेंगे। आपके साथी अच्छे बनेंगे, आपका समाज अच्छा बनेगा और आपका देश अच्छा बनेगा।
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यह प्रवचन दिनांक 08.04.1969 ई0 को मुंगेर मण्डलान्तर्गत ग्राम बरईचक पाटम स्थित श्री सन्तमत सत्संग मन्दिर में हुआ था। , जिसका आयोजन साधु श्रीभुजंगी दासजी ने तथा वहाँ के प्रेमी सत्संगी सज्जनों ने किया था।
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304. जीवात्मा को कर्मानुसार स्थान मिलता है
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
 मैं सोचता था कि ऐसे मौके पर आपलोगों को क्या सुनाया जाय। तो याद आ गया कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपनी कृत रामायण में लिखा है कि एक समय श्रीराम को अपनी राजत्व-काल में एक बार हृदय में ऐसा हुआ कि सब लोगों को बुलाकर उपदेश दिया जाय। उस उपदेश को गोस्वामी तुलसी- दासजी ने अपनी रामायण में लिखा। वह बड़ा सरल है। सबके समझने लायक है और संत विचार के पूर्ण अनुकूल है। उन्होंने यह देखा होगा कि संसार में लोग सुखी होना चाहते हैं। मेरा कर्त्तव्य है कि वह सुख प्रजाओं को पहुँचाऊँ। प्रजा को सुखी रखा जाय। प्रजा दुःखी है, ऐसी खबर नहीं थी। इसलिये संसार के सुख के लिये उनको कुछ कहना नहीं था। क्योंकि राजा से जैसा सुख मिलना चाहिये, सो सबको मिलता ही था। अब क्या बाकी रहा।
 जीवन का अंत सब युग में होता है। सत्ययुग में जीवन का अंत, त्रेता में जीवन का अंत, द्वापर में जीवन का अंत और कलियुग में जीवन का अंत। यह तो प्रत्यक्ष देखते हैं। शरीर छोड़कर जीवात्मा चली जाती है, कहाँ गयी, किसी को पता नहीं। लेकिन जीवात्मा जानती है कि मैं यहाँ आयी हूँ। जिसको कुछ भी ज्ञान है, वह कहेगा कि शरीर के जीवन का अंत होता है। जीव तो अजर, अमर, अविनाशी है। जीव के जीवन का अंत नहीं होता है, वह रहता ही है। शरीर छोड़कर जीवात्मा कहीं चली गयी, लोग नहीं देखते हैं। लेकिन जो जीवात्मा गयी है, उसको मालूम है कि मैं वहाँ से यहाँ आयी हूँ। जैसा कर्म किया था, वैसे स्थान में आ गयी हूँ। शरीर-जीवन के बाद चेतन-आत्मा- जीवात्मा का जीवन रहता है। तो क्या केवल जीवात्मा जाती है वा जीवात्मा रहती है? नहीं, नही! केवल स्थूल शरीर छूटता है। इसके अन्दर सूक्ष्म शरीर है। उसके अन्दर कारण शरीर है। उसके भी अन्दर महाकारण शरीर है। ये चारों जड़ शरीर हैं। यह स्थूल शरीर जब सो जाता है, तो इसको कुछ ज्ञान नहीं रहता है। इसमें ज्ञानमयी- पदार्थ चेतन आत्मा है। अज्ञानमय चार जड़-शरीर है। स्थूल-शरीर छूटता है, बाकी तीन जड़-शरीर रहते हैं। इन तीनों जड़-शरीरों के साथ जीवात्मा को कर्मानुसार स्थान मिलता है। शरीर के जीवन के साथ तो सुखी रहना चाहते हो और शरीर के जीवन के बाद का जो जीवन है, उसमें सुख चाहते हो कि दुःख? सभी कोई सुख चाहते हैं। लेकिन लाचारी है। सुख-दुःख दिन-रात की तरह आते-जाते ही रहते हैं। तीन शरीरों के साथ जहाँ रहना होता है; वह है दुःख-सुख भोगने का परलोक। अर्थात् वह स्वर्ग है। ब्रह्मा का धाम, इन्द्र का धाम, इस तरह, तरह-तरह के धाम स्वर्गलोक में है। गुरु महाराज ने कहा है कि अंधकार को पार करके पहले स्थान के स्थानीय-दर्शन करके जो आगे बढ़ता है, उसको ज्योतिर्मय-स्थान मिलता है। उसको सहस्त्र-दल-कमल कहते हैं। लेकिन वहाँ सूर्य की ज्योति नहीं है। चन्द्र और तारे की ज्योति है। इसी के अन्दर सातो स्वर्ग है। जो भजन करते हैं, वे बड़े-बड़े देवताओं को देख सकते हैं और अनेक लोकां को देख सकते हैं। शरीर छूटना, फिर शरीर में आना, इस तरह आवागमन के चक्र में रहना होता है। कभी सुख, कभी दुःख मिलता रहता है। सुख मिलता है, लेकिन और मिले, और मिले होता ही रहता है। और कितना सुख, इसका अन्दाजा नहीं। जितना मिले, उससे और विशेष चाहिये। तृष्णा और लोभ के मारे लोग यहाँ दुःखी और वहाँ भी दुःखी होते हैं। इसलिये श्रीराम ने कहा-
एहि तन कर फल विषय न भाई ।स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुख दाई ।।
 विषय कहते हैं-पदार्थ को। ये कितने हैं? पाँच। आँख से रूप देखते हैं। कान से शब्द सुनते हैं। जिभ्या से रसास्वादन करते हैं। त्वचा से स्पर्श का ज्ञान करते हैं और नासिका से गंध ग्रहण करते हैं। इन पाँच से बेसी न यहाँ है, न स्वर्ग में है। पाँच विषयों से अधिक स्वर्ग में भी नहीं है। बड़े-बड़े देव, ईश्वर-कोटि के देव के यहाँ भी ये ही पाँच विषय हैं। वहाँ भी काम, क्रोधादिक विकार होते रहते हैं। न काम मिटता है, न क्रोध की लहर मिटती है। अहंकार बढ़ता ही जाता है। लोभ का थैला सब दिन खाली ही रहता है।
 एक राजा था। वह धन का बड़ा लोभी था। उसने सोचा, स्थल पर के सभी जन तो कर मुझे देते ही हैं, लेकिन समुद्र जो स्थल से अधिक जगह छेके हुए हैं, वह कुछ कर नहीं देता। यह सोचकर उसने ससैन्य समुद्र पर चढ़ाई कर दी और तोपों के द्वारा गोला-बारी की वर्षा शुरू कर दी। समुद्र मनुष्य के रूप में राजा के सामने खड़ा हो गया और पूछा-‘राजन ! तुम गोला-बारी की वर्षा कर जल-जन्तुओं का संहार क्यों कर रहें हो?’ राजा ने पूछा-‘तुम कौन हो?’ उसने कहा-मैं समुद्र हूँ।’ राजा ने कहा-‘स्थल से विशेष भाग जल का है। स्थल से मुझे कर मिलता है, किन्तु जल से मुझे कर नहीं मिलता है। इसलिये जल से कर वसूल करने के लिये मैंने तुम पर चढ़ाई की।’ समुद्र ने एक स्थल बता दिया और कहा-‘यहाँ से तुम जितना धन ले जाना चाहो, ले जाओ।’ वहाँ से धन ढोते-ढोते राजा के कितने जानवर मर गये। धन से कितने मकान भर गये। पुनः नये-नये मकान बनते और धन से भरते गये। किन्तु समुद्र ने धन का जो स्थान बता दिया था, उस स्थान के धन का अन्त ही नहीं होता था। राजा ने समुद्र पर पुनः गोला-बारी शुरू की। समुद्र ने मनुष्य-रूप में आकर पुनः पूछा-‘राजन्! अब क्यों मेरी प्रजाओं का संहार कर रहे हो?’ राजा ने कहा-‘तुमने जो धन का स्थान बता दिया था, उससे मैं बहुत धन ले गया, लेकिन तुम्हारे धन का अन्त ही नहीं होता है। अब तुम ऐसा बर्तन दो, जिसमें तुम्हारे सभी धन अँट सके।’ समुद्र ने मृत मनुष्य की एक खोपड़ी दी और कहा-‘इसमें ही धन रखते जाओ।’ राजा धन रखते-रखते थक गया, किन्तु खोपड़ी भरती नहीं। पुनः उन्होंने समुद्र पर गोला-बारी शुरू की। पुनः समुद्र मनुष्य-रूप में प्रकट हुआ और राजा से गोलाबारी करने का कारण पूछा। राजा ने कहा कि ‘न तो यह खोपड़ी भरती है और न तुम्हारे धन का अन्त होता है।’ अब क्या करूँ? बता।’ समुद्र ने कहा-‘राजन्! तुम पागल हो गये हो। यह मनुष्य की खोपड़ी है। कितना भी धन हो, यह भर नहीं सकती। इसके ऊपर खाक डाल, तब यह भरेगी।’ राजा ने वैसा ही किया और खोपड़ी भर गई। तात्पर्य है कि दिमाग में मिट्टी डालने से लोभ खत्म होता है। इन्द्र भी भोग से संन्तुष्ट नहीं और ब्रह्मा भी हैरान हुए हैं। गो0 तुलसीदासजी ने कहा है-
मोह न अंध कीन्ह केहि केही । को जग काम नचाव न जेही ।।
तृष्णा केहि न कीन्ह बौराहा । केहिकर हृदय क्रोध नहिं दाहा ।।
कीट मनोरथ दारु शरीरा । जेहि न लाग घुन को अस धीरा ।।
 श्रीराम ने कहा कि क्या नर-लोक, क्या स्वर्ग-लोक, सब में विषय है, इनकी इच्छा नहीं करो। ऐसा करो कि कोई माँग नहीं हो। पूरी सन्तुष्टि हो जाए, यही है मोक्ष। मोक्ष-सुख पाने के लिये ही मनुष्य-शरीर है। संत लोग यही कहते हैं कि स्वर्ग मोक्ष का धाम नहीं है। परमात्म-स्वरूप का दर्शन करो, यही मोक्ष है। दर्शन होने पर ईश्वर स्वरूप ही हो जाओगे। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है- ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइं होइ जाई।’
 इसके लिये साधन-भजन करो। कहीं जाने की जरूरत नहीं है। संत कबीर साहब ने कहा है-
अवधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भावै ।।
घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि वन नहिं जावै ।
बन के गये कलपना उपजै, तब धौं कहाँ समावै ।।
घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरु अलख लखावै ।
सहज सुन्न में रहै समाना, सहज समाधि लगावै ।।
उनमुनि रहै ब्रह्म को चीन्है, परम तत्त को ध्यावै ।
सुरत निरत सों मेला करिकै, अनहद नाद बजावै ।।
घर में वसत वस्तु भी घर है, घर ही वस्तु मिलावै ।
कहै कबीर सुनो हो अवधू, ज्यों का त्यों ठहरावै ।।
 जरूरत है-जो कि श्रीराम ने कहा और गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा-
करन धार सद्गुरु दृढ़ नावा । दुरलभ साज सुलभ करि पावा ।।
 तुम्हारा मनुष्य-शरीर भवसागर पार होने के लिये मजबूत नाव है और ईश्वर की कृपा अनुकूल पवन है। नाव हो, अनुकूल पवन हो और मल्लाह नहीं हो तो नाव की क्या हालत हो? इसलिए मल्लाह भी चाहिए। मल्लाह कौन है? सद्गुरु। सद्ज्ञान बतानेवाले, सद्युक्ति देनेवाले और साधन में प्रेरणा करनेवाले सद्गुरु होते हैं।
 मुक्ती मारग जानते, साधन करते नित्त । ।
 साधन करते नित्त, सत्त चित् जग में रहते ।
 दिन दिन अधिक विराग, प्रेम सत्संग सों करते ।।
 दृढ़ ज्ञान समुझाय, बोध दे कुबुधि को हरते ।
 संशय दूर बहाय, संत मत स्थिर करते ।।
 ‘मे ँही ँ ’ये गुण धर जोई, गुरु सोई सत चित्त ।
 मुक्ती मारग जानते, साधन करते नित्त ।।
 सद्ज्ञान जानते हों। अपने को उसमें रखते हों और अन्यों को चलने के लिये कहते हैं, वे सद्गुरु हैं। किसी को ख्याल नहीं करना चाहिए कि ईश्वर की कृपा हम पर नहीं है। बिना उनकी कृपा के हम एक श्वास नहीं ले सकते। ईश्वर की कृपा हई है। खोजने से सभी समय में संत सद्गुरु भी मिलते हैं। घर-वार छोड़ने की जरूरत नहीं है। घर में रहो, ईश्वर-भजन करो। असल-सुख संसार- सुख नहीं है, मोक्ष-सुख है। सद्गुरु चाहिए, सद्युक्ति चाहिये और सदाचार का पालन चाहिए। जो सदाचार का पालन नहीं करेगा, उसको ईश्वर-भजन में बल नहीं मिलेगा। जिसको भजन में मन लगेगा, वह सदाचार में दृढ़ होगा। सदाचार कहते हैं-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों के नहीं करने को। हिंसा के सिलसिले में मत्स्य-मांस नहीं खाओ। नशा नहीं लो। बीड़ी, तम्बाकू सभी नशा है। तम्बाकू साँप नहीं सह सकता है, इतना विष है। जो आदमी तम्बाकू खाता है, वह तो विष खाता है, सो नहीं खाओ। उपदेश करनेवाला यह नहीं कहता है कि मत्स्य-मांस, नशा नहीं खाओ, नहीं पीओ और इससे जो पैसे बचे, सो हमको दो या आधा भी दो। अरे! जो पैसा बचता है, उसका फल और दूध तुम्हीं खाओ। हमारे गुरु महाराज बाबा देवी साहब कहा करते थे- सबसे ऊपर में आध्यात्मिकता लिखो, उसके बाद सदाचारिता। उसके बाद सामाजिक नीति और उसके बाद राजनीति। जहाँ की आध्या- त्मिकता उत्तम होगी, वहाँ की सदाचारिता अच्छी होगी। जहाँ की सदाचारिता अच्छी होगी, वहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी। जहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी, वहाँ की राजनीति बुरी हो नहीं सकती। इसलिये देश में आध्यात्मिकता का अधिक प्रचार हो, ऐसा करना चाहिये। इससे देश को बहुत लाभ होगा।
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यह प्रवचन दिनांक 15.08.1969 ई0 को बिहार राज्यान्तर्गत भागलपुर शहर के मोहद्दीनगर में हुआ था। ।
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305. लोग दुःख को सह लेते हैं, लेकिन सुख को नहीं
प्यारे लोगो !
 जन्म होता है, मृत्यु होती है; दोनों के बीच का जीवन होता है। इस बीच के जीवन में सम्पदा होती है, विपत्ति भी होती है। और यह सम्पत्ति और विपत्ति दिन रात की तरह आती-जाती रहती है। न तो सम्पत्ति बराबर ठहरती है। न विपत्ति ही। सम्पत्ति का समय कुछ प्रिय मालूम होता है; क्योंकि उसमें ऐहिक सुख है। लेकिन विपत्ति का समय प्रिय नहीं मालूम होता। सूरदासजी ने कहा-इसका विश्वास नहीं करो। जैसे वृक्ष में फूल होता है, फल होता है, फिर झड़ जाता है। उसी तरह सम्पत्ति आती है, विपत्ति आती है और जाती भी रहती है। जैसे किसी नदी में पानी होता है, बढ़ता है और फिर नदी सुख जाती है। उसी तरह सम्पत्ति आती है, जाती है। जैसे द्वितिया का चन्द्रमा बढ़ते-बढ़ते पूर्णिमा तक बढ़ जाता है और घटते-घटते अमावस्या में समाप्त हो जाता है। इसी तरह आप के जीवन की सम्पत्ति और विपत्ति है। तब क्या करो? सूरदासजी ने कहा-‘ताते सेइये यदुराई।’ यह स्थिर है। यह कभी बदलनेवाला नहीं है। इसलिए ईश्वर की भक्ति करो-सेवा करो।
 सन्त कबीर साहब भेद की वाणी कहते हैं। वे कहते हैं कि संसार में आये हो, तुम्हारी मृत्यु होगी, लेकिन तुम जाओगे किधर? माता के पेट से तुम बाहर संसार में आये हो। वस्तुतः तुम शरीर में आये हो और एक दिन जाओगे अवश्य। लेकिन जाओगे किस ओर? अनजान रास्ते में जाने में बड़ा कष्ट होता है। कबीर साहब कहते हैं कि इसकी चिन्ता मुझको है कि तुम किस ओर जाओगे? यह संसार मोह का नगर है। मोह कहते है अज्ञानता को। असत्य को सत्य कहकर पकड़ बैठे हो और इसमें शान्ति चाहते हो; कभी होने को नहीं है। लोग धन के वास्ते बहुत कोशिश करते हैं। धन पाने पर भी शान्ति नहीं। इसीलिये गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
द्रव्य हीन दुःख लहइ दुसह, अति सुख सपनेहुँ नहिं पाये ।
उभय प्रकार प्रेत पावक ज्यों, धन दुख प्रद स्रुति गाये ।
 द्रव्यहीनता की दशा और धन पाने की दशा; इन दोनों दशा में दुसह दुःख है। दोनों तरह से दुःख-ही-दुःख है। धन नहीं है तो अभाव की अग्नि में जल रहा है और धन मिल गया तो यह करो, वह करो, जीवन-भर कभी शान्ति नहीं। सम्पत्ति और विपत्ति की यही हालत है। लोगों को चाहिए की दोनों में सम रहे। दुःख आवे तो सहन करे, सुख को भी सहन करे। लोग दुःख को सह लेते हैं, लेकिन सुख को नहीं सह सकते। क्योंकि सम्पत्ति पाकर बुद्धि विकृत हो जाती है। ‘श्रीमद वक्र न कीन्ह केहि, प्रभुता बधिर न काहि।’ लक्ष्मी का मद होता है, लोग पगला जाते हैं। प्रभुता हो जाती है तो बहरे बन जाते हैं- दूसरे के सुनते नहीं। लोग विपत्ति को सह लेते हैं, लेकिन सम्पत्ति में बावला हो जाते हैं।
  एक दिन राजा राज युधिष्ठिर, अनुचर श्री भगवान ।
  एक दिन द्रौपदी नग्न होत है, चीर दुसासन तान ।।
 विराट की भरी सभा में कीचक ने द्रौपदी को लात भी मार दी। यह विपत्ति हुई। फिर सम्पत्ति हुई। फिर विपत्ति आई-पहाड़ में जाकर शरीर छोड़े। चाहिये कि दोनों में सम रहे। केवल विचार से ही समता नहीं होती। विचारवाली समता अल्प टिकाऊ है- सदा नहीं रहती। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि समाधि में समता होगी-स्थितप्रज्ञता होगी। तब कर्म करो तो कर्म योग पूर्ण है। नहीं तो अधूरा- कच्चा होगा। इसीलिये लोग गिर-गिर जाते हैं। पहले समाधि का साधन करना चाहिये। तब समाधि प्राप्त होगी। समाधि-साधन तो लोग करते नहीं, समता कैसे आवे? पूर्व-संस्कार जिसको है, वे करते हैं। फिर भी जहाँ तक बन सके, ध्यान करो, बनते-बनते बनेगा। पैसा से समत्व खरीदा नहीं जा सकता। बिना भजन अभ्यास किये समत्व नहीं मिलेगा। चाहे कुछ करो। लोग चाहते हैं हम कि विचार से सम हो जायेंगे। लेकिन पिछड़-पिछड़ जाते हैं। यह भी उनको मालूम है कि हम पिछड़ गये। क्यों? ध्यान-साधन नहीं करते। ध्यान-साधन करो, तब जो निर्णय होगा, वह दृढ़ होगा। इस संसार में आने के लिये दो घन- घोर फाटक हैं। एक स्त्री-शरीर, दूसरा पुरुष-शरीर। अण्डज, पिण्डज, ऊष्मज कुछ होओ; स्त्री या पुरुष रूप में आना होगा। किसी रूप में आओ, स्थिर बुद्धि नहीं-शान्ति नहीं। मनुष्य-शरीर में भी स्त्री-पुरुष का शरीर है। इसको उपदेश है समत्व प्राप्त करने के लिये। समत्व प्राप्त करने के लिये पहले सुनो, फिर मनन करो, फिर समाधि-साधन का अभ्यास करो। विचार से भी मन को रोको और फिर ध्यान के द्वारा भी।
 मनोनिरोध करने में पहले संकल्प-विकल्प छूटेगा, ध्यान लगेगा, समाधि होगी, तब स्थिर बुद्धि होगी-डाँवाडोल नहीं होगा। जितने काम-क्रोधादिक विकार पुरुष को होते हैं, उतने ही स्त्रियों को भी। शान्ति प्राप्त करने का ख्याल दोनों के मन में उठता है। जागतिक-सम्हाल का ख्याल भी दोनों को है। समत्व-साधन केवल विचार से नहीं होगा। साधन बढ़ते-बढ़ते वहाँ तक बढ़ता है, जहाँ जाकर समत्व का ज्ञान हो जाता है, वह है परमात्म-स्वरूप।
 आत्मा कहने से जीवात्मा, परमात्मा दोनों का ज्ञान होता है, जैसे आकाश कहने से मठाकाश और महदाकाश दोनों का ज्ञान होता है। यह शरीर जीवात्मा नहीं है। इसके अन्दर जीवात्मा अजर, अमर, अविनाशी है। ‘ईश्वर अंश जीव अविनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।’ स्थूल-शरीर की पहचान है। इसके अन्दर तीन जड़-शरीर और है। इन सब जड़ शरीरों की पहचान क्यों न हो जाय, लेकिन यह स्थिर तत्त्व नहीं है। स्थूल-शरीर का टिकाव अल्प है। लेकिन सूक्ष्म और कारण-शरीर तबतक रहता है, जबतक इसको योग साधन द्वारा छोड़ नहीं दिया जाय। पहले विचार में निर्णय किया था, फिर साधन करते-करते उसको प्रत्यक्ष जाना। तब समत्व प्राप्त हुआ। मनोलय पहले ही हो जाता है। लेकिन जबतक मन के साथ रहोगे, आवागमन का चक्र बना रहेगा। जहाँ जड़ात्मिका- प्रकृति नहीं रहती, केवल चेतन-ही-चेतन है, वहाँ पहुँचने पर बुद्धि स्थिर हो जाती है- बुद्धि से भी छुट्टी हो जाती है, तब परमात्मा-ही-परमात्मा रह जाता है। तब ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई’ हो जाता है। केवल विचार से नहीं होता है।
 घनघोर फाटक से निकल जाने का मन तो बहुत करता है, लेकिन आगे में संशय होता रहता है-करें कि नहीं। संशयात्मा का विनाश होता है। केवल अपने बल-बूते पर चलना असंभव है। संसार में भी लोग सहयोगी चाहते हैं-मदद चाहते हैं। ध्यान-साधन में किसका बल लोगे। गुरु से साधन का यत्न लिया और आगे बढ़ने का? लोग कहते हैं कि गुरु ही बढ़ा देते हैं। गुरु का अर्थ वहाँ ईश्वर रखिये तो बहुत अच्छा। गोस्वामी जी ने कहा है- जौं तेहि पंथ चलै मन लाई। तौ हरि काहे न होहिं सहाई।। हम जो बल पहले अपने से लगाते थे, उसमें सहायता मिलेगी। दूसरी बात यह है कि बाबा नानक ने कहा-अंतरि जोत भई गुर साखी चीने राम करंमा। यह ज्योति गुरु की गवाही है। करम त्र दया-दान। ईश्वर की तरफ से यह दया-दान है।
 यह स्थूल-मंडल है। अन्धकार हो वा प्रकाश, शब्द से विहीन कहीं नहीं पायेंगे। तमाम शब्द-ही- शब्द है। जो शब्द आपको आगे को खींचे, वह शब्द भी मिलेगा। जैसे बादल में बिजली की छटक होती है, फिर शब्द सुनते हैं। इसे प्रकृति भी बताती है- पहले ज्योति देखो फिर शब्द सुनो। संसार में भी ये दोनों बहुत महत्त्व रखते हैं। अन्तर जगत में भी इन्हीं दोनों के द्वारा बढ़े जा सकते हैं-अच्छे-अच्छे गुण प्राप्त हो सकते हैं। बाबा नानक ने साधन किया और वे शीघ्र-शीघ्र तारा पर सवार हो गये। ‘तारा चड़िआ लंमा किउ नदरि निहालिआ राम।’
 ईश्वर की ओर से क्या सहायता मिलती है? धन-दौलत? यह तो थोड़ी बात है। ईश्वर की सहायता है कि अन्दर में ज्योति और नाद मिलता है। शरीर के अन्दर पाँच तत्त्व हैं। एक-एक तत्त्व के पाँच-पाँच स्वभाव हैं। जैसे आकाश का स्वभाव- काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार। आकाश-तत्त्व में केवल ध्यान बनता है, संसार का कोई काम नहीं होता। हवा का-बोलना, चलना, बल करना, पसरना, सिकुड़ना। अग्नि का-भूख, प्यास, नींद, आलस, हाफी। जल का-मूत्र, पसीना, रक्त, लार, वीर्य,। और पृथ्वी का-हाड़, मांस, चाम, केश, नश। इनके बिगड़ने से रोग होता है। पचीसो चोर से भी दुःख होता है।
 ईश्वर से कैसे लौ लगावें, इसकी युक्ति जानो। तो कहा-‘सत्त पुरुष इक बसैं पछिम दिसि, तासों करो निहोर।’ पच्छिम क्या है? सबसे पहले पूर्व होता है, वह है अंधकार। प्रकाश देखो तो समझो, पच्छिम में हो। दहिना हाथ बड़ा मददगार है। सबसे बड़ा मददगार है शब्द। जितने अधिक शब्द की आपके पास पूँजी है, उतने ही बड़े लोग आप होंगे। सबसे उत्तर में है-निःशब्द। जो ऐसे सज्जन हैं कि जो अपने को पच्छिम में रखते हैं, उनसे प्रार्थना करो, वे राह बतावेंगे। फिर अपनी ओर पाओगे कि किधर जाना है?
 शरीर छूटने पर स्थूल शरीर से जीवात्मा निकलती है। उसके बाद सूक्ष्म शरीर रहता है, उसके साथ जीवात्मा जाती है। जैसे जीवित-काल में ऊपर स्थूल-शरीर रहता है, वैसे ही शरीर छूटने पर ऊपर सूक्ष्म शरीर रहता है। ऐसा भजन करो कि जीते-जी प्रकाश में स्थिति कर लो तो पच्छिम में चले गए। तब मनुष्य से मनुष्य होना निश्चय होगा। नहीं तो अन्धकार में रहने से नीची-योनियों में भी गिर सकते हो। साधन बताया कि ‘उलटि पाछिलो पैंड़ो पकड़ो पसरा मना बटोर।’ बहिर्मुख से अन्तर्मुख होओ। नौ द्वार से दसवें द्वार में जाओ। ब्रह्माण्ड के ऊपर से ब्रह्माण्ड में आया था, ब्रह्माण्ड से पिण्ड में आया। इसको उल्टो। पिण्ड से ब्रह्माण्ड में जाओ, ब्रह्माण्ड से भी आगे उसके परे जाओ। रास्ता कैसे पकड़ो? तो कहा- पसरा मना बटोर।’ ध्यान करो। ध्यान ऐसा हो कि उसमें एकविन्दुता हो जाय। यहाँ पूर्ण सिमटाव है, इसमें ऊर्ध्वगति होती है। इसके लिये जो साधन है, उसी को वैष्णवी-मुद्रा, शाम्भवी-मुद्रा कहते हैं। साधारण-शब्द में यही दृष्टि-योग है। यह सूक्ष्म-मण्डल में प्रवेश करने की पहली सीढ़ी है। मोह के शहर से निकलने के लिए कबीर साहब उपदेश देते हैं-यह पाँव का रास्ता नहीं है-चेतन आत्मा का रास्ता है। पहले मन-सहित चलेगा, फिर मन छूट जायगा, तब अकेले जायगा। यह यात्रा की बात है।
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यह प्रवचन दिनांक 16.09.1969 ई0 को पटना नगर में डॉ0 नन्दलाल मोदी महोदयजी के यहाँ हुआ था।
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306. हरि कूँ भूले जो फिरै सहजो जीवन छार
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
 ईश्वर का ज्ञान बहुत गहन है। समझने में गहन, विचार में गहन प्राप्ति कैसे हो-यह गहन से भी गहन है। परन्तु यदि ईश्वर-दर्शन नहीं प्राप्त करो, तो संसार में रहने का क्लेश कभी नहीं छूटेगा। जैसे देश की सुरक्षा के वास्ते यदि अपने शरीर तक की भी परवाह छोड़कर देश की सुरक्षा में बाधा पहुँचानेवाले का सामना नहीं करते, तो देश पराधीन रहकर दुःख भोगता रहता। इसलिए देश की सुरक्षा रखनेवाले अपनी देह की परवाह छोड़कर लड़ते हैं। इसी तरह ईश्वर-दर्शन करने में जितनी कठिनाइयाँ हैं, उनको नहीं झेलो, तो संसार में आने का दुःख नहीं छूटेगा। उसके बाद का जितना जीवन होगा, उसमें दुःखी रहोगे। सुनने में जो कठिनाई मालूम होती है, वह करते-करते कठिनाई हल्की हो जाती है। और धीरे-धीरे उसी में मन बैठता है और वह सुगम हो जाता है। मेरी इस बात को तब विश्वास करोगे, जब तुम स्वयं करोगे। यदि तुम मेरे लिये यह समझो कि रोचक बात कहकर ईश्वर-प्राप्ति के कर्म में लगाना चाहते हैं, तो मैं कहूँगा कि आपको अनुभूति इसकी नहीं है, इसकी जानकारी नहीं है। मैं क्या कहूँ? यदि आप मुझको इसमें कुछ भी सच्चा मानो, मेरी उम्र को समझो, तो मैंने इतनी उम्र तक क्या किया? या तो विद्या लाभ किया और यही काम करता रहा। इतने में मुझको कुछ भी अनुभूति नहीं हुई, यह विश्वास करने योग्य नहीं है। यदि मेरी तहकीकात करना चाहो, तो मिल सकती है। विद्याभ्यास, सत्संग और उपासना, जो-जो कर्म इसके लिये अपेक्षित हैं, उसी में मैंने अपने को लगाया है। मैं अपने साधन के बल से कहता हूँ-बिल्कुल ठीक है। सुनने में कठिन, करने में कठिन पर मन लगाते-लगाते इतना सरल हो जायगा कि इसके बिना रह नहीं सकोगे। आपके ख्याल में होगा कि सो जाऊँ, तो भी यही बात ख्याल आवे। और दूसरी बात मिट जायेगी, जो उपासना में खलल पहुँचाती है। वह भी नाश हो जायगी, जो उपासना में बाधा पहुँचाती है। जो सुनने में और आरम्भ करने में कठिन है, वह किस बात के लिये? ईश्वर- भक्ति के लिए। ईश्वर क्या है? कोई पूछे कि रूप क्या है? आप झट से कह दो-जो तुम आँख से देखते हो। इसी तरह ईश्वर क्या है? तो तुम अपनी आत्मा से पहचान सको, वही ईश्वर है। जो इस बात को नहीं समझते, वे ही भटकते रहते हैं। संसार में बहुत-से रंग-रूप हैं। संसार के और विषयों में फँसे हुए मन को मालूम नहीं कि संसार के रंग-रूप के अतिरिक्त और कुछ है। संसार के विषयों-रंग-रूपों के अतिरिक्त आप स्वयं हो, इसको समझो। यह बतलाने की आवश्यकता नहीं रही कि आप शरीर के अंग-प्रत्यंगों में कुछ नहीं हो। तुम अपने को नहीं पहचानते, शरीर को पहचानते हो। विषयों को पहचानते हो। अपने को पहचानने की कोशिश करो।
 पहले ज्ञान में, विचार में जानने की कोशिश करो। साधिका सहजोबाई कहती हैं-
    पानी का सा बुलबुला, यह तन ऐसा होय ।
    पीव मिलन को ठानिये, रहिये ना पड़ि सोय ।।
    रहिये ना पड़ि सोय, बहुरि नहिं मनुखा देहि ।
    आपुन ही कूँ खोज, मिलै जब राम सनेही ।।
    हरि कूँ भूले जो फिरै, सहजो जीवन छार ।
    सुखिया जबही होयगो, सुमिरेगो करतार ।।
 तुम अपने ही को नहीं जानते हो और ईश्वर को खोजना चाहते हो। तुम सो गये हो और अनमोल पदार्थ पाना चाहते हो। जगो ! जबतक तीन अवस्थाओं में हो, तबतक सोये हो। चौथी अवस्था-तुरीय अवस्था में आओगे, तो समझोगे कि जिसको सत्य समझते थे, वह असत्य था। ईश्वर का स्वरूप इन्द्रिय-ज्ञान से बाहर है ।
     राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
    अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।
 अभी श्रीसंतसेवीजी ने श्रीरामायणजी से ईश्वर- स्वरूप का पाठ किया। इसको प्राप्त करना है, जो इन्द्रिय-ज्ञान से परे है। ‘गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई।।’ इन्द्रियों को जो सुहाता है, इन्द्रिय-ज्ञान में जो कुछ आता है, सब माया है। दूसरी बात इसको भी याद रखिये-
      भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
      क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
 अर्थ-उस परे-से-परे (ब्रह्म) को देख लेने पर हृदय की ग्रन्थि (गाँठ, गिरह) टूट जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।
 जड़ को हम पहचानते हैं, चेतन को नहीं। सो पहचान में आ जाय कि यह चेतन है, तो सारे कर्मबन्धन क्षय हो जायँगे-कोई संशय नहीं रहेगा। उस परे-से-परे का दर्शन पाकर ऐसा हो जायगा। जिसको ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, उसकी जड़-चेतन की ग्रन्थि छूट जाती है, सारे संशयों का नाश हो जाता है और सभी कर्म-बन्धन नष्ट हो जाते हैं। इन दोनों की कसौटी पर जाना जाता है कि मन-इन्द्रियों के बाहर जो है, वह ईश्वर है; और इन्द्रिय-ज्ञान के अन्दर जो है, वह माया है। विलक्षण से विलक्षण रूपों के दर्शन का वर्णन जो ग्रन्थों में आया है, जिसने उन दर्शनों को किया, उनका सन्देह मिटा कि नहीं, देख लो।
 अर्जुन श्रीकृष्ण के साथ बहुत रहते थे। उनका संशय बिल्कुल क्षय नहीं हुआ था। सारे संशय उस दर्शन से मिट नहीं गये थे। उसी संशय के निवारणार्थ भगवान ने उनको उपदेश दिया। उससे भी उनके मन में विश्वास नहीं हुआ, तो भगवान ने उनको एक भयानक रूप दिखाया। उसमें अर्जुन ने देखा कि जितने कौरव-पाण्डव दल के लोग हैं, सब उनके मुँह में समाकर मर-मरकर गिरते जाते है। कितने लोग विराट् रूप को परमात्मा का अन्तिम दर्शन मानते हैं। लेकिन यह भी परमात्मा की माया थी। जो परमात्म-स्वरूप है, उसके मुँह में प्रवेश कर कौरव-पाण्डव-दल के लोग मर-मर कर क्यों गिरेंगे? अर्जुन को विराटरूप भगवान ने दिखाया और नारद मुनि जी को भी विराटरूप दिखलाया। तो नारद मुनिजी से भगवान ने कहा था- तुम मेरे जिस रूप को देख रहे हो, वह मेरी उत्पन्न की हुई माया है। जितने विकराल वा प्यार रूप को देखते हो, सभी ईश्वर की माया है। लोग कहते हैं-क्या उसमें ईश्वर व्यापक नहीं है? ईश्वर व्यापक है, लेकिन उस व्यापक रूप की पहचान उस रूप के दर्शन से नहीं होती। व्यापक रूप का दर्शन कैसे होता है? संतों ने बताया है। उपर्युक्त उपनिषद्-वाक्य और गोस्वामी तुलसीदास जी के वाक्य के अनुकूल उस दर्शन से संशय का रहना वा जड़-चेतन की ग्रन्थि का रहना नहीं होता। जिसकी जड़-चेतन की ग्रन्थि खुल गई, उसको किसी से कुछ पूछना नहीं है। तुलसीदास जी ने विनय-पत्रिका में लिखा है-
रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई ।।
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।।
         -विनय-पत्रिका
                                                लेकिन कठिनाई सुनकर घबराओ नहीं। आगे कहा-‘जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।’ किसी काम में कोई कुशल कैसे होता है? अभ्यास करते-करते। आप अक्षर लिखते थे, कितनी कठिनाई होती थी! अब कैसा लगता है। इसीलिये मैं कहता हूँ-ईश्वर-भजन करते-करते वह भी सुगम हो जायेगा और उसके बिना रह नहीं सकोगे। फिर कहा कि- ‘सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।’
 जो अपने मन को समेटता है, वह उल्टी धारा पर चला जाता है। वह उसको जानता है, जो ब्रह्माण्ड के ऊपर से ब्रह्माण्ड में और फिर पिण्ड में व्यापक है। यदि कोई कहे कि झूठी बात है तो करके देखो, झूठी है कि सत्य है। करते नहीं, कहते कि झूठ है। कोई कहे कि आँक्सीजन और हाइड्रोजन के मिलाने पर पानी नहीं होता है, तो मिलाकर देख लो।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।।
 बालू जड़ धार है। और चीनी चेतन धार है। इन दोनों का मिलाप इस शरीर के अन्दर हो गया है। इन दोनों को अलग-अलग फूटा लो। अपने को चींटी बनाओ। यह इशारा है। जैसे सफरी का इशारा है, अपने को समेटने के लिये; उसी तरह जो अपने का समेटता है, वह चींटी बनता है और अपने को जड़ से फुटा सकता है। तब वह सारी सृष्टि की रचना को अपने अन्दर देखता है। जो जाग्रत को, स्वप्न को और सुषुप्ति को छोड़ता है, वह जगता है।
एहि जग जामिनि जागहिं जोगी । परमारथी प्रपंच वियोगी ।।
 वही हरि-पद का परम सुख पाता है। सुख यहाँ है और कहाँ सुख है? जहाँ दो-भेद से रहित हो जाता है, वह पद कैसा होता है? गोस्वामीजी ने कहा है-
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।। देश-कालातीत पद में वह पहुँचता है। अरे ! संशय का नाश यहाँ होगा। इसके नीचे तो संशय रहेगा ही। तुलसीदासजी वहाँ जाने के लिये कहते हैं। और भी कहते हैं कि- तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त। मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनन्त।।’ जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति; तीनों अवस्थाओं को छोड़कर भजन करो। जाग्रत से स्वप्न में जाने के समय तन्द्रा अवस्था आती है, उसमें ऐसा लगता है कि शक्ति भीतर खिंची जा रही है। हाथ, पैर कमजोर होते जा रहे हैं। होते-होते तन्द्रा से स्वप्न में आ जाता है, जबतक यहाँ टिका रहता है, स्वप्न में रहता है। उससे भी नीचे उतर आता है, गहरी नींद में चला जाता है। यही तीन अवस्थाएँ हमलोगों को रोज होती हैं। योगी लोग इन अवस्थाओं से ऊपर जाते हैं। ब्रह्मोपनिषद् में लिखा है कि तुरीयावस्था में आँख से ऊपर अर्थात् मूर्द्धा में वासा होता है। बिना उस अवस्था में गये कोई ईश्वर की ओर नहीं जा सकता।
 रूप-रंगवाले को जो ईश्वर कहते हैं, वह ईश्वर की माया है। माया-रूप को पकड़ो, तो माया के अन्दर बहुत कुछ काम आपका होगा। लेकिन आप सन्तुष्ट नहीं होंगे; परन्तु जिनकी माया है, उनको पकड़ो, तो सन्तुष्टि होगी। एक राजा था। वह भगवान बुद्ध का संन्यासी शिष्य हो गया था। वह कभी-कभी बोलता था कि ‘यह सुख है, यह सुख है।’ अन्य भिक्षुओं ने भगवान से जाकर कहा कि जो राजा भिक्षु बन गया है, वह जब-तब बोलता रहता है कि ‘यह सुख है, यह सुख है।’ भगवान ने उसको बुलाकर उसके इस तरह बोलने का कारण पूछा। इस पर उसने उत्तर दिया, भगवन्! जबतक मैं राज्य में रहा, तबतक मैं कैद में रहा। पहरे में रहा; सशंक रहा। सोने में सशंक। जागने में सशंक। घर में सशंक, बाहर में सशंक। तमाम सशंक रहता था। अब वृक्ष के नीचे रहता हूँ। किसी तरफ से सशंक नहीं औैर अन्दर में वह सुख मिलता है, जो सुख खाने-पीने व राज्य-सुख भोगने में कभी नहीं मिला। ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान योग से सम्बन्धित कर देता है। लोग कहा करते हैं-योग तो सब कोई नहीं कर सकेंगे। मैं कहता हूँ-योग सभी कर सकेंगे। स्त्रियाँ भी कर सकेंगी। पुरुष भी कर सकेंगे। एक मेहतर भी कर सकता है। मेहतर का अर्थ है- विशेष कृपालु। हमलोग बहुत बच्चे थे, तो हमारी माता, हमारी बड़ी बहन हमारे मैले को साफ करती थीं। पवित्र करती थी। और मेहतर हमारे-आपके मैले को साफ करते हैं। उनसे बढ़कर कौन कृपालु है? योग की क्रिया सभी पेशे के लोग कर सकते हैं। मैंने छपरे जिले में मेहतर के एक टोले को देखा था। बड़ी सफाई थी। उसके टोले में खाने-पीने की गड़बड़ी नहीं थी। तहबल दासजी उस टोले को चेताये थे। एक बार छपरा में दो संन्यासी आये थे। उनके सामने तहबल दासजी ने कहा कि महाराज ! आत्मा के बारे में कहिये। महात्मा ने कहा-तुम कौन हो? उन्होंने अपने हाथ का झाड़ ू दिखलाकर कहा-‘आप तो देख रहे हैं-मैं सफाई करनेवाला हूँ।’ महात्मा बोले-‘तुम समझ सकोगे?’ उन्होंने कहा-‘आप समझा देंगे, तो मैं समझ जाऊँगा।’ महात्माजी ने कहा-‘मेरी धारणा गलत थी कि ऐसे लोग समझ नहीं सकेंगे। अब मैं इन लोगों को भी समझाऊँगा।’ कबीर साहब ने कहा है-
   न जोगी जोग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै ।
   सहज में ध्यान से पावै, सुरति का खेल जेहि आवै ।।
 कबीर साहब पढ़े-लिखे नहीं थे। कपड़ा बनाते थे, बेचते थे। उसी में सन्तुष्ट थे। दाम बढ़ाकर नहीं रखते थे। एक ही दाम रखते थे। उनके लिये यह कहावत प्रसिद्ध है-
   कबीर चाले हाट को, कहै न कोइ पतियाय ।
   पाँच टके का दोपटा, सात टके को जाय ।।
 एक बार कबीर साहब कपड़े बनाकर हाट में बेचने गये। उन्होंने उसका मूल्य पाँच रुपये बतलाया। ग्राहक चार रुपये, साढ़े चार रुपये देते थे। कबीर साहब उस कपड़े को लेकर वापस लौट रहे थे। रास्ते में एक चतुर आदमी से उनकी भेंट हो गई। उन्होंने उनसे हाट से कपड़े वापस लाने का कारण पूछा। कबीर साहब बोले-इस चादर की कीमत पाँच रुपये है, किन्तु लोग पाँच रुपये देना नहीं चाहते। इसलिये वापस ले जा रहा हूँ। चतुर आदमी ने कहा-यह चादर आप मुझे दे दें। मैं इस चादर को बेचकर पाँच रुपये आपको दे दूँगा और जो अधिक बचेंगे, मैं ले लूँगा। कबीर साहब ने कहा-भाई ! मुझे तो पाँच ही रुपये चाहिये। उस चतुर मनुष्य ने उस चादर को बाजार में ले जाकर सात रुपये में बेचा। पाँच रुपये उन्होंने कबीर साहब को दिये और कहा कि ये दो रुपये मेरे हुए। कबीर साहब ने प्रसन्नतापूर्वक पाँच रुपये ले लिये। ऐसे सन्तुष्ट कबीर साहब थे। घर में रहते थे। साधन- भजन ऐसा किया कि कोई कमी नहीं रही। सर्व साधारण को उन्होंने उपदेश दिया। यही काम गुरु नानक ने किया। उन्होंने कहा-
  चहुँ वरना को दे उपदेश । तिस पंडित को सदा अदेश ।।
 हठयोग करके, प्राणायाम करके पक्का बन जाओ, तब प्रत्याहार करो, धारणा करो, फिर ध्यान करो और अन्त में समाधि लो; यह हठयोग की बात है, कबीर साहब कहते हैं। हठयोग करने की बात नहीं। केवल सुरत का खेल जानो। वह क्या है? तो उन्होंने कहा- ‘शून्य ध्यान सबके मनमाना। तुम बैठो आतम अस्थाना।।’
 कोई पूछे कि पुराण में, शास्त्र में शून्य ध्यान है? तो कहूँगा- जो भागवत पढ़ते हैं, वे जानते हैं, ग्यारहवे स्कंद में है। उद्धवजी ने पूछा है कि आपका ध्यान कैसे करूँ? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-‘पहले हमारे सर्वांग का ध्यान करो, फिर मुस्कानयुक्त मुख का ध्यान करो। उसके बाद उसको भी छोड़कर शून्य में ध्यान करो।’ जो इसकी विधि जानता है, वह जानता है कि क्या स्त्री, क्या पुरुष सभी कर सकते हैं, लेकिन संयमित रहना पड़ेगा। अर्थात मत्स्य-मांस को नहीं लो। यह कबीर साहब को भी कहना पड़ा। कबीर साहब एक जुलाहे के घर में पाले गये थे। एक शिशु को लहरतारा तालाब से एक मुसलमान जुलाहा ले आये थे। वहीं उनका पालन-पोषण हुआ। कबीर साहब कहते हैं- मत्स्य-मांस नहीं खाओ। नशाओं को मत लो। हिंसा नहीं करो। व्यभिचार नहीं करो और चोरी नहीं करो। जो कोई यह परहेज करेगा, उन सबको लाभ होगा। उसके साथी को लाभ होगा। ऐसे लोग अधिक हो जायँगे तो देश को लाभ होगा। देश को क्या लाभ होगा? कोई दुष्ट कर्म करेगा नहीं, चोरी नहीं करेगा, डकैती नहीं करेगा, व्यभिचार नहीं करेगा, हिंसा नहीं करेगा। तो कितनी शान्ति रहेगी ! दुष्टकर्मियों को दुष्ट कर्मों से रोकने के लिये कितने ऑफिसर हैं? इसके लिये कितना खर्च है? सब खर्च बच जायेंगे। इसको देश की दूसरी सेवा, दूसरे काम में लगाए जायेंगे। किसी सरकार के अन्दर रहनेवाले दुष्ट कर्मों से छूटकर रहेंगे, तो शासन में सरकार को सहूलियत होगी। खर्च बहुत कम जाएगा। लोग मेरे लिये कहते हैं कि ये केवल मुक्ति-मोक्ष-अध्यात्म -ज्ञान देते हैं। देश के लिये कुछ नहीं करते हैं। अरे ! मैं तो देश की जड़ को मजबूत करता हूँ। जो कोई ईश्वर-भजन करते हैं, उनके लिये संसार-परमार्थ दोनों सरल होते हैं। महाराज अशोक के राज्य में बड़ी शान्ति थी। चोरी, डकैती, खून का मुकदमा कभी-कभी आता था। साल में एक वा दो ऐसे मुकदमें आये, तो बड़ा जुल्म हो गया, ऐसा समझा जाता था। महाराज अशोक के यहाँ एक ऐसी सभा थी, जो लोगों को उपदेश देती थी और उपदेशक को सरकारी सहायता बहुत मिलती थी।
 लोग कहते हैं कि ईश्वर अव्यक्त है। उसका ध्यान कैसे करो? तो कहा कि संसार के जितने रूप हैं, सभी ईश्वर के रूप हैं। किसी में अपनी श्रद्धा रखो। कबीर साहब ने, गुरु नानक साहब ने गुरु का ध्यान बतलाया है। तुलसीदासजी भी रामायण में कहते हैं-
तुम्हतें अधिक गुरुहिं जियँ जानी ।सकल भायँ सेवहि सनमानी।।
 आप राम रूप मानते हो, तो बहुत अच्छी तरह से राम रूप का ध्यान करते हो। कृष्ण को माननेवाले कृष्ण का ध्यान करो। काली के मानने वाले काली का ध्यान करो। लेकिन मानस ध्यान करो और मानस जप भी करो। परन्तु यहीं तक पड़े नहीं रहो। जो यहीं साधन को खत्म करते हैं, वे गलती में रहते हैं। इससे आगे बढ़ो। भागवत में जो शून्य ध्यान बताया है, उसको जानो और करो। तब परमात्मा की ओर की बड़ी सहायता मिलेगी। अर्थात् ब्रह्मज्योति और ब्रह्मनाद का सहारा मिलेगा। प्रत्यक्ष चाहते हो तो ब्रह्मज्योति प्रत्यक्ष हो जायेगी। फिर ब्रह्मनाद की भी प्रत्यक्षता हो जायेगी। जहाँ तक ज्योति की गति है, वहाँ तक ज्योति में जाओगे और जहाँ तक नाद की गति है, वहाँ तक नाद में जाओगे। नाद की गति परमात्मा तक है। किसी वैज्ञानिक से पूछिये, सब कहेंगे-शब्द कम्पमय और कम्प शब्दमय होता है। आरम्भ में परमात्मा से जो शब्द हुआ, उसी को आदिनाद, प्रणवनाद, प्रणवध्वनि आदि कहते हैं। इसको पकड़ने से तुम स्वयं उस नाद से पकड़े जाओगे। दुःखी होओगे कभी नहीं। एक बंगाली साधु का वचन है- आनन्दे आनन्द बाढ़े प्रतिक्षण। दशे इन्द्रिय थाके शून्यते बन्धन। कितने लोग केवल स्थूल उपासना में डटे रहते हैं। मैं स्थूल उपासना मना नहीं करता। लेकिन कहता हूँ कि उपासना का अंत यहीं मत करो। मानस जप करो, मानस ध्यान करो, दृष्टि योग करो और शब्द योग का ध्यान करो। कैसे करो? जैसे गुरु बतावें। व्यक्त ही व्यक्त का सहारा लेते हुए अव्यक्त तक पहुँचोगे। जैसे पानी का सहारा लेकर सुखी जमीन पर जाता है। उसी तरह ज्योति का सहारा लेकर ज्योति को पार करता है, तब जानता है कि-प्रभा शून्यं मनः शून्यं बुद्धि शून्यं भी है। और तब शब्द का सहारा लेकर शब्द को भी पार करता है। फिर ‘निःशब्दं परमं पदम्’ का ज्ञान भी होता है। उस परम पद तक पहुँचो। यही आपलोगों को सुना दिया। बात का इतना विस्तार है कि थोड़े में समझ लो, तो अपना काम खत्म हो। नहीं तो जीवन भर सुनते रहो, समझते रहो, खत्म होने की बात नहीं।
 सन् 1909 ई0 से आज तक मैं सत्संग में हूँ। और ऐसी बात मालूम पड़ती है कि जो नहीं जानता था, सो जानता जाता हूँ। यही थोड़ा कह दिया। यदि सत्य जानकर करेंगे तो आपका जीवन बहुत सफल होगा। परम शान्ति, परम सुख को पाकर उस दशा को पावेंगे। जिससे फिर लौटकर कभी नहीं आवेंगे।
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यह प्रवचन दिनांक 17.11.1969 ई0 को भागलपुर जिलान्तर्गत सुलतानगंज में श्रीअनन्तराम रामशरण रामुकाजी के मकान के प्रांगण में भागलपुर जिला संतमत-सत्संग के विशोषाध्विशन के अवसर पर हुआ था।
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307. गुरुमति लोग बज्र कपाट खोलते हैं
प्यारे लोगो !
 मैं बाबा नानक तथा उनके उपदेशों को ख्याल में रखता हूँ। आपलोग गुरु-ग्र्रंथ साहब को गुरु मानते हैं। उसमें गुरु का उपदेश है, इसलिये गुरुग्रंथ साहब आदरणीय हैं, पूज्य हैं। बाबा नानक ने ईश्वर की मान्यता दी। उनके शब्दों में है-
अलख अपार अगम अगोचरि ना तिसु काल न करमा ।
जाति अजाति अजोनी संभउ ना तिसु भाउ न भरमा ।।
साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु ।
ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।
ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु काम न नारी ।
अकुल निरंजन अपर परंपरु सगली जोति तुमारी ।।
घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ।
बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।।
जंत उपाइ कालु सिरिजंता बसगति जुगति सवाई ।
सतिगुरु सेवि पदारथु पावहि छूटहि सबदु कमाई ।।
सूचै भाड़ै साचु समावै विरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।
 परमात्मा का प्रकाश सबमें विद्यमान है। यह कौन देखता है? जो गुरुमति लोग होते हैं, वे वज्र कपाट को खोलते हैं। निडर ध्यान लगाकर तब वे उस वज्र कपाट को खोलते हैं। ध्यान लगाते- लगाते वज्र कपाट को खोलते हैं। जो वज्र कपाट को खोलते हैं, वे ईश्वर को घट-घट में देखते हैं। निडर ध्यान लगानेवाले सद्गुरु की सेवा करते हैं। उन्हें परमात्मा की प्राप्ति होती है। परमात्मा बहुत पवित्र हैं। परमात्मा को वे अपने में पाते हैं। सूचाचारी शुद्ध आचरण से रहनेवाले परमात्मा का प्रकाश पाते हैं। जो भक्त निडर होकर परमात्मा का ध्यान लगाते हैं, वे केवल परमात्मा का दर्शन चाहते हैं। यह निडर ध्यान सद्गुरु की सेवा करके प्राप्त करते हैं। ऐसा करनेवाले अपने को परमात्मा में लीन कर देते हैं। अभी मेरे पास गुरु-ग्रन्थ साहब हैं। उसमें है-
सागर महि बूँद बूँद महि सागरु कवणु बुझै विधि जाणै ।
उतभुज चलत आपि करि चीनै आपे ततु पछाणै ।।
अैसा गिआन विचारै कोई तिसते मुकति परम गति होई ।
दिन महि रैणि रैणि महि दीनी अरु उसन सीति विधि सोई ।।
ताकि गति मति अवरु न जाणै गुर बिन समझ न होई ।
पुरख महि नारि नारि महि पुरखा बूझहु ब्रह्म गिआनी ।।
धुनि महि धिआनु धिआन महि जानिआ गुर मुख अकथ कहानी ।
मन महि जोति जोति महि मनुआँ पंच मिले गुरु भाई ।।
नानक तिनके सद बलिहारी जिन एक सबदि लिवलाई ।
 यह संसार सागर है। शरीर एक बूँद है। पिण्ड ब्रह्माण्ड के अन्दर है, यह सबको प्रत्यक्ष है। लेकिन पिण्ड-रूप बूँद में संसार-रूप समुद्र है, यह आश्चर्य- मय चरित्र है। अपने करो तो कहना नहीं होगा। इसको करनेवाला आत्मज्ञानी हो जाता है। उसकी मुक्ति और परम गति हो जाती है। गो0 तुलसी- दासजी भी कहते हैं-
सकल दृश्य निज उदर मेलि सोवई निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरिपद अनुभवइ परम सुख अतिशय द्वैत वियोगी ।।
 तीन अवस्था के परे चौथी अवस्था के अन्त में परम गति होती है। जहाँ ऐसा होता है, वहाँ शोक-मोह आदि नहीं होते।
 शोक मोह भय हरष दिवस निशि, देश काल तहँ नाहीं ।
 तुलसिदास एहि दशा हीन, संशय निर्मूल न जाहीं ।।
 इस दशा के बिना संशय दूर नहीं होता। यही सन्त कबीर साहब भी कहते हैं-
           बूँद समानी समुँद में, यह जानै सब कोय ।
            समुँद समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ।।
 यह बूझना बहुत जरूरी होता है। जो अपने अन्दर में प्रविष्ट होकर देखते हैं, वे अन्दर में ब्रह्माण्ड को देखते हैं और होते-होते अपने स्वरूप को भी देखते हैं। वे शरीर से रहित होकर अपने आत्म-स्वरूप को पहचान लेते हैं। ऐसे ज्ञानवाले को परम गति होती है। इसके वास्ते हमलोगों को चाहिये कि ईश्वर को पाने की विधि को जानें। अपने में करके जानना चाहिये। जो अपने से नहीं करते हैं, उनको केवल बाहरी ज्ञान से तृप्ति नहीं होती है। पहचान में तृप्ति होती है। पहचान ध्यान करके होती है।
 स्वरोदय योगशास्त्र में चन्द्र को इंगला और सूर्य को पिंगला कहते हैं। दोनों का मेल मिल जाने पर ‘शम’ हो जायेगा। मैं कहता हूँ-आप आजमाकर देखें तो आपको मालूम हो जायेगा। यदि जुकाम या सर्दी हो जाय तो दाहिने स्वर को बंद रखें तो बायें नासाग्र से पानी बह जायेगा और सर्दी छूट जायेगी। इड़ा-पिंगला का मिलन ध्यान में होता है। जो ध्यान करते हैं, वे स्वर को अपने अन्दर में पाते हैं-
  घरि महि घरु देखाइ देइ सो सतगुरु परखु सुजाणु ।
  पंच सबदु धुनिकार धुनि तह बाजै सबदु निसाणु ।।
  दीप लोअ पाताल तह खण्ड मण्डल हैरानु ।
  तार घोर वाजिंत्र तह साचि तखति सुलतानु ।।
  सुखमन कै घरि राग सुनि सुन मण्डल लिवलाइ ।
  अकथ कथा बीचारिअै मनसा मनहि समाइ ।।
  उलटि कमलु अंम्रित भरिआ इहु मन कतहुँ न जाइ ।
  अजपा जाप न बीसरै आदि जुगादि समाइ ।।
  सभि सखिया पंचे मिलै गुरमुखि निज घरि वासु ।
  सबदु खोजि इहु घरु लहै नानकु ता का दासु ।।
 शब्द का ध्यान करना बहुत जरूरी है। सुषुम्ना में रहकर शून्य मण्डल में लौ लगाकर शून्य में ध्यान करें तो शब्द खुल जायेगा। गुरु महाराज से इसका यत्न जाने। ईश्वर की ओर की ध्वनि सुनेंगे। इन्हीं शब्दों के साथ मैं आपके समारोह का उद्घाटन करता हूँ।
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यह प्रवचन दिनांक 21.11.1969 ई0 को पटना सिटी के हर मन्दिर में गुरु नानक साहब की 5वीं जन्म शताब्दी के अवसर पर हुआ था।
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