306. हरि कूँ भूले जो फिरै सहजो जीवन छार
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
ईश्वर का ज्ञान बहुत गहन है। समझने में गहन, विचार में गहन प्राप्ति कैसे हो-यह गहन से भी गहन है। परन्तु यदि ईश्वर-दर्शन नहीं प्राप्त करो, तो संसार में रहने का क्लेश कभी नहीं छूटेगा। जैसे देश की सुरक्षा के वास्ते यदि अपने शरीर तक की भी परवाह छोड़कर देश की सुरक्षा में बाधा पहुँचानेवाले का सामना नहीं करते, तो देश पराधीन रहकर दुःख भोगता रहता। इसलिए देश की सुरक्षा रखनेवाले अपनी देह की परवाह छोड़कर लड़ते हैं। इसी तरह ईश्वर-दर्शन करने में जितनी कठिनाइयाँ हैं, उनको नहीं झेलो, तो संसार में आने का दुःख नहीं छूटेगा। उसके बाद का जितना जीवन होगा, उसमें दुःखी रहोगे। सुनने में जो कठिनाई मालूम होती है, वह करते-करते कठिनाई हल्की हो जाती है। और धीरे-धीरे उसी में मन बैठता है और वह सुगम हो जाता है। मेरी इस बात को तब विश्वास करोगे, जब तुम स्वयं करोगे। यदि तुम मेरे लिये यह समझो कि रोचक बात कहकर ईश्वर-प्राप्ति के कर्म में लगाना चाहते हैं, तो मैं कहूँगा कि आपको अनुभूति इसकी नहीं है, इसकी जानकारी नहीं है। मैं क्या कहूँ? यदि आप मुझको इसमें कुछ भी सच्चा मानो, मेरी उम्र को समझो, तो मैंने इतनी उम्र तक क्या किया? या तो विद्या लाभ किया और यही काम करता रहा। इतने में मुझको कुछ भी अनुभूति नहीं हुई, यह विश्वास करने योग्य नहीं है। यदि मेरी तहकीकात करना चाहो, तो मिल सकती है। विद्याभ्यास, सत्संग और उपासना, जो-जो कर्म इसके लिये अपेक्षित हैं, उसी में मैंने अपने को लगाया है। मैं अपने साधन के बल से कहता हूँ-बिल्कुल ठीक है। सुनने में कठिन, करने में कठिन पर मन लगाते-लगाते इतना सरल हो जायगा कि इसके बिना रह नहीं सकोगे। आपके ख्याल में होगा कि सो जाऊँ, तो भी यही बात ख्याल आवे। और दूसरी बात मिट जायेगी, जो उपासना में खलल पहुँचाती है। वह भी नाश हो जायगी, जो उपासना में बाधा पहुँचाती है। जो सुनने में और आरम्भ करने में कठिन है, वह किस बात के लिये? ईश्वर- भक्ति के लिए। ईश्वर क्या है? कोई पूछे कि रूप क्या है? आप झट से कह दो-जो तुम आँख से देखते हो। इसी तरह ईश्वर क्या है? तो तुम अपनी आत्मा से पहचान सको, वही ईश्वर है। जो इस बात को नहीं समझते, वे ही भटकते रहते हैं। संसार में बहुत-से रंग-रूप हैं। संसार के और विषयों में फँसे हुए मन को मालूम नहीं कि संसार के रंग-रूप के अतिरिक्त और कुछ है। संसार के विषयों-रंग-रूपों के अतिरिक्त आप स्वयं हो, इसको समझो। यह बतलाने की आवश्यकता नहीं रही कि आप शरीर के अंग-प्रत्यंगों में कुछ नहीं हो। तुम अपने को नहीं पहचानते, शरीर को पहचानते हो। विषयों को पहचानते हो। अपने को पहचानने की कोशिश करो।
पहले ज्ञान में, विचार में जानने की कोशिश करो। साधिका सहजोबाई कहती हैं-
पानी का सा बुलबुला, यह तन ऐसा होय ।
पीव मिलन को ठानिये, रहिये ना पड़ि सोय ।।
रहिये ना पड़ि सोय, बहुरि नहिं मनुखा देहि ।
आपुन ही कूँ खोज, मिलै जब राम सनेही ।।
हरि कूँ भूले जो फिरै, सहजो जीवन छार ।
सुखिया जबही होयगो, सुमिरेगो करतार ।।
तुम अपने ही को नहीं जानते हो और ईश्वर को खोजना चाहते हो। तुम सो गये हो और अनमोल पदार्थ पाना चाहते हो। जगो ! जबतक तीन अवस्थाओं में हो, तबतक सोये हो। चौथी अवस्था-तुरीय अवस्था में आओगे, तो समझोगे कि जिसको सत्य समझते थे, वह असत्य था। ईश्वर का स्वरूप इन्द्रिय-ज्ञान से बाहर है ।
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।
अभी श्रीसंतसेवीजी ने श्रीरामायणजी से ईश्वर- स्वरूप का पाठ किया। इसको प्राप्त करना है, जो इन्द्रिय-ज्ञान से परे है। ‘गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई।।’ इन्द्रियों को जो सुहाता है, इन्द्रिय-ज्ञान में जो कुछ आता है, सब माया है। दूसरी बात इसको भी याद रखिये-
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
अर्थ-उस परे-से-परे (ब्रह्म) को देख लेने पर हृदय की ग्रन्थि (गाँठ, गिरह) टूट जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।
जड़ को हम पहचानते हैं, चेतन को नहीं। सो पहचान में आ जाय कि यह चेतन है, तो सारे कर्मबन्धन क्षय हो जायँगे-कोई संशय नहीं रहेगा। उस परे-से-परे का दर्शन पाकर ऐसा हो जायगा। जिसको ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, उसकी जड़-चेतन की ग्रन्थि छूट जाती है, सारे संशयों का नाश हो जाता है और सभी कर्म-बन्धन नष्ट हो जाते हैं। इन दोनों की कसौटी पर जाना जाता है कि मन-इन्द्रियों के बाहर जो है, वह ईश्वर है; और इन्द्रिय-ज्ञान के अन्दर जो है, वह माया है। विलक्षण से विलक्षण रूपों के दर्शन का वर्णन जो ग्रन्थों में आया है, जिसने उन दर्शनों को किया, उनका सन्देह मिटा कि नहीं, देख लो।
अर्जुन श्रीकृष्ण के साथ बहुत रहते थे। उनका संशय बिल्कुल क्षय नहीं हुआ था। सारे संशय उस दर्शन से मिट नहीं गये थे। उसी संशय के निवारणार्थ भगवान ने उनको उपदेश दिया। उससे भी उनके मन में विश्वास नहीं हुआ, तो भगवान ने उनको एक भयानक रूप दिखाया। उसमें अर्जुन ने देखा कि जितने कौरव-पाण्डव दल के लोग हैं, सब उनके मुँह में समाकर मर-मरकर गिरते जाते है। कितने लोग विराट् रूप को परमात्मा का अन्तिम दर्शन मानते हैं। लेकिन यह भी परमात्मा की माया थी। जो परमात्म-स्वरूप है, उसके मुँह में प्रवेश कर कौरव-पाण्डव-दल के लोग मर-मर कर क्यों गिरेंगे? अर्जुन को विराटरूप भगवान ने दिखाया और नारद मुनि जी को भी विराटरूप दिखलाया। तो नारद मुनिजी से भगवान ने कहा था- तुम मेरे जिस रूप को देख रहे हो, वह मेरी उत्पन्न की हुई माया है। जितने विकराल वा प्यार रूप को देखते हो, सभी ईश्वर की माया है। लोग कहते हैं-क्या उसमें ईश्वर व्यापक नहीं है? ईश्वर व्यापक है, लेकिन उस व्यापक रूप की पहचान उस रूप के दर्शन से नहीं होती। व्यापक रूप का दर्शन कैसे होता है? संतों ने बताया है। उपर्युक्त उपनिषद्-वाक्य और गोस्वामी तुलसीदास जी के वाक्य के अनुकूल उस दर्शन से संशय का रहना वा जड़-चेतन की ग्रन्थि का रहना नहीं होता। जिसकी जड़-चेतन की ग्रन्थि खुल गई, उसको किसी से कुछ पूछना नहीं है। तुलसीदास जी ने विनय-पत्रिका में लिखा है-
रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई ।।
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।।
-विनय-पत्रिका
लेकिन कठिनाई सुनकर घबराओ नहीं। आगे कहा-‘जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।’ किसी काम में कोई कुशल कैसे होता है? अभ्यास करते-करते। आप अक्षर लिखते थे, कितनी कठिनाई होती थी! अब कैसा लगता है। इसीलिये मैं कहता हूँ-ईश्वर-भजन करते-करते वह भी सुगम हो जायेगा और उसके बिना रह नहीं सकोगे। फिर कहा कि- ‘सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।’
जो अपने मन को समेटता है, वह उल्टी धारा पर चला जाता है। वह उसको जानता है, जो ब्रह्माण्ड के ऊपर से ब्रह्माण्ड में और फिर पिण्ड में व्यापक है। यदि कोई कहे कि झूठी बात है तो करके देखो, झूठी है कि सत्य है। करते नहीं, कहते कि झूठ है। कोई कहे कि आँक्सीजन और हाइड्रोजन के मिलाने पर पानी नहीं होता है, तो मिलाकर देख लो।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।।
बालू जड़ धार है। और चीनी चेतन धार है। इन दोनों का मिलाप इस शरीर के अन्दर हो गया है। इन दोनों को अलग-अलग फूटा लो। अपने को चींटी बनाओ। यह इशारा है। जैसे सफरी का इशारा है, अपने को समेटने के लिये; उसी तरह जो अपने का समेटता है, वह चींटी बनता है और अपने को जड़ से फुटा सकता है। तब वह सारी सृष्टि की रचना को अपने अन्दर देखता है। जो जाग्रत को, स्वप्न को और सुषुप्ति को छोड़ता है, वह जगता है।
एहि जग जामिनि जागहिं जोगी । परमारथी प्रपंच वियोगी ।।
वही हरि-पद का परम सुख पाता है। सुख यहाँ है और कहाँ सुख है? जहाँ दो-भेद से रहित हो जाता है, वह पद कैसा होता है? गोस्वामीजी ने कहा है-
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।। देश-कालातीत पद में वह पहुँचता है। अरे ! संशय का नाश यहाँ होगा। इसके नीचे तो संशय रहेगा ही। तुलसीदासजी वहाँ जाने के लिये कहते हैं। और भी कहते हैं कि- तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त। मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनन्त।।’ जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति; तीनों अवस्थाओं को छोड़कर भजन करो। जाग्रत से स्वप्न में जाने के समय तन्द्रा अवस्था आती है, उसमें ऐसा लगता है कि शक्ति भीतर खिंची जा रही है। हाथ, पैर कमजोर होते जा रहे हैं। होते-होते तन्द्रा से स्वप्न में आ जाता है, जबतक यहाँ टिका रहता है, स्वप्न में रहता है। उससे भी नीचे उतर आता है, गहरी नींद में चला जाता है। यही तीन अवस्थाएँ हमलोगों को रोज होती हैं। योगी लोग इन अवस्थाओं से ऊपर जाते हैं। ब्रह्मोपनिषद् में लिखा है कि तुरीयावस्था में आँख से ऊपर अर्थात् मूर्द्धा में वासा होता है। बिना उस अवस्था में गये कोई ईश्वर की ओर नहीं जा सकता।
रूप-रंगवाले को जो ईश्वर कहते हैं, वह ईश्वर की माया है। माया-रूप को पकड़ो, तो माया के अन्दर बहुत कुछ काम आपका होगा। लेकिन आप सन्तुष्ट नहीं होंगे; परन्तु जिनकी माया है, उनको पकड़ो, तो सन्तुष्टि होगी। एक राजा था। वह भगवान बुद्ध का संन्यासी शिष्य हो गया था। वह कभी-कभी बोलता था कि ‘यह सुख है, यह सुख है।’ अन्य भिक्षुओं ने भगवान से जाकर कहा कि जो राजा भिक्षु बन गया है, वह जब-तब बोलता रहता है कि ‘यह सुख है, यह सुख है।’ भगवान ने उसको बुलाकर उसके इस तरह बोलने का कारण पूछा। इस पर उसने उत्तर दिया, भगवन्! जबतक मैं राज्य में रहा, तबतक मैं कैद में रहा। पहरे में रहा; सशंक रहा। सोने में सशंक। जागने में सशंक। घर में सशंक, बाहर में सशंक। तमाम सशंक रहता था। अब वृक्ष के नीचे रहता हूँ। किसी तरफ से सशंक नहीं औैर अन्दर में वह सुख मिलता है, जो सुख खाने-पीने व राज्य-सुख भोगने में कभी नहीं मिला। ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान योग से सम्बन्धित कर देता है। लोग कहा करते हैं-योग तो सब कोई नहीं कर सकेंगे। मैं कहता हूँ-योग सभी कर सकेंगे। स्त्रियाँ भी कर सकेंगी। पुरुष भी कर सकेंगे। एक मेहतर भी कर सकता है। मेहतर का अर्थ है- विशेष कृपालु। हमलोग बहुत बच्चे थे, तो हमारी माता, हमारी बड़ी बहन हमारे मैले को साफ करती थीं। पवित्र करती थी। और मेहतर हमारे-आपके मैले को साफ करते हैं। उनसे बढ़कर कौन कृपालु है? योग की क्रिया सभी पेशे के लोग कर सकते हैं। मैंने छपरे जिले में मेहतर के एक टोले को देखा था। बड़ी सफाई थी। उसके टोले में खाने-पीने की गड़बड़ी नहीं थी। तहबल दासजी उस टोले को चेताये थे। एक बार छपरा में दो संन्यासी आये थे। उनके सामने तहबल दासजी ने कहा कि महाराज ! आत्मा के बारे में कहिये। महात्मा ने कहा-तुम कौन हो? उन्होंने अपने हाथ का झाड़ ू दिखलाकर कहा-‘आप तो देख रहे हैं-मैं सफाई करनेवाला हूँ।’ महात्मा बोले-‘तुम समझ सकोगे?’ उन्होंने कहा-‘आप समझा देंगे, तो मैं समझ जाऊँगा।’ महात्माजी ने कहा-‘मेरी धारणा गलत थी कि ऐसे लोग समझ नहीं सकेंगे। अब मैं इन लोगों को भी समझाऊँगा।’ कबीर साहब ने कहा है-
न जोगी जोग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै ।
सहज में ध्यान से पावै, सुरति का खेल जेहि आवै ।।
कबीर साहब पढ़े-लिखे नहीं थे। कपड़ा बनाते थे, बेचते थे। उसी में सन्तुष्ट थे। दाम बढ़ाकर नहीं रखते थे। एक ही दाम रखते थे। उनके लिये यह कहावत प्रसिद्ध है-
कबीर चाले हाट को, कहै न कोइ पतियाय ।
पाँच टके का दोपटा, सात टके को जाय ।।
एक बार कबीर साहब कपड़े बनाकर हाट में बेचने गये। उन्होंने उसका मूल्य पाँच रुपये बतलाया। ग्राहक चार रुपये, साढ़े चार रुपये देते थे। कबीर साहब उस कपड़े को लेकर वापस लौट रहे थे। रास्ते में एक चतुर आदमी से उनकी भेंट हो गई। उन्होंने उनसे हाट से कपड़े वापस लाने का कारण पूछा। कबीर साहब बोले-इस चादर की कीमत पाँच रुपये है, किन्तु लोग पाँच रुपये देना नहीं चाहते। इसलिये वापस ले जा रहा हूँ। चतुर आदमी ने कहा-यह चादर आप मुझे दे दें। मैं इस चादर को बेचकर पाँच रुपये आपको दे दूँगा और जो अधिक बचेंगे, मैं ले लूँगा। कबीर साहब ने कहा-भाई ! मुझे तो पाँच ही रुपये चाहिये। उस चतुर मनुष्य ने उस चादर को बाजार में ले जाकर सात रुपये में बेचा। पाँच रुपये उन्होंने कबीर साहब को दिये और कहा कि ये दो रुपये मेरे हुए। कबीर साहब ने प्रसन्नतापूर्वक पाँच रुपये ले लिये। ऐसे सन्तुष्ट कबीर साहब थे। घर में रहते थे। साधन- भजन ऐसा किया कि कोई कमी नहीं रही। सर्व साधारण को उन्होंने उपदेश दिया। यही काम गुरु नानक ने किया। उन्होंने कहा-
चहुँ वरना को दे उपदेश । तिस पंडित को सदा अदेश ।।
हठयोग करके, प्राणायाम करके पक्का बन जाओ, तब प्रत्याहार करो, धारणा करो, फिर ध्यान करो और अन्त में समाधि लो; यह हठयोग की बात है, कबीर साहब कहते हैं। हठयोग करने की बात नहीं। केवल सुरत का खेल जानो। वह क्या है? तो उन्होंने कहा- ‘शून्य ध्यान सबके मनमाना। तुम बैठो आतम अस्थाना।।’
कोई पूछे कि पुराण में, शास्त्र में शून्य ध्यान है? तो कहूँगा- जो भागवत पढ़ते हैं, वे जानते हैं, ग्यारहवे स्कंद में है। उद्धवजी ने पूछा है कि आपका ध्यान कैसे करूँ? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-‘पहले हमारे सर्वांग का ध्यान करो, फिर मुस्कानयुक्त मुख का ध्यान करो। उसके बाद उसको भी छोड़कर शून्य में ध्यान करो।’ जो इसकी विधि जानता है, वह जानता है कि क्या स्त्री, क्या पुरुष सभी कर सकते हैं, लेकिन संयमित रहना पड़ेगा। अर्थात मत्स्य-मांस को नहीं लो। यह कबीर साहब को भी कहना पड़ा। कबीर साहब एक जुलाहे के घर में पाले गये थे। एक शिशु को लहरतारा तालाब से एक मुसलमान जुलाहा ले आये थे। वहीं उनका पालन-पोषण हुआ। कबीर साहब कहते हैं- मत्स्य-मांस नहीं खाओ। नशाओं को मत लो। हिंसा नहीं करो। व्यभिचार नहीं करो और चोरी नहीं करो। जो कोई यह परहेज करेगा, उन सबको लाभ होगा। उसके साथी को लाभ होगा। ऐसे लोग अधिक हो जायँगे तो देश को लाभ होगा। देश को क्या लाभ होगा? कोई दुष्ट कर्म करेगा नहीं, चोरी नहीं करेगा, डकैती नहीं करेगा, व्यभिचार नहीं करेगा, हिंसा नहीं करेगा। तो कितनी शान्ति रहेगी ! दुष्टकर्मियों को दुष्ट कर्मों से रोकने के लिये कितने ऑफिसर हैं? इसके लिये कितना खर्च है? सब खर्च बच जायेंगे। इसको देश की दूसरी सेवा, दूसरे काम में लगाए जायेंगे। किसी सरकार के अन्दर रहनेवाले दुष्ट कर्मों से छूटकर रहेंगे, तो शासन में सरकार को सहूलियत होगी। खर्च बहुत कम जाएगा। लोग मेरे लिये कहते हैं कि ये केवल मुक्ति-मोक्ष-अध्यात्म -ज्ञान देते हैं। देश के लिये कुछ नहीं करते हैं। अरे ! मैं तो देश की जड़ को मजबूत करता हूँ। जो कोई ईश्वर-भजन करते हैं, उनके लिये संसार-परमार्थ दोनों सरल होते हैं। महाराज अशोक के राज्य में बड़ी शान्ति थी। चोरी, डकैती, खून का मुकदमा कभी-कभी आता था। साल में एक वा दो ऐसे मुकदमें आये, तो बड़ा जुल्म हो गया, ऐसा समझा जाता था। महाराज अशोक के यहाँ एक ऐसी सभा थी, जो लोगों को उपदेश देती थी और उपदेशक को सरकारी सहायता बहुत मिलती थी।
लोग कहते हैं कि ईश्वर अव्यक्त है। उसका ध्यान कैसे करो? तो कहा कि संसार के जितने रूप हैं, सभी ईश्वर के रूप हैं। किसी में अपनी श्रद्धा रखो। कबीर साहब ने, गुरु नानक साहब ने गुरु का ध्यान बतलाया है। तुलसीदासजी भी रामायण में कहते हैं-
तुम्हतें अधिक गुरुहिं जियँ जानी ।सकल भायँ सेवहि सनमानी।।
आप राम रूप मानते हो, तो बहुत अच्छी तरह से राम रूप का ध्यान करते हो। कृष्ण को माननेवाले कृष्ण का ध्यान करो। काली के मानने वाले काली का ध्यान करो। लेकिन मानस ध्यान करो और मानस जप भी करो। परन्तु यहीं तक पड़े नहीं रहो। जो यहीं साधन को खत्म करते हैं, वे गलती में रहते हैं। इससे आगे बढ़ो। भागवत में जो शून्य ध्यान बताया है, उसको जानो और करो। तब परमात्मा की ओर की बड़ी सहायता मिलेगी। अर्थात् ब्रह्मज्योति और ब्रह्मनाद का सहारा मिलेगा। प्रत्यक्ष चाहते हो तो ब्रह्मज्योति प्रत्यक्ष हो जायेगी। फिर ब्रह्मनाद की भी प्रत्यक्षता हो जायेगी। जहाँ तक ज्योति की गति है, वहाँ तक ज्योति में जाओगे और जहाँ तक नाद की गति है, वहाँ तक नाद में जाओगे। नाद की गति परमात्मा तक है। किसी वैज्ञानिक से पूछिये, सब कहेंगे-शब्द कम्पमय और कम्प शब्दमय होता है। आरम्भ में परमात्मा से जो शब्द हुआ, उसी को आदिनाद, प्रणवनाद, प्रणवध्वनि आदि कहते हैं। इसको पकड़ने से तुम स्वयं उस नाद से पकड़े जाओगे। दुःखी होओगे कभी नहीं। एक बंगाली साधु का वचन है- आनन्दे आनन्द बाढ़े प्रतिक्षण। दशे इन्द्रिय थाके शून्यते बन्धन। कितने लोग केवल स्थूल उपासना में डटे रहते हैं। मैं स्थूल उपासना मना नहीं करता। लेकिन कहता हूँ कि उपासना का अंत यहीं मत करो। मानस जप करो, मानस ध्यान करो, दृष्टि योग करो और शब्द योग का ध्यान करो। कैसे करो? जैसे गुरु बतावें। व्यक्त ही व्यक्त का सहारा लेते हुए अव्यक्त तक पहुँचोगे। जैसे पानी का सहारा लेकर सुखी जमीन पर जाता है। उसी तरह ज्योति का सहारा लेकर ज्योति को पार करता है, तब जानता है कि-प्रभा शून्यं मनः शून्यं बुद्धि शून्यं भी है। और तब शब्द का सहारा लेकर शब्द को भी पार करता है। फिर ‘निःशब्दं परमं पदम्’ का ज्ञान भी होता है। उस परम पद तक पहुँचो। यही आपलोगों को सुना दिया। बात का इतना विस्तार है कि थोड़े में समझ लो, तो अपना काम खत्म हो। नहीं तो जीवन भर सुनते रहो, समझते रहो, खत्म होने की बात नहीं।
सन् 1909 ई0 से आज तक मैं सत्संग में हूँ। और ऐसी बात मालूम पड़ती है कि जो नहीं जानता था, सो जानता जाता हूँ। यही थोड़ा कह दिया। यदि सत्य जानकर करेंगे तो आपका जीवन बहुत सफल होगा। परम शान्ति, परम सुख को पाकर उस दशा को पावेंगे। जिससे फिर लौटकर कभी नहीं आवेंगे।
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यह प्रवचन दिनांक 17.11.1969 ई0 को भागलपुर जिलान्तर्गत सुलतानगंज में श्रीअनन्तराम रामशरण रामुकाजी के मकान के प्रांगण में भागलपुर जिला संतमत-सत्संग के विशोषाध्विशन के अवसर पर हुआ था।
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