1968 (प्रवचन संख्या : 283-296)

283. ऋषि-ऋण पितृ-ऋण और देव-ऋण से मुक्ति (13.01.1968)


283. ऋषि-ऋण, पितृ-ऋण और देव-ऋण से मुक्ति
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 जिस उपलक्ष्य में आज यहाँ हमलोग उपस्थित हैं, यह प्रत्येक घर में जब-तब आया ही करता है। और यह उपलक्ष्य प्रत्येक घर के प्रत्येक लोग के लिए आता है। मेरे लिए और यहाँ उपस्थित सब लोगों के लिए यह उपलक्ष्य बारी-बारी से आवेगा, इसमें किसी को सन्देह नहीं। एक शरीर का जीवनकाल कुछ समय के लिए होता है। और जीवनकाल समाप्त होकर शरीर छूट जाता है और यह उपलक्ष्य आता है। शरीर छूट गया, शरीर के छोड़नेवाले किधर-कहाँ चले गए? कोई देखता नहीं। वे स्वयं जानते होंगे कि मैं कहाँ था और किधर जा रहा हूँ। जिनको इस बात के देखने की दृष्टि होगी, वे भी जानते होंगे कि वहाँ गए? जीवन-काल में सुखी रहना सभी पसन्द करते हैं। जीवन के बाद वे दुःखी होना पसन्द करेंगे, सम्भव नहीं। जहाँ रहें, सुखी रहें, यही आग्रह सब लोगों को होना चाहिए। कहा गया है कि जीवन-काल में जो सदाचारी हैं, सुकर्मों को करते हैं, ईश्वर-भजन करते हैं; वे परलोक में सुख पावेंगे, इसमें कोई शक नहीं। परन्तु यह परलोकवाला सुख भी इसी तरह है, जैसे पृथ्वी पर का सुख। कुछ काल सुख, फिर दुःख। इस पृथ्वी पर रहो, छोड़कर जाओ, फिर आओ। पृथ्वी पर आते और जाते लोगों को देखते हैं। आने का कारण यदि विदित है, तो आना निश्चित है। आने का कारण है-दुःख में अनासक्ति और सुख में आसक्ति। कैसा सुख? जैसा सुख इस संसार में मिलता है। इस संसार में मन और इन्द्रियों का सुख है। और यही सुख स्वर्ग में भी मिलता है, यह पुराणों से विदित है। परलोक का सुख समाप्त हो गया, तो फिर कहाँ जाएगा? जिधर आसक्ति है, उधर जाएगा। संसार में आवेगा; क्योंकि संसार में आसक्ति है और संसार में वह सुख मिलता है। यही आवागमन का चक्र है। इस प्रकार का सुख सदाचरण और शुभ कर्मों से मिलता है। दूसरे प्रकार का और सुख है, जिसमें इन्द्रिय और मन का सुख छूट जाए। वह कौन सुख है? आत्म-सुख है। शरीर-इन्द्रिय का सुख छोड़कर अपने तईं में जो सुख होता है। यह केवल सुकर्म का फल नहीं है। सुकर्म के सहित सदाचार का पालन करो तो उस सुख के पाने में सहायता मिलती है। लेकिन केवल सदाचार के पालन वा परोपकार से वह सुख नहीं मिलता है। परोपकार की बड़ी प्रशंसा है, लेकिन इसमें भी एक आसक्ति है। जहाँ उपकार किया है, जो-जो सहायता देकर उपकार किया है, उन-उनको पाने के लिए फिर जन्म इस संसार में हो, सम्भव है।
 महात्माओं ने कहा है कि हमारे कितने जन्म गुजरे, ठिकाना नहीं। अर्जुन से भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था कि मेरे और तुम्हारे अनेक जन्म हो चुके हैं। मैं जानता हूँ, तुम नहीं जानते। मैं इससे अविश्वास नहीं करता। जो कोई अविश्वास करते हैं, वे उस प्रकार की दृष्टि पहले बना लें, देखें, तब कहें। वह कैसा लोक है? वह सूक्ष्म लोक है और सूक्ष्म शरीर है। स्थूल शरीर की मृत्यु होती है। जैसे अभी स्थूल शरीर ऊपर में है और भीतर में सूक्ष्म है; उसी तरह मृत्यु होने पर ऊपर में सूक्ष्म शरीर रहता है। अपनी दृष्टि को इतनी बारीकी में ले आओ कि कुछ भी पसार नहीं रहे। तब सूक्ष्म दृष्टि होगी और सूक्ष्म लोक को देखोगे, तब विश्वास होगा। दृष्टि को सूक्ष्म करना असम्भव नहीं है।
 द्रौपदी का स्वयम्बर रचा गया था। उसमें बड़े-बड़े शूर-वीर आए थे। बहुत ऊँचे ऊपर में एक मछली टाँगी गई थी। उसके नीचे एक चक्र घूमता था, जिसको पार कर मछली की आँख को छेदना था। उस सभा में द्रोण और भीष्म भी थे, किन्तु वे लोग उठे नहीं। कर्ण ने उठकर धनुष पर डोरी चढ़ाई और लक्ष्य भेदना चाहा। किंतु द्रौपदी बोलीं- मैं सूत पुत्र से विवाह नहीं करूँगी। कर्ण बैठ गए, तब अर्जुन उठे और उन्होंने चढ़ी डोरी को धनुष से नीचे उतारकर पुनः चढ़ाया और लक्ष्य भेदन कर द्रौपदी से विवाह किया।
 मेरे कहने को मतलब है कि दृष्टि को सूक्ष्म किया जा सकता है वा नहीं? दृष्टि को स्थूल पसार से ऊपर कर लो। बाहरी दृश्य में नहीं रखो, पहले जो देख चुके हो, उसको मन से छोड़ दो और किसी गुरु से जान लो कि कैसे देखें? तब पता लग जाएगा कि बात क्या है? तुम कर नहीं सकते हो, इसलिए बात गलती है, सो नहीं।
 आवागमन का चक्र किसी सुकर्म से नहीं छूटेगा, ईश्वर की भक्ति से छूटेगा। गोस्वामी तुलसी- दासजी ने बड़े दृढ़ शब्दों में कहा है-
 बारि मथे घृत होइ बरु, सिकता तें बरु तेल ।
 बिनु हरि भजन भव तरिय, यह सिद्धान्त अपेल ।।
 शरीर छूटने के बाद एक बात है कि आवागमन वाला परलोक में जाओ। दूसरी बात है कि ईश्वर की भक्ति करो, आवागमन का चक्र छूट जाएगा। सब लोगों को याद रखना चाहिए, जब कि किसी श्राद्ध के उपलक्ष्य में एकत्र हों- कि मेरे लिए भी एक दिन ऐसा होगा।
 स्वर्ग में भी सुख अल्प ही है। श्रीरामायण जी में उपदेश है कि श्रीराम ने कहा था कि संसार- सागर से छूटना चाहते हो तो ईश्वर की कृपा प्राप्त करो, सद्गुरु-संग प्राप्त करो और मनुष्य-शरीर प्र्र्राप्त करो; ये ही तीन बातें हैं। इन तीनों बातों से संसार- सागर से पार होना होता है। मनुष्य-शरीर है ही, ईश्वर की कृपा है ही, एक श्वास भी ईश्वर की कृपा से लेते हो। और सद्गुरु खोजने से मिलते हैं। सत्संग करें, सद्गुरु की खोज करें और उनके बताए ढंग से ईश्वर-भक्ति करें। यही काम धारण करें।
 संन्यासी को श्राद्ध-जैसा कोई कर्म नहीं होता। सन् 1904 ई0 में पण्डित लोग हमको धमकाते थे कि तुमको स्वर्ग तो कहाँ से मिलेगा, नरक में भी मुलायम दुःख का स्थान नहीं मिलेगा। तुम्हारे ऊपर ऋषि-ऋण, पितृ-ऋण और देव-ऋण हैं। एक षट शास्त्री पण्डितजी आए थे, वे वेदान्त भी जानते थे। लोगों ने उनसे मेरी निस्बत कहा कि ये पढ़ते थे। पढ़ना छोड़कर साधु हो गए हैं। इनके ऊपर ऋषि- ऋण, पितृ-ऋण और देव-ऋण; सभी बाकी हैं, इनको स्वर्ग तो कहाँ से मिलेगा कि नरक में भी मुलायम दुःख का स्थान नहीं मिलेगा। पण्डितजी ने कहा-हाँ, ठीक ही कहते हैं। मैंने कहा-मुझे स्वर्ग नहीं चाहिए और न नरक ही। पण्डितजी ने कहा-हाँ, ठीक ही बात है। मेरे पिताजी ने कहा-पण्डितजी! मेरे पुत्र की बात को भी आप ‘ठीक’ कहते हैं और उन पण्डितों की बातां को भी आप ठीक कहते हैं। यथार्थ में बात क्या है? उक्त षटशास्त्री पण्डितजी ने कहा-स्मृति के अनुसार पण्डित लोग ठीक कहते हैं और आपके पुत्र वेदान्त पढ़े तो नहीं हैं, लेकिन वेदान्त की उक्ति कहते हैं, यह बात भी ठीक है। मैंने कहा-‘एक ही साधन सब ऋद्धि-सिद्धि साधि रे।’ तुलसीदासजी ने कहा है।
 वह साधन ईश्वर-भक्ति है। बिना ईश्वर भजन के संसार-सागर से कोई पार नहीं हो सकता। पहले अधूरा रहेगा, उसके संस्कार से आगे जन्म में मनुष्य-शरीर पावेगा, पूर्व जन्म का संस्कार मिलेगा, भजन करेगा और संसार-सागर से पार हो जाएगा।
 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि भक्तियोग का थोड़ा भी परिश्रम महाभय से बचाता है, इसके आरम्भ का नाश नहीं होता और उलटा फल नहीं होता। यह तो श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में कहा गया है और छठे अध्याय में कहा है कि शरीर छूटने पर स्वर्ग सुख भोगेगा। इस संसार में श्रीमान् के घर में जन्म लेगा अथवा योगी कुल में जन्म लेगा और पूर्व अभ्यास से प्रेरित होकर भजन में लगेगा और अनेक जन्मों में सिद्धि प्राप्त कर लेगा और हमारे में जो शान्ति है, वही शान्ति वह पावेगा। मुझको इसका बहुत विश्वास है और आप लोगों को भी विश्वास दिलाता हूँ। भक्ति का बीज नाश नहीं होता। कबीर साहब ने कहा है-
 भक्ति बीज बिनसै नहीं, जो युग जाय अनंत ।
 ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।।
 भक्ति बीज पलटै नहीं, आय पड़ै जो चोल ।
 कंचन जौ ं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।
 रविदास में भक्ति आई। नाभादास में भक्ति आई। काशी के वाल्मीकि डोम में भक्ति आई, तो क्या भक्ति की महिमा कम गई?
 उपनिषद् में आया है कि लोग पाप-पुण्य कर्म करते हैं। लोग पाप कर्म के फल से डरते हैं और पुण्य कर्म के फल को भोगना पसन्द करते हैं। बन्धन लोहा का हो वा सोना का; दोनों ही बन्धन हैं। उसी तरह पाप हो वा पुण्य, दोनों कर्म के फल बन्धनकारक हैं।
 महाराजा अशोक ने स्वयं खून किया था। एक ब्राह्मण न्यायाधीश ने इसका पता लगा लिया, तब उनको बुलाया गया। उसने अशोक की मूर्ति सोने की बनवा ली, फाँसी की जंजीर सोने की बनवा ली और उस साने की मूर्ति को फाँसी पर झूला दिया।
संभावित कहँ अपयश लाहू।मरण कोटि सम दारुण दाहू ।।
 युधिष्ठिर का अपमान अर्जुन ने किया और श्रीकृष्ण के समझाने पर पश्चात्ताप कर अपनी हत्या करना चाहा, तो कृष्ण ने कहा कि अपनी प्रशंसा मरण के समान है। अर्जुन अपनी प्रशंसा कभी नहीं करते थे, उस दिन उन्होंने अपनी दो-चार प्रशंसा की। श्रीराम ने लक्ष्मण को त्याग दिया। त्याग भी मृत्यु के समान है। ऐसी मृत्यु से भी लोगों को बचना चाहिए। ध्यानविन्दूपनिषद् में लिखा है कि ध्यान करो, पापों से छूटोगे। ईश्वर-भक्ति में ध्यान प्रधान है। मन कहीं, जप कहीं या पूजा कहीं, इससे नहीं होगा। ध्यान में एकओरता चाहिए। एकओरता विन्दुध्यान में होती है। विन्दुध्यान में पूर्ण सिमटाव होता है। सिमटी हुई चीज स्वाभाविक ही ऊपर की ओर होती है वा जिस ओर से समेटो, उसकी विपरीत ओर को उसकी गति होती है। कर्म मण्डल को ध्यानयोग से पार किया जाता है। ‘कर्म कि होहिं स्वरूपहिं चीन्हे।’
 कर्ममण्डल को पार करने से कर्म-फल छूटेगा। यह ध्यान से होगा। मनुष्य को अपनी आत्मा की ओर देखना चाहिए। आत्मा की ओर देखने के लिए आँखों को बन्द करना होगा। पहले जो बाहर में देखे हो, उसका ख्याल छोड़ दो। आँख बन्दकर तब जो देखता है, अन्दर में देखता है-यही है दृष्टियोग। जीवात्मा शरीर के बाहर में नहीं लगा है, अपने अन्दर में है। अपने को समेटने से ऊर्ध्वगति पाता है, कर्ममण्डल पार करता है, अपने आत्म-स्वरूप को पाता है। अपने अन्दर में जो कोई जाते हैं तो उनको अन्दर में र्चिं भी मिलते हैं। उसका वर्णन वेद, उपनिषद् और संतवाणी में है।
 श्रीकान्त बाबू के श्राद्ध में उनके सुपुत्र ने जो कार्य किया, अच्छा किया है। उससे मुझे संतोष है। श्रीकान्त बाबू गुरुभक्त, सत्संग-सेवी और बहुत ईमानदार आदमी थे। इन्होंने गुरु और सत्संग की अच्छी सेवा की। श्रीकान्तबाबू अपने जीवन को बहुत-से उलझनों से छुड़ाते हुए सत्संग, भजन और गुरु-सेवा में लगाते रहे। इन्होंने अपने पुत्रों को शिक्षित किया, धनोपार्जन कर दिया तथा इस शरीर और संसार को छोड़कर चले गए। हमलोग भी इसी तरह शरीर-संसार को छोड़कर चले जाएँगे। इस उपलक्ष्य में जो लोग यहाँ आए हैं, उनको यह उपदेश लेकर जाना चाहिए।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत ग्राम नवाबगंज, कटिहार में सुप्रतिष्ठित सज्जन बाबू श्रीकान्त सिंहजी की श्राद्धक्रिया में दिनांक 13. 1. 1968 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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284. सुख पाने का साधन : ईश्वर-भक्ति
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 जिसको जो चाहिए, यदि उसको वह पदार्थ दिया जाए तो वह सुखी रहेगा। अथवा वह सुखी रहता है, प्रसन्न रहता है। आपलोग सोचिए कि आपको क्या चाहिए? चाहनाओं का कोई अन्त नहीं है। मैं कहता हूँ कि एक पदार्थ ऐसा है, जिसे प्राप्त कर लेने पर सब चाहनाओं का अन्त हो जाता है और सब सुख प्राप्त हो जाता है। सुख में रहना सब ही चाहते हैं। सुख में रहना यह सब लोगों की इच्छा है। इस एक चाहना के वास्ते लोग विविध प्रकार के प्रयास करते हैं। संतों ने उस सुख का मार्ग बताया है। उस सुख के मार्ग को पकड़ो तो वह सुख मालूम होने लगेगा। ऐसा सुख पाओ कि सब चाहना छूट जाए। इसके लिए संतों ने कहा है कि वह है ईश्वर की भक्ति। ईश्वर-भक्ति के वास्ते ठीक-ठीक यत्न यह है कि अपने अन्तर के मार्ग पर चलना। मैं आपको कहता हूँ कि अन्दर के मार्ग पर चलेंगे, तो सुख पायेंगे।
 जब आप सोने लग जाते हैं, तो पहले तन्द्रा होती है। तन्द्रा में आप बाहर से विस्मृत होने लग जाते हैं। इसमें अपने ही आप यानी स्वाभाविक तरह से हाथ-पैर कमजोर होने लग जाते हैं। उस समय किसी को दुःख मालूम होता है? इसलिए कि उस समय अन्दर में गति होती है। उस काल में किसी को दुःख मालूम नहीं होता। यदि दुःख होता तो कोई सो नहीं सकते। यह सबको अपने आप मालूम होता है। जैसे भूखे को खाने के सुख को समझाने की जरूरत नहीं होती। जो खाता है, उसके सुख का अनुभव वह स्वयं करता है। उसी तरह अपने अन्दर की ओर होते जाओ, विचित्र चैन मालूम होगा। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द आदि के भोगों में वह सुख नहीं मिल सकता। इन इन्द्रियगम्य सुखों से विशेष अन्दर का एक विलक्षण सुख मालूम होता है, जो सुख प्राप्त करना सबको सुलभ है, लेकिन अफसोस है कि लोग इस पर ध्यान नहीं देते। तन्द्रा में ऊपर नहीं उठा जाता है। तन्द्रा से स्वप्न में नीचे जाना होता है। स्वप्न से गहरी नींद में उससे भी नीचे जाता है। इसमें अवस्था बदलती है। अन्दर चलने की बात यहीं तक नहीं है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से ऊपर चलने की भी बात है। जागने की अवस्था में ही एक ऐसी क्रिया करो, जिससे मन का सिमटाव हो। सिमटाव के कारण मन की स्वाभाविक ही ऊर्ध्वगति होगी। ऐसी ऊर्ध्वगति होगी कि उसमें नीचे नहीं गिरने पाओगे। मन में मजबूती रहेगी। जो कोई इस गति को पाने के लिए यत्न करते हैं, वे इसका साधन करते हैं। मन को केवल एक तरफ रहना पसन्द नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यही कहा था-‘मन बड़ा चंचल है, लेकिन अभ्यास और वैराग्य से वश होता है।’ मन की सम्हाल करते रहो। जहाँ-जहाँ मन भागे, उसको वहाँ-वहाँ से तत्क्षण लौटा-लौटाकर अपने ध्येय में लगाओ। इसका अभ्यास बहुत करना पड़ता है। इसी को प्रत्याहार कहते हैं। प्रत्याहार में जो हार जाता है, वह शान्ति के मार्ग में नहीं जा सकता है। इसमें थको नहीं। प्रत्याहार का फल धारणा अवश्य होगी। इसको बारम्बार करो। इससे धारणा में गहराई आएगी, तो यही ध्यान होगा।
 जब मन एकाग्र होगा तो वह एक तरफ होने लगेगा और अवस्था बदलने लगेगी। एकाग्रता में अवस्था बदलती है। एकाग्रता में ख्यालों को छोड़ना होगा। बहुत-से ख्यालों को छोड़ते-छोड़ते सब ख्याल छूटते हैं। इसकी साधना ठीक से करते रहो, तो विचित्र चैन मालूम होने लगेगा। मन की एकाग्रता में शान्ति आती है। साधक अपने अन्दर में यह प्रत्यक्ष रूप में जानते हैं। जब एकाग्रता में शान्ति आने लगती है, तो सुख उपजता है। इसमें साधक को आनन्द मालूम पड़ता है। ऐसे स्थान से साधक नीचे नहीं गिरते हैं। इसी को चौथी अवस्था कहते हैं अर्थात् तुरीय अवस्था कहते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
 तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त ।
 मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप अनंत ।।
        -विनय-पत्रिका
 ईश्वर का भजन चौथी अवस्था में होने लगता है। चौथी अवस्था यानी तुरीयावस्था में मन को एकाग्र करनेवाला ही पहुँचता है। गोस्वामी तुलसी- दासजी ने विनय-पत्रिका में लिखा है-
 सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
 सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
 यह योग गम्भीर भक्ति है। साधक मन की एकाग्रता की दशा में यानी चौथी अवस्था में पहुँचकर सारे ब्रह्माण्ड को अपने अन्दर में देखता है। वह नींद में नहीं जाता है। वह संसार से गोया, सोया हुआ है। इसीलिए कि वह चौथी अवस्था में है। चौथी अवस्था से आगे बढ़ने पर यानी तुरीयाती- तावस्था में द्वैत भाव बिल्कुल मिट जाता है। उसको यह भाव नहीं रहता है कि आत्मा अनेक है। ‘अतिसय द्वैत वियोगी’ यहाँ तक है कि वह ईश्वर को पहचान लेता है। ईश्वर को जानकर वह एक- ही-एक हो जाता है। ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।’ की दशा को प्राप्त कर लेता है। इसी को संत कबीर साहब ने कहा-
    जौं जल में जल पैस न निकसै, यौं ढुरि मिला जुलाहा ।
गुरु नानक साहब ने भी कहा-
जल तरंग जिउ जलहि समाइया ।
      तिउ जोती संगि जोति मिलाइया ।।
कहु नानक भ्रम कटे किवाड़ा, बहुरि न होइअै जउला जीउ।।
 यहाँ परम सुख हैं। परमात्मा ज्ञानमय हैं, सुखमय हैं, शान्तिमय हैं। परमात्मा से एकीभाव को प्राप्त कर भक्त, साधक परम शान्ति को प्राप्त करता है। जो अविनाशी सुख सभी चाहते हैं, वह यहाँ मिलता है। इन्द्रियों के ज्ञान में यह सुख कहाँ है? सबके लिए यह सुख पाने का साधन ईश्वर-भक्ति है, अन्तर का मार्ग है। जो इस अन्तर मार्ग को जानते हैं, उनपर मैं बहुत प्रसन्न होता हूँ। यह ज्ञान सद्ग्रंथों द्वारा, गुरु-ज्ञान द्वारा और तर्क-बुद्धि से सिद्ध है। इसके लिए साधन करो अर्थात् अन्तस्साधन करो। अन्दर जाने का भेद गुरु से जानो। सत्संग करके सद्गुरु को जानो और युक्ति प्राप्त कर सिमटाव का साधन करो। सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। इसी वास्ते विन्दु ध्यान है और नाद ध्यान है। विन्दु ध्यान दृश्य में और नाद ध्यान अदृश्य में पहुँचाता है। नाद ध्यान सृष्टि के अन्त तक पहुँचा देता है। नाद ध्यान में बहुत दूर तक अनेकता, फिर ऐसी एकता कि द्वैत नहीं रहता।
 हमारे गुरु महाराज यही प्रचार करते थे और हमलोगों को भी यही सिखलाए हैं। परमात्मा अनन्त हैं, वे ज्ञान के भण्डार हैं, वे शान्तिमय हैं। जो परमात्मा तक पहुँचते हैं, वे शान्तिमय सुख को प्राप्त करते हैं। विन्दु ध्यान और नाद ध्यान करके सारे आवरणों को पार कर आदितत्त्व परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं।
 लोग समझते हैं कि यह कठिन साधना है, लेकिन गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
राज महि राज योग महि योगी ।
   तप में तपीसुर गृहस्थ महिं भोगी ।
 ध्याय ध्याय भक्तह सुख पाया ।
  नानक तिस पुरुष का किन अंत न पाया ।।
 इस भजन में करनेवाले को आनन्द मिलता है। संत कबीर साहब ने कहा है-
 भजन में होत आनंद आनंद ।
 बरसत बिसद अमी के बादर, भीजत है कोइ संत ।।
 यह मैं जो कुछ कह रहा हूँ, अपने गुरु से युक्ति प्राप्त कर जो साधन कर पाया हूँ, तो मुझको विश्वास हो गया है कि गुरुजी ने ठीक बतलाया है। मुझे बड़ा विश्वास है। अपने गुरु के उपदेश के कारण मैं बहुत दृढ़ हूँ।
 ईश्वर की भक्ति से ही शान्ति मिलती है। बाहर की भी भक्ति है। इनमें सार है मन की एकओरता। जप में मन एकओर होता है। जप मनोयोगपूर्वक होना चाहिए। संत कबीर साहब ने कहा है-
 माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं ।
 मनुवाँ तो दहु दिसि फिरै, यह जो सुमिरन नाहिं ।।
 तन थिर मन थिर वचन थिर,सुरत निरत थिर होय ।
 कह कबीर उस पलक को, कलप न पावै कोय ।।
 मानस ध्यान में भी मन की एकओरता सार वस्तु है। मोटी भक्ति से साधना आरम्भ होती है, यहीं समाप्त नहीं होती। आगे और साधना बाकी रह जाती है। वह है सूक्ष्म साधना। सूक्ष्म साधना के अंत में शरीर रहते चार फल-काम, धर्म, अर्थ और मोक्ष की प्राप्ति होती है। ईश्वर को प्राप्त करके मोक्ष दशा को प्राप्त करते हैं।
 मन की एकाग्रता होती है तो समझिए कि ठीक पूजा होती है। जप और ध्यान में मन की एकाग्रता आवश्यक है। विन्दु ध्यान करने पर शब्द ग्रहण होता है और उस शब्द की विविधता भी मिट जाती है एक सारशब्द की प्राप्ति में। यह सीधा और सरल मार्ग है। इस साधना से वहाँ पहुँच होती है, जिसके लिए संत कबीर साहब ने कहा है-
 कहौं उस देश की बतियाँ,जहाँ नहिं होत दिन रतियाँ ।
 नहिं रवि चन्द्र औ तारा, नहीं उजियार अंधियारा ।।
 नहीं तहँ पवन औ पानी, गये वहि देश जिन जानी।
 नहीं तहँ धरनि अकाशा, करै कोई संत तहँ वासा ।।
 उहाँ गम काल की नाहीं, तहाँ नहिं धूप औ छाहीं ।।
 न जोगी जोग से ध्यावै,न तपसी देह जरवावै ।
 सहज में ध्यान से पावै, सुरति का खेल जेहि आवै ।।
 सोहंगम नाद नहिं भाई, न बाजै शंख शहनाई ।
 निहच्छर जाप तहँ जापै, उठत धुन सुन्न से आपै ।।
 मन्दिर में दीप बहु बारी, नयन बिनु भई अंधियारी ।
 कबीरा देश है न्यारा, लखै कोइ राम का प्यारा ।।
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यह प्रवचन बेगुसराय जिलान्तर्गत मक्खाचक (बखरी) में दिनांक 7. 3. 1968 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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285. जड़-माया की पट्टी खोलने के लिए दृष्टियोग है
प्यारे लोगो!
 आपलोगों ने अभी सुना ही है-
अस कछु समुझि परत रघुराया ।
बिनु तव कृपा दयाल दास हित, मोह न छूटइ माया ।।
वाक्य ज्ञान अत्यन्त निपुन, भव पार न पावइ कोई ।
निसि गृह मध्य दीप की बातन्हि, तम निवृत्त नहिं होई ।।
जैसे कोउ एक दीन दुखित अति,असन बिना दुख पावै ।
चित्र कल्पतरु कामधेनु गृह, लिखे न विपति नसावै ।।
षट्रस बहु प्रकार व्यंजन कोउ, दिन अरु रैन बखानै ।
बिनु बोले संतोष जनित सुख, खाइ सोई पै जानै ।।
जब लगि नहिं निज हृदि प्रकास,अरु विषय आस मन माहीं ।
तुलसिदास तब लगि जग जोनि,भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं ।।
    -गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज
 यह बहुत अच्छा पद है। इस पद में गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने वर्णन किया है कि वाक्य- ज्ञान किसी को कितना भी अधिक है, उससे वह संसार से पार नहीं हो सकता। जैसे अंधेरे घर में यदि कोई दीपों की चर्चा करता रहे, तो घर में प्रकाश नहीं हो सकता। कोई बहुत दीन-दुःखी है, उसके सामने कल्पवृक्ष और कामधेनु के चित्र रख दे, तो उनसे दीन-दुःखी व्यक्ति की इच्छा की पूर्ति नहीं होती। उसी तरह जबतक अपने अन्दर में प्रकाश नहीं होगा, तबतक विषयों की इच्छा मन से नहीं जाएगी और संसार में डूबते रहेगा। उसको सपने में भी सुख नहीं होगा। इसलिए अपने अन्दर प्रकाश चाहिए। गोस्वामीजी महाराज ने बड़ा अच्छा कहा है-
सद्गुरु वैद वचन विस्वासा । संयम यह न विषय कै आसा।।
 विषयों के सुख से कोई सुखी नहीं होता है। हमलोग यही ज्ञान गोस्वामी तुलसीदासजी के इस पद्य से पाते हैं। केवल वाचक-ज्ञान से हमारा कल्याण नहीं होगा। इसके लिए जो साधन है, सो करना चाहिए। अपने अन्दर में प्रकाश किस साधन से होगा?
 दृंष्ट से लोग देखते हैं। दृष्टि को जोड़ने की क्रिया को दृष्टियोग कहते हैं। इसी को शाम्भवी मुद्रा या वैष्णवी मुद्रा भी कहते हैं। दृष्टि को अपने अन्दर इस तरह कौशलपूर्वक रखना चाहिए, जिससे आप-ही-आप प्रकाश हो जाए। कहाँ दृंष्ट रखें, इसका कौशल जानना चाहिए। दृष्टि को कौशल से रखेंगे, प्रकाश होगा।
 ईश्वर सर्वव्यापी हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस में कहा है-‘कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं।’ तमाम ईश्वर व्यापक है। वे सबमें रहनेवाले हैं। वे सबको अपने अन्दर में रखते हैं। वे बहुत चमत्कारपूर्ण हैं। उनका दर्शन चेतन आत्मा को होता है। आत्म-प्रकाश से ही आत्मा और परमात्मा की प्रत्यक्षता होती है। आत्म-प्रकाश कोई भौतिक प्रकाश नहीं है। जिसे आत्म-प्रकाश कहते हैं, वह दिव्य ज्योति से भी श्रेष्ठ है। सर्वव्यापी परमात्मा का प्रकाश भी सर्वव्यापी है। गुरु नानक साहब ने कहा है-
     घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ।
     बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।।
 सब शरीरों में ईश्वर व्यापक हैं। इनका प्रकाश भी सबमें है। फिर ईश्वर का दर्शन क्यों नहीं होता है? आत्म-दृष्टि प्राप्त नहीं है, इसीलिए ईश्वर का दर्शन नहीं होता है। आत्म-दृष्टि कहीं खो गयी है, सो नहीं। वह सबके साथ मौजूद है। जड़-माया की पट्टी आत्मा पर लगी हुई है, इसी कारण से आत्म-प्रकाश को कोई नहीं देख सकता है। इसी जड़ माया की पट्टी को खोलने के लिए संतों ने बताया है। अन्दर का प्रकाश मालूम हो तो पट्टी खुले। पट्टी खोलने के लिए ही दृष्टियोग है। इसीलिए गुरु नानक साहब ने कहा है-
    बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।।
 जो निडर होकर ध्यान करता है, वह पट्टी को खोलता है। वही देखता है कि घट-घट में परमात्मा की ज्योति समायी हुई है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी कहा कि जबतक अपने अन्दर में प्रकाश नहीं होगा, तबतक संसार के बन्धन से कोई मुक्त नहीं होगा। इसलिए उन्होंने बताया कि केवल वाचक-ज्ञानी मत बनो। दिव्य ज्योति के दर्शन के लिए ध्यान करो। साधना के अन्त में आत्मज्योति का दर्शन होता है। तब ईश्वर छिपे नहीं रहते हैं। यह मनगढ़न्त बात नहीं है। इसके लिए ज्ञान और योग-दोनों की आवश्यकता है। ज्ञान की प्राप्ति योग के बिना नहीं हो सकती। और ज्ञान के बिना योग में भी सफलता नहीं मिल सकती। ज्ञान और योग दोनों की साधना जो करेंगे, उन्हीं को सफलता मिलेगी। ध्यानयोग का उपदेश भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में किया है। भगवान बुद्ध का ध्यान भी प्रसिद्ध है। ध्यान के द्वारा ही उन्होंने बुद्धत्व प्राप्त किया था।
 ज्ञान कहते हैं जानने को और ध्यान कहते हैं मन की एकओरता को। आप मन नहीं हैं, आप मन के संग हो गए हैं। पाँच कमेन्द्रियाँ हैं-मुँह, हाथ, पैर, गुदा और लिंग और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं-आँख, कान, नाक, जिह्ना और चमड़ा। चार अंदर की इन्द्रियाँ हैं। मन का काम है संकल्प-विकल्प करना, बुद्धि का काम है विचारना। यह मैं हूँ-यह ज्ञान अहंकार में होता है। जबतक कुछ कम्पन नहीं हो, तबतक कुछ हो नहीं सकता है। कम्पन स्वरूप चित्त है, वह सबको डोलाता है, तब मन-बुद्धि आदि काम करते हैं। इन सभी इन्द्रियों से छूटने के लिए ध्यान है। ध्यान स्थूल भी है, सूक्ष्म भी। मानस जप करने के बाद जो मानस ध्यान है, वह स्थूल ध्यान है। दृष्टियोग और शब्द योग सूक्ष्म ध्यान है।
 सत्संग के द्वारा ज्ञान का अभ्यास होता है, यह अवश्य होना चाहिए। पढ़े-अनपढ़े सबको सत्संग चाहिए। और अन्तर में प्रकाश पाने के लिए ध्यान- योग अवश्य चाहिए। इसी में भक्ति निहित है। ध्यान करनेवाले ही सर्वव्यापी ईश्वर को प्राप्त करते हैं। सर्वव्यापी ईश्वर सबको भरकर और सबसे परे कितने हैं, अन्दाजा नहीं। वे सबसे पूर्व के हैं। वे कभी ससीम नहीं हो सकते। सबसे पूर्व का वही होगा, जो अनादि-अनन्त होगा। वही परम सनातन, परम पुरातन होगा। वही अनादि-अनन्त तत्त्व परमात्मा है। उनके स्वरूप का दर्शन माया के कारण नहीं होता। परमात्मा अनन्त हैं, उनकी शक्ति भी अनन्त है। उनसे बढ़कर कौन हो सकता है?
 उनको पाने के लिए ज्ञान और योग, दोनों चाहिए। ईश्वर को जानने के लिए ज्ञान है और ध्यान करने से मायिक आवरण एक-एक करके छूटते हैं। सब आवरणों के छूटने पर एक ही ईश्वर रह जाते हैं। सत्संग एकाग्र मन से करें, यह भी योग है। मन लगाकर जप करें, यह जपयोग है। जो शाम्भवी मुद्रा वा दृष्टियोग करता है, वह सूक्ष्म में प्रवेश करता है। शब्द-साधना से आवरणों को पार कर ईश्वर-स्वरूप का दर्शन करता है। ज्ञान और योग के अभ्यास से ही यह काम होगा। अन्दर में चलनेवाले को सूक्ष्म प्रकाश प्राप्त होता है, फिर ध्यान की पूर्णता में आत्म-प्रकाश भी प्राप्त होता है। इसके लिए प्रेमपूर्ण भक्ति चाहिए। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है-
जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू । जहँ नहिं राम प्रेम परधानू ।।
 ईश्वर-स्वरूप और आत्म-स्वरूप जानने के लिए सत्संग करो। और प्रत्यक्ष प्राप्त करने के लिए योगाभ्यास करो। योग से बहुत लोग घबड़ाते हैं। संतों के ग्रंथों में ध्यान की बहुत महिमा है। श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में भी ध्यान योग का बहुत महत्त्व है। सुरत लगाने का भेद जानो, तो सहज ध्यान है। संत कबीर साहब ने कहा-
    न योगी योग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै ।
 सहज में ध्यान से पावै, सुरति का खेल जेहि आवै।।
 यह साधना सबके लिए आसान है। धनी- गरीब, ऊँचे दर्जे के, नीचे दर्जे के-सभी लोग कर सकते हैं। यह डरावनी चीज नहीं है। सच्चे गुरु से इसकी युक्ति जाननी चाहिए। सुरत कहाँ लगानी है, इसका यत्न गुरु बताते हैं। बतलाने का काम तो थोड़े समय में हो जाता है, लेकिन करने के लिए बहुत समय चाहिए।
 यह मन जब से है, तब से चंचल है। लोगों के अनेक जन्म हो चुके हैं, लेकिन मन नहीं बदला है। उसको थोड़े समय में काबू करके रखना वा उसका संग छोड़ देना हठात् संभव नहीं है। मन के सिमटाव के अभ्यास करते रहने से वह अवश्य वश में आता है। ध्यान में जब मन लग जाता है, तब उसको अंदर का चैन मिलता है, तब संसार की किसी चीज में आसक्ति नहीं रहती है। इसलिए कबीर साहब ने कहा-‘भजन में होत आनन्द आनन्द।’ इसके लिए सत्संग और ध्यान अवश्य चाहिए। केवल ज्ञान से प्रत्यक्षता नहीं होती। प्रत्यक्षता के लिए ध्यान चाहिए। एक आदमी है, जो भूगोल पढ़कर भूमण्डल की बात जानता है और दूसरा आदमी है, जिसने भूमण्डल पर घूमकर जाना है। दोनों की जानकारी में बहुत अन्तर है। कबीर साहब ऐसे ही महापुरुष थे। वे कहते हैं-
  मैं कहता आँखिन की देखी, तू कहता कागद की लेखी।।
 बहुत किताबों को पढ़कर संशय में रह सकता है। जिसने प्रत्यक्ष देखा है, उसको संशय नहीं होता है। इसी के लिए साधन-भजन करना चाहिए।
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यह प्रवचन बेगुसराय जिलान्तर्गत मक्खाचक (बखरी) में दिनांक 8. 3. 1968 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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286. ईश्वर तक जाने का रास्ता कहाँ है?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 इस सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। मनुष्य जैसा कल्याण चाहता है, वैसा कल्याण केवल भोग्य पदार्थों के भोग में नहीं है। यह सबको प्रत्यक्ष है। भोग्य पदार्थ कितने भी एकत्र हो जाएँ, फिर भी संतुष्टि नहीं होती। इस लोक में यही हालत है। परलोक या स्वर्गादि की बातों को जानने पर यही ज्ञात होता है कि वहाँ भी यही बात है। इससे बढ़कर क्या है? क्या लेना है? संत लोग कहते हैं कि इससे बढ़कर परम कल्याण है, वही प्राप्त करना है। लेकिन यह भौतिक पदार्थों में नहीं प्राप्त होगा। परमार्थ क्या है? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है-
राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अविगत अलख अनादि अनूपा ।।
सकल विकार रहित गत भेदा। कहि नित निरूपहिं वेदा।।
 परमार्थ को ग्रहण करते हैं, उन्हीं का परम कल्याण होता है। इसके अलावा दूसरा उपाय देखने में नहीं आता। इन्द्रियों से विषयों को ग्रहण करते हैं। आँख से रूप को देखते हैं, कान से शब्द सुनते हैं, नासिका से गन्ध लेते हैं, त्वचा से स्पर्श करते हैं और जिह्ना से रस का स्वाद लेते हैं। इन इन्द्रियों के ज्ञान से परमार्थ ज्ञान बाहर है। परमार्थ अर्थात् परम प्रभु परमात्मा स्वरूपतः अपार हैं। जिसका आदि-अन्त मालूम नहीं पड़े, वह अपार है। संत सुन्दरदासजी ने कहा है-
व्योम को व्योम अनन्त अखण्डित आदि न अन्त सुमध्य कहाँ है।
 को परमान करै परिपूरन द्वैत अद्वैत कछू न जहाँ है।।
 परमात्मा अविगत यानी सर्वव्यापी हैं। उनका वर्णन करने में सब तरह से ‘न इति’ कहने योग्य है। जो सान्त नहीं होता, वह परमार्थ तत्त्व है। इस परमार्थ तत्त्व या परमात्मा की प्राप्ति से पूर्णरूपेण कल्याण होता है। कल्याण इस तरह का कि कुछ पाने को बाकी नहीं रहे अर्थात् इच्छा की ही समाप्ति हो जाती है। इच्छा के रहते किसी का कल्याण नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा है- ‘काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ।’
इसलिए उन्होंने कहा-राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा।
 ईश्वर-भक्ति से ही कामना का अन्त होता है। ईश्वर की भक्ति से ही परम कल्याण होता है। ईश्वर की भक्ति के लिए ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए। परमात्मा को पानेवाला जीवात्मा है, उसका भी ज्ञान होना चाहिए। परम कल्याण का चाहनेवाला जीवात्मा है। जो शरीर इन्द्रियों से परे है, उसी का नाम जीवात्मा है। चेतन आत्मा को शरीर का संग हो गया है। सब शरीरों से छूटकर अपने तईं यानी अपने स्वरूप को जानना चाहिए। जीवात्मा सर्वेश्वर का अभिन्न अंश है।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।
 यह चौपाई लिखकर गोस्वामी तुलसीदासजी ने सर्वसाधारण को जना दिया है।
 शरीर कभी-न-कभी छूट जाएगा। कभी न कभी शरीर छूटेगा अवश्य, तो रह क्या जाएगा? जीवात्मा रह जाएगा। जीवात्मा पर स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण-ये जड़ के चार शरीर लगे हैं। चेतन आत्मा पर से इन चारों को हटा देने से तब जो रह जाता है, वह है जीवात्मा। जबतक ये चारो शरीर नहीं छूटते, तबतक कल्याण नहीं। संसार में क्या, परलोक में भी कल्याण नहीं। ब्रह्मा के धाम में भी कल्याण नहीं, वहाँ भी शापाशापी चलती है। आपलोग गर्ग-संहिता, महाभारत, पद्म-पुराण पढ़कर देख सकते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में कहा है-
नारद भव विरंचि सनकादी। जो मुनि नायक आतमवादी।।
मोह न अन्ध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही।।
तृष्णा केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा।।
 ज्ञानी तापस सूर कवि, कोविद गुन आगार ।
 केहि कै लोभ विडम्बना, कीन्ह न एहि संसार ।।
गुण कृत्य सन्यपात नहिं केही। कोउ न मान मद तजेउ निबेही।।
चिंता साँपिनी काहि न खाया। को जग जाहि न व्यापी माया।।
कीट मनोरथ दारु शरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा।।
 जहाँ-जहाँ ये लोग रहते हैं, वहाँ भी कल्याण का स्थान नहीं। नारद का मोह नहीं छूटा। जय- विजय को बैकुण्ठ में शाप ही मिला। कहीं भी कल्याण का स्थान नहीं है। जड़ के सब शरीरों को छोड़कर जो बच जाता है, उसी को कहते है, जीवात्मा वा चेतन आत्मा। शरीर होने का कारण ही मिट जाए, तब परम कल्याण होगा।
 ईश्वर का दर्शन हो। दर्शन के लिए जो चलता है, उसके सब शरीर छूटते जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान दिया है। पाँच स्थूल तत्त्व (मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), पाँच सूक्ष्म तत्त्व (रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द), अहंकार, बुद्धि, प्रकृति, दशेन्द्रियाँ (हाथ, पैर, मुँह, गुदा और लिंग; ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ और आँख, कान, नाक, जिह्ना और त्वचा; ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ), मन चैतन्य, संघात (कहे गए का संघरूप), धृति (धारण करने की शक्ति) और इनके विकार- इच्छा, द्वेष, सुख और दुःख-इन इकतीस तत्त्वों के समूह को क्षेत्र कहते हैं। इस क्षेत्र को छोड़कर जो बचता है, उसी को कहते हैं। क्षेत्रज्ञ वा चेतन आत्मा। इस ज्ञान को लोग नहीं जानते हैं। आत्मतत्त्व विदित नहीं होने पर सर्वज्ञता नहीं आती। उसमे अज्ञानता बनी रहती है। इस अज्ञानता को दूर करने के लिए ईश्वर की भक्ति है। भक्ति के साथ ज्ञान नहीं है, यह कहना युक्तिसंगत नहीं है। भक्ति के साथ योग नहीं है, यह कहना भी युक्तिसंगत नहीं है। योग से परमात्मा को पाने का काम होता है। अगर ज्ञान और योग को छोड़ दें तो मोटी भक्ति में मोटी इन्द्रियों के संग रहने के कारण सुख-दुःख का भोग भोगता रहेगा। बाहर में कहीं भी रहो, पहाड़ के शिखर पर रहो, कन्दरा में रहो, जहाँ कहीं भी रहो, अपने अन्दर ईश्वर पाने की कोशिश करते रहो। ईश्वर का दर्शन इन्द्रियों को नहीं होगा। इन्द्रियाँ स्थूल हैं। स्थूल इन्द्रियों से सूक्ष्म का ग्रहण नहीं होता। ईश्वर की उपमा आकाशवत् सूक्ष्म कहने से भी ठीक नहीं होती। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामायण में लिखा है-
राम काम सत कोटि सुभग तन।दुर्गा कोटि अमित अरिमर्दन।।
सक्र कोटि सत सरिस विलासा। नभ सत कोटि अमित अवकाशा।।
    मरुत कोटि सत विपुल बल, रवि सत कोटि प्रकाश ।
    ससि सत कोटि सुसतील, समन सकल भव त्रास ।।
     काल कोटि सत सरिस अति, दुस्तर दुर्ग दुरन्त ।
     धूम केतु सत कोटि सम, दुराधरष भगवन्त।।
प्रभु अगाध सत कोटि पताला। समन कोटि सत सरिस कराला ।।
तीरथ अमित कोटि सत पावन।नाम अखिल अघ पूग नसावन ।।
हिमगिरि कोटि अचल रघुवीरा।सिन्धु कोटि सत सम गंभीरा।।
कामधेनु सत कोटि समाना। सकल काम दायक भगवाना।।
सारद कोटि अमित चतुराई। विधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई।।
विष्णु कोटि सत पालन करता। रुद्र कोटि सत सम संघरता ।।
धनद कोटि सत सम धनवाना। माया कोटि प्रपंच निधाना ।।
भार धरन सत कोटि अहीसा। निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा ।।
 और अन्त में कहा-
निरुपम न उपमा आन,राम समान राम निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम,रवि कहत अति लघुता लहै।।
 जिस तरह सौ करोड़ जुगनुओं की उपमा सूर्य के साथ दी जाय तो सूर्य की हीनता होगी, उसी तरह सौ करोड़ विष्णु, सौ करोड़ ब्रह्मा, सौ करोड़ शिव, सौ करोड़ दुर्गा आदि की उपमा देने से राम की हीनता होगी।
 ईश्वर सबसे सूक्ष्म हैं, इसी कारण वे सर्वव्यापक हैं। वे अनन्त हैं, आदि-अन्त-रहित हैं।ं वे सर्वव्यापकता से भी परे हैं। ऐसे परम प्रभु परमेश्वर से बढ़कर कोई नहीं हो सकते। आदि- अन्त-रहित तत्त्व एक ही हो सकता है। इन्द्रियाँ बहुत स्थूल हैं। परमात्मा सूक्ष्मातिसूक्ष्म हैं। इसलिए परमात्मा इन्द्रियों से नहीं ग्रहण हो सकते। केवल जीवात्मा ही ग्रहण कर सकता है। जो अपने स्वरूप को जानता है, वही परम प्रभु सर्वेश्वर को भी जान सकता है। इसलिए कहा जाएगा कि परमात्मा वे हैं, जो चेतन आत्मा से ग्रहण होते हैं।
 आप शरीर नहीं हैं, आप अपने शरीर को पहचानते हैं। शरीर का रूपान्तर होता है अर्थात् परिवर्तन होता है। शरीर नाशवान है। हमलोगों के यहाँ जो श्राद्ध-क्रिया की जाती है, उससे भी यह सिद्ध होता है कि शरीर छोड़नेवाला कहीं है अवश्य। इसलिए श्रद्धावश लोग श्राद्ध करते हैं। शरीर पाँच तत्त्वों से बना है।
छिति जल पावक गगन समीरा।पंच रचित अति अधम सरीरा।।
 यह रामायण में गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है। आप अपने शरीर को तो पहचानते हैं, लेकिन अपने स्वरूप को नहीं पहचानते हैं। अपने स्वरूप की पहचान कैसे होगी? जैसे अपनी आँख को आप आइने के माध्यम से, अपनी ही आँख से देखते हैं, उसी तरह अन्तस्साधन के माध्यम से अपने स्वरूप को पहचान सकेंगे। तब ईश्वर को भी पहचान सकेंगे, तभी परम कल्याण होगा। इसी के लिए साधना की जरूरत होती है। इसके लिए अपने अन्तर के मार्ग पर चलो। मार्ग या रास्ता की भी परिभाषा जाननी चाहिए। ईश्वर के पास जाने के लिए एक मार्ग हैं विविध उपासनाएँ मार्ग नहीं हैं। मार्ग वह लकीर है, जिस पर कोई चलता है। जो कोई मार्ग का छोर पकड़ता है, तो वहीं से वह अपने लक्ष्य तक पहुँचता है। ईश्वर तक जाने का रास्ता कहाँ है? मैं अपने शरीर में हूँ। शरीर के अन्दर ईश्वर भी हैं। ईश्वर दर्शन के वास्ते अपने अन्दर में चलना है। बाहर जाने की आवश्यकता नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने बड़ा अच्छा कहा है-
   एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो।
 परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं,
   बाहर फिरत विकल भय धायो।।
 ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद,
   अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
 खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल,
   परम सुगंध कहाँ ते आयो।।
 ज्यों सर विमल वारि परिपूरन,
   ऊपर कछु सेंवार तृन छायो।
 जारत हियो ताहि तजिहौं सठ,
   चाहत यहि विधि तृषा बुझायो।।
 व्यापित त्रिविध ताप तन दारुण,
   तापर दुसह दरिद्र सतायो।
 अपने धाम नाम सुरतरु तजि,
   विषय बबूर बाग मन लायो।।
 तुम्ह सम ज्ञान निधान मोहि सम,
   मूढ़ न आन पुरानन्हि गायो।
 तुलसिदास प्रभु यह विचारि जिय,
   कीजै नाथ उचित मन भायो।।
 बाहर-बाहर में विश्वास रखनेवाले पढ़ें गोस्वामी तुलसीदासजी की विनय-पत्रिका को। भक्तवर सूरदासजी ने भी कहा है-
 अपुन पौ आपुन ही में पायो।
 शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो।।
 ज्यों कुरंग नाभि कस्तूरी, ढूँढ़त फिरत भुलायो।
 फिर चेत्यो जब चेतन ह्वै करि, आपुन ही तनु छायो।।
 राज कुँआर कण्ठे मणि भूषण, भ्रम भयो कह्यो गँवायो।
 दियो बताइ और सत जन तब, तनु को पाप नशायो।।
 सपने माहिं नारि को भ्रम भयो, बालक कहुँ हिरायो।
 जागि लख्यो ज्यां को त्यों ही है, ना कहूँ गयो न आयो।।
 सूरदास समुझै की यह गति, मन ही मन मुसुकायो।
 कहि न जाय या सुख की महिमा, ज्यों गूँगो गुर खायो।।
      -सूरदासजी महाराज
 बात यह है कि मोटी-मोटी बातों की ओर सब कोई जाते हैं, लेकिन बारीकी की ओर नहीं जाते हैं। जितने संत हुए हैं, सभी ने अपने अन्तर की ओर चलकर परम प्रभु परमात्मा या मोक्ष पद को प्राप्त किया है।
 इस शरीर में हमलोग नित्य प्रति जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में जाते आते हैं। इन तीन अवस्थाओं से ऊपर चौथी अवस्था है, जिसे तुरीय कहते हैं। ऐसी भक्ति करो कि तुरीय में जाओ और उसके भी परे तुरीयातीतावस्था तक पहुँचो। यहाँ तक पहुँचने के मार्ग का आरम्भ होगा, नेत्र से। यहाँ यानी नेत्र से जो छोर पकड़ेगा, उसको पकड़ने के अनेक रास्ते नहीं।
 मोटी उपासना से एकाग्रता की शक्ति बढ़ती है। मोटी उपासना को अलग-अलग रास्ता मानना गलत बात है। अन्तर मार्ग के दरवाजे तक पहुँचने के लिए ही बाहरी उपासना की आवश्यकता है। संत कबीर साहब ने कहा है-
 भक्ति का मारग झीना रे ।।
 नहिं अचाह नहिं चाहना चरनन लौलीना रे ।।
 साधुन के सत्संग में रहे निसिदिन भीना रे ।।
 सब्द में सुर्त ऐसे बसे जैसे जल मीना रे ।।
 मान मनी को यौं तजे जस तेली पीना रे ।।
 दया छिमा संतोष गहि रहे अति आधीना रे ।।
 परमारथ में देत सिर कछु विलम्ब न कीना रे ।।
 कहै कबीर मत भक्ति का परगट कह दीना रे ।।
इसी को गुरु नानकदेवजी महाराज ने भी कहा-
 भगता की चाल निराली ।
 चाल निराली भगताह केरी विखम मारगि चलणा।।
 लबु लोभ अहंकारु तजि त्रिसना बहुतु नाहीं बोलणा।।
 ख्ांनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा।।
 गुर परसादी जिनि आपु तजिया हरि वासना समाणी।।
 कहै नानक चाल भगताह केरी जुगहु जुग निराली।।
उपनिषत्कार ने भी कहा-
उतिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्नि बोधत ।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।
 (अरे अविद्याग्रस्त लोगो!) उठो, (अज्ञान निद्रा से) जागो और श्रेष्ठ पुरुषों के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करो। जिस प्रकार क्षुरे की धार तीक्ष्ण और दुस्तर होती है, तत्त्वज्ञानी लोग उस मार्ग को वैसा ही दुर्गम बतलाते हैं।
 जैसे भोजन को पेट मे पहुँचाने के लिए एक ही रास्ता है, मुँह, कान और नाक नहीं; उसी तरह ईश्वर तक जाने का एक ही रास्ता है। उस रास्ते को जानिए। इसी को जनाने के लिए यह सत्संग होता है। युक्ति जानकर भजन करें और भगवन्त तक पहुँचें। ईश्वर-स्वरूप के सम्बन्ध में गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है-
सोइ सच्चिदानंद घन रामा। अज विज्ञान रूप बल धामा।।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सब दरसी अनवद्य अजीता।।
 निर्मल निराकार निर्मोहा ।नित्य निरंजन सुख सन्दोहा।।
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाही ं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।
 यहाँ आकर रास्ता समाप्त हो जाता है। यहाँ तक पहुँचने के लिए जड़ के चारो शरीरों को ध्यानयोग द्वारा छोड़ना पड़ता है। इस ज्ञान को सत्संग द्वारा अच्छी तरह समझिए। यह ज्ञान आपको जन्म- जन्म पीछा करके मुक्ति दिलाकर छोड़ेगा।
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यह प्रवचन बेगुसराय जिलान्तर्गत मक्खाचक (बखरी) में दिनांक 8. 3. 1968 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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287. सभी धर्मों के लोगों के लिए उपासना
प्यारी धर्मानुरागिनी जनता!
 आपलोग अपने-अपने घर में सुख-शान्ति से रहना चाहते हैं, अपने-अपने समाज में सुख-शान्ति से रहना चाहते हैं। इसी तरह अपने देश में भी सुख-शान्ति से रहना चाहिए। संसार के सभी लोगों को मेल से रहना चाहिए, यही उत्तम बात है।
 वेद का उपदेश है कि ‘आपस में साँच-साँच बातें बोलो। आपस में सभी कोई मेल मिलाकर एक मेल से बोलो। सभी लोग एक मेल होकर उपासना करो।’ वेद का यह उपदेश कितना अच्छा है, सभी लोग सोच-विचार सकते हैं। आपस में सत्य-सत्य बात बोलें, तो कितना मेल रहेगा। बिल्कुल दुष्टकर्म दूर हो जाएगा। सत्य व्यवहार के कारण अपने घर में लोग मेल से रह सकते हैं। इसी तरह सत्य व्यवहार के कारण समाज में एक मेल से रह सकते हैं। इसी तरह देश में भी। जिस तरह गाँव में सामाजिक सम्बन्ध में रहते हैं, उसी तरह देश में भी सम्बन्ध होना चाहिए। यही संबंध टूटने के कारण देश गुलाम होता है।
 पहले अपना देश छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था। लोग अलग-अलग प्रदेश बनाकर रहते थे। दिनया के बहुत भागों (देशों) को लोग नहीं जानते थे। एक देश से दूसरे देश जाने का पर्याप्त साधन नहीं था। अपने देश में तो ऐसा कायदा बन गया था कि दूसरे देश की कोई यात्रा नहीं कर सकते थे। समुद्र-यात्रा करने से लोग डरते थे। समुद्र-यात्रा करनेवाले से यहाँ के लोग द्वेष करते थे। इसके चलते अपने देश की बहुत हानि हुई।
इस हानि को दूर करें। एक देश को दूसरे देश से संबंध रखने में हानि नहीं, बहुत लाभ होता है। दूर-दूर के देशों से संबंध रख सकें, यह उत्तम बात है।
 ईसा मसीह हमारे देश से बहुत दूर में हुए। उनके धर्म का प्रचार यूरोप, अमेरिका आदि देशों में हुआ। ईसा मसीह को गुजरे अधिक वर्ष हो गए। फिर भी उनके धर्म का प्रचार सारे संसार में हुआ। इनके अनुयायी सब एक सूत्र में उनके धर्म के कारण बँध गए। इसी तरह इस्लाम धर्म का प्रचार हुआ। पढ़े-लिखे लोग जानते हैं। भगवान बुद्ध अपने देश में हुए। उनके धर्म का भी प्रचार बहुत दूर देशों में हुआ। उनके अनुयायी भी एक धर्म के सूत्र में बँध गए। वैदिक धर्म का प्रचार बहुत दूर देशों में बहुत कम है। बौद्धकाल में भी लोग एक सूत्र में बँधे थे। एक सूत्र में बाँधने के लिए धर्म ही एक मात्र महत्त्वपूर्ण साधन है। वेद में सारे संसार के लिए इसका उपदेश है। सभी लोगों को अपने धर्म में बँध जाना चाहिए।
 किस तरह की उपासना हो, यह ज्ञान धर्म के द्वारा लोगों को मिलता है। सभी धर्मों के लोगों के लिए उपासना है। अपने देश, अपने प्रान्त के लोग इस पर गौर करें। सब मिलकर ईश-उपासना करें, यह बहुत अच्छी बात है। संतों ने इसके लिए कोशिश की। गुरु नानकदेव, संत कबीर साहब आदि संतों ने इसके लिए बहुत कोशिश की। इनके बाद के लोगों ने भी कोशिश की। संतों ने यह ज्ञान दिया, जो सब धर्मों के लोगों को मानने में कोई उजुर नहीं हो।
 संतों ने ईश्वर-संबंधी जो ज्ञान दिया, उसमें किसी देश वा काल को स्थान नहीं दिया है। ईश्वर बिना देश-काल के हैं। वे किसी पर अवलम्बित नहीं हैं। वे बिना आधार के हैं, वे सर्वाधार हैं। सब धर्मों में कहा गया है कि ईश्वर सर्वव्यापी हैं, देश-कालातीत हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं- ‘कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ।’
संत कबीर साहब कहते हैं-
 श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
 सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
 चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
 चून चगून वजूद न मानु तैं सुभा नमूना ऐना ।।
 परम प्रभु परमेश्वर कहाँ से कहाँ तक हैं, ठिकाना नहीं।
  है सबमें सबही तें न्यारा । सबके निकट दूर सबही तें ।।
 परमात्मा सबको भरते हुए सबसे बाहर कहाँ तक है, इसका कोई ठिकाना नहीं। स्वरूपतः ईश्वर- परमात्मा ऐसे हैं। ईश्वर के लिए कोई मकान नहीं। वे सारे प्रकृति मण्डल में व्यापक हैं और उससे परे भी हैं, इसको कौन इन्कार कर सकते हैं। हम उन्हीं एक ईश्वर को माननेवाले हैं। ईश्वर अत्यन्त व्यापक होने के कारण जिनमें व्यापक है, उन सबसे अधिक सूक्ष्म है। वे किसी स्थूल तत्त्व से ग्रहण हो सकें, कभी संभव नहीं है। किसी इन्द्रिय से ग्रहण होना सर्वथा असंभव है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई।।
 ईश्वर-स्वरूप का वर्णन गोस्वामी तुलसीदासजी इस प्रकार करते हैं-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 ईश्वर इन्द्रियों के ग्रहण से बाहर हैं। इस विचार में सब देशों के, सब धर्मों के लोग विश्वास करेंगे। जो नहीं सुने हैं, वे सुनेंगे तो उनको विश्वास करना होगा। ईश्वर किसी से पीछे का नहीं, सबसे पूर्व के हैं। जो सबसे पूर्व का होगा, उससे पूर्व का कोई पदार्थ हो, संभव नहीं। यदि कोई दूसरा पदार्थ पूर्व का होगा, तो भिन्नता होगी। भिन्नता दोनों के आदि को विदित करेगी। जिसका आदि है, उसका कहीं-न-कहीं अन्त अवश्य होगा। दोनों आदि-अन्त-सहित हो जायेंगे। दोनों के समाप्त होने के बाद अनादि-अनन्त तत्त्व को मानना ही पड़ेगा। अनादि-अनन्त पदार्थ ही सबसे पूर्व का होगा। अनादि-अनन्त के पहले का कुछ नहीं हो सकता। सादि-सान्त पदार्थ का पीछे होना बुद्धि कबूल करती है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में लिखा है-
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
संत कबीर साहब ने कहा-
  प्रथम एक सो आपै आप । निराकार निरगुन निर्जाप ।।
गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु ।
ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।
ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु काम न नारी ।
अकुल निरंजन अपर परंपरु सगली जोति तुमारी ।।
घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ।
बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।।
कठोपनिषद् में आया है-
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
 अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
 परमात्मा सबमें रहकर सबके अनुरूप होते हुए सबसे बाहर भी है। क्या उपनिषद्, क्या संतवाणी- सबका मेल है। सबसे परे जो परमात्मा हैं, वे ही परम पुरातन, परम सनातन हैं। उन ईश्वर परमात्मा में विश्वास रखनेवाले सनातन धर्म को पकड़े रहेंगे, उन परमात्मा का जो भजन-पूजन, आराधना या उपासना है, वही सनातन धर्म है।
 यह तर्क याद रखिए कि जो सबसे पहले का होगा, वह अनादि-अनन्त होगा। जो अनादि-अनन्त होगा, वही सबसे पहले का होगा और वह एक-ही- एक होगा। वही सर्वत्र होगा, सर्वव्यापक होगा। ऐसे ही तत्त्व को परमात्मा कहते हैं। इस ज्ञान को संतों की वाणी बतलाती है। इस ज्ञान को वेद मानता है।
 परमात्मा इन्द्रियों को ग्रहण होने योग्य नहीं है। उनकी उपासना कैसे हो? उपासना का आरम्भ जप से होता है। इसके बाद मानस ध्यान है। इससे आगे सूक्ष्म उपासना दृष्टियोग और सुरत-शब्द-योग है। इस उपासना में संसार का कुछ भी सहारा नहीं लेना पड़ता है। बाहरी कोई चीज नहीं लेनी है। अपने को ले चलो, जहाँ ईश्वर-परमात्मा हैं। उनको ग्रहण करने में जीवात्मा ही सक्षम है। परमात्मा जब सर्वव्यापक हैं, तो वे हमारे अन्दर भी हैं। हमारे अन्दर के सभी आवरण हट जाएँ, तो उनका दर्शन होगा। अपने स्वरूप को जो पहचानते हैं, वे स्वयं अपने तईं ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं। अपने अन्दर चलने के लिए बाह्य इन्द्रियों की जरूरत नहीं है। अपने अन्दर पहले मन चलेगा। मन से चेतन आत्मा अधिक सूक्ष्म है। चेतन आत्मा आगे चलकर मन से भिन्न हो जाती है। इसकी साधना संतों ने की है। उन्होंने कहा-साधक अपने अन्दर चलते-चलते ईश्वर तक पहुँच जाता है। अपने अन्दर चलना ईश्वर की उपासना है। अपने अन्दर चलना ध्यान के द्वारा होता है।
 अपने अन्दर चलने में बाहर का संसार छूट जाता है। जहाँ संसार नहीं, माया नहीं, वहीं ईश्वर है, परमात्मा है। जहाँ प्रकृति का, माया का अतिक्रमण हो गया, वहीं हैं परमात्मा। ध्यान करके प्रकृति मण्डल को पार करो, प्रकृति पार प्रभु को पाओगे। इस ज्ञान में सब लोग आ जायेंगे, तो सब एक सूत्र में बँध जायेंगे। जो ईश्वर को अनादि-अनन्त मानेंगे, वे किसी धर्म का खण्डन नहीं करेंगे। सब एक सूत्र में बँध जायेंगे। जो समझदार हैं, वे जानते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापी हैं।
 हमलोगों को किसी उपासक से भेद नहीं है। लेकिन उनको मालूम होना चाहिए कि केवल रूप की उपासना ही उपासना की हद नहीं है। जहाँ मन की एकाग्रता होती है, वहाँ सूक्ष्म में प्रवेश होता है। यह उपासना कैसे करें? जैसे विद्यालय में छात्रों को विद्या सिखानेवाले होते हैं, उसी तरह अध्यात्म-विद्या को भी सिखलानेवाले हैं। चाहिए कि इस विद्या को सच्चे जानकार से जानें और एक सूत्र में बँधकर आपस में मेल रखें और शान्तिपूर्वक रहें।
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यह प्रवचन बेगुसराय जिलान्तर्गत मक्खाचक (बखरी) में दिनांक 9. 3. 1968 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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288. आपस में मेल नहीं रहने से नाश
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 मैं यहाँ यों ही घूमने नहीं आया हूँ। मैं बहुत थोड़ा-सा कहूँगा। वह यह है कि आपलोग संसार में कुशल से रहें। कुशलदायक सुख के वास्ते पहले अपने वर्तमान जीवन को याद करें। वर्तमान जीवन में कुशलदायक सुख के वास्ते आपस में मेल से रहो। आपस में मेल के वास्ते अपने घर में मेल से रहो, अपने पड़ोसी से मेल से रहो, अपने समाज में मेल से रहो। अपने देश के सभी लोग मिल-जुलकर रहो, तो बड़ा सुख उपजेगा। जहाँ आपस में मेल नहीं, वहाँ कैसा परिणाम होता है, इसे जानने के लिए अपने देश में रामायण और श्रीमद्भागवत गं्रथ प्रसिद्ध है। उनका अवलोकन करके सीख ले सकते हैं।
 रावण को अपने भाई से बनाव नहीं था। उसके भाई ने समझाया, लेकिन उसको अहंकार बहुत था। उसने अपने भाई विभीषण को लातों से मारा, भरी सभा के बीच अपमान किया। विभीषण जानता था कि राम से रावण पार नहीं पावेगा। वह राम की शरण में चला गया। भाई से मेल नहीं रहने के कारण लंका राज्य का जो नतीजा हुआ, सभी जानते हैं। अपने परिवार सहित रावण मारा गया। आपस में मेल नहीं रहने के कारण बड़े-बड़े बलवान लोग नाश को प्राप्त हुए। श्रीमद्भागवत पढ़कर देखिए।
 महाभारत ग्रंथ में कौरव और पाण्डव की कथा पढ़िए। पाँचो भाई पाण्डव में बड़ा मेल था। एक सौ एक भाई कौरव थे। उनलोगों को आपस में मेल नहीं था। दुर्याधन के अन्यायपूर्ण व्यवहार के कारण आपस में मेल नहीं था। उससे उनकी बड़ी भारी हानि हुई। अपने चचेरे भाई पाण्डवों से मेल नहीं रहने के कारण अपने सभी भाइयों तथा पुत्रों के साथ मारा गया। आपस में मेल नहीं होने से ऐसा ही होता है।
 एक कहानी है। एक आदमी था। वह बहुत गरीब हो गया। उसके पास भोजन भी नहीं रहा। उसको चार पुत्र थे। चारों में मेल था। एक दिन विचार किया कि चलो जंगल। चारो पुत्रों के साथ वह गरीब आदमी जंगल चला। साथ में मूंज, लोटा और हण्डी ले ली। जब जंगल पहुँचा, तो वह एक गाछ के नीचे बैठ गया। लड़कों को कहा-साफ- सुथरा करो इस जगह को। सभी लड़कों ने साफ किया। अपने मूंज की रस्सी बनाने लगा। एक लड़के को कहा कि आग लाओ। वह लड़का तुरत आग के लिए चला गया। दूसरे लड़के को कहा कि पानी लाओ। वह तुरत पानी के लिए चला गया। तीसरे लड़के को कहा-लकड़ी काटकर लाओ। तीसरा लड़का भी पिता की आज्ञा से तुरत लकड़ी के लिए चला गया। एक लड़के को कहा, चूल्हा बनाओ। चूल्हा भी बन गया। गाछ पर एक प्रेत रहता था। प्रेत सूक्ष्म शरीर में रहता है। जबतक उसकी ममता सांसारिक वस्तुओं में और परिवारों में लगी रहती है, तबतक वह प्रेत योनि में रहता है। अपने कर्मानुसार भोग-भोगकर अन्य योनि में जाता है। प्रेत से डरना ठीक नहीं। जीवात्मा की अमरता निश्चित है। इसलिए प्र्र्रेत से डरने की बात नहीं। अपने कर्म के मुताबिक जीव हानि-लाभ उठाता है। वृक्ष पर से प्रेत ने देखा कि बूढ़े के पास खाने का कोई सामान नहीं है, खाएगा क्या? उस बूढे़ से पूछा-‘ऐ पुरुष! हण्डी में क्या पकाकर खाओगे?’ बूढ़े ने पूछा-‘तुम कौन बोलते हो, तुमको यह पूछने की क्या जरूरत है?’ प्रेत ने कहा-‘मैं प्रेत हूँ।’ बूढ़े ने कहा-‘मैं तुमको इस रस्सी से बाँधूँगा। हमलोगोेें को आपस में मेल है, इसलिए तुमको ही पकड़कर इस हण्डी में पकाऊँगा।’ प्रेत ने कहा- ‘तुम्हारे अन्दर बहुत मेल है। तुमलोग मुझे पछाड़ सकते हो। मैं तुमलोगों के मेल पर बहुत प्रसन्न हूँ। तुमको धन चाहिए। यहाँ गाछ के नीचे धन गड़ा हुआ है, तुम ले जाओ।’ वह बूढ़ा अपने पुत्रों के साथ मनचाहा धन लेकर घर वापस चला आया। यह तो मेल की बात हुई। बूढ़े के पड़ोस मेंेे एक दूसरा आदमी था। उसको भी चार पुत्र थे। उसने उस बूढ़े से पूछा कि आपको यह धन कैसे प्राप्त हुआ? बूढ़े ने जंगल का प्रेतवाला सारा वृत्तान्त कह सुनाया। वह आदमी भी अपने पुत्रों के साथ उसी जंगल में उसी वृक्ष के नजदीक पहुँचा, जहाँ पर वह प्रेत रहता था। उसने अपने बेटों को कहा- ‘लकड़ी लाओ, आग लाओ, पानी लाओ।’ बेटे ने कहा-‘आप पागल हो गए हैं, इन सब चीजों की क्या जरूरत है?’ किसी बेटे ने उसकी आज्ञा का पालन नहीं किया। प्रेत ने कहा-‘तुम जल्दी भागो, नहीं तो सबको पछाड़-पछाड़कर मार डालूँगा। तुमको आपस में मेल नहीं है।’ वह बूढ़ा भाग गया।
 यह तो दन्तकथा है। कोई प्रामाणिक नहीं है। लेकिन इसमें मेल का उपदेश है। मेल में बल है, मेल में बहुत लाभ है। भगवान श्रीकृष्ण के सामने ही आपस में मेल नहीं रहने के कारण छप्पन कोटि यदुवंशियों का नाश हो गया।
 आपस में मेल से रहने के लिए झूठाई से अलग रहो। सत्य बोलो। सत्य के बिना मेल खत्म हो जाएगा। सत्यता को ग्रहण करो तो आपस में मेल खूब रहेगा। सत्य को जो ग्रहण करते हैं, वे ईश्वर को पाते हैं।
 साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।
 जाका हिरदय साँच है, ताके हिरदय आप ।।
 इसलिए आपस में सत्य का वर्त्ताव करो। राजा बिम्बिसार को बेटे ने मरवा दिया। अजातशत्रु के समय में लिच्छवी वंश के राजा लोग राज्य करते थे। उस समय जनतंत्र का राज्य था। अजातशत्रु राज्य प्राप्त करने का लोभी था। दूसरे राजा लोग मेल से रहते थे। उनलोगों का मेल देखकर अजातशत्रु साहस नहीं कर पाता था। भगवान बुद्ध उस समय मौजूद थे। भगवान बुद्ध से जब पूछा गया तो उन्होंने कहा- ‘मैंने उन सबों को जनतंत्र राज्य करने का उपदेश दिया है। जबतक वे लोग मेल से रहेंगे, तबतक कोई उन सबों पर विजय नहीं प्राप्त कर सकेगा।’
 अजातशत्रु ने अपने मंत्री से कहा-‘उनलोगों पर कैसे विजय मिलेगी?’ मंत्री ने कहा-‘बिना मेल तोड़े, वे लोग हार नहीं सकते। यदि आप मुझे आज्ञा दें, तो मैं मेल तोड़ दूँगा।’ राजा ने कहा-‘वैसा ही करो।’ मंत्री ने कहा-‘आप एक हुक्म निकाल दीजिए कि राज्य से मंत्री को निकाल दिया।’ राजा ने वैसा ही किया। तमाम राज्य में ढोलहा पिटवा दिया कि मंत्री को राज्य से निकाल दिया है। वह मंत्री भी उस राज्य से निकल गया। घूमते-फिरते वह मंत्री लिच्छवी के पास पहुँचा। उनलोगों ने उस मंत्री का बड़ा सम्मान किया। उसका आदर होने लगा। मंत्री ने ऐसा विश्वास दिलाया कि सही माने में उसको राजा ने अपने राज्य से निकाल दिया है। मंत्री ने ऐसा विश्वास दिलाया कि लिच्छवी लोग मंत्री पर पूर्ण विश्वास करने लगे। वे लोग मंत्री की ओर से बेखबर हो गए। मंत्री अपनी कपट बुद्धि से लिच्छवियों का मेल तोड़ने में लग गया। सबको फुटा-फुटाकर उनलोगों के मेल को बिगाड़ दिया। अब राज्य का काम करने में गड़बड़ी होने लगी। जब इन लोगों में मेल नहीं रहा तो उस मंत्री ने राजा अजातशत्रु को गुप्त रूप से खबर दी और उसने लिच्छवियों पर चढ़ाई करके उसे जीत लिया। अगर लिच्छवियों में आपसी मेल रहता तो कभी भी अजातशत्रु उनलोगों पर विजय प्राप्त नहीं कर पाता। अनमेल से बहुत नुकसान होता है। यदि आपस में झूठ का व्यवहार होगा तो कभी मेल नहीं होगा। आपस में बिल्कुल सत्य का ही व्यवहार करो। एक दूसरे के साथ सदा सत्य का ही व्यवहार करो।
 अपने देश में जैसा सुख चाहिए, वैसा नहीं है। मतलब कि उपद्रवहीन स्थान में रहना सुखकर है। जहाँ चोरी होती है, डकैती होती है, एक दूसरे को कौशल से झूठ बोल-बोलकर पछाड़ते हैं, यद्यपि सरकार की ओर से सजा भी होती है, फिर भी उपद्रव नहीं जाता है। यदि आपस में मेल से रहे तो सारे उपद्रव दूर हो जायेंगे। स्वराज्य में सुन्दर राज्य होना चाहिए। देश को उपद्रवहीन राज्य बनाओ। आपस में मेल से रहने का आधार है- ‘ईश्वर की भक्ति।’ं केवल वाचक ज्ञान से काम नहीं चलेगा। ज्ञान के साथ भक्ति और योग भी चाहिए। भक्ति के लिए ज्ञान भी चाहिए और योग भी। यदि लोग ईश्वर-भक्ति में बँधते हैं तो एक धर्म में बँधते हैं।
 ईश्वर एक हैं, उनकी भक्ति करो। ईश्वर के भक्त को एक मेल में रहना चाहिए। संत कबीर साहब को लोग जानते हैं। वे काशी में रहते थे। वे वैदिक और मुसलमान को एक ही उपदेश करते थे। वे दोनों के लिए एक थे। ईरान में एक फकीर रहते थे, उनको कबीर साहब के संबंध में मालूम हुआ कि भारत में एक बहुत बड़े संत हैं। वे फकीर और कबीर साहब बूढ़े हो गए थे। फकीर साहब और कबीर साहब सूरत में एक जहाज पर मिले। दोनों ने आपस में हाथ मिलाया। दोनों एक दूसरे के हाथ पकड़े हुए रातभर बैठे रहे। मुँह से कोई बोल-चाल नहीं। जब सबेरा हुआ तो दोनों अलग- अलग हो गए। जहाज पर से उतरकर जब वापस चलने लगे तो दोनों के साथ के अनुयायियों ने पूछा कि ‘आपलोग इतना कष्ट उठाकर इतनी दूर मिलने आए और कोई बातचीत नहीं की?’ फकीर साहब ने अपने अनुयायियों तथा कबीर साहब ने अपने साथ के अनुयायियों को समझाया कि हमलोगों ने बहुत बड़ी बातचीत की। अरे! हमारी आत्मा और उनकी आत्मा एक है। इसलिए हमलोगों की आत्मा, आत्मा से बातचीत हुई।
 दोनों महात्मा दो देश में रहते थे। दोनों को आपस में ईश्वर की भक्ति ने मिलाया। साम्प्रदायिकता के भाव को ईश्वर-भक्ति महत्त्व नहीं देती है। भक्ति महत्त्व देती है ईश्वर में प्रेम करनेवाले को।
 ईश्वर की भक्ति कैसे करें? सत्य को छोड़कर ईश्वर की भक्ति नहीं होती। ईश्वर के भक्त सब- के-सब सच्चे होते हैं। ईश्वर के भक्त सतत सत्य बोलने को तत्पर रहते हैं। ईश्वर-भक्ति के बिना लोग समता नहीं प्राप्त कर सकते। सब कोई यदि ईश्वर के भक्त बनें, तो आपस में मेल हो जाएगा। सत्य पर अटल रहनेवाला ईश्वर का भक्त होता है। वेद मेेें भी आया है कि आपस में मेल से रहो, एक भाव से रहो। सब मिलकर एक ईश्वर की उपासना करो। जीवन में सुख पाने के लिए तथा परलोक में सुख से रहने के लिए सत्यता का पालन करो। ईश्वर-भक्ति के बिना सत्यता का पालन नहीं कर सकोगे।
 दूसरी बात है कि देश में खेती के बिना सब रोजगार समाप्त हो जाएगा। खेती से अन्न उपजता है। अन्न को शास्त्रों में ब्रह्म कहा है। खेती के लिए गौ-पालन करो। गौ-पालन से खाद मिलेगा। गाय का गोबर, गोंत उत्तम खाद है। माता का दूध थोड़े दिन पीते हैं। गाय का दूध जीवनभर पीते हैं। गाय के बछड़े को हल में जोतते हैं। इसलिए गौ-पालन भी करो। देश में गौ-पालन का ख्याल बहुत कम हो गया है। इसलिए खेती में तरक्की नहीं हो रही है। खेती खूब करो। खेती के लिए गौ-माता की सेवा अवश्य करो।
 अपने अन्दर अध्यात्म-ज्ञान रखो। अध्यात्म- ज्ञान के लिए ईश्वर-भक्ति करो। यह प्राचीन सिद्धान्त है, नयी बात नहीं।
 अगर कोई बहिला गाय को बेचते हैं, यह देश-हित का काम नहीं करते हैं। कम-से-कम वह गाय गोबर-गोंत तो देती है। उससे खाद तो बनेगा ही। बूढ़े गाय-बैल को मत बेचो। उसको बेचोगे तो निन्दा करेंगे। कभी-न-कभी अपना शरीर भी छूट जाएगा। मनुष्य के शरीर के हाड़-चाम किसी काम में नहीं आते, लेकिन गाय-बैल के हाड़-चाम से बहुत काम करते हैं। गाय मरते-मरते भी नफा देकर जाती है। इसलिए गाय का पालन अवश्य करो और सब कोई आपस में मेल से रहो।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिला संतमत सत्संग के वार्षिक अधिवेशन में, ग्राम-सधुवैली में दिनांक 23. 3. 1968 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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289. ईश्वर के मूल स्वरूप का दर्शन : नाद ध्यान से
प्यारे लोगो!
 संतों का ज्ञान वा मार्ग मोक्ष दिलानेवाला है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है- संत संग अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।
 कहहिं संत कवि कोविद, श्रुति पुरान सदग्रंथ ।।
 अर्थात् संतों का रास्ता मोक्ष में जाने का है और विषय चाहना का मार्ग संसार में रहने का है। ऐसा ही संत, कवि, विद्वान, वेद, पुराण आदि सद्ग्रंथ कहते हैं। सारे बन्धनों से छूट जाओ, यही मोक्ष है। शरीर का बन्धन सबको है। सबको यह पता है कि शरीर के अन्दर हैं। सभी कोई शरीर के दुःख से दुःखी और शरीर के सुख से सुखी होते हैं। शरीर का बंधन और संसार का बंधन सबको है। शरीर के बन्धन से छूट जाओ तो संसार के बन्धन से भी छूट जाओगे। ईश्वर की प्राप्ति होगी तो मोक्ष होगा। ईश्वर का आनन्द जो है, वही नित्यानन्द वा ईश्वर का सुख है। इस सुख को पाने के बाद वह कभी नहीं छूटेगा। मोक्ष में यही बात है। संत लोग यही ज्ञान देते हैं। इसी का यत्न बतलाते हैं। केवल कहने से उतना लाभ नहीं होगा। यत्न जानकर करने से होगा। ईश्वर में प्रेम करने का वा उनको पाने का यत्न करो। अन्तःप्रकाश में जाने का यत्न करो। अन्तःप्रकाश में, अन्तर्नाद में जाने का यत्न करो, जो संतों की साधना है। शब्द साधना ही नाम-भजन है। शब्द नहीं तो नाम नहीं। जो कोई शब्द को छोड़ता है, वह नाम को छोड़ता है। जिस शब्द के द्वारा जिस किसी की पहचान हो जाती है, वह शब्द उसका नाम कहलाता है। संत लोग जो नाम-भजन करने कहते हैं, वह ईश्वर का नाम है। जो शब्द ईश्वर की पहचान करावे, असल में वही ईश्वर का नाम है।
 जो पढ़े-लिखे लोग हैं, वे जानते हैं कि शब्द दो प्रकार के होते हैं-एक सार्थक और दूसरा निरर्थक। सार्थक शब्द का अर्थ होता है और निरर्थक का कोई अर्थ नहीं। वैज्ञानिकों ने केवल कान से सुनने योग्य शब्दां को ग्रहण किया है, लेकिन और ऐसा भी शब्द है, जो कान से नहीं सुना जाता, उसको कहते हैं ध्वन्यात्मक। जिस शब्द का अर्थ होता है, वह अक्षरों में लिखा जाता है, वह वर्णात्मक कहा जाता है। ध्वन्यात्मक शब्द निरर्थक है, लेकिन बेफायदे नहीं। जैसे गाने में जो लय वा ध्वनि होती है, उसका तो कोई अर्थ नहीं होता, लेकिन वह बड़े काम का है, निरर्थक नहीं अर्थात् बेफायदे नहीं। कोई बाजा बजता है, उसकी ध्वनि सुनने में प्रिय लगती है। वह ध्वनि निरर्थक है, लेकिन बहुत प्रिय मालूम होती है। इसलिए वह बेफायदे की ध्वनि नहीं है। शब्द दो प्रकार के होते हैं। जितने नाम लोग लेते हैं, वे वर्णात्मक हैं। वर्णात्मक विहीन शब्द ध्वन्यात्मक है। उसका कोई अर्थ तो नहीं, लेकिन है बड़े काम का। वह ध्वन्यात्मक शब्द ईश्वर का नाम है। ईश्वर का असली नाम ध्वन्यात्मक ही है। वर्णात्मक नाम जितने हैं, उनसे ईश्वर के गुण प्रकट होते हैं। जैसे राम कहते हैं। इसका अर्थ हुआ सर्वव्यापी। यह ईश्वर का गुण प्रकट करता है। शिव का अर्थ होता है कल्याणकारी। इससे गुण प्रकट हुआ, लेकिन ईश्वर की पहचान नहीं। यहीं पर लोग कहते हैं, प्रùादजी ने नाम लेते-लेते भगवान को प्रकट कराया। प्रùाद के यहाँ जो भगवान का प्रकट होना था, उनकी देह बिल्कुल मनुष्य-जैसी थी और मुख सिंह के जैसा। यह ईश्वर का रूप हुआ। राम, कृष्ण, देवी, देवता आदि जिनको कहते हैं, वे सब ईश्वर के रूप हैं। इन सब रूपों के मूल में कौन हैं? सबके मूल में स्वरूपतः ईश्वर हैं। जितने रूप हैं, सब सगुण हैं। जिसमें गुण हैं अर्थात् त्रयगुण- सत्त्व, रज, तम, वह सगुण है। रजोगुण उत्पादक, सत्त्वगुण पालक और तमोगुण नाशकर्ता है। जो इन तीनों गुणों को साथ में नहीं लेते हैं, वे निर्गुण हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
अगुन अखंड अलख अज जोई। भगत प्रेमवस सगुन सो होई।।
 निर्गुण-स्वरूपी ईश्वर का अभाव न कभी था, न है और न होगा। मूल में क्या हुआ? अगुण, अखण्ड, अलख, अज। ये ही भक्त के प्रेम के कारण सगुण रूप धारण करते हैं। अपने शरीर नहीं होते, शरीर को धारण करते हैं। जो शरीर के अन्दर रहता है, वह शरीर नहीं हो जाता। ठीक से विचार द्वारा निर्णय करने पर जड़ शरीर चार (स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण) प्रकार के सिद्ध होते हैं। ईश्वर इन चारो तत्त्वों से भिन्न हैं। जीव ईश्वर का अभिन्न अंश है। ईश्वर का मूल स्वरूप है अगुण। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामायण में लिखा है-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 यह अपार स्वरूप ईश्वर सब रूपों में व्यापक हैं। जितने जीवात्मा हैं, सब गुणों के साथ हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
अचर चर रूप हरि, सर्वगत सर्वदा। बसत इति वासना धूप दीजै।। -विनय-पत्रिका
 सगुण रूप बहुत हैं। सबके मूल में अगुण, अखण्ड, अलख, अज है। वह मूल एक-ही-एक है। वह निर्गुण है। वही निर्गुण जब गुणों को धारण करता है, तब सगुण कहलाता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामायण में लिखा है-
रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनव सोइ वर वारि अगाधा।।
 गंभीर हो, परन्तु मैला हो, वह ठीक नहीं और स्वच्छ हो, परन्तु अल्प हो तो भी ठीक नहीं। लेकिन कार्य-विशेष में जिसमें गंभीरता है, उससे विशेष काम चलता है। इसके संबंध में गोस्वामी तुलसीदासजी ने बड़ा अच्छा कहा है-
 हिय निर्गुन नयनन्हिं सगुन, रसना राम सुनाम।
 मनहु पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम।।
 मतलब यह कि सोने के डिब्बे में मूल्यवान रत्न है। सोना भी मूल्यवान है, लेकिन उसमें जो सुन्दर रत्न है, उसका मूल्य सोने के डिब्बे से बहुत विशेष है। इसलिए न तो निर्गुण को छोड़ना चाहिए और न सगुण को। साधना की पहली अवस्था में सगुण से ही काम चलेगा, लेकिन मूल में बिना निर्गुण से काम नहीं चलेगा। सगुण में दृश्य है, दृश्य के साथ-साथ शब्द भी है। जिस रूप को श्रीराम, श्रीकृष्ण कहा, उस रूप के साथ शब्द है। वह शब्द रूप को विदित करता है। शब्द और रूप-दोनों संग-संग हैं। सगुण-निर्गुण के सम्बन्ध में कबीर साहब ने कहा-
 सर्गुण की सेवा करो , निर्गुण का करु ज्ञान ।
 निर्गुण सर्गुण के परे, तहाँ हमारा ध्यान ।।
 उन्होंने सगुण रूप में गुरु को लिया है, इसलिए उन्होंने कहा है-
 मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
 मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।
गुरु नानक साहब ने भी कहा-
गुर की मूरति मन महि धिआनु। गुरु कै शबदि मंत्र मनु मानु ।।
गुर के चरण रिदै लै धारउ। गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ ।।
मत को भरमि भूलै संसारि। गुर बिनु कोई न उतरसि पारि ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी कहा-
बिनु गुरु भव निधि तरै न कोई। जौं विरंचि शंकर सम होई।।
 जब भगवान श्रीराम वाल्मीकिजी के आश्रम में पधारे, तो वाल्मीकि मुनि ने कहा-
तुम्हतें अधिक गुरुहिं जिय जानी।सकल भायँ सेवहिं सनमानी।।
 कोई इष्ट हों, वहाँ गुरु अवश्य हैं। गुरु के बिना काम नहीं चल सकता। ईश्वर की सगुण व निर्गुण उपासना में गुरु की बहुत आवश्यकता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने विनय-पत्रिका में लिखा है-
 श्रीहरि गुरु पद कमल भजहिं, मन तजि अभिमान ।
 जेहि सेवत पाइय हरि, सुख निधान भगवान ।।
 गुरु की सेवा से ईश्वर को पाओगे। सब महात्मा लोग गुरु की महानता को मानते हैं। संसार और संसार के सभी पदार्थों में तथा संसार से बाहर भी ईश्वर हैं। अंधकार और प्रकाश में भी ईश्वर हैं। ईश्वर ज्ञान-स्वरूप हैं। जो ईश्वर को प्राप्त कर लेते हैं, उनको सब ज्ञान आ जाता है। कबीर साहब ऐसे ही थे। खूब पढ़ते-लिखते रहिए, लेकिन ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान नहीं होगा। ईश्वर को भजते रहिए, उसमें सब ज्ञान होगा। इस जगत को सौर जगत कहते हैं, बल्कि सूर्य को ईश्वर का अवतार ही लोग मानते हैं। सूर्य नहीं तो संसार नहीं। ज्योति नहीं रहे, तो संसार का सब काम बन्द हो जाएगा। इसी तरह अगर शब्द नहीं रहे, तब भी संसार नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगा। शब्द का बड़ा महत्त्व है। शब्द नहीं रहे तो कोर्ट-कचहरी, विद्यालय सब खत्म। शब्द का इतना महत्त्च है कि यदि कहीं भयंकर युद्ध हो रहा है और सेनापति अपने शब्द में कहे कि युद्ध बन्द करो, तो तुरन्त बन्द हो जाएगा। यह शब्द की करामात हुई। शब्द सबको शासन में रखता है। शब्द में ही विधान वा कानून बनता है। ज्योति और शब्द संसार में बहुत प्रभावकारी हैं। इसलिए शब्द और ज्योति ईश्वर की अति विशेष विभूतियाँ हैं। संतों ने इसे बहुत अच्छी तरह समझाया है। जिसने अपने अन्तर में ज्योति और नाद को प्राप्त किया अर्थात् ज्योति ध्यान और नाद ध्यान किया, उन्होंने ईश्वर को प्राप्त किया। ध्वन्यात्मक शब्द, सारशब्द ईश्वर को प्राप्त करा देता है। वही ईश्वर का असली नाम है। ध्वन्यात्मक शब्द ईश्वर तक पहुँचा देता है और परिचय करा देता है। वर्णात्मक शब्द में ईश्वर की पहचान कराने का गुण नहीं है। साधना के आरम्भ में इसकी भी बड़ी आवश्यकता है। इसलिए वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक, दोनों नामों का भजन करना चाहिए।
 नाम जपत स्थिर भया, ज्ञान कथत भया लीन ।
 सुरति शब्द एकै भया, जल ही ह्वैगा मीन ।।
            -कबीर साहब
 इसलिए दोनों नामों को जानना चाहिए। नाद- विन्दु की उपासना करनी चाहिए। विन्दु उपासना में ज्योति पकड़ी जाती है और ज्योति में शब्द पकड़ा जाता है। ज्योति ग्रहण करो। ज्योति में केन्द्रीय शब्द को ग्रहण करना चाहिए।
 प्रचलित ख्याल में लोग वर्णात्मक नाम को ही विशेष महत्त्व देते हैं। उसका भी महत्त्व है अवश्य, लेकिन एक हद तक। परन्तु ध्वन्यात्मक का महत्त्व है ईश्वर प्रत्यक्ष करने तक। वर्णात्मक नाम के जप से जो रूप प्रकट होता है, वह ईश्वर का मूल स्वरूप नहीं है। ईश्वर के मूल स्वरूप का दर्शन होता है नाद ध्यान के अभ्यास में। जबतक कोई नाद ध्यान का अभ्यास नहीं करेगा, तबतक ईश्वर तक नहीं पहुँच सकता।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिला संतमत सत्संग के वार्षिक अधिवेशन में, ग्राम-सधुवैली में दिनांक 24. 3. 1968 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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290. ईश्वर समुद्र हैं और सज्जन बादल
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 संतों ने ईश्वर की भक्ति को बहुत दृढ़ता से सब लोगों के लिए दृढ़ा दिया है। उन्होंने बताया है कि ईश्वर की भक्ति से ही मनुष्य का कल्याण होगा। इसलिए ईश्वर की स्थिति में पूर्ण विश्वास करके भक्ति करो। ईश्वर की भक्ति में उनकी उपासना, स्तुति और प्रार्थना होनी चाहिए, इसको याद रखिए। स्तुति कहते हैं-यशगान करने को। प्रार्थना कहते हैं-नम्रता सहित कुछ माँगने को। ईश्वर तो सबको, जिसको जो कुछ देना चाहिए, देते हैं, फिर भी लोगों को धैर्य नहीं रहता है, तो माँगते हैं। माँगो, तो ईश्वर से माँगो। ईश्वर से वही चीज माँगो, जो ईश्वर ही दे सकते हैं और कोई नहीं। मेरी समझ से वह ईश्वर का स्वरूप ही है और कुछ नहीं। ईश्वर अपने स्वरूप को आप व्यक्त कर सकते हैं, दूसरे को अधिकार नहीं। ऐसा हो जाए, तो कुछ बाकी नहीं रहेगा।
 उपासना को आराधना भी कहते हैं। एकान्त में बैठ-बैठकर जप करो और ध्यान करो। जप विधि को जानो और ध्यान विधि को जानो। जप ध्यान करने से ईश्वर की ओर जाया जा सकेगा, पहुँचा जा सकेगा। ईश्वर की ओर जाना ईश्वर की भक्ति है। यह उपासना है, आराधना है। जिससे जो उपकृत हो, वह उपकारक का गुणगान करे। उनकी जो सेवा हो, करे; वही उचित है। ईश्वर से हम कितने उपकृत हैं, क्या कहा जाए! एक श्वास भी उनकी कृपा के बिना हम नहीं ले सकते। बिना वायुमण्डल के श्वास हम कैसे ले सकते हैं। एक श्वास से भिन्न रहकर हम ईश्वर को नहीं जान सकते। ईश्वर से बहुत उपकृत हैं, ईश्वर का गुणगान अवश्य करो। इससे ईश्वर में अनुरक्ति होती है। ईश्वर-भक्ति में रुचि बढ़ती है। इसलिए ईश्वर की स्तुति करो। ईश्वर का ज्ञान हमको मिलता है संतगण से। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
राम सिन्धु घन सज्जन धीरा । चंदन तरु हरि संत समीरा ।।
 ईश्वर समुद्र हैं और सज्जन (सत्$जन) बादल हैं। समुद्र में बहुत जल है, बादल उसी जल से बनकर तमाम संसार को सींचकर जीवन दान देते हैं। इसी तरह संतगण भी-धीर सज्जन भी ईश्वर के बनाए बनते हैं और तमाम संसार को ईश्वर का ज्ञान देकर ईश्वरमुख करके ईश्वर का भजन कराकर मोक्ष देते हैं। यह संत का उपकार है। जिनको ईश्वर की प्राप्ति होती है, उनका मोक्ष होता है। उनका सारा क्लेश दूर हो जाता है-कोई कष्ट नहीं रहता है। इसलिए संत-स्तुति भी कीजिए। ‘सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर औरु अक्षर पार में।.....’-यह ईश्वर की स्तुति है और ‘सब सन्तन्ह की बड़ि बलिहारी’-यह संत-स्तुति है
 मनष्यों को जो परमार्थ का पाठ पढ़ानेवाले, उस ओर ले जानेवाले और युक्ति बतानेवाले होते हैं, वे गुरु होते हैं। संत की तरह इनका भी उपकार होता है। संतलोग कभी-कभी दर्शन देते हैं, गुरु भी कभी-कभी दर्शन देते हैं। लेकिन गुरु खास तरह से उपकार करते हैं। गुरु और संत के उपकार से मनुष्य कृतकृत्य होता है। इसलिए संत-स्तुति के बाद हमलोग गुरु-स्तुति करते हैं। इसके बाद हम अपने धर्म को जानें। धर्म कहते हैं-शुभ कर्म को। ऐसा कर्म करना, जिससे संसार के क्लेशों से छूटकर ईश्वर को पा लेना हो। धर्म की परिभाषा को जानना। संतों ने जो ज्ञान बताया है, उसका पीछे पाठ करते हैं। धर्म के सिद्धान्त और उसकी परिभाषा को नित्य पढ़ना चाहिए। कभी भूलना नहीं चाहिए। जो कभी-कभी पाठ करे, सब दिन पाठ नहीं करे, तो भूल जायेंगे। जो अपने सिद्धान्त को याद नहीं रखेंगे, वे अपने धर्म में दृढ़ रहेंगे, कैसे सम्भव है?
 हमलोग संतों के ज्ञान के अनुकूल सत्संग करते हैं। संतों ने ईश्वर का ज्ञान दिया है कि जो इन्द्रिय-ज्ञान में नहीं आता केवल आत्मा के ही ज्ञान में आता है, वह है ईश्वर। इन्द्रियों में चेतन आत्मा की धारा है, तब इन्द्रियों में ज्ञान है। इन्द्रियों के संग में रहकर आत्मा को जो ज्ञान होता है और इन्द्रियों के संग को छोड़कर तब जो चेतन आत्मा को ज्ञान होता है, दोनों में बड़ी भिन्नता है। इन्द्रिय-ज्ञान में संसार के पदार्थों को पकड़ते हैं और केवल चेतन आत्मा के ज्ञान से ईश्वर की पकड़ होती है। ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान केवल चेतन आत्मा से ही होता है। जो देश-काल में है और अदलता-बदलता है, वह माया है। संसार की जितनी वस्तुएँ हैं, सभी देश-काल से घिरी हुई हैं और इन्हीं वस्तुओं को हम जानते हैं। इन्द्रियों का संग छोड़कर तब कैसा ज्ञान होता है, पुस्तक में पढ़ते हैं, किसी से सुनते हैं, लेकिन प्रत्यक्ष रूप में नहीं जानते। प्रत्यक्ष रूप में नहीं जानने के कारण अधूरे रहते हैं। पूरा ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान में होता है। पढ़ो, सुनो, समझो-यह परोक्ष ज्ञान है, लेकिन यह पूर्ण नहीं है। इससे भी लाभ होता है। सद्ग्रंथों के पाठ से, सत्संग से ईश्वर-संबंधी परोक्ष ज्ञान पाते हैं। सो यह पाते हैं कि कैसा होने से ईश्वर का ज्ञान होता है। साधन करके, अपने आप में रहकर, तब निजी ज्ञान में कैसा होता है, वह अपने तईं को मालूम होता है। उसको मालूम होता है कि ईश्वर कैसा है? इसलिए पहले ईश्वर-स्वरूप का परोक्ष ज्ञान जानकर साधन करना चाहिए। साधन करते-करते अपरोक्ष ज्ञान होगा और पूर्णता होगी।
 यह ख्याल नहीं करना चाहिए कि हम अधूरे गए। साधन-विधि को ठीक-ठीक समझो, साधन करते चलो, अन्त में ईश्वर की प्रत्यक्षता होगी। जिन लोगों को हुआ है, ऐसा ही हुआ है। उकताना नहीं चाहिए। जो भक्ति-मार्ग पर चलता है, वह कभी-न- कभी रास्ते का अंत अवश्य पाता है। उसको कभी-न- कभी पूर्णता अवश्य होगी। यह बात याद रखिए।
 उपासना करो, स्तुति करो, प्रार्थना करो-यह ईश्वर की भक्ति है। किसी-न-किसी तरह ईश्वर की ओर अपनी वृत्ति जोड़ो, यह ईश्वर का भजन ही है।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत 60वाँ अखिल भारतीय संतमत सत्संग में, भारत के महान तीर्थ हरिद्वार में दिनांक 8. 6. 1968 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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291. किस विधि से इन्द्रियां का संग छूटेगा?
पूज्य महात्मागण तथा धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 मैं यहाँ महात्मागण को ज्ञान उपदेश करूँगा, यह ख्याल कदापि नहीं रखता। उनसे सीखने आता हूँ। जनता में जो विज्ञ हैं, उनको क्या कहूँगा? जो जानते हैं, उनको याद हो जाएगा और जो कम जानते हैं, वे समझ पायेंगे। इस सत्संग में मुख्य बात है, ईश्वर की भक्ति। ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान होना आवश्यक है। जैसे कोई पथिक अपने पहुँचने के स्थान को नहीं जाने, केवल चलता रहे, तो हैरान होता रहेगा। इस तरह ईश्वर-भक्ति में ईश्वर-स्वरूप निर्णय किए बिना जो भक्ति का आरम्भ करता है, वह भटकता रहता है और हैरान होता रहता है।
 ईश्वर-स्वरूप के लिए थोड़ी-सी बात सुनिए। यदि जँच जाए, तो उसको स्मरण रखिएगा। संसार की वस्तुओं को जानने के लिए पंच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। इनमें से कोई भी एक इन्द्रिय ऐसी नहीं कि जिससे संसार के सभी पदार्थों को जानें। संसार में बहुत पदार्थ हैं, लेकिन समास रूप में जानें, तो बहुत अच्छा है। एक पदार्थ जिसको दृश्य वा रूप कहते हैं, दूसरे को रस वा स्वाद कहते हैं, तीसरे पदार्थ को गन्ध, चौथे को स्पर्श और पाँचवें को शब्द कहते हैं। ये पाँच पदार्थ हैं। इन्हीं को पाँच सूक्ष्म पदार्थ वा पंच तन्मात्राएँ कहते हैं। ये ही पाँच पदार्थ संसार में हैं। रूप पदार्थ को ग्रहण करने की योग्यता केवल नेत्र को है। कान, नाक, जिभ्या, त्वचा-इन चारों को शक्ति नहीं कि दृश्य पदार्थ को ग्रहण कर सकें। नाक को यह शक्ति नहीं कि गन्ध के अतिरिक्त किसी विषय को ग्रहण करे। कान की यह शक्ति नहीं कि शब्द के अतिरिक्त किसी विषय को ग्रहण कर सके। जिभ्या को यह शक्ति नहीं कि रस वा स्वाद के अतिरिक्त किसी अन्य विषय को ग्रहण कर सके। त्वचा को यह शक्ति नहीं कि स्पर्श विषय के अतिरिक्त किसी अन्य विषय को ग्रहण कर सके। मतलब यह कि एक-एक इन्द्रिय को एक-एक विषय ग्रहण करने की शक्ति है। इन इन्द्रियों को इतने ही तक की पहुँच हैं, मन इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों के अन्दर ही घूमता है। पंच पदार्थों का ही मनन करता है। बुद्धि भी इन्हीं में घूमती है और इन्हीं को विचारती है। बुद्धि बड़ी बलवती है। पंच पदार्थों के परे भी कुछ पदार्थ है, यह सोचती है। वह कहती है कि पंच पदार्थों के परे भी कुछ है। वह कहती है कि जीवात्मा! तुम हो, मैं जानती हूँ, लेकिन तुमको पहचानती नहीं हूँं। ईश्वर की स्थिति है, जानती हूँं, पहचानती नहीं।
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 यह बुद्धि से परे का पदार्थ है। परमात्म-स्वरूप इन्द्रियों से वा मन-बुद्धि से ग्रहण होने योग्य नहीं है। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा था-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई।।
 सबको माया जानकर मायातीत को भी जानना आवश्यक है। जिस सुख के लिए लोग लालायित होते हैं, जिस सुख को पकड़ना चाहते हैं, उस सुख को पाते नहीं हैं। सुखस्वरूप तो परमात्मा हैं, दूसरा कुछ नहीं। बिना उनको पकड़े सुख नहीं मिल सकता। जीवात्मा को कौन जाने? कोई इन्द्रिय उसको नहीं जान सकती। बुद्धि भी नहीं जानती। परमात्मा को भी कौन जाने ? शरीर में जो जीवात्मा है, इसमें जो ज्ञान की शक्ति है, उसी से मन, बुद्धि और बाहर की इन्द्रियांं में शक्ति है। असल में इन्द्रियों के ज्ञान में जीवात्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता। तब क्या जीवात्मा स्वयं को स्वयं से नहीं पहचान सकता? हाँ, जीवात्मा ही अपने को अपने से पहचान सकता है।
     आतम आपको आपही जानै । -संत सुन्दरदासजी
 लेकिन जीवात्मा इन्द्रिय-ज्ञान में रहकर अपना प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं कर सकता। जब अपनी ही पहचान नहीं, तब ईश्वर को क्या पहचाने? जीवात्म- भाव में चेतन आत्मा तभी तक है, जबतक मन, बुद्धि के संग में है। इन्द्रियों के संग से हटकर अपने तईं में रहकर अपनी पहचान होगी और तभी ईश्वर की भी पहचान होगी।
 ईश्वर-दर्शन की लालसा भक्त को बड़ी रहती है। अन्तिम ध्येय यही है। जीवात्मा अपने से अपने को और ईश्वर को पहचानेगा। लेकिन शरीर और इन्द्रियों का संग छोड़कर। जिस विधि से मन, बुद्धि का संग छूटे, इन्द्रियों का संग छूटे, अपना आपा जानने में आवे, उसकी जानकारी होनी चाहिए और इतना अभ्यास हो कि शरीर-इन्द्रियों का संग छूटे, अपने तईं में रहा जाए और ईश्वर की पहचान हो। संतों ने इसकी विधि बतायी है। जैसे रूप क्या है? तो जो आँख से चीन्ह लो। शब्द क्या है? जो कान से पकड़ सकते हो। रस क्या है? जो जिभ्या से पकड़ सकते हो। गंध क्या है, जो नाक से ग्रहण हो। स्पर्श क्या है? जो त्वचा से ग्रहण हो। इसी तरह ईश्वर क्या है? अपने तईं तुम क्या हो? तो दोनों का एक ही उत्तर है कि जो तुम अपने तईं से पहचान सको। अपने ज्ञान से, आत्मज्ञान से ही ईश्वर का दर्शन होता है। चेतन आत्मा जड़ का संग छोड़कर जो पहचाने, उसी को ईश्वर-दर्शन कहते हैं। ईश्वर क्या है? जो चेतन आत्मा के ज्ञान में पहचाने जाते हैं। जिनको केवल चेतन आत्मा ही पहचान सकती है। जिस साधन के द्वारा चेतन आत्मा शरीर-इन्द्रियों से छूटकर अपने तईं में रह सके, वही साधन ईश्वर की भक्ति है। आपलोग की याद रखिएगा।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत 60वाँ अखिल भारतीय संतमत सत्संग में, भारत के महान तीर्थ हरिद्वार में दिनांक 8. 6. 1968 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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292. पवित्र भूमि से पवित्रता की प्रेरणा
 पावन स्वरूप तथा तीर्थों को भी पवित्र करने वाले उपस्थित महात्मागण को मैं प्रणाम करता हूँ। मैं आपको शिक्षा का कोई वचन कहने योग्य नहीं हूँ। हाँ, उपस्थित जनता को मैं कुछ कहूँ, जो लोग कि आपके दर्शन से पवित्र होते हैं, यह मेरे लिए शोभनीय है। इसलिए-
धर्मानुरागिनी जनता!
 आपको ज्ञात है कि मैं संतमत का एक कनिष्ठ सेवक हूँ। मैं इसका थोड़ा-थोड़ा प्रचार कर रहा हूँ। और गुरु की आज्ञा से जो शक्ति है, उस शक्ति को प्रचार में लगाकर काम करता हूँ। मैं इस पवित्र भूमि में आकर सत्संग इसलिए करने के लिए प्रस्तुत हुआ कि यहाँ के महात्माओं से बहुत कुछ अध्यात्म-विषय का प्रेरण मिलेगा। पवित्र भूमि से पवित्रता का प्रेरण मिलेगा। श्रीगंगाजी से पवित्रता का प्रेरण मिलेगा। इसलिए मैं इस जर्जर अंग से भी आकर यहाँ उपस्थित होकर आपके सामने हूँ। चूँकि मैं संतमत का प्रचार करता हूँ, संतों की वाणी को छोड़कर मैं अपनी ओर से कुछ कहूँ, मेरे लिए कैसे शोभनीय हो सकता है। और संतों की वाणी का पाठ नहीं करूँ, नहीं सुनूँ, आपको नहीं सुनवाऊँ, यह भी शोभनीय बात नहीं है। संतमत में संतों की वाणी का आधार है, इसलिए संतों की वाणी का पाठ आपलोगों को सुनाया करता हूँ या सुनवाया करता हूँ।
 संतमत में जो संतों की वाणियाँ हैं, वे वेद- वाक्य से, उपनिषद्-वाक्य से बाहर नहीं हैं। संतवाणी का वेद-वाक्य से और उपनिषद्-वाक्य से मेल है। मुझको ऐसा बोध हुआ है। जानने में आया है। सत्संग से मेरे हृदय में यह दृढ़ हो गया है और इस दृढ़ता का प्रतीक मेरे द्वारा संग्रह किया हुआ ‘सत्संग-योग’ है। जो लोग इसको पढ़ते हैं, तो उनको मालूम पड़ता होगा कि वेद-वाक्य, उपनिषद्- वाक्य, संत-वाक्य-इन सब वाक्यों में मेल है। न तो संतगण वेद-बाह्य विषय कहते हैं और न वेद-वाक्य संतों को अपने ज्ञान से बाहर होने देता है। इसीलिए वेद-मंत्र का भी एक-दो पाठ हो जाता है, उपनिषद् के श्लोकों का भी कुछ पाठ हो जाया करता है। आपलोगां ने सुना है-वेद में अन्तर्ज्याति और अन्तर्नाद के विषय में कहा गया है। ईश्वर को मन-बुद्धि से परे कहा गया है। उपनिषद् में यह बात आयी है। एक कथा है कि ब्रह्माजी शिव भगवान के पास जाकर कहने लगे कि संसार के जीवों के उद्धार के लिए आप क्या कहते हैं? कोई योग को श्रेष्ठ बतलाते हैं, कोई ज्ञान को श्रेष्ठ बतलाते हैं, आपका क्या मत है? कहिए। सुनकर शंकर भगवान ने कहा कि मेरा मत है कि योग के बिना ज्ञान अपूर्ण होता है और ज्ञान के बिना योग भी अपूर्ण होता है। इसलिए मोक्ष-मुक्ति चाहनेवाले को चाहिए कि ज्ञान और योग, दोनों का अभ्यास दृढ़ता से करे। यह आपने अभी सुना-पाठ हुआ था। हमलोग जो सत्संग करते हैं, इसमें ज्ञान का उपदेश होता है। इसको मन लगाकर सुनने से ज्ञान का अभ्यास हो जाता है। और मन एक तरफ लगा रहे, सुनता रहे, यह भी एक किस्म का योग है। तो, योग का और ज्ञान का संग-संग एक प्रकार से अभ्यास होता रहता है। इसलिए सत्संग का बड़ा फल होता है। सत्संग वचन में यह ज्ञान और योग का साधन होता चला जाता है।
 ईश्वर-भक्ति की बड़ी महिमा है। वह ईश्वर की भक्ति, ज्ञान और योग के सहित रहती है। जहाँ ज्ञान आता है, वहाँ भक्ति को पकड़ लाता है। जहाँ योग रहता है ज्ञान के साथ, तो वह भक्ति को छोड़ने नहीं देता-भक्ति को धारण किए हुए रहने के लिए शक्ति उत्पन्न कर देता है। इसलिए जहाँ ज्ञान और योग है, वहाँ भक्ति से खाली रहे, सो नहीं जानना चाहिए। अरे! योग, किसके लिए योग?
जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू । जहँ नहिं राम प्रेम परधानू ।।
कबीर साहब कहते हैं-
 संगति ही जरि जाव, न चर्चा राम की ।
 दुलह बिना बारात, कहो किस काम की ।।
 योग कहते हैं संयुक्त कर देने को। जो राम से संयुक्त कर देता है, ब्रह्म से संयुक्त कर देता है, वह जानो योग है। यहाँ तो ज्ञान, योग, भक्ति- ये सब संग-संग मौजूद हैं, संतों की वाणी में। और पूर्व के संत जो उपनिषद् कहे हैं ऋषि-मुनि लोग, उनकी वाणियों में ये सब मौजूद हैं। भगवान श्रीकृष्ण संध्या किया करते थे-भागवत में लिखा है, जो आप सब लोगों ने सुना है। संध्या किया करते थे। वे ब्राह्ममुहूर्त्त में जग जाते और उस वक्त संध्योपासना में लग जाते। उनका शरीर आनन्द से खिल जाता था, रोम-रोम खिल जाता था। ये क्या करते थे? धर्मवृत्ति में शारीरिक ज्ञान में अवश्य रहते थे। उपासना के समय में सारी शारीरिक वृत्ति को सम्भालकर केवल आत्मा में रत होकर रहते थे। बड़ी प्रसन्नता उनको आती थी। उस प्रसन्नता का भोग जो उनको अपने विषय में होता था, अपने में हो जाता था। वह भोग फैलता हुआ शरीर तक आता था और शरीर को भी प्रफुल्लित कर देता था। यह भगवान इसलिए करते थे कि वह अगर यह करना छोड़ देंगे, तो दूसरे लोग भी नहीं करेंगे। बड़े लोग जिस काम को धारण करते हैं, वही काम नीचे के लोग जो अनुसरण करनेवाले हैं, करते हैं। बड़े लोगों से अगर कोई त्रुटि हो जाती है तो त्रुटि को लोग धारण करने लग जाते हैं। बड़े लोग अगर ऊँचे कर्म करते हैं, तो ऊँचे कर्म को लोग धारण करने लग जाते हैं। भगवान कृष्ण इसीलिए संध्या करते थे कि सब कोई संध्या करें, कोई नहीं छोड़ें। अपने देश में कर्मयोग का प्रचार बहुत हुआ है। कर्मयोग का प्रचार इसलिए हुआ कि देश का काम रुके नहीं।
 भगवान कृष्ण ने देश के काम को नहीं रोका, लेकिन योग को भी उसके सहित रखा। उन्होंने कर्मयोग का उपदेश दिया और कर्मयोग का उपदेश अपने देश में बहुत पूर्व काल से है। भगवान कृष्ण ने कहा कि इसका उपदेश में पहले मैंने सूर्य को दिया। सूर्य ने मनु को दिया। मनु ने इक्ष्वाकु को दिया और इस तरह से राजा की परम्परा में बहुत दिनों तक यह ज्ञान रहा। समय की प्रबलता से वह ज्ञान लुप्त हो गया था। वही आज तुमको कहता हूँ-अर्जुन से कहा। अर्जुन ने कहा कि आप तो अब हो, और सूर्य तो बहुत पहले हुए, आपने कैसे उनको कहा? तो कहा कि तुम्हें मालूम नहीं, मुझको मालूम है। तुम्हें स्मरण नहीं, मुझको स्मरण है। मेरे तेरे बहुत-से जन्म हुए। मुझे सब स्मरण है, तुम्हें मालूम नहीं-स्मरण नहीं है। इस तरह से उन्होंने कर्मयोग का उपदेश दिया। और जो कर्मयोग के उपदेश में अभी आपने पाठ में सुना है-उसमें सार बात यही है कि आत्मरत रहते हुए कर्म करो, बस यही कर्मयोग है। आत्मरत होते हुए कर्म करो और सब योग के जो अच्छे-अच्छे गुण हैं, सब आप-ही-आप आकर वहाँ जमा हो जायेंगे। आत्मरत होना-आत्मा की तरफ होना। यह हमारे शरीर से बाहर तो नहीं है। बाहर रहे तो हम पहचानते भी तो नहीं हैं, लेकिन अन्दर में अपने शरीर के अन्दर में आत्मा है। यह अगर पहचान नहीं सकते, तो भी यह विश्वास अडिग है।
 आत्मरत होनेवाला किधर को जाएगा? आत्मरत होनेवाला अन्तर की ओर जाएगा। बहिर्मुख होता हुआ विषयमुख होगा। रूप, रस,गन्ध, स्पर्श और शब्द में फँसेगा। अन्तर्मुख होओ। इसलिए आत्मरत होने का यत्न यह है कि अपना निशाना अपने अन्दर हो, अपने को इसी पर लगाकर रखो। यह एक मैं इशारा करता हूँ। यह है जिससे कोई आत्मरत हो सके। अपना निशाना अपने अन्दर रखो। कहाँ रखोगे? गुरु से जानोगे, यह गुरुगम्य है। अपना निशाना खूब समझ लो। सब लोग आत्मरत रहते हुए कर्म करो, कर्म का बन्धन नहीं लगेगा, मुक्त हो जाओगे। तो इसके लिए क्या करोगे? अपना निशाना अपने अन्दर में रखो; क्योंकि आत्मा अन्दर में पहचान करने में आ सकती है, इसलिए अपना निशाना अपने अन्दर रखो, अपने को उस पर लगाकर रखो। अपने ही निशाने पर अपने को लगाकर रखो।
 जो इस तरह से रहते हुए कर्म करता है, तो आत्मरत रहते हुए कर्म करता है। अगर कर्म नहीं करता है, तो संसार में उसका रहना फिजूल होता है। संसार मेें रहता है, संसार का भोग-भोगता है और संसार के लिए काम नहीं करता है, तो वह क्या है? वह कृतघ्न है। संसार में रहता है, संसार का भोग-भोगता है और संसार में कर्म करके संसार की रक्षा या संसार में उचित कर्म करके जो इसका बढ़ाना है, वही नहीं बढ़ाता, तो वह कृतघ्न है। वह कृतघ्नता का पाप लेता है। इसलिए उचित कर्म करना उत्तम है और उसको छोड़ देना उत्तम नहीं है। उचित कर्म करो, कर्तव्य कर्म करो, अनासक्त होकर कर्मों को करो, इत्यादि उपदेश हैं। तब ऐसा बनोगे कैसे? एक क्षण अनासक्त, फिर आसक्त। यह कैसे छूटे? तो आत्मरत रहो, बनने के लिए यह कुंजी है। यह गुरुगम्य है। सो अपना निशाना अपने अन्दर करो। निशाना ऐसा हो, तुम पूर्ण सिमटाव में आ जाओ। यही करना है। निशाना ऐसा हो तो तुम पूर्ण सिमटाव में आ जाओगे। पूर्ण सिमटाव करनेवाला क्या है? पूर्ण सिमटाव करनेवाला विन्दु है। विन्दु और नाद के बारे में आपने सुना है, अभी उपनिषद्गं्रथ से जो पाठ होता था। पूर्ण सिमटाव करनेवाला विन्दु है। जहाँ नहीं देख सकते हो, वहाँ दिखलानेवाला विन्दु है। जितनी दूर देखना इस चर्म-चक्षु से असम्भव है, वहाँ तक दिखलानेवाला विन्दु है। जिस तरह प्रत्यक्ष में बड़े-बड़े दूरबीनों को लगा-लगाकर देखते हैं, दूर-दूर तक देखते हैं, कहते हैं कि सूर्य के पार भी देखने लग गए। लेकिन संत दरिया साहब जो बिहार ही में हुए थे- आरा जिले में, उन्होंने बड़ा अच्छा कहा-
 क्या जामे जमशेद का, क्या सिकन्दर ऐन ।
 दिल चश्मा से देखिए, अविगत सूझै नैन ।।
 सिकन्दर एक बादशाह था। उसने एक ऐना बनवाया था। उससे बहुत दूर तक मालूम होता था। जमशेद भी एक राजा था। उसने एक प्याला बनवाया था। उसमें देखता था। उसमें भी बहुत दूर तक देखता था। ये दोनों उस जमाने के लिए दूरबीन थे। तो दूरबीन से देखने के लिए बहुत दूर तक लोग देखते हैं। तो अपने अन्दर की दृष्टि से देखो। कबीर साहब कहते हैं कि-
 चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
 रूह के नैना से-आत्मदृष्टि से-चेतन दृष्टि से देखता रहे, उसको सर्वव्यापी का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। इसके वास्ते अपने अन्दर में देखो। अपने अन्दर में लौ लगाओ। अपने अन्दर में निशाना हो, लेकिन मन से बनाओ मत निशाने के आकार को। एक बात यह भी है। मन से निशाने को मत बनाओ, केवल अपनी वृत्ति को ठहराओ, निशाना अपने आप बनता है। अपनी वृत्ति को सूक्ष्म करके ठहराओ, निशाना अपने आप बनता है। वही निशाना विन्दु है। इसी पर दृष्टि रखते हुए इसका संकेत गोस्वामी तुलसीदासजी के वचन में है कि-
जब लगि नहि निज हृदि प्रकाश, अरु विषय आस मन माहीं।
तुलसि दास तब लगि जग योनि, भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं।।
 अन्दर में प्रकाश होना चाहिए। उसी से-
उघरहिं विमल विलोचन ही के । मिटहिं दोष दुख भव रजनीके।।
सूझहिं रामचरित मनि मानिक। गुपुत प्रकट जहँ जो जेहि खानिक।।
 अपना निशाना अपने अन्दर हो, अपने को उस पर लगाते रहो। जिन लोगों की ऐसी धारणा है कि जिन संत की वाणी वह सुनने लगें और उनको ऐसा हो कि वे संत जैसे हमारे सामने खड़े हों। कबीर साहब की वाणी सुन रहा हूँ, तो मानो कबीर साहब ही सामने खड़े हों, मेरे सामने उपस्थित होकर वाणी कह रहे हों। गोया कबीर साहब के रूप पर ध्यान रहा। गुरु नानक की वाणी है तो गुरु नानक ही जैसे आ गए हों। गोरखनाथ की वाणी है तो जैसे गोरखनाथ ही आ गए हों। इस तरह जो संत में अनुरक्ति रखते हैं, उनके ख्याल में मशगुल रहते हैं, उनके वचन में मशगूल रहते हैं और उनकी वाणी का पाठ करके अपने को उनकी वाणी के अनुकूल बनाकर संयमित करते हैं, उस वाणी के अनुकूल साधन करते हैं, तो वह संसार-सागर को पार करते हैं। ‘सत्संगति संसृति कर अन्ता ।’
 संसृति का अन्त हो जाता है। यही जानना चाहिए। इसीलिए संतों की वाणी का पाठ होना चाहिए। हमारे देश में संतों के नाम पर अलग- अलग पंथ पड़ गए हैं। इसके लिए मुझको कोई ग्लानि नहीं होती, मुझको कोई दुःख नहीं होता। परन्तु मैं चाहता हूँ कि उन संतों में लोग भेद न रखें। मेरे संत बड़े और आपके संत नहीं बड़े, ऐसा भेद न रखें। कबीर साहब जैसे, गुरु नानक भी वैसे ही। दादूदयालजी भी वैसे ही, गोस्वामी तुलसीदासजी भी वैसे ही। इस तरह का संतों में एक भाव रहना चाहिए और एक ही भाव हृदय में धरकर, उनकी वाणियों का पाठ सुनकर, उन वाणियों के अनुकूल भजन करना चाहिए। आप कहेंगे कि तुलसीदासजी तो श्रीराम का इष्ट बनवाकर भजन करावेंगे या कराते हैं। मैं कहता हूँ-अवश्य। और कबीर साहब तो श्रीराम का इष्ट नहीं देकर गुरु का इष्ट देकर तब भजन कराते हैं। तो श्रीराम का इष्ट देकर तुलसीदासजी भजन करवाते हैं, तो तुलसीदासजी क्या गुरु छोड़वाते हैं? हरगिज नहीं।
 श्रीहरि गुरु पद कमल भजहिं, मन तजि अभिमान ।
 जेहि सेवत पाइय हरि, सुख निधान भगवान ।।
 विनय-पत्रिका में है। गुरु हरि के रूप हैं। उनकी सेवा करो अभिमान छोड़कर, जिनकी सेवा से सुख- निधान भगवान को पाओगे। कबीर साहब कहते हैं-
    मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
 तो इतना फर्क अवश्य है कि कबीर साहब जी, गुरु नानकदेवजी, दादूदयालजी महाराज गुरु को अवश्य मानते हैं। पर गुरु से भिन्न कोई दूसरा इष्ट सगुण रूप में नहीं लेते। वैसे ही गुरु बिना इनके चलते नहीं। गुरु अवश्य मानते हैं। तुलसीदासजी गुरु भी मानते हैं और एक इष्टदेव भी श्रीराम को मानते हैं। इसी तरह से सूरदासजी ऐसे और कितने महात्मा लोग। और गुरु नानक और कबीर साहब के अनुकूल भी कितने महात्मा लोग केवल गुरु। वहाँ सगुण रूप में श्री राम, श्रीकृष्ण या भगवान शिव या देवी माइयाँ सगुण रूप में। और इनको सगुण रूप में-‘गुरु साहब तो एक हैं।’ सगुण रूप में गुरु-ही-गुरु, गुरु-ही-गुरु। तो यह सगुण रूप से निर्गुण रूप तक कबीर साहब भी जाते हैं, तुलसी- दासजी भी जाते हैं, सूरदासजी भी जाते हैं। इनकी वाणी को ठीक से पढ़कर देखिए। तुलसीदासजी ने यहाँ तक लिख दिया रामचरितामानस में कि-
   निर्गुन रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोय ।
   सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होय ।।
 निर्गुण रूप में उसका वर्णन करते हुए ‘व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता’ इत्यादि-इत्यादि।
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाही ं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।
        -रामचरितमानस
 यहाँ भ्रम उत्पन्न नहीं होता है। इसीलिए इसको सुगम कहा। वहाँ भ्रम उत्पन्न होता है, फिर भ्रम का क्षय भी होता है। फिर वह भी सुगम हो जाता है। तो इसलिए इन संतों में कोई भेद नहीं है। और यह भी अन्तर्ज्योति को पकड़ने कहते हैं, और वह भी अन्तर्ज्योति को पकड़ने कहते हैं। यह भी अन्तर्नाद को पकड़ने कहते हैं, वह भी अन्तर्नाद को पकड़ने कहते हैं। सूरदासजी महाराज ने कहा है कि-
 अपुन पौ आपुन ही में पायो ।
 शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो ।।
 निर्गुण रामनाम और सगुण रामनाम- तुलसीदासजी ने दोनों को बताया-
बन्दउँ रामनाम रघुवर को। हेतु कृषाणु भानु हिमकर को।।
विधि हरि हर मय वेद प्रान सो। अगुण अनूपम गुण निधान सो।।
 वह रामनाम अगुण भी है, सगुण भी है। अगुण रामनाम मुख से उच्चरित नहीं होता है। सो जो मुख से उच्चरित होता है, वह वर्णात्मक होता है। और जो मुख से उच्चरित नहीं होता है, ध्वनि स्वरूप है, सबके अन्दर उसकी गूँज हो रही है, वह ध्वन्यात्मक है। यह भी भजो और वह भी भजो। बड़ी अच्छी बात है। ‘जाप अजपा हो सहज धुन परख गुरु गम धारिये।’ अजपा जाप अन्दर में हो रहा है-उसको परखो। गुरु गम से परखो और उसको धारण करो। एक महात्मा हुए थे योगी। बड़े शुद्ध और बड़े पवित्र, वहाँ तिरहुत के इलाके में, वह स्थान आजकल सहरसा जिले के अन्दर में है, परमहंस लक्ष्मीनाथजी महाराज। उन्होंने कहा है कि-
 अनहद अपने साथ है, अजपा ताको नाम ।
 अमल करो अपनाय के, अमर नाम घर ठाम ।।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत 60वाँ अखिलभारतीय संतमत सत्संग में, भारत के महान तीर्थ हरिद्वार में दिनांक 9. 6. 1968 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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293. स्वप्न से छूटे इसके लिए कोई यत्न है?
पूज्यमान सर्व पवित्र महात्मागण तथा धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 आपने महात्माओं के जो उपदेश सुने हैं, वे अमोघ हैं, पवित्र हैं और बहुत लाभकारी हैं। इतना उत्तम उपदेश आप कहाँ सुनेंगे? जो लोग यहाँ रहते हैं, वे बारम्बार सुनते होंगे और जो दूर से आए हैं बहुत खर्च करके? जो खर्च और थकान हुए हैं, वे सभी खर्च और थकान इस उपदेश के सामने कुछ नहीं। आपने बड़ा अच्छा किया है।
 सत्संगति दुर्लभ संसारा । निमिष दंड भरि एकउ बारा ।।
    घर पर ऐसा होना मुश्किल था। आप कितने संत-महात्माओं के दर्शन एक साथ पाते हैं,उपदेश सुनते हैं। आप धन्य हैं।
 गुरु शब्द बहुत उत्तम है, जिसका अर्थ लोग बहुत तरह से करते हैं और एक वह है, जो लोग गाँव-गाँव में जानते हैं। गुरु कहते हैं ज्ञान देनेवाले को-सिखलानेवाले को।
   गुरु नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोय ।
   ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोय ।।
 असल में गुरु ज्ञान-स्वरूप हैं। शिष्य वह है, जो ज्ञान को धारण करे। जो गुरु ज्ञान नहीं दे सकता और जो शिष्य ज्ञान नहीं धारण कर सकता, तो न तो कोई गुरु और न कोई शिष्य ही है। आदिगुरु कोई है? परमात्मा हैं। उनमें अपरिमित ज्ञान है। वेद का ज्ञान उन्हीं से आया है। कबीर साहब ने उत्तम रीति से इसीलिए कहा है-
 परमातम गुरु निकट विराजैं, जागु जागु मन मेरे ।
 परमात्मारूप गुरु हमारे निकट विराजमान हैं, फिर भी हम क्यों नहीं प्रत्यक्ष देखते हैं? इसलिए कि हम सोये हुए हैं। वे कहते हैं कि जागो, तुम सोये हुए हो। आप कहेंगे कि हम तो अभी सोए हुए नहीं हैं, जगे हैं। लेकिन यह भी स्वप्न है, फिर भी यह स्वप्न बड़ा अच्छा स्वप्न है। जिसमें आप महात्माओं के दर्शन पाते हैं। कोई स्वप्न में महात्मा को देखता है, तो अध्यात्म आकाश में विचरण कर परमात्मा को पाता है। हमलोग इस जागने में भी सोए हुए हैं। हम स्वप्न अवस्था में भी जाते हैं। तब समझते हैं कि जाग्रत अवस्था है। स्वप्न में पता नहीं लगता कि स्वप्न में मैं हूँ? जगने पर स्वप्न मालूम होता है। फिर सुषुप्ति में जाते हैं, फिर सुषुप्ति से स्वप्न में और स्वप्न से जाग्रत में आते हैं।
मोह निसाँ सब सोवनिहारा । देखिय सपन अनेक प्रकारा ।।
 यह स्वप्न छूटे, इसके लिए कोई यत्न है? हाँ है। जागने से स्वप्न में और स्वप्न से सुषुप्ति में जाते हैं, यह स्वाभाविक है। जिस जगने को स्वप्न कहते हैं, उसके परे जाने के लिए कुछ करना होगा। तब अभी की जागृति स्वप्न की तरह मालूम होगी। वह क्या है?
एहि जग जामिनी जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच वियोगी।।
 योगी जगते हैं। योगाभ्यास जो करते हैं, वे जगते हैं। वे परमात्म तत्त्व को ग्रहण करनेवाले होते हैं। उनको प्रपंच का त्याग स्वाभाविक हो जाता है। उनको उसी रीति से परमार्थ परम तत्त्व का, निज स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। संत लोग कहते हैं कि योग अभ्यास अवश्य करो। इसके बिना जागोगे नहीं। इस जगने में जो अवस्था होती है, वह विचित्र है। वह योगी जानते हैं। तीन अवस्थाओं के परे चौथी अवस्था-तुरीय अवस्था होती है। यह कैसा योग है, जिससे जगते हैं? चित्तवृत्ति का निरोध करो। बिखरी वृत्ति को एक करके एकाग्रता को प्राप्त करो। इसके करने के वास्ते सब योग्य हैं और सब योग्य नहीं, जब कोई योग को कष्टकर समझते हैं। हठ-क्रिया की बात कहते हैं, तो वह सबके योग्य नहीं है। लेकिन केवल ध्यान- योग से बिना हठ के भी कर सकते हो। यह सरल है और सबके लिए है। गीता में प्राणायाम की भी चर्चा है। लेकिन छठे अध्याय में केवल ध्यानयोग का वर्णन है। उसमें है कि समतल स्थान पर बैठो। कुशासन बिछाओ। उसपर मृग चर्म बिछाओ। उस पर वस्त्र दो। अर्जुन राजकुमार थे। उनके लिए ये चीजें मिलनी कठिन नहीं। लेकिन गरीब आदमी एक गमछी वा वस्त्र बिछाकर बैठे। अवधूत है, तो जमीन पर बैठ जाए। हाँ, गरदन, शरीर और मस्तक को सीधा करके बैठे। इससे मेरुदण्ड सीधा रहता है। भगवान श्रीकृष्ण ने किसी आसन का नाम नहीं लिया और कहा कि ध्यान-योग का अभ्यास करो। दिशाओं को मत देखो। नासाग्र में देखो। नासाग्र लिखा है, ‘नासाग्र-भाग’ नहीं लिखा है। टीकाकार अपनी ओर से ‘भाग’ शब्द जोड़ देते हैं। अग्र का अर्थ ‘आगे’ किया जाए, तब भी ‘भाग’ छूट जाता है। अग्र भाग को देखने कहा, तो दस दिशाओं में कोई-न-कोई दिशा हो जाएगी। किन्तु भगवान ने किसी दिशा को देखने नहीं कहा है। ऊपर देखने से ऊपर हो जाएगा, नीचे देखने से नीचा हो जाएगा। ये ऊपर-नीचे दस दिशाओं में से है। मुझको गुरु महाराज ने यह बताया-‘भाग को छोड़ दो।’ आँख बन्द करो, तब जो देखता है, वह नासाग्र में देखता है। लेकिन यदि कोई मानसिक नासाग्र भाग को बनाता है, तो मानसिक ध्यान होता है। ध्यान ऐसा हो कि-
 ‘ध्यानं निर्विषयं मनः।’ ‘ध्यानं शून्यगतं मनः।’
 मन निर्विषय हो जाए, मन शून्यगत हो जाए। इसका यत्न गुरु से जानो। श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कन्ध में है कि भगवान श्रीकृष्ण से उद्धव ने पूछा कि भगवन्! आपका ध्यान कैसे करूँ? तो कहा-
 सम आसन आसीनः समकायो यथा सुखम् ।
 हस्तावुत्संग आधाय स्वनासाग्र कृतेक्षणः।।
 अर्थात् श्रीभगवान बोले-हे उद्धव! सुखपूर्वक सम आसन से शरीर को सीधा रखकर बैठे, हाथों को तर-ऊपर गोद में रखे और दृष्टि को नासिका के अग्र में स्थिर करे।
 नाक का निचला भाग वा ऊपर का भाग दोनों इसमें छूट जाते हैं। इसका कोई यत्न खास तरह से है, जिसको गुरु से जान लेना चाहिए। असल में यही गुरु-दीक्षा है। जो इसका यत्न जानते हैं, तो बडे़ विद्वान भी कर सकते हैं, जो पढ़ा-लिखा नहीं है, वह भी कर सकता है। पुरुष कर सकते हैं, स्त्रियाँ कर सकती हैं। स्त्रियों के लिए पातिव्रत्य धर्म का पालन धर्म है। परन्तु उसके साथ ईश्वर की उपासना भी अवश्य करनी चाहिए। इस ध्यान को जो कोई करते हैं, सभी ध्यानी हैं। स्त्री-पुरुष सभी कर सकेंगे। किसी से कम, किसी से बेशी होगा, लेकिन दोनों धीरे-धीरे बढ़ते जायेंगे। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति; तीनों अवस्थाएँ छूटेंगी।
 तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त ।
 मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनंत ।।
 चौथी अवस्था में जाना होगा, तब जो जगना होता है, असली जगना होता है। इस शरीर में हम रहते हैं, लेकिन खास तरह से कहाँ हैं?
 इस तन में मन कहँ बसै, निकसि जाय केहि ठौर ।
 गुरु गम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और ।।
 नैनों माहीं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर ।
 गुरु गम भेद बताइया, सब संतन सिरमौर ।।
         -कबीर साहब
जानिले जानिले सत्त पहचानिले, सुरति साँची बसै दीद दाना।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै, पलक परवीन दिव दृष्टि ताना।।
                     -दरिया साहब, बिहारी
 एक यत्न है। इससे जानिए कि जीव की बैठक आज्ञाचक्र में है। आँखों के अन्दर जब रहना होता है तो जागने की अवस्था में रहते हैं। जागने से स्वप्न में जाने लगते हैं, तब एक अवस्था और होती है, उसको तन्द्रा कहते हैं। उस समय ऐसा लगता है कि हाथ-पैर कमजोर होते जाते हैं। जोर करने पर भी बोल नहीं सकते। शक्ति भीतर की ओर खिंची जाती है। होते-होते स्वप्न में चला जाता है। स्वप्न में भी कभी-कभी कोई बोलता है। कभी चीख मारने पर, चिल्लाने पर बाहर के लोग भी सुनते हैं। लेकिन यह बोल आता कहाँ से है? स्वर और व्यंजन में हमलोग उच्चारण करते हैं। स्वर का स्थान कण्ठ है। सोलह स्वरोेें का स्थान कंठ है। इसको षोडशदल कमल भी कहते हैं। जब हम गहरी नींद में आते हैं, तो बोल नहीं सकते हैं। फेफड़े के स्थान में होते हैं, शरीर हृदय में होते हैं। तब हम श्वाँस को लेते हैं। और अपने से कुछ अनुभव नहीं होता। वहाँ व्यंजन है। द्वादश कमल है-पाँच कवर्ग, पाँच चवर्ग, ट और ठ। षोडशदल कमल में स्वप्न रहता है। द्विदल में जगना होता है और आँख के ऊपर रहना होता है तुरीय में। वहाँ कैसे जाया जाए? ध्यानयोग के अभ्यास से। जो जहाँ रहता है, वहीं से साधना करता है। आँख के अन्दर रहता है, यहीं से साधना करेगा। इसी को शाम्भवी मुद्रा, वैष्णवी मुद्रा कहते हैं। नैन के मण्डल में रहकर वृत्ति को एकाग्र करेगा। इतना एकाग्र करेगा कि एकविन्दुता होगी। इससे ऊर्ध्वगति होगी। ऊर्ध्वगति होने से मूर्धा में वासा होगा, तुरीय अवस्था में जाएगा। तब उसको ज्ञान होगा कि हम जगे हैं। तब परमात्मा का ज्ञान होगा। संतों ने इसके लिए इतना उत्तम साधन बताया है कि शरीर को कोई कष्ट नहीं। हाँ, प्रत्याहार करने में, धारणा में लाने में मन को कष्ट होता है। मन के फैलाव को अनवरत रूप से पूर्ण-पूर्ण समेटो, तो धारणा होगी। देर से धारणा होगी तो ध्यान होगा। जब से ध्यान का आरम्भ होगा, तुरीय अवस्था होगी। तब-
एहि जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच वियोगी।।
 वह प्रपंच से छूटता है। प्राणायाम करके ध्यानयोग करो, ऐसा भी होता है और बिना प्राणायाम का साधन किए भी ध्यानयोग होता है।
    न जोगी जोग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै ।
    सहज में ध्यान से पावै, सुरति का खेल जेहि आवै।।
 गीता में ध्यानयोग पर बहुत जोर है। ख्याल लगाने का यत्न जानो। किसमें ख्याल लगाओ? इसका यत्न जानो। इसकी कोशिश करोगे, तो यह हो जाएगा। किसी से नहीं होगा, सो नहीं। महात्माओं ने कहा कि अन्तःकरण की शुद्धि करो। इसको कौन नहीं कहता?
 अन्तःकरण की शुद्धि विचार से भी करो और इस ध्यानयोग का अभ्यास भी करो। दोनों को दोनों से सहायता मिलेगी। अन्तःकरण की पूरी शुद्धि पहले किसी को नहीं होती। पहले ही अन्तःकरण की शुद्धि पूर्णरूप से होना असंभव है। बल्कि ऐसा होता है कि मन शुद्ध करके रखा, माया की झपेट आयी और गिर गए। पहले विचार से मन को साफ करो और ध्यान भी करो तो मजबूती आएगी। अन्तःकरण शुद्धि की बड़ी आवश्यकता है। अन्तःकरण शुद्धि के लिए केवल बौद्धिक बल ही काफी नहीं है। बौद्धिक शुद्धि के साथ ध्यान-अभ्यास की भी आवश्यकता है।
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहि मिलइ नीच जल संगा।।
 अन्तःकरण कीच में फँसा है, नीचे गड़हे में गिरा है। ऊपर चढ़ाई हो, तो सफाई हो। ऊपर चढ़ाई का अर्थ आँख से ऊपर होना है।
 मैं कहूँगा कि यह हरिद्वार का जो स्थान है, संत-महात्माओं का स्थान है। स्वर्ग से भी बढ़कर है। एक तो संत-महात्माओं के संग में रहें और दूसरी जगह जो लोग अज्ञान की बात करते हैं। नीच-नीच कर्म करते हैं, क्या फल होगा? महात्माओं के संग का फल उत्तम होगा। और नीच लोगों के संग में नीचे गिरे रहने का, विकारों में फँसे रहने का स्वभाव पायेंगे। इसीलिए महात्माओं के पास जाते हैं, धामों में जाते हैं, अच्छी सफाई के लिए। ऊपर उठो। योगबल प्राप्त करो। मन की एकाग्रता का बल प्राप्त करो। बुद्धि की स्थिरता का बल प्राप्त करो। समत्व प्राप्त करता है मन की एकाग्रता से। बिना ‘शम’ के ‘सम’ नहीं होता। सम का अर्थ है एक तरह रहना-हानि में, लाभ में, सुख में, दुःख में। यह होता है ‘शम’ अर्थात् मनोनिगग्रह से। शम होता है, समाधि साधन से। साधना करो, कभी-न-कभी परमात्मा की कृपा अवश्य होगी। तब ‘सम’ का रूप देखोगे। स्वयं देखोगे कि मन को इस तरह नहीं रखना चाहिए। फिर भी गिर जाता है, सो नहीं होगा। आपका अंतःकरण कैसे शुद्ध होगा? सो कहा। केवल बौद्धिक विचार से अन्तःकरण शुद्ध नहीं होगा। स्त्री, पुरुष, इस देश, उस देश, गरीब, धनी; सबके लिए यह ध्यान- साधन है। कभी ऐसा ख्याल नहीं कीजिए कि हमसे नहीं होगा। कठिन योग को छोड़िए, सरल योग कीजिए। यही कोशिश है, कीजिए। जिनको मालूम है, कीजिए। जिनको मालूम नहीं है, महात्माओं से जानिए, तब कीजिए।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत 60वाँ अखिलभारतीय संतमत सत्संग में, भारत के महान तीर्थ हरिद्वार में दिनांक 9. 6. 1968 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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294. परमात्मा की तेजोमयी विभूतियाँ
पूज्य महात्मागण तथा धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 ईश्वर की भक्ति से अपना कल्याण होगा। इसका विश्वास बहुत दृढ़ता से सबको करना चाहिए। कल्याण की खोज में लोग दौड़ते हैं। कल्याण अपने पास है। जो परमात्मा को भजते हैं, उनका कल्याण होता है। और जब परमात्मा को पा लेते हैं, तब ऐसा कल्याण होता है कि कभी अकल्याण नहीं होता है।
  ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर-स्वरूप को जानना आवश्यक है। जो ईश्वर की ओर अपना ख्याल जोड़ता है,कल्याण की ओर जाता है। ईश्वर इन्द्रियोें को गोचर नहीं है। बाहर में ईश्वर को कोई पहचान नहीं सकता है। ईश्वर सर्वत्र हई है। कभी नहीं रहेंगे, ऐसी बात नहीं। कभी चले जाते हैं, कभी चले आते हैं, ऐसा नहीं। सर्वदेश में रहते हैं, सर्वकाल में रहते हैं। लेकिन इन्द्रिय-ज्ञान में उनको पहचानना असंभव है। इसलिए बाहर में नहीं पहचान सकते। फिर बाहर में क्या पकड़े, जिससे ज्ञान हो कि यह परमात्मा का रूप ही है। संतों ने कहा कि संसार में जितनी तेजोमयी विभूतियाँ हैं, सभी परमात्मा की हैं। इसलिए ईश्वर को किसी इन्द्रिय-गोचर विभूति का अवलम्ब लेकर ईश्वर-भजन का आरम्भ करने के लिए जो कहा है, वह ठीक ही कहा है। परमात्मा की कौन विभूति है, जो महिमा से युक्त है? यह जो हम प्रकाश देखते हैं, संसार में प्रकाश नहीं हो, तो प्रकाश से विहीन संसार की क्या हालत हो? इस संसार में कोई बड़े प्रभावशाली व्यक्ति हों, और प्रकाश नहीं हो तो कोई किसी को पहचान नहीं सकेंगे। कोई काम का नहीं होगा। संसार का सारा काम भ्रष्ट हो जाएगा। मैं कहता हूँ कि यह प्रकाश परमात्मा की विशेष विभूति है। दूसरी विभूति यह है कि जिसको शब्द कहकर पुकारते हैं। प्रकाश के अन्दर रहकर काम चलता है। अन्धकार के अन्दर भी कुछ काम चलता है, लेकिन बिना शब्द के काम नहीं चलता। शब्द ही संसार में विद्या को बिखेरता है। बिना शब्द के विद्वान नहीं होता। आदेश पाकर जो लोग अच्छे बनते हैं, सो बिना शब्द के नहीं बनते। आपस में, राष्ट्र में जो काम होता है, बिना शब्द के नहीं होता। बड़े-बड़े बम नहीं बन सकते। बम छूटता है, बड़ी आवाज होती है। शब्द बड़ा प्रभावशाली होता है।
 संसार में कम्पन नहीं हो तो शब्द नहीं। शब्द नहीं, तो कम्पन नहीं। शब्द नहीं तो संसार में उन्नति की दशा में ले जानेवाले परमाणु नहीं रहेंगे। उस शब्द का कितना प्रभाव है? ईश्वर की यह बड़ी विभूति है। संतों ने कहा कि यह तो बाहर के प्रकाश और शब्द की बात है। क्या अपने अन्दर में भी है? अन्दर का प्रकाश बाहरी सूर्य का प्रकाश नहीं है, आत्मा का प्रकाश है। जो इस ज्योति को पकड़ता है, वह महान पुरुष हो जाता है। ऋद्धि-सिद्धि सब आ जाती है। मोह से छूटता है। अन्तःप्र्रकाश में जिसकी वृत्ति डूबती है, बाहर के विषयों में उसकी डूबती नहीं। अन्दर में प्रकाश सबको है। प्रकाशहीन कोई नहीं है। अन्दर में प्रकाश को जो पकड़े, वह ईश्वर की ओर जाता है। जो प्रकाश को पकड़ता है, वह ईश्वर की भक्ति में पूर्ण होता है। जो अन्तर्नाद पकड़ा जाता है, वह ईश्वर की ओर का ही नाद है। अन्तर में नाद कहाँ से आया? यह जो सृष्टि है। यह जो सृष्टि हुई है, कुछ बनने के लिए कम्प चाहिए। एक शब्द वा एक अक्षर का उच्चारण करते हैं, सभी कम्पनमय हैं। एक मिट्टी की गोली बनाना चाहें, तो हाथ में कम्पन होता है। बिना कम्पन के कुछ बनावट नहीं हो सकती। इसीलिए-
 साधो शब्द साधना कीजै ।
 जेहि शब्द से प्रगट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै ।।
 शब्द से सारी सृष्टि हुई है। उस शब्द को पकड़ो। पहले ईश्वर-ही-ईश्वर था। कम्प हुआ, तब सृष्टि हुई। कम्प के साथ-साथ परमात्मा हैं। आदिकम्प-आदिशब्द से सारी सृष्टि है। इसीलिए सारी सृष्टि का बीज शब्द है। इसीलिए-
शब्द तत्तु वीर्ज संसार । शब्दु निरालमु अपर अपार ।।
 वह प्रभु कैसा है?
अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु ।
ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।
 बाबा नानक ने कहा है-कुछ भी र्चिं अगर है, तो सत्शब्द है। सो शब्द वही है, जो सृष्टि के आदि में हुआ। संत दादू दयालजी के वचन में है-
 एक सबद सब कुछ किया, ऐसा समरथ सोइ ।
 आगै पीछै तौ करै, जे बल हीना होइ ।।
 पंच ऊपना शबद थैं, शब्द पंच सों होइ ।
 साईं मेरे सब किया, बूझै बिरला कोइ ।।
 शब्दै बंध्या सब रहै, शब्दै सब ही जाइ ।
 शब्दैं ही सब ऊपजै, सब्दै सबै समाइ ।।
 यह वर्णन संत लोेेग करते हैं। सबसे विशेष शब्द है, बहुत महत्त्वपूर्ण है। संतों ने जब अनुभव करके जाना, तब उनको बड़ा लाभ हुआ। उसी को सत्नाम, ॐ, रामनाम, शिवनाम आदि कहा। वह परम शक्तिमय है, लेकिन पहले ही उसमें वृत्ति जुटे, हो नहीं सकता है। वह सांसारिक शब्द नहीं है। वर्णात्मक वा सांसारिक ध्वन्यात्मक भी नहीं है। वह सांसारिकता से बहुत दूर है। वह ध्वन्यात्मक अन्तर्नाद है।
 लोग कहते हैं कि गोस्वामी तुलसीदासजी निर्गुण रामनाम को नहीं जानते थे, सगुण राम को जानते थे। लेकिन जब वे स्वयं लिखते हैं कि-
बन्दउँ रामनाम रघुवर को। हेतु कृषाणु भानु हिमकर को।।
विधि हरि हर मय वेद प्रान सो। अगुण अनूपम गुण निधान सो।।
 ‘गुण निधान’ का अर्थ त्रयगुण और त्रयगुणातीत भी ले सकते हैं। जो हम कान से सुनते हैं, वे सब भी सगुण शब्द हैं। अन्दर में भी एक ही शब्द निर्गुण है, जिसकी पकड़ होने से ईश्वर तक पहुँचता है, ईश्वर को पाता है।
 शब्द गह्यो जीव संसय नाहीं,साहब भयो तेरो संग ।
 प्राकृतिक रूप से शब्द को कैसे पाते हो? बिजली की चमक के बिना ठनके की आवाज कोई नहीं सुन सकता। पहले ज्योति दर्शन करो, फिर नाद ध्यान करो। इसलिए नाद उपासना पीछे और विन्दु उपासना पहले की जाएगी। पहले ज्योति पकड़ते हैं। इसलिए तेजोविन्दूपनिषद् में है कि-
 तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम् ।
और ध्यानविन्दूपनिषद् में है-
 बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
 परम विन्दु ही बीजाक्षर है, उसके ऊपर नाद है। जब यह नाद अक्षर ब्रह्म में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है। निःशब्द कहो वा अनाम कहो-एक ही बात है। पहले सगुण शब्द की उपासना करनी चाहिए, फिर निर्गुण की। पहले मोटे रूप से चित्तवृत्ति का सिमटाव करो। गुरु को ईश्वर की विभूति मानो। गुरु में अपने को लगाओ। बाबा नानक कहते हैं-
गुर की मूरति मन महि धिआनु ।गुरु कै शबदि मंत्र मनु मानु ।।
गुर के चरण रिदै लै धारउ। गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ ।।
 इस विभूति को पकड़ो अथवा राम, कृष्ण वा माई का ध्यान करो, लेकिन इससे मायिक दर्शन होता है। जो स्थूल रूप के बाद सूक्ष्म, कारण, महाकारण को भी पार करेगा, वह उस विशेषतापूर्ण तत्त्व को पावेगा, जिसका नमूना संसार में नहीं है। स्थूल शब्द का जप करो। स्थूल रूप का ध्यान करो। मन से जप करो। मन से ध्यान करो। गुरु की युक्ति जानो। इसके बाद फिर गुरु से युक्ति जानकर सूक्ष्म सगुण रूप का ध्यान करो। वह ज्योर्तिविन्दु। ज्यातिर्विन्दु मन से बनाने से नहीं होगा। जो उस युक्ति से साधन करेगा, वह स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश पाकर सूक्ष्म दर्जे का शब्द सुनेगा। शब्द सुनकर जहाँ के तहाँ पड़े रहोगे, सो नहीं। बल्कि शब्द के उद्गम स्थान पर पहुँचोगे। संत दादू दयालजी की वाणी में-
 पंच ऊपना सबद थैं, सबद पंच सौं होइ ।
 साईं मेरे सब किया, बूझै बिरला कोइ ।।
और कबीर साहब कहते हैं-
 पाँचो नौबत बाजती, होत छतीसो राग ।
 सो मन्दिर खाली पड़ा, बैठन लागे काग ।।
 ये पाँच क्या हैं? सृष्टि के पाँच मण्डल हैं और उन पाँचोें के पाँच केन्द्र हैं। इसी तरह अपने शरीर में पाँच दर्जे हैं। शरीर और संसार में घनिष्ठ सम्बन्ध है। शरीर के जिस तल पर रहिए, संसार के भी उसी तल पर रहेंगे। शरीर के जिस तल को छोड़ते हैं, संसार के भी उसी तल को छोड़ते हैं, इस तरह जो शरीर के सभी तलों को पार कर सकेंगे, वे संसार के भी सभी तलों को पार करेंगे। साधक साधना द्वारा अपने में पाँच मण्डल पाते हैं। पंच मण्डलों से विशेष सृष्टि नहीं हो सकती। कोई भी मण्डल बनने के लिए उसका केन्द्र होगा और कुछ भी बनने के लिए कम्प चाहिए। वह कम्प उस मण्डल भर में व्यापक होता है। और ऊपर के मण्डल का शब्द नीचे के मण्डल में स्वाभाविक ही व्यापक होता है। संतों ने उसके लिए उपाय बताया कि पहले स्थूल मण्डल के शब्द को पकड़कर उसके केन्द्र पर आरूढ़ होकर आगे बढ़ो। किन्तु उस शब्द को पकड़ने के लिए एकविन्दुता प्राप्त कर लो। हाथरस के तुलसी साहब ने कहा-
स्रुति ठहरानी रहे अकासा।तिल खिड़की में निसदिन बासा।।
गगन द्वार दीसै एक तारा । अनहद नाद सुनै झनकारा ।।
 ऊपर का शब्द नीचे दूर तक जाता है। स्थूल के केन्द्र पर पहुँचने पर सूक्ष्म नाद सुनाई देगा। उसको पकड़कर उसके केन्द्र पर पहुँचा जाएगा। इसी तरह धीरे-धीरे क्रम-क्रम से आगे बढ़ते हुए अन्त में वह आदिनाद को पावेगा, जिसके सहारे परमात्मा तक पहुँच होगी। जैसे समुद्र के गर्जन में और कोई गर्जन नहीं रहता, उसी तरह आदिनाद के गर्जन में अन्य सभी गर्जन समाप्त हो जाते हैं। वही नाद जाकर परमात्मा से मिलाता है।
 लेकिन ऐसा ख्याल नहीं करो कि मरने पर होगा। यह जीवन काल में ही होने योग्य है। शरीर अनेक बार मरा है, लेकिन जीवात्मा अमर है। यह अनेक शरीर-रूप कपड़ों को छोड़ता, पहनता आया है। पहले यह करो कि ज्योति-दर्शन हो। फिर शब्द से मायावी मण्डलों को पार करना होगा। उसके बाद ईश्वर-दर्शन हुआ, काम खत्म हुआ। इसी विषय के प्रचार के लिए यह सत्संग है। अन्तःकरण की पवित्रता अवश्य चाहिए। जिसको अन्तर में रस मिलेगा, वह बाहर विषय रस को क्या समझेगा? वही परम संन्यासी होगा।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत 60वाँ अखिल भारतीय संतमत सत्संग में, भारत के महान तीर्थ हरिद्वार में दिनांक 10. 6. 1968 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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295. कमा कर खाओ नहीं तो खून खराब हो जाएगा
धर्मप्रेमी प्यारे लोगो!
 मेरी आवाज से आपलोग समझ सकते होंगे कि मेरा स्वास्थ्य इस समय यहाँ (हरिद्वार) आने योग्य नहीं था, फिर भी कर्तव्यवश आ गया हूँ जैसे समस्त शरीर में प्राण ही असली चीज है, उसी तरह ईश्वर की भक्ति नहीं हो, तो सत्संग कुछ नहीं, धर्म कुछ नहीं। इसलिए कबीर साहब ने कहा कि-
 संगति ही जरि जाव, न चर्चा राम की ।
 दुलह बिना बारात, कहो किस काम की ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
  जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू । जहँ नहिं प्रेम परधानू ।।
 ईश्वर-भक्ति खास एक चीज है। भक्ति कहते हैं सेवा को। भजन भी सेवा करने को कहते हैं। किसी की सेवा की जाए तो क्या सेवा की जाए? अगर उसकी कुछ आवश्यकता हो तो उसकी पूर्ति उसकी सेवा होती है। जैसे सत्संग की सेवा। सत्संग का आयोजन करो। सत्संग में बैठो। सत्संग के वचनों को अच्छी तरह सुनो, समझो। यही सत्संग की सेवा है। कोई सत्संगी है, उनको बिठाने के लिए, आराम का स्थान देने के लिए आवश्यकता है, तो उनकी इस आवश्यकता को पूरा करना उनकी सेवा है। यद्यपि सत्संग वा सद्ज्ञान के प्रचार में सामूहिक रूप से जो वक्ता और श्रोता होता है, उनको मिलाकर सत्संग कहते हैं। यह बाहरी सत्संग है। यह एक बात है कि ईश्वर को क्या आवश्यकता है।
 एक राजा जंगल गया था। वहाँ उसने एक मुनि बालक को देखा, मुनि बालक को देखकर वह मुग्ध हो गया। उसने मुनि बालक से कहा-तुम मेरे साथ चलो। मुनि बालक ने कहा-मुझे तुम्हारे साथ जाने की कोई आवश्यकता नहीं। राजा ने कहा-यदि तुम मेरे साथ चलो, तो जैसा में बढ़िया-बढ़िया खाना खाता हूँ, अच्छे-अच्छे वस्त्रों को पहनता हूँ, सुन्दर भवन में रहता हूँ और पहरेदार मेरा पहरा करता है, उसी तरह तुमको भी खिलाऊँगा, पहनाऊँगा, अच्छे भवन में सुलाऊँगा और पहरेदार तुम्हारा पहरा करेगा। मुनि बालक ने कहा-मुझे खिलाओ, तुम मत खाओ। मुझे अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनाओ, तुम मत पहनो। मुझे सोने दो और तुम जागकर पहरा करो। यदि शर्त को मंजूर करो तो मैं तुम्हारे साथ चल सकता हूँ। राजा ने कहा-ऐसा नहीं हो सकता। मुनि बालक ने कहा-तब मैं तुम्हारे यहाँ नहीं जा सकता। हमारे जो मालिक हैं, वे कुछ खाते नहीं, मुझे खिलाते हैं। वे कुछ नहीं पहनते, मुझे पहनाते हैं। मैं सोता हूँ, वह जागकर मेरा पहरा करता है। ऐसे राजा को छोड़कर मैं तुम्हारे साथ कभी नहीं जा सकता। मुझे तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं है। इसी तरह ईश्वर को कोई आवश्यकता नहीं है। ईश्वर को किसी तरह का कष्ट होता ही नहीं। उसकी रक्षा का भार कौन उठावे, क्यों उठावे?
 गंगा-सेवन करने लोग जाते हैं, तो कष्ट उठा-उठाकर जाते हैं। सवारियाँ हैं, लेकिन पैदल जाते हैं। कितने आदमी दण्ड-प्रणाम करते जाते हैं गंगा-सेवन करते हैं। क्या सेवन करते हैं? गंगा-जल का पान करते हैं। गंगा-जल में स्नान करते हैं तथा उसकी हवा में टहलते हैं। इसी को गंगा-सेवन कहते हैं। इसी तरह ईश्वर की भी सेवा है। लोग गंगा जाते हैं, सेत बाँध जाते हैं। जिस मन्दिर में, जिस तीर्थ में श्रद्धापूर्वक जाते हैं, वह उनकी सेवा है। यहाँ पर क्या है? ईश्वर के लिए जो सच्चा ज्ञान है, वह है कि ईश्वर इन्द्रियों से परे हैं।
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई।।
जो माया सब जगहिं नचावा। जासु चरित लखि काहु न पावा।।
सो प्रभु भू्र बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा।।
सोइ सच्चिदानंद घन रामा । अज विज्ञान रूप बल धामा।।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सब दरसी अनवद्य अजीता।।
निर्मल निराकार निर्मोहा ।नित्य निरंजन सुख सन्दोहा।।
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाही ं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।
 इन भगवान की सेवा करे तो क्या करे? इनकी सेवा क्या सेवा हो? कहा जाता है कि दर्शन करो। कहाँ जाकर दर्शन करें? इन्द्रियों के साथ में रहकर जो दर्शन होता है, वह माया है। ईश्वर तमाम व्यापक हैं। प्रकृति मण्डल में व्यापक, फिर उसको भी भरकर उससे भी बाहर हैं। मनुष्य जबतक इन्द्रिय-ज्ञान में रहेगा, तबतक संसार के अन्दर-बाह्य ज्ञान में रहेगा। इन्द्रिय-ज्ञान में जो दर्शन होगा, वह माया का दर्शन होगा।
अगुन अखंड अलख अज जोई। भगत प्रेमवस सगुन सो होई।।
 नित्य स्वरूप, यह है निर्गुण। और सगुण रूप की भी सेवा करते हैं। इससे संसार में बड़े-बड़े लाभ होते हैं। परलोक में भी बड़े-बड़े लाभ होते हैं। सगुण के अन्दर जो निर्गुण स्वरूप है, जिससे उनके स्वरूप का ज्ञान होता है, सगुण रूप के दर्शन से वह बाकी रह जाता है। भक्त उस स्वरूप के लिए यत्न क्यों न करे? बड़ा परिश्रम लगेगा तो क्या होगा? संसार में सुरक्षित रहने के लिए, देश की रक्षा के लिए झुण्ड-के-झुण्ड सैनिक जान गँवाते हैं। कितना बड़ा काम है! शरीर नहीं रहेगा। प्राण छूटेंगे। हमको मारेगा वा हम मारेंगे, इतना बड़ा काम करने को लोग तैयार होते हैं। इसी तरह भगवान के सगुण रूप की भक्ति और निर्गुण स्वरूप की भक्ति के लिए कोई बड़ा काम हो तो क्या है? करना चाहिए। बहुत समय लगेगा, तो क्या होगा? सोते हैं तो बहुत समय मालूम पड़ता है। नींद टूटती है तो कहते हैं कि अभी तो सोया था।
 हमलोग अभी सोए हैं। जागने से ऊपर की अवस्था को तुरीय कहते हैं। उस चौथी अवस्था में बाहरी इन्द्रियों के सब ज्ञान छूट जाते हैं। वह तुरीय अवस्था ऐसी ही है। यहाँ जो रहते हैं, ऊँचे स्थान में, पवित्र स्थान में रहते हैं। यह संसार स्वप्नवत् है। फिर भी, इसमें भी अच्छे-से-अच्छे स्थान हैं, ऊँचे स्थान हैं। इसी तरह तुरीय का संसार भी उत्तम और उत्तम है। आरम्भ में इतना उत्तम नहीं है कि ईश्वर-दर्शन हो, सब इन्द्रियों से छूटा जाय। जैसे-जैसे आगे बढ़े, पवित्रता अधिक बढ़ती गई, और आगे बढ़े तो मन इन्द्रियों के आवरण को पार कर गया। जो रहा, सो जड़ विहीन चेतन आत्मा कैवल्य दशा में रह गया। इस दशा में ईश्वर का दर्शन होता है। यह बड़ी उत्कृष्ट दशा है। इसमें ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।।’ हो जाता है। ब्रह्म को जो जानते हैं, वे ब्रह्मविद ही नहीं, ब्रह्म ही हो जाते हैं। यह अन्दर-अन्दर चलने से होता है, बाहर-बाहर चलने से नहीं।
 साधारणतः जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति; इसी में आते-जाते रहते हैं। भजन किया, तुरीय अवस्था में प्रवेश किया। मैं कहूँ कि कई जन्मों तक इस अवस्था में रहना होगा। उत्तम-उत्तम स्थान में रहना होगा और अन्त में ईश्वर-दर्शन होगा। लोग कहते हैं कि इसमें बड़ा कष्ट होता है। क्या कष्ट होता है? मेरे पास तोशक है, तकिया है, पलंग है; जो बनता है, भजन करता हूँ, क्या कष्ट है? गुरु महाराज ने कहा-स्वावलम्बी बनो। जब जैसा हुआ, कमाई की। अब शरीर उस योग्य नहीं रहा। फिर भी निगरानी करता हूँ। यहाँ आया हूँ, सत्संग सेवा करता हूँ। यह भी तो काम ही है। गुरुजी ने कहा कि पिताजी के घर पर रहो, काम करके खाओ, नहीं तो खून खराब हो जाएगा। कभी बच्चों को पढ़ाया, कभी खेती का काम किया, चूल्हा चौका करना, बर्तन मलना, रोटी बनाना; यह सब बहुत किया। हाथ में ठेला है। मैं गुरु महाराज की आज्ञा का पालन करने से सुखी हूँ। मैं यह इसलिए कहता हूँ कि ऐसा न समझो कि भजन करनेवाले काम नहीं करते हैं। कबीर साहब जीवन भर अपना ताना-बाना करते रहे। रविदासजी जीवन भर जूते का काम करते रहे। दादू दयालजी जीवन भर काम करते रहे। बाबा नानक जीवन भर गृहस्थी में रहे। संतों ने देश का भार होकर रहने नहीं कहा। भजन करो, काम करो। निठल्ले मत बैठो। तुरीय अवस्था में जाने के लिए वैरागी का वेष नहीं लिया, इससे भजन नहीं होगा, यह बात नहीं है। बाबा नानक ने कहा-
 जोगु न खिंथा जोग न डंडै जोगु न भसम चड़ाईअै ।।
 जोगु न मुंदी मूंड़ि मूड़ाइअै जोग न सिं´ी वाईअै ।।
 अंजन माहिं निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।
 गली जोगु न होई ।
 एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहीअै सोई ।।
 जोग न बाहरि मड़ी मसाणी जोगु न ताड़ी लाईअै ।।
 जोगु न देसि दिसंतरि भविअै जोगु न तीरथि नाईअै ।।
 अंजन माहिं निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।
 सतिगुरु भेटै ता सहसा तूटै धावतु वरजि रहाईअै ।।
 निझरु झरै सहज धुनि लागै घर ही परचा पाईअै ।।
 अंजन माहिं निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।
 नानक जीवतिया मरि रहीअै अैसा जोगु कमाईअै ।।
 बाजे बाजहु सिंजी बाजे तउ निरभउ पहु पाईअै।।
 अंजन महि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै।।
 जो दृष्टि को एक करता है, समता प्राप्त करता है, वह योगी होता है। इसलिए दस गुरुओं ने संसार के बहुत काम किए। इसमें दूसरे और तीसरे गुरु गृहत्यागी हुए और बाबा नानक तो घर में रहते हुए त्यागी थे। दसवें गुरु ने तो इसकी पराकाष्ठा को दिखा दिया। उन्होंने बहुत कष्टों को सहा। संत महात्मा घर छोड़ने को नहीं कहते। कबीर साहब कहते है-
 अवधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भावै ।।
 घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि वन नहिं जावै ।
 वन के गए कलपना उपजै, तब धौं कहाँ समावै ।।
 घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरु अलख लखावै ।
 सहज सुन्न में रहै समाना, सहज समाधि लगावै ।।
 उनमुनी रहै ब्रह्म को चीन्है, परम तत्त को ध्यावै ।
 सुरत निरत सां मेला करिके, अनहद नाद बजावै ।।
 घर में बसत वस्तु भी घर है, घर ही वस्तु मिलावै ।
 कहै कबीर सुनो हो अवधू, ज्यों का त्यों ठहरावै ।।
 उन्होंने कहा ही नहीं, करके दिखा दिया। करते जाइए, करने से ही होगा।
 भक्ति में ईश्वर की सगुण भक्ति को छोड़कर निर्गुण भक्ति में कोई नहीं जा सकते। यह फाजिल ज्ञान है कि कोई सगुण के, कोई निर्गुण के भक्त होते हैं। कबीर साहब अन्य इष्ट को नहीं रखकर गुरु को इष्ट रखते थे। गुरु सगुण है कि निर्गुण? अंतर्ज्योति सगुण ही है और अन्तर्नाद भी सगुण ही है। निर्गुण नाद तो एक ही है। उस अन्तिम नाद की परख होती है, तब निर्गुण भजन होता है। इधर कहाँ? प्राणायाम, दृष्टियोग सब सगुण ही हैं। स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण में जबतक वृत्ति रहती है, सगुण भजन ही होता है। उससे ऊपर जाने से निर्गुण भजन होता है। निर्गुण के बारे में कहने से निर्गुण भजन नहीं होता। गोस्वामी तुलसीदासजी को सगुण राम भी इष्ट और गुरु भी इष्ट-
 बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
 महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
तुम्ह तें अधिक गुरुहिं जिय जानी। सकल भायँ सेवहिं सन मानी।।
 श्रीहरि गुरु पद कमल भजहिं, मन तजि अभिमान ।
 जेहि सेवत सुख पाइय हरि, सुख निधान भगवान ।।
 कबीर साहब और गुरु नानक साहब ने आरम्भ में इष्ट में गुरु को ही माना और आखिर में उनका निर्गुण होता है। पहले ही निर्गुण नहीं होता है बाबा! मुँह से कहने से क्या होगा? मुझे बहुत दिन हुए इन बातों को समझते-समझते। भक्ति का आरम्भ सगुण से होता है और अन्त निर्गुण है। गोस्वामी तुलसीकृत रामायण में है-
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
  गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान।
  चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मो तें सन्त अधिक करि लेखा।।
आठवँ यथा लाभ सन्तोषा । सपनहुँ नहिं देखइ पर दोषा।।
नवम सरल सब सन छल हीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।।
 शवरी मतंग ऋषि की शिष्या थीं। वह बहुत ज्ञान जानती थीं। केवल सुन-सुनकर जानती थीं। ज्ञान केवल अक्षर पढ़ने से नहीं होता है। पाँच भक्ति तक लोग समझ जाते हैं। इनमें रहस्य क्या है?
 नित प्रति दरसन साधु के, औ साधुन के संग ।
 तुलसी काहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
 मन तो रमे संसार में, तन साधुन के संग ।
 तुलसी याहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
 साधु-संग करो, तो एकाग्र मन से बैठो। साधु- संग में जाओ, तो कथा-प्रसंग स्वाभाविक होता है, उसको मन लगाकर सुनो। सत्संग हो व कोई पण्डित कथा कहते हों, तो मन से सुनो। बाहर में आँख में आँसू बहे और मन में रहे कि लोग हमको भक्त समझें, तो यह कीर्तन नहीं है। जप तो ऐसा हो कि उसकी मादकता आ जाए। केवल माला में जप करो, मन भागे तो क्या होगा? ऐसा जप ठीक नहीं। एकाग्र मन सेे जो जप होता है, वही जप है।
 तन थिर मन थिर वचन थिर, सुरत निरत थिर होय ।
   कहे कबीर इस पलक को, कलप न पावै कोई ।।
 मन लगते-लगते एकाग्रता की ओर झुकेगा। मन में एकाग्रता का बल होगा। छठी भक्ति यह है कि दमशील अर्थात् इन्द्रियों के निग्रह का स्वभाववाला बनो और बहुत से कर्मों से अपने को हटा लो। सज्जनों के धर्म के अनुसार चलो। सज्जनों का धर्म है-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों को नहीं करना। हिंसा नहीं करने के अन्दर मत्स्य-मांस का नहीं खाना है। लोग कहते हैं कि देश में युद्ध होगा, तो हिंसा के डर से युद्ध छोड़ दें? नहीं, नहीं! लड़ना होगा। जैसे कृषकों के लिए कृषि-कर्म है, वैसे ही युद्ध अनिवार्य हिंसा है। लोग कहने लगे कि तब तो इसका भी पाप लगेगा? मैंने कहा-हाँ, तो उसको भोग लिया जाएगा। मुझे एक जैन साधु से भेंट हुई थी। उनसे इस संबंध में बातचीत हुई थी। उनको भी कहना पड़ा कि शत्रुओं के आक्रमण करने पर युद्ध करना अनिवार्य हिंसा है। और अपनी एक कथा सुनाई कि एक जैनी राजा ने युद्ध में एक लाख को मारा था। इस अनिवार्य हिंसा को साधु भी मना नहीं करते। और जीभ के वश होकर अथवा व्यवसाय के ख्याल से हिंसा करना ठीक नहीं है। मन से, वचन से हिंसा होती है। जान से मार डालता है, यह भी हिंसा है। खेती और युद्ध की हिंसा अनिवार्य हिंसा है। युद्ध करनेवाले भी मांस-मछली नहीं खाते और युद्ध करते हैं। श्रीरामायणजी की कथा क्या बताती है? रावण दल के लोग मत्स्य-मांस खाते थे और राम दल के वीर लोग फल-फूल खाते थे। फल क्या हुआ? कन्द, मूल, फल खानेवाले जीत गए और ‘महिष खाय अरु मदिरा पाना’ वाले हार गए। युद्ध करो, लेकिन मत्स्य-मांस खाना कोई आवश्यक नहीं है। जो झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार नहीं करते, वे सज्जन हैं। सज्जन बनकर रहो, इसकी बड़ी आवश्यकता है। इन्द्रियों को रोकने का स्वभाववाला बनो, यह बड़ी बात है। बुद्धि से, विचार से कभी रुकेगी, कभी नहीं रुकेगी। इन्द्रियाँ विषयों में कैसे चलती हैं, इसको जानो। इन्द्रियों के साथ साथ चेतन धारा है, तब इन्द्रियाँ विषयों में जाती हैं। स्वप्न में कोई देखें कि मैं गन्ना (ईख वा केतारी) चबाता हूँ तो उसको गन्ने की मिठास मालूम होती है। गहरी नींद मे मन बाहरी विषयों में नहीं जाता। संतों ने कहा कि जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति के स्थान से अपने को ऊपर उठाओ। ऊपर उठाने पर तुरीय अवस्था होती है। अधिक शक्ति हो जाने पर जबतक तुरीय में रहना चाहेगा, रहेगा। उसको बाहरी विषयों से घृणा हो जाएगी। अन्दर में ऐसा रस मिलता है कि बाहर का रस बेरस हो जाता है। यह दृष्टियोग के अभ्यास से होता है। इसको शाम्भवी मुद्रा, वैष्णवी मुद्रा भी कहते हैं। जहाँ दृष्टि रहती है, वहाँ मन रहता है। जैसे किसी चीज को दोनों हाथों से खूब जोर से पकड़ो तो शरीर का सारा बल उस ओर हो जाता है। उसी तरह दृष्टि साधन से दृष्टि जहाँ टिकी रहती है, तो शरीर की सभी धाराएँ वहाँ सिमट जाती हैं। ‘दशेन्द्रिय थाके शून्य ते बन्धन...’
 दसों इन्द्रियों की धारें वहाँ सिमटकर बँध जाती हैं। इस तरह से दृष्टियोग करता हुआ रहे और विचार से भी विषयों से रोकता हुआ रहे तो दमशील हो जाएगा। इसमें भक्ति क्या हुई? बड़ी भक्ति हुई। बहिर्मुख से अन्तर्मुख हुआ। बाहर विषयों की ओर से हटकर ईश्वर की ओर हो गया। लेकिन केवल ‘दम’ के साधन से पूर्णता नहीं होती। इसलिए ‘शम’ का साधन है। बिना ‘शम’ के ‘सम’ नहीं होगा। इन्द्रियों का संग छूटे, इसीलिए नादानुसंधान है। महायोगी शंकाराचार्य ने नादानु- संधान की वन्दना की है और कहा है कि-
  नादानुसंधान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महेतत्त्वपदंलयानाम् ।
  भवत्प्रासदात् पवनेन साकं विलीयते विष्णु पदे मनो मे ।।
 अर्थात् हे नादानुसंधान! आपको नमस्कार है, आप परमपद में स्थित कराते हैं, आपके ही प्रसाद से मेरा प्राणवायु और मन; ये दोनों विष्णु के परम पद में लय हो जायेंगे। कबीर साहब ने कहा है-
 शबद खोजि मन बश करै, सहज योग है येहि ।
 सत्तशब्द निज सार है, यह तो झूठि देहि ।।
 जिसको शब्द की खोज कहते हैं, उसी को नाद की खोज वा नादानुसंधान कहते हैं। यह अन्तर्नाद की खोज है, बाहर नाद की नहीं। साधक साधना करते हुए अन्दर में विविध नाद पाते हैं। इसमें दृष्टि का काम नहीं होता। बाहरी कान से भी काम नहीं होता। केवल अन्तर वृत्ति से सुनते हैं। इसमें मन काबू में होता है। नादविन्दूपनिषद् में लिखा है-
 नाद ग्रहणतश्चित्तमन्तरंग भुजंगमः।
 विस्मृत्य विश्वमेकाग्रः कुत्रचिन्नहि धावति ।।
 अर्थ-नागरूप चित्त को नाद का अभ्यास करते-करते पूर्ण रूप से उसमें लीन हो जाता है और सभी विषयों को भूलकर अपने में अपने को एकाग्र करता है।
 मनोमत्त गजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः।
 नियामन समर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः।।
 अर्थ-नाद, मदान्ध हाथीरूप चित्त को, जो विषयों की आनन्दवाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है।
 नादोऽन्तरंग सारंग बन्धने वागुरायते ।
 अन्तरंग समुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि वा ।।
 अर्थ- मृगरूपी चित्त को बाँधने के लिए यह (नाद) जाल का काम करता है। समुद्र तरंग-रूपी चित्त के लिए यह (नाद) तट का काम करता है।
 आप वैष्णव, शाक्त, शैव कोई हों, नवधा भक्ति कीजिए; सगुण, निर्गुण कोई भक्ति नहीं बचेगी। संतमत में स्थूल भक्ति, सूक्ष्म भक्ति, अपरा भक्ति-सभी हैं।
 श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै ।
 रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै ।।
 नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै ।
 अंग बिना मिलि संग, बहुत आनंद बढ़ावै ।।
 बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिए रहै ।
 मिलि परमातम सो आतमा, परा भक्ति सुन्दर कहै ।।
 यही संतमत का भक्तिमार्ग है।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत 60वाँ अखिलभारतीय संतमत सत्संग में, भारत के महान तीर्थ हरिद्वार में दिनांक 10. 6. 1968 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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296. निर्गुण ब्रह्म की महिमा
प्यारी धर्मानुरागिनी जनता!
 मुझको रामचरितमानस से प्रेम है लड़कपन के समय से ही। मेरा लड़कपन उस समय का है, जिस समय देवनागरी अक्षर का प्रचार बहुत कम था। जो लोग संस्कृत पाठ करते थे, उनके बीच यह अक्षर था, औरों के बीच नहीं। कैथी हिन्दी की किताब सरकार के लोग विद्या के महकमे में देते थे। उस समय लोअर पास का नाम भी नहीं था। मेरे पिताजी श्रीरामायणजी का पाठ करते थे। कभी-कभी उनकी आँखों से आँसू बहते थे। मैं सोचता कि ये पढ़ते हैं और रोते क्यों हैं? मेरे मन में आया कि इसको पढ़ना चाहिए। मैं हाई स्कूल में पढ़ने गया। उस समय उसको इन्ट्रेंस कहते थे। फारसी पढ़ने से मुसावदा अच्छा होता था। इसलिए पिताजी ने मुझे फारसी पढ़ने कहा। मैं पिताजी की आज्ञा से उधर लगा। लेकिन बासे में जाकर रामायणजी का पाठ करता था। पहले ठीक-ठीक समझा नहीं। समझा उसमें कथा है। उसमें योग, ज्ञान और भक्ति की गहराई है, समझ में नहीं आया। उम्र बढ़ी, थोड़ा-थोड़ा समझने लगा। मैंने देखा कि जितना- जितना सोचा, उतना-ही-उतना वह गहरा मालूम होने लगा। मेरे जीवन में जोर पकड़ गया कि पढ़ना छोड़कर भक्ति में जीवन बिताओ।
 एक परीक्षा होती थी, उसमें पहला दिन अंग्रेजी का अनुवाद अंग्रेजी में करने के लिए दिया गया था। विषय ‘बिल्डर्स’ का था।
 थ्वत जीम ेजतनबजनतम जींज ूम तंपेमय
 जपउम पे ूपजी उंजमतपंसश्े पिमसकय
 व्नत जव.कंले ंदक लमेजमतकंले
 ।तम जीम इसवबो ूपजी ूपबी ूम इनपसकण्
 इसका बयान करते-करते मेरी कॉपी खत्म हो गई। मैंने गार्ड से कहा-डंल प् हव वनजए ेपत घ्
 गार्ड ने आदेश दिया। मैं चला सो चला ही गया। यह सन् 1904 ई0 की बात है। हाँ, मैं राम चरित- मानस की बातें कहने लगूँगा, तो बहुत समय लगेगा। लेकिन उतना समय है नहीं; क्योंकि मुझे अभी भागलपुर भी जाना है। इसलिए थोड़ा कहता हू़ँ।
 रामचरितमानस राम का भक्तिमय ग्रन्थ है। उसमें ज्ञान,योग और भक्ति मिश्रित है। केवल मोटी-ही-मोटी बातें नहीं हैं। भक्ति की पूर्णता ज्ञान और योग को छोड़ने से नहीं होती। और योग की पूर्णता भी भक्ति और ज्ञान के छोड़ने से नहीं होती। ये तीनों संग-संग हैं।
 ज्ञान की बात परमात्मा के निर्गुण-स्वरूप का वर्णन है। माया और जीव का वर्णन भी ज्ञान है। योग का वर्णन यह है कि भक्ति के अन्दर में ‘दम’ और ‘शम’ को लिया गया है। इनको छोड़ने से भक्ति पूरी नहीं होती है। ‘दम’ इन्द्रिय-निग्रह को और ‘शम’ मनोनिग्रह को कहते हैं। भक्ति के अन्दर ये दोनों बातें हैं।
 श्रीराम जंगल जाते हैं। वहाँ सीताजी का हरण होता है। सीताजी की खोज करते-करते वे शवरी के आश्रम में जाते हैं। वहाँ श्रीराम ने शवरी को नवधा भक्ति का उपदेश सुनाया है। वहाँ ‘शम’ और ‘दम’ दोनों पाये जाते हैं। जैसे-
प्र्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
  गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।
  चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।
 छठी भक्ति में आते हैं तो कहते हैं-
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
 यहाँ ‘दम’ आता है। बहुत से कर्मों के करने से मन में आसक्ति का भाव नहीं रहे। बहुत-से कर्मों से अपने को बचाए रहे और सज्जनों के धर्म में चले। सज्जनों का धर्म यह कि पाँच पापों को छोड़ दे। अर्थात् झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पाँचों पापों को छोड़कर कर्म करे, यह सज्जनों का धर्म है। पंच पापों में से कोई एक भी कर्म करे, तो भक्ति में कमी होती है। इन्द्रियों को रोकते-रोकते उसके रोकने का स्वभाव हो जाए, यह ‘दम’ है। कोई इन्द्रिय-निग्रह करता है, तो ईश्वर की ओर क्या प्रेम होता है? इन्द्रिय-निग्रह केवल विचार द्वारा नहीं होता है। इसके साथ योग होना चाहिए। योग-साधन में अवस्था बदलती है।
 सपने होहिं भिखारी नृप, रंक नाकपति होय ।
 जागे लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपंच जिय जोय ।।
मोह निसाँ सब सोवनिहारा । देखिय सपन अनेक प्रकारा ।।
यहि जग जामिनी जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच वियोगी।।
 इसको नहीं लेते हैं तो इन्द्रिय-निग्रह नहीं होता है। योगी जगते हैं। क्या जगते हैं? वे तीन अवस्थाओें में नहीं रहते हैं। चौथी अवस्था में रहते हैं। जगने में अचेत, स्वप्न में अचेत और सुषुप्ति में अचेत। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
 तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त ।
 मन क्रम वचन अगोचर,व्यापक व्याप्य अनंत ।।
         -विनय-पत्रिका
 तीन अवस्था को छोड़कर भजन करो। भजन करने के लिए तीन अवस्थाएँ छूटे, चौथी अवस्था आवे, तब स्थूल विषयों का संग जो इन्द्रियों को होता है, सो छूट जाता है। बिना योग के इन तीनों अवस्थाओं से छूटा नहीं जा सकता।
रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई ।।
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।। गोस्वामी तुलसीदासजी की यह वाणी आश्चर्य में डालनेवाली है।
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।।
 इनको पढ़ने और ऊपरी भाव से समझने पर मोटा-भाव समझा जाता है। लेकिन है यह योगाभ्यास। इसलिए वे कहते हैं-
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
 जो कोई चींटी और सफरी बने, वह योगी हो जाए। अर्थात् स्थूल-भाव में अपने को नहीं रखकर सूक्ष्म-भाव में अपने को रखे।
 संसार में रहकर सूक्ष्म-भाव में नहीं रहा जाता। जो अन्दर में जाता है, वह सूक्ष्म-भाव में जाता है। यह बिना योग के नहीं होता। नींद को छोड़कर योगी अचेत होता है। सूक्ष्म में प्रवेश करता है, तब इन्द्रिय-निग्रह होता है। यह किधर रहता है? अन्दर में लौटकर सूक्ष्म-भाव में रहता है। परमात्मा के प्रकाश में रहता है। बिना किसी आड़ के वह परमात्मा से एक सहारा पाता है। वह सहारा प्रकाश है, ब्रह्मज्योति है, जिसको पाकर ईश्वर-मुख होता है, संसार-मुख नहीं होता है। ईश्वर-भक्ति में यह प्रकाश पाना बहुत जरूरी है और इसके लिए योग-अभ्यास चाहिए। अन्दर का प्रकाश ब्रह्मज्योति पाना है वा ब्रह्मज्योति के अन्दर अपने को ले जाना होता है। तब इन्द्रियों को काबू में रखने के लिए हमें बाहर संसार में इधर वा उधर जाना चाहिए, सो छूट जाता है। इसलिए छठी भक्ति में जो ‘दम’ कहा गया है, इससे ईश्वर की ओर घूमने का बड़ा यत्न है। योग अभ्यास में यही नहीं समझना चाहिए कि कठिन-ही-कठिन है। कठिन भी है और सरल भी है। कठिन में नहीं जाइए, सरल में जाइए। यह है ध्यान-योग। धनी- निर्धन, पढ़े-अनपढ़े, स्त्री-पुरुष; सबके लिए सुगम है। इस ध्यान से मनोनिरोध होता है। पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। प्रकाश मिलता है। उस प्रकाश में जिसकी वृत्ति हमेशा रहती है, वह दमशील हो जाता है। ईश्वर-भक्ति में दमशीलता की बड़ी आवश्यकता है। योगशास्त्र में ‘दम’ के साथ ‘शम’ भी अवश्य होना चाहिए। जबतक ‘शम’ नहीं हो जाए, तबतक मन सूक्ष्म विषयों में घूमता है, माया के फेर में पड़ता है, अष्ट सिद्धियों में पड़ जाता है।
रिद्धि सिद्धि प्रेरई बहु भाई। बुद्धिहि लोभ दिखावई जाई ।।
होई बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी।।
 इसलिए मनोनिग्रह के लिए ‘शम’ का साधन अवश्य चाहिए। ‘दम’ और ‘शम’ से योग की समाप्ति होती है। जहाँ ‘शम-दम’ नहीं, वहाँ योग की समाप्ति नहीं। भगवान श्रीराम ने शवरी को सातवीं भक्ति में ‘शम’ का साधन बताया है; क्योंकि बिना ‘शम’ के ‘सम’ नहीं होता।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें सन्त अधिक करि लेखा।।
धर्म ते विरति जोग ते ज्ञाना। ज्ञान मोच्छ प्रद वेद बखाना।।
 बिना योग के परमात्म-स्वरूप का ज्ञान नहीं होता और बिना ज्ञान के मोक्ष नहीं। भक्ति क्या है? प्रेम है।
 प्रेम बिना जो भक्ति है, सो निज डिम्भ विचार ।
 उद्र भरन के कारने, जनम गँवायो सार ।।
         -कबीर साहब
जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू । जहँ नहिं राम प्रेम परधानू ।।
      -गोस्वामी तुलसीदासजी
 प्रेम मन को बहुत समेटता है, उस ओर आसक्त करता है। जैसे विषय में मन आसक्त होता है, उसी तरह ईश्वर-प्रेम में मन आसक्त होता है। तब योग करो तो ठीक है। भक्ति करो, तो ठीक है। ईश्वर-भक्ति में प्रेम की प्रधानता है। ऊपरी भाव में प्रधानता नहीं है। प्रधानता प्रेम में है। ‘शम’ और ‘दम’ का वर्णन योग का वर्णन है। गोस्वामी तुलसीदासजी जहाँ रामचरितमानस नाम रखते हैं, वहाँ यह भी कहते हैं कि-
अस मानस मानस चखु चाही । भइ कवि बुद्धि विमल अवगाही।।
 रामचरितमानस को पहले शिवजी ने मन में रचा, फिर समय पाकर पार्वती से कहा-
रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमय सिवा सन भाखा।।
            -रामचरितमानस
 लेकिन इसको देखने के लिए मन की दृष्टि चाहिए। मन की दो दृष्टियाँ होती हैं। एक मन के केन्द्र की और दूसरी मन की फैली हुई धार की। मन की धार जो संसार-मुख है, उसको तन-मन कहते हैं और जो समेटकर अंतर्मुख होती है, वह ब्रह्म-मुख होती है। मानस चक्षु के लिए तन-मन और निज मन यानी आत्ममुखी मन दोनों चाहिए। तब देखेगा कि ‘कौतुक देखहिं सैल बन भूतल भूरि निधान।’ इसी को विनय-पत्रिका में कहा है-
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।। यहाँ योग, ज्ञान, भक्ति सभी हैं। रामचरितमानस में सगुण ब्रह्म की कथा जल की स्वच्छता है और-
रघुपति महिमा अगुन अबाधा। वरनव सोइ वर बारि अगाधा।।
 अर्थात् निर्गुण ब्रह्म की महिमा जल की अगाधता है। गंभीरता नहीं रहे, केवल स्वच्छता रहे तो उतना ठीक नहीं। लेकिन स्वच्छता के साथ गंभीरता रहे, यह ठीक है। कहते-कहते यह भी कहते हैं कि-
     निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुण जान नहिं कोय ।
     सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होय ।।
जो माया सब जगहिं नचावा। जासु चरित लखि काहु न पावा।।
सो प्रभु भू्र बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा।।
सोइ सच्चिदानंद घन रामा। अज विज्ञान रूप बल धामा।।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सब दरसी अनवद्य अजीता।।
निर्मल निराकार निर्मोहा ।नित्य निरंजन सुख सन्दोहा।।
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाही ं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।
 इस तरह गोस्वामीजी ने निर्गुण तत्त्व को बहुत अच्छी तरह दृढ़ा दिया है। फिर यह भी कहा है कि-
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
 किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
 यथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
 सोइ सोइ भाव देखावइ, आपु न होइ न सोइ ।।
 आपुन को भी खोजना है और आपुन जिसमें व्यापक है, उसको भी खोजना है। व्याप्य सगुण है तथा जो व्यापक है,वह निर्गुण है।
 ईश्वर की उपासना में पहले सगुण-भाव चाहिए, बाद में निर्गुण। कितने कहते हैं कि कबीर साहब, गुरु नानक साहब आदि सगुण रूप नहीं मानते थे। उनको जानना चाहिए कि केवल दाशरथि राम को मानना ही सगुण नहीं है। कृष्ण-रूप, देवी-रूप, शिव-रूप, गुरु-रूप; ये सब क्या सगुण नहीं हैं?
अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा, बसत इति वासना धूप दीजै।
 सर्वगत रूप जो है, उसका भी ज्ञान होना चाहिए। चाहे कोई भी इष्ट हों, सगुण का भी ज्ञान होना चाहिए और सगुण में जो व्यापक है, उनका भी ज्ञान होना चाहिए।
 हिय निर्गुन नयनन्हिं सगुन, रसना राम सुनाम ।
 मनहु पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम ।।
 यही राम के भजन का तरीका है। दोनों को पहचानो। रामचरितमानस के लिए ऐसा भी कहा है-
नव रसजप तप जोग विरागा। ते सब जलचर चारू तड़ागा।।
 यह ग्रंथ क्या है?
सद्गुरु ज्ञान विराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के।।
 इसके अन्दर ज्ञान, विराग, योग सभी हैं। यह थोड़ा-सा दिग्दर्शन आपके सामने कर दिया। रामचरितमानस में वर्णित स्थूल-सूक्ष्म सब प्रकार की भक्ति को विद्वान लोग जानते हैं। जो ज्ञान में बढ़े नहीं हैं, वे केवल स्थूल को ही जानते हैं, सो नहीं। स्थूल, सूक्ष्म दोनां रूपों को जानना चाहिए।
 गोस्वामीजी ने मनोनिग्रह और इन्द्रिय-निग्रह दोनों करने कहा है। इन्द्रिय-निग्रह केवल विचार से नहीं होता है। विचार के साथ ध्यानयोग भी चाहिए। मन की धार जो इन्द्रियों में लगी है, उसको उस केन्द्र में केन्द्रित करना, जहाँ से यह बिखरती है। कबीर साहब ने एक पद्य में कहा है-
 न जोगी जोग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै ।
 सहज में ध्यान से पावै, सुरति का खेल जेहि आवै ।।
 योगी लोग अष्टांग योग का साधन करके स्थूल देह का साधन करके, प्राणायाम करके तब ध्यान करते हैं। प्राणायाम के बाद प्रत्याहार, उसके बाद धारणा, फिर तब ध्यान होता है। प्राणायाम नहीं करके प्रत्याहार से जो ध्यान का आरम्भ करते हैं, यह सरल योग है। कबीर साहब कहते हैं, केवल ध्यान करो। यह कोई नई बात नहीं है, पुरानी बात है। श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने क्या कहा है? इस तरह की जमीन पर अर्थात् जो ऊँची-नीची नहीं हो-समतल हो, उसपर पवित्र आसनी बिछाकर फिर शरीर, मस्तक और ग्रीवा को सम करके स्थिर होता हुआ दिशाओं को नहीं देखते हुए नासाग्र में देखे। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने प्राणायाम का नाम भी नहीं लिया है। और इसका फल बताया है कि अनेक जन्मों के अनन्तर वह साधक सिद्धि पाकर अन्त में उत्तम गति अर्थात् मोक्ष पा लेगा। श्रीमद्भागवत में उद्धव ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा है कि मैं आपका ध्यान कैसे करूँ? इस पर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि पहले मेरे सम्पूर्ण शरीर का, फिर मुस्कानयुक्त मुख का और उसको भी छोड़कर शून्य में ध्यान करो। यह विहंगम मार्ग है। सरल योग है।
 बहुत लोग जानते हैं कि-कोई व्यवस्थित ढंग से और कोई अव्यवस्थित ढंग से। ‘बिनु गुरु होय कि ज्ञान’-गोस्वामीजी ने कहा। जो अच्छे जानकार हैं, उनसे जानकर ध्यानयोग का अभ्यास करना चाहिए। बिना ध्यान के काम पूर्ण नहीं होगा। साम्प्रदायिकता के संकीर्ण भाव की बात नहीं। मेरा आग्रह है कि न सगुण छोड़िए, न निर्गुण। न स्थूल छोड़िए, न सूक्ष्म छोड़िए। न योग छोड़िए, न ज्ञान छोड़िए और न भक्ति छोड़िए।
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यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत जमालपुर नगर में मानस समिति द्वारा आयोजित सत्संग में दिनांक 16. 12. 1968 ई0 को उद्घाटन भाषण के रूप में हुआ था। ।
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