295. कमा कर खाओ नहीं तो खून खराब हो जाएगा
धर्मप्रेमी प्यारे लोगो!
मेरी आवाज से आपलोग समझ सकते होंगे कि मेरा स्वास्थ्य इस समय यहाँ (हरिद्वार) आने योग्य नहीं था, फिर भी कर्तव्यवश आ गया हूँ जैसे समस्त शरीर में प्राण ही असली चीज है, उसी तरह ईश्वर की भक्ति नहीं हो, तो सत्संग कुछ नहीं, धर्म कुछ नहीं। इसलिए कबीर साहब ने कहा कि-
संगति ही जरि जाव, न चर्चा राम की ।
दुलह बिना बारात, कहो किस काम की ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू । जहँ नहिं प्रेम परधानू ।।
ईश्वर-भक्ति खास एक चीज है। भक्ति कहते हैं सेवा को। भजन भी सेवा करने को कहते हैं। किसी की सेवा की जाए तो क्या सेवा की जाए? अगर उसकी कुछ आवश्यकता हो तो उसकी पूर्ति उसकी सेवा होती है। जैसे सत्संग की सेवा। सत्संग का आयोजन करो। सत्संग में बैठो। सत्संग के वचनों को अच्छी तरह सुनो, समझो। यही सत्संग की सेवा है। कोई सत्संगी है, उनको बिठाने के लिए, आराम का स्थान देने के लिए आवश्यकता है, तो उनकी इस आवश्यकता को पूरा करना उनकी सेवा है। यद्यपि सत्संग वा सद्ज्ञान के प्रचार में सामूहिक रूप से जो वक्ता और श्रोता होता है, उनको मिलाकर सत्संग कहते हैं। यह बाहरी सत्संग है। यह एक बात है कि ईश्वर को क्या आवश्यकता है।
एक राजा जंगल गया था। वहाँ उसने एक मुनि बालक को देखा, मुनि बालक को देखकर वह मुग्ध हो गया। उसने मुनि बालक से कहा-तुम मेरे साथ चलो। मुनि बालक ने कहा-मुझे तुम्हारे साथ जाने की कोई आवश्यकता नहीं। राजा ने कहा-यदि तुम मेरे साथ चलो, तो जैसा में बढ़िया-बढ़िया खाना खाता हूँ, अच्छे-अच्छे वस्त्रों को पहनता हूँ, सुन्दर भवन में रहता हूँ और पहरेदार मेरा पहरा करता है, उसी तरह तुमको भी खिलाऊँगा, पहनाऊँगा, अच्छे भवन में सुलाऊँगा और पहरेदार तुम्हारा पहरा करेगा। मुनि बालक ने कहा-मुझे खिलाओ, तुम मत खाओ। मुझे अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनाओ, तुम मत पहनो। मुझे सोने दो और तुम जागकर पहरा करो। यदि शर्त को मंजूर करो तो मैं तुम्हारे साथ चल सकता हूँ। राजा ने कहा-ऐसा नहीं हो सकता। मुनि बालक ने कहा-तब मैं तुम्हारे यहाँ नहीं जा सकता। हमारे जो मालिक हैं, वे कुछ खाते नहीं, मुझे खिलाते हैं। वे कुछ नहीं पहनते, मुझे पहनाते हैं। मैं सोता हूँ, वह जागकर मेरा पहरा करता है। ऐसे राजा को छोड़कर मैं तुम्हारे साथ कभी नहीं जा सकता। मुझे तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं है। इसी तरह ईश्वर को कोई आवश्यकता नहीं है। ईश्वर को किसी तरह का कष्ट होता ही नहीं। उसकी रक्षा का भार कौन उठावे, क्यों उठावे?
गंगा-सेवन करने लोग जाते हैं, तो कष्ट उठा-उठाकर जाते हैं। सवारियाँ हैं, लेकिन पैदल जाते हैं। कितने आदमी दण्ड-प्रणाम करते जाते हैं गंगा-सेवन करते हैं। क्या सेवन करते हैं? गंगा-जल का पान करते हैं। गंगा-जल में स्नान करते हैं तथा उसकी हवा में टहलते हैं। इसी को गंगा-सेवन कहते हैं। इसी तरह ईश्वर की भी सेवा है। लोग गंगा जाते हैं, सेत बाँध जाते हैं। जिस मन्दिर में, जिस तीर्थ में श्रद्धापूर्वक जाते हैं, वह उनकी सेवा है। यहाँ पर क्या है? ईश्वर के लिए जो सच्चा ज्ञान है, वह है कि ईश्वर इन्द्रियों से परे हैं।
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई।।
जो माया सब जगहिं नचावा। जासु चरित लखि काहु न पावा।।
सो प्रभु भू्र बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा।।
सोइ सच्चिदानंद घन रामा । अज विज्ञान रूप बल धामा।।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सब दरसी अनवद्य अजीता।।
निर्मल निराकार निर्मोहा ।नित्य निरंजन सुख सन्दोहा।।
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाही ं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।
इन भगवान की सेवा करे तो क्या करे? इनकी सेवा क्या सेवा हो? कहा जाता है कि दर्शन करो। कहाँ जाकर दर्शन करें? इन्द्रियों के साथ में रहकर जो दर्शन होता है, वह माया है। ईश्वर तमाम व्यापक हैं। प्रकृति मण्डल में व्यापक, फिर उसको भी भरकर उससे भी बाहर हैं। मनुष्य जबतक इन्द्रिय-ज्ञान में रहेगा, तबतक संसार के अन्दर-बाह्य ज्ञान में रहेगा। इन्द्रिय-ज्ञान में जो दर्शन होगा, वह माया का दर्शन होगा।
अगुन अखंड अलख अज जोई। भगत प्रेमवस सगुन सो होई।।
नित्य स्वरूप, यह है निर्गुण। और सगुण रूप की भी सेवा करते हैं। इससे संसार में बड़े-बड़े लाभ होते हैं। परलोक में भी बड़े-बड़े लाभ होते हैं। सगुण के अन्दर जो निर्गुण स्वरूप है, जिससे उनके स्वरूप का ज्ञान होता है, सगुण रूप के दर्शन से वह बाकी रह जाता है। भक्त उस स्वरूप के लिए यत्न क्यों न करे? बड़ा परिश्रम लगेगा तो क्या होगा? संसार में सुरक्षित रहने के लिए, देश की रक्षा के लिए झुण्ड-के-झुण्ड सैनिक जान गँवाते हैं। कितना बड़ा काम है! शरीर नहीं रहेगा। प्राण छूटेंगे। हमको मारेगा वा हम मारेंगे, इतना बड़ा काम करने को लोग तैयार होते हैं। इसी तरह भगवान के सगुण रूप की भक्ति और निर्गुण स्वरूप की भक्ति के लिए कोई बड़ा काम हो तो क्या है? करना चाहिए। बहुत समय लगेगा, तो क्या होगा? सोते हैं तो बहुत समय मालूम पड़ता है। नींद टूटती है तो कहते हैं कि अभी तो सोया था।
हमलोग अभी सोए हैं। जागने से ऊपर की अवस्था को तुरीय कहते हैं। उस चौथी अवस्था में बाहरी इन्द्रियों के सब ज्ञान छूट जाते हैं। वह तुरीय अवस्था ऐसी ही है। यहाँ जो रहते हैं, ऊँचे स्थान में, पवित्र स्थान में रहते हैं। यह संसार स्वप्नवत् है। फिर भी, इसमें भी अच्छे-से-अच्छे स्थान हैं, ऊँचे स्थान हैं। इसी तरह तुरीय का संसार भी उत्तम और उत्तम है। आरम्भ में इतना उत्तम नहीं है कि ईश्वर-दर्शन हो, सब इन्द्रियों से छूटा जाय। जैसे-जैसे आगे बढ़े, पवित्रता अधिक बढ़ती गई, और आगे बढ़े तो मन इन्द्रियों के आवरण को पार कर गया। जो रहा, सो जड़ विहीन चेतन आत्मा कैवल्य दशा में रह गया। इस दशा में ईश्वर का दर्शन होता है। यह बड़ी उत्कृष्ट दशा है। इसमें ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।।’ हो जाता है। ब्रह्म को जो जानते हैं, वे ब्रह्मविद ही नहीं, ब्रह्म ही हो जाते हैं। यह अन्दर-अन्दर चलने से होता है, बाहर-बाहर चलने से नहीं।
साधारणतः जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति; इसी में आते-जाते रहते हैं। भजन किया, तुरीय अवस्था में प्रवेश किया। मैं कहूँ कि कई जन्मों तक इस अवस्था में रहना होगा। उत्तम-उत्तम स्थान में रहना होगा और अन्त में ईश्वर-दर्शन होगा। लोग कहते हैं कि इसमें बड़ा कष्ट होता है। क्या कष्ट होता है? मेरे पास तोशक है, तकिया है, पलंग है; जो बनता है, भजन करता हूँ, क्या कष्ट है? गुरु महाराज ने कहा-स्वावलम्बी बनो। जब जैसा हुआ, कमाई की। अब शरीर उस योग्य नहीं रहा। फिर भी निगरानी करता हूँ। यहाँ आया हूँ, सत्संग सेवा करता हूँ। यह भी तो काम ही है। गुरुजी ने कहा कि पिताजी के घर पर रहो, काम करके खाओ, नहीं तो खून खराब हो जाएगा। कभी बच्चों को पढ़ाया, कभी खेती का काम किया, चूल्हा चौका करना, बर्तन मलना, रोटी बनाना; यह सब बहुत किया। हाथ में ठेला है। मैं गुरु महाराज की आज्ञा का पालन करने से सुखी हूँ। मैं यह इसलिए कहता हूँ कि ऐसा न समझो कि भजन करनेवाले काम नहीं करते हैं। कबीर साहब जीवन भर अपना ताना-बाना करते रहे। रविदासजी जीवन भर जूते का काम करते रहे। दादू दयालजी जीवन भर काम करते रहे। बाबा नानक जीवन भर गृहस्थी में रहे। संतों ने देश का भार होकर रहने नहीं कहा। भजन करो, काम करो। निठल्ले मत बैठो। तुरीय अवस्था में जाने के लिए वैरागी का वेष नहीं लिया, इससे भजन नहीं होगा, यह बात नहीं है। बाबा नानक ने कहा-
जोगु न खिंथा जोग न डंडै जोगु न भसम चड़ाईअै ।।
जोगु न मुंदी मूंड़ि मूड़ाइअै जोग न सिं´ी वाईअै ।।
अंजन माहिं निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।
गली जोगु न होई ।
एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहीअै सोई ।।
जोग न बाहरि मड़ी मसाणी जोगु न ताड़ी लाईअै ।।
जोगु न देसि दिसंतरि भविअै जोगु न तीरथि नाईअै ।।
अंजन माहिं निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।
सतिगुरु भेटै ता सहसा तूटै धावतु वरजि रहाईअै ।।
निझरु झरै सहज धुनि लागै घर ही परचा पाईअै ।।
अंजन माहिं निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।
नानक जीवतिया मरि रहीअै अैसा जोगु कमाईअै ।।
बाजे बाजहु सिंजी बाजे तउ निरभउ पहु पाईअै।।
अंजन महि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै।।
जो दृष्टि को एक करता है, समता प्राप्त करता है, वह योगी होता है। इसलिए दस गुरुओं ने संसार के बहुत काम किए। इसमें दूसरे और तीसरे गुरु गृहत्यागी हुए और बाबा नानक तो घर में रहते हुए त्यागी थे। दसवें गुरु ने तो इसकी पराकाष्ठा को दिखा दिया। उन्होंने बहुत कष्टों को सहा। संत महात्मा घर छोड़ने को नहीं कहते। कबीर साहब कहते है-
अवधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भावै ।।
घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि वन नहिं जावै ।
वन के गए कलपना उपजै, तब धौं कहाँ समावै ।।
घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरु अलख लखावै ।
सहज सुन्न में रहै समाना, सहज समाधि लगावै ।।
उनमुनी रहै ब्रह्म को चीन्है, परम तत्त को ध्यावै ।
सुरत निरत सां मेला करिके, अनहद नाद बजावै ।।
घर में बसत वस्तु भी घर है, घर ही वस्तु मिलावै ।
कहै कबीर सुनो हो अवधू, ज्यों का त्यों ठहरावै ।।
उन्होंने कहा ही नहीं, करके दिखा दिया। करते जाइए, करने से ही होगा।
भक्ति में ईश्वर की सगुण भक्ति को छोड़कर निर्गुण भक्ति में कोई नहीं जा सकते। यह फाजिल ज्ञान है कि कोई सगुण के, कोई निर्गुण के भक्त होते हैं। कबीर साहब अन्य इष्ट को नहीं रखकर गुरु को इष्ट रखते थे। गुरु सगुण है कि निर्गुण? अंतर्ज्योति सगुण ही है और अन्तर्नाद भी सगुण ही है। निर्गुण नाद तो एक ही है। उस अन्तिम नाद की परख होती है, तब निर्गुण भजन होता है। इधर कहाँ? प्राणायाम, दृष्टियोग सब सगुण ही हैं। स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण में जबतक वृत्ति रहती है, सगुण भजन ही होता है। उससे ऊपर जाने से निर्गुण भजन होता है। निर्गुण के बारे में कहने से निर्गुण भजन नहीं होता। गोस्वामी तुलसीदासजी को सगुण राम भी इष्ट और गुरु भी इष्ट-
बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
तुम्ह तें अधिक गुरुहिं जिय जानी। सकल भायँ सेवहिं सन मानी।।
श्रीहरि गुरु पद कमल भजहिं, मन तजि अभिमान ।
जेहि सेवत सुख पाइय हरि, सुख निधान भगवान ।।
कबीर साहब और गुरु नानक साहब ने आरम्भ में इष्ट में गुरु को ही माना और आखिर में उनका निर्गुण होता है। पहले ही निर्गुण नहीं होता है बाबा! मुँह से कहने से क्या होगा? मुझे बहुत दिन हुए इन बातों को समझते-समझते। भक्ति का आरम्भ सगुण से होता है और अन्त निर्गुण है। गोस्वामी तुलसीकृत रामायण में है-
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान।
चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मो तें सन्त अधिक करि लेखा।।
आठवँ यथा लाभ सन्तोषा । सपनहुँ नहिं देखइ पर दोषा।।
नवम सरल सब सन छल हीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।।
शवरी मतंग ऋषि की शिष्या थीं। वह बहुत ज्ञान जानती थीं। केवल सुन-सुनकर जानती थीं। ज्ञान केवल अक्षर पढ़ने से नहीं होता है। पाँच भक्ति तक लोग समझ जाते हैं। इनमें रहस्य क्या है?
नित प्रति दरसन साधु के, औ साधुन के संग ।
तुलसी काहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
मन तो रमे संसार में, तन साधुन के संग ।
तुलसी याहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
साधु-संग करो, तो एकाग्र मन से बैठो। साधु- संग में जाओ, तो कथा-प्रसंग स्वाभाविक होता है, उसको मन लगाकर सुनो। सत्संग हो व कोई पण्डित कथा कहते हों, तो मन से सुनो। बाहर में आँख में आँसू बहे और मन में रहे कि लोग हमको भक्त समझें, तो यह कीर्तन नहीं है। जप तो ऐसा हो कि उसकी मादकता आ जाए। केवल माला में जप करो, मन भागे तो क्या होगा? ऐसा जप ठीक नहीं। एकाग्र मन सेे जो जप होता है, वही जप है।
तन थिर मन थिर वचन थिर, सुरत निरत थिर होय ।
कहे कबीर इस पलक को, कलप न पावै कोई ।।
मन लगते-लगते एकाग्रता की ओर झुकेगा। मन में एकाग्रता का बल होगा। छठी भक्ति यह है कि दमशील अर्थात् इन्द्रियों के निग्रह का स्वभाववाला बनो और बहुत से कर्मों से अपने को हटा लो। सज्जनों के धर्म के अनुसार चलो। सज्जनों का धर्म है-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों को नहीं करना। हिंसा नहीं करने के अन्दर मत्स्य-मांस का नहीं खाना है। लोग कहते हैं कि देश में युद्ध होगा, तो हिंसा के डर से युद्ध छोड़ दें? नहीं, नहीं! लड़ना होगा। जैसे कृषकों के लिए कृषि-कर्म है, वैसे ही युद्ध अनिवार्य हिंसा है। लोग कहने लगे कि तब तो इसका भी पाप लगेगा? मैंने कहा-हाँ, तो उसको भोग लिया जाएगा। मुझे एक जैन साधु से भेंट हुई थी। उनसे इस संबंध में बातचीत हुई थी। उनको भी कहना पड़ा कि शत्रुओं के आक्रमण करने पर युद्ध करना अनिवार्य हिंसा है। और अपनी एक कथा सुनाई कि एक जैनी राजा ने युद्ध में एक लाख को मारा था। इस अनिवार्य हिंसा को साधु भी मना नहीं करते। और जीभ के वश होकर अथवा व्यवसाय के ख्याल से हिंसा करना ठीक नहीं है। मन से, वचन से हिंसा होती है। जान से मार डालता है, यह भी हिंसा है। खेती और युद्ध की हिंसा अनिवार्य हिंसा है। युद्ध करनेवाले भी मांस-मछली नहीं खाते और युद्ध करते हैं। श्रीरामायणजी की कथा क्या बताती है? रावण दल के लोग मत्स्य-मांस खाते थे और राम दल के वीर लोग फल-फूल खाते थे। फल क्या हुआ? कन्द, मूल, फल खानेवाले जीत गए और ‘महिष खाय अरु मदिरा पाना’ वाले हार गए। युद्ध करो, लेकिन मत्स्य-मांस खाना कोई आवश्यक नहीं है। जो झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार नहीं करते, वे सज्जन हैं। सज्जन बनकर रहो, इसकी बड़ी आवश्यकता है। इन्द्रियों को रोकने का स्वभाववाला बनो, यह बड़ी बात है। बुद्धि से, विचार से कभी रुकेगी, कभी नहीं रुकेगी। इन्द्रियाँ विषयों में कैसे चलती हैं, इसको जानो। इन्द्रियों के साथ साथ चेतन धारा है, तब इन्द्रियाँ विषयों में जाती हैं। स्वप्न में कोई देखें कि मैं गन्ना (ईख वा केतारी) चबाता हूँ तो उसको गन्ने की मिठास मालूम होती है। गहरी नींद मे मन बाहरी विषयों में नहीं जाता। संतों ने कहा कि जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति के स्थान से अपने को ऊपर उठाओ। ऊपर उठाने पर तुरीय अवस्था होती है। अधिक शक्ति हो जाने पर जबतक तुरीय में रहना चाहेगा, रहेगा। उसको बाहरी विषयों से घृणा हो जाएगी। अन्दर में ऐसा रस मिलता है कि बाहर का रस बेरस हो जाता है। यह दृष्टियोग के अभ्यास से होता है। इसको शाम्भवी मुद्रा, वैष्णवी मुद्रा भी कहते हैं। जहाँ दृष्टि रहती है, वहाँ मन रहता है। जैसे किसी चीज को दोनों हाथों से खूब जोर से पकड़ो तो शरीर का सारा बल उस ओर हो जाता है। उसी तरह दृष्टि साधन से दृष्टि जहाँ टिकी रहती है, तो शरीर की सभी धाराएँ वहाँ सिमट जाती हैं। ‘दशेन्द्रिय थाके शून्य ते बन्धन...’
दसों इन्द्रियों की धारें वहाँ सिमटकर बँध जाती हैं। इस तरह से दृष्टियोग करता हुआ रहे और विचार से भी विषयों से रोकता हुआ रहे तो दमशील हो जाएगा। इसमें भक्ति क्या हुई? बड़ी भक्ति हुई। बहिर्मुख से अन्तर्मुख हुआ। बाहर विषयों की ओर से हटकर ईश्वर की ओर हो गया। लेकिन केवल ‘दम’ के साधन से पूर्णता नहीं होती। इसलिए ‘शम’ का साधन है। बिना ‘शम’ के ‘सम’ नहीं होगा। इन्द्रियों का संग छूटे, इसीलिए नादानुसंधान है। महायोगी शंकाराचार्य ने नादानु- संधान की वन्दना की है और कहा है कि-
नादानुसंधान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महेतत्त्वपदंलयानाम् ।
भवत्प्रासदात् पवनेन साकं विलीयते विष्णु पदे मनो मे ।।
अर्थात् हे नादानुसंधान! आपको नमस्कार है, आप परमपद में स्थित कराते हैं, आपके ही प्रसाद से मेरा प्राणवायु और मन; ये दोनों विष्णु के परम पद में लय हो जायेंगे। कबीर साहब ने कहा है-
शबद खोजि मन बश करै, सहज योग है येहि ।
सत्तशब्द निज सार है, यह तो झूठि देहि ।।
जिसको शब्द की खोज कहते हैं, उसी को नाद की खोज वा नादानुसंधान कहते हैं। यह अन्तर्नाद की खोज है, बाहर नाद की नहीं। साधक साधना करते हुए अन्दर में विविध नाद पाते हैं। इसमें दृष्टि का काम नहीं होता। बाहरी कान से भी काम नहीं होता। केवल अन्तर वृत्ति से सुनते हैं। इसमें मन काबू में होता है। नादविन्दूपनिषद् में लिखा है-
नाद ग्रहणतश्चित्तमन्तरंग भुजंगमः।
विस्मृत्य विश्वमेकाग्रः कुत्रचिन्नहि धावति ।।
अर्थ-नागरूप चित्त को नाद का अभ्यास करते-करते पूर्ण रूप से उसमें लीन हो जाता है और सभी विषयों को भूलकर अपने में अपने को एकाग्र करता है।
मनोमत्त गजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः।
नियामन समर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः।।
अर्थ-नाद, मदान्ध हाथीरूप चित्त को, जो विषयों की आनन्दवाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है।
नादोऽन्तरंग सारंग बन्धने वागुरायते ।
अन्तरंग समुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि वा ।।
अर्थ- मृगरूपी चित्त को बाँधने के लिए यह (नाद) जाल का काम करता है। समुद्र तरंग-रूपी चित्त के लिए यह (नाद) तट का काम करता है।
आप वैष्णव, शाक्त, शैव कोई हों, नवधा भक्ति कीजिए; सगुण, निर्गुण कोई भक्ति नहीं बचेगी। संतमत में स्थूल भक्ति, सूक्ष्म भक्ति, अपरा भक्ति-सभी हैं।
श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै ।
रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै ।।
नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै ।
अंग बिना मिलि संग, बहुत आनंद बढ़ावै ।।
बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिए रहै ।
मिलि परमातम सो आतमा, परा भक्ति सुन्दर कहै ।।
यही संतमत का भक्तिमार्ग है।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत 60वाँ अखिलभारतीय संतमत सत्संग में, भारत के महान तीर्थ हरिद्वार में दिनांक 10. 6. 1968 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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