270. सम्पूर्ण संसार का शासनकर्ता कौन है?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
संसार के सब प्राणी सुख पाने की इच्छा रखते हैं। इस सत्संग के द्वारा मैं आपको सुख का पता बताऊँगा। उस सुख को कैसे प्राप्त करें, इसके बारे में कहूँगा। साधारण तरह से लोग सुख उसको कहते हैं, जो मन को और इन्द्रियों को सुहाता है। इससे कोई विशेष सुख है, तो लोग समझतें हैं-बौद्धिक सुख है। परन्तु बुद्धि को मन और इन्द्रियों से ऐसा सम्बन्ध है कि मन, इन्द्रियों के सम्पर्क में नहीं है, तो ऐसे को बुद्धि नहीं समझ सकती। मतलब यह कि बुद्धि, मन और इन्द्रियां की संगिनी है। इतना ही फर्क है कि इन्द्रियाँ सब मन से स्थूल, मन उससे सूक्ष्म और बुद्धि मन से भी सूक्ष्म। परन्तु तीनों को मेल है। मन-इन्द्रियों से जहाँ मेल नहीं, उसको बुद्धि नहीं जानती। मन- इन्द्रियों से प्राप्त सुख को लोग जानते हैं। मन, इन्द्रियों से परे मानने योग्य और कोई सुख है, उसको बहुत अधिक लोग नहीं जानते। पहले आप देखिए कि मन और इन्द्रियों से जानने योग्य सुख से क्या फल आपको मिलता है। क्षणिक-सुख मिलता है। दुःख से मिश्रित सुख मिलता है। उसके बाद फिर दुःख आता ही है।
संसार में बहुत से प्रभावशाली लोग आए। बुद्धि में बहुत तीव्र लोग आए, उत्तम-उत्तम शासनकर्ता लोग आए। शारीरिक बल ऐसा कि उसको पढ़कर जानने से आश्चर्य लगता है, असंभव लगता है। ऐसे लोग संसार में आए, जिनकी पूजा होती थी। आज भी पूजा होती है। भारत के लोग जिनको बड़ी भक्ति और भाव से देखते हैं, वे भी पूर्ण सुखी रहे, ऐसा नहीं देखा जाता है। उन लोगों पर भी दुःख आया और वे कठिनाई से उसको सहन किए। मेरे कहने का भाव यह कि जो सुख मिलता है, वह सुख केवल सुख नहीं है, उसके साथ दुःख भी है। लोग चाहते क्या हैं? सुख हो दुःख नहीं हो। ऐसा सुख कि उसमें डूबे रहें, ऊबें नहीं। ऐसा सुख क्या संसार में है? क्या पुरानी बातांं में, क्या अबकी बातों में ऐसा सुख संसार में ंदेखा नहीं जाता। सुख-सुख कहकर जिस पदार्थ को मानते हैं, उसके साथ दुःख लगा रहता है। सुख भागता जाता है, दौड़ते-दौड़ते शरीर खत्म हो गया, तृप्ति कभी नहीं हुई, संतुष्टि कभी नहीं हुई। तृष्णा लेकर संसार से चले गए।
रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत क्या बत- लाती है? सबमें यही कथा पढ़ते हैं, जो लोग बहुत विशेष थे, वे लोग भी बहुत दुःख पाए और उसको साहस से सहन किए। जो औरों से सहना कठिन था। उन्होंने नमूना दिया कि किसी को विश्वास नहीं करना चाहिए कि संसार में पूर्ण सुखी कोई है। मैं कहूँगा जो केवल इस संसार को जानते हैं, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं जानते, वे इस देश में और अन्य देश में राष्ट्रपति तो मानते हैं, लेकिन सम्पूर्ण विश्व का कोई एक ही मालिक हैं, वे ऐसा नहीं मानते। ज्यादे खोज करने पर एहिकालिक और पौराणिक-ग्रंथों में है कि सम्पूर्ण संसार का शासनकर्ता एक अवश्य है। और वह सुख भी है,जिसको पाकर कोई ऊबता नहीं। वह कभी फीका नहीं लगता। सदा मीठा रहता है। सदा ही लगा रहता है, कभी छूटता नहीं।
परम स्वाद सबहीं जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै ।
मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै ।।
-भक्तवर सूरदासजी महाराज
गूँगा आदमी मीठा खाता है, स्वाद मालूम होता है, लेकिन वर्णन नहीं कर सकता। सूरदासजी कहते हैं परम स्वाद। आँख से रूप, कान से शब्द, नासिका से गन्ध, त्वचा से स्पर्श, जिभ्या से रस ग्रहण करते हैं। लेकिन ये सब कोई भी परम स्वाद नहीं। परम स्वाद इन्द्रियों में नहीं। कभी-कभी कोई-कोई बात जो समझ में आती है, वह भी अच्छी लगती है, लेकिन परम स्वाद सदा लगा ही रहता है। उसका फल अमित-तोष होता है, जिसका वर्णन कोई नहीं कर सकता। लेकिन मन नहीं जान सकता। वचन से नहीं बोला जा सकता। जो पाता है, वही जानता है। वह स्वाद भी है और सारा विश्व का एक शासक भी है। वह शासक कैसा है? वह कभी उत्पन्न नहीं हुआ। वह देशकालातीत है। स्थान और समय का पता नहीं, तब वह था। स्थान हो, समय नहीं हो; समय हो, स्थान नहीं, ऐसा हो नहीं सकता। जहाँ समय है, वहाँ स्थान और जहाँ स्थान है, वहाँ समय होगा। देश-काल माया है, वह देश-कालातीत है। वह कभी हुआ है, ऐसा नहीं। वह सबसे प्रथम का है। वह परम पुरातन, परम-सनातन है। साथ-ही-साथ देश-काल ज्ञान से अनादि है। और उपज-ज्ञान से भी अनादि है। न उपजा है, न देश-काल की सीमा में है। कहीं उसका अन्त नहीं, वह आदि-अंत-रहित है।
व्योम को व्योम अनंत अखण्डित, आदि न अन्त सुमध्य कहाँ है ।
-सुन्दरदासजी
सबसे प्रथम का कुछ मानना युक्तिसंगत बात है या नहीं? सौर जगत में सूर्य से पहले का कुछ नहीं है। पंच भौतिक जगत में आकाश से पहले कुछ नहीं है। यहाँ बहस नहीं होता। यहाँ सौर जगत और पंच भौतिक जगत में पहले क्या है? सौर जगत में पहले सूर्य और पंच भौतिक जगत में पहले आकाश यह दृढ़ माना जाता है। समूचे संसार में यह ज्ञान है कि एक ब्रह्माण्ड नहीं है, अनेक हैं। प्रकृति से सारे ब्रह्माण्ड निर्मित हैं। इतना बड़ा मंडल है कि प्रकृति उससे भर नहीं जाती। इन सबमें रहते हुए सबसे परे अनादि-अनन्त-तत्त्व अवश्य है। सौर जगत के पहले अवश्य सूर्य होगा। और पंच भौतिक जगत के पहले अवश्य ही आकाश होगा। इन सबसे पहले का भी कुछ हो, यह क्यों नहीं माना जा सकता? सारे प्रकृति मण्डल में जो कुछ है, देश-काल से घिरा हुआ है।
जहाँ देशकाल नहीं, प्रकृति की रचना नहीं। वहाँ देश-काल नहीं है। देश-काल के परे कुछ है, वही सबसे प्रथम का है। वह हई है। न उसका कहीं आदि है, न अन्त है। वह सर्वज्ञान का भण्डार है। ज्ञान का भण्डार नहीं मानिए, तो ज्ञान कहाँ से आया? संसार में सबको ज्ञान है, किसी को कम, किसी को बेसी। यह कहाँ से आया? संसार में बड़ी-बड़ी शक्तियाँ हैं। यह शक्ति कहाँ से आई? जो अनादि- अनंत, देश-कालातीत है, वही ज्ञान का भण्डार है। वही सर्वशक्ति का खजाना है। वह कितना सूक्ष्म है कि मन-बुद्धि से भी अधिक सूक्ष्म है। इसलिए वह सर्वव्यापक होकर सबसे परे भी है।
जो अनादि-अनन्त नहीं होगा, वह सबसे प्रथम का नहीं होगा। अगर ऐसा अनादि-अनंत नहीं मानेंगे, ससीम मानेंगे तो उसके अतिरिक्त भी कुछ मानना होगा। उसके अतिरिक्त जो होगा, वही सबसे पहले का होगा। तब वही ईश्वर परमात्मा हो जाएगा। एक ऐसा अवश्य कहना होगा, जो आदि अन्त-रहित तत्त्व है। अनादि-अनन्त तत्त्व से परे कुछ है, ऐसा मानना हास्यप्रद है। असीम-अनादि से परे का माननेवाला असीम का, अनन्त का अर्थ नहीं जानता है। जो जितना सूक्ष्म होता है, वह उतना अधिक व्यापक होता है।
एक सेर बर्फ की जितनी व्यापकता होगी, उसका पानी बना लेने से उसकी अधिक व्यापकता हो जाएगी। क्योंकि बर्फ से पानी सूक्ष्म होता है। यह ‘मिसाल’ बतलाता है कि जो जितना सूक्ष्म होता है, वह उतना अधिक विस्तार रखता है। जो सबसे अधिक सूक्ष्म है, वह सबसे अधिक व्यापक है। जहाँ तक रचना है, वहाँ तक व्यापक है। जिनका मण्डल सबसे विशेष विस्तार होता है, उनके अन्दर सब रहते हैं, उनके शासन में सब रहते हैं। जिनके शासन में, जिनके प्रभाव में रहना पड़े, वे ही प्रभु हैं, ईश्वर हैं। उन्हीं के लिए सुना-
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता।अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
वह व्याप्य है और व्यापक भी है। जिसमें कुछ समावे, वह व्याप्य है; जो समावे, वह व्यापक है। प्रकृति मण्डल व्याप्य है। परमात्मा व्यापक हैं। प्रकृति परमात्मा के अन्दर है, इसलिए परमात्मा भी व्याप्य हैं। उनका टुकड़ा नहीं है, आकार नहीं है। आकार मानने से ससीम हो जाएगा। विराटरूप आदि-अन्त-रहित है, ऐसा कितने लोगों का ख्याल है। बलि के सामने पहले छोटे रूप में, पीछे बड़े रूप में भगवान हुए। आकार बहुत बड़ा था। ‘पद पाताल शीश अज धामा ।’ जामवन्त उस समय जवान थे। उन्होंने उनकी सात प्रदक्षिणा की। यदि विराटरूप आदि-अन्त-रहित होता तो प्रदक्षिणा कौन करे? अर्जुन को जो विराटरूप दिखाया गया उसके हाथ, मुँह, पैर आदि को कोई गिन नहीं सकता था। उसमें घोर-दर्शन भी और प्रिय-दर्शन भी था। अर्जुन उस रूप से बाहर थे। उस रूप को देखकर डर रहे थे। उस रूप के अतिरिक्त और स्थान था। तब अर्जुन अलग खडे़ थे। यहीं ससीमता आ जाती है। और कौरव-पाण्डव दल के लोग सब ओर से टिड्डी की तरह आते थे, उनके मुँह में प्रवेश करते और मर-मरकर गिरते थे। यह भी ससीमता बताना है।
कितना बड़ा भी रूप होगा, वह ससीम होगा। रूप में ससीमता अवश्य होगी। विराटरूप से अधिक विस्तार रूप नहीं हो सकता। फिर भी उसकी ससीमता जानी जाती है। जामवन्त सात बार उनको घूम-घूमकर प्रदक्षिणा किए।
उभय घड़ी महँ दीन्हीं, सात प्रदच्छिन धाइ ।
कोई भी शरीर आदि-अन्त-रहित कहकर जानने योग्य नहीं है। इसलिए-
निर्मल निराकार निर्मोहा । नित्य निरंजन सुख सन्दोहा ।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
इसका अन्त नहीं होगा। इसमें इधर-उधर से कुछ नहीं आवेगा। सब उसी में है। सबसे प्रथम का कुछ नहीं है, कहा नहीं जा सकता। यदि कहता है तो जोर करता है, जिद्द करता है।
अनेक मानने के लिए अवकाश मानना पड़ेगा। बिना अवकाश के एक और अनेक का ज्ञान नहीं होता। कान और कनपट्टी के बीच में खाली जगह नहीं हो तो दोनों की पहचान नहीं हो सकती। संसार की रचना ईश्वर ने क्यों की? ऐसा वा वैसा क्यों किया? यह बात मैं नहीं करता। सीमित बुद्धि में असीम का ज्ञान करना हो नहीं सकता।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सब दरसी अनवद्य अजीता।।
निर्मल निराकार निर्मोहा ।नित्य निरंजन सुख सन्दोहा।।
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
अपने यहाँ राम ईश्वर हैं, कृष्ण ईश्वर हैं, विष्णु ईश्वर हैं, शिव ईश्वर हैं, गणेश ईश्वर हैं, सूर्य ईश्वर हैं, काली माई ईश्वरी हैं? हाँ! हैं। क्योंकि इनमें शक्ति पाते हैं। बड़े-बड़े कर्म इनमें पाते हैं। तो क्या ईश्वर बहुत हैं? ईश्वर के मानने वाले एक से अधिक ईश्वर नहीं मानते। राम के माननेवाले राम को, कृष्ण के माननेवाले कृष्ण को ईश्वर मानते हैं। ईश्वर अनेक नहीं, सबमें एक ही ईश्वर हैं। राम में, विष्णु में, शिव में; सबमें एक ही ईश्वर हैं।
श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीदुर्गा महान-महान विभूतियाँ हैं। राम, कृष्ण आदि रूप को पहचानते हैं। आँख नहीं हो तो रूप को कौन पहचाने? जन्मान्ध कभी कुछ नहीं देखता। जिसको देखने की शक्ति नहीं, उसको रूपज्ञान नहीं होता। सर्वव्यापी का ज्ञान- जिसको कहा कि त्रयगुणरहित है, निराकार है, उसके लिए न कान, न आँख काम कर सकती है। शरीर की सारी इन्द्रियाँ भी काम नहीं कर सकतीं। क्योंकि-
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
वह स्वरूप ऐसा है कि वचन में आने योग्य नहीं, बुद्धि से परे है। देखने में नहीं आता। वह अपार है। केवल तुलसीदासजी ही नहीं कहते और संत भी कहते हैं। कबीर साहब, गुरु नानक साहब ने तो इसका वर्णन किया है-
श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
चून चगून वजूद न मानु तैं सुभानमूना ऐना ।।
जैसे ऐना सब दरसावै जो कुछ वेष बनावै ।
ज्यों अनुमान करै साहब को त्यों साहब दरसावै ।।
जाहि रूप अल्लाह के भीतर तेहि भीतर क े ठाईं ।
रूप अरूप हमारि आस है हम दूनहुँ के साईं ।।
जो कोउ रूह आपनी देखा सो साहब को पेखा ।
कहै कबीर स्वरूप हमारा साहब को दिल देखा ।।
आत्म-दृष्टि से खोजिए। गुरु नानक कहते हैं-
अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
साचे सचिआर बिटहु कुरबाणु ।
ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।
ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु काम न नारी ।
अकुल निरंजन अपर परंपरु सगली जोति तुमारी ।।
घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ।
बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।।
जिस इन्द्रिय का जो विषय नहीं है, उस इन्द्रिय से उस विषय को ग्रहण करने के लिए कोई चाहेगा, सो कैसे होगा? यदि ऐसा होता तो बहिरा आँख से सुन लेता, अन्धा कान से देख लेता। एक ही इन्द्रिय से सभी विषयों को नहीं पकड़ सकते। एक-एक इन्द्रिय का एक-एक विषय है। ईश्वर इन्द्रियों से जाना नहीं जाता, तब किससे जाना जाता है? आप कौन हो? आपकी इन्द्रियाँ हैं, आपका शरीर है। आप कुछ नहीं हैं? आँख में आप नहीं रहो तो देखने की शक्ति और कान में नहीं रहो तो कान से सुनने की शक्ति नहीं रहे। मृतक शरीर में तो देखा ही जाता है कि वह सुनता नहीं, देखता नहीं। किसके नहीं रहने से? आपके ही नहीं रहने से। आप निजी शक्ति कुछ नहीं रखते हैं। आपकी निजी शक्ति बहुत है।
यदि कोई कहे कि यदि एक ही शक्ति से देखा जाता है, सुना जाता है, तो उसी शक्ति से ईश्वर को क्यों नहीं देखेंगे? इसकी उपमा मैं देता हूँ कि देखो! रेलवे स्टेशन में रोशनी होती है, उसमें एक तरफ हरा शीशा और दूसरी तरफ लाल शीशा रहता है। जिस तरफ होकर रोशनी निकलती है, उस रंग का प्रकाश मालूम होता है। उसी तरह आपकी शक्ति इन्द्रियाँ होकर निकलती हैं, इसलिए इन्द्रियों का रंग और इन्द्रियोंं का गुण लेकर निकलती है। अपने पर से इन्द्रियों को हटा दें तो अपनी निजी शक्ति में आ जाएँगे। इसी को आत्मबल कहते है। लोग सामान्य बात में भी कहते हैं कि उनमे आत्मबल है। लेकिन अपने को तो जाने नहीं। ईश्वर आत्मगम्य हैं। ‘आतमगम्य भजहिं जेहि सन्ता ।’
ईश्वर तो बहुत दूर है। लेकिन आप तो अपने को भी नहीं पहचानते। फोटो में शरीर का रूप देखते हैं। लेकिन जिसको मेरा कहते हो, उसका फोटो नहीं होता। अलग-अलग इन्द्रियों के अलग- अलग विषय हैं और आपका भी विषय अलग है। वह है आपको अपने को चीन्हना और ईश्वर को चीन्हना। ईश्वर को देखने के लिए, चीन्हने के लिए आपका विषय है। जैसे आँख का विषय रूप है। आप अपने को क्यों नहीं पहचानते? कान से आँख को कोई देख नहीं सकता। आँख से ही आँख को देख सकता है ऐना लेकर। आँख में लाली हो गयी है किसी ने कहा। उसको देखने के लिए आप क्या करेंगे? ऐना वा जल नहीं हो तो आप नहीं देख सकते। क्योंकि उसमें प्रतिबिम्ब होता है। अपने को अपने से देखने के लिए क्या साधन है? अपने को इन्द्रियों के स्थान से, मन-बुद्धि के स्थान से, शरीरों के स्थानों से हटा दीजिए।
मरने पर स्थूल शरीर छूटता है, सूक्ष्म शरीर नहीं छूटता है। स्थूल शरीर के भीतर सूक्ष्म शरीर है। उसके भीतर कारण, फिर उसके भी भीतर महाकारण; ये चार जड़ शरीर हैं। इनके अन्दर आपका वासा है। इनसे अपने को ऊपर उठावें। तब अपने से अपने को पहचानेंगे। ‘आतम अनुभव सुख सु परकासा।’ तब सर्वव्यापी ईश्वर आप-ही- आप सर्वत्र दर्शन देेंगे। साधन यही है कि अपने को शरीर-इन्द्रियों से ऊपर उठाइए। यही ईश्वर की भक्ति है। ईश्वरीय ज्ञान के लिए इन्द्रिय-ज्ञान तक ही नहीं रहना चाहिए, आगे बढ़ना चाहिए।
गुरु-वाक्य, सच्छास्त्र और तर्क; तीनां मिल जाएँ, तब श्रद्धा है। तर्क जहाँ तक नहीं जाए, वहाँ श्रद्धा जाती है। फिर भी संशय रह जाए तो साधन करो। उसी साधन का नाम है ध्यानयोग। यह सरलतम साधन है। जैसे आँख देखने का सरलतम साधन ऐना है। इसी तरह अपने को और ईश्वर को देखने के लिए सरलतम साधन ध्यानयोग है। हठयोग जबरदस्त है। है तो है। लेकिन यह सबसे सधने योग्य नहीं है। राजयोग कहता है-‘हे हठयोग! तुम्हारे बिना ही हम चल सकते हैं। लेकिन मेरे बिना तुम आगे नहीं बढ़ सकते।’
श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में केवल ध्यानयोग का वर्णन है, हठयोग का नहीं। उसी से ईश्वर-प्राप्ति, आत्म-स्वरूप की प्राप्ति और शान्ति की प्राप्ति बतायी है। ध्यानयोग मेें लौ लगाना पड़ता है। पढ़े-अनपढ़े जो थोड़ी भी बात समझ सकते हैं, वे लौ लगा सकते हैं। ईश्वर क्या है? रूप क्या है? जो आँख से पकड़ सको। शब्द क्या है? जो तुम कान से पकड़ सकते हो। इसी तरह ईश्वर क्या है? जो तुम अपने से प्रत्यक्ष जानो। अपने को जानने के लिए गीता में भगवान ने क्षेत्र क्षेत्रज्ञ का भेद समझाया है। क्षेत्र के सभी तत्त्वों को गिना दिया है। पाँच स्थूल तत्त्व (मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), पाँच सूक्ष्म तत्त्व (रूप, रस,गंध, स्पर्श और शब्द), अहंकार, बुद्धि, प्रकृति, दशेन्द्रियाँ (हाथ, पैर, मुँह, गुदा और लिंग; ये कर्मेन्द्रियाँ और आँख, कान, नाक, जिह्ना और त्वचा; ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ), मन, चैतन्य, संघात (कहे गए का संघरूप), धृति (धारण करने की शक्ति) और इनके विकार- इच्छा, द्वेष, सुख और दुःख-इन इकतीस तत्त्वों के समूह को संक्षेप में क्षेत्र कहते हैं। शरीर से इन इकतीस को अलग कर दो, तब जो बचता है, वही आत्मतत्त्व है। ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी ।’
जो अपने को ध्यानयोग के द्वारा चारो शरीर से ऊपर उठा सकते हैं, वे कैवल्य दशा को जड़ से भिन्न होकर पाते हैं। जैसे दूध मथने पर मक्खन अलग हो जाता है।।
जिमि दूध के मथन से, निकसत है घी जतन से ।
तिमि ध्यान के लगन से , परब्रह्म ले निहारा ।।
-स्वामी ब्रह्मानन्दजी
इस तरह सब क्षेत्रों से अलग हो गए। इनमें रहकर भी इनसे अलग हुए, वे ही जीवनमुक्त हैं। वे ही कैवल्य दशा प्राप्त किए हैं, वे ही अपने को पहचानेंगे। तब ईश्वर की खोज करने की बात नहीं रहेगी। जहाँ ऐसा होगा, वहीं सर्वव्यापी का दर्शन होगा। शरीर और मन सोता है, लेकिन चेतन आत्मा सोती नहीं। चेतन आत्मा शरीर से पृथक हो जाए, तब उसको न जाग्रत है, न स्वप्न है, न सुषुप्ति है। तुरीय में रहकर ईश्वर का दर्शन करती है। जो इस तरह की भक्ति करता है, वह भक्त है। जैसे जगन्नाथजी की ओर जो जाते हैं, वे जगन्नाथजी के भक्त होते हैं। इसी तरह जो ईश्वर की ओर गमन करता है, वह ईश्वर का भक्त है।
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यह प्रवचन सहर्षा जिला वार्षिक अधिवेशन, सुपौल में दिनांक 24. 6. 1967 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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