1967 (प्रवचन संख्या : 255-282)

255. जहाँ सत्यता वहाँ दुर्गुण नहीं (01.01.1967)


255. जहाँ सत्यता, वहाँ दुर्गण नहीं

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
सत्संग से सत्य का ज्ञान होता है। सत्संग से सदाचरण का ज्ञान होता है। सत्संग से सद्गति का ज्ञान होता है। सत्य, सद्गति और सदाचरण; इन तीनों को लोग ग्रहण कर सकें, तो बहुत अच्छी बात है।
 सत्य उसको कहते हैं, जिसका परिवर्तन नहीं होता, जिसका विनाश नहीं होता अर्थात् अत्यन्ताभाव नहीं होता। ऐसा जो है, वह है सत्य। सत्याचरण- उत्तम आचरण और शीलता के साथ संसार में बरतना चाहिए। शीलता में सत्यता और नम्रता रहती है। शीलता और नम्रता के साथ संसार में बरतना चाहिए। जहाँ सत्यता है, वहाँ कोई दुर्गुण नहीं रहने पाता। सत्य दुर्गुणों का विनाश कर देता है। सत्य हो, परन्तु नम्रभाव नहीं, तो सत्य में रूखापन रहता है। इसीलिए सत्यता के साथ नम्रता अवश्य चाहिए।

यदि झूठ का त्याग हो जाय, हिंसा का त्याग हो जाय, नशाओं का त्याग हो जाय, चोरी का त्याग हो जाय, व्यभिचार का त्याग हो जाय; इन पंच पापों का त्याग हो जाय, तो वह त्यागनेवाला पूर्ण त्यागी है। नम्रता के साथ सत्य का भाव हो, यही शीलता में चलना है।
 
हमलोगों का यह शरीर कुछ काल तक रहेगा। यह सदा नहीं रहेगा। बहुतों का शरीर छूटा तथा उनकी अन्त्येष्ठि-क्रिया को बहुतों ने देखा भी। हिरण्यकशिपु ने बहुत तप किया था। उसने वरदान में माँगा था कि मृत्यु आकाश में नहीं हो, धरती पर नहीं हो, दिन में नहीं हो, रात में नहीं हो, किसी अस्त्र-शस्त्र से नहीं हो, मनुष्य और जानवर द्वारा नहीं हो। अपने वरदान में उसने अपने को अमर ही मान लिया। सब तरह से उसने ब्रह्माजी को अपने वरदान में बाँध लिया। ब्रह्माजी ने वैसा ही वरदान दिया। हिरण्यकशिपु भी भक्त था, शिवजी में बहुत प्रेम रखता था। किन्तु विष्णु भगवान से द्वेष करता था। विष्णु भगवान का नाम तक सुनना नहीं चाहता था। हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद का जन्म हुआ। प्रह्लाद की माँ कुछ काल नारद मुनि की हिफाजत में रही थी। नारद मुनि का ज्ञान उसकी माँ सुनती थी। उसने हरि-भक्ति की बात बहुत सुनी। प्रह्लाद में वही नारद मुनि का गुण आ गया था। वह भगवान विष्णु का नाम जपता था। हिरण्यकशिपु ने बहुत मना किया, लेकिन प्रह्लाद ने नहीं माना। आखिर में तलवार लेकर उसने प्रह्लाद से पूछा-‘बताओ, तुम्हारा भगवान कहाँ है?’ प्रह्लाद ने कहा-‘हममें तुममें खड़ग खम्भ में, सर्वत्र राम-ही-राम है।’ हिरण्यकशिपु ने पूछा-‘क्या खम्भे में भी तुम्हारा भगवान है?’ प्रह्लाद ने कहा-‘हाँ।’ यह सुनते ही हिरण्यकशिपु ने खम्भे पर तलवार चलायी। उस खम्भे से नरसिंह भगवान प्रकट हुए। उन्होंने हिरण्यकशिपु को अपनी गोद में लेकर मकान की देहरी पर सूर्यास्त के समय उसके पेट को अपने नख से फाड़ दिया, उसकी मृत्यु हो गयी, वह अमर नहीं रह सका। तात्पर्य यह है कि शरीर का नाश अवश्य होता है। शरीर का नाश होता है, यह तो सभी जानते हैं, लेकिन शरीर छूटने के बाद कहाँ जाना होता है, इस बात का यत्न नहीं जानते हैं।

अपने देश में श्राद्ध-क्रिया होती है। श्राद्ध-क्रिया से पता चलता है कि शरीर छोड़कर जीवात्मा कहीं चला गया है। उसी की शुभगति के वास्ते श्राद्ध होती है। इसमें इतना ज्ञान अवश्य है कि शरीर नाशवान है और जीवात्मा अविनाशी है।
 पुराणों को पढ़ने से स्वर्ग और नरक का ज्ञान होता है। जीव अपने कर्मानुसार दोनों का भोग भोगता है। स्वर्ग का भोग सद्गति नहीं है। भगवान श्रीराम ने अपनी प्रजा को उपदेश देते हुए कहा है-
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।

स्वर्ग पाने की इच्छा छोड़ देनी है। सद्गति किसको कहते हैं? परमात्मा का संग हो जाना-ब्रह्म से मिलाप हो जाना असल में सद्गति है।

लोग संशय करते हैं कि ईश्वर है या नहीं। मैं कहता हूँ कि मेरे विचार में ईश्वर अवश्य हैं। सोचो, परम पुरातन, परम सनातन तत्त्व है कि नहीं! परम सनातन, परम पुरातन तत्त्व नहीं मानना बुद्धि विपरीत है। सारे अवकाशों को भरकर जो अवकाशहीन है, जिससे कोई जगह खाली नहीं है, वही सबसे पहले का है। वही ब्रह्म है, जो अपने तईं आप-ही-आप है। यही अध्यात्म-विज्ञान बतलाता है। यहाँ का वैज्ञानिक संसार के भण्डार से कुछ लेकर कुछ बनाते हैं। ईश्वर ऐसे वैज्ञानिक हैं कि वे बिना कुछ-के-कुछ बनाते हैं। वे बिना उपादान के सब कुछ बनाते हैं। यदि ईश्वर भी कहीं से कुछ लेकर कुछ बनाते हैं, तो मनुष्य से बढ़कर उनमें कोई विशेषता नहीं। सारी सृष्टि ईश्वर के नियंत्रण में है। ईश्वर वे हैं जो सबके प्रभु हैं अर्थात् वे शासक हैं। उनके शासन में सारी सृष्टि है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने उनकी महानता इस प्रकार व्यक्त की है-
राम काम सत कोटि सुभग तन।दुर्गा कोटि अमित अरिमर्दन।।
सक्र कोटि सत सरिस विलासा। नभ सत कोटि अमित अवकाशा।।
मरुत कोटि सत विपुल बल, रवि सत कोटि प्रकाश ।
ससि सत कोटि सुसतील, समन सकल भव त्रास ।।
काल कोटि सत सरिस अति, दुस्तर दुर्ग दुरन्त ।
धूम केतु सत कोटि सम, दुराधरष भगवन्त।।
प्रभु अगाध सत कोटि पताला। समन कोटि सत सरिस कराला ।।
तीरथ अमित कोटि सत पावन।नाम अखिल अघ पूग नसावन।।
हिमगिरि कोटि अचल रघुवीरा।सिन्धु कोटि सत सम गंभीरा।।
कामधेनु सत कोटि समाना। सकल काम दायक भगवाना।।
सारद कोटि अमित चतुराई। विधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई।।
विष्णु कोटि सत पालन करता। रुद्र कोटि सत सम संघरता ।।
धनद कोटि सत सम धनवाना। माया कोटि प्रपंच निधाना ।।
भार धरन सत कोटि अहीसा। निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा ।।
निरुपम न उपमा आन,राम समान राम निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम,रवि कहत अति लघुता लहै।।
एहि भाँति निज निज मति विलास, मुनीस हरिहि बखानहीं।
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल, सप्रेम सुनि सचु पावहीं ।।
 यहाँ गोस्वामी तुलसीदासजी ने ईश्वर को व्यक्त भाव का उदाहरण देकर अव्यक्त को बतलाया है। यह वर्णन करने की अद्भुतता है गोस्वामी तुलसदासजी की। ईश्वर में कोई उदाहरण लागू नहीं होता। जैसे करोड़ों जुगनुओं की उपमा सूर्य से देने में सूर्य की महिमा घटती है। उसी तरह करोड़ों विष्णु, करोड़ों ब्रह्मा आदि का उदाहरण दें, तो इसमें ईश्वर की हीनता होती है।
 ईश्वर परम कल्याणकारी हैं, इसलिए वे शिव हैं। सबमें ईश्वर व्यापक हैं। एक ही ईश्वर सबमें ओत प्रोत हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने बड़ा ही अच्छा रामायण में लिखा है-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।

इन बातों पर विचार करने से ज्ञात होता है कि अनादि-अनन्त पदार्थ पर कोई उदाहरण लागू नहीं होता।
 हमलोग इन्द्रियज्ञान में रहने के कारण परमात्मा को नहीं पहचान पाते हैं। शरीर इन्द्रियों के ज्ञान से छूटकर निजी ज्ञान में ईश्वर पहचानने योग्य है। अपने तईं में अपने ज्ञान में ईश्वर को पहचान सकते हैं। जैसे आँख से ही आँख को देखते हैं आइने के माध्यम से, उसी तरह साधन के माध्यम से अपने तईं के ज्ञान में अपने को तथा परमात्मा को पहचान सकते हैं।
 शरीर-इन्द्रियों से अपने को भिन्न करने का काम करो। यही ईश्वर की भक्ति है। भक्ति से ही ईश्वर मिलते हैं। परमात्मा का ज्ञान जैसा होना चाहिए, सो कहा। श्रवण-मनन द्वारा पहले परोक्ष ज्ञान होगा, तब अपरोक्ष ज्ञान होगा। इसके लिए कुछ साधन चाहिए। इसकी साधना का नाम योग है। योग, ज्ञान और भक्ति; तीनों संग-संग हो तो ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं। यही सद्गति है। संतों ने भी इसी सद्गति को मोक्ष कहा है।


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यह प्रवचन पूर्णियाँ जिलान्तर्गत ग्राम भवानीपुर राजधाम के सत्संग भवन के प्रांगण में दिनांक 1. 1. 1967 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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256. शरीर छोड़ने के बाद क्या हालत होगी?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 वर्षों से आपलोगों का यह सत्संग घर है। मैं साल-साल बहुत बार यहाँ आया हूँ। मैं बहुत प्रसन्न होता हूँ, जब आपलोग मुझे बुलाकर सत्संग कराते हैं, आपकी पुकार मुझे बहुत पसन्द है। जैसे कोई घर बनाते हैं, उसकी नींव नीचे से मजबूत करते हैं। मैं चाहता हूँ कि देश की नींव मजबूत हो। कोई भी जो नीच श्रेणी के माने जाएँ और वहाँ धर्म ज्ञानोपदेश के लिए मुझे बुलाया जाता है, तो मैं बहुत प्रसन्न होता हूँ। मुझे तो नींव मजबूत करनी है और समूचे भारत की नींव मजबूत करनी है, फिर संसार के लिए देखा जाएगा।
 यहाँ के सत्संगियों ने वर्षों से सत्संग घर बनवाकर रखा है। ये लोग इसको हिफाजत से रखते हैं और इसमें सत्संग करते हैं। मुझे याद नहीं कि किसी वर्ष ये मुझे नहीं बुलाए हों और मैं नहीं आया होऊँ। मैं प्रायः प्रत्येक वर्ष आता हूँ।
 आपलोग सत्संग के विषय को समझें और सारी जनता को भली बनावें। यह सत्संग का विषय है। जनता अच्छी होती है, आचरण-शुद्धि से। बहुत विद्या पढ़ने से लोग भले होते हैं, ऐसा कहा जाता है। इसको कौन इनकार कर सकता है? लेकिन बहुत विद्या पढ़ने पर भी यदि आचरण ठीक नहीं हो तो वह बहुत विद्या, अविद्या हो जाती है। इसलिए तुलसीदासजी ने कहा है-
 काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खान ।
 तब लग पंडित मुरखो, तुलसी एक समान ।।
 पढ़े-लिखे लोगों के मन में भी ये विकार होते हैं। ये विकार जिस तरह से छोड़े जा सकते हैं, उस तरह को अख्तियार करना चाहिए। मैंने बचपन में फारसी में पढ़ा था- विद्या धर्म जानने के लिए होती है, न कि दुनिया कमाकर खाने के लिए।
इल्म अज बहरे दीन परवर ।अस्ता न अज बहरे दुनिया खुर्दन।।
 लेकिन आज की विद्या दुनिया में कमाकर खाने की है। ‘आज’ कहने का मतलब आज ही नहीं, इसी शदी में नहीं, सदियों से यह बात है। संतों ने समझा कि पढ़े-लिखे लोग बड़े-बड़े औहदे के कामों को करते हैं, लेकिन आचरण पवित्र हो, ऐसी बात नहीं। उसमें भी सब तरह के लोग होते हैं। अच्छे भी होते हैं, लेकिन आज जैसा देखा जाता है, उसमें पवित्रता कहाँ है? प्रत्यक्ष है।
 एक विद्या है कि पण्डितों-अध्यापकों के पास मिलती है। दूसरी विद्या होती है, जो साधु- संतों के संग में मिलती है। स्कूल, कॉलेज की विद्या में संसार के प्रबन्ध का ख्याल ज्यादे होता है और साधु-संतों के पास में जाने से जो विद्या आती है, उसमें संसार का प्रबन्ध तो रहता ही है, लेकिन यह भी रहता है कि शरीर छोड़ने के बाद तुम्हारी क्या हालत होगी, यह भी सोचो। संसार में रहने के लिए बहुत अच्छा प्रबन्ध किए। कुछ दिन वा कुछ वर्ष रहे, चले गए। कहाँ चले गए, इसका कोई ठिकाना नहीं। शरीर छोड़ने पर तुम दुःख में नहीं जाओ, इसका प्रबन्ध कर लिया, तब तो ठीक है। लेकिन यदि नहीं किया तो अभी तुमको कुछ करना चाहिए। जाना जरूर है। लेकिन शरीर के बाद का जीवन बहुत लम्बा है, इसका प्रबन्ध करो। संसार का भी प्रबन्ध करना ही है और शरीर छूटने के बाद का भी प्रबन्ध सोचो। नहीं तो अपनी बहुत बड़ी हानि करते हो। बड़ी हानि से बचो और दूसरों को भी बचाओ।
 ईश्वर के भजन से जीवन सुखमय होगा। अपने को भला बनाना ईश्वर-भजन से होगा। बहुत पढ़-लिख लिए इससे अपनी पूरी भलाई हो ऐसी बात नहीं। संसार में तुम अपने को सम्हाल कर रखो कि तुम्हारी कोई निन्दा न करे। यदि तुम्हारा आचरण ठीक है और लोग तुम्हारी निन्दा करें, तो परवाह मत करो और यदि तुमसे उस तरह का काम हो गया है, तब जो तुमको जो कुछ कहे तो उसको अपना मित्र मानो। ईश्वर की ओर चलने के लिए पवित्र भाव से रहना होगा। संसार की कमाई में पाप-पुण्य का कोई विचार नहीं होता, लेकिन ईश्वर- भजन में पाप-पुण्य का विचार करके चलना होगा। कोई चाहे कि ईश्वर-भजन भी करेंगे और पाप भी करेंगे, तो उससे ईश्वर का भजन नहीं होगा। ईश्वर का भजन आजकल-आजकल कहकर मत टालो।
 संसार में पाँच ही तरह की चीजें हैं। एक वह जो देख सकते हो, दूसरा वह जो सुन सकते हो, तीसरा वह जो तुम गन्ध ले सकते हो, चौथा वह जो स्पर्श कर सकते हो और पाँचवाँ वह जिसका रसास्वादन कर सकते हो। ये सब मिलाकर पाँच होते हैं-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द। इन पाँचों में से कोई पदार्थ ईश्वर नहीं है। इन पाँचों को चीन्हते रहोगे, लेकिन ईश्वर का दर्शन नहीं होगा। पाँचों चीजों का संघात मनुष्य-शरीर है। इसी तरह सभी शरीर हैं। कोई शरीर कितना भी सुन्दर हो, विकट हो, डरावना हो, उसमें भी ये ही पाँच हैं। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द; इन पाँच को जहाँ पाओ, वहाँ समझो कि ईश्वर-दर्शन नहीं हुआ। ईश्वर रहता है सबमें, लेकिन किसी के जैसा नहीं होता।
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
 किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
 यथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
 सोइ सोइ भाव देखावइ, आपु न होइ न सोइ ।।
 सबमें रहकर सबसे विलक्षण है। पाँच विषयों को पहचानने के लिए पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। जब इन पाँचों में से किसी को जानो तो वह ईश्वर नहीं है। तुम्हारे अन्दर मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार भी है, जिसको अंतःकरण कहते हैं। चार अन्तःकरण, पाँच कर्मेन्द्रिय और पाँच ज्ञानेन्द्रिय; इन चौदहों से युक्त तुम जिसको देखो वह ईश्वर नहीं है। ईश्वर इस संसार के अन्दर है, लेकिन इन चौदहां से वह जाना नहीं जाता। तुम भी इस शरीर में हो, लेकिन चौदहों इन्द्रियों में से तुम कोई नहीं हो। शरीर में हो, लेेकिन इन सबसे तुम विलक्षण हो। तुम्हारी शक्ति से ही इन्द्रियां में शक्ति है। शरीर और इन्द्रिय का ज्ञान छोड़कर अपने ज्ञान में रहकर जिसको पहचानो, वह ईश्वर है। पढ़े-अनपढ़े सभी कोई इस बात को याद रखो। नहीं तो जहाँ भी ईश्वर नहीं, वहाँ ईश्वर का भाव रखोगे।
 आँख से रूप, कान से शब्द, नाक से गन्ध, जिभ्या से रस और त्वचा से स्पर्श का ज्ञान करते हो। इन सबका संग छोड़कर तब तुम्हारा निजी ज्ञान है। और इसी निजी ज्ञान में ईश्वर की पहचान होगी। ईश्वर का भजन वह है, जिससे ईश्वर को पहचान सको। ईश्वर की पहचान नहीं हुई, तो वह भजन क्या? बाहरी-भीतरी इन्द्रियों के ज्ञान से अपने को हटाओ, तब ईश्वर की पहचान होगी। बाहर कहीं भी जाने से ईश्वर की पहचान नहीं होगी। अपने को सम्हालो-अपने को अन्दर करो, यही है-
   सत सुरति समझि सिहार साधौ निरखि नित नैनन रहो ।
 जो अपने को अपने अन्दर समेटता है, वह ईश्वर की ओर जाता है। जो अपने को अपने में नहीं सम्हालता, वह माया में विचरता है।
 ईश्वर को क्या चाहिए? धूप, दीप, नैवेद्य, आरती? इन सब चीजों की जरूरत ईश्वर को नहीं, लेग इनके द्वारा केवल अपना भाव दिखाते हैं। सूर्य को दीप दिखाते हैं, सूर्य तो स्वयं बहुत प्रकाशमान है, उसको दीपक क्या दिखाना? लेकिन अपना भाव दिखाते हैं। गंगाजी को, यमुनाजी को उसी का जल चढ़ाते हैं। गंगाजी को, यमुनाजी को उसकी क्या जरूरत? ईश्वर की भक्ति करो, इसके लिए ईश्वर को क्या जरूरत? जैसे आजकल जाड़ा का समय है, जैसे ही सूर्य उदय हुआ, वैसे ही जाड़ा भागा। इसी तरह जैसे परमात्म-दर्शन हुआ, वैसे दुःख भागा। लेकिन ईश्वर का भजन पाप-वृत्ति से नहीं होगा, विषयी होने से नहीं होगा। पाप-वृत्ति छोड़ो, विषय का त्याग करो। ईश्वर-भजन ईश्वर से प्रेम करने से होगा, ध्यान-योग से होगा। इस ध्यान-योग से चलते-चलते आखिर में ईश्वर- दर्शन होगा। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-‘इस योग के आरम्भ का नाश नहीं होता, इसका उलटा परिणाम नहीं होता और यह महाभय से बचाता है।’ मनुष्य शरीर के अतिरिक्त गाय, बैल, घोड़ा आदि जानवर होना महाभय है। यह योग इससे बचाता है। भजन नित्य करो, सत्संग करो। यह सत्संग-घर और मजबूत हो जाय, तो बड़ी अच्छी बात हो।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत सिकन्दरपुर में हरिजनों द्वारा निर्मित संतमत सत्संग मन्दिर में दिनांक 2. 1. 1967 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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257. ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ विभूति : ज्योति और शब्दप्यारे लोगो!
 संतमत मोक्ष मार्ग बतलाने का मत है-
 संत संग अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।
 कहहिं संत कवि कोविद, श्रुति पुरान सदग्रंथ ।।
 गोस्वामी तुलसीदासजी ने ऐसा कहा है। यह मोक्ष मार्ग का रास्ता है। मोक्ष का तात्पर्य है-बन्धन से छूट जाना। शरीर के अन्दर जीवात्मा का निवास है। शरीर संसार में रहता है, तो संसार भी बन्धन है। शरीर और इन्द्रियाँ भी बन्धन हैं। इन सबसे छूट जाने को मुक्ति कहते हैं। इनमें बन्धे रहने से जीवात्मा कल्याण नहीं पाता, चैन नहीं पाता और इसमें शान्ति नहीं मिलती। संतों ने कल्याणकारी मार्ग बताया। यह मार्ग पहले से हई है। संतों ने इसको खोज निकाला। जो इस मार्ग पर चलते हैं, वे भक्त कहलाते हैं। मार्ग कहते हैं लम्बे र्चिं को, जिसके आरम्भ का छोर कहीं हो, उसका अन्तिम छोर कहीं हो और बीच में फासला-दूरी हो। यह भक्ति-मार्ग अन्दर का रास्ता है, इसको किसी मनुष्य ने नहीं बनाया है, ईश्वर ने बनाया है। संतो ने इसकी खोज की और उसको निकाल लिया। उस पर वे आप चले और औरों को भी चलने कहा। भक्ति-मार्ग इसलिए कहते हैं कि परम प्रभु परमात्मा की भक्ति इसमें है। सेवा ऐसी नहीं कि जैसा लोग जानते हैं। किसी की कोई आवश्यकता पूरी कर दे, उसकी भक्ति हुई। परमात्मा को कोई आवश्यकता नहीं। उसकी भक्ति कैसे होगी? जैसे गंगा को कोई आवश्यकता नहीं, लेकिन लोग गंगा किनारे जाकर स्वयं लाभ पाते हैं। इसी तरह ईश्वर की ओर चलनेवाले को स्वयं लाभ होता है। इसी को ईश्वर-भक्ति कहते हैं। भक्ति के बिना किसी का उद्धार नहीं होता। कबीर साहब ने कहा है-
 भक्ती बिनु नहिं निस्तरै, लाख करै जो कोय ।
 शब्द सनेही ह्वै रहै, घर को पहुँचै सोय ।।
 बिना भक्ति के किसी का उद्धार नहीं है। भक्ति में शब्द स्नेही बनने की बात है, जिससे वह उस घर में पहुँचता है, जहाँ कोई बन्धन नहीं है। ईश्वर की ओर जाना, इसमें ज्ञानी लोग कहते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापी है, जाना कहाँ है? कहना बहुत अच्छा है। जिसको ईश्वर की सर्वव्यापकता पर विश्वास नहीं है, उसको ईश्वर में विश्वास नहीं। फिर भक्ति क्या? ईश्वर इसलिए सर्वव्यापक है कि वह अनादि, अनन्त, असीम है। उससे कुछ बाहर हो, संभव नहीं। ऐसा नहीं मानने से वह सर्वव्यापक नहीं होगा। तब वह ससीम होगा। ससीम होने से उसकी बराबरी का कुछ होगा वा उसके पहले का कुछ होगा? जिसकी बराबरी का कुछ हो वा जिसके पहले का कुछ हो सके, वह ईश्वर नहीं है। जिसकी बराबरी का कुछ नहीं, जिसके पहले का कोई नहीं, जो हई है, वह ईश्वर है। ऐसा नहीं कि किसी मौके पर प्रकट हो गए। परमात्मा अनादि, अनन्त, असीम है और वह अपरिमित शक्ति और ज्ञान युक्त है। वह परम मंगलमय, परम कल्याणमय है। उसके सम्मुख अकल्याण वा अमंगल का स्थान कहाँ? जैसे सूर्य के सम्मुख अन्धकार कहाँ? जैसे गंगाजी को कोई आवश्यकता नहीं, गंगा-सेवन करनेवाले लाभ उठाते हैं, इसी तरह ईश्वर को कोई आवश्यकता नहीं, उस ओर जानेवाले लाभ उठाते हैं। उस तक जाने का रास्ता ईश्वरकृत है, सबके अन्दर है। यह भक्ति इसलिए है कि ईश्वर की ओर जाना है। उसको बुलाना नहीं है। जो सर्वव्यापक है, फिर उस ओर जाना क्या? यहाँ ईश्वर को हम नहीं पहचानते हैं। इसलिए वहाँ जाना है, जहाँ पहचान हो। हम अपनी कमजोरी से यहाँ नहीं पहचान सकते हैं। शरीर और इन्द्रियाँ कमजोर हैं। इन कमजोरां के साथ रहने से कमजोरी आ गयी है। कमजोरी यह कि नाना इच्छाएँ आ गयीं हैं। ईश्वर को पहचानने चलो। कहाँ चलोगे? जहाँ अपने आप रहो और शरीर, इन्द्रिय नहीं रहे। जहाँ ऐसा होगा, वहीं ईश्वर-दर्शन होगा। ईश्वर का दर्शन शरीर के साथ रहने से, इन्द्रियों के साथ रहने से नहीं होगा। शरीर, इन्द्रिय से छूटकर रहने पर ईश्वर-दर्शन होता है। अपने को शरीर, इन्द्रिय से छुड़ाना है। वहाँ जाना है जहाँ शरीर, इन्द्रिय छूटे। जिस घर में कोई रहता है, उस घर को छोड़ने के लिए, पहले घर के अन्दर-अन्दर चलना होगा, फिर घर की सीमा से बाहर होना होगा। शरीर से छूटने के लिए शरीर के अन्दर-अन्दर चलना होगा। अन्दर में ही इन्द्रियों के घेरों को पार किया जाएगा। अपने शरीर में अपने को पहचाना जाएगा। परम योगियों, भक्तों, संतों के अतिरिक्त कोई अपने को अपने तईं में नहीं पहचानता। जागने की अवस्था में जीवात्मा की बैठक जहाँ है, वहीं से रास्ता लगा हुआ है। यह रास्ता मनुष्यकृत वा देवकृत नहीं, ईश्वरकृत है। जो इस रास्ते से चलता है, ईश्वर को पाता है; क्योंकि अन्दर-ही-अन्दर इन्द्रियों से और शरीरों से छूटना होता है, अपने तईं की पहचान होती है। अपने को पहचानने पर ईश्वर को पहचानने में देर नहीं। दोनों की पहचान एक साथ होती है। यह भक्ति-मार्ग है।
 पहले बाहर इन्द्रिय का संग छोड़कर मन का संग रहेगा, फिर मन सहित चेतन आत्मा चलेगी और फिर केवल चेतन आत्मा। जैसे गंगा की हवा से पहले ही लाभ होता है, उसी तरह उस भक्त के वास्ते, जो ईश्वर की ओर जाता है, सहारा मिलता है। वह है शब्द। बाहर में जो बातचीत होती है, वह शब्द भी सहारा है। लेकिन अन्दर चलने के लिए बाहर का शब्द सहारा नहीं। ईश्वर की ओर से सबके अन्दर-अन्दर शब्द है। शब्द मिलता है, गोया आज्ञा मिलती है कि चले आओ। आज्ञा मिलने के कारण उस स्थान का नाम है आज्ञाचक्र। पिण्ड में छह चक्र बताते हैं। पिण्ड में सबसे ऊपर आज्ञाचक्र है। आज्ञाचक्र में पहुँचे बिना, अवस्थित हुए बिना किसी को उधर के लिए आज्ञा नहीं मिलती। शब्द के बारे में मैंने तो यही समझ रखा है कि ईश्वर के लिए जितने र्चिं और प्रतीक लोगों ने अपनाए हैं, उन सबमें श्रेष्ठ शब्द है। देवरूप, ईश्वर कोटि के देवरूप, महात्मारूप इत्यादि बहुत से र्चिं लोग लेते हैं, ईश्वर की ओर अपने को फिराने के लिए। इनमें शब्द सबसे बढ़कर है। शब्द का छोर सारी सृष्टि में अटूट रूप से व्यापक है। लेकिन वह शब्द ऐसा नहीं कि आप कहें और मैं सुनूँ वा मैं कहूँ, आप सुनें। वह वर्णात्मक नहीं, ध्वन्यात्मक है। उन ध्वनियों को मालूम करने की विधि सन्त लोग बतला गए हैं। ईश्वर के लिए जितने भी प्रभावशाली र्चिं लिए जाएँ, शब्द से बढ़कर कोई नहीं। संसार से शब्द को हटा लीजिए, कोई कार-बार नहीं चलेगा। बोलना-लिखना बन्द हो जाएगा। शब्द को मुँह से कहकर जाहिर करते हैं वा लिखकर? बोलने के सभी संकेतों को बन्दकर दीजिए, सभी काम खत्म हो जाएँगे। शब्द से हीन संसार रहने योग्य नहीं है। शब्द कम्पनमय होता है और कम्पन शब्दमय होता है। यह संसार कम्पन से बना है। कम्पन को शब्द से और शब्द को कम्पन से हटाया जाय, नहीं हो सकता है। जैसे वर्णात्मक शब्द और उसके अर्थ को अलग-अलग नहीं किया जा सकता, उसी तरह वह शब्द और कम्प ओत-प्रोत है। आदि सृष्टि में पहले कम्प हुआ। बिना कम्प के शब्द नहीं हुआ। कम्प कहो वा शब्द कहो, एक ही बात है। जिस पिण्ड के निर्माण के लिए जो कम्प वा शब्द होता है, वह कम्प उसके कण-कण में मौजूद रहता है। गंगा की ओर जाओ, जाते-जाते गंगा की हवा मिलती है, उसी तरह ईश्वर की ओेर जाओ। ईश्वर का सहार सर्वत्र है, वह मिलेगा। किंतु लोग पकड़ नहीं सकते।
 यही बड़ाई शब्द की जैसे चुम्बक भाय।
 बिना शब्द नहिं उबरै, केता करै उपाय।।
             -कबीर साहब
 जैसे चुम्बक लोहे को अपने केन्द्र में खींचता है, वैसे ही शब्द के पकड़नेवाले को शब्द अपने केन्द्र में खींच लेता है।
चुम्बक सत्त शब्द है भाई, चुम्बक शब्द लोक ले जाई ।
लेइ निकारि होखै नहिं पीरा, सत्त शब्द जो बसै शरीरा ।।
        -दरिया साहब, बिहारी
 भक्ति में ईश्वर की ओर से जो सहारा है शब्द, उसको पकड़ना चाहिए। वह पकड़ा जाएगा आज्ञाचक्र में। वह नयनाकाश में है। ईश्वर की ओर से एक इशारा दिया गया है कि शब्द कब पकड़ सकते हो? यह आसमान ईश्वर की ओर से है। उसमें बिजली चमकती है, तब आवाज आती है इससे ईश्वर बताते हैं कि देखो मेघ लगता है, बिजली चमकती है, तब ठनके की आवाज सुनायी पड़ती है। बिना बिजली चमके ठनके की आवाज न हुई, न होने को है। तुम्हारे अन्दर भी ज्योति है, बिजली है और आवाज है। पहले दर्जे में शब्द है, दूसरे दर्जे में ज्योति। शब्द उपासना तब करोगे, जब ज्योति पकड़ोगे और ज्योति तब पकड़ोगे, जब विन्दु प्राप्त करोगे।
 विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्ति निकेतनम् ।
 देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।
 विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम् ।
 देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।
       -योगशिखोपनिषद्
 विद्वान जानते हैं कि विन्दु मन से बनाया नहीं जा सकता। इसलिए उपनिषत्कार ने परम विन्दु कहा है। रेखागणित के हिसाब के लिए जो विन्दु मानते हैं, वह कितने विन्दुओं से भरा है, ठिकाना नहीं।
 बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
                    -ध्यानविन्दूपनिषद्
 एक ही श्लोक में सब कह दिया गया। कबीर साहब ने विन्दु को तिल कहा।
 जो कोई निरगुन दरसन पावै ।।
 प्रथमे सुरति जमावै तिल पर, मूल मंत्र गहि लावै ।
 गगन गराजै दामिनि दमकै, अनहद नाद बजावै ।।
 आपकी अभी बैठक आँख में है। स्वप्न में आप कण्ठ में होते हैं और गहरी नींद में हृदय में। ईश्वर की ओर जाने के लिए आँख से ऊपर जाएँगे। क्या सहारा मिलता है?
 तेजो विन्दुः परम ध्यानं विश्वात्म हृदि संस्थितम् ।
 विन्दु को कोई मन से बनाने लगेगा, नहीं होगा। उसको कोई स्थूल दृष्टि से नहीं देख सकता, सूक्ष्म दृष्टि से देख सकता है। सूक्ष्म दृष्टि के बाद शब्द-साधना करता है, तो ईश्वर की ओर जाने की सड़क पर चढ़ जाता है। वह बाहर-बाहर नहीं, अन्दर-अन्दर चलने का रास्ता है। इस स्थूल-शरीर की लम्बाई-चौड़ाई अधिक नहीं है। फिर भी जो कोई अपने अन्दर वृत्ति को रखते हैं, तो उनको पता चलता है। जैसा कि संत कबीर साहब ने कहा है-
 कबीर काया समुँद है, अंत न पावै कोय ।
 मिरतक होइ के जो रहै, मानिक लावै सोय ।।
 डॉक्टर लोग वर्षों पढ़ते हैं, लेकिन वे बिल्कुल अचूक हो गए, ऐसा नहीं। यह तो स्थूल-शरीर की बात है। सूक्ष्म और कारण के लिए तो कहना क्या है! जो अपनी वृत्तियों को अपने अन्दर रखता है, वह मृतक है। वही माणिक परखता है। यह अन्दर-अन्दर जाने की बात है। जिस भक्ति में केवल बाहर-ही-बाहर दर्शन है, उससे जो मुक्ति मिलती है, वह यथार्थ मुक्ति नहीं है। उससे जो स्वर्ग मिलता है, उससे आवागमन का चक्र नहीं छूटता। किसी भी जड़ शरीर में रहना आवागमन का कारण है। जिसने शरीर और इन्द्रियों से अपने को अलग किया, उसने अपने को पाया, ईश्वर को पाया, मुक्ति पायी। इसके अतिरिक्त कितनाहू कुछ दर्शन हो, पूर्ण कल्याण नहीं। इतिहास, पुराण पढ़कर देख लीजिए। आवागमन से छूटने के लिए अन्दर के रास्ते पर चलिए। मिट्टी पर रहने से मिट्टी-मार्ग है। उसी तरह ज्योति में रहने पर ज्योति का रास्ता और शब्द में रहने से शब्द का रास्ता मिलता है। जैसे चिड़िया आकाश में उड़ती है, वैसे ही आकाश में गमन होता है। यह विहंगम मार्ग ज्योति मार्ग है। फिर मीन मार्ग है, वह है शब्द मार्ग। इसी भक्ति का प्रचार इस सत्संग से होता है। कबीर साहब ने कहा था-‘भक्ति सतोगुर आनी।’ बाहर-बाहर में जो भक्ति है, वही भक्ति बस नहीं है। भीतर भी चलना होगा। बाहर के दर्शनों से संसार का लाभ होगा, लेकिन माया से छूट नहीं सकते। अन्दर- अन्दर चलने पर जो दर्शन होगा, वह माया नहीं। शरीर-इन्द्रिय से छूटकर जो दर्शन होगा, वह स्वरूप का दर्शन होगा।
 ईश्वर की श्रेष्ठ विभूति ज्योति और शब्द है। इससे बढ़कर कोई विभूति नहीं। विराट रूप का दर्शन अर्जुन को दिया गया। बड़ा तेजोमय रूप था। हजारों सूर्य के समान उस रूप का तेज था। और उसी से उपदेश भी मिला। गोया प्रकाश और शब्द भी मिला। विराट रूप में भयंकरता और सुन्दरता दोनों रूप का मेल था। अर्जुन भयंकर रूप से डरता था। उस विराट रूप में से ज्योति निकाल लीजिए तो बिल्कुल अन्धकारमय हो जाएगा, उसमें सुन्दरता असुन्दरता कुछ नहीं रहेगी। विराट रूप का पहले दर्शन हुआ, तब उस आश्चर्यमय रूप से आवाज हुई, जिसको सुनकर अर्जुन को बिल्कुल भरोसा हो गया। बिना ज्योति के सुन्दरता नहीं और ज्योति हो, शब्द नहीं, ऐसा नहीं। अन्दर देखने के लिए दिव्य नेत्र चाहिए और सुनने के लिए अन्तर्वृत्ति की दिव्य श्रवण-शक्ति चाहिए। संतों ने इसका भेद बताया है, इसको जानना चाहिए। पण्डितों का वेद और संतों का भेद प्रसिद्ध है। पण्डित बड़े विद्वान होते हैं और सभी साधु-संत उतने पढ़े-लिखे नहीं। लेकिन ऐसा भेद जानते हैं कि वे सभी विद्या जानने लगते हैं। यदि विद्या भी हो और भेद भी जाना जाय, तो कितना अच्छा हो! दोनों रखिए। इस सत्संग से यह समझाया जाता है। कबीर साहब ने कहा है-
 भक्ति बीज बिनसै नहीं, जो युग जाय अनंत ।
 ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।।
 भक्ति बीज पलटै नहीं, आय पड़ै जो चोल ।
 कंचन जौ ं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।
 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘योग के आरम्भ का नाश नहीं होता। इसका स्वल्प अभ्यास भी महाभय से बचाता है और इसका उलटा परिणाम नहीं होता।’ लोगों को चाहिए कि भक्ति- योग को जानें। जानें और करें नहीं, तो क्या लाभ! इसलिए जानो और करो, तो कल्याण होगा।
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यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 8. 1. 1967 ई0 को साप्ताहिक सत्संग में हुआ था।
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258. भक्ति बीज का उल्टा परिणाम नहीं होता

प्यारे लोगो!
 आपलोगों को पहले से मालूम है कि इस सत्संग से ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। ईश्वर की भक्ति इसलिए कि संतों को विश्वास हुआ कि ईश्वर की भक्ति से सब दुःख छूटते हैं, आवागमन छूट जाता है। ईश्वर-भक्ति के लिए यह भी समझना चाहिए कि आप संसार में किसके दबाव में हैं? किसके दबाव से कष्ट होता है? रामचरितमानस में लिखा है-
 व्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचण्ड ।
 सेनापति कामादि भट, दम्भ कपट पाखण्ड ।।
 अर्थात् माया की भयानक सेना संसार में फैली हुई है। उनके सेनापति काम, क्रोधादि हैं और दम्भ, कपट, पाखण्ड आदि योद्धा हैं। इनके ही दबाव में सभी लोग पड़े हैं। चाहे वे विद्वान हों, अनपढ़ हों, इस देश को हों, दूसरे देश के हों, वैज्ञानिक हों वा कोई हों। यहाँ तक कि देवता भी इस दबाव में हैं। इसलिए उनकी शरण लो, जो इनको अपने वश में किए हैं। जैसे नट के आदेशानुकूल नटी नाचती है, वैसे ही ईश्वर के इशारे पर माया नाचती है। माया पूर्णरूपेण ईश्वर के वश में है। भक्ति क्यों करें? इसका यह उत्तर हुआ।
  अब समझो कि ईश्वर का स्वरूप क्या है? लोग समझते हैं कि कोई राजा के समान शरीरधारी ईश्वर है। लेकिन बात ऐसी नहीं है। जो आप इन्द्रियों के ज्ञान में जानते हैं, वह ईश्वर नहीं है। ईश्वर वह तत्त्व है, जो तत्त्व स्वयं आप हैं। रामचरितमानस में यह लिखा हुआ है कि-
ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखरासी।
 वह परमात्मा अनादि, अनन्त, असीम है। सबसे पूर्व का वह है। ईश्वर किसी के पीछे हुआ, ऐसी बात नहीं। सब कुछ का नाश होगा, ईश्वर का नाश नहीं होगा। क्योंकि अनादि, अनन्त, असीम का नाश कैसे होगा? वह सबसे सूक्ष्म है। इसलिए उसको बेजाहिर-अव्यक्त कहा गया है। जो इन्द्रिय- ज्ञान में नहीं आता है, वह ईश्वर है। इन्द्रियों में ज्ञान आपके कारण है। बाहर में दस और भीतर में चार ये चौदहो इन्द्रियाँ आपकी शक्ति से काम करती हैं। आप अपने को निजी ज्ञान में लाइए। आप अपना मेल इन्द्रियों से छुड़ा लेंगे, तब निजी ज्ञान में होंगे। निजी ज्ञान में जो पहचान में आवे, वह ईश्वर है। इन्द्रिय-ज्ञान में जो आवे, वह माया है।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 जैसे चार रंगवाले पाँच पहल वाली लालटेन के भीतर एक मोमबत्ती जला दीजिए तो शीशे के रंग के अनुरूप उसकी रोशनी बाहर निकलेगी। किन्तु यदि उस शीशे में से मोमबत्ती को अलग कर देखा जाय, तो मोमबत्ती की रोशनी उन रोशनियों से भिन्न ही होती है। इसी तरह इन्द्रियों की बनावट माया से है। एक माया से सुनते हैं, दूसरी माया से देखते हैं, तीसरी माया से स्पर्श करते हैं, चौथी माया से गंध ग्रहण करते हैं और पाँचवीं माया से रसास्वादन करते हैं। एक रोशनी जो उस लालटेन के अन्दर है, केवल उसका ज्ञान नहीं होता है। शीशे के रंग के साथ की रोशनी को आप जानते हैं। शीशे से मोमबत्ती को निकाल लें, तब मोमबत्ती की निजी रोशनी होगी। उसी तरह अपने को शरीर इन्द्रिय से निकाल लीजिए। तब जानने में आवेगा कि मैं कौन हूँ?
 ईश्वर से मिलने का जो रास्ता है, वही ईश्वर का पंथ है। कबीर साहब ने कहा है-
 भक्ति का मारग झीना रे ।
 नहिं अचाह नहिं चाहना, चरनन लौ लीना रे ।।
 साधुन के सत्संग में रहे, निसि दिन भीना रे ।
 शब्द में सुर्त ऐसे बसे, जैसे जल मीना रे ।।
 मान मनी को यों तजे, जस तेली पीना रे ।
 दया छिमा संतोष गहि, रहे अति आधीना रे ।।
 परमारथ में देत सिर, किछु विलम्ब न कीना रे ।
 कहै कबीर मत भक्ति का, परगट कह दीना रे ।।
बाबा नानक ने कहा-
 भगता की चाल निराली।
 चाल निराली भगताह केरी विखम मारगि चलणा।।
 लबु लोभु अहंकारु तजि त्रिसना बहुतु नाहीं बोलणा।।
 ख्ांनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा।।
 गुर परसादी जिनि आपु तजिया हरि वासना समाणी।।
 कहै नानक चाल भगताह केरी जुगहु जुग निराली।।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई ।।
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।। ईश्वर की भक्ति किधर जाकर करनी चाहिए? बाहर-बाहर यत्न करेगा तो इन्द्रिय-ज्ञान में रहेगा। इन्द्रिय-ज्ञान में रहने से माया के लोकों से नहीं छूटेगा। इसलिए इन्द्रिय-ज्ञान से ऊपर होना आवश्यक है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने योग का संकेत किया है। अपने को फैलाव से सिमटाव में लाओ। स्थूल को छोड़कर सूक्ष्मता की ओर ले जाओ। आपके अन्दर सूक्ष्मरूप से जो चेतनधारा प्रवाहित होती है, उसको पकड़िए। यह भौतिक विज्ञान की खोज से नहीं होगा। अध्यात्म-विद्या में इसको खोजिए। इसका बहुत यत्न लोग बताते हैं। लेकिन थोड़ी ही दूर जाने पर विविध उपाय छूटकर एक हो जाता है।
 मन आवै मन जाय, मन हि बटोरो रे ।
 मन बूड़वै मन तारै, मनहिं निहोरो रे ।।
 मन को बहुत समेटना होगा। इसलिए आसानी से समेटने के लिए कुछ जप करने कहा, फिर ध्यान में स्थूल और सूक्ष्म। सूक्ष्म में मन से कुछ बनाना नहीं होता। सूक्ष्म में सगुण और निर्गुण, दोनों हैं। सगुण में वर्णात्मक और श्रवणात्मक शब्द हैं। लेकिन जो वर्णात्मक वा श्रवणात्मक नहीं है, वह ध्यान करते-करते मालूम होता है। वह भी ईश्वर का नाम है। इसलिए अच्छी तरह ध्यान करना चाहिए। अपने मन से कुछ करने से नहीं होगा। गुरु से जानकर करो। गुरु का विश्वास शिष्य को और शिष्य का विश्वास गुरु को होना चाहिए। और दोनों का संग ऐसा कि कभी छूटे नहीं।
 संसार में आचरण कैसा होना चाहिए?-‘निरत निरन्तर सज्जन धर्मा।’ झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार का करनेवाला सज्जन नहीं। इनसे जो छूटे रहते हैं, वे सज्जन कहलाते हैं। उनका संग करो। पढ़े-अनपढ़े, धनी-निर्धन, ऊँचे कुल-नीचे कुल; आदि की इसमें कोई बात नहीं। जो अच्छी चाल-चलन में रहते हैं, ध्यान करते हैं, वे अच्छे हैं। सदाचार का पालन कीजिए। सत्संग कीजिए और ध्यान कीजिए। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि-‘योग के आरम्भ का नाश नहीं होता। इसका स्वल्प अभ्यास भी महाभय से बचाता है। इसका उलटा परिणाम नहीं होता।’ जबसे भक्ति बीज पड़ गया, तबसे इसका आरम्भ हुआ। भक्ति बीज का उलटा परिणाम यह होगा कि विविध योनियों में जाना, सो नहीं होगा। किसी भी प्रकार के मनुष्य से कोई कहे कि आप जलचर हो जाइए, पशु हो जाइए, नभचर हो जाइए, तो वह अच्छा नहीं मानेगा। जो ईश्वर-भजन करेगा, वह मनुष्य-शरीर के अलावे किसी दूसरी योनि में नहीं जाएगा। अर्जुन ने पूछा-‘हे श्रीकृष्ण! श्रद्धा तो हो, परन्तु पूरा प्रयत्न अथवा संयम न होने के कारण जिसका मन योग से विचल जावे, वह योग सिद्धि न पाकर किस गति को जा पहुँचता है? वह दोनों ओर से भ्रष्ट हो जाने पर छिन्न-भिन्न बादल के समान बीच ही में विनष्ट तो नहीं हो जाता?’ भगवान ने कहा-‘हे पार्थ! क्या इस लोक में, क्या परलोक में, ऐसे पुरुष का कभी विनाश नहीं होता। कल्याणकारक कर्म करनेवाले की कभी दुर्गति नहीं होती। पुण्यकर्ता पुरुषों को मिलनेवाले स्वर्गादि लोकों को पाकर वहाँ बहुत वर्षों तक निवास करके फिर वह योग-भ्रष्ट पवित्र श्रीमान् लोगों के घर में जन्म लेता है अथवा योगियों के ही कुल में जन्म पाता है। अपने पूर्व जन्म के अभ्यास से वह इच्छा न रहते हुए भी पूर्ण सिद्धि की ओर खींचा जाता है। और उद्योग करते- करते अनेक जन्मों के अनन्तर सिद्धि पाकर परम शान्ति पा लेता है।’ जो थोड़ा-थोड़ा भी भजन करता है, वह कभी मनुष्य-शरीर से नहीं गिरेगा। उसका संस्कार दिन-दिन बढ़ेगा।
  दिन दिन बढ़त सवाई। रामधन कबहुँ न लागत काई ।।
  भक्ति बीज पलटै नहिं, आय पड़ै जो चोल ।
  कंचन जौं विष्ठा पड़ै, घटे न ताको मोल ।
  भक्ति बीज बिनसै नहिं, जो युग जाय अनन्त ।
  ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।।
 स्वपच, नाभा, रविदास; इन लोगों को लोग जानते हैं। लेकिन ये लोग कितने बड़े हुए। नाभाजी को गरीबी के कारण उनके माता-पिता ने फेंक दिया था। महात्मा श्रीअग्रहरि दासजी ने उनको पाला पोसा। किसी अधिक निकृष्टकर्म में फँस जाने के कारण वे योग-भ्रष्ट हुए, योग-भ्रष्ट होने ही के कारण नीचकुल में जन्म लिए। नहीं तो सूरदास, तुलसीदासजी की तरह ऊँचे कुल में ही जन्म लेते। किसी भी कुल में जन्म हो, बड़ा भाग्य है, जो पूर्व अर्जित योग का संस्कार मिले। और ‘बड़े भाग मानुष तनु पावा।’ यह तो हई है। प्रत्येक दिन भजन करो। नीचे गिरने की ओर मत जाओ। यदि नीचे गिरने की ओर मन जाए तो उससे बचो। थोड़ा-थोड़ा साधन-भजन नित्य करो। होते-होते पूर्ण होगा। यह भक्ति ऐसी नहीं कि घर-बार छोड़ो। नदी तीर जाओ या पहाड़ की गुफा में जाओ। बाल-बच्चे के साथ रहो, ईश्वर-भजन करो, पूर्ण होओगे। इसका नमूना संतों ने दिया। यह ईश्वर-भक्ति का थोड़ा-सा सन्देश आपलोगों को दिया। विस्तार बहुत है।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत संतमत सत्संग मंदिर, सिकलीगढ़ धरहरा में दिनांक 5. 2. 1967 ई0 को सत्संग में हुआ था।
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269. शिवजी का भी रूप बदलता है
प्यारे लोगो!
 सूर्य को देखकर कोई नहीं कह सकता कि सूर्य नहीं है। यहाँ भारत में सूर्य देखो और दूसरे देश में जाकर देखो, एक ही तरह का सूर्य है। यहाँ का दूसरा और वहाँ का दूसरा सूर्य, ऐसा नहीं है। यहाँ जो गुण है, वहाँ वही गुण है। यहाँ सूर्य को पहचाननेवाला इंगलैण्ड में भी वैसा ही पहचानता है। इसी तरह दूसरे-दूसरे देशों में इसी तरह ईश्वर है। वह एक-ही-एक है। यहाँ देखो जैसा, दूसरे देश में जाकर देखो, तो वैसा ही है। अगर देख सको, तो अपने अन्दर जैसा, दूसरे के अन्दर भी वैसा ही। यही ईश्वर है और सब ईश्वर की माया है। बाहर में राम के दर्शन करो, कहो कि ईश्वर है। कृष्ण के दर्शन करो, कहो कि ईश्वर है, परन्तु सब संसार में ऐसा नहीं कि राम ईश्वर है और कृष्ण ईश्वर है। अपने भारत में राम और कृष्ण का बहुत आदर है, फिर भी तमाम लोगों का एक ही विचार नहीं है कि राम और कृष्ण ईश्वर हैं। अपना देश धर्म का मिलाप-देश है। अपने देश में वैदिक धर्म मूल है। इसके अन्दर बहुत-से सम्प्रदाय और पन्थ हैं। सब कोई मिलकर कहो कि राम और कृष्ण ईश्वर हैं, मानने को तैयार नहीं। वेद को सनातन धर्म के लोग और आर्यसमाजवाले भी मानते हैं, फिर भी सनातनी राम-कृष्ण को ईश्वर मानते हैं और आर्यसमाजी नहीं मानते। इसी तरह काली और दुर्गा को सभी कोई ईश्वर नहीं मानते। जबकि अपने देश की ही यह बात है, तो फिर अन्य देशों की क्या बात!
 जबकि सूर्य को संसार में सभी लोग सूर्य ही मानते हैं। इसी तरह एक ईश्वर का ज्ञान होना चाहिए, इसी में सबको आना है, नहीं तो ईश्वर का ज्ञान नहीं है। ईश्वर एक ही है। एक से अधिक नहीं हो सकते। राम ईश्वर, कृष्ण ईश्वर, देवी ईश्वरी; इस तरह अनेक ईश्वर और ईश्वरियाँ हैं, लोग सुनकर हँसेंगे। ईश्वर तो एक ही होना चाहिए, वे एक ईश्वर कौन हैं? जैसे सारे संसार के लिए एक सूर्य है, वैसे ही संसार के लिए कौन से एक ईश्वर हैं? जितने पदार्थ संसार में हैं, चाहे इस देश के वा दूसरे देश के, सभी पदार्थों की बदली होती है। श्रीराम और श्रीकृष्ण का शरीर बच्चा था और फिर बढ़ते-बढ़ते वे सयाने हुए। यह बदली है। इसी तरह जहाँ-जहाँ बदली है, आप इन्द्रियों से जानते हैं। जहाँ बदली नहीं है, वहाँ इन्द्रियों का ज्ञान नहीं होता। आप कहेंगे कि काली माई, शिवजी का रूप तो नहीं बदला। मैं कहूँगा कि विविध प्रकार की कहानियाँ पुराणों में हैं। रावण मारा गया। लंका से राम अयोध्या आए। बातचीत हुई कि लंका में सबसे बड़ा वीर कौन था? किसी ने रावण को, किसी ने कुम्भकर्ण को, किसी ने मेघनाद को बताया। पीछे निर्णय हुआ कि मेघनाद सबसे बड़ा वीर था। रावण का कुछ देवताओं से भी युद्ध हुआ। रावण से जो काम नहीं हुआ, मेघनाद ने वह काम किया। देवताओं से युद्ध करने में रावण इन्द्र को नहीं पकड़ सका और मेघनाद ने पकड़ लिया। मेघनाद को लक्ष्मण ने मारा। लक्ष्मणजी की वीरता अद्भुत ठहरी। सीताजी बोली कि न तो राम ईश्वर हैं, न लक्ष्मण। वीरता में शक्ति की प्रधानता है और वह शक्ति मैं हूँ। सीताजी बोली कि शक्ति से ही रावण वा कुम्भकर्ण वा मेघनाद पछड़ा। इसलिए सबसे बढ़कर शक्ति है। वह शक्ति तो मैं ही हूँ। यहाँ शक्ति की बड़ी प्रधानता है। विचारो तो शक्ति स्त्री है, वा पुरुष है वा सजीव प्राणी है? शक्ति न स्त्री है, न पुरुष और न सजीव प्राणी है। जब यह बात निकली तो सीताजी बोली कि एक और रावण है, उसको देखें कौन मारते हैं? एक कल्पीय रामायण है, उसमें मैंने पढ़ा। उस रावण के यहाँ सीता, राम, लक्ष्मण; तीनों गए। युद्ध हुआ, वह ऐसा था कि एक के अनेक रूप हो जाते थे। वह अपने बैठा रहता, उसके अनेक रूपों से राम-लक्ष्मण लड़ते-लड़ते थक गए। उनके खून की बूँद से रावण बन जाता था। श्रीराम और लक्ष्मण आघात खाकर गिर पड़े, तब सीताजी ने काली का रूप धारण कर क्रोध करके उस पर प्रहार किया। इतना बड़ा रूप कि उसका भार कौन सम्हाले। शिवजी शव का रूप धारणकर उसके पैर के नीचे चले गए। जबतक युद्ध हुआ, शिवजी पर दृष्टि नहीं पड़ी। युद्ध समाप्त होने पर पड़ी। देखा कि शिवजी शव के रूप में हैं। कभी काली का रूप, कभी सीता का रूप; क्या इसमें बदली नहीं है?
 नानकपन्थ के दूसरे गुरु अंगद साहब थे। उनके समधी अमरदासजी तीसरे गुरु थे। एक बार अमरदासजी महाराज हिंगुला देवी की पूजा करने जा रहे थे। उस यात्रा काल में उन्होंने गुरु अंगददेवजी के यहाँ रात्रि-निवास किया। गुरु अंगददेवजी ने अमरदासजी महाराज का बहुत आदर-सत्कार किया। रात्रि-विश्राम के बाद ब्राह्ममुहूर्त्त में जब अमरदासजी महाराज की नींद टूटी, तो वे देखते हैं कि एक महासुन्दरी देवी गुरु अंगददेवजी के दरवाजे पर झाड़ू लगा रही हैं। अमरदासजी महाराज ने उन देवी से पूछा कि आप कौन हैं? आप यहाँ झाड़ू क्यों लगा रहीं हैं? उत्तर में देवी ने कहा-‘तुम कहाँ जा रहे जो?’ अमरदासजी महाराज ने कहा कि मैं हिंगुला देवी की पूजा करने जा रहा हूँ। देवी ने कहा कि वह हिंगुला देवी मैं ही हूँ। अमरदासजी महाराज ने कहा कि माताजी। आप यहाँ झाड़ ू लगा रही हैं? देवी ने कहा-‘अरे! ये तो संत हैं। इनके यहाँ लक्ष्मी और सरस्वतीजी भी झाड़ ू लगाकर अपने सौभाग्य को सराहती हैं।’ यह कहकर देवीजी अन्तर्धान हो गयीं।
 यहाँ भी देवीरूप बदलती हैं। आजकल वाजित- पुर का नाम पड़ गया है विद्यापतिनगर। विद्यापतिजी शिवजी के भक्त थे। वे भजन गाते थे, शिवजी सुनते थे। शिवजी नौकर रूप से विद्यापति के पास रहने लगे। ‘उगना’ रूप से उनके पास रहते थे। इस तरह शिवजी का रूप भी बदलता है। भस्मा- सुर को शिवजी ने वरदान दिया कि जिसके सिर पर तुम हाथ रखोगे, वह भस्म हो जाएगा। जब भस्मासुर को यह वरदान मिला, तो भस्मासुर के मन में आया कि यदि शिवजी के माथे पर मैं अपना हाथ रखूँगा, तो ये भस्म हो जायेंगे तो पार्वतीजी मेरी हो जाएगी। भस्मासुर ने जैसे शिवजी की ओर हाथ बढ़ाया, तो शिवजी भागते जाते थे और भस्मासुर पीछा करता जाता था।
 इस प्रसंग से यह भी ज्ञात होता है कि शिवजी का शरीर भी भस्म हो सकता था। इसीलिए वे भागते फिरते थे। शिवजी की रक्षा के लिए विष्णु भगवान पार्वती के रूप में भस्मासुर के सामने प्रकट हुए। भस्मासुर से कहा कि यदि तुम मुझे अपनाना चाहते हो तो जिस तरह भगवान शंकर एक हाथ कमर पर और एक हाथ माथे पर रखकर नाचते थे। उसी तरह तुम भी अपने हाथ को कमर और माथे पर रखकर नाच दिखाओ। भस्मासुर ने जैसे ही अपनी कमर और अपने माथे पर हाथ रखा, वह स्वयं ही जलकर भस्म हो गया। इस तरह विष्णु भगवान के रूप में भी बदली होती है। इस तरह विष्णु, शिव, शक्ति-सबके रूपों में बदली होती है। भले ही उन बड़े-बड़े देवों के रूपों का नाश अधिक-से-अधिक दिनों में हो, लेकिन कभी-न-कभी बिना नष्ट हुए बच नहीं सकते। लेकिन ईश्वर का नाश कभी नहीं होता। इस तरह जो बदले और नष्ट हो, उसको माया समझो, ईश्वर वह नहीं है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 ईश्वर एक हैं, जो राम के शरीर में, शिव के शरीर में, शक्ति के शरीर में, उस एक रूप को जो अपने अन्दर में पहचानता है, वह सबके अन्दर सब देशों में पहचानता है। वे एक ही ईश्वर हैं। वे इन्द्रिय-ज्ञान से परे हैं। चेतन आत्मा से जानने योग्य हैं। इसलिए-‘आतमगम्य भजहिं जेहि सन्ता ।’
 उसी एक को रामरूप में, शिवरूप में, विष्णुरूप में, शक्तिरूप में संतों ने वर्णन किया है। इसीलिए अभी पाठ में सुना कि ‘करोड़ों विष्णुओं के समान पालन करनेवाले, करोड़ों शिवों के समान संहार करनेवाले और करोड़ों ब्रह्माओं के समान सृष्टि करनेवाले’ कहा गया। भगवान विष्णु का अवतार हुआ। उस शरीर का नाम श्रीराम और उस शरीर में व्यापक स्वरूप भी राम। उस स्वरूप को शक्ति भी कहते हैं। इसीलिए सब शक्तियों का वह भण्डार है। वह स्वरूप कल्याणस्वरूप है। इसलिए यह शिव है। उसको बाहर में नहीं, अन्दर में पावोगे। उसको पाने के दो सहारे हैं-ज्योति और शब्द। बिना ज्योति के क्या काम करोगे? बिना शब्द के संसार ही नहीं रह सकता। परमात्मा की अनेक विभूतियों में ज्योति और शब्द उत्कृष्ट है। वह ज्योति और शब्द आपके अन्दर है। पहले ज्योति पकड़ो, फिर शब्द पकड़ा जाएगा। परमात्मा इसका नमूना दिखाते हैं कि आकाश में पहले बिजली चमकती है, फिर शब्द सुनाई पड़ता है। संत लोग इसका यत्न बताए हैं। अपने अन्दर वह शब्द होता है, उस शब्द को जो पकड़ता है, वह नाम-भजन करता है। इसको संत गरीबदासजी ने कहा-
 निरगुन निर्मल नाम है, अवगत नाम अवंच ।
 नाम रते सो धनपती, और सकल परपंच ।।
 जो सबमें व्यापक है, वही राम है, वही शिव है, वही विष्णु है, वही शक्ति है। जो शब्द अपने आप सबके अन्दर गूँज रहा है, उसको पकड़ो। यही नाम-भजन है।
 अपने हृदय को पवित्र रखे बिना परम पवित्र परमात्मा का भजन नहीं हो सकता। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पाँचों से जो नहीं छूटता है, वह ईश्वर का ठीक-ठीक भजन नहीं कर सकता। यदि एक ही बार इतना पवित्र नहीं हो सको, तो थोड़ा-थोड़ा पापों को छोड़ते जाओ। इसका ज्ञान सत्संग से होगा। सत्संग करो। सत्संग से गुरु की भी जानकारी होती है। अच्छे गुरु से इसका यत्न जानो और करो।
 लोग कहते हैं कि यह ज्ञान सबके लिए नहीं है। मैं कहता हूँ कि जबतक सुनाओ नहीं, तो कोई करे कैसे? सत्संग इसलिए है कि सब कोई सुनें, समझें और करें। मैंने देखा है कि सुनते-सुनते लोग करने भी लग गए हैं। त्रयकाल सन्ध्या करो। ब्राह्ममुहूर्त्त में, दिन में स्नान के बाद तुरंत और सन्ध्या के समय करो।
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यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत संतमत सत्संग मन्दिर, मनिहारी में दिनांक 11. 6. 1967 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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260. जवानी में अच्छी तरह भजन करो
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 हमलोग यहाँ इसलिए आए हैं कि यहाँ की जनता की सेवा जहाँ तक हो सके, वह करें और हम सब अपने पुराने विचारों को दुहरा-दुहरा कर सुनते रहें। इसी वास्ते हमलोग यहाँ एकत्र हुए हैं। मनुष्य को चाहिए कि यदि उसके पास में शारीरिक बल, बौद्धिक बल तथा धनबल हो तो इन तीनों से औरों को भी लाभ पहुँचावे। दूसरे को लाभ पहुँचाने के लिए सबके पास कुछ-न-कुछ अवश्य है। हमलोग यहाँ कुछ बौद्धिक विचार द्वारा यहाँ की जनता को लाभ पहुँचाना चाहते हैं। जिस बौद्धिक बल से लाभ पहुँचाना चाहते हैं, वह बल अध्यात्म-बल है। इससे हमलोग प्रेरणा लेते रहते हैं। इससे अपने तथा औरों के लिए शक्ति प्राप्त करते चले जाते हैं।
 पहले हमलोग ईश-स्तुति, संत-स्तुति तथा गुरु-स्तुति करते हैं। फिर सिद्धान्त-पाठ और अपने सिद्धान्त की परिभाषा का पाठ करते हैं। इसे हमलोग कण्ठस्थ रखते हैं, औरों को भी कण्ठस्थ करने कहते हैं। जो पढ़े हैं, वे पढ़कर इसे याद करते हैं और जो पढे़-लिखे नहीं हैं, वे सुनकर याद करते हैं। हमलोग ईश्वर की कृपा से ही श्वास लेते हैं। सब तरह से ईश्वर की कृपा से ही हमारी रक्षा होती है। जो कुछ भी हमारी भलाई होती है, वह ईश्वर-कृपा से ही होती है। ईश्वर की कृपा प्राप्त करके हम संसार में जीवन धारण करते हैं। यदि ईश्वर की स्तुति नहीं करते हैं, तो हम कृतघ्न हैं। इसलिए ईश्वर की स्तुति अवश्य कीजिए। प्रतिदिन काम शुरू करने के पूर्व ही ईश्वर की स्तुति कर लीजिए। स्तुति से ईश्वर पर निर्भरता रहती है। इसलिए सब लोगों को चाहिए कि ईश्वर की स्तुति अवश्य करें।
राम सिन्धु घन सज्जन धीरा । चन्दन तरु हरि संत समीरा।।
    -गोस्वामी तुलसीदासजी
 परमात्मा समुद्र हैं और संत पुरुष बादल हैं। प्रभु चन्दन के वृक्ष हैं और सब संतगण पवन हैं। समुद्र से ही बादल बनता है। बादल से बर्षा होती है। वर्षा से अन्न उपजता है। अन्न से मानव का जीवन रहता है। वर्षा के बिना क्या होता है, सो अभी अपने देश में प्रत्यक्ष है। संत पवन हैं। ईश्वरी ज्ञान को तमाम फैला देना यह संतों का काम है। संत ईश्वर की महिमा को संसार में फैलाते हैं। संत नहीं होते तो मानव को ईश्वर का ज्ञान नहीं होता। संत नहीं होते तो हमारा जीवन अन्धकारमय होता। ईश्वर का ज्ञान अवश्य होना चाहिए। ईश्वर का ज्ञान सिवा संत के और कोई देनेवाले नहीं। संसार को आरम्भ से ही संत के द्वारा ईश्वर का ज्ञान मिलता आया है। संतों के हमलोग बहुत ऋणी हैं। इसलिए उनकी भी स्तुति अवश्य करें। उपकारक की स्तुति नहीं करें तो हम महाकृतघ्न हैं। संतों का ज्ञान विशेष रूप से गुरु से पाते हैं। गुरु की भी स्तुति नहीं करने से कृतघ्न होते हैं। इसलिए गुरु की भी स्तुति नित्य होनी चाहिए।
 धर्म की परिभाषा और सिद्धान्त को जानना चाहिए। सिद्धान्त में ईश्वर-स्वरूप का निर्णय होता है और उसमें दृढ़तापूर्वक बतलाया जाता है कि ईश्वर क्या है, जगत क्या है? इसका भी ज्ञान होना चाहिए। जीवात्मा, माया और ईश्वर का ज्ञान सिद्धान्त में होता है। सिद्धान्त को पढ़े-अनपढ़े सभी याद करें। इसमें साम्प्रदायिकता का भाव नहीं है। हमलोग मिलाकर देखते हैं कि हमारे गुरु के ज्ञान में तथा संतों के ज्ञान में मेल है या नहीं। साम्प्रदायिक भाव में आपस में मेल नहीं रहता। उससे आपस में घृणा उत्पन्न होती है, कष्ट होता है और अशान्तिपूर्वक रहते हैं। अशान्ति नहीं रहे, इसके लिए मेल से रहो। मेल को जानने के लिए वेद, उपनिषद्, संतवाणी आदि को पढ़ो। एक विचार का बोल बोलो। विचार एक नहीं होने से मेल नहीं होता है। सामूहिक उपासना भी करो और व्यक्तिगत उपासना भी करो। उपासना के लिए, आपस में मिलकर रहने के लिए वेद में उपदेश है। यह बहुत काम का उपदेश है। बेमेल में बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और अकल्याण को प्राप्त करते हैं। सब दुःखों से बचने के लिए आपस में सब मिलकर रहो और सामूहिक उपासना करो। सामूहिक उपासना सब धर्मों में है।
 संसार में कर्म किए बिना नहीं रह सकते। स्वप्न में भी बिना कर्म किए नहीं रह सकते। हम दुःख से दूर भागना चाहते हैं और सुख को अपने पास बुलाना चाहते हैं। इसलिए कर्म बहुत समझकर करना चाहिए। अन्धाधुन्ध करने से परिणाम अच्छा नहीं होता। मानसिक तथा शारीरिक दोनों कर्म से सुखी और दुःखी होते हैं। जो केवल पुरुषार्थ से होता है, वह क्रियमाण कर्म है। वह कर्म जब जमा होता है तो वह सि०चत कहलाता है। सि०चत में से जो भोग होता है, वह प्रारब्ध कहलाता है। तीनों कर्मों के जाल में हम फँसे रहते हैं। इससे ही अनेक जन्म-मृत्यु से छुटकारा पावेंगे। इससे छूटने के लिए यत्न चाहिए। उपनिषद् बतलाती है कि ध्यान से छूटोगे।
 यदि शैल समं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम् ।
 भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ।।
            -ध्यानविन्द्पनिषद्
 एक ध्यान ही ऐसा कर्म है, जिससे कर्म बन्धन से छूट सकते हैं। ध्यान मन के एकाग्र करने को कहते हैं। ऐसा कौन-सा कर्म है, जो संसार के विषयों से छुड़ा दे? संसार के विषयों को ग्रहण करो तो कर्म होने लगता है। इसलिए ऐसा ध्यान होना चाहिए, जिससे विषयों से छूट जाएँ। पंच विषयों से छूटा हुआ परमात्मा हैं या उनके पूर्ण भक्त संतगण। दूसरा कोई नहीं, चाहे वे कुछ कहलावें। भक्त बनने के वास्ते ईश्वर का ध्यान करना चाहिए। इसका रहस्य गुरु के द्वारा खुल जाता है। ध्यान से विषयासक्ति छूटती है। जो ध्यान में जितना समय कोशिश करता है,उसमें अल्पकाल भी यदि ध्यान बन जाता है तो उस अल्प काल में भी विषयासक्ति से छूटता है। ध्यानी का फँसाव छूटते-छूटते छूट जाता है। कर्म से बचने के लिए हमको विषयासक्ति से हट जाना चाहिए, जो ध्यान से हटता है। ध्यान में ऊध्वर्गति होती है। नीचे गिरा रहना विषयों में लिपट के रहना है। ऊपर उठने के लिए अभ्यास करते-करते कभी-न-कभी ऊपर उठकर अवश्य रहता है। कर्ममण्डल से ऊर्ध्वगति में छूटता है। ऊर्ध्वगति होते-होते कर्ममण्डल को पार करेगा। कितना भी बड़ा पाप हो और कितना भी फैला हुआ हो, वह ध्यान से छूट जाता है। सिवाय ऊर्ध्वगति होने के और कोई उपाय नहीं है कि कर्म-बन्धन से छूटें। जबतक संसार में रहेंगे, कर्म-जाल में फँसे रहेंगे और दुःख-सुख भोगते रहेंगे। जो कर्ममण्डल से बाहर निकलेगा, वह कर्म के प्रभाव से बाहर निकलेगा। सांसारिक पदार्थों के ध्यान से ऊर्ध्वगति नहीं होगी। जब कोई भी रूप- रंग नहीं रहेगा, तब ऊर्ध्वगति होगी। ऊर्ध्वगति नहीं होने से आवरण का छेदन नहीं होता। कर्म समझ बूझकर करना चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-‘अध्यात्म-वृत्ति रखते हुए कर्म करो।’ अध्यात्म क्या है? अध्यात्म की खोज के लिए अपने अन्तर में देखो। अपने शरीर के अन्दर में खोजो। अध्यात्म-वृत्ति के लिए अपना निशाना अपने अन्दर, उसपर अपने को लगाए रहो। इससे कर्म में निर्लेपता आती है, कर्म में जो आसक्ति है, वह छूट जाती है।
 जीवात्मा जबतक बहिर्मुख है, तबतक शरीररूप पिंजरे में फँसा हुआ है। अन्तर्मुखी होने पर पिंजरे से छूटेंगे। ध्यान इसी वास्ते है। इसके लिए घर में रहे कि जंगल में? संत-महात्मा कहते हैं कि घर ही में रहो।
    वन के गए कलपना उपजै, तब धौं कहाँ समावै ।।
         -कबीर साहब
 भगवान बुद्ध ने कहा कि ‘तुम्हारा शरीर ब्रणों से भरा हुआ है।’ जिस कारण से शरीर होता है, उस कारण को तोड़ दो। यह ध्यान से होता है। कर्मों से बचने के लिए संसार से अनासक्त रहो। ब्रह्मचर्य का पालन करो। जवानी में ऐसी कमाई कर लो कि बुढ़ापे में उसकी चिन्ता न रहे। जब जवानी का बल चला जाता है, तब भजन करने में मन नहीं लगता। बुढ़ापे में भजन नहीं कर सकते। जवानी में अगर परमात्मा की ओर अपने को लगाया जाय तो उसी आदत से वह गुजरता रहेगा। इसलिए जवानी में अच्छी तरह भजन करो, तो बुढ़ापे के जीवन में भी अच्छी तरह करते रहोगे। जो जीवनमुक्त नहीं हैं, वे पुनः मनुष्य-जन्म पाकर फिर भजन करेंगे।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यन्तर्गत तरयासुजान, देवरिया में अखिलभारतीय संतमत सत्संग का 59वाँ वार्षिक महाधिवेशन, दिनांक 2. 4. 1967 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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261. हर का नासा सबकी आशा
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 मैं जिस विषय को अपने गुरु महाराज से जान पाया हूँ, वह आपलोगों को सुनाने आया हूँ। वह विषय खास तरह से ईश्वर की भक्ति है। ईश्वर की भक्ति इसका खास विषय है। जिस चीज की आवश्यकता नहीं हो, उसके बारे में कुछ कहना व्यर्थ है। यदि आवश्यकता हो तो कहना भी ठीक और सुनना भी ठीक।
 किसी देश पर जब शत्रु की चढ़ाई होती है तो उस शत्रु को टालने के लिए अवश्य यत्न करते हैं। अपने देश में हाल ही में यह काम हुआ है। पाकिस्तान की चढ़ाई में बहुत बहादुरी से सैनिकों द्वारा उसको रोका गया। अपनी जिन्दगी गँवा-गँवाकर उसे रोक दिया और आगे बढ़ा। यह होना बहुत आवश्यक है।
 खेती करने में हिंसा होती है, भोजन बनाने में हिंसा होती है, चिराग जलाने में हिंसा होती है। कभी-कभी किसान जंगल को जलाकर खेती करते हैं। जंगल जलाने में हिंसा होती है। यह अनिवार्य हिंसा है। आज जितने खेती करनेवाले हैं, वे यदि अनिवार्य हिंसा को छोड़ दें तो खेती नहीं हो सकेगी। गाँवों में कहावत प्रसिद्ध है कि ‘हर का नासा, सब की आशा।’ हल नहीं चले, वैज्ञानिक खत्म हो जाएँगे। बड़े-बड़े बहादुर भी खत्म हो जायेंगे।
 जो असल ज्ञान है, वह गुढ़ और गम्भीर है। उसको जानने के लिए, जनानेवाले को बड़ा परिश्रम करना पड़ता है। जैसे बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने में परिश्रम करना पड़ता है। अपने मस्तिष्क को भी बंजर खेत की तरह विद्याभ्यास और सत्संग के द्वारा उर्वरा बनाना चाहिए। विद्याभ्यास हो और सत्संग नहीं हो तो फसल अच्छी नहीं होगी। सत्संग के बिना अध्यात्म-ज्ञान नहीं होगा। अध्यात्म-ज्ञान के बिना विद्या अपवित्र है। संसार में इसका ताण्डव नृत्य हो रहा है। बड़े-बड़े विज्ञान जाननेवाले हैं, अगर अध्यात्म से विहीन हैं तो उनसे ऐसा काम होता है जो नहीं होने योग्य है। अध्यात्म-ज्ञान के जाननेवाले पवित्र काम करते हैं। अच्छे भी मायाधीन होकर भलेपन से चूकते हैं। परन्तु भलेपन का खजाना उनके पास मौजूद रहता है, जिससे फिर वे कुमार्ग से सुमार्ग में आते हैं। उनका जब दूसरा जन्म होता है तो वह संस्कार उनसे कभी दूर नहीं होता। इसमें कोई संशय नहीं है। जो ज्ञान ईश्वर-भक्ति के लिए अपेक्षित है, उसको बहुत जानना है। ईश्वर-भक्ति से विहीन लोगों से दुष्ट कर्म अधिक होते हैं। अपने दुःखी रहते हैं और दूसरों को भी दुःखी बनाते हैं।
 सब चाहते हैं कि हम बहुत सुखी रहें। सुख इतना कि उसका अन्त नहीं। सुख के बाद दुःख आवे नहीं। जिस सुख में मन उकतावे नहीं, उसमें रस-ही-रस रहे, कभी तृष्णा होवे नहीं, उस सुख को पाने के लिए कोई इन्द्रियाँ समर्थ नहीं। बाहर संसार में इन्द्रियों के सुख से सुखी नहीं होते। सांसारिक सुख में कभी तृष्णा का अन्त नहीं होता। संसार में जो सुख पाता है, उससे कभी कोई तृप्त नहीं होता। इससे उपरामता पाने के लिए ईश्वर की भक्ति नितान्त आवश्यक है। मनुष्य को अविनाशी सुख चाहिए। उस सुख के वास्ते ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए। मेरे गुरु महाराज इसी के वास्ते ईश्वर-भक्ति का प्रचार करते थे। भक्ति में ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान अवश्य चाहिए। स्वरूप-ज्ञान के बिना वह उस यात्री के समान है, जिसे अपना निर्दिष्ट स्थान मालूम नहीं, फिर यात्रा करता चला जा रहा है। इसलिए ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए।
 संसार में सभी वस्तुओं का परिवर्तन होता है और अत्यन्ताभाव होता है। अत्यन्ताभाव में कुछ भी नहीं रहता है। यह शरीर जल जाएगा, सड़ जाएगा। अन्त में रूप का अत्यन्ताभाव हो जाएगा। दो प्रकार के नाश होते हैं, संसार में ऐसा देखने में आता है। हिमालय पहाड़ है, कुछ-न-कुछ उसका अंश झड़ता जाता है। अगर ऐसा कोई आयुवाला हो तो बतला सकता है कि इसमें कितनी बदली हुई। कुछ विद्वानों का कहना है कि हिमालय पहले समुद्र में था। संसार का सभी पदार्थ परिवर्तनशील है। ईश्वर तबसे है, जब देशकाल का भी पसार नहीं था। कबीर साहब कहते हैं कि ‘आवे जाय सो माया।’ ईश्वर सबसे पहले का है। जो सबसे पहले का है, वही परम प्राचीन, परम पुरातन, परम सनातन है। यह केवल कल्पना नहीं है। शून्य नहीं होता तो सौर जगत नहीं होता। सबसे पहले का वही है, जिसका आरम्भ नहीं, अन्त नहीं। ईश्वर को जब हम आदि-अन्त-रहित कहते हैं, तो उसके विस्तार का बोध होता है। विस्तृतत्व का ज्ञान माया के अन्दर होता है। ईश्वर विस्तृतत्व से भी बाहर है। कठोपनिषद् में है-
 वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
 एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
 प्रकृति के पार का जो स्वरूप है, वह हद, बेहद और विस्तृतत्व से भी परे का है, उसमें न परिवर्तन होता है और न अत्यन्ताभाव। बुद्धि के विचार में यह बात आती है। परमात्मा बुद्धि की शक्ति से परे है। उनके साथ-साथ दूसरा तत्त्व भी है, कोई बता नहीं सकता। वह एक-ही-एक है। ‘प्रथम एक सो आपै आप।’ शून्य में बहुत-सी चीजें रहती हैं। यह शून्य बहुत मोटा है, जिस शून्य में कुछ भी मोटाई नहीं, वह इतना सूक्ष्म है कि इससे अधिक सूक्ष्म कुछ हो नहीं सकता। आदि-अन्त-रहित के मुकाबले में आदि-अन्त-सहितवाला पदार्थ सब तुच्छ है। आदि-अन्त-सहितवाले पदार्थ को मिलाकर कितना भी बड़ा मण्डल बना लो, वह आदि- अन्त-रहित नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि सूक्ष्म तत्त्व को स्थूल यंत्र ग्रहण नहीं कर सकता। हमारी इन्द्रियाँ सभी स्थूल हैं। इससे ईश्वर-स्वरूप का ग्रहण नहीं हो सकता। इसलिए-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
       -गोस्वामी तुलसीदासजी
 इतना सूक्ष्म परमात्मा का स्वरूप है। इस स्वरूप का नाश नहीं होता। इसको नहीं पाने से, ईश्वर की भक्ति हो गई-कभी नहीं हो सकता। अपने को मत हराओ। अपने को समझकर स्थिर रखो। अपने आप से जो ग्रहण कर सकें, वही ईश्वर है। उसे बुद्धि नहीं पकड़ सकती। अपने आप स्वयं पकड़ सकते हैं।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।
 अंश अंशी को अवश्य पकड़ता है। अंश उतना ही सूक्ष्म है, जितना परमात्मा। दोनों में जातीयता है। आप स्वयं अपनी सूक्ष्मता के कारण ईश्वर को पकड़ेंगे, अपने को पहचानेंगे। अपने से अपने को पहचानेंगे। जैसे अपनी आँख को अपनी आँख से ही ऐने के द्वारा देखते हैं। इसी तरह साधन-भजन द्वारा आप अपने को देखिएगा। आप अपने में ही संतुष्ट होंगे। जो अपने आप में संतुष्ट नहीं, उसको संसार के कोई भी पदार्थ संतुष्ट नहीं कर सकता। इसी के लिए संतों ने सत्संग का प्रचार किया है।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत तरयासुजान, देवरिया में अखिल भारतीय संतमत सत्संग का 59वाँ वार्षिक महाधिवेशन, दिनांक 2. 4. 1967 ई0 के अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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262. मिथ्या धारणा को दूर करें
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 जो कुछ पाठ आपको सुनवाता हूँ, उन सबसे आप निचोड़ निकाल लें। संसार में जो काम करते हैं, उसमें लाभ देखकर ही करते हैं। सत्संग भी लाभ देखकर ही करना चाहिए। सुनानेवाले परिश्रम करते हैं, सुननेवाले भी सुनी बातों को चुन-चुनकर अपने हृदय में नहीं रखते तो उनको लाभ नहीं होता। आप सत्संग की बातों को सुनें। सुनी हुई बातों के अनुकूल यदि नहीं चलते हैं तो जो उत्तम लाभ होना चाहिए, सो नहीं होता।
 अपने देश में ईश्वर संबंधी ज्ञान बहुत ऊँचा है, इसमें लोगों की मैं बहुत भलाई समझता हूँ। मूल वस्तु को जानने में लोग कमजोर रहते हैं। मूल चीज को पाने की विधि को जानना तो दूर ही रहता है। मिथ्या धारणा को दूर करने के लिए मैं सत्संग में उपस्थित होता हूँ। ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो ईश्वर की स्थिति पर विश्वास नहीं करते हैं। बुद्धि विचार से नहीं समझकर केवल अन्धविश्वास में चलना ठीक नहीं। विचार यह है कि सबसे प्रथम का कुछ है, ऐसा मानना युक्ति-युक्त है। सबसे प्रथम का जो है, वह असीम, आदि, अन्तरहित है। विस्तृतत्वविहीन होते हुए वह सर्वव्यापक है। बाह्य इन्द्रियों को कुछ भी शक्ति नहीं, जो उसे ग्रहण कर सके। केवल चेतन आत्मा को वह शक्ति है, जो ईश्वर को चीन्हे और दर्शन कर सके। यह ज्ञान जब मजबूत हो जाता है, तब इन्द्रियों के ज्ञान में जो कुछ आता है, उसे ईश्वर नहीं मानता। इन्द्रियों के पंच विषयों को लोग जानते हैं, इनसे परे को नहीं जानते। इनसे परे ईश्वर हैं, यह विश्वास मजबूत होता है। इसी के वास्ते मैं प्रयत्न करता हूँ। लोग कहते हैं, यह गम्भीर विषय साधारण लोग समझ सकेंगे? मैं कहता हूँ कि ऐसा आलसी कहता है। प्रयत्न करनेवाला नहीं कहेगा। जब सुग्गा सुनकर मनुष्य की बोली बोलने लग जाता है, तब मनुष्य नहीं सीखे, यह कहना ठीक नहीं। प्रयासी को विश्वास हो जाता है कि बिना पढ़े-लिखे लोग भी सीख सकते हैं। मतलब कहने का कि सबको सुनाया जाय, सबको दिखाया जाय। सब कोई सुनने योग्य हैं। गुरु नानकदेव ने कहा-‘चहुँ बरना को दे उपदेश।’ मैं भी इसी के लिए चेष्टा करता हूँ।
 ईश्वर संबंधी ज्ञान में जब यह सिद्ध हो जाता है कि ईश्वर पंच विषयों से परे हैं, तब बाहर में ईश्वर के पाने का यत्न व्यर्थ है। अपने अन्दर में ही ज्ञान रहता है। सोचने-समझने की शक्ति अन्दर में है। बाहर में भी देखने की शक्ति अन्दर से ही आती है। केन्द्र में पहुँचने की शक्ति को विकसित करो। अपने को देखने के लिए शक्ति हासिल करो। मैं तो अंदर में कोशिश करता हूँ। मुझे कुछ- न-कुछ नमूना अवश्य मालूम है। अन्दर में वही देख सकता है, जो अन्धकार का छेदन करता है।
उघरहिं विमल विलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनीके।।
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रकट जहँ जो जेहि खानिक।।
 जो अन्दर में कोशिश करता है,वह पाता है। जो अन्दर में कोशिश नहीं करता, केवल वाक्य जाल में फँसा रहता, वह नहीं पाता। इसके लिए मैं युक्ति बतलाऊँगा, जिसे करके आप ईश्वर को पायेंगे। आप युक्ति जानें। जबतक ईश्वर को इन्द्रिय- ज्ञान के परे नहीं जानेगा, तबतक ईश्वर-प्राप्ति का भेद उसके लिए कुछ नहीं। संतों के साधन में अन्दर का भेद बतलाया गया है। वे अन्दर के साधन के जानकार थे। संतों की गति सर्वव्यापक तक है।
 ईश्वर शब्दातीत है। उनको निर्गुण-सगुण कहते नहीं बनता। वह त्रैगुणमय नहीं है। वह परा प्रकृति भी नहीं है। इसलिए वह निर्गुण भी नहीं। वह निर्गुण के भी परे है। वह देशकालातीत है।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत तरयासुजान, देवरिया में अखिल भारतीय संतमत सत्संग का 59वाँ वार्षिक महाधिवेशन, दिनांक 3. 4. 1967 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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263. मन की सम्हाल भक्ति में परम आवश्यक है
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 ईश्वर-भक्ति के विषय में जो कहना चाहिए, मैं वही कहता हूँ। इस विषय के पहले ईश्वर-स्वरूप का निर्णय चाहिए। युधिष्ठिर बहुत दुःखी थे। वह राजा भी बनाए गए। फिर भी उनका मन नहीं लगता था। वे रोते रहते थे कि ‘हाय! हमारे सब मर गए। बूढ़े-जवान सब मर गए।’ व्यासदेवजी ने समझा कि इसके ख्याल को बदल दें। उन्होंने युधिष्ठिर से कहा-‘अरे! तू अश्वमेध यज्ञ कर।’ युधिष्ठिर ने कहा-‘यज्ञ के लिए धन कहाँ? भण्डार तो युद्ध में खाली हो गए। अन्य राजाओं से धन लेकर युद्ध में खर्च कर दिया।’ व्यासदेवजी ने कहा-‘पहाड़ में बहुत धन पड़े हैं। राजा मरुत ने इतना दान किया था कि दान लेनेवाले उसे ले जा न सके। उस दान के धन को पहाड़ में गाड़कर वे लोग चले गए। उस धन के पाने के लिए मैं ठीक-ठीक रास्ता और अनुष्ठान बतलाता हूँ। तू अनुष्ठान कर। युधिष्ठिर ने वैसा ही किया और धन प्राप्त कर यज्ञ किया।
 यह कथा कहने का मेरा मतलब यह है कि अव्यक्त धन को प्राप्त किया जा सकता है। ईश्वर अव्यक्त है, उस ईश्वर को प्राप्त कर अपने को महान बनाओ। उस रास्ते पर चलो, जिस पर चलने से अव्यक्त, व्यक्त हो जाए। ईश्वर मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों को व्यक्त नहीं। मन, इन्द्रियों से छूटकर निजी ज्ञान में परमात्मा व्यक्त हो जाता है। परमात्मा तक पहुँचने से दुःख का अन्त हो जाता है। उस मार्ग पर चलने के लिए इस पैर की आवश्यकता नहीं। मन भी छूट जाता है, केवल चेतन आत्मा ही रहती है। जो परमात्मा तक जाती है, उस मार्ग पर चलने के लिए बहुत सूक्ष्म होना चाहिए। अपने को सिमटाव में लाना चाहिए। चेतन आत्मा सर्वव्यापी है। समस्त शरीर में वह एक रस व्यापक है। परन्तु जहाँ पर इसका विशेष प्रभाव है, वह भी कोई स्थान है।
 जाग्रत में जीव का वासा आँख में है, स्वप्न में कण्ठ में तथा गहरी नींद में हृदय में। सबको आँख से ही चलना पड़ता है। संतों ने सुगम और सीधा रास्ता निकाला है। मन के सिमटाव से चेतन आत्मा मन से भिन्न हो जाती है। सिमटाव में ऊर्ध्वगति स्वाभाविक है। अपने अन्दर में मन का सिमटाव होने से ऊर्ध्वगति होती है। सिमटाव मन की एकाग्रता से होता है। भक्त लोग मन को एकाग्र करेंगे, तो मोटे पदार्थ से मन को समेटेंगे।
 जप एकाग्र मन से जपो। सब जपों में मानस जप उत्तम है। जप तीन तरह का होता है-वाचिक, उपांशु और मानस। मानस जप पर संतों ने बहुत जोर दिया है। जप बाहर में दिखलाने के लिए नहीं, मन-ही-मन जपो। इससे मन की एकाग्रता होती है। ईश्वर सर्वव्यापक है। प्रत्येक चराचर रूप हरि के हैं। गुरु के बताए हुए जो रूप अच्छा लगे, उसपर मन को टिकाओ। शून्य का ध्यान विशेष सिमटाव का काम है। विन्दु का स्थान है, परिमाण नहीं। वह ऐसा र्चिं है कि बाहर र्चिैंत नहीं कर सकते हैं। यह विन्दु ध्यान परम ध्यान है।
 बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
 अर्थात् परम विन्दु ही बीजाक्षर है, उसके ऊपर नाद है, नाद जब अक्षर (अनाश ब्रह्म) में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है।
 तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम् । अर्थात् हृदयस्थित विश्वात्म तेजसस्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है। देखने के यत्न से देखो प्रकट होगा। वह विन्दु ध्यान, मानस ध्यान नहीं है। जब मन में कोई रूप नहीं रखते हैं, तब जो र्चिं उदय होता है, वही विन्दु है। आँख बन्द करने पर अन्धकार मालूम होता है। अन्धकार में सूझे तो ज्योतिर्विन्दु है। यहाँ जो विन्दु का उदय होता है, वह आन्तरिक शालिग्राम का रूप है। उसमें जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्था नहीं रहती है। इन तीनों अवस्थाओं से ऊपर चौथी अवस्था हो जाती है। ‘तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त।’ गोस्वामी तुलसीदासजी सफरी बनने कहते हैं। सफरी एक छोटी मछली है, जो जल के प्रवाह के विपरीत दिशा को भी चल सकती है। अन्तस्साधन में जो प्रकाश मिला, वह उलटी धारा है, वही सूक्ष्म का प्रकाश है। उसमें अधिक गति है। उस पर चलनेवाला योगी होता है। योगी अपने अन्दर में सारे विश्व को देखता है। अनेक रूप को देखकर एक में रहता है। जो अनेक रूप का आधार है, उसको भी देखता है। अनेक रूप का आधार परमात्मा है। भक्ति, ज्ञान और योग; तीनों संग-संग होने चाहिए। सत्संग के द्वारा यही प्रचार करते हैं। उसमें न ज्ञान को छोड़ते हैं, न भक्ति को, न योग को। ईश्वर की ओर चलनेवाले के वास्ते चाहिए अन्तस्साधन। दृष्टियोग में दृश्य तक रह सकता है। शब्द में उद्गम की ओर खींचने की शक्ति है। शब्द का साधन करते-करते शब्दातीत-पद को प्राप्त होंगे। ईश्वर-प्राप्ति के वास्ते इसी तरह की भक्ति करनी चाहिए। तुरीय अवस्था में भजन करो तो संशय निर्मूल होकर नष्ट हो जाएगा। भक्ति-मार्ग यहाँ तक पहुँचाता है।
 मन की सम्भाल भक्ति में परम आवश्यक है। सत्संग में बाहरी बातों को छोड़कर बैठो और एकाग्र होकर सुनो। गुरु-सेवा बेमन से मत करो। बेमन की सेवा गुरु मंजूर नहीं करेंगे। खूब मन को संभालकर जप करो। दूसरे ख्याल को हटाते जाओ। इसमें मन की संभाल ही सम्भाल है। केवल विचार से क्षणिक काल के लिए दमशील होता है। मन चलायमान है। मन की धारें इन्द्रियों तक है। यदि मन की धारें इन्द्रियों के साथ नहीं रहें तो मन विषयी नहीं होता। इसको अन्तर्मुख करो, तो विषय छूट जाता है। अन्तर्मुख होने से इन्द्रियों का संग छूटता है। किसी बाहरी विषय में आसक्ति नहीं रहती। अन्तर्मुख होने से बाहर के ज्ञान से जाते रहेंगे। आँख से अगर आप ऊपर उठेंगे तो स्थूल जगत छूट जाएगा। अन्तर्मुख होने से चैन होती है। अन्दर के प्रकाश में रस मिलता है। बाहर का विषय फीका हुआ। इन्द्रिय का दमन हो गया। निर्विषय की ओर चलना परमात्मा की ओर चलना है। जो निर्विषय की ओर चला, वह ईश्वर का भक्त है। दम के बाद शम का साधन है। शम कहते हैं- मनोनिरोध को। मनोनिरोध के बिना शम नहीं होता। नादानुसन्धान में शम का साधन होता है। दम और शम योग का साधन है। थोड़े-थोड़े अभ्यास से अभ्यास में आगे बढ़ते जाओ। दुष्ट बुद्धि को छोड़ना चाहिए। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; पाँचों पापों से बचकर रहना चाहिए।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत तरयासुजान, देवरिया में अखिलभारतीय संतमत सत्संग का 59वाँ वार्षिक महाधिवेशन, दिनांक 3. 4. 1967 ई0 के अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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264. नगद सौदा
प्यारे लोगो!
 जो कुछ आपको सुनाए जाते हैं, उन सब पाठों से यही बतलाना है कि ईश्वर-भक्ति के लिए मानस जप, मानस ध्यान, शाम्भवी मुद्रा तथा नादानु- संधान बहुत अपेक्षित है। इन साधनों के बिना भक्ति पूर्ण नहीं हो सकती। गुरु से पाए हुए शब्द का जप सबके लिए सरल है। स्थूल रूप का ध्यान भी सबके लिए सरल है। इसलिए हमारे बहुत से संन्यासी ‘ॐ’ लिखकर ध्यान करते हैं। सूफी लोग ‘अल्लाह’ वा ‘अलिफ’ लिखकर ध्यान करते हैं। स्थूल जप के द्वारा मन को सम्भालते हैं। स्थूल को छोड़कर एकाएक सूक्ष्म में चले जाएँ, कभी संभव नहीं। दृष्टियोग से एकविन्दुता आती है, निगाह को समेटकर स्थिर करो। इसका पूरा भेद गुरु से जानकर करो।
 क्यों भटकता फिर रहा, तू ऐ तलाशे यार में ।
 रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिये ।।
 हमलोग जिसे सुषुम्ना कहते हैं, सूफी लोग उसे शहरग कहते हैं। ईश्वर तक जाने का रास्ता वही है। पूरे गुरु से जाकर मिलो। जिसमें सच्चाई और संतोष नहीं है, वह गुरु का ज्ञान नहीं ले सकता है। दोनों को लेते हुए जो गुरु के पास जाता है, उसपर गुरु प्रसन्न होते हैं। गुरु उसे उत्तम जानकर भेद बतला देते हैं।
 गोश बातिन हो कुशादा,जो करे कुछ दिन अमल ।
 ला इलाह अल्लाह हो, अकबर पै जाने के लिये ।।
 अन्दर का कान खुल जाता है। ‘यहि घट बाजै तबल निशान। बहिरा शब्द सुने नहिं कान।’ ईश्वर तक पहुँचने के लिए संतों के अन्दर यही आखिरी बात है। हम वेदों में खोजते हैं तो वहाँ भी नादानुसन्धान की चर्चा है। उपनिषदों में है। संतवाणी तो इसी की किताब है। केवल कहने से आज तक किसी को प्रत्यक्ष हुआ है? ‘धन-धन कहत धनी जो होते निर्धन रहत न कोई।’ विन्दु ब्रह्मज्योति का प्रतीक है। जो विन्दु को नहीं पकड़ सकते, वे स्थूल में गिर जाते हैं। विन्दु नहीं भागता, आप ही भाग गए। दृष्टियोग का अभ्यास करते-करते सुरत प्रौढ़ हो जाएगी और कोई दूसरी बात सुनने में अच्छी नहीं लगेगी। यह उधार सौदा नहीं है, नगद सौदा है। परिश्रम करो, अभ्यास करो। यह काम करके तब जो अनुभूति हुई, वही नगद सौदा पाना है। इड़ा-पिंगला को मिलाओ तो प्रकाश का उदय हो जाएगा। जबतक मिलाकर रखोगे, तबतक प्रकाश रहेगा। यह अन्दर का काम है। इसका प्रयोगशाला अपना शरीर ही है। इसमें मन इस तरह टिकता है कि दूसरी तरफ जाता नहीं। विन्दु और नाद यह ईश्वर की ओर जाने का अवलम्ब है। भरोसा नहीं छोड़ना चाहिए, शक्ति बढ़ाते-बढ़ाते बढ़ती है। भजन-अभ्यास करते-करते शक्ति बढ़ जाती है। खूब अभ्यास करना चाहिए। बाबा नानक ने कहा है-ईश्वर का कोई रूप नहीं है। इसके लिए कोई लकीर भी नहीं है। यदि कुछ निशान है तो ‘साचे शबदि नीशाणु।’ यही ईश्वर का र्चिं है। इस र्चिं को जो पाता है, वह ईश्वर को पाता है। अपने अन्दर में चलो ‘साचे शबदि नीशाणु’ मिल जाएगा। उसको जहाँ पकड़ा, ईश्वर मिल गए। जो शब्द-अभ्यास में पूर्ण होता है, वह ब्रह्म को पाता है।
 प्रकाश को हटा दो, तो सारा कार-बार खत्म। शब्द के हटाने से कम्पन हट जाएगा। कम्पन के हटने से सृष्टि खत्म हो जाएगी। शब्द और प्रकाश को हटा दो, तो संसार नहीं रहेगा। ईश्वर को पाने के लिए इससे उत्तम दूसरा प्रतीक नहीं। इसको मन से बनाने की जरूरत नहीं। इसको देखने का कौशल होता है। देखने का कौशल जानो। जैसे यहाँ संसार में प्रकाश और शब्द की प्रबलता है, उसी तरह आपके अन्दर में भी शब्द और प्रकाश है। संतों ने इसको अपने अन्दर खोज निकाला। इसकी युक्ति उनकी वाणियों में मौजूद है। अगर सुरत नभ-द्वार में जमाओ तो यही शाम्भवी मुद्रा होगी। इसे करके देखिए, होता है कि नहीं? करने में कमजोरी नहीं रहे-खूब कीजिए। करते-करते शक्ति हो जाएगी। नाद विन्दु शिव-शक्ति का महान र्चिं है।
 विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम् ।
 देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।
 कोशिश करके पकड़ो। इसी का उपदेश इस सत्संग में होता है।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत तरयासुजान, देवरिया में अखिल भारतीय संतमत सत्संग का 59वाँ वार्षिक महाधिवेशन, दिनांक 4. 4. 1967 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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265. अन्तर्नाद क्या है?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 मैं आपको संतवाणी के अनुकूल जनाना चाहता हूँ कि भक्त ईश्वर का किस आधार को पाकर ईश्वर तक पहुँचता है। भक्त ईश्वर के दर्शन के लिए लालायित रहता है। दर्शन के बिना वह विकल रहता है, यह भाव जिसके हृदय में है, वही भक्त है। यह भाव हृदय में रखना चाहिए। ईश्वर की भक्ति करो तो दर्शन होगा। ईश्वर से कल्याण होगा। नाद-विन्दु को ग्रहण करो। पहले विन्दु, तब नाद को ग्रहण करो। जहाँ नाद की समाप्ति है, वहीं ईश्वर का दर्शन है। यह सृष्टि जिसकी की हुई है, वह सबसे पहले का होगा। वह आदि-अन्त- रहित होगा। वह सबमें व्यापक होगा।
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 वह एक-ही-एक है। जो सर्वत्र समाया हुआ
है, वही परमात्मा है। उसके बाहर कुछ नहीं हो सकता। सब उसके शासन में है, सब उसके प्रभाव में है। परमात्मा सबके अन्दर है। स्थावर-जंगम सब ईश्वर का रूप है। सबसे पहले का जो है, उसने ही सृष्टि की है। कुछ बनने के लिए क्या चाहिए? बिना कम्प के कुछ नहीं होता। सबसे पहले कम्प हुआ। कम्प का सहचर शब्द है। शब्द सारे विश्व में समाया हुआ है। वह तमाम व्यापक है। शब्द की धार सबसे विशेष लम्बी है। जिस शब्द से जो पहचाना जाय, वह उसका नाम है। शब्द अपने उद्गम की ओर खींचता है। शब्द में उद्गम की ओर खींचने का गुण है। जो उसे ग्रहण करेंगे, शब्द के सहारे परमात्मा तक पहुँच जाएँगे।
 शब्द शब्द सब कोई कहे, वो तो शब्द विदेह ।
 जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि देह ।।
 यह मनुष्य भाषा का शब्द नहीं है। इसे स्थूल ज्ञान में कभी नहीं प्राप्त करोगे। सृष्टि पर विचार करने से मालूम पड़ता है कि स्थूल से पूर्व सूक्ष्म अवश्य बना। सूक्ष्म भी कारण के बिना नहीं बन सकता। कारण के बिना कार्य नहीं होता। कारण से पूर्व मूल प्रकृति बनी। इसको साम्यावस्थाधारिणी मूल प्रकृति कहते हैं। इसका कम्पित भाग कारण होता है। जड़ के चार दर्जे हैं-स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण। यही अपरा प्रकृति है। जड़-जड़ के मिलन से चेतन बना, ऐसा कहा नहीं जा सकता। चैतन्य तत्त्व अलग है। इसका मण्डल लेकर पाँच दर्जे हुए। जड़-विहीन चेतन कैवल्य मण्डल है। किसी भी मण्डल का जबतक केन्द्र स्थापित नहीं होता, तबतक मण्डल बन नहीं सकता। पाँचों मण्डल के केन्द्रों से ध्वनियाँ होती हैं। वही अन्तर्नाद है। ऊपर के शब्द को नीचे के केन्द्र पर पकड़ सकते हैं। जिस केन्द्र से जो शब्द विकसित होता है, वह उसका गुण लिए रहता है। जो उसे ग्रहण करता है, उसको उस गुण से गुणान्वित करता है। आदिशब्द को जो पकड़े, वही संत होता है। इसीलिए ‘संत-भगवन्त अन्तर निरन्तर नहिं किमपि विमल मति कह दास तुलसी।’ सारशब्द को पकड़ने के लिए नीचे के केन्द्रों के शब्दां को पकड़ते हुए आगे बढ़ो। माया के सारे मण्डलों को पार करके सारशब्द को पकड़ो। इसके लिए अन्दर में प्रवेश करो। अन्दर में प्रवेश विन्दु से होगा। किसी मण्डल का आरम्भ एक विन्दु से होता है और अन्त भी एक विन्दु से होता है। ध्यान करो। मन को एकाग्र करो। मन के सिमटाव करने की क्रिया को ही योगाभ्यास कहते हैं। मानस जप करो। सुषुम्ना में वृत्ति रखकर नाम जपो। इससे जब वृत्ति समेट में आती है, तब रूप का ध्यान होता है। जो जिस रूप को मानते हैं, वे उसका ही ध्यान करते हैं। नाम जपने के लिए गुरु जो मन्त्र बता दे, वही जपना चाहिए। जप ईश्वर का गुणवाचक हो, इससे पूर्णरूपेण सिमटाव नहीं होगा। विशेष सिमटाव कि लिए कुछ योग्यता होगी। विन्दु ध्यान में देखने के यत्न से देखो। देखने के यत्न से विन्दु प्रकट हो जाएगा। दृष्टि को स्थिर करके रखो। इसका यत्न गुरु से सीखो। जो दृष्टियोग अच्छी तरह करता है, वह सूक्ष्म में प्रवेश करता है। विन्दु पकड़कर नाद में चलो। नाद से नादों में चलकर आदिनाद को पकड़ो। वह ईश्वर तक पहुँचाएगा। सारा दुःख समाप्त हो जाएगा, अब जाने-आने का काम नहीं। माया के अन्दर में आदिशब्द को नहीं पकड़ सकते। उसको जो पकड़ लिया, वही संत हैं। उसको कितने जन्मों में पकड़ेंगे, पता नहीं। इसको पकड़ने के लिए विन्दु ध्यान है। ध्यान करो, रोशनी पकड़ी जाएगी। इसमें आँख को बिल्कुल तकलीफ नहीं होती है। उस पर चलने के लिए बहुत पवित्र होना चाहिए। झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, नशाओं को मत लो, व्यभिचार मत करो, हिंसा मत करो। मत्स्य-मांस भी मत खाओ। जो मछली-मांस खाते हैं, उनकी हिंसा की ओर रुचि रहती है। जिस देश में मछली-मांस खाए बिना नहीं रहा जाता, वहाँ के भी लोग साधन कर सकते हैं। फल यह होगा कि जिस देश में बिना खाए रह सकते हैं, वहीं उनका पुनर्जन्म होगा। अब विदेशों में भी लोग निरामिष भोजी होते जा रहे हैं। पंच पापों से बचोगे तो भजन में शक्ति बढ़ेगी। भजन से पाप त्याग में बल बढ़ेगा। यह साधन सबसे होगा। इसका आरम्भ सब कर सकते हैं। योग के आरम्भ का नाश नहीं होता। इसका उलटा परिणाम नहीं होता। यह अभ्यासी को महाभय से बचाता है। मनुष्य योनि के अतिरिक्त पशु आदि योनियों में जाना महाभय है। योग के लिए प्रयास होना चाहिए। पंच पापों को छोड़ना ईश्वर की भक्ति में बहुत अपेक्षित है। ईश्वर-भक्ति में पापों से छूटता है। यदि सभी ईश्वर के भक्त बन जाएँ, तो दुष्ट कर्म मिट जाएँ। इसलिए ईश्वर की भक्ति बहुत आवश्यक है।
 भक्ति बीज बिनसै नहीं, जो युग जाय अनंत ।
 ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।।
 ईश्वर-भक्ति कीजिए। देश से क्लेश निकल जाएगा और बड़ा सुख होगा। अपने देश में स्वराज्य है, पर क्लेश है ही। कानून बनानेवाले कानून बनाते हैं, पर सफल नहीं होते। संसार के कामों को करते हुए मानस जप और मानस ध्यान करते रहो। फिर कुछ काल एकान्त में बैठ-बैठकर भी ध्यान करो। करनेवाले करो। केवल सुनकर मत रह जाओ। प्रातः ब्राह्ममुहूर्त्त में करो, स्नान के बाद तुरन्त, फिर सायंकाल और सोने के समय कुछ करके सोओ। हर एक काम के साथ-साथ करो। मनुष्य जीवन को बर्बाद मत करो। अपने समय को ठीक काम में लगाना चाहिए। मैंने वही कहा, जो मेरे गुरु ने कहा था।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत तरयासुजान, देवरिया में अखिलभारतीय संतमत सत्संग का 59वाँ वार्षिक महाधिवेशन, दिनांक 4. 4. 1967 ई0 के अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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266. शहरग का रास्ता कौन बतावेगा?
प्यारे लोगो!
 सत्संग में ग्रन्थों के द्वारा पाठकर जो कुछ आपको सुनाए जाते हैं, उन सब पाठों से यही बतलाया जाता है कि ईश्वर-भक्ति के लिए जप अपेक्षित है, मानस ध्यान अपेक्षित है, शाम्भवी मुद्रा वा वैष्णवी मुद्रा-सगले नसीरा यानी दृष्टियोग अपेक्षित है। इसके बाद नादानुसंधान या सुलतान- उलजकार बहुत अपेक्षित है। इन साधनाओं के बिना भक्ति पूरी नहीं होती। बहुत सुनाने, सुनने वा पढ़ने से यही मतलब है कि साधन किया जाय। गुरु से पाए हुए मंत्र का जप करना सबके लिए बहुत सरल है। इसीलिए हमारे बहुत संन्यासी ॐ अक्षर लिखकर उसका ध्यान करते हैं। यह भी स्थूल बात ही है। इसी तरह सूफी फकीर अल्लाह लिखकर ध्यान करते हैं या अलिफ का ध्यान करते हैं। कोई श्रीराम का, कोई श्रीकृष्ण का, कोई देवी माई का और कोई गुरु का भी ध्यान करते हैं। सूफी फकीर भी फनाफिल मुर्शिद होते हैं। यानी गुरु का ध्यान करने में तल्लीन हो जाते हैं और अपने को भूल जाते हैं। वे स्थूल साधन लेकर आरम्भ करते हैं। जो जहाँ गिरा रहता है, वह वहीं से उसी का सहारा लेकर उठता है। स्थूल का सहारा लिए बिना सूक्ष्माकाश में उड़े, संभव नहीं। इसलिए स्थूल अवलम्ब लेना आवश्यक है। जिसका वर्णन किया, कुछ लोग इसी स्थूल भक्ति में ही भक्ति को खत्म कर देते हैं। विशेष लोग और भी आगे बढ़ते हैं। दृष्टियोग वा सगले नसीरा-वैष्णवी मुद्रा वा शाम्भवी मुद्रा के द्वारा भक्ति में आगे जाते हैं। इससे क्या होता है? एकविन्दुता आती है। विन्दु ध्यान सुनकर लोग यह ख्याल करते हैं कि छोटे-से-छोटा र्चिं बनाकर ध्यान करते हैं। यह विन्दु ध्यान नहीं है। विन्दु ध्यान वह है कि फैली हुई दृष्टि को समेटकर एक करे। इसका यत्न गुरु से जाने। बिना गुरु से यत्न पाए नहीं कर सकते।
 क्यों भटकता फिर रहा, तू ऐ तलाशे यार में ।
 रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिये ।।
 हमलोग सुखमना कहते हैं, सूफी महात्मा शहरग कहते हैं। एक ही बात है। यहीं से रास्ता आरम्भ होता है। उस शहरग वा सुखमना का रास्ता कौन बतावेगा?
      मुशि्र्ादे कामिल से मिल,सिद्क और सबूरी से तकी ।
     जो तुझे देगा फहम, शहरग के पाने के लिये ।।
         -तुलसी साहब
 सच्चाई और संतोष के बिना गुरु के पास जाने पर गुरु का ज्ञान नहीं पाता है। जो गुरु से पास सच्चाई और संतोष लेकर जाते हैं, वह वही प्रसाद लेकर जाते हैं, जिससे वे गुरु का ज्ञान पाते हैं। अपनी सच्चाई और संतोष को आचरण में करके दिखला देते हैं। यह उत्तम भेंट है। वैसे तो बहुत लोग गुरु के पास जाते हैं। गुरु सुखमना का बोध देगा। अभ्यास करोगे तो क्या होगा?
 गोश बातिन हो कुशादा, जो करे कुछ दिन अमल ।
 हम अन्दर के कान से बहरे हैं, वह खुल जाएगा। होगा क्या? कान खुलेगा तो क्या होगा? कान खुलेगा तो कुछ सुनेगा। किसलिए सुनेगा, नतीजा यह होगा कि-
 ला इलाह अल्लाह हो, अकबर पै जाने के लिये ।।
 ईश्वर तक पहुँचने का सहारा होगा। संतों के अन्दर यही बात है। यही आखिरी बात है। हम वेदों में खोजते हैं, वहाँ भी है। उपनिषदों में भी है, संतवाणी तो इसी की किताब है ही। संतवाणी इसी कि किताब है, लेकिन सुन लेने से कुछ हुआ? केवल सुनने से क्या हुआ? केवल मान लेने से क्या होगा?
 बिन देखे बिन दरस परस बिन, नाम रटे का होई ।
 धन धन कहत धनी जो होते, निर्धन रहत न कोई ।।
          -कबीर साहब
 जब धन-धन कहने से धन नहीं आवे, तो और बात कैसे आ सकती है? कबीर साहब बड़े स्पष्ट बोलनेवाले थे। किससे देखोगे तो कहा-
 चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
 देखने का यत्न जानो तो विमल विलोचन खुल जाएगा। विन्दु का ज्ञान होगा। स्थूल से सूक्ष्म में रखने की शक्ति विन्दु में है। उसको पकड़कर रखो तो सूक्ष्म में रहोगे। उसको पकड़कर नहीं रख सकते हो, इसीलिए गिर जाते हो। थोड़ी झलक मालूम हुई, फिर मालूम नहीं हुई, तो वह नहीं भाग गया, तुम ही वहाँ से हट गए।
झकझक्क लगा झकझक्क लगा यह झाँकि झरोखे देखिया रे ।
       -दरिया साहब, बिहारी
 दृष्टियोग अभ्यास अतिहि करतहि करत ।
 कँपनी सहजहि छुटै प्रौढ़ होवै सुरत ।।
 तब और बात अच्छी नहीं लगेगी। कमाओ और पैसा मौजूद। यह उधार का सौदा नहीं है, नगद सौदा है। अभ्यास किया, यह दाम देना हुआ। तब जो अनुभूति हुई, वह सौदा पा लिया। यह केवल कहने के लिए नहीं है, भौतिक विज्ञान की तरह सत्य है कि ऑक्सीजन और हाइड्रोजन को मिलाओ, पानी होगा। इसी तरह इंगला-पिंगला को मिलाकर रखो, तो प्रकाश होगा। वैज्ञानिक आविष्कार जैसे सत्य है, वैसे ही यह सत्य है। यह अन्दर की बात है, बाहर की नहीं। इसकी प्रयोगशाला अन्दर में है, बाहर में नहीं। अन्दर जाने का रास्ता यहाँ से शुरू हुआ-श्रीगणेश हुआ। यहाँ ऐसा सिमट जाता है कि दूसरी तरफ मन नहीं जाता। बुद्धि में वैराग्य करते-करते साधक गिरता पड़ता है। लेकिन यहाँ ठहर जाने पर ठीक-ठीक वैराग्य होता है। लड़कपन में खेलते-कूदते थे, अब क्यों नहीं खेलते-कूदते हैं? इस अभ्यास में आकर वह आप-ही-आप छूट गए। कबीर साहब ने कहा है-
 तजि दे बुधि लरिकैयाँ खेलन की ।
    करो जतन सखी साईं मिलन की ।।
 ईश्वर-मिलन का यत्न करो, तो लरिकैयाँ- खेल आप ही छूट जाएगा। विन्दु ध्यान और नाद ध्यान, ये दोनों ईश्वर की ओर से अवलम्ब हैं। जैसे मित्र को लेने के लिए मित्र अगुवानी आते हैं। ईश्वर परम मित्र हैं, उनसे बढ़कर मित्र कोई नहीं, वे बड़े मददगार हैं।
 हमारा यार है हममें, हमन को इन्तिजारी क्या ।
 वह विन्दु-रूप में आकर आपको पकड़ ले जाना चाहता है। आप विन्दु तक नहीं पहुँचे हैं, वा विन्दु को पकड़ने की शक्ति आपमें नहीं है, इसलिए नीचे गिर जाते हैं। लेकिन हिम्मत नहीं हारनी चाहिए कि हममें शक्ति नहीं है। अभ्यास करते करते शक्ति बढ़ती है। जैसे व्यायाम करने से शरीर में बल बढ़ता है। यदि बल नहीं बढ़ता, तो कोई महात्मा नहीं होते। सब सत्संगी भाई यहाँ जमा हों, ज्ञान लें।
 यहाँ फीस नहीं, टिकट नहीं कि इतने फीस दो, सुनो। जितना जो ले सको, मुफ्त में ले जाओ। यहाँ की जनता को मैं सलाह देता हूँ-यह लो, जितना लेना चाहो। पेट दर्द, सिर दर्द छुड़ाने वा बेटा-बेटी देने की बात नहीं। इसके लिए दूसरे जगह जाओ। मैं वह माल बता देता हूँ, जो तुम्हारे अन्दर है। गुरु नानक ने कहा-
ना तिसु रूप बरणु नहिं रेखिआ, साचे शबदि नीसाणु ।।
 ईश्वर का कोई निशान है वा र्चिं है? तो कहा-सारशब्द र्चिं है। लेकिन वह बड़ा गजब है। जो उसको पाता है, ईश्वर को पाता है।
शब्द गह्यो जीव संशय नाहीं, साहब भयो तेरो संग ।
 उसको पाना भी कठिनता से होता है। जगन्नाथ जी के दर्शन के लिए जाने में समय लगता है। ऐसी ही कुछ बात है। अन्दर चलो, तब ‘साँचे शबद निशान’ का र्चिं मिलेगा। वह जब मिलेगा, तब ईश्वर दूर नहीं रहेगा। दो ही बातें जानने को हैं-शब्दब्रह्म और परब्रह्म।
 द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्द ब्रह्म परं च यत् ।
 शब्द ब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।।
           -ब्रह्मविन्दूपनिषद्
 दो विद्याएँ समझनी चाहिए, एक तो शब्दब्रह्म और दूसरा परब्रह्म। शब्दब्रह्म में जो निपुण हो जाता है, वह परब्रह्म को प्राप्त करता है। जो शब्दब्रह्म को पाता है, वह परब्रह्म को पाता है। पहले ही यह नहीं मिलता है। पहले अनहद नादों को सुनो। उस नाद में आपको ऐसी सूक्ष्मता आएगी कि आप सारशब्द को पकड़ लेंगे। संसार में क्या है? प्रकाश को हटा दो, तो सारा कार-बार समाप्त हो जाएगा। शब्द को हटा दो, तो कम्प नहीं रहेगा। कम्प नहीं रहेगा, तो सृष्टि नहीं रहेगी। आपके शरीर से कम्प हट जाए, तो आपका शरीर नहीं रहेगा। संसार में प्रकाश और शब्द से सम्हाल होती है। ईश्वर की ओर का यह प्रतीक है-प्रकाश और शब्द। इससे उत्तम प्रतीक नहीं है। इसको मन से बनाने की जरूरत नहीं है। देखने के कौशल से देखो। देखने का कौशल जानो। जैसे संसार में प्रकाश और शब्द की प्रबलता है, वैसे ही अपने अन्दर में भी। प्रकाश नहीं तो संसार नहीं। शब्द नहीं तो संसार नहीं। इसी तरह ईश्वर की ओर जाने के लिए शब्द है और प्रकाश है। संतों ने इसको खोज कर निकाला। इसकी युक्ति संतों की वाणी में है। कबीर साहब की वाणी में है-
 जो कोई निरगुन दरसन पावै।।
 प्रथमे सुरति जमावै तिल पर, मूल मंत्र गहि लावै।
 गगन गराजै दामिनि दमकै, अनहद नाद बजावै।।
राधास्वामी साहब की वाणी में है-
तू तो सुरत जमा नभ द्वार। शब्द मिले छूटै जंजार ।।
यह शाम्भवी मुद्रा है। ध्यानविन्दूपनिषद् में लिखा है-
 बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 अर्थात् विन्दु मिले तो नाद खुलेगा। हमलोग विन्दु उपासना और नाद उपासना के लिए कहते हैं। गुरु महाराज के कहे अनुकूल उपासना इसलिए करते हैं कि जंजाल छूट जाए। यह केवल कहने के लिए है? नहीं। करके देखिए। करने के शक्ति नहीं है, तो अभ्यास कीजिए। करते-करते शक्ति आ जाएगी। नाद ईश्वर का प्रतीक है और विन्दु उसकी ज्योति का प्रतीक है। पहले सूर्य का प्रकाश होता है यानी उषा होती है, फिर अरुणोदय होता है, फिर सूर्य निकल आता है। जिसकी ज्योति है, वह पीछे निकलता है। इसी तरह पहले ईश्वर की ज्योति और नाद को पकड़ो। पीछे वह ईश्वर भी पकड़ा जाएगा।
 विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम् ।
 देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।
         -योगशिखोपनिषद्
 विन्दुनाद महालिंग है और शिवशक्ति का घर है। इस देह को शिवालय कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।
 विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम् ।
 देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।
         -योगशिखोपनिषद्
 विन्दु नाद रूप जो महालिंग है, वही विष्णु लक्ष्मी का घर है इस देह को विष्णुमन्दिर कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।
 इसी की तारीफ और इसी के साधन के लिए प्रेरण संतों के गं्रथों में भरपूर है। नाद और विन्दु को संतों के गं्रथां से निकाल दो तो वह सारहीन हो जाएगा। मनोलय के लिए शिवजी ने सवा लाख साधन बतलाए हैं। उनमें नादानुसंधान श्रेष्ठ है। शंकाराचार्यजी ने नादानुसंधान की स्तुति की है।
 सदाशिवोक्तानि सपादलक्षलयावधानानि वसन्ति लोके ।
 नादानुसंधान समाधिमेकं मन्यामहे मान्यतमं लयानाम् ।।
 नादानुसंधान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महेतत्त्वपदंलयानाम् ।
 भवत्प्रासदात् पवनेन साकं विलीयते विष्णु पदे मनो मे ।।
 सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा ।
         नाद एवानुसंधेयो योगसाम्राज्यमिच्छता ।।
 योगशास्त्र के प्रवर्तक भगवान शिवजी ने मन के लय होने के सवा लक्ष साधन बतलाए हैं, उन सबमें नादानुसंधान सुलभ और श्रेष्ठ है। हे नादानु- संधान! आपको नमस्कार है, आप परम पद में स्थित कराते हैं, आपके ही प्रसाद से मेरा प्राणवायु और मन, ये दोनों विष्णु के परमपद में लय हो जाएँगे। योगसाम्राज्य में स्थित होने की इच्छा हो तो, सब चिन्ताओं को छोड़कर सावधान हो एकाग्र मन से अनहद नादों को सुनो।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत तरयासुजान, देवरिया में अखिलभारतीय संतमत सत्संग का 59वाँ वार्षिक महाधिवेशन, दिनांक 4. 4. 1967 ई0 के रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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267. मन का स्वरूप क्या है?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 बात बहुत पुरानी है। परन्तु जो लोग नहीं सुने हैं, नहीं पढ़े हैं, उनलोगों के लिए बिल्कुल नयी बात है। समझदार समझ सकते हैं कि नयी बात हो वा पुरानी, जो सत्य हो वह माननी चाहिए। बात यह है कि जिस विषय पर मैं कहूँगा, उसमें यदि आपको लाभ हो, तो वह करना चाहिए। किंतु जिसमें अपना लाभ नहीं मालूम पड़े, उसको सुनकर उसके लिए समय लगाना व्यर्थ होता है। जो जानकार नहीं हैं, जानकार उनको जनावें। सभी लोग सभी कुछ जानते हैं, ऐसी बात नहीं। जिनकी कोई नई बात मालूम हो, उनकी वह भी सुननी चाहिए।
 मैं आपको बहुत लाभ की बात कहूँगा। लोग सम्पत्ति मिलने में लाभ समझते हैं, प्रतिष्ठा में लाभ समझते हैं, संतान-सुख में लाभ समझते हैं। यह सांसारिक लाभ है। शरीर छूटने पर धन, प्रतिष्ठा समाप्त हो जाएगी। जिस संतान पर हमारी बड़ी ममता है, वह हमारे सामने चली जाय वा हम उसको छोड़कर चले जाएँ, एक दिन ऐसा अवश्य होगा। जबकि एक दिन शरीर छूटता है, अपनी स्थिति रहती है। धर्म पुस्तकों से उनको विश्वास दिलाया जाता है कि शरीर छूटा है, किन्तु शरीर में रहनेवाला अपने कर्म के अनुकूल दूसरे लोक में चला गया है। इसीलिए हमारे यहाँ श्राद्ध-क्रिया प्रचलित है। सभी धर्मों में किसी-न-किसी रूप में श्राद्ध-क्रिया प्रचलित है। श्राद्ध-क्रिया कहते हैं, जो श्रद्धा से किया जाए। जो शरीर छेड़कर चला गया है, वह है जीवात्मा।
 लोग जीवनभर खुश रहने के लिए कोशिश करते हैं, जब वे जानते हैं कि शरीर छोड़कर चला जाना है तो संसार के सुख में कैसे शान्ति मिलेगी। शरीर छोड़ने के बाद कहा गया है कि स्वर्ग जाओगे, पितृलोक जाओगे वा बुरे कर्म है तो नरक जाओेगे। जो विशेषज्ञ हैं, वे जानते हैं कि इस चक्र से भी पार हो सकते हैं। वे कौन हैं, जिनका सहारा लेकर आवागमन चक्र को पार किया जाए। वे हैं ईश्वर। किसी को भी यह विश्वास नहीं है कि परमात्मा कभी नहीं थे, पीछे हुए। परमात्मा पीछे हुए, यह विश्वास करने योग्य नहीं है। सबसे प्राचीन जो हैं, वे हैं परमात्मा। वे हई हैं और सब बनाए गए हैं। और वे जस-के-तस ही हैं। उनपर आवागमन का बंधन नहीं है। उन ईश्वर-परमात्मा का सहारा लो तो आवागमन के चक्र से छूटोगे। उनके स्वरूप को जानो। वे आदि- अन्तरहित हैं, अनादि, अनन्त, असीम हैं। असीम होने के कारण वे सबसे विशेष व्यापक हैं। सबसे विशेष व्यापक होने के कारण वे सबसे विशेष सूक्ष्म हैं। वे सारे पिण्ड-ब्रह्माण्ड में व्यापक होकर सब पर शासन करते हुए एक-ही-एक हैं। वे इतने सूक्ष्म हैं कि हमारे शरीर के साथ जो हमारी सब इन्द्रियाँ हैं, वे उनको ग्रहण करने योग्य नहीं हैं, बहुत स्थूल हैं। स्थूल-यंत्र से सूक्ष्म-तत्त्व का ज्ञान नहीं होता।
 इस आँख से ईश्वर को देखना, इस हाथ से ईश्वर को छूना, पकड़ना हो नहीं सकता। तब उनको कौन जानेगा? तुम शरीर और इन्द्रियों से घेरे गए हो। जैसे दूध में घी का मिलाप होता है, वैसे ही तुम शरीर और इन्द्रिय में मिल गए हो। दूध से घी को अलग किया जाता है। दूध से अलग काम होता है और घी से अलग काम होता है। घी से पूड़ी छानते हैं, दूध से नहीं। शरीर-इन्द्रिय से जो काम हो सकता है, वह माया सम्बन्धी काम होता है। शरीर में रहने से माया का ज्ञान होता है। माया कहते हैं, जो क्षणभंगुर है, नाशवान है, जिसका अत्यन्ताभाव हो जाता है। मायिक पदार्थ कितना भी ग्रहण करो, संतुष्टि नहीं हो सकती। इन्द्रियों से जो कुछ ग्रहण हो, माया है। तुम माया के साथ में रहकर विषयों को ही ग्रहण करोगे।
 जबतक शरीर में जीवनीशक्ति है, इन्द्रियों से काम होता है। इन्द्रियों में जो कुछ शक्ति है, चेतन आत्मा की शक्ति है। इन्द्रियाँ कहने से केवल बाहर की इन्द्रियाँ नहीं समझो। भीतर में भी इन्द्रियाँ हैं। वही है-मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। चेतन आत्मा का ज्ञान भिन्न है। चेतन आत्मा के कारण ही इन्द्रियाँ विषयों को ग्रहण कर सकती हैं। अपने को शरीर-इन्द्रियां से फुटाकर रखो। तब जो ग्रहण होता है, वे ही ईश्वर हैं। ईश्वर क्या हैं? जो सबसे पुरातन हैं, पुराने हैं। कोई अवकाश उनसे बाहर नहीं है, फिर भी पहचान नहीं होती। क्योंकि वे इन्द्रियों से पहचानने योग्य नहीं हैं। ईश्वर वे हैं जो चेतन आत्मा से पहचाने जाएँ। जैसे जो आँख से ग्रहण हो, वह रूप है। वैसे ही जो चेतन आत्मा से ग्रहण हो, वे ईश्वर हैं। भक्तां को सबसे विशेष लाभकारी पदार्थ ईश्वर-दर्शन है। वह ईश्वर-दर्शन के लिए लालायित रहता है। ईश्वर-दर्शन के लिए ही साधन-भजन होता है। वह भजन कैसा होगा, बहिर्मुख वा अन्तर्मुख? आप जब सोते हो तो इन्द्रियों की वृत्ति अन्तर्मुख होती है। बाहर की इन्द्रियों से कोई काम नहीं करते। स्वप्न में बाहर की इन्द्रियाँ कोई काम नहीं करतीं।
 यह शरीर देखने में एक मालूम होता है, लेकिन एक नहीं है। जैसे सींक के ऊपर अनेक मूंज होते हैं, उसी तरह चेतन आत्मा के ऊपर स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण; ये चार जड़ शरीर हैं। चेतन आत्मा पर ये सब खोल हैं। इन सब खोलों का संग छूटे, तब ईश्वर-दर्शन होता है। पहले स्थूल शरीर से छूटे, फिर सूक्ष्म, फिर कारण और महाकारण से भी। जैसे एक मकान में कितनी भी कोठरी हो, एक-एक कोठरी पार करते-करते सभी कोठरियों को पार कर जाते हैं। उसी तरह सब शरीरों को छोड़कर चेतन आत्मा निकल जाती है। साधारण मृत्यु में एक शरीर छूटता है और सब शरीर रह जाते हैं। महाभारत में सावित्री-सत्यवान की कथा है। उसमें लिखा है कि यमराज ने सत्यवान के स्थूल शरीर से उसके लिंग शरीर को निकाला। इस कथा से समझो कि एक ही शरीर नहीं है और भी शरीर है। विशेष ज्ञान कहता है कि तीसरा और चौथा शरीर भी है। विश्वास नहीं हो, तो विचारो।
 एक वृक्ष है, उसका कारण बीज होता है। बीज से अंकुर होता है। किसी का भी तीन रूप मानना पड़ता है। और सब बीजों का जो खजाना है, वह है महाकारण। स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण; ये चार दर्जे हैं। आप एक मकान बनाते हो तो उसका कारण होता है। जिस कारण से बनाना चाहिए, उस तरह की बात इन्जीनियर को समझा देते हो। इन्जीनियर उसका चित्र मन में बनाकर, फिर कागज पर बनाता है। तब मिस्त्री ईंट-पत्थर से स्थूल घर बनाता है। बिना इन तीन रूपों के कुछ नहीं होता। कारण अनेक होते हैं। इन सबको मिलाकर चार होते हैं।
 पिण्ड और ब्रह्माण्ड में ऐसा सम्बन्ध है कि पिण्ड के जितने तल हैं, संसार के भी उतने ही तल हैं। शरीर के जिस तल पर रहो, संसार के भी उसी तल पर रहते हैं। शरीर के जिस तल को छोड़ते हैं, संसार के भी उसी तल को छोड़ते हैं। शरीर के सभी तलों को छोड़ दो तो संसार के भी सभी तल छूट जायेंगे। ऐसी भक्ति करो कि सभी शरीरों से छूटकर केवल चेतन आत्मा रहे, तब ईश्वर-दर्शन होगा। ईश्वर-दर्शन बाहर में नहीं, अन्तर में होता है। जबतक अन्तर्मुखी मन नहीं होता, ईश्वर-दर्शन नहीं होता। बाहर में जो पूजा-पाठ, प्रेयर, प्रार्थना, नमाज आदि करते हैं, तो इतना ही बस नहीं है। मन को ऐसा सिमटाव में लाओ कि कुछ फैलाव नहीं रह जाए। वह है विन्दु। विन्दु का परिमाण कोई नहीं बना सकता। उसका परिमाण नहीं होने के कारण मन में बनाना भी गलत है। योग के साधन से वह प्रकट होता है। जैसे कलम की नोक जहाँ रखते हो, वहाँ एक र्चिं हो जाता है, उसी तरह दृष्टि की धार जहाँ रखो, विन्दु उदय होगा। रेखागणित मेंेेे जो विन्दु पढ़ते हैं, उसमें और इसमें अन्तर है। योगविद्या के कौशल से जो देखने के योग्य अपनी दृष्टि को बनाता है, वह उसको देखता है।
 मन से आप कुछ करते हो, लेकिन मन का स्वरूप क्या है? उसको स्थूल दृष्टि से नहीं देख सकते। मन को समेट में लाना सहज नहीं है। किसी चीज को किसी ओर से समेटने पर उसके विपरीत ओर को गति हो जाएगी। सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। जिसका अधिक सिमटाव होता है, वह स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश कर जाता है। तब वह स्थूल जगत का ही नहीं, सूक्ष्म के सहित स्थूल का भी ज्ञान रखेगा। जैसे सर्चलाइट की रोशनी दूर तक जाती है, वैसे ही दृष्टि-साधन करनेवाले की दृष्टि दूर तक जाती है। सूक्ष्म को पार करने के लिए फिर और सहारा मिलता है। हमलोग बिना सूर्य के नहीं रह सकते। सूर्य से मेघ बनता है, पानी बनता है। सूर्य के कारण ही हमलोग अन्न-पानी पाते हैं।
 संसार में भी दो चीजें ऐसी हैं, जिसके सहारे बिना रह नहीं सकते। संसार में सूर्य नहीं रहे तो ज्योति वा तेज नहीं रहे। तो अन्धकार में क्या करोगे? इसी तरह ज्योति हो और शब्द नहीं हो तो क्या करोगे? ईश्वर की ओर जाने के लिए ब्रह्म- ज्योति और ब्रह्मनाद का सहारा अन्तर में मिलता है। बिना इसके उनको पकड़ नहीं सकते।
 किसी भी निर्माण के लिए कम्प और शब्द साथ-साथ रहते हैं। सृष्टि-निर्माण के लिए पहले शब्द हुआ। वह सृष्टि की ओर-से-छोर तक मौजूद है। शब्द में गुण होता है कि उसके उद्गम में जो गुण होता है, वह उसको लिए रहता है। और सुननेवाले को उससे गुणान्वित करता है। शब्द में अपने उद्गम स्थान पर आकर्षण का गुण होता है। ऊपर का शब्द नीचे दूर तक जाता है, किन्तु नीचे का शब्द ऊपर दूर तक नहीं जाता। जो कोई उस आदि- नाद को पकड़ते हैं, वे ईश्वर तक पहुँचते हैं। उस आदि- नाद को सारशब्द, रामनाम, शक्तिनाम, शिवनाम आदि कहते हैं। शब्द का ग्रहण होना आवश्यक है। ईश्वर-दर्शन सभी माया को छोड़ने पर ही होगा।
  चुम्बक सत्त शब्द है भाई, चुम्बक शब्द लोक ले जाई ।
  लेइ निकारि होखै नहिं पीरा, सत्त शब्द जो बसै शरीरा ।।
        -दरिया साहब, बिहारी
 भाषा ग्रन्थ वा और कोई ग्रन्थ हो, सबमें इस नाद का विस्तृत वर्णन है। एक सूरदास है, उसको सूझता नहीं, लेकिन बुलाने पर वह वहाँ पहुँच जाता है, जहाँ से शब्द उसके पास जाता है। शब्द में अपने उद्गम स्थान पर खींचने का गुण है। इसलिए सभी संतों ने शब्द पकड़ने कहा। शब्द को पकड़ने के लिए ज्योति को पकड़ना होगा। स्थूल साधना करो, सूक्ष्म साधना करो, विन्दु ध्यान करो और अन्त में नादध्यान करो। संतवाणी इसी का ग्रंथ है। जिनको मालूम नहीं है, उनको यह बात नयी मालूम होती है। जो कोई अन्तर्नाद को ग्रहण कर सकता है, वही ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। यदि मुश्किल मालूम हो तो समझना चाहिए कि थोड़ा-थोड़ा करते ही कोई किसी काम में पूर्ण होता है। ेसवू ंदक ेजनकल ूपदे जीम तंबमण् जो चलता है, उसका रास्ता समाप्त होता है। पुरुष, स्त्रियाँ सभी इस साधना को कर सकते हैं। ऐसा नहीं समझो कि हमसे नहीं हो सकेगा।
 पवित्र जीवन बिताओ। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार; इन पंच पापों को नहीं करो। हिंसा के सिलसिले में मांस, मछली, अण्डा सभी को छोड़ो। कोई कहते हैं कि जिस अण्डे में बच्चे नहीं होते, वह खाने में हिंसा नहीं है। लेकिन समझिए उसके खाने से आपमें चिड़िया का गुण होगा। चिड़िया की देह में बहुत गरमी है। उसके भोजन से आपमें चिड़ियावाली तमोगुणी गरमी आएगी। मुरगी क्या-क्या खाती है, देखो। निषिद्ध- से-निषिद्ध चीजें मुरगी खाती है। मनुष्य-शरीर में निषिद्ध चीजें खाना उत्तम नहीं। हमारा देश ऐसा नहीं है कि बिना मांस-मछली खाए नहीं रह सकते। मूल, फल, कन्द आदि खाओ। एक पशु का मांस जो खाता है, वह एक प्रकार का मांस खाता है। जो मछली खाता है, वह सभी प्रकार का मांस खाता है।
 पवित्र जीवन व्यतीत करते हुए जो ईश्वर-भजन करेंगे, वे सफल रहेंगे। जो पवित्र जीवन नहीं बिताते हुए ईश्वर-भजन करेंगे, उनको सफलता नहीं मिलेगी। अपवित्र कर्म से संसार में आपदा फैलती है, यह प्रत्यक्ष है। संसार में जो आपदा मालूम होती है, वह हमारे अपवित्र जीवन का फल है। जो पवित्र जीवन से रहकर ईश्वर-भजन कर मोक्ष पाते हैं, मनुष्य जीवन सफल करते हैं। जो चीज अच्छी नहीं हो, उसको त्याग करना चाहिए। और जो अच्छी चीज है, उसको ग्रहण करने में यदि कठिनाई मालूम होती है, तब भी उसको ग्रहण करना चाहिए। चिढ़ना या उकताना नहीं चाहिए। त्यागने योग्य वस्तु को त्यागना चाहिए और ग्रहण करने योग्य वस्तु को ग्रहण करना चाहिए।
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यह प्रवचन खगड़िया जिलान्तर्गत ग्राम मानसी के रेलवे कम्पाउण्ड में दिनांक 19. 4. 1967 ई0 को सत्संग में हुआ था।
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268. कृतज्ञता से मुक्त होने के लिए : स्तुति करें
प्रियजनो!
 आप किन्हीं का उपकार करें और आपको मालूम हो कि उपकृत लोग आपके कृतज्ञ नहीं हैं, तो मैं समझता हूँ आपको अच्छा नहीं मालूम होगा। यह एक ऐसी बात है कि जो सर्वसाधारण के लिए है। लोग ऐसे भी होते हैं, जो गम्भीर हैं, गहरे हैं, ज्ञानवान हैं तथा मन-इन्द्रिय पर काबू है, ऐसे जन संत कहलाने के योग्य हैं। इनको कुछ मालूम नहीं होता। परन्तु चाहे कोई संत-महात्मा उपकारक हों, वा साधा- रण जन, उपकृत को अवश्य कृतज्ञ होना चाहिए।
 महाभारत में कथा है कि भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन, दोनों कुछ आराम के ख्याल से हवा खाने के ख्याल से रथ पर इधर-उधर विचरते थे। अग्निदेव उनके सामने आए और बोले कि मैं अग्नि हूँ। अर्जुन बोले कि हमलोगों के सामने आप किस हेतु से उपस्थित हुए हैं? अग्निदेव ने कहा-भोजन माँगता हूँ। एक खाण्डव वन है, वह भोजन के लिए मुझे दीजिए। अर्जुन ने कहा कि आप तो स्वयं भोजन वहाँ कर सकते हैं। अग्निदेव ने कहा-नहीं, मैं उसे जब जलाना चाहता हूँ, तब इन्द्र वर्षा कर देता है। मैं भोजन नहीं कर सकता। अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण वहाँ उस इन्द्र के उपद्रवों को रोकने गए। कारण था कि जंगल में मय नाम का एक दानव था। वह विश्वकर्मा जैसा था। वह इन्द्र का मित्र था। इन्द्र ने कहा था कि जंगल से कोई भाग न सके। मय दानव भी भाग चला। कृष्ण ने अपना चक्र चला दिया, तो वह अर्जुन का शरणार्थी हो गया। अर्जुन ने उसको बचा लिया। मय दानव बड़ा कृतज्ञ हुआ। वह अर्जुन और श्रीकृष्ण के सामने हाथ जोड़कर बोला-मैं आपसे बड़ा उपकृत हुआ। आपकी क्या सेवा करूँ? वे भले विचार के लोग थे। केवल वचन से नहीं, कुछ सेवा भी करना चाहते थे। श्रीकृष्ण ने कहा कि इन्द्रप्रस्थ में ऐसी सभा बनाओ, जैसी सभा किसी ने आज तक नहीं बनायी। उसने वही किया। जो उपकृत हो, तो उसको चाहिए कि वह उपकारक की सेवा करे।
 आप महाज्ञानी हैं, बड़े विद्वान हैं, अपने शरीर की रक्षा के लिए जो-जो भोजन करना चाहिए, जितना भोजन लेना चाहिए, समझ-समझकर आप लेते हैं। शरीर की सम्हाल रखते हैं। आप जब सो जाते हैं, अचेत हो जाते हैं, तब अपनी रक्षा कैसे करते हैं? मतलब यह है कि कितने भी कोई ज्ञानी हों, बलवान हों, लेकिन अपनी रक्षा अपने से सर्वकाल में नहीं कर सकते। लेकिन फिर भी रक्षा होती है। कैसे? असल में ईश्वर रक्षा करते हैं। सोने की बात तो जाने दें, जगने के समय आप अपने सामने की बात देखते हैं, जानते हैं, लेकिन अपनी पीछे की बात को नहीं देखते, नहीं जानते। जिधर आँख नहीं है, उधर नहीं देखते। अपनी रक्षा अपने से ही उस समय ठीक से नहीं कर सकते।
 राजा लोग अंग-रक्षक रखते थे। आज भी राष्ट्रपति के लिए शरीर-रक्षक रहते हैं। परन्तु शरीर-रक्षक के रहते हुए भी कितने का घात हो गया है। अपनी रक्षा जितनी आप कर सकते हैं, उससे अधिक आपकी रक्षा अज्ञात होती है। वह ईश्वर के द्वारा हेती है। अपनी ओर से हम चौकीदार रखते हैं, वह पहरा करता है। फिर भी अपने तईं हम बहुत अल्प शक्ति के हैं। हो सकता है कि हम जो श्वास भीतर करते हैं, वह लौटा नहीं सकें।
 एक दिन शरीर छूटेगा। वह मरने का समय इतना छोटा होता है कि हमको पता नहीं चलता। श्वास भीतर आकर जीवन बढ़ाता है। और जो बाहर को जाता है, वह जीवन को सुखी करता है। प्रत्येक श्वास में ईश्वर की ओर से उपकार का होना दृढ़ है। मनुष्य को जानना चाहिए कि श्वास- श्वास में ईश्वर का उपकार हम पर है। हम ईश्वर से इतने उपकृत हैं, जितने और किसी से नहीं। एक काम था कि मय दानव उसको करके अपनी उपकृतता से मुक्त हुआ। लेकिन ईश्वर को कोई इच्छा नहीं, उनको कोई आवश्यकता नहीं। सब तरह से वे पूर्ण हैं। उनसे जो हम कृतज्ञ हैं, उनके लिए हम क्या करें? दो बातें हैं-एक तो यह कि उनका गुण गाइए अर्थात् स्तुति कीजिए। दूसरी बात यह है कि उनको खोजिए और उनका दर्शन कीजिए। अगर यह जानते हों कि ईश्वर सर्वव्यापी हैं, तमाम हई हैं, तो बड़ी अच्छी बात है। तब उनको खोजे कहाँ? हैं तमाम, पाते नहीं। जहाँ पावें, जहाँ पाने का स्थान है, उस स्थान को खोजिए, तब वहाँ जाकर पावेंगे। प्रत्यक्ष पाने का स्थान जहाँ हो, वहाँ जाने का प्रयास कीजिए, वहाँ जाकर दर्शन कीजिए। यही है कृतज्ञता से मुक्त होना। कृतज्ञता से मुक्त होने के लिए स्तुति कीजिए और उनका दर्शन कहाँ होगा, इसकी खोज लगाइए।
 एक फूल उनके नाम पर चढ़ाते हैं, वे उसको मंजूर करते हैं। सर्वव्यापी होने से फूल में भी व्यापक हैं। फूल उनकी देन है। उनकी दी हुई चीज हम उनको देते हैं। ऐसे ही सभी वस्तुएँ, उनकी हैं। हम उनको फूल आदि अर्पण करते हैं, लेकिन उनको इसकी जरूरत नहीं। अर्पण करना बेकार नहीं है। क्योंकि उन वस्तुओं के द्वारा हम अपने को उस ओर करते हैं। यह खोज कि ईश्वर अपने अन्दर हैं। फलाँने जगह हैं, पता लग जाय तो भी वहाँ जाना थोड़ा काम नहीं है। लेकिन यह काम करना ही होगा। स्तुति और उनकी खोज दोनों ही करनी चाहिए। ईश्वर जो हमारे उपकार करते हैं, उनके पहले हमारा कोई उपकार किया हो, ऐसा नहीं। पहले-पहल वे ही करते हैं। उनकी स्तुति कब करें? सब कामों के पहले करें। प्रातः स्तुति करें, त्रिकाल सन्ध्या करें। हम लोग ‘सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर औरु अक्षर पार में...’ आदि कहकर ईश्वर की स्तुति करते हैं।
 संसार में हम उनको प्रत्यक्ष जानते हैं, जो हमारा उपकार करते हैं। जैसे हमारी माता, हमारे पिता हमको विद्या देते हैं। विद्या दो तरह की है। सर्वश्रेष्ठ विद्या-अध्यात्म-विद्या है। दूसरी लौकिक विद्या है, जो अविद्या भी बन जाती है। स्कूल, कॉलेज की विद्या से बड़े-बड़े काम होते हैं। और इसको हम अविद्या भी बना देते हैं। सुकर्म से और नैतिकता से जबतक विद्या को युक्त रखते हैं, तबतक तो ठीक है। लेकिन उसी विद्या को कभी हम कुकर्म में लगाकर अविद्या बना देते हैं। अध्यात्म- विद्या नीचे ले जाने के लिए नहीं है। यह सर्वोत्कृष्ट विद्या है। यह विद्या सांसारिक ज्ञान और ब्रह्मज्ञान दोनों को देनेवाली है।
 जो लोग माता-पिता का अनादर करते हैं, वे ठीक नहीं करते हैं। माता-पिता बहुत सिखाते हैं। ये भी गुरु हैं। अध्यात्म-विद्या से संसार में और परलोक में बड़ा उपकार होता है। इसलिए इस विद्या के सिखानेवाले गुरु की भी स्तुति करते हैं। संत लोग ऐसे पवित्र और अनासक्त होते हैं कि उनको किसी प्रकार का दाग नहीं लगता। उनके बिना हम परम प्रभु परमात्मा को नहीं जान सकते, इसलिए ईश्वर की स्तुति, संत की स्तुति और सद्गुरु की स्तुति; ये तीनों अवश्य करें। जो लोग नये हैं, उनको को भी मैं कहता हूँ कि स्तुति अवश्य कीजिए। स्तुति नहीं करने से बहुत हानि है, बहुत पाप है। थोड़े प्रयास से हम इस हानि से और पाप से छूट सकते हैं।
 स्तुति के बाद हमलोग धर्म के सिद्धान्त का पाठ करते हैं कि ईश्वर क्या है, जीव क्या है, प्रकृति क्या है आदि। जो अपने को धार्मिक व्यक्ति समझें और धर्म के सिद्धान्तों को नहीं जानें तो किस काम के? हम देखते हैं कि बहुत लोग धर्म के सिद्धान्त को नहीं जानते हैं। धर्म के सिद्धान्तों को जानना चाहिए। उसकी परिभाषा भी जाननी चाहिए। मैंने कोशिश की कि पढ़े-अनपढ़े सभी सत्संगी अपने-अपने घरों में या किसी खास स्थान में मिल-जुलकर ईश-स्तुति, संत-स्तुति, सद्गुरु- स्तुति, संतमत की परिभाषा तथा संतमत के सिद्धान्त का पाठ नित्य प्रातःकाल करें। जो पढ़े-लिखे हों, वे पुस्तक देखकर याद कर लें और जो पढ़े-लिखे नहीं हैं, वे सुनकर याद कर लें।
 पहले सुनकर विद्या आती थी। आजकल पुस्तकों की भी सहायता होती है। जो पढ़े-लिखे नहीं हैं, वे लिखे, पढं़े। किसी भी उम्र में थोड़ा या बहुत अवश्य पढ़ें। एक मुनि बालक थे, जो झट से बड़े विद्वान हो गए। उसके नाना, दादा, चाचा, आदि उनसे पढ़ने लगे। एक दिन उन्होंने वृद्ध समूह को ‘हे वत्सगण’ कह दिया। सब कोई मन-ही-मन अकुलाने लगे कि वह बड़ा घमण्डी हो गया है। लोग ब्रह्मा के पास गए और बोले कि-वह मुनि बालक घमण्डी हो गया है। सबको पुत्र कहकर सम्बोधित करता है। ब्रह्माजी ने कहा-उम्र में आपलोग बड़े हैं, लेकिन ज्ञान में वे वृद्ध हैं।
 हमलोगों को नित्य स्तुति-प्रार्थना और ईश्वर की उपासना करनी चाहिए। वेद की आज्ञा है कि परस्पर मिलकर रहो। मिलकर उपासना करो। मेल एक तरह चित्त होकर रहने से होता है। सत् वचन में मेल रहता है। कितनी भी प्रेम भरी वाणी बोलो, लेकिन कपट बात रहे तो मेल नहीं होगा। सत्य हो, सुहाता हो और एक तरह मन मिलाकर बोला जाए, तब मेल होगा। सामूहिक उपासना बहुत मेल मिलाता है। यहाँ इस जिले भर के और इससे भी बाहर के लोग एकत्र हैं। यह सामूहिक उपासना है। यह एक मेल में बाँधता है। ईश्वर-उपासना और धर्म; इन दोनों के सूत्रों में गुँथे हुए, बँधे हुए लोग अवश्य एक हो जाते हैं। ईश्वर की सामूहिक उपासना और धर्म में बल है कि दूर-दूर के लोगों को एक सूत्र में बाँध देते हैं। ठाकुरबाड़ी में घड़ी-घंट बजता है। इसमें देवता प्रसन्न होते हैं। यह तो मानी हुई बात है। लेकिन बात तो यह है कि उस आवाज को सुनकर बहुत-से लोग इकट्ठे होंगे और सामूहिक उपासना होगी। मुसलमानों को आप देखते हैं कि शुक्रवार को मस्जिद में सभी जमा होते हैं। किसी-किसी पर्व में, ईदगाह में भी इकट्ठे होते हैं। व्यक्तिगत एकान्त उपासना भी हो और सामूहिक उपासना भी होनी चाहिए।
 देश के लोगों ने मिलकर शक्तिशाली शासन को भगाया। इस साल का तमाशा आपने देखा कि विद्यार्थियों ने बिहार के शासन-सूत्र को बदल दिया। उत्तरप्रदेश का भी मंत्री मण्डल बदल गया। राजस्थान में भी मंत्री मण्डल बदल ही गया। शासन भी बदल गया। राष्ट्रपति का शासन हो गया। ये सब एक मेल के कारण है। नतीजा जो भी हो, लेकिन फल है एक मेल का।
 संसार में आप सम्पन्न होकर रहिए। धन, प्रतिष्ठा, खाने-पीने में अच्छे रहते हैं, तो कहते हैं कि ये सम्पन्न लोग हैं। यह किस तरह होगा? भोजन पर सभी निर्भर हैं। आपकी बड़ी प्रतिष्ठा हो, और देह पर बहुत सुन्दर वस्त्र हो, लेकिन भोजन नहीं हो, तो क्या होगा? समझिए। पानीपत की तीसरी लड़ाई में मरहठे जीत जाते तो भारत में फिर वैदिक राज्य हो जाता। लेकिन उनके दुश्मनों ने ऐसा प्रबन्ध किया कि उनके पास खाना जाना रोक दिया। उनके लिए जो भोजन जाय, उसको वे लोग लूट लेते थे। हिटलर को आप जानते हैं। उनको भी भोजन के बिना चढ़ाई काम नहीं आयी। इसलिए भोजन उपार्जन करो। बिना खेती के भोजन नहीं।
खेती के वास्ते गो-वंश की वृद्धि चाहिए। बिना गो-वंश से बैल, बछड़े नहीं। दूध और घृत भी नहीं। खेती के लिए बैल गो-वंश से पाते हैं। खेत को उर्वरा बनाने के लिए खाद गो-वंश से होता है। इसलिए वेद में आया है कि गो-वध नहीं करो, पालन करो। हमारे यहाँ बहुत गलत बात है, वृद्ध गाय-बैल को बेचते हैं। घर में माँ-बाप वृद्ध हो जाते हैं, तो उनकी सेवा करते हैं, मार नहीं देते हैं। इसी तरह बूढे़ बैल, बूढ़ी गाय की सेवा करो। प्राचीन काल में जो बूढ़े पिता, बूढ़ी माता की सेवा नहीं करे, तो उसको दण्ड होता था।
 संसार में जितने लोग हैं, उनमें से पुण्य और पाप सबसे होते हैं। जो अच्छे लोग होते हैं, वे पुण्य कर्म अधिक करते हैं और पाप कर्म कम करते हैं। और जो पाप कर्म अधिक करते हैं, वे अच्छे लोग नहीं कहलाते। उनसे ध्यान न हो सकता, जबतक हृदय शुद्ध न हो। पवित्र हृदय में पाप की कमी होती जाती है। पुण्य का भी फन्दा नहीं हो और पाप का तो रहे नहीं। यह कैसे होगा? ध्यान से।
 ध्यान से सिमटाव होता है। सिमटाव से ऊध्वर्गति। और ऊध्वर्गति में आवरण का भेदन होता है। वह पाप-पुण्य से ऊपर उठ जाता है। वह कर्ममण्डल से ऊपर उठ जाता है। इसलिए चाहिए कि सब कोई ध्यान करे। गीता, उपनिषद् आदि ग्रन्थ ध्यान करने के लिए बताते हैं। मोक्ष ध्यान के द्वारा होता है। कर्म मण्डल ध्यान के द्वारा टपा जाता है। गीता में कहा है कि कर्म करने का कौशल जानो। मोक्ष का अधिकारी बनने कहा। फल-आश छोड़कर कर्म करने कहा। कर्तव्य जानकर कर्म करने कहा। और आत्मरत होकर कर्म करने कहा। इसमें भी गलती होती है कि फल-आश छोड़कर कर्म करूँगा, तो इसमें घमण्ड हो जाता है। कर्तव्य समझकर काम करने में राजस और तामस बुद्धि में रहते हुए ऐसा होता है कि कभी उसी को कर्तव्य समझता है और कभी उसी को अकर्तव्य। अपने को नियंत्रित रखो, तो जो कर्तव्य है, वह किया जाएगा। अकर्तव्य छूटेगा।
 जहाँ ईश्वर उपासना है, वहीं आत्मरत होना होता है। ईश्वर उपासना में सार बात यह है कि अपने अन्दर सिमटाव की कोशिश करो। उत्तम रीति से ईश्वर की उपासना करो, अन्तर प्रविष्ट करो। अपना निशाना अपने अन्दर है, अपने को उसपर लगाकर रखो। यह दृष्टियोग है। आत्मरत होने का यहाँ से आरम्भ होता है। आरम्भ नहीं, तो मध्य कहाँ? और मध्य नहीं, तो अन्त कहाँ?
 संतवाणी में भगवान बुद्ध ने कहा कि शरीर नाशवान है। बुढ़ापा सब बल का संहार कर देता है। इसलिए शरीर का घमण्ड नहीं करो। जीवन में युवावस्था ‘बल’ की है। इसमें स्वार्थ-परमार्थ दोनों की पूँजी बढ़ाओ, नहीं तो बुढ़ापे में कष्ट पाओगे। गोरखनाथजी महाराज, कबीर साहब आदि सभी संतों ने ईश्वर-भक्ति के सम्बन्ध में कहा है। गोसाईं तुलसीदासजी ने एक बात अच्छी कही है-
 पात पात कै सींचिवो, बरी बरी के लोन ।
 तुलसी खोटे चतुरपन, कलि डहके कहु को न ।।
 कोई वृक्ष लगाते हैं, तो उसके जड़ में पानी देते हैं, तो वृक्ष के सभी डाल-पत्तों में पानी हो जाता है। इसी तरह बेसन की बरी बनाते हैं, तो बेसन में ही नमक दे देते हैं, तो छोटी-बड़ी बरी के अनुकूल ठीक-ठीक नमक हो जाता है। इसलिए बेसन में नमक दो और वृक्ष की जड़ में पानी दो। बरी-बरी में नमक देनेवाले और वृक्ष के पात-पात में पानी देनेवाले ठगे जाते हैं, गोया बहुदेव-उपासी नहीं बनो। एकनिष्ठ होओ।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत जिला वार्षिक अधिवेशन, खाब्दह डुमरिया में दिनांक 23. 4. 1967 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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269. शिवजी का भी रूप बदलता है
प्यारे लोगो!
 सूर्य को देखकर कोई नहीं कह सकता कि सूर्य नहीं है। यहाँ भारत में सूर्य देखो और दूसरे देश में जाकर देखो, एक ही तरह का सूर्य है। यहाँ का दूसरा और वहाँ का दूसरा सूर्य, ऐसा नहीं है। यहाँ जो गुण है, वहाँ वही गुण है। यहाँ सूर्य को पहचाननेवाला इंगलैण्ड में भी वैसा ही पहचानता है। इसी तरह दूसरे-दूसरे देशों में इसी तरह ईश्वर है। वह एक-ही-एक है। यहाँ देखो जैसा, दूसरे देश में जाकर देखो, तो वैसा ही है। अगर देख सको, तो अपने अन्दर जैसा, दूसरे के अन्दर भी वैसा ही। यही ईश्वर है और सब ईश्वर की माया है। बाहर में राम के दर्शन करो, कहो कि ईश्वर है। कृष्ण के दर्शन करो, कहो कि ईश्वर है, परन्तु सब संसार में ऐसा नहीं कि राम ईश्वर है और कृष्ण ईश्वर है। अपने भारत में राम और कृष्ण का बहुत आदर है, फिर भी तमाम लोगों का एक ही विचार नहीं है कि राम और कृष्ण ईश्वर हैं। अपना देश धर्म का मिलाप-देश है। अपने देश में वैदिक धर्म मूल है। इसके अन्दर बहुत-से सम्प्रदाय और पन्थ हैं। सब कोई मिलकर कहो कि राम और कृष्ण ईश्वर हैं, मानने को तैयार नहीं। वेद को सनातन धर्म के लोग और आर्यसमाजवाले भी मानते हैं, फिर भी सनातनी राम-कृष्ण को ईश्वर मानते हैं और आर्यसमाजी नहीं मानते। इसी तरह काली और दुर्गा को सभी कोई ईश्वर नहीं मानते। जबकि अपने देश की ही यह बात है, तो फिर अन्य देशों की क्या बात!
 जबकि सूर्य को संसार में सभी लोग सूर्य ही मानते हैं। इसी तरह एक ईश्वर का ज्ञान होना चाहिए, इसी में सबको आना है, नहीं तो ईश्वर का ज्ञान नहीं है। ईश्वर एक ही है। एक से अधिक नहीं हो सकते। राम ईश्वर, कृष्ण ईश्वर, देवी ईश्वरी; इस तरह अनेक ईश्वर और ईश्वरियाँ हैं, लोग सुनकर हँसेंगे। ईश्वर तो एक ही होना चाहिए, वे एक ईश्वर कौन हैं? जैसे सारे संसार के लिए एक सूर्य है, वैसे ही संसार के लिए कौन से एक ईश्वर हैं? जितने पदार्थ संसार में हैं, चाहे इस देश के वा दूसरे देश के, सभी पदार्थों की बदली होती है। श्रीराम और श्रीकृष्ण का शरीर बच्चा था और फिर बढ़ते-बढ़ते वे सयाने हुए। यह बदली है। इसी तरह जहाँ-जहाँ बदली है, आप इन्द्रियों से जानते हैं। जहाँ बदली नहीं है, वहाँ इन्द्रियों का ज्ञान नहीं होता। आप कहेंगे कि काली माई, शिवजी का रूप तो नहीं बदला। मैं कहूँगा कि विविध प्रकार की कहानियाँ पुराणों में हैं। रावण मारा गया। लंका से राम अयोध्या आए। बातचीत हुई कि लंका में सबसे बड़ा वीर कौन था? किसी ने रावण को, किसी ने कुम्भकर्ण को, किसी ने मेघनाद को बताया। पीछे निर्णय हुआ कि मेघनाद सबसे बड़ा वीर था। रावण का कुछ देवताओं से भी युद्ध हुआ। रावण से जो काम नहीं हुआ, मेघनाद ने वह काम किया। देवताओं से युद्ध करने में रावण इन्द्र को नहीं पकड़ सका और मेघनाद ने पकड़ लिया। मेघनाद को लक्ष्मण ने मारा। लक्ष्मणजी की वीरता अद्भुत ठहरी। सीताजी बोली कि न तो राम ईश्वर हैं, न लक्ष्मण। वीरता में शक्ति की प्रधानता है और वह शक्ति मैं हूँ। सीताजी बोली कि शक्ति से ही रावण वा कुम्भकर्ण वा मेघनाद पछड़ा। इसलिए सबसे बढ़कर शक्ति है। वह शक्ति तो मैं ही हूँ। यहाँ शक्ति की बड़ी प्रधानता है। विचारो तो शक्ति स्त्री है, वा पुरुष है वा सजीव प्राणी है? शक्ति न स्त्री है, न पुरुष और न सजीव प्राणी है। जब यह बात निकली तो सीताजी बोली कि एक और रावण है, उसको देखें कौन मारते हैं? एक कल्पीय रामायण है, उसमें मैंने पढ़ा। उस रावण के यहाँ सीता, राम, लक्ष्मण; तीनों गए। युद्ध हुआ, वह ऐसा था कि एक के अनेक रूप हो जाते थे। वह अपने बैठा रहता, उसके अनेक रूपों से राम-लक्ष्मण लड़ते-लड़ते थक गए। उनके खून की बूँद से रावण बन जाता था। श्रीराम और लक्ष्मण आघात खाकर गिर पड़े, तब सीताजी ने काली का रूप धारण कर क्रोध करके उस पर प्रहार किया। इतना बड़ा रूप कि उसका भार कौन सम्हाले। शिवजी शव का रूप धारणकर उसके पैर के नीचे चले गए। जबतक युद्ध हुआ, शिवजी पर दृष्टि नहीं पड़ी। युद्ध समाप्त होने पर पड़ी। देखा कि शिवजी शव के रूप में हैं। कभी काली का रूप, कभी सीता का रूप; क्या इसमें बदली नहीं है?
 नानकपन्थ के दूसरे गुरु अंगद साहब थे। उनके समधी अमरदासजी तीसरे गुरु थे। एक बार अमरदासजी महाराज हिंगुला देवी की पूजा करने जा रहे थे। उस यात्रा काल में उन्होंने गुरु अंगददेवजी के यहाँ रात्रि-निवास किया। गुरु अंगददेवजी ने अमरदासजी महाराज का बहुत आदर-सत्कार किया। रात्रि-विश्राम के बाद ब्राह्ममुहूर्त्त में जब अमरदासजी महाराज की नींद टूटी, तो वे देखते हैं कि एक महासुन्दरी देवी गुरु अंगददेवजी के दरवाजे पर झाड़ू लगा रही हैं। अमरदासजी महाराज ने उन देवी से पूछा कि आप कौन हैं? आप यहाँ झाड़ू क्यों लगा रहीं हैं? उत्तर में देवी ने कहा-‘तुम कहाँ जा रहे जो?’ अमरदासजी महाराज ने कहा कि मैं हिंगुला देवी की पूजा करने जा रहा हूँ। देवी ने कहा कि वह हिंगुला देवी मैं ही हूँ। अमरदासजी महाराज ने कहा कि माताजी। आप यहाँ झाड़ ू लगा रही हैं? देवी ने कहा-‘अरे! ये तो संत हैं। इनके यहाँ लक्ष्मी और सरस्वतीजी भी झाड़ ू लगाकर अपने सौभाग्य को सराहती हैं।’ यह कहकर देवीजी अन्तर्धान हो गयीं।
 यहाँ भी देवीरूप बदलती हैं। आजकल वाजित- पुर का नाम पड़ गया है विद्यापतिनगर। विद्यापतिजी शिवजी के भक्त थे। वे भजन गाते थे, शिवजी सुनते थे। शिवजी नौकर रूप से विद्यापति के पास रहने लगे। ‘उगना’ रूप से उनके पास रहते थे। इस तरह शिवजी का रूप भी बदलता है। भस्मा- सुर को शिवजी ने वरदान दिया कि जिसके सिर पर तुम हाथ रखोगे, वह भस्म हो जाएगा। जब भस्मासुर को यह वरदान मिला, तो भस्मासुर के मन में आया कि यदि शिवजी के माथे पर मैं अपना हाथ रखूँगा, तो ये भस्म हो जायेंगे तो पार्वतीजी मेरी हो जाएगी। भस्मासुर ने जैसे शिवजी की ओर हाथ बढ़ाया, तो शिवजी भागते जाते थे और भस्मासुर पीछा करता जाता था।
 इस प्रसंग से यह भी ज्ञात होता है कि शिवजी का शरीर भी भस्म हो सकता था। इसीलिए वे भागते फिरते थे। शिवजी की रक्षा के लिए विष्णु भगवान पार्वती के रूप में भस्मासुर के सामने प्रकट हुए। भस्मासुर से कहा कि यदि तुम मुझे अपनाना चाहते हो तो जिस तरह भगवान शंकर एक हाथ कमर पर और एक हाथ माथे पर रखकर नाचते थे। उसी तरह तुम भी अपने हाथ को कमर और माथे पर रखकर नाच दिखाओ। भस्मासुर ने जैसे ही अपनी कमर और अपने माथे पर हाथ रखा, वह स्वयं ही जलकर भस्म हो गया। इस तरह विष्णु भगवान के रूप में भी बदली होती है। इस तरह विष्णु, शिव, शक्ति-सबके रूपों में बदली होती है। भले ही उन बड़े-बड़े देवों के रूपों का नाश अधिक-से-अधिक दिनों में हो, लेकिन कभी-न-कभी बिना नष्ट हुए बच नहीं सकते। लेकिन ईश्वर का नाश कभी नहीं होता। इस तरह जो बदले और नष्ट हो, उसको माया समझो, ईश्वर वह नहीं है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 ईश्वर एक हैं, जो राम के शरीर में, शिव के शरीर में, शक्ति के शरीर में, उस एक रूप को जो अपने अन्दर में पहचानता है, वह सबके अन्दर सब देशों में पहचानता है। वे एक ही ईश्वर हैं। वे इन्द्रिय-ज्ञान से परे हैं। चेतन आत्मा से जानने योग्य हैं। इसलिए-‘आतमगम्य भजहिं जेहि सन्ता ।’
 उसी एक को रामरूप में, शिवरूप में, विष्णुरूप में, शक्तिरूप में संतों ने वर्णन किया है। इसीलिए अभी पाठ में सुना कि ‘करोड़ों विष्णुओं के समान पालन करनेवाले, करोड़ों शिवों के समान संहार करनेवाले और करोड़ों ब्रह्माओं के समान सृष्टि करनेवाले’ कहा गया। भगवान विष्णु का अवतार हुआ। उस शरीर का नाम श्रीराम और उस शरीर में व्यापक स्वरूप भी राम। उस स्वरूप को शक्ति भी कहते हैं। इसीलिए सब शक्तियों का वह भण्डार है। वह स्वरूप कल्याणस्वरूप है। इसलिए यह शिव है। उसको बाहर में नहीं, अन्दर में पावोगे। उसको पाने के दो सहारे हैं-ज्योति और शब्द। बिना ज्योति के क्या काम करोगे? बिना शब्द के संसार ही नहीं रह सकता। परमात्मा की अनेक विभूतियों में ज्योति और शब्द उत्कृष्ट है। वह ज्योति और शब्द आपके अन्दर है। पहले ज्योति पकड़ो, फिर शब्द पकड़ा जाएगा। परमात्मा इसका नमूना दिखाते हैं कि आकाश में पहले बिजली चमकती है, फिर शब्द सुनाई पड़ता है। संत लोग इसका यत्न बताए हैं। अपने अन्दर वह शब्द होता है, उस शब्द को जो पकड़ता है, वह नाम-भजन करता है। इसको संत गरीबदासजी ने कहा-
 निरगुन निर्मल नाम है, अवगत नाम अवंच ।
 नाम रते सो धनपती, और सकल परपंच ।।
 जो सबमें व्यापक है, वही राम है, वही शिव है, वही विष्णु है, वही शक्ति है। जो शब्द अपने आप सबके अन्दर गूँज रहा है, उसको पकड़ो। यही नाम-भजन है।
 अपने हृदय को पवित्र रखे बिना परम पवित्र परमात्मा का भजन नहीं हो सकता। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पाँचों से जो नहीं छूटता है, वह ईश्वर का ठीक-ठीक भजन नहीं कर सकता। यदि एक ही बार इतना पवित्र नहीं हो सको, तो थोड़ा-थोड़ा पापों को छोड़ते जाओ। इसका ज्ञान सत्संग से होगा। सत्संग करो। सत्संग से गुरु की भी जानकारी होती है। अच्छे गुरु से इसका यत्न जानो और करो।
 लोग कहते हैं कि यह ज्ञान सबके लिए नहीं है। मैं कहता हूँ कि जबतक सुनाओ नहीं, तो कोई करे कैसे? सत्संग इसलिए है कि सब कोई सुनें, समझें और करें। मैंने देखा है कि सुनते-सुनते लोग करने भी लग गए हैं। त्रयकाल सन्ध्या करो। ब्राह्ममुहूर्त्त में, दिन में स्नान के बाद तुरंत और सन्ध्या के समय करो।
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यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत संतमत सत्संग मन्दिर, मनिहारी में दिनांक 11. 6. 1967 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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270. सम्पूर्ण संसार का शासनकर्ता कौन है?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 संसार के सब प्राणी सुख पाने की इच्छा रखते हैं। इस सत्संग के द्वारा मैं आपको सुख का पता बताऊँगा। उस सुख को कैसे प्राप्त करें, इसके बारे में कहूँगा। साधारण तरह से लोग सुख उसको कहते हैं, जो मन को और इन्द्रियों को सुहाता है। इससे कोई विशेष सुख है, तो लोग समझतें हैं-बौद्धिक सुख है। परन्तु बुद्धि को मन और इन्द्रियों से ऐसा सम्बन्ध है कि मन, इन्द्रियों के सम्पर्क में नहीं है, तो ऐसे को बुद्धि नहीं समझ सकती। मतलब यह कि बुद्धि, मन और इन्द्रियां की संगिनी है। इतना ही फर्क है कि इन्द्रियाँ सब मन से स्थूल, मन उससे सूक्ष्म और बुद्धि मन से भी सूक्ष्म। परन्तु तीनों को मेल है। मन-इन्द्रियों से जहाँ मेल नहीं, उसको बुद्धि नहीं जानती। मन- इन्द्रियों से प्राप्त सुख को लोग जानते हैं। मन, इन्द्रियों से परे मानने योग्य और कोई सुख है, उसको बहुत अधिक लोग नहीं जानते। पहले आप देखिए कि मन और इन्द्रियों से जानने योग्य सुख से क्या फल आपको मिलता है। क्षणिक-सुख मिलता है। दुःख से मिश्रित सुख मिलता है। उसके बाद फिर दुःख आता ही है।
 संसार में बहुत से प्रभावशाली लोग आए। बुद्धि में बहुत तीव्र लोग आए, उत्तम-उत्तम शासनकर्ता लोग आए। शारीरिक बल ऐसा कि उसको पढ़कर जानने से आश्चर्य लगता है, असंभव लगता है। ऐसे लोग संसार में आए, जिनकी पूजा होती थी। आज भी पूजा होती है। भारत के लोग जिनको बड़ी भक्ति और भाव से देखते हैं, वे भी पूर्ण सुखी रहे, ऐसा नहीं देखा जाता है। उन लोगों पर भी दुःख आया और वे कठिनाई से उसको सहन किए। मेरे कहने का भाव यह कि जो सुख मिलता है, वह सुख केवल सुख नहीं है, उसके साथ दुःख भी है। लोग चाहते क्या हैं? सुख हो दुःख नहीं हो। ऐसा सुख कि उसमें डूबे रहें, ऊबें नहीं। ऐसा सुख क्या संसार में है? क्या पुरानी बातांं में, क्या अबकी बातों में ऐसा सुख संसार में ंदेखा नहीं जाता। सुख-सुख कहकर जिस पदार्थ को मानते हैं, उसके साथ दुःख लगा रहता है। सुख भागता जाता है, दौड़ते-दौड़ते शरीर खत्म हो गया, तृप्ति कभी नहीं हुई, संतुष्टि कभी नहीं हुई। तृष्णा लेकर संसार से चले गए।
 रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत क्या बत- लाती है? सबमें यही कथा पढ़ते हैं, जो लोग बहुत विशेष थे, वे लोग भी बहुत दुःख पाए और उसको साहस से सहन किए। जो औरों से सहना कठिन था। उन्होंने नमूना दिया कि किसी को विश्वास नहीं करना चाहिए कि संसार में पूर्ण सुखी कोई है। मैं कहूँगा जो केवल इस संसार को जानते हैं, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं जानते, वे इस देश में और अन्य देश में राष्ट्रपति तो मानते हैं, लेकिन सम्पूर्ण विश्व का कोई एक ही मालिक हैं, वे ऐसा नहीं मानते। ज्यादे खोज करने पर एहिकालिक और पौराणिक-ग्रंथों में है कि सम्पूर्ण संसार का शासनकर्ता एक अवश्य है। और वह सुख भी है,जिसको पाकर कोई ऊबता नहीं। वह कभी फीका नहीं लगता। सदा मीठा रहता है। सदा ही लगा रहता है, कभी छूटता नहीं।
    परम स्वाद सबहीं जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै ।
    मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै ।।
     -भक्तवर सूरदासजी महाराज
 गूँगा आदमी मीठा खाता है, स्वाद मालूम होता है, लेकिन वर्णन नहीं कर सकता। सूरदासजी कहते हैं परम स्वाद। आँख से रूप, कान से शब्द, नासिका से गन्ध, त्वचा से स्पर्श, जिभ्या से रस ग्रहण करते हैं। लेकिन ये सब कोई भी परम स्वाद नहीं। परम स्वाद इन्द्रियों में नहीं। कभी-कभी कोई-कोई बात जो समझ में आती है, वह भी अच्छी लगती है, लेकिन परम स्वाद सदा लगा ही रहता है। उसका फल अमित-तोष होता है, जिसका वर्णन कोई नहीं कर सकता। लेकिन मन नहीं जान सकता। वचन से नहीं बोला जा सकता। जो पाता है, वही जानता है। वह स्वाद भी है और सारा विश्व का एक शासक भी है। वह शासक कैसा है? वह कभी उत्पन्न नहीं हुआ। वह देशकालातीत है। स्थान और समय का पता नहीं, तब वह था। स्थान हो, समय नहीं हो; समय हो, स्थान नहीं, ऐसा हो नहीं सकता। जहाँ समय है, वहाँ स्थान और जहाँ स्थान है, वहाँ समय होगा। देश-काल माया है, वह देश-कालातीत है। वह कभी हुआ है, ऐसा नहीं। वह सबसे प्रथम का है। वह परम पुरातन, परम-सनातन है। साथ-ही-साथ देश-काल ज्ञान से अनादि है। और उपज-ज्ञान से भी अनादि है। न उपजा है, न देश-काल की सीमा में है। कहीं उसका अन्त नहीं, वह आदि-अंत-रहित है।
व्योम को व्योम अनंत अखण्डित, आदि न अन्त सुमध्य कहाँ है ।
       -सुन्दरदासजी
 सबसे प्रथम का कुछ मानना युक्तिसंगत बात है या नहीं? सौर जगत में सूर्य से पहले का कुछ नहीं है। पंच भौतिक जगत में आकाश से पहले कुछ नहीं है। यहाँ बहस नहीं होता। यहाँ सौर जगत और पंच भौतिक जगत में पहले क्या है? सौर जगत में पहले सूर्य और पंच भौतिक जगत में पहले आकाश यह दृढ़ माना जाता है। समूचे संसार में यह ज्ञान है कि एक ब्रह्माण्ड नहीं है, अनेक हैं। प्रकृति से सारे ब्रह्माण्ड निर्मित हैं। इतना बड़ा मंडल है कि प्रकृति उससे भर नहीं जाती। इन सबमें रहते हुए सबसे परे अनादि-अनन्त-तत्त्व अवश्य है। सौर जगत के पहले अवश्य सूर्य होगा। और पंच भौतिक जगत के पहले अवश्य ही आकाश होगा। इन सबसे पहले का भी कुछ हो, यह क्यों नहीं माना जा सकता? सारे प्रकृति मण्डल में जो कुछ है, देश-काल से घिरा हुआ है।
 जहाँ देशकाल नहीं, प्रकृति की रचना नहीं। वहाँ देश-काल नहीं है। देश-काल के परे कुछ है, वही सबसे प्रथम का है। वह हई है। न उसका कहीं आदि है, न अन्त है। वह सर्वज्ञान का भण्डार है। ज्ञान का भण्डार नहीं मानिए, तो ज्ञान कहाँ से आया? संसार में सबको ज्ञान है, किसी को कम, किसी को बेसी। यह कहाँ से आया? संसार में बड़ी-बड़ी शक्तियाँ हैं। यह शक्ति कहाँ से आई? जो अनादि- अनंत, देश-कालातीत है, वही ज्ञान का भण्डार है। वही सर्वशक्ति का खजाना है। वह कितना सूक्ष्म है कि मन-बुद्धि से भी अधिक सूक्ष्म है। इसलिए वह सर्वव्यापक होकर सबसे परे भी है।
 जो अनादि-अनन्त नहीं होगा, वह सबसे प्रथम का नहीं होगा। अगर ऐसा अनादि-अनंत नहीं मानेंगे, ससीम मानेंगे तो उसके अतिरिक्त भी कुछ मानना होगा। उसके अतिरिक्त जो होगा, वही सबसे पहले का होगा। तब वही ईश्वर परमात्मा हो जाएगा। एक ऐसा अवश्य कहना होगा, जो आदि अन्त-रहित तत्त्व है। अनादि-अनन्त तत्त्व से परे कुछ है, ऐसा मानना हास्यप्रद है। असीम-अनादि से परे का माननेवाला असीम का, अनन्त का अर्थ नहीं जानता है। जो जितना सूक्ष्म होता है, वह उतना अधिक व्यापक होता है।
 एक सेर बर्फ की जितनी व्यापकता होगी, उसका पानी बना लेने से उसकी अधिक व्यापकता हो जाएगी। क्योंकि बर्फ से पानी सूक्ष्म होता है। यह ‘मिसाल’ बतलाता है कि जो जितना सूक्ष्म होता है, वह उतना अधिक विस्तार रखता है। जो सबसे अधिक सूक्ष्म है, वह सबसे अधिक व्यापक है। जहाँ तक रचना है, वहाँ तक व्यापक है। जिनका मण्डल सबसे विशेष विस्तार होता है, उनके अन्दर सब रहते हैं, उनके शासन में सब रहते हैं। जिनके शासन में, जिनके प्रभाव में रहना पड़े, वे ही प्रभु हैं, ईश्वर हैं। उन्हीं के लिए सुना-
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता।अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
 वह व्याप्य है और व्यापक भी है। जिसमें कुछ समावे, वह व्याप्य है; जो समावे, वह व्यापक है। प्रकृति मण्डल व्याप्य है। परमात्मा व्यापक हैं। प्रकृति परमात्मा के अन्दर है, इसलिए परमात्मा भी व्याप्य हैं। उनका टुकड़ा नहीं है, आकार नहीं है। आकार मानने से ससीम हो जाएगा। विराटरूप आदि-अन्त-रहित है, ऐसा कितने लोगों का ख्याल है। बलि के सामने पहले छोटे रूप में, पीछे बड़े रूप में भगवान हुए। आकार बहुत बड़ा था। ‘पद पाताल शीश अज धामा ।’ जामवन्त उस समय जवान थे। उन्होंने उनकी सात प्रदक्षिणा की। यदि विराटरूप आदि-अन्त-रहित होता तो प्रदक्षिणा कौन करे? अर्जुन को जो विराटरूप दिखाया गया उसके हाथ, मुँह, पैर आदि को कोई गिन नहीं सकता था। उसमें घोर-दर्शन भी और प्रिय-दर्शन भी था। अर्जुन उस रूप से बाहर थे। उस रूप को देखकर डर रहे थे। उस रूप के अतिरिक्त और स्थान था। तब अर्जुन अलग खडे़ थे। यहीं ससीमता आ जाती है। और कौरव-पाण्डव दल के लोग सब ओर से टिड्डी की तरह आते थे, उनके मुँह में प्रवेश करते और मर-मरकर गिरते थे। यह भी ससीमता बताना है।
 कितना बड़ा भी रूप होगा, वह ससीम होगा। रूप में ससीमता अवश्य होगी। विराटरूप से अधिक विस्तार रूप नहीं हो सकता। फिर भी उसकी ससीमता जानी जाती है। जामवन्त सात बार उनको घूम-घूमकर प्रदक्षिणा किए।
 उभय घड़ी महँ दीन्हीं, सात प्रदच्छिन धाइ ।
 कोई भी शरीर आदि-अन्त-रहित कहकर जानने योग्य नहीं है। इसलिए-
  निर्मल निराकार निर्मोहा । नित्य निरंजन सुख सन्दोहा ।।
          -गोस्वामी तुलसीदासजी
 इसका अन्त नहीं होगा। इसमें इधर-उधर से कुछ नहीं आवेगा। सब उसी में है। सबसे प्रथम का कुछ नहीं है, कहा नहीं जा सकता। यदि कहता है तो जोर करता है, जिद्द करता है।
 अनेक मानने के लिए अवकाश मानना पड़ेगा। बिना अवकाश के एक और अनेक का ज्ञान नहीं होता। कान और कनपट्टी के बीच में खाली जगह नहीं हो तो दोनों की पहचान नहीं हो सकती। संसार की रचना ईश्वर ने क्यों की? ऐसा वा वैसा क्यों किया? यह बात मैं नहीं करता। सीमित बुद्धि में असीम का ज्ञान करना हो नहीं सकता।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सब दरसी अनवद्य अजीता।।
 निर्मल निराकार निर्मोहा ।नित्य निरंजन सुख सन्दोहा।।
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
      -गोस्वामी तुलसीदासजी
 अपने यहाँ राम ईश्वर हैं, कृष्ण ईश्वर हैं, विष्णु ईश्वर हैं, शिव ईश्वर हैं, गणेश ईश्वर हैं, सूर्य ईश्वर हैं, काली माई ईश्वरी हैं? हाँ! हैं। क्योंकि इनमें शक्ति पाते हैं। बड़े-बड़े कर्म इनमें पाते हैं। तो क्या ईश्वर बहुत हैं? ईश्वर के मानने वाले एक से अधिक ईश्वर नहीं मानते। राम के माननेवाले राम को, कृष्ण के माननेवाले कृष्ण को ईश्वर मानते हैं। ईश्वर अनेक नहीं, सबमें एक ही ईश्वर हैं। राम में, विष्णु में, शिव में; सबमें एक ही ईश्वर हैं।
 श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीदुर्गा महान-महान विभूतियाँ हैं। राम, कृष्ण आदि रूप को पहचानते हैं। आँख नहीं हो तो रूप को कौन पहचाने? जन्मान्ध कभी कुछ नहीं देखता। जिसको देखने की शक्ति नहीं, उसको रूपज्ञान नहीं होता। सर्वव्यापी का ज्ञान- जिसको कहा कि त्रयगुणरहित है, निराकार है, उसके लिए न कान, न आँख काम कर सकती है। शरीर की सारी इन्द्रियाँ भी काम नहीं कर सकतीं। क्योंकि-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 वह स्वरूप ऐसा है कि वचन में आने योग्य नहीं, बुद्धि से परे है। देखने में नहीं आता। वह अपार है। केवल तुलसीदासजी ही नहीं कहते और संत भी कहते हैं। कबीर साहब, गुरु नानक साहब ने तो इसका वर्णन किया है-
 श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
 सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
 चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
 चून चगून वजूद न मानु तैं सुभानमूना ऐना ।।
 जैसे ऐना सब दरसावै जो कुछ वेष बनावै ।
 ज्यों अनुमान करै साहब को त्यों साहब दरसावै ।।
 जाहि रूप अल्लाह के भीतर तेहि भीतर क े ठाईं ।
 रूप अरूप हमारि आस है हम दूनहुँ के साईं ।।
 जो कोउ रूह आपनी देखा सो साहब को पेखा ।
 कहै कबीर स्वरूप हमारा साहब को दिल देखा ।।
आत्म-दृष्टि से खोजिए। गुरु नानक कहते हैं-
     अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
साचे सचिआर बिटहु कुरबाणु ।
ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।
ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु काम न नारी ।
अकुल निरंजन अपर परंपरु सगली जोति तुमारी ।।
घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ।
बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।।
 जिस इन्द्रिय का जो विषय नहीं है, उस इन्द्रिय से उस विषय को ग्रहण करने के लिए कोई चाहेगा, सो कैसे होगा? यदि ऐसा होता तो बहिरा आँख से सुन लेता, अन्धा कान से देख लेता। एक ही इन्द्रिय से सभी विषयों को नहीं पकड़ सकते। एक-एक इन्द्रिय का एक-एक विषय है। ईश्वर इन्द्रियों से जाना नहीं जाता, तब किससे जाना जाता है? आप कौन हो? आपकी इन्द्रियाँ हैं, आपका शरीर है। आप कुछ नहीं हैं? आँख में आप नहीं रहो तो देखने की शक्ति और कान में नहीं रहो तो कान से सुनने की शक्ति नहीं रहे। मृतक शरीर में तो देखा ही जाता है कि वह सुनता नहीं, देखता नहीं। किसके नहीं रहने से? आपके ही नहीं रहने से। आप निजी शक्ति कुछ नहीं रखते हैं। आपकी निजी शक्ति बहुत है।
 यदि कोई कहे कि यदि एक ही शक्ति से देखा जाता है, सुना जाता है, तो उसी शक्ति से ईश्वर को क्यों नहीं देखेंगे? इसकी उपमा मैं देता हूँ कि देखो! रेलवे स्टेशन में रोशनी होती है, उसमें एक तरफ हरा शीशा और दूसरी तरफ लाल शीशा रहता है। जिस तरफ होकर रोशनी निकलती है, उस रंग का प्रकाश मालूम होता है। उसी तरह आपकी शक्ति इन्द्रियाँ होकर निकलती हैं, इसलिए इन्द्रियों का रंग और इन्द्रियोंं का गुण लेकर निकलती है। अपने पर से इन्द्रियों को हटा दें तो अपनी निजी शक्ति में आ जाएँगे। इसी को आत्मबल कहते है। लोग सामान्य बात में भी कहते हैं कि उनमे आत्मबल है। लेकिन अपने को तो जाने नहीं। ईश्वर आत्मगम्य हैं। ‘आतमगम्य भजहिं जेहि सन्ता ।’
 ईश्वर तो बहुत दूर है। लेकिन आप तो अपने को भी नहीं पहचानते। फोटो में शरीर का रूप देखते हैं। लेकिन जिसको मेरा कहते हो, उसका फोटो नहीं होता। अलग-अलग इन्द्रियों के अलग- अलग विषय हैं और आपका भी विषय अलग है। वह है आपको अपने को चीन्हना और ईश्वर को चीन्हना। ईश्वर को देखने के लिए, चीन्हने के लिए आपका विषय है। जैसे आँख का विषय रूप है। आप अपने को क्यों नहीं पहचानते? कान से आँख को कोई देख नहीं सकता। आँख से ही आँख को देख सकता है ऐना लेकर। आँख में लाली हो गयी है किसी ने कहा। उसको देखने के लिए आप क्या करेंगे? ऐना वा जल नहीं हो तो आप नहीं देख सकते। क्योंकि उसमें प्रतिबिम्ब होता है। अपने को अपने से देखने के लिए क्या साधन है? अपने को इन्द्रियों के स्थान से, मन-बुद्धि के स्थान से, शरीरों के स्थानों से हटा दीजिए।
 मरने पर स्थूल शरीर छूटता है, सूक्ष्म शरीर नहीं छूटता है। स्थूल शरीर के भीतर सूक्ष्म शरीर है। उसके भीतर कारण, फिर उसके भी भीतर महाकारण; ये चार जड़ शरीर हैं। इनके अन्दर आपका वासा है। इनसे अपने को ऊपर उठावें। तब अपने से अपने को पहचानेंगे। ‘आतम अनुभव सुख सु परकासा।’ तब सर्वव्यापी ईश्वर आप-ही- आप सर्वत्र दर्शन देेंगे। साधन यही है कि अपने को शरीर-इन्द्रियों से ऊपर उठाइए। यही ईश्वर की भक्ति है। ईश्वरीय ज्ञान के लिए इन्द्रिय-ज्ञान तक ही नहीं रहना चाहिए, आगे बढ़ना चाहिए।
 गुरु-वाक्य, सच्छास्त्र और तर्क; तीनां मिल जाएँ, तब श्रद्धा है। तर्क जहाँ तक नहीं जाए, वहाँ श्रद्धा जाती है। फिर भी संशय रह जाए तो साधन करो। उसी साधन का नाम है ध्यानयोग। यह सरलतम साधन है। जैसे आँख देखने का सरलतम साधन ऐना है। इसी तरह अपने को और ईश्वर को देखने के लिए सरलतम साधन ध्यानयोग है। हठयोग जबरदस्त है। है तो है। लेकिन यह सबसे सधने योग्य नहीं है। राजयोग कहता है-‘हे हठयोग! तुम्हारे बिना ही हम चल सकते हैं। लेकिन मेरे बिना तुम आगे नहीं बढ़ सकते।’
 श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में केवल ध्यानयोग का वर्णन है, हठयोग का नहीं। उसी से ईश्वर-प्राप्ति, आत्म-स्वरूप की प्राप्ति और शान्ति की प्राप्ति बतायी है। ध्यानयोग मेें लौ लगाना पड़ता है। पढ़े-अनपढ़े जो थोड़ी भी बात समझ सकते हैं, वे लौ लगा सकते हैं। ईश्वर क्या है? रूप क्या है? जो आँख से पकड़ सको। शब्द क्या है? जो तुम कान से पकड़ सकते हो। इसी तरह ईश्वर क्या है? जो तुम अपने से प्रत्यक्ष जानो। अपने को जानने के लिए गीता में भगवान ने क्षेत्र क्षेत्रज्ञ का भेद समझाया है। क्षेत्र के सभी तत्त्वों को गिना दिया है। पाँच स्थूल तत्त्व (मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), पाँच सूक्ष्म तत्त्व (रूप, रस,गंध, स्पर्श और शब्द), अहंकार, बुद्धि, प्रकृति, दशेन्द्रियाँ (हाथ, पैर, मुँह, गुदा और लिंग; ये कर्मेन्द्रियाँ और आँख, कान, नाक, जिह्ना और त्वचा; ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ), मन, चैतन्य, संघात (कहे गए का संघरूप), धृति (धारण करने की शक्ति) और इनके विकार- इच्छा, द्वेष, सुख और दुःख-इन इकतीस तत्त्वों के समूह को संक्षेप में क्षेत्र कहते हैं। शरीर से इन इकतीस को अलग कर दो, तब जो बचता है, वही आत्मतत्त्व है। ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी ।’
 जो अपने को ध्यानयोग के द्वारा चारो शरीर से ऊपर उठा सकते हैं, वे कैवल्य दशा को जड़ से भिन्न होकर पाते हैं। जैसे दूध मथने पर मक्खन अलग हो जाता है।।
 जिमि दूध के मथन से, निकसत है घी जतन से ।
 तिमि ध्यान के लगन से , परब्रह्म ले निहारा ।।
         -स्वामी ब्रह्मानन्दजी
 इस तरह सब क्षेत्रों से अलग हो गए। इनमें रहकर भी इनसे अलग हुए, वे ही जीवनमुक्त हैं। वे ही कैवल्य दशा प्राप्त किए हैं, वे ही अपने को पहचानेंगे। तब ईश्वर की खोज करने की बात नहीं रहेगी। जहाँ ऐसा होगा, वहीं सर्वव्यापी का दर्शन होगा। शरीर और मन सोता है, लेकिन चेतन आत्मा सोती नहीं। चेतन आत्मा शरीर से पृथक हो जाए, तब उसको न जाग्रत है, न स्वप्न है, न सुषुप्ति है। तुरीय में रहकर ईश्वर का दर्शन करती है। जो इस तरह की भक्ति करता है, वह भक्त है। जैसे जगन्नाथजी की ओर जो जाते हैं, वे जगन्नाथजी के भक्त होते हैं। इसी तरह जो ईश्वर की ओर गमन करता है, वह ईश्वर का भक्त है।
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यह प्रवचन सहर्षा जिला वार्षिक अधिवेशन, सुपौल में दिनांक 24. 6. 1967 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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271. गौ-माता का पालन अच्छी तरह करो
प्यारे भक्तजनो!
 संसार में सुखपूर्वक रहना और शरीर छोड़ने के बाद भी सुख पाना मनुष्य को चाहिए। परन्तु सुख को पहचानना चाहिए। जिस सुख मेें शान्ति बनी रहे, जिस सुख में संतोष स्थिर रहे, वही सुख -सुख है। संसार के सुखों में संतोष नहीं बना रहता, शान्ति नहीं आती। इस वास्ते सांसारिक सुख यथार्थ में सुख नहीं है। फिर भी संसार के सुख में रहने की इच्छा होती है। इस मर्म को जानकर कि संसार में सांसारिक भोगों से शान्ति नहीं आती। भोगों के सुखों में अनासक्त भाव से बरतना चाहिए। जो कोई अनासक्त भाव से बरतते हैं, उनको एक विचित्र सुख मिलता है। संसार में यही सुख -सुख है। इस सुख को पाने के लिए जो ज्ञान चाहिए, अध्यात्म-साधन चाहिए। सांसारिक कामों के साथ अध्यात्म-साधन बड़ा अच्छा है। केवल भौतिक पदार्थों से कोई सुखी नहीं हो सकता। भौतिक पदार्थों को छोड़कर भी नहीं रहा जाता। इसलिए सांसारिक पदार्थों में अनासक्त भाव होकर बरतना चाहिए। शरीर में रोग होने पर औषधि का सेवन करते हैं। औषधि कोई कटु और कोई मधु होती है। उसमें मात्रा ठीक होनी चाहिए, नहीं तो विपरीत फल हेता है। कटु औषधि विशेष लिया नहीं जाता, लेकिन मधुर औषधि भी मात्रा के अनुकूल होनी चाहिए। कटु औषधि दुःख है और मधुर औषधि सुख है। सांसारिक सुखों में अनासक्त रहकर बरतना चाहिए। इसी का उपदेश संतों ने किया है। परलोक का सुख जो विषय सुख है, वह विषय सुख भी सांसारिक सुख के तुल्य है। उसमें भी ऐसी आसक्ति नहीं चाहिए कि वही भोग हो। परलोक जिसको मोक्ष कहते हैं, उसमें बिना आसक्ति रहे, कोई रह नहीं सकता। उससे अकल्याण होता नहीं, उसको छोड़ा जाता नहीं, उससे छूटा जाता नहीं। उसको अपनाना चाहिए। उसको अपनाकर ऐसे रहोगे कि-
 न पल बिछुड़े पिया हमसे, न हम बिछुड़े पियारे से ।
 यह संतों का उपदेश है। संसार में रहकर अनासक्त भाव में कैसे रहा जाए? संसार का भी कुछ सुख मिलना चाहिए। इसके लिए घर में, आपस में मेल से रहो। आपस में प्रेम से बर्ताव करो। समाज में भी वैसे रहो। सब मिल-जुलकर जिस देश का समाज रहता है, वह देश पराधीन नहीं होता। जिस देश में भिन्न-भिन्न नियम और भिन्न-भिन्न समाज बनता है, वह देश पराधीन हो, इसका खटका बना रहता है। पहले घर, फिर समाज, फिर देश एक मेल से रहो। अपने देश में एक विचार हो जाए, फिर समूचे संसार में एक विचार, एक मेल हो, फिर कोई झगड़ा-झंझट नहीं। इसके लिए क्या चाहिए? वेद कहता है कि सामूहिक उपासना करो। सामूहिक उपासना एक बन्धन में बाँध देती है। इसलिए ईश्वर उपासना कोई मत भूलो।
 दूसरी बात है कि गौ की रक्षा करो। इससे सभी पौष्टिक पदार्थ मिलते हैं। खेती होती है। बछड़े के बिना खेती नहीं होती। खेती के बिना अन्न नहीं मिलता। इसलिए गौ-रक्षा करो। बचपन से ही दूध की आवश्यकता होती है और जीवन के अन्त तक दूध की आवश्यकता रहती है। गौ के दूध की बराबरी में और कोई दूध नहीं। माता का दूध थोड़े ही काल तक और गौ का दूध जीवनभर। इसलिए गौ-माता कहते हैं। लोगो! गौ-हिंसा मत करो। लोगों से लड़ो-झगड़ो नहीं। अपने यहाँ गौ का पालन अच्छी तरह करो। बूढ़ी माँ, बूढे़ पिता को कोई घर से नहीं निकालते, न निकालना चाहिए। मौद्गल्यायन भगवान बुद्ध के बड़े शिष्य थे। उन्होंने अपने पूर्व जन्म के किसी एक जन्म में अपने बूढे़ पिता को जंगल में छेड़ दिया था। जिसका बहुत बुरा परिणाम उनको भोगना पड़ा। चोरों ने उनके हाड़-हाड़ को तोड़ दिया। बुद्ध के यहाँ वे पहुँचे अपने ऋद्धि के बल से। उसके बाद ही उन्होंने शरीर को छोड़ दिया। भगवान बुद्ध की बात झूठी नहीं है। महात्मा होने पर भी प्रारब्ध अपना भोग छोड़ता नहीं। लोगों को चाहिए कि अपनी बूढ़ी माँ, बूढ़े बाप को कष्ट न दें। इसी तरह गौ-माता को पालें। गौ बूढ़ी हो जाए, बैल बूढ़ा हो जाए, उसका पालन करें, सेवा करें। कभी-न-कभी उनका जीवन समाप्त होगा-मर जाएँगे, बेचो मत। यदि कोई उस तरह के बैल-गाय को बेचता है, तो उसको लेकर हिंसक हिंसा करते हैं। यह हिंसा कार्य में मदद मत करो।
 हमारे कितने महात्मा लोग इसके लिए उपवास किए और चाह रहे हैं कि ऐसा कानून हो कि गौ- हिंसा नहीं हो। हमारे देश का राज्य सब धर्मों का राज्य है, कितने धर्म के लोग इस देश में बसते हैं। गाय-बैल बेचना ही हो तो उनके हाथ बेचिए जो कोई उनको हल में जोतें और उन गायों से दूध प्राप्त करें। और ऐसे को बेचिए कि जो हल में चलने काबिल हो-दूध देने काबिल हो।
 बहिला गाय को मत बेचिए। उसके गोबर- गोंत से आपके खेत की खाद होगी। गौ से दूध भी मिलेगा, गोबर और गोंत तो आपको मिलेगा ही, जो खाद होगी। वेद में आया है कि इनकी हिंसा नहीं करो। गौ-हिंसा सुनकर हमलोगों का खून खौल जाता है, लेकिन बूढे़ बैल, बूढ़ी गाय को बेचकर गौ-हिंसा में मदद नहीं कीजिए। सारे संसार से गौ-हिंसा दूर हो जाए, असम्भव है। लेकिन यही एक देश है, जहाँ के लोगों को गौ की हिंसा सुनकर रक्त खौल जाता है, लड़ाई-झगड़ा होता है। यहाँ ईसाई, इस्लाम, पारसी सभी धर्म के लोग हैं, केवल वैदिकधर्म के ही लोग नहीं हैं, इसीलिए हमारे ऊपर के लोगों को यह विधान बनाने में देर हो रही है कि ‘गौ-हिंसा’ बन्द हो। यद्यपि वे लोग भी गौ-हिंसा नहीं करना नहीं चाहते। सब-के-सब गौ-हिंसा करने के पक्ष में आ जाएँ। यदि समझ लें तो ठीक है-लड़ना- झगड़ना मेरे विचार में नहीं है। जो महात्मा लोग हठ कर रहे हैं, वे भी कुछ सोच-समझकर ही कर रहे हैं। गौ-पालन अवश्य करो। वह कभी भी मारने योग्य नहीं है।
 आपलोगों को मैं अनेक संतों-कबीर, नानक, उपनिषद्, वेद और भगवान बुद्ध आदि के वचनों को सुनाता हूँ। यही संतों की वाणी का संग ‘सत्संग’ है। जैसे किन्हीं की चिट्ठी होती है, उसी तरह यह वाणी संतों की चिट्ठी है। चिट्ठी आधी मुलाकात होती है। जिन संतों की मुलाकात नहीं, उनकी वाणी की ही मुलाकात। यह आधी मुलाकात ही क्या कम है? इसलिए सब संतों की वाणियों को हमलोग पढ़ते हैं।
 दूसरी बात यह है कि हमारा धर्म ऊँचा, हमारा मत ऊँचा दूसरे का नीचा, इस बात से देश को बहुत हानि हुई है; जैसे कि पहले छुआछूत के कारण देश को हानि हुई। साम्प्रदायिक अनमेल भी देश को बहुत नुकसान पहुँचाता है। यह धार्मिक सम्प्रदाय का अनमेल कैसे टूटे? इस तरह कि सब संतों का वचन लिया जाए और उसके सार को मिलाया जाए कि वह मिलता है वा नहीं? मैंने कोशिश की और देखा कि संतों के सदाचरण का एक उपदेश है। ईश्वर-प्राप्ति का एक रास्ता है। वेद, उपनिषद्, संतों की वाणियाँ, सबमें एक भाव है। मैंने ‘सत्संग-योग’ नाम की पुस्तक में इन वचनों को संग्रह करके दिखा दिया है। पहले भाग में वेद, उपनिषदादि संस्कृत ग्रंथों के वचन हैं, दूसरे भाग में पचास संतों की वाणियाँ हैं, तीसरे भाग में विद्वानों और साधकों के वचन हैं और चौथे भाग में मैंने वह लिखा है कि संतों के ज्ञान को जो मैंने समझा, गुरु ने जो उपदेश दिया तथा उसके अनुकूल साधन करके जो कुछ अनुभव हुआ, इन सब बातों को दिया है।
 कोई किसी की पूजा का खण्डन न करे कि कोई पश्चिम मुँह नहीं करे वा कोई पूर्व मुख बैठकर नहीं करे। दूसरे सम्प्रदाय के जो लोग हैं, उनमें भी सूक्ष्म क्रिया एक है-सूक्ष्म साधन एक है। अन्दर-अन्दर चलो, इसमें सबका एक मत है। इस प्रकार साम्प्रदायिकता का भेद-भाव मिटने से बड़ी शान्ति रहेगी। कोशी के इस पार आप रहें और उस पार में आपके मित्र हां वा जिनको आप नहीं जानें, वे भी रहते हैं, तो क्या वह दूसरा हो गया? एक ही जिला है। उसी तरह बहुत पानी के बाद यानी समुद्र के पार में यदि कोई बसते हैं, तो वे दूसरे कैसे हैं? हम सभी एक हैं। एशिया महादेश और युरोप महादेश, इस देश का विभाजन किसने किया? पानी ने। पानी जड़ और हम चेतन। पानी मजबूत हो गया और हम कमजोर हो गए? धार्मिक, साम्प्रदायिक भेद-भाव मिट जाएँ और भी जो भेद-भाव हैं, सभी मिट जाएँ तो तोप,गोला, काहे को बने? इसको मारो, उसको मारो, यह बात क्यों होगी? ऐसा भी तो बम बनाओ कि सब कोई मिलकर रहो। यह बम तब बन सकता है कि धार्मिक विचार एक हो जाए। एक मेल से रहने के लिए पहले हमलोग जिस गाँव में रहते हैं, जिस घर में रहते हैं जिस प्रान्त में रहते है, जिस देश में रहते हैं, मेल से रहें। इस एक मेल से रखनेवाला धर्म है।
 आज विविध धर्म विविध तरह से फैलाये जा रहेेे हैं। असल में धर्म तो वह है कि जिससे ईश्वर से मिला जाए।
   जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू । जहँ नहिं राम प्रेम परधानू ।।
 राम ही ईश्वर है। राम को हाथ भी और नहीं भी हाथ। राम व्यक्त भी और अव्यक्त भी। राम विराट भी अंग-प्रत्यंग बहुत भी और वह एक-ही- एक है। अंग-प्रत्यंग को देखो और उसमें व्यापक एक को नहीं देखो, यह कितना मोटा ज्ञान है? उस एक को माननेवाला उस एक तल जानेवाला सभी हो जाओ, यही सनातन धर्म है। इस परम सनातन को भूल जाओ और केवल प्रचलित पूजा में लग जाओ। कितनी गलत बात है। इस गलती को भूल जाओ। सब कोई मिल-जुलकर उपासना करो-यह वेद-आज्ञा है। इसी के अनुकूल मैंने आपलोगोेें से कहा।
 बारीकी को देखो। विद्वान लोग कानून की बारीकी की ओर खूब जाते हैं, लेकिन धार्मिक विषय में, मोटे में लगे रहते हैं, यह बड़ी भूल है। धार्मिक विषय की सूक्ष्मता में भी जाओ। नाम वर्णात्मक भी है और ध्वन्यात्मक भी है। नाम कह और अकह है; दोनों को जानो।
अघोषम् अव्यंजनम् अस्वरं च अकण्ठ ताल्वोष्ठमनासिकं च।
अरेफ जातं उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित् ।।
         -अमृतनाद उपनिषद्
 इसको भी जानो। जिनसे हम उपकार पावें, उनकी स्तुति भी नहीं करें, तो क्या सेवा करेंगे? हम बड़े कृतघ्न हैं, यदि स्तुति नहीं करें। इसलिए ईश्वर, संत, सद्गुरु जो कि हमारे बड़े उपकारी हैं, इनकी स्तुति अवश्य करो। और धर्म के सिद्धान्त और उसकी परिभाषा जानो। इसके जाने बिना अनेक धर्म, अनेक सम्प्रदाय कहकर लोग प्रचार करते हैं और वह रह पाता नहीं, जो बहुत गलत बात है। यह नहीं होनी चाहिए। इसलिए धर्म के सिद्धान्त और उसकी परिभाषा जानो।
 लोग कहते हैं कि सोनबरसा आने के लिए पूर्व से, पश्चिम से, उत्तर से और दक्षिण से भी आते हैं। उसी तरह ईश्वर के पास जाने के अनेक रास्ते हैं। मैं कहता हूँ-हजार बार कहता हूँ कि ईश्वर के पास जाने का रास्ता एक है, जैसे भोजन करने का रास्ता एक है। जिसको ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान नहीं है, अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं है। अपने शरीर का ज्ञान नहीं है, उसके लिए अनेक रास्ते हैं। जिनको ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान है, अपने स्वरूप का ज्ञान है, उनके लिए अनके रास्ते नहीं, एक ही रास्ता है और वह अन्तर्मार्ग है। मोक्ष का रास्ता एक है, स्वर्ग-वैकुण्ठ का रास्ता भले अनेक हो।
 बिना मोक्ष के संसार में रोना-पिटना होगा ही। रामायण कहती है कि श्रीराम जैसे अवतारी भी इस संसार में आकर रोए। श्रीकृष्ण जैसे हँसमुख को अन्त में मुख पर मायूसी आई। पाण्डव जैसे वीरों को भी जंगल-जंगल घूमना पड़ा। यही यह संसार है। इसलिए इस संसार से छूटने के लिए यत्न जानो। जैसे जल को पार करने के लिए जल ही सहारा और जल ही रास्ता होता है, वैसे ही अपने अन्दर ज्योति और शब्द का सहारा है और वही रास्ता है। केवल मोटी-मोटी बातों पर नहीं रहिए। धर्म की बारीकी को भी जानिए।
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यह प्रवचन सहरसा जिलान्तर्गत ग्राम सोनबरसा में दिनांक 18. 7. 1967 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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272. चित्तवृत्ति का पूर्ण निरोध : विन्दु ध्यान में
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 आपलोगों को मालूम होना चाहिए कि इस सत्संग के द्वारा श्रीगुरु महाराज की आज्ञा के अनुसार मैं ईश्वर-भक्ति का प्रचार करता हूँ। उन्होंने बतलाया था कि मनुष्य का कल्याण ईश्वर-भक्ति से ही होता है। सांसारिक कल्याण भी ईश्वर-भक्ति से होता है। ईश्वर-भक्ति के लिए कोई जरूरी नहीं है कि घर-वार को छोड़ दें। नियम बाँधकर ईश्वर का भजन करें। ईश्वर-भक्ति के लिए पहली बात यह जान लेनी चाहिए कि इसके बिना हमारा क्या नुकसान होगा? संसार में सब तरह धनादि और विद्या से यदि पूर्ण हो तो भी ईश्वर-भक्ति की क्या आवश्यकता है? कुछ होकर रहिए, संसार में आपको शान्ति मिल रही है या नहीं, इसपर विचार कीजिए। यदि शान्ति मिल रही है तो खोज करने की आवश्यकता नहीं। यदि नहीं मिल रही है, तो खोज करनी चाहिए।
 जो गरीब हैं, वे तो दुखिया हैं ही, अमीर भी दुःखी रहते हैं। शासित दुःखी रहते हैं। शासक भी दुःखी रहते हैं। कोई भी हों, सभी दुःखी रहते हैं। इंगलैण्ड के राजा पंचम जार्ज सेना को देखने के लिए घोड़े पर सवार होकर गए। जब सैनिकों ने राजा को सलामी दी, तो घोड़ा भड़क गया। राजा घोड़े पर से गिर गए। वे बहुत दुःखी हुए। कोई भी हो दैहिक, दैविक, भौतिक ताप किसी को नहीं छोड़ते हैं। इन तीनों तापों से शायद ही कोई संयमी छूटे हुए हैं। गो0 तुलसीदासजी ने रामायण में लिखा है कि भगवान श्रीराम को भी दुःख देखना पड़ा। वे भी रोए। यहाँ संसार में कुछ भी बन जाइए, दुःख नहीं छूटेगा। सब दुःखों से छूटने के लिए, अशान्ति से छूटने के लिए संसार से आगे देखो।
 संसार में पाँच चीजें हैं-रूप, रस,गन्ध, स्पर्श और शब्द। इनको जानने के लिए पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। इन्द्रियों के ज्ञान में जो कुछ आ जाते हैं, वे सब विषय हैं। संसार में पंच विषयों के अतिरिक्त कुछ नहीं है। पंच इन्द्रियों से ग्रहण होने योग्य जितने भी सुख हैं, सब माया के सुख हैं। माया का सुख स्थिर नहीं रहता है। यहाँ सुख के बाद दुःख होता ही रहता है। संसार में जहाँ तक हो, शान्तभाव बनकर अपने को रखें और सात्त्विकी बुद्धि से संसार की सेवा करें। त्रयकाल सन्ध्या में ईश्वर की उपासना करें। ईश्वर-भक्ति के बिना परम शान्ति मिलती नहीं। शरीर का अंत अवश्य होगा। संत चरणदासजी की शिष्या सहजोबाई कहती हैं-
 चलना है रहना नहीं, चलना बिस्वाबीस ।
 सहजो तनिक सुहाग पर, कहा गुँधावै सीस ।।
 जहाँ मीराबाई हुई है, वहीं सहजोबाई हुई है। यहाँ मरना अवश्य है। प्रत्येक आदमी को यह विश्वास है कि यहाँ से चलना है। यह निश्चित नहीं कि कब मौत आ जाएगी? इसीलिए चलने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। ईश्वर की उपासना में जरूरत है कि संसार के कर्तव्यों को करते हुए साधन पथ पर चलें। इस तरह चलने से कभी-न- कभी जीवनमुक्त की दशा को प्राप्त करेंगे। संत कबीर साहब ने कहा है-
 मरते मरते जग मुआ, औसर मुआ न कोय ।
 दास कबीरा यों मुआ, बहुरि न मरना होय ।।
 मरिये तो मरि जाइए, छूटि पड़ै जंजार ।
 ऐसी मरनी को मरै, दिन में सौ सौ बार ।।
 लोगों को यही हो रहा है। इसलिए कबीर साहब कहते हैं-
 जा मरने से जग डरै, मेरे मन आनन्द ।
 कब मरिहौं कब पाइहौं, पूरन परमानन्द ।।
 साधारण मृत्यु में स्थूल शरीर छोड़ना पड़ता है। अपने से अन्तर साधन करके शरीर छोड़ो। अंतर साधन करके सूक्ष्म, कारण, महाकारण आदि शरीरों को छोड़ो।
 जो कोई ईश्वर की भक्ति करते हैं, उनको ईश्वर की कृपा मिलती है। ईश्वर महान कृपालु हैं। वे भक्तों को अपनी सहायता देते हैं। वे अपना अवलम्ब देते हैं। इसीलिए ईश्वर की भक्ति करो। सारे शरीरों से छूट जाना, शरीरों के घेरे से छूट जाना ईश्वर की भक्ति से होता है। इसी का नाम है ब्रह्मनिर्वाण।
 ईश्वर-स्वरूप के ज्ञान के बिना भक्ति-मार्ग पर चलना उस मनुष्य के समान है, जो बिना निर्दिष्ट स्थान को जाने ही यात्रा करता है। इसलिए ईश्वर-स्वरूप का सही ज्ञान होना चाहिए। संसार के सभी पदार्थ परिवर्तनशील है। गो0 तुलसीदासजी ने लिखा है-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 अर्थात् इन्द्रियों को जो प्रत्यक्ष है, मन की गति जहाँ तक है, सब माया है। माया में परिवर्तन होना अनिवार्य है। ईश्वर-स्वरूप के सम्बन्ध में गो0 तुलसीदासजी ने लिखा है-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
उपनिषद् में भी आया है-
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
 अर्थात् उस परे-से-परे तत्त्व का दर्शन कर लेने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाएगी, सारे संशयों का नाश हो जाएगा, सारे कर्म-बन्धन टूट जाएँगे।
 ऐसे तो लोगों को शरीर ही चेतन मालूम होता है। शरीर के साथ-साथ इन्द्रियों के द्वारा जो ज्ञान होता है, वह माया का ज्ञान होता है। शरीर इन्द्रियों के ज्ञान को छोड़कर चेतन आत्मा के निजी ज्ञान में जो पहचान में आवे, वही ईश्वर है। शरीर इन्द्रियों के ज्ञान में जो आता है, वह ईश्वर नहीं, ईश्वर की माया है। अपने शरीर के अन्दर जो चेतन आत्मा है, उसका ज्ञान होना चाहिए। आत्मा का ज्ञान आत्मा से होता है। जैसे आँख का ज्ञान आँख से ही होता है आइने के द्वारा। उसी तरह ईश्वर-भजन के द्वारा अपने आत्म-स्वरूप को जानो। आत्म तत्त्व से ही ईश्वर का दर्शन होगा। इस हालत में आने के वास्ते केवल मोटी-मोटी बातों में अपने को बाँधकर रखना पूर्ण फलदायक नहीं है। इसलिए येग का साधन करना चाहिए। मूर्ति- ध्यान में चित्तवृत्ति का कुछ निरोध होता है। चित्तवृत्ति के निरोध को ही योग कहते हैं। चित्तवृत्ति का पूर्ण निरोध विन्दु ध्यान में होता है।
 जिस तरह सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है, उसी तरह मन के सिमटाव से मन की गति ऊपर की ओर हो जाएगी। ईश्वर-भक्ति में ईश्वर का गुणगान करना चाहिए। फिर जप करना चाहिए, फिर ध्यान करना चाहिए। पहले स्थूल ध्यान करना चाहिए, लेकिन उसमें पूर्ण सिमटाव नहीं होता है। श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धवजी से कहा है-
 इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाऽऽकृष्य तन्मनः।
 बुद्ध्या सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः।।
 तत्सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत् ।
 नान्यानि चिन्तयेद्भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम् ।।
 तत्र लब्ध पदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत् ।
 तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किंचिदपि चिन्तयेत्।।
 ‘बुद्धिमान पुरुषों को चाहिए कि मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से खींचकर उस मन को बुद्धि-रूपी सारथी की सहायता से सर्वांगयुक्त मुझमें ही लगा दे। सब ओर से फैले हुए चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थिर करे और फिर अन्य अंगों का चिन्तन न करता हुआ केवल मेरे मुस्कान- युक्त मुख का ही ध्यान करें। मुखारविन्द में चित्त के स्थिर हो जाने पर उसे वहाँ से हटाकर आकाश में स्थिर करे। तदनन्तर उसको भी त्यागकर मेरे शुद्ध- स्वरूप में आरूढ़ हो और कुछ भी चिन्तन न करे।’
 शून्य ध्यान को ही विन्दु ध्यान कहते हैं। विन्दुध्यान में पूर्ण सिमटाव होता है। विन्दु में स्थान है, पर परिमाण नहीं। यह बाहर में नहीं बन सकता। यह गुरु के संकेत से बनता है। यहाँ से सूक्ष्म मार्ग का आरम्भ होता है। सूक्ष्ममार्ग में जो प्रवेश करता है, उसे ईश्वर की सहायता मिलती है। ब्रह्म ज्योति, ब्रह्मनाद के द्वारा प्रभु अपनी गोद में साधक को खींच लेते हैं। योगशिखोपनिषद् में आया है-
 विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम् ।
 देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।
 अर्थात् विन्दुनाद महालिंग है और शिवशक्ति का घर है। इस देह को शिवालय कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।
 यह गुरुगम्य है। इसके ध्यान से ऊर्ध्वगति होती है। अन्तस्साधना करनेवाले को ब्रह्म ज्योति और ब्रह्मनाद का सहारा मिलता है। नाद में अपने उद्गम की ओर खींचने का गुण है। आदिनाद परमात्मा से लगा हुआ है। जो इसे ग्रहण करेंगे, वे परमात्मा को प्राप्त करेंगे। संत दरिया साहब ने कहा है-
चुम्बक सत्त शब्द है भाई । चुम्बक शब्द लोक ले जाई ।।
मृत्यु अन्ध जबही नियरावै। चुम्बक शब्द जीव मुक्तावै ।।
लेइ निकारि होखै नहिं पीरा । सत्त शब्द जो बसै शरीरा ।।
 यह कागज में लिखा नहीं जा सकता। यह पूरी-पूरी भक्ति का वर्णन है। इसमें सत्संग की बड़ी आवश्यकता है। गुरु-सेवा, दृढ़ ध्यानाभ्यास आवश्यक है। इसके साथ-साथ आचरण की पवित्रता की भी आवश्यकता है। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों को छोड़ दें तो आपके पास कोई पाप नहीं आ सकता। साधन करते-करते पवित्रता में बढ़ेंगे। पवित्रता में बढ़ने से भजन में भी बढ़ेंगे। ईश्वर-भक्ति में पंच पापों का छोड़ना अनिवार्य है। इससे देश का बड़ा उपकार होगा। इस तरह के बहुत लोग हो जाएँ, तो देश में चोरी नहीं होगी। डकैती आदि दुष्कर्म नहीं होंगे। दण्ड देने पर भी लोग दुष्ट-कर्म करते हैं। साधन- भजन करने से इधर का सुख तो थोड़ा होता है, पर उधर का सुख, परमार्थ का सुख बढ़ जाता है।ं संसार में वह दुष्टकर्म से छूट जाता है।
 हमें सुराज बुलाना चाहिए। सुराज बुलावेगी ईश्वर की भक्ति। कारागार का दण्ड होने पर भी दुष्टकर्मों से किसी का छुटकारा नहीं हो पाता, लेकिन ईश्वर-भक्ति में लोगों को आप ही ख्याल होने लगता है कि यदि ऐसा कर्म करेंगे तो भक्ति से गिर जाएँगे। जो इसमें चूक जाता है, वह पछताता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा है कि लड़ते रहो और ध्यान भी करो। पंच पापों को छोड़कर ईश्वर का भजन करना सदाचार है। ईश्वर-भजन में आत्मरत होना होता है। अपना निशाना अपने अन्दर है, उसपर लगे रहो। इसके लिए विद्वान-अविद्वान की बात नहीं। सभी कर सकते हैं। कैसा भी अनपढ़ हो उसको समझा दीजिए, वह भी साधन करने लग जाता है। विद्वान होकर भी भजन करो। हमारे गुरु महाराज बाबा देवी साहब कहते थे-सबसे पहले है आध्यात्मिकता, उसके बाद सदाचारिता, तब सामाजिक नीति। इसके बाद है राज- नीति। इस तरह राजनीति बिगड़ नहीं सकती।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट में दिनांक 23. 7. 1967 ई0 को साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था।
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273. प्रकाश मण्डल भी मायिक है
प्यारे सत्संगप्रेमियो!
 जिसमें परिवर्तन नहीं हो, जिसका विनाश कभी नहीं हो, वह ईश्वर है। जो मायिक पदार्थ है, उस सबमें परिवर्तन होता है और सबका विनाश भी होता है। परमात्मा का विनाश नहीं होता, परिवर्तन नहीं होता, वह अजर, अमर, अविनाशी है। उसका संग हो जाय, मेल हो जाए तो जानिए पूरा सत्संग हो गया। लेकिन यह एकीभाव मनुष्य के लिए बहुत दूर है। विचार से कह देना बहुत सुगम है, पर ठीक-ठीक होना बहुत दूर है। मायिक आवरणों में कोई ईश्वर का दर्शन नहीं पा सकता। आवरण तीन हैं-अन्धकार, प्रकाश और शब्द। इन तीनों में ईश्वर-दर्शन नहीं होता।
 एक मुनि का शिष्य था। उसने गुरु से प्रार्थना की, ‘ब्रह्म के द्वार का मुख प्रकाश के आवरण से बन्द है। मेरे वास्ते उसको हटा दीजिए।’ अन्धकार को हटाने की प्रार्थना करते हैं, प्रकाश को हटाने की प्रार्थन करते हैं। अंधकार से बाहर जाना है और प्रकाश से भी बाहर जाना है। सभी मायिक आवरणों से बाहर जाना है। होते-होते जो आदिनाद है, वह भी आवरण है। उस आदिनाद में रहते हुए ईश्वर का दर्शन होता है। यहाँ ईश्वर-दर्शन द्वैत-भाव होते हुए भी होता है। एकीभाव में त्रिपुटी-ध्याता, ध्यान और ध्येय नहीं रहते। अंधकार, प्रकाश और शब्द के आवरण को पार करना बहुत दूर है। प्रकाश मण्डल भी मायिक है। शब्दों का आवरण कितना बड़ा है, इसको माप नहीं सकते। कबीर साहब ने कहा है-
 लम्बा मारग दूरि घर, विकट पन्थ बहु मार ।
 कहौ संतो क्यूँ पाइये, दुर्लभ हरि दीदार ।।
 इतना लम्बा कोई रास्ता नहीं है। विकटपंथ- जिस रास्ते पर चलकर पहुँचा जाता है, उस पर विघ्न बाधाएँ भी होती हैं। विघ्न-बाधा में मन को अशान्ति होती है। इसीलिए ‘विकट पंथ बहु मार’ कहा। थोड़ा-थोड़ा चलते-चलते लम्बा-से-लम्बा रास्ता भी कट जाता है। जो धीरजवान साधक है, वह चलते-चलते रास्ते को पार कर जाता है, तब परमात्मा का दर्शन होता है। यह दर्शन चेतन आत्मा को होता है। यह दर्शन बाह्य आँख से देखे बिना होता है। चेतन आत्मा को जो शरीर का संग है, इसी से अज्ञानता है। जो चेतन आत्मा की पहचान में आ जाय, वही ईश्वर है। जो इस बात को भूल जाएँगे, उनको ईश्वर का दर्शन नहीं होगा। किसी अवतारी रूप का दर्शन ईश्वर-स्वरूप का दर्शन नहीं है। आँख से जो दर्शन हुआ, वह माया का ही दर्शन हुआ। उससे आगे जो आत्मस्वरूप है, उसका दर्शन नहीं हुआ। सब रूपों में जो आत्मा है, उसका दर्शन रूपों के दर्शन से नहीं होता है। जैसे सबके शरीरों को सब कोई देखते हैं, लेकिन आत्मा को नहीं देखते हैं। आत्मा का दर्शन हो जाता है तो ईश्वर का भी दर्शन हो जाता है। लोग माया के दर्शन को ही ईश्वर का दर्शन मानते हैं। माया क्या है? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस में लिखा है-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 माया को पहचान लेने पर सारे संशयों से छूटना नहीं होता है। माया के दर्शन से पूर्ण शान्ति नहीं होती है। माया के दर्शन में आपदा आती ही रहती है। सगुण-रूप उपासना में गुरु-रूप की उपासना भी आ जाती है। सगुण उपासना को छोड़कर कोई आगे नहीं बढ़ सकेंगे। बाहर में तो प्रतिमाओं का दर्शन नहीं करते, परन्तु गुरु की प्रतिमा बनाते हैं। चाहे प्रतिमा बनाओ वा तस्वीर बनाओ, कोई हर्ज नहीं। लेकिन ध्यान में मनोमय रूप बनाए जाते हैं। संतों ने कहा, केवल यहीं तक नहीं रहो, इससे आगे बढ़ो। यह स्थूल उपासना है। इससे आगे बढ़ने में जो उपासना होती है, वह सूक्ष्म सगुण उपासना है। इसका आरम्भ विन्दु ध्यान से होता है। पहले सगुण साकार रूप उपासना, फिर सूक्ष्म सगुण रूप उपासना है, फिर सूक्ष्म सगुण अरूप उपासना है। इसको खत्म करके तब जो उपासना है वही निर्गुण निराकार उपासना है। निर्गण को भी पार कर गया तो वहाँ केवल एकीभाव रहता है। इस चेतन से भी परे तत्त्व को चीन्ह लेने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है। सारे संशयों का नाश हो जाता है और तब कर्मबन्धन टूट जाते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
 परम सुख को जो पाता है, वह द्वैत से छूटा हुआ होता है। वह शोक, मोह आदि से रहित होता है। उसकी पहुँच जहाँ होती है, वहाँ स्थान और समय नहीं रहते। जिनकी यह दशा नहीं हुई, उनका संशय निर्मूल नहीं हुआ। सब संशय जहाँ दूर होते हैं, उसका ज्ञान होना चाहिए। सत्संग से इन विषयों को बारम्बार समझाया जाता है। पढ़े- अनपढ़े को भी अच्छी तरह समझ में आ जाए, यह कोशिश सत्संग में की जाती है।
 जहाँ ईश्वर का भाव नहीं रखना चाहिए, सत्संग नहीं करनेवाले वहाँ ईश्वर का भाव रखते हैं। जिस सत्संग में ईश्वर की चर्चा नहीं, वह सत्संग नहीं। साधना करके ईश्वर से मेल हो जाए तो यह ऊँचे दर्जे का सत्संग है। उपासना में प्रथम ही ईश्वर-दर्शन तो नहीं होता, लेकिन ईश्वर के ज्ञान में वह मजबूत होता है। आन्तरिक उपासना को आन्तरिक सत्संग कहते हैं। अद्वैत भाव में ईश्वर का दर्शन होे जाए, यह निर्गुण शब्दब्रह्म की उपासना से होता है। संत कबीर साहब ने कहा है-
 संगति ही जरि जाव, न चर्चा राम की ।
 दूलह बिना बारात, कहो किस काम की ।।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट में दिनांक 20. 8. 1967 ई0 को साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था।
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274. रूप का ध्यान कहाँ से आरम्भ होता है?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 इस सत्संग में ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान मिलता है। सत्संग में ईश्वर-भक्ति की चर्चा अवश्य होनी चाहिए। सत्संग में यदि यह चर्चा नहीं, तो वह सत्संग, सत्संग नहीं। हमलोगों का सत्संग ईश्वर- भक्तिपरक है। ईश्वर-भक्ति के ज्ञान के लिए जो ज्ञान अपेक्षित है, वह साधारण नहीं है। इसको वेदान्त में ब्रह्मज्ञान या आत्मज्ञान कहा है। ईश्वर- भक्ति में स्तुति, प्रार्थना और उपासना; ये तीन बातें अवश्य होनी चाहिए।
 ईश्वर का गुणगान करना स्तुति है। अपनी माँग ईश्वर के सामने रखना, यह प्रार्थना है। उपासना में जप और ध्यान है। प्रार्थना गद्यात्मक और पद्यात्मक दोनों तरह से होती है। जप में ईश्वर वाचक शब्द जो गुरु-प्रदत्त हो, उस शब्द का विश्वासपूर्वक जप करना चाहिए। परन्तु ऐसा कोई जप नहीं होना चाहिए, जो ईश्वर-भक्ति की ओर नहीं ले जाए। इसलिए सद्गुरु जो बतावें, वह जपना चाहिए। जप के लिए ईश्वर का कोई भी नाम हो, उसे जप सकते हैं। संत दादूदयालजी ने कहा है-
 दादू सिरजनहार के, केते नाँव अनंत ।
 चित आवै सो लीजिये, यौं सुमिरै साधू सन्त ।।
 किसी एक शब्द पर जोर देना कि यही ठीक है, यह कहना गलत है। जप तीन तरह से किया जाता है-वाचिक, उपांशु और मानस। वाचिक जप मुँह से बोलकर किया जाता है। उपांशु जप इस तरह किया जाता है, जो अपने कान तक ही सुना जाता है। इससे भी उत्तम जप मानस जप है। यह जप मन-ही-मन होता है। हमारे गुरु महाराज ने कहा कि मानस जप करो। यह जप सगुण उपासना है। जिसको जो जप गुरु बता दें, वह करो। आरम्भ में ईश्वर का दर्शन बहुत दूर है।
 ईश्वर है, इसका विश्वास करो। ईश्वर की स्थिति है। इन्द्रियों से जो भी ज्ञान होता है, वह माया का ज्ञान होता है। इन्द्रियों से परे जो ऊँचे दर्जे का ज्ञान है, वह आत्मज्ञान है। मन, बुद्धि-इन्द्रिय आदि सगुण हैं। जो परमात्मा अव्यक्त हैं, मायातीत हैं, उनका ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा नहीं होता। परमात्मा निर्गुण निराकार हैं। यदि ईश्वर को रूप-रंग में रखो, तो मन से पकड़ सकते हो और बाहरी इन्द्रियों से भी जान सकते हो। स्थूल सगुण उपासना में भी जिनको जिस रूप में श्रद्धा हो, उसका ध्यान करें। जो माया का ज्ञान है, उस ज्ञान से ईश्वर का दर्शन नहीं होता। मन, बुद्धि-इन्द्रिय से परे जो परमात्मा हैं, वे मायातीत हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 माया के सम्बन्ध में गोस्वामीजी ने लिखा है-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 जो निर्मायिक तत्त्व है, उसे किसी इन्द्रिय से ग्रहण नहीं कर सकते। ईश्वर सर्वव्यापी होने के कारण सबके अन्दर अवश्य मौजूद है। ईश्वर सर्वव्यापक हैं, इसीलिए वे सर्वरूपी हैं। रामकृष्ण परमहंसजी महाराज को काली माई का प्रत्यक्ष दर्शन होता था। संयोग से तोतापुरी नाम के एक संन्यासी आए और उन्होंने रामकृष्ण परमहंसजी से कहा-‘देखो जी! तुम ब्रह्मदीक्षा मुझसे ले लो।’ रामकृष्ण परमहंस देवजी ने कहा-‘बिना माई की आज्ञा से मैं ब्रह्मदीक्षा कैसे लूँ? तोतपुरीजी ने कहा-‘माई से पूछ लो।’ रामकृष्ण परमहंसदेवजी महाराज ने काली माई से प्रार्थना की। जब काली माई प्रत्यक्ष हुईं, तो कहा कि वे संन्यासी मुझे ब्रह्मदीक्षा लेने कहते हैं, मैं क्या करूँ? काली माई ने कहा-‘ब्रह्मदीक्षा ले लो।’ जब रामकृष्ण परमहंस जी महाराज संन्यासी तोतापुरी के पास गये तो तोतापुरीजी ने पूछा-‘माई से आज्ञा माँग ली?’ उन्होंने कहा-‘हाँ महाराज! माई ने दीक्षा लेने की आज्ञा दे दी।’ उन्होंने ब्रह्मदीक्षा ले ली।
 मायिक रूप का दर्शन हो जाने पर भी ‘ब्रह्मरूप’ का दर्शन बाकी रह जाता है। परन्तु उस मायिक रूप की अवज्ञा नहीं होनी चाहिए। जिस मन्त्र का जप करते हैं, वे करें; जिस रूप का ध्यान करते हैं, वे करें। ध्यान में स्थूल सगुण साकार रूप, फिर सूक्ष्म सगुण साकार रूप, फिर अगुण अरूप और अन्त में निर्गुण निराकार उपासना है। शब्द साधना में सगुण अरूप भी है और निर्गुण निराकार भी। आँख से केवल रूप ही देखने में आता है, शब्द देखने में नहीं आता। सूक्ष्म सगुण रूप को समाप्त करके तब निर्गुण की उपासना होती है। शब्द में विविधता है। यह बहुत दूर तक है। आदिनाद में सब विविधता लय हो जाती है। वह आदिनाद कान को सुनने में नहीं आता है। संत तुलसी साहब ने कहा है-
सत सु रति समझि सिहार साधो, निरखि नित नैनन रहौ ।
 रूप का आरम्भ कहाँ से होता है? कोई रूप लकीर के बिना नहीं बन सकता। लकीर बिना विन्दु के नहीं बन सकती। विन्दु के बिना अक्षर नहीं बन सकता। इसीलिए उपनिषत्कार ने कहा-
 बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
 अर्थात् सब अक्षरों का बीज विन्दु है, उस पर नाद अवस्थित है। विन्दु की परिभाषा में है कि उसका स्थान है, परिमाण नहीं। बाहर में बारीक-से- बारीक पेन्सिल की नोक से विन्दु बनाने पर भी कुछ-न-कुछ परिमाण अवश्य होगा। वह परम विन्दु नहीं होगा। परिभाषा के अनुसार परम विन्दु दोनों दृष्टियों के मिलन में होता है। जिसका मन दृष्टि के साथ समेटा हुआ होता है, वह विन्दु का दर्शन पाता है। यह सूक्ष्म सगुण रूप का दर्शन होता है। उपनिषत्कार कहते हैं-
 तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्म हृदि संस्थितम् ।
 अर्थात् ज्योतिर्मय विन्दु का ध्यान श्रेष्ठ ध्यान है। वह विन्दु सबके अन्दर है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस में लिखा है-
लोचन चातक जिन करि राखे ।रहहिं दरस जलधर अभिलाखे।।
निदरहिं सरित सिन्धु सर भारी। रूप विन्दु जल होहिं सुखारी।।
 अर्थात् जैसे पपीहा पक्षी स्वाति जल के लिए बड़ी-बड़ी नदियों, तालाबों और समुद्रों का निरादर करके मेघ को एकटक से देखता रहता है और स्वाति जल को देख लेने पर उसे परम प्रसन्नता से ग्रहण करता है। उसी तरह भक्तियोग का साधक अपने हृदयाकाश के अंधकार रूप बादल में एकटक से टकटकी लगाकर देखता रहता है अर्थात दृष्टि- साधन करता रहता है और नदी आदि बड़े-बड़े जलाशय रूपी बड़े-बड़े दृश्यों को निरादर करके नहीं देखता है, पर विन्दु रूप को देखकर परम प्रसन्नता से दृढ़तापूर्वक धारण करता है। विन्दु देखने का अभ्यास करो। इसकी युक्ति सच्चे सद्गुरु से जानो। संत पलटू साहब ने कहा है-
 काजर दिहे से का भया, ताकन को ढब नाहिं ।।
 ताकन को ढब नाहिं, ताकन की गति ह ै न्यारी ।
 एकटक लेवै ताकि , सोई है पिव प्यारी ।।
 यह ऊँचे दर्जे का ध्यान है। विन्दु पर नाद स्वाभाविक होता है। नाद से नादों में चलते-चलते परम नाद को पाता है। यह जिसको होता है, उसके लिए किसी से पूछने की जरूरत नहीं। जैसे भूखा आदमी यदि भरपेट भोजन कर ले, तो उसे किसी से पूछने की जरूरत नहीं होती कि मेरा पेट भरा या नहीं। लोगों को विन्दु और नाद की उपासना करनी चाहिए। इसकी साधना में लोगों को घबराना नहीं चाहिए। ध्यान का आरम्भ पहले ही नहीं होता। पहले मानस जप होता है। तब मानस ध्यान होता है। इसके बाद ज्योति ध्यान अर्थात् विन्दु ध्यान होता है और तब नाद का ध्यान होता है। नाद ध्यान तो वह ध्यान है, जिस ध्यान में मन डूब जाए। इससे मन में दूसरे ख्यालों का आना बन्द हो जाता है। विन्दु ध्यान को ही शून्य ध्यान कहा है। श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कन्द में वर्णन है-भगवान श्रीकृष्ण से उद्धवजी ने पूछा है कि मैं आपका ध्यान किस तरह करूँ? उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-‘पहले मेरे सर्वांग शरीर का ध्यान करो, फिर मुखारविन्द का ध्यान करो। इसके बाद शून्य का ध्यान करो।’
 जहाँ कोई परिमाण नहीं, वहाँ शून्य-ही-शून्य है। संत कबीर साहब ने कहा-
शून्य ध्यान सबके मन माना । तुम बैठो आतम अस्थाना ।।
 अर्थात् शून्य ध्यान, विन्दु ध्यान में सबका मन मान जाता है। विन्दु ध्यान में एकाग्रता आती है। एकाग्रता में शान्ति का रस मिलता है। जैसे जहाँ पेन्सिल रखते हैं, वहाँ विन्दु बन जाता है। वैसे ही जहाँ दृष्टि स्थिर होती है, वहाँ प्रकाशमय विन्दु का उदय होता है। विन्दु अव्यक्त है, उसे देखने के लिए ठीक से यत्न करो तो मालूम होगा। इसमें थकना नहीं चाहिए। जितना बन सके, अभ्यास करते रहो। थोड़ा-थोड़ा ही करो, लेकिन छोड़ो मत। सफलता अवश्य मिलेगी।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट में दिनांक 27. 8. 1967 ई0 को साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था।
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275. बाहर में संत-पथ नहीं है, अन्दर में है
प्यारे लोगो!
 आपलोग पढ़े-सुने होंगे-
 संत संग अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।
 कहहिं संत कवि कोविद, श्रुति पुरान सदग्रंथ ।।
 संतों का रास्ता मोक्ष में जाने का है-मुक्ति में जाने का है। संतगण सांसारिक इच्छाओं को छोड़ दिए होते हैं। वे संसार में लसक (फँस) कर नहीं रह जाते। वे मोक्ष-मार्ग पर बिना अटक (रूक) के जाते हैं। परन्तु जो सांसारिक वस्तुओं में इच्छा रखते हैं, उनको मोक्ष-मार्ग में जाने में अटक रहता है। ‘जो जो करम कीउ लालच लगि, तिह तिह आपु बंधाइउ।’-नौवाँ गुरु तेग बहादुर का वचन है। जो-जो कर्मफल की इच्छा से किए, उन-उन कर्मों से अपने को बँधा लिया। जो सांसारिक इच्छाओं को नहीं त्याग सके, वे कर्म में फल इच्छा से लगे रहते हैं। उनको संत-पंथ पर जाने में अटक रहता है। धीरे-धीरे इच्छाएँ छूटती हैं। एक ही बार इच्छा नहीं छूटती। जबतक मन मण्डल से ऊपर चढ़ाई नहीं हो, तबतक इच्छा रहेगी ही। चाहे वह इच्छा सात्त्विकी ही क्यों न हो? इच्छा तीन प्रकार की होती है-तामसी, राजसी और सात्त्विकी। सात्त्विकी इच्छा ईश्वर की ओर ले जाती है। संसार में रहकर कुछ-न-कुछ इच्छा रहेगी। सात्त्विक कर्म का भी बन्धन होता है। इसलिए त्रय गुण से परे होने के लिए श्रीकृष्ण भगवान ने कहा था। त्रयगुण से परे तुरंत होना नहीं होता। क्रमशः तामस इच्छा को छोड़ते हैं, राजस को छोड़ते हैं और सात्त्विक में आते हैं। और अंत में इसको भी छोड़कर निस्त्रैगुण्य हो जाते हैं।
 संसार की वस्तुओं को त्यागने की इच्छा, फिर सात्त्विक इच्छा के त्यागने की इच्छा करो। उस इच्छा को भी छोड़ दो। इस तरह आगे बढ़ोगे। जबतक मन पर विजय नहीं है, तबतक इच्छा होती रहेगी। त्रयगुणातीत होने पर भी-संत होने पर भी, जबतक कोई संसार में रहेगा, संसार से सम्बन्ध रखेगा। संसार में रहकर संसार के सब कामों को छोड़कर रहे, असम्भव है। जैसे जाग्रत में काम करते हैं, उसके लिए इच्छा होती है। स्वप्न में भी इच्छा होती है, गहरी नींद में इच्छा नहीं होती, लेकिन हाथ-पैर का वा किसी अंग का संचालन गहरी नींद में होता है। किन्तु उस अवस्था में हाथ-पैर सिकोड़ने की इच्छा नहीं होती है। इसी तरह कर्म करके उसके फल की इच्छा संत लोग नहीं करते। उनसे राजस और तामस कर्म नहीं होगा, सात्त्विक कर्म होगा।
 जो मुमुक्षु हैं, उनको चाहिए कि इच्छा को रोकें, दमन करें। तामस इच्छा का त्याग करें। इसी तरह राजस कर्म का भी त्याग करें। सात्त्विक कर्म में बरतने पर भी सात्त्विकी इच्छा का त्याग करना चाहिए। यह पंथ-रास्ता कहने भर के लिए ही है कि ठीक है भी? रास्ता कहते हैं, र्चिं को-लकीर को। चाहे रास्ता चौड़ा हो वा चौड़ाई विहीन लम्बा हो। क्या है? वह लकीर है। इसी तरह जो मोक्ष का रास्ता है, वह लकीर है। लेकिन बहुत लम्बी लकीर है-चौड़ी लकीर नहीं है। रेखा के लिए पढ़े होंगे कि उसमें लम्बाई है, चौड़ाई नहीं। ठीक वैसा ही, जैसे विन्दु का स्थान है, परिमाण नहीं। लेकिन ऐसा विन्दु वा लकीर संसार में कोई देखा है? वह चश्मा जिसको पहनकर पतले-पतले अक्षरों को मोटे-मोटे रूप में देखता है, कितनी भी पतली लकीर खींचकर उस चश्मा से देखो, तो उसमें चौड़ाई मालूम होगी। संसार में ऐसी लकीर नहीं, जिसमें लम्बाई हो-चौड़ाई नहीं। ऐसी लकीर अन्दर का मार्ग है। मोक्ष में जाने का रास्ता लम्बा-ही-लम्बा है, चौड़ा नहीं।
 एक तो रास्ता बनाते हैं, चलने के लिए, दूसरा रास्ता चलते-चलते बनता है। जिस पर चला जाए, वह रास्ता है। संसार के रास्ते पर सवारी और पैर चलता है। मोक्ष के रास्ते पर न सवारी चलती है और न पैर चलता है, उसपर मन चलता है।
 संतों का ज्ञान अध्यात्म-ज्ञान छोड़कर नहीं रह सकता। अपने को समझो कि तुम कौन हो? तुम मन नहीं हो, शरीर नहीं हो। किन्तु कुछ ज्यादे पढ़े-लिखे लोग, जिनको आत्मा की स्थिति का ज्ञान नहीं होता, वे कहते हैं-‘शरीर ही शरीर है, शरीर बनने से ऐसा कुछ हो गया है।’ जिस विज्ञान से वे कुछ कहते-सुनते हैं, वह अध्यात्म से सम्बन्धित नहीं है। अध्यात्म-ज्ञान सिखाता है कि आत्मा अभिन्न है, अनात्मा भिन्न है। आत्मा और मन, इसको समझाने के लिए बहुत बात नहीं, थोड़ा कहना है। जैसे शरीर माया है, वैसे ही मन माया है। मन की बनावट माया से हुई है। इसका भी रहना नहीं होगा। शरीर के जीवन में मन और आत्मा का मिलाप है। ऐसा मिलाप कि जैसे दूध और घी का। दूध को देखो तो उसमें घी का पता नहीं। घी का काम दूध से नहीं होता और दूध का काम घी से नहीं होता। कोशिश करो तो दूध को मथकर घी अलग कर लोगे। तब जो काम घी से होगा, वह दूध से नहीं। यह प्रत्यक्ष देखोगे। दूध का छेना (पनीर) होगा, लेकिन घी का नहीं। उसी तरह मन और आत्मा के मेल से जो काम होता है, वह काम केवल मन या केवल आत्मा से होने योग्य नहीं है। मन और आत्मा का मिलाप है। बिना मन के हम काम नहीं करते। कहीं चलने के लिए, कुछ बोलने के लिए मन प्रेरण करता है। पहले मन चलेगा, पैर नहीं। संत कबीर साहब ने कहा है-
 बिन पाँवन की राह है, बिन बस्ती का देश ।
 बिना पिण्ड का पुरुष है, कहै कबीर सन्देश ।।
 कहाँ से चलेगा? रास्ता शुरू कहाँ से होगा? जो जहाँ बैठा रहता है, वहीं से चलता है। यह मन कहाँ बैठा हुआ है?
 इस तन में मन कहँ बसै,निकसि जाय केहि ठौर ।
 गुरु गम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और ।।
 नैनों माहीं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर ।
 गुरु गम भेद बताइया, सब संतन सिरमौर ।।
                    -कबीर साहब
जानिले जानिले सत्त पहचानिले, सुरति साँची बसै दीद दाना।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै, पलक परवीन दिव दृष्टि ताना।।
 ‘दीद’ कहते हैं आँख को और ‘दाना’ कहते हैं तिल को। कैसे रास्ता पकड़ोगे? तो कहा-‘खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै।’ जाग्रत में आँख में, स्वप्न में कण्ठ में, सुषुप्ति में हृदय में और तुरीय में मूर्द्धा में वासा होता है।
 मोक्षमार्ग पर चलने के लिए जाग्रत अवस्था से चलना होगा। बाहर में संत-पंथ नहीं है, अन्दर में है। इसी पर मन चलता है। जो कोई यहाँ से चलना बताता है, ठीक बताता है, यह आज्ञाचक्र है। कोई कहे कि नीचे से क्यों नहीं चलो? तो नीचे से हठयोगी चलते हैं। नीचे में वे स्थान मानते हैं, जिसको मूलाधार चक्र कहते हैं, वे वहीं से आगे बढ़ते हैं। कोई कहते हैं कि पैर में भी तुम हो, वहीं से क्यों नहीं चलते? तो पैर से चलने के लिए कोई नहीं बताते। कोई मूलाधार से, कोई हृदय से और कोई आज्ञाचक्र से चलना बताते हैं। हृदय से चलनेवाले को मूलाधार से चलनेवाला कहता है कि मूलाधार से क्यों नहीं चलते? हृदय से चलनेवाला अन्य दूसरों से कहता है कि हृदय से क्यों नहीं चलते? आज्ञाचक्र से चलनेवाला कहता है कि जिस कर्म से तुम अपने को समेटोगे, वह कर्म हमारे पास भी है। क्या मूलाधार और क्या हृदय, सबसे समेटकर हम आज्ञाचक्र से चलते हैं। शिवजी ने कहा है कि ‘पंच पद्मों का जो-जो फल पहले कहा, सो समस्त फल आपही इस आज्ञा कमल के ध्यान से प्राप्त हो जाएगा।’
 यानि यानि हि प्रोक्तानि पंच पद्मे फलानि वै ।
 तानि सर्वानि सुतरामेतज्ज्ञानाद्भवन्ति हि ।।
                                                -शिव-संहिता
 संतों ने यहीं से अन्तर का रास्ता बताया है। रास्ता ज्योति का है और शब्द का है।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट में दिनांक 3. 9. 1967 ई0 को साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था।
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276. स्वर्ग में भी पाँच प्रकार के विषय हैं
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 सब लोगों को जानना चाहिए कि दुःख किसी को भी प्रिय नहीं, सभी को यह बहुत ही अप्रिय है। इसलिए दुःख से छूटने के वास्ते और सुख पाने के लिए मनुष्य दिन-रात जी-तोड़ परिश्रम करता रहता है। यह कोई अनुचित बात नहीं, किन्तु सुख को समझना चाहिए। जो विषय-सुख है, उसको सब कोई जानते हैं-भोगते हैं। विषय पाँच हैं-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द। इन विषयों का भोग सभी को होता है। इनमें फँसे हुए तथा इनमें सुख खोजनेवाले तमाम संसार के लोग हैं। परन्तु यह सुख ऐसा है कि कभी तृप्ति होती नहीं। जीवनभर भोगते-भोगते कभी तृप्ति नहीं। इन विषयों को कोई कम और कोई अधिक भोगते हैं। कम भोगनेवाले वा अधिक भोगनेवाले, कोई भी तृप्त नहीं हो सकते। जैसे भोजन करने पर तृप्ति मिलती है, फिर पच जाने पर भूख लगती है, फिर भोजन करने की इच्छा होती है। इसी तरह प्रत्येक भोग के लिए है। जैसे भोजन से क्षणिक तृप्ति आती है, उसी तरह और भोग भी क्षणिक तृप्तिदायक है।
 ज्ञानियों ने कहा कि इस जीव के अनेक जन्म हुए। प्रत्येक योनियों में रहकर इन पाँच विषयों को भोगते चला आ रहा है, लेकिन तृप्ति नहीं होती। बिना तृप्ति के सुख कहाँ? इसलिए विषय की ओर मत दौड़ो। दूसरे शरीरधारी जीव इस बात को नहीं समझता, लेकिन मनुष्य समझता है। स्वर्ग भी यदि प्राप्त हो सके, तो वह भी थोड़ा है। पुण्य भोग के बाद फिर इस संसार में आना पड़ता है। स्वर्ग में भी पाँच प्रकार के ही विषय हैं। वहाँ के सुख भी प्रत्येक को बराबर-बराबर नहीं है। स्वर्ग में सबसे विशेष सुख इन्द्र को है, लेकिन इन्द्र भी उस सुख से तृप्त नहीं है, इसका इतिहास है। उससे ऊपर विशेष सुख में ब्रह्मा हैं, लेकिन उनको भी उस भोग से तृप्ति नहीं है।
 श्रीराम ने कहा है कि परलोक दो तरह के हैं। मनुष्य-शरीर छूटने पर वह जीव दो प्रकार का परलोक भोगता है। एक कर्मानुसार भोग भोगता है। भोग समाप्त होने पर इस संसार में जन्म लेना पड़ता है। दूसरा परलोक वह है, जहाँ परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
 ईश्वर को पा लेने पर पूर्ण तृप्ति होती है। और भी सुख हो, इसके लिए तृष्णा मिट जाती है। तृष्णा छूट जाने पर जन्म-मरण का कारण ही छूट जाता है। जो ईश्वर तक पहुँच गया, उसको संसार में लौटना नहीं है। जैसे नदी समुद्र में मिलकर नदी का नाम मिट जाता है, उसी तरह जीव ईश्वर को प्राप्त करने पर उसका जीवत्व-भाव मिट जाता है। आत्मसुख उसको मिलता है, जो सुख ईश्वर को है।
तन्द्रा अवस्था होती है, उसमें एक प्रकार का सुख है, जो पंच विषयों में से किसी विषय का सुख नहीं है, अपने अन्दर रहने का सुख है। उसमें ऐसा सुख है कि जो सुख बाहर के विषयों में नहीं है। तन्द्रा में किसी प्रकार का दुःख होता तो कोई सो नहीं सकता। गहरी नींद में जाने से अपने अन्दर ही ऐसा सुख मिलता है कि उसको कुछ खबर नहीं रहता। लेकिन अफसोस है कि वहाँ अपना ज्ञान नहीं रहता। निज सुख पंच विषयों से विलक्षण है। वहाँ अपने को पाकर सुखी होता है। मान लो वहाँ सुख है, ऐसा नहीं।
 अपने अन्दर चलते-चलते ईश्वर तक जाता है। जो अन्दर में चलना नहीं जानता, वह ईश्वर की ओर नहीं जाता। जो अपने अन्दर चलना जानता है, वही ईश्वर की ओर जाता है। शरीर और इन्द्रियों के संग-संग जाने से पंच विषयों में रहना होगा। विलक्षण-सुख आत्म-सुख है। आत्मा क्या है? जो परमात्मा है। ब्रह्म-सुख, ईश्वर-प्राप्ति का सुख, आत्म-सुख एक ही बात है।
 जो अन्दर-अन्दर चलता है, वह बाहर विषयों से छूटता जाता है। जैसे आप सो जाते हैं तो बाहर इन्द्रियों का संग छूट जाता है। बाहर की इन्द्रियों के संग छूटने से जो सुख होता है, वह इन्द्रियों के संग दौड़ने से नहीं होता। संसार में कहीं जाओ, किसी तारे पर चढ़ जाओ, मंगल ग्रह में चले जाओ, लेकिन विषय नहीं छूट सकता। विषयों से छूटता कौन है? पहले मन के साथ चेतन आत्मा, पीछे केवल चेतन आत्मा। यह वेदान्त-ज्ञान है। वेदान्त का अर्थ है-ज्ञान का अंत। यहीं तृप्ति है और कहीं नहीं। आत्मा की ओर जाना चाहिए, सुख के लिए। इन्द्रियों के साथ से छूटकर अन्दर चलने से सच्चा सुख होगा। जिस सुख से छूटा नहीं जाय, वह आत्म-सुख है। अन्दर-अन्दर चलने से होगा। यही सुख ईश्वर की प्राप्ति से होता है। जैसे मिश्री देखी जाती है और चिखी जाती है। मिष्टान्न देखा भी जाता है और चखा भी जाता है। उसी तरह ईश्वर देखा जाता है और चखा जाता है। ‘चखा जाता है’ का अर्थ है-उसको पाने से तृप्ति होती है। संसार के सुख का लोभी तो क्या बनना, स्वर्ग के सुख का भी लोभी नहीं बनो।
 यह शरीर नाव है। जैसे नाव को ठीक-ठीक ले जाने के लिए मल्लाह होता है, उसी तरह शरीर को ठीक से चलानेवाला, कुमार्ग से रोकनेवाला सच्चा गुरु है। सच्चा गुरु वह है, जो सत्य ज्ञान जानता है, उसमें बरतता है और दूसरे को भी कुमार्ग से बचाकर सत्मार्ग पर लगाता है।
 ईश्वर तक पहुँचने पर ही वह सुख मिलेगा, जो कभी छूटता नहीं। बाहर-बाहर नहीं, अन्दर- अन्दर चलने का रास्ता जानना चाहिए और उस पर चलना चाहिए। यह रास्ता ईश्वर का बनाया हुआ है, आदमी का बनाया हुआ नहीं है। इस पर चलने के लिए पहले मन सहित चेतन आत्मा चलेगी, पीछे केवल चेतन आत्मा। उस रास्ता पर मन को समेटकर चलाने की विद्या ‘योगविद्या’ है।
 किसी चीज को समेटो, तो वह चीज उसके विपरीत ओर को हो जाती है। मन पंच विषयों में लगा है, संसार में घूमता है। इसमें मन का सम्हाल करेगा, तो स्थूल पंच विषय छूट जाएँगे। पीछे पंच सूक्ष्म विषय भी छूटेंगे। हमारे यहाँ इसीलिए ‘योग विद्या’ है। ‘योगविद्या’ को किसी ने बनाया नहीं, खोज निकाला। जैसे मिट्टी तेल को बनाया नहीं, मिट्टी खोदकर निकाल लिया। ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग किसी ने बनाया नहीं, उसको खोजकर निकाला। स्थूल जप-ध्यान से मन का सिमटाव करो, यह सरल योग है। इसके आरम्भ का नाश नहीं होता, इसमें उलटा फल नहीं होता और यह महाभय से बचाता है। ये तीनों बातें गीता में हैं। महाभय क्या है? मनुष्य-शरीर सबसे विशेष शरीर है, देवता को भी दुर्लभ है। तब फिर बैल, बन्दर, पशु आदि का शरीर विशेष कैसे हो सकता है? मनुष्य-शरीर से नीचे गिरना महाभय है।
 तुलसीकृत रामायण में कथा है कि एक भक्त पूजा कर रहा था। गुरु के आने पर उसने आदर नहीं किया-उठा नहीं, तो शिवजी ने शाप दिया कि तुम अजगर हो जाओगे। गुरु की प्रार्थना करने पर फिर शिवजी ने वरदान दिया। लोमश मुनि से विवाद करने पर मुनि ने शाप दिया कि तुम कौआ हो जाओ? फिर मुनि ने कृपा करके कहा कि तुम जो शरीर धारण करना चाहोगे, वह हो जाएगा। मनुष्य का शरीर ही है, जिससे मुक्ति मिलती है और ईश्वर मिलते हैं, अन्य किसी शरीर में नहीं।
 भक्ति में योग है, वह सरल योग है। जप है और ध्यान है। इसका भेद गुरु से जानो। जो इसका आरम्भ करता है, उसको यह योग मनुष्य-शरीर से गिरने नहीं देता। लेकिन जो बिना गुरु से जाने अपने ही करते हैं, वे ठीक-ठीक नहीं जानते, न कर सकते हैं। योग से डरना नहीं है। योग सरल भी है और कठिन भी। जो लोग सरल योग नहीं जानते, वे योग का नाम सुनकर घबराते हैं। लोगों को चाहिए कि सरल योग को जाने और उसका अभ्यास करे। विषय सुख में नहीं फँसे।
 संसार में रहकर बिना विषय-सेवन के कोई रह नहीं सकता। इसलिए संतों ने कहा है कि जैसे दवाई का सेवन करते हो, उसी प्रकार विषय को लो। उसमें आसक्ति नहीं रखो। ऐसा विश्वास मत करो कि इसमें तृप्ति होगी। गुरु से ज्ञान-ध्यान की बात जानो और संयम करो। संयम यह कि पाँच पापों से बचो अर्थात् झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार नहीं करो, तो कोई पाप नहीं होगा। हिंसा के सिलसिले में मांस-मछली नहीं खाओ। मनुस्मृति मे अष्टघातक का वर्णन है। अर्थात् हिंसा के लिए आदेश देनेवाला, मारनेवाला, टुकड़ा-टुकड़ा करने- वाला, बेचनेवाला, खरीदनेवाला, पकानेवाला, परोसनेवाला और खानेवाला; ये आठों घातक हैं। मत्स्य-मांस खाने का सम्बन्ध हिंसा से है। जैसे गाँजा-भाँग खाने का असर होता है, वैसे ही मत्स्य-मांस खाने का भी असर होता है। किसी नशा की ओर नहीं जाओ। व्यभिचार हमारे देश के लिए ऐसा खराब है कि उसको निन्दा की ही दृष्टि से सब देखते हैं। पंच पापों से छूटकर रहो, तो चोरी, डकैती, धोखेबाजी; सभी छूट जाएँगे। अपने देश में स्वराज्य प्राप्त करने के लिए कितना बलिदान हुआ, स्वराज्य मिला। लेकिन चोरी, डकैती, बेइमानी, लूट आदि दुर्गुण कमे नहीं, बढ़ ही गए हैं। संत लोग कहते हैं कि पंच पापों से बचो, तो चोरी, डकैती आदि बुरे कर्म नहीं होंगे। सभी शान्तिपूर्वक रहेंगे। सब लोगों को संतों के बताए मार्ग पर चलना चाहिए।
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यह प्रवचन पूर्णियाँ जिलान्तर्गत ग्राम आजमपुर गोला में श्रीविश्वनाथ चौधरी के निवास पर दिनांक 1. 12. 1967 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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277. सेवा का महत्त्व
प्यारे लोगो!
 सत्संग में, खासकर प्रातःकाल के सत्संग में हमलोग ईश्वर की स्तुति अवश्य करें, संतों की स्तुति अवश्य करें, गुरु की स्तुति भी अवश्य करें। स्तुति करने से जिनकी स्तुति होती है, उनकी महिमा का वा बड़प्पन का ज्ञान होता है। इस ज्ञान से उनके प्रति श्रद्धा होती है। जिनके प्रति श्रद्धा होती है, उनके प्रति विश्वास होगा, उनके लिए प्र्रेम उत्पन्न होगा। उस प्रेम में हम उनसे लाभ पाते हैं। बिना मिट्टी के हम गंध नहीं पाते हैं। इसी तरह बिना श्रद्धा के धर्म नहीं हो सकता। ईश्वर पर विश्वास नहीं, तो धर्म नहीं। ईश्वर के प्रति विश्वास में ईश्वर स्थिति का बोध रहता है। यह बोध नहीं, तो धर्म नहीं। इसलिए ईश्वर की स्तुति अवश्य करनी चाहिए। जिनसे लोग उपकृत हों, तो चाहिए कि उपकारक की सेवा करें। उनके उपकार को नहीं माने तो हम कृतघ्न हैं। उपकार को नहीं माननेवाले को कृतघ्न कहते हैं। हम कहेंगे कि हमारे परमहित के लिए ईश्वर ने हमको पाँच तत्त्व दिये हैं। इन तत्त्वों से हम इतना लाभ उठाते हैं, जिसका अन्दाजा नहीं। ये सब ईश्वर की कृपा से ही प्राप्त हैं। उनसे हम बहुत उपकृत हैं। उनकी सेवा करनी चाहिए।
 जिसकी जो आवश्यकता होती है, उसे पूर्ण कर देना ही उसकी सेवा है। लेकिन ईश्वर को कोई आवश्यकता नहीं। ईश्वर को कुछ चाहिए, सो नहीं। सोने पर हमको हवा चाहिए। बिना हवा के हम कैसे रहेंगे? ईश्वर का यह कितना उपकार है कि हमको हवा मिलती है। हमको आवश्यकता है, लेकिन ईश्वर को नहीं। सारी प्रकृति मण्डल की ईश्वर ने रचना की है। इससे ईश्वर को कोई लाभ पहुँचावे, सो नहीं। महात्माओं ने बताया है ईश्वर की कुछ भी सेवा नहीं कर सकते हो तो उनका गुण या यश गाओ। खुशी, ना खुशी तो मनुष्यों के लिए है, जीवों के लिए है, ईश्वर के लिए नहीं। गंगा-स्नान से गंगा को कुछ भी लाभ नहीं। कुछ भी चढ़ाओ, गंगा को उससे प्रसन्नता नहीं। इसी तरह ईश्वर को प्रसन्नता नहीं होती। स्तुति में हम उसकी महिमा को पाते हैं। इसलिए हम उसकी ओर चलते हैं। ईश्वर की ओर इसलिए चलते हैं कि हम माया में दुःख पाते हैं।
  इन्द्रियां के द्वारा प्राप्त सुख, दुःख परिणामी है। परन्तु ईश्वर की ओर चलने से माया के सुख-दुःख से हम छूट जाते हैं। जिधर से माया नहीं, उधर को हम जाते हैं। इसलिए ईश्वर की आराधना होनी चाहिए। माँग के लिए ईश्वर से प्रार्थना करो। ऐसा कुछ माँगो, जो किसी से नहीं दिया जा सके। ईश्वर से यही माँगो कि हे ईश्वर! आप अपना मुझे पहचान करा दो। हम आपको पहचान कर आपका स्वरूप ही हो जाएँगे। सांसारिक सुख मत माँगो।
 जो सुख सुरपुर नरक गेह बन, आवत बिनहि बुलाये ।
  तेहि सुख लगि जतन करत नर, समुझत नहिं समुझाये ।।
 परमात्मा चेतन का भी चेतन है। वह अपरिमित शक्तिमय तथा अपरिमित ज्ञानमय है। बात यह है कि ईश्वर से माँगो, लेकिन वही माँगो, जो ईश्वर से मिले। ईश्वर सर्वसुखदाता है। वह सब कुछ दे सकता है। इस तरह से एकनिष्ठ भाव रखो। यदि ईश्वर के उपकार का कृतज्ञ बनोगे तो ईश्वर की स्तुति करो। इसीलिए हमलोग प्रातःकाल ईश-स्तुति करते हैं।
 संत नहीं होते तो भगवान का ज्ञान नहीं होता। इसलिए संत-स्तुति करो। संत के बारे में कहते हैं कि भगवान से भी बढ़कर संत हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
राम सिन्धु घन सज्जन धीरा । चंदन तरु हरि संत समीरा ।।
 जैसे समुद्र से बादल बनता है। बादल से वर्षा होती है। तमाम जीव उससे सुखी होते हैं। इसी तरह ईश्वर समुद्र है और संत बादल के समान, जिससे सभी जीव सुख पाते हैं। ईश्वर चन्दन हैं और संत हवा। हवा नहीं रहे तो सुगन्ध नहीं मिले। संत की बड़ी महिमा है। संत बड़े उपकारी होते हैं।
गुरु के उपकार भी कम नहीं हैं। गोस्वामी तुलसी- दासजी हनुमानजी से प्रार्थना करते हैं-
     जै जै हनुमान गोसाईं । कृपा करहु गुरु देव की नाईं ।। यहाँ गुरु के सम्बन्ध में विशेष बात हुई। गुरु शिष्य को हर तरह से समझा-बुझाकर ठीक बनाते हैं। संतों की स्तुति भी करो, कुछ सेवा भी करो।
 ऊँचा महल अगम पुर जहँवा, संत समागम होय ।
 जो कोइ पहुँचे वही नगरिया, आवागमन न होय ।।
         -कबीर साहब
 संत की ओर चलना ईश्वर की ओर चलना एक ही बात है। दूसरी बात यह है कि हमलोग सिद्धान्त का पाठ करते हैं। जीवनभर बात जानते रहें तो भी बहुत जानने को रह ही जाती है। इतना अवश्य जानो, जिससे काम चले। धर्म की परिभाषा क्या है? जानो। धर्म का सिद्धान्त जानना चाहिए। जो सिद्धान्त को नहीं जानते, वे धर्म के अनुकूल चलेंगे। क्या ठीक है? सिद्धान्त में ईश्वर-स्वरूप का निर्णय है। ईश्वर स्वरूपतः क्या है? यह समझा दिया गया है। उसकी प्राप्ति कैसे होगी, सो भी समझा दिया गया है। आचरण कैसा होना चाहिए, सो भी समझा दिया गया है। इसलिए हमलोग सिद्धान्त और परिभाषा का नित्य पाठ करते हैं। सिद्धान्त को ही भूल जाए तो धर्म क्या है, अधर्म क्या है? नहीं जान सकते। जो लोग पढ़े-लिखे हैं, वे ग्रन्थ-पाठ करते हैं। जो लोग पढ़े-लिखे नहीं हैं, वे भी सत्संग में सुन-सुनकर याद कर लेते हैं। पहले तो सुनकर ही विद्या होती थी। भगवान बुद्ध के समय में भी लिखा नहीं जाता था। भगवान बुद्ध का शिष्य आनन्द पीछे सेवा में आए। भगवान बुद्ध के शरीर में बड़ा बल था। होते-होते जब बूढ़ापा आने लगा, तब सहारा चाहिए, तो आनन्द ने कहा-मैं आपकी सेवा करूँगा। लेकिन मुझे आठ वरदान दीजिए। 1. आपको भिक्षा-पात्र में भोजन की जो सामग्री मिले, वह मुझको नहीं दें; क्यांकि आपके लिए लोग उत्तम और स्वादिष्ट भोजन देंगे। 2. आपको जिस मकान में लोग रखे, वहाँ मुझे रहने नहीं कहें। 3. आपको कोई जो वस्त्र दे, वह मुझे नहीं दें। 4. आपको यदि कोई व्यक्तिगत निमंत्रण दे, तो उसमें हमको नहीं ले जाएँ। 5. आप जो कुछ उपदेश करें, यदि मैं वहाँ नहीं रहूँ तो मेरे आने पर वह उपदेश मुझे सुना दीजिए। 6. मुझको कोई निमंत्रण दे, यदि आपको भी मैं चलने कहूँ तो उसमें आप भी चलें। 7. आप जहाँ ठहरें, वहाँ जाने में मुझे कोई रोक नहीं हो। 8. यदि कोई बाहर से आवे, उनको आपसे मिलाने में कोई रोक नहीं हो।
 देखिए, कितने उपकारी थे आनन्द। सारिपुत्र और मोद्गल्यायन भगवान बुद्ध के दाहिने-बायें हाथ थे। सारिपुत्र को एक ब्राह्मण ने एक कलछुल भात कभी दिलवाया था। बहुत दिनों के बाद ब्राह्मण के मन में भिक्षु बनने की इच्छा हुई। वे भगवान के पास आए। भगवान बुद्ध ने सारिपुत्र की ओर देखा और कहा कि देखोे जी! इस ब्राह्मण से तुम कुछ उपकार पाए हो, क्या? सारिपुत्र ने कहा-हाँ, भगवन्! एक कलछुल भात इन्होंने मुझे दिलवाया था। सारिपुत्र के द्वारा ही वह ब्राह्मण भिक्षु बनाए गए। देखिए! थोड़ा भी उपकार को वे लोग मानते थे। जिससे जो उपकृत हो तो उस उपकार को मानना चाहिए। हमारे गुरु महाराज कहते थे-‘जो दान करोगे, सो मिलेगा। ज्ञान दान करो तो ज्ञान मिलेगा। ज्ञान के समान कोई चीज नहीं है।
 वेद के मंत्र में पाठ हुआ कि एकमत होकर बात बोलो। आपस में मिल-जुलकर रहो। सामूहिक रूप से ईश्वर की उपासना करो। एकमत होने से भारत के लोगों ने स्वराज्य पाया। जब सम्पूर्ण देशवासी एकमत हो गए तो अंग्रेजों को यहाँ से भागना पड़ा। जबतक देश में दुष्टकर्म होते रहेंगे, तबतक स्वराज्य में सुराज को नहीं पायेंगे। दुष्टकर्म को हटाइए तो सुराज का भोग मिलेगा। सिपाही कितनी भी रखिए, दुष्टकर्म नहीं मिटेगा। एकमत को बिगाड़ देता है, झूठ। झूठ छोड़ देने से एकमत होगा। एकमत के लिए ईश्वर की उपासना करो। सत्संग ईश्वर का रूप ही है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने सत्संग को ईश्वर का अंग कहा-
देहि सत्संग निज अंग श्री रंग भव भंग कारण शरण शोकहारी ।।
 ईश्वर उपासना एकमत होकर करो। उपासना में एकमत होना बहुत आवश्यक है।
 गौ-रक्षा करो। गौ नहीं रहे तो आदमी के पास भोथा हथियार है। गौ-रक्षा का जहाँ बल है, वहाँ भोथा हथियार नहीं है। अन्न उपजाने के लिए गौ से खाद पाते हैं। वेद में आया है कि गौ की सेवा करो, कभी मारो मत। बूढ़े गाय, बैल की भी सेवा करो, बेचो मत। बूढ़े गाय, बैल भी खाद देते हैं।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत 59वाँ अखिल भारतीय संतमत सत्संग के विशेषाधिवेशन, कुरसेला में दिनांक 24. 12. 1967 ई0 को सत्संग के प्रातःकाल में हुआ था। ।
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278. माया का आक्रमण
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 इस सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार किया जा रहा है। संतों ने अपने वास्ते भजन किया और औरों के लिए भी भजन करने का तरीका बताया। इसी वास्ते हमारे गुरु महाराज भी उपदेश दे गए हैं कि ‘सत्संग करो, भक्ति करो, भक्ति से मुक्ति होगी।’ उनके आदेशानुसार सत्संग करना अनिवार्य हो गया है। इसलिए हमलोग दैनिक सत्संग, साप्ताहिक सत्संग, मासिक सत्संग, जिला अधिवेशन, वार्षिक अधिवेशन (जो देवरिया जिला में हो चुका है) तथा विशेषाधिवेशन करते हैं। यहाँ के लोगों ने इस विशेषाधिवेशन का तन, मन, धन से आयोजन किया है। यहाँ के रायबहादुर साहब भी सत्संग से प्रेम रखते हैं। अगर ऐसे विचार के लोग नहीं मिलते तो इस अधिवेशन का जो रूप देख रहे हैं, नहीं हो पाता। इसलिए मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि इनके सहित सभी लोगों की बहुत-बहुत शुभ उन्नतियाँ हों। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है कि-
बिनु सत्संग भगति नहिं होई। ते तब मिलहिं द्रवहिं जब सोई।।
 साधु-संत तथा सज्जन के सत्संग भी तब मिलते हैं, जब ईश्वर की कृपा होती है। सत्संग में पाँच बातें मिलते हैं।
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहि पाई।।
सो जानब सत्संग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ।।
 यदि आपको ये पाँचों (अच्छी बुद्धि, यश, मोक्ष, भलपन, सम्पत्ति) मिल जाए, तो बाकी क्या रह जाए? यदि यह पाँचो मिल जाए तो वह मनुष्य पूर्ण सफल है। सत्संग द्वारा ये पाँचां मिलते हैं। संत वचन में श्रद्धा होनी चाहिए। उन्नति किसी तरह की हो, यदि उसके साथ में सत्संग हो तो बहुत उत्तम, जैसे सोना में सुगन्ध हो जाए। गति में ऐसी गति कि ईश्वर मिल जाए। स्वर्ग आदि तो बहुत कम है। सत्संग द्वारा निर्वाण पद मिलता है। इसलिए सत्संग अवश्य होना चाहिए। सत्संग में मूल चीज ईश्वर भक्ति है। जिस बारात में दुल्हा नहीं हो, वह बारात किस काम का?
 संगति ही जरि जाव, न चरचा राम की ।
 दुलह बिना बारात, कहो किस काम की ।।
          -कबीर साहब
योग कुयोग ज्ञान अज्ञानू । जहँ नहिं राम प्रेम परधानू ।।
       -गोस्वामी तुलसीदासजी
 जिस ज्ञान में, जिस कर्म वा धर्म मेेें ईश्वर- भक्ति प्रधान नहीं है, उसके लिए ही ऐसा कहा।
हमलोगों को इसकी शंका बनी हुई है। राष्ट्र-राष्ट्र में मेल नहीं। दोनां तरफ से तैयारियाँ चल रही हैं। दोनों तरफ आशंकाएँ बनी हुई हैं। हमारे ओर से तो यही है कि दूसरे की चढ़ाई वा आक्रमण को रोकना। जिस देश पर चढ़ाई होती है, उस देश के लोग सुखी नहीं रहते। यह तो बाहर संसार की बात हुई। अब देखिए कि हमलोगों की बात क्या है? अपनी इच्छा पवित्र हो, इसके विपरीत तामस वृत्ति अधिक होती रहती है। वह चंचल और मूढ़ बना देती है। राजसी वृत्ति चंचल बना देती और तामसी मूढ़ बनाती है। ऐसा मालूम होता है कि हममें कोई अख्तियार नहीं है। राजा औरों पर शासन करता है और संत-साधु अपने पर हुकूमत करते हैं। संत-महात्मा अपने पर शासन रखते हैं, अपने को संयमित रखते हैं। अपने मन पर शासन करते हैं। सब इन्द्रियों से मन तथा मन से बुद्धि और बुद्धि से आत्मा श्रेष्ठ है। जिसको आत्म-ज्ञान होता है, उसको केवल मौखिक वा परोक्ष नहीं, अनुभव ज्ञान होता है। यह अनुभव ज्ञान समाधि में प्राप्त होता है। भौतिक ज्ञान अप्रत्यक्ष है। इसी को परोक्ष ज्ञान कहते हैं। योग के आरम्भ में, मध्य में अनुभव ज्ञान नहीं होता। जिनको आत्मज्ञान होता है, वही मन पर काबू पाता है। चेतन आत्मा को सुरत कहते हैं। सुरत का अर्थ अच्छी तरह रत होना भी होता है। तबतक सुरत परमात्म-स्वरूप का दर्शन नहीं कर पाती है, जबतक कि उसको अनुभव ज्ञान न हो। साधन करते समय जो ज्ञान होता है, वह निदिध्यास ज्ञान है।
 हमलोग अपने पर शासन रखने में असमर्थ हैं। संत-महात्मा कहते हैं कि अपने मन को काबू करने की कोशिश करते चलो। जबतक अपने पर काबू नहीं, तबतक अपने को बना नहीं सकते। माया का आक्रमण हम पर हो गया है।
 व्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचण्ड ।
 सेनापति कामादि भट, दम्भ कपट पाखण्ड ।।
      -गोस्वामी तुलसीदासजी
 तमाम संसार में माया की भयंकर सेना फैली हुई है। अपने अन्दर भी देखो तो काम, क्रोध, दम्भ, पाखण्डादि जो माया के सेनापति हैं, मौजूद हैं। इसके दबाव में हमलोग हैं। इसको दबावें तो किसके द्वारा? गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
 सो दासी रघुवीर कै, समुझै मिथ्या सोपि ।
 छूट न राम कृपा बिनु, नाथ कहहुँ पद रोपि ।।
 माया रघुवीर राम की दासी है। अगर समझ गए तो माया मिथ्या है। अद्वैतवाद का पोषण नहीं हो सकता, अगर माया मिथ्यात्ववाद को नहीं माना जाय। माया को मृग-तृष्णा का जल भी कहते हैं। जैसे रस्सी में सर्प का भान होता है, उसी तरह माया में ब्रह्म का भान होता है।
 रजत सीप महँ भास जिमि, यथा भानुकर वारि ।
 जदपि मृषा तिहुँ काल महँ,भ्रम न सकइ कोउ टारि ।।
 योगी कहते हैं कि अगर तुम स्वप्न में रहोगे तो माया के मिथ्यात्व को कैसे जानोगे?
 सपने होइ भिखारी नृप, रंक नाकपति होइ ।
 जागे हानि न लाभ कछु, तिमि प्रपंच जिय जोय ।।
संसार में मोह की रात्रि फैली हुई है।
मोह निशा सब सोवनिहारा। देखिय सपन अनेक प्रकारा ।।
 लेकिन यह स्वप्न छूटे कैसे? तो कहा-
 यहि जग जामिनि जागहिं जोगी...।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
 योगी बाहर संसार से तो सो जाता है, मगर अन्दर से सचेत रहता है। ऐसा जो होता है, वह हरिपद के परम सुख को पाता है।
‘सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।’
‘सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।।’ देश-कालातीत पद भी है। भौतिक विज्ञान देश- काल के ज्ञान के अन्दर है। यह योगियों का विज्ञान आधिभौतिक है। इसका प्रयोगशाला मानव शरीर है।
 सृष्टि का सारा मण्डल ईश्वर का सगुण रूप है। ईश्वर सर्वव्यापक है, इसलिए सर्वरूप उनका ही है। भगवान श्रीकृष्ण भी ब्राह्ममुहूर्त्त में उठकर ध्यान करते थे। ये जो ऋद्धि-सिद्धि हैं, ये शक्तियाँ मोक्ष मार्ग में बाधक हैं। ‘रिद्धि सिद्धि प्रेरई बहु भाई।’
 ये कम दर्जे की चीज हैं। जो महान हैं, वे इन शक्तियों में नहीं फँसते। वे ईश्वर तक जाते हैं। इसके लिए कोशिश करते जाओ, बल मिलेगा। जो कोशिश करता है, उसको ईश्वर सहायता देते हैं।
जौं तेहि पंथ चलै मन लाई। तौ हरि काहे न होहिं सहाई।।
 एक गाड़ीवान था, उसकी गाड़ी कीचड़ में फँस गई। वह हनुमानजी का भक्त था। वह हनुमानजी को पुकारने लगा। हनुमानजी वहाँ मनुष्य वेश में आए और गाड़ीवान से कहा-अरे! पहले अपना बल लगाओ, तब हनुमानजी सहायता करेंगे। गाड़ीवान ने वैसा ही किया। गाड़ी कीचड़ से निकल गई। इसी तरह अपने से अपने को आगे बढ़ाओ। कोशिश मत छोड़ो। योगाभ्यास करने में मन पहले भाग जाया करता है। बिजली की छटक की तरह होता रहता है। मन को एक जगह ठहराकर रखने के लिए जहाँ-जहाँ मन भागे, वहाँ-वहाँ से लौटाकर अपने लक्ष्य पर लगाओ। यही करो। यह सबके लिए होने योग्य है। प्रत्याहार करते-करते अल्प ठहराव होता है। इस अल्प ठहराव को धारणा कहते हैं। इसके बाद ध्यान होता है। मन को कहाँ लगावें, इसका भी ज्ञान होना चाहिए। ईश्वर-भक्ति में हमको अपना लाभ है, ईश्वर को कुछ भी लाभ नहीं है। लोग कहते हैं कि यह ज्ञान सबको कहते हैं? मैं कहता हूँ कि किसी का दोस्त बनो, किसी का नहीं, सो क्यों?
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत 59वाँ अखिल भारतीय संतमत सत्संग के विशेषाधिवेशन, कुरसेला (कटिहार) में दिनांक 24. 12. 1967 ई0 को सत्संग के अपर्रांकाल में हुआ था। ।
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279. निर्गुण पा लेने का ज्ञान
प्यारी जनता!
 आपको कल से ही विदित है कि इस सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। ईश्वर-भक्ति जानने के लिए कुछ ग्रन्थपाठ अवश्य होना चाहिए। ईश्वर-भक्ति में पहली बात यह है कि किस लाभ के लिए ईश्वर-भक्ति करो। आप अपने सारे क्लेशों से निवृत्त होना चाहते हैं, इसी के वास्ते ईश्वर की भक्ति है।
 वारि मथे घृत होय बरु, सिकता ते बरु तेल ।
 बिनु हरि भजन न भव तरिय, यह सिद्धांत अपेल ।।
      -गोस्वामी तुलसीदासजी
 संसार के दुःखों से बिल्कुल परे हो जाना, यही ईश्वर की भक्ति है। बिना भक्ति के दुःखों से कोई छूट नहीं सकता है। जितने यत्नवान लोग हुए, उनलोगां ने खूब सोचकर यही बात निकाली कि ईश्वर-भक्ति से ही दुःखां से छूट सकते हैं। ईश्वर के पास दुःख नाम का कुछ है ही नहीं। जिस सुख के साथ दुःख है, वह सुख ईश्वर के पास नहीं है। वहाँ दुःख का अत्यन्त अभाव है, लेशमात्र भी दुःख नहीं है। किसी हालत में ईश्वर के पास दुःख नहीं। ऐसे ईश्वर से जो मिले, वह सुख-स्वरूप हो जाए। संसार में ऐसा किसी को नहीं जाना गया, जो सुख के पीछे नहीं दौड़ा हो। साधु-संत असली सुख को जानते हैं। ये लोग असली सुख के पीछे दौड़े। अधिकांश लोग सांसारिक सुख के पीछे दौड़े। जो असली सुख को जानते हैं, वे उसके पीछे जाते हैं। जो असली सुख को प्राप्त कर लेते हैं, उनका फिर सुख पाने की इच्छा नहीं रहती। सूरदासजी कहते हैं कि-
परम स्वाद सबही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै।
मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै।।
 यह ईश्वर-प्राप्ति का जो स्वाद है, वही परम स्वाद है। इसको सभी नहीं जानते। इन्द्रियों में जो स्वाद होता है, वह तो सभी जानते हैं। इन स्वादों में संतुष्टि नहीं। इसका स्वाद तृष्णा को बढ़ानेवाला है। पंच ज्ञानेन्द्रियों का स्वाद मन को अच्छा लगा, सो स्वाद है। मन-बुद्धि के परे एक ही चीज है-चेतन आत्मा। केवल चेतन आत्मा को जो स्वाद मिलता है, वह परम स्वाद है। वह परम स्वाद परमात्मा का स्वरूप ही है।
 कुछ लोग कहते हैं कि मैं स्वयं सुख-स्वरूप हूँ। मैं कहता हूँ-जब तुम सुख स्वरूप हो, तो फिर सुख की चर्चा क्यों करते हो? केवल कहने से कुछ नहीं होता है। सुख-स्वरूप होने का अधिकारी वही है, जो अपने को शरीर और इन्द्रियों से हटाकर अपने को पहचान लिया हो। उस सुख को पाने के लिए ईश्वर की भक्ति करो। ईश्वर-भक्ति के बारे में पहले ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए। जो ईश्वर-स्वरूप को जाने बिना भक्ति में चलता है, वह उस यात्री के समान है, जो अपना निर्दिष्ट स्थान जाने बिना चल रहा है। उसको पता नहीं कि कहाँ जाना है? बहुत थोड़े में समझने के लिए यह जानना चाहिए कि इन्द्रियों के ज्ञान में जो आते हैं, वे सब बदलनेवाले हैं। बदलनेवाले नाशवान होते हैं। ईश्वर का स्वरूप नहीं बदलता। इसलिए वह नाशवान नहीं। जो बदलते हैं, वह नाशवान होते हैं। जो बदलता नहीं, वह इन्द्रियों के ज्ञान में आने योग्य नहीं है। जो केवल चेतन आत्मा के पहचान में आवे, उसी को ईश्वर कहते हैं।
 हमारा देश आस्तिक देश है। परन्तु ईश्वर कहकर क्या मानें, इस ज्ञान से बहुत लोग दूर हैं। सब में ईश्वर है। लेकिन आपस में लोग लड़ते- झगड़ते हैं। ईश्वर एक-ही-एक है। इन्द्रियगम्य रूप अनेक हैं। उसके रूप के अन्दर सारतत्त्व क्या है? जिस सार तत्त्व के होने से अनेक को ईश्वर मानते हैं? जबतक वह पहचान में नहीं आता, तबतक ईश्वर-ईश्वर कहते रहिए, पहचान नहीं होगा। इन्द्रियगम्य पदार्थ को ईश्वर मानना और इन्द्रियगम्य पदार्थ में ईश्वर है, एक ही बात नहीं है। घर में आपका शरीर है, घर और शरीर एक तो नहीं हो गया? इसी तरह आप और आपका शरीर एक नहीं है। पत्थर को सोना कहकर मानिए तो पत्थर सोना का काम दे दे, तो ठीक है; सो तो होता नहीं। असली तत्त्व की पहचान करना चाहिए। इसके लिए ईश्वर की भक्ति चाहिए। ईश्वर में बहुत संतुष्टि है। वहाँ तृष्णा नहीं। वह मन, वाणी को अगम अगोचर है। मन के लिए जानने योग्य नहीं। मन वहाँ तक पहुँच नहीं सकता। वह अगम है, अप्रत्यक्ष है। जिसको वह ईश्वर मिल जाता है, वह नित्यानन्द को पाता है। ईश्वर के स्वरूप के बारे में यह याद रखें।
 निर्गुण कहने से गुण रहित का बोध होता है। इसमें एक तत्त्व मालूम होता है। सगुण कहने से दो चीज मालूम होती है। किसी को कहा जाय, वह वस्त्र-विहीन है। वस्त्र और जिसके साथ वस्त्र है, दो का बोध होता है। इसी तरह निर्गुण कहने से एक-ही-एक का बोध होता है और सगुण कहने से मालूम होता है कि गुण के साथ है। यहाँ गुण का अर्थ है स्वभाव। उत्पन्न करने का स्वभाव रजोगुण में है, पालने करने का स्वभाव सतोगुण है और नाश करने का स्वभाव तमोगुण में है। यहाँ जो कुछ पाते हैं, वे तीन गुणों के साथ हैं। जो तीन गुणों को धारण करता है, वह कभी उत्पन्न नहीं होता।
सोइ सच्चिदानंद घन रामा। अज विज्ञान रूप बल धामा ।।
      -गोस्वामी तुलसीदासजी
 तीन गुणों के कारण जिनकी स्थिति नहीं है, वह एक-ही-एक है। तीन गुणों के साथ सगुण और तीन गुणों से छूटकर निर्गुण रहता है। दोनों का एक संग हो गया, वह निर्गुण ही सगुण कहलाया। आपका शरीर सगुण है। आप स्वयं निर्गुण हैं। सगुण रूप शरीर में निर्गुण को पा सकते हैं। इसलिए जो ईश्वर को पाना चाहते हैं, वे अपने शरीर में ही पा लेते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि-
एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो ।
परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं,बाहर फिरत विकल भय धायो ।।
 गोस्वामी तुलसीदासजी को अपने अन्दर में ईश्वर प्राप्त हुआ तो कहा कि अपने हृदय में ईश्वर को नहीं खोजकर बाहर-बाहर विकल होते रहे। दोहावली में उन्होंने कहा है-
 हिय निर्गुन नयनन्हिं सगुन, रसना राम सुनाम ।
 मनहु पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम ।।
 अर्थात् हृदय में निर्गुण है, आँखों से जो देखा जाता है, वह सगुण है। अपने अन्दर में यदि खोजो तो ईश्वर को पाओगे। यदि किसी दिव्य-शरीर को कहो कि यही ईश्वर है तो वह गलत है। दूसरे के अन्दर खोजो यह नहीं हो सकता है। अपने शरीर के अंदर खोजो तो ईश्वर का दर्शन होगा। जो अपने अन्दर नहीं पा सकता, वह किसी में नहीं पा सकता। निर्गुण को जो अपने अन्दर पा लेता है, उसको सबमें निर्गुण पा लेने का ज्ञान हो जाता है। इस बात को नहीं जानकर जो लोग भक्ति में जाते हैं, वह बाहर-ही-बाहर जाते हैं। जैसे मृगा के नाभि में कस्तूरी रहती है, लेकिन वह बाहर-ही- बाहर घास, पात, बिल, वृक्षादि में खोजता है। ऐसी भक्ति होनी चाहिए, जिस भक्ति से अपने अन्दर में ईश्वर को प्राप्त किया जाए। अपने में प्राप्त करने पर सबमें ईश्वर को पाएँगे। ईश्वर के बारे में अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। बिना समझे जो भक्ति में जाते हैं, वह ठीक जाते हैं, कहा नहीं जा सकता।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत 59वाँ अ0 भा0 संतमत सत्संग का वार्षिक विशेषाधिवेशन, कुरसेला (कटिहार) में दिनांक 25. 12. 1967 ई0 को सत्संग के प्रातःकाल में हुआ था। ।
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280. लोग रूप उपासना को ईश्वर उपासना मानते हैं
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 अपना देश सदा आस्तिकता को माननेवाला होता चला आ रहा है। ईश्वर की मान्यता यहाँ के लोगों को पसन्द है। इस्लाम, ईसाई आदि भी आस्तिक हैं। यह बड़ी अच्छी बात है। अपने देश में ईश्वर का ज्ञान कम गया है। लोग मन्दिरों में भगवान के दर्शन के लिए जाते हैं। किसी मन्दिर में राम की मूर्ति स्थापित है, किसी मन्दिर में कृष्ण की मूर्ति है तो किसी में शिव की, किसी में लक्ष्मी की तो किसी में दुर्गा आदि देवियों की मूर्तियाँ हैं। लोगों के मन में होता है कि यही ईश्वर हैं, ईश्वरियाँ हैं। इसके बाहरी रंग-रूप को देखते हैं तो इसी में विश्वास करते हैं कि यही वह है। यहाँ समझना चाहिए कि ईश्वर एक से अधिक नहीं है। वह भिन्न-भिन्न रूपों में व्यापक है। लोग रूप उपासना को ईश्वर की उपासना मानते हैं। अनेक रूपों में अनेक ईश्वर को माननेवाले आपस में मतभेद रखते हैं। सब रूपों में एक ही ईश्वर, अनेक रूप ईश्वर नहीं। अनेक रूपों को धारण करनेवाला एक-ही-एक ईश्वर है। इसको ठीक-ठीक समझिए तो यह विश्वास हो जाएगा कि अनेक रूप ईश्वर के हैं। जैसे अनेक कपड़े को राजा पहनता है, ऐसी ही बात समझिए। रामायण में लोग पढ़ते हैं कि-
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
 किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
 जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
 सोइ सोइ भाव देखावइ,आपु न होइ न सोइ ।।
 इस पर खूब मनन कीजिए। एक नाटककार राजा हरिश्चन्द्र बनता है। जो हरिश्चन्द्र बनता है, वह हरिश्चन्द्र नहीं है। इसी तरह अनेक रूपों में एक ही ईश्वर है। सब रूपों को धारण करनेवाला भिन्न ही रह गया। इस तरह समझना है कि एक- ही-एक जो सबमें है, ऐसा ईश्वर है या नहीं? इन्द्रियों के ज्ञान में आनेवाला माया है। लक्ष्मणजी से भगवान राम कहते हैं-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 मानवरूप कभी चिदानन्दमय नहीं हो सकता। ‘चिदानन्दमय देह तुम्हारी विगत विकार जान अधिकारी।’ इसको अधिकारी ही जानते हैं। अधि- कारी कौन होते हैं? ‘योगिन्ह परम तत्त्वमय भासा ।’
 अर्थात् योगी जानते हैं। चिदानन्दमय रूप जानने का अधिकारी योगी होते हैं। चिदानन्दमय रूप को जानने के वास्ते मायिक आवरणों को पार करना होगा। चिदानन्दमय रूप मायिक नहीं। चेतन आत्मा ही चिदानन्दमय रूप है। जो कोई योगी होता है, वह अपने शरीर में ऐसा भजन करता है, जिससे उसका जड़-चेतन का संग छूट जाता है। वह ज्ञान रखता है कि यह जड़ है, यह चेतन है। उसको यह प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। परमात्मा सब रूपों, सब शरीरां में व्यापक होते हुए, सब रूपों तथा सब शरीरों से परे है।
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
 परमात्मा प्रकृति में व्यापक होकर उसमें मर्यादित नहीं हो जाता, बल्कि उससे परे भी है। ऐसा एक- ही-एक हो सकता है। ईश्वर कभी नहीं हुआ है, वह हई है। वह देश-कालातीत है। सबसे पहले का क्या है? सबसे पहले का वही हो सकता है, जिसके पहले का कुछ नहीं हो, जिसके स्वरूप के बाहर कुछ नहीं हो। उसके बराबरी का दूसरा कुछ नहीं हो सकता। अगर उसके बराबरी का दूसरा हो, तो दो के बीच में अवकाश अवश्य होगा। इस तरह वह अनन्त नहीं हो सकता। वह एक-ही-एक परम सनातन, परम पुरातन है। जो परम प्राचीन, परम पुरातन है वा परम सनातन है, वही परमात्मा है। ईश्वर सबके पहले का होने के कारण आदि- अन्त-रहित है। जो सबसे विशेष सूक्ष्म होता है, वह अपने से स्थूल में स्वाभाविक ही व्यापक होता है। सबके अन्दर सबके बाहर एक ही ईश्वर व्यापक है।
 यह जानना चाहिए कि जीवित शरीर में जो ज्ञान है, वह इन्द्रियों का निजी ज्ञान नहीं है। ईश्वर सबसे विशेष सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियों से ग्रहण होने योग्य नहीं है। ईश्वर सबसे प्रथम का है, इसी कारण से वह आदि-अन्त-रहित है। ईश्वर-स्वरूप के बारे में यह अवश्य कहा जाएगा कि उसका मण्डल इतना बड़ा है-जिसका आदि-अन्त नहीं है। वह आदि-अन्त-रहित है। अपरिमित शक्तियुक्त होने के कारण उसपर शासन कोई नहीं कर सकता। उसमें ज्ञान की कमी नहीं, ईश्वर स्वरूपतः ऐसा है। सबसे अधिक व्यापक होने के कारण वह सबसे अधिक सूक्ष्म है। वह सम्पूर्ण चराचर में व्यापक है और उससे परे भी है।
 वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
 एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
         -कठोपनिषद् , अध्याय 2, वल्ली 2
 अर्थात् ईश्वर सब रूप-क्या पिण्ड, क्या ब्रह्माण्ड, सबमें व्यापक होते हुए सबसे बाहर भी है। जिसके ज्ञान का अन्त नहीं, जिसकी शक्ति का अंत नहीं, वही ईश्वर है। ईश्वर ऐसा नहीं है कि जिसे अपने तईं का ज्ञान नहीं होता। अनेक जीवों के समूह को ईश्वर मानना, यह सिद्धांत ठीक नहीं है। इसी को समझाने के लिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है कि सौ करोड़ कामदेव के समान सुन्दरता ईश्वर में है। ‘राम काम सत कोटि सुभग तन ।’
 यह सुन्दरता शरीर राम की नहीं, शरीर में व्यापक राम की है। यहाँ की सुन्दरता के लिए लोग जेवर-वस्त्र पहनाकर सुन्दर बनाते हैं। ईश्वर को कोई जेवर-वस्त्र नहीं, फिर भी करोड़ कामदेव से बढ़कर सुन्दर है। आप अपने सुन्दरता को नहीं जानते हैं। जैसे-जैसे माया के आवरण आपके ऊपर से उतरते जाएँगे, वैसे-वैसे आपकी सुन्दरता बढ़ती जाएगी। उस सुन्दरता के सामने बाहर की सुन्दरता कुछ नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
 ‘नभ सत कोटि अमित अवकासा ।’
 इसपर ध्यान दीजिए। कोई एक शरीर में इतना फैलाव हो सकता है? गोस्वामीजी इस तरह समझाते हुए राम के स्वरूप को निर्विषय कर देते हैं। ‘सत कोटि’ कहते-कहते उनको संतुष्टि नहीं हुई, इसलिए कहा राम की कोई उपमा नहीं।
निरुपम न उपमा आन,राम समान राम निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम,रवि कहत अति लघुता लहै।।
        -रामचरितमानस
 जैसे सौ करोड़ जुगनु को सूर्य के बराबरी में कहा जाय तो सूर्य की बहुत बड़ी हीनता होगी। इसी तरह असंख्य विष्णु, ब्रह्मा, रूद्र आदि के तुल्य ईश्वर को कहने से ईश्वर की हीनता होती है। ईश्वर सबसे विशेष सूक्ष्म है। इसीलिए वह अगोचर है।
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
        -रामचरितमानस
 अपने को पहचानो कि अपने क्या हो? तुम सत्य हो। तुम्हारा माया में विखार हो गया है। इस विखार के कारण अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं होता। अपने को समेटकर अपने अन्दर में चलो।
 इन्द्रियाँ माया से बनी है। इसलिए वह माया को ही जानने में समर्थ है। मायिक आवरण हट जाए तब जो ज्ञान होगा, वह दूसरा ज्ञान होगा। ईश्वर इन्द्रियातीत है। इन्द्रियातीत होने के कारण वह चेतन आत्मा के ज्ञान में आने योग्य है, दूसरे को नहीं। इन्द्रियों का ज्ञान छोड़कर निजी ज्ञान में रहकर ईश्वर को पहचान सकता है। उसकी पहचान माया के अन्दर नहीं हो सकता। ईश्वर का दर्शन करने के लिए बाहर संसार में कहीं जाएगा, वह शरीर और इन्द्रियों के साथ जाएगा। इन्द्रियों का संग छोड़कर चलना ही अपने तईं में अपने को रखना है। देह और इन्द्रियों का संग छोड़ने के लिए चलिए, जहाँ ईश्वर का दर्शन हो। असल में पूरी भक्ति यही है।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत 59वाँ अ0 भा0 संतमत सत्संग का वार्षिक विशेषाधिवेशन, कुरसेला (कटिहार) में दिनांक 25. 12. 1967 ई0 के अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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281. संतमत की विलक्षण बात
प्यारे लोगो!
 संतमत की विलक्षणता का क्या कहना है। संतमत ईश्वर के स्वरूप का ठीक-ठीक ज्ञान देता है। संतमत बतलाता है कि ईश्वर को कहाँ पाओगे? संतमत बतला देता है कि ईश्वर को पाने के लिए क्या अवलम्ब चाहिए। वह अवलम्ब बाहर से ढूँढ़ लाना है, सो नहीं। संतमत उस अवलम्ब को बतला देता है, जो तुम्हारे अन्दर है। संतमत उस आचरण को बतला देता है, जिस आचरण में चलकर उस अवलम्ब को पा सको, जिससे तुम परम मोक्ष वा परम कल्याण को पा लो। संतमत यह ज्ञान देता है कि इन्द्रियों से जो कुछ जानने में आवे, वह माया है। इन्द्रियों के ज्ञान में जो नहीं आता, जो इसके ज्ञान से बहुत दूर ऊँचा है, वह ईश्वर है। ईश्वर इन्द्रिय-ज्ञान में नहीं आता। परन्तु आपके निजी ज्ञान में आ सकता है। ईश्वर को आप निजी ज्ञान में प्रत्यक्ष जान सकते हैं। जैसे दृश्य वह है, जिसे आँख से देख सको। रस वह है, जिसे जिभ्या से लो। स्पर्श वह है, जिसे त्वचा से ग्रहण करो। शब्द वह है, जिसे कान से सुनो। गन्ध वह है, जिसे नाक से ग्रहण करो। इसी तरह ईश्वर वह है, जो चेतन आत्मा के ज्ञान में आवे।
 इन्द्रियों से उच्च मन है, मन से उच्च बुद्धि, बुद्धि से भी उच्च जड़ प्रकृति और उससे भी उच्च आत्मा है। संतमत इन सबको बतला देता है। जड़ प्रकृति अपने स्वरूप में अव्यक्त है। उसी से यह व्यक्त संसार बना है। गीता में दो प्रकृतियों का वर्णन है-अपरा (जड़) और परा (चेतन)। इन दोनों प्रकृतियों से उच्च पुरुषोत्तम है। आत्मतत्त्व पर पहला आवरण ज्ञानमय है। चेतन प्रकृति रूपान्तरित नहीं होती। वह बहुत सूक्ष्म आवरण है। जैसे ऐने की आलमारी में जो कुछ रखा रहता है, वह बाहर से दिखाई पड़ता है। इसी तरह चेतन आत्मा की आड़ में ईश्वर नहीं छिप सकता। चेतन आत्मा को ही सच्चिदानन्दघन कहा गया है। यह साफ-साफ बतला देता है, संतमत।
 बहुत-सी बातें लोगों को याद नहीं रहती है। इसलिए थोड़े में संतों ने कहा-आँख बन्द करो, तो अन्धकार होगा। तुम्हारे अन्दर प्रकाश है। यदि अन्दर में प्रकाश नहीं होता, तो बाहरी प्रकाश को नहीं देख पाते। सजातीय पदार्थ को सजातीय पदार्थ से सहायता मिलती है। यह जो बाहर की चीजें हम देख रहे हैं, यदि आँख में देखने की शक्ति नहीं होती तो देखने की चीजों को नहीं देख सकते। घोर अंधकार है। कोई रोशनी नहीं है। यहाँ आँख मौजूद रहते हुए भी अंधकार में पड़े हैं। प्रकाश हो गया तो आँख से सारे पदार्थों को देखने लग गए। आपकी आँखों में ज्योति है, इसलिए देह गरम है। गरमी प्रकाश से होती है। प्रत्यक्ष देखने की युक्ति जानकर देखिए तो प्रकाश है। बाहर देखना बिल्कुल छोड़ दो। अन्दर में देखने की विधि जानो। श्रद्धालु के लिए सद्ग्रन्थ झूठा नहीं। एकान्त होकर बैठिए। अन्दर में तीन परदे हैं- अन्धकार, प्रकाश और शब्द। इन तीनों परदों के अन्दर माया का पसार है। तीनों परदों को पार करो, तो ईश्वर-दर्शन होगा। इसलिए संत दादू दयालजी ने कहा-
 अविगत अंत अंत अंतर पट,अगम अगाध अगोई । सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई ।।
 अन्तर पट के अन्त में सर्वव्यापक परमात्मा है। अंधकार में शून्य है, प्रकाश में शून्य है और शब्द आकाश का गुण ही है। तीनों परदों को पार करने पर ईश्वर छिपा नहीं रहता। जहाँ तक ये तीनों हैं, वहाँ तक माया है। अन्धकार में तामस माया, प्रकाश में राजस माया और शब्द में सात्त्विक माया है। आपको इन तीनों के परे जाना है। अन्तर पट के अन्त में पहुँचिए। माया का सारा पसार इन तीनों के अन्दर है। संतमत यह समझाता है।
 सृष्टि के आदि में सबसे पहले शब्द हुआ। किसी चीज की बनावट कम्प से होता है। कम्प शब्दमय होता है और शब्द कम्पमय होता है। यह ज्ञान पढ़न्त विद्या में नहीं है। यह साधन में है-योग विद्या में है। सबसे पहले शब्द हुआ। शुरू से आखिर तक उस शब्द की धारा मौजूद है। सबको ज्ञान होता है कि हम शरीर के अन्दर हैं। शरीर के अन्दर अन्धकार में हैं, आँख बन्द करके देखिए।
 पहले बिजली चमकती है, तब ठनके की आवाज होती है। साधन में भी पहले देखो, तब सुनो। देखने की विद्या को शाम्भवी मुद्रा वा वैष्णवी मुद्रा कहते हैं। पहले इसको पकड़ो, तब जो शब्द होता है, सो पकड़ो। संतमत बतला देता है कि ज्योति और शब्द वह अवलम्ब है, जिसके सहारे ईश्वर तक पहुँचा जा सकता है। शब्द को पकड़ने के लिए ज्योति का साधन है और ज्योति को भी पकड़ने के लिए कुछ रूप का ध्यान तथा कुछ जप कर लो। मानस जप, मानस ध्यान में अन्तःकरण शुद्ध होता है। ईश्वर चेतन आत्मा से ग्रहण होने योग्य है। संतमत में यही विलक्षण बात है। मोटी- मोटी तथा अपवित्र चीजों को हटाते जाओ और सूक्ष्म तथा पवित्र चीजों को पकड़ते जाओ। अन्दर की मलिनता को हटाते जाओ और अन्दर की अनुभूति को पकड़ते जाओ।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत 59वाँ अ0 भा0 संतमत सत्संग का वार्षिक विशेषाधिवेशन, कुरसेला (कटिहार) में दिनांक 26. 12. 1967 ई0 को सत्संग के प्रातःकाल में हुआ था। ।
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282. सगुण उपासना के बाद ही निर्गुण तत्त्व की प्राप्ति
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 इस समय मैं ईश्वर-भक्ति के बारे में कहूँगा। ईश्वर-भक्ति के बारे में जानने के लिए ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान चाहिए। इन्द्रियों से नहीं, चेतन आत्मा से ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान होगा। ईश्वर का स्वरूप वही है, जो चेतन आत्मा से पहचानने में आता है। चेतन आत्मा को यह ज्ञान प्रत्यक्ष हो जाता है। ईश्वर- भक्ति में यही विशेष बात है। भक्त ईश्वर का दर्शन अवश्य चाहता है। सर्व इच्छाओं को तिलांजलि देकर ईश्वर का दर्शन वह चाहता है। ईश्वर-दर्शन के वास्ते जो काम करना है, वही ईश्वर की भक्ति है। पहला काम यही है कि ज्ञान प्राप्त करो। केवल सांसारिक ज्ञान नहीं। सांसारिक ज्ञान के सहित अध्यात्म-ज्ञान भी प्राप्त करो। अध्यात्म-ज्ञान के बिना ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान नहीं होता। यह ठीक है कि ईश्वर अव्यक्त है। अव्यक्त में मन लगाया जा सकता है। किस तरह? इस पर एक कथा सुनिए-महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। राजा युधिष्ठिर बहुत रोता था। वह कहता था कि मैंने युद्ध करके बहुत बड़ा पाप किया। इस युद्ध में बूढ़े-बच्चे सब मारे गए। आपस में लड़कर ठूँठ हो गए। इसलिए अब हमें जंगल में जाकर तप करना चाहिए। भगवान कृष्ण तथा व्यासजी ने बहुत समझाया। लेकिन युधिष्ठिरजी को बोध नहीं होता था। तब व्यासजी ने सोचा कि इसका मन दूसरी ओर लगाना चाहिए। व्यासजी ने कहा-‘तुम अश्व- मेध यज्ञ करो।’ युधिष्ठिर ने कहा-‘हमारे पास धन कहाँ? धन तो सब युद्ध में समाप्त हो गए।’ व्यासजी ने कहा-‘तुम नहीं जानते हो, तुम्हारे लिए धन अव्यक्त है। राजा मरुत ने यज्ञ किया था, उसमें उन्होंने इतना दान दिया था कि लोग ले जा नहीं सके। तब उस धन को उनलोगों ने पहाड़ में गाड़ दिया। उस धन को मैं जानता हूँ।’ युधिष्ठिर को उस धन के पाने का अनुष्ठान और रास्ता बतला दिया गया। उसने उस धन को प्राप्त किया। पहले युधिष्ठिर के लिए वह धन अव्यक्त था, व्यासजी के वचन पर विश्वास कर धन को प्राप्त किया। अव्यक्त परमात्मा में भी मन ऐसे ही लगाया जाता है। संत इसको जानते हैं। ईश्वर-स्वरूप जो अव्यक्त है, वह भक्ति से व्यक्त होता है।
 जबतक सद्ग्रन्थों तथा संतों में विश्वास नहीं किया जाएगा, तबतक धर्म को कोई नहीं जान सकता। विश्वास ऐसा कि कभी हिले-डोले नहीं। वह ईश्वर का स्वरूप रूपी धन अभी अव्यक्त है जो भक्ति से व्यक्त हो जाएगा। इससे यह निचोड़ निकलता है कि इन्द्रिय और शरीर से ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता। अपने को जड़़-विहीन करके-केवल चेतन-ही-चेतन रहे, तब अव्यक्त हो जाएगा कि यह ईश्वर है। यदि भक्ति का फल परम मोक्ष चाहते हो तो यही काम करो। पहले तो अपने को और अपने शरीर को भिन्न-भिन्न करके जानना मुश्किल होता है। बहुत लोग कहते हैं कि हम तो जड़ से विहीन ही हैं। हमको तो स्वरूप का ज्ञान प्राप्त ही है। उनसे मैं कहता हूँ-‘हे ज्ञानवान पुरुष! आपको ज्ञान प्राप्त ही है, तो आपको भूख और प्यास क्यों लगती है?’ यहाँ तक कि पेशाब और पैखाना भी लगता है। ऐसे ज्ञान से कोई लाभ नहीं। खाली मन-ही-मन खीर बनाकर खा लेना कहाँ तक यथार्थ है? अन्धेरी रात में बैठकर केवल चिराग की बात करने से प्रकाश होगा?
     तेल तूल पावक पुट भरि धरि, बनै न दिया प्रकासत ।
     कहत बनाय दीप की बातें, कैसे हो तम नासत ।।
            -संत सूरदासजी
 इसलिए यत्न करना होगा। इन्द्रियों के ज्ञान से चेतन आत्मा का निजी ज्ञान भिन्न है। सुस्त बनने से वा साधन-विहीन होकर रहने से निजी लाभ नहीं होगा। जैसा संत लोग बताते हैं, वैसा करो। संतों ने जो रास्ता बताया है, वह व्यक्त-ही- व्यक्त है। साधक पहले स्थूल व्यक्त को जानता है, तब सूक्ष्म व्यक्त को जानता है। संत के कहे अनुसार यत्न करो, तो जो सूक्ष्म अव्यक्त है, वह व्यक्त हो जाएगा। सबसे पहला अव्यक्त जो पुरुषोत्तम है, वह भी व्यक्त हो जाएगा। वह चेतन आत्मा को व्यक्त होगा। जड़-विहीन चेतन आत्मा का जो ज्ञान होगा, उसी ज्ञान की दशा में ईश्वर का दर्शन होगा। गोस्वामी तुलसीदासजी केवल मोटी भक्ति में नहीं थे। विनय-पत्रिका में है-
एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो।
परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं, बाहर फिरत विकल भय धायो ।।
 सूरदासजी ने भी कहा-
अपुन पौ आपुन ही में पायो ।
शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो।।
 अब बताइए कि नानक बाबा और कबीर बाबा इनसे आगे की बात कहे हैं क्या? इतना फर्क जरूर है कि सगुण भक्ति के बारे में गोस्वामी तुलसीदासजी तथा सूरदासजी ने विशेष जरूर कहा और निर्गुण के बारे में कम। सब संत बराबर हैं। कोई-कोई कबीर साहब को निर्गुणवाले मानते हैं। क्या वे गुरु को मानते थे कि नहीं?
 गुरु का रूप सगुण ही हुआ। ईसाई बनो, तब भी गुरु है, इस्लामी बनो, तब भी गुरु है। जितने ईश्वर को माननेवाले हैं, सब में गुरु हैं। जितने सम्प्रदाय हैं, सबमें गुरु हैं। ईश्वर को नहीं माननेवाले नास्तिक को भी गुरु है। जबसे लोगों ने गुरु को माननेवाले की प्रतिष्ठा में कम स्थान दिया है, तब से लोग भूले। गुरु सगुण ही है। कबीर साहब कहते हैं-
 मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
 मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।
गुरु नानक साहब ने कहा-
 गुरु की मूरति मन महिं धिआनु ।
 ये सब कैसे बिल्कुल निर्गुणवाले हो गए? जप, प्रार्थना-सगुण उपासना है। जितने संत हुए किसी-न-किसी तरह से सगुण उपासना करके ही निर्गुण तत्त्व को प्राप्त किए हैं। तमाम संसार के विश्वविद्यालयों का पाठ समाप्त करके आवे, निर्गुण बोल नहीं सकते। निर्गुण शब्द जिभ्या पर नहीं आ सकता। अमृतनाद उपनिषद् में आया है-
अघोषम् अव्यंजनम् अस्वरं च अकण्ठ ताल्वोष्ठमनासिकं च।
अरेफ जातं उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित् ।।
 गोस्वामी तुलसीदासजी भी निर्गुण नाम जानते थे। मानस जप, मानस ध्यान, प्राणायाम; ये सब सगुण उपासना है। निर्गुण उपासना के लिए प्राणायाम से बारीक काम करना होगा, सो ध्यान है। प्राणायाम के बाद प्रत्याहार है। प्रत्याहार में मन पिछड़-पिछड़ जाता है, लेकिन बारम्बार कोशिश करते रहो, कुछ-न-कुछ ठहराव अवश्य होगा।
 करत करत अभ्यास के, जड़ मति होत सुजान ।
 रसरी आवत जात ते, शिल पर पड़त निसान ।।
 अल्प-से-अल्प ठहराव को धारणा कहते हैं। इसमें जब गहराई आवेगी तो ध्यान होगा। ध्यान के बाद समाधि होती है। इसी में योग समाप्त होगा। जबतक समाधि नहीं होगी, तबतक योग समाप्त नहीं होगा। संतगण कहते हैं-केवल ध्यान करो। प्राणायाम के कष्टों से बचकर केवल ध्यान से भी काम हो जाता है। गीता के छठे अध्याय में केवल ध्यानयोग का ही वर्णन है। इस योग के शुरू करनेवाले को उलटा फल नहीं मिलता है। यह योग महाभय से बचाता है। इसका थोड़ा अभ्यास भी महाभय से बचाता है। इसके आरम्भ का नाश नहीं होता। योग का सीधा फल है, ईश्वर की प्राप्ति। महाभय क्या है? ऊँचे वा अनपढ़े में से किसी को कहा जाए कि तुम हाथी हो जा, घोड़ा हो जा, तो देखिए क्या कहता है। और यदि गधा का नाम कहा जाए तो मार ही हो जाए। मनुष्य-देह के अतिरिक्त कोई भी देह मिले, महाभय है। हाथी बनिएगा तो विवशता है, सिंह बनिएगा तो भी विवशता है। इस योग का जो थोड़ा भी अभ्यास करेगा, तो मनुष्य-शरीर अवश्य मिलेगा। यह संस्कार रविदासजी में पड़ा, वह संत हो गए। श्वपच भक्त थे। इनका भगवान ने भी आदर किया। श्वपचजी के भोजन करने पर ही युधिष्ठिरजी का यज्ञ सफल हुआ। जब वे भोजन कर रहे थे, तो द्रौपदी के मन में हुआ कि आखिर है तो डोम ही न! श्वपचजी ने खाना छोड़ दिया। जब युधिष्ठिर ने आग्रह किया तो उन्होंने कहा-अब हम खायेंगे तो डोमवाला भोजन होगा। पूछिए रानी से। द्रौपदी से पूछा गया तो कहा-‘हाँ, मेरे मन में ऐसा ख्याल हुआ था।’
 शवरी को देखिए-साधुओं से वरदान माँग कर नीच कुल में गई। असल में उनका नाम श्रमणी था। शवर कुल में जन्म हुआ, इसलिए शवरी कहलाई। नीच कुल में भी ऊँच पाए गए, असल में इसी भजन- अभ्यास से। भक्ति-योग ऐसा है कि वह छोड़ेगा नहीं।
 भक्ति बीज बिनसै नहीं, जो युग जाय अनंत ।
 ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।।
 भक्ति बीज पलटै नहीं, आय पड़ै जो चोल ।
 कंचन जौं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।
             -कबीर साहब
 भगवान बुद्ध ने पहले कठोर तप किया, बाद में ध्यान किया। एक ही रात में उनको सारी अनुभूतियाँ हो गयीं। उनका शिष्य जिसका नाम देवदत्त था, वह कठोर-कठोर नियम बनाकर लाता। भगवान ने कहा-‘इस कठोर नियम को मानता हूँ, लेकिन सहज में भी लोग कर सकते हैं। जिनको जो मंजूर होगा, सो करेंगे।’ भगवान बुद्ध के नहीं मानने पर उनसे देवदत्त द्रोह करने लगा। ध्यान योग सबसे होने योग्य है। चाहे वह हल जोतनेवाला ही क्यों न हो। जो एक शब्द भी नहीं जानता, उससे भी होगा।
 ऐसी सेवकु सेवा करै, जिसका जीउ तिसु आगे धरै।
 ईश्वर की सेवा भक्त ऐसी करें कि-जिसका जीव; उसके आगे धरे। सब आवरणों को पार कर जाना ही है-‘जिसका जीउ तिसु आगे धरै।’ इस मार्ग पर चलो। अन्दर मार्ग पर चलना परम भक्ति है। मुझको इस पर बहुत मजबूती है। इस पर मुझसे कोई जितना बात करना चाहे, करूँगा।
 मार्ग कहते हैं रास्ता को। आप अपने शरीर में हैं। ईश्वर भी आपके शरीर ही में है। आपको अपने शरीर के अन्दर ही चलना है। अन्तर्मार्ग पर चलनेवाला जीवात्मा है। प्राप्तव्य परमात्मा है। जहाँ जो बैठा रहता है, वहीं से मार्ग आरम्भ होता है। जगने की अवस्था में जीव आँख में रहता है, स्वप्न में कण्ठ में और गहरी नींद में हृदय में। तीन अवस्थाओं में रहने के कारण तीन स्थानों में जाते- आते रहते हैं। आँख से ऊपर तुरीय अवस्था है।
 बाहर का देखना छोड़ दो तो अन्धकार में हो। इससे उलटी बात मानने योग्य नहीं। ईश्वर के पास जाने के लिए यहीं से रास्ते पर चढ़ना होगा, जो इस रास्ते पर चढ़ेगा, वह जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में नहीं रहेगा। तुरीय अवस्था का जहाँ अंत हो जाता है, वहीं ईश्वर का दर्शन हो जाता है। यह भक्ति का पूरा रास्ता है। यह अन्दर का रास्ता एक-ही-एक है। इसपर विद्वान-अविद्वान सभी चल सकते हैं, कोई रोक-टोक नहीं।
 आपके अन्दर ज्योति है और शब्द है। जैसे गंगा में कोई तैरता है, तो उसका पथ जल ही होता है। इसी तरह जो ज्योति में जाता है, उसका ज्योति पथ है और ज्योति ही आधार है। ज्योति से जब शब्द में जाता है तो शब्द ही पथ होता है और शब्द ही आधार होता है। ज्योति पकड़ते हुए ज्योति को पार कर जाते हैं और शब्द को पकड़ते हुए शब्द को पार कर जाते हैं। सभी मनुष्यों को चाहिए कि इस पवित्र चीज को लेने के लिए बाहरी चीज कुछ नहीं लें।
 यह पवित्र काम है। जिसके हृदय में पवित्रता नहीं है, वह इस काम को नहीं कर सकता। हृदय पवित्र रखने के वास्ते झूठ नहीं बोलो, चोरी मत करो, नशा न खाओ, न पीओ, हिंसा मत करो। हिंसा के सिलसिले में मांस-मछली मत खाओ। व्यभिचार मत करो। झूठ नहीं बोलोगे तो संसार के दुःख से छूट जाओगे। धन कमाओ, लेकिन शुद्धता पूर्वक कमाओ। तृष्णा को कम कर देना है। जो थोड़े में संतोष रखता है, वह साधन कर सकता है। यहाँ जिनको पण्डाल में जगह नहीं मिली, वे लोग बाहर में ही इस कड़ाके की जाड़े में सो जाते हैं। कोई पूड़ी-मिठाई खाते हैं और कोई सत्तू ही खाते हैं। कोई पूड़ी-मिठाई खाने के लिए अपने मन को पाप में मत डूबाओ। धन को बुरी तरह कमाना, यह आपको हानि में पहुँचा देगा। इसमें बहुतों को, बड़े- बड़े को धक्का लगा। बुरी तरीके से कौन छुड़ावेगा? हमलोगों को विश्वास है कि ईश्वर-भक्ति में जाए, तो बुरी तरीके से छूट जाएँ। बुरे कर्म से भक्ति द्वारा बचिएगा। संतोष परम लाभ है। लोभ-लालच से मन को बचा-बचाकर रखो। दुष्टकर्म से बचना कानून के डण्डे से नहीं होता है। आजकल देश में दुष्टकर्म का ताण्डव नृत्य हो रहा है। सबलोग भक्ति के पक्ष में आ जाएँ तो आपके देश में शान्ति विराजने लगेगी। तब स्वराज्य में सुराज आ जाएगा।
 महात्मा गाँधी भक्त लोग थे। वे कितने सच्चे थे। जिस समय वे वकालत करते थे तो लोग जानते थे कि गाँधीजी झूठा मुकदमा नहीं लेते हैं। संयोगवश एक मुकदमें की झूठाई गाँधीजी को मालूम हो गई। उन्होंने हाकिम को कहा कि हमने जो इस केस में बहस किया था, सो सब झूठा है। कहने का मतलब यह है कि भक्ति के पक्ष में आने से देश से दुष्टकर्म भाग जाएगा। सदाचार के पालन से ही अध्यात्म-पथ में गमन होगा। सभी को भक्ति पक्ष में आना चाहिए। मोटी भक्ति से आरम्भ करके परा भक्ति तक आना चाहिए। सुन्दरदासजी ने कहा है-
 श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै ।
 रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै ।।
 नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै ।
 अंग बिना मिलि संग, बहुत आनंद बढ़ावै ।।
 बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिए रहै ।
 मिलि परमातम सो आतमा,पराभक्ति सुन्दर कहै ।।
 यह परा भक्ति है। इसी भक्ति के बारे में संत लोग कह गए हैं। इसी का इस सत्संग के द्वारा प्रचार होता है। वेद में खोजिए, वहाँ भी दृंष्टयोग और शब्द साधन है। इससे मेरा दिल मजबूत हो गया है। संतों का मार्ग बहुत उत्तम है। साधन करने में जिनसे जितना सधे, उतना अवश्य करो। छोड़ो मत। यह आपको मुक्ति दिलाकर ही छोड़ेगा।
 अब सत्संग समाप्त होने पर सबलोग अपने- अपने घर को जायेंगे। सत्संग करानेवाले तथा सत्संग में आनेवाले सब लोगों को मैं बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ। इसमें जिन्होंने जितना लगाया, उन्होंने उतना ही पुण्य अर्जन किया। बहुत-बहुत भक्ति का हिस्सा लिया। इसके लिए सब लोगों को बहुत-बहुत धन्यवाद।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत 59वाँ अ0 भा0 संतमत सत्संग का वार्षिक विशेषाधिवेशन, कुरसेला (कटिहार) में दिनांक 26. 12. 1967 ई0 को सत्संग के अपर्रांकाल में हुआ था। ।
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259. दो प्रकार के स्वार्थ
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 जो सत्संगी लोग सत्संग में कुछ वचन कहकर सत्संग का प्रचार करने में उत्साह रखते हैं और ऐसा करते हुए वह पवित्र जीवन बिताने की कोशिश करते हैं, उनकी मैं तारीफ करता हूँ। उनको जानना चाहिए कि पवित्र जीवन बिताना उसी तरह है, जैसे किसी मन्दिर को बनाने में उसकी नींव मजबूत होती है। कमजोर नींव मत दो। पवित्र जीवन में पाँच पाप का निषेध है-अत्यन्त निषेध है। वे पाँच पाप ये हैं-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार। यह बारम्बार सत्संग में कहा जाता है। इस पर ध्यान देना चाहिए।
 दूसरा यह कि स्वार्थ छोड़कर सत्संग का प्रचार करो। अपने लिए ऐहिक सुख जानकर प्रचार करो, तो गलती होगी। स्वार्थ दो प्रकार के हैं-एक तो यह कि-
स्वारथ साँच जीव कहँ एहा। मन क्रम वचन राम पद नेहा ।।
 यह स्वार्थ उत्तम है। यह स्वार्थ रखो। ईश्वर में तुम्हारा प्रेम हो, यह तुम्हारा अपना खास है। स्वार्थ माने अपने वास्ते। अपने वास्ते क्या खास है? अपने क्या हो? शरीर-इन्द्रिय तो तुम हो नहीं, शरीर के साथ इन्द्रिय तुम नहीं हो, अन्तःकरण नहीं हो। इनके साथ तुम आत्मा हो। खास आत्मा के लिए जो चाहिए, सो है स्वार्थ। संसार में आत्मा के लिए कोई चीज नहीं, कि लिया जाय। अपने को पहचानो। अपने को पहचाने बिना जीव गलती में पड़ता है। अपने को पहचानो, यही लो, यही है स्वार्थ। जिन्होंने अपने को पहचाना, उनको संसार की किसी वस्तु के लेने की इच्छा छूट गई, मोक्ष मिल गया, ईश्वर का मिलना दूर नहीं रहा। यह स्वार्थ लो। ईश्वर को लो। ईश्वर का दर्शन आत्मा से ही होता है। जड़-शरीरों के साथ मिल-जुलकर रहने से ईश्वर-दर्शन नहीं होता है। इन शरीरों के साथ माया में रहना होता है। इन्द्रियों में रहना होता है। इन्द्रियों से जो ग्रहण होता है, वह माया है। शरीर-इन्द्रियों से छूटकर रहने से तब जो ग्रहण होता है, वह परमात्मा है, यह असली स्वार्थ है। संसार में जिसको लोग स्वार्थ समझते हैं, वह माया के ग्रहण करने हेतु है, वह असली स्वार्थ नहीं है। मन, इन्द्रिय, शरीर के सुख के वास्ते जो होता है, वह असली स्वार्थ नहीं है। इसमें भी दो प्रकार के स्वार्थ हैं। एक संकीर्ण स्वार्थ अर्थात् अपने शरीर- इन्द्रिय के सुख के लिए करता है। दूसरा जो अपने शरीर और इन्द्रियों के सुख के साथ दूसरों के सुख के लिए भी ख्याल करता है, यह उदार स्वार्थ है। जो संकीर्ण-स्वार्थ में लगता है, वह नरक में है और नरक में पड़ता है-अपने लिए संसार चक्र को बढ़ाता है। संकीर्ण -स्वार्थ का ख्याल छोड़कर सत्संग का प्रचार करो। असली स्वार्थ को समझकर सत्संग का प्रचार करो। अपने ऐहिक सुख के लिए दूसरे के ऐहिक सुख का घात न हो। अपने को उदार स्वार्थ में रखकर असली स्वार्थ में जाना चाहो। इस तरह का धर्म-प्रचार लाभ पहुँचावेगा। नहीं तो हानि होगी, नीचे गिरोगे।
 सत्संग के प्रचार का हेतु क्या है? यह बतलाना चाहिए। फिर बताना चाहिए कि मूल स्तम्भ क्या है? उसको ईश्वर बताना चाहिए। ईश्वर-स्वरूप बताने में समझाना चाहिए कि मन- इन्द्रिय से जो ग्रहण होता है, वह माया है। जो चेतन आत्मा से ग्रहण होता है, वह ईश्वर है। संसार की वस्तुओं में से किसी को ईश्वर कहना गलत है। जो केवल आत्मा से ग्रहण हो-पहचान हो, वह ईश्वर है। आत्मा से पहचानने के लिए आवश्यक है, अपने को मन, इन्द्रिय से अलग करो। केवल विचार में नहीं। विचार में जानो और यथार्थ में अलग-अलग करो। इसके लिए ज्ञान योग-युक्त-भक्ति को ग्रहण करो। ज्ञान आत्मज्ञान है, ईश्वर से युक्त होना योग है। इसको संतों ने बहुत सरल बताया। चाहे पढ़ा-लिखा कुछ नहीं हो, तब भी कुछ जप कर सकता है। मानस ध्यान कर सकता है। जो पदार्थ देखा है, उसको मन में बनाकर ध्यान कर सकता है। लेकिन यह आरम्भिक बात है। इससे भी आगे बढ़ो। इसके लिए संतों ने दृष्टियोग बताया। दृष्टियोग से सूक्ष्ममण्डल का ज्ञान तथा उसमें विचरण होता है। जो बहुत भाग्यवान है, वह अपने को उसमें रख सकता है। वह सारे ब्रह्माण्ड को देखता है। लेकिन ब्रह्माण्ड को देखने पर भी ईश्वर को नहीं देखता है। इसी के लिए निर्गुण नाम भजन है। वह शब्द जो ईश्वर का खास नाम है, उसको संतों ने शिव, राम आदि कहा। वह शब्द मुँह से बोला नहीं जाता। वह केवल अनुभवगम्य है। ध्यान करते-करते उसकी स्थिति का ज्ञान होता है। उसको कान से सुनना नहीं है। पवित्र सुरत से सुनना होता है। उसकी उत्पत्ति परमात्मा से है। उसकी उत्पत्ति से सारा संसार हुआ है। उसका छोर ईश्वर तक लगा है, इसका जो विश्वास करता है, उसको जानना चाहिए कि कोई भी शब्द अपने उद्गम स्थान पर खींचता है। जिधर से शब्द आता है, उधर को सुननेवाला खिंचता है। पशु भी मनुष्य की बोली सुनकर मनुष्य के पास आता है। जिस आवाज से कुत्ता को पुकारा जाता है, उस आवाज से पुकारने पर कुत्ता उधर ही दौड़ता है, जिधर से शब्द आता है। साँप भी शब्द सुनकर उस ओर आता है। मेरे कहने का मतलब है कि विषधर साँप भी शब्द के उद्गम की ओर आता है। बहुत दिन पहले एक कुत्ता मेरे साथ-साथ चलता था। मैं सत्संग मन्दिर में चला गया। लोग सब आगे सामियाने में बैठे थे। मेरी आवाज सुनकर वह कुत्ता मेरे पास चला आया। मैंने डाँट दी, तब वह कुत्ता बाहर चला गया। लोग शब्द की उत्पत्ति को नहीं जानते हैं। बिना शब्द वा कम्प के कुछ बन नहीं सकता। परमात्माकृत सृष्टि है। उन्होंने मौज की। मौज कम्प स्वरूप है। कम्प बिना शब्द के नहीं होता है। कम्प शब्द के साथ रहता है, शब्द कम्प के साथ रहता है। किसी शब्द को सुनते हो, किसी को नहीं सुनते हो। वैज्ञानिकों ने इसको जाँच किया है। तीस हजार फ्रीक्वेन्सी (आवृत्ति संख्या) तक सुन सकते हो,बीस से नीचे की फ्रीक्वेन्सी को नहीं सुन सकते। कम्प के बिना कुछ नहीं बनता। इसलिए शब्द से सृष्टि हुई है। जो शब्द जिस सृष्टि के लिए होता है, वह शब्द उस सृष्टि के कण-कण में समाता है। जो शब्द सबके अन्दर है, उस शब्द को जो पकड़ता है, ईश्वर तक पहुँचता है। क्योंकि उसकी उत्पत्ति परमात्मा से हुई है। अपने अन्दर ध्यान करो। ध्यान करते-करते एक दिन होगा-‘शब्द सिन्ध में जाय सिरानी।’ जैसे सभी नदी की गूँज समुद्र में समाप्त हो जाती है, उसी तरह सभी शब्द उसमें लय हो जाते हैं। केवल एक शब्द रह जाता है। वह शब्द तबतक अभ्यासी सुनता रहता है,जबतक उसका जीवन रहता है। वह शब्द भी ईश्वर में लय होता है। वह शब्द निर्गुण है, मुँह से बोला नहीं जाता। इसी को गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
बन्दउँ रामनाम रघुवर को। हेतु कृषाणु भानु हिमकर को।।
विधि हरि हर मय वेद प्रान सो। अगुण अनूपम गुण निधान सो।।
 इस शब्द मार्ग का उपदेश वेद, उपनिषद् में मौजूद है और संतवाणी तो इसकी किताब ही है। इसका प्रचार करना चाहिए। पंच पाप का निषेध होना चाहिए। संकीर्ण स्वार्थ का स्वयं त्याग करो और औरों में भी इस त्याग का प्रचार करो। इससे अपना भी उपकार होगा और दूसरों का भी। पहले अपना ही उपकार होगा, पीछे दूसरों का।
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यह प्रवचन संथालपरगना जिलान्तर्गत संतमत सत्संग मंदिर, विषहा, गोड्डा में दिनांक 16.02.1967 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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ABP-85. स्वार्थ छोड़कर सत्संग का प्रचार करो [16.02.1967]