1966 (प्रवचन संख्या : 224-254)

224. आपने नई उम्र में क्यों साधु वेश लिया? (22.02.1966)


224. आपने नई उम्र में क्यों साधुवेश लिया?
प्यारे लोगो!
 मेरी जब नयी उम्र थी और घर-बार को छोड़कर साधुरूप धारण कर लिया था, तब आरा जिले में एक जगह गया। वहाँ एक साधु रहते थे। वहाँ कुछ लोगों ने मुझे बुलाया और मुझसे पूछा कि आपने नयी उम्र में क्यों साधुवेश लिया? मैंने कहा-‘मैं अंग्रेजी में पढ़ता था। उसमें प्यारीचरण मुखर्जी की लिखी हुई एक पुस्तक थी, जिसका नाम था-थ्पतेज ठववा वि त्मंकपदहण् आरम्भिक अंग्रेजी शिक्षा देने के लिए यह एक किताब थी। उसमें लिखा था-श्।सस उमद उनेज कपमण्श् इसी वाक्य ने अंकुश का काम मेरे लिए किया। जैसे अंकुश की मार से हाथी सचेत हो जाता है, उसी तरह मैं भी सचेत हो गया। संसार का सुख तबतक है, जबतक मृत्यु नहीं हुई है। संसार के सुख में दुःख लगा रहता है। जैसे-जैसे सुख होता है, वैसे- वैसे दुःख भी होता रहता है। यह सोचने पर मेरे मन में हुआ कि संसार का सुख तो ऐसा है, तो संसार के सुख-दुःख से निवृत्त हुआ जाय। दुःख तो कोई चाहता नहीं, सब सुख चाहते हैं। सुख से भी निवृत्त होना चाहिए। श्रीमदाद्य शंकराचार्यजी ने कहा है-
   पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम् ।
 इस बारम्बार के जन्म-मरण में स्वाभाविक रूप से दुःख होते हैं। साधारण मृत्यु में यह दुःख नहीं छूटता है। संतों की वाणी को बारम्बार पढ़ने से मालूम होता है कि अपने बाप-दादा के घर को नहीं छोड़कर घर में रहकर ही ईश्वर-भजन करो, तो काम चल सकता है। सांसारिक दुःख-सुख से बचने का जो काम है, वह काम करना चाहिए। वह काम है ईश्वर-भजन। ईश्वर का भजन करना अच्छा है। सभी कोई जानते हैं। ईश्वर के भजन में सीधे-सीधे ईश्वर का गुणगान करना ही काफी नहीं है। जो लोग रामायण, महाभारत आदि पढ़ते हैं या सुनते हैं, उनको मालूम होगा कि भगवान राम जब थे, तब भी बहुत लोगों ने उनको देखा था, लेकिन सिर्फ देखने से ही किसी को मोक्ष नहीं हुआ। अपने को मोक्ष में पहुँचाने के लिए कोशिश करो। यही श्रीभगवान ने कहा। वाल्मीकीय रामायण, अध्यात्म रामायण, तुलसीकृत रामायण-इन सबको पढ़कर जान सकते हैं। प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर का भजन करना चाहिए। ‘भजु मन जीवन नाम सवेरा।’- संत कबीर साहब
 कितने प्राणी तो माता के पेट में मर जाते हैं और मरे हुए ही जन्म लेते हैं। उसमें माता को बड़ा कष्ट होता है। अबतक कितने लोग मर गए, जो जनमे थे। आगे जो जन्म लेंगे, वे भी मरेंगे। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-‘हमलोग अभी हैं, कभी नहीं थे, ऐसी बात नहीं या कभी नहीं रहेंगे, ऐसी भी बात नहीं।’ इस जन्म-मरण के चक्र से छूटने के लिए ईश्वर-भजन करना चाहिए।
 बिना सिखाए कोई नहीं सीखता। सिखाने वाला गुरु होता है और सीखनेवाला शिष्य होता है। जितनी भी विद्याएँ हैं, सबको सिखानेवाले और सबको सीखनेवाले होते हैं। आज जितने छोटे-बड़े विद्यालय हैं, सबमें वकालत, डॉक्टरी आदि की पढ़ाई होती है। डॉक्टरी में भी कई प्रकार हैं। पहले की आयुर्वेदिक शिक्षा को भी लोग जानते हैं और आजकल की भी एलोपैथिक शिक्षा को जानते हैं। संसार में जितने प्रकार की शिक्षाएँ हैं, उतने को कौन जानता है? मैं तो कहूँगा कि ईश्वर ही जानते हैं।
 एक शिक्षा सबसे भारी है, वह है खेती करना। अगर खेती नहीं की जाय, अन्न नहीं उपजे, तो खाने के बिना संसार मर जाएगा, कोई काम नहीं कर सकता। इसलिए खेती अवश्य करो। खेती के लिए गाय पालो। दूध मिलेगा। बछड़े होंगे, उससे खेत जोतने का काम होगा। जब आदमी बूढ़ा हो जाता है, तब वह पराधीन हो जाता है। जब कोई काम नहीं कर सकता है, तब किसी को सरकारी पेंशन मिलती है, किसी को मुआवजा मिलता है। संतलोग कहते हैं-बारम्बार के जनमने- मरने से छूटने के लिए ईश्वर का भजन करो। ईश्वर-भजन के लिए जो युक्ति है, वह जानकर करो। जैसे खेत से अन्न उपजता है, वैसे सत्संगरूपी धरती से ईश्वर-भजन के वास्ते शिक्षाएँ मिलती हैं और ऐसी शिक्षाएँ भी मिलती हैं, जिनसे गुरु का चुनाव हो जाता है और पारमार्थिक गुरु की पहचान हो जाती है। गुरु की सेवा की जाय। उनके सत्संग को किया जाय। तब ईश्वर-भजन कैसे होगा, जाना जाएगा। बाहरी और भीतरी; दोनों तरह का भजन होता है। बाहरी भजन सत्संग है, जो अंदर की ओर जाने के लिए प्रेरणा देता है। मन को बाहर से अंदर ले आओ। इतना अन्दर ले आओ कि उन्मनी अवस्था को प्राप्त हो जाए; मनोलय हो जाय, केवल चेतन आत्मा रह जाए। यह मेरा ज्ञान नहीं है। गुरु ने जो ज्ञान दिया है, वही यह ज्ञान है। साधना करने से साधक को यह अपने ही आप मालूम होगा। शिवनारायण स्वामी ने कहा है-
मन रे तू लागि रहो यहि ओर ।
सार शब्द कपाल भीतर होत अनहद शोर ।
सुनि समुझहिं मन मुदित नेहारत पलक परो जनि भोर ।।
मिलै गंगा सहित जमुना सुषमना की ओर ।
उलटि नैन निहारो भीतर क्रोटिन होत इंजोर ।।
सुन्न आसन आपु साईं बसन रंग रस भोर ।
शिवनारायण कहि समुझावल चितवत नैन के कोर ।।
 अनहद शब्द में मनोलय होता है। उस शोर या आवाज या शब्द में जीव वा चेतन आत्मा प्रवेश करता है, तो वहाँ तक पहुँचता है, जहाँ तक शब्द है। शब्द का अंत होने पर ‘निःशब्दं परमं पदम्’ मिलता है। संतों ने अंतर्मख होने के लिए कहा। अंतर्मुख होने के लिए वचन से हिंसा, तन से हिंसा और मन से हिंसा जो छोड़ते हैं, उनके मन में आप ही दया उपजती है।
 जैसे कछुआ अपने अंग को खोखले में समेट लेता है, वैसे ही जो अपने को बाहर से अंदर समेट लेता है, वह अनहद शोर सुन पाता है और जहाँ इनका अंत होता है, वहाँ परमात्मा को पाता है। अपने को अंदर करने के लिए आँखें बंद करो।
 बन्द कर दृष्टि को फेरि अंदर करै,
          घट का पाट गुरुदेव खोलै ।।
 जब ऐसा होगा, तब अनहद शब्द और अनाहत नाद को पाओगे। जो उनको पार कर जाता है, वह ईश्वर को पाता है, वही आवागमन के चक्र से छूटता है।
 शब्द की चर्चा रामायण में भी है। अभी जो तुलसीकृत रामायण से नवधा भक्ति का पाठ हुआ उसमें भगवान श्रीराम ने शवरीजी को उपदेश दिया था। शवरी भील की लड़की थी। वह मतंग ऋषि के आश्रम में रहती थी। उसने उनकी बड़ी सेवा की थी। मुनि ने उसको उपदेश दिया था। उनकी साधना उसने बड़ी तन्मयता से की थी। परिणाम यह हुआ कि-
   तजि योग पावक देह हरि पद, लीन भइ जहँ नहिं फिरै ।
 शवरी योगाग्नि में शरीर छोड़कर हरि-पद में लीन हो गई, जहाँ से कोई लौटता नहीं है। संतमत यही बताता है। सब कोई इस भेद को जानिए। संतमत का सिद्धान्त जानिए, गुरु से भेद लेकर साधना कीजिए, जिससे आवागमन का चक्र छूटे।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मन्दिर दुर्गापुर में दिनांक 22. 2. 1966 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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225. संतमत किसको कहते हैं?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 यह अ0भा0 संतमत-सत्संग का 58वाँ वार्षिक महाधिवेशन है। इसका होना बहुत आवश्यक है। इसका कारण है कि दूर-दूर के सत्संगीगण, जहाँ तक वे आ सकें, दूर और नजदीक के, सभी मिलकर एक साथ साल में एक बार भी सत्संग करें। कबीर साहब ने कहा था-
 प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरों, प्रेमी मिलै न कोय ।
 प्रेमी से प्रेमी मिलै, गुरु भक्ति दृढ़ होय ।।
 जब ईश्वर-प्रेमी एक जगह मिलते हैं, तो एक के भाव से दूसरे के भाव में वृद्धि होती है। आपस में धर्म-उत्साह बढ़ाते हैं और धर्म-कर्म में लगने का उत्साह उत्पन्न करते हैं। फिर घर में भी सत्संग करते हैं, जिला वार्षिक में भी जाते हैं। कहीं साप्ताहिक-सत्संग, कहीं मासिक सत्संग और कहीं भ्रमण-सत्संग होता है। मैं कहूँगा, जहाँ-जहाँ सत्संगी रहते हैं, नित्य सत्संग करते हैं। इस तरह बराबर सत्संग होता रहता है और इस तरह के सत्संग से सब मिल-जुलकर धर्म-उत्साह बढ़ाते हैं। जो अपने उद्धार के लिए बहुत उत्सुक हैं, वे सत्संग करते हैं। हम धर्म में अग्रसर हों और साधन- अभ्यास नित्यप्रति बढ़े; सभी सत्संगियों के हृदय में यही भाव रहे। धर्म में संकीर्णता उपयुक्त नहीं, ठीक नहीं। धर्म में उदारता ठीक है। उदारता यह कि पहले हम अपने देश को देखें। ‘यह सम्प्रदाय, वह मत’ आदि बहुत हैं, इनको हम देखें। यदि हम किसी एक सम्प्रदाय के अनुयायी होकर हम इस प्रकार रहें कि हमारा धर्म उदार नहीं हो और हम यह समझें कि हमारा ही सम्प्रदाय उत्तम है, और का नहीं; ऐसा अनुदार-भाव हमको नहीं रखना चाहिए। हमको जानना चाहिए कि बहुत से धर्म- सम्प्रदायों में सार क्या है? सबका समन्वय कहाँ है? मिलावें, इस मिलान के ज्ञान में उदारता आती है, नहीं तो संकीर्णता आती है। आपका ख्याल संकीर्ण नहीं होना चाहिए।
 संतमत किसी एक के खास नाम पर नहीं है। सब संतों के विचार का है। इसलिए हमलोग सभी संतों को मानते हैं। मैंने खोज की है, वेद-वेदान्त से खोजकर निकाला है। भगवान बुद्ध, कबीर साहब, गोस्वामी तुलसीदासजी आदि के वचन का समन्वय जहाँ हमको मिलता है, हम उसी को संतमत कहते हैं। संतमत किसी खास आचार्य के नाम पर नहीं है। कोई कहे कि यह कबीर मत है, तो मैं कहूँगा-हाँ, ऐसा ही है। इसी तरह नानक पंथ, दादू पंथ, दरिया पंथ आदि के संबंध में भी कोई पूछे, तो मैं उन सबमें भी हाँ कहूँगा।
 ऐसा ख्याल नहीं करके अपने धर्म में संकीर्ण-भाव रखना ठीक नहीं। कूप-मण्डूक जैसा हमलोगों को नहीं होना चाहिए, हमलोगों को उदार होना चाहिए। अनेक संतों की वाणियों का पाठ करना चाहिए। हमारे गुरु महाराज कहते थे कि कलिकाल में आदि संत भगवान बुद्ध हुए। जब मैं उनके वाक्यों को विचारता हूँ, तो उनके वचन में भरपूर गंभीरता पाता हूँ। लोग पूछते हैं कि संतमत किसको कहते हैं? मैं कहता हूँ कि पहले लोग जानें कि संत किनको कहते हैं? संत को हम जानें, संतों की वाणियों को पढ़ें। एक मित्र दूसरे मित्र को पत्र भेजकर ख्याल बूझते हैं, उसी तरह संतों के गं्रथों को पढ़कर उनका ख्याल जाना जाता है। संतों की वाणी, संतों के संग से बड़ा लाभ होता है। जो उपकार नहीं मानता, वह कृतघ्न है।
 सारे संसार का आधार कुछ अवश्य है, जिस आधार पर यह संसार स्थित है। बिना आधार के आधेय वस्तु टिक नहीं सकती। सर्वाधार वह है, जिसका और कोई आधार नहीं है। प्रत्येक का आधार जानो तो अंत में वैसा आधार मालूम होगा, जिसके आधार पर सभी हैं। उस आधार को अपनी तरह से जैसा कहो-निर्वाण कहो वा ब्रह्म कहो। सर्वाधार होने के कारण सबका आधार वह है। जो सर्वाधार की स्तुति नहीं करता, वह कृतघ्न है। सर्वाधार ही ईश्वर है। ईश्वर की स्तुति अवश्य करो। इसलिए जहाँ-जहाँ सत्संग होता है, वहाँ प्रातः स्तुति अवश्य होती है। जो पढ़े-लिखे नहीं होते हैं, वे भी सुन- सुनकर सीख जाते हैं। पहले सुनो, सुनते-सुनते याद हो जाता है। चाहे ईश्वर नहीं कहकर, निर्वाण ही कहे तो मुझको उसके लिए कोई हर्ज नहीं।
 बिना सत्संग के सर्वाधार का ज्ञान नहीं होता। संत ही सर्वाधार का ज्ञान बताते हैं और इसीलिए वे संत कहलाते हैं। योगशिखोपनिषद् और महोपनिषद् में लिखा है-
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
 अर्थात् उस परे-से-परे (ब्रह्म) को देख लेने पर हृदय की ग्रन्थि टूट जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं। जिनकी यह दशा होती है, वे ही संत होते हैं।
 संतों की स्तुति हमलोग करते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
राम सिन्धु घन सज्जन धीरा । चन्दन तरू हरि सन्त समीरा ।।
    अर्थात् राम समुद्र-रूप हैं, धैर्यवान सज्जन मेघ- रूप, फिर राम चन्दनवृक्षरूप हैं और संत पवन रूप हैं।
 राम कहो, कृष्ण कहो, शिव कहो वा अन्य ईश्वर-वाचक शब्द कहो, उसी ईश्वर के नाम हैं। संत लोग धैर्यवान होते हैं। मेघ जमीन को दूर-दूर तक फसल की उपज से सरसब्ज करता है और समुद्र जहाँ-का-तहाँ रहता है। संतलोग हवा हैं, ईश्वर चन्दन-वृक्ष हैं। सुगन्ध हवा के द्वारा दूर-दूर तक फैलती है। मतलब यह कि संत ईश्वर के ज्ञान का वर्णन करते हैं।
 संत पूरे हों या अधूरे, हमारे गुरु बनते हैं। उनका भी बहुत उपकार हम पर है। इसलिए गुरु की स्तुति अवश्य करो। जो नहीं करता है, वह कृतघ्न है। ईश्वर की स्तुति अवश्य करो। धर्म की परिभाषा और उसके सिद्धान्त को जानो। गुरु की स्तुति, संत-स्तुति और ईश्वर-स्तुति अवश्य करो। इसमें समय लगाना समय का सदुपयोग है। इससे हम अपने जीवन में आगे बढ़ते हैं।
 सब कोई रुपये का मूल्य जानें, पैसे का मूल्य जानें और नोट का मूल्य जानें। हीरा, मोती, जवाहर, अस्त्र-शस्त्र बहुत हों और अन्न नहीं हो, तो आपकी क्या गति हो? पानीपत की तीसरी लड़ाई में खाने के बिना मरहठे के लगभग एक लाख आदमी मर गए।
 उपनिषद् में एक कथा आयी है, जिसमें लिखा है कि एक ऋषि कुमार को अपनी विद्या का बहुत घमण्ड था। एक दिन ऋषि ने अपने कुमार को बुलाकर पूछा-‘वत्स! तू ऐसी विद्या जानता है, जिसके बिना अन्य सभी विद्याएँ फीकी पड़ जाती है?’ पुत्र ने कहा-‘जी नहीं।’ पिता ने कहा-‘तो जा, एक सप्ताह-पर्यन्त तू उपवास कर मेरे पास आ, फिर मैं तुझको वह विद्या सिखाऊँगा।’ ऋषि- आज्ञा पा कुमार सप्ताह-पर्यन्त उपवास कर पिता के निकट उपस्थित हुआ। ऋषि ने कहा-‘पुत्र! अमुक वेद की अमुक ऋचा की व्याख्या करके मुझे सुनाओ।’ पुत्र ने उत्तर दिया-‘पिताजी! अभी मैं भूख से पीड़ित हूँ। अन्न के बिना मैं बहुत कमजोरी मालूम कर रहा हूँ। उक्ति नहीं आ रही है, बोलने में असमर्थ हूँ। जीवन-धारण करना कठिन हो रहा है। कोई भी ऋचा अभी सूझ नहीं रही है।’ पिता ने कहा-‘अच्छा तो जाओ, भोजन कर स्वस्थ हो मेरे पास आओ।’ ऋषिपुत्र ने वैसा ही किया, भोजन कर स्वस्थ हो पिता के सम्मुख उपस्थित हुआ। पिता ने पूर्व कथित वेद की उसी ऋचा की व्याख्या पुनः पूछी। कुमार ने बहुत ही सुन्दर ढंग से उसकी व्याख्या की। पश्चात् कुमार ने ऋषि से प्रार्थना की-‘पिताजी! आपने जिस विद्या के लिए मुझसे कहा था, वह सिखलाइए।’ ऋषि ने कहा-‘पुत्र! वह है ‘अन्न-ब्रह्म।’ जबतक तुम्हारे पेट में अन्न नहीं था, तबतक तुम सारी विद्या भूल से गए थे और पेट में अन्न ब्रह्म के पहुँचते ही तुम्हें सारी विद्या की स्मृति हो आई।
 इसलिए कृषि-कर्म आवश्यक है। हमारे यहाँ कहा जाता है-‘उत्तम खेती मध्यम बान।’ वेद में उपदेश आया है कि तुम संसार में अच्छे प्रकार रहो। गाय की सेवा माता की सेवा की तरह करो। हमलोग मिलकर रहें, गौ-सेवा करें और खेती करें। खेती करें, गौ-पालन करें और एक मेल से नहीं रहें, तो ठीक नहीं। जबतक लिच्छवी-वंश में मेल रहा, तबतक कोई उसको दबा नहीं सका। जब आपस में फूट पैदा हुई, तब दूसरे उस पर आकर चढ़ बैठे। वेद में हुक्म है कि ‘आपस में मिलकर रहो और मिल- जुलकर ईश्वर की उपासना करो।’ यह इसलिए कहा कि उपासना ऐसी चीज है, जो सबके चित्त को एक सूत्र में बाँध देती है। उपासना में स्तुति और विनती भी रहती है। हमलोग धर्म के एक सूत्र में बँधे हैं, इसलिए साल में एक बार भी भेंट करें।
 हमलोग ऐसा न सोचें कि संसार ही आधार है। संसार के आधार को जानो। संसार में बिना आधार के वस्तु को नहीं पाते। आधार खोजते- खोजते आखिर में ऐसा मिलेगा, जिसका आधार कुछ नहीं और वही सर्वाधार है। सर्वाधार को प्रत्यक्ष-ज्ञान द्वारा जानने के लिए यत्नपूर्वक नित्य- प्रति दृढ़-ध्यान करते रहो। अगर कम समय है तो खड़े-खड़े करो। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- ‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मरयुद्ध्य च।’ मन पर नियन्त्रण रखना चाहिए। लेकिन नियन्त्रण रखना कठिन होता है। अनियन्त्रित मन के कारण जो नहीं करने का वह भी कर लेते। मन पर नियंत्रण उपासना से होता है। इसमें क्या यत्न चाहिए, इसको प्रकाश में लाने के लिए दादूदयालजी ने कहा-
 मन ही सौं मन थिर भया, मन ही सौं मन लाइ ।
 मन ही सौं मन मिलि रह्या, दादू अनत न जाइ ।।
 यह मन निशिदिन बाहर-ही-बाहर जाता है। मन को नियंत्रित करने के लिए उसको अंतर्मुख करना होगा। जिसका मन बाहर-बाहर जाएगा, उसका मन स्थिर नहीं होगा। मन दो प्रकार के हैं- तनमन अर्थात् शरीरमुखी मन और निजमन अर्थात् आत्ममुखी मन। मन का जो केन्द्रीय-रूप है, वह ‘निजमन’ है और जो मन इन्द्रियों के संग होकर बाह्य विषयों में भटकता है, वह तन-मन है। मन को बाहर के विषयों में आनन्द मिलता है। अंदर में प्रवेश करने पर और विशेष आनन्द मिलता है, इसको साधक जानते हैं। मन के सामने ही प्रकाश है।
 मन हीं सन्मुख नूर है, मनहीं सन्मुख तेज ।
 मन हीं सन्मुख जोति है, मन हीं सन्मुख सेज ।।
 एक ही बात को तीन बार कहा कि मन के सामने में नूर है, तेज है और ज्योति है। यदि विश्वास नहीं है तो करके देखो। जो युक्ति जानता है, अभ्यास करता है, तो वह प्रत्यक्ष पाता है, ऐसा नहीं कि मरने पर फल फलेगा।
 पढ़ना आरम्भ करते हो, तो पढ़ते-पढ़ते ही विद्वान होते हो। इसी तरह ध्यान-साधन का आरम्भ करो, करते-करते इसमें भी पूर्णता मिलेगी। बहुत से गुरु बहुत तरह की दीक्षा देते हैं, लेकिन यह दीक्षा कोई-कोई देते हैं। दशमें द्वार की बात जो जानते हैं, उसमें प्रविष्ट होने के लिए जो साधन करते हैं, वे अंदर का आनन्द पाते हैं। शरीर नाशवान है, सब दिन एक समान नहीं रहता। कितना भी सुन्दर होता है, एक दिन बूढ़ा होता है और शरीर छूट जाता है। इसीलिए भगवान बुद्ध के वचन में आया है-‘राजा के सुचित्रित-रथ पुराने हो जाते हैं तथा यह शरीर भी पुराना हो जाता है, किन्तु सन्तों का धर्म पुराना नहीं होता, सन्तलोग सन्तों से ऐसा ही कहते हैं।’
 लोग कहते हैं-‘इन उपदेशों से मनुष्य निकम्में हो जाते हैं।’ मैं पूछता हूँ-‘क्या बुद्ध भगवान निकम्मे थे?’ वे बड़े परिश्रमी थे, साहसी थे। दशवें गुरु गोविन्द सिंह कैसे थे, खालसा-इतिहास पढ़कर देखो। संसार की वस्तुएँ नाशवान हैं, इसलिए इसमें आसक्त न होओ। ‘अनासक्त जग में रहो भाई। दमन करो इन्द्रिन दुःखदाई।।’
 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-‘योगी होकर कर्म करो। कौशल से कर्म करनेवाले को योगी कहते हैं। ईश्वरार्पण-बुद्धि से कर्म करो। कर्तव्य जानकर कर्म करो। आत्मनिष्ठ होकर कर्म करो।’
  मैंने विचारा तो मेरे बोध में आया कि दृष्टियोग में आत्मपरायणता होती है। अपना निशाना अपने अन्दर है, अपने उस पर लगे रहना, यह आत्मरत होने का आरम्भ है। इस तरह आत्मा में लगे रहोगे। इसके लिए कुछ एकान्त में भी बैठने का समय रहना चाहिए। लोग कहते हैं कि समय नहीं मिलता है। मैं कहता हूँ-सिनेमा देखने के लिए समय मिलता है और एकान्त में बैठकर थोड़ा ध्यान-साधन करेंगे, तो क्या समय नहीं मिलेगा? समत्व का- समाधि-साधन का थोड़ा-थोड़ा नित्य अभ्यास करो। जितने बड़े लोग हुए हैं, सबने किया है। संसार का भी काम होगा और संसार से छूटने का-मोक्ष का भी काम बनेगा।
 इस वार्षिक-सत्संग के अवसर पर जो तीनों दिन शुरू से अन्त तक सत्संग-वचन सुनेंगे, वे संतमत को समझेंगे कि क्या है? हमारे गुरु महाराज सन 1897 में भागलपुर आए थे। पहले मायागंज महल्ले में सत्संग मन्दिर था। खपड़े का घर था, टूट गया। अब जो कुप्पाघाट में बना है, उन्हीं गुरु महाराज- जी की कृपा से, उनकी पुण्य-स्मृति में बना है।
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यह प्रवचन भागलपुर जिला के महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट के निकट गंगातट पर 58वाँ महाधिवेशन, दिनांक 10.04.1966 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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226. अन्धी श्रद्धा से कुछ ग्रहण और त्याग मत करो
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 आपके दर्शनों से मुझे बड़ा लाभ और सुख होता है। दुःख इस बात का होता है कि यद्यपि इस पण्डाल में 19,000 वर्ग हाथ स्थान है, तथापि आराम से बैठने के लिए आपको इस पण्डाल में जगह नहीं है; क्यांकि आपलोग बहुत संख्या में हैं। यदि आपलोग इसमें बैठकर सुख मानें, तो मुझे भी सुख हो और आपको दुःख हो, तो मुझे भी दुःख होगा। दुःख पाकर आप कोसें नहीं। यह इतनी गरीब संस्था है कि भारत में ऐसी गरीब कोई संस्था नहीं। आप शाप न दें, धन्यवाद दें। सत्संगियों में जिनसे जो काम हो सका, सबने किया। तन से, मन से, धन से सभी ने सहायता की। कितने तो सत्संग संस्था का भोजन करके श्रमदान करते थे। और कोई अपनी ओर से खाकर श्रमदान करते थे। इन सबको मैं धन्यवाद देता हूँ। कबीर साहब ने गरीबी मिजाज से रहकर सत्संग करने कहा है और सत्संग की महिमा जनायी है। उन्होंने कहा है-
      कबीर संगति साधु की, जौ की भूसी खाय ।
      खीर खाँड़ भोजन मिलै, साकट संग न जाय ।।
 इस न्याय से बैठने का भाव भी मिलाइए, तो गरीबी मिजाज से बैठिए, तो मैं बार-बार धन्यवाद देता हूँ। आपलोग दूर-दूर से गुरु के उपदेश सुनने आए। मेरे अपने गुरु तो अब शरीर में नहीं हैं। उनका एक दुबला-पतला शिष्य (मैं) मौजूद हूँ। इस दुबले-पतले से क्या सेवा होगी, समझिए। गुरु महाराज कहते थे-‘संतमत में तीन बातें हैं-गुरुसेवा, ध्यानाभ्यास और सत्संग।’ इन तीनों का अमल करो, तो तुम ठीक-ठीक मनुष्य बनोगे, मोक्ष को प्राप्त करोगे और सारे क्लेशों से छूटोगे।
 संतमत कोई ऐसी संस्था नहीं है, जो किसी एक खास व्यक्ति के नाम पर हो। जो सब संतों का सिद्धान्त और विचार है, वही संतमत का सिद्धान्त और विचार है। सब संतों की वाणी मिले, गुरु का वचन मिले और अपना विचार भी मिले, तब विश्वास करो। अन्धी श्रद्धा से कुछ ग्रहण और त्याग मत करो। कबीर साहब ने कहा है-
 जब लगि नहिं देखौं निज नैना ।
      तब लगि नहिं मानौं गुरु के बैना।।
 इसलिए देखने को जानो। तर्क-बुद्धि भी हो, विचार भी हो। तर्क भी सात्त्विक हो; क्योंकि राजस तर्क में चंचलता होती है और तामस विचार में उल्टी को सीधी और सीधी को उल्टी समझोगे। सात्त्विक विचार ठीक है। गुरु ने अंधविश्वास से कुछ मानने को नहीं कहा है। उन्होंने कहा कि मेरी बात भी यदि संतवाणी के अनुकूल नहीं हो और विचार में नहीं जँचे, तो कभी नहीं मानो। वे बड़े ठोस थे। संतमत-सत्संग में उन्होंने गुरु की मुख्यता दी और कहा कि गुरु वह है, जो ईश्वर की भक्ति ठीक-ठीक बतावे; क्यांकि ईश्वर-भक्ति से ही कल्याण होने योग्य है। तर्कबुद्धि ऐसी भी है कि ईश्वर की स्थिति में भी विश्वास नहीं करती और कहती है कि ईश्वर की भक्ति क्या? ईश्वर-भक्त कहते हैं कि मुझे ईश्वर में बड़ा विश्वास है। महात्मा गांधी ने कहा कि मुझे तर्क में कोई हरा दे, फिर भी मैं ईश्वर को मानता रहूँगा। जैसे कोई सात बहनें थीं। उन सात बहनों में एक मर गई। लोग उनको छह बहनें कहते, लेकिन वह कहती-मैं सात-की-सात बहन हूँ।
 गुरु महाराज कहते थे कि हम कमजोर बात नहीं कहते, मजबूत बात कहते हैं। ईश्वर कौन है? जिसके प्रभाव से, जिसके अन्दर से, जिसके शासन से कोई बाहर न हो सके, वह है ईश्वर। वह ईश्वर निराधार है, पर सबका वह आधार है। इसीलिए वह सर्वाधार है। ईश्वर की स्थिति बतायी उन्होंने। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में कहा है-
 व्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचण्ड ।
 सेनापति कामादि भट, दम्भ कपट पाखण्ड ।।
 अर्थात् माया की भयंकर सेना संसार में फैली हुई है। काम, क्रोध और लोभ उसके सेनापति और अभिमान, छल और पाखण्ड आदि योद्धा हैं।
 बाहर शून्य में ये कहीं मिलते नहीं। अपने अन्दर सोचो, तो ये सबमें मौजूद हैं। एक साधु कुछ क्रोधित हुआ। दूसरे ने कहा, साधु को क्रोध नहीं होना चाहिए। साधु ने जिसका वर्षों मनन किया कि क्रोध नहीं होना चाहिए, परन्तु वह आकर उसमें उदय हुआ। किसी गोली या बम से इस सेनापति को कोई खत्म नहीं कर सकता। बाहर में इसके नाश के लिए कोई शस्त्र-अस्त्र नहीं है। इसलिए कहा है-
मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही।।
तृस्ना केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहीं दाहा।।
चिन्ता साँपिन काहि न खाया। को जग जाहि न व्यापी माया।।
कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा।।
 यह माया की सेना की प्रबलता है। इसकी प्रबलता में सभी कष्ट पाते हैं। इसके कब्जे से निकलने के लिए कोशिश करनी चाहिए। बिना इसके कब्जे से निकले ईश्वर का दर्शन नहीं होता। ईश्वर-दर्शन से ही परम कल्याण होता है, दूसरे से नहीं। परम कल्याण के लाभ के लिए ईश्वर की भक्ति करो। इसी से काम-क्रोधादिक विकारों का दमन होगा। जिन्होंने भक्ति की, उन्होंने जाना। किसी में भी इन बड़े-बड़े सतानेवाले प्रचण्ड दुर्गुणों को दूर करने की सामर्थ्य नहीं है, जबतक कि वह ईश्वर-कृपा का पात्र न हो।
क्रोध मनोज मोह मद माया । छूटहि सकल राम की दाया ।।
 ईश्वर की भक्ति में-ईश्वर-दर्शन के रास्ते में बड़ा प्रकाश होता है। संतों ने गाया है, उस प्रकाश में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि भाग जाते हैं। जैसे बाहर में सूर्य का प्रकाश होता है, तो अन्धकार भाग जाता है। तुलसीदासजी कहते हैं कि अन्दर में सूर्य का प्रकाश होता है। कबीर साहब, गुरु नानक साहब ने कहा है तथा उपनिषद् में भी लिखा है कि अन्दर में सूर्य का प्रकाश होता है। इसको आजमाकर देखना चाहिए। तुलसीदासजी ने लिखा है।
जब तें राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतेन्ह मन सोका।।
 जिसके अन्दर में प्रकाश होता है, वह तीनों लोकों को देखता है। उससे कुछ छिपा नहीं रहता। उस प्रकाश से बहुतों को सुख और बहुतों को दुःख होता है। बाहर के सूर्य में गर्मी मालूम पड़ती है और अन्दर के सूर्य के प्रकाश में मन शान्त हो जाता है। जैसे अधिक ठंड से पानी जम जाता है। दुःख किनको हुआ? प्रथम अविद्या निसा नसानी। अविद्या गई, अन्धविश्वास गया। अविद्या का ज्ञान राजस वा तामस है। अविद्या-रूपी रात को दुःख हुआ। मतलब, जिनको सूर्य-दर्शन हो, उनकी पापवृत्ति चली जाती है।
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने।।
विविध कर्म गुण काल सुभाउ। ये चकोर सुख लहहिं न काउ।।
मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कबनिहुँ ओरा।।
 पाप-रूपी उल्लू पक्षी जहाँ-तहाँ छिप गए। अनेक प्रकार के गुण, कर्म, काल और स्वभाव चकोर हैं, ये कभी सुख नहीं पाते हैं। डाह, प्रतिष्ठा का विचार, अज्ञानता और अहंकार चोर हैं, इनकी कला किसी ओर न रही। सुख किनको हुआ?
धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना। ये पंकज बिकसे विधि नाना।।
सुख संतोष विराग विवेका। विगत सोक ये कोक अनेका।।
 धर्म-रूपी तालाब में ज्ञान और विज्ञान-रूपी अनेक प्रकार के कमल हैं; ये खिल गए। सुख, सन्तोष, विराग और विवेक; ये अनेक चकवे पक्षी शोक-रहित हो गए। हमलोगों को जो सुख मिलता है, उससे यह सुख बहुत विशेष है। यह नित्य सुख है, संतोष भरा है। अविद्या के नाश होने से ये सब बढ़ गए। ईश्वर की भक्ति करो। ये सब विकार दमित होंगे। बिना ईश्वर-भक्ति के ये दमित नहीं होते। ईश्वर-स्वरूप-ज्ञान के बिना ईश्वर की भक्ति वैसे ही नहीं हो सकती, जैसे कोई मुसाफिर चलता है, लेकिन वह अपना निर्दिष्ट स्थान नहीं जानता, तो उसकी यात्रा समाप्त नहीं होती। जो निर्दिष्ट स्थान नहीं जानता, वह निर्दिष्ट स्थान नहीं पाता। और वह जैसे पहले दुःखी था, वैसे ही वह दुःखी रहेगा। ईश्वर वह है, जो माया को अपने काबू में रखकर नटी की तरह नचाते हैं। मायापति की सेवा करो, माया भाग जाएगी। ईश्वर-स्वरूप के लिए कहते हैं कि-
सोइ सच्चिदानन्द घनरामा ।अज विज्ञान रूप बलधामा ।।
 वही सत्-चित्-आनन्द का पु०ज, अजन्मा, विज्ञान-स्वरूप, बल का स्थान राम है, जिस राम का जन्म नहीं हुआ, जो विज्ञान-स्वरूप है। यहाँ के वैज्ञानिक लोगों ने बड़ी-बड़ी चीजों का निर्माण कर संसार को दिखलाया है। परमात्मा भी बड़ा वैज्ञानिक है। वह विश्व की रचना करता है, उसके उपादान को भी उत्पन्न करता है। भौतिक वैज्ञानिक बिना उपादान के कुछ नहीं बना सकता। ईश्वर उपादान को भी उत्पन्न करता है। बाबा नानक ने कहा है-
 तदि अपना आपु आप ही उपाया ।
       नाँ किछु ते किछु करि दिखलाया ।।
 ईश्वर में भी उतनी ही शक्ति मानें कि बिना उपादान के वह कुछ बना नहीं सकता, तो वह मनुष्य वैज्ञानिक से विशेष नहीं हो सकता। ईश्वर प्रकृति को भी बनाता है, वह किसी अंश में कमजोर नहीं है। कबीर साहब ने कहा कि-
     प्रथम एक सो आपै आप । निराकार निर्गुण निर्जाप।।
     आवै जाय सो माया साधो, आवै जाय सो माया ।
     है प्रतिपाल काल नहिं जाको, ना कहुँ गया न आया ।।
 तात्पर्य यह कि वह हई है। उसका जन्म नहीं है। कोई कहे कि तुलसीदासजी ने तो राम के अवतार का वर्णन किया है, फिर वह अज कैसे? मैं कहूँगा- जन्म शरीर का होता है, आत्मस्वरूप का नहीं। जैसे कुम्भकार पण्डित बर्तन बनाता है। शून्य को नहीं बनाता, वह आप-ही-आप उसमें हो जाता है। पण्डाल-स्थित शून्य जो है, वह पण्डाल के बनानेवालों ने नहीं बनाया। आत्मस्वरूपी राम जन्म नहीं लेता। राम के शरीर में और शरीरी राम में विशेषता किसकी है? अवतारवाद की बहुत प्रशंसा करके भी गोस्वामी तुलसीदासजी ने यह कहा-
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
 किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
 यथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
 सोइ सोइ भाव देखावइ, आपु न होइ न सोइ ।।
 यह बड़ा गूढ़ ज्ञान है। शरीर का नाम भी राम और शरीर के भीतर में भी राम। शरीर-रूप राम का जन्म होता है, आत्मरूप राम का नहीं। अध्यात्म रामायण पढ़कर देखिए, कबीर साहब की और तुलसीदासजी की इस बात की एकता हो जाती है। ‘सत्संग-योग’ पढ़कर देखिए।
 हमको ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए। उपनिषद् में ‘परमात्मा’ शब्द शायद ही कहीं आया है, ‘आत्मा’ शब्द आया है।
 वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
 एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
        -कठोपनिषद् , अध्याय 2, वल्ली 2
 अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
 जैसे आकाश कहने से बाहर का आकाश भी मान सकते हैं और घटाकाश,मठाकाश, पटाकाश फुटाने के लिए कहा जाता है, इसी तरह आत्मा कहने से परमात्मा का भी बोध होता है। आत्मा का जन्म नहीं होता। परमात्म-स्वरूपी राम का जन्म नहीं होता। इसलिए ‘अज’ है। व्याप्य से बाहर भी है। इसलिए कहा-
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
 इससे आगे हम बढ़ नहीं सकते हैं। अनन्त के अन्दर सभी रहेंगे, बाहर कोई नहीं हो सकेंगे। अनन्त के अन्दर सबको रहना होगा। जिसके अंदर रहना होगा, उसके प्रभाव में रहना होगा। जिसके प्रभाव में रहना होगा, उसके शासन में रहना होगा। अनन्त की स्थिति माने बिना प्रश्न होगा कि जबकि सान्त-ही-सान्त सब है, तो उसके परे क्या है? सब सान्तों का बड़े-से-बड़ा मण्डल होने पर भी सान्त ही होगा, चाहे वह कितना बड़ा भी मण्डल क्यों न हो। सारे सान्तों के परे अनन्त है। ‘अनन्त के परे क्या होगा’-जो पूछते हैं, उनको ‘अनन्त’ का अर्थ मालूम नहीं है। बुद्धि के विचार से भी, अन्धविश्वासी होकर नहीं, मानना पड़ता है कि एक ऐसा परम तत्त्व अवश्य है, जो अनन्त है। ‘अनन्त’ का अर्थ ‘असंख्य’ नहीं, वह एक-ही-एक है, उपादान प्रकृति पर भी उसका काबू है। जिसका शासन सब पर हो, उसको ईश्वर-परमात्मा क्यों न कहें? लेकिन एक ही शब्द पर जकड़ जाना ठीक नहीं कि वह राम ही हैं या शिव ही हैं। वह कल्याणकारी है, इसीलिए शिव कहते हैं। वह सबमें व्यापक है, इसीलिए राम कहते हैं। कोई ऐसा शब्द, जो उनके उत्तम गुण के अनुकूल नहीं हो, उनका नाम नहीं होता। परमात्म-स्वरूप की स्थिति अवश्य है। चाहे आप उसे जो कहिए। चाहे आप निर्वाण ही मानिए, तो निर्वाण किसका? ‘बुझ जाना’ यदि अर्थ करते हैं तो किसका बुझ जाना? कबीर साहब ने कहा-
     जौं जल में जल पैस न निकसे, यौं ढुरि मिला जुलाहा ।
 यह भाव जहाँ आता है, उसमें लीन होने की बात आती है। निर्वाण का अर्थ ‘सारे बन्धनों को छोड़कर हट जाना’ भी समझते हैं। ऐसा जो हो जाता है, उसका ‘दो भेद’ मिट जाता है। उसको ईश्वर, परमात्मा, राम आदि हम कह सकते हैं। उस तक हम पहुँचें, यही हमारा विचार और निशाना होना चाहिए।
 लोग कहते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापी है। फिर जाना कहाँ? तो मैं कहता हूँ, वह सर्वव्यापी है, लेकिन यहाँ मुझे पहचान नहीं होती। इसीलिए जाना वहाँ है, जहाँ पहचान हो। लेकिन जाने के लिए बाहर नहीं, अन्दर जाना है।
 त्रयकाल सन्ध्या अवश्य करो। ब्राह्ममुहूर्त्त में करो। दूसरे समय-दिन में स्नान के बाद और तीसरे सन्ध्या समय करो। यदि करो नहीं, तो कहने से क्या होगा? बाबा नानक ने कहा-‘गली जोगु न होई।’ सत्संग करो। साधन-भजन करो। खाना जरूरी है, इसलिए बनाकर खाओ। गपशप नहीं करो। इतना खर्च करके दूर-दूर से आए, कामधन्धा छोड़- कर आए, भजन नहीं किया तो क्या लाभ? द
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट के निकट गंगा तट पर 58वाँ वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर दिनांक 10. 4. 1966 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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227. दर्शन पाने के लिए बहुत दूर जाना है
प्यारे लोगो !
 मैं चाहता हूँ कि आपको ईश्वर-स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो और अपने तईं (स्वयं) का यथार्थ ज्ञान हो। चूँकि सबके सब सुख को बहुत प्यार करते हैं, सुख के लिए ही तमाम जीवन परिश्रम करते हैं, इसलिए जो सुख पूर्ण रूप से आपको संतुष्ट कर सके, उसको आप प्राप्त करें। ऐसा नहीं कि आप कुछ भी सुख नहीं पाते। सुख पाते हैं, लेकिन संतुष्ट नहीं होते। ऐश्वर्य वाले, कम ऐश्वर्य वाले, जिनको जैसा सुख मिलता है, वे उससे संतुष्ट नहीं होते। वह सुख भी सदा नहीं रहता। सुख-भोगते हुए भी संतुष्ट नहीं होते, फिर जो सुख भागता रहता है, उससे लोग कैसे संतुष्ट होंगे?
 आप अपना ज्ञान करें तो आप मन नहीं हैं, कोई इन्द्रिय नहीं हैं, इनसे कुछ विलक्षण हैं। अपने स्वरूप को मन-इन्द्रिय के परे जानकर आपको सोचना चाहिए कि मन-इन्द्रिय के ऊपर जो अपना स्वरूप है, उसका सुख कैसा है? संतों के ज्ञान के मुताबिक अपने तईं का वह सुख नहीं है, जो मन- इन्द्रियों का सुख है। मन-इन्द्रिय के सुख के लिए विषय चाहिए, लेकिन अपने तईं के सुख के लिए मायिक विषय कुछ नहीं चाहिए। मन-इन्द्रिय के संग में रहकर हम अपने को मन-इन्द्रिय नहीं जानें, ऐसा ज्ञान होना चाहिए। इसी ज्ञान में अपने का और पारमार्थिक सत्ता का दर्शन वा ज्ञान होगा। इसी का ठीक-ठीक यत्न आपको बताया जाय, सत्संग का यही प्रयोजन है। इसको जानकर जो उसपर लगते हैं, वे बड़े संयमी होते हैं, वे दुष्टकर्म नहीं करते।
 संसार से दुष्टकर्म बिल्कुल नष्ट होना तो असम्भव है, लेकिन कम हो जाएगा। दुष्टकर्म कम हो जाएँ, तो संसार में शान्ति आ जाएगी। दुष्टकर्म से बचाव होने पर संसार में शान्ति विराजेगी। जिस राष्ट्र के शासन में शान्ति नहीं है, दुष्टकर्म की अधिकता है, उस राज्य में सुराज नहीं है। हमलोगों को स्वराज्य प्राप्त है, इसके साथ सुराज भी चाहिए। यह तभी होगा, जब हम दुष्टकर्मों को कम कर देंगे वा नहीं करेंगे।
 हमारा आधार क्या होना चाहिए? वह आधार वही है, जहाँ दुष्टकर्मों की पहुँच नहीं है। वह क्या है? दो बातों में से एक बात कह सकते हैं। एक कहने से दूसरे का भी ज्ञान होता है। वह है मूल सत्ता-परमात्म-तत्त्व वा अपनी आत्मा। यह कैसी बात है? कितना दुःख है कि जो हम सब लोग नहीं हैं, उसी को पहचानते हैं और मैं हूँ, हम हैं-कुप्पाघाट कहते हैं, किन्तु अपने तईं जो हम हैं, इसका ज्ञान नहीं होता है। परोक्ष ज्ञान भी तो नहीं होता, अपरोक्ष ज्ञान कैसे होगा? प्रत्यक्ष प्राप्ति का ज्ञान अपरोक्ष ज्ञान है। यह केवल कहने से वा सुनने से नहीं होगा।
 धन धन कहत धनी जो होते निर्धन रहत न कोई ।
         -कबीर साहब
     वाक्य ज्ञान अत्यन्त निपुण, भव पार न पावइ कोई ।
    निशि गृह मध्य दीप की बातन्हि तम निवृत्त नहिं होई ।।
        -गोस्वामी तुलसीदासजी
      तेल तुल पावक पुट भरि धरि बनै न दिया प्रकाशत ।
      कहत बनाइ दीप की बातें, कैसे हो तम नाशत ।।
                      -सूरदासजी
 सत्यस्वरूप-निजस्वरूप वा आत्मस्वरूप का अपरोक्ष और परोक्ष दोनों ज्ञान होना चाहिए। जिसको पहले परोक्ष ज्ञान होगा, वही अपरोक्ष ज्ञान को पा सकता है। यह केवल विचार-ही-विचार से नहीं होगा। ईश्वर की भक्ति करो। पहले परोक्ष ज्ञान होगा, बाद में अपरोक्ष ज्ञान हो जाएगा।
 योग शास्त्र कहता है कि योग का पहुँचाना समाधि तक है। कबीर साहब ने कहा है-
 लम्बा मारग दूरि घर, विकट पन्थ बहु मार ।
 कहो सन्तौ क्यूँ पाइए, दूर्लभ हरि दीदार ।।
 दर्शन पाने के लिए बहुत दूर जाना है। उस रास्ते में चलते हुए बहुत विघ्न बाधा है। वहाँ तक कैसे पहुँचोगे? उत्तर दिया-
 अनहद बाजै निझर झरै, उपजै ब्रह्म गियान ।
 आवगति अन्तरि प्रगटै, लागै प्रेम धियान ।।
 इसीलिए भगवान बुद्ध ने भी कहा कि- भिक्षुओ, ध्यान करो। पहले प्रत्याहार, उसके बाद धारणा, धारणा के बाद ध्यान और अन्त में समाधि होती है। यह केवल संन्यासी के लिए ही है, ऐसा जानना गलत है। गृहत्यागी और गृहस्थ दोनों ही संयमी होकर रहने से लाभ कर सकते हैं। स्वयं भगवान बुद्ध को इसके लिए बहुत जन्म लेने पड़े। जब उन्होंने बुद्धत्व को लाभ किया, यह उनका आखिरी जन्म था।
 शरीर और संसार को देखो। शरीर पिण्ड और संसार ब्रह्माण्ड है। तत्त्वों की जितनी संख्या से ब्रह्माण्ड की बनावट है, शरीर भी उतने ही तत्त्वों से बना है। संसार में जितने तल हैं, शरीर के भी उतने ही तल हैं। शरीर के जिस तल पर रहो, संसार के भी उसी तल पर रहोगे। शरीर के सब आवरणों को पार करो तो संसार के सब आवरणों को पार करोगे। यही ब्रह्मज्ञान है। यहीं पर पहुँच कर ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई’ होता है। हम इन सब बातों को जानें और साधन-भजन करें। शरीर के जीवन का अन्त है, लेकिन निज आत्मस्वरूप का विनाश नहीं होता। आत्मा का जीवन बहुत लम्बा है। शरीर के ज्ञान से तबतक नहीं छूटेगा, जबतक आत्मज्ञान नहीं होगा।
 जैसे स्वप्न का दुःख-सुख मिथ्या है, सांसारिक दुःख-सुख भी वैसा ही है। जगना ऐसा होगा कि यह संसार स्वप्न मालूम होगा। इसीलिए मायामिथ्यात्व वाद का ज्ञान संसार में है। मायामिथ्यात्व वाद का ज्ञान तबतक नहीं छूटता, जबतक हम मोह में सोए रहेंगे-तीन अवस्थाओं में रहेंगे। चौथी अवस्था में जाने पर यह संसार स्वप्न होगा। थोड़ा करो, तब भी बड़ा लाभ प्राप्त होगा। थोड़ा करो तो थोड़ा- थोड़ा लाभ होता जाएगा। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि योग के आरम्भ का नाश नहीं होता। यह ज्ञान संसार में मनुष्य को गिरने नहीं देता।
 भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है-हे पार्थ! उस पुरुष का न तो इस लोक में और न परलोक में ही नाश होता है; क्योंकि हे तात! कल्याणमार्ग में जानेवाले की कभी दुर्गति होती ही नहीं। पुण्यशाली लोग जिस स्थान को पाते हैं, उसको पाकर वहाँ बहुत समय तक रहने पर योगभ्रष्ट मनुष्य पवित्र और श्रीमान् के घर जन्म लेता है या ज्ञानवान योगी के ही कुल में वह जन्म लेता है। जगत में ऐसा जन्म अवश्य बहुत दुर्लभ है। हे कुरुनन्दन! वहाँ उसे पूर्व जन्म के बुद्धि- संस्कार मिलते हैं और वहाँ से वह मोक्ष के लिए आगे बढ़ता है। उसी पूर्वाभ्यास के कारण वह अवश्य योग की ओर खिंचता है। योग का जिज्ञासु भी शब्दब्रह्म को पार कर जाता है। लगन से प्रयत्न करता हुआ योगी पाप से छूटकर अनेक जन्मों से विशुद्ध होकर परमगति को पाता है।
 भक्ति बीज पलटै नहीं, जो युग जाय अनंत ।
 ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।।
 भक्ति बीज बिनसै नहीं, आय पड़ै जो चोल ।
 कंचन जौ ं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।
             -कबीर साहब
 रविदासजी में साधन-भजन का उतना ही बल था, जितना गोस्वामी तुलसीदासजी में। उच्च वर्ण के हों वा नीच वर्ण के, दोनों ने साधन किया, लेकिन दोनों पहुँचे वहाँ एक ही स्थान में। स्वरूप में कोई भेद नहीं।
 हरि की भक्ति करै जो कोई । सूर नीच सू ऊँच सो होई ।।
            -सूरदासजी
 ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए। उस तक पहुँचने का रास्ता चाहिए। रास्ता पर चलने का संयम चाहिए। औषधि सेवन करने से रोग कम हो जाता है। असंयमित होने से रोग बढ़ता है। संयम में जोर दे दो तो भजन में बढ़ोगे। भजन में जोर देने से संयम बढ़ेगा। जिभ्या का स्वाद तृष्णावर्द्धक और असन्तुष्ट रखनेवाला है। अपने आप में देखो तो बड़ा विचित्र है। जाग्रत से स्वप्न में जाने में चैन मिलता है। वहाँ संसार का कुछ भी नहीं है। यह थोड़ा सा नमूना है कि भीतर प्रवेश करने में चैन मिलता है। स्वप्न में आप मनोमय जगत में रहते हैं। जगने पर फिर इस संसार को देखते हैं। स्वप्न में मनोमय राज्य में-मनोमय भोग में थोड़ा-सा सुख पाते हैं। यह बहुत नजदीक की बात है। इतना अपने अन्दर में धँसो कि अपने की पहचान हो जाय। स्वप्न में अपने जाग्रत के सुख-दुःख का कुछ ज्ञान नहीं रहता। सुषुप्ति में तो और क्या रहेगा? सुषुप्ति अवस्था में ठहराव कम होता है, फिर भी अचेतन अवस्था वहाँ है। जाग्रत, स्वप्न वा सुषुप्ति; किसी में भी सुख नहीं है। जबतक निदिध्यासन करते हुए सफल रहो, तबतक चौथी अवस्था में रहोगे। एक तो अभ्यास द्वारा पकड़ना चाहता है और दूसरी बात है कि वह स्वयं पकड़ा जाता है।
 लम्बा मार्ग यह है कि तीनों अवस्थाओं को पार करो। जाग्रत का संसार बहुत दूर तक है। इसमें भी ऊँचे-नीचे तल हैं। इसी तरह चौथी अवस्था दूर तक है और ऊँचा-नीचा तल है। इसका अभ्यास संन्यासी करे, गृहस्थ नहीं, बहुत गलत बात है।
 हमलोग आर्य हैं। आर्य का अर्थ-बुद्धिमान, विद्वान, सभ्य आदि है। गीता में, महाभारत में, बौद्ध ग्रन्थों में हमारे लिए ‘आर्य’ शब्द छोड़कर दूसरा नहीं आया है। हाल में तुलसीदासजी हुए, इनकी रचना में ‘आर्य’ के सिवा दूसरा शब्द नहीं है। ‘आर्य’ कहते हैं-बुद्धिमान को। हमको बुद्धिमान बनना चाहिए। ‘बुद्धि’ वह हो, जिसमें आत्मज्ञान हो।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट के निकट गंगा तट पर 58वाँ वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर दिनांक 11. 4. 1966 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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228. यह सत्संग तीर्थराज है
प्यारे लोगो !
 इस सत्संग में सरस्वती की धारा अधिक बहती है। गोस्वामी तुलसीदासजी का कहना है कि सत्संग तीर्थराज है। तीर्थराज में गंगा, यमुना और सरस्वती की धारा बहती है।
राम भगति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म विचार प्रचारा ।।
विधि निषेधमय कलिमय हरनी। करम कथा रविनंदिनी बरनी ।।
 मुझको सरस्वती की धारा में स्नान करना है और आपको भी इसी में स्नान कराना है। मैंने भ्रमण करते समय गंगा-यमुना में गोता लगाया; लेकिन सरस्वती की धारा नहीं मिली। मैं सरस्वती की धारा में गोता लगाना चाहता हूँ। जो जिसको पसन्द करता है, औरों के लिए भी वह वही चाहता है। ब्रह्म- विचार सरस्वती की धारा है, यह बड़ी गम्भीर है।
 मैं जो साधन-भजन करता हूँ, आपको उसी गम्भीरता में ले जाना चाहता हूँ, लेकिन पहले समझिए कि इसमें गोता लगावे कौन? गोता मन लगावेगा। शरीर जहाँ का तहाँ बैठा रहेगा। वह धारा बहती है। मन किसके सहारे गोता लगाता है? मन बाह्य इन्द्रिय के सहारे गोता लगाता है। मेरे कहने का विषय ऐसा है कि वह कथा कहानी नहीं है, ज्ञानमयी बात है। कान के सहारे उस सरस्वती की धारा में गोता लगाता है अर्थात् पहला सहारा कान है, जिसके सहारे श्रवण-ज्ञान होता है। श्रवण- ज्ञान कैसा होना चाहिए? जैसे मृगा बाँसुरी की ध्वनि सुनकर इतना तल्लीन होता है कि व्याधा उसको पकड़ते हैं, लेकिन वह भागता नहीं है। केले के वृक्षों को काटकर खड़ा कर देते हैं। मृग के पैर में एक ही हड्डी होती है, वह बैठ नहीं सकता है, खड़ा ही रहता है, खड़े-खड़े ही सोता है। व्याधा बाँसुरी बजाता है। मृग उस मधुर ध्वनि को सुनकर उसमें इतना लीन हो जाता है कि अपने शरीर की सुरक्षा को भूल करके केले के थम्भ से सटकर उस पर अपने शरीर का सारा बोझ दे देता है। वह थम्भ गिर जाता है; उसके साथ वह भी गिर जाता है, व्याधा उसको पकड़ लेता है।
 मृग ही की तरह ज्ञान की बातों को सुनने में तल्लीनता होनी चाहिए अर्थात् सब ओर से मन को समेटकर सुनने में लगाना चाहिए। इसके बाद मनन ज्ञान है। जो सुनो, उसको विचारो। विचार में ख्ूब डूबो। जहाँ तक बुद्धि शक्ति हो, खूब विचारो और विचार में इस तरह एकाग्र होकर विचारो कि पपीहा जैसे स्वाति बूंद के लिए रटता है। पहले श्रवण-ज्ञान में मन लगाओ। ब्रह्म क्या तत्त्व है? ब्रह्म सम्बन्धी ज्ञान बहुत ऊँचा है। इसके पूर्व मैं क्या हूँ, इसका ज्ञान होना चाहिए; क्योंकि सभी कहते हैं कि मैं हूँ। वह अपने तईं क्या है, इसको सोचे। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था कि यह शरीर रूपी क्षे़त्र-पाँच स्थूल तत्त्व-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश; पाँच सूक्ष्म तत्त्व-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द; पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पंच कर्मेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति, संघात, चेतना, धृति, इच्छा, द्वेष, सुख और दुःख; यह आप नहीं हैं। इन इकतीस के समुदाय को क्षेत्र कहते हैं। इनसे पृथक पदार्थ इस शरीर में है, वह आप हैं, जिसको क्षेत्रज्ञ वा अध्यात्म भी कहना चाहिए। उपर्युक्त 31 तत्त्वों के संग में पड़कर आप अपने को सुखी-दुःखी मानते हैं। इनमें से 27 तत्त्वों से भिन्न होकर रहें, तो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख आपके लिए कोई वस्तु नहीं रहेगी। तब अपने से अपने को पहचानेंगे। अनेक जन्मों से ‘मैं हूँ, मैं हूँ’ कहते चले आ रहे हैं, लेकिन अपने तईं को पहचाना नहीं है। अपने को केवल विचार में ही नहीं, प्रत्यक्ष में पहचानिए, जैसे शरीर को पहचानते हैं। ऐसा ख्याल न करें कि वहाँ देखने के लिए इसी तरह की आँख है। जैसे कोई आँख से सबको देखते हैं, आँख को देखने के लिए आइने का साधन लेकर आँख से ही देख सकते हैं, इसी तरह ईश्वर-भजन का साधन लें तो उस साधन को करते-करते उन इकतीस तत्त्वों से अलग हो जायेंगे और तब समझेंगे कि सुरत अर्थात् चेतन आत्मा सत् है। संत तुलसी साहब (हाथरस) ने कहा है-
सत सुरति समझि सिहार साधौ। निरखि नित नैनन रहौ ।
धुनि धधक धीर गंभीर मुरली । मरम मन मारग गहौ ।।
 आप जड़ नहीं, चेतन आत्मा हैं। यह मिटने वाली नहीं है, मिटनेवाला शरीर है। इसकी खोज बाहर-बाहर होने योग्य नहीं है। यह खोज अपने शरीर के अंदर होनी चाहिए। इस खोज को करते- करते 31 तत्त्वों से अलग होकर अपने को ऐसे पहचानेंगे, जैसे शरीर को पहचानते हैं। लेकिन यह बिना ईश्वर-भजन के नहीं होगा। ईश्वर-भजन की बातें बहुत हैं; लेकिन मैं उतना ही कहूँगा, जिससे काम चले। आप पंच विषयों को पंच ज्ञानेन्द्रियों से जानते हैं। केवल आँख से पंच विषयों को नहीं जानते। केवल कान से पंच विषयों को नहीं जानते। आँख के लिए केवल रूप और कान के लिए केवल शब्द है। कोई कहे कि आँख से हम सुन भी लें, हो नहीं सकता। इन बातों की जानकारी के बाद कोई पूछे कि रूप क्या है? तो आप कह दीजिए कि आँख से जो ग्रहण हो, वह रूप है। शब्द क्या है? जो कान से ग्रहण हो। इसी प्रकार पंच विषयों को जानिए। अपने को किससे ग्रहण करो? अपने तईं को अपने से ग्रहण करो, मुझको यह कहना है। अमुक की शादी अमुक से और अमुक की लड़ाई अमुक से-मैं यह कहने नहीं बैठा हूँ।
 ईश्वर क्या? तुलसीदासजी ने बहुत अच्छा लिखा है। लक्ष्मणजी पूछते हैं कि माया किसको कहते हैं? बंध किसको कहते हैं? माया के लिए श्रीराम ने उत्तर दिया-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 इन्द्रियों से ईश्वर का ग्रहण नहीं होगा। मन से, बुद्धि से ईश्वर का ग्रहण नहीं होगा। विचार भले ही कर लें, पहचान नहीं होगी। इसीलिए ‘राम स्वरूप तुम्हार,’ ‘राम नररूप तुम्हार’ नहीं। आपको जनाया गया कि आप स्वयं मन-इन्द्रियों के परे हैं। अपने को मन-इन्द्रिय से पहचान कर सकते, तो पहचान कब न हो गई रहती। अपने से जिसकी पहचान हो, वह ईश्वर है। कोई पूछे कि मन-इन्द्रियों में निजी ज्ञान है? मैं कहूँगा मन-इन्द्रिय का ज्ञान आपका ज्ञान है। उनको अपना ज्ञान कुछ नहीं है। मेरे ही ज्ञान से मन में, बुद्धि में ज्ञान है। कोई कहे कि जब हमारा ज्ञान ही इन्द्रियों में है तो हम उससे ईश्वर को क्यों न जानेंगे? तो देखिए, एक लालटेन है, जिसके पाँचो पहलों में पाँच रंग के शीशे लगे हुए हैं और बीच में मोमबत्ती जल रही है। मोमबत्ती का प्रकाश लाल शीशे की ओर से निकलने पर उधर की रोशनी लाल मालूम होती है। पीले शीशे की ओर से निकलने पर उधर की रोशनी पीली मालूम पड़ती है। इसी प्रकार प्रत्येक पहल से प्रत्येक रंग की रोशनी निकलती है, किन्तु केवल मोमबत्ती की रोशनी उन रोशनियां से पृथक ही रहती है। जिस तरह लालटेन के शीशे के रंग के कारण मोमबत्ती के प्रकाश का रंग बदल गया, उसी तरह आपका निजज्ञान जो है, वह इन्द्रियों के संग के कारण, उसके असर के कारण शुद्ध, असली नहीं होता। इसलिए जो आप निजज्ञान से जानेंगे, वह इन्द्रियज्ञान से नहीं। निजज्ञान में ही ईश्वर को पहचान सकते हैं और अपने को भी। जो ईश्वर तत्त्व है, वही तत्त्व मैं हूँ। ‘मैं’ और ‘वह’ एक ही है, केवल आवरण भेद है अर्थात् परम प्रभु परमात्मा आवरणरहित और जीवात्मा आवरण सहित है। जो चेतन आत्मा से पहचान में आवे, वह ईश्वर है।
 जगन्नाथजी जाने के लिए भागलपुर छोड़ना होगा। उसके आगे के गाँवों, शहरों को छोड़ना होगा, तब जगन्नाथजी पहुँचेंगे। इसी तरह अपने अन्दर के सभी आवरणों को पार करके हम ईश्वर तक पहुँच सकते हैं। ईश्वर कैसा है, कितना बड़ा? उपनिषद् कहती है-‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’ और कबीर साहब कहते हैं-
 श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
 सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।। ‘बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा’ ‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’ का अनुवाद है। ‘दृष्टि-दृष्टि सों देखा’-देखने की शक्ति दृष्टि है। दृष्टि की दृष्टि चेतन आत्मा है। कबीर साहब ने और खुलासा किया, ‘चाम चश्म सों नजरि न आवै, खोजु रूह के नैना।’ उस दृष्टि से खोजने की युक्ति है। उस युक्ति को तुलसी साहब ने प्रकाशित किया। तुम्हारी आत्मा सत् है। इसको सँभालने का साधन करो। तुम सारे शरीर में बिखर गए हो। जैसे सूर्य की किरण संसार में फैली है, वैसे ही तुम्हारी किरण शरीर और संसार में फैल गई है। इसको सम्भाल करके तब जो देखो, सो दृश्य भिन्न है। यह कैसे होगा? ‘निरखि नित नैनन रहौ।’ अपनी आँखों (दृष्टि) से गौर से देखो। देखने की विद्या है।
 काजर दिये से का भया ताकन को ढब नाहिं ।।
 ताकन को ढब नाहिं ताकन की गति है न्यारी ।
 इक टक लेवै ताकि सोई है पिव की प्यारी ।।
              -पलटू साहब
 यह शाम्भवी मुद्रा है, वैष्णवी मुद्रा है, दृष्टि- योग है। आँख बन्द करके देखो। अपनी दृष्टिधार को समेटकर देखो। बहिर्मुख से अन्तर्मुख होकर देखो। बाहरी बातों को छोड़ दो, आवे तो हटा दो और तब आँखें बन्द करके देखो। ऐसा देखोगे तो देखने में आवेगा। एकटक देखना होगा। देखा, छोड़ दिया, ऐसा नहीं, एकटक देखो। बाहरी ख्यालात को छोड़कर देखो। ऐसा देखोगे तो ‘सम सील लील अपील पेलै’ अर्थात् पत्थर के समान कालापन है, उसको छेद देता है। यह साधन की बात है। कोई कहे कि प्रमाण दो, तो इसका प्रमाण क्या? करके देखो। हो, तो ठीक है, नहीं तो गलत है। ‘अंतरि जोति भई गुरु साखी चीने राम करंमा।’ (गुरु नानक साहब)।
 तुम्हारे साधन में कसर नहीं हो, तो तुम देखोगे कि गुरु ने जो कहा, ठीक कहा। करके देखने का काम है। ‘उघरहिं विमल विलोचन ही के। मिटहिं दोष दुःख भव रजनिके।। सूझहिं रामचरित मणि माणिक। गुपुत प्रकट जहँ जो जेहि खानिक।।’ और ‘खेल खुलि खुलि लखि पड़ै।’ एक ही बात है। इस तरह करने से ईश्वर के चरणों में तुम्हारा प्रेम बढ़ेगा। ईश्वर के प्रति तुम्हारा झुकाव अधिक-से-अधिक होगा। जिसे आप अपने से पहचानो, वह ईश्वर है। शरीर का संग, इन्द्रिय का संग छूट जाना चाहिए। जैसे मथे गए दूध से मक्खन अलग होकर फिर दूध में ही रहे, उसी तरह अपनी शरीर-इन्द्रिय से छूटकर अपने में रहो; यही है जीवनमुक्त होना। यह शरीर ज्ञान से बहुत ऊँचा है। बुद्धि की गति वहाँ नहीं है। इसी दशा में ईश्वर की पहचान होती है।
 बड़े जगमग रूप का दर्शन हुआ, यह मामूली बात है। मनु राजा और शतरूपा ने बहुत तप किया, लेकिन शरीर-ज्ञान से बाहर नहीं होकर, शरीर में रहकर सुन्दर दर्शन पाया। वह मायिक दर्शन था। कोई कूढ़े तो मैं कहूँगा कि ‘गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।’ इसको कहाँ फेंक दीजिएगा?
 एक पण्डितजी ने कहा कि भगवान राम का शरीर ‘चिदानन्दमय’ था। ‘चिदानन्दमय देह तुम्हारी। विगत विकार जान अधिकारी।।’ मैंने कहा- ‘चिदानन्दमय रूप मायिक वा अमायिक?’ उन्होंने कहा-‘अमायिक।’ मैंने कहा-‘तो क्या अमायिक रूप का दर्शन इस मायिक आँख से हो सकता है?’ थोड़ी देर चुप रहकर वे बोले-‘हाँ, यह समझने की बात है।’ भगवान कृष्ण के विराट रूप का वर्णन है कि उसमें बहुत से विकराल मुँह, हाथ, नाक, पैर, कान आदि थे। उस रूप को देखकर अर्जुन डर से थर-थर काँपता था। कहता था कि आप अपना सौम्य रूप दिखाइए। नारद को भी विश्वरूप का दर्शन हुआ था। लेकिन भगवान ने कहा था-‘तू मेरे जिस रूप को देख रहा है, यह सत्य नहीं है, यह माया है। मेरे सत्यस्वरूप को देखने के लिए इसके भी आगे तुझे जाना चाहिए।’
 मायामय रूप के दर्शन से मनु-शतरूपा को क्या हुआ, रामायण में है। वर माँगा कि आपही की तरह पुत्र हो। भले ही यह सात्त्विक इच्छा हो। स्वर्ग सुख भोगा, फिर राजा दशरथ और रानी कौशल्या हुए। इतने तप के बाद भी शिकार खेलने का इतना चस्का कि दिन को क्या और रात को क्या! शिकार खेलते रहे। शरीर में इतना बल कि किसी का भय नहीं। शरीर रक्षक की जरूरत नहीं। शिकार के चस्के में रात में श्रवणकुमार को मार डाला। शाप लिया कि पुत्र शोक में मरोगे। इसी तरह कश्यप और अदिति की कथा है। वही तप, वही फल, वही श्रवण को मारना और शाप पाना। श्रीराम को कल युवराज पद मिलेगा, राजा खुश होकर रनिवास में गए। कैकेई के महल में गए, उनको मालूम हुआ कि वह कोप-भवन में बैठी हुई है। यह जब सुना तो उसकी दशा कैसी हुई, तुलसीदासजी ऐसे भक्त को लिखना पड़ा।
कोप भवन सुनि सकुचेउ राऊ। भय बस अगहुँड़ पड़इ न पाऊ ।।
सुरपति बसइ बाँहुँ बल जाके। नर पति सकल रहहिँ रूख ताके ।।
सो सुनि तिय रिस गयेउ सुखाई।देखहु काम प्रताप बड़ाई ।।
 तुलसीदासजी असली बात को कैसे छिपाते? मैं आस्तिक का बच्चा हूँ। भारत का बच्चा हूँ। श्रीराम, श्रीकृष्ण, का माननेवाला हूँ। एक बार एक पादरी मेरे पास आया और कहलवाना चाहा कि ईसा मसीह, श्रीराम और श्रीकृष्ण से विशेष थे। मैंने यह बात मानी नहीं। वह फिर मेरे पास नहीं आया। जगमग दर्शन से मनोविकार नहीं जाते। इतना तप, फिर मनोविकार। तब किस काम का वह तप। ‘सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे।।’ इन बातों को देखते हैं तो होता है कि इनसे विशेष दर्शन होना चाहिए, जहाँ विकार न हों। इसके लिए यत्न है-‘सम सील लील अपील पेलै...।’ यह देखने की विद्या है, फिर सुनने की विद्या है।
   धुनि धधक धीर गंभीर मुरली । मरम मन मारग गहौ ।।
 देखने-सुनने के लिए सिनेमा जाना नहीं है। एक साधु को एक बाबू ने बड़ी जिद्द करके सिनेमा दिखाया। खेल समाप्त होने पर उक्त बाबू ने साधु से पूछा-‘क्या देखा?’ साधु ने कहा-‘जो कुछ खेल देखा अन्धकार में।’ सिनेमा देखने में पैसा बर्बाद और समय बर्बाद होता है; ऐसा क्यों करते हो? इसलिए कि अपने अन्दर देखना नहीं जानते हो। जो अपने अन्दर देखना जानते हैं, उनको बाहर में इन सबको देखने में रुचि नहीं होती। देखकर चलो, नहीं तो काँटा गड़ेगा। एक तो इस आँख से देखते हैं, फिर रूह के नैना से देखते हैं। ‘यह जग है काँटे की बाड़ी, देखि दृष्टि पग धरना’- (गोरखनाथजी)। यह संसार काँटा-ही-काँटा है, इसमें उलझो मत। ईश्वर क्या है? अपने से जिसको पहचानो। अपने क्या हैं? शरीर-इन्द्रिय से जो छूटकर इस शरीर में है, जो आत्मदृष्टि में आवे, वह आत्मतत्त्व है। पहले दिव्यदृष्टि प्राप्त करो, फिर नादानुसंधान करो। यह है नामभजन-सरस्वती की धारा।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट के निकट गंगा तट पर 58वाँ वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर दिनांक 11. 4. 1966 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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229. संतमत निर्भर करता है : साधना-अनुभूत ज्ञान पर
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
 संतों की वाणी का पाठ सत्संग में अवश्य होना चाहिए। संतों की वाणी ऐसी नहीं है जो हमें अन्धविश्वासी बनावे। संतों की वाणी में अन्धविश्वास का कारण नहीं है। संतों ने कहा तुम देखने की विधि नहीं जानते हो। हम बतलाते हैं, उस विधि से तुम देखो। संतों की वाणी में हमें इतनी मिठास मालूम पड़ती है, जितनी किसी मिठाई में नहीं।
 एक बार एक अमेरिकन लड़ाकू विमान भटकते- भटकते भारत पहुँचा। उसके बम के फूटने का समय नजदीक आ गया था। पेट्रोल भी समाप्त हो गया था। अन्त में उस बम को एक बालूवाली नदी में उन्होंने गिरा दिया। वह किसी तरह घोघा पहुँचा, बम फूटा। उससे किसी तरह की हानि नहीं हुई। वायुयान में दो व्यक्ति थे, वे दोनों स्टेशन पहुँचे। यहाँ की भाषा वे जानते नहीं थे। उनको खाने के लिए रसगुल्ला दिया गया। वे रसगुल्ला नहीं खाए। जिसको जिसका रस मालूम नहीं, उसमें उसकी मिठास का क्या पता। संतों की वाणी में ज्ञान, ध्यान और सदाचार का उपदेश मिलता है। ज्ञान के बिना ध्यान नहीं और ध्यान के बिना ज्ञान की पूर्णता नहीं। सदाचार के बिना ध्यान-अभ्यास की कमर टूटी रहती है। सदाचार ही तो बल है। ध्यान करने में अवश्य ही मस्तिष्क में बल लगता है। सदाचार से ध्यान में बल मिलता है और ध्यान से सदाचार में दृढ़ता आती है। अपवित्र ब्रह्मचर्य में पूर्ण फल नहीं मिलता। इन बातों का ख्याल सत्संगियों को चाहिए। किसी बाहरी अद्भुतता में खींचना अपने लाभ की बात नहीं है। अद्भुतता अपने अन्दर है, देखने की युक्ति सत्संगीगण जानते हैं।
 ‘मेरी सुरत सुहागिन जाग री।’ कबीर साहब सुहागिन उस श्रीमती को कहते हैं, जो अपने पति से प्यार की जाती है। जो अपने पति से प्यार नहीं की जाती, वह दुहागिन है। चेतन आत्मा को भी संतों ने स्त्रीरूप माना है। वह सदा ईश्वर से प्यार की जाती है। जब यह सोयी रहती है, तब अपने पति रूप परमात्मा को नहीं देख पाती है।
 माया मुख जागे सभै, सो सूता कर जान ।
 दरिया जागै ब्रह्म दिशि, सो जागा परमान ।।
       -दरिया साहब, बिहारी
 जो माया मुख जागते हैं, वे मोह निशा में सोये रहते हैं। जो ब्रह्म की ओर जागते हैं, उनका असली जागना होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
ऐहि जग जामिनी जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच वियोगी।।
 ब्रह्म की ओर योगी के अतिरिक्त और कोई नहीं जग सकते। कोई कितना भी कुछ रटते रहो, परन्तु जग नहीं सकते हो। जिसका विश्वास डोलता रहता है, उससे काम नहीं चलता। कितना भी रटोगे, पर जगोगे नहीं। शरीर के अन्दर आँख का स्थान जगने का है। आँख में नहीं रहते, तो बाहर संसार को देख नहीं सकते। शरीर के अन्दर कहाँ हो? शरीर के किस हिस्से पर हो? इसे देखने के लिए बाहर का देखना छोड़ दो। आँख बन्द करने पर अन्धकार मालूम होता है। इससे मालूम होता है कि मैं अंधकार में हूँ। नयनाकाश में अन्धकार है, उसी में तुम्हारा वासा है। ब्रह्मोपनिषद् में है-
 नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स् वप्नं समाविशेत् ।
 सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्निसंस्थितम् ।।
 अर्थात् जीव का वासा जाग्रत में नेत्र में, स्वप्न में कण्ठ में, सुषुप्ति में हृदय में और तुरीयावस्था में मस्तक में होता है। कण्ठ नहीं रहे, तो स्वर का उच्चारण नहीं हो सकेगा। स्वर को छोड़कर कोई व्य०जन बोल नहीं सकता। गहरी नींद में श्वास चलता है, परन्तु ज्ञान नहीं रहता। स्थान के छूटने से अवस्था का भेद और अवस्था भेद से ज्ञानभेद होता है। अगर अन्तर्मुखी होकर स्थान भेद हो जाए तो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति छूट जाएँ। यह अन्तर्मुख की ओर जगने से होता है। जाग्रत में मोह होता है। मोह एक प्रकार की नींद है। यहाँ से जगने के लिए आँख से ऊपर उठना होगा।
 तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त ।
 मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप अनंत ।।
            -गोस्वामी तुलसीदासजी
 यह ब्रह्म की ओर का जगना होगा। ईश्वर की ओर जगना उस धार की ओर लगना है, जो हमें नीचे नहीं गिरने दे। इसी को भजन कहते हैं। अपनी वृत्ति को शब्द में लगाओ। यहाँ जगने के लिए दृष्टियोग है। भगवान कृष्ण ने कहा था- ‘तत्त्वज्ञानी गुरु के पास जाओ और उनसे भक्ति की याचना करो।’ गुरु से भक्ति का अचल वरदान माँगो। यही निवेदन गुरु से करो। संसार की ओर पीठ देकर भागो। किसी भी दिशा में जाओ, संसार है। संसार की ओर पीठ कैसे होगी? तीनों अवस्थाओं के ऊपर चौथी अवस्था में जाओ, तो संसार की ओर पीठ हो जाएगी। इसके लिए संत महात्मागण घर-द्वार छोड़ने को नहीं कहते। कबीर साहब कहते हैं-‘अवधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भावै।’ तथा ‘मांँगि न खाय न भूखा सोवै, घर अँगना फिरि आवै।’ अर्थात् घर आँगन को नहीं छोड़ो, कर्म करके खाओ और नादानुसंधान करते रहो। यही कबीर साहब ने कहा। गुरु महाराज ने कहा था-‘किसी को अपने ख्याल के मुताबिक बनाने की जिद्द मत करो, नहीं तो दुःख होगा। इसलिए मैं किसी पर जिद्द नहीं करता हूँ। मैं जानता हूँ संतों का ज्ञान बहुत ऊँचा है। संत दादूदयालजी ने कहा कि जाते-जाते वहाँ तक पहुँच जाओ, जो अनन्त है। उस अनन्त की खोज में अन्तर पट के अंत में जाओ। जो कहने में आने योग्य नहीं है।’
 संतमत निर्भर करता है, साधना-अनुभूत ज्ञान पर तथा तत्सम्बन्धी विचार पर। संतों की वाणियाँ अनुभव युक्त एवं विचारपूर्ण हैं। इसलिए उसे हम आधार मान लेते हैं। संतों की वाणियों की अवहेलना हमलोग नहीं करते, आदर करते हैं। हमारे अन्दर यदि प्रकाश नहीं रहता, तो हम कुछ भी नहीं देख सकते। सजातीय पदार्थ को सजातीय पदार्थ से सहायता मिलती है। अपनी दृष्टि के प्रकाश से बाहर के प्रकाश को देखते हैं। अन्दर में आवाज सबको होती है। नादानुसंधान की साधना दृष्टियोग के बिना ठीक नहीं। दृष्टियोग के बिना नादानुसंधान में बहुत कमजोर रहते हैं। हमारे अंदर में अन्धकार, प्रकाश और शब्द का मण्डल है। इन तीनों को पार कर जाओ। और परमात्मा को पाओ। हमलोग आदि नाम को निर्गुण कहते हैं। कोई-कोई ऐसा भी कहते हैं कि परम प्रभु परमात्मा त्रैगुण रहित, किन्तु दिव्यगुण सहित हैं। त्रैगुण से रहितता को दिव्यगुण कहते हैं। परमात्मा प्रकृति मण्डल को भरकर समाप्त नहीं हो जाता। उससे बाहर भी है। साधना करो, प्रत्यक्ष होगा।
 अपने धर्म को मत छोड़ो। चाहे कितना भी कुबोल सहना पड़े, दुःख भोगना पड़े और अपमान हो। इस देश के गुरु गोविन्दसिंहजी के छोटे-छोटे दोनों पुत्रों ने इसे करके दिखला दिया। कितनाहू देव पूजो, जो जानेवाला है, वह जाएगा ही। अगर एक ईश्वर की भक्ति में कोई देवता या देवी नाराज हों, तो वे देवता या देवी नहीं। ईश्वर-भक्ति का विरोध कोई नहीं कर सकते। जो कोई ध्यान करते हैं, उन्हें पाँच तत्त्वों को अलग-अलग रंग दिखलाई पड़ता है। मीराबाई को लोग केवल स्थूल भक्तिवाली मानते हैं। मीरा ने भी अन्तस्साधना की थी, जैसा कि उनके इस पद से मालूम होता है-
ऊँची अटरिया लाल किवरिया, निरगुण सेज बिछी।।
पचरंगी झालर सुभ सोहै, फूलन फूल कली ।
बाजू बन्द कडूला सोहै, माँग सिन्दूर भरी ।।
सुमिरण थाल हाथ में लीन्हा, सोभा अधिक भली ।
सेज सुखमणाँ ‘मीराँ’ सोवै, सुभ है आज घड़ी ।।
 कबीर साहब ने बहिर्मुख उपासना में गुरु के रूप को लिया है। गुलाल साहब कहते हैं-‘उलट कर देखो तो अन्दर में प्रकाश होगा।’ ईश्वर की उपासना में अन्तर्मुख होना आवश्यक है। इसलिए अन्तर्मुखी बनो और एक ईश्वर की उपासना करो।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट के निकट गंगा तट पर 58वाँ वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर दिनांक 12. 4. 1966 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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230. बाहर फिरत विकल भय धायो
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 इस समय के सत्संग में मैं ईश्वर-भक्ति के विषय में बोलूँगा। भक्ति के विषय में जो आप पहले से जानते हैं, हो सकता है मैं आपके अनुकूल कहूँ। अथवा उसके अतिरिक्त दूसरी तरह भी कह सकूँ। भक्ति की जानकारी के लिए पहले समझना चाहिए कि ईश्वर स्वरूपतः क्या है? इन्दियज्ञान से ईश्वर दूर है। चेतन आत्मा से ही जो पहचान में आवे, वही ईश्वर है। इन्द्रियों के ज्ञान में ईश्वर- स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता; क्यांकि इन्द्रियज्ञान में जो आता है, सो माया है। माया उसको कहते हैं, जिसकी बदली होती है, जिसका विनाश होता है और जो असत्य है। ईश्वर की बदली नहीं, ईश्वर का विनाश नहीं। माया जड़ है। ईश्वर चेतन को भी चेतन करनेवाला परम चेतन है। केवल चेतन आत्मा से ईश्वर का दर्शन होगा। बाहर में कहीं भी ईश्वर का दर्शन नहीं होगा, क्योंकि बाहर में इन्द्रियों से ही काम होता है। जो इन्द्रियज्ञान में नहीं है, उसको इन्द्रियों से पावेंगे, ऐसी आशा दुराशा मात्र है। ईश्वर का दर्शन बाहर में मानते हैं, तो ज्ञान के खिलाफ होता है और उसकी सत्यता सिद्ध नहीं होगी। बाहर में ईश्वर का दर्शन नहीं होता। यह विचार देकर संतों ने कहा है-ईश्वर को अपने अन्दर खोजो। (गो0 तुलसीदासजी महाराज) जिनका सात काण्ड रामायण है। विनय-पत्रिका में लिखते हैं-
एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो ।
परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं,बाहर फिरत विकल भय धायो ।।
 अर्थात् बाहर में खोजते रहे, तो विकल होते रहे, हैरान होते रहे। कुछ लोग गोस्वामी तुलसीदासजी की जीवनी में लिखते हैं कि उनको बाहर में भी ईश्वर का दर्शन हुआ था। श्रीराम का दर्शन हुआ था। हनुमानजी से तुलसीदासजी ने प्रार्थना की कि मुझे राम के दर्शन कराइए। चित्रकूट में तब वे रहते थे। एक दिन वे चन्दन घिस रहे थे। उन्होंने देखा कि दो सुकुमार बालक आए हैं और चन्दन लगाने के लिए कह रहे हैं, तुलसीदासजी ने उन दोनों को तिलक लगा दिए, किन्तु वे पहचान न सके कि ये ही श्रीराम और लक्ष्मण हैंं। पुनः हनुमानजी से भेंट होने पर तुलसीदासजी ने कहा-‘मुझे राम के दर्शन नहीं हुए।’ हनुमानजी ने कहा-‘आपने पहचाना नहीं, जिन दो बालकों को आपने तिलक लगाए, वे ही राम और लक्ष्मण थे।’ तुलसीदासजी ने पुनः दर्शन करवाने के लिए उनसे प्रार्थना की। हनुमानजी ने कहा-‘अच्छा, फिर दर्शन होगा।’ उसके बाद तुलसीदासजी ने देखा कि दो सुन्दर किशोर बालक घोड़े पर जा रहे हैं। किन्तु इस बार भी वे पहचान न सके। हनुमानजी से भेंट होने पर उन्होंने समझाया- ‘घोडे़ पर जिन दो बालकों को आपने जाते देखा, वे ही दोनों बालक राम और लक्ष्मण थे।’ इस तरह गोस्वामी तुलसीदासजी राम और लक्ष्मण को देखकर भी पहचान न सके। यथार्थ में क्या ईश्वर-दर्शन ऐसा ही होता है कि ईश्वर-दर्शन हो और ज्ञान नहीं हो कि ईश्वरदर्शन हुआ? बाहर के दर्शन से, इन्द्रियां के ज्ञान से दर्शन होने पर वह परमात्मा का दर्शन नहीं होता। तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है-
रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा।।
नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा।।
तुलसीकृत रामायण में योग का वर्णन भी किया है-
सतगुरु ज्ञान विराग जोग के, विबुध बैद भव भीम रोग के।।
 मतलब यह कि रामचरितमानस में योग भी है, लेकिन देखने के लिए अन्तर्दृष्टि चाहिए। ‘उघरहिं विमल विलोचन ही के। मिटहिं दोष दुःख भव रजनीके।।’ इसको भी जानो।
 बाहर के दर्शन से क्या हुआ। कश्यप और अदिति ब्राह्मण थे और तप करने पर क्षत्रिय हुए। एक पद नीचे चले आए; क्योंकि क्षत्रिय, ब्राह्मण से नीचे होते हैं। माया दर्शन में माया के अंदर बहुत लाभ होता है। चमत्कारिक लोकों में जाना हो सकता है, लेकिन अपना ज्ञान नहीं होता। जबतक अपना दर्शन न हो, तबतक ईश्वर-दर्शन हुआ, कहा नहीं जा सकता। अन्दर में इसलिए दर्शन होगा कि जैसे-जैसे अन्दर जाओगे, बाहर की इन्द्रियों से छूटते जाओगे। स्वप्न में भी बाहर की इन्द्रियों से छूटा जाता है। यह विश्वास करना चाहिए कि अंतर्मुख होने से इन्द्रियों के ज्ञान से छूटते हैं। सुषुप्ति में भी इन्द्रियज्ञान से भिन्न रहते हैं। स्थूल शरीर मेेें जागने से ज्ञान होता है, उसमें तथा स्वप्न के ज्ञान से एवं सुषुप्ति के अचेतपन से भी छूटे रहोगे। यह अनुभूति की बात है, साधन की बात है। यही भक्ति-मार्ग में योग का स्थान आता है।
 भक्ति कहते हैं- सेवा करने को। किसी की आवश्यकता पूरी करनी, उनकी यह सेवा है। गंगा- सेवन करने लोग जाते हैं। वहाँ गंगा की सेवा क्या करो? गंगा में बकरी का बच्चा फेंकते हैं, लोग उसको लूटते हैं, यह भक्ति नहीं है। गंगाजल का स्पर्श करते हैं, पानी पीते हैं, उसकी हवा में रहते हैं; यह गंगा सेवन है। गंगाजी को कोई इच्छा नहीं, आप क्या सेवा कीजिएगा?
 जबसे ईश्वर का ज्ञान सुनकर वह ज्ञान प्राप्त करने लगे, तबसे ईश्वर-भक्ति आरम्भ हो गयी। ईश्वर की ज्योति भी आप देख सकें, तो मन पवित्र हो जाएगा। जो सत्संगी इसका यत्न जानते हैं, साधन-भजन करते हैं, अन्दर में कुछ भी पाते हैं, तब मन कैसा होता है, वे जानते हैं। वे पुनः-पुनः वैसा ही देखना चाहते हैं। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाते हैं, ईश्वर का प्रकाश मिलता गया, गोया ईश्वर का आशीर्वाद आता गया। ईश्वर की खोज में अन्दर-अन्दर चलना ईश्वर की भक्ति है। भक्ति वहाँ समाप्त हो जाती है, जहाँ ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है। तुलसीदासजी को बाहर में दर्शन नहीं हुआ। दर्शन होने पर भी वे पहचान न सके। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
  निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुण जान नहि कोय ।
  सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होय ।।
 इस पर लोग ध्यान नहीं देते। स्थूल पर ही लौ लगाए रहते हैं, आगे बढ़ना नहीं चाहते। चाहिए कि अंतर्मुखी होकर खोज हो। जो जहाँ बैठा रहता है, वह वहीं से चलता है। दृष्टि और मन को स्थिर करो। ‘बैठे ने रास्ता काटा। चलते ने बाट न पाई।।’ अन्दर में असली दर्शन होता है। अमायिक रूप का दर्शन करो। अन्दर चलने के लिए कबीर साहब ने कहा है-‘भक्ति का मारग झीना रे।’ उस पर चलने के लिए केवल चेतन आत्मा है। अपने को स्थूल दृष्टि में रखे हुए लोग सूक्ष्म दृष्टि में अपने को ले जाएँ। गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
 भगता की चाल निराली ।
 चाल निराली भगता केरी विखम मारगि चलणा ।।
 लबु लोभ अहंकार तजि त्रिसना बहुतु नाहीं बोलणा ।।
 ख्ांनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा।।
कठोपनिषद् में है-
   क्षूरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।
 इसी बारीकी के कारण गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई ।।
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।। सफरी की तरह सूक्ष्म हो जाओ। अपने को बहुत सम्भालो और सूक्ष्म में होकर उस तक पहुँचो। इसके लिए कला (विद्या) है, गुरु से भजन भेद लो और उसका अभ्यास करो। हमलोग अभी संसार के स्थूल तल पर हैं। सूक्ष्म की ओर बढ़ने के लिए शाम्भवी मुद्रा अथवा वैष्णवी मुद्रा का अभ्यास करो। अंदर चलने के लिए साधन लो और करो। संभव नहीं कि सूक्ष्म दृष्टि का अभ्यास नहीं हो सकेगा। अबतक जो ज्ञान हुआ है, साधन किया है, उसमें यह दृढ़ हो गया है।
     ‘थोड़ा बनिज बहुत ह्वै बाढ़ी उपजन लागे लाल मई ।’
     ‘श्रद्धा किं? करिय जहँ प्रीति ।
          लखि न अभाव होइ विपरीती।।’
 अभाव होने पर विपरीत नहीं हो, विश्वास डिगे नहीं, करता चला जाय। लेकिन अन्धविश्वासी नहीं बनो। साधन करोगे, तो अन्धी श्रद्धा नहीं रहेगी। कभी कुछ भी सफाई आ जाय, तो अहोभाग्य है। थोड़ी भी शान्ति आ गई तो अहोभाग्य है। यह जल्दबाजी की बात नहीं है। रामचरितमानस की नवधा भक्ति में है-
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
  गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।
  चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मो तें सन्त अधिक करि लेखा।।
आठवँ यथा लाभ सन्तोषा। सपनहुँ नहिं देखइ पर दोषा।।
नवम सरल सब सन छल हीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।।
 संतों का संग, कथा-प्रसंग, गुरु-सेवा, ईश्वर का गुणगान, मंत्र-जप; इस प्रकार पाँच भक्ति तक मन लगाने पर ही जोर है। छठी भक्ति में दमशील बनने कहा। शम-दम छोड़ दो तो योग कहाँ रहा? इन्द्रिय-निग्रह से मन सांसारिक विषयों को छोड़ता हैं सांसारिक विषयों को छोड़ने से निर्विषय की ओर होना होता है। तब ‘एहि तन कर फल विषय न भाई’ हो जाता है। मतलब यह कि छठी भक्ति में इन्द्रिय निग्रह होता है। सातवीं भक्ति है, मनोनिग्रह के लिए। मनोनिग्रह में एकाग्रता होती है और मन से चेतन आत्मा का संग छूट जाता है। यह अन्दर का रास्ता है। इस रास्ते में चलने को भक्ति कहते हैं। इसके अलावा जो भक्ति है, वह मनोनिग्रह के लिए ही है।
 पहले स्थूल उपासना करो। चाहे आप विष्णु की उपासना करो, शिव की उपासना करो वा शक्ति आदि की उपासना करो। इससे कुछ थोड़ा सिमटाव होता है; क्योंकि जिस रूप का ध्यान करोगे, उसमें कुछ सिमटाव होगा। श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव से कहा है कि- पहले मेरे सम्पूर्ण शरीर का, बाद में चेहरे का और फिर शून्य में ध्यान करो। दृष्टियोग से रूप का ज्ञान होता है और शब्दयोग से अरूप का ज्ञान होता है। आकाश में बिजली चमकती है, लेकिन ठोकर पहले लगती है। पहले ठोकर लगती है, आवाज होती है, फिर बिजली चमकती है। आदि में शब्द है, फिर ज्योति। कम्प और शब्द ऐसा है कि उसको कोई अलग-अलग नहीं कर सकता। शब्द के अभ्यास में जो खिंचाव है, उससे खिंचकर परमात्मा तक पहुँचा जाता है।
 चुम्बक सत्त शब्द है भाई, चुम्बक शब्द लोक ले जाई ।
 लेइ निकारि होखै नहिं पीरा, सत्त शब्द जो बसै शरीरा ।।
        -दरिया साहब, बिहारी
 आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह ।
 परसत ही कंचन भया, छूटा बंधन मोह ।।
          -कबीर साहब
 ईश्वर तक पहुँचने के लिए नाम-भजन करो। नाम-भजन का भेद जानो।
 श्रवणात्मक ध्वन्यात्मक वर्णात्मक विधि तीन ।
 त्रिविध शब्द अनुभव अगम, तुलसी कहहिं प्रवीण।।
 भेद जाहि विधि नाम महँ, बिनु गुरु जान न कोइ ।
 तुलसी कहहिं विनीत वर, जां बिरंचि सिव होइ ।।
बन्दउँ राम नाम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को।।
विधि हरिहर मय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो।।
          -गोस्वामी तुलसीदासजी
 मुँह से, मन से जो कहते-सुनते हो, वह निर्गुण शब्द नहीं है।
नाम रूप दुई ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी।।
       -गोस्वामी तुलसीदासजी
 शब्द शब्द सब कोइ कहै, वो तो शब्द विदेह ।
 जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि देह ।।
               -कबीर साहब वर्णात्मक नाम से ईश्वर की पहचान नहीं होती। जाति नाम और सिफाती नाम राधास्वामी पन्थ के दूसरे गुरु ने कहा था।
 झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों को मत करो। मनुस्मृति में अष्ट घातकों की चर्चा की है अर्थात् मारने की आज्ञा देनेवाला, मारनेवाला, टुकड़ा-टुकड़ा करनेवाला, बेचनेवाला, खरीदनेवाला, पकानेवाला, परोसनेवाला और खानेवाला; ये अष्ट घातक हैं। पण्डितजी कहते हैं कि खाने में दोष नहीं है, ऐसा भी लिखा है। मैं कहता हूँ- नहीं खाय तो महाफल होगा, ऐसा भी लिखा है। तो खानेवाले तो महाफल से वि०चत रहेंगे। एक योगी ने लिखा कि जल-जन्तु वा पशु के गुण उसके मांस में रहते हैं, उसके खानेवाले में पाशविक वृत्ति हो जाती है। एक महीने मांस-मछली नहीं खाओ और तब तुम्हारा मन कैसा रहता है, देखो और दूसरे महीने में खाकर देखो कि कैसा रहता है? दोनों को मिलाओ तो आप स्वयं छोड़ दोगे। महात्मा गाँधीजी ने अण्डा खाने के लिखा, सो लोगों ने पकड़ लिया। लेकिन अण्डा नहीं खाने के विषय में जो उन्होंने कहा, उसको माननेवाले कोई नहीं।
 हमलोगों को स्वराज्य प्राप्त है, लेकिन सुराज्य नहीं है। यह सुराज्य लाना जनता के हाथ में है। पंच पापों को छोड़ने से स्वराज्य में सुराज्य होगा।
 ईश्वर सर्वव्यापक हैं, ऐसा हमलोग मानते हैं। कितनों का ख्याल है कि ईश्वर सर्वव्यापक नहीं हैं। कोई कहते हैं कि निर्गुण ब्रह्म को अपने तईं का भी ज्ञान नहीं हैं। जैसे चार चीजें मिलाकर गण्डा होता है, उसी तरह से बहुत से अणु चैतन्य को मिलाकर ईश्वर होता है।’ ये सब गलत बातें हैं। लोगां को इन प्रचारों से बचना चाहिए।
 ईश्वर-भक्ति का मोटा प्रचार भी बहुत होता है। मोटी भक्ति भी नहीं छोड़ो और सूक्ष्म भक्ति को भी नहीं छोड़ो। राम के उपासक शिव के उपासक नहीं हैं, ऐसा कहना संकीर्ण बुद्धि का काम है। शिव के उपासक राम के उपासक या भक्त नही हैं, संकीर्णता है। पहले सगुण, पीछे निर्गुण उपासना होती है। अनेक निर्गुणों के ऊपर के निर्गुण को जानो। सांख्य दर्शन के अनेक निर्गुण पुरुषों के ऊपर एक ही एक निर्गुण है। इसीलिए हम उनको जानें। जिस निर्गुण ब्रह्म को अपने तईं का ज्ञान नहीं हैं, ऐसे प्रचार से बचो। निर्गुण तक पहुँचने के लिए निर्गुण शब्द को अवश्य पकड़ो। शब्द की समाप्ति जहाँ हो गई, तब ‘निःशब्दं परमं पदम्’ हो जाएगा। झूठ सब दुर्गुणों का थैला है। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार-इन पापों से बचो। कोई बड़ा है, लेकिन उसकी झुठाई पकड़ी जाय, तो उसका सारा बड़प्पन दूर हो जाएगा। द
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट के निकट गंगा तट पर 58वाँ वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर दिनांक 12. 4. 1966 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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231. मन में बहुत प्रकार के संस्कार भरे पड़े हैं
प्यारे लोगो !
 पूर्व की बात हमलोगों को स्मरण नहीं है, परंतु सद्ग्रन्थों से विदित होता है कि हमारे बहुत से जन्म हुए हैं। कितने जन्म हुए, यह संख्या में बतलाने योग्य नहीं है। किसी भी संख्या-करोड़, अरब बताने योग्य नहीं है; क्योंकि यह पृथ्वी, यह सूर्य, यह चन्द्र-सब बहुत पुराने हैं। इनकी रचना कब हुई, कोई ठीक-ठीक नहीं बता सकता।
 आज के लोग कुछ बताते हैं, लेकिन यह निश्चित नहीं है। हमलोग चार युगों की बात सुनते हैं। चार युग एक बार समाप्त होने पर एक चौकड़ी होती है। फिर कल्प और महाकल्प होते हैं। यह पुरानों के अनुकूल है। सृष्टि हुई है, लेकिन कब हुई है, कोई बता नहीं सकता। जबसे सृष्टि हुई है, तब से जीव-जन्तु हैं।
 हमलोगों के भी कितने जन्म हुए, ठिकाना नहीं। अन्दाज करके मालूम होता है कि हमारे बहुत जीवन गुजरें हैं; क्यांकि हमारे मन में बहुत संस्कार हैं। इस जन्म में कितने प्रकार के संस्कार में हम बरतते हैं-यह भी अन्दाज से बाहर है। फिर भी भिन्न-भिन्न लोग भिन्न-भिन्न संस्कार के देखे जाते हैं। जब लोग कुछ सयाने होते हैं और उनके संस्कार उदित होते हैं, तो इसी जन्म के सभी संस्कार हैं, कहा नहीं जाता।
 जो संस्कार इस जन्म में नहीं हुआ, उसके भी कर्म देखे जाते हैं। हमारे मन में बहुत प्रकार के ंसंस्कार भरे पड़े हैं। इसीलिए हमारे बहुत जन्म हुए। हमारे अन्दर जितने संस्कार उदित हुए, वे सब संस्कार सुख के लिए ही। सुख की खोज में पड़े, उसी के अन्दर दौड़े। जो ज्ञानवान हैं, उनके अन्दर में ज्ञान का उदय होता रहता है। यह ज्ञान का संस्कार पहले से ही है। कहा जाता है कि इस ज्ञान के पक्ष में बहुत जन्मों से रहे। शंकाराचार्य, भगवान बुद्ध बड़े-बड़े महात्मा हुए हैं। कबीर साहब, गुरु नानक साहब-ये सब ऐसे हुए कि बचपन से ही ज्ञान के पक्ष में चले। इसलिए कहना पड़ता है कि कई जन्मों से इनके अन्दर ज्ञान चला आता था, जो इस जन्म में उदित हुआ।
 साधारण मनुष्य विषय-भोग का संस्कार लेकर आते हैं और बचपन से उधर ही लगते हैं। वसन्त पंचमी में साल में एक बार हल की पूजा होती है। राजा लोग भी हल पकड़ लिया करते थे। सीताजी हल की पूजा के दिन ही निकली थीं, जबकि जनकजी हल जोत रहे थे। इसीलिए श्री जानकी जी को भूमिजा भी कहते हैं। जनकजी के हल की नोक लगने से घड़े से सीताजी निकली थीं। ढाई हजार वर्ष से कुछ पहले भगवान बुद्ध का जन्म हुआ। राजा शुद्धोधन हल जोतने गए थे। उस दिन बड़ा उत्सव था। भगवान बुद्ध को भी लेकर दाई वहाँ गई थी। दाई खेमे से बाहर निकली और फिर भीतर गई तो भगवान बुद्ध को ध्यानावस्थित उसने देखा और लोगों को भी दिखाया। ऐसा क्यों हुआ? बहुत से जन्मों से वे ध्यान करते चले आते थे।
 हम साधारण मनुष्य विषय-भोग का संस्कार लेकर आते हैं। इसलिए उस ओर बचपन से ही जाते हैं। कितने कुछ ज्ञान-चिन्तन और कुछ विषय- चिन्तन करते हैं। कितने बिल्कुल विषय-चिन्तन ही करते हैं, ज्ञान-चिन्तन नहीं। कितने में ज्ञान-चिन्तन की मात्रा अधिक और विषय-चिन्तन की मात्रा कम रहती है। अनेक जन्मों से लेकर आज भी हम सुख की ओर दौड़ते हैं। कितने विषय-सुख की ओर से धक्का खाकर फिर उसी ओर जाते हैं। कितने उस सुख की ओर से धक्का खाकर ज्ञान की ओर जाते हैं, विषयसुख की ओर से उनकी आसक्ति हटती है।
 आज के और पहले के संतों के ज्ञान से जानने में आता है कि विषय में सुख नहीं है। विषय पाँच हैं-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द। इन पाँचों से फाजिल को कोई जानता नहीं है। इनसे अधिक संसार में कुछ है भी नहीं। इन विषयों में दौड़ते-दौड़ते थकते हैं, दुःख पाते हैं, फिर भी उधर ही दौड़ते हैं। साधु-सन्त कहते हैं और जिन्होंने अच्छा भजन किया है, वे भी कहते हैं कि बाहर विषय-सुख में मत दौड़ो। यहाँ कहाँ सुख है? सुख तुम्हारे अंदर है। उस ओर जाओ। विषय-सुख भोगते हुए मन सन्तुष्ट नहीं होता, अधिक चंचल होता है और इसी में दुःख होता है। मन बाहर-बाहर दौड़ता है, तो अन्दर प्रविष्ट नहीं होता है। संतों ने बताया कि बाहर विषयों से सन्तुष्ट तुम नहीं होओगे। इसे संतोष करो।
 सुख अन्दर में है। उधर चलो। तन्द्रा में अन्दर में रहते हो, तब कोई बाहर का विषय नहीं रहता, फिर भी तुम सुखी रहते हो, चैन मालूम होता है। तन्द्रा से कोई छूटता है, तो उसको दुःख लगता है। चैन तुम्हारे अन्दर है। मुख में मिसरी का टुकड़ा रहे और सो जाओ, तो उसकी मिठास तुमको मालूम नहीं होती। यदि स्वप्न में देखो कि नीम का पत्ता खा रहा हूँ तो नीम का स्वाद कड़ ूवा मालूम पड़ेगा, मिसरी की मिठास का स्वाद नहीं। चेतन भीतर में था, इसीलिए भीतर का ज्ञान होता था, बाहर का नहीं। अन्दर में सुख है। इसलिए अन्दर में चलो। अन्दर में कहाँ तक जा सकते हो? संतों ने और साधकों ने कहा कि अन्दर में चला जाता है। जब तुम स्वप्न, सुषुप्ति और जाग्रत में नहीं रहते, तब तुरीय अवस्था में चलते हुए अन्दर का सुख पा सकते हो। जैसे-जैसे आगे बढ़ो, वैसे-वैसे अधिक सुख मिलता जाएगा। जहाँ चौथी अवस्था समाप्त हो जाएगी, वहाँ चलना भी समाप्त हो जाएगा।
 पहाड़ का अन्त उनकी चोटी पर होता है, इसी तरह तुरीय अवस्था का भी शिखर है। इसके शिखर पर चढ़ो, तो उसके आगे में क्या है, सो भी जानोगे। पहाड़ की चोटी पर रहने पर पहाड़ तुम्हारे पैर के नीचे रहेगा, ऊपर में पहाड़ नहीं रहेगा। इसी तरह चौथी अवस्था के ऊपर जाने पर फिर जाने के लिए स्थान नहीं रहता। इसी को गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-‘देश काल तहँ नाहीं।’ जहाँ स्थान है, वहाँ समय है, और जहाँ समय है, वहाँ स्थान है। देश हो, काल नहीं; काल हो, देश नहीं-ऐसा हो नहीं सकता। इसको संतों ने विविध प्रकार से बतलाया है। संत दादूदयालजी महाराज ने कहा-
 अविगत अंत अंत अंतर पट, अगम अगाध अगोई ।
 सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई ।।
 वहाँ पहुँचने पर ही पता मिलता है कि यह ईश्वर है। वहाँ ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, यहाँ केवल विचार में ही। वे परमात्मा इन्द्रियज्ञान से परे हैं; मन, इन्द्रियों से परे हैं। मन इन्द्रियों से ऊपर उठकर ईश्वर को पा सकते हो। ईश्वर पाने के लिए अन्दर जाने का रास्ता संतों ने बताया। संत कबीर साहब कहते हैं-
 उलटि पाछिलो पैंड़ो पकड़ो पसरा मन बटोर ।
 पसरे हुए मन को समेटो। जप से मन का सिमटाव होता है। जप से अधिक सिमटाव मानस ध्यान में होता है। पूरा सिमटाव एकविन्दुता में होता है। विन्दु में फैलाव नहीं है। इसीलिए विन्दु ध्यान की बड़ी महिमा है। हाथ-पैरवाला ईश्वर को जानेगा तो बड़ी मोटी बात है। शिवलिंग में, शालिग्राम में हाथ, पैर नहीं है। फिर ईश्वर क्यों मानते हो? इसका मतलब यह है कि केवल हाथ-पैरवाला ईश्वर होता है-ऐसा मत समझो। ऐसा सिमटाव हो कि एकविन्दुता प्राप्त हो जाए। जितने चित्र बनते हैं, विन्दुओं से। लकीर बनती है, विन्दुओं से।
 तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्म हृदि संस्थितम् ।
 अर्थात् हृदय स्थित विश्वात्म तेजस्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है। उपनिषत्कार ने लिखा है। सबके अन्दर-अन्दर हृदय में यह विन्दु मौजूद है। ‘हृदय’ शब्द छाती के लिए नहीं, योगी लोग छठे चक्र को योगहृदय कहते हैं। यहाँ तक रूप है।
 संसार में रूप के बाद अरूप है। रूप स्थूल है और अरूप सूक्ष्म है। अरूप को प्राप्त करने के लिए अरूप अवलम्ब लो। अरूप अवलम्ब शब्द है। सबके अंदर शब्द गूंज रहा है। साधन करने वाला जानता है। इस शब्द का उद्गम परमात्मा है। जहाँ से यह शब्द उत्पन्न हुआ, वह परमात्मा है। कुछ बनाने में कम्प होता है। परमात्मा की मौज हुई सृष्टि बनाने में , उसमें शब्द हुआ। वह शब्द सृष्टि के अणु-अणु में प्रविष्ट है। शब्द-साधना करके जो परम पद को पाता है, वह वहाँ पहुँचता है, जहाँ से शब्द की उत्पत्ति हुई है। जहाँ से शब्द उत्पन्न हुआ, वहाँ शब्द की समाप्ति भी होती है। इसीलिए उपनिषत्कार ने कहा-‘निःशब्दं परमं पदम्।’
 संतों ने कहा कि सुख खोजते हो, तो यहाँ (निःशब्दं परमं पदम् में) सुख मिलेगा। इसके लिए अनेक पीढ़ियों के संस्कार की, इन्द्रिय-निग्रह की, दीर्घोद्योग की तथा ध्यान और उपासना की सहायता अत्यन्त आवश्यक है। (देखें-लोकमान्य बालगंगाधर तिलक कृत ‘गीता रहस्य’ पृष्ठ 247)
 असली सुख अन्दर में मिलेगा, बाहर में नहीं। इसके लिए घर छोड़ने की जरूरत नहीं है। घर में रहो, काम करो और गुरु के बताए अनुकूल त्रैकालिक सन्ध्या अवश्य करो। रात में सोते समय भी कुछ करके सोओ। त्रैकालिक सन्ध्या अवश्य करो। सोना क्या है? गहरी नींद में जाना एक प्रकार से मरना है। मरने के पहले राम-राम कहो। इसलिए सोने के पहले कुछ जप-ध्यान करके सोओ। संसार के कामों को करते हुए भी ध्यान करो। ध्यान करते रहने से महा-से-महा संकट में भी कल्याण होगा। द
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यह प्रवचन बिहार राज्यार्न्तगत भागलपुर नगर के श्रीगंगातट-स्थित महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट में दिनांक 24. 4. 1966 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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232. ईश्वरीय ज्ञान का महत्त्व
प्यारे लोगो !
 मनुष्य को ज्ञान चाहिए। ज्ञान जानने को कहते हैं। जैसे कोई मनुष्य सो गया-निट्ठाह नींद में सोया पड़ा है। चाहे वह बहुत-सी विद्याओं को जाननेवाला है, नींद में वह कुछ नहीं जानता है। जबतक वह नींद की अवस्था में रहता है, तबतक उसकी कोई विद्या, विकास होकर काम नहीं करती। वह आदमी जबतक ज्ञान से हीन पड़ा रहता है, तबतक उसके गुण को कोई नहीं जान सकता। वैसा सोया हुआ मनुष्य किस आदर के योग्य है, लोगों को मालूम नहीं। जगने पर उसको जानकारी होती है, वह अपनी विद्या का प्रसार करता है। जैसे-जैसे विद्या का प्रसार करता है, वैसे-वैसे लोग उसका आदर करते हैं। लेकिन जबतक नींद में था, तबतक उसकी जानकारी लुप्त थी। लोग उस समय उसका आदर नहीं करते थे। जगने पर अपने ज्ञान का प्रसार किया और उसकी प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई। उसके बाद वह सो जाता है। तब भी लोग कहते हैं कि यह बहुत विद्या का जानकार है। लोग उसका आदर करते हैं। ज्ञान वा विद्या वह चीज है, जो मनुष्य को आदरणीय और महत्त्वपूर्ण बनाती है। इसलिए मनुष्य को ज्ञान अवश्य चाहिए।
 एक तो सांसारिक ज्ञान है। दूसरा ईश्वरीय ज्ञान है। इन दोनों की आवश्यकता है। सांसारिक ज्ञान के बिना संसार में कुशल से रहते बढ़ती नहीं होती और ईश्वरीय ज्ञान नहीं होने के कारण सांसारिक ज्ञान पवित्र नहीं होता और संसार में ठीक-ठीक प्रतिष्ठा का पात्र नहीं होता। ईश्वरीय ज्ञान का महत्त्व यह भी है कि वह ईश्वर का दर्शन पावे और ईश्वर के दर्शन से मोक्ष-मुक्ति का लाभ करे। मनुष्य की दशा बन्धन में रहने की है। शरीर और संसार के बंधन हैं। ये ऐसे बन्धन हैं कि किसी ने बाँधा है, ऐसा नहीं। लोग अपने-ही-आप बन्धे हैं और अनेक जन्मों तक दुःख पाते हैं।
 शरीर के और संसार के बन्धन से छूट जाओ, यही मोक्ष है। शरीर और संसार का बहुत सम्बन्ध है। जो शरीर में रहता है, वह संसार में रहता है और जो संसार में रहता है तो वह शरीर में रहता है। इसमें वह ज्ञान चाहिए, जिससे ईश्वर का दर्शन हो।
 संसार में महत्त्वपूर्ण लोगों का दर्शन हुआ, इससे काम नहीं चलता। उनसे सहायता मिले और लोग समझते हैं कि उनके दर्शन से मेरी भलाई हुई। लेकिन ईश्वर का दर्शन ऐसा है कि दर्शन से ही सभी सुख आप-से-आप होते हैं; सभी बन्धन झड़ जाते हैं, सभी विकारों से छूटकर निर्मल हो जाते हैं। इसलिए भक्त लोग ईश्वर के दर्शन के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहते। सांसारिक प्रतिष्ठा मिलने से तृष्णाओं का नाश नहीं होता, ईश्वर-दर्शन से नाश होता है। ईश्वर का ज्ञान सर्वोच्च ज्ञान है।
 सांसारिक ज्ञान विद्यालयों में जाकर सीखते हैं। जो जितना सीखते हैं, वे संसार में उतने ही महत्त्वपूर्ण लोग होते हैं, परन्तु यह नहीं कि वे बन्धनों से छूट गए। ईश्वरीय ज्ञान से बन्धनों से छूटना होता है। संसार के ज्ञान के बिना संसार में ठीक- ठीक गुजर नहीं होता। इसलिए संसार का ज्ञान भी अर्जन करो और उसके साथ ईश्वर का ज्ञान भी प्राप्त करो। ईश्वर-प्राप्ति के लिए क्या करना होगा, सो जानो और करो, तो इस संसार में भी और परलोक में भी सुखी होओगे। संसार में रहने का ज्ञान और संसार से छूटने का ज्ञान; दोनों ज्ञानों को सीखो और दोनों जगह सुखी होओ। जैसे अलग- अलग ज्ञान के सीखते-सीखते विद्वान होता है, उसी तरह ईश्वर का ज्ञान भी धीरे-धीरे, सीखते- सीखते पूर्ण होता है। जैसे संसार के ज्ञान को सीखकर, उसको करके लाभ उठाते हैं, उसी तरह ईश्वर का ज्ञान जानकर लाभ उठाओ।
 ईश्वर-स्वरूप क्या है, उसको जानो, उसकी प्राप्ति का भेद जानो और यत्नपूर्वक ईश्वर के दर्शन के लिए कोशिश करो। जो ठीक-ठीक भेद जानता है, कोशिश करता है, तो वह उस चीज को पाता है। जो संतों ने कहा है, इसको सभी लोग जानें, लेकिन जानकारी वैसे ही नहीं होगी। स्कूल, विद्यालय, महाविद्यालय में भी सिखलानेवाले की जरूरत है। वे ही गुरु कहलाते हैं। ईश्वर का ज्ञान बहुत गूढ़ है। दो हाथवाला या चार हाथवाला वा शरीरवाला वा आँख से दीखनेयोग्य, इन्द्रियों से जाननेयोग्य-ऐसा ईश्वर नहीं है। ईश्वर का ज्ञान यदि इन्द्रियज्ञान से जाना है, तो कम जाना है। वह भूल से खाली नहीं है। इन्द्रियज्ञान के परे निज ज्ञान है। निज को जानो-कौन हो? तुम जीवात्मा हो। जीवात्मा के कारण ही इन्द्रियों में ज्ञान है। इन्द्रियों के ज्ञान से छूटकर अकेलेपन में जो ज्ञान होता है, वही निजी ज्ञान है। तब जो दर्शन होता है, वह ईश्वर-दर्शन है। वह ईश्वर सब इन्द्रियों और सब शरीरों की सुन्दरता से बढ़कर सुन्दर है।
 ‘राम’ शब्द वा ‘विष्णु’ शब्द वा ब्रह्म कहो, ईश्वर का नाम है। ‘राम’ कहने से अवतारी रूप को जानना कोई विशेष जानना नहीं है। उस अवतारी रूप में जो है, उसको भी जानो। रामचरितमानस में आया है-
चिदानन्दमय देह तुम्हारी। विगत विकार जान अधिकारी।।
 चेतनमय रूप का दर्शन इन्द्रियों से नहीं होगा सबके अन्दर वह है। शरीर मायाकृत है। स्थूल, सूक्ष्मादि इसके रूप हैं। इनके परे चेतनमय स्वरूप है। उससे ही उसका दर्शन होता है। शरीर-इन्द्रिय से रहित होकर अपने निज स्वरूप में रहना-यही भक्त कहता है। इसी अवस्था में ईश्वर-दर्शन होता है। ईश्वर-दर्शन बाहर में नहीं, अन्दर में होता है। जो शरीर-इन्द्रियों से छूटकर अपने तईं में रहता है, वही ईश्वर-दर्शन पाता है। यही संतों का ज्ञान है। ऐसा बनने के लिए पाप करते हुए नहीं होगा।
 पाप उसे कहते हैं, जिस काम से लोक- परलोक में निन्दा होती है। एक झूठ बोलनेवाला कोई बड़ा आदमी है, धन से बड़ा है, विद्या से बड़ा है; लेकिन झूठ बोलता है, उसकी धन-सम्पत्ति के कारण लोग उससे झुकते हैं; लेकिन झुकनेवाले का हृदय जानता है कि यह झूठा आदमी है, इसलिए उसके हृदय में उसकी प्रतिष्ठा नहीं होती। अतः झूठ मत बोलो। झूठ के थैले में सभी पाप समाते हैं। ईश्वर-भक्त बनना चाहते हो, तो झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, नशाओं का सेवन मत करो, हिंसा मत करो, व्यभिचार से बचो। इन पंच पापों से छूटते रहने की बहुत कोशिश करो।
 ईश्वर-प्राप्ति के लिए अन्दर का साधन करो। अन्तस्साधन करने में पाप से छूटने में बल मिलेगा। पापों से छूटते रहने से ही अन्तस्साधन में बढ़ोगे, पंच पापों से बचोगे, तो संसार में भी आदरणीय बनोगे, महात्मा होओगे।
 संसार में इस ख्याल के लोग अधिक हो जाएँ, तो देश में कल्याण होगा। चोरी, डाका नहीं होगा। आपस में मेल होगा। सच्चे से सच्चे को मेल होगा। सभी प्रेम से रहेंगे। ईश्वर-भजन करने से संसार में भी सुखी रहोगे और परलोक में भी।
 तुम शरीर में जीवात्मा हो। जीवात्मा का ज्ञान निज ज्ञान है। इन्द्रियज्ञान से छूटकर जो ज्ञान होता है, वह निज का ज्ञान है और इसी से ईश्वर का ज्ञान होता है। तुम ईश्वर अंश हो। तुम इतना ही जानते हो कि मैं हूँ, लेकिन प्रत्यक्ष नहीं जानते हो। दूध से मक्खन की तरह शरीर-इन्द्रियों से छूटकर रहो, अपना भी ज्ञान होगा और ईश्वर का भी।द
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत श्री संतमत सत्संग मन्दिर मोहनियाँ में दिनांक 05.05.1966 ई0 के अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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233. निर्गुण राम के दर्शन से मोक्ष
प्यारे लोगो !
 आपलोगो को दो बातों के विषय में कहूँगा। एक तो राम और ईश्वर, दूसरी बात विज्ञान। ‘राम’ कहने से सब लोग साधारण तरह से जानते हैं कि जैसे हमलोग रामनवमी के दिन जहाँ-तहाँ उत्सव देखते हैं। गाँव में प्रतिमा बनती है। सब गाँवों में नहीं, लेकिन बहुत से गाँवों में राम की प्रतिमा बनती है। लोग ठाकुरबाड़ी जाते हैं, वहाँ दर्शन करते हैं। दर्शन करके जानते हैं कि श्रीराम शरीर- धारी विशेष पुरुष थे, जैसा कि प्रतिमा में, चित्र में और ठाकुरबाड़ी में है। मृतिका की प्रतिमा में जैसा रूप है अथवा जो पहले से ही स्थापित प्रतिमा है, उसका दर्शन करके समझते हैं कि इसी तरह के राम थे। ‘राम’ कहने से प्रतिमा का रूप, राम का ख्याल आता है। जैसा देखते हैं, वैसा ही ख्याल में आवे, यह प्रचलित स्वाभाविक बात है। यह गलती में जानते हैं, ऐसी बात नहीं।
 जो पढ़े-लिखे अधिक हैं, वे केवल रूपधारी राम ही नहीं समझते, और भी समझते हैं। जैसे श्रीराम, जब जंगल गए थे, तो वे वाल्मीकि के आश्रम में गए, वहाँ वार्ता हुई। वहाँ रूपवाले राम वाल्मीकि के सामने थे ही, लेकिन वाल्मीकिजी कहते हैं-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 एक तो रूपधारी राम है, जो वचन में आते हैं और जिनके हाथ, पैर, मुँह, आँख, नाक, कान आदि इन्द्रियाँ हैं। जो इन्द्रियज्ञान में आवे, उसको गोचर पदार्थ कहते हैं। रूपधारी राम का चरण छुआ जाता है। वे साँवले हैं। उनकी सुन्दरता को देखते हैं, बुद्धि ग्रहण करती है। ऐसा रूप ‘वचन अगोचर बुद्धि पर’ नहीं कहा जाएगा। ‘अविगत’ का अर्थ है-जो कहीं से हीन नहीं, सर्वव्यापी हैं। हैं तो राम सामने ही, लेकिन कहते हैं कि सर्वव्यापी हैं, अलख हैं। धनुषधारी राम देखने में आते हैं और कहते हैं ‘अलख’। नख से शिखा तक देखते हैं, लेकिन कहते हैं ‘अपार’। एक तो रूप और दूसरा स्वरूप होता है। एक तो शरीर का रूप होता है और दूसरा आत्मा का स्वरूप कहलाता है।
 श्रीरामजी के शरीर को देखकर भी वाल्मीकि जी स्वरूप के लिए कहते हैं-इन्द्रियज्ञान में नहीं, बुद्धि से परे है,सर्वव्यापी है। देखने में आने योग्य नहीं। अपार है, वेद उसको नेति-नेति कहते हैं। राम का शरीर-रूप और राम का स्वरूप दोनों समझिए तो दोनों राम हैं। राम के दोनों रूपों का दर्शन और पहचान अच्छा है। देहरूप का दर्शन हो और आत्मस्वरूप का नहीं, तो काम बाकी रहेगा।
 भगवान राम आज नहीं हैं। उनकी प्रतिमा है, लेकिन सभी प्रतिमाएँ एक-सी नहीं हैं। उनमें कौन- कौन-सी प्रतिमा ठीक हैं, कहा नहीं जा सकता। ग्रन्थ में जैसे रंग-रूप का वर्णन किया गया है, उसी के अनुकूल सभी चित्रकार बनाते हैं। जिस चित्रकार में जितनी प्रवीणता है, वे उतने अच्छे बनाते हैं। इसीलिए कम जाननेवाले चित्रकार के बनाए रूप में अन्तर पड़ जाता है, लेकिन जो स्वरूप है, उसकी प्रतिमा नहीं बन सकती।
 शरीर-रूप राम को सगुण राम और जो अलख, अपार है, वह निर्गुण राम है। राम के सगुण और निर्गुण, दोनों रूपों का ज्ञान होना चाहिए। सगुण का ज्ञान इन्द्रियों से होता है और निर्गुण का ज्ञान चेतन आत्मा से होता है। बुद्धि से परे चेतन आत्मा है। चेतन आत्मा से जो जाना जाता है, वही अविगत, अलख, अपार राम है। शरीर प्रकट होता और गुप्त भी होता है। स्वरूप के होने का कारण नहीं होता, किंतु शरीर के होने का कारण होता है। स्वरूप का होना किसी सबब (वजह) से नहीं होता। वह परम प्राचीन है, परम सनातन है। ऐसा जो पदार्थ है, वही अविगत, अलख, अपार है।
 समय-समय जो भगवान का अवतार होता है, उसमें कारण होता है। राम के अवतार के कई कारण हैं। सब अवतारों के कई कारण हैं। सब अवतारों में एक ही रंग-रूप नहीं, विविध रंग- रूप। राम-रूप में, श्याम-रूप में बड़ा सुन्दर और नृसिंह रूप बड़ा भयंकर। वामन अवतार में बहुत छोटा रूप, केवल बावन अंगुली का।
 असल में परमात्मा का ज्ञान अकथ, अपार के दर्शन से होता है। यह दर्शन शरीर में रहने से नहीं होता। शरीर से पृथक होकर शरीर में रहो, तब अपने में अपने से दर्शन होगा। ऐसा होने से तमाम दर्शन पाओगे। आँख से नहीं देखोगे, अपने से देखोगे। तुम स्वयं शरीर नहीं हो। गाँव में कभी-न- कभी कोई अवश्य मरता है और उसकी श्राद्ध- क्रिया होती है। सभी धर्मों में श्राद्ध-क्रिया होती है, किसी-न-किसी रूप में। इसमें विश्वास रहता है कि शरीर छूट गया है, चेतन आत्मा कहीं चली गई है। उसकी शुभ गति हो, इसलिए श्राद्ध-क्रिया होती है।
 शरीर से केवल चेतन आत्मा नहीं निकलती। इस स्थूल शरीर से सूक्ष्म, कारण, महाकारण के सहित चेतन आत्मा निकल जाती है। ये तीन शरीर मरते नहीं। अपने स्वयं कोई शरीर नहीं है, शरीर निवासी है। जैसे दूध को मथते-मथते आखिर में उससे मक्खन अलग हो जाता है और उसी में रहता है। फिर आप अलग करते हैं। इसी तरह चेतन आत्मा शरीर में रहे और शरीर से फूटकर रहे, तब पहचान में आवेगा कि यही मैं हूँ, और यही राम है, जो ‘अविगत अलख अपार’ है। सगुण राम के दर्शन से माया में बहुत बढ़ती होती है और निर्गुण राम के दर्शन से मोक्ष होता है। निर्गुण राम अलग और सगुण राम अलग नहीं रहता। शरीर को पहन लिया तो सगुण है। सब शरीरों को छोड़ दिया, वह निर्गुण है। जो भजन करता है, वह शरीर से वैसे निकलकर रहता है, जैसे दूध से मक्खन। वही जीवन्मुक्त होता है, वही अपने को पहचानता है और राम के स्वरूप को भी।
 आज लोग विज्ञान की ओर बहुत झुके हैं। इसमें बड़ी इज्जत होती है, बहुत पैसे भी मिलते हैं। अभी सुना कि ‘बिनु विज्ञान कि समता आवै।’ समता = एकीभाव। आज तो भौतिक विज्ञान बढ़ा है, उसने क्या किया है? एक भाव को मिलाया नहीं, टुकड़ा किया है। जितना भौतिक विज्ञान बढ़ा है, उतना ही नाशकारी बना है। यह है भौतिक विज्ञान, एक क्षण में क्या से क्या नाश कर दे। संसार के पदार्थों को विशेष रूप से जानना भौतिक विज्ञान है। भौतिक विज्ञान में समता नहीं आई है और न आ सकती है। भौतिक विज्ञान की बढ़ती हुई है, लेकिन अन्त नहीं हुआ है। सब-के-सब जिस मूल पदार्थ पर अवलम्बित हैं, वे राम हैं, परमात्मा हैं, वे अध्यात्म-विज्ञान हैं। इसके लिए स्कूल-कॉलेज जाने की जरूरत नहीं है। अपने अन्दर अभ्यास करने की जरूरत है। भौतिक विज्ञान में समता आएगी, इसका विश्वास नहीं किया जा सकता है। आजतक जितनी कोशिश हुई है, इसमें थोड़ी-थोड़ी सफलता मिलती जाती है। भौतिक विज्ञान में मारने और नाश करने की बात तो बहुत आयी है, लेकिन बचाने की नहीं।
 ईश्वर का दर्शन ही अध्यात्म-विज्ञान का मूल है। इसमें समता होती है। विश्वामित्र बड़े बली राजा थे। अस्त्र-शस्त्र के बहुत ज्ञाता थे। पीछे वे श्रीराम के गुरु हुए और थोड़े ही काल में उनको सिखा दिया। विश्वामित्र ने वशिष्ठजी को अस्त्र-शस्त्र के प्रभाव से दबाना चाहा, लेकिन दबा न सके। अन्त में उन्होंने तप किया। तप में कुछ गिरे भी। फिर सम्भले और इतना तप किया कि उनमें इतना बल हो गया कि जो कुछ किसी को कहे, सो हो जाय। उनके शाप के डर से सभी लोग थर-थर काँपते थे। वे लोगों से कहते थे कि लोग मुझे ब्राह्मण कहें। लोग कहते थे कि वशिष्ठजी आपको ब्राह्मण कह दें, तो हमलोग भी कहेंगे। लेकिन वशिष्ठजी उनको ब्राह्मण नहीं कहते थे। विश्वामित्रजी ने वशिष्ठजी के सौ पुत्रों को मरवा दिया, फिर भी वशिष्ठजी के हृदय में रंचमात्र भी क्लेश नहीं हुआ। एक बार जब वशिष्ठजी भोजन करने लगे, तो साक में नमक नहीं था। उन्होंने अपनी पत्नी अरुन्धती से पूछा कि साग में नमक नहीं है, क्यों? अरुन्धती ने कहा कि नमक समाप्त हो चुका है, इसलिए साग में नमक नहीं दिया गया। वशिष्ठजी ने कहा कि निकट ही में विश्वामित्रजी का आश्रम है, उनके यहाँ से नमक क्यों नहीं ले आयी? अरुन्धतीजी ने कहा कि जो मेरे सौ पुत्रों को मार चुके हैं, उनसे मैं नमक माँगती? वशिष्ठजी ने कहा-‘अरी! उनकी आत्मा और मेरी आत्मा एक है।’
 विश्वामित्र ने बहुत द्वेष किया, लेकिन वशिष्ठजी ने कुछ नहीं किया। यह अध्यात्म की समता है। यह आन्तरिक समता है। वैसे ज्ञान कहने वाले बहुत हैं। अध्यात्म-ज्ञान जानने के लिए योग-शास्त्र है। उसको सीखने के लिए बाहर में कोई घर नहीं है, अपना शरीर है। इसका यत्न संत सद्गुरु बताते हैं। करनेवाले समता पाते हैं।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत (अब अररिया) भटगामा में श्री संतमत सत्संग मन्दिर में दिनांक 6. 5. 1966 ई0 के अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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234. अपने को शुभगति में ले जाने का उपाय
प्यारे लोगो !
 हमलोग जहाँ रहते हैं, इसको संसार कहते हैं। यह संसार बहुत बड़ा है। इतना बड़ा है कि खड़ा होकर भी सम्पूर्ण संसार को नहीं देख सकते। ऊपर-नीचे कहीं भी संसार खत्म नहीं होता है, देखने में यह संसार सागर है। इस बहुत बड़ी दुनिया में-विराट रचना में हमलोग पड़े हुए हैं। हम देह में आए हैं और देह संसार में रहती है। इस देह में रहकर छोटी उम्र का, कुछ बड़ी उम्र का, जवानी उम्र का, अधेड़ उम्र का और बुढ़ापे का भोग भोगते हैं, फिर एक दिन शरीर को छोड़कर चले जाते हैं; लेकिन संसार में ही रहते हैं। जो सूक्ष्म संसार है, फिर वहाँ का भोग भोगकर पुनः इस संसार में आते हैं। कितनी बार आए और कितनी बार गए, ठिकाना नहीं। इस संसार में किसी-न-किसी प्रकार का दुःख होता ही है। दुःख कभी पीछा नहीं छोड़ता। यहाँ तक कि परलोक में भी दुःख कभी पीछा नहीं छोड़ता। दूसरे जन्म में भी दुःख होता है। इसलिए हमारे यहाँ जितने अच्छे आदमी आए, उन्होंने एक स्वर से कहा कि इस संसार से बिल्कुल छूट जाओ। इस संसार में जबतक शरीर लेकर आओगे, तबतक अवश्य ही दुःखी होओगे। इसलिए इस संसार-सागर को तरने के लिए सभी महापुरुषों ने कहा-
 ईश्वर-भजन करके संसार-सागर से तरना होगा। ईश्वर-भजन ही ऐसा है, जिसका अवलम्ब लेकर सारे दुःखों को कोई पार कर सकता है। फिर वह दुःख में नहीं आवेगा। यही एक उपाय है। भगवान श्रीराम ने यही समझा था। वे राजा होकर शासन करते थे और कहते हैं कि उनके समय में लोग बहुत सुखी थे। फिर भी जो स्वाभाविक दुःख है, वह तो आवेगा। स्वयं उनको भी स्वाभाविक दुःख आया और उनको भी भोगना पड़ा। दैहिक ताप-शरीर में से जो रोग उत्पन्न होते हैं। दैविक ताप-अकस्मात् होता है, जैसे गाछ से गिर जाना या फिसलकर गिर गए, हड्डी टूट गयी आदि। भौतिक ताप प्राणियों द्वारा जो कष्ट प्राप्त हो, जैसे बिच्छू का डंक या सर्प का दंश आदि। ये तीनों होते ही रहते हैं। एक आदमी ने सीताजी के प्रति घृणा-भाव का कुछ शब्द कहा था। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामायण में लिखा है-
सिय निन्दक अघ ओघ नसाये। लोक बिसोक बनाय बसाये।।
 भगवान राम को दुःख हुआ कि हमारी प्रजा सीताजी से प्रसन्न नहीं है। उन्होंने सीताजी को छोड़ दिया। सीताजी वन में चली गई। यह सीताजी के लिए दैविक ताप हुआ। इन तापों से छूटने का उपाय करो। यही संतोें का उपदेश है। बिना ईश्वर- भजन के इन त्रयतापों से छूट नहीं सकते। भगवान श्रीराम ने इसको समझा कि प्रजा को जितना सुख मिलना चाहिए, मिल रहा है। किन्तु शरीर छोड़ने के बाद भी प्रजा सुखी रहे, इसीलिए उन्होंने सब लोगों को बुलाकर सभा की और यह शिक्षा दी-
बड़े भाग मानुष तन पावा । सुर दुर्लभ सब ग्रथहिं गावा।।
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा । पाइ न जेहि परलोक सँवारा।।
 सो परत्र दुःख पावइ, सिर धुनि धुनि पछताय ।
 कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं, मिथ्या दोष लगाय ।।
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।
नरतन पाइ विषय मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं।।
ताहि कबहुँ भल कहहिं न कोई। गुंजा ग्रहइ परसमनि खोई।।
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जीव अविनासी।।
फिरत सदा माया कर प्रेरा । काल कर्म सुभाव गुन घेरा।।
कबहुँक करि करुणा नर देहीं । देत इस बिनु हेतु सनेही।।
नर तनु भव वारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।।
करन धार सदगुरु दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।
 जो न तरइ भव सागर, नर समाज अस पाय ।
 सो कृत निन्दक मंद मति,आतम हन गति जाय ।।
 किसी भी जाति के शरीर में हो, छोटे-बड़े की बात नहीं। श्रीराम शवरी के यहाँ जाते हैं, वहाँ और भी बड़े-बड़े तपस्वी लोग थे। लेकिन उन सबों के यहाँ नहीं गए। वशिष्ठ मुनि ने निषाद को अपने हृदय से लगाया। भगवान श्रीराम ने शवरी के जूठे बेर खाए, यह प्रसिद्ध है। भगवान श्रीकृष्ण विदुरजी के घर पहुँचे। विदुरजी घर पर नहीं थे। उनकी पत्नी ने प्रेमपूर्वक भगवान को केला खिलाया। यह भी लोग जानते ही हैं। शिवाजी के गुरु समर्थ रामदासजी थे। समर्थ रामदासजी की सेवा में एक शिष्य थे। वे बड़े गुरु भक्त थे। समर्थ रामदासजी भोजन करने के बाद पान खाते थे। दांत नहीं रहने के कारण वे पान को चबा नहीं पाते थे। इसलिए उनके शिष्य पान को कूटकर देते थे। जिस पात्र में पान कूटा जाता था, उस पात्र को समर्थ रामदास के अन्य शिष्यों ने छिपा दिया। जब पान कूटकर देने का समय हुआ, तो उस पात्र को नहीं पाने पर वे शीघ्रता में अपने मुँह से ही पान चबाकर समर्थ रामदासजी को दिया। यह बात विपक्षियों ने शिवाजी से कही। शिवाजी को बहुत बुरा लगा। वे समर्थ के भोजनोपरान्त के समय पहुँचे। पान चबाकर जब समर्थ को दिया गया, तो शिवाजी ने कहा-‘जिस पात्र में पान कूटा जाता है, वह पात्र कहाँ है? सामने लाइए।’ यह सुनते ही पान चबाकर देनेवाले ने अपने मुँह का जबड़ा उखाड़कर समर्थ के सामने रखा। यह देखकर सभी आश्चर्य में पड़ गए। उस शिष्य की ऐसी भक्ति थी कि उनका चबाया पान भी समर्थ रामदासजी खा गए।
  ईश्वर का भजन मनुष्य-शरीर में होता है। मनुष्य-देह ऐसी है कि यदि आखिरी में भी इसका ख्याल हो जाय और मरने के समय में ईश्वर का ख्याल लेते हुए मरता है, तो उसका बड़ा कल्याण होता है। किंतु यह कैसे हो सकता है? जिसने जीवन भर इसके लिए कोशिश की है, मरने के समय उसी को वैसा ख्याल हो सकता है। जिनको यह बोध हो गया है कि अब इस शरीर से कुछ काम नहीं होगा तो उनको यदि ऐसा चिन्तन हो कि ईश्वर मुझे मिले, उनका ठीक-ठीक भजन करूँ। इस प्रकार जो ख्याल लेकर मरता है, तो उसका अगला जन्म बहुत सुन्दर होगा। बचपन से ही वह भक्ति करने लग जाएगा। उपनिषद् में आया है कि मरने के समय चित्त में जो-जो भावनाएँ जीव करता है, वही-वही वह होता है, यही जन्म का कारण है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी आया है-
 यं यं वापि स्मरंन्भावं त्यजायन्ते कलेवरम् ।
 तं तमेवैति कौन्तेय सदातद्भाव भावितः।।
 अर्थात् मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भाव को स्मरण करता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है; क्योंकि सदा जिस भाव का चिन्तन करता है, अन्तकाल में भी प्रायः उसी का स्मरण होता है।
 जिनको शरीर से कुछ काम नहीं हो सकता, उनको बेकार सांसारिक वस्तुओं की चिन्ता नहीं करनी चाहिए; क्योंकि उस चिंता से तो कुछ होता नहीं है। तब फिर बेकार सांसारिक चिन्ता से क्या लाभ? ईश्वर के नाम को मन-ही-मन जपते रहो, इसको मन में घुमाते रहो। जिनको ईश्वर सम्बन्धी जो शब्द प्रिय हो, उसको जपो। चाहे राम, चाहे शिव, चाहे कृष्ण, जो ईश्वर-वाचक शब्द हो, उसको जपो। अपने को शुभगति में ले जाने का यही उपाय है। अपने को अपने से शुभगति में ले जाना होता है। यदि शरीर छोड़ने के बाद कोई कुछ क्रिया उनकी शुभगति के लिए करते हैं, तो उसके लिए मैं उसे निषेधात्मक नहीं कहता। यदि दूसरे के किये से क ुछ ऊपर उठ गए और यदि अपना भी कुछ करके ऊपर उठ जाएँ, तो कितना अच्छा हो। अपनी शुभगति के लिए ईश्वर का भजन ही सर्वश्रेष्ठ है। जो जीवन में भक्ति पूरा नहीं कर सका और मरते समय उसका वैसा ख्याल हो जाय कि भक्ति पूरी नहीं हो सकी, तो दूसरे जन्म में ईश्वर-भक्ति की भावना से प्रेरित होकर वह भक्ति करेगा। मरता शरीर है और भावना मन में होती है। मन सूक्ष्म-शरीर के साथ जाता है। इसलिए उसका जो दूसरा जन्म होगा, उस शरीर में उसका वह मन मदद करेगा और वह भजन करेगा।
 सभी को ईश्वर का भजन करना चाहिए। चाहे खेती करो, चाहे विद्याध्ययन करो, चाहे कोई काम करो। थोड़ा-थोड़ा सभी ईश्वर का भजन करो। ‘तन काम में मन राम में।’ सभी कोई ईश्वर का स्मरण करते हुए काम करो। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने फलाशा त्याग करने कहा है। कर्म करके उसको ईश्वर में अर्पण कर दो। कबीर साहब ने कहा-
      जो कुछ किया सो तुम किया, मै ं कुछ किया नाहिं ।
      कबहुँ कहैं कि मैं किया, तुम ही थे मुझ माहिं ।।
 यहाँ अहंकार भाव का त्याग है। किंतु किसी को एक लाठी मार दो और कहो कि ईश्वर! तुमने मारा, सो नहीं। संत बनने के जितने अच्छे-अच्छे कर्म हैं उसके लिए-‘जो कुछ किया सो तुम किया, मैं कुछ किया नाहीं।’ ईश्वर-भजन करने में यदि ईश्वर-भजन का अहंकार आता है, तो उसको परमात्मा भजन में ही गिराता है। ईश्वर का भजन मन में ऐसा बना लीजिए कि शरीर छोड़ते-छोड़ते भी वही याद रहे। कितने रोगी हो, कितने वृद्ध हों, यदि उनका मन फिर जाय और ईश्वर का भजन करते-करते शरीर छोड़े तो उनकी वह गति होगी जो श्राद्ध-क्रिया से नहीं हो सकती। इसलिए सबको ईश्वर-भजन करना चाहिए।
 इसीलिए भगवान श्रीराम ने कहा-‘यह शरीर बड़े भाग्य से मिला है। संक्षेप में भगवान श्रीराम ने समझाया कि यह शरीर विषय-भोग के लिए नहीं है। स्वर्ग का सुख भी थोड़ा ही है और अन्त में दुःख है। यह मनुष्य-शरीर नाव है। ईश्वर की कृपा अनुकूल वायु है। गुरु कर्णधार हैं। मनुष्य-शरीर है ही, ईश्वर की कृपा भी प्राप्त है। बाकी सद्गुरु बच जाते हैं। खोजने पर सद्गुरु भी मिल जाते हैं। सद्गुरु मिलने पर भी यदि उनके अनुकूल नहीं चलिए, तो नाव पार नहीं लग सकती। इसलिए संसार से पार होने के लिए ये तीन चीजें हैं। ये तीनों चीजें भवसागर पार करने के लिए सबसे सरल हैं । पहले जप करो। बूढ़े शरीर से प्राणायाम नहीं हो सकता। उनके लिए नाम जपना और किसी रूप, जिस रूप में श्रद्धा हो, उसका ध्यान करें। यदि उनको दृष्टि-साधन करने कहा जाय तो उनसे नहीं होगा। इसलिए उनको शब्द-साधन करना चाहिए। बहुत बूढ़े के लिए ये तीन काम हैं। इनमें किसी एक का भी अभ्यास करते हुए शरीर का त्याग करना चाहिए। ***************
यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत खजुरी में वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर दिनांक 8. 5. 1966 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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235. अपवर्ग किसे कहते हैं?
प्यारे धर्मप्रेमीगण !
 गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
        संत पंथ अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।
        कहहिं संत कवि कोविद, श्रुति पुरान सद्ग्रंथ ।।
 ‘अपवर्ग’ कहते हैं-मोक्ष, मुक्ति, छुटकारा को। संसार में हमलोग जितने हैं, सभी बन्धन में पड़े हैं। बन्धन समझाने में कोई विशेष बात नहीं है। प्रत्येक को मालूम पड़ता है कि वह बन्धन में है। शरीर बन्धन है और संसार भी। शरीर में रहने से संसार में रहना होगा और संसार में रहकर उसके सुख-दुःख को भोगना पड़ेगा। न तो सुख में चैन है, न दुःख में। इन्द्रियों से विषयों को ग्रहण कर अल्प सुख होता है, उसमें तृप्ति नहीं होती है। तृष्णा बढ़ती है, दुःख होता है।
 शरीर के अन्दर मन एक इन्द्रिय है। यह बड़ा चंचल है, हमेशा विषयी होकर रहता है। मन इतना सूक्ष्म है कि उसे आँख से देख नहीं सकते। यह बहुत तेज है। हमारे अनेक जन्मों से यह हमारा साथी है, अनेक जन्मों के संस्कार लिए विषय-वासना से भरा है। इसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकार होते ही रहते हैं। विकारों के मारे कोई चैन नहीं पाता। संसार के लोग-चाहे वे राजा, राष्ट्रपति, सेनापति, विद्वान, धनवान वा कंगाल कोई हों, इन विकारों से सताए जाते हैं। ये सभी बन्धन हैं। इन बन्धनों से छूट जाने पर कैसा होगा, विचार कीजिए। कोई विकार उत्पन्न न हो, तो कितना चैन होगा, विचारिए।
 निट्ठाह नींद में आपको कोई विकार नहीं होता। वहाँ एक ही दोष है कि अचेतता रहती है। जगने पर फिर विकार के चक्कर में पड़ते हैं। दर्जा वह भी होता है कि जहाँ विकार बिल्कुल नहीं होता और सचेतता रहती है। जिसमें सचेतता रहती है और विकार नहीं, वह कितना अच्छा होगा! संतों ने कहा है-इसी दर्जे में अपने को ले जाओ। यही है मोक्ष को प्राप्त करना, अपवर्ग को प्राप्त करना, छूटकारा पाना। विकारों का पता नहीं, किन्तु अचेतता रहती है, यह है गहरी नींद, किन्तु यह क्षणिक है।
 संतों का रास्ता मोक्ष पाने का है। मनुष्य शरीर- धारी जितने हैं, सबके लिए यह बात है। बड़े विद्वान समझ सकते हैं कि जब विकार नहीं, सचेतता रहे और स्थायी रहे तो, कितना अच्छा होगा! इसी को पानेवाले संत होते हैं। इसी बात को समझा देने के लिए यह सत्संग है। संतों के संग का नाम सत्संग है। संत नहीं मिलें, तो संतवाणी का ही पाठ करें। इसलिए हमलोग संतवाणी का पाठ करते हैं।
 संतों में एक संत का जितना हम आदर करते हैं, दूसरे संत का भी उतना ही। संतों की वाणियों को पढ़कर उनको मिलाते हैं, उनमें निश्चल श्रद्धा होती है। उनके अनुकूल आचरण करने का यत्न हमलोग करते हैं। इसीलिए अभी आपने देखा कि हमलोग वेद का भी, उपनिषद् का भी, गीता का भी और संतवाणी का भी पाठ करते हैं। जो लोग साम्प्रदायिक भाव को रखते हैं, वे समझते नहीं; वे कहते हैं कि एक संत की वाणी नहीं पढ़कर अनेक संतों की वाणियों को क्यों पढ़ते हैं? हमलोग सभी संतों का आदर करते हैं, उनकी वाणियों को समझते हैं और उनको अच्छी तरह सुनते हैं कि उन पर आचरण किया जाय।
 जो पंचायती से दृ़ढ़ हो, वह बात पक्की होती है। आज संसार में पंचायत राज्य है। अंग्रेज का देश है, वहाँ राजा-रानी मौके-मौके से होते हैं, लेकिन केवल नाम की पंचायत होती है, उसमें जो बात होती है, उसपर उसको दस्तखत करना पड़ता है। संसार में जितने देश हैं, सबमें पचायती राज्य है। कहीं-कहीं राजा है, तो नाम भर के लिए। सभी राष्ट्रों ने विचार- कर पंचायत कायम की है। इसी तरह संतों की वाणियों को पढ़िए, सुनिए, समझिए, मिलाइए, उनके अनुकूल चलिए, तो मोक्ष (अपवर्ग) मिलेगा।
 संतों की वाणियों में ईश्वर की मान्यता बड़ी मजबूती से की गई है। ईश्वर की मान्यता में ईश्वर की भक्ति होती है। ईश्वर की भक्ति में स्तुति, प्रार्थना और उपासना; तीन बातें होती हैं। इसमें सब संतों के ख्याल का मेल है। स्तुति कहते हैं-बड़ाई करने को, गुणगान करने को। प्रार्थना कहते हैं-नम्रतापूर्वक कुछ माँगने को। सबका हृदय कुछ- न-कुछ माँगता है। क्या माँगो और किससे माँगो? जो बात विशेष फलदायक हो, वह माँगो और जो सब कुछ दे सकें, उनसे माँगो, दूसरे से माँगकर क्या करोगे? गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है- देव दनुज मुनि नाग मनुज सब माया विवश विचारे ।
      तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु कहा अपुनपौ हारे ।।
 ईश्वर में सर्वशक्ति है, जिसने सारी सृष्टि को साजा है। सृष्टि नहीं थी, उसने सृष्टि की। कितनी बड़ी शक्ति उसमें है। इसलिए उस ईश्वर से माँगो।
 एक राजा था, जिसको दो रानियाँ थीं। विदेश जाते समय राजा ने उन दोनों रानियों से पूछा- आपलोगों के लिए क्या लावें? एक रानी ने बहुत-सा सामान लाने को कहा और दूसरी रानी ने कहा-‘आप विदेश से कुशलपूर्वक मेरे यहाँ लौट आवें।’ विदेश से लौटने पर पहली रानी को उसके कहे अनुसार सामान देकर राजा स्वयं अपनी दूसरी रानी के महल में चला गया और वहीं रहने लगा। अब राजा की सारी सम्पत्ति इसी रानी की हो गई।
 इसी तरह ईश्वर से ईश्वर को ही माँगो कि ‘हे ईश्वर! आपको हम पावें। जिस रास्ते से चलकर हम आप तक पहुँचें, वह रास्ता कोई बतावे। रास्ते में चलते हुए जो अनुभूति होनी चाहिए, हो।’ यह कोई भी नहीं दे सकता, एक ईश्वर ही दे सकता है। इसलिए ईश्वर से ही माँगो। जहाँ जाकर कोई विकार नहीं रहता, जहाँ जाकर संसार के सभी भुलावे खत्म हो जाएँ, वही माँगो। हमलोग जो विनती पढ़ते हैं, उसमें यही बात रहती है।
 विनय, विनती, प्रार्थना एक ही बात है। उपासना उस साधन के करने को कहते हैं, जिससे ईश्वर तक पहुँचा जाता है। उसके लिए दो ही बातें हैं- जप और ध्यान। संतों ने बहुत बात नहीं बतायी। जप करो और ध्यान करो। इसका यत्न इसके अच्छे जानकार से जानो। जो ईश्वर के राज्य में रहते हैं और ईश्वर की स्तुति नहीं करते और ईश्वर के दिए हुए को भोगते हैं, वे कृतघ्न हैं। कृतघ्न को आत्महत्या का पाप लगता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-‘आतमहन गति जाय।’ इसलिए ईश्वर की स्तुति अवश्य करो।
 हमलोग ईश्वर को नहीं जानते, यदि ईश्वर संत को प्रकट नहीं करते। ईश्वर का ज्ञान संत लोग देते हैं, इसलिए संत की भी स्तुति करो। संतों में ही कोई गुरु होते हैं। गुरु का दर्जा बहुत बड़ा होता है। वे रास्ता बताते हैं, युक्ति बताते हैं, हमारे सुख की चिन्ता करते हैं। इसलिए गुरु की भी स्तुति अवश्य करो।
 हमलोग तीनों की स्तुतियाँ करते हैं। साथ ही साथ, धर्म की परिभाषा और उसका सिद्धान्त जानो। जो सिद्धान्त और परिभाषा नहीं जानता है, उसने धर्मग्रन्थों का ठीक-ठीक अवलोकन नहीं किया है और न सच्चे और योग्य गुरु को पाया है। इसलिए धर्म की परिभाषा और उसका सिद्धान्त भी जानो। जोर-जोर से इसलिए पढ़ते हैं कि जो लिखे- पढ़े नहीं हैं, वे सुन-सुनकर याद कर लेंगे। ग्रन्थों के पाठ में आपने कबीर साहब के वचन में सुना। उसमें बताया गया कि हमलोग जो मुँह से बोलते हैं, अक्षरों में लिख सकते हैं, उसको वर्णात्मक और सार्थक शब्द कहते हैं। शब्द दूसरे प्रकार का भी होता है, उसको मुँह से नहीं बोल सकते, लेकिन वह बहुत काम का है। व्याकरण के ज्ञाता लोग उसको निरर्थक शब्द कहते हैं। लेकिन निरर्थक का अर्थ बेकाम नहीं, अर्थविहीन ध्वनि। वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक; दोनों प्रकार के शब्दों में ईश्वर के नाम हैं। वर्णात्मक में बहुत शब्द हैं, उनमें से कोई एक शब्द लेकर जपो और ध्वन्यात्मक शब्द जितने हैं, उन सबको ग्रहण करो, जो साधन-पथ में आवें। मुँह से उतने शब्दों का जप नहीं हो सकता। ऋषियों ने जिसको नादानुसन्धान कहा है, आज के संत लोग उसको नाम-भजन वा सुरत- शब्द-योग कहते हैं। सगुण शब्द बहुत हैं, लेकिन निर्गुण शब्द एक ही है। यह एक शब्द ऐसा है कि ईश्वर का दर्शन करा देता है। इसी को आदिनाम कहते हैं-
 आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह ।
 परसत ही कंचन भया, छूटा बंधन मोह ।।
 वर्णात्मक शब्द का जप करो और ध्वन्यात्मक का ध्यान करो। वर्णात्मक शब्द की इतनी महिमा है कि कबीर साहब ने कहा है-
 नाम जपत कुष्टी भला, चुई चुई पड़ै जो चाम ।
 कंचन देह केहि काम का, जा मुख नाहीं नाम ।।
 सुपनेहु में वर्राय के, धोखेहु निकरै नाम ।
 वाके पग की पैंतरी, मेरे तन को चाम ।।
 ध्वन्यात्मक शब्द के भजन को कबीर साहब ने सहज-योग कहा है-
 सबद खोजि मन बस करै, सहज योग है येहि ।
 सत्त शब्द निज सार है, यह तो झूठी देहि ।।
 ध्वन्यात्मक शब्द का ध्यान करो और एक शब्द के द्वारा दूसरे शब्द को पकड़ो, इसलिए-
 शब्द शब्द बहु अन्तरा, शब्द सार का सीर ।
 शब्द शब्द को खोजना, शब्द शब्द का पीर ।।
कहा है। जो एक शब्द को पकड़ता है, वह उसके द्वारा दूसरे शब्द को भी पकड़ता है और अन्त में निर्गुण नाम को पाता है। गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्द में भी है, इस पर ध्यान दीजिए-
बन्दउँ रामनाम रघुवर को। हेतु कृषाणु भानु हिमकर को।।
विधि हरि हर मय वेद प्रान सो। अगुण अनूपम गुण निधान सो।।
 रामनाम निर्गुण भी है और सगुण भी। मुँह से जो जपते हैं, वह सगुण शब्द होता है और जो कण्ठ, तालु आदि से उच्चारण नहीं होता है, वह निर्गुण है।
अघोषम् अव्यंजनम् अस्वरं च अकण्ठताल्वोष्ठमनासिकं च।
अरेफ जातं उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित्।।
         -अमृतनाद उपनिषद्
 शब्द शब्द सब कोइ कहै, वो तो शब्द विदेह ।
 जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि देह ।।
       -कबीर साहब
 गुरु नानकदेवजी के वचन में इस शब्द का बहुत वर्णन है। दोहावली में गो0 तुलसीदासजी ने लिखा है-
 हिय निर्गुन नयनन्हिं सगुन, रसना राम सुनाम ।
 मनहु पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम ।।
 हृदय में निर्गुण, जिभ्या पर सुन्दर रामनाम और आँख में सगुण रूप है। यह ऐसा है कि जैसे सोने के डिब्बे में सुन्दर रत्न भरा हो। जो ऊपर की चीज है, वह सोने का डिब्बा है, वह सगुण है और इस सगुण के अन्दर निर्गुण है। न सगुण से भागो, न निर्गुण से। न सगुण को छोड़ो, न निर्गुण को। न सोने का अनादर करो, न हीरे का।
 दूसरों की निन्दा मत करो। दूसरों से कष्टों को पाकर भी, अपमान पाकर भी, धर्म नहीं छोड़ो। धर्म के लिए कोई कष्ट देता है, अपमान करता है, तो उसको सह लो, बहुदेव उपासना छोड़कर एक ईश्वर की उपासना करो।
 श्रीमद्भगवद्गीता के पाठ में आपलोगों ने सुना, भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-कर्मयोगी बनो। कर्म भी करो और उपासना भी। कर्म करने के कौशल को ‘योग’ कहते हैं। कला यह कि कर्म किया जाय और उसके फल से बचा जाय। इसीलिए कहा कि कर्म करके ईश्वर पर अर्पण करो। आत्मरत होकर कर्म करो। कर्मफल छोड़कर कर्म करो। कर्मफल छोड़कर कर्म करने को लोग समझते हैं कि यह सरल है,लेकिन यह सरल नहीं है। आदमी ज्ञान तो बहुत कह सकता है, लेकिन आचरण करने में बड़ी कठिनाई होती है। बिना समत्व के ज्ञान कहना और ज्ञानानुकूल आचरण करना, दोनों एक नहीं हो सकता। इसलिए आत्मरत होने कहा। आत्मरत इस प्रकार होना होता है कि अपना निशाना अपने अन्दर, अपने उसपर लगा रहना। शाम्भवी मुद्रा और वैष्णवी मुद्रा से आत्मरत होने का आरम्भ होता है और चलते-चलते अन्त में पूर्ण होता हैं। ऐसे ही लोग जीवन्मुक्त कहलाते हैं, आत्मदर्शी होते हैं।
 वेद में आज्ञा है कि आपस में सब मेल-जोल से रहो। स्वराज्य मिला है, लेकिन मेल-जोल की कमी है। एक साथ बैठकर सत्संग करते हैं, यह मिलजुल कर उपासना है। दूर-दूर के लोग आकर मिलते हैं, सत्संग-ध्यान करते हैं, इस तरह मिलजुल कर रहना होता है।
 वेद में गौपालन की भी आज्ञा है और गौ हिंसा मना है। गौ की तारीफ बहुत है। गौ का प्रत्यक्ष फल है। लोग माता का दूध केवल कुछ महीने तक पीते हैं, लेकिन गाय का दूध तो जीवनभर पीते हैं। इसलिए गौपालन कीजिए, हिंसा नहीं कीजिए।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत खजुरी में वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर दिनांक 8.5.1966 ई0 के अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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236. भजन करनेवाला कभी नीचे नहीं गिरेगा
प्यारे लोगो !
 अभी श्रीसंतसेवीजी से आपलोगों ने गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की वाणी के आधार पर जो कुछ सुना, उनका थोड़ी-सी बातों में खुलासा यह है कि गुरु और ईश्वर में प्रेम करो। गुरु की सेवा और ईश्वर का भजन करो। ऐहिक वस्तुओं में आसक्त मत होओ। इन्द्रियों को काबू में रखने का यत्न करो। अपना भला तब समझो, जबकि भवसागर से पार होने का यत्न करो। यदि अपना भला नहीं कर सकते हो, तो अपने को बहुत दुःख में पाओगे।
 असली एकादशी व्रत करना है-मन को वश में करना। इस व्रत का फल यह होता है कि आवागमन से रहित हो जाएगा। ऐसा दान दो कि दान पानेवाले को कहीं दुःख न रह जाय। सुदामाजी को भगवान श्रीकृष्ण ने संग में ले जाने को कुछ नहीं दिया कि चोर-डाकू लूट लेंगे, लेकिन ईश्वर की कृपा से सुदामाजी का घर-द्वार सब बन गया।
 बाहर के धन में, विषय-पसार की चीजों में भय लगा रहता है। इसीलिए इन चीजों को पाकर कोई निर्भय नहीं होता। ज्ञान-दान पाकर उसमें अपने को हमेशा याद रखे, तो कहीं डर नहीं रहे। अपनी आत्मा के प्रत्यक्ष ज्ञान को असली ज्ञान कहते हैं। आत्मा से जो भिन्न ज्ञान है, वह अज्ञान है। विषयज्ञान अज्ञान है। आत्मज्ञान का दान देना, सबसे नहीं होता। कोई-कोई कहते हैं, जो आत्मज्ञान के बारे में नहीं जाने, तो औरों से इतना कहना अच्छा है कि भजन कीजिए।
 ईश्वर-भजन का भेद ऐसा है कि करते-करते ईश्वर को पाते हैं। भजन करने के लिए कहते हैं कि तीन अवस्थाओं को छोड़कर भजन करो। अभी जगे हो, फिर सोते हो, गहरी नींद में जाते हो। इन तीनों अवस्थाओं को छोड़कर भजन करो। यह गम्भीर ज्ञान है। जो अपने को जाग्रत में स्थिर कर समेट सकता है, वह ऊपर उठेगा, जागने के स्थान से ऊपर उठेगा, वह चौथी अवस्था होगी, तुरीय अवस्था होगी। कोई कहे कि जाग्रत स्थान से ऊपर उठकर स्वप्न में जाएगा या सुषुप्ति में, तो वह नहीं जानता है। स्वप्न और गहरी नींद का स्थान नीचे है। चौथी अवस्था इसमें नहीं होती। चौथी अवस्था में वह जाता है, जो कोई आँख के स्थान से ऊपर जाता है। मस्तक के अन्दर जो तल है, उसको वह प्राप्त करता है। मन के सिमटाव से यह होगा। इसी के लिए ध्यान है।
 ध्यान के पहले जप करो। ध्यान भी दो तरह के हैं। एक मोटा ध्यान है,जिसको मानसध्यान कहते हैं, इससे पूर्ण सिमटाव नहीं होगा। लेकिन इसको किये बिना भी नहीं बनता। मानस जप, मानस ध्यान करो और दृष्टियोग करो। दृष्टियोग में एकविन्दुता होती है। मन में कुछ बनाने की जरूरत नहीं, गुरु संकेत के अनुसार ध्यान करो। स्थूलता से सूक्ष्मता में प्रवेश करोगे। सूक्ष्मता में प्रवेश करनेवाला मस्तक में रहता है, विविध दृश्यों को देखता है। वहाँ का भजन बाहर के विषयों से बचा हुआ होता है। बिना दृष्टियोग के यह भजन नहीं होगा।
 दृष्टियोग में केवल देखा ही नहीं जाता, सुना भी जाता है। अन्तर्नाद सुनायी पड़ता हैं यह बहुत ऊँची बात है। गोस्वामी तुलसीदासजी इस बात को जानते थे। जो कोई इसका साधन करेगा, ईश्वर तक पहुँचेगा। वह ईश्वर इन्द्रियज्ञान से परे है। सारे विश्व में व्यापक है। उस तक पहुँचोगे, जब तुम चौथी अवस्था में ध्यान करो। इसका भेद बतलानेवाले बतलाएंगे। लेकिन उकताने से नहीं होगा। बिना उकताए इसका अभ्यास करो, तो जीवन में प्रत्यक्ष लाभ पाओगे। साधना पूरी नहीं होने पर, शरीर छोड़ने पर वह फिर मनुष्य-शरीर पावेगा। यह भजन करनेवाला कभी नीचे नहीं गिरेगा। थोड़ा भी करेगा, तो इसका नाश नहीं होगा। इसका थोड़ा भी अभ्यास महाभय से बचाता है, फिर संस्कार उदय होगा। ईश्वर की ओर हम जाएँगे। यह संस्कार किसी दूसरे शरीर में उदय होने योग्य नहीं है। मनुष्य शरीर में ही उदय होने योग्य है। करते-करते कई जन्मों में काम खत्म होगा। जो कोई अच्छे साधु हैं, उनकी सेवा करो। साधु की सेवा से भजन का भेद जानोगे। साधु के संग से भजन में मन लगेगा। इसी से संसार-सागर से पार हो सकोगे।
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यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत संतमत सत्संग मन्दिर मनिहारी में दिनांक 21. 5. 1966 ई0 के अपराॐर्ैंकालीन सत्संग में हुआ था।
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237. साधना में धैर्य और प्रेम
प्यारे लोगो!
 संतों का साधन- ध्यान है। जो केवल मानस जप, मानस ध्यान और दृष्टि-साधन जानता है, किंतु नादानुसन्धान नहीं जानता है तो वह अपने संतमत को सही-सही नहीं जानता है। संतमत में शब्द का भी ध्यान है। शब्द ध्यान के सहित मानस जप, मानस ध्यान और दृष्टि-साधन भी है, वह पूरा संतमत है। शब्द से ही सारे संसार का पसार होता है। शब्द से ही सम्भाल होती है। शब्द से ही मनुष्य, मनुष्य बनता है। जितने विद्यालय हैं, सबमें शब्द की शिक्षा है। इसी शिक्षा से लोग बढ़ते हैं। संतों के यहाँ जो नादानुसन्धान है, इस साधना से ईश्वर तक पहुँचा जाता है। ध्यानयोग सब योगों से श्रेष्ठ है और सरल है। भगवान श्रीकृष्ण ने इसी पर जोर दिया है। संतों ने भी इसी को उत्तम साधन बताया है। हमलोगों को भी यह बताया गया है। इसका अल्प अभ्यास भी महाभय से बचाता है। महाभय क्या है? जन्म लेना और मरना यही महाभय है। बच्चा जब जन्म लेता है, तो वह रोता है। उसको कष्ट होता है, इसलिए वह रोता है। कोई किसी को मार डालना चाहे, तो मरने से भी लोग डरते हैं। इस तरह जन्म और मरण में दुःख होता है। इसी दुःख की निवृत्ति के लिए ध्यान है। जो ध्यान करेगा और चूक भी जाएगा, तो वह दूसरे जन्म में भी मनुष्य ही होगा; क्यांकि मनुष्य शरीर के अतिरिक्त और किसी शरीर में ज्ञान- ध्यान हो नहीं सकता। इसीलिए वह मनुष्य ही होगा। थोड़ा भी ध्यान में रत रहा और गिर गया तो फिर उसको मनुष्य शरीर ही होगा, दूसरा शरीर हरगिज नहीं होगा। कोई कहे कि फलाने का शरीर छूटा, जो ध्यान करता था और गिर गया। इसलिए उसने कुत्ते, बैल, गधे का ही शरीर पाया, यह हरगिज विश्वास करने योग्य नहीं है। ऐसी बात वह किसी द्वेष के कारण कहता है। उसकी कोई बात मानने योग्य नहीं है। संत कबीर साहब ने कहा-
 भक्ति बीज बिनसे नहीं, जो युग जाय अनंत ।
 ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।।
 नीच कुल में जन्म लेने की बात इसलिए कही गयी है कि उससे कुछ चूक हो गयी होगी। डॉ0 अम्बेदकर मेहतर थे और जगजीवन राम चमार हैं, फिर भी डॉ0 अम्बेदकर श्रीमान् थे और जगजीवन राम भी श्रीमान् हैं। उत्तर तरफ में इसी जिले में एक चमार है, जिसके यहाँ कुर्सी, चौकी लोगों के बैठने के लिए लगी रहती है। लोग जाते हैं, बैठते हैं और उसके यहाँ से कर्जा ले जाते हैं। आज भी डोमरा सड़क है, जिसको काशी के डोम ने बनवाया था अंग्रेज के समय में। हरिश्चन्द्र काशी में डोम के यहाँ ही बिके थे। डोम, चमार- नीच कार्य के लोग भी श्रीमान् होते हैं। सब दिन योग का अभ्यास अवश्य करो।
 योग के आरम्भ का नाश नहीं होता। हमलोगों को वही योग मिला है, जो भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में बताया है। कई जन्मों में हमलोगों का काम खत्म हो जाएगा। मान लीजिए, करोड़ो जन्म लेने पड़ते और अब लाख जन्म ही लेने पड़ेंगे, तो कितना कम हो गया।
 एक लघु कथा है। एक राजा के मन में विरक्ति हो गयी। वे एक इमली गाछ के नीचे बैठकर तप करने लगे। एक दूसरा आदमी था, जो अपने परिवार से झगड़ा करके घर से निकल भागा और राजा की नकल में एक अरण्ड पेड़ के नीचे बैठकर तप करने लगा। भगवान की ओर से राजा के लिए उत्तम भोजन और उस अरण्ड गाछ के नीचे बैठनेवाले के लिए मडुवे की रोटी भेजी जाती थी। संयोग से एक दिन नारद मुनि उसी होकर जा रहे थे। राजा ने नारदजी से पूछा-आप कहाँ जा रहे हैं? नारदजी ने कहा-मैं विष्णुलोक जा रहा हूँ। राजा ने कहा-महाराज! जब आप विष्णु भगवान के यहाँ जा रहे हैं, तो भगवान से आप पूछेंगे कि मुझे इस इमली गाछ के नीचे कितने दिनों तक तप करने पर उनके दर्शन होंगे? नारदजी ने कहा-अच्छा, ठीक है। मैं पूछ लूँगा। नारदजी जब आगे बढ़े, तो अरण्ड गाछ के नीचे बैठनेवाले ने भी उनसे कहा कि महाराज! केवल राजा के लिए ही नहीं, मेरे लिए भी भगवान से पूछेंगे कि मुझे इस अरण्ड गाछ के नीचे कितने दिनों तक तप करना होगा? नारदजी ने कहा-बहुत अच्छा! तुम्हारे लिए भी मैं भगवान से पूछ लूँगा। नारदजी जब भगवान विष्णु के पास पहुँचे, तो भगवान विष्णु से उन्होंने पूछा कि भगवन्! एक राजा इमली गाछ के नीचे बैठकर तप कर रहा है और एक दूसरा आदमी अरण्ड गाछ के नीचे बैठकर तप कर रहा है। दोनों ने पूछा है कि हमलोगों को भगवान के दर्शन के लिए कितने दिनों तक तप करना होगा। भगवान विष्णु ने कहा-इमली के वृक्ष में जितने पत्ते हैं, उतने वर्षों तक राजा को तप करने के बाद मेरे दर्शन होंगे और अरण्ड गाछ के नीचे जो बैठा है, अरण्ड वृक्ष में जितने पत्ते हैं, उतने वर्षों तक उसको भी तप करना होगा, तब मेरे दर्शन होंगे। नारदजी जब भगवान विष्णु के यहाँ से वापस लौटे, तो पहले अरण्ड वृक्ष वाले से भेंट हुई। नारदजी ने उससे कहा-इस अरण्ड वृक्ष में जितने पत्ते हैं, उतने वर्षों तक तुमको यहाँ तप करना होगा। ऐसा तुम्हारे लिए भगवान विष्णु ने कहा है। वह आदमी जब अरण्ड पत्तों को देखने लगा, तो बहुत पत्तों को देखकर वह घबड़ा गया और यह कहकर चल दिया कि इतने वर्षों तक कौन तप करे? इससे तो अच्छा है कि घर का झगड़ा ही सही, घर ही में रहेंगे। वह अपना घर वापस हो गया। जब नारदजी राजा के पास पहुँचे, तो राजा ने बड़ी आतुरता से पूछा कि महाराज! मेरे सम्बन्ध में भगवान से जानकारी ली थी? नारदजी ने कहा-हाँ, भगवान विष्णु ने आपके लिए कहा है कि इस इमली वृक्ष में जितने पत्ते हैं, उतने वर्षों तक आपको तप करना होगा, तब भगवान दर्शन देंगे। राजा यह सुनते ही प्रेम में मग्न हो गया और लगा नाचने। इतने में भगवान विष्णु वहाँ पहुँच गए। नारदजी ने भगवान से पूछा कि आपने भी हद कर दिया। मुझसे तो आपने कहा था कि इमली वृक्ष में जितने पत्ते हैं, उतने वर्षों तक तप करने के बाद मेरे दर्शन होंगे, लेकिन आप तुरत ही आ गए। भगवान विष्णु ने कहा कि देखते हैं राजा को कितना प्रेम है। इनके प्रेम के वशीभूत होकर ही मैं अभी तुरत यहाँ आया। जिस समय आपको इन्होंने मुझसे पूछने के लिए कहा था, उस समय ऐसा प्रेम इनमें नहीं था।
 हमलोगों को भी खुश होना चाहिए कि जैसे इमलीवाले का काम खत्म हुआ, उसी तरह हमलोगों का भी होगा। गुरु महाराज की दया से हमलोग जन्म-मरण से जल्दी छूट जायेंगे। बिना प्रमाण के किसी की बात को नहीं मानिए।

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यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत संतमत सत्संग मन्दिर, मनिहारी में दिनांक 23. 5. 1966 ई0 के प्रातःकालीन श्रीमती बहिन दाय (झूलन दाय), जो आपकी (संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की) सहोदर बहन थीं, की स्मृति के भण्डारे के सुअवसर पर आयोजित सत्संग में हुआ था।
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238. संतों के प्रभाव से दुष्टों का उद्धार
प्यारे लोगो!
 जानना चाहिए कि चार नीतियाँ हैं। सबसे ऊँचे दर्जे की नीति को अध्यात्म-नीति कहते हैं अर्थात् आध्यात्मिकता की नीति। उसके नीचे सदाचारिता की नीति-सद् आचरण में बरतने की नीति। उसके नीचे सामाजिक-नीति-समाज में कैसे रहा जाय, यह समझकर आपस में समाज में रहना चाहिए। बाद में है राजनीति-राज्य में जो नीति है, उसको समझकर रहना। अध्यात्म-नीति सबसे ऊँची नीति क्यों है? आत्मज्ञान से-ईश्वर सम्बन्धी ज्ञान से ऊँचा ज्ञान और कोई नहीं है। इसलिए यह ऊँची नीति है। इसमें सदाचार का संग होता है। उत्तम आचरण से नहीं रहा जाय, तो अध्यात्म-नीति में नहीं जा सकेगा। अध्यात्म-नीति में नहीं जाने से सदाचार पालन में नहीं जा सकेगा। जैसे ऊँची आध्यात्मिकता होती है, वैसी ऊँची सदाचार की नीति होगी। अध्यात्म में बढ़ते-बढ़ते पूर्ण होता है, तो सदाचार भी पूर्ण हो जाता है। ऐसे समाज की नीति बड़ी अच्छी होगी। वह नीति पाप से हमेशा बचाती है।
 सदाचार की नीति में थोड़ी-सी बात है कि मिथ्या मत बोलो, चोरी नहीं करो, व्यभिचार नहीं करो, हिंसा नहीं करो और मादक द्रव्यों का सेवन मत करो। ये पंच महापाप हैं, जो लोगों को नीचे गिराते हैं। इन सबका सरदार झूठ है। असत्य के झोरे (झोले) में सभी पाप अँट जाते हैं। जो असत्य से बचता है, सत्य ग्रहण करता है। उसके सभी पाप छूट जाते हैं। जो सत्य ग्रहण नहीं करता, वह कितना बड़ा वक्ता होने पर भी पाप करेगा। अध्यात्म में ईश्वर की भक्ति करो। उसमें अपने को लगाओ। इसका यत्न जानो और करो। जिस समाज में ऐसे लोग रहते हैं। उस समाज में दुष्टकर्म नही रहते, धीरे- धीरे सभी दुष्ट-कर्म लोप हो जाते हैं। ऐसे समाज के लोग सुखी होते हैं। ऐसे समाज के लोगों की जो नीति होगी, बड़ी अच्छी नीति होगी और तब जो राजनीति बनेगी, वह उत्तम बनेगी। इसलिए श्रीराम ने एक सभा की थी। अपने राजत्वकाल में और उन्होंने उपदेश दिया था। वह बड़ा अच्छा उपदेश है। श्रीरामजी ने अपनी प्रजा से कहा-
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।
 विषय पाँच हैं। इन्हीं पंच विषयों में सभी जीव लगे हैं-क्या देवता, क्या मनुष्य, क्या पशु- पक्षी। श्रीराम ने कहा-इन पंच विषयों से ऊपर उठो। जो रूप नहीं है, रस नहीं है, गन्ध नहीं है, स्पर्श नहीं है और शब्द नहीं है; इन पाँचों विषयों से जो ऊँचा है, वही अध्यात्म है। श्रीराम ने कहा कि मनुष्य से ही यह काम हो सकता है।
 श्रीराम की सभा में सभी लोग बैठे थे। ऊँची- नीची जाति का कोई विचार नहीं। श्वपच के शरीर से इतना ऊँचा काम हो सकता है, जितना ब्राह्मण के शरीर से। नीच-से-नीच वर्ण के लोगों में भी अध्यात्म पुरुष हुए और ऊँचे-से-ऊँचे वर्ण के लोगों में भी अध्यात्म पुरुष हुए। नीच वर्ण के लोगों ने भी नीच-से-नीच कर्म किए और ऊँचे-से-ऊँचे वर्ण के लोगों ने भी नीच-से-नीच कर्म किए।
 वाल्मीकि ब्राह्मण के पुत्र थे, लेकिन संग-दोष से बटमार (लुटेरे) हो गए थे। वे लोगों का धन हरण करते थे, लोगों को मार डालते थे। अन्त में नारदजी उस रास्ते से जा रहे थे। उनको भी मारना चाहा। नारदजी ने समझाया कि तुम ऐसे नीच काम करते हो, इसका जो फल है, उसका कोई भागी है? वाल्मीकिजी ने कहा कि मेरे माता-पिता, स्त्री- पुत्र भागी हैं। नारदजी ने कहा कि उन लोगों से तुम पूछ आओ। वाल्मीकिजी ने कहा कि हाँ, मैं पूछने जाऊँ और तुम फाँकी देकर भाग जाओ तब? नारदजी ने कहा-तुम मुझे वृक्ष में बाँधकर रखो और परिवार के लोगों से पूछ आओ। वाल्मीकिजी ने वैसा ही किया। वाल्मीकिजी ने अपने घर पर पहुँचकर माता- पिता, पत्नी और पुत्र से पूछा कि आपलोगों के भरण- पोषण करने में जो मुझे पाप-कर्म करना पड़ता है, उस कर्म के भागी आपलोग होंगे? परिवार के लोगों ने कहा कि हमलोग पाप-कर्म के भागी क्यों बनेंगे? आपका पाप आप जानिए। यह उत्तर सुनते ही उनके मन में चोट लगी और उनको ज्ञान हुआ। वे दौड़कर वापस आए और नारदजी के पैर पर गिर पड़े। नारदजी ने कहा कि ईश्वर-भजन करो। नारदजी ने भजन करने का यत्न बता दिया। वे ही वाल्मीकिजी भजन करके महाज्ञानी आदि कवि हो गए।
 युधिष्ठिर के यज्ञ में एक नेवला गया। उसके शरीर का आधा भाग सोने-जैसा चमक रहा था। युधिष्ठिर के यज्ञ के पानी का नाला बह रहा था। उसमें उस नेवले ने गोता लगाया, लेकिन उसका शरीर जैसे-का-तैसा रहा। नेवले का जो आधा शरीर सोने-जैसा हो गया था, उसका कारण था कि एक उच्छवृत्ति के ब्राह्मण के यहाँ एक अतिथि ने भोजन किया था। भोजन के लिए वे सत्तू बनाए थे। अतिथि को ब्राह्मण ने अपना हिस्सा सत्तू दिया। उससे अतिथि का पेट नहीं भरा। तब ब्राह्मणी ने अपना हिस्सा भी सत्तू दिया। फिर भी अतिथि का पेट नहीं भरा। तब ब्राह्मण के पुत्र ने अपना हिस्सा सत्तू दिया। फिर भी कसर रह गई, तो ब्राह्मण की पतोहू (पुत्र वधू) ने भी अपना हिस्सा सत्तू दे दिया। अतिथि संतुष्ट हो गए। खाने के बाद जो अतिथि ने हाथ धोया था, उसी पानी में वह नेवला लोट-पोट हो गया था। उससे उसका आधा शरीर सोने का सा हो गया था। नेवले ने सोचा कि जब ब्राह्मण के सतुआ यज्ञ से मेरा आधा शरीर सोने का-सा हो गया, तो राजा युधिष्ठिर के यज्ञ के जल से मेरा सम्पूर्ण शरीर स्वर्णमय हो जाएगा। लेकिन वैसा नहीं हुआ। इसीलिए नेवले ने युधिष्ठिर को भरी सभा में कहा कि आपका यज्ञ सतुआ यज्ञ के बराबर नहीं हुआ।
 युधिष्ठिर के यज्ञ में एक घण्टा लटका दिया गया था। यज्ञ पूर्ण होने पर वह घण्टा अपने आप ही बजनेवाला था। लेकिन उस यज्ञ में घंटा नहीं बजा था। देवता, ऋषि, मुनि-सभी भोजन कर गए थे। श्रीकृष्ण भगवान ने कहा कि काशी में एक डोम (श्वपच) हैं। वे बड़े भक्त हैं। उनको आदर से बुलाकर लाओ और भोजन कराओ, तो घण्टा बजेगा। श्वपचजी आए और जैसे ही उन्होंने भोजन का ग्रास मुँह में लिया कि घण्टा टनाक से बज गया। राजा युधिष्ठिर का यज्ञ पूर्ण हो गया। यह किस्सा बताता है कि नीच वर्ण के लोगों में भी भक्त होते हैं। कबीर साहब कुछ पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उनका वचन विद्यालय में निम्न वर्ग से लेकर एम0ए0 तक पढ़ाया जाता है। रविदासजी चमार थे। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ब्राह्मण थे। भगवान श्रीराम ने कहा था-‘बड़े भाग मानुष तनु पावा।’ मनुष्य-शरीर विषय में फँसने के लिए नहीं है। निर्विषय की ओर चलो। संसार-सागर को पार करने के लिए मनुष्य का शरीर नावरूप है। इसमें एक सद्गुरु की आवश्यकता है। ईश्वर की कृपा तो हई है। हमारा समाज अच्छा हो, राजनीति अच्छी हो, सदाचार अच्छा हो-इसके लिए अध्यात्म चाहिए। अध्यात्म-ज्ञान सत्संग से होता है। इसीलिए सत्संग की आवश्यकता है-
सठ सुधरहिं सत संगति पाई । पारस परस कुधातु सोहाई ।।
            -रामचरितमानस
 अर्थात् सत्संग पाकर दुष्ट आदमी इस तरह सुधर जाते हैं, जिस तरह पारस से कुधातु (लोहा) छूकर सुहावना-सोना हो जाता है।
 इस कलिकाल मेें भगवान बुद्ध हुए, ढाई हजार वर्ष से कुछ अधिक ही हुए। उनके समय में एक ब्राह्मण पुत्र था। उसको गुरु ने दक्षिणा में एक हजार आदमियों को मारने के लिए कहा था। गुरु के मन में कुछ सन्देह हो गया था, इसलिए उसने ऐसी दक्षिणा माँगी थी कि जिससे अनेकों को यह मारेगा, तो इसको भी कोई मार देगा। इसीलिए वह ब्राह्मण पुत्र गुरु की आज्ञा से लोगों को मार-मारकर अंगुलियों की माला बना लेता था। इसीलिए उसका नाम ही अंगुलिमाल हो गया। उसके चलते लोगों में आतंक फैल गया, हाहाकार मच गया। सैकड़ों लोगों को उसने मारा। भगवान बुद्ध को जब यह सूचना मिली कि अंगुलिमाल नामक हत्यारा बड़ी निर्ममता से लोगों की हत्या कर रहा है, तो वे उसकी ओर चल पड़े। लोगों ने बहुत मना किया कि ‘भगवन्! उस ओर मत जाएँ। अंगुलिमाल बहुत बड़ा हत्यारा है। वह आप पर भी प्रहार कर सकता है।’ भगवान ने किसी की बात नहीं सुनी, सीधे अंगुलिमाल की ओर चलते रहे। जब अंगुलिमाल ने भगवान बुद्ध को अपनी ओर आते देखा, तो जोर से भगवान को कहने लगा-कौन हो, ठहरो! भगवान ने कहा कि मैं तो ठहरा हूँ, तुम ठहरो। भगवान बुद्ध धीरे-धीरे चल रहे थे और अंगुलिमाल तेजी से भगवान की ओर दौड़कर पकड़ना चाहता था, फिर भी वह नहीं पकड़ सकता था। वह दौड़ते रथ को पकड़ लेता था, दौड़ते घोड़े को पकड़ लेता था। जब वह थककर रुक गया, तो भगवान ने उसे स्पर्श करते हुए कहा-अरे! यह क्या करते हो? लोगों की निर्ममतापूर्वक क्यों हत्या कर रहे हो? भगवान का उसपर इतना प्रभाव पड़ा कि अपना हथियार फेंककर वह भगवान की चरणों पर गिर पड़ा। भगवान ने उसको समझाया, तो उसको अपने कर्मों से घृणा हुई और वह संन्यासी बन गया।
 अच्छे संग से बुरे लोग भी अच्छे होते हैं, और बुरे संग से अच्छे लोग भी बुरे हो जाते हैं। इसीलिए सत्संग अवश्य करो। सत्संग से अच्छे लोगों का संग होता है। अच्छे लोगों का संग दुर्लभ होता है। इसलिए संतों की वाणी, सद्ग्रन्थों का पाठ करो। इसीलिए हमारे यहाँ ग्रंथों का पाठ होता है।
 यह तो सभी जानते हैं कि कितनी भी ममता रखो, एक दिन ऐसा होगा कि सब रोते रह जायेंगे और तुम भी रोते हुए चले जाओगे। इसलिए ईश्वर भजन करो, सत्संग करो।
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यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत संतमत सत्संग मन्दिर, मनिहारी में दिनांक 28. 5. 1966 ई0 के अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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239. शरीररूपी खेत में सत्संगरूपी फसल लगाते रहें
प्यारे लोगो!
 यद्यपि लोग प्रत्यक्ष रूप में ईश्वर को नहीं देखते हैं, परन्तु विश्वास रखते हैं कि ईश्वर है। यह अन्धी-श्रद्धा मात्र नहीं है। विचार संग देता है, जो अन्धी-श्रद्धा नहीं रहने देता। विचार भी एक प्रकार का देखना है। इस संसार का आधार भी कुछ होना चाहिए। हम देखते हैं कि पृथ्वी पर जो कुछ है, सबका आधार है। बिना पृथ्वी के गाछ, जंगल, पहाड़ कुछ नहीं रह सकता। पृथ्वी के बिना उसका आधार कुछ रह नहीं सकता। पृथ्वी का भी आधार है। जैसे आप बहुत से तारों को निराधार देखते हैं। सभी तारे निराधार नहीं हैं। यह पृथ्वी भी एक तारा है। यह शून्य में है। पृथ्वी, चन्द्र, तारे का आधार सूर्य है। बिना सूर्य के ये नहीं रह सकते। सूर्य का भी आधार है।
 जो सबका आधार है, वह परमात्मा है। सबका आधार कुछ नहीं है, यह मानने योग्य नहीं है। ज्ञानियों ने कहा है कि ईश्वर को तुम अपने से पाओगे। जैसे हमारी आँख खराब हो जाए, तो हम संसार की किसी चीज को नहीं देख सकते हैं। कोई चीज नहीं देखने के कारण संसार में कोई चीज नहीं है, यह बात नहीं। जिनको आँख है, वे देखते हैं। जिसके द्वारा हम ईश्वर को पायेंगे, वह है चेतन आत्मा। परमात्मा को हाथ से कोई पकड़ नहीं सकता। भीतर में मन-बुद्धि हैं। ये भी बाहर के पदार्थ पर आश्रित हैं। मन-बुद्धि भी ईश्वर को नहीं जान सकते। इनके परे चेतन आत्मा है। इसी से ईश्वर को जाना जाता है। इसी के कारण इन्द्रियों को ज्ञान है। उसका निजी काम ऐसा है कि मन, बुद्धि आदि को छोड़कर जो होता है, तब जो मिलता है, वह है ईश्वर। जो इस बात को नहीं जानते, वे इसी आँख से देखने, इसी हाथ से पकड़ने की चीज को ईश्वर मानते हैं। ऐसा विचार निश्चित कर लेने पर हम जानें कि उसको हम कैसे पावेंगे।
 हमारा फँसाव संसार के पदार्थों में हो गया है। यह फँसाव छूटे, अपने तईं में रहें, तब ईश्वर को पहचानेंगे। अपने शरीर का ज्ञान सबको है, लेकिन अपने तईं का ज्ञान नहीं है। जैसे शरीर को चीन्हते हैं, वैसे ही अपने को चीन्हें-यह आवश्यक है। जबतक फँसाव नहीं छूटेगा, तबतक ईश्वर को नहीं जान सकते। जानना दो प्रकार का है-एक है परोक्ष और दूसरा है अपरोक्ष। श्रवणज्ञान और मननज्ञान-यह अप्रत्यक्ष-ज्ञान है। इसी को शास्त्रीय भाषा में परोक्ष ज्ञान कहते हैं। इससे पहचान तो नहीं होती, लेकिन निर्णय होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान के लिए क्या करो? इसी के लिए साधु, संत, महात्मा कहते हैं कि भक्ति का अवलम्बन करो। दूसरे कहते हैं कि योग का अवलम्बन करो। जहाँ योग है, वहाँ भक्ति है। जहाँ भक्ति है, वहाँ योग है। योग कहते हैं मिलाप को। भक्ति कहते हैं सेवा को। बिना सेवा के मिलाप नहीं। किसी की आवश्यकता पूरी करो, यह उसकी सेवा है। किसी को धन की आवश्यकता है, उसको धन दे दो, तो उसकी सेवा होगी। किसी का शरीर रुग्न हो गया, तो उसकी दवा-दारू करते हो, यह उसकी सेवा है।
 ईश्वर को कोई आवश्यकता नहीं। उसकी क्या सेवा करोगे? लोग गंगा-सेवन करने आते हैं, गंगा को फूल चढ़ाते हैं। यह गंगा की सेवा है। पानी पीते हैं, टहलते हैं, अपने घर से गंगा तक आते हैं, यह गंगा की सेवा है। इसी तरह जिधर चलकर ईश्वर मिलेंगे, उधर चलना ईश्वर की भक्ति है। गंगाजी का जल पाते हैं, वायु पाते हैं, इससे प्रत्यक्ष लाभ होता है। इसी तरह जो ईश्वर की ओर चलते हैं, वे प्रत्यक्ष लाभ पाते हैं। औषधि खाते हैं, तो औषधि-सेवन है। ईश्वर संबंधी जो अनुभूति होती है, यह ईश्वर-भक्ति की सूक्ष्म बात है। जिधर वे मिलें, उधर चलो। बाहर में इन्द्रियों के साथ रहेंगे। ईश्वर का ज्ञान इन्द्रियों के ज्ञान में रहने से नहीं होता। अन्दर चलिए, इन्द्रियों से छूटना होगा। आप अन्दर में चलकर, मन-बुद्धि से बढ़कर अपने ज्ञान में आ जायेंगे, तब ईश्वर का ज्ञान होगा। जैसे-जैसे अन्दर में बढ़ेंगे, वैसे-वैसे अनुभूति होती जाएगी और आपको शान्ति मिलती जाएगी। इसी को ब्रह्म-पीयूष कहते हैं।
    ब्रह्म पीयूष मधुर शीतल, जो पै मन सो रस पावै ।
    तौ कत मृग जल रूप विषय, कारण निशिवासर धावै ।।
 ब्रह्मपीयूष बाहर की वस्तु नहीं, अन्दर की है। जो कोई अपने को बहिर्मुख से अन्तर्मुख कर पाता है, उसी को ब्रह्मपीयूष मिलता है। यह अन्तर्मुख चलना ईश्वर की भक्ति है। इसी को योग कहते हैं। इस योग में बताया गया है कि बायीं और दायीं धार यानी इड़ा-पिंगला; इन दोनां के बीच में रहो, तो चलते-चलते चले जाओगे। यह शरीर खाने और मलमूत्र त्याग तथा भोग-विलास के लिए नहीं है। इस शरीर को तुम ठाकुरवाड़ी और शिवालय बना सकते हो और विलासमय भी। विलासी जीवन बन्धन का जीवन होगा और शिवालय तथा ठाकुरबाड़ी बनाने से ईश्वर की ओर जाओगे। इसका यत्न गुरु से जानो। घर-गृहस्थी में रहकर भी कर सकते हो और घर-गृहस्थी छोड़कर भी।
 घर-गृहस्थी छोड़कर रहने की अपेक्षा घर- गृहस्थी में रहकर भजन करना अच्छा है। घर-द्वार छोड़ने से खाने की चिन्ता होगी। कहाँ जाओगे? घर-घर घूमोगे। खाने के लिए कष्ट होगा। संन्यास में भी और गृहस्थी में भी; दोनों तरहों से भजन करो। भजन तुरत ही समाप्त नहीं हो जाता। विद्या थोड़ा-थोड़ा पढ़ते-पढ़ते विद्वान होते हैं। विद्या का आरम्भ करो और उसको छोड़ दो, तो भूल जाओगे। गोया नष्ट हो जाएगी। लेकिन योग के बीज का नाश नहीं होगा। थोड़ा भी करोगे, भूल जाओगे, तब भी वह नष्ट नहीं होगा।
 योग कोई भयावह चीज नहीं है। लोग कहते हैं-राम-राम भजो, हो गया। यह जपयोग है। यह भी ठीक है। यह आरम्भ की बात है। यह करने की मनाही कोई नहीं करता। इससे आगे भी जानिए और कीजिए। ईश्वर का ज्ञान इन्द्रियों में रखना भ्रम है। ईश्वर का ज्ञान इन्द्रियों से परे है। ईश्वर-स्वरूप का निर्णय होने पर ही ईश्वर के परोक्ष-ज्ञान का आरम्भ हो जाता है। लोग मोटी- मोटी बातों में उलझे हुए हैं। जहाँ मोटी-मोटी बात से काम चलता है, चलाओ, लेकिन ईश्वर को पाने के लिए, मोटी-मोटी बात से काम नहीं चल सकता। इसके लिए मन का संकल्प-विकल्प छुटाना होगा। संकल्प-विकल्प छुटा हुआ मन पवित्र होता है। संकल्प-विकल्प छूटे हुए मन में राग-द्वेष नहीं होता। संकल्प-विकल्पवाला मन राग-द्वेष उत्पन्न करता है। लोग ईश्वर-स्वरूप को जानें, मार्ग को जानें, अवलम्ब को जानें और साधना करके दर्शन करें। इससे अन्तस्साधना में प्ररेणा मिलेगा। जैसे खेत को जोतकर फसल बोते हैं और जबतक फसल न कटे, देख-रेख करते रहते हैं, इसी तरह शरीररूपी खेत में सत्संगरूपी फसल लगाते रहें, ऐसा करना चाहिए। सत्संग नहीं छोड़ना चाहिए। सत्संग और ध्यान करते रहो, कभी-न-कभी अपरोक्ष ज्ञान भी होगा।
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यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत संतमत सत्संग मन्दिर, मनिहारी में दिनांक 24. 6. 1966 ई0 के अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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240. सेवाहीन होने से रंगने के स्थान पर भी नहीं रंगोगे
प्यारे लोगो!
 कल्याणमय सुख सबको पसन्द है। सुख अकल्याणमय भी होता है, जिसको लोग जानते हैं। कल्याणमय सुख को सभी नहीं जानते, बहुत कम लोग जानते हैं। जो मन और इन्द्रियों को अच्छा लगता है, लोग उसी को सुख कहते हैं; किन्तु यह सुख कल्याणमय नहीं, अकल्याणमय है। कल्याण कहते हैं उस दशा को, जिसमें कभी कुछ भी आपदा नहीं होने पाए। शारीरिक रोग, मानसिक रोग और बाह्य संसार की परिस्थिति की उथल-पुथल में जो अच्छी नहीं लगनेवाली बात होती है, मन उससे दुःखित हो जाता है। लोग शारीरिक और मानसिक रोग से दुःखित होते हैं। संसार के सभी भोगों को कोई छोड़ दे, नहीं हो सकता है। लोग दो बातों को बहुत ऊँचा स्थान देते हैं-एक प्रतिष्ठा और दूसरा धन। प्रतिष्ठा के लिए धन कमाते हैं और प्रतिष्ठा के लिए जान को भी गँवाते हैं। मानसिक सुख और प्रतिष्ठा के लिए धन भी गँवाते हैं। धन को कुछ लोग आन्तरिक सुख के लिए और कुछ लोग बाहरी सुख के लिए भी गँवाते हैं; लेकिन आपदा छूटती नहीं। धन है तो उसको जोगने की चिन्ता रहती है, प्रतिष्ठा है, तो वह प्रतिष्ठा छूटने न पावे, ऐसा ख्याल रहता है। धन और प्रतिष्ठा में आपदा बनी रहती है। जहाँ आपदा है, वहाँ कल्याण नहीं। आपदा विघ्न-बाधा को कहते हैं। आपदावाले कल्याण को लोग जानते हैं। यथार्थ में कल्याणमय सुख को बहुत कम लोग जानते हैं। मन और इन्द्रियां के आगे भी कुछ है, बुद्धि से भी आगे कुछ है। वह तुम स्वयं हो। तुम न शरीर हो, न इन्द्रिय हो, न मन हो, न बुद्धि ही हो। तुम चेतन आत्मा हो। अकल्याण- मय सुख चेतन आत्मा के साथ नहीं रहता। चेतन आत्मा का पद ऐसा है कि जिस पद के परे और कोई पद नहीं। उस पद से गिरना नहीं होता। उस पद पर पहुँचना दूसरे की निन्दा करने से नहीं होता, जैसा कि आजकल के लोग मिनिस्टरी में जाने वा मुखिया आदि बनने में करते हैं। वहाँ तो ‘जिमि हरि सरन न एकउ बाधा।’ इस पद को पाने के लिए पैसे खर्च करने की जरूरत नहीं होती, केवल भजन करने की जरूरत होती है। उस पद पर जाने के लिए किसी सवारी की जरूरत नहीं होती। चलने में थकान नहीं होती। उस पद पर चलने के लिए जो जाता है, तो चलते-चलते आनन्द पाता है, थकान नहीं होती। अपना ‘आपा’ चीन्हते-चीन्हते चीन्हा जाता है। चीन्हने पर कहता है कि जो अपना ‘आपा’ है, वही परमात्मा है, अपने को आवरण के कारण भिन्न मान लिया था। जीवत्व दशा के कारण आवरण था। अब आवरण मिट गया, तो अपना और ईश्वर का भेद मिट गया- ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई’ हो गया। ब्रह्म को पहचाननेवाला ब्रह्म हो गया। वेदान्ती कहते हैं-‘ब्रह्मज्ञानी आप परमेसुर’ -गुरु नानकदेवजी ने कहा है। वहाँ कोई दूसरी चीज नहीं, जिसके अवलम्ब से सुखी हुआ जाए। वहाँ अपने ही ‘आपा’ में निरत होना होता है; नित्यानन्द, परमानन्द के सुख में रहना होता है। तब वह कल्याण होता है, जो मनुष्य चाहता है। माया-मण्डल में रहकर नहीं, माया-मण्डल से छूटकर ही उसको पाया जाता है। माया-मण्डल को कैसे पार किया जाए, इसी का पाठ अभी हुआ-वह शवरी की नवधा भक्ति है-
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
  गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।
  चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मो तें सन्त अधिक करि लेखा।।
आठवँ यथा लाभ सन्तोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ पर दोषा ।।
नवम सरल सब सन छल हीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।।
 शवरी के एक जन्म की कथा है कि वह खिखिरनी थी। दूसरे जन्म में राजा की रानी हुई और तीसरे जन्म में शवरी हुई। जैसे मकान की नींव होती है, उसी तरह भक्ति की नींव सत्संग है। इसमें साधु-संत लोग अपनी तरह की वार्ता चलाते हैं। वे ब्रह्म, माया, जीव, परमात्मा, बन्ध, मोक्ष आदि की वार्ता चलाते हैं; धन, प्रतिष्ठा की नहीं। सुकर्म, कुकर्म, त्याज्यकर्म, ग्राह्यकर्म का वर्णन करते हैं। ब्रह्म के निर्गुण-स्वरूप की वार्ता करते हैं। सत्संग से कल्याण और अकल्याण का ज्ञान होता है। ईश्वर-भजन का प्रेरण मिलता है, मन लगाकर सुनने से प्रेरणा मिलती है। मन लगाकर नहीं सुनने से प्रेरणा नहीं मिलती है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
 नित प्रति दरसन साधु के, औ साधुन के संग ।
 तुलसी काहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
 मन तो रमे संसार में, तन साधुन के संग ।
 तुलसी याहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
 साधु-संग में जाकर भी मन कुछ-से-कुछ सोचे तो लाभ नहीं होगा। इसलिए मन एकाग्र करके कथा सुनो। प्रथम भक्ति संतों का संग करो और दूसरी भक्ति कथा-प्रसंग मन लगाकर सुनो। मन लगाकर सुनो तो काम हुआ, नहीं तो नहीं हुआ। लेकिन जो साधु के संग में नहीं जाता है, उससे वह अच्छा है जो साधु-संग में जाता है। कम-से-कम कभी-कभी तो वह सुनेगा। असल में मन लगाना सार है। कथा-प्रसंग में मन लगता है, तो कुछ करने की इच्छा होती हैं तब शिक्षा और दीक्षा की जरूरत होती है। उसको गुरु की आवश्यकता जान पड़ती है। खोजते-खोजते कहीं- न-कहीं मन के लायक श्रद्धास्पद मिल जाते हैं, तो वह गुरु धारण करता है और मान रहित होकर गुरु की सेवा करता है; यह तीसरी भक्ति है। गुरु-सेवा से ज्ञान होता है। सेवाहीन, ज्ञानहीन होता है। सेवाहीन होने से रंगने के स्थान पर भी नहीं रंगोगे। सेवा से रंगोगे। इसलिए गुरु की सेवा करो।
 पहले से भी यह बात है कि प्रतिमा-पूजन बहुत जोरों से है। प्रतिमा-पूजन में अपने ईष्ट का भाव उस प्रतिमा में रखते हैं। नवधा भक्ति में प्रतिमा-पूजन का लेश मात्र भी संकेत नहीं है। संतों का संग और गुरु की सेवा करने को कहा। भगवान राम ने कहा-‘ मो तें सन्त अधिक करि लेखा ।’
 संत में ही कोई गुरु होते हैं। संत गृहस्थ वेश में भी हो सकते हैं और विरक्त वेश में भी। पहले भी ऐसे हुए हैं और आज भी संसार खाली नहीं है। वेश या रूप-रंग से कोई संत नहीं होता। आचरण से, सद्व्यवहार से, सुशीलता से संत पहचाने जाते हैं। संतों और गुरु की यह मर्यादा है कि वे कहीं ईश्वर से बढ़कर और कहीं ईश्वर के समान कहे गए हैं। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है-
 श्रीहरि गुरु पद कमल भजहिं, मन तजि अभिमान ।
 जेहि सेवत पाइय हरि, सुख निधान भगवान ।।
यह संतोक्ति है। संतलोग ऐसा कहते हैं-
 गुरु समरथ सिर पर खड़े,काह कमी तेहि दास ।
 ऋद्धि सिद्धी सेवा करें, मुक्ति न छोड़ै पास ।।
 गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय ।
 बलिहारी गुरु आपने,गोविन्द दियो बताय ।।
 गुरु हैं बड़े गोविन्द तें, मन में देखु बिचार ।
 हरि सुमिरै सो वार है, गुरु सुमिरै सो पार ।।
 ‘गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ’-गुरु नानकदेव जी ने कहा है। गुरु की सेवा कह दी गयी। यही प्रतिमा-पूजन हुआ। कहीं धातुमय, कहीं मृण्मय, कहीं मणि की प्रतिमा लोग बनाते हैं। बनाए हुए रूप का वे ध्यान करते हैं। वहाँ कोई धातु नहीं होती। गुरु के शरीर में हाड़, चाम और मांस है, लेकिन ध्यान करते समय हाड़, चाम और मांस कुछ नहीं रहता, तब मानस ध्यान होता है। दोनों तरह से एक ही घाट पर आते हैं। नवधा भक्ति में मूर्ति-पूजन नहीं है, ऐसा नहीं मानना चाहिए।
 संथाल-परगना में एक आदमी मुझसे पूछने आए कि आप मूर्ति-पूजन मानते हैं वा नहीं? मैंने कहा-मानता भी हूँ और नहीं भी मानता हूँ। उन्होनें कहा-इसका खुलासा कीजिए। मैंने कहा-ध्यान करने के लिए मूर्ति-पूजन मानता हूँ, लेकिन मेला लगाकर आमदनी करने के लिए नहीं मानता हूँ। आजकल तमाम यही होता है कि मूर्ति बनाकर मेला लगाओ और आमदनी करो। मूर्ति पूजन किसलिए है? केवल मूर्ति-पूजन ही करते नहीं रह जाओ। मूर्ति-पूजन करके मन ठहराओ, फिर इसके आगे बढ़ने का काम करो। जिस जमीन पर कोई गिरता है, उसी का सहारा लेकर वह उठता है। स्थूल माया में हम गिरे हुए हैं, इससे उठने के लिए स्थूल सहारा लेना होगा। मूर्ति-पूजन स्थूल सहारा है। जैसे पक्षी या वायुयान पहले कुछ दूर तक धरती पर चलकर फिर ऊपर उड़ता है, उसी तरह मूर्ति का अवलम्ब लो, फिर आगे बढ़ो।
 चौथी भक्ति कीर्तन-यशगान है। यशगान भी मन लगाकर करना, पाखण्डी बनकर नहीं। हमारे यशगान में लोग हमको भक्त समझें, ऐसा ख्याल करके यशगान करना पाखण्ड है। गुरु से पाए हुए मंत्र का जपो, यह पांचवीं भक्ति है। वह मंत्र होता है ईश्वर के अनेक नामों में से एक नाम को जपो। मन कहीं, जप कहीं, ऐसा नहीं। मन लगाकर जपो। सभी भक्तियों का एक दूसरे से सम्बन्ध है। इसी प्रकार पांच भक्ति तक करने से मन लगाने की शक्ति होती है।
 छठी भक्ति में दमशीलता होना होता है। बहुत से कर्मों से हट जाना और सदा सज्जनों के धर्म में लवलीन रहना। सज्जनों का धर्म होता है-झूठ नहीं बोलने का, व्यभिचार नहीं करने का, मादक द्रव्यों का सेवन नहीं करने का, हिंसा नहीं करने का। मनुस्मृति में आठ हिंसकों का वर्णन है-1.आदेश देनेवाला, 2. मारनेवाला, 3.टुकड़ा करनेवाला, 4. बेचनेवाला, 5. खरीदनेवाला, 6. पकानेवाला, 7. परोसनेवाला और 8. खानेवाला। सज्जन चोरी नहीं करते, किसी की नजर बचाकर या किसी को लूटकर सज्जन नहीं लेते। जो पंच पापों को नहीं करते, वे सज्जन हैं। वे इन्द्रियों को वश में करने के स्वभाव वाले होते हैं। लोग विचार द्वारा मन को रोकते हैं, लेकिन फिर भी गिरते हैं। मन के सूत से इन्द्रियाँ विषयों को पकड़ती हैं। मन के सूत बाह्य इन्द्रियों से हट जाते हैं, तो बाह्य विषयों को इन्द्रियाँ नहीं लेतीं। इसके लिए जाग्रत और स्वप्नावस्था पर विचार करके जानिए। जाग्रत से स्वप्न में जाने के बीच में एक अवस्था होती है तन्द्रा। उस समय मालूम होता है कि शरीर के अन्दर-अन्दर सिमटाव हो रहा है। बाहर का कुछ ज्ञान रहता है, कुछ जाता है। फिर स्वप्न होता है। भीतर की ओर सिमटाव होने से बाहर की इन्द्रियों का सूत सिमट गया, इन्द्रियाँ विषयों में नहीं जाती। यही दीक्षा है। यह दृष्टियोग से होता है।
 मन की पूरी एकाग्रता दृष्टियोग के बिना सुगमतापूर्वक नहीं होती। प्राणायाम से भी लोग एकाग्रता करते हैं, लेकिन यह कठिन है। जो कठिनाई में पड़ना नहीं चाहता, वह ध्यानयोग के द्वारा एकाग्र करे। गीता के छठे अध्याय में ध्यान- योग है। ध्यान-योग में कहीं प्राणायाम का वर्णन नहीं है। सरलतापूर्वक दृष्टिसाधन करो। देखने की शक्ति को दृष्टि कहते हैं, आँख और उसकी पुतली को नहीं। दृष्टि को कहाँ लगाओ, इसका यत्न गुरु बतलाते हैं। अन्दर होने पर चैन मालूम होता है और उसमें मन आसक्त हो जाता है। जिसको विशेष पदार्थ मिले, वह सामान्य पदार्थ लेने क्यों जाएगा!
 ईश्वर इस आँख से देखा नहीं जाता, केवल आत्मा से जाननेयोग्य है। साधक ध्यानयोग से माया के एक-एक आवरण को पार करता है,तब अपने से ही ईश्वर को पाता है। वहाँ हाथ, पैर, नाक, कान, मुख आदि कुछ नहीं है।
 श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै।
 रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै।।
 नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै।
 अंग बिना मिलि संग, बहुत आनंद बढ़ावै।।
 बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिए रहै।
 मिलि परमातम सो आतमा, परा भक्ति सुन्दर कहै।।
 यह ऊँची श्रेणी की भक्ति है। नीची सीढ़ी पर भी चढ़ो और ऊँची सीढ़ी पर भी। इसलिए मंत्र जप भी करो, मूर्ति पूजन भी करो और दृष्टिसाधन भी करो। जो साधक बाहर के भोगों से सिमटकर भीतर गया, उसको भीतर में क्या मिला? बाहर में प्रकाश के बिना तुम नहीं रह सकते, उसी तरह भीतर में भी प्रकाश है। ईश्वर सर्वव्यापी होने के कारण, तुम्हारे अन्दर जो प्रकाश है, उसमें भी वह व्यापक है। उस प्रकाश को जो पाता है, उसको बड़ा रस मिलता है। जो इस सूक्ष्म बात को नहीं जानता, वह कहता है कि यह तो योग है। लेकिन यह समझो कि बिना योग के भक्ति नहीं होती और बिना भक्ति के योग नहीं होता। योगशास्त्र में ‘शम-दम’ का बहुत महत्त्व है। ‘दम’ के साथ भी मनोनिग्रह होता है। दृष्टियोग में सूक्ष्म माया है। इसको गोस्वामी तुलसीदासजी ने इस तरह लिखा है-
रिद्धि सिद्धि प्रेरई बहु भाई। बुद्धिहि लोभ दिखावई जाई ।।
होई बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी।।
 इसके बाद सातवीं भक्ति ‘शम’ का साधन है। यह ‘शम’ नादानुसंधान से होता है। संसार में कोई स्थान बिना शब्द के नहीं है। बाहर संसार में तमाम रगड़ है-वायु संचार में रगड़ है,सूर्यकिरण में रगड़ है। रगड़ से ध्वनि होती है। भारी ठेस से भारी आवाज होती है। बिना कम्प के कोई स्थान खाली नहीं है। सारा स्थान कम्पनमय है। कम्प में ध्वनि है। जो अन्तर्ध्वनि का साधन करते हैं, वे नामभजन करते हैं। यही ईश्वर का असली नाम है। इसी से पूर्णमनोनिग्रह होता है।
 ‘न नाद सदृशो लयः।’ शिवजी ने मनोलय के सवा लाख साधनों में नादानुसंधान को श्रेष्ठ बतलाया गया है। ‘शम’ से ‘सम’ होता है। समता में ही स्थितप्रज्ञ होता है। समता समाधि साधन से होती है। लोग इसलिए गिर-गिर जाते हैं कि केवल कर्मयोग करते हैं, ध्यानयोग नहीं। ‘शम’ के साधन में नादानुसंधान को अवश्य लेना चाहिए, तभी अपनी आत्मा के समान दूसरे को देखेगा।
 आठवीं और नौवीं भक्ति में यथा लाभ संतोष, सरलता, छलहीनता आदि सद्गुण आ जायेंगे।
 मोटी बात और महीन बात-दोनों को रखो। मोटी उपासना पैर के समान और सूक्ष्म उपासना सिर के समान है। पैर भी रखो और सिर को भी रखो। ‘सिर’ कहने का मतलब निर्गुण से है और ‘पैर’ का मतलब स्थूल सगुण रूप से है। इसी भक्ति का प्रचार हमारे सत्संग से होता है। यह ज्ञान आज छिप सा गया है। आज भारत में 40 करोड़ लोग हैं, उनमें से एक करोड़ भी इस बात को जानते हैं कि नहीं-कहा नहीं जा सकता।
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यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत संतमत सत्संग मन्दिर, मनिहारी में दिनांक 18. 6. 1966 ई0 के अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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241. बहिर्मुख सुख में दुःख लगा हुआ है
प्यारे लोगो!
 आप जब निट्ठाह नींद में सोेे जाते हैं, तो उस समय कुछ भी खबर नहीं रहती है। आप नहीं जान पाते कि आप कहाँ हैं, परन्तु जब जग जाते हैं,तो सचेतता आती है और आप संसार की खबर पाने लगते हैं, अपने तईं में अपने शरीर को देखते हैं। अपने को नहीं जानते हैं। अपने तईं की खबर भी करनी चाहिए।
 आप देखते हैं कि गाँव-गाँव में, घर-घर में मृत्यु होती है। यह अशुभ होने पर भी होती ही है। यह आप देखते हैं। आप अपने लिए सोचेंगे, तो विश्वास होगा कि आपका भी शरीर छूटेगा। मृत्यु के बाद घर-घर में श्राद्ध-क्रिया होती है। श्राद्ध-क्रिया में विश्वास है कि शरीर छूट गया है, इसको जला देते हैं, लेकिन शरीर में जो था, वह कहीं चला गया। जो चला गया, वह क्या था? वह वही था, जिसको अपने तईं कहते थे।
 शरीर में रहनेवाला कोई एक ही चीज नहीं है। इस मोटे शरीर को जो कोई छोड़ता है, वह सूक्ष्म शरीर के साथ रहता है। उसके अन्दर कारण शरीर है, उसके अन्दर महाकारण शरीर है। इस स्थूल शरीर के सहित चार जड़ शरीर हैं। जड़ अर्थात् ज्ञानशून्य। इसमें ज्ञानमय पदार्थ को चेतन आत्मा कहते हैं। जो लोग सत्यवान और सावित्री की कथा को पढ़ते हैं, वा उसका नाटक वा सिनेमा देखते हैं, तो उनको यह बात मालूम होती है कि जब सत्यवान के स्थूल शरीर से यमराज ने सूक्ष्म शरीर को निकाल लिया, तो वह स्थूल शरीर मर गया और उसमें सूक्ष्म शरीर दे दिया, तो वह जीवित हो गया।
 इस कथा में बताया गया है कि जो पुण्यवती स्त्री होती है, उसको पुण्यवान पति मिलते हैं। सावित्री के पातिव्रत्य धर्म के पालन के कारण सत्यवान जीवित हुआ, उसका राज्य लौटा। सत्यवान पुण्यवान था, इसलिए उसको इस तरह की पुण्यवती स्त्री मिली। पुण्यवान और पुण्यवती वे होते हैं, जो झूठ नहीं बोलते, चोरी नहीं करते, मादक द्रव्य का सेवन नहीं करते, हिंसा नहीं करते अर्थात् मांस- मछली आदि नहीं खाते और व्यभिचार नहीं करते।
 यदि पंच पापों को नहीं करो, तो पुण्यवान होओगे। लोगों को पुण्यवान होना चाहिए। स्त्रियों को सावित्री की तरह और पुरुषों को सत्यवान की तरह होना चाहिए। साथ-ही-साथ यह भी सीखना चाहिए कि जीवात्मा लिंग शरीर के साथ निकलता है, केवल जीवात्मा नहीं निकलता। चेतन आत्मा चार जड़ शरीरों के साथ है। चेतन आत्मा के नहीं रहने से यह शरीर किसी काम का नहीं रहता।
 हमलोग अभी अपने स्वरूप में नहीं हैं। चेतन आत्मा ज्ञानमय पदार्थ है और चार जड़ शरीर हैं, अज्ञानमय हैं। संघ में नहीं रहकर अकेले रहेंगे, तो क्या होता है, लोग इसको नहीं जानते। संघ में रहकर कुछ बनकर रहो।
 कलिकाल में अशोक बहुत बड़ा सम्राट था। अंग्रेज बहुत बड़ा राजा था। भारत से बाहर भी उसका राज्य था। लेकिन धन चिन्ता-ही-चिन्ता देता है। धन नहीं रहे तो चिन्ता, धन रहे तो उसकी रक्षा के लिए चिन्ता। जहां चिन्ता है, वहाँ दुःख है। कितना भी संसार सुख पाओ, दुःख होगा ही। मन कहता है कि चिन्ता नहीं रहे, दुःख कभी पास नहीं आवे। ऐसा सुख हो कि जिसमें उकताना नहीं हो, जो कभी छूटे नहीं, लेकिन संघ में रहने से ऐसा नहीं होता।
 संतों ने कहा कि अकेले होकर रहो। यही कैवल्य दशा है। अपने को चारो जड़ शरीरों से भिन्न करके रखो, अकेलेपन की अवस्था आएगी। संतों ने इसके लिए कोशिश की और जिनको सुख मिला, उन्होंने कहा-उस सुख में कोई चिन्ता नहीं। कहावत है-‘जैसा संग, वैसा रंग।’
 ईश्वर ऐसा है कि वह ईश्वर-परमात्मा अकेले रहनेवाला है। लोग कहते हैं कि वह भी माया प्रकृति के साथ है। कितनी भी बड़ी प्रकृति वा माया हो, वह उसको ढँक नहीं सकती, और कह दिया कि वह ऐसा है कि-
जिमि कोटि सत खद्योत सम रवि कहत अति लघुता लहै ।।
 उसके लिए कुछ भी कहो, पूरा-पूरा कहा नहीं जा सकता। प्रकृति के तत्त्वों से भी वह पूर्ण ढँका नहीं है। वह अकेलेपन की अवस्था में है। तुम उसको पकड़ो, वैसे ही हो जाओगे।
 जो ईश्वर तक पहुँचता है, वह कैवल्य- स्वरूप हो जाता है। परमात्म-प्राप्ति का सुख मन- इन्द्रियोंवाला नहीं है। मन-इन्द्रियों का सुख संसार में मिलता है। अपने तईं का सुख अपने स्वरूप में रहने से होता है। आप बाहर की चीजों को लेकर उसमें सुख पाते हैं, लेकिन गहरी नींद में आप सुख से सोते हैं, यह बाहर की बात नहीं, भीतर की बात है। इसमें बाहर की कोई चीज नहीं रहती, फिर भी सुख से रहते हैं। हमलोगों को विषयानन्द मिलता है, यह क्षणिक है। अपने आपमें रहो, यह नित्यानंद है, आत्मानन्द है।
 इसके लिए ईश्वर की भक्ति करो। भक्ति का अर्थ है सेवा। किसी की जरूरत पूरी करो,यह उसकी भक्ति है-सेवा है। अन्दर-अन्दर चलो, जहाँ ईश्वर-दर्शन होंगे। ओर दो हैं-एक बाहर और दूसरा अन्दर। माया बाहर में है। माया को छोड़ने के लिए अन्दर चलो। पहले मन के साथ चलना होता है, शरीर उस पर नहीं चलता। पहले मन के साथ चलो। चलते-चलते मन का संग छूट जाएगा और कैवल्य दशा हो जाएगी।
 जो जहाँ बैठा रहता है, वहीं से उसका रास्ता आरम्भ होता है। इस शरीर में जीव की जहाँ बैठक है, वहाँ से चलो। अच्छे-अच्छे ग्रंथों को पढ़कर लोग जानते हैं कि जाग्रत में जीव का वासा आँख में, स्वप्न में कण्ठ में, सुषुप्ति में हृदय में और तुरीय में मूर्द्धा में होता है।
 जाग्रत में आँख में नहीं रहने से बाहर का दृश्य देखा नहीं जा सकता। बिना स्वर के व्य०जन बोला नहीं जाता। स्वर का स्थान कण्ठ है। उसके नीचे हृदय का स्थान है, वहाँ द्वादश-कमल है। यहाँ शब्द है, लेकिन हम बोल नहीं सकते। आँख के स्थान से चलो। वे धन्य थे, जिन्होंने इन बातों को सोचकर निकाला।
 हमलोगों ने सोचा नहीं है। उनलोगों के सोचे हुए को हमलोग पकड़ते हैं। उनके बासी को हमलोग ग्रहण करते हैं, लेकिन यह बासी त्याज्य भी नहीं है। मन के बाद केवल चेतन आत्मा चलती है। यही ईश्वर को पाती है। ‘त्रैवर्ग पर’ इसी को कहा गया है। इसी के लिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने ‘त्रैवर्ग पर परमपद प्राप्य’ कहा है।
घर में रहकर यह काम हो सकता है। चाहे बाल- बच्चों के साथ रहकर भी यह काम कर सकते हो और छोड़कर भी। गाछ के नीचे बैठकर भी कर सकते हो। बहिर्मुख सुख में दुःख लगा हुआ है। अन्तर्मुख बनने से ईश्वर दर्शन होगा। बहिर्मुख होने से दर्शन नहीं होगा।
 मनु-शतरूपा ने कठोर तपस्या की। शरीर छूटने के बाद विशाल स्वर्ग-सुख भोगकर उन्होंने साकेत-अयोध्या में राजा दशरथ और रानी कौशल्या होकर जन्म लिया। पुत्ररूप में भगवान श्रीराम का अवतार उनके यहाँ हुआ। इतना सब कुछ होने के बावजूद बाहरी दर्शन के कारण माया का खेल नहीं छूटा। गोस्वामी तुलसीदासजी जैसे रामभक्त को भी सत्य को व्यक्त करने के लिए लिखना पड़ा-
सुरपति बसइ बाँहुँबल जाके ।नरपति सकल रहहिं रुख ताके ।।
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई ।।
सूल कुलिस असि अंगवनिहारे। ते रति नाथ सुमन सर मारे ।।
 ऐसी तपी और वरदान पानेवाले भी काम से नहीं बच सके। मतलब यह कि बाहर के दर्शन से काम, क्रोध, मोह आदि से नहीं बच सकते।
 बच कौन सकते हैं? जो अपने अन्दर-अन्दर चलते हैं ईश्वर-दर्शन के लिए। श्रीमद्भगवद्गीता में लिखा है कि बिना ईश्वर-दर्शन के विषय का रस नहीं छूट सकता। अन्दर-अन्दर चलने के लिए अांँख के स्थान से चलो। यह दृष्टियोग की क्रिया है। दृष्टियोग से वह डोरी पकड़ी जाती है, जो ईश्वर से मिलाती है। वह डोरी है शब्द की। यह ईश्वर शब्द तक लगा हुआ है। जैसे कोई कुएँ में गिर पड़ा है, तो उसको ऊपर से डोरी दीजिए, उसको पकड़कर वह ऊपर चला आएगा। उसी तरह शब्द की डोरी पकड़कर ईश्वर तक जाना होता है।
 शब्द से सृष्टि हुई है। जिस शब्द से जो बनता है, वह शब्द उसके कण-कण में व्यापक होता है। सृष्टि के निमित्त ईश्वर से जो शब्द हुआ, वह शब्द सृष्टि के कण-कण में व्यापक है। शरीर में पाँच मण्डल और संसार में भी पाँच मण्डल हैं। कोई भी मण्डल तबतक नहीं बनता, जबतक उसके केन्द्र से धारा प्रवाहित नहीं हो। प्रत्येक मण्डल के केन्द्र से शब्द की धारा प्रवाहित होती है। ऊपर का शब्द नीचे दूर तक जाता है, नीचे का शब्द ऊपर दूर तक नहीं जाता। शब्द में अपने उद्गम स्थान तक खींचने का गुण है।
 एक शब्द के केन्द्र से दूसरे केन्द्र पर पहुँचना होता है और शब्द के सहारे चलते-चलते अन्त में आदिनाद की पहचान होती है। जो उसको पकड़ता है, उसके लिए संत कबीर साहब ने कहा है-
 आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह ।
 परसत ही कंचन भया, छूटा बंधन मोह ।।
 वह शब्द सर्वव्यापक है, इसलिए उसका नाम राम है। कल्याणकारी शब्द है, इसलिए उसका नाम है ‘शिव’। आदिनाद ही रामनाम है, शिवनाम है, शक्ति शब्द है, आदि। शब्द के अतिरिक्त और कोई रास्ता ईश्वर तक पहुँचने के लिए मानने योग्य नहीं है। शिवजी से विशेष योग के जानकार और कोई हुए, भारत में माना नहीं जाता। उन्होंने सवा लाख साधन बताए और उन सबमें नादानु- सन्धान को श्रेष्ठ बतलाया।
 इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग है, यदि ऐसा कोई कहे कि हमारे गुरु ने ऐसा बताया है, तो मानने योग्य नहीं है। पहले दृष्टियोग का सहारा लो, फिर नादानुसन्धान का। यही ईश्वर-भक्ति है। ईश्वर की भक्ति में ईश्वर स्वरूप को ठीक-ठीक जाना जाय, अपने स्वरूप को जाना जाय। अपने दुःख को जाना जाय, अपने सुख को जाना जाय। विषयों की आसक्ति छूटे, इन सब बातों की जानकारी के लिए सत्संग है। पंच पापों से बचते रहना चाहिए और ईश्वर का भजन करना चाहिए। यह संतमत का सत्संग मन्दिर है। जिन्होंने बनवाया है, बड़े पुण्य का काम किया है। सब कोई मिल जुलकर सत्संग करते रहिए।
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यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत नवाबगंज, मनिहारी में दिनांक 21. 6. 1966 ई0 के संतमत सत्संग मन्दिर के उद्घाटन के अवसर पर हुआ था।
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242. सदाचार का पालन ही चमत्कार है
प्यारे धार्मिक सज्जनवृन्द!
 किसी काम को उसका फल सोचे बिना नहीं करना चाहिए। जिस काम को करना हो, उसके बारे में पहले सोच लेना चाहिए। यदि उससे हमको लाभ होगा, ऐसा जानने में आवे, तौभी खूब सोच समझकर कीजिए। यदि निर्णय हो कि इससे हानि होगी, तो उसका इरादा भी नहीं कीजिए, छोड़ दीजिए।
 हमलोग सत्संग कर रहे हैं, इसी काम में लग रहे हैं। हमलोगों का सत्संग दैनिक, साप्ताहिक और वार्षिक होता है। जिला वार्षिक और अखिल भारतीय वार्षिक सत्संग भी होता है। कभी-कभी अखिल भारतीय विशेषाधिवेशन सत्संग भी होता है। सत्संग से लाभ होगा, इसीलिए हमलोग सत्संग करते हैं।
 मनुष्य क्या पाकर अपने को लाभान्वित हुआ समझता है? उन वस्तुओं का निर्णय होना चाहिए। ज्ञान हो, ज्ञान हमारा बढ़े, यह बड़ा लाभ है। ज्ञान के ऐसा पवित्र और कुछ संसार में नहीं है। संसार में यश बढ़े, यह भी लाभ है। शरीर छूटने पर शुभगति हो-ऊँचे दर्जे को जाया जाय, या मोक्ष हो, यह भी लाभ है। ऐश्वर्य लाभ हो, संसार में यह भी लाभ है। ऐश्वर्य में धन भी है, प्रतिष्ठा भी है और मेरे कहने को लोग मानें, यह भी है। अपने में भलपन होना यह भी लाभ है। तुलसीदासजी ने इसी को-
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई।।
सो जानब सत्संग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ।।
 ये पाँचों मिले, तब लाभ है। ये पाँचों किसी एक ही में हो, ऐसा पदार्थ कोई पाए हों, तो वे कितने खुश होंगे? संसार में यही पदार्थ लें। इसमें परलोक और संसार दोनों बनते हैं। यह लाभ सत्संग से होता है। यही मानकर हमलोग सत्संग करने में बहुत जोर देते हैं कि इन पांचों को पा सकें।
 शीलता और मोक्ष, ये दोनां सबसे विशेष काम के हैं। जहाँ ये दोनों होते हैं, वहाँ वे बचे हुए तीन आप ही आ जाते हैं। इसलिए शीलता और मोक्ष पाने का यत्न करें।
 शीलता का पालन मनुष्य सदाचार के पालन से कर सकता है और मोक्ष ईश्वर-भजन से पा सकता है। सत् आचार को सदाचार कहते हैं। वे सदाचार क्या हैं? झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पाँचों पापों का त्याग करना। इन पाँचों पापों को आहिस्ते-आहिस्ते छोड़ देना चाहिए। सदा इच्छुक रहना चाहिए कि इनको छोड़ दें। जो इन पाँचों पापों से बचते हैं, उनमें शीलता आती है। जो नहीं बचते हैं, उनमें शीलता नहीं आती। शीलता प्राप्त करना बहुत बड़ी बात है।
 इन्द्र का राज्य हिरण्यकशिपु ने ले लिया था। वह चिन्तित होकर गुरु बृहस्पति के पास गए और बोले कि मुझे उपदेश दीजिए, जिससे मेरा दुःख दूर हो। बृहस्पति ने अध्यात्म-ज्ञान का उपदेश देते हुए कहा-श्रेय और प्रेय दो पदार्थ संसार में हैं। जिसके संग से विषयों में लगे, वह प्रेय है। इससे विशेष श्रेय है। इन्द्र ने कहा-मुझे श्रेय नहीं, प्रेय का उपदेश दीजिए। बृहस्पति ने कहा-शुक्राचार्य के पास जाओ। शुक्राचार्य के पास जाने पर वे भी अध्यात्म-ज्ञान कहने लगे। इन्द्र का उसमें मन नहीं लगता था। शुक्राचार्य ने कहा-मैं समझ गया। तुम्हारा राज्य हिरण्यकशिपु ने ले लिया है, इस हेतु तुम चिन्तित हो। तुम प्रùाद के दरबार में जाओ और उनको प्रसन्न करो। जब वे प्रसन्न होकर वर माँगने कहें, तो तुम उनसे कहना कि आप में जो शीलता है, वह मुझे दीजिए। शुक्राचार्य के कहे अनुकूल वह प्रùाद के दरबार में ब्राह्मण वेष में रहने लगे और उनकी सेवा करने लगे। एक दिन प्रसन्न होकर प्रùाद ने वर माँगने कहा। इन्द्र ने कहा-आप अपनी शीलता मुझे दीजिए। प्रùाद हँसने लगे। उन्होंने कहा कि मैं पहचान गया, आप इन्द्र हैं, आप अपना राज्य ले लीजिए।
 इससे शीलता की विशेषता जानी जाती है। शीलता हमलोगों को भी चाहिए। सत्संग के द्वारा यह शीलता आती है। शीलता में बहुत गुण हैं। शीलता में सदाचार का और ईश्वर-भक्ति का अवलम्ब है। कोई सदाचार का पालन करना चाहे और ईश्वर-भक्ति नहीं करे, तो बिना ईश्वर-भक्ति के अवलम्ब के सदाचार का पालन नहीं कर सकता।
 एक साधु ने मुझसे कहा था-बिना चमत्कार के नमस्कार नहीं। मैंने पूछा-महाराज! चमत्कार क्या? वे चुप रहे। मैंने कहा कि चमत्कार यही है कि सदाचार का पालन हो। वे चले गए। सदाचार के पालन में मजबूत होना, सरल नहीं है और जो मजबूत है, वह छिपता नहीं।
 ईश्वर-भक्ति के बिना ईश्वर की सहायता नहीं मिलती और बिना ईश्वर की सहायता के सत्य पर प्रतिष्ठित रहना बड़ा दुष्कर है। यह बहुत कठिन साधन है। धीरे-धीरे लोग इसमें पूरे होते हैं। भक्ति साधन में सदाचार-पालन आवश्यक है। सत्संग के द्वारा ये बातें जानी जाती हैं। इसलिए सत्संग की बड़ी आवश्यकता है।
 सत्संग से दुष्ट कर्म बहुत छूट जाते हैं। इस तरह के अधिक लोग हो जायेंगे, तो झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार, ठगी, बेईमानी आदि दुष्टकर्म नष्ट हो जाएँगे। यह सीखना होगा, सत्संग में। सत्संग में दो तरहों से ज्ञान मिलता है। एक ग्रन्थ पाठ से, दूसरा प्रवचन से। यदि कोई सदाचारी हैं, तो उनको देखकर दूसरे भी सदाचार-पालन में लगते हैं। सदाचार को केवल वाक्य-ही-वाक्य में नहीं रखें, उसको चरितार्थ भी करें। सत्संग में ‘मति कीरति गति भूति भलाई।’ ये पाँचों पदार्थ मिलते हैं। सदाचार के लिए ईश्वर-भक्ति का अवलम्ब होना चाहिए। ईश्वर का उपकार हमको जानना चाहिए। ईश्वर के उपकार को नहीं मानना कृतज्ञता को नाश कर देता है। ईश्वर की ओर से बहुत लाभ है। ईश्वर की कृपा से ही हम श्वास ले पाते हैं। ईश्वर की ओर अपना मन लगाना चाहिए। उनकी स्तुति से उनका यशगान करें।
 ईश्वर-भक्ति में उपासना, प्रार्थना और स्तुति अवश्य होती है। हमलोग नित्यप्रति स्तुति, प्रार्थना और उपासना करते हैं। आध्यात्मिक लाभ के लिए ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। उनको पाने के लिए मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि-साधन और नादानुसन्धान करना चाहिए।
 ईश्वर का ज्ञान हमको नहीं मिलता, यदि संत नहीं होते। बिना गुरु के ईश्वर-प्राप्ति का यत्न नहीं मिलता। इसलिए वे संत और गुरु हमारे बडे़ उपकारी हैं। हम उनके कृतज्ञ हों। हमें उनकी भी स्तुति करनी चाहिए। जो लोग कहते हैं कि प्रार्थना, स्तुति में समय लगाना, समय को बर्बाद करना है, वे भूल में है। ईसाई, इसलाम, वैदिक,ि सक्ख; सब धर्मों में स्तुति और प्रार्थना है। धर्म की परिभाषा और सिद्धान्त को नहीं जानना, बहुत गलती बात है। हमलोग सत्संग नित्य करते हैं और स्तुति-प्रार्थना भी करते हैं। धर्म का सिद्धान्त और धर्म की परिभाषा भी जानो। लोग तुम्हें भरमा देंगे, यदि तुम धर्म का सिद्धान्त और उसकी परिभाषा का पाठ नहीं करोगे।
 कुछ लोग केवल कुछ साधन बताते हैं और ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना आदि की मनाही करते हैं, उनसे बचो। मनुष्य कर्म करता है, कौशलयुक्त कर्म करना चाहिए। बिना कर्म किए कोई रह नहीं सकता और कर्म का फल बन्धन है। बन्ध-दशा से छूटकर मुक्त दशा में हम रहें। मुक्त दशा की ओर जाने के लिए सांसारिक सुख को तुच्छ जानकर अनासक्त रहना चाहिए। सांसारिक इच्छा मोक्ष का बाधक है। इसलिए कौशल से कर्म करो। श्रीमद्- भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- आत्म- निष्ठ होकर कर्म करो। इसलिए क्या करना होगा? अपने को अपने अन्दर रखो। मन बाहर- बाहर भागता है। उसको रोकने का यत्न करो। अपना निशाना अपने अन्दर रखकर अपने उसपर लगे रहना; यहाँ से आत्मरत होने का आरम्भ होता है। चलते- फिरते, उठते-बैठते इसका ख्याल रखे, तब आत्मरत होना होगा। तब वह कर्म बन्धनदायक नहीं होगा।
 वह पद बहुत ऊँचा है, जहाँ कोई संसार नहीं, कोई शरीर नहीं। वहाँ पहुँचने पर दैहिक, दैविक, भौतिक; तीनों तापों से छूट जाओगे। सदा का मोक्ष प्राप्त कर लोगे। दुःख में फिर नहीं आओगे।
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यह प्रवचन सहर्षा जिला संतमत सत्संग के वार्षिक अधिवेशन, वीरपुर में दिनांक 26. 6. 1966 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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243. नाम-भजन की साधना प्रधान है
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 ईश्वर की भक्ति में नाम-भजन की साधना प्रधान है। नाम-भजन नहीं तो ईश्वर का भजन नहीं। ‘नाम’ शब्द को कहते हैं। जिस शब्द से किसी की पहचान हो, वह शब्द उसका नाम है। यह बहुत समझाने की बात नहीं है, खुलासा है। शब्द भी दो प्रकार के होते हैं-एक शब्द जो हमलोग इस धरातल पर, इस वायुमण्डल में, इस संसार में बोलते हैं और सुनते हैं। यह अनित्य शब्द है।
 ईश्वर के नाम के विषय में अच्छी जानकारी होनी चाहिए। शब्द ही नाम है। इसलिए शब्द के विषय में ठीक-ठीक जानना चाहिए। शब्द दो तरह के होते हैं-नित्य और अनित्य। इस भूमण्डल पर, आकाश मण्डल में जो शब्द सुनते हैं, वह अनित्य शब्द है। इसको आकाश का गुण कहते हैं। बिना आकाश के यह शब्द नहीं हो सकता, लेकिन स्थूल आकाश जबतक है, तबतक इसके अन्दर के शब्द विद्यमान रहते हैं। आज के वैज्ञानिकों का ख्याल है कि जो शब्द पहले हो चुके हैं, उनको पकड़ा जाय; क्योंकि वे सभी शब्द आकाश में मौजूद हैं। यह शब्द नित्य है, लेकिन हमलोग इसको नित्य नहीं मानते। यह जड़ात्मक शब्द है, जड़ आकाश से बना है, जबतक यह आकाश है, तबतक वह शब्द है। इस आकाश के प्रलय होने पर वह शब्द भी नहीं रहेगा। इसलिए उसको अनित्य शब्द कहते हैं। ये मायावी शब्द हैं। इन शब्दों से ईश्वर के गुण प्रकट होते हैं। इनसे ईश्वर की महिमा जानते हैं और उस ओर हमारी वृत्ति होती है। इसलिए महात्माओं ने शब्द का जप बताया है। इसको वर्णात्मक शब्द कहते हैं। केवल वर्णात्मक शब्द है, ऐसा नहीं, ध्वन्यात्मक नाम भी है। ध्वन्यात्मक इसको इसलिए कहते हैं कि इसको लिख नहीं सकते। जो नाम कभी नाश नहीं हो, सो यह नहीं है। इसको सगुण शब्द भी कहते हैं। इसमें रजोगुण, तमोगुण और सतोगुण; तीनों मिले हुए हैं। वर्णात्मक भी सगुण और ध्वन्यात्मक भी सगुण है, जो बाजे वगैरह के शब्द हैं। अपने अन्दर भी सगुण मण्डल के सभी शब्द सगुण हैं। ये सगुण शब्द अपने- अपने मण्डल की विद्यमानता के साथ हैं। जब प्रलय होते हैं, तब ये शब्द नहीं रहते, इसलिए इनको अनित्य शब्द कहते हैं। चाहे वर्णात्मक, चाहे ध्वन्यात्मक; सभी सगुण शब्द हैं, जो माया के मण्डल से प्रवाहित हुए हैं। इसका साधन सगुण शब्द का साधन है। ये कभी-न-कभी लय हो जाते हैं। इसलिए अध्यात्म-बुद्धि के लोग इसको अनित्य शब्द कहते हैं। ये सभी सगुण शब्द हैं। ईश्वर-भजन के लिए जो सगुण शब्द का भजन करते हैं, वे वर्णात्मक का जप और ध्वन्यात्मक का ध्यान करते हैं। ये सब शब्द ईश्वर को जाहिर कराते हैं, लेकिन इससे ईश्वर की पहचान नहीं होती। इन शब्दों से ऋद्धि-सिद्धि भी मिलती है, लेकिन ईश्वर की पहचान नहीं होती। ईश्वर की पहचान के लिए निर्गुण शब्द है। माया मण्डल का जहाँ पसार नहीं, त्रयगुणों का जहाँ पसार नहीं, वह सच्चिदानन्द मण्डल का शब्द निर्गुण है, वहाँ माया का, त्रयगुणों का पसार नहीं है। वह निर्गुण शब्द है।
 यह विश्वास करने के लिए जानना चाहिए कि आदि में परमात्मा अपने आप ही थे। उनकी मौज से माया-रूपी सृष्टि हुई। जब सृष्टि के लिए उन्होंने मौज की तो कम्पन अवश्य ही हुआ। कम्पन हो और शब्द नहीं, यह युक्तिसंगत बात नहीं। प्रत्येक कम्प में शब्द है। कम्पन का सहचर शब्द अवश्य होता है। आदि में जो शब्द हुआ उसको निर्गुण कहते हैं। यह निर्गुण शब्द परमात्मा- कृत हुआ। परमात्मा तक इसकी धारा लगी हुई है। उसी धारा से ईश्वर तक पहुँचा जाता है।
 इस नाम में वैसा ही गुण है, जो ईश्वर में है। जिस केन्द्र से कोई शब्द निकलता है, उस केन्द्र में जो गुण होता है, उस केन्द्र के गुण को लिए हुए वह शब्द होता है और सुननेवाले में वह गुण हो जाता है, जैसे किसी के गाने में प्रसन्नता का गुण है, तो उसको जो सुनता है, वह भी प्रसन्न हो जाता है। ईश्वर से जिस शब्द का विकास हुआ, उसको आदि-स्फोट भी कहते हैं। वह आदि-स्फोट ईश्वर का गुण लिए हुए है। जिसने उसको पहचान लिया है, तो उसमें भी ईश्वरीय गुण आ जाता है। इसलिए परमात्मा को जाननेवाला ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई’ हो जाता है। उसमें वही शक्ति आ जाती है।
 निर्गुण नाम को बहुत कम लोग जानते हैं। निर्गुण नाम तो क्या, ध्वन्यात्मक नाम को भी बहुत कम लोग जानते हैं। बिना सगुण शब्द के साधन से निर्गुण शब्द पकड़ा नहीं जा सकता। नाम-जप सगुण शब्द है।
 अपने अन्दर के सगुण मण्डलों के शब्द सगुण हैं। स्थ्ूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण-ये चारों जड़- मण्डल हैं। मण्डल के केन्द्र से धारा प्रवाहित होती है। ऊपर का शब्द नीचे दूर तक जाता है। सूक्ष्म-स्थूल में स्वाभाविक ही समाता है। स्थूल मण्डल के केन्द्र पर सूक्ष्म का शब्द पकड़ा जाएगा। सूक्ष्म के केन्द्र पर कारण का शब्द पकड़ा जाएगा। कारण के केन्द्र पर महाकारण का शब्द पकड़ा जाएगा। जो साधक भजन करेगा, बढ़ते-बढ़ते महाकारण के केन्द्र पर पहुँचेगा। वहीं पर वह निर्गुण शब्द को पकड़ेगा। वह शब्द सर्वव्यापक है, लेकिन पहचान वहीं होगी। यही निर्गुण शब्द ईश्वर तक है, ईश्वर से प्रवाहित है और ईश्वर तक पहुँचाता है; इसलिए-
 निर्गुण निर्मल नाम है, अवगत नाम अवंच ।
 नाम रते सो धनपती, और सकल परपंच ।।
           -संत गरीबदासजी
 इसी निर्गुण नाम से ईश्वर की पहचान हो जाती है। अमृतनाद उपनिषद् में लिखा है-
अघोषम् अव्यंजनम् अस्वरं च अकण्ठताल्वोष्ठमनासिकं च।
अरेफ जातं उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित् ।। यह आदि शब्द है। इसी के लिए संत कबीर साहब ने कहा है-
 आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह ।
 परसत ही कंचन भया, छूटा बंधन मोह ।।
 इसी से ईश्वर की पहचान होगी। संतों को जब इसका प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ, तो उन्होंने लोगों को इसका ज्ञान दिया। गोस्वामी तुलसीदासजी की रामायण में है-
बन्दउँ रामनाम रघुवर को। हेतु कृषाणु भानु हिमकर को।।
 ‘राम’ में ‘र’ कार, ‘आ’ कार और ‘म’ कार है। कृशानु में ‘र’ कार नहीं रहे, तो उसका अर्थ अग्नि नहीं होगा। ‘भानु’ में ‘आ’ कार नहीं रहे, तो उसका अर्थ सूर्य नहीं होगा और हिमकर में ‘म’ नहीं रहे तो उसका अर्थ चन्द्रमा नहीं होगा। यह निर्गुण रामनाम है, उपमा रहित है, गुणों का भण्डार है। त्रयगुणों का भण्डार भी यही है। मनुष्य-भाषा में इस निर्गुण नाम को ‘ओ3म्’ कहते हैं। ध्वन्यात्मक नाम को और वर्णात्मक नाम को भी जानिए। वर्णात्मक नाम बहुत हैं। ध्वन्यात्मक नाम भी बहुत हैं, लेकिन निर्गुण नाम एक ही है। जैसे काबेरी, गोदावरी, ब्रह्मपुत्र आदि नदियाँ जब समुद्र में मिल जाती हैं, तो केवल समुद्र का ही शब्द रह जाता है, इसी तरह सब नाम निर्गुण में मिल जाते हैं।
सकल नाम जब एक समाना। तबही साध परम पद जाना।।
         -कबीर साहब
 एकाग्र मन से जप करना चाहिए। एकाग्रता की शक्ति होने से और काम किया जाता है। विशेष एकाग्रता के लिए किसी इष्ट मूर्ति का ध्यान करते हैं। संतों ने कह दिया-एक गुरु-मूर्ति का ध्यान करो। कोई प्रतिबन्ध नहीं है, जिसमें अपनी श्रद्धा हो, उसका ध्यान करो। मूर्ति-ध्यान में अनेक लकीर हैं। एक लकीर में कितने ही विन्दु हैं। बहुत-से विन्दुओं, बहुत-सी लकीरों और बहुत-से अंग-प्रत्यंगों के योग से मूर्ति बनती है, लेकिन केवल एक-ही-एक रह जाय, इसके लिए विन्दु ध्यान है।
 विन्दु ध्यान में पूर्ण सिमटाव होता है। जिस मण्डल में पूर्ण सिमटाव हुआ, उस मण्डल से उसकी गति और आगे हो जाएगी।
 ‘अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा, वसत...’ होने के कारण, विन्दु भी ईश्वर का रूप है। विन्दु रूप को देखने से पूरी शान्ति मिलती है। अन्य रूपों में यह शान्ति नहीं मिलती। हाथ-पैरवाले भगवान होते हैं और बिना हाथ-पैर के भी भगवान होते हैं। यदि बिना हाथ-पैर के भगवान नहीं माने जाते तो शिवलिंग में, शालिग्राम में अंग-प्रत्यंग, हाथ-पैर कहाँ है? फिर इसको भगवान कैसे मानते हैं?
 विन्दु को ईश्वर-रूप मानना, यह कोई अन्ध- विश्वास नहीं है; क्योंकि जो सबमें रहता है, वह विन्दु में भी रहता है। इसलिए विन्दु भी उसका रूप है। इसमें पूर्ण सिमटाव होता है, इससे अन्दर में प्रवेश होना होता है, स्थूल से सूक्ष्म में, बाहर से भीतर में प्रवेश होना होता है। यहाँ सूक्ष्म नाद ग्रहण होता है। यह ईश्वर-उपासना की विधि है। इसी विधि से सब लोग उपासना करें।
 मैं न तो राम भजने के लिए मना करता हूँ, न कृष्ण भजने के लिए और न देवी भजने के लिए मना करता हूँ। पंच पापों को करने के लिए मना करता हूँ। ईश्वर का भजन करो, पाप का क्षय हो जाएगा। गुरु, ध्यान, सत्संग और सदाचार; ये चार चीजें मिलकर संतमत हैं संतमत सत्य के साथ है, असत्य के खिलाफ है। यह पुरानी से भी पुरानी बात है। असल में यही सनातन धर्म है।
 कोई कहे कि सनातन धर्म में विन्दु उपासना, नाद उपासना नहीं है, मूर्ति-ध्यान नहीं है, जप नहीं है, कहे। जो नहीं जानते हैं, वे विन्दु ध्यान और नाद ध्यान का नाम सुनकर नया समझते हैं। यह भजन नित्य करो। मनुष्य के अतिरिक्त नीच योनि में नहीं जाने देगा। यह भक्ति का बीज है। यदि ऐसा नहीं होता, तो नाभा दास, रविदास आदि कैसे सन्त होते?
 भजन नित्य करो। भजन का संस्कार अपने में लगाना बहुत प्रकार के भय से बचाता है। योग महाभय से बचाता है। योग के आरम्भ का नाश नहीं होता। जन्म-जन्मान्तर पीछा करते हुए अन्त में मोक्ष दिलाकर ही छोड़ता है।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट में दिनांक 17. 7. 1966 ई0 को साप्ताहिक सत्संग में हुआ था।
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244. साधनारम्भ में अन्तर की अनुभूतियों में सुख
प्यारे लोगो!
 जब सब लोग निट्ठाह नींद में सोये रहते हैं, तो कोई ज्ञान नहीं रहता, कर्तव्य-अकर्तव्य का कुछ निर्णय नहीं हो सकता, कुछ काम करें, यह भी निर्णय नहीं होता। जगने पर कर्तव्य-अकर्तव्य को जानते हैं और करते हैं। इसलिए पहले ज्ञान चाहिए। यह पहला ज्ञान ऐसा होता है कि उसमें कुछ की प्रत्यक्षता होती है और कुछ की नहीं। इन्द्रियगम्य की प्रत्यक्षता होती है, इन्द्रियगम्य से परे की नहीं। सत्संग के द्वारा ईश्वर का ज्ञान, अपने तईं का ज्ञान, अपने सुख का ज्ञान, अपने दुःख का ज्ञान आदि होता है। जितने नाशवन्त पदार्थ हैं, वे ईश्वर नहीं हैं। ईश्वर इन्द्रियातीत हैं, इन्द्रियज्ञान से परे है। अपना भी ज्ञान ऐसा ही है।
 यह शरीर इन्द्रियगम्य है, नाशवान है। आप नाशवान नहीं हैं। आप ठीक ईश्वर की तरह ही इन्द्रियज्ञान से परे और अपने से अपने को जानने योग्य हैं। बात यही है कि संतों ने बताया है कि शरीर में बसनेवाली चेतन आत्मा ईश्वर का ही अंश है। जैसे एक बूँद पानी और जलभरी गंगा नदी-दोनों तत्त्वरूप में एक ही हैं। महदाकाश और मठाकाश का स्वरूप एक ही है। इसी तरह ईश्वर और आप हैं।
 भौतिक सुख-दुःख परिणामी और अभौतिक या मायातीत जो परमात्म-स्वरूप है या अपना स्वरूप है, उस स्वरूप में रहते हुए जो सुख होता है, वास्तव में वही सुख है, दूसरा सुख नहीं। उस सुख से हम छूटे हुए हैं। अपने स्वरूप को जानते हुए जो सुख होता है, वह सुख अथवा ईश्वर-दर्शन से जो सुख होता है, वह सुख हमको नहीं है।
 माया का, इन्द्रियों का भौतिक सुख हमको होता है। अभौतिक सुख के लिए बाहर दौड़-धूप की जरूरत नहीं। अभौतिक पदार्थ आप हैं और आपके अंशी हैं, इसलिए अन्तर्मुख होइए। आप अपने शरीर में हैं ही और सर्वव्यापक होने के कारण ईश्वर भी आपके अन्दर है। इसलिए अंतर्मुख हो जाइए। अन्तर्मुख होने पर जो कुछ अनुभूति होती है, उससे वैसा नहीं होता, जैसे स्वप्न में कुछ दृश्य देखते हैं, उसमें सुखी-दुःखी होते हैं। अन्तर्मुख होने में सुख-ही-सुख है। इसलिए कहा जाता है कि अन्तर में रहो। अपने साधन-बल से अन्दर में रहो, कुछ-न-कुछ अवश्य देखोगे, सुनोगे।
 साधनारम्भ में अन्तर की अनुभूतियों में सुख होता है। और भी इससे अधिक सुख की इच्छा बढ़ती है, तो और भी साधन करके आगे बढ़ते हैं। आन्तरिक अनुभूतियों को प्राप्त करते-करते वहाँ पहुँचते हैं, जहाँ अपना और ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, तब ‘और सुख चाहिए’-यह सवाल समाप्त हो जाता है। ईश्वर को देखो, अपने को देखो, इसके लिए अन्तर्मुख चलो। बाहर दौड़-धूप में नहीं मिलेगा। संत दादू दयालजी ने कहा है-
 दादू उलटि अपूठा आप में, अन्तर सोधि सुजाण ।
 सो ढिग तेरी बाबरे, तजि बाहरि की बाण ।।
 लोग कहते हैं कि प्रùाद को तो बाहर में ही दर्शन हुआ। भगवान खम्भ फाड़कर निकले, हृदय फाड़कर नहीं। ऐसा एक विद्वान भी कहते थे। मैं कहता हूँ-संत-साहित्य का अध्ययन और भी करो। खम्भ में ईश्वर को मानो और अपने अन्दर नहीं, तो ईश्वर की सर्वव्यापकता कहाँ रही! भगवान अचेतन पदार्थ में हो और चेतन में नहीं, यह ज्ञान कहाँ तक ठीक है? हिरण्यकशिपु ने प्रùाद से पूछा था कि ईश्वर कहाँ है? प्रùाद ने कहा था-सब जगह है। हिरण्यकशिपु ने पूछा-इस खम्भे में भी है? प्रùाद ने कहा-हाँ। इसलिए भगवान उस खम्भे से निकले थे। यह ऐसा ही मौका था। जैसे प्रùाद को और मनु-शतरूपा को दर्शन हुआ, वह इन्द्रियगम्य रूप का दर्शन था। मात्र एक प्रùाद नहीं डरता था और सभी देव-दानव नरसिंह भगवान के डर से काँप रहे थे। उन्होंने जो जोर की आवाज की, तो संसार डगमगा गया। एक ब्राह्मणी का गर्भपात हो गया। यह दर्शन इन्द्रियगम्य है। इन्द्रियातीत का भी दर्शन चाहिए।
 एक पुस्तक है-‘पक्षपात रहित अनुभव प्रकाश’। यह पुस्तक सबसे पहले के काली कमलीवाले की बनायी हुई है। उसमें लिखा है-‘प्रùाद केवल इन्द्रियगम्य ही नहीं जानते थे, इन्द्रियातीत भी जानते थे। प्रùाद से विष्णु भगवान ने कहा-समय पड़ता है, तो मुझे पुकारता है और उपासना निर्गुण ब्रह्म की करता है।’ ईश्वर सर्वव्यापी है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
‘अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा वसत...।’
         ‘एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो ।
 परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं,
   बाहर फिरत विकल भय धायो ।।’
दूसरी बात -
 तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त ।
 मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनंत ।।
 जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति; ये तीन अवस्थाएँ हैं। इन्द्रियगम्य दर्शन जितने को हुए, वे सभी जाग्रत अवस्था में थे। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-तीन अवस्थाएँ छोड़कर चौथी अवस्था में जाकर भजन करो, तब इन्द्रियगम्य रूप जो नहीं है, जो आत्मगम्य है, उसके लिए भजन करते हो, उधर चल रहे हो। इन्द्रियगम्य रूप के दर्शन से संसार के बहुत से सुख मिलते हैं, लेकिन इन सुखों से तृप्ति नहीं आती। संसार के सुखों में रहकर कभी दुःख नहीं आवे, यह कभी हो नहीं सकता। यह तो इन्द्र को भी नहीं हुआ। ब्रह्मा को भी ऐसा सुख नहीं मिला, इसीलिए ब्रह्मा ने शिवजी से जाकर पूछा था, तो शिवजी ने कहा-योग और ज्ञान दोनों करो।
 योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः ।
 योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ।।
 तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत् ।।
                   - योगशिखोपनिषद्
 अर्थ-योगहीन ज्ञान मोक्षप्रद भला कैसे हो सकता है? उसी तरह ज्ञानरहित योग भी मोक्ष कार्य में समर्थ नहीं हो सकता। इसलिए ज्ञान और योग, दोनों का अभ्यास दृढ़ता के साथ मुमुक्षु को करना चाहिए।
 पहले थोड़ा ज्ञान होगा, तब कुछ योग करेगा। पहले ज्ञान साधन और योग साध्य, पीछे योग साधन और ज्ञान साध्य हो जाता है।
 संत-महात्मा इसलिए योग-साधन करने के लिए कहते हैं। योग-साधन से ही अपने स्वरूप और परमात्म-स्वरूप का ज्ञान होता है, तृष्णा क्षय हो जाती है, मोक्ष मिल जाता है। तब ‘और कुछ हो,’ ‘और कुछ हो,’ यह छूट जाता है। संत दादू दयालजी ने योग का वर्णन किया है और कहा है-
 योग समाधि सुख सुरति सौं, सहजै सहजै आव ।
 मुक्ता द्वारा महल का, इहै भगति का भाव ।।
 वह द्वार बन्द है। आगे बढ़ने का द्वार बन्द है। आँखें बन्द करते हैं, तो अन्धकार मालूम पड़ता है। यह वज्रकपाट है। इस वज्रकपाट को खोलने के लिए गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा है-
 बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।।
इसके लिए क्या करो, तो कहा-
      घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ।
 घर में जितनी चीजें हैं, सब कुछ को निकाल दो, लेकिन शून्य को नहीं निकाल सकते। परमात्मा सर्वव्यापी है, इसका प्रकाश सर्वव्यापी है, वह निकाला नहीं जा सकता। जैसे कोई पहले सूर्य के प्रकाश को देखता है, फिर सूर्य को, इसी तरह पहले ब्रह्म के प्रकाश को देखो, फिर ब्रह्म को देखोगे।
 योग ऐसा हो कि जो सरल हो और पूर्ण भी हो। श्रीमदाद्य शंकराचार्यजी ने लिखा कि शिवजी ने मनोलय के सवा लाख साधन बतलाए हैं, जिनमें नादानुसन्धान सबसे श्रेष्ठ और सरल है। नादानु- संधान की उन्होंने स्तुति भी की है और कहा कि आपके प्रसाद से ही विष्णु के परम पद की प्राप्ति होगी-
सदाशिवोक्तानि सपादलक्ष लयावधानानि वसन्ति लोके ।
नादानुसंधान समाधिमेकं मन्यामहे मान्यतमं लयानाम् ।।
नादानुसंधान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महेतत्त्वपदं लयानाम्् ।
भवत्प्रासदात् पवनेन साकं विलीयते विष्णु पदे मनो मे ।। सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा ।
  नाद एवानुसंधेयो योगसाम्राज्यमिच्छता ।।
 अर्थ-योगशास्त्र के प्रवर्तक भगवान शिवजी ने मन के लय होने के सवा लक्ष साधन बतलाए हैं, उन सबमें नादानुसंधान सुलभ और श्रेष्ठ है। हे नादानुसन्धान! आपको नमस्कार है, आप परमपद में स्थित कराते हैं, आपके ही प्रसाद से मेरा प्राणवायु और मन; ये दोनों विष्णु के परम पद में लय हो जाएँगे। योग साम्राज्य में स्थित होने की इच्छा हो तो सब चिन्ताओं को छोड़कर सावधान हो एकाग्र मन से अनहद नादों को सुनो।
 नादानुसन्धान अर्थात् शब्द की खोज। संत कबीर साहब ने कहा है-
 सबद खोजि मन बस करै, सहज योग है येहि ।
 सत्त शब्द निज सार है, यह तो झूठी देहि ।।
 बाहर संसार में हम देखते हैं कि पहले बिजली चमकती है, पीछे ठनके की आवाज सुनते हैं। बिना बिजली के हम ठनके की आवाज नहीं सुन सकते। इसी तरह अपने अन्दर में पहले देखो, फिर सुनो। पहले देखने के लिए जानो। साधन ऐसा हो कि दृष्टि सूक्ष्म हो जाय। इसी को दृष्टियोग, शाम्भवी मुद्रा और वैष्णवी मुद्रा कहते हैं। पहले देखो, फिर सुनो; ये ही दो साधन हैं। देखो तो कैसे देखो? संत पलटू साहब ने कहा है-
 काजर दिये से का भया, ताकन को ढब नाहिं ।।
 ताकन को ढब नाहिं, ताकन की गति ह ै न्यारी ।
 एकटक लेवै ताकि , सोई है पिव प्यारी ।।
 ताकै नैन मिरोरि, नहीं चित अंतै टारै ।
 बिन ताकै केहि काम, लाख कोउ नैन संवारै ।।
 ताके में है फेर, फेर काजर में नाही ं।
 भंगि मिली जो नाहिं, नफा क्या जोग के माहीं ।।
 पलटू सनकारत रहा, पिय को खिन खिन माहिं ।
 काजर दिये से का भया, ताकन को ढब नाहिं ।।
 दृष्टियोग और नादानुसंधान; इन दोनों को किए बिना ईश्वर तक जाना असम्भव है। जिस काम के बिना ईश्वर तक जाना असम्भव है, वही है ईश्वर की भक्ति। गोस्वामी तुलसीदासजी को भी योग का आश्रय लेना पड़ा। उन्होंने लिखा-
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
 रामानन्दी महन्त ने भी यौगिक क्रिया-नादानु- संधान का अच्छी तरह समर्थन किया है। इसी का प्रचार यहाँ से है। वैसे अपनी-अपनी क्रिया को सभी पूर्ण कहते हैं, लेकिन समझा नहीं सकते। यह नादानु- सन्धान सरल भी है और पूर्ण भी। इसको समझाया जा सकता है। इन्द्रियातीत पदार्थ को बाहर-बाहर खोजने से पा लोगे, यह कैसे समझा सकते हो?
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट में दिनांक 24. 7. 1966 ई0 के साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था।
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245. मस्तिष्क को ताजा बनाने के लिए सत्संग
प्यारे लोगो!
 जिस क्षेत्र में हमलोग सत्संग कर रहे हैं, वह बड़े महत्त्व का है। यहाँ भगवान बुद्ध बहुत सत्संग किया करते थे। यहाँ निकट ही वेणुवन में भगवान बुद्ध सत्संग कराया करते थे। यहाँ और भी पहाड़ पर उनका स्थान है। यह पुण्यभूमि है।
 आपलोग जो सत्संग-प्रेमी हैं, घर के कामों को छोड़कर, विहार के इस कठिन महँगाई के समय में भी खर्च करके यहाँ आए हैं। यह देखकर मेरे चित्त को बहुत ही प्रसन्नता होती है। हमलोग क्यों आए? इसलिए कि जहाँ ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध सत्संग करते थे, वहाँ सत्संग करें। सत्संग से हम क्या सीखते हैं? बच्चे खेल खेलने में-खिलौने में खुश होते हैं। वे कुछ वर्ष खुश रहते है। उनको समझाया-बुझाया जाता है, अभिभावक की ओर से उनको भय दिखाया जाता है, दबाव डाला जाता है और विद्याभ्यास में लगाया जाता है। जैसे- जैसे वे विद्याभ्यास में बढ़ते हैं, वैसे-वैसे उनके ज्ञान का विकास होता है। वे समझते हैं कि बचपन का खेल भले ही छूट गया। वह सदा का सुखदायक नहीं था। पढ़-लिख लेने के बाद कर्तव्य और अकर्तव्य को समझने लगते हैं तथा उचित विचार कर उचित कर्म को करते हैं। ऐसे ही वे चलते हैं।
 यहाँ ऐसे बच्चे हैं, जो देखते हैं कि केवल संसार के ही काम हैं। जो संसार के आगे का ख्याल नहीं रखते, वे भी बच्चे हैं। मैं कहूँगा, जिनको जीवन के बाद का ख्याल नहीं है, चाहे वे कितनी अधिक उम्र के हो गए हों, फिर भी वे बच्चे हैं, चाहे वे मेरी उम्र (83 वर्ष) के हों वा मेरी उम्र से अधिक के हों।
 विद्या से अनुचित और अनीति को समझते हैं, फिर भी उन्हीं में चलते हैं। किन्तु सत्संग से ज्ञान सीखकर जो संसार के बाद को भी सोचते हैं, उनको पता लगता है कि यह शरीर छोड़कर जाना है। लेकिन पता नहीं, कहाँ जाना है। जाना जरूर है। कहाँ जाना है? पता नहीं। रास्ता मालूम नहीं, स्थान मालूम नहीं, कितनी चिन्ता की बात है? इस बात को जो चेतते हैं, वे ही सयाने होते हैं। वे ही बालपन के खेल को छोड़ते हैं। इन्हीं बातों को समझाने के लिए संत लोग संसार में विचरते हैं।
 संतों ने संसार के खेल को देखा और कहा कि इसको छोड़ देना अच्छा है। एक बात तो यह है कि संसार के कामों से उपराम होना और दूसरी बात यह है कि संसार के कामों में लगे रहने पर भी संसार से उपरामता रहे। संसार के कामों में त्रुटि नहीं होने देकर उसमें उपरामता रहे, यह उत्तम है। जो संसार के कामों को छोड़कर रहते हैं, वे भी संसार के कामों और प्रबन्धों को छोड़कर नहीं रह सकते।
 मनुष्य को समझ में आवे कि रास्ता क्या है? जाना कहाँ है? सबसे उत्तम स्थान कहाँ है? यह भी संसार का ही काम है। और कामों से मन को हटा लिया जा सकता है, लेकिन इससे हटा नहीं सकते। बड़े-बड़े संतों, महात्माओं को ऐसा ही देखा गया। वे लड़ाई के मैदान में नहीं गए, खेती करने नहीं गए, नौकरी नहीं की, लेकिन यह काम अपने ऊपर ले लिया कि ‘चलना है रहना नहीं, चलना बिस्वाबीस।’ यह ख्याल देते रहे। चलना किस रास्ते से है। कहाँ जाना है? इस बात को समझाते हैं। यह समझाना निर्वाण में जाकर नहीं होता, संसार में रहकर ही करते हैं। दूसरे वे हैं, जो संसार के कामों को करते हुए अपने चेतते हैं और दूसरों को चेताते हैं, जैसे भगवान श्रीकृष्ण।
 भगवान बुद्ध संन्यासी हुए, औरों को भी उन्होंने संन्यासी बनाया। भगवान बुद्ध के समय में जितने संन्यासी हुए उतने किन्हीं के समय में नहीं। केवल संन्यासी ही नहीं बनाए, राजा और सेनापति भी उनके शिष्य थे। उनको उन्होंने संन्यासी नहीं बना लिया, उस तरह की शिक्षा दी। ‘कर ते कर्म करो विधि नाना। सुरत राख जहँ कृपानिधाना।। युद्ध भी करो और स्मरण भी करो। ‘तन काम में मन राम में।’ ‘करम करै करता नहीं, दास कहावै सोय।’ -कबीर साहब कर्म करते थे। उन्होंने अपने जीवन- यापन के लिए किसी दूसरे पर भार नहीं दिया। ‘थोड़ा बनिज बहुत ह्नै बाढ़ी उपजन लागे लाल मई।’ संतोष उनको बहुत था। थोड़ा-सा काम करते थे, अपना जीवन-यापन जिससे हो। मतलब यह कि जो संन्यासी हो जाते हैं, उनका कर्तव्य हो जाता है कि वे संसार के पार को बतावें। संसार में सदा रहना नहीं है।
 समर्थ रामदास ऐसे थे कि वे शिवाजी राव को चलाते थे। राजा को भी अपनी राय देते थे। शिवाजी ने कहा कि मैं तप करूँगा। समर्थ ने कहा- मैं तुम्हारा तप करता हूँ, तुम तलवार लो। गुरु गोविन्द सिंहजी महाराज ने दोनों काम करके दिखाया-भजन भी, तलवार भी। गुरु गोविन्द सिंहजी महाराज कभी अनीति में नहीं गुजरे। बेटे मर गए, लेकिन उन्होंने शोक नहीं किया। उन्होंने समय को देखा। संसार में युद्ध-ही-युद्ध होता है।
 वेद के उपदेश से यही मालूम हुआ कि इन्द्रिय का सुख, सुख नहीं है। संसार के पदार्थों में सुख नहीं, ईश्वर-भजन में सुख है। भगवान बुद्ध के वचन का धम्मपद ग्रन्थ से पाठ हुआ, उसमें भी यही आया, ‘ईश्वर-भजन करो’-ऐसा तो उसमें नहीं आया, लेकिन यह आया कि संसार के सुखों में आसक्त मत होओ। तब क्या करो? संसार के सुख में नहीं फँसकर, शरीर-सुख से जो विशेष सुख है, उस ओर चलो। निर्वाण की ओर चलो। यह संसार जो दीप-टेम के समान जलता है, सदा के लिए बुझ जाए, उधर चलो। हमलोग इन्हीं बातों को याद दिलाने और जो नहीं सुने हैं, उनको सुनाने के लिए यह सत्संग करते हैं।
 जिनको सत्संग का चसका लग जाता है, वे दूर-दूर से आते हैं। उनके मस्तिष्क को ताजा बनाने के लिए सत्संग होता है। सुनकर लोग विद्वान होते हैं। भगवान बुद्ध ने जो वचन कहे थे, लोगों ने सुने, याद रखे। लिखे तो पीछे गए।
 उपनिषद् के पाठ में आया कि भवसागर को पार करने के लिए सूक्ष्म मार्ग का अवलम्बन करो। स्थूल रास्ते पर चलकर संसार भर ही रहोगे, बाहर नहीं जा सकते। संसार का मार्ग तो यह है कि यहाँ से कलकत्ता जाओ और कलकत्ता से यहाँ आओ। यह स्थूल मार्ग है। दूसरा मार्ग है कि शरीर छूटने के बाद-संसार से जाने के बाद आराम से रहना हो। इसके लिए जो उत्तम-उत्तम कर्म हैं, स्थूल दर्जे के ही हैं। फिर भी उत्तम हैं, उनको करो। सूक्ष्म मार्ग बहुत उत्तम है। ‘लखे रे कोई बिरला पद निर्वाण।’ यह बाहर में नहीं है, भीतर का रास्ता है। उसपर पैर से चला नहीं जाता। सूक्ष्म अवलम्ब लेकर चलना होता है। ‘बिन पावन की राह है, बिन बस्ती का देश। बिना पिण्ड का पुरुष है, कहै कबीर सन्देश।।’
 इस सत्संग से ये ही सब बातें बतायी जाएँगी। मैं धीरे-धीरे बतलाऊँगा कि सूक्ष्म मार्ग कहाँ है, उसका आरम्भ कहाँ से है और अंत कहाँ है? मैं विश्वास दिलाता हूँ कि मैं बतलाऊँगा कि जहाँ से आपको फिर लौटकर इस संसार में आना नहीं होगा।
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यह प्रवचन नालन्दा जिलान्तर्गत भगवान महावीर और भगवान बुद्ध के विहार स्थल राजगीर में 58वाँ अखिल भारतीय संतमत सत्संग का विशेषाधिवेशन दिनांक 28. 10. 1966 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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246. शरीर में नौ द्वार हैं
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 अभी जो मैंने मान-पत्र सुना तथा स्वागताध्यक्ष का भाषण सुना तो दोनों के सुनने से मैं नहीं कह सकता कि प्रसन्नता मुझे नहीं हुई। मान-पत्र स्वाभाविक ही बढ़ा-चढ़ाकर लिखा जाता है। ऐसे मजमें में जो स्वागताध्यक्ष होते हैं, वे बड़े भाग्यवान होते हैं। आध्यात्मिकता के वास्ते शारीरिक सुख छोड़ दिया जाय, हो नहीं सकता। अवश्य ही भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, वशिष्ठ आदि जैसे महात्मा हों, तो वे दुःख को सुख बना लेते हैं। इतना सुख अवश्य चाहिए, जितने सुख से ध्यान में मन लगे। उतना सुख यहाँ है। अभी मौसम भी ऐसा है कि बाहर में सो भी सकते हैं। प्रत्येक मनुष्य को अपने बिछावन के लिए कम्बल या सन की चट्टी अवश्य रखनी चाहिए। 1907 ई0 में मेरे पास कोई सामान नहीं था। आरा जिला के धरकन्धा में एक संत थे, मैं वहाँ गया। उन्होंने मुझे मिट्टी का पात्र दिया। चार हाथ का एक अंगोछा बिछावन के लिए दिया। इस ख्याल से यदि सत्संग में लोग जायँ कि वहाँ बिछावन मिल जाएगा, अन्य सत्संगियों के लोटे और बिछावन से काम चला लेंगे, तो यह ठीक नहीं। यहाँ पर इतना भी बहुत है। यह ऐसा है, जो नहीं होने योग्य, सो हुआ है।
 एक साधु ने मुझसे पत्र लिखकर कहा-‘तुम राम को मनुष्य मानते हो, इसलिए तुमने राम की निन्दा की है।’ संयोगवश जिस दिन मैं यहाँ आ रहा था, वे मुझसे मिलने आश्रम आ गये। मैंने कहा, आप आ गए, यह आपने बहुत कृपा की। मेरी यात्रा उत्तम हो गयी। मैंने उनसे कहा-राम की निन्दा कौन कर सकता है?
राम ब्रह्म परमारथ रूपा । अविगत अलख अनादि अनूपा ।।
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
 किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
 राम ने भूप का या नर-शरीर को धारण किया। नर-शरीर को नर-शरीर अवश्य कहा जाएगा और जिसने शरीर धारण किया, उन्हें राम अवश्य कहा जाएगा। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का वर्णन किया है। उन्होंने कहीं नहीं कहा कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ में भेद नहीं है, बल्कि उन्होंने यह कहा- सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मैं हूँ। केवल क्षेत्र की महिमा कही जाय और क्षेत्रज्ञ की महिमा नहीं कही जाय, ऐसी बात कहने से अपने को भटकाना है। भगवान राम ने नर-शरीर धारण कर बहुत विलक्षण सब काम किए। उनका उपदेश सब काल के लिए बहुत उपयोगी है। उन्होंने सबसे पहले उपदेश दिया कि-‘बडे़ भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब गं्रथहिं गावा।।’ (रामचरिमानस, उत्तरकाण्ड) मनुष्य-तन पाना बड़ा भाग्य है। शूद्र, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य सबका बड़ा भाग्य है।
 जिस इन्द्रिय से जो काम होना चाहिए, वह सबको मौजूद है। जो नीच है, वह कान से नहीं सुनकर पैर से नहीं सुनता है। कोई चीज खाओ, सबको एक ही स्वाद मालूम होगा। सबको भगवान ने बनाया है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भगवान की भक्ति की,पूज्य हो गए। उसी तरह कबीर साहब, रैदास आदि भी भजन करके पूज्य होग गएं आज रैदासजी महाराज कहते हैं।
 सो कुल धन्य उमा सुनु, जगत पूज्य सुपुनीत ।
 श्री रघुवीर परायण, जेहि नर उपज विनीत ।।
       -गोस्वामी तुलसीदासजी
 विशेष बात इस शरीर में क्या है? इसमें साधनों का धाम और मोक्ष का द्वार है। समूचा शरीर द्वार नहीं है। इस शरीर में नौ द्वार हैं। ये जो नौ द्वार हैं, इनमें से कोई द्वार मोक्ष का द्वार नहीं है। संतवाणी से पता चलता है कि जो नौ द्वारवाले शरीर में रहते हैं, वे संसार में दौड़ते रहते हैं। इस शरीर में दसवाँ द्वार भी है। उस द्वार से गमन करो, तो निज घर में पहुँच जाओगे। यह शरीर स्थूल घर है। संत जो कहते हैं कि इसमें दशम द्वार है, यह बहुत कम लोग जानते हैं। बाहर से अपने को समेटकर अन्तर प्रविष्ट होकर अन्तर्मुखी जहाँ तक होना होता है, वही दसवाँ द्वार है। यह दसवाँ द्वार ही मोक्ष का द्वार है। इसमें शरीर नहीं जाता, मन अवश्य जाता है। यह इस द्वार की विलक्षणता है। जाग्रत में आप जहाँ रहते हैं, स्वप्न में आप वहाँ नहीं रहते। कण्ठ से स्वर का उच्चारण होता है। स्वर के बिना व्यंजन का उच्चारण नहीं हो सकता। प्रत्येक व्यंजन के साथ स्वर अवश्य रहता है। स्वर से व्यंजन हटाकर बोलिए, तो बोल नहीं सकते। स्वप्न में जब हम बोलते हैं, तो हमको जानना चाहिए कि हम कण्ठ में हैं। दसवें द्वार को योगियों के यहाँ आज्ञाचक्र कहा जाता है। यही है अन्तर्ज्योति और अन्तर्नाद का द्वार।
 खेती करना बहुत कठिन काम है, परन्तु इसके बिना रह नहीं सकते। इसलिए खेती करते हैं। देश- रक्षा बहुत कठिन है, परन्तु देश की रक्षा करते हैं। साधना को कठिन कहकर इसलिए मानते हैं कि इसे करना आवश्यक नहीं समझते। यह काम अवश्य करना चाहिए। यह थोड़ा करने पर भी बहुत लाभ पहुँचावेगा। साधन अवश्य करो। मन को मारो। मन को सँभालो। दशम द्वार होते हुए मोक्ष की ओर चलो। यह शरीर विषय सुख के लिए नहीं है। ‘एहि तन कर फल विषय न भाई।’ (गोस्वामी तुलसीदासजी) विषय भोग छोड़ा जा सकता है। अपने को सँभालकर दशम द्वार में स्थिर करो, तो अवश्य छोड़ा जा सकता है।
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यह प्रवचन नालन्दा जिलान्तर्गत भगवान महावीर और भगवान बुद्ध के विहार स्थल राजगीर में 58वाँ अखिल भारतीय संतमत सत्संग का विशेषाधिवेशन दिनांक 28. 10. 1966 ई0 के अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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247. पढ़ने के लिए प्रतिज्ञा
प्यारे लोगो!
 संतों ने जीव-कल्याण के हेतु भक्ति का प्रचार किया है। भक्ति में स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिए। ईश्वर को जानना हमारे लिए बहुत कठिन है। उन्हें जाननेवाले संत होते हैं। संत की अवश्य स्तुति होनी चाहिए। जिनके उपकार को पाकर हम उनकी स्तुति नहीं करें, उनका कृतज्ञ नहीं बने तो बड़ा पाप होता है। इसलिए उनकी भी स्तुति करें। फिर संतों में से कोई गुरु होते हैं। उनका बार-बार उपकार होता है।
 ‘हेतु रहित जग जीव उपकारी’ संतगण ईश्वर के सेवक अवश्य होते हैं। जिसमें ईश्वर की भक्ति नहीं, वे संत नहीं हो सकते। हमलोगों को नित्य ईश-स्तुति, सन्त-स्तुति और गुरु-स्तुति अवश्य करनी चाहिए। उपासना भी अवश्य करनी चाहिए। ब्राह्ममुहूर्त्त काल, स्नान के बाद तुरत, फिर सायंकाल पवित्र होकर बैठो। जो नहीं जानते हो, इसकी युक्ति गुरु से सीखो। अभी जो कुछ पाठ हुआ, उसमें ईश्वर- स्वरूप का ही वर्णन किया गया है।
 आँख से सब कुछ देखते हैं, परन्तु आँख को आँख से ही देखते हैं। इसी तरह आत्मा से ही आत्मा तथा ईश्वर को देखोगे। आत्मा नहीं, तो इन्द्रियाँ, मन या बुद्धि क्या करेगी? आत्मा को ऐसा बना लो कि वह निज ज्ञान में रहे। उस निज ज्ञान में अपने तथा परमात्मा का ज्ञान होगा। कैवल्य दशा में ही अपना तथा ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। अपने अन्दर अपने को प्राप्त करो, तो सबमें वही प्राप्त करोगे। यह ज्ञान जीवनकाल में ही प्राप्त करो।
 यही धर्म का सिद्धान्त और परिभाषा जानते हो, तो ठीक है, नहीं तो बड़ी गलती करते हो। बहुत सत्संगी पढ़े-लिखे नहीं हैं। सत्संग में बैठकर सुनते-सुनते याद कर लिए हैं। आपलोगों को मैं सलाह देता हूँ कि अपने-अपने घर में सत्संग करें। जहाँ मेरी धान की खेती होती है, वहाँ एक सत्संगी धान काटने गया। वहाँ वे अपने बाल-बच्चों सहित स्तुति और सत्संग कर लेते थे। जो पढ़े-लिखे नहीं हो, तो रात में पढ़ो। जब मेरे पास ऐसा कोई आता है, तो मैं पढ़ने के लिए उससे प्रतिज्ञा कराता हूँ। इस वास्ते आपलोग यदि ऐसा कीजिए, तो समाज के लोग ईश्वर-भक्ति में संलग्न होंगे। सब अच्छे होंगे। ईश्वर-मुक्तिरूप जो प्रचण्ड ज्योति है, उसके उदय होने पर सब ज्ञान हो जाता है। इसलिए ईश्वर-भक्ति में सब कोई संलग्न होइए और घर का भी काम कीजिए। संसार में रहते हुए काम अवश्य करना होगा। कर्म का बंधन नहीं लगे, इसके लिए भक्ति करो। ईश्वर-अर्पण बुद्धि से कर्म करो। ईश्वर-अर्पण करना, आत्मरत होना है। अपना निशाना अपने अन्दर रखो, अपने को उस पर लगाए रखो। यही असली गुरु-दीक्षा है। ऐसा करते-करते उसमें ही आगे बढ़ने का रास्ता साफ हो जाएगा। उसी से ऊर्ध्वगति होगी, सभी आवरणों का छेदन होगा और आत्मज्ञान होगा। इसमें पूर्ण कर्मयोगी हो जाएगा। आत्मरत होकर आत्मज्ञान प्राप्त करके जो हो, उसका ज्ञान नहीं मिटेगा। जिसने इस दशा को नहीं पाया है, वह भूल-भूल जाएगा। जबतक पूर्णता नहीं होगी, तबतक अवश्य भूलेगा। इसको अच्छी तरह याद रखना, अच्छी तरह साधन करना।
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यह प्रवचन नालन्दा जिलान्तर्गत भगवान महावीर और भगवान बुद्ध के विहार स्थल राजगीर में 58वाँ अखिल भारतीय संतमत सत्संग का विशेषाधिवेशन दिनांक 29. 10. 1966 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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248. सृष्टि के आरम्भ में क्या है?
प्यारे लोगो!
 संतों ने ईश्वर-भक्ति की ही प्रधानता को सत्संग के अन्दर रखा है। संत कबीर साहब कहते हैं-
 संगत ही जरि जाव, न चर्चा राम की ।
 दुलह बिना बारात, कहो किस काम की ।।
और गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू । जहँ नहिं राम प्रेम प्रधानू ।।
 इस तरह संतलोग भक्ति को प्रधानता देते हैं। हमलोगों को भी बुद्धि संतों की बुद्धि के अनुकूल हो, यही परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं। संतों की बुद्धि बहुत पवित्र थी, शान्त थी, स्थिर थी। संतों की बुद्धि में अनैतिकता कभी नहीं आती। हम संतों की बुद्धि पा जाएँ, तो हमारा परम कल्याण हो। इसलिए हमलोगों ने भी सत्संग में ईश्वर-भक्ति की ही प्रधानता रखी है।
  ईश्वर की भक्ति में सबसे पहली बात यह होनी चाहिए कि हम इसकी आवश्यकता जानें। जिसकी आवश्यकता हो, उसको जानें, जिसकी आवश्यकता नहीं हो, उसके जानने में समय फजूल खर्च होगा। आपलोग स्वयं महसूस करते हैं कि आप स्ववश में नहीं हैं। जैसा-जैसा चाहते हैं, वैसा- वैसा नहीं होता। अपने शरीर को, अपने मन को अपने उत्कृष्ट विचार में नहीं रख सकते हैं। इससे मालूम होता है कि हम स्वतन्त्र नहीं हैं, किसी के अधीन में हैं। इसलिए गो0 तुलसीदासजी ने कहा है।
 व्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचण्ड ।
 सेनापति कामादि भट, दम्भ कपट पाखण्ड ।।
 सो दासी रघुवीर कै, समुझै मिथ्या सोपि ।
 छूट न राम कृपा बिनु, नाथ कहउँ पद रोपि ।।
 माया के वश में हमलोग पड़े हैं। इस माया से हम छूटें, तब कल्याण है। माया से छूटने के लिए हम उनकी शरण जाएँ, जो माया के पति हैं। माया के पति ईश्वर हैं। इसलिए ईश्वर की भक्ति की आवश्यकता है। हमको चाहिए कि हम ईश्वर की भक्ति करें। ईश्वर की भक्ति में हम पहले ईश्वर- स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करें। रामायण में गो0 तुलसी- दासजी ने जैसा वर्णन किया है, आपलोगों ने सुना-
जो माया सब जगहिं नचावा। जासु चरित लखि काहु न पावा।।
सो प्रभु भू्र बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा।।
सोइ सच्चिदानन्द घनरामा । अज विज्ञानरूप बलधामा ।।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
 ईश्वर विज्ञान-स्वरूप हैं। मनुष्य केवल भौतिक विज्ञान में लगे हैं, जो इनके सामने अत्यन्त अल्प हैं। भौतिक वैज्ञानिक उसमें भी पूर्ण नहीं हुए हैं। भौतिक विज्ञान का जो कुछ विस्तार है, वह बहुत अल्प है। एक जमाना ऐेसा था कि लोग वाण चलाकर उसको वापस भी कर लेते थे। अश्वत्थामा ने बहुत उपद्रव किया, तो पाण्डव लोग उसके पीछे पड़े। अश्वत्थामा ने अपनी जान बचाने के लिए एक अस्त्र छोड़ा। उस अस्त्र के जवाब में अर्जुन ने भी अस्त्र छोड़ा। दोनों अस्त्र आपस में लड़ने लगे, जिससे अग्नि की वर्षा होने लगी। मुनि लोग आए और दोनों कोे अपना-अपना अस्त्र लौटाने कहा। अर्जुन ने अपना अस्त्र लौटा लिया, लेकिन अश्वत्थामा लौटाने की विद्या नहीं जानते थे। आज एक बम छोड़ दिया जाए, तो उसको लौटाने और उसके संहारकारी परिणाम से लोगों को बचाया जाना असम्भव हो जाएगा। लेकिन उस समय सम्भव था और अर्जुन ने करके दिखा दिया। श्रीकृष्ण और मुनियों की शक्ति से अश्वत्थामा के उस वाण की शक्ति कम कर दी गई और उसकी महिमा रखने के लिए पाण्डवों का पोता परीक्षित जो गर्भ में था, मारा गया। पीछे जन्म लेने पर भगवान श्रीकृष्ण ने उसको जिलाया। आज का विज्ञान अभी बहुत बच्चा है। न मालूम क्या होगा? परमात्मा बहुत बड़ा वैज्ञानिक है। उसने सारी सृष्टि को साजा है। आज के वैज्ञानिक बिना उपादान कारण के कुछ बना नहीं सकते। इसलिए उनको कुछ-न-कुछ उपादान अवश्य चाहिए। किन्तु परमात्मा उपादान को अपने से उत्पन्न कर लेता है। बाबा नानक ने कहा है-
 तदि अपना आपु आप ही उपाया ।
   नाँ किछु ते किछु करि दिखलाया ।।
 इसलिए परमात्मा को विज्ञान-स्वरूप कहा गया है। विज्ञान के दो भाग कर सकते हैं-भौतिक और आध्यात्मिक। अभी तो भौतिक विज्ञान का ही अन्त नहीं हुआ है, अध्यात्म-विज्ञान तो बहुत दूर है। आज के भौतिक वैज्ञानिक अध्यात्म-विज्ञान के लिए कहते हैं कि उससे ऐसा काम नहीं हो सकता, जैसा भौतिक विज्ञान से। लेकिन परमात्मा विज्ञान- स्वरूप होते हुए सभी शक्ति के भण्डार हैं। वे व्यापक हैं और व्याप्य भी हैं। जिसमें घुसा जाय, वह व्याप्य और जो घुसे, वह व्यापक है। परमात्मा में सब कुछ समाया हुआ है तथा परमात्मा सबमें समाए हुए हैं। वे अनन्त हैं, पूर्ण हैं, बल के घर हैं।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सब दरसी अनवद्य अजीता।।
 निर्मल निराकार निर्मोहा ।नित्य निरंजन सुख सन्दोहा।।
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
 कितने लोग कहते हैं कि तुलसीदासजी ने अति उक्ति कही है। लेकिन यह अति उक्ति नहीं, यथार्थ है। ईश्वर से क्या नहीं हो सकता? कोई कहते हैं कि ईश्वर नहीं है। ईश्वर क्यों नहीं है? इसके लिए आपके पास क्या सबूत है? सबसे प्रथम का कोई तत्त्व अवश्य है, जो अनादि, अनन्त, असीम है और वही ईश्वर है।
   प्रथम एक सो आपै आप । निराकार निर्गुण निर्जाप ।।
 सबसे प्रथम का जो है, वह असीम है। सबसे पहले का कुछ है कि नहीं? सबसे पहले का कुछ- न-कुछ अवश्य मानना पड़ेगा। पाँच तत्त्वों में पहले आकाश है। सौर जगत में सबसे पहले सूर्य है। सृष्टि के आरम्भ में क्या है? कुछ नहीं है, ऐसा क्यों मानो?
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 वह बुद्धि-पर पदार्थ है। ऐसा कुछ अवश्य है। सृष्टि के पहले आदि-अन्त-रहित तत्त्व था। आदि- अन्त-रहित कहने पर बड़ा विस्तार मालूम होता है। विस्तार रूप अणु और बहुत बड़ा भी हो सकता है। विस्तार में लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई, गहराई, और ऊँचाई होती है। जिसमें लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई, गहराई, और ऊँचाई हो, वह माया है। इसको भी अतिक्रमण करो। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
‘प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।’
‘सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।।’
 जहाँ देश-काल नहीं, वहाँ माया नहीं। जहाँ देश होगा, वहाँ काल और जहाँ काल होगा, वहाँ देश। परमात्मा देश-कालातीत है। उसके लिए विस्तृत कहने से भी नहीं बनता है।
 जस कथिये तस होत नहीं, जस है तैसा सोय ।
 कहत सुनत सुख ऊपजै, अरु परमारथ होय ।।
 वह पदार्थ कितना गहरा है, कितना विस्तृत है, कहा नहीं जा सकता। ऐसा एक पदार्थ है, जो परम पुरातन, परम सनातन है। इसकी खोज में जाना सनातन धर्म है। इसी को पाना सनातन धर्म का अन्तिम परिणाम है।
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यह प्रवचन नालन्दा जिलान्तर्गत भगवान महावीर और भगवान बुद्ध के विहार स्थल राजगीर में दिनांक 29. 10. 1966 ई0 के अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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249. नीच योनियों में जाना महाभय है
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 हम सबलोग अपनी-अपनी हालतों को अच्छी तरह जानते हैं। हम जानते हैं कि संसार में भोग्य वस्तु जो हम पसन्द करते हैं, उसमें हम संतुष्ट नहीं होते। हम जानते हैं कि हमारी तरह हमारे मित्रगण भी भोग्य वस्तु को भोगकर संतुष्ट नहीं होते। देश के पुराणों को पढ़ते हैं तो उनमें भी हम पाते हैं कि उस समय के लोग भी भोगों को भोगते हुए भोग की इच्छा रखते ही संसार से चलते बने। हमलोगों की भी यही हालत होगी। फल क्या होगा? जिस इच्छा से जो शरीर छोड़ता है, उसी चक्र में वह घूमता है। उस चक्र में बारम्बार पड़ा रहता है। इस चक्र में चैन नहीं, शान्ति नहीं। लोग चैन चाहते हैं, शान्तिमय सुख चाहते हैं, परन्तु शान्तिमय सुख का मुख भी नहीं देख पाते। संतों ने कहा है-शान्तिमय सुख नहीं है, ऐसी बात नहीं है, संतलोग जानते हैं, उनसे जानो। कबीर साहब, नानक साहब सभी संत और ऋषि-मुनि कहते हैं कि वह शान्ति-स्वरूप परमात्मा है।
 संसार में हम सभी पदार्थों को एक ही बार होते नहीं देखते। पाँच तत्त्वों में पहले आकाश है, फिर वायु, अग्नि, जल और तब पृथ्वी। सौर जगत में पहले आकाश है। सौर जगत और कितने हैं। सौर जगत स्थूल है। स्थूल बिना सूक्ष्म के नहीं हो सकता। सूक्ष्म भी बिना कारण के नहीं हो सकता। इस तरह जगत को तीन भागों में बाँट सकते हैं-स्थूल, सूक्ष्म और कारण। ये तीनों मायामय हैं। इन तीनों के अन्दर रहने से शान्तिमय सुख नहीं। सृष्टिक्रम को समझकर जैसे बिना कारण के सूक्ष्म नहीं और बिना सूक्ष्म के स्थूल नहीं, इसी तरह सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति है वा महाकारण है। इससे भी परे परमात्मा है।
प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
      -गोस्वामी तुलसीदासजी
 भगवान श्रीकृष्ण के वचन में पढ़ने से मालूम होता है कि अपरा प्रकृति जड़ात्मिका है। उससे परे परा प्रकृति है। इन दोनों से परे जो है, वह परमात्मा है। वही नित्य है, सत्य है, अटल है, ईश्वर है, खुदा है, गॉड है। जबतक उसको कोई नहीं पकड़ते, तबतक शान्ति नहीं। उसी को पकड़ने के लिए संत महात्मा कहते हैं। वह परम प्राचीन है, परम सनातन है। वह एक-ही-एक है। वह इतना व्यापक है कि उससे अधिक व्यापक कुछ नहीं है। वह ससीम नहीं है। ससीम मानने से बनेगा नहीं। ससीम के परे ससीम कहने से नहीं बनेगा। सब ससीम-ही- ससीम नहीं हो सकेगा। ससीम के परे असीम है। असीम के परे कुछ नहीं हो सकता। सबसे परे का वही है, वही शान्तिमय है। उसको पकड़ने से कोई शान्ति पाता है। उसको पहचानने से शान्ति मिलती है। उसके शासन से कोई बाहर नहीं जा सकता। इसलिए वह ईश्वर कहलाता है।
 संसार में स्थूल, सूक्ष्म का भेद समझने पर मालूम होता है कि स्थूल से सूक्ष्म का मण्डल बड़ा है और स्थूल में सूक्ष्म स्वाभाविक समाया होता है। पाँच तत्त्वों में आकाश सबसे सूक्ष्म है। यह चार तत्त्वों में व्यापक है। वायु अपने से तीन तत्त्वों में व्यापक है। इसी तरह अग्नि दो तत्त्वों में और जल एक तत्त्व मिट्टी में व्यापक है। जो अनादि, अनन्त, असीम है, वह उतना ही अधिक सूक्ष्म है। जो सबसे अधिक सूक्ष्म है, वह सबमें व्यापक होता है। उसके स्वरूप को बताते हुए संत लोग कहते हैं कि तुम इन्द्रियों को पकड़ नहीं सकते। हमारी इन्द्रियाँ स्थूल हैं। बाहर की कौन कहे, भीतर की इन्द्रियाँ-मन, बुद्धि आदि भी उसके मुकाबले में मोटी हैं।
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
      -गोस्वामी तुलसीदासजी
 यह परमात्मा का स्वरूप है। वह इन्द्रियज्ञान में आने योग्य नहीं है। जो अपने को नहीं जानता, दूसरे को नहीं जानता। रात में सोए थे, अपने का ज्ञान नहीं था, जगने पर‘मैं हूँ’ का ज्ञान हुआ। इसी तरह पहले अपने स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए। संतों ने कहा कि तुम शरीर वा शरीर के अवयव वा इन्द्रियाँ वा चतुष्ट्य अन्तःकरण नहीं हो। इसके अतिरिक्त जो बचता है, वह तुम हो। श्रीमद्भगवद्- गीता के पढ़नेवाले जानते हैं कि भगवान ने क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ का ज्ञान अलग-अलग बता दिया। पाँच स्थूल तत्त्व-मिट्टी, पानी, अग्नि, हवा, और आकाश; पाँच सूक्ष्म तत्त्व-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द; पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ मन बुद्धि, अहंकार, संघात, चेतना, धृति, प्रकृति और इनके चार विकार-इच्छा, द्वेष, सुख और दुःख; ये कुल इकतीस तत्त्व हुए। इन इकतीस को अलग कर इनको क्षेत्र कहो। इसको जो जानता है, वह है क्षेत्रज्ञ वा चैतन्य आत्मा। अपने को इनसे फुटाओ। इसके संग में रहते-रहते सर्वव्यापक तत्त्व का ज्ञान नहीं होता। ज्ञान का अर्थ बौद्धिक ज्ञान नहीं, अपरोक्ष ज्ञान है। ज्ञान की पूर्णता अपरोक्ष ज्ञान यानी प्रत्यक्ष ज्ञान में है। इसलिए प्रत्यक्ष ज्ञान को जानो। परोक्ष ज्ञान में सन्तुष्टि नहीं है। अपने को अगर बौद्धिक ज्ञान में जाना है, तो यह जानना विशेष नहीं। पुस्तक पढ़ लो, औरों से सुन लो। लेकिन यह श्रवण वा मनन ज्ञान रहेगा, विशेष नहीं जाएगा। संतों ने कहा-इससे आगे प्रत्यक्षता की ओर बढ़ो। अपने को जानने वा पहचानने के लिए कुछ साधन करना होगा। क्षेत्रज्ञ को सभी अवयवों से निकाल कर प्रत्यक्ष पाना है, जैसे दूध से घी को अलग निकाल लेते हैं। तुम्हें अपने स्वरूप से ही ईश्वर का दर्शन करना चाहिए। और किसी भी तरह से ईश्वर-दर्शन नहीं हो सकता। आँखों से शरीर के सब अंगों को देखते हो, लेकिन आँख को आँख से देखोगे। उसी तरह अपने को अपने से देखोगे। तब ब्रह्म छिपा नहीं रहेगा। इसीलिए तब जीवात्मा वा परमात्मा भिन्न नहीं रह जाता। कोई कहे कि हमको ईश्वर-दर्शन हुआ, इसका हमको विश्वास कैसे होगा? उपनिषत्कार कहते हैं-
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
 हृदय की ग्रन्थि टूटने पर जड़-चेतन का अलग-अलग ज्ञान हो जाएगा, उसके सारे कर्म क्षय हो जाएँगे। कर्मबन्धन उसको नहीं है, उसकी सब ग्रन्थियाँ छूट गई हैं, कैवल्य दशा प्राप्त है। अकेले हो जाने पर वह अपने को पहचानता है। ऐसे पुरुष संत कहलाते हैं। उनको कुछ जानना बाकी नहीं रहता। उनको किसी से कुछ पूछकर जानना नहीं रह जाता। लोग सिद्धान्त कहेंगे और वे प्रत्यक्ष देखेंगे। रामकृष्ण परमहंसजी ने कहा था- तुमलोगांं का हृदय आइने की आलमारी है, इस तरह के देखनेवाले कुत्ते, गधे-सबके अन्दर उस ब्रह्म को देखेते हैं। इसके लिए क्या करना होगा? साधन-भजन करना होगा। जो कहता है कि हमसे साधन-भजन नहीं होगा, वह निज सुख को नहीं जानता है। वह इन्द्रिय-सुख को अपना जानता है। लेकिन यह अपना सुख नहीं है। इन सबको छोड़कर वह चला जाएगा।
 श्रीराम से लक्ष्मण ने पूछा था-माया किसे कहते हैं। इसके उत्तर में श्रीराम ने कहा था-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
तथा उपनिषद् का यह वाक्य-
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
 इन दोनों कसौटियों पर उसको कसकर देखो, जो कहते हैं कि ‘हमको ईश्वर मिल गया।’ कोई बन्धन तुम पर है वा नहीं, यह तुम प्रत्यक्ष जानोगे। जैसे रोगी को प्रत्यक्ष मालूम होता है कि मैं रोगमुक्त हो गया। यदि कोई मामूली ऋद्धि-सिद्धि को देखकर ही उसको पहुँचा हुआ समझता है, तो वह गलती करता है। उस परमात्मा को पाना, पाना क्या? वह तो सर्वत्र है ही। कबीर साहब ने कहा है-
 सबकी दृष्टि पड़ै अविनाशी, विरला संत पिछानै ।
 कहै कबीर यह भर्म किवाड़ी, जो खोलै सो जानै ।।
 सब जगह है, फिर हम पहचानते क्यों नहीं? इसलिए कि हम मायिक आवरण में हैं। आवरण दूर करने के लिए क्या करना होगा? कूदना होगा वा आकाश में उड़ना होगा? शुकदेवजी आकाश में उड़ सकते थे। बुद्ध भगवान के समय में कितने भिक्षु आकाश में उड़ सकते थे और बुद्ध तो उड़ते ही थे। शुकदेवजी को व्यासदेवजी ने कहा कि-‘तुम ज्ञान प्राप्त करने राजा जनकजी के पास जाओ। लेकिन मामूली तरह से पैदल चलकर, आकाश में उड़कर नहीं।’ आकाश में उड़कर भी कोई मायिक आवरणों को पार नहीं कर सकता। बाहर को छोड़ो, अपने अन्दर चलकर अपने शरीर को छोड़ो। अपने अन्दर चलकर ही कोई शरीर छोड़ सकता है। स्थूल शरीर को छोड़ना ही काफी नहीं है। मरने पर तो स्थूल शरीर छूटता ही है। लेकिन जड़ के चारों शरीरों को छोड़ना है। जैसे केले का गाछ बाहर से देखने में एक मालूम पड़ता है, लेकिन उसमें अनेक डमखोले होते हैं। जैसे मूंज से सींक निकालते हैं, वैसे ही शरीररूपी मूंज में से सींक रूप आत्मा निकालोगे। इनका यत्न अपने अन्दर में करने से होगा, बाहर करने से नहीं। कोई कहे कि यह काम कठिन है तो सरल कौन काम है? सभी काम कठिन हैं। वीर लोग अपनी जान को हाथ में लेकर युद्ध के मैदान में जाते हैं। यदि ईश्वर-भजन को कठिन जानकर छोड़ दोगे तो अपना काम छोड़ दोगे। आज लोग स्वार्थवश निन्दा का काम करते हैं। वह भी स्वार्थ कैसा? संकीर्ण स्वार्थवश होकर करते हैं।
स्वारथ साँच जीव कर एहा। मन क्रम वचन राम पद नेहा ।।
 असली स्वार्थ यह है। धीरे-धीरे आरम्भ करो। सरल से आरम्भ करके समाप्त करो। भगवान श्रीकृष्ण, कबीर साहब, नानक साहब, दादूदयाल आदि संतों ने सरल से ही आरम्भ कर खत्म किया। भगवान बुद्ध के वचन में आया कि ‘अप्रमादी’ बनो। भगवान बुद्ध स्वयं निरालस्य थे। आलस्य में वे पड़े ही नहीं। आलस्य को चीर फाड़कर फेंक दिया। जो निरालस्य हैं, वे अपने स्वार्थ को ठीक- ठीक समझते हैं। माया से अपने को ऊपर उठाओ, असली स्वार्थ यह है। स्वार्थ के कारण लोग पाप कर्म भी करते हैं, लेकिन इस काम (ईश्वर-भजन) के लिए जो चलते हैं, वे पवित्र होते जाते हैं। मन की चंचलता से मन की मलिनता होती है। मन की चंचलता विषय से होती है। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार; इनसे अपने को बचाते रहो। ईश्वर-भक्ति का आरम्भ करो। करते-करते कभी पूर्ण होओगे। ऐसा नहीं होता, ऐसी बात नहीं। ऋषि-मुनि कितने लोग पवित्र हो गए। हमको भी यह अपनाना चाहिए। जैसे एक तल से दूसरे तल पर, एक कोठरी से दूसरे कोठरी में जाते हैं, उसी तरह अपने अन्दर स्थूल-सूक्ष्म भेद से सभी में जा सकते हैं। और ऐसा हो सकता है कि इसमें रोज आ सकते हैं। अभी आप स्थ्ूल शरीर में रहते हैं, तो वायुयान पर स्थूल संसार में कहाँ से कहाँ तक उड़ते हैं। स्थूल से हटाकर सूक्ष्म में अपने को रखो, तो ब्रह्माण्ड दरसेगा और उसमें भी दूर-दूर तक जा सकोगे।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
     -गोस्वामी तुलसीदास
 इसके लिए अप्रमादी होकर नित्य साधन-भजन करना चाहिए। और ध्यान में सुगम नादानुसन्धान है। ध्वनि आपके अन्दर है। परन्तु उसका पकड़ना पहले नहीं होगा। पहले बिजली चमकती है, फिर बादल का गर्जन सुनते हैं। इसी तरह आपके अन्दर पहले बिजली चमकेगी, फिर शब्द सुनिएगा।
 शबद खोजि मन वश करै ,सहज योग है येहि ।
 सत्त शब्द निज सार है , यह तो झूठि देहि ।।
      -कबीर साहब
 यह नादानुसन्धान है। किसी वस्तु का निर्माण करना चाहो, बिना कम्प के नहीं होगा। एक अक्षर या एक मिट्टी की गोली बनाना चाहो, बिना कम्प के नहीं बन सकती। कम्प शब्दमय होता है और शब्द कम्पमय होता है।
 इतनी बड़ी जो सृष्टि हुई है, बिना कम्प के नहीं हुई है। कबीर साहब के ‘शब्द’ में आया है- ‘साधो शब्द साधना कीजै। जेहि शब्द से प्रकट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै।’ यही आदि नाद है-सारशब्द है। जो शब्द जिस पिण्ड के निर्माणार्थ होता है, वह शब्द उस पिण्ड में व्यापक होता है। आदिशब्द पिण्ड-ब्रह्माण्ड सबमें व्यापक है। हम पहचान नहीं सकते। 20 फ्रीक्वेन्सी से कम और बीस हजार फ्रीक्वेन्सी के ऊपर के शब्द को नहीं सुन सकते। कोई-कोई तीस हजार फ्रीक्वेन्सी तक सुन सकते हैं। इससे अधिक को नहीं सुन सकते। भौतिक विज्ञान में फ्रीक्वेन्सी का यह ज्ञान है। कान के परदे से इसको सरोकार है। परन्तु अनहद और अनाहत शब्द अध्यात्म-विज्ञान का है, इसको कान के परदे से सरोकार नहीं है। इसको केवल मानस धारा और चेतन धारा से सरोकार है। इसको भौतिक विज्ञान की फ्रीक्वेन्सी (आवृत्ति संख्या) के द्वारा नहीं जान सकते। इसको केवल ध्यानयोग से ही जान सकते हैं। यह अध्यात्म-विज्ञान की वस्तु है। संसार में बिना शब्द के काम नहीं चल सकता, न बिना प्रकाश के काम होगा। संतों ने भी इन्हीं को अपनाया। इसी को शाम्भवी मुद्रा, वैष्णवी मुद्रा कहते हैं। पहले यह ध्यान होता है, फिर उस प्रकाश मण्डल में नादध्यान होता है। दृष्टिसाधन में तीन तरह से देखते हैं-अमादृष्टि, प्रतिपदादृष्टि और पूर्णिमा दृष्टि। अमादृष्टि सरल है। आँख बन्द करो, अमादृष्टि हो गई। आँख बन्द करने से कष्ट होता, तो कोई सोता नहीं। यह सरल ध्यान है। यह मन की सूक्ष्म क्रिया है। इसके पहले कुछ जप कर लो। कुछ स्थूल रूप का ध्यान कर लो। इसलिए संतों ने मानस जप, मानस ध्यान बताया। इससे सिमटाव का बल मिलता है। शाम्भवी मुद्रा से पूर्ण सिमटाव होता है। पूर्ण एकाग्रता वा पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। यह स्वाभाविक है। इसको कोई हटा नहीं सकता। हमारे यहाँ कोशी नहर और गंगा नहर है। उसमें क्या होता है? जल को रोकते हैं। जल ऊपर उठकर बहता है। स्थूल में सिमटाव होने से सूक्ष्म में वृत्ति जाएगी। यही पिण्ड से ब्रह्माण्ड में जाना है। इसी भाँति आप माया से ऊपर उठ जाएँगे। यों तो माया के ऊपर स्वरूपतः आप हैं ही, लेकिन उसका प्रत्यक्ष ज्ञान आपको नहीं होता है। ध्यानविन्दूपनिषद् में आया है-
 यदि शैल समं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम् ।
 भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ।।
 कई योजन तक फैला हुआ पहाड़ के समान यदि पाप हो, तो वह ध्यानयोग से नष्ट हो जाता है। इसके समान पापों को नष्ट करनेवाला कभी कुछ नहीं हुआ है। ऐसा इसलिए होता है कि एकविन्दुता मे पूर्ण सिमटाव होता है। विन्दु में स्थान है, परिमाण नहीं।
 बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
 परम विन्दु को किसी ने नहीं देखा। परम विन्दु का परिणाम स्थूल में कोई बता नहीं सकता। पेन्सिल की नोक से जो र्चिं होता है, वह असली विन्दु नहीं है।
 तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम् ।
 यह पूर्ण सिमटाव के लिए है। इसके पूर्व मानस जप, मानस ध्यान से अपनी एकाग्रता का बल कुछ बढ़ा लो। इससे आगे बढ़ना है एकविन्दुता के लिए। फिर वहाँ से नादानुसन्धान करो। नाद में अपने उद्गम स्थान पर खींचने का स्वभाव होता है, जैसे चुम्बक लोहे को खींचता है। जो शब्द ऊपर से आता है, उसको जो पकड़ेगा, वह ऊपर खिंच जाएगा।
 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-योग का उलटा फल नहीं होगा। इसका मतलब है कि योग आवागमन से रहित करता है। उलटा फल है कि ‘माया में फँसा- कर रखे, ईश्वर की ओर नहीं जाने दे।’ सो नहीं होता है। जब से इसका आरम्भ होता है, इसके बीज का नाश नहीं होता। कबीर साहब ने कहा-
 भक्ति बीज बिनसै नहीं, जो युग जाय अनंत ।
 ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।।
 भक्ति बीज पलटै नहीं, आय पड़ै जो चोल ।
 कंचन जौ ं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।
 योग महाभय से बचाता है। मैं कहता हूँ कि मनुष्य के लिए महाभय क्या है? गाय का हम बहुत आदर करते हैं, लेकिन किसी को कोई कह दे कि तुम गाय हो जाओगे, तो बड़ा दुःख मानेगा। हम नीचे की योनियों में नहीं गिरें, यह महाभय से बचाना है। नीचे योनियों में जाना महाभय है।
  कर्म का फल अवश्य होता है। कर्म से संस्कार बनता है। इस ध्यानयोग कर्म का संस्कार मनुष्य- शरीर के अतिरिक्त और किसी शरीर में नहीं होगा। इसके लिए वह फिर मनुष्य-शरीर पावेगा और बारम्बार मनुष्य-शरीर पाकर कभी-न-कभी पूर्ण होगा। एक जन्म के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा एवं प्रकार से मनुष्य शरीर पाता रहेगा और अंत में मनुष्य-शरीर का फल-जो ईश्वर को पाना है, होगा। यह सनातन धर्म है, जब से लोगों ने इसको अच्छी तरह सोचा है, तब से यह है। जो कर्म परम सनातन को पकड़ा दे, वह सनातन धर्म है।
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यह प्रवचन नालन्दा जिलान्तर्गत भगवान महावीर और भगवान बुद्ध के विहार स्थल राजगीर में 58वाँ अखिल भारतीय संतमत सत्संग का विशेषाधिवेशन दिनांक 30. 10. 1966 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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250. दमशीलता कैसे आवेगी?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 इस समय मैं चाहता हूँ कि ईश्वर-भक्ति के विषय में ज्यादा खुलासा करके आपके सामने कहूँ। लोग समझते हैं कि परमार्थ साधनाओं में वा मोक्ष हेतु जो साधन है, उसमें ईश्वर की भक्ति बहुत सरल और सुगम है। मैं भी ऐसा कहता हूँ, परन्तु भक्ति के स्थूल और सूक्ष्म; दोनों भेदों को जानना चाहिए। लोग स्थूल भक्ति का ही अधिक ज्ञान रखते हैं और समझते हैं कि स्थूल भक्ति से ही भक्ति का जो परिणाम होना चाहिए, सो हो जाएगा। परिणाम क्या होता है? गो0 तुलसीदासजी ने कहा है-
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई ।कोटि भाँति कोउ करइ उपाई ।।
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई । रहि न सकइ हरि भगति विहाई ।।
 जैसे बिना मिट्टी के जल नहीं रह सकता चाहे कोई करोड़ों उपाय करे, हे गरुड़जी! उसी तरह मोक्ष सुख हरि-भक्ति को छोड़कर अलग नहीं रह सकता। जहाँ हरि-भक्ति है, वहाँ मोक्ष है। भक्ति साधनाओं का परिणाम है कि मोक्ष मिल जाय। मोक्ष सबके लिए कल्याणकारी है। मोक्ष कहते हैं छुटकारा को। शरीर बन्धन है, संसार बन्धन है। दोनों बन्धनों से छूटकारा हो। इन दोनों बन्धनों से छूटने के लिए भक्ति का साधन सरल भी है और पूर्ण भी है।
 एक व्याधे से एक मुनि ने कहा था कि तू दूर रह। व्याधे ने पूछा-‘तुम भी मनुष्य हो, मैं भी मनुष्य हूँ, फिर दूर रहने क्यों कहते हो?’ मुनि ने कहा-‘तेरे शरीर से हिंसा की गन्ध आती है।’ व्याधे ने अलग बैठकर कहा कि मुझे बताओ कि मैं शुद्ध कैसे होऊँगा? ऐसा साधन बताओ, जो सरल हो और पूर्ण फलप्रद भी हो। मुनि ने बता दिया कि शम-दम करो। व्याधे ने कुछ दिनों तक शम-दम का साधन किया। उसका ज्ञान ठीक हो गया। और जो प्रत्यक्ष होना चाहिए, वह हो गया। फिर जब वह मुनि के पास गया, तो मुनि के निकट में आदर से बैठाया और कहा कि तुम्हारी मलिनता छूट गई। बिना शम-दम के भक्ति नहीं होती। बिना मनोनिग्रह के काम, क्रोधादि विकार नहीं छूटते।
  कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय ।
 भक्ति करै कोइ सूरमा, जाति बरन कुल खोय ।।
     -संत कबीर साहब
 कामी, क्रोधी, लालची-मनोनिग्रह नहीं होने पर होता है। मनोनिग्रह होने पर ये विकार नहीं होते। भक्ति के साधन को सुनिए। भक्ति कहते हैं सेवा को। किसकी सेवा? ईश्वर की। किसी की कमी की पूर्ति करना उसकी सेवा है। रोगी है, औषधि दो। भूखा है, भोजन दो। इस प्रकार परहितार्थ कर्म सेवा है। अपने देश के हित में सेवा, सारे संसार के हित में सेवा, ये सभी सेवाएँ यानी भक्ति हैं। लेकिन अपने घर में आग लगे और पड़ोसी के घर में भी आग लगे, तो मनुष्य पहले अपने घर की आग बुझाता है, यह स्वाभाविक है। पहले अपने देश की सेवा करो, तब दूसरे देश की। आवश्यकता को पूरा करो, यही सेवा है। ईश्वर को क्या आवश्यकता है?
 एक मुनि बालक जंगल में रहते थे। एक राजा उसी जंगल में शिकार खेलने गया। उसने मुनि बालक के रूप को देखकर उसे अपने साथ चलने कहा। और कहा कि तुम मेरे साथ चलो, तो मैं तुम्हें सब प्रकार की सुविधा दूँगा। मुनि बालक ने पूछा-तुम मुझे किस प्रकार की सुख-सुविधा दोगे? राजा ने कहा-जो मैं खाऊँगा, वह तुमको खिलाऊँगा। जैसा वस्त्र मैं पहनूँगा, वैसा तुम्हें भी पहनाऊँगा। जैसे महल में मैं रहूँगा, वैसे महल में तुमको भी रखूँगा। मैं सोता हूँ और पहरेदार मेरा पहरा करता है, उसी प्रकार तुम्हारे सोने पर पहरेदार तुम्हारा भी पहरा करेगा। मुनि बालक ने कहा-ऐसे राजा की मुझे आवश्यकता नहीं। तुम नहीं खाओ और मुझे खिलाओ, तुम वस्त्र नहीं पहनो, किन्तु मुझे पहनाओ। मैं सोऊँगा, तुम जगकर मेरा पहरा करो। इन शर्तों को मंजूर करो, तो मैं तुम्हारे साथ चलूँ। राजा ने कहा-ऐसा नहीं हो सकता। मुनि बालक ने कहा-मेरा राजा मुझे खिलाता है, लेकिन स्वयं नहीं खाता है। मुझे कपड़े पहनाता है, किन्तु वह स्वयं कपड़ा नहीं पहनता। मैं सोता हूँ और वह जगकर मेरा पहरा करता है। ऐसे राजा को छोड़कर तुम्हारे साथ नहीं जा सकता। तुम तो भूख-प्यास के अधीन हो, माया के वश में हो। तुम मुझको क्या सुख दे सकते हो? राजा ने समझा-यह साधारण बालक नहीं है। मुनि बालक जानकर प्रणाम करके राजा चला गया।
 परमात्मा को कुछ आवश्यकता नहीं, कैसे भक्ति करोगे? लोग भक्ति करते हैं, जो कुछ वे जानते हैं। नहीं करने से कुछ करना अच्छा है। लेेकिन भक्ति का साधन क्या है, समझ लीजिए।
रामहिं केवल प्रेम पियारा । जानि लेहु जो जाननिहारा ।।
      -गोस्वामी तुलसीदासजी
केवल प्रीति जोड़ो, प्रीति जोड़ने की विधि जानो।
 भाव अतिशय विशद प्रवर नैवेद्य,
    शुभ श्रीरमण परम संतोषकारी ।
 प्रेम ताम्बुल गत शूल संशय सकल,
    विपुल भव वासना बीजहारी ।।
       -गोस्वामी तुलसीदासजी
 अगर ईश्वर के नाम पर रोते रहो, तब भी यह असली विधि भक्ति की नहीं है। बिना रोए भी ईश्वर की भक्ति होती है। रोओ मत। रोना बुरा नहीं है, लेकिन ईश्वर की ओर तुम्हारी वृत्ति होनी चाहिए। यहाँ ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए। ईश्वर-स्वरूप ऐसा है कि इन्द्रिय-ज्ञान से बाहर है। आँख से रोने से क्या होगा? मन की पहुँच से बाहर है, बुद्धि से परे है। तब क्या करोगे? शरीर के बाहर और भीतर मायिक तत्त्वों को छोड़कर जो है, वही तुम हो। ऐसा विचार जानकर अपने को जोड़ो। दूध के साथ घी रहता है और यत्न से निकाल लिया जाता है, इसी तरह मन के साथ चेतन आत्मा है। फिर दोनों में भिन्नता भी हो जाती है। किसी धातु के तार को अधिक-से-अधिक महीन करना चाहते हैं, तो महीन-से-महीन छिद्र होकर खींचिए। मन की मोटाई के साथ चेतन आत्मा मोटी-सी हो गई है। इसको वहाँ ले जाइए कि मन की मोटाई नीचे रह जाए। सुनकर कठिन मालूम होता है, लेकिन इसके साधन में शरीर को कष्ट नहीं होता, संसार का रोजगार नहीं छूटता। नित्य थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करना है। नित्य साधन करो। चित्त एकाग्र करो। चेतन आत्मा का स्वरूप मन से बहुत सूक्ष्म है।
 एकाग्रता के कारण सूक्ष्मता आएगी, पसार छूट जाएगा। पूर्ण सिमटाव पार कर एक मण्डल से दूसरे मण्डल में पहुँचा जाएगा। सिमटी हुई चीज ऊपर बढ़ती है, यह स्वाभाविक है। बिछावन फैले हैं, इनको समेटिए, ऊपर को जाएँगे। इसी तरह सिमटाव के कारण चेतन आत्मा की ऊर्ध्वगति होती है। इसके लिए प्रत्यक्ष अवलम्ब मिलता है, वह अवलम्ब मन से बनाना नहीं पड़ता, हई है। स्वाभाविक आपके अन्दर हई है। चेतन आत्मा के साथ बुद्धि ऊपर नहीं जा सकती, नीचे रह जाती है, और चेतन आत्मा आगे बढ़ती है। इस तरह ईश्वर की ओर होना होता है। जो इस तरह ईश्वर की ओर होता है, वह ईश्वर की ओर अपने को जोड़ता है। यह स्थूल भक्ति नहीं, सूक्ष्म है। जो इस भक्ति में नहीं आता, वह भक्ति को समाप्त नहीं करता। जो समाप्त नहीं करता, वह ईश्वर की भक्ति करके ईश्वर को नहीं पा सकता। ध्यानयोग से इसका साधन सुगम-सुगम से होता है। सुनने में इसकी सूक्ष्मता का ज्ञान होता है। विचारवान समझते हैं कि इसका साधन भी सूक्ष्म होगा। संतों ने इसका प्रचार किया। बहुत लोगों को ज्ञान हुआ। समय की प्रबलता से वह ज्ञान धीरे-धीरे विलीन हो गया। लोग केवल मोटी-मोटी बातों में रह गए।
 मैं यह नहीं कहता कि मोटी भक्ति नहीं करो। सत्संग मोटी भक्ति है। मैं पूजा-पाठ करना मना नहीं करता, लेकिन केवल इसी में लगे नहीं रहो, आगे बढ़ो। मैं नहीं कहता हूँ कि शैव बनो, तब भक्ति होगी वा वैष्णव होओ, तब भक्ति होगी। वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य, सौर, दरियापंथी, नानकपंथी, कबीरपंथी आदि सभी कर सकते हैं। सभी संतों का विचार एक कर लो, यही संतमत है। मैं सभी सम्प्रदायों का आदर करता हूँ, किसी की निन्दा नहीं करता। किसी मत में गणेश, किसी मत में सूर्य, किसी मत में विष्णु आदि इष्ट होते हैं। कबीरपंथी, नानकपंथी सबमें स्थूल इष्ट की उपासना आरम्भ में होती है। बिना स्थूल भक्ति के सूक्ष्म भक्ति में नहीं जा सकते।
 गीता में पढ़िये-क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ में अभेद नहीं है। उपनिषद् में आया है कि ब्रह्म के स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर होते हैं। किसी भी क्षेत्र के क्षेत्रज्ञ-आत्मतत्त्व को पहचाननेवाला परमात्मा को पहचानता है। सभी प्राणियों में वह उसको देखता है। जो यह जानता है, उसको किसी मत-सम्प्रदाय से भेद-भाव नहीं है। यह स्थूल भक्ति नहीं, सूक्ष्म है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने विनय-पत्रिका में कहा है-
रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई ।।
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।।
 किसी कला में कुशल कोई कैसे होता है? पहले एक-एक अक्षर पर आपने कितनी बार हाथ घिसा? बारम्बार अभ्यास करते-करते अक्षर को सीखा, उसी प्रकार भक्ति में बारम्बार अभ्यास करो, कुशल होओगे। तुम्हारी वृत्ति वा सुरत वा मन सहित चेतनधार फैली नहीं रहे, सिमटी हो, तब अवलम्ब मिलता है। चेतनधार जो ईश्वर की ओर से इस शरीर में आती है, उसको मन से पकड़ा जाता है। उस धारा को दो रूपों में पाते हैं- एक ज्योतिर्मय धार और दूसरा शब्दमय धार। इसलिए संतों के ग्रन्थों और उपनिषदों में ज्योति और शब्द की बड़ी महिमा है। इन दोनों का जो अभ्यास करता है, वह ईश्वर को पाता है, दूसरा नहीं। इसके लिए ध्यानाभ्यास अत्यन्त अपेक्षित है। शरीर मरता है, हम रहते हैं। कबीर साहब ने कहा है-
 सुन काया बौरी, चलत प्राण काहे रोई ।
 कहै प्राण सुन काया बौरी, मोर तोर संग न होई ।।
 तोहि अस मित्र बहुत हम त्यागा, संग न लीन्हा कोई।।
 हमारे अन्दर मन है और सूक्ष्म, कारण शरीर हैं, ये नहीं मरते। इन्हीं के कारण से हमको पुनः- पुनः जन्म होता है। सूक्ष्म भक्ति में सफरी बनो। सफरी सबसे छोटी मछली होती है। वह जल प्रवाह की उलटी धारा पर चलती है। सुरत को उलटी धारा पर चलाओ। तुम न तो सफरी बनते हो, न चींटी। मतलब यह कि तुम फैलाव में हो। अपना सिमटाव नहीं करते हो। जड़धार बालू है, चेतनधार चीनी है। जड़धार से चेतनधार को फुटा लो। जो अपने को सफरी और चींटी बनाता है, वह योगी होता है, वह अपने अन्दर सारे संसार को देखता है, नींद छोड़कर सो जाता है। वह स्वप्न और गहरी नींद, दो में से किसी में नहीं रहता। वह तीन अवस्थाओें को छोड़कर चौथी अवस्था में रहता है।
 तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त ।
 मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप अनंत ।।
      -गोस्वामी तुलसीदासजी
 जागने की अवस्था में आप स्थूल शरीर और स्थूल संसार में रहते हैं। स्वप्न में मानसिक संसार है। सुषुप्ति में न अपने शरीर का ज्ञान है, न संसार का। स्थूल शरीर में रहकर आप स्थूल संसार में सैर करते हैं। सूक्ष्म शरीर में रहिए तो सूक्ष्म जगत में विचरण करेंगे। इसी तरह कारण, महाकारण के लिए है। वह द्वैत से अत्यन्तकर छूटा हुआ हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं । लोग जपउम ंदक ेचंबम (टाइम एण्ड स्पेश) बोलते हैं। जहाँ तक समय और स्थान है, वहाँ तक माया का आच्छादन है। जो समय और स्थान को पार कर गया, वह माया को पार कर गया-वह स्वतंत्र है। तब ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई’ हो जाता है। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी ने नवधा भक्ति का वर्णन किया है-
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
  गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।
  चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मो तें सन्त अधिक करि लेखा।।
आठवँ यथा लाभ सन्तोषा। सपनहुँ नहिं देखइ पर दोषा।।
नवम सरल सब सन छल हीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।।
 पाँच भक्ति तक लोग सुगमता से समझ जाते हैं। करने में भी-गुरु कोई मंत्र बता देंगे, तो करने लगेंगे। नवधा भक्ति में लोगों को मालूम होता है कि मूर्ति-ध्यान नहीं है। लेकिन ‘गुरु पद पंकज सेवा’ में मूर्ति-ध्यान निहित है। कबीर साहब ने कहा है-
 जौं गुरु बसें बनारसी, शिष्य समुन्दर तीर ।
 एक पलक बिसरै नहीं, जौं गुन होय शरीर ।।
तथा, गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है -
  आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा ।
 जो गुरु आज्ञा करें, करो।
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
 इसका केवल अर्थ लोग कर लेते हैं। बहुत से कर्मों से विरत होने तथा दमशीलता की ओर खूब ध्यान देना, यह कैसे होता है और सज्जनों के धर्म में चलनेवाला कैसा होता है? झूठ बोलनेवाला सज्जन नहीं होता, चोरी करनेवाला सज्जन नहीं होता, नशा खानेवाला सज्जन नहीं होता, व्यभिचार करनेवाला सज्जन नहीं होता, हिंसा करनेवाला सज्जन नहीं होता।
महापतित को? हिंसाचारी। धन्य कवन? जो पर उपकारी ।
 हिंसाचार से बचो। चाहे आपको अप्रिय मालूम हो, लेकिन सत्य है कि जो मांस-मछली खाते हैं, वे हिंसाचारी में हैं। मनु महाराज ने अष्टघातकों का वर्णन किया है। यह मेरी उक्ति नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि मैं मारने नहीं जाता हूँ। लेकिन खाने से हिंसा में आपका हिस्सा हो जाता है। यह हिस्सा भी नहीं हो, तो अच्छा है। भगवान बुद्ध का यही पंचशील पालन है कि पंच पापों को मत करो। यही उपदेश कबीर साहब और नानक साहब का है।
 आपको आज स्वराज्य प्राप्त है, लेकिन आप सुखी हैं वा दुःखी, स्वयं सोचिए। मैं काँग्रेस का कभी चौअन्नियाँ मेम्बर नहीं बना, लेकिन जो आवश्यकता हुई, मैंने सेवा की। कई बार मुझसे नोटिस लिखवा लिया गया कि काँग्रेस को लोग ‘वोट’ दें। लोगों पर इसका प्रभाव अवश्य पड़ा होगा। लोगों ने ‘मतदान’ दिए। मेरे पास अधिक धन तो नहीं, फिर भी जो था, आवश्यकता जानने पर उससे मैंने उसकी सेवा की। मैं भी आशा करता था कि देश सुखी होगा। लेकिन सत्रह वर्ष हो गए, स्वराज्य पाकर क्या हुआ? कितना सुख है, देखिए। लेकिन यदि इन पंच पापों को छोड़ दीजिए, तो देखिए सुख बरसेगा।
 लोग मेरे लिए कहते हैं कि ‘वे देश का क्या करते हैं? कहते हैं-ध्यान करो, ध्यान करो।’ मैं कहता हूँ कि वे समझते नहीं। मैं देश की जड़ को मजबूत करता हूँ। 1909 ई0 में हमारे गुरु महाराज कहते थे कि लोग हिंसात्मक कार्य करते हैं, यह उल्टा काम है। पहले आध्यात्मिकता रखो, फिर सदाचारिता और तब सामाजिक नीति, फिर राजनीति। जिस देश में लोगों में आध्यात्मिकता अधिक होगी, वहाँ के लोग अधिक सदाचारी होंगे, जहाँ के लोग सदाचारी होंगे, वहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी और जहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी, वहाँ की राजनीति कभी बुरी हो नहीं सकती।
 पंच पापों को छोड़ दीजिए, चौरी-डकैती आदि उपद्रव नहीं होंगे। यदि आप मेरी बात नहीं मानें, तो मैं कोई सजा नहीं दे सकता, लेकिन आप ईश्वरीय सजा से नहीं बचेंगे, इतनी बातें मैंने ‘सज्जन धर्म’ पर कहीं। अब दमशीलता के संबंध में सोचिए। यह दमशीलता कैसे आवेगी? बहुतों को ख्याल है कि विचार करके मन को रोकेंगे, लेकिन केवल विचार ही से मन को नहीं रोक सकिएगा। पहले यह जानिए कि आपका मन विषयों में कैसे चलता है, मन कैसे मलिन होता है? सब इन्द्रियों के साथ- साथ मन की धारें लगी हुई हैं, जाग्रत में सब इन्द्रियों में धारें लगी रहती हैं और स्वप्न में वे धारें अन्तर्मुखी हो जाती हैं। तब मन बाहर के विषयों में नहीं रहता। मन के साथ चेतन धार है, तब विषयों की ओर मन रहता है-मन विषय-लोलुप होता है।
 सूक्ष्म मार्ग पर चलने का पहला साधन विन्दु ध्यान है। इसलिए ध्यान-अभ्यास करो, मन का सिमटाव होगा, बाह्य इन्द्रियों का मेल छूटेगा, पहले स्थूल इन्द्रियों से छूटकर थोड़ा ठहराव होगा, उस थोड़े-से-थोड़े ठहराव में जो-जो अनुभव होगा, उन अनुभवों में ऐसा सुख होगा, जैसा सुख मन ने पहले कभी नहीं पाया। उस सुख के लालच में फँसकर भक्त-अभ्यासी अधिक-अधिक साधन कर अधिक-अधिक सुख पाता है और इन्द्रिय-सुख से उपराम हो जाता है।
 जाग्र्रत और स्वप्न के बीच में तन्द्रावस्था होती है। हाथ-पैर से शक्ति अन्दर की ओर सिमटती है, उस समय कष्ट नहीं मालूम होता, चैन मालूम होता है। वह ऐसा सुख है, जो किसी इन्द्रिय- विलास में सुख नहीं। अन्तर्मुख होने से क्या होता है, यह थोड़ा-सा नमूना है। अन्तर्मुख होओ, तो अपने ही सुख मिलेगा। यह छठी भक्ति है। इसको भक्ति इसलिए कहते हैं कि विषय से छूटकर निर्विषय परमात्मा की ओर हुआ जाता है। इसलिए कबीर साहब ने कहा-‘भक्ति का मारग झीना रे।’ और नानकदेवजी ने कहा-‘भगता की चाल निराली।’ उपनिषद् में कहा-‘क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गम् पथस्तत्कवयो वदन्ति।’
 यह केवल बौद्धिक बात नहीं है। साधन से इसका प्रत्यक्ष अनुभव होता है। मन और चेतन सम्मिलित रूप से उस सूक्ष्म मार्ग पर जाते हैं। यह तलवार से कैसे कट सकता है? मनोनिग्रह को शम कहते हैं। इन्द्रियनिग्रह में भी मन का निग्रह होता रहता है, लेकिन पूर्ण नहीं। शम के साधन में इन्द्रियोें का संग छोड़कर केवल मन के साधन में लगना होता है। नादानुसन्धान के द्वारा मन इन्द्रियों का संग छोड़कर शब्द ध्यान में लगा रहता है, तब पूरा-पूरा मनोनिग्रह होता है। शम-दम के साधन से चेतन आत्मा शरीर-इन्द्रियों से छुटकारा पाती है, अपने को पहचानती है और ईश्वर को पहचानती है। इसी का प्रचार इस सत्संग से होता है।
 मोटी भक्ति का प्रचार बहुत है। इस सूक्ष्म भक्ति का बहुत कम प्रचार है। मोटी भक्ति में इस सूक्ष्म भक्ति को जोड़ दीजिए, तो सोने में सुगन्ध हो जाए। सिर भी रखो और पैर भी रखो। इसी तरह स्थूल भक्ति भी रखो और सूक्ष्म भक्ति भी। भक्ति के स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकारों को सब कोई समझ-समझकर करें।
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यह प्रवचन नालन्दा जिलान्तर्गत भगवान महावीर और भगवान बुद्ध के विहार स्थल राजगीर में 58वाँ वाषिक महाधिवेशन, दिनांक 30. 10. 1966 ई0 के अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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251. मन तुरन्त ही समेट में नहीं आता
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 सब लोग अपने को बन्ध दशा में पाते हैं। कोई भी ऐसा नहीं जो अपने को बन्ध दशा में नहीं बता सके। बन्ध दशा में क्या होता है, सभी जानते हैं। संसार में विद्वान, अविद्वान, धनी, निर्धन कुछ बनकर रहो, मालूम होता है कि मैं बन्ध दशा में हूँ। मन वश में नही, इन्द्रियाँ भी बेकाबू। शरीर वश में नहीं, इसी शरीर में रहना, फिर बन्ध दशा में जीव कैसे नहीं? इन बातों को विचारने पर मालूम होता है कि कोई मार्ग मिलता, जिसपर चल कर मोक्ष दशा को प्राप्त होते। बन्ध दशा से छूटकर परमानन्द पाते। संतों ने यही सरल मार्ग बतलाया है-
 संत संग अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।
 कहहिं संत कवि कोविद, श्रुति पुरान सदग्रंथ ।।
 संतों का मार्ग मोक्ष का है। यह रास्ता कहाँ जाने का है? बन्धनों से छूटकर रहना हो, ईश्वर की प्राप्ति हो, यही मोक्ष का रास्ता है। यह रास्ता कहाँ है? धरती पर, आकाश में, पानी में? बाहर संसार में यह मार्ग नहीं है। इस मार्ग पर चलनेवाला शरीर नहीं है-जीवात्मा है। जो जहाँ बैठा रहता है, कहीं चलने के लिए उसका रास्ता वहीं से आरम्भ होता है। यह रास्ता ईश्वरकृत है। संतों ने उस रास्ता को जाना और ईश्वर की कृपा से जाना। आदि गुरु परमात्मा है। आदि संत जो कभी पहले हुए, ईश्वर की ओर से उस ज्ञान का विकास उनके अन्दर हुआ। उस मार्ग पर चलने का उपाय संतों ने बताया।
 जीव की बैठक जाग्रत में आँख में है। विचारो, शरीर के बाहर भाग में तो हो नहीं, भीतर हो। भीतर देखने के लिए आँख बन्द करो। देखो और पूछो कहाँ हो? अन्धकार में-उत्तर आवेगा। नेत्र के अन्दर देखने की शक्ति है। आँख बन्द करने पर वह दृष्टिशक्ति वहीं रह गई। वहाँ अन्धकार के अतिरिक्त कुछ नहीं है। इसी अन्धकार में वासा है। संत लोग भी यही कहते हैं और उपनिषद् के ऋषियों ने भी यही कहा कि जीव का जाग्रत में आँख में वासा रहता है। कबीर साहब ने कहा है-
 इस तन में मन कहँ बसै, निकसि जाय केहि ठौर ।
 गुरु गम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और ।।
 नैनों माहीं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर ।
 गुरु गम भेद बताइया, सब संतन सिरमौर ।।
जानिले जानिले सत्त पहचानिले, सुरति साँची बसै दीद दाना।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै, पलक परवीन दिव दृष्टि ताना।।
          -दरिया साहब
 यहीं से रास्ता आरम्भ होता है। इसमें अपने मन का सम्हाल करना होता है। यही योग-अभ्यास है। इसके बिना कुछ नहीं होता। चित्तवृत्ति का निरोध वा मन का सिमटाव एक ही बात है। योग- क्रिया से मन का सम्हाल किया जाए, फिर आगे बढ़े, प्राणायाम भी इसलिए करते हैं कि मन का चांचल्य कम हो। इसीलिए आसन भी है। भगवान श्रीकृष्ण ने किसी आसन का नाम नहीं लिया। बल्कि कहा कि शरीर, मस्तक और ग्रीवा (गला) को सीधा करके बैठो। कई उपनिषदों में भी ठीक इसी तरह है। धड़, मस्तक और गला को सीधा करके बैठने से श्वास-प्रश्वास की गति धीमी होती है। गीता में भी ऐसा ही वर्णन है। लेकिन केवल किताब पढ़कर अभ्यास करना ठीक नहीं होगा। किसी गुरु से जानकर अभ्यास करो।
 मन तुरन्त ही समेट में नहीं आता। अभ्यास करते रहो, करते-करते होगा। मन भागता है, उसको समेटकर लाओ, यह ‘प्रत्याहार’ है। प्रत्याहार करते- करते कुछ-न-कुछ टिकाव होगा, इस अल्प टिकाव को ‘धारणा’ कहते हैं। फिर देर तक मन टिकता है, यह ध्यान है। ध्यान तो यहाँ है। ध्यान से मन का सिमटाव होता है। सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है, यह स्वाभाविक है। इसको कोई रोक नहीं सकता।
 चेतन आत्मा और मन का साथ इस तरह है-जैसे दूध में घी। दूध से घी को अलग किया जाता है, इसी तरह मन से चेतन आत्मा को अलग किया जाता है। विशेष सिमटाव से अन्धकार से पार होना होता है, फिर प्रकाश मिलता है। जैसे अन्धकार में अन्धकार मार्ग, उसी तरह प्रकाश में प्रकाश ही मार्ग है। प्रकाश को छोड़ने पर कम्पन बचेगा। कम्प शब्दमय और शब्द कम्पमय होता है। इन दोनों को कोई अलग-अलग नहीं कर सकता। फिर शब्द का मार्ग होगा, यह अन्तर्मार्ग है। जहाँ से ज्योति मार्ग है, वहाँ से ही साधक को मालूम होने लगता है कि मैंने रास्ता पकड़ लिया है। जो सिमटाव करता है, उसको बायीं-दायीं ओर से अपने को रोकना होगा। बायीं-दायीं वृत्ति वा नाड़ी को रोकोगे तो स्वाभाविक ही वह बीच में रहेगी अर्थात् इड़ा-पिंगला से छूटकर सुषुम्ना में स्थिति होगी। यहाँ से ऊर्ध्वगति होती है। जैसे मछली को पानी का अवलम्ब होता है, तो वह भाठा से सीरा की ओर चढ़ती है। उसी तरह जीवात्मा शब्द को पकड़कर ऊपर की ओर जाती है। जैसे पक्षी प्रकाश को पाकर आकाश में उड़ता है, उसी तरह अन्तर के प्रकाशमय आकाश में सुरत उड़ती है। इसीलिए इसको ‘विहंगम मार्ग’ कहते हैं। शब्द के रास्ते पर चलना ‘मीनमार्ग’ है। नीचे में पाँच चक्र हैं। हठयोगी को नीचे से काम करना होता है। यह हठयोग है। यह ‘पिपीलिका मार्ग’ है। कुछ लोग पिपीलिका मार्ग से विहंगम मार्ग में आते हैं और फिर मीनमार्ग में आते हैं। और कुछ लोग विहंगम मार्ग से ही मीनमार्ग में आते हैं। लेकिन प्राणायाम द्वारा पिपीलिका मार्ग से विहंगम मार्ग में आने में अकुशल भी होता है। बहुत लोगों को यह पसन्द आया कि प्राणायाम छोड़कर केवल ध्यान किया जाय। गीता के छठे अध्याय में ध्यानयोग का वर्णन है, प्राणायाम का नहीं। अन्य अध्यायों में प्राणायाम का वर्णन है, लेकिन उसके लिए कठिन आसन आदि का वर्णन नहीं है। सब के लिए सरल ध्यानयोग है। इसके लिए घबराना नहीं चाहिए। कितने जन्मों से संसार में बन्धे हुए चले आ रहे हैं। तुरन्त कैसे यह बन्धन छूट सकता है। अभ्यास करो, धीरे-धीरे होगा।
 संसार में जो काम होता है, वह भी प्रकाश और शब्द के द्वारा ही। बिना इन दोनों के कोई काम संसार का नहीं हो सकता। चुपचाप एकान्त में बैठो आप-ही-आप शब्द मालूम होगा। आँख के दाबने से प्रकाश मालूम हो, यह ठीक नहीं। देखने के यत्न को जानो, देखोगे। दूर का प्रकाश छोटा मालूम होता है, जैसे-जैसे नजदीक जाओ, वैसे- वैसे वह प्रकाश विशाल होता जाता है।
 आपलोगों ने अभी वेद के पाठ में सुना-उषा आती है, उसको हाथ-पैर आदि नहीं है। इसी तरह जो आदिशब्द है, उसमें पाद, सर्ग आदि विभाग नहीं है। वर्णात्मक शब्द का विभाग होता है, आदिशब्द का नहीं। इसको ॐ, शिव, राम, सतनाम, सत्यशब्द आदि कहते हैं। ओंकार ऐसा शब्द है, जिसके अन्दर सभी शब्द भरे हैं। आप जो कुछ बोलते हो नासिका, मुख, ओष्ठ, कण्ठ, तालु आदि से। यदि ऐसा कोई शब्द है, जो उच्चारण के सभी स्थानों को भरकर होता है, तो वह ‘ॐ’ ही है। इसीलिए ओंकार को सृष्टि का बीज कहते हैं। पहले जो कम्पन हुआ, उसी को ‘ॐकार’ कहते हैं। इसको बड़ा पवित्र माना गया है। अभी भी यह पवित्र है। इसी को शिव, राम, ॐ आदि कहा। मनुष्य-भाषा में जो शब्द सब बोलते हैं, जैसा वह सुनने में आता है, वैसा वह ॐ सुनने में नहीं आता। वह भिन्न ही है। पहले ही यह शब्द पकड़ा नहीं जाता है। गुरु से भेद लो, तब जानने में आवेगा।
 बाहर संसार में जैसे बिना ज्योति और शब्द के काम नहीं चलता। उसी तरह अन्तस्साधन में शब्द और ज्योति के बिना काम नहीं होता। बिना कम्प के सृष्टि नहीं होती। आदि कम्प सारी सृष्टि में प्रविष्ट है। यह बड़ा सूक्ष्म है। इसलिए इसको किसी इन्द्रिय से नहीं जान सकते। चेतन आत्मा ही जान सकती है। चेतन आत्मा उस शब्द से खींचकर परमात्मा तक जाती है, फिर दुःख में नहीं गिरती है। परमात्मा को पाकर परम कल्याण पाती है। इसके लिए पवित्रता की आवश्यकता है। पवित्रता के लिए झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; पंच पापों से बचो। यदि कोई पाप हो जाय तो ईश्वर से प्रार्थना करो कि फिर हमसे पाप नहीं हो।
 जो इस ध्यान-साधन का थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करता है, वह नीचे नहीं गिरता। ध्यान योग महाभय से बचाता है। जन्म-जन्म में वह बढ़ता ही चला जाएगा। यही सभी संत-महात्मा कहते हैं। अच्छी तरह साधन-भजन कीजिए, कभी-न-कभी मोक्ष अवश्य मिल जाएगा। मेरे सामने-मोक्ष मार्ग और दूसरा कोई नहीं है। इसी का मैं साधन करता हूँ। इसी में मेरा विश्वास है। गुरु महाराज ने जो बताया है, शास्त्रों और संतों की वाणियों में भी यह है। इसी का प्रचार इस सत्संग से होता है। मैंने साफ-साफ आपलोगों से कह दिया।
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यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत जमालपुर नगर में स्व0 रायबहादूर तुलसीजी के निवास पर दिनांक 14. 11. 1966 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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252. मूल में ही भूल
प्यारे लोगो!
 जीवमात्र सुख पाने के ख्याल रखते हैं। सुख पाने के ख्याल से ही संसार में उद्यम करते हैं। अत्यन्त परिश्रम करते हैं, थकते हैं, फिर भी उद्यम करते हैं। अत्यन्त परिश्रम करते हैं, थकते हैं, फिर भी उस परिश्रम को छोड़ते नहीं। आप अन्य लोगों को देखिए और अपने को भी। सुख पाने के लिए एक अमीर भी बहुत परिश्रम करके थकते हैं और एक गरीब भी। यदि गरीब शारीरिक परिश्रम बहुत करते हैं तो अमीर शारीरिक परिश्रम तो कम करते हैं, लेकिन मानसिक परिश्रम अधिक करते हैं। शारीरिक वा मानसिक परिश्रम कितना भी किया जाए, लेकिन बिना इच्छा के छूटे-स्वप्न में भी सुख नहीं होता। यह इच्छा छूटे कैसे? एक तो संसार की असारता का ज्ञान हो, दूसरी बात यह है कि ज्ञान निर्णय करता है कि यह संसार असार है, इसमें असली सुख नहीं है। सुख वा स्वाद किसमें हैं? एक टुकड़ा मिश्री का मुख में रखते हुए भी यदि कोई स्वप्न में देखता है कि हम नीम का पत्ता चबाते हैं, तो उसको उस समय मिश्री का स्वाद नहीं मालूम होता। क्यों? लोग चेतन से ही ज्ञान पाते हैं। सोने पर चेतन अन्तर्मुख हो जाता है, बाहर इन्द्रियों में नहीं रहता। इसलिए बाहर का सुख- दुःख नहीं मालूम होता। मन में नीम के पत्ते का स्वाद याद है। इसलिए स्वप्न में उसको तीता लगता है। जगने में भी खट्टा वा मीठा जीभ पर लगा नहीं रहता, लेकिन याद आने से मुँह में पानी आ जाता है।
 असल में वहाँ तो है नहीं। जगने पर चेतन का पसार समूचे शरीर में हो जाता है और जिभ्या पर जो डाला जाता है, उसका स्वाद मालूम होता है। असल में चेतन के कारण स्वाद मालूम होता है। स्वाद वा स्वाद का सुख चेतन में है।
  हमलोगों का शरीर दो चीजों से बना है-जड़ और चेतन। जड़-चेतन के संग का रूप हमलोगों का शरीर है। चेतन के अभाव में ज्ञान नहीं होता। चेतन के रहने पर ज्ञान मालूम होता है। सुख और स्वाद चेतन में है। असली सुख चाहें तो अपनी ओर घूमिए। बहिर्मुख से अन्तर्मुख होइए। किसी से पूछिए-तुम कहाँ हो? तो वह कहेगा कि मैं शरीर के अन्दर हूँ। अपनी ओर घूमने के लिए अन्दर होना होगा। अन्तर में जो आत्मा है, वही राम है। वही ‘व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता’ है। राम सबमें व्यापक है और राम में सब है। इसलिए वह व्यापक और व्याप्य दोनों है। शरीर के अन्दर रहने पर भी वह शरीर से पृथक है। जो राम की ओर जाते हैं, वे राम का सुख पाते हैं। राम को घर नहीं चाहिए, खाना नहीं चाहिए, पहनने के लिए कपड़ा नहीं चाहिए। फिर राम की सेवा कैसे करो? राम की ओर चलो, यही उनकी सेवा है। बाहर संसार के सभी पदार्थ नाशवान हैं, परिवर्तनशील हैं। परमात्मा अनाश है, अपरिवर्तनशील है। वह सबसे पूर्व का है, इतने पूर्व का है कि जिसके पूर्व का कुछ नहीं। जो उसकी ओर होता है, वही ईश्वर का भक्त है। अपनी ओर चलना ईश्वर की ओर चलना है। गंगा की ओर चलना गंगा की भक्ति है। जैसे-जैसे गंगाजी के निकट जाता है, उसकी वायु लगती है।
 वहाँ पहुँचकर जल पीते हैं। वैद्य के कहने से गंगा-सेवन करने गया। गंगाजी की हवा में टहलता है। पानी पीता है। गंगा में भक्ति-भाव से डुबकी लगाता है। यही गंगा-सेवन है। गंगा-सेवन करते- करते रोग छूट जाता है।
 ईश्वर कहाँ है, किस ओर चलोगे? ईश्वर का ज्ञान यहाँ सुनते हो, लेकिन प्रत्यक्ष नहीं होता। जहाँ जाकर, जिस ओर जाकर ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान हो, वहाँ जाओ। इन्द्रियों के संग में जहाँ जाओगे, माया के पसार में रहोगे। अपने को इन्द्रियों से जैसे-जैसे छुड़ाओगे, वैसे-वैसे माया के पसार से छूटते जाओगे। जहाँ माया का पसार खत्म होगा, वहीं ईश्वर-दर्शन होगा। माया के पसार से छूटने के लिए अपने अन्दर चलो। बाहर-बाहर चलने से माया का पसार नहीं छूट सकता। माया का मोटा रूप पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, आकाश है। इतना ही नहीं माया का सूक्ष्म रूप भी है। स्थूल रूप से छूटकर सूक्ष्म रूप में प्रवेश करें, तब सूक्ष्म रूप को देखेंगे। बिना सूक्ष्म के स्थूल नहीं होता और बिना कारण के सूक्ष्म नहीं होता। कारण भी बिना महाकारण के नहीं होता। इन चारो तत्त्वों को पार करे, तब माया को पार कर ईश्वर को पावेगा।
 संसार और शरीर का ऐसा संबन्ध है कि संसार के जिस तल पर रहोगे, शरीर के भी उसी तल पर रहोगे। शरीर के जिस तल को छोड़ोगे, संसार के भी उसी तल को छोड़ोगे। शरीर के सभी तलों को पार करो तो ब्रह्माण्ड के भी सभी तलों को पार कर सकोगे। ‘जो पिण्डे सो ब्रह्माण्डे’। तब ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान होगा। जैसे किसी का रोग छूट जाए तो वह स्वयं जानता है कि मुझे कोई रोग नहीं है। किसी की भूख मिट जाए तो वह स्वयं जानता है कि मुझे भूख नहीं है। उसी तरह पिण्ड से-जड़ से छूटकर चेतन अवस्था को जब प्राप्त करोगे, तब प्रत्यक्ष होगा कि यही ईश्वर है। इसका प्रत्यक्ष ज्ञान होगा। किसी के कहने से नहीं। तब जो सुख होगा, वही असली सुख है, ब्रह्म सुख है। इसको पाने के लिए अन्दर-अन्दर चलना होगा। बाहर-बाहर चलते-चलते कई जन्म भी लग जाय, नहीं पा सकता। जो अन्दर चलता है, वह भक्त होता है। वह योगी होता है। योग के आरम्भ का नाश नहीं होता। इसका विपरीत फल नहीं होता। यह महाभय ये बचाता है। मनुष्य-शरीर से विशेष शरीर कोई नहीं है। मनुष्य के अतिरिक्त दूसरी योनियों में जाना महाभय है। कम समझ के लोग देवता का शरीर चाहते हैं, लेकिन ज्ञानवान कहते हैं-
बड़े भाग मानुष तनु पावा । सुर दुर्लभ सब ग्रथहिं गावा।।
      -गोस्वामी तुलसीदासजी
 भक्ति के बीज का नाश नहीं होता। कभी बदलता नहीं। यह मोक्ष दिलाकर ही छोड़ता है।
 भक्ति बीज पलटै नहीं, जो युग जाय अनंत ।
 ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।।
 भक्ति बीज बिनसै नहीं, आय पड़ै जो चोल ।
 कंचन जौ ं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।
                   -कबीर साहब
 इस बात को जानकर सबको चाहिए कि थोड़ा-थोड़ा उसका अभ्यास नित्य करे। एक-एक अक्षर सीखते-सीखते महाविद्वान होते हैं, उसी तरह थोड़ा-थोड़ा ईश्वर का भजन करते-करते, आवागमन के चक्र से छूटता है। ईश्वर को पाता है। ईश्वर के सुख को पाता है।
 ईश्वर-भक्ति करने के लिए पापों से बचना आवश्यक है। पाँच पापों में झूठ सबसे बड़ा पाप है। कोई भी महापाप कर लो और झूठ बोल दो तो वह ढँक जाता है। जैसे अग्नि राख से ढँक जाती है। इसलिए झूठ सबसे बड़ा पाप है। चोरी मत करो। किसी की कोई चीज है तो उससे माँग कर लो। नहीं दे तो संतोष करो। नशीली चीज का सेवन नहीं करो। व्यभिचार नहीं करो और हिंसा नहीं करो। हिंसा नहीं करने के सिलसिले में मांस- मछली नहीं खाओ। इस तरह पंच पापों से छूटने पर ईश्वर-भजन बनता है। यह तो पारमार्थिक लाभ की बात हुई और संसार-लाभ यह है कि यदि एक गाँव के लोग वा एक थाने के लोग पंच पाप करना छोड़ दें, तो उस गाँव वा उस थाने में चोरी, डकैती, लूट, बदमाशी, आदि खल-उद्यम होंगे? कभी नहीं। लोग खल-उद्यम मिटाना चाहते हैं, लेकिन मिटता नहीं, क्यों? इसलिए कि मूल में ही भूल है। जहाँ धन अधिक है, उस देश की बात को अखबार में पढ़िए तो मालूम होगा कि वहाँ कितना खल-उद्यम है। इसलिए संतों ने जो बतायी है ईश्वर की भक्ति, उस भक्ति को करो। पंच पापों से बचो तो खल-उद्यम नहीं होगा और सभी शान्तिमय सुख को भोगोगे।
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यह प्रवचन पूर्णियाँ जिलान्तर्गत ग्राम-नवाबगंज निवासी डॉ0 नित्यानन्द सिंह के निवास पर दिनांक 2.12.1966 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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253. सत्यनिष्ठ ही ईश्वर-उपासना में अग्रसर हो सकता है
प्यारे लोगो!
 जीवन जन्म से शुरू होता है और मृत्यु में जाकर समाप्त होता है। जन्म होते ही शिशु रोता है। रोना कष्ट की निशानी है। शिशुकाल में कोई बोल नहीं सकता, अपने भाव को प्रकट नहीं कर सकता, परन्तु उसकी रुलाई प्रकट करती है कि उसे दुःख है। जन्म और मृत्युकाल दुःख से भरा रहता है। इस तरह का जीवन हमलोगों ने कितनी बार भोगा है, ठिकाना नहीं।
 जबसे संसार उत्पन्न हुआ है, हमलोग जन्म- मृत्यु के अन्दर रहते हुए चले आ रहे हैं। बुद्धिमान मनुष्य जानते हैं कि जन्म से मृत्यु के अन्दर का समय एक जीवन होता है। मृत्यु के बाद क्या होता है? यह प्रत्यक्ष नहीं है। इसका ज्ञान शास्त्र से होता है। मृत्यु के बाद जीव कर्म का फल भोगने के स्थान में जाता है। इस तरह जीव आवागमन के चक्र में रहता है। जीव जो दुःख भोगता है, उससे छूटने की इच्छा तो रहती है, लेकिन उससे छूटने का उपाय का पता उसे नहीं मिलता। सत्संग तथा सद्ग्रन्थों से इसका पता चलता है। ऐसा यत्न चाहिए कि जिससे जीवन का अन्त हो जाय, फिर संसार में नहीं आया जाय। जिस परलोक में जाकर लौटना पड़े, वह नहीं चाहिए। जिस परलोक में जाने से लौटना नहीं पड़े, वह परलोक बहुत ही विचित्र है। वहाँ इन्द्रिययुक्त शरीर नहीं है। वहाँ पाँच तत्त्व नहीं हैं। पंच विषयों का जो महान स्थान है, वहाँ कुछ नहीं है। वह ऐसा परमतत्त्व है, जो अपने अन्दर इस संसार को विन्दुमात्र बनाकर रखता है। वह परम तत्त्व है-परमात्मा। ऐसा वह एक-ही- एक है। परमात्मा में जन्म मृत्यु-युक्त कष्टवाला स्थान नहीं है। संतलोग कहते हैं, उसकी प्राप्ति जीवनकाल में ही होगी। इसके वास्ते यत्न करना होगा। वह यत्न आप अपने घर में भी रहकर कर सकेंगे। वह यत्न संत सद्गुरु द्वारा जान सकते हैं।
  पहले सत्संग करें, तब सद्गुरु की खोज करें। वे जो बतावें, उनके कहे अनुकूल जीवनभर साधन करते रहना चाहिए। पशु इस बात को नहीं जान सकता। अपने घर में रहकर भी बारम्बार जन्म लेने के कारण को मिटा सकते हैं। ऐसा बहुतों ने किया है। अब भी लोग कर रहे हैं। ईश्वर की कृपा से आपको जैसा घर मिले, उसमें रहिए और साधना कीजिए। आपका शरीर भी ईश्वरकृत घर है। आप अपने से घर बनाकर या पुश्तैनी घर बना हुआ मौजूद है, उसमें रहकर यत्न कर सकते हैं। परन्तु यदि अपने शरीर को घर नहीं मानें, तो फिर यत्न क्या करेंगे? अपने शरीर के अन्दर यत्न करेंगे, तो साधन हो सकता है। यह साधन शरीर रूपी घर में ही होगा। यह शरीररूपी घर अपवित्र भी बहुत है और पवित्र भी बहुत है। संतों ने बताया कि शरीर की अपवित्रता को छोड़ना चाहो तो अपनी वृत्ति को अगल-बगल नहीं रखकर मध्य में रखो। पवित्र बनते-बनते महान बन जाओगे। मध्य के वास्ते संतों ने सुषुम्ना का वर्णन किया है। अगल- बगल यानी इड़ा-पिंगला के मध्य सुषुम्ना का वर्णन किया है। जितना अधिक अपने को सुषुम्ना में रख सकोगे, उतना अधिक पवित्र हो सकोगे। यह मध्य में वृत्ति रखनेवाला होने के लिए जो यत्न है, वह सच्चे गुरु से सीखो।
 कोई एक शब्द जपने को गुरु बताते हैं। गुरु के बताए शब्द-मंत्र को स्थिर होकर जपो। अर्थात् मन की स्थिरता के लिए जपो। लेकिन इतने से ही काम खत्म नहीं होता है। इससे जन्म-मरण के चक्र से नहीं छूटोगे। इससे आगे का काम ध्यान है। मोटा ध्यान मन की एकाग्रता के लिए बहुत अपेक्षित है। लेकिन इसके आगे का भी ध्यान करो। इसके लिए वृत्ति को मध्य में रखो। सर्वसाधारण भी इसे कर सकते हैं। इसके लिए प्राणायाम करना सबके योग्य नहीं है। ध्यानयोग सबके करने योग्य है। ध्यानयोग में किसी प्रकार की आपदा नहीं है। इसमें शीघ्रता का ख्याल रखनेवाला गलती में पड़ जाता है। वह इस लोभ में ऐसा करता है कि शीघ्र ही प्राप्ति होगी।
 मैं कहता हूँ कि मध्यवृत्तिवाले बनो। इसमें मन की एकाग्रता होगी, स्थिरता आएगी। इसमें पूर्ण सिमटाव होगा। पूर्ण सिमटाव एकविन्दुता पर होता है। अपनी वृत्ति को मध्य में रखने का यत्न सच्चे गुरु से सीखो। पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। मन को स्थूल मण्डल में समेटोगे, तो उसकी गति स्थूल से ऊपर सूक्ष्म में हो जाएगी। ईश्वर तक जाने का विचार सत्संग में इसलिए कहा जाता है कि इस ऊर्ध्वगति में ईश्वर की ओर जाने में इन्द्रियों से चेतन छूटता है, माया के आवरणों से छूटने की ओर हो जाता है। तब वहाँ ईश्वर का दर्शन होता है। यह दर्शन मन को नहीं, चेतन आत्मा को होता है। चेतन आत्मा मन-इन्द्रियों से छूटकर अपने आप की दशा में रहकर ईश्वर का दर्शन करेगी। इस बात को खूब मजबूती से अपने हृदय में रख लीजिए कि ईश्वर का दर्शन इन्द्रियों से नहीं होता है, तीन अवस्थाओं-जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति में नहीं होता है। चौथी अवस्था के भी आरम्भ में नहीं, अन्त में होता है। जो इन अवस्थाओं से सिमटता है और जो इन सबों के अन्त में पहुँचता है, उसको ईश्वर का दर्शन होता है। इस मार्ग पर यात्रा करनेवाला कोई थकता नहीं है। इस यात्रा में आनन्द-ही-आनन्द आता है। इसकी साधना का आरम्भ जाग्रत में जो आँख में जीव की बैठक है, वहीं से होता है।
 यह अन्तर्मार्ग बनानेवाला परमात्मा है। यह रास्ता, मिट्टी आदि किसी मसाले से बना हुआ नहीं है। इस रास्ते पर चलनेवाले को अजीब आनन्द आता है। साधक जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, उसका आत्मबल भी बढ़ता जाता है। इसके लिए संतों ने कहा-सिमटी निगाह से देखो, फैली निगाह से नहीं, अपने अन्तर में ज्योति का पसार है। इसके लिए दायीं और बायीं धारों को छोड़कर मध्य में वृत्ति रखो। जो लोग खास तरह से अन्तस्साधन का भेद पाए हैं, सो वह भेद यही है। भेद जानो, लेकिन करो नहीं, तो क्या मालूम होगा?
 जीवन में-यहाँ इस संसार में बिना वस्त्र तथा भोजन के नहीं रह सकते। इसके लिए खेती कीजिए, व्यापार कीजिए, नौकरी कीजिए; लेकिन साधना में आलस्य नहीं कीजिए। परमार्थ की बातों में आलस्य नहीं करें और फल-प्राप्ति के लिए शीघ्रता के फेर में न पड़ें। कहा है-
 माली सींचै सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय ।
 अपने देश में प्रधानता खेती की है। खेती करने से अन्न उपजता है। अन्न का भोजन होता है। भोजन के बिना बिल्कुल अस्त्र-शस्त्र बेकाम। भोजन के बिना जो कुछ द्रव्य है, सब बेकार। इसलिए भोजन का इन्तजाम अपने आप करो।
 खेती करने के लिए, हल चलाने के लिए बैल की आवश्यकता है। इसके लिए गौ माता की सेवा करो। अपने शरीर को पुष्ट बनाने के लिए गौ- दुग्ध चाहिए। गौ-दुग्ध पाने के लिए, खाद पाने के लिए गौ माता की सेवा करो। अनुचित बात है-बूढ़े बैल तथा गाय को बेचना। जो उसे बेचते हैं, गोया उसे मारनेवाले के लिए देते हैं। ऐसा नहीं करना चाहिए। जैसे माता-पिता बूढ़े हैं, उनकी सेवा अवश्य करो। ऐसा नहीं कि उसका बध कर दो। उसी तरह बूढ़े गाय-बैल की सेवा करो। गौ की सेवा से सुख मिलेगा। जीवन भर सुखी रहने के लिए गौ-पालन करो। लेकिन सांसारिक सुख पाकर ईश्वर को भूल जाओ, यह ठीक नहीं। संत कबीर साहब ने कहा-
 सुख के माथे सिल पड़ै, नाम हृदय से जाय ।
 बलिहारी वा दुक्ख की, पल-पल नाम रटाय ।।
 समाज में लोग रहते हैं। अपना अच्छा नमूना देकर अच्छे कर्म में समाज को लगाओ, तो बहुत अच्छा होता है। अच्छे समाज में रहते हुए ईश्वर की उपासना करो। हमलोगों के यहाँ ठाकुरबाड़ी है। उसमें पूजा के समय बाजा बजाते हैं। उसका तात्पर्य है कि उसमें सभी लोग भाग लें। मुसलमान लोग नमाज पढ़ते हैं। ईसाई भी सामूहिक प्रार्थना करते हैं। जितने आस्तिक लोग हैं, सभी सामूहिक प्रार्थना करते हैं। वेद में यही आज्ञा है-‘सभी कोई आपस में मिलकर रहो।’ इसके लिए पंच पापों से बचो। सब पापों में सरदार है झूठ। झूठ छोड़ना और सत्य को ग्रहण करना, यह संतों ने बहुत जोरों से कहा है।
 ईश्वर-उपासना भी सभी मिलकर कीजिए। सभी कोई मिलकर रहिए। सदाचार का पालन कीजिए। साँच को ग्रहण कीजिए। सत्य की बड़ी प्रतिष्ठा है-प्रशंसा है। सत्यनिष्ठ ही ईश्वर की उपासना में अग्रसर हो सकते हैं। इसलिए सदाचार का पालन मजबूती से कीजिए। आलस्य छोड़कर अपना काम करना चाहिए।
 जीवन का अन्त होना अनिवार्य है। ईश्वर की भक्ति करके वैसे लोक में जाना होगा, जहाँ से फिर दुःख-सागर में नहीं गिरेंगे। इसलिए सबों को ईश्वर का भक्त बनना चाहिए।
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यह प्रवचन पूर्णियाँ जिलान्तर्गत ग्राम भवानीपुर राजधाम के सत्संग भवन के प्रांगण में दिनांक 26. 12. 1966 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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254. इन्द्रियग्राह्य पदार्थ को माया कहते हैं
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 इस समय ईश्वर-भक्ति के विषय में कुछ कहूँगा। आपलोग सावधानीपूर्वक सुनें। ईश्वर-भक्ति के वास्ते ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान होना बहुत जरूरी है। सो यदि ईश्वर-स्वरूप का सही ज्ञान नहीं होता है, तो ईश्वर-भक्ति के बदले में माया की भक्ति में ही लोग लगे रह जाते हैं।
 ईश्वर माया के सिरजनहार हैं। माया का अदल-बदल होता है। ईश्वर की मौज से माया का नाश भी हो जाता है। माया ईश्वर की मौज से बनती है। इन्द्रियों के ज्ञान में जो कुछ आवे, उसे माया जानना चाहिए। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामायण में लिखा है-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 इन्द्रियों को जो प्रत्यक्ष है और मन जहाँ तक जाता है, सबको माया-ही-माया जानो। अगर कोई इन्द्रिय से जानने योग्य चीज है, उसे यदि ईश्वर मानेंगे तो वह ईश्वर नहीं होगी, माया ही होगी। इन्द्रिय-ग्राह्य पदार्थ को माया कहते हैं।
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
 अर्थात्-‘उस परमात्मा को, जो परे-से-परे हैं, देखने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है, सारे संशयों का नाश हो जाता है और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।’ सबके अन्दर दो वस्तुएँ हैं-एक ज्ञानमय तथा दूसरा अज्ञानमय। इन दोनों का मेल हो गया है। लेकिन दोनों दो चीजें हैं। एक है जड़ शरीर और दूसरा है चेतन आत्मा। चेतन आत्मा ज्ञानमय है और जड़ शरीर अज्ञानमय है। ईश्वर के दर्शन में जड़-चेतन का यह मेल नहीं रह पाता है। सारे संशयों का नाश हो जाता है। सारे कर्मफलों का बन्धन टूट जाता है। यदि ऐसा हो, तो जानो कि ईश्वर का दर्शन हुआ है। सारे संशयों का नाश और सभी कर्मों के बन्धनों से छूट जाना कब होगा? जब ईश्वर का दर्शन होगा।
 आँख से देखने में जो आवे, वह रूप है। कितना ही सुन्दर वा दिव्यरूप हो, वह माया-ही- माया है। भगवान राम, भगवान कृष्ण, शक्तिमाता, भगवान शिव को लोग ईश्वर कहते हैं। इनके रूपों को, जब ये सब प्रकट थे, लोगों ने देखा, स्पर्श भी किया। महाभारत आदि ग्रन्थों को पढ़कर देखिए। अपने को भी आप समझिये। अपने शरीर को आप देख लेते हैं, लेकिन अपने आप जो जीवात्मा है, उसको नहीं देख पाते हैं। जीवात्मा ईश्वर का अंश है। ईश्वर और जीवात्मा तत्त्वतः एक ही तत्त्व हैं। शरीर को भले ही लोग देखते हैं, लेकिन शरीर निवासी जीवात्मा को कोई भी नहीं देख पाता।
 सब इन्द्रियज्ञान से परमात्मा परे है। आप अपने तईं भी इन्द्रियज्ञान से ऊपर हैं। इन्द्रियज्ञान में जो कुछ आनेवाला है, सब माया-ही-माया है। इस बात को नहीं जाननेवाले औनाते फिरते हैं। सब कोई इसको जान लीजिए कि अपने तईं से जो जाना जाए, वह ईश्वर है। जो इन्द्रियों से जाना जाय, वह ईश्वर नहीं है। अद्भुतता के कारण लोग रूप को ईश्वर मानने लगते हैं। रूप को ईश्वर माननेवाले का संशय दूर नहीं होता है। अर्जुन को संशय था कि महाभारत के युद्ध में लड़ना चाहिए या नहीं। अर्जुन को भगवान कृष्ण का दर्शन था, लेकिन संशय दूर नहीं हुआ। भगवान कृष्ण शरीर में कैसे आए, सो भी लिखा है श्रीमद्भागवत में। भगवान वसुदेवजी की देह में आए। फिर देवकीजी की देह में आए। भगवान के शरीर को तो देखा, लेकिन शरीर को धारण करनेवाले को किसी ने नहीं देखा। भगवान के निज स्वरूप का दर्शन उनके शरीर के दर्शन से नहीं होता। शरीर-दर्शन से परे उनके आत्म-स्वरूप का दर्शन है। यह दर्शन कोई अपने आत्मज्ञान में रहकर ही पा सकता है।
 जबतक भक्त इन्द्रियज्ञान में रहता है, तबतक ईश्वर-दर्शन नहीं पाता है। जैसे दूध और मक्खन मथने पर अलग-अलग हो जाते हैं, उसी प्रकार जो अपनी चेतन आत्मा को जड़ से अलग करके अपने तईं में रहकर अपने को चीन्हेंगे, तभी परमात्मा को भी चीन्हेंगे। आँख नहीं, तब अपने तईं को चीन्हें। जैसे आँख से आँख को देखते हैं आइने के माध्यम से, उसी तरह साधन-रूपी आइने के द्वारा अपने तईं से अपने स्वरूप को देख सकते हैं।
 भगवान के रूप को तथा रूप में रहनेवाले को फुटाए बिना भक्त का काम नहीं चल सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन आया है। पाँच स्थूल तत्त्व (मिट्टी, जल, अग्नि, हवा और आकाश), पाँच सूक्ष्म तत्त्व (गन्ध, रूप, रस, स्पर्श और शब्द), अहंकार, बुद्धि, प्रकृति, दशेन्द्रियाँ (हाथ, पैर, मुँह, गुदा और लिंग-ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ और आँख, कान, नाक, जिह्ना और त्वचा-ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ), मन, चैतन्य, संघात (कहे गए का संघ रूप), धृति (धारण करने की शक्ति) और इनके विकार इच्छा, द्वेष, सुख और दुःख; इन इकतीस के समूह को क्षेत्र कहते हैं। इस क्षे़त्र को जाननेवाले की जड़-चेतन की गाँठ खुल जाएगी। यदि ऐसा नहीं हुआ, तब जो दर्शन हुआ, वह ईश्वर का दर्शन नहीं हुआ। इस दर्शन से माया की भक्ति हुई।
 कोई भी लोक ऐसा नहीं, जहाँ जाकर माया से छूटे। ऐसी भक्ति हो कि माया के सब आवरणों से छूट जाए। इसके लिए ईश्वर-स्वरूप को जानो। बिना ईश्वर-स्वरूप को जाने भक्ति करनी उस मुसाफिर के समान है, जो चला जा रहा है, लेकिन उसको पता नहीं कि कहाँ जाना है। आखिर वह घूमते ही रहेगा। इसलिए पहले ईश्वर-स्वरूप को जानना चाहिए। भक्ति का वर्णन संत लोगों ने अपनी-अपनी वाणी में विलक्षण ढंग से किया है। विनय-पत्रिका में गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है-
रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई ।।
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।।
 यह भक्ति परा भक्ति है। यह अन्त तक पहुँचाने की भक्ति है। एक वह भक्ति है, जो मन में रहता है कि फलाँने-फलाँने रूप में दर्शन दिया। किसी रूप के दर्शन से माया से छुट्टी नहीं होती है। मनु-शतरूपा को जिस रूप का दर्शन हुआ, उस रूप को देखकर उनके ऐसा पुत्र पाने का वरदान माँगा। जब त्रेतायुग में राजा दशरथ के रूप में आए तो साधारण राजा की तरह शिकार का चस्का उनको लग गया। दिन-रात शिकार करते थे, वे थकते नहीं। संयोग से एक रात को शिकार में गए कि हाथी को मारेंंगे। श्रवण कुमार अपने अन्धे माता-पिता को पानी पिलाने के लिए नदी से पानी लाने गए। कमण्डल में पानी भरते समय आवाज हुई। राजा दशरथजी को हुआ कि हाथी पानी पी रहा है, उन्होंने शब्दबेधी वाण चला दिया। वाण श्रवण को लगा। वह कराहने लगा। दशरथजी दौड़कर उनके पास गए। देखा कि हाथी नहीं, यह तो आदमी है। श्रवण ने कहा-‘मुझे क्या देखते हैं, मेरे माता-पिता प्यास से व्याकुल हैं, आप उनको पानी पिला दीजिए।’ दशरथजी पानी लेकर श्रवण के माता-पिता के पास पहुँचे और पानी पीने के लिए देने लगे। वे लोग श्रवण की बहुत देर से आशा देख रहे थे। उनलोगों ने पूछा-‘बेटा! बहुत देर हो गयी, पानी लाने में?’ दशरथजी कुछ बोले नहीं। तब उनलोगों ने कहा-‘यदि बोलोगे नहीं, तो हमलोग पानी नहीं पीयेंगे।’ लाचार राजा दशरथ को कहना पड़ा कि ‘मैं आपका पुत्र नहीं हूँ। आपका पुत्र धोखे में मेरे वाण से मारा गया। मैं राजा दशरथ हूँ।’ उनलोगों ने कहा-‘जाओ, जिस तरह हमलोग अपने पुत्र के विरह में मर रहे हैं, उसी तरह तुम भी पुत्र-वियोग के शोक में मरोगे।’ यह कथा प्रसिद्ध है।
 लोगों को विचारना चाहिए कि जिस दर्शन से कर्म के बन्धन के अन्दर नहीं आना पड़े और फाजिल चस्का नहीं हो, यह रूप-दर्शन में नहीं होगा। यह होगा परमात्मा के दर्शन से। शरीर के अन्दर चेतन आत्मा है। चेतन आत्मा परमात्मा का अंश है, अभिन्न अंश है। सबके अन्दर अन्धकार , प्रकाश और शब्द के आवरण हैं। इन आवरणों से अपने को मुक्त करो। आवरणों के बन्धन से मुक्त करने का ढंग यह है कि अपने मन को एकाग्र करो। मन की एकाग्रता में पूर्ण सिमटाव होगा। जब पूर्ण सिमटाव होगा, तो मन की ऊर्ध्वगति होगी। यही हिकमत है। मन की एकाग्रता की जानकारी के लिए ही इस तरह का सत्संग है। सत्संग द्वारा जानने में आवेगा कि मन की एकाग्रता क्या है?
 सरलतम यत्न जो है, सो भक्ति है। भक्ति में प्रेम चाहिए। प्रेम किससे चाहिए? परमात्मा में प्रेम करो। सत्संग के वचनों को सुनकर भी विश्वास होता है। हमारे यहाँ मन्दिरों में दर्शनार्थ जाते हैं। भगवान को कभी देखा नहीं है, लेकिन सुनकर विश्वास हो गया है। इतना भी विश्वास होता है , तो उसमें मन उस ओर होता है। इस पर विश्वास होना चाहिए।
 महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया तो युधिष्ठिर ने कहा-‘सब लोग मारे गए। अब राज्य किसके लिए किया जाए?’ वे बहुत दुःखी हुए। व्यासजी ने सोचा इसका मन नहीं फिरेगा। इसलिए उन्होंने युधिष्ठिर से कहा-‘तू यज्ञ कर।’ युधिष्ठिर ने कहा-‘महाराज! युद्ध में सब धन समाप्त हो गया। यज्ञ कैसे किया जाए?’
 व्यासजी ने कहा-‘पहाड़ मेें बहुत धन गड़ा हुआ है।’ युधिष्ठिरजी ने कहा-‘वह धन कैसे मिलेगा?’ तो व्यासजी ने उसका अनुष्ठान बताया। युधिष्ठिरजी ने अनुष्ठान किया और उनको धन प्राप्त हुआ। इस कथा से यह बोध होता है कि व्यासजी के वचन पर युधिष्ठिरजी ने विश्वास किया तो धन मिला। इसलिए संतों के वचनों पर भी विश्वास होना चाहिए। परमात्म-रूप धन सारे प्रकृति मण्डल में व्याप्त है और उससे बाहर भी है, लेकिन प्राप्त नहीं होता है। इसके लिए यह ज्ञान जानो कि परमात्मा इन्द्रियों से जानने योग्य नहीं है।
 जब जाग्रत से स्वप्न में और स्वप्न से सुषुप्ति में जाते हैं तो अपने बाहर के ज्ञान से छूटते हैं। उसी तरह इन्द्रियों के ज्ञान से छूटने के लिए अपने अन्दर जाओ अर्थात् अन्तस्साधना करो। इसकी विधि जानने के लिए सच्चे गुरु के पास जाओ। लोग कहते हैं, जिसको देखा नहीं, उसमें प्रेम कैसे होगा? ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान इसीलिए होना चाहिए। जानना चाहिए कि ईश्वर की प्राप्ति में मुक्ति होगी और सदा सुख में रहेंगे। यह जानने पर ईश्वर में प्रेम होता है।
 पहले यह जानना है कि इन्द्रियों के ज्ञान से अपने को ऊपर उठाओ। पहले मन को ऊपर उठाओ। मन को पूर्ण रूप से समेटो। पूर्ण सिमटाव एकविन्दुता में होती है। परिमाणशून्य विन्दु बाहर में बनने योग्य नहीं है, केवल वह ज्ञान में आता है। आपकी दृष्टि बहुत सूक्ष्म है। लिखते समय जहाँ आप कलम रखते हैं, वहाँ र्चिं हो जाता है। उसी तरह से आप जहाँ दृष्टि ठहराएँगे, वहाँ विन्दु होगा। उस विन्दु पर पूर्ण सिमटाव होता है। वह ज्योर्तिमय विन्दु होगा। उपनिषत्कार ने बड़ा अच्छा कहा है-
   तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम् ।
      -तेजोविन्दूपनिषद्, अध्याय 1
 अर्थात् हृदयस्थित विश्वात्म तेजस्-स्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है। चाहिए कि इसके भेद को जानें। सफरी सबसे छोटी मछली होती है। वह नदी में भाठे से सिरे की ओर आसानी से चली जाती है, लेकिन बड़ी लम्बी-चौड़ी देहवाला हाथी भाठे से सिरे की ओर नहीं जा सकता। आपके शरीर में चेतन धार ऊपर से नीचे की ओर आती है, उसको जो समेटता है, वही योगी होता है। उसी को ईश्वर का दर्शन होता है। जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं को छोड़कर चौथी अवस्था में रहेगा और उसका भी अन्त जो करेगा, वह योगी हरिपद को जानेगा। वह शोक, मोह, भय और हर्ष दिन-रात आदि से परे हो जाएगा। जिसको ऐसा नहीं, वह इन्द्रियों से नहीं छूटेगा। वह इन्द्रियों को काबू में कैसे रख सकता है? बाहर इन्द्रियों के साथ-साथ मन की धारें भी रहती हैं और मन की धारों के साथ-साथ चेतन की धारें रहती हैं। जैसे आप अपने दोनों हाथों से किसी चीज को जोर से पकड़ते हैं तो आपके शरीर की सारी शक्ति हाथ पर आ जाती है। उसी तरह दृष्टि की धारें भी जब एक विन्दु पर स्थिर होती है, तभी इन्द्रियों से चेतन धारें सिमटकर एक हो जाती हैं। यह तो आरम्भ हुआ ऊपर उठने के लिए। इसमें योग्यता प्राप्त करने के लिए पहले मानस जप करना चाहिए। जप करते-करते मूर्ति-ध्यान करने की क्षमता आती है। माया के सारे आवरणों को टपने के लिए सुरत-शब्द- योग की साधना है। इसी को परा भक्ति कहते हैं। संत सुन्दरदासजी ने कहा है-
 श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै ।
 रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै।।
 नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै।
 अंग बिना मिलि संग, बहुत आनंद बढ़ावै।।
 बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिये रहै।
 मिलि परमातम सो आतमा, परा भक्ति सुन्दर कहै।।
यहीं भक्ति का अंत है। अन्त तक की भक्ति में मुक्ति है। अन्य भक्ति में मुक्ति बाकी रह जाती है।
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यह प्रवचन पूर्णियाँ जिलान्तर्गत ग्राम भवानीपुर राजधाम के सत्संग भवन के प्रांगण में दिनांक 26. 12. 1966 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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ABP-92. परलोक दो तरह के हैं [01.12.1966]