250. दमशीलता कैसे आवेगी?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
इस समय मैं चाहता हूँ कि ईश्वर-भक्ति के विषय में ज्यादा खुलासा करके आपके सामने कहूँ। लोग समझते हैं कि परमार्थ साधनाओं में वा मोक्ष हेतु जो साधन है, उसमें ईश्वर की भक्ति बहुत सरल और सुगम है। मैं भी ऐसा कहता हूँ, परन्तु भक्ति के स्थूल और सूक्ष्म; दोनों भेदों को जानना चाहिए। लोग स्थूल भक्ति का ही अधिक ज्ञान रखते हैं और समझते हैं कि स्थूल भक्ति से ही भक्ति का जो परिणाम होना चाहिए, सो हो जाएगा। परिणाम क्या होता है? गो0 तुलसीदासजी ने कहा है-
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई ।कोटि भाँति कोउ करइ उपाई ।।
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई । रहि न सकइ हरि भगति विहाई ।।
जैसे बिना मिट्टी के जल नहीं रह सकता चाहे कोई करोड़ों उपाय करे, हे गरुड़जी! उसी तरह मोक्ष सुख हरि-भक्ति को छोड़कर अलग नहीं रह सकता। जहाँ हरि-भक्ति है, वहाँ मोक्ष है। भक्ति साधनाओं का परिणाम है कि मोक्ष मिल जाय। मोक्ष सबके लिए कल्याणकारी है। मोक्ष कहते हैं छुटकारा को। शरीर बन्धन है, संसार बन्धन है। दोनों बन्धनों से छूटकारा हो। इन दोनों बन्धनों से छूटने के लिए भक्ति का साधन सरल भी है और पूर्ण भी है।
एक व्याधे से एक मुनि ने कहा था कि तू दूर रह। व्याधे ने पूछा-‘तुम भी मनुष्य हो, मैं भी मनुष्य हूँ, फिर दूर रहने क्यों कहते हो?’ मुनि ने कहा-‘तेरे शरीर से हिंसा की गन्ध आती है।’ व्याधे ने अलग बैठकर कहा कि मुझे बताओ कि मैं शुद्ध कैसे होऊँगा? ऐसा साधन बताओ, जो सरल हो और पूर्ण फलप्रद भी हो। मुनि ने बता दिया कि शम-दम करो। व्याधे ने कुछ दिनों तक शम-दम का साधन किया। उसका ज्ञान ठीक हो गया। और जो प्रत्यक्ष होना चाहिए, वह हो गया। फिर जब वह मुनि के पास गया, तो मुनि के निकट में आदर से बैठाया और कहा कि तुम्हारी मलिनता छूट गई। बिना शम-दम के भक्ति नहीं होती। बिना मनोनिग्रह के काम, क्रोधादि विकार नहीं छूटते।
कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करै कोइ सूरमा, जाति बरन कुल खोय ।।
-संत कबीर साहब
कामी, क्रोधी, लालची-मनोनिग्रह नहीं होने पर होता है। मनोनिग्रह होने पर ये विकार नहीं होते। भक्ति के साधन को सुनिए। भक्ति कहते हैं सेवा को। किसकी सेवा? ईश्वर की। किसी की कमी की पूर्ति करना उसकी सेवा है। रोगी है, औषधि दो। भूखा है, भोजन दो। इस प्रकार परहितार्थ कर्म सेवा है। अपने देश के हित में सेवा, सारे संसार के हित में सेवा, ये सभी सेवाएँ यानी भक्ति हैं। लेकिन अपने घर में आग लगे और पड़ोसी के घर में भी आग लगे, तो मनुष्य पहले अपने घर की आग बुझाता है, यह स्वाभाविक है। पहले अपने देश की सेवा करो, तब दूसरे देश की। आवश्यकता को पूरा करो, यही सेवा है। ईश्वर को क्या आवश्यकता है?
एक मुनि बालक जंगल में रहते थे। एक राजा उसी जंगल में शिकार खेलने गया। उसने मुनि बालक के रूप को देखकर उसे अपने साथ चलने कहा। और कहा कि तुम मेरे साथ चलो, तो मैं तुम्हें सब प्रकार की सुविधा दूँगा। मुनि बालक ने पूछा-तुम मुझे किस प्रकार की सुख-सुविधा दोगे? राजा ने कहा-जो मैं खाऊँगा, वह तुमको खिलाऊँगा। जैसा वस्त्र मैं पहनूँगा, वैसा तुम्हें भी पहनाऊँगा। जैसे महल में मैं रहूँगा, वैसे महल में तुमको भी रखूँगा। मैं सोता हूँ और पहरेदार मेरा पहरा करता है, उसी प्रकार तुम्हारे सोने पर पहरेदार तुम्हारा भी पहरा करेगा। मुनि बालक ने कहा-ऐसे राजा की मुझे आवश्यकता नहीं। तुम नहीं खाओ और मुझे खिलाओ, तुम वस्त्र नहीं पहनो, किन्तु मुझे पहनाओ। मैं सोऊँगा, तुम जगकर मेरा पहरा करो। इन शर्तों को मंजूर करो, तो मैं तुम्हारे साथ चलूँ। राजा ने कहा-ऐसा नहीं हो सकता। मुनि बालक ने कहा-मेरा राजा मुझे खिलाता है, लेकिन स्वयं नहीं खाता है। मुझे कपड़े पहनाता है, किन्तु वह स्वयं कपड़ा नहीं पहनता। मैं सोता हूँ और वह जगकर मेरा पहरा करता है। ऐसे राजा को छोड़कर तुम्हारे साथ नहीं जा सकता। तुम तो भूख-प्यास के अधीन हो, माया के वश में हो। तुम मुझको क्या सुख दे सकते हो? राजा ने समझा-यह साधारण बालक नहीं है। मुनि बालक जानकर प्रणाम करके राजा चला गया।
परमात्मा को कुछ आवश्यकता नहीं, कैसे भक्ति करोगे? लोग भक्ति करते हैं, जो कुछ वे जानते हैं। नहीं करने से कुछ करना अच्छा है। लेेकिन भक्ति का साधन क्या है, समझ लीजिए।
रामहिं केवल प्रेम पियारा । जानि लेहु जो जाननिहारा ।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
केवल प्रीति जोड़ो, प्रीति जोड़ने की विधि जानो।
भाव अतिशय विशद प्रवर नैवेद्य,
शुभ श्रीरमण परम संतोषकारी ।
प्रेम ताम्बुल गत शूल संशय सकल,
विपुल भव वासना बीजहारी ।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
अगर ईश्वर के नाम पर रोते रहो, तब भी यह असली विधि भक्ति की नहीं है। बिना रोए भी ईश्वर की भक्ति होती है। रोओ मत। रोना बुरा नहीं है, लेकिन ईश्वर की ओर तुम्हारी वृत्ति होनी चाहिए। यहाँ ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए। ईश्वर-स्वरूप ऐसा है कि इन्द्रिय-ज्ञान से बाहर है। आँख से रोने से क्या होगा? मन की पहुँच से बाहर है, बुद्धि से परे है। तब क्या करोगे? शरीर के बाहर और भीतर मायिक तत्त्वों को छोड़कर जो है, वही तुम हो। ऐसा विचार जानकर अपने को जोड़ो। दूध के साथ घी रहता है और यत्न से निकाल लिया जाता है, इसी तरह मन के साथ चेतन आत्मा है। फिर दोनों में भिन्नता भी हो जाती है। किसी धातु के तार को अधिक-से-अधिक महीन करना चाहते हैं, तो महीन-से-महीन छिद्र होकर खींचिए। मन की मोटाई के साथ चेतन आत्मा मोटी-सी हो गई है। इसको वहाँ ले जाइए कि मन की मोटाई नीचे रह जाए। सुनकर कठिन मालूम होता है, लेकिन इसके साधन में शरीर को कष्ट नहीं होता, संसार का रोजगार नहीं छूटता। नित्य थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करना है। नित्य साधन करो। चित्त एकाग्र करो। चेतन आत्मा का स्वरूप मन से बहुत सूक्ष्म है।
एकाग्रता के कारण सूक्ष्मता आएगी, पसार छूट जाएगा। पूर्ण सिमटाव पार कर एक मण्डल से दूसरे मण्डल में पहुँचा जाएगा। सिमटी हुई चीज ऊपर बढ़ती है, यह स्वाभाविक है। बिछावन फैले हैं, इनको समेटिए, ऊपर को जाएँगे। इसी तरह सिमटाव के कारण चेतन आत्मा की ऊर्ध्वगति होती है। इसके लिए प्रत्यक्ष अवलम्ब मिलता है, वह अवलम्ब मन से बनाना नहीं पड़ता, हई है। स्वाभाविक आपके अन्दर हई है। चेतन आत्मा के साथ बुद्धि ऊपर नहीं जा सकती, नीचे रह जाती है, और चेतन आत्मा आगे बढ़ती है। इस तरह ईश्वर की ओर होना होता है। जो इस तरह ईश्वर की ओर होता है, वह ईश्वर की ओर अपने को जोड़ता है। यह स्थूल भक्ति नहीं, सूक्ष्म है। जो इस भक्ति में नहीं आता, वह भक्ति को समाप्त नहीं करता। जो समाप्त नहीं करता, वह ईश्वर की भक्ति करके ईश्वर को नहीं पा सकता। ध्यानयोग से इसका साधन सुगम-सुगम से होता है। सुनने में इसकी सूक्ष्मता का ज्ञान होता है। विचारवान समझते हैं कि इसका साधन भी सूक्ष्म होगा। संतों ने इसका प्रचार किया। बहुत लोगों को ज्ञान हुआ। समय की प्रबलता से वह ज्ञान धीरे-धीरे विलीन हो गया। लोग केवल मोटी-मोटी बातों में रह गए।
मैं यह नहीं कहता कि मोटी भक्ति नहीं करो। सत्संग मोटी भक्ति है। मैं पूजा-पाठ करना मना नहीं करता, लेकिन केवल इसी में लगे नहीं रहो, आगे बढ़ो। मैं नहीं कहता हूँ कि शैव बनो, तब भक्ति होगी वा वैष्णव होओ, तब भक्ति होगी। वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य, सौर, दरियापंथी, नानकपंथी, कबीरपंथी आदि सभी कर सकते हैं। सभी संतों का विचार एक कर लो, यही संतमत है। मैं सभी सम्प्रदायों का आदर करता हूँ, किसी की निन्दा नहीं करता। किसी मत में गणेश, किसी मत में सूर्य, किसी मत में विष्णु आदि इष्ट होते हैं। कबीरपंथी, नानकपंथी सबमें स्थूल इष्ट की उपासना आरम्भ में होती है। बिना स्थूल भक्ति के सूक्ष्म भक्ति में नहीं जा सकते।
गीता में पढ़िये-क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ में अभेद नहीं है। उपनिषद् में आया है कि ब्रह्म के स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर होते हैं। किसी भी क्षेत्र के क्षेत्रज्ञ-आत्मतत्त्व को पहचाननेवाला परमात्मा को पहचानता है। सभी प्राणियों में वह उसको देखता है। जो यह जानता है, उसको किसी मत-सम्प्रदाय से भेद-भाव नहीं है। यह स्थूल भक्ति नहीं, सूक्ष्म है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने विनय-पत्रिका में कहा है-
रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई ।।
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।।
किसी कला में कुशल कोई कैसे होता है? पहले एक-एक अक्षर पर आपने कितनी बार हाथ घिसा? बारम्बार अभ्यास करते-करते अक्षर को सीखा, उसी प्रकार भक्ति में बारम्बार अभ्यास करो, कुशल होओगे। तुम्हारी वृत्ति वा सुरत वा मन सहित चेतनधार फैली नहीं रहे, सिमटी हो, तब अवलम्ब मिलता है। चेतनधार जो ईश्वर की ओर से इस शरीर में आती है, उसको मन से पकड़ा जाता है। उस धारा को दो रूपों में पाते हैं- एक ज्योतिर्मय धार और दूसरा शब्दमय धार। इसलिए संतों के ग्रन्थों और उपनिषदों में ज्योति और शब्द की बड़ी महिमा है। इन दोनों का जो अभ्यास करता है, वह ईश्वर को पाता है, दूसरा नहीं। इसके लिए ध्यानाभ्यास अत्यन्त अपेक्षित है। शरीर मरता है, हम रहते हैं। कबीर साहब ने कहा है-
सुन काया बौरी, चलत प्राण काहे रोई ।
कहै प्राण सुन काया बौरी, मोर तोर संग न होई ।।
तोहि अस मित्र बहुत हम त्यागा, संग न लीन्हा कोई।।
हमारे अन्दर मन है और सूक्ष्म, कारण शरीर हैं, ये नहीं मरते। इन्हीं के कारण से हमको पुनः- पुनः जन्म होता है। सूक्ष्म भक्ति में सफरी बनो। सफरी सबसे छोटी मछली होती है। वह जल प्रवाह की उलटी धारा पर चलती है। सुरत को उलटी धारा पर चलाओ। तुम न तो सफरी बनते हो, न चींटी। मतलब यह कि तुम फैलाव में हो। अपना सिमटाव नहीं करते हो। जड़धार बालू है, चेतनधार चीनी है। जड़धार से चेतनधार को फुटा लो। जो अपने को सफरी और चींटी बनाता है, वह योगी होता है, वह अपने अन्दर सारे संसार को देखता है, नींद छोड़कर सो जाता है। वह स्वप्न और गहरी नींद, दो में से किसी में नहीं रहता। वह तीन अवस्थाओें को छोड़कर चौथी अवस्था में रहता है।
तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त ।
मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप अनंत ।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
जागने की अवस्था में आप स्थूल शरीर और स्थूल संसार में रहते हैं। स्वप्न में मानसिक संसार है। सुषुप्ति में न अपने शरीर का ज्ञान है, न संसार का। स्थूल शरीर में रहकर आप स्थूल संसार में सैर करते हैं। सूक्ष्म शरीर में रहिए तो सूक्ष्म जगत में विचरण करेंगे। इसी तरह कारण, महाकारण के लिए है। वह द्वैत से अत्यन्तकर छूटा हुआ हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं । लोग जपउम ंदक ेचंबम (टाइम एण्ड स्पेश) बोलते हैं। जहाँ तक समय और स्थान है, वहाँ तक माया का आच्छादन है। जो समय और स्थान को पार कर गया, वह माया को पार कर गया-वह स्वतंत्र है। तब ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई’ हो जाता है। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी ने नवधा भक्ति का वर्णन किया है-
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।
चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मो तें सन्त अधिक करि लेखा।।
आठवँ यथा लाभ सन्तोषा। सपनहुँ नहिं देखइ पर दोषा।।
नवम सरल सब सन छल हीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।।
पाँच भक्ति तक लोग सुगमता से समझ जाते हैं। करने में भी-गुरु कोई मंत्र बता देंगे, तो करने लगेंगे। नवधा भक्ति में लोगों को मालूम होता है कि मूर्ति-ध्यान नहीं है। लेकिन ‘गुरु पद पंकज सेवा’ में मूर्ति-ध्यान निहित है। कबीर साहब ने कहा है-
जौं गुरु बसें बनारसी, शिष्य समुन्दर तीर ।
एक पलक बिसरै नहीं, जौं गुन होय शरीर ।।
तथा, गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है -
आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा ।
जो गुरु आज्ञा करें, करो।
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
इसका केवल अर्थ लोग कर लेते हैं। बहुत से कर्मों से विरत होने तथा दमशीलता की ओर खूब ध्यान देना, यह कैसे होता है और सज्जनों के धर्म में चलनेवाला कैसा होता है? झूठ बोलनेवाला सज्जन नहीं होता, चोरी करनेवाला सज्जन नहीं होता, नशा खानेवाला सज्जन नहीं होता, व्यभिचार करनेवाला सज्जन नहीं होता, हिंसा करनेवाला सज्जन नहीं होता।
महापतित को? हिंसाचारी। धन्य कवन? जो पर उपकारी ।
हिंसाचार से बचो। चाहे आपको अप्रिय मालूम हो, लेकिन सत्य है कि जो मांस-मछली खाते हैं, वे हिंसाचारी में हैं। मनु महाराज ने अष्टघातकों का वर्णन किया है। यह मेरी उक्ति नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि मैं मारने नहीं जाता हूँ। लेकिन खाने से हिंसा में आपका हिस्सा हो जाता है। यह हिस्सा भी नहीं हो, तो अच्छा है। भगवान बुद्ध का यही पंचशील पालन है कि पंच पापों को मत करो। यही उपदेश कबीर साहब और नानक साहब का है।
आपको आज स्वराज्य प्राप्त है, लेकिन आप सुखी हैं वा दुःखी, स्वयं सोचिए। मैं काँग्रेस का कभी चौअन्नियाँ मेम्बर नहीं बना, लेकिन जो आवश्यकता हुई, मैंने सेवा की। कई बार मुझसे नोटिस लिखवा लिया गया कि काँग्रेस को लोग ‘वोट’ दें। लोगों पर इसका प्रभाव अवश्य पड़ा होगा। लोगों ने ‘मतदान’ दिए। मेरे पास अधिक धन तो नहीं, फिर भी जो था, आवश्यकता जानने पर उससे मैंने उसकी सेवा की। मैं भी आशा करता था कि देश सुखी होगा। लेकिन सत्रह वर्ष हो गए, स्वराज्य पाकर क्या हुआ? कितना सुख है, देखिए। लेकिन यदि इन पंच पापों को छोड़ दीजिए, तो देखिए सुख बरसेगा।
लोग मेरे लिए कहते हैं कि ‘वे देश का क्या करते हैं? कहते हैं-ध्यान करो, ध्यान करो।’ मैं कहता हूँ कि वे समझते नहीं। मैं देश की जड़ को मजबूत करता हूँ। 1909 ई0 में हमारे गुरु महाराज कहते थे कि लोग हिंसात्मक कार्य करते हैं, यह उल्टा काम है। पहले आध्यात्मिकता रखो, फिर सदाचारिता और तब सामाजिक नीति, फिर राजनीति। जिस देश में लोगों में आध्यात्मिकता अधिक होगी, वहाँ के लोग अधिक सदाचारी होंगे, जहाँ के लोग सदाचारी होंगे, वहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी और जहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी, वहाँ की राजनीति कभी बुरी हो नहीं सकती।
पंच पापों को छोड़ दीजिए, चौरी-डकैती आदि उपद्रव नहीं होंगे। यदि आप मेरी बात नहीं मानें, तो मैं कोई सजा नहीं दे सकता, लेकिन आप ईश्वरीय सजा से नहीं बचेंगे, इतनी बातें मैंने ‘सज्जन धर्म’ पर कहीं। अब दमशीलता के संबंध में सोचिए। यह दमशीलता कैसे आवेगी? बहुतों को ख्याल है कि विचार करके मन को रोकेंगे, लेकिन केवल विचार ही से मन को नहीं रोक सकिएगा। पहले यह जानिए कि आपका मन विषयों में कैसे चलता है, मन कैसे मलिन होता है? सब इन्द्रियों के साथ- साथ मन की धारें लगी हुई हैं, जाग्रत में सब इन्द्रियों में धारें लगी रहती हैं और स्वप्न में वे धारें अन्तर्मुखी हो जाती हैं। तब मन बाहर के विषयों में नहीं रहता। मन के साथ चेतन धार है, तब विषयों की ओर मन रहता है-मन विषय-लोलुप होता है।
सूक्ष्म मार्ग पर चलने का पहला साधन विन्दु ध्यान है। इसलिए ध्यान-अभ्यास करो, मन का सिमटाव होगा, बाह्य इन्द्रियों का मेल छूटेगा, पहले स्थूल इन्द्रियों से छूटकर थोड़ा ठहराव होगा, उस थोड़े-से-थोड़े ठहराव में जो-जो अनुभव होगा, उन अनुभवों में ऐसा सुख होगा, जैसा सुख मन ने पहले कभी नहीं पाया। उस सुख के लालच में फँसकर भक्त-अभ्यासी अधिक-अधिक साधन कर अधिक-अधिक सुख पाता है और इन्द्रिय-सुख से उपराम हो जाता है।
जाग्र्रत और स्वप्न के बीच में तन्द्रावस्था होती है। हाथ-पैर से शक्ति अन्दर की ओर सिमटती है, उस समय कष्ट नहीं मालूम होता, चैन मालूम होता है। वह ऐसा सुख है, जो किसी इन्द्रिय- विलास में सुख नहीं। अन्तर्मुख होने से क्या होता है, यह थोड़ा-सा नमूना है। अन्तर्मुख होओ, तो अपने ही सुख मिलेगा। यह छठी भक्ति है। इसको भक्ति इसलिए कहते हैं कि विषय से छूटकर निर्विषय परमात्मा की ओर हुआ जाता है। इसलिए कबीर साहब ने कहा-‘भक्ति का मारग झीना रे।’ और नानकदेवजी ने कहा-‘भगता की चाल निराली।’ उपनिषद् में कहा-‘क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गम् पथस्तत्कवयो वदन्ति।’
यह केवल बौद्धिक बात नहीं है। साधन से इसका प्रत्यक्ष अनुभव होता है। मन और चेतन सम्मिलित रूप से उस सूक्ष्म मार्ग पर जाते हैं। यह तलवार से कैसे कट सकता है? मनोनिग्रह को शम कहते हैं। इन्द्रियनिग्रह में भी मन का निग्रह होता रहता है, लेकिन पूर्ण नहीं। शम के साधन में इन्द्रियोें का संग छोड़कर केवल मन के साधन में लगना होता है। नादानुसन्धान के द्वारा मन इन्द्रियों का संग छोड़कर शब्द ध्यान में लगा रहता है, तब पूरा-पूरा मनोनिग्रह होता है। शम-दम के साधन से चेतन आत्मा शरीर-इन्द्रियों से छुटकारा पाती है, अपने को पहचानती है और ईश्वर को पहचानती है। इसी का प्रचार इस सत्संग से होता है।
मोटी भक्ति का प्रचार बहुत है। इस सूक्ष्म भक्ति का बहुत कम प्रचार है। मोटी भक्ति में इस सूक्ष्म भक्ति को जोड़ दीजिए, तो सोने में सुगन्ध हो जाए। सिर भी रखो और पैर भी रखो। इसी तरह स्थूल भक्ति भी रखो और सूक्ष्म भक्ति भी। भक्ति के स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकारों को सब कोई समझ-समझकर करें।
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यह प्रवचन नालन्दा जिलान्तर्गत भगवान महावीर और भगवान बुद्ध के विहार स्थल राजगीर में 58वाँ वाषिक महाधिवेशन, दिनांक 30. 10. 1966 ई0 के अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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