209. गुरु कैसा होना चाहिए?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
ईश्वर की प्राप्ति ईश्वर की भक्ति से ही होती है। ईश्वर की भक्ति ही ईश्वर की प्राप्ति के लिए सुगम साधन है, यह बात भारत में बहुत प्रसिद्ध है। इसलिए भारत के लोग अधिक-से-अधिक ईश्वर- भक्ति की चर्चा किया करते हैं। बात बिल्कुल यथार्थ है। केवल रोचक नहीं, रोचक होते हुए यथार्थ है। रोचक हो और यथार्थ नहीं हो, तब भी साधु- महात्मा, जो ऐसी बात कहते हैं, तो जिस ओर रुचि बढ़ानी चाहिए, बढ़ाते हैं; इसमें तो दोष नहीं है।
ईश्वर-प्राप्ति के लिए ईश्वर-भक्ति रोचक भी है और यथार्थ भी। ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर का स्वरूप जानना चाहिए। ईश्वर की प्राप्ति के लिए ईश्वर की भक्ति सुगम साधन है, इस बात को जो जानते हैं अथवा इस बात का जिसको ज्ञान है, वे ही ईश्वर-भक्ति में पड़ते हैं। मतलब यह कि ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान अवश्य चाहिए। यदि विश्वास हो कि ईश्वर की स्थिति नहीं है, तो ईश्वर-भक्ति के लिए कोई आग्रह नहीं।
कुछ ज्ञान की आवश्यकता पहले होती है; क्योंकि बिना जाने क्या कर सकते हैं? अर्थात् कुछ नहीं कर सकते हैं। किसी प्रकार कुछ जानना बहुत आवश्यक है। इसलिए यह बहुत कहने योग्य है कि ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए। किसी विषय के लिए हो, यदि अपने लिए हितकर होता है तो उस विषय की ओर एक आकर्षण-सा होता है।
आपलोगों को मालूम है कि अपने देश में द्वापर युग का अंत होते-होते एक बड़ा भारी युद्ध हुआ था और भरतवंशी में युद्ध हुआ था। भरत- वंशी दो भागों में बँटे थे-कौरव और पाण्डव।
भरतवंश में कुरु नाम का एक राजा हुआ था। इसीलिए कौरव और पाण्डवों के पिता का नाम पाण्डु था, इसीलिए पाण्डव; किंतु दोनों ही कौरव थे और भरतवंशीय थे। वह युद्ध अट्ठारह दिनों में समाप्त हुआ था। वह बड़ा भयंकर गृहयुद्ध था। पाण्डव जीत गए और कौरव सब मारे गए। सभी चचेरे भाई थे। और भी जो युद्ध करने आए थे, वे कोई उनके मामा, कोई चाचा आदि होते थे। उस भयंकर युद्ध में सब प्रिय और बड़े लोग एक दूसरे के द्वारा मारे गए। बच गए पाँच भाई पाण्डव। पाण्डवों में जो सबसे बड़े थे, वे थे युधिष्ठिर। उनके मन में हुआ कि अब हम राज्य करके क्या करेंगे? जो हमारे चाचा थे, भाई थे, अपने लड़के थे, भतीजे थे; सभी मारे गए अब राज्य किसके लिए करें। यह कहकर वे बहुत रोते थे कि मैंने बहुत पाप किए। लोग कहते कि तुम क्षत्रियों के धर्म के अनुसार युद्ध किए हो, मारे हो, तुम ऐसा क्यों कहते हो कि पाप हो गया है। फिर भी लोगों की बातों से इनका मन नहीं मानता था। व्यास और कृष्ण ने भी समझाया, लेकिन वे समझे नहीं। अंत में व्यासदेवजी ने कहा कि-तू पाप-पाप क्यों बोल रहा है, यज्ञ करो-अश्वमेध यज्ञ करो। युधिष्ठिर ने कहा कि अश्वमेध यज्ञ के लिए तो बहुत धन चाहिए, मेरे पास धन कहाँ? हमारे आश्रित जो राजे लोग थे, उनके कुछ धन लेकर मैंने खर्च किया और कुछ दुर्याधन ने लेकर खर्च किया। उनसे धन माँगूँ, तो कहाँ से वे देंगे और भी जो धन हस्तिनापुर का था, उसको दुर्योधन ने खर्च किया, हमलोग तो जंगल में थे। व्यासदेव ने कहा कि पहाड़ों में बहुत धन है, मरुत राजा ने यज्ञ किया था और उन्होंने इतना धन दान लोगों को दिया था कि लोग न ले जा सके, उसे पहाड़ में गाड़ दिया। मैं रास्ता और अनुष्ठान बताता हूँ, वहाँ जाओ, धन ले आओ और यज्ञ करो। युधिष्ठिर ने व्यासदेव की बात में विश्वास किया, उनके बताए हुए मार्ग से गए, अनुष्ठान कर धन प्राप्त किए और धन लाकर अश्वमेध यज्ञ किया।
मतलब यह कि बिना जाने आदमी क्या करेगा? इसलिए पहले जानना चाहिए अर्थात् ज्ञान चाहिए। युधिष्ठिर के लिए वह धन पहले अव्यक्त था। अव्यक्त में उसकी आसक्ति होती है, वही आसक्ति प्रेम में प्रवाहित होती है और उससे वह खिंचता है और धन लाने जाता है। ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर-स्वरूप का जानना आवश्यक है। नहीं तो अपना प्रेम किधर रखा जाय? इसलिए थोड़ी देर ईश्वर-स्वरूप के संबंध में सुनिए। इससे निर्णय होगा कि उसकी प्राप्ति के लिए क्या काम करना होता है।
ईश्वर कभी हुआ है, ऐसा नहीं; वह हई है। कबसे है? इसका समय बताना असंभव है। देश और काल माया के फैलने में होते हैं। जब देश-काल नहीं थे, तबसे ईश्वर है। ईश्वर कितना पूर्व से है, कोई समय निर्धारित नहीं कर सकता। सबसे पहले का वह है। यह ज्ञान किसी धर्मवाले को पूछो कि ईश्वर सबसे पहले से है कि पीछे हुआ? सभी कहेंगे कि ईश्वर सबसे पहले का है। वह परम पुरातन, परम सनातन हैं। उससे पूर्व का और कोई सनातन नहीं है। वह अपने अतिरिक्त अवकाश छोड़कर रहता है, ऐसा नहीं।
सूर्य का गोला बहुत बड़ा है। इस पृथ्वी से कई हजार गुणा बड़ा है। लेकिन सूर्य की सब तरफ अवकाश है। तारामण्डल वा पृथ्वी-जिसको सौर जगत कहते हैं, वह भी अपना हद रखता है और उसकी चारो ओर अवकाश है। कबीर साहब ने कहा है कि ईश्वर के अतिरिक्त पहले कुछ नहीं था।
प्रथम एक सो आपे आप, निराकार निर्गुण निर्जाप।
वह (परमात्मा) कभी बन गया है, ऐसा नहीं। किसी कारण से वह हुआ, सो भी नहीं। कबीर साहब ने एक बड़ी बात कही है-
मूल न फूल बेलि नहीं बीजा, बिना वृक्ष फल सोहै ।
न उसकी जड़ है, न फूल है, न लता है और न बीज है; केवल फल-ही-फल है। उसको किस रंग-रूप में जानें? तो कहा-‘निराकार निर्गुण निर्जाप।’ कोई आकार नहीं, रज, सत, तम कोई गुण नहीं अर्थात् त्रयगुणातीत वह है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कहा था-‘निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।’
गोस्वामी तुलसीदासजी से पूछिए, तो वे कहेंगे- ‘अगुण अखण्ड अलख अज’ है। तुलसीदासजी ने सगुण रूप के बहुत गुण-गान किए हैं और उन्होंने सगुण होने का कारण भी बताया है-‘भगत प्रेमवश सगुण सो होई।’ बाबा नानक से पूछिए तो वे कहेंगे-
अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा।।
अपार अर्थात् आदि-अंत-रहित। और संत लोग भी यही बात कहते हैं। उपनिषद् भी संतवाणी है। वेद-वाक्य के तुल्य उसका वाक्य माना जाता है। उसमें है-
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
-कठोपनिषद्
अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अंतरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
सबसे बाहर होने पर प्रकृति से भी बाहर हो जाता है। इसीलिए ‘प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी। ब्रह्म निरीह विरज अविनाशी।।’ और दूसरी जगह-
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
सगुण का अर्थ जो गुण के सहित है। जो गुण के सहित होता है, वह सगुण होता है और जब गुण को नहीं लेता है, वह निर्गुण है। निर्गुण जो सगुण होता है, तो क्या वह पूर्ण का पूर्ण सगुण हो जाता है? अभी सुना-‘राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।’ अपार को कोई दूसरा ‘अपार’ हो तो सम्पूर्ण को ढँक ले। लेकिन ‘अपार’ दो नहीं हो सकते। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
उमा राम विषयक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा।।
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहेहु कुविचारी।।
एक ही समय में कहीं बादल रहता है और कहीं सूर्य दीखता है। मतलब यह कि बादल का कितना बड़ा समूह भी सूर्य को ढँक नहीं सकता। बादल समूह को ऊपर करते जाओ तो रास्ते में ही बादल बिला जाएगा और सूर्य दीखने लगेगा। इसी तरह ईश्वर के सम्पूर्ण रूप को माया वा सगुण ढँक नहीं सकता है। उसके अल्पाति-अल्प भाग को ढँक सकता है। लेकिन त्रयगुण आवरण के अंदर होने पर भी उसकी शक्ति घटती नहीं। दोनों हालतों में-निर्गुण रूप वा सगुण रूप में पूर्ण शक्ति है। आकाश में कुछ दूर तक धूल है, कुछ दूर तक धुआँ है और कुछ दूर तक अंधकार है। ध्ूल, धूम और अंधकार से शून्य साफ-साफ देखा नहीं जाता और शून्य को पूरा-पूरा ये ढँक नहीं सकते। इसको पार करो तो शून्य को ठीक-ठीक देख सकोगे। इसी तरह स्थूल, सूक्ष्म और कारण; इन तीनों को पार करो तो स्वरूप को देख सकते हो।
लोग ईश्वर को सगुण और निर्गुण दोनों रूपों में मानते हैं। निर्गुण सनातन रूप है और सगुण पीछे का। एक जगह गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
यथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव देखावइ, आपु न होइ न सोइ ।।
उन्होंने निश्चित बात बता दी कि त्रयगुण रूप आवरण के धारण करने से वह त्रयगुण नहीं हो गया। अपने शरीर पर कितने भी कपड़े पहन लो, तुम्हारा शरीर भिन्न ही और कपड़ा भिन्न ही रहता है। इसी तरह चेतन आत्मा, चेतन आत्मा ही रहती है; शरीर, शरीर ही। चेतन आत्मा ज्ञानस्वरूप है और शरीर जड़-अज्ञानमय है। आवरण धारण करनेवाला वही हो जाता है, ऐसी बात नहीं। सृष्टि में ईश्वर का व्यापक विराटरूप सगुण है। लोगों ने विराटरूप में अनेक लोक-लोकान्तरों के दर्शन किए। अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ने विराटरूप दिखाया और जब नारद को विराटरूप का दर्शन दिया, तब कहा कि ‘तू जो मेरा रूप देख रहे हो, यह मेरी उत्पन्न की हुई माया है।’ और श्रीमद्भगवद्गीता 7/24 में भी कहा कि ‘मैं अव्यक्त हूँ और बुद्धिहीन लोग मुझे व्यक्त मानते हैं।’
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः। असल में मूल स्वरूप त्रयगुणातीत,अज और अविनाशी है। और सब चीजें क्षणभंगुर और नाशवान हैं। यह सब समझकर जब ईश्वर-दर्शन के लिए इच्छा हो, तो उसको पाने की आसक्ति होनी चाहिए। व्यास के बताए अनुकूल युधिष्ठिर को धन का पता लगा, उस धन में उसकी आसक्ति हुई और उधर उसका प्रेम प्रवाहित हुआ। इसी तरह संतों के बताए अनुकूल ईश्वर के स्वरूप को जाने, आसक्ति लावे, उस ओर प्रेम प्रवाहित करे और ईश्वर की भक्ति करे।
भक्ति का अर्थ है सेवा। जिसको जिस चीज की आवश्यकता हो, उसको वह चीज दो, तो उसकी सेवा होती है। ईश्वर को क्या कमी है? ईश्वर से मिलने की इच्छा रखो, यही भक्ति है। संतों ने ईश्वर का जो ज्ञान दिया है, उस ओर हमारी बुद्धि प्रवाहित हो। दादू दयालजी ईश्वर- स्वरूप को बताते हैं-
दादू जानै न कोई , संतन की गति गोई।। टेक।।
अविगत अंत अंत अंतर पट, अगम अगाध अगोई।
सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई।।
वह ईश्वर कहाँ मिलते हैं? तो कहा-‘अविगत अंत अंत अंतर पट।’ अर्थात् वह सर्वव्यापी परमात्मा अपने अंदर के अंतिम पट को पार करने पर मिलेंगे। अकथ होने के कारण सूरदासजी ने भी कहा है-
अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यों गूँगहिं मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै।।
परम स्वाद सबही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै।
मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै।।
रूप रेख गुन जाति जुगुति बिनु,निरालंब मन चक्रित धावै ।
सब विधि अगम विचारहि तातें, ‘सूर’ सगुन लीला पद गावै।।
उस सर्वव्यापी की प्राप्ति में ऐसी संतुष्टि होती है, जो कभी छूटने को नहीं है। अमित तोष होता है। मन-बु़द्ध से आगे की बात है। अंदर में चलो, जितने आवरण हैं, पार करो। दादू दयालजी ने तीन शून्यों का जिकर किया-‘सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा... तीन शून्यों को पार करो तो, उसको पाओगे। तीन शून्य क्या है? यह शरीर हाड़, मांस, चाम का बना स्थूल कहलाता है। इसका दूसरा रूप सूक्ष्म है, यह भीतर में है। भीतर का अर्थ माथे के गुद्दे या अँतड़ी में नहीं। जैसे बर्फ स्थूल है और पानी सूक्ष्म है, इसी तरह अंधकार स्थूल है और प्रकाश सूक्ष्म है। हमारे अंदर प्रकाश नहीं होता तो हमारी आँख में ज्योति नहीं होती है। दूसरा तल ज्योति का है और तीसरा तल शब्द का है। शब्द अंधकार और प्रकाश में भी है और इन दोनों के परे भी है। इन तीनों को छोड़ो तो पता पाओगे- उस अविगत का। तुलसी साहब ने भी घटरामायण में तीनों शून्यों का वर्णन किया है-‘जीव का निवेरा’ में। कौन कह सकता है कि संसार में अंधकार, प्रकाश और शब्द नहीं है! इन तीनों को खतम कर दो तो स्थूल, सूक्ष्म, कारण; कुछ नहीं रहेंगे। सृष्टि समाप्त हो जाएगी। तीन को खतम करो। चौथे में जाओ, तो अंतरपट का अंत मिल जाएगा। जहाँ तक तुम्हारी गति है, वहाँ तक जाओगे और आगे नहीं। जाने का अंत कहाँ हुआ? अनंत में। जो बुद्धि के परे हैं। इस तरह ईश्वर का ज्ञान संतों ने बताया है। जैसे युधिष्ठिर को रास्ता और अनुष्ठान व्यासदेव ने बताया था। युधिष्ठिर ने विश्वास किया। उस रास्ते पर चलो, जहाँ तक जाना चाहिए, गया और अनुष्ठानपूर्वक कर्म करके धन प्राप्त कर यज्ञ किया। उसी तरह संतों ने जो रास्ता बताया, जो अनुष्ठान बताया, उस पर विश्वास कर उसके अनुकूल चलो और बताए अनुष्ठानों को करो तो ईश्वर रूप धन को पाकर कृतकृत्य हो जाओगे।
लोगों का ऐसा ख्याल हो कि ‘अगर हम अपने अंदर चलेंगे, तो हम संसार को कैसे पार कर सकते हैं? तो शरीर और संसार में बहुत संबंध है। शरीर जितने तत्त्वों से बना है, संसार भी उतने ही तत्त्वों से बना है। शरीर के जितने तल हैं, संसार के भी उतने तल हैं। शरीर के जिस तल पर जब हम रहते हैं, संसार के भी उसी तल पर तब हम रहते हैं। शरीर के जिस तल को जब हम छोड़ते हैं, संसार के भी उसी तल को तब हम छोड़ते हैं। इससे यह निर्णय हुआ कि यदि हम शरीर के सभी तलों को पार कर जाएँ, तो संसार के भी सभी तलों को पार कर जाएँगे। चाहे अनेक ब्रह्माण्ड हों, किंतु अंधकार, प्रकाश और शब्द; इनसे परे कुछ सृष्टि नहीं हो सकती। संतों ने शरीर के अंदर चलने कहा। शरीर के तलों को पार करो तो संसार के भी तलों को पार कर सकोगे।
ये तल क्यां बने? स्थूल, सूक्ष्म, कारण आदि क्यों बने? इस बात को भी जानो। बिना सूक्ष्म के स्थूल नहीं हो सकता। बिना कारण के सूक्ष्म नहीं हो सकता। जो सूक्ष्म होता है, वह अपने से स्थूल में स्वाभाविक ही व्यापक होता है। पाँच भौतिक तत्त्वों में आकाश विशेष सूक्ष्म है, तो वह अन्य चार तत्त्वों में व्यापक है। माया के सारे आवरणों को जो पार कर गया, तो ईश्वर पाने को बाकी नहीं रह जाता। भगवान श्रीराम आगे-आगे श्रीलक्ष्मणजी पीछे-पीछे और बीच में सीताजी जाती थीं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
आगे राम लखन बने पाछें । तापस वेष विराजत काछे।।
उभय बीच सिय सोहति कैसे । ब्रह्म जीव बिच माया जैसे।।
यदि बीच से सीताजी हट जाएँ तो राम को लक्ष्मण देख लें। इसी तरह ब्रह्म का दर्शन माया के कारण जीव को नहीं होता है। जो माया के तीनों आवरण को पार करे, तो ईश्वर-दर्शन हो जाएगा। इसी को एक जगह में गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
मायाबस मति मन्द अभागी। हृदय जवनिका बहु विधि लागी।।
ते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अज्ञान राम पर धरहीं।।
काम क्रोध मद लोभ रत, गृहासक्त दुख रूप ।
ते किमि जानहिं रघुपतिहिं, मूढ़ पड़े तम कूप ।।
मतलब अंधकार के कुएँ से अपने को निकालो और अंदर के परदों को पार करो, तो राम प्रत्यक्ष होंगे। संतों ने जो मार्ग बताया है, उस पर हमको चलना चाहिए। इसके लिए सुगम से सुगम काम क्या है?
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।
चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मो तें सन्त अधिक करि लेखा।।
आठवँ यथा लाभ सन्तोषा। सपनहुँ नहिं देखइ पर दोषा।।
नवम सरल सब सन छल हीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।।
नव महँ एकउ जिन्हके होई। नारि पुरुष सचराचर कोई ।।
सोइ अतिशय प्रिय भामिनी मोरे। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।।
पहली भक्ति संतों का संग है। लेकिन यह बात भी है कि-
नित प्रति दरसन साधु के, औ साधुन के संग ।
तुलसी काहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
इसके उत्तर में कहा है-
मन तो रमे संसार में, तन साधुन के संग ।
तुलसी याहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
और-
ऐसी दिवानी दुनियाँ भक्ति भाव नहिं बूझै जी ।।
कोई आवै तो बेटा मांगै, यही गुसाईं दीजै जी ।।
कोई आवै दुख का मारा, हम पर किरपा कीजै जी ।।
कोई आवै तो दौलत मांगै, भेंट रुपैया लीजै जी।।
कोई करावै व्याह सगाई, सुनत गुसाईं रीझै जी।।
साँचे का कोई गाहक नाहीं, झूठे जक्त पतीजै जी।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, अंधों को क्या कीजै जी।।
इन सब ख्यालों को लेकर साधु-संग में बैठोगे तो कैसे रंग लगेगा? कथा-प्रसंग में रहोगे तो कुछ करने की इच्छा होगी। कुछ करने के लिए गुरु की खोज करेगा। गुरु खोज करके उसकी सेवा करेगा। बिना गुरु-सेवा के कोई गुरु से विद्या नहीं ले सकता। अर्जुन के अतिरिक्त द्रोणाचार्य से और किसी ने अधिक विद्या नहीं ली। अर्जुन ने द्रोणाचार्य की बड़ी सेवा की थी। गुरु की सेवा करके लोग बड़े हुए हैं। क्षत्रपति शिवाजी गुरु समर्थ की सेवा अपने से ही करते थे। उनकी देह में तेल लगाते थे, पानी भरते थे आदि। राधास्वामी मत में राय शालिग्राम बहादुर महोदय की सेवा आपलोग जानते ही हैं कि कैसी सेवा उन्होंने की। लेकिन गुरु होना चाहिए, गोरु नहीं। गोरु कहते हैं-गाय-बैल को। गुरु कैसा होना चाहिए?
गुरु नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोइ ।
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोइ ।।
सत्तनाम के पट तरे, देवे को कछु नाहिं ।
क्या ले गुरु संतोषिये, हवस रही मन माहिं।।
मन दीया तिन सब दिया, मन की लार शरीर ।
अब देवे को कछु नहीं, यों कथि कहै कबीर ।।
तन मन दिया तो क्या भया, निज मन दिया न जाय ।
कह कबीर ता दास से , कैसे मन पतियाय।।
तन मन दीया आपना, निज मन ताके संग।
कह कबीर निर्भय भया, सुन सतगुरु परसंग।।
फिर कहते हैं-
तन मन ताको दीजिये, जाके विषया नाहिं ।
आपा सबही डारिके, राखे साहिब माहिं ।।
ऐसे गुरु हों तो तन-मन से सेवा क्यों न करो? तन-मन और निज-मन में भेद है। पानी देना और कोई स्थूल सेवा करना तन-मन से सेवा है। तन-मन दो और आत्ममुखी मन भी दो। जब मन अंतर्मुखी होता है, तब वह निज मन कहलाता है। जो गुरु बाहरी सेवा से प्रसन्न होता है और अंतर साधन का ख्याल नहीं रखता, वह तो-
हरइ शिष्य धन शोक न हरई । सो गुरु घोर नरक महँ परई ।।
जो गुरु बाहर की भी सेवा ले और अंतर साधन भी करावे, वह गुरु है। इस तरह गुरु की सेवा करो। हमारे यहाँ प्रसिद्ध है-‘गुरु करो जान, पानी पीओ छान।’
यहाँ तक तीन भक्तियाँ हुईं। चौथी भक्ति है-कपट छोड़कर ईश्वर का गुणगान करना। कपट यह कि ‘लोक दिखावे के लिए करता है, सो नहीं करे। संतों का संग, कथा-प्रसंग, गुरु-सेवा, कपट छोड़कर गुणगान करना; ये सभी क्रम से हैं।
पूजाकोटि समं स्तोत्रं, स्तोत्र कोटि समं जपः।
जप कोटि समं ध्यानं, ध्यान कोटि समो लयः।।
इसके बाद है पाँचवीं भक्ति-दृढ़ विश्वास से मंत्र जप करना, जो मंत्र गुरु बता दे। लेकिन ऐसा नहीं हो कि-
माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं ।
मनुवाँ तो दह दिसि फिरै, यह जो सुमिरन नाहिं ।।
सुमिरण कैसा होना चाहिए तो कहा-
तन थिर मन थिर वचन थिर, सुरत निरत थिर होय ।
कह कबीर इस पलक को, कलप न पावै कोय ।।
एकाग्र मन से जप करो, केवल जप-संख्या पूरा करने के लिए नहीं। एकाग्र मन से कुछ देर तक जप हो, तो समझो कि जप हुआ। संतों के संग से लेकर मंत्र जप तक; सब में मन की एकाग्रता अत्यन्त अपेक्षित है। जो अत्यन्त अपेक्षित है, उसको नहीं जानकर भक्ति करो तो वह भक्ति नहीं। पाँच भक्ति तक लोग समझ जाते हैं। इनमें मन की एकाग्रता होती है। मन की एकाग्रता में पहाड़ पर चढ़ने की तैयारी होती है। अर्थात् भीतर के सूक्ष्म मण्डल में चलने की तैयारी है।
ईश्वर का दर्शन कौन करेगा? आँख नहीं। ‘गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।’ संतों ने साफ कह दिया है। चेतन आत्मा से दर्शन होगा। माया में चेतन आत्मा के रहने से माया का ही दर्शन होता है। इसलिए लोगों को बाहर में ईश्वर का दर्शन नहीं होता। माया को पार कर ईश्वर का दर्शन होता है। जैसे एक ही लालटेन के पाँच पहलों में पाँच रंग के शीशे हों और बीच में मोमबत्ती जलती हो, तो जिस रंग के शीशे होकर वह रोशनी बाहर निकलेगी, वह रोशनी उसी रंग की होगी। अर्थात् लाल शीशा होकर जो रोशनी बाहर निकलेगी, वह लाल और जो हरा शीशा होकर रोशनी बाहर निकलेगी, वह हरी रोशनी होगी। इसी प्रकार पाँचों रंग के शीशे के संबंध में समझिए। किंतु भीतर में जो मोमबत्ती जलती है, उसके प्रकाश का रंग इन पाँचों रंगों से भिन्न ही होता है, यद्यपि पाँचों रंग के शीशों से मोमबत्ती की ही रोशनी निकलती है। इसी तरह पंच ज्ञानेन्द्रियों में यद्यपि चेतन आत्मा के कारण ही ज्ञान है, फिर भी इन्द्रियाँ मायिक होने के कारण मायिक वस्तु को ही ग्रहण कर सकती हैं, निर्मायिक को नहीं। निर्मायिक तत्त्व अर्थात् परमात्मा को चेतन आत्मा ही ग्रहण कर सकती है। अपनी रोशनी में अपने को रखकर ईश्वर-दर्शन करो।
ईश्वर क्या है? मैं कहता हूँ कि दृश्य क्या है? तो जो तुम आँख से देखो, वह दृश्य वा रूप है। जो कान से सुनो, वह शब्द है। इसी तरह जिसको तुम चेतन आत्मा से जानो, वही ईश्वर है।
अपने को मायिक आवरणों से छुड़ाकर अपने तईं में रखने के लिए अंदर चलना है। इस मंदिर में हमलोग बैठे हैं, इससे निकलने के लिए पहले मन्दिर-ही-मन्दिर चलना होगा। इसी तरह इस शरीर से निकलने के लिए शरीर के अन्दर-अन्दर चलना होगा। शरीर चार हैं-स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण। इन चारों जड़ आवरणों को पार करो, ईश्वर-दर्शन होगा। बाहर में कितना भी दर्शन करो, ईश्वर-दर्शन नहीं होगा। जैसे, जहाँ दूध है, वहाँ मक्खन; उसी तरह जहाँ मन है, वहाँ चेतन। इसीलिए संत तुलसी साहब ने कहा है-
सत सुरति समझि सिहार साधो। निरखि नित नैनन रहो।
धुनि धधक धीर गंभीर मुरली। मरम मन मारग गहो।।
मन को समेटो। मन को कैसे समेटोगे? प्रथम भक्ति से पाँचवीं भक्ति तक मन समेटने को कहा। मन जिधर से सिमटता है, उसके विपरीत ओर को जाता है। बिछावन फैला हुआ है, उसको समेटो तो ऊपर को उठ जाएगा। यह प्राकृतिक नियम है कि किसी पदार्थ को जिस ओर से समेटो, उसकी गति उसके विपरीत ओर को हो जाएगी। पाँच भक्ति से जितना समेट हुआ, और भी समेटने के लिए क्या करो?
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
अर्थात् इन्द्रियों को रोकने का स्वभाव बनाना, बहुत से कर्मों को करने से विरक्त होना और सदा सज्जनों के धर्म में लगा रहना, छठी भक्ति है। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों में बरतना सज्जनों के धर्म में बरतना नहीं है। पंच पापों से बचकर बरतना सज्जनों का धर्म है। दम= इन्द्रियनिग्रह। इन्द्रियों को काबू में रखने का स्वभाववाला बनना दमशील होना है। इन्द्रियों को काबू में कैसे करोगे? लोग कहते हैं कि विषयों की ओर से मन को विचार से हटाओ। ऐसा भी होता है, लेकिन विचार स्थिर नहीं रहता, बुद्धि स्थिर नहीं रहती है। इसलिए आदमी डिग जाता है। इसको छोड़ते भी नहीं बनता है। विचार भी रखो और देखो कि विषयों में इन्द्रियाँ कैसे जाती हैं? इन्द्रियों के घाटों में मन की धारा रहती है, तब इन्द्रियाँ विषयों को ग्रहण करती हैं। इसके लिए जाग्रत और स्वप्न की अवस्था प्रत्यक्ष प्रमाण है। मन की धारों को समेटो। मन को समेटने का साधन करने से और विचार द्वारा मन को रोकने से सूक्ष्मता में गति होगी। मन का इतना सिमटाव हो कि एकविन्दु हो जाए। एकविन्दुता में पूर्ण सिमटाव होता है। इसीलिए-
बीजाक्षरं परम विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
-ध्यानविन्दूपनिषद्
वह विन्दु क्या है? ‘तेजो विन्दुं परं ध्यानं विश्वात्म- हृदि संस्थितम्। (तेजोविन्दूपनिषद्)’ अक्षर का बीज क्या है? अ,आ; ।ए ठ वा अलिफ, बे; कुछ लिखेंगे, तो पहले पेन्सिल जहाँ रखेंगे एक र्चिं होगा, उसको विन्दु कहते हैं। लेकिन यह परम विन्दु नहीं। परम विन्दु के लिए दूसरे पेन्सिल की जरूरत होती है, वह पेन्सिल है दृष्टि की। आपसे हम तक और हमसे आप तक दृष्टि आती-जाती है, लेकिन उस धार को देख नहीं सकते हैं।
द्रोणाचार्य ने एक बार अपने शिष्यों-कौरवों और पाण्डवों की परीक्षा ली। उन्होंने एक काठ का पक्षी बनवाकर वृक्ष पर रखवा दिया और एक-एक करके अपने सब शिष्यों को तीर से उसका निशाना करने कहा। आचार्य के पूछने पर किसी ने कहा-मैं वृक्ष-डालियों एवं पत्तों सहित पक्षी को देखता हूँ, तो किसी ने कहा-मैं डालियों और पत्तां सहित पक्षी को देखता हूँ; इस प्रकार किसी से भी उस पक्षी का ठीक-ठीक निशाना नहीं हुआ, अंत में अर्जुन से पूछने पर उसने कहा-मैं केवल पक्षी देख रहा हूँ। अर्जुन परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ।
एक संत ने कहा-‘उलटि देखो घट में जोति पसार।’ इसी को दृष्टियोग, शाम्भवी मुद्रा और वैष्णवी मुद्रा कहते हैं। इसका अमा, प्रतिपदा और पूर्णिमा दृष्टि से साधन किया जाता है। आँख बंदकर देखना अमादृष्टि है, आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा दृष्टि है और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा दृष्टि है। प्रतिपदा और पूर्णिमा दृष्टि में आँख में रोग भी हो सकता है। अमादृष्टि में कोई रोग नहीं। सुतीक्ष्ण मुनि और शमीक मुनि की कथा को पढ़िए, ये सब आँख बंदकर ध्यान करते थे। भगवान बुद्ध की ध्यानावस्थित प्रतिमा को देखिए, वे भी आँख बंदकर ही ध्यान करते दिखाई पड़ते हैं। कबीर साहब ने कहा है-
बंद कर दृष्टि को फेरि अंदर करै, घट का पाट गुरुदेव खोलै।
तथा-
नैनों की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय ।
पलकों की चिक डारिके, पिय को लिया रिझाय ।।
यह सुगम साधन है। दृष्टियोग से एकविन्दुता होती है। एकविन्दुता से पूर्ण सिमटाव होता है और तब प्रत्यक्ष होता है-‘उलटि देखो घट में जोति पसार।’ और बाबा नानक ने कहा-‘अंतरि जोति भइ गुरु साखी चीने राम करंमा।’ यह जो साधन करता है, इन्द्रियाँ काबू में आती हैं। एकविन्दुता होती है। केन्द्र में केन्द्रित होता है। वहाँ का रस साधक को बाह्य विषय रस से विशेष मनोहारी हो जाता है। बाह्य विषय रस कम हो जाता है। इसी तरह दमशील होना होता है। इन्द्रियों को विचार से भी रोको और साधन भी करो। केवल विचार से गिर भी सकता है।
विषय से छूटा तो क्या हुआ? निर्विषय की ओर हुआ। श्रीराम ने कहा था-‘एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।’ परमात्मा निर्विषय है, उससे जुटा। यह संबंध ईश्वर-भक्ति से है। उसके बाद सातवीं भक्ति में मनोनिग्रह का साधन है। कोई कहे कि दम के साधन में भी तो मन का साधन होता है। लेकिन वहाँ दोनों के साधन संग-संग होते हैं। सातवीं भक्ति में केवल मन का साधन होता है। क्योंकि मन के साधन के बिना ऋद्धि सिद्धि के प्रेरण में मन पड़ सकता है। ‘ऋद्धि सिद्धि प्रेरई बहु भाई। बुद्धिहि लोभ दिखावई आई।। होई बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी।।’ इसलिए मनोनिग्रह का साधन है। कैसे होगा? ‘न नाद सदृशो लयः।’ गुरु से इसका यत्न जानो। अंधकार के शब्द में स्वाद नहीं है। प्रकाश मण्डल के शब्द को पकड़ो, तब जो शब्द मिलता है, उसमें बहुत स्वाद है। उस शब्द को पकड़कर आगे बढ़ो। तुलसी साहब ने कहा है-
सहस कमलदल पार में, मन बुद्धि हिराना हो ।
प्र्राण पुरुष आगे चले,सोइ करत बखाना हो ।।
वह शब्द कहाँ से आया है? ईश्वर से सृष्टि हुई है, शब्द ईश्वर से है। बिना कम्प के सृष्टि नहीं हो सकती। आदि सृष्टि में आदि कम्प हुआ। कम्प शब्दमय होता है और शब्द कम्पमय होता है। जो कोई आदि शब्द को पकड़ता है तो ‘परसत ही कंचन भया, छूटा बंधन मोह’ ऐसा हो जाएगा। शब्द में अपने उद्गम स्थान पर खींचने का गुण है। इसलिए वह शब्द ईश्वर तक पहुँचाता है। वह शब्द वर्णात्मक नहीं है, ध्वन्यात्मक है।
अघोषम् अव्यंजनम् अस्वरं च अतालुकण्ठोष्ठमनासिकं च।
अरेफ जातं उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित्।।
-अमृत नाद उपनिषद्
शब्द शब्द बहु अंतरा, वो तो शब्द विदेह ।
जिभ्या पर आवे नहीं, निरखि परखि करि देह ।।
-संत कबीर साहब
जो लाभ हो, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी दूसरे के दोष को न देखना, आठवीं भक्ति है। नवीं भक्ति सबसे सीधा तथा अकपट रहना और हृदय में न हर्ष और न दीनता लाकर मेरा (राम) भरोसा रखना है। ऊपर वर्णित सात भक्तियों में पूर्णता पाने पर ये आठवीं और नवीं; दोनों भक्तियाँ आप ही आप सध जाती हैं।
यह संतां का मार्ग है, इस पर चलो। सत्संग करो, गुरु खोजो और भजन करो तो कृतार्थ हो जाओगे। एक जन्म में नहीं, तो कई जन्मों में। यह बीज ऐसा है कि मुक्ति दिलाकर ही छोड़ेगा।
भक्ति बीज बिनसै नहीं, आय पड़ै जो चोल ।
कंचन जौ ं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।
भक्ति बीज पलटै नहीं, जो युग जाय अनंत ।
ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।।
भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है कि ‘योग का आरंभ का नाश नहीं होता। साधक पुण्यकर्ता पुरुषां को मिलनेवाले स्वर्ग आदि लोकों को पाकर और वहाँ बहुत वर्षों तक निवास करके पवित्र श्रीमान् लोगों के घर में जन्म लेता है अथवा बुद्धिमान योगियों के ही कुल में जन्म पाता है। इस प्रकार प्राप्त हुए जन्म में वह पूर्व के बुद्धि संस्कार को पाता है और उससे अधिक (योग) सिद्धि पाने का प्रयत्न करता है। प्रयत्नपूर्वक उद्योग करते-करते पापों से शुद्ध होता हुआ अनेक जन्मों के अनन्तर सिद्धि पाकर उत्तमगति पा लेता है।’
जैसे चुम्बक से लोहा खींच जाता है और उसमें लग जाता है, परंतु चुम्बक से लोहे को कोई छुड़ा भी सकता है, लेकिन जो भक्त उस आदि शब्द से पकड़ा जाएगा, उसको कोई बज्र भी नहीं छुड़ा सकता। आज तक जितने प्रकार के बम बनते हैं, कोई भी नहीं छुड़ा सकता है।
कोई कहते हैं कि नौ भक्ति में से एक भी कर लो, तो ईश्वर के अतिशय प्यारे बन जाओगे। मैं कहता हूँ कि एक भक्तिवाला अतिशय प्रिय है, तो नवो प्रकार की भक्ति जो करेगा, उसके लिए नौ बार अतिशय जोड़कर देखो, वह कितना प्यारा होगा? भक्त को तो भक्ति करने में न्योछावर हो जाना चाहिए। तुम कुछ भक्ति करना चाहो और कुछ नहीं, तो कैसे भक्त हो? तुम कायर हो। तुमको पुरुषार्थी बनकर सभी भक्ति करनी चाहिए। नवो प्रकार की भक्ति सिलसिले के साथ है, नवो भक्ति करो।
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यह प्रवचन मुरादाबाद स्थित श्रीसंतमत सत्संग मंदिर कानून गोयान मुहल्ले में दिनांक 12. 4. 1965 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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