1965 (प्रवचन संख्या : 208-223)

208. सन्तों की वाणियों को पढ़ो, यह भी सत्संग है (20.03.1965)


208.संतों की वाणियों को पढ़ो, यह भी सत्संग है

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 हमलोग यहाँ सत्संग करने के लिए एकत्र हुए हैं। सबको मालूम है कि संतों के संग का नाम सत्संग है। सन्तगण बड़े पवित्र होते हैं। उनका ज्ञान अगम होता है। संत की स्तुति में, उनकी प्रशंसा में लोग इतना अधिक कहते हैं कि जिससे ज्ञात होता है कि उनसे बढ़कर कोई नहीं है। ‘उनसे बढ़कर कोई नहीं’ का अर्थ उनसे अधिक पवित्र, ज्ञानवान, विचारवान, शीलवान और कोई नहीं होता। संतों के लिए बहुत तारीफ है। उपनिषदों को पढ़ने से पता चलता है कि संत उस परम पदार्थ को प्राप्त किए होते हैं, जो परे-से-परे का पदार्थ है।
 यह जो दृश्यमान जगत है अर्थात् पाँच अज्ञानमय तत्त्व से बना जगत है, इसमें विविधता है। इस अज्ञानमय पदार्थ से ऊँचे दर्जे में हम पाते हैं कि कुछ ज्ञानमय पदार्थ भी है। यदि केवल अपने शरीर का ख्याल करें तो जड़ है, जैसे मृतक शरीर में ज्ञान नहीं है। एक जीवित शरीर को देखकर ख्याल में आता है कि इस शरीर के अंदर ज्ञानमय पदार्थ भी है, केवल जड़ नहीं है। जड़ व्यक्त है और ज्ञानमय पदार्थ अव्यक्त है, उसका कार्य विदित होता है। ज्ञानमय पदार्थ को चेतन भी कहते हैं।
 जो इन्द्रियों को प्रत्यक्ष हो,उसे व्यक्त कहते हैं और जो अप्रत्यक्ष हो, उसको अव्यक्त कहते हैं। कोई कहता है कि जड़-जड़ के मिलन से ही ज्ञानमय पदार्थ होता है।
 ज्ञानमय पदार्थ भिन्न नहीं है। दूसरे कहते हैं कि ऐसा नहीं हो सकता। जड़ पदार्थ संख्या में कितनी भी अधिक हो, जड़-जड़ के मिलन से ज्ञानममय पदार्थ हो नहीं सकता। जैसे वैद्य लोग औषधि बनाते हैं, मिक्सचर में जो दवाई नहीं डालते, उसका गुण नहीं होता। शर्बत में यदि सौंफ नहीं डाला जाय, तो उसका स्वाद और गुण नहीं आता, जिन तत्त्वों में जो गुण है, उनके मिलाप से वही गुण उत्पन्न होगा, उससे विपरीत नहीं। अज्ञानमय पदार्थ के मिलने से ज्ञानमय पदार्थ हो, मानने योग्य नहीं।
 मैंने संतों के गं्रथों-उपनिषद्-ग्रंथों में पढ़कर गुरु महाराज के चरणों में बैठकर, और भी संतों के चरणों में बैठकर, सुनकर और स्वयं भी विचारकर दृढ़ कर जाना है कि जड़ तत्त्व भिन्न है और चेतन तत्त्व भिन्न है। चेतन तत्त्व अव्यक्त है। शरीर जबतक जीवित रहता है, चेतन का कार्य देखते हैं, लेकिन इन्द्रियों से चेतन के स्वरूप को पहचान नहीं सकते हैं। शरीर व्यक्त है। व्यक्त तत्त्व से अव्यक्त तत्त्व ऊँचे दर्जे में है। जिस शरीर में चेतन नहीं है, उससे कोई काम नहीं होता, यह प्रत्यक्ष है। चेतन के अधीन में जड़ तत्त्व है। चेतन जड़ से काम कराता है। मनुष्य ज्ञानवान प्राणी है, इंजिन अज्ञानमय है, मनुष्य उसको बनाता है और उससे काम लेता है। ज्ञानवान यदि उसपर काबू नहीं रखे,तो उससे कोई लाभदायक काम नहीं हो सकता। इस तरह जड़ के ऊपर चेतन का काम नहीं हो, तो जड़ से कोई काम नहीं हो सकता।
 श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने दो प्रकार की प्रकृतियाँ बताई हैं-अपरा और परा। अपरा अर्थात् अष्टधा प्रकृति-मिट्टी, पानी, अग्नि, हवा, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार; ये आठों अज्ञानमय हैं। इससे ऊँची चेतन प्रकृति है। अपरा जड़ प्रकृति है, इसके अंदर जो चेतन है, वह परा अर्थात् ऊँचे दर्जे की प्रकृति है। इन्हीं दोनों से संसार की रचना करता हूँ-भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद् गीता में कहा। संसार में जड़ और चेतन दोनों है। परा इसलिए कि यह जड़ से उत्कृष्ट है। जड़ से चेतन के निकल जाने पर वह विकृत होकर लापता हो जाता है। इसलिए चेतन से भी परे जो है, वह परमात्मा है। गीता के शब्दों में कहूँगा-परा प्रकृति और अपरा प्रकृति जिनकी है, वे स्वयं इन दोनों से भिन्न और इनके आधारभूत प्रभु हैं। परा प्रकृति को अक्षर पुरुष तथा अपरा प्रकृति को क्षर पुरुष तथा इन दोनों से परे को पुरुषोत्तम कहते हैं। भगवान कहते हैं कि पुरुषोत्तम सबसे परे है। उपनिषद् में आया है कि-
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
 संत किनको कहते हैं, इसपर मैंने कहा। उस परे से परे अर्थात् जड़ से ऊपर चेतन और उससे भी परे परमात्मा। जिसको इनका दर्शन हो, उसके हृदय की ग्रन्थि छूट जाती है। जैसे दूध और घीउ का मिलाप रहता है, मथने से दोनों अलग-अलग हो जाते हैं, उसी तरह जड़ और चेतन अलग- अलग होकर पहचान में आ जाता है। जिसके सारे संशय नाश हो गए, कर्मबन्धन नाश हो गए, ऐसे जो होते हैं, वे ही संत होते हैं। जिसको परमात्मा का दर्शन हुआ, उसके सारे कर्मबंधन छूट गए, उसने परम मोक्ष प्राप्त कर लिया। जड़-चेतन की गाँठ खुल गई, संशय दूर हो गया, यह दशा जिनकी होती है, उनको संत कहते हैं। लेकिन इनकी पहचान कौन करे? बड़े विद्वान को बड़े विद्वान ही पहचानते हैं। कम पढ़े-लिखे या नहीं पढ़े-लिखे नहीं जानते। गोस्वामी तुलसीदासजी संत के लिए लिखते हैं-
 अमित बोध अनीह मितभोगी ।
    सत्य सार कवि कोविद जोगी ।।
 बिना योग के हृदय की गं्रथि नहीं खुलती है। संसार में जबतक शरीर है कुछ-न-कुछ खाना होगा। गोरखनाथजी के वचन में है-
 धाये न खाइबा भूखे ने मरिबा,
      अहि निसि लेबा ब्रह्म अगिनि का भेवं ।
 इतना भोजन लो, जिससे शरीर की रक्षा हो। भगवान बुद्ध के वचन में है कि भोजन की मात्रा जानो। गोरखनाथजी कहते हैं जिस भेद से ईश्वर की प्राप्ति होती है, ईश्वर-दर्शन होता है, उसमें दिन-रात लगे रहो। घमण्ड नहीं करो, सहज से रहो, स्वल्प भोगी बनो, सोओ कम, बोलो तौल करके, सभी काम में उनको तौल रहता है।
 संत को कुछ प्राप्त करना नहीं रहता। ईश्वर- दर्शन करना भी अच्छा है। लेकिन जिनको दर्शन- ही-दर्शन है, उनको फिर इच्छा क्या? यही एक दर्शन है कि कभी अदर्शन नहीं होता।
सोवत जागत ऊठत बैठत, टुक विहीन नहिं तारा।
झिन झिन जंतर निसि दिन बाजै, जम जालिम पचिहारा।।
       -दरिया साहब, बिहारी
 जो कुछ अप्राप्त है, उसके लिए इच्छा होती है। संत को कुछ भी अप्राप्त नहीं है, फिर भी संसार का काम करते हैं। इच्छा-रहित आदमी संसार में काम कैसे कर सकता है? इस बात को वह नहीं जानता जो इच्छा-रहित नहीं हुआ है। जो कभी स्वप्न नहीं देखा उसको उस सम्बन्ध में क्या मालूम?
 अभी तुम सोए हुए हो, जगो। इसीलिए उपनिषद् में कहा है-उठो, जागो और श्रेष्ठ पुरुषों के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करो।’ यह जाननेवाली अवस्था भी स्वप्न है। तीन अवस्था से ऊपर उठो, चौथी अवस्था में जाओ, तब इस जाग्रत को स्वप्न समझोगे। ‘तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त।’ (गोस्वामी तुलसीदासजी)। इन तीन अवस्थाओं को छोड़कर तुम कभी नहीं रहे हो, फिर तो संसार को स्वप्न कैसे देखोगे? तीन अवस्था से ऊपर जाने के लिए आँख से ऊपर जाओ। गोरखनाथजी ने रास्ता बताया-‘गगन मण्डल में औंधा कुआँ तहाँ अमृत का वासा।’ बाहर कुआँ में पानी मिलता है और अंदर के कुआँ में अमृत मिलता है। यह बनौरी बात नहीं है, असली बात है। जो स्वयं ख्याली पोलाव बनाता है, वह दूसरे को भी वैसा ही समझता है। तीन अवस्था के ऊपर जाकर रहो तो इस संसार को स्वप्नवत् समझोगे। लोग संसार को बौद्धिक स्वप्न समझते हैं, प्रत्यक्ष नहीं। प्रत्यक्ष देखने के लिए तीन अवस्थाओं को पार करो। इसके लिए ज्ञानवान के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करो, वह रास्ता क्षुरे के धार के समान है। क्षुरे की धार को सुनकर डर लगता है। क्षुरे की धार पर मन-चेतन चलता है, इसको क्षुरा काट नहीं सकता। इसी को कबीर साहब ने कहा है-‘भक्ति का मारग झीना रे।’ इस रास्ता को जो बतावे, वह गुरु है। राह बारीक गुरुदेव तें पाइए, जनम अनेक की अटक खोलै।’ (कबीर साहब)। अनेक जन्मों का जो अटकाव था, सो छूट गया। गुरु नानक कहते हैं-ख्ांनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा।’ लोगों को सुनकर कठिन मालूम होता है, लेकिन रास्ता जैसा बारीक है, उस पर चलनेवाला भी वैसा ही बारीक है।
 संत रास्ते को तय किये होते हैं, उनको अब चलना नहीं है। पढ़े-लिखे नहीं रहने पर भी कबीर साहब जैसे विद्वान होते हैं। संत को कौन पहचान सकता है? कुछ संतवाणी याद है, सुचरित्र से रहता है-यह देखा जा सकता है। लेकिन वे कहाँ तक पहुँचे हुए हैं, इसकी पहचान कैसे हो सकती है?
 गुरु महाराज ने कहा था कि संतों की वाणियों को पढ़ो, यह भी सत्संग है। दूर-दूर पर लोग रहते हैं, चिट्ठी से बातचीत होती है। चिट्ठी को आधी मुलाकात कहते हैं। संतों की आधी मुलाकात क्या कम है? बहुत है।
 मैं दो चार बातें आपसे कहता हूँ, इससे मैं अपने को संत नहीं कहता। गुरु महाराज ने जो रास्ता बताया है-उसका छोर पकड़ा हूँ। संत-वचन अमृत-वचन है। इसके सहारे बिना अमृत-पद को कौन पा सकता है। परमात्मा बुद्धि के परे हैं। इसलिए बुद्धि में ही बँधे नहीं रहो। इसका मतलब यह नहीं कि अंध विश्वासी बन जाओ।
 कई संतों के वचन पढ़ने का अर्थ यह है कि सभी संतों की वाणियों को पढ़ने से संतों का एक मेल मालूम होता है। गं्रथों को पढ़कर समय टाला नहीं जाता। ‘जब बहु काल करिअ सत्संगा। तबहिं होइ सब संशय भंगा।।’ ‘कुछ काल’-लाख वर्ष भी हो सकता है। कोई पूछे कि लाख वर्ष शरीर रहेगा? तो मैं कहूँगा-शरीर नहीं रहेगा, आप तो रहेंगे। कपड़ा फटता है, शरीर रहता है। इसी तरह शरीर छूटता है और आप रहते हैं।
 संतों ने जो ज्ञान दिया है, उसका छोर पकड़ लिया है, कभी-न-कभी खत्म होगा। योग के आरंभ का नाश नहीं होता।
 भक्ति बीज पलटै नहीं, जो युग जाय अनंत ।
 ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।।
 भक्ति बीज बिनसै नहीं, आय पड़ै जो चोल ।
 कंचन जौ ं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।
        -संत कबीर साहब
 सभी दिन सत्संग कीजिए, कभी नहीं भूलिये।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत जिला वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर ग्राम-तिनटेंगा में दिनांक 20. 3. 1965 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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209. गुरु कैसा होना चाहिए?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 ईश्वर की प्राप्ति ईश्वर की भक्ति से ही होती है। ईश्वर की भक्ति ही ईश्वर की प्राप्ति के लिए सुगम साधन है, यह बात भारत में बहुत प्रसिद्ध है। इसलिए भारत के लोग अधिक-से-अधिक ईश्वर- भक्ति की चर्चा किया करते हैं। बात बिल्कुल यथार्थ है। केवल रोचक नहीं, रोचक होते हुए यथार्थ है। रोचक हो और यथार्थ नहीं हो, तब भी साधु- महात्मा, जो ऐसी बात कहते हैं, तो जिस ओर रुचि बढ़ानी चाहिए, बढ़ाते हैं; इसमें तो दोष नहीं है।
 ईश्वर-प्राप्ति के लिए ईश्वर-भक्ति रोचक भी है और यथार्थ भी। ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर का स्वरूप जानना चाहिए। ईश्वर की प्राप्ति के लिए ईश्वर की भक्ति सुगम साधन है, इस बात को जो जानते हैं अथवा इस बात का जिसको ज्ञान है, वे ही ईश्वर-भक्ति में पड़ते हैं। मतलब यह कि ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान अवश्य चाहिए। यदि विश्वास हो कि ईश्वर की स्थिति नहीं है, तो ईश्वर-भक्ति के लिए कोई आग्रह नहीं।
 कुछ ज्ञान की आवश्यकता पहले होती है; क्योंकि बिना जाने क्या कर सकते हैं? अर्थात् कुछ नहीं कर सकते हैं। किसी प्रकार कुछ जानना बहुत आवश्यक है। इसलिए यह बहुत कहने योग्य है कि ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए। किसी विषय के लिए हो, यदि अपने लिए हितकर होता है तो उस विषय की ओर एक आकर्षण-सा होता है।
 आपलोगों को मालूम है कि अपने देश में द्वापर युग का अंत होते-होते एक बड़ा भारी युद्ध हुआ था और भरतवंशी में युद्ध हुआ था। भरत- वंशी दो भागों में बँटे थे-कौरव और पाण्डव।
 भरतवंश में कुरु नाम का एक राजा हुआ था। इसीलिए कौरव और पाण्डवों के पिता का नाम पाण्डु था, इसीलिए पाण्डव; किंतु दोनों ही कौरव थे और भरतवंशीय थे। वह युद्ध अट्ठारह दिनों में समाप्त हुआ था। वह बड़ा भयंकर गृहयुद्ध था। पाण्डव जीत गए और कौरव सब मारे गए। सभी चचेरे भाई थे। और भी जो युद्ध करने आए थे, वे कोई उनके मामा, कोई चाचा आदि होते थे। उस भयंकर युद्ध में सब प्रिय और बड़े लोग एक दूसरे के द्वारा मारे गए। बच गए पाँच भाई पाण्डव। पाण्डवों में जो सबसे बड़े थे, वे थे युधिष्ठिर। उनके मन में हुआ कि अब हम राज्य करके क्या करेंगे? जो हमारे चाचा थे, भाई थे, अपने लड़के थे, भतीजे थे; सभी मारे गए अब राज्य किसके लिए करें। यह कहकर वे बहुत रोते थे कि मैंने बहुत पाप किए। लोग कहते कि तुम क्षत्रियों के धर्म के अनुसार युद्ध किए हो, मारे हो, तुम ऐसा क्यों कहते हो कि पाप हो गया है। फिर भी लोगों की बातों से इनका मन नहीं मानता था। व्यास और कृष्ण ने भी समझाया, लेकिन वे समझे नहीं। अंत में व्यासदेवजी ने कहा कि-तू पाप-पाप क्यों बोल रहा है, यज्ञ करो-अश्वमेध यज्ञ करो। युधिष्ठिर ने कहा कि अश्वमेध यज्ञ के लिए तो बहुत धन चाहिए, मेरे पास धन कहाँ? हमारे आश्रित जो राजे लोग थे, उनके कुछ धन लेकर मैंने खर्च किया और कुछ दुर्याधन ने लेकर खर्च किया। उनसे धन माँगूँ, तो कहाँ से वे देंगे और भी जो धन हस्तिनापुर का था, उसको दुर्योधन ने खर्च किया, हमलोग तो जंगल में थे। व्यासदेव ने कहा कि पहाड़ों में बहुत धन है, मरुत राजा ने यज्ञ किया था और उन्होंने इतना धन दान लोगों को दिया था कि लोग न ले जा सके, उसे पहाड़ में गाड़ दिया। मैं रास्ता और अनुष्ठान बताता हूँ, वहाँ जाओ, धन ले आओ और यज्ञ करो। युधिष्ठिर ने व्यासदेव की बात में विश्वास किया, उनके बताए हुए मार्ग से गए, अनुष्ठान कर धन प्राप्त किए और धन लाकर अश्वमेध यज्ञ किया।
 मतलब यह कि बिना जाने आदमी क्या करेगा? इसलिए पहले जानना चाहिए अर्थात् ज्ञान चाहिए। युधिष्ठिर के लिए वह धन पहले अव्यक्त था। अव्यक्त में उसकी आसक्ति होती है, वही आसक्ति प्रेम में प्रवाहित होती है और उससे वह खिंचता है और धन लाने जाता है। ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर-स्वरूप का जानना आवश्यक है। नहीं तो अपना प्रेम किधर रखा जाय? इसलिए थोड़ी देर ईश्वर-स्वरूप के संबंध में सुनिए। इससे निर्णय होगा कि उसकी प्राप्ति के लिए क्या काम करना होता है।
 ईश्वर कभी हुआ है, ऐसा नहीं; वह हई है। कबसे है? इसका समय बताना असंभव है। देश और काल माया के फैलने में होते हैं। जब देश-काल नहीं थे, तबसे ईश्वर है। ईश्वर कितना पूर्व से है, कोई समय निर्धारित नहीं कर सकता। सबसे पहले का वह है। यह ज्ञान किसी धर्मवाले को पूछो कि ईश्वर सबसे पहले से है कि पीछे हुआ? सभी कहेंगे कि ईश्वर सबसे पहले का है। वह परम पुरातन, परम सनातन हैं। उससे पूर्व का और कोई सनातन नहीं है। वह अपने अतिरिक्त अवकाश छोड़कर रहता है, ऐसा नहीं।
 सूर्य का गोला बहुत बड़ा है। इस पृथ्वी से कई हजार गुणा बड़ा है। लेकिन सूर्य की सब तरफ अवकाश है। तारामण्डल वा पृथ्वी-जिसको सौर जगत कहते हैं, वह भी अपना हद रखता है और उसकी चारो ओर अवकाश है। कबीर साहब ने कहा है कि ईश्वर के अतिरिक्त पहले कुछ नहीं था।
 प्रथम एक सो आपे आप, निराकार निर्गुण निर्जाप।
 वह (परमात्मा) कभी बन गया है, ऐसा नहीं। किसी कारण से वह हुआ, सो भी नहीं। कबीर साहब ने एक बड़ी बात कही है-
 मूल न फूल बेलि नहीं बीजा, बिना वृक्ष फल सोहै ।
 न उसकी जड़ है, न फूल है, न लता है और न बीज है; केवल फल-ही-फल है। उसको किस रंग-रूप में जानें? तो कहा-‘निराकार निर्गुण निर्जाप।’ कोई आकार नहीं, रज, सत, तम कोई गुण नहीं अर्थात् त्रयगुणातीत वह है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कहा था-‘निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।’
 गोस्वामी तुलसीदासजी से पूछिए, तो वे कहेंगे- ‘अगुण अखण्ड अलख अज’ है। तुलसीदासजी ने सगुण रूप के बहुत गुण-गान किए हैं और उन्होंने सगुण होने का कारण भी बताया है-‘भगत प्रेमवश सगुण सो होई।’ बाबा नानक से पूछिए तो वे कहेंगे-
       अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा।।
 अपार अर्थात् आदि-अंत-रहित। और संत लोग भी यही बात कहते हैं। उपनिषद् भी संतवाणी है। वेद-वाक्य के तुल्य उसका वाक्य माना जाता है। उसमें है-
 वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
 एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
         -कठोपनिषद्
 अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अंतरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
 सबसे बाहर होने पर प्रकृति से भी बाहर हो जाता है। इसीलिए ‘प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी। ब्रह्म निरीह विरज अविनाशी।।’ और दूसरी जगह-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 सगुण का अर्थ जो गुण के सहित है। जो गुण के सहित होता है, वह सगुण होता है और जब गुण को नहीं लेता है, वह निर्गुण है। निर्गुण जो सगुण होता है, तो क्या वह पूर्ण का पूर्ण सगुण हो जाता है? अभी सुना-‘राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।’ अपार को कोई दूसरा ‘अपार’ हो तो सम्पूर्ण को ढँक ले। लेकिन ‘अपार’ दो नहीं हो सकते। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
उमा राम विषयक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा।।
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहेहु कुविचारी।।
 एक ही समय में कहीं बादल रहता है और कहीं सूर्य दीखता है। मतलब यह कि बादल का कितना बड़ा समूह भी सूर्य को ढँक नहीं सकता। बादल समूह को ऊपर करते जाओ तो रास्ते में ही बादल बिला जाएगा और सूर्य दीखने लगेगा। इसी तरह ईश्वर के सम्पूर्ण रूप को माया वा सगुण ढँक नहीं सकता है। उसके अल्पाति-अल्प भाग को ढँक सकता है। लेकिन त्रयगुण आवरण के अंदर होने पर भी उसकी शक्ति घटती नहीं। दोनों हालतों में-निर्गुण रूप वा सगुण रूप में पूर्ण शक्ति है। आकाश में कुछ दूर तक धूल है, कुछ दूर तक धुआँ है और कुछ दूर तक अंधकार है। ध्ूल, धूम और अंधकार से शून्य साफ-साफ देखा नहीं जाता और शून्य को पूरा-पूरा ये ढँक नहीं सकते। इसको पार करो तो शून्य को ठीक-ठीक देख सकोगे। इसी तरह स्थूल, सूक्ष्म और कारण; इन तीनों को पार करो तो स्वरूप को देख सकते हो।
 लोग ईश्वर को सगुण और निर्गुण दोनों रूपों में मानते हैं। निर्गुण सनातन रूप है और सगुण पीछे का। एक जगह गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
 किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
 यथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
 सोइ सोइ भाव देखावइ, आपु न होइ न सोइ ।।
 उन्होंने निश्चित बात बता दी कि त्रयगुण रूप आवरण के धारण करने से वह त्रयगुण नहीं हो गया। अपने शरीर पर कितने भी कपड़े पहन लो, तुम्हारा शरीर भिन्न ही और कपड़ा भिन्न ही रहता है। इसी तरह चेतन आत्मा, चेतन आत्मा ही रहती है; शरीर, शरीर ही। चेतन आत्मा ज्ञानस्वरूप है और शरीर जड़-अज्ञानमय है। आवरण धारण करनेवाला वही हो जाता है, ऐसी बात नहीं। सृष्टि में ईश्वर का व्यापक विराटरूप सगुण है। लोगों ने विराटरूप में अनेक लोक-लोकान्तरों के दर्शन किए। अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ने विराटरूप दिखाया और जब नारद को विराटरूप का दर्शन दिया, तब कहा कि ‘तू जो मेरा रूप देख रहे हो, यह मेरी उत्पन्न की हुई माया है।’ और श्रीमद्भगवद्गीता 7/24 में भी कहा कि ‘मैं अव्यक्त हूँ और बुद्धिहीन लोग मुझे व्यक्त मानते हैं।’
 अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः। असल में मूल स्वरूप त्रयगुणातीत,अज और अविनाशी है। और सब चीजें क्षणभंगुर और नाशवान हैं। यह सब समझकर जब ईश्वर-दर्शन के लिए इच्छा हो, तो उसको पाने की आसक्ति होनी चाहिए। व्यास के बताए अनुकूल युधिष्ठिर को धन का पता लगा, उस धन में उसकी आसक्ति हुई और उधर उसका प्रेम प्रवाहित हुआ। इसी तरह संतों के बताए अनुकूल ईश्वर के स्वरूप को जाने, आसक्ति लावे, उस ओर प्रेम प्रवाहित करे और ईश्वर की भक्ति करे।
 भक्ति का अर्थ है सेवा। जिसको जिस चीज की आवश्यकता हो, उसको वह चीज दो, तो उसकी सेवा होती है। ईश्वर को क्या कमी है? ईश्वर से मिलने की इच्छा रखो, यही भक्ति है। संतों ने ईश्वर का जो ज्ञान दिया है, उस ओर हमारी बुद्धि प्रवाहित हो। दादू दयालजी ईश्वर- स्वरूप को बताते हैं-
 दादू जानै न कोई , संतन की गति गोई।। टेक।।
 अविगत अंत अंत अंतर पट, अगम अगाध अगोई।
 सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई।।
 वह ईश्वर कहाँ मिलते हैं? तो कहा-‘अविगत अंत अंत अंतर पट।’ अर्थात् वह सर्वव्यापी परमात्मा अपने अंदर के अंतिम पट को पार करने पर मिलेंगे। अकथ होने के कारण सूरदासजी ने भी कहा है-
अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यों गूँगहिं मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै।।
परम स्वाद सबही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै।
मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै।।
रूप रेख गुन जाति जुगुति बिनु,निरालंब मन चक्रित धावै ।
सब विधि अगम विचारहि तातें, ‘सूर’ सगुन लीला पद गावै।।
 उस सर्वव्यापी की प्राप्ति में ऐसी संतुष्टि होती है, जो कभी छूटने को नहीं है। अमित तोष होता है। मन-बु़द्ध से आगे की बात है। अंदर में चलो, जितने आवरण हैं, पार करो। दादू दयालजी ने तीन शून्यों का जिकर किया-‘सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा... तीन शून्यों को पार करो तो, उसको पाओगे। तीन शून्य क्या है? यह शरीर हाड़, मांस, चाम का बना स्थूल कहलाता है। इसका दूसरा रूप सूक्ष्म है, यह भीतर में है। भीतर का अर्थ माथे के गुद्दे या अँतड़ी में नहीं। जैसे बर्फ स्थूल है और पानी सूक्ष्म है, इसी तरह अंधकार स्थूल है और प्रकाश सूक्ष्म है। हमारे अंदर प्रकाश नहीं होता तो हमारी आँख में ज्योति नहीं होती है। दूसरा तल ज्योति का है और तीसरा तल शब्द का है। शब्द अंधकार और प्रकाश में भी है और इन दोनों के परे भी है। इन तीनों को छोड़ो तो पता पाओगे- उस अविगत का। तुलसी साहब ने भी घटरामायण में तीनों शून्यों का वर्णन किया है-‘जीव का निवेरा’ में। कौन कह सकता है कि संसार में अंधकार, प्रकाश और शब्द नहीं है! इन तीनों को खतम कर दो तो स्थूल, सूक्ष्म, कारण; कुछ नहीं रहेंगे। सृष्टि समाप्त हो जाएगी। तीन को खतम करो। चौथे में जाओ, तो अंतरपट का अंत मिल जाएगा। जहाँ तक तुम्हारी गति है, वहाँ तक जाओगे और आगे नहीं। जाने का अंत कहाँ हुआ? अनंत में। जो बुद्धि के परे हैं। इस तरह ईश्वर का ज्ञान संतों ने बताया है। जैसे युधिष्ठिर को रास्ता और अनुष्ठान व्यासदेव ने बताया था। युधिष्ठिर ने विश्वास किया। उस रास्ते पर चलो, जहाँ तक जाना चाहिए, गया और अनुष्ठानपूर्वक कर्म करके धन प्राप्त कर यज्ञ किया। उसी तरह संतों ने जो रास्ता बताया, जो अनुष्ठान बताया, उस पर विश्वास कर उसके अनुकूल चलो और बताए अनुष्ठानों को करो तो ईश्वर रूप धन को पाकर कृतकृत्य हो जाओगे।
 लोगों का ऐसा ख्याल हो कि ‘अगर हम अपने अंदर चलेंगे, तो हम संसार को कैसे पार कर सकते हैं? तो शरीर और संसार में बहुत संबंध है। शरीर जितने तत्त्वों से बना है, संसार भी उतने ही तत्त्वों से बना है। शरीर के जितने तल हैं, संसार के भी उतने तल हैं। शरीर के जिस तल पर जब हम रहते हैं, संसार के भी उसी तल पर तब हम रहते हैं। शरीर के जिस तल को जब हम छोड़ते हैं, संसार के भी उसी तल को तब हम छोड़ते हैं। इससे यह निर्णय हुआ कि यदि हम शरीर के सभी तलों को पार कर जाएँ, तो संसार के भी सभी तलों को पार कर जाएँगे। चाहे अनेक ब्रह्माण्ड हों, किंतु अंधकार, प्रकाश और शब्द; इनसे परे कुछ सृष्टि नहीं हो सकती। संतों ने शरीर के अंदर चलने कहा। शरीर के तलों को पार करो तो संसार के भी तलों को पार कर सकोगे।
 ये तल क्यां बने? स्थूल, सूक्ष्म, कारण आदि क्यों बने? इस बात को भी जानो। बिना सूक्ष्म के स्थूल नहीं हो सकता। बिना कारण के सूक्ष्म नहीं हो सकता। जो सूक्ष्म होता है, वह अपने से स्थूल में स्वाभाविक ही व्यापक होता है। पाँच भौतिक तत्त्वों में आकाश विशेष सूक्ष्म है, तो वह अन्य चार तत्त्वों में व्यापक है। माया के सारे आवरणों को जो पार कर गया, तो ईश्वर पाने को बाकी नहीं रह जाता। भगवान श्रीराम आगे-आगे श्रीलक्ष्मणजी पीछे-पीछे और बीच में सीताजी जाती थीं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
आगे राम लखन बने पाछें । तापस वेष विराजत काछे।।
उभय बीच सिय सोहति कैसे । ब्रह्म जीव बिच माया जैसे।।
 यदि बीच से सीताजी हट जाएँ तो राम को लक्ष्मण देख लें। इसी तरह ब्रह्म का दर्शन माया के कारण जीव को नहीं होता है। जो माया के तीनों आवरण को पार करे, तो ईश्वर-दर्शन हो जाएगा। इसी को एक जगह में गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
मायाबस मति मन्द अभागी। हृदय जवनिका बहु विधि लागी।।
ते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अज्ञान राम पर धरहीं।।
 काम क्रोध मद लोभ रत, गृहासक्त दुख रूप ।
 ते किमि जानहिं रघुपतिहिं, मूढ़ पड़े तम कूप ।।
 मतलब अंधकार के कुएँ से अपने को निकालो और अंदर के परदों को पार करो, तो राम प्रत्यक्ष होंगे। संतों ने जो मार्ग बताया है, उस पर हमको चलना चाहिए। इसके लिए सुगम से सुगम काम क्या है?
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
  गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।
  चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मो तें सन्त अधिक करि लेखा।।
आठवँ यथा लाभ सन्तोषा। सपनहुँ नहिं देखइ पर दोषा।।
नवम सरल सब सन छल हीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।।
नव महँ एकउ जिन्हके होई। नारि पुरुष सचराचर कोई ।।
सोइ अतिशय प्रिय भामिनी मोरे। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।।
 पहली भक्ति संतों का संग है। लेकिन यह बात भी है कि-
 नित प्रति दरसन साधु के, औ साधुन के संग ।
 तुलसी काहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
इसके उत्तर में कहा है-
 मन तो रमे संसार में, तन साधुन के संग ।
 तुलसी याहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
और-
         ऐसी दिवानी दुनियाँ भक्ति भाव नहिं बूझै जी ।।
        कोई आवै तो बेटा मांगै, यही गुसाईं दीजै जी ।।
        कोई आवै दुख का मारा, हम पर किरपा कीजै जी ।।
 कोई आवै तो दौलत मांगै, भेंट रुपैया लीजै जी।।
  कोई करावै व्याह सगाई, सुनत गुसाईं रीझै जी।।
  साँचे का कोई गाहक नाहीं, झूठे जक्त पतीजै जी।।
 कहै कबीर सुनो भाइ साधो, अंधों को क्या कीजै जी।।
 इन सब ख्यालों को लेकर साधु-संग में बैठोगे तो कैसे रंग लगेगा? कथा-प्रसंग में रहोगे तो कुछ करने की इच्छा होगी। कुछ करने के लिए गुरु की खोज करेगा। गुरु खोज करके उसकी सेवा करेगा। बिना गुरु-सेवा के कोई गुरु से विद्या नहीं ले सकता। अर्जुन के अतिरिक्त द्रोणाचार्य से और किसी ने अधिक विद्या नहीं ली। अर्जुन ने द्रोणाचार्य की बड़ी सेवा की थी। गुरु की सेवा करके लोग बड़े हुए हैं। क्षत्रपति शिवाजी गुरु समर्थ की सेवा अपने से ही करते थे। उनकी देह में तेल लगाते थे, पानी भरते थे आदि। राधास्वामी मत में राय शालिग्राम बहादुर महोदय की सेवा आपलोग जानते ही हैं कि कैसी सेवा उन्होंने की। लेकिन गुरु होना चाहिए, गोरु नहीं। गोरु कहते हैं-गाय-बैल को। गुरु कैसा होना चाहिए?
 गुरु नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोइ ।
 ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोइ ।।
 सत्तनाम के पट तरे, देवे को कछु नाहिं ।
 क्या ले गुरु संतोषिये, हवस रही मन माहिं।।
 मन दीया तिन सब दिया, मन की लार शरीर ।
 अब देवे को कछु नहीं, यों कथि कहै कबीर ।।
 तन मन दिया तो क्या भया, निज मन दिया न जाय ।
 कह कबीर ता दास से , कैसे मन पतियाय।।
 तन मन दीया आपना, निज मन ताके संग।
 कह कबीर निर्भय भया, सुन सतगुरु परसंग।।
फिर कहते हैं-
 तन मन ताको दीजिये, जाके विषया नाहिं ।
 आपा सबही डारिके, राखे साहिब माहिं ।।
 ऐसे गुरु हों तो तन-मन से सेवा क्यों न करो? तन-मन और निज-मन में भेद है। पानी देना और कोई स्थूल सेवा करना तन-मन से सेवा है। तन-मन दो और आत्ममुखी मन भी दो। जब मन अंतर्मुखी होता है, तब वह निज मन कहलाता है। जो गुरु बाहरी सेवा से प्रसन्न होता है और अंतर साधन का ख्याल नहीं रखता, वह तो-
हरइ शिष्य धन शोक न हरई । सो गुरु घोर नरक महँ परई ।।
 जो गुरु बाहर की भी सेवा ले और अंतर साधन भी करावे, वह गुरु है। इस तरह गुरु की सेवा करो। हमारे यहाँ प्रसिद्ध है-‘गुरु करो जान, पानी पीओ छान।’
 यहाँ तक तीन भक्तियाँ हुईं। चौथी भक्ति है-कपट छोड़कर ईश्वर का गुणगान करना। कपट यह कि ‘लोक दिखावे के लिए करता है, सो नहीं करे। संतों का संग, कथा-प्रसंग, गुरु-सेवा, कपट छोड़कर गुणगान करना; ये सभी क्रम से हैं।
 पूजाकोटि समं स्तोत्रं, स्तोत्र कोटि समं जपः।
 जप कोटि समं ध्यानं, ध्यान कोटि समो लयः।।
 इसके बाद है पाँचवीं भक्ति-दृढ़ विश्वास से मंत्र जप करना, जो मंत्र गुरु बता दे। लेकिन ऐसा नहीं हो कि-
 माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं ।
 मनुवाँ तो दह दिसि फिरै, यह जो सुमिरन नाहिं ।।
सुमिरण कैसा होना चाहिए तो कहा-
 तन थिर मन थिर वचन थिर, सुरत निरत थिर होय ।
 कह कबीर इस पलक को, कलप न पावै कोय ।।
 एकाग्र मन से जप करो, केवल जप-संख्या पूरा करने के लिए नहीं। एकाग्र मन से कुछ देर तक जप हो, तो समझो कि जप हुआ। संतों के संग से लेकर मंत्र जप तक; सब में मन की एकाग्रता अत्यन्त अपेक्षित है। जो अत्यन्त अपेक्षित है, उसको नहीं जानकर भक्ति करो तो वह भक्ति नहीं। पाँच भक्ति तक लोग समझ जाते हैं। इनमें मन की एकाग्रता होती है। मन की एकाग्रता में पहाड़ पर चढ़ने की तैयारी होती है। अर्थात् भीतर के सूक्ष्म मण्डल में चलने की तैयारी है।
 ईश्वर का दर्शन कौन करेगा? आँख नहीं। ‘गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।’ संतों ने साफ कह दिया है। चेतन आत्मा से दर्शन होगा। माया में चेतन आत्मा के रहने से माया का ही दर्शन होता है। इसलिए लोगों को बाहर में ईश्वर का दर्शन नहीं होता। माया को पार कर ईश्वर का दर्शन होता है। जैसे एक ही लालटेन के पाँच पहलों में पाँच रंग के शीशे हों और बीच में मोमबत्ती जलती हो, तो जिस रंग के शीशे होकर वह रोशनी बाहर निकलेगी, वह रोशनी उसी रंग की होगी। अर्थात् लाल शीशा होकर जो रोशनी बाहर निकलेगी, वह लाल और जो हरा शीशा होकर रोशनी बाहर निकलेगी, वह हरी रोशनी होगी। इसी प्रकार पाँचों रंग के शीशे के संबंध में समझिए। किंतु भीतर में जो मोमबत्ती जलती है, उसके प्रकाश का रंग इन पाँचों रंगों से भिन्न ही होता है, यद्यपि पाँचों रंग के शीशों से मोमबत्ती की ही रोशनी निकलती है। इसी तरह पंच ज्ञानेन्द्रियों में यद्यपि चेतन आत्मा के कारण ही ज्ञान है, फिर भी इन्द्रियाँ मायिक होने के कारण मायिक वस्तु को ही ग्रहण कर सकती हैं, निर्मायिक को नहीं। निर्मायिक तत्त्व अर्थात् परमात्मा को चेतन आत्मा ही ग्रहण कर सकती है। अपनी रोशनी में अपने को रखकर ईश्वर-दर्शन करो।
 ईश्वर क्या है? मैं कहता हूँ कि दृश्य क्या है? तो जो तुम आँख से देखो, वह दृश्य वा रूप है। जो कान से सुनो, वह शब्द है। इसी तरह जिसको तुम चेतन आत्मा से जानो, वही ईश्वर है।
 अपने को मायिक आवरणों से छुड़ाकर अपने तईं में रखने के लिए अंदर चलना है। इस मंदिर में हमलोग बैठे हैं, इससे निकलने के लिए पहले मन्दिर-ही-मन्दिर चलना होगा। इसी तरह इस शरीर से निकलने के लिए शरीर के अन्दर-अन्दर चलना होगा। शरीर चार हैं-स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण। इन चारों जड़ आवरणों को पार करो, ईश्वर-दर्शन होगा। बाहर में कितना भी दर्शन करो, ईश्वर-दर्शन नहीं होगा। जैसे, जहाँ दूध है, वहाँ मक्खन; उसी तरह जहाँ मन है, वहाँ चेतन। इसीलिए संत तुलसी साहब ने कहा है-
सत सुरति समझि सिहार साधो। निरखि नित नैनन रहो।
धुनि धधक धीर गंभीर मुरली। मरम मन मारग गहो।।
 मन को समेटो। मन को कैसे समेटोगे? प्रथम भक्ति से पाँचवीं भक्ति तक मन समेटने को कहा। मन जिधर से सिमटता है, उसके विपरीत ओर को जाता है। बिछावन फैला हुआ है, उसको समेटो तो ऊपर को उठ जाएगा। यह प्राकृतिक नियम है कि किसी पदार्थ को जिस ओर से समेटो, उसकी गति उसके विपरीत ओर को हो जाएगी। पाँच भक्ति से जितना समेट हुआ, और भी समेटने के लिए क्या करो?
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
 अर्थात् इन्द्रियों को रोकने का स्वभाव बनाना, बहुत से कर्मों को करने से विरक्त होना और सदा सज्जनों के धर्म में लगा रहना, छठी भक्ति है। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों में बरतना सज्जनों के धर्म में बरतना नहीं है। पंच पापों से बचकर बरतना सज्जनों का धर्म है। दम= इन्द्रियनिग्रह। इन्द्रियों को काबू में रखने का स्वभाववाला बनना दमशील होना है। इन्द्रियों को काबू में कैसे करोगे? लोग कहते हैं कि विषयों की ओर से मन को विचार से हटाओ। ऐसा भी होता है, लेकिन विचार स्थिर नहीं रहता, बुद्धि स्थिर नहीं रहती है। इसलिए आदमी डिग जाता है। इसको छोड़ते भी नहीं बनता है। विचार भी रखो और देखो कि विषयों में इन्द्रियाँ कैसे जाती हैं? इन्द्रियों के घाटों में मन की धारा रहती है, तब इन्द्रियाँ विषयों को ग्रहण करती हैं। इसके लिए जाग्रत और स्वप्न की अवस्था प्रत्यक्ष प्रमाण है। मन की धारों को समेटो। मन को समेटने का साधन करने से और विचार द्वारा मन को रोकने से सूक्ष्मता में गति होगी। मन का इतना सिमटाव हो कि एकविन्दु हो जाए। एकविन्दुता में पूर्ण सिमटाव होता है। इसीलिए-
 बीजाक्षरं परम विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
       -ध्यानविन्दूपनिषद्
 वह विन्दु क्या है? ‘तेजो विन्दुं परं ध्यानं विश्वात्म- हृदि संस्थितम्। (तेजोविन्दूपनिषद्)’ अक्षर का बीज क्या है? अ,आ; ।ए ठ वा अलिफ, बे; कुछ लिखेंगे, तो पहले पेन्सिल जहाँ रखेंगे एक र्चिं होगा, उसको विन्दु कहते हैं। लेकिन यह परम विन्दु नहीं। परम विन्दु के लिए दूसरे पेन्सिल की जरूरत होती है, वह पेन्सिल है दृष्टि की। आपसे हम तक और हमसे आप तक दृष्टि आती-जाती है, लेकिन उस धार को देख नहीं सकते हैं।
 द्रोणाचार्य ने एक बार अपने शिष्यों-कौरवों और पाण्डवों की परीक्षा ली। उन्होंने एक काठ का पक्षी बनवाकर वृक्ष पर रखवा दिया और एक-एक करके अपने सब शिष्यों को तीर से उसका निशाना करने कहा। आचार्य के पूछने पर किसी ने कहा-मैं वृक्ष-डालियों एवं पत्तों सहित पक्षी को देखता हूँ, तो किसी ने कहा-मैं डालियों और पत्तां सहित पक्षी को देखता हूँ; इस प्रकार किसी से भी उस पक्षी का ठीक-ठीक निशाना नहीं हुआ, अंत में अर्जुन से पूछने पर उसने कहा-मैं केवल पक्षी देख रहा हूँ। अर्जुन परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ।
 एक संत ने कहा-‘उलटि देखो घट में जोति पसार।’ इसी को दृष्टियोग, शाम्भवी मुद्रा और वैष्णवी मुद्रा कहते हैं। इसका अमा, प्रतिपदा और पूर्णिमा दृष्टि से साधन किया जाता है। आँख बंदकर देखना अमादृष्टि है, आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा दृष्टि है और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा दृष्टि है। प्रतिपदा और पूर्णिमा दृष्टि में आँख में रोग भी हो सकता है। अमादृष्टि में कोई रोग नहीं। सुतीक्ष्ण मुनि और शमीक मुनि की कथा को पढ़िए, ये सब आँख बंदकर ध्यान करते थे। भगवान बुद्ध की ध्यानावस्थित प्रतिमा को देखिए, वे भी आँख बंदकर ही ध्यान करते दिखाई पड़ते हैं। कबीर साहब ने कहा है-
बंद कर दृष्टि को फेरि अंदर करै, घट का पाट गुरुदेव खोलै।
तथा-
 नैनों की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय ।
 पलकों की चिक डारिके, पिय को लिया रिझाय ।।
 यह सुगम साधन है। दृष्टियोग से एकविन्दुता होती है। एकविन्दुता से पूर्ण सिमटाव होता है और तब प्रत्यक्ष होता है-‘उलटि देखो घट में जोति पसार।’ और बाबा नानक ने कहा-‘अंतरि जोति भइ गुरु साखी चीने राम करंमा।’ यह जो साधन करता है, इन्द्रियाँ काबू में आती हैं। एकविन्दुता होती है। केन्द्र में केन्द्रित होता है। वहाँ का रस साधक को बाह्य विषय रस से विशेष मनोहारी हो जाता है। बाह्य विषय रस कम हो जाता है। इसी तरह दमशील होना होता है। इन्द्रियों को विचार से भी रोको और साधन भी करो। केवल विचार से गिर भी सकता है।
 विषय से छूटा तो क्या हुआ? निर्विषय की ओर हुआ। श्रीराम ने कहा था-‘एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।’ परमात्मा निर्विषय है, उससे जुटा। यह संबंध ईश्वर-भक्ति से है। उसके बाद सातवीं भक्ति में मनोनिग्रह का साधन है। कोई कहे कि दम के साधन में भी तो मन का साधन होता है। लेकिन वहाँ दोनों के साधन संग-संग होते हैं। सातवीं भक्ति में केवल मन का साधन होता है। क्योंकि मन के साधन के बिना ऋद्धि सिद्धि के प्रेरण में मन पड़ सकता है। ‘ऋद्धि सिद्धि प्रेरई बहु भाई। बुद्धिहि लोभ दिखावई आई।। होई बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी।।’ इसलिए मनोनिग्रह का साधन है। कैसे होगा? ‘न नाद सदृशो लयः।’ गुरु से इसका यत्न जानो। अंधकार के शब्द में स्वाद नहीं है। प्रकाश मण्डल के शब्द को पकड़ो, तब जो शब्द मिलता है, उसमें बहुत स्वाद है। उस शब्द को पकड़कर आगे बढ़ो। तुलसी साहब ने कहा है-
 सहस कमलदल पार में, मन बुद्धि हिराना हो ।
 प्र्राण पुरुष आगे चले,सोइ करत बखाना हो ।।
 वह शब्द कहाँ से आया है? ईश्वर से सृष्टि हुई है, शब्द ईश्वर से है। बिना कम्प के सृष्टि नहीं हो सकती। आदि सृष्टि में आदि कम्प हुआ। कम्प शब्दमय होता है और शब्द कम्पमय होता है। जो कोई आदि शब्द को पकड़ता है तो ‘परसत ही कंचन भया, छूटा बंधन मोह’ ऐसा हो जाएगा। शब्द में अपने उद्गम स्थान पर खींचने का गुण है। इसलिए वह शब्द ईश्वर तक पहुँचाता है। वह शब्द वर्णात्मक नहीं है, ध्वन्यात्मक है।
अघोषम् अव्यंजनम् अस्वरं च अतालुकण्ठोष्ठमनासिकं च।
अरेफ जातं उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित्।।
       -अमृत नाद उपनिषद्
 शब्द शब्द बहु अंतरा, वो तो शब्द विदेह ।
 जिभ्या पर आवे नहीं, निरखि परखि करि देह ।।
     -संत कबीर साहब
 जो लाभ हो, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी दूसरे के दोष को न देखना, आठवीं भक्ति है। नवीं भक्ति सबसे सीधा तथा अकपट रहना और हृदय में न हर्ष और न दीनता लाकर मेरा (राम) भरोसा रखना है। ऊपर वर्णित सात भक्तियों में पूर्णता पाने पर ये आठवीं और नवीं; दोनों भक्तियाँ आप ही आप सध जाती हैं।
 यह संतां का मार्ग है, इस पर चलो। सत्संग करो, गुरु खोजो और भजन करो तो कृतार्थ हो जाओगे। एक जन्म में नहीं, तो कई जन्मों में। यह बीज ऐसा है कि मुक्ति दिलाकर ही छोड़ेगा।
 भक्ति बीज बिनसै नहीं, आय पड़ै जो चोल ।
 कंचन जौ ं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।
 भक्ति बीज पलटै नहीं, जो युग जाय अनंत ।
 ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।।
 भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है कि ‘योग का आरंभ का नाश नहीं होता। साधक पुण्यकर्ता पुरुषां को मिलनेवाले स्वर्ग आदि लोकों को पाकर और वहाँ बहुत वर्षों तक निवास करके पवित्र श्रीमान् लोगों के घर में जन्म लेता है अथवा बुद्धिमान योगियों के ही कुल में जन्म पाता है। इस प्रकार प्राप्त हुए जन्म में वह पूर्व के बुद्धि संस्कार को पाता है और उससे अधिक (योग) सिद्धि पाने का प्रयत्न करता है। प्रयत्नपूर्वक उद्योग करते-करते पापों से शुद्ध होता हुआ अनेक जन्मों के अनन्तर सिद्धि पाकर उत्तमगति पा लेता है।’
 जैसे चुम्बक से लोहा खींच जाता है और उसमें लग जाता है, परंतु चुम्बक से लोहे को कोई छुड़ा भी सकता है, लेकिन जो भक्त उस आदि शब्द से पकड़ा जाएगा, उसको कोई बज्र भी नहीं छुड़ा सकता। आज तक जितने प्रकार के बम बनते हैं, कोई भी नहीं छुड़ा सकता है।
 कोई कहते हैं कि नौ भक्ति में से एक भी कर लो, तो ईश्वर के अतिशय प्यारे बन जाओगे। मैं कहता हूँ कि एक भक्तिवाला अतिशय प्रिय है, तो नवो प्रकार की भक्ति जो करेगा, उसके लिए नौ बार अतिशय जोड़कर देखो, वह कितना प्यारा होगा? भक्त को तो भक्ति करने में न्योछावर हो जाना चाहिए। तुम कुछ भक्ति करना चाहो और कुछ नहीं, तो कैसे भक्त हो? तुम कायर हो। तुमको पुरुषार्थी बनकर सभी भक्ति करनी चाहिए। नवो प्रकार की भक्ति सिलसिले के साथ है, नवो भक्ति करो।
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यह प्रवचन मुरादाबाद स्थित श्रीसंतमत सत्संग मंदिर कानून गोयान मुहल्ले में दिनांक 12. 4. 1965 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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210. बाहर संसार में भागकर कहाँ जाओगे?
प्यारे लोगो!
 आप सबको विदित होना चाहिए कि संतों के ज्ञान के अनुकूल मैं आपको समास-रूप में कुछ कहूँगा। कारण है, सब लोगों को अपनी पूर्ण स्वतंत्रता विदित नहीं होती है। यह जो अपना राज्य कहलाता है, इस राज्य में रहकर भी या कोई सम्राट हो उनको भी, कोई जो राष्ट्रपति हैं, उनको भी बड़े-से-बड़ा-इन्द्र को भी स्वतंत्रता नहीं है। संसार, शरीर और इन्द्रियों के बंधन उनके ऊपर है। संसार और शरीर में रहते हुए उनके संबंधों और बंधनों से जीव जकड़ा हुआ है। इन बंधनों से जबतक कोई छूट नहीं जाता, कोई स्वतंत्र है, कहा नहीं जा सकता। स्वतंत्रता में जो सुख है, वह परतंत्रता में नहीं। घर है, सम्पत्ति है फिर भी और चाहिए। इसके अतिरिक्त दैहिक, दैविक और भौतिक कष्ट होते हैं, फिर मनोविकार सताते हैं। सुख पाने के लिए दौड़ते हैं, फिर भी सुख दूर ही भागता है। संतलोग कहते हैं-इनको छोड़ दो, संन्यासी बन जाओ, फिर भी मनोविकार तुम्हारे साथ है। शरीर का बंधन-संसार का बंधन तुम्हारे साथ है। इससे छुड़ावे कौन? गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
 संत संग अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।
 कहहिं संत कवि कोविद, श्रुति पुरान सदग्रंथ ।।
 अर्थात् संतों का संग मोक्ष का और कामी पुरुषों का संग संसार का मार्ग है। संत, कवि, पंडित, वेद, पुराण और सद्ग्रंथ ऐसा कहते हैं। इसीलिए संतों के ज्ञान का प्रचार है। संतों के ज्ञान को जानने और उसके अनुकूल चलने का यत्न करना चाहिए, तब मालूम होगा कि हम बंधन से छूटते जा रहे हैं। संत महात्मागण छूट गए, हम भी छूट जाएँगे।
 संत-महात्मा कहने का अर्थ, संन्यासी-वैरागी से नहीं है, संत की रहनी में रहने से है। इसलिए संत के आचरण से रहो, उनके कहे अनुकूल चलो, बंधन से मुक्त होओगे। संसार में यह चाहिए और वह चाहिए, यह इच्छा बनी रहती है। रावण को सोना-चाँदी सभी थे, खाई के बदले चारो ओर समुद्र था। वह स्वयं पण्डित था, लेकिन उसको संतोष नहीं था, उसकी गिनती श्रेष्ठजनों में नहीं, दुष्टजनों में होती है। इसलिए कहा है-
 कोइ करो महल कोइ करो टाटी ।
            उड़ जाय हंसा पड़ी रहै माटी ।।
 अपने रहते हुए भी सम्पत्ति चली जाती है। अपने देश में ही क्या-क्या परिवर्तन हुए, लोगों को विदित है। संसार में रहो और संसार के पदार्थों को औषधि के रूप में लो। संसार से छूटने का यत्न करो, आसक्ति छोड़ो। संत लोग कहते हैं कि सत्संग करो। सत्संग से विदित होगा कि सब बंधनों से छूटे हुए परमात्मा हैं। उनकी भक्ति करो, उनपर कोई बंधन नहीं।
 बंधे को बंधा मिले, छूटे कौन उपाय ।
 कर सेवा निरबंध की, पलमें लेय छोड़ाय ।।
 भक्ति कहते हैं-सेवा को। किसी की कमी को पूरा कर दो, उसकी सेवा है। लेकिन परमात्मा को किसी चीज की कमी नहीं है। उसकी सेवा कैसे करोगे? परमात्मा स्वरूपतः क्या है? जैसे एक-एक इन्द्रिय का एक-एक विषय है, उसी तरह परमात्मा किस का विषय है?
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 परमात्मा मायातीत है। उसको जानने के लिए क्या करो? उसको जानने के लिए कोई भी इन्द्रिय समर्थ नहीं है। अपने आपको सोचो, कौन हो?
ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।
 तुम्हीं उसको जानने योग्य हो। तुमसे जो जाना जाय, वही ईश्वर है। तुम शरीर और संसार में फँस गए हो। शरीर और मन-बुद्धि के ज्ञान से परे तुम हो। तुम अपने से जिसको ग्रहण करोगे, वह ईश्वर है। इन बातों को लोग भूलकर भटकते- फिरते हैं। सत्संग करो और जगो। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
 जागु जागु जीव जड़ जो है जग जामिनी ।
आज वा कल्ह कब यह शरीर छूटेगा, ठिकाना नहीं।
 आज काल्ह के बीच में, जंगल होगा वास ।
 ऊपर ऊपर हर फिरै, ढोर चरेंगे घास ।।
 पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल्ह की साज ।
 काल अचानक मारसि, ज्यां तीतर को बाज ।।
       -संत कबीर साहब
 चलना है रहना नहीं, चलना विस्वावीस ।
 सहजो तनिक सुहाग पै, कहा गुथावै सीस ।।
      -भक्तिन सहजो बाई
 संसार से भागो! लेकिन बाहर संसार में भागकर कहीं जाओ, संसार से बच नहीं सकते। जगो, जागने से मालूम होगा कि किधर रास्ता है? कहाँ से रास्ता आरंभ होगा? रास्ता खत्म होने पर परमात्मा का दर्शन होगा। हमलोग रोजमर्रा शरीर के अंदर आते-जाते रहते हैं-तीन अवस्थाओं में। संत बताते हैं-इन तीन अवस्थाओं से ऊपर उठो। तब जो जगना होगा, वह ठीक जगना होगा। अभी जो हमलोग जगे हैं, वह स्वप्न है। लेकिन स्वप्न में स्वप्न मालूम नहीं होता, जगने पर मालूम होता है कि स्वप्न था। इसी तरह चौथी अवस्था में जाओ, तो यह जगना स्वप्न हो जाएगा। लेकिन जो जहाँ बैठा रहता है, वहीं से चलना आरंभ करता है। शरीर के अंदर में रहते हो, शरीर के अंदर-अंदर चलो। तब मालूम होगा कि शरीर में शरीर है। मैं शरीर में रहता हूँ, लेकिन मैं शरीर नहीं हूँ। अपने की पहचान करो। अपने की पहचान अपने से होगी। जो अंतर-मार्ग में चलता है, वह प्रत्यक्ष रूप में ईश्वर को पाता है। बाहर में किसी भी इन्द्रिय से ईश्वर को नहीं पकड़ सकते।
 संसार में रहने के लिए झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार-पंच पापों को नहीं करो। पंच पापों से बचने से ईश्वर की ओर चलने में सहायता होती है। संसार में पूज्य होकर रहोगे और लोगों में प्रतिष्ठा होगी। सब को सब पर विश्वास होगा। सबका कल्याण होगा, तब स्वराज्य में सुराज्य होगा। सुराज्य लाने के लिए बुराइयों से बचो। जो अनिवार्य रूप से ईश्वर-भजन करेगा, वह अनिवार्य रूप से परमात्मा को पावेगा। संतों का संग करो। उनके संग से धीरे-धीरे काम करते-करते खतम होगा। देश में शान्ति से लोग रहेंगे।
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यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत कांग्रेस आश्रम, तेघड़ा (बेगुसराय) में दिनांक 21. 4. 1965 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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211. ईश्वर की महिमा
प्यारे लोगो!
 जीवों के प्रति ईश्वर का कितना उपकार है, वह वर्णनातीत है। जैसे कोई महा उदार हो और जो कोई माँगे, न माँगे, सबको सब कुछ दे; उसी तरह परमात्मा है। जिस चीज की जितनी अधिक आवश्यकता है, परमात्मा ने उस चीज का भण्डार उतना ही विशाल बनाया है। पाँच तत्त्वों में आकाश का कितना विस्तार है? हवा कितनी है कि कितना भी श्वास लो खतम नहीं होती। यह ऐसा भोजन है कि नींद में भी (हवा का) भोजन करते हैं। जल कितना है? पृथ्वी के बिना कोई रह नहीं सकता। पृथ्वी से अन्न उपजाते हैं, जीवन-यापन करते हैं। ईश्वर की महिमा में ये तुच्छ हैं, लेकिन मनुष्य के लिए ये महान हैं। मनुष्य की क्या शक्ति है कि इन पंच तत्त्वों को दे। देवता को कौन कहे, ईश्वर कोटि के देवता भी ये नहीं दे सकते। ईश्वर का कितना उपकार जीवों पर है, कोई वर्णन नहीं कर सकता। हमलोग परमात्मा के उपकार से बहुत उपकृत हैं। लदे हुए हैं। परमात्मा की कोई मदद करे, सो तो होगा नहीं। उनका स्मरण करो, यश गाओ, स्तुति करो। ईश्वर-भक्ति में तीन बातें अवश्य हैं। स्तुति, प्रार्थना और उपासना।
 सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर औरु अक्षर पार में ।
 निर्गुण सगुण के पार में सत् असत् हु के पार में ।।..
 यह बहुत उच्चकोटि की स्तुति है। मनुष्य कुछ-न-कुछ चाहता रहता है। नम्रता सहित कुछ माँगना प्रार्थना है। मामूली चीज के लिए प्रार्थना क्या करनी है? जो कोई नहीं दे सके, वह माँगो। और ईश्वर से माँगो। ईश्वर से ईश्वर के स्वरूप को-उनकी प्राप्ति को माँगो। संतों के बिना ईश्वर को नहीं जान सकते। उस परमात्मा को पाने की विधि भी नहीं जान सकते। इसके बतानेवाले संत हैं। इसलिए संतों के हम आभारी हैं। जो संत उपस्थित हैं, उनकी सेवा करो। जो संत मौजूद नहीं हैं, उनकी स्तुति करो। गुरु ईश्वर-प्राप्ति का यत्न बताते हैं। उनका भी बहुत उपकार है। उनकी भी स्तुति करो। उपकार नहीं मानना कृतघ्नता है। उपासना कहते हैं, जिससे ईश्वर की नजदीकी हो। उपासना भी नित्य करनी चाहिए। जो अच्छे गुरु होते हैं, वे केवल बाहरी सेवा में ही प्रसन्न नहीं होते। इसीलिए कबीर साहब ने कहा है-
 सत्तनाम के पटतरे, देवे को कछु नाहिं ।
 क्या लै गुरु संतोषिये, हवस रही मन माहिं ।।
 तन मन ताको दीजिये, जाके विषया नाहिं ।
 आपा सबही डारिके, राखे साहिब माहिं ।। किंतु तन-मन देना ही बस नहीं है। इसलिए कहा-
 तन मन दिया तो क्या हुआ, निज मन दिया न जाय।
 कह कबीर ता दास से, कैसे मन पतियाय।।
 तन मन दीया आपना, निज मन ताके संग।
 कह कबीर निर्भय हुआ, सुन सतगुरु परसंग।।
 तन-मन से सेवा बाह्यमुखी सेवा है और निज-मन से सेवा अंतर्मुखी सेवा है। निज-मन से सेवा करनेवाला ही पवित्र होकर ईश्वर की ओर चलता है। कबीर साहब कहते हैं कि जो निज-मन नहीं दिया है, उसका विश्वास नहीं। वह कभी पवित्र रहेगा, कभी अपवित्र रहेगा और कभी सेवा भी छोड़ सकता है। भजन करनेवाले का इन्द्रियनिग्रह होगा, समता होगी और तब वह पूर्ण सेवक होगा। अच्छा गुरु वह नहीं होता जो विषय संबंध रखकर बाह्य सेवा में प्रसन्न रहे। गुरु अंतर्मुखी होने के लिए उपदेश देते हैं।
 श्रीमद्भगवद्गीता सिखाती है कि योग-युक्त रहकर कर्म करो, तो कर्म-बंधन से छूटोगे, जैसे राजा जनक आदि हुए। कर्म को कोई छोड़ नहीं सकता। घर छोड़ सकता है, विरक्त हो सकता है, लेकिन फिर भी कर्म करना नहीं छोड़ सकता। शरीर के लिए, संसार के लिए वह कर्म करेगा। पुरुषार्थी कर्म करे, परंतु उसका फल नहीं चाहे। फल चाहने- वाला ईश्वर को नहीं चाहता। जो भोग चाहता है, वह भोग चाहनेवाला बंधन से नहीं छूटता।
 शरीर में जो नित्य पदार्थ है, वह आत्मा है। सबमें एक ही आत्मा है, ऐसी समता की प्राप्ति उसको होती है जो अध्यात्म-वृत्ति रखकर काम करता है। इसकी कुंजी है आत्मरत होने का यत्न। अपना निशाना अपने अंदर रखकर अपने उसपर लगे हुए रहो। बाहरी सब ख्यालों को छोड़कर अपना निशाना अंदर में करो। बाहर में ऐसा नहीं होगा। उसमें ऐसी बात नहीं कि मैं मन से यह देखूँ वा वह देखूँ। अपना निशाना अपने अंदर रखें, आँख बंद करें। जो यह नहीं कर सकता है, उसके लिए यह है कि बाहर में कोई मोटी चीज लो, परमात्मा का प्रतीक मानकर ईश्वर के लिए जो जप करते हैं, यह भी आत्मरत होने का मोटा तरीका है। साधक अपना निशाना अपने अंदर रखे रहकर घर का काम कर सकता है।
 सुरत सदा सन्मुख रहै, जहाँ तहाँ लै लीन ।
 सहज रूप सुमिरन करै, निःकर्मी दादू दीन ।।
       -संत दादू दयालजी
 आत्मरत होने में दो चीजों की अनुभूति होती है। वह है प्रकाश और शब्द। ये दोनों अंतर में भी हैं और बाहर में भी। अंतर की चीजों को साधन करके देखो, है अवश्य। शब्द वही है जो सृष्टि का मूल है। प्रकाश क्या है? जो रूप जगत का मूल है। यह पहले विन्दु रूप में लक्षित होता है। दृष्टियोग से विन्दुध्यान होता है। विन्दुध्यान उत्तम ध्यान है। इसकी बड़ाई तेजोविन्दूपनिषद् में इस प्रकार है-
 तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्म हृदि संस्थितम् ।
 अर्थात् हृदयस्थित विश्वात्म-तेजस्-स्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है। जो कोई मोटी बुद्धि के हैं, वे कहते हैं कि आँख बन्द करने से क्या होगा? मैं कहता हूँ-बहुत आराम मिलता है। आँख बन्द करने पर ही सोते हैं। बिना सोए लोग पागल हो जाएँगे। आँख बन्द करो और कुछ क्रिया जानकर करो तो अंतर्मुख होना होगा। इससे बाहर के नए- नए संस्कार से साधक बचा रहता है।
 श्रीमद्भगवद्गीता में दृष्टियोग साधन करने के लिए नासाग्र में देखने कहा है, लेकिन दिशाओं को देखने नहीं कहा है। आँख खोलने से कोई-न- कोई ओर अवश्य देखी जाएगी। गीता के टीकाकारों ने नासिका के अग्रभाग देखने को बताए हैं। परंतु ‘भाग’ शब्द गीता में नहीं है, अपनी ओर से देकर अर्थ करते हैं।
 संसार में दो बातों की बड़ी खूबी है, इसी से संसार में जीवन है। इन दोनों को संसार से निकाल लो तो, न तो कोई प्रबंध होगा और न कोई जीवित रह सकता है। प्रकाश नहीं रहने से गरमी चली गई, तब कोई वा कुछ नहीं रह सकता। शब्द नहीं रहे तो कम्पन नहीं रहा। बिना कम्पन से कोई चीज ठहर नहीं सकती। आजकल के वैज्ञानिक और विशेष विचारक कहते हैं कि यह स्पेस ;ैचंबमद्ध शून्य स्थान का कहीं अंत नहीं मालूम पड़ता है। क्षितिज को देखिए जैसे परिधि मालूम पड़ती है। परिधि की रेखा का कहीं-न-कहीं अन्त अवश्य होगा। क्षितिज को देखकर विचारकों ने विचारा है कि स्थान का अंत होता है। जहाँ देश है, वहाँ काल है; जहाँ काल है, वहाँ देश है। इसलिए जहाँ स्थान का अंत होता है, वहाँ काल का भी अंत होता है।
 सृष्टि बनी है। इसका पहला रूप सूक्ष्म है। बिना बीज का अंकुर नहीं और बिना अंकुर के वृक्ष नहीं। बीज कारण है, अंकुर सूक्ष्म और वृक्ष स्थूल। कारण भी बिना महाकारण के नहीं बन सकता। कुम्हार मिट्टी से बर्तन बनाते हैं। एक बर्तन बनाने में जितनी मिट्टी की आवश्यकता होती है, उतनी मिट्टी उस बर्तन का कारण है। कारण वा बीज का भण्डार प्रकृति है। प्रकृति को महाकारण कहते हैं। इस तरह स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण; ये चार दर्जे होते हैं। ये चारो जड़ हैं। इसलिए इन चारो के परे एक चेतन अवश्य है। पाँच तत्त्व, गुण तीन; ये सब जड़ हैं। जड़-जड़ के मिलन से चेतन हो जाए, संभव नहीं। इसीलिए चेतन अलग तत्त्व है। श्रीमद्भगवद्गीता में क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ का अलग-अलग विचार लिखा है। संत दादू दयालजी ने कहा है-
 पंच ऊपना शबद थैं, शबद पंच सौं होइ ।
 साँईं मेरे सब किया, बूझ ै बिरला कोइ ।।
 इन संतों को जैसे प्रत्यक्ष था। संत कबीर साहब की वाणी में हैं-
 पाँचो नौबत बाजती, होत छतीसो राग ।
 सो मन्दिर खाली पड़ा, बैठन लागे काग ।।
 यह पढ़कर बहुत ताज्जुब हुआ। सोचते-सोचते समझ में आया। गिनती करो तो जितने तत्त्व पिण्ड में हैं, उतने ही ब्रह्माण्ड में। क्षितिज की परिधि को बढ़ाओ तो वह गोलाकार मण्डल बन जाएगा। पाँच नौबत कथित पाँच मण्डल के केन्द्रीय शब्द हैं। कोई भी मण्डल तबतक नहीं बनता, जबतक उसका केन्द्र स्थापित नहीं हो। केन्द्र से धारा प्रवाहित होती है, तब मण्डल बनता है। पाँच मण्डल के केन्द्रीय शब्द होते हैं। संतों के ग्रंथों में यही पाँच नौबत है। दादू दयालजी ने कहा है-
 यंत्र बजाया साजि करि, कारीगर करतार ।
 पाँचो कारज नाद है, दादू बोलन हार ।।
 यह पिण्ड और ब्रह्माण्ड परमात्मा का यंत्र है। कबीर साहब ने भी कहा है-
 कबीर भेदी भक्त से, मेरा मन पतियाय ।
 सेरी पावै शब्द की, निर्भय आवै जाय ।।
राधा स्वामी साहब ने कहा है-
 शब्द शब्द पौड़ी चल चढ़ चल ।
 शब्द में उद्गम स्थान पर खींचने का गुण है। ऊपर का शब्द नीचे दूर तक जाता है। इसलिए वह नीचले केन्द्र पर पकड़ा जाता है। इस प्रकार एक केन्द्रीय शब्द से दूसरे केन्द्रीय शब्द को पकड़कर अंत में ‘निःशब्दं परमं पदम्’ में पहुँचकर साधक परम प्रभु सर्वेश्वर को प्राप्त करेगा।
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यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत 50वें वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर श्रीसंतमत सत्संग मंदिर बारो (बेगुसराय) में दिनांक 23. 4. 1965 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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212. ध्यानाभ्यास  में लौ लगाने से तरक्की
प्यारे लोगो!
 ध्यानाभ्यास में जिनका अधिक लौ है, वह उतनी ही अधिक तरक्की करेंगे। ध्यान-अभ्यास में जिनका मन नहीं लगता है और जो मन को फेर-फेर कर ध्यान में नहीं लगाते हैं, वे ध्यान में उन्नति नहीं कर सकेंगे। मन के दूसरे सारे ख्यालों को छोड़कर ध्यान करना होता है। अनेक जन्मों के संस्कार के कारण मन जहाँ-जहाँ घूमता है, इसको बार-बार रगड़ के द्वारा ध्यान में लगाना चाहिए। थकना नहीं चाहिए। बड़ी मुस्तैदी रहेगी, साहसपूर्वक करते रहेंगे, तो साधन का वह फल मिलेगा, जो संत कह गए हैं।
 जो पुराने सत्संगी हैं वा जो अभी नए सत्संग करते हैं, सबको मालूम है कि ध्यान में बाहरी चीज का अवलम्ब तो केवल नाम मात्र है, जैसे कुछ जप करना और मानस ध्यान करना। लेकिन इस अल्प का भी अनादर नहीं करना चाहिए। जब स्थूल में मन को नहीं लगा सकते हैं तो सूक्ष्म में मन को कैसे लगा सकते हैं? इसलिए मानस जप और मानस ध्यान को भी मुस्तैदी से करना चाहिए।
 इसके बाद दृष्टियोग और शब्दयोग का साधन है। दृष्टियोग से ज्योति में प्रवेश होता है। फिर नाद का ध्यान होता है। यही असली नाम-भजन है। बहुत लोगों को ध्वन्यात्मक नाम-भजन की खबर भी नहीं है। बहुत लोग नहीं जानते कि अंतर का नाद ईश्वर का नाम है। कबीर साहब ने कहा है-
‘सुरत निरत मन पवन एक कर, सुनो शब्द धुन तान रे ।
कहै कबीर पहुँचो सतलोका, जहँ रहैं पुरुष अमान रे ।।’
‘मुख कर की मेहनत मिटी, सतगुरु करी सहाय ।
घट में नाम प्रगट भया, बक बक मरै बलाय ।।
सहजे ही धुन होत है, हरदम घट के माहिं ।
सुरत सबद मेला भया, मुख की हाजत नाहिं ।।’
गुरु नानक ने कहा है-
कासट महिं जिउ है बैसंतरु, मथि संजमि काढ़ि कढ़ीजै ।
राम नाम है जोति सवाई, ततु गुरमति काढ़ि लईजै ।।
 जैसे काठ में अग्नि है, उसी तरह ईश्वर का नाम सबके अंदर-अंदर प्रविष्ट है। और जैसे लकड़ी को रगड़कर अग्नि पाते हैं, इसी तरह दृष्टियोग के अभ्यास से इस नाम को प्रत्यक्ष पाते हैं। इसकी युक्ति बतानेवाले से युक्ति जानकर अभ्यास करो और नाम को अपने अंदर पा लो। ज्यादे ध्यान- अभ्यास करके काम खत्म होगा।
 जो संसार में अधिक लोभ करते हैं, उनका मन उसमें फँसा रहेगा। गुफा में, कन्दरा में, कहीं बैठो, सांसारिक लोभ होने से मन उधर ही जाएगा। वह प्रत्याहार करते-करते थक जाएगा और कभी छोड़ भी बैठेगा। लेकिन जो ज्यादा प्रत्याहार करेंगे, उनको धारण होगी और फिर ध्यान होगा। जो कोई मन लगाकर साधन करेंगे और करते हैं, वे कुछ- न-कुछ अवश्य पाते हैं। जो कोई पूछते हैं कि आपको ध्यान में क्या देखने में आता है? सो यह पूछने की बात नहीं है। जो कोई ऐसा पूछते हैं, वे ध्यान करना नहीं चाहते। यदि कुछ कह भी दिया जाय कि हाँ, हमने यह वा वह देखा, तो उसका विश्वास भी आप कैसे करेंगे कि ठीक ही हमने देखा वा नहीं? इन सब बातों को छोड़कर स्वयं ध्यान कीजिए और देखिए कि क्या देखने में आता है।
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यह प्रवचन पटना जिलान्तर्गत मिनिस्ट्रियल आफिसर्स रेस्ट हाउस राजगीर में दिनांक 5. 9. 1965 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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213. भगवान बुद्ध की साधना : ज्योति और शब्द
प्यारे प्रिय दर्शनो!
 मैं आज बहुत प्रसन्न हो रहा हूँ। मैंने इतिहास में पढ़ा था कि बौद्धकालीन नालन्दा विश्वविद्यालय के रूप में, बहुत विस्तार रूप में था। यहाँ देश-विदेश से लोग आकर विद्या-लाभ करते थे। विद्या दो प्रकार की हैं-एक पुस्तकों में और दूसरी अंतर अभ्यास से अभ्यासी को प्राप्त होती है। ये दोनों प्रकार की विद्याएँ यहाँ से मिलती थीं। आज हजारों वर्षों के बाद ऐसा रूप देख रहा हूँ-नालन्दा उत्थान कर रहा है, देश-विदेश के लोग यहाँ आकर विद्या- लाभ कर रहे हैं और करेंगे; मेरी यह आशा है।
 आज भारत में जो राज्य चल रहा है, उसको संतों का ज्ञान बहुत पसन्द है। सरकार उसमें मदद भी करती है। खास करके यह बात कि आप विदेश से और दूर-दूर प्रान्त से जो यहाँ विद्याध्ययन के लिए आए हैं, उनको मैं धन्यवाद देता हूँं। नालन्दा विश्वविद्यालय का पुनरुत्थान हो रहा है। इसकी बुनियाद या नींव प्रशंसा-भाजन भिक्षु जगदीश काश्यपजी के साथ आप डाल रहे हैं। फिर यह अपना पूर्वरूप धारण करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। पूर्व में यहाँ से विद्या प्राप्त कर जो विदेश जाते थे, वे वहाँ प्रचार करते थे, पुनः वैसा ही होगा। इस विश्वविद्यालय की जड़ हैं-भगवान बुद्ध। भगवान बुद्ध के नहीं होने से यह विश्वविद्यालय होता वा नहीं, कहा नहीं जा सकता। मैं परम प्रभु परमात्मा से विनय करता हूँ कि इस देश का जो बड़ा विश्व- विद्यालय था, फिर उसी रूप में यह आ जाय।
 भगवान बुद्ध ने जिस ज्ञान से, जिस धर्म से,जिस प्रभुत्व से समूचे संसार में अपना ज्ञान फैलाया था, वह फिर फैले। वह क्या ज्ञान था? जब वे घर से निकले तो वे उस ज्ञान को नहीं जानते थे। घर से निकलकर वे अग्निहोत्री, पण्डित आदि के यहाँ गए और उनके बताए साधन को किए। कठोर तप के बाद भी उनको नाउमीदी आई कि जिस परम ज्ञान को मैं चाहता था, वह प्राप्त नहीं हुआ। घर जाकर राज्य सम्हालूँ या संसार में घूमूँ? सोचा, राज्य में मन नहीं लगेगा। फिर उन्होंने विचारा-ध्यान करूँगा, चाहे शरीर गल जाय। ध्यान करने बैठ गए। उस प्रथम ध्यान में उन्हें मालूम हुआ कि कठोर साधन से कुछ नहीं होगा। और न उससे होगा जो इन्द्रियनिग्रह नहीं करता। मैंने सुना था कि जब वे प्रथम ध्यान में थे तो उन्होंने देखा कि इन्द्र आए हैं। उनके हाथ में तानपूरा है। तानपूरा में तीन तार हैं। एक तार बहुत कसा हुआ है, जिसकी आवाज ठस मालूम पड़ती है, दूसरा तार बिल्कुल ढीला है, उसकी आवाज घड़ड़-घड़ड़ मालूम पड़ती है-अच्छी नहीं मालूम होती। मध्य का तार-तीसरा ठीक तरह से, यानी न तो अधिक कसा हुआ और न एकदम ढीला है- उसकी आवाज बड़ी मीठी और सुरीली है। इससे उन्होंने निर्णय किया कि मध्य का मार्ग पकड़ो। न तो इन्द्रिय आधीन होकर संसार में पड़े रहो और न शरीर को इतना कसो कि शरीर ही सूख जाय। इसलिए भगवान बुद्ध ने बीच का रास्ता बनाया।
  इसका दूसरा अर्थ है कि अपने शरीर में दो भाग हैं। दायाँ और बायाँ। दाहिने बायें के बीच में रहो। इसी को संतों ने दूसरी तरह से कहा कि दाहिने भाग में एक नाड़ी है, जिसको पिंगला और बाएँ भाग में दूसरी नाड़ी है, उसको इड़ा कहते हैं। इसी को संतों ने इंगला और पिंगला भी कहा और मध्य की नाड़ी को सुषुम्ना कहा है। जो दाहिने भाग में है, उसमें रजोगुण का संचार होता है; जो बायें भाग में है, उसमें तमोगुण का और मध्य में जो है, उसमें सतोगुण का संचार होता है। मध्य में रहनेवाले की सात्त्विकी वृत्ति होती है, वह आगे बढ़ता है। राजस वृत्ति चंचल होती है तथा तामस वृत्ति आलस और मूढ़ता उत्पन्न करती है और उल्टी बात सोचती है। इसलिए सात्त्विकी वृत्ति में रहे और ध्यान करे।
 ध्यान इतना करे जैसे भगवान बुद्ध ने किया था। उनका नाम तो राजकुमार सिद्धार्थ था। ध्यान के बल से ही उन्होंने अपने को ‘बुद्ध’ घोषित किया। उन्होंने वह ज्ञान पाया जो संसार में नहीं था। ध्यान से वे इतने बढ़े कि जिससे और अधिक बढ़ा नहीं जा सकता। आप जो पुस्तक की विद्या का लाभ करते हैं, ठीक है-चाहिए भी। साथ ही, आपको ध्यानशील होने के लिए मध्य का मार्ग भी पकड़ना चाहिए। केवल किताबी विद्या से इन्द्रिय- निग्रह नहीं होगा। ध्यान की विद्या से आरोहण होता है और वहाँ तक पहुँच जाता है, जहाँ हम परमात्मा का पद कहें वा निर्वाण कहें।
 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि संसार में जो कुछ विशेष महत्त्वपूर्ण है, वह मेरी विभूति है। पहली विभूति तेज है अर्थात् ज्योति व प्रकाश है और दूसरी शब्द है। इन्हीं से संसार का काम होता है। इनसे विशेष विभूति भगवान की नहीं है। ये दोनों जैसे संसार में हैं, वैसे शरीर में हैं। शरीर में ज्योति और अंतर्नाद दोनों हैं। जो कोई साधन करेगा, वह इन दोनों को पावेगा। साधन करनेवाले पाते हैं। पंजाब में गुरु नानक हुए, उन्होंने कहा-‘अंतरि जोति भई गुरु साखी चीने राम करंमा।’ इसी में पहचान आया कि परमात्मा से कृपा होती है-क्या कृपा दान होता है। इसी तरह कबीर साहब, दादू दयालजी आदि सभी संतों ने वर्णन किया है।
 मैं धम्मपद का पाठ सुनाता हूँ। कई दिन पहले श्रीकाश्यपजी (भिक्षु जगदीश काश्यप डाइरेक्टर पालि इंस्टिच्यूट, नालन्दा) मुझसे भेंट करने राजगीर गए थे। उस दिन भी मैं श्रीसंतसेवीजी से पालि धम्मपद का पाठ करवाया था। पाठ समाप्त होने पर श्रीकाश्यपजी ने कहा-‘बहुत अच्छा पाठ हुआ।’ बहुत दिन पहले मैंने धम्मपद के मैक्समूलर का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ा, फिर मेरे गुरु भाई का किया भाषा अनुवाद पढ़ा और काश्यपजी से भेंट होने पर पालि में पढ़ने की इच्छा हुई। फिर मैंने राहुल सांकृत्यायन और चन्द्रमणि भिक्खु आदि के अनुवाद को भी पढ़ा। बुद्धचर्या और दीर्घनिकाय आदि ग्रंथों को मैंने पढ़ा। इन सब ग्रंथों में भी ज्योति और शब्द का वर्णन पढ़ा। ‘हंसादिच्च पथे यन्ति आकाशे यन्ति इद्धिया।’-धम्मपद लोकवग्गो। अर्थात् हंस सूर्य के रास्ते पर चलते हैं और ऋद्धि से योगी आकाश में गमन करते हैं।
 आकाश में उड़नेवाले पहले भी थे। भगवान बुद्ध के पहले व्यासदेवजी हुए थे। उन्होंने अपने पुत्र से कहा था-‘राजा जनक के पास ज्ञान प्राप्त करने जाओ, लेकिन आकाश मार्ग से मत जाओ, साधारण तरह से-पैदल जाओ। इससे मालूम हुआ कि आकाश में उड़ने से ही काम खत्म नहीं होता है। इससे भी आगे सीखना है।
 भगवान बुद्ध ने भी ज्योति और शब्द के महत्त्व का वर्णन किया है। हमारे गुरु महाराज भगवान बुद्ध को आदि संत मानते थे।
 संसार की रचना को तीन तलों में और अपने शरीर को भी तीन तलों में बाँट सकते हैं। अंधकार का तल-इस पर अभी हमलोग हैं। शरीर में जागने का जो स्थान है, जिसकी वृत्ति वहाँ रहती है, वह स्थूल संसार का काम करता है। स्थूल का रूप अंधकार है। यह पहला तल है। अंधकार के बाद प्रकाश आता है, यह दूसरा तल है। छान्दोग्य उपनिषद् में भी बताया है-‘तुम्हारे शरीर में ज्योति है। इसी कारण से तुम्हारा शरीर गर्म है।’ जो अन्तर्ज्योति को पाता है, वह अंतर्नाद को भी; जैसे बिजली की चमक के बाद आप कड़ाके की आवाज सुनते हैं। यह शब्द का तल तीसरा तल है। ज्योति और शब्द से ही सब सम्हाल होते, हम संसार में देखते हैं। ज्योति और शब्द के सहारे से ही संसार के सब काम चलते हैं। इन दोनों को यदि संसार से हटा दें, तो संसार का कोई काम नहीं चलेगा। इसी तरह अपने शरीर में ज्योति और शब्द से सब काम होते हैं। भगवान बुद्ध भी इस ज्ञान को जानते थे। उनकी पुस्तकों में है। केवल पुस्तकी विद्या में नहीं रहिए। इसके बाद भी जानिए। कबीर साहब ने कहा था-
 कबीर काया समुँद है, अंत न पावै कोय ।
 मिरतक होइ के जो रहै, मानिक लावै सोय ।।
 मैं मरजीवा समुँद का, डुबकी मारी एक ।
 मुट्ठी लाया ज्ञान की, जामें वस्तु अनेक ।।
 कबीर साहब किसी के पास, किसी विद्यालय में पढ़ने नहीं गए थे, लेकिन वे सत्संग और ध्यान किए थे। उनको अपने अंदर में ही विद्या का खजाना मिला। वह खजाना आपके अंदर भी है। ध्यान के द्वारा वहाँ तक पहुँचा जाता है और पहुँचा गया है। जिसके बाद और कुछ नहीं, क्योंकि वह अनंत है।
 आपलोग दोनों विद्याओं को अपनावें, यही मेरा निवेदन है। भगवान बुद्ध ने पंचशील का पालन करने कहा और संतों ने भी यही बात कही-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों से विरत रहें। यही शील पर प्रतिष्ठित रहना है। जो पंचशील के पालन में रहते हैं, वे संसार में भला होकर रहते हैं। संसार में पूज्य तथा प्रतिष्ठित होते हैं। वे कभी-न-कभी बुद्धत्व को अवश्य पावेंगे; जिसको कि सभी संतों ने भी प्राप्त किये हैं। भगवान बुद्ध ने ध्यान और पंचशील पालन करने के लिए बहुत कहा है। इन दोनों को हटा लें, तो बौद्ध गं्रथ क्या होगा, समझ लीजिए।
 मैं आग्रह करूँगा कि आप पुस्तक का ज्ञान भी जानें और ध्यान भी करें। संतमत किसी एक संत का पंथ नहीं है। सब संतों की जो राय है, वही संतमत है। आज पंचायती राज्य है और सब कोई राय मिलाकर काम करते हैं। उसी तरह सब संतों के ज्ञान, कार्य और राय; एक मिले हुए जानें जाएँ, उसी को संतमत कहते हैं।
 आपलोगों को देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। जो भिक्षु वेष में हैं और बाहर विदेश से दूर-दूर से यहाँ शिक्षा प्राप्त करने आए हैं तथा जो सज्जन विद्वान लोग इनको शिक्षा देते हैं, सबको मैं धन्यवाद देता हूँ।
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यह प्रवचन नालन्दा जिलान्तर्गत पालि इंस्टिच्युट नव विहार नालन्दा में दिनांक 7. 9. 1965 ई0 के सत्संग में हुआ था। पालि इंस्टिच्युट के डाइरेक्टर श्रद्धास्पद रेवरेण्ड भिक्षु जगदीश काश्यपजी महाराज ने स्वयं ले जाकर परम पूज्य महर्षिजी को सादर सविनय आमन्त्रित कर सत्संगार्थ वहाँ ले गए थे। इस सत्संग में जापान, लंका, वर्मा, कम्बोडिया, मंगोलया, जावा, , सुमात्रा, भारत प्रभृति विभिन्न देशों के विद्यार्थी बौद्ध भिक्षुक एवं विद्वान सज्जन उपस्थित थे।
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214. संतमत का शब्द विज्ञान
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 संतमत का मूल आधार ‘शब्द’ है। शब्द से ही ईश्वर की प्राप्ति और मुक्ति संतों ने बताई है। संतमत में शब्द ही श्रेष्ठ है। जो शब्द की महिमा और विशेषता को नहीं जानता, वह संतमत को नहीं जानता है।
 संसार में जो कुछ भी बना है, वह शब्द से ही। कारण है कि कुछ भी बनने के पूर्व में शब्द होता है। शब्द कम्पमय होता है और कम्प शब्दमय होता है। यह नहीं हो सकता है कि कम्प है और शब्द नहीं अथवा शब्द है, कम्प नहीं। शब्द से सृष्टि हुई। इसका तात्पर्य है-कम्प से सृष्टि हुई। शब्द कहो वा कम्प कहो, एक ही बात है। जैसे, पानी कहो वा जल, शब्द कहो वा उसका अर्थ शब्द में अर्थ ऐसा सम्मिलित है कि उसको अलग- अलग नहीं कर सकते। इसी तरह कम्प और शब्द को अलग-अलग नहीं कर सकते।
 सृष्टि के मूल में कम्प वा शब्द अनिवार्य रूप से मानना पड़ता है। सृष्टि का सबसे पहला पदार्थ शब्द है। जो शब्द से पहले का है, वह सबका बीज है। आप किसान लोग बीज बोते हैं, उससे नाना प्रकार के वृक्ष होते हैं। आपको मालूम होगा कि पहले जड़ नीचे जाती है कि ऊपर? जड़ नीचे की ओर पहले जाती है अर्थात् जड़ आधार है। उसी तरह शब्द सृष्टि का आधार है, जैसे पृथ्वी से किसी भी बीज की जड़ लगी हुई होती है, इसी तरह सृष्टि के पूर्व जो था, शब्द की जड़ उसी से लगी है।
 सबसे पहले ईश्वर था। जो सबसे पहले का हो, वह ईश्वर है। ईश्वर सबका सृजनहार है। यदि ईश्वर का सृजनहार कोई हो जाय, तो वही ईश्वर हो जाएगा, जिसने उसका सृजन किया।
 सृष्टि की जड़ शब्द है, वह ईश्वर से लगा हुआ है। वह सबके अंदर-अंदर है। जैसे, एक मिट्टी की गोली बनाते हैं, यानी मिट्टी की गोली बनाने के लिए आप उसको घुमाते हैं। आपके हाथ के कम्पन से उस गोली के अंदर वह कम्पन प्रविष्ट हो जाता है-गोया शब्द तमाम प्रविष्ट हो जाता है। सब पिण्ड-ब्रह्माण्ड एवं सम्पूर्ण प्रकृति मण्डल में शब्द व्यापक है। सृष्टि के अंदर छोटे- बड़े जितने पदार्थ हैं, सभी शब्द के द्वारा बने हैं। आदिशब्द सबमें व्यापक है। आपके शरीर में भी व्यापक है।
 कबीर शब्द शरीर में, बिन गुण बाजै तांत ।
 बाहर भीतर रमि रहा, ताते छूटी भ्रांति ।।
 संत कबीर साहब कहते हैं-‘आपके शरीर में शब्द है।’ संसार में जितने पदार्थ हैं, सबमें तीन गुणों के काम आप देखते हैं। उत्पन्न होना रजोगुण का काम, पालन होना सतोगुण का काम और विनाश होना तमोगुण का काम है। ‘बिन गुण बाजै तांत’ का अर्थ है-‘निर्गुण ध्वनि होती है। वह बाहर-भीतर तमाम है, उसी से भ्रान्ति छूट गई।
 सृष्टि के पहले जो शब्द हुआ, वह अभौतिक था। भौतिक तत्त्व में तीन गुण होते हैं। इसीलिए ‘बिन गुण बाजै तांत’ कहा अर्थात् वह शब्द निर्गुण था। जो अभौतिक है, उसको नित्य कहें वा अनित्य? वह नित्य है। उस एक शब्द के अतिरिक्त और सभी भौतिक शब्द अनित्य हैं।
 संतों ने ईश्वर के नाम को निर्गुण भी कहा है- ‘जाके लगी अनहद तान हो, निर्वाण निर्गुण नाम की’-जगजीवन साहब। ये जगजीवन साहब साइन्स नहीं पढ़े थे, लेकिन सत्संग से और साधना से जाने थे। एक बार मैं छपरा में एक महीना रह गया था। लोग सत्संग करने आते थे। एक आदमी था, वह पढ़ा-लिखा नहीं था। शब्द की बातचीत होने पर मैंने शब्द को वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक; दो तरह का बताया। उस भक्त ने कहा कि महाराजजी; एक शब्द और होता है, जिसको श्रुतात्मक कहते हैं। मैं समझ गया, कहा ठीक है। जो शब्द बाहर का है, वह वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक है, लेकिन जो शब्द अंदर में होता है, वह शब्द श्रुतात्मक है। सन्त कबीर साहब की वाणी में है-
 कबीर काया समुँद है, अंत न पावै कोय ।
 मिरतक होइ के जो रहै, मानिक लावै सोय ।।
 मृतक होकर रहना, इन्द्रियों की चेष्टाओं से रहित होकर रहना है। स्वामी रामतीर्थ अमेरिका गए थे। वहाँ के लोगों ने कहा-‘तुम अपना विज्ञापन वितरण करो।’ स्वामी रामतीर्थजी ने कहा कि तुम्हारे यहाँ जितने बड़े-बड़े डॉक्टर हैं, उनको बुलाओ। वे ही हमारे विज्ञापन हो जाएँगे। बड़े-बड़े डॉक्टर बुलाए गए-आए। स्वामी रामतीर्थ ने कहा-‘तुम मेरे शरीर की जाँच करो-यह जीवित है वा मृतक?’ डाक्टरों ने यंत्रविशेष के द्वारा उनके शरीर की जाँच की तो उनके शरीर में न तो गरमी मालूम हुई और न उनके हृदय का धड़कन ही मालूम हुआ। यही भारत की विद्या है। स्वामी रामतीर्थ ने कहा। गुरु महाराजजी भी कभी-कभी मौज में आकर दिखाते थे कि नाड़ी बंद हो जाती थी। इसको प्रत्यक्ष मैंने देखा।
 सांसारिक विद्या पढ़ने से भी जो ज्ञान बचा रहता है, वह अनुभव-ज्ञान है। वह अंदर में पाया जाता है। जो बाहर की विद्या भी जाने, साधना करे और अंतर में अनुभव ज्ञान भी हो, तब कहना ही क्या?
सारशब्द ही है, जो ईश्वर से मिलाता है। शब्दरूपी जड़ ईश्वर से लगी हुई है। शब्द में तासीर है कि जिधर से शब्द आता है, उधर ख्याल खि्ांच जाता है। शब्द में अपने उद्गम स्थान में खींचने का गुण है। जो चीज जहाँ से उत्पन्न होती है, वह उसका उद्गम स्थान है।
चुम्बक सत्त शब्द है भाई, चुम्बक शब्द लोक ले जाई ।
लेइ निकारि होखै नहिं पीरा, सत्त शब्द जो बसै शरीरा ।।
       -दरिया साहब, बिहारी
 यही बड़ाई शब्द की, जैसे चुम्बक भाय ।
 बिना शब्द नहिं उबरै, केता करै उपाय ।।
                               - कबीर साहब
 सार शब्द चुम्बक की तरह अपने उद्गम स्थान पर खींचता है। जो उस शब्द को पकड़ता है, उसके खिंचाव से परमात्मा तक पहुँचता है। एक आदमी कोई दुःखी होकर रोता है, उसके विलाप को सुनकर दूसरे के हृदय में भी करुणा वृत्ति आ जाती है। क्यों? इसलिए कि शब्द की जड़ की जड़ में जो गुण है, सुननेवाले को भी वह गुण हो जाता है। नाटक देखनेवाले हँसने और रोने का खेल देखकर हँसने और रोने लगते हैं। ऊपर का शब्द नीचे दूर तक जाता है और नीचे का शब्द ऊपर दूर तक नहीं जाता। कुएँ में पैठकर शब्द करने से दूर तक नहीं जाता, मकान की छत पर चढ़कर शब्द करने से दूर तक जाता है। जब लाउड-स्पीकर नहीं था, तो लोग घर के मुण्डेरे पर से और ऊँचे बूर्जे पर से आवाज करते थे।
 सबसे पहले के शब्द को मूल शब्द कहना अनुचित नहीं; इसी मूल शब्द से सृष्टि हुई है। सृष्टि के दो रूप हैं-व्यष्टि और समष्टि। गाछ, घर, शरीर-यह व्यष्टि है और सब मिलाकर देखो, समष्टि है। एक मिट्टी की गोली में उसका कम्प उसके कण-कण में प्रविष्ट होता है, उसी तरह आदि शब्द सृष्टि के कण-कण में है। वह शब्द मनुष्य के अंदर भी है। जो उस शब्द को पकड़ता है, वह परमात्मा तक पहुँचता है; क्योंकि वह शब्द परमात्मा से लगा है। परमात्मा से शब्द लगा रहने के कारण परमात्मा का गुण उस शब्द में रहता है, इसीलिए जो उस शब्द को पकड़ता है, परमात्मा का गुण उसमें आ जाता है। इसीलिए उसमें ऋद्धि-सिद्धि आ जाती है।
 संसार में और शरीर में पाँच-पाँच दर्जे हैं। नीचे के केन्द्र के शब्द को पकड़कर उसके ऊपर के केन्द्र पर पहुँचेंगे। सूक्ष्म शब्द में इतनी अधिक ;तिमुनमदबलद्ध फ्रीक्वेन्सी (आवृत्ति संख्या या कम्पनांक) है कि हम उनको यहाँ सुन नहीं सकते। जो शब्द द्वारा क्रम-क्रम से आगे बढ़ता जाता है, एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र पर जाता है एवं प्रकार से अन्त तक पहुँचता है तो उसके सहारे वह ईश्वर तक जाता है। नदी की कल-कल धारा तबतक सुन पड़ती है, जबतक वह नदी समुद्र में नहीं मिलती। समुद्र में जाने पर नदी का ढेब और आवाज; सब समाप्त हो जाते हैं।
सकल नाम जब एक समाना ।तब ही साध परम पद जाना ।।
                  -कबीर साहब
शब्द सिंध में जाय सिरानी । अगम द्वार खिड़की नियरानी ।। -तुलसी साहब, हाथरस
 सार शब्द को मनुष्य की भाषा में कहा नहीं जा सकता। लेकिन उसके गुण को मनुष्य भाषा में कहकर पुकारते हैं-ॐ, शिवनाम, सतनाम, रामनाम आदि। ‘ॐ’ शब्द उच्चारण के सब स्थानों में व्यापक है, इसी तरह ‘आदिशब्द’ सृष्टि में व्यापक है। ‘शिवनाम’ अर्थात् ऐसा शब्द, जिसमें कल्याण हो। ‘सतनाम’ अर्थात् जो शब्द नित्य है। रामनाम अर्थात जो शब्द सर्वव्यापक है। यह है शब्दविज्ञान।
 संतमत के शब्दविज्ञान को जानो। ‘शब्द शब्द पौड़ी चढ़ चल चढ़’ यह संतमत का विज्ञान है। संतमत का ज्ञान बहुत गंभीर है। केवल रामनाम, सतनाम कहने से नहीं होता, उसकी गंभीरता में प्रवेश करने की आवश्यकता होती है।
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यह प्रवचन संतालपरगना जिलान्तर्गत संतमत सत्संग मन्दिर, विषहा (विश्वनाथ कुटी) में दिनांक 26. 10. 1965 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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215. संतमत-सत्संग: केवल सत्संग में अन्तर
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 मैं यहाँ दुमका पहुँचकर इस सत्संग-मन्दिर को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। मुझे भागलपुर में जाकर ज्ञात कराया गया है कि इसका उद्घाटन आपको करना होगा। वृद्धावस्था में मैं बाहर अधिक नहीं जाता, लेकिन सत्संग-मन्दिर के उद्घाटन का नाम जानकर मैं यहाँ आया और बहुत प्रसन्न हुआ आपलोगों को देखकर।
 ‘सत्संग’ क्या है? जबतक पूर्णता नहीं हो, संत नहीं; जो पूर्ण हैं, वे संत हैं और उनका संग सत्संग है। संत के लिए तो यह बात है कि-
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
          -महोपनिषद्
 अर्थात् परे से परे परमात्मा को देखने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।
 जड़ और चेतन की अलग-अलग पहचान हो। जड़ को सभी चीन्हते हैं, लेकिन जो जड़ से चेतन को फूटाकर चीन्हते हैं। वे सन्त हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
अमित बोध अनीह मितभोगी।सत्य सार कवि कोविद योगी।।
 संत को कितना बोध है, ठिकाना नहीं। वे इच्छा-रहित, स्वल्पभोगी, सत्य के सार रूप, सत्य से कभी टलनेवाले नहीं, कवि, पण्डित और योगी होते हैं। बिना योगी हुए कोई पूर्ण हो नहीं सकता-यह है संत की परिभाषा।
 भक्त को एवं भगवन्त को क्या बूझते हैं? ‘राम ते अधिक राम कर दासा’। ईश्वर से बढ़कर कोई नहीं होगा, लेकिन ईश्वर से भी बढ़कर संत होते हैं। ‘सातवँ सम मोहिमय जग देखा। मोतें अधिक संत करि लेखा।।’ तुलसीदासजी की रामायण में उनका गाया हुआ काव्य देखो तो मालूम होगा-सबसे बढ़कर संत की महिमा उन्होंने गायी है। लेकिन संत को कौन पहचानता है? अच्छे चाल-चलनवाले को हमलोग संत कहते हैं। वे अकपट होते हैं, सीधे चाल-चलन के होते हैं। बड़े विद्वान की परीक्षा कम विद्वान कहाँ तक ले सकता है? संत को तो संत ही पहचान सकते हैं, उनके संग का नाम ‘सत्संग’ है। जिसको सत्य से प्रेम है, सत्य-परमात्मा है, परमा- त्मा अडोल है, सर्वज्ञान-सम्पन्न हैं, उसको जो पाए हैं-संत हैं। उसका भेद जो खोलते हैं, उसके पाने का सीधा सरल रास्ता जो बताते हैं, वे संत हैं।
 बाहर में ईश्वर के पाने का मार्ग नहीं है, मार्ग अपने अंदर है। अपने अंदर में चलने की विधि और मार्ग योग शास्त्र बताता है। जीव की बैठक जहाँ शरीर में है, वहाँ से लेकर ईश्वर-स्वरूप की प्रत्यक्षता तक का जो रास्ता है, वही मोक्ष का रास्ता है।
  संत संग अपवर्ग कर, कामी भवकर पंथ ।
   कहहिं संत कवि कोविद, श्रुति पुराण सद्ग्रंथ ।।
 यह अंदर का रास्ता ईश्वर-कृत है। इस रास्ते पर जो चलता है, वह संतमतानुयायी है। जो इस मार्ग पर चलाते हैं, वे संत हैं। संतमत में गंगा, यमुना और सरस्वती की धारा बहती है।
राम कथा जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म विचार प्रचारा ।।
विधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रवि नंदिनि वरनी ।।
 रामकथा यानी सगुण अवतारी ब्रह्म; जैसे- शिव, विष्णु आदि ईश्वर-कोटि के देवता या राम, कृष्ण सब सगुण ब्रह्म हैं। जहाँ इनकी कथा होती है, वह गंगा की धारा है। जहाँ ब्रह्म, माया, नित्य, अनित्य आदि का ज्ञान हो, वह सरस्वती की धारा है और जहाँ कर्तव्य, अकर्तव्य का ज्ञान हो, वह यमुना की धारा है। सरस्वती की धारा के बिना अर्थात् ब्रह्मविचार के बिना गहराई नहीं आवेगी। केवल ‘सत्संग’ कहने से तीनों में से किसी को ले लो, ‘सत्संग’ है, लेकिन ‘संतमत सत्संग’ कहो तो तीनों को लेना होगा। जिसमें ब्रह्म विचार आवश्यक होता है। ‘संतमत सत्संग’ में ब्रह्मविचार का होना अनिवार्य होता है, किन्तु केवल सत्संग में बह्म-विचार हो न हो, कोई बात नहीं। संतमत सत्संग में-‘अमित बोध अनीह मितभोगी। सत्य सार कवि कोविद योगी।।’ का बोध होता है। बिना योग के ज्ञान नहीं। संतमत-सत्संग में अध्यात्म को छोड़ना नहीं होता। संतमत-सत्संग का अध्यात्म से बड़ा संबंध है। किंतु केवल सत्संग कहो तो उसमें अध्यात्म रहे वा नहीं भी रहे। केवल सत्संग कहो तो उसमें केवल गंगा की धारा होगी, सरस्वती की गहराई नहीं। संतमत-सत्संग और केवल सत्संग में यह अंतर है।
 मैं कहता हूँ कि संतमत-सत्संग-मन्दिर में ईसाई, मुसलमान तथा अन्य धर्मावलम्बी भी आकर सत्संग करेंगे, तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी। लेकिन हिंसात्मक काम कोई नहीं कर सकते। ईश्वर सभी भाषा को जानते हैं। किसी एक भाषा की प्रार्थना को मानना और अन्य भाषा में की प्रार्थना को नहीं, संकीर्णता है। सामवेद में है मनुष्य सभी भाषाओें में ईश्वर की स्तुति कर सकता है।
एह् यूष ब्रवाणि तेऽग्ने इत्थेतरा गिरः। एभिर्वर्धास इन्दुभिः।।
             (अग्नेय-काण्ड)
 ‘अर्थात् हे अग्ने! हे प्रकाश स्वरूप! आ, तेरे लिए इस प्रकार की वैदिक सत्यवाणियों और उनसे दूसरी लौकिक या वेदवाणी से अतिरिक्त मनुष्य वाणियों को मैं तेरी स्तुति में कहूँ। इन परम ऐश्वर्यों से तू महिमा में बड़ा है। ईश्वर अपने सामर्थ्य, ज्ञान और गुणों द्वारा सबसे बड़ा है। वैदिक और लौकिक सब वाणियाँ उनकी ही स्तुति करती हैं।’
 ईश्वर तक कैसे पहुँचा जाएगा, कहाँ से चला जाएगा; यह संतमत सत्संग में बताया जाता है। संतमत सामाजिक कामों में कोई हस्तक्षेप नहीं करता। हाँ, हिंसात्मक काम से अलग अवश्य रहता है।
 इस मन्दिर का नाम चाहे संतमत-सत्संग मन्दिर रखो, चाहे ‘सत्संग भवन’ रखो, मुझे इसमें हर्ष विषाद की कोई बात नहीं मालूम नहीं पड़ती। लेकिन मुझसे पूछो तो मैं कहूँगा-
‘संतमत-सत्संग-मन्दिर’ रखो तो ठीक है; क्योंकि उसके साथ अध्यात्म रहेगा। नहीं तो केवल सत्संग में अध्यात्म रहे वा नहीं रहे।
 लोग तुलसीकृत रामायण का बहुत पाठ करते हैं और सुनते भी हैं। लेकिन क्या, उसमें यही लिखा है कि ईश्वर बाहर में ही मिलेंगे? बाहर दर्शन से क्या-क्या हुआ, सो इतिहास रामायण में है। और पुस्तकों में भी है, पढ़ लीजिए। रामायण में ही पढ़िए-
   निर्गुण रूप सुलभ अति , सगुण, जान नहिं कोय ।
   सुगम अगम नाना चरित,सुनि मुनि मन भ्रम होय ।।
 और स्वयं तुलसीदासजी ने अपनी निस्बत विनय पत्रिका में लिखते हैं-
एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो ।
परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं, बाहर फिरत विकल भय धायो।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद, अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल, परम सुगंध कहाँ ते आयो।।
ज्यों सर विमल वारि परिपूरन, ऊपर कछु सेंवार तृन छायो।
जारत हियो ताहि तजिहौं सठ, चाहत यहि विधि तृषा बुझायो।।
व्यापित त्रिविध ताप तन दारुण, तापर दुसह दरिद्र सतायो।
अपने धाम नाम सुरतरु तजि, विषय बबूर बाग मन लायो।।
तुम्ह सम ज्ञान निधान मोहि सम, मूढ़ न आन पुरानन्हि गायो।
तुलसिदास प्रभु यह विचारि जिय, कीजै नाथ उचित मन भायो।।
 लोग कहते हैं कि चित्रकूट में तुलसीदासजी को भगवान श्रीराम का दर्शन हुआ, चन्दन लगाए, लेकिन वे पहचान न सके। उसके बाद राजकुमार के रूप में घोड़े पर जाते हुए उन्होंने देखा, लेकिन फिर भी पहचान न सके। ब्रह्मा को श्रीकृष्ण भगवान के चरित्र को देखकर संशय हुआ। कागभुशुण्डि और नारद को भी मोह हुआ। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने ‘निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुण जान नहिं कोय। सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होय’ कहा। निर्गुण रूप में भ्रम नहीं होता; क्योंकि उसमें ‘सुगम अगम नाना चरित’ नहीं है। सगुण की उपासना नहीं करो, मैं नहीं कहता। मैं कहता हूँ कि उस सगुण में निर्गुण का भी ज्ञान करो। यह ज्ञान बाहर में नहीं होगा, अन्दर में होगा; यह ‘संतमत’ बताता है। संतमत ईश्वर प्राप्ति का रास्ता बताता है। ईसाई वा इस्लामधर्मी; किसी को भी संतमत के ईश्वर-स्वरूप में फर्क नहीं। बौद्ध, जैन, सनातनधर्मी, आर्यसमाजी, कुछ बने रहो अंतर्मार्ग जानो और उस पर चलो। ‘संतमत’ इन किन्हीं से भिन्नता नहीं मानता। संतमत के ज्ञान को जानो और उस पर चलो।
 ईश्वर-प्राप्ति का रास्ता एक है, दो नहीं और अनेक तो क्या होगा? रास्ता घूम फिरकर नहीं है-सीधा है। ‘सीधे चला जाना वहाँ, मुर्शद ने यह फतवा दिया।’ ईश्वर-प्राप्ति का रास्ता एक है, जैसे भोजन करने का रास्ता एक है-मुँह। रूप निरीक्षण करने का रास्ता एक है-आँख, शब्द ग्रहण करने का एक रास्ता है-कान आदि। जो लोग यह कहते हैं कि ‘गोड्डा जाने के अनेक रास्ते हैं।’ वे भूल में हैं, वे जानते नहीं हैं। अभी आप अपने शरीर में जहाँ बैठे हैं, वहाँ से छोर पकड़ने के लिए भिन्न-भिन्न उपासनाएँ हैं, लेकिन ये भिन्न-भिन्न मार्ग नहीं। छोर पकड़ने का एक ही रास्ता है, चाहे किसी देश वा किसी धर्म का आदमी हो। रास्ता एक है और वह अंतर का रास्ता है।
 गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-‘तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त। मन क्रम वचन अगोचर व्यापक व्यापक अनन्त।।’ तीन अवस्थाओं को छोड़कर चौथी अवस्था में जाकर भजन होगा। चौथी अवस्था में जाने का रास्ता अपने अंदर है, ठीक से समझ लो, लेकिन जो स्वार्थी लोग हैं, वे भरमा कर रखेंगे, उनसे सचेत रहो। अंत में, इस मन्दिर के बनवाने में और इस सत्संग के आयोजन में जिन लोगों ने हाथ बँटाया है, उन सब लोगों को मैं धन्यवाद देता हूँ।
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यह प्रवचन संथालपरगना जिलान्तर्गत संतमत सत्संग मंदिर, दुमका में दिनांक 2. 12. 1965 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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216. जन्म लेना और मरना: संसार का धर्म
प्यारे लोगो!
 मैं बौद्धकालीन एक इतिहास सुनाता हूँ। उस समय भगवान बुद्ध काशी में विराजते थे। वहाँ की एक महिला का इकलौता पुत्र मर गया था; किन्तु उसको यह विश्वास नहीं होता था। वह लोगों से कहती फिरती कि मेरा पुत्र बीमारी से बेहोश हो गया है, इसको होश में ला दो। लोग समझाते कि यह मर गया है, फिर भी उसे विश्वास नहीं होता था। अंत में लोगों ने राय दी कि देखो, तुम्हारे पुत्र को कोई भी होश में नहीं ला सकता है। हाँ, यहाँ एक बहुत बड़े महात्मा-भगवान बुद्ध आए हुए हैं, उनके पास जाओ तो वे तुम्हारे पुत्र को होश में ला सकते हैं। वह महिला अपने मृत पुत्र को लेकर भगवान बुद्ध के पास गई और बोली- ‘भगवन्! मेरा इकलौता पुत्र बीमारी से बेहोश हो गया है। लोगों ने बताया कि आप इसे होश में ला सकते हैं, इसलिए मैं आपके पास आयी हूँ। आप इसे होश में ला दें।’ भगवान बुद्ध समझ गए कि यह मायामोहित, ममताग्रस्त महिला यह नहीं समझ रही है कि उसका पुत्र मर गया है। बुद्ध ने कहा-‘हाँ, यह होश में आ सकता है, लेकिन तुम इस नगर में किसी के यहाँ से एक मुट्ठी सरसों के दानें ले आओ।’ ‘एक मुट्ठी सरसों के दानें’-सुनकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई कि काशी नगरी में कहीं न कहीं सरसों के दानें अवश्य मिलेंगे और मेरा बेटा चंगा होगा। वह वहाँ से चलना ही चाहती थी कि भगवान बुद्ध ने कहा-‘सुनो, सरसों के दानें अवश्य लाना; किन्तु स्मरण रहे कि ऐसे घर से सरसों के दानें लेना, जिस घर में कभी किसी की मृत्यु नहीं हुई हो।’ वह बेचारी महिला सरसों के लिए काशी में घर-घर फिरने लगी। सरसों के दानें तो उसे मिल जाते, किन्तु जब वह पूछती कि ‘कहीं, तुम्हारे यहाँ किसी की मृत्यु तो कभी नहीं हुई है?’ तो लोग झुँझला उठते और कहते-‘पगली! ऐसा भी कहीं होता है कि कभी किसी के घर में कोई मरा नहीं हो?’ इस प्रकार घुमती हुई समूची काशी नगरी छान डाली, किंतु कहीं भी उसे ऐसा घर नहीं मिला, जिस घर में कभी किसी की मृत्यु नहीं हुई हो। अंत में उसको विश्वास हो गया कि मेरा पुत्र भी मर गया है।
 ऐसा कोई घर नहीं, जिस घर में मृत्यु नहीं हुई हो। जन्म लेना और मरना; इस संसार का धर्म है। मोती दासजी हमारे शिष्य कहिए वा मित्र; बड़े अच्छे थे। पचास वर्षों से मैंने उनको देखा। वे गरीबी मिजाज के और बड़े सरल थे। उनकी श्राद्ध- क्रिया के उपलक्ष्य में आज सत्संग है। श्राद्ध कहते हैं, जो कर्म श्रद्धा से किया जाय। इस श्राद्ध-क्रिया में एक वेदान्त है कि शरीर नाशवान है और जीवात्मा नाशवान नहीं है। आज वही दिन है, जो दिन घर-घर में आत्मा के अमरत्व का ज्ञान देता है। किसी के घर में मृत्यु होने पर लोगों के मन में विषाद होता है कि हमारे घर से एक समांग चले गए; किंतु विषाद करने पर भी वे लौटकर नहीं आते। इसलिए विषाद करना व्यर्थ है। विषाद न हो, तो खुश होओ; लेकिन इस अवसर पर खुश होना लोग पसन्द नहीं करते।
 मोती दासजी के चले जाने पर मैं विषाद नहीं करता, मुझे खुशी होती है। उनके बाल-बच्चे भी मेरे बाल-बच्चे जैसे हैं, वे कहते होंगे कि ये क्या कह रहे हैं। वे (मोती दासजी) अच्छे सुकर्मी थे, शुभ कर्मी थे। इसलिए उनके इस संसार से चले जाने से विषाद नहीं होना चाहिए। जो अपकर्मी हैं, उनके जाने से विषाद होना चाहिए।
 जब किसी को शरीर और संसार के बंधनों से मुक्ति मिल जाती है, तो वह स्वयं जानता है कि मैं मुक्त हूँ। जैसे कोई बीमार हो और वह रोगमुक्त हो जाय, तो वह स्वयं जानता है कि मैं नीरोग हूँ। वह मुक्त स्वरूप परमात्मा को पाता है। वह सारे बंधनों से छूट जाता है। कबीर साहब ने कहा है-
 मरते मरते जग मुआ, औसर मुआ न कोय ।
 दास कबीरा यों मुआ, बहुरि न मरना होय ।।
 जा मरने से जग डरै मेरे मन आनन्द ।
 कब मरिहौं कब पाइहौं, पूरन परमानन्द ।।
 मरिये तो मरि जाइये, छूटि पड़ै जंजार ।
 ऐसी मरनी को मरै, दिन में सौ-सौ बार ।।
 ऐसा मरना अच्छा है कि फिर जन्म न हो। यह बहुत ऊँची बात है। इसको वही पाता है, जो जीवनमुक्त होता है। उसको संसार का बंधन नहीं। ऐसा कुछ नहीं, जो वह नहीं जानता। ऐसा कैसे होता है? ईश्वर-भजन करने से।
 मोती दासजी को संतमत का भजन-भेद मालूम था। वे नित्य ध्यान करते थे। सत्संग में नित्य जाते थे। यह उनका घर है और सत्संग-मन्दिर मानो दरवाजा है। देखिए, कितना बड़ा भाग्य है। वे खायँ अपने घर में और सोते थे सत्संग घर में। कभी-कभी अपने घर में भी सोते थे। वे बड़े भाग्यवान थे।
 भगवान श्रीकृष्ण ने बड़ा अच्छा कहा है कि योग के आरम्भ का नाश नहीं होता। अर्जुन ने पूछा है कि भगवन्! जो माया से खिंचकर योग- भ्रष्ट जो जाय, तो उसकी क्या गति होती है? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-‘वह पुण्यकर्ता लोगों के मिलनेवाले स्वर्ग को पाता है और विशाल स्वर्गसुख भोगकर इस पृथ्वी पर किसी पवित्र श्रीमान् के कुल में जन्म लेता है अथवा योगी के कुल में जन्म लेता है और वह अंत में मेरे अंदर की शान्ति को पाता है अर्थात् मोक्ष पाता है।’ मैं विश्वास करता हूँ कि मोती दासजी ने भजन तो पूरा नहीं किया, लेकिन वे अपकर्मी होकर नहीं मरे हैं। वे योगीकुल में जन्म लेंगे और मोक्ष को प्राप्त करेंगे। सभी कोई भजन करो। शरीर छूट जाय, तो छूट जाय, लेकिन संस्कार तुम्हारे साथ जाएगा।
 भक्ति बीज पलटै नहीं, जो युग जाय अनंत ।
 ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।।
 भक्ति बीज बिनसै नहीं,आय पड़ै जो चोल ।
 कंचन जौ ं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।
 पहले भजन करनेवाला भजन-अभ्यास को पकड़ता है और पीछे भजन ही उसको पकड़ता है। मोती दासजी सब दिन भजन करते थे, उन्होंने कभी भजन करना नहीं छोड़ा। इनके मामा गुरु चरण दासजी थे। वे कभी जंगल के रास्ते में भी जाते थे, घोड़ा लादते थे। भजन का समय होता था, तो वे भजन करने लगते थे। उनके लड़कों को भी पिता का अनुकरण करना चाहिए। मोती दासजी को जबतक आने-जाने का शरीर होगा, मनुष्य- शरीर होगा। एक जन्म में जो भजन करेगा, वह दूसरे जन्म में भी भजन करेगा। कुकर्मी होकर भजन करेगा, तो वह उतना अच्छा नहीं, सुकर्मी होकर भजन करो, बड़ा अच्छा होगा।
 मोती दासजी तो पढे़-लिखे विशेष नहीं थे, बहुत कम थे; लेकिन सत्संग करते हुए संतवाणी का अर्थ भी करने लगे थे, उनकी बुद्धि बढ़ गयी थी।
 कुकर्मी होकर भजन करोगे तो भूल-भंगठ भी होगा। लेकिन सुकर्मी होकर भजन करो तो भूल-भंगठ नहीं होगा। पवित्र श्रीमान् कुल में वा योगी कुल में जन्म अवश्य होगा। ऐसे श्रीमान् के यहाँ जन्म लेने से योगी-कुल में जन्म लेना उत्तम है;क्योंकि धन से किसी को संतोष नहीं होता और योगी-कुल में जन्म लेने से स्वाभाविक संतोष होगा। धन के द्वारा तृष्णा का नाश नहीं होता। संसार में जितनी चीजें हैं, सभी मिल जाएँ, तब भी तृष्णा दूर नहीं होती। लेकिन भक्त को संतोष होता है। बाबा नानक ने कहा है-
बसुधा सपत दीप है सागर, मथि कंचनु काढ़ि धरीजै ।
मेरे ठाकुर के जन इनहु न बांछहि, हरि मांगहि हरि रसु दीजै ।।
साकत नर प्राणी सद भूखे, नित भूखन भूख करीजै ।
धावतु धाइ धावहि प्रीति माइया, लख कोसन कउ बिखि दीजै ।।
 हमलोगों को चाहिए कि हम तृष्णावन्त होकर नहीं रहें। इतना परिश्रम करें, जिससे सत्संग और ईश्वर-भजन करने का भी समय बचे; परोपकारार्थ कर्म करने का समय बचे।
         साईं इतना दीजिए, जामें कुटुम्ब समाय ।
       मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय ।।
 संतोषी बनो, ऐसा नहीं कि कमाई नहीं करो। कमाई करो, लेकिन संतुष्टि रखते हुए। तृष्णा कभी नहीं बूझेगी, संसार के धन और भोगों से। यह जानकर जो ईश्वर-भजन करते हैं, उनको शुभगति- स्वर्ग आदि की प्राप्ति होती है और जो भजन पूरा करते हैं, तो उनको मुक्ति मिल जाती है। पूरा भजन नहीं होने से भजन के संस्कार के कारण मनुष्य-शरीर होता है और पुनः भजन में लगता है। मनुष्य-शरीर ही ईश्वर-भजन करने का शरीर है। किसी ने बहुत अन्न-दान किया है, तो मनुष्य शरीर के अलावा बैल, गाय, हाथी, घोड़े के शरीर में भी उसका फल-भोग सकता है। सोने, चांदी का दान किया है, तो हमारे गुरु महाराज कहते थे कि हाथी को देखो, कितने वजन का जेवर उसकी देह पर है, लेकिन ईश्वर-भजन करो और अच्छे-अच्छे कर्मों को भी करो, तो बहुत बढ़िया।
 किसी नगर में एक वेश्या रहती थी। उस नगर के एक व्यक्ति की मृत्यु होने पर अपनी नौकरानी से बोली-‘शहर में जाकर देख आओ कि उस मृत प्राणी को स्वर्ग हुआ वा नरक?’ एक साधु उसी होकर उस नगर में प्रवेश कर रहा था। वेश्या के मुख से स्वर्ग-नरक की चर्चा सुनकर वह स्तम्भित हो वहाँ खड़ा हो गया। थोड़ी देर के बाद नौकरानी शहर से लौटकर आई और बोली- ‘मालकिन! उसको स्वर्ग हो गया।’ एक वेश्या की नौकरानी के मुख से स्वर्ग नरक संबंधी इस प्रकार की परीक्षित बातें सुनकर साधु के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसने वेश्या के पास जाकर पूछा-‘ऐसी कौन सी विद्या तुम्हारे पास है, जिसके सहारे तुम्हारी नौकरानी भी जान पाती है कि अमुक व्यक्ति को स्वर्ग हुआ वा नरक?’ वेश्या बोली-‘साधु बाबा! आप यह बात नहीं जानते? जिनकी मृत्यु से बहुत लोग दुःखी हो, जिनकी लोग प्रशंसा करते हों, कहते हों कि वे बहुत अच्छे लोग थे, तो जानिए कि उनको स्वर्ग हुआ। और जिनकी मृत्यु से बहुत लोग उसकी निन्दा करते हों अथवा कहते हों कि भले ही वह मर गया, बड़ा दुष्ट था, तो जानिए कि उसको नरक हुआ।
 मेरे जानते मोती दासजी के लिए बुराई की बात नहीं होगी। संसार में ऐसे कोई नहीं, जिनके खिलाफ में कोई कुछ न बोले। इसी तरह कुछ लोग मोती दासजी के खिलाफ भी कह सकते हैं, लेकिन मेरा ख्याल है कि मोती दासजी की अच्छी गति होगी, वे अच्छे थे।
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यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत स्व0 मोती दासजी की श्राद्ध क्रिया के अवसर परं दिनांक 19. 12. 1965 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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217. कल्याण केवल शब्द ध्यान से
प्यारे लोगो!
 ‘शब्द’ की महिमा अपार है। शब्द का ज्ञान भी अपार है।
    वर्णधार वारिधि अगम, को गम करै अपार ।
    जन तुलसी सत्संग बल, पायेउ विशद विचार ।।
    श्रवणात्मक ध्वन्यात्मक वर्णात्मक विधि तीन ।
    त्रिविध शब्द अनुभव अगम, तुलसी कहहिं प्रवीन ।।
      -गोस्वामी तुलसीदास
 कल्याण केवल शब्द ध्यान से ही होता है। वैसे लोग कहेंगे कि सभी अपने-अपने विचार को उच्च कहते हैं। मैं कहता हूँ, मेरा विचार उच्च नहीं हो, किन्तु विचार करो-सिद्ध करो कि क्या ठीक है? केवल अन्धी श्रद्धा से काम होना असंभव है। यह कार्य है, इसका यह कारण है; विचार होना चाहिए। युक्तिवाद की ओर से क्या निर्णय होता है, जानना चाहिए। युक्तिवाद के निर्णय बिना केवल विश्वास, अंधविश्वास है। युक्तिवाद में कारण और कार्य का ज्ञान अवश्य होता है।
 मैंने कहा कि ‘शब्द’ की महिमा अपार है। आरम्भ में शब्द कारण नहीं है। जिसके होने का कोई वा कुछ हो, वह उसका कारण है। इसमें किसी को भी संदेह नहीं होना चाहिए कि कम्प के बिना कुछ नहीं बन सकता। कम्प शब्दमय होता है। कम्प हो और उसका सहचर-शब्द नहीं हो असंभव है। परन्तु इस बात को पढ़े-लिखे लोग समझ सकते हैं। बिना कम्प के एक अक्षर नहीं लिख सकते। बिना कम्प के मिट्टी की गोली भी नहीं बन सकती। अवश्य ही कुछ कम्प के शब्द को हम नहीं सुन सकते, लेकिन शब्द होता है। शब्द विज्ञान में यह बात है कि कान के परदे पर ठोकर होती है, तो शब्द सुनते हैं। शब्द में कम्पन होता है। कम्पन की संख्या भौतिक वैज्ञानिकों ने दृढ़ की है। उस संख्या में बताया है कि प्रति सेकेण्ड बीस से नीचे की संख्या नहीं सुन सकते और बीस हजार तक बहुत लोग सुनते हैं; कोई कोई तीस हजार तक सुनते हैं। इससे ऊपर की आवाज को नहीं सुन सकते। कम्पनांक-आवृत्ति संख्या ;थ्तमुनमदबलद्ध-फ्रीक्वेन्सी साइन्स के पढ़े लोग समझ सकते हैं। किसी कम्प में शब्द है, किसी में कम्प नहीं, ऐसा ज्ञान नहीं होना चाहिए। शब्द कम्पमय और कम्प शब्दमय होता है, तब कम्पन की संख्या होगी, इसमें आश्चर्य क्या! जल में अंगुली सटाते हैं, उससे कम्प होता है। कम्पन की रेखा बढ़ती जाती है, यह प्रत्यक्ष देखते हैं। यह रेखा कम्पनांक की है। रेखा बढ़ती है, तो कम्पनांक भी बढ़ता है। इसलिए हम जो नहीं सुन सकते हैं, उसमें भी कम्पन की संख्या है। बीस से नीचे और तीस हजार से ऊपर का कम्पन नहीं सुन सकते।
 अब दूसरी बात सुनिए, जिसको कम्प और शब्द से संबंध है। यह वर्तमान सृष्टि बनी है। कोई कहे कि सृष्टि बनी नहीं है, यह मानने योग्य नहीं। सूर्य नहीं तो सौर जगत नहीं। पहले सूर्य भी नहीं, एक प्रकार का घोर उष्म-वाष्प, उससे फिर सूर्य। कम्प होने के कारण उस घोर उष्म-वाष्प के अनेक टुकड़े हुए। सूर्य को हम देखते हैं कि शून्य के अंदर है। यहाँ तक इस सिलसिले से है कि पहले शून्य, उसके अन्दर घोर-उष्म-वाष्प, उससे फिर सूर्य और सौरजगत। पहले सूर्य हो, पीछे शून्य हो, मानने योग्य नहीं है। क्रमबद्धता से एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद फिर और सृष्टि हुई। अवश्य ही इस क्रमबद्धता के आरंभ का काल नहीं बताया जा सकता। हम सृष्टि-जगत को ही माया कहते हैं। इसके मूलस्वरूप को, जिसमें जगतवत् विविधता नहीं है, त्रयगुणात्मिका-साम्यावस्थाधारिणी मूल माया वा प्रकृति कहते हैं।
 कुछ लोग ईश्वर को और इस प्रकृति को भी अनादि कहते हैं। प्रकृति वा माया देश-काल-ज्ञान से अनादि अवश्य है, परन्तु उपज-ज्ञान से नहीं। उपज-ज्ञान से यह अनादि हो नहीं सकती। सृष्टि में एक के बाद दूसरे के होने का क्रम है, तो वह कैसा होगा, जो सबसे पहले का होगा? वह देश-काल-ज्ञान और उपज-ज्ञान से भी अनादि होगा तथा स्वरूपतः अनन्त भी होगा। तो यह समझो कि यदि वह चलायमान होगा, तो वह ससीम होगा। ससीम पहले से है और उसके पहले वा परे कुछ नहीं है, कहना नहीं चाहिए। सारे सान्तों के पहले का ही जो कुछ है, वह असीम वा अनन्त है। दो असीम कभी हो नहीं सकते। असीम का बनना और उसके बाहर अवकाश का होना असम्भव है। अतएव उसमें गतिशीलता वा किसी प्रकार का कम्पन नहीं। गतिविहीन अनादि-अनन्त परमतत्त्व को ही अपरिमित शक्ति-स्वरूप ईश्वर-परमात्मा मानना चाहिए। प्रकृति का निर्माण परम प्रभु परमात्मा ने ही किया है। अतएव इसके निर्माणार्थ परमात्मा ने ही स्वयं सबसे पूर्व कम्प का सृजन कर शब्दमय स्फोट प्रकट कर दिया और स्वयं गतिविहीन, अकम्प, निश्चल, धु्रव रहा और है। जैसे कि आकाश जस का तस स्थिर है और उसके अन्दर उपजा हुआ वायु गतिशील है। तो निश्चित रूप से जानना चाहिए कि आदिशब्द की धारा परमप्रभु परमात्मा से हुई है और संसार में व्याप्त है।
 मैं ‘शब्द’ की महिमा का कथन करते हुए आ रहा हूँ। यह ‘शब्द’ की महिमा है कि शब्द की धारा स्वयं परमात्मा तक पहुँचाती है; क्योंकि शब्द के द्वारा उस तक पहुँचा जा सकता है, जिससे शब्द होता है। परमात्मा के शब्द में वह गुण है कि ‘सो परमातम होय जीवता जाय खोय।’(संत चरणदास)
 जिस महात्मा ने कहा है, वे साइन्स पढ़े हुए नहीं थे, परन्तु साधन द्वारा शब्द विज्ञान को जानते थे। जो शब्द जिससे होता है, उसके गुण को वह शब्द लिए रहता है और जो उस शब्द को धारण करता है, उसमें भी वह गुण हो जाता है। हास्यात्मक खेल को सुनकर हँसते हैं और आपदाओं से ग्रसित खेल की रुलाई सुनकर रोते हैं; क्यांकि उस रुलाई को सुनकर खेल में उपस्थित जनता को आपदाग्रस्त दुःखभाव होता है, इससे जानना चाहिए कि आदिसृष्टि के हेतु परमात्मा द्वारा जो आदि-कम्पनमय नाद प्रकट हुआ, उसको जो ध्यान-साधन द्वारा अपने अन्दर में ग्रहण कर सकेगा, उसमें ऊपर कथित गुण अवश्य हो जाएगा।
 आज संसार के सारे विद्यालयों में शब्द की ही शिक्षा है और इस पर अपार धन खर्च होता है। संसार का सारा प्रबंध शब्द द्वारा ही होता है। अतएव शब्द की महिमा अपार है।
 शब्दै मारे मरि गये, शब्दे तजिया राज ।
 जिन जिन शब्द विवेकिया, तिनका सरिया काज ।।
 शब्द बिना स्रुति आंधरी, कहो कहाँ को जाय ।
 द्वार न पावै शब्द का, फिरि फिरि भटका खाय ।।
 सबद खोजि मन वश करै, सहज योग है येहि ।
 सत्त शब्द निज सार है, यह तो झूठी देहि ।।
                -कबीर साहब
      कोटि ज्ञानी ज्ञान गावहिं, शब्द बिन नहिं वाँचहीं ।
     शब्द सजीवन मूल ऐनक, अजपा दरस देखावहीं ।।
     सत्त शब्द संतोष धरि-धरि, प्रेम मंगल गावहीं ।
     मिलहिं सतगुरु शब्द पावहिं,फेरि न भौजल आवहीं ।।
        -दरिया साहब, बिहारी
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यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत संतमत सत्संग मंदिर, कटिहार में दिनांक 19. 12. 1965 ई0 के रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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218. योग के आरम्भ का नाश नहीं होता
प्यारे लोगो!
 जो अचेत पड़ा हुआ हो, वह कुछ समझे बूझे-ऐसा नहीं हो सकता है। इसलिए संत- महात्मागण कहते हैं कि तुम सचेत हो जाओ। विषयों में लवलीनता अपने को अचेत रखना है। विषयों में लवलीनता नहीं हो, यह असम्भव नहीं है। पंच विषयोपभोग काल में जो जाग्रत दशा रहती है, उसमें थोड़ी-सी सचेतता है। तीन अवस्थाओं के अंदर हमलोग स्वभावतः गुजरते रहते हैं। इसमें विषय लवलीनता रहती है। जिस तरह ये तीनों अवस्थाएँ होती रहती हैं, उसी तरह एक चौथी अवस्था भी है। यह अवस्था योगी को प्राप्त होती है। जिन्होंने इसे पाने की ठीक विधि जानकर अभ्यास किया, उन्हें अवश्य ही इस अवस्था का ज्ञान होता है। चौथी अवस्था में यह स्थूल संसार खो जाता है। जैसे इस साधारण जागने की अवस्था में स्वप्नावस्था खो जाती है। केवल वाक्य-ज्ञान में निपुण होने से कोई विषयों से अनासक्त नहीं हो सकते। हमलोग सात्त्विक, राजस एवं तामस कर्म करते हैं। सात्त्विक कर्म का परिणाम वहाँ तक पहुँचाता है, जहाँ पहुँचकर तीनों गुणों से बाहर हुआ जाता है। तामस कर्म नीचे-नीचे की योनियों के भोगों को भोगता है। सात्त्विक कर्म ईश्वर की उपासना ही है। ईश्वर की उपासना इस तरह से करें कि वह हमें तीनों अवस्थाओं से ऊपर उठा सके। चौथी अवस्था का भेद बतानेवाले गुरु चाहिए। ऐसे गुरु के मिलने पर ही वह साधन हो सकेगा।
पापों से छूटना ध्यान से ही हो सकता है और कर्मों से नहीं हो सकता। सुकर्मों को करते हुए जो ध्याना- भ्यास करते हैं, वही कर्मों के बंधनों से छूटते हैं।
 यदि शैल समं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम् ।
 भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ।।
       -ध्यानविन्दूपनिषद्
 अर्थात् यदि अनेक योजनों तक फैले हुए पहाड़ के समान भी पाप हो तो वह ध्यानयोग से नष्ट हो जाता है।
 जिस कर्म का परिणाम दुःखद हो वा आवागमन करानेवाला हो, वह पाप है। ध्यान, लव लगाने को कहते हैं। कोई भी क्यों न हो, ध्यान सभी कर सकते हैं। ध्यान की युक्ति गुरु से सीखनी चाहिए। मैंने जो थोड़ा-सा अभ्यास किया है, उससे मुझे विश्वास हो गया है। इस अभ्यास में चलते रहो-अनवरत रूप से चलते रहो। अंत में वही होगा, जो संतों को प्राप्त हुआ है। ध्यानयोग के द्वारा सिमटाव होता है। सिमटाव से ऊर्ध्वगमन होता है। द्वैत का जहाँ तक विस्तार है, यदि ध्यान-योग से वहाँ तक की सीमा को पार कर गए तो सारे कर्मों-कर्म बंधनों से छूट जाता है। ध्यान-योग का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। एक-एक डेग चलते रहने से कितने कोस निकल जाते हैं, इसी तरह थोड़ा-थोड़ा नित्य नियमित रूप से ध्यानाभ्यास करते रहने से अवश्य लाभ होगा। ध्यानाभ्यासी का जब-जब जन्म होगा, मनुष्य योनि में ही जन्म होगा। इसका संस्कार कभी नष्ट नहीं होगा। भगवान कृष्ण ने कहा-‘योग के आरम्भ का नाश नहीं होता।’
 भक्ति बीज बिनसै नहीं, जो युग जाय अनंत ।
 ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।।
 संतों की वाणी से दिलाशा होती है। अपने को पवित्र रखना चाहिए।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत ग्राम-रूपौली में दिनांक 25. 12. 1965 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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219. आपका निजी ज्ञान क्या है?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 आपलोगों को यह विदित हो गया है कि संतमत सत्संग का यह विशेषाधिवेशन है। यहाँ के श्रीछांगूर भगतजी ने इसे कराया। सत्संग से यह मतलब नहीं कि इसमें राजनैतिक बातें हों। सत्य क्या है? जो अकम्प है, जो अडिग है, जिसका नाश नहीं होता, जो है, जो था और जो सदा रहेगा, वह सत्य है। उसी सत्य के संबंध में यहाँ बात करेंगे।
 यहाँ प्रश्न आ जाता है कि सत्संग की आवश्य- कता क्या है? यदि हम सत्संग नहीं करें तो हमारी क्या हानि होगी? कर्म का फल अवश्य होगा। कोई धनवान है तो कोई धनहीन। सब तरहों में जीवन बिताते हुए कोई कहे कि मैं सुखी हूँ, यह कभी संभव नहीं। इस संसार में बड़े-बड़े बलवानों का बल थक गया। बड़े-बड़े धनवान भी धन छोड़कर चले गए। हम शरीर ही धारण नहीं करें, इसके लिए किस अवलम्ब को धारण करें? संतों ने विचार कर कहा कि इसके लिए तुम भक्ति करो।
 जो प्रत्यक्ष नहीं, जो इन्द्रियों की पकड़ में नहीं रहते, उन्हीं को अव्यक्त कहते हैं। आवागमन में घूमना कबतक होगा, इसका कोई ठिकाना नहीं। हाँ, इसका ठिकाना संतों ने ईश्वर-भक्ति करके जाना है। ईश्वर की भक्ति करने में यह जानना चाहिए कि ईश्वर का स्वरूप क्या है? वह अव्यक्त क्यों है? वह व्यक्त भी होगा? इसके उत्तर में कहा जाएगा कि वह इन्द्रियों को व्यक्त नहीं होगा, आप अपने को पहचानें तो वह व्यक्त होगा। तुम्हारा शरीर क्षेत्र है और तुम क्षेत्रज्ञ हो। बिना बीज का वृक्ष नहीं हो सकता। इसी तरह स्थूल शरीर वृक्षवत् है और सूक्ष्म शरीर बीजवत्। स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण; इन चार शरीरों के साथ आप रहते हैं। इन्द्रियों के कामों को आप जानते हैं, पर अपने निजी कामों को नहीं। आपका निजी काम क्या है, सो समझिए। दुःख की बात है कि आप अपने आपको नहीं पहचानते हैं। सब इन्द्रियाँ जड़ हैं, इनमें कोई अपनी निजी शक्ति नहीं। इन इन्द्रियों को आपके ज्ञान से ज्ञान होता है। आप अपने से अपने को पहचानेंगे। इन्द्रियाँ माया से निर्मित हैं। चेतन आत्मा के कारण देह सचेतन है। इस तरह यह सिद्ध होता है कि चेतन और जड़ में भेद है। एक ज्ञानमय है, एक ज्ञान-रहित। संत महात्मा कहते हैं कि आप अपने निजी ज्ञान से ही अपने को पहचान सकते हैं। अपने को पहचानेंगे तो ईश्वर को भी पहचानेंगे। ईश्वर वह है, जिन्हें आप अपने निजी ज्ञान से पहचानें। जैसे कोई स्वप्न में सपनाता हुआ अर्थहीनता का दुःख पाता है और जब जग जाता है, तभी अर्थहीनता का दुःख छुटता है। इसी तरह संतों का कहना है कि तीन अवस्थाओं अर्थात् जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति को पार करोगे तो चौथी अवस्था मिलेगी। चौथी अवस्था में आपका निजी ज्ञान धीरे-धीरे चमकता जाएगा।
 यह शरीर माया से निर्मित है। जिसमें बदली हो, जिसका अत्यन्ताभाव हो, वह माया है। यह योगियों ने सिद्ध कर बतलाया है। ईश्वर-भक्त बनो, माया नहीं लगेगी। इस चर्मचक्षु से जिस रूप को देखोगे, वह माया का दर्शन होगा। जिसे आत्मदृष्टि से देखता है, वह परमात्मा है। जिस तरह आँख को देखने के लिए आइने का सहारा लेते हैं, उसी तरह ईश्वर को तथा अपने को देखने के लिए ध्यान-भजन रूप साधन की आवश्यकता है।
 जबतक कोई ईश्वर-स्वरूप का निर्णय नहीं जानता, तबतक वह औनाया हुआ रहता है। जैसे यात्री को निर्दिष्ट स्थान मालूम नहीं रहता तो उसका चलना व्यर्थ ही होता है। श्रीरामायणजी के पाठ में अभी जो पढ़ा गया, उससे ज्ञात होता है कि माया ईश्वर के अधीन में इस तरह है, जिस तरह कठपुतली। परमात्मा अज है, विज्ञान-स्वरूप है। जो बिना कारण का कार्य दिखाता है। ‘अज विज्ञान रूप बलधामा।’(गोस्वामी तुलसीदासजी)। आज के भौतिक विज्ञानवाले को यदि उपादान कारण नहीं रहे, तो वे कुछ भी नहीं बना सकते। परमात्मा उपादान कारण को बनाते हैं। ‘तद् आप ही आप, आप उपाया, नहिं किछुते किछु कर दिखलाया। (गुरु नानक साहब)।’ परमात्मा स्वरूपतः अनादि-अनन्त हैं। वे उपज-ज्ञान से भी अनादि हैं। सबसे पहले का एक अनादि-अनन्त तत्त्व अवश्य मानना पडे़गा। द
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत ग्राम-रूपौली में दिनांक 25. 12. 1965 ई0 के अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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220. सोचना और समझना दार्शनिक ज्ञान है
प्यारे लोगो!
 मनुष्य को ज्ञान होना चाहिए। जिसमें ज्ञान नहीं, वह जड़ कहलाता है। जो विद्या में विशेष, वही ज्ञानी और विद्वान है। संसार में सब वस्तुओं का ज्ञान हो, इसीलिए महाविद्यालय में साइन्स की पढ़ाई होती है। भौतिक विज्ञान अपूर्ण है। वैज्ञानिक भी कहता है कि विज्ञान की खोज खत्म नहीं हुई है। यह कहाँ तक बढ़ेगा, ठिकाना नहीं।
 अपने शरीर का जैसा ज्ञान है, वैसा ज्ञान अपने तईं का भी होना चाहिए। बहुत से शरीर वा पिण्ड के रहने के लिए अवकाश अवश्य देखते हैं। वह कौन-सा अवकाश है, जिसके अंदर सबके सब रहते हैं? यह वह परमाकाश है कि जिसके बाहर कुछ नहीं। जिसके विस्तार का अंत नहीं, उसके परे कुछ है, कहा नहीं जा सकता। जहाँ काल है, वहाँ देश है; जहाँ देश है, वहाँ काल है। जो देश और काल को भी अपने में पचा लेता है, वही ईश्वर है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-‘अति कराल कालहु के काला।’
 परमात्मा अपरिमित शक्तिवाले हैं। कोई ससीम सबके पहले का नहीं हो सकता है। सबसे पहले का असीम ही होगा। ईश्वर के बारे में जहाँ-जहाँ पढ़ते हैं, सबमें ईश्वर को परम पुरातन, परम सनातन कहा गया है। इनको नहीं मानना भारी भूल है। ज्ञान सभी कोई चाहते हैं। जानने का प्रेरण मनुष्य के हृदय में स्वाभाविक है। मेरा ज्ञान बढ़ता जाय और मैं शान्तिपूर्वक रहूँ, इसी में सारी इच्छाएँ समाप्त हो जाएँगी। जानना दो प्रकार से हो सकता है। एक परोक्ष, दूसरा अपरोक्ष अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान। परोक्ष ज्ञान में पछताता रहता है, पहचान नहीं होती। पहचान लेने पर अपरोक्ष ज्ञान होता है। सोचना और समझना दार्शनिक ज्ञान है। बिना सोचे-समझे एक कदम भी नहीं चल सकते। भौतिक विज्ञान में अभी संतुष्टि नहीं है। मनुष्य जब भौतिक विज्ञान से आगे बढ़कर अध्यात्म-विज्ञान की ओर आवेगा, तब वह संतुष्ट होगा। विज्ञान अव्यक्त को प्रत्यक्ष कर देता है। जो प्रत्यक्ष नहीं है, उसे प्रत्यक्ष करा दे, वही योग-विद्या है। सरल और सर्वसाध्य ध्यान-योग है। भगवान श्रीकृष्ण ने भी ध्यान-योग पर जोर दिया है। ध्यान से ज्ञान बढ़ता है। यह मानव-शरीर समुद्र है। इसमें जो घुसता है, वह ज्ञान पाता है। अध्यात्म-विज्ञान का यह शरीर प्रयोगशाला है। विन्दु ध्यान ऐसा है, जो अन्दर घुसावेगा, तब ज्ञान बढ़ेगा। खूब पढ़िए, परन्तु अपने अंदर नहीं घुसिएगा तो अपरोक्ष ज्ञान नहीं होगा। जो ध्यान करता है, वह सदाचार में मजबूत होता है, वह मननशील होता जाता है। ध्यान ईश्वर की उपासना है। द
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत ग्राम-रूपौली में दिनांक 26. 12. 1965 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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221. योगी देवता के पद से भी आगे बढ़ जाते हैं
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 आपलोग शान्तिप्रिय बनें। शान्ति कैसे प्राप्त हो, यह इस सत्संग से जानें। सत्संग में भक्ति के बारे में कहा जाता है, ईश्वर-स्वरूप का ठीक- ठीक निर्णय बताया जाता है।
 आपके अपने-अपने घरों में, ईश्वर संबंधी कोई- न-कोई शब्द बच्चों को रटाते हैं। यह बहुत अच्छी रिवाज है। ईश्वर को अनेक मानना गलती है। क्या! ईश्वर अनेक हो सकते हैं? जो भक्त ईश्वर को अनेक मानते हैं, वे कम जानते हैं। ईश्वर दो हो नहीं सकते, यह एकदम असम्भव है। अनेक ईश्वर को मानने की साम्प्रदायिक भावना आपस में झगड़े पैदा कर देती है। यथार्थ में ईश्वर एक ही हैं। नाम और रूप अनेक हैं। उपनिषद् का यह ज्ञान बहुत उत्तम है-
 वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
         -कठोपनिषद् , अध्याय 2, वल्ली 2
 अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है। ब्रह्म या आत्मा एक-ही-एक है, वह वायु के ऐसा सर्वव्यापक है और सर्व से परे भी है। ईश्वर का न केन्द्र होता है और न परिधि। जीव केन्द्र और परिधियुक्त है। ईश्वर केन्द्र और परिधि से परे है। उसकी सीमा कहीं नहीं होती है। उसी एक को राम, शिव, विष्णु आदि कहते हैं। यह नाम, रूप माया है। ‘नाम रूप दुइ ईश उपाधी।’ (गोस्वामी तुलसीदासजी)
 पशु-योनि में जो मन रहता है, वही मन मनुष्ययोनि में भी रहता है। इसीलिए पशु-योनि का संस्कार मनुष्यों में पाया जाता है।
 जीवात्मा परमात्मा का अभिन्न अंश है। यह अंश आवरण के कारण से माना जाता है। कितना भी बड़ा रूप बना लो, वह रहेगा आकाश के अंदर ही। ईश्वर माया के रूप को भरकर उससे बाहर कितना है, कोई नहीं कह सकता। ईश्वर इन्द्रियों को व्यक्त नहीं, परन्तु आपको व्यक्त है। जो कोई योगी होता है, वह देवता के पद से भी आगे बढ़ जाता है। जहाँ जाकर ‘जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।’ होता है। मनुष्य वहाँ तक जा सकता है।
 परमात्मा की भक्ति हम माया रूप पाने के लिए नहीं, उनके स्वरूप को पाने के लिए करें। मनु-शतरूपा को माया रूप का दर्शन हुआ, लेकिन उनका कष्ट नहीं छूटा। इससे छूटने के लिए अमायिक रूप का दर्शन चाहिए। उन्हें आत्मा से ही पहचान सकेंगे। आत्मा को अपनी कैवल्य-दशा में आना चाहिए। शरीर माया से निर्मित घर है। इसको जबतक हम पार नहीं कर जाएँ, तबतक हम कैवल्य-दशा को प्राप्त नहीं कर सकते। अंदर चलने के लिए ध्यानाभ्यास करो।
 किसी रूप का ध्यान स्थूल ध्यान है। रूप ध्यान से सिमटाव होता है और सूक्ष्म ध्यान करने की योग्यता प्राप्त होती है। ध्यान करने के लिए कहीं घर छोड़कर भागने की आवश्यकता नहीं। कर्म करो और ध्यान भी करो। सज्जनों के धर्मानुकूल चलो। पंच पापों से रहित को सज्जन कहते हैं। दमशीलता का अभ्यास करो। दमशील इन्द्रियों को रोकने का स्वभाववाला होता है। दमशील केवल विचार से नहीं हो सकते। मन की सूतें इन्द्रियों से लगी हुई है। ध्यान से मन को इन्द्रियों की घाटों से समेटा जाता है। द
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत ग्राम-रूपौली में दिनांक 26. 12. 1965 ई0 के अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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222. संतवाणी में नाम-भजन वेदानुकूल है
प्यारे लोगो!
 एक संत की वाणी पढ़कर जितना लाभ, उतना लाभ अन्य संतों की वाणी पढ़ने से भी होता है। सबमें एक ही बात जान पड़ती है, यही संतमत की विशेष बात है। सब संतों का आदर और सब सद्ग्रन्थों का आदर बहुत अच्छा लगता है।
 जो सत्संग करें, वे सभी सत्संगी, कोई गैर सत्संगी नहीं। मनुष्य की हैसियत से हम सभी भाई-भाई हैं। यहाँ हमलोग सभी सत्संगी हैं। भले कोई भेद जानते हैं और कोई नहीं जानते हैं।
 ईश्वर सत्य है और सब उसकी माया है। दिखावटी हो, असलियत नहीं, यह माया है। जबतक ईश्वर को पाया नहीं, माया सत्य मालूम पड़ती है। ईश्वर सत्य है। माया को पार नहीं करने के कारण हम माया में फँसे रहते हैं। उसके पार होने के लिए र्चिं चाहिए। ईश्वर-निर्मित और नर-निर्मित र्चिं होते हैं। जो र्चिं ईश्वर से निर्मित है, वह श्रेष्ठ है। ईश्वर-निर्मित र्चिं के आधार से भक्ति करें। ईश्वर- निर्मित र्चिं ज्योति और शब्द हैं। ये दोनों नर निर्मित नहीं, ईश्वर-निर्मित हैं। सूर्य में से ज्योति निकाल लीजिए तो कुछ नहीं देखेंगे। ऐश्वर्यवान विभूति संसार में सूर्य है, यह प्रत्यक्ष है। इससे ज्योति निकल जाय तो कुछ नहीं बचेगा। इसलिए ज्योति ही सार है।
 केवल ज्योति हो शब्द नहीं, तो काम नहीं चले। शब्द के ज्ञान के वास्ते सब विद्यालय हैं। शब्द में वह शक्ति है कि शत्रु को मित्र बना दे और मित्र को शत्रु। शब्द से धनोपार्जन कर ले और शब्द से ही धनहीन भी हो जाय। धर्मराज युधिष्ठिर शब्द से ही धन हार गए। राजा हरिश्चन्द्र शब्द से ही सब राजपाट दान कर दिए। अगर शब्द न होता तो न हार होती, न जीत और न तो दान ही होता। तोप के द्वारा गोला चलाया जाता है। बिना शब्द के गोला निकल नहीं सकता। शब्द की महिमा अपार है। शब्द ही निर्धन और धनवान बनाता है। शब्द मनुष्य-निर्मित नहीं हो सकता, शब्द ईश्वर-निर्मित है। इसलिए संसार में शब्द की महिमा अपार है। और तो क्या, अगर शब्द नहीं रहे तो आपका शरीर नहीं रहे। जो गति आपके शरीर में है, उस गति में भी शब्द होता है। गति बन्द हो जाय तो शब्द बन्द हो जाय। यह शब्द ईश्वर की विभूति है। ज्योति भी ईश्वर की विभूति है।
 संतों ने कहा-ईश्वरकृत ज्योति और शब्द ही विभूतिरूप र्चिं लो। जानना चाहिए कि संतवाणी वेदानुकूल है। संतवाणी में जो नाम-भजन है, वह वेदानुकूल है। ज्योति और शब्द की उपासना बहुत उत्तम है। अपने अंदर की ज्योति और शब्द ईश्वरकृत हैं। अंदर की ज्योति की उपासना कैसे करें? अन्तर्ज्योति देखने की तरकीव से देखी जाती है। एक संत ने कहा-‘उलटि देखो घट में ज्योति पसार।’ बाहर की ओर देखना छोड़कर अंदर देखो। सिमटी निगाह से देखो। इस तरह देखोगे तो ज्योति का पसार पाओगे। इसका भेद भेदी गुरु से जानिए। संतवाणी से मालूम हुआ कि बाहर नहीं, अन्दर देखो। फैली निगाह से नहीं, सिमटी निगाह से देखो।
 शब्द अंधकार में भी है और प्रकाश में भी। प्रकाश पाइए तो शब्द भी मिलेगा। इसकी युक्ति सीखनी चाहिए। बिना पढ़े कोई विद्वान नहीं बन सकता है। उसी तरह बिना सीखे कोई साधन नहीं कर सकता है। ईश्वर-भजन के लिए अंतर-ज्योति और अन्तर-नाद ही है। संतमत में यही खास चीज है। संतमत से इसे निकाल लेें तो, मोक्ष-मार्ग खत्म हो जाएगा। पहले प्रकाश लो, फिर शब्द लो। सबके अन्दर-अंदर प्रकाश और शब्द हैं। द
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत ग्राम-रूपौली में दिनांक 27. 12. 1965 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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223. मन से स्वतन्त्र कैसे होंगे?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 ईश्वर की भक्ति को समझ सकें, इसके लिए आपको याद दिलाता हूँ। ईश्वर की भक्ति के समझने में, पहले ईश्वर-स्वरूप का निर्णय होना चाहिए। ईश्वर मायातीत होने के कारण इन्द्रिगम्य नहीं हैं। इसलिए वे प्रत्यक्ष नहीं हैं। भक्ति कहते हैं-सेवा को। जो प्रत्यक्ष नहीं है, उनकी सेवा हम कैसे करें? उनके प्रत्यक्ष रूप का भजन या भक्ति संतों के संग भी हैं। यह एक तरह की सेवा है। जहाँ ईश्वर संबंधी कथाएँ हां, सुनो; यह भी एक तरह की भक्ति है। इन्द्रियों को काबू में रखने के लिए, बहुत से कर्मों से अपने को बचाए रखो। पंच पापों से बचे रहकर ही सज्जनों के धर्मानुकूल बर्ता जा सकता है। इन्द्रियों के रोकने का स्वाभाववाला बनने के लिए केवल विचार से ही नहीं होता है। इन्द्रियों के संग, मन की धारें लगी रहतीं हैं। इन धारों को इन्द्रिय के स्थानों से समेट कर एक केन्द्र पर रखो, तो दमशीलता होगी। दमशीलता के अंदर मन का रूप बहिर्मुख से अंतर्मुख हो जाता है। यह ऊर्ध्वगमन ही ईश्वर की भक्ति होती है। जैसे जगन्नाथजी जानेवाले का चलना जगन्नाथजी की भक्ति है, उसी प्रकार ईश्वर की ओर चलना भी ईश्वर की भक्ति है। जो लोग ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन के वास्ते अंदर-अंदर चलते हैं, उनका वह चलना ईश्वर-भक्ति के अंदर दाखिल है।
 किसी भी मन्दिर में मूर्ति का दर्शन करके प्रत्यक्ष दर्शन की लालसा रह जाती है। दर्शन प्रत्यक्ष होना चाहिए। अन्तर्मार्गी को प्रत्यक्ष दर्शन होता है। बाहर घूमते हो इन्द्रियों के संगे-संग और अंदर घूमते हो इन्द्रिय और शरीर का संग छोड़कर। अंदर चलते-चलते अपने का पता लग जाएगा। उसी को ईश्वर का भी पता लगेगा। चेतन आत्मा के ऊपर से जब सब आवरण उतर जाते हैं, तो आत्मदृष्टि होती है। यह आत्मदृष्टि किसी के देने से नहीं होती। अन्तरंग साधना द्वारा ईश्वर की ओर चलना, ईश्वर की भक्ति है। यही परा भक्ति है। जीवात्मा शरीरों को छोड़ते-छोड़ते परमात्मा में अपने आप जा मिलती है। दमशील होने के साथ- साथ शमशील भी होना चाहिए। ‘दम’ के बिना ‘शम’ नहीं होता। ‘शम’ का साधन पूर्ण सिमटाव में पहले विन्दु पर अवस्थित रहकर वहाँ जो शब्द होता है, उसको ग्रहण करके होता है। जहाँ कम्पन है, वहीं शब्द है। जहाँ कम्पन नहीं, वहाँ रचना नहीं। कम्पन में शब्द अनिवार्य रूप से होता है। सभी शब्द सुन नहीं पाते, इसलिए कहते हैं कि कम्पन में शब्द नहीं होता। कम-से-कम 20 कम्पनांक के शब्द को तथा ज्यादे-से-ज्यादे 20 हजार वा 30 हजार कम्पनांक के शब्द सुन सकते हैं। उससे कम या अधिक कम्पनांक के शब्द कों सुन नहीं सकते। चाहे स्थूल जगत हो या सूक्ष्म जगत, बिना कम्प के रचना बन नहीं सकती। जहाँ रचना है, वहाँ शब्द है। ऊपर का शब्द नीचे दूर तक आता है। अभ्यासी एक विन्दु पर, उस सूक्ष्म मण्डल के केन्द्रीय शब्द को सुनता है। एकविन्दुता के कारण सूक्ष्म मण्डल में प्रवेश हुआ, इसलिए सूक्ष्म मण्डल के केन्द्र का शब्द पकड़ा जाता है। संतों ने पुकारकर कहा है-‘जेहि शब्द से प्रगट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै।। (कबीर साहब) यही ईश्वर का प्रतीक है। ईश्वर तक पहुँचने का दृश्यमान र्चिं विन्दु है। बाहर में प्रतीक बनाते हैं, यह स्वकृत है। ईश्वरकृत र्चिं जैसा मनुष्यकृत र्चिं नहीं हो सकता।
 चलना रास्ते पर होता है। रास्ते का ओर-छोर होता है। इसका आरंभ एकविन्दुता से होता है और अंत परमात्मा में होता है। यह ज्योति मार्ग और शब्दमार्ग सबके अंदर-अंदर मौजूद है। अध्यात्म- वैज्ञानिक अपने शरीररूपी धरती में खोजकर ज्योति और शब्द पाते हैं। नहीं करनेवाला अगर कहे कि ‘नहीं है’ तो उसका यह कहना गलत है। प्रत्याहार में जो हैरानी होती है, वह साधन करते-करते मिट जाती है। शमशीलता शब्द-साधना से होती है। परा भक्ति को जो नहीं जानते हैं, वे मोटी भक्ति को पकड़े रहते हैं। पूजा-पाठ में जो एकाग्रता आती है, उससे अधिक एकविन्दुता में आती है। स्थूल भक्ति, भक्ति का पैर है और सूक्ष्म भक्ति, भक्ति का शिर है। केवल पैर ही पैर नहीं जानो, शिर को भी जानो। पंच पापों (झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार) से बचे रहो। संसार में दुष्टकर्म से जनता में कष्ट होता है। हमलोगों को सुराज्य प्राप्त है। इसके लिए कितने गोली के शिकार हुए और फाँसी पर चढ़े। परन्तु सुखी हम अपने को नहीं पाते हैं। हमें पापों से रहित होना चाहिए। अपने को पापों से छुड़ा ले, तो दुष्ट कर्म बिल्कुल मिट जाएँगे और स्वराज्य में सुराज हो जाएगा। ईश्वर की भक्ति करनेवाले पापों से छूटते हैं। सबको चाहिए कि अपने को भक्त बना लें। किसी तरह धन कमा लो, इसमें पापों को नहीं छोड़ते हैं। परन्तु ईश्वर की भक्ति में पंच पापों को छोड़ना आवश्यक है। अपने तईं अपने को ईश्वर तक पहुँचाना ही ईश्वर की भक्ति है। हमलोग तन से स्वतंत्र हो गए हैं, परन्तु मन से नहीं।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत ग्राम-रूपौली में दिनांक 27. 12. 1965 ई0 के अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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