204. अनेकत्व के कारण संसार में झगड़ा
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
संतमत का वार्षिक सत्संग 1910 ई0 में पहले-पहल इसी जिले के अंदर जोतरामराय में हुआ था। । तब जिला वार्षिक ही इसका नाम था। और 1913 ई0 में यह कटिहार में हुआ। उस समय हमारे गुरु महाराज विराजते थे। उन्होंने भी अपना पवित्र दर्शन उस सत्संग में दिया था। फिर बिहार प्रान्तीय रूप धारण किया। कुछ वर्षों के बाद बभनगामा में इसका नाम अखिल भारतीय संतमत- सत्संग पड़ा। 1907 ई0 से सत्संग आरंभ हुआ। बहुत लोग चले गए। शुरू में इसके प्रचारक, जो अल्पसंख्यक थे, उन्हें बड़ी कठिनाई झेलनी पड़ी। लोग ख्याल करते थे कि इससे जनसमूह को कोई लाभ नहीं। लेकिन धीरे-धीरे अब लोग समझ रहे हैं कि बात पुरानी है। ये लोग उनकी याद दिला रहे हैं।
अध्यात्मवाद का इतना विचार इस देश में हुआ कि इसका नाम वेदान्त पड़ गया। इस ज्ञान को अंत तक महर्षियों और मुनियों ने जाना। बुद्ध के जमाने से और जो संत महात्मा हुए, तरह-तरह से इसी को लोगों के सामने रखा। आप नाना सम्प्रदायों एवं धर्मों को देखते हैं और उनके अलग-अलग नाम हैं। इन सम्प्रदायों के अंदर जो ज्ञान है; उसको पकड़िए। और बाहरी रीति रिवाज पर भी ध्यान दीजिए, लेकिन पहले आप ज्ञान को लीजिए। वह ईश्वरीय ज्ञान एक ही मिलेगा। ऐसा नहीं कि एक-एक सम्प्रदाय की अलग-अलग ईश्वर संबंध में बात है।
लोग समझते हैं कि जैसे एक गाँव में जाने के लिए अनेक रास्ते हैं, उसी तरह ईश्वर के पास जाने के लिए भी हैं। ठीक-ठीक इसको विचारो। कोई राम, कोई गॉड, कोई अल्लाह कहते हैं, तो ये ईश्वर अनेक नहीं होते। ईश्वर एक ही रहते हैं। उसी तरह से कोई शिव की पूजा की सामग्री लेकर शिवजी की पूजा करते हैं। कोई विष्णु की पूजा की सामग्री लेकर विष्णु की पूजा करते हैं। कोई गणेश की पूजा की सामग्री लेकर गणेश की पूजा करते हैं। कोई सूर्य के उपासक पूजा की सामग्री लेकर सूर्य की पूजा करते हैं। इन भिन्न-भिन्न तरह से पूजा को देखकर लोग कहते हैं कि ईश्वर पाने के बहुत रास्ते हैं। असल में ये रास्ते नहीं हैं। लेकिन ये अनुपयोगी हैं, यह मैं नहीं कहता। जिसको रास्ता कहते हैं, उसके द्वारा उस पर चलने के लिए सहायता मिलती है। रास्ता कहाँ तक है, कहाँ तक पहुँचाता है? रास्ता पर चलनेवाला कौन है? यह जानेंगे तो कहेंगे कि सबका एक ही रास्ता है। सभी आस्तिक कहते हैं कि एक ईश्वर तक जाना है, चाहे वह वैदिक धर्म तथा उसके अनेक सम्प्रदाय के कोई हों अथवा इस्लाम या ईसाई धर्म के हों। सभी धर्मवालों से आप पूछिए कि क्या ईश्वर आपके अंदर हैं? चाहे वे ईसाई धर्म या इस्लाम धर्म के हों। आप पूछिए कि ईश्वर सर्वव्यापक हैं, इसको मानते हैं? बहुत लोग नहीं जानते हैं और जाननेवाले कम हैं। वे कहते हैं कि ईश्वर सबके अंदर हैं।
दूसरी बात यह कि अपने आप को समझो कि हो या नहीं? प्रत्येक के विचार में है कि ‘मैं हूँ।’ लेकिन मैं कौन हूँ, इसका निर्णय कम लोग जानते हैं। कुछ लोग अच्छे विद्वान हैं, साधु-संत हैं, सत्संगी हैं। वे जानते हैं कि कोई बौद्धिक ज्ञान में मानते हैं और बहुत कम अनुभूति के रूप में जानते हैं। अपरोक्ष रूप में इसका ज्ञान हो कि मैं यही हूँ, जैसे अपने शरीर को देखता है। ऐसे बहुत कम लोग होते हैं, ये ही महात्मा होते हैं, जो संत कहलानेवाले होते हैं। वैसे तो भेष में कुछ कह दीजिए, लेकिन यथार्थ में संत वे ही हैं, जो ईश्वर को पहचानते हैं। अच्छे विद्वान और जो पढ़े नहीं हैं, किंतु जिन्होंने सत्संग अधिक किए हैं, वे भी सत्संग के द्वारा बौद्धिक ज्ञान में जानते हैं। मैं अपने शरीर में हूँ और ईश्वर सर्वव्यापक रूप से सब शरीरों में है।
जीवात्मा को चाहिए कि वह परमात्मा तक पहुँचे, दर्शन करे। यह इसलिए कि उस दर्शन से मनुष्य परम शान्ति को पाता है। बिना इस दर्शन के परम शान्ति नहीं मिलती। जो जाननेवाला है, वह जीवात्मा है और उसी को परमात्मा तक जाना है। दोनां इस शरीर में हैं, लेकिन कुछ कारणों से जीवात्मा को ईश्वर की प्रत्यक्षता नहीं होती। वे कारण ये हैं कि माया के स्थूल, सूक्ष्म आदि भेदों से जीवात्मा के आवृत्त रहने में उसे केवल इन्द्रिय ज्ञान में रहना पड़ता है। इसीलिए उसको इस दशा में ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान कहीं नहीं होता। चाहिए कि यह जीव (चेतन आत्मा) अपने को इन्द्रिय ज्ञान से बाहर कर निजी ज्ञान में हो जाए। तब ऐसा जहाँ पर हो सकेगा वहीं ईश्वर का दर्शन होगा। और ऐसा होने के वास्ते माया के सब आवरणों को पार करना उसके लिए जरूरी हो जाता है। एक ही घर में दो मित्र हैं वा एक ही घर में प्रभु और दास हैं। तो मिलने के लिए घर-ही-घर चलना होगा। बाहर जाने की क्या जरूरत? दिल-दिल में खुदा है, ईश्वर सर्वव्यापक है।
अपने शरीर में ईश्वर है और मैं भी इस शरीर में हूँ। इसलिए अंदर का रास्ता होगा, ईश्वर तक जाने के लिए। आँख, कान कुछ नहीं। दोनों का रहना शरीर में है, इसलिए शरीर के अंदर का रास्ता एक ही है। यह अंतर्मार्ग का रास्ता तिरछा- तिरछी नहीं है। बाहर कोई चीज भोजन के लिए लेते हैं, तो मुँह में देते हैं,वह पेट तक जाता है। क्या किसी दूसरे सम्प्रदाय के लोगों को भोजन करने का दूसरा रास्ता है? सौर, शैव, गाणपत्य, इस्लाम, ईसाई कोई धर्म का आप क्यों न हों, सब के खाने के लिए, भेट भरने के लिए एक ही रास्ता है- मुँह। डॉक्टर जानते हैं कि सबके अंदर की बनावट एक है। इसी तरह ईश्वर के पास जाने का रास्ता एक ही है। ऐसा नहीं हैं कि एक धर्म के लोगों के लिए जीवात्मा शरीर की एक जगह में और दूसरे धर्म के लोगों के लिए जीवात्मा का निवास शरीर की दूसरी जगह पर। जिस तरह शरीर में आँख, कान, नाक आदि इन्द्रियाँ सभी धर्म के लोगों को एक ही जगह पर हैं, उसी तरह सब धर्मों के लोगों के शरीर में जीवात्मा के रहने का स्थान एक ही जगह पर है। इसी जगह से चलने का रास्ता आरंभ है। ईश्वर तक जाने का एक ही रास्ता है, इसी को बताने के लिए संतमत का प्रचार है।
इस संसार में सबमें एकमेल हो, इसीलिए धर्म बना है। आज अनेक मत, सम्प्रदाय हैं और इन अनेकत्व के कारण संसार में झगड़ा और उपद्रव है। किसी को एक दूसरे से मेल नहीं है। जबतक जड़ से एक रूप में नहीं आवे, तबतक उसके डाल-पात में एकत्व होना संभव नहीं है। तमाम धर्म- मजहब का ईश्वर एक है। सबके लिए एक मार्ग है। सबमें एकीभाव आवे, इसलिए सत्संग का प्रचार है। पहले द्वन्द्व-द्वेष अपने देश से भागे, फिर विश्व से भागे। जबतक द्वन्द्व मचता रहेगा, तबतक शान्ति नहीं मिलेगी। जबतक धर्म को नहीं समझेगा, द्वन्द्व नहीं मिटेगा। धर्म का मूल ईश्वर है। एक ईश्वर को समझ लेने पर ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ हो जाएगा। जब बोलने का मुँह में बोल आता है, तभी से राम-राम, शिव-शिव, ईश्वर वाचक शब्द हमसे कहलवाया जाता है। यह भाव हमको आस्तिक भाव में प्रतिष्ठित करता है। राम क्या है, बूढ़े से पूछने पर वे जो जानते हैं, समझाते हैं। ईश्वर कोई है, उसी को हम राम-शिव कहते हैं। संसार में देखते हैं कि घर में भी एक मालिक होता है, प्रान्त में एक मालिक होता है, देश का एक मालिक होता है; उसी तरह विश्व का एक मालिक है, इसी को ईश्वर कहते हैं कोई ईश्वर को मानते हैं, कोई नहीं मानते हैं। नहीं माननेवाले काफिर वा नास्तिक कहलाते हैं। हमलोग ईश्वर को मानते हैं। पहले सोचो कि सबसे पहले का कुछ है वा नहीं? अपनी-अपनी पुस्तक को छोड़ दो अथवा पुस्तक में देखो कि सबसे पहले का कुछ माना है कि नहीं? सृष्टि को देखो, तो पाँच तत्त्व हैं। पाँचो तत्त्वों में सबसे पहले आकाश है। बिना आकाश के वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी कहाँ रहे? तारा-मण्डल कहाँ रहे? इसमें सिलसिला है। जैसे सबसे पहले आकाश को मानते हैं तो उसके बाद वायु को मानना पड़ता है। क्यांकि आकाश से स्थूलता हवा में है और उससे विशेष स्थूलता आई तो अग्नि, फिर उससे अधिक स्थूल, जल, अंत में मिट्टी कहते हैं।
इसलिए हमारे यहाँ कहा जाता है कि पा०चभौतिक जगत के प्रारंभ में आकाश था,फिर हवा, अग्नि, जल और पृथ्वी हुई। यह संसार सौर जगत है। इसमें पहले सूर्य हुआ। सूर्य से पहले वाष्प था, ऐसा वैज्ञानिक कहते हैं। इस तरह भी सृष्टि में क्रम मालूम होता है। इसी तरह वाष्प और आकाश से आगे बढ़ें तो वहाँ पर होता है कि समष्टि-अहंकार है। प्रत्येक जीव के अंदर व्यष्टि- अहंकार है। इसके पूर्व बुद्धि और बुद्धि के पूर्व प्रकृति अर्थात् त्रैगुणमयी-चीज वा मसाला। रचना के अंदर तीन गुण देखते हैं। चाहे किसी का शरीर हो या वृक्ष हो। सेन्द्रिय-निरिन्द्रिय, सभी चीजों में तीन गुण देखते हैं। तीनों गुणों का वर्णन-तमोगुण, विनाशक शक्ति है। रजोगुण-उत्पादक शक्ति, सतोगुण-पालक शक्ति एवं इन्हीं तीनों गुणों का तमाम पसार है। इसका एकीभाव होना चाहिए। इसी को प्रकृति कहते हैं। प्रकृति से बुद्धि, बुद्धि से अहंकार, अहंकार से सेन्द्रिय एवं निरिन्द्रिय दो प्रकार की सृष्टि हुई। निरिन्द्रिय सृष्टि में पहले आकाश और सेन्द्रिय सृष्टि में पहले मन हुआ। इन सब बातों को देखकर पता चलता है कि सृष्टिक्रम में पहले एक, फिर दूसरा, फिर तीसरा इस तरह हुआ, सबसे पहले का कुछ होना भी आवश्यक है। सबसे पूर्व का एक पदार्थ है, जो शक्ति और ज्ञान का पुंज है। यदि ऐसा नहीं हो तो संसार में जो ज्ञान और शक्ति देखते हैं, यह कहाँ से आई? इसलिए स्वर्ग ;भ्मंअमद-हैवन) और बहिस्त में शक्ति-ज्ञान को देखते हैं। इसलिए इन सबका जो खजाना है, वह ऐसा होगा जो बिना अवकाश छोड़े होगा। उसके अतिरिक्त अवकाश बाकी नहीं रहेगा; क्योंकि जिसके अतिरिक्त अवकाश बचेगा, तो अवकाश ही पहले का होगा।
जो सबसे पूर्व का है, वह अपना आधार आप है-निराधार है। उसके अतिरिक्त कोई खाली जगह नहीं बचती। यदि इसको नहीं माने तो दूसरी तरह का पदार्थ कुछ मिले, संभव नहीं। जहाँ से सारी सृष्टि में ज्ञान और शक्ति है, उसका खजाना अवश्य मानना होगा। इसके होने का कोई समय माना नहीं जाएगा। किसी समय में इसका आरंभ नहीं है और न कहीं इसका अंत होता है। इसलिए इसको आदि-अंत-रहित ज्ञान और शक्ति का पुंज है अवश्य कहा जाएगा। इससे अधिक व्यापक कुछ नहीं हो सकता। सभी इसके अंदर हैं, सभी इसके शासन में हैं। जिसके अंदर सभी रहें, जिसके शासन में सभी रहें, वही ईश्वर हैं, परमात्मा हैं। अभी रामचरितमानस के पाठ में आपलोगों ने सुना-‘व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ शक्ति भगवन्ता।।’ और उनको ज्ञानपुंज बताने के लिए कहा-
सोई सच्चिदानंद घन रामा। अज विज्ञान रूप बल धामा।।
विज्ञान स्वरूप वह है। बौद्धिक ज्ञान और प्रत्यक्ष ज्ञान मिलकर तब विज्ञान होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान, जैसे आज कॉलेजों में जो विज्ञान का पाठ करते हैं, उसमें भी दोनों हैं। पहले बौद्धिक ज्ञान फिर प्रत्यक्ष ज्ञान। किताबों में का ज्ञान बौद्धिक और फिर उसको प्रत्यक्ष करके दिखाया जाता है। इसी तरह अध्यात्म-ज्ञान में भी है। सृष्टि का साजनेवाला परमात्मा हैं। किसको कैसे बनाऊँ, इसका पूर्ण ज्ञान उसी को है, इसलिए वह विज्ञान-स्वरूप है। भौतिक विज्ञान के वैज्ञानिक संसार भण्डार से कुछ लेकर कुछ निर्माण करते हैं। बिना उपादान के कुछ बना नहीं सकते। जैसे कुम्हार-पण्डित बर्तन बनाते हैं, उसका उपादान मिट्टी है। परमात्मा ने सृष्टि को बनाया है, उसका उपादान प्रकृति है। ईश्वर इस उपादान को भी बनाते हैं। भौतिक वैज्ञानिक मूल उपादान को नहीं बनाता। प्रकृति से परमात्मा सृष्टि का सृजन करता है-
तदि अपना आपु आप ही उपाया।
नाँ किछु ते किछु करि दिखलाया।।
यह शक्ति मनुष्य में नहीं है। भौतिक वैज्ञानिक ने उपादान नहीं बनाया। परमात्मा उपादान को भी बनाते हैं।
‘प्रथम एक सो आपै आप। निराकार निर्गुण निर्जाप।।’
‘राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।’
अपार कहने से ही अनादि-अनंत हो जाता है। बाबा नानक कहते हैं कि-यह सृष्टि जो देखते हो, इसके उपादान को भी बनाकर ईश्वर ने सृष्टि को साजा। परमात्मा और भौतिक वैज्ञानिक की शक्ति बराबर नहीं हो सकती। क्योंकि भौतिक वैज्ञानिक बिना उपादान के कुछ बना नहीं सकता और परमात्मा उपादान को भी बनाता है। आजकल कुछ लोगों के अंदर ऐसा भी प्रचार है कि ‘परमात्मा के दो भाग हैं, एक को सगुण और दूसरे को निर्गुण कहते हैं। एक भाग को प्रकृति ने अपने कब्जे में ऐसा किया है कि जैसे कुम्हार मिट्टी को जैसा चाहे, वैसा बनावे। दूसरा भाग में जो निर्गुण है, उसको अपने का भी ज्ञान नहीं है।’ किंतु संतों के ज्ञानानुकूल परमात्मा निर्गुण और सगुण दोनों भावों में प्रकृति पर काबू रखनेवाला है।
व्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचण्ड ।
सेनापति कामादि भट,दम्भ कपट पाखण्ड ।।
सो दासी रघुवीर कै, समुझै मिथ्या सोपि ।
छूट न राम कृपा बिनु, नाथ कहउँ पद रोपि ।।
अद्वैतदर्शन का माया-मिथ्यात्ववाद है-
जो माया सब जगहिं नचावा। जासु चरित लखि काहु न पावा।।
सो प्रभु भू्र बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा।।
हमलोग ऐसा नहीं मानते कि ईश्वर मायाधीन हैं। कोई तो कहते हैं कि सगुण ब्रह्म पर तो पूरा काबू माया का है और निर्गुण ब्रह्म में अपने को भी जानने की शक्ति नहीं है।
सोइ सच्चिदानंद घन रामा। अज विज्ञान रूप बल धामा।।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
फारसी के जाननेवाले कहते हैं-खुदा कादिरे मुतलक है। अर्थात् सर्वशक्तिमान है। और ;।सउपहीजलद्ध ‘आलमाइटि’ अंग्रेजी में कहते हैं। आप सोचकर देखिए कि जो अत्यंत व्यापक है-उस समस्त का एक-ही-एक दृश्यमान पिण्ड हो सकता है? आप बहुत घरों को-बड़े-बड़े घरों को बनाए हैं। लेकिन ऐसा कभी हो सकता है कि समस्त आकाश का कोई एक घर बना ले? हमारे यहाँ ईश्वर के सगुण रूप का बहुत वर्णन है, उसमें विराट रूप की बड़ी विशेषता है। राजा बलि से राज्य लेकर इन्द्र को देने के लिए जब विष्णु भगवान ने विराटरूप धारण किया था, उस समय उनका स्वरूप था-‘पद पाताल शीश अज धामा।’ यहाँ भी आदि-अंत कर ही दिया। क्योंकि ब्रह्मा के धाम से भी और ऊपर धाम है। जामवन्त जवान थे, उन्होंने दो घड़ी में उन विराटरूप की सात बार प्रदक्षिणा की थी। श्रीकृष्ण के समय में भी जामवन्त थे। उनकी पुत्री जाम्बबती थी। वानरी सारी सेना समुद्र के किनारे थी, लंका जाकर सीताजी की खोज करने के लिए। तब कहा था-‘उभय घड़ी महँ दीन्ही, सात प्रदच्छिन धाई।’ मेरा कहने का मतलब है कि यह विराटरूप भी आदि-अंत-रहित नहीं हुआ। अर्जुन को विराटरूप दिखाने के लिए श्रीकृष्ण ने विराटरूप धारण किया था। उस विराटरूप में कितने मुँह थे, जिसका ठिकाना नहीं। असंख्य हाथ, असंख्य पैर, असंख्य मुख, असंख्य आँख आदि सभी अवयव असंख्य थे। भयंकर और सुन्दर, दोनों भाँति के रूप उस विराटरूप में थे। कौरव-पाण्डव, दोनों दलों के रथी-महारथी उस विराटरूप के मुँह में प्रवेश कर रहे थे। अर्जुन अलग खड़े होकर स्तुति कर रहा था। योद्धा लोग जो उनके मुँह में प्रवेश करते थे, तो खाली जगह थी, तब तो उनके मुँह में जाते थे। हाथ, पैर, कान आदि का ज्ञान भी बिना अवकाश के नहीं हो सकता। सब ओर से योद्धा लोग आते थे, तो वह सब ओर भी खाली थी। इस तरह वह विराटरूप अनंत नहीं हो सकता।
जिससे बचा हुआ अवकाश नहीं रहे, वह अनंत होगा। बड़ा-से-बड़ा घर बना लीजिए, लेकिन सम्पूर्ण आकाश को किसी एक घर में अँटा नहीं सकते। विराटरूप व्यक्त है, इन्द्रियगम्य है। लेकिन अनंत रूप अव्यक्त और इन्द्रियगम्य रहित है। इसीलिए जो जितना अधिक व्यापक होता है, वह उतना ही सूक्ष्म होता है। आकाश, हवा, अग्नि, जल और पृथ्वी सब में व्यापक है। क्योंकि इनसे वह सूक्ष्म है। एक सेर बर्फ को पानी बना लीजिए, तो बर्फ से जल की व्यापकता अधिक हो जाएगी। और जल को वाष्प बना लेने से उसकी व्यापकता उससे भी अधिक हो जाएगी।
इस न्याय से जो सबसे विशेष व्यापक है, वह सबसे विशेष भी सूक्ष्म है। जब यह बात दृढ़ हो गई तो जानना चाहिए कि सूक्ष्म तत्त्व को स्थूल यंत्र से ग्रहण नहीं कर सकते। इन इन्द्रियों के द्वारा पाँच पदार्थों को ही जानते हैं। आँखों से जो ग्रहण करते हैं, उसको रूप कहते हैं; कानों से जो सुनते हैं, उसको शब्द कहते हैं; त्वचा से जो ग्रहण करते हैं, उसको स्पर्श कहते हैं; जिह्ना से जो ग्रहण करते हैं, उसको रस कहते हैं; नाक से जो ग्रहण करते हैं, उसको गंध कहते हैं। इन पाँचों से अधिक और कुछ आप पाते हैं? हर्गिज नहीं। आपको ग्रहण करने के लिए पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ही यंत्र हैं। इन इन्द्रियों में एक-एक विषय को ही ग्रहण करने की शक्ति है। आँखों को अख्तियार नहीं कि वह शब्द सुने, इसी भाँति शेष चारों इन्द्रियों की हालत है। ये सब जितने आप जानते हैं, सभी स्थूल हैं। जो परमात्मा इतना सूक्ष्म है कि उससे अधिक सूक्ष्म और कुछ नहीं हो सकता, उनको इन इन्द्रियों से कैसे ग्रहण कर सकेंगे। अभी एक सोरठा कहा था-
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सब दरसी अनवद्य अजीता।।
परमात्मा का यही स्वरूप है। आप कहेंगे कि संसार ज्ञान के लिए पाँचो ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, और ईश्वर को किससे जानें? तो मैं कहूँगा कि आप अपने को सोचिए कि आप क्या हैं? आप शरीर हैं? नहीं। आप शरीर में भी कोई इन्द्रियाँ हैं? नहीं। आप अपने शरीर को जिस तरह पहचानते हैं, उस तरह अपने को पहचानते हैं? हर्गिज नहीं।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं। आप शरीर के अंदर रहते हैं। आप अपने को इन्द्रियों से नहीं पहचानते हैं। ईश्वर को कैसे पहचानेंगे? अंश की पहचान नहीं हो तो अंशी की पहचान कैसे होगी? जैसे घटाकाश, मठाकाश, पटाकाश सब एक ही आकाश के अटूट अंश हैं, उसी तरह परमात्मा के आप अटूट अंश हैं। सूक्ष्म यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व को ग्रहण करेंगे, स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं कर सकते। आप उसी तरह के सूक्ष्म हैं, जैसे ईश्वर। जैसे आँख से जो देखिए, वही रूप है; इसी तरह जिसको आप अपने तईं से-चेतन आत्मा से पहचान लें, वही ईश्वर है। चेतन आत्मा स्वयं ज्ञान-स्वरूप है। इन्द्रियों के कारण चेतन आत्मा को ज्ञान नहीं होता, बल्कि चेतन आत्मा के ज्ञान से ही इन्द्रियों को ज्ञान है। चेतन आत्मा की ही शक्ति हैं कि जिससे आँखें रूप को देखती हैं। यदि आप कहें कि जबकि उसी की शक्ति से इन्द्रियाँ विषयों को ग्रहण करती हैं, तो उसी से ईश्वर को क्यों नहीं ग्रहण किया जा सकता है? तो मैं बताता हूँ-कई पहल के, कई रंग के शीशेवाली लालटेन को आप लें। जिस पहल के शीशे का जो-जो रंग है, उधर के प्रकाश का भी वही-वही रंग हो जाता है, यद्यपि शीशे के अंदर का प्रकाश सदा एक ही जैसा है। इसी तरह आप ही के ज्ञान से इन्द्रियों में ज्ञान है। आपकी वही शक्ति आँख में है तो वह रूप को देखती है, लेकिन शब्द को नहीं सुन सकती। इसी भाँति शेष इन्द्रियों के विषय में भी आप समझ लें। इन्द्रियों से छूटकर आप अपने ज्ञान में ईश्वर की पहचान कर सकते हैं। ईश्वर ही सब धर्मों की जड़ हैं। वे ईश्वर सबके लिए एक-ही- एक हैं। उन ईश्वर तक जाने के लिए सबके पास एक ही रास्ता है। जैसे भोजन करने का मुँह ही सबके लिए एक रास्ता है, उसी तरह ईश्वर के पास जाने का एक ही रास्ता है। एक रास्ता, एक ईश्वर, उसको पाकर एक फल-परमशान्ति। इससे सभी झंझट साफ। ईश्वर तक जीवात्मा कैसे पहुँचे, इस पर कल्ह कहूँगा। मार्ग कहाँ-से-कहाँ तक है, साफ-साफ कहूँगा। संतलोग क्या कह गए हैं, क्या करना चाहिए, कल्ह कहूँगा।
***************
यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत ग्राम-रोशनाहाट में दिनांक 3. 4. 1964 ई0 के सत्संग में हुआ था।
***************