204. अनेकत्व के कारण संसार में झगड़ा

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
 संतमत का वार्षिक सत्संग 1910 ई0 में पहले-पहल इसी जिले के अंदर जोतरामराय में हुआ था। । तब जिला वार्षिक ही इसका नाम था। और 1913 ई0 में यह कटिहार में हुआ। उस समय हमारे गुरु महाराज विराजते थे। उन्होंने भी अपना पवित्र दर्शन उस सत्संग में दिया था। फिर बिहार प्रान्तीय रूप धारण किया। कुछ वर्षों के बाद बभनगामा में इसका नाम अखिल भारतीय संतमत- सत्संग पड़ा। 1907 ई0 से सत्संग आरंभ हुआ। बहुत लोग चले गए। शुरू में इसके प्रचारक, जो अल्पसंख्यक थे, उन्हें बड़ी कठिनाई झेलनी पड़ी। लोग ख्याल करते थे कि इससे जनसमूह को कोई लाभ नहीं। लेकिन धीरे-धीरे अब लोग समझ रहे हैं कि बात पुरानी है। ये लोग उनकी याद दिला रहे हैं।
 अध्यात्मवाद का इतना विचार इस देश में हुआ कि इसका नाम वेदान्त पड़ गया। इस ज्ञान को अंत तक महर्षियों और मुनियों ने जाना। बुद्ध के जमाने से और जो संत महात्मा हुए, तरह-तरह से इसी को लोगों के सामने रखा। आप नाना सम्प्रदायों एवं धर्मों को देखते हैं और उनके अलग-अलग नाम हैं। इन सम्प्रदायों के अंदर जो ज्ञान है; उसको पकड़िए। और बाहरी रीति रिवाज पर भी ध्यान दीजिए, लेकिन पहले आप ज्ञान को लीजिए। वह ईश्वरीय ज्ञान एक ही मिलेगा। ऐसा नहीं कि एक-एक सम्प्रदाय की अलग-अलग ईश्वर संबंध में बात है।
 लोग समझते हैं कि जैसे एक गाँव में जाने के लिए अनेक रास्ते हैं, उसी तरह ईश्वर के पास जाने के लिए भी हैं। ठीक-ठीक इसको विचारो। कोई राम, कोई गॉड, कोई अल्लाह कहते हैं, तो ये ईश्वर अनेक नहीं होते। ईश्वर एक ही रहते हैं। उसी तरह से कोई शिव की पूजा की सामग्री लेकर शिवजी की पूजा करते हैं। कोई विष्णु की पूजा की सामग्री लेकर विष्णु की पूजा करते हैं। कोई गणेश की पूजा की सामग्री लेकर गणेश की पूजा करते हैं। कोई सूर्य के उपासक पूजा की सामग्री लेकर सूर्य की पूजा करते हैं। इन भिन्न-भिन्न तरह से पूजा को देखकर लोग कहते हैं कि ईश्वर पाने के बहुत रास्ते हैं। असल में ये रास्ते नहीं हैं। लेकिन ये अनुपयोगी हैं, यह मैं नहीं कहता। जिसको रास्ता कहते हैं, उसके द्वारा उस पर चलने के लिए सहायता मिलती है। रास्ता कहाँ तक है, कहाँ तक पहुँचाता है? रास्ता पर चलनेवाला कौन है? यह जानेंगे तो कहेंगे कि सबका एक ही रास्ता है। सभी आस्तिक कहते हैं कि एक ईश्वर तक जाना है, चाहे वह वैदिक धर्म तथा उसके अनेक सम्प्रदाय के कोई हों अथवा इस्लाम या ईसाई धर्म के हों। सभी धर्मवालों से आप पूछिए कि क्या ईश्वर आपके अंदर हैं? चाहे वे ईसाई धर्म या इस्लाम धर्म के हों। आप पूछिए कि ईश्वर सर्वव्यापक हैं, इसको मानते हैं? बहुत लोग नहीं जानते हैं और जाननेवाले कम हैं। वे कहते हैं कि ईश्वर सबके अंदर हैं।
 दूसरी बात यह कि अपने आप को समझो कि हो या नहीं? प्रत्येक के विचार में है कि ‘मैं हूँ।’ लेकिन मैं कौन हूँ, इसका निर्णय कम लोग जानते हैं। कुछ लोग अच्छे विद्वान हैं, साधु-संत हैं, सत्संगी हैं। वे जानते हैं कि कोई बौद्धिक ज्ञान में मानते हैं और बहुत कम अनुभूति के रूप में जानते हैं। अपरोक्ष रूप में इसका ज्ञान हो कि मैं यही हूँ, जैसे अपने शरीर को देखता है। ऐसे बहुत कम लोग होते हैं, ये ही महात्मा होते हैं, जो संत कहलानेवाले होते हैं। वैसे तो भेष में कुछ कह दीजिए, लेकिन यथार्थ में संत वे ही हैं, जो ईश्वर को पहचानते हैं। अच्छे विद्वान और जो पढ़े नहीं हैं, किंतु जिन्होंने सत्संग अधिक किए हैं, वे भी सत्संग के द्वारा बौद्धिक ज्ञान में जानते हैं। मैं अपने शरीर में हूँ और ईश्वर सर्वव्यापक रूप से सब शरीरों में है।
 जीवात्मा को चाहिए कि वह परमात्मा तक पहुँचे, दर्शन करे। यह इसलिए कि उस दर्शन से मनुष्य परम शान्ति को पाता है। बिना इस दर्शन के परम शान्ति नहीं मिलती। जो जाननेवाला है, वह जीवात्मा है और उसी को परमात्मा तक जाना है। दोनां इस शरीर में हैं, लेकिन कुछ कारणों से जीवात्मा को ईश्वर की प्रत्यक्षता नहीं होती। वे कारण ये हैं कि माया के स्थूल, सूक्ष्म आदि भेदों से जीवात्मा के आवृत्त रहने में उसे केवल इन्द्रिय ज्ञान में रहना पड़ता है। इसीलिए उसको इस दशा में ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान कहीं नहीं होता। चाहिए कि यह जीव (चेतन आत्मा) अपने को इन्द्रिय ज्ञान से बाहर कर निजी ज्ञान में हो जाए। तब ऐसा जहाँ पर हो सकेगा वहीं ईश्वर का दर्शन होगा। और ऐसा होने के वास्ते माया के सब आवरणों को पार करना उसके लिए जरूरी हो जाता है। एक ही घर में दो मित्र हैं वा एक ही घर में प्रभु और दास हैं। तो मिलने के लिए घर-ही-घर चलना होगा। बाहर जाने की क्या जरूरत? दिल-दिल में खुदा है, ईश्वर सर्वव्यापक है।
 अपने शरीर में ईश्वर है और मैं भी इस शरीर में हूँ। इसलिए अंदर का रास्ता होगा, ईश्वर तक जाने के लिए। आँख, कान कुछ नहीं। दोनों का रहना शरीर में है, इसलिए शरीर के अंदर का रास्ता एक ही है। यह अंतर्मार्ग का रास्ता तिरछा- तिरछी नहीं है। बाहर कोई चीज भोजन के लिए लेते हैं, तो मुँह में देते हैं,वह पेट तक जाता है। क्या किसी दूसरे सम्प्रदाय के लोगों को भोजन करने का दूसरा रास्ता है? सौर, शैव, गाणपत्य, इस्लाम, ईसाई कोई धर्म का आप क्यों न हों, सब के खाने के लिए, भेट भरने के लिए एक ही रास्ता है- मुँह। डॉक्टर जानते हैं कि सबके अंदर की बनावट एक है। इसी तरह ईश्वर के पास जाने का रास्ता एक ही है। ऐसा नहीं हैं कि एक धर्म के लोगों के लिए जीवात्मा शरीर की एक जगह में और दूसरे धर्म के लोगों के लिए जीवात्मा का निवास शरीर की दूसरी जगह पर। जिस तरह शरीर में आँख, कान, नाक आदि इन्द्रियाँ सभी धर्म के लोगों को एक ही जगह पर हैं, उसी तरह सब धर्मों के लोगों के शरीर में जीवात्मा के रहने का स्थान एक ही जगह पर है। इसी जगह से चलने का रास्ता आरंभ है। ईश्वर तक जाने का एक ही रास्ता है, इसी को बताने के लिए संतमत का प्रचार है।
 इस संसार में सबमें एकमेल हो, इसीलिए धर्म बना है। आज अनेक मत, सम्प्रदाय हैं और इन अनेकत्व के कारण संसार में झगड़ा और उपद्रव है। किसी को एक दूसरे से मेल नहीं है। जबतक जड़ से एक रूप में नहीं आवे, तबतक उसके डाल-पात में एकत्व होना संभव नहीं है। तमाम धर्म- मजहब का ईश्वर एक है। सबके लिए एक मार्ग है। सबमें एकीभाव आवे, इसलिए सत्संग का प्रचार है। पहले द्वन्द्व-द्वेष अपने देश से भागे, फिर विश्व से भागे। जबतक द्वन्द्व मचता रहेगा, तबतक शान्ति नहीं मिलेगी। जबतक धर्म को नहीं समझेगा, द्वन्द्व नहीं मिटेगा। धर्म का मूल ईश्वर है। एक ईश्वर को समझ लेने पर ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ हो जाएगा। जब बोलने का मुँह में बोल आता है, तभी से राम-राम, शिव-शिव, ईश्वर वाचक शब्द हमसे कहलवाया जाता है। यह भाव हमको आस्तिक भाव में प्रतिष्ठित करता है। राम क्या है, बूढ़े से पूछने पर वे जो जानते हैं, समझाते हैं। ईश्वर कोई है, उसी को हम राम-शिव कहते हैं। संसार में देखते हैं कि घर में भी एक मालिक होता है, प्रान्त में एक मालिक होता है, देश का एक मालिक होता है; उसी तरह विश्व का एक मालिक है, इसी को ईश्वर कहते हैं कोई ईश्वर को मानते हैं, कोई नहीं मानते हैं। नहीं माननेवाले काफिर वा नास्तिक कहलाते हैं। हमलोग ईश्वर को मानते हैं। पहले सोचो कि सबसे पहले का कुछ है वा नहीं? अपनी-अपनी पुस्तक को छोड़ दो अथवा पुस्तक में देखो कि सबसे पहले का कुछ माना है कि नहीं? सृष्टि को देखो, तो पाँच तत्त्व हैं। पाँचो तत्त्वों में सबसे पहले आकाश है। बिना आकाश के वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी कहाँ रहे? तारा-मण्डल कहाँ रहे? इसमें सिलसिला है। जैसे सबसे पहले आकाश को मानते हैं तो उसके बाद वायु को मानना पड़ता है। क्यांकि आकाश से स्थूलता हवा में है और उससे विशेष स्थूलता आई तो अग्नि, फिर उससे अधिक स्थूल, जल, अंत में मिट्टी कहते हैं।
 इसलिए हमारे यहाँ कहा जाता है कि पा०चभौतिक जगत के प्रारंभ में आकाश था,फिर हवा, अग्नि, जल और पृथ्वी हुई। यह संसार सौर जगत है। इसमें पहले सूर्य हुआ। सूर्य से पहले वाष्प था, ऐसा वैज्ञानिक कहते हैं। इस तरह भी सृष्टि में क्रम मालूम होता है। इसी तरह वाष्प और आकाश से आगे बढ़ें तो वहाँ पर होता है कि समष्टि-अहंकार है। प्रत्येक जीव के अंदर व्यष्टि- अहंकार है। इसके पूर्व बुद्धि और बुद्धि के पूर्व प्रकृति अर्थात् त्रैगुणमयी-चीज वा मसाला। रचना के अंदर तीन गुण देखते हैं। चाहे किसी का शरीर हो या वृक्ष हो। सेन्द्रिय-निरिन्द्रिय, सभी चीजों में तीन गुण देखते हैं। तीनों गुणों का वर्णन-तमोगुण, विनाशक शक्ति है। रजोगुण-उत्पादक शक्ति, सतोगुण-पालक शक्ति एवं इन्हीं तीनों गुणों का तमाम पसार है। इसका एकीभाव होना चाहिए। इसी को प्रकृति कहते हैं। प्रकृति से बुद्धि, बुद्धि से अहंकार, अहंकार से सेन्द्रिय एवं निरिन्द्रिय दो प्रकार की सृष्टि हुई। निरिन्द्रिय सृष्टि में पहले आकाश और सेन्द्रिय सृष्टि में पहले मन हुआ। इन सब बातों को देखकर पता चलता है कि सृष्टिक्रम में पहले एक, फिर दूसरा, फिर तीसरा इस तरह हुआ, सबसे पहले का कुछ होना भी आवश्यक है। सबसे पूर्व का एक पदार्थ है, जो शक्ति और ज्ञान का पुंज है। यदि ऐसा नहीं हो तो संसार में जो ज्ञान और शक्ति देखते हैं, यह कहाँ से आई? इसलिए स्वर्ग ;भ्मंअमद-हैवन) और बहिस्त में शक्ति-ज्ञान को देखते हैं। इसलिए इन सबका जो खजाना है, वह ऐसा होगा जो बिना अवकाश छोड़े होगा। उसके अतिरिक्त अवकाश बाकी नहीं रहेगा; क्योंकि जिसके अतिरिक्त अवकाश बचेगा, तो अवकाश ही पहले का होगा।
 जो सबसे पूर्व का है, वह अपना आधार आप है-निराधार है। उसके अतिरिक्त कोई खाली जगह नहीं बचती। यदि इसको नहीं माने तो दूसरी तरह का पदार्थ कुछ मिले, संभव नहीं। जहाँ से सारी सृष्टि में ज्ञान और शक्ति है, उसका खजाना अवश्य मानना होगा। इसके होने का कोई समय माना नहीं जाएगा। किसी समय में इसका आरंभ नहीं है और न कहीं इसका अंत होता है। इसलिए इसको आदि-अंत-रहित ज्ञान और शक्ति का पुंज है अवश्य कहा जाएगा। इससे अधिक व्यापक कुछ नहीं हो सकता। सभी इसके अंदर हैं, सभी इसके शासन में हैं। जिसके अंदर सभी रहें, जिसके शासन में सभी रहें, वही ईश्वर हैं, परमात्मा हैं। अभी रामचरितमानस के पाठ में आपलोगों ने सुना-‘व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ शक्ति भगवन्ता।।’ और उनको ज्ञानपुंज बताने के लिए कहा-
सोई सच्चिदानंद घन रामा। अज विज्ञान रूप बल धामा।।
 विज्ञान स्वरूप वह है। बौद्धिक ज्ञान और प्रत्यक्ष ज्ञान मिलकर तब विज्ञान होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान, जैसे आज कॉलेजों में जो विज्ञान का पाठ करते हैं, उसमें भी दोनों हैं। पहले बौद्धिक ज्ञान फिर प्रत्यक्ष ज्ञान। किताबों में का ज्ञान बौद्धिक और फिर उसको प्रत्यक्ष करके दिखाया जाता है। इसी तरह अध्यात्म-ज्ञान में भी है। सृष्टि का साजनेवाला परमात्मा हैं। किसको कैसे बनाऊँ, इसका पूर्ण ज्ञान उसी को है, इसलिए वह विज्ञान-स्वरूप है। भौतिक विज्ञान के वैज्ञानिक संसार भण्डार से कुछ लेकर कुछ निर्माण करते हैं। बिना उपादान के कुछ बना नहीं सकते। जैसे कुम्हार-पण्डित बर्तन बनाते हैं, उसका उपादान मिट्टी है। परमात्मा ने सृष्टि को बनाया है, उसका उपादान प्रकृति है। ईश्वर इस उपादान को भी बनाते हैं। भौतिक वैज्ञानिक मूल उपादान को नहीं बनाता। प्रकृति से परमात्मा सृष्टि का सृजन करता है-
 तदि अपना आपु आप ही उपाया।
      नाँ किछु ते किछु करि दिखलाया।।
 यह शक्ति मनुष्य में नहीं है। भौतिक वैज्ञानिक ने उपादान नहीं बनाया। परमात्मा उपादान को भी बनाते हैं।
    ‘प्रथम एक सो आपै आप। निराकार निर्गुण निर्जाप।।’
 ‘राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
  अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।’
 अपार कहने से ही अनादि-अनंत हो जाता है। बाबा नानक कहते हैं कि-यह सृष्टि जो देखते हो, इसके उपादान को भी बनाकर ईश्वर ने सृष्टि को साजा। परमात्मा और भौतिक वैज्ञानिक की शक्ति बराबर नहीं हो सकती। क्योंकि भौतिक वैज्ञानिक बिना उपादान के कुछ बना नहीं सकता और परमात्मा उपादान को भी बनाता है। आजकल कुछ लोगों के अंदर ऐसा भी प्रचार है कि ‘परमात्मा के दो भाग हैं, एक को सगुण और दूसरे को निर्गुण कहते हैं। एक भाग को प्रकृति ने अपने कब्जे में ऐसा किया है कि जैसे कुम्हार मिट्टी को जैसा चाहे, वैसा बनावे। दूसरा भाग में जो निर्गुण है, उसको अपने का भी ज्ञान नहीं है।’ किंतु संतों के ज्ञानानुकूल परमात्मा निर्गुण और सगुण दोनों भावों में प्रकृति पर काबू रखनेवाला है।
 व्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचण्ड ।
 सेनापति कामादि भट,दम्भ कपट पाखण्ड ।।
 सो दासी रघुवीर कै, समुझै मिथ्या सोपि ।
 छूट न राम कृपा बिनु, नाथ कहउँ पद रोपि ।।
अद्वैतदर्शन का माया-मिथ्यात्ववाद है-
जो माया सब जगहिं नचावा। जासु चरित लखि काहु न पावा।।
सो प्रभु भू्र बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा।।
 हमलोग ऐसा नहीं मानते कि ईश्वर मायाधीन हैं। कोई तो कहते हैं कि सगुण ब्रह्म पर तो पूरा काबू माया का है और निर्गुण ब्रह्म में अपने को भी जानने की शक्ति नहीं है।
सोइ सच्चिदानंद घन रामा। अज विज्ञान रूप बल धामा।।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
 फारसी के जाननेवाले कहते हैं-खुदा कादिरे मुतलक है। अर्थात् सर्वशक्तिमान है। और ;।सउपहीजलद्ध ‘आलमाइटि’ अंग्रेजी में कहते हैं। आप सोचकर देखिए कि जो अत्यंत व्यापक है-उस समस्त का एक-ही-एक दृश्यमान पिण्ड हो सकता है? आप बहुत घरों को-बड़े-बड़े घरों को बनाए हैं। लेकिन ऐसा कभी हो सकता है कि समस्त आकाश का कोई एक घर बना ले? हमारे यहाँ ईश्वर के सगुण रूप का बहुत वर्णन है, उसमें विराट रूप की बड़ी विशेषता है। राजा बलि से राज्य लेकर इन्द्र को देने के लिए जब विष्णु भगवान ने विराटरूप धारण किया था, उस समय उनका स्वरूप था-‘पद पाताल शीश अज धामा।’ यहाँ भी आदि-अंत कर ही दिया। क्योंकि ब्रह्मा के धाम से भी और ऊपर धाम है। जामवन्त जवान थे, उन्होंने दो घड़ी में उन विराटरूप की सात बार प्रदक्षिणा की थी। श्रीकृष्ण के समय में भी जामवन्त थे। उनकी पुत्री जाम्बबती थी। वानरी सारी सेना समुद्र के किनारे थी, लंका जाकर सीताजी की खोज करने के लिए। तब कहा था-‘उभय घड़ी महँ दीन्ही, सात प्रदच्छिन धाई।’ मेरा कहने का मतलब है कि यह विराटरूप भी आदि-अंत-रहित नहीं हुआ। अर्जुन को विराटरूप दिखाने के लिए श्रीकृष्ण ने विराटरूप धारण किया था। उस विराटरूप में कितने मुँह थे, जिसका ठिकाना नहीं। असंख्य हाथ, असंख्य पैर, असंख्य मुख, असंख्य आँख आदि सभी अवयव असंख्य थे। भयंकर और सुन्दर, दोनों भाँति के रूप उस विराटरूप में थे। कौरव-पाण्डव, दोनों दलों के रथी-महारथी उस विराटरूप के मुँह में प्रवेश कर रहे थे। अर्जुन अलग खड़े होकर स्तुति कर रहा था। योद्धा लोग जो उनके मुँह में प्रवेश करते थे, तो खाली जगह थी, तब तो उनके मुँह में जाते थे। हाथ, पैर, कान आदि का ज्ञान भी बिना अवकाश के नहीं हो सकता। सब ओर से योद्धा लोग आते थे, तो वह सब ओर भी खाली थी। इस तरह वह विराटरूप अनंत नहीं हो सकता।
 जिससे बचा हुआ अवकाश नहीं रहे, वह अनंत होगा। बड़ा-से-बड़ा घर बना लीजिए, लेकिन सम्पूर्ण आकाश को किसी एक घर में अँटा नहीं सकते। विराटरूप व्यक्त है, इन्द्रियगम्य है। लेकिन अनंत रूप अव्यक्त और इन्द्रियगम्य रहित है। इसीलिए जो जितना अधिक व्यापक होता है, वह उतना ही सूक्ष्म होता है। आकाश, हवा, अग्नि, जल और पृथ्वी सब में व्यापक है। क्योंकि इनसे वह सूक्ष्म है। एक सेर बर्फ को पानी बना लीजिए, तो बर्फ से जल की व्यापकता अधिक हो जाएगी। और जल को वाष्प बना लेने से उसकी व्यापकता उससे भी अधिक हो जाएगी।
 इस न्याय से जो सबसे विशेष व्यापक है, वह सबसे विशेष भी सूक्ष्म है। जब यह बात दृढ़ हो गई तो जानना चाहिए कि सूक्ष्म तत्त्व को स्थूल यंत्र से ग्रहण नहीं कर सकते। इन इन्द्रियों के द्वारा पाँच पदार्थों को ही जानते हैं। आँखों से जो ग्रहण करते हैं, उसको रूप कहते हैं; कानों से जो सुनते हैं, उसको शब्द कहते हैं; त्वचा से जो ग्रहण करते हैं, उसको स्पर्श कहते हैं; जिह्ना से जो ग्रहण करते हैं, उसको रस कहते हैं; नाक से जो ग्रहण करते हैं, उसको गंध कहते हैं। इन पाँचों से अधिक और कुछ आप पाते हैं? हर्गिज नहीं। आपको ग्रहण करने के लिए पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ही यंत्र हैं। इन इन्द्रियों में एक-एक विषय को ही ग्रहण करने की शक्ति है। आँखों को अख्तियार नहीं कि वह शब्द सुने, इसी भाँति शेष चारों इन्द्रियों की हालत है। ये सब जितने आप जानते हैं, सभी स्थूल हैं। जो परमात्मा इतना सूक्ष्म है कि उससे अधिक सूक्ष्म और कुछ नहीं हो सकता, उनको इन इन्द्रियों से कैसे ग्रहण कर सकेंगे। अभी एक सोरठा कहा था-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सब दरसी अनवद्य अजीता।।
 परमात्मा का यही स्वरूप है। आप कहेंगे कि संसार ज्ञान के लिए पाँचो ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, और ईश्वर को किससे जानें? तो मैं कहूँगा कि आप अपने को सोचिए कि आप क्या हैं? आप शरीर हैं? नहीं। आप शरीर में भी कोई इन्द्रियाँ हैं? नहीं। आप अपने शरीर को जिस तरह पहचानते हैं, उस तरह अपने को पहचानते हैं? हर्गिज नहीं।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।
 गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं। आप शरीर के अंदर रहते हैं। आप अपने को इन्द्रियों से नहीं पहचानते हैं। ईश्वर को कैसे पहचानेंगे? अंश की पहचान नहीं हो तो अंशी की पहचान कैसे होगी? जैसे घटाकाश, मठाकाश, पटाकाश सब एक ही आकाश के अटूट अंश हैं, उसी तरह परमात्मा के आप अटूट अंश हैं। सूक्ष्म यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व को ग्रहण करेंगे, स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं कर सकते। आप उसी तरह के सूक्ष्म हैं, जैसे ईश्वर। जैसे आँख से जो देखिए, वही रूप है; इसी तरह जिसको आप अपने तईं से-चेतन आत्मा से पहचान लें, वही ईश्वर है। चेतन आत्मा स्वयं ज्ञान-स्वरूप है। इन्द्रियों के कारण चेतन आत्मा को ज्ञान नहीं होता, बल्कि चेतन आत्मा के ज्ञान से ही इन्द्रियों को ज्ञान है। चेतन आत्मा की ही शक्ति हैं कि जिससे आँखें रूप को देखती हैं। यदि आप कहें कि जबकि उसी की शक्ति से इन्द्रियाँ विषयों को ग्रहण करती हैं, तो उसी से ईश्वर को क्यों नहीं ग्रहण किया जा सकता है? तो मैं बताता हूँ-कई पहल के, कई रंग के शीशेवाली लालटेन को आप लें। जिस पहल के शीशे का जो-जो रंग है, उधर के प्रकाश का भी वही-वही रंग हो जाता है, यद्यपि शीशे के अंदर का प्रकाश सदा एक ही जैसा है। इसी तरह आप ही के ज्ञान से इन्द्रियों में ज्ञान है। आपकी वही शक्ति आँख में है तो वह रूप को देखती है, लेकिन शब्द को नहीं सुन सकती। इसी भाँति शेष इन्द्रियों के विषय में भी आप समझ लें। इन्द्रियों से छूटकर आप अपने ज्ञान में ईश्वर की पहचान कर सकते हैं। ईश्वर ही सब धर्मों की जड़ हैं। वे ईश्वर सबके लिए एक-ही- एक हैं। उन ईश्वर तक जाने के लिए सबके पास एक ही रास्ता है। जैसे भोजन करने का मुँह ही सबके लिए एक रास्ता है, उसी तरह ईश्वर के पास जाने का एक ही रास्ता है। एक रास्ता, एक ईश्वर, उसको पाकर एक फल-परमशान्ति। इससे सभी झंझट साफ। ईश्वर तक जीवात्मा कैसे पहुँचे, इस पर कल्ह कहूँगा। मार्ग कहाँ-से-कहाँ तक है, साफ-साफ कहूँगा। संतलोग क्या कह गए हैं, क्या करना चाहिए, कल्ह कहूँगा।
***************
यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत ग्राम-रोशनाहाट में दिनांक 3. 4. 1964 ई0 के सत्संग में हुआ था।
***************



205. साधना में : आलस्य बड़ा दुश्मन है

प्यारे प्रियदर्शनो!
 आपलोग अपने-अपने घरों में नित्य सत्संग करते होंगे। हो सकता है कोई भूल भी करते होंगे। जो भूल करते हैं, वे अपनी हानि करते हैं। भूल नहीं करनी चाहिए। जिस गाँव में कुछ सत्संगी अधिक हुए हैं, गुरु महाराज ने जैसा कहा था कि जहाँ सात सत्संगी हों, वहाँ सत्संग-घर बना देना। उसमें नित्य सत्संग करो। उन्हीं की आज्ञा पालन के लिए इस जिले में कितने सत्संग-घर हो गए। फिर भागलपुर, मुंगेर, सहरसा, संथालपरगना में भी सत्संग-मन्दिर है। जहाँ कम-से-कम सात सत्संगी हों, वहाँ सत्संग-मन्दिर बनाकर सत्संग करो, बड़ा पुण्य होगा। जो लोग भगवान में श्रद्धा रखते हैं, वे ठाकुरबाड़ी, शिवालय बनाते हैं। ये ठाकुरबाड़ी और शिवालय केवल पूजा के लिए नहीं, सत्संग के लिए भी ये स्थान हैं। सत्संग नहीं हो तो होते-होते पूजा छूट जाए। और सत्संग होते रहने से सत्संग प्रेरण करेगा पूजा करने के लिए। इसी तरह सत्संग-मन्दिर सत्संग करने के लिए प्रेरण करेगा। और सत्संग ध्यान करने के लिए प्रेरण करेगा। क्योंकि जिस बात को बारबार सुनो, उस काम को करने की प्रेरणा मिलती है। बारम्बार काशी की महिमा सुनाते-सुनाते युधिष्ठिर का मन काशी की ओर जाने के लिए फेरा गया। इसी तरह बारम्बार सत्संग सुनो, ईश्वर की ओर मन होगा। जितने ईश्वर की ओर हुए हैं, सत्संग से ही।
बिनु सत्संग भगति निंह होई। ते तब मिलिंहं द्रवहिं जब सोई।।
 गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है। इसलिए सत्संग की बड़ी आवश्यकता है। सत्संग करो, करते-करते ध्यान में मन लगेगा। तुम आलस में पड़कर सत्संग, ध्यान नहीं करते हो। सत्संग करो तो ईश्वर-भजन करने का प्रेरण मिलेगा।
 एक नवयुवक ने कहा कि आप सत्संग करते हैं, सत्संग से क्या लाभ होता है, कहिए? मैं रेलगाड़ी पर चढ़नेवाला था। मैंने कहा-गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है कि-
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहि पाई।।
सो जानब सत्संग प्रभाऊ। लोकउ बेद न आन उपाऊ।।
 इन पाँचो को प्राप्त करना सत्संग के प्रभाव से होता है। इसलिए सत्संग करो। ये पाँचों चीजें ऐसी हैं कि जिनकी बड़ी महिमा है।
 ये पाँचो पदार्थ मिल जाएँ, तो और क्या चाहिए? ये पाँचो पदार्थ बड़े भाग्य से मिलते हैं। जिनको ये मिले हैं, सत्संग प्रभाव से ही। इसलिए सत्संग अवश्य कीजिए। अभी संत कबीर साहब का भजन गाया गया-
मेरी सुरत सुहागिनी जाग री ।
क्या तू सोवत मोह नींद में, उठि के भजनियाँ में लाग री ।।
चित से शब्द सुनो सरबन दे, उठत मधुर धुन राग री ।।
दोउ कर जोड़ि सीस चरणन दे, भक्ति अचल वर माँग री ।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, जगत पीठ दे भाग री ।।
 अज्ञानता की नींद में क्या सोते हो? इस नींद से उठो, जागो। साधारण निद्रा की बात नहीं, मोह की नींद में आप सोए हैं। चाहे आप बैठे रहें, चलते रहें, मोह की नींद में हैं। उठो, भजन करो, मोह छूटेगा। लोग कहेंगे-‘हम कब सोए हैं? हम तो चलते-फिरते हैं।’ लेकिन गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
मोह निसा सब सोवनिहारा। देखिय सपन अनेक प्रकारा।।
और कबीर साहब कहते हैं-
 तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय ।
 कोउ काहू का है नहीं, सब देखा ठोक बजाय ।।
 सपने सोया मानवा, खोल देख जो नैन ।
 जीव पड़ा बहु लूट में, ना कछू लेन न देन ।।
 अगर जग जाओ तो ‘कोउ काहू का है नहीं’ यह प्रत्यक्ष हो जाएगा। यदि समझो कि यह बौद्धिक जगना है, तो बौद्धिक जगना मनन में होता है। मनन स्थिर रहता नहीं है। तब क्या तुम जग सकोगे? जगने में ही, फिर जगने कहते हैं-‘खोल देख निज नैन’ यह कौन आँख है? जिससे तुम भीतर देखोगे, वह आँख है। हाड़, चाम, मांस का शरीर है। इसके अतिरिक्त तुम्हारे अंदर अंधकार है। इसके बाद ज्योति मण्डल है। बिना ज्योति के आँख में रोशनी कहाँ से आती है? इस आँख को खोलो, जिससे अंतःप्रकाश मालूम हो।
 क्या जामा जमशेद का, क्या सिकन्दर ऐन ।
 दिल चश्मा से देखिए, अविगत सूझै नैन ।।
 जामा=कटोरा, ऐन=ऐना। अंतर के नेत्र हैं, उससे देखो। अंतर में देखने की जो कोशिश होती है, उसी कोशिश से आँख को खोला जाता है।
 उस आँख के खुलने से तीन अवस्थाएँ नहीं रहती हैं। जैसे सोए थे और जग गए तो संसार को देखने लगे। उसी तरह तीन अवस्थाओं से पार हो गए तो अंदर में देखते हो। इसलिए भजन करो। उठो और देखो। मतलब यह कि चौथी अवस्था में जाओ। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
 तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त।
 तीन अवस्था से परे चौथी में जाओ, तब जगना होगा, आरोहण होगा। इसी को पलटू साहब ने कहा है- रूह करै मेराज कुफर का खोलि कुलावा भजन कैसे करो, तो कहा-चित से शब्द सुनो सरवन दे ।
 वेद में आया है-दृष्टि-शक्ति बढ़ाओ। श्रवण-शक्ति को बढ़ाओ। लेकिन यह सीखोगे कहाँ? जो इसको जानता है, उनके चरणों में शीश नवाकर, हाथ जोड़कर सीखो। उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम किसी तरफ भी जाओ, संसार रहेगा। संसार की ओर पीठ कैसे दी जाएगी? चौथी अवस्था में जाओ तो संसार से ऊपर उठना होगा और तब संसार को पीठ देना होता है।
 ‘खोल देख निज नैन’ यह दृष्टियोग है। और ‘चित से शब्द सुनो सरवन दे’ यह शब्द-योग है।
 संत लोग कहाँ तक पहुँचते हैं? लोग नहीं जानते हैं। संत दादू दयालजी कहते हैं-
 दादू जानै न कोई , संतन की गति गोई।। टेक।।
 अविगत अंत अंत अंतर पट, अगम अगाध अगोई ।
 सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई ।।
 अंड न पिंड खंड ब्रह्मण्डा, सूरत सिंध समोई ।
 निराकार आकार न जोति, पूरन ब्रह्म न होई ।।
 इनके पार सार सोइ पइहैं, तन मन गति पति खोई ।
 दादू दीन लीन चरनन चित, मैं उनकी सरनोई ।।
 संत लोग अविगत तक जाते हैं। वह अविगत कहाँ है? अंदर के अंतिम पट में है। अंदर-अंदर चलो तो अंत में मिलेगा। क्या मिलेगा? तो कहा- ‘सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा।’ यानी तीन शून्य- अंधकार, प्रकाश और शब्द; ये तीन शून्य मिलेंगे, उसके बाद ‘अगुन सगुन नहिं दोई’ है। तारीफ को भी गुण कहते हैं। इसलिए जिसकी तारीफ है, उसको निर्गुण कैसे कहा जाय? दूसरी बात है कि तीन गुणों के बाहर जो है, वह निर्गुण है और फिर सगुण भी नहीं है। तो क्या है? जड़-प्रकृति को ज्ञान नहीं है। वह मलिन माया है और एक निर्मल माया भी है। विद्या और अविद्या कहकर मानो तो हो सकता है। विद्या माया और अविद्या माया अर्थात् अविद्या माया अपरा प्रकृति और विद्यामाया-परा प्रकृति है। अपरा प्रकृति त्रयगुण है और परा प्रकृति निर्गुण है। इन दोनों के परे जो है, वह निर्गुण-सर्गुण नहीं है। परा प्रकृति निर्गुण है, जो शब्द-ब्रह्म है। अक्षरं परमोनादः शब्द ब्रह्मेति कथ्यते। (योगशिखोपनिषद्)। शब्द दो प्रकार के हैं-नित्य और अनित्य। नित्य शब्द में परिवर्तन नहीं होता। जिसको आदि नाद या स्फोट कहते हैं। वह निर्गुण है और जिस शब्द को आकाश का गुण कहते हैं, वह सगुण है।
 जहाँ से जो शब्द निकलता है, वहाँ वह विलीन हो जाता है। वहाँ शब्द नहीं रहता। उसको संतों ने अनाम और उपनिषद् में ‘निःशब्दं परमं पदम्’ कहा है। परा प्रकृति निर्गुण और अपरा प्रकृति सगुण है। जो आदि निर्गुण तत्त्व है, उससे जो बढ़कर है, वह निर्गुण तो है ही नहीं और सगुण तो कहाँ से होगा?
 पिण्ड-ब्रह्माण्ड, परा-अपरा प्रकृति के परे, शब्द-ब्रह्म के परे, तीन शून्यों के परे जो हो वह परमात्मा हैं, इससे आगे कुछ कहा नहीं जा सकता। उससे आगे कुछ कहा जाय और समझा न हो तो ठीक नहीं है। नहीं तो दूसरे कहेंगे, उससे भी कुछ आगे है।
 लोग कहते हैं कि मीराबाई भगवान श्रीकृष्ण के केवल सगुण-रूप की उपासिका थी। लेकिन ऐसी बात नहीं। मीराबाई कहती हैं-
         ऊँची अटरिया लाल किवड़िया,निरगुण सेज बिछी ।।
 पंच रंगी झालर शुभ सोहै, फूलन फूल कली ।
 बाजू बंद कडूला सोहै, माँग सिन्दूर भरी ।।
 सुमिरण थाल हाथ में लीन्हा,शोभा अधिक भली ।
 सेज सुखमणाँ ‘मीराँ’सोवै, शुभ है आज घड़ी ।।
उपनिषद् में ज्योति को भी एक परदा बताया है-
 हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
 तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्य धर्माय दृष्टये ।।
    -ईशावास्योपनिषद्, मंत्र 15
 अर्थात् आदित्य मण्डलस्थ ब्रह्म का मुख ज्यातिर्मय पात्र से ढका हुआ है। हे पूषन्! मुझ सत्यधर्मा को आत्मा की उपलब्धि कराने कि लिए तू उसे उघाड़ दे। मीराबाई के वचन में पंचरंगी झालर की चर्चा है। वह क्या है? ध्यान करते समय अभ्यासी को पाँच तत्त्व के पाँच रंग मालूम होते हैं।
      स्याही सुरख सफेदी होई। जरद जाति जंगाली सोई ।।
             -तुलसी साहब
 पृथ्वी का रंग पीला, जल का रंग लाल, अग्नि का रंग काला, वायु का रंग हरा और आकाश का रंग साफ; ये ही पाँचों रंग पंचरंगी झालर हैं। कडूला=कड़ा=दम। बाजूबन्द=शम है।
 इस तरह भजन करो तो मूर्द्धा में प्रकाश मालूम होगा। यही माँग का सिन्दूर है। मीराबाई तो विधवा थी, उनको सिन्दूर की क्या जरूरत? यह उपमा के लिए कहा गया है। ‘सेज सुखमणाँ ‘मीराँ’सोवै, शुभ है आज घड़ी।।’ मीराबाई की तरह राजस्थान में सहजोबाई और दयाबाई भी हुई है।
सहजोबाई कहती है-
 भया जी हरि रस पी मतवारा ।
 आठ पहर झूमत ही बीते, डारि दियो सब भारा ।।
 इड़ा पिंगला ऊपर पहुँचे, सुखमन पाट उघारा ।
 पीवन लगे सुधा रस जब ही, दुर्जन पड़ी बिडारा ।।
 गंग जमुन बिच आसन मार्यो,चमक चमक चमकारा ।
 भँवर गुफा में दृढ़ ह्वै बैठे, देख्यो अधिक उजारा ।।
 चित स्थिर चंचल मन थाका, पाँचों का बल हारा ।
 चरणदास कृपा सूँ सहजो, भरम करम भयो छारा ।।
 आलस्य बड़ा दुश्मन है। सब तरह के इन्तजाम रहने पर भी आलस्य कहता है सोओ। भजन करने नहीं देता। भगवान बुद्ध ने कहा-निरालसी बनो। आलस्य मत करो। निरालसी होने से इन्द्र देवताओं का राजा हुआ। स्थूल काम में लोग आलस्य छोड़ेगा, लेकिन भजन करने में आलस्य आता है, इसको रोको। गुरु महाराज कहते थे कि गोरखनाथजी को भी आलस्य आता था। उन्होंने स्थूल-देह को कष्ट दे-देकर आलस्य छुड़ाया। देह को कष्ट नहीं दो लेकिन आलस्य छुड़ाओ। कोई ख्याल नहीं आवे और आलस्य नहीं आवे तो समझो कि भजन बन गया। जिस मिनट में वा जिस सेकेण्ड में ऐसा होता है, उसी मिनट में वा सेकेण्ड में भजन बनता है।
***************
यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत ग्राम-रोशनाहाट में दिनांक 4. 4. 1964 ई0 को सत्संग में हुआ था।
***************



206. मौत सबके सिर पर है

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 मैं आपलोगों के दर्शनों से बहुत प्रसन्न हूँ। इन दर्शनों में विशेष बात यह है कि आपलोग बहुत शान्त-भाव से बैठे हैं। सत्संग में शान्तभाव से बैठना ही चाहिए। बिना शान्तभाव से बैठे ठीक- ठीक समझ नहीं सकेंगे। मैं आपको कथा-कहानी कहने के लिए नहीं बैठा हूँ। हाँ, इत्तिफाक से कोई अध्यात्म-कहानी आ जाए तो कह देता हूँ। हो सकता है कि लोग ऐसी बातें पहले सुने हों और कुछ लोग नहीं भी सुनें हों।
 ऋषियों एवं संतों की वाणियों में जग के लोगों को जगाने की बातें हैं। यथा-‘उतिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्या दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।’ अर्थात् (अरे, अविद्याग्रस्त लोगो!) उठो (अज्ञान निद्रा से) जागो और श्रेष्ठ पुरुषों के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करो। जिस प्रकार छूरे की धार तीक्ष्ण और दुस्तर होती है, तत्त्वज्ञानी लोग उस मार्ग को वैसा ही दुर्गम बतलाते हैं।
 कबीर साहब और गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के वचन में है-‘परमातम गुरु निकट विराजैं, जागु जागु मन मेरे।’-(कबीर साहब) ‘जागु जागु जागु जीव जो है जग जामिनी।’-गोस्वामी तुलसीदासजी।
 जागने की विशेषता ज्ञान है। जागरण में ज्ञान होता है। आप जब सो जाते हैं तो अपने तईं का भी आपको ज्ञान नहीं होता। जब जगते हैं तो अपने की सुधि होती है। फिर मेरे पास क्या है, कौन अपने हैं और कौन अपने नहीं हैं, जानने लगते हैं। मतलब यह कि जबतक कोई जागता नहीं है, सोया रहता है तो अपने को भी भूल जाता है। स्वप्न में अपने वह नहीं जानता कि जाग्रत में उसकी क्या स्थिति थी। स्वप्न में अपने को रोगी जान सकता है, यद्यपि जगे में वह नीरोग था। मुझे बचपन की याद है कि जब मैं गेन्द खेलता था तो ऐसी-ऐसी ठोकर लगी कि मैं बैठ जाता था। फिर जब सोता था, तो रात में फुटबॉल खेलता था, कुछ भी दर्द नहीं था। जाग्रत की स्थिति का ज्ञान स्वप्न में नहीं होता। हो सकता है कि जाग्रत में जैसा अपने को देखता है तो स्वप्न में भी देखे। लेकिन अधिकतर ऐसी बात नहीं होती। जगना आवश्यक है। ज्ञान नहीं तो जानकारी नहीं। जानकारी बिना, मूढ़ बने संसार में पड़े रहना, इसमें कुशल नहीं है। इसलिए संतों को हुआ कि संसार के लोगों को जगा दें। यदि कहिए कि सभी तो जगे ही हैं, फिर जगावेंगे क्या? जिस तरह आप स्वप्न में जिस समय रहते हैं, उस समय आपको मालूम नहीं होता है कि स्वप्न है। उस स्वप्न में जबतक रहते हैं, तबतक मन में जाग्रत ही बना रहता है। लेकिन यह तो बात सभी जानते हैं, कोई किताब पढ़ने की जरूरत नहीं। संतलोग कहते हैं कि अभी का जगना भी स्वप्न है। वह जगना कैसा है? जिसमें-‘जेहि जाने जग जाइ हेराई। जागे जथा सपन भ्रम जाई।।’ हो जाता है। वह जगना जिस जगने में यह संसार खो जाय। संसार, संसार नहीं रहेगा, किसको जानकर? ईश्वर को जानकर। बहुत लोग कहेंगे कि हम ईश्वर को जानते हैं। जो नास्तिकता में हैं, वे भले ही कहें कि ईश्वर नहीं हैं, लेकिन हमारा देश आस्तिक है। इसमें ईश्वर की मान्यता है। जो ईश्वर को जानता है, उसके लिए संसार खो जाता है। इस मुताबिक हम जगे हुए नहीं हैं। ईश्वर सबके अंदर, सबके बाहर मौजूद हैं। लेकिन हम पहचानते नहीं। यह ज्ञान नहीं कि ईश्वर हमारे अंग-संग हैं, कभी यह ख्याल भी नहीं आता। कभी संतों के संग में जाते हैं तो याद आता है, फिर भी खोया-खोया ही रहता है। संसार को देखते हैं और ईश्वर का पता नहीं। हम सभी स्वप्न में हैं। जब कुछ ज्ञान की बात सुनते हैं तो मालूम होता है कि ईश्वर सर्वत्र है, फिर भी यह पहचान में नहीं आता। ईश्वर की पहचान हो तो सारे दुःख निवृत्त हो जाएँ। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि जग जाओ तो तीनों ताप नाश को प्राप्त हो जाएँगे। ‘तुलसी जागे ते जाइ तिहू ताप ताय रे।’ शरीर में ऋतु-परिवर्तन से वा कुपथ्य से जो रोग पाते हैं, वह दैहिक रोग है। जो दैवात् कष्ट होता है, वह दैविक दुःख है और जीव से जीव को दुःख होना भौतिक कष्ट है। ऐसा कोई नहीं जो कहे कि इन तीनों में से कोई ताप हमको नहीं। कोई बड़े-बड़े वैद्य या डॉक्टर को क्यों बुलाते हैं? रोग होने के कारण ही। जो गरीब हैं, वे घुट-घुटकर मरते हैं। जब दैहिक, दैविक और भौतिक; तीनों ताप छूट जाएँ, तब समझो कि ईश्वर-दर्शन हुआ। जिस जगने में सर्वसाधारण नहीं है, वह अलौकिक है। जिस जगने में ईश्वर खोया हुआ नहीं मालूम होता, वह अलौकिक जगना है। कबीर साहब ने कहा है-‘परमातम गुरु निकट विराजैं जागु जागु मन मेरे।’
 आदि ज्ञान-दाता परमात्मा हैं। ऋषियों के अंदर ज्ञान देनेवाला परमात्मा है। इसलिए आदि गुरु परमात्मा हैं। गुरु ज्ञानदाता को कहते हैं। इसलिए परमात्मा को भी गुरु कहते हैं। गुरु शब्द इतना व्यापक है कि अपने से बड़े को, पूजनीय को, माता-पिता को; सबको गुरु कहते हैं। गुरु के अंदर सभी पूजनीय मौजूद हैं। परमात्मा हमारे पास है। वह किसी से दूर नहीं है। कहने में कहता हूँ, समझने में समझता हूँ, लेकिन प्रत्यक्षता नहीं होती। इसलिए हमलोग साधारण जगने में भी निद्रित ही रहते हैं। इस निद्रा को छुड़ाओ। आज यदि कोई राजा कहलानेवाला है तो वह भी स्वप्न में है।
 सपने होइ भिखारी नृप, रंक नाक पति होइ ।
 जागे लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपंच जिय जोइ ।।
 अर्थात् स्वप्न में राजा भिखारी और दरिद्र इन्द्र हो जाता है, पर जग जाने पर न तो राजा को कोई हानि होती है और न दरिद्र को कुछ लाभ होता है। ऐसे ही संसार को मन में (स्वप्नवत्) जानो।
 जबतक स्वप्न से बाहर नहीं होता, तबतक उसकी जानकारी नहीं होती। बिना ईश्वर-दर्शन के तृप्ति नहीं होती-नींद नहीं छूट सकती। संसार के सुखों में किसी को तृप्ति नहीं है। सूरदासजी कहते हैं-
अविगत गति कछु कहत न आवै ।
ज्यों गूँगहिं मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै ।।
परम स्वाद सबही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै ।
मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै ।।
रूप रेख गुन जाति जुगुति बिनु, निरालंब मन चक्रित धावै ।
सब विधि अगम विचारहिं तातें, ‘सूर’ सगुन लीला पद गावै ।।
 बाहर किसी से बोल नहीं सकता; क्योंकि गूँगा है। गूँगा स्वाद कैसे बतावेगा? जैसे आम खाया, उसका स्वाद याद है, इसी तरह ईश्वर की प्राप्ति में कितनी संतुष्टि है, ठिकाना नहीं। बात यह है कि मन में उतनी शक्ति नहीं कि उसका वर्णन करे। मन-इन्द्रियाँ उसको नहीं जानतीं। जानता कौन है? समझो। चेतन का स्वाद लगा ही रहता है। जिस जगने में यह स्वाद प्रत्यक्ष मालूम होने लगे, जिसमें परम स्वाद हो, वह परम स्वाद इन्द्रियों के ज्ञान में नहीं है। मन और इन्द्रिय ज्ञान में नहीं रहना, अलौकिक जगना है। इसी में जगने के लिए संत लोग कहते हैं। अभी भी जो संत हैं, उसी जगने में हैं। यह काल्पनिक नहीं है, करके देखो। इसीलिए अलौकिक जगना कहा।
 आज साधारण जगने में, स्वप्न में और सुषुप्ति में कैसे जाते हैं? आप इस शरीर में जहाँ रहकर जगे हैं, वहाँ ही बराबर रह जाएँ, सो होता नहीं है। यह जगना भी स्वप्न है, यह कहने की बात नहीं है, प्रत्यक्ष करके देखो। जगने के समय में जिस स्थान में थे, वहाँ से हटकर कण्ठ में चले आए तो स्वप्न और वहाँ से हटकर हृदय में आ गए तो सुषुप्ति अवस्था हो गई।
 जाग्रत्स्वप्ने तथा जीवो गच्छत्यागच्छते पुनः।
 नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स् वप्नं समाविशेत् ।
 सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्नि संस्थितम् ।।
          -ब्रह्मोपनिषद्
 अर्थात् जीव जाग्रत और स्वप्न में पुनः-पुनः आता-जाता रहता है। जीव का वासा जाग्रत में नेत्र में, स्वप्न में कण्ठ में, सुषुप्ति में हृदय में और तुरीयावस्था में मस्तक में होता है।
 मतलब यह कि स्थान-भेद से अवस्था-भेद और अवस्था-भेद से ज्ञान-भेद होता है। जगने से स्वप्न में जाने से आपको शरीर का ज्ञान नहीं रहेगा। जाग्रत से स्वप्न और उससे सुषुप्ति में जाने से क्या होता है?
 सब इन्द्रियों से ऊपर आँख है। इसमें रहते हैं तो जगे रहते हैं। उससे नीचे कण्ठ में आते हैं तो स्वप्न होता है। यह सोलह स्वरों का स्थान है। इसलिए स्वप्न में कुछ बोलते भी हैं। कण्ठ को षोड़सदल कमल का स्थान कहते हैं। कण्ठ में रहते हैं तो आप बोलते हैं। वहाँ से नीचे होने से गहरी नींद में जाते हैं। स्वप्न में आपको अपने का ज्ञान होता है। सुषुप्ति में आप और नीचे चले गए तो अपने श्वास का भी ख्याल नहीं रहा, स्वाभाविक श्वास लेते रहे। तीन अवस्थाआें से परे चौथी अवस्था में जाओ। लोग समझते हैं कि राम-राम किया तो बहुत कुछ हुआ। सो नहीं, चौथी अवस्था में जाकर भजन करो।
 तेरसि तीन अवस्था, तजहु भजहु भगवन्त ।
 मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनंत ।।
      -गोस्वामी तुलसीदासजी
 गोस्वामी तुलसीदासजी के वचन में है-‘जागु जागु जागु जीव जो है जग जामिनी।’ साहित्यिक महाशय कहेंगे-‘विद्या वा ज्ञान प्राप्त करना जगना है।’ विद्या वा ज्ञान प्राप्त कर भी बुद्धि-विचार द्वारा सचेत होओ और साधु-संतों का अर्थ भी ठीक है कि चौथी अवस्था का जगना जागो। इन दोनों तरहों से जागो।
 वैज्ञानिक आज ऊपर बहुत दूर-दूर तक उड़ते हैं-चन्द्रलोक और मंगलग्रह में। किंतु गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई।।
 एहि तन कर क्या फल होना चाहिए? ‘एहि तन कर फल निर्विषय भाई।’ इस निर्विषय पद को तुरीय में जानना होता है। जैसे संसार बहुत लम्बा- चौड़ा है, उसी तरह चौथी अवस्था का देश भी बहुत बड़ा है। जैसे-जैसे आँख से ऊपर उठता है, वैसे-वैसे ज्ञान बढ़ता जाता है।
 जैसे सूर्योदय के पहले प्रकाश का र्चिं मालूम होता है-रात का अंधकार घसकता जाता है और एक प्रकार का प्रकाश आता है, लोग कहते हैं कि ‘पौ फटा’, गोया अब सूर्य का दर्शन होगा। उषाकाल का रंग ठीक-ठीक है, तो उम्मीद होती है कि सूर्य-दर्शन भी होगा। इसी तरह पहले ईश्वर का प्रकाश मिलता है, पीछे ईश्वर-दर्शन होता है। भजन में जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, ईश्वरीय र्चिं मिलते हैं, तब विश्वास होता है कि ईश्वर का दर्शन होगा। यह कोई भजन करते-करते जानता है। जबतक कोई वहाँ नहीं पहुँचता है, आशा बढ़ती जाती है और ज्ञान की वृद्धि भी होती है। अष्ट सिद्धि,नवनिधि की भी वह चाहना करता है।
 अभी का जो जगना है, उससे परे चौथी अवस्था में जाओ तो पता चलेगा कि हम कभी मरते या जनमते नहीं हैं। जैसे मठ को बनाते हैं, लेकिन उसके अंदर के आकाश को कोई नहीं बनाते, वैसे हम हैं। जैसे मठाकाश महादाकाश का अभिन्न अंश है, उसी तरह हम अनादि-अनंत सर्वव्यापी परमात्मा के अभिन्न अंश हैं। परंतु इसका प्रत्यक्ष ज्ञान तुरीय अवस्था के शिखर पर ही होता है। इसी अवस्था में आध्यात्मिक जागृति होती है। जिसके बिना-
‘सुभग सेज सोवे सपने वारिधि बूड़त भय लागै ।
 कोटिन्ह नाव न पार तरै तहँ जब लगि आपु न जागै।।’ स्वप्नावस्था में समुद्र में डूबने का भय होता है, लेकिन जग जाओ तो कोई भय नहीं।
 कबीर साहब कहते हैं-परमात्मा-गुरु तुम्हारे निकट हैं, तुम जगो। उसको कैसे प्राप्त करोगे, सो जानो और आजकल करके टालो नहीं। मौत सबके सिर पर है, सद्गुरु की शरण में, चरण में जाओ। सद्गुरु से युक्ति जानो और उसका अभ्यास करो। सदगुरु उसको कहते हैं जो अपने को सद्ज्ञान में रखता है, स्वयं ज्ञान जानता है और दूसरे को उसकी शिक्षा देता है।
 संसार में लोग देखते हैं कि शरीर संबंधी सभी हमारे हैं। परंतु शरीर संबंधी यह भूल ज्ञान तुरीय अवस्था में नहीं रहने से ही होता है। सबमें रहो और विश्वास रखो कि सबका संग जरूर छूटेगा। सभी को आप छोड़कर जाएँगे वा आपको छोड़कर सभी जाएँगे। भक्तिन सहजोबाई कहती हैं-
 चलना है रहना नहिं, चलना विस्वावीस ।
 सहजो तनिक सुहाग पै, कहा गुथावै सीस ।।
 इस संसार का सोहाग थोड़े काल का है। अपने घर में रहना, पवित्रता से रहना, निर्लिप्त दशा में रहना, तभी कल्याण है, अन्यथा नहीं। ईश्वर- ईश्वर करते हैं, किन्तु प्रत्यक्ष जानते नहीं हैं। जगने की चेष्टा कीजिए, तब ठीक-ठीक समझ में आवेगा।
***************
यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत ग्राम-पहाड़पुर के श्री राष्ट्रीय शहीद विन्देश्वरी पुस्तकालय के प्रांगण में दिनांक- 21. 4. 1964 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



207. चमत्कार के फेर में नहीं पड़िए

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 संतों ने मनुष्य के कल्याण के वास्ते ईश्वर भक्ति का ही उपदेश दिया है। किसी अन्य काम से परम कल्याण नहीं होता। अन्य किसी दर्शन से या कर्म से न कभी परम कल्याण हुआ, न होगा। ईश्वर-भक्ति में ईश्वर-स्वरूप का निर्णय जानो। इन्द्रियों से जो जानते हो, वह माया है। ईश्वर सबके साथ रहते ही हैं और ईश्वर को प्राप्त करने के लिए दो अवलम्ब भी सबके अंदर हैं। वह है-अंतर्ज्योति और अंतर्नाद।
 संसार में ज्योति नहीं तो कोई काम नहीं हो। ज्योति है गर्मी। गर्मी निकल जाय तो कोई जीवित नहीं रह सकता। एक बच्चा कोई जन्म लेता है, यदि वह बच्चा रोता नहीं है तो कहते हैं कि मुर्दा है। जनमते ही बच्चा रोता है तो कहते हैं कि जीवित है। जाग्रत में शब्द बोलते हो सुषुप्ति में नहीं बोलते, गोया अचेत रहते हो, मतलब यह कि शब्द के बिना अचेतन हो जाता है। शब्द और गति में अत्यन्त समत्व है। बिना गति के शब्द नहीं होता। गति और कम्प के बिना सृष्टि नहीं होती। ऐसा मालूम होता है कि संसार में इन दोनों के अतिरिक्त और कोई तेज नहीं है। विराटरूप को भी तेज ही चमकाता है। सूर्य प्रकाश रूप है। तेज और शब्द से बढ़कर परमात्मा की कोई विभूति नहीं है। यह सबके अंदर-अंदर है।
 जो कोई परमात्मा का दर्शन चाहते हैं, उनको इन दोनों से ही होगा। इन दोनों के बिना किसी को ईश्वर-दर्शन नहीं होता। पहले के ऋषि-मुनि लोग इसी को नाद और इसके अभ्यास को नादानुसंधान कहते थे। ज्योति के अंदर ईश्वर व्यापक है, ज्योति ही रूप ग्रहण कराती है, ज्योति ही रूप को चमत्कृत करती है। कितना भी सुन्दर रूप हो, ज्योति नहीं हो तो अंधकार में पड़ा रहेगा। संतों ने ईश्वर-प्राप्ति के लिए अंतर्ज्योति और अंतर्नाद ग्रहण करने कहा है। वेद, उपनिषद् एवं संतवाणी किसी को भी पढ़ो, सब में यह बात है।
 पहले स्थूल मंत्र और स्थूल ध्यान के द्वारा मन का सिमटाव करो। बाद में पूर्ण सिमटाव के लिए एकविन्दुता प्राप्त करो, फिर नादानुसंधान करो। शब्द के अतिरिक्त और कोई भी धारा ऐसी नहीं है, जो परमात्मा तक पहुँचावे। ज्योति नीचे की धारा है, लेकिन बिना ज्योति को पकड़े, शब्द ग्रहण नहीं हो सकता। इसलिए ज्योति का ध्यान भी करो।
 इस तरह का पवित्र काम करने के लिए पंच पापों-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार को छोड़कर रहना होगा। इस तरह के शुद्ध मन और शुद्ध आचरणवाले का संसार में सुनाम विदित होता है और वे पूज्य हो जाते हैं।
 भागलपुर में एक साधु पहुँचा। उसने कहा- चमत्कार के बिना नमस्कार नहीं। मैंने पूछा-महाराज! चमत्कार क्या? वे कुछ न बोले। मैंने कहा- चमत्कार, सदाचार-पालन है। सिद्धि से बढ़कर शुद्धाचरण है। रावण ने बहुत चमत्कार दिखाया, लेकिन उसका नाम दुष्टों के लिस्ट में है। तब के और अब के भी साधु सिद्धि वगैरह दिखाए हैं और नीचे भी गिरे हैं।
रिद्धि सिद्धि प्रेरई बहु भाई। बुद्धिहि लोभ दिखावई जाई।।
होई बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी।।
 जिनका आचरण सुधरा हुआ नहीं है, वह ईश्वर का भजन नहीं करता, संसार का भजन करता है। कोई कहते हैं कि फलाना साधु चमत्कार दिखाते हैं। उस चमत्कार के फेर में नहीं पड़िए। उनका आचरण देखिए। आचरण देखकर किसी पर विश्वास कीजिए।
 कहै कबीर निज रहनि सम्हारी। सदा आनंद रहैं नर नारी।।
 इसके बिना न संसार में कोई भला रह सकता है और न कोई मोक्ष के योग्य हो सकता है, इसको ठीक-ठीक समझिए।
***************
यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर घोरघट में दिनांक 25. 4. 1964 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
***************