192. अनेक ब्रह्मा, विष्णु और शिव
प्यारे प्रियदर्शनो !
परमात्मा की बड़ी कृपा है कि हमलोगों का जन्म भारत-भूमि पर हुआ है। यह बड़ा ही आस्तिक देश है। उत्तर हिमालय से दक्षिण कन्याकुमारी अंतर्द्वीप तक, जगन्नाथपुरी और द्वारिका-पूरब से पश्चिम तक तथा सभी प्रदेशों में इस आस्तिक भाव की मान्यता है। जब से बच्चे का जन्म होता है, तब से अथवा जब बच्चे अपने मुँह से कुछ बोलने लगता हैं, तोते की तरह बच्चे को माता-पिता तथा अभिभावक ईश्वरवाची नाम सिखाते हैं। कोई राम-राम, कोई हरि-हरि, कोई शिव-शिव आदि इस तरह के ईश्वरवाचक नाम कहलवाते हैं। किसी घर में सतनाम का आदर है, वे वह कहलवाते हैं। होता क्या है कि जैसे-जैसे बच्चे को ज्ञान होता जाता है, वैसे-वैसे ईश्वर के ज्ञान में वे मजबूत होते जाते हैं। पहले वे जानते नहीं कि राम-राम, शिव-शिव क्या है? माता-पिता सिखाते हैं कि सबके मालिक प्रभु भगवान हैं, उन्हीं के ये नाम हैं। बच्चे के मन में बैठ जाता है कि ईश्वर है। कितने बच्चे कहते हैं कि ईश्वर कहाँ है? तब माता-पिता उनको ठाकुरबाड़ी में ले जाकर प्रतिमा दिखाते हैं कि यही ईश्वर है। कितने दयानन्द स्वामी की तरह प्रौढ़ होते हैं, तो तर्क-वितर्क से और भी जानते हैं। ईश्वर का ज्ञान मामूली बात नहीं है। अंत में बच्चे अपने भी पढ़ते हैं कि ईश्वर सगुण भी हैं और निर्गुण भी हैं। सगुण ठाकुरबाड़ी की प्रतिमा को मानते हैं और निर्गुण का पता नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी ऐसे गुरु मिलते हैं तो वे कहते हैं-
हिय निर्गुन नयनन्हिं सगुन, रसना राम सुनाम ।
मनहु पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम ।।
निर्गुण हृदय-अन्दर की बात है। आँख से जो देखते हो, वह सगुण है। जिभ्या पर सुन्दर राम-राम वा शिव-शिव है। यह कैसा हुआ? जैसे सोने के डिब्बे में सुन्दर रत्न हो। तुलसीदासजी कहते हैं कि निर्गुण देखना चाहते हो, तो अंतर्मुखी होओ। आँख से सगुण को देखते हो, लेकिन इस आँख से स्थूल को देखोगे, सूक्ष्म सगुण को नहीं। सूक्ष्म सगुण को अंदर में देख सकते हो, जबकि ‘उघरहिं विमल विलोचन ही के’ (दिव्य माया की दृष्टि) होगा।
सोने का डिब्बा कितना सुन्दर-कितनी कीमत का होगा, लेकिन उसके अंदर उससे मूल्यवान पदार्थ है। सोने का डिब्बा सगुण है और निर्गुण सुन्दर रत्न। तुलसीदासजी कहते हैं-दोनों देखने में चमकीले, सुन्दर और बहुमूल्य हैं। दोनों का आदर करो। सगुण कहते हैं-जो गुणों के साथ-साथ है। जो गुणों के साथ नहीं है, वह निर्गुण है।
अगुण अखंड अनंत अनादी । जेहि चिन्तहि परमारथवादी।।
अगुण अखंड अलख अज जोई। भगत प्रेमबस सगुण सो होई।।
इन दोनों को समझो। जो निर्गुण और अखण्ड है, जो उत्पन्न नहीं हुआ है, वही भक्तों के प्रेम से सगुण होता है। गुण का अर्थ है, स्वभाव। स्वभाव तीन तरह के हैं-उत्पन्न करने, पालन करने और विनाश करने का। पर्वत को देखो, सागर को देखो, नाना वृक्षों को देखो, उद्भिज, अण्डज, पिण्डज किसी को देखो, सूर्य-चन्द्र ताराओं को देखो, जो कुछ देखो, तीन स्वभावों के अन्दर हैं। सभी कभी- न-कभी बने हैं। यह उत्पादन-रजोगुण का काम है। कुछ काल तक ठहराव होता है। यह पालन करने का काम सतोगुण का है। फिर विनाश होता है। विनाश दो तरह के होते हैं-एक परिवर्तन और दूसरा अत्यन्ताभाव। यह तमोगुण का काम है। जिनको हम नहीं देखते हैं, उनको भी हम मानते हैं। इसके लिए भी यही बात है।
वशिष्ठजी ने श्रीरामजी से कहा कि एक-एक ब्रह्माण्ड में तीन-तीन देव हैं-ब्रह्मा, विष्णु और शिव। उन्होंने एक कथा कही कि मैंने ब्रह्माजी से पूछा कि एक आप ही ब्रह्मा हैं कि और भी हैं? ब्रह्माजी ने कहा-‘अनेक हैं।’ मैंने कहा-‘कैसे मानूँ?’ तो ब्रह्माजी ने मुझसे कहा-‘मैं रास्ता बता देता हूँ। तुम जाओ।’
वशिष्ठजी को ब्रह्माजी ने रास्ता बता दिया। वे उस रास्ते से चले। रास्ते में एक नारी मिली, जो रो रही थी। वशिष्ठजी ने उससे रोने का कारण पूछा, तो उसने बताया कि ब्रह्माजी ने मुझसे विवाह करने का वचन दिया था; परंतु अब वे इसके लिए तैयार नहीं हैं। वशिष्ठजी ने कहा कि मेरे पिताजी तो झूठ नहीं बोल सकते। नारी बोली-‘वे दूसरे ब्रह्माजी हैं।’ यह सुनकर वशिष्ठजी उस ब्रह्मा के पास गए और वचन देकर पुनः विवाह नहीं करने का कारण उनसे पूछा। वह ब्रह्मा बोले-‘इस ब्रह्माण्ड का अभी प्रलय होनेवाला है। इसके साथ मेरा भी प्रलय हो जाएगा। इसीलिए मैंने अस्वीकार किया है। आप शीघ्र यहाँ से भागिए, नहीं तो मेरे साथ आपका भी प्रलय हो जाएगा।’ यह सुनकर वशिष्ठजी शीघ्रता से उस ब्रह्माण्ड की सीमा से बाहर अपने ब्रह्माण्ड में चले आए। यहाँ आते ही उन्होंने देखा कि वह दूसरा ब्रह्माण्ड शीघ्र ही उस ब्रह्मा सहित प्रलय को प्राप्त हो गया।
आपके यहाँ गंगा की धारा है। कहते हैं कि राजा बलि को परास्त करने के लिए और देवताओं को राज्य देने के लिए भगवान विष्णु ने वामन का रूप धरकर विराट् रूप दिखाया। उनके चरण की धोवन श्रीगंगाजी हैं।
दूसरी कहानी है कि एक बार ब्रह्माजी को अहंकार हो गया कि मैं ही सबसे बड़ा हूँ। इसी भाव में वे विष्णु भगवान के यहाँ गए। भगवान विष्णु ने उनका आदर नहीं किया। उसी समय चतुर्मुखी ब्रह्मा ने देखा कि वहाँ अष्टमुख ब्रह्मा आए। तदुपरान्त सोलह मुखवाले ब्रह्मा पधारे। पुनः बत्तीस मुखवाले, फिर चौसठ मुखवाले, फिर सौ मुखवाले आए। इसी भाँति हजार मुखवाले ब्रह्मा भी आए। चतुर्मुखी ब्रह्मा सबसे पीछे पड़ गए। तदुपरान्त शिवजी पधारे। विष्णु भगवान के अनुरोध से शिव जी ने वहाँ ताण्डव नृत्य दिखाया। उस नृत्य और गान को देख-सुनकर विष्णु के सहित सभी ब्रह्माओं की आँखों से प्रेम के आँसू बहने लगे। वही अश्रुजल यह गंगाजी हैं। अनेक ब्रह्मा, विष्णु और शिव के होने के संबंध में संतों की वाणियों में भी हम पाते हैं; यथा-
कोटि विष्णु अनंत ब्रह्मा, सदाशिव जेहि ध्यावहीं ।
सोइ मिल्यो सहज सरूप केसो, आनंद मंगल गावहीं ।।
-केशवदासजी
कोटि हैं विष्णु जहँ कोटि शिव खड़े हैं ।
कोटि ब्रह्मा तहाँ कथैं वाणी ।।
-पलटू साहब
अनेक ब्रह्मा, अनेक विष्णु और अनेक शिवजी हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने दूसरी तरह कहा है-
राम काम सत कोटि सुभग तन ।
दुर्गा कोटि अमित अरिमर्दन ।।
सक्र कोटि सत सरिस विलासा ।
नभ सत कोटि अमित अवकाशा।।
मरुत कोटि सत विपुल बल,रवि सत कोटि प्रकाश ।
ससि सत कोटि सु सीतल, समन सकल भव त्रास ।।
काल कोटि सत सरिस अति, दुस्तर दुर्ग दुरन्त ।
धूम केतु सत कोटि सम, दुराधरष भगवन्त ।।
प्रभु अगाध सत कोटि पताला। समन कोटि सत सरिस कराला ।।
तीरथ अमित कोट सत पावन। नाम अखिल अघ पूग नसावन।।
हिमगिरि कोटि अचल रघुवीरा।सिन्धु कोटि सत सम गंभीरा।।
कामधेनु सत कोटि समाना। सकल काम दायक भगवाना।।
सारद कोटि अमित चतुराई। विधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई।।
विष्णु कोटि सत पालन करता। रुद्र कोटि सत सम संघरता ।।
धनद कोटि सत सम धनवाना। माया कोटि प्रपंच निधाना।।
भार धरन सत कोटि अहीसा। निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा।।
अंत में चलकर कहा है कि-
निरुपम न उपमा आन, राम समान राम निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रवि, कहत अति लघुता लहै ।।
एहि भाँति निज निज मति विलास, मुनीस हरिहि बखानही ं।
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल, सप्रेम सुनि सुख पावहीं ।।
यह कोटि-कोटि की उपमा वैसी ही हुई, जैसे सूर्य को करोड़ों जुगनुओं से उपमा दी जाय। राम सूर्य हैं और ये सभी जुगनू हैं। आकाश में आप तारे देखते हैं। ज्योतिषियों ने इनकी गणना की है हिसाब के लिए। कहा जाता है, ईश्वर ऐसा है कि जिसमें सभी के सभी समाए हुए हैं। यहाँ तक कि ‘नभ सत कोटि अमित अवकासा।’ समझिए कि क्या बात हुई। आकाश के अंदर तो सभी रहते हैं, लेकिन जिसके अंदर ‘नभ सत कोटि अमित अवकाशा’ है, वह कैसा है? मालूम होता है कि तुलसीदासजी ने सगुण भाव में बताया है, लेकिन वह निर्गुण है। वह परम पुरातन, परम सनातन है। आदि-अंत-रहित, उत्पन्न होने का सवाल ही जहाँ नहीं है, वह ऐसा होगा कि उसका आधार नहीं होगा। आधार पहले होता है और आधेय पीछे। वह परमात्मा सर्वाधार है। सब उसी के अंदर हैं और सबके अंदर वह है। उसी को ‘नभ सतकोटि अमित अवकासा’ और ‘अगुण अखण्ड अलख अज जोई’ कहा गया है। वही सगुण बन गया, ऐसा नहीं। गुणों को संग ले लिया। उन तीनों गुणों का आवरण कितना ही बड़ा क्यों न हो, पूर्णरूपेण उसको ढँक नहीं सकता। यह आवरण साम्यावस्था- धारिणी मूल प्रकृति का है। त्रयगुणमयी प्रकृति का विस्तार बहुत बड़ा है, उसको भी पार किए हुए जो है, उसी के लिए ही-
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
कहा गया है। बचपन से जो राम-राम, शिव-शिव कहते आए हैं-राम कहो वा शिव कहो, तुलसीकृत रामायण में शिव और राम दोनों का वर्णन है। जितना गुण राम का है, उतना ही गुण शिव का भी।
नमामीशमीशान निर्वाण रूपम्,
विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपम् ।
अजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहम्,
चिदाकाशमाकाश वासं भजेऽहम् ।।
ईश्वर अनेक नहीं हो सकते। जैसे इस्लाम और क्रिश्चियन धर्मालम्बी हमको कहते हैं कि हिन्दू धर्म तुम्हारा है। मैं कहता हूँ कि हिन्दू धर्म तुमने कहाँ सुना? वे कहते हैं कि तुम अपने को हिन्दू कहते हो, इसीलिए मैं भी हिन्दू कहता हूँ। हिन्दू का अर्थ बड़ा खराब है, फारसी के शब्दकोश में देखो। हमारा धर्म वैदिक धर्म है। हम वैदिक आर्य हैं-ऐसा कहो। ‘हिन्दू’ शब्द हमको अपमानित करता है। वैदिक धर्म को जो ‘हिन्दू धर्म’ कहते हैं, यह अनुचित है। पुरैनियाँ जिला साहित्य सम्मेलन की सभा में भी मैंने कहा था-‘आज देश का नाम भारत है, हम अपने को वैदिक आर्य कहें वा भारतीय कहें, सरकार कुछ नहीं कहेगी। ‘हिन्दू’ की भाषा हिन्दी है। भाषा का ‘हिन्दी’ नाम मुझे अच्छा नहीं लगता। ‘भारती’ इसका नाम दें, तो अच्छा-ही-अच्छा। ‘हिन्दू’ धर्मावलंबी कहकर अपने को जनावें, इसमें हमको बहुत दुःख होता है।
संतमत वैदिक धर्म का वह अंग है, जो ईश्वर-प्राप्ति का ज्ञान देता है। अन्य धर्म के लोग कहते हैं कि आप तो बहुत ईश्वरों को मानते हैं। मैं कहता हूँ, हम तो एक ईश्वर को मानते हैं। फिर वे कहते हैं-‘आप तो राम को, शिव को, देवी आदि कितने को ईश्वर कहते हैं।’ मैंने कहा कि सब रूपों में वह एक-ही-एक है। अच्छा कहिए, यह आपका जिस्म है? आप यह क्या पूछ रहे है! उन्होंने कहा। मैंने कहा-‘आप कहिए तो सही।’ उन्होंने कहा-‘हाँ, यह मेरा जिस्म है।’ मैंने कहा-‘यह आपका जिस्म क्यों है?’ वे चुप रहे। मैंने कहा- ‘इसलिए न, कि इस जिस्म में आप रहते हैं?’ उन्होंने कहा-‘हाँ।’ मैंने कहा-‘एक जिस्म में आप रहते हैं, तो वह जिस्म आपका है और जो सब जिस्मों-रूपों में रहता है, तो इस न्याय से सब जिस्म-सब रूप उसके क्यों नहीं होंगे?’
ईश्वर को मोहितेकुल्ल (सर्वव्यापक) कहते हैं। ईश्वर सबमें है। आप एक शरीर में रहते हैं, तो आप उसको अपना रूप कहते हैं, उसी तरह जो सभी शरीरों में है, वे सब रूप उसके हैं। जो सबमें व्यापक है, वह इस नेत्र से ग्रहण होने योग्य नहीं है। वह अनादि, अनंत, असीम है, वह एक है। अनेक रूपों में रहते हुए वह एक ही है। गंगाजी के जल में अनेक बुदबुदे निकलते हैं, सभी गंगाजी के जल ही हैं। परमात्मा से सभी उत्पन्न होते हैं। परमात्मा एक ही हैं। वह आप-ही-आप है, तो कोई उसका सहारा नहीं है। जो सबसे प्राचीन होता है, वह अवकाश छोड़े बिना होता है। अवकाश छोड़कर रहे, तो पहले अवकाश ही होगा। जो सबके अंदर और सबके बाहर भी है, वह परमात्मा है। ‘है सबमें सबही तें न्यारा’-कबीर साहब। गुरु नानक ने आगे कहा है-
अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु ।
ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।आदि।
अगर कोई तर्क करता है कि ईश्वर नहीं है, तो मैं प्रश्न करता हूँ कि एक अनादि-अनंत तत्त्व को मानते हो कि नहीं? यदि नहीं मानोगे तो सभी को सादि-सान्त कहना पड़ेगा, तो प्रश्न होगा कि उन सादि-सान्तों के परे क्या है? इसके उत्तर में जबतक अनंत नहीं कहा जाए, तबतक इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर नहीं हो सकता। सान्तों का बड़े-से-बड़ा मंडल बना लो, फिर भी उसका मण्डल सान्त ही होगा। सूर्य-चन्द्र, सारा ब्रह्माण्ड सान्त ही सान्त है। अनेक ब्रह्माण्ड भी अनंत नहीं होते। विराट रूप भी अनंत नहीं है।
सीताजी की खोज के लिए जब बड़े-बड़े वानर चले और समुद्र के किनारे पहुँचते हैं, भूख-प्यास से विकल होते हैं, उस समय एक विवर से एक पक्षी को निकलते और फिर उसमें प्रवेश करते देखा। ऐसा देखकर सभी बन्दरों ने एक दूसरे का हाथ पकड़कर उस गुहा में प्रवेश किया। वहाँ एक तपस्विनी तेजयुक्त माई को देखा। उस तपस्विनी ने उन बन्दरों को फल खाने और जल पीने का आदेश दिया, आँखें बंद करने के लिए माई ने कहा। आँखें बंद करने के बाद आँखें खोलने पर फिर सबों ने अपने को समुद्र के किनारे पाया। अब उस समुद्र को कौन पार करे? जाम्बवन्त ने कहा-‘जिस समय मैं जवान था, विराट् रूप भगवान की मैंने दो घड़ी में सात प्रदक्षिणा की थी, लेकिन अब तो मैं बूढ़ा हो गया हूँ।’ इससे जाना जाता है कि वह विराट् रूप भी अनंत नहीं था। कुरुक्षेत्र के मैदान में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो विराट् रूप दिखाया था, वह भी अनंत नहीं था; क्योंकि उस विराट् रूप के अतिरिक्त स्थान बचा था, जिसमें कौरव-पाण्डव दल के लोग भगवान के मुँह में प्रवेश करते थे और मर-मर कर गिरते थे। अर्जुन भी एक जगह खड़ा होकर डर रहा था। अनादि-अनंत तत्त्व ही असीम होगा, सारे सांतों के पार में एक अनंत को नहीं मानने से नहीं बनता। ईश्वर-स्वरूप को जाने बिना ईश्वर-भक्ति करनी हैरानी मात्र है, जैसे निर्दिष्ट स्थान को जाने बिना कोई यात्रा करता है। गुरु नानक ने कहा है-
राज महि राज योग महि योगी ।
तप में तपीसुर गृहस्थ महिं भोगी ।
ध्याय ध्याय भक्तः सुख पाया ।
नानक तिस पुरुष का किन अंत नहीं पाया ।।
तुम ईश्वर का ध्यान करो, ईश्वर तक पहुँचोगे, लेकिन उसका अंत नहीं पाओगे।
श्रीमद्भगवद्गीता में तीन पुरुषों का वर्णन हुआ है। क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष, और पुरुषोत्तम। जड़-अपरा प्रकृति नाशवान है। दूसरी परा प्रकृति है, जो चेतनात्मिका है, इसका नाश नहीं होता, पर ससीम है, जड़ से पृथक पदार्थ है। नाशवान क्षर पुरुष, अनाश अक्षर पुरुष है। परमात्मा क्षर और अक्षर से, सत् और असत् से, नाशवान और ससीम अनाश से भी ऊपर है, वही पुरुषोत्तम है। इस पुरुषोत्तम पुरुष को जानो। उस तक पहुँचने का यत्न खोजो। तुम भक्त बनो, नहीं तो नाशवान पदार्थों के बीच में रहते हुए ऊँचे-नीचे लोकों में भ्रमते रहोगे, आवागमन के चक्र में पड़े रहोगे।
ईश्वर की खोज बाहर में करने की जरूरत नहीं। अंदर में खोज करो। परमात्मा इन्द्रियातीत है। इसलिए बाहर में नहीं पहचान सकोगे। अंदर- अंदर चलनेवाला इन्द्रिय ज्ञान से छूटता है, चौथी अवस्था के शिखर पर पहुँचता है, कैवल्य दशा प्राप्त करता है, वही ईश्वर को जानने का अधिकारी है।
‘विगत विकार जान अधिकारी ।’
‘हे नेरे सूझत नहीं, ल्यानत ऐसो जिन्द ।
तुलसी या संसार को, भयो मोतियाबिन्द ।।’
-गोस्वामी तुलसीदासजी
यह कैसे छूटेगा? गुरु नानकदेव ने कहा-
घरि महि घरु देखाइ देइ सो सतगुरु परखु सुजाणु ।
पंच सबदु धुनिकार धुन तहँ बाजै सबदु निसाणु ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
मायाबस मति मन्द अभागी। हृदय जवनिका बहु विधि लागी।।
ते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अज्ञान राम पर धरहीं।।
काम क्रोध मद लोभ रत, गृहासक्त दुख रूप ।
ते किमि जानहिं रघुपतिहिं, मूढ़ पड़े तम कूप ।।
अपने को अंधकार के कुएँ से निकालो, तब काम-क्रोधादि विकार घटते-घटते घटेंगे और परमात्म- स्वरूप का दर्शन होगा। ईश्वर इन्द्रियातीत है, आत्म- गम्य है। जिस इन्द्रिय का जो विषय है, उसके अति- रिक्त दूसरे विषय को वह ग्रहण नहीं कर सकती। आँख का विषय कान से और कान का विषय नाक से नहीं ग्रहण हो सकेगा। आँख का विषय आँख से और कान का विषय कान से ही ग्रहण होगा।
परमात्मा क्या है? जो चेतन आत्मा से ग्रहण हो। जैसे रूप विषय क्या है? जो तुम आँख से ग्रहण करो। आत्मगम्य परमात्मा पुरुषोत्तम है। तुम तबतक उसको नहीं पकड़ सकते, जबतक तुम शरीर-इन्द्रिय में फँसे हो। शरीर-इन्द्रिय से छूटने पर ही परमात्मा को प्राप्त कर सकते हो। बाहर में कितना उपाय करो, प्राप्त नहीं कर सकते। मीराबाई का एक शब्द है-
ऊँची अटरिया लाल किवड़िया निर्गुण सेज बिछी ।।
पचरंगी झालर शुभ सोहै, फूलन फूल कली ।
बाजूबन्द कडूला सोहै, माँग सिन्दूर भरी ।।
सुमिरण थाल हाथ में लीन्हा,शोभा अधिक भली ।
सेज सुखमणा ‘मीरा’ सोवै, शुभ है आज घड़ी ।।
जैसे ईशावास्योपनिषद् में है-
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यास्यापिहितं मुखम् ।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्य धर्माय दृष्टये ।।
अर्थात् आदित्य मण्डलस्थ ब्रह्म का मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढँका हुआ है। हे पूषण! मुझ सत्यधर्मा को आत्मा की उपलब्धि कराने के लिए तू उसे उघाड़ दे।
साधक अपने अन्दर पाँच तत्त्वों के रूप देखता है। पृथ्वी का रंग पीला, जल का रंग लाल, अग्नि का रंग काला, वायु का रंग हरा और आकाश का रंग साफ है। ‘फूलन फूल कली’ का अर्थ है-मण्डल खुल गया। बाजूबन्द अर्थात् शम और कडूला अर्थात् दम। तात्पर्य यह कि दम इन्द्रियनिग्रह और शम मनोनिग्रह है। मीरा कहती है कि इन्द्रियनिग्रह और मनोनिग्रह युक्त हो जाओ, तो मूर्द्धा में प्रकाश- ही-प्रकाश देखोगे। सिंदूर लाल रंग का होता है, लाल रंग प्रकाश का है। मीरा सुषमना की सेज पर सोती है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण; एक पर से एक उतारो, पवित्र हो जाओगे। इस प्रकार कर लेने पर अपरा प्रकृति मंडल के बहुत से शब्दों को सुनोगे। यह रास्ता बहुत बारीक है। ईसा मसीह अच्छे साधु थे, उन्होंने कहा है-‘सकेत फाटक से प्रवेश करो; क्योंकि चौड़ा है वह फाटक और चाकर है वह मार्ग, जो विनाश को पहुँचाता है और बहुत हैं, जो उसमें पैठते हैं। वह फाटक सकेत है और वह मार्ग सकरा है जो जीवन को पहुँचाता है और थोड़े हैं, जो उसे पाते हैं।’
राम भगति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म विचार प्रचारा ।।
विधि निषेधमय कलिमय हरनी। करम कथा रविनंदिनी बरनी ।।
कहते हैं कि सरस्वती नदी अंतःसलिला है। इड़ा-पिंगला गंगा-यमुना है और सरस्वती सुषुम्ना है। सुषुम्ना में सेज लगाना शुभ घड़ी है। कबीर साहब को कैसे ज्ञान हुआ, इस पर उन्होंने स्वयं कहा है-
कबीर काया समुँद है, अंत न पावै कोय ।
मिरतक होइ के जो रहै, मानिक लावै सोय ।।
मैं मरजीवा समुँद का, डुबकी मारी एक ।
मुट्ठी लाया ज्ञान की, जामें वस्तु अनेक ।।
केवल पढ़ने से क्या होता है? पढ़ने का महत्त्व तब है, जबकि उसके अनुकूल चला भी जाय। विद्या पढ़ने से मनाही भी नहीं। विद्या भी पढ़ो और साधन भी करो। तत्त्व क्या पाना है, उसके लिए यत्न करो।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद के सिविल लाईन स्थित सत्संग भवन के प्रांगण में दिनांक 30.9.1963 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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