187. माया का फैलाव ब्रह्माण्ड तक
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 यह बात अब किसी की जानकारी से बची हुई नहीं है कि हमारी भारत भूमि पर चीनियों की चढ़ाई हुई। उनकी चढ़ाई न्यायपूर्वक नहीं है। अपने देश में वे स्वतंत्र हैं, हम भी अपने देश में स्वतंत्र भाव से रहें, यही न्यायसंगत है। इस चढ़ाई के कारण हम त्रस्त भी हुए और इन्तजाम कर रहे हैं। हमारी कुछ भूमि जो उसने काबू कर ली है, उसमें से कुछ भूमि से उसे हमने भगाया है और जो बाकी भूमि रही है, उससे भी भगावेंगे। सभी स्वतंत्र रहना चाहते हैं। स्वतंत्रता में सुख है, परतंत्रता में दुःख। स्वतंत्रता ऐसी प्यारी है, जैसी प्यारी अपनी जान भी नहीं। इसलिए हमारे करोड़ों प्राणी स्वतंत्रता की रक्षा के हेतु प्राण लेकर खड़े हैं। यह देश की बात हुई। मान लिया कि उस आक्रमणकारी को हमने खदेड़ दिया। वह भाग गया, हम स्वतंत्र हो गए, कोई चिन्ता नहीं। ऐसा पुरुषार्थ कर लें, जिससे स्वतंत्रता में बाधा न आवे। स्वतंत्र रहें। तो क्या, इतना होने पर भी हम पूर्ण स्वतंत्र हैं? संसार के लिए ही कहा जाय तो हमको शंका रहती है कि दूसरा देश हमारे देश पर धावा न बोल दे। यह स्वतंत्रता में धक्का है। संसार में यह सदा बना ही रहता है। इसलिए पूर्ण स्वतंत्र रहना मुश्किल है।
 दूसरी बात यदि सोचें कि हम क्या हैं? तो शरीर को कहें हम यही हैं, तो यह बिल्कुल निर्भूल बात नहीं है। यहाँ पुराणों की मर्यादा है, धर्मशास्त्र और वेद तीनों की मर्यादा है। साथ ही अध्यात्म- दर्शन को मिलाकर जो ज्ञान है, उससे हम अपेक्षित रहते हैं। हम अपने को उसी ज्ञान के अन्दर रखते हुए शुभ मनाते हैं और इसी से कल्याण होगा, ऐसा मानते हैं। एक यह भी ज्ञान है कि जो शरीर है, उसी को लोग समझें कि मैं यह हूँ। जिस ज्ञान का दिग्दर्शन मैंने थोड़ा कराया, उसमें है कि शरीर और शरीरी। शरीर को शरीरी इस तरह पहने हैं, जैसे कपड़ा और शरीर। कपड़े शीघ्र बदलते हैं, शरीर बहुत काल तक रहता है। जीवनकाल में बहुत बार कपड़ा पहना जाता है। उसी तरह शरीरी पर शरीर बहुत बार हुए। कितनी बार हुए, कितनी बार होंगे। शरीर के साथ-साथ रहकर हम दुःख भोगते हैं। जैसे हमारी स्वतंत्रता को जबर्दस्ती चापे हुए, छीने हुए हैं। इस स्वतंत्रता में क्या धक्का नहीं है? चाहिए कि हम इस स्वतंत्रता को भी नहीं खोवें। शारीरिक दुःख से छूटें, तभी हम दुःख से छूटे रहेंगे। नहीं तो नाना दुःख भोगेंगे। संसार में आदर, हुकूमत, धन, विद्या, बहुत-बहुत हों, किंतु निजी स्वतंत्रता इनमें रहकर कोई नहीं प्राप्त कर सकता। हमारी यह जो निजी स्वतंत्रता है, वह है आध्यात्मिक स्वतंत्रता। इस पर किसी शक्ति का ऐसा चापन है कि हम हटाने में असमर्थ हैं। यह चापन किसका है? माया का। रामचरितमानस में है-
 व्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचण्ड ।
 सेनापति कामादि भट, दम्भ कपट पाखण्ड ।।
 ‘चीनी’ तो दूर है, लेकिन माया के सभी विकार अपने अन्दर हैं। माया का कटक-फौज-सेना बहुत प्रचण्ड है। यह तमाम संसार में व्याप्त है। काम-क्रोध इसके सेनापति और दम्भ, कपट, पाखण्ड आदि योद्धा हैं। इनके भोगाए भोग लोग भोगते हैं। इन भोगों में पड़कर कष्ट पाते हैं-अनेक जन्मों से।
 क्या, इसका कोई उपाय नहीं है कि इनसे छूटा जाय? सर्वसाधारण के पास इसका उत्तर नहीं है। आध्यात्मिकता के लोगों को मालूम है। जो महापुरुष लोग हुए हैं, जो अत्यन्त उज्ज्वल चरित्र- धारी मुनि लोग हुए हैं, संतलोग हुए हैं, ऐसे गुरु हुए हैं, जो सद्गुरु हुए हैं, उन्होंने कहा कि मत सोचो कि आध्यात्मिक स्वतंत्रता के लिए मत नहीं- उपाय नहीं है। है, अवश्य है। पहली बात यह है कि माया की प्रबल सेना,जो तुमको दबोचे रहती है, उससे बचने के लिए-छुटकारा पाने के लिए ऐसे की शरण लो, जो माया को अपने वश में सब तरह से रखता है। वह कौन है? उस मायापति को ही ईश्वर-परमात्मा कहते हैं। उनकी शरण में अपने को बनाओ। शरण में बनाने का मतलब है कि उनका भजन करो। शरण में जाना क्या है? पहला मुगल बादशाह बाबर था। उसका बेटा हुमायूँ था। शेरखाँ से वह भगाया गया। वह ईरान के शाह की शरण गया और वहाँ से उसकी सहायता से फिर अपनी स्वतंत्रता को पाया। इसी तरह शरण लो, जिधर जाने से परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। संतों ने समझाया है कि पहले समझो कि ईश्वर क्या है? कहाँ रहता है? वहाँ तक इस पैर से जाओगे वा किस तरह? उसका दर्शन सशरीर पा सकते हो वा कैसे? यह इसलिए कि माया के दबोच में जो हम पड़ गए हैं, उससे बाहर निकलना चाहिए। इसके लिए पहली बात है कि हम उनकी शरण लें। ईश्वर के लिए समझना भी साधारण बात नहीं। हमारे घरों में जो शब्द ईश्वर के लिए परम्परा से चला आता है, उसी को पकड़कर हम चलते हैं। जैसे किसी घर में राम-राम, किसी में शिव-शिव, किसी में वाहेगुरु, किसी में माई आदि कहते हैं। इस तरह हमलोग विश्वास करते हैं कि एक ईश्वर कोई है, जिनके ये नाम हैं, लेकिन इतने से ही पूर्ण विश्वास नहीं होता। अध्यात्म शास्त्र की जरूरत होती है। अध्यात्म शास्त्र भी सरल नहीं है। आवश्यकता है सत्संग में जाने की, जहाँ जाकर ईश्वर का बोध हो। ईश्वर को पुकारनेवाले जितने हैं, उनको ऐसा विश्वास नहीं है कि ईश्वर कभी नहीं थे, कभी नहीं रहेंगे। ईश्वर के संबंध में जो विश्वास दिलाते हैं, वे कहते हैं कि परम प्राचीन जो है, वही ईश्वर है। वह सदा-सर्वदा हई है। इतना ही नहीं, यहाँ है और वहाँ नहीं ऐसा भी नहीं। यहाँ कुछ विशेष रूप से, वहाँ कुछ कम रूप से, ऐसा नहीं। सदा-सर्वदा सब स्थानों में समान भाव से है। जो सबसे आदि का है, उसके अतिरिक्त कोई स्थान बच नहीं सकता है। ऐसा स्थान बताने योग्य नहीं जहाँ वह नहीं। देश-काल माया में होता है। माया से परे ईश्वर है। देश के विस्तार होने पर यहाँ और वहाँ कहा जाता है। देश के विस्तार होने पर भी वह सर्वत्र है।
     व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
   अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।
 संसार में पदार्थों को हम आदि-अंत-सहित देखते हैं। इन्द्रियों से देखते हैं। लेकिन जिसका आदि-अंत नहीं, उसको बाह्य इन्द्रियों से और बुद्धि से भी हम नहीं पहचानते। सबसे प्रथम का ही हो सकता है,दूसरा नहीं। उस ईश्वर को चाहे आप जिस नाम से पुकारें, वह सब रूपों में रहता है, इसलिए उसको सर्वरूपी कहें, तो कोई हर्ज नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-‘अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा वसत....।’ तब श्रीराम, श्रीकृष्ण, शिव; सब रूप उन्हीं के हैं। यदि अनेक शरीर के कारण अनेक ईश्वर मानो तो बड़ी गलती होगी। ईश्वर एक ही है। अधिक कभी नहीं। ईश्वर ऐसा विलक्षण है कि उसको हम इन्द्रियों से नहीं पहचान सकते। ईश्वर इन्द्रिय-ज्ञान में नहीं हैं। आदि-अंत रहित है। इन्द्रिय-ज्ञान में आने योग्य नहीं हैं, इसलिए बाहर संसार में हम कहीं उसको पहचान लेंगे, तो संभव नहीं होगा। हम किससे पहचानेंगे? शरीर, इन्द्रियों में हम बसते हैं, शरीर-इन्द्रियों से भिन्न पदार्थ हम स्वयं इनमें रहते हैं। हम अपने को भी नहीं पहचानते। आँख के द्वारा हम अपने को नहीं देखते। हाथ से नहीं पकड़ते। जो शरीर में रहकर इन्द्रिय-ज्ञान से परे है, वही अध्यात्म है। इस शरीर में चेतन आत्मा नहीं हो तो किसी इन्द्रिय को ज्ञान नहीं हो। चेतन आत्मा के कारण ही इन्द्रियों को अपना-अपना ज्ञान होता है। तब केवल चेतन आत्मा का अपना निजी ज्ञान भी है। जैसे आँख का निजी ज्ञान रूपज्ञान है, कान का निजी ज्ञान शब्दज्ञान है। आँख को शब्द का ज्ञान नहीं है और कान को रूप का ज्ञान नहीं है, यह सभी जानते हैं। इसी तरह चेतन आत्मा का निजी ज्ञान किसी इन्द्रिय को नहीं होता। जैसे लालटेन के अंदर टेम जलता है, उस पर हरा शीशा लगाने से उससे हरा प्रकाश फैलता है, लाल शीशा होने से लाल प्रकाश फैलता है, वह निज टेम का प्रकाश नहीं होता। उसी तरह इन्द्रियों के संग में जैसा ज्ञान होना चाहिए, सो होता है और उस चेतन आत्मा का ज्ञान भिन्न है। चेतन आत्मा का निजी ज्ञान अपने को पहचानने और ईश्वर को पहचानने का है। ईश्वर की ओर शरीर नहीं जा सकता, चेतन आत्मा जाती है। जिस ओर जाकर चेतन आत्मा ईश्वर को पावे, इसका यत्न जाने और चले, तब ईश्वर की शरण में जाना होगा। ईश्वर सर्वव्यापी होने से सर्वत्र व्यापक है। आपके शरीर में भी व्यापक है। अपने शरीर के अंदर चेतन आत्मा चले, तब ईश्वर-दर्शन संभव है। जिस ओर जाने से ईश्वर का ज्ञान हो। जब शरीर-इन्द्रियों के ज्ञान से चेतन आत्मा ऊपर उठती है, तब ईश्वर की शरण में जाती है। जो लोग इस रास्ते पर चलें, तो उधर के र्चिं भी उन्हें मिले, जिसका वर्णन पुस्तकों में है। अब भी जो चलते हैं, उनको वे निशाने मिलते हैं। लोगों को भरोसा करना चाहिए, ईश्वर मिलेंगे। ढिलाई करने से देर लगेगी, मुस्तैद होने से शीघ्र मिलेगा। जैसे-जैसे ईश्वर के र्चिं मिलेंगे, माया के सेनापति आदि से छूटते जाएँगे। इसलिए लोगों को ईश्वर की शरण में जाना चाहिए। ईश्वर के पास पहुँचते-पहुँचते माया का प्रभाव हटता जाएगा। जैसे-जैसे सूर्य के प्रकाश में जाते हैं, वैसे-वैसे अंधकार छूटता है। जैसे-जैसे ईश्वर की शरण में जाते हैं, वैसे-वैसे माया छूटती जाती है। ईश्वर माया को वश करके रखता है। उस ईश्वर का माया पर ऐसा काबू है कि-
जो माया सब जगहिं नचावा। जासु चरित लखि काहु न पावा।।
सो प्रभु भू्र बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा।।
 ईश्वर अपने काबू में माया को किए हुए हैं। लोगों को चाहिए कि ईश्वर की शरण लें। इसी को ईश्वर की भक्ति करना कहते हैं। तभी माया के दबाव से छूटोगे। सत्संग के अंदर यही बात कहने की है।
 यही बड़ी विलक्षण बात है कि अंदर-अंदर चलकर ईश्वर का दर्शन करना। जो ऐसा ख्याल करते हैं कि ईश्वर को बाहर में ही पा लेंगे, वे भूल में हैं। नरलोक, पाताल, स्वर्ग कुछ भी हो, माया का फैलाव ब्रह्माण्ड तक है। मूल प्रकृति तक में भी रहने से माया के आवरण में रहेगा। यहाँ ईश्वर की पहचान नहीं होगी। सत्संग करो, गुरु- संग करो। इनसे ईश्वर-भजन का प्रेरण लो और साधन करो। बिना इसके माया के चक्कर से कोई छूट नहीं सकता। ईश्वर की शरण में जाओ। अंदर-अंदर जाने से इन्द्रियों का संग छूटता है, जैसे स्वप्न में जाने से बाहर के ज्ञान से छूटता है। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति; इन तीन अवस्थाओं से परे जाना है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-‘तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त।’ वेद, उपनिषद्, संतों की वाणियाँ-सभी में यह कहा गया है कि अपने अंदर-अंदर चलो।
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यह प्रवचन संथालपरगना जिला वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर ग्राम-जमनी पहाड़पुर में दिनांक 12.1.1963 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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188. स्वराज्य में सुराज
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 अभी हमलोग बहुत अन्देशे-चिन्ता में नहीं हैं। कुछ मास पूर्व हमलोगों को बहुत चिन्ता हुई थी। क्यांकि सुना था कि चीनियों ने चढ़ाई की है और वे बढ़े आ रहे हैं। आज उतनी चिन्ता नहीं है। चीनियाँ आता हम पर हुकूमत करता-हमारा नुकसान करता। हमलोगों को चिन्ता हुई कि हमलोग नुकसान में न पडें़। जहाँ तक हमारी हद में वह आ गया है, हटा दें, उसको अपनी हद में पहुँचा दें। जब कोई दूसरे पर चढ़ाई करता है तो वह उसकी सम्पत्ति लूटने, उसको बेइज्जत करने और उसपर अपनी प्रभुता लादने आता है। इसीलिए तन, मन और धन से देश की सहायता कर उसको हटाना चाहिए। अभी आप पर किसी का दबाव नहीं है। कोई आप पर हुकूमत नहीं करता, अपनी सभा के द्वारा देश की शासन-सम्हाल होती है। एक ओर तो यह है और दूसरी ओर है कि हम अपने राज्य में रहकर भी अशान्त रहते हैं, क्यों? देश के निकट के लोग वा कुछ देश के लोग भी चोरी-डकैती करते हैं। हमको लूटते हैं, तो हम अशान्त हैं। आप अपने अन्दर सोचिए। सत्संग में आप जाते हैं, सद्गं्रथों का पाठ आप सुनते हैं। वहाँ होता है कि तुम्हारे अन्दर क्रोध आवे तो क्रोध न करो। काम का विकार आवे तो वैसा मत करो कि परलोक और इहलोक बिगड़ जाय। कभी लोभ होता है, कभी मोह होता है। हम सत् को असत् और असत् को सत् समझकर चलते हैं, जिससे बहुत नुकसान होता है। दूसरे देश के लोगों को हटाओ और अपने देश के लोगों को भी, जो हमको लूटते हैं, उनको हटाने और सम्हालने कहते हैं। लेकिन हमारे अंदर में जो काम, क्रोध, लोभ, मोह होता है; इन विकारों द्वारा हमारा आध्यात्मिक ज्ञान मटियामेट हो जाता है।
 विदेशी और दूसरे जब कोई हमको लूटते हैं, तो हम उसको मारते, पछाड़ते और भगाते हैं, किंतु अपने अंदर में जो ये विकार हैं, उनको क्या करो? आज के युग में जितने शस्त्रास्त्र निकले हैं, वे उन विकारों को मारने में सफल नहीं हैं। काम, क्रोध, लोभ और मोह सेनापति और दम्भ, कपट, पाखण्ड योद्धा हैं। ये बाहरी दुश्मनों से भी अधिक तबाह हमको करते हैं। हम इनसे बचें और बचकर जानें कि इससे सुख होता है वा दुःख? साधु-संतों ने जो इसे जाना, इसे दूर किया और कहा कि-
थाकेऊँ सब करि करम गोसाईं। सुखी न भयेऊँ अवहिं की नाईं।।
 सोचने की बात है कि हरेक प्रेमी, सत्संगी, ज्ञानवान, विचारिए कि आपके हृदय में काम, क्रोध, लोभ आदि नहीं उत्पन्न हों तो आपका हृदय कितना शान्त रहेगा? इतनी शान्ति, जितनी कि हम चाहते हैं। यह कैसे हो? ये हमको होते क्यों हैं? संसार में रहने से ऐसा होता ही है। फिर प्रश्न होता है कि हम संसार में क्यों रहते हैं? संसार में इसलिए रहते हैं कि हम शरीर में रहते हैं। शरीर में नहीं रहें तो संसार में भी नहीं रहें। जब से जीव सृष्टि में है, तब से हम शरीर में हैं; कभी उद्भिज, कभी उष्मज, कभी अण्डज और कभी पिण्डज बनकर। कितनी बार हम आए, गए और इनके कितने संस्कार पड़े, ठिकाना नहीं। इनके संस्कार प्रेरित करके हमसे अकर्तव्य और पाप कराकर मायाधीन बनाये रखते हैं।
 लोग कहते हैं कि आप मनुष्य हैं, आपको ज्ञान होना चाहिए। कहते हैं कि कहते तो ठीक हो, लेकिन मौका आता है, ज्ञान भूल जाते हैं, अज्ञानता आ जाती है और जो नहीं करने का वह भी कर बैठते हैं। माया की सेना हमसे हटती नहीं है। तब ऐसा होता है कि कोई ऐसा जबर्दस्त सहारा मिलता, जिसके द्वारा इन दुष्टों को भगाया जाता। यह माया किसकी है? यह माया ईश्वर की है। उसके अधीन है। उसके अधीन में इस तरह है कि उसके जरा-सा इशारा पर जैसा वे कराना चाहते हैं, माया से कराते हैं। संतों ने कहा कि उस ईश्वर की शरण लो, उसका आश्रय ग्रहण करो। जो ईश्वर का भजन करता है, वह ईश्वर के शरण में है।
 मैंने मनिहारी में एक स्थान बना रखा है। अब से बहुत वर्ष पूर्व वहाँ के एक आदमी पर मुकदमा हुआ था, उसको सजा हो गई। उसने कहा-‘मैं अपने को समर्पण करने जा रहा हूँ।’ उसके मन में था कि छूट जाऊँ, लेकिन गया समर्पण करने। एलेक्जेंडर दि ग्रेड की कथा मैंने पढ़ी थी। सिकन्दर ने एक बड़े नामी डाकू को पकड़ा था। उसने उस डाकू से पूछा-‘तुम, लोगों को क्यों लूटते हो, सताते हो?’ डाकू ने कहा-‘मेरे शरीर को तुमने बांधा है, मेरे मन को नहीं। तुम बड़ा डाकू हो और मैं छोटा डाकू हूँ।’ सिकन्दर ने डाकू के शरीर को बांँधा था, उसके मन को नहीं।
 ‘ईश्वर पर अपने को समर्पण करता हूँ,’ केवल कहने से नहीं होता है। लाठी की तरह (दण्डवत् प्रणाम) शरीर के गिर जानेसे शरीर ही गिरता है, मन शरण में नहीं जाता। मन भाग-भाग कर स्वतंत्र रूप से काम करने लगता है। जैसे शरीर को किसी की शरण में ले जाते हैं, उसी तरह मन को भी किसी की शरण में ले जाना चाहिए, जो माया के दबाव से बचा सके। ईश्वर की शरण लो। शरीर को गिरा देने से सरेण्डर -;ैनततमदकमतद्ध नहीं होता। माया का दबाव से बचने का यही उपाय है।
 पहले यह समझो कि तुम शरीर हो? शरीर के अवयवां में कोई हो? शरीर के भीतर का कोई अंग हो? मन हो? बुद्धि हो? तो इसके उत्तर में ग्रंथों में है कि तुम इन सबमें कुछ नहीं हो। जब तुम कहते हो कि मेरा शरीर, तभी तुम और शरीर दो हो जाते हो। जैसे तुम कहते हो कि मेरा कपड़ा, तो तुम और कपड़ा दो हो जाते हो। इसी तरह बाहर में शरीर के अंग और भीतर की इन्द्रियांं में से तुम एक भी नहीं हो। केवल शरीर को देखो, जबतक जीवित शरीर है, तबतक वह ज्ञानयुक्त मालूम पड़ता है। जब इसमें जीवनी शक्ति नहीं रहती है, तब इसको कुछ ज्ञान नहीं होता। जागने के समय जीवनी शक्ति काम करती है, समूचा शरीर सचेष्ट रहता है। तन्द्रा में मालूम होता है कि हाथ-पैर कमजोर हो रहे हैं। इन्द्रियाँ कमजोर होती जाती हैं। इससे मालूम होता है कि शरीर के अंदर में तुम कुछ हो, जिसका सरकाव भीतर की ओर होता है। स्वप्न में वही ख्याल होता है, जो मन में रहता है। नजदीक के दोस्त-दुश्मन का कोई पता नहीं। मुख में मिसरी रहे और स्वप्न देखे कि नीम का पत्ता खा रहा हूँ, तो मिसरी का मीठा स्वाद नहीं मालूम होकर नीम का तीता स्वाद मालूम होता है। मतलब यह कि जीवनी शक्ति वा ज्ञानमयी शक्ति वा चेतन पुरुष की ही शक्ति से शरीर में शक्ति है। और उसी से शरीर ज्ञानवान है। और विषयों का रस-ज्ञान करता है। शरीर के अंदर में शरीर से भिन्न पदार्थ तुम हो। कितने कहते हैं कि दो नहीं, शरीर बनने के जितने तत्त्व हैं, सभी के मिल जाने से एक जीवनी शक्ति आप ही प्रकट हो जाती है। शरीर मर जाने से जीवनी शक्ति नहीं रहती। यह अनात्मवाद की दलील है। किसी शर्बत में आप सौंफ नहीं दीजिए तो क्या उसमें सौंफ की गंध और सौंफ का गुण हो सकता है? अथवा मिक्सचरवाली दवा में जो औषधि आप नहीं मिलाते हैं, उस दवाई का गुण नहीं होता है। इसलिए चेतन पुरुष कोई चीज नहीं है, इसको कैसे समझा सकते हो? मृतक शरीर में पांचो तत्त्व मौजूद ही हैं, उसको जड़ कहोगे कि चेतन? सोने की हालत में भी चेतन पुरुष का काम होता था। चेतन पुरुष के रहने पर ही स्वप्न में काम होता था, लेकिन उसके नहीं रहने से कोई काम नहीं करता, शरीर में ज्ञान नहीं रहता। असल में शरीर जड़ है। जड़-जड़ के मिलन से चेतन हो जाय, असंभव है। जैसे मिक्सचर में एक दवाई के नहीं रहने से उसका गुण नहीं हो सकता। गं्रथकारों ने जड़-चेतन को अलग-अलग फुटाकर बता दिया है, इन दोनों में मेल हो गया है, इसी को दुःख-सुख है।
 जड़ चेतनहिं ग्रंथि पड़ि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई।।
 भगवान श्रीकृष्ण ने इकतीस तत्त्वों को श्रीमद्- भगवद्गीता में गिना दिया है, ये क्षेत्र कहलाते हैं। इस क्षेत्र में जब क्षेत्रज्ञ रहता है, तब इसमें ज्ञान होता है। यह करूँगा, वह करूँगा। राग-द्वेष, सुख- दुःख आदि विकार होते हैं। हमारे सद्गं्रथों में जड़-चेतन को अलग-अलग फुटाकर बताया है। बाली मारा गया, तारा रोती थी। श्रीराम ने कहा-
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित यह अधम शरीरा।।
प्रगट सो तनु तव आगे सोवा। जीव नित्य तुम केहि लगि रोवा।।
 चेतन आत्मा को काट नहीं सकते, मार नहीं सकते, जला नहीं सकते, सड़ा नहीं सकते। हम सोचें कि हम क्या हैं? चेतन आत्मा। और हमारा शरीर यह है, इस शरीर में वह चेतन आत्मा है। इसलिए शरीर के गुण से हम गुणान्वित होते हैं। जैसे रोशनी के ऊपर रंगीन बल्ब लगा दें तो उस रंग के अनुरूप रोशनी बाहर निकलेगी। फिर वह बल्ब हटा देने से साफ रोशनी निकलेगी। यह आत्मा शरीर के संग से सुखी-दुःखी होने के और जो-जो भाव होते हैं, वे होते रहते हैं। आप वही हैं। जड़ और चेतन का मेल हो गया है। केवल शरीर ही जड़ नहीं है, मन और बुद्धि भी जड़ है। सृष्टि क्रम को बतलाते हुए शास्त्र में कहा है -प्रकृति से बुद्धि होती है। जड़ से जो चीज बने, वह जड़ है। मिट्टी से जो चीज बने, वह मिट्टी है। जड़ के संग चेतन आत्मा का ऐसा मेल हो गया है, जैसे दूध और घी। केवल दूध से जो काम हो, वह केवल घीउ से काम नहीं होता। दूध से धीउ निकाल लेते हैं, मूंज से जैसे सींक को निकाल लेते हैं। उसी तरह हाड़, मांस, चाम का जो यह स्थूल शरीर है, इसको पहले विचार कर देखो तो एक ही नहीं है। मूंज की तरह यह शरीर है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण; चारो जड़ शरीरों को हटा दो तो बिना बल्ब की बिजली हो जाओगे। तब तुम अपने तईं को पहचानोगे और जिसको परमात्मा कहते थे, उसको भी। अपने को परमात्मा की शरण में ले जाने की बात यह है कि जहाँ दूध रखोगे, वहाँ घी रहेगा ही। संसार में कहीं जाने से मन से छूटा नहीं जा सकता। स्वर्ग में जाओ तब भी संसार में ही रहोगे। बाहर संसार में कहीं जाना, ईश्वर की शरण में जाना नहीं है। तन्द्रा में हाथ-पैर की शक्तियों का सिमटाव होता है।
 अन्तर्गति में चैन मालूम होता है। कोई जगा देता है तो बुरा मालूम होता है। अंदर की ओर चलोगे तो शरीर, इन्द्रियों का संग छूटेगा, चैन मालूम होगा। जाग्रत में आपका स्थान कहीं है और स्वप्न में कहीं, सुषुप्ति में कहीं। जाग्रत में चेतन जहाँ रहता है, स्वप्न में उससे नीचे घसकता है। चाहिए तीन अवस्थाआें से ऊपर जाना। अपने को ऊपर उठाने के लिए बहुत अच्छा यत्न है कि अपना सिमटाव करना। बिस्तरे फैले हुए हैं, समेट लो तो ढेर हो जाएगा। सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। मन और चेतन आत्मा का सिमटाव होगा, चेतन आत्मा चौथी अवस्था में चली जाएगी और बाहर संसार का ज्ञान नहीं रहेगा।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
 यह, ऊपर की ओर उठनेवाला ईश्वर की ओर जाता है तन्द्रा में सिमटता है, उसको रस मालूम होता है, तो क्या ईश्वर की ओर जानेवाले को रस नहीं मिलता है?
    भजन में होत आनंद आनंद ।
    बरसत बिसद अमी के बादर, भींजत है कोइ संत ।।
           -संत कबीर साहब
 मन समेटने में भागता रहता है। कितनी ही बार मन भागता है, फिर सिमटता है, हारो मत। इसमें जो नहीं हारता है, तो धारणा होती है। इसमें किसी को भी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। चाहे वह हलवाहा हो वा विद्वान। विद्वान-अविद्वान कोई रहो अभ्यास करो। अभ्यास करते-करते प्रत्याहार से धारणा होती है। जिस काम के लिए बहुत कोशिश होगी, चाहे वह काम कितना कठिन हो, कुछ-न- कुछ अवश्य होता है।
 करत करत अभ्यास के , जड़मति होत सुजान ।
 रसरी आवत जात तें, सिल पर पड़त निसाना ।।
 ईश्वर की शरण में जाओ। ईश्वर की ओर जानेमें शरीर-ज्ञान नहीं होता। शरीर-ज्ञान में ईश्वर-ज्ञान नहीं होता। सिमटाव करते-करते शरीर का ज्ञान छूटता है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था-‘सब धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जा, तुम्हें सब पापों से मुक्त कर दूँगा।’ अर्जुन तो ऐसे शरण में थे कि भगवान के विचार के विरुद्ध चलने का न उनका इरादा था, न शक्ति थी। अर्जुन और दुर्याधन दोनों आदमी श्रीकृष्ण के पास गए, युद्ध का समाचार बताने और उनसे सहायता माँगने। अर्जुन कितनी शरण में थे कि सेना न लेकर केवल उनको ही लेते हैं। यद्यपि वे जानते थे कि भगवान युद्ध नहीं करेंगे। कितनी शरण में वे थे, फिर भी शरण में होने के लिए श्रीकृष्ण कहते हैं। और भी शरण होने के लिए श्रीकृष्ण कहते हैं। और परिभाषा यह कि सब धर्मों को छोड़कर....। कोई भी धर्म को कैसे छोड़ेगा? क्या संतान उत्पन्न करने के लिए वैवाहिक नियम छोड़ देगा? गरीबों को दान देना, देश की रक्षा करनी और देश को अच्छी हालत में रखना छोड़ देगा? संसार का धर्म कभी छोड़ नहीं सकता। इसका उत्तर है कि सभी धर्म तब छूटेंगे, जब सभी कर्मों को कोई छोड़ दें। संसार में रहकर कोई कर्मों से नहीं छूट सकता। चौथी अवस्था में जो जाता है, सुरत की ऊपर में बैठक होती है। वहाँ का ठहराव जिसको होता है, उससे बाहर का कोई कर्म नहीं होता। उसका पिता या पुत्र कोई बैठा रहे, उसको वह नहीं जानता। इस तरह सब कर्मों को छोड़कर, धर्म को छोड़कर वह ईश्वर की ओर रहता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
 तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त ।
 मन क्रम वचन अगोचर व्यापक व्याप्य अनंत ।।
 इस तरह शरण में जाओ। पूर्ण सिमटाव हो, ऊर्ध्वगति हो, तब भगवान की शरण में जाना होगा। जो जहाँ बैठा रहता है, वहीं से चलता है। इस शरीर में कहाँ बैठक है?
 इस तन में मन कहँ बसै, निकसि जाय केहि ठौर ।
 गुरु गम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और ।।
 नैनों माहीं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर ।
 गुरु गम भेद बताइया, सब संतन सिरमौर ।।
          -संत कबीर साहब
जानिले जानिले सत्त पहचानिले, सुरति साँची बसै दीद दाना।
     -दरिया साहब, बिहारी
ब्रह्मोपनिषद् में भी पढ़ लीजिए-
 जाग्रत्स्वप्ने तथा जीवो गच्छत्यागच्छते पुनः ।
 नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् ।
 सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्निसंस्थितम् ।।
 अर्थात् जीव जाग्रत और स्वप्न में पुनः-पुनः आता-जाता रहता है। जीव का वासा जाग्रत में नेत्र में, स्वप्न में कण्ठ में, सुषुप्ति में हृदय में और तुरीयावस्था में मस्तक में होता है।
 ध्यान कीजिए, सिमटाव होगा। सिमटाव में ऊर्ध्वगति होगी, तब आत्मसमर्पण होगा, शरीर- समर्पण नहीं। ऐसा सिमटाव हो, ऊर्ध्वगति हो, तब शरण होना होगा। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
 ऐसी आरती राम की करहिं मन ।
  हरण दुख द्वन्द्व गोविन्द आनंद घन ।।
 अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा बसत,
  इति वासना धूप दीजै ।
 दीप निज बोध गत क्रोध मद मोह तम,
   प्रौढ़ अभिमान चित वृत्ति छीजै ।।
 भाव अतिशय विशद प्रवर नैवेद्य शुभ,
  श्रीरमण परम संतोष कारी ।
 प्र्र्रेम ताम्बूल गत शूल संशय सकल,
   विपुल भव वासना बीजहारी ।।
 अशुभ शुभ कर्म घृत पूर्ण दश वर्त्तिका,
  त्याग पावक सतोगुण प्रकाशं ।
 भक्ति वैराग्य विज्ञान दीपावली,
  अर्पि नीरांजनं जग निवासं ।।
 विमल हृदि भवन कृत शांति पर्यंक शुभ,
  शयन विश्राम श्री राम राया ।
 क्षमा करुणा प्रमुख तत्र परिचारिका,
  यत्र हरि तत्र नहिं भेद माया ।।
 आरती निरत सनकादि श्रुति शेष शिव,
  देवरिषि अखिल मुनि तत्त्वदरसी ।
 जो करइ सो तरइ परिहरइ काम सब,
  वदत इति अमल मति दास तुलसी ।।
 एक तो विचार में है कि ईश्वर सर्वगत है। प्रेम ही पान है। प्रेम ही प्रसाद है, आरती के लिए दश बत्तियाँ, जो शुभाशुभ कर्मरूप घीउ से भींगी है, उसको त्याग की अग्नि में जलाओ। माया जो ईश्वर और जीव में भेद डालती है, भाग जाएगी। यह है ईश्वर की ओर जाना, यह अंतर पथ में चलना है। अपने को समेटो। समेटने का यत्न गुरु से सीखो। पहले स्थूल-सगुण रूप को लो। लेकिन इसमें संतुष्ट नहीं होओ कि इसी में समाप्त है। इससे और भी आगे बढ़ो। जो जहाँ गिरता है, वह वहीं का सहारा उठने के लिए लेता है।
 ‘ध्यानं शून्यगतं मनः, ध्यानं निर्विषयं मनः’ इसकी तरकीब गुरु से जानो। जो युक्ति जानकर अभ्यास करता है, स्थूल से सूक्ष्म में जाता है, वह परमात्मा की गोद में जाता है। जो परमात्मा की गोद में जाता है, वह उससे पकड़ा जाता है। संतों ने दो यत्न बताए हैं-शाम्भवी मुद्रा, वैष्णवी मुद्रा वा दृष्टियोग और नामभजन अर्थात् सुरत-शब्दयोग। ये दोनों ज्योति और नाद ईश्वर के हाथ हैं। जो इनको पकड़ा, वह ईश्वर से पकड़ा गया। नीचा गिरना उसका नहीं होता। दादू दयालजी ने कहा है-
 साध शबद सौं मिलि रहै, मन राखै बिलमाय ।
 साध शबद बिन क्यौं रहे, तब ही बीखरि जाय ।।
नादविन्दूपनिषद् में लिखा है-
 मनोमत्त गजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः ।
 नियामन समर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः ।।
 नादोऽन्तरंग सारंग बन्धने वागुरायते ।
 अन्तरंग समुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि वा ।।
 अर्थात् नाद मदांध हाथीरूप चित को, जो विषयों की आनंदवाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है। मृगरूपी चित्त को बाँधने के लिए यह नाद जाल का काम करता है। समुद्र तरंग रूपी चित के लिए यह नाद तट का काम करता है।
 उनलोगों की आजमाई हुई बात थी। हमलोगां को करना चाहिए। कुछ-न-कुछ उसका नमूना अवश्य प्रकट होता है। भेद जानिए और भजन कीजिए, यदि माया से छूटना चाहते हैं। केवल मोक्ष ही मिलेगा ऐसी बात नहीं, संसार में भी अच्छी तरह रहोगे। रविदासजी पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन वे ऊँचे उठ गए। यदि हमारे यहाँ सभी कोई पंच पापों को छोड़ दें तो स्वराज्य में सुराज्य आ जाएगा। कानून के डण्डे से इन दुष्ट कर्मों को नहीं छुड़ा सकते। यदि सभी के मन में आ जाय कि दुष्ट कर्मों को छोड़ दें तो आपस में मेल रहेगा, कोई तोड़ नहीं सकता। स्वराज्य में सुराज्य होगा।
 भगवान बुद्ध के समय की बात है- राजा अजातशत्रु राज्य का लोलुप था। उसने लिच्छवी वंश का राज्य लेना चाहा। लिच्छवी लोगां का कोई एक राजा नहीं था, पंचायत राज्य था। राजा अजातशत्रु के मंत्री ने कहा-लिच्छवियों को आपस में प्रेम है, उसके मेल को तोड़ दीजिए, तब वह राज्य आपके हाथ में आ सकता है। अजातशत्रु ने अपने आमात्य के साथ मंत्रणा कर मिथ्या प्रचार कर दिया कि मंत्री को मैंने अपने राज्य से निष्कासित कर दिया है। वह मंत्री घूमता हुआ लिच्छवियों के यहाँ जाकर मंत्री पद पर नियुक्त हो गया। धीरे-धीरे मंत्री ने उन लोगों के मेल को तोड़कर परस्पर विरोध और कलह पैदा करना आरंभ किया। कुछ दिनों के पश्चात् पारस्परिक प्रेम के छिन्न-भिन्न हो जाने पर जब लिच्छवी लोग बहुत कमजोर हो गए, तब मंत्री ने राजा अजातशत्रु को खबर दी। वह सेना ले लिच्छवी राज्य पर चढ़ आया और लिच्छवियों को पराजित कर अपना आधिपत्य जमा लिया। इस तरह लिच्छवी वंश का राज्य अजातशत्रु ने लिया।
 ईश्वर की ओर जाने से संसार और परमार्थ दोनों बनेगा। सबके सब ईश्वर की ओर जाओ। इसकी शिक्षा और दीक्षा ग्रहण करो।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर कनखुदिया अररिया में दिनांक 3.3.1963 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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189. सगुण-निर्गुण की महिमा
प्यारे लोगो!
 ईश्वर-स्वरूप के निर्णय के लिए चार शब्द; निर्गुण, सगुण, साकार और निराकार बहुत प्रसिद्ध हैं। और लोगों ने इसपर बहुत विचार किया है। गुण का अर्थ है स्वभाव। स्वभाव तीन प्रकार के हैं। एक वह है, जिससे उत्पत्ति होती है, दूसरे से पालन और तीसरे से विनाश होता है। जिससे उत्पन्न होता है रजोगुण, जिससे पालन होता है, उसे सतोगुण तथा जिससे विनाश होता है, उसको तमोगुण कहते हैं। ये तीनों मूल में इस तरह मिले- जुले हैं कि उससे भिन्न-भिन्न कर कोई वहाँ अर्थात् मूल में जान सके कि यह रजोगुण है, यह सतोगुण है, यह तमोगुण है-नहीं होता है। इन्हीं तीनों गुणों के सम्मिश्रण रूप को साम्यावस्थाधारिणी जड़ात्मिका मूल प्रकृति कहते हैं। इसलिए प्रकृति से जो कुछ बना है, उसमें तीनों गुणों को देखते हैं। कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है, जिसमें ये तीन गुण नहीं हों। मूल में ये तीन नहीं होते तो उसके पसार में ये तीनों कैसे होते? यह प्रकृति ईश्वर की मौज से बनी है। कितने कहते हैं कि ईश्वर की तरह प्रकृति भी अनाद्या है, हमलोग ऐसा नहीं मानते। ईश्वर की बनाई हुई प्रकृति है, ऐसा हमलोग मानते हैं। स्थान और समय; प्रकृति होने पर बनते हैं, इसलिए समय और स्थान का पता नहीं हो सकता बिना प्रकृति के। जहाँ समय है, वहाँ स्थान है, और स्थान जहाँ है, वहाँ समय है। देश और काल संग-संग होते हैं। स्थान के बारे में बोध होता है कि अब या तब बना; किंतु समय का बोध नहीं होता। जब स्थान बना, तब काल था। बिना प्रकृति के देश और काल का बनना नहीं होता। प्रकृति से जो बने, सबसे पहले देश और काल बने। देश और काल ही माया का पसार है। तीन गुण ईश्वरकृत हैं। और इन्हीं तीनां गुणों से युक्त को सगुण कहते हैं और इनसे रहित को निर्गुण कहते हैं। सगुण कहने से निर्गुण का ज्ञान आप ही होता है। सहित कहने से एक ही पदार्थ का बोध नहीं होता, दो पदार्थ का बोध होता है। सगुण कहने से एक तो वह, जो गुण को लिए हो, दूसरा गुण। निर्गुण जब गुण के साथ हुआ तब सगुण हुआ। मूल में निर्गुण है, वा सगुण? प्रकृति गुणमयी है, इसलिए मूल स्वरूप निर्गुण ही है। सगुण कहते किसको हैं? संसार बना और ईश्वर उसमें सर्वव्यापक रहा। ईश्वर जो व्यापक हुआ, वह सगुण ब्रह्म वा सगुण ईश्वर है। ऐसा भी लोग कहते हैं कि यह जो संसार रूप है, उसमें जो व्यापक है, वह सम्पूर्ण सगुण ब्रह्म है। दूसरी बात यह है कि संसार के एक-एक रूप वा पदार्थ उसी ईश्वर से व्याप्त है, इसलिए वह एक-एक भी सगुण ब्रह्म है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा,वसत इति वासना धूप दीजै।
 चरत्रजो अपनी इच्छा से चले और जो अपनी इच्छा से नहीं चले, वह अचर है। ये बिल्कुल-के- बिल्कुल सगुण हैं। जब सबको ईश्वर का रूप कहते हैं तो जो सबसे विशेष तेजवान हो, वह विशेषावतार कहने योग्य है। इसलिए भक्तों ने विशेषावतार को भगवान कहा। जैसे शिव, राम, कृष्ण, भगवती आदि। उन सब रूपों में अर्थात् उन गुणमय दृश्यों में ईश्वर व्यापक हैं और उन रूपों में विशेष प्रभाव या ईश्वरी शक्ति लोगों ने देखी तो उन्हें ईश्वर कहकर पूजते हैं। असल में बात यह है कि जो आँख से देखने में आया, वह गुणमय है। उसमें जो निर्गुण ब्रह्म व्यापक हुआ, तो वह सगुण कहलाया। एक बहुत विचित्र बात कही गई है-‘पूर्ण-से-पूर्ण निकलता है और पूर्ण ही बच जाता है।’ इसको समझाने के लिए कुछ लोगों ने कहा है-‘शून्य-से-शून्य निकालो तो शून्य ही बचता है।’ मेरे बोध में है कि यह हिसाब के रूप में ठीक है, लेकिन एक और बात है कि जिसको ईश्वर कहते हैं, उसका कोई भी अंश, चाहे छोटे-से-छोटा अंश ही क्यों न हो, वह उतना ही शक्तिशाली है, जितना पूर्ण ईश्वर। जैसे राम, कृष्ण आदि हैं। सब अंश रूप हैं। इनमें भी पूर्ण शक्ति है, इसमें कोई शक नहीं। वे इस संसार में आ गए। यद्यपि ज्ञान में कहा नहीं जा सकता कि वे आ गए। फिर भी लोगों ने देखा कि वे अवतार लिए। उनको सगुण ब्रह्म मानने में कोई हर्ज नहीं। एक तो सम्पूर्ण प्रकृति मण्डल का एक रूप मानिए, उसमें व्यापक सगुण ब्रह्म है और एक-एक रूप को अलग-अलग मानकर व्यापक मानिए, वह भी सगुण ब्रह्म है। फिर लोगों को श्ांका होती है कि जिस तरह की शक्ति शिव, राम आदि में प्रकट हुई, वह हमलोगों में नहीं। इन लोगों ने बहुत तप किया-साधन किया-
तप बल रचइ प्रपंच विधाता। तप बल विष्णु सकल जग त्राता ।।
तपबल शंभु करहिं संघारा। तपबल शेष धरहिं महि भारा।।
तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तप अस जियँ जानी ।।
          -रामचरितमानस, बालकाण्ड
 उनकी शक्ति बढ़ गई। शिवजी ने बड़ी तपस्या की, पार्वतीजी ने भी तपस्या की। इनकी शक्ति बढ़ी। शक्ति कैसे बढ़ती है? तन्द्रा की हालत में कभी-कभी ऐसा होता है कि शरीर कमजोर हो जाता है। पैर उठाना चाहते हैं, तो उठता नहीं। जोर से कोशिश करते-करते जग गए तो हाथ, पैर हल्के हो जाते हैं। कमजोरी में यह बात होती है। कोई जगता है, अपने को पहचानता है, तब उसकी शक्ति बढ़ती है। भय दूर भागता है। तप वा ईश्वर का भजन करते-करते अपने तईं का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। फिर सब शक्तियाँ पूर्ण हो जाती हैं। तब वह ईश्वरत्व को धारण करता है या प्राप्त करता है और ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।’ को चरितार्थ करता है। हम अपने को बहुत न्यून समझते हैं। यहाँ भी एक दूसरे को श्रेष्ठ वा कनिष्ठ मानते हैं। उम्र के ख्याल से नहीं, ज्ञान के कारण, विद्या के कारण, शरीर बल के कारण आदि। जो साधन द्वारा शारीरिक वा मानसिक बल बढ़ा लिए हैं, वे शारीरिक और मानसिक शक्ति पाए हैं, उसी तरह जिन्होंने आध्या- त्मिक साधना की, उन्होंने ईश्वरत्व की शक्ति पाई। जो साधना नहीं किए, वे अपने को नहीं जानते और अपने को शक्तिहीन पाते हैं। श्रीराम, श्रीकृष्ण ने तप किया। उनमें अपनेपन का ज्ञान हुआ। उनमें भी शक्ति आ गई ईश्वरत्व की। इसलिए पूर्ण में से पूर्ण निकलता है तो पूर्ण ही बच जाता है।
 श्रीकृष्ण के लिए महाभारत में लिखा है कि वे नर-रूप को छोड़कर स्वर्ग गए और सनातन नारायण में प्रवेश कर गए। आप जो कुछ देखते हैं सभी सगुण हैं। विराट रूप सगुण है। कौशल्या, यशोदा आदि ने जो देखा, राजा बलि ने जो देखा, वह भी सगुण रूप ही है। एक-एक छोटे शरीर वाला भी सगुण और वह भी सगुण। इसीलिए ‘अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा, वसत इति वासना धूप दीजै।’ कहा गया है। जो प्रविष्ट है, वह निर्गुण है। जो देखने में आता है, वह सगुण है। जो निर्गुण है- अपरिवर्तनशील है, अविनाशी है। जो सगुण है-वह परिवर्तनशील और नाशवान है। रूप नाशवान है। उसमें व्यापक निर्गुण तत्त्व अविनाशी है। जो सगुण रूप है, वह नाशवान है। सगुण को ही लोग साकार और निर्गुण को निराकार कहते हैं। सगुण-साकार का नाश है, निर्गुण-निराकार का नहीं। जो निर्गुण ब्रह्म है, उसका नाश नहीं होता। निराकार और भी है, उसका नाश होता है। अभी हम बोलते हैं। इसका रूप नहीं है, यह सगुण शब्द है। इसका नाश हो जाता है। बाहर के कान से निर्गुण शब्द सुना नहीं जा सकता। फिर स्थूल सूक्ष्म का भेद है। अपने शरीर और इसी संसार को देखते हैं, ये दोनों सगुण हैं और स्थूल हैं। इसी तरह बाहर संसार के रस, गंध, स्पर्श, शब्द; इनको देखिए तो दिखाई देने योग्य नहीं हैं। अदृश्य हैं, फिर भी सगुण हैं। इसी तरह स्थूल दृश्य सगुण और स्थूल अदृश्य भी सगुण होता है। स्थूल दृश्य सगुण साकार है और स्थूल अदृश्य सगुण-निराकार है। यह दृश्य और अदृश्य; दोनों हैं। संसार और शरीर को स्थूल-ही- स्थूल मानने से नहीं होता। एक मकान बनाने में भी पहले उस मन में बनाते हैं, जिसे सूक्ष्म मानना चाहिए।
 स्थूल सगुण-साकार की उपासना आरम्भ में लोग करते हैं। ईश्वर का कोई राम में, कोई कृष्ण में, कोई शिव में, कोई शक्ति में मानते हैं। इस तरह कई ईश्वर हो जाते हैं। ईश्वर तो एक ही होना चाहिए। आपस में लोग बहस करते हैं और साम्प्रदायिकता का भाव फैलाते हैं। ईश्वर एक हैं। उनके कई रूप हैं। जैसे एक ही आकाश के घटाकाश, मठाकाश आदि रूप हैं। आकाश एक ही रहता है, चाहे घटाकाश, मठाकाश कितना भी आप कहें। उसी तरह ईश्वर एक ही है। उनके अनेक नाम-रूप हैं। किसी एक रूप से उपासना का आरम्भ किया जाता है। कोई समझे कि स्थूल उपासना से ही उपासना समाप्त हो जाएगी तो वह कम जानता है, इतना कहने में शक नहीं। केवल स्थूल साकार सगुण में ही लगते हो और सूक्ष्म सगुण की उपासना में नहीं बढ़ते हो तो तुम्हारी शक्ति आगे बढ़ेगी कैसे? ऐसा मानने से ही ईश्वर का पूरा दर्शन हो गया, इसको सिद्ध करना चाहिए। सगुण रूप दर्शन करने से विकार दूर नहीं होता। श्रीराम, श्रीकृष्ण, शिवजी, देवी आदि के दर्शन से हृदय शुद्ध नहीं होता। शुम्भ-निशुम्भ ने देवी से युद्ध किया। देवी-दर्शन होने पर भी हृदय शुद्ध क्यों नहीं हुआ? इससे जाना जाता है कि इस स्थूल दर्शन से विचार की शुद्धता नहीं होती, माया में भले ही लाभ हो जाय। ईश्वर-दर्शन इस आँख से नहीं होता। इस आँख से जो देखोगे, वह माया है। ईश्वर को अपने से-चेतन आत्मा से जानोगे। शरीर और इन्द्रियों के साथ अपूर्ण ज्ञान होता है। शरीर-इन्द्रियों से छूटने पर ज्ञान होता है कि ‘पूर्ण में से पूर्ण निकलता है और पूर्ण ही बचता है।’ स्थूल सगुण उपासना के बाद सूक्ष्म सगुण-साकार की उपासना करनी चाहिए। मन से सूक्ष्म सगुण-साकार बनाया नहीं जा सकता। गुरु-युक्ति से इसकी साधना होती है। आगे चलकर सगुण अरूप की उपासना होती है, यहीं है ऋषि-मुनियों का नादानुसंधान। फिर है निर्गुण-निराकार उपासना। स्थूल सगुण से लेकर निर्गुण-निराकार तक इसी तरह पहुँचा जाता है। दोहावली में गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
 हिय निर्गुन नयनन्हिं सगुन, रसना राम सुनाम ।
 मनहु पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम ।।
 पहले सत्संग के द्वारा ज्ञान होता है और साधना करने पर अंदर से इसका ज्ञान होता है। ‘हिय निर्गुन नयनन्हिं सगुन, रसना राम सुनाम। मनहु पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम।।’ गोस्वामी तुलसीदासजी ने ईश्वर को राम कहा है। शिव, देवी, गॉड, अल्लाह कहने से भी ईश्वर-ज्ञान में कमी नहीं होती। ईश्वर के लिए एक ही शब्द पर जोर देना साम्प्रदायिकता में बरतना है। स्थूल उपासना में जप और देखे हुए रूप का ध्यान किया जाता है। सूक्ष्म सगुण-साकार में ऐसा नहीं। उसमें केवल दृष्टियोग-अभ्यास द्वारा उसका अभ्यासी दर्शन पाता है। पुनः सगुण-निराकार और निर्गुण-निराकार उपासना में अंतर्नाद में सुरत को लगाना पड़ता है।
 साकार, निराकार, निर्गुण और सगुण को जानना चाहिए। ‘हिय निर्गुन नयनन्हिं सगुन, रसना राम सुनाम। मनहु पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम।।’
 पद्य में जो सगुण-साकार है, वह सोने का डिब्बा है और उसके अंदर में जो कीमती रत्न है, वही निर्गुण है। सोने से रत्न अधिक मूल्य का है। इसी तरह सगुण-निर्गुण को भी जानो। गोस्वामी तुलसीदासजी ने यह भी कहा है-
 ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकाश ।
 निर्गुण कहै जो सगुण बिनु, सो गुरु तुलसीदास ।।
 ऐसा क्यों? इसलिए कि ईश्वर तत्त्व अनादि- अनन्त है। अनंत किसी एक बड़े क्षेत्र में अँटकर रह नहीं सकता। कठोपनिषद् में लिखा है-
 वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
 एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
 अर्थात् जिस प्रकार समूचे ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट वा व्याप्त एक ही वायु भिन्न-भिन्न रूपों में उन्हीं के समान रूपवाला-सा हो रहा है, उसी प्रकार सब प्राणियों का अंतरात्मा वा परब्रह्म भी एक होते हुए भी नाना रूपों में उन्हीं के जैसा रूपवाला हो रहा है तथा उन रूपों से वह बाहर भी है। इस तरह निर्गुण-सगुण और निराकार-साकार में भेद जानना चाहिए।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर मधुबनी में दिनांक 30.3.1963 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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190. धर्म की परिभाषा
बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 मनुष्य-जीवन में धर्म ही जीवन है। जिस मनुष्य के जीवन में धर्म-ज्ञान नहीं है, उसका जीवन यदि पाशविक कहा जाय तो कुछ अति-उक्ति और हानि नहीं; क्योंकि पशु धर्म का ज्ञान नहीं रखते। धर्म कर्म से होता है। बिना कर्म के धर्म नहीं होता। परमात्मा ने मनुष्य को कर्म करने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया है, फल के लिए नहीं। कर्म करने के लिए परमात्मा ने बुद्धि दी है, असत् और सत् का निर्णय कर कर्म करने के लिए। इसी के लिए विद्याभ्यास और सत्संग है, पशु के लिए विद्याभ्यास और सत्संग कहाँ है? मनुष्य के लिए बड़े-बड़े विद्यालय हैं। मनुष्य विद्याभ्यास और सत्संग से अपनी बुद्धि को परिमार्जित कर लें। बुद्धि को सात्त्विक, राजस और तामस में रख सकते हैं। बुद्धि स्वाभाविक ही इन तीनों में बरतती है। लोगों की बुद्धि सात्त्विकभाव में कम रहती है। रजोगुण और तमोगुण में अधिक रहती है। सात्त्विक में शुद्ध विचार होता है, राजस में चंचलता और तामस में उलटा विचार होता है; प्रमाद और आलस्य-सुस्ती होती है। राजस और तामस; इन दोनों से सात्त्विक उत्तम है। विद्याभ्यास और सत्संग से यद्यपि बुद्धि को बल मिलता है, फिर भी मन को अपने अंदर ऐसे स्थान पर रखो, जहाँ राजस-तामस न रहे। एक तरफ रखने से राजस और दूसरी तरफ रखने से तामस में रहेगा। बीच में रखो तो सतोगुण में रहेगा। उन दोनों को इड़ा और पिंगला कहते हैं। जो यौगिक शब्द जानते हैं, वे समझ गए होंगे। इड़ा- पिंगला में, राजस-तामस में बुद्धि रहती है और सुषुम्ना में सात्त्विकता में बुद्धि रहती है। विद्याभ्यास, सत्संग और यौगिक साधना; तीनों करो तो सात्त्विक बुद्धि में जमे रहोगे। तब असत् और सत् का ठीक- ठीक निर्णय कर सकते हो। सात्विक वृत्ति में रहते कर्म करो तो वह धर्म होगा, जिससे यहाँ और परलोक दोनों जगह सुखी रहोगे। यहाँ सुखी और परलोक में दुःखी, वह राजस कर्म का फल है। यहाँ का सुख असल में सुख नहीं है। यहाँ दुःख मिश्रित सुख पाते हैं। यह चंचल सुख राजस लोगों को मिलता है। जिस कर्म से यहाँ और परलोक; दोनों में दुःख पाते हैं, वह दुष्टकर्म तामस का फल है। जिस काम से परलोक-इहलोक में सुख मिलता है और अंत में मोक्ष मिलता है, वह सात्त्विक कर्म का फल है। कुछ ऐसे सात्त्विक कर्म हैं, जिससे इस संसार और परलोक में सुखी रहो। ऐसे भी सात्विक कर्म हैं, जिससे यहाँ कुछ कष्ट मालूम होता है, जैसे दवा कड़वी मालूम होती है, परंतु आगे में सुखी होता है। लोग ऐसा कर लेते हैं कि वे सुख को भी नहीं सह सकते, कुछ-से-कुछ कर लेते हैं, लेकिन दुःख को तो रो-रोकर भोग लेते हैं। विद्या, सत्संग और सद्गुरु की बतायी यौगिक क्रिया; इन तीनों को करो।
 प्रत्येक व्यक्ति अपने को धार्मिक जानने में अच्छा समझते हैं। कोई धार्मिक सिद्धान्त नहीं जानकर धार्मिक बनना चाहे तो उसकी आशा ही आशा रहेगी। आशा पूरी नहीं होगी, इसलिए धर्म की परिभाषा जानो। धर्म में पहली बात यह है-ईश्वर में अडिग विश्वास। जिस धर्म में ईश्वर का विश्वास नहीं, वह धर्म ऐसा है जो विषाक्त है, जो देखने मात्र का शुभ है, लेकिन वह अशुभमय है। इसलिए ईश्वर की स्थिति का और उसके स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए। ईश्वर-स्तुति होनी चाहिए। स्तुति से उसके स्वरूप का और उसकी स्थिति का ज्ञान होता है। इससे श्रद्धा होती है। श्रद्धा से प्रेम होता है। ईश्वर का प्रेमी धर्म से विचलित नहीं होता।
 मनुष्य की इच्छा बराबर कुछ-न-कुछ माँगने की रहती है। किसी भी चीज को पाकर कोई तृप्त नहीं हो सकता। जिसको ईश्वर की प्राप्ति हुई, उन्होंने कहा-ईश्वर की प्राप्ति में तृष्णा जाती रहती है और इच्छाओं का नाश होता है। इसलिए जो माँगो, ईश्वर से माँगो। पहले तो माँगो ही नहीं, क्यांकि गौ अपने बच्चे को दूध पिलाती है, माता अपने बच्चे को बिना माँगे दूध पिलाती है। ईश्वर पर विश्वास करो, ईश्वर सब कुछ देंगे। यदि बिना माँगे मन नहीं माने तो एक ईश्वर से ही माँगो, किसी देव से नहीं। क्योंकि उस देव को उस ईश्वर से ही शक्ति मिली है।
 सौ बरसा भक्ती करै, एक दिन पूजै आन ।
 सो अपराधी मानवा, पड़े चौरासी खान ।।
       -कबीर साहब
 पात पात कै सींचवो, बरी बरी के लोन।
 तुलसी खोटे चतुरपन, कलि डहके कहु को न।।
 देेव दनुज मुनि नाग मनुज सब, माया विवश विचारे।
 तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु, कहा अपुनपौ हारे।।
     -गोस्वामी तुलसीदास
 देवता को, संसार के लोगों को जो शक्ति मिली है, ईश्वर की ओर से ही। लोग पुरुषार्थ करते हैं, जो मिलता है वह ईश्वरप्रदत्त है। जो पुरुषार्थ नहीं करे और उसको कुछ मिले, कैसा न्याय है? ईश्वर से वह माँगो जो और कोई न दे सके। ईश्वर से वह माँगो, जिससे ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग मिले। मार्ग में जो र्चिं मिलना चाहिए, सो मिले। इसलिए ईश्वर की स्तुति और प्रार्थना करो। बाद में उपासना करो। उपासना में जप और ध्यान करने के लिए लोग कहते हैं। इन दोनों के भेदों को जानना चाहिए। जप और ध्यान में जो स्थूलता और सूक्ष्मता है, उसको भी जानो। किसी रूप को देखकर उसे मन में बनाना ही पूरा ध्यान नहीं है। ध्यान और भी है-‘ध्यानं निर्विषयं मनः।’ संतों ने बताया है कि दो ही चीजें हैं-एक प्रकाश और दूसरा शब्द। साधकों को ये दोनों सहारे ईश्वर की ओर से मिलते हैं। उपासना ठीक-ठीक जानो और करो। जैसे एक अक्षर जानने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है, उसी तरह इस अध्यात्म-ज्ञान के सिखलानेवाले गुरु की भी आवश्यकता होती है और इनकी बड़ी महिमा है। कहीं-कहीं इनको ईश्वर के तुल्य कहा गया है और कहीं-कहीं ईश्वर से भी बढ़कर। ईश्वर से बढ़कर कोई नहीं हो सकता। लेकिन ईश्वर स्वयं प्रकट नहीं होते, संत लोग प्रकट होकर ईश्वर का ज्ञान बताते हैं, इसलिए ईश्वर से बड़े कहे जाते हैं।
 मैं कह रहा था कि उपासना के लिए दो पदार्थों का संतों ने बहुत उपदेश दिया है। वे हैं-प्रकाश और शब्द। वे शब्द और ज्योति बाहर के नहीं, तुम्हारे अंदर हैं। ठीक-ठीक उपासना करो, तुम्हारे अंदर में ये दोनों मिलेंगे। संसार में ज्योति नहीं रहे, तो संसार नहीं रहे। ज्योति रहे और बादल के कारण अंधकार-ही-अंधकार हो तो सभी लोग अंधे-जैसे काम करेंगे। फिर कितनी गलती और कितने दुष्ट कर्म हो जाएँगे? इससे संसार भ्रष्ट हो जाएगा। ज्योति को बिल्कुल हटा लें, तो सौर मंडल समाप्त हो जाएगा। शब्द से ही विद्याभ्यास किया जाता है। जनमते ही आप शब्द करते हैं, तो आप जीवन में हैं, जाने जाते हैं। छोटे-बड़े सभी काम शब्द से होते हैं। सभी गूँगे हो जाएँ तो क्या काम करेंगे! शब्द से ही काम करते हैं, जब गति वा कम्प होता है, तो शब्द अवश्य होता है। गति और कम्प नहीं हो तो शब्द नहीं हो। किसी की घटती और बढ़ती शब्द से होती है। हमारे दार्शनिक और वैज्ञानिक भी इसी बात को कहते हैं। संत दरिया साहब कहते हैं-‘साधो गति में अनहद बाजे।’ डॉक्टर कान में यंत्र लगाकर छाती वगैरह को जाँचते हैं-शब्द ठीक-ठीक होता है वा नहीं? नाड़ी चलती है, इसमें भी गति है। शब्द कम्पमय और कम्प शब्दमय होता है। सृष्टि के आदि में प्रथम कम्पन हुआ, कम्प का सहचर शब्द अवश्य हुआ। कम्प और शब्द को अलग- अलग नहीं कर सकते। शब्द में अपने उद्गम स्थान पर खींचने का गुण होता है। जिसको ओ3म्, रामनाम, सतनाम आदि कहते हैं। यह सबके अंदर-अंदर है और सृष्टि में भी है। लेकिन जो अपने को अपने अंदर नहीं रख सकता-बहिर्वृत्ति में रखता है, वह इसको नहीं जान सकता। जो अन्तर्वृत्ति रखता है, वह इसको पहचानता है।
अक्षरं परमोनादः शब्द ब्रह्मेति कथ्यते। -योगशिखोपनिषद्
यही गोस्वामी तुलसीदासजी का निर्गुण रामनाम है।
‘बन्दउँ रामनाम रघुवर को। हेतु कृषाणु भानु हिमकर को।।
विधि हरि हर मय वेद प्रान सो। अगुण अनूपम गुण निधान सो।।’
‘शब्द तत्तु वीर्ज संसार । शब्द निरालमु अपर अपार।।
शब्द विचारि तरे बहु भेषा। नानक भेदु न शब्द अलेषा।।
शब्द सुरति भया प्रगासा। सभ को करै शब्द की आशा।।
पंथी पंखी सिऊँ नित राता। नानक शब्दै शब्दु पछाता।।
हाट बाट शब्द का खेलु। बिनु शब्दै क्यों होवे मेलु।।’
सारी स्रिष्टि शब्द कै पाछै। नानक शब्द घटै घटि आछै।।
        -गुरु नानक साहब
कबीर साहब कहते हैं-
 साधो शब्द साधना कीजै।
 जेहि शब्द से प्रकट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै।।
 दूसरे देश के लोग भी मानते हैं। प्द जीम इमहपददपदह ूं जीम ूवतकए जीम ूवतक ूं ूपजी ळवक ंदक जीम ूवतक ूं ळवकण् अर्थात् सृष्टि के आदि में शब्द था, वह शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ही ईश्वर था।
 लोगों का विश्वास है कि क्राइस्ट इस देश में आकर बहुत दिनों तक रहे थे। मुहम्मद साहब भी यहाँ आकर रहे थे। शब्द वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक; दोनों प्रकार के होते हैं। इसके अतिरिक्त प्राणमय, इन्द्रियमय और मनोमय; इन तीनों के भेद को भी जानिए। बाहर के वर्णात्मक में राम, शिव, गॉड, अल्लाह आदि कहते हैं।
 नाम जपते-जपते ईश्वर की ओर ख्याल होता है, यह बाहर का शब्द है। बाहर के ध्वन्यात्मक से ईश्वर की पहचान नहीं होती। अंदर के ध्वन्यात्मक में भी पहले ईश्वर की पहचान नहीं होती। नाद- साधना करते-करते अंत में निर्गुण रामनाम ‘ओ3म्’ को पाता है, तब ईश्वर की पहचान होती है। वह अकथनीय है। केवल अंतर्ध्यान से ही जाना जाता है। केवल वर्णात्मक पर जोर लगाकर अंदर के ध्वन्यात्मक को नहीं जानना अपने में ज्ञान की कमी रखना है। जानिए और साधन कीजिए।
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यह प्रवचन सहर्षा जिलान्तर्गत मनोहर उच्च विद्यालय, सहर्षा में दिनांक 2.4.1963 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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191. एक ॐ सतनाम
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 जितने लोग आस्तिक हैं, उन सबको विश्वास है कि तमाम सृष्टि का कर्त्ता ईश्वर है। जब सबसे पहले कुछ नहीं था, तब केवल ईश्वर ही था। उसके अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं था। यदि कोई ईश्वर का नहीं माननेवाला है, ईश्वर के ज्ञान को भद्दा ज्ञान मानता है और ईश्वर को मानना बेवकूफी समझता है, उसको भी मानना पड़ता है कि सृष्टि की कर्त्री (बनानेवाला) प्रकृति ही है। तो उसको भी मानना पड़ेगा कि सबसे पहले प्रकृति है। वह सौर जगत ;ैवसंत ेलेजमउद्ध को देखता है। सूर्य के पहले वाष्प-ही-वाष्प को मानता है। चाहे वाष्प मानो चाहे सूर्य; उसके बाद विविधता है। अध्यात्म- दर्शी कहता है कि इतना ही क्यों? यह भी समझो कि सूर्य का भी रचयिता कोई है। सूर्य निरवलम्ब नहीं है। सूर्य के चारो ओर शून्य है। यह नहीं कहा जाएगा कि पहले सूर्य है। यही कहा जाएगा कि पहले शून्य है, फिर सूर्य। सूर्यमण्डल से शून्य कितना अधिक है, जिसका नाप-जोख कोई नहीं बता सकता। इससे समझ में आता है कि सबसे पहले का कुछ ऐसा है, जो कुछ भी अवकाश छोड़े बिना केवल वही एक-ही-एक है। जो परम प्राचीन तथा परम सनातन है। परम प्राचीन, परम सनातन वही होगा, जिसके अतिरिक्त अवकाश नहीं रहे। जिसके अतिरिक्त अवकाश बचता है तो अवकाश ही पहले का है। उसके लिए दूसरा कोई अवलम्ब नहीं है। जो सबसे पहले का है, जिसके अतिरिक्त अवकाश नहीं है, वही ईश्वर है। इसके लिए संतों के बहुत शब्द हैं। ‘व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ शक्ति भगवन्ता।।’ कहीं उसका अंत नहीं। जिसका अंत नहीं, उसके बाद अवकाश नहीं।
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
         - रामचरितमानस
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं।। - विनयपत्रिका
 देश-काल से जो परे है, वह समय-स्थान के घेरे में नहीं है। और उसके अतिरिक्त कोई अवकाश नहीं है।
 श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
 सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
 चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
 चून चगून वजूद न मानु तैं सुभानमूना ऐना ।।
 जैसे ऐना सब दरसावै जो कुछ वेष बनावै ।
 ज्यों अनुमान करै साहब को त्यों साहब दरसावै ।।
 जाहि रूह अल्लाह के भीतर तेहि भीतर क े ठाईं ।
 रूप अरूप हमारि आस है हम दूनहुँ के साईं ।।
 जो कोउ रूह आपनी देखा सो साहब को पेखा ।
 कहै कबीर स्वरूप हमारा साहब को दिल देखा ।।
                                                 - कबीर साहब
 अणोरणीयां महतो महीयान् ।
 बड़ा-से-बड़ा वही हो सकता है, जिसके अतिरिक्त अवकाश नहीं हो।
  अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
   जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
        -गुरु नानक साहब
 संतों का विचार एक है कि उस परमात्मा की ही मौज से सृष्टि हुई है।
 तदि अपना आपु आपही उपाया,
   नाँ किछु ते किछू करि दिखलाया ।
प्रथम एक सो आपे आप, निराकार निर्गुण निर्जाप।।
        -गुरु नानक साहब
 उसने उपादान को सृजन करके फिर और सृष्टि की। सृष्टि है, इसलिए कहना पड़ता है कि इसका बनानेवाला परमात्मा भी है। सृष्टि के लिए वैसा ही बोध होता है,जैसे और कुछ बनाने में। बिना कम्प के कुछ नहीं बन सकता। कम्प हो शब्द नहीं, शब्द हो कम्प नहीं, ऐसा माना नहीं जा सकता। आदि में शब्द है, इसलिए गुरु नानकदेव ने कहा है-
शब्द तत्तु वीर्ज संसार । शब्द निरालमु अपर अपार।।
शब्द विचारि तरे बहु भेषा। नानक भेदु न शब्द अलेषा।।
शब्द सुरति भया प्रगासा। सभ को करै शब्द की आशा।।
पंथी पंखी सिऊँ नित राता। नानक शब्दै शब्दु पछाता।।
हाट बाट शब्द का खेलु। बिनु शब्दै क्यों होवे मेलु।।
सारी स्रिष्टि शब्द कै पाछै। नानक शब्द घटै घटि आछै।
 सभी कहते हैं कि आदि में शब्द हुआ। मिट्टी की गोली बनाने में जो कम्पन होता है, वह मिट्टी
के जर्रे-जर्रे में व्यापक होता है। आदि शब्द तमाम ब्रह्माण्ड में व्यापक है। शब्द अपने उद्गम स्थान पर खींचता है, जैसे चुम्बक लोहे को अपने केन्द्र में खींचता है। दूसरा, शब्द में गुण है कि शब्द अपने केन्द्र के गुण को लिए रहता है और सुननेवाले में वह गुण हो जाता है। ऊपर का शब्द नीचे दूर तक जाता है और नीचे का शब्द ऊपर तक नहीं जाता। आदि शब्द ईश्वर से प्रकट हुआ है और वह शब्द पिण्ड-ब्रह्माण्ड में व्यापक है। उस शब्द को पकड़ो तो ईश्वर तक जाओगे। इसके खिलाफ जो कहे तो वह संतवाणी के खिलाफ है। जैसे दो-दो के जोड़ने से चार होता है, उसी तरह यह निश्चित है कि जो उस शब्द को पकड़ेगा, वह ईश्वर तक पहुँचेगा।
           यही बड़ाई शब्द की, जैसे चुम्बक भाय ।
           बिना शब्द नहिं ऊबरै, केता करै उपाय ।।
                     -कबीर साहब
चुम्बक सत्त शब्द है भाई, चुम्बक शब्द लोक ले जाई ।
लेइ निकारि होखै नहिं पीरा, सत्त शब्द जो बसै शरीरा ।।
             -दरिया साहब बिहारी
 शब्दहिं शब्द भयो उजियारो सतगुरु भेद बतायो ।
                      -सूरदासजी
गोस्वामी तुलसीदासजी ने इसको ‘नाम’ कहा-
नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सु सामुझि साधी।।
 हम मुँह से जो शब्द बोलते हैं, वह निर्गुण शब्द नहीं है।
अघोषम् अव्यंजनम् अस्वरं च अतालुकण्ठोष्ठमनासिकं च।
अरेफ जातं उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित्।।
             -अमृतनाद उपनिषद्
 यह शब्द निर्गुण है। जिधर से शब्द आता है, वृत्ति उधर ही दौड़ती है। अंधेरी रात में सूझता नहीं हो, रास्ता भूल गया हो और कोई पुकार कर कहे कि यहाँ आओ तो शब्द सुनते-सुनते वहाँ तक वह पहुँच जाएगा। जैसे जल में चलने के लिए जल ही सहारा और जल ही रास्ता होता है, उसी तरह शब्द का ही सहारा और शब्द में ही चलना है। गो0 तुलसी- दासजी ने कहा कि अंदर का प्रकाश होना चाहिए।
जब लगि नहीं निज हृदि प्रकाश अरु विषय आश मन माहीं।
तुलसिदास तब लगि जग जोनि भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं।।
 पहले आप आकाश से गर्जन को नहीं सुनते हैं। पहले बिजली चमकती है, उसको देखते हैं, पीछे शब्द सुनते हैं। चाहे दार्श निक विचार हो, चाहे वैज्ञानिक विचार, किसी भी विचार से सोच-समझ कर देख लो। सृष्टि के आदि में शब्द है। शब्द से ही सृष्टि हुई। यह शब्द परमात्मा से हुआ है। उस शब्द को कहाँ पकड़ोगे? वह शब्द चेतनगम्य है। श्रीमद्भागवत में तीन प्रकार के शब्द का वर्णन है-मनोमय, प्राणमय और इन्द्रियमय। चेतन के संचरण में जो शब्द होता है, वह प्राणमय शब्द है। पढे-लिखे लोग जानते हैं कि शब्द दो तरह के होते हैं-सार्थक और निरर्थक, वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
 श्रवणात्मक ध्वन्यात्मक, वर्णात्मक विधि तीन ।
 त्रिविध शब्द अनुभव अगम, तुलसी कहहिं प्रवीन ।।
 जो ध्वन्यात्मक शब्द है, उसी में प्राणमय शब्द है। बाहर का ध्वन्यात्मक शब्द गाजे-बाजे का है। अंदर में भी ध्वन्यात्मक शब्द है। दादू दयालजी के वचन में है-
 एक शबद सब कुछ किया, ऐसा समरथ सोय ।
 आगे पीछे तौ करै, जे बल हीणा होय ।।
 यंत्र बजाया साजि करि, कारीगर करतार ।
 पंचौ कारज नाद है, दादू बोलणहार ।।
 गुरु नानक ने भी कहा है-‘पंच सबदु धुनिकार धुनि, तहँ बाजै सबदु नीसाणु।’ सृष्टि को पांँच मण्डलों में बाँट सकते हैं। यह स्थूल जगत है। बिना सूक्ष्म के स्थूल नहीं हो सकता और सूक्ष्म भी बिना कारण के नहीं होता। फिर कारण भी बिना महाकारण के नहीं होता। ये चार मण्डल जड़ प्रकृति के हैं। इसके परे चेतन प्रकृति-परा प्रकृति है। कोई भी मण्डल तबतक नहीं बनता, जबतक उसका केन्द्र स्थापित नहीं हो और उस केन्द्र से उसकी धारा प्रवाहित नहीं हो। धारा के प्रवाहित होने में जो शब्द होता है, उसमें ध्वनि होती है। इसलिए पंच मण्डल के पाँच शब्द अवश्य हैं। प्रत्येक का केन्द्रीय शब्द अपने से नीचे मण्डल तक आवेगा और उसके ऊपर के मण्डल का शब्द उसके नीचे के मण्डल के केन्द्र पर आवेगा। इसी तरह आदि नाद जो सबसे पहले का शब्द है, उसको पकड़ेगा। उसको प्रणव, स्फोट आदि ऋषियों ने कहा है और सन्तगण उसे रामनाम, आदिशब्द, आदिनाम इत्यादि कहते हैं। जिस शब्द से किसी की पहचान हो, वह उसका नाम होता है।
 जिस शब्द से ईश्वर की पहचान हो, वह ईश्वर का नाम है। रामनाम मनुष्य का रखा हुआ है। व्यापकता के कारण उसको ‘ॐ’ कहते हैं। जैसे ‘ॐ’ शब्द, उच्चारण के सभी स्थानों में व्यापक है, उसी तरह आदि शब्द सर्वव्यापी है, उसको ऋषियों ने ‘ॐ’ कहा। गुरु नानक ने कहा- ‘एक ॐ सतनाम।’ यह एक ही शब्द है, जो ईश्वर की पहचान कराता है और जो दूसरा शब्द है, वह ईश्वर के गुण को प्रकट करता है, वही वर्णात्मक नाम है।
 पहले स्थूल ध्यान होता है, पीछे सूक्ष्म ध्यान। यानी स्थूल ध्यान के बाद सूक्ष्म ध्यान होता है। इसमें न सगुण को छोड़ना है, न निर्गुण को। पहले सगुण की उपासना करो, फिर निर्गुण को पकड़कर परमात्मा तक पहुँचो।
 लोगों को चाहिए कि ईश्वर-भजन करें। मेरे कहने का मतलब है कि नाम-भजन के द्वारा ईश्वर तक पहुँचो। कोई और दूसरी तरह कहे तो उससे पूछना चाहिए कि ईश्वर तक पहुँचने का और क्या यत्न है, उसे सिलसिला से बताओ। यहाँ तक कहा जाता है कि शब्द की धार ईश्वर से यहाँ तक लगी हुई है। उसको पकड़कर ईश्वर तक जाओगे।
 अपने को पवित्र रखो। इसके लिए झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों से बचकर रहो। जो अच्छे गुरु होते हैं, वे पहले से ही खान-पान को सम्हालने कहते हैं।
खान पान को प्रथम सम्हारो। तब रस रस सब अवगुण मारो।।
 जो पंच पापों से बचकर रहेगा, वह ईश्वर मार्ग पर चलेगा और संसार में भी प्रतिष्ठित रहेगा। आज दुनिया में चोरी-डकैती आदि अनैतिक कर्म होते हैं, यदि पंच पापों को छोड़ो, तो संसार में भी कल्याण से रहोगे-अनैतिकता मिटेगी।
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यह प्रवचन नवादा जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर नवादा नगर में दिनांक 1.5.1963 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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192. अनेक ब्रह्मा, विष्णु और शिव
प्यारे प्रियदर्शनो !
 परमात्मा की बड़ी कृपा है कि हमलोगों का जन्म भारत-भूमि पर हुआ है। यह बड़ा ही आस्तिक देश है। उत्तर हिमालय से दक्षिण कन्याकुमारी अंतर्द्वीप तक, जगन्नाथपुरी और द्वारिका-पूरब से पश्चिम तक तथा सभी प्रदेशों में इस आस्तिक भाव की मान्यता है। जब से बच्चे का जन्म होता है, तब से अथवा जब बच्चे अपने मुँह से कुछ बोलने लगता हैं, तोते की तरह बच्चे को माता-पिता तथा अभिभावक ईश्वरवाची नाम सिखाते हैं। कोई राम-राम, कोई हरि-हरि, कोई शिव-शिव आदि इस तरह के ईश्वरवाचक नाम कहलवाते हैं। किसी घर में सतनाम का आदर है, वे वह कहलवाते हैं। होता क्या है कि जैसे-जैसे बच्चे को ज्ञान होता जाता है, वैसे-वैसे ईश्वर के ज्ञान में वे मजबूत होते जाते हैं। पहले वे जानते नहीं कि राम-राम, शिव-शिव क्या है? माता-पिता सिखाते हैं कि सबके मालिक प्रभु भगवान हैं, उन्हीं के ये नाम हैं। बच्चे के मन में बैठ जाता है कि ईश्वर है। कितने बच्चे कहते हैं कि ईश्वर कहाँ है? तब माता-पिता उनको ठाकुरबाड़ी में ले जाकर प्रतिमा दिखाते हैं कि यही ईश्वर है। कितने दयानन्द स्वामी की तरह प्रौढ़ होते हैं, तो तर्क-वितर्क से और भी जानते हैं। ईश्वर का ज्ञान मामूली बात नहीं है। अंत में बच्चे अपने भी पढ़ते हैं कि ईश्वर सगुण भी हैं और निर्गुण भी हैं। सगुण ठाकुरबाड़ी की प्रतिमा को मानते हैं और निर्गुण का पता नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी ऐसे गुरु मिलते हैं तो वे कहते हैं-
 हिय निर्गुन नयनन्हिं सगुन, रसना राम सुनाम ।
 मनहु पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम ।।
 निर्गुण हृदय-अन्दर की बात है। आँख से जो देखते हो, वह सगुण है। जिभ्या पर सुन्दर राम-राम वा शिव-शिव है। यह कैसा हुआ? जैसे सोने के डिब्बे में सुन्दर रत्न हो। तुलसीदासजी कहते हैं कि निर्गुण देखना चाहते हो, तो अंतर्मुखी होओ। आँख से सगुण को देखते हो, लेकिन इस आँख से स्थूल को देखोगे, सूक्ष्म सगुण को नहीं। सूक्ष्म सगुण को अंदर में देख सकते हो, जबकि ‘उघरहिं विमल विलोचन ही के’ (दिव्य माया की दृष्टि) होगा।
 सोने का डिब्बा कितना सुन्दर-कितनी कीमत का होगा, लेकिन उसके अंदर उससे मूल्यवान पदार्थ है। सोने का डिब्बा सगुण है और निर्गुण सुन्दर रत्न। तुलसीदासजी कहते हैं-दोनों देखने में चमकीले, सुन्दर और बहुमूल्य हैं। दोनों का आदर करो। सगुण कहते हैं-जो गुणों के साथ-साथ है। जो गुणों के साथ नहीं है, वह निर्गुण है।
अगुण अखंड अनंत अनादी । जेहि चिन्तहि परमारथवादी।।
अगुण अखंड अलख अज जोई। भगत प्रेमबस सगुण सो होई।।
  इन दोनों को समझो। जो निर्गुण और अखण्ड है, जो उत्पन्न नहीं हुआ है, वही भक्तों के प्रेम से सगुण होता है। गुण का अर्थ है, स्वभाव। स्वभाव तीन तरह के हैं-उत्पन्न करने, पालन करने और विनाश करने का। पर्वत को देखो, सागर को देखो, नाना वृक्षों को देखो, उद्भिज, अण्डज, पिण्डज किसी को देखो, सूर्य-चन्द्र ताराओं को देखो, जो कुछ देखो, तीन स्वभावों के अन्दर हैं। सभी कभी- न-कभी बने हैं। यह उत्पादन-रजोगुण का काम है। कुछ काल तक ठहराव होता है। यह पालन करने का काम सतोगुण का है। फिर विनाश होता है। विनाश दो तरह के होते हैं-एक परिवर्तन और दूसरा अत्यन्ताभाव। यह तमोगुण का काम है। जिनको हम नहीं देखते हैं, उनको भी हम मानते हैं। इसके लिए भी यही बात है।
 वशिष्ठजी ने श्रीरामजी से कहा कि एक-एक ब्रह्माण्ड में तीन-तीन देव हैं-ब्रह्मा, विष्णु और शिव। उन्होंने एक कथा कही कि मैंने ब्रह्माजी से पूछा कि एक आप ही ब्रह्मा हैं कि और भी हैं? ब्रह्माजी ने कहा-‘अनेक हैं।’ मैंने कहा-‘कैसे मानूँ?’ तो ब्रह्माजी ने मुझसे कहा-‘मैं रास्ता बता देता हूँ। तुम जाओ।’
 वशिष्ठजी को ब्रह्माजी ने रास्ता बता दिया। वे उस रास्ते से चले। रास्ते में एक नारी मिली, जो रो रही थी। वशिष्ठजी ने उससे रोने का कारण पूछा, तो उसने बताया कि ब्रह्माजी ने मुझसे विवाह करने का वचन दिया था; परंतु अब वे इसके लिए तैयार नहीं हैं। वशिष्ठजी ने कहा कि मेरे पिताजी तो झूठ नहीं बोल सकते। नारी बोली-‘वे दूसरे ब्रह्माजी हैं।’ यह सुनकर वशिष्ठजी उस ब्रह्मा के पास गए और वचन देकर पुनः विवाह नहीं करने का कारण उनसे पूछा। वह ब्रह्मा बोले-‘इस ब्रह्माण्ड का अभी प्रलय होनेवाला है। इसके साथ मेरा भी प्रलय हो जाएगा। इसीलिए मैंने अस्वीकार किया है। आप शीघ्र यहाँ से भागिए, नहीं तो मेरे साथ आपका भी प्रलय हो जाएगा।’ यह सुनकर वशिष्ठजी शीघ्रता से उस ब्रह्माण्ड की सीमा से बाहर अपने ब्रह्माण्ड में चले आए। यहाँ आते ही उन्होंने देखा कि वह दूसरा ब्रह्माण्ड शीघ्र ही उस ब्रह्मा सहित प्रलय को प्राप्त हो गया।
 आपके यहाँ गंगा की धारा है। कहते हैं कि राजा बलि को परास्त करने के लिए और देवताओं को राज्य देने के लिए भगवान विष्णु ने वामन का रूप धरकर विराट् रूप दिखाया। उनके चरण की धोवन श्रीगंगाजी हैं।
 दूसरी कहानी है कि एक बार ब्रह्माजी को अहंकार हो गया कि मैं ही सबसे बड़ा हूँ। इसी भाव में वे विष्णु भगवान के यहाँ गए। भगवान विष्णु ने उनका आदर नहीं किया। उसी समय चतुर्मुखी ब्रह्मा ने देखा कि वहाँ अष्टमुख ब्रह्मा आए। तदुपरान्त सोलह मुखवाले ब्रह्मा पधारे। पुनः बत्तीस मुखवाले, फिर चौसठ मुखवाले, फिर सौ मुखवाले आए। इसी भाँति हजार मुखवाले ब्रह्मा भी आए। चतुर्मुखी ब्रह्मा सबसे पीछे पड़ गए। तदुपरान्त शिवजी पधारे। विष्णु भगवान के अनुरोध से शिव जी ने वहाँ ताण्डव नृत्य दिखाया। उस नृत्य और गान को देख-सुनकर विष्णु के सहित सभी ब्रह्माओं की आँखों से प्रेम के आँसू बहने लगे। वही अश्रुजल यह गंगाजी हैं। अनेक ब्रह्मा, विष्णु और शिव के होने के संबंध में संतों की वाणियों में भी हम पाते हैं; यथा-
  कोटि विष्णु अनंत ब्रह्मा, सदाशिव जेहि ध्यावहीं ।
  सोइ मिल्यो सहज सरूप केसो, आनंद मंगल गावहीं ।।
        -केशवदासजी
  कोटि हैं विष्णु जहँ कोटि शिव खड़े हैं ।
    कोटि ब्रह्मा तहाँ कथैं वाणी ।।
         -पलटू साहब
 अनेक ब्रह्मा, अनेक विष्णु और अनेक शिवजी हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने दूसरी तरह कहा है-
 राम काम सत कोटि सुभग तन ।
  दुर्गा कोटि अमित अरिमर्दन ।।
 सक्र कोटि सत सरिस विलासा ।
  नभ सत कोटि अमित अवकाशा।।
   मरुत कोटि सत विपुल बल,रवि सत कोटि प्रकाश ।
  ससि सत कोटि सु सीतल, समन सकल भव त्रास ।।
    काल कोटि सत सरिस अति, दुस्तर दुर्ग दुरन्त ।
    धूम केतु सत कोटि सम, दुराधरष भगवन्त ।।
प्रभु अगाध सत कोटि पताला। समन कोटि सत सरिस कराला ।।
तीरथ अमित कोट सत पावन। नाम अखिल अघ पूग नसावन।।
हिमगिरि कोटि अचल रघुवीरा।सिन्धु कोटि सत सम गंभीरा।।
कामधेनु सत कोटि समाना। सकल काम दायक भगवाना।।
सारद कोटि अमित चतुराई। विधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई।।
विष्णु कोटि सत पालन करता। रुद्र कोटि सत सम संघरता ।।
धनद कोटि सत सम धनवाना। माया कोटि प्रपंच निधाना।।
भार धरन सत कोटि अहीसा। निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा।।
अंत में चलकर कहा है कि-
निरुपम न उपमा आन, राम समान राम निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रवि, कहत अति लघुता लहै ।।
एहि भाँति निज निज मति विलास, मुनीस हरिहि बखानही ं।
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल, सप्रेम सुनि सुख पावहीं ।।
 यह कोटि-कोटि की उपमा वैसी ही हुई, जैसे सूर्य को करोड़ों जुगनुओं से उपमा दी जाय। राम सूर्य हैं और ये सभी जुगनू हैं। आकाश में आप तारे देखते हैं। ज्योतिषियों ने इनकी गणना की है हिसाब के लिए। कहा जाता है, ईश्वर ऐसा है कि जिसमें सभी के सभी समाए हुए हैं। यहाँ तक कि ‘नभ सत कोटि अमित अवकासा।’ समझिए कि क्या बात हुई। आकाश के अंदर तो सभी रहते हैं, लेकिन जिसके अंदर ‘नभ सत कोटि अमित अवकाशा’ है, वह कैसा है? मालूम होता है कि तुलसीदासजी ने सगुण भाव में बताया है, लेकिन वह निर्गुण है। वह परम पुरातन, परम सनातन है। आदि-अंत-रहित, उत्पन्न होने का सवाल ही जहाँ नहीं है, वह ऐसा होगा कि उसका आधार नहीं होगा। आधार पहले होता है और आधेय पीछे। वह परमात्मा सर्वाधार है। सब उसी के अंदर हैं और सबके अंदर वह है। उसी को ‘नभ सतकोटि अमित अवकासा’ और ‘अगुण अखण्ड अलख अज जोई’ कहा गया है। वही सगुण बन गया, ऐसा नहीं। गुणों को संग ले लिया। उन तीनों गुणों का आवरण कितना ही बड़ा क्यों न हो, पूर्णरूपेण उसको ढँक नहीं सकता। यह आवरण साम्यावस्था- धारिणी मूल प्रकृति का है। त्रयगुणमयी प्रकृति का विस्तार बहुत बड़ा है, उसको भी पार किए हुए जो है, उसी के लिए ही-
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
कहा गया है। बचपन से जो राम-राम, शिव-शिव कहते आए हैं-राम कहो वा शिव कहो, तुलसीकृत रामायण में शिव और राम दोनों का वर्णन है। जितना गुण राम का है, उतना ही गुण शिव का भी।
 नमामीशमीशान निर्वाण रूपम्,
   विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपम् ।
 अजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहम्,
   चिदाकाशमाकाश वासं भजेऽहम् ।।
 ईश्वर अनेक नहीं हो सकते। जैसे इस्लाम और क्रिश्चियन धर्मालम्बी हमको कहते हैं कि हिन्दू धर्म तुम्हारा है। मैं कहता हूँ कि हिन्दू धर्म तुमने कहाँ सुना? वे कहते हैं कि तुम अपने को हिन्दू कहते हो, इसीलिए मैं भी हिन्दू कहता हूँ। हिन्दू का अर्थ बड़ा खराब है, फारसी के शब्दकोश में देखो। हमारा धर्म वैदिक धर्म है। हम वैदिक आर्य हैं-ऐसा कहो। ‘हिन्दू’ शब्द हमको अपमानित करता है। वैदिक धर्म को जो ‘हिन्दू धर्म’ कहते हैं, यह अनुचित है। पुरैनियाँ जिला साहित्य सम्मेलन की सभा में भी मैंने कहा था-‘आज देश का नाम भारत है, हम अपने को वैदिक आर्य कहें वा भारतीय कहें, सरकार कुछ नहीं कहेगी। ‘हिन्दू’ की भाषा हिन्दी है। भाषा का ‘हिन्दी’ नाम मुझे अच्छा नहीं लगता। ‘भारती’ इसका नाम दें, तो अच्छा-ही-अच्छा। ‘हिन्दू’ धर्मावलंबी कहकर अपने को जनावें, इसमें हमको बहुत दुःख होता है।
 संतमत वैदिक धर्म का वह अंग है, जो ईश्वर-प्राप्ति का ज्ञान देता है। अन्य धर्म के लोग कहते हैं कि आप तो बहुत ईश्वरों को मानते हैं। मैं कहता हूँ, हम तो एक ईश्वर को मानते हैं। फिर वे कहते हैं-‘आप तो राम को, शिव को, देवी आदि कितने को ईश्वर कहते हैं।’ मैंने कहा कि सब रूपों में वह एक-ही-एक है। अच्छा कहिए, यह आपका जिस्म है? आप यह क्या पूछ रहे है! उन्होंने कहा। मैंने कहा-‘आप कहिए तो सही।’ उन्होंने कहा-‘हाँ, यह मेरा जिस्म है।’ मैंने कहा-‘यह आपका जिस्म क्यों है?’ वे चुप रहे। मैंने कहा- ‘इसलिए न, कि इस जिस्म में आप रहते हैं?’ उन्होंने कहा-‘हाँ।’ मैंने कहा-‘एक जिस्म में आप रहते हैं, तो वह जिस्म आपका है और जो सब जिस्मों-रूपों में रहता है, तो इस न्याय से सब जिस्म-सब रूप उसके क्यों नहीं होंगे?’
 ईश्वर को मोहितेकुल्ल (सर्वव्यापक) कहते हैं। ईश्वर सबमें है। आप एक शरीर में रहते हैं, तो आप उसको अपना रूप कहते हैं, उसी तरह जो सभी शरीरों में है, वे सब रूप उसके हैं। जो सबमें व्यापक है, वह इस नेत्र से ग्रहण होने योग्य नहीं है। वह अनादि, अनंत, असीम है, वह एक है। अनेक रूपों में रहते हुए वह एक ही है। गंगाजी के जल में अनेक बुदबुदे निकलते हैं, सभी गंगाजी के जल ही हैं। परमात्मा से सभी उत्पन्न होते हैं। परमात्मा एक ही हैं। वह आप-ही-आप है, तो कोई उसका सहारा नहीं है। जो सबसे प्राचीन होता है, वह अवकाश छोड़े बिना होता है। अवकाश छोड़कर रहे, तो पहले अवकाश ही होगा। जो सबके अंदर और सबके बाहर भी है, वह परमात्मा है। ‘है सबमें सबही तें न्यारा’-कबीर साहब। गुरु नानक ने आगे कहा है-
अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु ।
ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।आदि।
 अगर कोई तर्क करता है कि ईश्वर नहीं है, तो मैं प्रश्न करता हूँ कि एक अनादि-अनंत तत्त्व को मानते हो कि नहीं? यदि नहीं मानोगे तो सभी को सादि-सान्त कहना पड़ेगा, तो प्रश्न होगा कि उन सादि-सान्तों के परे क्या है? इसके उत्तर में जबतक अनंत नहीं कहा जाए, तबतक इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर नहीं हो सकता। सान्तों का बड़े-से-बड़ा मंडल बना लो, फिर भी उसका मण्डल सान्त ही होगा। सूर्य-चन्द्र, सारा ब्रह्माण्ड सान्त ही सान्त है। अनेक ब्रह्माण्ड भी अनंत नहीं होते। विराट रूप भी अनंत नहीं है।
 सीताजी की खोज के लिए जब बड़े-बड़े वानर चले और समुद्र के किनारे पहुँचते हैं, भूख-प्यास से विकल होते हैं, उस समय एक विवर से एक पक्षी को निकलते और फिर उसमें प्रवेश करते देखा। ऐसा देखकर सभी बन्दरों ने एक दूसरे का हाथ पकड़कर उस गुहा में प्रवेश किया। वहाँ एक तपस्विनी तेजयुक्त माई को देखा। उस तपस्विनी ने उन बन्दरों को फल खाने और जल पीने का आदेश दिया, आँखें बंद करने के लिए माई ने कहा। आँखें बंद करने के बाद आँखें खोलने पर फिर सबों ने अपने को समुद्र के किनारे पाया। अब उस समुद्र को कौन पार करे? जाम्बवन्त ने कहा-‘जिस समय मैं जवान था, विराट् रूप भगवान की मैंने दो घड़ी में सात प्रदक्षिणा की थी, लेकिन अब तो मैं बूढ़ा हो गया हूँ।’ इससे जाना जाता है कि वह विराट् रूप भी अनंत नहीं था। कुरुक्षेत्र के मैदान में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो विराट् रूप दिखाया था, वह भी अनंत नहीं था; क्योंकि उस विराट् रूप के अतिरिक्त स्थान बचा था, जिसमें कौरव-पाण्डव दल के लोग भगवान के मुँह में प्रवेश करते थे और मर-मर कर गिरते थे। अर्जुन भी एक जगह खड़ा होकर डर रहा था। अनादि-अनंत तत्त्व ही असीम होगा, सारे सांतों के पार में एक अनंत को नहीं मानने से नहीं बनता। ईश्वर-स्वरूप को जाने बिना ईश्वर-भक्ति करनी हैरानी मात्र है, जैसे निर्दिष्ट स्थान को जाने बिना कोई यात्रा करता है। गुरु नानक ने कहा है-
 राज महि राज योग महि योगी ।
   तप में तपीसुर गृहस्थ महिं भोगी ।
 ध्याय ध्याय भक्तः सुख पाया ।
  नानक तिस पुरुष का किन अंत नहीं पाया ।।
 तुम ईश्वर का ध्यान करो, ईश्वर तक पहुँचोगे, लेकिन उसका अंत नहीं पाओगे।
 श्रीमद्भगवद्गीता में तीन पुरुषों का वर्णन हुआ है। क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष, और पुरुषोत्तम। जड़-अपरा प्रकृति नाशवान है। दूसरी परा प्रकृति है, जो चेतनात्मिका है, इसका नाश नहीं होता, पर ससीम है, जड़ से पृथक पदार्थ है। नाशवान क्षर पुरुष, अनाश अक्षर पुरुष है। परमात्मा क्षर और अक्षर से, सत् और असत् से, नाशवान और ससीम अनाश से भी ऊपर है, वही पुरुषोत्तम है। इस पुरुषोत्तम पुरुष को जानो। उस तक पहुँचने का यत्न खोजो। तुम भक्त बनो, नहीं तो नाशवान पदार्थों के बीच में रहते हुए ऊँचे-नीचे लोकों में भ्रमते रहोगे, आवागमन के चक्र में पड़े रहोगे।
 ईश्वर की खोज बाहर में करने की जरूरत नहीं। अंदर में खोज करो। परमात्मा इन्द्रियातीत है। इसलिए बाहर में नहीं पहचान सकोगे। अंदर- अंदर चलनेवाला इन्द्रिय ज्ञान से छूटता है, चौथी अवस्था के शिखर पर पहुँचता है, कैवल्य दशा प्राप्त करता है, वही ईश्वर को जानने का अधिकारी है।
      ‘विगत विकार जान अधिकारी ।’
 ‘हे नेरे सूझत नहीं, ल्यानत ऐसो जिन्द ।
  तुलसी या संसार को, भयो मोतियाबिन्द ।।’
        -गोस्वामी तुलसीदासजी
 यह कैसे छूटेगा? गुरु नानकदेव ने कहा-
    घरि महि घरु देखाइ देइ सो सतगुरु परखु सुजाणु ।
    पंच सबदु धुनिकार धुन तहँ बाजै सबदु निसाणु ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
मायाबस मति मन्द अभागी। हृदय जवनिका बहु विधि लागी।।
ते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अज्ञान राम पर धरहीं।।
  काम क्रोध मद लोभ रत, गृहासक्त दुख रूप ।
 ते किमि जानहिं रघुपतिहिं, मूढ़ पड़े तम कूप ।।
 अपने को अंधकार के कुएँ से निकालो, तब काम-क्रोधादि विकार घटते-घटते घटेंगे और परमात्म- स्वरूप का दर्शन होगा। ईश्वर इन्द्रियातीत है, आत्म- गम्य है। जिस इन्द्रिय का जो विषय है, उसके अति- रिक्त दूसरे विषय को वह ग्रहण नहीं कर सकती। आँख का विषय कान से और कान का विषय नाक से नहीं ग्रहण हो सकेगा। आँख का विषय आँख से और कान का विषय कान से ही ग्रहण होगा।
 परमात्मा क्या है? जो चेतन आत्मा से ग्रहण हो। जैसे रूप विषय क्या है? जो तुम आँख से ग्रहण करो। आत्मगम्य परमात्मा पुरुषोत्तम है। तुम तबतक उसको नहीं पकड़ सकते, जबतक तुम शरीर-इन्द्रिय में फँसे हो। शरीर-इन्द्रिय से छूटने पर ही परमात्मा को प्राप्त कर सकते हो। बाहर में कितना उपाय करो, प्राप्त नहीं कर सकते। मीराबाई का एक शब्द है-
  ऊँची अटरिया लाल किवड़िया निर्गुण सेज बिछी ।।
  पचरंगी झालर शुभ सोहै, फूलन फूल कली ।
  बाजूबन्द कडूला सोहै, माँग सिन्दूर भरी ।।
  सुमिरण थाल हाथ में लीन्हा,शोभा अधिक भली ।
  सेज सुखमणा ‘मीरा’ सोवै, शुभ है आज घड़ी ।।
जैसे ईशावास्योपनिषद् में है-
 हिरण्मयेन पात्रेण सत्यास्यापिहितं मुखम् ।
 तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्य धर्माय दृष्टये ।।
 अर्थात् आदित्य मण्डलस्थ ब्रह्म का मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढँका हुआ है। हे पूषण! मुझ सत्यधर्मा को आत्मा की उपलब्धि कराने के लिए तू उसे उघाड़ दे।
 साधक अपने अन्दर पाँच तत्त्वों के रूप देखता है। पृथ्वी का रंग पीला, जल का रंग लाल, अग्नि का रंग काला, वायु का रंग हरा और आकाश का रंग साफ है। ‘फूलन फूल कली’ का अर्थ है-मण्डल खुल गया। बाजूबन्द अर्थात् शम और कडूला अर्थात् दम। तात्पर्य यह कि दम इन्द्रियनिग्रह और शम मनोनिग्रह है। मीरा कहती है कि इन्द्रियनिग्रह और मनोनिग्रह युक्त हो जाओ, तो मूर्द्धा में प्रकाश- ही-प्रकाश देखोगे। सिंदूर लाल रंग का होता है, लाल रंग प्रकाश का है। मीरा सुषमना की सेज पर सोती है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण; एक पर से एक उतारो, पवित्र हो जाओगे। इस प्रकार कर लेने पर अपरा प्रकृति मंडल के बहुत से शब्दों को सुनोगे। यह रास्ता बहुत बारीक है। ईसा मसीह अच्छे साधु थे, उन्होंने कहा है-‘सकेत फाटक से प्रवेश करो; क्योंकि चौड़ा है वह फाटक और चाकर है वह मार्ग, जो विनाश को पहुँचाता है और बहुत हैं, जो उसमें पैठते हैं। वह फाटक सकेत है और वह मार्ग सकरा है जो जीवन को पहुँचाता है और थोड़े हैं, जो उसे पाते हैं।’
 राम भगति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म विचार प्रचारा ।।
 विधि निषेधमय कलिमय हरनी। करम कथा रविनंदिनी बरनी ।।
 कहते हैं कि सरस्वती नदी अंतःसलिला है। इड़ा-पिंगला गंगा-यमुना है और सरस्वती सुषुम्ना है। सुषुम्ना में सेज लगाना शुभ घड़ी है। कबीर साहब को कैसे ज्ञान हुआ, इस पर उन्होंने स्वयं कहा है-
 कबीर काया समुँद है, अंत न पावै कोय ।
 मिरतक होइ के जो रहै, मानिक लावै सोय ।।
 मैं मरजीवा समुँद का, डुबकी मारी एक ।
 मुट्ठी लाया ज्ञान की, जामें वस्तु अनेक ।।
 केवल पढ़ने से क्या होता है? पढ़ने का महत्त्व तब है, जबकि उसके अनुकूल चला भी जाय। विद्या पढ़ने से मनाही भी नहीं। विद्या भी पढ़ो और साधन भी करो। तत्त्व क्या पाना है, उसके लिए यत्न करो।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद के सिविल लाईन स्थित सत्संग भवन के प्रांगण में दिनांक 30.9.1963 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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193. पिण्डी मन की धारों को समेटो
प्यारे प्रिय दर्शनो!
 किसी को कोई काम करना होता है और उसके लिए उसको कुछ सहारा मिलता है, तो वह बहुत प्रसन्न होता है और काम कर लेता है। ईश्वर-दर्शन सत्संग का सर्वश्रेष्ठ विषय है। इसका सहारा कुछ मिल जाय तो बहुत अच्छा हो। यहाँ ईश्वर-दर्शन के लिए पूजा-पाठ, कीर्तन आदि जितने करते हैं, इनमें से कोई ऐसा सहारा नहीं है, जो हम जानें कि अपने से आप ईश्वर प्रदत्त सहारा मिल रहा है। हमलोग अपनी श्रद्धा के अनुकूल प्रतिमाओं का दर्शन करते हैं और समझते हैं कि यह सहारा है। इससे भी कोई विशेष चीज मिले जो हमारी बनाई नहीं हो, स्वयं ईश्वरकृत हो तो विशेष सहारा जानने में आवे। ईश्वर बाह्य इन्द्रिय का विषय नहीं है, मन बुद्धि आदि का भी विषय नहीं है, चेतन आत्मा का विषय है। हमलोगों को यदि चेतन आत्मा का ज्ञान हो कि वही हम हैं तो हमलोग उस सहारे को पहचान सकते हैं।
 मन में चेतन आत्मा दूध में घीउ की तरह सम्मिलित है। जहाँ मन होगा, वहीं चेतन आत्मा होगी। मन सहित चेतन आत्मा इस शरीर में है। शरीर के अंदर में ही वह सहारा मिले तो बड़ा अच्छा हो। पहले ही मन को चेतन आत्मा से फुटाया नहीं जाता, इसलिए पहले स्थूल र्चिं लेते हैं। सो भी एक नहीं, किसी की श्रद्धा राम में, किसी की श्रद्धा कृष्ण में, किसी की श्रद्धा गुरु में, किसी की श्रद्धा देवी में, किसी की श्रद्धा शिव में आदि। ये सब-के-सब बाह्य इन्द्रिय के सहारे मन से पकड़ते हैं और उसको अपना सहारा कहते हैं। परंतु जब केवल चेतन आत्मा रहे, मन बुद्धि आदि इन्द्रिय नहीं रहे, तब परमात्म-स्वरूप को ग्रहण कर सकते हैं। जो मन बुद्धि आदि इन्द्रिय से ग्रहण नहीं हो, वह स्वरूप कैसा है? गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
 अनुराग सो निजरूप जो जग तें विलच्छन देखिये ।
 संतोष सम सीतल सदा दम देहवन्त न लेखिये ।।
 निर्मल निरामय एकरस तेहि हरष सोक न व्यापई ।
 त्रय लोक पावन सो सदा जाकी दसा ऐसी भई ।।
 चेतन आत्मा बूढ़ा, बच्चा, जवान नहीं होती। यह चेतन स्वरूप है, इसका सहारा कैसा होना चाहिए? इसका सहारा बाहर में हो, ऐसा नहीं। लोगों ने अपने अंदर की खोज की, जैसे उपनिषद् के ऋषि लोग। और वेद की आज्ञा के अनुकूल जिन्होंने प्राप्त किया, वह है अंतर्ज्योति और अंतर्नाद। परमात्मा की ज्योति और नाद तुम्हारे अंदर है, ये सहारे मनुष्यकृत नहीं, ईश्वरकृत हैं। अंदर प्रवेश करो, पाओगे। वेद में है, अंतर्नाद आत्मा का पापशोधक नाद है। साधक चमकती हुई ज्योति को अपने अंदर पाते हैं। अपने अंदर ज्योति और नाद नहीं है, इसके माननेवाले को समझना चाहिए कि बिना प्रकाश के हम बाहर की चीज को नहीं देख सकते। जातीय पदार्थ को जातीय पदार्थ से सहारा मिलता है। यदि हमारी दृष्टि ज्योति की जाति की नहीं होती तो बाहर की ज्योति का सहारा नहीं मिलता। दूसरी बात है कि साधक अंधकार में ध्यान करता है, उसको प्रकाश मालूम होता है। यह ऐसा प्रकाश है कि संसार के सभी प्रकाश और सभी खूबसूरतियाँ किसी काम की नहीं रहती। उस प्रकाश के सामने यह सूर्य भी अंधकार है। जो करके देखने की चीज है, उसको बिना किए कोई कैसे अनुभव कर सकता है। अंदर में प्रत्यक्ष प्रकाश है, इसको करके देखो तो विश्वास होगा। हमारी दृष्टि जो ज्योति स्वरूप है, अपने अंदर के प्रकाश को देख ले तो उसका मुकाबला कोई खूबसूरत नहीं कर सकता। जिस रूप में तेज नहीं है, वह भद्दा लगता है। ‘जिमि बिनु तेज न रूप गोसाईं’ मृतक शरीर में से ज्योति निकल जाती है, तब वह पहले जैसा सुन्दर नहीं लगता। इस शरीर में ज्योति अवश्य है।
 मन ही सन्मुख नूर है, मन ही सन्मुख तेज ।
 मन ही सन्मुख जोति है, मन ही सन्मुख सेज ।।
     -संत दादू दयालजी
  इस शरीर में मन अपना स्थान कहीं अवश्य रखता है। आँख के अंदर उसका वासा है। दायीं- बायीं आँखों के बीच अंतरस्थित शिवनेत्र में इसका निवास है। इसके सामने ज्योति है।
 मन ही सौं मन थिर भया, मन ही सौं मन लाइ ।
 मन ही सौं मन मिलि रह्या, दादू अनत न जाइ ।।
 पिण्डी मन की धारों को समेटो और उसके केन्द्र में उसको लय करो। इसका यत्न जानो और अभ्यास करो, तब मन स्थिर होगा। मन की स्थिरता में सब काम बन जाएगा। सूरदासजी ने कहा है-
 नयन नासिका अग्र है, तहाँ ब्रह्म को वास ।
 अविनाशी विनसै नहीं, हो सहज ज्योति प्रकाश ।।
बाबा नानक ने कहा है-
 घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई।
 बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई।।
 निडर ध्यान लगाओ, अंधकार का बज्र कपाट खुल जाएगा। ईश्वर की ज्योति जो सब में समाई है, देखोगे। सारे संसार में देखिए क्या खेल है? संसार से प्रकाश को हटाइए तो कोई काम नहीं होगा। सूर्य हट जाएगा तो गरमी हट जाएगी, कोई काम नहीं हो सकेगा। शब्द को बचपन से, जवानी और बुढ़ापे तक सीखते हैं। कठिन से कठिन काम शब्द से होता है। अभी चीन से अनबन हो गया है और यदि शब्द से लिखकर वा बोलकर मेल हो जाय तो सारा अनबन मिट जाएगा।
 ईश्वर की उपासना में भी शब्द और प्रकाश का सहारा है। वह प्रकाश भौतिक प्रकाश से भिन्न प्रकार का है। ईश्वर प्रकाश स्वरूप है, अंधकार स्वरूप नहीं। ऐसा नहीं कि कोई अभ्यासी अपने अंदर सूर्य, चन्द्र, तारे नहीं देखता। अभ्यासी अपने अंदर में प्रकाश देखता है तो उसके लिए बाहर का प्रकाश फीका पड़ जाता है। यत्न करके इनको देखना चाहिए।
 ईश्वर के प्रेमियो! केवल बाहर-ही-बाहर ईश्वर को नहीं खोजो। बाहर-बाहर खोजने के बाद अन्दर-अन्दर भी खोज करो। बिना किसी के सिखाए आप एक अक्षर भी नहीं लिख सकते। बुद्ध भगवान ने कहा है-‘ज्ञानी केवल सिखानेवाले हैं, करना तुमको ही पड़ेगा।’ (तुम्हेहि किच्चमातप्तं अक्खातारो तथा गतो-धम्मपद, मग्गवगो)। अपना सिमटाव करो, जहाँ मैंने बताया है। सदग्रंथ, गुरु का वाक्य और अपना विचार मिल जाय तो कितना विश्वास होगा! गुरु नानक ने कहा है-‘अंतरि जोति भई गुरु साखी चीनै रमा करंमा।’ अंतर में प्रकाश हुआ, यह गुरु की गवाहीं है और तब गुरु के दयादान को पहचाना। इस सहारा को पकड़ो। जो इसको पकड़ता है, वह विषयानन्द में नहीं दौड़ता। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
   ब्रह्म पियूष मधुर शीतल, जो पै मन सो रस पावै ।
   तो कत मृगजल रूप विषय, कारण निसि वासर धावै ।।
 विषय-रस में जो दौड़ता है, इसका मतलब है कि ब्रह्म-पीयूष उसको मिला नहीं है। मनुष्य अपने अंदर अभ्यास करके ब्रह्मज्योति और ब्रह्मनाद को प्रत्यक्ष देख सुन सकता है, यही सहारे हैं। संतों की वाणियों में हम यही बात पढ़ते हैं। क्या वेद, और क्या उपनिषद् ज्ञान, सबमें यह बात है। आज भी जो करते हैं, उनको र्चिं मिलता है। भजन करने की भी शक्ति होती है। जो अभ्यास को बढ़ा लेते हैं, उसको र्चिं देखने में आता है। जो बाह्य दृष्टि से कुछ देखना चाहता है, वह नहीं देख सकता। अंतर्दृष्टि करो, तब देखने में आवेगा। आँख बंद करो, मानसिक रचना को छोड़ो। बाहर का देखना छोड़ो, अंतर में दृष्टि रखो, तब देखने में आवेगा कि अंदर में क्या है। पवित्रता से रहो, ईश्वर-भजन करो। श्रवण, मनन और साधन होना चाहिए। इसमें बल पाने के लिए सदाचार का पालन आवश्यक है। सदाचार पालन के बिना अंतर्ज्याति और अंतर्नाद को कोई नहीं पा सकता। कबीर साहब ने कहा है-
   गगन की ओट निशाना है ।
   दहिन े सूर चंद्रमा बायें, तिनके बीच छिपाना है ।।
   तन की कमान सुरत का रोदा, शब्द बान ले ताना है ।
   मारत बान बिंधा तन ही तन, सतगुरु का परवाना है ।।
   मारयो बान घाव नहिं तन में, जिन लागा तिन जाना है ।
   कहै कबीर सुनो भाई साधो, जिन जाना तिन माना है ।।
 उस निसाने को कौन पावेगा? तन की कमान और सुरत की डोरी बनाओ जिसकी इन्द्रियाँ बेकाबू हैं, उसकी डोरी खुली हुई है। उसपर से तीर नहीं छूट सकता। तमाम शरीर में जो चेतन की धार बिखरी है, उसको केन्द्र में केन्द्रित करो, जहाँ गुरु ने बताया है। उस निशाने पर जो कोई ख्याल रखता है, तो मन की सब धारें एक जगह स्थिर होती हैं। जैसे दोनों हाथों से किसी चीज को बहुत मजबूती से (पूरा बल से) पकड़ने से शरीर का सारा बल उस ओर हो जाता है।
 गुरु नानक ने कहा है-‘बेड़ा बाँधो सुरत का चढ़ि उतरो भवजल पार।’ सुरत का बेड़ा बनाओ। यदि यत्न जानते हैं तो कीजिए। नहीं जानते हैं तो किसी से जानकर कीजिए। सदाचार से इसके अभ्यास करने में बल मिलता है। जिसका मन विषयों में लगा रहता है, उसको बल नहीं मिलता। सदाचार के पालन में वैराग्य होता है। विषयों को ग्रहण नहीं करने से वैराग्य होता है। जो अंतस्साधन करता है, इन्द्रियों से चेतनधारा खि्ांचकर केन्द्र में केन्द्रित करता है, तो उसको जो रस मिलता है, उसको बाहर का सब रस फीका पड़ जाता है। इसलिए ‘नव दरवाजे नवेदरफीके रस अमृत दशवें चुअीजै।’
 चाहे बाबू साहब का कपड़ा पहनकर, चाहे लंगोटी पहनकर करो। विद्वान करो, अविद्वान करो। स्त्रियाँ करो, पुरुष वर्ग करो। सभी देश और सभी जाति के सभी कोई इसका अभ्यास करें। इसमें शरीर को तोड़ने-मरोड़ने की जरूरत नहीं है। कबीर साहब ने कहा है-
 न जोगी जोग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै ।
 सहज में ध्यान से पावै, सुरति का खेल जेहि आवै ।।
 इस विषय को थोड़ा-थोड़ा ही सुनना चाहिए। यह कोई कथा नहीं है, सैर नहीं है, जिसमें अधिक मन लगे। अधिक सुनने से भी क्या फायदा, यदि उसमें से करने योग्य कर्मों को नहीं किया।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद के सिविल लाईन स्थित सत्संग भवन के प्रांगण में दिनांक 1.10.1963 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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194. भाठा से सीरा चलो
प्यारे प्रिय दर्शनो !
 मैं ईश्वर-भक्ति के विषय पर कहता चला आ रहा हूँ। अभी जो कुछ और कहना चाहिए समयानुकूल वही कहूँगा। ईश्वर-भक्ति करने के लिए पहले ईश्वर की स्थिति का ज्ञान, उसके स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। फिर किस साधन से उसकी प्राप्ति होती है, जानना चाहिए। यह प्राप्ति शरीरयुक्त आत्मा को वा केवल चेतन आत्मा को होती है? इन सब बातों पर मैं अभी कहूँगा। ईश्वर की स्थिति के बारे में समझिए कि उसके पहले का कुछ नहीं है। जो परम प्राचीन है, वही ईश्वर है। ईश्वर से पहले का कुछ मान लेने में बड़ी गलती होगी। ईश्वर से परे का जो होगा, वह ईश्वर के काबू का नहीं होगा। लेकिन ईश्वर के काबू से बाहर कुछ है, ऐसा मानना भूल है। आज विद्या के मैदान में यह भी प्रचार हो रहा है कि ईश्वर कुछ नहीं है। वे तर्क से मानते हैं, श्रद्धा से नहीं मानते। मैं तर्क पर ही कुछ कहता हूँ। जो अनीश्वरवादी हैं, जिनका तर्क केवल बौद्धिक है, उसके लिए कहता हूँ। आप दार्शनिक वा फ्लासफर वा वैज्ञानिक कुछ हो, यह बताओ कि सबसे पहले का कुछ मानते हो वा नहीं? सबसे पहले का कुछ होना आवश्यक है। सबसे पहले के जिस कुछ को मानना चाहिए,वही ईश्वर है। सबसे पहले का जो होगा, उसके अतिरिक्त कुछ अवकाश छूटे, ऐसा नहीं होगा। जो सबसे पहले का होगा, वह किसी अवकाश में किसी आधार पर नहीं रहेगा। जहाँ वह नहीं हो, ऐसा स्थान नहीं होगा। अर्थात वह आदि-अंत रहित अनंत, अखण्ड होगा। उपनिषद् पाठ करके वा वेद संहिताओं को पाठ कर जानो तो मालूम होगा कि परमात्मा अखण्ड,अनंत असीम है। इसके अतिरिक्त किसी और परम प्रचीन का होना, असंभव है। सभी इसके अंदर रहेंगे। जो अंदर में होगा, वह उसके प्रभाव और अधीन में होगा। जो उसके अधीन में है, तो वह उसका ईश्वर है। इन्द्रियों को ग्रहण होने योग्य पदार्थ नाशवान है, ईश्वर अनाश है। जो सबसे विशेष व्यापक होता है, वह सबसे विशेष सूक्ष्म होता है। जो जितना सूक्ष्म होता है, वह उतना ही अधिक व्यापक होता है। एक सेर बर्फ की व्यापकता से उसके जल की और उस जल की व्यापकता से उसके वाष्प की व्यापकता अधिक होगी। जो जितना अधिक व्यापक होगा, वह उतना ही सबसे अधिक सूक्ष्म होगा। स्थूल यंत्र से सूक्ष्म पदार्थ का ग्रहण होना नहीं होता। परमात्मा सबसे विशेष सूक्ष्म है, उसको इन्द्रियों, बुद्धि और मन से नहीं पा सकते। क्योंकि ये बहुत पीछे बने। परमात्मा के समक्ष ये अत्यन्त स्थूल हैं। परमात्म-स्वरूप के लिए संतों के ये वचन हैं-
  श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
 सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
 चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
 चून चगून वजूद न मानु तैं सुभानमूना ऐना ।।
 जैसे ऐना सब दरसावै जो कुछ वेष बनावै ।
 ज्यों अनुमान करै साहब को त्यों साहब दरसावै ।।
 जाहि रूह अल्लाह के भीतर तेहि भीतर क े ठाईं ।
 रूप अरूप हमारि आस है हम दूनहुँ के साईं ।।
 जो कोउ रूह आपनी देखा सो साहब को पेखा ।
 कहै कबीर स्वरूप हमारा साहब को दिल देखा ।।
                                                 - कबीर साहब
अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु ।
ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।
ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु काम न नारी ।
अकुल निरंजन अपर परंपरु सगली जोति तुमारी ।।
घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ।
बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।।
जंत उपाइ कालु सिरिजंता बसगति जुगति सवाई ।
सतिगुरु सेवि पदारथु पावहि छूटहि सबदु कमाई ।।
सूचै भाडै साचु समावै विरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।। -गुरु नानक साहब
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
        -गोस्वामी तुलसीदासजी
    इसी ईश्वर को उपनिषद् में आत्मा कहकर वर्णन किया गया है। उपनिषद् में ऐसा भी लिखा है कि-
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
       -कठोपनिषद् , अध्याय 2, वल्ली 2
 अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अंतरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
 उसको ग्रहण करने योग्य बाह्य इन्द्रिय नहीं है। इन्द्रियाँ उसकी बराबरी में स्थूल-से-स्थूल हैं। स्थूल इन्द्रिय से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता। इस शरीर के अंदर और क्या है? पाँच स्थूल तत्त्व (मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), पाँच सूक्ष्म तत्त्व (रूप, रस,गंध, स्पर्श और शब्द), अहंकार, बुद्धि, प्रकृति, दशेन्द्रियाँ (हाथ, पैर, मुँह, गुदा, लिंग; ये कर्मेन्द्रियाँ और आँख, कान, नाक, जिह्ना और त्वचा; ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ), मन चैतन्य, संघात (कहे गए का संघरूप), धृति (धारण करने की शक्ति) और इनके विकार-इच्छा, द्वेष, सुख और दुःख-इन इकतीस तत्त्वों के समुदाय को सविकार क्षेत्र कहते हैं। इनके अतिरिक्त क्षेत्र को जाननेवाला चेतन आत्मा क्षेत्रज्ञ है। इसी के बल से मन,बुद्धि में बल है। इसके बिना मन, बुद्धि से कुछ हो भी नहीं सकता और बाह्य इन्द्रिय तो और क्या कर सकती है? चेतन आत्मा से ही परमात्म- स्वरूप जाना जाता है, पहचाना जाता है, इसको कभी मत भूलो। इसको जो नहीं जानता है वह, जिसको ईश्वर नहीं कहना चाहिए, उसको ईश्वर कहकर मानता है। क्षेत्रज्ञ ही आत्मतत्त्व है। क्षेत्र का कोई टुकड़ा नहीं। आँख को रूप देखने का ज्ञान है, कान का विषय नाक का विषय नहीं हो सकता। एक-एक इन्द्रिय का एक-एक विषय है। चेतन आत्मा का विषय परमात्मा की प्राप्ति है। शरीर में रहकर चेतन आत्मा शरीर को जानती है, अपने आप को नहीं। तत्त्वरूप में चेतन आत्मा वैसी ही है जैसे परमात्मा। परमात्मा का यह अभिन्न अंश है।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी । चेतन अमल सहज सुखराशी ।।
 आँख को जैसे आँख से ही पहचानते हैं, बीच में आइने का साधन लेकर। उसी तरह चेतन आत्मा अपने को और परमात्मा को पहचानती है। इस तरह परमात्मा का ज्ञान जानना चाहिए। इसको जो भूल गया, वह वैसा ही है, जैसे कि कोई यात्री निर्दिष्ट स्थान को नहीं जानकर केवल यात्रा-ही- यात्रा करता है। किंतु जो निर्दिष्ट स्थान को जानकर चलेगा, वह अवश्य वहाँ पहुँचेगा। उस ईश्वर की भक्ति हम कैसे करें? यहाँ तो हम मन-बुद्धि का संग होकर ही कुछ कर सकते हैं। हमने जान लिया कि हम शरीर-इन्द्रिय से परे हैं। फिर भी बिना शरीर-इन्द्रिय के हम यहाँ कुछ कर नहीं सकते। फिर उस अव्यक्त परमात्मा में अपने को हम कैसे लगावें? मैं कहता हूँ, महाभारत की एक कथा सुनिए-
 महाभारत के मैदान में पाण्डव पाँच भाई बचे और दुर्योधन वगैरह सभी मारे गए। बहुत दुःख की बात हुई कि घर में और पुरुष लोग कोई नहीं रहे, विधवा स्त्री-ही-स्त्री घर में रह गई। युधिष्ठिर बहुत दुःखी हुए और वे कहने लगे कि इस तरह के राज्य-भोग से जंगल में जाना ही अच्छा है। विधवाओं के करुण-क्रन्दन को सुनने की अपेक्षा जंगल के जन्तुओं की आवाज सुनना ही अच्छा है। इस तरह युधिष्ठिर को बहुत दुःखी देखकर व्यासदेवजी ने उनको बहुत समझाया और उनको यज्ञ करने कहा। युधिष्ठिर बोले-मेरे पास धन कहाँ, जो मैं यज्ञ करूँ? अधीनस्थ राजाओं के धन भी इसी युद्ध में समाप्त हो गए। व्यासदेवजी ने कहा-मैं तुमको बताता हूँ-राजा मरुत ने यज्ञ किया था और ब्राह्मणों को दान दिया था। वह धन इतना अधिक था कि वे लोग सब ले जा न सके। वह धन हिमालय की अमुक जगह में गड़ा है। वहाँ जाने का अमुक रास्ता है, उस रास्ते से जाओ तो वहाँ धन मिलेगा और तुम उसे ले आकर यज्ञ करो। पाँचो भाई पाण्डवों ने व्यासदेवजी के वचन में विश्वास किया। व्यासदेवजी के बताए अनुष्ठान से अव्यक्त धन में मन लगाकर कर्म किया और व्यासदेवजी के बताए मार्ग से चलकर उस अव्यक्त धन को प्राप्त कर यज्ञ किया।
 इसी तरह संतों के वचन में विश्वास करके और यह जानकर कि उपर्युक्त अव्यक्त परमात्म- स्वरूपी केवल चेतन से आत्मगम्य है और तीन अवस्थाओं में रहते हुए मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों का ज्ञान होता है, इसीलिए चौथी अवस्था में उससे भिन्न ज्ञान होना चाहिए। अतएव तीनों अवस्थाओं के आगे चौथी अवस्था में पहुँच होनी चाहिए।
  तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त ।
  मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनंत ।।
           -गोस्वामी तुलसीदासजी
 चौथी अवस्था में जाकर संसार और शरीर का ख्याल नहीं रहता है। बहिर्मुख से अंतर्मुख होने का यत्न गुरु से जो जानता है और करता है तो केन्द्र में केन्द्रित होता है। उसको ज्योति मिलती है और ज्योति मिलने पर फिर नाद की अनुभूति होती है। ‘न नाद सदृशो लयः।’-शिवसंहिता
 मन में बहुत तरंग है, सभी तरंग नाद में समाप्त होते हैं। नादविन्दूपनिषद् में लिखा है-
 मकरन्दं पिबन्भृंगो गंधान्नापेक्षते यथा ।
 नादासक्तं सदाचित्तं विषयं न हि कांक्षति ।।
 बद्धः सुनाद गन्धेन संत्यक्त चापलः ।।
 अर्थात् जिस प्रकार मधुमक्खी मधु को पीती हुई उसकी सुगंध की चिन्ता नहीं करती है, उसी प्रकार चित्त जो नाद में सर्वदा लीन रहता है, विषय चाहना नहीं करता है। क्योंकि वह नाद की मिठास में वशीभूत है तथा अपनी चंचल प्रकृति को त्याग चुका है।
 नाद ग्रहणतश्चित्तमन्तरंग भुजंगमः ।
 विस्मृत्य विश्वमेकाग्रः कुत्रचिन्नहि धावति ।।
 नागरूप चित्त नाद का अभ्यास करते-करते पूर्ण रूप से उसमें लीन हो जाता है और सभी विषयों को भूलकर नाद में अपने को एकाग्र करता है।
 मनोमत्त गजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः।
 नियामन समर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः।।
 नाद मदान्ध हाथी रूप चित्त को जो विषयों की आनंदवाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है।
 नादोऽन्तरंग सारंग बन्धने वागुरायते ।
 अन्तरंग समुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि वा ।।
 मृगरूपी चित्त को बांधने के लिए यह (नाद) जाल का काम करता है। समुद्र तरंगरूपी चित्त के लिए यह (नाद) तट का काम करता है। श्ांकराचार्य ने नादानुसंधान की स्तुति की है-
नादानुसंधान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महेतत्त्वपदंलयानाम््।
 भवत्प्रसादात् पवनेन साकं विलीयते विष्णु पदे मनो मे।।
 हे नादानुसंधान! आपको नमस्कार है, आप परमपद में स्थित कराते हैं। आपके ही प्रसाद से मेरा प्राणवायु और मन; ये दोनां विष्णु के परमपद में लय हो जाएँगे।
 यह नादानुसंधान है, जिससे मन शम को प्राप्त करता है। भगवान श्रीराम शवरी से कहते हैं-‘सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।’ श्रीराम ने शवरी को बहुत ऊँचा करके दिखाया। भक्ति के लिए मोटा-मोटी जितने बातें हैं, उससे कितनी अधिक सूक्ष्म बातेंं हैं। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-‘अपने को जल में मछली की तरह उलटो। भाठा से सीरा चलो। शक्कर और बालू को अलग-अलग करने का अर्थ जड़-चेतन को अलग-अलग करके जानना है।’
 यह संसार स्त्री और पुरुष का है। इन दोनां से संसार होता है। इन दोनों में से किसी को हटा दो, संसार नहीं रहेगा। ये दोनों अच्छी तरह अपने को नहीं रख सकें, तो संसार में भ्रष्टाचार फैल जाएगा। और दोनों अच्छी तरह रहें तो संसार से भ्रष्टाचार चला जाएगा। स्त्रियाँ पातिव्रत धर्म का अंग-अंग पालन करें और पुरुष भगवान श्रीराम की तरह एकपत्नीव्रतवाला बने। आज देश में भ्रष्टाचार बहुत है। पहले पराधीनता के कारण दबे थे। आज भी ज्ञान का पूरा विकास नहीं हुआ है। देश के बड़े- बड़े लोगों ने बहुत कष्टां को झेलकर स्वराज्य प्राप्त किया। स्वराज्य हुआ, लेकिन सुराज नहीं हुआ। सुराज में चोरी, डकैती, व्यभिचार, घूस आदि का लेना-देना नहीं होता। आज देश में देखो कितना अत्याचार फैला हुआ है। इसको रोकने के लिए सरकार का कितना खर्च होता है। स्त्री-पुरुष दोनों अपने को संयम में रखो, तो सभी ठीक होंगे। यह कानून के डण्डे से ठीक नहीं हो सकता, कानून का डण्डा टूट जाएगा, ठीक नहीं हो सकता। जहाँ ईश्वर की भक्ति है, वहाँ बौद्धिक बल मजबूत होता है। ईश्वर भजन कीजिए। सदाचार का पालन कीजिए। अपने अंदर चलो। चाहिए अच्छी-अच्छी चीजों को लेना और गौण वस्तुओं को छोड़ते जाना। गुरु नानक ने कहा-‘भगता की चाल निराली।’ और कबीर साहब ने कहा-‘ भक्ति सतोगुर आनी।’ संत लोग केवल कह गए, ऐसी बात नहीं। वे स्वयं कर गए और कह भी गए। थोड़ा भी करो तो बुनियाद होगा। इसलिए करो, अवश्य करो।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद के सिविल लाईन स्थित सत्संग भवन के प्रांगण में दिनांक 1.10.1963 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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195. चेतन आत्मा को शरीर का बन्धन
धर्मप्रिय सज्जनो!
 ग्रंथों के पाठ में जो विषय है, उस विषय से कोई विशेष बात कहे, संभव नहीं। हाँ, कहीं-कहीं ग्रंथों के वचनों का कुछ बोध दिलाना वा उस पर प्रकाश डालना हो सकता है। संतों के वचन तो आप ही साफ हैं, दूसरे क्या साफ कर सकते हैं।
 हमलोग बंधन में पड़े हैं। इनसे छूटने के लिए वेद, उपनिषद् और संतवाणियों में उपदेश- वर्णन है। चेतन आत्मा को शरीर का बंधन, इन्द्रियों का बंधन है ही। फिर संसार का बंधन, मन की अनेक इच्छाओं का बंधन संसार के पदार्थ और सरोकारी सभी बंधन हैं। इनसे छूटना मोक्ष है। इस मोक्ष लाभ करने का उपदेश संतों ने दिया है। वे कहते हैं-‘परमात्मा पर कोई बंधन नहीं है।’
 जो भक्ति की चरम सीमा को खतम कर चुके हैं, वे परमात्मा की तरह निरबंध हैं। उस परमात्मा को प्राप्त कर सभी जन मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। परमात्मा की ओर अपनी वृत्ति को लगाना, बंधनों से छूटने का यत्न है।
 ईश्वर माया से परे हैं। माया के अंदर सात्त्विक, राजस और तामस; तीनों तरह के कर्म होते हैं। ये ही सत्, रज, तम तमाम संसार में हैं। सात्त्विक कर्म शुभ कर्म वा पुण्य कर्म करने को कहते हैं। कुछ भले कर्म और कुछ बुरे कर्म मिलाकर कर्म करते हैं, यह राजस है। आलस में पड़ा रहना, बिना सोचे समझे कर्म करना तामस कर्म है। इन तीनों प्रकार के कर्मों के फल का वेद में वर्णन है-
 उदुत्तमं वरुण पाशमस्मद्वाधमं वि मध्यमं श्रथाय ।
 अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम् ।।
 अर्थात् हे परमेश्वर! तू उत्तम कोटि के सात्त्विक बंधन को उत्तम भोगों द्वारा शिथिल करता है और निकृष्ट तामस बन्धन को नीचे की जीव योनियों में भेज कर शिथिल करता है। उन सब भोगों के अनन्तर हे शरण में लेनेहारे, ऐ सूर्य के समान प्रकाशक! हम तेरे दिखाए कर्तव्य कर्म में चलकर अखण्ड सुख-मोक्ष को प्राप्त करने के लिए निष्पाप-स्वच्छ हो जाते हैं।
 जो कोई सात्त्विक कर्म को इच्छा-रहित होकर करेगा, वह भजन अच्छी तरह करेगा और अंत में ईश्वर को प्राप्त कर मोक्ष पावेगा।
 जो शरीर इन्द्रियों से जानो वह ईश्वर नहीं है। ईश्वर तुम्हारे निकट है, लेकिन तुमको दूर मालूम होता है।
 है नेरे सूझत नहीं, ल्यानत ऐसो जिन्द ।
 तुलसी या संसार को, भयो मोतियाबिन्द ।।
 शरीर-इन्द्रिय चेतन आत्मा के ऊपर आवरण है, जैसे आँख की पुतली के ऊपर कोई आवरण आ जाता है तो उसको सूझता नहीं। डॉक्टर ऑपरेशन कर आँख की पुतली पर का आवरण हटा देते हैं, तब सूझने लगता है। इसी तरह साधना द्वारा चेतन आत्मा के ऊपर से शरीर-इन्द्रिय रूप आवरण के हटने पर ईश्वर-दर्शन होता है।
 बाह्य उपासना से ही भक्ति का काम समाप्त हो जाएगा, ऐसा विश्वास मत करो। भक्ति के स्थूल विषय में रह जाना, उसके आगे सूक्ष्म को नहीं पकड़नेवाले का ज्ञान संकुचित है, अभी विकसित नहीं हुआ है, ऐसा कहा जाएगा। स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार की भक्तियों को जानो, सगुण-निर्गुण के परे जाकर ईश्वर का साक्षात् करो। तब सभी बंधन छूटेंगे और ईश्वर-दर्शन होगा।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश के मुरादाबाद स्थित संतमत सत्संग आश्रम मोहल्ला कानून गोयान में दिनांक 3.10.1963 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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196. मनोलय कैसे होगा?
प्यारे लोगो!
 संतमत ईश्वर से मिलने का रास्ता बताता है। इसका क्या जरिया है, क्या अवलम्ब है, बताता है। जितने संतलोग हुए, उनको ईश्वर से मिलने का बड़ा चाव था, इसमें उनकी बड़ी आसक्ति थी। उसके लिए उन्होंने यत्न किया, पाया और जो आनन्द हुआ; उसको उन्होंने लुटाया अर्थात् लोगों से इसका यत्न बताया। तीसरी बात संतलोग बताते हैं कि संसार में किस रहनी से रहोगे कि इस संसार में भी कामयाबी होगी और ईश्वर को भी पाओगे।
 वे ईश्वर-स्वरूप का निर्णय ऐसा ठोस रूप से करते हैं कि कठोर तर्क से भी नहीं टूट सकता। तुम अपने को सोचो। केवल शरीर में ज्ञान की शक्ति अपने आप है, यह सिद्ध नहीं होगा। मुर्दा शरीर को छोड़ दो, जिन्दा शरीर में ही अभी जाग्रत में ज्ञान की शक्ति काम करती है, स्वप्न में तो मालूम होता है कि ‘मैं हूँ’, लेकिन संसार के लोगों को मालूम होता है कि इसको वह ज्ञान शक्ति अब नहीं है, जो जागने में थी। नजदीक में कोई बैठा है, इसका भी उस सोए हुए को ज्ञान नहीं होता है। स्वप्न से सुषुप्ति में जाने पर केवल श्वॉस लेता है, जिसका भी ज्ञान उसको नहीं होता है। यदि केवल शरीर में ज्ञान रहता तो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों समयों में ज्ञान रहता, लेकिन तीनों समय एक समान ज्ञान नहीं होता। चेतन आत्मा के कारण ही ज्ञान शक्ति शरीर में है। जगकर उठता है तो कहता है कि में अच्छी तरह सोया।
 शरीर से चेतन आत्मा निकल जाती है तो शरीर को दफना दिया जाता है। तुम शरीर नहीं हो, शरीर की इन्द्रियाँ नहीं हो, शरीर में रहनेवाला हो। लेकिन तुम अपने को पहचानते हो कि तुम जो इस शरीर में हो, सो कैसा हो? जब तुम अपने को ही शरीर-ज्ञान में नहीं पहचानते हो तो ईश्वर को शरीर-ज्ञान में कैसे पहचानोगे? ईश्वर का ज्ञान बहुत गंभीर है। जैसे आप अपने को इन्द्रिय-ज्ञान से नहीं जान सकते, उसी तरह ईश्वर को इन्द्रिय-ज्ञान से नहीं जानोगे। संतों ने कहा है जैसे कोई आइना लेकर अपनी आँख को अपनी आँख से ही देख सकता है, इसी तरह से साधन भजन-रूपी आइना लो, तब तुम अपने को अपने से पहचानोगे। साधन भजन से वह वहाँ तक पहुँचता है, जहाँ सारे मायिक आवरणों को पार कर वह अकेले हो जाता है, कैवल्य दशा प्राप्त कर ईश्वर को पाता है।
 हाथ-पैर आदि इन्द्रियाँ नौकर चाकर हैं। इनके द्वारा ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकते। तुम इस शरीर के अंदर आवरणों में पड़े हो, साधन द्वारा इन स्थूल, सूक्ष्मादि शरीर रूप आवरणों को पार करो और कैवल्य-दशा प्राप्त करो, तब ईश्वर को पाओगे।
 रास्ता का आरंभ कहाँ से होगा? जो जहाँ बैठा रहता है, वह वहीं से चलता है। इस शरीर में जीवात्मा जहाँ है, वहीं से चलेगा। रास्ता अपने अंदर में है। किसी भी देश के लोग हों, पढ़े हों, अनपढ़े हों, नीच जाति के वा ऊँच जाति के, स्त्री वा पुरुष कोई भी हों, सभी कोई आँख से देखते, मुख से खाते और कान से सुनते हैं। इसी तरह अंदर में चलने के लिए सबका एक ही रास्ता है। अगर समझदार आदमी हो तो समझ सकता है। तीन आवरणों को पार करना होगा। अंदर चलने के लिए आँख बंद करो, अंधकार मालूम होगा। यह बज्र कपाट है। इसको पार करो, यह पहला आवरण है। अंधकार को पार करोगे तो प्रकाश मिलेगा, इस आवरण को भी पार करो। तब क्या होगा? शब्द। शब्द, अंधकार और प्रकाश दोनों में व्यापक है। सूक्ष्म पदार्थ अपने से स्थूल में व्यापक होकर उससे अपना स्थान ऊपर रखता है। जैसे मिट्टी से जल, जल से अग्नि, अग्नि से वायु और वायु से आकाश सूक्ष्म है। इसलिए मिट्टी में जल, अग्नि, वायु और आकाश चारो व्यापक हैं। जल में अग्नि, वायु और आकाश; ये तीन व्यापक हैं। इस तरह आकाश सबसे अधिक सूक्ष्म होने के कारण अन्य चारो में व्यापक है और अपना मण्डल इनसे ऊपर भी रखता है। शब्द अंधकार और प्रकाश; दोनों में व्यापक रहकर अपना स्थान ऊपर रखता है। यह तीसरा आवरण है। इस शब्द को भी पार करने के लिए संतों ने कहा है। ‘सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा’ संत दादू दयालजी ने कहा है। घटरामायण पढ़ो, उसमें भी इन तीनां आवरणों को पार करने का वर्णन है। इन तीनों आवरणों के अंदर सहस्रदल कमल, त्रिकुटी, शून्य, महाशून्य आदि अनेक स्थान बना लो, लेकिन रहेंगे ये तीन आवरण ही। इन तीनों के परे परमात्म-स्वरूप है। संतों ने शब्द को पकड़ने के लिए दृष्टियोग साधन करने कहा। दृष्टियोग से ज्योतिमण्डल में पहुँचकर शब्द को पकड़ने कहा। यह हुआ-जीवात्मा, परमात्मा और सहारा। आचरण कैसा हो? तो कहा-
कहै कबीर निज रहनि सम्हारी। सदा आनंद रहैं नर नारी।।
 अपनी रहनी सम्हाल कर रहो तो संसार और परमार्थ दोनों में कल्याण होगा। सदाचार पालन के लिए विशेष बात नहीं, पंच पाप-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इनको छोड़ो।
 ईश्वर की भक्ति के साथ-साथ सदाचार पालन चलेगा। ईश्वर-भक्ति नहीं तो सदाचार पालन नहीं होगा। संसार का धन कमाने में सदाचार पालन की कोई बात नहीं। झूठ बोलकर लोग धन कमाते हैं और चिन्तित रहते हैं। आपलोगों के पास क्या धन है? अमेरिका के पास इतना धन है कि धन के मारे वहाँ के लोगों को नींद नहीं आती है। इंजेक्शन लेकर सोते हैं। संतों ने कहा कि ईश्वर-भजन करो और सदाचार से रहो। इसके लिए घर छोड़ने की जरूरत नहीं। घर में रहो, साधन-भजन करो। इसके लिए गुरु होना चाहिए, बिना गुरु के ईश्वर- भजन नहीं होगा।
सदगुरु वैद्य वचन विश्वासा। संयम यह न विषय कै आसा।।
तथा-
  घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरु अलख लखावै ।
  सहज सुन्न में रहै समाना, सहज समाधि लगावै ।।
  उनमुनी रहै ब्रह्म को चीन्है, परम तत्त को ध्यावै ।
  सुरत निरत से मेला करिके, अनहद नाद बजावै ।।
             -कबीर साहब
 इस तरह घर में रहकर मनोलय की अवस्था में रहे। मनोलय कैसे होगा? नादानुसंधान से। ‘न नाद सदृशो लयः।’ परमात्मा में प्रीति करो, उसको पाने की अभिलाषा रखो। गुरु से युक्ति लो और भजन करो। हमेशा याद रखो कि सदाचार से गिरे तो नहीं। सदाचार से गिरे तो भजन से गिरे। भजन से गिरे तो आवागमन के चक्र से छूट नहीं सकते।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश के मुरादाबाद जिले के चमारों की पूलिया महल्ले में लाला कान्ति प्रसादजी के यहाँ दिनांक 7.10.1963 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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197. प्रकृति: देशकाल का उपादान कारण
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 सत्संग में यह बताने की बड़ी आवश्यकता है कि ईश्वर का दर्शन कैसे होगा? इससे बढ़कर और आवश्यकता नहीं। श्रोता और जिज्ञासु जन भी इसी को जानने के लिए उत्सुक रहें। इसके लिए पहली बात यह है कि ईश्वर की स्थिति का ज्ञान हो और उसके स्वरूप को भी जानें। ईश्वर-स्वरूप निर्णय के बिना उसकी प्राप्ति का यत्न समझ में नहीं आवेगा कि कैसे होगा? ईश्वर का दर्शन कौन करेगा? जीवात्मा। किसके द्वारा? यह जटिल प्रश्न है। इसके लिए क्या साधन है? इसको जानना चाहिए कि जीवात्मा क्या है? ईश्वर क्या है? तब निर्णय होगा कि साधन क्या है और किस साधन से दर्शन होगा?
 ईश्वर ऐसा नहीं है, जो नाशवान हो। ईश्वर को नाशवान माननेवाला गोया ईश्वर को नहीं मानता है। ईश्वर देश और काल अर्थात् स्थान और समय से बद्ध वा सीमित है? नहीं। मनुष्य अपने को देखता है कि वह देश-काल से सीमित है। वह सूर्य, चन्द्र, पहाड़, जंगल; सबको देश-काल से बद्ध और सीमित देखता है। जो सीमा के अंदर रहे वह सीमित है। जो देश काल से बद्ध है, वह देश काल के अंदर है। वे सभी परिवर्तनशील और नाशवान है। बड़ा-से-बड़ा पहाड़ भी सड़ते-सड़ते जर्रे-जर्रे हो जाता है। पहाड़ी इलाकों में घूमें तो देखेंगे कि पहाड़ भी सड़ता है। मूर्दा पहाड़ भी होता है।
 कुछ विद्या का काम है। जानकार जान सकते हैं कि जिस सूर्य से हम जीवन धारण करते हैं, उस सूर्य के सहित चन्द्र, तारे वगैरह सभी की शक्ति क्षय होती है। मैंने अपने जीवन के आरंभिक समय बालपन से जवान होते-होते तक देखा कि उस समय कितनी वर्षा होती थी। वर्षा ऋतु में रास्ता बंद जो जाता था। इसलिए श्रीराम वर्षा के कारण किष्किन्धा में ठहरे थे। इतनी वर्षा होने का क्या कारण? सूर्य के कारण से समुद्र का जल गर्म होता है, वाष्परूप में ऊपर उठता है और बादल बनकर वर्षा होती है। पहले जैसी शक्ति अब सूर्य में नहीं है, जिससे अधिक वाष्प बने और अधिक वर्षा हो। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
अंड कटाह अमित लय कारी। काल महा दूरति क्रम भारी।।
 ये सभी जितने हैं, सभी देश काल के अंदर सीमित हैं, स्थान और समय किससे होते हैं? एक तत्त्व है, जिसको परमात्मा ने सृजन कर उपादान बनाया। उससे अनेक पिण्ड-ब्रह्माण्ड और देश-काल बने। देश-काल के बिना कुछ बन नहीं सकता। उसका नाम है-साम्यावस्थाधारिणी जड़ात्मिका मूल प्रकृति। देश और काल के होने से ही कुछ बनता है। जो देश और काल से सीमित है, वह असीम वा-
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
नहीं हो सकता है गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
 सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।। देश-काल प्रकृति से बने हैं अर्थात् प्रकृति देश-काल का उपादान कारण है। जो भी हददार वा सीमित पदार्थ हैं, सभी माया और नाशवान हैं।
 यदि कोई कहे कि ‘प्रकृति के परे ही वह ईश्वर है, इधर नहीं है क्या?’ तो देखो कि पाँच तत्त्वों में जो जितना सूक्ष्म है, वह अपने से स्थूल में व्यापक होता हुआ अपना मण्डल उन सबसे ऊपर भी रखता है। उसी तरह ईश्वर सर्वव्यापक होते हुए सबसे परे भी है।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता।अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 यह है-राम, ईश्वर, परमात्मा। वह देश-काल में व्यापक होकर उससे भी परे है। इससे अधिक फैलाव रखनेवाला कुछ नहीं है। कुछ अवकाश छोड़कर वह रहेगा, ऐसा नहीं हो सकता। जो सबसे प्रथम का है, वह देशकाल को भरकर, प्रकृति मण्डल को भरकर, उससे ऊपर रहकर निर्लेप रहता है। जो जितना अधिक व्यापक होता है, वह उतना ही अधिक सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म तत्त्व को पकड़ने का यंत्र सूक्ष्म होता है। छोटी घड़ी के कल पूर्जों को पकड़ने के लिए महीन-महीन यंत्रों की और बड़ी घड़ी के कल पूर्जों को पकड़ने के लिए मोटे-मोटे यन्त्रों की आवश्यकता होती है। सूक्ष्म तत्त्व को स्थूल यन्त्रों से ग्रहण नहीं कर सकेंगे। जिस तरह के तत्त्व को ग्रहण करना चाहते हो, उसी तरह के यंत्र से ग्रहण कर सकते हो। आँख से रूप, कान से शब्द, जिभ्या से रस, नासिका से गंध, और त्वचा से स्पर्श का ज्ञान होता है। पंच ज्ञानेन्द्रियों से पंच विषयों-तन्मात्राओं, सूक्ष्म तत्त्वों को ग्रहण कर सकते हो। एक इन्द्रिय से दूसरी इन्द्रिय का विषय ग्रहण नहीं कर सकते। स्थूल इन्द्रियों से स्थूल पदार्थों का ग्रहण होगा, सूक्ष्म का नहीं। सारी इन्द्रियाँ माया से निर्मित हैं। निर्मायिक से ही निर्मायिक तत्त्व का ग्रहण हो सकता है। परमात्मा को अव्यक्त ही ग्रहण कर सकता है। इसलिए यह खोज करो कि उस ईश्वर तक कौन जाए, कौन दर्शन करे? बुद्धि निर्णय कर सकती है, देख नहीं सकती। अपने को सोचो कि अपने आप क्या हो? अपनी बुद्धि से नहीं समझते हो, तो संत वाणी से ही समझो।
ईश्वर अंश जीव अविनासी । चेतन अमल सहज सुख रासी।।
 तुम शरीर और इन्द्रियों के संग से जीवत्व दशा में हो। शरीरों और इन्द्रियों का संग छोड़कर तुम बूँद नहीं रहकर समुद्र हो जाओगे। तुम्हारी ज्ञान शक्ति से ही मन, बुद्धि आदि इन्द्रियों में ज्ञान शक्ति है। लेकिन तुम्हारा जो निजी ज्ञान है और इन्द्रियों के संग से जो ज्ञान है, इसमें अंतर है। जैसे लालटेन के भीतर टेम का जो निज प्रकाश है, सो पृथक है और उसके ऊपर लगे हुए रंगीन शीशे के अनुकूल उसका प्रकाश जो बाहर फैलता है, वह भिन्न प्रकार का। अर्थात् लाल शीशा के कारण प्रकाश का रंग लाल और हरा शीशा होने पर हरा प्रकाश होता है। इसी तरह माया के आवरण के कारण से माया संबंधी ज्ञानयुक्त होकर चेतन जीव माया को ही ग्रहण कर सकता है। इन आवरणों के अंदर रहकर तुम निर्मायिक स्वरूप को ग्रहण नहीं कर सकते। तुम कैवल्य दशा प्राप्त करो, तब तुम अपने निज स्वरूप में आओगे। रंगीन शीशा के कारण प्रकाश का रंग और बिना रंगीन शीशा के प्रकाश में जो अंतर है, वही तुम्हारा निज ज्ञान और इन्द्रिय-संग के ज्ञान में अंतर है। अभी तुम अपने को भी नहीं जानते हो। तुम कहते हो कि ‘मैं हूँ’ यह अहंकार इन्द्रिय के संग के कारण कहते हो। आँख का ज्ञान आँख को ही होता है, दूसरी इन्द्रिय को नहीं। कोई कहे कि आँख में लाली आ गई है तो आइने में आँख से ही देखी जाएगी। इसी तरह चेतन आत्मा से ही परमात्मा का दर्शन होगा, बीच में साधन लेना होगा। साधन में दिव्य-दृष्टि होती है, किंतु उसमें भी ईश्वर-दर्शन नहीं होगा। दिव्य-दृष्टि होने से चेतन आत्मा पर से सारी मैल नहीं निकलती। जब चेतन आत्मा के ऊपर से सारी मैल उतर जाएगी, तभी चेतन आत्मा ईश्वर को पावेगी। यहीं मोक्ष होगा। यहीं असली दर्शन होता है। यह सबसे बड़ा काम है। इसके अलावे का दर्शन मायिक दर्शन है।
 जब कोई अपने को शरीर, अंतःकरण और प्रकृति से अलग करे, तब इस प्रकार का ज्ञान होता है। अभी हम जहाँ बैठे हैं, वहीं से चलेंगे। इस शरीर में हम हैं। इसलिए हम ईश्वर से मिलने के लिए चलेंगे तो शरीर ही शरीर चलना होगा। जैसे इस प्रान्त को पार करते हैं, बिहार को पार करते हैं तब उड़ीसा जाकर जगन्नाथजी का दर्शन करते है। जगन्नाथजी के दर्शन के लिए चलना जगन्नाथजी की भक्ति में दाखिल है। उसी तरह अपने अंदर में ईश्वर से मिलने चलो, यह ईश्वर की भक्ति है। जहाँ चलकर माया से छूटना होता है, वहीं सभी बंधनों से छूटना होता है। यह यात्रा परा भक्ति है। इसलिए-‘हिय नैन सैन सुचैन सुन्दरि साजि स्रुति पिउ पै चली।’ तुलसी साहब ने कहा है।
 माया की कितनी भी शक्ति ले लो, लेकिन ईश्वर-दर्शन नहीं होगा। लोग कहते हैं कि अव्यक्त को व्यक्त कैसे धारण कर सकता है? लेकिन सोचते नहीं कि ईश्वर-स्वरूप क्या है? उसको कैसे ग्रहण किया जा सकता है? महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया था। युधिष्ठिर जीतकर भी प्रसन्न नहीं थे। व्यासदेवजी ने उनको यज्ञ करने कहा, पहाड़ से धन लाकर। युधिष्ठिर ने व्यासदेवजी की बात में विश्वास किया, उनका मन अव्यक्त धन में लगा। व्यासदेवजी के बताए रास्ते से गए, कहे अनुकूल अनुष्ठान किया, उनको धन मिला और उन्होंने यज्ञ किया। वह परम धन परमात्मा अव्यक्त है, उसका पता बता देनेवाले संत हैं। वे रास्ता बताते हैं, अनुष्ठान का यत्न बताते हैं। जैसे अव्यक्त धन में युधिष्ठिर का मन लगा था, उसी तरह अव्यक्त परमात्मा में मन लगाओ। संत लोग जो यत्न बताते हैं, उस यत्न से चलो, तो अव्यक्त ईश्वर को पाओगे। यदि कोई कहता है कि इसी शरीर से जाकर दर्शन करेंगे तो देखो कि जय- विजय को वैकुंठ में श्राप मिला। जितने भी लोक- लोकान्तर हैं, सभी में मायिक रूप हैं। परमात्मा के रहने के लिए कोई अवलम्ब नहीं है। ईश्वर- स्वरूप क्या है, उसकी प्राप्ति कैसे होगी और उसको कौन प्राप्त कर सकता है? इन बातों को मैं साफ साफ समझा देना चाहता हूँ।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश के बदायूँ नगर में दिनांक 10.10.1963 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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198.सभी धर्मों को छोड़ने का रहस्य
प्यारे प्रतिष्ठित भक्त और सज्जनो!
 मैंने सुना और देख भी रहा हूँ कि यह गीता भवन है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण का बताया हुआ गीता-ज्ञान हमको मिलना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण के बताए ज्ञान के सम्बन्ध में कहा गया है कि ‘सब उपनिषद् गौ रूप हैं, अर्जुर्न बछड़ा है और भगवान कृष्ण दोहनेवाले हैं। उपनिषदों के ज्ञान का सार निकालकर जो भगवान श्रीकृष्ण ने दिया है, वही श्रीमद्भगवद्गीता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान विकट, संकट समय में अर्जुन को दिया था। वह समय कैसा था, आप जानते हैं। महाभारत युद्ध के आरंभ का समय था। खास अपने चचेरे भाइयों में यह युद्ध हुआ था। अर्जुन ने कहा कि भगवन्! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच ले चलिए, जिससे मैं देख सकूँ कि मुझे किन वीरों से लड़ना है। भगवान ने वैसा ही किया। दोनों तरफ दृष्टिपात करके अर्जुन ने देखा कि दोनों ओर मेरे अपने ही लोग हैं। इन सबों को अपने हिस्से के राज्य को प्राप्त करने के लिए मारो और मरवाओ, ऐसा क्रूर कर्म करना ठीक नहीं। उनका चित्त दयार्द्र होकर विह्नल हो गया और करुणा से भर गया। उन्होंने भगवान से कहा कि मैं युद्ध नहीं करूँगा। श्रीकृष्ण ने फटकारा और कहा- तू अपने क्षत्रित्व को भूलकर ऐसा बोल रहे हो। क्षत्रिय युद्ध के लिए ललकारे जाने पर मुँह नहीं मोड़ते। पुनः भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-तू किसको मारोगे? अध्यात्म ज्ञान यहीं से आरंभ होता है। सांख्य दर्शन के अनुकूल अध्यात्म-ज्ञान का उपदेश दिया कि शरीर मरा हुआ है ही, आत्मा अवध्य है, तू किसके लिए शोक करता है? जैसे अपने एक ही शरीर में अनेकों वस्त्रों को धारण किया है और अनेक वस्त्र धारण होंगे, उसी तरह यह चेतन आत्मा अनेक शरीरों को धारण कर चुकी है और अनेकां शरीर धारण करेगी। तुम्हारे और हमारे बहुत से जन्म हुए हैं, मैं जानता हूँ, तू नहीं जानता। भगवान महायोगेश्वर थे, अनेक जन्मों की बातें वे क्यों नहीं जानेंगे।
 आप जानते हैं कि भगवान बुद्ध के दो बड़े शिष्य थे-सारिपुत्र और मौद्गल्यायन। मौद्गल्यायन सिद्ध पुरुष थे और सारिपुत्र भी सिद्ध थे। मौद्गल्यायन समाधि में बैठे थे। उनको दुष्टों ने साम्प्रदायिकता के द्वेष के कारण इतना पीटा कि हड्डी चूर-चूर कर दिया। इसी में उनका शरीर छूटा। शिष्यों ने भगवान बुद्ध से पूछा कि ऐसे सिद्ध महात्मा की यह दशा क्यों हुई? बुद्ध ने कहा-अपने माता-पिता को, जो बहुत वृद्ध थे, उन्होंने पूर्व के एक जन्म में जंगल में छोड़ दिया था।
 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-मुझे अनेक जन्मों की बातें याद हैं, तुमको नहीं, क्यों? इसलिए कि वे ‘महायोगेश्वरो हरिः’ थे। बचपन काल में दूध पीते समय से ही वे अपनी महालीला दिखाने लगे थे। यह योग की महिमा है। भगवान ने सांख्ययोग का ज्ञान दिया, आत्मा की अमरता का ज्ञान दिया। आत्मतत्त्व अमर है, यह ज्ञान प्रत्यक्ष कैसे हो? इसलिए उन्होंने योग शास्त्र के अनुकूल वचन कहना आरंभ किया। मैं समझता हूँ दूसरा अध्याय ही समस्त गीता है।
 योग कहते किसको हैं? कर्म करने की कुसलता को योग कहते हैं। समत्व को योग कहते हैं। समत्व प्राप्त होता है समाधि-साधन में। इन तीनों बातों को आप मुख्य मानिए। आगे चलकर कर्म करने का कौशल क्या है, वर्णन किया गया है। कर्म इस तरह करो कि उसके फल में आसक्ति नहीं हो। कर्मफल छोड़कर कर्म करो। ईश्वर में सब कर्म अर्पण करो। अविहित कर्म नहीं करो और आत्मरत होकर कर्म करो। ईश्वर-अर्पण बुद्धि से काम करो। समत्व धारण करके कर्म करो। यह कर्म करने का कौशल है, तब तुमको कर्म का बंधन नहीं होगा। कर्म में राजस, तामस और सात्त्विक का भी बहुत वर्णन किया और अंत में कहा कि ‘सब धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जा...।’
 फलाशा छोड़कर कैसे कर्म किया जाय? कर्म हमको बंधन न दे, इस आशा से भी कर्म करता है, तो फलाशा है। पुत्र, धनादि के लिए जो कर्म करते हैं, फलाश से युक्त है। और इनको छोड़कर कर्म किया, यह क्यों? इसलिए कि बंधन से मुक्त होऊँगा। यह भी एक फलाश हुआ। फिर कहा कि योगस्थ होकर कर्म करो। समाधि-साधन करके ही कोई योगस्थ होगा। समाधि-साधन में समत्व की प्राप्ति होती है। इसके अंदर है कि आत्मरत होकर कर्म करो। ये सब बातें एक ही योग शब्द पर निर्भर हैं।
 भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को लड़ने के लिए साहस दिया और कहा कि ‘लड़ो भी और मेरा स्मरण भी करो’। उस समय का युद्ध आज की तरह नहीं था। एक दूसरे के तीर को देखता था और काटता था। यह संसार कर्म-क्षेत्र है। जो कर्म करते हो, करते जाओ और ईश्वर का स्मरण भी नहीं छोड़ो। संत पलटू साहब ने कहा है-
 कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।
 सो ध्यानी परमान, सुरत से अण्डा सेवै ।
 आप रहे जल माहिं, सूखे में अण्डा देवै ।।
 जस पनिहारी कलस भरे मारग में आवै ।
 कर छोड़ै मुख वचन चित्त कलसा में लावै ।।
 फणि मणि धरै उतारि आपु चरने को जावै ।
 वह गाफिल ना परै, सुरति मणि माहिं रहावै।।
 पलटू कारज सब करै, सुरति रहै अलगान।
 कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान।।
 कछुवी सूखी जमीन पर अण्डा देती है और अपने पानी में रहती है। ख्याल से अण्डा सेती है, चिड़िया की तरह अण्डे पर बैठकर नहीं। कछुवी को कोई मार दे तो अण्डा सड़ जाय। रामकृष्ण परमहंसजी ने भी बड़े मजे की बात कही है-धान कुटनेवाली स्त्री को देखो, ऊखल में से कैसे चावल निकालती है! जरा-सा मूसल से ध्यान हट जाय तो हाथ टुकड़े-टुकड़े हो जाय। इसी तरह संसार का काम करते हुए अपना ख्याल ईश्वर में लगाकर रखो।’ पलटूदासजी की और रामकृष्ण परमहंस की कोई नई बात नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण की ‘मामनुस्मर युद्धच’ वाली बात ही है। समत्व-साधन आत्मरत होने से होगा। जो आत्मरत नहीं होगा, उसको समत्व नहीं होगा। विविध कर्मों में जानेवाला समत्व लाभ नहीं कर सकता। भगवान श्रीकृष्ण के कहने का मतलब है कि समाधि-साधन योग के द्वारा करो और स्थितप्रज्ञ होओ। स्थितप्रज्ञ होकर कर्म करने पर तुमको पाप नहीं लगेगा। उपनिषद् का सार भी श्रीमद्भगवद्गीता है। ध्यान विन्दूपनिषद् में है-
 यदि शैल समं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम् ।
 भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ।।
 यदि पर्वत के समान कई योजन तक फैला हुआ पाप हो तो वह ध्यानयोग से नष्ट हो जाता हैं। इसके समान पापों को नष्ट करनेवाला अन्य कोई उपाय नहीं है।
 इसका क्या मतलब है? ध्यानयोग में आत्मरत होना और समत्व होना होगा। उपनिषद्-वाक्य और भगवान के वाक्य में एकता है।
 किसी भी जरिये से मन की एकओरता हो। वह ओर किधर हो? राजस वा तामस में नहीं, केवल सात्त्विक में। सात्त्विक भावों को आरंभ में हटाना नहीं होगा। ध्यान-योगवाला विषयों की ओर से ऊपर उठेगा और तब जो पाप होनेवाला है, वह नहीं होगा। ध्यानयोग में मन की एकओरता होती है। एकओरता में पूर्णरूप से एकविन्दुता होती है। लकीर में अनेक विन्दु होते हैं। ध्यान- विन्दूपनिषद् में इसलिए कहा है ‘परम विन्दू’ तेजोविन्दूपनिषद् में कहा है-
       तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम् ।
 लकीर के अंत और आरम्भ में एक विन्दु होता है। लकीरों के मिलन स्थान में एक विन्दु होता है। लकीर भी कोई मामूली चीज नहीं है। उसमें लम्बाई ही लम्बाई होती है, चौड़ाई नहीं। विन्दु का स्थान है, परिमाण नहीं। इस तरह आप न तो विन्दु और न रेखा ही मन से बना सकते हैं। विन्दु ही बीजाक्षर है। एक तस्वीर एक अक्षर आप लिखेंगे, उसमें सबसे पहले एक विन्दु उत्पन्न होगा। रूप जगत का बीज विन्दु है। विन्दु को मन से बना नहीं सकते। अथवा मानस ध्यान भी नहीं कर सकते। विन्दु कैसे प्राप्त हो, इसकी युक्ति गुरु-दीक्षा है। एकओरता में सिमटाव होता है। मन के सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। किसी भी चीज को आप समेटिए, उसकी ऊर्ध्वगति होगी। तब ध्यानी- साधक क्रियमाण अशुभ कर्म नहीं करेगा। प्रारब्ध कर्म भी धीरे-धीरे छूटते जाएँगे। अंत में अभ्यासी कर्म मण्डल को पार कर कर्म-बंधन से मुक्त हो जाएगा। पलटू साहब उपर्युक्त पद्य में कछुवी, पनिहारी और साँप की उपमा देते हैं। और कहते हैं कि काम भी करो और नाम भी भजो। हमारे पुराने गुरु महाराज कहते थे कि ‘काम करो और नाम को मत भूलो।’ कभी-कभी काम करते समय वे पूछ बैठते थे कि ‘केवल काम ही होता है कि नाम भी जपता है?’ आरम्भ में ध्यान होगा, कभी छूटेगा भी। इसका अभ्यास करते रहो, बढ़ते-बढ़ते बढ़ेगा। जैसे लोहा को चुम्बक अपनी ओर खींचता है, उसी तरह तुम नाम से खींचे जाओगे।
 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-‘सभी धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ, तुमको सब पापों से मुक्त कर दूँगा।’ पिता की सेवा करना पुत्र का धर्म है, पिता का धर्म पुत्रों को ज्ञानवान बनाना, पत्नी का धर्म है पातिव्रत्य धर्म पालन करना और पति का धर्म है एक पत्नीव्रत धारण करने का। क्या इन धर्मों को छोड़ा जाय? भगवान श्रीकृष्ण की शरण में अर्जुन किस तरह थे, सो विचारिए। महाभारत युद्ध के पूर्व ही अर्जुन और दुर्योधन भगवान श्रीकृष्ण के पास गए। भगवान लेटे हुए थे, उन्होंने एक कुर्सी अपने सिरहाने में रखवा दी थी। दुर्योधन पहले से ही आकर कुर्सी पर बैठे थे और अर्जुन पीछे से आकर श्रीकृष्ण के बिछावन पर पैताने में ही बैठ गए। अर्जुन अपनी प्रतिष्ठा का कुछ भी ख्याल नहीं करते हैं। इसीलिए कहा है-
 यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं ।
 सीस उतारै भूई धरै, तब पैठे घर मांहं ।।
 भगवान ने पूछा कि अर्जुन कहाँ आए हो? फिर उलटकर उन्होंने सिरहाने में दुर्योधन को बैठा देखा। जिज्ञासा करने पर, दोनों से आपस में युद्ध की बात जानकर भगवान ने कहा-हम दोनों के कुटुम्ब हैं, हमारे बड़े भाई ने कह दिया है कि वे लोग युद्ध के लिए निमंत्रण देने के लिए आवेंगे, तो तुम युद्ध करने का निमंत्रण स्वीकार नहीं करना। किंतु जब आप दोनों आ गए हैं, तो मैं कहता हूँ कि एक तरफ तो मैं रहूँगा, लेकिन मैं युद्ध नहीं करूँगा और दूसरी ओर मेरी नारायणी सेना रहेगी। मैंने पहले अर्जुन को देखा है, इसलिए वह बतलावे कि दोनों में क्या चाहता है? अर्जुन ने नारायणी सेना को नहीं लेकर भगवान को लिया। श्रीकृष्ण युद्ध में लड़ेंगे नहीं, लेकिन श्रीकृष्ण को ही अर्जुन लेता है, कितनी निर्भरता है? वह उनकी केवल शुभेच्छा चाहता है। मान और प्रतिष्ठा कृष्ण के सामने वह कुछ नहीं रखता है। पैर दबानेवाले नौकर की तरह पायताने में अर्जुन बैठा है। इस तरह अर्जुन तो श्रीकृष्ण की शरण में था ही। फिर भगवान कहते हैं-‘सब धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जा....।’ इससे मालूम होता है कि अर्जुन पूरी तरह से सब धर्मों को छोड़कर शरण में नहीं थे।
 पहले कर्म होता है, तब धर्म होता है। श्रीकृष्ण ने योगी की उपमा कछुआ से दी है। जैसे कछुआ सब ओर से अंग समेट लेता है, वैसे ही जब वह पुरुष इन्द्रियों को उनके विषयों से समेट लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर हुई है, ऐसा कहा जाता है। यदा संहरते चायं कुर्मोऽंगानीव सर्वशः।
 इन्दियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।
        -गीता, अध्याय 3। 58
 योगस्थ होते हुए अपनी चेतन धारा को जो अंदर में रखता है, वह विषय की ओर नहीं होकर निर्विषय की ओर होता है और तब वह सब धर्मों को छोड़कर भगवान की शरण में होता है।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेशान्तर्गत मथुरा स्थित विड़ला द्वारा निर्मित गीता भवन में दिनांक 13. 10. 1963 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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199. आपका निज विषय क्या है?
प्यारे प्रियदर्शनो!
 गत रात्रि के सत्संग में मैंने आपसे कहा था कि हमलोगों की जो तीन स्वाभाविक अवस्थाएँ हैं, इनके आगे एक और अवस्था है। यह किसलिए कहा था? असल में मेरा विषय है ईश्वर-भक्ति का प्रचार करना। गोस्वामी तुलसीदासजी ने विनय-पत्रिका में लिखा है-
 तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त ।
 मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनंत ।।
 इसमें ईश्वर-स्वरूप का भी निर्णय कहा है और तीनों अवस्थाओं के आगे चौथी अवस्था में जाकर भजन करने के लिए कहा है। इसी चौथी अवस्था को तुरीय अवस्था कहते हैं। मन से, वचन से, कितना भी कहो, पहचान नहीं होगी। और कर्मकाण्ड कितना भी करो, दर्शन नहीं पा सकते। वह व्याप्य में व्यापक है और अनंत है। जैसे एक मिट्टी का वा लोहे का गोला बनाकर अग्नि में दे दीजिए, तो अग्नि उसमें प्रवेश कर जाएगी। मिट्टी का वा लोहे का गोला व्याप्य है और अग्नि व्यापक है। इसी तरह सारा प्रकृति मण्डल व्याप्य है और परमात्मा व्यापक है। इतना ही नहीं, प्रकृति को भरकर और भी कितना वह अधिक है, ठिकाना नहीं। इसलिए अनंत कहा। दूसरी जगह कहा-
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
 उसको पाने के लिए चौथी अवस्था में जाकर भजन करो। भजन जाग्रत अवस्था में भी होता है, लेकिन इतने में पूर्ण भजन नहीं होता। इसलिए चौथी अवस्था में जाकर भजन करने कहा। मैं ईश्वर-भक्ति का प्रचार करता हूँ। चौथी अवस्था में रहकर भजन करना विशेष है। अपना भारत देश ऐसा है कि इसमें आस्तिक परिवार बहुत हैं। इसमें यह गुण है कि बच्चे को जब से मुँह में बोल आता है, तभी से उसके माता-पिता-अभिभावक उससे ईश्वर-वाचक शब्द कहलाते हैं। किसी घर में राम-राम, किसी घर में शिव-शिव, किसी घर में सत्तनाम और किसी घर में वाहेगुरु आदि। इसी तरह यह बात होती है कि बचपन से ही बच्चों के हृदय में ईश्वर मानने का बीज बोया जाता है। बच्चा नहीं समझता है कि राम-राम, शिव-शिव क्या है? वे कहते हैं कि वही सबका प्रभु है। बच्चा बढ़ता है, उसकी उम्र बढ़ती है, संतों का संग करता है, ग्रंथ-पाठ करता है तो ईश्वर में विश्वास जम जाता है। कहीं राम-राम से, राम-रूप का, कहीं शक्ति का नाम सुनकर उसके रूप का ज्ञान करता है, कहीं चतुर्भुजी रूप को जानता है, किसी घर में गणेशजी को जानता है, इस तरह कई रूपों में ईश्वर को जानने लगता है। वह स्वयं चिन्तन करता है, सुनता भी है कि ईश्वर एक ही है। तो फिर, कोई राम रूप में, कोई कृष्ण रूप में, कोई सूर्य रूप में, कोई गुरु रूप में जो जानते हैं, यह क्या है? पहले जानने में आता है कि अनेक रूप होने के कारण अनेक ईश्वर हैं, लेकिन ईश्वर तो एक ही होना चाहिए। दरियाफ्त करने पर शिव के उपासक कहते हैं कि सबसे श्रेष्ठ शिव हैं। गाणपत्य गणेश को सबसे श्रेष्ठ कहते हैं और वैष्णव विष्णु को। इसी तरह सभी उपासक अपने-अपने इष्ट को प्रभु मानते हैं और औरों को उनसे कम वा उनके आश्रित कहते हैं। इस तरह साम्प्रदायिक भावना होती है। इस तरह इस भावना के अंदर रहते संघर्ष भी होता है, हानि भी होती है तथा यथार्थ ज्ञान भी नहीं होता। इस संघर्ष में हम नहीं रहें। मनोमालिन्य और कलह से बचें। गोस्वामी तुलसीदासजी ने इसको हटाने की बड़ी कोशिश की। उन्होंने रामचरितमानस में वर्णन किया कि कहीं शिवजी राम की स्तुति करते हैं, तो कहीं राम शिव की स्तुति करते हैं। किसी एक इष्टदेव के लिए जैसी स्तुति है, उसी तरह दूसरे इष्ट के लिए भी स्तुति करते हैं। इस तरह गोस्वामी तुलसीदासजी ने बताया कि ये पृथक-पृथक देखने में आते हैं, लेकिन हैं एक ही। एक-ही-एक निर्णय हो, यह कैसे?
 हमलोगों को सोचना चाहिए कि सृष्टि में हम देखते हैं कि इस स्थूल जगत में-इस सौर जगत में सूर्य की प्रधानता है। पढ़ते और सुनते भी हैं कि सूर्य के पहले सौर जगत नहीं हुआ। पहले सूर्य हुआ। पंच तत्त्वों में सर्वप्रथम आकाश को मानते हैं। इसके अतिरिक्त चार तत्त्व आकाश के अंदर ही हैं। हम पढ़ते भी हैं कि आकाश के बाद वायु, वायु के बाद अग्नि, अग्नि के बाद जल और जल के बाद पृथ्वी है। इस तरह सुन, समझ और पढ़कर ज्ञात होता है कि सौर जगत में सबसे पहले सूर्य है। केवल सौर जगत का नहीं, सारे जगत का कोई मालिक है वा नहीं? सबसे प्रथम का कुछ नहीं मानने से बुद्धि में संतोष नहीं होता। सबसे पहले का कुछ नहीं होकर विविध हुआ, यह मानने में बुद्धि को संतोष नहीं होता। क्योंकि पाँच तत्त्व और सौर जगत को देखकर जानने में आता है कि आरंभ में कुछ था। सबसे पहले का पदार्थ एक-ही-एक होगा और वह परम प्राचीन,परम सनातन होगा, उसके अतिरिक्त अवकाश नहीं रहेगा और कोई अवलम्ब, कोई सहारा, कोई व्याप्य पदार्थ उसके पहले का नहीं होगा। वह स्वयं आधार स्वरूप होगा। उसका कोई आधार नहीं होगा। वह इतना व्यापक होगा कि उसके अतिरिक्त और कुछ अवकाश बचा नहीं रहेगा। वह अनंत, अपार और अपरिमित, शक्ति युक्त होगा। संसार में जो परिमित शक्तिवाला है, उसका आदि वही है, जो सबसे प्रथम का है। संतों के ग्रंथों में पढ़ने से भी यही बात ज्ञात होती है। जैसे-
है सबमें सबही तें न्यारा ।।टेक।।
जीव जन्तु जल थल सबही में, शबद वियापत बोलनहारा।।
          -संत कबीर साहब
बाबा नानक के वचन में है-
 बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर ज्ञान बताई ।
 सबके बाहर होने के कारण उसको प्रकृति पार भी कहा गया है। ऐसा एक तत्त्व का मानना बुद्धि में आता है। सर्वव्यापक से बाहर कोई नहीं हो सकता। जिसके अंदर में सब हों, उन्हें उसके शासन में-उसके प्रभाव में रहना ही होगा। जो सब उसके प्रभाव और शासन में रहेंगे, उन सबका वह प्रभु होगा। बाबा नानक कहते हैं-
  अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
  जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
  साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु ।
  ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।
 मतलब यह कि वह इन्द्रिय-ज्ञान से बाहर है। उसकी सीमा कहाँ है, कोई बता नहीं सकता। सबसे आदि का पदार्थ कैसा होगा? स्वरूपतः वह अनादि-अनंत होगा। इन्द्रियों से हम उसको ग्रहण नहीं कर सकते; क्यांकि वह अत्यन्त सूक्ष्म है। स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकेगा, जैसे छोटी घड़ी के कील-काँटों को बड़ी घड़ी के पेंचकस और सँड़सी से खोल वा लगा नहीं सकते। यह बहुत समझाने की बात नहीं है। जो सबसे विशेष व्यापक होगा, वह सबसे विशेष सूक्ष्म होगा; जैसे एक सेर बर्फ की व्यापकता से उसके जल की और उस जल की व्यापकता से उसके वाष्प की व्यापकता अधिक होती है। क्यांकि बर्फ की अपेक्षा जल और जल की अपेक्षा वाष्प अधिक सूक्ष्म होता है। जो वाष्प की व्यापकता है, उससे कम व्यापकता जल की और उससे कम व्यापकता बर्फ की है। इसी नमूने को जानने, सोचने, समझने पर मालूम होता है कि सूक्ष्म सबसे विशेष व्यापक होता है। जो सबसे विशेष सूक्ष्म है, उसको स्थूल इन्द्रियों से कैसे ग्रहण कर सकते हैं? हमारी इन्दियाँ रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द; पंच विषयों को ग्रहण करती हैं। स्थूल इन्द्रियाँ इनसे अधिक को ग्रहण नहीं कर सकतीं। अंतर की इन्द्रियाँ स्थूल इन्द्रियों से श्रेष्ठ हैं, लेकिन परमात्मा की सूक्ष्मता के सामने ये भी बहुत स्थूल हैं। बुद्धि ईश्वर-स्वरूप का निर्णय कर सकती है, लेकिन पहचान नहीं सकती। इसीलिए-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
        -रामचरितमानस
 प्रश्न होता है कि तब फिर किससे पहचान हो? शरीर और इन्द्रियों के अतिरिक्त इस शरीर में तुम हो। शरीर और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है-पंच महाभूत अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, बुद्धि, प्रकृति, पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पंच कर्मेन्द्रियाँ, मन, रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, चेतना और धृति; इन इकतीस तत्त्वां के समुदाय को सविकार क्षेत्र कहते हैं। इन इकतीसों के अतिरिक्त इनमें जो क्षेत्रज्ञ तत्त्व है, वही चेतन आत्मा है, वही शरीर को धारण किया है, इसी के कारण शरीर को ज्ञान है। शरीर जड़ है, इसमें चेतन आत्मा की स्थिति रहती है, तब इन्द्रियों में, शरीर में ज्ञान रहता है। इसके नहीं रहने से इनमें ज्ञान नहीं रहता। आप चेतन आत्मा इस शरीर में हैं। आपका निजी ज्ञान होना चाहिए। आपके ज्ञान से ही इन्द्रियों को ज्ञान होता है। एक लालटेन की बत्ती जलती है, उसका निज रूप या प्रकाश जो है, लाल शीशे होकर प्रकाश बाहर निकलने से लाल और हरा शीशा के अंदर से निकलने पर प्रकाश हरा होता है। उसी तरह आपका निज ज्ञान जो है, वह इन्द्रियों के संग होकर इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण करता है। रूप विषय केवल नेत्र के लिए और रस विषय केवल जिभ्या के लिए है। इसी तरह पंच विषय पंच इन्द्रियों के लिए हैं। जिस इन्द्रिय का जो विषय है, वह उसको ग्रहण करती है। एक इन्द्रिय का विषय दूसरी इन्द्रिय ग्रहण नहीं कर सकती। आपका निज विषय भी होना चाहिए। वह क्या है? इन इन्द्रियों से अपने को भिन्न करके निज स्वरूप में रहकर आप क्या जानेंगे? इन्द्रियां का संग छोड़कर कैवल्य दशा में क्या जानेंगे? चेतन आत्मा वैसी ही सूक्ष्म है, जैसे परमात्मा।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।
 चेतन आत्मा निज ज्ञान से परमात्मा का दर्शन करे, यह विश्वास करने योग्य है। इसके अतिरिक्त और कोई ग्रहण नहीं कर सकता।
 आतम आपको आपहिं जानै ।
 ईश्वर वह है जो चेतन आत्मा से पहचान में आवे। इन्द्रिय-ज्ञान में आप अपने को भी नहीं पहचान सकते हैं।। गोस्वामी तुलसीदासजी ने खूबी के साथ कह दिया है-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 जो इन्द्रिय-गोचर तथा मन से ग्रहण होनेवाला है, वह ईश्वर-परमात्मा नहीं है। मनुष्य-शरीर का क्या काम है, श्रीराम ने प्रजा को उपदेश दिया था-
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।
 स्वर्ग के सुख के लालच को भी छोड़ने कहा विषय-सुख के लिए मनुष्य शरीर नहीं है, तब किसके लिए है? नर तन कर फल निर्विषय भाई ।
 यह चेतन आत्मा परमात्मा का अभिन्न अंश है। शरीरस्थ होने के कारण जीवात्मा कहलाता है। यह निजी दशा में रहकर ईश्वर की पहचान कर सकता है, अपने स्वरूप का ज्ञान कर सकता है। अपने की पहचान और ईश्वर की पहचान एक ही है। सहजोबाई का वचन है-‘आपुन ही कूँ खोज मिलै जब राम सनेही।’ बाबा नानक के वचन में है-‘जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई।’ घर के शून्य को जो देख लिया, वह बाहर के शून्य को भी पहचान लेगा। उसी तरह जिसने अपनी चेतन आत्मा को पहचाना, उसने ईश्वर को भी पहचाना। अपनी साधना से वा किसी की दी हुई दिव्य दृष्टि से भी परमात्मा की वा अपने की पहचान नहीं होती। दिव्य दृष्टि के अतिरिक्त आत्म दृष्टि होती है, आत्म दृष्टि में आँख नहीं होती। अर्जुन ने मानव रूप, देवरूप और विराटरूप; तीनों का दर्शन पाया था। विराटरूप को दिव्य दृष्टि से अर्जुन ने देखा। यह भी मायिक रूप ही था। अर्जुन को बोध हो जाय कि कौरव और पाण्डव दल के सभी भगवान के द्वारा मारे गए हैं। इसलिए भगवान ने विराटरूप धारण किया था। अर्जुन को हिम्मत देने के लिए वह रूप धारण किया गया था। अर्जुन देखते हैं कि कौरव-पाण्डव दल के सभी वीर भगवान के विकराल मुँह में प्रवेश करते हैं और कुछ मर-मरकर नीचे भी गिरते हैं। विराटरूप का दर्शन श्रीनारद मुनिजी को भी हुआ था। भगवान ने उनसे कहा- तू मेरा जो रूप देख रहा है, यह मेरी उत्पन्न की हुई माया है। मेरे आत्म-स्वरूप को देखने के लिए इसके भी परे जाना चाहिए। आत्म दृष्टि में आँख नहीं है, लेकिन सभी ज्ञान उसको है। आँख तमाम शरीर को देखती है, लेकिन आँख, आँख को नहीं देख पाती। फिर आँख को आँख से ही आइने का सहारा लेकर देखते हैं। यहाँ साधन-भजन रूप आइने का सहारा लेकर अपने तईं में रह सकोगे। और तब निजी ज्ञान आत्मज्ञान में अपने तईं को अपने से पहचानोगे और ईश्वर को भी पहचानोगे। ईश्वर वही है, जो चेतन आत्मा से पहचाना जाय। इन्द्रियों का संग लेकर अपने तईं को नहीं पहचान सकते। अपने से अपने को पहचानने के लिए साधन-भजन है। आरम्भिक साधन से ही काम पूरा होने का नहीं। तुरीय अवस्था में जाकर ही ईश्वर दर्शन होता है। तुरीय अवस्था में कैसे जाना होगा, कल कहूँगा। जैसे स्थूल मण्डल में स्थूल रूप और स्थूल नाम का सहारा मिलता है, उसी तरह तुरीय अवस्था में आपको क्या सहारा मिलेगा, क्यों मिलेगा, वह युक्तियुक्त है या नहीं? कल के सत्संग में कहूँगा।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेशान्तर्गत अलीगढ़ स्थित स्वामी रामतीर्थ मिशन में दिनांक 17. 10. 1963 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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200. जीव किसको कहते हैं?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 इस संसार को देखकर स्वाभाविक ही प्रश्न होता है कि सबसे पहले का कौन पदार्थ है? यहाँ हम देखते हैं कि एक के बाद दूसरा पदार्थ है। जैसे पहले पृथ्वी फिर पृथ्वी के ऊपर रहनेवाले पदार्थ। इससे आगे बढ़ने पर मालूम होता है कि इससे भी पहले सूर्य बना। बिना सूर्य के पृथ्वी बन नहीं सकती। यह स्थूल पृथ्वी है। स्थूल बिना सूक्ष्म के नहीं बन सकता। आपके शहर में बड़े-बड़े मकान हैं। इतना बड़ा ताजमहल पहले मन में नक्शा बनाए बिना बाहर में बन सकता था? उन दिनों में भी बड़े-बड़े कारीगर थे। महल बनवानेवाले के कहने के अनुकूल मन में नक्शा बनाया होगा वा कागज पर नक्शा बनाया होगा अथवा छोटा-सा मिट्टी का वा पत्थर का बनाया होगा। मन में बने बिना बाहर में नहीं बन सकता। बिना कारण के कार्य नहीं होता। कारण होना चाहिए। अर्थात् बीज होना चाहिए, फिर सूक्ष्म होना चाहिए और तब स्थूल। यह सूर्य और सूर्य के ऊपर जो कुछ भी दूर्बीन से देखे जाएँ, सभी स्थूल हैं। इसलिए स्थूल, सूक्ष्म और कारण मानना पड़ता है। कारण एक ही नहीं है, इसीलिए कारण की खानि को महाकारण कहते हैं। महाकारण किसको कहते हैं? इसमें तीन गुण हैं-रज, सत् और तम। इन तीनों के काम संसार के प्रत्येक पदार्थ में होते हैं। इससे पता चलता है कि ये बिल्कुल-के-बिल्कुल एक ऐसे मशाले से बनें हैं कि जिसमें तीनों गुण मिले हैं। मूल में ऐसा एक मशाला मानना पड़ता है, जिसको त्रयगुणात्मिका साम्यावस्थाधारिणी मूल प्रकृति कहते हैं। रज, सत्, तम; ये तीनों गुण उसमें सम रूप से रहते हैं। एक विनाश करता है, दूसरा उत्पन्न करता है और तीसरा बीच में रहता है, जो थाम्हे रहता है अर्थात् पोषण करता है। तीनों में बराबर-बराबर शक्ति है, इसलिए अपने-अपने काम करते हैं। तीनों की शक्ति बराबर होने से सम अवस्था होती है, इसीलिए उसको साम्यावस्था कहा। वही सब बीजों का भण्डार है। उसी से सब कुछ बनता है। सब कारणों का वह भण्डार है। उसको प्रकृति कहो या महाकारण। अनेक पिण्ड और अनेक ब्रह्माण्ड प्रकृति के जिस अंश से बनते हैं, वह कारण रूप है। कुम्हार पृथ्वी से थोड़ी-थोड़ी मिट्टी लेकर बर्तन बनाते हैं। कब से बर्तन बनते हैं, पता नहीं। बर्तन बनते जाते हैं, फिर भी पृथ्वी है ही। महाकारण से पिण्ड-ब्रह्माण्ड बनने के लिए जो अंश लिया जाता है, वह कारण होता है और महाकारण रहता ही है। इस तरह बाहर ब्रह्माण्ड की यह बात है। ये सब जड़-ही-जड़ है। इनमें कोई हानि नहीं है। जड़ में कोई ज्ञान नहीं होता, इसलिए एक ज्ञानमय पदार्थ भी मानना पड़ता है, जिसको चेतन कहते हैं। गीता के पढ़नेवाले जानते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि मेरी दो प्रकृतियाँ हैं-परा और अपरा। यही चेतन और जड़ दोनों प्रकृतियाँ हैं, इसी से सृष्टि होती है। कुछ वैज्ञानिकां का कहना है कि चेतन कोई भिन्न वस्तु नहीं है। जड़-जड़ के मेल से चेतन हो जाता है, लेकिन इसका बोध नहीं हो सकता। शर्वत बनाने में पानी और चीनी मिलाकर उसमें सौंफ नहीं मिलाया जाय तो सौंफ का स्वाद अथवा गुण उस शर्वत में नहीं हो सकते। इसी तरह जिस मिक्सचर औषधि में जो दवा नहीं मिलाई जाय, उस दवा का गुण उस मिक्सचर औषधि में नहीं हो सकता। जड़-जड़ के मेल से ज्ञानमय पदार्थ हो जाय, मानने योग्य नहीं है। चेतन पदार्थ भी है, जो जड़ से भिन्न है। कठोपनिषद् में आया है कि इन्द्रियों से परे मन है, मन से ऊपर बुद्धि, बुद्धि से परे महतत्त्व, महतत्त्व से ऊपर अव्यक्त है और अव्यक्त से उत्तम पुरुष है।
 इन्द्रियेभ्यः परं मनो मनसःसत्त्वमुत्तमम् ।
 सत्त्वादधि महानात्मा महतो ऽव्यक्तमुत्तमम् ।।
 अव्यक्तात्तु परः पुरुषो व्यापकोऽलिंग एव च ।
 यज्ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्त्वं च गच्छति ।।
     -कठोपनिषद्, अध्याय 2 वल्ली 3
 महतत्त्व अपरा प्रकृति और अव्यक्त परा प्रकृति है। इन दोनों से ऊपर पुरुषोत्तम है। लोगों को कैसे विश्वास हो कि सब कुछ हो जाने के बाद ईश्वर हुआ है। नहीं, सबसे पहले का जो है, वह ईश्वर है। वह अवा¯मनस गोचर है, ऐसा सामवेद में लिखा है। केनोपनिषद् में है कि वह ब्रह्म मन से मनन नहीं किया जा सकता, वह मन-बुद्धि से परे है।
 यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनोमतम् ।
 तदेव ब्रह्मत्वं विद्धिनेदं यदिदमुपासते ।।
 श्रीलक्ष्मणजी ने भगवान श्रीराम से पूछा कि ब्रह्म क्या है, जीव क्या है, माया क्या है? श्रीराम ने कहा-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 इस माया के पसार में जीव पड़ा हुआ है। जीव किसको कहते हैं?
 माया ईस न आप कहँ, जान कहिअ सो जीव ।
 बन्ध मोक्ष प्रद सर्बपर, माया प्रेरक सीव ।।
 रात में सो गए, अपना शरीर, अपना घर, अपना मित्र सभी को भूल गए थे। जगने पर पहले अपने को जाना, फिर घर-परिवार सबका ज्ञान हुआ। जिसको अपने का ज्ञान नहीं है, उसको ईश्वर और माया का क्या ज्ञान होगा। ईश्वर किसको कहते हैं? जो सब को प्रेरण करता है। माया को अपने अधीन रखता है, सबके परे जो है, वह ईश्वर है। ईश्वर-स्वरूप का निरूपण मन-बुद्धि से कर सकते हैं, लेकिन मन-बुद्धि से पहचान नहीं सकते। ऋषि-मुनियों ने कहा है कि अपने से जो जानो, वह है ईश्वर। जैसे आँख से जो जानो वह रूप, कान से जो जानो वह शब्द है। आँख से देखना और कान से सुनना जिसके द्वारा होता है उस आपे को पहचानो। हमारे यहाँ आसानी से कहा जाता है कि राम ईश्वर हैं, शिव ईश्वर हैं, देवी ईश्वरी हैं आदि। लोग कहते हैं कि तब क्या ईश्वर अनेक हैं? अनेक ईश्वर कहते बनता नहीं। तब कहते हैं कि ईश्वर एक ही हैं और सब उनके अधीन हैं। श्रीराम ने तप किया, शिवजी का दर्शन हुआ, शिवजी ने विराटरूप दिखाया। लक्ष्मण अचेत होकर गिर गए, श्रीराम घुटने के बल बैठ गए। इस तरह शिव के उपासक शिव को विशेष बताते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-सबको बराबर जानो, किसी को कम, किसी को बेशी कहना ठीक नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीराम की जैसी स्तुति की, शिवजी की भी स्तुति उसी तरह की। इन्होंने निर्भेद कर दिया। ईश्वर इसमें है, उसमें नहीं,ऐसी बात नहीं।
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
बाबा नानक ने भी कहा है-
   अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
   जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
 अगम कहकर बुद्धि के ज्ञान से वह परे है, ऐसा बताया है। जिसका वारपार नहीं, जो सर्वव्यापक है, वह एक ही पदार्थ सबमें रहता है। न कोई बड़े हैं और न कोई छोटे। शरीर-भाव में जब जैसा मौका हुआ तो एक ने दूसरे को नमन किया। लेकिन सबमें रहनेवाला एक ही है। उसको बुद्धि से पहचान नहीं सकते। अपने से पहचानो। सर्वव्यापी होने से तुम्हारे शरीर में भी है। वही अध्यात्म तत्त्व है। जो अपने द्वारा ज्ञातव्य है, वही ईश्वर है। नौकर-चाकर रूप आँख, कान लेकर ईश्वर के पास चलो, सो नहीं होगा। इन सबों को छोड़कर कैवल्यता में जो प्रत्यक्ष होता है, वह ईश्वर है। इसी के लिए संतों ने यत्न बताया है कि किस तरह तुम जाओगे, वही भक्ति है। अपने को शरीर- इन्द्रियों से छुड़ाकर अकेलेपन में लाओ। चेतन तत्त्व अंतःकरण से भिन्न हो जाय तो वह उसी योग्यता का होता है, जिससे ईश्वर की पहचान कर सके। चाहिए कि साधन को जानकर भजन करें। बाहर की कोई चीज लेने की जरूरत नहीं। बाहर में सत्संग से विचार लेना चाहिए।
 किसी घर में कोई बैठा है और उससे वह बाहर निकलना चाहे तो पहले घर-ही-घर में चलना होगा। इस शरीररूप घर में रहते हो, शरीर के अंदर-ही- अंदर चलो। शरीर को छोड़ो, आगे बढ़ो। जहर खाने से केवल स्थूल शरीर छूटता है और शरीर रह जाते हैं। जैसे बीज के रहने से वृक्ष हो जाता है, उसी तरह सूक्ष्म आदि शरीर के रहने से फिर स्थूल शरीर बन जाता है। साधारण मृत्यु में सब शरीरों से छूटना नहीं होता है। सब शरीरों से छूटने का यत्न सद्गुरु से जानिए और उसका अभ्यास कीजिए, तब कैव- ल्यता प्राप्त होगी और ईश्वर-दर्शन होगा।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेशान्तर्गत आगरा शहर स्थित अशोकनगर में दिनांक 21. 10. 1963 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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201. नभ शतकोटि अमित अवकाशा

प्रिय दर्शनो!
 अब मेरा शरीर उस समय तक आ गया है, जिस समय भगवान बुद्ध ने शरीर छोड़ा था, किंतु मेरा ज्ञान अल्प है। मैंने गुरु महाराज से जो सुना है और अध्ययन से जो जाना हुआ है, वही आप से कह देने का अवसर अभी मुझे मिला है। आपलोग सब जानते हैं, फिर भी कर्तव्यवश कुछ कहता हूँ।
 मैंने गुरुजी से सीखा है कि देखो, घर में कलह होता है। जिस गाँव में रहो, आपस में मेल नहीं रहने से वहाँ भी कलह होता है। इसी तरह देश-विदेश की बात भी समझिए। इस कलह में कोई चैन नहीं पाता। इन कलहों को दूर करने के लिए धर्म की शरण लेते हैं। इस देश में धर्म के नाम पर बहुत से सम्प्रदाय भिन्न-भिन्न नामों से आज हम पाते हैं और नए-नए सम्प्रदायों की स्थापना भी हुई और हो रही है। जब कोई अपने ज्ञान से अपना सम्प्रदाय स्थापित करना चाहते हैं, तो वे यह कोशिश करते हैं कि मेरे सम्प्रदाय की बात विशेष है और दूसरे सम्प्रदाय की कम। यह बात भी कलह पैदा करती है। गुरुजी ने कहा था कि भाई कुछ ऐसा ख्याल रखो कि सभी सम्प्रदायों के अन्दर जो सार-सार उपदेश की बातें हैं, उनको लो और देखो कि उसमें क्या रोचक है, क्या भयानक है और क्या यथार्थ है? उन्होंने मिलाकर देखा कि बाहरी तौर पर सभी सम्प्रदाय भिन्न-भिन्न हैं, लेकिन सार विचार पकड़ो तो किसी से अनमेल नहीं है। धर्म की शरण में जाकर उसकी सार बात को ग्रहण करो तो कलह, क्लेश, झंझट से बच जाएँ।
 हमारे गुरुजी के घर में जो उनके पिता थे और परिवार थे, तुलसी साहब के शिष्य थे। तुलसी साहब ने एक पुस्तक लिखी, जिसका नाम है-घटरामायण। ईश्वर घट-घट के वासी हैं, इसको कोई इन्कार नहीं कर सकता। संतों की वाणी में जैसा ईश्वर का विचार दिया है, लोगों का विचार उससे भिन्न दीखता है। व्यक्त रूप में अर्थात् इन्द्रिय- गोचर रूप ईश्वर-दर्शन मानने से वह अनेक होता है और अव्यक्त ईश्वर इन्द्रिय अगोचर होता है। जब अव्यक्त होता है तो वह सर्वव्यापी होता है। सर्वव्यापी होने से घट-घट-वासी होता है। तब किसी सम्प्रदायवाले को ऐसा नहीं होता है कि हमारा ईश्वर घट-घट-वासी नहीं है। जो व्यक्त रूप अनेक है, वह अनेकता माया की है, न कि परमात्म-स्वरूप की, न शुद्ध आत्म-स्वरूप। जो विचार करते हैं, वे सबसे पहले का कुछ अवश्य मानेंगे कि जो अव्यक्त होगा, वह साधन नहीं होगा, जो सबको अवकाश देनेवाला है। वह ऐसा नहीं मानने से आज जो विद्या मिलती है, उसका खजाना कहाँ है? जो सबसे प्राचीन है, वह अव्यक्त है, व्यक्त नहीं। वह इन्द्रियातीत होने के कारण अव्यक्त है। जो शून्य भी उसमें समा जाता है, इसी को गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-‘नभ शत कोटि अमित अवकाशा ।’
 इसमें भी उनको संतोष नहीं हुआ तो ‘सौ करोड़ कामदेव, सौ करोड़ दुर्गा, सौ करोड़ इन्द्र, सौ करोड़ आकाश, सौ करोड़ वायु, सौ करोड़ सूर्य, सौ करोड़ चन्द्र, सौ करोड़ काल, सौ करोड़ अग्नि, सौ करोड़ पाताल, सौ करोड़ यमराज, सौ करोड़ तीर्थ, सौ करोड़ हिमालय, सौ करोड़ कामधेनु, सौ करोड़ सरस्वती, सौ करोड़ ब्रह्मा, सौ करोड़ विष्णु, सौ करोड़ शिव, सौ करोड़ कुबेर, सौ करोड़ माया, सौ करोड़ शेषनाग,’ आदि बड़ी-बड़ी विभूतियों को कहते हुए कहते हैं कि-
निरुपम न उपमा आन राम समान राम निगम कहै ।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रवि कहत अति लघुता लहै ।।
 अर्थात् जैसे सौ करोड़ जुगनू को सूर्य के समान कहने से उसकी हीनता होती है, उसी तरह ऊपर वर्णित प्रत्येक सौ-सौ करोड़ के तुल्य राम कहने से राम की बड़ी हीनता होती है।
 लोग कहते हैं कि भगवान बुद्ध शून्यवादी थे। ऊपर वर्णित ‘नभ शतकोटि अमित अवकाशा’ के अनुसार गोस्वामी तुलसीदासजी भी यहाँ शून्यवादी हो जाते हैं। कुछ नहीं है, ऐसा कहा नहीं जा सकता। कुछ कहाँ तक कहते हैं? जहाँ तक आपकी बुद्धि जानती है। बुद्धि से जो बाहर है, उसको कहते हैं कि कुछ नहीं है ‘राम’ शब्द से हमको केवल व्यक्त रूप राम को नहीं लेना चाहिए। व्यक्त और अव्यक्त दोनों को लेना चाहिए।
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
                                 -रामचरितमानस
 जो बुद्धि में नहीं आवे, कुछ नहीं कहा जाय तो शून्यवाद हो गया। यदि भगवान बुद्ध ने कहा कुछ नहीं है, तो उन्होंने क्या गलत बात कही? शंकराचार्य को प्रच्छन्न बौद्ध कहते हैं और उनके लिए कहते हैं कि बुद्ध ने जो कहा है शंकराचार्य भी उसी तरह कहते हैं। कबीर साहब और गुरु नानक साहब अव्यक्त में ही अधिक रहे।
 श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
 सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
       -संत कबीर साहब
 उपनिषद् में है-‘अणोरणीयां महतो महीयान्’ और बाबा नानक कहते हैं-
    अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
    जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
    साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु ।
    ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।
 वह है अवश्य। उस पर अपने को न्योछावर करो। सोचो कि आदि में कैसा पदार्थ होगा? मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् में पाँच शून्य का वर्णन किया है। शून्यवाद कहो वा ईश्वरवाद, कोई कुछ कहो, कोई हर्ज नहीं। उसको पाने के लिए बाहर में जाने की जरूरत नहीं। अंदर में जहाँ तक बुद्धि की दौड़ है, वहाँ तक माया है। तुलसी साहब की घट रामायण में है-
 सुन ऐ तकी न जाइयो जिनहार देखना ।
 अपने में आप जलवए दिलदार देखना ।।
 स्वामी विवेकानंदजी के नाम पर आज यहाँ कोई उत्सव हो रहा है। स्वामी विवेकानंदजी महाराज ने कहा है-‘अपनी दृष्टि शक्ति को अंतर्मुखी करो।’ हमारे गुरु महाराज भगवान बुद्ध को आदि गुरु कहते थे। अंतर मार्ग की निस्बत वे कहते थे कि सबसे पहले जो मिलेगा-वह है अंधकार। भगवान बुद्ध ने कहा है-‘अंधकार में पड़े तुम प्रकाश की खोज क्यों नहीं करते?’ ज्योति के रास्ते पर चलने का भी संकेत ‘धम्मपद में है। हमारे गुरु महाराज भी अंतर्ज्योति का वर्णन किए हैं। भगवान बुद्ध के अंतर्नाद का वर्णन थेरीगाथा में किया है, मैंने पढ़ा है। बिना कम्प के कुछ बन नहीं सकता। इसलिए संसार होने के लिए आदिनाद- आदिशब्द हुआ। यह नाद वहाँ से उत्पन्न हुआ, जिसके पहले का कुछ नहीं, जो अनादि, अनंत, असीम है। किसी चीज के निर्माण के लिए शब्द की आवश्यकता है। एक शब्द बोलना, एक अक्षर लिखना, बिना कम्प के नहीं हो सकता। गुरु नानकदेव ने कहा है-
शब्द तत्तु बीर्ज संसार । शब्द निरालमु अपर अपार ।।
सारी स्रिष्टि शब्द कै पाछै। नानक शब्द घटै घटि आछै ।।
कबीर साहब ने कहा है-
साधो शब्द साधना कीजै ।
जेहि शब्द से प्रकट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै ।।
 हमारे बाबा कहते थे कि भगवान बुद्ध भी अंतर्नाद को जानते थे, जो अन्तस्साधन का अभ्यास करते हैं, वे अंतर में प्रवेश कर नाद को किस तरह नहीं पा सकते! चाहे भगवान बुद्ध हो चाहे और कोई संत, सभी ने शब्द और प्रकाश को पाने के लिए कहा।
 संसार में रहने के लिए भगवान बुद्ध ने पंचशील का पालन करने के लिए कहा। अर्थात् झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से बिरत रहने कहा। कोई संत ऐसे नहीं, जो कहें कि इन पंच पापों में से किसी को करो। इस तरह हमको किसी धर्म-सम्प्रदाय में विषमता नहीं दीखती। जहाँ विषमता नहीं, वहाँ कलह और क्लेश, झंझट वा झगड़ा क्या? जहाँ निर्वाण है, वहीं मोक्ष है। कोई निर्वाण कहे, कोई मोक्ष कहे वा कोई ईश्वर की प्राप्ति कहें, एक ही बात है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-‘अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा वसत इति वासना धूप दीजै।’ ऐसा ज्ञान होना चाहिए। उन्होंने एक बड़ी ऊँची बात कही-
उमा राम विषयक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा।।
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहेहु कुविचारी।।
 राम वा ईश्वर के विषय में लोगों को मोह है। जैसे आकाश में अंधकार, धूम और धूलि है। अंध- कार, धूम और धूलि का अपना-अपना मण्डल है। इससे आकाश समाप्त नहीं होता। बहुत दूर तक धूल, बहुत दूर तक धूम और दूर तक अंधकार फैला है, लेकिन और भी कितना आकाश बचा हुआ रह जाता है। उसी तरह ईश्वर के अंदर जड़ माया फैली है, फिर भी उसके अतिरिक्त ईश्वर है। जैसे धूम, धूलि और अंधकार में भी आकाश है और उससे बाहर भी। उसी तरह ईश्वर माया में भी व्यापक है और उससे बाहर भी है। जैसे सूर्य बादल से ढँकता नहीं, उसी तरह ईश्वर माया से आवृत्त नहीं होता। एक ही गाँव में एक तरफ वर्षा होती है और दूसरी तरफ सूर्य दीखता है। बादल कितना भी हो, सूर्य को ढँक नहीं सकता। इसी तरह माया कितनी भी अधिक हो, ईश्वर को ढँक नहीं सकती।
 ईश्वर का ज्ञान बुद्धि में आने योग्य नहीं है। उसकी प्राप्ति चेतन तत्त्व से होगी। कबीर साहब ने कहा-‘चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना।’ चाहिए कि हम इसकी विधि जानें। अपने आप विधि नहीं जानते हैं तो किन्हीं से विधि जानें और अभ्यास करें। अभ्यास करने में पंचशील का पालन जरूरी है। जो पंचशील पालन नहीं कर सकता, वह साधन नहीं कर सकता। पंचशील के पालन से साधन बनता है और साधन बनने से पंचशील पालन में योग्यता आती है। संसार के ऐश्वर्यों को लूट-खसोट कर, मारकर, दूसरे को दुःख देकर भी प्राप्त कर सकते हो, लेकिन निर्वाण को प्राप्त करने के लिए बिना पंचशील के पालन किए नहीं हो सकता। अच्छे आदमी पंचशील पालन करने के लिए अपने मित्र से भी कहता है और स्वयं भी पालन करता है। यदि पंचशील का पालन करनेवाला समाज बन जाए तो सभी शान्तिपूर्वक रहेंगे। कहाँ लड़ाई, कहाँ झगड़ा, कहाँ झंझट?
 स्वराज्य पाने के लिए हमलोग बहुत लालायित थे। उसके लिए लगभग 50 वर्षों तक दिमागी लड़ाई हुई। स्वराज्य मिला, लेकिन सुराज नहीं हो पाया है। इसलिए कि लूट-खसोट, बदमाशी दिन-दिन अधिक ही होते जा रहे हैं। ऐसा क्यों? इसलिए नहीं कि शासन सूत्रधारी इसका प्रबंध नही करते। परंतु इसलिए कि जनता नहीं सम्हलती है। लोग घर में ही अच्छे बनते हैं। घर से लोग विद्यालयों में पढ़ने जाते हैं। जनता ही शासन सूत्रधारी को चुनती है। जनता को कौन ठीक करे? जनता ठीक होगी-साधु संतों के सदुपदेशों को सुनकर उस पर चल कर। हमारे गुरु महाराज कहते थे-सबसे पहले रखो, आध्यात्मिकता तब सदाचारिता, उसके बाद सामाजिक नीति और तब राजनीति। आध्यात्मिकता की ओर से सम्हालो, राजनीति आप ही सुधरेगी। सभी अपने-अपने को अच्छे बनावें। लोग आध्यात्मिकता की ओर ध्यान दें। जब पंचशील का पालन होगा, तभी देश में कल्याण होगा। आपस में यदि सत्य व्यवहार हो तो मुकदमा क्यों हो? अपने को आध्यात्मिकता की ओर ले जाइए। मेरा निवेदन है कि सज्जनगण अपने को इस आध्यात्मिकता में लावें और अपने मित्रों को भी इसमें लाने का कष्ट करें।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेशान्तर्गत लखनऊ शहर स्थित रिसालदार पार्क के बुद्ध विहार मे दिनांक 25. 10. 1963 ई0 को र सत्संग में हुआ था।
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202. सृष्टि को स्ववश में कौन रखता है?

प्यारे लोगो!
 प्रातः उठकर क्या करो? ईश्वर का नाम लो। चाहे कोई भी शब्द हो, जो ईश्वरवाचक हो। राम, अल्लाह, गॉड आदि कुछ भी कहो; यह बड़ी अच्छी बात है। मनुष्य को मालूम पड़ता है कि वह जो कुछ करना चाहता है, उसके सभी कार्य बन नहीं पड़ते। वह स्वतंत्र नहीं है। कोई महान शक्ति उस पर शासन करती है। वही महान शक्ति परमात्मा है। चाहे कोई राजा हो, राष्ट्रपति हो, धनवान हो, ऊँचे पद पर हो; सबको मालूम पड़ता है कि जो कुछ वह करना चाहता है, सभी काम नहीं होते हैं। यद्यपि ईश्वर-परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन हम नहीं पाते, फिर भी बिना ईश्वर माने संशय दूर नहीं होता। कौन ऐसा महान प्रभु है, जो स्ववश में सृष्टि को रखता है। बिना एक महान शक्ति को माने काम नहीं चलता। इसलिए प्रातः स्तुति करो।
 सूर्य नहीं हो तो, जिनके बिना अर्थात् पंच तत्त्वों के बिना हम रह नहीं सकते, हम जी नहीं सकते। पाँच तत्त्व इतना पर्याप्त रूप में हमको मिलता है, जितना चाहिए। वायु के बिना, सूर्य- किरण के बिना हम जी नहीं सकते, बिना मूल्य का मिलता है। मिट्टी से अन्न उपार्जन करके हम शरीर चलाते हैं। अग्नि से हमारा शरीर जीवित है। इस तरह पाँच तत्त्व और सूर्य को परमात्मा ने हमको दिया है। इसके लिए हम कुछ भी-एक पैसा भी नहीं देते। ऐसे परमात्मा की प्रातः स्तुति करो। उनका गुणगान करो।
  हम बचपन में कुछ नहीं जानते। भूख लगती है तो रोते हैं, माता दूध पिलाती है। आगे बढ़कर हम सीखते हैं और मनुष्य होते हैं। शरीर का मनुष्य तो बचपन से ही होते हैं, लेकिन ज्ञान का मनुष्य विद्या प्राप्त करने पर और सत्संग करने पर होते हैं। विद्या वा ज्ञान गुरु से पाते हैं। गुरु के द्वारा ही ईश्वर का ज्ञान होता है। पहला गुरु माता-पिता है। ईश्वर प्रत्यक्ष नहीं है, गुरु प्रत्यक्ष हैं इसलिए गुरु की भी स्तुति करो। ये गुरु एक ही नहीं, बहुत हुए हैं। गुरु संत होते हैं, इसलिए संत स्तुति करो। बिना धर्म के जाने मनुष्य पशुवत् जीवन बिताता है। इसलिए धर्म की परिभाषा और धर्म का सिद्धान्त जानो। प्रातः स्वाध्याय करो। जप को भी स्वाध्याय कहते हैं। आध्यात्मिक पुस्तक पाठ को भी स्वाध्याय कहते हैं। मनुष्य ज्ञान प्राप्त कर पाशविक जीवन से छूटता है। पशुवत् जीवन बिताने से मनुष्य शरीर का जो लाभ होना चाहिए, नहीं होता। मनुष्य शरीर का सबसे कीमती लाभ यह है कि फिर दुःख में आना न पड़े। पुनः-पुनः जन्म लेना और मरना यह दुःख का जीवन है। ऐसा यत्न हो कि सभी दुःखों से छूटा जाय।
 जो मोक्ष को नहीं जानता, वह शरीर से मनुष्य है, लेकिन यथार्थतः नहीं। शरीर का बंधन, संसार का बंधन, मानसिक विकारों का बंधन, इन्द्रियों का बंधन; इन बंधनों में पड़कर जीव कष्टों को पाता है। अन्य शरीरों में इस दुःख के कारण को कोई नहीं जानता। मनुष्य शरीर में इसको जानता है। मोक्ष प्राप्त करने के लिए यत्न करना मनुष्यत्व है। ईश्वर-ज्ञान के बिना यह नहीं होता। जबतक कोई ईश्वर को नहीं जानता, उसे पाने का यत्न नहीं करता। वा जिस तरह संसार के पदार्थों को जानता है, उसके लाभों को जानता है और उसको प्राप्त करता है। इसी तरह ईश्वर को जो नहीं जानता, उसको पाने का यत्न नहीं करता, ठीक नहीं है। ईश्वर का ज्ञान जानो, उसकी भक्ति करो, उससे सुख का लाभ करो। परमानन्द- नित्यानन्द को लाभ करो। जबतक ईश्वर का ज्ञान नहीं हो, तबतक सुख नहीं पा सकता। इसलिए ईश्वर की ओर अपने को ले चलो। गोस्वामी तुलसीदासजी की दोहावली में है-
 हिय निर्गुन नयनन्हिं सगुन, रसना राम सुनाम।
 मनहु पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम।।
 इस दोहा में एक शब्द निर्गुण और दूसरा शब्द सगुण आया है। इन दोनों को जानिए। जिस प्रकार अग्नि का गुण दाहक है, उसी प्रकार तीन स्वभाव हैं-रज, सत् और तम। तमाम संसार में ये तीनों लगे हैं, चौरासी लाख योनियों में से कोई हो। सूर्य, तारे, चन्द्र; सभी में ये तीनों गुण लगे रहते हैं। उत्पन्न होता है, कुछ काल ठहरता है, फिर उसका विनाश होता है। यह संसार तीन गुणों से बना है। तीन गुणों से युक्त को सगुण कहते हैं। निर्गुण कहते हैं, जिसमें ये तीन गुण नहीं हैं। निर्गुण कहने से एक का और सगुण कहने से दो का ज्ञान होता है। पंच विषय गुणमय हैं। पाँच तत्त्व, पाँच विषय से युक्त शरीर गुणमय है। इससे जो युक्त होता है, उसको सगुण कहते हैं और जो नहीं युक्त होता है, उसको निर्गुण कहते हैं, वह कभी देखने में नहीं आता, उसका जन्म नहीं होता। जो निर्गुण है, वह गुण को धारण करता है तो सगुण होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-आँख में सगुण का और अंदर में निर्गुण का ज्ञान होता है। गोस्वामी त ुलसीदासजी राम के उपासक थे, इसलिए उनके शब्दों में राम शब्द अधिक है। और शिवजी की भी उन्होंने स्तुति की है-‘नमामीशमीशान निर्वाण रूपं विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपम्...।’
 ईश्वर को सगुण और निर्गुण दोनों रूपों में मानकर उसकी उपासना कीजिए। द
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यह प्रवचन सारण जिलान्तर्गत इंगलिश हाई स्कूल मशरख में दिनांक 31. 10. 1963 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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203. कल्याण किधर है?

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 यह स्वाभाविक बात है कि मनुष्य अपनी भलाई और कल्याण चाहता है। यह चाहना मनुष्य के लिए कल्याणकर है। लेकिन निर्णय करें कि उसके लिए भलाई और कल्याण क्या है?
जो सुख सुरपुर नरक गेह बन आवत बिनहि बुलाये ।
तेहि सुख कहँ नर जतन करत बहु समझत नहिं समुझाये।।
          -गोस्वामी तुलसीदास
 स्वर्ग का सुख और नरक का सुख, घर का सुख और जंगल में जाकर जो सुख मिलते हैं; ये बिना बुलाए ही आते हैं। इन्हीं सुखों के लिए लोग बहुत यत्न करते हैं; समझाये नहीं समझते हैं। संसार का सुख वा स्वर्ग का सुख, दुःखविहीन नहीं है। कल्याण उसको कहते हैं, जिस सुख के साथ दुःख नहीं है। कल्याण किधर है? काग- भुशुण्डिजी के अनेक जन्म हुए। उनके अन्त के जन्म में जिसमें काक होने का शाप हुआ था और वरदान हुआ था कि जब जिस रूप को धारण करना चाहोगे, कर सकोगे। कागभुशुण्डिजी ज्ञान, योग और भक्ति; सबमें पूरे हो गए थे, तब उन्होंने कहा था-
थाकेउँ सब करि करम गोसाईं। सुखी न भयेउँ अबहि की नाईं।
 मतलब अब कल्याण है। सुख तो हो सकता है, लेकिन कल्याण नहीं हो सकता है। क्योंकि देवता वा मनुष्य दुःख मिश्रित सुख ही भोगते हैं। ईश्वर की प्राप्ति में ही परम कल्याण है। वहाँ वह सुख है, जिसके साथ और जिसके बाद दुःख नहीं है। सूरदासजी ने कहा है-
अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यों गूँगहिं मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै।।
परम स्वाद सबही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै।
मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै।।
रूप रेख गुन जाति जुगुति बिनु, निरालंब मन चकृत धावै।
सब विधि अगम विचारहि तातें, ‘सूर’ सगुन लीला पद गावै।।
 जो सर्वव्यापी परमात्मा है,उसकी महिमा कहने में नहीं आती है। बात ऐसी है जिस तरह गूँगा आदमी मीठे फल के गुण को नहीं बखान कर सकता। उसी तरह ईश्वर प्राप्ति में जो सुख है,वर्णन किया नहीं जा सकता। उसमें परम स्वाद है। प्रत्येक इन्द्रिय का जो स्वाद है, वह परम स्वाद नहीं है। क्योंकि उसमें चाह और तृष्णा बढ़ती है। तृष्णा और इच्छा में शान्ति कहाँ? इच्छा की बढ़ती में क्या-क्या मिले, ठिकाना नहीं। इच्छा के वश में रहकर आदमी कभी कल्याण नहीं पाता। इच्छा पूरी करने के लिए हैरान-हैरान रहता है और इच्छा पूरी हुए बिना ही मर जाता है। ईश्वर-प्राप्ति का स्वाद निरन्तर लगा रहता है। एक फल बहुत अच्छा लगा। खाना खत्म हुआ, केवल स्मृति रही,स्वाद नहीं रहा। परम स्वाद वह है कि सदा प्राप्त ही रहे, कभी उसके स्वाद का अंत न हो, निरन्तर लगा रहे। जिसमें अत्यन्त संतुष्टि होती है, संतुष्टि में इच्छा की निवृत्ति होती है, इसी को कल्याण कहते हैं। नहीं तो कल्याण कहाँ? यह कैसा है? जो मन को, वचन को ग्रहण नहीं है और इन्द्रिय-ज्ञान में भी नहीं है। जो इसको पाता है, वही जानता है। मन-बुद्धि आदि इन्द्रियाँ नहीं रहीं, तब क्या रहा? जो रहा उसी को जीवात्मा चेतन आत्मा कहते हैं। मन-इन्द्रिय को वह स्वाद नहीं मिलता। अपने तईं को मिलता है।
 ज्ञान के अनुकूल बात है कि अपने कल्याण को ठीक-ठीक समझो और उस ओर चलो। कागभुशुण्डिजी ने क्या पाया था? वे ईश्वर-भक्ति में पूर्ण थे। ज्ञान और योग में भी पूर्ण थे, उन्होंने ईश्वर को पाया था। कागभुशुण्डिजी कैसे भक्ति करते थे, पार्वतीजी से शिवजी ने कहा है-
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप यज्ञ पाकरि तर करई।।
आम छाँह कर मानस पूजा। तजि हरि भजन काज नहिं दूजा।।
बट तर कह हरि कथा प्रसंगा। आवहिं सुनहिं अनेक विहंगा।।
        -रामचरितमानस
 सत्संग करते थे, यह भी भक्ति है। ‘प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।’ जप करते थे, मानस पूजा करते थे और मानस ध्यान करते थे। गुरु से पाए मंत्र को मन से जपना मानस जप है और गुरु के बताए मूर्ति का ध्यान मानस ध्यान वा मानस पूजा है। इसके बाद फिर भी ध्यान करते थे। वह ध्यान कौन सा है? उद्धवजी ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि आपका ध्यान किस प्रकार, किस रूप में और किस भाव से करना चाहिए? श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कन्ध में है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-
 सम आसन आसीनः समकायो यथा सुखम् ।
 हस्तावुत्संग आधाय स्वनासाग्र कृतेक्षणः ।।
 इन्दियाणीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाऽऽकृष्य तन्मनः ।
 बुद्ध्या सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः ।।
 तत्सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत् ।
 नान्यानि चिन्तयेद्भूयःसुस्मितं भावयेन्मुखम् ।।
 तत्र लब्ध पदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत् ।
 तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किंचिदपि चिन्तयेत् ।।
 अर्थात् सुखपूर्वक सम आसन से शरीर को सीधा रखकर बैठे, हाथ को तर-ऊपर गोद में रखे और दृष्टि को नासिका के आगे स्थिर करे। बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से खींचकर उस मन को बुद्धि-रूपी सारथी की सहायता से सर्वांगयुक्त मुझमें ही लगा दे। सब ओर से फैले हुए चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थिर करे और फिर अन्य अंगों का चिन्तन न करता हुआ केवल मेरे मुस्कानयुक्त मुख का ही ध्यान करे। मुखारविन्द में चित के स्थिर हो जाने पर उसे वहाँ से हटाकर आकाश में स्थिर करे, तदनन्तर उसको भी त्यागकर मेरे शुद्धस्वरूप में आरूढ़ हो और कुछ भी चिन्तन न करे। तंत्र में आया है-
 ध्यानं शून्यगतं मनः। ध्यानं निर्विषयं मनः।
       -ज्ञान संकलिनीतंत्र
और कबीर साहब की वाणी में है-
 गगन मण्डल के बीच में, तहवाँ झलके नूर।
 निगुरा महल न पावई, पहुँचेगा गुरु पूर।।
 यह सूक्ष्म ध्यान शून्य ध्यान है। भक्तवर सूरदासजी कहते हैं-
 नयन नासिक अग्र है, तहाँ ब्रह्म को वास।
 अविनासी विनसै नहीं, हो सहज ज्योति परकास।।
 इसी को दर्शाने के लिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
वाक्य ज्ञान अत्यन्त निपुण, भव पार न पावई कोई ।
निशि गृह मध्य दीप की बातन्हि तम निवृत्त नहिं होई ।।
 केवल वचन कहने-सुनने से कुछ नहीं होगा। जबतक हृदय में प्रकाश नहीं हो, कल्याण नहीं होगा।
जब लगि नहि निज हृदि प्रकाश अरु विषय आस मन माहीं।
तुलसि दास तब लगि जग योनि भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं।।
 एक बात ज्योति और दूसरी बात शब्द; ये दो बातें खास हैं।
 कबीर कमल प्रकाशिया, ऊगा निर्मल सूर ।
 रैन अंधेरी मिटि गई, बाजे अनहद तूर ।।
               -संत कबीर साहब
 अंधेरी रात मिट गई, प्रकाश हुआ और अनहद तूर बजा। ज्योति और शब्द ईश्वर के मुख्य र्चिं हैं। ध्यानविन्दूपनिषद् में इन्हीं दोनों बातों के लिए कहा गया है। और कहा कि-
 यदि शैल समं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम्।
 भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन।।
वह ध्यान क्या है?
 बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
       -ध्यानविन्दूपनिषद्
 अर्थात् बीजाक्षर परम विन्दु है, उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अनाश) ब्रह्म में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है।
 शब्दातीत अर्थात् अनाम पद में पहुँचकर परम पद पाता है। ये दो वस्तुएँ-प्रकाश और शब्द, बहुत ऊँची हैं। इनके बिना कल्याण नहीं है। जिस सुख में चाहना बनी रहती है, उसमें कल्याण नहीं। स्वर्ग-सुख में तृष्णा बुझती नहीं। किंतु परमात्मा की प्रिप्त में अभिलाषा समाप्त हो जाती है। उस सुख में तृष्णा नहीं रहती है। उसमें परम कल्याण होता है। इसके लिए अपने मन को समेटो। संत दादू दयालजी ने कहा है-
 सब काहु को होत है, तन मन पसरै जाय ।
 ऐसा कोई एक है, उलटा माहिं समाय ।।
 जैसे सूर्य और सूर्य की किरण होती है, उसी तरह मन का एक केन्द्रीय रूप है और दूसरा धारा रूप। धारा रूप से तमाम शरीर में शक्ति और चेतना रहती है, तब इन्द्रियों को विषयों की ओर बहकने में शक्ति रहती है, यह तन-मन है। इस तरह रहकर सुखी होना कभी नहीं हो सकता। तन-मन को समेटकर केन्द्रीय रूप में ले जाओ। इस तरह जो बहिर्मुख से अंतर्मुख होता है, उसी को कल्याण- सुख मिलता है। इस काम को करने में कठिनाई मालूम होती है; क्योंकि कोशिश करते हैं और मन बहकता है। जो इस काम में लगा ही रहता है, कितना भी मन भागता है तो उसको समेट-समेटकर गुरु के बताए र्चिं पर लाता है। मन स्थिर होने लगता है तो चैन मालूम पड़ता है। जो डोरी स्वाभाविक है, वह ब्रह्म ज्योति और ब्रह्मनाद है। इसी के द्वारा मन का सम्हाल होता है।
 मन ही सन्मुख नूर है, मनही सन्मुख तेज ।
 मन ही सन्मुख जोति है, मन ही सन्मुख सेज ।।
 मन की बैठक जहाँ है, उसके सीधे सामने में प्रकाश है। वहाँ समेटकर मन को लाओ।
 मन ही सौं मन थिर भया, मन ही सौं मन लाइ ।
 मन ही सौं मन मिलि रह्या, दादू अनत न जाइ ।।
 पिण्डी मन को सम्हालकर ब्रह्माण्डी मन में लगाओ। मनसे मन मिलकर स्थिर होगा। इसकी युक्ति गुरु से पाकर अभ्यास करे। अभ्यास कैसे करें? घर छोड़कर? नहीं। गुरु नानक साहब के वचन में है-
जोगु न खिंथा जोग न डंडै जोगु न भसम चड़ाइअै ।
जोगु न मुंदी मूंड़ि मुड़ाइअै जोग न सिं´ी वाइअै ।।
अंजन माहिं निरंजन रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।
गली जोगु न होई ।
एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहीअै सोई ।।
जोगु न बाहरि मड़ी मसाणी जोगु न ताड़ी लाईअै ।
जोगु न देसि दिसंतरि भविअै जोगु न तीरथि नाईअै ।।
अंजन माहिं निरंजन रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।
सतिगुरु भेटै ता सहसा तूटै धावतु वरजि रहाईअै ।
निझरु झरै सहज धुनि लागै घर ही परचा पाईअै ।।
अंजन माहिं निरंजन रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।
नानक जीवतिया मरि रहीअै अैसा जोगु कमाइअै ।
बाजे बाझहु सिं´ी बाजे तउ निरभउ पदु पाईअै ।।
अंजन माहिं निरंजन रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।
 जिसको सद्गुरु मिलते हैं, उसका संशय छूटता है, स्वाभाविक ध्वनि में मन लगता है और घर ही में परख होती है। सब लोगों को चाहिए कि ऐसा सुख, जिसमें कल्याण हो, उसके लिए कोशिश करे। कोशिश अपने अंदर करे। जिसको ब्रह्मज्योति और ब्रह्मनाद मिलता है, वही परमात्मा को पाता है, दूसरा नहीं। श्रीमद्भगवद्गीता में आया है कि कर्म करो, कर्म-फलाश छोड़कर कर्म करो, आत्मरत होकर कर्म करो। अपना निशाना अपने अंदर अपने उस पर लगे रहने से आत्मरत होना होता है। इसका यत्न जानकर अपने अंदर अभ्यास करे। इसी में अपना कल्याण है। मैं जहाँ बुलाया जाता हूँ, वहाँ यही बात कहता हूँ। सभी को अपना परम कल्याण बनाना चाहिए।
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यह प्रवचन सारण जिलान्तर्गत इंगलिश हाई स्कूल मशरक में दिनांक 1. 11. 1963 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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