169. संतमत और अनामी मत
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 आपलोगों को मालूम हुआ है कि सहर्षा जिला संतमत-सत्संग का वार्षिक अधिवेशन है। इसलिए आपलोग यहाँ एकत्रित हैं। यह संतमत कोई ऐसा स्वतंत्र या खास सम्प्रदाय नहीं है, जिस स्वतंत्र और खास सम्प्रदाय में कुछ ऐसी कट्टरता होती है कि जिसके कारण खण्डन वा झंझट होने की संभावना होती है। शांति प्राप्त किए महापुरुषों को संत कहते हैं। उन महापुरुषों के विचार एक हैं। उनको ठीक-ठीक समझने और समझाने के लिए संतमत है। किसी एक महात्मा के नाम पर संतमत कहकर यह नहीं चल रहा है। इसमें इसके लिए कोई साहित्य चाहिए। एक बहुत बड़ी नहीं और न बहुत छोटी है, सन् 1940 ई0 में एक पुस्तक छापी गई है, उसका नाम है-सत्संग-योग। जिसने उसको देखा होगा, उसमें उन्होंने देखा होगा कि कितने संतों के वचन उसमें हैं और कितना मिलान है। संतों के नाम अलग-अलग हैं, लेकिन सब का मत एक है और इसी के लिए वह संग्रह किया गया है। हमलोग नित्य के सत्संग में संतमत की परिभाषा और उसके सिद्धान्त का पाठ करते हैं। मैंने जहाँ तक सत्संग किया है और गुरु महाराज के वचनों से सुना है, जाना है कि संतलोग बड़े आस्तिक थे। यह संतमत पूर्ण आस्तिक मत है। यह केवल कलिकाल के संतों का ही ख्याल है, ऐसा नहीं। उपनिषदों का ख्याल भी मिलता है। वेद, उपनिषद् और संतों की वाणियों में एक ही ज्ञान है। मैंने कोशिश की कि लोग जानें कि यह वही बात है, जो बहुत पुरानी है। कुछ लोग ऐसा ख्याल करते हैं कि संतमत वेदानुकूल नहीं है और ठीक इसी के उलटे कुछ लोग कहते हैं कि संतों का ज्ञान वेद से ऊँचा है। मैंने सुना तो आश्चर्यित हुआ कि जो सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद है, उसमें संतों का ज्ञान कैसे नहीं होगा? और वेद से संतों का ज्ञान ऊँचा कैसे होगा? इसलिए मैंने वेद-संहिताओं को मँगाकर पढ़ा और उनसे संकलित कर एक पुस्तक लिखी, जिसको ‘वेद-दर्शन-योग’ कहते हैं।
 पहले के कुछ संत वेद और संस्कृत पढ़े थे और कुछ संत कुछ भी नहीं पढ़े थे। उन्हें केवल सत्संग के द्वारा ज्ञान प्राप्त हुआ था। जैसे कबीर साहब एक अक्षर भी पढ़े-लिखे नहीं थे। सत्संग से ही उनको ज्ञान हुआ। लेकिन उनकी साखी को जब पढ़ते हैं कि-
 कबीर काया समुँद है, अंत न पावै कोय ।
 मिरतक होइ के जो रहै, मानिक लावै सोय ।।
 मैं मरजीवा समुँद का, डुबकी मारी एक ।
 मुट्ठी लाया ज्ञान की, जामें वस्तु अनेक ।।
 तो मालूम होता है कि वे बड़े भारी ध्यानी थे। शरीररूपी समुद्र में उन्होंने गोता लगाया था। उनको सुफी संतों का भी संग था। ठीक है, लेकिन कोई केवल श्रवण और मनन ज्ञान से ज्ञान में पूर्ण नहीं होता। समाधिजन्य ज्ञान में ही पूर्ण ज्ञान होता है। कबीर साहब पूर्ण ज्ञानी थे। गोस्वामी तुलसीदासजी कुछ पढ़े-लिखे थे। इनको संस्कृत में भी कुछ दखल था। सत्संग और साधना के द्वारा संतों ने ज्ञान प्राप्त किया। इन लोगों को ईश्वर की स्थिति में बहुत विश्वास था। साधन-भजन कैसे करो, इसका भी वर्णन इनकी वाणियों में है। मेरे कहने का मतलब यह कि लोग ऐसा न समझें कि कबीर पंथ वा अन्य पंथ वा सम्प्रदाय की तरह यह अलग पंथ ‘संतमत’ है। बल्कि यह ख्याल दिलाता हूँ कि सभी संतों का एक मत है।
 राधास्वामी मत आगरा से चला है। उसमें लिखा है कि राधास्वामी मत अथवा संतमत। इसके प्रथम आचार्य जो हुए, वे गृहस्थ थे, परंतु बड़े भारी त्यागी थे। दूसरे आचार्य भी बड़े त्यागी थे। भारत में सबसे प्रथम भारतीय पोस्ट मास्टर जनरल वही हुए। और इतने बड़े कि मैं कह सकता हूँ कि वे भी अपने गुरु से कम नहीं। प्रथम आचार्य ने कहा कि मेरा तो संतमत और अनामी मत है। परन्तु शालिग्राम का चलाया हुआ राधास्वामी मत है, उसको भी चलने देना। कबीर साहब ने नहीं कहा कि मेरा कबीर पंथ है, परंतु उनके श्रद्धालु शिष्यों ने उनके नाम पर कबीर पंथ रखा। सब संतों की वाणियों और वेदों को पढ़ने पर मुझे पूरा विश्वास हो गया कि सब संतों का एक ही विचार है।
 जहाँ-जहाँ सत्संगी हैं, वहाँ-वहाँ दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, विशेषाधिवेशन और अखिल भारतीय संतमत वार्षिक सत्संग होता है। इस तरह का सत्संग बिहार में अधिक तथा और प्रान्तों में भी होता है। हमलोगों को साम्प्रदायिकता का भेद-भाव रखकर किसी से भेद-भाव नहीं रखना चाहिए। मेरा मत बड़ा और दूसरे का मत छोटा, यह भेद- भाव कर झंझट-झगड़ा वैमनस्य नहीं करना चाहिए। संतमत सिखाता है-‘ईश्वर की भक्ति करो।’ ईश्वर- भक्ति में बिना सदाचारी बने नहीं चल सकता है। सदाचार के बिना संसार में कुशलपूर्वक नहीं रह सकते। अपनी हालत को सोचो, जिस हालत में हो। संसार में किसी भी पद पर रहो, विकारों से दबे रहते हो। बड़ी इज्जत, हुकूमत, धन और विद्या पा लो, फिर भी चित्त की शान्ति और संतुष्टि किसी को है, यह आपलोग विचार कर लीजिए। अगर किन्हीं को है, तो उन्होंने एक बात और की है- ईश्वर की ओर गमन, अन्तर्मार्ग द्वारा। तब उनको शान्ति है, सो भी तब, जब वे पूरे हों। संसार में बड़ा बनिए, सदाचार पालन कीजिए। लोग चाहते हैं-हुकूमत, विद्या और धन। इनके लिए अपने देश और सभी देशों में क्या-क्या होता है, सभी लोग जानते हैं। येन-केन-प्रकारेण करके ऐसा करते हैं। किंतु ईश्वर की भक्ति करने में सदाचार पालन करना आवश्यक होगा। संसार में आप बड़े हां, ठीक है; लेकिन बिना ईश्वर-भक्ति के आप सदाचारी बन न सकेंगे। बिना सदाचारी बने आप संसार में किसी पद पर रहें, कल्याण नहीं पा सकते, शान्ति नहीं पा सकते।
 मुक्तिकोपनिषद् में कहा गया है कि बन्ध और मोक्ष को जानो। वासना से तुम बँधे हो, इससे मुक्त होओ। पिण्ड और ब्रह्माण्ड इन दोनों के बंधनों से छूटो। दोनों को आपस में इतना सामंजस्य है कि पिण्ड के जितने तल हैं, ब्रह्माण्ड के भी उतने तल हैं। पिण्ड जितने तत्त्वों से बने हैं, ब्रह्माण्ड भी उतने तत्त्वों से बने हैं। पिण्ड के जिस तल से जब जो छूटता है, ब्रह्माण्ड के भी उस तल से तब वह छूटता है। इस सिद्धान्त को जो ठीक-ठीक समझते हैं और पिण्ड के तलों को पार करते हैं तो ब्रह्माण्ड के भी तलों को पार कर जाते हैं। जबतक स्थूल वा सूक्ष्म कोई भी तल रहता है, तबतक ईश्वर दर्शन नहीं होता। जबतक ईश्वर-दर्शन नहीं होता, तबतक बंधन नहीं छूटता। इसके लिए संतों ने बाहर में जाना नहीं बताया। अपने अंदर-अंदर चलने कहा, सत्संग करने कहा।
 अध्यात्म-शास्त्र का पाठ करने के लिए मुक्तिकोपनिषद् में भी कहा गया है। यह भी सत्संग है। अपने मन को काबू में करने कहा। जैसे कोई संसार में कुछ अनुष्ठान करते हैं, उसी तरह नित्यानन्द-प्राप्ति के लिए वेदान्त श्रवण आदि करने कहा। वेदान्त में कहा है कि शम,दम, तितिक्षा आदि को पकड़ना चाहिए। श्रवणादि का अर्थ है-श्रवण, मनन, निदिध्यासन और अनुभव-ज्ञान प्राप्त करो। सुनो, समझो, विचारो और उनके अनुकूल साधन करो। साधन समाप्त करने पर ज्ञान पूर्ण होता है। इसी को अनुभव ज्ञान कहते हैं। निदिध्यासन की पूर्णता अनुभव ज्ञान में होती है। केवल पढ़ो और उसका आचरण नहीं करो तो कलछुल के तुल्य हो। जो साधन द्वारा ईश्वर को प्राप्त करने के लिए कोशिश नहीं करते, उन्हें केवल पढ़ने से ही ईश्वर-दर्शन नहीं होता।
 कबीर साहब ने कहा कि घर में रहकर ही ईश्वर-भजन-साधन करो। स्वयं कबीर साहब घर में रहते थे और उपदेश करते थे। यद्यपि लोगों ने इनको बहुत कष्ट भी दिया। गुरु नानक का जीवन ‘राजस’ ठाट का था और कबीर साहब का ‘साधारण’। घर छोड़ने पर ही साधन-भजन कर सकोगे, ऐसा संतों ने नहीं कहा। बल्कि ऐसा कहा कि ‘घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि वन नहिं जावै।’ घर में रहकर सदा एकान्त ध्यान नहीं हो सकता। कभी एकान्त और कभी एकान्त नहीं। इसलिए पलटू साहब ने कहा-
 कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।।
 सो ध्यानी परमान, सुरत से अण्डा सेवै ।
 आप रहे जल माहिं, सूखे में अण्डा देवै ।।
 जस पनिहारी कलस भरे मारग में आवै ।
 कर छोड़ै मुख वचन चित्त कलसा में लावै ।।
 फणि मणि धरै उतारि आपु चरने को जावै ।
 वह गाफिल ना परै, सुरति मणि माहिं रहावै ।।
 पलटू सब कारज करै, सुरति रहै अलगान ।
 कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।।
 जैसे कछुवी का ख्याल अण्डे पर और पनिहारी का ख्याल पानी भरे घड़े पर रहता है, उसी तरह संसार में संसार के कामों को करते हुए भगवान का ध्यान करते रहो। अंत में आती है-सहज समाधि।
 शब्द निरन्तर से मन लागा, मलिन वासना भागी ।
 ऊठत बैठत कबहुँ न छूटै, ऐसी ताड़ी लागी ।।
      -कबीर साहब
दरिया साहब ने कहा है-
  सोवत जागत ऊठत बैठत, टुक विहीन नहिं तारा ।
  झिन झिन जंतर निशदिन बाजै, जम जालिम पचि हारा ।।
 सहज समाधि आखिरी बात है, आरंभ की नहीं। सब दशा में भक्त उसमें लगा रहता है।
 शबद खोजि मन वश करै, सहज योग है येहि ।
 सत्त शब्द निज सार है, यह तो झूठी देहि ।।
      -कबीर साहब
 नादानुसंधान सबसे सरल साधन है। आरंभ में ही कोई इसका ध्यान नहीं करते। इसका ज्ञान सब कोई जानें। गीता में आया कि योगस्थ रहकर कर्म करना। योग कहते हैं-समत्व प्राप्त करने को। समत्व प्राप्त करने का जो साधन है, वह योग है। समत्व में बुद्धि स्थिर हो जाती है। स्थिर बुद्धि का अर्थ है-बुद्धि का स्थिर हो जाना। बिना आत्मरत हुए कोई समत्व नहीं प्राप्त कर सकता। आत्मरत होने के लिए साधन करना होगा-अपना निशाना अपने अंदर, अपने उस पर लगे हुए। गुरु से इसका यत्न सीखो। इस तरह आत्मरत होने से ज्ञान हो जाएगा। आत्मा और अनात्मा को ठीक-ठीक पहचानेगा। वह आत्मरत होगा, जो उपर्युक्त साधन करेगा। भगवान श्रीकृष्ण नित्य प्रति साधन करते थे। श्रीमद्भागवत में लिखा है। मेरे ख्याल से भगवान श्रीकृष्ण को साधन करने के लिए बाकी नहीं था, लेकिन सब लोग ध्यान करें, इसके लिए वे भी त्रय- काल संध्या किया करते थे। योगस्थ रहकर काम करना-‘तन काम में मन राम में।’ यह उसी को होगा, जो समाधि-साधन करेगा। साधन में नादानुसंधान करना होगा, तब पूर्ण आत्मरत हुआ जाएगा।
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यह प्रवचन सहर्षा जिलान्तर्गत ग्राम-बिहारीगंज (वर्तमान मधेपुरा) में दिनांक 27.1.1962 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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170. द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 आजकल हमलोग बहुत कड़ुवे समय के अंदर से चल रहे हैं। लोगों में हल्ला है कि यह अष्टग्रहों के संयोग का समय है। इसमें भयंकर- भयंकर रोग फैलते हैं, राष्ट्रों में युद्ध होते हैं, भूकम्प होता है, आदमी बहुत कष्ट पाते हैं। इन सब बातों से डरकर लोगों ने बहुत से शुभ अनुष्ठान किए हैं। यह बहुत अच्छा है। दुःख से बचने के लिए शुभ कर्म की ओर अपने मन को लगाओ, तो दुःख की ओर से मन हट जाता है। महाभारत के समय बहुत उत्पात हुआ था। युद्ध में युधिष्ठिर के बहुत से लोग मर गए थे, उनका मन राज्य करने में नहीं लगता था, वे जंगल जाकर तप करना चाहते थे। उनका मन बहुत दुःखी था तो उनके मन को दुःख की ओर से फेरने के लिए यज्ञ करवाया गया था। इसी तरह लोग कीर्तन, यज्ञ आदि की ओर मन को लगाकर दुःख को भुलाते हैं। हो सकता है, ईश्वर की कृपा से इन कर्मों से अष्टग्रह-योग का प्रभाव भी कम पड़े। लेकिन लोग जो इतना खर्च कर रहे हैं, यह थोड़े दिनों के लिए। इस आपदा से बढ़कर और भी आपदा है, जो सब दिन लगी रहती है। रामचरितमानस में आया है-
 व्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचण्ड ।
 सेनापति कामादि भट, दम्भ कपट पाखण्ड ।।
 आप इतिहास को याद कीजिए। एक समय ऐसा हुआ कि यहाँ से धन लूटकर ले जानेवाले ले जाते थे, गाँवों को जलाते थे, पुरुषों को गुलाम बनाते थे, स्त्रियों को भी पकड़-पकड़कर ले जाते थे; ऐसा अपने देश में पहले हुआ था। यदि फिर ऐसा हो तो आप इतने डरेंगे कि खाना-पीना भूल जाएँगे। एक बार फ्रांसिसी सेना इंगलैंड में उतर गई, तो डर के मारे इंगलैंड के बहुत लोगों को पेचिश की बीमारी हो गई। यदि आपके ऊपर भी कोई आक्रमण करे तो आपकी क्या हालत होगी? इस तरह मनुष्य की फौज का आक्रमण कुछ काल तक रहता है, फिर नहीं रहता। लेकिन जो आक्रमण सदा से है, उसके दबाव में सब दिन पड़े हैं। उसका कुछ भी डर नहीं, आश्चर्य है! भारत ही नहीं, तमाम संसार में माया की भयानक सेना फैली हुई है। सेना की मार खाते हैं, दुःखद भोग भोगते हैं। फिर भी होश में नहीं आते। माया के सेनापति बाहर में नहीं, सबके अंदर-अंदर हैं। सोचिए, है कि नहीं? कभी काम, कभी क्रोध, कभी लोभ, कभी मोह इतना सताता है कि मनुष्य, मनुष्य नहीं रह जाता है, पशु से भी खराब हो जाता है। इस सेना के दबाव में हम सदा से पड़े हैं। इससे छुटकारा मिले, इसका क्या यत्न है? यह माया किसकी है?
 सो दासी रघुवीर कै, समुझे मिथ्या सोपि ।
 छूट न राम कृपा बिनु, नाथ कहउँ पद रोपि ।।
 कोई उकताकर रोवे, चिल्लावे वा देह को नष्ट करे तो कोई लाभ नहीं होगा। जिसके द्वारा माया रचित है, उसको जानो। यदि उसकी शरण लो तो उसकी जरा-सी कृपा से माया खत्म हो जाए।
जो माया सब जगहिं नचावा। जासु चरित लखि काहु न पावा।।
सो प्रभु भू्र बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा।।
 जिस तरह आपलोग ग्रह से डरकर शुभ अनुष्ठान करते हैं, उसी तरह यह भी डरिए कि आप सब कोई माया की फौज से दबे हैं, इससे छूटें, इसके लिए भी शुभ अनुष्ठान करें। शुभ अनुष्ठान का एक ही यत्न है कि ईश्वर की कृपा प्राप्त करो; क्योंकि ‘छूट न रामकृपा बिनु’ कहा गया है। पहले राम को जानो।
 यह भारत धर्म प्रधान देश है, ईश्वर की मान्यता के लिए मुँह फैलाकर कहता है कि ईश्वर है। हमारे देश में कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करते। वे अनात्म- वादी हैं। लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है। भारत देश की सर्वोत्तम निजी उपज आध्यात्मिक ज्ञान है। राम-राम, शिव-शिव आदि कहने के लिए बचपन से ही हमको सिखाया जाता है। आजतक कितने बच्चे, बूढ़े और जवान इस संसार से चले गए; लेकिन बहुत कम लोग ईश्वर-स्वरूप को जानते हैं। इसीलिए जो ईश्वर नहीं है, उसको भी ईश्वर कहकर मानते हैं। ईश्वर की प्राप्ति नहीं करके ईश्वर की माया को पाते हैं। श्रीकृष्ण भगवान ने कहा है कि भूतों को पूजनेवाले भूतों को, देवताओं को पूजनेवाले देवताओं को और मुझे भजनेवाले मुझको पाते हैं।
 ईश्वर की सत्ता का बोध हमको होना चाहिए। वह ईश्वर राम कैसा है? ‘सोइ सच्चिदानन्द घन रामा। अज विज्ञान रूप बलधामा।।’ विज्ञान का अर्थ है विशेष ज्ञान। लेकिन आजकल यह प्रचलित है कि कुछ सामान लेकर जो यंत्र बनाते हैं, वह विज्ञान है। वैज्ञानिक ऐसे-ऐसे बम,तोप आदि बनाते हैं कि तीन, चार वा पाँच बमों से ही संसार को खत्म कर दें। लेकिन ऐसा एक भी यंत्र नहीं बन सका है कि मृतक को जीवित किया जा सके। कहानी है भगवान श्रीराम के दल के जो लोग मर गए, उन लोगों को अमृतवर्षा करके श्रीराम ने जिला दिया। यह भी विज्ञान है। ईश्वर महावैज्ञानिक हैं। भौतिक वैज्ञानिक संसार के तत्त्वों को लिए बिना कुछ बना नहीं सकते। लेकिन ईश्वर ऐसा वैज्ञानिक है कि बिना उपादान के ही सृष्टि करता है।
 तदि अपना आपु आप ही उपाया ।
   नाँ किछु ते किछु करि दिखलाया ।।
 गुरु नानक ने कहा। इसलिए परमात्मा ‘अज विज्ञान रूप बलधामा’ है। भौतिक विज्ञानी बिना उपादान के एक चुटकी मिट्टी भी नहीं बना सकता। ईश्वर की तरह वैज्ञानिक आधिभौतिक विज्ञानी हो नहीं सकता। रामचरितमानस में कहा गया कि-
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
 किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
 जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
 सोइ सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ ।।
 यह क्या है? जिसका रूप काछते हैं, वह वही नहीं बन जाता। जिसने राजा का रूप धारण किया, वह कौन था?
उमा राम विषयक अस मोहा । नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा ।।
जथा गगन घन पटल निहारी । झाँ पेउ भानु कहेहु कुविचारी ।।
 आकाश में अंधकार, धूल और धुआँ फैला हुआ देखकर कुविचारी कहते हैं कि सूर्य इनसे ढँक गया है। लेकिन एक ही समय में समस्त संसार में धुआँ, धूल वा अंधकार नहीं हो सकता। हमारे यहाँ मालूम होता है कि दिन है और इसी समय अमेरिका में रात है। धुआँ, धूल वा अंधकार समूचे संसार को व्याप नहीं सकता। किसी अंश में है तो और अंश बाकी है। आप जो माया का फैलाव देखते हैं, ईश्वर इससे ढँक गए हैं, ऐसा नहीं। लेकिन ऐसा कि माया के आवरण से आवृत उसका कोई अंश ही हो सकता है। सूर्य बादल, धुएँ और धूल से ढँक नहीं सकता; क्योंकि वह बहुत बड़ा है। बादल का मण्डल उसके सामने बहुत छोटा है। हमारी दृष्टि दूर तक नहीं जाती है, इसलिए सूर्य को नहीं देखकर हम बादल-ही-बादल देखते हैं। इसी तरह माया से आवृत रहने के कारण जो आत्मस्वरूप है, उसे हम नहीं देख पाते। राम वैसा भी है, जिसका जन्म हुआ है-‘जन्म कर्म अगनित हरि केरे।’ और राम वैसा भी है,जिसका जन्म न हो। जन्म होने से आपको कहना पड़ेगा कि वे कभी हुए, उसके पहले वे नहीं थे। मायारूप का जन्म होता है, स्वरूप का नहीं। स्वरूप का कभी होना नहीं होता, वह सदा रहता ही है। स्वरूप के लिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
 अनुराग सो निजरूप जो जग तें विलच्छन देखिये ।
 संतोष सम सीतल सदा दम देहवन्त न लेखिये ।।
 निर्मल निरामय एकरस तेहि हरष सोक न व्यापई ।
 त्रय लोक पावन सो सदा जाकी दसा ऐसी भई ।।
 इसको समझिए। अवतार में देह है, लेकिन आत्मस्वरूप में देह नहीं है। भगवान का जन्म हुआ, इतने बड़े हुए और इतने दिन रहे, यह माया में होता है। लेकिन वहाँ ‘निर्मल निरामय एक रस तेहि हरष सोक न व्यापई’, यह आत्मस्वरूप है। इसका जन्म कभी नहीं हुआ। इसके पहले कुछ नहीं हो सकता। उसको परमात्मा-ईश्वर कहते हैं। जो सबसे पहले का है, वह कितना बड़ा है? अगर कहा जाय कि उसमें सीमा थी, तो आकाश उस सीमा के बाहर था। तब अवकाश पहले हुआ, उसी अवकाश में भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण ने विराट रूप धारण किया वा विष्णु भगवान ने विराट रूप धरकर बलि से पृथ्वी ली थी। मेरा वा आपका जो शरीर इस पृथ्वी पर है, यह माता के गर्भ में था, पीछे इस पृथ्वी पर आया। इसलिए जिसके पहले का कुछ नहीं, अपनी सत्ता से वह इतना व्यापक कि जिस व्यापकता के परे और कुछ मानना असंभव है। जो सदा असीम है, कभी ससीम हो नहीं सकता, वह परमात्म-स्वरूप है। वह असीम है, अपरिमित है, शक्तियुक्त है। गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्द में है-
 ‘व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
   अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।’
‘अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
  जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।’
      -गुरु नानकदेव
 श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
 सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
      -कबीर साहब
 ‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’ (कठोप0) और ‘बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा’ एक ही बात है। बड़े से बड़ा वही हो सकता है, जिससे बड़ा और कुछ नहीं हो। उसी में यह सारा विश्व है और इस विश्व में वह व्यापक है। जो परमात्मा इतना व्यापक है, वह इन्द्रियों से ग्रहण होने योग्य नहीं है। जो जितना अधिक व्यापक होता है, वह उतना ही अधिक सूक्ष्म होता है। जो सबसे अधिक सूक्ष्म होगा, वह सबसे अधिक व्यापक होगा। स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता। हमारी इन्द्रियाँ स्थूल-ही-स्थूल हैं। इन स्थूल इिंन्द्रयांं से उस सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण हो, संभव नहीं। लक्ष्मणजी से श्रीराम ने कहा था-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
       राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
      अविगत अकथ अपार,नेति नेति नित निगम कह ।।
 यह स्वरूप परमात्मा का है। इन्द्रियों से जो ग्रहण हो, वह माया है, व्यक्त है। परमात्मा का असल स्वरूप अव्यक्त है। इसीलिए-
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
 किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
 जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
 सोइ सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ ।।
 जो भाव दीखता है, वह माया है और जो उसमें व्यापक है, वह माया नहीं बना। इस बात को जाननेवाले कम हैं। सब लोगों को यह बूझना चाहिए। श्रीकृष्ण भगवान के कहे अनुकूल जो अव्यक्त को जानते हैं, वे बुद्धिमान हैं। जो अव्यक्त को नहीं जानते, वे मूढ़ हैं।
   अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
   परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।।7-24 ।।
ं उस ईश्वर की कृपा से हम विकारों से छूटेंगे।
क्रोध मनोज मोह मद माया। छूटहिं सकल राम की दाया।।
 उसकी भक्ति हम करें। उसके स्वरूप को जानें। उसकी ओर जानेवाले कम हैं। जो नहीं जानते हैं, वे मोटी भक्ति में लगे रहते हैं। मैं कहता हूँ, मोटी भक्ति का आरंभ करो और सूक्ष्म भक्ति की ओर भी जाओ। मकान की नींव देने से ही काम खत्म नहीं होता, उस पर मकान बनाना होता है। इसी तरह मोटी भक्ति नींव है, उस पर सूक्ष्म की भक्ति मकान है।
 सत्संग ज्ञानयज्ञ है। द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है।
 श्रेयान्द्रव्यमयाद्याज्ज्ञानयज्ञः परंतप ।
 सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ।। -श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 4-33
 यदि श्रद्धा और प्रेम से आप ज्ञानयज्ञ और द्रव्ययज्ञ; दोनों करते हैं, तो आपके दोनां हाथों में लड्डू है। इसके अतिरिक्त अध्यात्म-यज्ञ भी होता है। ज्ञानयज्ञ परोक्ष ज्ञान है, अध्यात्म-यज्ञ प्रत्यक्ष कराता है। भगवान करें कि आप अध्यात्म-यज्ञ भी करें। वेद में भी अध्यात्म-यज्ञ का वर्णन आया है। यह करते-करते होता है।
     कण्वा इन्द्रं यदक्रत स्तोमैर्यज्ञस्य साधनम् ।
                               जामि ब्रबुत आयुधा ।।
    -सामवेद सूत्र, 10 मंत्र 2
 अर्थात् ज्ञानीगण अपने स्त्रोतों द्वारा जब इन्द्र अर्थात् आत्मा ही को जीवनरूप-यज्ञ का साधन बना लेते हैं, तब विद्वान लोग अन्य प्राण आदि इन्द्रिय साधनों या यज्ञ के पात्रादि को प्रयोजन रहित ही सहयोगी मात्र कहते हैं। साधक लोग जब जब अध्यात्मयज्ञ करते हैं, तब द्रव्ययज्ञ व्यर्थ जान पड़ता है।
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यह प्रवचन सहर्षा जिलान्तर्गत ग्राम-बिहारीगंज (मधेपुरा) में दिनांक 27.1.1962 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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171. विकारों ने सतयुग को भी नहीं छोड़ा
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 गुरु महाराज ने मुझको जैसा काम करने की आज्ञा दी है, अवश्य ही वह काम इतना विशाल, इतना भारी है कि मैं उसको पूर्ण रूप से कर सकूँ, यह मुझे बहुत कठिन मालूम हो रहा है। यह सत्संग का काम वही काम है।
 अभी आपने सुना है-‘बिनु सत्संग विवेक न होई।’ सत्संग में सार और असार का ज्ञान होता है। सार और असार का ज्ञान करा देना सरल नहीं है। जो इसको नहीं समझते हैं, वे इसको हल्का समझें, हो सकता है; लेकिन जो इसको जानते हैं,वे जानते हैं कि दर्शनशास्त्र में जो ऊँचा स्थान रखता है, उसमें है कि उसको सार-असार का ज्ञान हो जाए। यह बहुत विशेष बात है। जो जानकार लोग हैं, वे जानते हैं। मैं जो थोड़ा जानता हूँ, वह आपलोगों से कहूँगा।
 पहली बात यह है कि मनुष्य जहाँ भी हो, जिस हालत में हो, वहाँ वह सोचे कि वहाँ उसका रहना कैसा है? अच्छा है या अच्छा नहीं है। जिस हालत में वह है, उस हालत में उसको रहना चाहिए वा नहीं। बुद्धिमान लोग कहते हैं कि आपदाजनक स्थान हो तो वहाँ नहीं रहना चाहिए। जहाँ शान्ति नहीं, वहाँ से उसको शान्ति के स्थान में जाना चाहिए।
 हमलोग इस संसार में रहते हैं। एक गाँव के
लोग जिस हालत में रहते हैं, दूसरे गाँव के लोग भी उसी हालत में हैं। तमाम संसार की यह एक ही बात है। हमलोग जगते हैं, स्वप्न में जाते हैं, गहरी नींद में जाते हैं। पुनः जगते हैं। फिर जिनसे जो काम बन पड़ता है, करते हैं। ऐसा नहीं होता कि किसी देश के आदमी सोए नहीं, जगे नहीं, जगकर काम करे नहीं। बहुत विद्वान, अविद्वान, धनाढ्य वा निर्धन किसी भी तरह के होने पर सोना और जगना लगा ही रहता है। जगने में, स्वप्न में, गहरी नींद में हमलोग क्या-क्या फल पाते हैं, सबको मालूम है। तमाम संसार की यह हालत है।
 हम दूसरों से पूछें कि आपको स्वप्न में, जगने में कैसा होता है? यह पूछना कठिन है; क्योंकि संसार बहुत बड़ा है। किंतु इतिहास-पुराणों को पढ़कर ज्ञात होता है कि जितने पहले हुए, अभी हैं और जो होंगे; सभी सोने-जगने में यही परिणाम पाते हैं और पावेंगे। किसी को जगने में चैन नहीं मिलता है। कहिए कि गहरी नींद में चैन होता है तो इसका पता नहीं कि उस समय वे चैन में थे वा चैन में नहीं थे। जगने पर कहते हैं-बहुत गहरी नींद में सोया। बहुत गहरी नींद के समय इसका ज्ञान नहीं था। ऐसा भी नहीं होता कि गहरी नींद में कोई काम नुकसान नहीं होता। बल्कि कहते हैं कि सो गया तो अमुक काम खराब हो गया। और गहरी नींद की अवस्था बराबर रहती भी नहीं है। इससे जाना जाता है कि वह अवस्था भी ठीक नहीं है। लोग ऐसा भी काम कभी कर लेते हैं, जो नहीं करना चाहिए। इससे जाना जाता है कि हमको इन अवस्थाओं में चैन नहीं है, चाहे कुछ बनकर संसार में रहो। संसार में रहना ही ऐसा है कि शान्तिपूर्वक रहने का स्थान नहीं है।
 बिहार राज्यान्तर्गत पुरैनियाँ जिले के फारबिसगंज के एक ब्राह्मण थे। उनको बहुत कम जमीन थी। सर्वेकाल में उनकी जमीन बटाईदारों ने लिखा ली। बेचारे ब्राह्मण बहुत दुःखी हुए। बटाईदारों से मुकदमा लड़ नहीं सकते थे। इसलिए वे तत्कालीन प्रधान- मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के पास दिल्ली चले गए। बहुत प्रयास और प्रतीक्षा के बाद उनको कई दिनों के पश्चात् 1बजे रात्रि में मिलने का समय मिला। जब वे ब्राह्मण प्रधानमंत्री नेहरूजी के समीप गए तो उन्होंने देखा कि नेहरूजी अपने काम में 1बजे रात होने पर भी बहुत व्यस्त हैं। नेहरूजी ने पूछा-‘कहिए, आप क्या कहना चाहते हैं?’ इन्होंने कहा-‘आपको देखकर लगता है कि आपसे सुखी मैं ही हूँ। इतनी रात तक जगकर काम करने की मुझे कोई जरूरी नहीं रहती। आप इतने बड़े पद पर हैं, फिर भी चैन नहीं है।’ यह सुनकर पण्डित नेहरू बहुत प्रसन्न हुए और इनका काम भी कर दिया। इस लिहाज से दुनिया में रहना अच्छा नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं कि घर-वार छोड़कर गाछ के नीचे रहो। तो गाछ के नीचे रहने पर भी दुनिया कहाँ छूटी? भूख लगने पर कंद-मूल खोजने और प्यास लगने पर कुँए की ओर जाना ही पड़ेगा। अथवा कंद-मूल जंगल में नहीं मिले तो गाँव की ओर, बाजार की ओर जाना ही पड़ेगा। अभी आपने सुना-
 व्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचण्ड ।
 सेनापति कामादि भट, दम्भ कपट पाखण्ड ।।
           -रामचरितमानस
 कोई अपना सिर ऊँचा करना चाहे तो माया की यह प्रचण्ड सेना ऊपर होने नहीं देती। बाहर में तो नहीं, लेकिन सोचिए कि अपने-अपने अंदर हैं वा नहीं? इन विकारों में फँसकर लोग क्या-क्या करते हैं, विचारिए। एक हाकिम के लिए भी और एक किसान के लिए भी वही बात।
 सबसे आसान काम किसानी है, उसमें भी झंझट है। विद्यालय कितना पवित्र होना चाहिए, उसमें भी सुनने में आता है, आपस में झगड़ा-झंझट होती है। निम्न विद्यालय, उच्च विद्यालय, महावि- द्यालय, विश्वविद्यालय की भी यह बात सुनी जाती है। अंगुलि दिखाने का काम श्रीराम से भी हो गया। बालि ने कहा-‘आप तो धर्म के अवतार हैं, आपने छिपकर मुझे क्यों मारा?’ युधिष्ठिर को दब कर झूठ बोलना पड़ा। अर्जुन ने कह दिया-‘भाई साहब! आपको वह दोष लग गया, जो श्रीराम को लग गया था।’
 यह संसार काजल की कोठरी है। यहाँ कुछ- न-कुछ दाग लग ही जाता है और उसका फल दुःख अवश्य होता है। इसलिए इस संसार से भाग जाना अच्छा है। काम, क्रोधादिक विकारों ने सतयुग को भी नहीं छोड़ा। कहते हैं कि पाप विशेष होने पर भगवान का अवतार होता है, तो सतयुग में ही हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष हुए, जिनके लिए भगवान को अवतार लेना पड़ा। त्रेता, द्वापर में भी हुआ और कलियुग में हमलोग देख ही रहे हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
कहहिं वेद इतिहास पुराना। विधि प्रपंच गुन अवगुन साना।।
 इसलिए ऐसा मौका यदि मिले कि इससे निकल जाएँ, तो इससे निकलना ही अच्छा है। आजकल अष्ट ग्रह का डर हमलोगों के यहाँ बहुत है। इस डर के मारे लोग धर्मानुष्ठान करते हैं, यज्ञ करते हैं, कीर्तन करते हैं आदि। डर होना भी अच्छा है। संत कबीर साहब ने कहा-
   डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार ।
   डरत रहे सो ऊबरे, गाफिल खावै मार ।।
 जो लोग उद्यम करनेवाले हैं, सभी यदि डर करना छोड़ दें, आपके जिम्मे जो काम है, उसको छोड़ दें, तो उसका नतीजा बुरा हो जाएगा। अपने ऊपर ही हानि हो जाएगी। ऊपरवाले पद से हटा न दे, नीचे न कर दे; इस डर से लोग नौकरी करते हैं। इस साल लोग यज्ञ बहुत करते हैं, क्यों? डर के मारे। लेकिन यह डर कितने दिनों के लिए? सुनने में आया है कि पण्डित लोग कहते हैं कि अढ़ाई वर्ष तक इसका प्रभाव रहेगा। लेकिन जो माया के प्रभाव जन्म-जन्मान्तर से हमारे ऊपर लगे हैं, उनसे क्यों नहीं डरते हैं? माया की सेना जो कराना चाहती है, वैसा करा लेती है, अपनी इच्छा नहीं रहने पर भी। इसलिए उस बड़े की शरण लेनी चाहिए, जिसके वश में माया है, जिसके इशारे पर माया नाचती है। संत कबीर साहब ने कहा है-
 काल रूपी चक्की चलै, सदा दिवस अरु रात ।
 अगुन सगुन दुइ पाटला, तामें जीव पिसात ।।
 आसे पासे जो रहे, निपट पिसावे सोय ।
 कीला से लागा रहे, ताको विघ्न न होय ।।
 जिस समय कबीर साहब थे, उस समय अष्ट- ग्रह की कोई बात नहीं थी। लेकिन समझिए तो कबीर साहब के पहले भी और अब भी उस काल की चक्की चलती ही रहती है। कीले से तात्पर्य है परमात्मा का। जिसके सहारे से सगुण और निर्गुण सारा विश्व गुँथा हुआ है, जैसे कील से जाँते का पट्टा गुँथा हुआ है। परमात्मा से सटकर रहा तो संसार में भी कुशल है और परलोक में भी। इसी से मोक्ष-मुक्ति-निर्वाण मिलता है।
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करइ उपाई।।
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई। रहि न सकई हरि भगति बिहाई।।
        -रामचरितमानस
 अर्थात् जैसे बिना धरती के जल ठहर नहीं सकता, चाहे कोई करोड़ों उपाय क्यों न करे। हे गरुड़जी! सुनिए, उसी प्रकार हरि-भक्ति को छोड़कर मोक्ष-सुख दूसरी जगह रह नहीं सकता। जहाँ भक्ति है, वहीं मोक्ष है। कोई कहे कि संसार से छूटने का और कोई उपाय है, तो वह हो नहीं सकता। ईश्वर की भक्ति करो कल्याण होगा। ंसंसार में जो कल्याण है, स्वर्ग में जो कल्याण मिलता है, वह अकल्याण में बदल जाता है। इसलिए भगवान श्रीराम ने कहा-
 स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई । -रामचरितमानस
 जहाँ-जहाँ स्वर्गादिक लोक हैं, वहाँ-वहाँ कुछ न कुछ आपदा है। ब्रह्मा को भी दुःख होता है। ब्रह्मलोक में जाने पर भी दुःख होता है।
 राजा श्वेत ब्रह्मलोक गए। उन्होंने दान नहीं किया था। फलस्वरूप उनको ब्रह्मलोक में भूख-प्यास सताने लगी। तब उन्होंने ब्रह्माजी को कहा। ब्रह्माजी ने कहा-‘यहाँ खाने का कोई सामान है ही नहीं। आपने कभी दान नहीं किया, उसका ही फल है कि यहाँ आपको भूख-प्यास सता रही है। इसलिए आप अमुक सरोवर में जाएँ, वहाँ आपका मृत शरीर सुरक्षित है। उसी का भोजन करें। राजा श्वेत ने पूछा-‘महाराज! यह भोग मुझे कब तक भोगना पड़ेगा?’ ब्रह्माजी ने कहा-‘जब आपको अगस्त्य मुनि का दर्शन होगा और जब उनका आशीर्वाद आपको मिलेगा तो आप इस कष्ट से मुक्त हो जाएँगे। राजा श्वेत लाचारी नित प्रति उक्त सरोवर जाते और अपने मृत शरीर का मांस खाकर भूख बुझाते। संयोगवश वहाँ अगस्त्य मुनि पहुँचे। उन्होंने देखा कि दिव्य शरीर है, लेकिन मृत शरीर का मांस खा रहे हैं, तो उनसे पूछा-‘आप कौन हैं?’ राजा श्वेत ने अपना परिचय दिया और आशीर्वाद माँगा। तब वे उस भोग से मुक्त हुए। और स्वयं ब्रह्माजी की भी कहानी है, वह कहने योग्य नहीं है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
नारद भव बिरंचि सनकादी। जे मुनि नायक आतमबादी ।।
मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही।।
तृष्ना केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा।।
     ज्ञानी तापस सूर कवि, कोविद गुन आगार ।
     केहि कै लोभ बिडम्बना, कीन्ह न एहि संसार ।।
     श्रीमद बक्र न कीन्ह केहि, प्रभुता बधिर न काहि ।
     मृगलोचनि के नयन सर, को अस लाग न जाहि ।।
गुन कृत सन्यपात नहिं केही। कोउ न मान मद तजेउ निबेही।।
जोवन ज्वर केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जस न नसावा।।
मत्सर काहि कलंक न लावा। काहि न सोक समीर डोलावा।। चिन्ता साँपिनी को नहिं खाया। को जग जाहि न व्यापी माया।।
कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा।।
सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी।।
 चाहे ऊँचे से ऊँचे दर्जे का स्वर्ग हो, माया की सेना सर्वत्र फैली हुई है। गोलोक भगवान का विहार-स्थान है। सबसे ऊँचा लोक है। वहाँ भी शापा-शापी होती है। जैसे वैकुण्ठ में जय-विजय को शाप हुआ। वैसे ही श्रीदामा को शाप हुआ तो वह राक्षस हो गया। कंस से युद्ध हुआ। दोनों बली थे। कोई हारे नहीं। दोनों में मैत्री हो गई। कंस ने श्रीकृष्ण को मारने के लिए भेजा। श्रीकृष्ण ने उसको मार डाला। संत कबीर साहब ने कहा है-
   तन धर सुखिया कोइ न देखा, जो देखा सो दुखिया हो । उदय अस्त की बात कहतु हैं, सबका किया विवेका हो ।।
   घाटे बाढ़े सब जग दुखिया, क्या गिरही बैरागी हो ।
   सुकदेव अचारज दुख के डर से, गर्भ से माया त्यागी हो ।।
   जोगी दुखिया जंगम दुखिया, तपसी को दुख दुना हो ।
   आसा तृस्ना सबको व्यापै, कोई महल न सूना हो ।।
   साँच कहौं तो कोइ न मानै, झूठ कहा न जाई हो ।
   ब्रह्मा विष्णु महेसुर दुखिया, जिन यह राह चलाई हो ।।
  अवधू दुखिया भूपति दुखिया, रंक दुखी विपरीती हो ।
   कहै कबीर सकल जग दुखिया, संत सुखी मन जीती हो ।।
 संसार से निकल जाने की बात यह है कि जहाँ संसार नहीं है, वहाँ जाया जाय। जहाँ काल की चक्की नहीं है, वहाँ जाया जाय। जहाँ काल है, वहाँ देश है। जहाँ देश है, वहाँ काल है। वहाँ स्पेश एण्ड टाईम ;ैचंबम ंदक ज्पउमद्ध को कोई अलग नहीं कर सकता। देश कालातीत हुए बिना कल्याण नहीं। इसके लिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई ।।
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।। भक्ति से देशकालातीत होना होता है और उस भक्ति के साथ योग होगा, जिससे होगा कि-
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
 इसी योग में शर्करा और बालू का मेल और सफरी मछली का भाठे से सिरा जाना होता है। सफरी मछली छोटी, किंतु बड़ी तेज होती है। वह भाठे से सिरे में जाती है। जो सुरत का सिमटाव करता है, उसकी ऊर्ध्वगति होती है। चेतन की धार ऊपर से नीचे आती है। जो सुरत को समेटकर उस धार में लगाता है, वह उसके उद्गम स्थान पर चला जाता है। चीनी चेतन-धार है और बालू जड़-धार। जो ध्यान करता है, सुरत का सिमटाव करता है,वह जड़-धार से चेतन-धार को फुटा लेगा, जैसे बालू से चीनी को चींटी अलग कर लेती है। यह योग की क्रिया है। ऐसा योगी नींद छोड़कर सोता है और वह उस पद को पाता है, जहाँ शोक, मोह, भय, हर्ष,दिवस नहीं है। गीता में भी कहा है-
 न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः।
 यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।।
 अर्थात् उस पद को सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि प्रकाशित नहीं कर सकती है। जिस परम पद को प्राप्त कर मनुष्य इस संसार में नहीं आते, वह मेरा परम धाम है। संत कबीर साहब ने कहा-
 कहौं उस देश की बतियाँ । जहाँ नहिं होत दिन रतियाँ ।।
  इसलिए सब आपदाओं से बचने के लिए केवल ईश्वर-भक्ति के और कोई साधन नहीं है।
 ईश्वर-भक्ति में ईश्वर-स्वरूप का जानना आवश्यक होता है। इसमें सार-असार का ज्ञान होता है। यह भी विचार लेना अच्छा है कि इस संसार में किसी भी पद पर रहो, कल्याण नहीं। महात्मा गाँधीजी ने पंडित जवाहरलाल नेहरू को मंत्री पद देने कहा, डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनाने कहा, लेकिन अपने उन्होंने कोई पद नहीं लिया। वे बड़े बुद्धिमान थे।
 आत्मा और अनात्मा का विचार ही वेदान्त ज्ञान है। इससे आगे ज्ञान नहीं जाता। जहाँ वेदान्त ज्ञान है, वहाँ कहा गया है कि ज्ञान को दो भागों में बाँटो-परोक्ष और अपरोक्ष। परोक्ष ज्ञान में गलती भी हो सकती है। अपरोक्ष में गलती नहीं हो सकती। परोक्ष ज्ञान के अंदर ही श्रवण, मनन ज्ञान है और जबतक साधन करते हैं, तबतक का निदि- ध्यासन ज्ञान परोक्ष ज्ञान है। यहाँ ज्ञान की पूर्णता नहीं है। पढ़-सुनकर जो ज्ञान होता है, वह अधूरा ज्ञान है। जबतक निदिध्यासन में हो, तबतक भी पूरा नहीं हुआ। निदिध्यासन का अंत होने पर अनुभव ज्ञान होता है और तब पूर्ण ज्ञान होता है।
 श्रवण ज्ञान अग्नि है। मनन ज्ञान बिजली है। निदिध्यासन ज्ञान बड़वानल के समान है और अनुभव ज्ञान प्रलय काल की अग्नि के समान है। सारे द्वैत प्रप०च को जलाकर भस्म कर देती है। यह अद्वैत वेदान्त का कथन है। जो कुछ तुम इन्द्रियों से जानते हो, वह माया है-अनात्मा है। रामायण में आया है-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 इन्द्रियों के ज्ञान से जो ऊँचा ज्ञान है, मन-बुद्धि से भी जो ऊँचा ज्ञान है, मूल प्रकृति का जो ज्ञान है, उससे भी ऊँचा ज्ञान हो। इन्द्रियों से परे मन, मन से परे बुद्धि, बुद्धि से परे प्रकृति, प्रकृति से परे पुरुषोत्तम है। इन्द्रिय-ज्ञान से परे, मन-बुद्धि के परे, जड़-प्रकृति और सच्चिदानंद पद से भी जो ऊँचा है, वह परमात्म-स्वरूप है। उसका कोई मिशाल नहीं। वह देशकालातीत है। देशकालातीत ही माया से परे है। प्रकृति के अन्दर ही विस्तृत्व है, लेकिन जो देश कालातीत है, वह विस्तृतत्व रहित है। देशकाल विस्तृतत्व है। इसलिए देश काल में व्यापक रहने के कारण वह विस्तृतत्व-सा मालूम होता है। लेकिन वह विस्तृतत्व नहीं है। जैसे हवा गिलास में रहने से गिलास जैसी है। गिलास टूट गया तो वह उसका रूप नहीं रहता। जो मन-बुद्धि से नहीं जाना जाय, वह है ईश्वर। प्रश्न है रूप क्या है? तो कहा जा सकता है कि नेत्र से जिसका ज्ञान हो। एक-एक विषय के लिए एक-एक इन्द्रिय है। पाँच विषय हैं। उनके ग्रहण के लिए पाँच इन्द्रियाँ हैं। मन-बुद्धि भी ईश्वर को छूने योग्य नहीं है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 किसी इन्द्रिय गोचर पदार्थ को ईश्वर मानकर वहाँ तक पहुँचा जाय तो वेदान्त संतुष्ट नहीं है। इन्द्रियगोचर जो नहीं है, वह अव्यक्त है। हमलोग व्यक्त मण्डल में हैं। व्यक्त का काम करते हैं। जो अव्यक्त है, उसमें मन कैसे लगावें, ऐसा प्रश्न होता है। इसका भी उत्तर है। जब महाभारत की लड़ाई समाप्त हो गई। युधिष्ठिर राजा बने तो महिलाओं के विलाप से उनका मन उद्विग्न होने लगा। व्यासजी ने सोचा, इसके मन को बदलने के लिए यज्ञ कराना चाहिए। व्यासजी ने कहा-‘तुम यज्ञ करो।’ युधिष्ठिरजी ने कहा-‘महाभारत के युद्ध में इतना खर्च हो चुका है कि अब यज्ञ करने के लिए उतना धन कहाँ है?’ व्यासजी ने कहा- ‘हिमालय में धन बहुत है। राजा मरुत ने यज्ञ किया था। पुरोहितों को इतना दान दिया था कि वे लोग सारे धन नहीं ले जा सके। इसलिए उनलोगों ने उस धन को हिमालय में गाड़ दिया है। मैं उसकी युक्ति बतला देता हूँ, तुम वहाँ से धन ले आओ।’ व्यासजी की युक्ति के मुताबिक हिमालय से धन लाकर युधिष्ठिर ने यज्ञ किया। युधिष्ठिर के लिए पहाड़ का धन अव्यक्त था। व्यासदेवजी ने उसे प्राप्त करने का उपाय बताया। उनकी बात मानकर उनके कहे अनुसार युधिष्ठिर गए और धन लाकर यज्ञ किया। उसी तरह जो अव्यक्त परमात्मा है, उसके लिए जो चलता है, ईश्वर की भक्ति करता है, वह ईश्वर को पाता है।
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यह प्रवचन पूर्णियाँ जिलान्तर्गत महर्षि मेँहीँनगर, कुसहा तेलियारी ग्राम के उच्च प्राथमिक विद्यालय में दिनांक 31.1.1962 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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172.धनुष विद्या की परीक्षा
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 मनुष्य जब सोया रहता है, उसको अपनी खबर नहीं रहती है, उसको अपना ज्ञान नहीं रहता है। जगने पर उसको अपना ज्ञान होता है और तब होता है कि हमको क्या करना चाहिए। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है कि-
मोह निसा सब सोवनिहारा। देखिय सपन अनेक प्रकारा।।
 बात यथार्थ में समझी जाय तो ठीक ही है। जगने का कुछ दूसरा प्रकार भी है। लोग कहते हैं कि पढ़कर, सुनकर और समझकर ज्ञान प्राप्त करना भी जगना है। दरिया साहब कहते हैं-
 माया मुख जागे सभै, सो सूता कर जान ।
 दरिया जागे ब्रह्म दिसि, सो जागा परमान ।।
 जगने के स्थान पर जगते हैं। स्वप्न के स्थान पर जाने से सपनाते हैं और गहरी नींद के स्थान पर जाने से सुषुप्ति अवस्था में जाते हैं। इसी तरह तीनों अवस्थाओं में रहना, सोना है। इसके अतिरिक्त शरीर के चौथे स्थान पर जाने से स्वप्न का बोध होता है, उसी तरह चौथी अवस्था में जाने पर यह जगना भी स्वप्नवत् मालूम होगा। इसके लिए साधना करनी होगी। शरीर और इन्द्रियां में जो सुख भोगना चाहते हैं, उस भोग में तृप्ति नहीं होती। हमको चाहिए कि हम उस सुख को पावें जो कभी छूटे नहीं। वह है नित्य सुख-परमानन्ददायक सुख। लेकिन जबतक हम मोह निद्रा में सोए रहेंगे, तबतक उसका ज्ञान नहीं हो सकता। माया को पकड़कर रखने से पूर्ण सुख कैसे हो सकता है? जबतक कोई श्रवण, मनन के द्वारा जानता है कि ध्यान-योगाभ्यास करने से, ईश्वर पाने से सुख मिलेगा, तबतक केवल जानने से ही वह सुख नहीं होता है। उसके लिए निदिध्यासन और अनुभव ज्ञान प्राप्त करना होगा। ईश्वर आपके शरीर में है और आप भी शरीर के अन्दर हैं। ईश्वर आपके अन्दर है और आप उसे बाहर खोजेंगे तो वह आप को कैसे मिलेंगे? अच्छी और असली बात यह है कि अपने घर में जो चीज हैं, उसे लेने में कोई कठिनाई नहीं होती है। अपने अंदर में परमात्मा को खोजो और पाओ। बाहर की इन्द्रियाँ उस ईश्वर का ज्ञान नहीं कर सकतीं। इन्द्रियां से जो ज्ञान होता है, वह अनात्म-ज्ञान है। बाहर में खोजने से ईश्वर कैसे मिलेंगे? इसलिए बाहर खोजना छोड़कर अंदर चलें। और अंत में स्वयं अपने को चेतन आत्मा को ईश्वर का दर्शन होगा। तुलसी साहब हाथरस में रहते थे। वे सिद्ध पुरुष थे, वे कहते हैं-
  सत सुरति समुझि सिहार साधौ, निरखि नित नैनन रहौ ।
 तुम्हारी वृत्ति बाहर में फैल गई है, उसको समेटो। जो चीज फैली हुई होती है, वह नीचे को गिरती है। जो चीज समेटी जाती है, वह ऊपर उठती है। जिस चीज को समेटिए, उसकी ऊर्ध्वगति होती है।
 द्रोणाचार्यजी धनुष विद्या में अपने शिष्यां की परीक्षा ले रहे थे। उन्होंने काठ का एक पक्षी बनवाकर वृक्ष पर रख दिया और अपने शिष्यों से एक-एक कर उसकी आँख को बेधने के लिए कहा। बेधने के लिए तैयार हो जाने के समय उन्होंने प्रत्येक से पूछा-इस समय तुम क्या देख रहे हो? उत्तर में किसी ने ‘वृष्क्ष सहित पक्षी को’ किसी ने केवल पक्षी को देखने की बात कही। गुरु ने ऐसा कहनेवालों को लक्ष्य बेध करने से रोक दिया। अंत में अर्जुन से भी वही पूछा गया। उसने उत्तर दिया-‘इस समय मैं केवल पक्षी की आँख ही देख रहा हूँ।’ आचार्य ने उसे लक्ष्यबेध करने का आदेश दिया। अर्जुन के बाण ने लक्ष्यबेध कर दिया। अर्जुन सिमटी दृष्टि से देख सकता था। आज भी जो निशाना करते हैं, वह अपनी निगाह को समेटते हैं। अपनी वृति को समेटो तो उसकी ऊर्ध्वगति हो जाएगी। किसी भी चीज को समेटो तो उसकी ऊर्ध्वगति हो जाएगी।
 बर्फ, जल और वाष्प की उपमा से आप इनको जान सकते हैं। एक सेर बर्फ से उसके जल की और जल से उसके वाष्प की अधिक ऊर्ध्वगति होगी। स्थूल से सूक्ष्म का सिमटाव अधिक होता है। मन के साथ चेतन है, इसलिए जहाँ मन है, वहाँ चेतन भी है। अतएव चेतनवृत्ति का सिमटाव करो। जो देखने के जरिए से होता है। सिमटाव से ऊर्ध्वगति होगी और चलते-चलते ईश्वर तक पहुँच जाएगी। जैसे ठाकुरजी के दर्शन के लिए ठाकुरबाड़ी जाते हैं तो वे पवित्र होकर जाते हैं, उसी तरह ईश्वर के पास जाने के लिए अपने को शुद्ध करना होगा। अपने को शुद्ध कैसे करना होगा? अपने शरीर में ज्ञानमयी धारा, चेतन धारा है। उसे इड़ा-पिंगला के संगम स्थल-सुषुम्ना पर स्थिर करो। इसी को तुलसी साहब ने कहा है-
आली अधर धार निहार निजकै निकरि सिखर चढ़ावहीं ।
जहाँ गगन गंगा सुरति जमुना, जतन धार बहावहीं ।।
 यहीं पर संत लोग डुबकी लगाते हैं और अजब स्नान करके पवित्र हो जाते हैं।
 कुछ लोगों को ख्याल है कि ईश्वर को पाने के लिए अंदर-अंदर जाने की क्या जरूरत? जिस रूप में तुम उन्हें भजोगे, उसी रूप में ईश्वर आकर दर्शन देंगे। लेकिन विचारें कि राम, कृष्ण, शिव, काली, दुर्गा आदि के जो रूप मन्दिरों में है, उनके दर्शन हों या उनके प्रत्यक्ष दर्शन हों, किंतु ये रूप दर्शन ही हुए। उनके क्षेत्रज्ञ के दर्शन नहीं हुए। जब रूप दर्शन से ही काम खत्म हो जाता तो भगवान क्यों कहते कि यह करो और वह करो। श्रीराम ने कहा-
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।
 विषय से परे क्या है? निर्विषय यानी इन्द्रियातीत पदार्थ। इन्द्रियों से इन्द्रियातीत का दर्शन नहीं होता। यह दर्शन तभी हो सकता है जब हम अपने अंदर-अंदर चलते हुए इन्द्रियातीत तक पहुँचेगे। जबतक इन्द्रियातीत तक नहीं पहुँचो तबतक कल्याण नहीं। इसलिए अपने अंदर-अंदर चलना चाहिए। जैसा महत्त्व अपने अंदर का है, वैसा बाहर का नहीं।
 इस तरह के पवित्र काम करनेवाले के लिए पवित्र बनना होगा। इसलिए झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों से बचो। जो इस तरह पापों से बचकर रहेगा, विषयों से नहीं गिरेगा। और वह अपने अंदर-अंदर चलते-चलते ईश्वर-दर्शन करेगा। जो इस आत्म-स्वरूप को प्राप्त कर लेगा। वह राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा आदि सब में एक-ही-एक को देखेगा। संतों ने भी दो ही साधन बताए हैं-एक देखने के लिए और दूसरा सुनने के लिए। लेकिन देखने के लिए यह आँख और सुनने के लिए यह कान काम में नहीं आते हैं। सुन्दरदासजी ने कहा है-
 श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै ।
 रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै ।।
 नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै ।
 अंग बिना मिलि संग, बहुत आनंद बढ़ावै ।।
 बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिए रहै ।
         मिलि परमातम सो आतमा, परा भक्ति सुन्दर कहै ।।
 संसार में वैवाहिक संबंध छोड़कर रहा नहीं जा सकता। यदि थोड़े लोग ऐसे हैं तो उनकी गिनती नहीं के बराबर हैं। पुरुषों का धर्म एक पत्नीव्रत पालन करने का और अपनी कमाई से अपनी पत्नी एवं अपने बाल-बच्चों के पालन करने का है। और स्त्रियों का धर्म एक पातिव्रत- धर्म पालन करने का है। स्त्रियाँ पातिव्रत्य-धर्म पालन करें और पुरुष एक पत्नीव्रत-धर्म पालन करें तो सभी सुखपूर्वक रहेंगे।
कहै कबीर निज रहनि सँभारी। सदा आनंद रहै नर नारी।।
 इसके विपरीत होने से सभी दुःखी होंगे। गार्हस्थ्य-धर्म का पालने करते हुए ईश्वर-भजन भी करो। ऐसा ख्याल मत करो कि गृहस्थ आश्रम में ईश्वर-भजन नहीं होता है। गृहस्थ आश्रम में रहिए और ईश्वर का भजन कीजिए। यही संतों की सिखावन है, सो कीजिए।
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यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत रोहतास जिला के डिहरी ऑन सोन में दिनांक 8.2.1962 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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173. सभी देव ईश्वर के बनाए हुए हैं
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 साधारणतया लोग माया की भक्ति करते हैं-धन चाहिए, पुत्र चाहिए, ऐश्वर्य चाहिए आदि। इन्हीं मायिक पदार्थों के लिए घोर परिश्रम करते रहते हैं। फल यह होता है कि जीवन भर शान्तिमय सुख नहीं मिलता। संतों ने कहा है कि माया की भक्ति के साथ ईश्वर की भक्ति भी करो, तभी शान्तिमय सुख मिलेगा।
 ईश्वर की भक्ति में तीन बातों की प्रधानता है- स्तुति, प्रार्थना और उपासना। ईश्वर की स्तुति से उसमें श्रद्धा उत्पन्न होती है, श्रद्धा से प्रेम होता है और प्रेम से साधन करने में मन लगता है। प्रार्थना का अर्थ है-नम्रता सहित कुछ माँगना। मनुष्य के मन में कुछ-न-कुछ माँग सदा लगी रहती है। ईश्वर से सब कुछ मिल सकते हैं। सृष्टि परमात्मा की बनाई हुई है। जितने देव हैं, सब ईश्वर के बनाए हैं। इन देवों को जो शक्ति है, वह ईश्वर से दी हुई है। इसलिए जो वरदान सब देवता मिलकर दे सकते हैं, उनसे विशेष अकेले परमात्मा दे सकते हैं। इसलिए उस ईश्वर से जो कुछ माँगना हो, माँगो। लेकिन ऐसी चीजों को नहीं माँगो, जो आप ही मिलने योग्य है।
 ईश्वर ऐसे हैं कि वे हम सबके योगक्षेम वहन करते हैं। हम सोते हैं और ईश्वर घातक जीव-जन्तुओं से हमारी रक्षा करते हैं। हमलोग सोते हैं और वे सोते ही नहीं और सबका पहरा करते हैं। कोई कहे कि परमात्मा पहरा करते हैं, तो चोरी क्यों हो जाती है? यह इसलिए कि लोग धन संचय करने में अनैतिक यत्नों के द्वारा पाप भी करते हैं। और चोरी करनेवाले उनके पापमय धन को ले जाते हैं।
  भक्त के लिए भक्ति अनमोल पदार्थ है। इसलिए भक्त को ईश्वर से भक्ति मांगनी चाहिए। जो ईश्वर का भजन नहीं करता, उनसे प्रेम नहीं करता, उसका भजन नहीं बनता। ईश्वर का प्रेमी होकर भजन करते-करते भजन बनता है। उपासना- जप और ध्यान को कहते हैं। उपासना में ये ही दोनों बातें खास हैं। मोटी और बाहरी पूजा से आंतरिक सूक्ष्म जप-ध्यान में कुछ लाभ पहुँचता है। लेकिन आडम्बरवाली पूजा हो तो वह किसी काम की नहीं। यदि आप किसी को कह दीजिए कि तुम अधर्मी हो, तो वे चिढ़ जाएँगे। कुछ लोग ऐसे हैं कि जो ईश्वर को नहीं मानते। लेकिन वे संसार में रहकर अच्छा कर्म करते हैं तो वही उसका धर्म है।
 जो अपने धर्म का सिद्धान्त नहीं जानता और अपने को किसी धर्म का माने तो उसका कैसा धर्म है, उसको पता नहीं होगा। धर्म के पहले सिद्धांत में है-ईश्वर की स्थिति, प्रकृति वा माया को जानो। जीवात्मा क्या है? जीव, जगत और ईश्वर, इनके बारे में सिद्धान्त जाना जाता है। जिसमें यह वर्णन है, उसी को वेदान्त-शास्त्र कहते हैं। इसी वास्ते हमलोगों के सत्संग में ईश्वर की स्तुति होती है। उससे ईश्वर की विशेषता का ज्ञान होता है। ईश्वर का गुणगान करना स्तुति है। प्रार्थना कहते हैं कि प्रभु के पास जाने के मार्ग में जो अनुभूतियाँ होनी चाहिए, वह हों। प्रयास करना होगा। प्रयास करनेवाले को सहायता मिलती है। ‘जौं तेहि पंथ चले मन लाई। तौ हरि काहे न होइ सहाई।।’ ळवक ीमसचे जीवेम ूव ीमसचे जीमउेमसअमेण् (गॉड हैल्प्स दोज हू हैल्प्स देमसेल्व्स) जो प्रयास नहीं करता, उसको ईश्वर की सहायता नहीं मिलती।
 ईश्वर संबंधी ज्ञान जब से लोगों को हुआ है, तब से यह ध्यान-उपासना चली आती है। त्रयकाल संध्या बहुत प्राचीन है। ब्राह्ममुहूर्त्त में, दिन में स्नान के बाद और संध्या काल। त्रयकाल संध्या अवश्य करो, अगर आर्य हो। वेद में भी त्रयकाल संध्या की आज्ञा है।
 ओऽम् श्रद्धां प्रातर्हवामहे श्रद्धां मध्यन्दिनं परि ।
 श्रद्धां सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह नः।।
 अर्थात् हम प्रातःकाल में, उस सत्य से जगत को धारण करनेवाले प्रभुशक्ति की प्रार्थना करते हैं। दिन के मध्यकाल में उस सत्य धारक प्रभु का ध्यान करते हैं। सूर्य के अस्तकाल में भी हम उसी श्रद्धामय प्रभु की उपासना करते हैं। हे श्रद्धे! सत्यधारणवति देवि! तू हमें इस जगत में सत्य ही को धारण करा।
 जो त्रयकाल संध्या नहीं करते, वे ‘आतमहन गति’ में जाते हैं।
 जो न तरइ भव सागर, नर समाज अस पाय ।
 सो कृत निन्दक मंद मति,आतम हन गति जाय ।।
        -रामचरितमानस
 वेद, उपनिषद् एवं संतों की वाणियों में उपासना के लिए, ऊँचे दर्जे में दो बातें और नीचे में भी दो बातें हैं। नीचे में जप और मूर्ति-पूजन है।
 एक महाशय मेरे पास संथाल परगना से आए थे। उन्होंने पूछा कि मूर्ति-पूजन करना चाहिए वा नहीं? मैंने कहा-‘मूर्ति-पूजन करना भी चाहिए और नहीं भी करना चाहिए।’ उन्होंने कहा-सो क्यों? मैंने कहा-‘पूजा के लिए, ध्यान के लिए तो मूर्ति पूजन होना चाहिए और मेला-ठेला लगाने के लिए नहीं। यह सुनकर वह चले गए।
 भगवान बुद्ध के बहुत दिनों के बाद उनकी मूर्तियाँ लोग बनाते थे। किसी ने पूछा-‘इतनी मूर्तियाँ क्यों बनाते हो?’ उन्होंने कहा-‘मूर्ति बनाते- बनाते उसका रूप मस्तिष्क में मूर्तिमान हो जाता है और इससे ध्यान में बड़ी सहायता मिलती है।’
 कोई कहते हैं कि मिट्टी, पत्थर वा धातु की पूजा क्यों की जाए? लेकिन जानना चाहिए कि कोई भी मिट्टी, पत्थर वा किसी धातु की पूजा नहीं करता। कोई भी मूर्ति होती है तो उसको देखकर मनोमय रूप बनाता है। कितने संन्यासी ओ3म् का ध्यान करते हैं। मुसलमान अल्लाह लिखकर या अलिफ लिखकर ध्यान करते हैं। ऐसा नहीं कि जिस रूप का ध्यान हम करते हैं, उसी का ध्यान सब कोई करें। जितने भी रूप हैं, सबमें ईश्वर व्यापक है; इसका विश्वास रखना चाहिए।
 ऊँचे दर्जे में भी दो बातें हैं- अन्तर्ज्योति को पकड़ो। इसके लिए शाम्भवी मुद्रा वा वैष्णवी मुद्रा का अभ्यास करना होता है। इसको मन से बनाना नहीं पड़ता। जो दृष्टि-साधन की क्रिया करता है, वही अन्तर्नाद को ग्रहण कर सकता है। जो अन्तर्नाद की उपासना करता है, वही निर्गुण उपासना के योग्य बनता है। निर्गुण शब्द एक-ही-एक केवल ‘शब्दब्रह्म’ है। अक्षरं परमोनादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते।-योगशिखोपनिषद्। अर्थात् अक्षर परमनाद को ही शब्द ब्रह्म कहते हैं। इसी की उपासना निर्गुण उपासना है। ध्यानाभ्यास द्वारा इसकी प्रत्यक्षता होती है।
 संसार में ज्योति और शब्द की कितनी महिमा है, देखिए। संसार में तारा, बिजली, सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि कुछ न रहे तो विचारिए कि संसार रह सकता है वा नहीं? संसार से शब्द को हटा दें तो कुछ काम नहीं चलेगा। किसी देश का शासन नहीं रहेगा। शब्द क्या है? कम्प का सहचर है। कम्प हो और शब्द नहीं हो वा शब्द हो और कम्प नहीं हो; असम्भव है। शब्द के साथ कम्प और कम्प के साथ शब्द अवश्य रहता है। अपने शरीर में कम्प नहीं रहे तो महा मुश्किल हो। जिसका प्रभाव संसार में और शरीर में है, उसको ग्रहण करने के लिए वेद, उपनिषद् और संतवाणी में बहुत वर्णन है।
 पहले ज्योति पकड़ो। ज्योति कैसे पकड़ी जाती है और शब्द कैसे पकड़ा जाएगा? आकाश में बिजली चमकती है, तब ठनका ठनकता है। इशारा है कि पहले बिजली, तब शब्द। गुलाल साहब ने कहा है-‘उलटि देखो घट में जोति पसार।’ अर्थात् बाहर देखना छोड़कर अन्तर्दृष्टि से देखो, फैली दृष्टि को समेटकर देखो। ध्यानविन्दूपनिषद् में है-
 बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
 अर्थात् बीजाक्षर परमविन्दु है, उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर ब्रह्म में लय हो जाता है, तो निशब्द परम पद है। इसी की सहायता से ईश्वर तक पहुँचा जाता है।
 संतों का भेद और पण्डितों का वेद प्रसिद्ध है। वैज्ञानिक पाँच तत्त्वों के स्थूल-सूक्ष्म को लेकर कुछ बनाते हैं। ईश्वर-भजन का यत्न लो, भजन करो, तब वह कल्याण मिलेगा और फिर संसार में आना नहीं पड़ेगा। इसके लिए अपना आचरण अच्छा रखना होगा। जो आचरण में हीन है, वह वहाँ नहीं जा सकता। जो अपना आचरण भला रख सकता है, वही ईश्वर की ओर जा सकेगा।
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यह प्रवचन छपरा जिलान्तर्गत साहिबगंज में श्रीबद्रीनाथ सिन्हा द्वारा आयोजित दिनांक 1.4.1962 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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174. राम कैसा है?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 मैं कोई व्याख्यानदाता, बहुत विद्वान आदि नहीं हूँ। मैंने अपने गुरुजी के पास में बैठकर जो थोड़े समय सत्संग का वचन सुना है, उनके वचन से जो जाना है, उसी जानने पर मैं कहता हूँ। और यह अवश्य है कि अपने वाक्यों में कहता हूँ। क्योंकि उनका वाक्य स्मरण नहीं है, भाव स्मरण है। उन्होंने कहा था-मनुष्य कल्याण चाहता है। मनुष्य ही क्या, प्राणिमात्र कल्याण चाहते हैं। यह उनके भाव से जाना जाता है, जो बोल नहीं सकते। लोग संसार के सुख में कल्याण खोजते हैं, किंतु आज तक पौराणिक वा ऐतिहासिक वर्णन नहीं है कि वे संसार के पदार्थों से कल्याण पा गए। कल्याण का अर्थ है कि वासना का क्षय हो जाए और किसी प्रकार का चाहे आधिभौतिक वा आध्यात्मिक कष्ट बाकी न रह जाए। नित्यानंद- ब्रह्मानंद प्राप्त हो जाए, जिससे भिन्न होने का अवसर नहीं है। इसको संतों की वाणी में खोजो। संतों की वाणी में खोजने के लिए उनका संग करना होगा। यही सत्संग है। सत् को प्राप्त करके साधक पुरुष संत हुए और सत् की प्राप्ति के कारण वे भी सत् हुए। उनकी वाणी सत् है। सत् को पाकर संत हुए, उनका वचन सत् और उनका संग सत्संग है। हमलोग इसीलिए संतों के वचन के अवलम्ब से सतसंग करते हैं। हमलोगों को अपना उतना ज्ञान नहीं कि स्वयं कुछ कह सकें। कुछ लोग उकताते हैं कि सुना, एक साधु आए हैं, उनका प्रवचन सुनूँगा। यहाँ तो गीत गाए-गवाए जाते हैं। कबीर साहब, गुरु नानक साहब, गोस्वामी तुलसीदास आदि संतों के वचन जो हैं, उनके सामने मैं कुछ कहूँ, शोभा नहीं देता। संतों के ज्ञान प्राप्त करने के लिए संतों की वाणी का संग करो। तथा कल्याणमय, कल्याण-स्वरूप परमात्मा को पाने के लिए उनकी भक्ति करो। कल्याण-स्वरूप परमात्मा के लिए बड़ा ऊँचा ज्ञान दिया है। उन्होंने ऐसा नहीं बताया कि दृश्य जगत में जो दृश्य पाते हो, वह ईश्वर है। उन्होंने कहा कि जो परम पुरातन है, वही ईश्वर है। इस परम सनातन के पहले कुछ हो, संभव नहीं है। उसके पहले कुछ हो, तो वह प्राचीन नहीं होगा। जो परम प्राचीन है, वह किसी अवकाश में रहे, संभव नहीं। जो किसी अवकाश में रहेगा, वह साधार हो जाएगा। इसके अतिरिक्त जो कुछ बचेगा, तो वही पहले का हो जाएगा, जिसमें उसकी स्थिति माने तो वह परमात्मा नहीं होगा। परमात्मा किसी आधार पर आधेयता का गुण धारण करे, हो नहीं सकता है। जो अपना आधार आप है, सर्वाधार है, सबको अपने अंदर रखकर सबको अपने प्रभाव से प्रभावित करके शासन में रखता है, वह परमात्मा है। सब जिसके प्रभाव में और शासन में रहते, वह सर्वेश्वर-कुल्ल मालिक हुआ। वह सर्वाधार होते हुए भी आप-ही- आप है। इसलिए दूसरा पदार्थ कुछ और विशेष व्यापक हो ही नहीं सकता। वह सीमाहीन तत्त्व है। उसकी सीमा कहीं नहीं है। अगर ससीम पदार्थ को कोई ईश्वर मानता है, तो प्रश्न होता है कि उसकी सीमा के परे क्या है? जो सीमा के परे है, वह उसके शासन में नहीं है, प्रभाव में नहीं है, वह परमेश्वर हो नहीं सकता। इसके लिए संतों की बहुत वाणियाँ हैं-
 श्रूप अखण्डित व् यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
 सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
 चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
 चून चगून वजूद न मानु तैं सुभानमूना ऐना ।।
           -कबीर साहब
   अलख अपार अगम अगोचरि ना तिसु काल न करमा ।।
   जाति अजाति अजोनी संभउ ना तिसु भाउ न भरमा ।।
   साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु ।
   ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।
   ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु काम न नारी ।
   अकुल निरंजन अपर परंपरु सगली जोति तुमारी ।।
   घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ।
   बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।।
   जंत उपाइ कालु सिरिजंता बसगति जुगति सवाई ।
   सतिगुरु सेवि पदारथु पावहि छूटहि सबदु कमाई ।।
   सूचै भाडै साचु समावै विरले सूचाचारी ।
   तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।
          -गुरु नानकदेव
 व्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचण्ड ।
 सेनापति कामादि भट, दम्भ कपट पाखण्ड ।।
 सो दासी रघुवीर कै, समुझि मिथ्या सोपि ।
 छूट न राम कृपा बिनु, नाथ कहउँ पद रोपि ।।
जो माया सब जगहिं नचावा। जासु चरित लखि काहु न पावा।।
सो प्रभु भू्र बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा।।
सोइ सच्चिदानंद घन रामा। अज विज्ञान रूप बल धामा।।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सब दरसी अनवद्य अजीता।।
 निर्मल निराकार निर्मोहा ।नित्य निरंजन सुख सन्दोहा।।
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाही ं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
 किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
 जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
 सोइ सोइ भाव देखावइ, आपु न होइ न सोइ ।।
                                           -गोस्वामी तुलसीदासजी
और भी संतों के ऐसे वचन बहुत हैं-
 दादू जानै न कोई , संतन की गति गोई।। टेक।।
 अविगत अंत अंत अंतर पट,अगम अगाध अगोई । सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई ।।
 अंड न पिंड खंड ब्रह्मण्डा, सूरत सिंध समोई । निराकार आकार न जोति, पूरन ब्रह्म न होई ।।
 इनके पार सार सोइ पइहैं, तन मन गति पति खोई ।
 दादू दीन लीन चरणन चित, मैं उनकी सरणोई ।।
          -संत दादू दयालजी
 ‘शब्द ब्रह्म परिब्रह्म भली विधि जानिये ।
  पाँच तत्त्व गुण तीन मृषा करि मानिये ।।
  बुद्धिवन्त सब संत कहै ं गुरु सोइ रे ।
  और ठौर सिष जाइ भ्रमे जिनि कोइ रे ।।’
        ‘श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै।
 रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै।।
 नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै।
 अंग बिना मिलि संग, बहुत आनंद बढ़ावै।।
 बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिए रहै।
 मिलि परमातम सो आतमा, परा भक्ति सुन्दर कहै।।’
         -संत सुन्दर दास
 परमात्मा का स्वरूप क्या है, इस पर कहा। जो कोई भक्ति करता है, उसकी इच्छा भक्ति करने की है, करे; लेकिन ईश्वर-स्वरूप नहीं जानता है, तो वह वैसा ही है कि जैसे कोई यात्री यात्रा करता है, लेकिन उसको मि०जल-मकसूद का पता नहीं। ऐसे के लिए गुरु नानक ने कहा है कि वह बेगारी में खटता है। इसलिए स्वरूप-निर्णय अवश्य होना चाहिए। संतों के ज्ञान के मुताबिक कोई ऐसा तत्त्व है वा नहीं?
 अफसोस है कि आजकल के ऊँचे दर्जे के पढ़े लोग पढ़ते समय से ही मिथ्या धारणा में पड़कर नास्तिकवाद का प्रचार करते हैं, मुझे इसमें कभी विश्वास नहीं। संतों की वाणी में विश्वास है। उन्होंने जैसा ज्ञान दिया है, उसको नहीं कहने का अवसर नहीं है। इसके लिए बौद्धिक विश्वास भी है कि उससे विशेष अवकाश नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा, राम कैसा है? तो कहा-
राम काम सत कोटि सुभग तन ।दुर्गा कोटि अमित अरिमर्दन ।।
सक्र कोटि सत सरिस बिलासा। नभ सत कोटि अमित अवकासा।।
    मरुत कोटि सत विपुल बल, रवि सत कोटि प्रकास ।
    ससि सत कोटि सुसीतल, समन सकल भव त्रास ।।
    काल कोटि सत सरिस अति, दुस्तर दुर्ग दुरन्त ।
    धूमकेतु सत कोटि सम, दुरा धरष भगवन्त ।।
प्रभु अगाध सत कोटि पताला। समन कोटि सत सरस कराला।।
तीरथ अमितकोटिसत पावन ।नाम अखिल अघ पूग नसावन ।।
हिमगिरि कोटि अचल रघुवीरा। सिंधु कोटि सत सम गंभीरा।।
कामधेनु सत कोटि समाना। सकल काम दायक भगवाना।।
सारद कोटि अमित चतुराई। विधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई।।
विष्णु कोटि सत पालन कर्ता। रूद्र कोटि सत सम संघरता।।
धनद कोटि सत सम धनवाना। माया कोटि प्रपंच निधाना।।
भार धरन सत कोटि अहीसा। निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा।।
निरुपम न उपमा आन राम समान राम निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रवि कहत अति लघुता लहै।।
एहि भाँति निज निज मति विलास मुनीस हरिहिं बखानहीं ।
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सख पावहीं।।
 इस तरह सौ करोड़, सौ करोड़ कहकर कहा कि यदि सौ करोड़ जुगनुओं के समान सूर्य को कहा जाय, तो सूर्य की हीनता होती है। इसी तरह सौ करोड़, सौ करोड़ की उपमा जो राम के लिए दी गई, इससे राम की बड़ी हीनता होती है। ‘नभ सत कोटि अमित अवकासा’ की उपमा भी ऐसी ही है। विश्वरूप का कोई रूप ऐसा नहीं हो सकता। तात्पर्य यह कि यह उपमा पूरी नहीं हुई। परमात्म- स्वरूप का ज्ञान कितना ऊँचा है, समझ लें। परमात्मा से बढ़कर और विशेष व्यापक कुछ नहीं हो सकता। एक सेर बर्फ की व्यापकता से उसके जल की व्यापकता विशेष होगी और उस जल का वाष्प बना लेने से वाष्प की व्यापकता अधिक होगी। वाष्प से जल की व्यापकता और जल से बर्फ की व्यापकता कम है। अर्थ यह हुआ कि जो जितना अधिक व्यापक होता है, वह उतना ही अधिक सूक्ष्म होता है, परमात्मा इतना सूक्ष्म है कि जिसकी उपमा नहीं हो सकती। हम संसार की चीजों को इन्द्रियों के द्वारा जानते हैं। हमारी इन्द्रियाँ सब मिलकर एक ही वस्तु को ग्रहण नहीं करतीं; प्रत्येक इन्द्रिय एक-एक विषय को ग्रहण करती है। नेत्र से रूप विषय, कान से शब्द विषय, जिभ्या से रस विषय, त्वचा से स्पर्श विषय और नाक से गंध विषय ग्रहण करते हैं। एक इन्द्रिय से दूसरे विषय का ग्रहण नहीं हो सकता। हमारी सब इन्द्रियाँ इनके ग्रहण करने के योग्य नहीं हैं। ये सभी स्थूल हैं। स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण हो सकना पूर्ण असंभव है। आप विद्वानों के सामने क्या कहना? छोटी घड़ी में जितने कल-पूर्जे होते हैं, बड़ी घड़ी में भी उतने ही। और छोटी घड़ी के कल-पूर्जां को खोलने वा लगाने के लिए जिन- जिन यंत्रां की आवश्यकता होती है, बड़ी घड़ी के कल-पूर्जां को खोलने वा लगाने के लिए उन्हीं- उन्हीं यंत्रों की आवश्यकता होती है; किंतु बड़ी घड़ी के यंत्रों से छोटी घड़ी में काम नहीं कर सकते। उसके लिए उस तरह के महीन यंत्रों की आवश्यकता होती है। इससे प्रत्यक्ष विदित है कि मोटे यंत्र से मोटी-मोटी चीजों को ग्रहण करो और बारीक चीज के लिए बारीक यंत्र चाहिए। हमारी इन्द्रियाँ मोटी-मोटी हैं। परमात्मा परम सूक्ष्म हैं, इसलिए इन मोटी इन्द्रियों से सूक्ष्म परमात्म-स्वरूप को नहीं ग्रहण कर सकते। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है कि-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 संतों की वाणी से जो परमात्म-स्वरूप निर्णय है, उसको इन्द्रियों से ग्रहण नहीं कर सकने के कारण उसे अगोचर, अव्यक्त कहते हैं। भक्त इस पद तक पहुँचे, तब भक्ति पूरी होगी। इसी को पाकर कल्याण पाता है, और से नहीं।
 देव दनुज मुनि नाग मनुज सब, माया बिबस विचारे ।
 तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु, कहा अपुनपौ हारे ।।
                -गोस्वामी तुलसीदासजी
 देवताओं के लिए रामचरितमानस में कैसा लिखा है, पढ़ लें-
  आये देव सदा स्वारथी । वचन कहहिं जनु परमारथी ।।
 कबीर साहब को संस्कृत नहीं आती थी, वे कहते थे-‘देवता पित्तर भूइयाँ भवानी, यह मारग चौरासी चलन की’ तथा ‘गुड़वा गुड़िया सूप सुपलिया तज दे बुध लड़कैयाँ खेलन की।’
 श्रीमान् डॉक्टर सम्पूर्णानन्द महोदयजी ने ‘गुड़वा गुड़िया’ का वर्णन किया, किंतु ‘सूप सुपलिया’ नहीं कहा; लेकिन दोनों सम ही है। यह स्थूल उपासना की बात है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने यह भी कहा है कि-
 पात पात के सींचबो, बरी बरी के लोन ।
 तुलसी खोटे चतुरपन, कलि डहके कहु को न ।।
 इसमें आप ठगे जाएँगे। बरी बनाने में एक एक बरी को अलग-अलग नमक देने से किसी बरी में नमक ठीक हो, किसी में अधिक हो, किसी में कम हो, सम्भव है। लेकिन बेसन में ही नमक दे देने से सबमें बराबर रूप से रहेगा। उसी तरह वृक्ष के पत्ते-पत्ते में पानी देने से वृक्ष सूख जाय, सम्भव है। लेकिन उसकी जड़ में पानी दो, वृक्ष हरा-भरा रहेगा। इसी तरह एक ईश्वर की भक्ति में सबकी उपासना हो जाएगी। कोई कहे कि देवता की उपासना नहीं करके ईश्वर की उपासना करने से देवता नाराज हो जाएँगे, तो यह हँसी की बात है। जो देवता ईश्वर की उपासना से नाखुश हो, वह देवता, देवता नहीं।
 वह ईश्वर इन्द्रियगम्य नहीं है। उसकी भक्ति करने के लिए संत लोग कहते हैं। यह कैसे हो? किससे जाना जाएगा? यहाँ पर तुलसी साहब कहते हैं, पहले अपने को जानो। ‘सत सुरति समुझि सिहार साधौ। निरखि नित नैनन रहो।।’ सुरत का अर्थ कहीं-कहीं ख्याल भी है। बेशी करके ‘चेतन आत्मा’ अर्थ लिखा है। ‘अनुराग सागर’ में लिखा है-
आदि सुरत सत पुरुष तें आई। जीव सोहं बोलिये सो ताई।।
 उनका यह पारिभाषिक शब्द है। दादू दयालजी के शब्दों में है-‘सूरत सिन्ध समोई।’ परमात्मा इतना व्यापक है कि सुरत का समुद्र भी उसमें घुसा हुआ है। चेतन आत्मा सत् है, इसको जानो। ‘मैं हूँ’ सबको ज्ञान होता है। ‘मैं नहीं हूँ’ यह किसी जीवित को ज्ञान नहीं होता। शरीर है, शरीर पर कपड़ा है, इसका ज्ञान सबको है। लेकिन ‘मैं हूँ़’, सो नहीं पहचानते। शरीर को देखकर पता चलता है कि जैसा कि वानरराज बालि की रानी तारा से श्रीराम ने कहा था-
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।
 यह शरीर पाँच तत्त्वों से मिलकर बना है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश; ये सभी अज्ञानमय पदार्थ हैं। इन अज्ञानमय पदार्थों के मिलन से ज्ञानमय पदार्थ हो गया, यह विश्वास करने योग्य नहीं है। इसका भी प्रचार होता है। मैं कहता हूँ, आप पानी, चीनी और सौंफ मिलाकर शर्बत बना लीजिए; किंतु उसमें नींबू नहीं डालिए तो क्या उस शर्बत में नींबू का स्वाद और गुण आ सकता है? अथवा आप जिस मिक्सचर दवाई में क्विनाइन नहीं मिलाते हैं तो उस औषधि में क्विनाइन का गुण आ जाता है क्या? यदि नहीं तो सब अज्ञानमय पदार्थों के मिलने से चेतन हो जाय, यह भी विश्वास करने योग्य नही है। श्रीमद्भगवद्गीता में अपरा और परा प्रकृति का वर्णन किया गया है। इन दोनों प्रकृतियों से रचना होती है। यहाँ शरीर और इन्द्रियों को पहचान लेते हैं। मैं कहता हूँ कि मेरा शरीर, मेरा मन, मेरी बुद्धि आदि कहकर जानता हूँ कि ये सब मेरे हैं, मैं इन सबका मालिक या इनमें शक्ति प्रदान करनेवाला हूँ। अपना स्वरूप जो चेतनमय है, उसका ज्ञान इन्द्रियों से नहीं होता। मैं स्वयं अव्यक्त हूँ; परमात्मा तो अव्यक्त हैं ही। कितने कहते हैं कि अव्यक्त में कैसे लगूँगा? मैं कहता हूँ कि आप भी अव्यक्त हैं और परमात्मा भी अव्यक्त; अव्यक्त को अव्यक्त पकड़ेगा, ग्रहण करेगा। कबीर साहब कहते हैं-
ऊँचा महल अजब रंग बंगला, साई ं की सेज वहाँ लागी फूलन की।
तन मन धन सब अर्पण कर वहाँ, सुरत सम्हार पड़ ूँ पैयाँ सजन की।।
कहै कबीर निर्भय हो हंसा, कुंजी बता द्यों ताला खुलन की।।
 इसकी कुंजी संतों के पास है, लेकर खोलिए। गुरु नानक ने कहा है-
 घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ, घटि घटि जोति सबाई।
 बजर कपाट मुकते गुरमती, निरभै ताड़ी लाई।।
 कैसे ग्रहण करोगे, तो कहा-गुरुमुख अर्थात् गुरु की आज्ञा के अनुकूल चलनेवाला निर्भय ध्यान लगाता है और जिस आवरण के कारण दर्शन हम नहीं पाते हैं, उस आवरण को तोड़ देता है। उसको तोड़ने वा खोलने की युक्ति है। जबतक युक्ति नहीं मिली है, तबतक क्या करें? उसकी खोज कीजिए। खोज करने में रहने पर भी उस ओर आपका ख्याल है। एक कथा मैं कहूँ-
 महाभारत युद्ध के उपरान्त युधिष्ठिर का मन नहीं लग रहा था; क्यों कि वे महाशोकित थे। व्यासदेव जी ने उनका मन दुःख की ओर से फेरने के लिए यज्ञ में लगाना चाहा और उन्हें यज्ञ करने कहा। युधिष्ठिर ने कहा कि यज्ञ करने के लिए हमारे पास धन कहाँ? व्यासदेवजी ने कहा-‘मैं तुझे धन का पता बताता हूँ। राजा मरुत ने यज्ञ किया था, उन्होंने इतना दान दिया कि दान लेनेवाले उस धन को नहीं ले जा सके। वह धन पहाड़ में गड़ा हुआ है।’ युधिष्ठिर ने व्यासदेवजी की बात पर विश्वास किया और उनके संकेत के अनुसार पहाड़ से उखाड़कर धन लाए और उससे यज्ञ किया। वह धन युधिष्ठिर के लिए अव्यक्त था। व्यासदेवजी के वचन में उन्होंने विश्वास किया; व्यासदेवजी ने जो रास्ता बताया, उस रास्ते से वे गए, अनुष्ठान बताया, सो किया। उनको धन मिला और उससे यज्ञ किया। इसी तरह संतों के वचनों में विश्वास करना चाहिए। वे जो रास्ता बताते हैं, उसपर चलना चाहिए। जहाँ धन है, जो धन है, उसे पाने की कुंजी वे बता देंगे।
 इन्द्रियों से वियुक्त होकर, कैवल्य दशा में रहकर उस अव्यक्त को पा सकते हो। तुम भी अव्यक्त और परमात्मा भी अव्यक्त है। वह कहाँ है? संत दादू दयालजी ने कहा है-
 अविगत अंत अंत अंतर पट, अगम अगाध अगोई ।
 सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई ।।
 चलते-चलते जहाँ चलना बाकी नहीं, गति समाप्त हो जाय और इधर से जाओ, तो सबका जहाँ अंत हो जाय, वह अंतरपट के अंत में है। वह कहने योग्य नहीं है, तीन शून्यों के पार में है। पहला यह शून्य है जहाँ हमलोग हैं। यह अंधकार का शून्य है। दूसरा प्रकाश का और तीसरा शब्द का शून्य है।
 यह स्थूल जगत की भी सभी चीजें हम नहीं देख पाते हैं, तो दूरबीन, खुर्दबीन आदि से देखते हैं, फिर भी सभी चीजें नहीं देख सकते। सूर्य को अन्य किसी प्रकाश से हम नहीं देखते। सूर्य को सूर्य की प्रकाश से ही देखते हैं। उसी तरह ईश्वर को ईश्वर की ज्योति से ही देख सकते हैं। गुरु नानक साहब ने कहा है-
      घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ।
      बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।।
 सूर्य की ज्योति को देखकर जैसे सूर्य को देखते हैं, उसी तरह ईश्वर की ज्योति आपके अंदर है, इसके द्वारा ईश्वर को पहचानिए। अंदर में कहा, बाहर में क्यों नहीं जाने कहा? इसलिए कि बाहर में आप इन्द्रियों के संग रहेंगे और अंदर- अंदर चलने से आप इन्द्रियों से छूटते जाएँगे।
 जाग्रत और स्वप्न के बीच में एक अवस्था होती है, जिसे तन्द्रा कहते हैं। उस समय एक सरूर-चैन मालूम होता है और मालूम होता है कि शक्ति भीतर की ओर खिंची जा रही है। धीरे-धीरे शक्ति भीतर सिमट जाती है, स्वप्न में चले जाते हैं। उस समय यदि आपके मुख में मिसरी का टुकड़ा है और स्वप्न में देखते हैं कि नीम का पत्ता खा रहे हैं तो मिसरी का मीठा स्वाद नहीं लगकर नीम का कड़वा स्वाद मालूम होगा। इससे जाना जाता है कि अंदर प्रवेश करने से इन्द्रियों से छूटना होता है। इन्द्रियों के ज्ञान से छूटकर जहाँ आप अकेले होंगे, वहीं ईश्वर-दर्शन होगा। जहाँ इन्द्रियों से छूटे, वहीं ईश्वर-दर्शन और परम कल्याण होगा। इसी के लिए कबीर साहब ने कहा-
 घूँघट का पट खोल र े, तोको पीव मिलेंगे ।
 शरीर का आवरण चेतन आत्मा के ऊपर है। यह शरीर एक ही नहीं है। कबीर साहब ने कहा है-
साधो ! षट प्रकार की देही ।
स्थूल सूक्ष्म कारण महाकारण कैवल्य हंस की लेही।।
 केवल ‘हंस’ मुक्त शरीर ही है। इधर चार जड़ शरीर हैं- स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण। संत दादू दयालजी ने कहा है-
 नीके राम कहतु है बपुरा ।
  घर माहैं घर निर्मल राखै, पंचौं धोवै काया कपरा ।।
 स्थूल शरीर को स्नान और अंतःकरण की पवित्रता से पवित्र करते हैं। स्थूल से सूक्ष्म निकल जाय तो सूक्ष्म शरीर पवित्र हो जाएगा। संत दरिया साहब (बिहारी) ने कहा है-
    भीतर मैल चहल के लागी, बाहर तन का धोवै है ।
    अविगत मूरति महल के भीतर, वाका पंथ न जोवै है ।।
 स्थूल से सूक्ष्म ऊपर उठ जाय, यह सूक्ष्म की पवित्रता है। इसी तरह कारण के ऊपर से सूक्ष्म शरीर हट जाय, तो कारण शरीर पवित्र हो जाय और महा- कारण के ऊपर से कारण शरीर हट जाय, तो महा- कारण की पवित्रता है। चेतनमय शरीर की पवित्रता तब है, जबकि जड़ का बिल्कुल संग छूट जाय। इन्द्रियों से यह बहुत दूर है। लोग रेकार्ड में गाते हैं-
 हाय रे इन्सान की मजबूरियाँ,
       पास रहकर भी है कितनी दूरियाँ ।
कबीर साहब ने कहा है-
 कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूढ़ै वन माहिं ।
 ऐसे घट में पीव है, दुनिया जानैं नाहिं ।।
 समझै तो घर में रहै, परदा पलक लगाय ।
 तेरा साहब तुज्झ में, अनत कहूँ मत जाय ।।
बाहर जाने के लिए संतों ने मना किया-
 सुन ऐ तकी न जाइयो जिनहार देखना ।
 अपने में आप जलवये दिलदार देखना ।।
 पुतली में तिल है तिल में भरा राज कुल का कुल ।
 इस परदये सियाह के जरा पार देखना ।।
यही वज्र कपाट है। इसकी युक्ति बताते हैं कि-
 पुतली में तिल है तिल में भरा राज कुल का कुल ।
 बाहर जाने की जरूरत नहीं। काम-रोजगार करो। घर में रहो, लेकिन सत् आचरण से रहो। शरीर में शरीर है। इसको कथा के रूप में महाभारत में कहा है-
 सावित्री के पति सत्यवान के स्थूल शरीर से यमराज ने लिंग शरीर निकाल लिया। उसका स्थूल शरीर मर गया। उसके लिंग शरीर को लेकर यमराज चला। सावित्री बड़ी पतिव्रता थी। वह अनुनय-विनय करती उसके पीछे-पीछे चली। उसकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर यमराज ने सत्यवान के स्थूल शरीर में उसके सूक्ष्म शरीर (लिंग शरीर) को प्रवेश करा दिया। सत्यवान जीवित हो गया।
 इस कथा से विदित होता है कि केवल स्थूल शरीर ही नहीं है, सूक्ष्म शरीर भी है। लिंग शरीर को ही सूक्ष्म शरीर कहते हैं। शरीर के अंदर शरीर है। इसको बाबा नानक साहब ने कहा है-
       घरि महि घरु दिखाइ देइ, सो सतगुरु परखु सुजाणु ।
       पंच सबदु धुनिकार धुनि, तहँ बाजै सबदु निसाणु ।।
 पतिव्रता स्त्री में कितना तेज है कि वह मृत पति को जीवित करती है, अंधे को आँख दिलाती है और राज्यभ्रष्ट को राज्य दिलाती है। इस कथा से यह सीखें कि स्त्रियाँ पतिव्रता हों। मैंने पढ़ा है-
 कर्महीन को ना मिले, भली वस्तु का भोग ।
 दाख पके मुख काक को, होत पाक का रोग ।।
 जो कर्महीन है अर्थात् अच्छे कर्म जिसके नहीं हैं, उसको अच्छी चीज का भोग नहीं मिलता। कोई पुरुष चाहे कि मैं जैसे-तैसे रहूँ और पत्नी पतिव्रता हो, यह संभव नहीं। पुरुष श्रीराम की तरह एक पत्नीव्रती और स्त्रियाँ सावित्री की तरह पतिव्रता हों, तो आपकी संतानें बड़ी अच्छी होंगी, देश का कल्याण होगा। यह आपके हाथ में है, इसको समझिए। हाँ, तो मैं कह रहा था कि शरीर के अंदर शरीर है। इसे जानने के का रास्ता आपके अंदर है। संत दरिया साहब (बिहारी) ने कहा है-
जानिले जानिले सत्त पहचानिले, सुरति साँची बसै दीद दाना।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै, पलक परवीन दिव दृष्टि ताना।।
जो जहाँ बैठा रहता है, वह वहीं से चलता है।
 इस तन में मन कहाँ बसै, निकसि जाय केहि ठौर ।
 गुरु गम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और ।।
 नैनों माहीं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर ।
 गुरु गम भेद बताइया, सब संतन सिरमौर ।।
      -कबीर साहब
 आप कहेंगे कि आप मन संबंधी बात कह रहे हैं। तो मैं कहता हूँ कि मन जहाँ है, चेतन आत्मा भी वहीं है। इस समय हमारा संग मन के साथ ऐसा हो गया है, जैसे दूध के साथ घीउ। ब्रह्मोपनिषद् में भी लिखा है-
 नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् ।
 सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्निसंस्थितम् ।।
 यहीं से चलना होगा। यह दशम द्वार भी है। यह द्वार दोनों नेत्रों के मुकाबले अंदर है। यही रास्ता सबके लिए है। ऐसा नहीं कि एक के लिए एक रास्ता और दूसरे के लिए दूसरा रास्ता है। संसार में जितने आदमी हैं, सब कोई एक ही रास्ते आँख से देखते हैं। सबके सुनने का एक ही रास्ता कान है। कितने कहते हैं कि लखनऊ आने के अनेक रास्ते हैं, इसी तरह ईश्वर के पास जाने के अनेक रास्ते हैं। मैं कहता हूँ- नहीं, रास्ता एक है और वह दसवाँ द्वार है, शिवनेत्र है, यहीं से कोई चलेगा।
 कोई शिव उपासना, कोई शक्ति उपासना, कोई विष्णु उपासना आदि करते हैं, तो कहते हैं कि अनेक रास्ते हैं। मैं कहता हूँ-ये सहारे हैं, रास्ते नहीं। यदि आप किसी स्थूल मूर्ति की उपासना तक ही रहे, तो चौरासी से नहीं छूट सकते। स्थूल उपासना के द्वारा मन को कुछ एकाग्र किया जाता है और उसके बाद सूक्ष्म ध्यान में जाना होता है। सूक्ष्म में जाने से उसको चैन मिलता जाता है और ईश्वर की तरफ से अवलम्ब भी मिलता है।
जौं तेहि पंथ चलै मन लाई। तौ हरि काहे न होहिं सहाई।।
 जैसे सूर्य को देखने के लिए उसकी रोशनी का अवलम्ब मिलता है, उसी तरह परमात्मा को पाने के लिए उसकी ज्योति मिलती है। केवल ज्योति ही नहीं, शब्द भी मिलता है। ध्यानविन्दूपनिषद् कहता है-
 बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
तथा-
 तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम् ।
          -तेजोविन्दूपनिषद्
 इस ज्योति और शब्द को कैसे पकड़ा जाएगा? संत गुलाल साहब ने कहा है-
   उलटि देखो घट में जोति पसार ।
   बिनु बाजे तहँ धुनि सब होवै, विगसि कमल कचनार ।।
   पैठि पताल सूर शशि बाँधौ, साधौ त्रिकुटी द्वार ।
   गंग जमुन के वार पार बिच, भरतु है अमिय करार ।।
   इंगला पिंगला सुखमन सोधो,बहत सिखर मुख धार ।
   सुरति निरति ले बैठ गगन पर, सहज उठै झनकार ।।
   सोहं डोरि मूल गहि बाँधो, मानिक बरत लिलार ।
   कह गुलाल सतगुरु वर पायो, भरो है मुक्ति भंडार ।।
 बहिर्मुख नहीं रहकर अंतर्मुख होओ और फैली दृ्रिष्ट से सिमटी दृष्टि करो। आकाश में जैसे बिजली के बिना शब्द नहीं सुन पड़ता है, उसी तरह ज्योति के बिना अंदर के शब्द को कोई नहीं पाता है। जो अंतर में प्रवेश करके ब्रह्म ज्योति को पाता है, वही ब्रह्मनाद को पाता है। यह रास्ता क्षुरे की धार के समान सूक्ष्म है-
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग ं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।
          -कठोपनिषद्
 और मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् में भी सूक्ष्म मार्ग का अवलम्बन करने कहा है-
 ‘निद्रा भय सरीसृपं हिंसादि तरंगं तृष्णावर्तं दारपंकं संसारवार्धितर्तुं सूक्ष्ममार्गमवलम्ब्य सत्त्वादि गुणानतिक्रम्य तारकमवलोकयेत्। भू्रमध्ये सच्चिदानंद तेजः कूट रूपं तारकं ब्रह्म।’
 अर्थ-निद्रा, भय, आदि जहाँ जीव जन्तु हैं, हिंसा आदि तरंगवाले, तृष्णारूपी भँवरवाले, स्त्रीरूपी पंकवाले-संसाररूप समुद्र से तरने के लिए सूक्ष्म मार्ग का अवलम्बन करके, सत्त्वादि गुणों को पार करके दोनों भौओं के बीच में सत्-चित्-आनन्द तेजपुंज तारक ब्रह्म का अवलोकन करे। इसी को गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
    भगता की चाल निराली ।
    चाल निराली भगता केरी विखम मारगि चलणा ।।
    लबु लोभु अहंकारु तजि त्रिसना बहुतु नाहीं बोलणा ।।
    ख्ांनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा ।।
    गुर परसादी जिनि आपु तजिया हरि वासना समाणी ।।
    कहै नानक चाल भगताह केरी जुगहु जुगु निराली ।।
 बारीक रास्ते पर सूक्ष्म मन जाय, कोई कठिन नहीं। चाहिए गुरु का यत्न। इतना पवित्र काम कौन करेगा? जो पंच पापों-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से नहीं बचेगा, वह इस रास्ते पर नहीं चल सकता। इसीलिए संतों ने पंच पापों का निषेध किया। इसी को भगवान बुद्ध ने पंचशील का पालन करने कहा। जो अंतर पथ में चलता है, उसमें आत्मबल आता है और उसकी पापवृत्ति छूटती है। जो पापवृत्ति को छोड़ता रहता है, उसका अंतर में प्रवेश होता है, उसको आत्मबल मिलता है। इससे संसार में भी आनंदित रहोगे।
कहै कबीर निज रहनि सम्हारी। सदा आनन्द रहे नर नारी।।
 आप ख्याल कीजिए कि जो पंच पापों से बचकर रहेंगे, तो वे कितने शान्त रहेंगे। यदि इसका समाज बन जाय तो वह कितना अच्छा समाज बन जाएगा और कितनी शान्ति मिलेगी।
 हमारे गुरु महाराज कहा करते थे-सबसे ऊपर लिखो ेचपतपजनंसपजल (स्प्रीच्युलीटी) अर्थात् आध्यात्मिकता, उसके नीचे लिखो उवतंसपजल (मोरेलीटी) अर्थात् सदाचारिता, उसके नीचे लिखो ैवबपंसपजल (सोसलीटी) अर्थात् सामाजिक नीति और अंत में लिखो चवसपजपबे (पोलटिक्स) अर्थात् राजनीति। राजनीति को सुधारकर समाज को सुधारेंगे, ऐसा नहीं हो सकता। यह 1909 ई0 में हमारे गुरु महाराज ने कहा था। जो आध्यात्मिकता की ओर जाते हैं, उनका सदाचार अच्छा होता है। जहाँ के लोगों में सदाचारिता अच्छी होगी, वहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी और जहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी, वहाँ की राजनीति बुरी नहीं हो सकती। तब वहाँ रामराज्य होगा।
 आज स्वराज्य है, लेकिन सुराज्य नहीं है; क्योंकि खल-उद्यम बहुत है। ‘जिमि सुराज खल उद्यम गयऊ’-यह नहीं हो पाया है।
 लोग आध्यात्मिकता की प्रधानता दें। राज्य की शासन-प्रणाली से भी इसके लिए बहुत सहायता मिले, तो सभी सदाचार का पालन करते हुए शान्ति से रहेंगे और तब स्वराज्य में सुराज्य होगा।
 गुरु महाराज ने जो कुछ हमसे कहा था, वही मैंने आपलोगों से कहा। आपलोग स्वयं बुद्धिमान, विद्वान और समझदार आदमी हैं। लेने योग्य हो तो लीजिए; नहीं लेने योग्य हो तो नहीं लीजिए। किंतु मेरी समझ से तो संतों के उपदेश लेने के ही योग्य हैं। बाहर कहीं जाना नहीं है, अंदर-ही- अंदर चलना है। इसमें किसी को उजुर नहीं होना चाहिए। कोई कहे कि सत्संग कर लिया, समझ लिया, बारम्बार सत्संग करने से क्या लाभ? तो जानिये कि बारम्बार के सत्संग से ध्यान करने में प्रेरण मिलता रहता है। भगवान बुद्ध ने कहा है- स्मरण के लिए न दुहराना धब्बा है। सुचरित्र से रहिए, ईश्वर-भजन कीजिए। जो लेने योग्य बातें हों, आप लीजिए और लेने योग्य बातें नहीं हों, नहीं लीजिए; किसी का किसी पर जोर नहीं। मैं समझता हूँ कि ऐसी कोई बात मैंने नहीं कहीं होगी, जो अनुचित हो।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेशान्तर्गत लखनऊ में दिनांक 2.4.1962 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में श्रीमान् गंगाचरणलाल महोदय के निवास स्थान पर हुआ था।
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175. ईश्वर सबका आधार
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 वर्ष में एक बार गुरु महाराज की स्मृति में सत्संग यहाँ हुआ करता है, यद्यपि ठीक वही तिथि आज नहीं है, फिर भी कारणवश वही स्मृति-दिवस हमलोग आज मना रहे हैं। गुरु महाराज ने हमलोगों को ईश्वर-भक्ति का उपदेश दिया है। ईश्वर-भक्ति में सबसे पहली बात यह है कि हम ईश्वर-स्वरूप का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करें। तब हम ठीक-ठीक समझ सकेंगे कि ईश्वर-भक्ति के लिए क्या काम करना होगा? जबतक ईश्वर की स्थिति और उनके स्वरूप का निर्णय नहीं जान सकेंगे, तबतक हमको निर्णय नहीं होगा कि ईश्वर की भक्ति कैसे करेंगे। कोई यात्री यात्रा करता हुआ जाता हो, मार्ग में चलने का प्रयास करता हो, परंतु कहाँ उसको पहुँचना है, किस निर्दिष्ट स्थान में पहुँचना चाहिए, नहीं जानता है तो वह चलता ही रहेगा और जहाँ जाना चाहिए, नहीं जाकर उसका प्रयास मात्र होगा। इसलिए ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए।
 भक्ति-मार्ग में लोग कहते हैं कि ईश्वर का धाम और उसके नाम को जानना चाहिए। उस नाम को पकड़ते-पकड़ते उस धाम में जाना चाहिए। यह बात कुछ पीछे की है, पहले ईश्वर-स्वरूप का यथार्थ ज्ञान होना चाहिए। आज भारत में ईश्वर- ईश्वर कहकर रह जाते हैं, इतना ही नहीं कोई कुछ और कोई कुछ कहते हैं। कोई कहते हैं कि ईश्वर कोई एक नहीं हैं। ईश्वर का मानना भी गलत है। कोई कहते हैं, ईश्वर तो नहीं ही माना जा सकता है और तुम कोई अलग पदार्थ भी नहीं हो। शरीर के कारण तुम अपने को जानते हो। शरीर के छूटने से तुम नहीं रह सकते । जो ईश्वर को नहीं मानते हैं, परन्तु अपनी स्थिति मानते हैं, वे आधे नास्तिक हैं। दूसरे जो अपने का भी ज्ञान नहीं करते और ईश्वर के लिए भी उसकी स्थिति नहीं मानते हैं, उनको पूरा-पूरा नास्तिक कहना चाहिए। आजकल अपने देश में इसका यत्र-तत्र प्रचार होता है, जो अपने तईं को मानते हैं और ईश्वर को नहीं मानते हैं। अपने आप को ही सर्वव्यापक नहीं, बल्कि अनेक आत्माओं का जो बाहुल्य है, उसका पसार संसार में है, इसलिए वह सर्वव्यापक है। ईश्वर एक ही सर्वव्यापक नहीं, बल्कि इस तरह बहुसंख्यक होते हुए सर्वव्यापक है, ऐसा कहते हैं। उनके लिए यह उक्ति आती है-अनेकत्व में सर्वव्यापकत्व नहीं हो सकता। यदि बीच में कुछ अवकाश नहीं हो तो एक के बाद दूसरे का ज्ञान नहीं हो सकता है। बीच में कुछ अवकाश है, तब एक दो गिनते हैं चाहे वह कितना भी घना हो, फिर भी कुछ अवकाश अवश्य होगा। जो अवकाश बचता है, उसमें तो वह व्यापक नहीं होता। उसको सर्वव्यापक कैसे मानें? एक ही एक को सर्वव्यापक नहीं मानकर अनेक को सर्वव्यापक मानते हैं, तो वे ईश्वर को नहीं मानते हैं। अनेकता में जितने पदार्थों को रखेंगे, उसमें प्रत्येक की सीमा होगी। सब मिलाकर वह कितना ही बड़ा मण्डल हो, फिर भी वह मण्डल सीमावाला होगा। एक की सीमा है तो प्रत्येक की सीमा है और सबको मिलाकर जो सीमा होगी, उसके परे क्या है? यह प्रश्न होगा। यह यदि वह नहीं बता सकता है तो दूसरा कहता है कि उस सीमा के परे असीम है। उस असीम को वे क्या कहते हैं? वही सर्वव्यापक है, जो अनेकों के बाद भी बचता है। वही असीम तत्त्व है, असीम तत्त्व के परे और कुछ नहीं हो सकता है। ऐसे भी लोग हैं, जो इसका प्रचार करते हैं कि ईश्वर एक है, लेकिन उसके दो भाग हैं-एक भाग बवदकमदेमक (कॉन्डेंस्ड) और दूसरा भाग नदबवदकमदेमक (अनकॉन्डेंस्ड) अर्थात् एक भाग सघन और दूसरा अघन मानते हैं। दोनों के साथ प्रकृति सदा लगी रहती है और प्रकृति एक शक्ति है। सघन और अघन के साथ बराबर-बराबर मात्रा में प्रकृति है। जो भाग सघन है, उस भाग पर प्रकृति अपना प्रभाव नहीं कर सकती है; क्योंकि वह भाग बलिष्ठ है, वह निर्गुण है। जो भाग अघन है, वह सघन भाग की तरह बलिष्ठ नहीं है। इस पर प्रकृति अपना प्रभाव कर सकती है। यह इस तरह है, जैसे कुम्हार के हाथ में मिट्टी। इस भाग को प्रकृति जैसा करना चाहती है, करती है। वह भाग सगुण है। जो सघन है, बलिष्ठ है, वह अपनी स्थिति का भी ज्ञान नहीं रखता। और कहते हैं कि गुरु उस निर्गुण तक पहुँचा देंगे। सगुण ब्रह्म अपने स्वरूप से अणु चैतन्य को अलग करते हैं और पारी-पारी से उसको वहाँ पहुँचाते हैं। पहुँचाते-पहुँचाते कभी-न-कभी सबको पहुँचा देंगे। पीछे निर्गुण ही निर्गुण रहेगा।
 ईश्वर ऐसा मानने योग्य नहीं कि उसका एक भाग सबल और दूसरा निर्बल हो। सबल भाग ऐसा कि उसको अपनी स्थिति का भी ज्ञान नहीं रहता। तब जो अणु चैतन्य उसमें जाकर मिलेगा, वह भी अचेत पड़ा रहेगा तो फायदा क्या होगा? जैसे समुद्र के अंदर हवा की वजह से पानी बर्फ का पहाड़ बन जाता है, उसी तरह सगुण है, निर्गुण का यह रूपान्तर है। उपर्युक्त सिद्धान्त के अनुकूल यह मानने योग्य है कि अणु चैतन्य पर भी प्रकृति अवश्य लगी रहेगी। वह अणु प्रकृति के वश में रहते हुए निर्गुण तक कैसे पहुँचेगा? उत्तर में कहे कि अणु चैतन्य को गुरु पहुँचा देंगे तो गुरु भी तो एक अणु चैतन्य ही है। जब प्रकृति का हँटना मंजूर नहीं, तब गुरु अणु चैतन्य पर भी प्रकृति का रहना माना ही जाएगा। क्या सदेह गुरु निर्गुण मानने योग्य है? यदि ऐसा मानें तो निर्गुण को उपर्युक्त सिद्धान्त कथित अनुकूल अपनी स्थिति का ज्ञान नहीं है, यह निर्गुण गुरु औरों को ज्ञान देकर कैसे गुरुवाई करेंगे? यदि गुरु को सगुण ब्रह्म माना जाय तो उपर्युक्त सिद्धान्त के अनुकूल वह प्रकृति रूप कुम्हार के अधीन में मिट्टी का लोंदावत् है, तो गुरु की महत्ता कुछ नहीं रहती। यदि सगुण ब्रह्म गुरु साधन द्वारा प्रकृति के गुण वा डोरी से अप्रभावित वा अगुणान्वित रहता है, तो अणु चैतन्य के लिए ऐसा होना असम्भव है; क्योंकि वह अघन का अणु चैतन्य होने के कारण अघन है। और वह सिद्धान्त कहता है कि प्रकृति बिजलीवत् एक शक्ति विशेष है। तो वह बिजली की तरह ही अज्ञान तत्त्च है। यह किसी अणु चैतन्य को ज्ञान देकर निर्गुण ब्रह्म से मिलाकर मुक्ति करा दे संभव नहीं। इस तरह कमजोर विचार लेकर ईश्वर-ज्ञान-प्रचार करते हैं। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि-
जो माया सब जगहिं नचावा। जासु चरित लखि काहु न पावा।।
सो प्रभु भू्र बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा।।
 गोया प्रभु के अख्तियार में माया पूर्ण रूप से है और उसकी आज्ञा मानती है। यहाँ तो बड़ी आशा है कि परमात्मा की शरण लो तो माया से छूट जाओगे। दूसरे ऐसे लोग भी हैं जो कहते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापक है, यह भारी गप है। ईश्वर को वे ससीम मानते हैं। रामचरितमानस में है-
सोइ सच्चिदानंद घन रामा ।अज विज्ञान रूप बल धामा ।।
     व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
      अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।
 ऐसा वे नहीं मानते। यहाँ विचारणीय है कि ईश्वर कभी बन गए हैं क्या? ईश्वर नहीं थे और जरूरत होने पर वे बन गए? ईश्वर के माननेवाले ऐसा मान नहीं सकते। जो सबसे पूर्व का है, जिसके पूर्व कोई और कुछ न हो, जो परम सनातन, परम पुरातन है, वही ईश्वर है। उसे प्रभु कहो, ईश्वर कहो, गॉड कहो, खुदा कहो। वह ईश्वर जो परम सनातन है, वह किसी आधार पर होगा? हमलोग बिना आधार के नहीं रह सकते। पृथ्वी, पानी, हवा, भोजन आदि हमलोगों को अवश्य चाहिए। जो सबसे पहले का होगा, वह अपने लिए कोई अवलम्ब नहीं रखेगा। वह निराधार है, सबका अवलम्ब है। जो निराधार है, सबसे प्रथम का परम पुरातन है-वह ससीम हो नहीं सकता। उसको ससीम मानेंगे तो उसके अतिरिक्त और कुछ होना चाहिए। तब जो उसके अतिरिक्त अवकाश होगा, वह उसके पहले का होगा। लेकिन परम पुरातन वह है, जिसके अतिरिक्त और कुछ न हो सके। परम पुरातन एक ही होगा। जो किसी आधार पर नहीं है, वह आदि-अंत-रहित है। वह सीमाबद्ध होने योग्य नहीं है। वह देशकालातीत पदार्थ है। उस देश-कालातीत को कोई नहीं माने तो वह ईश्वर नहीं मानता है। उसके अतिरिक्त दूसरे कहते हैं कि ईश्वर एकदेशीय होते हुए किरणों से सर्वदेशीय हैं, जैसे सूर्य एकदेशीय है और किरण से सर्वदेशीय है। वहाँ यह प्रश्न होगा कि जो स्वरूप से एकदेशीय है, उसकी किरण सर्वदेशीय हो जाय या अनन्त हो जाय, बुद्धि के बाहर की बात है। एकदेशीय पदार्थ से किरण निकली और वह सर्वव्यापक और अनंत- असीम हो गई, यह मानने योग्य नहीं। एक- देशीय पदार्थ की किरण कितनी भी लम्बी क्यों न हो, वह ससीम होगी। इस तरह उसकी असीमता नहीं रहती। वह ‘अलख अपार अगम अगोचर’ नहीं हो सकती। या गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में ‘व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता।’ कहने योग्य नहीं होता। परम पुरातन कहने योग्य नहीं होता, निराधार और देशकालातीत भी नहीं हो सकता। आधार के आश्रित ईश्वर कैसे? निर्मल चेतन के अपार सिन्धु को मालिक-कुल्ल कहते हैं। ‘अपार सिन्धु’ न कि ‘ससीम’ गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी कहा है-
      राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
      अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 ‘अपार’ शब्द कहा। उस अनंत के साथ कुछ और पदार्थ हो, ऐसा नहीं। कुछ लोग कहते हैं कि जिस मशाला से सृष्टि बनी, वह मशाला ईश्वर के साथ था, तब संसार बना। वे यह भी कहते हैं कि बिना उपादान कारण के कुछ बन नहीं सकता। कुम्हार निमित्त कारण है और मिट्टी उपादान कारण है। इसी तरह प्रकृति उपादान कारण है और ईश्वर निमित्त कारण। कहते हैं कि प्रकृति पहले से है। तो विचारो कि एक अनादि-अनन्त तत्त्व के अतिरिक्त और दूसरा पदार्थ कैसे हो सकता है? यदि कहो कि प्रकृति के कण-कण में वह व्यापक है तो प्रकृति का परमाणु किस तत्त्व से बना है? संतों ने इसका जवाब बहुत जोरदार शब्दों में दिया है-‘तदि अपना आपु आपही उपाया। नाँ किछु ते किछु करि दिखलाया।’ (गुरु नानकदेव) अर्थात् उपादान को भी बना लिया। यहाँ कुम्हार कहो वा वैज्ञानिक। आज के वैज्ञानिक बिना उपादान के एक चुटकी मिट्टी नहीं बना सकते। यह जीव कोटि की बात है। अगर परमात्मा में भी यही बात लागू हो तो परमात्मा कैसा? इसलिए संतों ने कहा कि वह अकेले था। कबीर साहब तथा और संतों के वचनों में सभी का कहना है कि आरंभ में एक ही ईश्वर था। तुलसीदासजी ने ईश्वर को वैज्ञानिक कहा है। ‘अज विज्ञान रूप बलधामा।’ (रामचरितमानस) लेकिन यहाँ पर कोई भी ज्ञानवान पूर्ण विज्ञान का स्वरूप नहीं है। आज के बड़े-बड़े वैज्ञानिक कहते हैं कि विज्ञान का अंत नहीं हुआ है। परमात्मा ही विज्ञान स्वरूप हैं। वैज्ञानिक की उपाधि देकर परमात्मा को कहना कि उपादान नहीं बना सकता, उचित नहीं। ईश्वर का उत्पन्न होना नहीं है। साचे सचिआर विटहु कुरवाणु’ (गुरु नानकदेव) ईश्वर के मानने में ऐसा ही ईश्वर संतों ने माना है।
 हमलोग ऐसा नहीं कि एक नया धर्म बनावें और प्रचार करें। हमारे गुरु महाराज कहते थे कि जो संतों ने बताया है, वही हमारा मत है। घटरामायण के प्रणेता तुलसी साहब माने जाते हैं। उसमें तुलसी साहब ने कहा नहीं है कि यह मेरा मत है। बल्कि उन्होंने कहा कि ‘संत गुरू और पंथ न जाना। संत पंथ याही मन माना।।’ ‘जो कोइ संत अगम गति गाई। चरण टेक पुनि महूं सुनाई।।’ जितने संत हुए हैं, सबका एक मत है। ईश्वर सबका आधार और अपने निराधार हैं।
 व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
         अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।
 निर्मल निराकार निर्मोहा ।नित्य निरंजन सुख सन्दोहा ।।
 जो आदि-अंत-रहित है, उसको साकार कैसे बनाया जाय? आदि-अंत-रहित तत्त्व को निराकार कहना ही होगा। ‘प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी। ब्रह्म निरीह विरज अविनासी।।’ प्रकृति मण्डल का अंत है, इसलिए ‘प्रकृति पार’ कहा।
 संतों ने कहा ईश्वर-स्वरूप को प्राप्त करो, जबतक ईश्वर-स्वरूप प्राप्त नहीं करोगे, कल्याण नहीं होगा। संतलोग मोक्ष का उपदेश देते हैं। शरीर और संसार के बंधनों से छूट जाना मोक्ष है। यह मोक्ष तबतक नहीं होगा, जबतक ‘व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता’ का दर्शन न हो जाय। इसके लिए भक्ति करने का उपदेश संतों ने दिया है। लोगों के मन में होता है कि ईश्वर अलख, अगम है, उसकी भक्ति कैसे करूँ? जिसको हम इन्द्रियों से नहीं जान सकें, उसमें अपने को कैसे लगावें? यह प्रश्न होना ही चाहिए। मैं एक छोटा-सा बयान देता हूँ।
 महाभारत युद्ध समाप्त होने के पश्चात् विजेता बनकर भी युधिष्ठिर बहुत दुःखित था। क्योंकि उस युद्ध में धनराशि तो नष्टप्राय हो ही चुकी थी, साथ ही उनके पुरजन और परिजन का भी विनाश हुआ था। न तो सामने सम्पत्ति थी और न उसका भविष्य भोक्ता ही। उनकी मानसिक व्यथा दूर करने हेतु व्यासदेव ने उन्हें यज्ञ करने की सलाह दी। युधिष्ठिर ने अपनी आर्थिक संकट-समस्या उनके समक्ष रखी। व्यासदेव ने पहाड़ स्थित रक्षित धन का पता बताया। युधिष्ठिर ने व्यासदेव की आज्ञा शिरोधार्य कर उक्त पहाड़ से धन लाकर अश्वमेध यज्ञ किया। युधिष्ठिर के लिए वह धन अव्यक्त था, अगोचर था; लेकिन व्यासदेवजी के वचन में विश्वास किया और उन्होंने जो अनुष्ठान बताया, किया, तो धन पाया और यज्ञ किया। इसी तरह वह परमात्मा रूपी धन भी अव्यक्त है। संत लोग बताते हैं कि, वह धन कहाँ है? वह बुद्धिपर पदार्थ है। हमको बुद्धि से परे जाना चाहिए। यहाँ पर अपने तईं सोचना चाहिए कि मैं कौन हूँ? जबतक होश-हवाश में हैं, सभी जानते हैं कि ‘मैं हूँ।’ आप क्या हैं? शरीर हैं? नहीं। इन्द्रिय, मन, बुद्धि आप हैं? नहीं। ये सभी मेरे हैं। शरीर, इन्द्रियाँ और भीतर की मन-बुद्धि आदि से परे पदार्थ जो इस शरीर में है, वह मैं हूँ। इनके साथ-साथ मैं हो गया हूँ। इनके संग हो गए हो, तो इनका संग छोड़ दो।
 पाँच तत्त्व, पंच विषय, बाह्य दशेन्द्रियाँ, अहंकार, बुद्धि, प्रकृति, मन, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, चेतना और धृति; इन सबसे जो भिन्न है, वह आप हैं। इनसे आगे पहुँचिए आप, तो अपने को और ईश्वर को भी पहचानोगे। आप स्वयं भी अव्यक्त हो। अव्यक्त से ही अव्यक्त पकड़ा और पहचाना जाता है। अपने को व्यक्त से छुड़ाओ। इसे फुटाने के वास्ते संतों ने रास्ता बताया है। उसी रास्ते को बताने के लिए घटरामायण में है-‘हिय नैन सैन सुचैन सुन्दरि साजि स्त्रुति पिउ पै चली। गिरि गवन गोह गुहारि मारग चढ़त गढ़ गगना गली।।’ प्रभु को बुलाते नहीं, प्रभु के पास जाते हैं। यही भक्ति है। जगन्नाथजी में जिनकी श्रद्धा है, उस ओर कदम-कदम चलते हैं, यह कदम-कदम चलना उसकी भक्ति में दाखिल है। उसी तरह ईश्वर की ओर चलना उसकी भक्ति है। लेकिन यह बाहर की बात नहीं, अंतर की बात है। अपने को वेश-भूषा, कपड़ा-जेवर से सजाकर नहीं, अन्तर्दृष्टि से सजाकर चलते हैं। कबीर साहब ने कहा है-
बिन सतगुरु नर रहत भुलाना। खोजत फिरत राह नहिं जाना।।
केहर सुत ले आयो गड़रिया, पाल पोस उन कीन्ह सयाना।
करत कलोल रहत अजयन संग, आपन मर्म उनहुँ नहिं जाना।।
केहर इक जंगल से आयो, ताहि देख बहुतै रिसियाना।
पकड़ि के भेद तुरत समुझाया, आपन दशा देखि मुसक्याना।।
जस कुरंग बिच वसत वासना, खोजत मूढ़ फिरत चौगाना।
कर उसवास मनै में देखै, यह सुगंधि धौं कहाँ बसाना।।
अर्ध उर्ध बिच लगन लगी है, छक्यो रूप नहिंजात बखाना।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, उलटि आपु में आपु समाना।।
 जैसे युधिष्ठिर को वहाँ व्यासदेव बतानेवाले थे, उसी तरह यहाँ लोगों को सद्गुरु बतानेवाले हैं। बिना सदगुरु के ईश्वर के पास जाने का पता नहीं मिलता।
 एक गड़ेरी जंगल के किनारे भेड़ बकरियों को चराने के लिए जाया करता था। एक दिन उस जंगल में सिंह का एक छोटा बच्चा उसको मिला, जिसकी आँख अभी खुली नहीं थी। गड़ेरी ने उस सिंह के बच्चे को वहाँ से उठाकर अपने घर ले आया और भेड़-बकरियों के साथ उसका भी पालन- पोषण करने लगा। उसकी जब आँख खुली तो उसने अपने को भेड़-बकरियों के बीच पाया। उसने समझा कि मैं भी इन्हीं की भाँति हूँ। यह जानकर वह सिंह का बच्चा उन्हीं भेड़ बकरियों के साथ रहकर आनंद-विनोद करता था। पूर्व की भाँति गड़ेरी फिर भेड़-बकरियों को जंगल के किनारे चराने के ले गया। उनके साथ सिंह का बच्चा भी गया। संयोगवश उस जंगल से एक सिंह निकला। उसने भेड़-बकरियों के साथ सिंह के बच्चे को देख। यह देखकर उसे बहुत क्रोध आया। उसने एक झपट्टा मारकर सिंह के बच्चे को पकड़ लिया। भेड़-बकरियों के साथ गड़ेरी भाग गया। सिंह का बच्चा डर से काँप रहा था। सिंह ने नदी के किनारे ले जाकर अपनी और उसकी परछाईं को दिखाकर कहा-‘देखो, जो मैं हूँ, सो तुम हो। तुम भेड़ और बकरियों के बच्चे नहीं, तुम सिंह के बच्चे हो।’ यह सोच-समझ और परछाईं को देख उसे विश्वास हो गया कि मैं भेड़-बकरे नहीं, अपितु सिंह का बच्चा सिंह हूँ। अपने को स्वरूप में पा उसे बड़ी प्रसन्नता हुई।
 इसी तरह संतलोग भी दिखाते हैं कि ‘अर्ध उर्ध बिच लगन लगी है’। अर्ध-ऊर्ध्व के बीच में जो लगन नहीं लगावेगा, वह दिव्य दृष्टि से अपने को नहीं सजा सकता। यही युक्ति गुरु महाराज बता गए हैं। मैं नहीं कह सकता कि मैं पूर्ण हूँ। युक्ति जानता हूँ और अभ्यास करता हूँ। बाबा जो बता गए हैं, उसको संतों के ज्ञान से और युक्तिवाद से मिलान करने पर भी सत्य सिद्ध होता है। जो एक पल भी ठीक से साधन कर सकता है, उसको कुछ-न-कुछ अवश्य मालूम होगा। लेकिन उसी कुछ में संतुष्ट नहीं हो जाओ। संतुष्ट होने से जो आगे मिलना चाहिए, वह नहीं मिलता। इसलिए और भी अभ्यास करो और आगे बढ़ो।
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यह प्रवचन उत्तर प्रदेशान्तर्गत संतमत सत्संग आश्रम, कानूनगोयान मुहल्ला मुरादाबाद में दिनांक 7.4.1962 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में परम श्रद्धेय बाबा देवी साहब के स्मृति दिवस के उपलक्ष्य में हुआ था। ।
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176. तपस्वी को नश्वरता का ज्ञान
प्यारे लोगो!
 शरीर और संसार की अनित्यता पर नित्य- प्रति विचार करना चाहिए। शरीर एक तरह नहीं रहता है, वह मर जाता है। संसार के पदार्थ भी सदा नहीं रहते, चाहे वे हमको छोड़ते हैं वा हम उनको छोड़ते हैं। शरीर स्थिर नहीं है। हम चेतन आत्मा स्थिर हैं। नाशवान पदार्थ परिवर्तनशील है। नाशवान और परिवर्तनशील पदार्थ के अंदर रहते हुए इसमें अपने को पाकर जो सांसारिक ज्ञान और दुःख होता है, वह भोग रहे हैं। शरीर को जानते- पहचानते हैं, परंतु अपने को जानते-पहचानते नहीं। यदि पहचान लें तो उस ओर हम फिर जाएँगे। शरीर को नाशवान और अपने को अनाश समझकर अपने स्वरूप को जानिए। कितना भी सुन्दर,सुडौल शरीर है, मलमूत्र के अतिरिक्त उसमें कुछ और पदार्थ नहीं है। योगवाशिष्ठ की कथा है-एक राजकुमारी की सुन्दरता पर एक तपस्वी मोहित हुआ। उसको शिक्षा देने के लिए राजकुमारी ने विरेचक औषधि ले ली, जिससे उसे बहुत दस्त हुए। उसने अपने मल को घड़ों में बन्दकर रख लिया। उसके शरीर की हालत बिगड़ गई। तब राजकुमारी ने कहा कि तुम जिस सुन्दरता पर मोहित हुए थे, वह सुन्दरता इसी घड़ों में मलमूत्र के रूप में है। तब तपस्वी को नश्वरता का ज्ञान हुआ। इसलिए कितना भी सुन्दर शरीर हो, वह नाशवान है। अपने तईं के कल्याण के लिए सोचो। कल्याण चाहते हो तो ईश्वर का नाम-भजन करो। नाम-भजन के लिए गुरु नानकदेव ने कहा कि-
कासट महि जीउ है बैसन्तरु, मथि संजमि काढ़ि कढ़ीजै।
राम नाम है जोति सबाई, तत गुर मति काढ़ि लईजै।।
 जैसे काठ में अग्नि छिपी है, घिसने से उससे निकलती है, उसी तरह राम-नाम अपने अंदर है। साधन की युक्ति से उसको पाओगे। यह किसी के कान में कहने की नहीं है। इसके लिए साधन करना होगा। कितना साधन करना होगा, तो गुरु नानकदेव ने कहा-‘भरिसागर भगति करीजै।’
 अर्थात् बहुत भक्ति करो। सतगुरु अगम और ठाकुर-परमात्मा भी अगम है। शरीर में नौ दरवाजों के अतिरिक्त दसवाँ द्वार है। वहाँ अमृत रस है। उसी के साथ ईश्वर का नाम है। उस दसवें द्वार में जो फिरता है, उसमें अपने को लगाता है, तब उसको वह नाम मिलता है। ‘बिन शब्दै नाम न चाह।’- गुरु नानकदेव
 उस शब्द को पकड़ने के पहले बहुत से शब्द मिलते हैं। परमात्मा का नाम वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक दोनों में है। असली नाम ध्वन्यात्मक में है। जो ध्वन्यात्मक को पहचानता है, वह ईश्वर को पाता है। अंतर में केवल चेतन आत्मा जाती है। शब्द में बहुत गुण है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने नाम के संबंध में कहा है-
 श्रवणात्मक वर्णात्मक , ध्वन्यात्मक विधि तीन ।
 त्रिविध शब्द अनुभव अगम, तुलसी कहहिं प्रवीन।।
         -तुलसी सतसई
 शब्द के केन्द्र में मायिक सिद्धियाँ-शक्तियाँ हैं। जो उस शब्द को पकड़ता है, उसमें सिद्धि हो जाती है। शब्द में ज्ञान है। जो उस ज्ञान को पकड़ता है, वह ज्ञानी हो जाता है। सृष्टि के आरंभ में जो शब्द परमात्मा से हुआ, उसको जो पकड़ता है, वह परमात्मा को पाता है। संत कबीर साहब ने कहा है-
 शब्द गह्यो जीव संशय नाहीं, साहब भयो तेरो संग ।
 इसकी जानकारी गुरु से होगी, वैसे नहीं। गुरु की कृपा से जीव उत्तम दशा को प्राप्त करता है। संत सुन्दरदासजी ने कहा है-
 गुरु के प्रसाद बुद्धि उत्तम दशा को गहै ।
 गुरु के प्रसाद भव दुःख बिसराइये ।।
 गुरु के प्रसाद प्रेम प्रीतिहु अधिक बाढ़ै ।
 गुरु के प्रसाद राम नाम गुण गाइये ।।
 गुरु के प्रसाद सब योग की युगति जानै ।
 गुरु के प्रसाद शून्य में समाधि लाइये ।।
 सुन्दर कहत गुरुदेव जू कृपालु होइ ।
 तिनके प्रसाद तत्त्वज्ञान पुनि पाइये ।।
 ईश्वर का भजन करो, साधन करो, मोक्ष प्राप्त करो। केवल शरीर और संसार में लिपटकर सांसारिक दुःख न उठाओ।
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यह प्रवचन उत्तर प्रदेशान्तर्गत मुरादाबाद में दिनांक 10.4.1962 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में बाबू श्रीकान्ति प्रसादजी द्वारा आयोजित सत्संग में हुआ था।
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177. राम का प्रबल प्रताप : सूर्य
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 हमलोग सत्संग करते हैं। जानना चाहिए कि सत्संग कहते हैं किसको? सत् जो बदलता नहीं हो, जिसकी स्थिति का कभी लोप नहीं हो। अत्यन्त निश्चल-ध्रुव को सत् कहते हैं। सिवा परमात्मा के ऐसा कोई नहीं हो सकता। उसमें परिवर्तन नहीं होता और उसकी स्थिति का अभाव कभी नहीं होता, इसका संग हो, तब सत्संग।
 यह ऐसी बात है, जिसमें लोगों को जिज्ञासा होती है कि हमलोग जो इस तरह बैठकर सत्संग करते हैं, यह सत्संग कैसे हुआ? ईश्वर से भेंट ही नहीं तो उसका संग कहाँ हुआ? इसलिए इस तरह के सत्संग को सत्संग कैसे कहें?
 यह जिज्ञासा उचित ही है। दूसरी बात यह है कि संतों के संग को सत्संग कहते हैं। संत वे होते हैं, जो ‘सत्’ को प्राप्त किए होते हैं। अभी जिस ‘सत्’ अर्थात् परमात्मा का वर्णन किया गया, उसको जो प्राप्त करते हैं, संत हैं। ‘सत्त पुरुष जिन जानिया, सतगुरु ताको नाम।’ ऐसे की पहचान दुर्लभ है। जो संत गुजर गए हैं, उनका संग नहीं है। वर्तमान में संत कौन है, पहचानना असंभव-सा मालूम होता है। संतों की पहचान कैसे हो? इसके लिए बड़ी-बड़ी बातें हैं। महोपनिषद् में लिखा है-
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
 अर्थात् परे से परे को (परमात्मा) को देखने पर हृदय की ग्रंथि खुल जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।
 यह ग्रन्थि क्या है? ‘जड़ चेतनहिं ग्रंथि पड़ि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई।।’ संत जड़ और चेतन को अलग-अलग करके प्रत्यक्ष देखते हैं। वे कर्म बंधन में, संशय में और हृदय की ग्रंथि में नहीं रहते। वे बहुत ऊँचे हैं, उनको कौन पहचाने? संतों के संग में जाते हैं, तो संशय होता है कि ये संत हैं या नहीं? मामूली तरह लोग कहते हैं कि जो घर-वार छोड़कर साधु-वेश लेते हैं, ये सभी संत कहलाते हैं। तो इनमें अच्छे भी हैं और कुछ बुरे भी हैं। जो नियम से रहते हैं, वे अच्छे हैं और जो नियम से नहीं रहते, वे अच्छे नहीं हैं। तब संतों का संग कैसे हो? गुरु महाराज कहते थे कि संतों का संग करोगे तो वे कुछ कहेंगे, उससे तुमको लाभ होगा। उनकी दूसरी बात है कि जो संत अभी नहीं हैं, उनकी वाणियाँ हैं। उनको पढ़ो, सुनो, समझो, यह भी सत्संग है। लोग दूर-दूर रहते हैं, चिट्ठियों के द्वारा काम करते हैं। संतांं की वाणियों का संग उनकी आधी मुलाकात है; क्योंकि चिट्ठी को आधी मुलाकात कहते हैं। यह बाहरी सत्संग है। और एकान्त ध्यान, जिसमें ठीक-ठीक सत् से मिला जाता है, को अंतरी सत्संग कहते हैं। इसी के लिए गुरु की अत्यन्त आवश्यकता है कि जो उस रास्ते को बता दे, लेकिन गुरु की पहचान भी कठिन है। फिर भी बहुत दिनों तक संग करने पर अच्छे-बुरे का ज्ञान हो जाता है।
 उघरे अंत न होइ निबाहू । कालनेमि जिमि रावण राहू ।।
                     -रामचरितमानस
 गुरु नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोइ ।
 ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोइ।।
 सत्तनाम के पटतरे, देवे को कछु नाहिं ।
 क्या ले गुरु संतोषिये, हवस रही मन माहिं ।।
 तन मन दिया तो भल किया, सिर का जासी भार ।
 कबहुँ कहै कि मैं दिया, घनी सहेगा मार ।।
 तन मन दीया आपना, निज मन ताके संग ।
 कह कबीर निर्भय भया, सुन सतगुरु परसंग ।।
 तन मन ताको दीजिये, जाके विषया नाहिं ।
 आपा सबही ं डारिके, राखै साहिब माहिं ।।
                  -कबीर साहब
 पचविषयों की लवलीनता है कि नहीं, संग करने पर मालूम होगा। जब संग करने पर मालूम हो कि मितभोगी है, इतना भोजन, इतना शयन आदि करते हैं, चरित्रवान हैं, तो उनको अच्छा मानना योग्य है। इन बातों में योग्य गुरु की पहचान हो जावे, तब गुरु धारण करे। गुरु भी शिष्य को जाने और शिष्य भी गुरु को जाने।
 अंतर में प्रवेश करके ईश्वर का र्चिं क्या पाना होगा, जिससे ईश्वर को पहचाना जाय? संसार में आप दो चीजों को देखते हैं। दिन में सूर्य का प्रकाश और रात्रि में चन्द्रमा तथा तारे का प्रकाश। बादल के कारण सूर्य-चन्द्र भले नहीं देखने में आवे, किंतु चन्द्र और सूर्य, शुक्ल और कृष्ण दोनों पक्षों में बराबर रहते हैं।
 सम प्रकाश तम पाख दुहुँ, नाम भेद विधि कीन्ह।
 शशि शोषक पोषक समुझि, जग यश अपयश दीन्ह।।
          -रामचरितमानस
 अंधकार और प्रकाश दोनों पक्षों में होते हैं, रात्रि में बादल के कारण अगर घोर अंधकार है तो कभी-कभी बिजली का प्रकाश अवश्य परमात्मा हमको देते हैं। दूसरी बात यह कि अंधकार रहे वा प्रकाश, लेकिन शब्द रहता है। संसार से शब्द और प्रकाश को परमात्मा हटा लें तो जितने जीव-जन्तु हैं, सभी ज्ञानहीन होकर मर जाएँगे। संसार, संसार के रूप में नहीं रहेगा। राज्य के सम्हाल में, राज्य की वृद्धि और उसके शासन के लिए प्रकाश और शब्द के सहारे लिए जाते हैं। अतएव इनकी शिक्षा अनिवार्य हो पड़ी है। माता के पेट से निकलते ही प्रकाश मिलता है और शब्द सुनते हैं। बच्चे से ही, बच्चा जब कुछ नहीं बोल सकता है, माता बोल सिखाती है। लोग बचपन से पढ़ते-पढ़ते मरने तक पढ़ते रहते हैं। बिना प्रकाश और शब्द के हम जीवित नहीं रह सकते। ज्योति निकालने से गर्मी निकल जाएगी और शब्द के निकाल लेने से गति बन्द हो जाएगी। महाप्रलय हो जाएगा। इनका प्रभाव संसार में ही नहीं, संतों ने देखा है कि अंदर में भी शब्द और प्रकाश है। साधक अपने अंदर ज्योति और नाद को पाता है। ‘अंतरि जोति भई गुरु साखी चीने राम करंमा।’-गुरु नानक। ईश्वर की ओर से यही दया-दान होता है, साधक भक्त उसे पाता है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
         श्री गुरुपद नख मणि गण जोति ।
       सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती ।।
         दलन मोह तम सो सुप्रकासू ।
       बड़े भाग उर आवइ जासू ।।
         उघरहिं विमल विलोचन ही के ।
      मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ।।
         सूझहिं राम चरित मणि माणिक ।
      गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ।।
 जथा सुअंजन आँजि दृग, साधक सिद्ध सुजान ।
 कौतुक देखहिं शैल वन, भूतल भूरि निधान ।।
          -रामचरितमानस
 जिसके अंदर में ज्योति प्रकट होती है, वह एक ही भूतल क्या, सारा ब्रह्माण्ड देखता है-उसे सारे प्रकृति मण्डल का ज्ञान होता है।
जब लगि नहि निज हृदि प्रकाश, अरु विषय आश मन माहीं।
तुलसीदास तब लग जग योनि भ्रमत, सपनेहुँ सुख नाहीं।।
       -विनय पत्रिका
 संतलोग अंतर्ज्योति को प्राप्त करने के लिए बहुत कहते हैं।
काम क्रोध मद दम्भ न जाके । तात निरंतर वश मैं ताके ।।
 ये सब विकार कहाँ समाप्त हो जाते हैं? गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
जब तें राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतेन्ह मन सोका।।
जिन्हहिं सोक ते कहउँ बखानी। प्रथम अविद्या निसा नसानी।।
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचानै।।
विविध कर्म गुण काल सुभाउ। ये चकोर सुख लहहिं न काउ।।
मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कबनिहुँ ओरा।।
धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना। ये पंकज बिकसे विधि नाना।।
सुख संतोष विराग विवेका। विगत सोक ये कोक अनेका।।
 यह प्रताप रवि जाके , उर जब करइ प्रकास ।
 पछिले बाढ़हिं प्रथम जे, कहे ते पावहिं नास ।।
 राम का प्रबल प्रताप सूर्य उगने से सभी विकार, दुर्गुण नाश हो जाते हैं, यह बाहर वाला सूर्य नहीं, अंदर का है; ख्याली नहीं है, यथार्थ में है। ‘ज्यों दुपहैर गगन रवि छाई। ता से उजास भया घट माईं।।’ -तुलसी साहब, हाथरस।
       घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई।
        -गुरु नानक साहब
 ईश्वर का प्रेमी वह है, जो अंदर में प्रवेश करके परमात्मा का प्रकाश पाता है। उसको परमात्मा से संबंध लगता है। जहाँ प्रकाश रहता है, वहाँ शब्द रहता है। प्रकाश नहीं रहने पर अंधकार में भी शब्द होता है। अंतर्जगत में जो कोई सुनने लगता है, वह अंधकार में भी और प्रकाश में भी शब्द सुनता है। जिस शब्द और जिस प्रकाश को परमात्मा ने हमारे अंदर दिया है, उसका सहारा लेकर हम परमात्मा को पावें और परम कल्याण पावें। हमलोग संतों की वाणियों को पढ़ते-समझते हैं। उसके अनुकूल गुरु-परख करते हैं। गुरु मिलने पर उनसे युक्ति पाकर साधन-भजन करते हैं, यही सत्संग है।
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यह प्रवचन उत्तर प्रदेशान्तर्गत बदायूँ में दिनांक 13.4.1962 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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178. ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 जबतक कोई स्वप्न में होता है, वह नहीं जानता है कि मैं स्वप्न में हूँ। इसलिए स्वप्न में सुख-दुःख का भोग सत्य ही मालूम होता है। परंतु जब जग उठता है, तब ख्याल करता है कि स्वप्न का सुख-दुःख मिथ्या था। इसलिए-
   सपने होई भिखारी नृप, रंक नाकपति होय ।
   जागे लाभ न हानि कछु, तीमि प्रपंच जिय जोय ।।
 सोने की अवस्था में उसके पास ही कुछ होता है, लेकिन वह नहीं जानता कि मेरे पास क्या है? सूरदासजी ने कहा है-
  सपने माहि नारि को भ्रम भयो, बालक कहुँ हिरायो ।
  जागि लख्यो ज्यों को त्यों ही है, ना कहुँ गयो न आयो ।।
 इसी तरह स्वप्न मिथ्या होता है, सत्य नहीं होता है। यह बात हमारे देश में प्रसिद्ध है कि यह संसार मिथ्या है, ईश्वर सत्य है। ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या।’ लेकिन यह हमलोगों को कहाँ मालूम होता है? ब्रह्म सत्य है, लेकिन देखते नहीं हैं और जगत मिथ्या है, वह तो प्रत्यक्ष है। संत लोग कहते हैं कि ये तुम स्वप्न देख रहे हो। हमलोग कहते हैं कि हम तो जगे हैं, स्वप्न में कहाँ हैं? संतलोग कहते हैं कि जैसे स्वप्न में कोई नहीं जानता कि मैं स्वप्न में हूँ, जगने पर मालूम होता है कि वह स्वप्न है; उसी तरह जिस जगने में तुम हो, वह स्वप्न है। साहित्यिक लोग कहते हैं कि अच्छे ज्ञान में आ जाना जगना है, लेकिन यह विचार में ही स्वप्न मालूम होगा। भले ही विचार में कह दें कि संसार मिथ्या है, लेकिन आसक्ति नहीं जाती। हम नित्य स्वप्न देखते हैं, जगने पर जो स्वप्न की आसक्ति है, छूट जाती है। उस तरह संसार में कहाँ होता है कि उसमें हमारी आसक्ति नहीं रहती। यह विचार-ही-विचार से नहीं होता। अभी हम जाग्रत अवस्था में हैं, कुछ काल के बाद सो जाएँगे। स्वप्न होगा, गहरी नींद आएगी। इस तरह तीन अवस्थाओं में नित्य आते-जाते रहते हैं। ये तीनों अवस्थाएँ होती कैसे हैं? हमलोग शरीर में हैं, शरीर नहीं हैं। कितने कहते हैं कि तुम शरीर ही हो। शरीर के सभी तत्त्व मिलकर एक हो गए हैं। इसलिए तुमको अपने का ज्ञान होता है। शरीर के सभी तत्त्व बिखर जाएँगे, मृत्यु होगी, तब अपनेपन का ज्ञान भी नहीं रहेगा। लेकिन यह मानने योग्य नहीं है। यह शरीर पंच तत्त्वों से बना है। ये पाँचों अचेतन पदार्थ हैं। अचेतन को ही जड़ कहते हैं। जड़, जड़ के मिलन से चेतन उत्पन्न हो जाय, मानने योग्य नहीं। इस शरीर के अंदर चेतन पदार्थ है, जिसके कारण सभी इन्द्रियों में ज्ञान है और इन्द्रियों से, मन से जो काम होता है, करते हैं। सभी के घरों में किसी-न-किसी तरह से श्राद्ध क्रिया होती है। यह क्रिया क्या बताती है? शरीर मर गया, शरीर में रहनेवाला कहीं चला गया। वह जहाँ कहीं भी गया, उसी के निमित्त से क्रिया होती है कि उसको सुख पहुँचाया जाय। सुख उसको पहुँचे वा नहीं, लेकिन इतना ज्ञान इसमें है कि चेतन आत्मा मरती नहीं है, शरीर मरता है। श्राद्ध क्रिया यह ‘वेदान्त ज्ञान’ सिखाती है। किसी घर के लोगों को यह ख्याल नहीं करना चाहिए कि शरीर के मरने से चेतन आत्मा भी मर गई। शरीर में से शरीर निकलता है।
 यह शरीर एक केला के गाछ की तरह है। केले के ऊपर का बक्कल (परत) निकालते जाओ, अंत में डण्ठल मिलेगा, जिसमें फल लगता है। मृत्यु में एक शरीर हाड़, मांस, चामवाला छूटता है। एक कथा मैं समास रूप में बताऊँगा।
 सत्यवान और सावित्री दोनां दम्पति थे। सत्यवान का शरीर छूट गया। यमदूत उसे लेने आए। किंतु पतिव्रता सावित्री के तेज के कारण वे उसे छू न सके। अंत में, यमराज स्वयं आए और उन्होंने सत्यवान के स्थूल शरीर में से उसके लिंग शरीर को निकाल, उसे लेकर चल दिया। स्थूल शरीर मर गया। सावित्री यमराज के पीछे-पीछे अनुनय- विनय करती चली। अंत में, सावित्री की प्रार्थना को स्वीकार कर यमराज ने सत्यवान के स्थूल शरीर में पुनः लिंग शरीर (सूक्ष्म शरीर) प्रवेशित कर दिया, तब वह स्थूल शरीर पुनः जीवित हो गया। यह कथा सिखाती है कि किसी की मृत्यु होने पर स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर निकलता है। उसी के साथ चेतन आत्मा और मन-बुद्धि रहती है। उसका संस्कार उसके साथ जाता है। अपने कर्म के अनुकूल स्वर्ग-नरक का भोग भोगता है और फिर स्थूल शरीर धारण करता है और अपने पूर्व के संस्कार को साथ लिए आता है। महाभारत में लिखा है-‘जैसे कि कोई मनुष्य सींक को मूंज से खैंचकर देखे, उसी प्रकार योगी भी शरीर से आत्मा को जुदा करके देखता है। मूंज को शरीर कहा, सींक को आत्मा रूप कहा; यह श्रेष्ठ दृष्टान्त बड़े उत्तम योगी लोगों से जाना गया है।’ ‘शरीर भी स्थूल और सूक्ष्म वा लिंग-दो ही शरीर नहीं, और भी हैं। सूक्ष्म बिना कारण के नहीं बन सकता और कारण भी बिना महाकारण के नहीं होता।’
 प्रकृति में जब विकृत भाव नहीं है, तब महाकारण और जब विकृत भाव हुआ, तब कारण और फिर विकृत होने पर सूक्ष्म और स्थूल हुआ। ये चार जड़ शरीर हैं। इनके अंदर हम चेतन आत्मा हैं। एक जड़ शरीर के छूटने पर अन्य तीन जड़ शरीरों के साथ जीवात्मा स्वर्ग-नरक का भोग करता है। यह चेतन आत्मा इस शरीर में कहाँ है? किस ढंग से है? मन के संग में है। चेतन आत्मा और मन का संग घीउ और दूध की तरह है। यह जगने की जगह जहाँ रहती हैं, वहीं वह बराबर रह जाए तो नींद नहीं हो। लेकिन उस जगह से जैसे ही हटती है कि तन्द्रावस्था आती है। हाथ-पैर कमजोर होते जाते हैं, शरीर के भीतर शक्ति सिमटती हुई मालूम होती है। उस सिमटाव में चैन होता है। स्वप्न से तन्द्रा में और तन्द्रा से जाग्रत में आते हैं। यदि सुरत इन्द्रियों के घाट से छूटती नहीं, तो हम एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जाते और न शरीर का कमजोर होना ही होता। हम जाग्रत में जहाँ रहते हैं, वहाँ से हटकर दूसरे स्थान पर जाते हैं, तब स्वप्न होता है। कबीर साहब ने कहा है-
 इस तन में मन कहाँ बसै, निकसि जाय केहि ठौर ।
 गुरु गम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और ।।
इसका जवाब दिया है-
 नैनों माहीं मन बसै, निकस जाय नौ ठौर ।
 गुरु गम भेद बताइया, सब संतन सिरमौर ।।
जानिले जानिले सत्त पहचानिले, सुरति साँची बसै दीद दाना।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै, पलक परवीन दिव दृष्टि ताना।।
     -दरिया साहब, बिहारी
ब्रह्मोपनिषद् में कहा है-
 नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् ।
 सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्निसंस्थितम् ।।
 अर्थात् जीव का बासा जाग्रत में नेत्र में, स्वप्न में कण्ठ में,सुषुप्ति में हृदय में और तुरीयावस्था में मस्तक में होता है।
 लेकिन बायीं वा दाहिनी किस आँख में? मैं कहूँगा कि इन दोनों के बीच तीसरी आँख में रहते हैं। शिवजी को त्रिनेत्रधारी कहते हैं। शिवजी को अख्तियार है कि जब वे चाहें, उसे खोलें वा बन्द करें। तीसरी आँख-शिवनेत्र इसी को कहते हैं। आँख में रहकर सम्पूर्ण देह का ज्ञान रखते हैं। एक आदमी दूसरे आदमी को उसके शब्द से भी पहचानते हैं। गले से ही कोई बोलता है। योगी कहते हैं कि गला सोलह स्वरों का स्थान है। उसको षोडस दल कमल भी कहते हैं। बिना गला के स्थान में रहने से कोई स्वर का उच्चारण नहीं कर सकता और स्वप्न में कभी-कभी मुँह से भी बोल देते हैं। सुषुप्ति में श्वास चलता रहता है, इस समय हृदय में रहते हैं। यह ज्ञान संतवाणी और उपनिषद् आदि ग्रंथों में भी है। तीन अवस्थाओं में हम नित्य जाते- आते हैं। आँख से कण्ठ में और कण्ठ से हृदय में आ जाते हैं, फिर हृदय से कण्ठ में और कण्ठ से आँख में आने से जगते हैं।
      सुभग सेज सोवइ सपने वारिधि बूड़त भय लागै ।
      कोटिन्ह नाव न पार करै तहँ जब लगि आपु न जागै ।।
      -गोस्वामी तुलसीदास
 साधारण तरह से तो हम लोग जगते हीं हैं, लेकिन और किस्म का जगना भी है; जिसको यौगिक जगना कहते हैं।
एहि जग जामिनी जागहिं जोगी। परमाथी प्रपंच वियोगी।।
परमार्थ किसको कहते हैं?
राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अविगत अलख अनादि अनूपा।।
सकल विकार रहित गत भेदा। कहि नित नेति निरूपहिं वेदा।।
       -गोस्वामी तुलसीदास
संत दरिया साहब मारवाड़ी कहते हैं-
 माया मुख जागे सभे, सो सूता कर जान।
 दरिया जागे ब्रह्म दिशि, सो जागा परमान।।
 जाग्रत, स्वप्न और गहरी नींद में घोर माया है। जब जिसकी वृत्ति ईश्वर की ओर होती है, तब उसका जगना होता है। चौथी वा तुरीय अवस्था आँख से ऊपर है। संत लोगों का वहाँ आरोहण होता है। जगत को पहचानो। ईश्वर-स्वरूप को प्राप्त करो तो जाग जाओगे। जबतक कोई ईश्वर मुख नहीं होता, तबतक जगता नहीं। केवल विचार-ही-विचार का जगना ठीक नहीं। जगने का काम तभी होगा, जबकि हम कुछ साधन-भजन करेंगे। जब नेत्र से ऊपर उठा जाय, तब जगना होगा। इसलिए कबीर साहब ने कहा है-
 परमातम गुरु निकट विराजैं, जागु जागु मन मेरे।
 लेकिन इसमें गुरु की आवश्यकता है।
बिनु गुरु भवनिधि तरै न कोई। जौं विरंचि शंकर सम होई।।
               -रामचरितमानस
 तीन अवस्थाओं को छोड़कर चौथी अवस्था में जाओ, तब जगना होगा। सुरत जो फैली हुई है, इसका सिमटाव करो तो ऊर्ध्वगति होगी। साधन भजन करो, तभी संसार से छुटकारा होगा।
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यह प्रवचन सारण जिलान्तर्गत थ्योसोफिकल सोसाइटी, छपरा के प्रांगण में दिनांक 16.4.1962 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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179. परोक्ष और अपरोक्ष ज्ञान
प्यारे लोगो!
 सब लोगों को जानने में आता है कि हम बन्धन में हैं। वह शरीर और संसार का बंधन है। दोनों का आपस में संबंध है। ऐसा संबंध कि शरीर मे रहो तो संसार में रहो और संसार में रहो तो शरीर में भी रहो। शरीर के जिस तल में जो रहता है, संसार के भी उसी तल में वह रहता है। शरीर के जिस तल को छोड़ता है, संसार के भी उस तल को छोड़ता है। शरीर के सब तलों को जो पार करता है, संसार के भी सभी तलों को वह पार करता है। एक ईश्वर के अतिरिक्त ऐसा कोई नहीं है कि शरीर और संसार के सभी तलों से छूटे हुए हों।
 ईश्वर को लोग बचपन से जानते हैं। लेकिन दर्शन नहीं होता है। अवलम्ब लें तो क्या इसका पता लगता नहीं है? इसका पता गुरु बताते हैं। यह बिना गुरु के नहीं हो सकता। संसार में जितने लोग शिक्षित हैं, उनकी शिक्षा गुरु से हुई है। इसी तरह मुक्ति की शिक्षा सद्गुरु द्वारा प्राप्त होती है। यह आध्यात्मिक विद्या है। जैसे विज्ञान और साइन्स आप सुनते हैं, यह आधिभौतिक विद्या है। इससे संसार में बहुत लाभ है, लेकिन इससे संसार से छुट्टी नहीं मिलती।
 ज्ञान कहते हैं, बुद्धि में जान लो, वस्तु निरूपण कर लो। विज्ञान कहते हैं कि उसका प्रत्यक्षीकरण कर लो। विज्ञान का अर्थ है विशेष ज्ञान। ज्ञान दो तरह के होते हैं-परोक्ष ज्ञान और अपरोक्ष ज्ञान। जो प्रत्यक्ष नहीं है, उसके लिए जानना यह परोक्ष ज्ञान है और प्रत्यक्षीकरण करना अपरोक्ष ज्ञान है। जबतक समझ में रहता है, तबतक परोक्षज्ञान है। उसको प्रत्यक्ष कर लिया, वह अपरोक्ष ज्ञान है।
 हमलोग बचपन से ही ‘ईश्वर है, ईश्वर है’, सुनते आए हैं। किताब को पढ़ा है। बड़े-बड़े महात्माओं का संग कर ईश्वर-स्वरूप को सुना है। अध्यात्म-ज्ञान को बूझा है, लेकिन प्रत्यक्ष नहीं हुआ है। यह परोक्ष ज्ञान है। सुन-समझकर उसको पाओ, यह प्रत्यक्ष ज्ञान, विज्ञान है। गुरु पहले परोक्ष ज्ञान बताते हैं, फिर वह प्रत्यक्ष कैसे हो, उसको बतलाते हैं। जैसे साइन्स के प्रोफेसर विधि बताते हैं और प्रयोगशाला में प्रयोग करने के लिए बताते हैं, उसी तरह अध्यात्म-ज्ञान में यह शरीर ही प्रयोगशाला है। गुरु की विधि चाहिए। उसकी विधि जानकर उसका यत्न-प्रयत्न करके उसको पाओ। ईश्वर के बिना मोक्ष मार्ग में सहायता देनेवाले कोई नहीं है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
 देव दनुज मुनि नाग मनुज सब माया विवश विचारे ।
 तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु कहा अपुनपौ हारे ।।
 बेचारे जिसका चारा (वश) नहीं चलता। ईश्वर को प्रत्यक्ष पाने के लिए बतानेवाला गुरु है। अव्यक्त रूप में परमात्मा और व्यक्त रूप में गुरु है। ईश्वर का ज्ञान हम संतों और सद्गं्रथों से सुनते हैं, तो बड़ा गंभीर मालूम होता है। अभी गोस्वामी तुलसीदासजी के वचन में आपलोगों ने सुना-
 हिय निर्गुन नयनन्हि सगुन, रसना राम सुनाम ।
 मनहु पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम ।।
 अर्थात् आँख में सगुण है। सगुण का अर्थ है-गुण सहित। गुण का अर्थ है-स्वभाव। स्वभाव तीन प्रकार के हैं। इसी में संसार है। उत्पन्न होना, पोषण होना और विनाश होना। विनाश में दो भाव है-एक परिवर्तन होना, दूसरा कुछ रहे नहीं। जो उत्पादक है, उसको रजोगुण, पोषक को सतोगुण और विनाश करनेवाले को तमोगुण कहते हैं। जो उत्पन्न करता है, उसका देवता ब्रह्मा, पोषण करनेवाले का देवता विष्णु और संहार करनेवाले का देवता शिव है। संसार में ये ही तीन स्वभाव हैं, आप देख लीजिए। इन तीनों के साथ जो हैं, वह है सगुण। इन तीनों गुणों को हम नहीं देखते। लेकिन उनके कार्यों को देखते हैं।
 जो दीखते नहीं, ज्ञान में हैं, वह हृदय में हैं। निर्गुण को हम देख नहीं सकते हैं। सगुण में निर्गुण है। सगुण सोने का डिब्बा है और निर्गुण ललित ललाम है। ईश्वर के दोनों रूपों को जानो।
 अभी ग्रंथपाठ में पढ़ा गया कि गुरु कैसा होना चाहिए? गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
 ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास ।
 निर्गुन कहै जो सगुन बिनु, सो गुरु तुलसीदास ।।
 यह गुरु की विशेषता है। जो स्वयं ज्ञान में है, अज्ञान उसके पास नहीं जाता। प्रकाश वह चीज है, जिसको प्रत्यक्ष देखा जाता है। प्रकाश में अंधकार नहीं सूर्य के प्रकाश में अंधकार है। सूर्य के प्रकाश से सभी कुछ नहीं देख सकते, दूरबीन से देखते हैं। अपने शरीर में जो आत्मा है, उसको इस सूर्य के प्रकाश से नहीं देख सकते। इसलिए इसमें भी अंधकार है। गुरु ऐेसे प्रकाश में रहते हैं, जिसमें अंधकार नहीं है। वह आत्मप्रकाश है।
 सगुण पद को छोड़कर तब जो निर्गुण है, उसका वर्णन गुरु करते हैं। सगुण तक ही ईश्वर नहीं हैं। सगुण को भरकर और भी वह बाहर है। अभी उपनिषद्-वाक्य सुना-
  वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
  एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च।। अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ एक ही वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार एक की अंतरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है। यही है-‘जो परम तत्त्व, आदि अंत-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है, उसे सर्वेश्वर सर्वाधार मानना चाहिए।
 निर्गुण का एक भाव होता है और सगुण का दो। एक तो विश्वरूप, दूसरा एक-एक शरीर में। श्रीराम, श्रीकृष्ण, देवी आदि के शरीर में ब्रह्म मानते हैं।
अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा वसत इति वासना धूप दीजै।
 यह विश्वरूप है। सर्वगत निर्गुण है और जिसमें है, वह सगुण है। इन दोनों को भरपूर करते हुए जो है, वह परमात्मा है।
 माता कौशल्या को भगवान श्रीराम ने विश्वरूप दिखाया था। राजा बलि से जो पृथ्वी ली थी, वहाँ भी विश्वरूप दिखाया था। विश्वरूप और विराटरूप एक ही बात है। यह रूप भी देशकालाविच्छिन्न हैं। यह अनादि-अनंत नहीं है। जब राजा बलि को छलने के लिए भगवान गए तो बड़ा रूप बनाकर, तीन डग में सारी पृथ्वी को नाप लिया। जामवन्त उस समय बहुत बलवान थे। उन्होंने कहा कि मैंने दो घड़ी के अंदर सात बार उनकी परिक्रमा की। यह प्रसंग बताता है कि वह विराट रूप भी ससीम था।
 पृथ्वी देश है। बिना शून्य के पृथ्वी वा सूर्य नहीं रह सकता। देश और काल से घिरा हुआ यानी इतनी दूर तक और इतने समय तक, ऐसा परमात्मा नहीं है। कौन चीज कितनी देर तक ठहरेगी, इसका अन्दाज है, यह समय से घिरा हुआ है। समय हो स्थान नहीं और स्थान हो समय नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। जो समय और काल से घिरा है, वह ब्रह्म नहीं है। देश-काल से जो परे है, वह ब्रह्म है। यह बुद्धि से समझ गए, लेकिन प्रत्यक्ष नहीं है। फिर भी सहारा है। जैसे स्टेशन पर उतरा और जिज्ञासा की कि धर्मशाला कहाँ है, जाएँगे। किसी ने उसका रास्ता बता दिया, यह सहारा है। लेकिन जिसको ठिकाना नहीं कि कहाँ जाएगा, उसको सहारा नहीं। गुरु से सहारा मिलता है। वे बताते हैं ईश्वर-प्राप्ति के रास्ते को।
 संसार के ऐश्वर्य को पाकर कोई संतुष्ट नहीं हो सकता। पृथ्वीराज सम्राट थे। उनकी आज्ञा के बिना उनके अधीनस्थ राजा बैठ नहीं सकते थे। लोग एक पाए के निकट खडे़ रहते थे। उस पृथ्वीराज की यह दशा हुई कि उसको अंधा करके यहाँ से ले जाया गया अफगानिस्तान। जब वह कैद किया गया और अंधा बनाया गया, तब उसकी क्या हालत हुई? विचारें। जब दुर्याधन की सब सेना मर गई, वह तालाब में छिप गया, तब उसकी कैसी दशा हुई, पहले कैसी दशा थी, जबकि वह राजा था? अर्जुन जब पंजाब में लूट लिए गए, तब उनकी कैसी दशा हुई? बड़े-बड़े में भी ऐसा उलट-फेर होता है। मामूली आदमी की बात क्या? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि आपस में लड़ो-झगड़ो नहीं। लेकिन भगवान की बात लोगों ने मानी नहीं। एक ही दिन में छप्पन कोटि यदुवंशी समाप्त हो गए। इसलिए यह नमूना है कि यह संसार कुशल का नहीं है। संतों ने बताया कि इस संसार को छोड़ो और मोक्ष प्राप्त करो, इसी में कुशल है।
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यह प्रवचन मुजफ्फरपुर जिलान्तर्गत मारवाड़ी पाठशाला (जूतापट्टी), मुजफ्फरपुर में दिनांक 19.4.1962 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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180. नशा सेवन से मस्तिष्क खराब
प्यारे लोगो!
 सबलोग अपना भला सोचें, अपना भला करें। धन उपार्जन में-कमाने में अपना भला सोचते हैं। जिनसे जो होता है, धन कमाते हैं। परन्तु देखो, धन से बिल्कुल भला नहीं होता, थोड़ा मंगल मालूम होता है, फिर अमंगल हो जाता है।
 धन नहीं चाहिए, ऐसा मैं नहीं कहता हूँ। लेकिन धन ही सब कुछ है, सो नहीं समझिए। धन से, तन्दुरुस्ती से, इज्जत से और विद्या से लोगों को भला होता है, यह बात सभी कोई जानते हैं। लेकिन इनसे जितना भला होना चाहिए, उतना नहीं होत है। ये सब नहीं चाहिए, सो बात नहीं है। लेकिन इसी सब से सब तरह का भला होगा, सो बात नहीं है।
 कभी-कभी शरीर रहते ही धन नाश हो जाता है और प्रतिष्ठा चली जाती है। मस्तिष्क खराब होने से विद्या काम नहीं देती। ये सब रहते हुए भी, एक दिन शरीर छूटने पर सभी अपने आप ही छूट जाते हैं। संतांं ने कहा-ईश्वर का भजन करो, सब भला होगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि केवल सुमिरन-भजन करो और संसार का काम नहीं करो। बल्कि संसार का काम भी करो और ईश्वर का भजन भी करो। इसीलिए संत कबीर साहब ने कहा कि-
 सुमिरन की सुधि यों करो, ज्यों गागर पनिहार ।
संत पलटू साहब ने भी पनिहारी की उपमा दी है-
 जस पनिहारी कलस भरे मारग में आवै ।
 कर छोड़ै मुख वचन चित्त कलसा में लावै ।।
 जैसे पनिहारी अपने सिर पर जल से भरा घड़ा लेकर चलती है, उसके एक हाथ में रस्सी- बालटी है, दूसरे हाथ से दूसरे घड़े को बगल में दबाए रहती है। अपनी सखी-सहेलियों के साथ बात भी करती हुई चलती है, लेकिन अपने ख्याल को सिर के घड़े पर रखती है। इसी तरह ईश्वर- भजन भी करो और संसार का भी काम करो। संसार का काम किए बिना संसार में गुजर नहीं होगा। संसार का काम करने से संसार में भला होगा और ईश्वर-भजन करने से शरीर छूटने पर भला होगा। सुमिरन नाम-जप को कहते हैं, जो नाम जपने के लिए गुरु बता देते हैं। ईश्वर सर्वव्यापक है। वह मोटे-से-मोटे और बारीक-से-बारीक नाम में भी है। ईश्वर के अनेक नाम हैं। कोई उसको राम, कोई शिव, कोई वाहेगुरु आदि कहते हैं। इस तरह के ईश्वर-वाचक बहुत से शब्द हैं, जिनसे लोग ईश्वर को पुकारते हैं। एक तो मुँह से बोलते हैं और अक्षर में भी लिखते हैं। दूसरा प्रकार है कि भीतर में शब्द होता है, वह अपने आप होता है, उसको बोला या लिखा नहीं जाता, जो गुरु के भेद से पाया जाता है। उससे वह उस नाम को पाता है, जो बारीक है। यह सबसे उत्तम है। लेकिन यह पहले किसी को नहीं आता। यह भी उत्तम है कि मन-ही-मन नाम जपो। कबीर साहब ने कहा-
 जप तप संयम साधना, सब सुमिरन के माहिं ।
 कबीर जानै भक्त जन, सुमिरन सम कछु नाहिं ।।
 इसका यत्न गुरु से जानो। केवल नाम जपो और अपना आचरण अच्छा नहीं रखो तो नाम जपने में मन नहीं लगेगा। इसलिए संतों ने कहा है कि अपना चाल-चलन अच्छा रखो। अच्छा चाल- चलन सुधारने में यह बात है कि झूठ मत बोलो। झूठ बोलनेवाला छिप-छिपकर पाप करता है और झूठ बोलकर उसको छिपाता है। सबसे बढ़िया है कि झूठ मत बोलो। चोरी नहीं करो। िंहंसा नहीं करो। हिंसा नहीं करने का अर्थ है-मांस, मछली, अण्डा नहीं खाओ। हिंसा के बिना कोई मांस-मछली नहीं खा सकता। व्यभिचार मत करो। वैदिक ढंग से विवाह का जो नियम है, उसके अनुकूल विवाहित रहो। जो व्यभिचारी है, उसका परमार्थ खराब हो जाता है। जो नशा लेता है, उसका मस्तिष्क खराब हो जाता है। जो थोड़ा लेता है, उसकी रजोगुणी बुद्धि रहती है। विशेष लेनेवाले की बुद्धि तमोगुणी होती है। नहीं लेनेवाले की बुद्धि सतोगुणी होती है।
 हमलोगों के जैसे यानी जितना हमलोग चावल खाते हैं, अंग्रेज लोग उतना मांस खाते थे। लेकिन अपने राज्य को वे बचा न सके। महात्मा गांधीजी अण्डा, मांस, मछली कुछ नहीं खाते थे। उनका मस्तिष्क साग, सब्जी, मक्खन आदि से बना हुआ था। बुद्धि की लड़ाई हुई। अंग्रेज पार पा न सके, महात्मा गांधीजी जीत गए और अंग्रेज हार गए। बंदूक, तोप, गोले से लड़ाई नहीं हुई, बुद्धि से लड़ाई हुई और अंग्रेज हार कर भाग गए। महात्मा गांधी ईश्वर-भक्त थे। उस भक्ति का बल भी उनको था। वे झूठ नहीं बोलते थे। वे बड़े अच्छे थे। वे भारत के अगुआ थे। उन्होंने जैसा कहा, हमारे देश के लोगों ने वैसा किया और अंग्रेज भारत छोड़कर चले गए।
 रामायण में राम-रावण का युद्ध क्या है? एक तरफ राम और दूसरी तरफ में रावण। राम के दल में बन्दर-भालू थे। वे फल-पत्ती खाते थे और रावण के दल में शराब, मछली, मांस आदि खाते थे। फल क्या हुआ? रावण हार गया और राम की जीत हुई। लोग कहते हैं कि हिंसा रोकी नहीं जा सकती, हिंसा होगी ही। लेकिन हिंसा दो तरह की होती है-वार्य और अनिवार्य। खेती करनी अनिवार्य हिंसा है। खेती का काम करना सभी छोड़ दे तो मोती, मूँगा, हीरा, लाल, जवाहरात कुछ काम नहीं कर सकता, आदमी भूखे मर जाएँगे। चोर- डकैत आ जाय, तो उससे लड़ाई करनी होगी। कश्मीर पर दुश्मनों ने चढ़ाई की तो महात्मा गांधी ने कहा- ‘रोको।’ रोको का अर्थ हुआ-युद्ध करो।
 सभी राष्ट्रां की एक पंचायत है। उसने कहा- ‘जो जहाँ तक है, वहाँ तक रहो।’ इस तरह देश की रक्षा में, घर की रक्षा में और खेती करने में अनिवार्य हिंसा होती है। अनिवार्य के लिए शास्त्रों में मनाही नहीं है। बल्कि उसके लिए पुण्य-कर्म करने के लिए कहा गया है। राजा लोग यज्ञ करते थे, जिससे परोपकार होता था। अनिवार्य हिंसा का पाप नहीं होगा, ऐसा तो नहीं कहा, लेकिन उसका प्रायश्चित बता दिया। मांस-मछली खाए बिना लोग रहते हैं और रह सकते हैं। इसलिए संतों ने इसके खाने की मनाही की है।
 घर में रहो, काम-काज करो और ईश्वर का नाम-भजन-वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक दोनों प्रकार से करो। ऐसा नित्य करते रहने से कभी-न-कभी अवश्य मुक्ति मिलेगी, आवागमन से छूटोगे। सभी दुःखों से छूट जाओगे। रेशम दासजी ने सत्संग घर बनवाया। उनके पुत्रों ने इसको बढ़ाया। सुपुत्र अपने पिता के शुभ-कर्म को बढ़ाते हैं और कुपुत्र उसको मेटते हैं। सब कोई मिलकर सत्संग कीजिए। नाम-भजन कीजिए।
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यह प्रवचन नेपाल राज्यान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर सिजुआ, मोरंग में दिनांक 16.5.1962 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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181. पूर्ण धर्म
प्यारे लोगो!
 जिस मनुष्य को धर्म का ज्ञान होता है और उस धर्म के अनुकूल चलता है, तो वह उत्तम पुरुष कहलाता है। वह संसार में सुखी रहता है, पूज्य हो जाता है। शरीर छोड़ने पर ऊँचे स्वर्ग में जाता है। धर्म में पूरा होता है, तो मुक्ति प्राप्त करता है। धर्म उस कर्म को कहते हैं, जो पवित्रता और ऊँचाई को पहुँचाता है। धर्म में दो तरफ हैं। एक तरफ है- सदाचार और दूसरी तरफ है-ईश्वर उपासना। सदाचार ठीक है और ईश्वर उपासना ठीक है, तो पूर्ण धर्म है। 1. झूठ नहीं बोलना, 2. चोरी नहीं करनी, 3. व्यभिचार नहीं करना, 4. नशाओं का सेवन नहीं करना तथा पाँचवीं बात है कि हिंसा नहीं करनी अर्थात् जीवों को दुःख नहीं देना और इस सिलसिले में मछली और मांस नहीं खाओ; क्योंकि मछली और मांस खाना, बिना हिंसा से नहीं हो सकता। अपने से नहीं मारे, लेकिन वह किसी-न-किसी तरह किसी से हिंसा करवाता है। मनुस्मृति में आठ घातकों का वर्णन है-
 अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
 संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः ।।
 अर्थात् 1. वध करने की आज्ञा प्रदान करने- वाला, 2. शस्त्र से मांस काटनेवाला, 3. मारनेवाला, 4. बेचनेवाला, 5. खरीदनेवाला, 6. मांस को पकाने- वाला, 7. परोसने के लिए लानेवाला, 8. खानेवाला; ये आठों घातक हिंसा करनेवाले ही कहलाते हैं।
 मनुस्मृति हमलोगों का वैदिक धर्मशास्त्र है। इसमें यह बात है जो हिंसा से, नशा से, व्यभिचार से, चोरी से, झूठ से बचता है, वह सत् आचरण करनेवाला होता है। और साथ-ही-साथ जो ईश्वर- उपासना करता है, वह धर्म में पक्का है। ईश्वर- भजन पूर्ण होगा, ईश्वर को पावेगा, मुक्ति प्राप्त करेगा। जबतक उपासना पूरी नहीं होगी, वह अच्छे- अच्छे मनुष्य शरीर पावेगा और शरीर छोड़ने पर अच्छे-अच्छे स्वर्ग में जाएगा और एवम् प्रकार से बारम्बार मनुष्य शरीर पाता हुआ, ईश्वर-भजन करता हुआ मोक्ष पावेगा। लेकिन सभी चीज सीखने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है। गुरु नहीं हो तो संसार अज्ञानता से भर जाएगा और संसार भ्रष्ट हो जाएगा।
 हमलोग माता-पिता, गुरु के द्वारा सीखते हैं। विद्यालय-कॉलेज में जाकर सीखते हैं। जहाँ कुछ सीखना है, वहाँ गुरु है। इसी तरह धर्म-ज्ञान के लिए भी गुरु होते हैं। जो धर्म-ज्ञान की अवहेलना करते हैं, वे मनुष्य शरीर में पशु-जीवन बिताते हैं। इस बड़ी हानि से बचना चाहिए।
 आज का सत्संग रविवार का सत्संग नहीं है। आज का सत्संग इसलिए है कि मेरा जन्म वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को हुआ था। इसी के लिए यह सत्संग हुआ है। इसके लिए मेरी ओर से कोई आग्रह नहीं है। श्रद्धालु सत्संगी महाशयगण श्रद्धा से सत्संग करवाए हैं। कोई बुलाते हैं कि आपका जन्म-दिवस फलानी तिथि को है, हम सत्संग करेंगे, आप वहाँ चलें, तो मैं वहाँ नहीं जाता। संयोग से जहाँ कहीं रहता हूँ और वह तिथि आ पड़ती है तो लोगों के साथ सत्संग में बैठ जाता हूँ।
 मुझे अपने गुरु महाराज की जन्म-तिथि मालूम नहीं। इसलिए हमलोग उनकी स्मृति-तिथि नहीं मनाते हैं। लेकिन उनका शरीर छोड़ना 1919 ई0 की 19 जनवरी को हुआ था। उस समय हमलोग मुरादाबाद जाकर सत्संग करते हैं। कबीर साहब ने कहा है कि-
 गुरु नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोय ।
 ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोय ।।
 गुरु के ज्ञान का स्मरण करना चाहिए। उसका कुछ वर्णन करना चाहिए। आपको मैंने क्या सिखलाया है, इसको आप याद नहीं करते हैं, बखान नहीं करते हैं, तो मेरा जन्म-दिवस मनाना ठीक नहीं हुआ। उस ज्ञान को याद करो, बखान करो, उसके अनुकूल चलो, तब जन्म-दिवस का उत्सव मनाना हुआ। इस अवसर पर कुछ लोगों को खिलाते हैं। उसमें गरीबों को खिलाना अच्छा है। विद्यार्थी को यहाँ खिलाया गया, यह भी अच्छा हुआ। ऐसा नहीं कि-
दौलत के झूठे नशे में हो चूर। गरीबों की दुनियाँ से रहते हो दूर।
 ख्याल रखो कि गरीबों की दुनिया से दूर नहीं रहो। दौलत के नशे में चूर मत होओ। धन रहने को नहीं है। अंग्रेज चला गया, जमीन्दार की जमीन्दारी चली गई। वे जो हुकूमत करते थे, वह हुकूमत भी चली गई और वे चुप बैठे हैं। राजा महाराजा की पदवी चली गई। केवल विद्या की पदवी-डॉक्ट्रेट रह गई है। अच्छे कर्मों के साथ गुरु के ज्ञान का ख्याल किया, बखान किया, ठीक यादगारी है। गुरु गोरे थे, काले थे, नाटे थे, यह बखान कुछ बखान नहीं है।
 गुरु का ज्ञान बड़ा है। उनके ज्ञान की यादगारी कीजिए, बखान कीजिए, उसके अनुकूल चलिए, तब जन्म-दिवस की यादगारी होगी। नहीं तो केवल बाहर दिखावा मात्र होगा।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर कनखुदिया, अररिया में दिनांक 16.5.1962 ई0 के अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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182. सरल राजयोग
प्यारे लोगो!
 ग्रंथों के पदों में ईश्वर का ज्ञान, ईश्वर-प्राप्ति का यत्न, ईश्वर-प्राप्ति के वास्ते आचरण का यत्न, संसार में ईश्वर-प्राप्ति के योग्य होने के लिए शुद्ध आजीविका और सुमित्र के संग में रहने का उपदेश है। माता-पिता की सेवा का उपदेश है। गुरु और ज्ञानियों की सेवा का उपदेश है। बड़े-बूढ़ों को प्रणाम और नम्र-भाव से रहकर आदर करना लिखा है। मन मस्त पागल हाथी से भी विशेष पागल है। इस मन पर काबू करने का उपदेश है।
 संसार में जितनी सवारियाँ हैं, किसी से मोक्ष-धाम में नहीं पहुँच सकते। लेकिन जिसने अपने मन को काबू कर लिया है, वे ही मोक्ष-धाम तक पहुँचते हैं, ये सब उपदेश हैं। ईश्वर के बारे में ऐसा उपदेश नहीं है कि वह व्यक्त-रूप का व्यक्ति है। कोई व्यक्त-रूप का व्यक्ति ईश्वर है? हरगिज नहीं। ईश्वर की ध्वनि घट-घट में होती है। जैसे माता गीत सुना-सुनाकर अपने बाल बच्चों को शान्त करती है, उसी तरह जीवात्मा अंतर की ध्वनि, परमात्म-ध्वनि सुनकर शान्ति प्राप्त करती है। संतों ने इसको जानकर प्राप्त किया। उसका सरल यत्न-कायदा का ध्यान बताया। जो अंतर्नाद है, उसको वह पा सकता है, जो सदा ध्यान करता है। वही शान्ति पाता है। वही मधुर ध्वनि-प्रणव नाद ईश्वर का नाम है। वह वर्णात्मक नहीं, ध्वन्यात्मक है। जो अंदर की ओर नहीं चलेगा, वह कभी इसको नहीं पावेगा और न कभी शान्ति पावेगा। इसीलिए संतों ने उलटने के लिए कहा। उलटने का अर्थ है कि बाहर में नहीं देखकर अंतर में देखो। पसरी दृष्टि से नहीं, सिमटी दृष्टि से देखो, बाहर में पसरी दृंष्ट से देखते हो, इसको उलटो अर्थात् सिमटी दृष्टि से देखो, तो ईश्वर की ज्योति को देखोगे कि वह तमाम पसरी हुई है, यह प्रत्यक्ष होगा। कुछ ख्याल-ही-ख्याल में बनाना नहीं है। जिस कायदे से सिमटाव होगा, वह सरल और कठिन दोनों है।
 सरल राजयोग है और कठिन हठयोग है। संतों ने राजयोग का वर्णन किया है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने छठे अध्याय में प्राणायाम की कुछ भी चर्चा नहीं करके सरल ध्यानाभ्यास करने बताया। इसलिए कबीर साहब ने जोर देकर कहा-
 न जोगी जोग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै ।
 सहज में ध्यान से पावै, सुरति का खेल जेहि आवै ।।
 यहाँ योगी का अर्थ हठयोगी से है। हठयोग करके राजयोग करे वा ध्यान करे, ऐसी बात नहीं है। हठयोग में कठिनाई है। यह सर्वसाधारण के लिए नहीं है और राजयोग-ध्यानयोग सरल है, सर्वसाधारण के लिए है। संतों ने यह भी बता दिया है कि संसार में पाँच विषय वा पंच तन्मात्राएँ हैं। इनसे ऊँचे में इन्द्रियाँ हैं। इन्द्रियों से इनका ज्ञान होता है। इन्द्रियों से मन, मन से बुद्धि, बुद्धि से ऊपर मूल प्रकृति, उससे ऊपर अव्यक्त है। अव्यक्त जो इन्द्रिय-ज्ञान में नहीं आवे। मूल प्रकृति वा जड़ प्रकृति अव्यक्त है। यह भी इन्द्रिय-ज्ञान में नहीं आती है। इससे परे अव्यक्त चेतन प्रकृति है। इससे परे ईश्वर का स्वरूप है। संतों ने इसी स्वरूप को पकड़ने का यत्न बताया है। जो इसका यत्न जानकर अभ्यास करेगा, वह अंत में परमात्मा को पाकर कभी दुःख में नहीं पड़ेगा। यह काम मरने पर नहीं, जीवनकाल में ही होता है। संत दादू दयालजी ने कहा है-
 जीवत छूट ै देह गुण, जीवत मुक्ता होइ ।
 जीवत काटै कर्म सब, मुक्ति कहावै सोइ ।।
 जीवत जगपति कौं मिलै, जीवत आतम राम ।
 जीवत दरसन देखिये, दादू मन विसराम ।।
 जीवत मेला ना भया, जीवत परस न होइ ।
 जीवत जगपति ना मिले, दादू बूड़े सोइ ।।
 मूआँ पीछे मुकति बतावै, मूआँ पीछे मेला ।
 मूआँ पीछे अमर अभै पद, दादू भूले गहिला ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी कहा है-
 लहहिं चारि फल अछत तनु, साधु समाज प्रयाग।
 यह ज्ञान साधु-समाज-सत्संग में होता है। साधु-समाज से युक्ति मिलती है। जो यत्न करता है, तो कभी-न-कभी उसे वह पूर्ण करता है। यह एक ही जन्म की बात नहीं है। काम कितना भी बड़ा हो, आरंभ करता है, तो कभी-न-कभी अवश्य खत्म होगा। जो इसका ज्ञान पाकर चलता है, वह पार करेगा। श्रीकृष्ण भगवान कहते हैं कि जो योग का आरंभ करता है, उसका नाश कभी नहीं होता।
 जब कभी कोई शरीर छोड़ता है, तो ईश्वर भक्ति का संस्कार उसके मन पर रहता है। फिर जन्म लेने पर उसका भक्ति-संस्कार अपने साथ रहेगा। और इस फल के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-‘पहले वह स्वर्ग सुख भोगेगा, फिर पवित्र श्रीमान् या योगी के घर में जन्म लेगा। साधना पूर्ण करके अंत में वह परम शान्ति को प्राप्त करेगा।’ यही पूर्ण आशा है इसी को संत कबीर साहब ने कहा-
 भक्ति बीज पलटै नहीं, जो युग जाय अनंत ।
 ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।।
 भक्ति बीज बिनसै नहीं, आय पड़ै जो चोल ।
 कंचन जौं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।
 सब कोई सावधान होकर अवश्य भजन करो। रास्ते चलते भी जप-ध्यान करो, भूलो मत।
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यह प्रवचन मधेपुरा जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर खोखसी श्याम में दिनांक 30.5.1962 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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183. सबसे पहले का पदार्थ कैसा है?
प्यारी धर्मानुरागिनी जनता!
 मुझे यहाँ का आयोजन देखकर बड़ी प्रसन्नता हो रही है कि धर्म के अनुरागी लोग इस तरह शान्त भाव से बैठकर सत्संग करते हैं। मैं सत्संग के विषय पर थोड़ा-सा कहूँगा। सत्संग के विषय पर इसलिए कहूँगा कि मैं जहाँ जाता हूँ, सत्संग की सेवा के लिए जाता हूँ और आपके बुलाने के अनुकूल मैं यहाँ भी सत्संग सेवा करने आया हूँ।
 लोग मुझसे पूछा करते हैं कि पहले सत्संग की महिमा कहिए। मैं कहता हूँ कि-‘आप क्या चाहते हैं?’ सत्संग से सब कुछ मिलता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहि पाई।।
सो जानब सत्संग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ।।
 बहुत मजबूती के साथ उन्होंने कहा है-मति बुद्धि, सुबुद्धि; कीर्ति = यश; गति = मोक्ष; भूति = ऐश्वर्य; भलाई = भलपन; ये पाँचों पदार्थ मिल जाएँ तो और क्या उत्तम पदार्थ बाकी रह जाता है? ये सत्संग के प्रभाव से ही मिलते हैं। इन पांचों से बढ़कर और कुछ नहीं है संसार में। वैदिक ज्ञान में इससे विशेष यत्न और कोई नहीं है।
 ‘सत्’ कहते हैं-अपरिवर्तनशील पदार्थ को। जिसमें कभी परिवर्तन नहीं होता, वह क्या है? संसार में सब परिवर्तनशील है। लेकिन जिसका परिवर्तन नहीं होता, जिसका विनाश नहीं होता, वह क्या है? परमात्मा। परमात्मा के अतिरिक्त और कोई अपरिवर्तनशील पदार्थ नहीं है। उस ‘सत्’ के संग को सत्संग कहते हैं।
 संतों ने उस ‘सत्’ का बड़ा विशाल ज्ञान दिया है। हमलोगों के मुँह में जब से कुछ बोल आया, तब से ही राम-राम, शिव-शिव, वाह गुरु, शक्ति माता आदि कहकर हम पुकारते हैं, जिसके घर में जो रिवाज है। किंतु उस ‘सत्’ के स्वरूप का निर्णय क्या है, बहुत पीछे हमलोग जानते हैं। संतों से इसके लिए दरयाफ्त करें। संत कबीर साहब कहते हैं-
 श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
 सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
 चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
 चून चगून वजूद न मानु तैं सुभानमूना ऐना ।।
 जैसे ऐना सब दरसावै जो कुछ वेष बनावै ।
 ज्यों अनुमान करै साहब को त्यों साहब दरसावै ।।
 जाहि रूह अल्लाह के भीतर तेहि भीतर क े ठाईं ।
 रूप अरूप हमारि आस है हम दूनहुँ के साईं ।।
 जो कोउ रूह आपनी देखा सो साहब को पेखा ।
 कहै कबीर स्वरूप हमारा साहब को दिल देखा ।।
                                          ‘सत्तपुरुष जिन जानिया सतगुरु ताका नाम’- ऐसे ये संत हैं, इसीलिए इनके यहाँ जाकर पूछते हैं। संतों के संग में रहकर, उनके अधीन में रहकर श्रवण करना भी सत्संग है। बाबा नानकदेवजी के पास जाता हूँ, तो उपदेश मिलता है-
  अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
  जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
  साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु ।
  ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।
  ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु काम न नारी ।
  अकुल निरंजन अपर परंपरु सगली जोति तुमारी ।।
  घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ।
  बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।।
  जंत उपाइ कालु सिरिजंता बसगति जुगति सवाई ।
  सतिगुरु सेवि पदारथु पावहि छूटहि सबदु कमाई ।।
  सूचै भाडै साचु समावै विरले सूचाचारी ।
  तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।। गोस्वामी तुलसीदासजी के पास जाने से वे कहते हैं-
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सब दरसी अनवद्य अजीता।।
 निर्मल निराकार निर्मोहा ।नित्य निरंजन सुख सन्दोहा।।
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाही ं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।
 इस तरह संतों से हम ज्ञान पाते हैं। ईश्वर के संबंध में हमको सब मजहबों से विदित कराया गया है कि वह सबसे प्रथम का है, उससे पहले का और कुछ नहीं। सबसे पहले का जो परम सनातन पदार्थ है, वह कैसा है? प्रकृतिमण्डल को भरकर भी परे है।
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
 विन्ध्याचल के उत्तर तीन संतों-कबीर साहब, गुरु नानक साहब तथा गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज को लोग विशेष रूप से जानते हैं। ईश्वर के संबंध में इन संतों के वचनों से जानने में आता है कि तीनों के वचन एक हैं। कबीर साहब ने ‘अनंत’, गुरु नानक साहब ने ‘अलख’, ‘अपार’ और गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी ‘अनन्त’ कहा। कबीर साहब ने कहा कि वह चेतन आत्मा को भी चेतन करनेवाला है। आगे पीछे, ऊपर नीचे अर्थात् सब तरफ वह है। सबसे बाहर और सबके भीतर है-‘है सबमें सबही तें न्यारा।’ गुरु नानकदेवजी ने ‘अलख -अपार’ कहकर अनन्त को ही जनाया है और उसपर अपने को न्योछावर करने कहा।
 सबसे पहले का पदार्थ कैसा है? सबसे पहले का पदार्थ कुछ-न-कुछ अवश्य होना चाहिए। जिसके अतिरिक्त कुछ अवकाश बच जाय, वह सबसे पहले का नहीं होगा। जो सबसे पहले का होगा, वह सर्वव्यापक और उससे भी परे होगा; उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा। जो असीम है, अनंत है, ऐसा पदार्थ सबसे पहले का होगा। ऐसा नहीं मानने से सब ससीम मानना होगा। तो प्रश्न हो जाएगा कि उससे परे क्या है? एक अनादि-अनंत कहे बिना प्रश्न हट नहीं सकता। जो अनादि-अनंत है, वह सबसे विशेष व्यापक होगा। जो सबसे विशेष व्यापक होता है, वह सबसे विशेष सूक्ष्म होता है। एक सेर बर्फ की व्यापकता से उसके पानी की और पानी से (उसको वाष्प बना लेने पर) उसके वाष्प की व्यापकता अधिक होगी। परमात्मा सबसे विशेष सूक्ष्म है, इसीलिए उसको ‘अलख अपार अगम अगोचरि’ कहा गया। ऐसे का संग बाहर संसार में नहीं हो सकता। संसार में हम जहाँ जाएँगे, शरीर-इन्द्रिय के साथ जाएँगे। हम बाहर संसार में जाकर ईश्वर का संग करें, हो नहीं सकता है। बाहर का ख्याल छोड़कर अन्दर की ओर चलें, तब उसका संग होगा। जैसे-जैसे हम अन्दर जाते हैं, शरीर और इन्द्रियां का ज्ञान छूटता जाता है। जाग्रत-स्वप्न के बीच तन्द्रा अवस्था होती है, उस समय मालूम होता है कि शक्ति भीतर की ओर खींचती है। जो अन्दर में प्रवेश करता है, वह इन्द्रियों के ज्ञान से छूटकर अपने स्वरूप को पाता है।
 ईश्वर का ज्ञान बहुत विस्तृत है, लेकिन मोटा-मोटी मैं कहता हूँ कि ईश्वर इन्द्रिय-ज्ञान से परे है। इसलिए बाबा नानकदेवजी ने ‘अलख, अगोचर’ आदि कहा है। आप संस्कृत ग्रंथों को वा अपनी भाषा के ग्रंथों को पढ़िए, सबमें मालूम होगा कि ईश्वर इनिद्रय-ज्ञान से बाहर है। इसलिए बाहर में ईश्वर का संग नहीं होता है। उनके संबंध में जो ज्ञान सुनते हैं, वह भी सत्संग है। ईश्वर के ज्ञान में, उनके रंग में जो मिले हुए हैं, वे भी संत सत्स्वरूप होते हैं। उनका संग भी सत्संग है।
 ईश्वर-प्राप्ति का यत्न संतों से मिलता है। हम अपने अंदर-अंदर चलकर ईश्वर का दर्शन कर सकते हैं। अपने अंदर में जिन र्चिोंं को कोई पाता है, उनके लिए गुरु नानकदेवजी कहते हैं-‘घट घट जोति सबाई’ और कहते हैं, ‘साचे सबदि नीसाणु।’
 रात्रि का अंत होने पर उषाकाल होता है। उस समय का प्रकाश सूर्य का है। उसके बाद के प्रकाश को अरुणोदय कहते हैं। इसके बाद सूर्य-दर्शन होता है। उसी तरह परमात्मा के प्रकाश को कोई तब पाता है, जब कोई परमात्मा का दर्शन पाता है।
 ‘साचे सबदि नीसाणु’ जो गुरु नानकदेवजी ने कहा है, यह कैसी बात है? प्राकृतिक ढंग से आप देखते हैं कि पहले बिजली चमकती है, फिर शब्द सुनते हैं। इसी तरह साधक पहले ज्योति को, फिर नाद को पाता है और तब परमात्मा को पाता है। जो परमात्मा के प्रकाश में अपने को ले जाता है, वह ईश्वर के दयादान को पहचानता है और परमात्मा के शब्द को भी वह पाता है। कबीर साहब ने कहा है कि-
 शब्द गह्यो जिव संशय नाहीं, साहब भयो तेरो संग ।
 ईश्वर चेतन आत्मा के ज्ञान से जानने योग्य है, इन्द्रियों के ज्ञान से नहीं। कोई पूछे कि रूप क्या है? तो कह दीजिए कि जो आप आँख से देखते हैं। उसी तरह ईश्वर क्या है? तो जो चेतन आत्मा से जाना जाता है। इसी के प्रत्यक्ष ज्ञान को सत्संग कहते हैं।
 अभी एक विद्वान शवरी के विषय में कह रहे थे। श्रीराम ने शवरी से नौ प्रकार की भक्ति का वर्णन किया है-
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
  गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।
  चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मो तें सन्त अधिक करि लेखा।।
आठवँ यथा लाभ सन्तोषा। सपनहुँ नहिं देखइ पर दोषा।।
नवम सरल सब सन छल हीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।।
 प्रथम भक्ति से मंत्र-जप तक सभी जानते हैं। इसमें जो सूक्ष्मता है, सुनिए-
 नित प्रति दरसन साधु के, औ साधुन के संग ।
 तुलसी काहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
तो कहा-
 मन तो रमे संसार में, तन साधुन के संग ।
 तुलसी याहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
 साधु संग वा कथा प्रसंग, कहीं भी रहो, एक मन से सुनो। गुरु-सेवा मन से करो। मंत्र-जप करो, तो स्थिर मन से करो।
 तन थिर मन थिर वचन थिर, सुरत निरत थिर होय ।
 कह कबीर इस पलक को, कलप न पावै कोय ।।
 साधु-संग में, कथा-प्रसंग में, गुरु-सेवा में, मंत्र-जप में, यश-कीर्तन में, सबमें मन की एकाग्रता चाहिए। छठी भक्ति में दमशीलता प्राप्त करने कहा। यह केवल विचार-ही-विचार से नहीं होता। मन को विचार से नियन्त्रित करो, ठीक है। लेकिन इतने से ही पूर्ण नियन्त्रित नहीं होगा। इसकी पूर्णता के लिए दूसरा साधन भी करो। विचारो कि इन्द्रियाँ विषयों की ओर कैसे जाती हैं? इन्द्रियों में चेतन की धारें होती हैं, तब इन्द्रियाँ विषयों की ओर जाती हैं। जब स्वप्न में इन्द्रियों से चेतन धाराएँ सिमट जाती हैं, तब इन्द्रियाँ बाह्य विषयों में नहीं जातीं। इसके लिए विशेष साधन दृष्टियोग है।
 मन और दृष्टि का बड़ा संबंध है। जहाँ दृष्टि की संलग्नता है, वहीं मन भी रहता है। इसलिए अपने देखने की शक्ति को बढ़ाओ। इतना बढ़ाओ कि दोनों में फर्क न रह जाय अर्थात् समेटकर देखो। केवल निशाने को देखो; जैसे अर्जुन केवल निशाने को ही देखता था। आज भी अच्छा निशाना करनेवाला ठीक-ठीक देखते हैं। गुरु नानकदेवजी ने कहा है-‘तारा चड़िआ लम्मा किउ नदरि निहालिआ राम’ तथा ‘निसि दामिनि जिउ चमकि चंदाइणु देखै। अहिनिसि जोति निरतंर पेखै।’ जब कोई यह देखता है, तब दमशीलता होती है।
 योगशास्त्र में ‘दम’ और ‘शम’-ये दो शब्द बड़ी कीमत के हैं। इन्द्रिय-निग्रह के साथ भी मनोनिग्रह होता है और केवल मन का भी साधन होता है। उस साधन को नादानुसंधान कहते हैं। नवधा भक्ति के अंदर जब हम सूक्ष्मता की ओर ध्यान देते हैं, तो छठी और सातवीं भक्ति ‘दम’ और ‘शम’ का साधन हो जाती है।
 शवरी को भगवान राम ने कहा-‘सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।’ इससे आगे कुछ भी जानने का साधन नहीं है। भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि के दर्शन जिनको-जिनको हुए, उन लोगों ने कुछ माँगा अथवा भगवान ने ही कहा कि कुछ माँग लो। लेकिन शवरी के आगे लेन-देन कुछ नहीं और वह वहाँ गई, जहाँ से लौटकर कोई फिर आता नहीं।
      तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भई जहँ नहिं फिरै ।
 शवरी की भक्ति में कोई कमी नहीं थी। ऐसा नहीं कि स्त्रीगण को गुरु की सेवा नहीं करनी चाहिए। बल्कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम शवरी से कहते हैं-‘गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान।’ नौवीं भक्ति के अंत में साधक उस परमात्मा को पाता है, जिससे पूर्ण सत्संग होता है।
 एक बात और कहूँ-हमारा यह शरीर एक नहीं है। इसके अंदर सूक्ष्म, कारण और महाकारण; ये तीन जड़ शरीर और हैं। इन चारों जड़ शरीरों से जब चेतन आत्मा छूटती हैं, तब परमात्म-दर्शन होते हैं। गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
 काहे रे वन खोजन जाई ।
 सरब निवासी सदा अलेपा, तोही संग समाई ।।
 ईश्वर सर्वत्र हैं, फिर दर्शन क्यों नहीं पाते? इसलिए कि हम जड़ शरीरों के आवरण से आवृत्त हैं। स्थूल शरीर के अंदर सूक्ष्म शरीर है। इस पर मैं एक कथा कहकर सत्संग समाप्त करूँगा।
 सत्यवान और सावित्री दम्पत्ति थे। सत्यवान के पिता के राज्यभ्रष्ट हो जाने के कारण वे जंगल में लकड़ी काटकर अपने माता-पिता और अपनी पत्नी का भरण-पोषण करते थे। एक दिन जंगल में लकड़ी काटते-काटते ही सिर-दर्द से बेचैन होकर वे बेहोश हो गए। संयोगवश सावित्री उस दिन उसके साथ ही में थी। उसने अपनी जंघा पर अपने पति का सिर रख लिया। सत्यवान का अंतिम समय जान यमदूत उसे लेने आए; किंतु सती स्त्री के तेज के सामने वे ठहर न सके। अंत में यमराज स्वयं आकर सत्यवान के स्थूल शरीर से उनके सूक्ष्म लिंग शरीर को निकालकर चलते बने। सावित्री यमराज के पीछे-पीछे अनुनय-विनय करती चली। यमराज ने प्रसन्न होकर सावित्री को इच्छित वरदान देकर सत्यवान के स्थूल शरीर में उनके सूक्ष्म शरीर को प्रवेशित कर दिया। फलस्वरूप सत्यवान जीवित हो उठे।
 इस संक्षिप्त कथा से समझाता हूँ कि पतिव्रता का तेज कितना है जानो। यमराज उसके पति को ले भी गए, तो लौटाकर दे दिया। हमारे देश में चाहिए कि स्त्रियाँ पतिव्रता हों और पुरुष एकपत्नी- व्रतधारी हों। जो पुरुष एकपत्नीव्रतधारी नहीं हैं, उसको पतिव्रता स्त्री नहीं मिल सकती।
 कर्महीन को ना मिलै, भली वस्तु को भोग ।
 दाख पके मुख काक को, होत पाक का रोग ।।
 तुम अच्छे कर्मवाले बनो, तब अच्छे पदार्थ तुमको मिलेंगे। देश में स्त्रियाँ पतिव्रता हों और पुरुष एकपत्नीव्रतधारी हों। हमारे देश में जो आज इतना नैतिक पतन है, इसका कारण है कि हमारे देश में उस तरह की संतान नहीं सी है।
 पंच पापों से छूटकर रहे, तो देश में कल्याण होगा। जहाँ ये पंच पाप-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार नहीं रहेंगे, वहाँ चोरी, डकैती, बदमाशी नहीं होगी। सभी शान्तिपूर्वक रहेंगे। पापों के करनेवाले से ईश्वर की भक्ति नहीं होगी। ईश्वर की भक्ति करनेवाले को पापों से छूटने का बल मिलता है और पापों से छूटने पर ईश्वर की भक्ति में बल मिलता है।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत सुजागंज स्थित सिक्ख गुरुद्वारा में दिनांक 5.8.1962 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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184. दिव्य जीवन क्या है?
पूज्य पुरुषो तथा धर्मानुरागिनी जनता!
 मैं नहीं जानता हूँ कि लोग मुझको महर्षि क्यों कहते हैं। मैं अपने में ऐसी योग्यता नहीं देखता। मैं सभापति का काम नहीं जानता हूँ और आपलोगों ने मुझे सभापति बनाया है, यह आपलोगों की विशेषता है। आपलोग जानते होंगे कि मैं मामूली आदमी हूँ। संतमत का सेवक-प्रचारक हूँ। जिस देश में हमलोग हैं, वह भारतभूमि है। यह भूमि सदा से संतों को जन्म देती आयी है-संतों को अपनी गोद में रखती आयी है। आज इस समय हमलोग एक संत के जन्म-दिवस के उत्सव आयोजन पर कुछ कहने और सुनने के लिए उपस्थित हुए हैं। मैं जानता हूँ कि ऋषिकेश में स्वामी शिवानंद सरस्वतीजी महाराज रहते हैं। मैं कई बार वहाँ गया, लेकिन संयोगवश उनके दर्शन नहीं हुए। उनका जन्म-दिवस मनाया जा रहा है। यह बड़ा अच्छा है, सभी संत अच्छे हैं।
 संत संत सब एक हैं, जस पोस्ते की खेत ।
 कोई कुदरती लाल हैं, कोई सेत का सेत ।।
 केवल वस्त्र से संत कहलानेवाले बहुत हैं। ‘कुदरती लाल’ कोई-कोई खास होते हैं, जो ‘लाल’ बनकर ही आए हैं। बनते-बनते, बनते हैं, यह और बात है; लेकिन बने हुए भी आते हैं। देश में बहुत ऐसे संत हैं। स्वामी शिवानन्द सरस्वतीजी भी इन दोनों में से कोई एक हैं।
 डिवाइन लाइफ सोसाइटी ;क्पअपदम सपमि ेवबपमजलद्ध अर्थात् दिव्य जीवन संघ क्या है? सभी मिलकर आपस में प्रेमपूर्वक रहो, अंतःकरण से शुद्ध पवित्र रहकर ईश्वर-भजन करते रहो। शुद्ध जीविका उपार्जन करते हुए अच्छी तरह रहो, यह जीवन दिव्य है। मैं समासरूप में कहता हूँ। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
अमित बोध अनीह मित भोगी। सत्य सार कवि कोविद योगी।।
 ऐसे ही जीवन के लोग संत,साधु-पुरुष कहाते हैं। उनको (संतों को) कितना ज्ञान है, ठिकाना नहीं। इसीलिए कहा-अमित बोध। मैं संतों की वाणी कहूँगा; क्योंकि मैं संतमत का आदमी हूँ न? कभी नानक का, कभी सूरदासजी का और कभी अन्य संतों का वचन कहूँगा। संत इच्छा-रहित होते हैं। कबीर साहब ने कहा है-
 भक्ति का मारग झीना रे ।
 नहिं अचाह नहिं चाहना, चरणन लौ लीना रे ।।
 अर्थात् ईश्वर-भजन करने की इच्छा रखो, संसार का धन बटोरने की इच्छा नहीं। संतजन संसार में रहते हैं, मितभोगी होकर। संसार में रहकर स्वाभाविक ही संसार का कुछ-न-कुछ लेना ही होगा। इसलिए वे मितभोगी होते हैं। सत्य के वे सार होते हैं, सत्य के बिना धर्म नहीं होता, ज्ञान नहीं होता। वचन रचना में वे दक्ष होते हैं, चाहे गद्य हो वा पद्य। वे पण्डित और योगी भी होते हैं। योगी हों, पण्डित हों,, अमित बोध रखते हों, आदि ये सब गुण जिनमें हों, उनका जीवन जीवन्मुक्त पुरुष का है-दिव्य जीवन का है। इसके लिए मैं साधारण शब्दों में कहूँगा कि भक्ति कीजिए। इसमें प्रेम, ज्ञान और योग तीनों हैं। इन सबको मिलाकर रखना होता है। योग को ईश्वर की भक्ति से अलग करें तो मिलावे कौन? प्रेम को बाहर पटक दें तो संयुक्त करने की क्रिया में कौन रखे? मेरे ख्याल में, ईश्वर-भक्ति में ज्ञान, योग और प्रेम सभी हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-‘रघुपति भगति करत कठिनाई।’ विनय-पत्रिका। और तुलसीकृत रामायण में है-‘रघुपति भगति सुलभ सुखदाई।’ यदि कोई कहे कि वहाँ कठिन और यहाँ सुलभ, यह कैसे? तो जानना चाहिए कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने विनय-पत्रिका के उसी पद में आगे चलकर यह भी कहा है-
कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई ।।
और भी-
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।।
 यहाँ ज्ञान, योग और भक्ति; सभी मौजूद हैं। ईश्वर-भक्ति कीजिए और पवित्र जीवन-अलौकिक जीवन बनाइए। यह मनुष्य शरीर में ही होगा। मनुष्य-शरीर नहीं बनावें तो पशु जीवन में रहना होगा। हम केवल खाएँ, सोएँ और आराम करें तो पशु की तरह ही हो जाएँ। उससे विशेष हम तब होते हैं, जब ईश्वर की भक्ति करते हैं। ईश्वर क्या है? त्रयगुण-रहित पर, दिव्यगुण-सहित। निस्त्रैगुण्य होने का गुण ही दिव्यगुण है। परमात्मा दिव्य है, उसको जो पावेगा, वही दिव्य जीवनवाला होगा। अग्नि में गिरो तो अग्निमय हो जाओगे। उसी तरह उस दिव्य परमात्मा में मिलो तो दिव्य हो जाओगे। इसका यत्न क्या है, कबीर साहब की वाणी में सुनिए-
   गगन की ओट निशाना है ।
   दहिने सूर चंद्रमा बायें, तिनके बीच छिपाना है ।।
   तन की कमान सुरत का रोदा, शब्द बान ले ताना है ।
   मारत बान बिंधा तन ही तन, सतगुरु का परवाना है ।।
   मारयो बान घाव नहिं तन में, जिन लागा तिन जाना है ।
   कहै कबीर सुनो भाई साधो, जिन जाना तिन माना है ।।
 पंडितों का वेद और संतों का भेद होता है। स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्म से कारण को वेधते हुए आगे चला गया, लेकिन घाव नहीं हुआ। यह दिव्य जीवन प्राप्त करने का संकेत है।
 मनुष्य तीन गुणों के अंदर रहता है, कभी राजस प्रधान, कभी तामस प्रधान और कभी सत्त्व प्रधान में । लेकिन सत्त्वप्रधान में बहुत कम रहते हैं। बड़े सच्चरित्र जो हैं, उनका विचार सात्त्विकता में रहता है। सात्त्विकता का विचार कैसे होगा? अपने को कहाँ रखोगे? एक बंगाली संत का वचन सुनिए-
बायें इड़ा नाड़ी दक्षिणे पिंगला, रजस्तमोगुणे करिते छे खेला।
मध्य सत्त्वगुणे सुषुम्ना विमला, धर धर तारे सादरे ।।
 अगर सात्त्विकता में अपने को रखना चाहते हो, तो सुषुम्ना को आदर से पकड़ो। इसमें रहने से सात्त्विक विचार ही दिव्य जीवन देगा। गुरु नानक ने कहा है-
      ‘सुखमन कै घरि राग सुनि सुन मंडल लिव लाइ ।
       अकथ कथा वीचारीअै मनसा मनहि समाइ ।।’
‘सागर महि बूँद बूँद महि सागरु कवणु बुझै विधि जाणै ।
उतभुज चलत आपि करि चीनै आपे ततु पछाणै।।
ऐसा गिआन विचारै कोई तिसते मुकति परमगति होई।
दिन महि रैणि रेणि महि दीनी अरु उसन सीति विधि सोई।
ताकी गति मति अवरु न जाणै गुर बिन समझ न होई।।
पुरख महि नारि नारि महि पुरखा बूझहु ब्रह्म गिआनी।
धुनि महि धिआनु धिआन महि जानिआ गुरमुखि अकथ कहानी।।
 इस तरह संतों ने दिव्य जीवन प्राप्त करने को कहा है। इसका भेद जानना चाहिए। यह छिपा भी है और प्रकट भी। जो खोजता है, उसको मिलता है, उसके लिए प्रकट है और जो नहीं खोजता है, उसके लिए छिपा है। जो कोई ऐसा काम करते हैं, चाहे उनका नाम दफ्तर में हो वा नहीं, सभी दिव्य जीवन के हैं।
 मैं ‘संतमत’ क्यों कहता हूँ? इसलिए कि साम्प्रदायिकता नहीं रहे। ईश्वर-भक्ति करो। ईश्वर
इन्द्रियातीत है।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
ईश्वर को इन्द्रियों के ज्ञान में नहीं जानोगे।
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अविगत अलख अनादि अनूपा।।
सकल विकार रहित गत भेदा। कहि नित नेति निरूपहिं वेदा।।
 तुम अपने को सोचो-कौन हो? शरीर का ज्ञान छोड़ो। शरीर के 31 तत्त्वों को छोड़कर तब जो हो, सो तुम हो। ईश्वर की भक्ति अपने से होगी, नौकर-चाकर से नहीं। हाथ-पैर, नाक-कान नौकर हैं। हमारे पिताजी आवें, तो हम अपने से उठकर पानी लावें, यह अच्छा है। उसी तरह ईश्वर की भक्ति अपने से होगी। ईश्वर की भक्ति सभी करें।
 इस देश में ज्ञान और विज्ञान दोनों प्रचलित हैं। ज्ञान अर्थात् जानना और विज्ञान अर्थात् विशेष जानना। क्या जानो? क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान जानो। क्षेत्र से क्षेत्रज्ञ को फुटाकर ज्ञान से जानना ज्ञान है और अभ्यास करके पहचान कर जानना विज्ञान है। मैं शरीर नहीं, इन्द्रिय नहीं, अंतःकरण नहीं, ऐसा विचारना परोक्ष ज्ञान है। साधन द्वारा उसको प्राप्त करना अपरोक्ष ज्ञान है। यह अध्यात्म-विज्ञान है, आधिभौतिक-विज्ञान नहीं। अध्यात्म-विज्ञान का अंत ईश्वर साक्षात् में है। भौतिक-विज्ञान का अंत अभी तक नहीं हुआ है। आज जो भौतिक-विज्ञान की उन्नति सुनते हैं, यह इतना ही है, ऐसा नहीं। अपने देश में भौतिक-विज्ञान की उन्नति पहले नहीं थी, ऐसी बात नहीं। हम दोनों विज्ञानों को अपनावें। यदि दोनों नहीं अपनावें तो अध्यात्म विज्ञान को अवश्य अपनावें, नहीं तो मनुष्यता नहीं रहेगी, दिव्य जीवन नहीं होगा। अध्यात्म-विज्ञान में रहने से ही दिव्य जीवन होता है। मितभोगी जो रहता है, वही आराम से रहता है। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार-पंच पापों को नहीं करनेवाले ‘दिव्य जीवन’ वाले होंगे। अपने देश में जो स्वराज्य है, उसमें सुराज हो जाएगा। आज स्वराज्य है, लेकिन सुराज नहीं। सुराज किसी कानून के डण्डे से नहीं होगा, ईश्वर-भजन से होगा। पंच पापों से बचने से होगा। अपने देश में जो लोग गिरते हैं, वह नमूना नहीं अपनाना चाहिए। संसार में स्त्री और पुरुष का रहना आवश्यक है। इसके बिना संसार नहीं रहेगा। श्रीराम इसके नमूने थे कि वे एकस्त्रीव्रतधारी थे। स्त्रियों को सावित्री की तरह ही पतिव्रता होना चाहिए। इससे छिना हुआ राज्य पुनः लौटेगा, अंधों को आँखें होंगी और यमदूत डरेंगे। चेतन आत्मा का बल तब जगेगा, जब अपने अंदर-अंदर चलो।
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यह प्रवचन नवयुग विद्यालय, भागलपुर में आयोजित बृहत सभा में स्वामी श्रीशिवानन्द सरस्वती की जयंती के अवसर पर दिनांक 8.9.1962 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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185. दैत्य गुरु शुक्राचार्य की युक्ति
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 यहाँ के प्रेमियों ने मुझको सत्संग के निमित्त बुलाया है, इसलिए मैं पहले आपलोगों को सत्संग के बारे में कहूँगा। सत्संग में दो शब्द हैं-सत् और संग। सत् के संग को सत्संग कहते हैं। सत् उसको कहते हैं, जो अपनी सत्ता से हो, कभी परिवर्तित न हो और कभी नष्ट न हो। जिसकी निजी स्थिति हो, उसके संग को सत्संग कहते हैं, असल तो यह बात है। ऐसा पदार्थ जो अपनी सत्ता से रहता हो, जो किसी आधार पर आधेय होकर नहीं हो, जो कार्य-रूप नहीं हो, जिसमें परिवर्तन नहीं हो, ऐसा क्या पदार्थ होगा?
 संसार के सभी पदार्थ बदलते हैं, सभी किसी- न-किसी आधार पर रहते हैं, सभी में विनाश का गुण है। अपनी देह को देखिए, पहाड़-पर्वत को देखिए, सभी आधार पर हैं। हम सभी पृथ्वी पर हैं और पृथ्वी भी आधार पर ही है। चाहे आप पौराणिक बातें लीजिए, तो कहेंगे कि शेषनाग पर है। यदि विज्ञान को लीजिए, तो यह सूर्य के आधार पर है। बिना आधार के कोई भी नहीं है। ये बिल्कुल-के- बिल्कुल बदलते हैं। कभी-न-कभी इसका नाश हो जाता है। बहुत दिनों के बाद ब्रह्मा भी नहीं रहते। ब्रह्मा के दिन में सृष्टि होती है और रात में विनाश। इसी तरह सृष्टि चली आ रही है। कबतक इस तरह बदलती रहेगी, ठिकाना नहीं। कोई कहते हैं कि जिससे यह सृष्टि होती है, वह भी नहीं रहेगी। सृष्टि प्रकृति से होती है। प्रकृति भी कभी-न-कभी लय हो जाएगी। कहते हैं कि जो जिससे उपजा है, वह उसी में समा जाएगा। सृष्टि में कोई भी अविनाशी नहीं है। अगर कोई ऐसा है, तो ईश्वर है। ईश्वर के अतिरिक्त और कोई ऐसा नहीं कि जिसमें परिवर्तन न हो और वह किसी आधार पर नहीं रहे।
 ऐसा इसलिए कि संसार में देखने में आता है कि पहले कुछ, तब फिर कुछ। जैसे वृक्ष, फिर उसमें फल आदि। वैज्ञानिक ज्ञान में भी सृष्टि के लिए है कि पहले यह बना, पीछे वह बना। और पौराणिक ज्ञान में भी इसी तरह है। इस तरह जो बनता-बिगड़ता है, वह ईश्वर नहीं। पहले सूर्य है बाद को पृथ्वी। यह सूर्य पृथ्वी के पहले से है। इस तरह सोचें कि पृथ्वी और सूर्य के पहले का भी कुछ होना चाहिए। सबसे पहले का कुछ नहीं मानने से सृष्टि का पता भी नहीं रहेगा। सबसे पहले का वह पदार्थ होगा, जिसके अतिरिक्त कोई अवकाश नहीं। यदि कोई अवकाश माना जाय, तो उसमें रहनेवाला पीछे होगा और अवकाश पहले। यह भी समझने योग्य है कि जिसके अतिरिक्त कोई अवकाश नहीं हो, वह कैसा होगा? सादि सान्त वा अनादि-अनन्त? वह अनादि-अनन्त है। सादि-सान्त कहने से उसके अतिरिक्त कुछ अवकाश मानना पड़ेगा। जो अनादि-अनंत होगा, वह अपरम्पार शक्ति- युक्त होगा। ईश्वर के बारे में यही कहने योग्य है कि जो आदि-अंत-रहित, अपरम्पार, शक्तियुक्त है, वही सत् है, वही ईश्वर है। इससे विशेष व्यापक और कुछ नहीं हो सकता। यही सत् है, इसका संग हो, इसको सत्संग कहते हैं। इतनी ऊँची बात को ख्याल में लावें, तो मन हैरान हो जाता है कि वह सत कहाँ है और उसका संग कैसे होगा?
 वह सत् सर्वव्यापी होने के कारण सबमें सर्वदा है। वह भले ही सबको जानता है, लेकिन सब उसको नहीं जानते। मनुष्य से ऊँचे रहनेवाले स्वरूपतः उसको पहचान नहीं सकते। जब कोई उस सत के लिए ज्ञान कहता है, तब समझ में आता है, लेकिन उसकी प्रत्यक्षता नहीं होती। विश्वास नहीं होता कि उसका संग हमको होता है, यद्यपि वह सर्वव्यापी है। यदि प्रत्यक्ष हो जाए, तब बात ही क्या? सो होता नहीं है। प्रत्यक्ष नहीं जानने के कारण उसका संग हो रहा है, विश्वास नहीं होता। प्रत्यक्ष नहीं होने के कारण जिसको हम सत्संग कहते हैं, संसार में होने योग्य नहीं मालूम होता। लेकिन सर्वव्यापी को पहचान लें, तब सत्संग होगा। इसके बिना हमलोग जो यहाँ एकत्र हैं, यह सत्संग कैसा? यह सत्संग नहीं है, यह भी कहा नहीं जाता; क्योंकि उस सत् के विषय में हमलोग समझने-बूझने को एकत्र होते हैं, चर्चा करते हैं, इसलिए यह भी सत्संग है।
 लोग कहेंगे, सत्संग से लाभ क्या होता है? किसी काम के करने से लाभ हो, तब उसमें प्रेम होता है, करने में मन लगता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है कि सत्संग से क्या लाभ है? लोग ज्ञान, यश, सुगति, ऐश्वर्य और शीलता चाहते हैं। लेकिन झूठी शीलता नहीं, जैसा कि हमलोग कभी-कभी बरतते भी हैं। कबीर साहब ने कहा है-‘मन में आन बगल में छूरी।’ सत्यता और नम्रता से बरतने को शीलता कहते हैं।
 कथा है कि एक बार जब इन्द्र का राज्य छिन गया था, तब उसने देवगुरु बृहस्पतिजी से उसकी पुनः प्राप्ति के लिए उपाय पूछा। सद्युक्ति बताने में बृहस्पतिजी को असमर्थ पा इन्द्र ने दैत्य गुरु शुक्राचार्य से जिज्ञासा की। शुक्राचार्य ने कहा कि तुम प्रùाद की सेवा करो और जब वह तुम्हारी सेवा से प्रसन्न होकर कुछ माँगने के लिए तुमसे कहे, तब तुम उनसे कहना कि आप अपनी शीलता मुझे दीजिए। शुक्राचार्य की युक्ति इन्द्र को भायी। उसने छद्म वेश में प्रùाद के दरबार में जाकर विविध सेवा करनी आरंभ कर दी। कुछ दिनों के पश्चात् इन्द्र की सेवा से प्रसन्न होकर एक दिन प्रùाद ने कहा कि तुम कुछ वर माँगो, जो तुम चाहते हो। इन्द्र ने कहा-‘आप अपनी शीलता दीजिए।’ प्रùाद समझ गए। उन्होंने कहा-‘आप इन्द्र हैं। मेरे गुरु महाराज जी ने आपको सिखाया है। मैं अपनी शीलता तो आपको दूँगा ही, साथ ही आप अपना राज्य भी ले लीजिए।’ तुलसीदासजी कहते हैं-
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहि पाई।।
सो जानब सत्संग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ।।
 सत्संग से क्या नहीं मिलता है? आप मनुष्य हैं, आपको जो मिलना चाहिए, सभी सत्संग से मिलते हैं। मनुष्य हैं, ज्ञान नहीं है तो किस काम का वह है? यश नहीं है, अयशी है, उसका जीवन किस काम का? मनुष्य शरीरधारी जीव को ये पाँचों बातें चाहिए। सत्संग के बिना इसका मिलना नहीं हो सकता।
 देवगुरु बृहस्पतिजी महाबुद्धिमान, ज्ञानवान थे। उनके पास इन्द्र गए; गोया सत्संग किया। शुक्राचार्य के पास इन्द्र गए, वह भी सत्संग हुआ। प्रùाद की सेवा में इन्द्र रहे, तो ऐश्वर्य भी लाभ हुआ। सत्संग से बढ़कर कुछ है, कहा नहीं जा सकता। हमलोग ईश्वर की चर्चा करते हैं, यह सत्संग है। महात्माओं का, संतों का संग भी सत्संग है। प्रùाद भी भक्त थे, उनका संग सत्संग हुआ। ऐसे महापुरुष नहीं मिलें, तब कैसे सत्संग हो? ग्रंथों में उन महापुरुषों का ज्ञान है, उनके ज्ञान का संग भी सत्संग है। दूर-दूर मित्र होते हैं, पत्र से समाचार जानते हैं। चिट्ठी आधी मुलाकात है।
 संतों का ज्ञान उनकी ओर से उनके ग्रंथों के द्वारा हमको मिलता है, यह भी सत्संग है। इसलिए हमलोग संतों का कोई-न-कोई वचन अवश्य पाठ करते हैं। हमारे सत्संग का यह आधार है। कोई कोई बुद्धिमान कहते हैं कि किताब पढ़ने की क्या जरूरत है? जो तुम जानते हो, कहो। मैं कहता हूँ तुलसीदासजी आदि संतों के सामने मेरा ज्ञान तुच्छ है। उनका ज्ञान लेकर मैं कहता हूँ, तो इसमें क्या हानि है? आप विद्वान हुए हैं, कॉलेजों और विद्यालयों में दूसरे की किताब पढ़कर ही?
 उत्तर भारत में भगवान बुद्ध के बाद कबीर साहब पूर्व में, गुरु नानक साहब पश्चिम में हुए। काशी में कबीर साहब भी और गोस्वामी तुलसीदासजी भी-दोनों हुए। उत्तर भारत में सूरदास महाराज भी हुए हैं। ये सब संत ऐसे हुए हैं कि इनके प्रवचनों के द्वारा हमको सत्संग हुआ करता है। इसलिए सत्संग के वास्ते हमारे गुरु महाराज भी सद्ग्रंथों का सहारा लेते थे। हमारे गुरु का ज्ञान हमसे कितना अधिक था, ठिकाना नहीं। जब वे ग्रंथों का सहारा लेते थे और हमको भी आदेश दे गए, तब क्यों न पाठ किया जाय? अभी तुलसीकृत रामायण का पाठ हुआ, आपने सुना-
 जीवन मुक्त ब्रह्म पर, चरित सुनहिं तजि ध्यान ।
 जे हरि कथा न करहिं रति, तिन्हके हिय पाषान ।।
 जो मुक्ति प्राप्त करें, वे मुक्त हैं। मुक्ति का अर्थ है-छूट जाना। किससे छूट जाना? बंधन हो, तो उससे छूट जाना मुक्ति है। बंधन क्या है? किसको है? तो कहा जाता है कि जीवात्मा को बंधन है। शरीर के बंधन से छूट जाना मुक्ति है। जीवात्मा शरीर नहीं है। बालि मारा गया। उसकी स्त्री तारा रोती थी, तब श्रीराम ने कहा-
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।
प्रगट सो तनु तव आगे सोवा। जीव नित्य तुम केहि लगि रोवा।।
 भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध में अर्जुन से कहा था कि तुम किसको मारोगे? कुरुक्षेत्र के मैदान में जितने लड़ने आए हैं, ये पहले नहीं थे और पीछे नहीं रहेंगे, ऐसी बात नहीं। शरीर बदलता है, आत्मा अविनाशी है। इस शरीर में जीवात्मा है और शरीर के बंधन में है। शरीर के बंधन में रहने से क्या होता है, यह सबको मालूम है। कभी सुख, कभी दुःख दिन रात की तरह आता-जाता रहता है। कभी लगभग चौदह घंटे की रात और कभी चौदह घंटे का दिन होता है। लेकिन बराबर न रात रहती है, न दिन रहता है। उसी तरह दुःख कभी अधिक, कभी कम। कभी पाण्डव बड़े सुख में थे और कभी भीख भी माँगी, कभी नौकरी भी की। नौकरी में युधिष्ठिर ने भी मार खायी और द्रौपदी ने भी। महारानी सीता भी रोयीं। एक बार कौन कहे, दो-दो बार। सूरदासजी ने कहा-
    ताते सेइये यदुराई ।
    सम्पति विपति विपति सों सम्पति देह धर े को यहै सुभाई ।।
    तरुवर फूलै फलै परिहरै अपने कालहिं पाई ।
    सरवर नीर भरै पुनि उमड़ै सूखे खेह उड़ाई ।।
    द्वितीय चन्द्र बाढ़त ही बाढे़े घटत घटत घटि जाई ।
    सूरदास सम्पदा आपदा जिनि कोऊ पतिआई ।।
 सम्पदा व आपदा, किसी का विश्वास नहीं करो कि यह सदा रहेगी। यह तो प्रत्यक्ष अपने देश में हुआ। अंग्रेज बात-की-बात में भाग गया। जमींदारों की जमींदारी चली गई। बहुत-बहुत जमीन भी अब किसी के पास नहीं रहने को। कभी भारत बड़ा धनी था और अब भारत ऋणी है; लेकिन सदा ऋणी रहेगा, ऐसा नहीं।
 इस शरीर में कभी सुख, कभी दुःख होता है। सम्पत्ति में बाहर में तो अच्छा लगता है; लेकिन अंतर जलता रहता है। गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है-
    द्रव्यहीन दुख लहइ दुसह अति, सुख सपनेहु नहिं पाये ।
    उभय प्रकार प्रेत पावक ज्यों, धन दुख प्रद स्रुति गाये ।।
 धन होने और नहीं होने, दोनों तरहों में दुःख है। धन नहीं है, तो जलते हैं और धन हो गया, तो जैसे भूत चढ़ गया, चैन नहीं लेने देता। जो सब राष्ट्र वा एक ही राष्ट्र बड़ा धनवान है, तो चुपचाप रहे। लेकिन चुपचाप रहता कहाँ है? उसको भूत लगा है, अपने ऐश्वर्य को बढ़ाने के लिए। भारत कहता है कि हमारे पास धन नहीं है, इससे दुःखी हैं और अमेरिका कहता है-‘हमारे पास अमित धन है, धन के भोगों से बचाओ।’ वह भोग के मारे पागल हो रहा है। इस तरह धन सुख देनेवाला नहीं है। सुख कहने मात्र का है, यथार्थ में नहीं। जो-जो मन और इन्द्रियों को सुहाता है, वह सुख और जो मन-इन्द्रियों को नहीं सुहाता है, वह दुःख है। इस सुख में मन-इन्द्रियों को तृप्ति नहीं और दुःख, अशान्ति रहती है। इसलिए शरीर से छूटो। शरीर से छूटने को मुक्ति कहते हैं। आप कहेंगे कि शरीर से छूटना तो मामूली बात है। जहर खा लो, छूट जाय। अथवा सब्र करके रहो, तो कुछ दिनों में 10, 20, 50 वा 100 वर्षों में शरीर छूट जाएगा। तो यह बात कहनेवाले केवल एक शरीर को ही जानते हैं। इसके अंदर सूक्ष्म (लिंग), कारण और महाकारण शरीर भी हैं। कोई- कोई तीन ही शरीर गिनाते हैं। हमलोग चार शरीर पढ़े हैं और विचार में भी आता है। ये चारो शरीर छूट जाएँ, तब मुक्ति है। साधारण मृत्यु में केवल एक शरीर छूटता है।
 बहुत पुराने समय से हमलोगों के घर में कर्मकाण्ड होता है, जिसमें एक कर्मकाण्ड को श्राद्ध- क्रिया कहते हैं। श्रद्धापूर्वक जो क्रिया की जाती है, उसको श्राद्ध-क्रिया कहते हैं। जैसे एक आदमी अपने पुत्र-पौत्रों के साथ था। उस बूढ़े का शरीर छूट गया, उसको चिता पर जलाया और उसकी श्राद्ध-क्रिया की। श्राद्ध-क्रिया करने में एक श्रद्धा है कि दादाजी का शरीर छूट गया है, वे कहीं-न-कहीं हैं। श्राद्ध- क्रिया यह वेदान्त-ज्ञान बताती है कि शरीर छूटता है, आत्मा रहती है। और में सन्देह भी, इस बात में कोई सन्देह नहीं। शरीर छूटने पर देह से देह छूटती है।
 सावित्री और सत्यवान की कथा से सीखो कि सावित्री में पातिव्रत्य के कारण तेज था। आज भी जो स्त्री पतिव्रता होगी, उसको भी तेज होगा। इसलिए स्त्रियों को पूर्ण पतिव्रता होना चाहिए। पुरुष को चाहिए कि भगवान श्रीराम की तरह एक पत्नीव्रती बनें। आज हमारे देश में इसकी बड़ी कमी है, जिस कारण कमजोर बच्चे होते हैं। देश में सभी स्त्रियाँ पतिव्रता हों और सभी पुरुष एकपत्नीव्रत धर्म का पालन करें तो देश में अच्छी संतान होगी, देश का कल्याण होगा। कबीर साहब ने कहा-
 मरिये तो मरि जाइये, छूटि पड़ै जंजार ।
 ऐसी मरनी को मरै, दिन में सौ सौ बार ।।
 जा मरने से जग डरै, मेरे मन आनन्द ।
 कब मरिहौं कब पाइहौं, पूरण परमानन्द ।।
 इसी की प्राप्ति के लिए श्रीराम ने प्रजा को उपदेश दिया। संसार के सभी सुख लोगों को प्राप्त थे। लेकिन शरीर छूटने के बाद भी वे सुखी रहें, इसलिए श्रीराम ने प्रजा को सबसे पहली बात जो कही, सो यह कि-
बड़े भाग्य मानुष तनु पावा । सुर दुर्लभ सब ग्रथहिं गावा।।
 राजा का कर्तव्य होता है कि जहाँ प्रजा के सुख के लिए कार्य करे, तो उसके ज्ञान को बढ़ाने का यत्न भी करे। श्रीराम ने कहा-
बड़े भाग्य मानुष तनु पावा । सुर दुर्लभ सब ग्रथहिं गावा।।
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा । पाइ न जेहि परलोक सँवारा।।
 सो परत्र दुःख पावइ, सिर धुनि धुनि पछताय ।
 कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं, मिथ्या दोष लगाय ।।
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।
नरतन पाइ विषय मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं।।
ताहि कबहुँ भल कहहिं न कोई। गुंजा ग्रहइ परसमनि खोई।।
आकर चारि लाख चौरासी। जोनि भ्रमत यह जीव अविनासी।।
फिरत सदा माया कर प्रेरा । काल कर्म सुभाव गुन घेरा।।
कबहुँक करि करुणा नर देहीं । देत इस बिनु हेतु सनेही।।
नर तन भव वारिधि कह़ँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।।
करन धार सदगुरु दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।
 जो न तरइ भव सागर, नर समाज अस पाय ।
 सो कृत निन्दक मंद मति,आतम हन गति जाय ।।
 परलोक दो प्रकार के होते हैं-एक स्वर्ग-नरक आवागमनवाला, दूसरा वह कि मुक्ति मिल गई, फिर संसार में लौटकर नहीं आता है। ईश्वर की कृपा नहीं है, यह नास्तिकता की बात है। प्रारब्ध बनाया हुआ तुम्हारा है, आज भी जैसा चाहो, बना सकते हो। समय तुमको शुभ कर्म करने से मना नहीं करता। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द; इन पंच विषयों को लोग भोगते रहते हैं। श्रीराम कहते हैं-यह मनुष्य-शरीर का काम नहीं। स्वर्ग का सुख भी थोड़ा ही है और अंत में दुःख देनेवाला है। अर्थ यह हुआ कि ‘नर तन कर फल निर्विषय भाई’। इन्द्रिय-ज्ञान से परे का ज्ञान ग्रहण करने के लिए मनुष्य का शरीर है। विषयातीत मोक्ष के लिए श्रीराम ने उपदेश दिया।
 अच्छी नाव हो और अच्छी हवा भी हो, लेकिन खेवनेवाला नहीं हो, तो काम नहीं चलेगा। मनुष्य-शरीर नाव है, ईश्वर-कृपा अनुकूल वायु है और खेवनेवाला सद्गुरु हैं। सद्गुरु उसको कहते हैं, जो सद्ज्ञान जाने; उस ज्ञान के अनुकूल रहे और दूसरों को सद्ज्ञान का उपदेश दे।
 जो मनुष्य भवसागर पार होने के ऐसे साज सामानों को पाकर भवसागर पार नहीं होता है, वह कृतघ्न, नीच बुद्धि आत्महिंसक की गति में जाता है। इसीलिए लोगों को ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए, जिससे कि मुक्ति मिले और निर्विषय तत्त्व की प्राप्ति हो।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत सुलतानगंज में श्रीलक्ष्मीना0 रामुका द्वारा आयोजित दिनांक 9.9.1962 ई0 के अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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186. संसार में पाँच ही पदार्थ हैं
प्यारे लोगो!
 मैं ईश्वर की भक्ति के बारे में कहता रहता हूँ और किसी के बुलाने पर मैं जाता हूँ। अपनी ओर से नहीं जाता। ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर- स्वरूप का जानना आवश्यक है। किसी भी पदार्थ को जानने के लिए ज्ञानेन्द्रियों से हम जानते हैं। संसार में पाँच ही पदार्थ हैं-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द। इन पंच विषयों को ही हम जानते हैं। इनसे अधिक हम जानते नहीं हैं और ये सभी विषय इन्द्रियगम्य हैं। ईश्वर कुछ ऐसा है कि उसके बारे में ये इन्द्रियाँ काम नहीं करतीं। मुँह से भले ही राम-राम कहें, लेकिन पहचानते नहीं। राम-राम कहकर एक अवतारी राम को और दूसरे सर्वव्यापी राम को जानते हैं। सर्वव्यापी राम तो केवल कहते हैं, पहचानते नहीं हैं। अवतारी राम को भी अभी देखते नहीं हैं, उनके संबंध में सुनते हैं-पढ़ते हैं। उस अध्ययन के आधार पर उनका रंग-रूप बनाया जाता है। फिर भी सभी रूप एक प्रकार के नहीं। वे अवतारी राम ठीक ही हुए हैं। हम जो देखते हैं श्रीराम का चित्र वा प्रतिमा उसमें सर्वव्यापी राम को नहीं पहचानते। चित्र वा प्रतिमा इन्द्रियगम्य है। लक्ष्मण ने श्रीराम से पूछा था कि माया क्या है? श्रीराम ने ठोस रूप में कहा-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 गोस्वामी तुलसीदासजी ने अवतारी राम का बहुत वर्णन किया है। साथ ही, जब वे व्यापक राम के विषय में कहते हैं, तो वे कहते हैं-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 अर्थात् आपका स्वरूप वचन से परे, इन्द्रिय में आने योग्य नहीं, बुद्धि से ग्रहण होने योग्य नहीं, देखने में आने योग्य नहीं, सर्वव्यापी है और जिसकी सीमा को कोई देख नहीं पाता। आप स्वरूपतः अपार हैं।
जग पेखन तुम देखनिहारे। विधि हरि शम्भु नचावनिहारे।।
तेउ न जानहिं मरम तुम्हारा। अउर तुम्हहिं को जाननिहारा।।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।।
 अर्थात् संसार दृश्य (तमाशा) और आप उसको देखनेवाले तथा, ब्रह्मा, विष्णु और महादेव को नचानेवाले हैं। वे त्रिदेव भी आपके भेद को नहीं जानते हैं, फिर दूसरा कौन जाननेवाला है? आपको वही जानता है, जिनको आप जना देते हैं। फिर आपको जानते ही वे आप से निर्भेद हो जाते हैं।
 यह ऐसा ज्ञान है कि जो मान्य है, अमान्य नहीं। अवतारी रूप, देवरूप सगुण-साकार है। इससे भक्ति का आरंभ होता है। इससे आगे भी भक्ति है। सगुण-साकार की आराधना करने की युक्ति गुरु से मिलती है। इससे आगे इन्द्रिय ज्ञान से परे की आराधना के लिए भी गुरु से ही भेद पाते हैं और आराधना करते हैं। सगुण और निर्गुण दोनों तरह की उपासना करनी चाहिए। सदाचार का पालन अवश्य होना चाहिए। दमशीलता चाहिए। दूसरे बहुत से कर्मों से विरत रहना चाहिए। पर सज्जनों के धर्म के अनुकूल बरतना चाहिए। सदाचार का पालन करना चाहिए।
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
           -रामचरितमानस
 पुरुष लोग श्रीराम की तरह एक पत्नीव्रत धारण करें और महिलाएँ पातिव्रत धर्म का पालन करें। इस तरह के दोनों के मिलन से योग्य संतान होती है। संसार में सुख और शान्ति होती है। जब-जब ऐसे लोग हुए, संसार में सुख-शान्ति रही। सुख-शान्ति संसार में पूर्ण रूप से नहीं मिल सकती, आंशिक सुख-शान्ति मिलती है। इसकी भी प्राप्ति ठीक- ठीक तभी हो सकती है, जबकि दोनों पवित्र रहें। यह सदाचार पर निर्भर है। सदाचार ईश्वर-भक्ति पर अवलम्बित है। ईश्वर-भक्ति को सदाचार से सहायता मिलती है। नारि-वर्ग उस तरह की हों, जैसे अन्य पतिव्रताएँ हुई हैं। उनके लिए स्वर्गादि मामूली चीज है। वह मृतक को जीवित कर सकती है, हरण किए गए राज्य को पलटा सकती है तथा अंधे को आँख दे सकती है। इसके लिए सावित्री- सत्यवान की कथा हमारे यहाँ प्रसिद्ध है।
 सबको ईश्वर-भक्ति और सदाचार का पालन करना चाहिए। संसार से सभी चले जाएँगे। संसार की सभी चीजें छूट जाएँगी। लेकिन यह यश रहेगा कि फलानी बड़ी भक्तिन थीं, पतिव्रता थीं। शवरी बड़ी भक्तिन थीं। श्रीराम उनके यहाँ गए थे और भी बड़े-बड़े विद्वान पण्डित लोग उस जंगल में थे, लेकिन श्रीराम पहले शवरी के यहाँ ही गए और श्रीराम ने स्वयं कहा-‘सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।’ न तो श्रीराम कुछ माँगने कहते हैं और न शवरी ही कुछ माँगती है; क्यांकि वहाँ कमी नहीं थी और अंत में इसलिए शवरी की ऐसी गति हुई कि-
तजि योग पावक देह हरि पद लीन भये जहँ नहिं फिरै।
 सभी कुशल से रहें और भक्ति में आप बढें। परमात्मा से यही मेरी प्रार्थना है।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत ग्राम-लुकरगंज, महिला सत्संग, इलाहाबाद में दिनांक 1.10.1962 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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