174. राम कैसा है?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
मैं कोई व्याख्यानदाता, बहुत विद्वान आदि नहीं हूँ। मैंने अपने गुरुजी के पास में बैठकर जो थोड़े समय सत्संग का वचन सुना है, उनके वचन से जो जाना है, उसी जानने पर मैं कहता हूँ। और यह अवश्य है कि अपने वाक्यों में कहता हूँ। क्योंकि उनका वाक्य स्मरण नहीं है, भाव स्मरण है। उन्होंने कहा था-मनुष्य कल्याण चाहता है। मनुष्य ही क्या, प्राणिमात्र कल्याण चाहते हैं। यह उनके भाव से जाना जाता है, जो बोल नहीं सकते। लोग संसार के सुख में कल्याण खोजते हैं, किंतु आज तक पौराणिक वा ऐतिहासिक वर्णन नहीं है कि वे संसार के पदार्थों से कल्याण पा गए। कल्याण का अर्थ है कि वासना का क्षय हो जाए और किसी प्रकार का चाहे आधिभौतिक वा आध्यात्मिक कष्ट बाकी न रह जाए। नित्यानंद- ब्रह्मानंद प्राप्त हो जाए, जिससे भिन्न होने का अवसर नहीं है। इसको संतों की वाणी में खोजो। संतों की वाणी में खोजने के लिए उनका संग करना होगा। यही सत्संग है। सत् को प्राप्त करके साधक पुरुष संत हुए और सत् की प्राप्ति के कारण वे भी सत् हुए। उनकी वाणी सत् है। सत् को पाकर संत हुए, उनका वचन सत् और उनका संग सत्संग है। हमलोग इसीलिए संतों के वचन के अवलम्ब से सतसंग करते हैं। हमलोगों को अपना उतना ज्ञान नहीं कि स्वयं कुछ कह सकें। कुछ लोग उकताते हैं कि सुना, एक साधु आए हैं, उनका प्रवचन सुनूँगा। यहाँ तो गीत गाए-गवाए जाते हैं। कबीर साहब, गुरु नानक साहब, गोस्वामी तुलसीदास आदि संतों के वचन जो हैं, उनके सामने मैं कुछ कहूँ, शोभा नहीं देता। संतों के ज्ञान प्राप्त करने के लिए संतों की वाणी का संग करो। तथा कल्याणमय, कल्याण-स्वरूप परमात्मा को पाने के लिए उनकी भक्ति करो। कल्याण-स्वरूप परमात्मा के लिए बड़ा ऊँचा ज्ञान दिया है। उन्होंने ऐसा नहीं बताया कि दृश्य जगत में जो दृश्य पाते हो, वह ईश्वर है। उन्होंने कहा कि जो परम पुरातन है, वही ईश्वर है। इस परम सनातन के पहले कुछ हो, संभव नहीं है। उसके पहले कुछ हो, तो वह प्राचीन नहीं होगा। जो परम प्राचीन है, वह किसी अवकाश में रहे, संभव नहीं। जो किसी अवकाश में रहेगा, वह साधार हो जाएगा। इसके अतिरिक्त जो कुछ बचेगा, तो वही पहले का हो जाएगा, जिसमें उसकी स्थिति माने तो वह परमात्मा नहीं होगा। परमात्मा किसी आधार पर आधेयता का गुण धारण करे, हो नहीं सकता है। जो अपना आधार आप है, सर्वाधार है, सबको अपने अंदर रखकर सबको अपने प्रभाव से प्रभावित करके शासन में रखता है, वह परमात्मा है। सब जिसके प्रभाव में और शासन में रहते, वह सर्वेश्वर-कुल्ल मालिक हुआ। वह सर्वाधार होते हुए भी आप-ही- आप है। इसलिए दूसरा पदार्थ कुछ और विशेष व्यापक हो ही नहीं सकता। वह सीमाहीन तत्त्व है। उसकी सीमा कहीं नहीं है। अगर ससीम पदार्थ को कोई ईश्वर मानता है, तो प्रश्न होता है कि उसकी सीमा के परे क्या है? जो सीमा के परे है, वह उसके शासन में नहीं है, प्रभाव में नहीं है, वह परमेश्वर हो नहीं सकता। इसके लिए संतों की बहुत वाणियाँ हैं-
श्रूप अखण्डित व् यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
चून चगून वजूद न मानु तैं सुभानमूना ऐना ।।
-कबीर साहब
अलख अपार अगम अगोचरि ना तिसु काल न करमा ।।
जाति अजाति अजोनी संभउ ना तिसु भाउ न भरमा ।।
साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु ।
ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।
ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु काम न नारी ।
अकुल निरंजन अपर परंपरु सगली जोति तुमारी ।।
घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ।
बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।।
जंत उपाइ कालु सिरिजंता बसगति जुगति सवाई ।
सतिगुरु सेवि पदारथु पावहि छूटहि सबदु कमाई ।।
सूचै भाडै साचु समावै विरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।
-गुरु नानकदेव
व्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचण्ड ।
सेनापति कामादि भट, दम्भ कपट पाखण्ड ।।
सो दासी रघुवीर कै, समुझि मिथ्या सोपि ।
छूट न राम कृपा बिनु, नाथ कहउँ पद रोपि ।।
जो माया सब जगहिं नचावा। जासु चरित लखि काहु न पावा।।
सो प्रभु भू्र बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा।।
सोइ सच्चिदानंद घन रामा। अज विज्ञान रूप बल धामा।।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सब दरसी अनवद्य अजीता।।
निर्मल निराकार निर्मोहा ।नित्य निरंजन सुख सन्दोहा।।
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाही ं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।
भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव देखावइ, आपु न होइ न सोइ ।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
और भी संतों के ऐसे वचन बहुत हैं-
दादू जानै न कोई , संतन की गति गोई।। टेक।।
अविगत अंत अंत अंतर पट,अगम अगाध अगोई । सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई ।।
अंड न पिंड खंड ब्रह्मण्डा, सूरत सिंध समोई । निराकार आकार न जोति, पूरन ब्रह्म न होई ।।
इनके पार सार सोइ पइहैं, तन मन गति पति खोई ।
दादू दीन लीन चरणन चित, मैं उनकी सरणोई ।।
-संत दादू दयालजी
‘शब्द ब्रह्म परिब्रह्म भली विधि जानिये ।
पाँच तत्त्व गुण तीन मृषा करि मानिये ।।
बुद्धिवन्त सब संत कहै ं गुरु सोइ रे ।
और ठौर सिष जाइ भ्रमे जिनि कोइ रे ।।’
‘श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै।
रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै।।
नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै।
अंग बिना मिलि संग, बहुत आनंद बढ़ावै।।
बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिए रहै।
मिलि परमातम सो आतमा, परा भक्ति सुन्दर कहै।।’
-संत सुन्दर दास
परमात्मा का स्वरूप क्या है, इस पर कहा। जो कोई भक्ति करता है, उसकी इच्छा भक्ति करने की है, करे; लेकिन ईश्वर-स्वरूप नहीं जानता है, तो वह वैसा ही है कि जैसे कोई यात्री यात्रा करता है, लेकिन उसको मि०जल-मकसूद का पता नहीं। ऐसे के लिए गुरु नानक ने कहा है कि वह बेगारी में खटता है। इसलिए स्वरूप-निर्णय अवश्य होना चाहिए। संतों के ज्ञान के मुताबिक कोई ऐसा तत्त्व है वा नहीं?
अफसोस है कि आजकल के ऊँचे दर्जे के पढ़े लोग पढ़ते समय से ही मिथ्या धारणा में पड़कर नास्तिकवाद का प्रचार करते हैं, मुझे इसमें कभी विश्वास नहीं। संतों की वाणी में विश्वास है। उन्होंने जैसा ज्ञान दिया है, उसको नहीं कहने का अवसर नहीं है। इसके लिए बौद्धिक विश्वास भी है कि उससे विशेष अवकाश नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा, राम कैसा है? तो कहा-
राम काम सत कोटि सुभग तन ।दुर्गा कोटि अमित अरिमर्दन ।।
सक्र कोटि सत सरिस बिलासा। नभ सत कोटि अमित अवकासा।।
मरुत कोटि सत विपुल बल, रवि सत कोटि प्रकास ।
ससि सत कोटि सुसीतल, समन सकल भव त्रास ।।
काल कोटि सत सरिस अति, दुस्तर दुर्ग दुरन्त ।
धूमकेतु सत कोटि सम, दुरा धरष भगवन्त ।।
प्रभु अगाध सत कोटि पताला। समन कोटि सत सरस कराला।।
तीरथ अमितकोटिसत पावन ।नाम अखिल अघ पूग नसावन ।।
हिमगिरि कोटि अचल रघुवीरा। सिंधु कोटि सत सम गंभीरा।।
कामधेनु सत कोटि समाना। सकल काम दायक भगवाना।।
सारद कोटि अमित चतुराई। विधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई।।
विष्णु कोटि सत पालन कर्ता। रूद्र कोटि सत सम संघरता।।
धनद कोटि सत सम धनवाना। माया कोटि प्रपंच निधाना।।
भार धरन सत कोटि अहीसा। निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा।।
निरुपम न उपमा आन राम समान राम निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रवि कहत अति लघुता लहै।।
एहि भाँति निज निज मति विलास मुनीस हरिहिं बखानहीं ।
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सख पावहीं।।
इस तरह सौ करोड़, सौ करोड़ कहकर कहा कि यदि सौ करोड़ जुगनुओं के समान सूर्य को कहा जाय, तो सूर्य की हीनता होती है। इसी तरह सौ करोड़, सौ करोड़ की उपमा जो राम के लिए दी गई, इससे राम की बड़ी हीनता होती है। ‘नभ सत कोटि अमित अवकासा’ की उपमा भी ऐसी ही है। विश्वरूप का कोई रूप ऐसा नहीं हो सकता। तात्पर्य यह कि यह उपमा पूरी नहीं हुई। परमात्म- स्वरूप का ज्ञान कितना ऊँचा है, समझ लें। परमात्मा से बढ़कर और विशेष व्यापक कुछ नहीं हो सकता। एक सेर बर्फ की व्यापकता से उसके जल की व्यापकता विशेष होगी और उस जल का वाष्प बना लेने से वाष्प की व्यापकता अधिक होगी। वाष्प से जल की व्यापकता और जल से बर्फ की व्यापकता कम है। अर्थ यह हुआ कि जो जितना अधिक व्यापक होता है, वह उतना ही अधिक सूक्ष्म होता है, परमात्मा इतना सूक्ष्म है कि जिसकी उपमा नहीं हो सकती। हम संसार की चीजों को इन्द्रियों के द्वारा जानते हैं। हमारी इन्द्रियाँ सब मिलकर एक ही वस्तु को ग्रहण नहीं करतीं; प्रत्येक इन्द्रिय एक-एक विषय को ग्रहण करती है। नेत्र से रूप विषय, कान से शब्द विषय, जिभ्या से रस विषय, त्वचा से स्पर्श विषय और नाक से गंध विषय ग्रहण करते हैं। एक इन्द्रिय से दूसरे विषय का ग्रहण नहीं हो सकता। हमारी सब इन्द्रियाँ इनके ग्रहण करने के योग्य नहीं हैं। ये सभी स्थूल हैं। स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण हो सकना पूर्ण असंभव है। आप विद्वानों के सामने क्या कहना? छोटी घड़ी में जितने कल-पूर्जे होते हैं, बड़ी घड़ी में भी उतने ही। और छोटी घड़ी के कल-पूर्जां को खोलने वा लगाने के लिए जिन- जिन यंत्रां की आवश्यकता होती है, बड़ी घड़ी के कल-पूर्जां को खोलने वा लगाने के लिए उन्हीं- उन्हीं यंत्रों की आवश्यकता होती है; किंतु बड़ी घड़ी के यंत्रों से छोटी घड़ी में काम नहीं कर सकते। उसके लिए उस तरह के महीन यंत्रों की आवश्यकता होती है। इससे प्रत्यक्ष विदित है कि मोटे यंत्र से मोटी-मोटी चीजों को ग्रहण करो और बारीक चीज के लिए बारीक यंत्र चाहिए। हमारी इन्द्रियाँ मोटी-मोटी हैं। परमात्मा परम सूक्ष्म हैं, इसलिए इन मोटी इन्द्रियों से सूक्ष्म परमात्म-स्वरूप को नहीं ग्रहण कर सकते। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है कि-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
संतों की वाणी से जो परमात्म-स्वरूप निर्णय है, उसको इन्द्रियों से ग्रहण नहीं कर सकने के कारण उसे अगोचर, अव्यक्त कहते हैं। भक्त इस पद तक पहुँचे, तब भक्ति पूरी होगी। इसी को पाकर कल्याण पाता है, और से नहीं।
देव दनुज मुनि नाग मनुज सब, माया बिबस विचारे ।
तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु, कहा अपुनपौ हारे ।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
देवताओं के लिए रामचरितमानस में कैसा लिखा है, पढ़ लें-
आये देव सदा स्वारथी । वचन कहहिं जनु परमारथी ।।
कबीर साहब को संस्कृत नहीं आती थी, वे कहते थे-‘देवता पित्तर भूइयाँ भवानी, यह मारग चौरासी चलन की’ तथा ‘गुड़वा गुड़िया सूप सुपलिया तज दे बुध लड़कैयाँ खेलन की।’
श्रीमान् डॉक्टर सम्पूर्णानन्द महोदयजी ने ‘गुड़वा गुड़िया’ का वर्णन किया, किंतु ‘सूप सुपलिया’ नहीं कहा; लेकिन दोनों सम ही है। यह स्थूल उपासना की बात है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने यह भी कहा है कि-
पात पात के सींचबो, बरी बरी के लोन ।
तुलसी खोटे चतुरपन, कलि डहके कहु को न ।।
इसमें आप ठगे जाएँगे। बरी बनाने में एक एक बरी को अलग-अलग नमक देने से किसी बरी में नमक ठीक हो, किसी में अधिक हो, किसी में कम हो, सम्भव है। लेकिन बेसन में ही नमक दे देने से सबमें बराबर रूप से रहेगा। उसी तरह वृक्ष के पत्ते-पत्ते में पानी देने से वृक्ष सूख जाय, सम्भव है। लेकिन उसकी जड़ में पानी दो, वृक्ष हरा-भरा रहेगा। इसी तरह एक ईश्वर की भक्ति में सबकी उपासना हो जाएगी। कोई कहे कि देवता की उपासना नहीं करके ईश्वर की उपासना करने से देवता नाराज हो जाएँगे, तो यह हँसी की बात है। जो देवता ईश्वर की उपासना से नाखुश हो, वह देवता, देवता नहीं।
वह ईश्वर इन्द्रियगम्य नहीं है। उसकी भक्ति करने के लिए संत लोग कहते हैं। यह कैसे हो? किससे जाना जाएगा? यहाँ पर तुलसी साहब कहते हैं, पहले अपने को जानो। ‘सत सुरति समुझि सिहार साधौ। निरखि नित नैनन रहो।।’ सुरत का अर्थ कहीं-कहीं ख्याल भी है। बेशी करके ‘चेतन आत्मा’ अर्थ लिखा है। ‘अनुराग सागर’ में लिखा है-
आदि सुरत सत पुरुष तें आई। जीव सोहं बोलिये सो ताई।।
उनका यह पारिभाषिक शब्द है। दादू दयालजी के शब्दों में है-‘सूरत सिन्ध समोई।’ परमात्मा इतना व्यापक है कि सुरत का समुद्र भी उसमें घुसा हुआ है। चेतन आत्मा सत् है, इसको जानो। ‘मैं हूँ’ सबको ज्ञान होता है। ‘मैं नहीं हूँ’ यह किसी जीवित को ज्ञान नहीं होता। शरीर है, शरीर पर कपड़ा है, इसका ज्ञान सबको है। लेकिन ‘मैं हूँ़’, सो नहीं पहचानते। शरीर को देखकर पता चलता है कि जैसा कि वानरराज बालि की रानी तारा से श्रीराम ने कहा था-
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।
यह शरीर पाँच तत्त्वों से मिलकर बना है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश; ये सभी अज्ञानमय पदार्थ हैं। इन अज्ञानमय पदार्थों के मिलन से ज्ञानमय पदार्थ हो गया, यह विश्वास करने योग्य नहीं है। इसका भी प्रचार होता है। मैं कहता हूँ, आप पानी, चीनी और सौंफ मिलाकर शर्बत बना लीजिए; किंतु उसमें नींबू नहीं डालिए तो क्या उस शर्बत में नींबू का स्वाद और गुण आ सकता है? अथवा आप जिस मिक्सचर दवाई में क्विनाइन नहीं मिलाते हैं तो उस औषधि में क्विनाइन का गुण आ जाता है क्या? यदि नहीं तो सब अज्ञानमय पदार्थों के मिलने से चेतन हो जाय, यह भी विश्वास करने योग्य नही है। श्रीमद्भगवद्गीता में अपरा और परा प्रकृति का वर्णन किया गया है। इन दोनों प्रकृतियों से रचना होती है। यहाँ शरीर और इन्द्रियों को पहचान लेते हैं। मैं कहता हूँ कि मेरा शरीर, मेरा मन, मेरी बुद्धि आदि कहकर जानता हूँ कि ये सब मेरे हैं, मैं इन सबका मालिक या इनमें शक्ति प्रदान करनेवाला हूँ। अपना स्वरूप जो चेतनमय है, उसका ज्ञान इन्द्रियों से नहीं होता। मैं स्वयं अव्यक्त हूँ; परमात्मा तो अव्यक्त हैं ही। कितने कहते हैं कि अव्यक्त में कैसे लगूँगा? मैं कहता हूँ कि आप भी अव्यक्त हैं और परमात्मा भी अव्यक्त; अव्यक्त को अव्यक्त पकड़ेगा, ग्रहण करेगा। कबीर साहब कहते हैं-
ऊँचा महल अजब रंग बंगला, साई ं की सेज वहाँ लागी फूलन की।
तन मन धन सब अर्पण कर वहाँ, सुरत सम्हार पड़ ूँ पैयाँ सजन की।।
कहै कबीर निर्भय हो हंसा, कुंजी बता द्यों ताला खुलन की।।
इसकी कुंजी संतों के पास है, लेकर खोलिए। गुरु नानक ने कहा है-
घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ, घटि घटि जोति सबाई।
बजर कपाट मुकते गुरमती, निरभै ताड़ी लाई।।
कैसे ग्रहण करोगे, तो कहा-गुरुमुख अर्थात् गुरु की आज्ञा के अनुकूल चलनेवाला निर्भय ध्यान लगाता है और जिस आवरण के कारण दर्शन हम नहीं पाते हैं, उस आवरण को तोड़ देता है। उसको तोड़ने वा खोलने की युक्ति है। जबतक युक्ति नहीं मिली है, तबतक क्या करें? उसकी खोज कीजिए। खोज करने में रहने पर भी उस ओर आपका ख्याल है। एक कथा मैं कहूँ-
महाभारत युद्ध के उपरान्त युधिष्ठिर का मन नहीं लग रहा था; क्यों कि वे महाशोकित थे। व्यासदेव जी ने उनका मन दुःख की ओर से फेरने के लिए यज्ञ में लगाना चाहा और उन्हें यज्ञ करने कहा। युधिष्ठिर ने कहा कि यज्ञ करने के लिए हमारे पास धन कहाँ? व्यासदेवजी ने कहा-‘मैं तुझे धन का पता बताता हूँ। राजा मरुत ने यज्ञ किया था, उन्होंने इतना दान दिया कि दान लेनेवाले उस धन को नहीं ले जा सके। वह धन पहाड़ में गड़ा हुआ है।’ युधिष्ठिर ने व्यासदेवजी की बात पर विश्वास किया और उनके संकेत के अनुसार पहाड़ से उखाड़कर धन लाए और उससे यज्ञ किया। वह धन युधिष्ठिर के लिए अव्यक्त था। व्यासदेवजी के वचन में उन्होंने विश्वास किया; व्यासदेवजी ने जो रास्ता बताया, उस रास्ते से वे गए, अनुष्ठान बताया, सो किया। उनको धन मिला और उससे यज्ञ किया। इसी तरह संतों के वचनों में विश्वास करना चाहिए। वे जो रास्ता बताते हैं, उसपर चलना चाहिए। जहाँ धन है, जो धन है, उसे पाने की कुंजी वे बता देंगे।
इन्द्रियों से वियुक्त होकर, कैवल्य दशा में रहकर उस अव्यक्त को पा सकते हो। तुम भी अव्यक्त और परमात्मा भी अव्यक्त है। वह कहाँ है? संत दादू दयालजी ने कहा है-
अविगत अंत अंत अंतर पट, अगम अगाध अगोई ।
सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई ।।
चलते-चलते जहाँ चलना बाकी नहीं, गति समाप्त हो जाय और इधर से जाओ, तो सबका जहाँ अंत हो जाय, वह अंतरपट के अंत में है। वह कहने योग्य नहीं है, तीन शून्यों के पार में है। पहला यह शून्य है जहाँ हमलोग हैं। यह अंधकार का शून्य है। दूसरा प्रकाश का और तीसरा शब्द का शून्य है।
यह स्थूल जगत की भी सभी चीजें हम नहीं देख पाते हैं, तो दूरबीन, खुर्दबीन आदि से देखते हैं, फिर भी सभी चीजें नहीं देख सकते। सूर्य को अन्य किसी प्रकाश से हम नहीं देखते। सूर्य को सूर्य की प्रकाश से ही देखते हैं। उसी तरह ईश्वर को ईश्वर की ज्योति से ही देख सकते हैं। गुरु नानक साहब ने कहा है-
घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ।
बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।।
सूर्य की ज्योति को देखकर जैसे सूर्य को देखते हैं, उसी तरह ईश्वर की ज्योति आपके अंदर है, इसके द्वारा ईश्वर को पहचानिए। अंदर में कहा, बाहर में क्यों नहीं जाने कहा? इसलिए कि बाहर में आप इन्द्रियों के संग रहेंगे और अंदर- अंदर चलने से आप इन्द्रियों से छूटते जाएँगे।
जाग्रत और स्वप्न के बीच में एक अवस्था होती है, जिसे तन्द्रा कहते हैं। उस समय एक सरूर-चैन मालूम होता है और मालूम होता है कि शक्ति भीतर की ओर खिंची जा रही है। धीरे-धीरे शक्ति भीतर सिमट जाती है, स्वप्न में चले जाते हैं। उस समय यदि आपके मुख में मिसरी का टुकड़ा है और स्वप्न में देखते हैं कि नीम का पत्ता खा रहे हैं तो मिसरी का मीठा स्वाद नहीं लगकर नीम का कड़वा स्वाद मालूम होगा। इससे जाना जाता है कि अंदर प्रवेश करने से इन्द्रियों से छूटना होता है। इन्द्रियों के ज्ञान से छूटकर जहाँ आप अकेले होंगे, वहीं ईश्वर-दर्शन होगा। जहाँ इन्द्रियों से छूटे, वहीं ईश्वर-दर्शन और परम कल्याण होगा। इसी के लिए कबीर साहब ने कहा-
घूँघट का पट खोल र े, तोको पीव मिलेंगे ।
शरीर का आवरण चेतन आत्मा के ऊपर है। यह शरीर एक ही नहीं है। कबीर साहब ने कहा है-
साधो ! षट प्रकार की देही ।
स्थूल सूक्ष्म कारण महाकारण कैवल्य हंस की लेही।।
केवल ‘हंस’ मुक्त शरीर ही है। इधर चार जड़ शरीर हैं- स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण। संत दादू दयालजी ने कहा है-
नीके राम कहतु है बपुरा ।
घर माहैं घर निर्मल राखै, पंचौं धोवै काया कपरा ।।
स्थूल शरीर को स्नान और अंतःकरण की पवित्रता से पवित्र करते हैं। स्थूल से सूक्ष्म निकल जाय तो सूक्ष्म शरीर पवित्र हो जाएगा। संत दरिया साहब (बिहारी) ने कहा है-
भीतर मैल चहल के लागी, बाहर तन का धोवै है ।
अविगत मूरति महल के भीतर, वाका पंथ न जोवै है ।।
स्थूल से सूक्ष्म ऊपर उठ जाय, यह सूक्ष्म की पवित्रता है। इसी तरह कारण के ऊपर से सूक्ष्म शरीर हट जाय, तो कारण शरीर पवित्र हो जाय और महा- कारण के ऊपर से कारण शरीर हट जाय, तो महा- कारण की पवित्रता है। चेतनमय शरीर की पवित्रता तब है, जबकि जड़ का बिल्कुल संग छूट जाय। इन्द्रियों से यह बहुत दूर है। लोग रेकार्ड में गाते हैं-
हाय रे इन्सान की मजबूरियाँ,
पास रहकर भी है कितनी दूरियाँ ।
कबीर साहब ने कहा है-
कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूढ़ै वन माहिं ।
ऐसे घट में पीव है, दुनिया जानैं नाहिं ।।
समझै तो घर में रहै, परदा पलक लगाय ।
तेरा साहब तुज्झ में, अनत कहूँ मत जाय ।।
बाहर जाने के लिए संतों ने मना किया-
सुन ऐ तकी न जाइयो जिनहार देखना ।
अपने में आप जलवये दिलदार देखना ।।
पुतली में तिल है तिल में भरा राज कुल का कुल ।
इस परदये सियाह के जरा पार देखना ।।
यही वज्र कपाट है। इसकी युक्ति बताते हैं कि-
पुतली में तिल है तिल में भरा राज कुल का कुल ।
बाहर जाने की जरूरत नहीं। काम-रोजगार करो। घर में रहो, लेकिन सत् आचरण से रहो। शरीर में शरीर है। इसको कथा के रूप में महाभारत में कहा है-
सावित्री के पति सत्यवान के स्थूल शरीर से यमराज ने लिंग शरीर निकाल लिया। उसका स्थूल शरीर मर गया। उसके लिंग शरीर को लेकर यमराज चला। सावित्री बड़ी पतिव्रता थी। वह अनुनय-विनय करती उसके पीछे-पीछे चली। उसकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर यमराज ने सत्यवान के स्थूल शरीर में उसके सूक्ष्म शरीर (लिंग शरीर) को प्रवेश करा दिया। सत्यवान जीवित हो गया।
इस कथा से विदित होता है कि केवल स्थूल शरीर ही नहीं है, सूक्ष्म शरीर भी है। लिंग शरीर को ही सूक्ष्म शरीर कहते हैं। शरीर के अंदर शरीर है। इसको बाबा नानक साहब ने कहा है-
घरि महि घरु दिखाइ देइ, सो सतगुरु परखु सुजाणु ।
पंच सबदु धुनिकार धुनि, तहँ बाजै सबदु निसाणु ।।
पतिव्रता स्त्री में कितना तेज है कि वह मृत पति को जीवित करती है, अंधे को आँख दिलाती है और राज्यभ्रष्ट को राज्य दिलाती है। इस कथा से यह सीखें कि स्त्रियाँ पतिव्रता हों। मैंने पढ़ा है-
कर्महीन को ना मिले, भली वस्तु का भोग ।
दाख पके मुख काक को, होत पाक का रोग ।।
जो कर्महीन है अर्थात् अच्छे कर्म जिसके नहीं हैं, उसको अच्छी चीज का भोग नहीं मिलता। कोई पुरुष चाहे कि मैं जैसे-तैसे रहूँ और पत्नी पतिव्रता हो, यह संभव नहीं। पुरुष श्रीराम की तरह एक पत्नीव्रती और स्त्रियाँ सावित्री की तरह पतिव्रता हों, तो आपकी संतानें बड़ी अच्छी होंगी, देश का कल्याण होगा। यह आपके हाथ में है, इसको समझिए। हाँ, तो मैं कह रहा था कि शरीर के अंदर शरीर है। इसे जानने के का रास्ता आपके अंदर है। संत दरिया साहब (बिहारी) ने कहा है-
जानिले जानिले सत्त पहचानिले, सुरति साँची बसै दीद दाना।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै, पलक परवीन दिव दृष्टि ताना।।
जो जहाँ बैठा रहता है, वह वहीं से चलता है।
इस तन में मन कहाँ बसै, निकसि जाय केहि ठौर ।
गुरु गम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और ।।
नैनों माहीं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर ।
गुरु गम भेद बताइया, सब संतन सिरमौर ।।
-कबीर साहब
आप कहेंगे कि आप मन संबंधी बात कह रहे हैं। तो मैं कहता हूँ कि मन जहाँ है, चेतन आत्मा भी वहीं है। इस समय हमारा संग मन के साथ ऐसा हो गया है, जैसे दूध के साथ घीउ। ब्रह्मोपनिषद् में भी लिखा है-
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् ।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्निसंस्थितम् ।।
यहीं से चलना होगा। यह दशम द्वार भी है। यह द्वार दोनों नेत्रों के मुकाबले अंदर है। यही रास्ता सबके लिए है। ऐसा नहीं कि एक के लिए एक रास्ता और दूसरे के लिए दूसरा रास्ता है। संसार में जितने आदमी हैं, सब कोई एक ही रास्ते आँख से देखते हैं। सबके सुनने का एक ही रास्ता कान है। कितने कहते हैं कि लखनऊ आने के अनेक रास्ते हैं, इसी तरह ईश्वर के पास जाने के अनेक रास्ते हैं। मैं कहता हूँ- नहीं, रास्ता एक है और वह दसवाँ द्वार है, शिवनेत्र है, यहीं से कोई चलेगा।
कोई शिव उपासना, कोई शक्ति उपासना, कोई विष्णु उपासना आदि करते हैं, तो कहते हैं कि अनेक रास्ते हैं। मैं कहता हूँ-ये सहारे हैं, रास्ते नहीं। यदि आप किसी स्थूल मूर्ति की उपासना तक ही रहे, तो चौरासी से नहीं छूट सकते। स्थूल उपासना के द्वारा मन को कुछ एकाग्र किया जाता है और उसके बाद सूक्ष्म ध्यान में जाना होता है। सूक्ष्म में जाने से उसको चैन मिलता जाता है और ईश्वर की तरफ से अवलम्ब भी मिलता है।
जौं तेहि पंथ चलै मन लाई। तौ हरि काहे न होहिं सहाई।।
जैसे सूर्य को देखने के लिए उसकी रोशनी का अवलम्ब मिलता है, उसी तरह परमात्मा को पाने के लिए उसकी ज्योति मिलती है। केवल ज्योति ही नहीं, शब्द भी मिलता है। ध्यानविन्दूपनिषद् कहता है-
बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
तथा-
तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम् ।
-तेजोविन्दूपनिषद्
इस ज्योति और शब्द को कैसे पकड़ा जाएगा? संत गुलाल साहब ने कहा है-
उलटि देखो घट में जोति पसार ।
बिनु बाजे तहँ धुनि सब होवै, विगसि कमल कचनार ।।
पैठि पताल सूर शशि बाँधौ, साधौ त्रिकुटी द्वार ।
गंग जमुन के वार पार बिच, भरतु है अमिय करार ।।
इंगला पिंगला सुखमन सोधो,बहत सिखर मुख धार ।
सुरति निरति ले बैठ गगन पर, सहज उठै झनकार ।।
सोहं डोरि मूल गहि बाँधो, मानिक बरत लिलार ।
कह गुलाल सतगुरु वर पायो, भरो है मुक्ति भंडार ।।
बहिर्मुख नहीं रहकर अंतर्मुख होओ और फैली दृ्रिष्ट से सिमटी दृष्टि करो। आकाश में जैसे बिजली के बिना शब्द नहीं सुन पड़ता है, उसी तरह ज्योति के बिना अंदर के शब्द को कोई नहीं पाता है। जो अंतर में प्रवेश करके ब्रह्म ज्योति को पाता है, वही ब्रह्मनाद को पाता है। यह रास्ता क्षुरे की धार के समान सूक्ष्म है-
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग ं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।
-कठोपनिषद्
और मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् में भी सूक्ष्म मार्ग का अवलम्बन करने कहा है-
‘निद्रा भय सरीसृपं हिंसादि तरंगं तृष्णावर्तं दारपंकं संसारवार्धितर्तुं सूक्ष्ममार्गमवलम्ब्य सत्त्वादि गुणानतिक्रम्य तारकमवलोकयेत्। भू्रमध्ये सच्चिदानंद तेजः कूट रूपं तारकं ब्रह्म।’
अर्थ-निद्रा, भय, आदि जहाँ जीव जन्तु हैं, हिंसा आदि तरंगवाले, तृष्णारूपी भँवरवाले, स्त्रीरूपी पंकवाले-संसाररूप समुद्र से तरने के लिए सूक्ष्म मार्ग का अवलम्बन करके, सत्त्वादि गुणों को पार करके दोनों भौओं के बीच में सत्-चित्-आनन्द तेजपुंज तारक ब्रह्म का अवलोकन करे। इसी को गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
भगता की चाल निराली ।
चाल निराली भगता केरी विखम मारगि चलणा ।।
लबु लोभु अहंकारु तजि त्रिसना बहुतु नाहीं बोलणा ।।
ख्ांनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा ।।
गुर परसादी जिनि आपु तजिया हरि वासना समाणी ।।
कहै नानक चाल भगताह केरी जुगहु जुगु निराली ।।
बारीक रास्ते पर सूक्ष्म मन जाय, कोई कठिन नहीं। चाहिए गुरु का यत्न। इतना पवित्र काम कौन करेगा? जो पंच पापों-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से नहीं बचेगा, वह इस रास्ते पर नहीं चल सकता। इसीलिए संतों ने पंच पापों का निषेध किया। इसी को भगवान बुद्ध ने पंचशील का पालन करने कहा। जो अंतर पथ में चलता है, उसमें आत्मबल आता है और उसकी पापवृत्ति छूटती है। जो पापवृत्ति को छोड़ता रहता है, उसका अंतर में प्रवेश होता है, उसको आत्मबल मिलता है। इससे संसार में भी आनंदित रहोगे।
कहै कबीर निज रहनि सम्हारी। सदा आनन्द रहे नर नारी।।
आप ख्याल कीजिए कि जो पंच पापों से बचकर रहेंगे, तो वे कितने शान्त रहेंगे। यदि इसका समाज बन जाय तो वह कितना अच्छा समाज बन जाएगा और कितनी शान्ति मिलेगी।
हमारे गुरु महाराज कहा करते थे-सबसे ऊपर लिखो ेचपतपजनंसपजल (स्प्रीच्युलीटी) अर्थात् आध्यात्मिकता, उसके नीचे लिखो उवतंसपजल (मोरेलीटी) अर्थात् सदाचारिता, उसके नीचे लिखो ैवबपंसपजल (सोसलीटी) अर्थात् सामाजिक नीति और अंत में लिखो चवसपजपबे (पोलटिक्स) अर्थात् राजनीति। राजनीति को सुधारकर समाज को सुधारेंगे, ऐसा नहीं हो सकता। यह 1909 ई0 में हमारे गुरु महाराज ने कहा था। जो आध्यात्मिकता की ओर जाते हैं, उनका सदाचार अच्छा होता है। जहाँ के लोगों में सदाचारिता अच्छी होगी, वहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी और जहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी, वहाँ की राजनीति बुरी नहीं हो सकती। तब वहाँ रामराज्य होगा।
आज स्वराज्य है, लेकिन सुराज्य नहीं है; क्योंकि खल-उद्यम बहुत है। ‘जिमि सुराज खल उद्यम गयऊ’-यह नहीं हो पाया है।
लोग आध्यात्मिकता की प्रधानता दें। राज्य की शासन-प्रणाली से भी इसके लिए बहुत सहायता मिले, तो सभी सदाचार का पालन करते हुए शान्ति से रहेंगे और तब स्वराज्य में सुराज्य होगा।
गुरु महाराज ने जो कुछ हमसे कहा था, वही मैंने आपलोगों से कहा। आपलोग स्वयं बुद्धिमान, विद्वान और समझदार आदमी हैं। लेने योग्य हो तो लीजिए; नहीं लेने योग्य हो तो नहीं लीजिए। किंतु मेरी समझ से तो संतों के उपदेश लेने के ही योग्य हैं। बाहर कहीं जाना नहीं है, अंदर-ही- अंदर चलना है। इसमें किसी को उजुर नहीं होना चाहिए। कोई कहे कि सत्संग कर लिया, समझ लिया, बारम्बार सत्संग करने से क्या लाभ? तो जानिये कि बारम्बार के सत्संग से ध्यान करने में प्रेरण मिलता रहता है। भगवान बुद्ध ने कहा है- स्मरण के लिए न दुहराना धब्बा है। सुचरित्र से रहिए, ईश्वर-भजन कीजिए। जो लेने योग्य बातें हों, आप लीजिए और लेने योग्य बातें नहीं हों, नहीं लीजिए; किसी का किसी पर जोर नहीं। मैं समझता हूँ कि ऐसी कोई बात मैंने नहीं कहीं होगी, जो अनुचित हो।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेशान्तर्गत लखनऊ में दिनांक 2.4.1962 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में श्रीमान् गंगाचरणलाल महोदय के निवास स्थान पर हुआ था।
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