164. सिंह का बच्चा भेड़-बकरियों के साथ
प्यारे धर्मानुरागी महाशयो एवं सत्संगियो!
मैं अपनी ओर से कुछ सुनाऊँ, ऐसा नहीं। मैंने गुरु महाराज से शिक्षा पायी है कि जहाँ रहो, सत्संग करो और संतवाणी का सहारा लो। संतों की वाणी का सहारा लिए बिना मैं कुछ नहीं कह सकता-
नित सत्संगति करो बनाई । अंतर बाहर द्वै विधि भाई ।।
धर्म कथा बाहर सत्संगा । अंतर सत्संग ध्यान अभंगा ।।
बाह्य और अंतर दोनों तरह का सत्संग करो। गुरु की दीक्षा के अनुकूल एकान्त में बैठकर उपासना करो-यह अंतर सत्संग है और बाहर में संतों के सद्ज्ञान का श्रवण करो, यह बाहर का सत्संग है। संत कोई साधारण नहीं होते, पूर्ण होते हैं। पूर्ण मनुष्य, पूर्ण मनुष्यता के अंदर रहते हुए पूर्ण ज्ञानी, पूर्ण ध्यानी तथा अध्यात्म विषयक ज्ञान की कोई कमी न हो, ऐसे महापुरुष संत होते हैं। उपनिषद् में कहा गया है कि संत वही है, जिनमें ये गुण हों-
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
- योगशिखोपनिषद्, अध्याय 5
अर्थात् उस परे-से-परे ब्रह्म को देख लेने पर हृदय की ग्रन्थि टूट जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।
साधारण लोग इन बातों को नहीं जानते। पढ़े-लिखे-सत्संग किए जन जानते हैं कि शरीर में जड-़चेतन की ग्रन्थि है तुम चेतन हो। चेतन ज्ञानमयी शक्ति है। यह अज्ञानमय तत्त्व में ऐसे समाया हुआ है, जैसे दूध में घी। जैसे दूध से घी अलग किया जाता है, उसी तरह चेतन आत्मा को शरीर से निकाला जा सकता है। जिसको ऐसा हो गया है, जिसको अपनी निस्बत केवल बौद्धिक विचार नहीं, वरन् प्रत्यक्षानुभूति है, वे ही संत हैं। जो ऐसे हैं, उनमें क्या त्रुटि हो सकती है? जो नहीं जानते हैं, वे ही त्रुटि बता सकते हैं। हमारे बीच में कोई संत हैं- इसकी पहचान बहुत कठिन है।
सत्संग कहते हैं, सद्ज्ञान के संग को। संतों का कहा हुआ उनके ग्रन्थ में हो, चाहे वह भारती भाषा में हो या संस्कृत में। भारती भाषा को ही आप हिन्दी कहते हैं। हमारे लिए हिन्दी शब्द अच्छा नहीं। मैं अपनी सरकार से निवेदन करता हूँ कि वे राष्ट्रभाषा का हिन्दी नाम उड़ा दें। यह शब्द, उच्चता को बहुत गिरा देनेवाला है। हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान; ये शब्द अच्छे नहीं। भाषा का नाम हिन्दी। हिन्दुस्तान को हटाकर भारत किया गया, यह बहुत अच्छी बात। लेकिन ‘हिन्दी’ कैसे रख लिया गया, ताज्जुब है। हमारी भाषा का यह शब्द नहीं है। इसका अर्थ है-चोर, लुटेरा, लामजहब आदि। यह शब्द यदि संस्कृत होता और प्रचीन काल से अपने देश में आदरणीय रहता तो पुरोहितगण यजमानों को ‘जम्बूदीपे आर्यावर्ते भरतखण्डे’ के पढ़ाने की जगह ‘हिन्दुस्ताने’ पढ़ाते। गीता वा बौद्धग्रन्थों में कहीं भी ‘हिन्दू’ कहकर आर्य या भारतवासी को नहीं जनाया गया है, लेकिन लोग अब उसे संस्कृत बनाना चाहते हैं। अभी आपने संत कबीर साहब की वाणी सुनी-
बिन सतगुरु नर रहत भुलाना, खोजत फिरत राह नहिं जाना।।
केहर सुत ले आयो गड़रिया, पाल पोस उन कीन्ह सयाना।
करत कलोल रहत अजयन संग, आपन मर्म उनहुँ नहिं जाना।।
केहर इक जंगल से आयो, ताहि देख बहुतै रिसियाना ।
पकड़ि के भेद तुरत समुझाया, आपन दशा देखि मुसक्याना।।
जस कुरंग बिच वसत वासना,खोजत मूढ़ फिरत चौगाना ।
कर उसवास मनै में देखै, यह सुगंधि धौं कहाँ बसाना ।।
अर्ध उर्ध बिच लगन लगी है,छक्यो रूप नहिं जात बखाना ।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, उलटि आपु में आपु समाना।।
बिना सद्गुरु के नर भूले रहते हैं, यह सभी कोई जानते हैं। इस पद्य मेें एक कहानी है-
एक गड़ेरिया ने जंगल से एक सिंह का बच्चा लाया। उसे भेड़-बकरियों के संग में पाला पोसा। एक दिन गड़ेरिया भेड़-बकरियों के साथ उसे भी चराने ले गया। जंगल से एक सिंह आया और उस सिंह को भेड़-बकरियों के बीच देखकर बड़ा क्रोधित हुआ। उस जंगली सिंह ने भेड़-बकरियों के साथ भागते हुए उस पालतू सिंह को पकड़ लिया और उसे नदी किनारे ले जाकर पानी में अपने रूप का ज्ञान कराया। कहा-‘देखो, जैसा मेरा रूप है, वैसा ही तुम्हारा भी रूप है। जो मैं हूँ, वही तुम हो। तुम भेड़ और बकरे नहीं, वरन् सिंह के बच्चे सिंह हो।’ अपने रूप का ज्ञान पाकर वह भी सिंह की भाँति दहाड़ने लगा।
इस कथा को कहकर कबीर साहब बताते हैं कि तुम ईश्वर रूप सिंह का बच्चा मन रूप गड़ेरिये के अधीन हो, भूल गए हो। यदि तुमको सद्गुरु मिल जाएँ तो वे तुम्हें अपने स्वरूप का ज्ञान करा दें। लेकिन अपने स्वरूप-ज्ञान के लिए कहीं से कुछ लाना होगा? नहीं, वह साधन तुम्हारे साथ ही है, जैसे मृगा के साथ में कस्तूरी है। उसी तरह जिस साधन से तुम अपने को पहचानोगे, वह तुम्हारे साथ है, लेकिन तुम मृगा की तरह बाहर- बाहर ढूँढ़ते हो। उसका यत्न बताते हैं-‘अर्ध उर्ध बिच लगन लगी है, छक्यो रूप नहिं जात बखाना। कहै कबीर सुनो भाई साधो, उलटि आपु में आपु समाना।।’ ‘अर्ध’ अधः शब्द का अपभं्रश है, जैसे सगुण का अपभ्रंश ‘सर्गुण’ हुआ है। ऐसा सूरदासजी एवं तुलसीदासजी के वचन में नहीं है। ये लोग पंडित थे, लेकिन जो पण्डित नहीं थे, उन संतों की वाणियों में है। अधः ऊर्ध्व कहते हैं पिण्ड-ब्रह्माण्ड, नीचे-ऊपर और स्थूल-सूक्ष्म को। इनके संधि स्थान को देखो। शिर को लोग ब्रह्माण्ड कहते हैं। शिर का नीचा भाग आँख से मिला है। आँख से ऊपर का भाग ब्रह्माण्ड और नीचे का भाग पिण्ड है। इस
ऊपर और नीचे के मध्य में देखो तो सूक्ष्मता दीख पड़ेगी। इसमें भी दो भेद हैं-एक अंधकारमय स्थान और दूसरा प्रकाशमय स्थान। इन दोनों के बीच में देखो लेकिन इतना कहने पर भी भेद बाकी बच जाता है। इसकी पूरी जानकारी तभी होगी, जब कोई सद्गुरु के आश्रित होते हैं। सभा में यह कहने की बात नहीं है, एकान्त में कहने की है। एकान्त में कहने की जगह कुछ लोग अब कान फूँकने लग गए हैं और कान में क्या कहना है, इसको वे भूल गए हैं। ऐसे भी महात्मा हैं, जो कान फूँकते हैं और दक्षिणा लेते हैं।
जो अर्ध-उर्ध के बीच में देखेगा, वह शिवनेत्र और सहस्त्रार का प्रत्यक्ष बोध करेगा। इसमें आगे बढ़ते-बढ़ते सहारा मिलेगा। साधन की सद्युक्ति सद्गुरु से प्राप्त कर सकते हैं और आगे बढ़ने के लिए उसका सहारा ईश्वर देते हैं। जैसे बिना हवा के हम नहीं रह सकते-हवा सहारा है, उसी तरह अंदर में ईश्वर सहारा देते हैं। गुरु नानकदेवजी के वचन में सुना-
घरि महि घरु देखाइ देइ, सो सतगुरु परखु सुजाणु ।
पंच शबदु धुनिकार धुनि, तह बाजे शबदु निसाणु ।।
दीप लोअ पाताल तह, खण्ड मण्डल हैरानु ।
तार घोर वाजिंत्र तह, साचि तखति सुलतानु ।।
सुखमन कै घरि राग सुनि सुन मंडल लिव लाइ ।
अकथ कथा वीचारीअै मनसा मनहि समाइ ।।
उलटि कमलु अंम्रित भरिआ, इहु मन कतँहु न जाइ ।
अजपा जाप न बीसरै, आदि जुगादि समाइ ।।
सभि सखिया पंचे मिलै, गुरु मुखि निज घरि वासु ।
शबदु खोजि इहु घरु लहै,‘नानकु’ ता का दासु ।।
अपने घर वा मन्दिर में पैठने के लिए जो यत्न बता दे, वह गुरु है। उस घर में पैठने के लिए सहारा लो। सहारा क्या है? तो कहा-‘पंच सबदु धुनिकार धुनि तह बाजे सबदु नीसाणु।’ लेकिन इस शब्द को कैसे पकड़े? तो कहा-‘सुखमन कै घरि राग सुनि, सुन मण्डल लिव लाई।’
शून्यमण्डल में लौ लगाकर रहो। सुन्दरदासजी के शब्द में सुना-
गुरु के प्रसाद बुद्धि उत्तम दशा को गहै ।
गुरु के प्रसाद भव दुख विसराइये ।।
गुरु के प्रसाद प्रेम प्रीतिहु अधिक बाढ़ै ।
गुरु के प्रसाद रामनाम गुण गाइये ।।
गुरु के प्रसाद सब योग की युगति जानै ।
गुरु के प्रसाद शून्य में समाधि लाइये ।।
सुन्दर कहत गुरुदेव जू कृपालु होइ ।
तिनके प्रसाद तत्त्वज्ञान पुनि पाइये ।।
कैसे शून्य समाधि लाइए, यह गुरु-गम्य है। तीन संतों के वचनों में जो पाठ हुआ, उनमें गुरु की महिमा है। दूसरी बात है अपने को और ईश्वर को अपने अंदर खोजो। उसकी युक्ति प्राप्त करो और साक्षात् करो।
अभी आप अपने को मन के वश में पाते हो, लेकिन अभ्यास करो तो मन आपके वश में हो जाएगा। हमलोग हाथी-घोड़े के बराबर बड़े शरीरवाले जीव नहीं हैं, लेकिन हाथी, घोड़े, सिंह आदि को लोग काबू करके सरकस में नचाते हैं। मनुष्य शरीर में शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक सभी शक्तियाँ होती हैं। यहाँ तक कहा गया है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है।
बड़े भाग्य मानुष तनु पावा । सुर दुर्लभ सब ग्रथहिं गावा।।
-रामचरितमानस
हमको चेतना चाहिए, हमको विकारों से बचना चाहिए। बैल की तरह नहीं होना चाहिए। बैल की तरह क्या होता है? जैसे बैल जो एक खेत में खाता है, उसको मार लगती है, फिर वह उसी खेत में जाता है। उसी तरह जिस काम से हमको हानि होती है, पुनः उसी काम को हम करने दौड़ते हैं। काम के अधीन होकर हम गधे से भी आगे बढ़ जाते हैं। हमको चाहिए कि हम मनुष्य बनें। तब मन और इन्द्रियाँ बेकाबू नहीं रह सकतीं। आत्मा के नियंत्रण में बुद्धि, बुद्धि के नियंत्रण में मन और मन के नियंत्रण में इन्द्रियाँ रहेंगी। हमको चाहिए कि हम सत्संग करें, संतों की वाणियों- सदुपदेशों के अनुकूल चलने का यत्न करें। इसके लिए जितना हम धन पाने के वास्ते चेष्टा करते हैं, उससे अधिक चेष्टा करनी चाहिए।
ईश्वररूपी केन्द्र तक पहुँचने के लिए हमको चेष्टा करनी चाहिए। जो कर्म ईश्वर से संबंध नहीं रखता, उससे लाभ नहीं। ईश्वर स्वरूपतः क्या है? इसको जानिए। स्वरूपतः ईश्वर वैसा नहीं, जैसा हम संसार में देखते हैं। संसार में परिवर्तनशील पदार्थों को हम देखते हैं। ईश्वर अपरिवर्तनशील और अकम्प है। इस संसार को जिन इन्द्रियों से हम जानते हैं, उनसे ईश्वर को जानें, यह असम्भव है। ईश्वर इन्द्रियों के ज्ञान से बाहर है। इन्द्रियों से जो कुछ जानते हैं, वह माया है। ‘गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।’ ईश्वर मन- बुद्धि से परे है।
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।
-गोस्वामी तुलसीदास
अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु ।
ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।
-गुरु नानक साहब
श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
चून चगून वजूद न मानु तैं सुभानमूना ऐना ।।
-संत कबीर साहब
मतलब यह कि ईश्वर इन्द्रिय-ज्ञान से परे है। गीता, उपनिषद् पढ़िए, वेद-पाठ कीजिए। ईश्वर सम्बन्ध में यही ज्ञान होता है कि वह इन्द्रियातीत है। तब लोगों के मन में प्रश्न होता है कि जो अव्यक्त है-इन्द्रियातीत है, उसमें हम अपना मन कैसे लगावें? तो इस पर हम एक कहानी कहते हैं-
सोना के संबंध में युधिष्ठिर ने सुना। उन्होंने पहले देखा नहीं था। व्यासदेवजी के वचन में उन्होंने विश्वास किया, तो जो धन अव्यक्त था, कोशिश करने पर वह धन व्यक्त हो गया और युधिष्ठिर ने उस धन से अश्वमेध यज्ञ किय। इसी तरह अव्यक्त में भी लौ लगाया जाता है। अव्यक्त में कैसे मन लगाया जाता है, उसे अव्यक्त के उपदेश देनेवाले से पूछो। वह परमात्मा सर्वोत्कृष्ट तत्त्व है। उससे पहले का कुछ नहीं है। वह निरा- धार है। उसके लिए वायुमण्डल, आकाश मण्डल, प्रकृतिमण्डल कुछ नहीं चाहिए। वह अपने पर आप अवलम्बित हैं। वह आदि-अन्त और सीमारहित है। वह केन्द्र-ही-केन्द्र है-परिधि से सीमित नहीं-ऐसा वह ईश्वर है। जीव को केन्द्र और परिधि दोनों हैं। उसी ईश्वर के अन्दर सारी सृष्टि है। सबमें वह ईश्वर है और उस ईश्वर में सब है। वह सब शरीरों में है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
‘अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा,
बसत इति वासना धूप दीजै ।।’
‘देशकाल दिशि विदिशहुँ माही ं।
कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ।।’
वह ईश्वर सर्वत्र है, लेकिन आप उसे पहचान नहीं सकते। इसलिए कि आप पंच ज्ञानेन्द्रियों से पंच विषयों के अतिरिक्त और कुछ जान नहीं सकते। ‘सबकी दृष्टि पड़े अविनाशी, विरले संत पिछानै। कहै कबीर यह भरम किवाड़ी, जो खोलै सो जानै।।’-कबीर साहब। भरम माया को कहा।
आपकी वृत्ति जबतक बाहर की ओर रहेगी, तबतक ईश्वर-दर्शन नहीं हो सकता। आप जब अपने अंदर प्रवेश करें, तब दर्शन कर सकते हैं। पैर तो बाहर में ही छूट जाता है। पहले मन चलता है और पीछे मन भी छूट जाता है। तब आप स्वयं अकेले ही रहते हैं। इस शरीर के अन्दर संतों ने बहुत कुछ बताया है, लेकिन याद रखने योग्य हैं-चार चीजें। आँख बन्द कीजिए और देखिए। ख्याली बात नहीं, प्रत्यक्ष देखिए। अन्दर देखने में सबसे पहले अंधकार दीखेगा। अन्धकार का अन्त अन्दर में होता है, तब उसके बाद प्रकाश आता है। तीसरा दर्जा है, अंधकार-प्रकाश के परे शब्दमण्डल। जो सूक्ष्म होता है, वह अपने से स्थूल में स्वाभाविक ही व्यापक होता है। इसलिए शब्द, अंधकार और प्रकाश दोनां में व्यापक होता है। शब्द के परे अनाम है।
एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानन्द परधामा।।
यदि विश्वास हो तो युधिष्ठिर की तरह चलो। अपने अंदर चलो। कठिनाई होगी तो वह भी धीरे-धीरे सरल हो जाएगा।
करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान ।
रसरी आवत जात ते, सिल पर पड़त निसान ।।
कबीर साहब ने कहा है कठिनता की कोई बात नहीं।
न योगी योग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै ।
सहज में ध्यान से पावै, सुरति का खेल जेहि आवै ।।
सहज ध्यान रहु सहज ध्यान रहु, गुरु के वचन समाई हो ।
मेली चित्त चरा चित राखो, रहो र्दृष्ट लौलाई हो ।।
संतों ने सहज ध्यान बताया है। मुझे भी खोजते बहुत दिन हो गए। इसके समान और कोई सरल नहीं है। अंधकार को पार करो। प्रकाश देखो। प्रकाश आपके अंदर है। इसका प्रमाण है कि आपकी आँखों में रोशनी है। दृष्टि का व्यायाम करो, आँख और पुतली का व्यायाम नहीं। इसका यत्न गुरु से जानो। शब्द वह चीज है, जो सबमें व्यापक है। बिना शब्द से सृष्टि नहीं हो सकती। शब्द कम्पमय और कम्प शब्दमय होता है। कम्पन-पुंज को सृष्टि कहते हैं। शब्द से सृष्टि का विकास है। ईश्वर की मौज हुई और सृष्टि हो गई। दादूदयालजी ने कहा-
यन्त्र बजाया साजि करि, कारीगर करतार ।
पंचौ कारज नाद है, दादू बोलणहार ।।
पंच ऊपना शबद थैं, शबद पंच सौं होय ।
साईं मेरे सब किया, बूझे बिरला कोय ।।
कबीर साहब कहते हैं-
साधो शब्द साधना कीजै ।
जेहि शब्द से प्रगट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै ।।
शब्दहि गुरू शब्द सुनि शिष भे, शब्द सो विरला बूझे ।
सोई शिष्य सोइ गुरू महातम, जेहि अंतर गति सूझे ।।
शब्दै वेद पुराण कहत हैं, शब्दै सब ठहरावै ।
शब्दै सुर मुनि संत कहत हैं, शब्द भेद नहिं पावै ।।
शब्दै सुनि सुनि भेष धरत हैं, शब्द कहै अनुरागी ।
षट दर्शन सब शब्द कहत हैं, शब्द कहै वैरागी ।।
शब्दै माया जब उतपानी, शब्दै केरि पसारा ।
कहै कबीर जहँ शब्द होत है, तवन भेद है न्यारा ।।
अंधकार में भी शब्द पकड़ा जाएगा, लेकिन बड़ा झंझट है। इसलिए संतों ने प्रकाश का शब्द पकड़ने कहा। शब्द अपने केन्द्र में खींचता है। कुत्ते को पुकारने से वह निकट आ जाता है।
चुम्बक सत्त शब्द है भाई, चुम्बक शब्द लोक ले जाई ।
लेइ निकारि होखै नहिं पीरा, सत्त शब्द जो बसै शरीरा ।।
-दरिया साहब, बिहारी
यह आधार है। शब्द से सभी दर्जे पार हो जाएँगे। यही ऋषि-मुनि का नादानुसंधान है और साधु-संतों ने इसे ही सुरत-शब्द-योग-नाम-भजन कहा है। नाम-भजन केवल वर्णात्मक में ही है-ऐसा नहीं, वर्णात्मक एवं ध्वन्यात्मक दोनों में है।
आपके पास शूच्याचार और सदाचार दोनों होना चाहिए। हमारे देश में बड़े-बड़े शुच्याचारी और सदाचारी हुए हैं। आज तो इन आचारों का इतना पतन हुआ है कि जिसका ठिकाना नहीं है। विद्वान बहुत बड़े-बड़े हैं, किंतु अपने हृदय को देखें कि कितने नीचे गिरे हुए हैं? ईश्वर-भजन से सदाचार को बड़ा संबंध है। सदाचार आपके हृदय
को शान्त बना देगा। आज स्वराज्य है। सदाचार का पालन कीजिए तो सुराज्य हो जाएगा। सभी कोई सदाचारी बन जाओ तो एक सिपाही की भी जरूरत नहीं होगी। सभी कोई सदाचारी बन जाएँ, तो चोर, डाकू कोई नहीं हो सकते। पंच पापों-चोरी, जारी, नशा, हिंसा और झूठ से बचो। कानून की लाठी खूब चली और टूट गई, लेकिन देश में अत्याचार ज्यों-का-त्यांं बना है। सदाचार का पालन कीजिए तो इहलोक तथा परलोक दोनों में आनंद से रहिए। धन कमाने के लिए सदाचार पालन करने की कोई जरूरत नहीं होती। जैसे-तैसे धन कमा सकते हैं, किंतु ईश्वर-भक्ति के लिए सदाचार का पालन अनिवार्य है। इसलिए सबको सदाचार का पालन करना चाहिए और शुच्याचारी भी बनना चाहिए।
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यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत छपरा जिला के टाउन हॉल, छपरा में दिनांक 4.1.1961 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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