164. सिंह का बच्चा भेड़-बकरियों के साथ
प्यारे धर्मानुरागी महाशयो एवं सत्संगियो!
 मैं अपनी ओर से कुछ सुनाऊँ, ऐसा नहीं। मैंने गुरु महाराज से शिक्षा पायी है कि जहाँ रहो, सत्संग करो और संतवाणी का सहारा लो। संतों की वाणी का सहारा लिए बिना मैं कुछ नहीं कह सकता-
नित सत्संगति करो बनाई । अंतर बाहर द्वै विधि भाई ।।
धर्म कथा बाहर सत्संगा । अंतर सत्संग ध्यान अभंगा ।।
 बाह्य और अंतर दोनों तरह का सत्संग करो। गुरु की दीक्षा के अनुकूल एकान्त में बैठकर उपासना करो-यह अंतर सत्संग है और बाहर में संतों के सद्ज्ञान का श्रवण करो, यह बाहर का सत्संग है। संत कोई साधारण नहीं होते, पूर्ण होते हैं। पूर्ण मनुष्य, पूर्ण मनुष्यता के अंदर रहते हुए पूर्ण ज्ञानी, पूर्ण ध्यानी तथा अध्यात्म विषयक ज्ञान की कोई कमी न हो, ऐसे महापुरुष संत होते हैं। उपनिषद् में कहा गया है कि संत वही है, जिनमें ये गुण हों-
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
                    - योगशिखोपनिषद्, अध्याय 5
 अर्थात् उस परे-से-परे ब्रह्म को देख लेने पर हृदय की ग्रन्थि टूट जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।
 साधारण लोग इन बातों को नहीं जानते। पढ़े-लिखे-सत्संग किए जन जानते हैं कि शरीर में जड-़चेतन की ग्रन्थि है तुम चेतन हो। चेतन ज्ञानमयी शक्ति है। यह अज्ञानमय तत्त्व में ऐसे समाया हुआ है, जैसे दूध में घी। जैसे दूध से घी अलग किया जाता है, उसी तरह चेतन आत्मा को शरीर से निकाला जा सकता है। जिसको ऐसा हो गया है, जिसको अपनी निस्बत केवल बौद्धिक विचार नहीं, वरन् प्रत्यक्षानुभूति है, वे ही संत हैं। जो ऐसे हैं, उनमें क्या त्रुटि हो सकती है? जो नहीं जानते हैं, वे ही त्रुटि बता सकते हैं। हमारे बीच में कोई संत हैं- इसकी पहचान बहुत कठिन है।
 सत्संग कहते हैं, सद्ज्ञान के संग को। संतों का कहा हुआ उनके ग्रन्थ में हो, चाहे वह भारती भाषा में हो या संस्कृत में। भारती भाषा को ही आप हिन्दी कहते हैं। हमारे लिए हिन्दी शब्द अच्छा नहीं। मैं अपनी सरकार से निवेदन करता हूँ कि वे राष्ट्रभाषा का हिन्दी नाम उड़ा दें। यह शब्द, उच्चता को बहुत गिरा देनेवाला है। हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान; ये शब्द अच्छे नहीं। भाषा का नाम हिन्दी। हिन्दुस्तान को हटाकर भारत किया गया, यह बहुत अच्छी बात। लेकिन ‘हिन्दी’ कैसे रख लिया गया, ताज्जुब है। हमारी भाषा का यह शब्द नहीं है। इसका अर्थ है-चोर, लुटेरा, लामजहब आदि। यह शब्द यदि संस्कृत होता और प्रचीन काल से अपने देश में आदरणीय रहता तो पुरोहितगण यजमानों को ‘जम्बूदीपे आर्यावर्ते भरतखण्डे’ के पढ़ाने की जगह ‘हिन्दुस्ताने’ पढ़ाते। गीता वा बौद्धग्रन्थों में कहीं भी ‘हिन्दू’ कहकर आर्य या भारतवासी को नहीं जनाया गया है, लेकिन लोग अब उसे संस्कृत बनाना चाहते हैं। अभी आपने संत कबीर साहब की वाणी सुनी-
बिन सतगुरु नर रहत भुलाना, खोजत फिरत राह नहिं जाना।।
केहर सुत ले आयो गड़रिया, पाल पोस उन कीन्ह सयाना।
करत कलोल रहत अजयन संग, आपन मर्म उनहुँ नहिं जाना।।
केहर इक जंगल से आयो, ताहि देख बहुतै रिसियाना ।
पकड़ि के भेद तुरत समुझाया, आपन दशा देखि मुसक्याना।।
जस कुरंग बिच वसत वासना,खोजत मूढ़ फिरत चौगाना ।
कर उसवास मनै में देखै, यह सुगंधि धौं कहाँ बसाना ।।
अर्ध उर्ध बिच लगन लगी है,छक्यो रूप नहिं जात बखाना ।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, उलटि आपु में आपु समाना।।
 बिना सद्गुरु के नर भूले रहते हैं, यह सभी कोई जानते हैं। इस पद्य मेें एक कहानी है-
 एक गड़ेरिया ने जंगल से एक सिंह का बच्चा लाया। उसे भेड़-बकरियों के संग में पाला पोसा। एक दिन गड़ेरिया भेड़-बकरियों के साथ उसे भी चराने ले गया। जंगल से एक सिंह आया और उस सिंह को भेड़-बकरियों के बीच देखकर बड़ा क्रोधित हुआ। उस जंगली सिंह ने भेड़-बकरियों के साथ भागते हुए उस पालतू सिंह को पकड़ लिया और उसे नदी किनारे ले जाकर पानी में अपने रूप का ज्ञान कराया। कहा-‘देखो, जैसा मेरा रूप है, वैसा ही तुम्हारा भी रूप है। जो मैं हूँ, वही तुम हो। तुम भेड़ और बकरे नहीं, वरन् सिंह के बच्चे सिंह हो।’ अपने रूप का ज्ञान पाकर वह भी सिंह की भाँति दहाड़ने लगा।
 इस कथा को कहकर कबीर साहब बताते हैं कि तुम ईश्वर रूप सिंह का बच्चा मन रूप गड़ेरिये के अधीन हो, भूल गए हो। यदि तुमको सद्गुरु मिल जाएँ तो वे तुम्हें अपने स्वरूप का ज्ञान करा दें। लेकिन अपने स्वरूप-ज्ञान के लिए कहीं से कुछ लाना होगा? नहीं, वह साधन तुम्हारे साथ ही है, जैसे मृगा के साथ में कस्तूरी है। उसी तरह जिस साधन से तुम अपने को पहचानोगे, वह तुम्हारे साथ है, लेकिन तुम मृगा की तरह बाहर- बाहर ढूँढ़ते हो। उसका यत्न बताते हैं-‘अर्ध उर्ध बिच लगन लगी है, छक्यो रूप नहिं जात बखाना। कहै कबीर सुनो भाई साधो, उलटि आपु में आपु समाना।।’ ‘अर्ध’ अधः शब्द का अपभं्रश है, जैसे सगुण का अपभ्रंश ‘सर्गुण’ हुआ है। ऐसा सूरदासजी एवं तुलसीदासजी के वचन में नहीं है। ये लोग पंडित थे, लेकिन जो पण्डित नहीं थे, उन संतों की वाणियों में है। अधः ऊर्ध्व कहते हैं पिण्ड-ब्रह्माण्ड, नीचे-ऊपर और स्थूल-सूक्ष्म को। इनके संधि स्थान को देखो। शिर को लोग ब्रह्माण्ड कहते हैं। शिर का नीचा भाग आँख से मिला है। आँख से ऊपर का भाग ब्रह्माण्ड और नीचे का भाग पिण्ड है। इस
ऊपर और नीचे के मध्य में देखो तो सूक्ष्मता दीख पड़ेगी। इसमें भी दो भेद हैं-एक अंधकारमय स्थान और दूसरा प्रकाशमय स्थान। इन दोनों के बीच में देखो लेकिन इतना कहने पर भी भेद बाकी बच जाता है। इसकी पूरी जानकारी तभी होगी, जब कोई सद्गुरु के आश्रित होते हैं। सभा में यह कहने की बात नहीं है, एकान्त में कहने की है। एकान्त में कहने की जगह कुछ लोग अब कान फूँकने लग गए हैं और कान में क्या कहना है, इसको वे भूल गए हैं। ऐसे भी महात्मा हैं, जो कान फूँकते हैं और दक्षिणा लेते हैं।
 जो अर्ध-उर्ध के बीच में देखेगा, वह शिवनेत्र और सहस्त्रार का प्रत्यक्ष बोध करेगा। इसमें आगे बढ़ते-बढ़ते सहारा मिलेगा। साधन की सद्युक्ति सद्गुरु से प्राप्त कर सकते हैं और आगे बढ़ने के लिए उसका सहारा ईश्वर देते हैं। जैसे बिना हवा के हम नहीं रह सकते-हवा सहारा है, उसी तरह अंदर में ईश्वर सहारा देते हैं। गुरु नानकदेवजी के वचन में सुना-
    घरि महि घरु देखाइ देइ, सो सतगुरु परखु सुजाणु ।
    पंच शबदु धुनिकार धुनि, तह बाजे शबदु निसाणु ।।
    दीप लोअ पाताल तह, खण्ड मण्डल हैरानु ।
    तार घोर वाजिंत्र तह, साचि तखति सुलतानु ।।
    सुखमन कै घरि राग सुनि सुन मंडल लिव लाइ ।
    अकथ कथा वीचारीअै मनसा मनहि समाइ ।।
    उलटि कमलु अंम्रित भरिआ, इहु मन कतँहु न जाइ ।
    अजपा जाप न बीसरै, आदि जुगादि समाइ ।।
    सभि सखिया पंचे मिलै, गुरु मुखि निज घरि वासु ।
    शबदु खोजि इहु घरु लहै,‘नानकु’ ता का दासु ।।
 अपने घर वा मन्दिर में पैठने के लिए जो यत्न बता दे, वह गुरु है। उस घर में पैठने के लिए सहारा लो। सहारा क्या है? तो कहा-‘पंच सबदु धुनिकार धुनि तह बाजे सबदु नीसाणु।’ लेकिन इस शब्द को कैसे पकड़े? तो कहा-‘सुखमन कै घरि राग सुनि, सुन मण्डल लिव लाई।’
 शून्यमण्डल में लौ लगाकर रहो। सुन्दरदासजी के शब्द में सुना-
 गुरु के प्रसाद बुद्धि उत्तम दशा को गहै ।
 गुरु के प्रसाद भव दुख विसराइये ।।
 गुरु के प्रसाद प्रेम प्रीतिहु अधिक बाढ़ै ।
 गुरु के प्रसाद रामनाम गुण गाइये ।।
 गुरु के प्रसाद सब योग की युगति जानै ।
 गुरु के प्रसाद शून्य में समाधि लाइये ।।
 सुन्दर कहत गुरुदेव जू कृपालु होइ ।
 तिनके प्रसाद तत्त्वज्ञान पुनि पाइये ।।
 कैसे शून्य समाधि लाइए, यह गुरु-गम्य है। तीन संतों के वचनों में जो पाठ हुआ, उनमें गुरु की महिमा है। दूसरी बात है अपने को और ईश्वर को अपने अंदर खोजो। उसकी युक्ति प्राप्त करो और साक्षात् करो।
 अभी आप अपने को मन के वश में पाते हो, लेकिन अभ्यास करो तो मन आपके वश में हो जाएगा। हमलोग हाथी-घोड़े के बराबर बड़े शरीरवाले जीव नहीं हैं, लेकिन हाथी, घोड़े, सिंह आदि को लोग काबू करके सरकस में नचाते हैं। मनुष्य शरीर में शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक सभी शक्तियाँ होती हैं। यहाँ तक कहा गया है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है।
बड़े भाग्य मानुष तनु पावा । सुर दुर्लभ सब ग्रथहिं गावा।।
            -रामचरितमानस
 हमको चेतना चाहिए, हमको विकारों से बचना चाहिए। बैल की तरह नहीं होना चाहिए। बैल की तरह क्या होता है? जैसे बैल जो एक खेत में खाता है, उसको मार लगती है, फिर वह उसी खेत में जाता है। उसी तरह जिस काम से हमको हानि होती है, पुनः उसी काम को हम करने दौड़ते हैं। काम के अधीन होकर हम गधे से भी आगे बढ़ जाते हैं। हमको चाहिए कि हम मनुष्य बनें। तब मन और इन्द्रियाँ बेकाबू नहीं रह सकतीं। आत्मा के नियंत्रण में बुद्धि, बुद्धि के नियंत्रण में मन और मन के नियंत्रण में इन्द्रियाँ रहेंगी। हमको चाहिए कि हम सत्संग करें, संतों की वाणियों- सदुपदेशों के अनुकूल चलने का यत्न करें। इसके लिए जितना हम धन पाने के वास्ते चेष्टा करते हैं, उससे अधिक चेष्टा करनी चाहिए।
 ईश्वररूपी केन्द्र तक पहुँचने के लिए हमको चेष्टा करनी चाहिए। जो कर्म ईश्वर से संबंध नहीं रखता, उससे लाभ नहीं। ईश्वर स्वरूपतः क्या है? इसको जानिए। स्वरूपतः ईश्वर वैसा नहीं, जैसा हम संसार में देखते हैं। संसार में परिवर्तनशील पदार्थों को हम देखते हैं। ईश्वर अपरिवर्तनशील और अकम्प है। इस संसार को जिन इन्द्रियों से हम जानते हैं, उनसे ईश्वर को जानें, यह असम्भव है। ईश्वर इन्द्रियों के ज्ञान से बाहर है। इन्द्रियों से जो कुछ जानते हैं, वह माया है। ‘गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।’ ईश्वर मन- बुद्धि से परे है।
     राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
     अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
     व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
      अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।
        -गोस्वामी तुलसीदास
अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु ।
ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।
       -गुरु नानक साहब
 श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
 सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
 चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
 चून चगून वजूद न मानु तैं सुभानमूना ऐना ।।
       -संत कबीर साहब
 मतलब यह कि ईश्वर इन्द्रिय-ज्ञान से परे है। गीता, उपनिषद् पढ़िए, वेद-पाठ कीजिए। ईश्वर सम्बन्ध में यही ज्ञान होता है कि वह इन्द्रियातीत है। तब लोगों के मन में प्रश्न होता है कि जो अव्यक्त है-इन्द्रियातीत है, उसमें हम अपना मन कैसे लगावें? तो इस पर हम एक कहानी कहते हैं-
 सोना के संबंध में युधिष्ठिर ने सुना। उन्होंने पहले देखा नहीं था। व्यासदेवजी के वचन में उन्होंने विश्वास किया, तो जो धन अव्यक्त था, कोशिश करने पर वह धन व्यक्त हो गया और युधिष्ठिर ने उस धन से अश्वमेध यज्ञ किय। इसी तरह अव्यक्त में भी लौ लगाया जाता है। अव्यक्त में कैसे मन लगाया जाता है, उसे अव्यक्त के उपदेश देनेवाले से पूछो। वह परमात्मा सर्वोत्कृष्ट तत्त्व है। उससे पहले का कुछ नहीं है। वह निरा- धार है। उसके लिए वायुमण्डल, आकाश मण्डल, प्रकृतिमण्डल कुछ नहीं चाहिए। वह अपने पर आप अवलम्बित हैं। वह आदि-अन्त और सीमारहित है। वह केन्द्र-ही-केन्द्र है-परिधि से सीमित नहीं-ऐसा वह ईश्वर है। जीव को केन्द्र और परिधि दोनों हैं। उसी ईश्वर के अन्दर सारी सृष्टि है। सबमें वह ईश्वर है और उस ईश्वर में सब है। वह सब शरीरों में है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
      ‘अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा,
   बसत इति वासना धूप दीजै ।।’
        ‘देशकाल दिशि विदिशहुँ माही ं।
          कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ।।’
 वह ईश्वर सर्वत्र है, लेकिन आप उसे पहचान नहीं सकते। इसलिए कि आप पंच ज्ञानेन्द्रियों से पंच विषयों के अतिरिक्त और कुछ जान नहीं सकते। ‘सबकी दृष्टि पड़े अविनाशी, विरले संत पिछानै। कहै कबीर यह भरम किवाड़ी, जो खोलै सो जानै।।’-कबीर साहब। भरम माया को कहा।
 आपकी वृत्ति जबतक बाहर की ओर रहेगी, तबतक ईश्वर-दर्शन नहीं हो सकता। आप जब अपने अंदर प्रवेश करें, तब दर्शन कर सकते हैं। पैर तो बाहर में ही छूट जाता है। पहले मन चलता है और पीछे मन भी छूट जाता है। तब आप स्वयं अकेले ही रहते हैं। इस शरीर के अन्दर संतों ने बहुत कुछ बताया है, लेकिन याद रखने योग्य हैं-चार चीजें। आँख बन्द कीजिए और देखिए। ख्याली बात नहीं, प्रत्यक्ष देखिए। अन्दर देखने में सबसे पहले अंधकार दीखेगा। अन्धकार का अन्त अन्दर में होता है, तब उसके बाद प्रकाश आता है। तीसरा दर्जा है, अंधकार-प्रकाश के परे शब्दमण्डल। जो सूक्ष्म होता है, वह अपने से स्थूल में स्वाभाविक ही व्यापक होता है। इसलिए शब्द, अंधकार और प्रकाश दोनां में व्यापक होता है। शब्द के परे अनाम है।
एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानन्द परधामा।।
 यदि विश्वास हो तो युधिष्ठिर की तरह चलो। अपने अंदर चलो। कठिनाई होगी तो वह भी धीरे-धीरे सरल हो जाएगा।
 करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान ।
 रसरी आवत जात ते, सिल पर पड़त निसान ।।
कबीर साहब ने कहा है कठिनता की कोई बात नहीं।
      न योगी योग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै ।
      सहज में ध्यान से पावै, सुरति का खेल जेहि आवै ।।
सहज ध्यान रहु सहज ध्यान रहु, गुरु के वचन समाई हो ।
मेली चित्त चरा चित राखो, रहो र्दृष्ट लौलाई हो ।।
 संतों ने सहज ध्यान बताया है। मुझे भी खोजते बहुत दिन हो गए। इसके समान और कोई सरल नहीं है। अंधकार को पार करो। प्रकाश देखो। प्रकाश आपके अंदर है। इसका प्रमाण है कि आपकी आँखों में रोशनी है। दृष्टि का व्यायाम करो, आँख और पुतली का व्यायाम नहीं। इसका यत्न गुरु से जानो। शब्द वह चीज है, जो सबमें व्यापक है। बिना शब्द से सृष्टि नहीं हो सकती। शब्द कम्पमय और कम्प शब्दमय होता है। कम्पन-पुंज को सृष्टि कहते हैं। शब्द से सृष्टि का विकास है। ईश्वर की मौज हुई और सृष्टि हो गई। दादूदयालजी ने कहा-
 यन्त्र बजाया साजि करि, कारीगर करतार ।
 पंचौ कारज नाद है, दादू बोलणहार ।।
 पंच ऊपना शबद थैं, शबद पंच सौं होय ।
 साईं मेरे सब किया, बूझे बिरला कोय ।।
कबीर साहब कहते हैं-
   साधो शब्द साधना कीजै ।
   जेहि शब्द से प्रगट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै ।।
   शब्दहि गुरू शब्द सुनि शिष भे, शब्द सो विरला बूझे ।
   सोई शिष्य सोइ गुरू महातम, जेहि अंतर गति सूझे ।।
   शब्दै वेद पुराण कहत हैं, शब्दै सब ठहरावै ।
   शब्दै सुर मुनि संत कहत हैं, शब्द भेद नहिं पावै ।।
   शब्दै सुनि सुनि भेष धरत हैं, शब्द कहै अनुरागी ।
   षट दर्शन सब शब्द कहत हैं, शब्द कहै वैरागी ।।
   शब्दै माया जब उतपानी, शब्दै केरि पसारा ।
   कहै कबीर जहँ शब्द होत है, तवन भेद है न्यारा ।।
 अंधकार में भी शब्द पकड़ा जाएगा, लेकिन बड़ा झंझट है। इसलिए संतों ने प्रकाश का शब्द पकड़ने कहा। शब्द अपने केन्द्र में खींचता है। कुत्ते को पुकारने से वह निकट आ जाता है।
चुम्बक सत्त शब्द है भाई, चुम्बक शब्द लोक ले जाई ।
लेइ निकारि होखै नहिं पीरा, सत्त शब्द जो बसै शरीरा ।।
       -दरिया साहब, बिहारी
 यह आधार है। शब्द से सभी दर्जे पार हो जाएँगे। यही ऋषि-मुनि का नादानुसंधान है और साधु-संतों ने इसे ही सुरत-शब्द-योग-नाम-भजन कहा है। नाम-भजन केवल वर्णात्मक में ही है-ऐसा नहीं, वर्णात्मक एवं ध्वन्यात्मक दोनों में है।
 आपके पास शूच्याचार और सदाचार दोनों होना चाहिए। हमारे देश में बड़े-बड़े शुच्याचारी और सदाचारी हुए हैं। आज तो इन आचारों का इतना पतन हुआ है कि जिसका ठिकाना नहीं है। विद्वान बहुत बड़े-बड़े हैं, किंतु अपने हृदय को देखें कि कितने नीचे गिरे हुए हैं? ईश्वर-भजन से सदाचार को बड़ा संबंध है। सदाचार आपके हृदय
को शान्त बना देगा। आज स्वराज्य है। सदाचार का पालन कीजिए तो सुराज्य हो जाएगा। सभी कोई सदाचारी बन जाओ तो एक सिपाही की भी जरूरत नहीं होगी। सभी कोई सदाचारी बन जाएँ, तो चोर, डाकू कोई नहीं हो सकते। पंच पापों-चोरी, जारी, नशा, हिंसा और झूठ से बचो। कानून की लाठी खूब चली और टूट गई, लेकिन देश में अत्याचार ज्यों-का-त्यांं बना है। सदाचार का पालन कीजिए तो इहलोक तथा परलोक दोनों में आनंद से रहिए। धन कमाने के लिए सदाचार पालन करने की कोई जरूरत नहीं होती। जैसे-तैसे धन कमा सकते हैं, किंतु ईश्वर-भक्ति के लिए सदाचार का पालन अनिवार्य है। इसलिए सबको सदाचार का पालन करना चाहिए और शुच्याचारी भी बनना चाहिए।
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यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत छपरा जिला के टाउन हॉल, छपरा में दिनांक 4.1.1961 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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165. राजविद्या राजगुह्य का तात्पर्य
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 जो सत्संग हमको सत् से नहीं बाँधता है, उसको हम सत्संग कहें, अनुचित है। सत् की खोज करने पर, सत् को समझने पर यही ज्ञान में आता है कि सत् परमात्मा है। परमात्मा वा ईश्वर वा कुल्लमालिक सर्वेश्वर ही सत् है। उससे जो सत्संग हमको नहीं जोड़ता, वह सत्संग कहने योग्य नहीं। परमात्मा हमको अपनी स्थूल इन्द्रियों के कारण, शरीर के कारण प्रत्यक्ष दर्शन नहीं दे रहे हैं। इसीलिए हमको ऐसे सत्संग की आवश्यकता है, जो शरीर और इन्द्रियों से ऊपर उठने के लिए सहायक हो, तब सत्संग ठीक है।
 संतों की वाणियों में इन्हीं बातों का भरपूर ज्ञान है। वेदों में तलाश करने पर, उपनिषदों में खोज करने पर उनमें भी यही बात है और गुरु के मुख से भी यही बात सुनी है।
 ईश्वर-ज्ञान के लिए वेद का, उपनिषद् का जो ज्ञान है, कबीर साहब, गुरु नानक साहब, सूरदासजी, गोस्वामी तुलसीदासजी सबका वही ज्ञान है, दूसरा नहीं। युक्ति जानने के लिए संतों ने जिस तरह खुलासा तरीका बताया है, उस यत्न का संकेत पहले के ग्रंथों में भी अवश्य है, लेकिन साफ-साफ बता देना तो संतों के गं्रथ में ही पाते हैं। योगशास्त्र हमारे यहाँ है। इसके बिना सीढ़ी लगाकर ज्ञान की पूर्णता तक कोई नहीं पहुँचा सकता, यही ईश्वर तक पहुँचाता है। इस योग शास्त्र की युक्तियों के महान जलाशय से सीधा और सरल यत्न बता देना संतों का काम है।
 ईश्वर-वरूप के लिए संतों ने जैसा कहा है, श्रीमद्भगवद्गीता और वेद में भी वही बात है। वहाँ सूर्य और चन्द्र नहीं, देश और काल नहीं, इन्द्रियों से उसका ज्ञान नहीं आदि। जैसा कबीर साहब आदि संतों ने कहा है, उसी तरह वेद, उपनिषदादि गं्रथों में भी है। उस तरह पहुँचने का सरल मार्ग संतों ने बताया है। कबीर साहब ने कहा है-
 न योगी योग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै ।
 सहज में ध्यान से पावै, सुरति का खेल जेहि आवै ।।
 सुनने से होता है कि क्या बात हो गई। यह इसलिए कि हम युक्ति नहीं जानते हैं। लेकिन इसका आशय है कि हठयोग में प्राणायाम पर जोर दिया गया है, लेकिन प्राणायाम तक ही साधनाओं का अंत नहीं है। उसके बाद धारणा, ध्यान और समाधि है। न तो प्राणायाम करे और न तप से देह जलवावे; ध्यान की युक्ति कुछ और ही है। लोग हठयोग की क्रिया देखकर समझते हैं कि यह बड़ा कठिन है और जो स्वयं ध्यान नहीं करते थे, उन्होंने अंदाज से ही कह दिया कि ध्यान बड़ा कठिन है, मत करो, कुछ जप आदि स्थूल पूजा कर लो। तीसरी बात यह है कि मोटी पूजा के द्वारा जो आर्थिक लाभ होता है, सूक्ष्म भेद बताने से वह आर्थिक लाभ नहीं होगा। इसलिए उन्होंने मोटी उपासना का खूब जोर-शोर से प्रचार किया।
 मैं यह नहीं कहता कि मोटी उपासना का कोई काम नहीं है, बल्कि ऐसा कि मोटी उपासना में ही लगे नहीं रहो, उसके बाद सूक्ष्म उपासना भी करो। स्थूल उपासना इसलिए की जाती है कि तुम सूक्ष्म उपासना के योग्य बनो। यदि सूक्ष्म उपासना ही नहीं हो तो गीता में राजविद्या राजगुह्य का तात्पर्य क्या है? राजविद्या यदि राजाओं की विद्या कहो, तो फिर उसके साथ गुह्य विद्या जो है, सो क्या है?
 कबीर साहब, गुरु नानक साहब सभी संतों ने स्थूल उपासना करने कहा। ये लोग मोटी उपासना की मनाही करते, तो कबीर साहब और गुरु नानक साहब ही क्यों कहते कि-
 मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
 मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।
       -संत कबीर साहब
गुर की मूरति मन महि धिआनु। गुरु कै शबदि मंत्र मंनु मानु।।
गुर के चरण रिदै लै धारउ। गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ।।
       -गुरु नानक साहब
 लेकिन यह नहीं कहते हैं कि यहीं तक भक्ति खत्म हो गई। गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
   भगता की चाल निराली ।
   चाल निराली भगता केरी विखम मारगि चलणा ।।
   लबु लोभु अहंकारु तजि त्रिसना बहुतु नाहीं बोलणा ।।
   ख्ांनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा ।।
   गुर परसादी जिनि आपु तजिया हरि वासना समाणी ।।
   कहै नानक चाल भगताह केरी जुगहु जुग निराली ।।
और कबीर साहब कहते हैं-
 जो कोई निरगुन दरसन पावै ।।
 प्रथमे सुरति जमावै तिल पर, मूल मंत्र गहि लावै ।
 गगन गराजै दामिनि दमकै, अनहद नाद बजावै ।।
 बिन जिभ्या नामहिं को सुमिरै, अमिरस अजर चुवावै।
 अजपा लागि रहै सूरति पर, नैनन पलक डुलावै।।
 गगन मंदिल में फूल फुलाना, उहाँ भँवर रस पावै ।
 इंगला पिंगला सुखमनि सोधै, प्रेम जोति लौ लावै।।
 सुन्न महल में पुरुष विराजै, जहाँ अमर घर छावै ।
 कहै कबीर सतगुरु बिनु चीन्हे, कैसे वह घर पावै।।
 संतों ने स्थूल सगुण रूप उपासना के बाद सूक्ष्म सगुण रूप उपासना, फिर सूक्ष्म सगुण अरूप उपासना और अंत में निर्गुण-निराकार-उपासना करने को कहा है। विद्वान लोग भी निर्गुण-सगुण उपासना को ठीक-ठीक नहीं समझ सकने के कारण लिखते हैं कि कबीर साहब और गुरु नानक साहब निर्गुणियाँ संत थे और गोस्वामी तुलसीदासजी और सूरदासजी सगुणियाँ भक्त थे। वे कहते हैं कि संतलोग भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण को नहीं मानते हैं। लेकिन मैं तो कहता हूँ कि संतलोग जैसा भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण को मानते हैं, वैसा तो और कोई मानते भी नहीं हैं। संतों की दृष्टि क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है, क्षेत्रज्ञ पर भी है। विद्वान लोग केवल टटोल-टटोलकर लिखते हैं। पढ़े-लिखे तो हैं ही, बहुत मोटी-मोटी किताब लिख देते हैं, लेकिन विशेष ढूँढ़ते नहीं इसलिए कि संतों की युक्ति का उन्हें ज्ञान नहीं और इसीलिए वे ठीक-ठीक लिख भी नहीं सकते। लेकिन जो युक्ति जानते हैं, वे ठीक-ठीक लिख सकते हैं। संतों ने स्थूल उपासना के बाद सूक्ष्म उपासना बतायी।
 बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
           -ध्यानविन्दूपनिषद्
 बीजाक्षर को-परम विन्दु को कैसे पकड़ोगे, इसकी युक्ति गुरु से जानो। अभ्यास करो, अवश्य पाओगे। जो विन्दु को धारण करेगा, वह नाद को पावेगा।
 विन्दु में तहँ नाद बोलै, रैन दिवस सुहावनं ।
           -संत पलटू साहब
 मैंने स्थूल उपासना करने से मना करता हूँ और न उसमें फँसकर रहने कहता हूँ। प्रतिमा है वा जीवित मूर्ति है, तो उसको प्रणाम करने में कोई हर्ज नहीं। परमात्मा सब जगह है ही। ‘अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा वसत...’ गोस्वामी तुलसी- दासजी। जो परमात्मा सबमें रहता है, उसको पहचानो, तब कहना ही क्या? जो सबमें एक है, उसको कैसे पहचानोगे? अपने ही आप नहीं पहचान सकते। यदि अपने ही आप पहचान हो जाती, तो संसार में गुरु की आवश्यकता ही क्या थी।
 पहले से ही कोई निर्गुण उपासना नहीं करता। पहले स्थूल सगुण रूप उपासना, फिर सूक्ष्म सगुण रूप उपासना, फिर सूक्ष्म सगुण अरूप उपासना और अंत में निर्गुण निरकार उपासना। मानस जप और मानस ध्यान स्थूल सगुण रूप उपासना है, विन्दु ध्यान और ज्योति ध्यान, सूक्ष्म सगुण रूप उपासना है, अनहद नाद का ध्यान रूप रहित होने पर भी सगुण उपासना है और सारशब्द का ध्यान निर्गुण निराकार उपासना है।
सहज ध्यान रहु सहज ध्यान रहु, गुरु के वचन समाई हो ।
मेली चित्त चरा चित राखो, रहो र्दृष्ट लौलाई हो ।।
        -संत कबीर साहब
 यह सहज ध्यान है। चलनेवाले चित्त को अंदर समाकर, अचल करके रखो। संतों की युक्ति, संतों का ज्ञान बिल्कुल ठीक है। असल है, ईश्वर तक पहुँचने का यह सरल और सुगम मार्ग है। इससे सुगम और कोई साधन नहीं है। इसीलिए ‘न तपसी देह जरवावै’ कहा है।
 श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि अभ्यास-योग से ज्ञान, ज्ञान से ध्यान और ध्यान से कर्मफल-त्याग विशेष है, यदि कहें कि ध्यान से कर्मफल-त्याग विशेष है, तो बिना समत्व के कोई कर्मफल त्यागी नहीं हो सकता। इसके लिए ध्यान करो। आप से जितना बने, करो। हड़बड़ मत करो कि तुरन्त ही हो जाए। यदि हड़बड़ करके तुरंत हो जाता तो गीता में भगवान अनेक जन्मों की चर्चा क्यों करते?
 इसका थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करते रहो, अंत में मोक्ष दिलाकर छोड़ेगा। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि ‘योग के आरम्भ का नाश नहीं होता।’ बड़ा ठीक कहा है। इसे करते रहो।
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यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत रोहतास जिला के डेहरी ऑन सोन में दिनांक 7.2.1961 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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166. अध्यात्म-विज्ञान का प्रयोगशाला
प्यारी धर्मानुरागिनी जनता!
 अपने देश में भौतिक-ज्ञान और अध्यात्म ज्ञान दोनों ज्ञानों का प्रचार-शिक्षा बहुत प्राचीन काल से है। ऐसा किसी देश में है, मालूम नहीं। भौतिक-ज्ञान उसको कहते हैं, जिस ज्ञान के अंदर संसार के तत्त्वों की जानकारी, पहचान और प्रयोग सीखते और करते हैं। इसमें संसार का बहुत कुछ लाभ मालूम होता है। इसके साथ-साथ हानि भी बहुत है। हानि और लाभ दोनों हैं। लाभ की तरफ चलो तो इसके द्वारा लाभ होगा और अपने को लाभान्वित करो। लाभ उठाओ, लेकिन दूसरे को भी उसी तरह का लाभ नहीं होता। लाभ जितना होता है, उतना ही लोभ बढ़ता है। इसलिए शान्ति- तृप्ति होती नहीं। वासनाओं का पूर्णरूपेण क्षय होता नहीं। इसलिए तृष्णा और लालच उमड़ते रहते हैं। जीवनभर किसी भौतिक वैज्ञानिक को शान्ति मिले, संभव नहीं। दूसरी बात है कि जो मनुष्य बहुत कुछ सोचता-विचारता है, जिसने भौतिक तत्त्वों को उपलब्ध किया है, बहुत लाभ उठाया है, तो इसका मूल कहाँ है? मनुष्य, किसी को इसलिए कहते हैं कि उसकी शकल मनुष्य की तरह होती है। भौतिक विज्ञान के द्वारा लोगों ने यह निश्चय नहीं कर पाया कि इस शरीर में भौतिक तत्त्व ही केवल है या और कुछ? वे केवल भौतिक तत्त्व को ही जानते हैं। इसके अतिरिक्त और क्या है, वे नहीं जानते। दूसरी तरह से विचारने पर मालूम होता है कि भौतिक तत्त्वों के मिलाप से ज्ञानमय तत्त्व हो जाता है, जो संभव नहीं। भले ही कुछ पदार्थों को जोड़कर स्पन्दनयुक्त बनाते हैं। स्पन्दनयुक्त होने के कारण वह ज्ञान क्रियायुक्त हो, ऐसा नहीं। ज्ञानमय तत्त्व में स्पन्दन है अवश्य, लेकिन आज तक इसका आविष्कार हुआ नहीं कि जड़ तत्त्वों के मिलन से जो स्पन्दन होता है, वह ज्ञानमय हो। एक ऐसा तत्त्व है, जो सर्वव्यापी और ज्ञानमय है। इस ज्ञानमय तत्त्व को ही चेतन कहते हैं। यही सब उन्नतियों और लाभों का मूल है। इसके अतिरिक्त दूसरा जड़ तत्त्व है, जिससे सर्व पिण्ड और ब्रह्माण्ड बने हुए हैं। यह मनुष्य-शरीर अर्थात् मनुष्य-पिण्ड कतिपय यंत्रों से युक्त एक ऐसा यंत्र है, जिसमें उस ज्ञानमय तत्त्व का विशेष विकास है। प्रत्यक्ष में देखो कि इस शरीर में कान है तो उससे शब्द सुन लो। इसके अतिरिक्त इससे और कुछ ज्ञान नहीं होता। अंधा शब्द सुनता है, लेकिन दृश्य नहीं देख सकता। आँख से शब्द और कान से रूप का ज्ञान नहीं होता है। चेतन सत्ता जड़ सत्ता से भिन्न है। दोनों के मिलाप तथा यंत्र विशेष से चेतन का कार्य विदित होता है, लेकिन जड़ इन्द्रियों के लिए चेतन अव्यक्त है। इन्द्रियों से अज्ञात तत्त्व को ग्रहण नहीं कर सकने के कारण भौतिक विज्ञानी को कथित चेतन सत्ता के होने में संशय होता है; क्योंकि वह उनको प्रत्यक्ष नहीं दीखता। अध्यात्म विज्ञानी आत्म- अनुभव में चेतन सत्ता को प्रत्यक्ष देखता है। वह उस सत्ता को भी देखता है, जिसके कारण चेतन सत्ता का प्रादुर्भाव हुआ है। शरीर के अंदर चेतन सत्ता और आत्म सत्ता नहीं हो तो केवल जड़ शरीर, ज्ञान का काम करे, सम्भव नहीं। जबतक चेतनयुक्त जड़ शरीर है, तबतक यह शरीर बोलता-चालता है। उससे विशेष है कि जिस ज्ञान वा विद्या से उसको प्रत्यक्ष किया जाता है, वह है अध्यात्म विज्ञान। अध्यात्म-विज्ञान के लिए भौतिक विज्ञान की तरह कोई प्रयोगशाला बाहर में नहीं है। इसकी प्रयोगशाला मानव-शरीर है। हाँ, इसमें भी शिक्षा देनेवाला-दीक्षा देनेवाला होता है। उस अध्यात्म-ज्ञान के द्वारा जो उपलब्ध होता है, शरीर के अंदर-अंदर जो प्रयोग होता है, उसको उन्होंने समझा है। भौतिक विज्ञानी के लिए भी यह आवश्यक है कि मन को एकओर करके सोचो, विचारो, जानो और प्रयोग करो। जरा भी गड़बड़ होगा तो जोखिम हो जाएगी। अध्यात्म- ज्ञान में भी मन को एकाग्र करने कहा गया है। इतना एकाग्र हो कि एकविन्दुता प्राप्त हो जाए। इसकी शिक्षा और दीक्षा गुरु लोग देते हैं। इसको साधक पहले सुनता है, समझता है और प्रयोग कर कुछ पाता है, तब उसका संशय जाता रहता है, सभी बन्धनों को तोड़ डालता है, परमानन्द और परम-शान्ति पाता है। इससे विशेष फल कुछ नहीं है। इसी की शिक्षा संतों ने अनेक प्रकार से दी है।
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यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर सिकलीगढ़ धरहरा में मास ध्यान साधना के अवसर पर दिनांक 16.2.1961 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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167. तीन प्रकार के कर्म
प्रियजनो!
 हमलोग जो सत्संग करते हैं, इसका खास अभिप्राय यह है कि हम अपने कर्तव्य-कर्म को जानें। हम मायावश होकर कर्म करते हैं। हम कर्तव्य-कर्मों को जानें और कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय करके तब कर्म करें, यह उत्तम है। बिना विचारे कर्म करना हानिकारक है। सभी जानते हैं कि कर्म का फल भोगना पड़ेगा। कर्मफल को भोगते-भोगते अनेक जन्म हो गए, फिर भी हम बंधन में हैं। इस बंधन से छूटे बिना हम संसार से छूट नहीं सकते। इसलिए अपने कर्म को जानने के लिए सत्संग का सहारा अवश्य चाहिए। बिना सत्संग के हम इस निर्णय को नहीं जान सकते कि क्या करना चाहिए? इसलिए दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, अर्धवार्षिक और वार्षिक आदि सत्संग करते हैं। संत और भगवन्त ने हमलोगों को जो कर्म की विधि बताई है, उसके अनुकूल चलने से हम कर्म-बंधन से छूटते हैं और अंत में संसार-बंधन से मुक्त हो जाते हैं। जन्म-मृत्यु और इन दोनों के बीच समय में जो हमलोगों को संसार में कष्ट होता है, उससे हम छूट जाएँ, यदि हम भगवान श्रीकृष्ण और संतों की वाणी के अनुकूल चलें। इसीलिए इस सत्संग का आयोजन है। यह परिश्रम और खर्च सभी के लिए बहुत लाभदायक है।
 ध्यानविन्दूपनिषद् में है कि कर्म से हम कैसे छूट सकते हैं? हमलोग कभी सात्त्विक भाव, कभी राजस भाव एवं कभी तामस भाव से कर्म करते हैं। जब हम सात्त्विक भाव में रहते हैं, तो राजस और तामस भाव भी उसमें रहते हैं, लेकिन ये भाव दबे रहते हैं और सात्त्विक की प्रधानता रहती है। इसी तरह राजस की प्रधानता होने से सात्त्विक और तामसभाव दबे रहते हैं और तामस की प्रधानता होने से सात्त्विक और राजस दबे रहते हैं। हमलोग विशेषतः तामस भाव का कर्म करते हैं, उससे कुछ राजस भाव का कर्म करते हैं। तामस पीछे-पीछे रहता है और सात्त्विक गुण गौण रहता है। ईश्वर कर्म-भोगों में हमको उसी तरह घुमाते हैं, जैसे कुम्हार चाक को घुमाता है या जैसे कोई कुम्हार के चाक पर घुमता हो। ईश्वर कर्म का फल देता है। वह उत्तम कोटि के सात्त्विक बंधन को उत्तम भोगों द्वारा शिथिल करता है और निष्कृष्ट तामस बंधन को नीचे की जीव योनियों मेें भेजकर शिथिल करता है और मध्यम श्रेणी के पाश को विविध योनियों के भोग से शिथिल करता है। शिथिल करने का अर्थ है कि उसकी प्रबलता नहीं रहती है। ऐसा नहीं कि वह कर्म नष्ट हो जाता है। कर्म नष्ट कैसे हो जाएगा? संतों की बताई विधि के अनुकूल चलने से हम परमात्मा को प्राप्त कर परम मोक्ष को प्राप्त कर सकेंगे। उनके बताए कर्म कैसे हैं? जैसे भगवान श्रीकृष्ण ने बताए हैं। सात्त्विक भाव में रहने के लिए हमको क्या करना होगा? उत्तम विचार में रहने के लिए हमको क्या करना होगा? उत्तम विचार में रहना और साधन करना। साधन की युक्ति संतलोग बताते हैं कि जो साधन-भजन अंतर्मुख होता है, वह करो-ध्यानविन्दू- पनिषद् में कहा गया है कि मनुष्यों को अपनी आत्मा की ओर देखना चाहिए। आत्मा की ओर होने के लिए कोई कहे कि बहिर्मुख होने से आत्मा की ओर होओगे, यह गलत बात है। आत्मा की ओर होने के लिए अपने शरीर के अंदर ही अपने को रखो। ऐसा कोई कहे तो बिल्कुल ठीक है। क्योंकि आत्मा बाहर में कहीं है, ऐसी बात नहीं। शरीर के अंदर उसकी स्थिति है, इसलिए उसके लिए अंतर्मुख होना होगा। अंतर्मुख होने के लिए किसी मर्मज्ञ से पूछते हैं, तो वे कहते हैं कि तुम्हारे अंदर तीन वृत्तियाँ हैं-बाईं, दायीं और इनके मध्य। जो दाईं और बाईं ओर की वृत्ति है, वह राजस और तामस है, मध्य की वृत्ति सात्त्विकी है। अपने को मध्य वृत्ति में रखने का कोई यत्न बता दे, तो वैसा करो। एक बंगाली योगी कहते हैं-
बायें इड़ा नाड़ी दक्षिणे पिंगला। रजस्तमो गुणे करिते छे खेला।
मध्य सत्त्वगुणे सुषुम्ना विमला, धर धर तारे सादरे।।
 बहुत अच्छा कहा है। सुषुम्ना में वृत्ति रखो तो सात्त्विकता-ही-सात्त्विकता है। राजस और तामस की दखल नहीं है। जो मध्य में अपने को रख सकता है, वही सात्त्विकता में रहकर सात्त्विक कर्म कर सकता है। उपनिषद्-वाक्य है कि-
 अकारः पीतवर्णः स्याद्रजोगुण उदीरितः।
 उकारः सात्त्विकः शुक्लो मकारः कृष्ण तामसः।।
          -ध्यानविन्दूपनिषद्
 अ, उ, म तीनों के मेल से ॐ बनता है। अभ्यासी अभ्यास करता है तो कभी पीले रंग का, कभी काले रंग का और कभी श्वेत रंग का उदय होता है। कालेपन में तामस भाव, पीलेपन में राजस भाव और श्वेतपन में सात्त्विक भाव होता है। लेकिन यह होता किसको है? जो अंतर की ओेर चलने का अभ्यास करता है-आत्मा की ओर होता है। जो कोई अपने को मध्यवृत्ति में रखने के लिए सुषुम्ना में ठहराने की कोशिश करता है, वही यह देखता है, दूसरा नहीं। उसमें रहते हुए जो कर्म करता है, वह आत्मा की ओर अंतर्मुखी होकर रहता है। वह उधर जाता है, जिधर जाकर अपने को-आत्मा को चीन्हेगा। आत्मा को चीन्हकर परमात्मा को भी चीन्हेगा। क्यांकि आत्मा ही परमात्मा को पहचानती है। ध्यानविन्दूपनिषद् में है-
 यदि शैल समं पापं विस्तीर्ण बहुयोजनम् ।
 भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ।।
 अर्थात् कई योजन तक फैला हुआ पहाड़ के समान यदि पाप हो तो वह ध्यानयोग से नष्ट हो जाता है। उसके समान पापों को नष्ट करनेवाला कभी कुछ नहीं हुआ है। इसलिए कि ध्यानयोग के अभ्यास से अभ्यासी अपने मन को और किसी ओर नहीं जाने देने में समर्थ होता है, सात्त्विकता के भाव को रख अपने को लक्ष्य में लगाकर रहता है। सारे चिंतनों को छोड़ता है यदि कोई चिन्तन आता है तो उसको हटाता है। इसका अभ्यास करते-करते वह राजस और तामस भाव से छूटता है और सात्त्विक भाव बढ़ता है। फिर ध्यान करते करते वह सात्त्विक भाव से भी ऊपर हो जाता है। ध्यान करते-करते सिमटाव होता है। सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। ऊपर की ओर उठना होता है। ऊपर की ओर उठने का अर्थ है स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर जाना। ऊर्ध्वगति में वह कर्ममण्डलों से ऊपर उठता है।
 कर्म तीन प्रकार के होते हैं-क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध। पुरुषार्थ से जो कर्म होता है, उसे क्रियमाण कहते हैं। किए हुए कर्म जो जमा होकर रहते हैं, उसे संचित कहते हैं। संचित में जो थोड़ा- थोड़ा भोग होता है, उसे प्रारब्ध कहते हैं। प्रतिदिन कर्म होते ही रहते हैं। फिर संचित और प्रारब्ध होते रहते हैं। इस तरह कर्म का चक्र चलता रहता है। इस चक्र को पार करने के लिए ध्यानयोग है। इसका अभ्यास करते-करते पहले के लोगों ने कर्मचक्र को पार किया है। ‘जाता योगी किनहुँ न पावा’-गुरु गोरखनाथजी ने कहा है। इसी बात को जानने के लिए यह सत्संग है। पौराणिक कथाओं को बहुत लोग जानते हैं। लेकिन उसमें इस ज्ञान का वर्णन स्वल्प-स्वल्प एवं यत्र-तत्र है। सत्संग से इसी का विशेष प्रचार होता है, चाहे आप वैष्णव बनकर, चाहे शाक्त बनकर ध्यानयोग का अभ्यास कीजिए। शाक्त का अर्थ मांस-मछली खाकर ऐसा नहीं। शाक्त का अर्थ है शक्ति का उपासक बनकर। आत्मभाव में स्त्रीलिंग और पुलिंग र्चिं कहाँ? यहाँ किसी सम्प्रदायवाले को ध्यानयोग करने में बाधा नहीं। इस ज्ञान के मानने से कोई अपने सम्प्रदाय से हट जाएँगे, ऐसी बात नहीं। संतमत कोई एक अलग सम्प्रदाय नहीं। सब संतों की जो राय है, वही संतमत है। यह सभी संत महापुरुषों का विचार है-इसी विचार को संतमत कहते हैं। सत्संगी महाशयगण संतमत के सिद्धान्त और उसकी परिभाषा को नित्य पढ़ें। नित्य पाठ से वे समझेंगे कि यह एकपक्षीय मत नहीं है। सभी संतों की वाणियाँ और विचार संतमत है। गीता में जो आया है कि कर्मफल त्यागकर कर्म करो-आत्मरत होकर कर्म करो, सो आत्मरत होने के लिए अपना निशाना अपने अंदर, अपने को उसपर लगाए हुए रहने से होता है। यह दृष्टिसाधन है। प्रत्याहार करते-करते अपने लक्ष्य पर स्थिर होते हैं। यह आत्मरत होने का आरम्भ है। संसार में भली तरह रहिए और आत्मरत होने का अभ्यास कीजिए।
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यह प्रवचन संथालपरगना जिलान्तर्गत सरकण्डा-गोड्डा में दिनांक 25.3.1961 ई0 को वार्षिक अधिवेशन के सत्संग में हुआ था।
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168. देश में शान्ति कैसे आएगी
प्यारे लोगो!
 संत कबीर साहब ने कहा है-
 चाह गई चिन्ता मिटी, मनुवाँ बेपरवाह ।
 जाको कछु न चाहिए, सोई शाहंशाह ।।
 जब इच्छा की निवृत्ति हो जाती है, तब चिन्ता चली जाती है और मन बेपरवाह हो जाता है, निडर हो जाता है। उस निडर मन को भी जो काबू कर लेता है, वही हो जाता है राजाओं का राजा।
 जो इच्छावाला होता है-यह चाहिए, वह चाहिए, आराम से नहीं रहता है। जो इच्छाओं को त्याग देता है, उसको कोई डर नहीं रहता है। यह कैसे होगा? यह होता है बाहर के सत्संग और अंतर के सत्संग द्वारा।
 ईश्वर-संबंधी कथा बाहर का सत्संग है। ईश्वर से मिलने का जो यत्न है, उस यत्न को पाकर जो कोशिश करता है, वह मन को भी जीत लेता है। मन मण्डल को पार कर लेता है। यह है अंदर का सत्संग। इन दोनों तरह के सत्संगों से कभी न कभी उस गति को पाता है, जिसके बाद कोई गति नहीं है, वही है परममोक्ष या निर्वाण।
 अध्यात्महीन राजनीति पवित्र दशा में नहीं रहेगी और जिस राजनीति में कुछ भक्ति और अध्यात्मिकता की नीति होगी, वह राजनीति पवित्र रहेगी और बहुत दिनों तक रहेगी।
 हमारे देश के अध्यात्म-ज्ञान को विदेश में प्रचार करने के लिए दो तो प्रसिद्ध महात्मा हुए हैं, एक स्वामी विवेकानंद, दूसरे स्वामी रामतीर्थ। स्वामी रामतीर्थ कुछ दिन गृहस्थाश्रम में भी रहे। फिर उनको ऐसे गुरु मिल गए, जिन्होंने उनसे कहा कि विद्या तो आपकी बड़ी है, इसमें आध्यात्मिकता मिला दीजिए तो सब कुछ मिल जाएगा। स्वामी रामतीर्थ पहले गए जापान, फिर गए अमेरिका ‘युनाइटेड स्टेट्स’ में। वहाँ विद्या भी बहुत है और धन भी बहुत है। उत्तरी अमेरिका-सबसे उत्तरी भाग को कनाडा कहते हैं। वहाँ मित्र राज्य होगा। इसीलिए उसको युनाईटेड स्टेट्स कहते हैं। वहाँ धन बहुत है, लेकिन शान्ति नहीं है।
 भारत कहता है मन को काबू करो, शान्ति आएगी। जाग्रत में मन काबू में नहीं है, स्वप्न में मन काबू में नहीं है। गहरी यह नींद में केवल श्वास चलता है और कुछ मालूम नहीं होता। इसमें कुछ शान्ति में तो सोते हैं, लेकिन गहरी नींद सदा रहती नहीं। फिर सुषुप्ति से जाग्रत की अवस्था में आते हैं और शान्ति नहीं पाते हैं। जिन लोगों ने साधन किया, वे लोग कहते हैं कि तुरीयावस्था में चलो। फिर तुरीयातीतावस्था में चलो। यह काम रेल- गाड़ी और हवाई जहाज पर चलने से नहीं होगा। अंदर-अंदर चलने से होगा। इसका यत्न गुरु बताएँगे। गुरु के प्रति श्रद्धा हमारे देश में बहुत है। गुरु में, सच्छास्त्र में विश्वास-श्रद्धा है। गुरु के वचन में, माता-पिता के वचन में श्रद्धा होनी चाहिए। इसीलिए कहा गया है- ‘प्रथम गुरु है माता पिता....।’
 जो दोनों तरहों से सत्संग करते हैं, उनकी मन पर कभी-न-कभी विजय अवश्य होती है। इस दुनिया से निकल जाने के वास्ते, परलोक से भी निकल जाने के वास्ते तुरीयावस्था में चलना होता है। इसके भी परे तुरीयातीतावस्था में चलना होता है। तभी जीवन-मुक्ति की दशा होती है। जिनको जीवन-मुक्ति की दशा होती है, वे अपने से अपने को जानते हैं, ईश्वर को भी जान लेते हैं, उनको जानने के लिए कुछ बाकी नहीं रह जाता है। इसीलिए साधन करना चाहिए; भक्ति करनी चाहिए। भक्ति के बीज का नाश नहीं होता है। संत कबीर साहब ने कहा है-
 भक्ति बीज बिनसै नहीं, जो जुग जाय अनंत ।
 ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।।
 भक्ति बीज पलटे नहीं, आय पड़ै जो चोल ।
 कंचन जौ ं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।
 यही जानकर साधन-भजन सीखना चाहिए। माता-पिता का आदर करना चाहिए। सिखलानेवाले गुरुओं का भी आदर करना चाहिए। इनके संग में क्या मिलता है?
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहि पाई।।
सो जानब सत्संग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ।।
इस तरह वे जीवनमुक्त हो जाते हैं।
जीवत मुक्त सो मुक्ता हो ।
जब लगि जीवन मुक्ता नाहीं, तब लग दुख सुख भुक्ता हो।
 जो जीवन-मुक्त हो जाते हैं, उनका संसार में आने-जाने का काम बंद हो जाता है। यही हमलोगों
को करना चाहिए।
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यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत ग्राम-मिर्जापुर, कटिहार में दिनांक 19.10.1961 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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