151. कर्म-धर्म से छूटने का उपाय
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
ईश्वर संसार के सभी पदार्थों के कण-कण में भरा हुआ है और उसके बाहर भी है। वह इतना व्यापक है कि आप उससे कहीं अलग नहीं हो सकते। ऐसा इसलिए दृढ़ता के साथ कहा जाता है कि एक अनादि-अनन्त तत्त्व की स्थिति अवश्य है। सबको सादि और सान्त मानने से बुद्धि को संतोष नहीं होता है। सब सान्तों के परे क्या है? अगर पूछो कि सब सान्तों के परे का प्रश्न क्यों? इसलिए कि सब सान्त, सान्त मिलकर अनन्त कभी नहीं होगा। इसलिए सब सादि-सान्त के परे क्या है? यह प्रश्न होगा ही। सादि-सान्त के परे अनादि-अनन्त कहे बिना संतोष नहीं। अनादि-अनन्त तत्त्व को ही संतों ने ईश्वर कहा है। इसी का वर्णन वेद, उपनिषद् और संतवाणी में है। गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
अलख अपार अगम अगोचरि ना तिसु काल न करमा ।
वह अपार कहते हैं, वह परमतत्त्व है। परमार्थ स्वरूप है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
‘राम ब्रह्म परमारथ रूपा।अविगत अलख अनादि अनूपा।।
सकल विकार रहित गत भेदा।कहि नित नेति निरूपहिं वेदा।।’
‘है सबमें सबही तें न्यारा ।
जीव जन्तु जल थल सबही में,शब्द वियापत बोलनहारा।।
सबके निकट दूर सबही तें, जिन जैसा मन कीन्ह विचारा।।’
-संत कबीर साहब
अर्थात् परमात्मा सबमें होकर उतना ही है, ऐसा नहीं, उससे बाहर भी है। सब लोग एक ही बात कहते हैं। बुद्धि के विचार से भी ठीक ही है। गुरु महाराज कहते थे कि-‘गुरु-वाक्य हो, सद्ग्रन्थ-वचन हो और विचार का मेल हो; तो उस पर पूरा विश्वास कर लो। परमात्मा को अनन्त- अनादि मानने के लिए संतों की वाणियाँ आज्ञा देती हैं। समझने पर मालूम भी होता है कि ठीक है। यदि सब सान्त-ही-सान्त हां, तो सब सान्तों को मिलाकर अनन्त नहीं हो सकता। अनन्त तत्त्व से अधिक व्यापक और कुछ हो, कहना, बालक जैसे कहना है। सबसे विशेष व्यापक ईश्वर वा परमात्मा ही है और एक-ही-एक है। व्यापकता में क्या गुण होता है, देखो। एक सेर बर्फ जितनी दूर में व्यापक होगा, उसका पानी बना लेने पर वह उससे अधिक व्यापक होगा। फिर उस पानी का वाष्प बना लिया जाय तो वह और भी उससे विशेष व्यापक होगा। अर्थ यह हुआ कि सूक्ष्मता में व्यापकता अधिक होती है। जो सबसे अधिक व्यापक होता है, वह सबसे अधिक सूक्ष्म भी होता है। बुद्धिमान को इसके मानने में कोई कसर नहीं होनी चाहिए। जो सबसे विशेष सूक्ष्म है, उसको स्थूल यंत्र से कैसे ग्रहण कर सकते हैं? जैसे छोटी घड़ी के महीन कल-पुर्जों को पकड़ने के लिए, बड़ी घड़ी के कल- पूर्जों को पकड़नेवाला यंत्र सदा अयोग्य रहता है।
परमात्मा सबसे अधिक व्यापक है, इसलिए सबसे अधिक सूक्ष्म है। हमारी सभी इन्द्रियाँ स्थूल- ही-स्थूल हैं। स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण होना असम्भव है। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार भी परमात्मा के सम्मुख अत्यन्त स्थूल हैं। इसलिए-
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
‘बुद्धि पर’ कहो चाहे ‘अगम’, एक ही बात है। परमात्मा ऐसा है कि वह बाहर वा अन्दर की किसी भी इन्द्री से ग्रहण होने योग्य नहीं है। तब किससे ग्रहण होने योग्य है? शरीर, इन्द्रियों के अतिरिक्त आप स्वयं उनमें रहते हैं। इसी से ग्रहण होने योग्य है। जैसे दूध के मथे जाने पर मक्खन अलग हो जाता है, उसी तरह ध्यान के मन्थन से चेतन आत्मा शरीर और इन्द्रियों से अलग हो जाती है। जैसे कोई पूछे कि रूप क्या है? जो आँख से ग्रहण हो। शब्द क्या है? जो कान से ग्रहण हो। ईश्वर क्या है? जो तुम अपने से ग्रहण कर सको। नौकर-चाकर का साथ लेकर नहीं। हाथ-पैर आदि नौकर-चाकर हैं। किसी आवरण में रहकर उसको प्राप्त नहीं कर सकते। इन सबसे अपने को छुड़ा लो, फिर परमात्मा तुम्हारी पहचान से बाहर नहीं रह सकेंगे। जिसको आप स्वयं ग्रहणकर सको, वह है परमात्मा।
जिस काम को करते-करते ईश्वर की प्राप्ति होती है, वही काम ईश्वर की भक्ति है। यह कैसे होगी? कबीर साहब ने कहा है-‘संतो भक्ति सतोगुर आनी.....’। यह अपरा भक्ति नहीं है, परा भक्ति है।
यह भक्ति ऐसी नहीं है कि ईश्वर को यहाँ बुलाओ। यह भक्ति वह है कि चलो ईश्वर के पास। दो तरह के ख्याल होते हैं। पहला कहते हैं कि ईश्वर को यहीं बुलावेंगे। ठीक है। बहुतों को दर्शन हुआ भी है। लेकिन यह इन्द्रियों के ज्ञान में हुआ। हाथ से पैर पकड़ा आदि। रूप का दर्शन हुआ, रूप धारण करनेवाले का दर्शन नहीं हुआ। गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते-लिखते यह भी लिख गए-
भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
यथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव देखावइ, आपु न होइ न सोइ ।।
भगवान श्रीराम के समय में कितनों ने कितने रूपों में उन्हें देखा। सभी ने अपनी-अपनी भावनाओं के अनुरूप देखा। भगवान श्रीकृष्ण को अर्जुन ने अपने सखा रूप में देखा। वसुदेवजी ने पुत्र के रूप में देखा। अर्जुन को भगवान का गहरा संग था। उनको विराट् रूप का भी दर्शन हुआ। भगवान ने जैसा कहा, अर्जुन ने वैसा किया। फिर यह कि ‘सब धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जा’ यह क्या? अर्जुन तो उनकी शरण में था ही।
श्रीराम का भी ऐसा ही दर्शन लोगों को हुआ। लेकिन श्रीराम कहते ही रह गए कि ऐसा और वैसा करो। ‘एहि तन कर फल विषय न भाई’ अर्थात् समझ लो कि एहि तन कर फल निर्विषय भाई।’ जब तक इन्द्रिय-ज्ञान से ऊपर नहीं उठो, विषयों से नहीं छूट सकते। अपने ऊपर इन्द्रियों का मायिक रंगीन चश्मा है, इसको उतार दो और शरीर की पट्टी लगी है, इसको भी उतारो। विवेकानन्द स्वामी ने कहा था कि अपनी दृष्टि को अन्दर करो। अपने को शरीर- इन्द्रियों से ऊपर उठाओ। ब्रह्मानन्द स्वामी ने कहा है-
जिमि दूध के मथन से, निकसत है घी जतन से ।
तिमि ध्यान के लगन से, परब्रह्म ले निहारा ।। यह बड़ा उत्तम शब्द है। ऐसा नहीं कि भगवान यहाँ आकर दर्शन देंगे। रूप नाशवान है। यहाँ आकर किसी रूप में ही दर्शन देंगे। रूप में जो आए, उनकी तो पहचान नहीं हुई। श्रीराम, श्रीकृष्ण, विष्णु भगवान, शिव बाबा, काली माई का प्रत्यक्ष दर्शन लोगों ने किया। लेकिन दर्शन देने पर भी वे कहते थे कि यह काम करो और वह काम करो। तब तो श्री कृष्ण भगवान ने कहा-‘सब धर्मों को छोड़ो’ कर्म छूटने से ही धर्म छूट सकता है। सुकर्म करनेवाले को धर्मी और कुकर्म करनेवाले को अधर्मी कहते हैं। लोगों से कुछ-न-कुछ कर्म होगा ही। तुलसी साहब कहते हैं-
आली अधर धार निहार निजकै ।निकरि सिखर चढ़ावहीं ।।
जहाँ गगन गंगा सुरति जमुना। जतन धार बहावहीं ।।
जहाँ पदम प्रेम प्रयाग सुरसरि । धुर गुरू गति गावहीं ।।
जहाँ संत आस विलास बेनी। विमल अजब अन्हावहीं ।।
कृत कुमति काग सुभाग कलिमल। कर्म धोय बहावहीं ।।
इस मिलाप को ही वेनी-त्रिवेणी कहते हैं। संतलोग यहीं पर स्नान करते हैं और जो शुभ- अशुभ कर्म हैं, वे सभी धुल जाते हैं। ध्यानशील ही को ऐसा होता है। ध्यान में ऐसा होता है कि जैसे तन्द्रा में स्वाभाविक चाल होती है, वैसे ही ध्यान के द्वारा मानसधार वा चेतनधार का सिमटाव होता है। सिमटाव होने से इन्द्रियाँ शक्तिहीन हो जाती हैं और तब सभी कर्म छूट जाते हैं। इसके लिए योग्य गुरु और श्रद्धा सहित उनकी सेवा अत्यन्त अपेक्षित है। कबीर साहब ने कहा है-
सत्त नाम के पटतरे, देवे को कछु नाहिं ।
क्या लै गुरु संतोषिये, हवश रही मन माहिं ।।
मन दीया तिन सब दिया, मन के लार शरीर ।
अब देवे को कछु नहीं, यों कथि कहै कबीर ।।
फिर चेताने के लिए उन्होंने कहा-
तन मन दिया तो भल किया, सिर का जासी भार ।
कबहुँ कहै कि मैं दिया, घनी सहैगा मार ।।
तनमन दिया तो क्या हुआ, निजमन दिया न जाय ।
कह कबीर ता दास से, कैसे मन पतियाय ।।
तनमन दीया आपना, निजमन ताके संग ।
कह कबीर निर्भय भया, सुन सतगुरु परसंग ।।
मन दो तरह के होते हैं-तनमन और निजमन। जब तक मन शरीर-मुखी है, तन-मन है। मन का सिमटाव हो जाय, तो वह आत्म-मुखी हो जायेगा।
इस तन में मन कहाँ बसत है, निकस जाय केहि ठौर ।
गुरु गम है तो परखि ले, ना तर कर गुरु और ।।
नैनों माहीं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर ।
गुरुगम भेद बताइया, सब सन्तन्ह सिर मौर ।।
जब मन की धार सिमटकर केन्द्र में केन्द्रित हो जाय, तब निज-मन और जब तक सिमटाव नहीं हुआ है, तबतक तन-मन कहते हैं। शरीर से जो सेवा की जाती है, उसको तन-मन की सेवा कहते हैं और ध्यान में मन का सिमटाव कर केन्द्रित करना निज-मन की सेवा है।
आप कहेंगे कि हठयोग- प्राणायाम का कुछ नहीं बताया। एक बार सन् 1934 ई0 में योगिवर श्रीभूपेन्द्रनाथ सान्याल महोदयजी से इस विषय पर बातचीत हुई थी। मैंने पूछा था कि ‘प्राणायाम करके ध्यानाभ्यास किया जाय वा केवल ध्यानाभ्यास?’ सान्याल जी ने कहा-‘पहले प्राणायाम, बाद को ध्यानाभ्यास।’ मैंने कहा-श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में जहाँ वर्णन है कि इस तरह की भूमि पर, अमुक-अमुक आसनी बिछाकर, अमुक भाँति बैठकर अमुक भाँति से ध्यान करे; वहाँ तो प्राणायाम का कुछ भी जिक्र नहीं है। इस पर उन्होंने कहा- ‘ध्यानाभ्यास करने से भी प्राणस्पन्दन रुकता है तो प्राणायाम हो गया।’ फिर उन्होंने कहा-‘जैसे दूध में मक्खन होता है, वैसे ही वायु में प्राण है। वायु, प्राण नहीं है।’ शाण्डिल्योपनिषद् में है कि बिना प्राणायाम किए ध्यान करने से प्राणस्पनदन रुकता है-
द्वादशांगुल पर्यन्ते नासाग्रे विमलेम्बरे ।
संविद्द्वशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।।
अर्थात् सुरत, चेतन-वृत्ति नासाग्र से बारह अंगुल पर स्वच्छ आकाश में स्थिर हो तो प्राण का स्पन्दन रुद्ध हो जाता है।
गीता में वर्णन है कि अभ्यास से ज्ञान, ज्ञान से ध्यान और ध्यान से कर्मफल-त्याग विशेष है। ‘अभ्यास’ शब्द यहाँ प्राणायाम-योग के लिए ही आया है। केवल कहने से कर्मफल का त्याग नहीं होता। ध्यान-योग सबके लिए बहुत बढ़िया चीज है, चाहे आप विद्वान हों या अविद्वान, गीता में जहाँ ध्यान-योग है, उस अध्याय में प्राणायाम का कुछ भी वर्णन नहीं आया है। ‘ध्यानं निर्विषयं मनः’-इसको ध्यान कहते हैं।
उद्धव जी ने श्रीकृष्णजी से पूछा कि आपका ध्यान कैसे करूँ? तो बताया कि पहले मेरे सम्पूर्ण रूप का, फिर चेहरे का और फिर शून्य में ध्यान करो। रामचरितमानस में काकभुशुण्डिजी के ध्यान- अभ्यास की चर्चा इस भाँति है-
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई ।जाप यज्ञ पाकरि तर करई ।।
आम छाँह कर मानस पूजा।तजि हरि भजन काज नहिं दूजा।।
बटतर कह हरि कथा प्रसंगा।आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा।।
मानस पूजा और ध्यान का अलग-अलग वर्णन किया है। स्थान बदल देते हैं-‘पीपर तरु तर ध्यान’ और ‘आम छाँह कर मानस पूजा’। मानस- पूजा से ध्यान के लिए शक्ति होती है। गुरु नानकदेवजी के वचन में है-
गुरु की मूरति मनमहिं धिआनु ।गुरु कै शबद मंत्र मन मानु ।।
संत कबीर साहब कहते हैं-
मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सत् भाव ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी का कथन है-
श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि ।
वरणौं रघुवर विमल यश, जो दायक फल चारि ।।
गो0 तुलसीदासजी कहते-कहते यहाँ तक कह गए कि-तुम्ह तें अधिक गुरुहिं जिय जानी ।
सकल भायँ सेवहिं सनमानी ।।
यह स्थूल ध्यान है। यहाँ से अभ्यास का आरम्भ है। इससे भी सिमटाव होता है, किन्तु कुछ विस्तार रहता है, पूर्ण सिमटाव नहीं होता है। इसलिए इससे आगे बढ़ो। साधक को भ्रम होता है कि इसमें हमारा इष्ट छूट जाएगा। किन्तु ईश्वर सबमें है। ‘अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा वसत....’। वह किसी एक ही स्थूल वा सूक्ष्म में नहीं रहता, सबमें रहता है। आप कई पोशाक पहनते हैं तो क्या आप बदल जाते हैं-दूसरे हो जाते हैं? उसी तरह इष्ट का स्थूल रूप छूटा, पर उसका सूक्ष्म रूप तो रहेगा ही। फिर यहाँ से भी आगे बढ़ने को संतों ने कहा। सूक्ष्म रूप क्या है? गीता, 8/9 में कहा गया है-
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।। इसी अणु रूप को ‘परम विन्दु’ कहा है। ‘बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम्’-ध्यान- विन्दूपनिषद्। परिभाषा के अनुकूल विन्दु वह है जिसका स्थान है, परिमाण नहीं। इसको मन से नहीं बना सकते। देखने के कौशल से देखो।
श्रीरामकृष्ण परमहंसदेवजी को काली के साथ ऐसा संबंध था, जैसा कि माता के साथ पुत्र का। एक बार दक्षिणेश्वर में तोतापुरी नाम के एक संन्यासी आए। उन्होंने श्री रामकृष्ण परमहंसजी से कहा कि तुम मुझसे दीक्षा ले लो। परमहंसजी ने कहा-जबतक माताजी (काली माई) आज्ञा नहीं देंगी, मैं दीक्षा नहीं ले सकता। फिर वे माताजी (काली माता) के पास आए और लौटकर तोतापुरी जी के पास जाकर बोले कि मुझे दीक्षा दीजिए, श्री माँ की आज्ञा हो गई है। तोतापुरीजी ने उनको ध्यान की क्रिया (दृष्टियोग की क्रिया) बतलाई। जब वे ध्यान करने लगते तो कालीजी की मूर्ति उनके सम्मुख आ जाती। परमहंसजी ने कहा-बहुत चेष्टा करेने पर भी ध्यान नहीं हो पाता है, माँ की मूर्त्ति सामने आ जाती है। तोता- पुरीजी वहीं बरामदे पर टहल रहे थे, उन्होंने कहा- नहीं होगा? जरूर होगा। टहलते हुए उनकी दृष्टि काँच के एक टुकड़े पर पड़ी, उन्होंने उक्त शीशे के टुकड़े को उठा लिया और परमहंसजी के भ्रुवोर्मध्य में बिन्ध कर कहा कि यहाँ ध्यान करो। ऐसा करते ही परमहंसजी का ध्यान ठीक-ठीक जम गया।
रूप के बदलने से रूप का धारण करनेवाला नहीं बदलता। जो इस ज्ञान में नहीं रंगा है, उसको साम्प्रदायिक खैंच होती है। आपको जिसमें श्रद्धा हो, उसका ध्यान कीजिए। कोई राम का, कोई कृष्ण का, कोई शिव का, कोई अल्लाह का और कोई अलिफ को बनाकर ध्यान करते हैं। पहले जप करो, फिर ध्यान करो। जब कोई चित्तवृत्ति का निरोध प्राणायाम द्वारा करते हैं और कोई मन को एकओर करने का काम केवल ध्यान द्वारा करते हैं, तो ध्यान-योग से साधन करने में कोई भय और आपदा नहीं है। हाँ, मस्तिष्क पर कुछ जोर अवश्य पड़ता है, फेफड़े को कोई हानि नहीं होती। निज-मन द्वारा भजन होता है और निज-मन के ही स्थान से ईश्वर की ओर का मार्ग पकड़ा जाता है।
भक्ति का मारग झीना रे ।
नहिं अचाह नहिं चाहना, चरणन लौ लीना रे ।।
साधुन के सत्संग में, रहे निसि दिन भीना रे ।
शब्द में सुर्त ऐसे बसे, जैसे जल मीना रे ।।
मान मनी को यों तजे, जस तेली पीना रे ।
दया छिमा संतोष गहि, रहे अति आधीना रे ।।
परमारथ में देत सिर, कछु विलम्ब न कीना रे ।
कहै कबीर मत भक्ति का, परगट कह दीना रे ।।
-कबीर साहब
भगता की चाल निराली।
चाल निराली भगताह केरी विषम मारगि चलणा ।।
लबु लोभु अहंकार तजि त्रिसना, बहुतु नाहीं बोलणा ।
खंनिअहु तीखी बालहु नीकी, एतु मारगि जाणा ।।
गुर परसादी जिनि आपु तजिया, हरि वासना समाणी ।
कहै नानक चाल भगताह केरी, जुगहु जुगु निराली ।।
-गुरु नानकदेव
यदि कहो कि इस सूक्ष्म मार्ग पर कैसे चला जाय? तो जानिये जैसे रास्ता सूक्ष्म है, इस पर चलनेवाला भी बड़ा सूक्ष्म है। तलवार की धार से भी सूक्ष्म है। गोस्वामी तुलसीदासजी का सुनिए-
रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई ।।
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।। इससे मोटी भक्ति सुनिए-
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान।
चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मो तें सन्त अधिक करि लेखा।।
आठवँ यथा लाभ सन्तोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ पर दोषा।।
नवम सरल सब सन छल हीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।।
सिमटाव होने पर अन्तर की ओर सुरत जाती है। कहाँ तक जाती है? ‘अविगत अंत-अंत अन्तर पट’ तक जाती है। दृष्टियोग और शब्दयोग की क्रिया से ऐसा होता है। असली चीज ‘शम’ है। ‘दम’ हो जाने से ‘शम’ भी होगा। मन के साथ इन्द्रियनिग्रह को ‘दम’ और केवल मनोनिग्रह को ‘शम’ कहते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने ‘श’ और ‘स’ में विशेष फर्क नहीं रखा है। यदि ‘सम’ ही लो, तो ‘सम’ का अर्थ ‘समता’ होता है। समता समाधि में होती है। मनोनिग्रह में समाधि होती है। केवल मन का साधन नाद-साधन से होता है। गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
सतिगुरु भेटै ता सहसा तूटै धावतु बरजि रहाईअै ।
निझरु झरै सहज धुनि लागै घरही परचा पाईअै ।।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।
नानक जीवतिआ मरि रहीअै ऐसा जोगु कमाईअै ।
बाजे बाझहु सिं´ी बाजे तउ निरभउ पदु पाईअै ।।
यह शब्द-साधन है। शब्द-साधन में मन का साधन होता है। दृष्टि-साधन में मन-इन्द्री का संग-संग साधन होता है। छठी भक्ति दृष्टि-साधन और सातवीं भक्ति शब्द-साधन है। आठवीं भक्ति में ‘यथा लाभ संतोषा’ हो जाता है। नवमी भक्ति में सबसे सरल और छलहीन होना होता है। श्रीरामकृष्ण परमहंसजी से किसी ने पूछा-सिद्धपुरुष कैसे होते हैं? उन्होंने कहा-‘जैसे आलू-बैंगन की तरकारी मुलायम होती है।’ भक्ति स्थूल से सूक्ष्म तक करो। ईश्वर-स्वरूप को जानो कि जो इन्द्रियगम्य नहीं है, आत्मगम्य है। ईश्वर क्या है? इसका उत्तर है- जिसको अपनी चेतन आत्मा से ग्रहण कर सको। संतों ने मरने के बाद की मुक्ति को नहीं माना है।
जीवत मुक्त सोइ मुक्ता हो।
जबलग जीवन मुक्ता नाहीं, तबलग दुख सुख भुगता हो।
-संत कबीर साहब
जीवत छूटै देह गुण, जीवत मुक्ता होइ ।
जीवत काटै कर्म सब, मुकति कहावै सोई ।।
मूआँ पीछैं मुकति बतावैं, मूआँ पीछैं मेला ।
मूआँ पीछै अमर अभै पद, दादू भूले गहिला ।।
-संत दादू दयाल
लहहिं चारि फल अछत तनु, साधु समाज प्रयाग ।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
योगशिखोपनिषद् में लिखा है-
पिण्डपातेन या मुक्तिः सा मुक्तिर्नतु मन्यते ।
देहे ब्रह्मत्वमायाते जलानां सैन्धवं यथा ।
अनन्यतां यदा याति तदा मुक्तः स उच्यते ।।
अर्थात् देह छूटने पर जो मुक्ति होती है, वह मुक्ति नहीं है, जिस प्रकार नमक जल में घुलकर एक हो जाता है, इस तरह जब जीव ब्रह्मत्व को प्राप्त कर उससे अन्य नहीं रह जाता, तब मुक्ति होती है। ईश्वर- भजन कीजिए। सदाचार का पालन कीजिए।
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यह प्रवचन 52वाँ महाधिवेशन सिकलीगढ़ धरहरा, पूर्णियाँ में दिनांक 6.3.1960 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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