147. आगे के जीवन का प्रबन्ध
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 आपलोगों का यह सत्संग-भवन है। यहाँ मैं बहुत बार आया हूँ। यहाँ आने पर मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है, जब आपलोग मुझे यहाँ सत्संग हेतु बुलाते हैं। मैं प्रत्येक वर्ष यहाँ आता हूँ। शायद ही कोई वर्ष छूटा हो। मैं चाहता हूँ, अपना देश यानी भारत धर्म में मजबूत हो। मुझे विश्वास है कि सत्संग के प्रचार से देश के लोग धर्म में मजबूत होंगे। इसीलिए सब लोगों के लिए तथा आपलोगों के लिए सत्संग अत्यन्त अपेक्षित है। इस सत्संग का लक्ष्य है कि सारी जनता को भली बना दो। जनता भली बनेगी तब, जब लोगों का आचरण अच्छा हो।
 लोगों में यह विश्वास है कि बहुत विद्या पढ़ने से लोग भले बनते हैं। परन्तु बहुत विद्या पढ़ने पर भी उनकी विद्या अविद्या बन जाती है। काम- क्रोधादि विकार जबतक उनके मन में हैं, तबतक विद्या अविद्या बनी रहती है। जिस विद्या से दुर्गुणों से बचा जाय, वही विद्या असली विद्या है। विद्या धर्म की रक्षा के वास्ते है। दुनियाँ में केवल कमाकर खाने के लिए विद्या नहीं है। अपने देश में साधु-सन्त, महात्मा बहुत हुए हैं। आचरण पवित्र होने के कारण ही वे लोग महान् हुए हैं। पढ़े-लिखे लोग भी अच्छे होते हैं। परन्तु आचरण की पवित्रता केवल विद्या पढने से ही नहीं होती है। इस युग का नमूना किसी से छिपा नहीं है। असली विद्या यह है कि साधु-सन्तों के पास जाकर उनके सत्संग से अध्यात्म-विद्या को ग्रहण करना। अध्यात्म-विद्या में संसार के प्रबन्ध के साथ-साथ ईश्वर-भक्ति की मुख्यता रहती है। शरीर में रहते हुए-संसार का प्रबन्ध कैसे किया जाय, यह भी शिक्षा मिलती है। केवल वर्तमान शरीर के लिए प्रबन्ध करो, सो नहीं। इसके आगे के जीवन का कोई प्रबन्ध नहीं किया तो कहाँ चले जाओगे, तुमको मालूम नहीं है। दुःख में जाना कोई पसन्द नहीं करते। यदि पहले इसका ख्याल नहीं किया कि शरीर छूटने के बाद भी जीवन रहता है, जिसे सुखी बनाना है। एक शरीर छूटने के बाद का बहुत लम्बा जीवन है जीवात्मा का। यह ज्ञान साधु-सन्तों के सत्संग में सिखलाया जाता है। यदि आगे के जीवन का प्रबन्ध नहीं करते हो, तो अपनी बहुत हानि करते हो। आगे का जो लम्बा जीवन है, उसके शुभ के लिए प्रबन्ध यह है कि ईश्वर का भजन करो। ईश्वर के भजन से तुमको शरीर छूटने के बाद भी सुख होगा। विद्या बहुत पढ़ोगे, लेकिन ईश्वर का भजन नहीं करोगे तो, उतना लाभ नहीं होगा।
 संसार में अपने आचरण को सम्भाल कर चलो। ईश्वर के भजन में पाप-भाव मन में रखने से भजन नहीं बनता। दुनियाँ में कमा-खाकर रहने में लोग पाप-पुण्य पर नहीं सोचते। इसका विचार नहीं करनेवाले को आगे दुःख भोगना पड़ता है। ईश्वर के भजन में ऐसी बात नहीं। उसमें पाप से छूटना पड़ता है। इसलिए ईश्वर का भजन करो। भजन में आज-कल मत करो। संत कबीर साहब ने बड़ा अच्छा कहा है-
    आज कहै मैं काल्ह भजूँगा, काल्ह कहै फिर काल ।
    आज काल्ह के करत ही, औसर जासी चाल ।।
 ईश्वर के भजन के लिए पहले भजन को समझो। संसार में रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श ये पाँच पदार्थ हैं। इन पाँचों में से कोई ईश्वर नहीं। इन पाँचों को पहचानते रहोगे तो ईश्वर का दर्शन नहीं होगा। चाहे अद्भुत वा दिव्य शरीर हो या साधारण शरीर हो, सबमें ये पाँचों पदार्थ रहते हैं। इन पाँचों का समूह जहाँ हो, वहाँ समझो ईश्वर नहीं हैं। ईश्वर तो सबमें हैं, लेकिन किसी की तरह वे नहीं होते। पंच विषयों को पहचानने के लिए पंच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। इन इन्द्रियों से जो तुम जानते हो, वे ईश्वर नहीं हैं। ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के अलावा मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार; ये चार अन्तः- करण हैं, इन सबों से युक्त जो कुछ तुम देखते हो, वह ईश्वर नहीं है। इन सबों के अतिरिक्त तुम अपने स्वयं हो। शरीर में तुम रहते हो। शरीर में रहते हुए तुम इससे विलक्षण हो। शरीर के साथ वाले ज्ञान को छोड़कर अपने आप में जो ज्ञान हो उसी ज्ञान में तुम ईश्वर को पहचानोगे। इन बातों को ठीक से याद रखो। तुम्हारा निजी ज्ञान क्या है? शरीर-इन्द्रियों से छूटकर निजी ज्ञान में जो पहचानोगे, वही ईश्वर है। ऐसा भजन करो कि ईश्वर को पहचान सको। इन्द्रियों के ज्ञान से अपने को हटा लो। ऐसा करने से ईश्वर की ओर जाओगे। इसके लिए बाहर जाने की जरूरत नहीं, अपने अन्दर जाना होगा। बाहर-बाहर जाना छोड़ दो। जो अपने को अपने में समेटता है, वह ईश्वर की ओर जाता है। अपने को अपने अन्दर समेटो, इसी के लिए यह सत्संग है।
 बाहरी चीजें जो कुछ ईश्वर को चढ़ाते हैं, उनमें अपना भाव रखते हैं। ईश्वर-दर्शन करो, सारा दुःख भाग जाएगा। जैसे आग के नजदीक जाने से जाड़ा भाग जाता है। इसीलिए ईश्वर का भजन करो। चाहे तुम पढ़े हो या अनपढ़। अपने को पाप से बचाओ। ईश्वर का भजन करके मनुष्य-देह को सफल करो। ईश्वर का भजन जो थोड़ा भी करता है, वह महाभय से बचता है। महाभय यह है कि मनुष्य-शरीर के अलावा दूसरी योनि में जाना। जो अपने को पापों से बचाता हुआ संसार में रहता है, वह अपने को भला बनाकर रहता है। तुम्हारे रहने का घर कितना भी मजबूत हो, लेकिन वह सब दिन के लिए नहीं है। लेकिन सत्संग का घर सब दिन के लिए है, इसलिए यह घर मजबूत बन जाय। यहाँ समय-समय पर बैठकर भजन करो और लोगों को बुलाकर सत्संग भी करो, जैसे मुझे बुलाकर सत्संग करते हो।
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यह प्रवचन भागलपुर नगर के सिकन्दरपुर महल्ला में दिनांक 2. 1. 1960 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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148. विद्या ददाति विनयम्
 मेरी सुरत सुहागिनी जाग री ।।
 क्या तुम सोवत मोह नींद में, उठि के भजनियाँ में लाग री ।
 चित से शब्द सुनो सरवन दे, उठत मधुर धुन राग री ।।
 दोउ कर जोड़ि शीश चरणन दे, भक्ति अचल वर माँग री ।
 कहै कबीर सुनो भाई साधो, जगत पीठ दै भाग री ।।
                                                                               -सन्त कबीर साहब
प्यारे लोगो!
 हमलोग बचपन से जो कुछ सीखे, लिखे और पढ़े हैं, उसका तरीका यह था कि प्रथम एक ही पाठ को हम बारम्बार दुहराते थे। जब उसे कण्ठस्थ कर लेते थे, तब दूसरे पाठ में फँसते थे, ऐसा होता था। शनिवार को सब पाठ दुहरा जाते थे, उस दिन नया पाठ नहीं मिलता था; पुराने पाठों को दुहराया जाता था। पुराना पाठ नहीं दुहराने से भूल जाते हैं। भगवान् बुद्ध ने कहा-
 असज्झाय मला मन्ता अनुट्ठानमला घरा ।
 मलं वण्णस्स कोसज्जं पमादो रक्खतो मलं ।।
                                          -धम्मपद, मलबग्गो
 अर्थात् पाठ न करना मंत्र का मैल है, मंत्र- स्मरण के लिए न दुहराना धब्बा है। झाड़-बुहार न करना घर का मैल है, आलस्य सौन्दर्य का मैल है, असावधानी पहरेदार का मैल है।
 जिन पाठों को हमने बारम्बार दुहराया है, उनको नहीं भूले हैं और जिन पाठों को बारम्बार नहीं दुहराया है, भूल गए हैं। वार्षिक सत्संग में यही होता है। यानी पाठों को दुहराया जाता है। लोग कहेंगे कि यह पाठ पहले भी हो गया है, लेकिन दुहराया इसलिए जाता है कि हम न भूलें। दूसरी बात यह है कि जिस विषय को बारम्बार पढ़ो, सुनो और समझो, तो मन उस ओर झुक जाता है, दूसरी ओर नहीं जाता है। किसी विषय को बारम्बार दुहराना अच्छा है कि उसको भूलें नहीं।
 हमारा विषय क्या है? हमारा विषय है कि यह मनुष्य-जीवन सब जीवों के जीवन से उत्तम है। विचार से यही सिद्ध होता है और जाना भी यही है। लेकिन हम जैसा सुख चाहते हैं, वैसा नहीं मिलता है। दैहिक, दैविक, भौतिक और मानसिक-दुःख होते ही रहते हैं। इसलिए अशान्ति रहती है। इस अशान्ति से कैसे बचें? यही हमारा विषय है।
 जिन्होंने इसका खूब मनन किया, उन्होंने जो कुछ कहा, उसी को हमलोग दुहराया करते हैं। साल भर में हमलोग दुहराते हैं। आपस में भेंट होती है, आपस की भेंट से प्रेम बढ़ता है। इसलिए यह वार्षिक सत्संग होता है।
 हमारे यहाँ जो कीर्तन होता है, उसको मीठे स्वर में सुनकर आनन्द होता है; उसका अर्थ भी हम जानें। कबीर साहब का अभी वचन सुना-
 मेरी सुरत सुहागिनी जाग री......।
 संतों ने ‘सुरत’ शब्द का प्रयोग चेतन आत्मा के लिए किया है। कबीर साहब की पुस्तक में ‘सुरत’ शब्द की परिभाषा की गई है-‘आदि सुरत सत् पुरुष तें आई। जीव सोहं बोलिये सो ताई ।।’ आरम्भ में सत्पुरुष-परमात्मा, जिसका कभी अभाव नहीं होता, से यह जीव हुआ है।
ईश्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुखरासी ।।
                           संतवाणी में कहीं ‘सुरत’, कहीं ‘सति’, कहीं ‘सुरति’ आदि का प्रयोग किया है। कबीर साहब कहते हैं- मेरी सुरत सुहागिनी जाग री ।
क्या तुम सोवत मोह नींद में, उठिके भजनियाँ में लाग री ।। सांसारिक सुख मिले, यह लोभ है। इस लोभ के झोरे में संसार के सब लोग हैं। असत्य को सत्य मानते हैं, असत्य को ही सत्य समझकर मानते है कि इसी से हमको सब सुख मिलेंगे-यह मोह है। तुम लोभ,मोह से छूटकर ऊपर उठो। ऐसी अवस्था प्राप्त करो कि संसार-सुख का लोभ तुमको नहीं हो। असत्य जगत, जो सत्य-सा प्रतीत होता है, इस मोह से ऊपर उठकर रहो, यही जागना है। अभी हमलोग जगे हैं; लेकिन मोह-नींद से नहीं जगे हैं। स्वप्न में भी कुछ ऐसा ही व्यापार होता है, जैसा यहाँ। तीसरी अवस्था होती है, उसमें हम अचेत पड़े रहते हैं। अपने चेतनमय-स्वरूप से मूढ़मय-रूप में रहते हैं, ज्ञान कुछ भी नहीं रहता। इसमें रहना भी मोह में रहना है। सुषुप्ति, स्वप्न और जाग्रत सबमें हम मोह में रहते हैं। इन तीनों अवस्थाओं से छूटकर कैसे भागा जाय? और बिना मोह से छूटे सुख-शान्ति भी नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
मोह निसा सब सोवनिहारा। देखिये सपन अनेक प्रकारा।।
एहि जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच वियोगी।।
 अर्थात् अज्ञान की रात में सभी सोनेवाले अनेक प्रकार के स्वप्न देखते हैं। मायात्यागी, सार- तत्त्वदर्शी योगीजन इस संसार-रूप रात में जगते हैं।
 सर्वसाधारण-जन योगी नहीं हैं। इनमें से जो कोई भी योग-अभ्यास करते हैं, योगी होते हैं। जो अपने को तीन अवस्थाओं से परे ले जाते हैं, वे जगते हैं। योगी होने से ऐसा होता है। मोहमुक्त न जाग्रत में, न स्वप्न में और न सुषुप्ति में रहते होंगे। तीन अवस्थाओं से परे होने पर ही लोभ, मोह से छूटे रहते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने एक शब्द में कहा है-
  तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त ।
  मन क्रम वचन अगोचर व्यापक व्याप्य अनंत ।।
 सर्वसाधारण यही जानते हैं कि स्वप्न और गहरी नींद छोड़कर जाग्रत में भजन करो। स्वप्न में भजन हो, यह संभव है; लेकिन सुषुप्ति में भजन नहीं होता। अपना ज्ञान जहाँ रहता है, वहीं शारीरिक वा मानसिक काम होता है। सुषुप्ति में अपना ज्ञान नहीं रहता, वहाँ भजन कैसे होगा? जाग्रत में भजन करो, तो स्वप्न में भी भजन हो सकता है।
 इस तन में मन कहाँ बसै, निकसि जाय केहि ठौर ।
  गुरुगम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और ।।
                                 -कबीर साहब
 कबीर साहब का बहुत बढ़िया हुक्म है-इस शरीर में तुम कहाँ रहते हो, इसको समझो। नहीं जानते हो, तो दूसरा गुरु करो, जो तुम्हें बतावे।
    नैनों माहीं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर ।
      गुरुगम भेद बताइया, सब सन्तन सिर मौर ।।
                                -कबीर साहब
जानिले जानिले सत्त पहचानिले, सुरति साँची बसै दीद दाना।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै, पलक परवीन दिव दृष्टि ताना।। -दरिया साहब बिहारी
 संतलोग कहते हैं कि तुम आँख में रहते हो और नौ द्वारों होकर बाहर विषयों में भागते हो। उनमें लिपटते हो और लोभ, मोह में फँसते हो। जाग्रत, स्वप्न में लोभ, मोह रहता है; सुषुप्ति में कुछ ज्ञान ही नहीं होता। इन तीनों अवस्थाओं से ऊपर उठो। ब्रह्मोपनिषद् में है-
 नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् ।
  सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्निं संस्थितम् ।।
 अर्थात् जीव का वासा जाग्रत् में आँख में, स्वप्न में कण्ठ में, सुषुप्ति में हृदय में और तुरीयावस्था में मूर्द्धा में होता है।
 बिना कण्ठ के बोला नहीं जाता और स्वप्न में बोला जाता है, इसलिए जीव का वासा स्वप्न में कण्ठ में मानने योग्य है। गहरी नींद में श्वास- प्रश्वास लेते हैं। बिना फेफड़े के श्वास-प्रश्वास नहीं ले सकते, इसलिए सुषुप्ति में जीव का वासा हृदय में मानने योग्य है। आँख से ये दोनों स्थान नीचे हैं। यहाँ आते-जाते, अचेतता आती-जाती है। इन तीनों से ऊपर जाओ। इसी को तुलसीदासजी ने कहा-‘तीन अवस्था तजहु.....’। जबतक कोई तीन अवस्थाओं को पार कर चौथी अवस्था में न जाय, जगना नहीं होता। इस अवस्था को जनाने के लिए आध्यात्मिक गुरु होते हैं। जो गुरु यह नहीं बतावे, उस गुरु और उसके शिष्य को क्या मालूम होता है? और यदि गुरु इसका उपदेश कर भी दे और शिष्य करे नहीं, तो उसे क्या लाभ होगा? गुरु से जानो और करो, तब लोभ-मोह से छूटोगे। जबतक जगना नहीं हो, लोभ-मोह से नहीं छूट सकते और जबतक तीन अवस्थाएँ पार नहीं करो, जगना नहीं होगा। अभी तो जगना ही हुआ है, काम बाकी है।
 भारत और नेपाल की सीमा एक है। नेपाल और उसके उत्तर की सीमा अलग है। इस हर एक स्थान की आव-हवा भी अलग-अलग है। इसी तरह अवस्थाएँ हैं। कबीर साहब ने कहा है कि-
   लम्बा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहु मार ।
    कहौ संतो क्यूँ पाइये, दुर्लभ हरि दीदार ।।
 कितनी भी दूर का रास्ता हो, चलते-चलते हम एक दिन निर्दिष्ट स्थान पर जरूर पहुँचेंगे। हमको मन में होता है कि लोभ-मोह की पीड़ा से हम बचें। ‘जाग री मेरी सुरत सुहागिनी.....’ के गर्भ में बहुत-सी बातें हैं। अगर तुम जगते हो, तो चित्त से शब्द सुनो, बिखरी चित्तवृत्ति को जोड़कर सुनो। बिखरी सुरत में ग्रहण-शक्ति कम होती है, सिमटी में अधिक। बिखार = फूटफाट। फूटफाट में शक्ति संचित नहीं रहती। सिमटाव में शक्ति बढ़ती है, यह स्वाभाविक है। चित्तवृत्ति का सिमटाव करके सुनो। तब क्या होगा? कबीर साहब ने कहा- ‘उठत मधुर धुन राग री.....।’
 सोये हुए को जैसे आवाज देकर जगाते हैं। शब्द सुनने से जाग्रत् की अवस्था से ऊपर उठना होगा। इसके लिए साधन करना होगा। केवल विचार-ही-विचार से नहीं होगा कि हम लोभ-मोह से छूट सकें। विचार में समझते हैं कि लोभ-मोह नहीं करना चाहिए, लेकिन मौका आता है और लोभ-मोह पछाड़ देता है। तीन अवस्थाओं से ऊपर उठने का सरल तरीका बताया। इसको कहाँ और कैसे सीखो, तो कहा-‘दोउ कर जोड़ि शीश चरणन दे, भक्ति अचल वर माँग री ।’
 नम्रता से विद्या आती है और विद्या से नम्रता आती है। पहले नम्रता से विद्या सीखते हैं और विद्या सीखकर विशेष नम्र हो जाते हैं। इसलिए कहा गया है कि ‘विद्या ददाति विनयम्।’ व्याकरण के एक पंडित आये थे। वे बड़े नम्र थे। इतने नम्र थे कि उससे विशेष नम्र होना असंभव। वे चूड़ा और गुड़ खाते थे। मैंने कहा कि इन्होंने ‘विद्या ददाति विनयम्’ को पूर्णरूपेण चरितार्थ कर लिया है। उन्होंने अपने को अति सरल बनाया था। नम्रता सीखो। वहाँ तक सीखो, जहाँ इसकी पराकाष्ठा है। और, इच्छा मत रखो। माँगो, तो यही माँगो कि ‘भक्ति अचल वर माँग री।’ यह नहीं कि-
 ऐसी दिवानी दुनियाँ, भक्ति भाव नहिं बूझै जी।।
 कोई आवै तो बेटा माँगै, यही गुसाईं दीजै जी।
 कोई आवै तो दुख का मारा, हमपर कृपा कीजै जी।।
 कोई आवै तो दौलत माँगै, भेंट रुपैया लीजै जी।
 कोई करावे व्याह सगाई, सुनत गुसाईं रीझै जी।।
 साँचे का कोइ गाहक नाहीं, झूठे जक्त पतीजै जी।
 कहै कबीर सुनो भाई साधो, अंधों को क्या कीजै जी।।
                              -संत कबीर साहब
 अन्त में कहा कि ‘जगत पीठ दे भाग री’ अर्थात् संसार की तरफ पीठ करके भाग जाओ। किधर भागो? जिधर भागो, उधर संसार। जैसे मछली की सब तरफ पानी, उसी तरह हमलोग संसार-सागर में पड़े हैं और सब ओर लोभ-मोह है। लोग कहते हैं कि विचार में संसार को नश्वर समझो, संसार से चित्तवृत्ति हट जाएगी। ठीक है, लेकिन पुनः पुनः गिरना क्यों होता है? जबतक इन्द्रियों में चेतन-धार है, विषयों में आसक्ति रहेगी। इन्द्रियों से चेतन- धार सिमट जाय, तो कोई इन्द्रिय, चाहे कर्मेन्द्रिय वा ज्ञानेन्द्रिय हो, काम नहीं कर सकती। चित्तवृत्ति का सिमटाव करके तुरीयावस्था-आँख से ऊपर के स्थान की अवस्था में रहो। जब आप तीनों अवस्थाओं को पार करके रहेंगे, तब संसार से भागना होगा।
 एक व्यक्ति ने बहुत दिन पहले कहा था, कहो साधु! यह क्या बात है?
 नदी किनारे घर करे, करजा कर-कर खाय ।
  करजा वाला माँगन आवे, घुसक नदी में जाय ।।
 जहाँ तुम हो-आँख में, वह नदी का किनारा है। संसार में रहोगे, कर्म करना पड़ेगा। कर्म करने से तुम कर्मफल के भोक्ता बनोगे। कर्मफल-भोग को भोगकर चुकाने के लिए बारम्बार जन्म-मरण के चक्र में रहना होगा। परन्तु आँख के ऊपर से आनेवाली चेतन-धार में डूबने से कर्मफल-भोग को बिना भोगे ही टपा जायगा। यही तात्पर्य है-‘घुसक नदी में जाय।’ और उस धारा में सिमटकर रहने से संसार-ओरता से छूटा जायगा। यह संसार की तरफ पीठ देना है।
 ऐसा साधन करो कि शरीर-ज्ञान से ऊपर उठो, तब तुम लोभ-मोह से छूटोगे। छूटने का यत्न इस पद्य में बता दिया-
 चित से शब्द सुनो सरवन दे, उठत मधुर धुन राग री ।
 इस पद्य के द्वारा इशारे में कह दिया कि अन्तर्नाद को सुनो। बाबा नानक के वचन में आया-
तारा चड़िया लंमा किउ नदरि निहालिआ राम।
सेवक पूर करंमा सतिगुर सबदि दिखालिआ राम।।
गुर सबदि दिखालिआ सचु समालिआ,
   अहिनिसि देखि विचारिआ।
धावतु पंच रहे घरु जाणिआ कामु क्रोध विषु मारिआ।।
अंतरि जोति भई गुरुसाखी चीने राम करंमा।
नानक हउमै मारि पतीणे तारा चड़िया लंमा।।
तथा तुलसी साहब के शब्द में-
 अजब अनार दो बहिश्त के द्वार पै,
    लखै दुरवेश कोई फकीर प्यारा ।
  ऐनि के अधर दो चश्म के बीच में,
    खसम को खोज जहाँ झलक तारा ।।
दरिया साहब (बिहारी) ने कहा-
      ब्रह्म साफ जैसे ध्रुव तारा। परा परद में घटा पसारा।।
 संत लोग तारे का जिक्र करते हैं। झपट कर तारे पर चढ़ गए, गुरु नानक साहब ने कहा। जिसको कबीर साहब ने ‘उठत मधुर धुन राग री’ कहा, उसको गुरु नानक ने-‘सतिगुरु सबदि दिखालिआ राम’ कहा। जैसे बाजों को एक सुर में कस देते हैं, तो सभी की एक ध्वनि निकलती है, वैसे ही सभी संतों की एक ध्वनि है। इसी सामंजस्य का बोध करके हमलोगों का सत्संग-सन्तमत का सत्संग कहलाता है। हमलोगों का सबक बहुत पुराना है, इसको सिहारते रहना चाहिए, जैसा कि मैंने पहले कहा।
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यह प्रवचन श्रीसंतमत सत्संग मन्दिर सिकलीगढ़ धरहरा, पूर्णियाँ में दिनांक 5.3.1960 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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149. सब ससीमों के परे क्या है?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 मैं एक विषय जानता हूँ, वह है-ईश्वर की भक्ति। इसी पर आज कहूँगा, कल कहूँगा, जीवन भर यही विषय कहूँगा। मैंने इस भक्ति के विषय में बहुत पहले से खोज की है। सिलसिले के रूप में 1904 ई0 से खोज की है, उसके पहले की खोज क्रमबद्ध नहीं। आज तक उस खोज में जो पता लगा है, उस पता पर मैं निश्चित रूप से आरूढ़ हो गया हूँ। सबसे पहली बात कि ईश्वर की भक्ति चाहिए, क्यों? मनुष्य कुछ करता है, क्यों? इसका उत्तर है कि अपने को सुखी बनाने के लिए कोई कुछ करता है। चाहे उसका करना गलती या सही तरीके में हो। भक्ति भी इसी तरह देखने योग्य है-वह भी अपने सुख के निमित्त। भक्ति का अर्थ है-सेवा-भजन। कैसी सेवा? ईश्वर के लिए जैसी सेवा होनी चाहिए। ईश्वर की स्थिति है? अवश्य है। ईश्वर ने ऐसा क्यों किया, वैसा क्यों किया? इसको ढूँढने पर ईश्वर की स्थिति सिद्ध नहीं होती। मैं कहता हूँ आप इन बातों को छोड़ दें। आप जो कुछ करते हैं, उसका कारण आपके अतिरिक्त दूसरे कोई ठीक-ठीक जानते हैं? दूसरे लोग अन्दाज करते हैं कि इसलिए वे ऐसा करते हैं। लेकिन ठीक-ठीक कारण तो आप ही जानते हैं। ऐसे क्यों का उत्तर ईश्वर से ही पूछो, वह ठीक-ठीक बतावेगा। कहते हैं कि ईश्वर तो दीखता नहीं, उससे पूछूँ कैसे? ईश्वर को तुम क्या जानते हो? सोचो, संसार में इसके दो भाग हो सकते हैं- एक व्यक्त और दूसरा अव्यक्त। व्यक्त में विश्वास होता है, अव्यक्त में नहीं। अव्यक्त में विश्वास होना असाधारण है। सर्वसाधारण व्यक्त-अव्यक्त नहीं जानते हैं। तो जानना चाहिए कि जो इन्द्रियों को व्यक्त है-गोचर है, वह व्यक्त और जो इन्द्रियगम्य नहीं है, वह अव्यक्त है। तुम अपने को सोचो कि तुम अव्यक्त हो या व्यक्त? तुम स्वयं अव्यक्त हो। यदि तुम कहो कि मैं भी नहीं हूँ, मेरा रहना भी नहीं है तो सोचो कि जाग्रत् से स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में जाते हो, क्या हालत होती है? जाग्रत से स्वप्न में जाने के पहले तन्द्रा होती है। किसी को अल्पकालिक किसी को दीर्घकालिक। तन्दुरुस्त को तन्द्रा और स्वप्न अधिक नहीं होते हैं। पहले तन्द्रा आती है फिर स्वप्न और पीछे सुषुप्ति। तन्द्रा में ऐसा मालूम होता है कि मैं कुछ बाहर का जानता भी हूँ और भूलता भी जाता हूँ। होते-होते ऐसा होता है कि बाहर का जानना बिल्कुल बन्द हो जाता है और मानसिक भावनाएँ स्वप्न में दीखने लगती हैं। तन्द्रा को अधनिनियाँ भी कहते हैं। उसमें देखते हैं कि हाथ-पैर कमजोर होते जाते हैं। होते-होते स्वप्न में चले जाते हैं। किसी के मुँह में मिश्री का टुकड़ा हो और वह सपनावे कि मैं नीम खाता हूँ तो उसको मिश्री का नहीं, नीम का स्वाद मालूम होने लगेगा। जब आप सोने लगते हैं, तब अन्दर-ही-अन्दर एक चाल होती है-बाहर से भीतर की ओर। अन्दर में चलने के लिए एक स्वाभाविक चाल होती है। अब विचारो कि अन्दर-अन्दर चलनेवाला तुम हो कि तुम शरीर हो? स्वाभाविक चाल जो अन्दर-अन्दर होती है-जाग्रत से स्वप्न में जाने की, वह व्यक्त है या अव्यक्त? फूल आँख के लिए व्यक्त है, गन्ध अव्यक्त है, वह केवल नाक के लिए व्यक्त है। कान न देख सकती है, आँख न सुन सकती है। एक इन्द्री के लिए एक ही विषय व्यक्त है, इस तरह जिस इन्द्रिय के लिए जो विषय अव्यक्त है, वह इन्द्री यदि उस अव्यक्त विषय की स्थिति नहीं माने तो यह उसकी भूल और अयुक्त बात है। अपनी अवस्थाओं पर विचार करने पर यही मालूम होता है कि मैं भी अव्यक्त हूँ। कोई पूछे कि आपको अपने अन्दर-अन्दर चाल हुई, इसको अपनी चाल कहकर आपने क्यों माना? यह साफ है कि वह चाल जो हुई, यदि नहीं होती तो मैं अपने को नहीं जानता। वह मैं हूँ, जिसके लिए कहा जाता है कि तन्द्रा के आने पर वह बाहर से अन्दर की ओर होता है, उसको ‘मैं हूँ’ ‘मैं हूँ’ कहता हूँ; लेकिन वह है अव्यक्त। इस तरह जब मैं ही अव्यक्त भाव में रहता हुआ हूँ तब ईश्वर को अव्यक्त कोई कहता है तो क्या आश्चर्य और अयुक्त बात है? आपका शरीर, स्थावर-जंगम का शरीर-सबका शरीर अवयवयुक्त है। जैसे गाछ में डाल, पत्ता, तना मिलकर एक गाछ है, वैसे आपके शरीर में हाथ-पैर आदि अवयव मिलकर एक शरीर है। वृक्ष और शरीर के सब अवयव ससीम-ससीम हैं। इनसे बने हुए एक वृक्ष और एक शरीर ससीम हैं। ससीमों के जोड़ ससीम के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता। विराट् संसार भी ससीम ही है। इसलिए कि वह सब ससीमों को जोड़कर ही हुआ है, इसलिए वह भी ससीम ही है। तो प्रश्न होता है कि क्या सब ससीम-ही-ससीम है कि असीम भी? यदि आप ससीम से परे असीम का होना नहीं कहें तो आपके सिर पर से प्रश्न नहीं उतरेगा कि ससीमों के परे क्या है? सब ससीम-ही-ससीम है, यह बुद्धि-विपरीत बात है। सब ससीमों के परे एक असीम का मानना युक्ति-युक्त और बुद्धि को संतोषदायक बात है। सब ससीमों के परे असीम अवश्य है। असीम दो नहीं हो सकते। यदि दो असीम मानकर एक को दूसरे में व्यापक बताया जाय तो प्रश्न होगा कि दोनों के परमाणु एक हैं या दो? यदि कहो कि दो हैं तो दोनों की सीमा हो जाती है, तब दोनों ससीम हो जाते हैं। यदि कहो कि दोनों परमाणु एक ही तत्त्व के हैं, तब दो कैसे हुए? असीम एक-ही-एक है। असीम का होना अनिवार्य है। उसके साथ-साथ उसी की तरह दूसरा असीम उससे भिन्न तत्त्व का हो असम्भव है। सब ससीमों के परे एक ही असीम है, यह दृढ़ है। इसी को समझकर संतों की वाणी में समझा जाय। वेदों के मन्त्रार्थों में भी जहाँ तक मैंने देखा है उसमें भी ईश्वर की असीमता बतायी है।
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
एकस्तथा सर्व भूतान्तरात्मा रूपंरूपं प्रतिरूपो बहिश्च।।
                                       - कठोपनिषद्
 अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
 व्यापक व्याप्य अखंड अनन्ता ।
   अखिल अमोघ शक्ति भगवन्ता ।।
 अनन्त कहो वा असीम एक ही बात है। कबीर साहब कहते हैं-
     श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींहीं तें सब लेखा ।
सबके मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
 जिस बड़ा से कुछ बड़ा हो गया, वह क्या बड़ा- से-बडा़ हुआ? जिस बड़ा से और बड़ा नहीं हो सकता, वह ‘बड़ा-से-बड़ा’ हुआ। गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा।।
 जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा।।
साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु।
ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु।।आदि।
 कोई अपार, कोई असीम, कोई अनन्त कहते हैं। ये सब शब्द उसकी असीमता को ही व्यक्त करते हैं। असीम परिधि विहीन केवल केन्द्र-ही-केन्द्र है। जैसे हम इन्द्रिय-ज्ञान से परे हैं, उसी तरह ईश्वर भी। इन्द्रिय-ज्ञान से ऊपर उठकर निजी ज्ञान से हम अपने आपको पहचान सकते हैं और इसी ज्ञान से परमात्मा को भी।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम्।।
                                                           -कठोपनिषद्
 अर्थात् यह आत्मा वेदाध्ययन द्वारा प्राप्त होने योग्य नहीं है और न धारणा-शक्ति अथवा अधिक श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है। यह (साधक) जिस (आत्मा) का वरण करता है उस (आत्मा) से ही यह प्राप्त किया जा सकता है। उसके प्रति यह आत्मा अपने स्वरूप को अभिव्यक्त कर देता है।
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।
 जो सर्वव्यापी है, सीमारहित है, वह परतत्त्व है। ‘परमात्मा शब्द’ ईश्वर के लिए बहुत उत्तम है। परमात्मा को ईश्वर-ज्ञान के सिवाय और किसी ज्ञान में नहीं ले सकते। और शब्दों को दूसरे अर्थ में भी ले सकते हैं। लोग सुख पाने के लिए कोशिश करते हैं। ईश्वर की भक्ति से कैसे सुख होगा, ऐसा प्रश्न हो तो-देखिए, हमारा शरीर ससीम, संसार ससीम। इसमें हम वैसा सुख नहीं पाते, जैसा सुख हम चाहते हैं। जिस सुख के बाद दुःख न हो। जिस सुख में रहकर कभी शान्ति छूटे नहीं, वैसे सुख की चाहना होती है। यदि किसी को करोड़ों की भी सम्पत्ति हो, तो भी शान्तिमय सुख नहीं मिल सकता। पहले उसने सोचा था कि सम्पत्ति होने से सुख होगा, किन्तु करोड़ों होने पर भी चाह मिटती नहीं।
 चाह गई चिन्ता मिटी, मनुवाँ बेपरवाह ।
 जाको कछू न चाहिए, सोई शाहंशाह ।।
                             -संत कबीर साहब
 संसार में रहते हुए-ससीम में रहते हुए कभी कोई पूर्ण सुखी नहीं हो सकता। एक पदार्थ जो आपस में जिद्द में हो, दोनों के उल्टे-उल्टे गुण होते हैं। समीम में अशान्ति है तो उसका उल्टा असीम में शान्ति होगी। उसको पाने पर हम उस सुख को प्राप्त कर सकते हैं, जिसके बाद फिर दुःख नहीं। इसलिए ईश्वर की भक्ति है। इसलिए सन्तों ने ईश्वर की भक्ति करने पर बहुत जोर दिया। अव्यक्त की भक्ति व्यक्त व्यक्ति करे, कैसे संभव है? मैं महाभारत की एक छोटी-सी कथा कहता हूँ। राजा मरुत ने जो यज्ञ किया था, उसका दिया हुआ दान जो लोग नहीं ले जा सके थे, वह पहाड़ में गड़ा हुआ था। व्यासदेव के वाक्य को मानकर युधिष्ठिर वहाँ गए और खोदकर निकाल लिए और यज्ञ किए। यहाँ श्रद्धा काम आती है। जिस रास्ते से व्यासदेव ने कोशिश करने कहा, युधिष्ठिर ने कोशिश की। व्यासदेव को साथ लिया और धन प्राप्त किया। इसी तरह तुम भी विश्वास करो, वह जो अव्यक्त का पता बतावे, उसको मानो और जो कोशिश बतावे, वह कोशिश करो। वह धन युधिष्ठिर के लिए पहले अव्यक्त था, पीछे व्यक्त हुआ। उसी तरह अव्यक्त की भक्ति जो कठिन मालूम होती है तो वह भी इन्द्रिय-ज्ञान से ऊपर उठे हुए को व्यक्त हो जाएगा। आप अव्यक्त हो, अव्यक्त की ओर चलो। जैसे युधिष्ठिर ने अव्यक्त धन निकाल लिया उसी तरह तुम भी अव्यक्त परमात्मा को प्राप्त करो।
 हमारे गुरु महाराज कहा करते थे कि, ‘ईश्वर ने ऐसा क्यों किया, वैसा क्यों किया’ यदि पूछना है तो यह सब ईश्वर से ही पूछो। ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता मैं बतला सकता हूँ। तुम अपने अव्यक्त हो। जैसे जन्मान्ध के शरीर का रूप भी अव्यक्त है, यदि उसको आँख हो जाय तो वह देखने लगे। उसी तरह आत्मदृष्टि से देखो तो मालूम होगा कि जो पहले अव्यक्त था, वह व्यक्त हो गया। आँख यदि आँख को देखना चाहे तो कैसे देखे? आँख-से-आँख को पहले नहीं देख सकते। साधन लो आइने का, तब आँख को आँख से देखोगे। उसी तरह साधना की युक्ति लो, साधन करो, तब तुम अपने को अपने से बिना इस आँख के देखोगे।
    श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै ।
    रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै ।।
    नृत्य चरण बिनु करै हस्त बिनु ताल बजावै ।
    अंग बिना मिलि संग बहुत आनन्द बढ़ावै ।।
     बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को सेवक भाव लिये रहै ।
      मिलि परमातम सों आतमा पराभक्ति ‘सुंदर’ कहै ।।
                               - संत सुन्दरदासजी
 जहाँ कहीं रहिये या जहाँ कहीं आप रहते हैं, तो जाँच कर रहते हैं। युधिष्ठिर को कौशल से कौशल के घर में रखा गया था। यदि वे उसकी जाँच नहीं करते तो वे जल मरते। उन्होंने जाँचा और वहाँ से भाग गए। जिन्होंने घर बनाया था, वे ही जल कर मर गए। इस दुःख के देश में रहना अच्छा नहीं है। ‘रहना नहिं देश विराना है’। इसलिए-
 सहजो जग में यों रहो, ज्यों जिभ्या मुख माहिं।
 घीउ घना भोजन करै, तौ भी चिकनी नाहिं।।
                      -भक्तिन सहजोबाई
 अनासक्त होकर संसार में रहो। आसक्त होकर रहोगे तो आप ही दुःख पाओगे। ईश्वर-भक्ति का कारण तथा उसके व्यक्त और अव्यक्त के संबंध में कहा। ईश्वर की भक्ति कैसे होगी, यह कल्ह दोपहर के सत्संग में कहूँगा।
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यह प्रवचन श्रीसंतमत सत्संग मन्दिर सिकलीगढ़ धरहरा, पूर्णियाँ में दिनांक 5.3.1960 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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150. सूफी संत और कबीर साहब का मिलन
प्यारी धमानुरागिनी जनता !
 मैंने अपने ऊपर बड़ा बोझ लिया है। यह बहुत बड़ी सभा हो रही है, इसीलिए नहीं। अपने होश के जीवन के आरम्भ से ही मैंने अपने ऊपर यह बोझ ले लिया है। मेरे गुरु महाराज ने कहा कि सम्प्रदाय के फेर में मत पड़ो। संतों के नाम पर जो सम्प्रदाय या पंथ विदित हैं, उनके सार को देखो। जिन संतों के नाम पर लोग गौरव करते हैं, उन संतों के सार को ग्रहण कर रहो और संसार में उसका प्रचार करो। यह बात मुझे बड़ी अच्छी लगी। पक्षपात की कोई बात नहीं। संतों के सार वचनों का प्रचार करो। साम्प्रदायिकता के कारण जो लोग अपने को विशेष और दूसरे को न्यून मानते हैं, इसमें ईर्ष्या-द्वेष भरे रहते हैं। संसार में शान्ति हो। धर्म-ज्ञान में आकर भी द्वेष के तवे-भाँड़े में पड़े रहे, दुःख पाते रहे, तो क्या लाभ? घर के प्रबन्ध में तंग रहते हो, भाई-भाई में मेल नहीं तो घर में जलते रहो। घर के सब लोगों में मेल नहीं तो भी जलते रहो। राजनैतिकता में जाओ तो वहाँ भी एक दूसरे की निन्दा करते हैं, धर्म में जाओ तो वहाँ भी साम्प्रदायिकता लेकर जलो, तो शान्ति कहाँ मिलेगी?
 तुलसी साहब के नाम से ‘घटरामायण’ लिखी गई है। तुलसी साहब की गद्दी पर बड़े-बड़े अक्षरों में यह पुस्तिका लिखी हुई रखी है। उसमें एक जिज्ञासु ने तुलसी साहब से पूछा है कि आपका क्या पंथ है? उन्होंने कहा-
    संत गुरु और पंथ न जाना।ये ही संत पंथ हित माना।।
 मुझे यह बहुत पसन्द आया। हम जो संतमत कहते हैं, सो यही है। फिर भी लोगों के मन में होता है कि ये नया मत चला रहे हैं। मैं कहता हूँ कि भाई! कहो क्या कहूँ? सनातन धर्म कहने से वहाँ शैव, शाक्त आदि, और कौन-कौन मत हैं! ‘संत’ बहुत प्रिय शब्द है, यह सबको मान्य है। हमारे यहाँ संत, तो यूरोप में ;ैंपदजद्ध सेण्ट। बात रही आर्य-अनार्य की तो और देश में भी आर्य और अपने विदेश में भी आर्य। लेकिन विचार कर देख लो-ज्ञान और कला से हीन को अनार्य कहते हैं और आर्य शब्द का अर्थ है-ज्ञान-कला से युक्त। सभी देशों में आर्य हैं। अब रहा संत, तो बहुत ऊँचे दर्जे के लोग संत होते हैं। संत लोग कैसे होते हैं? वे लोग बहुत संयत होते हैं, उनको अपने पर बहुत काबू रहता है। अपने पर काबू उसी को होता है, जिसका मन काबू में हो। मन काबू में उसी का है जो विषय-लोलुप नहीं है। जो अपने मन को काबू में रख सकता है, वह अपने को संयत बनाकर रख सकता है। संत सभी देशों में होते हैं।
 संत कबीर साहब काशी में रहते थे और एक सूफी संत ईरान में रहते थे। दोनों का मिलन सूरत में हुआ। ये दोनों आपस में एक दूसरे के हाथ पर हाथ रख कर चुपचाप बैठ गए और इसी तरह सारी रात बीत गई। सवेरा होने पर दोनों ने अपनी-अपनी राहें लीं। उन दोनों संतों के शिष्यों ने अपने-अपने महात्मा से पूछा कि आपलोग चुपचाप रात भर बैठे रहे-कुछ बोले तक नहीं, यह कैसा मिलन हुआ? दोनों संतों ने अपने-अपने शिष्यों को एक ही उत्तर दिया कि ‘खूब बातचीत हुई, दिल खोलकर बातचीत हुई और ऐसा आनन्द आया जैसा कभी नहीं हुआ।’
 इस तरह के संत होते हैं, इनमें भेद-भाव नहीं रहता। हमलोग उस संत के अनुयायी होकर मतभेद रखें, ठीक नहीं है। आपस में हम एक हों-मिलकर रहें, यह संतमत है।
 संतों ने ईश्वर-परमात्मा की खोज की, उन्हें परमात्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ। श्रवण, मनन, निदिध्यासन ही नहीं; प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ। जो कोई ईश्वर को प्राप्त करता है, उसको शान्ति आती है, चैन होता है, वे ही ईर्ष्या-द्वेष से परे हो जाते हैं। उसी को हम अच्छी तरह समझें। संतों का कोई खास धन है, तो वह है-ईश्वर-परमात्मा।
 मुझे स्वयं भी पसन्द है और गुरु महाराज की आज्ञा भी है कि संत-वचन का प्रचार करो। तो मैं उसी को आप लोगों को समझाऊँ। आपलोगों ने संत कबीर साहब और दादू दयालजी की वाणियाँ सुनीं।
   अवधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भावै ।।टेक।।
   घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि वन नहिं जावै ।
   वन के गए कलपना उपजै, तब धौं कहाँ समावै ।।
   घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरु अलख लखावै ।
   सहज सुन्न में रहै समाना, सहज समाधि लगावै ।।
   उनमुनी रहै ब्रह्म को चीन्है, परम तत्त को ध्यावै ।
   सुरत निरत से मेला करिके, अनहद नाद बजावै ।।
   घर में बसत वस्तु भी घर है, घर ही वस्तु मिलावै ।
   कहै कबीर सुनो हो अवधू, ज्यों का त्यों ठहरावै ।।
      -कबीर साहब
   दादू जानै न कोई , संतन की गति गोई ।। टेक।।
   अविगत अंत अंत अंतर पट, अगम अगाध अगोई ।
   सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई ।।
   अंड न पिंड खंड ब्रह्मण्डा, सूरत सिंध समोई ।
   निराकार आकार न जोति, पूरन ब्रह्म न होई ।।
   इनके पार सार सोइ पइहैं, तन मन गति पति खोई ।
   दादू दीन लीन चरणन चित, मैं उनकी सरणोई ।।
                                -दादू दयालजी
 ‘दादू जानै न कोई संतन की गति गोई’ किसी ने पूछा-कोई नहीं जानते हैं? संत तो जानते ही हैं। उनकी गति और दूसरे लोग नहीं जानते हैं। ‘गति’ यानी ‘पहुँच’, ‘गति’ ‘चाल’ को भी कहते हैं। संतों की गति-चाल-पहुँच जहाँ तक होती है, लोग नहीं जानते हैं। वे सर्वव्यापी तक जाते हैं। वे सर्वव्यापी को कहाँ पाते हैं? तो कहा-‘अविगत अंत अंत अंतरपट.....’अर्थात् अंतरपट के अंत में- आखिर में जाकर उनको पाते हैं। ‘सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा...’ कहकर तीन शून्यों को बताया। तुलसी साहब ने भी तीन शून्यों का वर्णन किया है। एक शून्य जिसमें अन्धकार भरा है, दूसरा वह शून्य है, जिसमें प्रकाश भरा है और तीसरा वह शून्य है, जिसमें शब्द भरा है। अंधकार, प्रकाश और शब्द, इन तीन शून्यों के परे हैं।
 प्रकृति में आप तीन दर्जे पाते हैं। प्रत्यक्ष में कुछ पाते हैं और कुछ अप्रत्यक्ष में। कहने का मतलब यह है कि सभी प्रत्यक्ष नहीं पाते हैं। संसार में अन्धकार की प्रधानता है। सूर्य का प्रकाश भी उतना तेज नहीं है कि इससे अंदर देख पड़े। डॉक्टर लोग ग्.त्।ल् (एक्सर)े लेते हैं, लेकिन मन का एक्सरे नहीं ले सकते। अंदर के वायु का एक्सरे भी नहीं ले सकते। ऐसा तो इस सूर्य का प्रकाश है। एक्सरे को भी सूर्य का प्रकाश ही प्रकाशित करता है। जिस तरह सूर्य के प्रकाश में हम अपने शरीर को देखते हैं, उस तरह सूर्य के प्रकाश में अपने को नहीं देखते। जिस प्रकाश से कुछ देखा जाय और कुछ नहीं देखा जाय, उस प्रकाश के साथ कुछ अंधकार लगा हुआ है।
 यह प्रकाश का मण्डल है, लेकिन इससे सब देखा नहीं जाता है। शब्द मण्डल है, लेकिन सब शब्दों को नहीं सुन सकते हैं। बहुत लोग यह भी नहीं जानते कि अंदर में शब्द-ध्यान होता है। जो जानते भी हैं, उनमें अधिक लोग नहीं पाये हैं। अंधकार-मंडल के बाद प्रकाश-मंडल है। प्रकाश- मंडल में दिव्य ज्योति देखी जाती है। दिव्य दृष्टि होने से अन्तर-जगत मालूम पड़ता है। जो अन्तर्नाद की उपासना करता है, वह वहाँ पहुँचता है, जहाँ आकाश नहीं। वहाँ शब्द में कुछ मिश्रित होकर रहे, ऐसा नहीं। अंधकार, प्रकाश और शब्द; इन तीनों को छोड़कर तब जो दर्जा होता है, वह सर्वव्यापी को पहचानने का दर्जा होता है। ‘अगम अगाध अगोई’ ‘अ’ संस्कृत है और ‘गोई’ फारसी।
 श्रीमद्भगवद्गीता के ज्ञानवाले क्षरपुरुष, अक्षर पुरुष और पुरुषोत्तम को जानते हैं। पुरुष निर्गुण है, प्रकृति सगुण है और प्रकृति-पुरुष के परे पुरुषोत्तम मानते हैं। सांख्य-ज्ञान में अनेक निर्गुण पुरुष मानते हैं।
 ‘अण्ड न पिण्ड खण्ड ब्रह्मण्डा सूरत सिंध समोई’ सुरत का सिन्धु अर्थात् सच्चिदानन्द मंडल, पुरुषोत्तम में अँटा हुआ है। तीन शून्य, निर्गुण-सगुण, पिण्ड-ब्रह्माण्ड के परे अर्थात् इन सबको पार करके, मन, तन, गति-पति खोकर परमात्मा को पाते हैं।
 एक अनादि-अनंत तत्त्व को माने बिना कल्याण नहीं। सब सान्तों को मिलाने से एक अनंत नहीं हो सकता है। अनंत, असीम कहकर मन में एक विस्तृत्व का ज्ञान होने लगता है। ऊँचाई, गहराई, मोटाई, लम्बाई, चौड़ाई इत्यादि का ज्ञान विस्तृतत्व में होता है, यह माया संबंधी ज्ञान है। लेकिन सर्व- व्यापक पुरुषोत्तम परमात्मा बुद्धि पर, माया संबंधी ज्ञान के परे है। वेद-वेदान्त, संतवाणी सब में यह बात है। विचारने पर भी ज्ञान होता है कि सब सान्त- ही-सान्त हो तो यह बुद्धि को कबूल नहीं।
जो कोई पूछे तेहि कर लेखा। कस कस भाषौं रूप न रेखा।
                          -तुलसी साहब,हाथरस
 संसार में सभी दुःखी हैं, ईश्वर-उपासना के बिना दुःख दूर नहीं होता। ईश्वर-उपासना के लिए आपको क्या करना होगा? कबीर साहब कहते हैं-‘अवधू भूले को घर लावै.......’ घर छोड़ने नहीं कहा। घर ही में योग-भोग और घर ही में युक्ति- मुक्ति बतलाया; लेकिन शर्त है-‘जो गुरु अलख लखावै।’ अलख कैसे लखावे? तो कहा- ‘सहज सुन्न में रहे समाना’-आसानी के साथ शून्य में समाधि लगावे। गुरु ऐसा अलख लखावे। शून्य में समाओ, हमलोग स्थूलाकाश में हैं, सूक्ष्माकाश में मेरी गति हो, इसकी युक्ति गुरु बता दे। अलख का अर्थ ईश्वर ही नहीं है। उन्मुनि का अर्थ है- संकल्प-विकल्प का छूट जाना। लोग कहते हैं हमको ऐसा नहीं होता है। मैं पूछता हूँ, आपको जितना करना चाहिए, किया है?
   काजर दिये से का भया ताकन को ढब नाहिं ।।
   ताकन को ढब नाहिं ताकन की गति है न्यारी ।
  इक टक लेवै ताकि सोई है पिय की प्यारी ।।
 ताकै नैन मिरोरि नहीं चित अंतै टारै ।
  बिन ताके केहि काम लाख ओउ नैन सँवारै ।।
 ताके में है फेर, फेर काजर में नाहीं ।
  भंगि मिली जो नाहिं नफा क्या योग के माहीं ।।
 ‘पलटू’ सनकारत रहा पिय को खिन-खिन माहिं ।
  काजर दिये से का भया ताकन को ढब नाहिं ।।
                                 -पलटू साहब
 मैं कहता हूँ कि अभ्यासी को अभ्यास करने से अवश्य देखने में आवेगा। दृष्टि-शक्ति का प्रयोग करो। बाहर का प्रतिबिम्ब आइने में आता है। देखने की शक्ति को दृष्टि कहते हैं।
 परमतत्त्व =सर्वोत्कृष्ट तत्त्व। परमात्मा ने सर्वप्रथम जिस तत्त्व को उत्पन्न किया, अथवा परमात्मा से, सबसे प्रथम जो हुआ, उसको परमतत्त्व कहते हैं। वह है-चेतन। चेतन गतिशील है। इसी के द्वारा सृष्टि हुई है। दरिया साहब ने कहा है-‘संतो गति में अनहद बाजै’। संतों ने शब्द को परमतत्त्व माना। संत कबीर साहब कहते हैं-
    शब्द हमारा आदि का, पल-पल करिये याद ।
  अंत फलैगी माहिं की, बाहर की सब बाद ।।
बाइबिल में भी है कि सृष्टि के आरम्भ में शब्द था।
सब की आदि शब्द को जान।अन्त सभी का शब्द पिछान ।।
तीन लोक और चौथा लोक।शब्द रचे यह सबही थोक ।।
शब्द सुरत दोउ धार समान ।पुरुष अनामी के ये प्रान ।।
चेतनता सब इनकी मान।शब्द बिना कोइ और न आन ।।
शब्द गुप्त तब हुआ अनाम।शब्द प्रकट तब धरिया नाम ।।
नाम अनाम शब्द परिमान।शब्द बिना होय सबकी हान ।।
                             -राधास्वामी साहब
शब्द तत्तु बीर्ज संसार । शब्द निरालमु अपर अपार।।
शब्द विचारि तरे बहु भेषा। नानक भेदु न शब्द अलेषा।।
शब्द सुरति भया प्रगासा। सभ को करै शब्द की आशा।।
पंथी पंखी सिऊँ नित राता। नानक शब्दै शब्दु पछाता।।
हाट बाट शब्द का खेलु। बिनु शब्दै क्यों होवे मेलु।।
सारी स्रिष्टि शब्द कै पाछै। नानक शब्द घटै घटि आछै।।
                              -गुरु नानक साहब
 जहाँ-जहाँ गति है, वहाँ-वहाँ शब्द है। परमतत्त्व = अनाहतनाद।
 जरूरत तो यही है कि गुरु योग्य हो। गुरु योग्य नहीं है, तो दूसरा गुरु बना लो। संतों का यह ज्ञान-उपदेश उपनिषद्, गीता आदि सभी सद्ग्रंथों में है। मैं कहता हूँ कि सत्संग करो। यह परमात्मा का निज अंग है।
देहि सत्संग निज अंग श्री रंग भवभंग कारण शरण शोकहारी।
                       -गोस्वामी तुलसीदासजी
 कैसा सत्संग करो, तो तुलसी साहब ने कहा-‘ठाट ठट सत्संग करै।’ बाहर में साधु-संतों का संग करो और अंदर में ध्यानाभ्यास करो। संतों की वाणियों में अन्दर और बाहर दोनों सत्संग करने के लिए कहा है-
  नित सतसंगति करो बनाई।अन्तर बाहर द्वै विधि भाई।।
   धर्म कथा बाहर सत्संगा।अन्तर सत्संग ध्यान अभंगा।।
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यह प्रवचन श्रीसंतमत सत्संग मन्दिर सिकलीगढ़ धरहरा, पूर्णियाँ में दिनांक 6.3.1960 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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151. कर्म-धर्म से छूटने का उपाय
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता !
 ईश्वर संसार के सभी पदार्थों के कण-कण में भरा हुआ है और उसके बाहर भी है। वह इतना व्यापक है कि आप उससे कहीं अलग नहीं हो सकते। ऐसा इसलिए दृढ़ता के साथ कहा जाता है कि एक अनादि-अनन्त तत्त्व की स्थिति अवश्य है। सबको सादि और सान्त मानने से बुद्धि को संतोष नहीं होता है। सब सान्तों के परे क्या है? अगर पूछो कि सब सान्तों के परे का प्रश्न क्यों? इसलिए कि सब सान्त, सान्त मिलकर अनन्त कभी नहीं होगा। इसलिए सब सादि-सान्त के परे क्या है? यह प्रश्न होगा ही। सादि-सान्त के परे अनादि-अनन्त कहे बिना संतोष नहीं। अनादि-अनन्त तत्त्व को ही संतों ने ईश्वर कहा है। इसी का वर्णन वेद, उपनिषद् और संतवाणी में है। गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
   अलख अपार अगम अगोचरि ना तिसु काल न करमा ।
 वह अपार कहते हैं, वह परमतत्त्व है। परमार्थ स्वरूप है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
‘राम ब्रह्म परमारथ रूपा।अविगत अलख अनादि अनूपा।।
सकल विकार रहित गत भेदा।कहि नित नेति निरूपहिं वेदा।।’
‘है सबमें सबही तें न्यारा ।
जीव जन्तु जल थल सबही में,शब्द वियापत बोलनहारा।।
सबके निकट दूर सबही तें, जिन जैसा मन कीन्ह विचारा।।’
                              -संत कबीर साहब
 अर्थात् परमात्मा सबमें होकर उतना ही है, ऐसा नहीं, उससे बाहर भी है। सब लोग एक ही बात कहते हैं। बुद्धि के विचार से भी ठीक ही है। गुरु महाराज कहते थे कि-‘गुरु-वाक्य हो, सद्ग्रन्थ-वचन हो और विचार का मेल हो; तो उस पर पूरा विश्वास कर लो। परमात्मा को अनन्त- अनादि मानने के लिए संतों की वाणियाँ आज्ञा देती हैं। समझने पर मालूम भी होता है कि ठीक है। यदि सब सान्त-ही-सान्त हां, तो सब सान्तों को मिलाकर अनन्त नहीं हो सकता। अनन्त तत्त्व से अधिक व्यापक और कुछ हो, कहना, बालक जैसे कहना है। सबसे विशेष व्यापक ईश्वर वा परमात्मा ही है और एक-ही-एक है। व्यापकता में क्या गुण होता है, देखो। एक सेर बर्फ जितनी दूर में व्यापक होगा, उसका पानी बना लेने पर वह उससे अधिक व्यापक होगा। फिर उस पानी का वाष्प बना लिया जाय तो वह और भी उससे विशेष व्यापक होगा। अर्थ यह हुआ कि सूक्ष्मता में व्यापकता अधिक होती है। जो सबसे अधिक व्यापक होता है, वह सबसे अधिक सूक्ष्म भी होता है। बुद्धिमान को इसके मानने में कोई कसर नहीं होनी चाहिए। जो सबसे विशेष सूक्ष्म है, उसको स्थूल यंत्र से कैसे ग्रहण कर सकते हैं? जैसे छोटी घड़ी के महीन कल-पुर्जों को पकड़ने के लिए, बड़ी घड़ी के कल- पूर्जों को पकड़नेवाला यंत्र सदा अयोग्य रहता है।
 परमात्मा सबसे अधिक व्यापक है, इसलिए सबसे अधिक सूक्ष्म है। हमारी सभी इन्द्रियाँ स्थूल- ही-स्थूल हैं। स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण होना असम्भव है। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार भी परमात्मा के सम्मुख अत्यन्त स्थूल हैं। इसलिए-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
                      ‘बुद्धि पर’ कहो चाहे ‘अगम’, एक ही बात है। परमात्मा ऐसा है कि वह बाहर वा अन्दर की किसी भी इन्द्री से ग्रहण होने योग्य नहीं है। तब किससे ग्रहण होने योग्य है? शरीर, इन्द्रियों के अतिरिक्त आप स्वयं उनमें रहते हैं। इसी से ग्रहण होने योग्य है। जैसे दूध के मथे जाने पर मक्खन अलग हो जाता है, उसी तरह ध्यान के मन्थन से चेतन आत्मा शरीर और इन्द्रियों से अलग हो जाती है। जैसे कोई पूछे कि रूप क्या है? जो आँख से ग्रहण हो। शब्द क्या है? जो कान से ग्रहण हो। ईश्वर क्या है? जो तुम अपने से ग्रहण कर सको। नौकर-चाकर का साथ लेकर नहीं। हाथ-पैर आदि नौकर-चाकर हैं। किसी आवरण में रहकर उसको प्राप्त नहीं कर सकते। इन सबसे अपने को छुड़ा लो, फिर परमात्मा तुम्हारी पहचान से बाहर नहीं रह सकेंगे। जिसको आप स्वयं ग्रहणकर सको, वह है परमात्मा।
 जिस काम को करते-करते ईश्वर की प्राप्ति होती है, वही काम ईश्वर की भक्ति है। यह कैसे होगी? कबीर साहब ने कहा है-‘संतो भक्ति सतोगुर आनी.....’। यह अपरा भक्ति नहीं है, परा भक्ति है।
यह भक्ति ऐसी नहीं है कि ईश्वर को यहाँ बुलाओ। यह भक्ति वह है कि चलो ईश्वर के पास। दो तरह के ख्याल होते हैं। पहला कहते हैं कि ईश्वर को यहीं बुलावेंगे। ठीक है। बहुतों को दर्शन हुआ भी है। लेकिन यह इन्द्रियों के ज्ञान में हुआ। हाथ से पैर पकड़ा आदि। रूप का दर्शन हुआ, रूप धारण करनेवाले का दर्शन नहीं हुआ। गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते-लिखते यह भी लिख गए-
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
 किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
 यथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
 सोइ सोइ भाव देखावइ, आपु न होइ न सोइ ।।
 भगवान श्रीराम के समय में कितनों ने कितने रूपों में उन्हें देखा। सभी ने अपनी-अपनी भावनाओं के अनुरूप देखा। भगवान श्रीकृष्ण को अर्जुन ने अपने सखा रूप में देखा। वसुदेवजी ने पुत्र के रूप में देखा। अर्जुन को भगवान का गहरा संग था। उनको विराट् रूप का भी दर्शन हुआ। भगवान ने जैसा कहा, अर्जुन ने वैसा किया। फिर यह कि ‘सब धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जा’ यह क्या? अर्जुन तो उनकी शरण में था ही।
 श्रीराम का भी ऐसा ही दर्शन लोगों को हुआ। लेकिन श्रीराम कहते ही रह गए कि ऐसा और वैसा करो। ‘एहि तन कर फल विषय न भाई’ अर्थात् समझ लो कि एहि तन कर फल निर्विषय भाई।’ जब तक इन्द्रिय-ज्ञान से ऊपर नहीं उठो, विषयों से नहीं छूट सकते। अपने ऊपर इन्द्रियों का मायिक रंगीन चश्मा है, इसको उतार दो और शरीर की पट्टी लगी है, इसको भी उतारो। विवेकानन्द स्वामी ने कहा था कि अपनी दृष्टि को अन्दर करो। अपने को शरीर- इन्द्रियों से ऊपर उठाओ। ब्रह्मानन्द स्वामी ने कहा है-
 जिमि दूध के मथन से, निकसत है घी जतन से ।
 तिमि ध्यान के लगन से, परब्रह्म ले निहारा ।। यह बड़ा उत्तम शब्द है। ऐसा नहीं कि भगवान यहाँ आकर दर्शन देंगे। रूप नाशवान है। यहाँ आकर किसी रूप में ही दर्शन देंगे। रूप में जो आए, उनकी तो पहचान नहीं हुई। श्रीराम, श्रीकृष्ण, विष्णु भगवान, शिव बाबा, काली माई का प्रत्यक्ष दर्शन लोगों ने किया। लेकिन दर्शन देने पर भी वे कहते थे कि यह काम करो और वह काम करो। तब तो श्री कृष्ण भगवान ने कहा-‘सब धर्मों को छोड़ो’ कर्म छूटने से ही धर्म छूट सकता है। सुकर्म करनेवाले को धर्मी और कुकर्म करनेवाले को अधर्मी कहते हैं। लोगों से कुछ-न-कुछ कर्म होगा ही। तुलसी साहब कहते हैं-
आली अधर धार निहार निजकै ।निकरि सिखर चढ़ावहीं ।।
जहाँ गगन गंगा सुरति जमुना। जतन धार बहावहीं ।।
जहाँ पदम प्रेम प्रयाग सुरसरि । धुर गुरू गति गावहीं ।।
जहाँ संत आस विलास बेनी। विमल अजब अन्हावहीं ।।
कृत कुमति काग सुभाग कलिमल। कर्म धोय बहावहीं ।।
 इस मिलाप को ही वेनी-त्रिवेणी कहते हैं। संतलोग यहीं पर स्नान करते हैं और जो शुभ- अशुभ कर्म हैं, वे सभी धुल जाते हैं। ध्यानशील ही को ऐसा होता है। ध्यान में ऐसा होता है कि जैसे तन्द्रा में स्वाभाविक चाल होती है, वैसे ही ध्यान के द्वारा मानसधार वा चेतनधार का सिमटाव होता है। सिमटाव होने से इन्द्रियाँ शक्तिहीन हो जाती हैं और तब सभी कर्म छूट जाते हैं। इसके लिए योग्य गुरु और श्रद्धा सहित उनकी सेवा अत्यन्त अपेक्षित है। कबीर साहब ने कहा है-
 सत्त नाम के पटतरे, देवे को कछु नाहिं ।
 क्या लै गुरु संतोषिये, हवश रही मन माहिं ।।
 मन दीया तिन सब दिया, मन के लार शरीर ।
 अब देवे को कछु नहीं, यों कथि कहै कबीर ।।
फिर चेताने के लिए उन्होंने कहा-
 तन मन दिया तो भल किया, सिर का जासी भार ।
 कबहुँ कहै कि मैं दिया, घनी सहैगा मार ।।
 तनमन दिया तो क्या हुआ, निजमन दिया न जाय ।
 कह कबीर ता दास से, कैसे मन पतियाय ।।
 तनमन दीया आपना, निजमन ताके संग ।
 कह कबीर निर्भय भया, सुन सतगुरु परसंग ।।
 मन दो तरह के होते हैं-तनमन और निजमन। जब तक मन शरीर-मुखी है, तन-मन है। मन का सिमटाव हो जाय, तो वह आत्म-मुखी हो जायेगा।
 इस तन में मन कहाँ बसत है, निकस जाय केहि ठौर ।
 गुरु गम है तो परखि ले, ना तर कर गुरु और ।।
 नैनों माहीं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर ।
 गुरुगम भेद बताइया, सब सन्तन्ह सिर मौर ।।
 जब मन की धार सिमटकर केन्द्र में केन्द्रित हो जाय, तब निज-मन और जब तक सिमटाव नहीं हुआ है, तबतक तन-मन कहते हैं। शरीर से जो सेवा की जाती है, उसको तन-मन की सेवा कहते हैं और ध्यान में मन का सिमटाव कर केन्द्रित करना निज-मन की सेवा है।
 आप कहेंगे कि हठयोग- प्राणायाम का कुछ नहीं बताया। एक बार सन् 1934 ई0 में योगिवर श्रीभूपेन्द्रनाथ सान्याल महोदयजी से इस विषय पर बातचीत हुई थी। मैंने पूछा था कि ‘प्राणायाम करके ध्यानाभ्यास किया जाय वा केवल ध्यानाभ्यास?’ सान्याल जी ने कहा-‘पहले प्राणायाम, बाद को ध्यानाभ्यास।’ मैंने कहा-श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में जहाँ वर्णन है कि इस तरह की भूमि पर, अमुक-अमुक आसनी बिछाकर, अमुक भाँति बैठकर अमुक भाँति से ध्यान करे; वहाँ तो प्राणायाम का कुछ भी जिक्र नहीं है। इस पर उन्होंने कहा- ‘ध्यानाभ्यास करने से भी प्राणस्पन्दन रुकता है तो प्राणायाम हो गया।’ फिर उन्होंने कहा-‘जैसे दूध में मक्खन होता है, वैसे ही वायु में प्राण है। वायु, प्राण नहीं है।’ शाण्डिल्योपनिषद् में है कि बिना प्राणायाम किए ध्यान करने से प्राणस्पनदन रुकता है-
 द्वादशांगुल पर्यन्ते नासाग्रे विमलेम्बरे ।
 संविद्द्वशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।।
 अर्थात् सुरत, चेतन-वृत्ति नासाग्र से बारह अंगुल पर स्वच्छ आकाश में स्थिर हो तो प्राण का स्पन्दन रुद्ध हो जाता है।
 गीता में वर्णन है कि अभ्यास से ज्ञान, ज्ञान से ध्यान और ध्यान से कर्मफल-त्याग विशेष है। ‘अभ्यास’ शब्द यहाँ प्राणायाम-योग के लिए ही आया है। केवल कहने से कर्मफल का त्याग नहीं होता। ध्यान-योग सबके लिए बहुत बढ़िया चीज है, चाहे आप विद्वान हों या अविद्वान, गीता में जहाँ ध्यान-योग है, उस अध्याय में प्राणायाम का कुछ भी वर्णन नहीं आया है। ‘ध्यानं निर्विषयं मनः’-इसको ध्यान कहते हैं।
 उद्धव जी ने श्रीकृष्णजी से पूछा कि आपका ध्यान कैसे करूँ? तो बताया कि पहले मेरे सम्पूर्ण रूप का, फिर चेहरे का और फिर शून्य में ध्यान करो। रामचरितमानस में काकभुशुण्डिजी के ध्यान- अभ्यास की चर्चा इस भाँति है-
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई ।जाप यज्ञ पाकरि तर करई ।।
आम छाँह कर मानस पूजा।तजि हरि भजन काज नहिं दूजा।।
बटतर कह हरि कथा प्रसंगा।आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा।।
 मानस पूजा और ध्यान का अलग-अलग वर्णन किया है। स्थान बदल देते हैं-‘पीपर तरु तर ध्यान’ और ‘आम छाँह कर मानस पूजा’। मानस- पूजा से ध्यान के लिए शक्ति होती है। गुरु नानकदेवजी के वचन में है-
गुरु की मूरति मनमहिं धिआनु ।गुरु कै शबद मंत्र मन मानु ।।
संत कबीर साहब कहते हैं-
  मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
   मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सत् भाव ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी का कथन है-
 श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि ।
 वरणौं रघुवर विमल यश, जो दायक फल चारि ।।
गो0 तुलसीदासजी कहते-कहते यहाँ तक कह गए कि-तुम्ह तें अधिक गुरुहिं जिय जानी ।
      सकल भायँ सेवहिं सनमानी ।।
 यह स्थूल ध्यान है। यहाँ से अभ्यास का आरम्भ है। इससे भी सिमटाव होता है, किन्तु कुछ विस्तार रहता है, पूर्ण सिमटाव नहीं होता है। इसलिए इससे आगे बढ़ो। साधक को भ्रम होता है कि इसमें हमारा इष्ट छूट जाएगा। किन्तु ईश्वर सबमें है। ‘अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा वसत....’। वह किसी एक ही स्थूल वा सूक्ष्म में नहीं रहता, सबमें रहता है। आप कई पोशाक पहनते हैं तो क्या आप बदल जाते हैं-दूसरे हो जाते हैं? उसी तरह इष्ट का स्थूल रूप छूटा, पर उसका सूक्ष्म रूप तो रहेगा ही। फिर यहाँ से भी आगे बढ़ने को संतों ने कहा। सूक्ष्म रूप क्या है? गीता, 8/9 में कहा गया है-
     कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
     सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।। इसी अणु रूप को ‘परम विन्दु’ कहा है। ‘बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम्’-ध्यान- विन्दूपनिषद्। परिभाषा के अनुकूल विन्दु वह है जिसका स्थान है, परिमाण नहीं। इसको मन से नहीं बना सकते। देखने के कौशल से देखो।
 श्रीरामकृष्ण परमहंसदेवजी को काली के साथ ऐसा संबंध था, जैसा कि माता के साथ पुत्र का। एक बार दक्षिणेश्वर में तोतापुरी नाम के एक संन्यासी आए। उन्होंने श्री रामकृष्ण परमहंसजी से कहा कि तुम मुझसे दीक्षा ले लो। परमहंसजी ने कहा-जबतक माताजी (काली माई) आज्ञा नहीं देंगी, मैं दीक्षा नहीं ले सकता। फिर वे माताजी (काली माता) के पास आए और लौटकर तोतापुरी जी के पास जाकर बोले कि मुझे दीक्षा दीजिए, श्री माँ की आज्ञा हो गई है। तोतापुरीजी ने उनको ध्यान की क्रिया (दृष्टियोग की क्रिया) बतलाई। जब वे ध्यान करने लगते तो कालीजी की मूर्ति उनके सम्मुख आ जाती। परमहंसजी ने कहा-बहुत चेष्टा करेने पर भी ध्यान नहीं हो पाता है, माँ की मूर्त्ति सामने आ जाती है। तोता- पुरीजी वहीं बरामदे पर टहल रहे थे, उन्होंने कहा- नहीं होगा? जरूर होगा। टहलते हुए उनकी दृष्टि काँच के एक टुकड़े पर पड़ी, उन्होंने उक्त शीशे के टुकड़े को उठा लिया और परमहंसजी के भ्रुवोर्मध्य में बिन्ध कर कहा कि यहाँ ध्यान करो। ऐसा करते ही परमहंसजी का ध्यान ठीक-ठीक जम गया।
 रूप के बदलने से रूप का धारण करनेवाला नहीं बदलता। जो इस ज्ञान में नहीं रंगा है, उसको साम्प्रदायिक खैंच होती है। आपको जिसमें श्रद्धा हो, उसका ध्यान कीजिए। कोई राम का, कोई कृष्ण का, कोई शिव का, कोई अल्लाह का और कोई अलिफ को बनाकर ध्यान करते हैं। पहले जप करो, फिर ध्यान करो। जब कोई चित्तवृत्ति का निरोध प्राणायाम द्वारा करते हैं और कोई मन को एकओर करने का काम केवल ध्यान द्वारा करते हैं, तो ध्यान-योग से साधन करने में कोई भय और आपदा नहीं है। हाँ, मस्तिष्क पर कुछ जोर अवश्य पड़ता है, फेफड़े को कोई हानि नहीं होती। निज-मन द्वारा भजन होता है और निज-मन के ही स्थान से ईश्वर की ओर का मार्ग पकड़ा जाता है।
 भक्ति का मारग झीना रे ।
 नहिं अचाह नहिं चाहना, चरणन लौ लीना रे ।।
 साधुन के सत्संग में, रहे निसि दिन भीना रे ।
 शब्द में सुर्त ऐसे बसे, जैसे जल मीना रे ।।
 मान मनी को यों तजे, जस तेली पीना रे ।
 दया छिमा संतोष गहि, रहे अति आधीना रे ।।
 परमारथ में देत सिर, कछु विलम्ब न कीना रे ।
 कहै कबीर मत भक्ति का, परगट कह दीना रे ।।
                                     -कबीर साहब
भगता की चाल निराली।
चाल निराली भगताह केरी विषम मारगि चलणा ।।
लबु लोभु अहंकार तजि त्रिसना, बहुतु नाहीं बोलणा ।
खंनिअहु तीखी बालहु नीकी, एतु मारगि जाणा ।।
गुर परसादी जिनि आपु तजिया, हरि वासना समाणी ।
कहै नानक चाल भगताह केरी, जुगहु जुगु निराली ।।
                                 -गुरु नानकदेव
 यदि कहो कि इस सूक्ष्म मार्ग पर कैसे चला जाय? तो जानिये जैसे रास्ता सूक्ष्म है, इस पर चलनेवाला भी बड़ा सूक्ष्म है। तलवार की धार से भी सूक्ष्म है। गोस्वामी तुलसीदासजी का सुनिए-
रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई ।।
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।। इससे मोटी भक्ति सुनिए-
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
  गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान।
  चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मो तें सन्त अधिक करि लेखा।।
आठवँ यथा लाभ सन्तोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ पर दोषा।।
नवम सरल सब सन छल हीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।।
 सिमटाव होने पर अन्तर की ओर सुरत जाती है। कहाँ तक जाती है? ‘अविगत अंत-अंत अन्तर पट’ तक जाती है। दृष्टियोग और शब्दयोग की क्रिया से ऐसा होता है। असली चीज ‘शम’ है। ‘दम’ हो जाने से ‘शम’ भी होगा। मन के साथ इन्द्रियनिग्रह को ‘दम’ और केवल मनोनिग्रह को ‘शम’ कहते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने ‘श’ और ‘स’ में विशेष फर्क नहीं रखा है। यदि ‘सम’ ही लो, तो ‘सम’ का अर्थ ‘समता’ होता है। समता समाधि में होती है। मनोनिग्रह में समाधि होती है। केवल मन का साधन नाद-साधन से होता है। गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
 सतिगुरु भेटै ता सहसा तूटै धावतु बरजि रहाईअै ।
 निझरु झरै सहज धुनि लागै घरही परचा पाईअै ।।
 अंजन माहि निरंजनि रहीअै जोग जुगति इव पाईअै ।।
 नानक जीवतिआ मरि रहीअै ऐसा जोगु कमाईअै ।
 बाजे बाझहु सिं´ी बाजे तउ निरभउ पदु पाईअै ।।
 यह शब्द-साधन है। शब्द-साधन में मन का साधन होता है। दृष्टि-साधन में मन-इन्द्री का संग-संग साधन होता है। छठी भक्ति दृष्टि-साधन और सातवीं भक्ति शब्द-साधन है। आठवीं भक्ति में ‘यथा लाभ संतोषा’ हो जाता है। नवमी भक्ति में सबसे सरल और छलहीन होना होता है। श्रीरामकृष्ण परमहंसजी से किसी ने पूछा-सिद्धपुरुष कैसे होते हैं? उन्होंने कहा-‘जैसे आलू-बैंगन की तरकारी मुलायम होती है।’ भक्ति स्थूल से सूक्ष्म तक करो। ईश्वर-स्वरूप को जानो कि जो इन्द्रियगम्य नहीं है, आत्मगम्य है। ईश्वर क्या है? इसका उत्तर है- जिसको अपनी चेतन आत्मा से ग्रहण कर सको। संतों ने मरने के बाद की मुक्ति को नहीं माना है।
जीवत मुक्त सोइ मुक्ता हो।
जबलग जीवन मुक्ता नाहीं, तबलग दुख सुख भुगता हो।
                              -संत कबीर साहब
 जीवत छूटै देह गुण, जीवत मुक्ता होइ ।
 जीवत काटै कर्म सब, मुकति कहावै सोई ।।
 मूआँ पीछैं मुकति बतावैं, मूआँ पीछैं मेला ।
 मूआँ पीछै अमर अभै पद, दादू भूले गहिला ।।
                               -संत दादू दयाल
 लहहिं चारि फल अछत तनु, साधु समाज प्रयाग ।
                          -गोस्वामी तुलसीदासजी
योगशिखोपनिषद् में लिखा है-
  पिण्डपातेन या मुक्तिः सा मुक्तिर्नतु मन्यते ।
   देहे ब्रह्मत्वमायाते जलानां सैन्धवं यथा ।
   अनन्यतां यदा याति तदा मुक्तः स उच्यते ।।
 अर्थात् देह छूटने पर जो मुक्ति होती है, वह मुक्ति नहीं है, जिस प्रकार नमक जल में घुलकर एक हो जाता है, इस तरह जब जीव ब्रह्मत्व को प्राप्त कर उससे अन्य नहीं रह जाता, तब मुक्ति होती है। ईश्वर- भजन कीजिए। सदाचार का पालन कीजिए।
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यह प्रवचन 52वाँ महाधिवेशन सिकलीगढ़ धरहरा, पूर्णियाँ में दिनांक 6.3.1960 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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152. सगुण ब्रह्म की प्रत्यक्षता होने पर भी दुःख
प्यारी धर्मानुरागिनी जनता !
 ईश्वर-भक्ति के विषय में मैं कहा करता हूँ। ईश्वर-स्वरूप इन्द्रियातीत है। उसकी प्राप्ति हाथ, पैर, नाक, मुँह आदि इन्द्रियों से नहीं हो सकती।
 संसार में कभी अच्छा, कभी बुरा होता है। भगवान श्रीकृष्ण के साथ पाण्डव लोग रहा करते थे। अर्जुन ने भगवान की दी हुई दिव्य दृष्टि से उनके विराट् रूप को देखा था। लड़ाई में उनकी जीत हुई। परन्तु लड़ाई में जीतने की उनको खुशी नहीं हुई; क्योंकि उनके चार भाइयों के अतिरिक्त बेटे और भतीजे आदि; सब लड़ाई में मारे गए। इससे जाना जाता है कि सगुण ब्रह्म की प्रत्यक्षता रहने पर भी सब दुःखों और सब अभावों से पूर्णरूपेण कोई छूट नहीं सकता। यह छुटकारा होना तभी सम्भव है, जब सगुण ब्रह्म के निर्गुण स्वरूप की प्राप्ति हो जाय। वही परमात्मा है। वह परमात्मा अनादि, अनन्त, असीम है। दिन-रात जब नहीं थे, देश-काल नहीं थे, वह तब से है। वही सर्वेश्वर है। उसके बाहर कोई वा कुछ नहीं है। उसके प्रभुत्व के अन्दर सब हैं। उसके बाहर रहना असंभव है। इसलिए वह सर्वेश्वर कहे जाने योग्य हैं। उस पर किसी का बल वा चारा काम नहीं कर सकता। इसलिए ‘जा साहब से ना कछु चारा। ताको कीजै सद् नमस्कारा।’ -गुरु नानक साहब। वह प्रकृति से बना हुआ नहीं है, प्रकृति को उसने बनाया है। लोग कहते हैं-प्रकृति नहीं थी तो ईश्वर ने कैसे सृष्टि की? गुरु नानकदेवजी जवाब देते हैं-‘तदि अपना आपु आपही उपाया। ना किछु ते किछु करि दिखलाया।।’ परमात्मा की यही विशेषता है कि सृष्टि बनने के उपादान-प्रकृति को भी बिना कुछ के उसने बनाया है। सांसारिक वैज्ञानिक कुछ के बिना कुछ नहीं बना सकते हैं। कुछ के बिना कुछ का नहीं बनना अर्थात् अभाव से भाव का होना असंभव है। यह लौकिक सिद्धान्त है। परन्तु परमात्मा अलौकिक है। उनके कामों में यह सिद्धान्त लागू नहीं है। परमात्मा के सामने इन्द्रियाँ इस तरह स्थूल हैं, जिसकी उपमा नहीं दी जा सकती। चेतन आत्मा से ही परमात्मा का दर्शन संभव है। ऐसी भक्ति करो कि अपने तईं को उसमें अर्पण कर दो। देखिये, हमारे यहाँ श्राद्ध-क्रिया होती है, उसमें यह बतलाया जाता है कि शरीर में रहनेवाला शरीर छोड़कर कहीं चला गया है। शरीर नाश हुआ है, शरीर में रहनेवाला कहीं-न-कहीं अवश्य है। शरीर जड़ है, उसमें चेतन आत्मा जड़ नहीं है। इसको इन्द्रियों से ग्रहण करना हो नहीं सकता। ‘गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई।।’ अपने को शरीर-इन्द्रिय से पृथक करो। शरीर से चेतन आत्मा की पृथक्ता का प्रत्यक्ष ज्ञान हो, तब अपने तईं को परमात्मा में अर्पण किया जा सकेगा। ‘अंग बिना मिलि संग बहुत आनन्द बढ़ावै। बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को सेवक भाव लिये रहै। मिलि परमातम सों आतमा पराभक्ति सुन्दर कहै।।’ सुन्दरदासजी का यह आत्म- समर्पण है। यह जिस काम से हो, वही भक्ति है। लोग कहते है कि ‘भक्ति में योग करना होगा’। योग में प्राणायाम करना पड़ेगा। प्राणायाम सबसे नहीं हो सकता। इसलिए तुम्हारी भक्ति को खारीज (रद्द) करते हैं। जो ऐसा कहते हैं उनको और जानना चाहिए। हमारे यहाँ दो तरह के साधक हुए हैं। एक प्राणायाम करके ध्यानाभ्यास करनेवाले और दूसरे केवल ध्यानाभ्यास करनेवाले। पुनः वे कहते हैं-प्राणायाम से वायु स्थिर होती है, मैं मानता हूँ, लेकिन जो प्राणायाम नहीं कर सकें, उनके लिए क्या है? हाँ, है। ध्यानाभ्यास करते-करते प्राण कुम्भक में हो जाता है। अर्थात् वायु स्थिर हो जाती है। इसको आजमा लेने की बात है। विचार करते हैं, तो समझ में आता है कि बिना प्राणायाम के भी वायु स्थिर होती है, तथा इसके लिए शास्त्र-प्रमाण भी है-
 द्वादशांगुल पर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे ।
 संविद् दृशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पन्दोनिरुध्यते ।।
 भ्रूमध्ये तारकालोक शान्तावन्तमुपागते ।
 चैतनैकतने बद्धे प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।।
 चिरकालंहृदेकान्तव्योम संवेदनान्मुने ।
 अवासन मनो ध्यानात्प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।।
                                -शाण्डिल्योपनिषद्, अ0 1
 अर्थात् ‘जब ज्ञान-दृष्टि (सुरत-चेतनवृत्ति) नासाग्र से बारह अंगुल पर स्वच्छ आकाश में पहुँचकर स्थिर होती है, तो प्राणस्पन्दन रुद्ध हो जाता है। जब चेतन वा सुरत भौओं के बीच के तारकलोक (तारामण्डल) में पहुँचकर स्थिर होती है तो प्राण की गति बन्द हो जाती है। हृदयाकाश में संकल्प- विकल्प और वासना-हीन मन से बहुत दिनों तक ध्यान करने से प्राण की गति रुक जाती है।’ केवल ध्यानाभ्यास करो। ध्यानाभ्यास से यह होगा कि मन का सिमटाव एकविन्दुता तक होगा। किसी चीज को जिस ओर से समेटो तो वह उसकी उलटी ओर को जाती है। स्थूल में सिमटाव होने से सूक्ष्म में प्रवेश करेगा। इस तरह धीरे-धीरे सब छूटते हैं। चलते-चलते वह शरीर और इन्द्रियों से छूटकर कैवल्य दशा पाता है। तब परमात्मा की प्राप्ति होती है। अनादि, अनन्त, परमात्मा सर्वव्यापी है। उसको खोजने के लिए बाहर जाने की क्या जरूरत है? दादू दयालजी कहते हैं-
कोई दौड़े द्वारिका, कोई काशी जाहिं।
कोई मथुरा कौ चलै, साहिब घट ही माहिं ।।
कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूँढ़ै बन माहिं।
ऐसे घट में पीव हैं, दुनियाँ जानै नाहिं।।
                                  -कबीर साहब
 स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण होना असंभव है। इन्द्रिय-ज्ञान में नहीं होने के कारण बाहर में उनको ढूँढ़ना उचित नहीं है। चेतन आत्मा अभी मन के साथ इस तरह है जिस तरह दूध में घीउ। जहाँ मन है, वहीं चेतन आत्मा। अन्दर में चलने के लिए पहले मन सहित चेतन आत्मा चलेगी; फिर उसके आगे केवल चेतन आत्मा। जाग्रत में चेतन आत्मा का वासा कहाँ है? शिवनेत्र में, आज्ञा चक्र के केन्द्र में, नयनाकाश में। वहाँ से चलने की कोशिश करो। उसका पूर्ण सिमटाव करो। ‘मन में मन नैनन में नैना मन नैना एक होइ जाई’ -कबीर साहब। मन को उसके केन्द्रीय रूप में ले जाओ। यह ध्यानाभ्यास करने से होगा। आरम्भ में इस काम के करने में सुगमता नहीं विदित होती है, परन्तु पूर्व जन्म के संस्कारी को इसमें सुगमता का बोध होता है। सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है, ऊर्ध्वगति में आवरण का छेदन होता है और अन्त में शरीर-इन्द्रिय को छोड़कर कैवल्य दशा में अपने को लाना होगा। इसी को संतों ने समझाया है। इसके लिए पहले स्थूल उपासना, फिर सूक्ष्म उपासना। सूक्ष्म उपासना में अवलम्ब चाहिए। अवलम्ब गुरु बता देंगे।
 सुखमन के घर राग सुनि सुन मंडल लिव लाई।
 अकथ कथा विचारिये मनसा मनहिं समाइ।।
                              -गुरु नानक साहब
 ‘सुखमना’ के घर में राग सुनो, शून्य मंडल में लव लगाकर-गुरु नानक ने कहा। शून्य मण्डल के अमुक निशाने पर मन लगाओ, यह गुरु बता देंगे। वहीं पर ‘सुरत सिरोमणि घाट गुमठ मठ मृदंग बजै रे, और ‘झलक झाँझ मन मीन मजीरा, मधुर-मधुर धुनि मृदंग सुनीजै’ की अनुभूति हो जाएगी। कबीर साहब के शब्द में है कि- ‘दहिने सूर चन्द्रमा बायें तिनके बीच छिपाना है’ इसका रहस्य गुरु-कृपा से ज्ञात होगा। तब होगा-‘चमके बीज गगन के माईं।’ प्रथम ज्योति-दर्शन करो। तुलसी साहब (हाथरस) ने कहा है-
श्याम कंज लीला गिरि सोई।तिल परिमाण जान जन कोई।।
छिन-छिन मन को तहाँ लगावै।एक पलक छूटन नहिं पावै।।
स्रुति ठहरानी रहे अकासा।तिल खिरकी में निस दिन वासा।।
गगन द्वार दीसै एक तारा।अनहद नाद सुनै झनकारा ।।
                          यह तरीका संतों का है। यहाँ से ज्योति और शब्द दोनों मिलते हैं। ये दोनों हाथ परमात्मा के हैं। इन दोनों हाथों से परमात्मा अपनी गोद में ले लेता है। यह ध्यानविन्दूपनिषद् में है।
   यदि शैल समं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम् ।
    भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ।।
 अर्थात् कई योजन तक फैला हुआ पहाड़ के समान यदि पाप हो तो वह ध्यानयोग से नष्ट हो जाता है; इसके समान पापों का नष्ट करनेवाला कभी कुछ नहीं हुआ है। ध्यान के अतिरिक्त और किसी कर्म के करने से पाप नहीं छूटता है। युधिष्ठिर ने युद्धकाल के अति संकट में एक झूठ बोला था और उसका फल उनको भोगना पड़ा। युधिष्ठिर ने पहले भी बहुत शुभ कर्म किए थे और युद्ध के बाद भी शुभ कर्म किये, लेकिन झूठ का फल भोगना पड़ा। योगी को कोई पकड़ नहीं सकता। गोरखनाथजी का वचन है-
   काया हंस संगि ह्वै आवा । जाता जोगी किनहुँन पावा ।।
 अधिक पुण्य करने से पुण्यात्मा और अधिक बुरे कर्म करनेवाले को पापात्मा कहते हैं। और इसका फल दुःख होता है, नरक होता है। पुण्य से पाप नष्ट नहीं होता है, ध्यान से नष्ट होता है।’ ‘कृत कुमति काग सुभाग कलिमल कर्म धोइ बहावहीं।’ ध्यान वह चीज है कि जिससे क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध कोई भी कर्म हो, नष्ट हो जाता है। केवल विचार-ही-विचार से नहीं होगा कि हम आत्मा हैं, कर्म से छूटे हुए हैं। इससे लाभ कुछ नहीं होगा। ‘धन-धन कहत धनी जो होते निर्धन रहत न कोई।’ -कबीर साहब। इसके लिए कर्मयोगी बनना होगा। कर्म करना होगा और यदि आपका मनोभाव अच्छा है तो ठीक ही है।
 पहले मानस जप, मानस ध्यान, फिर ज्योति साधन और फिर शब्द-साधन करो। जो चेतन आत्मा शब्द में समा जाए, शब्द से पकड़ी जाए तो किसी भी तरह वह शब्द से छुड़ायी नहीं जा सकती। चाहे उसके शरीर को बाघ खराब कर दे या बिजली गिर जाय। वह शब्द-
अघोषम् अव्यंजनम् अस्वरं च अकण्ठतालवोष्ठमनासिकं च।
अरेफ जातं उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित्।।
                                                 -अमृतनाद उपनिषद्
 शब्द शब्द बहु अंतरा, वह तो शब्द विदेह ।
 जिभ्या पर आवे नहीं, निरखि परखि करि देह ।।
                                  -कबीर साहब
तुलसी तोल बोल अबोल वाणी बूझि लखि विरले लई ।
                         -तुलसी साहब (हाथरस)
 उसी शब्द को ऋषियों ने ओ3म् कहा है। संसार में जितने शब्द हैं, सबका प्रतिनिधि स्वरूप ओ3म् है। इस शब्द का उच्चारण करने से उच्चारण के सभी स्थान उच्चारण के काम में लगते हैं। मानो यह शब्द उच्चारण के सभी स्थानों में व्यापक है। इसकी यह व्यापकता संकेत रूप में इसका वाच्य ‘अबोल वाणी’ की सृष्टि भर में सर्व व्यापकता का बोध दिलाती है। यह शब्द संतों का ध्येय है। गुरु नानक ने कहा- ‘एक ओम् सतनाम करता पुरुष निर्भौ निर्बैर अकाल मूर्ति अयोनी सेभं गुरु प्रसादि जप।।’ कबीर साहब कहते हैं-पढ़ो मन ओना मासी धंग।
 ओंकार सबही जग सिरजे, शबद सरूपी अंग।।
 इस ‘अघोषम् ॐ ध्वनि’ को पाने के लिए नादानुसन्धान-सुरत-शब्द-योग करना होगा, जिस अभ्यास में ईश्वर-दर्शन और मोक्ष-लाभ में उपर्युक्त साधन की पूर्ण उपयोगिता पाटीगणित के हिसाब के समान धु्रव है। रुपया लाख-करोड़ भले ही नहीं देखा, लेकिन हिसाब तो जोड़कर ठीक-ठीक कह देते हैं।
 विज्ञान में पहले सिद्धान्त स्थापित करते हैं, फिर उसका निर्माण करते हैं। यहाँ भी पहले सिद्धान्त स्थापित होता है, फिर उसके लिए कर्म करना होता है। यह कर्म पहले से होता आया है। इसकी बड़ी विशेषता है। ज्योति शब्द को पकड़ाती है और शब्द परमात्मा को पकड़ाता है। जैसे हाथ, पैर, मुँह, नाक, कान में ईश्वर व्यापक है, उसी तरह ज्योति और शब्द में भी व्यापक है।
 जैसे पानी में चलते-चलते पानी के खतम होने पर सूखी जमीन मिलती है, उसी तरह ज्योति और शब्द को पार कर परमात्मा को पाते है। इसके लिए बहुत मन लगाकर ध्यानाभ्यास करना होगा और अपने को ऐसा बनाना होगा कि ‘नहिं अचाह नहिं चाहना चरणन लौ लीना रे।’ चरण में लौ लगाने के लिए अचाह नहीं और सांसारिक वस्तुओं की चाह नहीं रखो। इस कर्म के करनेवालों के लिए पंचशील का पालन आवश्यक होता है। पंचशील पालन करने के लिए भगवान बुद्ध ने कहा था। और संतों ने भी पंच पापों को नहीं करने के लिए कहा। परमात्म भक्त संसार में भी सुखी रहता है। उसके पास धन कम होते हुए भी वह राजा होता है। राजा कहना ठीक नहीं, राजा से भी बढ़कर होता है। राजा को संतुष्टि नहीं होती, भक्त संतुष्ट होते हैं। पंच पापों-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से बचकर रहने की कोशिश कीजिए, संसार में भी सुखी रहेंगे। इससे आपस में मेल होगा, प्रेम होगा, झूठ का व्यवहार नहीं रहेगा, सभी शान्तिपूर्वक रहेंगे।
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यह प्रवचन 52वाँ महाधिवेशन, सिकलीगढ़ धरहरा, पूर्णियाँ में दिनांक 7.3.1960 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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153. जीवों का उपकार
प्यारी धर्मानुरागिनी जनता !
 चेतन आत्मा शरीर के अन्दर है, इसमें किसी को संशय नहीं होना चाहिए। उसके ऊपर शरीर के आवरण हैं- स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महा- कारण के रूपों में। ये चारों किस्म के आवरण घूंघट हैं-परदे हैं। ये परदे खुल जायँ, तब ईश्वर- दर्शन हो जाय। चारों परदों से ऊपर उठा जाय, तब ईश्वर-दर्शन हो जाय। घमण्ड नहीं करो, अन्तर्ज्योति को ग्रहण करो, उसके अन्दर अपनी चेतन आत्मा को प्रवेश कराओ और अन्तर्नाद का साधन करो। इसी बात में यहाँ और वहाँ आपका कल्याण होगा। जो इस बात को जानकर भजन नहीं करते, उनके लिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है- ‘शूकर श्वान शृगाल सरिस जन, जनमत जगत जननि दुख लागी।’ केवल अपनी माता को कष्ट देने के लिए वे जन्म लेते हैं। बिल्कुल ठीक कहा। ईश्वर-भजन करो, घूँघट के पट से अपने को ऊपर उठाओ और शून्य में योग-युक्ति से प्रकाश करो। दादूदयालजी कहते हैं-
नीके राम कहतु है बपुरा ।
घर माहैं घर निर्मल राखै, पंचौं धोवै काया कपरा ।।
सहज समरपण सुमिरण सेवा, तिरवेणी तट संयम सपरा ।
सुन्दरि सन्मुख जागण लागी, तहँ मोहन मेरा मन पकड़ा ।।
बिन रसना मोहन गुण गावै, नाना वाणी अनभै अपरा ।
दादू अनहद ऐसैं कहिये, भगति तत्त यहु मारग सकरा ।।
 ये भी वही बात कहते हैं। घर के अन्दर घर को पवित्र रखो। स्थूल शरीर को शौचादि से पवित्र करो। सूक्ष्म शरीर को पवित्र करो उसके ऊपर से स्थूल शरीर को हटाकर। कारण शरीर को शुद्ध करो उसके ऊपर से सूक्ष्म शरीर को हटाकर और महाकारण शरीर को शुद्ध करो उसके ऊपर से कारण शरीर को हटाकर। पवित्रता के साथ-साथ गतिशीलता न हो, असंभव है। गतिशीलता से ही आवरण उतरते हैं। आवरणों से ऊपर उठकर आत्म- स्वरूप में रत होओ। संत लोग यही बात कहते हैं। हम लोग दैनिक, साप्ताहिक, मासिक और वार्षिक सत्संग करते हैं। बारम्बार दुहराने से बात याद रहती है। सत्संग में ईश्वर-भजन के लिए प्रेरणा मिलती है, इसलिए सत्संग करना चाहिए।
 आज इस समय यहाँ अ0 भा0 साधु-समाज के पुरैनियाँ जिला साधु-समाज के संयोजक आए हुए हैं और अपना लेखबद्ध वक्तव्य भी पाठ कर सबको सुनाया है। अतएव मैं भी उक्त साधु-समाज के विषय में कुछ कहूँ, उचित जँचता है। अखिल भारतीय साधु-समाज के संगठन का पहला काम साधु-समाज के सम्हाल के लिए अपेक्षित है। हम साधु लोग अपना सम्हाल करके जनता के सम्हाल के लिए भी प्रयास करें, यह उचित और आवश्यक है। मेरी परमात्मा से प्रार्थना है कि यह समाज उन्नति करता हुआ आगे बढ़े। यह समाज पहले अपना सम्हाल करे। जो महात्मा सुधरे हुए हैं, उनको कुछ कहना नहीं है। जो सुधरे हुए नहीं हैं, उनको अपना सुधार करना चाहिए। यदि गलती हो जाय तो सम्हलना चाहिए। साधु को वह काम नहीं करना चाहिए जो साधु के करने के योग्य नहीं हो। साधु को चाहिए कि पहले अपने को सम्हाल लें, फिर दूसरे को सिखावें। अपने को नहीं सुधार कर दूसरे को क्या सम्हालेंगे?
 मामूली ज्ञान में हम सब जीवात्मा हैं। ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी।’ जैसा मैं वैसा दूसरे। मैं सुखी-दुःखी होता हूँ वह भी सुखी-दुःखी होता है। मैं भी दूसरे की सहायता चाहता हूँ, वह भी चाहता है। उसकी माँग के पहले उसकी पूर्ति हम करें तो परमात्मा रंज नहीं हो सकते। एक भाई दूसरे भाई की सेवा करता है तो पिता खुश होते हैं। उसी तरह एक जीव दूसरे जीव की सेवा करता है तो परमात्मा प्रसन्न होते हैं। एक भाई दूसरे भाई की सेवा करो, जीवों का उपकार करो। मैं सेवा करने से रोकता नहीं। किन्तु ईश्वर-भजन करो और जनता की सेवा भी करो। महात्मा गाँधीजी ने बहुत भजन किया था, तब तो मरते समय मुँह से ‘हे राम!’ निकला। नहीं तो ‘बाप रे बाप’ क्यों नहीं कहा? ईश्वर-भजन नहीं करके और कामों को करना, मैं वैसा ही समझता हूँ, जैसा कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
सो सब करम धरम जरि जाऊ। जहँ न राम पद पंकज भाऊ।।
 ईश्वर-भजन छोड़कर जनता की सेवा अपवित्र सेवा है। अपने मन की हालत देखकर जानोगे कि तुममें कितनी पवित्रता या अपवित्रता है। सेवा पहले घर से होती है। बच्चे दाने-दाने के लिए तरसते हैं और अपने चले हैं जनता की सेवा करने। अपने घर की सेवा पहले करो, फिर जनता की भी सेवा करो। जो बहुत बड़े महात्मा हैं, जो ध्यान में मग्न रहते हैं, उनके लिए कुछ कहा नहीं जा सकता है। उनकी एक ही दृष्टि से जनता का क्या हो जाय, कहा नहीं जा सकता। वे जनता के लिए क्या-क्या सोचते हैं, करते हैं, वे ही जानते हैं।
 नशीली चीजों को छोड़ो। मैं साधु हूँ, मुझको गृहस्थ क्यों नहीं खिलावेगा, यह दाबी नहीं रखो। घर-घर का मेहमान नहीं बनो, अपनी कमाई करो, और खाओ। गृहस्थी में रहो या विरक्ति में रहो, काम-रोजगार करो और परमात्म-भजन करो।
 तुलसी कर पर कर धरो, कर तर कर न करो ।
 जा दिन कर तर कर करो, ता दिन मरन भलो ।।
                   -गोस्वामी तुलसीदासजी
संत कबीर साहब कहते हैं-
    मर जाऊँ माँगूँ नहीं, अपने तन के काज ।
    परमारथ के कारने, मोहि न आवै लाज ।।
 कोई कहे कि मैं माँगता नहीं हूँ, तो तुम कैसे नहीं माँगते हो? तुम किसी के यहाँ नहीं जाओ। जो कोई थोड़ा-थोड़ा कई घरों से माँग लेता है, वह विशेष भार नहीं देता है और जो एक ही आदमी के यहाँ जाकर खाता है, वह विशेष भार देता है। ईश्वर-भजन करो, अपना आचरण ठीक बनाओ, अपनी कमाई करके खाओ और जनता की सेवा भी करो।
 गुरु महाराज के प्रतिज्ञा-पत्र पर हमने हस्ताक्षर किए हैं कि-‘संतमत की उन्नति में तन, मन, धन से हमेशा मददगार रहेंगे।’ इसको मत भूलिए। संतमत की उन्नति इसलिए कि इससे अध्यात्म-ज्ञान का प्रचार होता है। इस ज्ञान को फैलाना चाहिए। इसमें स्वार्थ-परमार्थ दोनों हैं। इससे जनता का बड़ा लाभ होता है। ऐसा मत चूको कि किसी वार्षिक सत्संग में उपस्थित न होओ।
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यह प्रवचन 52वाँ महाधिवेशन, सिकलीगढ़ धरहरा, पूर्णियाँ में दिनांक 7.3.1960 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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154. नासाग्र ध्यान क्या है?
प्रिय आत्मवत् प्रियगण !
 भगवान श्रीकृष्ण से उद्धवजी ने पूछा था- मैं आपका ध्यान कैसे करूँ? श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कन्द में है। भगवान ने कहा कि पहले मेरे सर्वांग का ध्यान करो, फिर कहा-केवल मुखारविन्द का ध्यान करो। फिर कहा-उसको भी छोड़कर शून्य में ध्यान करो। यह तो भागवत में है। श्रीमद्भगवद् गीता के छठे अध्याय में है-‘नासाग्र में ध्यान करो। दिशाओं को देखना छोड़ दो।’ दोनों का मेल कैसे होगा? दिशाओं को देखना छोड़ने के लिए जानना चाहिए कि दिशाएँ दस होती हैं-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, चारो कोना, ऊपर और नीचे। इन दशो को छोड़ दो। दशो दिशाओं को देखना छोड़ने के लिए आँखें बन्द करनी पड़ेगी। आँख खुली रहेगी तो कोई-न-कोई दिशा देखी जाएगी। भागवत से मिलाने पर यह होगा कि दिशाओं को नहीं देखते हुए भगवान के सम्पूर्ण रूप का, फिर चेहरे का, फिर शून्य का ध्यान करो। दिशाओं को देखना, छोड़ने में यह मानना होगा कि पूरा रूप देखने के लिए सिर से पैर तक होता है, बाहर नहीं तो भीतर। उसको भी घटाने पर चेहरे में भी ऊपर-नीचे होता है। उसको भी छोड़ने पर बहुत ही सूक्ष्म हो जाता है। शून्य में ध्यान-नासाग्र में ध्यान होगा। दोनों को कैसे मिलाया जाय? शून्य में रंग-रूप कुछ बनाना है नहीं। चेहरे को छोड़कर, तब और कुछ सूक्ष्म होना है। जैसे सर्वांग से चेहरा कम फैलाव होता है, और उससे भी कम फैलाव होना चाहिए। वह है विन्दु। विन्दु का स्थान है, परिमाण नहीं है। इतना सूक्ष्म कि परिमाण-विहीन हो जाए। शून्य ध्यान कहो, चाहे विन्दु ध्यान कहो, एक ही बात हो जाएगी। गीता और भागवत दोनों की एक ही बात हो जाएगी। संतवाणी में भी शून्य ध्यान करने कहा है। कहीं-कहीं विन्दु ध्यान भी कहा है। कहीं-कहीं विन्दु को तिल भी कहा है। उपनिषद् में विन्दु को उत्तम ध्यान बताया है, परम विन्दु कहा है। बाहर में छोटे-से-छोटा र्चिं को लोग विन्दु कहते हैं, सो नहीं; परम विन्दु भी कहा है, तेजो विन्दु भी कहा है।
    बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
    सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
                                          -ध्यानविन्दूपनिषद्
 अर्थात् परम विन्दु ही बीजाक्षर है, उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अनाश ब्रह्म) में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है।
 तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम् ।
 अर्थात् हृदयस्थित विश्वात्म तेजस्स्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है।
 समझने की बात है कि आप देखते हैं कि सूर्यमुखी पत्थर होता है। सूर्य की तरफ स्थिर करके रखने से, सूर्य की किरण उस पर स्थिर होने से एक ज्योतिर्मय विन्दु हो जाता है। उसको स्थिर रखो तो आग भी लग जाती है।
 प्रयाग में एक बार प्रदर्शनी थी। हलवाई एक कड़ाह में घी रख देता था और सूर्यमुखी पत्थर को ऐसे बाँधे हुए था कि उसमें सूर्य की किरण लगकर घी पर पड़ता और घी खौलता था। वह उसी में पूड़ी छानता था। लोग तमाशा देखने जाते और मोल ले-लेकर खाते। इसी तरह आपके शरीर में जो दृष्टि की धारें हैं, वह ज्योतिर्मयी हैं। जाति से जाति तत्त्व को सहायता मिलती है। पानी-पानी के मिलने से पानी में बढत़ी होती है। अग्नि-अग्नि में मिले तो अग्नि बढ़ती है। दो लकीर एक जगह मिलने पर एक विन्दुता होती है। दृष्टि स्थिर हो, तो जो दो दृष्टिधार की लकीर है, एक मिलती है और ज्योतिर्मय विन्दु उत्पन्न हो जाता है। दृष्टि स्थिर होनी चाहिए। दृष्टि स्थिर रहेगी तो प्रकाश हो जाएगा।
 लोग कहते हैं-शून्य में क्या पाओगे? सूर्य कहाँ है, चन्द्र कहाँ है, तारे कहाँ हैं, पृथ्वी कहाँ है? शून्य के अन्दर क्या नहीं है! पृथ्वी शून्य के अन्दर है, पृथ्वी पर ही पेड़-पौधे, पहाड़ और धातुएँ मिलती हैं। सरकारी कानून नहीं रहे तो लोग पहाड़ से सोना ला सकते हैं। शून्य में क्या नहीं मिलता? भगवान का रूप शून्य में रहता है। शून्य नहीं रहे तो विराटरूप भगवान कहाँ रहते। भौतिक वैज्ञानिक जानते हैं, वे शून्य से क्या-क्या लेते हैं।
 दृष्टियोग का ध्यान जो शून्य में होता है, लोग समझ नहीं सकते हैं। दृष्टि को सँभाल कर एक जगह रख नहीं सकते हैं। मन को सँभाल नहीं सकते हैं। मन भागता रहता है। प्रत्याहार में वह हारता है। मन भागता है, समेटकर लाइए, इसी को प्रत्याहार कहते हैं। बारम्बार प्रत्याहार करते-करते धारणा होती है, मन थोड़ा टिकता है, फिर ध्यान बनता है, तब प्रकाश का दर्शन अवश्य होता है। उस समय विषय-वासना नहीं रहती। ठीक-ठीक ध्यान बने तो समझ में आ जाएगा कि शून्य ध्यान से क्या होता है? सम्पूर्ण शरीर से चेहरा पर आया तो फैलाव से सिमटाव में आया। फिर उससे भी सिमट गया, जब दृष्टि-साधन की क्रिया की। ज्योति बहुत प्रकार की हैं, सब ज्योतिरूप ईश्वर के हैं। उस रूप के अन्दर ईश्वर व्यापक हैं। इसलिए उसको हिरण्यगर्भ कहते हैं। हिरण्य अर्थात् सोना यानी प्रकाश। प्रकाश के अंदर जो है, वह है हिरण्यगर्भ। संतलोग कहते हैं-अन्तर्नाद भी मिलेगा। नाद जहाँ विलीन होगा, वह परम पद होगा। कहने के लिए थोड़ा है, लेकिन करते-करते बहुत समय लगता है। अन्दर में बहुत प्रकार के शब्द होते हैं।
 सातयें सात सहस धुनि उपजै, सुनि धुनि आनंद बाढ़ै।
 सहजहिं दीन दयाल दया करि, बूड़त भवजल काढै।।
                                 -संत धरनीदास
 शून्य के बिना शब्द नहीं मिलता। ज्योति में बहुत-बहुत ऋद्धि-सिद्धि का बल मिलता है। शब्द में और विशेष मिलता है। इसलिए,
   सतगुरु सब कुछ दीन्ह, देत कछु ना रह्यो ।
   हमहिं अभागिन नारि, सुख तजि दुख लह्यो ।।
        - संत कबीर साहब
 ऐसी कुंजी दे दी है कि उसको खोलकर देखो तो कितनी चीजें मिलती हैं? पहले शिक्षा तब दीक्षा होती है। बिना शिक्षा के दीक्षा किसी काम की नहीं। समझ में नहीं आवेगा कि क्या बात हुई।
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यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 22.3.1960 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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155. भक्ति का आरम्भ कहाँ से ?
प्यारे लोगो !
 मनुष्य ईश्वर की भक्ति करे, इसी में मनुष्यता है। विषय-सुख में तृप्ति नहीं। इससे अपने को ऊपर उठाया जाय। जाना जाय कि इससे विशेष कोई सुख है कि नहीं? जानने में आ सकता है कि इससे विशेष सुख आत्म-सुख-ईश्वर-प्राप्ति का सुख है। इसी में शान्ति है। इसी के वास्ते ईश्वर की भक्ति है।
 विषयों से अपने को हटाकर ईश्वर में संलग्न रहना भक्ति है। विषयों से हटाने का तात्पर्य रूप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्श से अपने को अलग कर रहने से है। तब संलग्न रहे। तब किधर संलग्न रहेगा? निर्विषय की ओर। जो कोई अपने को विषयों से हटावेगा, वही ईश्वर की ओर रहेगा।
 भक्ति केवल इतना ही नहीं है कि किसी एक स्थूल-व्यक्त रूप में प्रेम करो। वहाँ से आरम्भ करो, यह अयोग्य नहीं है। जैसे किसी पथिक को कहीं जाना है, तो वह वहीं से चलता है, जहाँ वह रहता है। लेकिन पहला ही कदम निर्दिष्ट स्थान पर नहीं पहुँचता है। चलते-चलते वहाँ पहुँचता है। उसी तरह भक्ति का आरम्भ यहाँ से करो। जैसे चलनेवाले एक-एक जगह को छोड़ता हुआ चलता है, उसी तरह तुम भी साधना का आरम्भ कर स्थूल को छोड़कर फिर उससे भी आगे बढ़ो। इस तरह बढ़ने से ऐसा नहीं हो जाता कि ब्रह्म की सत्ता उससे छूट गई। जैसे कहीं जाते हैं, तो वहाँ शून्य रहता है। उसी तरह कितना भी बढ़ते जाओ, ईश्वर संग ही रहते हैं। पहले स्थूल रूप में तुम मन लगाते थे, अब तुम सूक्ष्म विषय में आ गए तो क्या परमात्मा उस सूक्ष्म विषय में नहीं है? परमात्मा सर्वव्यापी हैं, तो वहाँ कैसे नहीं हैं? जैसे किसी आदमी ने अपनी ऊपरवाली पोशाक बदल दी, नीचे वाली पोशाक में रहा, तो क्या पोशाक पहननेवाला बदल गया? गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
देस काल दिसि विदिसहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं।।
 इस बात को क्यों भूलते हो? कितने का ख्याल है-‘ईश्वर आवेंगे और दर्शन देंगे। जिस रूप का ध्यान करते हैं, वह दर्शन देकर मनोवांछित फल देंगे।’ और यही भक्ति की पराकाष्ठा मानते हैं। दूसरे कहते हैं कि तुम्हीं चलो। तुम इन्द्रिय-गोचर नहीं हो-अव्यक्त हो। शरीर जड़ है और तुम चेतन आत्मा हो। यह चेतन आत्मा जहाँ से चले, वहीं से ईश्वर-भक्ति का आरम्भ होता है। जिन आवरणों में वह चेतन आत्मा रहती है, उनसे अपने को उठा लो। शंकराचार्यजी की भाषा में आत्मा- नुसंधान होना चाहिए। निज स्वरूप को प्राप्त करने, जान लेने, पहचान लेने की अवस्था जिसको आ गई, वही सारे आवरणों से हटाकर अपने को रखेगा। उसके लिए ईश्वर कहाँ छिपा रहेगा? यही ईश्वर-दर्शन है और भक्ति की पराकाष्ठा है।
 इद्रियों से जो रूप-दर्शन होता है, वह ईश्वर के माया-रूप का दर्शन है। ईश्वर के आत्मरूप का दर्शन नहीं हुआ और यह दर्शन नहीं हुआ, तो ईश्वर-दर्शन कैसे हुआ? श्रीराम, श्रीकृष्ण का दर्शन अहोभाग्य है, जिस समय में ये लोग थे, उस समय में बहुतों को उनके दर्शन हुए। लेकिन सबका ऐसा ख्याल नहीं हुआ कि ईश्वर-दर्शन हो गया। भावना के भगवान थे।
जाकी रही भावना जैसी । प्रभु मूरति देखी तिन तैसी ।।
 सबसे पहले किसकी पूजा हो, इसमें पाण्डव भी घबड़ाये; लेकिन भीष्म ने श्रीकृष्ण की पूजा करने का निश्चय दिया। उसी सभा में शिशुपाल भी था। जो भगवान का विरोध करता था और वह मारा भी गया। भगवान श्रीराम स्वयं कहते हैं-
एहि तन कर फल विषय न भाई।स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदायी।।
 ये लोग इन्द्रिय-ग्रहण होनेवाले विषयों को लेने नहीं कहते। इन विषयों से आगे बढ़ने के लिए भगवान श्रीराम ने उपदेश दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विचार दिया। इस सत्संग में ऐसा नहीं कहा जाता कि स्थूल-उपासना का अनादर करो। स्थूल-सगुण-साकार की उपासना भी करो और उससे आगे बढ़ने के लिए भी चेष्टा करो।
 जो कोई ऐसा विचार रखते हैं कि स्थूल- सगुण रूप को छोड़कर सूक्ष्म-सगुण-रूप में जाने से ईश्वर छूट गए, यह संकुचित ज्ञान है। वह ईश्वर को सर्वव्यापी नहीं जानता। मायारूप का भी दर्शन करो और इससे आगे भी बढ़ो। मायारूप में ही लिपटकर नहीं रह जाओ। यही इस सत्संग से प्रचार होता है। और जो कोई अपने को ईश्वर मानता है, तो वह समाधि में ऐसा हो सकता है। लेकिन संसार में द्वैत-मण्डल में ईश्वरत्व का भाव लेकर कोई बरते, असम्भव है। इसलिए श्रीराम पर, श्रीकृष्ण पर भी लोग संशय करते हैं।
 समाधि-साधन करो, ऐसा हो सकता है। विचार-ही-विचार में कोई ईश्वर नहीं हो सकता। अभी आपने पाठ में सुना-
 ‘शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ।’
 शब्द-साधना से भक्ति का अन्त होता है। जब तक ईश्वर-दर्शन नहीं होगा, भक्ति साथ नहीं छोड़ सकती। इसीलिए-
 भक्ति बीज पलटै नहीं, आय पड़ै जो चोल ।
 कंचन जौ ं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।
 भक्ति बीज बिनसै नहीं, जो युग जाय अनंत ।
 ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।।
                         -संत कबीर साहब
 जहाँ तक बने, ईश्वर की भक्ति करो। ईश्वर की भक्ति छोड़कर जो रहते हैं, वे अपना अपकार आप करते हैं। इससे बढ़कर और अपकार क्या हो सकता है?
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यह प्रवचन सन्तमत-सत्संग आश्रम, मनिहारी, कटिहार में दिनांक 26.03. 1960 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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156. हमलोगों को पूरा मनुष्य होना चाहिए
प्यारे लोगो !
 स्वार्थ और परमार्थ इन दो शब्दों को लोग बोलते हैं। अर्थ जानते हैं और समझते भी हैं। इन दोनों से मनुष्य का जीवन बन जाना चाहिए। जीवन- भर स्वार्थ और परमार्थ का मेल रहे, यही संसार में रहने का अच्छा ढंग है। जो केवल स्वार्थ-ही-स्वार्थ में रहते, परमार्थ-चिन्तन नहीं करते, उनका जीवन अच्छा नहीं है। केवल परमार्थ ही हो, स्वार्थ नहीं, तो जीवन ही नहीं रहे। स्वार्थ का अर्थ लोग करते हैं-‘अपने लिए सांसारिक-सुख का अर्जन और उसमें संलग्नता।’ इस अपने का अर्थ है शरीर, इन्द्रिय, मन-बुद्धि से जो सुख प्राप्त होता है, जो इनको सुहाता है; वह अपने लिए करते हैं। इसको स्वार्थ-साधन कहते हैं। परमार्थ का अर्थ यह है कि शरीर, मन आदि से परे जो अपनी स्थिति है। अपनी अर्थात् चेतन आत्मा; उसके लिए जो सुख का अर्जन है, चिन्तन है, वह परमार्थ है। इन दोनों से मिल-जुलकर जीवन बनाना चाहिए।
 संसार में फँसा रहकर, उसमें डूबा रहकर कभी भी शान्ति और सन्तुष्टि नहीं आयेगी। स्वार्थ के साथ परमार्थ मिलकर रहे, तो इन्द्रिय-सुख में संलग्नता अधिक नहीं रहेगी, हल्की रहेगी। आत्म- संलग्नता बढ़ेगी। इससे अपने का प्रत्यक्ष-ज्ञान होगा। केवल शरीर का ज्ञान नहीं, निजत्व-आत्मस्वरूप में संलग्नता आवेगी। उसमें संलग्नता आने पर ऐहिक-सुख-सांसारिक-विषयों की आसक्ति घट जाएगी। इसलिए कि आत्म-संलग्नता का सुख विषय-सुख से अधिक है। विषय-सुख कम होते-होते वह ऐसा संसार में और शरीर में रहेगा, जैसे शरीर- संसार में वह है ही नहीं। और तभी मनुष्य-जीवन का फल है। मनुष्य-जीवन का फल यह नहीं कि पशु की तरह रहें।
 आत्म-चिन्तन करे, विषय-भोग में लगा रहे, यह पशु-जीवन है। आत्म-चिन्तन के अन्दर-अन्दर परमात्मा की भक्ति है। जो ईश्वर-भक्ति में आसक्त होता है, वह ईश्वर को पहचानता है। जैसे संसार को पहचानने से संसार में आसक्ति होती है, उसी तरह ईश्वर को पहचानने पर उसमें आसक्ति होती है और परमात्म-सुख को पाता है। वह आत्मरत रहेगा। कर्मफल उसको नहीं लगेगा। यही पूरे मनुष्य का कर्त्तव्य है। हमलोग आत्मरत होकर आत्म-चिन्तन करके परमात्मा की प्राप्ति करें और उसके सुख को भोगें, यह मनुष्य-शरीर का काम है। यदि भोगमय जीवन है, तो पशु-जीवन के समान ही है। आत्म-चिन्तन या आत्मरत दो शब्द हैं; लेकिन बात एक ही है।
 अपने अन्दर अपना निशाना है, अपने उस पर संलग्न रहता है, तो वह आत्मरत होने की कोशिश करता है और इसी को आत्मरत हुआ जाता है। जो कोई इसकी साधना करता है, तो वह उस केन्द्र में केन्द्रित होता है, जहाँ से इसका विस्तार हुआ है। सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है, ऊर्ध्वगति में आवरणों का छेदन होता है। इस तरह वह माया-मण्डल को पारकर परमात्मा को प्राप्त करता है। ऐसा ही पूरा मनुष्य होता है। हमलोगों को पूरा मनुष्य होना चाहिए। सत्संग करना चाहिए, भजन करना चाहिए। भजन का अर्थ केवल गीत गाना नहीं है। हमलोग सत्संग करते हैं, यह भी एक प्रकार का भजन है।
 ईश्वर क्या है? संसार क्या है? इसका बोध दुर्गम और गंभीर है। बहुत सत्संग, साधन, गुरु-सेवा से इसका अच्छा बोध होता है। इस संसार में हम देखते हैं कि पृथ्वी है, इसके अतिरिक्त और चार तत्त्व हैं। पृथ्वी से अन्न उपजता है। विशेषज्ञ कहते हैं कि हीरा, मोती सभी मिट्टी से बने हैं। मिट्टी के ये रूपान्तर हैं। पानी से वाष्प और बर्फ बनते हैं, यह हम देखते हैं। इस बनावट को देखकर जाना जाता है कि सृष्टि-रचना में बनावट होती है। इसका कुछ मूल है, जिससे बनावट होती है। उसी मूल चीज को प्रकृति कहते हैं। प्रकृति में रूपान्तर होता है अर्थात् बनता है, रहता है और मिटता है। बनना, रहना, मिटना इस तरह संसार में होता है। बनने के तासीर को रजोगुण, रहने के स्वाभाव को सतोगुण और मिटने के कार्य को तमोगुण कहते हैं। इन तीन गुणों के कारण हम ऐसा देखते हैं। तीन गुणों के समरूप को प्रकृति कहते हैं।
 ईश्वर की मौज से कोई गुण बढ़ता है, कोई घटता है। प्रकृति पहले से है या पीछे से है, इस पर बहुत बहस है। कोई कहते हैं, प्रकृति पहले से है। कोई कहते हैं ईश्वर सबसे पहले से है। वेद में आया कि प्रकृति और जीव अनादि हैं। लेकिन ईश्वर इन दोनों से पूर्व का है। ईश्वर असीम-अनादि है, अनन्त है। इस तरह का दूसरा पदार्थ नहीं हो सकता है। यदि ऐसा तत्त्व दूसरा माना जाय और कहा जाय कि एक दूसरे में व्यापक है, तो उसके परमाणु में भी वह व्यापक होगा। तब दोनों तत्त्व एक ही हो जायेंगे। प्रकृति होने से देश और काल बनते हैं। इसलिए देश-काल के ज्ञान से प्रकृति अनादि है; किन्तु ऊपज-ज्ञान से सादि है।
 अन्तःकरण में व्याप्त जो परमात्मा का अंश है, वह जीव है। वह परमात्मा का अंश है, इसलिए इसको वैसा अनादि-अनन्त कहें। लेकिन जीवत्व-दशा के कारण इसे सादि कहते हैं। यह कब हुआ है, इसका समय बताया नहीं जा सकता है। इस तरह जीव, ईश्वर और प्रकृति के विषय में जानना चाहिए। जबतक इनको लोग नहीं जानते हैं, तबतक स्वार्थ-परमार्थ को भी नहीं जानते हैं। इसके लिए सद्गुरु का संग, सद्ग्रन्थ-अवलोकन और सत्संग की बड़ी आवश्यकता है। स्वार्थ और परमार्थ दोनों के लिए विद्या चाहिए। अपने देश के लोग विद्या में बहुत पीछे हटे हुए हैं। अवश्य ही पहले से अभी कुछ अधिक बढ़े हैं। लोगों को चाहिए कि अपने जितनी विद्या अर्जन किए हैं, अपनी सन्तान को उससे अधिक सिखावें। जो बूढे़ हो गए हैं, उनको भी चाहिये कि सत्संग करें, भजन करें, सत्संग के रहस्य को समझें और अपना जीवन सफल बनावें।
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यह प्रवचन प्रथम वार्षिक अधिवेशन, बड़हरा, पूर्णियाँ ग्राम में दिनांक 10.4.1960 ई0 को में प्रातःकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था।
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157. योग का रहस्य
प्यारे धर्मानुरागी सज्जनवृन्द!
 संसार में हमलोग रहते हैं और सुखी होकर रहना चाहते हैं, सो हम उस तरह रहते हैं या नहीं रह सकते हैं, प्रत्येक आदमी इसका विचार अपने अन्दर करें। अगर मुझसे पूछा जाय कि तुम किस तरह रहते हो? तो मैं कहूँगा कि मैं सुख से नहीं रहता हूँ।
 जिसको लोग सुख कहते हैं, उसमें मैं बहुत दुःख देखता हूँ। लोग शरीर, इन्द्रिय और मन को जो सुहावे, उसी को सुख मानते हैं। मैं सोचता हूँ कि इन सुहावने पदार्थों को-जिनमें शरीर, इन्द्रियों और मन को लगाकर सुख मालूम करते हैं; वे पाँच ही हैं- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द; इन पाँचों से विशेष नहीं। इन पाँचों में जब हम संलग्न होते हैं, तो इनके संग्रह में महाप्रयास; लेकिन जीवन भर संग्रह करते रहो, कभी तृप्ति नहीं। किसी को इनसे पूर्ण तृप्तिदायक सुख नहीं हुआ, संग्रह करने में यह बात है। यत्कि०चत् जो कुछ भी संग्रह हो, उसमें बहुत प्रयास। संग्रह करने के योग्य बनो, इसमें भी बहुत प्रयास। संग्रह करके उसको भोगो तो, वह भोग बताता है कि हमसे तुम तृप्त नहीं होओगे। जो संग्रह करने में प्रयास किया, योग्य बनने में प्रयास किया, जो संग्रह हुआ, उसका फल यही हुआ कि तृप्ति नहीं और जहाँ तृप्ति नहीं, वहाँ सुख कैसा? अतृप्त आदमी चिन्तित रहता है। सबके लिए ऐसी बात है, केवल मेरे लिए ही नहीं। फिर भी मन हारता नहीं या तो अधिक-अधिक विषयों को खोजता है या इनसे मुड़कर निर्विषय की ओर चलता है उस तुप्तिदायक सुख को ढूँढ़ने के लिए।
 एक कैदी को कारागार में आराम से रखा गया। एक सुग्गे को आराम से पिंजड़े में रखा गया। दोनों को आराम से रखा गया, फिर भी कैदी है। कैद में रहने के कारण चाहता है कि मैं इससे छूट जाऊँ, स्वतंत्र होकर रहूँ। स्वतंत्रता का सुख उसको नहीं होता। वह सोचता है, जैसे और सुग्गे आकाश में उड़ रहे हैं, उसी तरह मैं भी आकाश में उड़ता। हम सभी पिंजड़े में बन्द हैं, यह संसार भारी कारागार है। एक-एक शरीर एक-एक कोठरी है। पहरेदार कोई नहीं है, और हम स्वयं इसमें रहना चाहते हैं।
 अन विचार रमणीय महा संसार भयंकर भारी ।
 संसार को देखो, विषयों की लालसा बढ़ती जाएगी। विषयों की लालसा बढ़ने से और मिले और मिले, इसकी तृष्णा में खूब दौड़ते हो और अन्त में थक जाते हो। जरा-सा आराम किया और फिर दौड़े। इसी तरह दौड़ते-दौड़ते जीवन खत्म हो जाता है। इस तरह भी कैदखाना छूट जाय तो ठीक है, लेकिन ऐसा होता नहीं। एक शरीर छूटा तो फिर दूसरे शरीर रूप कैदखाने में जाना पड़ता है। किसी लोक में जाना, फिर इस लोक में आना, आयु भर रहना, फिर जाना, इस तरह आवागमन के चक्र में हमलोग पड़े रहते हैं।
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अविनासी।।
फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म स्वभाव गुण घेरा ।।
                         -गोस्वामी तुलसीदास
इसमें कभी शान्ति-संतुष्टि नहीं। शान्ति-संतुष्टि नहीं, तो सुख कहाँ? सूरदासजी ने सूरसागर में कहा है-
अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यों गूँगहिं मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै ।।
परम स्वाद सबही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै ।
मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै।।
रूप रेख गुन जाति जुगुति बिनु, निरालंब मन चक्रित धावै ।
सब विधि अगम विचारहि तातें, ‘सूर’ सगुन लीला पद गावै ।।
 सूरदासजी महाराज पता बताते हैं कि तुम किधर जाने से सुख पाओगे। जो सर्वव्यापी है, उसके मिलन का परम स्वाद है। साधारण स्वाद को भी कोई बता नहीं सकता। रामरस स्वाद में कैसा होता है, कोई बता सकता है? गुड़ के मिठास में और मिश्री के मिठास में क्या फर्क है, कोई बता सकते हैं? तन्द्रा में एक चैन-सा मालूम पड़ता है, वहाँ कोई इन्द्री नहीं है, और गहरी नीन्द में इतना सुख होता है कि बेहोश हो जाते हैं। सोकर उठते हैं तो कहते हैं कि आज खूब सोया। इसका कोई वर्णन कर सकता है? परम स्वाद सब स्वादों से विशेष होता है। वह स्वाद हमेशा लगा रहता है और ‘अमित तोष उपजावै’ यह फल है उसका। सूरदास जी कहते हैं कि यहाँ कहाँ सुख है? सर्वव्यापक को साधारण लोग जान भी नहीं सकते। जिसकी बुद्धि सात्त्विक है, तीव्र है, वह उसको समझ सकता है। पूरी श्रद्धा, पूरा विश्वास तब होता है, जब प्रत्यक्षता होती है। प्रत्यक्षता नहीं होने के कारण परम स्वाद नहीं। तब अमित तोष कहाँ और बिना संतोष के सुख कहाँ? हम सुखी होना चाहते हैं, लेकिन इन्द्रियों के द्वारा विषयों के ग्रहण में थोड़ा रस मालूम होता है। इसीलिए उसका सुख अतृप्तिदायक, तृष्णावर्द्धक और अल्प है। हमलोग जबतक आवागमन के चक्र में पड़े रहेंगे तब तक ऐसा ही होगा। विषयों में चैन कहाँ? परमात्मा से तुम्हारा निजी योग हो, तब अमित तोष और परम स्वाद मालूम हो। मुझे तो इस निर्णय का पूर्ण विश्वास है। इसी से इसमें लगा हूँ और दूसरों को भी इसमें लगाता हूँ। कबीर साहब ने कहा है-
 अवधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भावै।।टेक।।
 घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि वन नहिं जावै।
 वन के गए कलपना उपजै, तब धौं कहाँ समावै।।
 घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरु अलख लखावै।
 सहज सुन्न में रहै समाना, सहज समाधि लगावै।।
 उनमुनी रहै ब्रह्म को चीन्है, परम तत्त को ध्यावै ।
 सुरत निरत सां मेला करिकै, अनहद नाद बजावै।।
 घर में बसत वस्तु भी घर है, घर ही वस्तु मिलावै ।
 कहै कबीर सुनो हो अवधू, ज्यों का त्यों ठहरावै।।
 सन्तलोग जिस काम को पसन्द करते हैं, उसी ओर दूसरे को लगने कहते हैं। माता-पिता अपने बच्चों को प्यार करते हैं। चाहते हैं कि मैं मर जाऊँ, लेकिन मेरे बच्चे रहें। लोग चाहते हैं कि मेरा वंश रहे। मेरी वंश-परम्परा रहे। संत लोग भी यही चाहते हैं। पिता के समान संत भी प्यार की दृष्टि से जनसमूह को देखते हैं। पिता संत हो, तब तो कहना ही क्या। विद्वान पिता अपने पुत्र को जहाँ तक जानते हैं, विद्या देते हैं, उसको सुख देते हैं। अगर कोई भूले हों, उसको रास्ता भी बताते हैं। अबधू का अर्थ कुछ लोग अवधूत और कोई अबुध अर्थ करते हैं। अबुध = ज्ञान विहीन। जिसको ज्ञान की कमी है, उसके लिए संत लोग कहते हैं, उसको घर लाओ। सभी कोई सुख को चाहते हैं। जिस मिठाई में थोड़ा-सा जहर हो, उसको खाना नहीं चाहिए। इसका जहर एक जन्म से दूसरे जन्म तक पीछा करता है।
चेत सबेरे चलना बाट ।
मन माली तन बाग लगाया,चलत मुसाफिर को विलमाया।
विष के लड़वा देत खिलाई, लूट लीन्ह मारग पर हाट ।। -संत कबीर साहब
 यह सवाल है कि सर्वव्यापी की ओर हम रहें कि संसार की ओर? भूख-प्यास लगने से कोई काम करने का मन नहीं होता है। केवल भोजन और पान करने की ओर मन लगा रहता है। शरीर में रोग हो जाय तो उसकी चिकित्सा हम कराते हैं। शारीरिक सुख को हम तिलांजलि दें, ऐसा नहीं हो सकता है। शारीरिक सुख के लिए संसार में कुछ काम करना पड़ेगा। शारीरिक सुख ऐसी मोटरी है, जिसके अन्दर संसार के सभी सुख हैं। संसार के सुख में भी रहना होगा और सर्वव्यापी की ओर भी होना पड़ेगा। इसलिए कबीर साहब ने कहा-
 घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि वन नहिं जावै ।
 मैंने 1904 ई0 में यह फकीरी वेश लिया। 1909 ई0 में सद्गुरु बाबा देवी साहब से भेंट हुई। गुरु महाराज ने कहा कि तुम क्या करने चले हो? उन्होंने पूछा कि तुम साधु बनने चले, तुम्हारे खाने का इन्तजाम क्या है? कुछ दिन तक टाल-मटोल रहा। पीछे उनके आदेश से इन्तजाम किया। अब जो है, उनकी कृपा से काफी है। भिक्षा माँग-माँग कर द्वार-द्वार का मेहमान बनने से संसार-परमार्थ किसी तरफ के नहीं होओगे। संसार में रहकर संसार से छूटने का काम करो, तब सुखी रह सकोगे।
 गीता में भी भगवान ने कर्मयोग की शिक्षा दी। कर्म करो और उसके फल में आसक्त मत बनो। थोड़े में संतुष्ट रहो। कबीर साहब बड़े संतुष्ट थे। इसीलिए उन्होंने कहा-
   घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरु अलख लखावे ।।
 अलख, अव्यक्त और सर्वव्यापक एक-ही- एक है। उससे निजी योग का रहस्य गुरु से सीखो। रहस्य क्या है? तो कहा-
      सहज सुन्न में रहै समाना, सहज समाधि लगावै।
 जो स्वाभाविक शून्य है उसमें समाओ और जो ध्यान आसानी से हो, सो करो। घर में बहुत वस्तु हैं, सबको बाहर निकाल दीजिए। तब केवल शून्य रह जाता है, जो निकाला नहीं जा सकता। ऐसा ध्यान करो कि मन से मायिक सभी वस्तुएँ निकल जाएँ और अपने उन सबसे ऊपर उठ जावे। तब क्या बचेगा? कोई आवरण नहीं, कोई ढक्कन नहीं, तभी सर्वव्यापी का दर्शन होता है और अपना योग उससे होता है। यह बहुत ध्यानाभ्यास करने से होता है।
सत गुरु अगम अगम है ठाकुर भरि सागर भगति करीजै ।
                            -गुरु नानक साहब
 सार शब्द अर्थात् प्रणव-ध्वनि से सृष्टि हुई है। इस ध्वनि को परम तत्त्व भी कहा जा सकता है। इसको प्राप्त कर परमात्मा का दर्शन होता है। गरीब-अमीर जैसे हो, वैसे रहो और ऐसा गुरु खोजो जो तुमको परम तत्त्व को बतावे। श्रीकृष्ण भगवान के कहे अनुकूल आसक्ति रहित होकर कर्म करो। गुरु नानकदेवजी ने कहा-
 सब किछु घर महि बाहरि नाहीं ।
   बाहरि टोलै सो भरमि भुलाहीं ।।
 परम सुखी होने के लिए बाहर भागने की जरूरत नहीं। अपने अन्दर में चलो। साधन करो। संसार के कर्म निर्लिप्त दशा में रह कर करो। जो पाप-बुद्धि से काम करता है, उसकी निर्लिप्त दशा नहीं हो सकेगी। निर्लिप्त दशा में रहकर जो कुछ करेगा, उसको परम सुख मिलेगा, कारागार से छुटकारा मिलेगी।
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यह प्रवचन दिनांक 15.4.1960 ई0 को मुंगेर जिला का द्वितीय वार्षिक अधिवेशन मुंगेर टाऊन हॉल में प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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158. सविकल्प निर्विकल्प समाधि
प्यारे लोगो !
 वीर्यवान को भजन करने में बल मिलता है। व्यायाम से शरीर का बल, विद्या से मस्तिष्क का बल बढ़ता है। अगर शरीर कमजोर हो, तो वह कहाँ तक व्यायाम करेगा! उसी तरह जिसका मस्तिष्क कमजोर है, पौष्टिक तत्त्व शरीर से निकल गया है, वह न तो भजन कर सकता है और न विद्याध्ययन ही। वेदों से ही वीर्यवान बनने का यह ज्ञान आया है और अभ्यासी ने अभ्यास द्वारा इसको आजमाकर देखा है।
 जानना केवल बौद्धिक ज्ञान से ही नहीं होता है। बौद्धिक ज्ञान परोक्ष ज्ञान है। पूर्ण ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान में होता है। परोक्षज्ञान में होता है कि वस्तु ऐसी वा वैसी है। अपरोक्ष का अर्थ प्रत्यक्ष और परोक्ष का अर्थ अप्रत्यक्ष होता है। शरीर छोड़ने से पहले ब्रह्मज्ञान होना चाहिए। ब्रह्मज्ञान विचार में अपूर्ण होता है। जिसने भजन करके प्रत्यक्ष जाना, उसी का ज्ञान पूर्ण हुआ। जिसने जीवन-काल में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरह का ज्ञान प्राप्त किया, वही आवागमन से छूटता है। जिसने नहीं प्राप्त किया, वह जन्म-मरण के चक्र में रहता है। इसका अर्थ हुआ कि जीते-जी मुक्ति प्राप्त करने कहा। संत- महात्माओं ने जीते-जी मुक्ति का उपदेश दिया है-
जीवत मुक्त सोइ मुक्ता हो ।
जब लग जीवत मुक्ता नाहीं, तब लग दुख सुख भुगता हो।।
देह संग ना होवै मुक्ता, मुए मुक्ति कहँ होई हो।
तीरथबासी होय न मुक्ता, मुक्ति न धरनी सोई हो।।
जीवत भर्म की फाँस न काटी, मुए मुक्ति की आसा हो।
जल प्यासा जैसे नर कोई, सपने फिरै पियासा हो।।
ह्वै अतीत बंधन तें छूटै, जहँ इच्छा तहँ जाई हो।
बिना अतीत सदा बंधन में, कितहूँ जानि न पाई हो।।
आवागमन से गये छूटि के, सुमिरि नाम अबिनासी हो।
कहै कबीर सोई जन गुरु है, काटी भ्रम की फाँसी हो।।
 लोग कहते हैं कि सब इच्छाओं को छोड़कर मोक्ष की इच्छा भी छोड़ दो। मोक्ष की इच्छा तो आप ही छूट जायगी। जैसे कि भूख लगी और भोजन किया। भोजन करने पर खाने की इच्छा आप ही छूट जाती है। भजन-अभ्यास करने के लिए बल होना चाहिए। मनुष्य का शरीर-बल, मस्तिष्क-बल भी भजन करने के योग्य होना चाहिए। कितने कहते हैं औंघी (नींदं) लगती है। कितने कहते हैं कि पहले जैसा भजन होता था, वैसा अब नहीं होता है। मैं कहता हूँ, करते रहो, जैसा बनता है; धीरे-धीरे बनेगा। अपने रहने के स्थान की रक्षा करो। भोजन का प्रबन्ध करो और भजन करो। अपने रहने के स्थान की रक्षा करनी देश-सेवा है। बिना उपार्जन किए अन्न-वस्त्र कहाँ से मिलेगें। इसलिए उपार्जन करो। इस जन्म में जैसी मन-बुद्धि है, भजन करने पर उससे अधिक बढ़िया शरीर और मन-बुद्धि आगे जन्म में होंगे। बारम्बार मनुष्य का जन्म होगा और उतना ही वह अधिक तेज होगा। जिस जन्म में वह परमात्मा को प्राप्त करेगा, उस जन्म में उसकी मुक्ति हो जायगी। संत दादू दयालजी कहते हैं-
 जीवत छूट ै देह गुण, जीवत मुक्ता होइ ।
 जीवत काटे कर्म सब, मुक्ति कहावै सोइ ।।
 जीवत जगपति कौं मिलै, जीवत आतम राम ।
 जीवत दरसन देखिये, दादू मन विसराम ।।
 जीवत मेला ना भया, जीवत परस न होइ ।
 जीवत जगपति ना मिले, दादू बूड़े सोइ ।।
 मूआँ पीछे मुकति बतावै, मूआँ पीछै मेला ।
 मूआँ पीछै अमर अभै पद, दादू भूले गहिला ।। मरने के बाद मुक्ति नहीं होती, जीते-जी मुक्ति हासिल करो। गोस्वामी तुलसीदासजी ने बड़ा ही अच्छा कहा है-
 लहहिं चारि फल अछत तनु, साधु समाज प्रयाग ।
 सत्संग के द्वारा क्या विचार ग्रहण करें, इसका निर्णय होना चाहिए। निर्णय हो, तो साधन करना चाहिए। सत्संग करने से साधन करने में प्रेरणा मिलेगी। साधन करने से बल बढ़ेगा उस मार्ग पर चलने के लिए। गुरु नानकदेव ने कहा है-
जा मारग के गने जाय न कोसा। तहँ हरि के नाम सदा संतोषा।।
 जो आज रास्ते पर चलना शुरू कर दे, तो कभी न कभी अवश्य खत्म होगा। जो शुरू ही न करे, तो क्या बढ़ेगा?
 मारग चलते जो गिरै, ताको नाहीं दोस ।
 कह कबीर बैठा रहे, ता सिर कररा कोस ।।
कठोपनिषद् में आया है-
 इन्द्रियेभ्यः परं मनो मनसः सत्त्वमुत्तमम् ।
 सत्त्वादधि महानात्मा महतो ऽव्यक्तमुत्तमम् ।।
 अर्थात् इन्द्रियों से मन पर (उत्कृष्ट) है। मन से बुद्धि श्रेष्ठ है। बुद्धि से महतत्त्व बढ़कर है तथा महतत्त्व से अव्यक्त उत्तम है।
 शरीर में इन्द्रियाँ न होतीं, तो शरीर किसी काम का नहीं। एक इन्द्रिय के बिगड़ने से शरीर बेकाम हो जाता है। जब सब इन्द्रियाँ बिगड़ जायँ, तब क्या हो सकता है? शरीर की शोभा के लिए, शरीर के काम के लिए इन्द्रियाँ हैं। शरीर में इन्द्रियों की प्रधानता है। इन्द्रियों से मन श्रेष्ठ है। इन्द्रियों को मन जिधर प्रेरण करता है, इन्द्रियाँ उस ओर हो जाती हैं, जिस ओर से खींचता है, उस से रुकती हैं। मन से बुद्धि श्रेष्ठ है। जैसे अंकुश हाथी को वश करता है, उसी तरह बुद्धि मन को वश में रखती है। मन अंधा है। मन को बुद्धि जो कहती है, मन वही करता है। बुद्धि से महतत्त्व श्रेष्ठ है। यही है प्रकृति-जड़प्रकृति-अष्टधाप्रकृति। श्रीमद्भगवद्गीता में अपरा प्रकृति-अष्टधा प्रकृति कहा है।
 यह जड़ है। मूल रूप में यह अव्यक्त है और विकृत रूप में व्यक्त है और अपनी निज हालत में वह प्रकृति है। जो इन्द्रिय-ज्ञान में नहीं आ सके, वह अव्यक्त है। पाँच तत्त्व, मन, बुद्धि, अहंकार जिससे बने हैं, वह है प्र्रकृति महतत्त्व। उससे भी ऊँचे दर्जे में अव्यक्त लिखा है। यह अव्यक्त परा प्रकृति है। इसमें विभाग नहीं, परिवर्तन नहीं, यह चेतनात्मिका (ज्ञानमयी) प्रकृति है। यह ऊँचे दर्जे की प्रकृति है। इससे भी जो श्रेष्ठ है, वह है परमात्मा। इन्द्रिय, मन, बुद्धि, महतत्त्व, अव्यक्त और परमात्मा-ये छह दर्जे हुए। चेतनात्मिका प्रकृति आइने के समान है। यहाँ सविकल्प समाधि है। आइना खुल जाय, तब निर्विकल्प समाधि है।
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यह प्रवचन दिनांक 17. 4. 1960 ई0 को मुंगेर जिला के जमालपुर में स्व0 रायबहादुर श्रीदुर्गादासजी तुलसी के निवास स्थान पर प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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159. श्रीराम की आरती
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 जितने लोग हैं, सब-के-सब अपना कल्याण अवश्य चाहते हैं। जिन कारणों से कल्याण में त्रुटि और बाधा होती रहती है, उन कारणों के नष्ट हुए बिना अथवा उन कारणों को छोड़कर गए बिना कल्याण का मिलना असंभव-सा है। वे कारण क्या हैं? वे कारण हैं-हमारे अन्दर के मनोविकार और नैतिकता की त्रुटियाँ, जो हमसे होती हैं। हमारे अंदर से अनैतिकता दूर हो, हम कल्याण के पथ को जानें, हम उस पर चलें, तो हमारा कल्याण हो सकता है।
 कल्याण-स्वरूप स्वयं परमात्मा हैं। परमात्मा के अतिरिक्त और कोई नहीं, जिसको पाकर कल्याण में पड़े रहें। पौराणिक इतिहास को पढ़िए, आज का इतिहास देखिए, तो ज्ञात होगा कि संसार में जितने लोग थे और हैं, सभी कल्याण के इच्छुक थे और हैं। वे कल्याण चाहते थे और कल्याण की कमी में रहकर चले गए। परमात्मा ही ऐसे हैं, जिनका कभी अकल्याण नहीं। परमात्मा स्वरूपतः ऐसे हैं, जो किसी से आवृत्त नहीं हो सकते, वे अनादि, अनंत, असीम हैं। अनादि, अनंत, असीम को कोई आच्छादित नहीं कर सकता। जो किसी के घेरे में नहीं आता, किसी से आवृत्त नहीं होता, जिसका नाश नहीं होता, उसका अकल्याण होना असंभव है। ईश्वर-स्वरूप का यही निर्णय है। अनादि, अंनत, असीम तत्त्व का ज्ञान सदग्रंथों में है और बुद्धि को भी यह मान्य है; क्योंकि बिना असीम को माने बुद्धि को संतोष नहीं होता है कि सभी ससीम ही ससीम हैं। एक ईश्वर को ही असीम माना गया है। उनका अकल्याण कभी होने योग्य नहीं है।
 हम कल्याण चाहते हैं, तो कहाँ जाएँ? जहाँ कल्याण है। संसार के सभी पदार्थ नाशवान हैं। इसलिए उन पदार्थों को पाकर हमारा कल्याण नहीं हो सकता। हम अपने को संसार से फेरकर परमात्मा की ओर करें, तो परम सुख, नित्यानन्द, परमानन्द को प्राप्त कर सकते हैं। मनुष्य का जीवन इसीलिए है। भगवान श्रीराम ने प्रजा को यही शिक्षा दी थी-
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई।।
 स्वर्ग-सुख वा इहलौकिक सुख मनुष्य-शरीर का फल नहीं है। जो निर्विषय तत्त्व है, उसको प्राप्त करने के लिए श्रीराम का आदेश था। विषयों का ग्रहण इन्द्रियों से होता है। इनसे जो सुख होता है, वह मनुष्य-शरीर पाने का फल नहीं। विषयों से परे जो सुख है, उसे प्राप्त करना, मनुष्य-शरीर का काम है। यह काम और दूसरे से नहीं हो सकता।
 परमात्मा की खोज के लिए हमको नहीं चाहिए कि हम संसार के एक छोर से दूसरे छोर तक खोज करें। परमात्मा की प्राप्ति बाहर में नहीं होगी। इसीलिए कि हम बाहर में जो कुछ ग्रहण करते हैं, इन्द्रियों से ग्रहण करते हैं। परमात्मा इन्द्रियातीत हैं। परमात्मा सर्वव्यापी हैं, हमारे शरीर के अंदर भी हैं और हम भी अपने शरीर के अंदर हैं। अपने ही अन्दर हम अपने को चलावें, तो उस ओर जा सकते हैं। जो अपने को अपने अन्दर चला सकेगा, वह शरीर-इन्द्रियों से अलग होगा। यह वह स्वयं जानेगा। आप जब जगने से सोने में जाते हैं, तो कहीं बाहर नहीं जाते, अपने अंदर सिमटते हैं, सोने पर कुछ ज्ञान नहीं रहता। यदि उस समय किसी के मुँह में कोई मिसरी का टुकड़ा रख दे, तो उसका स्वाद उसको मालूम नहीं होगा। बात यह है कि इन्द्रियों में जो चेतन-धार है, स्वप्न में उनका सिमटाव हो जाता है, बाहर इन्द्रिय-घाटों पर नहीं रहती है। इससे जानने में आता है कि भीतर जाने से इन्द्रियों से छूटना होता है। बाह्य इन्द्रियों से छूट गया है; लेकिन अंदर की इन्द्रियों से छूटना नहीं हुआ है। इनसे भी छूटा जा सकता है, जब वह इनसे आगे बढ़े, साधन करे। साधन-भजन करके ही कोई ईश्वर के दर्शन के योग्य होता है। जो भजन करता है, वह ईश्वर-दर्शन करके नित्यानंद पाता है। यह यत्न अपने अंदर होना चाहिए।
 जो जहाँ कहीं बैठा रहता है, वह वहीं से चलता है। इस शरीर के अंदर जहाँ जीव की बैठक है, वहीं से वह चलेगा। इसका यत्न गुरु से जाना जाता है, यह अंदाज से नहीं होता। वहाँ पर जाने का रास्ता नहीं है। सिमटाव होने से उसपर जाना होता है। संत कबीर साहब ने कहा है-
 बिन पावन की राह है, बिन बस्ती का देश ।
 बिना पिण्ड का पुरुष है, कहै कबीर संदेश ।।
 मन और चेतन आत्मा संग होकर चलते हैं। मन अपनी शक्ति की हद तक जा सकता है, आगे नहीं। आगे चेतन आत्मा ही चलती है। संत तुलसी साहब ने कहा-
 सहस कँवल दल पार में, मन बुद्धि हिराना हो ।
 प्रान पुरुष आगे चले, सोइ करत बखाना हो ।।
 प्राण-पुरुष चेतन आत्मा है। जहाँ केवल चेतन आत्मा ही जा सकती है, वहीं परमात्मा के दर्शन होते हैं। जहाँ अंतःकरण का घेरा छूटा, तब ऐसी कोई बाधा नहीं रहती, जिससे ईश्वर-दर्शन नहीं हो। यह काम अन्दर में चलते-चलते होने योग्य है, कोई और उपाय नहीं है। गुरु नानक साहब ने कहा है-
इस गुफा महि अखुट भण्डारा। तिसु बिचि बसै हरि अलख अपारा।।
आपे गुपतु परगट है आपे, गुर सबदि आप वं´ा वणिआ।।
और कबीर साहब ने कहा-
     माया के रंग रची सब दुनिया, नहिं सूझ पड़त करतार ।
     पुरुष पुरान बसै घट भीतर, तिनका ओट सहार ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो।
परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं, बाहर फिरत विकल भय धायो।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद, अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल, परम सुगंध कहाँ ते आयो।।
ज्यों सर विमल वारि परिपूरन, ऊपर कछु सेंवार तृन छायो।
जारत हियो ताहि तजिहौं सठ, चाहत यहि विधि तृषा बुझायो।।
व्यापित त्रिविध ताप तन दारुण, तापर दुसह दरिद्र सतायो।
अपने धाम नाम सुरतरु तजि, विषय बबूर बाग मन लायो।।
तुम्ह सम ज्ञान निधान मोहि सम, मूढ़ न आन पुरानन्हि गायो।
तुलसिदास प्रभु यह विचारि जिय, कीजै नाथ उचित मन भायो।। इस प्रकार सब अपने अंदर चलने कहते हैं, भक्तवर सूरदासजी कहते हैं-
अपुनपौ आपुन ही में पायो ।
शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो ।।
ज्यों कुरंग नाभि कस्तूरी, ढूँढ़त फिरत भुलायो ।
फिर चेत्यो जब चेतन ह्वै करि, आपुन ही तन छायो ।।
राज कुँआर कण्ठे मणि भूषण भ्रम भयो कह्यो गँवायो ।
दियो बताइ और सत जन तब, तनु को पाप नशाया े।।
सपने माहिं नारि को भ्रम भयो, बालक कहुँ हिरायो ।
जागि लख्यो ज्यां को त्यों ही है,ना कहूँ गयो न आयो ।।
सूरदास समुझै की यह गति, मन ही मन मुसुकायो ।
कहि न जाय या सुख की महिमा,ज्यों गूँगो गुर खायो ।।
 इस प्रकार सभी संत अपने अंदर चलने के लिए कहते हैं। मतलब यह कि कोई संत हों या चाहे कोई ऋषि-मुनि हों, ईश्वर-प्राप्ति के लिए सब अंदर- अंदर चलने कहते हैं। इसीलिए कि ईश्वर आत्मगम्य हैं। साधन के लिए सत्संग, सदगुरु और सदाचार पालन की बड़ी आवश्यकता है। इसके बिना कोई अंदर नहीं चल सकता। इसके लिए जीवन भर साधन करना होगा। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
 जीवन मुक्त ब्रह्म पर, चरित सुनहिं तजि ध्यान ।
 जे हरि कथा न करहिं रति, तिन्हके हिय पाषान ।।
 जो जीवन-मुक्त संतपुरुष परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त कर चुके हैं, वे भी परमात्मा का ध्यान छोड़कर सत्संग के वचनों को सुनते हैं। सदाचारी होने के लिए पंच पापों-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार को छोड़ना होगा। सदाचार-पालन से सभी अनैतिकता दूर हो जाती है। सदाचार में पंचशील का पालन है। पंच पापों को छोड़कर रहना सदाचार में रहना है। पंच पापों में रहना अनैतिकता और दुराचार में रहना है। सदाचार का पालन करने से ईश्वर-दर्शन के मार्ग में सहायता मिलती है और ईश्वर-भजन से सदाचार पालन में मदद मिलती है। दोनां एक दूसरे के सहारे हैं। सत्संग करो, जिससे आपको उस मार्ग पर चलने में सहायता मिलेगी। गोस्वामी तुलसीदासजी श्रीराम की आरती इस तरह करते हैं-
 ऐसी आरती राम की करहिं मन ।
  हरण दुख द्वन्द्व गोविन्द आनंद घन ।।
 अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा बसत,
  इति वासना धूप दीजै ।
 दीप निज बोध गत क्रोध मद मोह तम,
   प्रौढ़ अभिमान चित वृत्ति छीजै ।।
 भाव अतिशय विशद प्रवर नैवेद्य शुभ,
  श्रीरमण परम संतोष कारी ।
 प्र्र्रेम ताम्बूल गत शूल संशय सकल,
   विपुल भव वासना बीजहारी ।।
 अशुभ शुभ कर्म घृत पूर्ण दश वर्त्तिका,
  त्याग पावक सतोगुण प्रकाशं ।
 भक्ति वैराग्य विज्ञान दीपावली,
  अर्पि नीरांजनं जग निवासं ।।
 विमल हृदि भवन कृत शांति पर्यंक शुभ,
  शयन विश्राम श्री राम राया ।
 क्षमा करुणा प्रमुख तत्र परिचारिका,
  यत्र हरि तत्र नहिं भेद माया ।।
 आरती निरत सनकादि श्रुति शेष शिव,
  देवरिषि अखिल मुनि तत्त्वदरसी ।
 जो करइ सो तरइ परिहरइ काम सब,
  वदत इति अमल मति दास तुलसी ।।
 अर्थात् हे मन! दुख और कलह के हरनेवाले ज्ञानसिन्धु और आनन्दपुंज राम की इस तरह आरती कर। स्थावर,जंगम सब रूप राम के हैं और वे सबमें लीन हैं-सर्वव्यापी हैं, इसी इच्छा का धूप दीजिए, आत्मज्ञान का दीपक दीजिए। जिससे क्रोध, मस्ती और अज्ञान-अन्धकार नष्ट होकर बढ़ा हुआ अभिमान और चित्त की चंचलता नष्ट होती है। अत्यन्त शुद्ध प्रेम का उत्तम नैवेद्य और प्रेम ही का पान भोग लगाइए, जिनसे लक्ष्मीपति परम संतुष्ट होते हैं, सम्पूर्ण कष्ट और सन्देह दूर होते हैं और जो संसार के बीज-बहुत-सी इच्छाओं को हरनेवाले हैं। भक्ति, वैराग्य और विज्ञान के दीपों में शुभ- अशुभ कर्मरूपी घी से भरी हुई दश बत्तियों को त्याग की अग्नि से लेस कर सतोगुण की प्रकाशवाली आरती राम को अर्पण कीजिए। पवित्र हृदय-भवन में शान्ति के सुन्दर पलंग पर आराम करने के लिए श्रीरामराय को सुलाइए। वहाँ राम की सेवा के लिए क्षमा और दया मुख्य-मुख्य दासियों को रखिए। जहाँ राम (उपर्युक्त रीति से) रहेंगे, वहाँ द्वैत उत्पन्न करनेवाली माया नहीं रहेगी। इस आरती में सनकादिक, वेद, शेष, शिव, नारद और सार पदार्थ (निर्माया) के दर्शन करनेवाले समस्त मुनिगण विशेष रूप से रत रहते हैं, सब इच्छाओं को छोड़कर जो इस प्रकार का आरती करेगा, वह मुक्त होगा। हे तुलसीदास! निर्मल बुद्धिवाले लोग ऐसा कहते हैं।
 जो अपने को समेटकर केन्द्र में केन्द्रित करता है, वह भक्त धन्य है, उसका हृदय शांत हो जाता है, माया के फेर में वह नहीं पड़ता। परमात्मा उससे भिन्न होता ही नहीं। यही आरती संत लोग सिखला गए हैं। जो कोई इसको नहीं समझते हैं, वे बाहर में आरती करते हैं। अंतर में आरती करो, परमात्मा का भजन करो, तब परमात्मा में मिलकर-‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई’ हो जाओगे। सारे दुःखों को वही पार करता है, वही परम कल्याण पाता है। इसी के लिए भगवान श्रीराम ने कहा है-
सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान स्रुति गाई।।
 जो ईश्वर-भक्त होता है, उसके लिए सदाचार- पालन अनिवार्य हो जाता है। जो पंचशील का पालन करता है, संसार-परमार्थ दोनों में वह कल्याण पाता है। जो सत्य बोलता है, वह किसी का अविश्वासी नहीं होता है, लोग उससे प्रेम करते हैं। चोरी वह नहीं करता, व्यभिचार नहीं करता। नशाओं से बचनेवाले फाजिल खर्च से बचता है। उसका मस्तिष्क ठीक रहता है। मांस-मछली जो भोजन नहीं करते हैं, वे जीवों पर दया करते हैं। सात्त्विक भोजन भी अधिक लेने से वृत्ति तामसी होती है। वह ईश्वर को भूलता है। आहार गुणानुसार होते हैं और उनका प्रभाव भी आहार करनेवालों पर होता है। आयुष्य, सात्त्विकता, बल, आरोग्य, सुख और रुचि बढ़ानेवाले, रसदार, चिकने, पौष्टिक और मन को प्रिय-ऐसे आहार सात्त्विक लोगों को प्रिय होते हैं। चरपरे, विशेष लवणयुक्त, बहुत गरम, नीमवत् तीते, रूखे और दाहकारक आहार राजस लोगों को प्रिय होते हैं। रोटी, भात आदि बनकर पहर भर से पड़ा हुआ, उतरा हुआ अर्थात् सड़ने पर आया हुआ फल, दुर्गन्धयुक्त, वासी, जूठा आदि अपवित्र आहार तामसी लोगों के हैं। उन्हें ऐसे ही भोजन प्रिय लगते हैं। यदि समाज के लोग ऐसे हो जाएँ कि पंच पापों से बचकर रहें, तो संसार में भी आराम होगा और परमार्थ भी सुखद होगा। संतों ने जो बताया है, उससे कल्याण होगा। ईश्वर-भक्ति का सहारा लो। मैं आप लोगों से निवेदन करता हूँ कि आप ईश्वर का भजन करें। आप साधन कीजिए, सदाचार का पालन कीजिए।
 जो कोई ऐसा ख्याल करते हैं कि ईश्वर यहाँ आकर दर्शन देंगे, तो बाहर में जो दर्शन होंगे, वे इन्द्रियगम्य होंगे। भगवान श्रीकृष्ण के समय में उनके प्रिय और शत्रु दोनों ही तरह के लोग थे। शिशुपाल ने भगवान श्रीकृष्ण की निंदा की। बाहर के दर्शन से संसार में लाभ ही होता है और हानि निर्मूल भी नहीं होती। भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन से पाण्डवों को बहुत लाभ हुआ, लेकिन उनके पाँचो पुत्र एक ही रात में खत्म हो गए। ईश्वर करें- आपलोगों का मन ईश्वर-भक्ति में लग जाए।
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यह प्रवचन दिनांक 17. 04. 1960 ई0 को मुंगेर जिला के जमालपुर निवासी स्व0 रायबहादुर श्रीदुर्गादासजी तुलसी के निवास स्थान में रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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160. मनुष्य और पशु में अन्तर
प्यारे लोगो!
 हमलोगों के सत्संग में सार ईश्वर की भक्ति है। बिना ईश्वर-भक्ति का जीवन असार है। वह मनुष्य शरीरवाला जीवन पशु-जीवन हो जाता है। पशु खाने का उद्योग करता है, चरने जाता है, यह भी उद्यम ही हुआ। चिड़िया दाना-चारा खोजती- फिरती है। इस तरह जलचर, थलचर, नभचर सभी अपने-अपने योग्य उद्योग-कर्म करते हैं। अपने-अपने भोजन की खोज में सभी रहते हैं। बगुला ध्यान लगाए बैठा रहता है मछली के लिए।
 मनुष्य की तरह ही पशु-पक्षियों को काम- क्रोध होता है। कीट-पतंग को भी काम-विकार होता है। इसके अंदर ईश्वरीय ज्ञान का पता नहीं। बगुले को पानी के किनारे मछली के लिए ध्यान लगाते तो देखते हैं, लेकिन सूखी जमीन पर कभी देखा है कि बगुला ध्यान लगाकर बैठा है? खाना, पीना, आराम से रहना-यदि इतना ही मनुष्य में रह गया, तो मनुष्यत्व क्या?
 मनुष्य को चाहिए कि ईश्वर-भक्ति को जाने और करे। बिना ईश्वर-भजन का जीवन असार है। दुनिया में सभी अपना-अपना काम करते हैं। कोई ऑफिस में जाकर, कोई खेत आदि में। यह जीवन पशु-जीवन है, यदि इससे ईश्वर-भजन नहीं करे। पशु को अपना अच्छा आचरण रखने का ज्ञान नहीं है, मनुष्य में इसका ज्ञान है। ईश्वर की भक्ति और अच्छा आचरण, ये दो बातें मनुष्य में हैं, तो ठीक मनुष्य है, नहीं तो वह पशुवत् है।
 ईश्वर इन्द्रिय-ज्ञान में नहीं आता है। इस बात को खूब समझकर रखिए। पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से जिसका ज्ञान हो, वह ईश्वर नहीं है। जैसे आप रूप-रंग देखते हैं, गाछ आदि को देखते हैं। इस दृश्य को रूप कहते हैं। इसका केवल आँख से ही ज्ञान हो सकता है। इसका कान से ज्ञान करना चाहें तो नहीं होगा। इसी तरह शब्द का ज्ञान कान से होता है। एक-एक इन्द्रिय के वास्ते एक-एक चीज विषय है। दूसरी इन्द्रिय से उसका ग्रहण नहीं होगा। ईश्वर का ज्ञान इन्द्रियों से नहीं होता है। इसलिए कि जो चीज इन्द्रियज्ञान में आती है, वह विनाश को प्राप्त होती है, बदलती रहती है। वैज्ञानिक कहता है कि सूर्य की ताकत में भी कमी आ गई है। पहले जैसी वर्षा होती थी, अब वैसी वर्षा कहाँ? सूर्य की शक्ति घटते-घटते घट जाएगी और महाप्रलय हो जाएगा।
 जो देखने में आए, वह ईश्वर नहीं है। यह शरीर है, देखने में आता है और एक दिन यह शरीर नहीं रहेगा। ईश्वर इन्द्रिय-ज्ञान में आने योग्य नहीं है। आप अपने शरीर को पहचानते हैं, लेकिन अपना ज्ञान-आत्मा का ज्ञान आपको नहीं है। इसी तरह ईश्वर भी अभी आपके ज्ञान में नहीं है। शरीर-इन्द्रियों का संग छोड़कर रह सकेंगे, तभी हम ईश्वर को चेतन आत्मा से पा सकते हैं। इसलिए ईश्वर-ज्ञान इन्द्रिय से नहीं होता है।
 आत्मा को जबतक शरीर-इन्द्रिय का संग रहेगा, तबतक वह माया ही माया पहचानेगी। जैसे आँख पर जिस रंग का चश्मा होगा, बाहर की चीज उसी रंग की दिखाई पड़ेगी। लालटेन के अंदर रोशनी है। उस पर जिस रंग का शीशा लगाइए, उसी तरह का प्रकाश निकलेगा। शरीर-इन्द्रिय जबतक चेतन आत्मा पर है, तबतक वह ईश्वर की पहचान नहीं कर सकेगा।
 जहर खाने से अर्थात् मरने से शरीर में पुनः- पुनः आना नहीं छूटता है। अपने घर-ही-घर चलो यानी अपने शरीर के अंदर-ही-अंदर चलो। दृष्टियोग से अंदर में प्रवेश होना होता है। शब्द ध्यान से अंतर के अंतिम तह में पहुँच जाता है। इसमें योगशास्त्र की भी आवश्यकता नहीं, अंतस्साधना की आवश्यकता है। इस आँख से परमात्मा के जिस रूप को देखा जाता है, वह माया है। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा-तुम मेरे जिस रूप को देख रहे हो, वह माया है।
 प्राणायाम के द्वारा और ध्यान के द्वारा दोनों तरहां से परमात्मा का भजन होता है। प्राणायाम सबके लिए अनुकूल नहीं है। ध्यानयोग सबके लिए है। परमात्मा को यहाँ बुलाने की चेष्टा न करो। स्वयं परमात्मा के पास जाओ। इसीलिए संत तुलसी साहब ने कहा-
सत सुरति समझि सिहार साधो। निरखि नित नैनन रहो ।।
धुनि धधक धीर गंभीर मुरली । मरम मन मारग गहो ।।
सम सील लील अपील पेलै। खेल खुलि खुलि लखि परै ।।
नित नेम प्रेम पियार पिउ कर। सुरति सजि पल पल भरै ।।
धरि गगन डोरि अपोड़ परखै। पकरि पट पिउ पिउ करै ।।
सर साधि सुन्न सुधारि जानौ। ध्यान धरि जब थिर थुवा ।।
जहाँ रूप रेख न भेष काया। मन न माया तन जुवा ।।
आली अंत मूल अतूल कँवला। फूल फिरि फिरि धरि धसै।।
तुलसी तार निहार सूरति । सैल सतमत मन बसै ।।
 अर्थात् सुरत सत् है। इसका फैलाव और फँसाव पिण्ड और ब्रह्माण्ड के असत मण्डलों में हो गया है। इसलिए यह परम प्रभु सर्वेश्वर के सहज स्वरूप की प्राप्ति से विहीन रहकर दुःखद अधोगति का भोग भोग रही है। इस अधोगति के दुःखों से बचाव के लिए सुरत की ऐसी संभाल करो कि असत् मण्डलों में इसका सिमटाव और इनसे इसका छुटकारा होकर यह परमप्रभु सर्वेश्वर के सहज स्वरूप को प्राप्त कर सारे दुःखों से छूट जाय। सुरत की संभाल का अभ्यास पहले मानस जप से, फिर मानस ध्यान से, फिर दृष्टि साधन से और फिर सुरत-शब्द-योग से क्रमशः होगा। अपने अंतर का प्रथम पट कठिन और अछेद्य अंधकार है। दृष्टि-साधन के अभ्यास से सुरत इससे पार हो सकती है। अंधकार से पार होकर सुरत जब अपने शरीर में ब्रह्म के चमत्कारों को देखेगी, तब परम प्रभु के प्रेम में सदा सराबोर रहेगी। पुनः वह मुरली ध्वनि (अंतर की मायावी अनहद ध्वनियों) को युक्ति से पकड़कर आगे रास्ता चलेगी। गगन डोरी- अंतराकाश की ब्रह्मज्योति वा ब्रह्मनाद को धरकर सारशब्द को सुरत पहचानेगी। सारशब्द में रत होकर सुरत उस अपरम्पार पद में थिर होगी, जहाँ रूप, रेखा, भेष, शरीर, मन और माया नहीं है और जो अनिर्वचनीय और मूल पद है। जिसको यह अंतिम पद खुल जाएगा, उसकी सुरत बारम्बार उसमें धँसती रहेगी। जिस धार को पकड़कर इस ंअंतिम पद में जाना हो सकता है। उस धार को परखो, तो उपर्युक्त यात्रा के सच्चे विचार में मन डूबा रहेगा। यह कथन तुलसी साहब का है-
हिय नैन सैन सुचैन सुन्दरि। साजि स्रुति पिउ पै चली।।
गिरि गवन गोह गुहारि मारग। चढ़त गढ़ गगना गली।।
जहाँ ताल तटपट पार प्रीतम। परसि पद आगे अली।।
घट घोर सोर सिहार सुनिकै। सिंध सलिता जस मिली।।
जब ठाट घाट वैराट कीना । मीन जल कँवला कली।।
 आली अंस सिंध सिहारअपना। खलक लखि सुपना छली।।
अस सार पार सम्हारि सूरति। समझि जग जुग जुग जली।।
गुरु ज्ञान ध्यान प्रमान पद बिन। भटकि तुलसी भौ भिली।।
 अर्थात् परम प्रभु सर्वेश्वर से मिलने को चलने में सुरत को केन्द्रित करना होता है। दृष्टि- साधन से सुरत अत्यन्त सुखपूर्वक केन्द्रित होती है। केन्द्रित की हुई सुरत अंधकारमय नयनाकाश से मार्ग धरकर संकीर्ण मार्ग से ब्रह्माण्ड में चढ़ती है। फिर आगे वह अनहद ध्वनियों को सुनती हुई अर्थात् सुरत-शब्द-योग द्वारा मानसरोवर के पार प्रीतम से इस भाँति जा मिलती है,जिस भाँति नदी समुद्र से जा मिलती है। सब रचना नाशवान है और इसमें जीव सदा जलता रहता है। इस रचना से सुरत को फेरकर प्रभु की ओर करना चाहिए। तुलसी साहब कहते हैं कि गुरु के ज्ञान और ध्यान बिना सुरत संसार में भटकती रहती है और उसे सतलोक-मोक्ष धाम नहीं मिलता है।
 ध्यान करने से आप शरीर और इन्द्रियों को छोड़कर अकेले रह जाएँगे, ईश्वर-दर्शन होगा, तब मोक्ष मिलेगा। जबतक मोक्ष नहीं हो, तबतक राजा-रानी, राष्ट्रपति, राम, कृष्ण कोई बने रहो, शरीर में रहने से कष्ट होता है। आप कोई कुछ भी बनकर रहो, ईश्वर की भक्ति करो। इसी से आप सारे दुःखों से छूट सकते हैं।
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यह प्रवचन दिनांक 18. 04. 1960 ई0 को मुंगेर जिला के जमालपुर निवासी स्व0 रायबहादुर श्रीदुर्गादासजी तुलसी के निवास स्थान में अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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161. सब रूपों में एक ही ईश्वर
प्यारे लोगो!
 सबलोग सुखी और आनन्दित रहना चाहते हैं। मन और इन्द्रियों को जो सुहाता है, उसको लोग सुख कहते हैं और इससे जो आनंद मिलता है, उससे आनंदित होते हैं। मन संसार के पंच विषयों को ग्रहण करता है। वे विषय हैं-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द। इन विषयों के अतिरिक्त और कुछ संसार में देखने में नहीं आता है। संसार के भोगों में फँसकर लोग उस आनंद को नहीं प्राप्त कर सकते, जो सदा आनंद-ही-आनंद बना रहे। इसीलिए जीवों को उस आनंद की प्यास लगी ही रहती है।
 इन्द्रियाँ नाशवान हैं, इसलिए उनका सुख भी अनित्य है। चाहिए कि नित्यानन्द की प्राप्ति हो और जिसका कभी अन्त न हो, ऐसा सुख हो और इसी के सम्बन्ध का आनन्द हो। इसी की प्राप्ति के लिए यत्न है-ईश्वर की भक्ति। ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर-स्वरूप का जानना आवश्यक है। ईश्वर- स्वरूप अव्यक्त है, इन्द्रियातीत है। जीवात्मा भी अव्यक्त है और इन्द्रिय-ज्ञान से परे। परमात्मा को जीवात्मा ही जान सकता है। किसी एक इन्द्रिय से ग्रहण होने योग्य पदार्थ दूसरी इन्द्रिय से ग्रहण नहीं होता है। उसी तरह ईश्वर चेतन आत्मा के अतिरिक्त किसी से ग्रहण नहीं हो सकता।
 ईश्वर क्या है? यह प्रश्न ठीक है। इसका उत्तर है कि जो चेतन आत्मा से ग्रहण हो। चेतन आत्मा जबतक इन्द्रिय, मन, बुद्धि में रहती है, तबतक उसको ईश्वर-दर्शन नहीं हो सकता। जैसे आँखों पर पट्टी रहने से बाहर की चीज दिखाई नहीं पड़ती, यद्यपि आँख में देखने की शक्ति है। इसी तरह चेतन आत्मा पर जो शरीर, इन्द्रिय का आवरण है, इस कारण से ईश्वर का दर्शन नहीं होता है। इन आवरणों को हटाइए तो ईश्वर का दर्शन होगा।
 कितने लोग कहते हैं कि ईश्वर आकर स्वयं दर्शन देंगे, जिस रूप में हम दर्शन करना चाहेंगे। रूप को देखने से ईश्वर-स्वरूप का दर्शन नहीं होगा। राम, कृष्ण, दुर्गा, शिव आदि अनेक रूप हैं। और इन सब रूपों को लोग ईश्वर मानते हैं। ठीक है। लेकिन क्या अनेक रूपों में होने के कारण ईश्वर अनेक हैं? ईश्वर अनेक हैं, यह किसी को मंजूर नहीं हो सकता। ऐसा कह सकते हैं कि सब रूपों में एक ही ईश्वर है। उस एक ईश्वर को जानने के लिए क्या उपाय है? अपने को पवित्र करो। संत दादू दयालजी ने कहा-
 घर माहैं घर निर्मल राखै, पंचौं धोवै काया कपरा ।।
और संत कबीर साहब ने कहा-
 घूँघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे ।
 जब ऐसा हो, तब ईश्वर का दर्शन होगा और यही ईश्वर-भक्ति की पराकाष्ठा है। अपने को स्थूल से सूक्ष्म में और सूक्ष्म से कारण में, कारण से ऊपर महाकारण में ले जाओ। फिर कैवल्य दशा प्राप्त करो। इसके लिए पहले सिमटाव की आवश्यकता है। प्रत्येक वस्तु, जिसका सिमटाव होता है, सिमटाव से विपरीत ओर को बढ़ती है। अभी हमारा मन चेतन आत्मा से मिला हुआ है। मन इतना सिमट जाय कि एकविन्दुता प्राप्त कर ले, तब इसकी ऊपर चढ़ाई हो जाएगी। इस चढ़ाई या आरोहण में चेतन आत्मा कैवल्य दशा प्राप्त करेगी और ईश्वर को भी प्राप्त करेगी। इसके लिए ध्यान करना चाहिए।
 ध्यान में पहले स्थूल अवलम्ब चाहिए। इसके लिए पहले स्थूल जप और फिर स्थूल मूर्ति का ध्यान हो, फिर सूक्ष्म ध्यान करो। सूक्ष्म ध्यान दृष्टियोग से होता है। सूक्ष्म ध्यान के लिए संत दादूदयालजी का वचन है-
 मन ही सन्मुख नूर है, मन ही सन्मुख तेज ।
 मन ही सन्मुख जोति है, मन ही सन्मुख सेज ।।
 मन ही सौं मन थिर भया, मन ही सौं मन लाइ ।
 मन ही सौं मन मिलि रह्या, दादू अनत न जाइ ।।
शब्द के लिए कहा गया है-
 साध शबद सों मिलि रहे, मन राखे बिलमाइ ।
 साध सबद बिन क्यों रहे, तबहीं बीखरि जाइ ।।
       -संत दादू दयालजी
 जो दृष्टियोग करता है, सूक्ष्म मण्डल में प्रवेश करता है और शब्द ध्यान से सूक्ष्म मण्डल को-दृश्य और अदृश्य; दोनों जगत को पार करता है। मुक्तिकोपनिषद् में आया है-
  प्रभा शून्यं मनः शून्यं बुद्धि शून्यं चिदात्मकम् ।
 अतद्व्यावृत्तिरूपौऽसौ समाधिर्मुनि भावितः।।
 अर्थात् ज्योति, मन तथा बुद्धि-रहित होकर केवल चैतन्य आत्मा ही रहे, यह अतद्व्यावृत्ति (जिसको किसी दूसरे की आवश्यकता न हो) समाधिस्थ मुनियों से अभिलषित है।
 उसके वास्ते ब्रह्मज्योति को पार करके नादानु- संधान-नाम-भजन करना है। यहाँ ईश्वर को किसी रूप में बुलाकर दर्शन करना नहीं है। बल्कि शरीर, इन्द्रियों को छोड़कर पवित्रतापूर्वक रहकर ईश्वर- दर्शन किया जाता है। घर-वार में रहनेवाले भी इसका साधन कर सकते हैं।
 सब कोई इसका अभ्यास कर सकते हैं। इसके लिए मन की शुद्धि होनी चाहिए। मन की शुद्धि के लिए पाँच पाप नहीं करो। झूठ नहीं बोलो। चोरी नहीं करो। किसी प्रकार की नशा को मत लो। व्यभिचार मत करो और हिंसा नहीं करो। जो अपने को पापों से बचाता है, वह भजन ठीक- ठीक कर सकता है। जो भजन करता है, वह पाप कभी नहीं कर सकता है। इसके लिए यानी भक्ति के लिए प्रेम की बड़ी आवश्यकता है। संत कबीर साहब ने कहा है-
 प्रेम बिना जो भक्ति है, सो निज डिंभ विचार ।
 उद्र भरन के कारने, जनम गँवायो सार ।।
 यदि ख्याल करो कि यह भक्ति कलियुग में नहीं होगी, तो यह समझना भूल है। आज तक पाँच हजार वर्ष कलिकाल को हुए। इसके अंदर कितने संत महात्मा हो गए। कुछ लोग कहते हैं कि काल-धर्म भक्ति नहीं होने देता है? गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
काल धर्म व्यापै नहिं तेही। रघुपति चरन प्रीति अति जेही।।
 जो कलियुग परीक्षित के डर से गिड़गिड़ाया था, वह ईश्वर के सामने क्या कर सकता है? इसलिए ईश्वर-भजन करो। अपने को पवित्र रखो।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर परवत्ती में दिनांक 24.4.1960 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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162. संतों के दिशा का सांकेतिक शब्द
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 अपना कल्याण आपको प्रिय है, वही आप चाहते हैं। जबतक किसी को ईश्वर-दर्शन नहीं होता है, कल्याण नहीं पाता है। जबतक कोई मन के विकारों में भ्रमता रहता है, विषयों में चलता रहता है, मन के विकारों में कष्ट पाते हुए भी उसी ओर चलता है, तबतक कल्याण कहाँ? इसलिए मन के विकारों से ऊपर उठो। मन के विकार आपको घृणित हो जाएँ। मन के विकारों में किसी को ईश्वर-दर्शन नहीं होता। मन के विकारों से अपने को ऊपर उठाओ अथवा ईश्वर-दर्शन के लिए काम करो; दोनों बातें एक ही हैं और सही है। भगवान श्रीराम ने कहा था-
काम क्रोध मद दंभ न जाके । तात निरन्तर वश मैं ताके ।।
  इसलिए मनोविकारों से बचना आवश्यक है। दूसरा विचार कि ‘कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय’ -कबीर साहब। अर्थात् मनोविकारों को रखते हुए भक्ति नहीं कर सकते और बिना भक्ति के ईश्वर को कौन पा सकता है? इसलिए मनोविकारों से बचना बड़ा आवश्यक है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-‘अनाहारी रहने से शरीर कमजोर होगा, इन्द्रियाँ शिथिल होंगी, किंतु विषय-भोग का रस नहीं छूटेगा। जबतक रस आता रहेगा, इच्छा चलती रहेगी, इस तरह कोई मनोविकारों को दमन नहीं कर सकता है। वह तो ईश्वर-दर्शन से ही जाता है। ईश्वर-दर्शन होने से मनोविकार जाएगा। विषय-भोग की ओर उसका मन ही नहीं जाएगा। वह रस उससे उसी तरह हट जाएगा, जैसे कि कै कर देने के बाद आप उसे मुँह में नहीं डालते। वमन सदृश विषय-भोग की इच्छा जाती रहेगी। मनोविकार से बचने के लिए ईश्वर- भक्ति कर ईश्वर-दर्शन करो और ईश्वर-दर्शन के लिए मनोविकारों से बचो।’
 समझो कि तुम मुसाफिर हो, इसको समझने की क्या बात? ‘आये हैं सो जाहिंगे, राजा रंक फकीर’-कबीर साहब। हमलोग यहाँ हैं और कुछ दिन रहेंगे, फिर चले जाएँगे। तो हमलोग मुसाफिर नहीं हैं तो क्या हैं? यह सारा संसार मुसाफिर- खाना है। हमलोग आते हैं और जाते हैं। एक ही मुसाफिर-खाने में लोग कितनी बार आते हैं और जाते हैं, उसी तरह हमलोग इस संसार में हैं। कबीर साहब ने कहा है-
मोरे जियरा बड़ा अन्देसवा, मुसाफिर जैहो कौनी ओर ।।
मोह का शहर कहर नर नारि , दुइ फाटक घन घोर ।
कुमती नायक फाटक रोके, परिहौ कठिन झिंझोर ।।
संशय नदी अगाड़ी बहती, विषम धार जल जोर ।
क्या मनुआँ तुम गाफिल सोवौ, इहवाँ मोर न तोर ।।
निसि दिन प्रीति करो साहेब से, नाहिंन कठिन कठोर ।
काम दिवाना क्रोध है राजा, बसैं पचीसो चोर ।।
सत्त पुरुष इक बसैं पछिम दिसि, तासों करो निहोर ।
आवै दरद राह तोहि लावै, तब पैहो निज ओर ।।
उलटि पाछिलो पैंड़ो पकड़ो, पसरा मना बटोर ।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, तब पैहो निज ठौर ।।
 कहाँ जाना है, किस ओर जाना है, नहीं मालूम है। कितना दुःख और कितनी चिन्ता की बात है। यदि आपको कोई जबर्दस्ती खींचता हुआ ंअंधेरे में ले जाय, तो आपको कैसा लगेगा? ‘इक तो अंधेरी कोठरी जामें दिया न बाती हो। बहियाँ पकड़ि जम ले चले कोइ संग न साथी हो।’ यदि कहो कि संसार से बहुत लोग एक ही दिन जाते हैं, इस तरह हम समूह के साथ दल बांधकर जाएँगे, अकेले कैसे जाएँगे? तो बात ऐसी है कि जब तुम जाओगे तो उस रास्ते जाओगे कि अकेले ही जाना होगा, दूसरा कौन जाता है, तुमको पता भी नहीं रहेगा। ‘जेहि मारग यह जात अकेला। हरि का नाम तहँ संगि सुहेला’-गुरु नानक साहब।
 संसार में जिधर प्रीति होनी चाहिए, उधर नहीं होती और जिधर नहीं होनी चाहिए, उधर होती है। यह मोह का नगर है। यह जीवात्मा न स्त्री है न पुरुष। लेकिन आना पड़ता है स्त्री-शरीर वा पुरुष-शरीर में। इस तरह यह बहुत खौफनाक (भयानक) फाटक है। खबरदार रहो और अपनी ‘ओर’ को समझो कि किस ओर जाना है? विकार से बचने और ईश्वर-भजन का ‘ओर’ कौन-सा है? समझो। इसके लिए किधर जाना होगा? पृथ्वी पर दौड़कर कहीं जाना होगा? समुद्र में गोता लगाना होगा? या पानी के भीतर-भीतर चलनेवाले जहाज से समुद्र के नीचे-नीचे जाना होगा? या आकाश में वायुयान से जाना होगा? संसार में किसी ओर किसी सवारी से जाना नहीं होगा। तुम्हारे अंदर ईश्वर का प्रेम जबर्दस्त होगा, तब तुम उस ओर को समझ सकते हो। उधर का प्रेम नहीं हो तो उस ओर नहीं जा सकते। यदि कहो कि ईश्वर को हम देखते नहीं हैं, फिर उससे प्रेम कैसे करेंगे? यदि तुम्हारे अंदर ‘ईश्वर हैं’ का विश्वास हो जाए, तब भी प्रेम कर सकते हो। जैसे किसी के पास धन नहीं है और उसको मालूम हो कि धन होने से सुख होता है और वह धन अमुक जगह है, तो उस बेदेखे हुए धन से उसको प्रेम हो जाता है। युधिष्ठिर ने धन देखा नहीं था, जिसके बारे में व्यासदेवजी ने उनसे कहा था। व्यासदेवजी के वचन में युधिष्ठिर ने विश्वास किया और उनके कहने के अनुकूल चलकर धन को निर्दिष्ट स्थान से उखाड़ लिया और वह यज्ञ किया। उसी तरह तुम ईश्वर को नहीं देखते हो, संतों ने बताया है कि ईश्वर है, इस पर विश्वास करो और वे जो रास्ता बता गए हैं, उस रास्ते पर चलो, जहाँ जाने कहें, वहाँ जाओ। ईश्वर में विश्वास करो, जो बतावें, उसमें श्रद्धा करो।
 ईश्वर-ज्ञान में यह बहुत जरूरी बात है कि इन्द्रिय-ज्ञान का पदार्थ ईश्वर नहीं है। ‘सबकी दृष्टि पड़ै अविनाशी विरला संत पिछानै। कहै कबीर यह भरम किवाड़ी, जो खोलै सो जानै।।’ कबीर साहब ने माया को भ्रम कहा है। जिधर जाने से माया का परदा टूटे, उधर जाओ। माया के परदे चार हैं। स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण। जहाँ ये माया के परदे टूटे, वहीं ईश्वर-दर्शन होंगे। और सभी विकारों से छूट जाएँगे। सभी परदे टूट गए तो सभी विकार छूट गए।
    घट घट कपाट खोलिये रे, अखण्ड ब्रह्म को देखना है ।
       -दरिया साहब, बिहारी
 इन कपाटों को खोलिए। किसलिए? तो कहा-‘अखण्ड ब्रह्म को देखना है।’
 जो सज्जन, साधु-पुरुष ‘पछिम दिशि’ अर्थात् प्रकाश की ओर रहते हैं, उनके अधीन रहो, सेवा करो, दया लगेगी, वे राह बतावेंगे, तब आपको जिस ओर जाना चाहिए, जाएँगे। यहाँ ‘पश्चिम को प्रकाश’ इसलिए कहा गया है कि- संतवाणी में अंधकार को पूर्व, प्रकाश को पश्चिम, शब्द को दक्षिण और निःशब्द-शब्दातीत पद को उत्तर कहते हैं। ये संतों के सांकेतिक और पारिभाषिक शब्द हैं। भक्त साधक साधना में प्रथम-पहले-पूर्व अंधकार पाते हैं, इसलिए अंधकार को पूर्व कहते हैं। अंधकार की उल्टी ओर प्रकाश पाता है, पूर्व की उल्टी ओर पश्चिम है, इसलिए प्रकाश को पश्चिम कहा गया है। प्रकाश में प्रविष्ट सुरत अनहद शब्दों को ग्रहण कर उसके सहारे आगे बढ़ती हुई शब्दातीत-अनाम पद तक पहुँचती है। इसलिए शब्द अंतिम सहायक- मित्र वा निज पक्ष का परम सहारा है। जैसे दाहिना हाथ वा दक्षिण हस्त से शरीर को बड़ा सहारा मिलता है। इसलिए शब्द को दक्षिण कहा गया है और शब्दातीतपद-जो सबसे पीछे प्राप्त होता है-को उत्तर कहा गया है। यह परमात्म पद है, इसके आगे कोई पद नहीं है। अंधकार, प्रकाश, शब्द तथा निःशब्द; इन चारों में एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा और तीसरे के बाद चौथा पद शृंखलाबद्ध की तरह जानना चाहिए। इस शृंखलाबद्धता में उत्तरोत्तर का भाव है। अंतिम पद वा शृंखला की अंतिम कड़ी शब्दातीत पद है। इसलिए इस पद को उत्तर कहा गया है। आप इस शरीर के अंदर जहाँ रहते हैं, वहाँ से चलिए। वह है आँख का स्थान।
 इस तन में मन कहँ बसै, निकसि जाय केहि ठौर ।
 गुरु गम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और ।।
 नैनों माहीं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर ।
 गुरु गम भेद बताइया, सब संतन सिरमौर ।।
                     -संत कबीर साहब
 ब्रह्मोपनिषद् में भी यही बात है, पढ़ कर देख लीजिए। ‘जानिले जानिले सत्त पहचानिले, सुरति साँची बसै दीद दाना’ -दरिया साहब। संतों की वाणी में ईश्वर विषयक सभी बातें मौजूद हैं। अंदर की ओर चलो। सब विकारों से बचने के लिए गोस्वामी तुलसीदाजी का कथन है-
जब तें राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतेन्ह मन सोका।।
जिन्हहिं सोक ते कहउँ बखानी। प्रथम अविद्या निसा नसानी।।
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचानै।।
विविध कर्म गुण काल सुभाउ। ये चकोर सुख लहहिं न काउ।।
मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कबनिहुँ ओरा।।
धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना। ये पंकज बिकसे विधि नाना।।
सुख संतोष विराग विवेका। विगत सोक ये कोक अनेका।।
 यह प्रताप रवि जाके , उर जब करइ प्रकास।
 पिछले बाढ़हिं प्रथम जे, कहे ते पावहिं नास।।
 सूर्य का ज्ञान संत लोग बताते हैं। ‘ज्यां दुपहैर गगन रवि छाई। तासों उजास भया घट माई।।’ तुलसी साहब, हाथरस। अपने अंदर जाओ। जो अपने अंदर जाता है, उसको ईश्वर की प्राप्ति होती है। युक्ति गुरु बताते हैं। दृष्टि को दिव्य करने का प्रयत्न करो। संत दरिया साहब, बिहारी ने कहा है-
जानिले जानिले सत्त पहचानिले, सुरति साँची बसै दीद दाना ।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै, पलक परवीन दिव दृष्टि ताना।।
 ‘दृष्टिताना’ का अर्थ आँख को टेढ़ा-मेढ़ा करना नहीं है। इसकी युक्ति गुरु से जानो। यह बड़ी विद्या है, योग का सार है, चित्तवृत्ति का निरोध, इन्द्रिय-दमन, ऊर्ध्वगति और कामादिक विकारों से बचना और ईश्वर तक पहुँचना है। यह बात जिनको मालूम हो, वे यत्न करें। इसको पाने के लिए जहाँ जाना पड़े, जाओ और इस काम को करने के लिए अत्यन्त संलग्न हो जाओ।
 काल करै सो आज कर, आज करै से अब्ब ।
 पल में परलै होयगा, बहुरि करैगा कब्ब ।।
         -संत कबीर साहब
 इसका संस्कार मनुष्य-शरीर लावेगा। श्रीमद्- भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-‘इस पृथ्वी पर किसी पवित्र श्रीमान् के घर में अथवा किसी ज्ञानवान योगी के घर में जन्म लेगा और पूर्व के अभ्यास-संस्कार से प्रेरित होकर ध्यान योगाभ्यास में लग जाएगा। वह मोक्ष की ओर आगे बढ़ेगा और इस प्रकार अनेक जन्मों की कमाई के द्वारा पापों से छूटकर पवित्र होता हुआ परमगति (मोक्ष) को प्राप्त करेगा।’-गीता अध्याय 6
 पहले मनुष्य-शरीर होगा, गुरु मिलेंगे, यत्न मिलेगा, भजन बनेगा, ईश्वर-दर्शन होगा, फिर कभी संसार में लौटना नहीं होगा। संतलोगां ने जो कहा है, आपलोगों को सुना दिया।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत मोहद्दीनगर के दुर्गास्थान, भागलपुर में दिनांक 17 . 8. 1960 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग के शुभ अवसर पर हुआ था।
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163. योगी किसे कहते हैं?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 जितने जीव-जन्तु हैं, सबके लिए सबसे पहली बात है कि वह स्वयं आराम से रहें, शान्तिपूर्वक रहें। जिसको बहुत नींद सता रही है, वह जैसे-तैसे सो जाता है और अपने साथी के लिए भी सोचता है कि वह भी सो जाय। इसी तरह अन्यान्य बातें भी हैं। अपने भी नींद से व्याकुल है और दूसरा भी नींद से व्याकुल है, तो स्वभाव ऐसा नहीं होने देगा कि अपने जगकर रहे और दूसरे को सोने दे। अपने भी सोएगा और दूसरे के भी सोने की व्यवस्था करेगा। जो अपने सुख में रहता है और दूसरे के लिए सुख का प्रबंध नहीं करता, वह पशुवत् है। साधारणतया लोग अपने परिवार को संतुष्ट करना चाहते हैं, लेकिन कोई भी पूर्णरूपेण संतुष्ट नहीं होते।
 कागभुशुण्डि की कथा रामचरितमानस में आप पढ़ते हैं, उसमें उन्होंने कहा है कि-
देखेउँ सब करि करम गोसाईं। सुखी न भयउँ अबहिं की नाईं।।
 इस बार वे क्यों सुखी हुए? अनेक जन्मों से वे ईश्वर-भजन में मन लगाते आते थे और इस जन्म में आकर उनका भजन पूरा हो गया। सांसारिक कुछ चाहना नहीं रही। अपने भजन पूरा कर लिए और तब लोगों में उसका प्रचार करने लगे, चुपचाप बैठे नहीं रहते थे। वे जप करते थे, सत्संग करते थे, मानस पूजा करते थे और ध्यान करते थे। उनके सत्संग में बहुत लोग आते थे और उनसे वे ज्ञान-ध्यान की बातें कहते थे। उपासना के समय वे तीन बातें अवश्य किया करते थे; जप, मानस पूजा और ध्यान। आज भी वही बात है। यह नहीं कि उनके यहाँ कोई जाते थे तो वे उनके साथ सहानुभूति नहीं रखते थे। मैंने देखा कि दो मैने (चिड़ियाँ) आपस में लड़ रही थीं। एक कचबचिया उधर से आई और दोनों के शिर में चोंच मारकर लड़ाई छुड़ा दी। जब चिड़ियाँ में ऐसी बात है, तब मनुष्य को कैसा होना चाहिए? यह ईश्वर की तरफ से प्रेरण है कि एक दूसरे को सुख पहुँचावे। पहले अपने सुखी, तब दूसरे को सुख पहुँचाते हैं। संसार की चीजों में सुख नहीं है, अनासक्त होने में सुख है। आप देखते हैं कि जाग्रत एवं स्वप्न के बीच में एक अवस्था होती है-तन्द्रा। उस समय हाथ-पैर की शक्ति भीतर की ओर खिंचती हुई मालूम होती है। लेकिन उस समय एक विचित्र चैन-सा मालूम होता है। उस समय कोई खट-खुट करके उस अवस्था को छुड़ा दे तो बहुत कष्ट होता है। उससे भी जब वह बाहरी चीजों को भूलकर गहरी नींद में जाता है, तो वह जाग्रत के सब दुःखों को भूल जाता है, चाहे वह जाग्रत में कितना ही दुःखी क्यों न हो? कहाँ भाई, कहाँ बेटा और कहाँ स्त्री रोती है, कुछ पता नहीं। किंतु जग जाए तो वह फिर उसी तरह दुःखी होगा, जैसे पहले था। इस अवस्था से और भी आगे बढ़ना है, जहाँ जाकर घट-घट में जो सर्वव्यापी परमात्मा है, उसको देख लेना हो सके।
 ईश्वर अपरिवर्तनशील है और संसार परिवर्तन- शील। परमात्मा नित्यानंद स्वरूप है-ब्रह्मानंद स्वरूप है, उसको जो पावेगा, वह वैसा ही हो जाएगा। संसार में रहकर-सौर जगत में रहकर सूर्य के प्रभाव से कोई बच नहीं सकता है, उसी तरह अशान्तिमय अपूर्ण जगत में रहकर कोई पूरी शान्ति पावे, पूर्ण संतुष्ट हो, कैसे संभव है? कागभुशिण्डजी को ईश्वर-भजन कर पूरी शान्ति और पूरी संतुष्टि हुई थी; तब उन्होंने कहा था कि-‘सुखी न भयेउँ अबहिं की नाईं।’ इसके लिए चाहिए कि ईश्वर को पकड़ो और दूसरों से भी ईश्वर को पकड़ने कहो। स्वयं खाओ और दूसरा कोई भूखा है तो उसको भी दो। कबीर साहब ने कहा है-‘धन यौवन का गर्व न कीजै, झूठा पंच रंग चोल रे’ यह शरीर पंच तत्त्वों से बना है और पाँच उनके रंग है। ध्यानी ध्यान में उन पाँच रंगों को देखता है। करो क्या? तो कहा-‘शून्य महल में दियना बारि ले, आशा से मत डोल रे’ यह है ध्यान। इसी में ‘ध्यानं शून्यगतं मनः’ और ‘ध्यानं निर्विषयं मनः’ होता है। मन को विषयहीन कर लो। पंच विषयों से जिसका मन आगे बढ़ता है, वह निर्विषय में जाता है। सूक्ष्म में रहने से भी विषय है। शून्य महल में जाने का जो तरीका जानता है, उसमें प्रवेश करता है तो उसको अपने अंदर में चिराग मालूम होता है। यह कहने की बात नहीं है, करने की है। इस ध्यान में अभ्यासी का ज्ञान बढ़ता है और आगे बढ़ते-बढ़ते वह समता प्राप्त करता है। मान, अपमान, हानि लाभ, सुख-दुःख सबमें वह समान रहता है। उसको एकात्म भाव हो जाता है और वह सब शरीरों में भिन्न-भिन्न नहीं, एक-ही-एक आत्मा को देखता है। वह देखता है कि सब शरीर मेरा और सब शरीरों में मैं। लेकिन इस भाव को पाना, बहुत दूर की बात है। इसमें संसार बहुत दबाता है, कुछ आगे बढ़ने पर संसार और भी दबाता है। लेकिन जो समझता है कि यह काम करना जरूरी है, वह संसार के दबावों को सहता हुआ अपने कामों को करता जाता है और होते-होते एक दिन पूर्ण भी हो जाता है। वह पूर्णरूपेण तृष्णाहीन हो जाता है, पूर्ण शान्ति पाता है और परमात्मा को भी पाता है।
 शरीर रूप परदा जीवात्मा पर है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण तथा महाकारण चारों जड़ शरीरों को पार कर अपने स्वरूप में रहे, तब ईश्वर को पाता है। यह योग की सरल युक्ति है, प्राणायाम इसमें नहीं है। चाहिए ईश्वर से मिलन का प्रेम। जो ईश्वर से मिलन का यत्न जानता है, कोशिश करता है, अपने परिवार में रहता है और भजन करता है तो वह होते-होते पूर्ण होता है। गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
़ जोगु न खिंथा जोग न डंडै जोगु न भसम चड़ाईअै ।
 जोगु न मुंदी मूंड़ि मुड़ाइअै जोग न सिं´ी वाईअै ।
 अंजन माहिं निरंजन रहीअै जोग जुगति इव पाईअै।।
 गली जोगु न होई ।
 एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहीअै सोई ।
 जोग न बाहरि मड़ी मसाणी जोगु न ताड़ी लाईअै ।
 जोगु न देसि दिसंतरि भविअै जोगु न तीरथि नाईअै।
 अंजन माहिं निरंजन रहीअै जोग जुगति इव पाईअै।।
 सतिगुरु भेटै ता सहसा तूटै धावतु वरजि रहाईअै ।
 निझरु झरै सहज धुनि लागै घर ही परचा पाईअै ।
 अंजन माहिं निरंजन रहीअै जोग जुगति इव पाईअै।।
 नानक जीवतिया मरि रहीअै अैसा जोगु कमाइअै ।
 बाजे बाझहु सिं´ी बाजे तउ निरभउ पदु पाईअै ।
 अंजन माहिं निरंजन रहीअै जोग जुगति इव पाईअै।।
 लैक्चर झाड़ने से जोगी नहीं होता है। एक दृष्टि करो-दोनों दृष्टिधारों को एक करो। इसकी युक्ति जानो। एक दृष्टि करके जो मन में शान्ति आती है, एकाग्रता आती है, उसमें समता होती है, उसी को योगी कहते हैं। बाहर श्मशान में जाकर मठ बनाने से योग नहीं होता है और झूठी समाधि लगाने से भी योगी नहीं होता। इधर-उधर घूमा, तीर्थ-स्नान आदि किया, इससे योग नहीं होता। जिसको सतगुरु मिलते हैं, उसका संशय टूटता है, इधर-उधर जाने से बरज कर रहता है, ज्योति की वर्षा होती है, सहज में जो ध्वनि होती है, उसमें अपने मन को लगाकर रखता है, इस प्रकार कोई योगी होता है। कबीर साहब, गुरु नानक साहब, दादू दयालजी, इन सभी संतों ने घर में रहकर साधन-भजन किया और इतने बड़े हुए।
 जैसे मृतक शरीर में इन्द्रियाँ निश्चेष्ट रहती हैं, वैसे ही ऐसा साधन करो कि इन्द्रियाँ विषयों की ओर नहीं दौडे़ें, यह जीवत-मृतक होना है। इसी के लिए गुरु नानकदेवजी ने कहा-
 नानक जीवतिया मरि रहीअै अैसा जोगु कमाइअै ।
 बाजे बाझहु सिं´ी बाजे तउ निरभउ पदु पाईअै ।।
 अंदर में बाजे बजते हैं, उसको सुनो। इसी को कबीर साहब ने कहा-‘बाजत अनहद ढोल रे।’
 किसी को शत्रु नहीं बनाओ। जिसको तुम शत्रु बनाओगे, वे तुम्हारी हानि करेंगे। सभी से प्रेम करो। तुम किसी की हानि नहीं करोगे तो तुम्हारी भी हानि दूसरे नहीं करेंगे।
 ध्यान और मानस पूजा में अंतर है। मानस पूजा से ध्यान श्रेष्ठ है। मानस पूजा से मन का कुछ सिमटाव होता है, तब ध्यान किया जाता है और तब ध्यान से ‘ध्यानं निर्विषयं मनः’ और ‘ध्यानं शून्यगतं मनः’ होता है। प्राणायाम में कुछ खतरा भी है और कितने को खतरा हुआ भी है। लेकिन ध्यानाभ्यास में कोई खतरा नहीं है। इसको स्त्री- पुरुष सभी कर सकते हैं। लेकिन सबको संयमी होना आवश्यक है। पाप मत करो। विषयी मत बनो। संयम से रहोगे और झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों से बचकर रहोगे तो तुम्हारी कोई भी हानि नहीं करेंगे। यदि समाज ऐसा बन जाए तो सबमें मैत्री-भाव होगा और देश में शान्ति विराजेगी। आज अपने देश में स्वराज्य है, लेकिन सुराज नहीं हो सका है। देश में चोर, डाकू नहीं हो, झूठ, चोरी, घूस नहीं हो, तभी देश में सुराज होगा। आज पुलिस में जो इतना खर्च होता है, वह दूसरे प्रबंध में खर्च होगा। मुकदमेबाजी में जो खर्च होता है, वह नहीं होगा और देश में सभी सुख, शान्ति से रहेंगे। जो सदाचार का पालन करता रहता है, वह यह लोक और परलोक दोनों में सुखी रहेगा। अपने को संयमित रखना बहुत जरूरी है। हम मुँह से कह सकते बहुत हैं, लेकिन अपने को संयमित रखने में कठिनाई है। अपने को बिना संयमित रखे कल्याण भी नहीं होगा। आज एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को क्यों दबाना चाहता है?
 बिनु संतोष न काम नसाही ं।
   काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ।।
 राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा ।
    थल विहीन तरु कबहुँ कि जामा ।।
           -रामचरितमानस
 केवल वचन बनाने से शान्ति नहीं आएगी। ईश्वर-भजन करने से ही सुखी हो सकोगे। सब कोई प्रेम से रहो। ईश्वर करे, सभी शान्तिपूर्वक रहे।
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यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मन्दिर पाटम में दिनांक 2.9.1960 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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