139. राजा कुरु का स्वावलम्बी जीवन
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 गोस्वामी तुलसीदासजी ने जो बात कही है, वही मेरी भी बात है। ‘साधु चरित शुभ सरिस कपासू। निरस विशद गुणमय फल जासू।।’ अर्थात् साधु का चरित कपास की तरह भला है, जिसका फल स्वाद से रहित है, पर निर्मल गुणमय (सूत= सद्वृत्तियुक्त) है। मैं बहुत कथाओं को नहीं जानता, पुराणों में बहुत कथाएँ हैं, लेकिन मैं बहुत कम जानता हूँ। रामायण और महाभारत की कथा कभी-कभी कहा करता हूँ। इसलिए कि लोगों को थोड़ा सरस मालूम हो। कितने को कथा अच्छी लगती है, केवल ज्ञान नहीं और कितने को कथा अच्छी नहीं लगती, केवल ज्ञान अच्छा लगता है। तो दोनों बैठे रहें, कथा के संबंध में ज्ञान हो जाय और ज्ञान में कथा भी हो जाय।
 हमलोगों की राजधानी दिल्ली है। इसका पहला नाम था इन्द्रप्रस्थ। उसी के नजदीक में हस्तिनापुर राजधानी थी। वहाँ राजा कुरु रहते थे। राजा होते हुए भी ख्ेती के लिए अपनी जमीन रखते थे, जिसको आज कुरुक्षेत्र कहते हैं। पहले यह रीति थी कि छह मन उपजे तो एक मन राजा को कर रूप में दे दो। राजा कुरु इस कर को अपने निजी पालन-पोषण के, काम में नहीं लाते थे। स्वयं निज खेत उपजा कर खाते थे, कहते थे कि प्रजा का अन्न प्रजा के लिए है। इसलिए वे स्वयं खेती करके जीवन-निर्वाह करते थे। बादशाह नसरूद्दीन महमूद भी ऐसे ही थे, जो प्रजा का दिया नहीं खाते थे। वह (कुरान शरीफ) लिख-लिखकर गुजर करते थे। महाभारत में एक कहानी है-राजा कुरु के वंश में घृतराष्ट्र और पाण्डु हुए। धृतराष्ट्र बड़े और पाण्डु छोटे थे। धृतराष्ट्र जन्मान्ध थे, इसलिए उनके छोटे भाई पाण्डु ही राजा हुए। धृतराष्ट्र के सौ पुत्र थे, वे कौरव कहलाते थे और पाण्डु के पाँच पुत्र थे, वे पाण्डव कहलाते थे। कौरवों में सबसे बड़े दुर्योधन और पाण्डवों में युधिष्ठिर थे और वह दुर्योधन से भी बड़े थे। बचपन से कौरव, पाण्डवों से ईर्ष्या करने लग गए थे। बड़े होने पर उनका यह भाव और बढ़ गया। वे नहीं चाहते थे कि युधिष्ठिर राजा बने। इसलिए उन्होंने षडयंत्र रचकर पाण्डवों को मारने का उपाया सोचा। दुर्योधन ने विचारा कि युधिष्ठिर धर्म प्रिय हैं, उनके सामने काशी की प्रशंसा बारम्बार की जाय तो वह काशी जाना अवश्य चाहेंगे। और इधर दुर्योधन ने अपने मंत्री को काशी भेजकर एक ऐसा मकान बनवाने के लिए कहा कि जो देखने में बहुत ही सुन्दर हो, किन्तु जरा-सी आग छुलाते ही वह तुरंत जलकर भस्मीभूत हो जाय। यह मंत्री काशी जाकर लाह, बारूद, चर्बी, घी आदि चीजों को मिलवाकर घर बनवाने लगा। इसके बाद जब-जब युधिष्ठिर राज्य सभा में आते, तब-तब सभा के लोग काशी की प्रशंसा करने लगते। बहुत बार काशी की महिमा सुनने से युधिष्ठिर के मन में हुआ, ये लोग हमलोगों को काशी भेजना चाहते हैं। इसलिए एक दिन युधिष्ठिर ने वृद्ध धृतराष्ट्र के पास जाकर कहा-हमलोगों की इच्छा होती है कि एक बार काशी देखें। धृतराष्ट्र ने कहा-‘बहुत अच्छा, जाओ।’ एक दिन पाण्डव लोग माता कुन्ती के साथ काशी के लिए चल पड़े। चलते समय विदुर ने कहा-‘जहाँ कहीं रहना उस घर को अच्छी तरह जाँचकर रहना।’ उधर काशी में मकान बनकर तैयार था। वहाँ जाने पर मंत्री ने पाण्डवों का बहुत आदर-सत्कार कर उस मकान में वासा दिया। पाण्डव लोग उस घर में चले गए। युधिष्ठिर ने भीम से कहा-‘भाई भीम! तुम्हारी घ्राण शक्ति बहुत तेज है, जाँचकर देखो कि यह घर कौन चीज का बना हुआ है, सूँघकर, ठोंककर सब तरह से जाँच करो।’ भीम ने घूम-फिरकर घर को अच्छी तरह जाँचकर देख लिया। बोला-‘भाई साहब! यह मकान तो अग्निमय है। इसमें आग छुलाने भर की देर है, जलते कोई देर नहीं लगेगी। इस घर में रहना तो मौत के घर में रहना है।’ युधिष्ठिर ने कहा-‘घबराने की बात नहीं, अच्छा और भी कुछ देखा?’ भीम ने का-‘एक खम्भे के नीचे खोखला- जैसा मालूम होता है।’ युधिष्ठिर ने कहा-‘ठीक है। इसमें सब कोई सावधानी से रहो।’ दिन में वे पाँचो भाई पाण्डव शिकार खेलने के बहाने जंगल जाते और वहाँ जंगल होकर निकलने का मार्ग भी ढूँढ़ा करते थे। दुर्याधन का मंत्री उस लाह गृह के फाटक पर बहुत से हथियारों को लेकर सोता था। इस उद्देश्य से कि जिस दिन इस घर में आग लगाई जाएगी और इस द्वार होकर पाण्डव लोग भागेंंगे तो इन हथियारों से उन लोगों का काम तमाम कर दिया जाएगा। गुप्तचर के द्वारा युधिष्ठिर को मालूम हुआ कि अमुक तिथि की रात इस घर में आग लगाई जाएगी। उस तिथि की रात को पहले ही युधिष्ठिर घर के खम्भे को तोड़वाकर माता कुन्ती सहित पाँचो भाई पाण्डव सुरंग होकर बाहर निकल आए, पीछे से उस घर में आग लगा दी। मंत्री उसी घर में जलकर मर गया। इधर गंगा में नाव पर पार होकर वे लोग जंगल में प्रवेश कर गए।
 इस कथा से शिक्षा मिलती है कि जहाँ कहीं रहो, वहाँ अच्छी तरह जाँचकर रहो। अब विचारिए हमलोग कहाँ हैं? जहाँ हम हैं, वह रहने काबिल है कि नहीं? पाण्डवों ने जाँचा तो उनके रहने काबिल नहीं था। हम भी जाँचें कि यह संसार रहने योग्य है कि नहीं? सारा संसार काशी है। कल्याणकारी शिव या ब्रह्म का राज्य सब जगह है। एक-एक शरीर में जो हमलोग रहते हैं, यह रहने काबिल है कि नहीं? यदि नहीं रहने काबिल है तो पाण्डव की तरह भाग चलिए। यदि रहने काबिल है, तो रहिए।
 दूसरी कथा है-सावित्री सत्यवान की। सत्यवान एक राजपुत्र था। उसके पिता का राज्य छिन जाने के कारण वह अपने माता-पिता और पत्नी सावित्री के साथ एक जंगल के किनारे निवास कर किसी तरह जीवन-यापन करता था। यानी सत्यवान जंगल से लकड़ी काटकर बाजार में बेचता और उसी से अपने परिवार का पालन-पोषण करता था। एक दिन नारद मुनि ने आकर सावित्री से कह दिया कि तुम्हारा पति अल्पायु है-अधिक दिनों तक नहीं जीएगा। अमुक महीने की अमुक तिथि को वह मर जाएगा। सावित्री ने यह बात किसी से नहीं कही। जब उस महीने की वह तिथि आई और सत्यवान लकड़ी के लिए जंगल जाने लगा, तो सावित्री बोली-‘आज मैं भी आपके साथ जंगल जाना चाहती हूँ।’ सत्यवान ने कहा-‘आप हमारे साथ जाएँगी, तो यहाँ बूढ़ी माता और बूढ़े पिता की सेवा कौन करेगा?’ सावित्री बोली-‘उन लोगों की सेवा के योग्य पानी वगैरह मैंने उनके पास दे दिया है और जंगल जाने के लिए मैंने उनसे आज्ञा माँग ली है।’ फिर सत्यवान के साथ सावित्री जंगल को चल पड़ी। सत्यवान जंगल में प्रवेश कर एक वृक्ष पर चढ़ा और एक डाल को काटना आरम्भ किया। इतने में उसके सिर में दर्द आरम्भ हो गया। वह बोला-‘सिर में भयानक दर्द हो रहा है।’ सावित्री समझ गई कि इनका अंतिम समय अब निकट आ गया है। वह बोली आप शीघ्र ही पेड़ से नीचे उतर आवें। वह पेड़ से नीचे उतरा और सावित्री की गोद में सिर देकर सो गया। वह सोया और अचेत हो गया। यमदूत उसको लेने आए। किंतु पतिव्रता सावित्री के तेज के सामने वे ठहर न सके। वे लौटकर यमराज से बोले-‘वहाँ बड़ी तेजस्विनी सती स्त्री बैठी हुई है। उनके तेज के सामने हमलोग टिक नहीं सकते। अब आप जो करना चाहें, करें।’ यमराज भी तो विष्णु के रूप ही हैं, वे स्वयं वहाँ गए और सत्यवान के स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर यानी लिंग शरीर को निकालकर चल दिए। सावित्री उनके पीछे-पीछे उनसे अनुनय- विनय करती हुई चली। सावित्री के विनय से प्रसन्न होकर यमराज ने कहा-‘अपने पति को जिलाने के अतिरिक्त कोई वर मुझसे माँग ले।’ सावित्री बोली-‘मुझे अपने पति से एक सौ पुत्र हों, मेरे सास-ससुर अंधे हैं, उनको आँख हो जाए और जो राज्य छिन गया है वह पलट जाय। यमराज ने प्रसन्न होकर सब वर दे दिया और सत्यवान के स्थूल-शरीर में फिर लिंग शरीर प्रवेश करा दिया; सत्यवान जीवित हो उठा।
 सती स्त्री का तेज कितना बड़ा होता है। मृत पति को जिलाती है, राज्य को पलटा लेती है, सास-ससुर को आँख हो जाती है। इसलिए स्त्रियाँ पातिव्रत्य का पालन करें। इससे सन्तान अच्छी होगी। देश मंगलमय होगा। पुरुषों को चाहिए कि श्रीराम की तरह एक पत्नीव्रत धारण करे।
 यह शरीर पचमहला महल है। ऊपर मोटा शरीर है। इसके अंदर सूक्ष्म शरीर है, फिर कारण और महाकारण चार जड़ शरीर हैं। स्थूल शरीर को छोड़कर और शरीरों के साथ हमलोग चले जाएँगे। महाकारण के अन्दर चिदानन्दमय देह है। उपर्युक्त चारों जड़ शरीरों को लेकर चिदानन्दमय देह रहती है। स्थूल शरीर कितनी बार हुआ, कितनी बार गया-ठिकाना नहीं। शरीर से निकलने के लिए शरीर के अंदर-ही-अंदर चलना होगा। क्योंकि जिस घर में जो बैठा रहता है, उस घर से निकलने के लिए उसके अंदर-ही-अंदर चलकर वह उससे निकल सकता है। दूसरी बात है कि थोड़ा जहर खा लिया, शरीर छूट गया, लेकिन इतने ही से काम नहीं चलता। चारों जड़ शरीरों में रहते हुए हम कष्ट भोगते हैं। जितने बच्चे जन्म लेते हैं, जन्म लेते ही सभी रोते हैं। रोना दुःख की निशानी है। जन्म लेने में दुःख होता है। भगवान भी जन्म लिए तो रोने लगे। ‘जनमत मरत दुसह दुःख होई।’ बीच की हालत देखो। विद्वान, अविद्वान, उच्चवर्ण या निम्नवर्ण किसी तरह के कोई हों, उनसे पूछो कि सुखी हो कि दुःखी? संसार में ऐसा कोई नहीं, जो दुःखी न हो। चाहे राजा हो, महाराजा हो, संसार में आकर रोना पड़ेगा। श्रीकृष्ण भगवान रोए तो नहीं, लेकिन उदास बहुत हुए। और भगवान श्रीराम का रोना तो रामायण में लिखा हुआ हई है। इसलिए संत कबीर साहब कहते हैं-‘तन धर सुखिया कोइ न देखा, जो देखा सो दुखिया हो।’
 कबीर साहब पढ़े-लिखे तो नहीं थे, लेकिन उनकी वाणी है। पढ़ने-लिखने की विद्या उनमें नहीं थी, लेकिन भजन करने की विद्या को वे जानते थे। यह संसार दुःख का धाम है। जो शरीर में आया, दुःखी हुआ। दैहिक, दैविक, भौतिक;तीनों ताप लोगों को सताते हैं। रामचरितमानस में आया है कि-
 व्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचण्ड ।
 सेनापति कामादि भट, दम्भ कपट पाखण्ड ।।
 अर्थात् माया की भयानक सेना संसार में फैली हुई है। काम, क्रोध और लोभ उसके सेनापति और अभिमान, छल और पाखण्ड आदि योद्धा हैं। सबके शरीरों के अंदर यह सेना फैली हुई है, माया की सेना बाहर में नहीं दिखती। काम, क्रोध, लोभ, मोह, पाखण्ड बाहर में कहीं खडे़ नहीं दीखते, लेकिन अन्दर में ये काम करते हैं। भाई! इस तरह प्रचण्ड सेना से छूटकर भागना चाहिए। संत कबीर साहब ने कहा है-‘जगत पीठ दै भाग री।’ किसी तरफ दौड़िए, संसार-ही-संसार है। घर बार छोड़ने से, उपवास करने से पीठ दिखाना नहीं होगा। इस तरह संसार से छूटा नहीं जाता। पंचभौतिक शरीर के लिए जहर क्यों खाओ? यह तो आपही छूटेगा। स्थूल शरीर को जहर खाकर मार सकते हो, लेकिन सूक्ष्म शरीर को जहर क्या करेगा? इंतजाम वह करो जो इंतजाम पाण्डवों ने किया था। सुरंग का पता संतों को है, अनेक ग्रंथों में इसका पता है। जैसे विदुर की सहायता पाण्डवों को मिली, उसी तरह संत लोग सलाह दे गए हैं। सलाह है कि देह में जो छिद्र है, उस होकर भागो।
 हरि की शरण में जाओ। हरि और गुरु दोनों की सहायता से निकलना होगा। हरि गुरु की तरह प्रकट नहीं हैं। गुप्त-ही-गुप्त सहायता करते हैं। माता की गोद में जाकर आराम पाने को बच्चा छटपटाता है। अपनी भुजाओं को माँ की ओर करता है तो माँ बच्चे को अपने हाथों से पकड़कर गोद में भर लेती है। इसी तरह तुम भी परमात्मा को पाने के लिए छटपटाओ, अपने को उसकी ओर बढ़ाओ, तो वह भी तुमको अपने पास खींच लेंगे। उनके भी दो हाथ हैं, जिनसे वे तुमको अपने पास खींच लेंगे। जिस समय तुम अपने अंदर में डूबोगे तो एक हाथ झलकेगा-‘ब्रह्मज्योति।’ वहीं पर दूसरा हाथ है, ‘ब्रह्मनाद।’ यह जहाँ मिला कि आप उससे खिंचते-खिंचते वहाँ पहुँच जाइएगा, जहाँ से आपको लौटकर फिर शरीर में नहीं आना होगा। इसकी खोज संतों के पास जाकर करो। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-
 तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
 उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।
          -गीता अध्याय 4/34
 अर्थात् ध्यान में रख कि प्रणिपात से प्रश्न करने से और सेवा से तत्त्ववेत्ता ज्ञानी पुरुष तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे।
 दूसरी सलाह यह है कि जिस ईश्वर की यह माया है, उसकी शरण लो और वहाँ उसका ऐसा भजन करो कि उसके मायातीत स्वरूप का दर्शन हो जाए। जो लोग ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान नहीं रखते और भक्ति के लिए कोशिश करते हैं, तो वे निर्दिष्ट स्थान को नहीं जानते हैं और चलते हैं, तो हैरान होते हैं। जो कुछ इन्द्रियों से जानते हैं, वह माया है। माया कहते हैं परिवर्तनशील को। परिवर्तनशील कहने में कोई सन्देह नहीं, चाहे द्वैत-अद्वैत कुछ भी मानो। यह शरीर माता के पेट से निकला। परमात्मा माता के हृदय में करुणा नहीं दे, तो सभी बच्चे मर जाएँ। अपने जीवन में कितना सुकर्म, कितना कुकर्म किया। सुकर्म की संख्या कम और कुकर्म की संख्या अधिक। जो कुछ देखने में आता है, माया है। शरीर बच्चा हुआ, जवान हुआ और बूढ़ा हुआ। अंकुर से गाछ हुआ फिर वृक्ष का पता भी नहीं रहा। गाछ को कौन कहे। पत्थर भी मरता है। संथाल परगने में मुर्दा पत्थर बहुत हैं। माया परिवर्तनशीला है, इसके अंदर आराम नहीं होगा। माया में पाँच विषय देखते हैं-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द। इन्द्रियों के ज्ञान में जो आवे, वह माया है, ईश्वर नहीं। कहते हैं कि जिनको हम देखते नहीं हैं-उनकी शरण में कैसे जाएँगे? तो सगुण ईश्वर को भी तो यहाँ आप नहीं देखते हैं, फिर किसकी शरण में कैसे जाओ? कहते हैं कभी जो वे रूप धारण किये थे, उसी को ख्याल में बनाकर शरण में आओ। तो बताओ त्रयगुणमय शरीर ईश्वर है कि शरीर में रहनेवाला ईश्वर है?
 जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
 सोइ सोइ भाव देखावइ, आपु न होइ न सोइ ।।
 परमात्मा इन्द्रियों के ज्ञान से परे हैं। परमात्म- स्वरूप के लिए कहा गया कि-
 व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
       अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
निर्मल निराकार निर्मोहा। नित्य निरंजन सुख सन्दोहा।।
        -रामचरितमानस जो स्वरूपतः अनंत है, वह किसी एक रूप में पूरा-पूरा अँट नहीं सकता, जैसे समस्त महादाकाश का एक मन्दिर कभी नहीं बन सकता। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
उमा राम विषयक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा।।
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहेहु कुविचारी।।
 अपने को धूल, धुआँ और अंधकार से निकालो, फिर निर्मल आकाश देखोगे। इसी तरह माया के स्थूल, सूक्ष्म, कारणरूप को पार करो, फिर परमात्मा का निर्मल स्वरूप को देखोगे।
 सूर्य बादल से नहीं छिपता। एक गाँव में वर्षा होती है, उसी समय दूसरे गाँव में धूप रहती है। एक जगह अंधकार और दूसरी जगह प्रकाश। जैसे बादल के झुण्ड में सूर्य नहीं छिपता, उसी तरह राम का स्वरूप संपूर्णतः किसी भी आच्छादन से नहीं छिप सकता। भगवान श्रीकृष्ण को ‘महायोगेश्वरो हरिः’ कहा गया। मुख्तसर बात है कि परमात्मा इन्द्रियों के ज्ञान में नहीं है। अवतारी रूप विराट रूप और देव रूप माया है, उस रूप में जो है, उसका दर्शन करो। आँख से वह दर्शन नहीं होगा। तब किससे होगा? जानो। आप शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि नहीं; आप ज्ञानवान तत्त्व हैं। आप अपने को कभी नहीं मानते कि मैं नहीं हूँ। शरीर को जिस तरह पहचानते हैं, अपने को उस तरह नहीं। सभी अपना होना विचारते हैं। जड़ के परे चेतन तत्त्व है, ऐसा विचार होता है। उसी की सत्ता पर इन्द्रियाँ काम करती हैं। जिसकी सत्ता पर इन्दियाँ काम करती हैं, वह स्वयं कुछ न कर सके, यह कैसे संभव है? जैसे आँख का रूप और कान का शब्द विषय है, उसी तरह आपका खास कोई विषय है कि नहीं? आपका अपना विषय आप हैं। अपने से अपने को पहचाननेवाला ही अपने से ईश्वर को पहचाननेवाला होता है। ईश्वर को अपने से पहचानो। ईश्वर वही है, जो चेतन आत्मा से ग्रहण हो। इस स्वरूप को श्रवण और मनन से जाने बिना ईश्वर- दर्शन के लिए चलना, केवल हैरान ही होना है। संत लोग कहते हैं कि ईश्वर की भक्ति ऐसी करो कि ठीक-ठीक उनके स्वरूप का दर्शन हो जाए, जिसको केवल चेतन आत्मा से ही देख सकते हो। इन्द्रियां से केवल माया का ही ज्ञान पाते हो, परमात्मा का नहीं। परमात्मा ही प्राप्त करने योग्य है। आपके अंदर भागने का रास्ता है, इसका यत्न संतों से लीजिए।
 हमलोगों को देखने के लिए दो आँखें हैं, भीतर में भी एक आँख है। एक बाबू साहब के दरवाजे पर मैंने देखा कि शिवजी, पार्वतीजी और गणेशजी की तस्वीर में सबको तीन-तीन आँखें हैं। मैने कहा-ठीक है। शिवजी को तीन आँखेंं हैं, पार्वती माता को और गणेशजी को भी। मानी (मतलब) यह है कि शिवजी की जितने सन्तानेंं हैं, सबको वह तीसरी आँख है।’ शिवजी की संतान सभी हैं। शिवजी ने तीसरी आँख को खोल ली थी, हम भी उसको खोलें। इस तीसरी आँख के खोलने का यत्न संत दरिया साहब बिहारी बतलाते हैं-
जानिले जानिले सत्त पहचानिले, सुरति साँची बसै दीद दाना।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै, पलक परवीन दिव दृष्टि ताना।।
 यही मोक्ष का दरवाजा है। इसी को दसवाँ द्वार भी कहते हैं। इसी द्वार पर परमात्मा का ज्योतिरूप हाथ मिलता है। इसी दशवें द्वार होकर शरीर से भागने का द्वार है। ‘नव दर ठाके धावतु रहाए दसवैं निजघरि वासा पाए। उथै अनहद शब्द बजहिं दिन राती गुरमति शबदु सुणावणिआ।।’ यहाँ पर ठहरकर भजन करते रहो तो परमात्मा की ओर आकृष्ट होकर उनके उपर्युक्त दोनों हाथों से पकड़े जाओगे। स्थूल, सूक्ष्म, कारणादि को पार करोगे और परमात्मा अपनी गोद में उठा लेंगे।
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यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत सत्संग का 51 वाँ वार्षिक महाधिवेशन, छपरा नगर में दिनांक 1.3.1959 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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140. मनुष्य की खोपड़ी कभी भरती है?
प्यारी धर्मानुरागिनी जनता!
 हम जितने प्राणी हैं, सभी सुख में रहना चाहते हैं। दुःख कोई पसन्द नहीं करते। सुख के लिए जीवनभर पुरुषार्थ करते हैं। जीवनभर प्रयास करते- करते जैसा सुख होना चाहिए नहीं हो पाता। और सुख की इच्छा लिए हुए ही संसार से चले जाते हैं।
 सुख उसको हम कहते हैं, जो मन-इन्द्रियों को सुहावे। इसके विपरीत को दुःख कहते हैं। पाँच ही चीज संसार में हैं। उन चीजों को ग्रहण करने के लिए इन्द्रियाँ भी पाँच ही हैं। इन पाँचों इन्द्रियों के विषय-रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श हैं। इनमें प्रत्येक विषय के प्रकार बहुत हैं। लेकिन मोट में पाँच ही हैं। इनसे हम अपने को सुखी बनाना चाहते हैं और इसी के लिए हम प्रयास करते हैं। इसी के लिए हम धन उपार्जन करते हैं और धन उपार्जन करने के लिए परिश्रम करते हैं। फिर उन विषयों को भोगते हैं।
 संसार में बड़े-बड़े धनी हो गए हैं। लेकिन अतृप्त ही वे खत्म हो गए। आज भी जहाँ-जहाँ जिनको धन है, वे तृप्त हैं कहा नहीं जा सकता। जितना धन होता है, और भी धन हो, और भी धन हो, इसकी इच्छा बनी ही रहती है। धन के लालच पर एक कथा है उसे सुनिए-
 एक राजा था। उसको धन का बहुत लालच था। उसको जब यह मालूम हुआ कि समुद्र में बहुत धन है, इसलिए वह रत्नाकर कहलाता है। तो उसने समुद्र पर चढ़ाई कर दी। बहुत से बम-गोले बरसाए। समुद्र के अंदर रहनेवाले जीव व्याकुल हो गए। अंत में समुद्र राजा के सामने मनुष्य रूप में उपस्थित हुआ। समुद्र ने राजा से पूछा-‘ तुम क्यों तोप,गोले बरसाकर मेरे अंदर रहनेवाले जीवों को कष्ट दे रहे हो?’ राजा ने कहा-‘तुम मेरे राज्य में हो, तुमने कभी भी मुझे कर नहीं दिया है।’ समुद्र ने राजा को धन का एक खजाना बता दिया और कहा-‘इस खजाने से जितना धन लेना है, ले लो।’ राजा बहुत प्रसन्न हुआ। उसने धन ढुलवाना शुरू किया। धन ढोते-ढोते कितने बैल मर गए, कितने नौकर बीमार हो गए, कितनी गाड़ियाँ टूट गईं, ठिकाना नहीं, लेकिन खजाना धन से खाली नहीं हुआ। राजा ने पुनः समुद्र पर चढ़ाई की। समुद्र फिर प्रकट हुए। समुद्र ने राजा से पूछा-‘अब क्यों आक्रमण करते हो?’ राजा ने कहा-‘धन ढोते-ढोते मेरा खजाना भर गया, अब मुझे धन रखने की जगह नहीं है, कोई ऐसा बर्तन दो जिसमें मैं अपना धन रख सकूँ।’ समुद्र ने राजा को मनुष्य की एक खोपड़ी देते हुए कहा-‘लो, इसमें धन रखो।’ यह कहकर समुद्र अंतर्द्धान हो गया।’ राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस खोपड़ी में कितना धन अँटेगा! लेकिन समुद्र की बात मानकर वे खोपड़ी में धन भरने लगा। अब न तो खोपड़ी भरती और न खजाना ही खाली होता। राजा खोपड़ी को धन से भरते-भरते परेशान हो गया। राजा ने पुनः समुद्र पर गोले बरसाना शुरू किया। समुद्र फिर प्रकट हुआ और बोला-‘तुम क्यों मेरे ऊपर बारम्बार गोले बरसा रहे हो?’ राजा ने कहा-‘तुमने ऐसी खोपड़ी दी है, वह धन से भरती ही नहीं है और न तुम्हारा बताया खजाना ही खाली होता है।’ समुद्र ने कहा-‘अरे! मनुष्य की खोपड़ी कभी भरती है? तू इस पर राख डाल।’ राजा ने थोड़ी-सी मिट्टी उस खोपड़ी पर डाल दी, खोपड़ी भर गई। यह कहानी कहने का मतलब है कि मनुष्य की खोपड़ी कभी भरती ही नहीं। इसलिए अपनी इच्छा पर मिट्टी डाल यानी संतोष कर ले, तभी यह खोपड़ी भर सकती है। मनुष्य को धन कितना हो, इसका ठिकाना नहीं। गोस्वामी तुलसीदाजी ने कहा है-
 द्रव्यहीन दुःख लहहिं दुसह अति, सुख सपनेहुँ नहिं पाए ।
 उभय प्रकार प्रेत पावक ज्यों, धन दुःख प्रद सु्रति गाए ।।
 धन नहीं रहने पर जलते रहो और धन हो तो भूत की तरह नाचते रहो। तृप्ति आती नहीं धन से। समझ लेने पर भी आदमी तृप्त नहीं होता-संतुष्ट नहीं होता। संतुष्ट कैसे हो? गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामायण में लिखा है-
बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहु नाहीं।।
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल विहीन तरु कबहुँ कि जामा।।
 संतोष के बिना इच्छा की निवृत्ति नहीं होती और संतुष्टि ईश्वर की भक्ति से होती है। जैसे बिना धरती के कोई भी वृक्ष जम नहीं सकता, उसी तरह परमात्मा के भजन के बिना इच्छा की निवृति नहीं हो सकती। इसीलिए राम-भजन की बड़ी आवश्यकता है-अपने को तृप्त करने के लिए, सुखी करने के लिए।
 हमलोग लड़कपन से ही ईश्वर को मानते आए हैं, जब से हमलोगों के मुँह में बोल आया। क्योंकि हमारे घरों में आस्तिक भाव पहले से भरा है। लेकिन ईश्वर स्वरूपतः कैसे हैं, इसको नहीं जाना। किसी के घर में शिव ईश्वर हैं, किसी के घर में शक्ति माता को ही ईश्वरी कहकर मानते हैं। कोई गणेशजी को तो कोई विष्णु भगवान को ईश्वर मानते हैं। इस तरह ईश्वर को हमलोग मानते आए हैं। हमलोगों ने अपने ही घर के इष्टदेव को ईश्वर कहा या सबको ईश्वर कहा? शिव कहकर जो रूप सामने आता है, उसको ईश्वर कहा या दाशरथि राम को ईश्वर कहा? जिनको जिनकी उपासना करनी है वे उसी रूप में ईश्वर को जानें। बात तो बहुत अच्छी है, लेकिन यह नहीं जानना चाहिए कि ईश्वर अनेक हैं। राम, शिव, विष्णु, शक्ति आदि कहकर जो अनेक नामरूप मालूम होते हैं, वे अनेक नामरूप के कारण अनेक ईश्वर हैं, ऐसा नहीं। क्योंकि ईश्वर एक ही हो सकते हैं। इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म या वैदिक धर्म; ये तीनों धर्मावलम्बी ईश्वर को मानते हैं। हमारे यहाँ बहुत रूपों में ईश्वर को मानते हैं। कोई शिव को, कोई विष्णु को तो कोई राम को तो कोई कृष्ण को ईश्वर कहते हैं। अपने इष्टदेव को ईश्वर कहकर दूसरे के इष्ट को न्यून बताते हैं और आपस में सम्प्रदाय भाव में आकर लड़ते-झगड़ते हैं। यदि ऐसा भाव हो कि मेरे लिए जैसे शिव हैं, उनके लिए वैसी ही शक्ति और उनके लिए वैसे ही विष्णु। इस तरह एक ही ईश्वर मानना ठीक है। यह जान लें कि सब रूपों में ईश्वर एक ही हैं। जो शक्ति माता में है, वे ही राम में, शिव में, विष्णु में हैं। गुरु में भी वे ही हैं। वे ही एक ईश्वर सबमें हैं। इसलिए ईश्वर एक हैं, यह विचार के अनुकूल है।
 ईश्वर सर्वव्यापी हैं। इसलिए सब रूपों में वे हैं। जिस रूप में उनका प्रभुत्व विशेष देखा जाता है, उसे विशेष करके मानते हैं। अगर ऐसा कहो कि एक-ही-एक है तो वे असीम हैं या ससीम? चाहे आप वैज्ञानिक हों या दार्शनिक हों, मैं कहता हूँ कि एक ऐसा परमतत्त्व होना चाहिए कि जिसका कहीं आरम्भ और कहीं अंत न हो। ऐसा नहीं कि फलाने काल से आरम्भ होकर फलाने काल में समाप्त होगा। जो देश-काल के परे है, वह असीम है, ऐसा कोई पदार्थ अवश्य है।
 वैज्ञानिकों को भी यह मानना ही पड़ेगा। और दार्शनिक तो कहते ही हैं। अगर मूलारम्भ में ऐसा नहीं मानो तो ऐसा मानना पड़ेगा कि सब-के-सब ससीम हैं। ऐसा कोई नहीं कि जो असीम-अनंत है। तो वहीं पर प्रश्न होता है कि सब ससीमों के परे आप क्या मानते हैं? सब ससीमों का एक झुण्ड बना लो; सब ससीमों को जोड़ने से असीम नहीं होता। ससीमों का जोड़ असीम नहीं होता, चाहे कितना बड़ा मण्डल क्यों न हो, वह ससीम होगा। तब वहीं पर सवाल होगा कि उस ससीम मण्डल के परे क्या है? जबतक असीम नहीं कहोगे, प्रश्न बना ही रहेगा। असीम के परे क्या है? यह पूछना ही गलत हो जाएगा। जिसके परे कुछ होता है, उसकी सीमा होती है; जिसकी सीमा नहीं,उसके परे क्या होगा? इसलिए सब ससीमों के परे एक असीम है। ऐसा विचार-दृष्टि से देखा जाता है। संस्कृत गं्रथ में और भाषा ग्रंथ में असीम का वर्णन आता है। जैसे गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
सोइ सच्चिदानंद घन रामा। अज विज्ञान रूप बल धामा ।।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सब दरसी अनवद्य अजीता।।
निर्मल निराकार निर्मोहा ।नित्य निरंजन सुख सन्दोहा।।
 जिसकी सीमा नहीं हो, उसको किसी आकार में कैसे वर्णन कर सकते हैं। जहाँ आकार है, वहाँ सीमा है। जहाँ कोई आकार नहीं, वहाँ असीम है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने ‘निर्मल निराकार निर्मोहा। नित्य निरंजन सुख संदोहा।।’ कहा। और संत कबीर साहब ने कहा-
 श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
 सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
 चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
 चून चगून वजूद न मानु तैं सुभानमूना ऐना ।।
 जैसे ऐना सब दरसावै जो कुछ वेष बनावै ।
 ज्यों अनुमान करै साहब को त्यों साहब दरसावै ।।
 जाहि रूह अल्लाह के भीतर तेहि भीतर क े ठाईं ।
 रूप अरूप हमारि आस है हम दूनहुँ के साईं ।।
 जो कोउ रूह आपनी देखा सो साहब को पेखा ।
 कहै कबीर स्वरूप हमारा साहब को दिल देखा ।।
 गुरु नानक साहब तथा और संत सब भी ऐसा ही कहते हैं। उपनिषत्कार ने कहा है-
 वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
 एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
      -कठोपनिषद् अ0- 2 व0 2-10
 अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है उसी प्रकार संपूर्ण भूतों का एक ही अंतरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
 इसी तरह अग्नि के भी लिए कहा है। परमात्मा सबमें है और सबसे बाहर भी है। ऐसा नहीं कि कहीं वे खत्म हो जाते हैं। अनादि-अनंत होने के कारण वे सबमें है। गुरु नानक साहब ने कहा है-
     बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुरु गिआन बताई ।
     जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई ।।
 सबमें परमात्मा एक-ही -एक है। बुद्धि में इस तरह आने पर भी पहचान नहीं सकते। संसार की किसी चीज से उनकी उपमा नहीं दी जा सकती। गो0 तुलसीदासजी ने रामायण के उत्तरकाण्ड में लिखा है-
अनुपम न उपमा आन राम समान राम निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रवि कहत अति लघुता लहै।।
 जो ईश्वर कोटि के महान देव हैं, उनमें और हममें-सबमें वे परमात्मा हैं। आत्म-तत्त्व रूप में हममें और उन महान देवों में वे एक हैं। लेकिन अंतःकरण में बहुत फर्क है। हमारा अंतःकरण संकुचित है, लेकिन महान देवों का विकसित है। उनकी शक्तियाँ जगी हुईं हैं, हमारी सोयी हुई है; इसीलिए हम जीव कोटि के और वे देव कोटि के कहे जाते हैं। सबसे विशेष व्यापक और सूक्ष्म होने के कारण परमात्मा असीम है, अनंत है। जो असीम है, अनंत है, वे सर्वव्यापी क्यों न होंगे? जो जितना विशेष व्यापक होता है, वह उतना ही अधिक सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म का अर्थ छोटा टुकड़ा नहीं, बहुत महीन। स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं होता। परमात्मा अत्यन्त बारीक है और हमारी इन्द्रियाँ स्थूल हैं। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 वे बुद्धि के परे तत्त्व हैं। ईश्वर-स्वरूप का निर्णय इस प्रकार जानना चाहिए। इस निर्णय को जाने बिना हम कहाँ तक पहुँचेंगे, इसका निर्णय नहीं कर सकते। मुख्तसर में कह सकते हैं कि स्वरूपतः ईश्वर वही है, जो इन्द्रियों से परे है। तब प्रश्न होता है कि राम, कृष्ण ईश्वर नहीं हैं? हैं। ईश्वर कोटि के हैं, उनमें हममें बहुत अंतर है। उनमें अष्ट सिद्धि, नवनिधि का खजाना भरा है, हममें नहीं है। गोस्वामी तुलसीदासजी अवतारवाद के बहुत पक्के हैं, लेकिन वे ऐसा भी कहते हैं कि-
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
 किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
 जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
 सोइ सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ ।।
 अर्थात् भक्त के लिए ईश्वर राजा का रूप धारण कर पवित्र लीला करते हैं। जैसे कोई बहुरूपिया अनेक रूप धारण कर कभी राजा का, कभी भिखारी आदि का भाव दिखाता है। लेकिन वह नट वही नहीं हो जाता। इसी तरह भगवान राम के लीलामय रूप से जो लीला होती है, तो उस रूप में ईश्वर है, वह रूप ईश्वर नहीं है। तब कहेंगे कि सब रूप में ईश्वर है। सब पूजने योग्य क्यों नहीं है? इसलिए कि भगवान का अंतःकरण बड़ा विशाल है, हमारा विशाल नहीं है। यह अवश्य ही गूढ़ विषय है। इस गूढ़ विषय को सबलोग जल्द समझ नहीं सकते, सुनकर भी नहीं समझ सकते, जो विद्वान हैं, जो बहुत सत्संग किए हैं, वे समझ सकते हैं। सबलोग समझने लगेंगे, यदि वे ज्यादे ध्यानाभ्यास और ज्यादे सत्संग करें।
 कितने लोग ईश्वर के लिए इन्कार करते हैं, यहाँ तक कि अपने लिए भी इन्कार करते हैं। इसलिए कि पंच ज्ञानेन्द्रियों में ही ईश्वर को लेना चाहते हैं। अरे! स्थूल यन्त्र से सूक्ष्म यन्त्र का ग्रहण नहीं हो सकता। तब कौन ग्रहण करेगा? प्रत्येक शरीर में चेतन आत्मा है। इसके लिए भी कितने प्रकार का ज्ञान है। लेकिन ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुख राशी।।’ यह लीजिए तो बड़ा अच्छा। क्योंकि किसी एक रूप में वा सम्पूर्ण रूप में परमात्मा अँट नहीं सकते। जैसे सम्पूर्ण आकाश का कोई एक ही घर नहीं बन सकता। अंतःकरण से युक्त जीव कहलाता है। शरीर में मन-बुद्धि आदि के अतिरिक्त जो चेतन आत्मा रह जाती है, ईश्वर-दर्शन के लिए वही योग्य है। जैसे बाहर में एक-एक इन्द्रिय एक-एक विषय को ग्रहण करती है। आँख का विषय कान और कान का विषय नाक ग्रहण नहीं कर सकती। आपकी ही सत्ता पर सब इन्द्रियाँ काम करती हैं। आप अकेले होकर क्या कर सकते हैं, इसको नहीं जानते हैं। आपका निज विषय ईश्वर-ग्रहण है। बुद्धि में आस्तिक लोग निर्णय करते हैं कि मेरे इस शरीर में ईश्वर है और मैं हूँ। नास्तिक अपना होना भी नहीं मानता।
 श्रीमद्भगवद्गीता में इकतीस तत्त्वों का वर्णन है-पाँच स्थूल तत्त्व (मिट्टी, जल, अग्नि, हवा और आकाश), पाँच सूक्ष्म तत्त्व (रूप, रस,गंध, स्पर्श और शब्द), अहंकार, बुद्धि, प्रकृति, दशेन्द्रियाँ (हाथ, पैर, मुँह, गुदा, लिंग; ये कर्मेन्द्रियाँ और आँख, कान, नाक, जिह्ना और त्वचा; ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ), मन, चैतन्य, संघात (कहे गए का संघरूप), धृति (धारण करने की शक्ति) और इनके विकार-इच्छा, द्वेष, सुख और दुःख-इन इकतीस तत्त्वों के समूह को क्षेत्र कहते हैं। इनके अतिरिक्त आप इसमें से अलग हैं। उसी को जीवात्मा कहते हैं। वही ईश्वर को देखता है यानी ग्रहण करता है। देखना शब्द से, आँख से देखना नहीं समझें। आप सब इिंन्द्रयों को सत्ता देनेवाले हैं। बिना आँख के ही आप देख सकते हैं। आप अपने से ग्रहण कीजिए। इसमें आप लाचारी बतावें कि इन्द्रियों को छोड़कर हम अकेले कैसे रहेंगे? तो इसका भी उत्तर है। जैसे दूध से मक्खन को अलग कर लेते हैं, उसी तरह आप अपने को शरीर, इन्द्रियों से अलग कर सकते हैं। ब्रह्मानन्द स्वामी ने कहा है-
 जिमि दूध के मथन से, निकसत है घी जतन से ।
 तिमि ध्यान के लगन से, परब्रह्म ले निहारा ।।
 ईश्वर-भक्ति के वास्ते ध्यान अनिवार्य है। ध्यान को छोड़कर न पूजा ठीक होगी, न जप। एक तरफ मन करके जप, पूजा, मोटा ध्यान करो। इतने में ही भक्ति खतम नहीं है, और भी है। मेरा प्रचार है कि पहले ईश्वर-स्वरूप को जानो और ईश्वर को कौन पकड़ेगा, इसको भी जानो। इसी दोनों का उत्तर हुआ है। ईश्वर को प्राप्त करके सुख होगा। इसका विश्वास क्या? श्रद्धालु भक्त को विश्वास होता है कि ईश्वर मिल गए तो बाकी क्या रहेगा? जो तर्कवाले हैं, वे जानें कि हम ससीम के अंदर हैं, तो सुखी नहीं हैं। उस असीम को प्राप्त करें तो सुखी रहेंगे। दूसरी बात माया की फौज के अंदर रहते हैं तो दुःखी रहते हैं। इनके उल्टे जो परमात्मा हैं, उनको प्राप्त करने से सुखी होंगे। क्योंकि जो पदार्थ आपस में उलटे-उलटे होते हैं, उनके गुण भी उलटे-उलटे होते हैं। यहाँ इन्द्रिय-ज्ञान में विषयानन्द होता है, तो वहाँ आत्मानन्द है। उसका वर्णन कोई कर नहीं सकता कि कैसा सुख होता है। सूरदासजी ने कहा है-
अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यों गूँगहिं मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै।।
परम स्वाद सबही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै।
मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै।।
 इन्द्रियां को छोड़कर आत्मा को जो ग्रहण होता है, वह परम स्वाद है। उसमें इतनी संतुष्टि है कि उसका हद्दो-हिसाब नहीं है। इसीलिए कहा-
 राम भजन बिनु मिटहीं कि कामा ।
 परमात्मा इन्द्रिय-ज्ञान से परे है, यह जानना चाहिए।
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यह प्रवचन समस्तीपुर जिलान्तर्गत ग्राम-लगमा में दिनांक 11.3.1959 ई0 के अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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141. युद्ध भी करो और स्मरण भी
प्यारे लोगो!
 जानना और युक्त होना-ये दोनों आपस में बड़े संगी हैं। संसार भर में जो काम होते हैं, इन्हीं दोनों से होते हैं। बिना जाने युक्त हुआ नहीं जाता। युक्त हुए बिना, जाने हुए तत्त्व का ग्रहण नहीं होता। इसलिए जानना और युक्त होना-दोनों आवश्यक हैं। जानने को ज्ञान और युक्त होने को योग कहते हैं। बिना जाने आप क्या कर सकते हैं और जानकर भी यदि युक्त नहीं होंगे तो क्या लाभ होगा? इसलिए ज्ञान और योग-दोनों का अच्छी तरह अभ्यास करना चाहिए।
 योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः।
 योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ।।
 तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत् ।।
       -योगशिखोपनिषद्
 सांसारिक बातों में भी आप इसको लगा सकते हैं। आप जानेंंगे कि नौकरी, व्यापार और खेती करने से धन होता है तो इसके लिए आप उनसे युक्त होंगे तो धन मिलेगा, यदि नहीं जानेंगे तो युक्त नहीं होंगे और उनसे जो लाभ होना चाहिए, नहीं होगा। हम चाहते हैं कि स्थिर सुख मिले, लेकिन ऐसा नहीं होता है। संत सूरदासजी ने एक भजन गाया है-
  ताते सेइये यदुराई ।
  सम्पति विपति विपति सों सम्पति देह धर े को यहै सुभाई ।।
  तरुवर फूलै फलै परिहरै अपने कालहिं पाई ।
  सरवर नीर भरै पुनि उमड़ै सूखे खेह उड़ाई ।।
  द्वितीय चन्द्र बाढ़त ही बाढे़े घटत घटत घटि जाई ।
  सूरदास सम्पदा आपदा जिनि कोऊ पतिआई ।।
 सम्पत्ति या विपत्ति किसी को आप ठहराकर नहीं रख सकते। जैसे भूख, प्यास, नींद स्वाभाविक है। उसी तरह सम्पति-विपत्ति का होना स्वाभाविक है। इसलिए इसमें आसक्त मत होओ। आसक्त ईश्वर में होओ, जो कभी खोने को नहीं, कभी छूटने को नहीं, अपना शान्तिमय स्वभाव कभी छोड़ने को नहीं। उपमा देकर सूरदासजी कहते हैं-तरुवर फूलता, फलता और झड़ता भी है। सरोवर का नीर बढ़ता, उमड़ता और सूखता भी है। द्वितीया का चन्द्र बढ़ते-बढ़ते पूर्णमासी का होता है, फिर अमावस्या आती है। इसलिए सम्पति-विपत्ति का कभी विश्वास नहीं करो। विश्वास करो ईश्वर पर, जो एक बार मिले तो फिर कभी बिछुड़े नहीं। अटल एक ईश्वर रहता है। उसको जानो और उससे युक्त होओ। यही ज्ञान और योग है। यदि ईश्वर का भरोसा छोड़कर संसार में लीन हो जाओ तो कोई विश्वास नहीं। जिसको ज्ञान रहता है, वह सुख के दिन में बिनसेगा नहीं और दुःख के दिन मे बिलखेगा नहीं।
 क्षत्रपति शिवाजी के समय में एक संत थे समर्थ रामदासजी और दूसरे थे तुकाराम जी। समर्थ रामदासजी लड़कपन में बहुत दौड़ने और फाँदनेवाले थे। लोग इनको हनुमानजी का अवतार कहने लगे थे। इनके विराग को देखकर इनके परिवारवालों ने इनकी शादी की बात की। इन्होंने शादी करने से इन्कार कर दिया। इनकी माताजी बोलीं-मण्डप पर जाने के पहले तुम विवाह से इनकार नहीं कर सकते। समर्थ रामदासजी माता के बड़े भक्त थे। इन्होंने कहा- माताजी ऐसा ही होगा। विवाह की सारी तैयारियाँ हो गयीं। माताजी की बात मानकर ये मंडप पर गए और वहाँ से भाग गए, तो भाग ही गए।
 जो लोग ईश्वर पक्ष के होते हैं, उनका हृदय बहुत उत्तम होता है। उनके हृदय में विचित्र संतोष होता है। उससे उन्हें तृप्ति बनी रहती है। वे जानते हैं कि सम्पत्ति-विपत्ति ऐसे ही आती-जाती रहती है।
 संसार के पदार्थों को पाकर जिनको संतोष रहता है, वे दुःखी-ही-दुःखी रहेंगे। सत्संग के द्वारा ज्ञान प्राप्त करो। सद्गं्रथों का पाठ भी सत्संग है। संतों के संग को भी सत्संग कहते हैं, लेकिन नित्यप्रति संतों का संग नहीं मिल सकता। इसलिए उनकी वाणी का पाठ नित्य करो, बड़ा संतोष होगा। कबीर साहब ने कहा है-
 चाह गई चिन्ता मिटी, मनुवाँ बेपरवाह ।
 जाको कछू न चाहिए, सोई शाहंशाह ।।
 इसलिए ज्ञान प्राप्त करो और योग भी करो। बिना ज्ञान के योग नहीं कर सकते और बिना योग के निर्णीत पदार्थ को नहीं पाओगे।
 ईश्वर से प्रेम करने को ही भक्ति कहते हैं। इसको छोड़कर कोई और कुछ करना चाहते हैं तो वह योग नहीं है। वह तो-
जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू। जहँ नहिं राम प्रेम प्रधानू।।
 सिद्ध महात्मा दो तरह के होते हैं। एक सदाचार में संलग्न रहते हैं, अपनी पहुँच वे आप जानते हैं, ईश्वर की ओर रहते हैं, वे सिद्धपुरुष हैं। रामकृष्ण परमहंसदेवजी ने कहा है कि सिद्धपुरुष आलू और बैगन की तरह मुलायम होते हैं। दूसरे वे होते हैं, जो चमत्कार दिखाते फिरते हैं। वे ईश्वर की तरफ नहीं हैं। संतों के दरबार में उनका आदर नहीं होता। योग से विन्दु और नाद को पकड़ो। उपनिषद् में आया है-
 विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम् ।
 देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।
      -योगशिखोपनिषद्, अध्याय 1
 अपने शरीर को आप शिवालय बना सकते हैं और अंतःकरण को अशु़द्ध करके निष्कृष्ट बना सकते हैं। इसी उपनिषद् में दूसरी जगह है-
 विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम् ।
 देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।। -योगशिखोपनिषद्, अध्याय 5
 विन्दु शक्ति है और नाद शिव है। विन्दु लक्ष्मी है और नाद विष्णु है। विन्दु जलढरी है और नाद शिवर्चिं है। इनकी उपासना कीजिए। लक्ष्मी और शक्ति में तथा विष्णु और शिव में भेद नहीं है। इसलिए दोनों तरह के श्लोक कहे गए हैं। यदि कोई कहे कि रूप देखने में तो भिन्न-भिन्न है, फिर दोनों एक कैसे? तो उत्तर में निवेदन है-किसी के स्थूल रूप पर ही विचार नहीं करो। उसके विन्दु रूप और नाद रूप पर भी विचार करो। विन्दु और नाद की जहाँ पर समाप्ति होती है, वहाँ एक ही है। उस शब्दातीत पद में पहुँचो तो वहाँ एक-ही- एक रहता है। यहाँ तो दो रहते हैं-विन्दु और नाद। जो विन्दु और नाद की उपासना करते हैं, वे एक ईश्वर की उपासना करते हैं। विन्दुपीठ का भेदन करके नादलिंग उपस्थित होता है। ऐसा उपनिषद् में भी वर्णन आया है। नाद स्वयं उपस्थित होता है। कोई कहे कि यह बिल्कुल सूक्ष्म-ही-सूक्ष्म है, स्थूल साधना नहीं है। तो उत्तर है कि अवश्य है। नाद का स्थूल रूप श्रवणात्मक शब्द अथवा इन्द्रियगम्य शब्द है, जिसको कान से सुनते हैं। विन्दु का स्थूल रूप शालिग्राम है। वर्णात्मक शब्द का जप और किसी पवित्र मूर्ति का मानस ध्यान करो। संतों के वचन में आया है-
 मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
 मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।
 सपनेहु में बर्राइ के, धोखेहु निकरै नाम ।
 वाके पग की पैंतरी, मेरे तन को चाम ।।
          -संत कबीर साहब
गुर की मूरति मन महि धिआनु। गुरु कै शबदि मंत्र मनु मानु।।
गुर के चरण रिदै लै धारउ। गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ।।
          -गुरु नानक साहब
 कितना आदर है कबीर साहब के यहाँ वर्णात्मक नाम का जप और गुरु नानक साहब के यहाँ एक ॐ कर्तापुरुष का! ईश्वर के कितने ही नाम हैं, जो लेना चाहो लो।
 दादू सिरजन हार के, केते नाम अनन्त ।
 चित भावे सो लीजिए, यौं साधू सुमिरै संत ।।
 लेकिन जो मंत्र गुरु से पाओ, उसी को जपो। फिर मानस ध्यान करो। इसके बाद विन्दु ध्यान है। विन्दु ध्यान इसलिए है कि नाद पकड़ा जा सके। मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि साधन और शब्द साधन-ये ही चार साधन हैं, विशेष नहीं। कबीर साहब ने कहा है-
 न योगी योग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै ।
 सहज में ध्यान से पावै, सुरति का खेल जेहि आवै ।।
 प्राणायाम योग के लिए मना किया और तपसी जो पंच अग्नि तापते हैं उसके लिए भी मना किया। मानस जप में, मानस ध्यान में, दृष्टियोग में और नाद ध्यान में सुरत का खेल है। केवल उपासना करते समय ही सुरत का खेल नहीं होता है, बल्कि संसार का काम करते हुए भी अपना ख्याल प्रभु में लगाकर रखो।
 जस पनिहारी कलस भरे मारग में आवै ।
 कर छोड़ै मुख वचन चित्त कलसा में लावै ।।
 वेद में भी त्रिकाल संध्या करने को कहा है। गीता में बताया है कि मोक्ष का अधिकारी अपने को बनाकर कर्मयोग करो। जो सांसारिक वासनाओं को अपने से हटाकर निर्लिप्त रहता है, कर्म करता है, ईश्वर में अर्पण करता है, फलाश को छोड़कर कर्म करता है; वह कर्मयोगी है। आत्मरत होकर कर्म करो। यह बहुत अच्छा कहा। अपनी आत्मा में अपने को संलग्न कर कर्म करने कहा। आत्मा क्या है? शरीर यानी क्षेत्र को छोड़ दो, तब जो तुम हो सो आत्मतत्त्व है। तुम इन्द्रियगम्य नहीं हो। आत्मा प्रत्यक्ष नहीं है। उसमें संलग्न होकर कर्म कैसे करें? यह तो अन्त की बात है। आरम्भ कैसे होता है, सो सुनो-अपना निशाना अपने अंदर है, अपने उसपर लगे रहो। यह आत्मरत होने का अभ्यास करना है।
 कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।।
 सो ध्यानी परमान, सुरत से अण्डा सेवै ।
 आप रहे जल माहिं, सूखे में अण्डा देवै ।।
 जस पनिहारी कलस भरे, मारग में आवै ।
 कर छोड़ै मुख वचन चित्त कलसा में लावै ।।
        -पलटू साहब
 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-युद्ध भी करो और मेरा स्मरण भी करो। यह कितना कठिन काम है। तीर से तीर को काटना कितना निशाना करना होता होगा। और फिर ध्यान करने को कहा। दृष्टियोग में आत्मरत होने का आरम्भ होता है। मानस ध्यान में देखा हुआ रूप लेते हैं, लेकिन दृष्टियोग में कुछ लेते नहीं हैं। केवल देखने के ढंग से देखा जाता है। धर्मदासजी ने कहा है-
   सुखमन सेज बिछाओं गगन में नित उठि करौं निहोर ।
 गगन में ठहराव करते हैं। इसी को दूसरी तरह से कहा है-
 गंग जमुन के वार पार बिच भरतु है अमिय करार ।
       -संत गुलाल साहब
 इंगला-पिंगला के मिलन स्थान पर स्थिर अमृत है। दृष्टियोग में अपना निशाना है, अपने अंदर है, अपने उस पर लगे हैं। यह आत्मरत होने का आरम्भ है। प्रभु ईसा मसीह का वचन है-शरीर का दीपक आँख है। यदि तेरी आँख एक हो तो तेरा सारा शरीर उजियाला होगा।
 मुझे किसी मजहब से घृणा नहीं है, मैं सभी मजहबों में ध्यान को देखता हूँ। किसी भी मजहब में तुम हो, ध्यान करते हो कि नहीं। ध्यान करो नाथनगर के खलील साहब नमाज पढ़ने के बाद ध्यान करते थे। संत दादू दयालजी ने कहा है कि मन को घेर कर लाता हूँ, फिर भाग जाता है। फिर कहा कि-
 साध शबद सों मिलि रहे, मन राखे बिलमाइ ।
 साध सबद बिन क्यों रहे, तबहीं बीखरि जाइ ।।
 मन ही सौं मन थिर भया, मन ही सौं मन लाइ ।
 मन ही सौं मन मिलि रह्या,दादू अनत न जाइ ।।
 मन का मन से लगकर स्थिर होना दृष्टियोग से होता है। दादू दयालजी ने कहा है-
 सबदै बन्ध्या सब रहै, सबदै सब ही जाइ ।
 सबदै ही सब उपजै, सबदै सबै समाइ ।।
 पृथ्वी चलती है, उसमें ध्वनि होती है। उस ध्वनि से पृथ्वी इस तरह लपेटी है, जैसे लट्ट ू जो घूमता है, उससे जो ध्वनि होती है, उससे वह बंधा रहता है। संसार में जितने प्रबंध होते हैं, सब शबद से होते हैं। सेना तैयार होओ-मुँह से कहा और सुनते ही सेना तैयार हो गयी, आदि।
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यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर पाटम में दिनांक 21.4.1959 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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142. श्रीदुर्गा देवीजी का सर्वोत्कृष्ट स्वरूप
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 इस समय के सत्संग में मैं ‘ईश्वर की भक्ति किस तरह होती है, उसकी क्या विधि है’ कहूँगा। ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान जैसा गहन है, उसकी विधि भी वैसी ही गहन है। ईश्वर-स्वरूप के बारे में दो दिनों तक कहा जा चुका है। फिर भी आप को याद दिलाने के लिए कहा जाता है कि ईश्वर वह है जो आप चेतन आत्मा से पहचान सकते हैं। ईश्वर इन्द्रियों के द्वारा पहचाना नहीं जाता। अपने देश में बहुत लोग कहते हैं कि ईश्वर के दर्शन इसी आँख से लोग करते थे। श्रीराम, श्रीकृष्ण के दर्शन इसी आँख से हुए। रामकृष्ण परमहंस को श्रीकाली के दर्शन इसी आँख से हुए, तो क्या ये ईश्वर के दर्शन नहीं हैं? जो गहन ज्ञान नहीं समझ सकते, उनको समझना चाहिए कि राम, कृष्ण, विष्णु, शिव, दुर्गा आदि जितने रूप हुए तो क्या इतने पाँच-सात ईश्वर हैं? तो अवश्य समझेंगे कि ईश्वर पाँच-सात नहीं हो सकते। एक ही ईश्वर है। वैष्णव ‘भगवान विष्णु’ को ईश्वर कहेंगे और सबको सेवक। दूसरे कहेंगे ‘शिव’ ईश्वर और सब उनके सेवक। इसी तरह जो जिनके उपासक हैं, उनको वे ईश्वर कहेंगे और सबको वे सेवक कहेंगे। इसी भाव में साम्प्रदायि- कता का भाव आता है। एक से कहा जाय कि जैसा आप अपने इष्ट के लिए कहते हैं; वैसे ही दूसरे भी अपने इष्ट के लिए कहते हैं, लेकिन ठीक कौन है? सब अपने-अपने इष्ट को बड़ा कहते हैं। इस प्रकार साम्प्रदायिकता का खूब झगड़ा हुआ है। कुछ वर्ष पूर्व शैव और वैष्णवों में लड़ाई हुई। अंग्रेजों का समय था। वाक्य-युद्ध ही नहीं, शस्त्र भी खुल पड़े। मुकदमा हुआ। तय हुआ कि शिव दल बड़े हैं, प्राचीन हैं। इसलिए कुम्भ के मेले में पहले शैव दल ही स्नान करे। इस साम्प्रादियकता के फेर में कितनी तकरार हुई, ठिकाना नहीं।
 अपने देश में ही नहीं, ताजिया में भी झंझट हुआ। रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेन्ट में भी लड़ाई- झगड़ा हुआ। लेकिन असलियत क्या है? मुझसे पूछो कि राम ईश्वर हैं? मैं कहूँगा-‘हाँ।’ कृष्ण ईश्वर है? मैं कहूँगा-‘हाँ।’ इसी तरह सभी के लिए मैं ईश्वर मंजूर करूँगा। तो पूछेंगे कि क्या अनेक ईश्वर मानते हैं? मैं कहूँगा-‘नहीं।’ एक ईश्वर ही मानता हूँ। एक ईश्वर ही सर्वव्यापक हैं। जितने रूप कहे गए, उन सब रूपों में वही एक सर्वव्यापक है। रूप ईश्वर नहीं है। रूप की बड़ी मर्यादा गोस्वामी तुलसीदासजी ने दी। लेकिन यह भी कह दिया कि-
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
 किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
 जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
 सोइ सोइ भाव देखावइ, आपु न होइ न सोइ ।।
 जैसे नाटककार वेष धर कर वैसा ही काम दिखाता है, जैसा कि किसी ने पहले किया था, लेकिन वह स्वयं ‘वह’ नहीं बन जाता। गीता ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ को बताती है। वह अध्यात्म तत्त्व सबमें भरपूर है। श्रीकृष्ण ने ऐसा नहीं कहा कि मेरा जो यह क्षेत्र है, वही क्षेत्रज्ञ है। लोग इसका भी प्रचार करते हैं कि भगवान के क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ में कोई अंतर नहीं है, एक ही है। महाभारत पढ़कर देखिए या उसके अंदर एक गीता और है, जिसको ‘अणुगीता’ कहते हैं। उसको भी पढ़िए। कहीं ऐसी बात नहीं है। फिर भी जोर देना कि उनके क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ में भेद नहीं है, उचित नहीं। महाभारत में है कि क्षेत्रज्ञ जब प्राकृतिक गुणों से मुक्त हो जाता है यानी निस्त्रैगुण्य हो जाता है, तब वही परमात्मा हो जाता है। वह जो क्षेत्रज्ञ आत्मतत्त्व है, तमाम एक-ही-एक है। चाहे सोने का मन्दिर हो, चाहे शौचालय हो, देवालय हो, एक ही आकाश सर्वत्र है। उसी तरह सब शरीरों में एक ही आत्मा है। कठोपनिषद् में कहा है-
 वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
 एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
 जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
 जैसे गिलास के अंदर की हवा गिलास के रूप की ही होती है, उसी तरह सब भूतों के अंदर आत्मतत्त्व एक ही है। रूप-रूप के अनुरूप उसका आकार होता है। लेकिन वह तत्त्व नहीं होता। कोई गिलास चाँदी का, कोई सोने का, कोई काँच का होता है। सबमें पानी-ही-पानी है। तत्त्वरूप में एक ही है,लेकिन बर्तन और पानी एक ही नहीं है। उसी तरह कोई भी शरीर हो, उसमें जो आत्मा है, सब एक ही है, लेकिन शरीर और आत्मा एक ही नहीं है। गीता के सातवें अध्याय में भगवान ने कहा है-
 अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
         परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।। अबुद्धि अर्थात् मूढ़ लोग मेरे श्रेष्ठ उत्तमोत्तम और अव्यय रूप को न जानकर मुझ अव्यक्त को व्यक्त हुआ मानते हैं। शरीर व्यक्त है, परमात्मा अव्यक्त हैं। इस अव्यक्त तत्त्व को विचारो तो जो राम में है, वही कृष्ण शरीर में है, वही देवी रूप में भी है। जबतक श्रीकृष्ण क्षेत्र में क्षेत्रज्ञ था, तबतक उसको कोई जलाया नहीं। लेकिन जब क्षेत्रज्ञ क्षेत्र से निकल गया, तब अर्जुन ने उसका दाह किया।
 काली, दुर्गा, राम, कृष्ण सबके शरीर रूप को हटा दीजिए, तब जो बचता है, वह एक- ही-एक रहता है। एक बूढ़े सत्संगी ने कहा था कि तुम सबको मिलाकर एक कर देते हो। लोगों को काली, दुर्गा का उपासक बनाकर बकरा कटाओगे? मैंने कहा-रूप को छोड़कर उसमें जो है, उसको ग्रहण करो और दुर्गा सप्तशती में तो दुर्गा को नादरूपा कहा है तो नादानुसंधान ही करो। नादानु- संधान करनेवाला शाक्त है।
  शब्दात्मिका सुविमलर्ग्य जुषान्निधान ।
   मुद्गीथरम्य पद पाठवतां च साम्नाम् ।।
 देवी त्रयी भगवती भव भावनाय ।
   वार्त्ता च सर्व जगतां परमार्त्तिहन्त्री ।।
     -दुर्गा सप्तशती, अध्याय 4
 हे देवि! आप शब्दात्मिका हैं। शब्द है आत्मा (अर्थात् स्वरूप) जिसकी, वह हुई शब्दात्मिका। आत्मन् के अनेक अर्थों में स्वरूप भी एक अर्थ है। आप अत्यन्त निर्दोष ऋक् और यजुः के निधान हैं तथा उद्गीथों के द्वारा रमणीय पद और पाठ वाले (अथवा पदों के पाठवाले) साम के भी निधान (निधि, खजाना) हैं। आप साक्षात् त्रयी देवी हैं। संसार की सृष्टि वा धारण के निमित्त आप वार्ता (कृषि वाणिज्यादि जीविका रूप) हैं, तथा सभी लोकों की कठिन बाधाओं, विपत्तियांं और दुःखों को नाश करनेवाली हैं।
 देवी के शब्दात्मिका होने से अभिप्राय मीमांसकों और वैयाकरणों ने शब्द को नित्य माना। पतंजलि ने महाभाष्य में शब्द की परब्रह्म से समता दिखाई है।
चत्वारि शृंगा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्ता सो अस्य।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महोदेवो मर्त्यां आविवेश।।
 इस मंत्र की व्याख्या में महा भाष्यकार पतंजलि मुनि ने कहा है कि शब्द रूपी महान देव मनुष्यों में आकर प्रविष्ट हुआ है। अर्थात् परब्रह्म स्वरूप और अन्तर्यामी रूप शब्द मनुष्यों में पैठ गया है। जो पुरुष व्याकरण शास्त्र के ज्ञानपूर्वक शब्दों को संस्कार के साथ व्यवहार में लाता है, वह पाप रहित हो जाता है और इस अंतःप्रविष्ट शब्द ब्रह्म के साथ पूर्ण रूप से मिल जाता है।
 यही अंतःप्रविष्ट नित्य शब्द संपूर्ण जगदादि प्रपंच को विस्तारित करता है। यह शब्दरूप ब्रह्म आदि और अंत-रहित है। यह अक्षर है अर्थात् विकार शून्य है। यही जगत के रूप में भासित होता है। इसी शब्दब्रह्म से जगत की रचना होती है। इस विषय को महावैयाकरण भर्तृहरि ने वाक्यपदीय के ब्रह्मकाण्ड में कहा है, यथा-
 अनादि निधनं ब्रह्म शब्द तत्त्वं यदक्षरम् ।
 विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः।। इति ।
 अर्थात् अवयवरहित (खण्डरहित) नित्य शब्द जिसको वैयाकरण स्फोट कहते हैं, संसार का आदि कारण है और ब्रह्म ही है। वह ब्रह्म सत्ता सभी शब्दों का वाच्य है। वह स्फोट रूप वाचक शब्द से भिन्न नहीं है। जो भेद दीख पड़ता है, वह आवरण से, या कल्पना से ही। जो पुरुष शब्दब्रह्म को ठीक-ठीक अवगत कर लेता है, वह परब्रह्म को पाता है अर्थात् उसमें अवस्थित होता है। हे देवि! आप उपर्युक्त शब्द ब्रह्मस्वरूपा हैं। शब्दात्मिका इस श्लोक में जो उद्गीथ शब्द आया है, इसका साधारण अर्थ ओंकार किया जा सकता है।
 श्री श्री देवीजी का सर्वात्कृष्ट स्वरूप, जिसकी उपासना की जा सके, शब्द को ही मानना पड़ता है। शब्दब्रह्म के उपासक को परम शाक्त कहा जाय तो कुछ भी अनुचित नहीं।
 आसीद्विन्दुस्ततो नादो नादाच्छक्ति समुद्भवः।
 नादरूप महेशानि चिद्रूपा परमा कला ।।
        -वायवीय संहिता
 पहले विन्दु तब नाद और नाद से शक्ति उत्पन्न होती है। चैतन्यरूपा परमाकला महेशानि (शिवा) नादरूपा है।
 लोग कहा करते हैं-‘सियाराम मय सब जग जानी।’ वचन से तो कह देते हैं, लेकिन व्यवहार हो तब तो। सो तो होता नहीं, केवल वचन में कहते हैं। कोई शरीर बहुत सुन्दर, कोई असुन्दर, कोई बलवान, कोई बलहीन होता है। इसी तरह किसी का अंतःकरण बहुत बलवान और विकसित होता है। इसकी शक्ति को जिन्होंने अधिक जगा लिया, उसका मुकाबला कोई नहीं कर सकता। यह शक्ति विद्याभ्यास, योगाभ्यास और सदाचार के पालन से जगती है। सदाचार के पालन के बिना विद्याभ्यास और योगाभ्यास कुछ नहीं। श्रीकृष्ण को तो योगेश्वर ही कहते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
     निर्गुन रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोइ ।
     सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होइ ।।
 सगुण-त्रयगुण संबंधी रूप में, उसमें समझने में आने योग्य और नहीं आने योग्य कर्मों को देखकर मननशील को भी भ्रम उत्पन्न हो जाता है।
शिव अज शुक सनकादिक नारद। जे मुनि ब्रह्म विचार विशारद।।
मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही।।
 ब्रह्मा को मोह हुआ श्रीकृष्ण के प्रति, तो उन्होंने उनकी गौ और ग्वालवालों को छिपा लिया। भगवान ने अपने से बना लिया। ब्रह्मा को ज्ञान हुआ, तो फिर सब वापस किया। भगवान श्रीकृष्ण योगेश्वर कहे जाते हैं। उनका योगबल बचपन से ही विख्यात है।
 एक समय एक योगी उनके निकट आए। उन्हांने श्रीकृष्ण से योगविद्या की प्रशंसा की और उनसे कहा कि तुम भी योगविद्या सीखो। भगवान ने कहा-‘योगविद्या से क्या लाभ होता है?’ उन्होंने उनको एक तलवार देकर कहा कि इस तलवार से मेरे शरीर पर वार करो और देखो इसके प्रहार से मेरा शरीर नहीं कटेगा। श्रीकृष्णचन्द्रजी ने उनके हाथ से तलवार लेकर उनके शरीर पर कई प्रहार किए, परंतु प्रत्येक वार वज्र के ऊपर प्रहार करने के समान तलवार की धार भोथी हो जाती और उनके शरीर का बाल भी बाँका नहीं कर सकी। तत्पश्चात् भगवान श्रीकृष्णचन्द्रजी ने कहा कि अब आप इस तलवार का प्रहार मेरे शरीर पर कीजिए। इस पर योगी जी ने कहा कि तुम्हारा शरीर तो कोमल है, तलवार के आघात से वह कट जाएगा। इसपर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि आप तो योगी हैं। यदि तलवार की चोट से मेरा शरीर कट जाएगा तो आप अपने योगबल से उसे जोड़ दीजिएगा। इस योगी ने तलवार लेकर श्रीकृष्णचंद्रजी के शरीर पर कई आघात किए, परंतु प्रत्येक बार तलवार श्रीकृष्णचंद्रजी के शरीर के वारपार ठीक हवा में प्रहार करने के समानान्तर हो जाती, परंतु श्रीकृष्णचंद्रजी के शरीर पर तलवार के प्रहार का कोई र्चिं भी नहीं पड़ा। इस प्रकार योगिराज ने कई बार तलवार चलाई, किंतु सभी प्रहार निष्फल हो गए। इस पर योगी महाराज बड़े आश्चर्यित हुए और श्रीकृष्णचंद्रजी के योगबल की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।’ श्रीकृष्णचंद्रजी को बचपन से ही यह सिद्धि प्राप्त थी। यह अष्ट सिद्धियों में से है। इनकी शक्ति बड़े लोगों को देखने में आई, इसलिए उनको लोगों ने ईश्वर माना। इसी तरह से श्रीराम आदि के शरीर के विषय में भी जानिए। श्रीराम ने कहा-
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम शरीर।।
प्रगट सो तनु तव आगे सोवा। जीव नित्य तुम केहि लगि रोवा।।
 उस पंचभौतिक शरीर के अंदर जो है, उसको पहचानो। जो नित्य है, जितने अनेक रूप हैं, उनसे अनेक लीलाएँ भगवान ने कीं; लेकिन ऐसा नहीं कहा कि यह शरीर ही, रूप ही सब कुछ है। बल्कि श्रीराम ने कहा-
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।
 विषय पाँच हैं-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, और शब्द। इन पाँचों से बचो तो क्या बचता है, विचारो। श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीशिवजी किसी ने नहीं कहा कि मेरे शरीर रूप को देख लिया, हो गया; बल्कि सभी ने आत्मतत्त्व को पकड़ने कहा। जो इन्द्रियों का विषय नहीं है, वह निर्विषय है। निर्विषय तत्त्व परमात्मा हैं। इसी को ग्रहण करने के लिए मनुष्य शरीर हुआ है, भगवान ने कहा। वह ईश्वर एक ही है। श्रीराम के साथ जो रहे, उसका भी काम पूरा नहीं हुआ।
जेहि अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली ।
    फिरि सुकण्ठ सोई कीन्हि कुचाली।।
सोइ करतूति विभीषण केरी । सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी।।
 इनकी यह हालत क्यों? बिल्कुल पवित्र हो जाए, कुचाल से बचे, यह काम बाकी रहा। ईश्वर की भक्ति कैसे हो, अब कहता हूँ-
प्रभु तोहि कैसे देखन पाऊँ ।
तन इन्द्रिन संग माया देखूँ, मायातीत धरहु तुम नाऊँ।।
मेधा मन इन्द्रिन गहे माया, इन्ह में रहि माया लिपटाऊँ।
इन्द्रिन मन अरु बुद्धि परे प्रभु, मैं न इन्हें तजि आगे धाऊँ।।
करहु कृपा इन्ह संग छोड़ावहु, जड़ प्रकृति कर पार ही जाऊँ।
‘मेँहीँ’अस करुणा करि स्वामी, देहु दरस सुख पाइ अघाऊँ।।
 संसार में कुछ खाओ, पीओ, देखो, सुनो, तब सुख होता है, लेकिन यहाँ तो भूख, प्यास सब खतम केवल दर्शन मात्र से। ईश्वर की भक्ति में क्या करना होगा? शरीर लेकर जगन्नाथजी, बद्रीनाथ, जहाँ जाना चाहो, जा सकते हो। लेकिन अन्दर- अन्दर चलने में शरीर छोड़कर चलना होगा। घर से कोई बाहर होना चाहता है, तो पहले घर ही घर चलना पड़ता है। उसी तरह शरीर और इन्द्रियां से छूटने के लिए शरीर के अंदर-ही-अंदर चलना होगा। शरीर और इन्द्रियों का संग जहाँ छूट गया, वहीं ईश्वर दर्शन है। ईश्वर सर्वत्र है।
 बाहरि भीतरि एको जानहु, इहु गुर गिआन बताई।
       -गुरु नानकदेव
 बाहर में तुम इसलिए नहीं पाते हो कि तुम इन्दिय-ज्ञान में रहते हो। अंदर-अंदर चलने से शरीर से छूटना होगा।
सब किछु घर महिं बाहरि नाहीं । बाहरि टोलै सो भरमि भुलाहीं ।।
       -गुरु नानकदेव
एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो ।
परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं, बाहर फिरत विकल भय धायो।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद, अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल, परम सुगंध कहाँ ते आयो।।
       - गोस्वामी तुलसीदासजी
 अपुनपौ आपुन ही में पायो।
 शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो।।
 ज्यों कुरंग नाभि कस्तूरी, ढूँढ़त फिरत भुलायो।
 फिर चेत्यो जब चेतन ह्वै करि, आपुन ही तनु छायो।।
        -सूरदासजी
 सूरदासजी और तुलसीदासजी को लोग सगुण उपासक बताते हैं और कबीर साहब, गुरु नानक साहब को निर्गुण उपासक बताते हैं। जिसको जो बताओ, लेकिन कबीर साहब, नानक साहब, तुलसीदासजी और सूरदासजी सभी निर्गुण और सगुण दोनों के उपासक थे।
 तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त ।
 मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनंत ।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।। यह क्यों लिखते, यदि निर्गुण उपासना नहीं करते। कबीर साहब ने कहा-
 मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
 मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।
 यह निर्गुण कैसे हुआ? जिस सिंहासन पर तुलसीदासजी राम को बैठाते हैं, उसी आसन पर कबीर साहब गुरु को बैठाते हैं। गुरु में भी तुलसी- दासजी की कम श्रद्धा नहीं है।
 बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
 महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
        - रामचरितमानस
 श्रीहरि गुरु पद कमल भजहिं, मन तजि अभिमान।
 जेहि सेवत पाइय हरि, सुख निधान भगवान।।
              - विनय-पत्रिका
 कबीर साहब और गुरु नानक साहब उपासना के आरम्भ में गुरु को लिए हैं। यह कैसे सगुण उपासना नहीं है? सभी संतों ने अपने अंदर-अंदर चलने कहा। ख्याल से चलना नहीं, यथार्थ में चलो मन का सिमटाव हो, उसकी ऊर्ध्वगति हो। यदि कुछ सिमटाव हो जाए तो परमात्मा का ज्योति और नाद रूप हाथ पावोगे। जैसे माता अपने रोते बच्चे को हाथ पसारकर उठा लेती है, उसी तरह ज्योति और शब्दरूप हाथ पसारकर परमात्मा उठा लेते हैं। बाहर-बाहर चलने से इन हाथों से दूर रहोगे। बाहर में सत्संग और स्थूल उपासना अवश्य करो, किंतु अंदर भी चलो। योगशास्त्र में कठिन और सरल दोनों तरीके हैं। सरल मार्ग को पकड़ लो और कठिन मार्ग को छोड़ दो। ‘ज्योति’ परमात्मा का बायाँ हाथ है और ‘शब्द’ दाहिना हाथ है। बड़ा जबर्दस्त हाथ है। इसका उल्लंघन कोई नहीं कर सकता। बिना शब्द के सृष्टि नहीं हो सकती। शब्द कम्पमय होता है और कम्प शब्दमय होता है। कम्प अपने सहचर शब्द के साथ अवश्य रहता है। आदि में शब्द हुआ। वह सर्वव्यापक है। इसलिए राम है। कल्याणकारी होने से शिव, सबका बीज होने से ॐ है। ऐसा यत्न मिलना चाहिए, जिससे ज्योति और नाद मिले। परमात्मा ने सब पर एक समान कृपा की है। गरीब, अमीर सबको आँख से देखना, कान से सुनना दिया। उसी तरह ईश्वर की ओर जाने के लिए सबके अंदर एक ही सुराख है, वह शिवनेत्र है, तीसरा तिल है, आज्ञाचक्र का केंद्र-विन्दु है। गुरु जो तरकीब बतावे, उसके अनुसार चलो। जहाँ प्रवेश हुआ, ईश्वर का हाथ मिलेगा। प्रवेश-द्वार पर ही पहले सबको शीघ्र ठहराव नहीं हो सकता है और कोई किसी के लिए यह काम कर दे, सो नहीं हो सकता। आनंद भगवान बुद्ध के साथ बहुत रहते थे, उन्होंने उनकी अंत तक बड़ी सेवा की थी। इतने प्यारे शिष्य थे कि बिना उनके आए भगवान कुछ उपदेश वाक्य नहीं कहते थे। ऐसा उनको वरदान मिला था। ‘अपना चिराग आप बन’ भगवान ने उनको कहा था। पहले जाँच लो कि गुरु ठीक है वा नहीं, विश्वास हो तो उनसे यत्न जानो और करो। कोई कहता है कि मैं तुम्हारे बदले कर दूँगा तो वहाँ जाओ और उसकी सच्चाई देखो। लोग कहते हैं कि स्वामी विवेकानन्दजी को परमहंसजी ने पूरा कर दिया था। यदि वे पूरे ही थे तो वे रामकृष्ण परमहंसदेव के शरीर छूटने के बाद पौहारी बाबा के शिष्य बनना क्यों चाहते थे? मैं साफ-साफ कहता हूँ, कोई करा नहीं देगा, स्वयं करना होगा। एकान्त में बैठकर ध्यान-अभ्यास बराबर करो। ऐसा करते-करते अपने को ऊपर पाओगे। भजन करना आवश्यक है। भक्ति का बीज तुम्हारे साथ रहेगा-जबतक मुक्ति ना मिल जाय। जीवन काल में जो भजन (ध्यान) करता है, वह स्थूल-से-सूक्ष्म में प्रवेश करता है, वही जीते-जी मरता है। जो जीते-जी मरता है, वह फिर जन्म नहीं लेता। इसी के लिए संतों ने उपदेश दिया है। कोई नयी बात नहीं है। सभी पुरानी बात है। कहने का ढंग अलग-अलग होता है।
 बिना सदाचार का पालन किए ईश्वर की भक्ति नहीं हो सकती। सदाचार पालन करने के लिए झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; पंच पाप नहीं करो। पापों से बचने पर अंतःकरण में बल मिलेगा भजन करने के लिए। इससे संसार में भी लाभ होता है। जो कोई पंच पापों से बचता है, वह संसार में प्रतिष्ठा पाता है। भगवान योगक्षेम अपने भक्त का करते हैं। मैंने फारसी में पढ़ा था कि जो परमात्मा अपने दुश्मन पर भी नेक दृष्टि रखता है, वह अपने भक्त को कैसे छोड़ सकता है। भक्त बनने में कसर रहता है, तो गड़बड़ होता रहता है। संसार के लोग यदि पंच पापों से बचें तो आपस में प्रेम होगा। अभी लोग बहुत झूठ बोलते हैं। इसलिए एक को दूसरे का विश्वास नहीं है। हिंसा नहीं करेगा तो लड़ाई-झगड़ा नहीं होगा, तकरार नहीं होगी। स्वराज्य हुआ है, सुराज नहीं। अध्यात्म-ज्ञान का, सदाचार का खूब जोरों से सरकार प्रचार करे, तो लोग सदाचारी बनने लगेंगे और तब देश में शान्ति आ जाएगी। राजनीति के मैदान में भी शान्ति हो जाएगी। सहूलियत हो जाएगी। ईश्वर-भक्ति करने के लिए सदाचार की बड़ी जरूरत है। लेकिन धन कमाने में इसकी कोई जरूरत नहीं। चोरी करो, धन हो जाएगा। पकड़े जाओगे, मार खाओगे। कोई भी सरकार, किसी भी देश की सरकार योग्य प्रचारकों को सहायता दे तो सदाचार और आध्यात्मिकता का विशेष प्रचार हो। कानून के डण्डे से लोग सदाचारी नहीं बन सकते। जनता ठीक नहीं है तो सरकार ठीक कहाँ से होगी। जनता की ओर से ही लोग जाते हैंं, जिससे सरकार बनती है। ईश्वर-भजन करो और सदाचार का पालन करो तो यहाँ और वहाँ दोनों जगह अच्छे रहोगे।
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यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर पाटम में दिनांक 21. 4. 1959 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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143. मोटा और महीन ध्यान
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 सब लोग ईश्वर की भक्ति करें, मैं यह कहूँगा। ईश्वर-भक्ति से इस संसार से छूटकारा होगा। ईश्वर की भक्ति के वास्ते जानना चाहिए कि इसकी क्या जरूरत है। जरूरत है भवसागर से उद्धार होने की। यदि सभी स्वतंत्र रहते तो उद्धार- ही-उद्धार था। लेकिन कोई धनवान, विद्वान, प्रतिष्ठित या अप्रतिष्ठित-संसार में कोई हों, दुःख से कोई छूटता नहीं है। इसके लिए बड़ी-बड़ी कथाएँ हैं। श्रीराम, श्रीकृष्ण, ऋषि-मुनि, राजा-महाराजा, पैगम्बर जो आए- सबको दुःख हुआ। इस संसार में जबतक ठहरते हैं, कुछ-न-कुछ दुःख सबको होता है। यहाँ से छुटकारा हो जाना, दुनिया में नहीं रहना, दुःख नहीं भोगना है। इसलिए ईश्वर-भक्ति की बड़ी जरूरत है।
 किसी को खाने-पीने को नहीं मिलता है, इससे दुःख होता है, किसी को बीमारी से दुःख होता है, किसी को दैवात् कष्ट आ जाता है। पंचम जार्ज फ्रांस में एक परेड देखने गए थे। बड़ी भारी फौज दो कतारों में खड़ी थी। एक घोड़े पर ये सवार थे। सिपाहियों ने इन्हें सलामी देने के लिए हाथ उठाए, तो घोड़ा भड़क गया। वे घोड़े पर से गिर गए। उनकी कमर में दर्द हो गयी। उन्हीं की गद्दी पर पहले अल्फ्रेड दी ग्रेट हुआ था। दुश्मनों की सेना ने जब उनको घेर लिया तो वे डर के मारे भाग गए और अपने ही देश में एक किसान के यहाँ जाकर छिप गए और कहा कि मैं तुम्हारे यहाँ रहूँगा। किसान ने पूछा कि तुम बोझा बाँधना, रोटी बनाना जानते हो? जब राजधानी दिल्ली के पृथ्वीराज राजा थे, मुहम्मद गोरी ने उनको जीत लिया था। तब वे पकड़े गए और अंधे कर दिए गए। कई मन लोहे की जंजीर में बाँधकर रखे गए। तो देखो संसार कैसा है? छोटे-छोटे को ही दुःख नहीं होता, बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं को भी दुःख होता है। शाहजहाँ के बड़े लड़के का नाम था दारा शिकोह। शाहजहाँ बीमार हुआ और तीनां पुत्रों को खबर दी। सभी आपस में लड़ने लगे कि मैं बादशाह होऊँगा। आपस में लड़ाई हो गई। औरंगजेब की जीत हुई। दाराशिकोह भाग गया। होते-होते वह पकड़ा गया और बेरहमी के साथ मार डाला गया। कहाँ तो बादशाह का बड़ा लड़का होने के कारण भारत का बादशाह होता, कहाँ बेइज्जती के साथ मारा गया। अंग्रेज को देखो, जिसका राज्य यहाँ था। इसको भी छोड़कर यहाँ से जाना पड़ा। इस तरह कुछ भी बनकर रहो, कष्ट नहीं छूट सकता। इसीलिए ईश्वर का भजन करो। बिना ईश्वर-भजन के और ईश्वर को पाए बिना कोई सभी दुःखों से नहीं छूट सकता।
 केवल यह संसार ही दुनिया नहीं है। इस दुनिया में मोटी-मोटी चीजें हैं। यह मोटी दुनिया है। इसके ऊपर स्वर्ग-बहिश्त भी दुनिया है। वह सूक्ष्म दुनिया है। उसमें भी बहुत दर्जे हैं। उन सब लोकों में भी दुःख होते हैं। उन सबसे छूट जाओ, तब उद्धार हुआ। इसके लिए ईश्वर की भक्ति करो। ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर का स्वरूप जानो।
 साधारण तरह से लोग कहते हैं कि श्रीराम ईश्वर थे, श्रीकृष्ण ईश्वर थे, शिवजी ईश्वर थे, भगवान विष्णु ईश्वर थे, काली, दुर्गा ईश्वरियाँ थीं। लेकिन समझो कि ईश्वर तो एक ही होना चाहिए। यहाँ तो राम, कृष्ण, शिव, विष्णु, नृसिंह, काली, दुर्गा देवी आदि ईश्वर-ईश्वरियाँ हैं। किन्हीं एक के विषय में जैसे विष्णु को कहो तो उनके भक्त तो मान जाएँगे, लेकिन शैव कहेंगे कि शिवजी ईश्वर हैं। शिवजी की आराधना श्रीराम ने भी की है। शिवजी को ईश्वर कहने से शाक्त कहेंगे कि नहीं, शक्ति माता ईश्वरी हैं। लेकिन ईश्वर अनेक नहीं, एक ही होते हैं। ईश्वर सर्वव्यापक हैं, मोहीतेकुल्ल हैं, जो सबमें एक-ही-एक हैं, वह ईश्वर हैं। उन ईश्वर के सबमें रहने के कारण सब ईश्वर कहलाते हैं। ऐसा मानने से सबकी मर्यादा रह जाती है। इस तरह के ख्याल में कोई झगड़ा नहीं। सबमें जो एक-ही-एक ईश्वर हैं, उन सर्वव्यापक ईश्वर को इस आँख से देखोगे? कोई कहता है-हाँ। कोई कहता है-नहीं।
 आप अपने को समझो। आपका शरीर है। आप शरीर हो या शरीर में रहते हो? शरीर और आप एक ही हो या दो? शरीर और शरीर पर का कुरता दोनों एक नहीं है। शरीर में रहते हो तो शरीर तुम्हारे ऊपर कपड़े के समान है। इस शरीर के साथ पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (हवाश) हैं। आँख से देखने, कान से सुनने, नाक से गंध लेने, जिभ्या से रस लेने तथा त्वचा से स्पर्श करने का ज्ञान होता है। एक इन्द्रिय से ये पाँचो ज्ञान नहीं होते। एक-एक इन्द्रिय का एक-एक भोग है। आँख के वास्ते जो भोग है, वह नाक के वास्ते नहीं। इन्द्रियों से जो कुछ पाते हो सभी एक तरह रहनेवाले नहीं, सब बदलते रहते हैं-सब नाश हो जाते हैं। इन सबको माया कहते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने इसे माया कहा है-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 इन्द्रियों से जो ज्ञान प्राप्त करोगे, माया का ज्ञान होगा। ईश्वर सर्वव्यापक होने के कारण सबमें व्यापक अवश्य हैं। लेकिन उन सबको देखकर ईश्वर की पहचान नहीं होती। अपने शरीर को देखकर अपनी पहचान होती है। शरीर को पहचानते हो, लेकिन शरीर में जो तुम हो, उसको तुम नहीं पहचान सकते। इसलिए कि इन्द्रियों में शक्ति नहीं है कि आत्मा को पहचान सके। इन्द्रियाँ बाहर की ओर हैं और अपने तुम अपने अंदर में हो, तब कैसे पहचान सकते हो? एक तो अंदर में हो, दूसरी बात यह है कि इन्द्रियों को स्थूल विषयों का ज्ञान होता है। आजकल लोग एक्सरे ;ग्.त्ंलद्ध भी लेते हैं तो उसमें भी मोटी-मोटी चीजों का चित्र आता है, आत्मा का नहीं। जब तुम बाहरी इन्द्रियों से अपने को ही नहीं पहचान सकते हो तो ईश्वर को कैसे पहचानोगे? ईश्वर की पहचान या ईश्वर- दर्शन तुम स्वयं करोगे शरीर और इन्द्रियों से छूटकर। जैसे आँख से सब कुछ देखते हो, किंतु आँखों को आँख से आइने में देखते हो। जैसे आँख को आँख से देखते हो उसी तरह चेतन आत्मा से परमात्मा को देखोगे और अपने तईं का भी ज्ञान होगा, क्योंकि ईश्वर जिस तरह इन्द्रिय-ज्ञान में आने योग्य नहीं है, उसी तरह तुम भी इन्द्रिय-ज्ञान में नहीं हो। इससे जाना जाता है कि जो सूक्ष्मता या लताफत ईश्वर में है, तुममें भी वही है। इसीलिए कबीर साहब ने कहा है-‘खोजु रूह के नैना ।’
 श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
 सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
 चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
 चून चगून वजूद न मानु तैं सुभानमूना ऐना ।।
 जैसे ऐना सब दरसावै जो कुछ वेष बनावै ।
 ज्यों अनुमान करै साहब को त्यों साहब दरसावै ।।
 जाहि रूह अल्लाह के भीतर तेहि भीतर क े ठाईं ।
 रूप अरूप हमारि आस है हम दूनहुँ के साईं ।।
 जो कोउ रूह आपनी देखा सो साहब को पेखा ।
 कहै कबीर स्वरूप हमारा साहब को दिल देखा ।।
                         जो कोई ईश्वर का दर्शन पावेगा, उसी का उद्धार होगा। ईश्वर कुछ लेता-देता है नहीं। सिर्फ उनका दर्शन करो। दर्शन करने पर कुछ जरूरत ही नहीं पड़ेगी कि रुपया मिले, पैसा मिले। और तब कोई दुःख नहीं होगा। श्रीराम भगवान कहकर हमारे यहाँ प्रसिद्ध हैं। वे राज्य भी करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। श्रीराम ने समझा कि प्रजा इस संसार में सुखी है, लेकिन शरीर छूटने पर भी ये सुखी रहें, इसीलिए उन्होंने इसके लिए भी प्रबंध किया। श्रीराम ने एक दिन बहुत बड़ी सभा बुलाई और उसमें उन्होंने कहा कि-
बड़े भाग्य मानुष तनु पावा । सुर दुर्लभ सब ग्रथहिं गावा।।
 इस शरीर का बड़ा मूल्य है। जितना दाम इस शरीर का है, उतना किसी शरीर का नहीं; क्योंकि-
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा । पाइ न जेहि परलोक सँवारा।।
कहा। शरीर और इन्द्रियों से छूटना आश्चर्य मालूम पड़ता है। कोई कहे कि पानी में डूब जाओ, जहर खा लो, शरीर छूट जाएगा, तो इस तरह केवल स्थूल शरीर छूटता है। इसके अंदर सूक्ष्म, कारण, महाकारण बच ही जाते हैं। साधारण मृत्यु में केवल स्थूल शरीर छूटता है, इस तरह शरीरों से छुट्टी नहीं मिलती। छुट्टी तब मिलती है, जबकि जड़ के चारों शरीर छूट जाएँ। इसके लिए एक ही उपाय है-ईश्वर-भजन। जैसे कोई बाहर में किसी धाम के दर्शनों के लिए जाते हैं तो अपने गाँव को छोड़कर रास्ते में जितने गाँव पड़ते हैं, सबको छोड़ते हुए जगन्नाथ धाम पहुँचते हैं। इसी तरह अपने सब शरीरों को छोड़ते हुए जाओ। जैसे जो कोई जहाँ बैठा रहता है, वहीं से चलता है। उसी तरह तुम जहाँ बैठे हो, वहाँ से चलो। तुम अपने अंदर हो, अंदर चलो। चलने के लिए मन जाता है। ख्याली मन से जाना नहीं होता है। ठीक-ठीक मन से चलो।
 किसी चीज को समेटो, तो उसकी ऊर्ध्वगति होती है। धान सुखाते हो, तो पसरा रहता है, उसको समेटते हो तो ढेर हो जाता है-ऊपर की ओर उठ जाता है। पानी को समेटो तो उसकी ऊर्ध्वगति होती है। मन को समेटो तो और भी अधिक ऊर्ध्वगति होगी। जैसे दूध और घी एक साथ रहता है। दूध जिधर बहता है, घी भी उधर बह जाता है। दूध को मथो तो दूध अलग और घी अलग हो जाएगा। उसी तरह मन और चेतन संग-संग रहता है। आगे चलकर मन और चेतन अलग हो जाते हैं। मन को समेटने के लिए पहले मोटा काम करो। सत्संग में भी मन सिमटता है। पूजा-पाठ, स्तुति, नमाज, जप-जिक्र करने से भी मन का सिमटाव होता है। उसके बाद ध्यान आता है। जिस रूप को पहले देखा है, उसका ध्यान करो, फिर सूक्ष्म ध्यान विन्दु ध्यान है। इसमें जिसका सिमटाव होता है, वह ऊपर उठ जाता है। इसमें कोई रोक नहीं सकता। पलटू साहब ने कहा-
 साहिब साहिब क्या करै, साहिब तेरे पास ।।
 साहिब तेरे पास याद करु होवे हाजिर ।
 अंदर धसि के देखु मिलैगा साहिब नादिर ।।
 मान मनी हो फना नूर तब नजर में आवै ।
 बुरका डारे टारि खुदा बा खुद दिखरावै ।।
इसी बुरका को कबीर साहब ने कहा है-
 घूंघट का पट खोल रे तोको पीव मिलेंगे ।
 मन के सिमटाव के लिए सत्संग करो, जप करो, मोटा ध्यान करो, दृष्टियोग करो, नादानुसंधान करो। ईश्वर में अविश्वास मत करो। जो ऊपर को चढ़ता है, वह अपने को प्राप्त कर स्वर्ग-बहिश्त से ऊपर उठ जाता है। श्रीराम ने कहा कि यह शरीर साधन का धाम है। इसमें मोक्ष का दरवाजा लगा हुआ है। श्रीराम, श्रीकृष्ण, नरसिंह, भगवती आदि किसी इष्ट का ध्यान करो, लेकिन उनके आत्म-स्वरूप को भी जानो। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
 अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा,
    बसत इति वासना धूप दीजै ।
 सबमें एक ही ईश्वर है, जो इन्द्रिय-ज्ञान से बाहर है। यह आत्म-ज्ञान में है। आत्मा में ही रहो, आत्मसंतुष्ट रहो। इसके लिए केवल विचार-ही- विचार से नहीं होगा। जप करो और ध्यान करो। ऐसा ध्यान करो कि मन में कुछ नहीं बनाकर देखने के ढंग से देखो। मोटा और महीन दोनों ध्यान करो। बिना पैर का सिर लँगड़ा और बिना सिर का पैर मुर्दा है। मकान में पहले नींव होती है और छत बनती है। मोटी भक्ति नींव है और सूक्ष्म ध्यान नहीं किया तो छत नहीं बनी, तब ईश्वर-भक्ति का पूरा मकान नहीं बन सकता। इसके लिए-
 सूचै भाडै साचु समावै विरले सूचाचारी ।
      -गुरु नानकदेव
 अपने को पापों से बचाओ। झूठ सब पापों का राजा है। झूठ ऐसा झोला है कि सभी पाप इसमें अँटते हैं। झूठ मत बोलो, चोरी नहीं करो, व्यभिचार नहीं करो। नशाओं को नहीं लो और हिंसा न करो। मनु ने अष्टघातक कहा है। अष्टघातक में आज्ञा देनेवाला, काटनेवाला, मारनेवाला, बेचनेवाला, मोल लेनेवाला, मांस पकानेवाला, परोसने के लिए लानेवाला, खानेवाला-ये आठो हिंसा करनेवाले ही कहलाते हैं। हिंसा दो प्रकार की है-वार्य और अनिवार्य। कृषि कर्म, घर की सफाई और औषधि- खाना, दूसरे देश के लोग चढ़ाई करे तो उसको रोकने में, चोर-डकैत को भगाने में हिंसा होती है, यह अनिवार्य हिंसा है। जिभ्या-लालच में, मजबूत होने के ख्याल में जो हिंसा करते हो, वह वार्य हिंसा है। इसलिए मांस, मछली, अण्डा नहीं खाओ। अंग्रेज और महात्मा गाँधीजी की उपमा से ज्ञात होता है कि गाँधीजी शाकाहारी थे, अंग्रेज का मांस, अण्डा,गोश्त खानेवाला दिमाग था। गाँधीजी की जीत हुई और अंग्रेज हार गया। राम और रावण की कथा प्रसिद्ध है। राम के दल में सभी शाकाहारी, फलाहारी थे। रावण के लिए है कि ‘मांस खाय और मदिरा पाना।’ अंत में जीत हुई राम की, रावण की नहीं। इसलिए संतों ने कहा कि इन पंच पापों से बचो और ईश्वर की भक्ति करो तो परमार्थ बनता चला जाएगा।
 पापों से जो अपने को बचाता है, वह ईश्वर की ओर जाता है। जो पापों में गड़ा है, वह ईश्वर की ओर नहीं चल सकता। जो पंच पापों से बचेंगे तो संसार में भी उसकी प्रतिष्ठा होगी। संसार में कुशल से रहेंगे, यदि ऐसा समाज बन जाय तो देश में शान्ति आ जाएगी, दुनिया में भी फायदा हो जाएगा, राजनीति को भी फायदा हो जाएगा।
 आपस में मेल से रहो। मजहबी झगड़ों में मत पड़ो। शैव, कबीरपंथी आदि कहकर जो लड़ते हैं सो ठीक नहीं। अंदर-अंदर चलने के वास्ते सबके लिए एक ही रास्ता है। सब कोई आँख से ही देखते हैं। सभी नाक से ही साँस लेते हैं। जैसे सबके लिए ये रास्ते एक ही हैं, उसी तरह ईश्वर के पास जाने का एक ही रास्ता है, जो अनेक रास्ते बतलाते हैं, वे अनेक रास्ते-जरिये हैं। हमारे लिए सभी पंथ के आचार्य पूज्य हैं। अपना-अपना सभी रोजगार करो, कमाकर खाओ और ईश्वर- भजन करो।
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यह प्रवचन संथाल परगना जिलान्तर्गत ग्राम-महेशलिट्टी में दिनांक 14.5.1959 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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144. अनैतिकता से छूटने का उपाय
प्यारे लोगो!
 मनुष्य को धर्मात्मा होना चाहिए। अधर्मी- धर्म-त्यागी नहीं होना चाहिए। धर्म कर्म से होता है। अगर कर्म नहीं किया जाय तो धर्म नहीं हो सकता। जिस कर्म के करने से यहाँ भी आराम-सुख हो और शरीर के छूटने के बाद परलोक में भी सुख-आराम हो, उसको धर्म कहते हैं। यहाँ आराम से रहने के लिए लोग नाना प्रकार से धन उपार्जन करते हैं। लोगों को विश्वास है कि धन से सुखी और धन नहीं रहने से हम दुःखी होते हैं। धन उपार्जन करने का कार्य ऐसा है कि बुरी तरह से भी, जिसको धर्म नहीं कह सकते, धन उपार्जन कर सकते हैं। और उस बुराई को छोड़कर सत्मार्ग पर चलकर भी धन उपार्जन कर सकते हैं।
 जो बुरी तरह से धन उपार्जन करते हैं, वे यहाँ भी सुखी नहीं रहते। उनके हृदय में उसकी याद होती रहती है। वे चंचल-से रहते हैं, दुःखी होते हैं और परलोक में भी दुःखी होते हैं। इसलिए इस तरह के बुरे कर्म को छोड़कर सत्यता की नीति में रहकर जो धन उपार्जन करते हैं, वे चंचल नहीं रहते हैं। कोई उनको दोषी नहीं ठहरा सकते। परलोक में भी वे सुखी रहते हैं। संसार में धन उपार्जन हो, परंतु अधर्म से नहीं। अधर्म, अनैतिकता से छूटने के लिए एक ही यत्न है दूसरा नहीं, वह है ईश्वर में विश्वास और उनकी भक्ति। जो ईश्वर में विश्वास करते हैं, उनकी भक्ति करते हैं, उनको जरूरी तरह से अधर्म काम छोड़ना पड़ेगा, नहीं तो भक्ति नहीं होगी। ईश्वर-भक्ति को छोड़कर केवल धनोपार्जन में कोई बुराई से बचे, हो नहीं सकता। ईश्वर-भक्ति अवश्य चाहिए, जिससे यहाँ आराम से रहो और परलोक में भी दुःख नहीं हो। ईश्वर- भक्ति के साथ धर्म का सार रहता है।
 ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान हो, उनमें तल्लीनता, अनुरक्ति, लौलीनता हो, तब भक्ति होती है। परमात्म-स्वरूप के लिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने बड़ा अच्छा कहा-
राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अविगत अलख अनादि अनूपा।।
     -श्रीरामचरितमानस
 परमार्थ की परिभाषा पहले हो गई है।
योग वियोग भोग भल मन्दा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा।।
     -श्रीरामचरितमानस
 ये सब-के-सब जो संसार में देखे जाते हैं, सभी भ्रम के फन्दे हैं। भ्रम कहते हैं-जिसकी स्थिति नहीं हो, फिर इस तरह मालूम पड़े; जैसे धुँधली रोशनी में डोरी (रस्सी) देखकर साँप का भ्रम होता है। जैसे ही भ्रम हुआ, वैसे ही भ्रम संबंधी सभी डर वगैरह हो जाते हैं। लोग डरकर भाग जाते हैं। सीपी में सूर्य की रोशनी लगने से वह चाँदी-जैसी लगती है। सूर्य-किरण में जो चमक है, उसमें कभी-कभी बालू पर जल का भास होता है। उसी को मृग-भ्रम-वारि कहते हैं। मृग-वारि झूठ है। भला-बुरा होना भ्रम है। ये असल में हैं ही नहीं। जो कुछ भी प्रप०च दृष्टिगोचर है, स्वर्ग नरक है-सभी भ्रम-मूलक हैं।
देखिय सुनिय गुनिय मन माहीं। मोह मूल परमारथ नाहीं।।
 तात्पर्य यह कि परमार्थ वही है, जिसमें दो भेद-जन्म-मृत्यु, सम्पत्ति-विपत्ति, मालूम नहीं पड़े। ये भेद मोह से उत्पन्न हुए हैं। असली चीज नहीं है। राम ऐसे हैं, जहाँ इन दो भेदों का पता नहीं हैं वे सर्वव्यापी, आँख के ज्ञान से परे, बराबर एकरस रहनेवाले और उपमा रहित हैं। ईश्वर संबंधी ज्ञान थोड़े में यह समझना चाहिए कि जो इन्द्रिय-ज्ञान में नहीं हैं, वे ईश्वर हैं। इनमें अनुरक्ति चाहिए, प्रेम चाहिए।
 जिसको अनुरक्ति होगी, वह पाप में नहीं बरतेगा। जिसको ईश्वर में अनुरक्ति नहीं है, वह दूसरे को भी ठग करके धन जमा कर सकता है। लेकिन ईश्वर-भक्ति में बहुत जरूरी है पापों से बचना। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार-इन पंच पापों को करनेवाले से ईश्वर की भक्ति नहीं हो सकती।
 आत्मा से ही ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान होगा। बुद्धि में कुछ ज्ञान है, लेकिन प्रत्यक्ष ज्ञान इससे नहीं होता। आत्मा को जो शरीर, इन्द्रिय से संग हो गया है, इससे छुड़ाना चाहिए। जैसे किसी को कहीं जाना है, तो वह जहाँ है, उस स्थान को छोड़ना होगा। हम शरीर में हैं-यह शरीर ऐसा है कि यह बड़ा कठिन है। महान-से-महान को इस शरीर में आकर कष्ट भोगना पड़ा है। भगवान श्रीराम को भी रोना पड़ा। यही यह संसार है। भगवान श्रीकृष्ण भी उदास हुए। युधिष्ठिर जैसे धर्मात्मा को दुःख उठाना पड़ा। यही संसार है, जिसमें राजा हरिश्चन्द्र को श्वपच के घर में बिकना पड़ा। इन दुःखों से कोई छुड़ा नहीं सकता। छुड़ानेवाला एक ईश्वर ही हैं। इसलिए ईश्वर की भक्ति करो। जैसे जगन्नाथजी जाना चाहो, तो बिहार प्रान्त को छोड़ना पड़ेगा। उसी तरह ईश्वर के पास जाने के लिए शरीर छोड़ो। शरीर से छूटने के लिए ध्यान करो।
 ध्यान करके पहले स्थूल विषय से छूटे, फिर सूक्ष्म ध्यान होगा। सूक्ष्म ध्यान में फिर ऐसा हो कि सूक्ष्म विषय भी न रहे। ‘ध्यानं निर्विषयं मनः।’
 इसको गुरु से जानना चाहिए। भाग्यवान इसको जानकर करने लगता है। वही शरीर और इन्द्रियों के समूह को छोड़ सकता है, संसार के जाल को छोड़ सकता है, अपने को कैवल्य दशा में लाकर ईश्वर-दर्शन कर सकता है। तभी वह लौटकर संसार में नहीं आवेगा। सारे दुःखों से छूट जाएगा।
बड़ों से सुनकर, सत्संग कर, कुछ अपना मनन भी कर यही निर्णय किया है कि ईश्वर की भक्ति करो। यही आप लोगों से कह दिया। सब लोगों को चाहिए कि ईश्वर की भक्ति करें।
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यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर मनिहारी में दिनांक 27.6.1959 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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145. सावित्री के सतीत्व की महिमा
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 आप देखते हैं कि एक आदमी का शरीर छूट गया। आप उसको कहते हैं कि मर गया, स्वर्गवास हो गया, परलोक चला गया। जो चला गया परलोक को, वह मरा नहीं; मरा शरीर, जिसका अग्नि संस्कार लोग करते हैं। शरीर छोड़कर जो परलोक को चला गया वा जिसका स्वर्गवास हो गया, शरीर और वह दोनों एक नहीं हैं। इसको अच्छी तरह समझा देने के लिए, जिनके घर में ऐसा होता है, उनके यहाँ श्राद्ध-क्रिया होती है। घर-घर में यह क्रिया होती है, इस क्रिया को करते हुए जानना चाहिए कि शरीर और तुम एक ही नहीं हो। शरीर में रहनेवाले की स्थिति मरने पर भी है। यह श्राद्ध-क्रिया से ही लोगों को सीखना चाहिए। इस संबंध में लोग बहुत कुछ कह सुन और पढ़ सकते हैं।
 महाभारत में एक कथा है सत्यवान और सावित्री की। सत्यवान अपने माता-पिता के साथ जंगल में रहते थे। उनकी धर्मपत्नी सावित्री थी। सावित्री को नारद मुनि के द्वारा यह पता लग चुका था कि अमुक तिथि को सत्यवान की मृत्यु होगी। जब वह तिथि आई, तो उस दिन सावित्री ने सत्यवान से कहा कि आज आपके साथ मैं भी जंगल देखने जाऊँगी। सत्यवान ने कहा कि माताजी और पिताजी से आज्ञा ले लो, तब तुम मेरे साथ चल सकती हो। सावित्री जब अपने सास-ससुर से अनुमति माँगने गई, तो सास-ससुर ने भी जंगल देखने की अनुमति दे दी। सावित्री अपने पति सत्यवान के साथ जंगल गई। जब सत्यवान लकड़ी काटने के लिए वृक्ष पर चढ़े, तो उनके सिर में दर्द होने लगा। सत्यवान ने वहीं से कहा-‘मेरे सिर में बहुत जोर का दर्द हो रहा है।’ सावित्री ने कहा-‘आप अविलम्ब नीचे आ जाइए।’ सत्यवान वृक्ष पर से उतरते ही मूर्च्छित हो गए। सावित्री उनके माथे को अपनी जंघा पर रखकर बैठी रही। जब यमदूत आया, तो सावित्री के तेज के सामने निकट नहीं पहुँच सका। यमदूत के लौटने पर यमराज स्वयं आए और सत्यवान के लिंग शरीर को लेकर चलने लगे। सावित्री उनके पीछे-पीछे चलने लगी। यमराज ने पूछा-‘तुम क्यों आ रही हो? कुछ वरदान माँगना हो तो माँग लो।’ सावित्री ने कहा-‘मेरे सास-ससुर अंधे हैं, उन दोनों को आँखें हो जाएँ।’ यमराज ने कहा एवमस्तु! यह कह यमराज जब आगे बढ़े, तो सावित्री फिर पीछे-पीछे चलने लगी। यमराज ने पुनः पूछा कि और कोई वरदान माँगना हो, तो माँग लो।’ सावित्री ने कहा-‘मेरे सास- ससुर का राज्य खो गया है, वह वापस हो जाए। यमराज ने पुनः वरदान दिया। जब यमराज आगे बढ़ने लगे, तो सावित्री फिर पीछे-पीछे चलने लगी। यमराज ने पूछा-‘तुम्हें दो वरदान दे चुका, तब फिर मेरे पीछे क्यों आ रही हो?’ सावित्री ने कहा कि एक वरदान और दिया जाय, वह यह कि मुझे सौ पुत्र हों। यमराज ने सावित्री को यह वरदान भी प्रदान किया। जब यमराज आगे बढ़े, तो सावित्री उनके पीछे-पीछे फिर भी चलने लगी। यमराज ने जब देखा तो कहा कि तुम्हें तीन वरदान दे चुका। अब मेरे पीछे क्यों आ रही हो? सावित्री ने कहा-जबकि आपने सौ पुत्र होने का वरदान दिया है, तब आप मेरे पति को ले जा रहे हैं? मुझे सौ पुत्र कैसे होंगे? सावित्री का प्रश्न सुनकर यमराज निरुत्तर हो गए और सत्यवान के लिंग शरीर को वापस कर दिया। यह है पातिव्रत्य धर्म की महिमा।
 इन आँखों से लिंग शरीर को कोई नहीं देख सकता। लिंग शरीर या सूक्ष्म शरीर-दोनों एक ही बात है। शरीर से केवल चेतन आत्मा ही नहीं निकलती है, स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर के साथ चेतन आत्मा निकलती है। दूसरी बात यह कि स्थूल शरीर मरता है, सूक्ष्म शरीर नहीं मरता। सूक्ष्म शरीर के भीतर कारण शरीर और उसके भीतर महाकारण शरीर है। तब उसके अंदर चेतन आत्मा है। स्त्रियों को पातिव्रत्य धर्म का पालन करना चाहिए और पति को चाहिए कि वे बहुत अच्छे बनें। अपने बहुत बुरे हों और वे चाहे कि पत्नी पतिव्रता मिलें, ईश्वर की सृष्टि में ऐसा होना तो असंभव नहीं है, लेकिन साधारणतया यह असम्भव है। भगवान श्रीराम की तरह एकपत्नीव्रत धारण करो और स्त्रियाँ पातिव्रत्य धर्म का पालन करें, तो संतान अच्छी होगी।
 जितने शरीरधारी हैं, सबके शरीर छूट जाएँगे। शरीर जबतक रहे, तो सुखपूर्वक रहना चाहिए। दुःख में रहना किसी को पसन्द नहीं। अपने को तो सुख हो ही, लेकिन हमारे बाल-बच्चे भी सुखपूर्वक रहें, इसके लिए जीवनभर चेष्टा लोग किया करते हैं। शरीर छोड़कर दुःख में जाना, नरक में जाना कोई नहीं चाहता। जीवनभर सुख के लिए कोशिश करते हैं। शरीर छूटने के बाद भी सुखी रहें, इसके लिए भी कोशिश होनी चाहिए। इहलोक और परलोक में दो तरह से रहते हैं-एक तो ऐसा कि जैसा शरीर, वैसा लोक में रहना-सूक्ष्म शरीर से सूक्ष्म लोक में रहना। दूसरा, किसी शरीर में न रहना। शरीर के अनुकूल लोक में रहने से कर्म के अंत होने पर फिर संसार में आना होगा। यहाँ तक कि भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण भी यहाँ आए। जय-विजय को शाप हुआ, तो तीन जन्मों तक वे लोग राक्षस शरीर में रहे। किसी विशेष शरीर में रहने पर भी आना-जाना लगा ही रहता है और रोना पड़ता है। भगवान श्रीराम भी जन्म लेने पर शिशु लीला में रोए। शिशुकाल के बाद लड़ाइ-झगड़ा हुआ। राक्षसों से लड़ाई हुई। फिर उनका विवाह हुआ। फिर सीताहरण हुआ। वहाँ राक्षसों से लड़ाई हुई। और फिर कुछ दिनों तक सुखपूर्वक राज्य किया। किंतु इसके बाद फिर दुःख हुआ। सीतीजी का वनवास हुआ। भगवान श्रीराम ने श्रीसीताजी की फिर से परीक्षा लेनी चाही, तो वह पाताल प्रवेश कर गई और फिर वे लोग भी संसार से चले गए। इसलिए कबीर साहब ने कहा-
   तन धर सुखिया कोइ न देखा, जो देखा सो दुखिया हो ।
   उदय अस्त की बात कहतु हैं,सबका किया विवेका हो ।।
   घाटे बाढ़े सब जग दुखिया, क्या गिरही बैरागी हो ।
   सुकदेव अचारज दुख के डर से, गर्भ से माया त्यागी हो ।।
   जोगी दुखिया जंगम दुखिया, तपसी को दुख दूना हो ।
   आसा तृस्ना सबको व्यापै, कोई महल न सूना हो ।।
   साँच कहौं तो कोइ न मानै, झूठ कहा न जाई हो ।
   ब्रह्मा विष्णु महेसुर दुखिया, जिन यह राह चलाई हो ।।
   अवधू दुखिया भूपति दुखिया, रंक दुखी विपरीती हो ।
   कहै कबीर सकल जग दुखिया, संत सुखी मन जीती हो ।।
 इसीलिए किसी भी शरीर में नहीं रहो। सब शरीरों से मुक्ति पाने के लिए संतों ने यत्न बताया और कहा कि इस बारम्बार जन्म-मरण के दुःख से छूटने के लिए यत्न करो और डरो। वाणिज्य- व्यापारवाले डरते हैं। व्यापार के समय में व्यापार नहीं करे, तो पीछे हानि होती है, लाभ नहीं होता। इस डर से जैसा करना चाहिए, करते हैं। इसी तरह किसान भी अपने-अपने काम करते हैं। विद्यार्थी भी डर के मारे पढ़ते हैं। पहले तो माता-पिता के डर से, पीछे स्वयं ज्ञान होता है कि नहीं पढ़ेंगे तो नीचे गिरे रहेंगे। इस डर के मारे पढ़ते हैं। संत कबीर साहब ने कहा है-
 डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार ।
 डरत रहे सो ऊबरै, गाफिल खावै मार ।।
 आवागमन से छूटने के लिए ईश्वर की भक्ति एक मात्र उपाय है। अभी आपलोगों ने सुना-
 कथा कीरतन कलि विषे, भवसागर की नाव ।
 कह कबीर जग तरन को, नाहीं आन उपाव ।।
 कीर्तन गद्य-पद्य दोनों में होता है। पहले सत्संग करना चाहिए। इससे ज्ञान होता है कि क्या पाना चाहिए, क्या करना है। समय को व्यर्थ नहीं खोना चाहिए।
 आज कहै मैं काल्ह भजूँगा, काल्ह कहै फिर काल ।
 आज काल्ह के करत ही, औसर जासी चाल ।।
 काल करै सो आज कर, आज करै से अब्ब ।
 पल में परलै होयगा, बहुरि करैगा कब्ब ।।
 फिर कहा कि जिभ्या में बंधन दो। स्वाद और बोलने का बंधन जिभ्या में दो। जिससे सतोगुण की वृद्धि हो, वह खाओ। स्वाद की चीज को विशेष मत खाओ। रजोगुण और तमोगुण वाला भोजन नहीं खाओ। सत्य बोलो, प्रिय बोलो। मनु महाराज ने कहा है-‘सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्।’ कबीर साहब ने कहा है-
 साधु सोई सराहिये, साँची कहै बनाय ।
 कै टूटै कै फिर जुरै, कहे बिन भरम न जाय ।।
 जिसको खाने और बोलने का हिसाब नहीं, साँच-झूठ का हिसाब नहीं, उससे परहेज रखो, लेकिन उससे वैर नहीं करो। अभी पाठ हुआ था-‘निरबन्धन बन्धा रहे, बन्धा निरबन्ध होय। कर्म करै कर्ता नहीं, दास कहावै सोय।’ जो अपने को बन्धन में नहीं रखता है, वह बन्धन में रहता है और जो अपने को बन्धन में रखता है,वह अपने को कर्तापन से मुक्त करके रहेगा, तो बन्धन-मुक्त हो जाएगा। असत्य नहीं बोलने के बन्धन से सत्य बोलने का बन्धन है। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार-इन पंच पापों को छोड़ो और सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य-इन पंचशील का पालन करो। भगवान बुद्ध ने बहुत दिन पहले इसका उपदेश दिया था। जो इन पंच पापों के नहीं करने का बन्धन लेता है, वह संसार में अच्छा रहेगा और परलोक-मोक्षमार्ग में भी अच्छा से रहेगा; देश में अच्छा से रहेगा, समाज में भी अच्छा से रहेगा।
 किसी समय पहले एक राजा के अधिकार में यह देश था, वह सूर्य के समान तपता था। उसको आहिस्ते-आहिस्ते अलग कर दिया गया। उससे अस्त्र-शस्त्र से लड़ते, तो भारत उससे सकता नहीं; क्योंकि इसके पास हथियार ही नहीं था। महात्मा गांधी हाल में अगुआ हुए। इन्हांने सत्य और अहिंसा पर बहुत जोर दिया। वैसे तो ये पाँचों को यानी पंचशील को धारण किए हुए थे। सत्य-अहिंसा का पालन करते-करते वर्षों गुजर गए। लोग अपने को दुःख में डालते गए; क्योंकि वे लोग तो कैद करते थे, फाँसी पर झुला देते थे। लेकिन होते-होते ऐसा हुआ कि अंग्रेज मित्र की तरह यहाँ से चले गए। उनकी समझ में आ गया कि इन पर अब हम शासन नहीं कर सकेंगे। वे चले गए। हमारे प्रधानमंत्री (पण्डित नेहरू) ने दूर-दूर देशों में जाकर पंचशील का पालन बताया है, शान्ति का संदेश दिया है। इसीलिए बहुत देश शान्त हैं। पंच पापों को नहीं करना बहुत बड़ा बल है। नशे से फजूल खर्च होता है, बुद्धि सात्त्विकी नहीं रहती। चोरी करने से-किसी की चीज चुरा लेने से-आँख छिपाकर लेने से, जिसका लेते हो, वह तो रोकर रह जाएगा, लेकिन तुमको बहुत दुःख होगा। हिंसा का साथी है मांस-मछली खाना। इसपर कबीर साहब ने कहा-
 मांस मछरिया खात है, सुरा पान से हेत ।
 सो नर जड़ से जाहिंगे, ज्यों मूरी की खेत ।।
 जो मांस-मछली खाते हैं, नशा पीते हैं, वे धर्म के खेत से ऐसे उखड़ जाते हैं, जैसे खेत से मूली। नशा एक ही तरह का नहीं है। शरीर की सुन्दरता, शरीर के बल से भी मद होता है-तन मद। विद्वान को स्फुरणा अधिक होती है। उनको मन मद होता है। इसलिए कबीर साहब ने कहा-
 मद तो बहुतक भाँति का ताहि न जानै कोय ।
 तन मद मन मद जाति मद, माया मद सब लोय ।।
 विद्या मद और गुनहु मद, राजमद्द उनमद्द ।
 इतने मद को रद्द करै, तब पावै अनहद्द ।।
 संतों की वाणी को सुनिए और उनके अनुकूल चलिए तो संसार-सागर से पार हो जाएँगे और संसार में प्रतिष्ठित भी रहेंगे। जो धनी हैं, विद्वान हैं, वे पंचशील का पालन नहीं करते तो लोगों के हृदय में उनका आदर नहीं रहता। काम लेने के लिए भले ही लोग उनकी प्रशंसा कर दें; लेकिन हृदय में उनका आदर नहीं रहता। जो पंचशील का पालन करते हैं, उनका कर्म परलोक पाने में मदद करता है और इस लोक में भी वे सुखी रहते हैं।
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यह प्रवचन सुपौल जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मन्दिर मचहा ग्राम में दिनांक 17.7.1959 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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146. सोये हुए को जगाने की आवश्यकता
प्यारे लोगो!
 संसार-चक्र से छूटने के लिए संतां ने जो मार्ग बताया है, उसको छोड़कर जो लोग चलते हैं, वे हैरान होते हैं। संत-महात्मा कहने का तात्पर्य आजकल के संत ही नहीं, बल्कि मेरे कहने का आशय पहले के ऋषि-मुनियों से भी है।
 सोए हुए आदमी को जगने की आवयकता नहीं जान पड़ती। जगने पर आवश्यकता मालूम पड़ती है। उसी तरह जो मोह-निशा में सोए हुए मानव हैं, उनको जगना आवश्यक नहीं मालूम पड़ता; लेकिन जगना आवश्यक है। जागकर देखो। जगने के लिए दो तरह से जागो। पहले श्रवण-मनन करके, पीछे साधना करके। संतों ने दुःख से छूटने के लिए सबको यत्न बतलाया। जैसे कोई ज्वर से व्याकुल है और अगर वह सो जाय, तो शरीर का दुःख उसे मालूम नहीं होता। वह शरीर के अंदर ही है, शरीर से बाहर नहीं गया है। जाग्रत अवस्था में वह ज्वर से छटपटाता था, लेकिन जाग्रत से स्वप्न में और गहरी नींद में चला गया, तब उसको वह तकलीफ मालूम नहीं होती, यह सभी जानते हैं।
 एक साधु 160 वर्ष तक जीवित रहा, लेकिन उसको कभी कोई रोग नहीं हुआ। वह भगवान बुद्ध का शिष्य था। लेकिन ऐसे लोग बहुत कम होते हैं, नहीं के बराबर। शारीरिक पीड़ा सबको होती है। सिर में दर्द है, पेट में दर्द है, स्वप्न में जाने से छूट जाता है। जाग्रत के समय जहाँ रहते हो, स्वप्न और सुषुप्ति के समय भी वहीं रहते हो, ऐसा समझना भूल है। यदि स्थान नहीं बदलेगा, तो अवस्था भी नहीं बदलेगी। जाग्रत में ज्वर से पीड़ित है और स्वप्न में विलास करता है, बल का काम करता है। गहरी नींद में बिल्कुल खत्म, देह को कोई कष्ट मालूम नहीं पड़ता। एक प्रकार के सुख में मग्न हो जाता है, जिसमें संसार का सुख छूट जाता है। जो कोई भीतर में अपनी सुरत को समेट लेता है, वह संसार के झमेले से छूट जाता है। संतों ने इसका पता लगाया।
 जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति-तीनों अवस्थाएँ आप-ही-आप आती-जाती हैं। इन तीनों अवस्थाओं से और भी ऊपर जाया जा सकता है, जहाँ तीनों स्थानों की भूल, गलती, अचेतपन और जाग्रत का सुख-दुःख मालूम नहीं होता।
 संतों ने यह भी पता लगाया कि जिसका यह संसार है, जो संसार का इन्तजाम करनेवाला (निरंजन) है, उसका भी दर्शन हो यानी ईश्वर का दर्शन हो, जिससे आवागमन से छूट जाएँ। संसार-चक्र से छूटना संसार के सुख-दुःखांं से छूटना है। यह ईश्वर दर्शन से होगा, बाहर में दौड़ने से नहीं होगा।
 सभी संतों की वाणी और उपनिषद् कुछ भी पढ़ लीजिए, सबमें एक ही बात है। इस सत्संग में कहा जाता है कि बाहर-बाहर दौड़ना छोड़ो, अपने अंदर में प्रवेश करो। लेकिन यह काम एक ही दिन में नहीं होता है। मन का समेटना बिना गुरु के नहीं होता। कोई भी काम बिना गुरु के नहीं होता है। संवत् 1575 में संत कबीर साहब का शरीर छूटा।
पन्द्रह सौ पचहत्तरा, रलौ पौन में पौन। और दरिया साहब 1631 ई0या 1633 में प्रकट हुए। लेकिन दोनों का ज्ञान एक है। सब संतों के ज्ञान-ध्यान का तरीका एक है। हमलोग सब संतों की वाणियों को मानते हैं। सभी संतों की वाणियों को सुनिए, पढ़िए और कीजिए। यही संतमत है।
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यह प्रवचन सुपौल जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मन्दिर मचहा ग्राम में दिनांक 18.7.1959 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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