142. श्रीदुर्गा देवीजी का सर्वोत्कृष्ट स्वरूप
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
इस समय के सत्संग में मैं ‘ईश्वर की भक्ति किस तरह होती है, उसकी क्या विधि है’ कहूँगा। ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान जैसा गहन है, उसकी विधि भी वैसी ही गहन है। ईश्वर-स्वरूप के बारे में दो दिनों तक कहा जा चुका है। फिर भी आप को याद दिलाने के लिए कहा जाता है कि ईश्वर वह है जो आप चेतन आत्मा से पहचान सकते हैं। ईश्वर इन्द्रियों के द्वारा पहचाना नहीं जाता। अपने देश में बहुत लोग कहते हैं कि ईश्वर के दर्शन इसी आँख से लोग करते थे। श्रीराम, श्रीकृष्ण के दर्शन इसी आँख से हुए। रामकृष्ण परमहंस को श्रीकाली के दर्शन इसी आँख से हुए, तो क्या ये ईश्वर के दर्शन नहीं हैं? जो गहन ज्ञान नहीं समझ सकते, उनको समझना चाहिए कि राम, कृष्ण, विष्णु, शिव, दुर्गा आदि जितने रूप हुए तो क्या इतने पाँच-सात ईश्वर हैं? तो अवश्य समझेंगे कि ईश्वर पाँच-सात नहीं हो सकते। एक ही ईश्वर है। वैष्णव ‘भगवान विष्णु’ को ईश्वर कहेंगे और सबको सेवक। दूसरे कहेंगे ‘शिव’ ईश्वर और सब उनके सेवक। इसी तरह जो जिनके उपासक हैं, उनको वे ईश्वर कहेंगे और सबको वे सेवक कहेंगे। इसी भाव में साम्प्रदायि- कता का भाव आता है। एक से कहा जाय कि जैसा आप अपने इष्ट के लिए कहते हैं; वैसे ही दूसरे भी अपने इष्ट के लिए कहते हैं, लेकिन ठीक कौन है? सब अपने-अपने इष्ट को बड़ा कहते हैं। इस प्रकार साम्प्रदायिकता का खूब झगड़ा हुआ है। कुछ वर्ष पूर्व शैव और वैष्णवों में लड़ाई हुई। अंग्रेजों का समय था। वाक्य-युद्ध ही नहीं, शस्त्र भी खुल पड़े। मुकदमा हुआ। तय हुआ कि शिव दल बड़े हैं, प्राचीन हैं। इसलिए कुम्भ के मेले में पहले शैव दल ही स्नान करे। इस साम्प्रादियकता के फेर में कितनी तकरार हुई, ठिकाना नहीं।
अपने देश में ही नहीं, ताजिया में भी झंझट हुआ। रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेन्ट में भी लड़ाई- झगड़ा हुआ। लेकिन असलियत क्या है? मुझसे पूछो कि राम ईश्वर हैं? मैं कहूँगा-‘हाँ।’ कृष्ण ईश्वर है? मैं कहूँगा-‘हाँ।’ इसी तरह सभी के लिए मैं ईश्वर मंजूर करूँगा। तो पूछेंगे कि क्या अनेक ईश्वर मानते हैं? मैं कहूँगा-‘नहीं।’ एक ईश्वर ही मानता हूँ। एक ईश्वर ही सर्वव्यापक हैं। जितने रूप कहे गए, उन सब रूपों में वही एक सर्वव्यापक है। रूप ईश्वर नहीं है। रूप की बड़ी मर्यादा गोस्वामी तुलसीदासजी ने दी। लेकिन यह भी कह दिया कि-
भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव देखावइ, आपु न होइ न सोइ ।।
जैसे नाटककार वेष धर कर वैसा ही काम दिखाता है, जैसा कि किसी ने पहले किया था, लेकिन वह स्वयं ‘वह’ नहीं बन जाता। गीता ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ को बताती है। वह अध्यात्म तत्त्व सबमें भरपूर है। श्रीकृष्ण ने ऐसा नहीं कहा कि मेरा जो यह क्षेत्र है, वही क्षेत्रज्ञ है। लोग इसका भी प्रचार करते हैं कि भगवान के क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ में कोई अंतर नहीं है, एक ही है। महाभारत पढ़कर देखिए या उसके अंदर एक गीता और है, जिसको ‘अणुगीता’ कहते हैं। उसको भी पढ़िए। कहीं ऐसी बात नहीं है। फिर भी जोर देना कि उनके क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ में भेद नहीं है, उचित नहीं। महाभारत में है कि क्षेत्रज्ञ जब प्राकृतिक गुणों से मुक्त हो जाता है यानी निस्त्रैगुण्य हो जाता है, तब वही परमात्मा हो जाता है। वह जो क्षेत्रज्ञ आत्मतत्त्व है, तमाम एक-ही-एक है। चाहे सोने का मन्दिर हो, चाहे शौचालय हो, देवालय हो, एक ही आकाश सर्वत्र है। उसी तरह सब शरीरों में एक ही आत्मा है। कठोपनिषद् में कहा है-
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
जैसे गिलास के अंदर की हवा गिलास के रूप की ही होती है, उसी तरह सब भूतों के अंदर आत्मतत्त्व एक ही है। रूप-रूप के अनुरूप उसका आकार होता है। लेकिन वह तत्त्व नहीं होता। कोई गिलास चाँदी का, कोई सोने का, कोई काँच का होता है। सबमें पानी-ही-पानी है। तत्त्वरूप में एक ही है,लेकिन बर्तन और पानी एक ही नहीं है। उसी तरह कोई भी शरीर हो, उसमें जो आत्मा है, सब एक ही है, लेकिन शरीर और आत्मा एक ही नहीं है। गीता के सातवें अध्याय में भगवान ने कहा है-
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।। अबुद्धि अर्थात् मूढ़ लोग मेरे श्रेष्ठ उत्तमोत्तम और अव्यय रूप को न जानकर मुझ अव्यक्त को व्यक्त हुआ मानते हैं। शरीर व्यक्त है, परमात्मा अव्यक्त हैं। इस अव्यक्त तत्त्व को विचारो तो जो राम में है, वही कृष्ण शरीर में है, वही देवी रूप में भी है। जबतक श्रीकृष्ण क्षेत्र में क्षेत्रज्ञ था, तबतक उसको कोई जलाया नहीं। लेकिन जब क्षेत्रज्ञ क्षेत्र से निकल गया, तब अर्जुन ने उसका दाह किया।
काली, दुर्गा, राम, कृष्ण सबके शरीर रूप को हटा दीजिए, तब जो बचता है, वह एक- ही-एक रहता है। एक बूढ़े सत्संगी ने कहा था कि तुम सबको मिलाकर एक कर देते हो। लोगों को काली, दुर्गा का उपासक बनाकर बकरा कटाओगे? मैंने कहा-रूप को छोड़कर उसमें जो है, उसको ग्रहण करो और दुर्गा सप्तशती में तो दुर्गा को नादरूपा कहा है तो नादानुसंधान ही करो। नादानु- संधान करनेवाला शाक्त है।
शब्दात्मिका सुविमलर्ग्य जुषान्निधान ।
मुद्गीथरम्य पद पाठवतां च साम्नाम् ।।
देवी त्रयी भगवती भव भावनाय ।
वार्त्ता च सर्व जगतां परमार्त्तिहन्त्री ।।
-दुर्गा सप्तशती, अध्याय 4
हे देवि! आप शब्दात्मिका हैं। शब्द है आत्मा (अर्थात् स्वरूप) जिसकी, वह हुई शब्दात्मिका। आत्मन् के अनेक अर्थों में स्वरूप भी एक अर्थ है। आप अत्यन्त निर्दोष ऋक् और यजुः के निधान हैं तथा उद्गीथों के द्वारा रमणीय पद और पाठ वाले (अथवा पदों के पाठवाले) साम के भी निधान (निधि, खजाना) हैं। आप साक्षात् त्रयी देवी हैं। संसार की सृष्टि वा धारण के निमित्त आप वार्ता (कृषि वाणिज्यादि जीविका रूप) हैं, तथा सभी लोकों की कठिन बाधाओं, विपत्तियांं और दुःखों को नाश करनेवाली हैं।
देवी के शब्दात्मिका होने से अभिप्राय मीमांसकों और वैयाकरणों ने शब्द को नित्य माना। पतंजलि ने महाभाष्य में शब्द की परब्रह्म से समता दिखाई है।
चत्वारि शृंगा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्ता सो अस्य।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महोदेवो मर्त्यां आविवेश।।
इस मंत्र की व्याख्या में महा भाष्यकार पतंजलि मुनि ने कहा है कि शब्द रूपी महान देव मनुष्यों में आकर प्रविष्ट हुआ है। अर्थात् परब्रह्म स्वरूप और अन्तर्यामी रूप शब्द मनुष्यों में पैठ गया है। जो पुरुष व्याकरण शास्त्र के ज्ञानपूर्वक शब्दों को संस्कार के साथ व्यवहार में लाता है, वह पाप रहित हो जाता है और इस अंतःप्रविष्ट शब्द ब्रह्म के साथ पूर्ण रूप से मिल जाता है।
यही अंतःप्रविष्ट नित्य शब्द संपूर्ण जगदादि प्रपंच को विस्तारित करता है। यह शब्दरूप ब्रह्म आदि और अंत-रहित है। यह अक्षर है अर्थात् विकार शून्य है। यही जगत के रूप में भासित होता है। इसी शब्दब्रह्म से जगत की रचना होती है। इस विषय को महावैयाकरण भर्तृहरि ने वाक्यपदीय के ब्रह्मकाण्ड में कहा है, यथा-
अनादि निधनं ब्रह्म शब्द तत्त्वं यदक्षरम् ।
विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः।। इति ।
अर्थात् अवयवरहित (खण्डरहित) नित्य शब्द जिसको वैयाकरण स्फोट कहते हैं, संसार का आदि कारण है और ब्रह्म ही है। वह ब्रह्म सत्ता सभी शब्दों का वाच्य है। वह स्फोट रूप वाचक शब्द से भिन्न नहीं है। जो भेद दीख पड़ता है, वह आवरण से, या कल्पना से ही। जो पुरुष शब्दब्रह्म को ठीक-ठीक अवगत कर लेता है, वह परब्रह्म को पाता है अर्थात् उसमें अवस्थित होता है। हे देवि! आप उपर्युक्त शब्द ब्रह्मस्वरूपा हैं। शब्दात्मिका इस श्लोक में जो उद्गीथ शब्द आया है, इसका साधारण अर्थ ओंकार किया जा सकता है।
श्री श्री देवीजी का सर्वात्कृष्ट स्वरूप, जिसकी उपासना की जा सके, शब्द को ही मानना पड़ता है। शब्दब्रह्म के उपासक को परम शाक्त कहा जाय तो कुछ भी अनुचित नहीं।
आसीद्विन्दुस्ततो नादो नादाच्छक्ति समुद्भवः।
नादरूप महेशानि चिद्रूपा परमा कला ।।
-वायवीय संहिता
पहले विन्दु तब नाद और नाद से शक्ति उत्पन्न होती है। चैतन्यरूपा परमाकला महेशानि (शिवा) नादरूपा है।
लोग कहा करते हैं-‘सियाराम मय सब जग जानी।’ वचन से तो कह देते हैं, लेकिन व्यवहार हो तब तो। सो तो होता नहीं, केवल वचन में कहते हैं। कोई शरीर बहुत सुन्दर, कोई असुन्दर, कोई बलवान, कोई बलहीन होता है। इसी तरह किसी का अंतःकरण बहुत बलवान और विकसित होता है। इसकी शक्ति को जिन्होंने अधिक जगा लिया, उसका मुकाबला कोई नहीं कर सकता। यह शक्ति विद्याभ्यास, योगाभ्यास और सदाचार के पालन से जगती है। सदाचार के पालन के बिना विद्याभ्यास और योगाभ्यास कुछ नहीं। श्रीकृष्ण को तो योगेश्वर ही कहते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
निर्गुन रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोइ ।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होइ ।।
सगुण-त्रयगुण संबंधी रूप में, उसमें समझने में आने योग्य और नहीं आने योग्य कर्मों को देखकर मननशील को भी भ्रम उत्पन्न हो जाता है।
शिव अज शुक सनकादिक नारद। जे मुनि ब्रह्म विचार विशारद।।
मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही।।
ब्रह्मा को मोह हुआ श्रीकृष्ण के प्रति, तो उन्होंने उनकी गौ और ग्वालवालों को छिपा लिया। भगवान ने अपने से बना लिया। ब्रह्मा को ज्ञान हुआ, तो फिर सब वापस किया। भगवान श्रीकृष्ण योगेश्वर कहे जाते हैं। उनका योगबल बचपन से ही विख्यात है।
एक समय एक योगी उनके निकट आए। उन्हांने श्रीकृष्ण से योगविद्या की प्रशंसा की और उनसे कहा कि तुम भी योगविद्या सीखो। भगवान ने कहा-‘योगविद्या से क्या लाभ होता है?’ उन्होंने उनको एक तलवार देकर कहा कि इस तलवार से मेरे शरीर पर वार करो और देखो इसके प्रहार से मेरा शरीर नहीं कटेगा। श्रीकृष्णचन्द्रजी ने उनके हाथ से तलवार लेकर उनके शरीर पर कई प्रहार किए, परंतु प्रत्येक वार वज्र के ऊपर प्रहार करने के समान तलवार की धार भोथी हो जाती और उनके शरीर का बाल भी बाँका नहीं कर सकी। तत्पश्चात् भगवान श्रीकृष्णचन्द्रजी ने कहा कि अब आप इस तलवार का प्रहार मेरे शरीर पर कीजिए। इस पर योगी जी ने कहा कि तुम्हारा शरीर तो कोमल है, तलवार के आघात से वह कट जाएगा। इसपर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि आप तो योगी हैं। यदि तलवार की चोट से मेरा शरीर कट जाएगा तो आप अपने योगबल से उसे जोड़ दीजिएगा। इस योगी ने तलवार लेकर श्रीकृष्णचंद्रजी के शरीर पर कई आघात किए, परंतु प्रत्येक बार तलवार श्रीकृष्णचंद्रजी के शरीर के वारपार ठीक हवा में प्रहार करने के समानान्तर हो जाती, परंतु श्रीकृष्णचंद्रजी के शरीर पर तलवार के प्रहार का कोई र्चिं भी नहीं पड़ा। इस प्रकार योगिराज ने कई बार तलवार चलाई, किंतु सभी प्रहार निष्फल हो गए। इस पर योगी महाराज बड़े आश्चर्यित हुए और श्रीकृष्णचंद्रजी के योगबल की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।’ श्रीकृष्णचंद्रजी को बचपन से ही यह सिद्धि प्राप्त थी। यह अष्ट सिद्धियों में से है। इनकी शक्ति बड़े लोगों को देखने में आई, इसलिए उनको लोगों ने ईश्वर माना। इसी तरह से श्रीराम आदि के शरीर के विषय में भी जानिए। श्रीराम ने कहा-
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम शरीर।।
प्रगट सो तनु तव आगे सोवा। जीव नित्य तुम केहि लगि रोवा।।
उस पंचभौतिक शरीर के अंदर जो है, उसको पहचानो। जो नित्य है, जितने अनेक रूप हैं, उनसे अनेक लीलाएँ भगवान ने कीं; लेकिन ऐसा नहीं कहा कि यह शरीर ही, रूप ही सब कुछ है। बल्कि श्रीराम ने कहा-
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।
विषय पाँच हैं-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, और शब्द। इन पाँचों से बचो तो क्या बचता है, विचारो। श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीशिवजी किसी ने नहीं कहा कि मेरे शरीर रूप को देख लिया, हो गया; बल्कि सभी ने आत्मतत्त्व को पकड़ने कहा। जो इन्द्रियों का विषय नहीं है, वह निर्विषय है। निर्विषय तत्त्व परमात्मा हैं। इसी को ग्रहण करने के लिए मनुष्य शरीर हुआ है, भगवान ने कहा। वह ईश्वर एक ही है। श्रीराम के साथ जो रहे, उसका भी काम पूरा नहीं हुआ।
जेहि अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली ।
फिरि सुकण्ठ सोई कीन्हि कुचाली।।
सोइ करतूति विभीषण केरी । सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी।।
इनकी यह हालत क्यों? बिल्कुल पवित्र हो जाए, कुचाल से बचे, यह काम बाकी रहा। ईश्वर की भक्ति कैसे हो, अब कहता हूँ-
प्रभु तोहि कैसे देखन पाऊँ ।
तन इन्द्रिन संग माया देखूँ, मायातीत धरहु तुम नाऊँ।।
मेधा मन इन्द्रिन गहे माया, इन्ह में रहि माया लिपटाऊँ।
इन्द्रिन मन अरु बुद्धि परे प्रभु, मैं न इन्हें तजि आगे धाऊँ।।
करहु कृपा इन्ह संग छोड़ावहु, जड़ प्रकृति कर पार ही जाऊँ।
‘मेँहीँ’अस करुणा करि स्वामी, देहु दरस सुख पाइ अघाऊँ।।
संसार में कुछ खाओ, पीओ, देखो, सुनो, तब सुख होता है, लेकिन यहाँ तो भूख, प्यास सब खतम केवल दर्शन मात्र से। ईश्वर की भक्ति में क्या करना होगा? शरीर लेकर जगन्नाथजी, बद्रीनाथ, जहाँ जाना चाहो, जा सकते हो। लेकिन अन्दर- अन्दर चलने में शरीर छोड़कर चलना होगा। घर से कोई बाहर होना चाहता है, तो पहले घर ही घर चलना पड़ता है। उसी तरह शरीर और इन्द्रियां से छूटने के लिए शरीर के अंदर-ही-अंदर चलना होगा। शरीर और इन्द्रियों का संग जहाँ छूट गया, वहीं ईश्वर दर्शन है। ईश्वर सर्वत्र है।
बाहरि भीतरि एको जानहु, इहु गुर गिआन बताई।
-गुरु नानकदेव
बाहर में तुम इसलिए नहीं पाते हो कि तुम इन्दिय-ज्ञान में रहते हो। अंदर-अंदर चलने से शरीर से छूटना होगा।
सब किछु घर महिं बाहरि नाहीं । बाहरि टोलै सो भरमि भुलाहीं ।।
-गुरु नानकदेव
एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो ।
परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं, बाहर फिरत विकल भय धायो।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद, अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल, परम सुगंध कहाँ ते आयो।।
- गोस्वामी तुलसीदासजी
अपुनपौ आपुन ही में पायो।
शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो।।
ज्यों कुरंग नाभि कस्तूरी, ढूँढ़त फिरत भुलायो।
फिर चेत्यो जब चेतन ह्वै करि, आपुन ही तनु छायो।।
-सूरदासजी
सूरदासजी और तुलसीदासजी को लोग सगुण उपासक बताते हैं और कबीर साहब, गुरु नानक साहब को निर्गुण उपासक बताते हैं। जिसको जो बताओ, लेकिन कबीर साहब, नानक साहब, तुलसीदासजी और सूरदासजी सभी निर्गुण और सगुण दोनों के उपासक थे।
तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त ।
मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनंत ।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।। यह क्यों लिखते, यदि निर्गुण उपासना नहीं करते। कबीर साहब ने कहा-
मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।
यह निर्गुण कैसे हुआ? जिस सिंहासन पर तुलसीदासजी राम को बैठाते हैं, उसी आसन पर कबीर साहब गुरु को बैठाते हैं। गुरु में भी तुलसी- दासजी की कम श्रद्धा नहीं है।
बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
- रामचरितमानस
श्रीहरि गुरु पद कमल भजहिं, मन तजि अभिमान।
जेहि सेवत पाइय हरि, सुख निधान भगवान।।
- विनय-पत्रिका
कबीर साहब और गुरु नानक साहब उपासना के आरम्भ में गुरु को लिए हैं। यह कैसे सगुण उपासना नहीं है? सभी संतों ने अपने अंदर-अंदर चलने कहा। ख्याल से चलना नहीं, यथार्थ में चलो मन का सिमटाव हो, उसकी ऊर्ध्वगति हो। यदि कुछ सिमटाव हो जाए तो परमात्मा का ज्योति और नाद रूप हाथ पावोगे। जैसे माता अपने रोते बच्चे को हाथ पसारकर उठा लेती है, उसी तरह ज्योति और शब्दरूप हाथ पसारकर परमात्मा उठा लेते हैं। बाहर-बाहर चलने से इन हाथों से दूर रहोगे। बाहर में सत्संग और स्थूल उपासना अवश्य करो, किंतु अंदर भी चलो। योगशास्त्र में कठिन और सरल दोनों तरीके हैं। सरल मार्ग को पकड़ लो और कठिन मार्ग को छोड़ दो। ‘ज्योति’ परमात्मा का बायाँ हाथ है और ‘शब्द’ दाहिना हाथ है। बड़ा जबर्दस्त हाथ है। इसका उल्लंघन कोई नहीं कर सकता। बिना शब्द के सृष्टि नहीं हो सकती। शब्द कम्पमय होता है और कम्प शब्दमय होता है। कम्प अपने सहचर शब्द के साथ अवश्य रहता है। आदि में शब्द हुआ। वह सर्वव्यापक है। इसलिए राम है। कल्याणकारी होने से शिव, सबका बीज होने से ॐ है। ऐसा यत्न मिलना चाहिए, जिससे ज्योति और नाद मिले। परमात्मा ने सब पर एक समान कृपा की है। गरीब, अमीर सबको आँख से देखना, कान से सुनना दिया। उसी तरह ईश्वर की ओर जाने के लिए सबके अंदर एक ही सुराख है, वह शिवनेत्र है, तीसरा तिल है, आज्ञाचक्र का केंद्र-विन्दु है। गुरु जो तरकीब बतावे, उसके अनुसार चलो। जहाँ प्रवेश हुआ, ईश्वर का हाथ मिलेगा। प्रवेश-द्वार पर ही पहले सबको शीघ्र ठहराव नहीं हो सकता है और कोई किसी के लिए यह काम कर दे, सो नहीं हो सकता। आनंद भगवान बुद्ध के साथ बहुत रहते थे, उन्होंने उनकी अंत तक बड़ी सेवा की थी। इतने प्यारे शिष्य थे कि बिना उनके आए भगवान कुछ उपदेश वाक्य नहीं कहते थे। ऐसा उनको वरदान मिला था। ‘अपना चिराग आप बन’ भगवान ने उनको कहा था। पहले जाँच लो कि गुरु ठीक है वा नहीं, विश्वास हो तो उनसे यत्न जानो और करो। कोई कहता है कि मैं तुम्हारे बदले कर दूँगा तो वहाँ जाओ और उसकी सच्चाई देखो। लोग कहते हैं कि स्वामी विवेकानन्दजी को परमहंसजी ने पूरा कर दिया था। यदि वे पूरे ही थे तो वे रामकृष्ण परमहंसदेव के शरीर छूटने के बाद पौहारी बाबा के शिष्य बनना क्यों चाहते थे? मैं साफ-साफ कहता हूँ, कोई करा नहीं देगा, स्वयं करना होगा। एकान्त में बैठकर ध्यान-अभ्यास बराबर करो। ऐसा करते-करते अपने को ऊपर पाओगे। भजन करना आवश्यक है। भक्ति का बीज तुम्हारे साथ रहेगा-जबतक मुक्ति ना मिल जाय। जीवन काल में जो भजन (ध्यान) करता है, वह स्थूल-से-सूक्ष्म में प्रवेश करता है, वही जीते-जी मरता है। जो जीते-जी मरता है, वह फिर जन्म नहीं लेता। इसी के लिए संतों ने उपदेश दिया है। कोई नयी बात नहीं है। सभी पुरानी बात है। कहने का ढंग अलग-अलग होता है।
बिना सदाचार का पालन किए ईश्वर की भक्ति नहीं हो सकती। सदाचार पालन करने के लिए झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; पंच पाप नहीं करो। पापों से बचने पर अंतःकरण में बल मिलेगा भजन करने के लिए। इससे संसार में भी लाभ होता है। जो कोई पंच पापों से बचता है, वह संसार में प्रतिष्ठा पाता है। भगवान योगक्षेम अपने भक्त का करते हैं। मैंने फारसी में पढ़ा था कि जो परमात्मा अपने दुश्मन पर भी नेक दृष्टि रखता है, वह अपने भक्त को कैसे छोड़ सकता है। भक्त बनने में कसर रहता है, तो गड़बड़ होता रहता है। संसार के लोग यदि पंच पापों से बचें तो आपस में प्रेम होगा। अभी लोग बहुत झूठ बोलते हैं। इसलिए एक को दूसरे का विश्वास नहीं है। हिंसा नहीं करेगा तो लड़ाई-झगड़ा नहीं होगा, तकरार नहीं होगी। स्वराज्य हुआ है, सुराज नहीं। अध्यात्म-ज्ञान का, सदाचार का खूब जोरों से सरकार प्रचार करे, तो लोग सदाचारी बनने लगेंगे और तब देश में शान्ति आ जाएगी। राजनीति के मैदान में भी शान्ति हो जाएगी। सहूलियत हो जाएगी। ईश्वर-भक्ति करने के लिए सदाचार की बड़ी जरूरत है। लेकिन धन कमाने में इसकी कोई जरूरत नहीं। चोरी करो, धन हो जाएगा। पकड़े जाओगे, मार खाओगे। कोई भी सरकार, किसी भी देश की सरकार योग्य प्रचारकों को सहायता दे तो सदाचार और आध्यात्मिकता का विशेष प्रचार हो। कानून के डण्डे से लोग सदाचारी नहीं बन सकते। जनता ठीक नहीं है तो सरकार ठीक कहाँ से होगी। जनता की ओर से ही लोग जाते हैंं, जिससे सरकार बनती है। ईश्वर-भजन करो और सदाचार का पालन करो तो यहाँ और वहाँ दोनों जगह अच्छे रहोगे।
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यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर पाटम में दिनांक 21. 4. 1959 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
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