135. भौतिक चीजों से आत्मा को भिन्न करो
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
मैं यहाँ आपको संतांं का विचार सुनाने के लिए उपस्थित हूँ। मेरे जिम्मे श्रीगुरु महाराजजी ने जनता की यही सेवा सौंपी है। हमलोग बचपन से सुन-सुनकर सीखे हैं। सीखे बिना हम संसार की वस्तुओं के उपयोग को नहीं समझते और न उन्हें व्यवहार में ही ला सकते हैं। इसलिए संतों ने अपना विचार सुना-सुनाकर लोगों का उपकार जहाँ तक हो सकता है, किया है। और यह सिलसिला अबतक जारी है। ईश्वर में मनुष्य मात्र को विश्वास रखना चाहिए। जो ईश्वर में विश्वास नहीं करते, उनका भाग्य तबतक ठीक नहीं, जबतक वे ईश्वर में विश्वास नहीं करते। संतों ने जो ईश्वर का निर्णय बताया है, वह समझिये। साथ ही संतों ने यह उपदेश दिया है कि आपको अपने लिए ऐसा ख्याल नहीं आता है कि मैं नहीं हूँ। अपनी स्थिति में सबको विश्वास है। कुछ तार्किक लोग अपनी स्थिति में विश्वास नहीं करते और न ईश्वर में ही। वे लोग संसार की वस्तुओं को लेकर ही उसमें अपना भला चाहते हैं। लेकिन संसार का इतिहास नहीं बताता कि संसार की वस्तुओं को लेकर किसी का भला हुआ है। संसार की वस्तु मिले, पूर्ण ऐश्वर्य मिले, इसी में भला होगा, ऐसा वे विचारते हैं। लेकिन पूर्ण ऐश्वर्य किनको प्राप्त हुआ? जिनके लिए कहा जाय, उनमें कुछ-न-कुछ कमी अवश्य रह गई। जिनको पूर्ण ऐश्वर्यवाले समझते हैं, उनमें भी कमी दरसती है। श्रीराम भगवान को पूर्ण ऐश्वर्य- वान मानते हैं, लेकिन उनका कहाँ तक भला हुआ, जानिए। श्रद्धा एक दूसरी चीज है। श्रीराम को संसार में आकर रोना पड़ा-संकट सहना पड़ा। अपने देश के लोग जो रामायण नहीं जानते हैं, उनके लिए मैं दुःख मानता हूँ। श्रीराम के जीवन के आरम्भ काल की और संसार के त्यागने के काल की कथा पढ़ने, सुननेवाले रोते हैं। उन्हें महान दुःख का भोग देखना पड़ा। यह दूसरी बात है कि वे महान योगी थे-उनकी लीला थी। लेकिन लीला में ही उन्होंने समझाया कि मेरे समान होने पर भी दुःख भोगना पड़ता है। इसलिए यह मानने योग्य नहीं कि फलाने को ऐश्वर्य मिला और उनके पास दुःख फटका तक नहीं। भौतिक वस्तु को लेकर पूर्ण सुख, पूरा भला किसी को हुआ, ऐसा नहीं देखा गया। कबीर साहब ने कहा है-
तन धर सुखिया कोइ न देखा, जो देखा सो दुखिया हो ।
दुःख के साथ-साथ कहाँ भलाई है? ऐसा भला मानना बहुत कम जानता है। संतगण कहते हैं कि तुम्हारी स्थिति है। तुम्हारा शरीर भी है, जिसको भगवान श्रीकृष्ण के वचन में क्षेत्र कहते हैं। तुम शरीर के जाननेवाले क्षेत्रज्ञ वा जीवात्मा हो। तुम्हारी स्थिति है। तुलसी साहब कहते हैं, तुम अपने को पहले जान लो-तुम अपनी असलियत को नहीं जानते हो। शरीर गया, तुम गए, ऐसा ख्याल करो तो तुम्हारे लिए कोई उपदेश नहीं। लेकिन पहले अपने को जानो। उन्होंने कहा-
सत सुरत समझि सिहार साधौ निरखि नित नैनन रहौ ।
उन्होंने कहा-तुम्हारे शरीर में दो तरह के पदार्थ हैं-जड़ और चेतन। जड़ अज्ञानमय और चेतन ज्ञानमय। तुम्हारा शरीर अज्ञानमय है, तुम ज्ञानवान हो। तुम इस शरीर में रहते हो तो शरीर ज्ञानमय है। अवस्था विशेष होने पर तुम्हारे इस शरीर में रहने पर भी यह जड़वत् रहता है। जैसे सुषुप्ति अवस्था। जड़-जड़ तत्त्वों के मिलने से चेतन हो गया है, ऐसा यदि कहो तो दोनों भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं-जड़ और चेतन। जड़ ही चेतन का जनक हो, हो नहीं सकता। जिस शर्बत में जो चीज नहीं डालिए, उसका स्वाद नहीं आता और गुण भी नहीं आता। इसी तरह जड़-जड़ के मिलाप से चेतन हो गया, ऐसा नहीं माना जा सकता। जो लोग गीता पढ़ते हैं, वे जानते हैं कि उसमें अष्टधा प्रकृति का भी वर्णन हुआ है। उसको क्षर पुरुष, असत् जड़ प्रकृति कहा गया है। अष्टधा प्रकृति में पंच तत्त्व और मन, बुद्धि, अहंकार है। परा प्रकृति को जीवरूपा चेतनमय कहा है। इन दोनों से भगवान रचना करते हैं। दोनों भिन्न-भिन्न दो तत्त्व हैं। जीवात्मा की स्थिति है। चेतन आत्मा, अक्षर पुरुष, परा प्रकृति भिन्न तत्त्व हैं और क्षर पुरुष, अपरा प्रकृति भिन्न तत्त्व हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
जड़ चेतनहिं ग्रंथि पड़ि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई।।
इस भूमण्डल के किसी देश में रहो अथवा सूक्ष्म, कारण, महाकारण आदि मण्डलों में जबतक जहाँ कहीं भी रहो, तबतक वह भला-जिसके साथ बुराई नहीं हो-ऐसा हो नहीं सकता। संतों ने कहा है-तुम चेतन आत्मा हो, इसको जड़ से अलग करो। अपना पुरुषार्थ करो। किंतु याद रखो कि पुरुषार्थ किधर करना है। यह जीव माया के कण्टक से घिरा है, यद्यपि यह माया असत्य है, फिर भी बिना राम की कृपा के छूट नहीं सकती।
व्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचण्ड ।
सेनापति कामादि भट, दम्भ कपट पाखण्ड ।।
सो दासी रघुवीर कै, समुझै मिथ्या सोपि ।
छूट न राम कृपा बिनु, नाथ कहउँ पद रोपि ।।
-रामचरितमानस
अभी यह माया बड़ी बलवती है। इसी को
अष्टधा प्रकृति, क्षर पुरुष, अपरा प्रकृति कहते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है कि श्रीराम ने प्रजा को यही उपदेश दिया कि-
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।
वे जितने बड़े राजा थे, उतने और कोई नहीं, ऐसा लिखा है। पहले हमारे यहाँ रामराज्य की चर्चा होती थी और अब भी चर्चा होती है। कहते हैं कि रामराज्य हो जाय। इसलिए कि वह प्रजा को अपने से शिक्षा देते थे। जबतक आध्यात्मिकता को नहीं अपनावे, तबतक भौतिक पदार्थ से किसी का कल्याण नहीं होगा। यह जानकर वे स्वयं उपदेश करते थे। उनके गुरु वशिष्ठजी बड़े ज्ञानी-योगी थे। उन लोगों का भी उपदेश होता होगा। और फिर भी श्रीराम ने अपने से उपदेश दिया। इसलिए कि उनके हाथों में शासन-सूत्र था। मुनियों के हाथ में शासन-सूत्र नहीं था। श्रीराम ने समझा होगा कि केवल भौतिक पदार्थ से सुख नहीं हो सकता। स्वयं शासन-सूत्र के धारक होने के कारण मेरी बातों को लोग मानेंगे, ऋषियों की बात मानें या नहीं मानें। लोग डरेंगे भी, शासन-सूत्रधारी की बात नहीं मानूँ तो न जाने कोई हानि हो जाय। इसका फल यह हुआ कि-‘सब उदार सब पर उपकारी’ हो गए। विचारिए जिस देश में सब उदार हैं, संकीर्णता हृदय में नहीं है, दूसरे का उपकार लोग करते हैं, वह देश कैसा होगा? देश में खर्च होना चाहिए-प्रबंध के लिए-उस खर्च को जुटा देने के लिए लोग हिचकते नहीं होंगे। देश में जो एक के पास थोड़ा है और दूसरे के पास अधिक है तो अधिकवाले से माँग करते हैं, एक नेता-हमारे भारत के। लेकिन केवल इससे कहाँ तक शान्ति आ सकती है। यद्यपि लोग जानते हैं कि आज कैसा समय आया है। विशेष जमीन किसी को नहीं रहेगी। लोगों ने जमीन दान दी है ऐसी जमीन, जिस जमीन को पानेवाला न जानें, उसे कब उपजा सकेगा-या तो बालू बुर्ज है या जलमय है या पत्थरमय है। अवश्य ही दान में कुछ अच्छी जमीन भी दी गईं। कहीं-कहीं दान देनेवालों और दान दिलानेवालों के बीच संघर्ष भी हुआ। लेकिन जहाँ पर ‘सब उदार सब पर उपकारी’ हो वहाँ अनउदारता, कृपणता, कलह और संघर्ष कैसा? आज स्वराज्य है, उसमें सुराज लाइए। केवल भौतिकवाद में ‘सब उदार सब पर उपकारी’ वाला हृदय नहीं हो सकेगा। उसमें तो एक दूसरे को अस्त्र दिखाकर, डराकर, धन हरण कर लेगा। आध्यात्मिकता में परहित रत होने का गुण है-आधिभौतिकता में नहीं। अपना भला तभी होगा, जब ईश्वर-भक्ति करो। अध्यात्म-ज्ञान इतना ही नहीं है कि पढ़ लिया, लिख लिया, सुन लिया, अध्यात्म-ज्ञान प्राप्त कर लिया और कहने लगे-अहं ब्रह्मास्मि। यह कहने की बात नहीं है, कर्म में लाने की बात है। दूसरी ओर है ईश्वर की भक्ति करो, इसी में कल्याण है। ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर-स्वरूप जानो-यह ज्ञान है। फिर उसको पाओ कैसे, इसके लिए यत्न करो। यही भक्ति है। रामचरितमानस में लिखा है-
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।
व्याप्य में व्यापक है। या समझो तो व्याप्य और व्यापक वही है। उसका कहीं अंत नहीं है। वाणी से वर्णन होने योग्य नहीं है। प्रकृति को भरकर और कितना विशेष है, कहा नहीं जा सकता। इसलिए कि वह अनंत है।
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
-रामचरितमानस
इस तरह ईश्वर का स्वरूप है। तुलसीदासजी की रामायण लोग बहुत पढ़ते हैं। इसलिए चौपाई का पाठ हुआ। कबीर साहब ने भी कहा है-
श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
गुरु नानक साहब ने भी कहा है-
अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
इस तरह सभी संतों ने कहा है। अब विचारणीय है कि संतों ने जो कहा है उनकी बात को बिना विचारे मान लें? तो एक विचार कहता है कि हाँ, मान लो। वे महान थे। पाठशाला में पढ़ने गए थे तो पण्डितजी ने जैसा लिखाया-पढ़ाया, वैसा पढ़ा-लिखा। तो पीछे ठीक ही निकला। वहाँ तब तर्क नहीं किया कि पण्डितजी! इसको ‘अ’ उसको ‘क’ क्यों कहें? अध्यात्म-विद्या के लिए बड़ी उम्र के लोग भी बच्चे रहते हैं। हमारे गुरु महाराज ने बहुत भजन किया था। वे बहुत वृद्ध थे। अंत समय में उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा कि ‘मैं अभी सीखता हूँ।’ पूरी विद्या केवल पढ़ने व लिखने में नहीं है, तर्क में नहीं है, भजन-अभ्यास करने से वह पूरी होती है। ईश्वर की स्थिति का ज्ञान-विचार जो संतों ने दिया है, वह विचार में दृढ़ है। उपनिषद् में लिखा है-
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अंतरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
सबसे बाहर कहकर ‘प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी। ब्रह्म निरीह विरज अविनाशी।।’ की छाया गोस्वामी तुलसीदासजी की चौपाई में है। अपरम्पार स्वरूपी कोई एक है कि नही? पहले कह दें कि नहीं, अब सभी ससीम सादि हैं तो प्रश्न होगा कि सब ससीमों के पार में क्या है? जहाँ सीमा है, उसके पार कुछ होगा ही। जबतक असीम नहीं कह दें, तबतक प्रश्न रहेगा ही। एक असीम कह देने से फिर प्रश्न नहीं रहता। असीम के परे क्या है, पूछना मूर्खता है। सबकी आदि वह है और वह अनादि भी है। सब उसके अंदर है, बुद्धि में भी यह बात आती है। जो विशेष व्यापक होता है, वह सबसे विशेष सूक्ष्म होगा। जल, बर्फ और वाष्प की उपमा से जानिए। एक सेर बर्फ जितना व्यापक होगा, उतने बर्फ जल बनाने से कहीं अधिक व्यापक होगा और उसी का वाष्प बना लेने से और भी अधिक व्यापक होगा। बर्फ से जल सूक्ष्म है और जल से वाष्प। जो जितना अधिक सूक्ष्म होता है, उसकी व्यापकता उतनी अधिक होती है। जो सबसे विशेष व्यापक है, वह सबसे विशेष सूक्ष्म है। जो परमात्मा सर्वव्यापी है, वह सबसे विशेष सूक्ष्म है। उसको स्थूल इन्द्रियों से ग्रहण नहीं कर सकते। जो वस्तु जैसी होती है, उसको ग्रहण करने के लिए उस तरह का औजार होना चाहिए। हमारी इन्द्रियाँ मोटी-मोटी हैं। बाहरी इन्द्रियों को कौन कहे, अंतर की इन्द्रियाँ भी उसे ग्रहण नहीं कर सकतीं। बुद्धि उसकी स्थिति का निर्णय कर सकती है, लेकिन उसे पहचान नहीं सकती। उसको चेतन आत्मा ही प्राप्त कर सकती है। क्योंकि वह भी उसी तरह सूक्ष्म है। चेतन आत्मा से परमात्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इसको खूब याद रखना चाहिए। जिस विषय के स्वरूप-ज्ञान के लिए कोई पूछे तो कह दीजिए कि अमुक इन्द्री से जिस विषय का ज्ञान होता है, वह सो है। तो प्रश्न खत्म हो जाएगा। जैसे रूप क्या है? तो जो आँख से ग्रहण होता है। इसी तरह जो चेतन आत्मा से ग्रहण हो, वही परमात्मा है। इस ज्ञान के बिना लोग भटकते फिरते हैं। संत सुन्दरदासजी ने थोड़े शब्द में कहा है-
शब्द ब्रह्म परि ब्रह्म भली विधि जानिये ।
पाँच तत्त्व गुण तीन मृषा करि मानिये ।।
बुद्धिवन्त सब संत कहै गुरु सोई रे ।
और ठौर शिष जाइ भ्रमे जिनि कोइ रे ।।
शब्द ब्रह्म को प्राप्त करके पर ब्रह्म को प्राप्त करते हैं। शब्द ब्रह्म क्या है, इसके लिए उपनिषद् में लिखा है-‘अक्षरं परमोनादः शब्द ब्रह्मेति कथ्यते।’ -योगशिखोपनिषद्। लोग वेद को भी शब्दब्रह्म कहते हैं, लेकिन उपनिषद् में जो शब्द ब्रह्म की परिभाषा लिखी है, उसी शब्दब्रह्म के द्वारा चेतन आत्मा को जो ग्रहण होता है, वही परब्रह्म परमात्मा ईश्वर है। उसका दर्शन अपने अंदर में होगा, बाहर में नहीं। लोग पूछते हैं कि ध्रुव को, प्रùाद को बाहर में ईश्वर-दर्शन हुआ। यह क्या ईश्वर-दर्शन नहीं है? मैं कहता हूँ कि राम, शिव, कृष्ण, दुर्गा और काली माता आदि सभी ईश्वर-ईश्वरियाँ हैं। लेकिन कहने से लोग हँसेंगे। ईश्वर एक है। एक आकर कहते हैं-ईश्वर एक ही है-वह शिव है। दूसरे कहते हैं श्रीराम ईश्वर हैं। तीसरे श्रीकृष्ण को ईश्वर कहते हैं, चौथे देवीजी को कहते हैं। इस तरह एक दूसरे से द्वेष और कटुता उत्पन्न करते हैं। लेकिन मुझसे पूछो तो मैं कहूँगा-ये सब ईश्वर के रूप हैं। जैसे अपना फोटो खिंचवाते हैं तो दूसरे कहते हैं कि फलाने बाबू का फोटो है। उसी तरह सब उनके रूप हैं, लेकिन उन रूपों में जैसा कि अभी सुना-
भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव देखावइ,आपु न होइ न सोइ ।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
उस ‘भूप रूप’ में जो था, वह क्या? इसको जानिए। इन सब रूपों में वह एक-ही-एक है। जो अनेकों में प्रविष्ट होकर, फिर बाहर भी है, वही आत्मा है। वह आत्मगम्य है, इन्द्रियगम्य नहीं। इसका बोध कर लेना चाहिए। इसका बोध किए बिना जो भक्ति आरम्भ करते हैं, वे उसी तरह चलते हैं, जैसे कोई मुसाफिर हो और उसको निर्दिष्ट स्थान का ज्ञान नहीं हो, तो वह भटकता फिरेगा। इसीलिए सुन्दरदासजी ने कहा है-‘और ठौर शिष जाय, भ्रमे जिनि कोइ रे।’ उस स्वरूप को प्राप्त करने के लिए यत्न चाहिए। शरीर, इन्द्रिय आदि भौतिक चीजों से आत्मा को भिन्न करो और भिन्न करके उसे प्राप्त भी करो। केवल विचार में ही रखना कि मैं यह नहीं हूँ, वह नहीं हूँ, पूर्ण नहीं है। विचार में भी भिन्न करो और उसको भिन्न करने के लिए काम भी करो। काम गम्भीर है, लेकिन इसको किए बिना कल्याण भी नहीं होगा। संतों ने जो साधन बताया है, वह विशेष कठिन नहीं है। भक्ति हठयोग से सरल है। राजयोग से भक्ति को अलग नहीं कर सकते। राजयोग कहिए चाहे भक्तियोग एक ही बात है। राजयोग में और भक्ति योग में-दोनां में मन लगाना होता है। हठयोग में नेती, धौती और प्राणायाम करने में जो कठिनाई है, वह राजयोग में नहीं है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने कहा है-खान-पान में, आहार-विहार में परिमित रहो-संयमित रहो। रामायण में भी है-‘संयम यह न विषय कै आसा।’ इसको कठिन जानकर छोड़ना नहीं होगा। अभ्यास करने से सभी कठिन काम सरल होते हैं-
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।।
साधन में उकताहट नहीं लानी चाहिए, साहस रखना चाहिए। ैसवू ंदक ेजमंकल ूपदे जीम तंबमए (स्लो एण्ड स्टीडी विन्स दि रेस) बचपन में मैंने पढ़ा था। जिस चाल से जल्दी थक न जाओ, उस चाल से चलो। भगवान श्रीकृष्ण ने तो बहुत ढाढ़स दिया है। अर्जुन ने कहा है कि मनोनिग्रह करना बहुत कठिन है, जैसे हवा की गठरी बाँधनी। श्रीकृष्ण ने कहा-अभ्यास और वैराग्य से होगा। वैराग्य कहते हैं विषयों में अनासक्त होने को। फिर अर्जुन ने पूछा-‘श्रद्धा तो हो, परंतु पूरा प्रयत्न अथवा संयम न होने के कारण जिसका मन योग से विचल जावे, वह योग सिद्धि न पाकर किस गति को जा पहुँचता है? हे महाबाहु श्रीकृष्ण! यह पुरुष मोहग्रस्त होकर ब्रह्म-प्राप्ति के मार्ग में स्थिर न होने के कारण दोनों ओर से भ्रष्ट हो जाने पर छिन्न-भिन्न बादल के समान बीच में ही नष्ट तो नहीं हो जाता?’ भगवान ने कहा-‘क्या इस लोक में और क्या परलोक में ऐसे पुरुष का कभी विनाश नहीं होता। क्योंकि हे तात! कल्याणकारक कर्म करनेवाले किसी भी पुरुष की दुर्गति नहीं होती। पुण्यकर्ता पुरुषों को मिलनेवाले स्वर्गादि लोकों को पाकर और बहुत वर्षों तक वहाँ निवास करके फिर यह योगभ्रष्ट पुरुष पवित्र श्रीमान् लोगों के घर में जन्म लेता है अथवा योगियों के ही कुल में जन्म पाता है। इस प्रकार प्राप्त हुए जन्म में वह पूर्व के बुद्धि-संस्कार को प्राप्त करता है और प्रयत्न- पूर्वक उद्योग करते-करते अनेक जन्मों के अनन्तर सिद्धि पाकर अन्त में उत्तम गति पा लेता है। कबीर साहब ने कहा है-
भक्ति बीज बिनसे नहीं, जो युग जाय अनंत ।
ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।।
भक्ति बीज पलटे नहीं, आय पड़ै जो चोल ।
कंचन जौ ं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।
भक्ति नहीं मर सकती है। इसका अंकुर भीतर में होना चाहिए, प्रेम होना चाहिए।
अनहद बाजै नीझर झरै, उपजे ब्रह्म गियान।
आवगति अन्तरि प्रगटै, लागै प्रेम धियान।।
‘प्रेम’ शब्द को देकर कबीर साहब ने बहुत मीठा बना दिया है। धन के लिए लोगों को लोभ होता है, उसी तरह ईश्वर प्राप्ति के लिए लोभ होना चाहिए। उसका यत्न जानना चाहिए। ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए।
आपके देश में कल्याण के लिए मोक्ष की प्राप्ति के लिए सत्संग का प्रचार है। कांग्रेस के प्रचार से सैकड़ों साल पहले से सत्संग का प्रचार इस देश में रहा है। यह ज्ञान कि ‘एहि तन कर फल विषय न भाई’ सबकी समझ में आ जाये तो कितना अच्छा होगा? सभी उपकारी बन जाएँगे, सभी उदार बन जाएँगे, तब माँगने की आवश्यकता नहीं रहेगी। अमीर आदमी स्वयं गरीब को देंगे। देने-लेनेवाले इतने सन्तुष्ट हो जाएँगे, जितने अजाँबी मिश्र। यह भाव लाना होगा, तब आप कुछ बँटवारा करवाइए या नहीं, आप ही सुव्यवस्था हो जाएगी। एक की सम्पत्ति दूसरे की सम्पत्ति हो जाएगी। एक दूसरे से कोई द्वेष नहीं रहेगा। श्रीराम ने कहा था-
जौं परलोक इहाँ सुख चहहू । सुनि मम वचन हृदय दृढ़ गहहू ।।
सुलभ सुखद मारग यह भाई । भगति मोरि पुरान श्रुति गाई ।।
एहि तन कर फल विषय न भाई । स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई ।।
विषय नहीं तो निर्विषय की ओर श्रीराम चलने के लिए कहते हैं। श्रीगुरु महाराजजी की आज्ञा के अनुसार मैं भी कहता हूँ कि ईश्वर का भजन करो। ईश्वर-उपासना छोड़कर जो केवल भौतिकवाद की उपासना करेंगे, तो वे झंझट से नहीं छूटेंगे। इसलिए ईश्वर का भजन कीजिये- कल्याण से रहिये।
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यह प्रवचन संथाल परगना जिलान्तर्गत अखिल भारतीय संतमत सत्सग के 50वाँ वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर ग्राम-ढोढरी में दिनांक 9.2.1958 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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