134. साधन में विघ्न
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 अबतक जो कुछ मैंने सीखा है, उसके अंदर मैंने यही सार पाया है कि संतों का ज्ञान जनता को कल्याण देने के वास्ते है। सब कोई कल्याण चाहते हैं और उसे पसन्द करते हैं। कल्याण का ठीक- ठीक ज्ञान संत लोग देते हैं। संत लोगों ने इस ज्ञान का प्रचार अपने-अपने समय में किया है। अब भी जो हैं, वे करते हैं। मेरे गुरु महाराज कह गए हैं कि संतों के ज्ञान का प्रचार करो। इसीलिए यह सत्संग होता है-दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक और वार्षिक अधिवेशन। कभी-कभी विशेष अधिवेशन भी होते हैं। संतों के ज्ञान में ईश्वर की स्थिति बड़ी मजबूती के साथ है। उसमें जरा भी धोखा या संशय नहीं। अभी आपलोगों ने ग्रंथ-पाठ में और भजन-कीर्तन में सुना कि ईश्वर की स्थिति है। कहाँ है? बहुत लोग समझ गए होंगे और कुछ लोग ऐसे भी होंगे, जो नहीं समझ पाए हों। इसलिए मैं अल्प ही कहता हूँ। संतलोग कहते हैं कि इन्द्रियों से जो जानने में आवे, सो माया है।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 जो कुछ दृष्टि लखन में आवैं सो माया का चीन्हा ।।
        -दरिया साहब, बिहारी
 इन्द्रियों से जो परे हैं, वह है ईश्वर। वेद-मंत्र का पाठ हुआ, उसमें भी यही बात थी और उपनिषद् के पाठ में भी यही बात थी। उसमें एक बात और थी कि प्रभु को जानना चाहिए। यह जानना अपरोक्ष ज्ञान या प्रत्यक्ष ज्ञान है। यह ज्ञान इन्द्रियों को नहीं होता है, चेतन आत्मा को होता है। हमलोगों का जन्म आस्तिक घराने में हुआ। वहाँ बचपन से ही राम-राम, शिव-शिव, वाहगुरु आदि कहने के लिए सीखा। पदार्थ रूप में राम क्या है? तब नहीं जाना। राम कोई महान प्रभु हैं, इतना ही तब जाना। संतों का ज्ञान है कि जिसको तुम चेतन आत्मा से या अपने तईं से पहचानो वह है ईश्वर। इसको याद रखिए। जो इन्द्रियों से पहचान में आवे, वह है ईश्वर की माया। पहली बात है कि ईश्वर- स्वरूप का ज्ञान हो और उसकी स्थिति के विश्वास में किसी तरह कसर नहीं रह जाय। तब उसका भजन करो, कल्याण होगा। ईश्वर-स्थिति का दृढ़ ज्ञान जानो, फिर उसकी प्राप्ति की युक्ति जानो, जिससे उसकी प्रत्यक्षता हो। अभ्यास करो, उसको प्राप्त करो, तब कल्याण होगा। केवल भौतिकता में कल्याण नहीं है। भौतिकता का अर्थ केवल सांसारिक वस्तु में कल्याण नहीं। मेरे कहने का यह आशय है कि सांसारिक पदार्थ में पूर्ण कल्याण नहीं है, बल्कि जो कुछ कल्याण मालूम होता है, वह सत्य नहीं है। माया की पहचान से पूर्ण कल्याण नहीं होगा। ईश्वर की पहचान से पूर्ण होगा, इसलिए संतों ने ईश्वर को पकड़ने कहा है। ईश्वर को हाथ आदि इन्द्रियों से पकड़ नहीं सकते। माया में ईश्वर व्यापक है, लेकिन माया को पकड़ने से ईश्वर नहीं पकड़ा जाता। जिसको आप आँख से ग्रहण करें, वह है रूप और जिसको कान से श्रवण करें, वह है शब्द। इसी तरह जो चेतन आत्मा को प्रत्यक्ष हो, वह है ईश्वर। पंचेन्द्रियों से पंच विषय ग्राह्य होते हैं। कितना ही सुन्दर अद्भुत रूप देखो, वह माया है-विषय है। इन पंच विषयों में जो व्यापक है, वह ईश्वर है। इन्द्रिय-ज्ञान में वह नहीं है। लोग उसको ही जानते हैं, जो इन्द्रियों से ग्रहण किया जाता है। शरीर में जो स्वयं आप हैं, केवल उससे ही क्या ज्ञान होता है? इसको बहुत लोग नहीं सोचते। वह जानने, सोचने और प्रत्यक्ष पाने के योग्य है। संतों ने कहा है-अपने अंदर में चलो। इन्द्रियों का संग छोड़ो और स्वरूप को पहचानो। इन्द्रियों के संग वैसे रहना है जैसे गुड्डी के साथ ढेला बँधा हो। संत तुलसी साहब ने कहा है-
 हिय नैन सैन सुचैन सुन्दरि साजि स्रुति पिउ पै चली ।
 यहाँ स्त्रुति का अर्थ जीवात्मा है। आपको आँख से रूप-ज्ञान के अतिरिक्त और चार विषयों का ज्ञान नहीं होता है। इसी तरह इन पंच ज्ञानेन्द्रियों से ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता है। यह केवल चेतन आत्मा को ही होता है। आपको ऐसा बनना होगा जैसा बनकर ईश्वर की पहचान हो। सुना है कि राजा के दरबार में जाने के लिए दरबारी वस्त्र धारण कर दरबार में जाना होता है, जैसे-तैसे वेश से नहीं। परमात्मा के दरबार में अकेले होकर जाएँ। कपड़ा देह पर है, देह को भी छोड़कर जाएँ। अपने ऊपर से कपड़ा हटाकर राजा के दरबार में जाओ तो पगला कहकर, धक्का देकर निकाल देगा। लेकिन ईश्वर के दरबार में स्थूल सूक्ष्मादि सभी शरीरों को छोड़कर जाना होगा। जीवनभर वेद पढ़ो, ईश्वर-दर्शन नहीं होगा। भारी-भारी तप करो, देह सुखाकर हाड़-हाड़ हो रहो-भगवान बुद्ध की तरह-फिर भी ईश्वर-दर्शन नहीं होगा। भगवान बुद्ध ने छह वर्षों तक महान तप किया था। लोग उनको मृतकवत् समझने लगे थे। लेकिन उनको ज्ञान हुआ कि इससे भी परमज्ञान नहीं मिलता है। आप पढ़े-सुने होंगे कि फलाँ ने तप किया और उसको दर्शन हुआ। वह दर्शन इन्द्रियों से हुआ, केवल चेतन आत्मा से नहीं। मैं बारम्बार कहता हूँ कि इन्द्रिय ग्राह्य रूप में जो व्यापक स्वरूप है, उसको पहचानो तो ईश्वर-दर्शन हुआ। इसी के लिए आपने कबीर साहब के पद्य में सुना-‘लम्बा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहु मार......।’ बड़ा भयानक कह दिया कबीर साहब ने। इतना डरा दिया कि लोग भाग जाएँ। गुरु नानकदेवजी ने भी कहा है-‘जेहि मारग के गने जाय न कोसा।’ लम्बा मार्ग है और रास्ते में बहुत आपदाएँ हैं। फिर ईश्वर-दर्शन कैसे हो? इसका उत्तर है-
   अनहद बाजै निझर झरै उपजै ब्रह्म गियान ।
   आवगति अन्तरि प्रगटै लागै प्रेम धियान ।।
       -कबीर साहब
 इसमें ‘लम्बा मारग’ कटेगा और इसी में ईश्वर- दर्शन हो जाएगा। गुरु नानकदेवजी ने कहा है कि-
 घट घट अन्तरि ब्रह्मु लुकाइया घटि घटि जोति सबाई ।
 बजर कपाट मुकते गुर मति निरभै ताड़ी लाई ।।
 ऐसी निर्भय ताड़ी ध्यान लगाने में ईश्वर- दर्शन होगा। लोग कहते हैं कि जो सर्वव्यापक है, उसके पास जाने के लिए ‘लम्बा मारग’ क्यों होगा? कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। उनसे प्रश्न कीजिए कि ईश्वर नजदीक है तो क्या आपने दर्शन पाया? साँच-साँच कहिए। यदि झूठ कहिएगा तो ईश्वर-दर्शन का जो गुण होता है, वह आप? में नहीं होगा, तो आप पकड़े जाएँगे। तब वे कहते हैं कि नहीं, दर्शन नहीं हुआ। इतना लम्बा जाना है कि जहाँ जाकर इन्द्रियों से छूटना हो। दादू दयालजी कहते हैं-
 दादू जानै न कोई , संतन की गति गोई।। टेक।।
 अविगत अंत अंत अंतर पट, अगम अगाध अगोई।
 सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई।।
 अंड न पिंड खंड ब्रह्मण्डा, सूरत सिंध समोई।
 निराकार आकार न जोति, पूरन ब्रह्म न होई।।
 इनके पार सार सोइ पइहैं, तन मन गति पति खोई।
 दादू दीन लीन चरणन चित, मैं उनकी सरणोई।।
 संतों की गति छिपी होती है। वह बाहर की गति नहीं, अन्तर की गति है। बाहर में तो खूब दौड़ जाएँ, लेकिन अंदर में एक बाल भर चलना मुश्किल है।
 कितनों को तो शरीर में चेतन आत्मा के होने का विश्वास ही नहीं है। वे कहते हैं कि केवल शरीर-ही-शरीर है। इसके अंदर शरीर से भिन्न तत्त्व कुछ नहीं है। सो ऐसा विश्वास और कथन भूल है। जाग्रत अवस्था में चेतन आत्मा की बैठक शरीर में जहाँ है, वहाँ से एक बाल चलिये। एक बाल का अर्थ बाल की लम्बाई नहीं, उसकी मोटाई भर से है। जागने में बाहर इन्द्रियों के ज्ञान के दायरे में रहते हैं। स्वप्न में बाहर की इन्द्रियों के ज्ञान से छूटते हैं। यह प्राकृतिक है और ईश्वर की ओर से इशारा है कि अंदर की ओर चलो तो इन्द्रियों की ओर से छूटना होगा। संतलोग कहाँ तक जाते हैं? दादू दयालजी कहते हैं-
 अविगत अंत अंत अंतर पट, अगम अगाध अगोई।
 सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई।।
 संत लोग सर्वव्यापी तक जाते हैं। जाते-जाते जहाँ जाना समाप्त हो जाता है, जहाँ गति का अंत है, आगे किसी तरह जाना नहीं होता, जाने के लिए जहाँ न मार्ग है, न स्थान है, वहाँ तक जाओ, तब ईश्वर-दर्शन मिलता है। संतगण ठीक से पता बताते हैं कि बाहर संसार में मत दौड़ो। तुम अपने अंतर पटों का अंत कर डालो। ख्याल करो, समझ लो कि इस स्थूल शरीर में आप रहते हो। आप शरीर के किसी एक तल पर रहते हो, वह शरीर का एक अंतर पट है। यह तल एक ही है या और भी उसके अंदर तल है? जागने का एक तल, सपनाने का दूसरा तल और सुषुप्ति का तीसरा तल है। ईश्वर की ओर जाने के लिए चौथा तल है। उस तल को भी पार करोगे तब ‘अन्त अन्तर पट’ होगा। लेकिन वह अगम (बुद्धि से परे) है। तीन शून्य है-अंधकार का शून्य, प्रकाश का शून्य और शब्द का शून्य। अंधकार मण्डल, प्रकाश मण्डल और शब्द मण्डल-ये तीन हैं। इन तीनो को छोड़ दे तो संसार-बंधन में जीव रहेगा कि नहीं, विद्वान विचारें- समझें। नीचे से अंधकार, प्रकाश और शब्द, यहीं तक रचना है। ऊपर से शब्द, प्रकाश और अंधकार है। इसी को तीन शून्य कहा है। इन तीनों को पार कर जाओ तो उसको निर्गुण-सगुण कुछ नहीं कह सकोगे। जो व्यक्त माया है, वह सगुण है, जो अव्यक्त है, वह भी सगुण है। एक तो त्रैगुणात्मिका जड़ प्रकृति का मूल रूप है। प्रकृति का मूल रूप अव्यक्त है और उसका कार्य व्यक्त। इन दोनों प्रकृतियों से जो परे चेतनात्मिका परा प्रकृति है, वह भी अव्यक्त है। इन दोनों पकृतियों से जो परे है, वह है पुरुषोत्तम। यह पुरुषोत्तम पद अंधकार, प्रकाश और शब्द से भी परे है। इन तीनों पटों से अपने को ऊपर उठा लो। जहाँ जाकर शरीर इन्द्रियों से छूटता हो, वहाँ तक चलो, वह ‘लम्बा मारग’ है। दृष्टि की सम्हाल ही मार्ग पर चलने में विकट कार्य है, इसलिए ‘विकट पंथ’ है। साधन-काल में विषय रस की स्मृतियाँ बार-बार मानसपट पर उदय होकर साधन में विघ्न डालती रहती हैं, यही ‘बहुमार’ है। जो कोई साधन-मार्ग पर मन लगाकर चलते हैं, तो ईश्वर की कृपा होती है, और मार्ग की विकटता और कथित ‘बहुमार’ धीरे-धीरे दूर होती जाती है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
जो तेहि पंथ चलई मन लाई। तौ हरि काहे न होहिं सहाई।।
 भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि भक्तों का योग-क्षेम मैं करता हूँ। इसकी जाँच हो सकती है, भक्त बनकर करो। हमलोग सोए रहते हैं, सोए में अपना कुछ ख्याल नहीं रहता। ईश्वर पहरा करते हैं। कहानी है-
 एक राजा शिकार खेलने के लिए जंगल गया। वहाँ उसने एक मुनि बालक को देखा। राजा ने उस मुनि बालक को अपने राजभवन में ले चलने की इच्छा से कहा कि ‘तुम मेरे साथ चलो।’ मुनि बालक ने कहा-‘मैं तुम्हारे यहाँ नहीं जा सकता।’ राजा ने कहा-‘मैं तुम्हें अच्छा-अच्छा खाना, पहनना और रहने को आलीशान मकान दूँगा।’ मुनि बालक ने कहा-‘तुम मत खाओ, मुझे खिलाओ, तुम अच्छे-अच्छे कपड़े मत पहनो, मुझे पहनाओ और मैं सोऊँगा, तुम जगकर पहरा करो। यदि तुम ऐसा कर सको तो तुम्हारे यहाँ जा सकता हूँ।’ राजा ने कहा-‘मैं जो खाऊँगा, तुम्हें वही खिलाऊँगा, जो पहनूँगा, तुम्हें भी पहनाऊँगा और मेरे सोने पर जो हमारा पहरा करेंगे, वे ही तुम्हारा भी करेंगे।’ मुनि बालक ने कहा-‘मुझे ऐसा मालिक नहीं चाहिए। मेरा मालिक ऐसा है कि स्वयं नहीं खाता और मुझे खिलाता है, स्वयं कपडे़ नहीं पहनता और मुझे पहनाता है, मैं सोता हूँ और वह जगकर मेरा पहरा करता है।’ तो ईश्वर इसी तरह का है। वह कुछ नहीं खाता, सबको खिलाता है, सब सोते हैं और उनकी वह रक्षा करता है। जो उस ‘विकट पंथ’ में चलता हैं, ईश्वर उसकी रक्षा करता है। जो उस मार्ग पर चलता है, उसका वज्र कपाट खुलता है। कबीर साहब ने कहा है कि अनहद बाजा बजता है, ज्योति की वर्षा होती है और ब्रह्मज्ञान होता है। कबीर साहब पढ़े-लिखे नहीं थे, उनको इसी तरह ब्रह्मज्ञान हुआ था। संतों के पास प्रेम बहुत बड़ा हथियार है। इसी के द्वारा वे सब विकटताओं को वश करते हैं। ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान, उसकी स्थिति का ज्ञान होना चाहिए और उसकी प्राप्ति अपने अंदर में होगी, इसका दृढ़ निश्चय रखना चाहिए।
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यह प्रवचन संथाल परगना जिलान्तर्गत ग्राम ढोढ़री में दिनांक 9.2.1958 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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135. भौतिक चीजों से आत्मा को भिन्न करो
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 मैं यहाँ आपको संतांं का विचार सुनाने के लिए उपस्थित हूँ। मेरे जिम्मे श्रीगुरु महाराजजी ने जनता की यही सेवा सौंपी है। हमलोग बचपन से सुन-सुनकर सीखे हैं। सीखे बिना हम संसार की वस्तुओं के उपयोग को नहीं समझते और न उन्हें व्यवहार में ही ला सकते हैं। इसलिए संतों ने अपना विचार सुना-सुनाकर लोगों का उपकार जहाँ तक हो सकता है, किया है। और यह सिलसिला अबतक जारी है। ईश्वर में मनुष्य मात्र को विश्वास रखना चाहिए। जो ईश्वर में विश्वास नहीं करते, उनका भाग्य तबतक ठीक नहीं, जबतक वे ईश्वर में विश्वास नहीं करते। संतों ने जो ईश्वर का निर्णय बताया है, वह समझिये। साथ ही संतों ने यह उपदेश दिया है कि आपको अपने लिए ऐसा ख्याल नहीं आता है कि मैं नहीं हूँ। अपनी स्थिति में सबको विश्वास है। कुछ तार्किक लोग अपनी स्थिति में विश्वास नहीं करते और न ईश्वर में ही। वे लोग संसार की वस्तुओं को लेकर ही उसमें अपना भला चाहते हैं। लेकिन संसार का इतिहास नहीं बताता कि संसार की वस्तुओं को लेकर किसी का भला हुआ है। संसार की वस्तु मिले, पूर्ण ऐश्वर्य मिले, इसी में भला होगा, ऐसा वे विचारते हैं। लेकिन पूर्ण ऐश्वर्य किनको प्राप्त हुआ? जिनके लिए कहा जाय, उनमें कुछ-न-कुछ कमी अवश्य रह गई। जिनको पूर्ण ऐश्वर्यवाले समझते हैं, उनमें भी कमी दरसती है। श्रीराम भगवान को पूर्ण ऐश्वर्य- वान मानते हैं, लेकिन उनका कहाँ तक भला हुआ, जानिए। श्रद्धा एक दूसरी चीज है। श्रीराम को संसार में आकर रोना पड़ा-संकट सहना पड़ा। अपने देश के लोग जो रामायण नहीं जानते हैं, उनके लिए मैं दुःख मानता हूँ। श्रीराम के जीवन के आरम्भ काल की और संसार के त्यागने के काल की कथा पढ़ने, सुननेवाले रोते हैं। उन्हें महान दुःख का भोग देखना पड़ा। यह दूसरी बात है कि वे महान योगी थे-उनकी लीला थी। लेकिन लीला में ही उन्होंने समझाया कि मेरे समान होने पर भी दुःख भोगना पड़ता है। इसलिए यह मानने योग्य नहीं कि फलाने को ऐश्वर्य मिला और उनके पास दुःख फटका तक नहीं। भौतिक वस्तु को लेकर पूर्ण सुख, पूरा भला किसी को हुआ, ऐसा नहीं देखा गया। कबीर साहब ने कहा है-
 तन धर सुखिया कोइ न देखा, जो देखा सो दुखिया हो ।
 दुःख के साथ-साथ कहाँ भलाई है? ऐसा भला मानना बहुत कम जानता है। संतगण कहते हैं कि तुम्हारी स्थिति है। तुम्हारा शरीर भी है, जिसको भगवान श्रीकृष्ण के वचन में क्षेत्र कहते हैं। तुम शरीर के जाननेवाले क्षेत्रज्ञ वा जीवात्मा हो। तुम्हारी स्थिति है। तुलसी साहब कहते हैं, तुम अपने को पहले जान लो-तुम अपनी असलियत को नहीं जानते हो। शरीर गया, तुम गए, ऐसा ख्याल करो तो तुम्हारे लिए कोई उपदेश नहीं। लेकिन पहले अपने को जानो। उन्होंने कहा-
     सत सुरत समझि सिहार साधौ निरखि नित नैनन रहौ ।
 उन्होंने कहा-तुम्हारे शरीर में दो तरह के पदार्थ हैं-जड़ और चेतन। जड़ अज्ञानमय और चेतन ज्ञानमय। तुम्हारा शरीर अज्ञानमय है, तुम ज्ञानवान हो। तुम इस शरीर में रहते हो तो शरीर ज्ञानमय है। अवस्था विशेष होने पर तुम्हारे इस शरीर में रहने पर भी यह जड़वत् रहता है। जैसे सुषुप्ति अवस्था। जड़-जड़ तत्त्वों के मिलने से चेतन हो गया है, ऐसा यदि कहो तो दोनों भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं-जड़ और चेतन। जड़ ही चेतन का जनक हो, हो नहीं सकता। जिस शर्बत में जो चीज नहीं डालिए, उसका स्वाद नहीं आता और गुण भी नहीं आता। इसी तरह जड़-जड़ के मिलाप से चेतन हो गया, ऐसा नहीं माना जा सकता। जो लोग गीता पढ़ते हैं, वे जानते हैं कि उसमें अष्टधा प्रकृति का भी वर्णन हुआ है। उसको क्षर पुरुष, असत् जड़ प्रकृति कहा गया है। अष्टधा प्रकृति में पंच तत्त्व और मन, बुद्धि, अहंकार है। परा प्रकृति को जीवरूपा चेतनमय कहा है। इन दोनों से भगवान रचना करते हैं। दोनों भिन्न-भिन्न दो तत्त्व हैं। जीवात्मा की स्थिति है। चेतन आत्मा, अक्षर पुरुष, परा प्रकृति भिन्न तत्त्व हैं और क्षर पुरुष, अपरा प्रकृति भिन्न तत्त्व हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
 जड़ चेतनहिं ग्रंथि पड़ि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई।।
 इस भूमण्डल के किसी देश में रहो अथवा सूक्ष्म, कारण, महाकारण आदि मण्डलों में जबतक जहाँ कहीं भी रहो, तबतक वह भला-जिसके साथ बुराई नहीं हो-ऐसा हो नहीं सकता। संतों ने कहा है-तुम चेतन आत्मा हो, इसको जड़ से अलग करो। अपना पुरुषार्थ करो। किंतु याद रखो कि पुरुषार्थ किधर करना है। यह जीव माया के कण्टक से घिरा है, यद्यपि यह माया असत्य है, फिर भी बिना राम की कृपा के छूट नहीं सकती।
 व्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचण्ड ।
 सेनापति कामादि भट, दम्भ कपट पाखण्ड ।।
 सो दासी रघुवीर कै, समुझै मिथ्या सोपि ।
 छूट न राम कृपा बिनु, नाथ कहउँ पद रोपि ।।
            -रामचरितमानस
 अभी यह माया बड़ी बलवती है। इसी को
अष्टधा प्रकृति, क्षर पुरुष, अपरा प्रकृति कहते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है कि श्रीराम ने प्रजा को यही उपदेश दिया कि-
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।
 वे जितने बड़े राजा थे, उतने और कोई नहीं, ऐसा लिखा है। पहले हमारे यहाँ रामराज्य की चर्चा होती थी और अब भी चर्चा होती है। कहते हैं कि रामराज्य हो जाय। इसलिए कि वह प्रजा को अपने से शिक्षा देते थे। जबतक आध्यात्मिकता को नहीं अपनावे, तबतक भौतिक पदार्थ से किसी का कल्याण नहीं होगा। यह जानकर वे स्वयं उपदेश करते थे। उनके गुरु वशिष्ठजी बड़े ज्ञानी-योगी थे। उन लोगों का भी उपदेश होता होगा। और फिर भी श्रीराम ने अपने से उपदेश दिया। इसलिए कि उनके हाथों में शासन-सूत्र था। मुनियों के हाथ में शासन-सूत्र नहीं था। श्रीराम ने समझा होगा कि केवल भौतिक पदार्थ से सुख नहीं हो सकता। स्वयं शासन-सूत्र के धारक होने के कारण मेरी बातों को लोग मानेंगे, ऋषियों की बात मानें या नहीं मानें। लोग डरेंगे भी, शासन-सूत्रधारी की बात नहीं मानूँ तो न जाने कोई हानि हो जाय। इसका फल यह हुआ कि-‘सब उदार सब पर उपकारी’ हो गए। विचारिए जिस देश में सब उदार हैं, संकीर्णता हृदय में नहीं है, दूसरे का उपकार लोग करते हैं, वह देश कैसा होगा? देश में खर्च होना चाहिए-प्रबंध के लिए-उस खर्च को जुटा देने के लिए लोग हिचकते नहीं होंगे। देश में जो एक के पास थोड़ा है और दूसरे के पास अधिक है तो अधिकवाले से माँग करते हैं, एक नेता-हमारे भारत के। लेकिन केवल इससे कहाँ तक शान्ति आ सकती है। यद्यपि लोग जानते हैं कि आज कैसा समय आया है। विशेष जमीन किसी को नहीं रहेगी। लोगों ने जमीन दान दी है ऐसी जमीन, जिस जमीन को पानेवाला न जानें, उसे कब उपजा सकेगा-या तो बालू बुर्ज है या जलमय है या पत्थरमय है। अवश्य ही दान में कुछ अच्छी जमीन भी दी गईं। कहीं-कहीं दान देनेवालों और दान दिलानेवालों के बीच संघर्ष भी हुआ। लेकिन जहाँ पर ‘सब उदार सब पर उपकारी’ हो वहाँ अनउदारता, कृपणता, कलह और संघर्ष कैसा? आज स्वराज्य है, उसमें सुराज लाइए। केवल भौतिकवाद में ‘सब उदार सब पर उपकारी’ वाला हृदय नहीं हो सकेगा। उसमें तो एक दूसरे को अस्त्र दिखाकर, डराकर, धन हरण कर लेगा। आध्यात्मिकता में परहित रत होने का गुण है-आधिभौतिकता में नहीं। अपना भला तभी होगा, जब ईश्वर-भक्ति करो। अध्यात्म-ज्ञान इतना ही नहीं है कि पढ़ लिया, लिख लिया, सुन लिया, अध्यात्म-ज्ञान प्राप्त कर लिया और कहने लगे-अहं ब्रह्मास्मि। यह कहने की बात नहीं है, कर्म में लाने की बात है। दूसरी ओर है ईश्वर की भक्ति करो, इसी में कल्याण है। ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर-स्वरूप जानो-यह ज्ञान है। फिर उसको पाओ कैसे, इसके लिए यत्न करो। यही भक्ति है। रामचरितमानस में लिखा है-
 व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
          अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।
 व्याप्य में व्यापक है। या समझो तो व्याप्य और व्यापक वही है। उसका कहीं अंत नहीं है। वाणी से वर्णन होने योग्य नहीं है। प्रकृति को भरकर और कितना विशेष है, कहा नहीं जा सकता। इसलिए कि वह अनंत है।
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
           -रामचरितमानस
 इस तरह ईश्वर का स्वरूप है। तुलसीदासजी की रामायण लोग बहुत पढ़ते हैं। इसलिए चौपाई का पाठ हुआ। कबीर साहब ने भी कहा है-
 श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
गुरु नानक साहब ने भी कहा है-
     अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
     जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
 इस तरह सभी संतों ने कहा है। अब विचारणीय है कि संतों ने जो कहा है उनकी बात को बिना विचारे मान लें? तो एक विचार कहता है कि हाँ, मान लो। वे महान थे। पाठशाला में पढ़ने गए थे तो पण्डितजी ने जैसा लिखाया-पढ़ाया, वैसा पढ़ा-लिखा। तो पीछे ठीक ही निकला। वहाँ तब तर्क नहीं किया कि पण्डितजी! इसको ‘अ’ उसको ‘क’ क्यों कहें? अध्यात्म-विद्या के लिए बड़ी उम्र के लोग भी बच्चे रहते हैं। हमारे गुरु महाराज ने बहुत भजन किया था। वे बहुत वृद्ध थे। अंत समय में उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा कि ‘मैं अभी सीखता हूँ।’ पूरी विद्या केवल पढ़ने व लिखने में नहीं है, तर्क में नहीं है, भजन-अभ्यास करने से वह पूरी होती है। ईश्वर की स्थिति का ज्ञान-विचार जो संतों ने दिया है, वह विचार में दृढ़ है। उपनिषद् में लिखा है-
 वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
 एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
 अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अंतरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
 सबसे बाहर कहकर ‘प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी। ब्रह्म निरीह विरज अविनाशी।।’ की छाया गोस्वामी तुलसीदासजी की चौपाई में है। अपरम्पार स्वरूपी कोई एक है कि नही? पहले कह दें कि नहीं, अब सभी ससीम सादि हैं तो प्रश्न होगा कि सब ससीमों के पार में क्या है? जहाँ सीमा है, उसके पार कुछ होगा ही। जबतक असीम नहीं कह दें, तबतक प्रश्न रहेगा ही। एक असीम कह देने से फिर प्रश्न नहीं रहता। असीम के परे क्या है, पूछना मूर्खता है। सबकी आदि वह है और वह अनादि भी है। सब उसके अंदर है, बुद्धि में भी यह बात आती है। जो विशेष व्यापक होता है, वह सबसे विशेष सूक्ष्म होगा। जल, बर्फ और वाष्प की उपमा से जानिए। एक सेर बर्फ जितना व्यापक होगा, उतने बर्फ जल बनाने से कहीं अधिक व्यापक होगा और उसी का वाष्प बना लेने से और भी अधिक व्यापक होगा। बर्फ से जल सूक्ष्म है और जल से वाष्प। जो जितना अधिक सूक्ष्म होता है, उसकी व्यापकता उतनी अधिक होती है। जो सबसे विशेष व्यापक है, वह सबसे विशेष सूक्ष्म है। जो परमात्मा सर्वव्यापी है, वह सबसे विशेष सूक्ष्म है। उसको स्थूल इन्द्रियों से ग्रहण नहीं कर सकते। जो वस्तु जैसी होती है, उसको ग्रहण करने के लिए उस तरह का औजार होना चाहिए। हमारी इन्द्रियाँ मोटी-मोटी हैं। बाहरी इन्द्रियों को कौन कहे, अंतर की इन्द्रियाँ भी उसे ग्रहण नहीं कर सकतीं। बुद्धि उसकी स्थिति का निर्णय कर सकती है, लेकिन उसे पहचान नहीं सकती। उसको चेतन आत्मा ही प्राप्त कर सकती है। क्योंकि वह भी उसी तरह सूक्ष्म है। चेतन आत्मा से परमात्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इसको खूब याद रखना चाहिए। जिस विषय के स्वरूप-ज्ञान के लिए कोई पूछे तो कह दीजिए कि अमुक इन्द्री से जिस विषय का ज्ञान होता है, वह सो है। तो प्रश्न खत्म हो जाएगा। जैसे रूप क्या है? तो जो आँख से ग्रहण होता है। इसी तरह जो चेतन आत्मा से ग्रहण हो, वही परमात्मा है। इस ज्ञान के बिना लोग भटकते फिरते हैं। संत सुन्दरदासजी ने थोड़े शब्द में कहा है-
 शब्द ब्रह्म परि ब्रह्म भली विधि जानिये ।
 पाँच तत्त्व गुण तीन मृषा करि मानिये ।।
 बुद्धिवन्त सब संत कहै गुरु सोई रे ।
 और ठौर शिष जाइ भ्रमे जिनि कोइ रे ।।
 शब्द ब्रह्म को प्राप्त करके पर ब्रह्म को प्राप्त करते हैं। शब्द ब्रह्म क्या है, इसके लिए उपनिषद् में लिखा है-‘अक्षरं परमोनादः शब्द ब्रह्मेति कथ्यते।’ -योगशिखोपनिषद्। लोग वेद को भी शब्दब्रह्म कहते हैं, लेकिन उपनिषद् में जो शब्द ब्रह्म की परिभाषा लिखी है, उसी शब्दब्रह्म के द्वारा चेतन आत्मा को जो ग्रहण होता है, वही परब्रह्म परमात्मा ईश्वर है। उसका दर्शन अपने अंदर में होगा, बाहर में नहीं। लोग पूछते हैं कि ध्रुव को, प्रùाद को बाहर में ईश्वर-दर्शन हुआ। यह क्या ईश्वर-दर्शन नहीं है? मैं कहता हूँ कि राम, शिव, कृष्ण, दुर्गा और काली माता आदि सभी ईश्वर-ईश्वरियाँ हैं। लेकिन कहने से लोग हँसेंगे। ईश्वर एक है। एक आकर कहते हैं-ईश्वर एक ही है-वह शिव है। दूसरे कहते हैं श्रीराम ईश्वर हैं। तीसरे श्रीकृष्ण को ईश्वर कहते हैं, चौथे देवीजी को कहते हैं। इस तरह एक दूसरे से द्वेष और कटुता उत्पन्न करते हैं। लेकिन मुझसे पूछो तो मैं कहूँगा-ये सब ईश्वर के रूप हैं। जैसे अपना फोटो खिंचवाते हैं तो दूसरे कहते हैं कि फलाने बाबू का फोटो है। उसी तरह सब उनके रूप हैं, लेकिन उन रूपों में जैसा कि अभी सुना-
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
 किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
 जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
 सोइ सोइ भाव देखावइ,आपु न होइ न सोइ ।।
                                            -गोस्वामी तुलसीदासजी
         उस ‘भूप रूप’ में जो था, वह क्या? इसको जानिए। इन सब रूपों में वह एक-ही-एक है। जो अनेकों में प्रविष्ट होकर, फिर बाहर भी है, वही आत्मा है। वह आत्मगम्य है, इन्द्रियगम्य नहीं। इसका बोध कर लेना चाहिए। इसका बोध किए बिना जो भक्ति आरम्भ करते हैं, वे उसी तरह चलते हैं, जैसे कोई मुसाफिर हो और उसको निर्दिष्ट स्थान का ज्ञान नहीं हो, तो वह भटकता फिरेगा। इसीलिए सुन्दरदासजी ने कहा है-‘और ठौर शिष जाय, भ्रमे जिनि कोइ रे।’ उस स्वरूप को प्राप्त करने के लिए यत्न चाहिए। शरीर, इन्द्रिय आदि भौतिक चीजों से आत्मा को भिन्न करो और भिन्न करके उसे प्राप्त भी करो। केवल विचार में ही रखना कि मैं यह नहीं हूँ, वह नहीं हूँ, पूर्ण नहीं है। विचार में भी भिन्न करो और उसको भिन्न करने के लिए काम भी करो। काम गम्भीर है, लेकिन इसको किए बिना कल्याण भी नहीं होगा। संतों ने जो साधन बताया है, वह विशेष कठिन नहीं है। भक्ति हठयोग से सरल है। राजयोग से भक्ति को अलग नहीं कर सकते। राजयोग कहिए चाहे भक्तियोग एक ही बात है। राजयोग में और भक्ति योग में-दोनां में मन लगाना होता है। हठयोग में नेती, धौती और प्राणायाम करने में जो कठिनाई है, वह राजयोग में नहीं है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने कहा है-खान-पान में, आहार-विहार में परिमित रहो-संयमित रहो। रामायण में भी है-‘संयम यह न विषय कै आसा।’ इसको कठिन जानकर छोड़ना नहीं होगा। अभ्यास करने से सभी कठिन काम सरल होते हैं-
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।।
 साधन में उकताहट नहीं लानी चाहिए, साहस रखना चाहिए। ैसवू ंदक ेजमंकल ूपदे जीम तंबमए (स्लो एण्ड स्टीडी विन्स दि रेस) बचपन में मैंने पढ़ा था। जिस चाल से जल्दी थक न जाओ, उस चाल से चलो। भगवान श्रीकृष्ण ने तो बहुत ढाढ़स दिया है। अर्जुन ने कहा है कि मनोनिग्रह करना बहुत कठिन है, जैसे हवा की गठरी बाँधनी। श्रीकृष्ण ने कहा-अभ्यास और वैराग्य से होगा। वैराग्य कहते हैं विषयों में अनासक्त होने को। फिर अर्जुन ने पूछा-‘श्रद्धा तो हो, परंतु पूरा प्रयत्न अथवा संयम न होने के कारण जिसका मन योग से विचल जावे, वह योग सिद्धि न पाकर किस गति को जा पहुँचता है? हे महाबाहु श्रीकृष्ण! यह पुरुष मोहग्रस्त होकर ब्रह्म-प्राप्ति के मार्ग में स्थिर न होने के कारण दोनों ओर से भ्रष्ट हो जाने पर छिन्न-भिन्न बादल के समान बीच में ही नष्ट तो नहीं हो जाता?’ भगवान ने कहा-‘क्या इस लोक में और क्या परलोक में ऐसे पुरुष का कभी विनाश नहीं होता। क्योंकि हे तात! कल्याणकारक कर्म करनेवाले किसी भी पुरुष की दुर्गति नहीं होती। पुण्यकर्ता पुरुषों को मिलनेवाले स्वर्गादि लोकों को पाकर और बहुत वर्षों तक वहाँ निवास करके फिर यह योगभ्रष्ट पुरुष पवित्र श्रीमान् लोगों के घर में जन्म लेता है अथवा योगियों के ही कुल में जन्म पाता है। इस प्रकार प्राप्त हुए जन्म में वह पूर्व के बुद्धि-संस्कार को प्राप्त करता है और प्रयत्न- पूर्वक उद्योग करते-करते अनेक जन्मों के अनन्तर सिद्धि पाकर अन्त में उत्तम गति पा लेता है। कबीर साहब ने कहा है-
 भक्ति बीज बिनसे नहीं, जो युग जाय अनंत ।
 ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को संत ।।
 भक्ति बीज पलटे नहीं, आय पड़ै जो चोल ।
 कंचन जौ ं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।
 भक्ति नहीं मर सकती है। इसका अंकुर भीतर में होना चाहिए, प्रेम होना चाहिए।
 अनहद बाजै नीझर झरै, उपजे ब्रह्म गियान।
 आवगति अन्तरि प्रगटै, लागै प्रेम धियान।।
 ‘प्रेम’ शब्द को देकर कबीर साहब ने बहुत मीठा बना दिया है। धन के लिए लोगों को लोभ होता है, उसी तरह ईश्वर प्राप्ति के लिए लोभ होना चाहिए। उसका यत्न जानना चाहिए। ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए।
 आपके देश में कल्याण के लिए मोक्ष की प्राप्ति के लिए सत्संग का प्रचार है। कांग्रेस के प्रचार से सैकड़ों साल पहले से सत्संग का प्रचार इस देश में रहा है। यह ज्ञान कि ‘एहि तन कर फल विषय न भाई’ सबकी समझ में आ जाये तो कितना अच्छा होगा? सभी उपकारी बन जाएँगे, सभी उदार बन जाएँगे, तब माँगने की आवश्यकता नहीं रहेगी। अमीर आदमी स्वयं गरीब को देंगे। देने-लेनेवाले इतने सन्तुष्ट हो जाएँगे, जितने अजाँबी मिश्र। यह भाव लाना होगा, तब आप कुछ बँटवारा करवाइए या नहीं, आप ही सुव्यवस्था हो जाएगी। एक की सम्पत्ति दूसरे की सम्पत्ति हो जाएगी। एक दूसरे से कोई द्वेष नहीं रहेगा। श्रीराम ने कहा था-
जौं परलोक इहाँ सुख चहहू । सुनि मम वचन हृदय दृढ़ गहहू ।।
सुलभ सुखद मारग यह भाई । भगति मोरि पुरान श्रुति गाई ।।
एहि तन कर फल विषय न भाई । स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई ।।
 विषय नहीं तो निर्विषय की ओर श्रीराम चलने के लिए कहते हैं। श्रीगुरु महाराजजी की आज्ञा के अनुसार मैं भी कहता हूँ कि ईश्वर का भजन करो। ईश्वर-उपासना छोड़कर जो केवल भौतिकवाद की उपासना करेंगे, तो वे झंझट से नहीं छूटेंगे। इसलिए ईश्वर का भजन कीजिये- कल्याण से रहिये।
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यह प्रवचन संथाल परगना जिलान्तर्गत अखिल भारतीय संतमत सत्सग के 50वाँ वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर ग्राम-ढोढरी में दिनांक 9.2.1958 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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136. सबको ‘ॐ’ कहने का अधिकार

प्यारे लोगो! 
 संतों के विचार थोड़े से शब्दों में भी आ सकते हैं; किन्तु अच्छी तरह से विस्तार रूप से समझने के लिए उनके साहित्य को-उनके ग्रंथों को अवश्य पढ़िए। संतों के ग्रंथ को पढ़ने के पहले उनके पारिभाषिक शब्दों को और उनके अर्थों को अवश्य जानिए। संतों का भेद और पंडितों का वेद प्रसिद्ध है। इसलिए संतों की युक्ति जानिए और अभ्यास कीजिए, तब पूरा-पूरा समझ सकते हैं। हमलोगों के तीन दिनों के सत्संग में संतों के सभी विचारों का पूर्ण रूप से वर्णन हो, असम्भव है। लेकिन अल्प मात्रा में थोड़े विचारों का समास-रूप में वर्णन होता है। कई सन्तों के थोड़े-थोड़े वचन इसलिए आपको सुनाए जाते हैं कि किसी एक ही संत की वाणी से कैसे जान सकते हैं कि सब संतों का एक ही मत है। इसलिए सब संतों की वाणी को पढ़ना चाहिए। अनेक संतों की वाणी को नहीं पढ़कर एक ही संत की वाणी पढ़ने से आप साम्प्रदायिक झंझट में फँसे रहेंगे और लड़ाई-झगड़ा करते रहेंगे। लोक समाज में अशान्ति से छूटना नहीं हो सकता और संतमत में जाकर भी साम्प्रदायिक झगड़े में जो पड़े, तो कहाँ शान्ति पाने की आशा की जाय? समाज में भी शान्ति नहीं और साधु- सम्प्रदाय में शान्ति नहीं हो, तो शान्ति कहाँ हो?
 सन 1909 ईस्वी में मैं इस सत्संग में शामिल हुआ। तब मालूम हुआ कि सब संतों का एक ही ज्ञान है। पहले मैं दरियापंथ में था। मेरे गुरु बाबा देवी साहब ने कहा-‘पहले तुम दरियापंथी थे, अब समुद्रपंथी हो गए।’ हमलोग किसी एक संत के पक्ष के नहीं हैं, सभी संतों के पक्ष के हैं। 1904 ई0 में मैंने स्कूल छोड़ दिया। बचपन से ही मेरी रुचि इस ओर हो गई थी। कतिपय साधुओं का संग करने से मालूम हुआ कि ‘संतों का ज्ञान इतना ऊँचा है कि वह वेद ज्ञान से भी ऊँचा है।’ और जो वेदपक्षीय थे, चाहे वे वेद थोड़े ही पढ़े थे अथवा वेद से भेंट भी नहीं थी, केवल उसमें श्रद्धा रखनेवाले थे, वे कहते थे कि-‘संतों का ज्ञान वेद-बाह्य है और श्रद्धा करने योग्य नहीं है।’ मैं संतों के ज्ञान को अपना चुका था, उससे हटनेवाला नहीं था। लेकिन विचार हुआ कि दोनों पक्षों में यथार्थ कहना किस पक्ष का है, इसकी खोज करनी चाहिए। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलकजी के गीता-रहस्य में पढ़ा कि सारे मोक्षधर्म के मूलभूत अध्यात्म-ज्ञान की परम्परा हमारे यहाँ उपनिषदों से लगाकर ज्ञानेश्वर, तुकाराम, रामदास, कबीरदास, सूरदास, तुलसीदास इत्यादि आधुनिक साधु-पुरुषों तक अव्याहत चली आ रही है।
 स्वामी आत्मारामजी एक संन्यासी हैं, पहले उनका नाम पण्डित वैदेहीशरण दूबे था। उन्होंने वैदिक विहंगमयोग लिखा, उसको मैंने पढ़ा। फिर पण्डित जयदेव शर्मा विद्यालंकार महोदय द्वारा चारो वेद-संहिताओं का भारती अनुवाद पढ़ा। संतों का ज्ञान वेदबाह्य या वेद से ऊँचा, ये दोनों बातें झूठी हैं। बिना खोजू-ढूँढ़ के लोग इस तरह की बातें कहते हैं। बिना तलाश के ही किसी निश्चय पर आना गलत है। जिसको विश्वास नहीं हो, वह अपने से वेद और संतवाणी पढ़े और मेरे ‘वेद-दर्शन-येग’ को भी पढ़े। उसमें संतों की वाणी से वेदार्थ का मेल मिलाकर दिखलाया गया है। वेद के अध्यात्म -ज्ञान को संतों ने अपनाया, उसी का वर्णन किया तथा परमात्म-पद तक आरोहण करने का ज्ञान दिया। संतों का अध्यात्म-ज्ञान तर्क की कसौटी पर कसने से भी टलनेवाला नहीं है। मैं कहता हूँ कि साधना करने पर संतों को जो प्रत्यक्ष अनुभव-ज्ञान हुआ, वही बात उन्होंने कही, इसका मुझे विश्वास है। मैं विचार देता हूँ कि सभी अध्यात्म-ग्रंथों को पढ़ो। लेकिन पढ़ते-पढ़ते ही जीवन खत्म मत करो। बचपन में हजार, लाख, करोड़, अरब, नील, की गणना करते थे; लेकिन उक्त गणनानुकूल एकत्रित धन प्राप्त किया नहीं। नमक, रोटी, दाल, भात बोलो तो पेट क्या भरेगा? कबीर साहब ने कहा कि-बाँझ झुलाबे पालना तामें कौन सबाद।’ करो कुछ नहीं और बक-बक करके बोलो बहुत, तो इससे क्या लाभ? संतां ने कहा इस सृष्टि का नियन्ता परमात्मा है। उनकी मौज से यह सृष्टि हुई। गुरु नानक ने कहा है-
 तदि अपना आपु आपही उपाया ।
      नाँ किछुते किछु करि दिखलाया ।।
 जैसे मिट्टी से हँड़िया गढ़ दो, इस तरह कुछ नहीं था तब सृष्टि बना दी। कबीर साहब कहते हैं-‘प्रथम एक सो आपे आप।’ इस तरह सभी संतों ने एक ही से सब कुछ का होना कहा है। आगे और भी सिद्धान्त हैं-द्वैत, त्रैत आदि जिनके प्रश्न का उत्तर एक दूसरे से ठीक-ठीक नहीं बन पड़ता। कितने कहते हैं कि ईश्वर ने इस प्रकार की दुःखमय सृष्टि क्यों की? मैं उनसे कहता हूँ कि एक अनादि-अनंत सबका मूल है, ऐसा वह मानते हैं कि सादि, सांत, ससीम मानते हैं? यदि वे सादि-सान्त ससीम मानते हैं, तो उसके परे क्या है? इस प्रश्न का उत्तर अनादि, अनंत, असीम नहीं कहने से प्रश्न हल नहीं होता। अनादि-अनंत को अपनी ससीम बुद्धि में अँटा लेना नहीं हो सकता। परमात्मा ने सृष्टि की, चाहे द्वैत मानो वा अद्वैत। जब उन्होंने सृष्टि की, तो पहले कम्प हुआ, बिना कम्प के कुछ नहीं बन सकता। आदि सृष्टि के लिए आदि कम्प अवश्य हुआ। चाहे उन्होंने कम्प बनाया या सृंष्ट की, कुछ कहना होगा। कोई भी कम्प बिना शब्द के नहीं है। शब्द कम्पमय और कम्प शब्दमय होता है। इस बात को मानने के लिए आज के वैज्ञानिक भी बाध्य है। जो आदि कम्प वा आदि शब्द हुआ वह आदि शब्द बहुत अद्भुत है, ऐसा संतों ने देखा। इसका प्रतीक वा वाचक जो मनुष्य भाषा में कहा जा सके, उसे उन्होंने ओ3म् कहा। यह एक ऐसा शब्द है जो उच्चारण के सब स्थानों को भरकर होता है। ऐसा और कोई शब्द नहीं है। भिन्न-भिन्न शब्दों के उच्चारण भिन्न-भिन्न स्थानों से होते हैं, किंतु यह एक ओ3म् शब्द ही उच्चारण के सभी स्थानों को भरकर होता है। ऋषियों ने बहुत सोचा होगा। यह शब्द सब शब्दों का प्रतिनिधि है। पहले जमाने में ऐसा प्रतिबंध था कि सब कोई ओ3म् नहीं बोले। संतलोग लड़ाई- झगड़ा करने नहीं जाते। हार-जीत में वे नहीं जाते हैं। हारकर ही रहते हैं। कबीर साहब ने कहा-
 हरिजन तो हारा भला, जीतन दे संसार ।
 हारा सतगुरु से मिले, जीता जम की लार ।।
 जबकि ओ3म् कहना मना था तो संतों ने कहा हम ओ3म् नहीं कहेंगे, राम कहेंगे। राम शब्द का अर्थ सर्वव्यापक है, इसलिए राम कहा। हमको अपना काम करना है, आपस में लड़ाई-झगड़ा करना नहीं है। गुरु नानक साहब खत्री कुल के थे। उनको ओ3म् बोलना मना नहीं था। इसलिए उन्होंने अपने मंत्र में कहा-‘एक ओ3म् सतनाम’ और वे इतने जबर्दस्त थे कि कहा-‘चहु बरना को दे उपदेश।’ और कबीर साहब ने कहा-‘पढ़ो मन ओ ना मा सी धं।’ दयानंद स्वामी आए, उन्होंने कहा-‘सबको ओ3म् कहने का अधिकार है; कहो।’ उनके प्रचार से जो नीच दृष्टि से देखे जाते थे, वे उच्च दृष्टि से देखे जाते हैं।
 जो कम्प होता है, उससे जो बनता है, वह कम्प उसके कण-कण में व्यापक होता है। इस सृष्टि के बनने में जो कम्प हुआ वह सृष्टि के कण-कण में है। ऐसी कौन धारा है, जिसको पकड़कर परमात्मा तक जाया जाय? वह धारा उसी आदिशब्द की है। इन्द्रियों के संग में चेतन, आत्मा (जीव- सुरत) के रहते हुए वह शब्द उसे अवगत नहीं होता है। संतों ने साधन किया और प्रत्यक्ष देखा कि अपने अंदर ज्योति और शब्द है।
नाम रूप दुई ईश उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी।।
     -गोस्वामी तुलसीदास
 संतों ने कहा-तुम्हारे अन्दर ज्योति का खजाना है। बहिर्मुख से अंतर्मुख होकर देखो, वहाँ तुमको ज्योति और शब्द दोनों मिलेंगे। इसलिए उन्होंने दोनों का बड़ा आदर किया। अंतर्मुख होने की विधि तुलसी साहब की वाणी में सुनो-
सतगुरु संत कंज में वासा। सुरत लाइ जा चढ़ै अकासा।।
श्याम कंज लीला गिरि सोई। तिल परिमान जान जन कोई।।
छिन छिन मनको तहाँ लगावै। एक पलक छूटन नहिं पावै।।
स्रुति ठहरानी रहे अकासा। तिल खिरकी में निसदिन बासा।।
गगन द्वार दीसै एक तारा। अनहद नाद सुनै झनकारा।।
ध्यानविन्दूपनिषद् में है-
 बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
 अर्थात् परम विन्दु ही बीजाक्षर है, उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अनाशब्रह्म) में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है।
 यही परमविन्दु तुलसी साहब का तिल है। यह मानसिक विन्दु नहीं है, यह गुरु से जानी हुई युक्ति के अभ्यास से आप-ही-आप प्रत्यक्ष होता है। कबीर साहब के वचन में है-
 कबीर कमल प्रकासिया, ऊगा निर्मल सूर ।
 रैन अंधेरी मिटि गई, बाजे अनहद तूर ।।
संत दादू दयालजी के वचन में है-
 मन ही सन्मुख नूर है, मनही सन्मुख तेज ।
 मन ही सन्मुख जोति है, मन ही सन्मुख सेज ।।
 मन ही सौं मन थिर भया, मन ही सौं मन लाइ ।
 मन ही सौं मन मिलि रह्या, दादू अनत न जाइ ।।
 जो भजन-भेद जाने, उसके लिए साफ है और जो भजन भेद नहीं जाने, उसके लिए अंधकार है। शब्द के लिए कहते हैं-
 साध शबद सों मिलि रहे, मन राखे बिलमाइ ।
 साध सबद बिन क्यों रहे, तबहीं बीखरि जाइ ।।
            -संत दादू दयालजी
 सद्गुरु बाबा देवी साहब के वचन में है कि जहाँ तक दर्शनीय पदार्थ है, जहाँ से आवागमन होता है, वहाँ तक दृष्टि ले जाती है। इससे आगे जहाँ से आवागमन नहीं होता, इसका साधन शब्दयेग है। चौथा पद, सतलोक को कहा है। और उसको मोक्षधाम कहा है। कोई कहे कि दृष्टिसाधन करते- करते सतलोक तक जाता हूँ तो यह बाबा देवी साहब के कहने के अनुकूल नहीं है और न उपर्युक्त वचन का कहनेवाला अपने विचार को समझाकर बोध दिला सकता है। ऐसे फजूल ही बक-बक करनेवाले क्षमा के पात्र हैं।
 दृष्टिसाधन को ही शाम्भवी मुद्रा, वैष्णवी मुद्रा कहते हैं। इसका अभ्यास तीन तरह से करते हैं-अमा, प्रतिपदा और पूर्णिमा। आँख बंद करके देखना अमादृष्टि है, आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा है और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा दृष्टि है। पूरी आँख खोलकर और आधी आँख खोलकर साधन करने से कष्ट होता है। और आँख बंदकर अभ्यास करने से कोई तकलीफ नहीं होती। सब दिन आँख बन्दकर सोते हो, कोई तकलीफ नहीं होती। हमको गुरु महाराज ने जो बताया है उससे आँख में तकलीफ नहीं होगी। सद्गुरु महाराजजी ने ध्यान करने को कहा है। केवल ध्यान किया जाय और प्राणायाम नहीं तो कोई हानि नहीं। ऐसा केवल गुरु महाराजजी ने नहीं कहा है, बल्कि श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में प्राणायाम का कोई जिक्र नहीं है। ऐसी जगह में बैठो, ऐसी आसनी बिछाकर भजन करो, शरीर को इस तरह करके बैठो और अंत में परम शान्तिरूप फल पाओगे, ये सारी बातें उस ध्यानयोग के अध्याय में लिखी हुई हैं। परंतु प्राणायाम भी करो, यह बात कहीं नहीं लिखी है। हल जोतनेवाला हलवाहा ध्यान कर सकता है। आप विद्वान हैं, कुर्सी पर बैठते हैं, तो आप भी आराम से बैठकर ध्यान कर सकते हैं। लेकिन उकताना नहीं होगा कि आज ही हो जाएगा। आज आप विद्वान हैं, लेकिन एक ही दिन में विद्वान नही हुए। पढ़ते-पढ़ते बहुत दिनों में विद्वान हुए। उसी तरह अभ्यास करते-करते ध्यान दृढ़ और पूर्ण होगा। भगवान बुद्ध ने कहा है कि मुझे साधन करके बुद्धत्व लाभ करने में 550 जन्म लेने पड़े हैं। भगवान बुद्ध ने भी प्रकाश की बातें कही हैं, धम्मपद पढ़कर देखिए। गुरु नानक ने भी कहा है-‘भरि सागर भगति करीजै।’ कुएँ भर भक्ति से नहीं होगा।
 अपना लक्ष्य, अपनी दृष्टि, अपने अन्दर में समेटकर रखने का अभ्यास आत्मरत होने का अभ्यास है। दृष्टि जमी, सिमटाव हुआ तो ऊर्ध्वगति होने पर श्रीमद्भगवद्गीता में जो लिखित है, उसका प्रत्यक्षावगत होगा। सिमटी निगाह से अन्तर्मुख देखना, उलटकर देखना है। गुलाल साहब के वचन में है-
 उलटि देखो घट में जोति पसार ।
 बिनु बाजे तहँ धुनि सब होवै, विगसि कमल कचनार ।।
 पैठि पताल सूर शशि बाँधौ, साधौ त्रिकुटी द्वार ।
 गंग जमुन के वार पार बिच, भरतु है अमिय करार ।।
 इंगला पिंगला सुखमन सोधो, बहत सिखर मुख धार ।
 सुरति निरति ले बैठ गगन परन, सहज उठै झनकार ।।
 सोहं डोरि मूल गहि बाँधो, मानिक बरत लिलार ।
 कह गुलाल सतगुरु वर पायो, भरो है मुक्ति भंडार ।।
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यह प्रवचन संथाल परगना जिलान्तर्गत अखिल भारतीय संतमत सत्सग के 50वाँ वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर ग्राम-ढोढरी में दिनांक 10.2.1958 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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137. शून्य में क्या मिलेगा?
प्यारे लोगो!
 संतमत मोक्ष प्राप्त करने के लिए और संसार में सुख से रहने के लिए शिक्षा देता है। ईश्वर की भक्ति से मोक्ष या मुक्ति होती है। भक्ति में अपरा और परा दोनों प्रकार की भक्ति होनी चाहिए। अपरा भक्ति में स्थूल जप और स्थूल ध्यान है। परा भक्ति में विन्दुध्यान या ज्योतिर्ध्यान और नाद ध्यान है। विन्दु ध्यान में मन से कछ बनाना नहीं पड़ता है, केवल देखने के ढंग से देखा जाता है। देखने का ढंग गुरु बताते हैं। इड़ा और पिंगला के मध्य में अर्थात् सुषुम्ना में देखो। देखने का तात्पर्य है-वहाँ दृष्टि ठहरा दो। वहाँ ज्योतिर्विन्दु का उदय होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-
     कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
     सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।। -गीता, अध्याय 8/9
और तेजोविन्दूपनिषद् में है-
     तजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्म हृदि संस्थितम् ।
 अर्थात् हृदय स्थित विश्वात्म-तेजस्स्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है। ज्योति-ध्यान में ज्योतिर्विन्दु से और भी विशेष-विशेष ज्योति होती जाती है, जिसका पूरा वर्णन कोई नहीं कर सकता। ज्योति के साथ नाद भी प्रकट होता है। ज्योति के साथ जो नाद होता है, वह सूक्ष्म नाद है और अंधकार में जो नाद होता है, वह स्थूल है। संतों ने स्थूल नाद-ध्यान करने को नहीं कहा यदि कोई स्थूल नाद को यानी अंधकार के नाद को सुनता है तो बहुत दिनों तक अभ्यास करते-करते संभव है कि कभी उस केन्द्रीय सूक्ष्म नाद को पकड़ सके। इस विषय को मैंने सत्संग-योग भाग 4 पारा 60 में लिख भी दिया है। लेकिन उपनिषद् के अनुकूल शाम्भवी अथवा वैष्णवी मुद्रा का अभ्यास कर शब्दसाधन करना चाहिए। वैष्णवी मुद्रा कड़ा ध्यान है।
 दृष्टिसाधन तीन तरह से किया जाता है। अमादृष्टि से, प्रतिपदा दृष्टि से और पूर्णिमा दृष्टि से। आँख बन्दकर देखना अमादृष्टि है, आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा है और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा है। अमादृष्टि में कोई तकलीफ नहीं होती। संतों ने अमादृष्टि से ही अभ्यास करने को कहा है। कोई-कोई कहते हैं कि अमादृष्टि से अभ्यास करने से औंघी आती है। मैंने पूर्णिमा दृष्टि का तो अभ्यास नहीं किया है, लेकिन प्रतिपदा दृष्टि का अभ्यास किया है। इसमें भी औंघी आती है। हमलोग आँख खोले रहते हैं, लेकिन औंघी आती है और आँखें बंद हो जाती हैं। चाहिए कि होशियारी से रहें और औंघी से बच बचकर ध्यान करें। बिना ज्योति-ध्यान के नाद-ध्यान करने की गुरु आज्ञा गुरु महाराज ने नहीं दी। गुरु नानकदेवजी भी यही कहते हैं-‘सुखमन के घर राग सुनि सुन मण्डल लिवलाइ।’ लोग कहेंगे कि शून्य में क्या मिलेगा? शून्य ही मिलेगा- बिल्कुल खाली ही रह जाओगे-एक पण्डित ने कहा था। लेकिन थोड़ा विचारो। खाली जगह में वह रह जाता है जो कभी नहीं टलता। जो जगह भरी रहती है, वह आवरणित है। जैसे इस घर में माल भर दीजिए तो खाली-शून्य नहीं देखा जाएगा। लेकिन शून्य कहीं जाता नहीं। घर से सब चीजों को हटा दो तो शून्य बचेगा। उसी तरह यह विश्व है और इसमें विश्व के तत्त्व भरे हैं। इन तत्त्वों को निकाल दो तो वह बचेगा जो कभी नहीं टलेगा। मनोभाव छोड़कर दृष्टि रखने की कोशिश करो तब सूझेगा, जो कभी तुम्हारे दिमाग में नहीं आया और सदा वहीं रहता ही है। वह है ज्योतिर्मयविन्दु। इसके बाद है सहस्त्रदल कमल-रूप जगत। लेकिन यहाँ भी ऐसा खाली नहीं हुआ, जहाँ केवल ईश्वर ही रहे। इसलिए इससे आगे बढ़ो- नाद-ध्यान करो। नाद से खींचकर वहाँ पहुँचो, जहाँ इसका केन्द्र है। अशब्द से शब्द होता है। सब चुप रहते हैं और फिर बोलते हैं तो शब्द होता है। इसी तरह निःशब्द से शब्द होता है। परमात्मा ध्रुव और अकम्प है। अकम्पता और ध्रुवता के कारण वह निःशब्द है। कम्प और शब्द के बिना संसार नहीं होता। इसलिए आदि में कम्प होता है। नादानुसंधान करते-करते उस नाद का पता लगता है, जो सबसे प्रथम हुआ। वह शब्द भी परमात्मा में जाकर लय हो जाता है। उस शब्द की धारा विन्दु तक लगी है। वही है-मकर-तार। मकरा अपने तार पर ऊपर से नीचे आता है और उसी को पकड़कर ऊपर जाता है। संतों ने अनहद ध्वनि को ‘मकर तार’ कहा है-
 तिल परमाने लगे कपाटा,
      मकर तार जहँ जीव के बाटा ।
 संतों ने कहा है, हमलोगों को उसका बहुत विश्वास है। ईश्वर के मायिक रूप को देखते हुए उनके निर्मायिक रूप को देखेंगे। यही ध्यान विधि है।
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यह प्रवचन श्रीसंतमत सत्संग मंदिर आशानन्दपुर परबत्ती, भागलपुर में दिनांक 25.10.1958 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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138. सन्त लोग पश्चिम तरफ रहते हैं
प्यारे लोगो!
 संसार और शरीर के घेरे में पड़े हुए अपने कर्मों के जाल में फँसे हैं। हमलोग इन घेरों में पड़कर कैसे हैं-सबको मालूम है। किसी भोग में सुख और किसी भोग में दुःख मानते हैं। यह दुःख-सुख का भोग बहुत जबर्दस्त तरह से होता है। हम इसमें बझे रहते हैं। सुख भी सुखदायक नहीं होता है और दुःख तो दुःख ही है। विषय-सुख सुखदायक इसलिए नहीं होता कि वह तृप्तिदायक नहीं है और न सदा रहनेवाला है। हमलोग कर्म के जाल में फँसे हैं। इसी जाल के अन्दर रहने के कारण क्षणिक सुख-दुःख में फँसे रहते हैं। इससे छूटने के लिए कोई यत्न है-तो संतलोग कहते हैं, हाँ है। वह है कर्म के जाल से छूटना। कर्म के जाल से छूटने को ही पाप-पुण्य से छूटना कहते हैं। पाप-पुण्य के भोग प्रत्येक क्षण होते रहते हैं। उपनिषत्कार कहते हैं कि इनसे छूट सकते हो। पाप से छूटना सभी चाहते हैं; क्योंकि इसको दुःखदायी समझते हैं और पुण्य से छूटना नहीं चाहते, क्योंकि यह सुखदायक है। लेकिन इसमें तृप्ति नहीं है, इसलिए इससे भी छूटना अच्छा है। जिस ‘कर्म’ से हम पाप से छूट सकते हैं, उसी कर्म से, पुण्य से भी छूट सकते हैं-वह है ध्यान। ध्यान से पाप पुण्य दोंनो छूट सकते हैं। ध्यान कहते हैं एकओरता को। जिस अवयवयुक्त एक रूप को हम देखते हैं, वह अणु-परमाणु से युक्त है। उसमें अनेक अवयव हैं, उसमें एक नहीं अनेक हैं। अनेक के समूह के गठन को यदि हम एक कहते हैं तो अमल में एक नहीं है। लेकिन जो एक-ही-एक है, उस पर मन को लगाओ। वह क्या है? विन्दु-ध्यान। पढ़े-लिखे लोग जानते हैं कि जिसका स्थान है और परिमाण नहीं, जिसका खण्ड नहीं हो सकता-विन्दु है। विन्दु को पकडे़ बिना कोई ध्यान में मजबूत नहीं हो सकता। ध्यानविन्दूपनिषद् में केवल ‘विन्दु’ ही नहीं परमविन्दु कहा है और इसको बीजाक्षर भी कहा गया है। हमलोग कलम या पेन्सिल की नोंक जहाँ रखते हैं, वहाँ एक छोटा-सा र्चिं हो जाता है। उसको विस्तृत करने पर अक्षर बनता है। इसलिए वह छोटा र्चिं अक्षर का बीज है। जितने मुख्य दृश्य हैं सबका बीज विन्दु है। कोई भी आकार बनाते समय प्रथम विन्दु ही बीज रूप से बनता है। विन्दु के बिना रेखा नहीं और रेखा के बिना कोई आकारमय रूप नहीं बन सकता। जिस विन्दु का रूप मन में ख्याल किया जाता है, वह परम विन्दु नहीं है। परिभाषा के अनुकूल विन्दु को कोई मन में गढ़ (बना) नहीं सकता और न हाथ से र्चिैंत कर सकता है। जिसका स्थान हो और परिमाण नहीं, उसको कागज पर र्चिैंत नहीं कर सकते और न मन से गढ़ सकते हैं। इसको स्थूल दृष्टि से कोई देख नहीं सकता। किसी तरह इसको कोई देख नहीं सकता-ऐसी बात नहीं है। गुरु की युक्ति के अनुकूल देखने के अभ्यास द्वारा देख सकता है। ऐसा देखना ठीक-ठीक ध्यान में होगा। वह ध्यान कैसा होगा, जिसमें मन स्थूल-विषय से रहित होगा। विषयों से पूर्ण रूपेण छूट जाने के लिए उपरोक्त विन्दुध्यान के पीछे नादध्यान है। इसमें पहले का दृश्य विषय छूटकर नाद-विषय रहता है। जब नाद भी अनाद ब्रह्म में लीन हो जाता है, तब ‘निःशब्दं परमं पदम्’ की प्राप्ति हो जाती है।
 बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
             -ध्यानविन्दूपनिषद्
 तब कर्म-जाल में फँसकर रहना नहीं पड़ता, उससे पूर्णरूपेण छुटकारा मिल जाता है। इसी में मोक्ष और ईश्वर की प्राप्ति है। जब लोग इस ध्यान-अभ्यास में पड़ते हैं, तो संकल्प-विकल्प को छोड़ना होता है। जैसे पानी के बहाव में मैली- कुचैली गड़बड़ चीजें आती हैं, परंतु स्नान करनेवाला मलिन चीजों को टालकर जल में स्नान करता है। उसी तरह ध्यान में होता है, लेकिन अभ्यासी सबको हटाकर ध्यान करता है। जो बारम्बार अभ्यास करता रहता है, उसका मन विषयों से छूटता है। रजोगुण- तमोगुण से छूटकर सतोगुण की ओर वृति होती है। उससे फिर पाप नहीं होता। घमण्ड और तिरस्कार से किया हुआ पुण्य कर्म तामसी है, मायिक फलों को प्राप्त करने के लिए किया हुआ पुण्य कर्म राजस है। इन दोनों तरहों से बचते हुए किया हुआ पुण्य-कर्म सात्त्विक है। जो ध्यान-अभ्यास की ऊर्ध्वगति में अपना बन्धक प्रभाव कुछ नहीं रख सकता है, समझना चाहिए कि ध्यान में एकओरता होती है। एकओरता में सिमटाव होता है, सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। आपलोग बिछौने पर बैठे हैं, इसको समटिए तो एक ढेर हो जाएगा-ऊँचा हो जाएगा। मन के सिमटाव के कारण मन की भी ऊर्ध्वगति होती है। मन केवल मन नहीं है, मन के साथ चेतन भी है। मन के साथ चेतन की भी ऊर्ध्वगति होती है। स्थूल से ऊँचे दर्जे में-सूक्ष्मता में प्रवेश होता है। स्थूल में सिमटाव होने से सूक्ष्म में गति होती है, इसी को पिण्ड से ब्रह्माण्ड में जाना कहते हैं। इससे जहाँ तक कर्मफल पाना है यानी प्रारब्ध का भोग है-उस मण्डल को पार किया जाता है। जहाँ तक त्रैगुणी माया है, वहाँ तक कर्ममण्डल है। इससे पार होने पर माया से उठा जाता है। ध्यानाभ्यास से ऊर्ध्वगति होती है, तब कर्ममण्डल से ऊपर उठा जाता है। यही उपाय है और दूसरा उपाय नहीं है। पुण्य सुख में बाँधता है तो पाप दुःख में बाँधता है, दोनों बंधन ही है। पुण्य के फल को भोगते हुए लोग बहुत पाप करते हैं। धनी होते हैं, जो नहीं करने का वह करते हैं। जो नहीं बोलना चाहिए, बोलते हैं। पुण्य करना अच्छा है, लेकिन पाप करना अच्छा नहीं है। फलाकांक्षा छोडकर ही कर्म करना अच्छा है। प्रारब्ध कर्म को ध्यानयोग से नष्ट कर सकते हैं। सिवाय ध्यानयोग के और कोई उपाय नहीं है, जिससे हम कर्म-जाल से छूटें। कर्म- जाल ही शरीर और संसार में बाँधता है। ध्यान ऐसा हो जो बाहर की ओर नहीं हो। इसलिए उपनिष- त्कार ने कहा कि आत्मा की ओर देखो। आत्मा एक ही है। शरीर जैसे उसको अवयव नहीं-जोड़ नहीं। साधक आत्मा की ओर चलता है, तो वह आत्मा बहुत दूर है, बहुत देर से मिलती है। लेकिन रास्ते में कुछ नहीं मिलता है, ऐसा नहीं। रास्ते में चन्द्रज्योति आदि का दर्शन होता है। जो दर्शन कभी संसार में नहीं हुआ। चलते-चलते वह परमात्मा को पाता है। ध्यानयोग अन्तर्मुखी करो और घर में रहो। ध्यानयोग की विधि गुरु से सीखो। जो इस युक्ति को नहीं जानते, उनके लिए कबीर साहब कहते हैं-
  मोरे जियरा बड़ा अन्देशवा मुसाफिर जैहो कौनी ओर ।।
  मोह का शहर कहर नर नारी, दुइ फाटक घनघोर ।
  कुमती नायक फाटक रोके, पड़िहौं कठिन झिंझोर ।।
  संशय नदी अगाड़ी बहती विषम धार जलजोर ।
  क्या मनुवाँ तुम गाफिल सोवो, इहवाँ मोर न तोर ।।
  निसदिन प्रीति करो साहब से नाहिंन कठिन कठोर ।
  काम दिवाना क्रोध है राजा बसैं पचीसो चोर ।।
  सत्तपुरुष इक बसैं पछिम दिसि, तासों करों निहोर ।
  आवै दरद राह तोहि लावै, तब पैहां निज ओर ।।
  उलटि पाछिलो पैंड़ो पकड़ो, पसरा मना बटोर ।
  कहै कबीर सुनो भाइ साधो, तब पैहों निज ठौर ।।
 इस पद्य में भी ध्यान करने को कहा है। कहा कि जो संतलोग ‘पछिम’ की तरफ रहते हैं, (पश्चिम को संतलोग प्रकाश, पूर्व को अंधकार, दक्षिण को शब्द और उत्तर को निःशब्द कहते हैं) जो अपने को प्रकाश में रखते हैं और दूसरे को प्रकाश में चलने को बताते हैं, उनसे जानो। ब्रह्माण्ड से पिण्ड में आए हो, इससे उलटो। यानी पिण्ड से ब्रह्माण्ड की ओर चलो। पिण्ड से ब्रह्माण्ड की ओर चलने के लिए पसरे हुए मन को समेटो। कबीर साहब ने उपर्युक्त पद्यों में कहा है कि ऐसा करने से तुम अपने निज घर को पाओगे।
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यह प्रवचन श्रीसंतमत सत्संग मंदिर आशानन्दपुर परबत्ती, भागलपुर में दिनांक 26.10.1958 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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