133. चेतन की धारा ब्रह्माण्ड से पिण्ड की ओर
प्यारे धर्मानुरागी सज्जनवृन्द!
मैं आपलोगों को संतमत के उपदेश तथा उसकी हितचिन्तना, जो सब लोगों के वास्ते है- की बातें कहूँगा। संतगण कह गए हैं कि मनुष्यों को अपने कल्याण के लिए कर्म करना चाहिए। लोग ऐहिक सुखों में अपना कल्याण खोजते हैं। इन सुखों में कल्याण नहीं पा सकते। इसलिए कि ऐहिक सुख क्षणभंगुर एवं दुःखपरिणामी है। सबसे विशेष बात यह है कि ईश्वर को जानें, विश्वास करें, स्वरूप को जानें और उस तक पहुँचने की कोशिश करें, इसी में कल्याण होगा। इतना ही नहीं कि सांसारिक कल्याण होगा, बल्कि ईश्वर की ओर चलने से आप इहलोक और परलोक; दोनों में सुखी रहेंगे।
भक्ति-साधन से मन शान्त होता है। मन शान्त नहीं तो सुख नहीं। जो ईश्वर का भक्त होता है, उसका मन शांत होता है। सबको ईश्वर की भक्ति में लगना चाहिए। साधन-भजन में मन को रमा देना चाहिए। ईश्वर-स्वरूप निर्णय के बिना जो कोई ईश्वर-भक्ति में चलते हैं, उनको ठीक पता नहीं रहता कि ठीक चलते हैं या नहीं? जो ईश्वर- स्वरूप को जानते हैं, वे ठीक-ठीक चलते हैं। इसलिए ईश्वर-स्वरूप को जानना चाहिए। कितने ईश्वर-स्वरूप की स्थिति में ही संदेह करने लगते हैं। संत लोग कहते हैं कि-
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
-गोस्वामी तुलसीदास
कबीर साहब ने कहा कि-
श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
चून चगून वजूद न मानु तैं सुभानमूना ऐना ।।
जैसे ऐना सब दरसावै जो कुछ वेष बनावै ।
ज्यों अनुमान करै साहब को त्यों साहब दरसावै ।।
जाहि रूप अल्लाह के भीतर तेहि भीतर के ठाईं ।
रूप अरूप हमारि आस है हम दूनहुँ के साईं ।।
जो कोउ रूह आपनी देखा सो साहब को पेखा ।
कहै कबीर स्वरूप हमारा साहब को दिल देखा ।।
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु ।
ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।
ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु काम न नारी ।
अकुल निरंजन अपर परंपरु सगली जोति तुमारी ।।
घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ।
बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।।
जंत उपाइ कालु सिरिजंता बसगति जुगति सवाई ।
सतिगुरु सेवि पदारथु पावहि छूटहि सबदु कमाई ।।
सूचै भाडै साचु समावै विरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।। तात्पर्य यह कि ईश्वर-स्वरूप को बताते हुए संतगण कहते हैं कि वह बुद्धि के परे हैं, इन्द्रियों के परे हैं, स्वरूपतः अपार, असीम हैं-उनकी भक्ति करो। एक असीम तत्त्व की स्थिति है, यह बुद्धि को ग्रहण होने की बात है। यह केवल श्रद्धा से ही मानें-सो नहीं। श्रद्धा से मान लेना भली बात है, लेकिन बुद्धि से विचारने पर भी एक असीम अनंत तत्त्व की स्थिति सिद्ध होती है। यदि एक अनादि, अनंत, असीम की स्थिति नहीं मानें तो सभी सादि, सान्त और ससीम होंगे। बुद्धि को यह कबूल नहीं होता। जब सान्त है तो उसकी सीमा जहाँ समाप्त होती है, उसके परे क्या है? जबतक सब ससीमों के पार एक असीम-अनंत नहीं कहते हैं, तबतक बुद्धि को संतोष नहीं होता। संतों ने एक असीम-अनंत तत्त्व को ही परमात्मा कहकर पुकारा है। जो अनंत-अपार है, वह अपरम्पार शक्तियुक्त भी है। वह सर्वव्यापक है। इसमें सन्देह नहीं। सबसे विशेष व्यापक होने के कारण वह सबसे विशेष सूक्ष्म है। सूक्ष्म कहने से छोटा टुकड़ा नहीं समझना चाहिए। बल्कि आकाशवत् विस्तृत और सूक्ष्म। आकाश कहने से आकाश ही नहीं समझना चाहिए, वह आकाश से भी अधिक सूक्ष्म है। उस सूक्ष्म को स्थूल इन्द्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता। जो यंत्र जैसा होता है, उससे उसी तरह के तत्त्व का ग्रहण होता है। स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता। परमात्मा सूक्ष्मातिसूक्ष्म है और इन्द्रियाँ अत्यन्त स्थूल हैं। इनसे उसका (परमात्मा का) ग्रहण नहीं हो सकता। इन्द्रियां से जो ग्रहण किया जाता है, वह माया है-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
-गोस्वामी तुलसीदास
माया परमात्मा का स्वरूप नहीं है। इस तरह जो परमात्मा इन्द्रियों से ग्रहण होने योग्य नहीं है, वह मन-बुद्धि से भी ग्रहण नहीं हो सकता है। तब बड़ी कठिनाई होती है कि उसकी भक्ति कैसे की जाय? जिनकी आस्था ईश्वर में नहीं है, वे यदि बता दें कि एक अनादि-अनन्त तत्त्व की स्थिति नहीं है, तो उनका कहना ठीक है, लेकिन एक अनादि-असीम के बिना बुद्धि को संतोष नहीं होता। यदि कहो कि असीम-अनन्त तत्त्व है, ठीक है, लेकिन उसको ईश्वर क्यों मानें? तो जो अनादि, अनंत, असीम है, उसके अंदर सब-के-सब हैं। उसकी शक्ति के बाहर कोई जा नहीं सकता। जिसके वश में रहा जाय उसको ईश्वर-परमात्मा कहने में गलती है? यदि कहा जाय कि ईश्वर है ही तो उसकी भक्ति करने से क्या लाभ? तो हमलोग सदा ससीम, सादि, सांत में रहते हैं। इसमें हम अशांत रहते हैं। अशान्त होकर रहना हमें पसन्द नहीं है-अशान्त में रहना किसी को पसन्द नहीं है। हमको शान्ति चाहिए। अनादि, अनंत, असीम का उल्टा सादि, सान्त, ससीम है। सान्त में रहते हुए हम अशान्त हैं, तो इसका उल्टा जो अनंत-असीम है, उसको पहचान लें, जान लें, प्रत्यक्ष जान लें-जैसे हम सान्त को प्रत्यक्ष जानते हैं, तो पूर्ण संभव है कि उसको पाकर शान्ति पाएँगे और कल्याण को प्राप्त करेंगे। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
राकापति षोड़स उअहिं, तारागण समुदाय।
सकल गिरिन्ह दव लाइअ, बिनु रवि राति न जाय।।
ऐसेहि बिनु हरिभजन खगेसा। मिटइ न जीवन केर कलेसा।।
इसलिए ईश्वर की भक्ति करो। इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि के परे को कैसे पकड़ें, पहचानें-उसमें अपने को लगावें, इसके लिए भक्त चिन्तित हो जाते हैं। संतलोग कहते हैं कि तुम चिन्तित क्यों होते हो? जो सर्वव्यापी है, वह सब में रहता है। चर-अचर, जो दृश्यमान व्यक्त पदार्थ हैं, सभी उसके ही रूप हैं। एक जीवात्मा एक शरीर में रहता है, तो वह उसको अपना रूप कहता है। जो सर्वव्यापी है, सब रूपों में है तो सब रूप उन्हीं के क्यों न होंगे। इसीलिए कहा गया है-
अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा बसत इति वासना धूप दीजै।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
इसपर नहीं, नहीं कहना चाहिए। बल्कि यह कहा गया है कि-
सियाराम मया सब जग जानी। करउँ प्रणाम जोरि जुग पानी।।
सबको उसी का रूप जानकर प्रणाम करो अथवा जब सब रूप उसी के हैं तो किसी एक रूप को पकड़ लो, साथ ही यह भी जानो कि उसका रूप है; सहज स्वरूप अथवा आत्मा नहीं। रूप मायामय होता है, परंतु आत्मा मायातीत है। इसीलिए कहा गया है-
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
सब रूपों में ‘वचन अगोचर बुद्धि पर’ आत्मतत्त्व व्यापक है। जितने भी रूप हैं, सब उसकी माया है।
भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
यथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ ।।
‘आपुन होइ न सोय’ जो कहा गया है, उसमें यह ‘आपुन’ क्या?-अर्थात् आत्मा रूप में व्यापक है, वह रूप नहीं है। लकड़ी में आग है, किंतु लकड़ी ही आग नहीं है। शरीर में जीवात्मा है, लेकिन शरीर ही जीवात्मा नहीं है। सब में से किसी एक पर आपकी अच्छी श्रद्धा हो, उस रूप को आप अपनी उपासना के लिए मान लीजिए और यह जानिए कि इस रूप में हमारे परमात्मा हैं। यहाँ से आप उपासना का आरंभ कर सकते हैं। इसलिए हमारे यहाँ रूप उपासना-सौन्दर्य उपासना प्रचलित है। इसीलिए ठाकुरबाड़ियाँ और देव-मन्दिर हैं। लेकिन रूप तक ही नहीं रह जाना चाहिए। उससे आगे भी जाना चाहिए। रूप के आगे अरूप है-वहाँ भी जाना चाहिए। उस अरूप आत्मा की भक्ति किस तरह करें? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की उक्ति लीजिए-
रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई ।।
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।। - गोस्वामी तुलसीदासजी
‘करनी अपार’ सुनकर ऐसा न समझें कि हमसे पार नहीं लगेगा। जिसके बिना बने नहीं, वह कितना भी मुश्किल क्यों न हों, फिर भी करना ही पड़ेगा। देश रक्षा के लिए लोग जान गँवा देते हैं। कृषि के लिए कृषक क्या करते हैं सो देखिए। धूप में देह जलाकर और पानी में अपने को सड़ाकर खेती करते हैं। पाट की खेती में अपने को सड़ाकर महादुर्गन्ध में काम करते हैं। लेकिन बैठकर ध्यान- भजन करने में कठिन मालूम होता है।
ऊपर कथित पद्य में हाथी, मछली और चींटी की उपमाओं के द्वारा योगाभ्यास की बात समझाई गयी है। जिसकी सुरत शरीर की सारी इन्द्रियों में फैली हुई है, उसको हाथी कहा गया है। जिसकी सुरत सिमटी हुई है, उसको छोटी मछली या चींटी कहा गया है। चेतन की धारा ब्रह्माण्ड से पिण्ड की ओर सदा बढ़ती रहती है। ऊपर से नीचे की ओर धारा प्रवाहित होती रहती है। सिमटी हुई सुरत धार को पकड़कर नीचे से ऊपर जाती है। पुनः बालू जड़ धार है और चीनी चेतन धार है। सिमटी हुई चेतन सुरत चींटी है। वह जड़ से अपने को फुटा (विलग कर) लेती है। इसके लिए योगाभ्यास अपेक्षित है। जो अपने को अपने अंदर अच्छी तरह समेट लेता है-जैसे कछुआ अपने अंगों को, वही योगी है। जो बहिर्मुख रहता है, वह इन्द्रियां में रहकर विषयों में रहता है। जो अपने अंदर प्रवेश करे, वह इन्द्रियों से सिमटकर विषयों से छूटकर उनसे ऊपर हो जाता है। इसके लिए एक विशेष अवस्था होती है, जो न तो जाग्रत, न स्वप्न और न सुषुप्ति की अवस्था है। परंतु तुरीय अवस्था कहकर विख्यात है। इसमें रहनेवाला अपने अंदर में रहता है और वही सारे ब्रह्माण्ड को देखता है। इसीलिए ‘सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवई निद्रा तजि योगी’ कहा गया है। स्वप्न, सुषुप्ति की अवस्थाओं को छोड़ दिया है तथा जाग्रत में भी नहीं है। इसलिए नींद छोड़कर सो गया है। वहाँ वह ब्रह्म-पीयूष का भोग करता हुआ ब्रह्मानन्द में मग्न होता है तथा ‘अतिशय द्वैत वियोगी’ पद में अवस्थित हो जाता है। ‘सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं।’ भक्ति करते-करते इस अवस्था तक पहुँचा जा सकता है। व्यक्त से भक्ति का आरम्भ कर अव्यक्त में समाप्त कर सकता है। इसको और दूसरी तरह से भी गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामायण में लिखा है, जो नवधा भक्ति के नाम से प्रसिद्ध है। यथा-
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।
चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मो तें सन्त अधिक करि लेखा।।
आठवँ यथा लाभ सन्तोषा। सपनहुँ नहिं देखइ पर दोषा।।
नवम सरल सब सन छल हीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।।
पहली भक्ति है संतों का संग करना, यह बहुत सीधी बात है। दूसरी भक्ति कथा-प्रसंग में प्रेम करना है। अपनी मान-प्रतिष्ठा का ख्याल छोड़कर गुरु-सेवा तीसरी भक्ति है। कपट त्यागकर ईश्वर का गुणगान करना चौथी भक्ति है। दृढ़ विश्वास के साथ गुरु-मंत्र का जप करना पाँचवीं भक्ति है। इस तरह पाँच प्रकार की भक्तियों तक समझना लोगों के लिए बहुत ही सरल है। परंतु इनके अन्दर और भी कुछ है, उसको भी जानिए। कहा गया है-
नित प्रति दरसन साधु के, औ साधुन के संग ।
तुलसी काहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
इसका उत्तर है-
मन तो रमै संसार में, तन साधुन के संग ।
तुलसी याहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
साधु-संग में बैठो तो मन को इधर-उधर मत करो। सांसारिक बातों को लेकर मत बैठो। कहा गया है-कबीर संगति साधू की, ज्यों गंधी को वास ।
जो कुछ गंधी दे नहीं, तौ भी वास सुवास ।।
इसी तरह साधु के संग में एकचित्त होकर बैठो तो कुछ-न-कुछ गुण होगा। दूसरी-तीसरी ओर मन लगानेवालों को कबीर साहब ने फटकार भी लगाई है-
ऐसी दिवानी दुनियाँ भक्ति भाव नहिं बूझै जी।।
कोई आवै तो बेटा मांगै, यही गुसाईं दीजै जी।।
कोई आवै दुख का मारा, हम पर किरपा कीजै जी।।
कोई आवै तो दौलत मांगै, भेंट रुपैया लीजै जी।।
कोई करावै व्याह सगाई, सुनत गुसाईं रीझै जी।।
साँचे का कोई गाहक नाहीं, झूठे जक्त पतीजै जी।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, अंधों को क्या कीजै जी।।
ऐसे मन से साधु-संग करने से हरि-रंग नहीं लगता है। मन को संयम में रखते हुए साधु-संग करो, तब हरि-रंग लगेगा। कथा-प्रसंग में मन लगाओ, यदि मन नहीं लगाओ तो कथा में क्या बात हुई, समझ नहीं सकोगे। गुरु की सेवा भी मन लगाकर करो। बे-मन सेवा गुरु जान जाएँगे तो उसको मंजूर नहीं करेंगे-फटकार कर निकाल देंगे या स्वयं हट जाएँगे। जप के लिए यह है कि एकाग्र मन से जपो। ऐसा नहीं कि-
माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं ।
मनुवाँ तो दह दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं ।।
जप की संख्या पुराने की कोई आवश्यकता नहीं है। माला पर एक लाख जप कर लिया, लेकिन एकाग्र मन से कितनी बार? एकाग्रतापूर्वक जितनी बार जप हो, वही श्रेष्ठ है। जप तीन प्रकार के होते हैं-वाचिक, उपांशु और मानस। वाचिक जप वह है, जो कि आवाज के द्वारा जपा जाय। उपांशु जप वह है जो अपने मुँह के अंदर ही बोलकर जपा जाय, इसमें होंठ तो हिले, पर आवाज कोई दूसरा व्यक्ति न सुन सके। मानस जप वह है जो केवल मन-ही-मन किया जाय, जो अपनी कान भी न सुन सके। मानस जप सब जपों का राजा है। मुँह से भी जपो, कोई हानि नहीं, लेकिन जप के प्रकारों में मानस जप सर्वश्रेष्ठ है। इस शरीर में मन कहाँ रहता है? शरीर में मन जहाँ रहता है, उसी स्थान पर उसे रहने देकर, जप करना श्रेष्ठ है। संत कबीर साहब कहते हैं-
इस तन में मन कहँ बसै, निकसि जाय केहि ठौर ।
गुरु गम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और ।।
इसके उत्तर में है-
नैनों माहीं मन बसै, निकस जाय नौ ठौर ।
गुरु गम भेद बताइया, सब संतन सिरमौर ।।
जाग्रत अवस्था में शिवनेत्र में मन का वासा है। जाननेवाले गुरु से जान लेना चाहिए कि कैसे उस स्थान में ठहरकर जप करना चाहिए। पहली से लेकर पाँचवीं भक्ति तक सभी में मन लगाना ही सार है। अब चार तरह की भक्ति रह गई है। छठी भक्ति के लिए कहते हैं-
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
इन्द्रियों को रोकने का स्वभाववाला बनना दम- शील होना है। इसको छठी भक्ति कहते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज को योगविद्या भी आती थी। नवधा भक्ति में छठी ‘दम’ है और सातवीं ‘शम’ है। ये दोनों योगशास्त्र के सार हैं। शम-दम को योगशास्त्र से हटा दें तो वह छूँछ हो जाएगा।
मन को रोकते रहना चाहिए। कितने लोग कहते हैं कि विचार द्वारा मन को रोको। विचार द्वारा मन को थामकर रखना ठीक ही है, लेकिन जानना चाहिए कि विषयों की ओर इन्द्रियाँ क्यों जाती हैं? जाग्रत अवस्था से स्वप्न में जाने से मुँह में मिसरी का टुकड़ा रहने पर भी उसके स्वाद का ज्ञान नहीं होता। जाग्रत और स्वप्न के बीच में एक अवस्था होती है, जिसको तन्द्रा कहते हैं। इसमें हाथ-पैर कमजोर होते जाते हैं। शक्ति भीतर की ओर प्रवेश करती है। उस समय टोक-टाक करने से-जगा देने से बहुत दुःख होता है। स्वप्न में बाहर की इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हो जाती हैं, बाहर विषयों में नहीं रहतीं, उनकी शक्ति शरीर से बाहर नहीं जाती। इन्द्रियां की शक्ति अर्थात् मनोमय चेतनधार अपने अंदर में रहने से इन्द्रियाँ बाह्य विषयों की ओर नहीं जाती हैं, स्वाभाविक रूप से नित्य ऐसा होता है। इसी नमूने पर ऐसा यत्न जाने कि जिस केन्द्र से चेतन निहित मानसधारा का बिखार होता है, वहाँ उसको समेट ले तो विषयों में मन नहीं जाएगा। केवल विचार द्वारा मन को रोकने में जो कमजोरी रह जाती है, सो इस अभ्यास में मजबूत हो जाने पर मिट जाती है। इन्द्रियों की धारों में मानस धारों के रहने से विषयों से मन और इन्द्रियों का सम्बन्ध बना रहता है-परमात्मा से नहीं। इन्द्रियों से संबंध टूटने से निर्विषय से संबंध होता है।
भक्त राम-राम कहे और राम की बात न माने, तो वह कैसा भक्त है? श्रीराम ने कहा है कि-
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।
साथ ही छठी भक्ति करने का आदेश भी दिया है। इन्द्रियों को जो अव्यक्त (निर्विषय तत्त्व) है, वह परमात्म-स्वरूप है, उसका ग्रहण होना ही चाहिए। लेकिन आरम्भ में ही अव्यक्त ग्रहण नहीं किया जा सकता है। छठी भक्ति कैसे होती है, सो सुनिए। छठी भक्ति के लिए मन को एकविन्दुता चाहिए-क्योंकि एकविन्दुता में इन्द्रियों के घाटों में मानस धारों के प्रसार की कोई सम्भावना नहीं रहती। इससे दमशीलता होगी। एकविन्दुता के लिए वैष्णवी मुद्रा या शाम्भवी मुद्रा या दृष्टियोग या दृष्टिसाधन की क्रिया चाहिए। इससे मन की एकविन्दुता होती है। यह साधन बहिर्मुख न होकर अंतर्मुख होना चाहिए। इसके लिए अमादृष्टि से साधन चाहिए। अमादृष्टि में रहने से दृष्टि सिमटी रहती है। बाहर का दृश्य एकदम छोड़ दो। अन्दर में देखो। सिमटी हुई निगाह से देखो, फैली निगाह से नहीं। अंदर देखो यानी आँख अंदर करके देखो। बाहर का ख्याल छोड़ो। बाहरी दृश्य जितना भी देखा है, सबको छोड़ दो। आँख बंद कर देखने से सबको अंधकार मालूम होता है। उस अंधकार में अपने को रख दृष्टि को समेटकर इस भाँति देखो जैसे तीर या बन्दूक का निशाना करते समय देखा जाता है। अच्छा निशाना करनेवाला केवल निशाना ही देखता है। अंदर में कथित भाँति से ठीक-ठीक देखने पर मन और दृष्टि एक जगह हो जाएगी। यथा-‘मन में मन नैनन में नैना, मन नैना एक ह्वै जाई ।’
यह कैसे होगा? किसी गुरु से जान लीजिए। यदि कहो कि गुरु के सामने नवने कौन जाय? तो जान लो कि बिना नवे कोई विद्या नहीं आ सकती। काठ कोरो नवता नहीं, उसको यह ज्ञान बताया नहीं जा सकता।
कबीर नवैं सो आप को, पर को नवैं न कोय ।
घालि तराजू देखिये, नवैं सो भारी होय ।।
सभा में भजन-भेद बताया नहीं जाता। यह दीक्षा एकान्त में दी जाती है। इसको प्राप्त करने के लिए विशेष गरज होनी चाहिए। जिसको गरज हो वह आवे तो बताया जाएगा। फिर कितनी गरज है, सो भी देखी जाती है। और जिस गुरु से दीक्षा लेनी हो, उस गुरु की भी जाँच कर लेनी चाहिए। यह जाँच एक ही दिन की भेंट से नहीं होगी।
दृष्टि साधन करने के लिए डीम और पुतलियों पर जोर लगाने की आवश्यकता नहीं। डीम, पुतलियों पर जोर लगाने को यदि कहा भी जाय तो वैसा मत कीजिए। डीम और पुतलियों पर बिना जोर लगाए जो दृष्टियोग किया जाता है, वह हठयोग नहीं-राजयोग है। अथक परिश्रम से प्रत्याहार करो तो मन एक स्थान पर ठहरेगा और तब एकविन्दुता प्राप्त होगी। इसमें पूर्ण सिमटाव होता है। विन्दु को आप मन से नहीं बना सकते। परिमाणशून्य र्चिं को आप मन से नहीं बना सकते। छोटे-से-छोटा र्चिं हो उसको मन से नहीं बना सकते। असली विन्दु मन से नहीं बनाया जा सकता। काल्पनिक विन्दु से रेखागणित का हिसाब कर लेते हैं। काल्पनिक रेखा से ही हिसाब बना लेते हैं। रेखा में लम्बाई है, चौड़ाई नहीं। पेन्सिल की नोेंक जहाँ रखिए वहीं र्चिं होगा। जो दृष्टि और मन को अत्यन्त समेटकर स्थिर रखता है, उसको तब जो दीखता है, वही परम विन्दु है। वही ज्योतिर्मय विन्दु है।
तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्म हृदि संस्थितम् ।
-तेजोविन्दूपनिषद्
हृदय स्थित विश्वात्म-तेजस् स्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है। जो उस विन्दु को ग्रहण करता है, उसको ज्योति मिलती है। वैज्ञानिक अपने प्रयोगों के द्वारा बतलाता है कि हाइड्रोजन और ऑक्सीजन मिलाने से पानी होता है। यदि विश्वास न हो तो खुद करके देख लीजिए। उसी तरह मेरी बातों में विश्वास नहीं हो तो मैं जो प्रयोग बतलाता हूँ, उसको करके देख लीजिए।
लोग लाल टीका लगाते हैं। वह विन्दु का द्योतक है, शक्ति का र्चिं है। सिमटाव से शक्ति एकत्रित और केन्द्रित होती है। केन्द्रित शक्ति ज्योति स्वरूपा है। शक्ति बढ़ने से दमशीलता आती है। जहाँ शक्ति, वहाँ शिवा और शक्ति श्रीसीताजी महारानी को भी कहते हैं। इसलिए जहाँ सीता वहाँ राम। योगशिखोपनिषद् में लिखा है-
विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम् ।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्व देहिनाम् ।।
फिर उसी उपनिषद् में अन्यत्र लिखा है-
विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम् ।
देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्व देहिनाम् ।।
स्थूल मण्डल से आगे बढ़कर सूक्ष्म जगत में प्रवेश करने पर जिससे संबंध होता है, वह ब्रह्मज्योति है। स्थूल जगत में जप, गुणगान और साधु-संग द्वारा ईश्वर से सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। सूक्ष्म जगत में प्रवेश करने पर परमात्म-प्रकाश से सम्बन्ध होता है। उस प्रकाश से परमात्मा की ओर भक्त खींचता है। परमात्मा का प्रकाश पाना परमात्मा की खास भक्ति है।
जिस साधन में मन और इन्द्रियों का संग-संग साधन होता है, वह ‘दम’ का साधन कहलाता है। जिसमें केवल मन का साधन होता है, वह ‘शम’ का साधन कहलाता है।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मो तें सन्त अधिक करि लेखा।।
सम का अर्थ है समता। गोसाईंजी ने अपने गं्रथों मे तालव्य ‘श’ के स्थान पर दन्त्य ‘स’ का प्रयोग अनेक स्थलों पर किया है। ‘सम’ में दन्त्य ‘स’ रखने से समता के साधन द्वारा सातवीं भक्ति होती है। लेकिन बिना ‘शम’ (मनोनिग्रह) के साधन के समता नहीं हो सकती। योगशास्त्र में ‘शम’ और ‘दम’ शब्द बड़े महत्त्व के हैं। ‘शम’ का अर्थ है मनोनिग्रह। समत्व की प्राप्ति समाधि में होती है। समत्व में स्थितप्रज्ञता होती है। (गीता अध्याय 2 में देखिए) स्थितप्रज्ञता बहुत ऊँचा पद है। इससे ऊँचा पद और नहीं हो सकता है। स्थितप्रज्ञ वह होता है, जो समता प्राप्त करता है। मनोनिग्रह या शम के बिना समाधि नहीं हो सकती। मनोनिग्रह के बिना समाधि की ओर एक डग भी नहीं जाया जा सकता। इसलिए कहना पड़ता है कि गोस्वामीजी ने सातवीं भक्ति में ‘शम’ के लिए ही ‘सम’ लिखा है। इस सातवीं भक्ति को ईश्वर से क्या सम्बन्ध है, इस पर सुनिए-समत्व समाधि में प्राप्त होगा। समाधि प्राप्त होने पर ईश्वर दूर नहीं रह जाता। ब्रह्मज्योति में वृत्ति जाने पर ब्रह्मनाद की अनुभूति होने लगती है।
ऋषि-मुनि लोग ब्रह्मनाद के साधन को नादानुसंधान कहते हैं। इसी को संत नाम-भजन या सुरत-शब्द-योग कहते हैं। अपनी वृत्ति को स्थूल से सूक्ष्म में ले जाकर अन्तर्नाद में वृत्ति जोड़ो। केवल मनोवृत्ति से ही नाद ग्रहण होता है। वहाँ कोई बाह्य इन्द्रिय नहीं है। नादानुसंधान में सिवा मन के अन्य कोई इन्द्रिय नहीं रहती। नाद की बड़ी महिमा है। शिवसंहिता में लिखा है-‘न नाद सदृशो लयः।’ नाद साधन मनोलय का सर्वोत्तम साधन है। मन बहुत चंचल है। उसकी चंचलता मिटाने का सर्वोत्तम साधन नादानुसंधान है। मृगरूपी चित्त को बाँधने के लिए यह नाद जाल का काम करता है। समुद्र तरंग रूपी चित्त के लिए यह नाद तट का काम करता है।
शंकराचार्यजी ने अपनी योगतारावली मे लिखा है-‘मन तो भेरी, मृदंग और शंख आदि के आघात- जन्य नादों में भी एक क्षण के लिए मग्न हो जाता है। फिर इस मधुवत् मधुर, अखण्डित और स्वच्छ अनाहत नाद की तो बात ही क्या है?
उन्होंने नादानुसंधान की विनती भी की है। यह एकदम परमात्मा से मिला देनेवाला है। बीच में रोकनेवाला कोई नहीं । भक्ति में व्यक्त से अव्यक्त की ओर जाना होता है। भक्ति सगुण से आरम्भ करते हैं और निर्गुण में जाते हैं। अंत में ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई’ की स्थिति आ जाती है। गंगाजी में श्रद्धा रखकर लोग स्नान करने जाते हैं। कितने पाँव पैदल जाते हैं। यह क्या है? यह है गंगा की भक्ति। गंगा की ओर चलना गंगा की भक्ति है। उसी तरह ईश्वर की ओर चलना ईश्वर की भक्ति है। भक्ति में एक ख्याल यह भी है कि रूपधारी होकर ईश्वर दर्शन देंगे। यह मायिक दर्शन है, लेकिन इन्द्रिय अगोचर रूप का नहीं। ‘आपुन होइ न सोइ’ का दर्शन नहीं होता। वेष का दर्शन होना भी बहुत अच्छा है। किंतु वेष देखने से ही भक्ति का काम खत्म नहीं होता। यदि काम खत्म होता तो भगवान कह देते कि तुमने मुझे देख लिया, अब काम खत्म हो गया। लेकिन यह कहने की भी कोई आवश्यकता नहीं रहती कि तुम्हारा काम खत्म हो गया; क्योंकि जो भोजन करता है, वह स्वयं जानता है कि उसका पेट भर गया। दर्शन को इस कसौटी पर जाँच लीजिए-
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
अर्थात् उस परे-से-परे (ब्रह्म) को देख लेने पर हृदय की ग्रंथियाँ टूट जाती हैं, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।
रामचरितमानस के इस चौपाई को भी याद रखिए-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
किसी दर्शन को इन दोनों कसौटियों पर कसकर जाँचिए। जो दर्शन आँख को वा किसी इन्द्रिय को नहीं होता, वह बुद्धि की पहचान में नहीं आता। मन, बुद्धि आपके अंदर है। इन्द्रियों का संग करके विषयों का ज्ञान होता है। इन्द्रियों को छोड़ने पर निर्विषय तत्त्व का ज्ञान होता है। आत्मा से आत्मा का ज्ञान होगा। आत्मा से आत्मा का दर्शन करने के लिए आपको उधर चलना होगा, जिधर चलने से शरीर और इन्द्रियां से छूटा जा सके। इसके लिए ‘शम’ और ‘दम’ के साधन की बड़ी आवश्यकता है। सभी संतों ने यही बताया है। इतना पवित्र काम करने के लिए आपका हृदय कैसा पवित्र होना चाहिए? इसको भी समझिए। उपनिषद् में लिखा है-‘ब्रह्मवत् परिशुद्ध हुए बिना ब्रह्म को कोई प्राप्त नहीं कर सकता।’ ऐसी पवित्रता करने के लिए पंचशील का पालन करना अत्यावश्यक है। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से अलग रहना चाहिए। पंचपापों से अलग रहना पंचशील का पालन करना है। जो पंचशील का पालन सम्यक रूपेण करता है, वह परमात्मा की ओर है ही। सब पापां का सरदार है झूठ। शील को बेशील करना हो तो झूठ बोलो, झूठ बोलो तो सभी पाप तुम्हारे पास आवेंगे। झूठ छोड़ तो सभी पाप दूर हो जाएँगे। इसलिए कबीर साहब ने कहा है-
साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।
जाका हिरदय साँच है, ता हिरदय गुरु आप ।।
एक ईश्वर का विश्वास करो और उन्हीं का पूरा भरोसा रखो। ऐसा नहीं कि-
मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तो कहो कहा विस्वासा।।
-रामचरितमानस
ध्यानाभ्यास करते-करते अंदर में आरोहण होगा। तब ईश्वर की ओर चलना होगा। (यदि कोई कहे कि शरीर छूट जाएगा, उसको जला दिया जाएगा, फिर ऊपर की चढ़ाई और क्या होगी?)
पिण्ड और ब्रह्माण्ड में बड़ा सम्बन्ध है। पाँच तत्त्व और तीन गुणों से जैसे शरीर निर्मित है, इसी तरह पाँच तत्त्व और तीन गुणों से ब्रह्माण्ड भी। पिण्ड में स्थूल-सूक्ष्मादि के भेद से जितने तल हैं, ब्रह्माण्ड में भी उतने तल ही हैं। जिसने पिण्ड को जीता, उसने ब्रह्माण्ड को भी जीता। ईश्वर-दर्शन के लिए अंदर-अंदर चलना होगा। अंदर-अंदर चलकर ईश्वर-दर्शन होगा तो बाहर में भी ईश्वर का दर्शन होगा। अंदर-अंदर ईश्वर-दर्शन नहीं होगा तो बाहर में भी ईश्वर-दर्शन नहीं होगा। यह पराभक्ति है। संत सुन्दरदासजी महाराज कहते हैं-
श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै ।
रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै ।।
नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै ।
अंग बिना मिलि संग, बहुत आनंद बढ़ावै ।।
बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिए रहै ।
मिलि परमातम सो आतमा,परा भक्ति सुन्दर कहै ।।
अपरा भक्ति से परा भक्ति तक पहुँचो। मोटी भक्ति से आरंभ करो और सूक्ष्म भक्ति के अंत तक पहुँचो। सगुण से आरम्भ करो और निर्गुण में चले जाओ। निर्गुण पद से भी ऊँचे पद में उठा जाता है। पहले ही निर्गुण में कोई नहीं जा सकता और न पहले निर्गुण की उपासना ही होती है। परमात्मा का जो सूक्ष्म प्रतीक मिलता है, वह भी सगुण है। स्थूल-सगुण से सूक्ष्म-सगुण में जाओ। सूक्ष्म-सगुण रूप से सूक्ष्म-सगुण अरूप में जाओ। फिर निर्गुण-निराकार में जाओ। अपने को पापों से बचाते हुए रहकर ईश्वर का भजन कीजिए-कल्याण होगा।
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई।
कोटि भाँति कोउ करइ उपाई।।
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई।
रहि न सकइ हरि भगति बिहाई।।
जहाँ भक्ति है, वहीं मुक्ति है और जहाँ मुक्ति है, वहीं शान्ति और कल्याण है।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत मारवाड़ी पाठशाला, भागलपुर में दिनांक 22.12.1957 ई0 में हुआ था। ।
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