131. संस्कृति का आरम्भ माता के पेट से

प्यारे विद्वानवृन्द तथा छात्रवृन्द!
 आपके महाविद्यालय में आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परिषद् भी है, यह बड़ी प्रसन्नता की बात है। आज आप उसका वार्षिक महोत्सव मना रहे हैं, जिसके उद्घाटन का भार आपने मेरे ऊपर दिया है। किंतु मैं एक ऐसा आदमी हूँ, जो एकपक्षीय है। एक ही विषय को जानता हूँ। मैं नहीं जानता हूँ कि उद्घाटन किस तरह किया जाय। मैं आध्या- त्मिक प्रचार करता हूँ। मुझे विश्वास हो गया है कि बिना आध्यात्मिकता के राजनीति में शान्ति नहीं आ सकती। संतों ने जगत कल्याणार्थ आध्यात्मिकता के प्रचार का काम किया और आज भी वही बात चल रही है। इसका तो प्रचार होता ही है। सांस्कृतिक कार्य मनुष्य को सुधारकर उसके उदात्त गुणों को विकसित करता है। हमलोग सुधरे हुए कम हैं। कभी देखने में आता है कि सुधरे हुए नहीं हैं। इसलिए हमको सीखना होगा कि सुधरें कैसे? अच्छे आचरण से चलें, यही सुधार है। यदि अच्छे आचरण से नहीं चलें तो सुधार नहीं है। अच्छा सुधार बिना अच्छे संग और अच्छी विद्या के नहीं हो सकता। अच्छे आचरण से संसार में रहें, इसके लिए विद्या की बड़ी आवश्यकता है। साथ ही यह भी देखें कि हमारे यहाँ जो महान हुए, उनका आचरण कैसा था? उनके आचरण के मुताबिक चलें तो हमारा कल्याण होगा।
 एक साधुवेशी हैं, वे मिड्ल स्कूल तक जाकर आसन सिखलाते हैं। एक जगह वे गए और जाकर विद्यार्थियों से पूछा कि प्रातःकाल उठकर आप क्या करते हैं? सबों ने उत्तर में बताया कि वे सुबह में उठकर क्या करते हैं। किंतु प्रश्नकर्ता किसी के उत्तर से संतुष्ट नहीं हुए। यही प्रश्न उन्होंने अध्यापकों से भी पूछा और उनके उत्तर भी संन्यासी को ठीक नहीं जँचे। उन्होंने कहा कि आपलोग तुलसीकृत रामायण नहीं पढ़ते हैं, इसलिए आपलोग नहीं जानते हैं कि प्रातःकाल क्या करना चाहिए।
प्रातकाल उठिकै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा।।
 यह! यह नहीं कि एक दिन, बल्कि प्रत्येक दिन। हमारे देश में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम आदर्श राजा हुए। उनके नमूने पर हम चलें तो हमारा सुधार हो। यह देखिए कि उपर्युक्त आचरण अपने में है कि नहीं। भगवान बुद्ध का वचन है-‘जो बूढ़ों को प्रणाम और आदर करते हैं, उनकी चार चीजें बढ़ेंगी-आयु, सुख, सुन्दरता और बल।’ आप पूछेंगे कि भगवान बुद्ध ने यों ही कहा या होना भी संभव है, तो कहूँगा-होना संभव है। जिनको आप प्रणाम कीजिएगा, उनकी शुभेच्छा आपके प्रति होगी, यह संभव ही है। आज के वैज्ञानिक विद्वान भी कहते हैं कि मनोबल में भी कुछ बल है। शुभेच्छा में भी मनोबल है। जिसके लिए शुभेच्छा की गई, उसकी भलाई हो, पूर्णतया संभव है। भगवान बुद्ध महान व्यक्ति थे। वे विशेष अवतारों में गिने गए हैं। उनका वचन मिथ्या नहीं है। हमारा सुधार माता की गोद से ही होना चाहिए अथवा माता के पेट से ही सुसंस्कारित करने का प्रयत्न होना चाहिए। इसका अर्थ है-माता-पिता स्वयं समुचितरूपेण सुसंस्कृत हों। आपको आश्चर्य होगा कि बच्चा पेट में भी वेद पढ़ता है।
 पराशर मुनि शक्ति मुनि के पुत्र थे और शक्ति मुनि वशिष्ठ के पुत्र थे। वशिष्ठ के सौ पुत्र थे, वे मारे गए थे। उन्होंने देखा कि एक पतोहू के गर्भ में बालक है, इसलिए उसकी किसी तरह सुरक्षा की जाय। उसको सुरक्षित स्थान में रखने के के लिए वे कहीं ले जा रहे थे। वशिष्ठ आगे और पतोहू पीछे थी। शक्ति मुनि की तरह कण्ठ स्वर से वह पेट का बच्चा वेद-ऋचा गाता था। वशिष्ठ ने कहा-‘पुत्री! यह कौन गा रहा है?’ पतोहू बोली कि वह आपका पोता है, जो मेरे गर्भ में है। आपको आश्चर्य होगा कि यह कैसे संभव है! किंतु परमात्मा की सृष्टि में क्या नहीं हो सकता! एक विद्वान आज कहते हैं कि सब मैंने बनाया। मैंने कहा कि संसार-भण्डार से कुछ लिए बिना एक घास या एक चुटकी मिट्टी बना दीजिए, हो नहीं सकता। ईश्वर की लीला अद्भुत है। परमात्मा की आश्चर्यमयी लीला है। कौन चीज कैसे बनी, कोई ठीक-ठीक कह नहीं सकता। प्रùाद अपनी माता के पेट में था। नारद ने जो ज्ञान प्रùाद की माता को सुनाया, वह ज्ञान प्रùाद को मिल गया और गर्भ से ही ज्ञान-ध्यान लेता आया। चक्रव्यूह का भेदन करना कोई नहीं जानता था, एक अर्जुन जानता था; किंतु वह दूसरी जगह युद्ध करने के लिए चला गया था। जिस समय अभिमन्यु पेट में था, उसी समय उसकी माता ने अर्जुन से जिज्ञासा की थी कि चक्रव्यूह में कैसे प्रवेश किया जाता है? उन्होंने वर्णन किया और उस विद्या को अभिमन्यु ने गर्भ में ही सीख लिया। संस्कृति का आरम्भ माता के पेट से होता हैै। इसके लिए चाहिए कि माता-पिता दोनों सुसंस्कृत हों और जन्म होने पर माता-पिता उसको अच्छे आचरण से रखें। घर का आचरण अच्छा हो। पाठशाला में जब वह जाय तो अध्यापक के उत्तम आचरण को देखकर बच्चे भी अच्छे आचरण सीख सकें।
  मुहम्मद साहब के पास एक बुढ़िया अपने पोते को ले गई, जिसको सर्दी हुई थी। मुहम्मद साहब बोले-‘इसे कल ले आना।’ दूसरे दिन बुढ़िया फिर अपने पोते को लेकर मुहम्मद साहब के पास गई। मुहम्मद साहब बोले-‘आज जाओ, इसे कल ले आना।’ बुढ़िया फिर मुहम्मद साहब के पास आई। इस प्रकार कई दिनों तक लगातार उस बुढ़िया को मुहम्मद साहब बुलाते रहे और बुढ़िया आती रही। अन्त में मुहम्मद साहब बोले कि बच्चे को शक्कर नहीं खिलाओ, सर्दी छूट जाएगी। बुढ़िया भिन्नाई और बोली-‘आपने पहले ही दिन यह बात क्यों नहीं कही, जो आज लगातार कई दिनों तक हैरान कर लेने के बाद आपने यह बात कही है। मुहम्मद साहब बोले-मुझे भी सर्दी लगी थी और मैं भी शक्कर खाता था। किंतु शक्कर छोड़ देने पर मेरी सर्दी छूट गई। यदि मैं शक्कर खाता और दूसरों को शिक्षा देता कि शक्कर मत खाओ तो इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। मैंने शक्कर खाना छोड़ दिया है, तब आज मैंने तुमसे कहा है।
 इसी तरह हमारे आचार्यगण, अध्यापकगण अपने में अच्छे आचरण लावें तो लड़के भी अच्छे आचरण से रहेंगे। उत्तम संस्कृति के लिए बड़ों का आदर और उनके सामने नम्र अवश्य रहें और अपने से छोटे को प्यार करें। यह शीलता है। शीलता कहते हैं सत्यता और नम्रता से मिल-जुलकर जो व्यवहार होता है। दिखलावे की बात नहीं हो, जो हो, सच्चाई की बात हो। तब हम अच्छे होंगे और हमारी संस्कृति अच्छी होगी। कितना अच्छा है कि-
प्रातकाल उठिकै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा।।
 यदि आप ऐसा नहीं करते हैं तो आपने भारतीय आर्य के संस्कारों को छोड़ दिया है, यदि करते हैं तो भारतीय आर्य हैं। यों तो कई देश के लोग अपने को आर्य कहते हैं, किंतु हम भारतीय आर्य हैं। यदि हम नम्र नहीं होते हैं तो हम अपनी सुसंस्कृति छोड़ते हैं। आजकल विद्यालयों और महाविद्यालयों में लोग ऐसे बरतते हैं, जिससे अन्य लोग कुछ कहने लग गए हैं। लोगों को विद्यार्थी और अध्यापक दोनों के पक्ष में संशय हो गया है। जितने विद्यालय और महाविद्यालय हैं, उनमें-नम्रता तोड़कर व्यवहार करते प्रायः देखा जाता है। ये ऐसे संस्थान हैं, जहाँ से हम उत्तम संस्कार लेकर सुसंस्कृत होते हैं। यदि हम यहाँ भी नहीं सीखें तो फिर कहाँ जाकर सीखेंगे? यहाँ से शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद आप जहाँ कहीं भी रहें, वहाँ इतनी उत्तमता से रहें कि देश का कल्याण हो। हमको गौरव है कि हम परराज्य में नहीं रहते, अपने राज्य में हैं। इसमें उत्तमता तभी आवेगी, जब हम सुधरे हों। इसके लिए शील धारण कीजिए। शील निभाना है, तो आवश्यक यह है कि जिस काम के लिए जो व्रत है, उसमें मजबूत रहो। आर्य संस्कार में तो विद्यार्थी ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। आचार्य गृहस्थ होते हुए भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते थे। यहाँ ब्रह्मचर्य व्रत पर बहुत ख्याल रखना चाहिए। जहाँ ब्रह्मचर्य व्रत पर ख्याल नहीं है, वहाँ ओजपूर्ण तेज नहीं हो सकता, विद्या-ग्रहण की शक्ति पूर्णतया विकसित नहीं हो सकती। आपके महाविद्यालय में सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परिषद् का भी स्थान है, यह बहुत अच्छा है। सभी विद्यालयों में इस परिषद् का रहना अच्छा है। अभी आपलोगों ने सूरदासजी की वाणी सुनी। इसकी पुष्टि वेद, उपनिषद् और भगवद्गीता के वाक्यों में भी है। किंतु साक्षात्कार के बिना फिर भी संशय रह जाता है। ऐसा कहकर मैं ग्रंथों की निन्दा नहीं करता हूँ! ग्रंथों से ही साक्षात्कार नहीं होता, साधन द्वारा साक्षात्कार होता है और साक्षात्कार होने पर ही संशय छूटता है। सूरदासजी की वाणी को फिर दुहराता हूँ। वे कहते हैं-
   अपुनपौ आपुन ही में पायो ।
   शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो ।।
   ज्यों कुरंग नाभि कस्तूरी, ढूँढ़त फिरत भुलायो ।
   फिर चेत्यो जब चेतन ह्वै करि, आपुन ही तनु छायो ।।
   राज कुँआर कण्ठे मणि भूषण,भ्रम भयो कह्यो गँवायो ।
   दियो बताइ और सत जन तब,तनु को पाप नशायो ।।
   सपने माहिं नारि को भ्रम भयो, बालक कहुँ हिरायो ।
   जागि लख्यो ज्यां को त्यों ही है,ना कहूँ गयो न आयो ।।
   सूरदास समुझै की यह गति, मन ही मन मुसुकायो ।
   कहि न जाय या सुख की महिमा,ज्यों गूँगो गुर खायो ।।
 पहले श्रवण-मनन अवश्य चाहिए, इसके बाद फिर अभ्यास भी करना चाहिए। सुनिए, समझिए और अपने अंदर में चलिए। जबतक अपने अंदर नहीं चले, तबतक आध्यात्मिकता पूरी हो नहीं सकती। आत्मा की तरफ लोग दो तरह से चलते हैं। एक आत्म उपासी बनकर अपनी खोज में आप जाते हैं। यह ज्ञान का पथ है। दूसरा भक्ति-मार्गी बनकर; वहाँ भक्त-भक्ति-भगवन्त तीनों यानी त्रिपुटी रहती है। कबीर साहब भक्त बनते हैं, भगवान को अपना मित्र और प्रभु बनाते हैं और उसको पाना अपने अंदर में बताते हैं और पानेवाला प्रेम का पागल होता है। इसलिए-
 हमन है इश्क मस्ताना हमन को होशियारी क्या ।
 रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ।।
 जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर ब दर फिरते ।
 हमारा यार है हममें, हमन को इन्तजारी क्या ।।
 खलक सब नाम अपने को, बहुत कर सिर पटकता है ।
 हमन गुरुनाम साँचा है, हमन दुनियाँ से यारी क्या ।।
 न पल बिछुड़े पिया हमसे, न हम बिछुड़े पियारे से ।
 उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या।।
 कबीरा इश्क का माता, दूई को दूर कर दिल से ।
 जो चलना राह नाजूक है, हमन सिर बोझ भारी क्या।।
 होशियारी नहीं तो क्या, बेवकूफी में रहने को कहा है? धूर्त्त भी होशियार होता है, जिसको अंग्रेजी में कनिंग ;ब्नददपदहद्ध कहते हैं। धूर्तता छोड़कर कबीर साहब होशियार थे। आजकल बहुधा धूर्तता की होशियारी है। ऐसी होशियारी को छोड़कर शुद्ध और सीधा रास्ता पकड़ो और उसमें होशियार रहो। ‘रहैं आजाद या जग से हमन दुनिया से यारी क्या।’ दुनिया से यारी मत करो तो क्या वैर करो? नहीं। आसक्ति छोड़कर रहो, अपनी सच्ची कमाई करो और अपना जीवन-यापन करो।
 कबीर चाले हाट को, कहे न कोइ पतियाय ।
 पाँच टके का दोपटा, सात टके को जाय ।।
 यह कथा प्रसिद्ध है। कबीर साहब इतने संतुष्ट थे। वे थोड़े में गुजर करनेवाले थे और आध्यात्मिकता के शिखर पर चढ़े हुए थे। यह संस्कार, यह संस्कृति अपने देश की है। वे आजाद क्यों थे? इसलिए कि सांसारिक पदार्थों की आसक्ति उन्हें नहीं थी। ऐसा नहीं कि घर में खर्च-वर्च नहीं देते-चलाते थे या कि घर से अलग रहते थे अकर्मी में कर्मी और कर्मी में अकर्मी रहो। कर्म करो किंतु उसके फल में आसक्ति मत रखो, यह कर्म में अकर्म है और चुपचाप बैठा है, बाहर में कुछ नहीं करता है और भीतर में कर्म करता है, यह अकर्म में कर्म है। यह पाखण्ड है। किंतु बाहर में कुछ नहीं करे और भीतर से ईश्वर-भजन करे तो यह उत्तम है। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने कहा है कि यदि कोई माँ-बाप को मारता है और दूसरा कोई देखता है, कुछ बोलता नहीं है तो मारनेवाला तो विकर्म (निषिद्ध कर्म) करता ही है, साथ-ही- साथ वह देखनेवाला अकर्मी होते हुए भी उसके दुष्ट कर्म का भागी बनता है।
 विकर्म का अर्थ निषिद्ध कर्म है। महात्मा गांधीजी तथा रामानुजाचार्यजी ने भी बताया है। इससे विपरीत अर्थ कोई करे, तो मानने योग्य नहीं है। आजादी-स्वतंत्रता तभी पूरी होती है, जब विषय- भोगों से हृदय को छुड़ाकर रखा जाता है। विषय- भोगों में आसक्त रहने से हानि ही होती है। आप सांसारिक कामों को भी करें, किंतु अनासक्त होकर, तो यही हमारे यहाँ की सांस्कृतिक शिक्षा है।
 परमात्मा जीवात्मा से कभी नहीं बिछुड़ता। कबीर साहब को इसका पूरा ज्ञान था। इसलिए वे कहते हैं-‘न पल बिछुड़ें पिया हमसे, न हम बिछुडं़े पियारे से ।’
 अंत में उन्होंने कहा कि ईश्वर और अपने में से दूई का भाव मिटाओ। यह केवल विचार द्वारा नहीं होता है, प्रत्यक्षता से होता है। ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।’ समष्टि रूप में परमात्मा और व्यष्टि रूप में जीवात्मा है। दोनों मिले ही रहते, किंतु जीव को यह ज्ञान नहीं होता। जब वह ध्यान करता है, तब उसकी प्रत्यक्षता होती है और द्वैत भाव मिटता है।
 आपकी परिषद् सदा कायम रहे और आध्या- त्मिक पुस्तकालय भी हो। यों तो आपके महाविद्यालय में पुस्तकालय होगा ही। पुस्तकों के द्वारा तो ज्ञानार्जन होगा ही, साथ ही इसको अपने मस्तिष्क में भी रखें। हमारे प्यारे विद्यार्थीगण भी अध्यात्म-ज्ञान को अपने मस्तिष्क में रखें।
 आपस में जो पदार्थ उलटे-उलटे होते हैं तो उनके गुण भी उलटे-उलटे होते हैं। अपरिमित तत्त्व एक ही हो सकता है, दो नहीं। जहाँ दो ससीम मिलेंगे, वहीं दोनों ससीम हो जाएँगे। यदि कहें कि एक दूसरे में व्यापक है तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि यदि वह जिसमें व्यापक है, उसके कण- कण में भी व्यापक है, तब कहेंगे कि परमाणु भी उसी तत्त्व से निर्मित है। यदि आप कहें कि परमाणु छोड़कर व्यापक है, तब कहेंगे कि वहाँ पर असीम व्यापक कहाँ हुआ। वहीं ससीम हो जाएगा। अद्वैतवाद पर भी ऐसा प्रश्न है कि जिसका उत्तर चुप्पी है। श्रीराम और वशिष्ठजी का संवाद ‘योगवाशिष्ठ’ में पढ़कर देखिए। वहाँ श्रीराम प्रश्न करते हैं तो वशिष्ठजी कुछ उत्तर नहीं देते हैं, चुप रहते हैं। श्रीराम पूछते हैं कि गुरुदेव! आप रुष्ट तो नहीं हो गए हैं? वशिष्ठजी कहते हैं-इसका उत्तर ही चुप है। यथार्थतः व्यवहार में अद्वैत कभी सिद्ध नहीं हो सकता, सिद्धान्त में अद्वैत रहता है। शरीर-ज्ञान में अद्वैत नहीं होता, आत्म-ज्ञान में अद्वैत होता है। सिद्धान्त सुनाने के लिए अद्वैत होता है।
 ससीम जगत मे रहते हुए किसी को कल्याण नहीं है। इसका उलटा असीम है। उसका गुण कल्याणमय होना चाहिए। इसलिए ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए। ईश्वर की भक्ति करने की क्या आवश्यकता है?
 एक कहानी है कि राजा जंगल शिकार खेलने गया। उन्होंने एक मुनि बालक को देखा, जो बहुत सुन्दर था। राजा ने उस बालक से कहा कि तुम मेरे साथ चलो। तुम वहाँ अच्छा-अच्छा खाना, अच्छा पहनना और अच्छे महल मे रहना। वह मुनि बालक बड़ा ज्ञानी था। उसने कहा-मुझे अच्छे-अच्छे खाना खिलाओ, तुम मत खाओ, मुझे अच्छे-अच्छे कपड़े पहनाओ तुम मत पहनो और मैं सोऊँगा, तुम जगकर मेरी पहरा करो। राजा ने कहा-ऐसा नहीं होगा। मैं जैसा खाना खाऊँगा, तुमको भी वैसा खिलाऊँगा, मैं सोऊँगा तो मेरी रक्षा पहरेदार करेगा, वैसे ही तुम सोओगे तो तुम्हारी रक्षा पहरेदार करेगा। मुनि बालक ने कहा-‘मुझे ऐसा मालिक नहीं चाहिए। मेरा मालिक ऐसा है कि मुझे खिलाता है, स्वयं बिना खाए रहता है। मुझे कपड़ा पहनाता है, स्वयं कुछ नहीं पहनता, मैं सोता हूँ और वह जगकर पहरा करता है। ऐसे मालिक को छोड़कर तुम्हारे साथ में क्यों जाऊँ।’
 ईश्वर को न कुछ खाने की, न पहनने की, न कोई ऐसी चीज की आवश्यकता है। तब उसकी सेवा कैसे कीजिएगा? तब कहेंगे कि भगवान ने कहा है कि भक्तों के जल, पत्र, फूल को मैं ग्रहण करता हूँ, क्या इसको आप नहीं मानते? मैं मानता हूँ, किंतु वह चीज उन्हीं की है और उन्हीं को देते हैं, जिसकी उनको कोई आवश्यकता नहीं है। हम गौ पालन करते हैं, घी, दूध, मालपूआ भगवान को चढ़ाते हैं और कहते हैं कि हम चढ़ाते हैं। सब किया हुआ भगवान का है। उपर्युक्त बाह्य पूजा का सार यह है कि उसके द्वारा भक्त अपना भाव भगवान को अर्पण करता है। इसके अतिरिक्त और प्रकार की भक्ति है, भक्त को भगवन्त के दर्शन की जरूरत है, कुछ लेना-देना नहीं। भक्त पूजा करता है, ध्यान करता है और उसको पहचानता है, तो कहता है कि भगवान सदा से हमको अपनाए हुए हैं। किंतु भक्त जब नहीं भी जानता है, तब भी भगवान उसको अपनाए हुए रहते हैं, भगवान से बाहर कोई जा कहाँ सकता है? गंगा-सेवन करने में लोग गंगाजल पान करते हैं, गंगा किनारे में टहलते हैं और कहते हैं कि गंगा-सेवन करते हैं। औषधि-सेवन करते हैं और रोगमुक्त होते हैं। औषधि और गंगा के सेवन की जरूरत आपको ही है, किंतु उनको आपके सेवन की जरूरत नहीं। उसी तरह ईश्वर को अपनी भक्ति करवाने की कोई आवश्यकता नहीं, भक्त अपने लिए करता है। ईश्वर इन्द्रियगम्य नहीं, आत्मगम्य है। इसलिए ऐसा यत्न हो कि इन्द्रियों से छूटना हो सके। इन्द्रियों से छूटने के लिए यत्न करते हुए जो अंतर-अंतर चलता है, वह ईश्वर की भक्ति करता है। जैसे कोई गंगा- स्नान के लिए जैसे-जैसे पैर आगे बढ़ाता है, वैसे-वैसे गंगा की भक्ति होती है। गंगा किनारे पहुँचकर गंगाजी का दर्शन कर, उसके वायु मण्डल में रह उसका जल पान कर, उसमें स्नान करके गंगाजी की पूरी सेवा होती है, उसी तरह ईश्वर की ओर चलते-चलते ईश्वर का दर्शन करके उसके प्रभाव और उसमें रहकर भक्ति पूरी होती है। रामचरितमानस में नवधा भक्ति बतलाई गयी है-
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
  गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।
  चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।
 वर्णित भक्तियों में मन लगाना ही प्रधान है। मन नहीं लगाने से भक्ति नहीं होती है। पाँचवीं भक्ति तक सरल है, उसके बाद छठी भक्ति है-
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
 दमशील कहते हैं इन्द्रिय-निग्रह के स्वभाववाले को। जानना चाहिए कि इन्द्रियाँ चलायमान कैसे होती हैं? जाग्रत में विषयों की ओर इन्द्रियाँ चलती हैं, स्वप्न में बाह्य प्रत्यक्ष विषयों की ओर नहीं चलतीं। मन की धारा इन्द्रियों तक रहने से इन्द्रियाँ विषयां की ओर होती हैं। स्वप्न में बाह्य इन्द्रियों से मन की धारा सिमटती है। तब इन्द्रियाँ बाह्य विषयों में नहीं जातीं। इन्द्रियों में मन की धारा जाती है। इसका केन्द्र कहाँ है? आज्ञाचक्र में हैं। आज्ञाचक्र के नीचे पाँच चक्र और हैं। आज्ञाचक्र छठा चक्र है। इसके मध्य में शिवनेत्र है। शिवनेत्र में मन का बासा है। ब्रह्मोपनिषद् में लिखा है-
 नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् ।
 सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्निसंस्थितम् ।।
 अर्थात् जीव का वासा जाग्रत में नेत्र में, स्वप्न में कण्ठ में, सुषुप्ति में हृदय में और तुरीयावस्था में मस्तक में होता है।
 यदि आँख में वासा नहीं रहे तो हम कुछ नहीं देख सकते। आँख से देखते भी हैं और इन्द्रियों से काम भी करते हैं। तन्द्रावस्था में शक्ति भीतर में सिमटती है और धीरे-धीरे स्वप्न में चली जाती है। बाहर की इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हो जाती हैं। स्वप्न में कभी-कभी मुँह से भी बोल देते हैं, किंतु उसका ज्ञान आपको नहीं होता। स्वर आप बोल सकते हैं, किंतु व्यंजन बिना स्वर के नहीं बोले जा सकते। कण्ठ स्वर का स्थान है। इसलिए स्वप्न में कण्ठ में रहते हैं। उसके बाद सुषुप्ति में हृदय में चले जाते हैं, वहाँ स्वर नहीं है, व्यंजन है। इसलिए वहाँ कुछ बोल नहीं सकते। यहाँ द्वादश दल कमल का होना बताया जाता है। कण्ठ में षोडस दल कमल है। एक-एक अक्षर के स्थान को कमल का एक-एक दल कहते हैं। जाग्रत में आँख में, स्वप्न में कण्ठ में और सुषुप्ति में हृदय में वासा होता है। तुरीय में मूर्द्धा में वासा होता है।
 इन्द्रियों को काबू में लाने के लिए आपको क्या करना चाहिए? आँख से नीचे रोज उतरते हैं, किंतु इन्द्रियाँ काबू नहीं होतीं। इसलिए इसके उलटे
अर्थात् आँख के ऊपर जाइए। ख्याल से आँख के ऊपर जाना नहीं होगा। इसके लिए युक्ति है। युक्ति से अपने को आज्ञाचक्र में स्थिर रखिए। जब आप गुरु के द्वारा बतायी गयी युक्ति से विन्दुविशेष पर दृष्टिधारों को समेट लेंगे, तब मन का पूरा सिमटाव हो जाएगा। जब मन का पूरा सिमटाव हो जाएगा तो अनिवार्य रूप से उसकी ऊर्ध्वगति होगी। ऊपर होने से आप मूर्द्धा में होंगे। तब आपको बाह्य इन्द्रियों के ज्ञान से छुट्टी मिलेगी। जैसे स्थूल शरीर में रहते हुए आप बाहर संसार के स्थूल जगत पर विचरते हैं, उसी तरह पिण्डस्थ सूक्ष्म शरीर में रहकर आप सूक्ष्म जगत में विचरिएगा। यह है ब्रह्माण्ड में प्रवेश करना। इसका विशेष अभ्यास करने पर इन्द्रियां पर काबू होगा। आप तो अंतर में रहेंगे, बाहर की इन्द्रियाँ निश्चेष्ट रहेंगी। इसी को कहा है कि अपने अंदर में स्थिर होने पर गति होती है। ‘बैठे ने रास्ता काटा, चलते ने बाट न पायी।’ यही छठी भक्ति है। यह ‘दम’ का साधन है। योगशास्त्र में ‘दम’ और ‘शम’ का बहुत महत्त्व है। योगशास्त्र के असली पदार्थ ये दो ही हैं। ‘दम’ के साधन में मन और इन्द्रियों का साधन संग-संग होता है और ‘शम’ के साधन में केवल मन का। अपने को नयनाकाश के तल पर दृष्टि के प्रयोग से स्थिर करना होगा। दृंष्ट के साथ-साथ इन्द्रियों की सभी धारें मिली-जुली हैं। जैसे दोनों हाथों से किसी चीज को पकड़ने से समूचे शरीर का बल उस ओर फिर जाता है, उसी तरह दोनों दृष्टियाँ जहाँ दृढ़तापूर्वक स्थिर होकर रहेंगी, समूचे शरीर की चेतनधारा उधर उलट और सिमट जाएगी। मेसमेराइजर लोग दृंष्ट का प्रभाव डालकर काम करते हैं। अजगर साँप दृष्टि से दृष्टि लगाकर ही खींचता है। बिजली गिरते देखने से शरीर की चेतना-शक्ति खिंच जाती है और वह मर जाता है। इसलिए दृष्टि का साधन अच्छी तरह होना चाहिए।
 सातवीं भक्ति के लिए आंतरिक नाद का अभ्यास करो। वह ब्रह्मध्वनि है। वहाँ केवल मन ही लगता है और जाता है। बाहरी इन्द्रियाँ न लगती हैं और न जाती हैं। नाद साधन में बड़ी शान्ति आती है और चंचलता दूर होती है।
 नास्ति नादात्परो मंत्रो न देवः स्वात्मनः परः ।
 नानुसंधेः परा पूजा न हि तृप्तेः परं सुखम् ।।
 अर्थात् नाद से बढ़कर कोई मंत्र नहीं है, अपनी आत्मा से बढ़कर कोई देवता नहीं है, (नाद वा ब्रह्म की) अनुसन्धि (अन्वेषण वा खोज) से बढ़कर कोई पूजा नहीं है तथा तृप्ति से बढ़कर कोई सुख नहीं है-‘न नाद सदृशो लयः।’ -शिव संहिता
नादविन्दूपनिषद् में है-
 मनोमत्त गजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः।
 नियामन समर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः।।
 नादोऽन्तरंग सारंग बन्धने वागुरायते ।
 अन्तरंग समुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि वा ।।
 अर्थात् नाद मदान्ध हाथीरूप चित्त को, जो विषयों की आनंदवाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है। मृगरूपी चित्त को बाँधने के लिए यह (नाद) जाल का काम करता है। समुद्र तरंग रूपी चित्त के लिए यह (नाद) तट का काम करता है।
 नाद की बड़ी तारीफ है। संतों ने नाद-साधन पर बड़ा जोर दिया है, किंतु नाद-साधन तब किया जाता है, जब भीतर में प्रवेश करने का अभ्यास कुछ-न-कुछ हो। नाद-साधन को शब्द-साधन भी कहते हैं। इसमें केवल वृत्ति लगाकर रहते हैं, यही ‘शम’ का साधन है। कितने कहते हैं कि नवधा भक्ति में ‘शम’ नहीं है, ‘सम’ है। ‘सम’ का अर्थ ‘समता’ होता है। बिना ‘शम’ साधन के किए समता नहीं हो सकती है। समत्व को योग कहते हैं। समत्व समाधि में प्राप्त होता है, गीता में कहा है। जहाँ मनोनिग्रह नहीं है, वहाँ समत्व कैसे हो सकता है। नादानुसन्धान से मन का पूरा सिमटाव होगा। इतना सिमटाव होगा कि मन, मन ही नहीं रहेगा, केवल निर्मल सुरत रहेगी। वही उस नाद को सुनेगी। उस शब्द को पकड़ने से या उससे पकड़ा जाने पर वह उस ओर खिंच जाएगा। जैसे लोहा, जो चुम्बक से पकड़ा जाता है, चुम्बक के केन्द्र मेंे खिंच जाता है। चुम्बक से लोहे को छुड़ाया भी जा सकता है, किंतु उस नाद से चेतन आत्मा के पकड़े जाने पर उसको कोई छुड़ा नहीं सकता। वज्राघात होने पर भी नहीं छूट सकता। इसीलिए कहा है-
सोवत-जागत ऊठत-बैठत, टुक विहीन नहिं तारा ।
झिन-झिन जंतर निशि दिन बाजै, जम जालिम पचिहारा ।।
 यही भक्ति है। उसके बाद आठवीं और नवमी भक्ति तो उसके गुण हो जाते हैं। साधन तो नादानुसंधान तक है। निर्गुण नाम-भजन से ही वहाँ तक पहुँचा जाता है। मुँह, कान और मन सगुण है, इनसे निर्गुण नाद ग्रहण नहीं हो सकता। पहले सगुण नाम को जपते हैं, फिर निर्गुण नाद को ग्रहण करते हैं। आप जप कीजिए, पूजा कीजिए, किंतु मन उसी ओर रहे। पूजा-पाठ मन को एकओर करने के लिए है। बाहरी पूजा, जप भी ऐसी चीज नहीं है कि आध्यात्मिकता में उसकी कोई आवश्यकता नहीं। जप, प्रार्थना, स्तुति, प्रेयर ;च्तंलमतद्ध सब कुछ कीजिए, मन की एकाग्रता के लिए कीजिए। मन की एकाग्रता के लिए प्राणायाम की भी उपादेयता मानी जाती है और यह बिना प्राणायाम के भी हो सकती है। प्राणायाम में कुछ विघ्न भी है, उसको छोड़कर केवल ध्यान कीजिए तो कोई हानि नहीं। कबीर साहब ने कहा है-
 पासहिं बसत हजूर तू चढ़त खजूर है ।
 संस्कृति अच्छी होनी चाहिए। अच्छी संस्कृति के लिए झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार नहीं करो।
 प्यारे विद्यार्थियो! विद्या सीखो, पास या परीक्षोत्तीर्ण होना क्या है? जो विद्या पढ़ेगा, पास उसका गुलाम है। कितने लोग साधु के पास जाते हैं कि पास करा दो। यदि आपकी योग्यता पास की नहीं है, तो साधु भी तो इन्साफ करता है, वह कैसे आपको पास करावेगा। इसलिए मन से पढ़िए, अच्छे मन से पढ़िए। आपके अच्छे मकसद पूरे हों, यही मैं चाहता हूँ।
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यह प्रवचन वैशाली जिलान्तर्गत श्रीराजनारायण महाविद्यालय, हाजीपुर में दिनांक 1.10.1956 ई0 को उद्घाटन भाषण के रूप में, प्रातःकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था।
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132. दो विद्याएँ- शब्दब्रह्म और परब्रह्म

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 आपलोगों को अब विदित हो चुका है कि इस सत्संग में संतों की वाणियों का बिल्कुल सहारा है। उन वाणियों से यह निचोड़ निकलता है कि मनुष्य को ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए। ईश्वर की भक्ति के लिए तीन बातों की बड़ी आवश्यकता होती है। स्तुति, प्रार्थना और उपासना। अपने देश में तीनों बातों के लिए एक ही शब्द नहीं है, तीनों को तीन तरह से कहते हैं। अवश्य ही पश्चिमी लोग तीनों के लिए एक ही शब्द प्रेयर कह देते हैं। प्रेयर को हम प्रार्थना में रखते हैं। ईश्वर की महानता और उनका प्रभुत्व बड़ा है, ये स्तुति के द्वारा विदित होते हैं। मनुष्य स्वभाव से ही कुछ-न-कुछ माँग रखता है। संतों ने कहा-वह माँग ईश्वर के सामने रखो। परंतु यह भी ख्याल रखो कि उस महान प्रभु के सामने कौन-सी माँग अच्छी होगी। इस संबंध में कबीर साहब ने एक शब्द में कहा है-
 ऐसी दिवानी दुनियाँ भक्ति भाव नहिं बूझै जी ।।
 कोई आवै तो बेटा मांगै, यही गुसाईं दीजै जी ।।
 कोई आवै दुख का मारा,हम पर किरपाकीजै जी ।।
 कोई आवै तो दौलत मांगै, भेंट रुपैया लीजै जी ।।
 कोई करावै व्याह सगाई, सुनत गुसाईं रीझै जी ।।
 साँचे का कोई गाहक नाहीं, झूठे जक्त पतीजै जी ।।
         कहै कबीर सुनो भाइ साधो,अंधों को क्या कीजै जी ।।
 गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
जो सुख सुरपुर-नरक गेह बन, आवत बिनहिं बुलाये ।
तेहि सुख कहँ बहु जतन करत मन, समुझत नहिं समुझाये।।
 इन चीजों के लिए प्रार्थना अल्पज्ञता से ही की जाती है। ज्ञान बढ़ने पर तो गुरु नानक की वाणी में-
वसुधा सपत दीप है सागर, कढ़ि कंचनु काढ़ि धरीजै ।
मेरे ठाकुर के जन इनहूँ न बाछहि, हरि माँगहि हरि रसु दीजै।।
 जिस माँग से सब प्रश्न समाप्त हो जाय, ऐसी माँग माँगो। ऐसा नहीं कि एक माँग पूरी हुई, फिर दूसरी की आवश्यकता हुई। माँगों यह कि प्रभु ऐसी कृपा करो कि सिमटाव हो और तुम्हारी ओर चल पड़ें। स्वरूप की प्रत्यक्षता, मुझे दो। यह सब माँगों का अंत है। यह सबसे उत्तम माँग है। इस माँग के बाद और कुछ बाकी नहीं रहता। ईश्वर की स्तुति से उसमें श्रद्धा-विश्वास उपजता है। श्रद्धा से प्रीति होती है और प्रीति से भक्ति होती है। बिना प्रीति के भक्ति नहीं होती है। द्रौपदी ने प्रार्थना की कि मेरा वस्त्र बढ़े। वस्त्र बढ़ गया, ऐसी कथा है। इतना बढ़ा कि बलवान राजकुमार दुःशासन खींचते-खींचते थक गया, किंतु वस्त्र कम नहीं हुआ। इतने पर भी दुःख से पिण्ड छूटा नहीं, तुरंत ही जंगल जाना ही पड़ा और वहाँ बड़ी बेइज्जती हुई। युद्ध में उनके पाँचों पुत्र मारे गए, भारी कष्ट आ गया। एक लाभ हुआ और फिर हानि हुई। इस प्रकार हानि-लाभ होते ही रहते हैं। सूरदासजी ने कहा-
   ताते सेइये यदुराई ।
   सम्पति विपति विपति सों सम्पति देह धर े को यहै सुभाई ।।
   तरुवर फूलै फलै परिहरै अपने कालहिं पाई ।
   सरवर नीर भरै पुनि उमड़ै सूखे खेह उड़ाई ।।
   द्वितीय चन्द्र बाढ़त ही बाढे़े घटत घटत घटि जाई ।
   सूरदास सम्पदा आपदा जिनि कोऊ पतिआई ।।
 सम्पत्ति-विपत्ति का ऐसा स्वभाव ही है। इन दोनों में से एक भी स्थिर रहनेवाला नहीं है। ईश्वर की प्राप्ति से-बहुत सुख हुआ, फिर मिट गया-ऐसा नहीं होता। प्रार्थना ऐसी होनी चाहिए कि जिससे ईश्वर मिल जाय।
 परंतु स्तुति करने से ही काम समाप्त नहीं होता। मिलने के लिए कोशिश करो। जैसे बच्चा माता की गोद में जाने के लिए उठता भी है और बाँह भी पसारता है, उसी तरह तुम भी उठो और अपना बल भी करो, यदि अपना बल नहीं है तो परमात्मा बल देगा। बाँह उठाने के लिए नाम-भजन है। नाम-भजन में वर्णात्मक शब्द का ज्ञान पहले सबको होता है। इसलिए मुँह से और मन से कहकर नाम-भजन होना चाहिए। किंतु एकाग्रता हो। गिनती में पाँच हजार बार हो जाय, गिनती का ख्याल रहे और एकाग्रता नहीं हो तो जप ठीक नहीं।
 माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं ।
 मनुवाँ तो दह दिसि फिरै, यह जो सुमिरन नाहिं ।।
बल्कि-
 तन थिर मन थिर वचन थिर, सुरत निरत थिर होय ।
 कह कबीर इस पलक को, कलप न पावै कोय ।।
 मन में स्थिरता आवे, एकाग्र मन से जप हो। जिस शब्द का जप होता है, वह ईश्वर का गुण प्रकट करता है। गुण बखान करनेवाला शब्द है। जैसे ‘राम’ कहा, तो इसका अर्थ हुआ सर्वव्यापी- कहीं से हीन नहीं-सबमें रमण करनेवाला अथवा योगी जिसमें रमण करते हैं, वह राम है। इससे ईश्वर का गुण प्रकट होता है। जिसका गुण प्रकट होता है, उस ओर मन लगता है। उस ओर लोभ होता है कि वह गुण मुझमें हो अथवा उस गुण से मुझको लाभ हो। जिसकी ओर किसी को होना हो। उसके विषय में वह विशेष गुण सुने तो वह उस ओर हो जाएगा। कौरवों की इच्छा हुई कि पाण्डवों को किसी तरह काशी भेजा जाय। इसलिए जब कभी पाण्डव लोग उनके निकट आते, खास करके जब युधिष्ठिर उन लोगों (कौरवों) के पास जाते तो वे लोग काशी की प्रशंसा करने लगते। काशी के विषय में विशेष सुनते-सुनते युधिष्ठिर की इच्छा काशी जाने की हो गई और वे काशी चले गए। इसका आशय यह कि किसी ओर होने के लिए उस ओर की अच्छी बातें विशेष सुनिए, उस ओर मन झुक जाएगा। नाम रटते-रटते उसका अर्थ भी मालूम हो तो उस ओर मन झुकेगा। जपते-जपते ईश्वर दर्शन देते हैं, ऐसा लोग कहते हैं। यह भी अविश्वास करने योग्य नहीं, किंतु दर्शन में अंतर है। जपते-जपते धु्रव को दर्शन हुआ। जंगल में पाण्डवों को बारम्बार भगवान के दर्शन हुए उनके स्मरण से। एक बार दुर्वासा मुनि साठ हजार शिष्यों के साथ उस जंगल में पाण्डवों के पास पहुँचे और उनसे बोले कि हमलोगों को कुछ भोजन कराओ। युधिष्ठिर बोले-बहुत अच्छा महाराज! किंतु आपलोगों को जो कुछ नित्य नैमित्तिक क्रिया-कर्म आदि करने का हो तो सो आपलोग कर आवें। सभी अपने- अपने क्रिया-कर्म करने के निमित्त नदी किनारे गए। इधर पाण्डवों को चिन्ता हुई कि वे मुनि लोग जब स्नानादि क्रिया-कर्म करके यहाँ आवेंगे, तो उन्हें भोजन क्या कराया जाएगा? क्योंकि पास में तो भोजन की कुछ सामग्री है ही नहीं। और यदि उन लोगों को भोजन नहीं करा सकूँगा, तो दुर्वासा मुनि शाप दे देंगे। इस डर के मारे पाण्डव लोग चिन्तित होकर भगवान श्रीकृष्ण की प्रार्थना करने लगे। भगवान वहाँ आ गए और युधिष्ठिर द्वारा दुर्वासा विषयक सब समाचार जानकर भगवान ने अपनी कुछ ऐसी लीला की जिससे वे लोग लौटकर फिर युधिष्ठिर के पास न आ सके। इस प्रकार इस संकट से भगवान ने पाण्डवों को मुक्त कर दिया। इस प्रकार की और बातें तो बारम्बार हुईं, किंतु ऐसी कौन बात बाकी रही कि अर्जुन को उपदेश किया गया कि यह करो और वह करो। मैं कहता हूँ कि इस दर्शन से-संसार के अंदर के जो-जो काम उनमें-एक काम बनता है, तो दूसरा नहीं बनता है। यह परमात्म-दर्शन नहीं है, मायिक दर्शन है। क्षेत्र का दर्शन होता है, क्षेत्रज्ञ का नहीं। शरीर कहीं भी हो, चाहे यहाँ मृतलोक में, चाहे विष्णुधाम में, चाहे शिवधाम में, कोई पवित्र से पवित्र, सुन्दर-से-सुन्दर और बलवान-से-बलवान शरीरधारी हों, वहाँ उनको किसी प्रकार का कोई दुःख न हो, किंतु ऐसी बात नहीं। यह तो लोक का बड़ा विचित्र वर्णन है, श्रीराधाजी का वर्णन बहुत विशेष है। गर्गसंहिता पढ़कर देखिए। वहाँ भी शापा-शापी होता है। श्रीराधाजी से कृष्ण के मित्र श्रीदामाजी को शाप हुए। श्रीदामाजी राक्षस हो गए। उनका कंस से युद्ध हुआ, दोनां में से कोई नहीं हारे, अंत में दोनों में मित्रता हो गई। कंस की आज्ञा पाकर श्रीदामा (जो कि राक्षस वेश में थे) भगवान श्रीकृष्ण को मारने चले। अंत में भगवान श्रीकृष्ण के हाथों से उस शरीर से उनकी मुक्ति हुई। नारदजी भगवान के यहाँ जाते हैं और उनको विशेष भ्रम उत्पन्न होता है। नारदजी भगवान को शाप भी देते हैं। भृगु, अज्ञानवश भगवान की छाती में लात भी मारते हैं। जय-विजय को बैकुण्ठ में शाप मिलता है। इसलिए जहाँ देश है, वहाँ काल है, जहाँ देश-काल है, वहाँ कुछ-न-कुछ उपद्रव होगा ही। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।। सब धामों में, सभी लोकों में, सभी आपदाएँ ऐसे नाश नहीं होतीं। परमात्मा के दर्शन से ही इनका नाश होगा। श्रीराम या श्रीकृष्ण के क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ-दोनों का दर्शन हो तो सब काम ठीक हो जाय। इसमें सत्य को कोई आँच नहीं। श्रीमाताजी के क्षेत्र का और उनके अंदर क्षे़त्रज्ञ का भी दर्शन हो। संतलोग इसी प्रकार का दर्शन करने कहते हैं। किंतु केवल वर्णात्मक नाम के जप से क्षेत्रज्ञ का दर्शन नहीं होगा। नाम जप से नामी के प्रति श्रद्धा होती है। और भजन करने में श्रद्धालु भक्त आगे बढ़ता है। भगवान के क्षेत्र रूप का दर्शन भी बड़े भाग्य से मिलता है और उनके क्षेत्रज्ञ-स्वरूप का दर्शन हो तो काम ही खतम हो जाएगा। जिस ईश्वर को सर्वव्यापी कहते हैं, वह वर्णात्मक शब्द में ही व्यापक हो और ध्वन्यात्मक में नहीं, यह कोई बात नहीं। शब्द केवल वर्णात्मक ही नहीं- ध्वन्यात्मक भी है। विद्वान जानते हैं कि शब्द दो तरह के होते हैं-सार्थक और निरर्थक। निरर्थक का अर्थ बेकार नहीं, अर्थरहित है। यह है ध्वन्यात्मक शब्द, और इसमें कितना गुण है कि गाते-गाते रोग छूटता है और चिराग भी जलता है। शंकराचार्य ने कहा है-‘मन तो भेरी, मृदंग और शंख आदि के आघातजन्य नादों में भी एक क्षण के लिए मग्न हो जाता है, फिर इस मधुवत् मधुर अखण्डित और स्वच्छ अनाहत नाद की तो बात ही क्या है?’ (प्रबोध सुधाकर) उन्होंने योगतारावलि में नादानु- संधान की स्तुति की है-
नादानुसंधान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महेतत्त्वपदंलयानाम्् ।
भवत्प्रसादात् पवनेन साकं विलीयते विष्णु पदे मनो मे ।।
 अर्थात् हे नादनुसंधान! आपको नमस्कार है, आप परमपद में स्थित कराते हैं, आप ही के प्रसाद से मेरा प्राणवायु और मन; ये दोनों विष्णु के परमपद में लय हो जाएँगे।
 ध्वन्यात्मक शब्द सुर है। श्रीमद्भागवत में तीन प्रकार के शब्दों का वर्णन है-प्राणमय, इन्द्रियमय और मनोमय। चेतन के संचार में जो ध्वनि हो वह प्राणमय शब्द है। मुँह और मन से वर्णात्मक नाम को जपो और प्राणमय शब्द जो ईश्वर का नाम है, वह जपने का नहीं है, उसमें सुरत लगाने का है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी इसका वर्णन निर्गुण राम-नाम कहकर वर्णन किया है-
बन्दउँ रामनाम रघुवर को। हेतु कृषाणु भानु हिमकर को।।
विधि हरि हर मय वेद प्रान सो। अगुण अनूपम गुण निधान सो।।
 जो वर्णात्मक शब्द है, वह त्रैगुणमयी है। क्योंकि इस कान से उसको सुनते हैं, मुँह से बोलते हैं। ध्वन्यात्मक अनाहत प्रणवनाद को सगुण कान से नहीं सुन सकते और न सगुण मुँह से बोल सकते हैं। वह निर्गुण है। नाम विषय में गोस्वामी तुलसीदासजी ने और भी कहा है-
 श्रवणात्मक ध्वन्यात्मक, वर्णात्मक विधि तीन ।
 त्रिविध शब्द अनुभव अगम, तुलसी कहहिं प्रवीन ।।
 भेद जाहि विधि नाम महँ, बिन गुरु जान न कोय ।
 तुलसी कहहिं विनीत वर, जो विरंचि शिव होय ।।
        -तुलसी सतसई
गुरु नानक साहब कहते हैं-
 सुनि मन भूले बावरे गुरु की चरणी लागु ।
 हरि जपि नाम धिआइ तू जम डरपै दुख भागु ।।
 यह ब्रह्मध्वनि सम्प्रज्ञात समाधि में सुनी जाती है। संत भक्त का वर्णन गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
शांत निरपेक्ष निर्मम निरामय अगुण शब्द ब्रह्मैक पर ब्रह्मज्ञानी।
 वह निर्गुण शब्द ब्रह्म के परे के स्वरूप को जाननेवाला होता है। यह शब्द ब्रह्म क्या है? ‘अक्षरं परमोनादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते’ है। यह निर्गुण है, यह ब्रह्म से प्रकट होता है। इसी के होने से त्रैगुणमयी प्रकृति का निर्माण होता है। इस नाद के बारे में उपनिषद् में ऐसा भी वर्णन है कि-
 द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्द ब्रह्म परं च यत् ।
 शब्द ब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।।
 अर्थात् दो विद्याएँ समझनी चाहिए, एक तो शब्दब्रह्म और दूसरा परब्रह्म। शब्दब्रह्म में जो निपुण हो जाता है, वह परब्रह्म को प्राप्त करता है।
 वह निर्गुण नाद है, यही अगुण शब्द है। इसका किसी संत ने कुछ कम और किसी ने कुछ विशेष वर्णन किया है।
 गोस्वामी तुलसीदासजी और सूरदासजी को लोग केवल स्थूल सगुण उपासक मानते हैं और गुरु नानक साहब और कबीर साहब को निर्गुण उपासक। बात यह है कि गोस्वामी तुलसीदासजी और सूरदासजी ने सगुण का वर्णन विशेष किया और निर्गुण का कम। और गुरु नानक साहब और कबीर साहब ने निर्गुण का विशेष और सगुण का कम वर्णन किया है। साहित्यिक विद्वानों से मेरा निवेदन है कि वे संतों के पारिभाषिक शब्दों को और उनके साधनों को भी जानें, केवल शब्दार्थ के बल पर संतों की वाणी का अर्थ ठीक-ठीक नहीं लगता। उनकी योगविद्या को जानिए और साधन कीजिए, तब अर्थ ठीक-ठीक लगेगा।
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यह प्रवचन मुजफ्फरपुर जिलान्तर्गत श्रीराजनारायण महाविद्यालय, हाजीपुर में दिनांक 1.10.1956 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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