131. संस्कृति का आरम्भ माता के पेट से
प्यारे विद्वानवृन्द तथा छात्रवृन्द!
आपके महाविद्यालय में आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परिषद् भी है, यह बड़ी प्रसन्नता की बात है। आज आप उसका वार्षिक महोत्सव मना रहे हैं, जिसके उद्घाटन का भार आपने मेरे ऊपर दिया है। किंतु मैं एक ऐसा आदमी हूँ, जो एकपक्षीय है। एक ही विषय को जानता हूँ। मैं नहीं जानता हूँ कि उद्घाटन किस तरह किया जाय। मैं आध्या- त्मिक प्रचार करता हूँ। मुझे विश्वास हो गया है कि बिना आध्यात्मिकता के राजनीति में शान्ति नहीं आ सकती। संतों ने जगत कल्याणार्थ आध्यात्मिकता के प्रचार का काम किया और आज भी वही बात चल रही है। इसका तो प्रचार होता ही है। सांस्कृतिक कार्य मनुष्य को सुधारकर उसके उदात्त गुणों को विकसित करता है। हमलोग सुधरे हुए कम हैं। कभी देखने में आता है कि सुधरे हुए नहीं हैं। इसलिए हमको सीखना होगा कि सुधरें कैसे? अच्छे आचरण से चलें, यही सुधार है। यदि अच्छे आचरण से नहीं चलें तो सुधार नहीं है। अच्छा सुधार बिना अच्छे संग और अच्छी विद्या के नहीं हो सकता। अच्छे आचरण से संसार में रहें, इसके लिए विद्या की बड़ी आवश्यकता है। साथ ही यह भी देखें कि हमारे यहाँ जो महान हुए, उनका आचरण कैसा था? उनके आचरण के मुताबिक चलें तो हमारा कल्याण होगा।
एक साधुवेशी हैं, वे मिड्ल स्कूल तक जाकर आसन सिखलाते हैं। एक जगह वे गए और जाकर विद्यार्थियों से पूछा कि प्रातःकाल उठकर आप क्या करते हैं? सबों ने उत्तर में बताया कि वे सुबह में उठकर क्या करते हैं। किंतु प्रश्नकर्ता किसी के उत्तर से संतुष्ट नहीं हुए। यही प्रश्न उन्होंने अध्यापकों से भी पूछा और उनके उत्तर भी संन्यासी को ठीक नहीं जँचे। उन्होंने कहा कि आपलोग तुलसीकृत रामायण नहीं पढ़ते हैं, इसलिए आपलोग नहीं जानते हैं कि प्रातःकाल क्या करना चाहिए।
प्रातकाल उठिकै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा।।
यह! यह नहीं कि एक दिन, बल्कि प्रत्येक दिन। हमारे देश में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम आदर्श राजा हुए। उनके नमूने पर हम चलें तो हमारा सुधार हो। यह देखिए कि उपर्युक्त आचरण अपने में है कि नहीं। भगवान बुद्ध का वचन है-‘जो बूढ़ों को प्रणाम और आदर करते हैं, उनकी चार चीजें बढ़ेंगी-आयु, सुख, सुन्दरता और बल।’ आप पूछेंगे कि भगवान बुद्ध ने यों ही कहा या होना भी संभव है, तो कहूँगा-होना संभव है। जिनको आप प्रणाम कीजिएगा, उनकी शुभेच्छा आपके प्रति होगी, यह संभव ही है। आज के वैज्ञानिक विद्वान भी कहते हैं कि मनोबल में भी कुछ बल है। शुभेच्छा में भी मनोबल है। जिसके लिए शुभेच्छा की गई, उसकी भलाई हो, पूर्णतया संभव है। भगवान बुद्ध महान व्यक्ति थे। वे विशेष अवतारों में गिने गए हैं। उनका वचन मिथ्या नहीं है। हमारा सुधार माता की गोद से ही होना चाहिए अथवा माता के पेट से ही सुसंस्कारित करने का प्रयत्न होना चाहिए। इसका अर्थ है-माता-पिता स्वयं समुचितरूपेण सुसंस्कृत हों। आपको आश्चर्य होगा कि बच्चा पेट में भी वेद पढ़ता है।
पराशर मुनि शक्ति मुनि के पुत्र थे और शक्ति मुनि वशिष्ठ के पुत्र थे। वशिष्ठ के सौ पुत्र थे, वे मारे गए थे। उन्होंने देखा कि एक पतोहू के गर्भ में बालक है, इसलिए उसकी किसी तरह सुरक्षा की जाय। उसको सुरक्षित स्थान में रखने के के लिए वे कहीं ले जा रहे थे। वशिष्ठ आगे और पतोहू पीछे थी। शक्ति मुनि की तरह कण्ठ स्वर से वह पेट का बच्चा वेद-ऋचा गाता था। वशिष्ठ ने कहा-‘पुत्री! यह कौन गा रहा है?’ पतोहू बोली कि वह आपका पोता है, जो मेरे गर्भ में है। आपको आश्चर्य होगा कि यह कैसे संभव है! किंतु परमात्मा की सृष्टि में क्या नहीं हो सकता! एक विद्वान आज कहते हैं कि सब मैंने बनाया। मैंने कहा कि संसार-भण्डार से कुछ लिए बिना एक घास या एक चुटकी मिट्टी बना दीजिए, हो नहीं सकता। ईश्वर की लीला अद्भुत है। परमात्मा की आश्चर्यमयी लीला है। कौन चीज कैसे बनी, कोई ठीक-ठीक कह नहीं सकता। प्रùाद अपनी माता के पेट में था। नारद ने जो ज्ञान प्रùाद की माता को सुनाया, वह ज्ञान प्रùाद को मिल गया और गर्भ से ही ज्ञान-ध्यान लेता आया। चक्रव्यूह का भेदन करना कोई नहीं जानता था, एक अर्जुन जानता था; किंतु वह दूसरी जगह युद्ध करने के लिए चला गया था। जिस समय अभिमन्यु पेट में था, उसी समय उसकी माता ने अर्जुन से जिज्ञासा की थी कि चक्रव्यूह में कैसे प्रवेश किया जाता है? उन्होंने वर्णन किया और उस विद्या को अभिमन्यु ने गर्भ में ही सीख लिया। संस्कृति का आरम्भ माता के पेट से होता हैै। इसके लिए चाहिए कि माता-पिता दोनों सुसंस्कृत हों और जन्म होने पर माता-पिता उसको अच्छे आचरण से रखें। घर का आचरण अच्छा हो। पाठशाला में जब वह जाय तो अध्यापक के उत्तम आचरण को देखकर बच्चे भी अच्छे आचरण सीख सकें।
मुहम्मद साहब के पास एक बुढ़िया अपने पोते को ले गई, जिसको सर्दी हुई थी। मुहम्मद साहब बोले-‘इसे कल ले आना।’ दूसरे दिन बुढ़िया फिर अपने पोते को लेकर मुहम्मद साहब के पास गई। मुहम्मद साहब बोले-‘आज जाओ, इसे कल ले आना।’ बुढ़िया फिर मुहम्मद साहब के पास आई। इस प्रकार कई दिनों तक लगातार उस बुढ़िया को मुहम्मद साहब बुलाते रहे और बुढ़िया आती रही। अन्त में मुहम्मद साहब बोले कि बच्चे को शक्कर नहीं खिलाओ, सर्दी छूट जाएगी। बुढ़िया भिन्नाई और बोली-‘आपने पहले ही दिन यह बात क्यों नहीं कही, जो आज लगातार कई दिनों तक हैरान कर लेने के बाद आपने यह बात कही है। मुहम्मद साहब बोले-मुझे भी सर्दी लगी थी और मैं भी शक्कर खाता था। किंतु शक्कर छोड़ देने पर मेरी सर्दी छूट गई। यदि मैं शक्कर खाता और दूसरों को शिक्षा देता कि शक्कर मत खाओ तो इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। मैंने शक्कर खाना छोड़ दिया है, तब आज मैंने तुमसे कहा है।
इसी तरह हमारे आचार्यगण, अध्यापकगण अपने में अच्छे आचरण लावें तो लड़के भी अच्छे आचरण से रहेंगे। उत्तम संस्कृति के लिए बड़ों का आदर और उनके सामने नम्र अवश्य रहें और अपने से छोटे को प्यार करें। यह शीलता है। शीलता कहते हैं सत्यता और नम्रता से मिल-जुलकर जो व्यवहार होता है। दिखलावे की बात नहीं हो, जो हो, सच्चाई की बात हो। तब हम अच्छे होंगे और हमारी संस्कृति अच्छी होगी। कितना अच्छा है कि-
प्रातकाल उठिकै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा।।
यदि आप ऐसा नहीं करते हैं तो आपने भारतीय आर्य के संस्कारों को छोड़ दिया है, यदि करते हैं तो भारतीय आर्य हैं। यों तो कई देश के लोग अपने को आर्य कहते हैं, किंतु हम भारतीय आर्य हैं। यदि हम नम्र नहीं होते हैं तो हम अपनी सुसंस्कृति छोड़ते हैं। आजकल विद्यालयों और महाविद्यालयों में लोग ऐसे बरतते हैं, जिससे अन्य लोग कुछ कहने लग गए हैं। लोगों को विद्यार्थी और अध्यापक दोनों के पक्ष में संशय हो गया है। जितने विद्यालय और महाविद्यालय हैं, उनमें-नम्रता तोड़कर व्यवहार करते प्रायः देखा जाता है। ये ऐसे संस्थान हैं, जहाँ से हम उत्तम संस्कार लेकर सुसंस्कृत होते हैं। यदि हम यहाँ भी नहीं सीखें तो फिर कहाँ जाकर सीखेंगे? यहाँ से शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद आप जहाँ कहीं भी रहें, वहाँ इतनी उत्तमता से रहें कि देश का कल्याण हो। हमको गौरव है कि हम परराज्य में नहीं रहते, अपने राज्य में हैं। इसमें उत्तमता तभी आवेगी, जब हम सुधरे हों। इसके लिए शील धारण कीजिए। शील निभाना है, तो आवश्यक यह है कि जिस काम के लिए जो व्रत है, उसमें मजबूत रहो। आर्य संस्कार में तो विद्यार्थी ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। आचार्य गृहस्थ होते हुए भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते थे। यहाँ ब्रह्मचर्य व्रत पर बहुत ख्याल रखना चाहिए। जहाँ ब्रह्मचर्य व्रत पर ख्याल नहीं है, वहाँ ओजपूर्ण तेज नहीं हो सकता, विद्या-ग्रहण की शक्ति पूर्णतया विकसित नहीं हो सकती। आपके महाविद्यालय में सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परिषद् का भी स्थान है, यह बहुत अच्छा है। सभी विद्यालयों में इस परिषद् का रहना अच्छा है। अभी आपलोगों ने सूरदासजी की वाणी सुनी। इसकी पुष्टि वेद, उपनिषद् और भगवद्गीता के वाक्यों में भी है। किंतु साक्षात्कार के बिना फिर भी संशय रह जाता है। ऐसा कहकर मैं ग्रंथों की निन्दा नहीं करता हूँ! ग्रंथों से ही साक्षात्कार नहीं होता, साधन द्वारा साक्षात्कार होता है और साक्षात्कार होने पर ही संशय छूटता है। सूरदासजी की वाणी को फिर दुहराता हूँ। वे कहते हैं-
अपुनपौ आपुन ही में पायो ।
शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो ।।
ज्यों कुरंग नाभि कस्तूरी, ढूँढ़त फिरत भुलायो ।
फिर चेत्यो जब चेतन ह्वै करि, आपुन ही तनु छायो ।।
राज कुँआर कण्ठे मणि भूषण,भ्रम भयो कह्यो गँवायो ।
दियो बताइ और सत जन तब,तनु को पाप नशायो ।।
सपने माहिं नारि को भ्रम भयो, बालक कहुँ हिरायो ।
जागि लख्यो ज्यां को त्यों ही है,ना कहूँ गयो न आयो ।।
सूरदास समुझै की यह गति, मन ही मन मुसुकायो ।
कहि न जाय या सुख की महिमा,ज्यों गूँगो गुर खायो ।।
पहले श्रवण-मनन अवश्य चाहिए, इसके बाद फिर अभ्यास भी करना चाहिए। सुनिए, समझिए और अपने अंदर में चलिए। जबतक अपने अंदर नहीं चले, तबतक आध्यात्मिकता पूरी हो नहीं सकती। आत्मा की तरफ लोग दो तरह से चलते हैं। एक आत्म उपासी बनकर अपनी खोज में आप जाते हैं। यह ज्ञान का पथ है। दूसरा भक्ति-मार्गी बनकर; वहाँ भक्त-भक्ति-भगवन्त तीनों यानी त्रिपुटी रहती है। कबीर साहब भक्त बनते हैं, भगवान को अपना मित्र और प्रभु बनाते हैं और उसको पाना अपने अंदर में बताते हैं और पानेवाला प्रेम का पागल होता है। इसलिए-
हमन है इश्क मस्ताना हमन को होशियारी क्या ।
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ।।
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर ब दर फिरते ।
हमारा यार है हममें, हमन को इन्तजारी क्या ।।
खलक सब नाम अपने को, बहुत कर सिर पटकता है ।
हमन गुरुनाम साँचा है, हमन दुनियाँ से यारी क्या ।।
न पल बिछुड़े पिया हमसे, न हम बिछुड़े पियारे से ।
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या।।
कबीरा इश्क का माता, दूई को दूर कर दिल से ।
जो चलना राह नाजूक है, हमन सिर बोझ भारी क्या।।
होशियारी नहीं तो क्या, बेवकूफी में रहने को कहा है? धूर्त्त भी होशियार होता है, जिसको अंग्रेजी में कनिंग ;ब्नददपदहद्ध कहते हैं। धूर्तता छोड़कर कबीर साहब होशियार थे। आजकल बहुधा धूर्तता की होशियारी है। ऐसी होशियारी को छोड़कर शुद्ध और सीधा रास्ता पकड़ो और उसमें होशियार रहो। ‘रहैं आजाद या जग से हमन दुनिया से यारी क्या।’ दुनिया से यारी मत करो तो क्या वैर करो? नहीं। आसक्ति छोड़कर रहो, अपनी सच्ची कमाई करो और अपना जीवन-यापन करो।
कबीर चाले हाट को, कहे न कोइ पतियाय ।
पाँच टके का दोपटा, सात टके को जाय ।।
यह कथा प्रसिद्ध है। कबीर साहब इतने संतुष्ट थे। वे थोड़े में गुजर करनेवाले थे और आध्यात्मिकता के शिखर पर चढ़े हुए थे। यह संस्कार, यह संस्कृति अपने देश की है। वे आजाद क्यों थे? इसलिए कि सांसारिक पदार्थों की आसक्ति उन्हें नहीं थी। ऐसा नहीं कि घर में खर्च-वर्च नहीं देते-चलाते थे या कि घर से अलग रहते थे अकर्मी में कर्मी और कर्मी में अकर्मी रहो। कर्म करो किंतु उसके फल में आसक्ति मत रखो, यह कर्म में अकर्म है और चुपचाप बैठा है, बाहर में कुछ नहीं करता है और भीतर में कर्म करता है, यह अकर्म में कर्म है। यह पाखण्ड है। किंतु बाहर में कुछ नहीं करे और भीतर से ईश्वर-भजन करे तो यह उत्तम है। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने कहा है कि यदि कोई माँ-बाप को मारता है और दूसरा कोई देखता है, कुछ बोलता नहीं है तो मारनेवाला तो विकर्म (निषिद्ध कर्म) करता ही है, साथ-ही- साथ वह देखनेवाला अकर्मी होते हुए भी उसके दुष्ट कर्म का भागी बनता है।
विकर्म का अर्थ निषिद्ध कर्म है। महात्मा गांधीजी तथा रामानुजाचार्यजी ने भी बताया है। इससे विपरीत अर्थ कोई करे, तो मानने योग्य नहीं है। आजादी-स्वतंत्रता तभी पूरी होती है, जब विषय- भोगों से हृदय को छुड़ाकर रखा जाता है। विषय- भोगों में आसक्त रहने से हानि ही होती है। आप सांसारिक कामों को भी करें, किंतु अनासक्त होकर, तो यही हमारे यहाँ की सांस्कृतिक शिक्षा है।
परमात्मा जीवात्मा से कभी नहीं बिछुड़ता। कबीर साहब को इसका पूरा ज्ञान था। इसलिए वे कहते हैं-‘न पल बिछुड़ें पिया हमसे, न हम बिछुडं़े पियारे से ।’
अंत में उन्होंने कहा कि ईश्वर और अपने में से दूई का भाव मिटाओ। यह केवल विचार द्वारा नहीं होता है, प्रत्यक्षता से होता है। ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।’ समष्टि रूप में परमात्मा और व्यष्टि रूप में जीवात्मा है। दोनों मिले ही रहते, किंतु जीव को यह ज्ञान नहीं होता। जब वह ध्यान करता है, तब उसकी प्रत्यक्षता होती है और द्वैत भाव मिटता है।
आपकी परिषद् सदा कायम रहे और आध्या- त्मिक पुस्तकालय भी हो। यों तो आपके महाविद्यालय में पुस्तकालय होगा ही। पुस्तकों के द्वारा तो ज्ञानार्जन होगा ही, साथ ही इसको अपने मस्तिष्क में भी रखें। हमारे प्यारे विद्यार्थीगण भी अध्यात्म-ज्ञान को अपने मस्तिष्क में रखें।
आपस में जो पदार्थ उलटे-उलटे होते हैं तो उनके गुण भी उलटे-उलटे होते हैं। अपरिमित तत्त्व एक ही हो सकता है, दो नहीं। जहाँ दो ससीम मिलेंगे, वहीं दोनों ससीम हो जाएँगे। यदि कहें कि एक दूसरे में व्यापक है तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि यदि वह जिसमें व्यापक है, उसके कण- कण में भी व्यापक है, तब कहेंगे कि परमाणु भी उसी तत्त्व से निर्मित है। यदि आप कहें कि परमाणु छोड़कर व्यापक है, तब कहेंगे कि वहाँ पर असीम व्यापक कहाँ हुआ। वहीं ससीम हो जाएगा। अद्वैतवाद पर भी ऐसा प्रश्न है कि जिसका उत्तर चुप्पी है। श्रीराम और वशिष्ठजी का संवाद ‘योगवाशिष्ठ’ में पढ़कर देखिए। वहाँ श्रीराम प्रश्न करते हैं तो वशिष्ठजी कुछ उत्तर नहीं देते हैं, चुप रहते हैं। श्रीराम पूछते हैं कि गुरुदेव! आप रुष्ट तो नहीं हो गए हैं? वशिष्ठजी कहते हैं-इसका उत्तर ही चुप है। यथार्थतः व्यवहार में अद्वैत कभी सिद्ध नहीं हो सकता, सिद्धान्त में अद्वैत रहता है। शरीर-ज्ञान में अद्वैत नहीं होता, आत्म-ज्ञान में अद्वैत होता है। सिद्धान्त सुनाने के लिए अद्वैत होता है।
ससीम जगत मे रहते हुए किसी को कल्याण नहीं है। इसका उलटा असीम है। उसका गुण कल्याणमय होना चाहिए। इसलिए ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए। ईश्वर की भक्ति करने की क्या आवश्यकता है?
एक कहानी है कि राजा जंगल शिकार खेलने गया। उन्होंने एक मुनि बालक को देखा, जो बहुत सुन्दर था। राजा ने उस बालक से कहा कि तुम मेरे साथ चलो। तुम वहाँ अच्छा-अच्छा खाना, अच्छा पहनना और अच्छे महल मे रहना। वह मुनि बालक बड़ा ज्ञानी था। उसने कहा-मुझे अच्छे-अच्छे खाना खिलाओ, तुम मत खाओ, मुझे अच्छे-अच्छे कपड़े पहनाओ तुम मत पहनो और मैं सोऊँगा, तुम जगकर मेरी पहरा करो। राजा ने कहा-ऐसा नहीं होगा। मैं जैसा खाना खाऊँगा, तुमको भी वैसा खिलाऊँगा, मैं सोऊँगा तो मेरी रक्षा पहरेदार करेगा, वैसे ही तुम सोओगे तो तुम्हारी रक्षा पहरेदार करेगा। मुनि बालक ने कहा-‘मुझे ऐसा मालिक नहीं चाहिए। मेरा मालिक ऐसा है कि मुझे खिलाता है, स्वयं बिना खाए रहता है। मुझे कपड़ा पहनाता है, स्वयं कुछ नहीं पहनता, मैं सोता हूँ और वह जगकर पहरा करता है। ऐसे मालिक को छोड़कर तुम्हारे साथ में क्यों जाऊँ।’
ईश्वर को न कुछ खाने की, न पहनने की, न कोई ऐसी चीज की आवश्यकता है। तब उसकी सेवा कैसे कीजिएगा? तब कहेंगे कि भगवान ने कहा है कि भक्तों के जल, पत्र, फूल को मैं ग्रहण करता हूँ, क्या इसको आप नहीं मानते? मैं मानता हूँ, किंतु वह चीज उन्हीं की है और उन्हीं को देते हैं, जिसकी उनको कोई आवश्यकता नहीं है। हम गौ पालन करते हैं, घी, दूध, मालपूआ भगवान को चढ़ाते हैं और कहते हैं कि हम चढ़ाते हैं। सब किया हुआ भगवान का है। उपर्युक्त बाह्य पूजा का सार यह है कि उसके द्वारा भक्त अपना भाव भगवान को अर्पण करता है। इसके अतिरिक्त और प्रकार की भक्ति है, भक्त को भगवन्त के दर्शन की जरूरत है, कुछ लेना-देना नहीं। भक्त पूजा करता है, ध्यान करता है और उसको पहचानता है, तो कहता है कि भगवान सदा से हमको अपनाए हुए हैं। किंतु भक्त जब नहीं भी जानता है, तब भी भगवान उसको अपनाए हुए रहते हैं, भगवान से बाहर कोई जा कहाँ सकता है? गंगा-सेवन करने में लोग गंगाजल पान करते हैं, गंगा किनारे में टहलते हैं और कहते हैं कि गंगा-सेवन करते हैं। औषधि-सेवन करते हैं और रोगमुक्त होते हैं। औषधि और गंगा के सेवन की जरूरत आपको ही है, किंतु उनको आपके सेवन की जरूरत नहीं। उसी तरह ईश्वर को अपनी भक्ति करवाने की कोई आवश्यकता नहीं, भक्त अपने लिए करता है। ईश्वर इन्द्रियगम्य नहीं, आत्मगम्य है। इसलिए ऐसा यत्न हो कि इन्द्रियों से छूटना हो सके। इन्द्रियों से छूटने के लिए यत्न करते हुए जो अंतर-अंतर चलता है, वह ईश्वर की भक्ति करता है। जैसे कोई गंगा- स्नान के लिए जैसे-जैसे पैर आगे बढ़ाता है, वैसे-वैसे गंगा की भक्ति होती है। गंगा किनारे पहुँचकर गंगाजी का दर्शन कर, उसके वायु मण्डल में रह उसका जल पान कर, उसमें स्नान करके गंगाजी की पूरी सेवा होती है, उसी तरह ईश्वर की ओर चलते-चलते ईश्वर का दर्शन करके उसके प्रभाव और उसमें रहकर भक्ति पूरी होती है। रामचरितमानस में नवधा भक्ति बतलाई गयी है-
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।
चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।
वर्णित भक्तियों में मन लगाना ही प्रधान है। मन नहीं लगाने से भक्ति नहीं होती है। पाँचवीं भक्ति तक सरल है, उसके बाद छठी भक्ति है-
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
दमशील कहते हैं इन्द्रिय-निग्रह के स्वभाववाले को। जानना चाहिए कि इन्द्रियाँ चलायमान कैसे होती हैं? जाग्रत में विषयों की ओर इन्द्रियाँ चलती हैं, स्वप्न में बाह्य प्रत्यक्ष विषयों की ओर नहीं चलतीं। मन की धारा इन्द्रियों तक रहने से इन्द्रियाँ विषयां की ओर होती हैं। स्वप्न में बाह्य इन्द्रियों से मन की धारा सिमटती है। तब इन्द्रियाँ बाह्य विषयों में नहीं जातीं। इन्द्रियों में मन की धारा जाती है। इसका केन्द्र कहाँ है? आज्ञाचक्र में हैं। आज्ञाचक्र के नीचे पाँच चक्र और हैं। आज्ञाचक्र छठा चक्र है। इसके मध्य में शिवनेत्र है। शिवनेत्र में मन का बासा है। ब्रह्मोपनिषद् में लिखा है-
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् ।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्निसंस्थितम् ।।
अर्थात् जीव का वासा जाग्रत में नेत्र में, स्वप्न में कण्ठ में, सुषुप्ति में हृदय में और तुरीयावस्था में मस्तक में होता है।
यदि आँख में वासा नहीं रहे तो हम कुछ नहीं देख सकते। आँख से देखते भी हैं और इन्द्रियों से काम भी करते हैं। तन्द्रावस्था में शक्ति भीतर में सिमटती है और धीरे-धीरे स्वप्न में चली जाती है। बाहर की इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हो जाती हैं। स्वप्न में कभी-कभी मुँह से भी बोल देते हैं, किंतु उसका ज्ञान आपको नहीं होता। स्वर आप बोल सकते हैं, किंतु व्यंजन बिना स्वर के नहीं बोले जा सकते। कण्ठ स्वर का स्थान है। इसलिए स्वप्न में कण्ठ में रहते हैं। उसके बाद सुषुप्ति में हृदय में चले जाते हैं, वहाँ स्वर नहीं है, व्यंजन है। इसलिए वहाँ कुछ बोल नहीं सकते। यहाँ द्वादश दल कमल का होना बताया जाता है। कण्ठ में षोडस दल कमल है। एक-एक अक्षर के स्थान को कमल का एक-एक दल कहते हैं। जाग्रत में आँख में, स्वप्न में कण्ठ में और सुषुप्ति में हृदय में वासा होता है। तुरीय में मूर्द्धा में वासा होता है।
इन्द्रियों को काबू में लाने के लिए आपको क्या करना चाहिए? आँख से नीचे रोज उतरते हैं, किंतु इन्द्रियाँ काबू नहीं होतीं। इसलिए इसके उलटे
अर्थात् आँख के ऊपर जाइए। ख्याल से आँख के ऊपर जाना नहीं होगा। इसके लिए युक्ति है। युक्ति से अपने को आज्ञाचक्र में स्थिर रखिए। जब आप गुरु के द्वारा बतायी गयी युक्ति से विन्दुविशेष पर दृष्टिधारों को समेट लेंगे, तब मन का पूरा सिमटाव हो जाएगा। जब मन का पूरा सिमटाव हो जाएगा तो अनिवार्य रूप से उसकी ऊर्ध्वगति होगी। ऊपर होने से आप मूर्द्धा में होंगे। तब आपको बाह्य इन्द्रियों के ज्ञान से छुट्टी मिलेगी। जैसे स्थूल शरीर में रहते हुए आप बाहर संसार के स्थूल जगत पर विचरते हैं, उसी तरह पिण्डस्थ सूक्ष्म शरीर में रहकर आप सूक्ष्म जगत में विचरिएगा। यह है ब्रह्माण्ड में प्रवेश करना। इसका विशेष अभ्यास करने पर इन्द्रियां पर काबू होगा। आप तो अंतर में रहेंगे, बाहर की इन्द्रियाँ निश्चेष्ट रहेंगी। इसी को कहा है कि अपने अंदर में स्थिर होने पर गति होती है। ‘बैठे ने रास्ता काटा, चलते ने बाट न पायी।’ यही छठी भक्ति है। यह ‘दम’ का साधन है। योगशास्त्र में ‘दम’ और ‘शम’ का बहुत महत्त्व है। योगशास्त्र के असली पदार्थ ये दो ही हैं। ‘दम’ के साधन में मन और इन्द्रियों का साधन संग-संग होता है और ‘शम’ के साधन में केवल मन का। अपने को नयनाकाश के तल पर दृष्टि के प्रयोग से स्थिर करना होगा। दृंष्ट के साथ-साथ इन्द्रियों की सभी धारें मिली-जुली हैं। जैसे दोनों हाथों से किसी चीज को पकड़ने से समूचे शरीर का बल उस ओर फिर जाता है, उसी तरह दोनों दृष्टियाँ जहाँ दृढ़तापूर्वक स्थिर होकर रहेंगी, समूचे शरीर की चेतनधारा उधर उलट और सिमट जाएगी। मेसमेराइजर लोग दृंष्ट का प्रभाव डालकर काम करते हैं। अजगर साँप दृष्टि से दृष्टि लगाकर ही खींचता है। बिजली गिरते देखने से शरीर की चेतना-शक्ति खिंच जाती है और वह मर जाता है। इसलिए दृष्टि का साधन अच्छी तरह होना चाहिए।
सातवीं भक्ति के लिए आंतरिक नाद का अभ्यास करो। वह ब्रह्मध्वनि है। वहाँ केवल मन ही लगता है और जाता है। बाहरी इन्द्रियाँ न लगती हैं और न जाती हैं। नाद साधन में बड़ी शान्ति आती है और चंचलता दूर होती है।
नास्ति नादात्परो मंत्रो न देवः स्वात्मनः परः ।
नानुसंधेः परा पूजा न हि तृप्तेः परं सुखम् ।।
अर्थात् नाद से बढ़कर कोई मंत्र नहीं है, अपनी आत्मा से बढ़कर कोई देवता नहीं है, (नाद वा ब्रह्म की) अनुसन्धि (अन्वेषण वा खोज) से बढ़कर कोई पूजा नहीं है तथा तृप्ति से बढ़कर कोई सुख नहीं है-‘न नाद सदृशो लयः।’ -शिव संहिता
नादविन्दूपनिषद् में है-
मनोमत्त गजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः।
नियामन समर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः।।
नादोऽन्तरंग सारंग बन्धने वागुरायते ।
अन्तरंग समुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि वा ।।
अर्थात् नाद मदान्ध हाथीरूप चित्त को, जो विषयों की आनंदवाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है। मृगरूपी चित्त को बाँधने के लिए यह (नाद) जाल का काम करता है। समुद्र तरंग रूपी चित्त के लिए यह (नाद) तट का काम करता है।
नाद की बड़ी तारीफ है। संतों ने नाद-साधन पर बड़ा जोर दिया है, किंतु नाद-साधन तब किया जाता है, जब भीतर में प्रवेश करने का अभ्यास कुछ-न-कुछ हो। नाद-साधन को शब्द-साधन भी कहते हैं। इसमें केवल वृत्ति लगाकर रहते हैं, यही ‘शम’ का साधन है। कितने कहते हैं कि नवधा भक्ति में ‘शम’ नहीं है, ‘सम’ है। ‘सम’ का अर्थ ‘समता’ होता है। बिना ‘शम’ साधन के किए समता नहीं हो सकती है। समत्व को योग कहते हैं। समत्व समाधि में प्राप्त होता है, गीता में कहा है। जहाँ मनोनिग्रह नहीं है, वहाँ समत्व कैसे हो सकता है। नादानुसन्धान से मन का पूरा सिमटाव होगा। इतना सिमटाव होगा कि मन, मन ही नहीं रहेगा, केवल निर्मल सुरत रहेगी। वही उस नाद को सुनेगी। उस शब्द को पकड़ने से या उससे पकड़ा जाने पर वह उस ओर खिंच जाएगा। जैसे लोहा, जो चुम्बक से पकड़ा जाता है, चुम्बक के केन्द्र मेंे खिंच जाता है। चुम्बक से लोहे को छुड़ाया भी जा सकता है, किंतु उस नाद से चेतन आत्मा के पकड़े जाने पर उसको कोई छुड़ा नहीं सकता। वज्राघात होने पर भी नहीं छूट सकता। इसीलिए कहा है-
सोवत-जागत ऊठत-बैठत, टुक विहीन नहिं तारा ।
झिन-झिन जंतर निशि दिन बाजै, जम जालिम पचिहारा ।।
यही भक्ति है। उसके बाद आठवीं और नवमी भक्ति तो उसके गुण हो जाते हैं। साधन तो नादानुसंधान तक है। निर्गुण नाम-भजन से ही वहाँ तक पहुँचा जाता है। मुँह, कान और मन सगुण है, इनसे निर्गुण नाद ग्रहण नहीं हो सकता। पहले सगुण नाम को जपते हैं, फिर निर्गुण नाद को ग्रहण करते हैं। आप जप कीजिए, पूजा कीजिए, किंतु मन उसी ओर रहे। पूजा-पाठ मन को एकओर करने के लिए है। बाहरी पूजा, जप भी ऐसी चीज नहीं है कि आध्यात्मिकता में उसकी कोई आवश्यकता नहीं। जप, प्रार्थना, स्तुति, प्रेयर ;च्तंलमतद्ध सब कुछ कीजिए, मन की एकाग्रता के लिए कीजिए। मन की एकाग्रता के लिए प्राणायाम की भी उपादेयता मानी जाती है और यह बिना प्राणायाम के भी हो सकती है। प्राणायाम में कुछ विघ्न भी है, उसको छोड़कर केवल ध्यान कीजिए तो कोई हानि नहीं। कबीर साहब ने कहा है-
पासहिं बसत हजूर तू चढ़त खजूर है ।
संस्कृति अच्छी होनी चाहिए। अच्छी संस्कृति के लिए झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार नहीं करो।
प्यारे विद्यार्थियो! विद्या सीखो, पास या परीक्षोत्तीर्ण होना क्या है? जो विद्या पढ़ेगा, पास उसका गुलाम है। कितने लोग साधु के पास जाते हैं कि पास करा दो। यदि आपकी योग्यता पास की नहीं है, तो साधु भी तो इन्साफ करता है, वह कैसे आपको पास करावेगा। इसलिए मन से पढ़िए, अच्छे मन से पढ़िए। आपके अच्छे मकसद पूरे हों, यही मैं चाहता हूँ।
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यह प्रवचन वैशाली जिलान्तर्गत श्रीराजनारायण महाविद्यालय, हाजीपुर में दिनांक 1.10.1956 ई0 को उद्घाटन भाषण के रूप में, प्रातःकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था।
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