1955 (प्रवचन संख्या : 099-130 )

099. भया जी हरि रस पी मतवारा (15.02.1955)


99. भया जी हरि रस पी मतवारा
विमल विमल अनहद धुनि बाजै, सुनत बने जाको ध्यान लगे।।
सिंगी नाद संख धुनि बाजै, अबुझा मन जहाँ केलि करे ।
दह की मछली गगन चढ़ि गाजै, बरसत अमि रस ताल भरे।।
पछिम दिसा को चलली विरहिन, पाँच रतन लिए थार भरे।
अष्ट कमल द्वादस के भीतर, सो मिलने की चाह करे।।
बारह मास बुन्द जहाँ बरसै, रैन दिवस वहाँ लखि न परे ।
बिरला समुझि परे वहि गलियन, बहुरि न प्रानी देह धरे ।।
काया पैसि करम सब नासै, जरा मरन के संसे गये।
निरंकार निर्गुन अविनासी, तीनि लोक में जोति बरे।।
कहै कबीर जिनको सतगुरु साहब, जन्म जन्म के कष्ट हरे।
धन्य भाग जिनकी अटल साहिबी, नाम बिना नर भटकि मरे।।
       -संत कबीर साहब
 भया जी हरि रस पी मतवारा ।
 आठ पहर झूमत ही बीते, डारि दियो सब भारा ।।
 इड़ा पिंगला ऊपर पहुँचे, सुखमन पाट उघारा ।
 पीवन लगे सुधा रस जब ही, दुर्जन पड़ी बिडारा ।।
 गंग जमुन बीच आसन मारयो, चमक चमक चमकारा ।
 भँवर गुफा में दृढ़ ह्वै बैठे, देख्यो अधिक उजारा ।।
 चित स्थिर चंचल मन थाका, पाँचों का बल हारा ।
 चरणदास कृपा सूँ सहजो, भरम करम भयो छारा ।।
      -भक्तिन सहजोबाई


धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 भजन-कीर्तन को सुनो, समझो और वैसा करो। इसीलिए भजन-कीर्तन होता है। ‘विमल विमल अनहद धुनि’ तब मालूम होती है, जब ध्यान किया जाता है। ‘हरि रस पी मतवारा ।’ हरि-रस पीकर मतवाला हो गया। यह कहाँ होता है? तो कहा-इड़ा-पिंगला के ऊपर सुषुम्ना पाट उघरने पर-‘इड़ा पिंगला ऊपर पहुँचे, सुखमन पाट उघारा।’ आपका मन भजन में लगे, मन में भजन करने का प्रेरण हो, इसलिए वार्षिक सत्संग होता है, प्रदर्शनी के लिए नहीं। हरि-रस किसको कहते हैं? जब ध्यान लगेगा और विमल-विमल अनहद ध्वनि सुनोगे, उसमें जो आनंद होता है, वहीं हरि-रस होता है।
 दृष्टियोग करते हुए पहला दृश्य अन्धकार रह गया, तब तुम प्रत्याहार करते रहे, धारणा नहीं हुई। प्रत्याहार में ख्याल नहीं रहता है, मन भागता रहता है। कभी-कभी दूर-दूर तक, देर-देर तक ख्याल नहीं रहता है। बहुत देर के बाद ख्याल आता है कि ध्यान करने के लिए बैठा था, मन कहाँ-कहाँ चला गया, यह लँगड़ा प्रत्याहार है। जिसको प्रत्याहार नहीं होगा, उसको धारणा कहाँ से होगी। धारणा ही नहीं होगी, तो ध्यान कहाँ से होगा? इसीलिए मुस्तैदी से भजन करो। भजन करने की प्रेरणा हो, इसलिए सत्संग है। मन- बहलाव के लिए सत्संग नहीं है। विमल-विमल अनहद ध्वनि होती है, सो बिना ध्यान लगे क्या सुनेगा? जब बाहर के बाजे-गाजे और मधुर संगीत को सुनकर भी मन उस ओर लग जाता है, तब अंदर की विमल-विमल अनहद ध्वनि सुनने में कैसा मन लगेगा, कहा नहीं जा सकता। बिना ध्यान किए विमल-विमल अनहद ध्वनि और हरि-रस को कोई नहीं जान सकता। हरि-रस को ही गोस्वामी तुलसीदासजी ने ब्रह्म-पीयूष कहा है-
     ब्रह्मपियूष मधुर शीतल जो, पै मन सो रस पावै।
     तौ कत मृग जल रूप विषय, कारण निशिवासर धावै।।
 जिसको विशेष पदार्थ मिल गया, वह विषयों में क्यों दौड़ेगा? जो कोई कहे कि मुझे हरि-रस मिल गया तो उसको देखिए कि वह विषय-रस की ओर दौड़ता है या नहीं। यदि मन विषय-पदार्थ की ओर दौड़़ता है और वह कहता है कि मुझे हरि-रस मिला है तो वह झूठा आदमी है, वह झूठ कहता है।
श्रीगुरु पद नख मनिगन जोती। सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती।।
यहाँ हरि-रस है। सहजोबाई कहती हैं-‘भया जी हरि रस पी मतवारा ।’ हरि-रस के लिए सबको कोशिश करनी चाहिए। बिना हरि-रस के अपना कल्याण नहीं होगा और न दूसरे की भलाई हो सकती है।
 केवल कर्मयोगी होने से नहीं होगा। कर्मयोगी बनने के लिए ऐसा कहना कि श्रीराम और श्रीकृष्ण भजन-ध्यान नहीं करते थे, ठीक नहीं। श्रीराम के भजन-ध्यान के लिए तो गोस्वामीजी ने ऐसा वर्णन किया है कि वे ध्यान में जैसे डूबे ही रहते थे।
 भगवान श्रीराम केवल रावण को मारने और कुम्भकरण को पछाड़ने के लिए ही नहीं थे, जब श्रीराम रावण से युद्ध करने के लिए जाते हैं, तो विभीषण कहते हैं-‘नाथ न रथ नहिं तन पदत्राणा।’ हे नाथ! आप न तो रथ पर सवार हैं और न आपके पैर में जूते हैं। इस बलवान शत्रु को कैसे मारिएगा? श्रीरामजी ने कहा-
सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहि जय होय सो स्यन्दन आना।।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य शील दृढ़ ध्वजा पताका।।
बल बिवेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे।।
ईस भजन सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना।।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिज्ञान कठिन कोदंडा।।
अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना।।
कवच अभेद बिप्र गुरु पूजा। एहि सम विजय उपाय न दूजा।।
सखा धरम मय अस रथ जाके। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताके।। कृपानिधान रामजी ने कहा कि हे मित्र! सुनो, जिससे जीत होती है, वह दूसरा ही रथ है। शूरता और धीरज उस रथ के पहिए हैं, सत्यता मजबूत ध्वजा और शीलता पताका है। सारासार का ज्ञानबल, इन्द्रियों की रोक और परोपकारी घोड़े हैं, क्षमा, कृपा और समता की रस्सी से जुड़े (बँधे) रहते हैं।
ईश्वर का भजन अति चतुर सारथी है, वैराग्य ढाल और सन्तोष तलवार है। दान, फरसा, ज्ञान तेज बर्छी और श्रेष्ठ विज्ञान (अनुभवज्ञान) कठिन धनुष है। निर्मल और स्थिर मन तरकश के समान है; शम, यम और नियम नाना प्रकार के तीर हैं।
ब्राह्मण और गुरु की पूजा नहीं छिदने योग्य सनाह (जिरह बख्तर) है, इसके समान विजय के लिए दूसरा उपाय नहीं है। हे सखा! जिसके पास ऐसा धर्ममय रथ है, उसको जीतने के लिए कहीं भी शत्रु नहीं है। समता कैसे होगी? समता ‘शम’ से होगी। ‘शम’ मनोनिग्रह को कहते हैं। केवल मन में कर लेना कि ‘सम’ है, हो नहीं सकता। कर्म से उसकी पहचान हो जाएगी। ‘कवच अभेद बिप्र गुरु पूजा ।’ विप्र का अर्थ यहाँ विद्वान है। ‘ईस भजन सारथी सुजाना।’ ईश्वर का भजन सुजान सारथी है। कृष्ण अर्जुन के सारथी थे। जिसका सारथी है ईश-भजन, वह ईश-भजन नहीं करे तो सारथी कहाँ से मिले। भगवान श्रीकृष्ण के लिए श्रीमद्भागवत में पढ़िए, वे नित्य ध्यान करते थे। यदि हम कहें कि सब कोई संध्या के समय ध्यान करते थे और श्रीकृष्ण घोड़े की परिचर्या करते थे, कितनी बुरी बात है! ऐसा कहना कि केवल काम ही करो, ध्यान नहीं करो; कितना आश्चर्य है! पाखाने के लिए, बोलने के लिए और गप-शप करने के लिए समय मिलता है और भजन करने का समय नहीं मिलता है! पखाना जाने से शरीर के भीतर का मल निकलता है और ध्यान करने से चित्त का मल निकलता है। देश का काम करते हो और पखाना भी जाते हो। इसी तरह देश का काम भी करो और ध्यान भी करो। ऐसा नहीं समझो कि ध्यान करने लगेगा, तो देश का काम नहीं करेगा। जो ऐसा समझते हैं, उनकी भूल है।
 इड़ा पिंगला ऊपर पहुँचे, सुखमन पाट उघारा।
 सहजोबाई ने कहा है। यही भजन-भेद है। जो भजन करता है, वह समझता है। शब्दार्थ करने की आवश्यकता नहीं। इड़ा बायीं धार और पिंगला दायीं धार और मध्य में सुषुम्ना है। वही ब्रह्म-पीयूष है। ध्यान में किसी ने विघ्न किया होगा, इसलिए कहा- ‘दुर्जन पड़ी बिडारा।’ इसी को दूसरी तरह से कहा-
       ‘गंग जमुन बीच आसन मारयो, चमक चमक चमकारा।
        भँवर गुफा में दृढ़ ह्वै बैठे, देख्यो अधिक उजारा ।।’
      ‘पिंगल दहिन गंग सूर्य, इंगल चन्द जमुन बाई ं।
        सरस्वती सुखमन बीच, चेतन जलधार नाई ं।।’
 ‘चमक चमक चमकारा’ उनको प्रकाश होने लगा। भँवर गुफा में थिर हो गई, फिर क्या हुआ? चित्त स्थिर हुआ, चंचल मन थक गया और पाँचों ज्ञानेन्द्रियों का बल हार गया। सहजोबाई कहती है कि ऐसा जो हुआ, सो गुरु चरणदासजी की कृपा से हुआ।
***************
यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत सत्संग के विशेषाधिवेशन, भंगहा (कटिहार) में दिनांक 15.2.1955 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



100. निज काम क्या है?
प्यारे लोगो!
 आस्तिक कुल में जन्म लेने से जब किन्हीं को कुछ समझ-बोध होता है, तब से उनको अपने घर के विश्वास के अनुकूल विश्वास होता है कि ईश्वर है; क्योंकि आस्तिक घरों में कोई-न-कोई शब्द, जो ईश्वर-संबंधी है, बोला जाता है। यह सिलसिला चलता ही रहता है। वही बच्चा जिसने बचपन में अपने घर में ईश्वर होने का विश्वास पाया है, जवान और बूढ़ा होता है और यह विश्वास अपने संग लिए चल देता है। संग के कारण इसमें अदल-बदल भी हो जाता है। ईश्वर नहीं माननेवाले का संग अधिक हो जाने से पहला विश्वास जाता रहता है। जिन लोगों का विश्वास नहीं जाता है, उनसे आप युवा या वृद्ध किसी अवस्था में पूछिए कि ईश्वर क्या है, तो वे पूरा- पूरा कह नहीं सकते। घर के सिखाए अनुकूल वे शिव या महादेव कोई ईश्वर-वाचक नाम कहते हैं। किसी घर में कोई कहते हैं कि विष्णु भगवान हैं; और वे उस रूप का वर्णन करते हैं। कोई माता के रूप में देवी का वर्णन करते हैं। किन्हीं के घर का ईश्वर अमूर्त्त है। वे ऐसा कहते हैं कि वह अकाल है, अमूर्त्त है; परन्तु बिल्कुल ठीक-ठीक बता देने में बहुत गम्भीरता है। कहनेवाले कहते हैं कि वह अनेक रूपों में है; लेकिन अनेक कहने पर भी वह एक है। अनेक नाम रूपों में वह एक-ही-एक है। ऐसा विशेष ज्ञान जाननेवाले लोग कहते हैं। वह शिव नहीं, विष्णु नहीं, अकाल अमूर्त्त नहीं-ऐसा नहीं कहते। वे कहते हैं, सब ठीक है। यह कहकर वे समझाते हैं कि अनेक नाम-रूप होने पर भी एक ही है वह। विष्णु एक रूप, शिव एक रूप और देवी एक रूप, ये अनेक रूप हैं; फिर भी वह एक है। उस एक को समझाना कठिन हो जाता है। इसके लिए मिसाल यह है कि बाहर में शून्य है। यह विस्तृत आकाश (शून्य) सब घरों के बनने से पहले का है और इसके अंदर बहुत से घर बन गए हैं और बनते जाते हैं, फिर सब घरों में शून्य है। वस्तु बनने पर भी शून्य रह ही जाता है। यदि घर से सभी वस्तुओं को निकाल लीजिए, तो फिर भी शून्य रह ही जाता है। जितने घर हैं और उन घरों के अतिरिक्त जंगल, पहाड़, चन्द्र, सूर्य, भूमण्डल जो कुछ हैं, सबके बनने के पहले से ही शून्य था। अगर शून्य नहीं हो, तो कोई वस्तु रख नहीं सकते। और सब कुछ के बनने पर जंगल, पहाड़, चन्द्र, सूर्य में शून्य समझना कठिन होगा, लेकिन घर का शून्य समझने में कठिन नहीं होगा। घर बनने के पहले शून्य था। घर में शून्य है। सब वस्तुओं को घर से निकाल दो, फिर भी शून्य है। घर के शून्य को बाहर के शून्य से मेल है। वह टूटकर अलग नहीं हो गया है। एक घर का शून्य एक प्रकार का, दूसरे घर का शून्य दूसरे प्रकार का। प्रत्येक घर का आकार अलग-अलग है। सब आकारों के शून्य को विचारिए तो घर और बाहर के शून्यों का एक ही प्रकार होता है। जैसे विविध आकार-प्रकार के घरों में आकाश एक ही है, उसी तरह शिव, विष्णु, शक्ति, गणेश आदि सबमें वह ईश्वर एक ही है। इसलिए कहते हैं कि इनमें भेद नहीं है। सब आकारों को अलग कर दो, तब वह कैसा? तब वह आकार नहीं रखता। आकार में रहने के कारण आकार-सदृश और आकार को हटा दो, तो आकार-रहित। मूलस्वरूप उसका आकार- रहित है। अभी जो पाठ हुआ-
निर्मल निराकार निर्मोहा। नित्य निरंजन सुख संदोहा।।
 ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान रखना चाहे तो यह ईश्वर है। आकाश का उदाहरण तो दिया, किंतु वह वस्तुतः आकाश के जैसा नहीं है। इससे भी विलक्षण है। विलक्षणता क्या है? पहाड़, नदी, जंगल आदि सब कुछ आकाश के अन्दर हैं। यह आकाश स्थूल आकाश है। यह कितना बड़ा है? यह प्रत्यक्ष नहीं देख पाते कि कहाँ इसका अंत है। ज्ञान कहता है कि इसका अंत है। स्थूल आकाश, सूक्ष्म आकाश, कारण आकाश, महाकारण आकाश ईश्वर के अंदर कितने घुसे हुए हैं ठिकाना नहीं। वर्णित आकाश उस परमात्मा में कितने समाए हुए हैं, ठिकाना नहीं, फिर भी वह खाली रहता है। इसलिए ‘नभ सत कोटि अमित अवकाशा’ कहा। आकाश स्वयं झीना है, किंतु वह कितना झीना है कि सभी उसमें समाए हुए हैं। बुद्धि निर्णय करती है, किंतु पहचान नहीं सकती कि वस्तु रूप में वह क्या है। वस्तु रूप में संसार की वस्तुओं को कैसे जानते हैं? बोला जानेवाला, सुना जानेवाला पदार्थ शब्द है। प्रश्न हो कि शब्द क्या है, तो कहेंगे कान से जो पकड़ा जाय, वह शब्द है। जो आदमी जन्म से बहरा है, वह आँख से देख सकता है, किंतु बहरा रहने के कारण कुछ सुन नहीं सकता। उसको किसी तरह लिखने-पढ़ने के लिए सिखलाया जाय और उसको लिखकर दिया जाय कि कान से जो सुनते हो, वह शब्द है तो वह समझेगा कि कान से जो सुना जाता हो, वह शब्द है; किंतु हमारा कान खराब है, इसलिए हम नहीं सुन सकते हैं। वह समझ जाएगा कि श्रवण-शक्ति से जो पकड़ा जाय, वह शब्द है। जो नेत्र से ग्रहण हो, वह रूप है। इस तरीके से भी वस्तु को जाना जाता है। अंधे को यदि समझाया जाय कि तुम नहीं देख सकते हो; किंतु मैं देखता हूँ। आँख से जो पकड़ा जाय, वह रूप है। इसी तरह वस्तु रूप में वह परमात्मा क्या है? अनेक आकाश जिसके अन्दर समा जाते हैं, वह आकाश है, यदि ऐसा कहा जाय तो भी समझ में ठीक-ठीक नहीं आता। पहले तो अपने को पहचानो कि तुम कौन हो? प्रत्येक इन्द्रिय का अलग-अलग विषय है। तुम इस शरीर में रहते हो, तुम्हारा निज काम क्या है? अभी तुम इन्द्रियों में रहते हो। इन्द्रियों से अलग होकर तुम्हारा क्या काम है? अपने को इन्द्रियों के द्वारा नहीं पहचानते हो। अपने को अपने द्वारा और अपने ही द्वारा परमात्मा को प्राप्त करोगे। जो तुम्हारा निज विषय है, वह परमात्मा है। जैसे आँख का विषय कान से नहीं जाना जाता, आँख से ही जाना जाता है, उसी प्रकार आत्मा जीवात्मा से ही जाना जाता है, दूसरे से नहीं। ईश्वर का ज्ञान सत्संग से होता है। जो केवल निज आत्मा से जाना जाता है, वही ईश्वर है। आपको आँख से रूप देखने में आता है, कान से शब्द सुनने में आता है, किन्तु अपने से कुछ करने नहीं आता। आप देह और इन्द्रियों से फूटकर जान सकेंगे कि आप अपने से क्या कर सकते हैं। जाग्रतावस्था में आप काम करते हैं। स्वप्न से यदि आप जगकर देखें तो ज्ञात होगा कि यह शरीर बिछौने पर पड़ा था और मानसिक कर्म होता था। जिस प्रकार शरीर और इन्द्रियों को छोड़कर बौद्धिक कर्म होता है, उसी तरह शरीर और इन्द्रियों को छोड़कर परमात्म-ज्ञान होता है। वह ईश्वर एक है। जबतक उसका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता, परम कल्याण नहीं होता। इसलिए संतों ने उसको प्राप्त करने के लिए कहा। वह अंतर्मुख होने से जाना जाता है। शरीर से संबंधित रहने से उसको नहीं जान सकते। अंतर-अंतर अभ्यास करना होगा। अभ्यास करते- करते जड़-चेतन अलग-अलग होंगे। तब उसकी पहचान होगी। श्रवण-ज्ञान और समझ-ज्ञान से उसका प्रत्यक्ष-ज्ञान नहीं होता। इसके लिए बहुत पवित्र बनना होगा। जो संसार के प्रलोभनों में नहीं उलझता, जो पापों से बचा रहता है, ध्यानाभ्यास करता है, उसको परमात्मा प्रत्यक्ष होता है। लोग कहते हैं कि अयोग्य को क्या कहना है। मैं कहता हूँ कि आप उसे योग्य बना दीजिए। केवल रामनाम, सतनाम आदि कहता है, तो यह अपूर्ण ज्ञान है। पूर्ण ज्ञान के लिए उसे समझाओ, सिखाओ।
***************
यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर जोतरामराय में दिनांक 18.2.1955 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



101. सुमिरण से क्या होता है?

प्यारे लोगो! 

सुमिरन से सुख होत है, सुमिरन से दुख जाय ।
कह कबीर सुमिरन किये, साईं माहिं समाय ।।
राजा राणा राव रंक, बड़ा जो सुमिरे नाम ।
कह कबीर सोइ पीव को, जो सुमिरे निःकाम ।।
नर नारी सब नरक है, जब लगि देह सकाम ।
कह कबीर सोइ पीव को, जो सुमिरे निःकाम ।।
सुमिरन से मन लाइये, जैसे दीप पतंग ।
प्राण तजे छिन एक में, जरत न मोड़े अंग ।।
सुमिरन से मन लाइए, जैसे नाद कुरंग ।
कह कबीर बिसरे नहीं, प्राण तजे तेहि संग ।।
सुमिरन से मन लाइये, जैसे पानी मीन ।
प्राण तजे पल बिछुड़े, सत कबीर कहि दीन ।।

सुमिरण का अर्थ स्मरण करना है। तरह-तरह से सुमिरण या याद किया जा सकता है। सुमिरण करने से क्या गुण-क्या फल होता है, सो भी कहा। सुमिरण से सुख होता है, दुःख भाग जाता है। अंत में परमात्मा मिल जाते हैं। राजा-रंक कोई हो, बड़ा वही है जो सुमिरण करता है। धन में बड़ा हो, प्रतिष्ठा में बड़ा हो, जाति में बड़ा हो; किंतु सुमिरण नहीं करता है, तो पारमार्थिक दृष्टि से वह बड़ा नहीं है। फल-सहित होकर जो भजन करता है, वह ठीक नहीं। जो निष्काम होकर भजन करता है, वह परमात्मा को पाता है। जैसे घर से सभी चीजों को निकाल देने से खाली जगह बच जाती है, उसी तरह हृदय से सभी फलाशा छोड़ देने पर हृदय में केवल ईश्वर रह जाएँगे। सांसारिक सभी इच्छाओं को छोड़ दो और भजन करो, तो परमात्मा मिल जाएँगे।

एक राजा की बहुत-सी रानियाँ थीं। विदेश जाते समय राजा ने सभी रानियों से पूछा-‘तुम्हारे लिए क्या लाऊँ।’ सभी ने अपनी-अपनी इच्छानुकूल चीजें लाने को कहा। किंतु एक रानी ने कहा कि मुझे कुछ नहीं चाहिए, केवल आप कुशलपूर्वक मेरे पास आ जाइए। राजा विदेश से लौटकर आया तो सब रानियों को उनकी माँग के अनुकूल चीजें दीं और अपनी उस रानी के पास चला गया, जिसने कुछ माँग नहीं की थी। अब सोचिए, जिसका राजा ही अपना हो गया, उसको क्या कमी रही? सभी खजाना उसी का हो गया। इसी प्रकार परमात्मा जिसके हो जाएँगे, उसको किसी चीज की कमी नहीं रहेगी।

सुमिरण तीन तरह से होता है-एक तो जोर- जोर से पुकारकर, दूसरा धीरे-धीरे बोलकर, जिसमें केवल होठ हिलते हैं और तीसरा है, जिसमें मन- ही-मन जपते हैं। मन-ही-मन जप करने से मन की स्थिरता आती है।

नाम जपत स्थिर भया, ज्ञान कथत भया लीन ।
सुरति शब्द एकै भया, जल ही ह्वैगा मीन ।।

लोग मुँह से मिष्ट वचन, अश्लील वचन और कटु वचन बोलते हैं, किन्तु ईश्वर का नाम जपने के लिए एकाग्र मन होना चाहिए।


बाहर क्या दिखलाइये, अंतर जपिये नाम ।
कहा महौला खलक से, पड़ा धनि से काम ।।
नाम जपत दरिद्री भला, टूटी घर की छान।
कंचन मंदिर जारि दे, जहँ गुरु भक्ति न जान।।
नाम जपत कुष्टी भला, चुई चुई पड़ै जो चाम।
कंचन देह केहि काम का, जा मुख नाहीं नाम।।

ईश्वर के गुण का वर्णन करते-करते जपनेवाला उस रंग में रँग जाता है। जो समझ-समझकर जपता है, वह ईश्वर के रंग में रँग जाता है। जैसे कंगाल पैसे को नहीं भूलता, वैसे ही पल-पल नाम को जपो, एक घड़ी भी मत छोड़ो, जैसे पनिहारी माथे पर गगरी लेकर चलती है और रास्ते में बातचीत भी करती जाती है। यह मानस ध्यान है।

सुमिरन से मन लाइए, ज्यों सुरभी सुत माहिं ।
कह कबीर चारा चरत, बिसरत कबहूँ नाहिं ।।

यह भी मानस ध्यान है। किंतु दोनों में अंतर है। गाय का बच्चा गाय के अंग-संग नहीं है; किंतु पनिहारी की गगरी उसके अंग-संग मौजूद है, तब उस पर ख्याल रखती है। गौ और गौ के बच्चे की जो मिसाल दी गई है, उससे यह गगरी और पनिहारीवाली उपमा विशेष है। जो चिह्न आपके अंग-संग मौजूद है और साधन करके उसे कभी देख लिया, उसको यदि बराबर नहीं देख सकते हैं तो जिस स्थान पर वह चिह्न है, उस ओर आपका मन लगा रहे, सुरत उधर लगी रहे तो बहुत अच्छा है। दृष्टि-साधन में यदि आपने एक बार भी झलक देख ली और फिर वह नहीं देख पाते हैं तो उस ओर के लिए आपकी सुरत चलती रहेगी, उठी रहेगी, जिस ओर आपने देखा है। उसकी बारंबार याद आपको रखनी चाहिए। यह सूक्ष्म मानस ध्यान है। बाहर में रूप देखकर जो मानस ध्यान करते हैं, वह स्थूल मानस ध्यान है। यदि आप सूक्ष्म मानस ध्यान कर सकते हैं तो स्थूल मानस ध्यान करने की आवश्कता नहीं है। कबीर साहब ने कहा है-

सुमिरन सुरत लगाय के, मुख ते कछू न बोल ।
बाहर का पट देय के, अंतर का पट खोल ।।

ब्रह्मज्योतियों को देखने से और अनहद ध्वनियों को सुनने से बाहर की कोई चीज याद नहीं आती। केवल परमात्मा याद आता है। इससे परमात्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान तो नहीं होता, किंतु उसकी वृत्ति ऊपर उठी हुई होती है। कबीर साहब ने दीप और पतंग की मिसाल दी है, वह है-प्रत्यक्ष ब्रह्मज्योति में अपनी वृत्ति लगी रहे। नाद-कुरंग की जो मिसाल दी है, वह है-शब्द अभ्यासी को नादध्यान में उसी तरह रहना चाहिए। पानी और मछली की जो उपमा है, वह है-जैसे पानी को मछली पसन्द करती है, उससे अलग करने से वह जी नहीं सकती, उसी तरह काम करता हुआ या एकान्त में बैठा हुआ या बहुत लोगों में बैठा हुआ- किसी भी तरह रहे, यदि उसकी सुरत उसमें लगी रहती है, तो वह मछली की तरह है। दीप और पतंग में ब्रह्मज्योति की उपमा है। नाद-कुरंग में शब्द अभ्यास का सहारा है। मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टिसाधन और सुरत-शब्द-योग-सब कुछ सुमिरण के अंदर है। इसलिए कबीर साहब ने कहा है-

जप तप संयम साधना, सब सुमिरन के माहिं।
कबीर जाने भक्तजन, सुमिरन सम कछु नाहिं।।

इसलिए सब किसी को इसकी तरकीब जानकर सुमिरण करना चाहिए।


***************
यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत श्री संतमत सत्संग मंदिर मनिहारी में दिनांक 19.2.1955 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



102. गृहस्थाश्रम में रहकर स्वल्प भोगी
प्यारे लोगो!
 क्लेशों से छूटने के लिए मनुष्य को स्वाभाविक ही अंतःप्रेरण होता है। शरीर धारण करना ही क्लेशों का कारण है। किसी लोक में रहो, उस लोक में रहने योग्य शरीर धारण करके रहो। क्लेश से छुट्टी नहीं है। नरलोक को लोग प्रत्यक्ष देखते हैं और स्वर्गादि लोकों के लिए पुराणों में पढ़ते हैं। संतों ने कहा कि ईश्वर की भक्ति करो। ईश्वर को प्राप्त कर लो, तो सभी शरीरों से छुटकारा हो जाएगा, सभी लोकों से छुटकारा हो जाएगा और सभी क्लेशों से भी छुटकारा हो जाएगा। इसके लिए ईश्वर का भजन करो। भजन करने के लिए पहले युक्ति-भेद जानो, फिर उनसे मिल जाने का अभ्यास करो। यही योग और ज्ञान है। इसको दृढ़ता से जान लो कि ईश्वर की प्राप्ति देहयुक्त रहने से नहीं होता है। आवश्यकता यह है कि एक शरीर को छोड़ो, फिर दूसरे को, तीसरे को एवम् प्रकार से सभी जड़-शरीरों को छोड़ो, तो ईश्वर की भक्ति पूरी होगी। जैसे आप जगन्नाथ जाना चाहें तो रास्तों को, गाँवों को, नगरों को छोड़े बिना वहाँ नहीं पहुँच सकते। इसी तरह सभी शरीरों को छोड़े बिना परमात्मा की पहचान नहीं हो सकती। योग के नाम से लोगों को डरना नहीं चाहिए। ज्ञान को भी अगम्य न जानना चाहिए। योग-मिलने को कहते हैं और ज्ञान-जानने को कहते हैं। योग के बिना मिल कैसे सकते हैं और ज्ञान जाने बिना मिलेंगे किससे? हमलोग सत्संग करते हैं, यह ज्ञान का उपार्जन है और ध्यान करते हैं, यह योग है। योग चित्तवृत्ति-निरोध को भी कहते हैं। आपलोगों ने सुना होगा कि हठयोग में बहुत आसन आदि लगाने पड़ते हैं। घर को छोड़े बिना नहीं होगा। जो पूर्ण बैरागी होगा, ब्रह्मचारी होगा, उसीसे होगा; किंतु संतों ने ऐसा नहीं कहा। संतों ने कहा है-हठयोग के किए बिना भी ईश्वर की प्राप्ति होती है; किंतु हाँ, संयमी होकर रहना होगा। तब गृहस्थ रहो या विरक्त रहो-दोनों से होगा। संयमी होने का आशय है, मितभोगी होना। स्वल्पभोगी संयमी है। जो भोगों में विशेष आसक्त है, वह भोगी है। उससे संयम नहीं होगा। दो तरह से संयमी होते हैं-एक गृहस्थाश्रम से दूर रहकर और दूसरे गृहस्थाश्रम में रहकर स्वल्पभोगी होते हुए। गृहस्थाश्रम में रहकर संतानविहीन रहे, धनविहीन रहे-ऐसी बात नहीं। संयम से रहे, अपना रोजगार करते रहे और संतान भी उत्पन्न करे। आप कहेंगे कि हम साधारण जन से यह संयम नहीं होगा, तो आपको ऐसा नहीं कहना चाहिए। आपके यहाँ ऐसे बहुत लोगों का इतिहास है, जो गृहस्थ रहते हुए खेती करते-करते, मुंशी का काम करते-करते संत हो गए हैं।
 कबीर साहब ताना-बाना करते-करते संत हो गए। आज कितना उनका नाम है, विद्वानां से पूछिए। प्रथम कक्षा से लेकर ऊँची कक्षाओं तक उनकी वाणी पढ़ाई जाती है। कबीर साहब ने दिखला दिया कि घर में रहकर अपना काम करते हुए भी लोग संत होते हैं। कबीर पंथ के लोग उनका गृहस्थ होना नहीं मानते; किंतु और लोग उनका गृहस्थ होना मानते हैं। खैर, जो हो। गुरु नानकदेवजी के लिए तो यह प्रसिद्ध है कि वे गृहस्थ थे। उनके दो पुत्र थे। श्रीशंकराचार्यजी बिना गृहस्थ जीवन बिताए संत हुए। किंतु सर्वसाधारण के लिए कबीर साहब और गुरु नानक साहब का नमूना अच्छा है। आज भी मंदार पहाड़ के नजदीक श्री भूपेन्द्रनाथ सांन्यालजी बड़े भारी विद्वान मौजूद हैं, जो बड़े संयमी हैं और साधु-संत से कम दर्जा नहीं रखते हैं। आज जो राधास्वामी मत प्रचलित है, उसके लोग भी गृहस्थ हैं। जो कोई कहे कि गृहस्थ से भजन-साधन नहीं होगा, तो जानना चाहिए कि वे स्वयं इसको नहीं जानते हैं, अपने नहीं करना चाहते और न दूसरे को करने देने का उत्साह देते। इसलिए सब कोई ईश्वर का भजन कीजिए और शरीर रहते ही, यानी जीवनकाल में ही उस परम पुरुष को प्राप्त कीजिए, मुक्ति लाभ कीजिए। संतों ने कहा है कि-
जीवत मक्त सोइ मुक्ता हो ।
जब लग जीवन मुक्ता नाहीं, तब लग दुखसुख भुक्ता हो।।
      -कबीर साहब
 संतों ने जीवनकाल में ही मुक्ति की मान्यता दी है। संत दादूदयालजी ने कहा है-
 जीवत छूटै देह गुण, जीवत मुक्ता होइ ।
 जीवत काटै कर्म सब, मुक्ति कहावै सोइ ।।
 जीवत जगपति कौं मिलै, जीवत आतम राम ।
 जीवत दरसन देखिये, दादू मन विसराम ।।
 जीवत मेला ना भया, जीवत परस न होइ ।
 जीवत जगपति ना मिले, दादू बूड़े सोइ ।।
 मूआँ पीछे मुकति बतावै, मूआँ पीछै मेला ।
 मूआ पीछै अमर अभै पद, दादू भूले गहिला ।।
                   -दादू दयाल
 आपलोगों ने उपनिषद् के पाठ में भी सुना कि मरने पर जो मुक्ति होती है, वह मुक्ति नहीं है। आप कहेंगे कि गृद्ध शरीर छोड़कर भगवान के रूप को धरकर बैकुण्ठ चला गया, उसकी मुक्ति हो गई, तो जानना चाहिए कि यह असली मुक्ति नहीं है। मुक्ति चार प्रकार की होती हैं-सालोक्य मुक्ति, सामीप्य मुक्ति, सारूप्य मुक्ति और सायुज्य मुक्ति। ये चारों मुक्तियाँ असली मुक्तियाँ नहीं हैं। असली मुक्ति वह है, जिसमें किसी प्रकार की देह नहीं रहे। उसी को ब्रह्मनिर्वाण भी कहते हैं। इसके लिए कोंशश कीजिए। एक शरीर में नहीं होगा,तो दूसरे-तीसरे किसी-न-किसी शरीर में अवश्य होगा। भगवान श्रीकृष्ण की बात याद कीजिए, जो उन्होंने गीता में कही है-योग के आरम्भ का नाश नहीं होता, उसका उलटा परिणाम नहीं होता और वह महाभय से बचाता है। जिस जन्म में आपको स्वयं मालूम हो जाय कि यह जड़ है और यह मैं चेतन हूँ, उसी जन्म में आपको ब्रह्मनिर्वाण हो जाएगा। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो थोड़ा भी योग-ध्यानाभ्यास करेगा, तो शरीर छूटने पर वह बहुत दिनों तक स्वर्गादि सुखों को भोगेगा। स्वर्ग सुख भोगने के बाद इस पृथ्वी पर किसी पवित्र श्रीमान् के घर में जन्म लेगा अथवा योगी के कुल मे जन्म लेगा और पूर्व जन्म के संस्कार से प्रेरित होकर योगाभ्यास करने लगेगा और करते-करते कई जन्मों में मुझको प्राप्त कर लेगा और मुझमें विराजनेवाली शान्ति को प्राप्त कर लेगा। इस योगाभ्यास को बारम्बार करते रहो, कभी मत छोड़ो। किसी के बहकावे में मत पड़ो कि नहीं होगा। आरम्भ कैसे किया जायगा? इसके लिए संतों की वाणियाँ हैं-स्थूल-साधना से सूक्ष्मतम साधना तक करने के लिए। मोटा जप, मोटा ध्यान फिर दृष्टि-साधन और अंत में शब्द-साधन-ये ही चार बातें हैं। मरने का डर नहीं करना चाहिए। शरीर मरता है, आप नहीं मरेंगे। जिनको मरने की आदत हो गई है, वह मरने से क्यों डरेगा? इसीलिए कबीर साहब ने कहा-
  जा मरने से जग डरै, मेरे मन आनन्द ।
 कब मरिहौं कब पाइहौं, पूरन परमानन्द ।।
 मरने का डर उसको होता है, जो बुरे-बुरे कर्मों को करता है; क्योंकि उसकी दुर्गति होती है- भगवान श्रीकृष्ण ने गीता, 8/10 में कहा है-
   प्र्रयाण काले मनसा चलेन भक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव।
   भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।
 प्रयाणकाल में अर्थात् मरने के समय अचल मन से भक्तियोग युक्त होकर अपने प्राणों को दोनों भौआें के बीच में रखकर जो शरीर छोड़ता है, वह दिव्य परमपुरुष को प्राप्त करता है। जिसको जीते जी इसका खूब हिस्सक लगेगा, उसका कल्याण होगा। जीते जी जो भावना होगी, मरने के समय वही होगी; जैसे जड़भरत की हुई थी। हिरणी के बच्चे में उनकी आसक्ति थी, तो शरीर छूटने पर उनको हिरण का शरीर मिला। साधन-भजन की बात मन में बराबर लानी चाहिए। जो कहे कि हमको बाल- बच्चों की सेवा तथा अपने काम-धंधों से फुर्सत नहीं है, हम भजन-ध्यान क्या करेंगे, तो मैं कहता हूँ कि आपको मरने की फुर्सत है? यदि आपको मरने की फुर्सत नहीं है, तो क्या मौत इसको मान सकती है? समय पर आपको मरना ही पड़ेगा। इसलिए सब कामों को करते हुए कुछ समय बचा- बचाकर ध्यान योगाभ्यास भी किया कीजिए।
***************
यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर बरईचक पाटम में दिनांक 26.2.1955 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



103. वार्य हिंसा को छोड़ो
प्यारे लोगो!
 संतमत के सत्संग से बारम्बार कहा जाता है कि ईश्वर के लिए प्रत्येक को ऐसा ज्ञान रखना चाहिए कि वह आत्मगम्य है, इन्द्रियगम्य नहीं। तत्त्व रूप में परमात्मा वह है, जो चेतन आत्मा से पकड़ा जा सके, ग्रहण किया जा सके। इसको निश्चय करके जानना चाहिए। पंच विषयों में से पूछा जाय कि रूप विषय क्या है तो कह दिया जाय कि जो आँख से ग्रहण हो। उसी तरह परमात्मा क्या है? जो चेतन आत्मा से ग्रहण हो। परमात्म-प्राप्ति के लिए ध्यान-साधन में इसकी जरूरत नहीं है कि पहले मन से जान लें, तब ध्यान करें। मन से वह ग्रहण नहीं हो सकता। उसको मन से कैसे जान सकते हैं? चलो और वहाँ चलो, जहाँ जाकर शरीर-इन्द्रियाँ छूट जायँ और तुम अकेले रह जाओ। इसीलिए यह कहा गया है कि लम्बा मार्ग है। कबीर साहब ने कहा है-
 लम्बा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहुमार।
 कहौ संतो क्यूँ पाइये, दुर्लभ हरि दीदार।।
 परमात्मा यहाँ-वहाँ सर्वत्र है; किंतु अपनी कमजोरी के कारण हम पहचान नहीं सकते। कमजोरी क्या है? इन्द्रियों के संग में रहना। जो लोग ऐसे हैं, जिनके साथ रहने से ज्ञान की कमजोरी होती है, ज्ञान गिरा रहता है, तो उनके संग से वह भ्रष्ट हो जाता है। इसी तरह चेतन आत्मा को इन्द्रियों का संग हो जाने के कारण इसकी अपनी शक्ति-हीन हो गई है। ऐसा विश्वास करना चाहिए कि प्रत्येक मनुष्य आत्मा को जान सकता है। मनुष्य शरीर में रहकर जो परमात्मा को नहीं जानता है, वह कष्ट में पड़ा रहता है। जानना दो प्रकार से होता है-श्रवण- मनन द्वारा और साधना के द्वारा प्रत्यक्ष करके। श्रवण-मनन के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से पहले अवगत कर लेता है, तब साधना द्वारा परमात्मा को प्रत्यक्ष रूप से जानने लग जाता है। परमात्मा वह है, जो इन्द्रिगम्य नहीं है। इसके लिए जो साधना करता है, वह उस रास्ते पर चलता है। जो उसको पार कर गया है, जिसने कैवल्य पद पा लिया है, उससे परमात्मा हेराया हुआ नहीं रहेगा। इसके लिए परमात्मवत् शुद्ध होना चाहिए। जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं हैं, जो पाप कर्मों से निवृत्त नहीं हुआ है, वह उसे प्राप्त नहीं कर सकता है। इन्द्रियों का विषयों से छूटकर रहना नहीं हो सकता है, तो मितभोगी, स्वल्पभोगी होते हुए उससे उदास रहना चाहिए। मितभोगी बनो, विषय के स्वाद से उदास रहो। मनुष्य-शरीर को उस काम में लगाना है, जिससे मनुष्य-शरीर सफल होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।
 यदि ठीक-ठीक निर्विषय की ओर अपने को लगाना है, तो विषय की इच्छा मत करो। परमात्मा की ओर चलो। पाप से निवृत्त होने के लिए पंच पापों को मत करो। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार मत करो। हिंसा के सिलसिले में मत्स्य, मांस, अण्डा मत खाओ। शरीर से मन से हिंसा छोड़ दो। लोग बहुत प्रश्न किया करते हैं कि अनिवार्य हिंसा होती ही रहती है। तो अनिवार्य हिंसा के विषय में समझो, वार्य हिंसा को छोड़ो। खेती करनेमें हिंसा होती है। राष्ट्र पर कोई चढ़ाई करे तो इससे हिंसा होती है। यह अनिवार्य हिंसा है। घर में चोर-डाकू आए तो उससे लड़ना होगा। अपने को बचाना होगा, यह अनिवार्य हिंसा है। साँस लेने में हिंसा होती है। औषधि खाने से कीटाणु मरते हैं, इसमें हिंसा होती है। लेकिन यह अनिवार्य हिंसा है। युद्ध करके राजा लोग यज्ञ करते थे; क्योंकि युद्ध में भी हिंसा होती थी। अनिवार्य हिंसा से बच नहीं सकते; किंतु वार्य हिंसा से बचो। कितने लोग रोग से पीड़ित होते हैं, तो डॉक्टर उन्हें मछली, मांस और उसका शोरवा खाने-पीने के लिए कहते हैं। किंतु कितने नहीं खाते हैं, फिर भी संसार में स्वस्थ रहते हैं। महात्मा गाँधीजी की पत्नी बीमार हुई। डॉक्टर ने मांस का शोरवा और अण्डा लेने को कहा। उन्होंने लिया नहीं, संयम और पथ्य जैसा महात्मा गाँधी ने बताया, किया, ठीक हो गई; स्वस्थ हो गई। संयम और पथ्य से ऐसा हो जाता है। जोर देकर ऐसा कहना कि मत्स्य-मांस के बिना तुम नहीं बचोगे, झूठी बात है, गलत बात है। यक्ष्मा रोग में बहुत अण्डे खिलाए जाते हैं। मेरा एक सत्संगी बीमार हुआ, पटना में उसकी इलाज हुई। उसने मत्स्य- मांस नहीं खाया। आज भी उसका शरीर है और वह स्वस्थ है। जिस भोजन से अपनी वृत्ति खराब होती है, मन का सात्त्विक रहना असंभव हो जाता है, वह मत खाओ। अपने धर्म की हानि मत करो। मनुष्य-शरीर में पशु-शरीर का मांस डालकर पशुवृति मत लाओ। मनुस्मृति में आठ घातक बतलाए गए हैं-‘ अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
 संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः।।
 1. पशुवध करने की आज्ञा प्रदान करनेवाला, 2. शस्त्र से मांस काटनेवाला, 3. मारनेवाला, 4. बेचनेवाला, 5. मोल लेनेवाला, 6. मांस को पकाने- वाला. 7. परोसने के लिए लानेवाला और 8. खाने- वाला; ये आठो घातक (हिंसा करनेवाले) ही कहलाते हैं। इसलिए संतों ने पहले से ही इसको मना किया है। कबीर साहब मुसलमान घर में पाले पोसे गए थे। नूर अली और उसकी पत्नी नीमा को संतान नहीं थी। उनलोगों को बच्चे की ख्वाहिश थी। एकदम तुरत का जन्मा हुआ बच्चा मिल गया। नूर अली ने उसको पाला, जहाँ मांस मछली का खाना ही प्रधान था। किंतु कबीर साहब मांस-मछली नहीं खाते थे। और लोगों के लिए उन्होंने कहा है-
 मांस मछरिया खात है, सुरा पान से हेत ।
 सो नर जड़ से जाहिंगे, ज्यों मूरी की खेत ।।
 तिल भर मछली खाय के, कोटी गौ दे दान ।
 काशी करवट ले मरे, तौहू नरक निदान ।।
 यह कूकर को खान है, मानुष देह क्यों खाय ।
 मुख में आमिख मेलता, नरक पड़े सो जाय ।।
 उन्हांने इतना मना किया है, तो स्वामी रामानन्द और स्वामी रामानुज क्यों नहीं मना करते? महात्मा बुद्ध और भगवान महावीर की पुकार है-‘अहिंसा परमो धर्मः।’ पंच पापों से बचते हुए, संतों की साधना के अनुकूल भजन करो और इतना भजन करो कि उस प्रभु को प्राप्त कर लो, कल्याण होगा। द
***************
यह प्रवचन मुंगेर जिला के जमालपुर में रायबहादुर बाबू दूर्गादास तुलसी के निवास स्थान पर दिनांक 27.2.1955 ई0 के सत्संग में हुआ था।
***************



104. नारदजी को बैकुण्ठ में मोह
प्यारे लोगो!
 महात्मा बुद्ध से लेकर अब तक इस कलि काल में बहुत से साधु -संत हुए हैं। उन लोगों ने जो कुछ शिक्षा दी है, लोगों ने उसे ग्रंथों में रख दिया है। हाल के संतों ने अपने से लिख भी दिया है। संत दरिया साहब, भगवान बुद्ध, महावीर तीर्थंकर आदि ने अपने से लिखा नहीं, केवल कह दिया। बुद्ध, महावीर के बाद तुलसी साहब भी कुछ पढ़े-लखे थे, किंतु उन्होंने लिखा नहीं। लोगों के वचनों को सुनकर ग्रंथाकार किया। इसी तरह प्राचीन काल में ऋषि-मुनि हुए। उन्होंने भी लिखा नहीं, कहा। लोगों ने उसका संग्रह किया, वही उपनिषद् है। उपनिषद् वेद का ज्ञान मानी जाती है। उसमें कर्म और कर्मफल का वर्णन किया गया है, कर्म की विधियों का वर्णन किया गया है, जिससे इस लोक और परलोक में सुख की प्राप्ति लिखी है। उपासना काण्ड में भी दोनों लोकों के सुखों से हटने के लिए कहा और कहा कि ये दोनों बन्धन हैं। दोनों में से किसी में रहो तो आवागमन में पड़े रहोगे। दोनों के सुख क्षणभंगुर हैं, तृप्तिदायक नहीं हैं। जिसमें पूर्ण सुख-शान्ति मिलेगी, वह विषय सुख नहीं है अर्थात् इन्द्रियों से पाने योग्य नहीं है। अर्थात् इन्द्रियों और विषयों के संयोग से जो सुख होता है, वह तृप्तिदायक नहीं। संतों ने कहा कि इहलोक और परलोक दोनों का सुख अनित्य है। इससे परे का सुख नित्यानंद है। यह आत्मा से ग्रहण होने योग्य है। नित्यानंद वह है, जो सदा रह जाय। अनित्यानंद वह है, जो कुछ काल रहे, फिर नहीं रहे। इहलोक और परलोक- दोनों से चित्त हटा रहे, यही उपनिषद् और संतवाणियों में है-
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई।।
 यह चौपाई भी यही बात कहती है। ‘उस नित्यानंद के लिए कहाँ ठहराव होगा?’ यदि यह पूछा जाय तो उत्तर होगा- किसी देश में नहीं, देश-काल के परे। किसी आधार पर आधेय बनकर रहना किसी लोक-लोकांतर में रहना है। आधेय बनकर रहना नित्यानन्द नहीं है। वह अपना आधार आप है। शरीरां से अलग हटा हुआ है, केवल आत्मस्वरूप में रहता है। उसके रहने के लिए स्थान की आवश्यकता नहीं है। वहाँ स्थान नहीं है तो काल भी नहीं। वह देश-काल से अतीत पद है। उसमें आरूढ़ होने के लिए-पहुँचने के लिए संतों ने उपदेश दिया है। संतवाणी का निचोड़ यह है। इसके लिए मनुष्य पहले अपने को जाने। लोग ऐसा ख्याल करते हैं कि जैसे धरती पर रहना है, वैसे ही अन्य लोकों में जाकर सुख से रहना होगा। परन्तु इससे विशेष बात वह है, जिसको मैंने आपलोगों से कहा। चाहिए कि इसके लिए इच्छा उत्पन्न करे और इसको सोचे। मनुष्य अपने को नहीं जानता है, अपने शरीर को अपने तईं कहता है, तो गलत कहता है। शरीर मर जाता है, यह प्रत्यक्ष देखता है। फिर ख्याल होता है कि शरीर में रहनेवाला कहीं चला गया है। इसलिए वैदिक धर्म में हमलोगों के यहाँ जो पुराण में प्रचार है, उससे श्राद्ध-क्रिया करते हैं। शरीर मर गया, शरीर में रहनेवाला कहीं चला गया, उसकी शान्ति के लिए, सुख के लिए श्राद्ध-क्रिया करते हैं। श्राद्ध- क्रिया यह ज्ञान देती है कि शरीर में रहनेवाला कोई था, वह चला गया। उसके लिए श्राद्ध-क्रिया होती है। इस श्राद्ध-क्रिया से शरीर और शरीरी का ज्ञान होता है। यह पूरा ज्ञान तो नहीं है; किंतु आरम्भ का ज्ञान अवश्य है। जिस शरीर को लोग जला आते हैं, उसमें भी शरीर है। फिर उसमें भी शरीर है। एवम् प्रकार से चार जड़-शरीर हैं। स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण। मुंशी माखनलाल चले गए या और कोई कितने गए; किंतु क्या केवल आत्मा गयी? नहीं। स्थूल शरीर छोड़कर गयी और सूक्ष्म शरीर को साथ लेकर चली गयी। ऊपर का स्थूल शरीर छूट गया तो ऊपर में सूक्ष्म शरीर रहा। यह शरीर का पूरा ज्ञान है। इन सब शरीरों के बाद एक शरीर और है, जिसको ‘चिदानन्दमय देह तुम्हारी’ कहते हैं। यह चेतन शरीर है। चेतन से भी परे स्वरूप आत्मा का है। जैसे स्थूल शरीर में होने पर स्थूल जगत में रहना होता है, इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर के लिए सूक्ष्म जगत होना चाहिए। इसी सूक्ष्म जगत में स्वर्ग-वैकुण्ठादि हैं। कितने लोग स्वर्गादि को नहीं मानते हैं। उस सूक्ष्म लोक और स्वर्गादि में यहाँ के सुख से विशेष सुख और विशेष दिनों तक रहना होता है। किंतु न यहाँ दुःख छोड़ता है और न वहाँ दुःख छोड़ता है। माया-मोह न यहाँ छोड़ता है और न वहाँ।
 नारदजी वैकुण्ठ गए। वहाँ उनका मोह और बढ़ गया। गोलोक से श्रीदामाजी कंस के पास राक्षस बनकर आए। वहाँ विषय-सुख है और माया का पसार है। माया में जो होना चाहिए, सो होता है। इसलिए ‘स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई’-भगवान श्रीराम ने कहा। संतों ने ज्ञान, योग और भक्ति; तीनों को मिलाकर चलने को कहा। घी, मीठा और अन्न तीनों मिलाकर सुन्दर मिठाई होती है। इसी तरह ज्ञान, योग और भक्ति; तीनों को मिलाकर संतों ने उपदेश दिया है। द
***************
यह प्रवचन भागलपुर जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर एकचारी में दिनांक 2.3.1955 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



105. केवल विद्वता से संतवाणी नहीं समझ सकते
प्यारे लोगो!
 मनुष्य अपने परम कल्याण के वास्ते भजन करें। भजन ऐसा करें कि ईश्वर को प्राप्त कर लें। ईश्वर को प्राप्त करने के लिए ऐसा विश्वास मत करो कि अभी कुछ जप ध्यान कर लो, मरने पर प्रभु मिलेंगे। भजन इस जन्म में पूरा नहीं होगा, तो दूसरे जीवन में या अनेक जन्मों के बाद किसी जीवन-काल में ही परमात्मा मिलते हैं। नाम-भजन सबसे श्रेष्ठ है। नाम-भजन दो तरह से होता है-जप और ध्यान। वर्णात्मक नाम का जप और ध्वन्यात्मक नाम का ध्यान करो। इसी ध्वन्यात्मक नाम के ध्यान को नाम-भजन और सुरत-शब्द-योग भी कहते हैं। इसको अंतर्मुख होकर करना पड़ेगा। यह शब्द मनुष्य का बनाया हुआ नहीं है। इसको कोई मनुष्य मुँह से उच्चरित करके किसी से कह भी नहीं सकता है। इसकी युक्ति जानो और ध्यान करो। ध्यान करने से आप-ही-आप यह नाद सुन पड़ेगा। संतों की वाणी में जो पाँच शब्द आते हैं, वे ये हैं कि परमात्मा से सृष्टि के लिए जो मौज होती है, उससे जो धारा प्रवाहित होती है, उससे पाँच मण्डल बनते हैं। उन्हीं पाँच मण्डलों के केन्द्रीय शब्दों को पाँच शब्द कहते हैं। कबीर साहब ने कहा है-
 पाँचो नौबत बाजती, होत छतीसो राग ।
 सो मंदिर खाली पड़ा, बैठन लागे काग ।।
और गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
 पंच सबदु धुनिकार धुन तहँ बाजे सबदु निसानु ।
 जो अपने अंदर गहरा ध्यान करता है, उसको यह नाद मिलता है और उस नाद को गहण कर परमात्मा को पाता है। इससे सरल और सुलभ कोई मार्ग नहीं है। बाबा साहब ने यह नहीं कहा कि मैं एक पुस्तक बना देता हूँ, इसी को पढ़ो। बल्कि उन्होंने कहा कि दुनिया की सारी किताबों को पढ़ो, जो संतों की बनाई हुई हैं। किसी एक कोठरी में अपने को बन्द करके मत रखो। सभी कोठरियाँ तुम्हारी हैं। ‘गुरुगं्रथ साहब’ में कितने संतों के वचन हैं। यह उदारता है। सभी संतों के ग्रंथों को पढ़ो। नानकपंथ के दसवें गुरु-गुरु गोविन्द सिंहजी ने कहा है-
 बाजे परम तार तत हरि को, उपजै राग रसारं ।
 यह नादानुसंधान है। नादानुसंधान सभी संतों के ग्रंथों में मिलता है। आजकल बड़े-बड़े विद्वान लोग संतों की वाणियों की खोज करते हैं और उससे वे बड़े-बड़े पुरस्कारों को प्राप्त करते हैं; किंतु केवल विद्वता से कोई संतवाणी को नहीं समझ सकते हैं और ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है कि विद्या की आवश्यकता नहीं। बिना विद्या के शब्द का अर्थ नहीं जान सकते। जो बहुत पढ़े हैं, रायचन्द, प्रेमचन्द पास करते हैं। उनके पास शब्दां का भण्डार हो जाता है। अगर वे साधन की क्रिया को जानते हैं, तो ठीक-ठीक अर्थ कर सकते हैं, समझ सकते हैं और समझा सकते हैं। यदि साधना की क्रिया नहीं जानते हैं, केवल पढ़-लिखकर विद्वान हुए हैं, तो संतवाणी का ठीक-ठीक अर्थ नहीं कर सकते हैं।
 सत्त पुरुष इक बसैं पछिम दिसि तासों करो निहोर ।
 संत कबीर साहब की इस पंक्ति का एक विद्वान ने अर्थ किया था कि कबीर साहब मुसलमान खानदान में पाले पोसे गए थे, इसलिए पश्चिम कहकर उन्होंने मक्का का संकेत किया है। विद्वानों को संतों की साधना जाननी चाहिए। साथ ही उसका अभ्यास करना चाहिए। अभ्यास के साथ- साथ सदाचारी भी बनना होगा। तभी संतवाणी को ठीक-ठीक जान सकेंगे। आजकल विद्वानों में एक भ्रामक विचार फैल गया है कि संतों की साधना में कुछ करना नहीं पड़ता है। आँख भी बन्द नहीं करनी पड़ती। वे कबीर साहब की ये पक्तियाँ कहते हैं-
  आँख न मूँदौं कान न रूँधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
  खुले नयन पहिचानौं हँसि-हँसि, सुन्दर रूप निहारौं ।।
 पूरा इस प्रकार है-
  साधो सहज समाधि भली।
  गुरु प्रताप जा दिन से जागी, दिन दिन अधिक चली ।।
  जहँ जहँ डोलौं सो परिकरमा, जो कुछ करौं सो सेवा ।
  जब सोवौं तब करौं दण्डवत, पूजौं और न देवा ।।
  कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खावँ पियौं सो पूजा ।
  गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा ।।
  आँख न मूँदौं कान न रूँधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
  खुले नयन पहिचानौं हँ सि हँ सि, सुन्दर रूप निहारौं ।।
  शब्द निरंतर से मन लागा, मलिन वासना भागी ।
  ऊठत बैठत कबहुँ न छूटै, ऐसी ताड़ी लागी ।।
  कहै कबीर यह उनमुनि रहनी, सो परगट कर गाई ।
  दुख सुख से कोइ परे परम पद, तेहि पद रहा समाई ।।
 संत कबीर साहब ने कहा-‘खाँव पिऊँ सो पूजा।’ श्रीरामकृष्ण परमहंस भी पीछे चलकर ऐसे ही हो गए थे कि कोई जो कुछ भी काली माई को चढ़ाते थे, वे अपने मुँह में ले लेते थे और खा जाते थे-‘कालिकाय्ये नमः’ कहकर खा जाते थे। केवल कहने से नहीं होगा। इसकी योग्यता होनी चाहिए। श्रीरामकृष्ण परमहंसजी को इसकी योग्यता हो गयी थी।
  गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा ।।
 इस कसौटी पर कसकर देख लीजिए कि उनमें द्वैत भाव है कि नहीं।
  आँख न मूँदौं कान न रूँधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
  खुले नयन पहिचानौं हँसि-हँसि, सुन्दर रूप निहारौं ।।
 ऐसी स्थिति उनमें आ गई कि नहीं?
  शब्द निरंतर से मन लागा, मलिन वासना भागी ।
  ऊठत बैठत कबहुँ न छूटै, ऐसी ताड़ी लागी ।।
 आत्मस्वरूप के दर्शन में ही ‘आँखि न मूँदौं कान न रूधौं’ होता है। साधनारम्भ में नहीं होता है। साधना के लिए तो कबीर साहब ने कहा है-
 बंद कर दृष्टि को फेरि अंदर करै,
    घट का पाट गुरुदेव खोलै।
 गुरुदेव बिन जीव की कल्पना ना मिटै,
   गुरुदेव बिन जीव का भला नाहीं।
 गुरुदेव बिन जीव का तिमिर नासे नहीं,
   समुझि विचारि ले मने माहिं।।
 राह बारीक गुरुदेव तें पाइए,
   जनम अनेक की अटक खोलै।
 कहै कबीर गुरुदेव पूरन मिलै,
   जीव और सीव तब एक तोलै।।
 यह समाधि में होता है। बाबा नानक ने कहा-
 तीनो ं बंद लगाय कर, सुन अनहद टंकोर। नानक शून्य समाधि में, नहिं साँझ नहिं भोर।।
 ये तीन बंद क्या है? कबीर साहब ने कहा-
आँख कान मुख बंद कराओ, अनहद झींगा शब्द सुनाओ।
दोनों तिल एक तार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है।।
 संतों के पारिभाषिक शब्दों का ज्ञान बिना साधु-संतों का संग किए नहीं होता। पूर्व का अर्थ होता है-जो पहले हो। इसलिए जो पहले हो, वह पूर्व है। इसका उलटा जो हो वह है पश्चिम। परम सहायक को दाहिना कहते हैं। गोस्वामीजी ने लिखा है-‘जे बिनु काज दाहिने बायें।’ जो उपकारक के विरुद्ध हो जाय, वह दाहिना नहीं है। दाहिना अर्थात् दक्षिण, जो बड़ा मददगार होता है। उत्तर यानी दक्षिण दिशा का उलटा। उत्तर सबसे परे होता है। नक्शे का उत्तर ऊपर होता है। इसलिए ‘प्राणसंगली’ के पहले भाग में नक्शा है, उसमें बताया है कि पूर्व अंधकार को कहते हैं। प्रकाश को पश्चिम, शब्द को दक्षिण और निःशब्द को उत्तर कहते हैं। संतों के पारिभाषिक शब्दों के ये अर्थ हैं। और विद्वानों को सूझ गया पश्चिम का अर्थ मक्का। विद्वता भी चाहिए और अच्छे साधु- संत का संग भी। ज्ञान-वृद्धि के लिए एकाग्रता की जरूरत है। एकाग्रता में ज्ञान-वृद्धि होती है। ध्यान में एकाग्रता होती है। एकाग्रता में सिमटाव होता है। सिमटाव होने पर ऊर्ध्वगति होती है। इससे परमात्मा तक पहुँच सकते हो। एकाग्रता जैसे हो, वैसे करो। मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् में तीन प्रकार से सिमटाव करना बतलाया है-अमावस्या, प्रतिपदा और पूर्णिमा से। आँख बन्दकर देखना अमादृष्टि है, आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा है और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा है। उसका लक्ष्य नासाग्र होना चाहिए। जिससे जो निभता है, करता है। करने दो। ध्यान में स्थूल, सूक्ष्म-दोनों भेदों को जानिए। सदाचारी बनकर रहिए और ध्यान कीजिए।
***************
यह प्रवचन भागलपुर जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर एकचारी में दिनांक 3.3.1955 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



106. ईश्वर के पास क्यों जाना चाहिए?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 मैं ईश्वर-भक्ति का प्रचार सत्संग के द्वारा किया करता हूँ। ईश्वर-स्वरूप जाने बिना उसकी भक्ति कैसे की जाय, निर्णय नहीं हो सकता। ईश्वर-स्वरूप के विषय में कहा जाता है कि आप इन्द्रियों से जो जानते हैं, वह माया है। आँख से देखते हैं माया है, कान से सुनते हैं माया है, बुद्धि से पहचानते हैं वह भी माया है। परमात्मा मायातीत है, उसकी भक्ति मायामय इन्द्रियों के द्वारा हो संभव नहीं। मनुष्य इन्द्रियों को छोड़कर कुछ काम करे असंभव प्रतीत होता है। एक-एक इन्द्री को एक-एक वस्तु का ज्ञान होता है। एक ही इन्द्री को सब विषयों का ज्ञान नहीं होता। रूप आँख को व्यक्त है, तो कान को अव्यक्त है। शब्द कान को व्यक्त है तो और इन्द्रियों को अव्यक्त है। इसी प्रकार ऐसी कोई एक इन्द्रिय नहीं है, जिसके लिए सब विषय व्यक्त हो। मन सब विषयों को जानता है, परंतु बाहर की इन्द्रियों द्वारा बाहर की इन्द्रियों से हीन कर दो तो मन कुछ नहीं जान सकेगा। जो मन-बुद्धि से परे पदार्थ है, वह बाहर की तो सब इन्द्रियों से परे है ही, उसकी भक्ति हम कैसे करें? इसके लिए सरल मार्ग होना चाहिए। इसकी खोज है-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 स्वरूप अर्थात् निजरूप-आत्मरूप। अविगत अर्थात् कहीं से भी खाली नहीं, सर्वव्यापक। अपार अर्थात् स्वरूपतः ससीम नहीं। इति उसकी होती नहीं। यह जो परमात्मा का स्वरूप है, उसका ग्रहण हम कैसे करें? ‘गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।’ ईश्वर-स्वरूप का दर्शन हुआ, यह कैसे माना जाय?
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
            -महोपनिषद्
 अर्थात् परे से परे को (परमात्मा को) देखने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं। यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि यह जड़ है और यह चेतन है। तब प्रत्यक्ष होता है-‘जड़ चेतनहिं ग्रंथि पड़ि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई।।’ अभी तो यह है कि यह जड़ है और चेतन प्रत्यक्ष नहीं है, चेतन का कार्य जानते हैं। चेतन प्रत्यक्ष हो जाय, जैसे दूध से मक्खन अलग देखा जाता है। उसी तरह जड़ से अलग होकर चेतन देखा जाय। ऐसा दर्शन हो तब परमात्म-दर्शन उस चेतन से हुआ। परमात्म-दर्शन के लिए दो बातों को याद रखिए। पहली बात-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।। -रामचरितमानस
 और दूसरी बात उपनिषद् का-
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।
 परमात्मा वह है, जिसके दर्शन से हृदय की ग्रंथि खुल जाय। सभी संशय छिन्न हो जायँ और सभी कर्म नष्ट हो जायँ। फिर एक बात कि जैसे रूप विषय क्या है? इसके लिए ठीक-ठीक उत्तर यही है कि जो आप आँख से ग्रहण करते हैं। इसी तरह और इन्द्रियों के विषय में भी जानना चाहिए। परमात्म-विषय क्या है? परमात्म-विषय वह है जिसको आप अपने से पहचान जायँ, बिना सहारे किसी इन्द्री के। आप स्वयं भी इन्द्रियों के विषय नहीं हैं। अपने शरीर को देखकर आप कहते हैं मैं हूँ। लेकिन विचारने पर कहते हैं मैं शरीर नहीं हूँ। निज स्वरूप क्या है, पहचान नहीं है। सद्गं्रथों में है महात्माजन कहते हैं और जो इस विषय में लगे रहते हैं। वे कहते हैं जैसे आँख को आँख से ही देख सकते हो, यदि बिना आइने के सहारे नहीं तो भी आइने में चेहरे को देखते हो, आँख को आँख से देखते हो। आँख से ही कान, नाक, मुँह को भी देखते हो। इस उपमा से जानना चाहिए आँख से आँख को देखते हो तो उसी तरह अपने को अपने से देखोगे और अपने से ही बिना किसी इन्द्री के सहारे केवल अपने से अपने को पहचान सकोगे। उसी तरह परमात्मा को भी अपने से पहचानोगे। उसको पहचानने के लिए दूसरा कोई उपाय नहीं है। भक्ति ऐसी होनी चाहिए कि निज चेतन द्वारा परमात्मा की प्राप्ति हो। भक्ति इसलिए की जाती है कि जिसके लिए भक्ति करते हैं, वह हमको मिल जाय। इसके लिए नहीं कि जिसकी भक्ति की जाय, वह कभी मिले ही नहीं। भक्ति तो वह है कि परमात्मा मिल जाय। जिसके हृदय में यह उत्कण्ठा नहीं हुई कि वह हमको मिल जाय वह विरही नहीं है। अपने को शरीर, इन्द्रियों से छुड़ाकर अकेलेपन की हालत में आ जाओ। इन्द्रियों का सहारा लेना बिल्कुल छूट जाय। यह जिस तरह हो उस तरह करो, ईश्वर की भक्ति है। क्यांकि ऐसा होने पर ही ईश्वर का दर्शन होगा। कितने मुझसे कहते हैं कि यह क्या कहते हो? तुम सुगम को दुर्गम बताते हो। क्या प्रùाद को दर्शन नहीं हुआ था? क्या ध्रुव को दर्शन नहीं हुआ था? क्या शवरी को श्रीराम का दर्शन नहीं हुआ था? इन लोगों को तो आँख से ही दर्शन हुआ था। तब मैं कहता हूँ कि भगवान का कौन रूप असल है-गोपी ने जिस रूप को देखा था, वह रूप या अर्जुन ने जिस दोहरे-तेहरे (दोभुजी, चतुर्भुजी और बहुभुजी विराट) रूप का दर्शन किया था वह या ध्रुव जिस रूप को देखा था या वह प्रùाद जिस रूप को देखा था वह? तो किसी को कम-विशेष नहीं, सब असल-ही-असल, कोई नकल नहीं। यदि ऐसा कहो तो क्या वह अनेक रूप होते हुए अनेक हैं? तब लोगों को यह मंजूर नहीं। वे कहेंगे अनेक रूप होते हुए वह एक हैं। तो मैं कहूँगा कि ठीक है, जो ठीक नहीं कहे तो उसके दिमाग में क्या हो गया, कहा नहीं जा सकता। सब रूपों में भगवान है। ‘अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा बसत इति वासना धूप दीजै।’ सब रूपों में स्वरूप जो है, उसकी पहचान कैसे होगी, सो बता दो। कभी श्रीराम धनुष लिए तो कभी श्रीकृष्ण वंशी लिए, तो कभी विराट रूप, कभी चतुर्भुजी रूप, कभी और रूप; तो असली रूप कौन? यदि कहो कि एक को पहचान लो तो हो गया, तो इसमें दो बातें हैं-एक तो सबको एक ही मानने कहते हो तो सबाल यह होगा कि सबमें वह एक कैसा है? दूसरी बात यह है कि श्रीराम ने कहा कि-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 इससे तो यह बिल्कुल माया ही माया हो जाता है और उपनिषद् वाक्य है-
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
 ऐसा बोलो कौन दर्शन से हुआ? यह जानना चाहिए कि जितने रूपों का वर्णन है, उससे वह नहीं जाना जाता कि उस दर्शन से ‘भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।’ हो गया।
 श्रीकृष्ण भगवान पाँचो भाई पाण्डवों के संग रहते थे। भगवान श्रीकृष्ण उनके सर्वस्व थे। जब उनलोगों ने सुना कि श्रीकृष्ण इस धरातल पर नहीं हैं तो वे लोग भी सब कुछ छोड़कर इस धरातल को छोड़ दिए। किंतु ऐसा सिद्ध नहीं होता कि उनके दर्शन से उन पाण्डवों को ‘भिद्यते हृदयग्रन्थि- श्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।’ ऐसा हो गया था। इसमें यह अवश्य कहना पड़ेगा कि वह जो है, उसका वयान सुनो। गोस्वामी तुलसीदासजी का सुनिये-
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
   अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
 निर्मल निराकार निर्मोहा ।नित्य निरंजन सुख सन्दोहा।।
प्र्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाही ं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।
 यह कैसा है? केवल इतना ही रहता कि हाथ, पैर, नाक, कान, मुँहवाला है, तब तो कुछ बात ही नहीं। किंतु यहाँ तो-
प्र्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
 कहकर प्रकृति पार कहा गया है। प्रकृति सत, रज, तम; तीनों का सम्मिश्रण रूप है। सत्, रज, तम; तीनों से पार हो जाय अर्थात् त्रैगुणातीत हो जाय। त्रैगुणातीत निर्गुण हो गया। शरीर सगुण और शरीर धारण करनेवाला निर्गुण होता है।
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप।
 किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप।।
 राम ने भूप का शरीर धारण किया, वह राम स्वयं कैसा?
 जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ।
 सोइ सोइ भाव देखावइ, आपु न होइ न सोइ।।
 ‘आपुन होइ न सोइ’ यह कैसा? इसके लिए आग्रह नहीं? यह तो गोस्वामी तुलसीदासजी के कहने के सहारे और कबीर साहब, गुरु नानक साहब के लिए तो कहना ही क्या? कबीर साहब कहते हैं-
 श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
 सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
 चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
 चून चगून वजूद न मानु तैं सुभानमूना ऐना ।।
 बड़ा-से-बड़ा वही हो सकता है जो अनादि अनंत है-असीम है, ईश्वर वह है, जिसकी परिधि कहीं नहीं, सभी जगह केन्द्र-ही-केन्द्र है। जीव वह है, जिसमें केन्द्र सहित परिधि है। चामचश्म- चर्मदृष्टि से नहीं, आत्मदृष्टि से खोजने कहा। बाबा नानक के पास जाएँ और उनसे पूछें कि ईश्वर के विषय में कहिए तो वे कहते हैं-
 अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा।।
  जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा।।
 साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु।
 ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु।।
 ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु काम न नारी।।
 अकुल निरंजन अपर परंपरु सगली जाति तुमारी।।
 घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई।
 बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई।।
 जैसे कबीर साहब ने कहा-‘चाम चश्म सां नजरि न आवै खोज रूह के नैना।’ वैसे ही गुरु नानक साहब ने कहा-‘बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई।।’ श्रीराम, श्रीकृष्ण, विराटरूप, शिवरूप, देवी रूप; सब रूपों को दण्डवत् करता हूँ। किंतु प्रश्न रह जाता है कि उन रूपों में रहनेवाला कौन है? तथा उसके बिना उपनिषद् की यह सार्थकता रह ही जाती है कि-
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
 जैसे भागलपुर जाना है तो कहलगाँव को छोड़ना होगा। उसी तरह ईश्वर के पास जाना है तो इन्द्रियग्राम को छोड़ो। यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं है कि ईश्वर का केन्द्रीय रूप एक जगह है और व्यापक रूप किरणों से है। यह भी एक प्रश्न का उत्तर है कि ईश्वर के पास क्यों जाना चाहिए? ईश्वर तो सर्वत्र है। उसके उत्तर में है कि ईश्वर केन्द्रीय रूप से एक जगह है और किरण रूप से सर्वव्यापक है तो यह उत्तर भी गलत हो जाता है; क्योंकि केन्द्र और उसकी किरण होने से ससीम हो जाता है। वह एक रस व्यापक नहीं हो सकता। किरण वहाँ फैल कर जाती है, जहाँ वह स्वरूपतः नहीं है। इसलिए एक रस व्यापक नहीं हो सकता। सूर्य कितनाहूँ बड़ा हो फिर भी उसकी किरण ससीम ही होगी। क्योंकि ससीम पदार्थ की किरणें भी ससीम होती हैं। ऐसा क्यों न कहो कि सर्वत्र एक समान एक रस व्यापक। किंतु हमें पहचानने की शक्ति नहीं है। पहचानने की शक्ति यहाँ इसलिए नहीं है कि वह इन्द्रियगम्य नहीं है और हम इन्द्रियों के संग-संग हैं। इसलिए जहाँ इन्द्रियों और शरीरों का संग छूटा वहीं उसका दर्शन हो जाएगा। दूध को मथकर मक्खन अलग कर लेने पर जो काम दूध से होगा, वह काम घी से नहीं होगा और जो काम घी से होगा, वह दूध से नहीं होगा। दूध से खीर बना सकते हैं, पूड़ी नहीं छान सकते। घी से पूड़ी बना सकते हैं, खीर नहीं बना सकते। उसी तरह इन्द्रियों के संग में रहकर जो काम होता है, इन्द्रियों से छूटने पर वह काम नहीं होगा। और इन्द्रियों से छूटने पर जो काम होगा, वह इन्द्रियों के संग में रहने से नहीं। इसीलिए ईश्वर के पास संत लोग जाने कहते हैं। कितने कहते हैं, उसको यहाँ बुला लो। फिर होता है कि उसको बुलाओ तो कहाँ? वह तो सर्वत्र है। किंतु फिर वही बात होती है कि सर्वत्र है तो फिर यहाँ क्यों नहीं पहचानते हैं? जैसे आँख पर पट्टी और रंगीन चश्मा लगा रहने से बाहर की चीज देखी नहीं जा सकती और जो देखी जाती है, वह चश्मा के रंग के अनुरूप रंग में। इसलिए ऐसी भक्ति हो जिससे शरीररूप पट्टी और इन्द्रियरूप चश्मा उतर जाय। मनु-शतरूपा को दर्शन हुआ, जिस रूप को उन्होंने पाने की इच्छा की थी। किंतु उस रूप में रहनेवाले का दर्शन नहीं हुआ। उनका साधन केवल तप था। शारीरिक कष्ट से ‘हृदय जवनिका बहुविधि लागी’ नहीं टूट सकती। यह वर्णन भी नहीं आया कि उनके हृदय की जवनिका टूट गई थी। उन्होंने इसी आँख से देखा था। माया के दर्शन से मायिक-मोहित बुद्धि रह गई। मनु-शतरूपा के लिए इस तरह कहना मेरी ढिठाई है। उन्होंने भगवान के ऐसा पुत्र माँगा। पुत्र के लिए क्या-क्या हुआ, सो रामायण में पढ़ लीजिए। राजा दशरथ हुए, निरपराधी श्रवण को मारकर शाप लिया। उतनी तपस्या फिर शिकार खेलने का इतना चश्का कि दिन में शिकार खेलते- खेलते नहीं थकते तो रात में शिकार खेलते। पहले तो मेरे मन में था कि रूप-दर्शन करो, किंतु अब समझता हूँ कि रूप-दर्शन से संतुष्ट मत होओ। रूप में कौन है, उसको पहचान कर जानो। नहीं तो केवल रूप-माया में भरमाता है। कितने कहते हैं कि भगवान मेरे पास आएँगे। मैं कहता हूँ नहीं, भगवान के पास मैं जाऊँगा। जो भगवान को बुलाते हैं तो भगवान कहते हैं तुम इस आँख से मुझे नहीं देख सकते हो। इस आँख से देखना चाहते हो तो लो मेरे मायारूप को देखो। किंतु मैं तो उस रूप में रहनेवाले का दर्शन करना चाहता हूँ और आपलोगों को भी मैं उसी को पाने की लालच देता हूँ। सूरदासजी कहते हैं-
अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यों गूँगहिं मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै।।
परम स्वाद सबही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै।
मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै।।
 परम स्वाद है, वह स्वाद कैसा है तो सूरदासजी ही जाने। किंतु यह स्वाद ऐसा है कि पूरी संतुष्टि होती है, माँग-चाँग समाप्त। सूरदासजी भी भगवान के माया- रूप के लिए बहुत लट्ट ू थे। किंतु चलते-चलते वे अविगत गति तक चले जाते हैं। वे कहते हैं-
    जौं लौं सत्य स्वरूप न सूझत ।
     तौं लौं मनु मणि कंठ विसारे फिरत सकल वन बूझत।।
    अपनो ही मुख मलिन मंद मति देखत दर्पन माँह।
    ता कालिमा मेटिबे कारण पचत पखारत छाँह।।
    तेल तूल पावक पूट भरि धरि बनै न दिया प्रकाशत।
    कहत बनाय दीप की बातें कैसे हो तम नाशत।।
    सूरदास जब यह मति आई वे दिन गये अलेखे।
     कह जाने दिनकर की महिमा अन्ध नयन बिनु देखे।।
 यह बुद्धि जबतक नहीं हुई थी, तबतक के दिन उनके बेहिसाब के ही चले गए। वह सत्य अव्यक्त परमात्म-स्वरूप है अवश्य उसको छिपाकर रखना और उसकी प्राप्ति के यत्नों को नहीं जानना, जीवों के अमंगल का हेतु है। ऐसा सुन्दर रूप कि जिससे सुन्दर कुछ न हो। यदि उसका सब गहना- जेवर उतार लो तो वह कैसा लगेगा? वह रूप कैसा जिसमें गहना-जेवर देने से चमक-दमक बढ़ जाय, वह पूर्णरूप कहाँ है? पूर्णरूप तो वह है जिसका गहना-जेवर उतारते जाओ तो और चमक बढ़ता जाय। शरीर को लंगटा करने नहीं कहा। शरीर के ऊपर से शरीर को उतारो, जैसे-जैसे लगटा होओगे, वैसी-ही-वैसी खूबसूरती बढ़ेगी। चारो जड़ शरीरों को उतार दो, तो पूर्ण लंगटा हो जाओगे। तब पूर्ण चमक खिल उठेगी। इसी को सुन्दरदासजी ने कहा है-
व्योम को व्योम अनंत अखंडित आदि न अंत सुमध्य कहाँ है।
को परमान करै परिपूरन द्वैत अद्वैत कछू न जहाँ है।।
कारण कारज भेद नहीं कछु आप में आपहिं आप तहाँ है।
सुन्दर दीसत सुन्दर माहिं सु सुन्दरता कहि कौन उहाँ है।।
 वहाँ हाथ-पैर कुछ नहीं रहता। अब कुछ सुगम कहकर दुर्गम की ओर ले जाऊँगा और तब सत्संग समाप्त कर दूँगा। आपलोग नित्य प्रति सोते हैं। सोते समय जाग्रत से स्वप्न में जाते समय, शक्ति भीतर को खींचती है हाथ-पैर कमजोर होने लगते हैं। बाहर शरीर कहाँ है, कुछ पता नहीं। मुँह में मिश्री रहने पर भी उसका स्वाद नहीं। देह तो मर नहीं गयी, श्वाँस तो चलती ही रहती है। देह के अंदर ही रहे और बाहरी ज्ञान से शून्य हो गए। बाहरी वस्तु का ज्ञान नहीं रहा। बाहरी विषय उसके पास धर दीजिए, किंतु उसको उसका ज्ञान नहीं होता। वह भीतर चला गया है। मानसिक धार -चेतन धार असली चीज है, उसी से सब इन्दियाँ सचेष्ट हैं। वह धारा इन्द्रियों की घाट से सिमट गई, स्वाभाविक ही सिमट गई। हमारे आपके करने से नहीं। जिस समय अंतर्मुख होता है, उस समय बड़ा सरूर वा चैन मालूम होता है। कोई इन्द्री अपने विषय में नहीं, फिर भी चैन। जिस वक्त उस ओर सरकाव होता है, शरीर ढीला होता-जाता है। उस समय कोई खटखुट कर दे, नींद टूट जाय तो बहुत दुःख होता है। एक विचित्र चैन तन्द्रा में मालूम होता है। खाने-पीने की कोई चीज नहीं, फिर भी आनंद। सोते समय अन्तर्मुखी होते हैं, जब आप सोने लगते हैं, तब संकल्प-ख्याल छूटते जाते हैं। छूटते-छूटते सब छूट गए और आप गहरी नींद में चले गए। इससे जानने में आता है कि भीतर जाने के लिए ख्यालां को छोड़ना पड़ेगा। भीतर जाने के लिए बाहरी इन्द्रियों का संग छोड़ना होता है। स्थूल ज्ञान नहीं रहता। यह कैसे होगा? ख्यालों को छोड़िए। कैसे ख्याल छोड़ा जाय? इसके सहारे के लिए तुलसीकृत रामायण में नवधा- भक्ति का वर्णन पढ़िए और उसकी प्रत्येक विधि से भक्ति कीजिए। प्रथम विधि है संतों का संग कीजिए, जो बातें हों उनमें रत हो जाइए और गोस्वामी तुलसीदासजी की यह बात भी याद रखिए-
 नित प्रति दरसन साधु के, औ साधुन के संग ।
 तुलसी काहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
 क्योंकि कबीर साहब कहते हैं-‘कबीर संगति साध की ज्यों गंधी को वास। जो कुछ गंधी दे नहीं, तौभी वास सुवास।।’ इसी में गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-‘नित प्रति दरशन साधु के,’ फिर हरि-रंग क्यों नहीं लगा? उस दूकान पर गंधी का गंध ही नहीं लगा। तो गोस्वामी तुलसीदासजी उत्तर देते हैं-
 मन तो रमे संसार में, तन साधुन के संग ।
 तुलसी याहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
 साधु के संग में चुपचाप बैठो। साधु की ओर ख्याल लगाकर रखो तो साधु का प्रभाव पड़ेगा। रामकृष्ण परमहंसजी गीत गाते थे और रानी रासमणि मन-ही-मन मुकदमा का ख्याल करने लगी। परमहंसजी ने उसको एक थप्पड़ लगायी, बोले-मुझे गीत गाने कहती है और तुम मुकदमा की बात सोचती है। नानक साहब को मुसलमानों ने कहा कि तुम नमाज नहीं पढ़ते हो, नमाज पढ़ने चलो। गुरु नानकजी मस्जिद में गए। सब कोई नमाज पढ़ने लगे और ये बैठे रहे। कोई उलटकर देखता था, कोई मन ही मन कहता था वह नमाज नहीं पढ़ता है, काफिर है। और जो नबाब था, वह मन-ही-मन काबुल में घोड़े का मोल करता था। नमाज समाप्त होने पर उन लोगां ने कहा-तुमने नमाज नहीं पढ़ी। तो गुरु नानक ने कहा-तुमलोगों ने नमाज नहीं पढ़ी, तो मैंने भी नहीं पढ़ी। उनलोगों ने कहा-हमलोगों ने तो नमाज पढ़ी, तुम कैसे कहते हो कि हमलोगों ने नमाज नहीं पढ़ी। गुरु नानक ने कहा-तुमने नमाज कहाँ पढ़ी? तुम तो मन ही मन कहते थे कि वह काफिर बैठा है, नमाज नहीं पढ़ता है। और तुम्हारा नबाब काबुल में घोड़ा खरीद रहा था। पूछो, मैं सच कहता हूँ या झूठ? यह सुनकर उनलोगों ने कहा-छोड़ दो इनको, यह रोशन जमीर है।
 हाँ, तो साधु के संग में जाकर ख्यालों को छोड़िए। कथा-प्रसंग में डूब जाओ।
  गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।
  चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।।
 जैसे छत्रपति शिवाजी समर्थ रामदासजी की सेवा करते थे। जैसे राय शालिग्राम बहादुर अपने गुरु की सेवा करते थे। ये यमुनाजी से नंगे पैर पानी लाते थे। रास्ते में कोई कह दिया कि मेरे घर में पानी नहीं है, तो कहते ले लो। उसे वह पानी देकर फिर यमुनाजी से पानी लेकर गुरु महाराज के पास आते थे। इसी प्रकार मान-प्रतिष्ठा छोड़कर गुरु की सेवा करो। बेमन सेवा करेगा तो जो सच्चा गुरु होगा, वह सेवा स्वीकार नहीं करेगा। इस तरह यहाँ भी मन लगाना है। किंतु गुरु के बारे में भी सचेत रहिए। बहुत लोग गुरु-भक्ति के विषय में बहुत बात कहते हैं। वे कहते हैं गुरु-सेवा के कारण बहुत बड़े-बड़े अनर्थ हुए हैं। तो जानना चाहिए कि-
 तन मन ताको दीजिये, जाके विषया नाहिं ।
 आपा सब ही डारि के, राखे साहेब माहिं ।।
      -कबीर साहब
राधास्वामी साहब ने कहा-
     सुरत शब्द बिन जो गुरु होई। वाको छोड़ो पाप कटा ।।
 ईश्वर का गुणगान करो, किंतु दिखलावे के लिए नहीं। मन समेटकर करो। पाँचवीं भक्ति है-गुरु से जो मंत्र पाए हो, उसको जपो। किसी मंत्र में विशेषता नहीं है। विशेषता जपने में है। किंतु जपने में भी ख्याल रखो। ऐसा न हो कि-
 माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं ।
 मनुवाँ तो दह दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं ।।
तब जप कैसा होना चाहिए, तो कहते हैं-
 तन थिर मन थिर वचन थिर, सुरत निरत थिर होय ।
 कह कबीर इस पलक को, कलप न पावै कोय ।।
यदि कहो कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने तो कहा है-
 भाव कुभाव अलख आलसहू ।
           नाम जपत मंगल दिसि दसहू ।।
 तो जानना चाहिए कि जो प्रेम से नाम जपने से होगा, सो कुभाव से कहने से नहीं होगा। अलख-(परमात्मा का) क्रोध से भी नाम लो, किंतु मन से नाम लो। सोकर उठने से आलस होता है तो उस समय तो कोई विशेष बात मन में नहीं रहती है, एकाग्रता से जपना है।
 नाम जपत स्थिर भया, ज्ञान कथत भया लीन ।
 सुरति शब्द एकै भया, जल ही ह्वैगा मीन ।।
 इस तरह ख्याल छोड़ने कहते हैं। तब छठी भक्ति पर आते हैं इन्द्रियों को काबू में रखने का स्वभाववाला बनो। बहुत से कर्मों से हटे रहो और निरंतर सज्जन के धर्म में लगे रहो। इन्द्रियां को रोकने का स्वाभाववाला कैसे बनिएगा? केवल ख्याल से या और कुछ करना होगा? इन्द्रियों को रोकने का स्वभाववाला होने के लिए जानना चाहिए कि इन्द्रियाँ चलायमान कैसे होती हैं। पहले कहा जा चुका है कि इन्द्रियों से मानस-धारा समेटने से उसके पास विषय रहने पर भी वह उसको ग्रहण नहीं करती, इसीलिए जानो कि ऐसी क्रिया होनी चाहिए, जिससे चेतन धार अंतर्मुखी हो सके। विचार से मन को समेटोगे, किंतु वह थोड़ी देर के लिए रहेगा, फिर वैसा ही हो जाएगा। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि समाधि में बुद्धि स्थिर होगी। विचार द्वारा भी रोको और इन्द्रियों की धारों को केन्द्र में केन्द्रित करो, तब ‘दम’ का साधन होगा। इसके लिए ध्यान करना होगा। पहले देखे हुए पदार्थ को मन से बनाकर देखो। पहले बिना मोटे अक्षरों को लिखे महीन अक्षर नहीं लिख सकता। यहीं पर आता है जिस रूप में आपकी श्रद्धा हो, उसमें महानता है, उसका ध्यान कीजिए। ध्यान अपनी- अपनी श्रद्धा के अनुकूल है। आपको एक रूप में श्रद्धा नहीं है, तो दूसरे रूप का ध्यान कीजिए। किंतु ऐसी बात नहीं है कि जो रूप-ध्यान आप करते हैं, वह ध्यान दूसरे भी करे। यदि आपको किसी रूप में श्रद्धा नहीं है तो आप ईश्वर का नाम लिखकर ही उसका ध्यान कीजिए। आर्यसमाजी भाई गुरु-रूप का वा किसी रूप का ध्यान नहीं मानते। मैंने कहा- ओ3म् लिखकर ध्यान करो। कितने सूफी लोग अलिफ या अल्लाह लिखकर ध्यान करते हैं।
    जै जै जै हनुमान गोसाईं । कृपा करो गुरुदेव की नाईं ।।
 गोस्वामी तुलसीदासजी को रघुराई और गुरु दोनों में प्रेम है। चाहे गुरु नानक या कबीर साहब जैसा बनो, तब भी गुरु और तुलसीदासजी जैसा बनो तब भी गुरु। किंतु अयोग्य गुरु के लिए मैं नहीं कहता।
 स्थूल ध्यान कीजिए। स्थूल ध्यान कहाँ किया जाय? अपने हृदय में ध्यान कीजिए। मैं तो कहूँगा आप सुतीक्ष्ण मुनि जैसा ध्यान कीजिए। श्रीराम वनवास जाते हैं। सुतीक्ष्ण मुनि अगस्त्य मुनि के शिष्य थे। सुतीक्ष्ण को मालूम हुआ कि श्रीराम मेरी कुटी में आवेंगे, उन्हें बड़ा आनंद हुआ। आनंद में आकर वे नाचने-कूदने लगे। कुछ देर नाचने-कूदने के बाद वह आँख बन्दकर ध्यान करने बैठ गए। ध्यान करते-करते वे इतना मग्न हो गए कि उनको बाहर का कुछ भी ख्याल नहीं रहा। श्रीराम आए, वे उनको उठाते हैं, किंतु उनको पता नहीं कि श्रीराम मुझे उठा रहे हैं। वे राम के स्थूल रूप का ध्यान कर रहे थे। भगवान ने उनके मन के उस रूप को बदल दिया, जिस रूप का वह ध्यान कर रहे थे। रूप बदल जाने पर उनका ध्यान टूट गया और आँख खोलने पर श्रीराम को अपने पास खड़ा पाया। यह ध्यान मुझको बहुत पसंद है। इतना ध्यान में गर्क हुआ कि बाहर का ख्याल ही कुछ नहीं रहा। बाहर के सब रूप छूटकर एक रूप रहा। सब शब्दों को छोड़- कर एक शब्द का जप रखो। जप से विशेष ध्यान है।
 पूजा कोटि समं स्तोत्रं स्तोत्र कोटि समं जपः।
 जाप कोटि समं ध्यानं ध्यान कोटि समो लयः।।
 केवल एक स्थूल रूप रह गया और सब छूट गए। रूप में भी अंग-प्रत्यंग पर ख्याल रहा, तब पूर्ण सिमटाव कहाँ हुआ? कोई भी रूप बनता है एक विन्दु से। रूप जगत का बीज विन्दु है। विन्दु को ही अणोरणीयाम् कहा है। ‘बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा’ कबीर साहब ने कहा है कि इसी को ‘अणोरणीयाम् महतो महीयान्’ उपनिषद् में कहा है। विन्दुरूप से कोई छोटा नहीं हो सकता। ऐसा नहीं समझना चाहिए कि विन्दुरूप आ गया और भगवान का रूप छूट गया। किन्तु नहीं, जो सर्वव्यापी है, वह कहीं भाग नहीं सकता। स्थूलरूप से छूटकर विन्दु रूप में आ गए। विन्दु में पूर्ण सिमटाव होता है। सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। इन्द्रियां के घाटों से सुरत खिंचकर ऊपर उठ जाएगी। यह ‘दम’ का साधन होगा। ‘दम’ के साधन में मन और इन्द्रियां का संग-संग साधन होता है। शम में केवल मन का साधन होता है। मनोनिग्रह के बिना समता नहीं आती। इसलिए यदि ‘शम’ नहीं लेकर ‘सम’ लो, तौभी मनोनिग्रह करना होगा। विन्दु ध्यान एक मानस विन्दु बनाकर नहीं करना होगा। विन्दु ध्यान के लिए दृष्टि का प्रयोग होना चाहिए। जिसके लिए कबीर साहब ने कहा-‘ज्यों सूई बीच डोरा रे’। दृष्टि की धार जहाँ स्थिर होगी, वहीं विन्दु का उदय हो जाएगा। यह ज्योतिर्मय शालिग्राम है।
 विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्ति निकेतनम् ।
 देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।
 विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम् ।
 देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।
     -योगशिखोपनिषद्
 इस तरह विन्दु ध्यान करते-करते साधक दमशील हो जाएगा। ‘शम’ अर्थात् मनोनिग्रह के लिए लिखा है कि-‘न नाद सदृशो लयः’। नाद विन्दूपनिषद् पढ़ो उसमें है-‘नाद मदान्ध हाथी रूप चित्त को जो विषयों की आनंदवाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है। मृगरूपी चित्त को बांधने के लिए यह (नाद) जाल का काम करता है। समुद्र तरंग रूपी चित्त के लिए यह (नाद) तट का काम करता है।’
 मनोमत्त गजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः।
 नियामन समर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः।।
 नादोऽन्तरंग सारंग बन्धने वागुरायते ।
 अन्तरंग समुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि वा ।।
        -नादविन्दूपनिषद्
 विन्दु प्रगट होने पर नाद प्रगट होता है। नाद का अभ्यास ‘शम’ का साधन है। ब्रह्म के दो रूप हैं-शब्द ब्रह्म और पर ब्रह्म।
     शब्द ब्रह्म परिब्रह्म भली विधि जानिये ।
  पाँच तत्त्व गुण तीनि, मृषा करि मानिये ।।
     बुद्धिवन्त सब संत, कहैं गुरु सोइ रे ।
  और ठौर सिष जाई, भ्रमे जिनि कोइ रे ।।
         -संत सुन्दरदासजी
 यह नाद ब्रह्म की उपासना है। इससे ब्रह्म की प्राप्ति होती है। नाद ब्रह्म की उपासना से सुरत सब आवरणों को पार कर ‘शम’ के स्वरूप का दर्शन करती है। तब उसको ‘यथा लाभ संतोष’ क्यों नहीं होगा? और वह सबसे ‘सरल छल हीन’ क्यों नहीं हो जाएगा?
 महात्मा गाँधीजी के मरने पर इंगलैंड के पादरी कहते थे कि बहुत सीधा होना भी खतरनाक है। किंतु हमलोग कहते हैं कि बहुत सीधा बनो, सीधा बनने का अर्थ बेवकूफ होना नहीं है। अपनी बुद्धि को मत त्यागो! सरल सीधा बनो
 शवरी राम से न कुछ माँगती है और न कुछ राम उनको वरदान देते हैं। बल्कि वे कहते हैं-‘सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे’। शवरी ने राम के सम्मुख ही योगाग्नि में अपने शरीर को छोड़ दिया। योगाग्नि कोई बाहर की अग्नि नहीं है, जिससे शरीर जल जाय। जो योग करता है, उसके अंदर योग-अग्नि प्रकट होती है। ब्रह्मज्योति मिलती है। जहाँ शवरी गई वहाँ दशरथ नहीं गए थे। गिद्ध भी वहाँ नहीं जा सका था। वही भक्ति कीजिए। सगुण और निर्गुण दोनों भक्ति हो जाएगी। पहले निर्गुण भक्ति नहीं हो सकती है। पहले सगुण भक्ति है, फिर निर्गुण। मानस जप, मानस ध्यान स्थूल सगुण रूप उपासना है। विन्दु ध्यान सूक्ष्म सगुण रूप उपासना है। सारशब्द के अतिरिक्त और शब्दों का ध्यान सूक्ष्म सगुण अरूप उपासना है और सारशब्द का ध्यान निर्गुण निराकार उपासना है। उपासना की यहाँ समाप्ति है। इसके लिए आप को झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों से बचना होगा। नशा एक भी नहीं लेनी होगी। जर्दा भी नहीं लेना होगा। इस तरह भोजन वगैरह का सम्हाल होना चाहिए। ऐसा नहीं कि केवल जान लिया और सम्हाल नहीं है तो सफलता नहीं हो सकती है।
***************
यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत कहलगाँव के धर्मशाला में दिनांक 12.3.1955 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



107. कायारूप कपड़ों को धो डालो
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा कि जिस तरह मूँज से खींच-खींचकर सींक निकालते हैं, उसी तरह योगी आत्मा से शरीर को भिन्न करके देखते हैं, तब अपने से अपनी पहचान होती है। सींक के ऊपर कई खोल चढ़े होते हैं। एक- एक करके निकालने पर अंत में सींक मिलती है। इसी तरह शरीर के अंदर जीवात्मा है। उसके ऊपर पहला खोल जड़ का है, वह है महाकारण। महाकारण कहते हैं त्रयगुणों के सम्मिश्रण रूप को। वहाँ तीनों गुणों की शक्ति बराबर-बराबर रहती है। जहाँ तीनों गुणों की शक्ति बराबर रहती है, उसको कहते हैं साम्यावस्थाधारिणी जड़ात्मिका मूल प्रकृति। जड़ का पहला खोल यह है। इसके अंदर में दूसरा खोल है, जिसको कारण कहते हैं। महाकारण का कोई भाग जब परमात्मा की मौज से कम्पित होता है अर्थात् महाकारण के जिस भाग में तीनों गुणों की सम अवस्था छूटती है, तब कुछ रचना होती है। वही कारण है, उसके ऊपर है सूक्ष्म, जिसको इन्द्रियों से नहीं देख सकते; किंतु रूप-रेखा बन जाती है। उसके ऊपर स्थूल शरीर है, जो हाड़,़ मांस, चाम से बना है। इस प्रकार जीवात्मा के ऊपर चार जड़ शरीर हैं। इसी के लिए संत कबीर साहब के वचन में-घूँघट’ शब्द आया है। इन चारों को खोल दें, तो फिर ईश्वर-दर्शन में कोई रुकावट नहीं। इसी को गुरु नानक साहब दूसरी तरह से कहते हैं-
 घरि महि घरु देखाइ देइ सो सतगुरु परखु सुजाणु ।
 स्थूल में सूक्ष्म, सूक्ष्म में कारण और कारण में महाकारण व्यापक है। इसी को संत दादू दयालजी ने कहा है-
 घर माहैं घर निर्मल राखै, पंचौं धोवै काया कपरा।
 घर में घर को पवित्र रखो और पाँचों कायारूप कपड़ों को धो डालो। स्थूल की पवित्रता बाहरी शौच और अंतःकरण की शुद्धता से होती है। स्थूल की लपेट सूक्ष्म पर से उतर गया, सूक्ष्म पवित्र हो गया। इसी प्रकार कारण और महाकारण के संबंध में समझिए। चेतनमय शरीर तब धुल गया, जब महाकारण उस पर से उतर गया। कहने का ढंग अलग-अलग है, किंतु सब हैं एक तरह। जैसे कई बाजाआें के तारों को एक समान कसकर रखिए, तो सबसे एक ही तरह की ध्वनि निकलेगी। मालूम होता है कि इन सब संतों ने एक ही तरह की आत्मोन्नति की थी और एक ही तरह की साधना की थी। केवल कहने का ढंग अलग- अलग है। इन शरीर-रूपी कपड़ों से-घूँघट से जो अपने को नहीं निकालता, वह घर में घर को नहीं देखता तथा वह ईश्वर को नहीं पा सकता। घमण्डी बनकर संसार में मत रहो। यह शरीर पंचरंगा चोल है। पाँच तत्त्वों के पाँच रंग हैं। पृथ्वी का रंग पीला, जल का रंग लाल, अग्नि का रंग काला, हवा का रंग हरा और आकाश का रंग उजला है। इसके अंदर के शरीर भी प्रलयकाल में नष्ट होनेवाले हैं और बहुत बाधक हैं। जिस तरह फल खा लो और बीज रह गया, तो फिर उससे गाछ हो जाता है, उसी तरह स्थूल शरीर-रूप गूदा तो नष्ट हो जाता है और बीजरूप सूक्ष्मादि शरीर रह जाते हैं, तो फिर स्थूल शरीर हो जाता है। घमण्डी की सुरत फैली हुई होती है और नम्रता से रहनेवाले की सुरत सिमटती है। मन के सारे संकल्पों को छोड़ दो, तो शून्य महल में दियना जलेगा। एक ऐसी वस्तु पर अपने को लगाओ, जो बाहर में नहीं है और जिसे कभी देखा नहीं है। वह शून्य है, उपनिषद् का अणोरणीयाम् है। जो यत्न से युक्तिपूर्वक दृष्टिधारों को गुरु के बताए हुए अनुकूल रखता है यानी ऐसा रखता है कि दोनों दृष्टियों की नोक मिलकर एक हो जाती है, तब विन्दु उदय होता है। यह केवल समझाने और कहने की बात नहीं है। अभ्यास करके देखने की बात है। जिस तरह से हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को मिलाने से पानी हो जाता है (मिलाकर देख लो), उसी तरह दोनों दृष्टियों की धारों को मिलाओ, देख लोगे कि अणोरणीयाम् है। जो प्रयोग कर लेता है, वह देख लेता है। उसकी साधना करो, अवश्य होगा। आशा से मत डोलो। निराशा गिराती है, आशा ऊपर चढ़ाती है। होने योग्य काम भी निराशा होने से नहीं होता है। कठिन-से-कठिन काम भी आशा से धीरे-धीरे करते-करते पूरा होता है। यह योग की युक्ति है। प्रयोग करो, पाओगे। अपने अंदर में जैसे-जैसे कोई प्रवेश करता है, वैसे-वैसे अंतर्नाद सुनता है और शब्द के साथ उसके उद्गम स्थान तक पहुँच जाता है, परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। इसी तरह गुरु नानकदेवजी ने भी कहा है-
 पंच शबदु धुनिकार धुन, तहँ बाजै सबदु निसाणु ।।
 सुखमन कै घरि राग सुनि सुन मंडल लिव लाइ ।
 अकथ कथा वीचारीअै मनसा मनहि समाइ ।।
 सभि सखिया पंचे मिलै, गुरुमुखि निज घरि वासु ।
 सबदु खोजि इहु घरु लहै, नानकु ताका दासु ।।
 गुरु नानक साहब के दर्जे के जितने संत हुए, सभी को ‘पंच सबदु धुनिकार धुन’ मिले। जिनको ये शब्द मिलते हैं, उनका परमात्म-घर में वासा होता है। संत दादू दयालजी घर में घर को पवित्र रखने के लिए कहते हैं। पवित्र कैसे होगा, सो पहले कहा जा चुका है। त्रिवेणी तट पर अपनी वृति को रखकर शम-दम की साधना करो, तो पाँचों शरीर-रूप कपड़े धुलेंगे। और जहाँ सुरत की बैठक है, उसके सामने ही उसकी स्थिति बन जाएगी। वह ईश्वरीय आकर्षण से उधर को खींच जाएगा। सुरत सम्मुख जगेगी और वह पकड़ा जाएगा। इस तरह भक्ति करते हुए अपना उद्धार होगा। यह भक्ति का सार है। साथ-ही-साथ यह रास्ता सँकरा है। यह हाथी-घोड़ा ले जाने का रास्ता नहीं है। इसमें सुरत जाती है। इसके लिए तंग रास्ता है। इसी तरह-‘रघुपति भगति करत कठिनाई’ गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है। घबराओ नहीं, कठिन काम है तो यह समझो कि जो जिस कला में पारंगत हो जाता है, विशेष अभ्यस्त हो जाता है तो वह विद्या उसके वास्ते सुगम और सुख देनेवाली हो जाती है। अभ्यास किए बिना कोई अभ्यस्त नहीं होता। छोटी मछली नाले में भाठे से सिरे की ओर जिसकी धारा तेज होती है, चली जाती है। किंतु गंगा की चौड़ी धारा में हाथी नहीं जा सकता, वह बह जाता है। बालू और चीनी का मिश्रण करने से बुद्धिमान प्राणी जो मनुष्य है, वह उसको अलग- अलग नहीं कर सकता; किंतु छोटी चींटी चीनी को चुन लेती है और बालू को छोड़ देती है। सिमटी हुई सुरत सफरी है, चींटी है और फैली हुई सुरत हाथी है। जिसकी सुरत सिमटती है, वह पिण्ड से ब्रह्माण्ड की ओर चला जाता है। वह जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था में नहीं रहता, तुरीय अवस्था में रहता है। वह संसार के ख्यालों से ऊपर उठा हुआ होता है; इसीलिए वह बाहर संसार से सोया हुआ है; लेकिन अंदर में जगा हुआ है। गोस्वामीजी ने कहा है-
मोह निसा सब सोवनिहारा। देखिय सपन अनेक प्रकारा।।
यहि जब जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच वियोगी।।
 वह अपने अन्दर सारे विश्व को देखता है। गोया सारे दृश्य को अपने अन्दर घुसाकर देखता है। वह हरि-पद का अनुभव करता है, द्वैत से हटा रहता है और अद्वैत पद में स्थित रहता है। वह अद्वैत पद कैसा है? तो कहा-
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं।
 गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि इस दशा से जो हीन है, उसका संशय निर्मूल नहीं होता है। यह सूक्ष्म भक्ति है। हाँ, कुछ मोटी बात भी है-जप करो, कीर्तन करो। किंतु जबतक कोई यहाँ नहीं आता, देश-काल से परे नहीं हो जाता, तबतक भक्ति समाप्त नहीं होती। यह अन्तस्साधना के विषय की बात है। अभ्यासी शून्य में आरूढ़ रहता है, जहाँ एक शून्य से दूसरे शून्य में जाता है। ऐसे द्वार पर चढ़ो, जिससे अंधकार के आकाश से प्रकाश के आकाश में जा सको। इसी के लिए राधास्वामी साहब कहते हैं-
 सखी री क्यों देर लगाई, चटक चढ़ो नभ द्वार ।
 मन और दृष्टि को दसवें द्वार पर स्थिर करके रखो। स्थिर रखना ही चलना है-
 बैठे ने रास्ता काटा । चलते ने बाट न पाई।।
है कुछ रहनि गहनि की बाता। बैठा रहे चला पुनि जाता ।।
कहै को तात्पर्य है ऐसा । जस पंथी वोहित चढ़ि बैठा।।
 इस नगरी में अंधकार समाया हुआ है। इसलिए भूल-भ्रम हर बार होते रहते हैं। अपने अंदर की ज्योति की खोज करो। अपने अंदर-अंदर चलो। चलने के लिए जो जहाँ बैठा रहता है, पहले वहीं से चलता है। तुम अंदर में जहाँ बैठे हुए हो, अंदर-अंदर वहाँ से चलो। संतों ने अंदर-अंदर चलने का आदेश दिया है।
***************
यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत कहलगाँव के धर्मशाला में दिनांक 12.3.1955 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



108. काम करते हुए भी भजन करो
प्यारे लोगो!
 शरीर में जीवात्मा का निवास है, इसीलिए शरीर जीवित मालूम होता है। शरीर जड़ है अर्थात् ज्ञानहीन पदार्थ है और जीवात्मा-चेतन अर्थात् ज्ञानमय पदार्थ है। दोनों का संग ऐसा है कि साधारणतः इसको कोई भिन्न नहीं कर सकता। शरीर में रहने का जीवन थोड़ा है और शरीर छोड़ने के बाद का जीवन अनंत है। क्योंकि जीवात्मा अविनाशी है। अनंत जीवन बहुत जीवन है एक शरीर का जीवन बहुत कम है। अवश्य ही वर्तमान शरीर के बाद के जीवन में स्थूल शरीर अनेक हो सकते हैं-शरीर बहुत हो सकते हैं। उन जन्म-मरणशील जीवन को जोड़ो तो बहुत हैं। इस शरीर से छूटने पर केवल जीवात्मा नहीं रहता। वह तीन जड़ शरीरों के अंदर रहता है। बारम्बार जनमने-मरने में केवल स्थूल शरीर छूटता है और तीन शरीर रह जाते हैं। इन तीनों शरीरांं में रहने का जीवन बहुत है। इन्हीं शरीरों में रहते हुए स्वर्गादि परलोक का भोग होता है। वहाँ के भोग के समाप्त होने पर फिर कर्मानुसार किसी के यहाँ जन्म लेता है। लेकिन यह चक्र कबतक चलता रहेगा, कोई ठिकाना नहीं। इतना ठिकाना है कि जबतक शरीर और संसार से छुटकारा नहीं हो जाय-मुक्ति नहीं प्राप्त कर ले, तबतक लगा रहेगा। सबसे उत्तम जीवन यही है कि किसी शरीर में नहीं रहना। किसी शरीर में रहना, पुण्य के अनुकूल स्वर्गादि में रहो फिर वहाँ से नीचे गिरो, यह जीवन कोई अच्छा जीवन नहीं है। हमलोग वर्तमान शरीर में हैं, इसमें कितने दिन रहेंगे, ठिकाना नहीं। उस अनंत जीवन के समक्ष यह जीवन अत्यन्त स्वल्प है। लोग दुःख में एक सेकेण्ड के लिए लिए रहना नहीं चाहते। सुख की ओर दौड़ता हुआ, दुःख से भागता हुआ यह जीव चलता है। किंतु जो सुख यह चाहता है, वह कहीं नहीं मिलता। साधु-सन्त लोग कहते हैं कि थोड़े-से जीवन के लिए तुम दौडे-दौड़े फिरते हो और डरते हो कि आज यह काम नहीं किया जाएगा तो यह हानि होगी। डर के मारे ठीक-ठीक नौकरी, वाणिज्य- व्यापार, खेती आदि करते रहते हो। ऐसा नहीं करो तो कोई हर्ज नहीं। बहुत धनी आदमी भी धन को सम्हालने और बढ़ाने में रहता है। धन के सम्हालने और बढ़ाने में भी कष्ट होता है। गरीब आदमी देखता है कि आज खाने के लिए है कल के लिए यत्न नहीं करो तो क्या खाओगे? उससे विशेष जो कृषक हैं, सोचते हैं कि इस साल के लिए खाने को है, आगे वर्ष क्या खाएँगे, इस डर के मारे खेती करते हैं। तो एक शरीर के जीवन के लिए डरते हो और काम करते हो। और इसके लिए नहीं डरते कि इस शरीर के जीवन के बाद का जो जीवन है उससे क्या होगा? चाहिए कि ऐसा काम करो कि शरीर छोड़ने के बाद भी तुम सुखी रहो। इसके लिए क्या करना होगा? ईश्वर का नाम जपो। इसी को कबीर साहब ने कहा है-
 निधड़क बैठा नाम बिनु, चेति न करै पुकार ।
 यह तन जल का बुदबुदा, बिनसत नाहीं बार ।।
 यदि समझ लो तो फिर आज कल के लिए बहाना नहीं करो कि आज नहीं कल करूँगा। क्योंकि गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
 नहँ बालक नहँ यौवने, नहिं बिरधी कछु बंध ।
 वह औसर नहिं जानिये, जब आय पड़े जम फंद ।।
 अनंत जीवन में दुःखी न होओ, इसके लिए ईश्वर का नाम-भजन करो। आजकल करते हुए समय बर्बाद मत करो। बल्कि-
 काल करै सो आज कर, आज करै से अब्ब ।
 पल में परलै होयगा, बहुरि करैगा कब्ब ।।
 भर दिन, भर रात बैठकर भजन नहीं करने कहा जाता। समय बांध-बांधकर भजन करो। काम करते हुए भी भजन करो और काम छोड़- छोड़कर भी भजन करो। ब्राह्ममुहूर्त्त में मुँह-हाथ धोकर, निरालस होकर भजन करो। दिन में स्नान के बाद भजन किया करो। ‘तन काम में मन राम में’ हमारे यहाँ प्रसिद्ध है, इसको काम में लाओ। फिर सायंकाल भी बैठकर भजन करो। रात में सोते समय भजन करते हुए सोओ, तो खराब स्वप्न नहीं होगा। नाम-भजन को लोग जानते हैं कि गुरु ने जो मंत्र दिया है, वही नाम-भजन है। वह नाम-भजन है किंतु और भी नाम-भजन है। जो शब्द लोग बोल सकते हैं, सुन सकते हैं, वह वर्णात्मक नाम-भजन है। ध्वन्यात्मक नाम-भजन भी होता है। वह ध्वनि तुम्हारे अंदर है। उस ब्रह्म ध्वनि में जो अपने मन को लगाता है, तो वह शब्द से खींचकर ब्रह्म तक पहुँचा देता है। नाम का जप और नाम का ध्यान भी होता है। वर्णात्मक नाम का जप होता है। जिसकी युक्ति गुरु बताते हैं और ध्वन्यात्मक नाम का ध्यान होता है। इसकी भी युक्ति गुरु बताते हैं। इस साधन के लिए भला चरित्र से रहना होगा। जिसका चरित्र भला नहीं है, जो सदाचार का अवलम्ब नहीं लेता है, वह विषयों में-भोगों में बँधा रहता है। जब वह भजन करने लगता है तो उसका मन गिर-गिर जाता है। इसलिए अपने को पवित्र आचरण में रखो।
 जाकी जिभ्या बंध नहीं, हिरदे नाहीं साँच ।
 ताके संग न चालिये, घाले बटिया काँच ।।
 जिभ्या पर खाने और बोलने का बंधन रखो। झूठ और कड़वा बोलना खराब है। झूठ बोलना सब पापों की जड़ है। कड़वा बोलना आपस में फूट पैदा करता है। इसलिए सत्य बोलो और नम्र होकर रहो।
 साधू सोई सराहिये, साँची कहै बनाय ।
 कै टूटै कै फिर जुरै, कहे बिन भरम न जाय ।।
 जो साँच बोलते हैं और कड़वा बोलते हैं तो उसको भी लोग सहन नहीं कर सकते। जो भोजन तुम्हारी बुद्धि को नीचा करे, शरीर में रोग पैदा करे, वह मत खाओ। इसके लिए संतों ने कहा-
 मांस मछरिया खात है, सुरा पान से हेत ।
 सो नर जड़ से जाहिंगे, ज्यों मूरी की खेत ।।
 यह कूकर को खान है, मानुष देह क्यों खाय ।
 मुख में आमिख मेलता, नरक पड़े सो जाय ।।
 मांस, मछली तथा नशा आदि खाने-पीने से पाशविक वृत्ति रहती है। इसमें राजस-तामस वृत्ति रहती है। सात्त्विक वृत्ति से भजन होता है। इस प्रकार के भोजन से सात्त्विक बुद्धि दमन हो जाती है और राजस-तामस की प्रधानता हो जाती है। जिससे भजन में चंचलता और आलस आता रहता है। जो भोजन शीघ्र नहीं पचे, वह भोजन भी मत करो। क्योंकि यह भी भजन नहीं होने देता। जितने नशे हैं, यहाँ तक कि तम्बाकू तक लेने योग्य नहीं। इसलिए कबीर साहब ने कहा-
 भाँग तम्बाकू छूतरा, अफयूँ और शराब ।
 कह कबीर इनको तजै, तब पावै दीदार ।।
 तम्बाकू को लोग साधारण समझते हैं, किंतु यह भी बहुत बुरी नशा है। नशाओं से, कुभोजन से, कडुवी बात से और असत्य भाषण से बचो। इन्द्रियों में संयम रखो और भजन करो तो भजन बनेगा। केवल भाँग, तम्बाकू ही नशा नहीं है, बल्कि-
 मद तो बहुतक भाँति का, ताहि न जानै कोय ।
 तन मद मन मद जाति मद, माया मद सब लोय ।।
 विद्या मद और गुनहु मद, राजमद्द उनमद्द ।
 इतने मद को रद्द करै, तब पावै अनहद्द ।।
 इन सब नशाओं को भी छोड़ना चाहिए। यही संतों का उपदेश है। जो संतों के उपदेश के अनुकूल रहते हैं, वे पवित्र हैं। जो संतों के उपदेश के अनुकूल नहीं चलते, वे किसी कारण पवित्र क्यों न कहे जाएँ, किंतु अपवित्र हैं। यथार्थ में हृदय पवित्र होना चाहिए। शरीर पवित्रता के लिए क्या बात है? शिवजी के रूप को देखिए, अमंगल वेष रहने से अपवित्र नहीं है। हृदय की पवित्रता चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं कि स्नान नहीं करे, पवित्रता से नहीं रहे, शारीरिक पवित्रता भी चाहिए। झूठ सब पापों का झोरा है। सत्य बोलनेवाले का झूठ का झोरा जल जाता है। जो सत्य बोलता है, उससे कोई पाप नहीं हो सकता है। साँच बोलने की जिसकी प्रतिज्ञा रहेगी, वह चोरी नहीं करेगा, कोई पाप नहीं करेगा। चोरी करने से झूठ बोलकर छिपाता है। सत्य बोलो तो चोरी भी छूट जाएगी। हिंसा मत करो। हिंसा करोगे तो क्या होगा? संत कबीर साहब ने कहा-
 कहता हूँ कहि जात हूँ, कहा जो मान हमार ।
 जाका गर तू काटिहौं, सो फिर काट तोहार ।।
 कर्मफल किसी को नहीं छोड़ता। श्रीराम-सीता वन गए। वे गंगा नदी के किनारे ठहरे। पत्तों के बिछौना पर श्रीसीता-राम लेटे थे और लक्ष्मण पहरा दे रहे थे। वहाँ गुहनिषाद भी बैठा और कहा कि कैकेयी ने इनको बहुत दुःख दिया। तब लक्ष्मणजी ने कहा कि-
 काहू न कोउ सुख दुख कर दाता ।
       निज कृत कर्म भोग सुनु भ्राता ।।
 युधिष्ठिर को थोड़ा-सा झूठ बोलने का फल भी मिला ही। यद्यपि वह भगवान के समक्ष और उनकी प्रेरणा से बोला था। भगवान श्रीकृष्ण को भी व्याधा ने तीर से मारा। यह भी कर्मफल ही था। इसलिए हिंसा से बचो। व्यभिचार मत करो। पर पुरुषगामिनी स्त्री व्यभिचारिणी है और परस्त्रीगामी पुरुष व्यभिचारी है। इन पंच पापों से बचो। एक ईश्वर पर विश्वास करो, उनका पूरा भरोसा करो। उनकी प्राप्ति पहले अपने अंदर होगी, फिर सर्वत्र। ध्यान करो, सत्संग करो और गुरु की सेवा करो। पहले कहे पंच निषेध कर्मों को नहीं करो और पीछे कहे पंच विधि कर्मों को करो। यही ‘विधि निषेधमय कलिमल हरणी। करम कथा रविनन्दिनी बरनी।।’ है। इस तरह अपने जीवन को बिताने पर मुक्ति मिलेगी। मुक्ति होने से स्वयं मालूम होगा कि मुक्ति मेरी हो गई। जैसे भोजन करने से स्वयं मालूम होता है कि पेट भर गया। जो जीवन-मुक्ति प्राप्त कर लेता है, मरने पर उसे विदेह-मुक्ति हो जाती है। यदि मुक्ति नहीं हुई तो भगवान श्रीकृष्ण के कहे अनुकूल बहुत वर्षों तक स्वर्गादि का भोग करके इस संसार में किसी पवित्र श्रीमान् के घर में जन्म लेगा। अथवा योगियों के कुल में ही जन्म लेगा। इस प्रकार का जन्म इस लोक में बहुत दुर्लभ है। फिर वह पूर्व जन्म के संस्कार से प्रेरित होकर साधन-भजन करेगा और अनेक जन्मों के बाद मुक्ति को प्राप्त कर लेगा। यह कभी नहीं भूलना चाहिए, सदा याद रखना चाहिए कि सदाचार के धरातल पर भजन-रूप मकान बनता है।
***************
यह प्रवचन रविदास सत्संगियों के संतमत सत्संग मंदिर, सिकन्दरपुर,भागलपुर में दिनांक 18.3.1955 ई0 के सत्संग में हुआ था।
***************



109. अन्तर्मुख होना सबसे बड़ा पुरुषार्थ है
प्यारे लोगो!
 मनुष्यों के वास्ते संतों का क्या प्रचार है, इसी का उपदेश इस सत्संग से हुआ करता है। संतों ने दृढ़ता से कहा है कि केवल सांसारिक वस्तुओं से कोई तृप्त नहीं हो सकता। जहाँ तृप्ति नहीं, वहाँ सुख कहाँ! ऐसी तृप्ति कि जिसमें फिर भोगेच्छा न रह जाय। ऐसा सुख जिसके बाद दुःख नहीं और शान्ति ऐसी जिसके बाद अशान्ति नहीं। संतों ने कहा कि विषयों से बहुत विशेष परमात्मा है। विषयों को पहचानते हो तो उसको ग्रहण करते हो। इन्द्रियों से जो ग्रहण हो, वह विषय है। पंच ज्ञानेन्द्रियों के पंच विषय-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द हैं। इन्हीं में लोग सुख, शान्ति और तृप्ति खोजते हैं। इनसे किसी को सुख, शान्ति और तृप्ति नहीं हुई है। संतों ने कहा है कि इनसे परे की वस्तु को खोजो। इन्द्रियों से विषयों को ग्रहण कर लोग सुखी, शान्त और तृप्त होना चाहते हैं; किंतु इन्द्रियों के ग्रहण होने योग्य पदार्थों में ऐसा नहीं हो सकता। इसमें सुख-भ्रम है। साधारण लोग उसी को सुख कहते हैं, जो मन-इन्द्रियों को सुहाता है। और जो मन इन्द्रियों को नहीं सुहाता, उन्हें वे दुःख कहते हैं। इसलिए ऐसा पदार्थ खोजो, जो पंच विषयों से परे है अर्थात् जिसको कोई इन्द्रियाँ पहचान नहीं सकतीं। ऐसा सुख जिसके बाद दुःख नहीं, सूरदासजी ने कहा है-
 परम स्वाद सबही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै।
 ऐसी सन्तुष्टि हो, जिसका अन्त न हो। यह सुख-संतोष परमात्म-प्राप्ति में है। इसलिए उस परमात्मा की खोज करो। ज्ञान यही कहता है कि वह कहाँ नहीं है? वह स्थान ही नहीं जहाँ परमात्मा न हो। वह देश-काल में व्यापक है और उनसे बाहर भी है। अर्थात् परमात्मा सबके अंदर-अंदर रहते हुए सबसे बाहर भी है। इन्द्रियां के ज्ञान में नहीं आने के कारण उसको लोग बाहर में नहीं प्राप्त कर सकते। बाहर के पदार्थों को ग्रहण करने के लिए इन्द्रियाँ हैं और इन्द्रियों के ज्ञान से ईश्वर परे है, फिर भला बाहर में उसको कोई इन्द्रियों से कैसे ग्रहण कर सकते हैं? संतों ने कहा है और अपने को भी प्रत्यक्ष ज्ञात होता है कि बाहर से उलट, सिमट कर अन्दर में रहने से इन्द्रियां से छूटना होता है। जाग्रत में इन्द्रियों के साथ काम होता है-विषयों का ग्रहण होता है। स्वप्न में स्थूल इन्द्रियों का संग छूटता है। उस समय बाहर का कोई ज्ञान नहीं रहता। संतों ने जिसको सुरत कहा है, वही स्वप्न में अन्तर्मुखी हो जाती है-सिमट जाती है। सिमटने से वह इन्द्रियां के घाटों में नहीं रहती, जगने पर वह इन्द्रियों के घाटों पर आ जाती है, फिर संसार का ज्ञान होता है। इससे जानने में आता है कि अंदर में जाने से विषयों से और इन्द्रियों से छूटना होता है। इसलिए यत्न जानकर अपने अंतर में प्रवेश करो। यह शरीर देखने में साढे़ तीन हाथ का है, परंतु यह समुद्र से भी विशेष गहरा है।
 कबीर काया समुँद है, अंत न पावै कोय ।
 मिरतक होइ के जो रहै, मानिक लावै सोय ।।
 मैं मरजीवा समुँद का, डुबकी मारी एक ।
 मुट्ठी लाया ज्ञान की, जामें वस्तु अनेक ।।
     - संत कबीर साहब
 अंतर्मुख होना सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। यह सबसे बड़ा पुरुषार्थ इसलिए है कि बाहर विषयों से अभ्यासी की आसक्ति छूटती है। जैसे-जैसे विषयों से छूटता है, वैसे-वैसे वह परमात्मा की ओर बढ़ता है। ब्रह्मज्योति को प्राप्त कर ब्रह्म को पाता है और सारी तृष्णाआें से मुक्त हो जाता है। सभी संतों ने यही कहा और यदि संतवाणियों के पहले की बात जानना चाहते हैं, तो उपनिषदों को पढ़िए, उसमें भी यही बात है। उपनिषद् का सार गीता है, यह भी अंतर्मुख होने के लिए ही सिखाती है। ईश्वर की खोज अपने अंदर करो। जबतक इस ज्ञान को कोई नहीं जानता है, तबतक वह सोया रहता है। जैसे कोई स्वप्न में अनेक काम करे, तौभी बाहर में-जाग्रत में जो काम होना चाहिए, एक भी नहीं होता। उसी तरह लोग, जो माया-मोह में-विषयों में पड़े हैं, वे सोए हुए हैं। इसलिए कबीर साहब कहते हैं-
 परमातम गुरु निकट विराजैं जागु जागु मन मेरे ।
 जाग्रत में जहाँ जीव रहता है, स्वप्न में उस जगह नहीं रहता-दूसरी जगह चला जाता है। स्थान बदल जाता है, तो ज्ञान भी बदल जाता है। वहाँ से तीसरी जगह पर जाता है, तो वह बेहोश होकर रहता है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति; तीनों अवस्थाओं में वह संसार में ही रहता है। यद्यपि वह सुषुप्ति में कुछ नहीं जानता है, फिर भी स्वप्न और जाग्रत में जानता और करता है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थाओं में सुरत के जाने का और इन तीनों अवस्थाओं के होने का कारण, सुरत का अंतर्मुख होना है। जाग्रत के स्थान से नीचे स्वप्न का और उससे नीचे सुषुप्ति का स्थान है। जब जाग्रत स्थान के ऊपर हो जाय, तब परमात्मा की ओर होना होता है। इसका ज्ञान और युक्ति किसी जानकार से जानना चाहिए। यदि जान भी लिया और उसका अभ्यास नहीं किया, तो उससे जो लाभ होना चाहिए वह नहीं होता। इसलिए कबीर साहब जो जगने कहते हैं, उसका अभ्यास करना चाहिए। दरिया साहब (बिहारी) कहते हैं-
 ‘माया मुख जागे सभै, सो सूता कर जान ।
  दरिया जागे ब्रह्म दिसि, सो जागा परमान ।।’
 ‘जानिले जानिले सत्त पहचानिले,
         सुरति साँची बसै दीद दाना ।
  खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै,
         पलक परवीन दिव दृष्टि ताना ।।’
     - संत तुलसी साहब
 और गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
मोह निसा सब सोवनिहारा। देखिय सपन अनेक प्रकारा।।
एहि जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच वियोगी।।
 योगीजन जगते हैं-योगी शरीर से बाहर नहीं जाते हैं, अपने अंदर सिमटते हैं, जैसे कछुआ अपने सब अवयवों को खोखड़े में समेट लेता है; उसी तरह जो अपने शरीर में इन्द्रियां के घाटों से चेतन को समेट लेता है, तब जगता है। जो इस तरह नहीं जगता, उसको ईश्वर-दर्शन नहीं होता। जो उपर्युक्त तरह से जगता है, वह शरीर और इन्द्रिय-ज्ञान में नहीं रहता और वही आत्म-दर्शन, परमात्म-दर्शन करता है। इसी को संतों के ख्याल में भक्ति करना कहते हैं।
  भक्ति के मोटे-मोटे कार्यों से परमात्मा के पास जाने का जितना सिमटाव होना चाहिए, उतना सिमटाव तो नहीं होता, किंतु उससे उस सिमटाव के साधन करने के योग्य बनता है; जिससे कि अंतर में विशेष प्रवेश कर सके।
 संतजन मोटी उपासना में ही भक्ति को खत्म करने नहीं कहते और न बिल्कुल मोटी उपासना छोड़ने ही कहते हैं। वे मोटी उपासना करने के लिए भी कहते हैं और उसके बाद की भी उपासना करने के लिए कहते हैं। सत्संग से इसका ज्ञान लेना चाहिए। पापों से छूटना चाहिए। साधन-भजन करनेवाले को प्रत्यक्ष ज्ञात होता है कि मैं करता हूँ तो कुछ मिलता है। संतों ने ऐसा नहीं कहा कि आज तुम करो और मरने पर पाओगे। बल्कि कहा कि तुम अपने जीवन में ही प्राप्त करके देख लो कि यह परमात्मा है।
 इसके लिए पवित्र बनना होगा। पापों में लगा हुआ आदमी विषयों में लसका हुआ रहता है, उससे ईश्वर का भजन नहीं हो सकता।
***************
यह प्रवचन भागलपुर के मिरजानहाट में श्रीआनंदीलाल साह के द्वारा आयोजित सत्संग में दिनांक 27.3.1955 ई0 के सत्संग में हुआ था।
***************



110. ईश्वर को जानने के लिए सत्संग है
प्यारे लोगो!
 आपलोग जानते ही होंगे कि संतों के संग का नाम सत्संग है। जिस समय में कोई संत होते हैं, उनकी पहचान किन्हीं को होती है कि नहीं, कहा नहीं जा सकता। किंतु जो बीत गए हैं, जो अभी नहीं हैं, उनके प्रति श्रद्धा लोगों में होती है। वे तो अब मिल नहीं सकते, किंतु उनकी वाणियाँ हैं। आजकल विद्वान लोग उनकी वाणियों को खोज-खोजकर प्रकाशित करते हैं। हमलोगों के सत्संग में संतों की वाणी की ही मुख्यता है। हमलोगों की श्रद्धा ऐसी है कि संतों के वचनों को ही उनका दर्शन समझते हैं।
 चिट्ठी आधी मुलाकात है। संतों की वाणियाँ उनकी चियिँ हैं। यदि संतों का पूरा दर्शन नहीं तो आधी मुलाकात ही क्या कम है? संतों की वाणी में असल बात ब्रह्म-ज्ञान, ईश्वर-दर्शन, आत्म-ज्ञान है। तीनों एक ही बात हैं। ईश्वर की प्राप्ति के यत्न और उनके स्वरूप को जानना चाहिए। उपनिषद् में ईश्वर का प्रयोग ब्रह्म, आत्मा, परमात्मा कहकर किया गया है। आत्मा वह पदार्थ है जो अनादि-अनंत है। उसी को परमात्मा कहते हैं। जैसे आकाश कहने से घटाकाश और महदाकाश दोनों का ज्ञान होता है, उसी तरह आत्मा कहने से परमात्मा और जीवात्मा दोनों का ज्ञान होता है। जो सर्वव्यापी, सर्वव्यापकता के परे है और जो पिण्डस्थ है, उनका भी ज्ञान होता है। जीवात्मा और परमात्मा का भेद करने में पिण्डस्थ को जीवात्मा और सर्वव्यापक तथा सर्वव्यापकता के परे को परमात्मा कहते हैं। परमात्मा सर्वव्यापक है। उनके लिए कहा गया है कि वे मन से पकड़े नहीं जा सकते। मन जिनके सहारे है, मन की स्थिति नहीं रह सकती, यदि उसके आधार परमात्मा न हो। मन जिनको ग्रहण नहीं कर सकता, जिनसे मन ग्रहण होता है, वे परमात्मा हैं।
 संसार में दो तरह के पदार्थ हैं। एक व्यक्त और दूसरा अव्यक्त। इन्द्रियों से जो ग्रहण हो, वह व्यक्त है और जो इन्द्रियों के ग्रहण में नहीं है, वह अव्यक्त है। उस अव्यक्त तत्त्व के लिए कहा गया है कि जिससे मन मनन किया हुआ कहा जाता है, उसको मन मनन नहीं कर सकता है, वह अव्यक्त है। व्यक्त पदार्थ जो इन्द्रियां से ग्रहण होता है, वह एक समान सदा नहीं रहता है। वह उपजता है, ठहरता है, बदलते-बदलते नाश की ओर जाता है और बाद में प्रत्यक्ष नहीं रहता है। इनमें से कोई पदार्थ ऐसा नहीं, जो उपजा नहीं हो और जिसका विनाश नहीं हो। ऐसे पदार्थ को कहा गया है- क्षणभंगुर। उपनिषदों में इसे माया कहा गया है। संतवाणियों में भी इसे माया कहा है। जो इन्द्रियों के ज्ञान से परे है, वह अव्यक्त है-निर्माया है। जो उपजा हो, कुछ काल रहे, फिर नाश की ओर जाय, वह नाशवान होगा। वह परमात्मा नहीं हो सकता। परमात्मा समय के पहले से है। समय और स्थान की मौजूदगी नहीं थी, तब से परमात्मा है। जब माया नहीं थी, तब से परमात्मा है। बल्कि माया परमात्मा से उत्पन्न हुई है। परमात्मा का ज्ञान है कि वे अभी उपजे नहीं हैं। गुरु नानकदेव के वचन में है-
    अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
    जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
    साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु ।
    ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।
 अलख=आँख के ज्ञान से परे, दृष्टि के परे। जिनके स्वरूप की सीमा नहीं, इसलिए अपार, जो किसी से पार होने योग्य नहीं है, उसको समाप्त नहीं किया जा सकता। उनके लिए समय नहीं। समय और पदार्थ में माया के सब पदार्थ अँटते हैं। देश और काल से जो परे पदार्थ है, वही परमात्मा है। सभी संतों की वाणी में ऐसा वर्णन है। परमात्मा कभी हुए हैं, ऐसा नहीं, वे हई हैं। परमात्मा के ज्ञान के लिए कबीर साहब ने कहा-
        राम निरंजन न्यारा रे । अंजन सकल पसारा रे ।।
 अंजन का अर्थ माया और निरंजन का अर्थ माया-रहित। परमात्मा या राम मायिक पदार्थ से परे है। जो कुछ आँख से देखते हैं, यह पसार माया का पसार है। जो किसी भी इन्द्रियों के ग्रहण में आता है, वह माया है। जो व्यक्त है, वह तुम्हारे पास है। व्यक्त में पाँच पदार्थ हैं-रूप, रस, स्पर्श, गंध और शब्द। तमाम संसार में, इस लोक या परलोक पर जहाँ विचारिए, वहाँ पंच विषय हैं। जहाँ जो कोई रहते हैं, उनके चारो ओर पंच विषय रहते हैं। नजदीक की चीज को ‘इस’ और दूर की चीज को ‘उस’ कहते हैं। परमात्मा ‘इस’ श्रेणी के नहीं है। जो कोई इस पदार्थ की उपासना करते हैं, वह ब्रह्म की उपासना नहीं। हाँ, सबमें व्यापक ब्रह्म है। इस प्रकार मानने में उपनिषद् और संतवाणी में कोई हर्ज नहीं। रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द-ये ब्रह्मस्वरूप नहीं हैं। यह उपनिषदों ने बताया है और संतों की वाणियों में भी यही बात है। गोस्वामी तुलसीदाजी ने कहा है-
 अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा,
    वसत इति वासना धूप दीजै ।
 अचर माने वृक्ष, पहाड़ आदि, जो अपने से कहीं आ-जा नहीं सके। जो अपने से चल-फिर सकता है, वह चर है। जैसे आपके शरीर का स्वरूप आपका रूप है, किंतु आप वह नहीं हैं। जैसे जो वस्त्र आप धारण करते हैं, वह वस्त्र आपका है, न कि आप वस्त्र हैं। परमात्मा अचर- चर रूप सब धारण किए हैं, इसलिए सब रूप परमात्मा के हैं, किंतु वे रूप परमात्मा नहीं हैं। बल्कि उन रूपों को परमात्मा ने धारण किया है। जैसे किसी धातु का जेवर बनाया जाता है, उसी तरह यह शरीर एक नक्शा है। परमात्मा चर-अचर रूप में व्यापक हैं। उपनिषद् के वर्णन में आपने सुना कि-
  वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
  एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च।।
 अर्थात् वायु प्रत्येक वस्तु में रहते हुए उसी आकार का है, किंतु वह वही नहीं हो जाता। जैसे गिलास में वायु रहने से गिलास के आकार का मालूम होता है, किंतु वायु वस्तुतः वैसा नहीं है। वह तो गिलास में भी है और उसके बाहर भी है। उसी तरह परमात्मा अचर-चर में रहते हुए सबसे बाहर भी है। कहीं हटनेवाले नहीं, सदा रहते ही हैं। संतां की वाणियां में जैसा बताया गया है, उसी को परमात्म-स्वरूप के विषय में जानना चाहिए। आप इन्द्रियां से जो रूप देखते हैं, वह ईश्वर नहीं है। ईश्वर स्वरूपतः क्या है, उनकी भक्ति कैसे की जाय, उसको जानने के लिए यह सत्संग है।
 ईश्वर के लिए अभी के सत्संग में ज्ञान दिया गया कि ईश्वर कभी हुए नहीं, वे सदा से हैं ही। उनके होने का यदि कोई समय बतावे तो यह गलत है। परमात्मा इन्द्रियां से ग्रहण होने योग्य नहीं। उनको आप अपने से ग्रहण करेंगे। शरीर और इन्द्रियां में रहते हुए जो आप हैं, उस अकेले ज्ञान में जो आवे, वे ही परमात्मा, ईश्वर, ब्रह्म हैं। उपनिषद् में भी आया है कि-
 ना विरतो दुश्चरितान्नाशन्तो ना समाहितः।
 ना शान्तो मानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ।।
   -कठोपनिषद्, अध्याय 1 वल्ली 2
 अर्थात् जो पाप कर्मों से बचा हुआ नहीं है, वह ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए सबको चाहिए कि पापकर्मों से बचें। पापकर्मों से बचने पर केवल ईश्वर ही नहीं मिलते, बल्कि पाप कर्मों से बचनेवाले अपने अंदर में शान्ति से रहते हैं। संसार में पूज्य होते हैं। देवता के समान लोग उनकी वन्दना करते हैं। वे स्वयं भी शान्त रहते हैं और शान्ति-स्वरूप परमात्मा को भी पाते हैं। दुश्चरित्र को इन्द्रियों में आसक्ति रहती है, वह इन्द्रियों में बंधा रहता है। इन्द्रियों से ऊपर नहीं उठ सकता। ईश्वर को पाने का रास्ता कैसा है, इसके लिए उपनिषद् में कहा है-
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।
 अर्थात् वह रास्ता क्षुरे की धार के समान दुर्गम है। यदि रास्ता दुर्गम है और तीक्ष्ण है तो उस पर चलनेवाला कट नहीं सकता, उस रास्ते पर चेतन-सहित मन चलेगा। किंतु संयम से रहो, पापों से बचो और संभलकर उस पर चलो। गुरु नानकदेव ने कहा है- खन्निअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा।’ कितनाहूँ सूक्ष्म और तेज रास्ता हो तो मन और चेतन भी बहुत सूक्ष्म है, वह उसपर चलने से कटेगा नहीं। संयम से रहिए और उस सूक्ष्म मार्ग पर चलने के लिए जानिए।
***************
यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत ग्राम-सोनैली में दिनांक 9.4.1955 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



111. संसार में खीरा की तरह रहो
प्यारे लोगो!
 जहाँ से अनहद सुनने का आरंभ होता है, वह नाम का घर है। कंज=कमल। कंजाकमल= ध्यान का आरंभ जहाँ से होता है। लीलागिरि=कौतुक का पहाड़। शब्द के ध्यान में जो ज्ञान बढ़ा, वह है नाम का प्रकाश अथवा जिस प्रकाश से नाम प्रकट होता है, वह ‘दीपक बारा नाम का’ है। बाती दीन्ही टार=सुरत को आगे बढ़ाया। तल्ली ताल तरंग बखानी=तल पर शब्दों की तरंगें उठती हैं। तल्ली=तल।
 इस सत्संग में कहा जाता है कि अपना उद्धार करो। इस संसार में पूर्णरूप से कोई सुखी नहीं होता है। यहाँ केवल कहलाने के लिए सुख है। दरअसल यह संसार सुख का स्थान नहीं है। इससे पार हो जाना चाहिए। जबतक आप देह में रहिएगा, तबतक संसार में रहना होगा। संसार का अर्थ केवल स्थूल जगत नहीं। जहाँ तक शरीर है, वहाँ तक संसार है। इस स्थूल शरीर के भीतर सूक्ष्म शरीर है।
 साधारण मृत्यु में केवल स्थूल शरीर चला जाता है-मर जाता है। जीवात्मा मरता नहीं है। सूक्ष्म, कारण, महाकारण शरीर नहीं मरते हैं। इसके साथ जीवात्मा रहता है। भजन करने से ही इन बचे शरीरों को मार सकते हैं। जिस तरह स्थूल शरीर से जीवात्मा निकल जाता है, तो स्थूल शरीर मर जाता है; उसी तरह सूक्ष्म, कारण, महाकारण शरीर से जीवात्मा के निकल जाने पर इन शरीरों की मृत्यु होती है। किसी भी लोक में रहिए, किसी भी शरीर में रहिए, स्वर्गादि लोक में रहिए, ब्रह्म के लोक में रहिए; सभी जगह कष्ट-ही- कष्ट है। शिवलोक में शिव को भी कष्ट होता है। सभी लोकों में झगड़ा-तकरार, शापा-शापी होते हैं। गोलोक में भी ऐसा होता है। गर्ग-संहिता पढ़कर देखिए। कितनाहूँ सुन्दर-से-सुन्दर देहवाला हो, कितनाहूँ ऊँचा लोक हो, सबमें दुःख है। इसलिए अपने उद्धार के लिए सब शरीरों को छोड़ना होगा। जैसे कोई घर से बाहर जाना चाहे तो पहले घर-ही-घर चलना पड़ता है। उसी तरह शरीरों से निकलने के लिए शरीर-ही-शरीर निकलना होगा और सब शरीरों से निकलने पर परमात्मा की प्राप्ति होती है।
 अभी आपलोगों ने तुलसी साहब का पद ‘जीव का निबेरा’ सुना। उसमें अन्तर्मार्ग का वर्णन है। संसार में जो कुछ देखने में आता है, वह अपने अंदर भी देख सकते हैं। सब शरीरों को छोड़ने का अपने अंदर में ही यत्न होना चाहिए। परमात्मा के दर्शन का यत्न अपने शरीर में ही होना चाहिए। बाहर में जो दर्शन होता है, वह माया का दर्शन होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 अपने अन्दर जो चलता है, तो उसको देव-रूपों का दर्शन होता है और अन्त में परमात्मा का भी दर्शन होता है। इसका यत्न है-अपने घर में रहो, सत्संग भजन करो और यह ख्याल रखो कि यह शरीर छोड़ना होगा। घर बढ़िया-बढ़िया हो, उसमें अपने आराम किया हो, तो उस सोने के महल में भी कोई नहीं रखता, जब इस शरीर से प्राण निकल जाता है। गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
 एक घड़ी कोऊ नहिं राखत, घर तें देत निकार ।
 इसमें आसक्त होने से ठीक नहीं। कोई भी संसार में सदा नहीं रह सकता। संत चरणदासजी की शिष्या सहजोबाई ने बड़ा अच्छा कहा है-
 चलना है रहना नहीं, चलना विश्वाबीस ।
 सहजो तनिक सुहाग पर, कहा गुथावै शीश ।।
 कोई कितनाहूँ प्यारा हो, सबको छोड़कर जाना होगा। इसलिए संसार में खीरा बनकर रहो। खीरा ऊपर से एक और भीतर से फटा हुआ होता है। इस तरह संसार में रहने से कल्याण होगा। न तो बाल-बच्चों को छोड़ो, न इनमें फँसो। फँसाव को छोड़कर अपने अन्दर साधन-भजन करो। जप करो और ध्यान करो। इसके लिए चाल-चलन अच्छी बनाओ।
 झूठ एकदम छोड़ दो। जो झूठ बोलेगा, उसी से सब पाप होगा। जो झूठ छोड़ देगा, उससे कोई पाप नहीं होगा। चोरी मत करो। व्यभिचार मत करो। नशा मत खाओ, पिओ। नशा खाने से मस्तिष्क ठीक नहीं रहता। भाँग, तम्बाकू, गाँजा सबको छोड़ दो। हिंसा मत करो जीवों को दुःख मत दो। मत्स्य-मांस मत खाओ। मत्स्य-मांस खाने से जलचर, थलचर, नभचर के जो स्वभाव हैं-तासीर हैं, उस स्वभाव को, खानेवाले अपने अन्दर लेते हैं। अपने शरीर पर विचारिए और उन जानवरों के शरीर पर विचारिए। मनुष्य का शरीर तो देवताओं के शरीर से उत्तम है। फिर इतने पवित्र शरीर में अपवित्र मांस को देना ठीक नहीं।
 हिंसा दो तरह की होती हैं-एक वार्य और दूसरी अनिवार्य। वार्य हिंसा से बच सकते हैं। जिह्ना- स्वाद के लिए नाहक जीवों को मारना वार्य हिंसा है। इससे बचना चाहिए। कृषि कर्म में जो हिंसा होती है, वह अनिवार्य है। अनिवार्य हिंसा से कोई बच नहीं सकता। वार्य हिंसा से बचो। मांस-मछली नहीं खाने से सात्त्विक मन होगा। तब भजन बनेगा। ***************
यह प्रवचन खगड़िया जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर रामगंज में दिनांक 29.5.1955 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



112. एक को जानने से शान्ति मिलेगी
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 मनुष्य बहुत कुछ पहचानता है। कोई थोड़ा पहचानता है, कोई उससे ज्यादे तो कोई उससे भी ज्यादे पहचानता है। आजकल के वैज्ञानिकों ने बहुत चीजों को पहचाना है और बहुत चीजों का आविष्कार किया है, जिन्हें देखकर आश्चर्य होता है। किंतु इसे जानने से ऐसा नहीं हुआ कि और कुछ जानने को बाकी नहीं। वैज्ञानिकों ने संसार में बहुत तत्त्वों को जाना है, किंतु वे कहते हैं कि अभी कितना जानना बाकी है, ठिकाना नहीं। अभी तो समुद्र के किनारे के बालूकण ही देख रहे हैं, समुद्र भरा पड़ा है।
 संतलोग कहते हैं-‘एक को जानो तो सब को जान जाओगे।’ उस एक को जानने से शान्ति मिलेगी। संतां ने उस एक परमात्मा को जाना और उन्हें शान्ति मिली। संत लोग उसी ईश्वर को जानने कहते हैं। जानने के लिए केवल बौद्धिक ज्ञान से नहीं, बल्कि उसे पहचानकर जानो। केवल परोक्ष ज्ञान ही नहीं, उसको अपरोक्ष ज्ञान से भी जानो। अपरोक्ष ज्ञान के लिए बहुत साधन और प्रयास करना पड़ता है। पहले श्रवण-मनन करना पड़ता है। इसमें भी समय लगता है और प्रयास करना पड़ता है। श्रवण, मनन के बाद मनुष्य को पहचानकर जानने के लिए निदिध्यासन करना चाहिए।
 श्रवण से तत्त्व का कुछ बोध जानने में आता है। किंतु स्वरूपतः वह क्या है? उसे पहचानता नहीं है। इसलिए वह बहुत अधूरा ज्ञान है। संसार को देखने के लिए आँखों और कानों को खोलते हैं। उसी तरह परमात्मा को जानने के लिए आँख और कान की शक्तियों को बढ़ाओ। बाहर की ओर नहीं, अंतर की ओर देखने और सुनने का प्रयास करो। बाहर में देखने-सुनने से जैसे कोई बाहर का पदार्थ पहचानता है, वैसे ही अंतर में देखने-सुनने से तुम परमात्मा को पहचानोगे। बाहर की ओर इन्द्रियां में रहते हुए स्थूलता में फँसा रहता है-स्थूल बुद्धि होती है। यदि कहो कि वैज्ञानिक यंत्रों के द्वारा बहुत छोटे-छोटे पदार्थों को देखता है, अणु को भी चीर सकता है, तो भी यह स्थूल ही है। इसको स्थूल के अतिरिक्त सूक्ष्म नहीं कह सकते हैं। सूक्ष्म तत्त्व वह है, जो स्थूल इन्द्रियों से नहीं जाना जाता। स्थूल इन्द्रियों से जो जाना जाता है, उससे स्थूल ज्ञान ही होता है। अपने अन्दर देखने के ढंग से यदि देख सको तो सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्रकट हो जाता है। बाहरी इन्द्रियों में जो शक्तियाँ हैं, वे जब उधर से फिरती हैं तो अन्दर में प्रवेश करती हैं, वे ही सूक्ष्म हैं। इन सूक्ष्म धाराओं से काम लो तो जो काम होगा, वह सूक्ष्म काम है। इसको जानो।
 संतों ने कहा कि अपने अंदर देखो, अपने अंदर सुनो। अपने अन्दर देखने-सुनने से अंत में पता लगेगा कि यही ईश्वर है। फिर तुमको कुछ जानने के लिए बाकी नहीं रहेगा। आवागमन से छूट जाओगे। सभी दुःखों से छूट जाओगे।
 ईश्वर-स्वरूप के लिए कहा गया है कि वह मन से ग्रहण नहीं हो सकता। वह इन्द्रिय-गोचर पदार्थों में से कुछ नहीं है। इन्द्रियों को जो कुछ प्रत्यक्ष है, वह माया है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है कि श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 अर्थात् जो सब शरीरों में रहता है, वह शरीरों से निर्लेप रहता है। सब पदार्थों में भी जो रहते हुए अथवा सब आकारों में रहते हुए सबसे निर्लेप और निराकार है, वही आत्मा है। इसको पहचानो, यही ईश्वर है। आत्मा कहने से आत्मा परमात्मा दोनों को जानना चाहिए। जैसे आकाश कहने से बाहर के आकाश का और भीतर घर के आकाश का भी ज्ञान होता है। उपनिषदों में आत्मा शब्द का विशेष प्रयोग किया गया है। जबकि यह पृथक किया जाय, तो पिण्ड में व्यापक वह आत्मा, ब्रह्माण्ड में व्यापक वह आत्मा और प्रकृति में व्यापक आत्मा सब एक ही है। सब पिण्डों, ब्रह्माण्डों, सारे प्रकृति मण्डल में व्यापक तथा इन सबको भर कर फिर इन सबके जो परे है, वह है परमात्मा। और शरीरस्थ आत्मा का ज्ञान केवल आत्मा कहने से होता है। सबमें रहता हुआ सबके गुणों से जो निर्लेप है, वह आत्मा ही परमात्मा है, वही ईश्वर है। उससे बाहर कुछ नहीं है। उसको पहचानने से फिर कुछ पहचानने के लिए बाकी नहीं रहेगा। उसको पहचानने के लिए संसार में कहीं जाना, शरीरों में फँसा रहना है।
 शरीर एक ही नहीं है। हमलोग चार जड़ शरीरों में पड़े हुए हैं। जैसे मूँज होती है। मूँज के अन्दर सींकी होती है। सींकी के ऊपर मूँज के कई खोल होते हैं। एक-एक कर सभी खोलों को उतारने पर सीकीं निकलती है। केले में भी कई परतें होती हैं। उन परतों को एक-एक कर उतारने पर केले का थम्भ निकलता है। इसी तरह चेतन आत्मा इस शरीर में है। एक ही शरीर में नहीं, चार जड़ शरीरों-स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण में है। ऊपर से एक स्थूल शरीर देखने में आता है। साधारणतः एक स्थूल शरीर की मृत्यु होती है, बाकी और तीनों की मृत्यु हो जाती तो बड़ा कुशल होता। जब परमात्मा की पहचान होती है, तब ये तीनों भी झड़ जाते हैं।
 परमात्मा की पहचान तबतक नहीं हो सकती, जबतक मायिक सभी आवरणों, पापों से छूट नहीं जाएँ। कबीर साहब ने कहा-
  राम निरंजन न्यारा रे । अंजन सकल पसारा रे ।।
  अंजन उतपति वो ऊँकार। अंजन मांड्या सब बिस्तार ।।
  अंजन ब्रह्मा शंकर इन्द । अंजन गोपी संगि गोव्यंद ।।
  अंजन वाणी अंजन वेद । अंजन किया नाना भेद ।।
  अंजन विद्या पाठ पुरान। अंजन फोकट कथहि गियान ।।
  अंजन पाती अंजन देव । अंजन की करै अंजन सेव।।
  अंजन नाचै अंजन गावै । अंजन भेष अनंत दिखावै ।।
  अंजन कहौं कहाँ लगि केता। दान पुंनि तप तीरथ जेता ।।
  कहै कबीर कोइ विरला जागे,अंजन छाड़ि निरंजन लागै ।।
 सब माया ही माया है। तीर्थ, दान, व्रत सब माया है। इसके अच्छे-अच्छे फल तुम पा सकते हो, स्वर्ग-वैकुण्ठ पाओगे, फिर यहाँ आना होगा। किंतु परमात्मा का दर्शन इससे नहीं होता। मनुष्य शुभ कर्मों को करे। पवित्र जल को ही तीर्थ कहते हैं। इसमें स्नान करो, किंतु यह मत समझो कि इसी से सब कुछ हो गया। परमात्मा का दर्शन या आवागमन से छूटना इससे नहीं हो सकता। इसके लिए अपने अन्दर में चलना होगा। अंदर में चलने से माया से छूटोगे। बाहर में चलने से माया में ही रहोगे। गुरु नानकदेव ने कहा कि वह परमात्मा अलख, अगम, अगोचर है। उसका बाहर में कोई र्चिं नहीं है। उसका यदि कोई र्चिं है तो ओ3म्, प्रणव ध्वनि, सत्शब्द है।
 हमलोग मुँह से जो ओ3म्, सतनाम उच्चारण करते हैं, सतशब्द नहीं है। गहरे ध्यान में जाने से वह ग्रहण होता है। परमात्मा जैसे अव्यक्त है, उसकी प्रतिमा भी अव्यक्त है। वह हई है। कहीं से वह आवेगा सो नहीं। वह सब जगह है। तुम पहचानते नहीं हो। पहचानने की योग्यता ध्यान से होगी। इसलिए ध्यान करो। सब शरीरों में ब्रह्म छिपा हुआ है। उसकी ज्योति सब शरीरों में है। जो निडर ध्यान लगाता है, वह उसको प्राप्त करता है।
 पवित्र बर्तन में सत्य अँटता है। अंतःकरण रूप बर्तन को पवित्र करो, तब ईश्वर को पाओगे। सत्य आचरण करनेवाले बहुत कम होते हैं। सत्य आचरण करनेवाले की संसार में भी प्रतिष्ठा होती है। प्रतिष्ठा-युक्त होने का जीवन पवित्र आचरण से होता है। भ्रष्ट आचरण से नहीं होता। अपवित्रता का जीवन तो मरे हुए के समान है। तुम अपना जीवन पवित्र रखो। इससे बुरे-बुरे कर्मों को निकाल दो। बुरी-बुरी इच्छाओं को छोड़ दो। अच्छे-अच्छे कर्मों को अपने अन्दर लो।
 झूठ मत बोलो। चोरी मत करो। व्यभिचार मत करो। व्यभिचार दो तरह के होते हैं-एक तो बलात्कार, दूसरा व्यभिचार मन के मेल से होता है, दोनों से बचो। एक वकील ने मुझसे पूछा-‘मन के मेल से व्यभिचार करने में पाप भी है?’ मैंने कहा-‘पहले आप पाप-पुण्य को जानिए। जिस कर्म से आत्मोन्नति हो, वह पुण्य है और जिस कर्म से आत्मा का अधःपतन हो, वह पाप है।’
 नशा मत खाओ, न पिओ। तम्बाकू तक नशा है। हिंसा मत करो। पंच पापां से बचो, तब अंतःकरण पवित्र हो जाएगा। ईश्वर पाने का शौक हो और उसके लिए जो कर्म करना चाहिए, उससे गिरे रहो तो ईश्वर कैसे मिलेंगे। हिंसा तीन तरह की होती है-मन से, वचन से, और कर्म से। और भी हिंसा के दो विभाग कर लो-वार्य और अनिवार्य। खेत जोतने में कितनी हिंसा होती है? यदि खेती नहीं करो तो संसार के सब लोग समाप्त हो जाएँगे। भोजन नहीं मिले तो बिना एटम बम के ही सब लोग मर जाएँगे। हिटलर लड़ाई के सामानों को बनाने में लगा रहा और भोजन का प्रबंध नहीं किया, तो बिना भोजन के मारा गया। पानीपत की तीसरी लड़ाई में भोजन नहीं मिलने के कारण ही मराठे की हार हुई। कई लाख आदमी एक ही दिन में समाप्त हो गए। मनुस्मृति में अष्टघातक का वर्णन आया है-
 अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी।
 संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः।।
     -अध्याय 5 श्लोक 51
 अर्थात् 1. वध करने की आज्ञा करनेवाला, 2.शस्त्र से मांस काटनेवाला, 3. मारनेवाला, 4. बेचने- वाला 5. मोल लेनेवाला, 6. मांस को पकानेवाला, 7. परोसने के लिए लानेवाला, 8. खानेवाला; ये आठो घातक (हिंसा करनेवाला) ही कहलाते हैं।
 वार्य हिंसा से बचो और अनिवार्य िंहंसा के लिए प्रायश्चित करने कहा गया है। चोर-डकैत के आने पर लड़ने-भिड़ने में, एक राष्ट्र की दूसरे राष्ट्र की चढ़ाई को रोकने में लड़ाई हो तो यह अनिवार्य है। इसमें लड़ो, वीरता के साथ लड़ो। अन्नोपार्जन जो हो, उसमें से दान दो। यह प्रायश्चित है। सबसे मूल है, ईश्वर का भजन करो।
 भगवान बुद्ध ने कहा-‘अंधकार में पड़े हुए तुम प्रकाश को क्यों नहीं खोजते।’ ध्यानाभ्यास करो, प्रकाश प्रत्यक्ष होगा।
***************
यह प्रवचन खगड़िया जिलान्तर्गत ग्राम-मानसी में दिनांक 6.6.1955 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



113. नवधा भक्ति का उपदेश
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 रामचरितमानस का पाठ सुनकर आपलोगों को मालूम हुआ होगा कि आज का क्या विषय है? इस सत्संग में सदा जनाया जाता है कि ‘ईश्वर की भक्ति करो।’ ईश्वर-स्वरूप को जानने के पहले जानना चाहिए कि ईश्वर-भक्ति की क्या आवश्यकता है?
 सबलोग माया की सेवा में लगे हुए हैं। फल यह होता है कि उससे शान्तिदायक सुख का लाभ नहीं करते हैं-संसार से नहीं छूटते हैं। इसकी बड़ी आवश्यकता है कि संसार से छूटा जाय, सदा का सुख पाया जाय और संतुष्टि-शान्ति प्राप्त की जाय। एक ईश्वर ही ऐसा है, जिसको पा लेने पर और कुछ पाने को बाकी नहीं रहता। उस संतुष्टि के बाद और कोई इच्छा नहीं रहती। ईश्वर-भक्ति ही आपको सदा के लिए सुखी कर सकती है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
   राकापति षोडस उअहिं, तारागण समुदाय ।
     सकल गिरिन्ह दव लाइअ, बिनु रवि राति न जाय ।।
ऐसेहि बिनु हरि भजन खगेसा। मिटइ न जीवन केर कलेसा।।
         -रामचरितमानस
 अर्थात् चन्द्रमा सोलहों कलाओं के साथ उग जाय, सारे तारेगण भी निकल आवें और संसार के सभी पहाड़ों में आग लगा दी जाय, फिर भी बिना सूर्योदय के रात्रि नहीं जाती। उसी तरह बिना ईश्वर-भक्ति किए किन्हीं के जीवन का दुःख-क्लेश नहीं मिट सकता। इसी तरह सभी अच्छे-अच्छे कर्म करो और ईश्वर-भजन नहीं करो तो उसी तरह है, जैसे कि बिना सूर्य के रात नहीं जाती, सुख-रूप दिन नहीं आता और दुःख-रूप रात नहीं जाती। पहले ईश्वर-स्वरूप का निर्णय जानना चाहिए। बिना स्वरूप निर्णय के ईश्वर की भक्ति नहीं हो सकती। उसका स्वरूप मन-बुद्धि से परे है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
     राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
    अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
        -रामचरितमानस
 जबतक स्वरूप-निर्णय नहीं हो, तबतक उसकी भक्ति नहीं हो सकती। लोगों के मन में होगा कि जब परमात्मा को इन्द्रियों से प्राप्त नहीं कर सकते, तब किससे प्राप्त किया जाय? तो पहले अपने को जानो। इसमें भीतर से ज्ञान आता है। बाहर में केवल अंग हो और भीतर से ज्ञान नहीं आवे, तो यह जड़वत् है। जैसे लोहे को आग में देने से लाल हो जाता है और आग से निकालने से काला का काला रह जाता है। उसी तरह इस शरीर में चेतनमय-ज्ञानमय पदार्थ है। किन्तु शरीर जड़ है। इसमें ज्ञान नहीं होगा। शरीर का अन्त होने पर शरीर सदा के लिए जड़ ही रह जाता है। इसके सड़ने से रोग उत्पन्न होगा, इसके लिए इसको जला देते हैं। शरीर के साथ इन्द्रियाँ हैं। अन्तःकरण की इन्द्रियाँ जलती नहीं हैं। बाहर की सब इन्द्रियाँ शरीर के साथ लगी हैं। ये सभी जल जाती हैं। अंतःकरण सूक्ष्म शरीर में रहते हुए जीव के अपने कर्मवश उसके संग जाता है।
 भीतर की चार इन्द्रियाँ-मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार भी जड़ हैं। बाहर स्थूल शरीर से यह सूक्ष्म मन जड़ है। जब आप निट्ठाह नींद में सो गए, तब बुद्धि का विचार सब समाप्त हो गया। ‘मैं हूँ’ का ज्ञान भी समाप्त हो जाता है। इसमें गति होने का जो चेतन का स्वभाव है, वह बन्द नहीं होता। चेतन का काम बन्द हो गया तो श्वास नहीं लिया जा सकता। चेतन कभी जड़ नहीं होगा। जड़ से बनी हुई बाहर और भीतर की इन्द्रियों से ईश्वर की पहचान नहीं हो सकती। आपको जिस रंग का चश्मा पहना दिया जाय, बाहर में उसी रंग के अनुरूप चीज को देखिएगा। चेतन आत्मा पर मायिक चश्मा लगा हुआ है। इस चश्मे से केवल माया-ही- माया दीखती है। परमात्मा को इस मायिक चश्मे से कोई नहीं पहचान सकता है।
 परमात्मा सबका आदि है। और स्वयं वह अनादि है। सबसे पहले जो है वह आदि है। सबका आदि यदि ससीम हो, एकदेशी हो तो ऐसा कहते बनता नहीं। क्योंकि प्रश्न होगा कि उस ससीम और एकदेशी के बाद और क्या है? यदि इसके पहले कुछ है, तब वह सबका आदि नहीं होगा। परमात्मा सबका आदि और अनादि होते हुए सर्वव्यापक और सर्वपर है। प्रकृति में जो व्यापक है, वह सर्वव्यापक है। और प्रकृति के परे और कितना बाकी है, जिसका ठिकाना नहीं। इसलिए सर्वव्यापकता के भी परे है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
प्र्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
 जो एक अनादि-अनंत है, उसके सामने दूसरा असीम नहीं हो सकता। क्योंकि अनंत दो नहीं हो सकते। जो असीम है, वह एक ही होगा। जो जितना अधिक व्यापक होता है, वह उतना अधिक सूक्ष्म होता है। उस अणु वा त्रसरेणु को मैं झीना नहीं कहता। बल्कि जो आकाशवत् सूक्ष्म है। एक सेर बर्फ का फैलाव जितना होगा, उससे अधिक फैलाव सूक्ष्म एक सेर पानी का होगा। उससे भी अधिक फैलाव एक सेर पानी के वाष्प का होगा। वह वाष्प बर्फ और पानी से अधिक व्यापक और सूक्ष्म होगा। जो जितना अधिक सूक्ष्म होता है, वह उतना विशेष व्यापक होता है। कठिन से तरल और तरल से वाष्पीय विशेष व्यापक होता है। अनादि- असीम से व्यापक विशेष कुछ नहीं हो सकता। इसलिए वह विशेष सूक्ष्म है। वह तो सबसे विशेष सूक्ष्म और आपकी इन्द्रियाँ अत्यन्त स्थूल। तो स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व ग्रहण हो सकता है? इसलिए वेद और उपनिषद् में परमात्मा को इन्द्रियातीत कहा गया है।
 परमात्मा सबसे पहले से है। परमात्मा से प्रकृति, प्रकृति से बुद्धि, बुद्धि से अहंकार, अहंकार से सेन्द्रिय और निरेन्द्रिय दो प्रकार की सृष्टि होती है। इस प्रकार भी परमात्मा से बहुत पीछे बने मन, बुद्धि आदि। यह परमात्मा के समक्ष स्थूल है। इससे वह ग्रहण नहीं हो सकता। एक-एक इन्द्रिय से एक-एक काम होता है। मन-बुद्धि से, शरीर से जो काम करते हैं, सो आप जानते हैं। और इनके संग से अलग होकर-अकेले होकर अपने से क्या करते हैं? सो आप नहीं जानते। आँखों से केवल देखते हैं। मन से केवल संकल्प-विकल्प होता है। यह जानते हैं, किन्तु आप अपने से स्वयं क्या करते हैं, यह नहीं जान सकते।
 जबतक दूध से घी को अलग नहीं किया जाय, तबतक नहीं जान सकते कि घी से क्या होता है? उसी तरह शरीर-इन्द्रिय, अंतःकरण से अलग हुए बिना नहीं जान सकते कि हम स्वयं क्या कर सकते हैं। वेद-उपनिषद् में आया है कि केवल चेतन आत्मा से परमात्मा का दर्शन होता है। कितने कहते हैं कि इसी आँख से श्रीराम का, विष्णु भगवान का दर्शन हुआ। इतने बखेड़े में कौन पड़े कि शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि को छोड़ो, तब दर्शन होगा। तो विचारो श्रीराम या विष्णु भगवान का क्या देखा? उनके रूप को देखा। किंतु कितने को दर्शन होने पर भी पहचान नहीं हो सकी। तुलसीदासजी को घोड़े पर राम, लक्ष्मण जाते हुए दिखाई पड़े। किंतु पहचान न सके। फिर हनुमान से तुलसीदासजी ने निवेदन किया, तब दूसरे दिन जब तुलसीदासजी के सामने भगवान श्रीराम प्रकट हुए और उन्होंने बालक रूप में तुलसीदास से कहा- ‘बाबा! हमें चन्दन दो।’ हनुमानजी ने सोचा- कहीं इस बार भी ये धोखा न खा जाएँ, इसलिए उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा-
 चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर ।
 तुलसिदास चंदन घिसें, तिलक देत रघुवीर ।।
 गोस्वामी तुलसीदासजी ने विनय-पत्रिका में बड़ा ही अच्छा लिखा है-
एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो।
परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं, बाहर फिरत विकल भय धायो ।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद, अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल, परम सुगंध कहाँ ते आयो।।
ज्यों सर विमल वारि परिपूरन, ऊपर कछु सेंवार तृन छायो।
जारत हियो ताहि तजिहौं सठ, चाहत यहि विधि तृषा बुझायो।।
व्यापित त्रिविध ताप तन दारुण, तापर दुसह दरिद्र सतायो।
अपने धाम नाम सुरतरु तजि, विषय बबूर बाग मन लायो।।
तुम्ह सम ज्ञान निधान मोहि सम, मूढ़ न आन पुरानन्हि गायो।
तुलसिदास प्रभु यह विचारि जिय, कीजै नाथ उचित मन भायो।।
 इसमें मूल बात यह है कि बाहर में उन्होंने नहीं पहचाना, अंदर में ही पहचाना। मृग और सरोवर का मिशाल देकर बताया कि ईश्वर अपने अंदर है, अंदर में पहचानोगे। प्रश्न होगा कि अंदर में दर्शन क्यों होगा? और बाहर में क्यों नहीं होगा? इसका उत्तर पहले हो गया कि इन्द्रियों से उसे पहचान नहीं सकते। बाहर में इन्द्रियों का संग रहता है। अंदर में होने से शरीर-इन्द्रियों के ज्ञान से छूटता है। सब छूटकर जब केवल चेतन आत्मा रहती है, तब दर्शन होता है। इसलिए ईश्वर की भक्ति ऐसी होनी चाहिए, जो अन्तर्मुखी कर दे। मन की चंचलता में बहिर्मुखता होती है और मन की स्थिरता में अन्तर्मुखता होती है। मन का जो सिमटाव होता है, यही अन्तर्मुखी करता है। इसलिए भक्ति के साधन में मन के सिमटाव की बातें हैं।
 परमात्मा का दर्शन जो चेतन आत्मा से होता है, उसके लिए क्या करना चाहिए? शिव बाबा, श्रीराम आदि का जो दर्शन होता है, उसमें उनके शरीर की पहचान होती है, शरीरी की नहीं। आत्म-तत्त्व का दर्शन नहीं हुआ उनके शरीर को देखने से। रूप का दर्शन करो और रूप में अरूप का दर्शन करो, तब पूरा है। और गोस्वामी तुलसीदासजी का यह वचन याद रखें-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।। और उपनिषद् का यह वाक्य-
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
 अर्थात् उस परे-से-परे परमात्मा के दर्शन से हृदय की गाँठ टूट जाती है, सारे संशयों का नाश हो जाता है और सब कर्म नष्ट हो जाते हैं।
 जिस दर्शन से ऐसा हो, उसको परमात्मा का ठीक-ठीक दर्शन समझो। जो शरीर-इन्द्रियां के साथ दर्शन हो, वह मायिक दर्शन है। असली दर्शन चेतन आत्मा से होता है। इसके लिए क्या करो? बहुत सरल है।
 अभी आपलोगों ने नवधा भक्ति का वर्णन सुना। शवरी का पहला जन्म खिखिरनी का था। ऋषि-मुनि की कृपा से वह दूसरे जन्म में रानी हो गई। राजा के राजमहल में उसको साधु-संतों का सत्संग नहीं मिलता था। राजा ने राजमहल में सत्संग-मन्दिर बनवा दिया। संयोग से एक पहुँचे हुए संत उनके यहाँ पहुँच गए। रानी ने बहुत आदरपूर्वक उनकी सेवा की। महात्माजी ने प्रसन्न होकर कहा-‘माँगो, तुम क्या वरदान माँगती हो।’ रानी ने कहा-‘मैं शीघ्र मर जाऊँ। दूसरे जन्म में मैं कुरूपा होऊँ और साधारण कुल में मेरा जन्म हो।’ महात्माजी के आशीर्वाद से वैसा ही हुआ। उसका जन्म भील के घर हुआ। देखने में भी कुरूपा थी। जब उसकी शादी हुई, उसका पति साथ लेकर जब जाने लगा, तो रास्ते में उसने सोचा, यदि इसको अपने साथ घर ले जाता हूँ तो बच्चे डरेंगे और लोग कहेंगे कि कहाँ से चुड़ैल ले आया है। ऐसा सोचते हुए वह शवरी को छोड़कर तेजी से निकल भागा। शवरी भी यही चाहती थी, उन्होंने भी सोचा-भले हुआ संसार के बंधन से मैं बच गई। वह मतंग ऋषि के आश्रम में रहने लगी। जब मतंग ऋषि संसार से प्रयाण करने लगे तो शवरी से उन्होंने कहा-‘तुम धैर्य धारण करके यहाँ रहो। भगवान श्रीराम का दर्शन तुमको यहीं मिलेगा।’ गुरु-वचन पर विश्वास करके भजन- साधन करती रही। एक दिन ऐसा समय आया कि भगवान राम शवरी के आश्रम पधारे और नवधा भक्ति का उपदेश किया-
 पहली भक्ति में संतों का संग, दूसरी भक्ति कथा-प्रसंग जहाँ हो, वहाँ जाकर सुनो। 3. गुरु की सेवा मान-अहंकार छोड़कर करो। 4. परमात्मा का गुणगान करो। 5. मंत्र जाप करो। 6. इन्द्रिय- दमनशील बनो। 7. शम का साधन करो और मुझसे बढ़कर संत को मानो। 8. यथा लाभ में संतोष करो, दूसरे का दोष मत देखो। 9. सबसे छलहीन होओ। मुझ पर भरोसा रखो, हृदय में हर्ष और दीनता नहीं लाओ। सबमें मनोनिग्रह की बड़ी आवश्यकता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
 नित प्रति दरसन साधु के, औ साधुन के संग ।
 तुलसी काहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
तो उत्तर में पुनः कहा-
 मन तो रमे संसार में, तन साधुन के संग ।
 तुलसी याहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
 चार भक्ति तक मन-लगाव, मन-लगाव ही है। मंत्र जपो और मन कहीं फिरे, तो यह जप नहीं है। कबीर साहब की वाणी में है-
 माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं ।
 मनुवाँ तो दहु दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं ।।
 तन थिर मन थिर वचन थिर, सुरत निरत थिर होय ।
 कह कबीर इस पलक को, कलप न पावै कोय ।।
 केवल पाँच भक्ति तक में ही पूर्ण मनोनिग्रह नहीं होता है। इसके बाद की भक्ति को जानिए। इन्द्रियों को कौन चलायमान करता है? बच्चे को खो०चावाले को देखकर उसकी चीजों को खाने की इच्छा होती है। वयस्क को इच्छा नहीं होती। इसमें क्या है? मन की धार इन्द्रियों तक है। इन धारों को यदि समेट लीजिए तो इन्द्रियाँ सिमट जाएँगी। यह दृष्टियोग के साधन से होगा। यही वैष्णवी मुद्रा-शाम्भवी मुद्रा है। इसके बारम्बार अभ्यास से मन की धारा सिमट जाएगी। पहले विचार से भी कुछ रोको। किंतु केवल विचार से ही इन्द्रियों पर काबू नहीं होता। स्थिर विचार-स्थितप्रज्ञ संत हैं। श्रीमद्भगवद्गीता की यह सिद्धावस्था है।
 मन की स्थिरता में स्थिरप्रज्ञता होती है। जबतक मन की धारा पसरी हुई है, तबतक स्थिरता नहीं होगी। ध्यान-अभ्यास विशेष करने से मन की चंचलता छूटती है। तभी विषयों के रस से मन छूटेगा। जब आप सोने लगते हैं, तो पहले तन्द्रा होती है। तन्द्रा में आपको ज्ञात होता है कि बाहर का भी कुछ ज्ञान होता है और हाथ-पैर कमजोर होते जाते हैं। शक्ति अंदर को खि्ांची जा रही है उस समय में कुछ न खाने को है, न सुनने को, न देखने को है। किंतु केवल अंतर्मुखी वृत्ति होती है। बड़ा चैन मालूम होता है। अंतर्मुखी होने से बहुत चैन मालूम होता है। इसीलिए कबीर साहब ने कहा है-‘भजन में होत आनन्द आनन्द।’
 यह ईश्वर-प्रदत्त है। यह एक नमूना है। ईश्वर बहुत दूर है। केवल थोड़ा-सा अन्तर्मुख होने में चैन होता है यदि और विशेष अंदर हो तो विशेष चैन मिलता है। विषयों से उसका मन हट जाता है। मन हट जाने से इन्द्रियां से उसके सूत हट जाते हैं। इन्द्रियाँ यों ही पड़ी रहती हैं। छठी भक्ति-इन्द्रियों के दमन का स्वभाववाला बनो और सज्जनों के धर्म के अनुकूल चलो। सज्जन पापों को नहीं करते। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार आदि पापों से अलग रहते। इन्द्रियों और मन का साथ-साथ साधन होता है। यह ‘दम’ का साधन है। पहले दम का साधन होता है, फिर शम का साधन होता है। ‘शम’ का अर्थ है मनोनिग्रह। ‘शम’ से ‘सम’ होता है। बिना ‘शम’ के ‘सम’ नहीं हो सकता है। केवल मन का साधन अंतर्नाद के अभ्यास से होता है। शिवजी ने शिवसंहिता में कहा है-‘न नाद सदृशो लयः।’
 जैसे नमक घुलते-घुलते समुद्र ही हो गया, सोना गलते-गलते पानी हो गया; वैसे ही मन गलते-गलते उसमें विलीन हो जाता है। प्रकृति मण्डल से छूटकर परमात्मा का दर्शन करता है। नवधा भक्ति में सात भक्ति तक साधन है। आठवीं और नवीं भक्ति उसका फल है। इस प्रकार नौ प्रकार की भक्ति का आप साधन कीजिए तो परमात्मा के जिस स्वरूप का वर्णन हुआ, उसको प्राप्त करेंगे। इन्द्रियों के दर्शन-स्पर्श से जो रूप मालूम होता है, वह माया है। इन सब प्रकारों की भक्ति को कीजिए और पापों से बचिए। पापों से बचने पर संसार में प्रतिष्ठा भी होगी और ईश्वर-प्राप्ति भी होगी।
***************
यह प्रवचन खगड़िया जिलान्तर्गत ग्राम-मानसी में दिनांक 6.6.1955 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



114. भगवान श्रीराम का प्रजा को उपदेश
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 हमलोग जहाँ रहते हैं, इसको संसार कहते हैं। यह संसार बहुत बड़ा है। इतना बड़ा है कि खड़ा होकर भी सम्पूर्ण संसार को नहीं देख सकते। ऊपर-नीचे कहीं भी संसार खत्म नहीं होता। देखने में यह संसार-सागर है। इस बहुत बड़ी दुनिया में-विराट रचना में हमलोग पड़े हुए हैं। हम देह में आए हैं और देह संसार में रहती है। इस देह में रहकर छोटी उमर का, कुछ बड़ी उमर का, जवानी उमर का, अधेड़ उमर का और बुढ़ापे का भोग भोगते हैं। फिर एक दिन शरीर को छोड़कर चले जाते हैं। लेकिन संसार में ही रहते हैं, जो सूक्ष्म संसार है; फिर वहाँ का भोग भोगकर पुनः इस संसार में आते हैं। कितनी बार आए और कितनी बार गए ठिकाना नहीं!
 इस संसार में किसी-न-किसी प्रकार का दुःख होता ही है। दुःख कभी पीछा नहीं छोड़ता। यहाँ तक कि परलोक में भी दुःख नहीं छोड़ता। दूसरे जन्म में भी दुःख होता है। इसलिए हमारे यहाँ जितने अच्छे आदमी आए, उन्होंने एक स्वर से कहा कि इस संसार से बिल्कुल छूट जाओ। इस संसार में जबतक शरीर लेकर आओगे, तबतक अवश्य दुःखी होओगे। इसीलिए इस संसार-सागर को तरने के लिए सभी महापुरुषों ने कहा।
 ईश्वर-भजन करके संसार-सागर से तरना होगा। ईश्वर-भजन ही ऐसा है, जिसका अवलम्ब लेकर सारे दुःखों को कोई पार कर सकता है। फिर वह दुःख में नहीं आवेगा। यही एक उपाय है। भगवान श्रीराम ने यही समझा था। वे राजा होकर शासन करते थे और कहते हैं कि उनके समय में लोग बहुत सुखी थे। फिर भी जो स्वाभाविक दुःख है, वह तो आवेगा ही। स्वयं उनको भी स्वाभाविक दुःख आया और उनको भी भोगना पड़ा। दैहिक ताप-शरीर में से जो रोग उत्पन्न होते हैं। दैविक ताप-अकस्मात् होता है, जैसे गाछ से गिर जाना या फिसलकर गिर गए, हड्डी टूट गई आदि। भौतिक ताप-प्राणियों द्वारा जो कष्ट प्राप्त हो, जैसे बिच्छू का डंक या सर्प का दंश आदि। ये तीनों होते ही रहते हैं। एक आदमी ने सीताजी के प्रति घृणा-भाव का कुछ शब्द कहा था। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामायण में लिखा है-
सिय निन्दक अघ ओघ नसाये। लोक विसोक बनाय बसाये।।
 भगवान राम को दुःख हुआ कि हमारी प्रजा सीताजी से प्रसन्न नहीं हैं। उन्होंने सीताजी को छोड़ दिया। सीताजी वन में चली गई। यह सीताजी के लिए दैविक ताप हुआ। इन तापों से छूटने का उपाय करो, यही संतों का उपदेश है। बिना ईश्वर- भजन के इन त्रय तापों से छूट नहीं सकते। भगवान श्रीराम ने इसको समझा कि प्रजा को जितना सुख मिलना चाहिए, मिल रहा है; किंतु शरीर छोड़ने के बाद भी प्रजा सुखी रहे, इसीलिए उन्होंने सबलोगों को बुलाकर सभा की और यह शिक्षा दी-
बड़े भाग्य मानुष तनु पावा । सुर दुर्लभ सब ग्रथहिं गावा।।
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा । पाइ न जेहि परलोक सँवारा।।
 सो परत्र दुःख पावइ, सिर धुनि धुनि पछताय।
 कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं, मिथ्या दोष लगाय।।
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।
नरतन पाइ विषय मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं।।
ताहि कबहुँ भल कहहिं न कोई। गुंजा ग्रहइ परसमनि खोई।।
आकर चारि लाख चौरासी। जोनि भ्रमत यह जीव अविनासी।।
फिरत सदा माया कर प्रेरा । काल कर्म सुभाव गुन घेरा।।
कबहुँक करि करुणा नर देहीं । देत इस बिनु हेतु सनेही।।
नर तनु भव वारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।।
करन धार सदगुरु दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।
 जो न तरइ भव सागर, नर समाज अस पाय।
 सो कृत निन्दक मंद मति,आतम हन गति जाय।।
 किसी भी जाति के शरीर में हों, छोटे-बड़े की बात नहीं। श्रीराम शवरी के यहाँ जाते हैं, वहाँ और भी बड़े-बड़े तपस्वी लोग थे। लेकिन उन सबों के यहाँ नहीं गए। वशिष्ठ मुनि ने निषाद को अपने हृदय से लगाया। भगवान श्रीराम ने शवरी के जूठे बेर खाए, यह प्रसिद्ध है। भगवान श्रीकृष्ण विदुरजी के घर पहुँचे। विदुरजी घर पर नहीं थे। उनकी पत्नी ने प्रेमपूर्वक भगवान को केला खिलाया। यह भी लोग जानते ही हैं।
 शिवाजी के गुरु समर्थ रामदासजी थे। समर्थ रामदासजी की सेवा में एक शिष्य थे। वे बड़े गुरु-भक्त थे। समर्थ रामदासजी भोजन करने के बाद पान खाते थे। दाँत नहीं रहने के कारण वे पान को चबा नहीं पाते थे। इसीलिए उनके शिष्य पान को कूटकर देते थे। जिस पात्र में पान कूटा जाता था, उस पात्र को समर्थ रामदास के अन्य शिष्यों ने छिपा दिया। जब पान कूटकर देने का समय हुआ, तो उस पात्र को नहीं पाने पर वे शीघ्रता में अपने मुँह से ही पान चबाकर समर्थ रामदासजी को दिया। यह बात विपक्षियों ने शिवाजी से कही। शिवाजी को बहुत बुरा लगा। वे समर्थ के भोजनोपरान्त के समय पहुँचे। पान चबाकर जब समर्थ को दिया गया, तो शिवाजी ने कहा-‘जिस पात्र में पान कूटा जाता है, वह पात्र कहाँ है? सामने लाइए।’ यह सुनते ही पान चबाकर देनेवाले ने अपने मुँह का जबड़ा उखाड़- कर समर्थ के सामने रखा। यह देखकर सभी आश्चर्य में पड़ गए। उस शिष्य की ऐसी भक्ति थी कि उनका चबाया पान भी समर्थ रामदासजी खा गए।
 ईश्वर का भजन मनुष्य-शरीर में होता है। मनुष्य-देह ऐसी है कि यदि आखिरी में भी इसका ख्याल हो जाय और मरने के समय में ईश्वर का ख्याल लेते हुए मरता है, तो उसका बड़ा कल्याण होता है। किंतु यह कैसे हो सकता है? जिसने जीवनभर इसके लिए कोशिश की है, मरने के समय उसी को वैसा ख्याल हो सकता है। जिनको यह बोध हो गया है कि अब इस शरीर से कुछ काम नहीं होगा, तो उनको यदि ऐसा चिन्तन हो कि ईश्वर मुझे मिलें, उनका ठीक-ठीक भजन करूँ। इस प्रकार जो ख्याल लेकर मरता है, तो उसका अगला जन्म बहुत सुन्दर होगा। बचपन से ही वह भक्ति करने लग जाएगा। उपनिषद् में आया है कि मरने के समय चित्त में जो-जो भावनाएँ जीव करता है, वही-वही वह होता है, यही जन्म का कारण है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी आया है-
 यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
 तं तमेवैति कौन्तेय सदातद्भावभावितः।।
 अर्थात् मनुष्य अंतकाल में जिस-जिस भाव को स्मरण करता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है; क्योंकि सदा जिस भाव का चिन्तन करता है, अन्तकाल में भी प्रायः उसी का स्मरण होता है।
 जिनको शरीर से कुछ काम नहीं हो सकता, उनको बेकार सांसारिक वस्तुओं की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। क्योंकि उस चिन्ता से तो कुछ होता नहीं है। तब फिर बेकार सांसारिक चिन्ता से क्या लाभ? ईश्वर के नाम को मन-ही-मन जपते रहो, इसको मन में घुमाते रहो। जिनको ईश्वर संबंधी जो शब्द प्रिय हो, उसको जपो। चाहे राम, चाहे शिव, चाहे कृष्ण, जो ईश्वर-वाचक शब्द हो, उसको जपो। अपने को शुभगति में ले जाने का यही उपाय है। अपने को अपने से शुभगति में ले जाना होता है। यदि शरीर छोड़ने के बाद कोई कुछ क्रिया उनकी शुभगति के लिए करते हैं, तो उसके लिए मैं उसे निषेधात्मक नहीं कहता। यदि दूसरे के किए से कुछ ऊपर उठ गए और यदि अपना भी कुछ करके ऊपर उठ जाएँ, तो कितना अच्छा हो। अपनी शुभगति के लिए ईश्वर का भजन ही सर्वश्रेष्ठ है। जो जीवन में भक्ति पूरा नहीं कर सका और मरते समय उसका वैसा ख्याल हो जाय कि भक्ति पूरी नहीं हो सकी, तो दूसरे जन्म में ईश्वर की भक्ति की भावना से प्रेरित होकर वह भक्ति करेगा। मरता शरीर है और भावना मन में होती है। मन सूक्ष्म शरीर के साथ जाता है। इसलिए उसका जो दूसरा जन्म होगा, उस शरीर में उसका वह मन मदद करेगा और वह भजन करेगा।
 सभी को ईश्वर-भजन करना चाहिए। चाहे खेती करो, चाहे विद्याध्ययन करो, चाहे कोई काम करो। थोड़ा-थोड़ा सभी ईश्वर का भजन करो। ‘तन काम में मन राम में।’ सभी कोई ईश्वर का स्मरण करते हुए काम करो। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने फलाशा-त्याग करने कहा है। कर्म करके उसको ईश्वर में अर्पण कर दो। कबीर साहब ने कहा-
 जो कुछ किया सो तुम किया, मैं कुछ किया नाहिं।
 कबहुँ कहै कि मैं किया, तुमही थे मुझ माहिं।।
 यहाँ अहंकार भाव का त्याग है। किंतु किसी को एक लाठी मार दो और कहो कि ईश्वर! तुमने मारा, सो नहीं। संत बनने के जितने अच्छे-अच्छे कर्म हैं, उसके लिए-‘जो किया सो तुम किया, मैं कुछ किया नाहिं।’ ईश्वर-भजन करने में यदि ईश्वर-भजन का अहंकार आता है, तो उसको परमात्मा भजन में ही गिराता है। ईश्वर का भजन मन में ऐसा बना लीजिए कि शरीर छोड़ते-छोड़ते भी वही याद रहे। कितने रोगी हों, कितने वृद्ध हों, यदि उनका मन फिर जाय और ईश्वर का भजन करते-करते शरीर छोडे़ तो उनकी वह गति होगी जो श्राद्ध-क्रिया से नहीं हो सकती। इसलिए सबको ईश्वर-भजन करना चाहिए।
 इसीलिए भगवान श्रीराम ने कहा-यह शरीर बड़े भाग्य से मिला है। संक्षेप में भगवान श्रीराम ने समझाया कि यह शरीर विषय-भोग के लिए नहीं है। स्वर्ग का सुख भी थोड़ा ही है और अंत में दुःख है। यह मनुष्य-शरीर नाव है। ईश्वर की कृपा अनुकूल वायु है। गुरु कर्णधार हैं। मनुष्य-शरीर है ही, ईश्वर की कृपा भी प्राप्त है। बाकी सद्गुरु बच जाते हैं। खोजने पर सद्गुरु भी मिल जाते हैं। सद्गुरु मिलने पर भी यदि उनके अनुकूल नहीं चलिए तो नाव पार नहीं लग सकती। इसलिए संसार से पार होने के लिए ये ही तीन चीजें हैं। ये तीनों चीजें भवसागर पार करने के लिए सबसे सरल हैं। पहले जप करो। बूढ़े शरीर से प्राणायाम नहीं हो सकता। उनके लिए नाम जपना और किसी रूप, जिस रूप में श्रद्धा हो, उसका ध्यान करें। यदि उनको दृष्टि-साधन करने कहा जाय, तो उनसे नहीं होगा। इसलिए उनको शब्द-साधन करना चाहिए। बहुत बूढ़े के लिए ये तीन काम हैं। इनमें किसी एक का भी अभ्यास करते हुए शरीर का त्याग करना चाहिए।
***************
यह प्रवचन पूर्णियाँ जिला के सिकलीगढ़ धरहरा में बाबू गिरो भगतजी के निवास स्थान पर दिनांक 13.6.1955 ई0 के सत्संग में हुआ था।
***************



115. परमात्मा के लिए ईश्वर शब्द का प्रयोग
प्यारे लोगो!
 इस सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति करने के लिए सदा से उपदेश होता हुआ चला आया है। ईश्वर-भक्ति करने के लिए सबसे पहले ईश्वर की स्थिति को जानना चाहिए। फिर उसके स्वरूप को जानना चाहिए। ईश्वर की स्थिति और उसके स्वरूप को पहले जानना चाहिए।
 ‘ईश्वर’ शब्द को लोग बहुत जगह प्रयोग करते हैं। जैसे नर$ईश्वर कहने से राजा का ज्ञान होता है। देवेश और देवेश्वर में भी ईश, ईश्वर लगा हुआ है। यहाँ ईश्वर से बढ़कर कोई नहीं है। जैसे नरेश्वर से बढ़कर देवेश्वर है, तो देवेश्वर के ऊपर देव ब्रह्मा है। उनसे भी बढ़कर विष्णु हैं। देवियों के लिए भी ईश्वर शब्द प्रयोग हुआ है, किंतु यहाँ जिस ईश्वर के लिए कहा जाता है, उससे बढकर कोई नहीं।
 परमात्मा के लिए ईश्वर शब्द का प्रयोग है। यहाँ एक ईश्वर की मान्यता है। अनेक शरीरों की अनेक जीवात्माआें को अनेक मानने से अनीश्वरवाद होता है, न कि ईश्वरवाद। ईश्वर-ज्ञान के लिए क्या वेद, उपनिषद्, संतवाणी सबमें है। जो इन्द्रियों के ज्ञान से बाहर है, जो आदि-अंत-रहित है, जिसकी सीमा कहीं नहीं है, जो अनादि,अनंत, असीम है, जिसकी शक्ति अपरिमित है, जो इन्द्रियों के ज्ञान में नहीं, आत्मा के ज्ञान में आने योग्य है, वह परमात्मा है। यह बात कहते-कहते मुझे 20 वर्ष हो गए, किंतु अफसोस है कि कुछ लोग ही इसे समझ पाए हैं।
 शरीर-इन्द्रियों से जानने और मिलने योग्य ईश्वर मानोगे, तो उसमें ऐसी-ऐसी बात देखने में आवेगी, जिसे देखने से ईश्वर मानने के योग्य वह नहीं रह जाता। उसको ईश्वर मानना अन्धी श्रद्धा होगी। जो मन-इन्द्रियों से नहीं जानो, उसको किससे जानो? तो कहा-चेतन आत्मा से इन्द्रियों के पृथक- पृथक होने के कारण उनका पृथक-पृथक ज्ञान होता है। सब विषयों को एक ही इन्द्रिय से नहीं जान सकते। आँख से रूप देखते हैं, कान से शब्द सुनते हैं, नासिका से गंध ग्रहण करते हैं, जिह्ना से रस लेते हैं और चमड़े से स्पर्श का ज्ञान होता है। इन्द्रियों के पृथक-पृथक होने के कारण उनका पृथक-पृथक काम है, किंतु तुम्हारा निज काम क्या है? तुम्हारा निज काम परमात्मा की पहचान है और अपनी पहचान है। जो मानता है कि आत्मा बिना शरीर के नहीं रह सकती, सूक्ष्म शरीर में रहती है, उसका यह ज्ञान अधूरा है। स्थूल शरीर के बाद सूक्ष्म शरीर, सूक्ष्म के बाद कारण शरीर, कारण के बाद महाकारण शरीर, फिर कैवल्य शरीर है। उस चेतन आत्मा का निज ज्ञान परमात्मा की पहचान है। इसके अतिरिक्त परमात्मा को किसी से पहचाना नहीं जा सकता। एक असीम पदार्थ को नहीं मानो, तो प्रश्न होगा कि सब ससीम पदार्थों के बाद में क्या होगा? बिना असीम कहे प्रश्न सिर पर से नहीं उतर सकता। इसलिए एक असीम तत्त्व को मानना ही पड़ेगा। यदि कहो कि यह कल्पित है तो अकल्पित क्या है? ईश्वर को कल्पित कहनेवाले का ज्ञान मिथ्या है। कल्पित तो वह है, जिसकी स्थिति नहीं हो और मन से कुछ गढ़ लिया गया हो, किंतु एक अनादि-अनंत तत्त्व अवश्य है। उसकी स्थिति अवश्य है, वह कल्पित कैसा? जो असीम है, जिसकी शक्ति अपरिमित है, उसको तुम अपनी परिमित बुद्धि से कैसे माप सकते हो? कोई यह नहीं कह सकता कि बुद्धि अपिरमित है।
 आजकल विज्ञान का बहुत बड़ा विस्तार हुआ है, किंतु उनसे पूछो तो वे कहते हैं-अभी तो समुद्र के किनारे का एक बालूकण ही दीख पड़ा है। बुद्धि अभी कितनी विकसित होगी, ठिकाना नहीं। किंतु बुद्धि अपरिमित नहीं हो सकती। परिमित बुद्धि में अपरिमित को अँटा नहीं सकते। आज की बुद्धि जितनी दूर तक गई, उतनी ही रहेगी या उससे भी अधिक बढ़ेगी? यदि कोई योगेश्वर है तो बता दे कि बुद्धि कितनी बढ़ेगी? आजकल हमारे देश में अणु बम की खोज हो रही है। दूसरे देश के लोग इसको जानते हैं। यदि तुम जानते हो तो बता दो, तो समझूँ कि इतना ज्ञान तुमको है। किंतु इतना भी ज्ञान नहीं है। दूसरे देश के लोगों को बम बनाते देखकर गौरव करते हो कि अणु बम हमने बनाया। तारे, चाँद, सूर्य सभी हमने बनाए? दूसरे देश के लोगों से हम डरते हैं कि कहीं बम गिरा दे तो हमारा सर्वनाश हो जाएगा; और हम गौरव करते हैं कि ये सब हमने बनाये।
 वेद में यही ज्ञान दिया गया है कि इन्द्रियों से परमात्मा को ग्रहण नहीं कर सकते। कबीर साहब ने कहा है-
राम निरंजन न्यारा रे । अंजन सकल पसारा रे ।।
अंजन उतपति वो ऊँकार। अंजन मांड्या सब बिस्तार।।
अंजन ब्रह्मा शंकर इन्द । अंजन गोपी संगि गोव्यंद।।
अंजन वाणी अंजन वेद । अंजन किया नाना भेद।।
अंजन विद्या पाठ पुरान। अंजन फोकट कथहि गियान।।
अंजन पाती अंजन देव। अंजन की करै अंजन सेव।।
अंजन नाचै अंजन गावै। अंजन भेष अनंत दिखावै।।
अंजन कहौं कहाँ लगि केता। दान पुंनि तप तीरथ जेता।।
कहै कबीर कोइ विरला जागे,अंजन छाड़ि निरंजन लागै ।।
 यह पद कहकर सभी को माया बताया है और वह परमात्मा निरंजन है, निर्मायिक है। गुरु नानकदेवजी ने भी कहा है कि-
 अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा।।
  जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा।।
 अर्थात् परम प्रभु परमात्मा देखने की शक्ति से परे, असीम, मन और बुद्धि की पहुँच से परे, अजन्मा, कुलविहीन, काल और कर्म से रहित तथा भूल और मनोमय संकल्प से हीन है।
 एक-एक शरीर में एक-एक ईश्वर माननेवाले को कितना भ्रम है, उसका ठिकाना नहीं। जो परमात्मा सर्वव्यापी है, वह सबके घट-घट में है। उसको पाने का यत्न अपने अंदर करो। अंदर में यत्न करने पर तुम अपने को भी जानोगे और ईश्वर को भी पहचानोगे।
 एक अनादि अनंत स्वरूपी ईश्वर को नहीं मानकर जो एक-एक शरीर में एक-एक ईश्वर को मानता है, वह ईश्वर कैसा? जरा सोचो-यदि एक-एक शरीर में एक-एक ईश्वर है, तो एक ईश्वर दूसरे ईश्वर को थप्पड़ लगाता है, गाली देता है, मार-पीट करता है। एक ईश्वर दूसरे ईश्वर पर मामला-मुकदमा करता है, तीसरा झूठा वकील-ईश्वर झूठा फैसला करता है। क्या यही ईश्वर है? ये सब ईश्वर नहीं हैं। वास्तव में परम प्रभु परमात्मा एक है, वह स्वरूपतः अनंत है।
***************
यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर मनिहारी में दिनांक 16.6.1955 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



116. भिक्षु जीवन का प्रत्यक्ष फल
प्यारे लोगो!
 सब लोगों को जानना चाहिए कि प्रत्येक शरीर में जीवात्मा रहता है, जैसे घर में लोग रहते हैं। शरीर में लड़कपन, जवानी, बुढ़ापा होता है और एक दिन इससे जीवात्मा निकल जाता है, जैसे घर से कोई निकल जाय।
 यह शरीर एक ही नहीं है। इसके अंदर तीन और जड़ शरीर हैं। साधारण मृत्यु में एक शरीर को छोड़कर और तीन को लेकर जीवात्मा निकल जाता है। उसी को लोग मरना कहते हैं। अपने कर्मों के अनुसार नरक, स्वर्ग भोगकर उसके यहाँ जाकर जन्म लेता है, जिसके यहाँ उसका संबंध रहता है। इसी प्रकार आवागमन जीवात्मा पर लगा रहता है। यह कबतक लगा रहेगा, ठिकाना नहीं। इस प्रकार के जीवन में पड़े रहना यदि आनंददायक होता तो इसको कोई छोड़ना नहीं चाहता। किंतु इसमें सब को दुःख होता है। चाहे वह पढ़ा-लिखा हो, अनपढ़ हो, धनी हो या निर्धन हो। कोई इस प्रकार के दुःख में रहना नहीं चाहता। यहाँ जो भी सुख है, उसके मूल में दुःख है। सबको चाहिए कि ऐसा जीवन प्राप्त करे, जहाँ सब दुःखांं से छूट जाय। मानव इस बात को विचार सकता है। उसको- मनुष्य को सुख की ओर जाना चाहिए। मनुष्य होकर सुख की ओर जाना नहीं चाहे तो मनुष्यत्व में कमी है। इस कमी को सत्संग के द्वारा दूर करना चाहिए। दुःख-रहित सुख तब होगा, जब सब शरीरों से छूटा जाय। जिस पर कोई देह नहीं, इस तरह की स्थिति सबसे ऊँची स्थिति है। यही परमात्मा की प्राप्ति या मुक्ति की स्थिति है।
 जीवात्मा के एक-एक शरीर में रहने का जीवन बहुत अल्प है। एक शरीर को छोड़कर और दूसरे शरीरों में आने-जाने का समय-जीवन बहुत लम्बा है। और सब शरीरों को छोड़ने का जो जीवन है, वह अनंत जीवन, सुखमय जीवन है। अभी भी जीवात्मा का जीवन अनंत है। किंतु यह दुःखमय जीवन है, अभी मान-प्रतिष्ठा के लिए जो जीवन बिताते हैं, यह कोई ऊँचा जीवन नहीं है। पशु-पक्षी भी सुख का जीवन पसन्द करते हैं। वे खाने-पीने, इन्द्रियों के भोग में, प्रतिष्ठा में रहते हैं। प्रतिष्ठा के लिए ही साँड़-साँड़ से लड़ते हैं, बिलाड़- बिलाड़़ से लड़ते हैं। यदि मनुष्य भी प्रतिष्ठा के लिए ही जीवन बितावे, तो मनुष्य पशु से क्या श्रेष्ठ हुआ? जैसे जो घोड़ा अच्छी चाल चलना जानता है, तो उसका विशेष मूल्य होता है। मनुष्य भी जो अधिक विद्या जानते हैं, उनकी अधिक प्रतिष्ठा होती है। किंतु इतने ही में कोई विशेष नहीं हो जाते हैं। एक शिक्षित पशु अच्छा काम करता है और मनुष्य भी उसी तरह रहता है, तो क्या विशेष है। मनुष्य केवल विद्वान, धनवान, प्रतिष्ठावान होकर रहे तो यह कोई विशेष बात नहीं है। इन्हीं बातों में अपना काम खतम मानना ठीक नहीं। इसका अर्थ यह नहीं कि अविद्वान, निर्धन और अप्रतिष्ठित होकर रहे। तात्पर्य यह है कि वह पशु की तरह न रहे। पाशविक वृत्ति न रखे। इन्द्रियों के अधीन न रहे।
 एक चिड़िया बहुत अच्छी तरह गाती है। सीटी देती है। चोंचा पक्षी सुन्दर घर बना लेता है। इसी तरह यदि मनुष्य भी कारीगरी जानता है और पढ़ा-लिखा है, तो उसकी विशेषता नहीं। विचारवान नहीं तो पूरा मनुष्य नहीं। मनुष्य कहते हैं विचारवान को। मनुष्य को चाहिए कि इन्द्रियों को काबू करके संसार में रहे। संतों ने इसी की विशेष तारीफ की है। बहुत विद्याओं को जाने, यह ऊँची बात है। किंतु विद्वान होते हुए सदाचारी बने, इन्द्रियों को वश में करके रखे, यह विशेष ऊँची बात है। विद्वान होने से संसार में प्रतिष्ठित होते हैं और सदाचारी होकर रहने से ईश्वर के यहाँ प्रतिष्ठित होते हैं। हमारे यहाँ के ऋषियों ने इसी को विशेष प्रतिष्ठा दी है।
 ईश्वर की भक्ति करो, ज्ञान प्राप्त करो। ज्ञान प्राप्त करने से ही ऐसा जीवन मिलता है। पूर्णयोगी बनो। ज्ञान, भक्ति और योग को तीन बातें कोई भले कहे, किंतु तीनों एक ही हैं। यदि कोई कुछ नहीं जाने तो भक्ति कैसे करेगा? ईश्वर से कैसे मिलेगा? यह जानना ही ज्ञान है। उससे मिलने के लिए कुछ करेगा तो वह योग होगा। मिलने के लिए जो प्रेम है, वह भक्ति है। इसलिए ज्ञान, योग और भक्ति तीनों साथ-साथ है। मन उधर अधिक लगता है, जिधर प्रेम होता है। इसीलिए भक्ति को प्रेम प्रधान कहा गया है।
 प्रेम बिना जो भक्ति है, सो निज डिम्भ विचार।
 उद्र भरन के कारने, जनम गँवायो सार।।
      - संत कबीर साहब
 प्रेम उत्पन्न उसके लिए होता है, जिससे अपना कुछ लाभ होता है। परमात्मा सबसे बड़ा लाभ देते हैं। ईश्वर की महिमा, उनकी स्थिति के लिए ज्ञान होता है, तब श्रद्धा होती है। श्रद्धा होने से भक्ति होती है। परमात्मा की महिमा को समझाने के लिए थोड़ी-सी बात यह है। आप किसी भी हालत में रहते हो; किंतु बिना हवा के, भोजन के नहीं रह सकते हैं, श्वास नहीं लेने से हम जीवित रह नहीं सकते। गर्मी से हम जीते हैं। यह ईश्वर की दी हुई है। लोग कहते हैं यह गर्मी सूर्य की है। किंतु ईश्वर के बनाए हुए सूर्य, चन्द्र, हैं। सारी सृष्टि ईश्वर की बनाई हुई है। हवा मुफ्त मिलती है। इसके लिए किसी को खजाना ( कर ) देना नहीं पड़ता। परमात्मा की बनाई हुई मिट्टी है। इस मिट्टी को नहीं लेकर तब अन्न उपजाओ, हो नहीं सकता। हाँ, मिट्टी को लेकर, उसमें कुछ डालकर उसको उर्वरा भले बनाओ; किंतु मिट्टी नहीं बना सकते।
 एक मुनि बालक था। वह जंगल में रहता था। एक राजा ने उस बालक को देखा। वह बालक बड़ा ज्ञानी था। राजा बहुत प्रसन्न हुआ। उस मुनि बालक से राजा ने कहा-‘तुम मेरे साथ चलो। तुमको अच्छी तरह अपने राजमहल में रखूँगा। जो खाऊँगा, तुमको भी वही खिलाऊँगा। जो मेरी रक्षा में पहरा करेगा, वह तुम्हारी भी रक्षा करेगा।’ मुनि बालक ने कहा-‘मैं तुम्हारे साथ तभी चलूँगा, यदि तुम मेरी बात मान लो।’ राजा ने कहा-‘तुम अपनी बात कहो, वह क्या है?’ मुनि बालक ने कहा-‘मुझे खिलाओ, तुम मत खाओ। मुझे पहनाओ, तुम मत पहनो। जब मैं सो जाऊँ, तब तुम जगकर मेरी रक्षा करो।’ राजा ने कहा-‘ऐसा नहीं होगा।’ मुनि बालक ने कहा-‘मैं तब तुम्हारे साथ नहीं जाऊँगा। मेरे राजा ऐसे हैं, जो स्वयं नहीं खाते, मुझे खिलाते हैं। अपने कुछ नहीं पहनते, मुझे पहनाते हैं। जब मैं सो जाता हूँ, तो वे जगकर मेरी रक्षा करते हैं।’ ऐसे राजा हैं परम प्रभु परमात्मा। परमात्मा सबको खिलाते हैं, वे अपने कुछ नहीं खाते हैं। सबको पहनाते हैं, अपने स्वयं कुछ नहीं पहनते हैं। सब कोई सोते हैं, अपने जगकर हमलोगों का पहरा करते हैं।
 मन सांसारिक पदार्थों में लगता है। सांसारिक पदार्थ माया है। माया एक तरह नहीं रहतीं। परमात्मा सदा एक तरह रहते हैं। दोनों के आपस में उलटे- उलटे गुण हैं। माया में हम अपने को दुःखी पाते हैं। इससे उलटे परमात्मा हैं। उधर अपने को करो, तो सुखी होओगे। प्रùाद की कथा बहुत पुरानी है। उनको पिता के द्वारा बहुत दुःख दिया गया। किंतु ईश्वर की कृपा से उनसे वे उद्धार पाते गए। ईश्वर में प्रेम होना चाहिए।
 राजा अजातशत्रु ने भगवान बुद्ध से प्रश्न किया कि भिक्षु जीवन का कोई प्रत्यक्ष फल भी होता है? भगवान बुद्ध ने उत्तर में कहा था-‘हे राजन्! मैं आपसे भी एक प्रश्न करता हूँ, आप पहले उसका उत्तर दीजिए। आपके दासगण प्रतिदिन आपकी सेवा करते हैं, यदि आपके दासों में से कोई एक दास यह विचार कर कि थोड़े से जीवन के लिए कौन इतनी पराधीनता स्वीकार करके दिन-रात कष्ट भोगे, वह साधु हो जाय और एकान्त में रहकर युक्ताहारपूर्वक अपनी इन्द्रियों का संयम करने लगे, तो क्या आप उसे दास बनने के लिए फिर बाध्य करेंगे?’ राजा अजातशत्रु ने कहा- ‘ऐसा होने पर तो उसको दास बनने के लिए कभी नहीं बाध्य करेंगे। वरन् उसका सम्मान करेंगे और यथाशक्ति उसकी सेवा-सत्कार करेंगे।’ भगवान बुद्ध बोले-‘राजन्! तब तो आपको यह मानना पड़ा कि भिक्षु होने से इसी जीवन में फल मिलता है। राजन्! यदि कोई व्यक्ति एकान्तसेवी हो इन्द्रिय-संयम के द्वारा भक्ति-धर्म का पालन करे, तो लोक में अवश्य पूजित होगा; बल्कि त्यागशील पुरुषां को और भी अनेक फल मिलते हैं। आत्म-संयम के अभ्यास द्वारा मनुष्य क्रमशः उन्नत भिक्षु जीवन- लाभ करके रोगमुक्त, कारागार मुक्त, चिर-दासत्व मुक्त की तरह परमानन्द का लाभ करता है। हे राजन्! उसे जन्म-जन्मानन्तर की बात स्मरण हो जाती है। वह जान लेता है, हम पूर्व जन्मों में किन-किन अवस्थाओं में थे? कहाँ-कहाँ जन्मे? क्या-क्या किया? क्या-क्या भोगा? कौन व्यक्ति क्या-क्या कर्म कर रहा है और परिणाम में उसे किस प्रकार का फल भोगना पड़ेगा? इसको वह इस प्रकार देखता है, जैसे-कोई ऊँचे मकान के ऊपर से नीचे के मनुष्यों को देखता है कि कौन क्या कर रहा है? कहाँ से आ रहा है? किधर जा रहा है? यह भिक्षुजीवन का प्रत्यक्ष फल है।
 साधु-संयमी परमात्मा में जब लग जाता है, तब वह रोगमुक्त रोगी की तरह, कारागार से मुक्त कैदी की तरह आनन्दित होता है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जिसको ईश्वर में प्रेम होगा, वह सदाचारी होगा, जो जप-ध्यान है, उसको वह करेगा। ईश्वर की भक्ति में प्रेम की प्रधानता है। सबको ईश्वर में प्रेम करना चाहिए। उनकी महिमा को जानना चाहिए। परमात्मा की ओर से हमारी बहुत भलाई होती है। परमात्मा में लौ लगाने के लिए कोई जरिया चाहिए। कीर्तन से पूजा-पाठ से लौ लगती है। किंतु दिखलानेवाला कीर्तन और पूजा-पाठ नहीं होना चाहिए। जप-ध्यान से लौ लगाना सरल है। किंतु इसकी भूमि सत्संग है। लौ लगाने के लिए सत्संग से प्रेरणा मिलती है।
 साधुओं का संग करना चाहिए। नित प्रति साधु का संग नहीं हो सकता। जिनको विशेष प्रेम है, उनको कभी-न-कभी साधु अवश्य मिलते हैं। चिट्ठी आधी मुलाकात है। साधु-संतों के वचन उनके ग्रंथों में है। उन ग्रंथों को पढ़ना चाहिए। इसमें आधा साधु का दर्शन होना होता है। सद्ग्रंथों को नित पढ़ो। बिना सत्संग के कोई ज्ञानी, योगी, भक्त नहीं हो सकता।
 पंच पापों को नहीं करो। किसी भी नशा को लेना आपको लाभ नहीं पहुँचा सकता। अन्न और जल, दूध आपको लाभ पहुँचा सकता है। अन्न, जल, दूध लेना जरूरी है। बेजरूरी की चीज लेना हानिकारक है। तम्बाकू, बीड़ी, सिगरेट, नस, खैनी आदि जो नशा है, इनको छोड़ो। यदि आप इन सबों को छोड़ दीजिएगा, तो मालूम होगा कि इनके बंधनों से हम छूट गए। चोरी नहीं करनी चाहिए। झूठ नहीं बोलना चाहिए। व्यभिचार नहीं करना चाहिए। इसके बदले में एक ईश्वर पर पूर्ण भरोसा रखना चाहिए, वे अपने अंदर में मिलेंगे, इस पर अटल विश्वास रखना चाहिए। सत्संग नित करना चाहिए। ध्यान करना चाहिए और सद्गुरु की श्रद्धा- प्रेम से सेवा करनी चाहिए।
 सब लोगों को मालूम है कि ईश्वर सब जगह हैं। आपके अंदर भी ईश्वर हैं। आप भी अपने शरीर में हैं। किंतु उनको पहचान नहीं सकते हैं। आप जिस दर्जे में हैं, उससे ईश्वर बहुत ऊँचे दर्जे में हैं। जिस दर्जे में आप हैं, उस दर्जे में ईश्वर नहीं हैं-इस विचार को नहीं मानना चाहिए। ईश्वर उस दर्जे में भी हैं, लेकिन उनको वहाँ पहचान नहीं सकते। उस दर्जे में आप शरीर और इन्द्रियों के साथ रहते हैं। सारे शरीरों-आवरणों को पार करने पर ही प्रभु मिलेंगे। चेतन आत्मा के ऊपर से जितने आवरण हटाए जाते हैं, उतनी ही उसकी दीप्ति और अधिक बढ़ती है। बिल्कुल आवरण हट जाय तो सूर्य से विशेष प्रकाशमान वह होगा। परमात्मा, पुरुष, स्त्रीलिंग आदि कुछ नहीं, नपुंसक भी नहीं।
 सत्संग-ध्यान सबको नित करना चाहिए। ब्राह्ममुहर्त्त में उठना चाहिए। भजन करना चाहिए। दिन में स्नान के बाद को। और सायंकाल संध्या समय भजन करो। रात में सोते समय भजन करते हुए सो जाय, तो बुरा स्वप्न नहीं होगा। यही त्रयकाल संध्या है। दिन में सब काम करते हुए अपने मन को जप-ध्यान में लगाते हुए रहना चाहिए।
***************
यह प्रवचन पूर्णियाँ जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर सिकलीगढ़ धरहरा में दिनांक 19.6.1955 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



117. पहले मस्तिष्क ही पुस्तक थी
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 सबसे गहन विषय जो हो सकता है, वह है ईश्वर-स्वरूप का निर्णय। जो लोग आस्तिक कुल में जन्म लिए हैं, उनको ईश्वर मानने में कोई अड़चन और कोई संदेह नहीं है। कोई अपने माता- पिता या बूढ़े के कहने से ईश्वर को मानते चले आए हैं। उनके बूढ़े लोगों ने ईश्वर के जिस-जिस नाम को लेकर पुकारा है, उन्होंने उसी को जाना है। उनको यह जनाया गया है कि ईश्वर का स्वरूप क्या है। लोग श्रद्धा से मानते चले आए हैं। ईश्वर-स्वरूप का निर्णय विशेष पढ़े-लिखे लोग विवेचना पूर्ण करके जानते हैं। लोग कहते हैं कि यह बात सबकी समझ में नहीं आएगी, इसलिए उनको कहने से क्या लाभ? किंतु जो नहीं समझेंगे, उनको यदि यह विषय कभी समझाया ही नहीं जाय तो वे कब समझेंगे? इसलिए साधु-संतों ने इसको समझा और कहा कि इसको बारम्बार समझाओ।
 केवल विद्यालयों में ही जाकर ज्ञान नहीं होता है, सुनकर भी ज्ञान होता है। पहले कोई पुस्तक नहीं थी। संसार में सबसे पुराना ग्रन्थ लोग वेद को कहते हैं, लेकिन जब वेद ग्रंथ रूप में नहीं था, तब उसका ज्ञान ऋषियों के मस्तिष्क में था। जब अक्षर नहीं बना था, उस समय जितनी विद्याएँ थीं, लोगों को सुना-सुनाकर सिखलायी जाती थीं। लोगों की स्मरण शक्ति बहुत तीव्र थी। लोग सुन- सुनकर समझ लेते थे, सीख लेते थे। ज्ञान और विद्या पहले, पुस्तक पीछे हुई। आज भी जो पुस्तक लिखी जाती है, वह ज्ञान पहले मस्तिष्क में रहता है,फिर पुस्तक में लिखते हैं। लोगों की स्मरण- शक्ति जब कम हो गयी, तब लोगों ने उस ज्ञान को रखने के लिए अक्षर बनाया और पुस्तक का रूप दिया। आज भी कितने ज्ञान हैं, जो पुस्तक में नहीं हैं।
 राहुल सांकृत्यायन से भेंट हुई मुरादाबाद से आते समय। उन्हांने तालपत्र पर लिखे हुए अक्षरों को दिखलाए। पहले भोजपत्र पर, ताम्रपत्र पर लिखते थे, फिर कागज बना और उसपर लोग लिखते हैं। पहले मस्तिष्क ही पुस्तक थी। वह शक्ति आज भी है। आज भी कछ स्मरण-शक्ति है। महर्षि दयानन्द के गुरु स्वामी विरजानन्दजी जन्मान्ध थे, वे बड़े विद्वान थे। जिस गुरु के शिष्य स्वामी दयानन्द थे, वे गुरु कैसे थे, सो जानिए। विद्या कैसे आती है, इस पर कहा।
 ऊँचे विद्यालयों में लड़के पढ़ते हैं, अध्यापक कहते हैं, लड़के सुनते हैं, याद रखते हैं और लिख भी लेते हैं। साधु लोग जो सत्संग करते हैं, इसको याद रखो अथवा लिख लो। यदि लिखना नहीं जानते हो तो सुनते-सुनते बहुत सीख जाओगे। हमारे चाचा के पिता एक सुग्गा पालते थे। वह सुग्गा सिखाने पर बहुत बातें सीख गया था। संयोग से एकदिन रात में चोर आया। सुग्गे ने हल्ला किया, ‘बाबा हो चोर।’ लोग जग गए, चोर भाग गया। पक्षी को मनुष्य का संग करते-करते ज्ञान हो गया कि चोर आया है। उसको यह बात सिखलाई नहीं गई थी। पक्षी जब सीख लेता है, तो मनुष्य बार-बार सुन लेने पर क्यों नहीं सीख लेगा?
 हमारे यहाँ एक बड़ा भारी काला दाग है कि सभी वर्णों के लोगों को यह उपदेश मत दो। किंतु संत लोग सब ही दिन उदार रहे। ‘चहुँ बरना को दे उपदेश’ गुरु नानकदेव ने कहा। आपको इसका इच्छुक होना चाहिए। इच्छा नहीं करते हैं, इसीलिए इससे दूर रहते हैं। लोग राम, शिव, हरि आदि को ईश्वर समझते हैं, परंतु उनसे स्वरूप पूछिए तो चुप हो जाएँगे। कोई सगुण मानते हैं, तो निर्गुण मानते हैं। दूसरा दल कहता है कि क्या ईश्वर है? एक नास्तिक विद्वान ने मुझसे पूछा कि ‘आपका क्या प्रचार है?’ मैंने कहा-‘ईश्वर-भक्ति।’ उन्होंने पूछा- ‘क्या ईश्वर है?’ मैंने कहा-‘हाँ।’ उन्होंने कहा कि मैं ईश्वर को नहीं मानता हूँ। मैंने कहा-‘नहीं मानिए।’ उन्होंने पुनः मुझसे पूछा कि ‘तब मेरे लिए आपका क्या प्रचार है।’ मैंने कहा कि ‘आप तो पढ़े- लिखे है, विद्वान हैं, समेटकर बोलिए कि आप क्या चाहते हैं।’ वे चुप हो गए। तब मैंने कहा-‘यदि आपको ज्ञान और सुख मिल जाए तो कोई इच्छा रहेगी? उन्होंने कहा-‘नहीं।’ मैंने कहा-‘आपके लिए मेरा यही प्रचार है कि ज्ञान और सुख होता है ध्यान से। आप ध्यान करेंगे तो ज्ञान होगा, सुख होगा और ध्यान के अंत में ईश्वर की प्राप्ति होगी। ध्यानाभ्यास से मन की एकाग्रता होती है। इससे मन में शान्ति आती है और ज्ञान भी बढ़ता है, मुझे विश्वास है कि आप यदि ध्यान के अंत में पहुँचिएगा, तो कहिएगा कि ईश्वर है।’
 लोग कहते हैं कि ‘एक प्रùाद के लिए भगवान ने अवतार लिया, एक दौपदी के लिए वस्त्रहरण के समय भगवान प्रकट हुए, आज बंगाल में, पंजाब में क्या-क्या हो गया, लेकिन भगवान कहाँ हैं? क्या आजकल भगवान ने वैसा करना छोड़ दिया है?’ किंतु गुण,कर्म से ईश्वर का निर्णय नहीं हो सकता। कितने विद्वानों ने कहा कि ईश्वर श्रद्धा में है, तर्क में नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
 राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी ।
      मत हमार अस सुनहु भवानी ।।
 किंतु ऐसी बात नहीं। बिल्कुल श्रद्धा-ही-श्रद्धा नहीं, तर्क भी है। अभी पाठ में आपलोगों ने सुना-
इहाँ मोह कर कारन नाही ं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।
तर्क में बतलाया-
 व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता।
    अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता । सब दरसी अनवद्य अजीता ।।
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
तब कहा है कि-‘इहाँ मोह कर कारन नाही ं।’और कहा-‘अज विज्ञान रूप बलधामा।’ अज=अजन्मा। व्याप्य=जिसमें कुछ समावे। व्यापक=जो समावे। समूचा प्रकृति-मण्डल व्याप्य है, परमात्मा उसमें व्यापक है। अखण्ड=जिसका टुकड़ा नहीं हो। अनन्त=जिसकी सीमा कहीं नहीं, जो असीम है। अगुन=गुणरहित, तीन शक्तियों-गुणांं के परे। संसार में तीन गुणों का खेल है। एक वृक्ष, एक पहाड़ या छोटे जीव या मनुष्य का शरीर या (देवता पर विश्वास रखते हो तो) देवता का शरीर-इन सबमें तीन गुणों का काम है। रजोगुण-उत्पादक शक्ति, सत्त्वगुण-पालक शक्ति और तमोगुण-विनाशक शक्ति। अगुण=तीन गुणों से रहित को कहते हैं। जो व्याप्य में व्यापक है, वह परमात्मा है। किंतु उसी में वह समाप्त नहीं होता। उससे परे भी है। इसीलिए कहा-
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
 इन सब बातों को बतलाकर कहते हैं कि ‘इहाँ मोह कर कारन नाहीं।’ अब यहाँ तर्क होता है कि व्याप्य में व्यापक अर्थात् प्रकृति पार अनंत हो सकता है कि नहीं। पहले एक अनंत तत्त्व पर विचार करो कि है कि नहीं। यदि कहो कि ‘कोई भी अनंत नहीं होगा, सब सान्त-ही-सान्त है।’ प्रश्न होगा कि ‘सब सान्तों के बाद में क्या है?’ सब खेतों की सीमा है, सब खेतों को जोड़कर भूमण्डल होता है। भूमण्डल सान्त हो गया। सारे सान्तों के पार में क्या है? जबतक एक अनंत नहीं कह दो, तबतक यह प्रश्न सिर से उतर नहीं सकता। इसलिए एक अनंत का मानना अनिवार्य है। अनंत दो नहीं हो सकता। यदि कहो कि ‘एक दूसरे में समाते हुए अनंत है।’ तब प्रश्न होगा कि दोनों तत्त्वरूप में एक है कि दो? यदि एक दूसरे में घुसता है तो जब उसमें घुसता है तो उसमें पोल है, उसका खण्ड हो सकता है। उसके अणु-अणु में वह है, तब वह परमाणु भी उसी से बना होगा, इस तरह अनंत एक ही होगा, दो नहीं। एक एम0ए0, बी0एल0 ने प्रश्न किया कि ‘यदि वह अनंत है तो फिर उसको ईश्वर क्यों मानूँ?’ तो उत्तर होगा-‘अनंत से बाहर कोई नहीं हो सकता। जब सब उसके अंदर में है, तो वह ईश्वर नहीं हुआ तो क्या हुआ? जिसके अधीन सब हो।’ अनंत के पहले का कुछ नहीं हो सकता। सबसे पहले का जो है, उसका जन्म नहीं हो सकता। इसलिए वह अज है। अनंत होने के कारण वह सर्वव्यापी है। जो जितना अपना विस्तार विशेष रखता है, वह उतना सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म का अर्थ छोटा टुकड़ा नहीं, बल्कि आकाशवत् सूक्ष्म। एक सेर बर्फ लो, उससे एक सेर जल का विस्तार ज्यादा होगा। यदि उसको वाष्प में परिणत किया जाय, तो उसका विस्तार और विशेष होगा। जो जितना सूक्ष्म होगा, वह उतना विशेष पतला होगा। जो जितना विशेष महीन होगा, वह अपने से स्थूल में स्वाभाविक ही समाया हुआ होगा। जैसे पृथ्वी में जल, जल में अग्नि, अग्नि में हवा और हवा में आकाश। जो सबसे विशेष सूक्ष्म है, वह सबमें व्यापक होगा। इसीलिए अति सूक्ष्म होने के कारण परमात्मा सर्वव्यापक है। इसीलिए कहा-‘प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी।’ प्रकृति कहते हैं उस मसाले को, जिससे यह सब कुछ बनता है। बनने में दो भाग करो तो एक पिण्ड, दूसरा ब्रह्माण्ड होगा। पिण्ड-ब्रह्माण्ड में तीन गुणों का खेल होता है। बालकपन का शरीर कहाँ चला गया? शरीर गया नहीं, बल्कि बदल गया है। यदि तीनों गुणों का काम नहीं हो तो रूप नहीं बदल सकता। उत्पादक शक्ति का काम है-उत्पन्न करना, बदलते जाना। तमोगुण का काम है-नाश करना। ठहरा हुआ है-यह सतोगुण का काम है। तीनों का काम संग-संग होता है। जिसने जन्म नहीं लिया, उसमें तीन गुणों का काम कैसे होगा, इसलिए वह अज है। कार्य और कारण को समझने के लिए प्रकृति कारणरूप है और कार्यरूप में सब चीजें बन गई हैंं। त्रयगुणों के सम्मिश्रणरूप को प्रकृति कहते हैं। बराबर-बराबर शक्तियों के मिलाप को प्रकृति कहते हैं। इसकी जड़ में तीन गुण हैं। इसलिए अपरा प्रकृति, अष्टधा प्रकृति इसको कहते हैं। कार्यरूप का जितना फैलाव है, उससे कारणरूप का विशेष फैलाव होता है। जहाँ से कुछ बनने का आरम्भ होता है, वह कारण है। उसके बाद जब कुछ बनता है, तब सूक्ष्म कहलाता है। अद्वैतवादी को पहले से दूसरा तत्त्व नहीं जँचता है। परमात्मा से प्रकृति उपजी हुई है। प्रकृति को अनाद्या भी कहते हैं, इसलिए कि प्रकृति के होने से समय होता है। प्रकृति नहीं होने के पहले देश काल बने, नहीं हो सकता। जब देश और काल नहीं था, तब प्रकृति हुई। इसलिए इसको अनाद्या कहते हैं। प्रकृति देश-काल ज्ञान से अनादि और उपज ज्ञान से सादि है। परमात्मा अनादि के भी आदि हैं। ‘अनादिर आदि परम कारण।’
 जो असीम है, सर्वव्यापी है, त्रयगुण रहित है, अज है, ऐसा तत्त्व टूटनेवाला नहीं हो सकता। इसलिए अखण्ड है। इस तरह ईश्वर का स्वरूप है। किंतु उसके कार्य से ईश्वर माना जाय, हो नहीं सकता। ससीम बुद्धि से असीम परमात्मा के कार्य का वर्णन किया जाय, नहीं हो सकता। बुद्धि रबड़ का एक थैला है। रबड़ के थैले में हवा भरो, हवा विशेष भरने से थैला फट भी सकता है। उसी तरह बुद्धि को समझो। ईश्वर को सुगम रीति से जानने के लिए क्या करो? बाहर में आपकी ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, भीतर में मन है। मन से कुछ करते हैं। इसको बुद्धि से विचारते हैं। बुद्धि पीछे बनी। फिर मन और पीछे बाहर की इन्द्रियाँ बनीं। जो जितना पीछे बना, वह उतना स्थूल है। बु़द्ध सूक्ष्म है। उससे स्थूल मन है। उससे और इन्द्रियाँ स्थूल हैं। बुद्धि को सारथी, मन को लगाम और इन्द्रियों को घोड़े कहा गया है। सबसे सूक्ष्म परमात्मा हैं। स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता। हाथ में बांधने की घड़ी और दीवार में टाँगने की घड़ी दोनों में एक ही तरह के यंत्र हैं, किंतु दोनों घड़ियों में एक ही औजार से काम नहीं होता। बड़ी घड़ी के लिए बड़े-बड़े और छोटी घड़ी के लिए छोटे-छोटे यंत्र काम में लाते हैं। परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म हैं, इन्द्रियाँ अत्यन्त स्थूल हैं। इन स्थूल इन्द्रियों से सूक्ष्म परमात्मा ग्रहण होने योग्य नहीं हैं। सामने में जो प्रत्यक्ष दृश्य है, उसको ग्रहण करने के लिए आँख है, िंकन्तु आँख को फोड़कर कान से देखना चाहें, तो नहीं होगा। कान से शब्द सुन सकते हैं। पाँच विषयों को ग्रहण करने के लिए पाँच इन्द्रियाँ हैं। रूप क्या है? जिसको आँख से ग्रहण करें। शब्द क्या है? जिसको कान से सुन सकते हैं। इसी तरह ईश्वर क्या पदार्थ है? जो केवल चेतन आत्मा से ग्रहण होता है। यदि कहो कि प्रत्यक्ष दिखलाओ तो प्रत्यक्ष आँख से नहीं हो सकता। मैं इसकी क्रिया-युक्ति बतलाता हू़ँ, अपने को शरीर-इन्द्रियों से छुड़ाकर कैवल्य दशा प्राप्त करो, तब प्रत्यक्ष होगा। इसके लिए मन को एकाग्र करो। मन को एकाग्र करने के लिए लोग मोटे-मोटे काम करते हैं, परंतु पूरा एकाग्र नहीं होता। पूर्णता के लिए ध्यानाभ्यास करो। ध्यानाभ्यास का अर्थ यह नहीं कि मोटे-मोटे कर्मों को नहीं करो। मोटे-मोटे कार्यों-सत्संग, पूजा-पाठ से भी सिमटाव होता है। विशेष सिमटाव मंत्र-जप से होगा। इससे भी विशेष सिमटाव मूर्ति-ध्यान से होगा। भगवान बुद्ध की मूर्ति को भिक्षु लोग बनाते थे। लोगों ने पूछा कि ‘भिक्षु! यह क्या करते हो?’ उन्होंने कहा कि ‘इस मूर्ति को बनाते-बनाते इसका रूप मन में छप जाएगा।’ इसी के लिए हमारे यहाँ प्रतिमा-पूजन है, केवल प्रणाम करके चलने के लिए नहीं। प्रतिमा देखो और उसका ध्यान करो। एक पंडित ने मुझसे पूछा कि ‘आप प्रतिमा को मानते हैं कि नहीं?’ मैंने कहा कि ‘मानता भी हूँ और नहीं भी मानता हूँ।’ ध्यान करने के लिए प्रतिमा को मानता हूँ और मेला लगाकर पैसा कमाने के लिए नहीं।’
 प्रतिमा का ध्यान क्यों किया जाया, इसका भी उत्तर है। एक मौलवी थे। उन्हांने कहा कि ‘हिन्दू लोग बहुत ईश्वर मानते हैं।’ मैंने उनसे कहा कि ‘आप एक शरीर में रहते हैं, इसलिए आपका शरीर है। खुदा सबमें रहते हैं, इसलिए सब शरीर खुदा के है। इस तरह हिन्दू लोग सब रूपों को ईश्वर का रूप मानकर पूजते हैं। ईश्वर सबमें रहते हैं।’ जैसे तुम घर में रहते हो, तुम घर नहीं हो। मूर्ति में परमात्मा है, मूर्ति परमात्मा नहीं है। श्रीमद्भगवद्गीता में क्षेत्र-क्ष्ेत्रज्ञ कहकर इसको अच्छी तरह समझाया गया है। मूर्ति-पूजा इसलिए है कि शक्ल का ध्यान करो। मूर्ति में ईश्वर हैं, मूर्ति ईश्वर नहीं है। मूर्ति का ध्यान करो, इससे एकाग्रता होगी, किंतु इससे पूर्ण सिमटाव नहीं होगा। श्रीमद्भागवत के एकादश अध्याय में उद्धवजी को भगवान श्रीकृष्णजी ने कहा कि ‘पहले मेरे सर्वांग शरीर का ध्यान करो, फिर मेरे मुस्कानयुक्त मुखारविन्द का, फिर शून्य में ध्यान करो। भगवान ने शून्य-ध्यान करने कहा। विन्दु-ध्यान शून्य- ध्यान है। विन्दु-ध्यान शून्य-ध्यान क्यों है? विन्दु कहते हैं-परिमाण-शून्य, नहीं विभाजित होनेवाले र्चिं को। यह शून्य न हो गया तो क्या हुआ। इस प्रकार विन्दु-ध्यान से पूर्ण सिमटाव होगा। सिमटाव में ऊर्ध्वगति होगी। ऊर्ध्वगति में उठते-उठते कैवल्य दशा प्राप्त होगी, फिर ईश्वर की प्रत्यक्षता होगी। ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान हो, फिर उसकी पहचान हो। पहले जानकर ज्ञान हो, फिर पहचान कर ज्ञान हो। जबतक पहचान कर ज्ञान नहीं हो, तबतक कल्याण नहीं। इसके लिए आपका चरित्र बहुत अच्छा होना चाहिए। झूठ बोलना, चोरी करनी, नशा खाना, व्यभिचार करना और हिंसा करनी-इन पाँचों महापापों को छोड़ने से चरित्र अच्छा होगा।
***************
यह प्रवचन पूर्णियाँ जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर तेतराही में दिनांक 23.6.1955 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



118. विषयों का उपभोग किस रूप में?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 आपलोग अपने-अपने जीवनकाल में बरत रहे हैं। यह जीवनकाल कबतक रहेगा, कोई ठिकाना नहीं। सम्भव है कोई 50 वर्ष, कोई 80 वर्ष, कोई 100 वर्ष और कोई ज्यादे भी रहे। किंतु इस जीवन- काल के पहले भी समय समाप्त हो जाय, संभव है। यह जीवनकाल एक शरीर का है। आप शरीर नहीं हैं। बाहर की इन्द्रियाँ नहीं, भीतर की इन्द्रियाँ भी नहीं हैं। समस्त इन्द्रियां और शरीर के परे आप हैं।
 इन्द्रियाँ सह शरीर जड़ हैं। किसी भी मृत शरीर में ज्ञान नहीं रहता है। जीवित शरीर में ज्ञान रहता है। यह ज्ञानमय पदार्थ चेतन आत्मा है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है-
ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।
 आप ईश्वर-अंश हैं, अविनाशी हैं, चेतन हैं। एक शरीर का जीवन बहुत थोड़ा है। आप अजर, अमर, अविनाशी हैं। इस मरणशील शरीर में आपका रहना है, यह रहना कबसे है, ठिकाना नहीं। आपने एक ही शरीर को नहीं, अनेक शरीरों को भोगा है। प्रत्येक शरीर का जीवनकाल कुछ-न -कुछ रहा है। आपने अनेकों शरीर को भोगा है और फिर इस शरीर को भोग रहे हैं। एक शरीर का जीवन सौ, सवा सौ वर्ष का है और आपका जीवन अनंत है। एक शरीर के जीवन में जीवन भर आप सुखी रहना चाहते हैं। परंतु दुःख आए बिना बाज नहीं रहता। जैसे दिन के बाद रात, रात के बाद दिन, इसी तरह सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख अनवरत रूप से आते रहते हैं। इन दुःखों को छुड़ाने के लिए लोग बहुत उपाय करते हैं; किंतु दुःख पीछा नहीं छोड़ता।
 एक शरीर के दुःख को दूर करने का काम करते हैं, यह अच्छा करते हैं। किंतु आपके स्वयं का जो जीवन है, उस सुख के लिए भी सोचें। इसके लिए लोग ख्याल नहीं करते।
 लोग एक पहर, आधे पहर के दुःख को पसन्द नहीं करते हैं, उसे अच्छा नहीं कहते हैं; तब लम्बे जीवन के दुःख को मिटाने के लिए कोशिश नहीं की जाय, ठीक नहीं। यह शरीरवाला जीवन इहलोक और परलोक में कब तक होता रहेगा, ठिकाना नहीं। इस लोक-परलोक से छूटने के लिए जबतक यत्न नहीं किया जाय, तबतक दुःख उठाते रहना होगा। स्वर्ग में भी दुःख नहीं छोड़ता। ऊँचे-ऊँचे स्वर्ग-लोक में भी समय बंधा रहता है। जबतक कर्मफल है, तबतक वहाँ का सुख भोगते हैं। फिर वह समय बीतने पर वहाँ से लौटाया जाता है। इस आवागमन का चक्र बहुत लम्बा है। इससे तबतक नहीं छूटते, जबतक शरीर में रहने का जीवन समाप्त न किया जाय। इसलिए सबको चाहिए कि अमर जीवन के लिए कोशिश करें। यह जीवन शरीर-रहित जीवन है। शरीर- रहित जीवन परमात्मा में रहना है। वहाँ से कभी हटना नहीं है। कर्मफलों को पार करके ही कोई वहाँ पहुँच सकता है। इसका यत्न मनुष्य-शरीर में करना चाहिए।
 संसार में जितने शासित देश हैं, सबके शासक चाहते हैं कि हमारे देश के रहनेवाले सुखी रहें। उनके बहुत प्रयास करने पर भी जितना सुख होना चाहिए, उतना सुख नहीं ला सकते। केवल हमारा देश ही नहीं, संपूर्ण संसार के लोग पूर्ण सुखी नहीं हैं। केवल इसी युग में नहीं, सब युगों की बात है।
 भगवान श्रीराम त्रेतायुग में राज्य करते थे। उनका इतना सुन्दर प्रबंध था कि प्रजा सुखी थी। किंतु वहाँ दुःख नहीं था, ऐसी बात नहीं। इतना अधिक सुख था कि उस सुख में दुःख बिला जाता था। इन सुखों को ही भगवान श्रीराम ने पूर्ण नहीं समझा। इसलिए उन्होंने सबलोगों को बुलाकर शिक्षा दी।
 आजकल भी लोग समझने लगे हैं कि केवल भौतिक सुख से पूर्ण सुखी कोई नहीं हो सकता। आध्यात्मिक सुख से पूर्ण सुखी होंगे। आध्यात्मिक सुख वह है, जो इन्द्रियों के सुख में नहीं है। वह परमात्मा का सुख है। इन्द्रियों और शरीरों के भोग में वह सुख नहीं है। वह चेतन आत्मा से भोगने में सुख है। उस ओर चलने के लिए अपने को बहुत पवित्र करके रहना पड़ता है। यह केवल शारीरिक पवित्रता नहीं। शारीरिक पवित्रता के सहित मन-बुद्धि की पवित्रता है, मन में कुविचार न आवे, मन बुराई की ओर न जाए, तब अंतःकरण की पवित्रता है, ऐसा समझना चाहिए।
 अंतःकरण की पवित्रता में यह गुण है कि इससे संसार में भी प्रतिष्ठा होती है। यदि मन बुरे- बुरे कर्मों को करना चाहे, इन्द्रियों को बुरे-बुरे कर्मों की ओर प्रेरण करता है तो वह बहुत झंझठ में पड़ता है। धनीमानी होते हुए भी उसकी प्रतिष्ठा नहीं होती। किंतु जो अंतःकरण की पवित्रता से रहता है, तो धनी नहीं होने पर भी, विद्वान नहीं होने पर भी लोग उनकी प्रतिष्ठा करते हैं। अंतःकरण की शुद्धिवाले को संसार में और परलोक में-दोनों में सुख होगा। भगवान श्रीराम ने इन्हीं बातों को समझकर आध्या- त्मिक शिक्षा दी है। भगवान श्रीराम ने कहा-
बड़े भाग मानुष तनु पावा । सुर दुर्लभ सब ग्रथहिं गावा।।
 अर्थात् बड़े भाग्य से मनुष्य-शरीर मिला है। यह शरीर देवताआें को दुर्लभ है, ऐसा सद्ग्रंथों ने भी गाया है। ऊँचे कुल, धनवान, बलवान हैं, इसलिए आपका बड़ा भाग्य है, ऐसा नहीं कहा। बल्कि मनुष्य-शरीर मिला है, इसलिए बड़ा भाग्य है। लोग समझते होंगे कि मनुष्य देवता को पूजते हैं, देवता मनुष्य शरीर क्यों चाहेंगे। उपनिषद् की एक कथा है। उपनिषद् उसको कहते हैं, जिसमें प्राचीनकाल के ऋषियों ने अपना विचार प्रकट किया था। उपनिषद् की कथा इस प्रकार है-
 एक समय ब्रह्माजी के पास देव, दानव और मानव तीनों गए। तीनों ने ब्रह्माजी से प्रार्थना की कि हमलोगों को उपदेश दिया जाय। ब्रह्माजी ने तीनों को अपने उपदेश में मात्र ‘द’ कहा। इसमें ब्रह्माजी ने देवों को ‘दमन’ अर्थात् इन्द्रिय-दमन, दानव को ‘दया’ और मानव को ‘दान’ की शिक्षा दी। मनुष्य से देवता माया की शक्ति अधिक रखते हैं। किंतु दमनशील का स्वभाव उनमें नहीं है। इसीलिए मनुष्य का शरीर वे चाहते हैं कि मनुष्य शरीर मिलने से इन्द्रिय-दमन होगा।
 अर्जुन स्वर्ग गए थे। उनकी सुन्दरता देखकर वहाँ की अप्सरा उन पर मोहित हो गई। उसने एकान्त में अपनी मनोभावना अर्जुन के सामने प्रस्तुत की, परंतु अर्जुन अविचल रहे। इसपर उस अप्सरा ने असंतुष्ट होकर अर्जुन को शाप दिया। देवताओं को इन्द्रिय-दमन की शक्ति नहीं है। यहाँ ही देखिए, जिसको धन है, वे किस तरह रहते हैं। हो सकता है, कोई-कोई धनवान संयमी हों। जिनको भोग्य पदार्थ विशेष मिलते हैं, उनको विषय-विलास विशेष रहता है। देवताओं में इन्द्रियां के भोग भोगने की शक्ति विशेष है। इसलिए इन्द्रियों के भोग में बहुत प्रवृत्त होते हैं। जब मनुष्य ब्रह्मा के पास गए तो, उनको ब्रह्मा ने ‘द’ की शिक्षा दी। मनुष्य ने समझा कि ब्रह्मा ने ‘द’ कहकर दान देने की शिक्षा दी है। हम मनुष्यों में बड़ी कृपणता है। तनबल, बुद्धिबल, धनबल सबको चुराते हैं। तन, मन, धन से दूसरों की भलाई नहीं करते हैं। इसीलिए ब्रह्माजी ने इन कृपणता को दूर करने के लिए ‘द’ कहकर दान देने कहा। फिर आपने भगवान राम के उपदेश में सुना-‘साधन धाम मोक्ष कर द्वारा।’ अर्थात् यह शरीर साधन का घर है। जो साधन करना चाहे, इस शरीर में रहकर हो सकता है। जिस तरह एक कोई भण्डार हो, उससे जो लेना चाहो, ले लो। उसी तरह यह शरीर साधनों का भण्डार है। इससे जो कीजिए, सो होगा। आप सर्कसवाले को देखते होंगे, कैसा-कैसा खेल दिखाता है, यह सब साधन उन्होंने किया है। यह तो स्थूल साधन है। हमारे यहाँ ऋषि, मुनि, योगी लोग हो गए हैं। उन लोगों ने इन्द्रियां को दमन किया है, जिनको दमन करना कठिन है। इस शरीर में मोक्ष का द्वार भी है। शरीर के जितने तल हैं, संसार के भी उतने ही तल हैं। जब हम स्थूल शरीर में रहते हैं, तो हम स्थूल संसार में रहते हैं। उसी तरह से सूक्ष्म, कारण, महाकारण आदि शरीरों के भी जिस तल पर रहते हैं, संसार के भी उसी तल पर रहते हैं। शरीर के जिस तल को छोड़ते हैं, संसार के भी उस तल को छोड़ते हैं। जो शरीर के सभी तलों से ऊपर उठ जाते हैं, वे संसार के सभी तलों से परे हो जाते हैं। जो शरीर से निकलता है, वह संसार से भी छूट जाता है। जाग्रत से जब हम स्वप्न अवस्था में जाते हैं तो स्थूल शरीर का ज्ञान नहीं रहता है, तो स्थूल संसार का भी ज्ञान नहीं रहता है। पिण्ड को पार करो तो ब्रह्माण्ड को भी पार कर जाओगे। इसलिए ऐसा कोई रास्ता मिले, जिससे इस शरीर से, संसार से छूटा जाय। इस शरीर में छोटे-छोटे बहुत छिद्र हैं, बड़े-बड़े नौ-आँख के दो, नाक के दो, कान के दो, मुँह का एक और मल-मूत्र के दो छिद्र हैं। छोटे-छोटे छिद्र झरोखे हैं। यह शरीर नौ द्वारों का घर है। नौ द्वारों में से एक भी द्वार ऐसा नहीं है, जिससे शरीर से छुटकारा मिले, मोक्ष मिले। ये सब द्वार भीतर से बाहर जाने को हैं और वह द्वार जिससे भीतर प्रवेश कर सकते हैं, दसवाँ द्वार है। वह आपकी आँख के पास है।
 आपलोग शिवजी की प्रतिमा में तीन आँखें देखते होंगे। शिवनेत्र इसलिए कहलाता है कि जो उसको प्राप्त करता है, उसका कल्याण होता है। यह रास्ता ब्रह्म की ओर जाने का है। गुरु नानक साहब ने कहा-
 नउ दरवाजे नवै दर फीके रसु अमृतु दसवै चुअीजै ।
और-नउ दर ठाके धावतु रहाए दसवैं निज घरि वासा पाये।
 इन नौ द्वारों में रहते हुए आप कल्याण नहीं पाते हैं, दसवें द्वार में जाएँ, तब बहुत कल्याण होगा। दसवें द्वार में जाने के लिए बड़ी एकाग्रता की जरूरत होती है। एकाग्रता में शान्ति आती है।
 आपलोग जब जगने से सोने के लिए कोशिश करते हैं तो एक अवस्था आती है, जिसको तन्द्रा कहते हैं, उस समय शरीर कमजोर होता जाता है, शक्ति भीतर की ओर खि्ांचती जाती है। उस समय कुछ सुनते हैं और कुछ भूलते हैं। किसी इन्द्रिय का वहाँ स्वाद नहीं है। अंदर सरकाव में चैन मालूम होता है। सोने के समय मन की चंचलता छूटती है। यदि मन में कोई चिन्ता लगी हो तो नींद नहीं आवेगी। सोने के समय अंदर प्रवेश करते समय सब ख्याल छूटते जाते हैं, एक चैन मालूम होता है, यह तो स्वाभाविक सबको होता है। जो कोई भजन करता है, उसको विचित्र आनंद मालूम होता है। संत कबीर साहब ने कहा है-
भजन में होत आनंद आनंद।
 बरसत बिसद अमी के बादर, भींजत है कोइ संत।।
 जो अंतर की ओर चलता है, वह संसार की ओर से छूटता है, जो संसार की ओर से छूटता है, वह परमात्मा की ओर जाता है। जो उस दसवें द्वार से गुजरता है, वह मोक्ष की ओर जाता है, वह भक्ति करता है। दसवें द्वार की ओर जाना भक्ति करनी है। जिसने इस मनुष्य शरीर को पाकर अपना परलोक नहीं सुधारा, वह दुःख पाता है। परलोक दो तरह के होते हैं-एक स्वर्गादि और दूसरा मोक्ष। यहाँ परलोक र्स्वागादि के लिए है। इसीलिए भगवान श्रीराम ने कहा-
 सो परत्र दुःख पावइ, सिर धुनि धुनि पछताय ।
 कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं, मिथ्या दोष लगाय ।।
 अर्थात् जो मनुष्य-शरीर पाकर अपना कल्याण नहीं कर लेते हैं, वे अंत में दुःख पाते हैं और सिर धुन-धुनकर पछताते हैं। वे काल, कर्म और ईश्वर को झूठ ही दोष देते हैं। ईश्वर की बड़ी कृपा है कि मनुष्य का शरीर मिला है। ईश्वर की विशेष कृपा को आप प्राप्त कर सकते हैं, जब आप परमात्मा का भजन कीजिए। काल आपके अधिकार में है। समय को सोकर, बैठकर खो सकते हैं, कुछ काम करके बिता सकते हैं, ईश्वर-भजन करके बिता सकते हैं। समय किसी को कुछ करने में रोकता नहीं है।
 कर्म का भी दोष देना बेकार है। अपने प्रारब्ध को अपने से ही बनाना होता है। इसलिए काल, कर्म, ईश्वर को दोष देना उचित नहीं। फिर भगवान श्रीराम ने कहा-
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।
 स्वर्ग में भी पुण्य के अंत में दुःख ही होता है। विषय-सुख से अपने को निवृत्त करो। स्वर्ग- सुख का लालच भी छोड़ो। पशुओं के शरीर में भी इन्द्रियों के सुख का भोग है। मनुष्य भी यदि इन्द्रियां के भोगों में बरते तो पशु से क्या विशेषता हुई? भगवान राम ने कहा-पंच विषयों से पर पदार्थ के लिए चेष्टा करो अर्थात् परमात्मा को प्राप्त करने कहा। भगवान राम ने कहा-
नरतन पाइ विषय मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं।।
ताहि कबहुँ भल कहहिं न कोई। गुंजा ग्रहइ परसमनि खोई।।
 मनुष्य-शरीर पाकर जो विषय में मन लगाता है, वह अमृत छोड़कर विष लेता है। आगे भगवान श्रीराम कहते हैं-
आकर चारि लाख चौरासी। जोनि भ्रमत यह जीव अविनासी।।
 अंडज, पिण्डज, स्वेदज और ऊष्मज; इन चार खानियों में 84 लाख योनियाँ हैं। माया की प्रेरणा से काल, कर्म, स्वभाव, गुण के घेरे में पड़कर सदा अविनाशी जीव घूमा करता है। मनुष्य 84 लाख योनियों को भोगते हुए आया है। इसलिए इससे छूटने का उपाय करो। इससे छूटने का उपाय है-वायु, नाव और मल्लाह। ईश्वर की कृपा ‘सन्मुख मरुत’ या अनुकूल पवन है। अनुकूल इसलिए कि नाव को पश्चिम जाना चाहिए, किंतु नदी का बहाव पूरब की ओर ले जाता है। यदि पुरबैया हवा चल पडे़ तो वह हवा उसको पूरब की ओर जाने से रोकती है। उस नाव पर मल्लाह पाल टाँग देता है, तब नाव भाठे से सिरे की ओर चली जाती है। मनुष्य-शरीर नाव है, ईश्वर की कृपा अनुकूल वायु है और सद्गुरु मल्लाह हैं। सद्गुरु वह है, जो सद्ज्ञान में बरते, जो दूसरों को सद्ज्ञान देता हो, सत्स्वरूप परमेश्वर का भजन करता हो और दूसरों को भजन करने का प्रेरण देता है।
 मुक्ति मारग जानते साधन करते नित्त ।।
 साधन करते नित्त सत्त चित्त जग में रहते ।
 दिन दिन अधिक विराग प्रेम सत्संग सों करते ।।
 दृढ़ ज्ञान समुझाय बोध दे कुबुधि को हरते ।
 संशय दूर बहाय संतमत स्थिर करते ।।
 ‘मेँही ँ’ ये गुण धर जोई , गुरु सोई सतचित्त ।
 मुक्ति मारग जानते साधन करते नित्त ।।
 सद्गुरु मल्लाह हैं। जो इन साज-सामानों को पाकर अपना कल्याण नहीं कर लेते हैं, वे कृत- निन्दक, मंदमति और आत्महत्या के दोष को पाते हैं। इसलिए लोगों को चाहिए कि भगवान श्रीराम के उपदेश को मानें और विषय को छोड़कर निर्विषय की ओर चलें।
 जैसे दवाई की मात्रा के अनुसार दवाई-सेवन करते हैं, इसी तरह संसार में रहने के लिए दवाई के रूप में विषयों का उपभोग कीजिए, उसमें आसक्त नहीं होइए। संत लोग जो कहते हैं, उनके अनुकूल चलना चाहिए। यदि भला भी होना चाहो और बुराई भी करो तो कैसे हो सकता है। इत्रदान में गोबरवाली अंगुलि देना ठीक नहीं। ईश्वर का भजन करना चाहते हो, तो अपने अंतःकरण को शुद्ध करो। अंतःकरण को शुद्ध करने के लिए अपने को पापों से बचाओ। पापों से बचने के लिए झूठ छोड़ो। झूठ ऐसा झोला है, जिसमें सब पाप छिपा रहता है। कोई पाप चुराकर करो तो वह प्रकट हो जाएगा। रामकृष्ण परमहंसजी ने कहा है कि पाप और पारा को कोई हजम नहीं कर सकता है। जैसे कोई छिपकर पारा खा ले तो वह शरीर को फोड़कर निकल जाता है। उसी तरह से छिपकर किया हुआ पाप भी कभी-न-कभी प्रगट हो ही जाता है। चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार मत करो। स्त्री-पुरुष का अनैतिक संबंध जोड़ना व्यभिचार है। वैवाहिक मर्यादा को तोड़कर अनैतिक संबंध जोड़ने- वाली नारी व्यभिचारिणी है और अनैतिक संबंध जोड़नेवाला पुरुष व्यभिचारी है। तम्बाकू भी नशा है। संत कबीर साहब ने कहा है-
 भाँग तम्बाकू छूतरा, अफयूँ और शराब ।
 कह कबीर इनको तजै, तब पावै दीदार ।।
इतना ही नशा नहीं है।
 मद तो बहुतक भाँति का ताहि न जानै कोय ।
 तन मद मन मद जाति मद, माया मद सब लोय ।।
 विद्या मद और गुनहु मद, राजमद्द उनमद्द ।
 इतने मद को रद्द करै, तब पावै अनहद्द ।।
 झूठ को तुरत छोड़ो। ऐसा नहीं कि आज पाँच झूठ बालते हैं, तो कल चार झूठ बोलेंगे। हिंसाओं से बचो। अष्टघातक मनुजी ने बताए हैं-
 अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
 संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः।।
 अर्थात् 1. पशुवध की आज्ञा प्रदान करनेवाला, 2. शस्त्र से मांस काटनेवाला, 3. मारनेवाला, 4. बेचनेवाला, 5. मोल लेनेवाला, 6. मांस पकानेवाला, 7. परोसने के लिए लानेवाला, 8. खानेवाला; ये आठो घातक हिंसा करनेवाले ही कहलाते हैं। हिंसा के सिलसिले में मत्स्य-मांस नहीं खाओ। दूसरी बात यह है कि आपका शरीर पवित्र है और पशु- पक्षी का शरीर अपवित्र है। पवित्र शरीर में अपवित्र जीव-जन्तुओं का मांस लेना ठीक नहीं। संसार में इतने मीठे-मीठे फल हैं, मिठाइयाँ हैं कि मनुष्य उतने खा नहीं सकते।
 हिंसा दो तरह की है-वार्य और दूसरा अनिवार्य। वार्य हिंसा से बचा जा सकता है। अनिवार्य हिंसा से कोई बच नहीं सकता। कृषि कर्म में जो हिंसा होती है, वह अनिवार्य है। कृषि द्वारा यदि अन्न का उत्पादन नहीं हो तो लोग भूखों मर जायँ। लोग कहा करते हैं कि बिना मत्स्य-मांस खाए शरीर स्वस्थ नहीं रहता; लेकिन इस विचार को महात्मा गांधी ने नहीं माना। एक बार कस्तूरबा गांधी बीमार हो गई थी। उनको इतनी कमजोरी आ गई थी कि जिसके लिए डॉक्टर ने गोश्त का शिरवा खाने के लिए कहा था। गांधीजी ने कहा- ‘कस्तूरबा स्वतंत्र है, वे अपनी जीवनरक्षा के लिए गोश्त का शिरवा लेना चाहें, ले सकती हैं।’ लेकिन जब महात्मा गांधी ने उनसे पूछा तो कस्तूरबा गांधी ने कहा-‘मैं आपकी गोद में मर जाऊँगी, लेकिन गोश्त का शिरवा नहीं खा सकती।’ गांधीजी ने स्वयं कस्तूरबा का प्राकृतिक इलाज किया, जिससे वे बहुतांश में स्वस्थ हो गईं। लेकिन भोजन में नमक का छोड़ना आवश्यक था। कस्तूरबा गांधी छोड़ने में असमर्थ थी। महात्मा गांधी ने कहा- ‘अब मैं भी नमक नहीं खाऊँगा।’ उन्होंने स्वयं नमक खाना छोड़ दिया। लाचार होकर कस्तूरबा ने भी नमक खाना छोड़ दिया। फिर वे पूर्ण स्वस्थ हो गई।
 मांस-मछली खाने से बलवान होंगे, यह बात मानने योग्य नहीं। मथुरा के चौबे मत्स्य-मांस नहीं खाते। उनका थप्पड़ किसी को कान में लग जाय, तो बहरा ही बना देगा। मारवाड़ी लोग आपके यहाँ हैं। वे मत्स्य-मांस नहीं खाते, कितने अच्छे-अच्छे शरीरवाले हैं। बिना मत्स्य-मांस के ही उनके रोगों का इलाज होता है।
 किसी के घर में चोर-डाकू आवे तो उससे लड़ना चाहिए। देश के काम के लिए हमारे योग्य बलवाले उस दुष्ट को रोकें। जिस हिंसा की मनाही है, वह वार्य हिंसा के लिए है, अनिवार्य हिंसा से बचने के लिए नहीं। शौक से हिंसा मत करो। बकरे मारनेवाले को देखा कि मरने के छह महीने पूर्व उनको ऐसा भ्रम होने लगा कि बकरी सींग से मारने आती है। एक शौकीन हिंसा करनेवाले के लिए दो लाख रुपये खर्च किए गए, लेकिन वे बचे नहीं। कर्मफल अमिट है। संत कबीर साहब ने कहा है-
 कहता हूँ कहि जात हूँ कहा जो मान हमार ।
 जाका गर तू काटिहौ, सो फिर काट तोहार ।।
 मांस मछरिया खात है, सुरा पान से हेत ।
 सो नर जड़ से जाहिंगे, ज्यों मूरी की खेत ।।
 यह कूकर को खान है, मानुष देह क्यों खाय ।
 मुख में आमिख मेलता, नरक पड़े सो जाय ।।
 किसी की चीज बिना उसके दिए मत लो। चोरी-डकैती मत करो। पंच पापों से यदि बचकर रहो, तो देश में चैन हो जाय। पाप करने के कारण ही देश में चैन नहीं है। चोरी, डकैती, व्यभिचार आदि पाप करते रहने से कैसे चैन हो सकता है।
 भारत में पहले घर में ताला नहीं लगाया जाता था। आज क्या हो गया है? स्वराज्य हुआ, लेकिन सुराज नहीं हुआ है। पंच पापों को छोड़िए और ईश्वर-भजन कीजिए। तभी कल्याण होगा। संतों ने सबके उपकार के लिए कहा है। पसंद पड़े तो कीजिए, नहीं पसंद हो तो नहीं कीजिए। उसका जो फल होगा, वह भोगिए। मेरा कोई बल नहीं है कि जबर्दस्ती कहेंगे कि कीजिए ही।
***************
यह प्रवचन पुरैनियाँ जिलान्तर्गत महर्षि मेँहीँनगर, कुशहा तेलियारी ग्राम में दिनांक 28.6.1955 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



119. अन्तःकरण की शुद्धि
प्यारे लोगो!
 अपने शरीर को शौच से पवित्र करो। किंतु इतने से ही यह पवित्र नहीं होता है। हृदय की पवित्रता असली पवित्रता है। हृदय में पाप-विचार न आने से हृदय पवित्र होता है। हृदय में पाप-विचार आने से पाप करते हैं। इस पाप-विचार से लोगों को डरना चाहिए। पाप-विचार करने से बाहर में लोग नहीं देखते हैं, किंतु परमात्मा सभी जानते और देखते हैं। यदि कोई पाप करता है तो परमात्मा के सामने करता है; क्योंकि परमात्मा सब जगह है। बाहर में भी यदि कोई किसी को पाप करते देख लेता है तो लोग उसे दुरदुराते हैं। इसलिए पाप नहीं करना चाहिए। पाप करनेवाले को लोग लजाते भी हैं।
 अपने शरीर की शुद्धि बाहर में शौचादि से और अंतःकरण की शुद्धि पवित्र कर्म करने से होती है। तुम्हारा शरीर शिवालय है, विष्णु मन्दिर है। इसके लिए पैसे खर्च करने की जरूरत नहीं। अपना अंतःकरण शुद्ध करना होता है। बाहर में लोग शिवालय, देवालय बनाते हैं। इससे संसार में भले कुछ प्रतिष्ठा हो, किंतु उससे मोक्ष नहीं मिलता। यदि अपने अंतःकरण को शुद्ध करता तो उससे मोक्ष हो जाता।
 संतों ने कहा कि यदि अपने को शुद्ध करके रखो तो तुम्हारा शरीर शिवालय है, इसमें शिवजी का दर्शन होता है। बाहर में लोग शिवलिंग को मोल लेते हैं, लोगों का बनाया हुआ। किंतु आप के अंदर ज्योतिरूप और नादरूप शिवलिंग परमात्मा का बनाया हुआ है। इसका ध्यान करते-करते परमात्मा मिल जाते हैं। इसलिए शब्द की बड़ी महिमा है। ज्ञानियां ने कहा कि जो अपने अंदर में ठाकुरजी को देखना चाहता है, वह अपने अंदर ध्यान करता है। शिवालय में नीचे जलढरी और उसके ऊपर में शिवलिंग रहता है। उसी तरह अपने शरीररूप शिवालय में ज्योतिविन्दु जलढरी और उसके ऊपर नाद शिवलिंग है। परमात्मा ने अमीर- गरीब, धनी-निर्धन, सबके लिए उनके शरीर में शिवजी की स्थापना कर दी है। सब कोई दर्शन कर सकते हैं। इसमें जाति-पाँति, धनी-निर्धन, विद्वान-अविद्वान की कोई बात नहीं। यदि जाति- पाँति की बात रहती तो कबीर साहब, गुरु नानक साहब कौन पढ़े-लिखे थे? संत रविदास और श्वपच भक्त कौन ऊँची जाति के थे?
 जैसे शिवालय को पवित्रता से रखते हैं, उसी तरह अपने शरीर को भी पवित्र रखो और जिस किसी ने संसार में बड़ा-बड़ा काम किया है, उसका नाम आज है; किंतु उसको मोक्ष नहीं मिला। यदि अपने अंतर की सफाई रखे और ध्यान करे तो उसको मोक्ष मिलता है।
 पंच पापों से बचो। संतों ने लोगों को मोक्ष- प्राप्ति का ऐसा सरल उपाय बताया है कि लोग संसार में हैरान न हों। किसी को बहुत पैसा है, दान देता है, कुआँ बनाता है, पोखर बनाता है, मन्दिर बनाता है, लेकिन जिसके पास पैसे नहीं हैं, वह नहीं कर सकता है; लेकिन दान देने के सबंध में ऐसा जानना चाहिए कि यदि कोई लखपति है और कोई एकदम गरीब है, यदि अपनी-अपनी शक्ति के अनुकूल दोनों दान देते हैं यानी लखपति बहुत देता है और एक गरीब अपनी शक्ति के अनुसार थोड़ा ही देता है तो दोनों बराबर हैं। किंतु यह तो बाहर की बात है। असली बात है अपने शरीर को, अपने अंतःकरण को पवित्र रखो, ध्यान करो तो मोक्ष मिलेगा। सारे दुःखों से छूट जाओगे।
***************
यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर भंगहा गाँव में दिनांक 1.7.1955 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



120. श्रीकृष्ण का आह्वान
बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
प्यारे लोगो!
 सभी संतों ने यही शिक्षा दी है कि किसी प्रकार के शरीर में जबतक रहोगे, कल्याण नहीं होगा। चाहे विराट शरीर में ही क्यों न रहो। एक शरीर से दूसरे शरीर में जाना-आना होता है। जीवात्मा का मरण शरीर में रहना, बारम्बार जन्म- मरण के चक्र में पड़ा रहना, मरणवाला जीवन होता है। इसमें कभी कल्याण नहीं हो सकता। इसलिए ऐसा यत्न होना चाहिए कि किसी शरीर में नहीं रहो। किसी शरीर में नहीं रहना अमर जीवन है। आत्मा अमर हई है, किंतु मरण शरीर में रहता है, इसलिए उसका मरणशील जीवन होता है। इसीलिए उस जीवन को त्याग देने योग्य है। इसके लिए ईश्वर को पहचानो। भजन करो, किंतु यह भी याद रखो कि कोई अद्भुत शक्तिवाला शरीर क्यों न हो, यह मायारूप है। इन मायारूपों के दर्शन से ईश्वर का दर्शन नहीं होता। इससे माया के बहुत बड़े-बड़े काम होते हैं। माया के बड़े-बड़े काम होने पर भी यह न समझ लो कि माया से आनेवाली सारी आपदाएँ मिट जाती हैं। शरीरधारी भगवान और इसमें व्यापक भगवान दोनों को जानिए। शरीर कृष्ण-काले शरीरवाला और स्वरूपतः कृष्ण। कृष्ण का अर्थ है, आकर्षण करनेवाला। शरीरवाले श्रीकृष्ण ने पांडवों की बहुत-सी आपदाओं का हरण किया; किंतु सभी आपदाओं का नहीं।
 संसार में धन, पुत्र और प्रतिष्ठा का चला जाना बहुत हानि है। पाण्डवों की प्रतिष्ठा भी गई, राजसूय यज्ञ में मातहत राजा लोग टहल करते थे। दुर्याधन भण्डारी था। दीगर राजाओं में कोई द्वारपाल थे, कोई कुछ, कोई कुछ काम करते थे। इतनी बड़ी सभा में राजा के पहनने के वस्त्र को ले लिया गया। अपने से ही राजसी पोशाक को हटाकर सिर नीचा कर लिया। एक बड़े आदमी का इतना अपमान हुआ। द्रौपदी की साड़ी खींची गई। यह कितनी बेइज्जती है! बाद को वनगमन किया। राजा विराट ने जुआ खेलते समय पासे से युधिष्ठिर को मारा, सिर से खून जाने लगा। द्रौपदी को कीचक ने लात मार दी। दुर्वासा साठ हजार शिष्यों के साथ वन में भोजन माँगने युधिष्ठिर के पास आए। युधिष्ठिर के पास सूर्य की दी हुई एक हंडी थी। जिस हंडी से बना हुआ भोजन कितने ही लोगों को खिलाया जाता था, लेकिन वह घटता नहीं था। जब द्रौपदी भोजन कर लेती थी, तभी उस हंडी का भोजन समाप्त होता था। जब दुर्वासाजी ने युधिष्ठिर से भोजन माँगा, तो उस समय हंडी का भोजन समाप्त हो चुका था। फिर भी युधिष्ठिरजी ने दुर्वासा ऋषि से कहा कि आप अपने शिष्यों के साथ स्नान करके आवें। वे लोग स्नान करने चले गए। युधिष्ठिरजी ने द्रौपदी से जब भोजन तैयार करने के लिए कहा, तो द्रौपदी ने कहा कि भोजन तो समाप्त हो चुका है। युधिष्ठिर बड़े दुःखी हुए और द्रौपदी से कहा कि दुर्वासा ऋषि साठ हजार शिष्यों के साथ स्नान करके भोजन करने आ रहे हैं। यदि उनको भोजन नहीं दिया जाएगा तो हमलोगों को शाप दे देंगे। द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्ण का आह्नान किया। भगवान कृष्ण जब द्रौपदी के पास पहुँचे, तो उन्होंने कहा-मुझे भोजन कराओ। द्रौपदी ने कहा-‘भगवन्! भोजन के लिए कोई चीज मेरे पास नहीं हैं। सूर्य की दी हुई हंडी भी खाली है।’ भगवान ने कहा कि कुछ भी खिलाओ। द्रौपदी हंडी में लगी हुई साग की एक पत्ती भगवान श्रीकृष्ण को देती है। भगवान उसे खा गए। परिणाम यह हुआ कि दुर्वासा ऋषि स्नान करके जब युधिष्ठिरजी के यहाँ आने लगे तो सबके पेट फूलने लगे। दुर्वासाजी ने सभी शिष्यों से कहा जल्दी भागो, नहीं तो बहुत बड़ा अनिष्ट हो जाएगा। वे सब के सब भाग गए। युधिष्ठिरजी इस आपदा से बचे, किंतु संतान-नाश, धन की हानि हुई।
 भगवान के चले जाने पर अर्जुन की क्या हालत हुई! पंजाब में थोड़े ही लोगों ने उनको लूट लिया। शरीर रूप भगवान के दर्शन से सब आपदाएँ नहीं कटतीं, किंतु शरीर-रहित भगवान के दर्शन से एक भी आपदा रहने नहीं पाती। संतों की यही युक्ति है कि शरीर में रहो ही नहीं। जैसे दूध से घी अलग हो जाय, वैसे ही सभी शरीरों से जीवात्मा अलग हो जाय। ध्यान-अभ्यास से ऐसा होगा। यही परम्परा से चला आया है। विवेकानंद स्वामी ने कहा कि ‘बहिर्वृत्ति को अंतर्मुखी करो।’ जो इसके प्रयोग को जानता है, अभ्यास करता है, कुछ अनुभूति होती है, तो उसको ऐसा होता है कि वह बारम्बार उसी ओर देखना चाहता है। जिसको कुछ मालूम हो जाता है, उसकी दृष्टि अंतर की ओर हमेशा लग सकती है, बाहर से हट सकती है, जब किसी का ध्यान भीतर में लग जाय। ध्यान के दो प्रकार हैं-एक मोटा ध्यान है, जैसे कबीर साहब के वचन में सुना-
 मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
 मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।
 गुरु रूप, भगवान रूप किन्हीं के स्थूल रूप का ध्यान करो, किंतु इतना ही ध्यान, ध्यान नहीं है। अभी आपलोगों ने सुना कि ध्यान को ध्यान नहीं कहते हैं। शून्यगत मन को ध्यान कहते हैं। इसीलिए शून्य ध्यान असली ध्यान है। श्रीमद्भागवत में भी शून्य ध्यान का वर्णन है। दृष्टि साधन की क्रिया से शून्य ध्यान होता है। मन में कुछ नहीं रहे और बिना कुछ बात मन में रहे, शून्य में मन लगा रहे, यही दृष्टियोग है। शून्य में मन को लगाकर रखना विन्दुध्यान है। फैलाव से सिमटाव में आवे। विन्दु ही सबसे विशेष सिमटाव हैं विन्दु-ध्यान से पूर्ण सिमटाव हो जाता है। दृष्टि को ऐसा बनाकर रखो, जैसे सूई में धागा पहनाते समय सूई की छिद्र में दृष्टि एकाग्र हो जाती है, उसी तरह दृष्टियोग करो। इसको कैसे करो, तो इसकी युक्ति गुरु से जानो। शून्यगत=शून्य में प्रवेश। एक ही तरह शून्य रहने से एक ही जगत में बैठा रहना हुआ। शून्य में दृश्य का परिवर्तन हुआ, तब मन शून्यगत हुआ। कबीर साहब ने कहा-
 गगन मंडल के बीच में, तहँवा झलके नूर ।
 निगुरा महल न पावई, पहुँचेगा गुरु पूर ।।
 कबीर कमल प्रकाशिया, ऊगा निर्मल सूर ।
 रैन अंधरी मिटि गई, बाजै अनहद तूर ।।
 विन्दु-ध्यान से मन शून्यगत होता है और शब्द-ध्यान से भी मन शून्यगत होता है। दृष्टियोग से दृश्यवाले शून्य तक मन जाता है और शब्द- ध्यान से अदृश्य शून्य तक जाता है। इसके लिए पहले समझ होनी चाहिए। समझ के लिए सत्संग करना चाहिए। फिर प्रेम से ध्यान करना चाहिए। धीरे-धीरे ध्यान करते-करते वैसा होगा और परमात्मा की पहचान होगी। स्वामी विवेकानन्द ने कहा-स्वयंभू इन्द्रियां से दूर है।
 संतमत का सत्संग बिल्कुल आध्यात्मिक है। संसार के प्रबंध के लिए कभी-कभी कुछ कहा जाता है। लोग कहते हैं कि पहले संसार का प्रबंध होना चाहिए, फिर आध्यात्मिक प्रबंध होना चाहिए। संसार- प्रबंध के बिना आध्यात्मिक ज्ञान कैसे टिक सकता है? तो सांसारिक प्रबंध के लिए कभी-कभी कहा ही जाता है। किंतु घर में यदि पाँच भाई हो तो अपने-अपने योग्य सभी सेवा करते हैं। कोई सामाजिक, कोई राजनीतिक, कोई आध्यात्मिक ज्ञान कहते हैं। संसार में दो रूप देखे जाते हैं-स्त्री और पुरुष। इन्हीं से सारी जीव-सृष्टि है। यहाँ दो काम हैं-एक तो राज्य प्रबंध; क्यांकि बिना राज्य-प्रबंध के कोई घर ठीक नहीं रह सकेगा। दूसरा, स्त्री-पुरुष का वैवाहिक सम्बन्ध वेदों में मैंने इन बातों को बहुत देखा। वैवाहिक सम्बन्ध जिस देश में गड़बड़ होगा, वह देश एकदम खराब हो जाएगा और जहाँ राज्य-प्रबन्ध ढीला हुआ, वहाँ दूसरे आकर बैठ जाएँगे। वैवाहिक संबंध के लिए अपने कुल में जैसा व्यवहार है, उस तरह बरतें। इस तरह जो बरतते हैं, वे ही ठीक सत्संगी और सत्संगिनी हैं। वैवाहिक संबंध का जो नियम है, उसके अनुकूल जो रहे, तो व्यभिचार नहीं होगा। जहाँ इसके प्रतिकूल करते हों, वहाँ धर्म टिक नहीं सकता। यदि कोई कहे कि स्त्री को पुरुष हो गया, तब परमात्मा की उपासना नहीं करे, वह पुरुष की ही आराधना करे, तो यह ठीक नहीं। ईश्वर की भक्ति स्त्री-पुरुष सबके लिए है। किंतु हाँ, कोई-कोई ऐसे भी पति हैं, जैसे भूपेन्द्रनाथ सांन्यालजी हैं। मैं उनकी प्रशंसा करता हूँ। पहले उन्होंने अपनी स्त्री को दीक्षा नहीं दी। बहुत दिनों के बाद सुनता हूँ कि उन्होंने अपनी स्त्री को दीक्षा दी। किंतु अब पहले जैसा स्त्री-पुरुष का संबंध नहीं रहा। किंतु फिर भी साथ-साथ रहते हैं। लेकिन ऐसे कितने आदमी हैं?
 सब दानों में धर्म का दान उत्तम है। धर्मदान ज्ञानदान है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि सब यज्ञों में ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है। धर्म के प्रचार में तन, मन, धन से सेवा करनी चाहिए।
***************
यह प्रवचन कटिहार जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर मनिहारी में दिनांक 14.7.1955 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



121. चेतन के दो रूप
प्यारे लोगो!
 भक्ति हम क्यों करें, इसको पहले जानना चाहिए। ऐसा कोई नहीं है, जिसको कोई दुःख न हो। सबको कोई न कोई दुःख है। संसार में वेद से बढ़कर कोई पुराना ग्रंथ नहीं है। पारसी लोगों की किताब भी बहुत पुरानी है। परंतु हमलोगों के यहाँ ऐसा ख्याल है कि वेद से प्राचीन और कोई ग्रंथ नहीं है। उसमें बताया गया है कि ईश्वर की भक्ति करो तो सब दुःखों से छूट जाओगे। ऐसा क्यों कहा जाता है? संतलोग समझाते हैं कि जहाँ तक लोक- लोकान्तर हैं, किसी प्रकार का शरीर है, चाहे कितना ही दिव्य शरीर हो, वहाँ शापा-शापी और कोई-न-कोई आपदा आती ही है। चाहे विष्णुलोक, शिवलोक या किसी लोक का शरीर हो, भक्ति पूरी नहीं होती। भक्ति पूरी वहाँ होती है, जहाँ कोई शरीर नहीं, कैवल्य दशा प्राप्त हो, देश-काल जहाँ नहीं हो। गोस्वामी तुलसीदासजी ने विनय- पत्रिका में लिखा है-
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।। भक्ति में इसकी युक्ति है कि सब शरीरों को छोड़कर मोक्ष-दशा प्राप्त कर लेना। चाहे द्वैती रहो, चाहे अद्वैती रहो। दोनों का एक भाव हो जाएगा। द्वैत-अद्वैत का कोई झगड़ा नहीं रहेगा। वहाँ जैसे रहना होता है, वैसे रहता है। यहाँ माया का चक्र है। इस चक्र पर बुद्धि घूमती रहती है और नाना तर्क करती है। किंतु वहाँ सब निर्मूल हो जाते हैं, चाहे किसी वाद के माननेवाले हों। वहाँ नास्तिक, आस्तिक सबके लिए एक ही है।
 नास्तिक दो तरह के होते हैं-एक तो पूरे नास्तिक, जो जीव-परमात्मा कुछ न माने। उनका सिद्धांत है कि ‘यावत् जीवेत् सुखं जीवेत्। ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्। भस्मीभूत शरीरस्य पुनरागमन कुतो भवेत्।’ उनके लिए यह उपदेश कुछ भी नहीं हैं इसके अतिरिक्त दूसरे तरह के नास्तिक वे हैं, जो जीव को माने और ईश्वर को नहीं माने। उन दोनों को मैं कहता हूँ, भजन करो, फिर जानोगे कि परमात्मा क्या है। कोई इस तरह की मुक्ति मानते हैं कि सूक्ष्म शरीर रह जाता है, किंतु संतां का सिद्धांत है कि कोई भी शरीर नहीं रहे। जो पूरे नास्तिक हैं, वे भी इसको मानेंगे कि एकाग्रता से ज्ञान की वृद्धि होती है। एकाग्रता के लिए ध्यान करो और ध्यान के अंत तक पहुँचो। फिर जानोगे कि ईश्वर है कि नहीं।
 संतों ने बताया कि न शरीर सम्बम्धी रहो, न संसार संबंधी। शरीर और संसार के संबंध से अलग होओ। फिर जो दर्शन होगा, तो उसमें कभी दुःख नहीं होगा। वहाँ हृदय-आकाश में सूर्य बराबर उगा रहता है। कभी न उदय लेता है, न अस्त होता है।
 उपनिषद् की एक कथा है कि एक ब्राह्मण थे। वे संध्या-वंदन कुछ नहीं करते थे। उनकी पत्नी जब कभी पड़ोस में जायँ, तो पड़ोस की महिलाएँ उससे कहतीं कि आपके पति कैसे ब्राह्मण हैं, जो संध्या-वन्दन नहीं करते। पत्नी जब आकर पति से आग्रह करती कि आप संध्या-वन्दन क्यों नहीं करते हैं, ब्राह्मण कोई उत्तर नहीं देते। एक दिन उनकी पत्नी को पड़ोस की महिलाओं ने उसके पति के लिए बहुत दुत्कारा। पत्नी ने ब्राह्मण से कहा कि आप कैसे ब्राह्मण हैं, कभी संध्या नहीं करते। पड़ोस की महिलाएँ मुझे दुत्कारती हैं। तब ब्राह्मण ने कहा-‘तुम नहीं जानती हो, मेरे हृदयरूपी आकाश में सूर्य बराबर उगा रहता है, वह कभी न उदय लेता है, न उसका कभी अस्त होता है। अब बताओ कि मैं संध्या कैसे करूँ?’
 किंतु इस अवस्था को पाकर भी संत लोग संध्या करते हैं, संसार के सामने नमूने के लिए। भगवान श्रीकृष्ण को साधन-भजन करने को कुछ बाकी नहीं था, किंतु लोगों को सुमार्ग पर चलाने के लिए, नमूने के लिए वे भी संध्या करते थे; ऐसा श्रीमद्भागवत में लिखा है।
 जिस भूमि पर महल बनता है, महल से जमीन का दाम बहुत कम होता है। किंतु महल का आधार जमीन है। बिना जमीन के कितनाहू विशेष कीमत का महल बन नहीं सकता, उसी तरह बिना सत्संग- रूपी जमीन के भजन-रूपी महल बन नहीं सकता। इसलिए सत्संग की बड़ी जरूरत है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
 जीवन मुक्त ब्रह्म पर, चरित सुनहिं तजि ध्यान ।
 जे हरि कथा न करहिं रति, तिन्हके हिय पाषान ।।
 संसार में रहने पर प्रत्येक संत को देश के लिए, संसार के प्रति कोई-न-कोई काम अवश्य रहता है। इसीलिए सत्संग में यदि वे पहुँचे हुए महान संत रहें तो लोगों को बहुत लाभ हो। यदि संत न रहें तो संतवाणी से लाभ हो सकता है। किंतु जितना लाभ पहुँचे हुए संत से होगा, उतना केवल साधारणजन के सत्संग से नहीं। ईश्वर- भजन में सत्संग, स्तुति, प्रार्थना, जप और ध्यान- ये पाँच चाहिए। सत्संग में जाने से बोध होता है। भेड़ियाधसान में किसी को नहीं पड़ना चाहिए भेड़ियाधसान की तरह किसी में बिना समझे-बूझे मत कूद पड़ो। हमलोगों के यहाँ तो कहावत है कि ‘गुरु कीजिये जान, पानी पीजिये छान।’ सत्संग से सिद्धांत का निर्णय होता है। क्या करें, इसका भी निर्णय होता है। चरित्र के लिए निर्णय होता है कि चरित्र सुधार करके रखो। सत्संग को पकड़े रहो तो भेड़ियाधसानपन छूट जाएगा।
 देखादेखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़सि रंग ।
 विपति पड़े यों छाड़सी, ज्यों केंचुली भुजंग ।।
 भुजंग-साँप केंचुली छोड़ता है, उसे वह उलटकर देखता भी नहीं है, उसी तरह जिसने ठीक से समझ नहीं लिया है, एक धर्म को पकड़ लिया है, दूसरा सुनता है तो उसी ओर कूद पड़ता है, ऐसा नहीं करना चाहिए। धर्म को अच्छी तरह समझ लो। यदि भूल से धर्म के बदले अधर्म पकड़ा गया हो, तो वह छोड़ देने योग्य है। पापी- पुण्यात्मा, दुःखी-सुखी सबमें परमात्मा है, किंतु परमात्मा पापी-पुण्यात्मा, सुखी-दुःखी नहीं होते। गोस्वामीजी ने कहा है-
उमा राम विषयक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा।।
जथा गगन घन पटल निहारी।झाँपेउ भानु कहेहु कुविचारी।।
 घन-पटल मानी बादलों का झुण्ड। बड़े-बड़े विद्वानों, महात्माओं ने कहा कि ईश्वर तर्क-सिद्ध नहीं, श्रद्धा-सिद्ध है। किंतु संतों ने बहुत दृढ़ता के साथ कहा। परमात्मा का वर्णन करते-करते इति कहने की शक्ति किसी में नहीं। जहाँ तक मैंने संतों की वाणी में, उपनिषदों में, वेदों के अर्थ को भी देखा, किंतु इस बात से खाली नहीं कि परमात्मा आदि-अंत-रहित है, वह हई है। कुछ फाँक छोड़कर यहाँ वहाँ, ऐसा नहीं। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलकजी ने कहा-‘अति सघनता से जो सर्वव्यापक अनादि-अनंत है, वह परमात्मा है।’ ऐसे वर्णनों को पढ़कर कहा जाय कि ऐसा नहीं है तो क्या है? प्रश्न होगा कि यदि अनादि-अनन्त नहीं है तो क्या है? सादि-सान्त है? जब सादि- सान्त है तो वह कहीं जाकर अन्त अवश्य होगा। इसलिए उस सादि-सांत के पार में एक अनंत बिना माने प्रश्न सिर पर से उतर नहीं सकता। एक एम0ए0, बी0एल0 ने प्रश्न किया कि एक अनादि- अनन्त है, मान लिया। फिर इसको ईश्वर क्यों मानें? मैंने कहा कि अनंत से बाहर आप कहीं जा सकते हैं? यदि नहीं तो उसके अंदर हैं। इसलिए वह ईश्वर है। फिर उन्होंने पूछा कि उनकी भक्ति क्यों की जाय? मैंने कहा कि उसकी माया को पहचानते हो तो दुःख में हो और परमात्मा को पाओ, पहचानो तो इसका उलटा जो गुण है, वह होगा। अर्थात् दुःख के बदले सुख होगा। इस प्रकार के अनंत, असीम परमात्मा को जड़ तो कह नहीं सकते, चेतन भी नहीं है। इसीलिए गीता में क्षर-अक्षर के परे पुरुषोत्तम कहा है।
 चेतन गतिशील है। यदि चेतन गतिशील नहीं रहता तो चेतन रहते हुए भी शरीर हिलता-डुलता नहीं। चेतन का विस्तार बहुत है। फिर भी इसकी सीमा है। जिसकी सीमा है, उसके बाहर कुछ अवकाश है हिलने-डोलने के लिए। बिना अवकाश के हिल-डोल कैसे सकता है? इसीलिए चेतन को असीम नहीं, ससीम माना गया है। किंतु थोड़ा नहीं है, जड़ प्रकृति-मण्डल को भरकर उसके परे भी है। परमात्मा चलनात्मक इसलिए नहीं है कि उसकी सीमा नहीं है, असीम है। इसलिए वह निश्चल है। निश्चल हिमालय जैसा नहीं। हिमालय भी भूकम्प में हिलता है। किसी भी पदार्थ का परमाणु धीरे- धीरे घटता है। संथाल-परगना में कितने पहाड़ सड़ते हैं। ऐसा कोई पदार्थ यहाँ नहीं, जिसका क्षय न हो। किसी पदार्थ का झड़ जाना भी हिलना है। इसीलिए परमात्मा के लिए गीता में सत्-असत् नहीं, क्षर-अक्षर नहीं ऐसा कहा गया है। बुद्धि उसका निर्णय कर सकती है, पहचान नहीं सकती है।
 चेतन के दो रूप माने जाते हैं-सामान्य चेतन और विशेष चेतन। अंतःकरण-रूप यंत्र के कारण विशेष चेतन, इसलिए कि इससे काम का होना जाना जाता है। कोई पापी-पुण्यात्मा, दःुखी-सुखी होता है तो यह आत्मा पर कोई दोष नहीं होता। स्वामी विवेकानन्दजी ने कहा है-‘प्राणिमात्र के नेत्रों मे जो दृष्टि-शक्ति होती है, उसके एक मात्र कारण सूर्य हैं। किंतु यदि किसी को नेत्र दोष होता है, तो वह अपने उस दोष की छाया सूर्य पर डालने में समर्थ नहीं हो पाता। यदि किसी को पाण्डु रोग हो गया होता है तो उसे सारी वस्तुएँ पीली-ही-पीली दृष्टिगोचर होती हैं। उस व्यक्ति की भी दृष्टि- शक्ति के कारण सूर्य ही हैं। किंतु उसके नेत्रों में हर एक वस्तु को पीली देखने का जो गुण है, वह सूर्य को तो नहीं स्पर्श कर पाता। इस तरह यह एकमात्र जीवात्मा प्रत्येक प्राणी के शरीर में व्याप्त रहकर भी बाहर की पवित्रता या अपवित्रता के संस्पर्श से बचा रहता है।’ पुष्कर निवासी स्वामी ब्रह्मानन्दजी ने भी कहा है- ‘विशेषरूप से चैतन्य का दो प्रकार का रूप होता है, तिनमें जो सर्व चराचर जगत में समान रूप से व्यापक है, उसको सामान्य चेतन कहते हैं और जो अंतःकरण-उपाधि से मिला हुआ है, उसको विशेष चैतन्य कहते हैं। सो जैसे घट में स्थित भया आकाश, दूसरे घटाकाशों से भिन्न हो जावे है और जैसे दीपक पर आरूढ़ हुई अग्नि दूसरे दीपकों वा समान व्यापक अग्नि से भिन्न होती है, तैसे ही अंतःकरण उपाधि-युक्त चैतन्य भी दूसरे सर्व जीवात्माओं से या ब्रह्म से भिन्न हो जाता है। सो जैसे एक घटाकाश के रजो- धूमादियुक्त होने से सभी घटकाश रजोधूमादियुक्त करके नहीं होते हैं और जैसे एक दीपक के हिलने- डोलने से वा धूम-धूलिवाले होने से सभी वैसे नहीं हो जाते, तैसे ही यहाँ जीवात्माओं की बाबत भी समझ लेनी चाहिए अर्थात् व्यापक चैतन्य एक होने पर भी अंतःकरणरूप-उपाधि के भेद से परस्पर जीवात्माओं के भिन्न होने से सुख-दुःख, बंधन-मोक्ष आदिकों को मिश्रितपन नहीं होवे है।’
 ईश्वर, जीव और प्रकृति में इस तरह भेद है। इस भेद को ठीक-ठीक नहीं समझ लेने के कारण ही जीव, ईश्वर और प्रकृति पर भिन्न-भिन्न तरह से लोग कहते हैं।
 आविष्कार और उत्पादन में अन्तर है। संसार की वस्तुओं को लेकर कुछ बना दिया, वह आविष्कार है और संसार से कुछ लिए बिना कुछ बनाना उत्पादन-निर्मित है। गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
 तदि अपना आपु आपहि उपाया।
   ना किछु ते किछु करि दिखलाया।।
      यह ईश्वर से हो सकता है, दूसरे से नहीं। अद्वैत- सिद्धान्त कथन में हो सकता है, व्यवहार में नहीं।
 समाधि सिद्धवाले से जहाँ तक हो सकता है, समता का व्यवहार करते हैं। बहुत बड़े-से-बड़ा दुःख आता है, किंतु समाधि-सिद्ध महापुरुष उसको सुख से सहते हैं और साधारणजन उसको दुःख से सहते हैं। दुःख को लोग सहते हैं, किंतु सुख को सह नहीं सकते। सुख पाकर साधारण लोग उसमें मस्ता जाते हैं।
***************
यह प्रवचन कटिहार जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर मनिहारी में दिनांक 30.7.1955 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



122. तुलाधार वैश्य की तपस्या
प्यारे लोगो!
 संसार में जितने शरीरधारी हैं, सब-के-सब कष्ट मालूम करते रहते हैं। मालूम होता है कि कष्ट छूट नहीं रहा है। दुःख किसी को पसन्द नहीं है। जिसका कभी नाश नहीं हो, ऐसा सुख संसार में किसी को नहीं मिलता।
 पुराने इतिहासों से तथा आधुनिक इतिहासों से पता चलता है कि शरीर में रहते हुए इस तरह से सुखी नहीं हो सकते। जो सुख सदा रहता है, कभी नष्ट नहीं होता, उसकी सदा इच्छा करते चले आ रहे हैं। वह सुख ईश्वर की भक्ति में है। ईश्वर को प्राप्त करो, तो वह सुख मिलेगा। जो माया को पहचानते हैं, जानते हैं, मायिक काम करते हैं, वे माया के अंदर सुख-दुःख भोग करते हैं, बिल्कुल माया के सुख-दुःख में पड़े रहते हैं; किंतु ईश्वर को पाने से ये सुख-दुःख नहीं रहते। माया में रहकर ईश्वर को प्रत्यक्ष नहीं पा रहे हैं। इसलिए चाहिए कि सब कोई ईश्वर की भक्ति करें।
 ईश्वर की भक्ति करने के लिए पहले ईश्वर- स्वरूप को समझो कि वह कैसा और क्या है? ईश्वर-स्वरूप के ज्ञान के लिए ही आपलोगों ने उपनिषद् के वचन सुने, गोस्वामी तुलसीदासजी के मानस का पाठ सुना-
जो माया सब जगहिं नचावा। जासु चरित लखि काहु न पावा।।
सो प्रभु भू्र बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा।।
सोइ सच्चिदानंद घन रामा। अज विज्ञान रूप बल धामा ।।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सब दरसी अनवद्य अजीता।।
 निर्मल निराकार निर्मोहा ।नित्य निरंजन सुख सन्दोहा।।
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाहीं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
 किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
 जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
 सोइ सोइ भाव देखावइ, आपु न होइ न सोइ ।।
आपलोगों ने उपनिषद् के वचनां में सुना-
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत् ।
अनाद्यनन्तं महतःपरं धु्रवं निचाय्य तन्मृत्यु मुखात्प्रमुच्यते ।।
     -कठोपनिषद् अध्याय 1 वल्ली 3
 अर्थात् जो अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अव्यय तथा रसहीन, नित्य और गंधरहित है, जो अनादि, अनंत महतत्त्व से भी पर और ध्रुव (निश्चल) है, उस आत्मत्त्च को जानकर पुरुष मृत्यु के मुख से छूट जाता है।
 ईश्वर-स्वरूप समझाने के वास्ते पाठ कराया गया। पाठ में यह था कि जो कुछ आँख से देखते हैं, कान से सुन सकते हैं, हाथ से छूते हैं, जिस वस्तु से किसी प्रकार की गंध मालूम हो, जिभ्या से जो मालूम हो, वह माया है। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द-ये पाँचों माया ही माया हैं। इस तरह हमलोगों को ये ही मालूम होते हैं। उपनिषद् कहती है-जिसे इन्द्रियों से पहचानते हैं, वह ईश्वर नहीं है, माया है। बुद्धि भी उस परमात्मा के स्वरूप को नहीं पहचान सकती। बुद्धि निर्णय कर सकती है। लोग तब पूछते हैं कि मन-बुद्धि और इन्द्रियां के ज्ञान में जो नहीं हैं, वह किससे छूआ जाएगा, पकड़ा जाएगा? तो जानो कि शरीर में इन्द्रियां और मन-बुद्धि से परे चेतन आत्मा है। इन्द्रियां और मन- बुद्धि के सहित शरीर के अंदर चेतन आत्मा है। शरीर छूट जाता है। शरीर छूटने पर उससे क्या निकल गया, लोग देखते नहीं हैं; किंतु कहते हैं कि इससे जीवात्मा निकल गया। ज्ञान इस बात को कहता है। श्राद्ध-क्रिया का मूल आधार यही है।
 यदि यह विश्वास नहीं हो कि इस शरीर से जीवात्मा चला गया, तो श्राद्ध-क्रिया नहीं कर सकते। विश्वास किया जाता है कि शरीर से जीवात्मा निकल गया है, उसका कल्याण हो। इसीलिए श्राद्ध-क्रिया करते हैं। शरीर के अंदर जो मन-बुद्धि हैं, हम उनको भी नहीं पहचानते हैं, उनके कर्मों को जानते हैं। शरीर से चेतन आत्मा निकलती है तो अकेली नहीं। उसके साथ मन, बुद्धि और सूक्ष्म शरीर भी जाता है। लोग उसको प्रत्यक्ष नहीं देखते; किंतु ज्ञान से जानने में आता है। इसके लिए महाभारत में कथा भी है।
 सावित्री का विवाह सत्यवान से हुआ। नारदजी से सावित्री को जानकारी मिल गई कि सत्यवान की मृत्यु अमुक तिथि को अमुक समय में होगी। सत्यवान के माता-पिता अंधे थे। उनका राज्य भी छिन गया था। इसलिए वे लोग जंगल में रहते थे। सत्यवान लकड़ी काटकर जीवन-यापन करते थे। जब सत्यवान की मृत्यु का समय आ गया, तो सावित्री ने सत्यवान से कहा कि आज आपके साथ मैं भी जंगल जाऊँगी। सत्यवान ने कहा-यदि तुम मेरे साथ जंगल जाना चाहती हो, तो माताजी तथा पिताजी से आज्ञा ले लो। सावित्री बड़ी नम्रता से सास-ससुर से निवेदन करती है कि आज मैं भी पतिदेव के साथ जंगल देखने जाना चाहती हूँ। दोनों सास-ससुर की आज्ञा हो गई। सत्यवान के साथ सावित्री भी जंगल गईं। जब सत्यवान गाछ पर चढ़कर लकड़ी काटने लगे, तो ऊपर से ही वे सावित्री से कहते हैं कि मेरे सिर में बहुत दर्द हो रहा है। सावित्री ने कहा-आप वृक्ष से नीचे उतर आवें। नीचे उतरते ही सत्यवान बेहोश हो गए। सावित्री अपने पति का सिर अपनी गोद में रखकर बैठी है। सत्यवान को लेने यमदूत आता है। लेकिन सावित्री के पातिव्रत्य के तेज के कारण वह समीप नहीं आ सका। तब यमराज स्वयं आए और सत्यवान के सूक्ष्म लिंग शरीर को लेकर चलने लगे। सावित्री भी यमराज के पीछे-पीछे चलने लगी। यमराज ने पूछा-तुम क्या चाहती हो? यदि कुछ वरदान माँगना हो तो मुझसे माँगो। सावित्री ने कहा-‘मेरे अंधे सास-ससुर मेरे सौ पुत्रों को भोजन करते देखें और उनका खोया हुआ राज्य वापस मिल जाय। यमराज ने कहा-एवमस्तु! जब यमराज आगे बढ़े, तो सावित्री फिर उनके पीछे चलने लगी। यमराज ने पूछा-‘तुमको मैंने वरदान दे दिया, अब क्यों मेरे पीछे आ रही हो?’ सावित्री ने कहा-‘आप तो मेरे पति को लिए जा रहे हैं, मुझे सौ पुत्र होंगे कैसे?’ यमराज चकित हो गए और सत्यवान के सूक्ष्म शरीर को उसके स्थूल शरीर में वापस कर दिया।
 इस कथा से जानने में आता है कि स्थूल शरीर में सूक्ष्म शरीर या लिंग शरीर भी है। किंतु ज्ञान कहता है कि केवल सूक्ष्म शरीर ही नहीं है। कारण, महाकारण और कैवल्य शरीर भी हैं। अपने कर्मानुसार यह जीवात्मा उन लोकों में जाकर दुःख-सुख भोगता है। एक सती स्त्री (सावित्री) के प्रभाव से कितना लाभ हुआ कि सौ पुत्र हुए, राजा का राज्य लौट गया, अंधे-अंधी को फिर आँखें मिल गईं। इसीलिए स्त्रियों को पातिव्रत्य धर्म धारण करना चाहिए और पुरुष भी एकपत्नीव्रत धारण कर रहें तो उनका बहुत कल्याण होगा, किंतु कह सकूँगा कि इससे बिल्कुल कष्ट छूट नहीं जाते। बिल्कुल दुःख तो ईश्वर-भजन से छूट सकता है। हाँ, तो मैं कह रहा था कि ईश्वर को चेतन आत्मा ही पहचान सकती है। यह चेतन आत्मा न स्त्री है और न पुरुष है, न नपुंसक है। ईश्वर-भक्ति की पराकाष्ठा यही है कि ईश्वर मिल जाय। जिस काम के करने से ईश्वर मिल जायँ, वही ईश्वर- भक्ति है। मन-इन्द्रियां के संग जबतक कोई रहेगा, तबतक ईश्वर को पहचान नहीं सकता। मन, बुद्धि आदि इन्द्रियां और स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण को पार कर कैवल्य दशा प्राप्त कर लेने पर ईश्वर की पहचान होती है।
 ईश्वर की भक्ति करने के लिए शुद्धाचरण से रहना चाहिए। अंतःकरण में मलिनता नहीं रखनी चाहिए। अपने को शरीर और मन आदि इन्द्रियां से छुड़ाने के लिए ईश्वर का ध्यान करना चाहिए। ध्यान कैसे किया जाय? संसार के जितने रूप हैं, सबमें ईश्वर है। किसी रूप को इष्ट मानकर उनका ध्यान करो। चाहे माता के रूप में मानो, पिता के रूप में मानो, गुरु-रूप को मानो, कृष्ण, राम किसी रूप को मानकर उसका ध्यान करो।
 तुलाधार वैश्य अपने घर में रहकर रोजगार करता था; लेकिन वह बड़ा ही सत्यनिष्ठ था। अपनी माता तथा पिता की सेवा करता था। उसी समय जाजलि मुनि तप करते थे। उनको अपने तप का घमण्ड हुआ कि मैं बड़ा तपी हूँ। उसी समय आकाशवाणी हुई कि अभी तक तुम तुलाधार वैश्य के समान नहीं हुए हो। जाजलि मुनिजी तुलाधार के यहाँ गए। तुलाधार ने कहा-‘महाराज! आप तप कर रहे थे, आपकी जटा में चिड़िया ने घोंसला बनाया, अण्डा दिया और उससे बच्चा हुआ। वह बच्चा उड़ भी गया। इसी का आपको घमण्ड है।’ मुनि ने तुलाधार से पूछा-‘तुम घर बैठे मेरे तप की सारी बातें कैसे जान गए?’ तुलाधार ने कहा-‘देखिए, मैं लोगों को सौदा देता हूँ, डण्डी को सीधा रखता हूँ। तात्पर्य यह कि मैं इस व्यापार में जरा भी असत्य का व्यवहार नहीं करता हूँ और भगवान का भजन करता हूँ। सबों को मैं ईश्वर का रूप मानता हूँ। इसीलिए किसी के साथ मैं बुरे व्यवहार नहीं करता हूँ।’
 कहने का मतलब है कि किसी रूप में ईश्वर को मानो। मानो कि वह रूप ईश्वर का ही है। तब उसका ध्यान करो। इतने में ही समाप्त नहीं है। इसके बाद और है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- जितने विभूतिवान, तेजवान रूप हैं, सब मेरे ही रूप हैं। फिर कहते-कहते अणोरणीयाम् के लिए भी कहा और कहा कि शब्द ब्रह्म भी मेरा ही रूप है। इस प्रकार स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण; सबको पारकर कैवल्य अवस्था प्राप्त करनी होती है। फिर परमात्मा की पहचान होती है।
***************
यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत मारवाड़ी पंचायती धर्मशाला, साहेबगंज में दिनांक 4.8.1955 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



123. सुषुम्ना ही प्रधानतीर्थ है
प्यारे लोगो!
 संतों की वाणी में सब मनुष्यों को सदा से यही उपदेश है कि जो मनुष्य कष्टों में पड़े हैं, वे मुमुक्षु बनें। मुमुक्षु का अर्थ है-मुक्ति की इच्छा रखनेवाला। मुक्ति का अर्थ है-मोक्ष। शरीर और संसार के बंधन से छूटने को मुक्ति कहते हैं। मुक्ति की केवल इच्छा ही नहीं, बल्कि संसार में संयम से बरतें। जबतक संसार में संयम से नहीं रहें, संसार के भोग विलास में फँसे रहते हैं। उसको लालच नहीं छोड़ते हैं, वे केवल कहते हैं कि मैं मुमुक्षु हूँं। यह उनका कथन मात्र है। संतों ने ऐसे मुमुक्षु के लिए कहा है कि जो संसार के भोगों, लालचों को छोड़ना चाहें, उनको ज्ञान और योग दोनों का अभ्यास करना चाहिए। ज्ञान का अर्थ ‘जानना’ है और योग का अर्थ ‘मिलाप’ है। चित्त की वृत्तियाँ बिखरी हैं, वे मिलकर एक हो जायँ-यही योग है। चेतन आत्मा ईश्वर से मिलेगी, तभी उसकी मुक्ति होगी।
 ईश्वर ऐसा है कि वह इन्द्रियों के ज्ञान से बाहर है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है, माया यह है-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
और ईश्वर के संबंध में लिखा है-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 इसको पढ़ने और समझने पर ज्ञात होता है कि इन्द्रियों के ज्ञान में जो आता है, वह माया है। माया से परे जो परमात्मा है, उससे मिलने की उत्कट अभिलाषा करो। शरीर और इन्द्रियों को छोड़कर केवल चेतन आत्मा उससे मिलेगी। चित्तवृत्ति का निरोध करना अच्छा यत्न है। मन को एक ओर करना चित्तवृत्ति-निरोध करना है। मन के अनेक भावों को छोड़कर एक ओर करना चाहिए। जप और ध्यान इसका सरल साधन है। इससे सरल साधन संसार में और कुछ नहीं हो सकता। इसके लिए गृहस्थी आश्रम को छोड़कर वनवासी होने का काम नहीं। किंतु इस रास्ते का छोर जब कोई पकड़ लेता है तो भगवान श्रीकृष्ण के कहे अनुकूल वह उसको छोड़ता नहीं है। बारम्बार संस्कार बढ़ता जाता है। शरीर छोड़ने पर स्वर्ग जाता है। वहाँ का विशाल सुख भोगकर फिर श्रीमान् के यहाँ जन्म लेता है और बढ़ते-बढ़ते कई जन्मों में पूर्ण सिद्ध होगा। यानी परमात्मा मिलेगा, मुक्ति मिलेगी। अपनी सुरत उस ओर लगाए रहो। जहाँ सुरत लगी रहेगी, वहीं पहुँचोगे। ‘जाकी सुरत लगी रही जहँवा। कह कबीर सो पहुँचे तहँवा।।’ शरीर रहते जो प्रत्यक्ष नहीं हुआ, शरीर छूटने पर उसकी प्रत्यक्षता हो, ऐसा संतों ने नहीं कहा। शिवजी ने ब्रह्माजी से कहा कि संसार से पार होने के लिए ज्ञान और योग; दोनों का दृढ़ता से अभ्यास करो। ब्रह्माजी जाकर शिवजी से पूछते हैं कि संसार से जीव की मुक्ति कैसे होगी? इसके लिए आप क्या कहते हैं? शिवजी ने कहा कि मुक्ति जीते जी होनी चाहिए। जब किसी जन्म के जीवनकाल में मुक्ति होगी, तब मरने पर भी मुक्ति होगी। संतों ने भी ऐसा ही कहा है-
जीवत मुक्त सो मुक्ता हो ।
 जब लग जीवनमुक्ता नाहीं, तब लग दुख सुख भुगता हो।।
      - कबीर साहब
 जीवत छूटै देह गुण, जीवत मुक्ता होइ ।
 जीवत काटै कर्म सब, मुक्ति कहावै सोइ ।।
 जीवत जगपति कौं मिलै, जीवत आतम राम ।
 जीवत दरसन देखिये, दादू मन विसराम ।।
 जीवत मेला ना भया, जीवत परस न होइ ।
 जीवत जगपति ना मिले, दादू बूड़े सोइ ।।
 मूआँ पीछे मुकति बतावै, मूआँ पीछै मेला ।
 मूआँ पीछैं अमर अभै पद, दादू भूले गहिला ।।
                     -दादू दयाल
गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी कहा है-
     सुनि समुझहिं जन मुदित मन, मज्जहिं अति अनुराग।
     लहहिं चारि फल अछत तनु, साधु समाज प्रयाग।।
 सभी संतों की वाणी में यही उपदेश है। लोग योग के विषय में डरते हैं; क्योंकि वे जानते नहीं हैं। जप करना, ध्यान करना भी योग है-जपयोग, ध्यानयोग। मानस जप सब जपों में श्रेष्ठ है। इसमें जिभ्या और ओठ नहीं हिलते, फिर भी जप होता है। जप होते रहने से मन किसी तरफ नहीं जाता। चित्तवृत्ति-निरोध के लिए जप करना चाहिए।
 पूजाकोटि समं स्तोत्रं, स्तोत्र कोटि समं जपः।
 जप कोटि समं ध्यानं, ध्यान कोटि समो लयः।।
 अर्थात् पूजा से बढ़कर स्तुति है, स्तुति से श्रेष्ठ जप है। जप से बढ़कर ध्यान है और ध्यान से श्रेष्ठ लय है। संतों ने जप और ध्यान के द्वारा ईश्वर की भक्ति करने के लिए कहा। इसमें समझो कि तुम्हारे शरीर में दो भाग हैं। दायीं-बायीं ओर का मिलाप जहाँ है, वह मध्य है। दायीं ओर की वृत्ति पिंगला और बायीं ओर की इड़ा और बीच में सुषुम्ना है। कोशिश करो मध्य-वृत्ति में रखकर जप करने के लिए, उस स्थान में मन को लगाओ। तीर्थ-स्नान इसलिए लोग करते हैं कि उससे पुण्य होता है, ऐसा लोगों का विश्वास है। संतों ने कहा-दायीं गंगा, बायीं यमुना और बीच में सरस्वती की धारा है। इनमें गोता लगाकर देखो कि तुम्हारा मन कितना शुद्ध होता है। जो उस स्थान पर अपने को डुबाता है तो जितनी देर मन डूबा रहता है, उतनी देर तक विषय वहाँ जा नहीं सकता। इसीलिए यह सबसे उत्तम तीर्थ है। आपने अभी सुना-‘सुषुम्नैव परं तीर्थं सुषुम्नैव परो जपः। सुषुम्नैव परं ध्यानं सुषुम्नैव परागतिः।।-योगशिखोपनिषद्।’ अर्थात् सुषुम्ना ही प्रधान तीर्थ है, सुषुम्ना ही प्रधान जप है। सुषुम्ना ही प्रधान ध्यान है और सुषुम्ना ही परा (ऊँची) गति है। इसमें मन डूबता है, शरीर नहीं डूबता है। जिसका मन पवित्र है, उसकी देह से अपवित्र कर्म नहीं होगा; क्योंकि मन का प्रभाव देह पर विशेष पड़ता है। संतवाणी में गुरु के प्रति श्रद्धा रखने के लिए कहा गया है। पंजाब के महात्मा गरीबदासजी थे। उन्होंने भी कहा है-‘गुरु, साधु संत की शरण में रहो, उनमें प्रेम रखो। उनके बताए नाम का जप करो और ध्यान करो।’ नाम के ध्यान को ही नादानुसंधान कहते हैं। यह बाहर का शब्द नहीं, अंतर की ध्वनि है। शब्द बड़ा आकर्षक होता है। अंतर्नाद में जो मिठास है, उसको जो एक बार भी चख लेता है, तो मन बारम्बार उधर ही घूमता रहता है। लोग कहते हैं कि अप्रत्यक्ष में सुरत-मन नहीं लगता, तो व्यक्त शब्द में ही रहो, राम-राम, शिव-शिव कुछ जपो। किसी देखी हुई मूर्ति का ध्यान करो। नाम-जप और रूप-ध्यान मायिक ही है। स्थूल जपध्यान के बाद सूक्ष्मध्यान है। शून्य में अपनी वृत्ति को ले जाओ। चाहे अंधकार देखोगे, चाहे प्रकाश देखोगे। पहले तो अन्धकार ही रहेगा। वह अन्धकार तो व्यक्त हई है, उसमें अपनी सुरत को टिकाओ। जो आँख बंदकर देखता है, तो वह उस शून्य में अंधकार को पाता है। वहाँ जो अपनी सुरत को एक जगह केन्द्रित करता है, वह विन्दु ध्यान है। फिर उसको प्रकाश मालूम होता है। कोई आँख बन्द करके ठाकुरबाड़ी में जाय और तब आँख खोल दे, तो जो ठाकुरबाड़ी में है, उसे प्रत्यक्ष पाता है। उसी तरह जब वृत्ति सूक्ष्म में प्रवेश करती है, तब वह उसे देखती है, जो वहाँ है। प्रकाश के बाद शब्द की सीढ़ी है। प्रकाश में स्वतः शब्द मिलता है, फिर परमात्मा को पाता है। तो संतों ने कहा कि इसके लिए साधक को नित्य सत्संग का सहारा लेना चाहिए और ध्यान करना चाहिए। सत्संग के द्वारा ज्ञान होता है और जानने में आता है कि इसकी क्रिया क्या है? वह क्रिया किसी सच्चे गुरु से सीख लीजिए, जिनपर आपकी श्रद्धा हो। गुरु के ज्ञान को सीख लेने पर ही क्या लाभ होगा; यदि वह ध्यानाभ्यास नहीं करे। इसलिए ध्यान नित्य करना चाहिए। नित्य साधु-संग नहीं मिल सकते तो उनकी वाणी का पाठ कीजिए अर्थात् सत्संग कीजिए।
***************
यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत मारवाड़ी पंचायती धर्मशाला, साहेबगंज में दिनांक 5.8.1955 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



124. बिना ध्यान के समाधि नहीं
प्यारे लोगो!
 सत्संग में सबसे विशेष बात यह है कि ईश्वर-स्वरूप का ठीक-ठीक निर्णय हो जाय और वह बुद्धि को ठीक-ठीक जँच जाय। इसीलिए उपनिषद् और रामचरितमानस का पाठ हुआ।
 उपनिषद् में ईश्वर को आत्मा कहा गया है। कहीं-कहीं परमात्मा कहा है। जैसे कोई आकाश कहे तो घर का आकाश और बाहर का आकाश दोनों का ज्ञान होता है। ऐसा नहीं कि आत्मा कहने से केवल शरीर के अंदर की आत्मा जानो। जैसे कोई-कोई आकाश कहने से घर के आकाश को समझे और बाहर के आकाश को नहीं समझे, यह उसकी भूल है। उसी प्रकार आत्मा कहने से केवल शरीर के अंदर की आत्मा जानना भूल है। जिस तरह वायु सब घट-मठ को भरकर उनके अनुरूप रूपों को धारण करती है। एक गिलास में भरकर हवा है। उस हवा का रूप उस समय गिलास के समान है। एक घर में व्यापक हवा घर के रूप के अनुरूप है और उससे बाहर भी है। उसी प्रकार उपमा देकर उपनिषत्कार ने समझाया है कि जैसे घर और बाहर की हवा सब एक ही है, उसी तरह सब भूतों में और सबके बाहर एक ही अंतरात्मा है। सब भूतों का अर्थ सब जीवों का है।
 वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
 एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
 अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार संपूर्ण भूतों का एक ही अंतरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
 आत्मा कहने से जीव-दशा नहीं होती। वह सबमें है, किंतु सब-सा नहीं है। वह मन से जानने योग्य नहीं है। मन उसका मनन नहीं कर सकता है। जैसे और वस्तु को मन जानता-पकड़ता है, उस तरह उसको नहीं जान सकता, पकड़ सकता है। यह आत्मा वेद वाक्यों से, बुद्धि से, बहुत स्मरण रहने से प्राप्त नहीं हो सकता। आत्मा से ही आत्मा-परमात्मा प्राप्त होता है। जो सबके अंदर रहते हुए सबसे बाहर है, वह शरीरस्थ आत्मा से प्राप्त होता है। शरीरस्थ आत्मा एक अंतःकरण व्यापी होता है और दूसरे उससे परे होता है। अंतःकरण अर्थात् भीतर की इन्द्रियाँ।
 मन से कुछ जानते हो, बुद्धि से विचारते हो, चित्त से कम्पन होता है, अहंकार में मैंपन का बोध होता है। इन चारों से युक्त है जीवात्मा। ये चारां इन्दियाँ जड़ हैं। चेतन आत्मा से नीचे है, चेतन आत्मा नहीं है। क्षर नाशवान है। अक्षर अनाश है, इससे परे पुरुषोत्तम है। इसी के लिए उपनिषद् में अनंत, अचल, ध्रुव कहा गया है। अनंत का अर्थ यदि कोई असंख्य करता है, तो वह भूल है। अनंत एक से अधिक नहीं हो सकता। दो अनंत होने से दोनों का जहाँ मेल मिलेगा, वहाँ ससीम हो जाएगा। जैसे घर के बाहर के आकाश का भेद जानने के लिए घटकाश और महदाकाश कहते हैं। उसी प्रकार शरीरस्थ आत्मा के लिए जीवात्मा शब्द का व्यवहार होता है और ब्रह्माण्ड में व्यापक ब्रह्म के लिए परमात्मा शब्द का व्यवहार होता है। जहाँ प्रकृति का फैलाव है, वह ब्रह्म। और जहाँ प्रकृति का फैलाव नहीं है, वहाँ उसको परमात्मा कहते हैं।
 ईश्वर एक है, उससे बाहर कोई जा नहीं सकता; क्योंकि अनंत का कहीं अंत ही नहीं है। अनंत के बाहर कौन जा सकता है? परमात्मा अवर्णनीय है। बुद्धि वर्णन नहीं कर सकती है; क्योंकि बुद्धि बहुत पीछे हुई है। जीवात्मा का ज्ञान और आत्मा का ज्ञान परमेश्वर का ज्ञान है। यदि कहा जाय कि ‘एक ईश्वर नहीं अनेक ईश्वर हैं।’ तो यह युक्ति संगत नहीं। आज तक संसार में जितने आचार्य हुए, किसी के वचन से ‘वेदान्त- सिद्धान्त’ का मेल नहीं है।
 यहाँ के लोग यदि समझना चाहें, तो यहाँ आकर बहुत दिनों तक सत्संग करें। ‘वेदान्त-सिद्धान्त’ में अनेक आत्मा मानता है; यह नास्तिक है, आस्तिक हरगिज नहीं। इस पुस्तक में दो ही शरीर माना है। उपनिषदों में तीन शरीर माना है और संतवाणी में पाँच शरीर माना है। ये पाँचों शरीर उन तीनों में ही समा जाते हैं, इसलिए तीन मानो या पाँच। एक कोई भी ऐसा स्थूल पदार्थ नहीं, जिसमें सूक्ष्म का प्रवेश नहीं। सूक्ष्म ऐसा पदार्थ नहीं, जिसमें कारण न प्रवेश कर सके। ‘वेदान्त-सिद्धान्त’ में है कि ‘ईश्वर सर्वज्ञ है और जीव अल्पज्ञ है, तो जीव में ईश्वर व्यापक है, तब वह सर्वज्ञ क्यों नहीं हो जाता है?’ मैं कहता हूँ कि एक ही इन्द्रिय में सब ज्ञान क्यों नहीं होता? हाथ से देखते क्यों नहीं, आँख से सुनते क्यों नहीं? यह तो यंत्र के अनुकूल है। सर्वव्यापी ईश्वर सब में रहते हुए जीव अज्ञान में है। अल्पज्ञ और सर्वज्ञ एक साथ नही रह सकते। ऐसा उनका सिद्धांत है।
 किसी विषय को तुम विशेष जानते हो, किसी विषय को कम जानते हो तो तुममें ही कम ज्ञान और विशेष ज्ञान दोनों है, तो इन दोनों को एक साथ रखते हुए कैसे रहते हो? इसका निर्णय कर लो। यदि तुम दोनों एक साथ रह सकते हो, तब अल्पज्ञ और सर्वज्ञ एक साथ है, तो क्या आश्चर्य है? व्यक्ति का सर्वज्ञ होना सिद्ध नहीं हो सकता। भगवान बुद्ध ने कहा-‘मैं सर्वज्ञ हूँ।’ कितने प्रश्न उन पर हुए। कितने में वे चुप हो गए। मलिन्द शाह ने नागसेन से पूछा कि ‘तुम्हारे भगवान सर्वज्ञ थे, तब उन्होंने कितने का उत्तर क्यों नहीं दिया?’ नागसेन ने कहा-‘राजा! कितने ऐसे प्रश्न हैं, जिनका उत्तर चुप होना ही उत्तर है।’ कितनी चीजें बुद्धि में आती हैं, किंतु वचन में नही आती हैं। नमक का स्वाद कैसा होता है? इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। अलग-अलग आम को खाते हो, आम के स्वाद को जानते हो, किंतु उसको फुटा-फुटाकर लिखना असंभव है। योगवाशिष्ठ नामक गं्रथ में वशिष्ठ मुनि और भगवान राम का संवाद है। वशिष्ठ मुनि ने कहा-‘जितने हमलोग हैं, सब एक ही हैं।’ श्रीराम ने कहा-‘तब आप कहते किसको हैं?’ वशिष्ठजी चुप हो गए। श्रीराम ने कहा-‘गुरुदेव! आप रूष्ट तो नहीं हो गए?’ उन्होंने कहा-‘नहीं बेटा! मैं उत्तर दे रहा हूँ। इसका उत्तर चुप है।’ वाह्न और वास्कल मुनि का श्ांका- समाधान होते-होते अंत में वाह्न मुनि चुप हो गए। इसका उत्तर ही चुप है।
 ईश्वर अनेक कभी नहीं हो सकते। यहाँ इस संसार में एक दूसरे पर काबू रखता है। यदि एक दूसरे पर काबू नहीं रखे तो संसार की क्या हालत हो? राष्ट्रपति हैं, मंत्री हैं, राज्य-राज्य में मंत्री हैं। थाने-थाने में दारोगा रहते हैं। इसके ऊपर के हाकिम इन पर काबू रखते हैं, तब ठीक-ठीक काम होता है। धर्म में आचार्य होते हैं। वे जैसे-जैसे बताते हैं, लोग उनके अनुकूल चलते हैं, तो वह संस्था ठीक- ठीक चलती है। यदि आचार्य नहीं हों, नियंत्रण करनेवाले नहीं हों, तो संस्था नहीं रह सकती।
 अनेक ईश्वर मानते हैं। एक ईश्वर दूसरे से लड़ते हैं, डाका मारते हैं। यदि कहो कि एक दिन हम ईश्वर हो जाएँगे।’ तो जब ईश्वर हो जाओगे, तब कहना। एक साधारण साधक कहे कि मैं संत हूँ, हो नहीं सकता। संत का अर्थ मैं पूर्ण मानता हूँ। एक साधारण विद्यार्थी कहे कि कॉलेज की पढ़ाई समाप्त कर दी, हो नहीं सकता। कॉलेज की पढ़ाई पढ़े, पढ़ते-पढ़ते पढ़ाई समाप्त करे, फिर कहे। सत्संग से लोगों को यह ज्ञान दिया जाता है कि लोग बहके नहीं, ठीक-ठीक रास्ते पर चले।
 ईश्वर का ज्ञान होना चाहिए। ईश्वर एक है। अनेक ईश्वर मानने से बीचमें अवकाश देना होगा। बिना अवकाश के एक दो का ज्ञान नहीं हो सकता। दोनों के बीच में उसको फुटाने के लिए कुछ फाँक अवश्य रहेगी। अपने शरीर को ही देखिए। आँख और कान के बीच में अवकाश के बिना पहचाना नहीं जा सकता। अपने अल्प ज्ञान में विशेष ज्ञान को दुहराओ, उचित नहीं।
 आत्मा एक ही है। आत्मा से प्रार्थना करो। जब एक ही आत्मा है, तब प्रार्थना किसी दूसरे से करोगे? कहाँ तो काम का दास और कहाँ परमात्मा का दास-दोनों एक ही हैं? अपना गुलाम आप बनते हो। सवेरे पखाना जाते हो, तो अपना मैला साफ करते हो, इसकी लज्जा नहीं और परमात्मा का दास-भक्त बनो, इसमें लज्जा! यह कौन ज्ञान है? परमात्मा के सिवा संसार में और ऐसा पदार्थ नहीं है, जो अनंत हो। अनंत एक ही हो सकता है। विचारने से एक अनंत अवश्य सिद्ध होता है। गोस्वामी तुलसीदास या और कोई आचार्य झूठे नहीं। उनकी बातों को टालने से अपनी ही हानि होगी, उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा। अंतःकरण से जो तुम बोध करते हो, उससे विशेष वह है। जो तुम अंतःकरण रहित होकर बोध करोगे, तब तुम संतों की वाणियों को समझोगे। संतों की बुद्धि के परे की वाणी को तुम बुद्धि में अँटाओगे, हो नहीं सकता। जब सब ईश्वर ही हैं, तब मुनि, मुनिवर, मुनिरत्न आदि छोटी-बड़ी पदवियाँ क्यों? गोस्वामी तुलसी- दासजी ने कहा-‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।’ अपने शरीरस्थ आत्मा को पहचान लो, तुम वही हो जाओगे। तब फिर सभी शंकाएँ मिट जाएँगी। इसके लिए बहुत शुद्ध आचरण चाहिए। इसलिए संतों ने झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पाँचों महापापों से बचने को कहा।
 हमारे पेट में जोंकटी कीटाणुओं से भी बड़ी है। तन में भी चेतन है, किंतु वह लेक्चर नहीं देता। मनुष्य शरीर रहते हुए भी उसमें मनुष्य वाला ज्ञान क्यों नहीं होता है? उसी तरह परमात्मा के इसमें व्यापक रहने पर भी जीव को सर्वज्ञता नहीं होती। जैसे लकड़ी में अग्नि है, किंतु लकड़ी को पकड़ने से हाथ जलता नहीं है। अग्नि को पकड़ने से हाथ जलता है। लकड़ी को भी रगड़ने से अग्नि निकलती है। इस देह में चेतन है, तो इसको रगड़ने से चेतन क्यों नहीं निकलता है? तुम तो व्यक्त लकड़ी को व्यक्त लकड़ी से रगड़ते हो। यहाँ तो शरीर व्यक्त है और परमात्मा अव्यक्त है। इन दोनों को कैसे रगड़ सकते हो? ब्रह्मानन्द स्वामी ने कहा कि-
 जिमि दूध के मथन से निकसत है, घी जतन से ।
 तिमि ध्यान के लगन से, परब्रह्म ले निहारा ।।
 श्रीमद्भगवद्गीता के अनुयायी ने कहा कि ‘अब ध्यान करने का समय नहीं है।’ जिन भगवान बुद्ध को ध्यान-योगी कहते हैं, उनके शिष्य कहते हैं अब ध्यान करने का समय नहीं है। सारे संसार के लोग जिस अध्यात्म-विद्या के लिए यहाँ आते थे, उस ज्ञान को झाँप दो, उचित नहीं। गीता में सबसे विशेष कर्मयोग को माना गया है। स्थिर बुद्धि रखकर समान दृष्टि से सब संसार को देखते हुए काम करो। अपना सुख-दुख जैसा, दूसरे का भी सुख-दुःख वैसा ही समझो। सब काम करते रहो और ईश्वर की तरफ मन लगाते रहो, यह भक्ति-कर्मयोग है। स्थितप्रज्ञता-समत्व कैसे होगा, इसके लिए प्राणायाम योग करो या ध्यानयोग करो। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने प्राणायाम का वर्णन किया है, किंतु ध्यानयोग की जैसी विधि बतलाई गई है, वैसी नहीं। वहाँ कहा गया है कि ‘समाधि में तुम्हारी बुद्धि स्थिर होगी।’ बिना ध्यान के समाधि नहीं हो सकती। जिससे हो सके प्राणायाम करो। जिससे नहीं हो सके यह ध्यान करो। प्राणायाम में आपदा भी आ सकती है, उससे फेफड़ा बिगड़ सकता है, मस्तिष्क बिगड़ कर पागलपन हो सकता है, किंतु ध्यानयोग में आपदा नहीं शाण्डिल्योपनिषद् में आया है-
 यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः शनैः।
  तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ।।
                                          अर्थात् जैसे सिंह, हाथी और बाघ धीरे- धीरे काबू में आते हैं, इसी तरह प्राणायाम भी किया जाता है। प्रकारान्तर होने से वह अभ्यासी को मार डालता है। नीचे के पाँच चक्रोें का नहीं, केवल छठे चक्र (आज्ञाचक्र) से ही साधना आरंभ करो, तो पाँचों चक्रों के जो गुण हैं, वे भी आ जाएँगे, ऐसा वर्णन शिवसंहिता में है-
 यानि यानि हि प्रोक्तानि पंच पद्मे फलानि वे ।
 तानि सर्वानि सुतरामेतज्ज्ञानाद्भवन्ति हि ।।
                                          अर्थात् पंच पद्मों का जो-जो फल पहले कहा, सो समस्त फल आप ही इस आज्ञाकमल के ध्यान से प्राप्त हो जाएगा।
 यदि किसी को गुरु ने सिखाया हो नीचे के चक्र से ध्यान करने का, तो वही करो। गीता बहुत अच्छी पुस्तक है। जो उसके अनुकूल चलेगा, उसका कल्याण होगा।
 भक्ति बहुत दूर तक अंदर-अंदर है। बाहर में सत्संग का सहारा है। जो पिछले जन्म से किया हुआ आया है, वह बाहर-बाहर की पूजा नहीं करे, अंदर-अंदर की करे, तो करे। ज्ञानकाण्ड में भी भक्ति है। बिना भक्ति के कल्याण नहीं, बिना सत्संग के भक्ति नहीं होती। बिना सद्गुरु के सत्संग नहीं हो सकता। जो गुरु, सत्संग, भक्ति-ध्यान की शरण लेगा, वह भव सागर से पार होगा।
***************
यह प्रवचन कटिहार जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर मनिहारी में दिनांक 13.8.1955 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



125. श्रीमद्भगवद्गीता में ध्यानयोग
प्यारे लोगो!
 मोक्ष पाने के वास्ते अथवा परमात्म दर्शन के वास्ते ज्ञान और योग-दोनों की बड़ी आवश्यकता है। ज्ञान का अर्थ है-जानना। योग का अर्थ है- मिलना। ईश्वर संबंधी बातों का जानना, सत्य- असत्य का निर्णय होना, आत्मा-अनात्मा का विचार होना जिस ज्ञान में होता है, वह है ज्ञान। मात्र व्याव- हारिक ज्ञान सत्य-असत्य ज्ञान के समक्ष अज्ञान में दाखिल है। श्रीमद्भगवद्गीता में एक अध्याय क्षेत्र- क्षेत्रज्ञवाला ज्ञानयोग है। इसमें है कि क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के ज्ञान को ज्ञान कहते हैं और सबको अज्ञान कहते हैं।
 पाँच स्थूल तत्त्व (मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) पाँच सूक्ष्म तत्त्व (रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द), दशेन्द्रियाँ (पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ-आँख, कान, नाक, जिह्ना और त्वचा। पाँ कर्मेन्द्रियाँ- हाथ, पैर, गुदा, लिंग और मुँह) तथा मन, अहंकार, बुद्धि, प्रकृति, चैतन्य, संघात (कहे गए का संघ रूप), धृति (धारण करने की शक्ति), इनके विकार- इच्छा, द्वेष, सुख, दुख; इन इकतीस तत्त्वों को सविकार क्षेत्र कहते हैं। इनके अतिरिक्त जो शरीर में है, उसको क्षेत्रज्ञ या आत्मा कहते हैं। महाभारत में है कि यही क्षेत्रज्ञ जब शरीर के गुणों से छूट जाता है, तब परमात्मा हो जाता है। जैसे घटस्थित आकाश महादाकाश से भिन्न नहीं है, किंतु घट के फूट जाने पर वह एक-ही-एक महदाकाश रहता है। जैसे वह एक ही आकाश सबमें है, उसी तरह एक ही परमात्मा सबमें है, किंतु उस एक को पहचानना कठिन है। जैसे एक जेवर है सोने का। उस जेवर में सोना-ही-सोना है। जेवर का नाश होगा, सोना रहेगा। उसी तरह यह संसार जेवर है। परमात्मा सोना है, संसार का नाश होगा, परमात्मा रहेगा। दार्शनिक विचार भिन्न-भिन्न हैं। ऐसा क्यों?
 एक जगह चार अंधे थे। उन लोगों के मन में हुआ कि हाथी देखा जाय। उनके सामने हाथी लाया गया। चारों ने हाथी के अंगों का अलग- अलग स्पर्श किया। जब हाथी चला गया, तब आपस में पूछने लगे कि हाथी कैसा है? जिसने हाथी के पाँव को छुआ था, उसने कहा-हाथी स्तम्भ के समान होता है। जिसने कान छुआ था- उसने कहा-हाथी सूप के समान होता है। जिसने सूँड़ छुआ था, उसने कहा-हाथी मूसल के समान होता है। जिसने पेट-पीठ छूए थे, उसने कहा- हाथी कोठी के समान होता है। जिस तरह उन अंधों को नयनहीनता के कारण हाथी का सही ज्ञान नहीं हुआ, उसी तरह केवल दार्शनिक-विचार में यह अंधापन नहीं छूटता। कोई बड़ा दार्शनिक है, किंतु उसकी आँख खुलती नहीं। यह आँख कैसे खुलेगी? योग के द्वारा। योग के द्वारा जो परमात्मा से जाकर मिलता है, वही ठीक-ठीक जानता है। इसलिए योग और ज्ञान-दोनों की बड़ी आवश्यकता है। यह योग हमारे देश में जितने अधिक दिनों से आ रहा है, उतने पुराने और किसी देश में नहीं। दार्शनिक विचार दूसरे-दूसरे देश में भी थे,किंतु योग के सहित दर्शन हमारे देश में भी था और है। हाल ही में हमारे देश में एक अंग्रेज पाल ब्रंटन नाम के आए थे योग की खोज में। दक्षिण भारत के मदुरै में श्री महर्षि रमण से बहुत संतुष्ट होकर वे अपने देश गए। लोग योग से डरते हैं, किंतु योग का अर्थ जोड़ना है। योगदर्शन पढ़नेवाले कहते हैं-चित्तवृत्ति-निरोध को योग कहते हैं। यह भी ठीक ही है। हमारे देश में हठयोग विशेष प्रसिद्ध है। यह इसलिए कि इस क्रिया के द्वारा शरीर की पूरी सफाई हो जाती है, जिससे राजयोग क्रिया करने में सुलभता होती है। हठयोग राजयोग की क्रिया करने के योग्य बनाने के लिए किया जाता है, न कि यह हठयोग-योग है। इसमें ठीक-ठीक रीति से किया जाय, तब तो ठीक है, यदि अविधि हुई तो बड़ी गड़बड़ी होती है।
 एक योगी थे, वे लम्बे दतुवन अपने मुँह से धीरे-धीरे गले के नीचे उतारते थे, फिर उसे निकाल लेते थे। यह क्रिया वे प्रायः प्रतिदिन किया करते थे। एक दिन ऐसा हुआ कि दतुवन असावधानी के कारण उसके पेट मे चला गया। उसके चलते दतुवन मुँह से निकल नहीं सका। परिणामस्वरूप उनका प्राणान्त हो गया। हठयोग में किसी का मस्तिष्क खराब हो जाता है। इससे लोग समझते हैं कि योग बड़ा कठिन है। शाण्डिल्योपनिषद् में लिखा है-
 यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः शनैः।
  तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ।।
 अर्थात् जैसे सिंह, हाथी और बाघ धीरे-धीरे काबू में आते हैं, इसी तरह प्राणायाम (अर्थात् वायु का अभ्यास कर वश में करना) भी किया जाता है, प्रकारान्तर होने से वह अभ्यासी को मार डालता है। इन घटनाओं से हमारे देश के लोग योग से बहुत डर गए हैं। अकेला हठयोग पूर्णता को प्राप्त नहीं करा सकता। उसके बाद राजयोग करने से ही पूर्णता प्राप्त होगी। और राजयोग बिना हठयोग के भी पूर्णता को प्राप्त करा देता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा-‘यह योग मैंने पहले पहल सूर्य को बताया। सूर्य ने अपने पुत्र मनु को, मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को दिया था। इस भाँति राजर्षियों की परम्परा में यह उपदेश बहुत काल तक चलता रहा।’ दीर्घकाल की प्रबलता से इस योग का लोप हो गया, जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुनाकर प्रकट किया।
 गीता में ध्यानयोग का एक अध्याय खास करके है। प्राणायाम के विषय में चर्चा तो है, किंतु एक भी अध्याय प्राणायाम योग का नहीं है। ध्यान योग के लिए तो कहा गया है कि ऐसी जगह पर बैठो, ऐसी आसनी रखो, इस ढंग से बैठो; किंतु प्राणायाम के लिए ये सब कुछ नहीं बतलाए गए हैं। इससे साफ मालूम होता है कि भगवान ने ध्यानयोग की ओर विशेष ध्यान दिया है। मन को पवित्र रखो और मन को साधना में लगाए रहो, इस प्रकार निरन्तर अभ्यास करते रहने से ध्यान- योग सिद्ध होगा। गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
गुर की मूरति मन महि धिआनु। गुरु कै शबदि मंत्र मनु मानु।।
गुर के चरण रिदै लै धारउ। गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ।।
मत को भरमि भूलै संसारि। गुर बिनु कोई न उतरसि पारि।।
भूलै कउ गुरि मारगि पाइआ। अबरि तिआगी हरि भगती लाइआ।।
जनम मरण की त्रास मिटाई। गुर पूरे की बेअंत बड़ाइ।।
गुर प्रसादि ऊरध कमल विगास। अंधकार महि भइआ प्रगास।।
जिनि किआ सो गुरते जानिआ। गुर किरपा ते मुगध मने मानिआ।।
गुरु करता करणै जोगु । गुरु परमेसुर है भी होगु।।
कहु नानक प्रभि इहु जनाई। बिनु गुरु मुकति न पाइअै भाई।।
संत कबीर साहब ने कहा है-
 मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव।
 मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव।।
 संतों ने साधना के आरंभ में कुछ व्यक्त उपासना का सहारा अवश्य लिया है। किसी ने राम का , किसी ने कृष्ण का, किसी ने देवी आदि के स्थूल रूप का सहारा उपासना में लिया; किंतु इतना ही नहीं, इसके बाद उन्होंने सूक्ष्मध्यान भी बताया है, जैसे अणोरणीयाम् का ध्यान अर्थात् विन्दु ध्यान। तेजोविन्दूपनिषद् में आया है-
 तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम् ।
 अर्थात् हृदयस्थित विश्वात्म तेजस् स्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है। ध्यानविन्दूपनिषद् में भी आया है-
 बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
 अर्थात् परम विन्दु ही बीजाक्षर है। उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अनाश ब्रह्म) में लय हो जाता है, तो निशब्द परम पद है।
 संयम के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में कहा है-
 युक्ताहार विहारस्य युक्त चेष्टस्य कर्मसु ।
 युक्त स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।।
 अर्थात् दुःखों का नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करनेवाले का, कर्मों का यथायोग्य चेष्टा करनेवाले का और यथायोग्य सोने तथा जागनेवाले का ही सिद्ध होता है। इसलिए भोजन, शयन, जागरण और जागतिक कार्यों में भी संतुलन रखो।
 शरीर की सफाई रखो। केवल शरीर की सफाई ही नहीं, शरीर मैला रहे और मन पवित्र रहे, तो वही विशेष है। केवल शरीर पवित्र हो और मन मैला हो तो वह किस काम का? सूक्ष्म ध्यान के बाद अरूप ध्यान नाद है। इसी को कहा-
 बाजत नाम नौबति आज ।
 ह्वै सावधान सुचित सीतल, सुनहु गैब आवाज ।।
 सुख कंद अनहद नाद सुनि, दुःख दुरित क्रम भ्रम भाज ।
 सतलोक वर सो पानि, धुनि निर्वान यहि मन बाज ।।
 तोहं चेत चित दै प्रेम मगन, अनंद आरति साज ।
 घर राम आये जानि, भइनि सनाथ बहुरा राज ।।
 जगजीवन सतगुरु कृपा पूरन, सुफल भे जन काज ।
 धनि भाग दूलन दास तेरे, भक्ति तिलक विराज ।।
        -संत दूलनदासजी
और कबीर साहब ने कहा-
  पाँचो नौबत बाजती, होत छतीसो राग ।
  सो मंदिर खाली पड़ा, बैठन लागे काग ।।
 किंतु जबतक विन्दु को कोई नहीं पकड़ सकता, वह नाद ध्यान करने के योग्य नहीं होता। संत पलटू साहब ने कहा-‘विन्दु में तहँ नाद बोले, रैन दिवस सुहावनं।’ इसकी युक्ति गुरु से जानकर त्रयकाल संध्या करो। इसके लिए घरवार छोड़ने की जरूरत नहीं। जो जिस अवस्था में है, उसी में रहते हुए भजन करो। फिर सोते समय भी थोड़ा-थोड़ा ध्यान करते हुए सो जाओ। तन काम में, मन राम में लगाए रहो। तामसी-राजसी भोजन नहीं करो। सात्त्विक भोजन करो। सात्त्विक भोजन भी हल्का करो। विशेष खाने से आलस्य विशेष आता है-उससे भजन नहीं बन सकता। कम खाने से ऐसा नहीं होगा कि शरीर में बल नहीं रहेगा। हल-फाल जोतनेवाले भी ध्यान कर सकते हैं। हमारे विशेष सत्संगी तो हल-फाल जोतनेवाले ही हैं। योग कोई हौआ नहीं है। इससे डरने की जरूरत नहीं है। थोड़ा-थोड़ा सब कोई अभ्यास कीजिए।
***************
यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत मोहद्दीनगर के दुर्गास्थान में दिनांक 18.9.1955 ई0 को प्रातः सत्संग में हुआ था।
***************



126. भारतीय योग विद्या का चमत्कार
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 यह सत्संग हमलोगों को बहुत ऊँचे जाने को सिखलाता है। इतना ऊँचा जिससे विशेष कोई ऊँचाई नहीं हो सकती। ऊँचाई की शिखर पर पहुँचाने के लिए सत्संग सिखाता है। संतों के संग को सत्संग कहते हैं-
सत्संगति दुर्लभ संसारा। निमिष दण्ड भरि एकउ बारा।।
 गोस्वामी तुलसीदासजी ने ठीक ही कहा है। प्रत्यक्ष में संतों का संग वास्तव में बड़ा दुर्लभ है। संतों को पहचानने की योग्यता मुझमें नहीं है। बड़े-बड़े साधकों तथा संतलोगों ने संतों का गुण जैसा वर्णन किया है, मैं उन्हें पहचानने योग्य बनूँ, यह बहुत दुर्लभ है।
अमित बोध अनीह मितभोगी।सत्यसार कवि कोविद योगी।।
सुनु मुनि साधुन के गुन जेते। कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते।।
विधि हरिहर कवि कोविद वानी। कहत साधु महिमा सकुचानी।।
सो मो सन कहि जात न कैसे । साक वनिक मनि गनगुन जैसे।।
     - गोस्वामी तुलसीदास
 तुलसी साहब भी संत कहलाते हैं। वे बहुत अच्छे थे, लोग कहते हैं। उत्तर प्रान्त के लोग उनको जानते हैं। इधर के लोग उन्हे विशेष नहीं जानते। उन्होंने कहा है-
जो कोई कहै साध को चीन्हा। तुलसी हाथ कान पर दीन्हा।।
 गीता में भगवान श्रीकृष्ण से अर्जुन ने स्थितप्रज्ञ अर्थात् संत का लक्षण पूछा कि वे कैसे बोलते, चलते, बैठते हैं। इन प्रश्नों का उत्तर नहीं देकर भगवान ने केवल उनका, स्थितप्रज्ञों (संतों) का गुण ही गाया है। संत को ही मैं स्थितप्रज्ञ कहता हूँ। संतों के गुण का वर्णन है, किंतु उनको ठीक-ठीक पहचानना अति कठिन है। जो संत हों, वे ही संत को पहचान सकते हैं, जैसे जौहरी हीरा को पहचानते हैं-
 हीरा परखे जौहरी, शब्द को परखे साध ।
 जो कोई परखे साध को, ताका मता अगाध ।।
 हमलोगों के सामने पहले अमुक संत थे और अब हमलोगों के सामने अमुक संत हैं, इस तरह परीक्षित भाव से संतों की पहचान, उनका संग अर्थात् सत्संग कैसे हो? गुरु महाराज ने कहा था- ‘बेटा! चिट्ठी आधी मुलाकात होती है, सन्तों की वाणी जो उनके ग्रन्थों में है उसको पढ़ो। यह संतों की वाणी संतों की आधी मुलाकात है।’ यह ही क्या कम है, बहुत है। लोग नये ग्रंथों का प्रकाशन करते हैं। मैं कहता हूँ जिन ग्रंथों का प्रकाशन हो चुका है, उन्हें समझना चाहिए तथा उनके अनुकूल कर्म निरत होना चाहिए। इसीलिए संतों की वाणी का पाठ हमारे सत्संग में होता है। संतों की वाणी को हम समझेंगे, उसके अनुकूल चलेंगे। संतों की वाणी में है-
 जीवन से मरना भला, जौ मरि जाने कोय ।
 मरने पहले जो मरे, तो अजर अरु अम्मर होय ।।
 मरते मरते जग मुआ, औसर मुआ न कोय ।
 दास कबीरा यों मुआ, बहुरि न मरना होय ।।
     -सन्त कबीर साहब
 नानक जीवतिया मरि रहिअै ऐसा जोगु कमाइअै ।
 बाजे बाझहु सिं´ी बाजै तउ निरभउ पदु पाइअै ।।
     -गुरु नानक साहब
 आप कहेंगे जीते-जी मर जाना तो शाप है, संतलोग भले ऐसा कहते हैं, परंतु हमलोगों के लिए यह उत्तम बात नहीं है। कबीर साहब ने कहा-
 जो मरने से जग डरे, मेरे मन आनंद ।
 कब मरिहौं कब पाइहौं, पूरन परमानंद ।।
 छान्दोग्योपनिषद् में है कि ब्रह्मरन्ध््रा में प्रवेश कर मरो तो कोई कष्ट नहीं होता है। मरने के समय बहुत कष्ट होता है। किसी मरनेवाले के निकट जाकर उन्हें देखिए कि उनका चेहरा कैसा-कैसा होता है। उन्हें कष्ट हो रहा है, उनके चेहरे से ऐसा विदित होता होगा। जन्म होता है, तो मृत्यु अवश्य होगी।
अण्ड कटाह अमित लयकारी। काल महा दूरित क्रम भारी।।
 शरीर बहुत दिनों तक रहने पर भी कभी अवश्य नाश होगा। ऐसी मौत से मरो कि फिर जन्म न हो। असली मरना यही है। यह शाप नहीं है। यह बहुत कुशल की बात है कि ऐसा मरो कि फिर नहीं मरोगे, पुनः दुःख में नहीं आओगे। किंतु ऐसा मरन अपने जीवन में ही हो जाए।
 पंजाब के स्वामी रामतीर्थ ने कुछ दिन विद्या- ध्ययन किया, उसके साथ ही उन्होंने योग-साधन भी किया। उनके गुरु बड़े अच्छे थे। कुछ दिनों तक वे प्रोफेसर थे, फिर घर छोड़कर संन्यासी हो गए। वे जापान गए वहाँ उन्होंने व्याख्यान दिया। वे अपने को राम बादशाह कहा करते थे और पास में एक पैसा भी नहीं रखते थे। वे जापान से अमेरिका गए। जापानी ने अमेरिका तक के जहाज का भाड़ा दे दिया था। अमेरिका पहुँचने पर वहाँ के लोगों ने पूछा कि तुम कितने रुपये साथ लाए हो जो यहाँ उतरोगे। उन्होंने कहा-मेरे पास रुपये नहीं। अमेरिकन ने कहा-तब तुम यहाँ उतर नहीं सकते। उन्होंने कहा-अवश्य उतरूँगा। अमेरिकन ने पूछा तुम कौन हो? उन्होंने कहा-मैं राम बादशाह हूँ। पुनः अमेरिकन ने पूछा-कौन राम बादशाह, जिन्होंने भारत से जापान पहुँचकर व्याख्यान दिया है? उन्होंने कहा-हाँ, वही राम बादशाह। वहाँ के एक और अमेरिकन सज्जन ने कहा कि इन्हें जहाज से उतरने दो। ये जबतक अमेरिका में रहेंगे, तबतक मैं इनका सब खर्च अपने ऊपर लेता हूँ। राम बादशाह हँसे और बोल उठे-खजाना तो बादशाह के खजा०ची के पास में रहता है, खुद बादशाह के पास नहीं। उन सज्जनों की ओर बताकर उन्होंने कहा-देखो, ये मेरे खजा०ची हैं। वहाँ के लोगों ने कहा कि आप विज्ञापन छपवाकर वितरण कराइए कि लोग आकर आपका व्याख्यान सुनें। राम बादशाह ने कहा कि मैं इस तरह विज्ञापन वितरण नहीं करता हूँ। शहर के अच्छे-अच्छे डॉक्टर मेरे पास आवें। सिवाय उनके और दूसरे कोई न आवें, वे ही डॉक्टर मेरे विज्ञापन होंगे। ऐसा ही हुआ। डॉक्टरों से उन्होंने अपने शरीर की जाँच करवाई। डॉक्टरों ने अपनी जाँच में उनके शरीर को बिल्कुल मृतक पाया। दिल का धड़कन और नाड़ियों के स्पंदन सभी बन्द थे। फिर वह जिन्दा कैसे हैं, यह देखकर डॉक्टर घबराए। राम बादशाह ने कहा कि शरीर सब दिन मृतक है। मैं जिन्दा था, अभी जिन्दा हूँ और जिन्दा रहूँगा। यही भारतीय योगविद्या है।
 जीते-जी मर जाएँ, यह बड़ी खुशी की बात है। शरीर ‘मर’ है और जीवात्मा अमर है, यह कभी नहीं मरता। जीवन-काल में शरीर से संग छूट गया, फिर मरने पर संग नहीं हो सकता। जिसके जीवन में शरीर संग है, उसके मरने पर शरीर नहीं छूट सकता। इस शरीर से कैसे छूटा जाय, यही हमलोग जानना, जनाना, करना और कराना चाहते हैं। इसलिए पहले शरीर को स्थिर रखो, एक आसन से देर तक बैठो।
 आसन दृढ़ आहार दृढ़, भजन नेम दृढ़ होय ।
 तौ प्राणी पावै कछुक, नहिं तो रहै विषय रस मोय ।।
 भोजनकी मात्रा जानो। कितना खाना चाहिए, कब खाना चाहिए, इसको जानो। गीता कहती है-न पूरा भरकर खाव, न बिल्कुल उपवासी रहो, स्वल्प भोगी बनो और तब भजन करो।
 बचपन में पढ़ने में मन नहीं लगता था। हमारे पिता, हमारे अभिभावक ने हमको स्कूल भेजा। इस तरह विद्या पढ़ा। महर्षि शिवव्रतलाल महोदयजी ने कहा है कि सत्संग में एक आसन से बैठो, यह आसन का साधन हैै। ध्यान देकर सुनोगे तो क्या सत्संग हुआ, यह समझ सकोगे। इस तरह मन को एक ओर लगाने का भी साधन होगा। मुरादाबाद में उन महर्षिजी का मुझे पहला दर्शन हुआ था। यहाँ धरहरा वे बिना बुलाए हुए ही आए थे, वे सरल हृदय के थे।
 उपर्युक्त प्रकार के फल-लाभ का भजन साधन आरंभ में एकान्त बैठ-बैठकर करना चाहिए। रामकृष्ण परमहंस देवजी का वचन है-‘पहले कुछ दिन तक एकान्त में बैठकर ध्यान करना सीखो। पूरा अभ्यास हो जाने पर फिर जहाँ-तहाँ बैठकर भी ध्यान कर सकोगे। पेड़ जब छोटा रहता है, तब उसको घेरा लगाकर रखना पड़ता है, नहीं तो गाय-बकरियाँ चर जाएँ। जब वह पेड़ पूरा बढ़ जाता है, तब फिर उसमें दस-दस गाय बकरियाँ बंधी रहने से भी उसका कुछ बिगड़ नहीं सकता। गुरु नानकदेवजी ने कहा-
  रहहिं एकान्ति एको मनि बसिआ आसा माहिं निरासो ।
  अगमु अगोचरु देखि दिखाए नानक ताका दासो ।।
 आजकल के कतिपय विद्वान साधनारम्भ में ही कहा करते हैं कि-
  आँख न मूँदौं कान न रूँधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं ।
  खुले नयन पहिचानौं हँसि-हँसि, सुन्दर रूप निहारौं ।।
              -कबीर साहब
 उनको जानना चाहिए कि इस प्रकार की सहज समाधि की स्थिति तो साधन समाप्त हो जाने पर प्राप्त होती है। साधन के आरंभ में तो ‘बंद कर दृष्टि को फेरि अंदर करै, घट का पाट गुरुदेव खोलै।’ और-
आँख कान मुख बंद कराओ, अनहद झींगा शब्द सुनाओ ।
दोनों तिल एक तार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है ।।
     -सन्त कबीर साहब
 धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव ।।
 सो मेरा गुरुदेव सेवा मैं करिहौं वाकी ।
 शब्द में है गलतान अवस्था ऐसी जाकी ।।
 निसदिन दशा अरूढ़ लगै ना भूख पियासा ।
 ज्ञान भूमि के बीच चलत है उलटी स्वासा ।।
 तुरिया सेती अतीत सोधि फिर सहज समाधी ।
 भजन तेल की धार साधना निर्मल साधी ।।
 पलटू तन मन वारिये, मिलै जो ऐसा कोउ ।
        धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव ।।
            -सन्त पलटू साहब
 हमको इन संतोक्त आरम्भिक साधनाओं का पहले अभ्यास करना चाहिए। अब मैं आता हूँ, जो शब्द अभी गाए गए-
मेरी सुरत सुहागिनी जाग री ।।
क्या तुम सोवत मोह नींद में, उठि के भजनियाँ में लाग री ।।
चित्त से शब्द सुनो सरबन दे, उठत मधुर धुन राग री ।।
दोउ कर जोड़ि सीस चरणन दे, भक्ति अचल वर माँग री ।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, जगत पीठ दै भाग री ।।
 सुहागिनी स्त्री वह है, जो पति से प्यार करे जो पति से प्यार नहीं करे, वह दुहागिनी है। जीवात्मा, सुरत को कहते हैं-
आदि सुरत सत पुरुष ते आई। जीव सोहं बोलिये सो ताई।।
 सुरत का अर्थ ख्याल भी होता है। जीवात्मा के लिए ‘सुरत’ शब्द का प्रयोग संतवाणी में बहुत किया गया है। जिसका पति जीवित हो और जो पति से प्यार करे, वह सुहागिनी है। चेतन आत्मा को स़्त्री कहा गया है, इसका पति परमात्मा है। चेतन आत्मा को जिधर नहीं जाना चाहिए, उधर भी जाती है। इसलिए जगने के लिए कहते हैं। भजन में लगने से जगना होगा। मोह-लोभ में जगना, जगना नहीं है, सोना है। असार तत्त्व के त्याग का और सार तत्त्व के ग्रहण का सुरत या जीव को ज्ञान होना चाहिए। तब वह उठा और जगा। यह त्याग और ग्रहण केवल विचार से नहीं होगा। स्वप्न में केवल विचार हो कि जग जाएँ, जग जाएँ तो केवल कहने से जगते हो या कोई स्वाभाविक क्रिया होती है? जाग्रत से स्वप्न में जाने के लिए बाहर के ख्याल छूटते हैं। स्वप्न में इसका ख्याल मन में होता है तो विविध स्वप्न देखते हैं। जगने और सपने में अन्तर्मुखी होना और बाहर होना स्वाभाविक है। जगने के स्थान से दूसरे स्थान में जाने से दूसरी अवस्था हो जाती है। लोभ-मोह में हम नहीं रहें, सार को पकड़ें, ऐसा ज्ञान होने पर भी भूल भटक जाते हैं। ऐसा क्यों? इसलिए कि जगने के स्थान में नहीं हैं। हमलोग इस शरीर में कहाँ हैं? आँख में हैं। आँख बंदकर पूछिये मैं कहाँ हूँ? तो उत्तर होगा कि अंधकार में। अंधकार कहाँ है? नयनाकाश में। नयनाकाश में अंधकार है और अंधकार में मैं हूँ। इसलिए मैं आँख में हूँ।
जानिले जानिले सत्त पहचानिले, सुरति साँची बसै दीद दाना।
         -दरिया साहब, बिहारी
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत्...।
             -ब्रह्मोपनिषद्
 जाग्रत से स्वप्न में जाने पर स्थान छूट जाता है, उस समय आप कण्ठ में चले जाते हैं। स्वर का स्थान कण्ठ है, इसलिए स्वप्न में कभी-कभी बोल उठते हैं। कण्ठ को षोडस दल कमल भी कहते हैं। जबतक यहाँ रहेंगे, तबतक आप स्वप्न में रहेंगे। गहरी नींद में फेफड़ा में रहेंगे। वह स्वर का स्थान नहीं है, इसलिए हम बोल नहीं सकते। हम साधारणतः जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति; इन तीनों अवस्थाओं में जाते-आते रहते हैं। स्वप्न से जागते हैं, किंतु इस जगने को जगना नहीं कहते हैं। मुर्द्धा में स्थित रखने से जगना होगा। दरिया साहब मारवाड़ी कहते हैं-
 माया मुख जागे सभे, सो सूता कर जान ।
 दरिया जागे ब्रह्म दिसि, सो जागा परमान ।।
 हमलोग मोह में सोए हुए हैं, इससे कैसे जगा जाएगा। तो कहा-‘चित्त से शब्द सुनो सरबन दे, उठत मधुर धुन राग री।’ आपके अंदर राग होता है-‘एहि घट बाजै तबल निशान। बहिरा शब्द सुने नहिं कान।।’ ध्वनि को सुनने के लिए तुम वहाँ ठहरो, जहाँ पर जाकर तुम सुन सकते हो। कहाँ पर जाकर कोई सुन सकते हैं? इसके लिए पहले वैष्णवी मुद्रा वा शाम्भवी मुद्रा यानी दृष्टियोग करने के लिए नादविन्दूपनिषद् में कहा है और संतों की वाणी में इसकी विधि बतलाई गई है। दृष्टियोग करने से ही आप वहाँ पहुँचकर सुन सकते हैं, जहाँ पहुँचकर संतवाणीके अनुकूल आंतरिक नाद सुना जा सकता है। कितने कहते हैं कि बिना दृष्टियोग के किए ही तो सुनते हैं तो उनको जानना चाहिए कि वे उस शब्द को नहीं सुन सकते, जो सुनना चाहिए। यदि बिना दृष्टियोग के ही शब्द का सुनना होता तो संतलोग दृष्टि-साधन करने पर विशेष जोर नहीं देते। इसकी शिक्षा कहाँ होगी? जहाँ होगी, वहाँ जाइए अर्थात् संतों के पास जाइए। यह क्रिया कीजिए, तब संसार की ओर पीठ होगी। अभी संसार में कहीं भी जाओ सन्मुख संसार रहेगा। मुर्द्धा में जाने से संसार की ओर पीठ देना होगा। गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में सुनाया गया है-
 जागु जागु जागु जीव जो है जग जामिनी ।
 देह गेह नेह जानि जैसे घन दामिनी ।।
 इन्होंने भी एक दूसरे पद्य में चौथी अवस्था में जाने के लिए कहा है-
 तीन अवस्था तजहु , भजहु भगवन्त ।
 मन क्रम वचन अगोचर व्यापक व्याप्य अनंत ।।
 अर्थात् तीनों अवस्थाओं को छोड़कर भजन करने कहते हैं। तीन अवस्थाओं को छेड़ना योगियों से ही हो सकता है। इसलिए तुलसीकृत रामायण में है कि-
एहि जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच वियोगी।।
 इसी तरह सभी संत कहते हैं। उपनिषद् में भी है-‘उतिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत..’ अर्थात् अरे! अविद्याग्रस्त लोगो! उठो, अज्ञान निद्रा से जागो। बाहर में कहीं भी जाने से संसार से और तीनों अवस्थाओं से नहीं छूट सकते। जो अपने को तुरीय अवस्था में ले जाते हैं, तो वे मरकर फिर नहीं मरते। रोग व्याधि से मर जाने पर फिर-फिर मरना होगा। कुछ कोशिश करके मरने से यह संस्कार आगे जन्म में प्रेरण करेगा और यही संस्कार जमा होते-होते एक दिन ऐसा बना देगा कि संसार में आना नहीं होगा। इसी के लिए यह सत्संग है। इसमें कोई बाह्याडम्बर नहीं है।
 हमलोग यहाँ सत्संग करने और सत्संग का प्रचार भी करने के लिए आए हैं।
***************
यह प्रवचन पूर्णियाँ जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर सिकलीगढ़ धरहरा में दिनांक 25.11.1955 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



127. प्राप्तव्य क्या है?
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 आप सोचिए कि आपको क्या चाहिए? किसी का हृदय ऐसा नहीं है कि जिसका हृदय कह दे कि दुःख चाहता हूँ। यदि किसी को आप देखते हैं कि दुःख उठाने के लिए अमुक व्यक्ति तत्पर है तो आप समझिए कि वह सुख पाने के लिए दुःख उठाता है। सभी सुख-लाभ के लिए ही काम करते हैं।
 स्कूल छोड़़ने के कई वर्ष पहले मेरे मन में उत्पन्न होता था कि मैं अपने को किस तरह सुखी बना सूकँगा, तो समझ में आया कि ईश्वर की भक्ति में सुख होगा। रामायण का पाठ करने की अभिरुचि मेरे बचपन काल से थी। मैं रामायण पढा़ करता था। उसमें ईश्वर-भक्ति के लिए बहुत प्रेरण है।
देह धरे कर यहि फल भाई। भजिय राम सब काम बिहाई।।
और-राका पति षोड़स उअहिं, तारागण समुदाय ।
 सकल गिरिन्ह दव लाइअ, बिनु रवि राति न जाय ।।
ऐसहि बिनु हरि भजन खगेसा। मिटहिं न जीवन केर कलेसा।।
 अर्थात् ईश्वर-भक्ति रूपी सूर्य का उदय हो तो दुःख रूपी रात का नाश हो जाएगा।
 मैं पहले सोचा करता था कि क्या मुझसे परमात्म- भक्ति सध सकेगी? तो कभी पैर ढीला होता था और कभी बल मिलता था। मेरे कई गुरु हुए। मैं जिज्ञासु होकर कइयों के यहाँ गया। सबसे ईश्वर- भक्ति की प्रेरणा मिली। कहीं बाहर की भक्ति और कहीं भीतर की भक्ति करने का उपदेश मिला। अंत में यह ज्ञान पाया कि बहिर्मुख और अंतर्मुख दोनों प्रकार की भक्तियों का करना आवश्यक है।
 प्राप्तव्य क्या है इसको जानो, फिर उसको पाने के लिए दौड़ो। बिना प्राप्तव्य जाने उसको पाने के लिए दौड़ना बुद्धिमानी नहीं है। ईश्वर क्या तत्त्व है, इसको जानो। मैं पहले जानता था कि राम ईश्वर है, शिव ईश्वर है। रामायण पढ़ने से राम और शिव दोनों को ईश्वर जानते थे। घर में भगवती की पूजा होती थी तो उनको भी देवी मानता था। फिर गाणपत्य और सौर भक्त को भी जानो। फिर समझा कि नरसिंहरूप, क्षीरसमुद्रवासी, साकेतवासी, दशावतारी; सभी रूप उन्हीं ईश्वर के हैं, ऐसा सुना और कहीं-कहीं ऐसा पढ़ा भी। गणेश, शिव, सूर्य, विष्णु, दुर्गादि देवियाँ तथा सम्पूर्ण चराचर एक ईश्वर के ही रूप हैं, ऐसा भी पढ़ा और सुना है। ईश्वर संबंधी इस ज्ञान पर सहज ही प्रश्न होता है कि ये सभी रूप जिनके, वे स्वयं अपने कैसे? उनका स्वरूप कैसा है? वह एक अनेक रूपों में है, वह कैसा? वह कितना बड़ा है अथवा कितना छोटा है, इसको जानने के लिए उत्सुकता आती है। होते-होते ऐसे लोगों से भी भेंट हुई, जिन्होंने कहा कि किस ख्याल में तुम हो, जिसको लोग ईश्वर कहते हैं, वह हई नहीं है। किंतु इस बात का विश्वास मुझे कभी नहीं हुआ। ईश्वर की स्थिति पर आक्षेपात्मक कितने ही प्रश्न उनके हुआ करते थे, जिनका उत्तर देना कठिन होता था। किंतु वे मेरे विश्वास को डिगा नहीं सके। कैवल्य शास्त्र नाम की एक पुस्तक मैंने पढ़ी, जिसमें है कि एक आदितत्त्व ऐसा है जो अनादि, अनंत है। गोस्वामी तुलसीदासजी की रामायण की चौपाई याद आती है-
 व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
   अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।
 एक अनादि-अनंत तत्त्व अवश्य है। यदि इसमें कोई शक-सन्देह करे तो इसका जवाब है कि यदि सभी सान्त-ही-सान्त हैं और एक अनादि अनंत तत्त्व नहीं है तो सभी सान्तों को मिलाने से अनंत नहीं हो सकता। क्योंकि सान्त-सान्त का जोड़ सान्त ही होगा, वह अनंत नहीं होगा। तब प्रश्न होगा कि उस सान्त तत्त्व के पार में क्या है? इसका उत्तर होगा अनंत है, इसके सिवाय और कुछ उत्तर नहीं हो सकता।
 इस संसार को देखकर लोग भले ही कहें कि संसार बनता और बिगड़ता है, इसके अंग-प्रत्यंग बनते और नाश होते हैं; यह अनंत नहीं हो सकता। परंतु यदि कोई उस अनादि-अनंत तत्त्व को प्रत्यक्ष नहीं देख सकता है, इसलिए उसकी स्थिति को स्वाकार नहीं करे, यह ठीक नहीं। सारे सान्तों के पार में एक अनंत अवश्य है।
       राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
      अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
        -रामचरितमानस
 श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींहीं तें सब लेखा ।
 सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
           -कबीर साहब
 बड़ा-से-बड़ा क्या हो सकता है? जिससे बड़ा और कुछ नहीं हो सके, वह अनंत के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो सकता। एक अनंत तत्त्व की स्थिति अवश्य है, यह बात बुद्धि के ग्रहण में आती है।
 अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा।।
  जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा।।
 साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु।
 ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु।।
      -गुरु नानक साहब
 कबीर साहब, गुरु नानक साहब और गोस्वामी तुलसीदासजी; इन तीनों संतों को इधर के लोग विशेष जानते हैं। ये तीनों संत कहते हैं कि एक अनादि-अनंत तत्त्व अवश्य है। परंतु वह अव्यक्त शरीरधारी लम्बे-चौडे़ आकार का नहीं है। किसी आकार-प्रकार का कहने से वह ससीम हो जाएगा? सब ससीमों में वह पूर्ण है और सबसे बाहर भी है।
 जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार संपूर्ण भूतों का एक ही अंतरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है। कितना बाहर जिसका अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता। वह एक अनादि अनंत तत्त्व अवश्य हैं, इसी का प्रचार सभी संत किए। और इस सत्संग से भी इसी का प्रचार होता है। यही प्राप्तव्य है, यही ईश्वर है।
***************
यह प्रवचन पूर्णियाँ जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर सिकलीगढ़ धरहरा में दिनांक 25.11.1955 ई0 को अपर्रांकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



128. साम्यावस्थाधारिणी मूल प्रकृति
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 मैं चाहता हूँ कि ईश्वर-स्वरूप का ठीक-ठीक निर्णय संतों की वाणी के अनुसार हो जाय। फिर आपके बोध में आवे कि उसकी भक्ति कैसे की जाय? जबतक स्वरूप समझ में नहीं आवे, तबतक उसकी भक्ति कैसी की जाय, बोध में नहीं आता। फिर उसके लिए संयम करना चाहिए। जिससे उस भक्ति मार्ग पर ठीक-ठीक चला जाय। इन्हीं सब आवश्यक बातों का बोध करने और कराने के लिए सत्संग है। आपको रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द का प्रत्यक्ष ज्ञान है। इन बाहर के पदार्थों के अतिरिक्त और कोई कुछ प्रत्यक्ष रूप में जानते हैं, ऐसा नहीं। लोग इन्हीं को जानते हैं और इन्हें जानने के लिए सबको पंच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। आँख से रूप, कान से शब्द, जिभ्या से रस, नासिका से गंध और त्वचा से स्पर्श जानते हैं। ये सब कैसे हैं, सो सोचिए। जो कुछ भी आप देखते हैं, सभी एक तरह से रह जाय, हो नहीं सकता। रूप एक तरह रहे, शब्द एक तरह रहे, हो नहीं सकता। शब्द के लिए लोग कहते हैं कि यह अनाश है। सुनने के समय शब्द सुनते हैं, उसके बाद उस शब्द को नहीं सुन सकते। लोग विचार में ही जानते कि पहले के भी शब्द आकाश के गर्भ में हैं। परंतु इसका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है। जब इसको प्रत्यक्ष कर ले तब उसको नित्य समझेंगे। प्रत्यक्ष नहीं रहने पर भी विचार में ऐसा ज्ञान है तो यह आज के ख्याल में अयोग्य नहीं है। शब्द ऐसा नहीं है कि वह पानी में सड़ जाय या आग में जल जाय। जब आप कहते हैं कि शब्द आकाश का गुण है, तो जहाँ गुणी है, वहाँ गुण रहे, यह असंभव नहीं है। आप स्थूल इन्द्रियों के द्वारा स्थूल यंत्रों से स्थूल आकाश के शब्द सुनते हैं। जल, बर्फ और वाष्प स्थूल है। बर्फ कठिन होने से कठिन, उसका जल होने से तरल और फिर वाष्प होने से वाष्परूप होता है। किंतु फिर भी स्थूल है। क्योंकि स्थूल इन्द्रियों से इसका ज्ञान होता है। सृष्टि का विकास एक ही बार में ऐसा हो गया, सो नहीं। इसका पूर्व रूप सूक्ष्म था और है। उसके बाद स्थूल है। पहले सूक्ष्म मण्डल है, जिससे स्थूल मण्डल बना। इस तरह जो बना सो कभी-न- कभी बिगड़ेगा, यह असंभव बात नहीं। ऐसी चीज को देखते हैं, जो थोड़े समय में बदल जाती है। कोई ऐसी चीज भी है जो जल्दी नहीं बिगड़ती। तो इसके लिए भी आप विचारते हैं कि यह कभी-न- कभी बदल जाएगा। स्थूलाकाश का विकास सूक्ष्माकाश से हुआ है। यह स्थूलाकाश बदलकर सूक्ष्माकाश में रहेगा और यह भी नहीं रहेगा। सांख्य ज्ञान और संतों के विचार के अनुकूल जानने में आता है कि सृष्टि बनने के लिए एक महान तत्त्व है, जिसको प्रकृति कहते हैं। सृष्टि में उपज, ठहराव और विनाश है। जिसके परिवर्तित-विकृत स्थूल में इन तीनों के काम होते देखे जाते हैं, उसके मूल में ये तीनों नहीं हों, सम्भव नहीं। उत्पन्न करने की शक्ति को रजोगुण, पालन करने की शक्ति को सतोगुण और विनाश करने की शक्ति को तमोगुण कहते हैं। ये तीनों गुण सृष्टि के मूल मशाले-प्रकृति में ही हैं। अथवा यों भी कह सकते हैं कि ये तीनों गुण ही साम्य रूप में प्रकृति कहलाते हैं अथवा यों भी कह सकते हैं कि त्रैगुण के सम्मिश्रण रूप को साम्यावस्थाधारिणी मूल प्रकृति कहते हैं। किसी गुण का उत्कर्ष और किसी का अपकर्ष होता है, तब सृष्टि होती है। उस प्रकृति से बुद्धि, बुद्धि से अहंकार, अहंकार से सेन्द्रिय, और निरेन्द्रिय दो प्रकार की सृष्टि हुई है। सेन्द्रिय में पहले मन बना और निरेन्द्रिय में पहले आकाश बना है। अब जानिए कि आकाश कितना नीचे है। पहले विचार द्वारा किसी वस्तु का सिद्धान्त स्थिर होता है, फिर प्रयोग द्वारा उसको प्रत्यक्ष किया जाता है। बिना दार्शनिक विचार के बोध नहीं हो सकता कि जिस स्थूलाकाश में हम हैं, यह आकाश का अपर रूप है, पूर्व रूप नहीं है। यह स्थूलाकाश सूक्ष्माकाश में लय हो जाएगा। इस प्रकार जब स्थूलाकाश का नाश होगा, तब उसका शब्द भी नहीं रहेगा। इसलिए इस स्थूलाकाश का शब्द सत्य नहीं हो सकता। मुँह से शब्द निकलता है, वचनवर्द्धक यंत्र उस शब्द को दूर तक फैला देता है। यंत्र नहीं रहे तो दूर-दूर तक उस शब्द को नहीं सुन पाते। इसलिए शब्द नहीं है, यह कोई बात नहीं। इस तरह वह कायल कर देते हैं कि तब शब्द नित्य कैसे नहीं हो सकता? मैं कहता हूँ कि जिस स्थूलाकाश का गुण शब्द है, उस स्थूलाकाश के लय होने पर स्थूल शब्द कैसे रह सकता है? इसलिए यह शब्द नाशवान है। विनाश दो प्रकार के हैं। एक केवल बदल जाय, परंतु अत्यन्ताभाव नहीं हो। जैसे आपका शरीर बदलता है। बचपन से अभी तक है, बदला है, किंतु अत्यन्ताभाव इसका नहीं हुआ है। शरीर के मरने और जलाए जाने पर भी इसका अत्यन्ताभाव नहीं होता, किसी-न-किसी रूप में इसके भौतिक तत्त्व रहते ही हैं इसलिए उसका रहना हुआ। बदलते रहने के कारण असत् कहा गया। जैसे लोकमान्य बालगंगाधर तिलकजी ने कहा है कि-‘कोई झूठ बोलता है, दूसरा कहता है कि वह झूठा है, इसका अर्थ यह नहीं कि वह आदमी है ही नहीं। है, किंतु वह अपना वचन बदलता रहता है, इसलिए वह झूठा है।’ समर्थ रामदास की दासबोध नाम्नी पुस्तक में है कि सौ वर्ष केवल धूप-ही-धूप होगी। यह भूमण्डल जलकर चूना हो जाएगा। सौ वर्ष तक मूसलाधार जल की वर्षा होगी। जैसे इन्द्र ने ब्रज पर जल वर्षा की थी, उससे भी विशेष मूसलाधार वर्षा होगी। इस प्रकार वह चूना गलकर पानी हो जाएगा। तब सौ वर्ष तक केवल प्रचण्ड हवा चलेगी, तब सब पानी कण-कण होकर पवन स्थिर अग्नि में लय हो जाएगा। अग्नि हवा में लय हो जाएगी, हवा आकाश में लय हो जाएगी, आकाश अहंकार में, अहंकार मह- तत्त्व में अर्थात् बुद्धि में, बुद्धि प्रकृति में लय हो जाएगी और प्रकृति ईश्वर में लय हो जाएगी।
 क्या अन्तिम के लय-स्थान के बाद अतिरिक्त और पदार्थों को आप ईश्वर मानते हैं? ये सभी नाशवान पदार्थ हैं। परमात्मा भी यदि नाशवान हो तो उसकी भक्ति करके क्या लाभ? सभी धर्म के लोग परमात्मा को अनाश मानते हैं गुरु नानक का वचन है-
   अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
 जो काल की मर्यादा से बाहर है, उसका नाश कैसे हो सकता है? केनोपनिषद् में लिखा है कि-
  यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनोमतम् ।
  तदेव ब्रह्मत्वं विद्धिनेदं यदिदमुपासते ।।
 अर्थात् जो मन से मनन नहीं किया जाता, बल्कि जिससे मन मनन किया हुआ कहा जाता है, उसी को तू ब्रह्म जान। जिस इस (देशकालाविच्छिन्न वस्तु) की लोग उपासना करता है, वह ब्रह्म नहीं है।
 यहाँ ‘इस’ शब्द बहुत महत्त्व का है। ‘इस’ नजदीक की चीज को कहते हैं और ‘उस’ दूर की चीज को कहते हैं। ‘इस’ इन्द्रिय-गोचर पदार्थ को कहा गया है। जहाँ आप सशरीर हों, वहाँ इन्द्रिय-गोचर पदार्थ नहीं हो कैसे संभव है? इन्द्रिय-गोचर पदार्थ परमात्मा नहीं हो सकता। इन्द्रियों के ज्ञान में वह आ नहीं सकता।
 श्वेतकेतु एक मुनि-पुत्र था। उन्होंने उपने पिता से ब्रह्म-स्वरूप की जिज्ञासा की। मुनि ने श्वेतकेतु से कहा कि तुम वट वृक्ष से एक फल ले आओ। आज्ञा पाकर मुनि पुत्र ने तुरंत एक फल ले आया। पिता ने कहा कि फल को टुकड़ा करो। श्वेतकेतु ने उसका टुकड़ा किया। पिता ने पूछा-इसमें क्या है? पुत्र ने कहा-इसमें छोटे-छोटे कई दाने हैं। पिता ने कहा-एक दाने को लेकर उसे भी तोड़ डालो और देखो कि क्या है? श्वेतकेतु ने उसे तोड़ा और कहा कि इसमें दो दालें हैं। पिता ने पुनः पूछा उन दोनों दालों के बीच में क्या है? पुत्र ने कहा-दोनों दालों के बीच में कुछ नहीं है पिता ने कहा-यदि दोनों दालों के बीच में कुछ नहीं है तो वृक्ष कैसे हुआ? बीच में कुछ अवश्य है, वह अव्यक्त है। जिससे वृक्ष हुआ वह इन्द्रियों के ज्ञान में नहीं है। इन्द्रियों का राजा मन है। मन पर बुद्धि का शासन है। इसलिए बुद्धि तक इन्द्रियाँ मानते हैं। मन संकल्प-विकल्प करता है। बुद्धि उसको कहते हैं, जिसमें विवेचना-शक्ति है। अहंकार उसको कहते हैं, जिसमें अपनेपन का ज्ञान हो। चित्त उसको कहते हैं, जिसमें हिलाने-डुलाने की शक्ति हो। इसके हिलाए बिना मन संकल्प-विकल्प नहीं कर सकता है, बुद्धि विचार नहीं कर सकती और अहंकार का ‘मैं हूँ’ ज्ञान नहीं हो सकता। चित्त इन तीनों को हिलाता है। इन इन्द्रियांं से परमात्मा को नहीं पहचान सकते। इन्द्रियों के बाद कुछ और भी इस शरीर में है कि नहीं? तुम तो इसी शरीर में हो तुम क्या लूले-लँगड़े हो? तुम इन्द्रियों से परतत्त्व हो। मन, बिना इन्द्रियों के कुछ काम नहीं कर सकता है। बिना कान के मन बाहर में कुछ सुन नहीं सकता। बिना आँख के मन बाहर में कुछ देख नहीं सकता। किंतु तुम अपने को अपने से देख सकते हो और अपने से ही परमात्मा को भी देख सकते हो, जैसे समूचे शरीर को आँख से और आँख को फिर आँख से देखते हो। दादू दयाल जी का शब्द है-
   दादू जानै न कोई , संतन की गति गोई ।। टेक।।
   अविगत अंत अंत अंतर पट, अगम अगाध अगोई । सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई ।।
   अंड न पिंड खंड ब्रह्मण्डा, सूरत सिंध समोई । निराकार आकार न जोति, पूरन ब्रह्म न होई ।।
   इनके पार सार सोइ पइहैं, तन मन गति पति खोई ।
   दादू दीन लीन चरणन चित, मैं उनकी सरणोई ।।
 संतांं की चाल छिपी हुई होती है। वह कहाँ तक जाते हैं, किस होकर जाते हैं? वह अविगत तक जाते हैं। उसतक जाने का मार्ग अपने अंदर में है। उसपर चलते हुए सभी पर्दों को पार करते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी के वचन में है।
मायाबस मति मन्द अभागी। हृदय जवनिका बहु विधि लागी।।
ते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अज्ञान राम पर धरहीं।।
 काम क्रोध मद लोभरत, गृहासक्त दुख रूप।
 ते किमि जानहिं रघुपतिहिं, मूढ़ पड़े तम कूप।।
 उपर्युक्त दादू दयालजी के शब्द में तीन शून्य बताए गए हैं-‘सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा।’ इसी को हमारे गुरु महाराज बाबा देवी साहब कहते थे-अंधकार का शून्य, प्रकाश का शून्य और केवल शब्द का शून्य। स्थूल अंधकारमय शून्य, सूक्ष्म प्रकाशमय शून्य और कारण-महाकारण केवल शब्दमय शून्य। कतिपय विद्वान कारण और महाकारण नहीं कहकर केवल कारण वा प्रकृति कहते हैं। प्रकृति कोई छोटी चीज नहीं है। इसका मण्डल बहुत बड़ा है। किंतु बहुत बड़ा मण्डल होने पर भी इसको अनन्त नहीं कह सकते। कुम्भकार पृथ्वी को कोड़ते (खोदते) हैं,फिर भी पृथ्वी मौजूद है। जहाँ-जहाँ पृथ्वी कोड़ते हैं, वहाँ-वहाँ पृथ्वी कँपती है। जितनी मिट्टी से बर्तन बनाते हैं, उतनी मिट्टी उस बर्तन का कारण है। सभी कारणों को मिला दीजिए तो महाकारण है। जहाँ से सृष्टि होती है, वह प्रकृति का विकृति अंश है। ऐसी विकृतियाँ प्रकृति में अनेक हैं।
 अन्धकार, प्रकाश और शब्द इन तीनों शून्यों के पार में जो है, उसको निर्गुण वा सगुण कुछ भी नहीं कह सकते। यहाँ गुण का अर्थ त्रैगुण से है और गुण का अर्थ विशेषता और प्रशंसा भी होता है। गुण सहित नहीं, तो त्रैगुण नहीं-निर्गुण। परंतु जब निर्गुण भी नहीं, तब वह क्या है? यह बोध में आना बहुत कठिन होता है। परा प्रकृति चेतन और अपरा प्रकृति जड़ हैं ये ही श्रीमद्भगवद्गीता के अक्षर पुरुष और क्षर पुरुष हैं। परंतु पुरुषोत्तम को इन दोनों से श्रेष्ठ बतलाया गया है। विचारने पर गीतोक्त ज्ञानानुकूल ही संतों की वाणियों में भी सगुण-निर्गुण, क्षर-अक्षर के परे परमात्म-स्वरूप का ज्ञान जानने में आता है। ऐसे भी विद्वान हैं, जो कहते हैं कि परमात्मा त्रैगुण रहित, पर दिव्यगुण सहित हैं। तो निस्त्रैगुण्य होने के गुण से उसे युक्त करने पर वह दिव्य गुणधारी सगुण होता है, किंतु केवल त्रैगुण-रहित होने के कारण वह निर्गुण भी है। गोस्वामी तुलसीदासजी की विनय-पत्रिका का शब्द है-‘अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा, वसत इति वासना धूप दीजै।’ और संत कबीर साहब के वचन में है- है सबमें सब ही तें न्यारा ।जीव जन्तु जलथल सबहीं में शब्द वियापत बोलनहारा ।।
 वह सब चर-अचर रूपों में अंश रूप है जैसे महदाकाश और मठाकाश।
उमा राम विषयक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा।।
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहेहु कुविचारी।।
      - गोस्वामी तुलसीदास
 सूर्य इतना बड़ा है कि वह धरती से कई हजार गुना बड़ा है। आकाश में जो बादल है, उसने सूर्य को ढक लिया, ऐसा कहना अज्ञानता है। उस बादल ने आपकी दृष्टि को ढक लिया है न कि सूर्य को ढक लिया है। जिस तरह बादल सम्पूर्ण सूर्य को नहीं ढक सकता, वैसे ही माया परमात्मा को ढक नहीं सकती। परमात्मा सब जगह है, सबमें है, जिसको आप पवित्र-से-पवित्र और घृणित- से-घृणित मानते हैं। आकाश में कहीं धुआँ, कहीं धूली उड़ रही है और कहीं अंधकार-ही-अंधकार है। किंतु सबमें होते हुए आकाश धुआँ, धुल और अंधकार से परे भी है। आकाश का वह रूप, जो उसका निज रूप है; अंधकार,धुआँ और स्थूल को पार करो, फिर देखोगे। आकाश पर अंधकार,धुआँ और धूल कुछ सट (चिपक) नहीं सकती। तीनों रहने पर भी वह निर्मल-ही-निर्मल रहता है। इसी तरह परमात्मा सबमें रहने पर भी पवित्र और निर्लेप रहता है। सबमें रहते हुए एक मण्डल में अंश रूप से रहता है। अंश का अर्थ टुकड़ा नहीं, अभिन्न अंश। इस तरह से ईश्वर सबमें रहता हुआ सबसे न्यारा, सबसे निर्लेप है। आत्मगम्य है, इन्द्रियगम्य नहीं। इन्द्रियगम्य में व्यापक है। इन्द्रियगम्य पदार्थ के भीतर वह छिपा है जिसे आप इन्द्रियों से नहीं जान सकते। जबतक उस पदार्थ के भीतर की पहचान नहीं हो तबतक परमात्मा का दर्शन कैसे हुआ? सगुण में हम कितनाहु प्रेम करें, किंतु वह स्थिर नहीं रह सकता। कभी-न-कभी नाश होगा ही। जो अजर,अमर, अविनाशी है, वह ध्रुव है, निश्चल है, वह कहीं से टसमस नहीं हो सकता। जो अनादि-अनंत है, वह अपरिमित शक्तियुक्त है, उसमें क्या गुण है, मेरी परिमित बुद्धि उसका गुण वर्णन नहीं कर सकती।
निरुपम न उपमा आन राम समान राम निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रवि कहत अति लघुता लहै।।
एहि भाँति निज निज मति विलास मुनीस हरिहिं बखानहीं।
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सचु पावहीं।।
        -गोस्वामी तुलसीदासजी
 इसका पूरा-पूरा वर्णन कौन कर सकता है, वह अवर्णनीय है।
***************
यह प्रवचन पुर्णियाँ जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर सिकलीगढ़ धरहरा में दिनांक 26.11.1955 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



129. पारमार्थिक सत्ता की विशेषता
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड में लिखा है-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।
चिदानन्दमय देह तुम्हारी। विगत विकार जान अधिकारी।।
नर तनु धरेहु संत सुर काजा, कहहु करहु जस प्राकृत राजा।।
 राम का स्वरूप अर्थात् आत्मभावरूप (पारमार्थिक सत्ता), उनका चिदानन्दमय रूप (व्यावहारिक सत्ता), और उनका नर रूप (प्रातिभासिक सत्ता); इन तीन प्रकारों में राम को जानना चाहिए। मेरे बोध में स्वरूप वा आत्मभाव में वह अनादि, अनंत, असीम, अपरिमित, ध्रुव और अव्यक्त है। उनका चिदानन्दरूप वा सच्चिदानंद रूप, कथित आत्मभाव से भरा हुआ, गतिशील, इन्द्रियातीत वा अव्यक्त विकारहीन तथा उसके दर्शन की योग्यता रखनेवाले अधिकारी भक्त से जाननेयोग्य है। तथा उसका नररूप उस आत्मभाव से पूर्ण चिदानन्दमय रूप से व्याप्त इन्द्रिय-गोचर वा व्यक्त है। सच्चिदानंद रूप परा प्रकृतिमय है और नररूप अपरा प्रकृतिमय है। ये दोनों रूप अप्राकृत नहीं हैं। अवश्य ही परा प्रकृतिमय रूप का पद अपरा प्रकृतिमय रूप से उच्च है और आत्मभाव में ही राम अप्राकृत भाव में है।
 चिदानन्दमय देह कभी नर शरीर नहीं हो सकता। लोहा अग्नि में तपते-तपते अग्नि रूप हो जाय, उसका काम भी आग का हो, किंतु कुछ देर के बाद ठण्ढा होने पर लोहा ही कहा जाएगा। इसी प्रकार चिदानन्दरूप नररूप में होने के कारण वह जो कुछ भी हो किंतु फिर नररूप ही है-जैसे लोहा लोहा ही है। त्रिशूल और फाल के लोहे को अग्नि में देने से दोनों के दो आकार होते हैं, दोनों लाल हो जाते हैं, अग्नि के समान हो जाते हैं, किंतु वे लोहा हैं। परंतु अग्नि (गर्मी) का उस प्रकार का कोई रूप नहीं। इसी तरह नररूप में चिदानन्दरूप नराकृतिवत् परंतु उसका भी निराकार-सा आकार नहीं। लोग कहते हैं-सूर्य अग्नि का गोला है और वह ठण्ढा होते-होते ठण्ढा हो जाएगा। हवा और अग्नि जिस-जिस रूप में होती हैं, वह उस-उस रूप में कहलाती हैं और उनसे बाहर भी हैं। उसी तरह परमात्मा का चिदानन्दमय रूप सब के बाहर और सब के भीतर भी है।
 वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
 एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
           -कठोपनिषद्
 परमात्मा के इसी चिदानन्दमय रूप के दर्शन से उपनिषद् के इस वाक्य में कथित फल भक्त को होता है-
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
          -महोपनिषद्
 अर्थात् उस परे-से-परे (ब्रह्म) को देख लेने पर हृदय की ग्रन्थि टूट जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं। कितना ही कोई चमत्कार दिखावे, कितना ही कोई वाक्य-जाल रच दे, किंतु मैं नहीं मान सकता कि कोई भी इन्द्रियगम्य रूप चिदानन्दमय हो सकता है। सुग्रीव और श्रीरामजी ने अग्नि की साक्षी देकर आपस में मित्रता की-श्रीसीताजी की खोज करने के लिए। सुग्रीव राजमद में डूब गया और लक्ष्मणजी जब वहाँ डराने-धमकाने के लिए गए तो सुग्रीव आकर कहने लगा-
       माया बस सुर नर मुनि स्वामी ।
              मैं पामर पशु कपि अति कामी ।।
 गोस्वामी तुलसीदासजी ने इतना ही लिखा और बाल्मीकि रामायण के शब्दों में इसका चित्र खींचा हुआ है। चिदानन्द-रूप का दर्शन हो गया और अतिकामी बना ही रहा! यदि कहो कि उसका हृदय दुरुस्त नहीं था, तो दर्शन कैसे हुआ? यदि हृदय दुरुस्त नहीं था तो चिदानन्दमय-रूप के दर्शन से ठीक हो जाना चाहिए था। कबीर साहब की ही भाँति सत्य कहना पसन्द करता हूँ, जिस सत्य के लिए कबीर साहब ने कहा कि -साँच कहूँ तो कोई न मानै झूठ कहा नहिं जाई हो।’ परमात्म- स्वरूप को लोग तीन सत्ताओं में विभक्त करके वर्णन करते हैं-पारमार्थिक, व्यावहारिक और प्रातिभासिक। पारमार्थिक सत्ता सबसे उच्च है। यह न जड़ है, न चेतन है; जड़-चेतन से परे है। यह सच्चिदानन्द से भी परे है। व्यावहारिक सत्ता सच्चिदानन्द पद है, उसको सत्तलोक कहते हैं। प्रातिभासिक सत्ता को भ्रम कहा गया है। यथा-
  रजत सीप महँ भास जिमि, यथा भानु कर वारि ।
    यदपि मृषा तिहु काल सो, भ्रम न सकइ कोउ टारि ।।
ऐसेहि जग हरि आश्रित रहई। यदपि असत्य देत दुख अहई ।।
 पारमार्थिक सत्ता का संतवाणी में ऐसा भी वर्णन किया गया है-
    ‘तापर अकह लोक है भाई। पुरुष अनामी तहाँ रहाई ।।’
    ‘जो पहुँचे जानेगा वाही । कहन सुनन से न्यारा है ।।’
        -कबीर साहब
 यहाँ तक आपको पहुँचना चाहिए। यहाँ तक आपको कैसे पहुँचना चाहिए, इसी का पता कबीर साहब के इस पद्य में कहा गया है-
   गगन की ओट निशाना है ।
   दहिने सूर चंद्रमा बायें, तिनके बीच छिपाना है ।।
   तन की कमान सुरत का रोदा, शब्द बान ले ताना है ।
   मारत बान बिंधा तन ही तन, सतगुरु का परवाना है।।
   मारयो बान घाव नहिं तन में, जिन लागा तिन जाना है ।
   कहै कबीर सुनो भाई साधो, जिन जाना तिन माना है ।।
 चन्द्र और सूर्य के बीच में, चन्द्र बायें, सूर्य दायें को, इड़ा बायाँ, पिंगला दाहिना, दोनों के बीच निशाना आकाश की ओट में छिपा है। अंधकारमय आकाश पर्दा है। धूम धूलि से आच्छादित आकाश परदामय है। आकाश स्वच्छ हो और दृष्टि-शक्ति अच्छी हो तो दूर तक देख सकते हैं। आप किसी मैदान में खड़े हो जाइए तो आकाश पृथ्वी से मिला हुआ देखते हैं, जिसको क्षितिज कहते हैं। एक परिधि जैसा मालूम होता है, इससे विशेष आपकी दृष्टि नहीं जाती है। यदि उस परिधि के नजदीक जाकर देखिए तो फिर दूसरी परिधि दिखाई देगी। हाँ, तो आपका निशाना गगन की ओट में छिपा है। यह बाहर में निशाना नहीं हो सकता, अंदर में निशाना करना है।
 महर्षि रमण की वैष्णवी मुद्रा थी। शिवजी की शाम्भवी मुद्रा और भगवान विष्णु की वैष्णवी मुद्रा। इस क्रिया को कैसे किया जाय? तो कहा गया है कि‘तन की कमान सुरत का रोदा, शब्द बान ले ताना है।’ याद रहे कि तीर तो लिया और निशाना ठीक नहीं है, तब वह छिद नहीं सकता। शब्दवेधी बाणवाले को बुद्धि-रूपी दृष्टि होती है। यह किसी-किसी को होती है। पृथ्वीराज को यह बुद्धि-रूपी दृष्टि थी। वह शब्दवेधी बाण चलाना जानते थे। शरीर का धनुष और सुरत की डोरी बनाइए। धनुष के ऊपर बराबर डोरी चढ़ी नहीं रहती है। आवश्यकता होने पर धनुष पर डोरी चढ़ाई जाती है। धुनष के एक छोर पर सुरत की डोरी लगी है। इसके दूसरे छोर पर भी डोरी चढ़ानी है। धनुष पर से डोरी उतरी हुई है तो उससे क्या लाभ? भगवान बुद्ध को छह वर्षों की तपस्या करने पर उनको यह ज्ञात हुआ कि जिस सत्य ज्ञान की खोज में मैं चला था, वह नहीं मिला। भगवान बुद्ध सोच रहे थे कि जिसके लिए राजपाट छोड़कर चला वह नहीं मिला और अब वहाँ जाने पर राजपाट चला भी नहीं सकूँगा। करूँ तो मैं क्या करूँ? इसी विचार में वे बैठे थे। बैठे-बैठे उनको नींद आई और देखा कि इन्द्र एकतारा लिए आए हैं। उसमें तीन तार थे। एक तार बहुत ढीला रहने के कारण उससे जो आवाज निकलती थी, वह अच्छी नहीं लगती थी। दूसरा तार जो बहुत कसा था, उससे ठस यानी कड़ी और कठोर आवाज निकलती थी और जो मध्य का तीसरा तार था, वह यथोचित कसा था, उसकी आवाज बहुत मीठी थी। इतने में उनकी नींद टूट गई और उन्होंने समझा कि मैंने तार को बहुत कसा। संसारी लोगों का तार बहुत ढीला होता है। इसलिए उन्होंने मध्य का मार्ग अपनाया। ढीले तार से कुछ होने का नहीं। यह विषयों की ओर जाता है। विषयों की ओर विशेष वेग होना धनुष की डोरी ढीली होनी है। यह बुढ़ापा में भी ढीला रहता है। महात्मा गाँधीजी ने कहा है-‘उपवासी होने से विषय मंद पड़ता है किंतु विषय-रस की स्मृति रह जाती है। वह तो परमात्म-साक्षात्कार करने पर छूट सकती है।’ इसलिए अमा, प्रतिपदा या पूर्णिमा किसी दृष्टि से धनुष पर डोरी चढ़ाने का या तार कसने का अभ्यास करो। अमादृष्टि सबसे सरल है। यह तो इतना सरल और सुखद है कि ध्यान करते हुए लोग नींद में पड़ जाते हैं। तब जो कोई कहे कि आँख बंदकर ध्यान करने से नींद आती है, इसलिए आँख खोलकर करना चाहिए। तो मैं कहूँगा उनको मालूम नही है। आँख खोलकर ध्यान करने से भी औंघी आती है। संतों ने आँख बंदकर ध्यान करने कहा है-
आँख कान मुख बंद कराओ, अनहद झींगा शबद सुनाओ।
दोनों तिल एक तार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है।।
 औंघी लगती है तो सम्हल-सम्हलकर ध्यान करो। खाने-पीने का संयम करो। विशेष खाने से नींद आएगी, भजन नहीं बनेगा। ‘नाक तलक पूरन करै, कौन कहै परसाद।’ संयम से खाना चाहिए। इससे भजन ही नहीं होता, शरीर भी स्वस्थ रहता है। शब्द अभ्यास करे और शरीर के अन्दर-ही - अन्दर बिन्ध जाय। यह सतगुरु का परमाना है।
  ‘मारयो बान घाव नहिं तन में, जिन लागा तिन जाना है ।
   कहै कबीर सुनो भाई साधो, जिन जाना तिन माना है ।।’
‘चुम्बक सत्त शब्द है भाई, चुम्बक शब्द लोक ले जाई ।
  लेइ निकारि होखै नहिं पीरा, सत्त शब्द जो बसै शरीरा ।।’
    - संत दरिया साहब, बिहारी
दूसरे शब्दों में आपलोगों ने सुना-
   जब से अनहद घोर सुनी ।
   इन्द्री थकित गलित मन हुआ,आशा सकल भुनी ।।
   घूमत नैन शिथिल भई काया, अमल जो सुरत सनी ।
   रोम रोम आनंद उपज करि, आलस सहज भनी ।।
   मतवारे ज्यों शब्द समाये, अंतर भींज कनी ।
   करम भरम के बंधन छूटे, दुविधा विपति हनी ।।
   आपा बिसरि जक्त कूँ बिसरो, कित रहि पाँच जनी ।
   लोक भोग सुधि रही न कोई, भूले ज्ञानि गुनी ।।
   हो तहँ लीन चरण ही दासा, कहैं सुकदेव मुनी ।
   ऐसा ध्यान भाग सूँ पैये, चढ़ि रहै शिखर अनी ।।
 मन नादानुसंधान के अभ्यास से काबू में आ जाता है। इसके लिए नादविन्दूपनिषद् में बहुत उपमाएँ हैं। ‘घूमत नैन’-अंधकार से प्रकाश में, बाहर से भीतर में। ‘भूले ज्ञानि गुनी’-मौलाना रूम, शम्स तबरेज के यहाँ गए और उनका हाथ चूमा। इस पर शम्स तबरेज ने उसे एक थप्पड़ लगाया। मौलाना रूम ने पूछा-हजरत! मुझसे क्या खता हुई? उन्होंने कहा-तेरे से बदबू आती है। मौलाना ने पूछा-वह कैसी बदबू है? उन्होंने कहा- इल्मियत (विद्वता) की बदबू है। पुनः मौलाना ने पूछा-क्या करूँ? उन्होंने कहा-कुँए में डाल। ज्ञान का तर्क-वितर्क सभी छोड़कर भजन करो। मुँह बन्द करो, मन बन्द करो, तब भजन ठीक-ठीक बनेगा। भजन करने का है, कहने-सुनने का नहीं। बहिर्मुख से मुड़ना है, अन्तर्मुख होने से स्थूल इन्द्रियों का संग छूटता है। जाग्रत से स्वप्न में जाने पर सभी बाहर की इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हो जाती हैं। जगने पर कहते हैं कि अच्छी तरह सोया। यह अनुभव करनेवाला कौन है? कितना भी कोई नींद में हो, शरीर को कोई किसी तरह डुला दे, जग जाएगा।
 कुम्भकर्ण तक की नींद टूट जाती है। जब कुम्भकर्ण साधारण तरह से जगाने पर नहीं जगा, तब जैसे बैल से धान बगैरह दौनी करते हैं,वैसे ही कुम्भकर्ण की नाक में खूँटा गाड़कर हाथी को चलाया गया, तब उसकी नींद टूटी। इसी तरह दृष्टि की खूँटी गड़ जाय तो नींद नहीं आएगी। इस संसार में जाग्रत अवस्था में रहने पर दूर-दूर तक देखते हैं। अच्छी जगह भी है और बुरी जगह भी है। उसी तरह तुरीयावस्था का मैदान दूर तक है और इसमें ऊँचे-ऊँचे स्थान भी हैं, बुरी जगहें भी हैं। बुरी जगह वह है, जिसमें ऋद्धि-सिद्धि प्रेरित करके माया में गिराती है। जो इसमें फँस गया, वह ऊपर नहीं उठ सकता। इसी को कबीर साहब ने कहा-
 गंग जमुन के रेत पर , माली बाग लगाया हो ।
 कच्ची कली इक तोड़िकै, मलिया पछिताया हो ।।
 गंग-जमुन = इंगला-पिंगला है, बाग लगाना = सुरत जमाना है और कच्ची कली तोड़नी = कुछ अभ्यास करके जो अपरिपक्व बल हुआ उसको खर्च कर देना है। तुरीयावस्था के आरंभ से ही कच्ची कली है। ध्यान से ऊर्ध्वगति होती है। किसी भी पदार्थ को चाहे वह कठिन हो, तरल हो, वाष्पीय हो, उसको समेटने से ऊर्ध्वगति होती है। मन ईथर से भी सूक्ष्म है। जो जितना सूक्ष्म होता है, सिमटाव होने पर उसकी उतनी ही विशेष ऊर्ध्वगति होती है। तुरीयावस्था में आधा मंजिल कोई पार कर जाय यानी त्रिकुटी में पहुँच जाय, त्रिकुटी उसको कहते हैं, जहाँ से प्रकृति के तीनों गुणों का कार्य आरंभ होता है। यह अन्दर की है, बाहर के भौओं के बीच की त्रिकुटी नहीं। यहाँ जो पहुँचता है, वह बहुत पवित्र होता है। जब साम्यावस्था- धारिणी मूल प्रकृति को पार करता है, वह बिल्कुल पवित्र हो जाता है। यहाँ ‘अहं ब्रह्मास्मि’ रहता है। यह तुरीयावस्था है। पहले ही मंजिल में यदि कोई कुछ करके दिखलाने लगे, कुछ लेने लगे तो उसकी ऊर्ध्वगति कहाँ से हो सकती है। इसलिए भगवान बुद्ध ने अपने शिष्य को फटकारा था। कहानी है कि किसी आदमी को सोने का एक कटोरा मिला। उसने उस कटोरे को, एक बाँस गाड़कर उसकी फुनगी पर बाँध दिया और कहा कि जो कोई अपना हाथ बढ़ाकर उस कटोरे को ले लेगा, वह कटोरा उसी का हो जाएगा। उस रास्ते से भगवान बुद्ध के एक शिष्य जा रहे थे, उनको यह बात मालूम हुई। उन्होंने अपने योगबल से हाथ बढ़ाकर उस कटोरे को ले लिया। जब यह बात भगवान बुद्ध को मालूम हुई तो उन्होंने अपने शिष्य को बहुत फटकारा और उस कटोरे को चूर-चूर कर फेंक दिया। ऐसी ही बातें तुलसी साहब के लिए भी है कि उनके शिष्य गिरधारी साहब ने किसी कारणवश लोगों पर अपनी सिद्धि-शक्ति का प्रयोग किया था और जब तुलसी साहब को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने अपने शिष्य गिरधारी साहब को बहुत फटकारा और कहा-‘साधु-संत दूसरों की रक्षा करने के लिए होते हैं कि सिर फोड़ने के लिए! आज से तुम कभी मेरे सामने मत आओ।’ तब से वे जीवन-पर्यन्त उनके सामने नहीं गए। यह इसलिए कि तुम अहंकार में नहीं फँसो। बाहर-बाहर चलने में, जो पदार्थ मिलना चाहिए, वह नहीं मिलता। इसलिए अपने अंदर चलो। अंदर में चलने से सिमटाव होगा, सिमटाव से ऊर्ध्वगति होगी। किंतु बिना विचारे तो संसार ही महारमणीय मालूम होता है। ‘अनविचार रमणीय महा संसार भयंकर भारी।’ ध्यानाभ्यास में साधक तुरीयावस्था के आरंभ में ऋद्धि-सिद्धि में फँसता है। संत लोग इससे हटाते हैं। उसको अंदर में मदद मिलती है। दृष्टि स्थिर होने पर ब्रह्मज्योति देखने में आती है। ‘देखे आँखी कोनो मते फिरे ना।’ वह परमात्मा के तरह-तरह के प्रकाशों को पाता है-देखता है। गीता में है कि भगवान ने अर्जुन को विराट रूप दिखलाया, उसमें इतना प्रकाश था कि करोड़ों सूर्य का प्रकाश उसका मुकाबला नहीं कर सकता था। उस प्रकाश को उस रूप से हटा दीजिए तो क्या सुन्दरता रह जाती है? बिना तेज के रूप सुन्दर नहीं दिखता। ‘जिमि बिनु तेज न रूप गोसाईं।’ असल तेज ही वह पदार्थ है जो अपनी ओर वा रूप की ओर आकर्षित करता है। सभी जीवित चेहरे में प्रकाश रहता है, मृतक शरीर के चेहरे में वह सौन्दर्य नहीं रहता। ब्रह्मतेज ही तेज है, किंतु बहुत लुभानेवाला है, यह अवलम्ब मिलता है। जिसको यह अवलम्ब मिलता है, वह उधर ही टन (खींच) जाता है, इधर नहीं आता है। दूसरा अवलम्ब शब्द का होता है। सृष्टि का स्थ्ूल या सूक्ष्म कोई भी मण्डल हो, बिना शब्द के नहीं है। वहाँ के शब्द को सुननेवाला वही होता है, जिसकी दृष्टि प्रकाश में पहुँच गई है, जहाँ जाओ कि सुन सको। वहाँ तक पहुँचने के लिए दृष्टियोग चाहिए। शब्द का सहारा इतना उत्तम है कि कहा नहीं जाता। शोक से मुरझाया हुआ आदमी है तो उसको ऐसे-ऐसे शब्द सुनाए जायँ, जिससे वह मुरझाया हुआ नहीं रहे, वह प्रसन्न हो जाय। शब्द में चार गुण हैं। ऊपर का शब्द नीचे दूर तक जाता है, नीचे का शब्द ऊपर दूर तक नहीं जाता है, अपने उद्गम स्थान पर खींचता है और अपने स्थान के गुण को लिए रहता है-उस शब्द को जो कोई सुनता है, वह गुण उसमें हो जाता है। सिनेमा-नाटक आदि देखते हैं तो उसमें शोक का दृश्य देखने से शोकित और हर्ष के दृश्य को देखकर हर्षित होते हैं। आप जिस शब्द को पकड़ना चाहें, उसे पकड़िए, उसके केन्द्र पर पहुँचिएगा। जिस-जिस शब्द को पकड़ा जाएगा, वह-वह शब्द अपने केन्द्र में केन्द्रित करावेगा। सच्चिदानन्द पद मण्डल के केन्द्र से जो शब्द आता है, वही रामनाम, ॐ, आदिनाम है। उस शब्द से जो खींचा जाएगा, वह परधाम में पहुँचेगा। जिस विषय को विशेष सुनिए उस ओर आकर्षण होगा। कौरव लोगों ने चाहा कि पांचो भाई पाण्डवों को किसी तरह अपने राज्य से बाहर करना चाहिए। कौरवों ने विचारा कि उनलोगों को काशी भ्ेजा जाय। किंतु स्पष्ट रूप में उनलोगों से यह बात करने में सभी सकुचाते थे। अंत में कौरवों ने अपने में यह परामर्श किया कि पाण्डव जब सभा में आवें, तब उनके सामने काशी की विशेषताओं का वर्णन करना चाहिए। सुनते-सुनते उन लोगों की इच्छा उस ओर झुकेगी और तब वे लोग स्वयं काशी चले जाएँगे। बात ऐसी ही हुई। वे पाँचो भाई जब-जब सभा में आते, कौरव गण तब-तब काशी की ही चर्चा करने लगते। फलतः काशी की विशेष चर्चा सुनते-सुनते अंत में युधिष्ठिर का मन उस ओर झुका और वे पाँचो भाई काशी चले गए। जिस विषय को आप बहुत सुनिए, उधर मन फिर जाएगा। इसलिए हमारे बाबा साहब सत्संग करने के लिए बहुत प्रेरणा देते थे। भजन करते समय सब भूल जाइए। पवित्र मन रखकर ध्यान कीजिए। विषयी इस ओर बढ़ नहीं सकता। उपनिषद् में भी कहा है, जो पाप कर्मों से निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं हैं और जिसका चित्त असमाहित या अशांत है, वह इसे आत्मज्ञान द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता है।
 ना विरतो दुश्चरितान्नाशान्तो ना समाहितः।
 ना शान्तो मानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ।।
       -कठोपनिषद्
गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
    सूचै भाड़ै साँचु समावै विरले सूचाचारी ।
    तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।
    ऐसी सेवकु सेवा करै, जिसका जिउ तिसु आगे धरै ।।
 यह भागवत की नवधा भक्ति में का ‘आत्मनिवेदनम्’ है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण आदि शरीरों से अपने को टपाकर रखो तभी आत्मनिवेदनम् होगा। शरीर से किसी के सामने साष्टांग गिरना यथार्थ में आत्मनिवेदनम् नहीं है। जिसको सत्संग से भी प्रेम है, वह पशु योनि में नहीं जाएगा। दृश्य-सृष्टि का आरंभ विन्दु से होता है। पहले विन्दु, फिर सब दृश्यों की रचना। दृश्य-जगत के शिखर पर तब चढ़ोगे, जब विन्दु ध्यान करोगे। यह विन्दु दृश्य जगत का बीज है और नाद अरूप-अदृश्य जगत का मूल बीज है। कम्पन और शब्द दोनों संग-संग रहते हैं। कम्पन से या शब्द से जिससे कहिए उससे सृष्टि हुई। यह शब्द ईश्वर का है। इसलिए बाइबिल में लिखा है कि ‘आदि में शब्द था और शब्द ईश्वर के संग था....।’ संतलोग भी शब्द से सृष्टि का होना मानते हैं। नाद ध्यान से अदृश्य सृष्टि के शिखर पर पहुँ चते हैं और परमात्मा को प्राप्त करते हैं। यही विन्दु और नाद ध्यान की महिमा है।
***************
यह प्रवचन पूर्णियाँ जिला के श्रीसंतमत सत्संग मंदिर सिकलीगढ़ धरहरा में दिनांक 27.11.1955 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
***************



130. गुरु गोविन्द सिंह की महानता
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 मेरे कहने का विषय ईश्वर-भक्ति है। ईश्वर- भक्ति के लिए पहले ईश्वर का स्वरूप जानना चाहिए। ईश्वर-स्वरूप को जाने बिना आप उसी तरह चलिएगा, जिस तरह किसी को निर्दिष्ट स्थान मालूम नहीं है और वह चलता हो। ईश्वर का स्वरूप इन्द्रिय-ज्ञान से परे है। इन्द्रिय-ज्ञान में जो आते हैं, वे किसी-न-किसी तरह नाशवान हैं-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 इन्द्रियों को जो कुछ प्रत्यक्ष है, सब माया है। दूसरी बात यह याद कीजिए कि अपने राजत्वकाल में श्रीराम ने प्रजा को बुलाकर अध्यात्म-ज्ञान की शिक्षा थी। श्रीराम के राज्य को लोग आज भी बहुत अच्छा कहते हैं। अति उत्तम राजनीति बनाकर प्रजा को सुखी करना ही श्रीराम का काम था। उन्होंने सोचा कि प्रजा इस संसार में तो सुखी है ही, शरीर छूटने के बाद भी ये सुखी रहें, दुःखी न हों, इसलिए प्रजा को बुलाकर उन्होंने शिक्षा दी थी। एक बात और हुई होगी कि श्रीराम तो राजनीतिज्ञ थे, राजनीतिज्ञ ही नहीं वे राजनीतिज्ञों के आचार्य थे। जो बातें तुलसीकृत रामायण या वाल्मीकि रामायण में अयोग्य जँचती हैं, हो सकता है, वे क्षेपक हों । श्रीराम ने सोचा होगा कि प्रजा को ऐसी शिक्षा देनी चाहिए कि जिससे वह इस लोक और परलोक दोनों में सुखी रहें। लोग समझते हैं कि अर्थहीन बहुत दुःखी होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा कि-‘नहिं दरिद्र सम दुख जग माहिं।’ लोग अर्थ के लालच के कारण ही चोरी, डकैती, वटमारी, बेइमानी, लूट आदि किया करते हैं।
 ‘ज्ञान-सरोवर’ में लिखा है कि महाराज युधिष्ठिर ब्राह्मणों को नित्य सोने की थाली में भोजन कराते थे। एक दिन एक ब्राह्मण एक थाली चुरा ले गए। खोज करने पर पता चला कि अमुक ब्राह्मण ने थाली चुराई है। चोर को दण्ड मिलना चाहिए। किंतु ब्राह्मणों के अदण्डणीय होने के कारण उन्हें दण्ड दिया जाय तो कैसे? युधिष्ठिर इस असमंजस में पड़े थे। इस न्याय के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें राजा बलि के पास जाने की अनुमति दी। भगवान को साथ लेकर महाराज युधिष्ठिर राजा बलि के पास गए और उस ब्राह्मण के सोने की थाली चुराने की बात कही। राजा बलि बोले कि तुम्हारी प्रजा धनहीन है, इसलिए चोरी करती है, यह दोष तुम्हारा है। तुम अपनी प्रजा को पूरा धन नहीं दे सकते। तुम अपनी प्रजा को पूरा धन दो तो फिर कोई प्रजा चोरी क्यों करेगी? इस प्रकार आप धन देकर प्रजा को सुखी कर सकते हैं। राजा लोग ऐसा ही करते थे कि उनको पूरा धन देते थे, जिससे वह चोरी डकैती आदि नहीं करती थी। लोग झूठ बोलकर, धोखा देकर, ठगकर, किसी-न-किसी तरह पैसा खींच लेते हैं। यह सब तो आपलोग जानते ही हैं। मगर गैरवाजिब नहीं लेना चाहिए। यदि कबीर साहब के समान खरा निर्लोभी हो तो ठीक है। उनका एक दोहा सुनिए-
कबीर चाले हाट को, कहे न कोई पतियाय ।
पाँच टके का दोपटा, सात टके को जाय ।।
 कबीर साहब कपड़े बिन-बिनकर बेचा करते थे। एक दिन वे एक चादर लेकर बाजार में बेचने गए और उस चादर का मूल्य उन्होंने पाँच रुपये बतलाए। ग्राहक उनसे तीन चार रुपये कहते थे। अंत में वे चादर लिए हुए घर लौट रहे थे। रास्ते में एक चतुर व्यक्ति से भेंट हो गई। उसने कबीर साहब से पूछा-‘क्यों, चादर वापस ले जा रहे हैं?’ कबीर साहब ने कहा-‘हाँ, यह चादर पाँच रुपये की है, किंतु कोई पाँच रुपये देना नहीं चाहते।’ चतुरजन ने कहा-‘मुझे यह चादर दीजिए। मैं इसे बेचकर पाँच रुपये आपको दे दूँगा और इससे विशेष जो होगा, उसे मैं ले लूँगा।’ कबीर साहब ने कहा-‘भाई! मुझे तो पाँच ही रुपये चाहिए।’ उस चादर को लेकर वह चतुर व्यक्ति बाजार गया और उसका मूल्य आठ रुपये सुनाने लगा। किसी ने सात रुपये में उस चादर को खरीद लिया। उस चतुरजन ने पाँच रुपये तो कबीर साहब को दिए और दो रुपये खुद रख लिए। इस तरह यदि कोई कबीर साहब के समान सब्रदार और संतोषी है तो उसका भी गुजर-बसर हो जाता है। और जनता की निगाह में वह प्रतिष्ठा का पात्र भी समझा जाता है। किंतु ऐसे आदमी कम होते हैं। लालची की आँख संसार-भर की दौलत से उसी तरह नहीं भरती, जिस तरह ओस से कुआँ नहीं भरता। अनैतिकता से धन कमाना ठीक नहीं है। चोर-डकैत तो पहले यहीं पर पीटे जाते हैं और कचहरी में सजा पाते हैं। यहाँ सांसारिक सुखों में ऐसी ही बात होती है। धन-अर्जन, सांसारिक प्रबंध और राजनीति के साथ आध्यात्मिकता और आध्यात्मिक ज्ञान वा रूहानियत (चैतन्यता) वा इल्मे रूहानी कर दो। जब एखलाक (शील) वा सदाचार ऊँचा होगा तब आत्मज्ञान में ऊँची गति यानी रूहानी तरक्की होगी। संसार में सदाचरण में बरतते हुए परलोक में भी ठीक-ठीक कुशल से रहा जाएगा। विषयी सदाचरण में बरतकर आत्मोन्नति-पथ में चल नहीं सकता। इसी से तुलसीकृत रामायण में श्रीराम का उपदेश है-
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।
नरतन पाइ विषय मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं।।
 एक बार रास्ते में जाते-जाते मुझको पंजवारा बाजार के कुछ सज्जनों ने कहा-‘कुछ सुनाइए।’ मैंने कहा-‘समय नहीं है, थोड़े में सब सुन लो-राम राजा सकल प्रजा।’ राम व्यक्त रूप में इस धरातल पर नहीं हैं, किंतु वे अव्यक्त रूप में हैं ही। राजा का वचन मानोगे तो सुखी रहोगे, नहीं तो दुखी रहोगे। वह वचन यह है-‘एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदायी।।’ स्वर्ग में भी सभी बराबर सुखी नहीं रहते, कोई अल्प और कोई विशेष सुखी रहते हैं। श्रीराम कहते हैं, वहाँ भी सुख थोड़ा ही है और अंत में वह दुख देनेवाला है। श्रीराम प्रजा को विषय से विमुख करते हैं, विषय से दूसरी ओर ले जाते हैं। इल्मे (विद्या) रूहानी (चैतन्य) की ओर ले जाने के लिए उन्होंने नसीहत (शिक्षा) दी कि जो हवास (इन्द्रियाँ) में आने योग्य चीजें हैं, उनको छोड़ो। परवर दीगार को जानना चाहते हो तो हवास के इल्म (इन्द्रिय-ज्ञान) से आगे जाओ।
 विषय कितने हैं? रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द; ये पाँच हैं। ये आँख से, कान से, त्वचा से, और जिभ्या से ग्रहण किए जाते हैं। विषय-सुख भोग में जो आराम मालूम होता है, उस आराम में रहना अच्छा नहीं। स्वर्ग (बहिस्त) में भी बेचैनी लगी रहती है, यही श्रीराम कहते हैं। वहाँ भी लड़ाइयाँ होती हैं। वहाँ और यहाँ में यही अंतर है कि वहाँ भोग-विलास की सामग्री अधिक है। इस शरीर के लिए तो यह कहा गया है कि-
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाँचत जेहि।।
     -गोस्वामी तुलसीदास
 श्रीराम ने कहा-विषय की ओर मत जाओ। इसका आशय क्या हुआ? निर्विषय की ओर जाओ। निर्विषय तत्त्व क्या है? जो हवास में नहीं आता, जो पंच विषयों से परे है। उस ओर चलने के लिए श्रीराम उपदेश देते हैं। इन्द्रियों की पकड़ में जो आवे वह माया है। ‘अनविचार रमणीय महा संसार भयंकर भारी।’ नहीं विचार करो तो संसार बहुत अच्छा है। यदि विचार करो तो यह संसार बहुत भयंकर है, तब क्या करो?-निर्विषय की ओर चलो। यदि कोई कहे, क्या निर्विषय की ओर चलना ही भक्ति है? मैं कहूँगा हाँ, निर्विषय की ओर चलना ही ईश्वर की ओर चलना है, यही ईश्वर की भक्ति है। दूसरे कहते हैं कि ईश्वर तुम्हारे पास हैं, फिर बुलाओ किसको और जाओगे किसके पास? तुलसी साहब के पास एक विश्वासी मुसलमान गए, कुछ जिज्ञासा करने के लिए। उनका नाम तकी था। तुलसी साहब ने उससे कहा-
 सुन ऐ तकी न जाइयो जिनहार देखना ।
 अपने में आप जलवए दिलदार देखना ।।
फिर उसका रास्ता बतलाया-
 पुतली में तिल है तिल में भरा राजकुल का कुल ।
 इस परदये सियाह के जरा पार देखना ।।
 यदि काले परदे के पार में देखो तो क्या होगा? तो कहा-
 चौदह तबक का हाल अयाँ हो तुझे जरूर ।
 गाफिल न हो ख्याल से हुशियार देखना ।।
 यहाँ के भक्तों से या दूसरे देशों के भक्तों से पूछो, सभी अंतर में चलने के लिए कहते हैं। कितने मुझसे झगड़ते हैं कि ध्रुव और प्रùाद को क्या इन आँखों से भगवान के दर्शन नहीं हुए? तो मैं कहूँगा कि तुलसीकृत रामायण में जो श्रीराम ने कहा है उसे देखिए-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
क्या यह झूठ है?
 देवी, काली, राम, कृष्ण, शिव, आदि अनेक रूपों में लोग भगवान को मानते हैं? क्या उन अनेक रूपों मेें अनेक भगवान हैं? या केवल एक ही भगवान सब रूपों में हैं? रूप के दर्शन से केवल शरीर-रूप दर्शन हुआ, परंतु उन सब रूपों में जो एक ही हैं, उन आत्मरूप भगवान का दर्शन नहीं हुआ। किसी को चतुर्भुजी, किसी को दोभुजी का दर्शन हुआ। गोस्वामीजी को हनुमानजी सहायक थे। हनुमानजी से तुलसीदासजी ने विनय किया कि मुझे भगवान का दर्शन कराइए। वहीं का यह दोहा है- चित्रकूट के घाट पर , भइ संतन की भीर ।
तुलसि दास चंदन घिसे तिलक देत रघुवीर ।।
 तुलसीदासजी ने उन्हें तिलक लगाया, किंतु फिर भी वे उन्हें पहचान नहीं सके। फिर घोडे़ पर राजकुमार के रूप में दर्शन हुए, किंतु फिर भी पहचान नहीं सके। तुलसीदासजी से पूछिए, उनका अपना लिखा क्या है, सो पढ़िए। उनका अंतिम ग्रंथ विनयपत्रिका है। उसमें लिखा है कि-
एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो ।
परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं, बाहर फिरत विकल भय धायो।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद, अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल, परम सुगंध कहाँ ते आयो।।
ज्यों सर विमल वारि परिपूरन, ऊपर कछु सेंवार तृन छायो ।
जारत हियो ताहि तजिहौं सठ, चाहत यहि विधि तृषा बुझायो।।
व्यापित त्रिविध ताप तन दारुण, तापर दुसह दरिद्र सतायो।
अपने धाम नाम सुरतरु तजि, विषय बबूर बाग मन लायो।।
तुम्ह सम ज्ञान निधान मोहि सम, मूढ़ न आन पुरानन्हि गायो।
तुलसिदास प्रभु यह विचारि जिय, कीजै नाथ उचित मन भायो।।
 जबतक गोस्वामी तुलसीदासजी बाहर भटकते रहे, तबतक वे उसी तरह भटकते रहे जिस तरह मृगा कस्तूरी के लिए भटकता है। जैसे कोई प्यासाजन किसी तालाब पर जाता है, वहाँ पानी के ऊपर सेंवार (पानी में उगनेवाला एक प्रकार का घास) है, उस तृण को हटाए बिना ही पानी पीना चाहता है। आशय अपने अंदर में आवरण हैं, जबतक उन आवरणों को नहीं हटाया जाय, तबतक परमात्मा रूपी निर्मल जल को कोई नहीं पी सकता। आवरण क्या है? इसपर कहा-
मायाबस मति मन्द अभागी। हृदय जवनिका बहु विधि लागी।।
ते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अज्ञान राम पर धरहीं।।
 काम क्रोध मद लोभरत, गृहासक्त दुख रूप।
 ते किमि जानहिं रघुपतिहिं, मूढ़ पड़े तम कूप।।
 जबतक अंधकार के कुँए से नहीं निकलो, अंदर के आवरणों का टूटना नहीं हो सकता। जबतक अनासक्त होकर घर में नहीं रहा जाएगा, तबतक ईश्वर के दर्शन नहीं हो सकते। इसलिए अंधकार के कुँए से अपने को निकालो। जबतक सदाचार का पूरी तौर से पालन नहीं किया जाय-कभी गिर जाय, कभी पालन करे-तबतक वह फल बहुत दूर है। यह तो गोस्वामी तुलसीदासजी का वचन हुआ। कबीर साहब और गुरु नानक साहब के लिए तो मुझसे पूछना ही क्या है? आमतौर से लोग समझते हैं कि गोस्वामी तुलसीदासजी केवल स्थूल उपासना में लगे थे और कबीर साहब तथा गुरु नानक साहब केवल निर्गुणवादी संत थे। आप उनके साहित्य को पढ़िए, केवल सुनी सुनाई बात से संतों के प्रति अश्रद्धा, अपने लिए बहुत हानिकारक है। सूरदासजी, तुलसीदासजी, कबीर साहब सभी अंदर की ओर ले जाते हैं। ईश्वर दर्शन इन्द्रियों से नहीं होता हैं उपनिषद् के वाक्यों में भी ईश्वर को आत्मगम्य बताया है-
 आतम गम्य भजहिं जेहि संता ।
 इसी शरीर में जीवात्मा और परमात्मा है, फिर भेंट क्यों नहीं होती है? इसका कारण क्या है? माया और छाया का आवरण जो जीव पर पड़ा है,यह आवरण जबतक नहीं हटे, तबतक पहचान नहीं हो सकती। इस आवरण रूप का जहाँ तक पसार है, वहाँ तक यह किस पर आवरण है? क्या पूर्ण परमात्मा माया के आवरणों से आवृत हैं? नहीं, वह माया के पसारों को भरकर और कितना विशेष है कुछ पता नहीं। उसका अंशरूप ही ढका है, पूर्ण रूप नहीं। यह अंश टूटा हुआ नहीं, बल्कि महदाकाश का अंश मठाकाश। जैसे एक ही आकाश ऊपर से नीचे तक फैला हुआ है। यह आपके शरीर रूप आवरण के अंदर भी है। उसी तरह परमात्मा आपके अंदर है, किंतु आप उसका दर्शन नहीं कर सकते हैं; क्योंकि आप इन्द्रियों के द्वारा ही कुछ जानते हैं और आपकी इन्द्रियाँ स्थूल हैं। उन स्थूल इन्द्रियों से परमात्मा को कैसे पकड़ सकते हैं। स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता। परमात्मा अनादि, अनंत, असीम है। जो पदार्थ जितना व्यापक होता है, वह उतना ही विशेष सूक्ष्म होता है। बर्फ, पानी और वाष्प की उपमा से बोध कीजिए। जो अनादि-अनंत तत्त्व है, वह सबसे विशेष सूक्ष्म है। जो सबसे विशेष सूक्ष्म होगा, वह सबमें घुस सकता है। उन सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थों को स्थूल हाथ से नहीं पकड़ सकते। इसलिए वेदों में आया है कि परमात्मा इन्द्रियातीत है। वह चेतन आत्मा के ज्ञान में आने योग्य है। वह पकड़ा क्यों नहीं जाता है? कबीर साहब ने कहा है-
 सुरत फँसी संसार, में तातें पड़िगा दूर ।
 सुरत बाँधि सुस्थिर करो, आठो पहर हजूर ।।
 अपने को इन्द्रियों से और शरीरों से बिना छुड़ाए केवल बाहर-बाहर के भागने से परमात्मा पकड़ा नहीं जा सकता। जाग्रत में इन्द्रियाँ अपने- अपने विषयों में फँसती है, स्वप्न में स्वयं अपने अंदर जाते हुए पाते हो कि मैं अब सोता हूँ। तन्द्रा में बाहर से कुछ अचेतपन होता जाता है, उस समय गला झुक जाता है, हाथ-पैर कमजोर होने लगते हैं, इस समय भीतर की ओर शक्ति सिमटती है। जिभ्या पर मिठाई रहने से भी मीठा मालूम नहीं होता। बहिर्मुख से अंतर्मुख होना बाहर के विषयों से छूटना होता है। इससे जानने में आता है कि बाहर से भीतर होने पर इन्द्रियों का विषयों से छूटना होता है। केवल स्थूल विषयों से ही नहीं, सूक्ष्म विषयों से भी छूटना होता है। इसी को कबीर साहब ने कहा-‘भक्ति सतो गुर आनी।’ सतगुरु की भक्ति दूसरी है। इसी भक्ति का उपदेश गुरु महाराज करते थे और मैंने जो सीखा है उसी को आपलोगों के सामने रखा। अंतर में प्रवेश करने के लिए आप मानस जप और मानस ध्यान करके दृष्टियोग और नादानुसंधान कीजिए। दृष्टियोग में विन्दुध्यान होता है। यह विन्दु सूक्ष्म है, इसको मन से गढ़ा (बनाया) नहीं जाता। विन्दु वह है, जिसका स्थान है, परिमाण नहीं। परिमाण-रहित सूक्ष्मतम पदार्थ को विन्दु कहते हैं। आपकी दृष्टि जहाँ सिमटकर रहेगी, वहीं विन्दु उत्पन्न होता है। जहाँ विन्दु है, वहीं नाद है।
 विन्दु में तहँ नाद बोलै रैन दिवस सुहावनं ।
       -पलटू साहब
 विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नाद लिंगमुपस्थितम् ।
       -योगशिखोपनिषद्
 बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
           -ध्यानविन्दूपनिषद्
मुसलमान भाइयों के लिए-
 सुन लामकां पै पहुँच के तेरी पुकार है ।
 है आ रही सदा से सदा यार देखना ।।
 मिलना तो यार का नहीं मुश्किल मगर तकी ।
 दुशवार तो ये है कि है दुशवार देखना ।।
         -तुलसी साहब
इसमें दृष्टिसाधन पर जोर दिया गया है। फिर कहा-
 तुलसी बिना करम किसी मुर्शिद रसीदा के ।
 राहे नजात दूर है उस पार देखना ।।
                 -तुलसी साहब
 दुर्लभो विषय त्यागो दुर्लभं तत्त्व दर्शनम् ।
 दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरोः करुणां विना ।।
         -वराहोपनिषद्
 गुरु चाहिए, साधन की युक्ति चाहिए और इसके लिए प्रयास चाहिए। जो इसका अभ्यास करता है, वह भक्ति की चरम सीमा तक पहुँचता है।
 फिर भी किन्हीं का कहना है कि भगवान को गुरु मानकर चलना बहुत उत्तम है। श्रीरामचरितमानस में भगवान श्रीराम ने परम भक्तिन साधिका शवरीजी के प्रति जो नवधा भक्ति का उपदेश दिया है, उसमें -‘गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान।’ का कथन करके अंत में शवरीजी को कहा है कि ‘सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।’ इससे विदित होता है कि पुरुष और स्त्री दोनों को उपर्युक्त नवधा भक्ति की साधना करनी चाहिए। यह प्रसिद्ध है कि शवरीजी मातंग मुनि की शिष्या थीं। श्रीमीराबाई का यह शब्द है-
मीरा मन मानी सुरत सैल असमानी।
जब जब सुरत लगे वा घर की, पल पल नैनन पानी।।
ज्यों हिय पीर तीर सम सालत, कसक कसक कसकानी।।
रैन दिवस मोहि नींद न आवत, भावै अन्न न पानी।।
ऐसी पीर विरह तन भीतर , जागत रैन विहानी।।
ऐसा वैद मिलै कोइ भेदी, देश विदेश पिछानी।।
तासों पीर कहौं तन केरी, फिर नहिं भरमौं खानी।।
खोजत फिरौं भेद वा घर की, कोइ न करत बखानी।।
रैदास संत मिले मोहि सतगुरु, दीना सुरत सहदानी।।
मैं मिली जाय पाय पिय अपना, तब मोरी पीर बुझानी।।
मीरा खाक खलक सिर डारी, मैं अपना घर जानी।।
 यह शब्द श्रीमीराबाईजी के गुरु का पता बताता है। सहजोबाई तथा दयाबाई के गुरु श्री चरणदासजी महाराज थे। उनकी वाणियों को पढ़कर देख लीजिए-
चरण दास गुरु सहजो केरे, नमो नमो बारम्बार । और-
चरण दास किरपा सूँ सहजो, भरम करम भयो छारा ।। आदि
 शिक्षा और दीक्षा सबको चाहिए, किन्तु कान फूँकना कोई दीक्षा नहीं है और न अध्यात्म-पथ में इसका कोई अर्थ है। भक्तिन सिस्टर निवेदिता श्री स्वामी विवेकानन्दजी की शिष्या थीं। श्रीसमर्थ राम- दासजी महाराज (क्षत्रपति श्रीशिवाजी राव के गुरु) की भी शिष्याएँ थी। भगवान बुद्ध और कबीर साहब आदि संतों की भी शिष्याएँ थी। जिससे विदित होता है कि स्त्रियों के वास्ते पति-सेवा और पातिव्रत-धर्म का पालन के सहित अध्यात्म-धर्म (मोक्ष धर्म) के पथ में योग्य गुरु से शिक्षा और दीक्षा ग्रहण करने की आवश्यकता अनिवार्य रूप से है। तभी तो भक्तवर श्री जयदयाल गोयन्दका महाराज जी अपने परमार्थ पत्रावली में गुरु मंत्र जपने कहते हैं और पुरुषों तथा महिलाओं के समाज में भी बैठकर उन्हें शिक्षा देते हैं। जब भगवान श्रीराम स्त्री-पुरुष सभी के लिए गुरुसेवा की विधि त्रेतायुग के प्राचीनकाल में ही दे गए हैं, तब संतों का, स्त्रियों को शिक्षा-दीक्षा देकर गुरु बनाना भगवान के उपदेश के अनुकूल ही है और युक्तिसंगत भी है। यदि स्त्री के पति स्वयं ही-योगीवर भूपेन्द्रनाथ सान्याल के सदृश अध्यात्म पथ के पथिक हों तो स्त्री अपने पति के द्वारा ही वह पथ पा सकती है। उसको दूसरे गुरु की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि जो विद्या और गुण जिनको हों, उनके द्वारा उनकी विद्या और गुण दूसरे को मिले यह पूर्ण संभव है। परन्तु इसके विरुद्ध अर्थात् जो विद्या और गुण जिनमें नहीं हो, वह विद्या और गुण उनके द्वारा किसी को मिले असंभव है। पत्नी को पति का गुण-स्वभाव, पवित्रता, अपवित्रता का ज्ञान भली भाँति अवश्य होता है; तदनुकूल वह अपनी श्रद्धा अवश्य रखेगी। इसके अतिरिक्त किसी दबाव से उसकी श्रद्धा अपने पति में हो, यह संभव नहीं जँचता। किसी भी अध्यात्म पथ के गुरु में पवित्रता, ज्ञान और कर्म के कारण ही उनमें श्रद्धा हो सकती है। नहीं तो-
गुरु सिष अंध बधिर कर लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा।।
हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुरु घोर नरक महँ परई।।
        - रामचरितमानस
 गर्वित कार्य अकार्य नहिं, जानत चलत कुपन्थ ।
 ऐसे गुरु कहँ त्यागिये, यही कहत शुभ गं्रथ ।।
            - महाभारत
 ज्ञानान्मोक्षमवाप्नोति तस्माज्ज्ञानं परात्परम् ।
 अतो यो ज्ञान दानेहि न क्षमस्तं त्यजेद् गुरुम् ।।
           - बृहत्तन्त्रसार
ऐसे गुरु का संग सर्वथा अनुचित है।
 झूठे गुरु के पक्ष को, तजत न कीजै बार ।
 द्वार न पावै शब्द का, भटकै बारम्बार ।।
       - कबीर साहब
 कतिपय लोग श्रीमीराबाईजी को केवल मोटी भक्ति-उपासना की ही भक्तिन समझते हैं,परन्तु उनका जो शब्द पहले कहा गया है और इस दूसरे शब्द-
    ऊँची अँटरिया लाल किवड़िया, निर्गुण सेज बिछी ।।
    पंचरंगी झालर सुभ सोहै, फूलन फूल कली ।
    बाजूबंद कडूला सोहै, माँग सिन्दूर भरी ।।
    सुमिरण थाल हाथ में लीन्हा, शोभा अधिक भली ।
    सेज सुखमणाँ मीरा सोवै, शुभ है आज घड़ी ।।
से विदित होता है कि वह योग्य गुरु संत रविदासजी की कृपा से अंतर्मार्ग के योग संबंधी योग साधनाओं को भी करती थीं। अर्थात् वह सूक्ष्म उपासना में भी अपनी अच्छी गति रखती थी। यह नहीं कि वह केवल पति की ही उपासना किया करती थी।
 अध्यात्म-पथ में पुरुष और स्त्री सबको बराबर अधिकार है। स्त्रियों में भी योग्यता विशेष की साधिकाएँ हुई हैं और अब भी जहाँ-तहाँ हैं। श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव को तांत्रिक शिक्षा-दीक्षा एक भैरवी ब्राह्मणी से मिली थी, यह प्रसिद्ध है। तंत्रशास्त्र में स्त्रियों के लिए पति के अतिरिक्त शुद्ध आचरणी, अध्यात्म-पथ के दाता योग्य गुरु से शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करने की विधि तो है ही और तुलसीकृत रामायण के अनुकूल श्रीराम का भी यही उपदेश है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज तो यहाँ तक कहते हैं कि-
बिन गुरु भवनिधि तरइ न कोई। जौं विरंचि शंकर सम होई।।
 महारानी द्रौपदी के वस्त्रहरण के समय उनकी करुण पुकार पर, भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से, उनका वस्त्र बढ़ा था, लोगों में यह विख्यात है। इसी हेतु उन्हें भी बहुत लोग भक्तिन मानते हैं। महाभारत आदि पर्व के पढ़ने से विदित होता है कि पति हेतु उन्होंने कई जन्मों तक तपस्या की थी। एक जन्म के उनके तप के अवसर पर उनको धर्म, इन्द्र, पवन और युगल अश्विनी कुमार देवों के दर्शन हुए तथा उन्होंने पति रूप में पाँचों को मानस और मौन इच्छा से वरण किया था। उन पाँचों ने उनकी इच्छा पूर्ण करने का वरदान दिया था। पाण्डवों ने जब द्रौपदी के पिता द्रुपद राजा के सामने ‘हम पाँचो भाई द्रौपदी से विवाह करेंगे’,यह कहा था, तब राजा द्रुपद और उसके पुत्र धृष्टद्युम्न ने मिलकर इसका प्रतिवाद भी किया था, द्रौपदी ने भी इसका प्रतिवाद किया था, ऐसा महाभारत में कहीं भी लिखा नहीं है। महाभारत के वनपर्व में लिखा है कि अपने पाँचों पतियों और भगवान श्रीकृष्ण की उपस्थिति में, द्रौपदी ने अपने मन की सच्ची बात नहीं बतलाई, झूठ बात कह दी थी। जब अर्जुन ने उसे प्राणदण्ड देने की धमकी दी, तब उसने अपने दिल की सच्ची बातें कहीं थीं। वह अपने मन में वीर कर्ण को भी पति रूप में पा जाती, यह स्मरण करती रहती थी। इस गोपनीय विषय को जानकर वीरवर भीमसेन ने उसको बहुत डाँटा और उसकी बड़ी भर्त्सना भी की थी। महाभारत के स्वर्गारोहण पर्व में लिखा है कि पाण्डवों के महाप्रस्थान के समय वह भी पाँचों भाई पाण्डवों के साथ-साथ चलती थी। वह उन सबके पीछे-पीछे चलती थी। उस पहाड़ी यात्रा में पहले द्रौपदी गिरकर परलोक सिधार गई। उस समय भीम ने युधिष्ठिर से पूछा कि यह इस तरह क्यों गिर गई? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया कि यद्यपि हम पाँचो भाई द्रौपदी के लिए समान थे, परंतु यह अर्जुन का पक्षपात बहुत करती थी, इसलिए वह इस तरह गिर गई। परलोक में उन्हें नरक की यातना देखनी पड़ी, फिर वह स्वर्ग की लक्ष्मी होकर विराजी।
 द्रौपदी के विषय में उपर्युक्त बातां की जानकारी के बाद विद्वान एवं बु़द्धमान स्वयं विचारें कि द्रौपदी की पातिव्रत्य विषयक एवं परमात्म-भक्ति विषयक योग्यता उसमें कितनी और कैसी थी? तथा अन्य स्त्रियों को इसका अनुकरण करना चाहिए या नहीं? रामचरितमानस में श्रीअनुसूइया देवी ने श्रीसीताजी को पातिव्रत्य धर्म की शिक्षा इस प्रकार दी थी-
जग पतिव्रता चारि विधि अहहीं। वेद पुरान संत सब कहहीं।।
उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं।।
मध्यम पर पति देखइ कैसें। भ्राता पिता पुत्र निज जैसे।।
धर्म विचारि समुझि कुल रहई। सो निकृष्ट तिय स्रुति अस कहई।।
बिनु अवसर भय तें रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई।।
 उपर्युक्त विवेचन के अनुकूल बुद्धिमान स्वयं ही विचार सकते हैं कि द्रौपदी अपने यथाकथित विव- रणानुकूल किस कोटि की नारी कही जा सकती है?
 परंतु महाभक्तिन शवरी के लिए तुलसीकृत रामायण में लिखा है कि-‘तजि योग पावक देह हरि पद लीन भई जहँ नहिं फिरे।’ उपर्युक्त साधिकाओं के कथित कर्मों से लोग इनकी विशेषताओं को समझ सकते हैं और निर्णय कर सकते हैं कि भक्ति-पथ में स्त्रियों और पुरुषों को किस प्रकार चलना चाहिए? स्त्रियों के लिए जिस प्रकार पातिव्रत्य धर्म का पालन उनकी पवित्रता की श्रेष्ठता है, उसी तरह भगवान श्रीराम के सदृश्य एक स्त्रीव्रत का पालन करना पुरुष की भी पवित्रता की श्रेष्ठता है। परन्तु दोनों को सद्गुरु कर्णधार का आश्रय हो, अध्यात्म-पथ का पथिक बन, परमात्म-भक्ति का साधन कर, भव सिन्धु को पार करके अपना-अपना कल्याण बना लेना परम कर्तव्य है। यह कल्याण न केवल एक स्त्रीव्रत धारण से और न केवल पातिव्रत्य के पालन से मिल सकता है। इन व्रतियों के अनुसार अपने-अपने व्रतों के सहित कही गई रीति से परमात्म-भक्ति अवश्य करनी चाहिए। कोई-कोई परम ज्ञानवती विशेष साधिका बहुत से पुरुषों की पथप्रदर्शिका थीं। और अब भी हैं। उन पर उनके शिष्यगण धर्म-मातृभाव श्रद्धापूर्वक रखकर उनके आश्रित रहते हैं। उसी तरह पतिव्रता स्त्रियाँ भी अपने सद्गुरु पर धर्म-पिता का भाव रखकर उनके आश्रित रह परमात्म-भक्ति का साधन करती हैं।
धर्म पिता गुरु जानि जे दृढ़ता लावई। -चरणदासजी
 जैसे किसी स्त्री के पिता, ज्येष्ठ भ्राता और श्वसुर उसके लिए पर पुरुष तो हैं ही, परंतु वे उसके लिए गुरुजन भी हैं। वैसे ही सद्गुरु भी उनके लिए गुरुजन ही हैं। पिता, ज्येष्ठ भ्राता और श्वसुर आदि के निकट संबंधी गुरुजनों से सम्भाषण और सदुपदेश आदि ग्रहण करने से, उनकी समयोचित सेवा से, स्त्रियों के सती-धर्मपालन में हानि नहीं होती। उसी तरह सद्गुरु से ज्ञान लाभ हेतु सम्भाषण से तथा उनकी समयोचित सेवा से स्त्रियों के सती धर्म-पालन में हानि नहीं होती। पाण्डवों की माता कुन्ती देवी ने दुर्वासा मुनि की अधिक दिनों तक बड़ी सेवा की थी। दुर्वासा मुनिजी ने कुन्ती देवीजी को उस मंत्र की दीक्षा दी थी, जिससे वह देवताओं को अपने पास बुला सकती थी। किंतु दुषित बुद्धिवालों के लिए तो पवित्र और उच्च संबंध में भी नीच भाव उपजे और तदनुकूल वे कर्म करें, इसमें आश्चर्य ही क्या है? गुरुडम जैसा किसी को सदोष झलकता है, उपदेशक डम और प्रचारकडम भी वैसे ही सदोष झलकना चाहिए। परंतु सद्शिक्षा और सद्दीक्षा का प्रचार अनिवार्य है, नहीं तो संसार की बड़ी हानि होगी। इसी तरह असद् शिक्षा और असद् दीक्षा के प्रचार का भी पूर्ण निवारण अत्यन्त वांछनीय है। नहीं तो इससे भी संसार की बड़ी हानि होगी। इसके लिए सदाचार का पालन करो। सदाचार पालन के लिए पंच पापों-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से बचो। हिंसा दो प्रकार की होती है-वार्य और अनिवार्य। स्वाँस लेने, खेती करने और अपना राज्य बचाने के लिए युद्ध करने में जो हिंसा होती है, वह अनिवार्य हिंसा है। गुरु गोविन्द सिंह-गुरु भी और हथियार रखनेवाले भी थे। वे उदार भी बहुत थे। एक बार युद्ध के समय उन्होंने एक सिक्ख सिपाही से कहा कि जो सिपाही युद्ध करते करते गिर जाय, उसे पानी पिलाया करो। सिक्ख ने उस आज्ञा को शिरोधार्य कर गिर हुए सिपाहियों को पानी पिलाना शुरू किया। यहाँ तक कि वह शत्रु पक्ष के गिरे सिपाहियों को भी पानी पिलाता था। किसी दूसरे सिपाही ने कहा कि ऐ सिक्ख! यह क्या कर रहा है? दुश्मनों को पानी क्यों पिलाता है? सिक्ख ने उत्तर दिया-‘मैं अपना काम कर रहा हूँ, तू अपना काम कर।’ सिपाही ने गुरु गोविन्द सिंहजी से जाकर यह बात कही और कहा कि पानी पीकर दुश्मन स्वस्थ होकर फिर हमसे युद्ध करने लगता है। गुरु गोविन्द सिंहजी ने उस सिक्ख को बुलाकर पूछा-‘क्या तुम ठीक ही दुश्मनों के गिरे सिपाहियों को भी पानी पिलाते हो?’ उन्होंने कहा-‘जी हुजूर!’ गुरु गोविन्द सिंहजी ने कहा-‘ऐसा क्यों करते हो?’ सिपाही ने कहा-‘हुजूर ने ही तो कहा कि गिरे सिपाहियों को पानी पिलाया करो। हुजूर! जबतक वह लड़ता है, तबतक वह मेरा दुश्मन है, किंतु जब वह गिर गया, तब वह दुश्मन कहाँ रहा?’ गुरु गोविन्द सिंहजी ने उसकी पीठ ठोकते हुए कहा-‘तू पानी पिलाया कर, तेरा विचार बड़ा पवित्र है।’
 एक बार सिक्ख सिपाहीगण दुश्मनों की कुछ स्त्रियों को कैद कर ले आए। गुरु गोविन्द सिंहजी को जब यह मालूम हुआ तो बहुत बिगड़े और बोले-‘तुमको किसने सिखलाया कि दुश्मनों की स्त्रियों को कैद करो।’ सिक्खों ने कहा-‘दुश्मन तो ऐसा करते हैं!’ गुरु गोविन्द सिंहजी ने कहा-‘दुश्मन यदि पाप करे, तो हम भी पाप करें? जाओ, इन सब स्त्रियों को अच्छी तरह उनके घर पहुँचा दो।’ और फिर उन्होंने सख्त हिदायत कर दी कि आइन्दे कभी ऐसा काम मत करना। सिक्खों ने उन स्त्रियों को उनके घर पहुँचा दिया। इस प्रकार इनके संबंध में और ऐसी कितनी ही घटनाएँ हैं। गुरु गोविन्द सिंहजी गुरु नानकदेवजी की गद्दी के दशवें गुरु थे। शरण में आए की रक्षा करनी, स्त्रियों पर हाथ नहीं उठाना, कैद स्त्रियों को छुड़ाना आदि इनके काम थे। हाँ, तो मैं हिंसा के विषय में कह रहा था। संतमत नामर्द नहीं बनाता। चोर-डकैत आवे उसपर वार करो, दुश्मन चढ़ आवे तो उससे युद्ध करो। यह अनिवार्य हिंसा है। किंतु जिह्ना के लालच के लिए मांस खाओ, निशाना ठीक करने के लिए चिड़िया मारो, यह ठीक नहीं। प्रत्येक भोजन अपना-अपना गुण रखता है। बकरे, पशु, पक्षी आदि सभी की देहों के गुण अलग-अलग होते हैं। जहाँ मनुष्य-शरीर को देवताओं के शरीर से भी विशेष कहा गया है, वहाँ निम्न श्रेणी के जीव-जन्तुओं के मांसों को अपने अंदर डालना अच्छा नहीं। निम्न श्रेणियों के जीव-जन्तुओं का मांस खाने से तुम्हारी बुद्धि दूषित हो जाएगी, उससे भजन नहीं बन सकता। मांस-मछली खाने से बुद्धि तामसी हो जाएगी, इसलिए इसका त्याग करो। यदि कहो कि मांस, मछली खाने की आज्ञा नहीं देते और युद्ध करने के लिए आज्ञा देते हो, यह कैसी बात? तो इसके लिए रामायण की कथा प्रसिद्ध है। रावण के दल में सभी ‘महिष खाय अरु मदिरा पाना’ वाले थे और श्रीराम के दल में शाक-सब्जी और पत्ते खानेवाले, दोनों में लड़ाई होने पर शाक-सब्जी खानेवाले ही जीत गए। हाल में महात्मा गाँधीजी और अंग्रेज की उपमा से भी जानिए। मस्तिष्क का बल देखिए-निरामिषाहारी महात्मा गाँधीजी जीत गए। और मांस-मछली खानेवाले अंग्रेज हार गए। कितने गुरु ढीले होते हैं, वे कहते हैं कि मांस-मछली खाना धीरे-धीरे आप ही छोड़ देंगे। तो मैं कहता हूँ-‘भाई! जो मांस-मछली खाना चाहो तो उनके पास जाओ। किंतु मेरी रुचि इसमें नहीं है और न मेरे गुरु महाराज की ही आज्ञा है कि मांस-मछली खाया जाय। मांस-मछली और सभी प्रकार के मदों को छोड़ो।
 मद तो बहुतक भाँति का ताहि न जानै कोय ।
 तन मद मन मद जाति मद, माया मद सब लोय ।।
 विद्या मद और गुनहु मद, राजमद्द उनमद्द ।
 इतने मद को रद्द करै, तब पावै अनहद्द ।।
          -कबीर साहब
 भक्ति भी इस प्रकार का संयम होना चाहिए। यह तो निषेध हुआ, अब विधि वचन सुनो; क्योंकि-
विधि निषेध मय कलिमल हरनी। करम कथा रविनंदिनी वरनी।।
 विधि वचन है-एक ईश्वर पर विश्वास करो, उसी का पूरा भरोसा करो, जिसके स्वरूप का वर्णन किया गया। ईश्वर की प्राप्ति अपने अंदर में होगी, इसका दृढ़ निश्चय रखो। त्रिकाल संध्या करो, ध्यान करो, सत्संग करो, गुरुजनों की सेवा करो। अनासक्त भाव से रहकर अपने कर्तव्यों का पालन करो। स्त्री, पुत्र, भाई, भतीजे, परिवार आदि के लिए अपना हृदय खीरा बनाकर रखो। अंदर सबसे हटे रहो, बाहर सबसे मिले रहो। नहीं हटोगे, तो भी हटना ही पड़ेगा, जबरदस्ती हटना पड़ेगा। यदि पहले से नहीं हटे रहोगे तो बहुत दुःख होगा। इसलिए संसार में अनासक्त होकर रहते हुए कर्तव्य पालन और परमात्म-भजन करो तो दुःख नहीं होगा।
***************
यह प्रवचन अखिल भारतीय विशेषाधिवेशन, सिकलीगढ़ धरहरा पूर्णियाँ में दिनांक 26.12.1955 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
***************