130. गुरु गोविन्द सिंह की महानता
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
मेरे कहने का विषय ईश्वर-भक्ति है। ईश्वर- भक्ति के लिए पहले ईश्वर का स्वरूप जानना चाहिए। ईश्वर-स्वरूप को जाने बिना आप उसी तरह चलिएगा, जिस तरह किसी को निर्दिष्ट स्थान मालूम नहीं है और वह चलता हो। ईश्वर का स्वरूप इन्द्रिय-ज्ञान से परे है। इन्द्रिय-ज्ञान में जो आते हैं, वे किसी-न-किसी तरह नाशवान हैं-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
इन्द्रियों को जो कुछ प्रत्यक्ष है, सब माया है। दूसरी बात यह याद कीजिए कि अपने राजत्वकाल में श्रीराम ने प्रजा को बुलाकर अध्यात्म-ज्ञान की शिक्षा थी। श्रीराम के राज्य को लोग आज भी बहुत अच्छा कहते हैं। अति उत्तम राजनीति बनाकर प्रजा को सुखी करना ही श्रीराम का काम था। उन्होंने सोचा कि प्रजा इस संसार में तो सुखी है ही, शरीर छूटने के बाद भी ये सुखी रहें, दुःखी न हों, इसलिए प्रजा को बुलाकर उन्होंने शिक्षा दी थी। एक बात और हुई होगी कि श्रीराम तो राजनीतिज्ञ थे, राजनीतिज्ञ ही नहीं वे राजनीतिज्ञों के आचार्य थे। जो बातें तुलसीकृत रामायण या वाल्मीकि रामायण में अयोग्य जँचती हैं, हो सकता है, वे क्षेपक हों । श्रीराम ने सोचा होगा कि प्रजा को ऐसी शिक्षा देनी चाहिए कि जिससे वह इस लोक और परलोक दोनों में सुखी रहें। लोग समझते हैं कि अर्थहीन बहुत दुःखी होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा कि-‘नहिं दरिद्र सम दुख जग माहिं।’ लोग अर्थ के लालच के कारण ही चोरी, डकैती, वटमारी, बेइमानी, लूट आदि किया करते हैं।
‘ज्ञान-सरोवर’ में लिखा है कि महाराज युधिष्ठिर ब्राह्मणों को नित्य सोने की थाली में भोजन कराते थे। एक दिन एक ब्राह्मण एक थाली चुरा ले गए। खोज करने पर पता चला कि अमुक ब्राह्मण ने थाली चुराई है। चोर को दण्ड मिलना चाहिए। किंतु ब्राह्मणों के अदण्डणीय होने के कारण उन्हें दण्ड दिया जाय तो कैसे? युधिष्ठिर इस असमंजस में पड़े थे। इस न्याय के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें राजा बलि के पास जाने की अनुमति दी। भगवान को साथ लेकर महाराज युधिष्ठिर राजा बलि के पास गए और उस ब्राह्मण के सोने की थाली चुराने की बात कही। राजा बलि बोले कि तुम्हारी प्रजा धनहीन है, इसलिए चोरी करती है, यह दोष तुम्हारा है। तुम अपनी प्रजा को पूरा धन नहीं दे सकते। तुम अपनी प्रजा को पूरा धन दो तो फिर कोई प्रजा चोरी क्यों करेगी? इस प्रकार आप धन देकर प्रजा को सुखी कर सकते हैं। राजा लोग ऐसा ही करते थे कि उनको पूरा धन देते थे, जिससे वह चोरी डकैती आदि नहीं करती थी। लोग झूठ बोलकर, धोखा देकर, ठगकर, किसी-न-किसी तरह पैसा खींच लेते हैं। यह सब तो आपलोग जानते ही हैं। मगर गैरवाजिब नहीं लेना चाहिए। यदि कबीर साहब के समान खरा निर्लोभी हो तो ठीक है। उनका एक दोहा सुनिए-
कबीर चाले हाट को, कहे न कोई पतियाय ।
पाँच टके का दोपटा, सात टके को जाय ।।
कबीर साहब कपड़े बिन-बिनकर बेचा करते थे। एक दिन वे एक चादर लेकर बाजार में बेचने गए और उस चादर का मूल्य उन्होंने पाँच रुपये बतलाए। ग्राहक उनसे तीन चार रुपये कहते थे। अंत में वे चादर लिए हुए घर लौट रहे थे। रास्ते में एक चतुर व्यक्ति से भेंट हो गई। उसने कबीर साहब से पूछा-‘क्यों, चादर वापस ले जा रहे हैं?’ कबीर साहब ने कहा-‘हाँ, यह चादर पाँच रुपये की है, किंतु कोई पाँच रुपये देना नहीं चाहते।’ चतुरजन ने कहा-‘मुझे यह चादर दीजिए। मैं इसे बेचकर पाँच रुपये आपको दे दूँगा और इससे विशेष जो होगा, उसे मैं ले लूँगा।’ कबीर साहब ने कहा-‘भाई! मुझे तो पाँच ही रुपये चाहिए।’ उस चादर को लेकर वह चतुर व्यक्ति बाजार गया और उसका मूल्य आठ रुपये सुनाने लगा। किसी ने सात रुपये में उस चादर को खरीद लिया। उस चतुरजन ने पाँच रुपये तो कबीर साहब को दिए और दो रुपये खुद रख लिए। इस तरह यदि कोई कबीर साहब के समान सब्रदार और संतोषी है तो उसका भी गुजर-बसर हो जाता है। और जनता की निगाह में वह प्रतिष्ठा का पात्र भी समझा जाता है। किंतु ऐसे आदमी कम होते हैं। लालची की आँख संसार-भर की दौलत से उसी तरह नहीं भरती, जिस तरह ओस से कुआँ नहीं भरता। अनैतिकता से धन कमाना ठीक नहीं है। चोर-डकैत तो पहले यहीं पर पीटे जाते हैं और कचहरी में सजा पाते हैं। यहाँ सांसारिक सुखों में ऐसी ही बात होती है। धन-अर्जन, सांसारिक प्रबंध और राजनीति के साथ आध्यात्मिकता और आध्यात्मिक ज्ञान वा रूहानियत (चैतन्यता) वा इल्मे रूहानी कर दो। जब एखलाक (शील) वा सदाचार ऊँचा होगा तब आत्मज्ञान में ऊँची गति यानी रूहानी तरक्की होगी। संसार में सदाचरण में बरतते हुए परलोक में भी ठीक-ठीक कुशल से रहा जाएगा। विषयी सदाचरण में बरतकर आत्मोन्नति-पथ में चल नहीं सकता। इसी से तुलसीकृत रामायण में श्रीराम का उपदेश है-
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।
नरतन पाइ विषय मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं।।
एक बार रास्ते में जाते-जाते मुझको पंजवारा बाजार के कुछ सज्जनों ने कहा-‘कुछ सुनाइए।’ मैंने कहा-‘समय नहीं है, थोड़े में सब सुन लो-राम राजा सकल प्रजा।’ राम व्यक्त रूप में इस धरातल पर नहीं हैं, किंतु वे अव्यक्त रूप में हैं ही। राजा का वचन मानोगे तो सुखी रहोगे, नहीं तो दुखी रहोगे। वह वचन यह है-‘एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदायी।।’ स्वर्ग में भी सभी बराबर सुखी नहीं रहते, कोई अल्प और कोई विशेष सुखी रहते हैं। श्रीराम कहते हैं, वहाँ भी सुख थोड़ा ही है और अंत में वह दुख देनेवाला है। श्रीराम प्रजा को विषय से विमुख करते हैं, विषय से दूसरी ओर ले जाते हैं। इल्मे (विद्या) रूहानी (चैतन्य) की ओर ले जाने के लिए उन्होंने नसीहत (शिक्षा) दी कि जो हवास (इन्द्रियाँ) में आने योग्य चीजें हैं, उनको छोड़ो। परवर दीगार को जानना चाहते हो तो हवास के इल्म (इन्द्रिय-ज्ञान) से आगे जाओ।
विषय कितने हैं? रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द; ये पाँच हैं। ये आँख से, कान से, त्वचा से, और जिभ्या से ग्रहण किए जाते हैं। विषय-सुख भोग में जो आराम मालूम होता है, उस आराम में रहना अच्छा नहीं। स्वर्ग (बहिस्त) में भी बेचैनी लगी रहती है, यही श्रीराम कहते हैं। वहाँ भी लड़ाइयाँ होती हैं। वहाँ और यहाँ में यही अंतर है कि वहाँ भोग-विलास की सामग्री अधिक है। इस शरीर के लिए तो यह कहा गया है कि-
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाँचत जेहि।।
-गोस्वामी तुलसीदास
श्रीराम ने कहा-विषय की ओर मत जाओ। इसका आशय क्या हुआ? निर्विषय की ओर जाओ। निर्विषय तत्त्व क्या है? जो हवास में नहीं आता, जो पंच विषयों से परे है। उस ओर चलने के लिए श्रीराम उपदेश देते हैं। इन्द्रियों की पकड़ में जो आवे वह माया है। ‘अनविचार रमणीय महा संसार भयंकर भारी।’ नहीं विचार करो तो संसार बहुत अच्छा है। यदि विचार करो तो यह संसार बहुत भयंकर है, तब क्या करो?-निर्विषय की ओर चलो। यदि कोई कहे, क्या निर्विषय की ओर चलना ही भक्ति है? मैं कहूँगा हाँ, निर्विषय की ओर चलना ही ईश्वर की ओर चलना है, यही ईश्वर की भक्ति है। दूसरे कहते हैं कि ईश्वर तुम्हारे पास हैं, फिर बुलाओ किसको और जाओगे किसके पास? तुलसी साहब के पास एक विश्वासी मुसलमान गए, कुछ जिज्ञासा करने के लिए। उनका नाम तकी था। तुलसी साहब ने उससे कहा-
सुन ऐ तकी न जाइयो जिनहार देखना ।
अपने में आप जलवए दिलदार देखना ।।
फिर उसका रास्ता बतलाया-
पुतली में तिल है तिल में भरा राजकुल का कुल ।
इस परदये सियाह के जरा पार देखना ।।
यदि काले परदे के पार में देखो तो क्या होगा? तो कहा-
चौदह तबक का हाल अयाँ हो तुझे जरूर ।
गाफिल न हो ख्याल से हुशियार देखना ।।
यहाँ के भक्तों से या दूसरे देशों के भक्तों से पूछो, सभी अंतर में चलने के लिए कहते हैं। कितने मुझसे झगड़ते हैं कि ध्रुव और प्रùाद को क्या इन आँखों से भगवान के दर्शन नहीं हुए? तो मैं कहूँगा कि तुलसीकृत रामायण में जो श्रीराम ने कहा है उसे देखिए-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
क्या यह झूठ है?
देवी, काली, राम, कृष्ण, शिव, आदि अनेक रूपों में लोग भगवान को मानते हैं? क्या उन अनेक रूपों मेें अनेक भगवान हैं? या केवल एक ही भगवान सब रूपों में हैं? रूप के दर्शन से केवल शरीर-रूप दर्शन हुआ, परंतु उन सब रूपों में जो एक ही हैं, उन आत्मरूप भगवान का दर्शन नहीं हुआ। किसी को चतुर्भुजी, किसी को दोभुजी का दर्शन हुआ। गोस्वामीजी को हनुमानजी सहायक थे। हनुमानजी से तुलसीदासजी ने विनय किया कि मुझे भगवान का दर्शन कराइए। वहीं का यह दोहा है- चित्रकूट के घाट पर , भइ संतन की भीर ।
तुलसि दास चंदन घिसे तिलक देत रघुवीर ।।
तुलसीदासजी ने उन्हें तिलक लगाया, किंतु फिर भी वे उन्हें पहचान नहीं सके। फिर घोडे़ पर राजकुमार के रूप में दर्शन हुए, किंतु फिर भी पहचान नहीं सके। तुलसीदासजी से पूछिए, उनका अपना लिखा क्या है, सो पढ़िए। उनका अंतिम ग्रंथ विनयपत्रिका है। उसमें लिखा है कि-
एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो ।
परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं, बाहर फिरत विकल भय धायो।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद, अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल, परम सुगंध कहाँ ते आयो।।
ज्यों सर विमल वारि परिपूरन, ऊपर कछु सेंवार तृन छायो ।
जारत हियो ताहि तजिहौं सठ, चाहत यहि विधि तृषा बुझायो।।
व्यापित त्रिविध ताप तन दारुण, तापर दुसह दरिद्र सतायो।
अपने धाम नाम सुरतरु तजि, विषय बबूर बाग मन लायो।।
तुम्ह सम ज्ञान निधान मोहि सम, मूढ़ न आन पुरानन्हि गायो।
तुलसिदास प्रभु यह विचारि जिय, कीजै नाथ उचित मन भायो।।
जबतक गोस्वामी तुलसीदासजी बाहर भटकते रहे, तबतक वे उसी तरह भटकते रहे जिस तरह मृगा कस्तूरी के लिए भटकता है। जैसे कोई प्यासाजन किसी तालाब पर जाता है, वहाँ पानी के ऊपर सेंवार (पानी में उगनेवाला एक प्रकार का घास) है, उस तृण को हटाए बिना ही पानी पीना चाहता है। आशय अपने अंदर में आवरण हैं, जबतक उन आवरणों को नहीं हटाया जाय, तबतक परमात्मा रूपी निर्मल जल को कोई नहीं पी सकता। आवरण क्या है? इसपर कहा-
मायाबस मति मन्द अभागी। हृदय जवनिका बहु विधि लागी।।
ते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अज्ञान राम पर धरहीं।।
काम क्रोध मद लोभरत, गृहासक्त दुख रूप।
ते किमि जानहिं रघुपतिहिं, मूढ़ पड़े तम कूप।।
जबतक अंधकार के कुँए से नहीं निकलो, अंदर के आवरणों का टूटना नहीं हो सकता। जबतक अनासक्त होकर घर में नहीं रहा जाएगा, तबतक ईश्वर के दर्शन नहीं हो सकते। इसलिए अंधकार के कुँए से अपने को निकालो। जबतक सदाचार का पूरी तौर से पालन नहीं किया जाय-कभी गिर जाय, कभी पालन करे-तबतक वह फल बहुत दूर है। यह तो गोस्वामी तुलसीदासजी का वचन हुआ। कबीर साहब और गुरु नानक साहब के लिए तो मुझसे पूछना ही क्या है? आमतौर से लोग समझते हैं कि गोस्वामी तुलसीदासजी केवल स्थूल उपासना में लगे थे और कबीर साहब तथा गुरु नानक साहब केवल निर्गुणवादी संत थे। आप उनके साहित्य को पढ़िए, केवल सुनी सुनाई बात से संतों के प्रति अश्रद्धा, अपने लिए बहुत हानिकारक है। सूरदासजी, तुलसीदासजी, कबीर साहब सभी अंदर की ओर ले जाते हैं। ईश्वर दर्शन इन्द्रियों से नहीं होता हैं उपनिषद् के वाक्यों में भी ईश्वर को आत्मगम्य बताया है-
आतम गम्य भजहिं जेहि संता ।
इसी शरीर में जीवात्मा और परमात्मा है, फिर भेंट क्यों नहीं होती है? इसका कारण क्या है? माया और छाया का आवरण जो जीव पर पड़ा है,यह आवरण जबतक नहीं हटे, तबतक पहचान नहीं हो सकती। इस आवरण रूप का जहाँ तक पसार है, वहाँ तक यह किस पर आवरण है? क्या पूर्ण परमात्मा माया के आवरणों से आवृत हैं? नहीं, वह माया के पसारों को भरकर और कितना विशेष है कुछ पता नहीं। उसका अंशरूप ही ढका है, पूर्ण रूप नहीं। यह अंश टूटा हुआ नहीं, बल्कि महदाकाश का अंश मठाकाश। जैसे एक ही आकाश ऊपर से नीचे तक फैला हुआ है। यह आपके शरीर रूप आवरण के अंदर भी है। उसी तरह परमात्मा आपके अंदर है, किंतु आप उसका दर्शन नहीं कर सकते हैं; क्योंकि आप इन्द्रियों के द्वारा ही कुछ जानते हैं और आपकी इन्द्रियाँ स्थूल हैं। उन स्थूल इन्द्रियों से परमात्मा को कैसे पकड़ सकते हैं। स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता। परमात्मा अनादि, अनंत, असीम है। जो पदार्थ जितना व्यापक होता है, वह उतना ही विशेष सूक्ष्म होता है। बर्फ, पानी और वाष्प की उपमा से बोध कीजिए। जो अनादि-अनंत तत्त्व है, वह सबसे विशेष सूक्ष्म है। जो सबसे विशेष सूक्ष्म होगा, वह सबमें घुस सकता है। उन सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थों को स्थूल हाथ से नहीं पकड़ सकते। इसलिए वेदों में आया है कि परमात्मा इन्द्रियातीत है। वह चेतन आत्मा के ज्ञान में आने योग्य है। वह पकड़ा क्यों नहीं जाता है? कबीर साहब ने कहा है-
सुरत फँसी संसार, में तातें पड़िगा दूर ।
सुरत बाँधि सुस्थिर करो, आठो पहर हजूर ।।
अपने को इन्द्रियों से और शरीरों से बिना छुड़ाए केवल बाहर-बाहर के भागने से परमात्मा पकड़ा नहीं जा सकता। जाग्रत में इन्द्रियाँ अपने- अपने विषयों में फँसती है, स्वप्न में स्वयं अपने अंदर जाते हुए पाते हो कि मैं अब सोता हूँ। तन्द्रा में बाहर से कुछ अचेतपन होता जाता है, उस समय गला झुक जाता है, हाथ-पैर कमजोर होने लगते हैं, इस समय भीतर की ओर शक्ति सिमटती है। जिभ्या पर मिठाई रहने से भी मीठा मालूम नहीं होता। बहिर्मुख से अंतर्मुख होना बाहर के विषयों से छूटना होता है। इससे जानने में आता है कि बाहर से भीतर होने पर इन्द्रियों का विषयों से छूटना होता है। केवल स्थूल विषयों से ही नहीं, सूक्ष्म विषयों से भी छूटना होता है। इसी को कबीर साहब ने कहा-‘भक्ति सतो गुर आनी।’ सतगुरु की भक्ति दूसरी है। इसी भक्ति का उपदेश गुरु महाराज करते थे और मैंने जो सीखा है उसी को आपलोगों के सामने रखा। अंतर में प्रवेश करने के लिए आप मानस जप और मानस ध्यान करके दृष्टियोग और नादानुसंधान कीजिए। दृष्टियोग में विन्दुध्यान होता है। यह विन्दु सूक्ष्म है, इसको मन से गढ़ा (बनाया) नहीं जाता। विन्दु वह है, जिसका स्थान है, परिमाण नहीं। परिमाण-रहित सूक्ष्मतम पदार्थ को विन्दु कहते हैं। आपकी दृष्टि जहाँ सिमटकर रहेगी, वहीं विन्दु उत्पन्न होता है। जहाँ विन्दु है, वहीं नाद है।
विन्दु में तहँ नाद बोलै रैन दिवस सुहावनं ।
-पलटू साहब
विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नाद लिंगमुपस्थितम् ।
-योगशिखोपनिषद्
बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
-ध्यानविन्दूपनिषद्
मुसलमान भाइयों के लिए-
सुन लामकां पै पहुँच के तेरी पुकार है ।
है आ रही सदा से सदा यार देखना ।।
मिलना तो यार का नहीं मुश्किल मगर तकी ।
दुशवार तो ये है कि है दुशवार देखना ।।
-तुलसी साहब
इसमें दृष्टिसाधन पर जोर दिया गया है। फिर कहा-
तुलसी बिना करम किसी मुर्शिद रसीदा के ।
राहे नजात दूर है उस पार देखना ।।
-तुलसी साहब
दुर्लभो विषय त्यागो दुर्लभं तत्त्व दर्शनम् ।
दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरोः करुणां विना ।।
-वराहोपनिषद्
गुरु चाहिए, साधन की युक्ति चाहिए और इसके लिए प्रयास चाहिए। जो इसका अभ्यास करता है, वह भक्ति की चरम सीमा तक पहुँचता है।
फिर भी किन्हीं का कहना है कि भगवान को गुरु मानकर चलना बहुत उत्तम है। श्रीरामचरितमानस में भगवान श्रीराम ने परम भक्तिन साधिका शवरीजी के प्रति जो नवधा भक्ति का उपदेश दिया है, उसमें -‘गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान।’ का कथन करके अंत में शवरीजी को कहा है कि ‘सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।’ इससे विदित होता है कि पुरुष और स्त्री दोनों को उपर्युक्त नवधा भक्ति की साधना करनी चाहिए। यह प्रसिद्ध है कि शवरीजी मातंग मुनि की शिष्या थीं। श्रीमीराबाई का यह शब्द है-
मीरा मन मानी सुरत सैल असमानी।
जब जब सुरत लगे वा घर की, पल पल नैनन पानी।।
ज्यों हिय पीर तीर सम सालत, कसक कसक कसकानी।।
रैन दिवस मोहि नींद न आवत, भावै अन्न न पानी।।
ऐसी पीर विरह तन भीतर , जागत रैन विहानी।।
ऐसा वैद मिलै कोइ भेदी, देश विदेश पिछानी।।
तासों पीर कहौं तन केरी, फिर नहिं भरमौं खानी।।
खोजत फिरौं भेद वा घर की, कोइ न करत बखानी।।
रैदास संत मिले मोहि सतगुरु, दीना सुरत सहदानी।।
मैं मिली जाय पाय पिय अपना, तब मोरी पीर बुझानी।।
मीरा खाक खलक सिर डारी, मैं अपना घर जानी।।
यह शब्द श्रीमीराबाईजी के गुरु का पता बताता है। सहजोबाई तथा दयाबाई के गुरु श्री चरणदासजी महाराज थे। उनकी वाणियों को पढ़कर देख लीजिए-
चरण दास गुरु सहजो केरे, नमो नमो बारम्बार । और-
चरण दास किरपा सूँ सहजो, भरम करम भयो छारा ।। आदि
शिक्षा और दीक्षा सबको चाहिए, किन्तु कान फूँकना कोई दीक्षा नहीं है और न अध्यात्म-पथ में इसका कोई अर्थ है। भक्तिन सिस्टर निवेदिता श्री स्वामी विवेकानन्दजी की शिष्या थीं। श्रीसमर्थ राम- दासजी महाराज (क्षत्रपति श्रीशिवाजी राव के गुरु) की भी शिष्याएँ थी। भगवान बुद्ध और कबीर साहब आदि संतों की भी शिष्याएँ थी। जिससे विदित होता है कि स्त्रियों के वास्ते पति-सेवा और पातिव्रत-धर्म का पालन के सहित अध्यात्म-धर्म (मोक्ष धर्म) के पथ में योग्य गुरु से शिक्षा और दीक्षा ग्रहण करने की आवश्यकता अनिवार्य रूप से है। तभी तो भक्तवर श्री जयदयाल गोयन्दका महाराज जी अपने परमार्थ पत्रावली में गुरु मंत्र जपने कहते हैं और पुरुषों तथा महिलाओं के समाज में भी बैठकर उन्हें शिक्षा देते हैं। जब भगवान श्रीराम स्त्री-पुरुष सभी के लिए गुरुसेवा की विधि त्रेतायुग के प्राचीनकाल में ही दे गए हैं, तब संतों का, स्त्रियों को शिक्षा-दीक्षा देकर गुरु बनाना भगवान के उपदेश के अनुकूल ही है और युक्तिसंगत भी है। यदि स्त्री के पति स्वयं ही-योगीवर भूपेन्द्रनाथ सान्याल के सदृश अध्यात्म पथ के पथिक हों तो स्त्री अपने पति के द्वारा ही वह पथ पा सकती है। उसको दूसरे गुरु की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि जो विद्या और गुण जिनको हों, उनके द्वारा उनकी विद्या और गुण दूसरे को मिले यह पूर्ण संभव है। परन्तु इसके विरुद्ध अर्थात् जो विद्या और गुण जिनमें नहीं हो, वह विद्या और गुण उनके द्वारा किसी को मिले असंभव है। पत्नी को पति का गुण-स्वभाव, पवित्रता, अपवित्रता का ज्ञान भली भाँति अवश्य होता है; तदनुकूल वह अपनी श्रद्धा अवश्य रखेगी। इसके अतिरिक्त किसी दबाव से उसकी श्रद्धा अपने पति में हो, यह संभव नहीं जँचता। किसी भी अध्यात्म पथ के गुरु में पवित्रता, ज्ञान और कर्म के कारण ही उनमें श्रद्धा हो सकती है। नहीं तो-
गुरु सिष अंध बधिर कर लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा।।
हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुरु घोर नरक महँ परई।।
- रामचरितमानस
गर्वित कार्य अकार्य नहिं, जानत चलत कुपन्थ ।
ऐसे गुरु कहँ त्यागिये, यही कहत शुभ गं्रथ ।।
- महाभारत
ज्ञानान्मोक्षमवाप्नोति तस्माज्ज्ञानं परात्परम् ।
अतो यो ज्ञान दानेहि न क्षमस्तं त्यजेद् गुरुम् ।।
- बृहत्तन्त्रसार
ऐसे गुरु का संग सर्वथा अनुचित है।
झूठे गुरु के पक्ष को, तजत न कीजै बार ।
द्वार न पावै शब्द का, भटकै बारम्बार ।।
- कबीर साहब
कतिपय लोग श्रीमीराबाईजी को केवल मोटी भक्ति-उपासना की ही भक्तिन समझते हैं,परन्तु उनका जो शब्द पहले कहा गया है और इस दूसरे शब्द-
ऊँची अँटरिया लाल किवड़िया, निर्गुण सेज बिछी ।।
पंचरंगी झालर सुभ सोहै, फूलन फूल कली ।
बाजूबंद कडूला सोहै, माँग सिन्दूर भरी ।।
सुमिरण थाल हाथ में लीन्हा, शोभा अधिक भली ।
सेज सुखमणाँ मीरा सोवै, शुभ है आज घड़ी ।।
से विदित होता है कि वह योग्य गुरु संत रविदासजी की कृपा से अंतर्मार्ग के योग संबंधी योग साधनाओं को भी करती थीं। अर्थात् वह सूक्ष्म उपासना में भी अपनी अच्छी गति रखती थी। यह नहीं कि वह केवल पति की ही उपासना किया करती थी।
अध्यात्म-पथ में पुरुष और स्त्री सबको बराबर अधिकार है। स्त्रियों में भी योग्यता विशेष की साधिकाएँ हुई हैं और अब भी जहाँ-तहाँ हैं। श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव को तांत्रिक शिक्षा-दीक्षा एक भैरवी ब्राह्मणी से मिली थी, यह प्रसिद्ध है। तंत्रशास्त्र में स्त्रियों के लिए पति के अतिरिक्त शुद्ध आचरणी, अध्यात्म-पथ के दाता योग्य गुरु से शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करने की विधि तो है ही और तुलसीकृत रामायण के अनुकूल श्रीराम का भी यही उपदेश है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज तो यहाँ तक कहते हैं कि-
बिन गुरु भवनिधि तरइ न कोई। जौं विरंचि शंकर सम होई।।
महारानी द्रौपदी के वस्त्रहरण के समय उनकी करुण पुकार पर, भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से, उनका वस्त्र बढ़ा था, लोगों में यह विख्यात है। इसी हेतु उन्हें भी बहुत लोग भक्तिन मानते हैं। महाभारत आदि पर्व के पढ़ने से विदित होता है कि पति हेतु उन्होंने कई जन्मों तक तपस्या की थी। एक जन्म के उनके तप के अवसर पर उनको धर्म, इन्द्र, पवन और युगल अश्विनी कुमार देवों के दर्शन हुए तथा उन्होंने पति रूप में पाँचों को मानस और मौन इच्छा से वरण किया था। उन पाँचों ने उनकी इच्छा पूर्ण करने का वरदान दिया था। पाण्डवों ने जब द्रौपदी के पिता द्रुपद राजा के सामने ‘हम पाँचो भाई द्रौपदी से विवाह करेंगे’,यह कहा था, तब राजा द्रुपद और उसके पुत्र धृष्टद्युम्न ने मिलकर इसका प्रतिवाद भी किया था, द्रौपदी ने भी इसका प्रतिवाद किया था, ऐसा महाभारत में कहीं भी लिखा नहीं है। महाभारत के वनपर्व में लिखा है कि अपने पाँचों पतियों और भगवान श्रीकृष्ण की उपस्थिति में, द्रौपदी ने अपने मन की सच्ची बात नहीं बतलाई, झूठ बात कह दी थी। जब अर्जुन ने उसे प्राणदण्ड देने की धमकी दी, तब उसने अपने दिल की सच्ची बातें कहीं थीं। वह अपने मन में वीर कर्ण को भी पति रूप में पा जाती, यह स्मरण करती रहती थी। इस गोपनीय विषय को जानकर वीरवर भीमसेन ने उसको बहुत डाँटा और उसकी बड़ी भर्त्सना भी की थी। महाभारत के स्वर्गारोहण पर्व में लिखा है कि पाण्डवों के महाप्रस्थान के समय वह भी पाँचों भाई पाण्डवों के साथ-साथ चलती थी। वह उन सबके पीछे-पीछे चलती थी। उस पहाड़ी यात्रा में पहले द्रौपदी गिरकर परलोक सिधार गई। उस समय भीम ने युधिष्ठिर से पूछा कि यह इस तरह क्यों गिर गई? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया कि यद्यपि हम पाँचो भाई द्रौपदी के लिए समान थे, परंतु यह अर्जुन का पक्षपात बहुत करती थी, इसलिए वह इस तरह गिर गई। परलोक में उन्हें नरक की यातना देखनी पड़ी, फिर वह स्वर्ग की लक्ष्मी होकर विराजी।
द्रौपदी के विषय में उपर्युक्त बातां की जानकारी के बाद विद्वान एवं बु़द्धमान स्वयं विचारें कि द्रौपदी की पातिव्रत्य विषयक एवं परमात्म-भक्ति विषयक योग्यता उसमें कितनी और कैसी थी? तथा अन्य स्त्रियों को इसका अनुकरण करना चाहिए या नहीं? रामचरितमानस में श्रीअनुसूइया देवी ने श्रीसीताजी को पातिव्रत्य धर्म की शिक्षा इस प्रकार दी थी-
जग पतिव्रता चारि विधि अहहीं। वेद पुरान संत सब कहहीं।।
उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं।।
मध्यम पर पति देखइ कैसें। भ्राता पिता पुत्र निज जैसे।।
धर्म विचारि समुझि कुल रहई। सो निकृष्ट तिय स्रुति अस कहई।।
बिनु अवसर भय तें रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई।।
उपर्युक्त विवेचन के अनुकूल बुद्धिमान स्वयं ही विचार सकते हैं कि द्रौपदी अपने यथाकथित विव- रणानुकूल किस कोटि की नारी कही जा सकती है?
परंतु महाभक्तिन शवरी के लिए तुलसीकृत रामायण में लिखा है कि-‘तजि योग पावक देह हरि पद लीन भई जहँ नहिं फिरे।’ उपर्युक्त साधिकाओं के कथित कर्मों से लोग इनकी विशेषताओं को समझ सकते हैं और निर्णय कर सकते हैं कि भक्ति-पथ में स्त्रियों और पुरुषों को किस प्रकार चलना चाहिए? स्त्रियों के लिए जिस प्रकार पातिव्रत्य धर्म का पालन उनकी पवित्रता की श्रेष्ठता है, उसी तरह भगवान श्रीराम के सदृश्य एक स्त्रीव्रत का पालन करना पुरुष की भी पवित्रता की श्रेष्ठता है। परन्तु दोनों को सद्गुरु कर्णधार का आश्रय हो, अध्यात्म-पथ का पथिक बन, परमात्म-भक्ति का साधन कर, भव सिन्धु को पार करके अपना-अपना कल्याण बना लेना परम कर्तव्य है। यह कल्याण न केवल एक स्त्रीव्रत धारण से और न केवल पातिव्रत्य के पालन से मिल सकता है। इन व्रतियों के अनुसार अपने-अपने व्रतों के सहित कही गई रीति से परमात्म-भक्ति अवश्य करनी चाहिए। कोई-कोई परम ज्ञानवती विशेष साधिका बहुत से पुरुषों की पथप्रदर्शिका थीं। और अब भी हैं। उन पर उनके शिष्यगण धर्म-मातृभाव श्रद्धापूर्वक रखकर उनके आश्रित रहते हैं। उसी तरह पतिव्रता स्त्रियाँ भी अपने सद्गुरु पर धर्म-पिता का भाव रखकर उनके आश्रित रह परमात्म-भक्ति का साधन करती हैं।
धर्म पिता गुरु जानि जे दृढ़ता लावई। -चरणदासजी
जैसे किसी स्त्री के पिता, ज्येष्ठ भ्राता और श्वसुर उसके लिए पर पुरुष तो हैं ही, परंतु वे उसके लिए गुरुजन भी हैं। वैसे ही सद्गुरु भी उनके लिए गुरुजन ही हैं। पिता, ज्येष्ठ भ्राता और श्वसुर आदि के निकट संबंधी गुरुजनों से सम्भाषण और सदुपदेश आदि ग्रहण करने से, उनकी समयोचित सेवा से, स्त्रियों के सती-धर्मपालन में हानि नहीं होती। उसी तरह सद्गुरु से ज्ञान लाभ हेतु सम्भाषण से तथा उनकी समयोचित सेवा से स्त्रियों के सती धर्म-पालन में हानि नहीं होती। पाण्डवों की माता कुन्ती देवी ने दुर्वासा मुनि की अधिक दिनों तक बड़ी सेवा की थी। दुर्वासा मुनिजी ने कुन्ती देवीजी को उस मंत्र की दीक्षा दी थी, जिससे वह देवताओं को अपने पास बुला सकती थी। किंतु दुषित बुद्धिवालों के लिए तो पवित्र और उच्च संबंध में भी नीच भाव उपजे और तदनुकूल वे कर्म करें, इसमें आश्चर्य ही क्या है? गुरुडम जैसा किसी को सदोष झलकता है, उपदेशक डम और प्रचारकडम भी वैसे ही सदोष झलकना चाहिए। परंतु सद्शिक्षा और सद्दीक्षा का प्रचार अनिवार्य है, नहीं तो संसार की बड़ी हानि होगी। इसी तरह असद् शिक्षा और असद् दीक्षा के प्रचार का भी पूर्ण निवारण अत्यन्त वांछनीय है। नहीं तो इससे भी संसार की बड़ी हानि होगी। इसके लिए सदाचार का पालन करो। सदाचार पालन के लिए पंच पापों-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से बचो। हिंसा दो प्रकार की होती है-वार्य और अनिवार्य। स्वाँस लेने, खेती करने और अपना राज्य बचाने के लिए युद्ध करने में जो हिंसा होती है, वह अनिवार्य हिंसा है। गुरु गोविन्द सिंह-गुरु भी और हथियार रखनेवाले भी थे। वे उदार भी बहुत थे। एक बार युद्ध के समय उन्होंने एक सिक्ख सिपाही से कहा कि जो सिपाही युद्ध करते करते गिर जाय, उसे पानी पिलाया करो। सिक्ख ने उस आज्ञा को शिरोधार्य कर गिर हुए सिपाहियों को पानी पिलाना शुरू किया। यहाँ तक कि वह शत्रु पक्ष के गिरे सिपाहियों को भी पानी पिलाता था। किसी दूसरे सिपाही ने कहा कि ऐ सिक्ख! यह क्या कर रहा है? दुश्मनों को पानी क्यों पिलाता है? सिक्ख ने उत्तर दिया-‘मैं अपना काम कर रहा हूँ, तू अपना काम कर।’ सिपाही ने गुरु गोविन्द सिंहजी से जाकर यह बात कही और कहा कि पानी पीकर दुश्मन स्वस्थ होकर फिर हमसे युद्ध करने लगता है। गुरु गोविन्द सिंहजी ने उस सिक्ख को बुलाकर पूछा-‘क्या तुम ठीक ही दुश्मनों के गिरे सिपाहियों को भी पानी पिलाते हो?’ उन्होंने कहा-‘जी हुजूर!’ गुरु गोविन्द सिंहजी ने कहा-‘ऐसा क्यों करते हो?’ सिपाही ने कहा-‘हुजूर ने ही तो कहा कि गिरे सिपाहियों को पानी पिलाया करो। हुजूर! जबतक वह लड़ता है, तबतक वह मेरा दुश्मन है, किंतु जब वह गिर गया, तब वह दुश्मन कहाँ रहा?’ गुरु गोविन्द सिंहजी ने उसकी पीठ ठोकते हुए कहा-‘तू पानी पिलाया कर, तेरा विचार बड़ा पवित्र है।’
एक बार सिक्ख सिपाहीगण दुश्मनों की कुछ स्त्रियों को कैद कर ले आए। गुरु गोविन्द सिंहजी को जब यह मालूम हुआ तो बहुत बिगड़े और बोले-‘तुमको किसने सिखलाया कि दुश्मनों की स्त्रियों को कैद करो।’ सिक्खों ने कहा-‘दुश्मन तो ऐसा करते हैं!’ गुरु गोविन्द सिंहजी ने कहा-‘दुश्मन यदि पाप करे, तो हम भी पाप करें? जाओ, इन सब स्त्रियों को अच्छी तरह उनके घर पहुँचा दो।’ और फिर उन्होंने सख्त हिदायत कर दी कि आइन्दे कभी ऐसा काम मत करना। सिक्खों ने उन स्त्रियों को उनके घर पहुँचा दिया। इस प्रकार इनके संबंध में और ऐसी कितनी ही घटनाएँ हैं। गुरु गोविन्द सिंहजी गुरु नानकदेवजी की गद्दी के दशवें गुरु थे। शरण में आए की रक्षा करनी, स्त्रियों पर हाथ नहीं उठाना, कैद स्त्रियों को छुड़ाना आदि इनके काम थे। हाँ, तो मैं हिंसा के विषय में कह रहा था। संतमत नामर्द नहीं बनाता। चोर-डकैत आवे उसपर वार करो, दुश्मन चढ़ आवे तो उससे युद्ध करो। यह अनिवार्य हिंसा है। किंतु जिह्ना के लालच के लिए मांस खाओ, निशाना ठीक करने के लिए चिड़िया मारो, यह ठीक नहीं। प्रत्येक भोजन अपना-अपना गुण रखता है। बकरे, पशु, पक्षी आदि सभी की देहों के गुण अलग-अलग होते हैं। जहाँ मनुष्य-शरीर को देवताओं के शरीर से भी विशेष कहा गया है, वहाँ निम्न श्रेणी के जीव-जन्तुओं के मांसों को अपने अंदर डालना अच्छा नहीं। निम्न श्रेणियों के जीव-जन्तुओं का मांस खाने से तुम्हारी बुद्धि दूषित हो जाएगी, उससे भजन नहीं बन सकता। मांस-मछली खाने से बुद्धि तामसी हो जाएगी, इसलिए इसका त्याग करो। यदि कहो कि मांस, मछली खाने की आज्ञा नहीं देते और युद्ध करने के लिए आज्ञा देते हो, यह कैसी बात? तो इसके लिए रामायण की कथा प्रसिद्ध है। रावण के दल में सभी ‘महिष खाय अरु मदिरा पाना’ वाले थे और श्रीराम के दल में शाक-सब्जी और पत्ते खानेवाले, दोनों में लड़ाई होने पर शाक-सब्जी खानेवाले ही जीत गए। हाल में महात्मा गाँधीजी और अंग्रेज की उपमा से भी जानिए। मस्तिष्क का बल देखिए-निरामिषाहारी महात्मा गाँधीजी जीत गए। और मांस-मछली खानेवाले अंग्रेज हार गए। कितने गुरु ढीले होते हैं, वे कहते हैं कि मांस-मछली खाना धीरे-धीरे आप ही छोड़ देंगे। तो मैं कहता हूँ-‘भाई! जो मांस-मछली खाना चाहो तो उनके पास जाओ। किंतु मेरी रुचि इसमें नहीं है और न मेरे गुरु महाराज की ही आज्ञा है कि मांस-मछली खाया जाय। मांस-मछली और सभी प्रकार के मदों को छोड़ो।
मद तो बहुतक भाँति का ताहि न जानै कोय ।
तन मद मन मद जाति मद, माया मद सब लोय ।।
विद्या मद और गुनहु मद, राजमद्द उनमद्द ।
इतने मद को रद्द करै, तब पावै अनहद्द ।।
-कबीर साहब
भक्ति भी इस प्रकार का संयम होना चाहिए। यह तो निषेध हुआ, अब विधि वचन सुनो; क्योंकि-
विधि निषेध मय कलिमल हरनी। करम कथा रविनंदिनी वरनी।।
विधि वचन है-एक ईश्वर पर विश्वास करो, उसी का पूरा भरोसा करो, जिसके स्वरूप का वर्णन किया गया। ईश्वर की प्राप्ति अपने अंदर में होगी, इसका दृढ़ निश्चय रखो। त्रिकाल संध्या करो, ध्यान करो, सत्संग करो, गुरुजनों की सेवा करो। अनासक्त भाव से रहकर अपने कर्तव्यों का पालन करो। स्त्री, पुत्र, भाई, भतीजे, परिवार आदि के लिए अपना हृदय खीरा बनाकर रखो। अंदर सबसे हटे रहो, बाहर सबसे मिले रहो। नहीं हटोगे, तो भी हटना ही पड़ेगा, जबरदस्ती हटना पड़ेगा। यदि पहले से नहीं हटे रहोगे तो बहुत दुःख होगा। इसलिए संसार में अनासक्त होकर रहते हुए कर्तव्य पालन और परमात्म-भजन करो तो दुःख नहीं होगा।
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यह प्रवचन अखिल भारतीय विशेषाधिवेशन, सिकलीगढ़ धरहरा पूर्णियाँ में दिनांक 26.12.1955 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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