95. जो कोई निर्गुण दरसन पावै
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
आपलोगों को यह विदित हुआ है कि अखिल भारतीय संतमत सत्संग का यह वार्षिक अधिवेशन यहाँ हो रहा है। और कल्ह से ही हो रहा है और कल्ह समाप्त होगा। मुझे जानने में आया है कि कुछ लोग कुछ विचित्र-सा मानते हैं कि संतमत कौन-सी बात है? तो मैंने सोचा यह प्रश्न तो उन्हीं के अंदर उठ सकता है जो संत का अर्थ और मत का अर्थ नहीं जानते। और यह शब्द पहले व्यवहृत हुआ है कि नहीं, यह उनको मालूम नहीं है। और इस मत में ईश्वर की मान्यता है कि नहीं? यह प्रश्न तो और विचित्र है। जो संतवाणी का पाठ नहीं किए होंगे, नहीं सुने होंगे, वे ऐसी बात कहें तो ठीक ही है। मैं उस विद्यालय में आज हूँ, जहाँ से मैं इस विद्या का शिक्षा पाया हूँ। गुरु महाराज अताई मुहल्ले में विराजते थे। सन् 1909 ई0 में मैं यहाँ आया था। वहाँ सत्संग हुआ करता था। ताज्जुब की बात है कि मैं कहाँ पुरैनियाँ जिला बिहार प्रान्त के पूर्व-उत्तर के अंत में और यहाँ मुरादाबाद युक्त प्रान्त के उत्तर-पश्चिम के अंत भाग के निकट। इतनी दूर की फासला में मैं संतमत के बारे में जानता हूँ और खास मुरादाबाद में इसकी चर्चा हो कि संतमत क्या चीज है? विचित्र बात है। 1909 ई0 से अबतक शायद 5-6 वर्ष यहाँ नहीं आया हूँ। और तो मैं प्रत्येक वर्ष यहाँ आया हूँ। जब गुरु महाराज थे, तब मैं यहाँ साल-साल आता था। कभी-कभी तो साल में दो बार भी आया। इस वर्ष भी मैं दो बार आया हूँ, जनवरी में और इस बार अक्टूबर में। बात यह है कि संतमत परम आस्तिक मत है। ईश्वर की मान्यता जिस मत में नहीं है, ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।’ जहाँ नहीं है, वह नास्तिक है। किंतु यहाँ तो ये दोनों हैं ही। हाँ! ईश्वर के बोध होने में लोगों को कठिनाई होती है। ईश्वर के लिए जो अनेक नाम-सतनाम, शिव, राम, कृष्ण आदि हैं; इस बात को बहुत लोग जानते हैं। किंतु स्वरूप नहीं जानते। स्वरूप का अर्थ निजरूप। इस निजरूप को लोग नहीं समझते।
अगुन अखंड अलख अज जोई। भगत प्रेमवस सगुन सो होई।।
उमा राम विषयक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा।।
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।
-रामचरितमानस
इन चौपाइयों से ईश्वर-स्वरूप का विचार सार रूप में मिलता है। मूल में ‘अगुन अखण्ड अलख अज’ है। अगुण का अर्थ त्रैगुणातीत न कि सम्पूर्ण विशेषणों से रहित। सम्पूर्ण विशेषणों से रहित का वर्णन नहीं हो सकता। राम, ब्रह्म, परमात्मा कहने से कुछ-न-कुछ विशेषण आ ही जाता है। इसलिए सम्पूर्ण विशेषणों से रहित मानना हो नहीं सकता। किंतु सत, रज, तम से रहित मानना ठीक है। अखण्ड अर्थात् जिसका खण्ड नहीं हो सकता। अलख अर्थात् इन्द्रियातीत। अज=जो उत्पन्न नहीं हुआ हो, जो हई है, कहीं से आया नहीं, हुआ नहीं। इन्द्रियों के ज्ञान से ऊपर, बुद्धि के ज्ञान से भी ऊपर है। यह किसी कारणवश प्रगट और इन्द्रियगोचर होता है। भक्त के प्रेमवश होकर सगुण रूप धारण करता है। प्रश्न होता है-‘जो गुण रहित सगुन सो कैसे।’ तो शिवजी उत्तर देते हैं-‘जल हिम उपल बिलग नहिं जैसे।।’ जल, हिम, उपल तत्त्व रूप में अलग-अलग पदार्थ नहीं, सब एक ही है। किंतु आज तक यहाँ किसी ने नहीं जाना है कि संसार का सम्पूर्ण जल पाला है या उपल? जो आकाश से गिरता है, पानी है। किंतु पानी से पाला और ओला रूपान्तर दशा में है। पानी से खेती सींची जाती है, किंतु ओला और पाला से खेती का नाश होता है। सम्पूर्ण जल कभी हिम या उपल नहीं होता, उसी तरह सम्पूर्ण अगुण, अखण्ड, अलख, अज कभी सगुण नहीं हो सकता है। इतना बड़ा कभी कोई मन्दिर नहीं हो सकता है, जिसमें संपूर्ण आकाश अँट जाय। मंदिर में आकाश व्यापक है? अवश्य, किंतु संपूर्ण आकाश उसमें अँट नहीं सकता। उसी प्रकार जो स्वरूपतः अपार है, वह परिमित हो जाय, यह बुद्धि में अँटने के काबिल बात नहीं है। श्रद्धा से मान लें तो उसको कौन रोक सकता है? संतों ने परमात्मा के उस स्वरूप को लखाया है। उस स्वरूप को पकड़ो, तो मोक्ष हो जाएगा। लोग कहते हैं जो हाथ से पकड़ने, आँख से देखने योग्य नहीं, उससे प्रेम कैसे करें? उसमें अपना मन कैसे लगावें? लोग अपनी कमजोरी दिखलाते हैं। संतमत कहता है-तुम और कुछ सुनो-समझो, तब तुम स्वयं कहोगे कि ठीक मैं उससे प्रेम कर सकता हूँ, उसे प्राप्त कर सकता हूँ। यदि कहो कि सगुण से ही काम चल जाएगा, निर्गुण की क्या आवश्यकता, तो गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप।।
यथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ।
सोइ सोइ भाव देखावइ, आपु न होइ न सोइ।।
और निर्गुण स्वरूप के लिए कहते हैं-
प्र्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाही ं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।
रामचरितमानस का वर्णन करते हैं तो कहते हैं-कथा-रूप जल है, जल में स्वच्छता और मिठास सगुण का वर्णन है। गंभीरता चाहिए तो कहते हैं-
रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनव सोइ वर वारि अगाधा।।
यह निर्गुण महिमा है। जहाँ तक कहना चाहिए कह देते हैं। गोस्वामीजी की दोहावली पढ़िए तो-
हिय निर्गुन नयनन्हिं सगुन, रसना राम सुनाम ।
मनहु पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम ।।
हृदय में निर्गुण है और आँखों में सगुण है। बेचारी आँख को सगुण के आगे गति ही नहीं है, करे तो क्या? फिर कहते हैं ‘रसना राम सुनाम’ यह कैसा हुआ? मानो सोने के डिब्बे में सुन्दर रत्न हो। हृदय में निर्गुण है, आँख में सगुण है और जिभ्या पर सुन्दर राम नाम है। यह क्या हुआ? मेरी समझ से सगुण सोने का डब्बा है और उसके अंदर ‘ललित ललाम’ निर्गुण है। वह उसमें शोभा पा रहा है। उसी तरह मेरे हृदय में निर्गुण है और आँख से सगुण को देखता हूँ। यह भाव ईश्वर मानने का है। जो लोग यह कहते हैं कि निर्गुण में अपने को कैसे सटावें, इन्द्रियां से मैं मिलाजुला हूँ। इसका उत्तर है कि तुम ईश्वर के अंश हो। यदि तुम अपने को ईश्वर का अंश मानते हो, तो भी तत्त्वतः वही हो। शरीर का जन्म हुआ है। यह वैसे हुआ है, जैसे कोई घट बन जाय। यहाँ सत्संग-घर नहीं था, घर बन गया। घर के अंदर शून्य है, शून्य के अंदर घर है। ईंट और पत्थर के जुड़ जाने से घटाकाश और मठाकाश के हो जाने से आकाश नहीं टूट जाता। जब आप कहते हैं कि मेरी आँख और मेरा पैर, आप आँख और पैर नहीं हैं। जैसे कहते हैं कि मेरा कुरता है, तो आप कुरता नहीं हैं। आप अपने को शरीर और इन्द्रियों से पृथक तो जानते ही हैं और पृथक भी कर सकते हैं, यह आपके लिए असंभव नहीं है। अपने को शरीर और इन्द्रियों से पृथक करके ही कैवल्य दशा में संतों ने परमात्म-स्वरूप को पाया था और इसी दशा में अपने को लाकर उन्होंने परमात्मा को प्राप्त करने की शिक्षा दी है। शरीर और इन्द्रियों से अपने को छुड़ाने में कोई आपदा नहीं है। इसके लिए संतों की सुगम रीति जानकर ईश्वर की भक्ति का अभ्यास करना चाहिए।
कर्ण कैसा वीर था कि कवच लिए जन्म लिया था। शरीर बढ़ता था तो कवच भी बढ़ता था। वह सदा कवच के साथ रहता था। अर्जुन से उसका युद्ध होगा, अर्जुन उसका संहार करेगा, किंतु कवच सहित उसका संहार नहीं कर सकता है। इन्द्र का पुत्र अर्जुन था। इसलिए उसको हुआ कि किसी तरह कर्ण का कवच लेना चाहिए। सूर्य का पुत्र कर्ण था। सूर्य ने कर्ण से कहा था कि इन्द्र तुमसे कवच-कुण्डल माँगने आवेगा, तुम नहीं देना। नहीं तो तुम मारे जाओगे। कर्ण ने कहा-माँगने आवेगा, तो कैसे नहीं दूँगा? इन्द्र एक भिक्षुक के रूप में आये। वे कहते हैं, हम तुमको जाँचने आए हैं, तुम अपना कवच उतारकर मुझे दे दो। देह से सटा हुआ उसका कवच था। जन्म से ही था। देह से सटे को तलवार से काटकर वह दे देता है। आज भी इस दान के लिए उसकी प्रसिद्धि है। इस कर्म में उसका रक्त भी बहा होगा और उसको कष्ट भी हुआ होगा। किंतु अपने को शरीर से, इन्द्रिय से और मन से फुटा लेने में रक्त भी नहीं बहेगा और न कोई कष्ट होगा। तुम अंश हो, अपने अंशी में अपने को मिलाओ तो इसमें क्या कष्ट है? अपने सम्पूर्ण शरीर को आँख से देखते हो और आइने में अवलोकन कर आँख को आँख से देखते हो। इसी तरह जीवात्मा को परमात्मा का दर्शन होता है और जैसे त्वचा के स्पर्श का ज्ञान त्वचा से ही होता है, उसी तरह जीवात्मा से परमात्मा के मिलन का ज्ञान होता है। उसका सुख कैसा है, तो सूरदासजी कहते हैं-
अविगत गति कछु कहत न आवै ।
ज्यों गूँगहिं मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै ।।
परम स्वाद सबही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै ।
मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै ।।
परमस्वाद = अलौकिक स्वाद है, सांसारिक स्वाद नहीं। जबसे वह स्वाद मिले, तब से वह बराबर बना रहेगा। स्वाद हो, तुष्टि नहीं सो नहीं। स्वाद के सहित अत्यंत तुष्टि होती है। गोस्वामी तुलसीदासजी जिस तरह श्रीराम के उपासक थे, उसी तरह सूरदासजी श्रीकृष्ण के उपासक थे। इन्होंने भी सगुण का वर्णन करते हुए निर्गुण का वर्णन किया है। निर्गुण के लिए तो सूरदासजी कहते हैं-
रूप रेख गुन जाति जुगति बिनु, निरालंब मन चकृत धावै।
सब विधि अगम विचारहि तातें, ‘सूर’ सगुन लीला पद गावै।।
निर्गुण को सब तरह से अगम विचारकर सगुण का वर्णन किया। हमलोगों को यह नहीं समझना चाहिए कि हम निर्गुण स्वरूप को नहीं प्राप्त कर सकेंगे। परमात्मा और जीवात्मा स्वजातीय पदार्थ हैं। हम पिण्ड, ब्रह्माण्डादि आवरणों से आवरणित हैं। हमको काम, क्रोध, लोभ, मोह सताते हैं। यह आवरण से आवृत रहने के कारण ही होता है। इससे अपने को पार करो। कैसे पार करोगे, तो किसी संत से पूछ लो। एक प्रेमी ने गाया है-
भेद यह गुप्त पाना किसी गं्रथ स े ।
है असंभव समझ लो किसी संत से ।।
प्रसिद्ध है कि संतों का भेद और पण्डितों का वेद। कबीर साहब पढ़े-लिखे नहीं थे, रामकृष्ण परमहंस भी पढ़े-लिखे नहीं थे। किंतु इतने बड़े ज्ञानी थे कि नरेन्द्र (स्वामी विवेकानंद) उनसे सीखते थे। उनसे कोई वेद का और कोई कुरान का अर्थ पूछने जाते थे। वे उनका अर्थ उन्हीं से पूछते थे, फिर अपनी बात कहते थे कि इस तरह का अर्थ करने से नहीं होगा? और इन्हीं का अर्थ ठीक होता। हमारे यहाँ योगशास्त्र प्रसिद्ध है।
जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानु । जहँ नहिं राम प्रेम प्रधानू ।।
योगशिखोपनिषद् में है कि योग बिना ज्ञान और ज्ञान बिना योग मोक्ष कार्य में समर्थ नहीं होता।
योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः ।
योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ।।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत् ।।
चित्तवृत्ति-निरोध को योग कहते हैं। संत वेश बनाने से नहीं होता। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
अमित बोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कवि कोविद जोगी।।
संत केवल गेरुआ वस्त्र पहनने से नहीं होता। किसी वेश में रहो, संत हो सकते हो, किंतु जानो इसका भेद।
कबीर भेदी भक्त से, मेरा मन पतियाय ।
सेरी पावै शब्द की, निर्भय आवै जाय ।।
भेदी जाने सबै गुण, अनभेदी क्या जान ।
कै जानै गुर पारखी, कै जाकै लागा बान ।।
-संत कबीर साहब
यहाँ से जगन्नाथजी जाएँगे, जगन्नाथ के लिए जैसे-जैसे पैर पड़ता है, वैसे-वैसे उसकी भक्ति होती है। उसी तरह शरीर-इन्द्रियों से जैसे- जैसे अपने को छुड़ाते हैं, उसकी भक्ति होती है। संतों ने इसका सरल तरीका बताया है। जप करो और ध्यान करो। ध्यान के बहुत दर्जे हैं। कबीर साहब की वाणी है-
जो कोई निरगुन दरसन पावै।।टेक।।
प्रथमे सुरति जमावै तिल पर, मूल मंत्र गहि लावै।
गगन गराजै दामिनि दमकै, अनहद नाद बजावै।।
बिन जिभ्या नामहिं को सुमिरै, अमिरस अजर चुवावै।
अजपा लागि रहै सूरति पर, नैनन पलक डुलावै।।
गगन मंदिल में फूल फुलाना, उहाँ भँवर रस पावै।
इंगला पिंगला सुखमनि सोधै, प्रेम जोति लौ लावै।।
सुन्न महल में पुरुष विराजै, जहाँ अमर घर छावै।
कहै कबीर सतगुरु बिनु चीन्हे, कैसे वह घर पावै।।
कुछ पढ़े-लिखे लोग भी भ्रम वश कहते हैं कि कबीर साहब कुछ करने नहीं कहते। वे कहते हैं-‘साधौ सहज समाधि भली।....आँखि न मूंदौं कान न रुधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं। खुले नयन पहिचानौं हँसि हँसि, सुन्दर रूप निहारौं।’ संपूर्ण पद्य को पढ़ा कि नहीं, किंतु इतना पढ़ लिया कि-‘आँखि न मूंदौं कान न रुधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं। खुले नयन पहिचानौं हँसि हँसि, सुन्दर रूप निहारौं।’ संपूर्ण पद्य को भी पढ़ो-
साधो सहज समाधि भली।
गुरु प्रताप जा दिन से जागी, दिन दिन अधिक चली ।।
जहँ जहँ डोलौं सो परिकरमा, जो कुछ करौं सो सेवा ।
जब सोवौं तब करौं दण्डवत, पूजौं और न देवा ।।
कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खावँ पियौं सो पूजा ।
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा ।।
आँख न मूँदौं कान न रूँधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं ।
खुले नयन पहिचानौं हँसि-हँसि, सुन्दर रूप निहारौं ।।
शब्द निरंतर से मन लागा, मलिन वासना भागी ।
ऊठत बैठत कबहुँ न छूटै, ऐसी ताड़ी लागी ।।
कहै कबीर यह उनमुनि रहनी, सो परगट कर गाई ।
दुख सुख से कोइ परे परम पद, तेहि पद रहा समाई ।।
समस्त पद्य को पढ़कर पाठक को यह सोचना चाहिए कि ‘गिरह उजाड़ एक सम लेखौं,भाव मिटावौं दूजा’ के अनुकूल ठीक-ठीक उनकी दशा हुई है या नहीं? फिर ‘शब्द निरंतर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी। ऊठत-बैठत कबहुँ न छूटै, ऐसी तारी लागी।’ इस पद्य में वर्णित ‘निरंतर शब्द’ में उनकी सुरत सदैव लगी रहती है या नहीं? यदि ‘दूजा भाव’ (द्वैत बुद्धि) सम्पूर्णतः छूट गया हो, घर और उजाड़ यथार्थ में एक ही तरह मालूम होते हों, निरन्तर शब्द में सुरत सदा लगी रहती हो और ‘मलिन वासना’-कभी नहीं आती हो, तो इस दशा पर पहुँचे हुए को अवश्य ही ‘सहज समाधि’ प्राप्त है। ‘निरन्तर शब्द’ के विषयों में तो बिहारी दरिया साहब कहते हैं-
सोवत जागत ऊठत बैठत, टुक विहीन नहिं तारा ।
झिन झिन जंतर निस दिन बाजै,जम जालिम पचिहारा ।।
परन्तु यह ‘सहज समाधि’ की अवस्था किसी को आरंभ में ही होने योग्य नहीं है। दृष्टियोग और नादानुसन्धान करते-करते जब कोई साधन को अंत कर देता है, तब उसे यह दशा प्राप्त होती है। फिर उसको आँख बन्द और कान बन्द करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। प्रथम से ही आँख-कान बन्द नहीं करते हुए अथवा अभ्यास के कुछ भी कष्ट को नहीं धारण करते हुए सहज समाधि प्राप्त हो कभी संभव नहीं है। उसके अतिरिक्त वराहोपनिषद् का यह वाक्य भी ध्यान में रखने योग्य है-
दुर्लभो विषय त्यागो दुर्लभं तत्त्व दर्शनम् ।
दुर्लभासहजावस्था सद्गुरोः करुणां विना ।।
और कबीर साहब ने कहा ही है-
साधो सहज समाधि भली।
गुरु प्रताप जा दिन से जागी, दिन दिन अधिक चली ।।
बिना योगाभ्यास के समाधि नहीं होती है। कबीर साहब कहते हैं-
‘सबद खोजि मन बस करै, सहज योग है येहि ।’
‘नैनों की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय ।
पलकां की चिक डारि के, पिय को लिया रिझाय ।।’
‘बंद कर दृष्टि को फेरि अंदर करै, घट का पाट गुरुदेव खोलै।’
‘आँख कान मुख बंद कराओ। अनहद झींगा शब्द सुनाओ।
दोनों तिल एक तार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है ।।’
‘सहज ध्यान रहु सहज ध्यान रहु,गुरु के वचन समाई हो ।
मेली चित्त चराचित राखो, रहो दृष्टि लौ लाई हो ।।’
गुरु नानक साहब कहते हैं-
‘सुखमन कै घरि राग सुनि सुन मंडल लिव लाइ ।
अकथ कथा वीचारीअै मनसा मनहि समाइ ।।’
‘तीन बंद लगाय कर सुन अनहद टंकोर ।
नानक सुन्न समाधि में नहीं साँझ नहि भोर।।’
दादू दयालजी महाराज कहते हैं-
‘सहज समरपण सुमिरन सेवा, तिरवेणी तट संयम सपरा ।
सुन्दरि सन्मुख जागण लागी, तहँ मोहन मेरा मन पकरा।।’
‘सहज सुन्नि मन राखिये, इन दुन्यूँ के माहिं।
लय समाधि रस पीजिये, तहाँ काल भय नाहिं।।’
‘क्यों करि उलटा आणिये, पसरि गया मन फेरि।
दादू डोरी सहज की, यों आणै घेरि घेरि।।’
‘साध सबद सौं मिलि रहै, मन राखै बिलमाय।
साध सबद बिन क्यों रहै, तबहीं बीखरि जाय।।’
पलटू साहब कहते हैं-
धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव ।।
सो मेरा गुरुदेव सेवा मैं करिहौं वाकी ।
शब्द में है गलतान अवस्था ऐसी जाकी ।।
निसदिन दशा अरूढ़ लगै ना भूख पियासा ।
ज्ञान भूमि के बीच चलत है उलटी स्वासा ।।
तुरिया सेती अतीत सोधि फिर सहज समाधी ।
भजन तेल की धार साधना निर्मल साधी ।।
पलटू तन मन वारिये, मिलै जो ऐसा कोउ ।
धुन आनै जो गगन की, सो मेरा गुरुदेव ।।
इन सब उद्धरणों से यही सिद्ध होता है कि आरंभ से ही ‘आँख न मूँदौं कान न रूँधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं। खुले नयन पहिचानौं हँसि-हँसि, सुन्दर रूप निहारौं ।।’ नहीं होता है। इस दशा पर आने के लिए पहले दृष्टियोग फिर नादानुसंधान पूर्णरूपेण करके उपर्युक्त दशा की प्राप्ति होती है। पद्य में कथित सहजयोग के अभ्यास के बिना सहज समाधि कदापि प्राप्त नहीं होगी। केवल मानसिक चिंतन ही सहज समाधि की अवस्था पर नहीं पहुँचाएगी, जिस समाधि में पहुँचकर पिण्ड में उतार होने पर भी सहज समाधि लगी रहती है, उस समाधि में मन नहीं पहुँचता। वहाँ केवल चेतनधारा की ही गति है। एक बार भी इस समाधि की प्राप्ति होने पर इस समाधिवाले को समाधि में प्राप्त सार पदार्थ (शब्द निरन्तर) कभी छूटता नहीं है। यद्यपि यह विषय सम्पूर्णतः वचन में आने योग्य नहीं है, तथापि देश में फैले हुए सहज समाधि के भ्रामक विचारों को कुछ-न-कुछ कहकर दूर करना आवश्यक है। इसीलिए इस विषय पर यह थोड़ी- सी बात कही गई। पुनः कह देना चाहता हूँ कि यह अन्तिम बात है, आदि की नहीं। आदि में तो है-
गुरु की मूरति मन महि धिआनु। गुरु के शबद मंत्र मन मानु।।
- गुरु नानक साहब
मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।
- कबीर साहब
और सूक्ष्म ध्यान है-
नैंनो की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय ।
पलकों की चिक डारिके, पिय को लिया रिझाय ।।
गगन मंडल के बीच में, तहँवा झलके नूर ।
निगुरा महल न पावई, पहुँचेगा गुरु पूर ।।
कबीर कमल प्रकाशिया, ऊगा निर्मल सूर ।
रैन अंधरी मिटि गई, बाजै अनहद तूर ।।
इन वाणियों से उनका ध्यान स्पष्ट मालूम होता है। कबीर साहब के पद्य में ‘प्रथमहिं सुरत जमावै तिल पर’ पहले कहा जा चुका है और अब ‘मूल ध्यान गुरु रूप है’ कहा गया। इसमें लोग भ्रम में आ सकते हैं और जिज्ञासा कर सकते हैं कि अभ्यास के आरंभ में गुरु-रूप का ध्यान होना चाहिए अथवा तिल पर सुरत जमाना चाहिए। इसके लिए जानना चाहिए कि गुरु-रूप का ध्यान स्थूल और मानस ध्यान है और तिल पर सुरत जमाने का ध्यान सूक्ष्म है और मन से विन्दु या तिल (इसकी युक्ति भेदी अभ्यासी गुरु से जानी जा सकती है।) बनाकर देखना नहीं है। अभ्यास के आरम्भ में स्थूल से ही आरम्भ करना स्वाभावानुकूल है। इससे दृष्टि और मन का सिमटाव स्थूल मूर्ति को मनोमय बनाकर मन और दृष्टि को उस पर रखने से मन और दृष्टि का जितना सिमटाव होता है, उससे तिल या विन्दु वा सूक्ष्म ध्यान के आरम्भिक अभ्यास करने की योग्यता अभ्यासी को होती है। जैसे मोटे-मोटे अक्षरों का लिखना सीखकर बारीक-बारीक अक्षरों के लिखने की योग्यता होती है। इसलिए अभ्यास के आरम्भ में गुरु-रूप का स्थूल ध्यान कहा गया है और सूक्ष्म ध्यान के आरंभ के लिए तिल वा विन्दु-ध्यान कहा गया है।
यह संतमत परम आस्तिक मत है। इसमें सगुण रूप का ध्यान भी है और निर्गुण स्वरूप की भक्ति भी है। अभ्यासी गुरु के बिना लोग गड़बड़ में पड़े रहते हैं। अभ्यासी गुरु हो, अपने अभ्यास करे, तब संतमत ठीक-ठीक समझ में आता है। इसमें परहेज है-पंच पापों (झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार) से बचो। इन पंच पापों से अपने को बचाने के लिए कोशिश करो। ईश्वर से प्रार्थना करो और अभ्यास करो। संतलोग यही कहते हैं कि तुम्हारा कल्याण हो। साथ ही जो संत बताते हैं वह करो। यही संतमत है।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत मुरादाबाद में दिनांक 11.10.1954 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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