1954 (प्रवचन संख्या : 059-098 )

59. सहज रूप सुमिरण करै (23.02.1954)


59. सहज रूप सुमिरण करै

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 संत कबीर साहब ने कहा है-
      पिउ पिउ करि करि कूकिए, ना पड़ि रहिये असरार ।
      बार बार के कूकते, कबहुँक लगै पुकार ।।
 ईश्वर का नाम सदा जपो। जपते-जपते कभी- न-कभी अवश्य पुकार सुनी जाएगी।
 पड़ा रह संत के द्वारे, तेरा बनत बनत बन जाय।
संत दादू दयाल साहब ने कहा-
 सुरति सदा सनमुख रहै, जहाँ तहाँ लै लीन।
 सहज रूप सुमिरण करै, निहकर्मी दादू दीन।।
 बड़े-बड़े विद्वान सहज स्वरूप का सही अर्थ समझने में बहुत गड़बड़ाए हैं। लिखा है खूब; किन्तु ‘सहज रूप सुमिरण’ के विषय में लिख नहीं सके। कुछ भी करते रहो, पाखाने में रहो, चाहे पेशाब करो, चाहे कोई काम करो, उसका सुमिरन करते रहो तो तुम निष्कर्मी हो। इसका सब भाई अभ्यास करो। हमारे एक बहुत ऊँचे दर्जे के सत्संगी थे यदुनाथ चौधरी। उनका शरीर छूटे हुए तीन साल हुए। उनकी बीमारी का नाम सुना और सुना कि वे सख्त बीमार हैं; बचने की संभावना नहीं है। मेरे लिए सवारी आयी, मैं उनके यहाँ गया और भेंट होने पर कहा-
निसदिन रहै सुरति लौ लाई। पल पल राखो तिल ठहराई।।
 इसी को श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है-
 प्र्रयाणकाले मनसा चलेन भक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव।
 भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।
 अर्थात् वह भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित करके और निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्यपुरुष परमात्मा को प्राप्त होता है।
 इसका खूब अभ्यास करो। यही अन्त समय में काम देगा। कभी मानस जप, कभी मानसध्यान, कभी दृष्टिसाधन-इन तीनों को रखो। इसी से वृक्ष लगेगा और मोक्ष का फल फलेगा।
आरती कीजै आतम पूजा, सत्त पुरुष की और न दूजा।।
ज्ञान प्रकाश दीप उँजियारा, घट घट देखो प्रान पियारा।।
भाव भक्ति और नहीं भेवा, दया सरूपी करि ले सेवा।।
सतसंगत मिलि सबद विराजै, धोखा दुन्द भरम सब भाजै।।
काया नगरी देव बहाई, आनन्द रूप सकल सुखदाई।।
सुन्न ध्यान सबके मन माना, तुम बैठो आतम अस्थाना।।
सबद सुरत ले हृदय बसावो, कपट क्रोध को दूरि बहावो।।
कहै कबीर निज रहनि सम्हारी, सदा आनंद रहै नर नारी।।
 संतों की वाणियों से प्रेरणा लेकर सत्संगियों के हृदय में ऐसी प्रेरणा होनी चाहिए कि वे खूब ध्यान करें। ध्यान करने में कुशल होने पर सब काम करते हुए भी ध्यान करना होता है। विद्वान ऐसा वर्णन करते हैं कि कहना ही क्या! किन्तु सहज सुमिरन के वर्णन करने में पैर लड़खड़ा जाता है; किन्तु हमलोगों के समझने के लिए तो कठिन नहीं जान पड़ता। संत दादू दयालजी महाराज ने कहा-
 सुरति सदा स्यावित रहै, तिनके मोटे भाग।
 दादू पीवै राम रस, रहै निरंजन लाग।।
 प्रेम इतना हो कि उसके मिलने की इच्छा बराबर लगी रहे। घूमते-फिरते, कुछ काम करते हुए भी उस ओर मन को घुमाते रहना चाहिए। इसके लिए तो रोना चाहिए कि अभी तक प्राप्त नहीं हुआ। विवेकानन्द के लिए कहा जाता है कि वे इतना रोते थे कि तकिया भींग जाता था। संत कबीर साहब के पद्य में कितना विरह है-ऐसा अन्यत्र मिलना कठिन है-
 कैसे मिलौंगी पिय जाय।।टेक।।
 समझि सोचि पग धरौं जतन से, बार बार डिग जाय ।
 ऊँची गैल राह रपटीली, पाँव नहीं ठहराय।।
 लोक लाज कुल की मरजादा, देखत मन सकुचाय।
 नैहर बास बसौं पीहर में, लाज तजी नहिं जाय।।
 अधर भूमि जहँ महल पिया का, हम पै चढ़ो न जाय।
 धन भइ बारी पुरुष भये भोला, सुरत झकोला खाय।।
 दूती सतगुरु मिले बीच में, दीन्हों भेद बताय।
 साहब कबीर पिया से भेंटे, सीतल कण्ठ लगाय।।
 ‘कैसे मिलौंगी पिय जाय। समझि सोचि पग धरौं जतन से’ का अर्थ ‘पैर रखना-सुरत जमाना’ है। ‘बार बार डिग जाय’-सुरत हट जाती है। यदि कोई कहे कि कबीर साहब तो पूर्ण थे ही, तो उनके लिए यह कहना उचित नहीं। उत्तर में कहा जा सकता है कि उक्त सज्जन का कथन अनुचित नहीं होगा कि वे पूर्ण थे; किन्तु और लोगों के लिए उन्होंने ऐसा करने के लिए कहा, अथवा यदि वे इस प्रकार साधन करके ही पूर्ण हुए तो यह कहने में भी क्या हर्ज?
 वार्षिक सत्संग सन्मार्ग पर चलने हेतु प्रेरणा के लिए होता है, ऐसा नहीं कि यह मनोरंजन के लिए होता है। सब लोगों को इस सत्संग से प्रेरणा मिले, सबका ख्याल नवीन हो जाय, इसलिए यह वार्षिक सत्संग होता है।
 जिस सत्संग में अंतर की प्रेरणा न मिले, वह सत्संग नहीं हुआ। भगवद्भजन खूब करो। इसकी प्रेरणा सत्संग से लो।
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यह प्रवचन संताल परगना जिलान्तर्गत ग्राम-कोरका में दिनांक 23.2.1954 ई0 को साप्ताहिक सत्संग में हुआ था।
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60. राम भगति जहँ सुरसरि धारा

प्यारे सज्जनो!
 जिस तरह ठाकुरबाड़ी में प्रसाद बँटता है, ठीक उसी तरह सत्संग में भी बँटता है। सत्संग में संतों की वाणियां का प्रसाद बँटता है। अभी छह संतों के वचनोंं के पाठ हुए। उनको आपलोग प्रसाद के रूप में स्वीकार करें। समास रूप में इन सबका खुलासा यह है कि अपने अन्दर में अपने को ले चलो। चलते-चलते अपने अन्दर वहाँ चलो, जहाँ तक चलना हो सकता है। फिर देखोगे कि न अपने तई के लिए और न परमात्मा के लिए अनजान रहोगे। अपने शरीर को लोग पहचानते हैं; लेकिन अपनी आत्मा और अपने को नहीं पहचानते। यह पहचान बाहर में कहीं नहीं हो सकती। जंगल, पहाड़, नदी, समुद्र कहीं जाओ, न अपनी पहचान होगी और न परमात्मा की। तुम अपने को और परमात्मा को इन्द्रियों के द्वारा नहीं पकड़ सकते। कभी मत विश्वास करो कि ईश्वर को इस आँख से देख लोगे। यदि कहो कि इसी आँख से श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीदेवीजी, श्रीशिवजी का दर्शन होता है, तो हमको क्यों नहीं होगा? यदि आप श्रीराम और श्रीकृष्ण के विचार को समझने लगेंगे, तो कहेंगे कि बाहर में जो दर्शन हुआ, वह माया का दर्शन हुआ। माया में जो निर्माया है, उसका दर्शन नहीं हुआ। भगवान श्रीराम ने कहा-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।। -रामचरितमानस
 शरीर को क्षेत्र और उसके जाननेवाले को क्षेत्रज्ञ कहते हैं-ऐसा भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है।
श्रीमद्भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय में लिखा है-
 महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
 इन्द्रियाणि दशैकं च पंच चेन्द्रियगोचराः।।
 इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः ।
 एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ।।
 महाभूत, अहंता, बुद्धि, प्रकृति, दस इन्द्रियाँ, एक मन, पाँच विषय, इच्छा, द्वेष, दुःख, संघात, चेतन शक्ति, धृति-यह अपने विकारों सहित क्षेत्र संक्षेप में कहा है। पाँच स्थूल तत्त्व-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश; पाँच सूक्ष्म तत्त्व-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द; पाँच कर्मेन्द्रियाँ-हाथ, पैर, लिंग, गुदा और मुँह; पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ-आँख, कान, नाक, त्वचा और जीभ; मन, बुद्धि, अहंकार, चेतना, धृति, संघात, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और प्रकृति-इन इकतीस तत्त्वों के समुदाय को सविकार क्षे़त्र कहते हैं। इन इकतीस तत्त्वों में एक प्रकृति भी है। प्रकृति उस मसाले को कहते हैं, जिस तत्त्व से सारा विश्व बनता है। जिस प्रकार मिट्टी से कुम्हार बर्तन बनाते हैं, उसी प्रकार प्रकृति से सारा विश्व बनता है। प्रकृति कहते हैं-उत्पादक, पालक और विनाशक शक्ति को। तीन गुणों के सम्मिश्रण रूप को प्रकृति कहते हैं। उसी प्रकृति से समस्त जगत, पिण्ड और ब्रह्माण्ड बनते हैं। इसलिए समस्त संसार में जहाँ देखो, इन्हीं तीन गुणों के खेल हैं। किसी बड़े-से-बड़े देवता के रूप में देखो कि ये इकतीस हैं या नहीं? इन इकतीस के अतिरिक्त जो इनसे भिन्न तत्त्व है, वह है क्षेत्रज्ञ। कितने ही तेज से तेज रूप का दर्शन हो, किन्तु क्षेत्रज्ञ या आत्मतत्त्व का दर्शन बाकी रहता है। जबतक क्षेत्रज्ञ वा आत्मतत्त्व का दर्शन न हो, तबतक जो होना चाहिए, सो नहीं होता है। योगशिखोपनिषद् में लिखा है-
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
 अर्थात् परे-से-परे को (परमात्मा को) देखने पर हृदय की ग्रंथि खुल जाती है; सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।
जिस किसी भी दर्शन से ऐसा हो जाय, तो समझो कि परमात्मा का दर्शन हुआ। किन्तु आत्मतत्त्व के सिवाय और किसी के दर्शन से ऐसा नहीं हो सकता। सम्पूर्ण शरीर को आँख से देखते हो और आँख को देखना चाहो, तो आँख से ही देख सकते हो। उसी तरह आत्मा को चेतन आत्मा से ही देख सकेंगे। जो देखेंगे, उनको किसी से और कुछ पूछना बाकी नहीं रह जाएगा। किसी भी लोक लोकान्तर में ऐसा दर्शन नहीं होता, चाहे वे क्षीर समुद्र, ब्रह्मा का धाम, शिव का धाम, इन्द्रलोक आदि किसी भी लोक के निवासी क्यों न हों। वहाँ ज०जाल लगा ही रहता है। क्षीर समुद्र में भी लड़ाई-झगड़ा होता है। जहाँ कहीं भी शरीर है, वहाँ कुछ-न-कुछ विकार अवश्य होगा; किन्तु जहाँ आत्मतत्त्व का दर्शन होता है, वहाँ विकार उत्पन्न नहीं हो सकता।
 इसी का प्रचार सभी संतों ने किया और उनके पहले ऋषि, मुनियों ने भी इसी का प्रचार किया। बाबा देवी साहब इसी का उपदेश देते थे और कहते थे कि इसी का प्रचार करो। तीर्थस्नान करने से उतना लाभ नहीं होता। किसी भी तीर्थस्नान में ऐसा नहीं होता कि काम, क्रोधादिक विकार मिटते हैं। बहुत यज्ञ करे। बहुतों को खिलावे। इससे आपका मन पवित्र नहीं हो सकता। आत्मदर्शन में विकारों का छूटना और अंतर में धँसना; ये दोनों होते हैं।
 जागने से स्वप्न में जब जाते हो, बिस्तर पर आप पड़े रहते हो। यदि आपके चारों ओर विषय हो तो आप उन्हें ग्रहण नहीं कर सकते। उस समय हाथ, पैर आदि कोई इन्द्रिय कुछ काम नहीं करती। स्वप्न काल में मुँह में मिसरी रहने पर भी उसका स्वाद मालूम नहीं होता। स्वप्न में बाहर की इन्द्रियां से हम काम नहीं ले सकते। अन्दर की ओर जो चलता है, विषयों से छूटता है। जो कोई अपने अंदर प्रवेश करते हैं, उनकी इन्द्रियाँ विषयों में नहीं जातीं। संतों ने इस सत्संग को गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम-त्रिवेणी बतलाया है।
राम भगति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म विचार प्रचारा।।
विधि निषेधमय कलिमय हरनी। करम कथा रवि नंदिनी बरनी।।
 अपने अंदर की त्रिवेणी में आप जाइए, तो कोई विकार आपको डिगा नहीं सकता। अपने अंदर चलनेवाले सभी शरीरों के आवरणों से मुक्त हो जाते हैं। शरीर पाँच हैं-स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य। संत दादू दयालजी ने पाँचों शरीरों को धोने के लिए कहा है। ऐसा जो कोई करते हैं, उनके लिए यह सम्प्रदाय और वह सम्प्रदाय नहीं रहता। जबतक संसार को चीन्हते थे, तो संसार में दुःख-ही-दुःख उठाते थे। यहाँ कभी शान्ति नहीं, तृप्ति नहीं। किन्तु अपने अन्दर प्रवेश करके देखो, तब जो आनन्द मिलेगा, वह आनन्द वह सुख मिलेगा, जो आनन्द, जो सुख कभी विषयों में नहीं हुआ। इसलिए कबीर साहब ने कहा-‘भजन में होत आनन्द आनन्द।’
 इसमें यह वर्ण और वह वर्ण, धनी या निर्धन आदि कोई भी बाधा नहीं करता। विद्वान, अविद्वान, ऊँच पद या नीच पद, हमारा देश या अन्य देश, सभी तरह के लोग, सभी देश के लोग इसको कर सकते हैं। सभी देश के लोग एक हो जायँ। मुँह में, आँख में, कान में, नाक में जो छिद्र हैं, सब देशों के लोगों को बराबर-बराबर छिद्र हैं। जो सुख-दुःख सबको होता है, वही सुख-दुःख हमको भी होता है। आपको जानने में आवे कि जैसे और देश के लोगों की जितनी इन्द्रियाँ हैं, उतनी ही हमारे देश के लोगों को हैं। इस तरह सारे संसार के लिए एक ही समान इन्द्रियाँ हैं। सबका क्षेत्रज्ञ एक ही है। उस क्षेत्रज्ञ को जानो। आपस में सब मेल से रहो।
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यह प्रवचन गोड्डा जिलान्तर्गत श्रीरामनन्दन प्रसाद वर्मा (एग्रिकल्चर इंजिनियरिंग इंसपेक्टर) के निवासस्थान पर दिनांक 26.2.1954 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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61. विद्या अच्छी तरह पढ़ो और नम्रता से रहो

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 मेरे कहने का विषय आज का यह होगा कि ईश्वर को लोग सर्वव्यापी और इन्द्रियातीत क्यों मानते हैं? फिर उस तक पहुँचने के लिए जो भक्ति है, वह किस तरह की जानी जाती है। मेरे सामने में बहुत बच्चे हैं, इसलिए बच्चों की समझ में आने योग्य बात पहले कहना ही ठीक है। यद्यपि जवान और बूढ़े भी हैं, किन्तु बच्चों की संख्या विशेष है।
 प्यारे बच्चो! विद्या बहुत अच्छी चीज है। जहाँ तक पढ़ाई होती है, पढ़ोगे तो तुम्हारी बहुत उन्नति होगी। आजकल राजा कोई नहीं, जनता का राज्य है। कोई किसी पर राज्य नहीं करता है। इतिहास में पढ़ो और जितने पढ़े हो, याद करो। अपना देश छोटे-छोटे राज्यों से भरा पड़ा था। लोग आपस में मेल नहीं रखते थे। अनमेल के कारण विदेश के लोग आए और उनका राज्य हो गया। छोटे-छोटे राज्य थे, इसलिए हर्ज नहीं। आपस में मेल से नहीं रहना विष है। इसलिए बच्चो! याद रखो कि किसी से बेमेल मत होओ। आपस में लड़ोगे-झगड़ोगे तो कष्ट होगा। अध्यापक के पास कहोगे, तो वे भी तुमको दण्ड देंगे। विद्यालय में और घर में मेल से रहो। अनमेल बहुत बड़ा विष है। इसी अनमेल के कारण आज स्वराज्य होते हुए भी दुःख भोग रहे हैं।
 अभी तुमलोग राजकुमार हो। बड़े होओगे, तब राजा हो जाओगे। विद्या अच्छी तरह पढ़ो और नम्रता के साथ रहो। उम्र में जो बड़े हैं, जिनसे विद्यापाठ सीखते हो, उनसे नम्रता से रहो। जो घर में माता-पिता की बातों की परवाह नहीं करता, बड़े लोगों की आज्ञा नहीं मानता, अध्यापक की बात नहीं सुनता, वह विद्वान नहीं हो सकेगा, जिससे उसे पीछे कष्ट होगा। इसलिए माता-पिता, गुरुजनों की आज्ञा को मानो और आज का पाठ कल के लिए मत छोड़ो। नित्य का पाठ नित्य याद करो। पाठ नित्य याद नहीं करने से उसका पाठ पीछे पड़ जाता है और परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाता है। अपनी तन्दुरुस्ती बनाए रखने के लिए कुछ खेलो भी, जिससे तुम्हारी तन्दुरुस्ती अच्छी रहे, ऐसा नहीं कि पढ़ने के समय में खेलो। कुछ बड़े बच्चों के लिए बात यह है कि मस्तिष्क मजबूत रहने से पाठ अच्छी तरह याद कर सकता है। शरीर और मस्तिष्क को बलवान बनाकर रखने के लिए भोजन और व्यायाम है। भोजन से रक्त, रक्त से वीर्य और वीर्य से ओज बनता है। जिसका वीर्य पतला होता है, उसका ओज ठीक नहीं बन सकता। ओज ठीक नहीं बनने से वह पाठ को ठीक धारण नहीं कर सकता; उसकी स्मरण शक्ति क्षीण हो जाती है, वह विशेष विद्वान नहीं हो सकता। इसीलिए वीर्यरक्षा, नित्य पाठ-अध्ययन और अपनी तन्दुरुस्ती; इन तीनों बातां पर ध्यान दो।
 मैं अपने प्रान्त के अतिरिक्त दूसरे प्रांतों में भी घूमता हूँ, किंतु ऐसा कोई गाँव नहीं, जहाँ कि लोग ‘राम-नाम’, सत्नाम, वाहगुरु आदि न बोलते हों। इसका मतलब है कि हमारे देश के लोग आस्तिक हैं। ईश्वर को हम मानते हैं। माता-पिता के कहने से ‘राम-राम’ कहते हैं। यह तो बचपन से ही कहते हैं, परन्तु नहीं समझते थे कि ईश्वर का होना यथार्थ में है या नहीं। तर्क-वितर्क करके नहीं जान सके थे। अध्यापक महोदय विद्यालय में स्तुति कराते हैं, जिससे बच्चों के मन में ईश्वर के होने का भाव उत्पन्न होता है। इतना होने पर भी हम मान लेते हैं, किन्तु ठीक से जान नहीं पाते। कितने आदमी तो कहते हैं कि ईश्वर एक कल्पना है। बुद्धि-विचार के द्वारा ईश्वर की स्थिति को जानें और उसपर पूर्ण विश्वास करें। बुद्धि-विचार में सुनो-हमारे बच्चे कभी-कभी देखते हैं कि कोई मर जाता है, तो उस मृतक को रंथी पर चढ़ाकर ले जाते हैं। कोई रोते-रोते जाते हैं, कोई रामनाम सत्त कहते जाते हैं। शरीर में से कुछ निकल गया, तब शरीर मर गया। इसके लिए श्रद्धापूर्वक एक काम होता है, जिसको श्राद्ध-क्रिया कहते हैं। वह कर्म करते हैं और विश्वास करते हैं कि शरीर में से जो चला गया, उसका कल्याण होगा। हमारे मुसलमान भाई कहते हैं कि शरीर छूट गया और उससे रूह निकल गई। चालीस दिनों तक जाकर कब्र पर नमाज पढ़ते हैं। ईसाई लोग भी कुछ ऐसा अनुष्ठान करते हैं। शरीर मरा है, किन्तु शरीर में रहनेवाला नहीं मरता। जैसे अन्धड़ में घर टूट जाय और घर में रहनेवाला भाग जाय वह मरता नहीं, उसी प्रकार शरीर मर गया; किंतु रूह जीवात्मा मरा नहीं। जिस शरीर में रूह नहीं है, वह कुछ बोलता-चालता नहीं, सोचता-विचारता नहीं। एक चीज में बोलना-चालना, विचारना नहीं होता और दूसरा बोलता-चालता, विचार करता है-इस प्रकार दो पदार्थ हुए। शरीर में ज्ञानमय पदार्थ के रहने से चलता-फिरता, बोलता है; इससे जीवात्मा निकल जाने पर यह शरीर सड़-गल जाता है, कुछ कर नहीं सकता। इस शरीर को जड़ कहते हैं। इसमें रहनेवाला चेतन है। कोई कहे कि जड़-जड़ मिलकर चेतन हो गया, तो यह किस तरह विश्वास हो? जिस वस्तु का स्वाद कड़ुवा हो, उन सब पदार्थों को मिलाओ, तो वह कडुवा ही रहेगा, दूसरा स्वाद नहीं होगा। यह कभी मानने योग्य नहीं कि जड़-जड़ के मिलने से चेतन हुआ हो। यह चेतन पदार्थ भिन्न-भिन्न शरीरां में रहते हुए भिन्न-भिन्न दिखाई देता है, यह व्यष्टि रूप है। इस न्याय से हम सब एक तत्त्व हैं। इसलिए एक ही भाव से रहना बहुत अच्छा है। हमलोग जो बचपन से ही ईश्वर को मानते चले आये हैं, तो उसे संतवाणी, वेद, पुराण आदि से खोजते हैं, तो जानने में आता है कि वह अनादि-अनन्त-स्वरूपी है, पूर्ण है, हीनशक्ति नहीं, जिसकी शक्ति चूकती नहीं। वह स्वरूप से अपरम्पार है। इसलिए उसकी शक्ति भी अपरंपार ही है।
 व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता।
   अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
     -गोस्वामी तुलसीदास
और गुरु नानकदेव ने कहा-
    अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा।
    जाति अजाति अजोनि संभउ, ना तिसु भाव न भरमा।।
    कबीर साहब के वचन में देखें, तो वे कहते हैं-
 श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य।।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा।
 सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा।।
 चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना।
 चून चगून वजूद न मानु तैं सुभानमूना ऐना।।
 जैसे ऐना सब दरसावै जो कुछ वेष बनावै।
 ज्यों अनुमान करै साहब को त्यों साहब दरसावै।।
 जाहि रूप अल्लाह के भीतर तेहि भीतर के ठाईं।
 रूप अरूप हमारि आस है हम दूनहुँ के साईं।।
 जो कोउ रूह आपनी देखा सो साहब को पेखा।
 कहै कबीर स्वरूप हमारा साहब को दिल देखा।।
                                                 - कबीर साहब
 बड़ा से बड़ा अनन्त ही होता है। अब बुद्धि -विचार से देखिए। एक अनादि-अनन्त नहीं मानने से उपाय नहीं। अनन्त=लामहदूद। यदि कोई कहे कि सभी सादि, सान्त हैं, तो प्रश्न होता है कि उसके बाद क्या है? एक अनादि, अनन्त को मानना आवश्यक है। दो अनन्त कहने से दोनों की सीमा हो जाएगी। जो सबमें व्याप्त है, तो सब उनके अन्दर हैं। जो सबसे विशेष है, उसके अन्दर सबको रहना पड़ता है। उसे ही ईश्वर कहते हैं। किसी विद्वान ने कहा कि एक अनादि-अनन्त है, तो रहने दो; किन्तु उसको ईश्वर क्यों मानें? जो अनन्त है, तो सभी पदार्थ उसके अंदर हैं। जो सबके अन्दर हैं, तो उनपर उनका आधिपत्य है, फिर उसे ईश्वर क्यों न कहें? जो सर्वत्र घुसा हुआ है, वह तरल, वाष्प सभी में होगा; तभी वह अनन्त होगा। अनन्त होने के कारण ही वह सर्वव्यापक है। इन्द्रियों से उसका ग्रहण इसलिए नहीं होता कि जो पदार्थ जैसा रहता है, उसको पकड़ने के लिए भी वैसा ही यंत्र चाहिए। हाथ की घड़ी और एक बड़ी घड़ी के यन्त्र दोनों बराबर ही रहते हैं; किंतु जो पदार्थ जैसा रहता है, उसको पकड़ने के लिए यंत्र भी वैसा ही होना चाहिए। संसार में आप पाँच ही पदार्थ पाते हैं, जिन्हें पंचविषय कहते हैं। एक-एक इन्द्रिय एक- एक विषय को ग्रहण करती है। जब एक इन्द्रिय से दूसरी इन्द्रिय के विषय को ग्रहण नहीं कर सकते, तब इन मोटी इन्द्रियों से ईश्वर को कैसे पहचान या पकड़ सकते हैं? संसार के जितने पदार्थ हैं, सब माया ही माया हैं।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।
           -रामचरितमानस
 वह अपरम्पार वचन में आने योग्य नहीं। इन्द्रियों से बाहर वह परमात्मा है। आप याद रखें, तो संतवाणी और बुद्धि-विचार से इसी निर्णय पर पहुँचते हैं कि ईश्वर को इन्द्रियों से पकड़ा नहीं जा सकता। सदाचार का पालन करो। सदाचारी ईश्वर का भक्त बनता है। भक्त बनने से उसके सब दुःख दूर हो जाते हैं। ईश्वर की भक्ति करो, तो मुक्ति मिलेगी। विद्वान बनो और सदाचारी होकर ईश्वर की भक्ति करो, तो संसार में ऊँचापद प्राप्त करोगे और मुक्ति भी प्राप्त करोगे। लोग कहते हैं कि विद्या की क्या आवश्यकता? कितने संत हुए, जो पढे़-लिखे नहीं थे। तो जानना चाहिए कि केवल स्कूल-कॉलेज जाने से ही पढ़ना-लिखना नहीं होता है। पहले मौखिक विद्या ही थी। हाल में स्वामी दयानंद सरस्वती के गुरु विरजानन्द स्वामी थे। ये जन्मान्ध थे। वे कैसे विद्वान हुए? यह कहना नहीं पड़ेगा कि भक्ति में विद्या की आवश्यकता नहीं। संतों में जो पढ़े-लिखे नहीं हुए, उन्हांने संतों के पास जाकर सुना,समझा और ध्यानाभ्यास किया। ईश्वर अनादि-अनन्त है, सर्वव्यापक है। वह अत्यन्त झीना है। उसको इन इन्द्रियों से पकड़ नहीं सकते। सब इन्द्रियों में जो चेतन तत्त्व है, उसी से उसे पकड़ सकते हैं। जैसे रूप आँख का विषय है, उसी तरह चेतन आत्मा का निज विषय परमात्मा है। कोई कहे कि शब्द क्या होता है? तो कहा जाएगा-जो कान से सुनते हैं। उसी तरह ईश्वर क्या है? तो कहिए, जो चेतन आत्मा से पकड़ा जाय। चेतन आत्मा अभी शरीर और इन्द्रियों में बंधी हुई है, इसलिए ईश्वर का दर्शन नहीं होता है। शरीर और इन्द्रियों से अपने को ऊपर उठाना यही भक्ति है।
 सीताजी का हरण हुआ था। श्रीराम उसे खोजते-खोजते शवरी के आश्रम गए। वहाँ उनको नौ प्रकार की भक्ति बताई। नवो को पूर्ण करो, तब भक्ति पूर्ण होगी।
 ईश्वर के सम्बन्ध में, मोक्ष के सम्बन्ध में सत्संग में बातचीत होती है। इसलिए पहले संतों का संग करो। यह पहली भक्ति है। सत्संग सुनो, तो मन लगाकर सुनो-यह दूसरी भक्ति है। तीसरी भक्ति है-मान-रहित होकर गुरु-पद-पंकज की सेवा करनी। गुरु-सेवा में अपनी मान-मर्यादा को खोना पड़ता है। मान-प्रतिष्ठा खोओ, तो गुरु-सेवा होगी। सेवा में सेवक को तन-सुख और मन-सुख खोना पड़ता है। जो स्वयं अपना तन-सुख और मन-सुख चाहता है, वह दूसरे की सेवा नहीं कर सकता। बड़े के सामने में नवो। बड़े घराने में भी लोग नवते हैं। बड़े भाई, चाचा आदि-सबकी सेवा करो। वृद्ध चार प्रकार के होते हैं-वयोवृद्ध, सम्बन्धवृद्ध, पदवृद्ध और ज्ञानवृद्ध। ज्ञानवृद्ध सबसे बड़े होते हैं। इन सब गुरुजनों की सेवा करो। जो अपने तन-मन के सुख में डूबा हुआ है, जो अपनी मान-प्रतिष्ठा खोजता है, उससे सेवा नहीं हो सकती। इसलिए अमानी होकर गुरु-पद की सेवा करो। ऐसा नहीं होना चाहिए कि-
 अहं अग्नि हिरदे जरै, गुरु से चाहै मान।
 तिनको जम न्योता दिया, हो हमरे मेहमान।।
 चौथी भक्ति है-ईश्वर का यशोगान करो। पाँचवीं भक्ति है-मंत्र जाप करो, जो गुरु बता दे। किन्तु गुरु हो गोरू नहीं हो। ज्ञानवान को गुरु कहते हैं।
 गुरु नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोय।
 ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरू शिष्य न कोय।।
 ज्ञानवान और चरित्रवान हो, तो वह गुरु है। ज्ञानवान हो और चरित्रवान नहीं हो तो उस गुरु को छोड़ देना चाहिए; क्योंकि वह झूठा गुरु है।
 झूठे गुरु के पच्छ को, तजत न कीजै बार ।
 द्वार न पावै शब्द का, भटकै बारम्बार ।।
 साँचे गुरु के पच्छ में, मन को देय ठहराय ।
 चंचल ते निःचल भया, नहिं आवै नहिं जाय ।।
 एकाग्र मन से जपो। लोग कहते हैं-
भाव कुभाव अलख आलसहू। नाम जपत मंगल दिसि दसहू।।
 दशो दिशाओं में मंगल-शुभ होगा। दसो दिशाएँ माया में हैं, इसलिए माया में शुभ होगा। इससे मुक्ति नहीं होगी। उस नाम को भी जानो। नाम दो प्रकार के होते हैं-वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक। जप वर्णात्मक नाम का होता है और ध्यान ध्वन्यात्मक शब्द का होता है। छठी भक्ति है-इन्द्रियों को रोकने का स्वाभाववाला बनना। इन्द्रियों का सूत मन के साथ है। मन इन्द्रियों को चलाता रहता है। इन्द्रियों के साथ मन भी साधा जाता है। मन का जो सूत इन्द्रियों से लगा है, उसको उस स्थान में समेटो, जहाँ से यह बिखरा है। दमशीलता के साधन में इन्द्रियों के साथ-साथ मन का भी साधन होता है। ध्यान की क्रिया से मन के सूतों को समेट सकते हैं। समेटने से ही इन्द्रियों की धार मन में आकर एकत्रित होती है। इस सिमटाव में एक विचित्र मौज मिलती है। ऐसे साधक का मन विषयों से अलग हो जाता है। श्रीराम कहते हैं-‘एहि तन कर फल विषय न भाई।’
 इन्द्रियों में से चेतनधारों को समेटकर केन्द्र में केन्द्रित करो। केन्द्र में केन्द्रित करने से उसमें जो आनन्द है, वह मिलेगा। यहाँ एक पल के लिए भी यदि ठहरेगा, तो उसका मन बारम्बार उस ओर होता रहेगा। तब विषयों की ओर से उसका मुँह मुड़ने लगेगा और परमात्मा की ओर होने लगेगा। और बहुत से कर्मों को छोड़कर सज्जनों के अनुकूल चलो। भक्त हानि-लाभ के दुःख-सुख से विरक्त रहता हुआ काम करता है। काम कुछ-न-कुछ अवश्य करेगा। कर्म त्याग नहीं हो सकता। कर्म- फल का त्याग हो सकता है। समाधिस्थ होने पर कर्मफल त्याग होता है। शरीर में रहने पर कुछ न कुछ काम अवश्य करेगा; किन्तु कर्म की सफलता- विफलता में आसक्त नहीं होगा। सज्जनों के धर्म में बरतना छठी भक्ति है। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार नहीं करे-यह सज्जनों का धर्म है।
 एक ईश्वर पर भरोसा करो। ईश्वर की प्राप्ति अपने अंदर होगी, इसका दृढ़ निश्चय रखो। सत्संग करो। ध्यान करो और गुरु-सेवा करो। इन पंच विधि कर्मों को करना और पाँच निषेध कर्मों को नहीं करना-सज्जनों का धर्म है। सातवीं भक्ति है-
सातवँ सम मोहिमय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा।।
 सातवीं भक्ति में मन का साधन होता है। यह ऊँचे दर्जे का साधन है। ‘शम’ के साधन के लिए मनोलय होना चाहिए। शिवसंहिता में लिखा है-न नाद सदृशो लयः। इसलिए नादसाधन करने के लिए कहा। मन और दृष्टि का बहुत संबंध है। जहाँ आप देखेंगे, मन वहीं रहेगा, इसलिए दृष्टिसाधन से मन सधता है। दृष्टिसाधन आँख से होता है। इसलिए इन्द्रियों के साथ मन का साधन ‘दम’ कहलाता है और केवल मन का साधन ‘शम’ कहलाता है। दृष्टिसाधन के बाद नाद अभ्यास है। नाद खोजने के लिए बाहर जाना नहीं पड़ता। वह आपके अंदर है। वह परमात्मा की ध्वनि है। उस ध्वनि को जो प्राप्त करता है, शमशील हो जाता है, फिर वह समता प्राप्त कर लेता है। समता प्राप्त करने पर वह दूसरों के दुःख-सुख को अपने समान मानता है। वह दूसरों का दोष नहीं देखता। इस प्रकार जानकर सबको चाहिए कि ईश्वर की भक्ति करें।
 ईश्वर को जो प्राप्त नहीं करते, वे सदा दुःख में पड़े रहते हैं। संसार को चीन्हतें हो, तो दुःख-सुख लगा रहता है, मायाजाल में फँसे रहते हो, आवागमन में पड़े रहते हो। ईश्वर को प्राप्त करो, तो आवागमन से छूट जाओगे; संसार के दुःखों से छूट जाओगे। जो पदार्थ आपस में उलटे-उलटे होते हैं, उनके गुण भी उलटे-उलटे होते हैं संसार नाशवान है और परमात्मा अविनाशी है। संसार मायिक है तो परमात्मा निर्मायिक है। संसार को चीन्हते हो तो देखो तुम्हारी क्या हालत है? ईश्वर को पहचानो, तो इसका बिल्कुल उलटा हो जाएगा। किंतु यह याद रखो कि ईश्वर का दर्शन इस आँख से नहीं होगा। यदि कहो कि प्रùाद को इसी आँख से दर्शन हुआ, तो यह माया का। गोस्वामीजी की यह पंक्ति याद रखो-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 यह क्षेत्र दर्शन हुआ, क्षेत्रज्ञ का दर्शन नहीं हुआ। क्षेत्रज्ञ को मन-बुद्धि से भी पहचान नहीं सकते, फिर और इन्द्रियाँ उसके लिए काफी नहीं हैं। उसको तो आत्मा से पहचान सकते हो। नररूप, देवरूप, विराटरूप, नरसिंहरूप के दर्शन में माया के बहुत काम बनते हैं; किंतु सब काम नहीं बनते। अर्जुन भगवान के साथ रहते थे। भगवान के चले जाने पर उनके शरीर में बल ही नहीं रहा। युधिष्ठिर को भगवान के दर्शन कई बार हुए थे; अपने भी वे बड़े धर्मात्मा थे, किंतु द्रोणाचार्य को मरवाने के लिए एक झूठ बोले थे, जिससे उनको कुछ काल के लिए नरक देखना पड़ा। तो इस प्रकार के दर्शनों से आप मुक्ति नहीं पा सकते। मुक्ति तो आत्मस्वरूप के दर्शन से ही होती है। इसलिए सभी संतों ने परमात्मा के स्वरूप को प्राप्त करने के लिए उपदेश दिया। ईश्वर-भक्ति में ऊँच-नीच, जाति-पाँति का विचार नहीं है। यदि आप भक्त होंगे, ईश्वर की भक्ति करेंगे, तो आप बड़े हो जाएँगे, लोग आपका आदर करेंगे। रविदासजी चमार थे; किंतु उन्हें लोग आदर की दृष्टि से देखते हैं, पूजते हैं। आज आप राजा हैं। आपकी संतान राजकुमार है; किंतु फिर भी दुःख-सुख भोगते हैं, इसलिए कि संतों के कहे अनुकूल चलते नहीं। यदि संतों के कहे अनुकूल चलें तो शिष्ट हो जाएँगे, किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं होगा। पुलिस जो पहरा देती है, उसको भी काम से फुर्सत मिलेगी। आप सबलोग भक्ति करें और सदाचार का पालन करें, तो संसार और परलोक-दोनों जगह सुखपूर्वक रहेंगे।
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यह प्रवचन गोड्डा जिलान्तर्गत श्रीरामनन्दन प्रसाद वर्मा (एग्रिकल्चर इंजिनियरिंग इंसपेक्टर) के निवासस्थान पर दिनांक 26.2.1954 ई0 के अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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62. परमातम गुरु निकट विराजैं

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 हम सबलोग सत्संग के लिए यहाँ एकत्र हैं। मैं जानता हूँ कि संतों के संग का नाम सत्संग है। मैं नहीं कहता हूँ कि मैं संत हूँ और न मैं पहचानता हूँ कि यहाँ जो एकत्र हैं, कौन संत हैं?। इसलिए संतों के संग से सत्संग में संशय रह जाता है। संत का गृहत्यागी और वैरागी वेश में रहना ऐसा समझना भूल है। संत गृहस्थ वेश में और वैरागी वेश में भी रहते हैं। मैंने पढ़ा था-‘मत कोइ करै गुमान, संत एक-से-एक हैं। जानत है भगवान, कोइ गुप्त कोइ प्रगट हैं।’ संत कबीर साहब ने कहा-
 कबीर संगति साधु की, ज्यों गन्धी का वास।
 जो कुछ गन्धी दे नहीं, तौ भी वास सुवास।।
 इसी प्रकार कोई गुप्त संत रहते हैं, तो उनकी आभा आती है। वे अपनी आभा को रोक नहीं सकते हैं। हम सब लोग एकत्र हुए हैं कि सत्संग हो, तो सत्संग का एक और जरिया है, उसी के सहारे हमलोग सत्संग करते हैं। लोग जानते हैं कि चिट्ठी आधी मुलाकात होती है। दूर-दूर में रहकर पत्र द्वारा एक-दूसरे के ख्यालों को जानते हैं। उससे प्रभावित भी होते हैं। इसी तरह यह जरिया है कि संतलोग जो हो चुके हैं या अभी जिनपर लोगों का विश्वास है, वे यहाँ वर्तमान नहीं हों, फिर भी उनकी पुस्तक हो या कोई जबानी गावे, तो उनके वचन से हम प्रभावित होते हैं; किस दिशा में चलना चाहिए मालूम होता है। इसलिए संतवचन अवश्य पढ़ना चाहिए। संतों के वचन से उन संतों की आधी मुलाकात होती है। किंतु मैं तो कहता हूँ कि यदि संतों का रत्ती-रवा भी संग हो तो अहोभाग्य है। अभी आपलोगों ने संत कबीर साहब, गुरु नानक साहब, संत पलटू साहब, गोस्वामी तुलसीदासजी, संत सूरदासजी और संत तुलसी साहब के वचन सुने। संत लोगों के पास सबसे बडा धन-अनमोल पदार्थ यदि है तो वह है ईश्वर या परमात्मा। संत लोग ईश्वर की खोज में चले और मुझको विश्वास है कि जिन संतों के वचन आपको सुनाए गए, वे ईश्वर को प्राप्त किए हुए थे। मैं जोर नहीं देता हूँ कि आप भी विश्वास कीजिए। जो मानते हैं, वे तो मानते ही हैं, किन्तु जो इस पर विश्वास नहीं करते हैं कि वे संत थे, उनसे भी घृणा नहीं। उन संतों के वचनों को पढ़िये, विचारिए और यदि जँच जाय, तो उनपर विश्वास कीजिए। संतों ने कहा-ईश्वर-ईश्वर बचपन से कहते चले आ रहे हो, चाहे किसी भाषा में; किन्तु इसका निर्णय आज तक जाने हो कि ईश्वर कहाँ है? यदि जाने हो तो वहाँ जाकर उसे ठीक-ठीक पहचानो। यदि नहीं जानते हो तो संतों के वचनांं को सुनो। आपने पहले संत कबीर साहब का वचन सुना। आपके मन में होता होगा कि मैं कबीर सम्प्रदाय का हूँ। तो मैं कभी कबीर सम्प्रदाय का नहीं हूँ। और न मेरा वेश उस तरह का है। मैं कबीर साहब के वचनों से प्रभावित हूँ। किन्तु कबीर साहब पहले आते हैं। सब संत एक समय में प्रकट नहीं हुए थे। पहले कबीर साहब प्रगट हुए थे। हाँ, यह अवश्य है कि कबीर साहब और गुरु नानक साहब दोनों समकालीन थे; किंतु दोनों के वचन एक साथ कैसे कहे जायँ? इसलिए पहले कबीर साहब के वचन, फिर गुरु नानक साहब के वचन का पाठ आपलोगों ने सुना। इसी तरह गोस्वामी तुलसीदासजी और सूरदासजी के वचन सुने। उसके बाद आपलोगों ने संत पलटू साहब और संत तुलसी साहब के वचन सुने। पहले पीछे नाम कहने का यह मतलब नहीं कि मैं किन्हीं को विशेष और किन्हीं को कम मानता हूँ; बल्कि जो जैसे प्रकट हुए, उनका नाम वैसे ही लेकर भजन गाए गए। संत कबीर साहब कहते हैं कि तुम्हारे निकट परमात्मा विराज रहे हैं; किन्तु तुम सोए हुए हो- ‘परमातम गुरु निकट विराजैं, जाग जाग मन मेरे।’
 जन्म लेते हो, तब सोते हो, मरते हो तब सोते हो, स्वर्ग जाते हो, तब सोते हो, तुम सभी अवस्थाआें में सोए रहते हो। जगने के लिए संत कबीर साहब कहते हैं और इसके लिए कहते हैं ‘गुरु के निकट जाकर ज्ञान प्राप्त करो।’ सुनना, समझना और विचारना जबतक होता रहता है, तबतक परमेश्वर याद रहते हैं; सचेतता रहती है, किन्तु तुरन्त ही भूल जाते हैं और अचेतता आ जाती है। केवल समझने में ही नींद नहीं टूटती। आप भी जगे हैं, कुछ देर पूर्व आप सोए थे, तो आपको स्वप्न भी हुआ होगा और सुषुप्ति भी हुई होगी। यह सोना-जागना कैसे होता है, इसको समझिए। इस शरीर में आपके रहने का एक केन्द्रीय स्थान है। जाग्रत में एक स्थान में, स्वप्न में दूसरे स्थान में और सुषुप्ति में तीसरे स्थान में होता है। स्थान-भेद से ज्ञान-भेद होता है। स्वप्न में अचेतता रहती है। अभी जो हमलोग जगे हैं, यह भी संत कबीर साहब के ख्याल में सोना ही है। मेरा जाना हुआ है कि जिस तरह जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति के तीन स्थान हैं, उसी तरह एक चौथी अवस्था और स्थान भी है, जिसमें संसार की ओर से सोया रहता है और अंतर में जगता रहता है; लेकिन वह स्वप्न अवस्था नहीं है। उसमें जो रहता है, उसको वह बड़ा विचित्र मालूम पड़ता है। स्वप्न में बाह्य विषय की ओर जैसे मन रहता है, उस समय वैसा नहीं होता। उस समय में वह कुछ आन्तरिक रस पाता रहता है, जिसको कह सकते हैं ईश्वर संबंधी विशेष वस्तु, जिसको पाते रहने पर ईश्वर की ओर रहता है, विषय की ओर नहीं। उस अवस्था को तुरीय अवस्था कहते हैं। इस अवस्था में जो जगता है, वह ईश्वर की ओर जाता है। जाग्रत में हमलोग संसार की ओर जगते हैं।
 माया मुख जागे सभै, सो सूता कर जान।
 दरिया जागे ब्रह्म दिसि, सो जागा परमान।।
 संत दरिया साहब ने कहा है। और गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
 सपने होय भिखारी नृप, रंक नाकपति होय।
 जागे लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपंच जिय जोय।।
 इस सारे संसार को उन्होंने स्वप्न कहा। किन्तु हमलोग तो देखते हैं कि संसार है। फिर वे खुलासा करते हैं-
मोह निसा सब सोवनहारा। देखिय सपन अनेक प्रकारा।।
यहि जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच वियोगी।।
 मोह मानी अज्ञानता। असत् ज्ञान में जबतक रहते हैं, तबतक सोए रहते हैं। यह मेरी चीज है, वह उसकी चीज है, यह ज्ञान स्वप्न का ज्ञान है। अनेक प्रकार में जो विविधता देखते हैं वा शत्रु-मित्र का जो ज्ञान होता है, वह मोह-निशा में सोते-सोते होता है। इसमें जगते हैं कौन?
यहि जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच वियोगी।।
 गोस्वामी तुलसीदासजी के ख्याल में योगी जगते हैं। योगी कैसे जगते हैं? तो वे कहते हैं-
 सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि योगी।
 सोइ हरिपद अनुभवइ परम सुख, अतिशय द्वैत वियोगी।।
 योगी वह है जो अन्तर्मुख होता है। अंदर में रहते हुए जो सारे ब्रह्माण्ड का दर्शन करता है, वही ईश्वर के परमपद को जानता है। जो अपने अंदर ठहरे, वह योगी है। अन्दर में ठहरने के लिए तीन अवस्थाआें और तीन स्थानों के अतिरिक्त कोई चौथा स्थान और चौथी अवस्था होनी चाहिए। उसी को संतां ने तुरीय अवस्था कहा है। इस चौथी अवस्था में आना जगना है। केवल विचार विचार का जगना, भाव ही भाव में मोह होना-यह जगना नहीं है। प्रत्यक्ष जगने के लिए चौथे स्थान में जाना होगा।
 ईश्वर सबके अन्दर है। उसको आप तब पाएँगे, जब आप जगिएगा और जगिएगा तब, जब आप चौथी अवस्था में जाइएगा। लड़कपन से ही हमलोग राम-राम, शिव-शिव, वाह-गुरु आदि कहते हैं। अपने अन्दर में ईश्वर है-ऐसा जाननेवाले लोग बहुत हैं, किन्तु कितने तो ऐसे हैं, जिनको मालूम नहीं कि ईश्वर अपने अन्दर है। संतों ने बताया कि तीसरे स्थानों से चौथे स्थान में जाओ, तब जानोगे। ईश्वर को प्रत्यक्ष पाना चाहो, तो अपने अन्दर चलो। गुरु नानकदेवजी के वचन में अभी आपलोगों ने सुना-
इस गुफा महि अखुट भंडारा। तिसु विचि बसै हरि अलख अपारा।
आपे गुपुतु परगट है आपे गुर सबदि आप वं´ावणिआ।।
 इस शरीररूप गुफा में ऐसा भण्डार है कि खर्च करते जाओ, किन्तु वह भरा ही रहेगा। उसके अन्दर हरि है, जो इस आँख से नहीं देखा जाता। जिसका वार-पार नहीं, वह स्वरूपतः अपार है। सारे विश्व को अपने से भरपूर करता है, किन्तु स्वयं कहीं समाप्त नहीं होता। गुरु नानकदेवजी कहते हैं-तुम नौ द्वारों में यानी आँख के दो, नाक के दो, कान के दो, मुँह का एक और मल-मूत्र विसर्जन के दो द्वारों-में ठहरे हुए हो, तो तुम संसार में दौड़ते रहते हो। दसवें द्वार में पहुँचो, जिसको शिवनेत्र कहते हैं। नौ द्वारों से सिमटकर दसवें द्वार में जाओ, तब ईश्वर की कुछ खबर मिलेगी। बचपन में सुना था कि गोस्वामी तुलसीदासजी को पहले प्रेत से दर्शन हुआ था। फिर हनुमानजी से और फिर भगवान के स्थूल रूप का दर्शन हुआ था। जब गोस्वामीजी को अन्दर में दर्शन हुआ, तब उन्होंने ऐसा कहा-
एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो।
परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं, बाहर फिरत विकल भय धायो।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद, अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल, परम सुगंध कहाँ ते आयो।।
ज्यों सर विमल वारि परिपूरन, ऊपर कछु सेंवार तृन छायो ।
जारत हियो ताहि तजिहौं सठ, चाहत यहि विधि तृषा बुझायो।।
व्यापित त्रिविध ताप तन दारुण, तापर दुसह दरिद्र सतायो।
अपने धाम नाम सुरतरु तजि, विषय बबूर बाग मन लायो।।
तुम्ह सम ज्ञान निधान मोहि सम, मूढ़ न आन पुरानन्हि गायो।
तुलसिदास प्रभु यह विचारि जिय, कीजै नाथ उचित मन भायो।।
 इस शरीररूपी तालाब में परमात्मरूपी निर्मल जल है। यदि माया के परदे को हटा दो तो परमात्मा का दर्शन होगा। जिसको देखना चाहो, उधर अपनी दृष्टि को ले जाओ। पलक बन्द करने पर अन्धकार का परदा दीखता है।
मायाबस मति मन्द अभागी। हृदय जवनिका बहु विधि लागी।।
ते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अज्ञान राम पर धरहीं।।
 काम क्रोध मद लोभरत, गृहासक्त दुख रूप।
 ते किमि जानहिं रघुपतिहिं, मूढ़ पड़े तम कूप।।
 (अन्दर में परदे रहने से परमात्मा को कैसे पहचानोगे?) इच्छा-द्वेष को छोड़ो। सेंवार-रूप परदों का छेदन करो, अंधकार के परदे को हटाओ, तब दर्शन होगा। तुलसीदासजी कहते हैं-अन्तर के अन्तिम तह में चलकर दर्शन होगा। सूरदासजी कहते हैं-
 अपुनपौ आपुन ही में पायो।
 शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो।।
 ज्यों कुरंग नाभि कस्तूरी, ढूँढ़त फिरत भुलायो।
 फिर चेत्यो जब चेतन ह्वै करि, आपुन ही तनु छायो।।
 राज कुँआर कण्ठे मणि भूषण, भ्रम भयो कह्यो गँवायो।
 दियो बताइ और सत जन तब, तनु को पाप नशायो।।
 सपने माहिं नारि को भ्रम भयो, बालक कहुँ हिरायो।
 जागि लख्यो ज्यां का त्यों ही है, ना कहूँ गयो न आयो।।
 सूरदास समुझै की यह गति, मन ही मन मुसकायो।
 कहि न जाय या सुख की महिमा, ज्यों गूँगो गुर खायो।।
     -सूरदासजी महाराज
 सूरदासजी कहते हैं कि जागो, तो बालक को पाओगे। बालक को ईश्वर से पटतर कर दिया है। कबीर साहब ने आगे कहा है-
 बालक रूपी साइयाँ, खेले सब घट माहिं।
 जो चाहे सो करत है, भय काहू को नाहिं।।
 पलटू साहब ने कहा-वह ईश्वर तुम्हारे अन्दर है, जैसे दूध में घी है। तुलसी साहब ने कहा-पहले पवित्र बनो, तब ईश्वर का दर्शन होगा। पवित्रता के लिए स्नान करो, कैसा स्नान करो? तो कहा-
 आली अधर धार निहार निजकै, निकरि सिखर चढ़ावहीं।
जहाँ गगन गंगा सुरति जमुना, जतन धार बहावहीं।।
जहाँ पदम प्रेम प्रयाग सुरसरि, धुर गुरू गति गावहीं।
जहाँ संत आस विलास बेनी, विमल अजब अन्हावहीं।।
कृत कुमति काग सुभाग कलिमल, कर्म धोय बहावहीं।
हिय हेरि हरष निहारि घर कौ, पार हंस कहावहीं।।
मिलि तूल मूल अतूल स्वामी, धाम अविचल बसि रही।
आलि आदि अंत विचारि पद कौ, तुलसी तब पिउ की भई ।।
 अंतर की गंगा में स्नान करो, तो शुभ और अशुभ-सभी कर्म धुल जाएँगे, आवागमन से छूट जाओगे। जब उस परमात्मा को पाओगे, तो कभी दुःख में न जाओगे। सभी संतों ने कहा कि ईश्वर तुम्हारे अंदर है। ऐसा भजन करो कि अपने अंदर अंदर चलो और परमात्मा को पाकर सारे दुःखों से छूट जाओगे।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत महल्ला मिरजानहाट में दिनांक 27.2.1954 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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63. अमृत को नत्रों से पान करो

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 आप सब यहाँ सत्संग के लिए एकत्रित हैं। सत्संग में बहुत तरह की बातें होती हैं। ऐसा नहीं कि जो आध्यात्मिकता के खिलाफ बातें हैं, वे भी होती हैं। मैं आपका ख्याल उधर ले जाना चाहता हूँ, जो आपने पहले सद्गं्रथों के पाठ में सुना था। मेरा यह कायदा और सहारा भी है कि संतों की वाणी का मैं आदर करूँ और उसके सहारे चलूँ। संतों की वाणी को ही मैं सत्संग कहूँगा। जो मुझे जानते हैं, वे तो वैसे ही मुझे कहते होंगे कि संतों की वाणी का सहारा मुझे उतना ही है, जितना कि बिना वायु के श्वास कोई नहीं ले सकता।
 मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् में संसार को समुद्र कहा गया है। उसमें निद्रा-भय जीव-जन्तु हैं, ऐसा बतलाया गया है। समुद्र में बड़े-बड़े जीव होते हैं और जीव को जीव निगल जाते हैं। उसी प्रकार नींद है। उसके पेट में जो जाते हैं, उसकी सुधि- बुद्धि सब खो जाती है। भय भी उसी तरह है। भयातुर होकर अपनी शक्ति को लोग खो बैठते हैं। उसमें तृष्णा भँवर है, इसको पार करने के लिए सूक्ष्म मार्ग का अवलम्ब ग्रहण करें। जीव भँवर में चक्कर खाते हैं। ऐसे ही इच्छा की तरंग में पड़े हुए लोग सूक्ष्ममार्ग का अवलम्ब ग्रहण करें। सूक्ष्म का अर्थ है-महीन। सूक्ष्ममार्ग के लिए बतलाया गया कि उसके द्वारा किस तरह ब्रह्म का अवलोकन होता है। चन्द्र-बिम्ब अमृत को नत्रों से पान करो। उसके दर्शन के लिए तीन प्रकार की दृष्टियाँ चाहिए। अमादृष्टि, प्रतिपदादृष्टि और पूर्णिमादृष्टि। पूरी आँखें बंदकर देखना अमादृष्टि है। आधी आँखें खोलकर और आधी आँखें बंदकर देखना प्रतिपदादृष्टि है, जिसे शाम्भवी मुद्रा कहते हैं और पूरी आँखें खोलकर देखना पूर्णिमादृष्टि है, जिसे वैष्णवी मुद्रा कहते हैं।
 इस तरह देखने से क्या होता है? तो कहते हैं कि इससे वायु की स्थिरता होती है, मन की स्थिरता होती है। क्या यह बात सत्य है? उपनिषद् की बातों को झूठलावें, मेरी समझ से बाहर है।
 दृष्टि वह चीज है, जहाँ पर यह ठीक से लगी रहती है, मन वहीं पर पड़ा रहता है। ऐसा नहीं होगा कि दृष्टि को एक जगह स्थिर किए हैं और मन दूसरी ओर भाग जाय। यदि ठीक-ठीक देखते हैं तो मन वहीं रहता है। दृष्टि डीम-पुतली को नहीं कहते, देखने की शक्ति को कहते हैं। दृष्टि स्थूल है या सूक्ष्म? दृष्टि को हाथ से आप नहीं पकड़ सकते। आप मेरी ओर देखते हैं और मैं आपकी ओर देखता हूँ, तो दोनों की दृष्टि दोनों पर पड़ती है, किन्तु उसे देख नहीं सकते। इस प्रकार दृष्टि सूक्ष्म है और मन भी सूक्ष्म है। सूक्ष्म को सूक्ष्म का सहारा मिलना अवश्य मानने योग्य है। इसलिए दृष्टि से मन का स्थिर होना पूर्ण सम्भव है। दृष्टि और मन दोनों सूक्ष्म है, इसलिए उपनिषद् का यह वाक्य सत्य है, ऐसा विचार में जँचता है। बाकी रही बात वायु-स्थिरता की। तो आप देखिए, किसी गम्भीर बात को सोचिए, तो मन इधर-उधर नहीं भागता। ऐसी अवस्था में श्वास-प्रश्वास की गति भी धीमी पड़ती है। आप स्वयं आजमाकर देख सकते हैं।
 मन की च०चलता में श्वास तेज होता है और मन की स्थिरता में श्वास की गति धीमी होती है। याद रहे कि मैं प्राण और प्राणवायु दोनों को एक ही नहीं मानता। योगिवर भूपेन्द्रनाथ सांन्यालजी ने कहा था-‘जैसे दूध में घी रहता है, उसी प्रकार वायु में प्राण रहता है।’ प्राणवायु वह है, जो वायु प्राण से सम्बन्धित हो। उपनिषद् में जो बताया गया कि दृष्टि-साधन से मन और वायु की स्थिरता होती है, बिल्कुल ठीक है और जो कहा गया कि भवसागर से पार हो जाओगे, वह भी ठीक है। यदि कहा जाय कि मन और वायु की स्थिरता में ईश्वर की प्राप्ति कैसे होगी? तो देखिए, मन के सिमटाव से ऊर्ध्वगति होती है, ऊर्ध्वगति से मायिक तल का छेदन होता है। माया के तल से ऊपर जाने पर निर्मायिक का दर्शन होता है।
 परमात्मा का दर्शन हमको इसलिए नहीं होता है कि हमने पहले जाना नहीं कि परमात्मा का दर्शन कैसे होता है। पहले जानो कि शब्द का ग्रहण कान से होता है। रूप का दर्शन आँख से होता है। परमात्मा तो बहुत दूर है, पहले आप अपने को जानिए। कोई ऐसा नहीं कहता कि मैं नहीं हूँ। मैं हूँ-ऐसा सबको विश्वास है। कहाँ हैं? तो कहेंगे-शरीर के अंदर हैं। शरीर के अंदर मनोवृत्ति के संग-संग हैं। जिस प्रकार दूध के संग-संग घी रहता है, उसी तरह मन के संग-संग जीवात्मा रहता है।
 एक आदमी है, जो चारचित लेटा पड़ा हुआ है। उसको उठकर कहीं जाना है, तो वह क्या करेगा? पहले हाथ-पैर समेटेगा, तब वह उठकर चलेगा। बिना हाथ-पैर समेटे चल नहीं सकता है। उसी प्रकार इन इन्द्रियों की सम्भाल जबतक नहीं होगी, तबतक परमात्म-दर्शन सम्भव नहीं। उसके लिए साधन बताया गया कि शाम्भवी मुद्रा का अभ्यास करो। शाम्भवी मुद्रा तीन तरह की होती है। भगवान विष्णु को जहाँ देखिए, तो खुली आँखें, शिवजी को जहाँ ध्यानावस्थित देखिए, आधी आँखें खुली और आधी आँखें बन्द। भगवान बुद्ध को देखिए, तो आँखें बन्द। व्यासदेवजी भी आँख बन्द करके ध्यान करते थे, ऐसा चित्र मुझे मिला है।
 हमारे गुरु महाराज कहते थे कि आँखें खोलकर देखोगे, तो तुमको आँखों में कष्ट होगा। पाल ब्रंटन ने एक पुस्तक लिखी है, उसमें उन्होंने लिखा कि एकटक लगाओ। एक साधु थे, जिनकी आँखों से पानी टपकता था। आपको पोथी-प्रमाण की आवश्यकता नहीं। विचार से देखिए-जहाँ आपकी दृष्टि गड़ी रहेगी, मन वहीं रहेगा। मन सूक्ष्म है और दृष्टि भी सूक्ष्म है। इसलिए स्वजाति को स्वजाति से मदद मिलती है। मैंने श्रीभूपेन्दनाथ सांन्यालजी से पूछा कि प्राणायाम करके ध्यान करना चाहिए अथवा ध्यान करके प्राणायाम करना चाहिए। उन्होंने कहा-‘प्राणायाम करके ध्यान करना चाहिए।’ मैंने कहा-‘श्रीगीताजी के छठे अध्याय में बैठने के लिए आसन और आसन के तरीके सब बतलाए हैं, किन्तु वहाँ प्राणायाम के लिए कोई जिक्र नहीं है। जहाँ-जहाँ मन भाग जाय, वहाँ वहाँ से लौटाने कहा है। ध्यान से प्राणस्पन्दन बन्द हो जाय, तो यही प्राणायाम हो गया।’
 पहले दूध-मक्खन साथ-साथ रहते हैं। जहाँ दूध रहता है, मक्खन भी वहीं रहता है। फेफड़े में संकोचन-विकासन की क्रिया होती रहती है, किन्तु बाहर की वायु से नहीं, जीवनी शक्ति से। जीवनी शक्ति प्राण है। प्राण परमात्मा से उत्पन्न होता है और वायु आकाश से उपजती है। हाँ, हम जो बाहर से वायु खींचते हैं, वह प्राण से सम्बन्धित हो जाती है, इसलिए उसको प्राणवायु कहते हैं। यदि शाम्भवी मुद्रा से अभ्यास करें तो मन स्थिर हो जाता है। मन स्थिर हो जाता है तो प्राण भी स्थिर हो जाता है। दृष्टि का ऐसा प्रयोग है, जिससे मन स्थिर हो जाता है। स्थिरता में सिमटाव होता है। सिमटाव से मायिक आवरणों का छेदन होता है। मायिक आवरणों के छेदने पर उधर परमात्मा ही बाकी रहते हैं। उसे परमात्मा का साक्षात्कार होता है।
 अष्टांग योग में पहले यम, नियम और तब आसनसिद्धि के बाद प्राणायाम कहा, किन्तु प्राणायाम में ही समाप्त नहीं किया। प्राणायाम के बाद प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि भी कहा है। इसलिए पहले यम, नियम, आसनसिद्धि आदि और अन्त में समाधि होगी। प्राणायाम से आपदा भी हो सकती है, किन्तु ध्यान से आपदा नहीं होती। प्राणायाम से उन्माद भी होता है। ‘कल्याण’ पत्र में ऐसा लेख भी निकला है। गुरु नानक, दादू दयाल, कबीर साहब, तुलसी साहब आदि संतों ने ध्यानयोग पर ही जोर दिया है। दृष्टिसाधन से आरम्भ करके अन्त तक का वर्णन किया। प्राणायाम के बाद ध्यान-योग में जाना ही पड़ेगा, किन्तु ध्यान-योग से प्राणायाम में नहीं जाना होगा।
  मन को ठीक-ठीक लगाओ, दृष्टि को ठीक-ठीक लगाओ, जैसा बताया गया है। अवश्य शांति मिलेगी। मेरे कहने का तात्पर्य ऐसा नहीं कि प्राणायाम नहीं करो। जिनसे निबहता है, करें; किन्तु खतरे से-आपदा से बचते रहें। बिना प्रत्याहार के धारणा नहीं होगी। बिना धारणा के ध्यान नहीं होगा। इसलिए पहले प्रत्याहार होगा। मन जहाँ जहाँ भागेगा, वहाँ-वहाँ से लौटा-लौटाकर फिर वही लगाया जाएगा, तो अल्प टिकाव अवश्य होगा। ‘रसरी आवत जात ते सिल पर पड़त निसान’ यही धारणा होगी। फिर विशेष देर तक टिकते-टिकते ध्यान होगा और अन्त में समाधि होगी। केवल किसी एक पर जोर देना उचित नहीं।
 लोग पूजा-पाठ, मूर्ति-ध्यान करते हैं, इसमें भी एकाग्रता होती है। शरीर कपड़े की तरह बदलता है, किन्तु हम रहेंगे। हम पर जो संस्कार पड़ेगा, वह भी रहेगा। भगवान ने कहा कि जहाँ-जहाँ मन भागे, वहाँ-वहाँ से लौटा-लौटाकर लाओ। ऐसा संदेह नहीं करना चाहिए कि इधर साधना से गए और उधर सांसारिक भोग से भी। तो भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- कल्याणकारी कर्म करनेवालों की अधोगति नहीं होगी। ऐसा वर्णन है। उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में दृष्टिसाधन करने के लिए कहा-
 समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
 संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।
 अर्थात् काया, सिर और गले को समान एवं अचल करके और स्थिर होकर अपनी नासिका के आगे दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ देखे। नासाग्र ध्यान में भी भेद है।
 एक सेठ ने अपने गुप्त धन रखने का स्थान अपने बही-खाते में लिखकर रख दिया था कि अमुक महीने की अमुक तिथि के दिन, दोपहर के समय धन अमुक ताड़ गाछ की फुनगी पर रखा है। जब वह मर गया और उसके बेटे ने जब इसे पढ़ा, तो अति आश्चर्यित हुआ कि ताड़ वृक्ष तो अभी वर्तमान है, पर वहाँ तो धन है नहीं! और सोचा कि वहाँ धन रह भी सकता है कैसे?
 उसके पिता के समय का एक वृद्ध मुनीम था। जब लड़के ने इस विषय में उससे पूछा तब उस वृद्ध ने कहा-‘वह महीना, तिथि और वह समय आने दो, तो मैं बतला दूँगा।’ जब वह समय आ गया, तब उस वृद्ध ने उस सेठ के पुत्र को उस स्थान पर ले जाकर ताड़ गाछ की फुनगी की छाया जहाँ पड़ती थी, वह स्थान बतला दिया और बोला कि इसी जगह में वह धन गड़ा है। सेठपुत्र ने कोड़कर अपना धन निकाल लिया। संत धरनीदासजी ने कहा-
 धरनी निर्मल नासिका, निरखो नैन के कोर।
 सहजै चन्दा ऊगिहैं, भवन होइ उजियोर।।
 निर्मल नासिका को समझो। शाण्डिल्योपनिषद् में भी नासाग्र का जिक्र आया है।
 विद्वान्समग्रीवशिरो नासाग्रदृग्भ्रूमध्ये
    शशभृद्विम्बं पश्येन्नेत्राभ्याममृतं पिवेत्।।
 विद्वान गला और सिर को सीधा करके नासिका के आगे दृष्टि रखते हुए, भ्रुवों के बीच में चन्द्रमा के बिम्ब को देखते हुए नेत्रों से अमृत का पान करें।
 कुछ लोगों का कहना है कि आज्ञाचक्र से नीचे पाँच चक्र हैं। इनमें से पहले नहीं गुजरकर आकाश में ही कैसे उड़ने लगेंगे? तो मैं कहूँगा कि दोनों आँखों से दृष्टि की धार निकलती है। बिजली के गिरने से यदि कोई उसे देख लेता है, तो उसकी दृष्टिधार निकलते ही उसका शरीर भी छूट जाता है। दृष्टि शरीर का प्राण है।
 अजगर की दृष्टि किसी आदमी की दृष्टि पर पड़े तो अजगर की दृष्टि से उसकी दृष्टि मिलने से वह व्यक्ति उस ओर खिंचता चला जाता है।
 ‘शिवसंहिता’ में भगवान शिव ने एक-एक चक्र के साधन का तथा उनके गुणों का वर्णन किया है। फिर आज्ञाचक्र के वर्णन में उन्होंने कहा है-‘पंच पद्मों का जो-जो फल (पंच चक्रों के ध्यान का जो-जो फल) होता है, सो समस्त फल आप ही इस आज्ञा कमल (आज्ञाचक्र) के ध्यान से प्राप्त हो जाएगा।
 आपके दोनों हाथों को पकड़कर कोई खींचे, तो तमाम शरीर उसी ओर खींचा जाएगा। उसी प्रकार दोनों दृष्टि की धारें जिधर खींची जाएँगी, संपूर्ण शरीर की धार उस ओर फिर जाएगी। इसी का वर्णन गुरु नानक, कबीर साहब आदि संतों ने किया है। जिसका मन एक क्षण के लिए भी उस ओर लग जाएगा, तो वह एकाग्रता का सुख और कुछ-न-कुछ झलक अवश्य देखेगा। यही साधन निरापद है। करते जाओ, सुगम साधन है। इसके साथ संयम करो। बिना संयम किए न हठयोग चलेगा, न दृष्टियोग और न शब्दयोग। इसलिए झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार मत करो। यदि कभी भूल से भी हो जाय, तो परमात्मा से प्रार्थना करो कि हमसे अब ऐसा न होने पावे। अपनी शक्ति भी लगाओ कि ये अपकर्म आपसे न होने पावें, केवल कहो नहीं।
 धन-सम्पत्ति के लिए जो बहुत दुष्कर्म करते हो, यह साथ जाने को नहीं है। साथ ही जब आपका शरीर छूट जाएगा और कहीं जन्म होगा, तब उस धन के लिए कहो कि मेरा धन है, तो आपको कौन दिला देगा? इसलिए धन-सम्पत्ति में आसक्ति मत बढ़ाओ। ध्यान करो। ध्यान करने के लिए पहले किसी नाम का जप करो, फिर जिस नाम का जप करते हो, जिसमें श्रद्धा हो, उसी से संबंधित रूप का मानस ध्यान करो। फिर-
     कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
     सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।। -गीता, अध्याय 8/9
 विन्दुध्यान करो। ध्यानविन्दूपनिषद् में आया है-
 बीजाक्षरं परम विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम्।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परं पदम्।।
      -ध्यानविन्दूपनिषद्
 विन्दु के बाद शब्द का-नाद का ध्यान करो। ‘न नाद सदृशो लयः।’ पहले विन्दु का ध्यान करो, फिर नाद का। इस प्रकार लोग नित्य अभ्यास करते हुए आगे बढ़ सकते हैं। कोई पूछे कि ईश्वर क्या है, तो पूछो कि रूप क्या है? जो इन आँखों से देखा जाय। उसी तरह जो चेतन आत्मा से ग्रहण हो, वह ईश्वर या परमात्मा है। चेतन आत्मा को जड़ का संग छूटे, इसी के लिए दृष्टि-साधन और शब्द-साधन है। दृष्टि-साधन करने की शक्ति प्राप्त करने के लिए मानस जप और मानस ध्यान है। इसके लिए ऐसा नहीं कि काम आज शुरू करो और आज ही खतम। भगवान बुद्ध ने 550 जन्मों में सिद्धि प्राप्त की थी। भगवान कृष्ण ने भी अनेक जन्मों की बात कही है। यह सुनकर शिथिलता लाने की बात नहीं। धीरे-धीरे करते जाओ, एक-न- एक दिन काम अवश्य समाप्त होगा।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत महल्ला मिरजानहाट में दिनांक 28.2.1954 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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64. घर माहैं घर निर्मल राखै

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 मैं क्या कर रहा हूँ, यह कल से आप सज्जनों को विदित हो रहा है। मैं भागलपुर के लिए नया आदमी नहीं हूँ। मैं 1909 ई0 के पहले से यहाँ आता हूँ। यह प्रचार, जिसे मैं कर रहा हूँ, ईश्वर- भक्ति का है। इसका आधार संतों का वचन है। ईश्वर भक्ति में तीन बातें खास कर ली जाती हैं-स्तुति, प्रार्थना और उपासना। इन तीनों को छोड़कर कोई ईश्वर की भक्ति में गुजर नहीं सकता।
 स्तुति कहते हैं-ईश्वर की मर्यादा के गुण- गान को, बड़प्पन का वर्णन करने को। इससे श्रद्धा उपजती है और अपने लिए मालूम होता है कि यदि वे मुझे मिलें तो मैं सारे कष्टों से छूट जाऊँ। ऐसा होने से मन में होता है कि कैसे मिलेंगे? इससे उसको प्रेम होता है और उससे मिलने के लिए जो यत्न करता है, वह भक्ति होती है। ईश्वर प्राप्ति के विषय में संत कबीर साहब का पद है-घूँघट का पट खोलो, तो तुमको प्रभु मिलेंगे-
 घूँघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे।
 घट-घट में वह साईं रमता, कटुक वचन मत बोल र े।।
 धन यौवन का गर्व न कीजै, झूठा पँच रंग चोल रे ।
 शून्य महल में दियना बारि ले, आशा से मत डोल र े।।
 जोग जुगत से रंग महल में, पिय पायो अनमोल र े।
 कहै कबीर आनन्द भयो है, बाजत अनहद ढोल र े।।
                                          -सन्त कबीर साहब
 तात्पर्य यह कि इस शरीर में चेतन आत्मा है। उसके ऊपर जड़ आवरण पड़े हैं। जड़ आवरण भी एक नहीं, चार हैं-स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण।
 सूक्ष्म शरीर या लिंग शरीर के विषय में बहुत लोग जानते हैं। कथा है सावित्री-सत्यवान की। इससे पता चलता है कि सूक्ष्म शरीर भी है। महाभारत में श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को शिक्षा दी है और कहा है कि लोग जैसे सींक को खींचकर मूँज देखते हैं, उसी तरह योगी चेतन आत्मा को देखता है। चेतन आत्मा के ऊपर पहले महाकारण, फिर कारण और सूक्ष्म, फिर स्थूल-ये चार जड़ावरण हैं। इन आवरणों से अपने को (चेतन आत्मा को) पृथक कर लो, तो परमात्मा मिलेंगे। संत पलटू साहब ने कहा है-
 साहिब साहिब क्या करै, साहिब तेरे पास।।
  साहिब तेरे पास याद करु होवे हाजिर।
 अन्दर धसि के देखु मिलैगा साहिब नादिर।।
 मान मनी हो फना नूर तब नजर में आवै।
 बुरका डारै टारि खुदा बाखुद दिखरावै।।
 रूह करै मेराज कुफर का खोलि कुलाबा।
 तीसो रोजा रहै अंदर में सात रिकाबा।।
 लामकान में रब्ब को पावै पलटू दास।
 साहिब साहिब क्या करै, साहिब तेरे पास।।
 इस बुरके को हटाओ, तो प्रभु मिलेंगे। यही बुरका, नकाब या आवरण है। इसी को संत दादू दयालजी महाराज ने कहा-
 घर माहैं घर निर्मल राखै, पंचौ धोवै काया कपरा।।
 चार जड़ के और एक चेतन का-इन पाँचों को उतारा। पाँचवाँ आवरण तो चेतन चोला है। इस स्थूल शरीर रूपी घर के अन्दर जो सूक्ष्म शरीररूप घर है, उस घर को पवित्र रखो। स्थूल शरीर को जल से धोओ। सूक्ष्म शरीर तब धुलता है, जब इसपर के स्थूल का आवरण उतरता है। कारण तब धुलता है, जब इसपर से सूक्ष्म का आवरण उतरता है। महाकारण तब धुलता है, जब इसपर से कारण शरीर का आवरण उतरता है और कैवल्य (चेतल) तब धुलता है, जब इसपर से महाकारण का आवरण उतरता है।
 इस पाँचों आवरण उतर जाने पर प्रभु छिपकर नहीं रहते। जैसे पलक का आवरण उठाने पर या किसी के मोतियाबिन्द के पत्थर को निकाल देने पर सूझने लगता है, उसी तरह जीवात्मा के ऊपर से आवरण हट जाने पर परमात्मा दीखते हैं। संत तुलसी साहब ने कहा-
 है नेरे सूझत नहीं ल्यानत ऐसो जिन्द।
 तुलसी या संसार को भयो मोतियाबिन्द।।
 जीवात्मा को जिसका ज्ञान पहले नहीं था, चेतन दशा में होन पर उसका ज्ञान होने लगता है। किसी का घात मत करो। कटुवचन से हिंसा होती है। जैसे तलवार से काटते हैं, उसी तरह वचन से भी लोग पीटते हैं, काटते हैं। पुनः संत कबीर साहब ने कहा-संसार के धनयौवन का घमण्ड मत करो। यह शरीर रूप पंचरंगा चोला झूठा है। संत कबीर साहब शून्य में ध्यान करने की युक्ति बताते हैं। भगवान श्रीकृष्ण भी बताते हैं-‘पहले संपूर्ण शरीर का ध्यान करो, फिर चेहरे का, फिर शून्य में ध्यान करो।’ इसी शून्य का ध्यान करने के लिए संत कबीर साहबने कहा-
 शून्य महल में दियना बारि ले, आशा से मत डोल र े।।
 इसका लक्ष्य बहुत छोटा होना चाहिए। वही परम विन्दु है। जैसा विन्दु बाहर में स्थापित करते हो, वस्तुतः विन्दु वैसा नहीं होता। इसके लिए संतां ने कहा-आँखें बन्द करते हो, वही कागज के सामने देखने में आता है। अन्धकार-ही-अन्धकार नजर आता है। पेन्सिल रखो, ख्याल मत करो कि वहाँ क्या होगा? पेन्सिल रखते ही र्चिं होता है, उसी प्रकार दृष्टि की नोक जहाँ स्थिर होगी, वहीं कुछ उदित हो जाएगा। इस प्रकार कुछ ख्याल किए बिना दृष्टि को स्थिर करो, अपने ही आप उदित होगा। निराशा देवी की गोद में मत जाओं नाउम्मीदी की गोद में मत बैठो। जो नाउम्मीदी की गोद में बैठते हैं, उनसे होनवाला काम भी नहीं होता है।
 बिना विन्दु के रूप मण्डल नहीं बन सकता। विन्दु को पकड़कर स्थान पर पहुँच जाना बहुत बड़ी बात है। स्थूल से ऊपर उठा, गोया एक घूँघट उतर गया। यह पहला विन्दु है। जहाँ तक आकाश है, वहाँ तक शब्द है। इसलिए साधक को चाहिए कि उसको पकड़े।
 शब्द साधना से सृष्टि के अंत तक जाना होता है। शब्द दृश्य से ऊपर का पदार्थ है। कुछ बनने के पूर्व शब्द हुआ। शब्द तीन प्रकार के होते हैं-इन्द्रियमय, मनोमय और प्राणमय। इसको बहुत गहरे ध्यान से जानने की आवश्यकता है। शब्द की उत्पत्ति अशब्द से है और लय भी अशब्द में ही है। जो आँख से देखने की शक्ति रखता है, वह उससे वह देखता है, जो रूप है। इसी कारण संत तुलसी साहब ने कहा है-
 हिय नैन सैन सुचैन सुन्दरि। साजि सु्रति पिउ पै चली।
 अर्थात् अंतरात्मा सुरत को सजाकर प्रभु से मिलने चली। इस साधन में सहायक जप है, फिर ध्यान। ध्यान में रूपध्यान भी है और अरूप ध्यान भी।
बंदउँ राम नाम रघुवर को। हेतु कृसान भानु हिमकर को ।।
विधि हरि हर मय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो ।।
 नाम की महिमा का वर्णन संत कबीर साहब ने भी बहुत अच्छा किया है। योगशिखोपनिषद् में कहा-‘अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते।’ नाम दो प्रकार का होता है। एक वचन में आता है, दूसरा श्रवण में आता है। जो मुँह से बोलते हैं, वह वर्णात्मक है और जो वर्णों में लिखा नहीं जाता, जिसकी ध्वनि होती है, उसे ध्वन्यात्मक कहते हैं।
 शब्द में गुण होता है कि सुननेवाले को वह अपने उद्गम स्थान पर ले आता है और उसक मूल में जो गुण रहता है, उसको लिए रहता है और सुनने-वाले को उससे गुणान्वित करता है। एवम् प्रकार से शब्दसाधना के द्वारा ईश्वर तक पहुँचा जाता है।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत महल्ला मिरजानहाट में दिनांक 28.2.1954 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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65. भगवान का दर्शन और यह दुर्दशा!

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 लोगों में इस बात का विश्वास है कि ईश्वर की भक्ति करो, ईश्वर आकर दर्शन देंगे। इसके लिए कहते हैं कि गोलोक, साकेत, वैकुण्ठ, क्षीरसमुद्र आदि में जो बसते हैं, वे आकर दर्शन देंगे अथवा तुम चतुर्भुजी, विराट आदि जिस रूप में देखना चाहोगे, आकर दर्शन देंगे। किन्तु संतलोग कहते हैं-ईश्वर का भजन करो और अपने से जाकर दर्शन करो। दोनां उलटी-उलटी बातें मालूम होती हैं। एक कहता है-ईश्वर आकर दर्शन देंगे और दूसरे कहते हैं-तुम अपने से जाकर दर्शन करो। जो कहते हैं कि आकर दर्शन देंगे, वे कहते हैं कि देवरूप में, चतुर्भुजी रूप में, विराटरूप में तुमको दर्शन देंगे। किन्तु दूसरे कहते हैं कि तुम इन्द्रियों से परमात्म-स्वरूप के दर्शन नहीं कर सकते। तुम सुरत से दर्शन कर सकते हो। इसके लिए तुमको चलना होगा। चलने में तुम्हारा शरीर नहीं चलेगा, तुम्हारा मन चलेगा। चलते-चलते मन भी छूट जाएगा, तब तुम अकेले चलोगे। मन तुम्हारा साथी नहीं है, मन तो एक खोल है। जबतक तुम मन में रहते हो, मन काम करता है, इससे तुम निकल गए, तो मन मिट्टी हो जाएगा। जैसे कि तुम शरीर में हो तो शरीर काम करता है। शरीर से तुम निकल जाते हो तो शरीर मिट्टी हो जाता है। अब विचारो कि बाहर में दोभुजी, चतुर्भुजी, विराटरूप आदि रूपों के दर्शन से क्या होता है? इन दर्शनों से धन, जन, प्रतिष्ठा का लाभ होता है और उन लोक लोकान्तरों में बासा होगा-यह लाभ होगा। अब विचार करो कि इसमें लाभ-ही-लाभ है कि हानि भी। श्रीकृष्ण का दर्शन अर्जुन को बराबर होता था। अर्जुन कोई साधारण नहीं थे। वे तो नर थे। नर-नारायण विष्णु के रूप हैं। वे ही नर के अवतार अर्जुन और नारायण के अवतार श्रीकृष्ण हुए थे। विराटरूप, दोभुजी, चतुर्भुजी का दर्शन अर्जुन को हुआ था। श्रीकृष्ण के बिना अर्जुन रह नहीं सकते थे। जैसे श्रीकृष्ण नहीं तो अर्जुन भी नहीं। कथा है कि-
 श्रीकृष्ण के शरीर छूट जाने पर अर्जुन का बल-पौरुष बिल्कुल चला गया। पंजाब के निकट लुटेरों ने लाठी-डण्डे से सब कुछ अर्जुन से छिन लिया। उनसे कुछ न बन पड़ा। जिस अर्जुन से बड़े-बड़े वीर, यहाँ तक कि देवता भी पार नहीं पाते थे, ऐसे वीर अर्जुन भी समय-समय पर रोए। अभिमन्यु मारा गया, तब रोए, बहुत रोए। उनका चित्त ही कहीं नहीं लगता था। श्रीकृष्ण ने उन्हें चंद्रलोक में ले जाकर उसको दिखलाया। ‘पुत्र! पुत्र!! कहकर पकड़ने लगे, तो उसने फटकारा और कहा कि यह नरलोक नहीं है। तुम ‘पुत्र!’ किसको कहते हो! भगवान के दर्शन होने पर भी बाईस या तेईस वर्ष तक भीख माँग-माँगकर खाया, द्रौपदी से विवाह होने से पहले ही। फिर कुछ दिनों तक राज्य किया। उसके बाद सभा में ही द्रौपदी का वस्त्र हरण किया गया। राजराजेश्वर होते हुए भी उनके मुँह से कुछ वचन न निकल सका। एक गरीब से गरीब की स्त्री का सभा में कपड़ा खींचो, तब देखो कि वह कुछ बोलता है या नहीं। पाण्डव राजराजेश्वर से गुलाम बने। राजसी कपड़े उन पाँचां भाइयों के शरीर से उतार लिए गए। आसन से नीचे गुलाम- जैसे नीचे में बैठाया। कृष्ण की दया से द्रौपदी की साड़ी बढ़ी; पाँचों भाइयों को राज्य मिला; किंतु फिर दुहराकर जुआ खेला और सब कुछ हारकर बारह वर्ष तक वनवास और एक वर्ष अज्ञात वास किया। राजा विराट की नौकरी की। भीम हुआ रसोइया, अर्जुन हुआ नाचनेवाली, नकुल घोड़े का जमादार, सहदेव गौ का रखवार। विराट का साला था कीचक। उसने द्रौपदी को एक लात भी मारी। विराट ने जुए का पासा युधिष्ठिर के सिर में मारा कि सिर से खून बहने लगा। देखो! दर्शन से लाभ ही लाभ है या हानि भी। देखो, कितनी दुर्दशा है! द्रौपदी लौंडी का काम करती थी। केवल जूठा नहीं उठाती थी और किसी का पैर नहीं दबाती थी, और सब लौंडी का काम करती थी। कहाँ राजा की लड़की और कहाँ यहाँ दासी का काम। देखो, भगवान का दर्शन और यह दुर्दशा! ऐसा नहीं कि सुख ही सुख मिलेगा। सुख के साथ दुःख लगा ही रहेगा।
 अब प्रùाद पर आइए। इसको नरसिंह का दर्शन हुआ था। जैसा दर्शन होने से लोगों की अँतड़ी गिर जाय। प्रùाद को दर्शन हुआ। उसका पिता मरा और वह राजा हुआ।
 किसी भी लोक लोकांतर में रहिए, देह का कुछ-न-कुछ गुण अवश्य रहता है। किसी लोक लोकांतर में रहने से मुक्ति नहीं हो सकती।
 ध्रुव को दर्शन हुआ। राज्य मिला। फिर उसके भाई को किसी ने मार दिया। फिर उससे लड़ने गए। इस प्रकार झंझट-बखेड़ा रह ही जाता है। संतो ने कहा-जिससे सांसारिक बखेड़ा नहीं रहे, ऐसा उपाय करो। इन दर्शनों से तुम बखेड़ों से नहीं छूट सकते। भगवान के आत्मस्वरूप का दर्शन करो तो इस संसार में नहीं आओगे और सब झंझट बखेड़ा मिट जाएगा। इसके लिए तुम अपने अन्दर-अन्दर चलो, शरीर इन्द्रियों से छूट जाओ, तब तुमको दर्शन होगा। चेतन आत्मा से परमात्मा का दर्शन होगा। तब ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई’ हो जाओगे।
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यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर मनिहारी में दिनांक 4.3.1954 ई0 को सत्संग में हुआ था।
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66. चित्तवृत्ति का निरोध करना योग है

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 ज्ञान का पूरक योग है और योग का पूरक ज्ञान। योग का अर्थ है मिलना और ज्ञान का अर्थ है जानना। बिना कुछ जाने, मिले तो किससे? ज्ञान भी दो तरह के होते हैं? एक वह ज्ञान है, जिससे जानते हैं, लेकिन पहचानते नहीं हैं। दूसरा ज्ञान वह है, जिससे हम जानते हैं और पहचानते दोनों हैं। जाना किन्तु पहचाना नहीं, यह अधूरा ज्ञान है। और जानकर पहचानने पर पूरा ज्ञान होता है। बिना मिलन के भी पूरा ज्ञान नहीं होता, पूरी पहचान भी नहीं होती। इसलिए ज्ञान और योग; दोनों की आवश्यकता है। योग जैसे-जैसे बढ़ेगा, वैसे-वैसे ज्ञान भी बढ़ेगा। बढ़ते-बढ़ते योग भी बढ़ेगा और ज्ञान भी बढ़ेगा। चित्तवृत्ति का निरोध करना योग है। यदि कोई कहे तो कहना चाहिए कि चित्त की धारें एक नहीं होने से निरोध कैसे हो सकता है? चित्तवृत्ति के एकत्र होने से ही निरोध होगा। तब प्रश्न होगा कि ज्ञान और योग तो हुआ, लेकिन भक्ति तो नहीं हुई। तो कहो कि भक्ति का अर्थ है सेवा। प्रणाम करना भी सेवा है। प्रणाम करने से आदर होता है। आदर होने से उसके दिल में प्रसन्नता होती है। यह जीवित प्राणी के लिए है। जो जीवित प्राणी नहीं है, उसके लिए क्या सेवा है? जैसे औषधि-सेवन है। औषधि को खा जाते हैं, शरीर में लगाते हैं अथवा सूँघते हैं, यह भी सेवा है। जिससे जैसा काम लेना चाहिए वैसा लेना सेवा है। जैसे गंगा-सेवन। गंगा में स्नान करते हैं, वायु में टहलते हैं, गंगा का जल पीते हैं। गंगा-जल जड़ पदार्थ है। जड़ ज्ञानहीन पदार्थ को कहते हैं। जैसे यह कागज का फूल है। इसको ज्ञान नहीं है। यह जड़ है, यह शरीर भी जड़ है, किन्तु इसमें चेतन है। जैसे लोहे को अग्नि में तपा देने से वह लाल हो जाता है, अग्नि का रूप हो जाता है और अग्नि का काम करता है; किन्तु उसको आग से थोड़ी देर अलग रख दो, तो उससे लाली निकल जाती है और वह ठण्ढा पड़ जाता है, फिर उससे अग्नि का काम नहीं होता। उसी तरह इस शरीर में जबतक चेतन है, तबतक यह चेतन सा काम करता है। मुर्दा शरीर में से चेतन निकल जाता है, तब वह जड़ का जड़ हो जाता है। तो यह जड़ और चेतन पर कहा।
 अब सेवा पर आते हैं। जैसे गंगा की सेवा। गंगा-जल जड़ है। उसको ज्ञान नहीं है। उसको पीते हैं, उसमें स्नान करते हैं। यह भी सेवा है। सेवा किसकी करोगे, यदि ज्ञान नहीं हो? ज्ञान नहीं हो तो मिलोगे किससे? ईश्वर की सेवा करोगे-भक्ति करोगे, यदि ईश्वर के सम्बन्ध में जानो नहीं, तो उससे कैसे मिलोगे? इसलिए ज्ञान और योग करने से भक्ति भी हो जाती है। भक्ति या सेवा को लोग इस तरह समझते हैं-शिव, राम, कृष्ण, देवी आदि किसी की मूर्ति को बनाकर पूजना भक्ति या सेवा है। शिवलिंग में हाथ, पैर, नाक कुछ भी नहीं है। किन्तु इस रूप को शिव मानकर पूजते हैं; किन्तु पूजन इतना ही है कि और भी है? यदि इतना ही रहता तो श्रीमद्भगवद्गीता, उपनिषद, शास्त्र आदि क्यों होते? यह मोटा ज्ञान उसके लिए है जो पहले से कुछ नहीं जानता।
 यह ईश्वरकृत शरीर भी जड़ है। एक पत्थर लो और अपनी देह देखो। दोनांं में मोल किसका विशेष है? दोनों ईश्वरकृत हैं। शरीर की इज्जत पत्थर से विशेष है। हीरा, लाल, मोती आदि भी मनुष्य से कम नहीं हैं। फिर भी मनुष्य देह जड़ है। तब और जो पत्थर है, उसका क्या मूल्य है? गुरु यदि गोरू हो तो उसकी सेवा से क्या लाभ होगा? ईश्वर को जानना है, तो यदि इतना ही जाने कि शालिग्राम ही ईश्वर है, तो इतने से काम नहीं चलेगा। यदि गुरु को ही ईश्वर मानो, जैसा तुलसीकृत रामायण में है-
 बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
 महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।
 वाल्मीकि जी ने भी श्रीराम से कहा था-
तुम्ह तें अधिक गुरुहिं जिय जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी।।
 ईश्वर सबमें है। इसलिए कि ईश्वर सबसे पहले का है। उसके पहले कुछ नहीं था। खुदा- खुद$आ=स्वयं आया। इसी का जोड़ा हमलोगों के यहाँ ‘स्वयंभू’ शब्द है। किंतु यह शब्द भी कमजोर है। जो पहले से है, वह छोटा नहीं हो सकता या बड़ा भी हो तो परिमाण-सहित, आदि-अंतसहित चाहे करोड़ां योजन लम्बा-चौड़ा हो, अनादि-अनंत से छोटा ही है। यदि कहा जाय कि सबसे पहले का सीमावाला पदार्थ था, तो प्रश्न होगा कि उसकी सीमा के पार में क्या था? सीमावाला मान लेने पर ईश्वर सबसे पहले का सिद्ध नहीं होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
 व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
   अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।
 जो पहले का होगा, उसकी सीमा नहीं होगी और वह सबमें होगा। इसीलिए कबीर साहब ने कहा-
 है सब में सबही तें न्यारा।
 जीव जन्तु जल थल सबही में, सबद वियापत बोलनहारा।
 शालिग्राम, श्रीराम या गुरु की मूर्ति को जो बताया गया है, वह तो इसलिए कि तुम कुछ नहीं जानते हो, तो उनमें मन लगाने के लिए बताया। यदि कहो कि ईश्वर से मिलकर क्या होगा? तो देखो, यहाँ पर आराम नहीं है, बेचैनी लगी रहती है। चाहे राजा हो या कुछ बने रहो।
 अंग्रेज हमलोगों के यहाँ से भाग गया। वह यहाँ था, तब उसको बेचैनी थी। इसको छोड़कर भाग गया, तब भी बेचैनी है। सोचकर देखिए, आपकी एक कट्ठा जमीन कोई ले लेता है, तो आपका कैसा मन होता है? जिसके हाथ से सारा भारतवर्ष छूट गया, उसका मन कैसा होता होगा? इसलिए संसार में शान्ति चैन कहीं नहीं है, चाहे कुछ बन जाओ। सूर्य, चन्द्र, तारे आदि सभी देश काल से घिरे हैं। देश-काल के अंदर रहोगे, तो बेचैनी में और दुःख में रहोगे। इन्द्र, ब्रह्मा, शिव आदि सब-के-सब बेचैन रहते हैं। इसलिए देश-काल से जो परे है, उससे मिलो। यही योग है। इसी योग का अर्थ ‘भक्ति’ है। परमात्मा से मिलने के लिए कोशिश करो। यही भक्ति है।
 मोटी बातों से भक्ति का आरंभ है। भक्ति का जहाँ अंत है, वहाँ परमात्म-दर्शन है। इस भक्ति में ईश्वर के पास जाना है, ईश्वर को बुलाना नहीं है। यदि कोई कहे कि ईश्वर को सर्वव्यापी मानते हो, तो उसको यहाँ क्यों नहीं पकड़ते? तो उत्तर में कहेंगे कि जानने-पहचानने के लिए हमारे पास पंच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। ये मोटी मोटी हैं; किंतु ईश्वर झीने से झीना है। उसको इन मोटी इन्द्रियों से कैसे पकड़ सकेंगे? इसलिए वहाँ जाना है, जहाँ सब शरीरों और सब इन्द्रियों से छूट जायँ, तब ईश्वर दर्शन होगा।
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यह प्रवचन नेपाल राज्यान्तर्गतमोरंग जिला के ग्राम राजावासा में स्व0 तेजुदासजी के निवासस्थान पर दिनांक 12.3.1954 ई0 को हुआ था।
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67. जीवनकाल में विदेहमुक्ति

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 हमलोग जितने हैं, सब-के-सब बंन्धन में पड़े हैं। हमारे ऊपर शरीर और संसार का बंधन है।जैसे कोई कारागार में हो, उसका आहाता बहुत बड़ा होता है। उसमें बहुत कोठरियाँ होती हैं। उसमें कारावास भोगनेवाले होते हैं।
 ब्रह्माण्डरूप कारागार का यह एक-एक पिण्ड एक-एक कोठरी के समान है। इसमें जीव कारावास भोगता है। इस शरीर में हमारा रहना कैदी की तरह है। यही कारण है कि संसार की परिस्थिति के कारण बड़े हों या छोटे, सब-के-सब दुःख का अनुभव करते हैं। संतां ने इन दुःखों से छुटने के लिए कहा; और कहा कि इनसे छूटना ही कल्याणकारी है। इसके लिए संतलोग जो रास्ता बतलाते हैं, उसपर चलिए। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
 संत पंथ अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ।
 कहहिं संत कवि कोविद, श्रुति पुरान सद्ग्रंथ।।
 मोक्ष के लिए चेष्टा करो, प्रयास करो। सारे बंधनों से छूट जाओ। यही उनकी पुकार है। बंधन में रहने के वास्ते उसका बीज या अंकुर तुम्हारे अंदर है। ऐसा संतों ने कहा है। अपना अंदर शुद्ध करो, बीज को नष्ट करो, तो तुम बंधन से छूट जाओगे। यह बीज क्या है? चित्त का धर्म है। मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, मैं कर्त्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ-ये चारों बातें उठती रहती हैं। जिस प्रकार शरीर को कितनाहू धोओ, उसमें मैल आती ही रहती है, उसी प्रकार चित्त में इसका धर्म होता ही रहता है। इसको क्षय करने के लिए भगवान श्रीराम ने उपदेश दिया और कहा कि शरीर रहते मुक्ति प्राप्त करो। इसी को जीवनमुक्त कहते हैं। जीवनकाल में भी विदेहमुक्त कहलाता है, इसलिए कि शरीर में जो सुख-दुःख होते हैं, उनको वह कुछ नहीं जानता। कर्ममण्डल से जबतक कोई ऊपर नहीं उठता, तबतक चित्तधर्म होता ही रहता है। इसके लिए भगवान श्रीराम ने श्रवण, मनन, निदिध्यासन और अनुभव-ज्ञान प्राप्त करने के लिए कहा। सुनो, समझो, और सुन समझकर जो निर्णय हो, उस कर्म को करो। कर्म करते-करते कर्म का अंत होगा, तब अनुभव होता है, तभी चित्त का धर्म छूटता है। यह उसी तरह साधा जाता है, जिस तरह कोई किसी विद्या का सीखने का अभ्यास करता है। थोड़ा थोड़ा सीखते-सीखते उस विद्या में वह निपुण होता है। तुम संसार में जबतक रहते हो, विषयभोग में लगे रहते हो। किंतु संतुष्टि होती नहीं। संतुष्टि नहीं तो सुख कहाँ? विषयानंद में तुम कभी सुखी नहीं हो सकते। चित्त-धर्म से ऊपर उठो। विषयानंद में खींचो मत। विषयों से ऊपर आत्म अनुभवानंद है। उसको प्राप्त करो तब नित्यानंद मिलता है, जिस आनंद को पाकर किसी प्रकार की कल्पना नहीं होती। आगे बढ़कर वे कहते हैं-जबतक तुम्हारे अंदर इच्छा रहेगी और प्राणस्पंदन रहेगा, तुम्हारा चित्त-धर्म नाश नहीं हो सकता। इसके लिए तुम दोनों में से किसी एक का दमन करो, तो वासना और प्राणस्पंदन-दोनों दमित हो जाएँगे। ‘प्राण’ का अर्थ प्राणवायु नहीं जानना चाहिए। फेफड़े में जो वायु खींचने और फेंकने का काम जिस जीवनीशक्ति से होता है, वह प्राण है। जो वायु उससे संबंधित होती है, वह प्राणवायु है। उसके स्पन्दन को रोको या इच्छा को दबाओ। दोनों
में से किसी को रोको, तो दोनों रुक जाएँगे। प्राण में स्पन्दन होने से मन में कुछ-न-कुछ भाव उत्पन्न होता है। इच्छा को रोको, यह सरल तरीका है। इच्छाआेंं को रोकने के लिए ध्यान सरल उपाय है। एक ओर मन को लगाने से, जहाँ मन लगाते हैं, वहाँ से मन भागता है। फिर लौटा-लौटाकर उसी स्थान पर लाते हैं, यह प्रत्याहार है। बारंबार प्रत्याहार होते-होते धारणा होती है और फिर ध्यान होता है। पूर्ण सिमटाव होने से ऊर्ध्वगति होती है। ऊर्ध्वगति होने से आवरणों का छेदन होता है, तब चेतन आत्मा सब आवरणों को पार कर ऊपर उठ जाती है। यही मोक्ष है। इससे क्या होता है? परमात्मा को पाता है। आवरणहीन हो जाने से जैसे मठाकाश, घटाकाश और महदाकाश एक ही होता है, उसी तरह उपाधिहीन या आवरणहीन होने पर चेतन आत्मा अपने को पाती है और परमात्मा को भी पाती है। इस अवस्था को जिसने प्राप्त किया, वह फिर मरता नहीं। इस अवस्था का मरना जो नहीं मरता, वह संसार में फिर फिर जनमता-मरता है। कबीर साहब ने कहा है-
 मरिये तो मरि जाइये, छूटि पड़ै जंजार।
 ऐसी मरनी को मरै, दिन में सौ सौ बार।।
 जैसे-जैसे इच्छाओं से छूटता जाता है, वैसे- वैसे प्राणस्पंदन रुकता है। भीतर-भीतर चलने से इच्छाआें की निवृत्ति होती है, प्राणस्पंदन रुद्ध हो जाता है और एकविन्दुता प्राप्त हो जाने पर प्राणस्पंदन बिल्कुल बन्द हो जाता है। इसी के लिए कबीर साहब ने मृतक होने के लिए कहा।
 ध्यानाभ्यासी स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर में प्रवेश करता है। फिर सूक्ष्म से कारण में और कारण से महाकारण में प्रवेश करता है। इस प्रकार जड़ के चारों शरीरों को त्यागकर अपने स्वरूप में आता है। फिर चेतन शरीर को भी छोड़कर परमात्मा में विलीन होता है। यही पूरा-पूरा मरना है। इस प्रकार जो मरता है, वह फिर कभी मरता नहीं। अपने अन्दर जो मानस जप और मानस ध्यान करता है और पूर्ण सिमटाव के लिए यत्न करता है, यह यत्न एकविन्दुता प्राप्त करने के लिए है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा- ‘तुम अपनी दृष्टि को अंतर्मुखी बनाओ।’ साधु का संग करो, अध्यात्म- विद्या की शिक्षा ग्रहण करो। अध्यात्म-विद्या की शिक्षा बिना साधु-संग के नहीं होगा। इसलिए साधु- संग करो। उनसे अध्यात्म-विद्या सीखो। प्राणस्पंदन निरोध और वासना परित्याग करो। गुरु महाराज ने जो क्रिया बतायी है, उससे प्राणस्पंदन का निरोध और वासना का परित्याग होता है। जिसको यह युक्ति मालूम है, उसे नित्य करना चाहिए। कभी गाफिल नहीं होना चाहिए। साधुसंग, वासना-परित्याग, प्राणस्पन्दन-निरोध और अध्यात्म-विद्या की शिक्षा-ये ही चारो आत्मज्ञान को प्राप्त करा सकते हैं।
 भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को उपदेश दिया कि तुम मेरे अशब्द, अरूप, अस्पर्श,अगंध और गोत्रहीन दुःखहरण करनेवाले रूप का नित्य भजन करो। लोग स्थूल सौन्दर्य में आसक्ति रखते हैं; किंतु यदि सूक्ष्म के विन्दु रूप सौन्दर्य को प्राप्त करें तो स्थूल सौन्दर्य स्वतः छूट जाएगा। और वह जब कारण के दिव्य सौन्दर्य को प्राप्त करेगा, तो सूक्ष्म का सौन्दर्य भी छूट जाएगा। इस प्रकार क्रमक्रम से वह रूप से अरूप में चला जाएगा, फिर परमात्मा को प्राप्त करेगा।
 यम ने नचिकेता को समझाया कि मनुष्य को बहुत शुद्ध होना चाहिए। ब्रह्मवत् परिशुद्ध नहीं होकर कोई परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार मत करो। खानपान सात्त्विक होना चाहिए। जो सात्त्विकता के लिए यत्न नहीं करता, रजोगुण और तमोगुण में फँसा रहता है और परमार्थ की ओर चलना चाहता है, तो वह वैसा ही होगा, जैसे ‘भूमि पड़ा चह छुअन आकाशा’ कहा गया है। इसलिए खानपान को पवित्र रखो। खान-पान का असर मन पर पड़ता है। यदि खान-पान का असर मन पर नहीं पड़ता, तो भाँग खाने और शराब पीने से मस्तिष्क क्यों गड़बड़ा जाता है। खान-पान को पवित्र रखो। संतों के कहे अनुकूल चलो। कल्याण होगा।
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यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर मनिहारी में दिनांक 16.3.1954 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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68. नैतिकतापूर्वक उपार्जन करो

प्यारे लोगो!
 हमलोग सत्संग मे इसलिए एकत्र होते हैं कि हम यह समझ सकें कि यही संसार जो कुछ है, वही है या इससे परे और कुछ है? यदि संसार है और इसके परे कुछ नहीं है, तो संसार में रहने के लिए अच्छी तरह रहें। इसके लिए परिश्रम से धन संग्रह करें। धन-संग्रह करने का अर्थ ठगी, बेइमानी या अनैतिक रूप से नहीं। अनैतिक रूप से संग्रह होने पर राजनीतिक दण्ड, सामाजिक दण्ड और दुर्नाम भी होता है। । इस प्रकार का दण्ड और दुर्नाम जीवन के लिए बहुत बुरा है। चाहिए कि नैतिकतापूर्वक परिश्रम करके धन का उपार्जन करें। यदि संसार के परे कुछ समझो, जैसा कि संतलोग कहते हैं, तो ठीक है। जितना आप संसार देखते हैं, उतना ही यह संसार नहीं है। जैसे जितना आकाश आप देखते हैं, उतना ही आकाश नहीं है। उससे भी बहुत विशेष है। यह तो मोटा संसार है। इस मोटे संसार के परे दूसरा संसार भी है, जिसे आप इस दृष्टि से भी नहीं देख सकते। यह स्थूल दृष्टि स्थूल तल के पदार्थों को देखती है। सूक्ष्म तल पर यह दृष्टि काम करे, संभव नहीं। स्थूल संसार के परे सूक्ष्म संसार है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म रचना जहाँ तक है, वहाँ तक संसार है। इसका वर्णन करने से बहुत होगा; किंतु साधारणतः इसको दो रूपों में मानिए। एक वह, जिसको आप स्थूल दृष्टि से देखते हैं और दूसरा वह, जिसको आप इस दृष्टि से भी नहीं देख सकते। जिसको आप दिव्य दृष्टि से नहीं देख सकते, वह संसार से परे है। संतलोग कहते हैं कि संसार के परे कुछ है और वही असल है। वह हई है। उससे पहले कुछ था, ऐसा नहीं। वह सदा से है, समय के ज्ञान से पहले का है। समय का ज्ञान संसार से परे में नहीं है। स्थान का ज्ञान भी संसार में ही होता है। शास्त्रों में देश-काल कहा गया है। देश-काल के परे उत्कृष्ट पदार्थ को संतों ने ईश्वर, परमात्मा कहा है। उसे अनेक नामों से पुकारते हैं; जैसे- ईश्वर, परमात्मा, खुदा, गॉड, अल्लाह आदि। वह सदा से है। उसका अभाव कभी नहीं हो सकता।
 संतों ने कहा कि संसार में आप पूर्ण रूप से सुखी रहेंगे, संभव नहीं। यहाँ कभी दैहिक, कभी दैविक और कभी भौतिक-ये तीनों ताप होते रहते हैं। इनके बाद मानसिक ताप भी होता है। करोड़ों रुपये हाथ में हैं, पलंग पर सोए हैं; किंतु कोई चिन्ता की बात हो जाती है तो चैन नहीं मिलता। उपर्युक्त चार प्रकार के तापों से धार्मिक भी तपते हैं और अधार्मिक भी तपते हैं; बल्कि अधार्मिक भाव से बरतने पर और विशेष रूप से तपते हैं। संसार में रहना, संसार को पहचानना और संसार के परे को नहीं पहचानना, इससे मनुष्य की बहुत बड़ी हानि होती है। इससे विशेष और कोई हानि नहीं हो सकती। इस हानि से बचने के लिए संतों ने कहा कि संसार के परे परमात्मा को जानो। संसार में रहकर चारो तापों से तपते रहते हो। परमात्मा को प्राप्त करो, तो सब ताप दूर हो जाएँगे।
 परमात्मा के लिए लोगों में साधारणतः दो प्रकार के ख्याल हैं। एक ख्याल है कि परमात्मा व्यक्ति रूप में शरीरधारी चाहे मनुष्य शरीरधारी, चाहे देवरूपधारी रूप में हैं अथवा इन दोनों के परे विराट रूप वाला है। दूसरे का ख्याल है कि परमात्मा व्यक्त में नहीं है। वह किसी तरह किसी आधार पर अवलंबित नहीं है। विराट रूप लो, नरसिंह रूप लो या विष्णु रूप को लो-ये धरती पर खड़े हैं। किसी स्थान का अवलंब लेकर रहनेवाला ईश्वर नही है। कोई कहे कि आकाश में है, तो आकाश में वायु ही उसका अवलंब है। यदि सूक्ष्म रूप मण्डल का रहनेवाला माना जाय, तो वह मण्डल उससे बड़ा हो जाता है, वह मण्डल ही उसका आधार हो जाता है। किंतु वह परमात्मा आकाश या मूल प्रकृति के आधार पर नहीं रहता। मतलब यह कि उसमें स्थान और स्थानीय-इन दोनों का भेद नहीं है। जो किसी आधार का आधेय नहीं, जो सबके आदि का है, वह ईश्वर- परमात्मा है। जो सबसे पहले का है, उसको मूल प्रकृति मण्डल में रहनेवाला माने, तो वह उस मण्डल के अंदर हो जाएगा। इस प्रकार वह मण्डल उससे बड़ा हो जाएगा। ऐसा परमात्मा नहीं होता। जो सावलंब है, वह जिस आधार पर रहता है, जैसे पाँच तत्त्व यानी आकाश से लेकर मिट्टी तक जितने तत्त्व हैं, सब एक के आधार पर दूसरे हैं। इन पाँच तत्त्वों के अंदर आप आकाश को लीजिए तो आकाश निराधार है। चारो मण्डलों से आकाश मंडल बड़ा है। मतलब यह कि जिस मण्डल के अंदर कोई या कुछ रहता है, तो वह रहनेवाला उस मंडल से छोटा होता है। यदि परमात्मा किसी मण्डल में है, तो वह मण्डल परमात्मा से बड़ा हो जाएगा, तो वह मण्डल असीम हो जाएगा और परमात्मा ससीम हो जाएगा। किन्तु तर्क-बुद्धि ऐसा मंजूर नहीं करती। संतों ने कहा कि वह परमात्मा कभी आधेय नहीं हुआ। विराटरूप कहने पर उसको भी किसी न किसी मण्डल में रहना पड़ेगा। अर्जुन जिस विराट रूप को देखता था, वह विराट रूप और अर्जुन-दोनों ही उसी मण्डल में थे और बीच में कुछ फाँक भी था। ससीम-असीम पर शासन करे, कब संभव है? इसलिए संतों ने बताया कि परमात्मा वह, जो अपनी सीमा नहीं रखता। वह किसी मण्डल में आ नहीं सकता। वह सबमें है और सबसे न्यारा भी है। संत कबीर साहब ने कहा-
 है सबमें सबही तें न्यारा।
जीव जन्तु जल थल सबही में, शब्द वियापत बोलनहारा।
सबके निकट दूर सबही ते, जिन जैसा मन कीन्ह विचारा।।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, शब्द गहे सो हंस हमारा।।
 जैसे संसार में हमारा योग हो गया है-संबंध हो गया है, उसी तरह हम परमात्मा से योग करें-संबंध करें। संसार में संबंध करने से आपकी क्या हालत है, देखें। अब परमात्मा से संबंध करके देखिए कि क्या होता है? संबंध करने की विधि क्या है, इसी को बताने के लिए संतमत है। परमात्म संबंधी ज्ञान देने के लिए संतों का उपदेश है। यह ज्ञान वेद-पुराणों में मौजूद है और संतों ने भी यही बात कही है। यदि कोई यह कहे कि यह ज्ञान नवीन है, पहले यह ज्ञान नहीं था, तो ऐसा कहना पुराने गं्रथों का अनादर करना है। जो कहते हैं कि वेद में सब ज्ञान है और जब वे ही कहें कि यह ज्ञान नवीन है, तब वे वेद की मर्यादा को घटाते हैं। संस्कृत ग्रंथों में और हमारी भारतीय भाषा में भी यह ज्ञान है। कलिकाल के संतों की पोथी में भी यह ज्ञान है। यदि वे कहें कि पहले के गं्रथों में यह बात नहीं थी, तो इतना अवश्य कहेंंगे कि उनको इस बात का ज्ञान नहीं था कि पहले की पुस्तकों-ग्रंथों में क्या था?
 परमात्म-ज्ञान के लिए ग्रंथों में बताया गया है कि इन्द्रियातीत पदार्थ ही परमात्मा है-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।। -रामचरितमानस
 किसी मायिक रूप के दर्शन को परमात्म-दर्शन नहीं कहा जा सकता। ब्रह्मा का देश, इन्द्रलोक, गोलोक आदि सभी लोक संसार के अंदर हैं। इन लोकों में रहने पर पूर्ण सुख नहीं है। इन सब स्थानों में भी चारो ताप लगे रहते हैं। वैकुण्ठ और गोलोक में भी कष्ट आता है। भृगु जी- ब्रह्मा, विष्णु और महादेवजी को जाँचने के लिए गए कि देखें इन तीनों में कौन बड़ा है? ब्रह्मा और शिव तो आवेश में आ गए; किंतु उन्होंने भगवान विष्णु की छाती में लात मारी, तो लात मारने पर भृगुजी को विष्णु की गंभीरता मालूम हुई। इनमें से किसी स्थान में पूर्ण शान्ति नहीं है।
 ज्ञानी जानता है कि माया में निर्माया व्यापक है; किंतु जानने मात्र से ही उसकी पहचान तो होती है नहीं। भगवान ने नारद को विश्वरूप का दर्शन देकर कहा था-‘तुम जो मेरे रूप को देख रहे हो, यह मेरी उत्पन्न की गई माया है।’ जो संसार से पहले का पदार्थ है, उसको पाए बिना सुखी नहीं हो सकते। अर्जुन ऐसे वीर को अभिमन्यु के मरने पर भारी कष्ट हुआ था, जिसकी वीरता में अत्यंत प्रसिद्धि थी। वह अर्जुन साधारण लोगों की लाठी से बेहोश हो गया। दोभुजी, चतुर्भजी, बहुभुजी-इन तीनों प्रकार के रूपों के दर्शन अर्जुन को हुए थे। किंतु यह परमात्मा का दर्शन नहीं। संतों के विचार के अनुकूल परमात्मा वह है, जिसको आप इन्द्रियों से पहचान नहीं सकते। जिसको आप इन्द्रियों से पहचानते हैं, वह माया है। स्वाद जिभ्या का विषय है। स्पर्श त्वचा का विषय है। उसी प्रकार चेतन आत्मा का विषय परमात्मा है। संतों ने कहा कि ऐसी कोशिश करो, जिससे परमात्मा को प्राप्त कर लो। अपने जाकर दर्शन करो। ऐसा नहीं कि वे आकर दर्शन देंगे। हम चलकर वहाँ जायें। शरीर के अन्दर-अन्दर चलें। यह मार्ग ऐसा है कि स्थूल इन्द्रियों को, सूक्ष्म इन्द्रियों को और प्रकृति मण्डलों को पार करेंगे, तब अकेले होंगे और तभी परमात्मा को पहचानेंगे। मन के मण्डल को पार करें, जड़ प्रकृति मण्डलों को पार करें, तब अपनी चेतन आत्मा से ही परमात्मा को प्राप्त कर सकेंगे। दृष्टि इतनी सिमटे कि सभी इन्द्रियों से बिल्कुल छूट जाएँ। अन्दर-अन्दर चलने पर जाग्रत, स्वप्न-दोनों छूट जाते हैं; सुषुप्ति भी छूट जाती है। ऐसा आप हो जाएँ कि बाहर का ज्ञान आपको कुछ न रहे। आप स्थूल इन्द्रियों से ऊपर शिवनेत्र-तीसरे तिल में ठहरिए, तो आपको ज्योतिर्मय शिव के दर्शन होंगे, जैसा कि योगशिखोपनिषद् में लिखा है-
 विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम् ।
 देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।
 विन्दुनाद महालिंग है और शिवशक्ति का घर है। इस शरीर को शिवालय कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है, मुक्ति मिलती है। यदि कहो कि नाद क्या है, तो जहाँ विन्दु है, वहाँ नाद है। ध्यानविन्दूपनिषद् में लिखा है-
 बीजाक्षरं परम विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
          -ध्यानविन्दूपनिषद्
 आप अपने को एक जगह-केन्द्र पर स्थिर कीजिए। पूर्ण सिमटाव होगा तो नाद खुल पड़ेगा। वहाँ ज्योतिर्मय विन्दु देखिएगा और ज्योतिर्मय नाद सुनिएगा। यदि कहिए कि नाद तो नाद ही है, फिर ज्योतिर्मय नाद कैसा? तो उत्तर है कि अंधकार का शब्द काला और ज्योति के शब्द को पकड़ने पर श्वेत शब्द मिलता है। उसी ज्योतिर्मय शब्द के विषय में संत बुल्ला साहब ने कहा है-
 पैठि अंदर देखु कन्दर, जहाँ जिय को वास ।
 उलटि प्राण अपान मेटो, सेत सबद निवास ।।
 इस पर सुरत चलती है, पैर नहीं चलता। संत कबीर साहब के वचन में है-
 बिन पावन की राह है, बिन बस्ती का देश ।
 बिना पिण्ड का पुरुष है, कहै कबीर संदेश ।।
 पहले मन के साथ चेतन चलेगा। फिर मन छूटकर चेतन रहेगा। तब परमात्म-दर्शन होगा। इसके लिए घर में बैठकर साधना कीजिए। ऐसा नहीं कि किसी खास स्थान में दर्शन होगा। अच्छा तो यही है कि आप वहाँ जाकर दर्शन कीजिए, जहाँ उनके स्वरूप का ज्ञान हो। ऐसा नहीं कि उनको यहाँ बुलाकर दर्शन कीजिए। किसी मंदिर में जाने के लिए अपवित्र होकर क्यों जाइए, पवित्र होकर जाइए। पवित्र होने के लिए त्रिवेणी में स्नान कीजिए। वह त्रिवेणी क्या है? तुलसी साहब कहते हैं-
आली अधर धार निहार निजकै, निकरि सिखर चढ़ावहीं।
जहाँ गगन गंगा सुरति जमुना, जतन धार बहावहीं।।
जहाँ पदम प्रेम प्रयाग सुरसरि , धुर गुरू गति गावहीं।
जहाँ संत आस विलास बेनी, विमल अजब अन्हावहीं।।
कृत कुमति काग सुभाग कलिमल, कर्म धोय बहावहीं।
हिय हेरि हरष निहारि घर कौ, पार हंस कहावहीं।।
मिलि तूल मूल अतूल स्वामी, धाम अविचल बसि रही।
आलि आदि अंत विचारि पद कौ, तुलसी तब पिउ की भई ।।
 बाहर त्रिवेणी के स्नान से पाप कट नहीं सकता। पवित्र तो अंदर की त्रिवेणी में स्नान करने से ही होगा, बाहर के तीर्थों में स्नान करने से नहीं। तीर्थ-स्नान करने के लिए जाइए; किंतु मेले के समय में नहीं जाइए। स्नान-दान से आप पाप से नहीं छूट सकते। पाप से छूटना ध्यान द्वारा ही हो सकता है। परमात्मा की पहचान आत्मा से ही होगी। यदि कोई कहे कि हम, अपनी देह में आत्मा हई हैं और परमात्मा भी अपने अंदर में है तो पहचान क्यों नहीं होती? तो उत्तर होगा कि आत्मा शरीर, इन्द्रिय और प्रकृति के आवरण में है, इसीलिए पहचान नहीं होती है। जब इन तीनां आवरणों से छूट जाएँगे, तब दर्शन होगा-पहचान होगी। जैसे आँख पर रंगीन चश्मा रहने से बाहर की चीज चश्मे के रंग के अनुरूप देखते हैं। चश्मा उतारकर देखने से वस्तु का सही रूप दीखता है। उसी प्रकार चेतन आत्मा के ऊपर मायिक आवरण रहने के कारण मायिक दर्शन होता है। मायिक आवरण उतर जाने पर निर्मायिक परमात्मा का दर्शन होता है। अपने अंदर सुरत से यात्रा करते हुए परमात्मा को प्राप्त कीजिए। झूठ, चोरी,नशा, हिंसा और व्यभिचार से छूटकर रहिए तो आप संसार में सुखी रहेंगे और परलोक में भी सुखी रहेंगे।
 हमलोगों को स्वराज मिला है, उसमें सुराज हो जाय। रामराज वहाँ है, जहाँ राम-ही-राम है; बिल्कुल आराम ही आराम है। पृथ्वी पर रामराज्य होना असंभव है। भजन कीजिए और अपने अंदर में प्रवेश कीजिए, वहीं असली रामराज्य मिलेगा। आत्मा शरीर और इन्द्रियांं से मिली-जुली है और प्रकृति मण्डल के आवरण में है। इनसे छुड़ाइए, तब परमात्म-दर्शन होगा। उपनिषद् में है-
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
जड़ से चेतन के छूटने से ही परमात्मदर्शन होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।। -रामचरितमानस
 इन दोनों वचनों को यानी उपनिषद् और गोस्वामीजी के वचनों को याद रखिए, तब जाँच लीजिए कि ठीक ही ईश्वर का दर्शन हुआ या नहीं। अपनी परीक्षा आप कर लीजिए। लोगों को भजन करना चाहिए। भजन के लिए जितनी पवित्रता होनी चाहिए, उतनी पवित्रता रखिए। पंच पापों यानी झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से बचिए। इन पापों को नहीं करेंगे, तो इतने पवित्र हो जाएँगे कि ईश्वर को पहचानने के योग्य हो जाएँगे।
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यह प्रवचन पूर्णियाँ जिलान्तर्गत संतमत सत्संग मंदिर सिकलीगढ़ धरहरा में दिनांक 31.3.1954 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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69. कोशिश करो तो ईश्वर मदद करेंगे

प्यारे लोगो!
 श्रीराम पिताजी की आज्ञा से वनवास गए। वनवास में कितना कष्ट होता है, लोग जानते हैं। उनको वनवास के लिए उनके पिता ने नहीं कहा कि आप जंगल जाएँ, बल्कि वन जाने के संबंध में वे मौन रहे। उनका मन तो था कि श्रीराम जंगल नहीं जाए तो अच्छा हो। कैकेई के कारण ही श्रीराम वन गए; क्योंकि उन्होंने ही कहा कि श्रीराम वन जाएँ। पिता के मौन रहने का श्रीराम समझ गए कि मुझे वन जाना चाहिए। वन गए और सब कष्टों को सहन किया और संसार का यह कार्य कि दुष्टों का दमन करना चाहिए, किया। भरतजी ननिहाल से घर आए। उनको मालूम हुआ कि श्रीराम जंगल गए। पिता के मरने का उनको उतना दुःख नहीं हुआ, जितना कि श्रीराम के वन जाने का। श्रीराम को लौटाने के लिए भरतजी उनके पास जंगल गए; किन्तु श्रीराम ने कहा कि पिताकी आज्ञा मेरे लिए वनवास की है। चौदह वर्षों में एक दिन भी कम रहने से मैं जा नहीं सकता। भरत लौट आए। श्रीराम चौदह वर्षों के बाद अयोध्या आए और अच्छी तरह राज्य करने लगे। प्रजा दुःखी नहीं थी। शोषण, लूट आदि नही थी। प्रजा सब तरह से सुखी थी। श्रीराम ने समझा कि प्रजा तो संसार में सुखी हैं, किन्तु शरीर छोड़ने पर भी सुखी रहें, इसके लिए श्रीराम को चिन्ता हुई।
 महाराजा अशोक भी बहुत अच्छा शासन करते थे। उन्होंने भी प्रजा की मुक्ति के लिए उपाय किया था। श्रीराम ने समझा कि प्रजा को मामूली सुख-स्वर्ग तो क्या, जिससे मुक्ति हो जाय, ऐसा उपाय करना चाहिए। इसलिए श्रीराम ने एक बार सभा बुलाकर सबों से कहा कि मैं ममता में आकर नहीं कहता हूँ। बल्कि आपकी भलाई के लिए कहता हूँ। यह मनुष्य-शरीर बड़े भाग्य से मिलता है। यह शरीर देवताओं को भी कठिनाई से मिलता है। आप उच्च वर्ण के हैं या आपको किसी प्रकार का विशेष गुण है, इसलिए बड़े नहीं हैं; बल्कि यह मनुष्य-देह ही बड़े भाग्य से मिलती है। यह शरीर साधन का भण्डार और मोक्ष का द्वार है। मोक्ष छुटकारा, मुक्ति को कहते हैं। कोई कारागार में पड़ा हो, उससे छूट जाय, तब कारागार से उसकी मुक्ति है। इसी प्रकार शरीर रूप कारागार से जीव छूट जाय, यह मुक्ति है। यह बहुत बड़ी चीज है। मोक्ष और मुक्ति किसकी? जो बंधा हुआ है, जो कैद है। एक-एक जीवात्मा एक-एक शरीर में कैद है। यह शरीर पिण्ड है और बाहर का संसार ब्रह्माण्ड है। पिण्ड और ब्रह्माण्ड में बड़ा सरोकार है। संसार और शरीर में इतना सम्बन्ध है कि जितने तत्त्वों से शरीर बना है, संसार भी उतने ही तत्त्वों से बना है अर्थात् आपकी देह में पांच तत्त्व-क्षिति, जल, पावक, समीर और गगन है। उसी तरह संसार में भी उपर्युक्त पांचों तत्त्व हैं। यथा-
छिति जल पावक गगन समीरा।पंच रचित यह अधम सरीरा।।
                           -रामचरितमानस
 इन तत्त्वों का वजन तो किया नहीं जा सकता, किंतु जितने तत्त्व शरीर में हैं, उतने ही तत्त्व संसार में भी है। जितने तल संसार के हैं, शरीर के भी उतने ही तल हैं। माया के पिण्ड में भी चार तल (स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण) हैं और संसार में भी चार तल हैं। यह मोटा शरीर जो बना है, इसका बारीक रूप इसमें नहीं हैं-कहा नहीं जा सकता। एक मोटा घर आप देखते हैं, तो उसका सूक्ष्मरूप पहले मन में बना लेते हैं, फिर स्थूल रूप बनाते हैं। बड़े-बड़े महल बनाने में चित्र कागज पर खींचकर कारीगर को देते हैं और वह घर बना देता है। बिना सूक्ष्म के स्थूल नहीं बनता; उसी प्रकार बिना कारण के सूक्ष्म नहीं बनता। ब्रह्माण्ड का भी कारण माना जाएगा और पिण्ड का भी। जैसे एक बर्तन बनाना चाहें, तो उस बर्तन के लायक मिट्टी लेकर बर्तन बना सकते हैं, सम्पूर्ण संसार की मिट्टी लेकर नहीं। भूमण्डल भर की मिट्टी लेकर नहीं। उसे आप नाप नहीं सकते; किंतु एक बर्तन में जो मिट्टी लगी है, वह कम है। पदार्थरूप में एक कम है, दूसरा विशेष है। थोड़ी- सी मिट्टी कारण है और अधिक मिट्टी, जिसमें से थोड़ी-सी मिट्टी ली गई, महाकारण है। जिससे सारा पिण्ड-ब्रह्माण्ड बना है, वह प्रकृति है। प्रकृति के जितने अंशों की जरूरत पिण्ड-ब्रह्माण्ड बनाने में होती है, वह अंश कारण है। और फिर सूक्ष्म और स्थूल होता है। ये चारों जड़ हैं।
 मनुष्य-शरीर में भी चार तल हैं और ब्रह्माण्ड में भी चार तल। दोनों में इतना सम्बन्ध है कि पिण्ड के स्थूल तल पर जब रहते हैं, तब संसार के भी स्थूल तल पर रहना होता है। जाग्रत से स्वप्न में जाने पर आपको स्थूल शरीर का ज्ञान नहीं होता, तो आपको स्थूल संसार का भी ज्ञान नहीं रहता। उस समय आप अपने हित-अनहित को नहीं जानते। किस बिछौने पर लेटे हैं, यह भी ज्ञान नहीं रहता। किंतु जगने पर सब मालूम होता है। इसी तरह अपने शरीर के सूक्ष्मतल में जाएँ, तो संसार के भी सूक्ष्म तल का ज्ञान होगा। हमलोग समस्त शरीर में फैले हैं, तो संसार में भी फैले हैं।
 शरीर के स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण के तलों से छूट जाएँ, तो संसार के भी सब तलों को पार कर जाएँगे। इसके लिए ऐसी बात नहीं है कि शरीर छूटने के बाद मुक्ति होगी-ऐसा ज्ञान नहीं दिलाया गया है। यहाँ तो कहा गया है-
 लहहिं चारि फल अछत तनु,..........
 जीवनमुक्त ब्रह्म पर, चरित सुनहिं तजि ध्यान।
 जे हरि कथा न करहिं रति, तिन्हके हिय पाषान।।
        -रामचरितमानस
तथा-
 जीवन मुक्त सो मुक्ता हो........
     -संत कबीर साहब
 जिन्होंने जीवनकाल में हीं चारो तलों से अपना छूटकारा कर लिया, अपने को प्रत्यक्ष पा लिया, तब उनको अपने लिए कुछ करना नहीं रह जाता। एक काम रहता है कि संसार में वे रहते हैं, तो संसार का उपकार करें। जहाँ सत्संग होता है, वहाँ वे जाते हैं; क्योंकि ऐसे महान जन के जाने से ही सत्संग होता है। नहीं तो सत्संग, सत्संग नहीं होता।
 श्रीराम को अपने लिए कुछ करना नहीं था। उन्होंने लोगों को मुक्ति में ले जाने के लिए सभा की और मुक्ति का उपदेश दिया। उन्होंने कहा-
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा। पाइ न जेहि परलोक सँवारा।।
 सो परत्र दुख पावइ, सिर धुनि धुनि पछिताइ।
 कालहि कर्महि ईस्वरहि, मिथ्या दोष लगाइ।।
 छोटे-छोटे छिद्र को खिड़की और बड़े-बड़े छिद्र को द्वार कहते हैं। आपके शरीर में नौ बड़े बड़े छिद्र हैं। ये ही नौ द्वार हैं। गुरुनानक देव ने कहा-
 नउ दरवाजे नवै दर फीके रसु अंम्रित दसवैं चुईजै।
 इनके अतिरिक्त एक और द्वार है, जिसको दसवाँ द्वार कहते हैं। आपलोग जानते होंगे कि शिवजी ध्यान में बैठे थे, तो देवताओं ने कामदेव को भेजा। शिवजी का ध्यान छूटा, तो उन्होंने अपनी तीसरी आँख खोल दी।
तब शिव तीसर नयन उघारा। चितवत काम भयउ जरि छारा।।
 नौ दरवाजे तो पहले गिना दिए और शिवजी ने तीसरी दृष्टि खोली, यह दसवाँ द्वार है। इस तीसरी दृष्टि से, क्रूर दृष्टि से देखा जाय, तो नाश हो और दया की दृष्टि से देखें, तो अमृत बरस जाय। साधु-संत कहते हैं कि केवल शिवजी को यह आँख नहीं थी, सबको है। किन्तु शिवजी का उस पर काबू था। अब भी जो यत्न करेंगे, तो दसवाँ द्वार देख सकते हैं। जितने साधु-संत हुए हैं, सभी ने इस तीसरी आँख को अपनाया, तब साधु- संत कहलाए। शिव, पार्वती और गणेश की तीन तीन आँखों के होने की बात तस्वीर से जानी जाती है। यह तस्वीर सिखाती है कि तीन-तीन आँखें सबको हैं। जबतक आप नौ दरवाजे में रहिएगा, तो मुक्ति का द्वार नहीं मिलेगा। दसवें द्वार में जाने से मुक्ति का द्वार मिलेगा। श्रीराम स्वर्ग-वैकुण्ठ जाने की शिक्षा नहीं देते हैं। वे कहते हैं कि तुम्हारे अंदर मोक्ष का द्वार है, उसको प्राप्त करो। वह मुक्ति दिन-रात के अन्दर नहीं है; देश-काल से छूटी हुई रहती है। देश-काल से छूटा हुआ परमात्मा रहता है-
   सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं।
   तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं। - गोस्वामी तुलसीदासजी
 परमात्मा देश-काल में नहीं रहते; वे देश-कालातीत हैं। आप यह समझें कि बिना धरती के हम नहीं रह सकते, बिना आकाश के हवा नहीं ले सकते; उसी तरह परमात्मा बिना धरती-आकाश के नहीं रह सकते, तो ऐसी बात नहीं है। हमलोग साधार हैं; किंतु परमात्मा निराधार हैं। हमलोगों को पांच तत्वों की आवश्यकता होती है। तीन गुणों के प्रभाव में हम रहते हैं, किंतु परमात्मा के लिए ऐसी बात नहीं है। पिण्ड-ब्रह्माण्ड से छूटकर, समस्त संसार से छूटकर जो अपने को परमात्मा में मिला देता है, वह मोक्ष पाता है। जीवन काल में जबतक ऐसे पुरुष रहते हैं, तो वे जीवन मुक्त और शरीर छोड़ने पर विदेह-मुक्त कहलाते हैं। भगवान श्रीराम इसी मोक्ष को प्राप्त करने के लिए कहते हैं। स्वर्ग में जाओ, तो वहाँ भी दुःख नहीं छूटता। ऊँच- नीच पद स्वर्ग में भी होते हैं। ब्रह्मा के धाम में भी अपना कर्मफल भोगना पड़ता है। राजा श्वेत अपने पुण्यकर्म के कारण ब्रह्मलोग गए। अतिथि-सत्कार नहीं करने के कारण उनको वहाँ भूख-प्यास सताती थी। ब्रह्मा ने उनको अपने मृत शरीर का मांस खाने की आज्ञा दी। यह कथा बतलाती है कि ब्रह्मलोक जाने पर भी कर्मफल पीछा नहीं छोड़ता, भोगना पड़ता है। ऐसे ही जितने लोक-लोकांतर हैं, सबमें यह बात है। वैकुण्ठ से ही जय-विजय गिरे थे। नारदजी मोह लेकर वैकुण्ठ गये; परंतु वहाँ उनका मोह और बढ़ गया। इसीलिए श्रीराम का यह ख्याल नहीं हुआ कि प्रजा किसी लोक- लोकांतर में जाकर रहे। बल्कि मोक्ष को प्राप्त करे, इसके लिए शिक्षा दी। उन्होंने कहा-
 यहि तन कर फल विषय न ।
   भाई स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदायी।।
 विषय पांच हैं-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द। आँख, जिह्ना, नाक, त्वचा और कान-इन पांचों ज्ञान-इन्द्रियों से जो जानते हैं, वे हैं विषय। मन इन्हीं पांचों विषयों को जानता है। श्रीराम कहते हैं कि मनुष्य-शरीर के अतिरिक्त जिस-जिस शरीर में तुम थे, तब तुमको इन पंच विषयों से छूटने का ज्ञान नहीं था। अब मनुष्य-शरीर में आये हो, अब तुम पांचों विषयों से ऊपर हो जाओ। यह मनुष्य देह का कर्तव्य है। स्वर्ग के लिए कहा कि स्वर्ग में स्वल्प सुख है। और अंत में दुःख है। उस स्वर्ग का सुख भी थोड़ा है। मनुष्य-शरीर पाकर जो विषयों में मन लगाता है, उसके लिए कहा कि अमृत के बदले में वह विष लेता है। नौ द्वारों में विष है और दसवें द्वार में अमृत है। उसे कभी कोई अच्छा नहीं कह सकता, जो कर्जनी (घुँघची) को ले ले और पारसमणि को फेंक दे। मनुष्य-शरीर पाकर जो विषयों में मन लगाता है, उसको बहुत हानि होती है।
 चार खानियों में चौरासी लाख योनियाँ हैं। अण्डज, पिण्डज, उष्मज और अंकुरज-स्थावर; ये चार खानियाँ हैं। यह अविनाशी जीव चौरासी लाख योनियों में काल, कर्म, स्वभाव, और गुण के घेरे में घूमता रहता है। कभी दया करके इस जीव को परमात्मा मनुष्य का शरीर देते हैं। यह शरीर संसार-सागर को पार करने के लिए नाव है। नाव के लिए अनुकूल पवन होना चाहिए। नाव पूरब की ओर जाय और पुरवैया हवा लगे, तो पश्चिम की ओर जाने में सरल होगा। विषय के प्रवाह में हमलोग बह रहे हैं। परमात्मा की कृपारूपी अनुकूल वायु है कि उस विषय की ओर से फेरती है। इस नाव के लिए मल्लाह सद्गुरु हैं। सद्गुरु उसे कहते हैं, जो स्वयं सद्ज्ञान जाने, सद्ज्ञान की शिक्षा दे, स्वयं परमात्मा का ध्यान करे और दूसरे को ध्यान करने के लिए प्रेरणा दे।
 मुक्ति मारग जानते, साधन करते नित्त ।
 साधन करते नित्त, सत्त चित जग में रहते ।।
 दिन दिन अधिक विराग, प्रेम सत्संग सों करते ।
 दृढ़ ज्ञान समुझाय, बोध दे कुबुधि को हरते ।।
 संशय दूर बहाय, संतमत स्थिर करते ।
 ‘मेँहीँ’ ये गुण धर जोई,गुरु सोई सतचित्त ।।
 मुक्ति मारग जानते, साधन करते नित्त ।
 मनुष्य-शरीर-रूप नाव प्राप्त है। मनुष्य-शरीर होने से ईश्वर की कृपा हुई है और खोज करे, तो उसे सद्गुरु भी मिल जाय। इस तरह के साज- सामान को पाकर जो भवसागर से अपना उद्धार नहीं करता, वह आत्महिंसा करनेवाले की जा गति होती है, वह पाता है।
 भगवान राम का आज जन्म-दिवस है। हमको चाहिए कि भगवान के इस उपदेश के अनुकूल मोक्ष प्राप्त करने के लिए अन्तस्साधना करें। भक्ति करने में संयम कीजिए। संयम यह कि पाप नहीं करें। पाप करना और ईश्वर की भक्ति; दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते।
 ‘हँसब ठठाइ फुलाउब गालू।’ दोनों एक साथ नहीं हो सकते। इसलिए पाप नहीं कीजिए। सब पापों का मूल है झूठ- झूठ मत बोलो; चोरी नहीं करो; हिंसा नहीं करो; व्यभिचार मत करो; मादक द्रव्यों का सेवन नहीं करो। इन पंच पापों को छोड़ दो। इन्हें छोड़ने के लिए अपनी शक्ति लगावें तो भगवान भी मदद करेंगे। लोग समझते हैं कि हम झूठ नहीं बोलेंगे, तो काम नहीं चलेगा; हमसे झूठ नहीं छूट सकता। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
जौं तेहि पंथ चलइ मन लाई। तौ हरि काहे न होहिं सहाई।।
 जहाँ आप अपने को बलहीन पाइए, तो भगवान को याद कीजिए और अपनी शक्ति लगाइए, अवश्य मदद मिलेगी।
 एक हनुमान-भक्त था। वह बैलगाड़ी हाँकते हुए कहीं जा रहा था। रास्ते में गाड़ी का पहिया पंक में फँस गया। वह गाड़ी पर बैठे-बैठे हनुमानजी को पुकारने लगा-‘हे हनुमानजी! हे हनुमानजी! मेरी गाड़ी को पंक से निकाल दो।’ आर्त्त पुकार सुनकर एक सज्जन के रूप में हनुमानजी आए और बोले-‘हनुमानजी! हनुमानजी!! क्या करते हो? गाड़ी से उतरो, कमर में फेंटा बांधो और पहिए में जोर लगाओ। तब हनुमानजी का बल मिलेगा। वे मदद करेंगे।’ वह भक्त गाड़ी से नीचे उतरता है और कमर कसकर पहिए में जोर लगाता है। परिणामस्वरूप गाड़ी पंक से बाहर निकल जाती है। इस कथा से यह जानने में आता है कि अपने से कोशिश करो, तो ईश्वर मदद करेंगे।
 ‘हिम्मते मरदा मददे खुदा।’
ळवक ीमसचे जीवेम ूव ीमसच जीमउेमसअमेण्
 ईश्वर उनकी मदद करते हैं, जो अपने से अपने की मदद करते हैं। कल कहूँगा कि ईश्वर की भक्ति कैसे कीजिएगा। जो सुनिए, उसको बार-बार विचारिए कि क्या सुना। यह श्रवण है। इसके बाद मनन है-सुने को विचारना, फिर है निदिध्यासन।
 आजकल हर्ष का दिवस है कि हमलोगों का अपना राज्य हुआ है। स्वराज्य=अपना राज्य। स्वराज्य में सुराज लावें। कांग्रेस=बड़ी सभा। कांग्रेस के ऊपर भार है कि इसको किस तरह चलावे। लोग कसूर और पाप न करें। कसूर=जिसका दण्ड राजा दे। पाप=जिसका दण्ड ईश्वर दे। पाँचों पापों की जो व्याख्या हुई, वह कसूर और पाप दोनों हैं। कसूर और पाप कैसे छूटेगा? कानून से जेल देते हैं। जेल देते-देते भी यह नहीं छूटता है। कानून भी है और पाप-कसूर भी होते रहते हैं। इसके लिए मैं कहू़ँगा कि ईश्वर का भजन करो। नेक-नीयत से रहो। सद्ज्ञान की शिक्षा हो, सदाचार-पालन का प्रचार हो। इस लोक और परलोक-दोनों की इससे सँभाल होगी, उन्नति होगी। घूस, झूठ को हटाइए, स्वराज्य में सुराज आएगा।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत ग्राम पुनामा श्रीरामकृष्ण सिंहजी के आवास पर दिनांक 11.4.1954 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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70. बिना प्रेम की सेवा ऊपरी भाव है

प्यारे सज्जनो!
 संतों के ज्ञान में सबसे विशेष बात ईश्वर का ज्ञान है, मोक्ष का ज्ञान है। यद्यपि दोनों वाक्य पृथक-पृथक मालूम होते हैं, किंतु दोनों दो नहीं, एक ही हैं। ज्ञान के साथ योग रहता है और योग के साथ भक्ति रहती है। ज्ञानविहीन योग और योगविहीन ज्ञान मोक्षप्रद नहीं होता। फिर भक्ति के बिना योग और ज्ञान पूरा नहीं होता। इन सब बातों के मूल में ईश्वर का ज्ञान है। यदि ईश्वर को आप न जानें, ईश्वर तत्त्व का बोध नहीं हो तो ज्ञान किसके लिए? ज्ञान में तीन बातें होती हैं-ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय। जो जानने योग्य है, उसका पता नहीं, फिर ज्ञान किसका? बिना ज्ञेय का ज्ञान किस काम का? इसलिए ईश्वर-स्वरूप का निर्णय जानना आवश्यक है। उसे जानना ज्ञान है। उसमें जो अत्यन्त आसक्ति है, उसको प्राप्त करने के लिए वह प्रेम है, वही भक्ति है। जहाँ संलग्नता नहीं, वहाँ सेवा-भाव नहीं रह सकता। बिना प्रेम की सेवा ऊपरी भाव है। जैसे ज्ञान में तीन बातें होती हैं, वैसे ही भक्ति में भी तीन बातें होती हैं; वे हैं- भक्ति, भक्त और भगवन्त। इन तीनों में से किसी को अलग नहीं किया जा सकता। सेवा में मिलन होता है। मिलन वह कर्म है, जो सेवा के लिए होता है। यदि सेवा और मिलन-दोनों को अलग-अलग कर दो, तो सेवा हो नहीं सकती। मिलन के ही कार्य से सेवा होती है। भक्ति और योग बिना ज्ञान के छूँछ पड़ जाता है। इसलिए भक्ति, ज्ञान और योग-तीनों साथ-साथ रहते हैं। मूल में बात यह है कि ज्ञातव्य क्या है? किसकी सेवा हो? संतों ने ईश्वर से मिलने, योग करने, सेवा करने के लिए कहा है। संतों की बतायी भक्ति ईश्वर में प्रेम-भाव रखकर भक्ति करने की है। सबसे पहले ईश्वर का स्वरूप जानना चाहिए। उपनिषद् और संतवाणी के अनुकूल ईश्वर-स्वरूप ऐसा है कि वह इन्द्रियों के ज्ञान से बाहर है। सांसारिक ज्ञान इन्द्रियों से होता है। आपके शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। वे हैं-आँख, कान, नाक, जीभ और चमड़ा। इनसे पंच विषयों का ज्ञान होता है। एक इन्द्रिय के विषय का ज्ञान दूसरी इन्द्रिय से नहीं होता; जैसे जो ज्ञान कान से होता है, वह नाक से नहीं और जो नाक से होता है, वह आँख से नहीं। जिस पदार्थ को ईश्वर कहते हैं, उसका ज्ञान इन पाँचों से नही हो सकता। अंदर की इन्द्रियों से भी उसे प्राप्त नहीं कर सकते।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।। -रामचरितमानस
 जो माया है, वह विषय है और जो निर्माया है, वह निर्विषय है। बाहर-भीतर की सब इन्द्रियों को छोड़ दीजिए, तब आप स्वयं बच जाते हैं। मन, बुद्धि आदि इन्द्रियों को छोड़ो। बाहर की पंच ज्ञानेन्द्रियों और पंच कर्मेन्द्रियों को छोड़ो, तब जो बचे, वह आप हैं। यदि कहो कि शरीर किसका? तो कहिएगा-मेरा। उसी प्रकार बुद्धि किसकी? तो कहिएगा-मेरी बुद्धि। इस प्रकार आप शरीर और बुद्धि-कुछ भी नहीं, आपके संग शरीर और बुद्धि है। जैसे कपड़ा आप नहीं, आपका कपड़ा है। इस प्रकार जो मन-बुद्धि से परे है; जो अपने से ग्रहण करनेयोग्य है, वह ईश्वर है और आप हैं, ईश्वर के अंश। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस में लिखा है-
ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।
 जैसे बाहर का आकाश और घर का आकाश-दोनों एक ही हैं, लेकिन घर की लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई के कारण उसकी नाप-जोख के अंदर ही शून्य जाना जाता है और बाहर का आकाश उससे विशेष है; किंतु बाहर का आकाश और घर का आकाश तत्त्वरूप में एक ही है। जैसे एक लोटा पानी और दरिया का पानी या समुद्र का पानी तत्त्वरूप में एक ही है। परमात्मा का जातीय पदार्थ चेतन आत्मा है। इसलिए चेतन आत्मा ही उसे ग्रहण कर सकती है। उसको ग्रहण करने से नित्य सुख-शान्ति मिलती है, तृप्ति होती है। इसी के लिए सभी संतों का कहना है कि उस ईश्वर का भजन करो।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत ग्राम पुनामा श्रीरामकृष्ण सिंहजी के आवास पर दिनांक 12.4.1954 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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71. तन काम में मन राम में

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 इस समय आपलोगों के सामने ईश्वर की भक्ति पर कहना है। ईश्वर-स्वरूप का जब निर्णय हो जाता है, तब समझ में आने लगता है कि ईश्वर की भक्ति कैसे हो? ईश्वर-स्वरूप के लिए आज प्रातःकाल कह दिया गया है। मुख्य रूप में यह कि जैसे रूप विषय क्या है-जो नेत्र से ग्रहण होता है। शब्द विषय क्या है-जो कान से ग्रहण होता है। परमात्म-विषय क्या है-जो आत्मा से ग्रहण हो। यदि कहो कि सब इन्द्रियों में वही चेतन आत्मा है, तब क्यों नहीं इन्द्रियों से जानेंगे? जो यंत्र जिस पदार्थ के लिए होता है, उसी यंत्र से वह पदार्थ ग्रहण होता है। जैसे रूप आँख का विषय है, तो उसे कान से नहीं जान सकते। रूप को जानने के लिए आँखरूपी यंत्र लगाते हैं। परमात्मा इन सब यंत्रों से ग्रहण नहीं हो सकता। चेतन आत्मा से परमात्मा का ग्रहण होगा। अब जानिए कि ईश्वर की ‘भक्ति’ कैसे हो? भक्ति का अर्थ है-सेवा। जिसको जिस वस्तु की आवश्यकता होती है, उसे वह वस्तु दे दीजिए, तो उसकी सेवा हुई। जैसे कोई बीमार है, उसे दवाई दीजिए, तो वह उसकी सेवा हुई। किसी की आवश्यकता पूरी होनी, उसकी वह सेवा है। परमात्मा को क्या आवश्यकता है, वह पूरी कर दीजिए, वही उसकी सेवा होगी।
 हमलोगों की तरह परमात्मा को भूख नहीं लगती। शारीरिक आवश्यकताएँ जो हमलोगों की हैं, वे उसे नहीं चाहिए। लोग कहेंगे कि हमलोग जो भोग लगाते हैं, वह क्या खाते नहीं हैं? यदि खरे ज्ञान में कहिए, तो उससे परमात्मा का कोई निजी काम नहीं है। उससे आपका अपना काम होता है। जैसे पिता पुत्र का काम देखकर प्रसन्न होता है, उसी तरह आपकी श्रद्धा जो परमात्मा की ओर है, उससे वह प्रसन्न होता है। केवल भोग ही लगाया जाय कि और कुछ भी है? भोग लगाइए। भोग लगाने में आप अपना प्रेम अर्पित करते हैं। बहुत दाम का प्रसाद या कम दाम का प्रसाद या केवल तुलसीदल-जहाँ विशेष प्रेम है, वहीं परमात्मा को भोग लगा।
 ‘भाव अतिशय विसद प्रवर नैवेद्य सुभ
        श्री रमन परम संतोषकारी।
 प्रेम ताम्बूल गत सूल संसय सकल
         विपुल भव वासना बीज हारी।।’
‘रामहिं केवल प्र्रेम पियारा। जानि लेहु जो जाननिहारा।।’
        -गोस्वामी तुलसीदासजी
 आपका प्रेम जहाँ है, वहीं मन लगा रहता है। जिस ओर जिसका प्रेम बहुत होता है, किसी काम को करते हुए भी उस ओर उसका ख्याल लगा रहता है। यही है-तन काम में मन राम में।
 अभी नवधा भक्ति का पाठ आपलोगों ने सुना। मेरे ख्याल में शवरी को किसी भक्ति में कमी नहीं थी। वह भक्ति में पूरी थी, श्रीराम ने कहा-सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे। शवरी ने कहा-
अधम जाति मैं जड़मति भारी। जो बुद्धिमान होते हुए भी अपने को बुद्धिमान नहीं जानता, वह ज्ञानी है और जो बुद्धिमान नहीं है, फिर भी अपने को बुद्धिमान मानते हैं, यथार्थ में वे बुद्धिमान नहीं है।
 शवरी पढ़ी-लिखी तो नहीं थी, किंतु मतंग ऋषि के साथ वर्षों रह चुकी थी, बहुत ज्ञान प्राप्त कर चुकी थी। श्रीराम ने कहा-पहली भक्ति संतों का संग है। इसमें गुण क्या है? संत कबीर साहब ने कहा-
 कबीर संगति साध की, ज्यों गंधी का वास।
 जो कुछ गंधी दे नहीं, तौ भी वास सुवास।।
  इसी तरह कोई साधु के पास में जाय, साधु यदि कुछ नहीं भी बोले, तो भी कुछ-न-कुछ लाभ अवश्य होगा। गोस्वामी तुलसीदासजी ने एक बात कही है-
 नित प्रति दरसन साधु के, औ साधुन के संग।
 तुलसी काहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग।।
उत्तर में उन्होंने ही कहा-
 मन तो रमे संसार में, तन साधुन के संग।
 तुलसी याहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग।।
 जिसका मन किसी और तरफ है और साधु का संग करता है, तो उस पर उसका रंग नहीं चढ़ता। इसकी एक कहानी है कि लोहे के बक्से में किसी ने पारस रखा था, किंतु वह बक्सा सोना नहीं हुआ। सुनकर आश्चर्य होगा कि भला लोहे के बक्से में पारस रहे, तो सोना कैसे नहीं हुआ? इसलिए कि पारस को कपड़े में लपेटकर रखा था। पारस से लोहे को सटाने से ही लोहा सोना हो सकता है, कुछ अंतर रहने से नहीं। दूसरी भक्ति है-ईश्वर की कथा में प्रेम। सत्संग-वार्ता को मन लगाकर सुनिए। तीसरी भक्ति है-गुरु की सेवा अमानी होकर करो। चौथी भक्ति है-ईश्वर का गुणगान करो। पाँचवीं भक्ति है-मंत्रजाप करो। मन एकाग्र करके जपो। ऐसा नहीं कि-
 माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं।
 मनुवाँ तो दह दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं।।
बल्कि-
 तन थिर मन थिर वचन थिर, सुरत निरत थिर होय।
 कह कबीर इस पलक को, कलप न पावै कोय।।
 जप ऐसा होना चाहिए कि स्थिरता आवे। पाँचों भक्तियाँ क्रम से हैं। प्रथम भक्ति संतों का संग है। संतों का संग होने से कथा-प्रसंग होता है। कथा-प्रसंग से यह भी निर्णय हो जाएगा कि गुरु कैसा होना चाहिए। कथा प्रसंग में मन लगाकर सुनो। इधर-उधर मन भटके नहींं। गुरु की सेवा भी मन लगाकर करो। मन लगाकर गुरु की सेवा नहीं करोगे तो उस सेवा को गुरु स्वीकार नहीं कर सकते। सब भक्तियों में अपने मन का पूर्ण योग और क्रमबद्धता है। जैसे-जैसे जो-जो भक्ति है, उसको उसी क्रम से रखना ठीक है। ईश्वर का यशगान मन लगाकर करो। कोई गुरु के संग में रहता है, तो गुरु को स्वयं ईश्वर का भक्त होना चाहिए और अपने पास रहनेवाले शिष्य को भी ईश्वर-भक्त होने की शिक्षा देंगे।
 एक भक्ति से पाँचवीं भक्ति तक सबमें मन लगाने कहा। पाँचवीं भक्ति तक स्थूल भक्ति है। इसके आगे और भक्ति है। छठी भक्ति जहाँ से है, वहाँ से सूक्ष्म भक्ति है। छठी भक्ति है इन्द्रियों को काबू में रखने का स्वभाववाला बनना। इन्द्रियाँ काबू में नहीं हैं, तो कोशिश करके उनको रोकते हैं, यह एक बात है। दूसरी बात है कि अब इन्द्रियाँ विषयों की ओर जाती नहीं हैं। इन्द्रियों की रोक होने में ही सज्जनों के धर्म के अनुकूल चलना हो गया। इन्द्रियों के रोकने का स्वभाव कैसे होगा, इन्द्रियों का समेट कैसे हो सकता है? मन और बाहर की सब इन्द्रियों में बड़ा लगाव है। जिस विषय की ओर मन गया, उस विषयवाली इन्द्रिय उस ओर हो गई या जिस विषय को जिस इन्द्रिय ने ग्रहण किया, मन उसी ओर लग गया। मन उन वस्तुओं को ग्रहण करता है, जिनको इन्दियाँ ग्रहण करती हैं। इन्द्रिय से किसी विषय को आप पहले ले चुके हैं; किंतु अब आपके मन को बोध हुआ कि उस ओर नहीं जाएँ, तो बाहर में रोकने का हिस्सक लगाने पर भी मन उस ओर भागता है; किंतु जब उसको बराबर रोकते रहते हैं, तो रोकते-रोकते वह रूक जाता है। जैसे कोई मांस-मछली पहले खाते थे, वे जब पहले छोड़ते हैं, तो मन उसपर दौड़ता है; किंतु समझाते-समझाते मन समझ जाता है और पीछे ऐसी दुर्गन्ध लगती है कि जिस थाली में कोई मांस-मछली खाता है, उस थाली में उनसे खाया नहीं जाता। बाहरी इन्द्रियों को रोकते-रोकते मन रूक जाएगा। उसी प्रकार तम्बाकू, बीड़ी, सिगरेट पीनेवाले सबकी यही बात है। पहले बीड़ी पीनेवाले जो बीड़ी छोड़ते हैं, तो पहले मन लुक-पुक करता है और यदि शरीर, मुँह और हाथ को रोके रहो तो मन भी रुक जाता है। इसलिए मन कहीं जाए, तो जाने दो; किंतु शरीर को रोके रहो, तो वह कर्म नहीं होगा। पीछे मन उस कर्म को करने के लिए नहीं दौड़ेगा। इसलिए कबीर साहब ने कहा-
 मन जाय तो जाने दे, तू मत जाय शरीर ।
 पाँचो आत्मा बस करे, कह गए दास कबीर ।।
 मन का तार सभी इन्द्रियों में लगा हुआ है। मन का तार सिमटते ही इन्द्रियाँ उधर से मुड़ जाती हैं। जैसे जाग्रत से स्वप्न में जाते हैं, तो एक अवस्था होती है, जिसे तन्द्रा कहते हैं। उसमें मालूम होता है कि शक्ति भीतर की ओर सिमटती है। सिमटते-सिमटते बिल्कुल सिमट जाती हैं और इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हो जाती हैं। मन की धार को कैसे समेटेंगे? इसके लिए मन कहाँ है, यह जानिए। जहाँ यह है, वहीं धार को समेटिए। कबीर साहब ने कहा है-
 इस तन में मन कहाँ बसै, निकसि जाय केहि ठौर।
 गुरु गम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और।।
 नैनों माहीं मन बसै, निकस जाय नौ ठौर।
 गुरु गम भेद बताइया, सब संतन सिरमौर।।
ब्रह्मोपनिषद् में आया है-
 जाग्रत्स्वप्ने तथा जीवो गच्छत्यागच्छते पुनः।
 नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत्।
 सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्निसंस्थितम्।।
 अर्थात् जीव जाग्रत और स्वप्न में पुनः-पुनः आता-जाता रहता है। जीव का वासा जाग्रत में नेत्र में, स्वप्न में कण्ठ में, सुषुप्ति में हृदय में और तुरीयावस्था में मस्तक में होता है।
 जाग्रत में नेत्र में है, इसलिए दृष्टियोग अच्छी तरह कीजिए। दृष्टि एक ओर करने के लिए यत्न जानिए और उसका अभ्यास नित्य प्रति किया कीजिए। फिर आपको ज्ञात होगा कि इन्द्रियाँ विषयों में दौड़ती नहीं हैं। बिना दृष्टियोग के दमशीलता नहीं आती। हठक्रिया के द्वारा भी लोग दमशीलता प्राप्त करने कहते, किंतु हठयोग के किए बिना ही यदि दृष्टियोग ठीक-ठीक किया जाय तो दमशीलता आ जाएगी। छठी भक्ति में जिस निशाने पर दृष्टि रहती है, वह निशाना वही है, जिसे गीता में अणु-से-अणु अर्थात् छोटे-से-छोटा विन्दु कहा है। जो एकविन्दुता प्राप्त करते हैं, वे परमात्मा का सूक्ष्म रूप-अणु-से-अणु रूप प्राप्त करते हैं। परमात्मा सर्वरूपी हैं-
अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा वसत इति वासना धूप दीजै।
       -गोस्वामी तुलसीदासजी।
विन्दु भगवान का तेजस्वी रूप है।
     कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
     सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।। -गीता, अध्याय 8/9
 जो दृष्टियोग करता है, वह ईश्वर के इस रूप का ध्यान करता है। इसका मानस ध्यान नहीं होता। केवल देखो, आप ही उदय होगा। किसी रूप का चिन्तन मत करो। सब आकार-प्रकारों का ख्याल छोड़कर होश में रहकर देखने के यत्न से देखो, उदय होगा। जब हमारे ख्याल से, सब रंग-रूप छूट जायँ, वचन बोलने की सब बातें चली जायँ, तब परमात्मा बच जाएगा। इसका बहुत अच्छा अभ्यास होना चाहिए। यह छठी भक्ति है। यह हुआ दम। मन-इन्द्रियां के संग-संग के साधन को दम कहते हैं। ‘शम’ कहते हैं मनोनिग्रह को। ‘शम’ और ‘सम’-दोनों में बड़ा मेल है। ‘शम’ के बिना ‘सम’ (समता) हो नहीं सकता।
सातवँसम मोहिमय जग देखा। मोते ं अधिक संत करि लेखा।।
 ‘मोहिमय जग देखा’ मान लेने से नहीं होगा। स्वाभाविक है; किंतु इसको देखने के लिए जानो। वह सर्वत्र है।
 सबकी दृष्टि पड़ै अविनाशी, बिरला संत पिछानै ।
 कहै कबीर यह भर्म किवाड़ी, जो खोलै सो जानै ।।
 ‘शम’ है मनोनिग्रह। दृष्टिसाधन में विन्दुग्रहण होता है। विन्दु पर नाद अवस्थित है-
 बीजाक्षरं परम विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम्।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम्।।
      -ध्यानविन्दूपनिषद्
 सब रूपों का-दृश्यमण्डल का बीज विन्दु है। उसके ऊपर शब्द है, जो न पशु-पक्षी की भाषा है, न किसी बाजे-गाजे का। वह अंतरध्वनि है, ब्र्रह्मनाद है। बिना विन्दु प्राप्त किए हुए भी शब्द सुनने में आता है, किंतु वह शब्द नहीं सुनने में आता, जो विन्दु ग्रहण करने पर सुनने में आता है। वह सूक्ष्म मण्डल का शब्द है। बिना विन्दु पर आरूढ़ हुए जो शब्द सुनते हैं, वह शरीर के रग-रेशे, धमनियों के चलने से उत्पन्न शब्द है। किंतु विन्दु प्राप्त करके जो शब्द सुना जाता है, वह असली ध्वनि है। सातवीं भक्ति नादानुसंधान है। इसी को ॐ, स्फोट, रामनाम आदि कहा है। उसमें केवल मन का साधन होता है। वहाँ बाहरी इन्द्रियों को कोई सरोकार नहीं रहता। इस नाद साधना में जो सफलता को प्राप्त कर लेता है, उससे पूर्णरूपेण ‘शम’ का साधन हो जाता है। अब आठवीं भक्ति और नवमी भक्ति बिल्कुल सरल है। जिसे इन्द्रियनिग्रह, मनोनिग्रह हो गया है, उसके लिए ‘यथा लाभ संतोषा’ हो ही जाएगा। वह सबके प्रति सरल हो जाएगा।
 श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज से किसी ने पूछा-सिद्धपुरुष कैसे होते हैं? उन्होंने उत्तर दिया- आलू और बैगन की सब्जी नहीं खाए हो! आलू- बैगन की सब्जी मुलायम होती है, वैसे ही मुलायम होते हैं। जिसको शम-दम होगा, वह सरल, मुलायम हो ही जाएगा। यदि कहो कि नवधा भक्ति में मानस ध्यान नहीं हुआ। तो समझना चाहिए कि ‘गुरु पद पंकज सेवा’ इसी में मानस ध्यान हो गया अथवा मानस जप के बाद मानस ध्यान होता है। पाँचवीं भक्ति जप है, उसी में मानस ध्यान भी है।
 आपकी श्रद्धा जिस रूप में हो, उसका मानस ध्यान कीजिए। एक से पाँच तक स्थूल भक्ति है। छठी और सातवीं सूक्ष्म भक्ति है। आठवीं और नवमी तो फल स्वरूप है। इस प्रकार भक्ति को जानकर सबको करना चाहिए।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत ग्राम पुनामा श्रीरामकृष्ण सिंहजी के आवास पर दिनांक 12.4.1954 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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72. त्रयकाल संध्या करनी चाहिए

प्यारी धर्मानुरागिनी जनता!
 संतों की वाणी को जब हम सुनते हैं और उसका मनन करते हैं, तो साफ तौर से ज्ञात होता चला जाता है कि संतों के उपदेश का केन्द्र विन्दु परमात्मा है। संतलोग परमात्मा को छोड़कर उपदेश करते हैं-ऐसा नहीं। यह केवल भारती भाषा में ही संतां ने नहीं कहा, संस्कृत विद्या में, उपनिषद् में भी ऋषि मुनियों ने कहा है। लोग ख्याल करते हैं कि इन्द्रियों से ईश्वर का दर्शन कर लेंगे; किंतु सभी संतों, महर्षियों ने कहा-वह इन्दियों से नहीं जाना जा सकता। इन्द्रियों की पहुँच या उसका ज्ञान वहाँ तक नहीं हो सकता। बाहर के विषयों को जानने के लिए पंच ज्ञानेन्दियाँ हैं। जैसे आँख से रूप का ज्ञान, कान से शब्द का ज्ञान, नाक से गंध का ज्ञान, जिभ्या से रसास्वादन का ज्ञान और त्वचा से स्पर्श का ज्ञान होता है। इन पाँचों ज्ञानों के अतिरिक्त और कोई ज्ञान नहीं होता। मन से संकल्प-विकल्प, बुद्धि से विचार, चित्त से कम्पन और अहंकार से विचार उत्पन्न होता है कि ‘मैं हूँ’। जिससे अपने तईं के होने का ज्ञान होता है। चित्त ऐसा यंत्र है कि वह सबको चालू कर देता है, कँपा देता है।
 बुद्धि बिना डोले विचार नहीं कर सकती। मन जो प्रस्ताव उठाता है, चित्त के बिना डुलाए वह प्रस्ताव नहीं कर सकता। पंच ज्ञानेन्द्रियाँ और पंच कर्मेन्द्रियाँ-इन दसों इन्द्रियों में से एक भी इन्द्रिय ऐसी नहीं है कि अपने विषय को छोड़कर दूसरे विषय का ज्ञान करे। जैसे बुद्धि में विचार है, तो उस काम को मन नहीं कर सकता। जो बुद्धि से होता है, वह मन से नहीं हो सकता। जो मन से होता है, वह बुद्धि से नहीं हो सकता। और बाहर में जो इन्द्रियाँ हैं, जैसे आँख, तो आँख का काम रूप देखना है, इससे सुनना नहीं हो सकता। इसी प्रकार पाँचों बाहर की इन्द्रियों को जानिए। कोई भी इन्द्रिय नहीं है कि उसी एक इन्द्रिय से सब विषयों का ज्ञान हो। इन्द्रियाँ अत्यंत अल्प शक्तिवाली हैं। इनसे परमात्मा का ज्ञान होना कब संभव है? संत लोगों के विचार में परमात्मा इन्द्रियों के परे है।
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
 अर्थात हे राम! आपका स्वरूप वचन से जानने योग्य नहीं। बुद्धि के परे, सर्वव्यापक, आँखों से देखे जाने योग्य नहीं, अनंत और वेद जिसको नेति-नेति कहता है, ऐसा है।
 गोस्वामी तुलसीदासजी को भी ऐसा कहना पड़ा। जिन तुलसीदास महाराज को सगुण साकार का बड़ा भक्त मानते हैं, उनको भी कहना पड़ा कि ईश्वर का स्वरूप यानी निज रूप मन-बुद्धि से परे है। उन्होंने यह भी कहा कि-
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
 किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
 यथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
 सोइ सोइ भाव देखावइ, आपु न होइ न सोइ ।।
                                            -गोस्वामी तुलसीदासजी
 गोस्वामीजी की विशेष आसक्ति किधर है, इसपर वे कहते हैं-
 हिय निर्गुन नयनन्हि सगुन, रसना राम सुनाम।
 मनहु पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम।।
 सगुण का अर्थ है-तीनों गुण सहित जो है। उत्पादक शक्ति, पालक शक्ति और विनाशक शक्ति-ये ही तीनों गुण हैं। इन तीनों गुणों का संग सदा रहता है। तमाम संसार में इन तीन गुणांं की विविधता है। इन तीन गुणों से जो बना है; इन तीन गुणों को जो धारण करता है, वह सगुण है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि सगुण को आँख से पकड़े हुए हैं और हृदय से निर्गुण को, जो हृदय है, वह अंदर है और जो आँख है, वह बाहर है। बाहर सगुण सोने का डब्बा है और अंदर में निर्गुण रत्न है। गोस्वामीजी कहते हैं-
रामचरित मानस एहि नामा। सुनत श्रवण पाइअ विश्रामा।।
 मानस में जल रहता है। उसमें जल-जन्तु रहते हैं और गहराई भी रहती है। वे कहते हैं-
नव रस जप तप योग विरागा। ते सब जलचर चारु तडागा।।
रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनव सोइ वर वारि अगाधा।।
अगुन अखंड अलख अज जोई। भगत प्रेमवस सगुन सो होई।।
 भक्त के प्रेम से सगुण होता है, सो कारणवश होता है। वह स्वरूपतः निर्गुण है। इस तरह ईश्वर का निर्गुण स्वरूप, जिसका संतों ने वर्णन किया है, इन्द्रियों के ज्ञान में आने योग्य नहीं है। बाहर की दस और अंदर की चार इन्द्रियों को छोड़कर तब आप बचते हैं। आप शरीर नहीं हैं, इन्द्रियाँ नहीं हैं। इनके अतिरिक्त और जो बचता है, वह आप हैं। आप जीवात्मा हैं। मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त और बाहर की इन्द्रियाँ यदि इससे अवलंबित नहीं रहें, तो कुछ भी नहीं कर सकतीं। उसी चेतन आत्मा के आधार पर सब इन्द्रियाँ काम करती हैं। जाग्रत में इन्द्रियों के साथ-साथ वह मौजूद है, तब सब इन्द्रियाँ काम करतीं हैं। जब आप सो जाते हैं, तब वह चेतन की धारा सिमटकर अंदर चली जाती है; तब आप से कुछ भी काम नहीं होता। चेतनधारा इन्द्रियों के घाट पर रहने से इन्द्रियाँ काम करतीं थीं, सिमट जाने पर इन्द्रियाँ निर्बल हो गयीं। जिससे बल पाकर सब इन्द्रियाँ काम करती हैं, वह स्वयं कुछ काम कर सकती है या नहीं? इन्द्रियों को बल देती हुई वह धारा विषयों का उपभोग करने की शक्ति देती है; किंतु इन्द्रियों से छूटकर उसका निज विषय क्या है? कठोपनिषद् में कहा गया है कि जीवात्मा का निज विषय परमात्मा है।
 विशेष पढ़ने से, विशेष याद रखने से, विशेष प्रवचन करने से ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती। इसीलिए इन्द्रियों से ईश्वर को पहचानने का ख्याल भूल है। परमात्मा या सतसाहब या ब्रह्म को चेतन आत्मा ही जान सकती है। ईश्वर-दर्शन के लिए कौन-सा प्रयोग किया जाय? स्वरूप जानना बिना अंतस्साधना के नहीं हो सकता। इसके लिए सत्संग में जाकर सुन-सुनकर उसका ज्ञान प्राप्त करो। आप स्वयं उसको पहचान सकते हैं। हमारी इन्द्रियाँ हमारे नौकर हैं। नौकर से वह पकड़ा नहीं जाता। आपके कोई विशेष पूज्य आपके पास यहाँ आवें, तो आप स्वयं उनकी सेवा कीजिए-यह अच्छा हो कि नौकर को फरमावें कि फलाना काम करो; कौन अच्छा होगा? कितना भी करो, परमात्मा इन्द्रियरूपी नौकर से पकड़ा नहीं जा सकता। इन्द्रियों से छूटकर आप ही उसे पकड़ सकते हैं। वह परमात्मा सर्वत्र है। दृष्टि से सब कुछ देखते हैं। दृष्टि में भी वह है; किंतु दृष्टि उसे पहचान नहीं सकती। दिव्य दृष्टिमें भी वह परमात्मा है, किंतु दिव्यदृष्टि से भी वह पकड़ा नहीं जा सकता। वह परमात्मा सर्वव्यापक है। उसको इन्द्रियों से नहीं जान सकते। कबीर साहब ने कहा-निरंजन परमात्मा न्यारा ही है-
राम निरंजन न्यारा रे । अंजन सकल पसारा रे।।
अंजन उतपति वो ऊँकार । अंजन मांड्या सब बिस्तार।।
अंजन ब्रह्मा शंकर इन्द । अंजन गोपी संगि गोव्यंद ।।
अंजन वाणी अंजन वेद । अंजन किया नाना भेद ।।
अंजन विद्या पाठ पुरान । अंजन फोकट कथहि गियान ।।
अंजन पाती अंजन देव । अंजन की करै अंजन सेव ।।
अंजन नाचै अंजन गावै । अंजन भेष अनंत दिखावै ।।
अंजन कहौं कहाँ लगि केता। दान पुंनि तप तीरथ जेता।।
 और अंत में उन्होंने कहा-
कहै कबीर कोइ बिरला जागै, अंजन छाड़ि निरंजन लागै।।
 गुरु नानकदेवजी ने कहा-
 अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा।।
  जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा।।
 साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु।
 ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु।।
 ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु काम न नारी।।
 अकुल निरंजन अपर परंपरु सगली जोति तुमारी।।
 घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई।
 बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई।।
 जंत उपाइ कालु सिरिजंता बसगति जुगति सवाई।
 सतिगुरु सेवि पदारथु पावहि छूटहि सबदु कमाई।।
 सूचै भाडै साचु समावै विरले सूचाचारी।
 तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी।।
 बाबा साहब ने भी कहा है-दृष्टि वहाँ तक जाती है, जहाँ तक रूप है। परमात्मा को यह दृष्टि पहचान नहीं सकती। इसलिए दृष्टि के बाद शब्द का दूसरा कायदा है।
 परमात्मा सर्व सृष्टि को व्याप्त कर और कितना बाहर है, कहा नहीं जा सकता। परमात्मा की स्थिति अवश्य है। जोर इसलिए देते हैं कि एक आदि तत्त्व अवश्य होगा। वह आदि तत्त्व असीम होगा। जो असीम नहीं माने, ससीम माने, तो प्रश्न होगा कि तब वह ससीम किसके अंदर है? वह ससीम जिसके अंदर है, वह असीम हो जाएगा। जो असीम है, वह विशेष सूक्ष्म है। वह ब्रह्म घट-घट में समाया हुआ है। गुरुमुख लोग निडर ध्यान लगाकर वज्र कपाट को खोल लेते हैं। इसलिए ध्यान का यत्न जानना चाहिए। समय बाँध-बाँधकर ध्यान करना चाहिए। संसार का भी काम कीजिए और ध्यान भी कीजिए। संसार में रहकर काम करते हुए शान्ति नहीं मिलती; किंतु भजन में थोड़ा भी मन लगे, तो देखेंगे कि कितनी शान्ति मिलती है; शरीर के साथ रहते हुए शान्ति और शरीर छूटने पर भी शान्ति। त्रयकाल संध्या करनी चाहिए। किसी को ऐसा ख्याल नहीं करना चाहिए और किसी के बहकाने से विश्वास नहीं करना चाहिए कि हम तुच्छ हैं, हमसे भजन-ध्यान नहीं होगा। जिनको यहाँ के लोग छोटी जाति का कहते हैं, वे लोग भी इतने बड़े-बड़े ध्यानी, ज्ञानी हुए कि बड़े-बड़े लोगों ने भी जाकर उनके आगे सिर झुकाया। इसलिए ध्यान खूब कीजिए। व्यासदेव जी ने महाभारत में त्रयकाल संध्या पर बहुत जोर दिया है। इसलिए ध्यान खूब कीजिए।
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यह प्रवचन मिरजानहाट, भागलपुर में श्रीतिलक मोदीजी के आवास पर दिनांक 15.4.1954 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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73. नाद से बढ़कर कोई मंत्र नहीं

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 संतों की वाणी चाहे संस्कृत, चाहे पाली, चाहे भारती, चाहे किसी भी भाषा में हो, उसमें यही बात है कि मनुष्य को बहुत पवित्रता से रहना चाहिए। पवित्रता शरीर की और हृदय की भी होनी चाहिए। पवित्रता में रहते हुए अपने को ऊपर उठाओ। ऊपर उठाने का अर्थ अपने अंदर सूक्ष्मता में प्रवेश करो। यह जैसे-जैसे अधिक होता जाएगा, वैसे-वैसे उधर बढ़ते जाओगे, जिधर ईश्वर का ज्ञान होगा। जैसे-जैसे कोई स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर जाता है, उधर वह अपने को और परमात्मा को पहचानता है। संसार को पहचानते हुए जो भोग भोगते हैं, सबको प्रत्यक्ष है। उसमें कभी कोई सुखी नहीं, कोई तृप्त नहीं।
 संतों के ख्याल में है कि बारंबार जन्म लेना और मरना पड़ता है। यह शरीर है, कभी-न-कभी अवश्य छूटेगा। फिर दूसरा शरीर होगा। जैसे एक शरीर में सुख-दुःख भोगना होता है, उसी तरह दूसरे-दूसरे शरीरों में भी दुःख-सुख भोगना पड़ेगा। संतों ने कहा-ईश्वर-दर्शन करो। उसको पहचानो, तब कल्याण होगा। संतों की वाणी में इसी का उपदेश है, प्रेरण है। हृदय की शुद्धि यानी हृदय की पवित्रता के लिए उन्होंने कहा-हृदय में राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि विकार नहीं रखो। किसी से वैर भाव के कारण जो उसका अनिष्ट सोचता है, वह कभी ऊर्ध्वगति को प्राप्त नहीं कर सकता। संतों में सबसे बड़ी शक्ति सहनशक्ति है। उसको अपनाओ। अंदर में प्रवेश करने के लिए, स्थूल से सूक्ष्म में जाने के लिए ऐसा ध्यान हो कि एकविन्दुता प्राप्त कर लो। विन्दु इतना सूक्ष्म होता है कि जिसको कोई बाहर में बना नहीं सकता। विन्दु उसको कहते हैं, जिसका स्थान है, परिमाण नहीं अर्थात् परिमाण रहित र्चिं को विन्दु कहते हैं। बाहर में परिभाषा के अनुकूल विन्दु नहीं बन सकता। अपनी दृष्टि को खूब समेटो। दृष्टि को समेटकर एक स्थान पर रखो, अपने अंदर में। एक स्थान पर कहने का मतलब यह कि दृष्टि को वहाँ रखो जहाँ मांस, हाड़, चाम, खून नहीं है। शून्य में ध्यान करो। जब कोई अपने अंदर देखना चाहे, तो देखने के लिए नेत्र बंद करे। तब उसको अंधकारमय आकाश दीखता है। उसमें हाड़, मांस, खून, चाम नहीं है। जो अपनी दृष्टि को ऐसा बनाता है, जैसे सूई में धागा पिरोने में या शिकार में निशाना करने में करते हैं, तब जैसे मन और दृष्टि एक जगह होती है, उसी तरह मन और दृष्टि को अपने अंदर एक जगह रखो। तब जो उदय होगा, वह परम विन्दु है। उस परम विन्दु पर जो ठहरकर रह सकता है, वह सूक्ष्म में प्रवेश कर जाता है। ऐसा प्रवेश कर जाने से बाह्य पदार्थों की आसक्ति छूट जाती है। या यों भी कहिए कि आरंभ में मन की आसक्ति को छोड़कर ध्यान करता है, तब ऐसा होता है। उसके लिए ध्यान करने में कोई तकलीफ नहीं होती। फेफड़े में चोट नहीं लगती। हाँ, ध्यान करने में मस्तिष्क में कुछ भारीपन अवश्य लगता है। तो जब ऐसा लगे, तब ध्यान करना छोड़ दीजिए। फिर पीछे कीजिए। जैसे कमजोर शरीरवाले का शरीर व्यायाम करते-करते मजबूत होता है, उसी प्रकार ध्यान करते-करते उसका ध्यानबल बढ़ जाता है। सूक्ष्म में प्रवेश करने पर नाद को प्राप्त करता है। योगशिखोपनिषद् में कहा गया है-
 नास्ति नादात्परो मंत्रः न देवः स्वात्मनः परः।
 नानुसंधेः परा पूजा न हि तृप्तेः परं सुखम्।।
 नाद से बढ़कर कोई मंत्र नहीं, अपनी आत्मा से बढ़कर कोई देवता नहीं है, (नाद वा ब्रह्म की) अनुसन्धि (अन्वेषण वा खोज) से बढ़कर कोई पूजा नहीं है और तृप्ति से बढ़कर कोई सुख नहीं है। इसी को ध्यानविन्दूपनिषद् में कहा गया है-
 बीजाक्षरं परम विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
 परम विन्दु ही बीजाक्षर है, उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अनाश ब्रह्म) में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है।
 अनाहतं तु यच्छब्दं तस्य शब्दस्य यत्परम्।
 तत्परं विन्दते यस्तु स योगी छिन्नसंशयः।।
 अनाहत के बाद जो निःशब्द परमपद है, योगी उसे सबसे बढ़कर समझते हैं, जहाँ सब संशय दूर हो जाते हैं।
 यह ज्ञान किसी भाषा में हो, ग्रहण करना चाहिए। संतों की वाणी में श्रद्धा होनी चाहिए। जो कोई संतों की वाणी में अश्रद्धा करता है, वह गलत करता है। यदि संतवाणी में हो और उसको करके देखने में लाभ हो, तो उससे बढ़कर और क्या बात हो सकती है। संतों की वाणी में स्थूल ध्यान भी बतलाया गया है। कबीर साहब ने कहा है-
 गुरु साहब करि जानिये, रहिये शब्द समाय।
 मिले तो दंडवत बन्दगी, पल पल ध्यान लगाय।।
 स्थूल ध्यान के बाद सूक्ष्म ध्यान बतलाया गया है। सूक्ष्म ध्यान में विन्दु और नाद का ध्यान है। स्थूल ध्यान में भी दो बातें हैं-स्थूल जप और स्थूल ध्यान। इससे स्थूल ध्यान में दृढ़ होकर सूक्ष्म ध्यान में बढ़े। हृदय की शुद्धता के कारण वह संसार में अच्छी तरह रह सकता है। जो राग- द्वेष रहित है, वह संसार में आसानी से प्रतिष्ठा से रह सकता है। इस प्रकार वह संसार में भी अच्छी तरह रहेगा और परलोक में भी उसका भला होगा।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत मिरजानहाट में श्रीमान तिलक मोदीजी के आवास पर दिनांक 16.4.1954 ई0 को प्रातः कालीन सत्संग में हुआ था।
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74. धन यौवन का गर्व न कीजै

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 मैंने तो आज तक अपने को कुछ ऐसा नहीं जाना है। अपनी परख और अपनी जाँच से मैंने अपने को वैसा नहीं पाया, जैसा कि आपने अभिनंदन पत्र देकर मुझे सम्मानित किया है। मैं उसके सर्वथा अयोग्य हूँ। कल्ह भी आपलोगों ने अभिनंदन पत्र दिया था। उसे आशीर्वाद समझकर ग्रहण करता हूँ। आपलोग जानते हैं कि मैं सत्संग के निमित्त यहाँ आया हूँ। सत्संग में संतों के वचनों का अवलंब लेता हूँ। गुरु महाराज की यही आज्ञा है। सन् 1909 ई0 से लेकर आज 1954 ई0 तक संत- वचन के आधार पर सत्संग हुआ है, होता चला आ रहा है। संतों के वचन में ईश्वर को मानने का बड़ा आग्रह है। ईश्वर नहीं हो तो संत-वचन छूँछ है। जो ईश्वर पर विश्वास नहीं करता, संत उससे सहमत नहीं। बहुत लोगों का कहना है कि ईश्वर को बुद्धि के विचार से समझा दो। जो बुद्धि-विचार से परे है, उसे बुद्धि के विचार से कैसे समझाया जाय? संतलोग कहते हैं, ईश्वर कैसा होता है-यह जानो। ईश्वर ससीम वस्तु, व्यक्त वस्तु नहीं है। ईश्वर-स्वरूप के लिए-
 व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
      अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
तथा-राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।
 गोस्वामीजी ने कहा है। वह स्वरूपतः अपार अर्थात् असीम है। इस पर सोचो कि ऐसा कुछ हो सकता है या नहीं। अपार यानी जिसकी सीमा नहीं हो सकती हो किसी परिधि से घेरा नहीं जाय। ऐसा कुछ हो सकता है या नहीं। यदि कहो सब ससीम ही ससीम है, तब प्रश्न होगा कि सब ससीमों के पार में क्या है? इसके उत्तर में बिना असीम कहे प्रश्न हल हो नहीं सकता। यदि कहो कि सब ससीमों को जोड़कर एक असीम होगा, तो यह हो नहीं सकता कि सब ससीमों को जोड़कर असीम हो गया। सबसे पहले का जो है, वह असीम अवश्य है। यदि उसे ससीम माने तो उसकी सीमा के पार में कुछ और क्या होगा, वही असीम होगा। तब उसी असीम को क्यों नहीं परमात्मा माना जाय। सभी संतों यानी कबीर साहब, नानक साहब, पलटू साहब, तुलसी साहब, उपनिषद् आदि सभी के वचनों में यही है कि ईश्वर स्वरूपतः अनंत है। थोड़ा तर्क और विचार भी दृढ़ कर देता है कि एक अनंत तत्त्व-परमात्मा अवश्य है। एक-एक पिण्ड में जो रहनेवाला है, वह उत्सुक रहता है कि सुख मिले। इसकी पूर्ति के लिए वह संसार के पदार्थों में अपने को लगा-लगाकर खोजता है। फिर भी सुख दूर ही रहता है। संसार में विद्वान, धनवान कोई भी हो, वह पूर्ण रूपेण सुखी नहीं। बलवान, रूपवान, धनवान कबतक रहेगा। संयोग-लगन से धन घट जाता है। बुढ़ापा आने से रूप और बल घट जाता है। पहला रूप और बल नहीं रहता। बुढ़ापा आता है, वह सुरूप को कुरूप और बलवान को निर्बल बना देता है। पहले तो रोग होता है। शायद ही कोई रोग से बचते हों। इसीलिए कबीर साहब ने कहा-
 धन यौवन का गर्व न कीजै, झूठा पँच रंग चोल रे ।
 कितना भी सुंदर शरीर हो, एक दिन अवश्य छूटेगा। धन-परिवार सभी छूटेंगे। जो इस शरीर में रहनेवाला है, जो शरीर-सुख में भूला रहता है, असली सुख का जिसको पता नहीं है। तो वह हानि में जा रहा है। इस बात को संत लोग जानते हैं और कहते हैं संसार में सुख नहीं। संसार के परे का जो पदार्थ है, उसकी ओर चलो, उस तक पहुँचो, उसको पहचानो। संसार को पहचानकर तुम अतृप्त रहते हो, लेकिन परमात्मा को पहचानकर तुम तृप्त हो जाओगे। परमात्मा सबको दे रहा है, किंतु वे जान नही सकते हैं कि परमात्मा हमको देता है। सबसे विशेष देना यह है कि परमात्मा अपने को हमसे छिपाकर नहीं रखे। उसके दर्शन से मन तृप्त हो जाता है, तब कुछ माँग नहीं रहती, इच्छा नहीं रहती कि जागतिक सुख मिले। इसलिए ईश्वर की भक्ति करो। गुरु नानकदेवजी का वचन याद आता है-
 ऐसी सेवकु सेवा करै, जिसका जीउ तिसु आगे धरै।
 फूल, पत्ती, नैवेद्य आदि को चढ़ानेवाले बहुत होते हैं, किंतु अपने को कैसे चढ़ावें, यह नहीं जानते। यह जीव इस शरीर में ऐसा फँसा हुआ है कि उसको शरीर और जीव एक ही जैसे मालूम होते हैं। किसी मृतक को देखते हैं तो एक विचित्र वैराग्य होता है कि यह शरीर बेकाम हो गया। कितने समझते हैं, शरीर गया, तुम भी गए। किंतु मुझे इसका विश्वास नहीं। शरीर जड़ है। इसमें चलना, बोलना, फिरना कैसे होता है? बिना ज्ञानमय पदार्थ के यह जड़ तत्त्व कुछ कर नहीं सकता। कोई कहे कि बुद्धि-यंत्र से बूझता-सूझता है, इन्द्रिय यंत्र से काम करता है। सभी जड़-जड़ तत्त्व मिलकर चेतन उत्पन्न हो गया। किंतु इसका विश्वास नहीं होता। जड़ अपरा प्रकृति और चेतन परा प्रकृति श्री मद्भगवद्गीता के अनुकूल है। जड़ असत्, परिवर्तनशील है और चेतन सत् अपरिवर्तनशील है। जीव सदा सुख के लिए इच्छुक रहता है। वहाँ चेतन जब शरीर से निकल गया, तब यह शरीर मर गया।
 संतां ने कहा कि यह मत समझो कि यही केवल पंचरंगा चोल है। ‘पंच रंग चोल’ यानी पंच तत्त्वों का शरीर। रंग कहने का मतलब पंच तत्त्वों के पाँच रंग। पृथ्वी का रंग पीला, पवन तत्त्व का रंग हरा, अग्नि का रंग काला, जल का रंग लाल और आकाश का रंग सफेद होता है। यह पंच तत्त्वों का शरीर झूठा है। केवल एक ही शरीर नहीं है। केवल दार्शनिक ढंग से कहकर ही नहीं समझाया, बल्कि कथा कहकर समझाया। सावित्री और सत्यवान की कथा से ज्ञात होता है कि स्थूल शरीर के अंदर सूक्ष्म शरीर भी है। सूक्ष्म शरीर को ही लिंग शरीर कहते हैं। यमराज ने सत्यवान के स्थूल शरीर से लिंग शरीर को निकाला था, तब सत्यवान मर गया था। जब उसी लिंग शरीर को यमराज ने स्थूल शरीर में प्रवेश करा दिया, तो सत्यवान जीवित हो उठा। मतलब यह कि शरीर के अंदर शरीर है। साथ-ही-साथ यह भी सीखना चाहिए कि पातिव्रत्यधर्म कितना बड़ा धर्म है। जिस प्रकार स्त्रियों के लिए पातिव्रत्य धर्म है, उसी प्रकार पुरुषां के लिए पत्नीव्रत धर्म है, जैसे श्रीराम ने इस धर्म का पालन किया था। एक पत्नीव्रती पुरुष की आध्यात्मिक शक्ति बढ़ती है। खैर, यह एक छोटी- सी शाखा निकली थी। उसे छोड़ दीजिए और अब अपने मूल विषय पर आइए।
 जड़ शरीर चार हैं-स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण। ये चारो शरीर छूट जायँ, चेतन आत्मा पर कोई आवरण नहीं रहे, अकेले रहे, तब ईश्वर कहीं छिप नहीं सकता। ये ही चारो जड़ शरीर घूँघट के पट हैं। संतों ने यहाँ ईश्वर-भक्ति का बड़ा आग्रह किया है। शरीर लेकर किसी के आगे गिरना शरण होना नहीं है। बल्कि ‘ऐसी सेवकु सेवा करै, जिसका जीउ तिसु आगे धरै।’ यह शरण होना है। ऐसी भक्ति का काम करें कि सब शरीर छूटकर ईश्वर के सामने हो जायँ। इसी का प्रचार हमारे गुरु महाराज ने किया। इसी भक्ति पर संतों का बड़ा जोर है। यह विषय तो गहरे ग्रंथ में अवश्य है, किंतु बहुत कम लोग जानते हैं। यह सब कहने से लोगों को मालूम होता है कि कोई नयी बात कह रहे हैं, किंतु बात पुरानी है। चारों शरीरों से निकल जाइए, तो आप ईश्वर के सामने हो जाइएगा। इसके लिए सोचिए कि यह कैसे होगा। आप नित्य प्रति सोते-जागते हैं। जागने से गहरी नींद में जाने के समय एक अवस्था तन्द्रा होती है, उसमें सबको मालूम होता है कि बाहर की तरफ से बेखबरी हो रही है और कुछ-कुछ ज्ञान भी होता रहता है। शरीर की शक्ति भीतर की ओर खि्ांचती है। फिर बाहर की ओर से अचेत हो जाते हैं। एक ही बिछावन पर और कुछ होता हो, तो आपको उसका ज्ञान नहीं होता। इसी तरह साधना द्वारा बाहर स्थूल तल से छूटना हो सकता है, जब आप भीतर प्रवेश करें। इसलिए संतों ने अंतर्मुख होने कहा। जैसे-जैसे भीतर चलेंगे, वैसे-वैसे घूँघट उतरते जाएँगे। जब सब उतर जाएँगे, तब प्रभु को पहचानेंगे।
 लोग कहते हैं, ईश्वर सर्वत्र है, फिर जाओगे कहाँ? मैं कहता हूँ-ईश्वर सर्वत्र है, तो तुम पहचानते भी हो? जहाँ जाकर पहचानेगे, वहाँ जाना होगा। परमात्मा सर्वत्र है। संत कबीर साहब ने कहा-
 सबकी दृष्टि पड़ै अविनाशी, विरला संत पिछानै।
 कहै कबीर यह भरम किवाड़ी, जो खोलै सो जानै।।
 परमात्मा सब जगह है, पहचान में क्यों नहीं आता? परमात्मा स्वरूपतः अनादि, अनंत, असीम है। वह सर्वव्यापक है। जो सर्वव्यापक है, वह सबसे विशेष सूक्ष्म है। जो सबसे विशेष सूक्ष्म है, उसको इन्द्रियों से कैसे पकड़ सकते हैं? इन्द्रियाँ स्थूल हैं। जैसे आँखों पर पट्टी बंधी रहने से बाहर का दृश्य नहीं देखा जाता, उस पट्टी को हटाने से देखा जाता है। उसी प्रकार शरीररूप पट्टी को हटाइए, तब ईश्वर के दर्शन होंगे। इसके लिए भक्ति कीजिए। भक्ति का अर्थ सेवा है। भूखे को खिलाना, प्यासे को पानी पिलाना, दुखियों की सेवा करनी भक्ति है। किंतु ईश्वर को क्या चाहिए? उनको तो खाना-पीना कुछ नहीं, सोना-जागना कुछ नहीं। वह तो ऐसा है कि सबको खिलाता है, वह खाता नहीं। सबको पहनाता है, वह कुछ नहीं पहनता। सब कोई सोते हैं और वह जगकर पहरा करता है। फूल-पत्ती आदि चढ़ाते हैं, यह आपका प्रेम है। इसके द्वारा आप अपने को ईश्वर की ओर लगाते हैं। किंतु ईश्वर को ये सब चीजें कुछ नहीं चाहिए। ईश्वर सर्वव्यापी है, सर्वगत है। सर्वरूपी कहने से सगुण होता और सर्वगत कहने से निर्गुण होता है। सगुण और साकार कहने से दो का बोध होता है। सगुण अर्थात् गुण सहित। साकार अर्थात् आकार सहित। आशय यह है कि कोई बिना गुण का है। उसने गुण को धारण किया तो सगुण हुआ। कोई निराकार है, उसने आकार धारण किया तो साकार हुआ। भक्ति ऐसी होनी चाहिए कि स्थूल सगुण साकार से आरंभ कर निर्गुण निराकार के पार तक पहुँचा जा सके।
 यह पवित्र मंगल कार्य सबको करना चाहिए। किंतु कैसे कीजिएगा? हाथ में गोबर लगा रहे तो उसको इत्रदान में डुबाना ठीक नहीं होगा। उसी प्रकार हृदय को विकारों से, पापों से अपवित्र कर परमात्मा को कैसे छू सकते हो? इसलिए अपने को पवित्र बनाओ यानी झूठ चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से अपने को बचाकर रखो और अंत- स्साधन करो, तो प्रभु को पाओगे।
 औषधि करै औ पथ रहे, ताका वेदन जाय ।
 कोई आदमी अपने रोग निवारण के लिए औषधि तो करे, किंतु पथ्य नहीं करे, तो रोग कैसे छूटेगा? अंतर्मुख होइए, पवित्र रहिए और ईश्वर का भजन कीजिए, कल्याण होगा।
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यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत जमालपुर निवासी राय बहादुर श्रीदुर्गादासजी तुलसी के आवास पर दिनांक- 17.4.1954 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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75. उत्तम संस्कृति

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 बिना आध्यात्मिकता के राजनीति में शांति नहीं आ सकती। संतों ने जगतकल्याणार्थ आध्या- त्मिकता के प्रचार का कार्य किया और आज भी वही बात चल रही है।
 हमलोग सुधरे हुए कम हैं। अच्छे आचरण से चलें, यही सुधार है। अच्छा सुधार बिना अच्छे संग और अच्छी विद्या के नहीं हो सकता।
 भगवान बुद्ध का वचन है-जो बूढ़ों को प्रणाम और उनका आदर करते हैं, उनकी चार चीजें बढ़ेंगी-आयु, सुख, सुन्दरता और बल।
 उत्तम संस्कृति के लिए बड़ों का आदर और उनके सामने में नम्र अवश्य रहें और अपने से छोटों को प्यार करें। तुलसीकृत रामायण पढ़िए। कितना अच्छा कहा गया है कि-
प्र्रातकाल उठिकै रघुनाथा। मात पिता गुरु नावहिं माथा।।
 हमलोग राम के नमूने पर चलें तो हमारा सुधार हो। शील धारण करें। शील निभाना है तो आवश्यक यह है कि जिस काम के लिए जो व्रत है, उसमें मजबूत रहें। आर्य-संस्कार में विद्यार्थी ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। आचार्य, गृहस्थ होते हुए भी ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। ब्रह्मचर्य व्रत पर बहुत ख्याल रखना चाहिए। जहाँ ब्रह्मचर्य पर ख्याल नहीं है, वहाँ ओजपूर्ण तेज नहीं हो सकता। विद्या-ग्रहण की शक्ति पूर्णतया विकसित नहीं हो सकती। सभी विद्यालयों-महाविद्यालयों में आध्यात्मिक परिषद् का रहना अच्छा है। आध्या- त्मिक पुस्तकालय भी हो। हमारे प्यारे विद्यार्थीगण भी अध्यात्मज्ञान को अपने मस्तिष्क में रखें।
 ईश्वर भक्ति करनी चाहिए। बाह्य पूजा का सार यह है कि उसके द्वारा भक्त अपना भाव भगवान को अर्पण करता है। जप, स्तुति, प्रार्थना, प्रेयर ;चतंलमतद्ध-सब कुछ कीजिए। मन की एकाग्रता के लिए कीजिए। एकाग्रता के लिए प्राणायाम की उपयोगिता मानी जाती है। अच्छी संस्कृति के लिए झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार नहीं करें।
 प्यारे विद्यार्थियो! विद्या सीखो। मन से पढ़ो। अच्छे मन से पढ़ो। सांसारिक कामों को भी करो, किंतु अनासक्त होकर। यही हमारे यहाँ की आध्यात्मिक शिक्षा है।
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यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत जमालपुर निवासी राय बहादुर श्रीदुर्गादासजी तुलसी के आवास पर दिनांक 18.4.1954 ई0 को रात्रि कालीन सत्संग में हुआ था।
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76. पाप और पारे को कोई हजम नहीं कर सकता

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 अपने देश में ‘महाभारत’ नाम से एक बहुत बड़ी पुस्तक है। बहुत लोग पढ़ते हैं। एक ही परिवार के दो नामधारी परिवार थे-एक कौरव और दूसरा पाण्डव। पाण्डव पाँच भाई थे। कौरव एक सौ भाई थे। पाण्डवों में युधिष्ठिर श्रेष्ठ थे, बड़े धर्मात्मा थे। बारह वर्ष वनवास और तेरहवाँ वर्ष अज्ञात वास किया। बारह वर्ष तक उनको बड़ा कष्ट हुआ, किंतु उसमें बड़े-बड़े अच्छे साधु-संतों के दर्शन होते रहे। तीर्थ-स्नान करते थे, दान-पुण्य करते थे। बड़े दुर्गम-से-दुर्गम स्थान में जाते थे। जहाँ स्वयं नहीं जा सकते थे, वहाँ घटोत्कच अपनी देह पर बैठाकर तीर्थ-स्नान कराते थे। होते- होते लड़ाई हुई। उनकी जीत हुई, राजा हुए। अश्वमेध यज्ञ किया। राज्य-प्राप्ति के पहले राजसूय यज्ञ भी किया था। वे बहुत पुण्य करते थे। उनके सहायक भगवान श्रीकृष्ण थे। उनके यहाँ भगवान बहुत रहते थे। भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से उम्र में छोटे थे। युधिष्ठिर को भगवान श्रीकृष्ण प्रणाम भी करते थे। भगवान की सहायता से उनलोगों की जीत हुई थी। भगवान जब इस संसार से चले गए, तो वे बिल्कुल पुरुषार्थहीन हो गए। श्रीकृष्ण के नहीं रहने से उनलोगों को बहुत वैराग्य हुआ और तमाम तीर्थों में दान-पुण्य, स्नान करते हिमालय में कोई कहीं गिरे, तो कोई कहीं गिरे। युधिष्ठिर देह-सहित स्वर्ग गए, किंतु पहले उनको नरक का दर्शन कराया गया। भगवान का दर्शन, दान-पुण्य, तीर्थ व्रत; सब कुछ होते हुए भी जरा-सा झूठ बोलने के कारण नरक उनको देखना पड़ा। विशेष पुण्य किया था, उसके बदले स्वर्ग मिला। थोड़ा पाप किया था, इसलिए थोड़े काल नरक देखना पड़ा।
आपलोग अपने-अपने मन में सोचिए कि कितना पाप किया, उसका क्या फल होगा? ऐसा नहीं कि पाप-कर्म पुण्य-कर्म करने से नष्ट हो जाता है। पाण्डव बिल्कुल भगवान श्रीकृष्ण पर निर्भर थे। अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण का इतना भक्त था कि नारायणी सेना न लेकर केवल भगवान श्रीकृष्ण को लिया, किन्तु पाप-कर्म का फल कटा नहीं, भोगना पड़ा। श्रीरामकृष्ण परमहंसजी ने कहा है-‘पाप और पारे को कोई भी हजम नहीं कर सकता।’
 पाण्डवों का इस तरह से दान-यज्ञ आदि करने पर भी पाप-कर्म कटा नहीं, तब फिर क्या उपाय है कि जिससे पाप कटे? विभीषण जब भगवान श्री राम के पास गया, तो वानरी सेना ने पहले तो भगवान श्रीराम के पास जाने नहीं दिया; किंतु भगवान श्रीराम की आज्ञा से फिर उनके सामने किया गया। भगवान श्रीराम ने कहा-
सन्मुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।
 सुनकर आश्चर्य होगा कि भगवान श्रीराम ने
जो कहा, उसके अनुकूल भगवान श्रीकृष्ण के सम्मुख पाण्डवों के होने पर भी पाप का नाश कैसे नहीं हुआ? भगवान ने करोड़ जन्म का नाम कहा, किंतु ऐसा नहीं कहा कि सब जन्मों का। यदि करोड़ जन्म से विशेष का पाप हो, तो सब पाप नाश कैसे होगा? ध्यानविन्दूपनिषद् में है-
 यदि शैल समं पापं विस्तीर्ण बहुयोजनम्।
 भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन।।
 कई योजन तक फैला हुआ पहाड़ के समान यदि पाप हो तो वह ध्यानयोग से नष्ट हो जाता है, इसके समान पापों को नष्ट करनेवाला कभी कुछ नहीं हुआ है। भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है-
 सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
 अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
 अर्थात् सब धर्मों को छोड़कर तू केवल एक मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।
 हो सकता है कि सब धर्मों को छोड़ने में कसर हो। लोग बहस करने लगते हैं कि सब धर्मों को कैसे छोड़ा जाय? पिता-माता की सेवा धर्म है, क्या यह धर्म छोड़ दिया जाय? कर्म होने पर धर्म होता है। कर्म बड़ा है, धर्म छोटा है। इन्द्रियां से आप कर्म करते हैं। इन्द्रियों से कर्म छूट जाय, तब धर्म से बचेंगे। जिसके द्वारा इन्द्रियाँ काम करती हैं, वह इन्द्रियों में रहने नहीं पावे, तब इन्द्रियों से कर्म नहीं होगा। कर्म नहीं होगा तो धर्म नहीं होगा।
 ऐसा भजन कीजिए कि इन्द्रियों से कर्म न हो। मन-बुद्धि से भी ऊपर वृत्ति उठ जाय, तब वह परमात्मा की शरण हो जाएगा। पापवृत्तिवाला विषयी होता है। विषयी का मन बाहर में लगा रहता है। उसका मन अंदर-भीतर प्रवेश नहीं कर सकता। जो पाप नहीं करता, उसका मन अंदर में प्रवेश करता है और ध्यान के द्वारा कर्म-मण्डल को भी पार कर जाता है। तब वह काग से हंस हो जाता है, जिसके लिए तुलसी साहब ने कहा-
आली अधर धार निहार निजकै निकरि सिखर चढ़ावहीं ।
जहाँ गगन गंगा सुरति जमुना, जतन धार बहावहीं ।।
जहाँ पदम प्रेम प्रयाग सुरसरि धुर गुरू गति गावहीं ।
जहाँ संत आस विलास बेनी विमल अजब अन्हावहीं ।।
कृत कुमति काग सुभाग कलिमल कर्म धोय बहावहीं ।
हिय हेरि हरष निहारि घर कौ पार हंस कहावहीं ।।
मिलि तूल मूल अतूल स्वामी धाम अविचल बसि रही ।
आलि आदि अंत विचारि पद कौ तुलसी तब पिउ की भई ।।
 ध्यानविन्दूपनिषद् में है कि ध्यानयोग द्वारा पापों से छूट जाएगा। ध्यानाभ्यासी पाप-पुण्य, दोनों से छूटकर परमात्मा को पाता है। इसलिए सब कोई ध्यानी बनो। पलंग पर बैठो या अपने योग्यतानुकूल बिछावन पर आराम से बैठो, शरीर का, मन का आलस्य छोड़ो, ध्यान करो।
 प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण-कर्म तीन तरह के होते हैं। जो कर्म हम वर्तमान में करते हैं,वे क्रियमाण कहलाते हैं। ये क्रियमाण कर्म ही एकत्रित होने पर सि०चत कहलाते हैं। उसी सि०चत में से जब जिसका भोग करने लगते हैं, तब वह प्रारब्ध कहलाता है।
 जो ध्यानी होगा, वह पाप-कर्म नहीं करेगा; पुण्य-कर्म में आसक्ति नहीं रखेगा कि हमको यह फल मिले। ध्यान के द्वारा कर्ममण्डल से ऊपर जाना होता है। ध्यान करनेवाला पुरुष बुरे कर्मों से बचा रहेगा। वह क्रियमाण में पाप-कर्म नहीं करेगा; संचित कर्म भी उसका छूट जाएगा; क्योंकि वह कर्ममण्डल को पार कर जाएगा। कर्म का फल कर्ममण्डल तक ही लागू हो सकता है, फिर उसका प्रारब्ध कहाँ रहेगा! इसलिए मैं कहता हूँ कि ध्यानाभ्यास कीजिए। पाप नहीं कीजिए। पुण्य कीजिए तो उसमें आसक्ति नहीं रखिए; क्योंकि पुण्य मीठा जहर है। ईश्वर के भक्त बनिए। ईश्वर से प्रेम कीजिए।
 ध्यानी पुरुष पहले जप करता है, फिर परमात्मा के स्थूल रूप का ध्यान करता है, सूक्ष्म रूप का ध्यान करता है और अंत में परमात्मा के स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। इसलिए आपलोग अच्छी तरह ध्यान कीजिए।
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यह प्रवचन श्रीरायबहादुर श्रीदुर्गादासजी तुलसी (जमालपुर, मुंगेर) के आवास पर दिनांक 18.4.1954 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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77. अबके माधव मोहि उधारि

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 जो पाठ आपने अभी सुना है, वह उपनिषद् का पाठ हुआ था-मण्डलब्राह्मणोपनिषद् का। यह संसार महासमुद्र है। इसमें निद्रा, भय बड़े-बड़े जीव-जंतु हैं। जो निद्रा के अंदर चले जाते हैं, तब मानो वे बड़े जीव के पेट में चले जाते हैं। उन्हें अपना कोई होश नहीं रहता। डर भी वह चीज है कि जहाँ आपको डर हो गया, वहाँ करने योग्य काम भी आप नहीं कर सकेंगे। दूसरे का अपकार करना, बुरा चिंतन करना-हिंसा है। वह उस समुद्र की लहर है। तृष्णा उसके भँवर हैं। फिर जल में पंक भी है। शरीर के जितने संबंधी हैं, उनकी ओर आसक्ति लगी रहती है; यही पंक है। सूरदासजी ने कहा है-
 अबके माधव मोहि उधारि।
 मगन हौं भव अंबुनिधि में, कृपासिन्धु मुरारि।।
 नीर अति गंभीर माया, लोभ लहरि तरंग।
 लिए जात अगाध जल में, गहे ग्राह अनंग।।
 मीन इन्द्रिय अतिहि काटत, मोट अघ सिर भार।
 पग न इत उत धरन पावत, उरझि मोह सेंवार।।
 काम क्रोध समेत तृष्णा, पवन अति झकझोर।
 नाहिं चितवन देत तिय सुत, नाक नौका ओर।।
 थक्यो बीच बेहाल विहवल, सुनहु करुणा मूल।
 स्याम भुज गहि काढ़ि डारहु, ‘सूर’ ब्रज के कूल।।
 इस संसार-सागर को पार करो। अवश्य ही सांसारिक संबंध की ममता में लोग लगे रहते हैं। भजन के समय वे ही सब याद आते हैं, भजन बनता नहीं। इसलिए निद्रा, भय, तृष्णा आदि से बचो। मन में होता है कि बचना चाहिए; किंतु बच नहीं सकते हैं। विचार के द्वारा बच नहीं सकते। इसके अतिरिक्त और कुछ होना चाहिए। पहले श्रवण ज्ञान, फिर मनन ज्ञान, निदिध्यासन ज्ञान और अनुभव ज्ञान।
 केवल मनन या विचार ज्ञान से ही हम संसार की लसंग (चिपकन) से, भँवर से, जीव-जन्तु से, पंक से बचें, यह संभव नहीं है। विचार से बुद्धि में कुछ स्वच्छता आती है, किंतु फिर उसमें मैल जमती है। इसके लिए सूक्ष्ममार्ग का अवलंब करने के लिए कहा। बाबा गुरु नानकदेवजी ने कहा-
 भगता की चाल निराली।
 चाल निराली भगता केरी विखम मारगि चलणा।।
 लबु लोभ अहंकार तजि त्रिसना बहुतु नाहीं बोलणा।।
 खंनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा।।
 गुर परसादी जिनि आपु तजिया हरि वासना समाणी।।
 कहै नानक चाल भगताह केरी जुगहु जुग निराली।।
कबीर साहब से पूछते हैं तो वे कहते हैं-
 गुरुदेव बिन जीव की कल्पना ना मिटै,
   गुरुदेव बिन जीव का भला नाहीं।
 गुरुदेव बिन जीव का तिमिर नासे नहीं,
   समुझि विचारि ले मने माहिं।।
 राह बारीक गुरुदेव तें पाइए,
   जनम अनेक की अटक खोलै।
 कहै कबीर गुरुदेव पूरन मिलै,
   जीव और सीव तब एक तोलै।।
 यही सूक्ष्म मार्ग है। कितने जन्म हुए, कितने शरीर में अटके। यह शरीर भी चला जाएगा। हमलोगों के बहुत शरीर हुए। जबसे शरीर हुए, तबसे शरीर में अटके हुए हैं। आप ख्याल कीजिए कि कोई कैदी हो, तो उसका चित्त सदा लगा रहता है कि इस कैदखाने से निकल जाता। किंतु रास्ता मिलता नहीं। यदि पहरेदार या कोई उसे निकलने का रास्ता बता दे, तो वह उससे निकल जाय। लोग इस संसार से निकलने का रास्ता नहीं जानते। यदि कोई इस राह को बता दे तो वह कितना बड़ा उपकारी होगा। सूक्ष्ममार्ग पर चलने से आप संसार से निकल जाइएगा। अपने शरीर से भी निकल जाइएगा। यह संसार और आपका शरीर-दोनों एक ही तत्त्व से बने हैं। जितने तल आपके शरीर के हैं, संसार के भी उतने ही तल हैं। आपके शरीर और संसार में बहुत संबंध है।
 यदि आप शरीर से पार हो जाएँ, तो संसार से भी पार हो जाएँगे। यह स्थूल मण्डल है, इससे महान सूक्ष्म मण्डल, इससे भी महान कारण मंडल और इससे भी महान महाकारण मंडल है। ये चार दर्जे ब्रह्माण्ड के हैं। आपके शरीर में चार दर्जे हैं। अपने शरीर में जो स्थूल तल है और संसार में जो स्थूल तल हैं-दोनां में इतना संबंध है कि आप जाग्रत में शरीर के स्थूल तल पर रहते हैं, तो संसार के भी स्थूल तल पर रहते हैं। जब स्वप्न में आपको स्थूल शरीर का ज्ञान नहीं रहता, तो स्थूल संसार का भी ज्ञान नहीं रहता। इस नमूने से समझना चाहिए कि शरीर के जिस तल पर आप रहते हैं, संसार के भी उसी तल पर आप रहते हैं। शरीर के जिस तल को आप छोड़ते हैं, संसार के भी उस तल को आप छोड़ते हैं। इस प्रकार यदि आप शरीर के सब तलों को पार करेंगे, तो संसार के भी सब तलों को पार कर जाएँगे। जिसने पिण्ड को जीता, उसने ब्रह्माण्ड को जीता। इसको जीतने के लिए सूक्ष्ममार्ग का अवलंब करने कहा। संसार में रास्ता देखते हैं, तो पैर से चलते हैं। यहाँ देखने के लिए तीन दृष्टियों का वर्णन हुआ-एक अमा, दूसरी प्रतिपदा और तीसरी पूर्णिमा। कबीर साहब ने आँख बन्द करके दृष्टिसाधन करने कहा-
बंद कर दृष्टि को फेरि अंदर करै, घट का पाट गुरुदेव खोलै।
कहै कबीर तू देख संसार में, गुरुदेव समान कोइ नाहिं तोलै।।
 गुरु नानकदेवजी भी तीन बन्द लगाकर ध्यान करने कहते हैं-
 तीनां बंद लगाय के , सुन अनहद टंकोर।
 नानक सुन्न समाधि में, नहिं साँझ नहिं भोर।।
‘आँख कान मुख बंद कराओ, अनहद झींगा शब्द सुनाओ।
दोनों तिल एक तार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है।।’
              - कबीर साहब
 आपसे जो हो सके, जो सरल मालूम हो, वह कीजिए। भगवान बुद्ध की प्रतिमा में देखिए, वे आँखें बन्द करके बैठे हुए ध्यान में मिलेंगे। व्यासदेवजी भी आँख बन्द करके बैठे हुए हैं और ध्यान कर रहे हैं। इस तरह यदि आप आसानी से सूक्ष्म मार्ग को पकड़ना चाहें तो अमादृष्टि से कीजिए। उस सूक्ष्ममार्ग पर पैर नहीं चल सकता।
 बिन पावन की राह है, बिन बस्ती का देश ।
 बिना पिण्ड का पुरुष है, कहै कबीर संदेश ।।
 देखत-देखते स्वयं उस पर चल पड़ेंगे। सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। जो वस्तु जितनी सूक्ष्म होती है, उसके सिमटाव से उसकी उतनी अधिक ऊर्ध्वगति होती है। सुरत से कोई विशेष सूक्ष्म नहीं हो सकता। इसका सिमटाव होने से इसकी विशेष ऊर्ध्वगति होगी। इसके लिए किसी जानकार से जानकर भजन कीजिए। आँखें बंद करके ध्यान करने पर कहते हैं कि नींद आ जाती है, तो जो निशाना बताया गया है, उसको दृढ़ता से पकड़ो, नींद नहीं आएगी। यदि निशाना छूट जाय, मन बहक जाए, तो अवश्य ही नींद आ जाती है। सतोगुण में वृत्ति रखने को कहा। इड़ा-पिंगला में तमोगुण-रजोगुण की प्रधानता रहती है। सुषुम्ना में सतोगुण की प्रधानता रहती है। बाबा नानक देवजी ने कहा-
 सुखमन कै घरि राग सुनि सुन मंडल लिव लाइ।
 अकथ कथा वीचारीअै मनसा मनहिं समाइ।।
 एक बंगाली साधु ने कहा-
बायें इड़ा नाड़ी दक्खिणे पिंगला, रजस्तमोगुणे करिते छे खेला।
मध्य सत्वगुणे सुषुम्ना विमला, धरऽ धरऽ तारे सादरे।।
 सुषुम्ना में अपने को स्थिर कीजिए। इस सूक्ष्म मार्ग पर पहले मन-सहित चेतन आत्मा चलती है। चलते-चलते मन आगे नहीं जा सकता। केवल चेतन आत्मा चलती है। संत तुलसी साहब ने कहा-
 सहस कमलदल पार में, मन बुद्धि हिराना हो।
 प्र्राण पुरुष आगे चले,सोइ करत बखाना हो।।
 सहस्त्रदल कमल के ऊपर त्रिकुटी का स्थान है। यह बाहर में नहीं अंतर में है। वहाँ जाकर मन-बुद्धि हेरा जाती हैं। इसके आगे प्राण पुरुष या चेतन आत्मा चलती है। सूक्ष्ममार्ग के द्वारा सबको संसार से पार होना चाहिए। संतों ने संसार से पार हो जाने के लिए कहा। यह संसार कैदखाना है। एक-एक पिण्ड एक-एक कोठरी है। जो कोठरी से छूटेगा, वह घेरे से भी छूटेगा। इसका अभ्यास अपने घर में करो या कहीं दूर देश में करो; किंतु अपने को संयम में रखो। पंच पापां से बचते रहो। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार नहीं करना चाहिए। गरीबी-अमीरी का ख्याल छोड़ दो। सच्ची कमाई से अपना गुजर-बसर करो। दरिया साहब ने भी सूक्ष्ममार्ग के लिए कहा-
जानि ले जानि ले सत्त पहचानिले, सुरति साँची बसै दीद दाना।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै पलक परवीन दिव दृष्टि ताना।।
ऐन के भवन में बैन बोला करै चैन चंगा हुआ जीति दाना।
मनी माथे बरै छत्र फीरा करै जागता जिन्द है देखु ध्याना।।
पीर पंजा दिया रसद दाया किया मसत माता रहै आपु ज्ञाना।
हूआ बेकैद यह और सभ कैद में झूमता दिव्य निशान बाना।
गगन घहरान वए जिन्द अमान है जिन्हि यह जगत सब रचा खाना।
कहै दरिया सर्वज्ञ सब माहिं है कफा सब काटि के कुफुर हाना।।
 अमीरी का लालच मत करो और गरीब होकर दुःखी न होओ। इन्द्रियों के भोग में पड़कर गरीब, अमीर-दोनों कैद में पड़े रहते हैं। जो अपने को इन्द्रियों के भोग से बचाकर रखते हैं, तो बहुत भले हैं। गरीब भी अपने को इन्द्रियों के भोग से बचाकर रखते हैं, तो वे भी अच्छे हैं। इसमें दोनों बराबर हैं। इसलिए अपने को विषयों से बचाकर भजन कीजिए।
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यह प्रवचन श्रीरायबहादुर श्रीदुर्गादासजी तुलसी (जमालपुर, मुंगेर) के आवास पर दिनांक 19.4.1954 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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78. विन्दु ज्योतिर्मय शालिग्राम है

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 आपके सामने उपनिषद् का पाठ और कबीर साहब, गुरु नानक साहब, गोस्वामी तुलसीदासजी, स्वामी विवेकानंद और भगवान बुद्ध के वचन का पाठ हुआ। इसलिए कि ‘संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि वारि विकारि।’
 संतों के वचन में जो लेने योग्य हो, आपलोग ले लें। हमलोग भी ऐसा ही करते हैं। हमलोग किसी संत को कम, किसी को विशेष नहीं मानते। उनके वचनों को हमलोगों को जानना है, समझना है और उसके अनुकूल चलना है। मैंने जो कुछ संतों की फुलवाड़ी से सुंदर-सुंदर पुष्पों को पाया है, उसमें जो सुगंधियाँ मुझे मिली हैं, वे भी मेरे पास हैं। वे भी आपलोगों को दूँगा।
 बचपन से ही अपने-अपने घर में किसी-न- किसी शब्द में ईश्वर के लिए सुना। बचपन में ही मुँह में शब्द आते ही हमारे बड़ों ने राम-राम, शिव-शिव आदि नाम जपाया है। बचपन से ही यह छाप पड़ गई है; किंतु इसकी स्थिति कैसी है, नहीं जान पाया; किंतु मान लिया। ठीक वैसे ही, जैसे स्कूल में अध्यापक कहते हैं कि कहो ‘अ’ कहो ‘क’ तो ठीक इसी तरह ‘अ’ और ‘क’ कहा। बिना तर्क किए अध्यापक के अनुकूल मान लिया। कुछ बड़ा हुआ और उनके उच्चारणों को समझने लगा, तो कहा-अध्यापकजी ने ठीक ही कहा था। उसी तरह जब हम संतों की वाणी आदि को पढ़ते हैं, तो उसमें ईश्वर की स्थिति पाते हैं और वह विश्वास पक्का हो जाता है। कितने भाई कहते हैं कि ईश्वर तर्क में नहीं आ सकता। कितने भाई कहते हैं कि जो तर्क में नहीं आता, वह है ही नहीं। ये दो प्रकार के ख्याल लोगों में हैं। ‘ईश्वर है’-पक्ष में विशेष और ‘ईश्वर नहीं है’- इसके पक्ष में बहुत कम लोग हैं; किंतु वे ऐसे हैं जो विशेष विद्वान हैं। ऐसे लोग भी, जिनको तर्क करने में ईश्वर में विश्वास नहीं है-मेरे बहुत साथी हैं। ईश्वर में विश्वास रखनेवाले विशेष और नहीं विश्वास रखनेवाले कम हैं। आजकल चुनाव का दिन है। इसलिए लोग इसी को विशेष मानते हैं। इसलिए यही पक्ष मजबूत है कि ईश्वर है। किंतु उसका अनादि, अनंत, असीम, अपरिमित; इस तरह कुछ होना संभव है या नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
 व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता।
     अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
 कबीर साहब कहते हैं-
 श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा ।
 सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
 चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
 चून चगून वजूद न मानु तैं सुभानमूना ऐना ।।
 जैसे ऐना सब दरसावै जो कुछ वेष बनावै ।
 ज्यों अनुमान करै साहब को त्यों साहब दरसावै ।।
 जाहि रूप अल्लाह के भीतर तेहि भीतर क े ठाईं ।
 रूप अरूप हमारि आस है हम दूनहुँ के साईं ।।
 जो कोउ रूह आपनी देखा सो साहब को पेखा ।
 कहै कबीर स्वरूप हमारा साहब को दिल देखा ।।
 असीम हुए बिना ‘बड़ा तें बड़ा’ नहीं हो सकता। ‘छोटे-से-छोटा’ और ‘बड़े-से-बड़ा’ ‘अणोरणीयान् महतो महीयान् का उलटा है। बाबा नानक ने कहा-
अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा।।
जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा।।
साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु।
ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।
ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु काम न नारी ।
अकुल निरंजन अपर परंपरु सगली जोति तुमारी ।।
घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ।
बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।।
जंत उपाइ कालु सिरिजंता बसगति जुगति सवाई ।
सतिगुरु सेवि पदारथु पावहि छूटहि सबदु कमाई ।।
सूचै भाडै साचु समावै विरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।
 इस प्रकार संत-वचन और उपनिषद् के वाक्यों में परमात्मा को अनंत ही कहा गया है। विवेकानंद स्वामी ने भी अनंत ही कहा है। इस प्रकार सभी संत कहते चले आए हैं और इसी तरह मानते चले जाएँ।
 इस प्रकार का असीम, अनादि एक तत्त्व होगा या नहीं? यदि नहीं, तो ससीम है-कहेंगे। तो प्रश्न होगा कि सब ससीमों के पार में क्या है? बहुत ससीम मिलकर एक असीम नहीं हो सकते। सब ससीमों को मिलाने से वह मण्डल बहुत बड़ा हो जाएगा; किंतु वह अनंत नहीं होगा। प्रश्न होगा कि सब ससीमों के पार में क्या है, तब असीम कहे बिना उत्तर हल नहीं हो सकता। सब ससीमों के पार में एक असीम होना पूर्ण संभव है। असीम दो हो नहीं सकते। दो असीम होने से दोनों ससीम हो जाएँगे। इसलिए यह कहना होगा कि असीम एक ही होगा। स्वामी विवेकानंदजी ने भी एक ही असीम माना है।
 एक विद्वान भागलपुर से पूर्णियाँ सफर करते समय मेरे पास आए। उन्होंने मुझसे पूछा-ईश्वर के विषय में आप क्या मानते हैं? मैंने कहा-मैं मानता हूँ, जो असीम है। उन्हांने पूछा-जो असीम है, उसे ईश्वर क्यों मानें? मैंने उत्तर दिया-असीम होने से सब कुछ उसके अंदर है और जो जिसके अंदर में है, गोया काबू में है, इसलिए उसका वह ईश्वर है। इस प्रकार विचार में भी ईश्वर की स्थिति पाते हैं और संतों ने भी इसी प्रकार का वर्णन किया है। हमारे पूर्वजों ने जो हमें ‘राम-राम’ सिखलाया था, वह ठीक है। जैसे अध्यापक ने हमें ‘अ’ ‘क’ आदि बतलाए थे; ठीक है- अब समझने लगे हैं; किंतु जिस समय अर्थात् बचपन में जो अध्यापक ने कहा, वहाँ तर्क नहीं किया। उसी प्रकार माताजी, पिताजी ने जो कहा, वह ठीक है। आज संतों की वाणी से वह पुष्ट हो जाता है।
 पहले श्रवणज्ञान, फिर मननज्ञान, निदिध्यासन ज्ञान और अनुभवज्ञान। ‘अनुभव’ का अर्थ प्रत्यक्ष होता है। भजन करते हुए अंत में पूर्ण समाधि हो जाती है, वह अनुभव ज्ञान है। अनुभव ज्ञान प्राप्त करने के लिए जो साधन करते हैं, वह है निदिध्यासन ज्ञान। ईश्वर के संबंध में जो कुछ हम सुनते हैं, वह श्रवणज्ञान है। और फिर उस पर विचारते हैं, वह मननज्ञान है। ये चार प्रकार के ज्ञान हैं। इन चारों को भी दो भागों में बाँट सकते हैं-एक परोक्ष और दूसरा अपरोक्ष। इस तरह ज्ञान को समझ लेने पर संतों की वाणी को वचन-प्रमाण से मानते हैं; विचार-प्रमाण से मानते हैं, किंतु जिनको अनुभव हो गया है, वे संत हैं और जो अभी साधन कर रहे हैं, प्राप्त नहीं हुआ है, वे साधु हैं। साधक को साधन के अंत में अनुभव ज्ञान होगा। अभी जो कुछ पाठ हुआ, उसमें आपलोगों ने सुना कि वह ईश्वर इन्द्रियों, मन और बुद्धि से परे है, महतत्त्व से परे है। ‘महतत्त्व’ का प्रयोग कहीं बुद्धि के लिए हुआ है और कहीं जडा़त्मिका प्रकृति के लिए हुआ है। यहाँ ‘महतत्त्व’ का प्रयोग जड़ात्मिका प्रकृति के लिए किया गया है। अव्यक्त=जो इन्द्रियों के ज्ञान से बाहर है, प्रकृति का मूल रूप। प्रकृति एक अपने रूप में रहती है, दूसरी विकृति-रूप में। विकृति-रूप इन्द्रियगोचर होता है, किंतु मूल-रूप अव्यक्त है। श्रीमद्भगवद्गीता में अपरा प्रकृति को अष्टधा प्रकृति कहा है। परा प्रकृति में विकृति नहीं आती, वह ज्यों-की-त्यों रहती है। परा प्रकृति अत्यंत सूक्ष्म है। ‘सूक्ष्म’ का अर्थ छोटा टुकड़ा नहीं, बल्कि आकाशवत् सूक्ष्म। ईश्वर को कितने लोग खण्ड-खण्ड करके व्यापक मानते हैं; किंतु भिन्न-भिन्न पिण्डों में होकर व्यापक होने से बीच में कुछ-न-कुछ अवकाश होगा। परंतु एक-ही-एक सघनता से फैला हुआ हो, ऐसा जो स्वरूप रखता हो, वह कितना सूक्ष्म और झीना होगा! दूसरी बात यह है कि छोटी-सी घड़ी के यंत्र बहुत छोटे-छोटे होते हैं। उसको खोलने के लिए बढ़ई का पेचकश काम नहीं करता। उसके लिए छोटे-छोटे पेचकश चाहिए। उसी प्रकार परमात्मा के समक्ष ये इन्द्रियाँ अत्यंत स्थूल हैं। इन्द्रियों के परे मन, मन के परे बुद्धि, बुद्धि के परे महतत्त्व, महतत्त्व के परे वह आत्मा है। फिर उस आत्मा को इन्द्रियादि से कैसे ग्रहण कर सकेंगे? इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।
     - रामचरितमानस
अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा बसत इति वासना धूप दीजै।
       - विनयपत्रिका
 यह सगुण रूप हुआ। एक शरीर में रहते हुए आपका जोर है कि यह शरीर मेरा है और यह रूप मेरा है, उसी प्रकार परमात्मा सबमें है। इसलिए सब शरीर उन्हीं के हैं और सब रूप उन्हीं के हैं।
अग जग मय प्रभु रहित बिरागी। प्रेम तें प्रकट होहिं जिमि आगी।।
सबमें वे रहते हैं। जैसे आप वस्त्र पहनते हैं, तो आपका जो आदर करते हैं, तो आपके वस्त्र का भी आदर करते हैं। हमारे गुरु महाराज की खड़ाऊँ अभी रहती तो हम उसको नहीं पहन सकते, प्रणाम करते। उनकी गुदड़ी अभी रखी हुई है। हमलोग पहनते नहीं हैं, प्रणाम करते हैं। तुलसी साहब की गुदड़ी रखी हुई है, लोग उसका दर्शन करते हैं, प्रणाम करते हैं। गुरु महाराजजी की मूर्ति अभी है, गुरु महाराज अभी नहीं हैं, किंतु उस मूर्ति को पूजते हैं; क्योंकि उस रूप में वे आए थे। इसलिए आज हमारे यहाँ मूर्ति-पूजन होता है।
 एक भक्त ने कहा कि राजा कपड़ा नहीं होता, उसी प्रकार भगवान जो रूप धारण करते हैं, वे वह नहीं हो जाते। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप।
 किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप।।
 जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ।
 सोइ सोइ भाव देखावइ, आपु न होइ न सोइ।।
              -रामचरितमानस
 ऐसा कहने से रूप का अपमान नहीं हुआ। आप अपने शरीर के लिए विचारिए। कितने शरीर धारण किए। अनेक रूपों को धारण करते हुए आप उनसे न्यारे ही रहे; क्योंकि ‘ईस्वर अंस जीव अविनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।’ वह सब रूपों में रहता है; किंतु किसी के रूप-जैसा नहीं होता। रूप व्यक्त है, गोचर है। रूपधारी अव्यक्त है, अगोचर है। अच्छा हो कि हम रूप को पहचानें और रूपधारी को भी पहचान लें, तब कभी भ्रम नहीं होगा। ब्रह्मा को भगवान श्रीकृष्ण के लिए भ्रम हुआ। ब्रह्मा को ही नहीं, नारद, कागभुशुण्डि, इन्द्र आदि को भी भ्रम हुआ। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
 निर्गुन रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोइ।
 सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होइ।।
 तुलसीदासजी को भगवान के स्थूल सगुण साकार रूप के दर्शन हुए, किंतु वे पहचान न सके। प्रसिद्ध है कि-
 चित्रकूट के घाट पर , भइ संतन की भीर।
 तुलसिदास चंदन घिसै, तिलक देत रघुवीर।।
 सगुण साकार रूप में यह बात है। रूपधारी में यह बात नहीं। यदि रूपधारी एक बार पहचान में आ जाए, तो फिर वह हेराने को नहीं। संतों ने कहा-दोनों को पकड़ो। ईश्वर स्वरूपतः ‘अगुन अखण्ड अलख अज’ है, किंतु प्रकट होने के लिए कुछ कारण होना चाहिए। इसलिए ‘भगत प्रेमबस सगुन सो होई।’ सब रूपों में वह व्यापक है। इन सब रूपों में जो रूप विशेष प्रभावशाली है, धर्मवान है, वह विशेष है।
 महात्मा गाँधीजी ने कहा कि मनुष्य अवतार है-‘‘अवतार’ से तात्पर्य है शरीरधारी पुरुष विशेष। जीव मात्र ईश्वर के अवतार हैं, परंतु लौकिक भाषा में सबको हम अवतार नहीं कहते। जो पुरुष अपने युग में सबसे श्रेष्ठ धर्मवान होता है, उसी को भावी प्रजा अवताररूप से पूजती है। इसमें मुझे कोई दोष नहीं जान पड़ता, इसमें न तो ईश्वर के बड़प्पन में ही कमी आती है, न सत्य को ही आघात पहुँचता है। ‘आदम खुदा नहीं, लेकिन खुदा के नूर से आदम जुदा नहीं’। जिसमें धर्म-जागृति अपने युग में सबसे अधिक है, वह विशेषावतार है। इस विचार-श्रेणी से कृष्णरूपी सम्पूर्णावतार आज हिन्दूधर्म में साम्राज्य उपभोग कर रहा है।’’
 साधारण लोग जो उच्च हो गए, वे भी पहले साधारण थे। पाठ के आरंभ में बड़ा-बड़ा अक्षर लिखकर सीखते हैं। उस अव्यक्त रूप का पहले निदिध्यासन करें, संभव नहीं। केवल मानें कि ईश्वर इन्द्रियातीत है। मानने से उतना काम चलने को नहीं। इसलिए पहले किसी सगुण रूप में आसक्ति हो सुतीक्ष्ण मुनि की तरह। सुतीक्ष्ण मुनि अगस्त्य ऋषि के शिष्य थे, बड़े सदाचारी थे। कथा है कि जब उनको जानकारी मिली कि भगवान श्रीराम जनकनन्दिनी श्रीजानकीजी की खोज में जंगल होते हुए इधर ही आ रहे हैं, तो वे चले दर्शन हेतु। भगवान श्रीराम के प्रेम में वे इतने मग्न हो जाते हैं कि वे भगवान श्रीराम का मानस ध्यान करने लग जाते हैं और बाहर की सुध-बुध खोकर मार्ग में ही बैठ जाते हैं। भगवान आते हैं। भगवान श्रीमुनिजी को जगाना चाहते हैं, किंतु ध्यान में वे इतने तल्लीन हैं कि उन्हें भगवान के आने की जानकारी ही नहीं हो पाई। बाद में भगवान श्रीराम उनके ध्येय को ही बदल देते हैं। सुतीक्ष्ण मुनिजी दोभुजी राम का मानस ध्यान कर रहे थे। भगवान बदलकर चतुर्भुजी रूप सामने कर देते हैं, तब मुनिजी हड़बड़ाकर आँखें खोलते हैं, तो देखते हैं कि भगवान राम सामने खड़े हैं। इस तरह का ध्यान बहुत उत्तम ध्यान है, किंतु इतने में ही अंत नहीं है और भी आगे जाना है। विवेकानंद स्वामी ने कहा-‘अंतर की दृष्टि चाहिए। बाहर देखने की अभिलाषा निवृत्त कर देनी चाहिए।’ दृष्टि पाँच प्रकार की होती हैं- जाग्रत की दृष्टि, मानस दृष्टि, स्वप्न की दृष्टि, दिव्य दृष्टि और आत्म दृष्टि। सुतीक्ष्ण मुनि मानस दृष्टि में डूबे थे, किंतु दिव्य दृष्टि उससे विशेष है। इसके लिए लोग यत्न करते हैं। मैंने कहा था कि संतवाणी के पुष्प की गंध जो मेरे पास एकत्र हुई है, उसे भी दूँगा, वही देता हूँ। आप बाहर की ओर नहीं देखिए और फैली हुई दृष्टि से नहीं देखिए, तब होगा-
उघरहिं विमल विलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के।।
 संत पलटू साहब ने कहा-
 काजर दिहे से का भया, ताकन को ढब नाहिं ।।
 ताकन को ढब नाहिं, ताकन की गति ह ै न्यारी ।
 एकटक लेवै ताकि , सोई है पिव प्यारी ।।
 ताकै नैन मिरोरि, नहीं चित अंतै टारै ।
 बिन ताकै केहि काम, लाख कोउ नैन संवारै ।।
 ताके में है फेर, फेर काजर में नाही ं।
 भंगि मिली जो नाहिं, नफा कया जोग के माहीं ।।
 पलटू सनकारत रहा, पिय को खिन खिन माहिं ।
 काजर दिहे से का भया, ताकन को ढब नाहिं ।।
 उपनिषद् में तीन प्रकार की दृष्टियों का वर्णन किया गया है-अमादृष्टि, प्रतिपदा दृष्टि और पूर्णिमा दृष्टि। दोनों आँखें बंद करके ध्यान करने को अमादृष्टि कहते हैं। आधी आँखें खुली और आधी आँखें बंद करके देखने को प्रतिपदा दृष्टि कहते हैं और पूरी आँखें खोलकर देखने को पूर्णिमा दृष्टि कहते हैं। भगवान बुद्ध को अमादृष्टि से लाभ हुआ था। आज भी उनकी ध्यानस्थ मूर्ति में आँखेें बंद की हुई देखी जाती हैं। बाबा नानक कहते हैं-
 सुखमन कै घरि राग सुनि सुन मंडल लिव लाइ।
 अकथ कथा वीचारीअै मनसा मनहि समाइ।।
 ताकने का ढंग सीखो। उससे दिव्य दृष्टि खुलती है। दिव्य दृष्टि से दिव्य रूप के दर्शन होते हैं। भगवान ने अर्जुन को थोड़ी देर के लिए दिव्य दृष्टि दी थी, किंतु इसी में समाप्त नहीं है। इससे आत्मा का दर्शन नहीं होता। इसके लिए और कोई दृष्टि नहीं है। चेतन आत्मा स्वयं दृष्टि-स्वरूप है। मन, बुद्धि, कान, आँख-सब इन्द्रियों में वही चेतनधारा है। उसी के बल से सब इन्द्रियाँ काम करती हैं। वह स्वयं शक्तिहीन नहीं है। यदि सब इन्द्रियों से वह छूट जाय, तो उसकी शक्ति बहुत बढ़ जाती है।
 श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै।
 रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै।।
 नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै।
 अंग बिना मिलि संग, बहुत आनंद बढ़ावै।।
 बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिए रहै।
 मिलि परमातम सां आतमा, परा भक्ति सुन्दर कहै।।
        -संत सुन्दरदासजी
 केवल चेतन आत्मा ही आत्मा है। चार जड़ शरीरों-स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण को छोड़कर चेतन आत्मा रहे, तब परमात्मा की पहचान होगी। जैसे आँख से सबको देखते हैं, किंतु आँख को फिर आइने में आँख से ही देखते हैं। इसी तरह चेतन आत्मा परमात्मा के दर्शन करे। यह उपमान का प्रमाण है। यदि विश्वास नहीं है तो करके देखो। हाइड्रो- जन और ऑक्सीजन को मिलाने से जल होता है। कोई कहे कि नहीं होता है, तो मिलाकर देख लो! त्वचा का सुख त्वचा को होता है। बच्चा माता की गोद से अलग होना नहीं चाहता, इसलिए कि त्वचा का सुख मिलता है। परमात्मा से आत्मा के मिलन में महान सुख है। इसी को सुंदरदासजी ने कहा-
 अंग बिना मिलि संग, बहुत आनंद बढ़ावै।
 जबतक दिव्य दृष्टि रहती है, तबतक सूक्ष्म शरीर रहता है। परमात्मा साकार भी है और निराकार भी। परमात्मा के सूक्ष्म साकार के दर्शन इस दिव्य दृष्टि से होते हैं। निराकार को पाने के लिए निराकार का अवलंब लेना होगा। वह अवलंब नाद है। आपलोगों ने सुना कि-
 विन्दु-ध्यान-विधि नाद-ध्यान-विधि,
    सरल-सरल जग में परचारी।
 यह विन्दु और नाद क्या है? यह विन्दु ज्योतिर्मय शालिग्राम है। विद्वान लोग जानते हैं कि विन्दु एक छोटे-से छोटा र्चिं है। पेंसिल की नोक जहाँ रखो, वहीं विन्दु उत्पन्न हुआ। किसी आकार का आरंभ विन्दु से होता है और अंत विन्दु पर होता है। निराकार से साकार जब बना है, तब पहले एक विन्दु बना है। इधर से उलटिए तो उस विन्दु को पकड़िए। इसी को गीता में भगवान ने ‘अणोरणीयान्’ कहा। ध्यानविन्दूपनिषद् में कहा-
 बीजाक्षरं परम विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
               -ध्यानविन्दूपनिषद्
 परम विन्दु क्यों कहा? परम विन्दु किसी पेन्सिल से बाहर में नहीं बनाया जा सकता। परिभाषा के अनुकूल विन्दु अपने अंदर में उदित होता है-
 विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम् ।
 देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।
       -योगशिखोपनिषद्, अध्याय 5
 इसी योगशिखोपनिषद् के पहले अध्याय में है-
 विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम् ।
 देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।
 लोग ठाकुरवाड़ी और शिवालय को पवित्र रखते हैं, उनको पूजते हैं। यह ठीक ही है; किंतु यह शरीररूप ठाकुरबाड़ी और शिवालय अपवित्र ही है। खेद है कि इस ठाकुरबाड़ी को हमने पवित्र रखने की कोशिश नहीं की और इसको भोग का एक साधन मात्र समझा। आप स्वयं इसमें रहते हैं। आप अपने शरीर में चलिए, पहले मन के साथ चलना होगा। लोग मुंगेर गए हैं। मुंगेर के विषय में सोचते हैं, तो कहते हैं कि मन मुंगेर चला गया। किंतु यह बात ठीक नहीं है। मन का जाना ऐसे नहीं होता। यदि मन मुंगेर गया तो कहिए तो इस समय मुंगेर में क्या हो रहा है? यह तो मन ने मुंगेर को पहले जैसा देखा था, उसी को अपने में बना-बनाकर देखता है। मन को चलना तब होता है, जब मन का सिमटाव हो। जहाँ यह मन ठहरा हुआ है, मन का वहाँ से सिमटाव हो, तो इसकी ऊर्ध्वगति होगी। सिमटाव में ऊर्ध्वगति स्वाभाविक है। कोई भी तरल, कठिन, वाष्पीय पदार्थ हो, सिमटाव में ऊर्ध्वगति होगी। इसी के लिए कहा-
 बैठे ने रास्ता काटा, चलते ने बाट न पाई ।
है कुछ रहनि गहनि की बाता । बैठा रहे चला पुनि जाता।।
 मन का सिमटाव करना, बैठना है। ऐसा करे तो चलेगा। मन आगे बढ़े तो दिव्य दृष्टि हो जाएगी। दिव्य दृष्टि से दिव्य माया देखने में आवेगी। परमात्मा निराकार भी है। उसको कैसे पकड़े, तो उसके लिए नाद ग्रहण करना होता है। यह रूपातीत उपासना है।
 नास्ति नादात्परो मंत्रो न देवः स्वात्मनः परः।
 नानुसंधे परा पूजा न हि तृप्तेः परं सुखम्।।
                -योगशिखोपनिषद्
 नाद-उपासक निराकार-उपासक होता है। शब्द में अपने उद्गम स्थान पर खींचने का गुण है। आदि शब्द परमात्मा से हुआ है। संतों ने इसी को ओ3म्, स्फोट, रामनाम, सतनाम आदि कहा है। कितने कहते हैं कि शब्द आकाश का गुण है, किंतु उस समय आकाश कहाँ? आकाश तो बहुत पीछे हुआ। वह शब्द सृष्टि के आदि में परमात्मा की मौज से हुआ। भागवत में तीन प्रकार के शब्दों का वर्णन है-प्राणमय, मनोमय और इन्द्रिमय।
 वह चेतन शब्द परमात्मा से उत्पन्न हुआ है और परमात्मा से लगा हुआ है। जो उस शब्द को पकड़ता है, वह परमात्मा को प्राप्त करता है। इसके लिए बहुत विशुद्ध होना पड़ेगा। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार-इन पंच पापों को नहीं करो। एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा तथा अपने अंतर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना, सद्गुरु की निष्कपट सेवा, सत्संग और दृढ़ ध्यानाभ्यास; इन पाँचों को मोक्ष का कारण समझना चाहिए। इनसे ही मन की विशुद्धि होती है। जिनका मन विषयों में आसक्त है, उनका मन समेट में नहीं आता। जिनका मन विषयों में आसक्त नहीं है, उसका मन समेट में आता है। श्रीराम ने तो कहा-‘एहि तन कर फल विषय न भाई।’
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यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत उच्च विद्यालय, सूर्यगढ़ा में दिनांक 22.4.1954 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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79. ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर-भक्ति

प्यारे लोगो!
 यदि किसी दर्शनीय वस्तु की पहचान करनी हो, तो उसको आप किससे पहचान करेंगे? बहुत ही ठीक है कि उसकी पहचान आप अपनी आँखों से करेंगे। यदि गंध विषय हो, तो नाक से और शब्द विषय हो तो कान से पहचान करेंगे। इसी तरह यदि आप ईश्वर की पहचान करना चाहें, तो किससे करेंगे? इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि से नहीं; स्वयं अपने से कर सकेंगे। आप अपनी आँखों से जो देखते हैं, वह अपने से नहीं देखते हैं, अपनी आँखों से देखते हैं। जैसे कोई चश्मे से देखते हैं, तो आँखां से नहीं, बल्कि आँखों के सहारे चश्मे से देखते हैं। इन्द्रियों को छोड़कर केवल अपने से क्या करना होगा, इसको सबलोग नहीं जानते। जो आत्मा के विषय में ग्रंथों में पढ़े हैं अथवा सत्संग किए हैं, वे इस बात को समझते होंगे। आप अपने से समझ सकते हैं कि किसी मृतक को देखकर ज्ञान करेंगे कि शरीर में जो रहनेवाला था, वह चला गया। शरीर मर गया। इस ज्ञान से आपको जानना चाहिए कि जितनी इन्द्रियाँ हैं, सबसे आप भिन्न हैं। आपके कारण ही इन्द्रियाँ सचेष्ट हैं। पढ़े-लिखे लोग जानते हैं कि स्वयं चेतन आत्मा अपने विषय को ग्रहण करती है। उसका निज विषय अपने स्वरूप की पहचान और परमात्मा की भी पहचान है। जैसे आँखां से सब रूपों को देखते हैं और अपनी आँखों को भी आँख से ही देखते हैं।
 बचपन से सब कोई राम-राम, शिव-शिव आदि कोई-न-कोई ईश्वरवाचक शब्द को जानते हैं, ईश्वर में विश्वास करते हैं। किंतु ईश्वर तत्त्वरूप में क्या है, इसको बहुत कम लोग जानते हैं। मैं अपने तईं क्या हूँ? यदि अपने से अपने को पहचानो, तो तब जो हो, वही तुम हो और उसी से परमात्मा का ग्रहण होता है। वह कहाँ है? शरीर के बाहर या भीतर? अपने भी अंदर और सर्वव्यापी होने के कारण परमात्मा भी अपने अंदर है। उसकी खोज अपने अंदर करो। परमात्मा से निकट और कुछ भी नहीं है। कबीर साहब कहते हैं-
 परमातम गुरु निकट विराजैं जाग जाग मन मेरे ।
 यह संसार मोह का शहर है। विविधता और अनेकत्व मोह के कारण देखते हैं। इस मोह निशा से जगने के लिए ऐसा भजन करें, जो योग-युक्त हो; क्योंकि गोस्वामीजी ने लिखा है-
यहि जग जामिनी जागिंहं जोगी। परमारथी प्रपंच वियोगी।।
 बिना योग-युक्ति के अपने अंदर खोज नहीं हो सकती, अपनी पहचान नहीं और न परमात्मा की पहचान हो सकती है। मनोवृत्ति या चेतनवृत्ति जो इन्द्रियों के घाटों में लगी है, इसका सिमटाव होना चाहिए। यदि केन्द्र में स्थापित हो, ऐसा भजन हो तो यह सुरत अंतर्मुखी हो जाती है। इस अंतर्मुखी वृत्ति से अंदर में प्रवेश होना होता है। जैसे-जैसे अंदर में प्रवेश होता है, सुरत इन्द्रियमण्डल से आग्रे बढ़ती है। इसी प्रकार बढ़ते-बढ़ते चेतन आत्मा कैवल्य दशा को प्राप्त करती है। तब अपने की और परमात्मा की पहचान होती है।
 जो लोग कहते हैं कि परमात्मा नहीं है, वे भूल में हैं। वह वैसी ही बात है, जैसे कोई जन्मान्ध कहे कि रूप विषय नहीं है। किंतु आँखवाला रूप देखता है, वह कहता है, उसको आँख नहीं है। इसलिए वह कहता है कि रूप नहीं है। जिसको चेतन आत्मा का ज्ञान नहीं है, वह कहता है-शरीर मर गया, तो चेतन आत्मा भी नहीं रही। यह उनकी भूल है। हमारे ऋषियां, मुनियों, संतों ने बताया-ईश्वर अवश्य है और तुम चेतन आत्मा भी अवश्य हो। यदि विश्वास नहीं होता है, तो अंदर प्रवेश करके देखो। योग की युक्ति जानो। ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर की भक्ति करो। भक्ति में त्रिपुटी होती है।
 भक्ति-भक्त-भगवन्त, सेवक-सेव्य-सेवा; ये तीनों अवश्य होंगे। मिलाप होने से सेवा होती है। मिलन को ही योग कहते हैं। योग से जो लोग डरते हैं, उनको डरना नहीं चाहिए। चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहते हैं। लोग शारीरिक कठोर कर्म-जैसे नेती, धौती, आसन आदि को योग समझते हैं। अपने शरीर को किसी सरल आसन से बैठाने का हिस्सक लगाओ। इस काम को हल चलानेवाला, लिखा-पढ़ी करनेवाला आदि सभी कोई कर सकते हैं। जिस बच्चे को कुछ समझने- बूझने का ज्ञान है, उस बच्चे को बता दो, तो वह भी एक आसन से बैठ सकता है।
 ईश्वर की स्तुति करो और उसका जप करो। सत्संग में जाओ। स्तुति करने के लिए सीखो। पहले जप करो और स्थूल मूर्ति का ध्यान करो। इसमें मजबूती आ जाय तो उसके बाद गुरु से आगे की क्रिया पूछ लो। सूक्ष्मरूप का ध्यान करना सीखो। रूपातीत ध्यान करना सीखो। इन्द्रियों से ऊपर उठकर कैवल्य दशा प्राप्त कर लोगे, तब अपने का और परमात्मा का साक्षात्कार होगा।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।
 इसको प्रत्यक्ष पावेगा। सुगम तरीके से जप ध्यान करो। लोग कहते हैं कि बिना प्राणायाम के ध्यान नहीं होता, किंतु प्राणायाम किए बिना भी ध्यान होता है और प्राणायाम करके भी ध्यान होता है। उपनिषद में वर्णन है कि बिना प्राणायाम के भी ध्यान होता है। जो प्राणायाम के बाद ध्यान करते हैं, तो यह भी ठीक है। किंतु प्राणायाम कठिन है। प्राणायाम करनेवाले को कष्ट भी होता है। किसी बात को सोचते-विचारते हो तो उस समय श्वास-गति धीमी हो जाती है। जो मन को एकाग्र करने का अभ्यास ध्यान द्वारा करेगा, तो उसकी भी श्वास-गति धीमी पड़ जाएगी। जप-ध्यान से अंतर्मुख हो जाओगे। जप-ध्यान करने के लिए अंदाजी नहीं, किसी जानकार से जानकर करो। ईश्वर का ध्यान कोई कठिन काम नहीं। थोड़ा-थोड़ा करते-करते अभ्यास हो जाने से उसमें अभ्यस्त हो जाता है। फिर सुलभ और सुखदायी होे जाता है, किंतु किसी काम में अभ्यस्त उसका अभ्यास करते-करते ही कोई होता है। मोटे-से-मोटा काम करने के लिए अभ्यास की जरूरत होती है। उसी तरह ध्यान का भी अभ्यास धीरे-धीरे, करते-करते कोई अभ्यस्त होता है।
 जैसे दूध से घी निकाल लेने पर ही घी का निज काम होता है, उसी तरह शरीर से चेतन आत्मा के अलग होने पर ही चेतन आत्मा का निज काम होगा। दूध में घी है, किंतु दूध से पूड़ियाँ, मिठाइयाँ नहीं बनतीं। उसी प्रकार शरीर में चेतन आत्मा है, किंतु ईश्वर की पहचान नहीं होती। इन्द्रियों और शरीरों से चेतन आत्मा को अलग करने पर ही परमात्मा की पहचान होती है। यही बात सभी संतों ने कही है। ‘एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो।’ गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी अपने अंदर खोजने के लिए कहा। गुरु नानकदेवजी ने कहा-
 काहे रे वन खोजन जाइ।
 सरब निवासी सदा अलेपा तोही संग समाई।।
 बाहर की खोज इन्द्रियों के द्वारा होगी। अंदर में चलने से इन्द्रियों से छूटोगे। इसलिए अंदर में खोज करो।
 बैरागिन भूली आप में जल में खोजै राम ।।
 जल में खोजै राम जाय के तीरथ छानै ।
 भरमै चारिउ खूँट नहीं सुधि अपनी आनै ।।
 फूल माहिं ज्यों बास काठ में अगिन छिपानी ।
 खोदे बिनु नहिं मिलै अहै धरती में पानी ।।
 दूध मँहै घृत रहै छिपी मिंहदी में लाली ।
 ऐसे पूरन ब्रह्म कहूँ तिल भरि नहिं खाली ।।
 पलटू सत्संग बीच में करि ले अपना काम ।
 बैरागिन भूली आप में जल में खोजै राम ।।
 पलटू साहब ने कहा-जैसे फूल में सुगंध है, काठ में अग्नि है, धरती में पानी है, दूध में घृत है और मेंहदी में लाली है; उसी तरह परमात्मा सबमें है। ईश्वर की खोज अपने अंदर करने के लिए सभी संतों ने कहा। किसी अच्छे गुरु से इसकी क्रिया सीखिए और कीजिए। मैं सरल-सरल क्रिया बतलाता हूँ। नेती, धौती, वस्ती, नौली आदि क्रियाएँ करने के लिए नहीं बतलाता हूँ। मध्य में रहो यानी न विशेष सोओ और न विशेष जागो। न विशेष खाओ और न विशेष भूखे रहो। अपने घर में रहो। सच्ची कमाई करके अपना गुजर करो। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से बचते रहो। ईश्वर का भजन करोगे, तो मनुष्य का जीवन सफल होगा।
 आजकल हमलोग स्वतंत्र हैं। अपने प्रभु आप हो, पंचायत का राज्य है। जनता का राज्य है। राज्य सुखदायी होना चाहिए, किंतु सुख कहाँ है? इसका कारण है कि हमलोग पाप बहुत करते हैं। झूठ बहुत बोलते हैं। यदि झूठ बोलना छोड़ दें, तो सुख-ही-सुख होगा। झूठ गया, तो घूस गया। और झूठ-फूस चला गया तो मुकदमेबाजी नहीं होगी। पंच पापों को करते रहने से तुम संसार में भले आदमी बनकर नहीं रह सकोगे। परमार्थ तो और कहाँ से होगा? जनता अच्छी हो जाय, तो सब ठीक हो जाय।
 पुण्य का फल सुख होता है, लेकिन इसमें पहले थोड़ा कष्ट होता है। इसको सहो। महात्मा गाँधीजी को अफ्रीका में इतना मारा कि उनका दाँत तोड़ दिया। उनसे मैला फेंकवाया। उन्होंने इन कष्टों को सहन किया। पीछे उन्हीं महात्मा गाँधी जी की इतनी इज्जत हुई कि कहा नहीं जाय। अपने देश की तो बात ही क्या, दूसरे देश के लोगों ने भी इनकी बहुत इज्जत की। धनोपार्जन पाप करके भी होता है, किंतु परमार्थ पाप करने से नहीं हो सकता। इसलिए पाप मत करो। सत्संग ध्यान करते रहो। संसार और परमार्थ-दोनों ठीक-ठीक चलेंगे।
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यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत ग्राम-तौफिर दियारा में दिनांक 24.4.1954 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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80. मेरा यहाँ कुछ नहीं है, सभी मेरे मालिक के हैं

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 सबलोग अपनी मंगल-कामना करते हैं। सबलोग बराबर कर्म करते हैं। कर्म दो ही तरह के होते हैं-शुभ और अशुभ। इन दोनों कर्मों को करने के लिए लोग लगे रहते हैं। जो अशुभ कर्म विशेष करते हैं, वे पापी और जो शुभ कर्म विशेष करते हैं, उन्हें पुण्यात्मा कहते हैं; किंतु ऐसा नहीं कि पुण्यात्मा से पाप नहीं होता। उनसे भी पाप कर्म हो जाता है, जैसे महाराज युधिष्ठिर। लोग पाप का फल दःुख भोगना नहीं चाहते। पुण्य का फल सुख भोगना चाहते हैं। पाप और पुण्य; दोनों का फल दःुख और सुख है। किंतु पाप और पुण्य; दोनों कर्म बंधनवाले हैं। एक लोहे का बंधन है, तो दूसरा सोने का। पापकर्म करके लोग दान, पुण्य, तीर्थ आदि करके चाहते हैं कि पाप नाश हो जाएगा, किंतु ऐसा नहीं होता। महाभारत के मैदान में द्रोण के तीर से सब व्याकुल हो गए थे, उन्हें कोई रोक नहीं सकता था। भगवान ने कहा कि ‘झूठा हल्ला कर दो कि अश्वत्थामा मारा गया।’ क्योंकि द्रोण को था कि वह अपने पुत्र की मृत्यु का नाम सुनने से मर जाएगा। अर्जुन ने भगवान की बात को सुना ही नहीं। भीम ने अवन्तिदेश के राजा के हाथी को, जिसका नाम अश्वत्थामा था, मारकर हल्ला कर दिया कि अश्वत्थामा मारा गया। द्रोण को विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि यदि राजा युधिष्ठिर कहें, तब विश्वास करूँगा। सब लोगों और भगवान की प्रेरणा से उनको झूठ बोलना पड़ा कि अश्वत्थामा मरा, मनुष्य या हाथी। हाथी कहने के समय धीमें स्वर में कहा और मनुष्य कहने के समय में जोर से कहा। उसी समय लोगों ने बाजे बजा दिए। द्रोण कमजोर हो गया और मारा गया। इस झूठ के पाप का फल युधिष्ठिर को भोगना पड़ा और नरक भोगना पड़ा। भगवान श्रीकृष्ण के संसार में नहीं रहने की खबर जब पाँचां पाण्डवों और द्रौपदी को मिली, तो राज्य छोड़कर चल दिए। व्रती होकर दान देते हुए तीर्थों में भ्रमण करने लगे।
 पहाड़ों में पहले घटोत्कच ले जाता था, किंतु वह तो युद्ध में मारा गया था। ये लोग पैदल ही चलते थे। चलते-चलते द्रौपदी गिर गयी।
 चारों भाइयों के गिरने की बात और भीम का पूछना कि ये सब क्यों गिरे? द्रौपदी को चाहिए था कि सब भाइयों को बराबर देखना, किंतु वह अर्जुन का पक्ष करती थी। सहदेव को पंडिताई का घमण्ड था। नकुल को अपनी सुंदरता का घमण्ड था। अर्जुन को अपने बल-पौरुष का घमण्ड था। जितना मनसूबा बाँधता था, उतना कर न सका। जितना काम कर न सको, उतना बोलो नहीं, इसी पाप से गिरा। भीम ने अपने लिए पूछा तो कहा कि तुम अपने बल के आगे किसी को कुछ नहीं समझते थे। युधिष्ठिर सदेह स्वर्ग गए, किंतु देवदूत उन्हें अंधकार के मार्ग से-खराब रास्ते होकर ले चले, जहाँ बहुत दुर्गन्ध थी। लौटने लगे, तब देव-माया से अर्जुन, नकुल, भीम, द्रौपदी आदि के मुँह का शब्द सुना। दो मुहूर्त्त के बाद फिर समाप्त हो गया।
 इससे शिक्षा मिलती है कि पाप फल भोगना पड़ेगा। स्वर्ग में जाकर फल भोगो। फल समाप्त हो जाय, तो फिर उसी के अनुकूल अमीर-गरीब के घर जन्म लो, दुःख-सुख सहो। मनुष्य पहले मन से कर्म करता है, फिर मन और देह दोनों से करता है। पहले सूक्ष्म मन से करता है। फिर सूक्ष्म मन और स्थूल देह से करता है। इसलिए स्थूल जगत में आकर स्थूल देह और सूक्ष्म मन के साथ दुःख सुख भोगता है। बिना अंकुर से वृक्ष नहीं होता। संसार में बहुत तरह के बर्तन बनते हैं। इसका मसाला मिट्टी है। इस शरीर के बनने के मसाले का नाम प्रकृति है। यह गुणों का सम्मिश्रण रूप है। ये त्रयगुण हैं-रजोगुण, तमोगुण और सतोगुण। रजोगुण- उत्पादक, सतोगुण-पालक और तमोगुण-विनाशक है। ये तीनों बराबर-बराबर भाग से बने हैं। वह प्रकृति कैसी है? इसके लिए बुद्धि निर्णय करती है, किंतु पहचान नहीं सकती, वर्णन नहीं कर सकती; क्योंकि वह इन्द्रिय-ज्ञान से परे है।
 पहला वह मसाला जिससे सब कुछ बने, पहले स्थूल-ही-स्थूल कैसे बनेगा? इसलिए पहले ऐसा बनेगा, जो आकार-प्रकारवाला नहीं है। फिर वैसा बनेगा, जिसमें आकार-प्रकार रहेगा, किंतु सूक्ष्म। फिर ऐसा रूप बनेगा, जिसे सब देखते हैं। इसलिए इस सूक्ष्म लोक-स्वर्ग को इस स्थूल दृष्टि से नहीं देख सकते। लोग समझते हैं कि इसी संसार में सुख से रहना स्वर्ग में रहना है और दुःख में रहना नरक में रहना है। किसी को लूटकर धन लाते हो, धन लाते समय मन कैसा रहता है, दूसरे के यहाँ लूटने जाते हो, तब मन कैसा रहता है? भोगते समय भी हृदय में चैन नहीं रहता। डर सदा लगा रहता है। किंतु जो गरीब है, एक शाम भूखा ही रहता हो, किंतु यदि वह लूट-खसोट नहीं करता है तो वह घर में चैन से रहता है। उसे डर नहीं रहता कि कोई उसे चोर-डाकू कहकर पकड़ेगा। दान, पुण्य, तीर्थ करने से पाप कटा कि नहीं। इसकी जाँच है कि जब तुम्हारे मन में पाप-वृत्ति उदय न हो, तब समझो कि पाप खतम हो गया। जबतक पाप-वृत्ति उठती रहे, तबतक समझो कि पापां का नाश नहीं हुआ। भीम, युधिष्ठिर आदि पाँचों भाई जहाँ-जहाँ से आए थे, वहीं-वहीं गए। यह निश्चय है कि कर्म-फल नहीं छूटता, सबको भोगना पड़ता है।
 काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
                निज कृत करम भोग सुनु भ्राता ।।
 कर्म-फल से कोई बच नहीं सकता। जब श्री राम और सीताजी भी कर्म-फल का भोग करते हैं, तो और लोगों के लिए कहना ही क्या? किंतु ध्यानविन्दूपनिषद् में आया है-
 यदि शैल समं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम्।
 भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन।।
 पाप करने के लिए वृत्ति भीतर में नहीं आवे, तो समझो कि पाप छूटा। ध्यानयोग करनेवाला, भगवद्भजन करनेवाला पाप के ख्यालां को छोड़-छोड़कर ध्यान में मन लगाता है। संसार में कर्म करता है, तो पुण्य-कर्म करता है। उसमें भी आसक्ति नहीं रखता। पाप करने की वृत्ति नहीं रहती। यह आजमाइस करने की बात है। ध्यान करनेवाले का मन पाप की ओर नहीं जाता।
 कर्म तीन प्रकार के होते हैं-क्रियमाण, सि०चत और प्रारब्ध। जो कर्म हम वर्तमान में करते हैं, वे क्रियमाण कहलाते हैं। क्रियमाण कर्म ही एकत्र होने पर संचित कहलाते हैं। उसी संचित में से जिसका भोग करने लगते हैं, वह प्रारब्ध कहलाता है।
 ध्यानशील का क्रियमाण कर्म पवित्र होता है, क्रियमाण कर्म को फलाश छोड़कर करता है।
करना सही न लेना कुछ भी, बाना झाखर झूरों का।
     -काष्ठ जिह्वा स्वामी
 मस्त आदमी का यह काम है कि पाप नहीं करे। भला कर्म करे तो उसका फल नहीं चाहे। प्रारब्ध कर्म तबतक भोगेगा, जबतक शरीर रहेगा।
 ध्यान में सिमटाव होता है। सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। उसकी इतनी ऊर्ध्वगति होती है कि कर्म मण्डल को पार कर जाता है, जिसके लिए गोरखनाथजी ने लिखा-‘जाता जोगी किनहुँ न पावा।’ जबतक शरीर रहता है, प्रारब्ध भोगना पड़ता है, किंतु उसी तरह भोगता है, जैसे नशे में आदमी मस्त रहता है। ध्यानयोगी परमात्मा के पास जाता है, परमात्मा को पहचानता है। जैसे सूर्य के ताप से जाड़ा भाग जाता है, उसी तरह परमात्मा की पहचान में पाप-ताप सभी भाग जाते हैं। इसलिए सभी कोई ध्यान करो।
 निधड़क बैठा नाम बिनु, चेति न करै पुकार ।
 यह तन जल का बुदबुदा, बिनसत नाहीं बार ।।
 आज कहै मैं काल्ह भजूँगा, काल्ह कहै फिर काल ।
 आज काल्ह के करत ही, औसर जासी चाल ।।
 ऐसा मत करो। डर के मारे खेती करते हैं। खेती नहीं करेंगे तो अनाज नहीं होगा। भूखों रहना पड़ेगा; वस्त्र नहीं मिलेगा-इस डर से खेती का काम करते हैं। समय पर खेत जोतते हैं, कोड़ते हैं, बोते हैं, फसल काटते हैं। उसी तरह डरो कि यह शरीर कब छूट जाएगा, ठिकाना नहीं। इसलिए डरो और ईश्वर का भजन करो। मांस-मछली नहीं खाओ, नशा नहीं खाओ। श्रीरामकृष्ण परमहंस ने कहा-‘धनियों के घर की नौकरानी की तरह संसार में रहना सीखो। नौकरानी मुँह से तो हमेशा यही कहा करती है कि लड़के-बच्चे, घर-वार सब मेरे ही हैं, पर उसका मन जानता है कि मेरा यहाँ कुछ नहीं है, सभी मेरे मालिक के हैं। इसी तरह बाहर में सब काम अपना जानकर करते रहो, किंतु मन से हमेशा जान रखो-तुम्हारा यहाँ कुछ भी नहीं है, सभी मालिक के हैं। उसका हुक्म होते ही सब छोड़कर चला जाना पड़ेगा। इसके सिवा काम में त्रुटि होने पर मालिक की धमकी का भी डर रहता है।’
 संसार में अनासक्त होकर रहो और ईश्वर का भजन करो। यह सुनकर मन बहुत प्रसन्न हुआ कि यहाँ के लोग बीड़ी-सिगरेट आदि नहीं पीते। जो बनिया बीड़ी बेचे, उसे पाँच रुपये जुर्माना होंगे और जो उसे खरीदे, उसे दो रुपये जुर्माना। यह सुनकर कि मांस-मछली नहीं खानेवाले की संख्या विशेष है, बहुत खुशी हुई। जो कुछ अन्य आदमी मांस-मछली खाते हैं, उन्हें भी छोड़ देना चाहिए।
 मत्स्य-मांस, नशादि खाना-पीना छोड़ दो। सात्त्विक भोजन करो, भजन करो, पाप-कर्मों से बचो। शान्ति-सुख से रहने का यही यत्न है।
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यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत ग्राम-तौफिर दियारा में दिनांक 25.4.1954 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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81. बिना शब्द के सृष्टि नहीं हो सकती

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 संसार परिवर्तनशील और नाशवान है। जहाँ लोग बसते थे, वहाँ आज गंगाजल का प्रवाह होता है और जहाँ गंगाजल का प्रवाह था, वहाँ लोग बसते हैं। यहाँ पहले क्षत्रिय का राज्य था। हजार वर्ष तक वह रहा। भगवान श्रीराम जिस वंश में हुए, वह वंश भी रहने नहीं पाया। मुसलमान लोग आए, उन्होंने राज्य किया। फिर उनलोगों का राज्य चला गया। अंग्रेज आए, उन लोगों का भी राज्य चला गया। अपने शरीर को सोचो। बच्चा, जवान और बूढ़ा होकर फिर लापता हो जाता है। अपने शरीर में भी अनेक टुकड़ों के मिलने से एक होता है। यह संसार भी कण-कण से बना हुआ है। इसलिए खण्ड- णीय है। संसार में कोई पदार्थ नहीं जो अखण्ड हो।
 हमलोग शब्द सुनते हैं। इसका भी खण्ड होता है। प्रत्येक अक्षर पर खण्ड होता है। शब्दों में भी जिसको एकाक्षर ब्रह्म कहते हैं, उसका भी पसार करने से-अ, उ, म् हो जाते हैं। बाजे-गाजे के जितने शब्द हैं, सबके खण्ड होते हैं। संसार का कोई पदार्थ अखण्ड नहीं। संतलोग कहते हैं-ईश्वर का नाम अखंड है, किंतु जिस शब्द का उच्चारण हम मुँह से करते हैं, जो परमात्मवाची है, वह भी अखण्ड नाम नहीं है। संत कबीर साहब ने कहा- ‘अखण्ड साहिब का नाम और सब खण्ड है।’ तथा-
 आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह ।
 परसत ही कंचन भया, छूटा बंधन मोह ।।
 यह अखण्ड नाम है-आदिशब्द, जिससे सृष्टि हुई है। बिना शब्द के सृष्टि नहीं हो सकती। शब्द हुआ, कम्पन हुआ। आदि सृष्टि में आदि कम्प हुआ। वह शब्द ईश्वर से लगा हुआ है। उस शब्द को जो पकड़ेगा, वह खींचकर ईश्वर तक चला जाएगा। वह शब्द अक्षरां में लिखा नहीं जा सकता, मुँह से बोला नहीं जा सकता।
अघोषम् अव्यंजनम् अस्वरं च अतालुकण्ठोष्ठमनासिकं च।
अरेफ जातं उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित्।।
 उसको चेतन आत्मा जानती है। उस शब्द को जो पकड़ता है, तो वह उसी तरह हो जाता है, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सोना हो जाता है, इस शब्द को पकड़ने से बंधनमुक्त हो जाता है। यह अखण्डनीय है। श्रीमद्भागवत पढ़ो, उसमें लिखा है-शब्द तीन प्रकार के होते हैं-प्राणमय, मनोमय और इन्द्रियमय।
 शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रिय मनोमयम् ।
 अनन्त पारं गम्भीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत् ।।
 प्राणमय शब्द चेतनधारा को कहते हैं। ईश्वर का नाम प्राणमय शब्द है। उसको जपने की जरूरत नहीं, ध्यान में जाना जाता है, उसको पकड़ो। उसको क्या पकड़ोगे, वही तुमको पकड़ लेगा। वही अखण्ड साहिब का नाम है। संतों के गं्रथों को पढ़ो। बराबर सत्संग करते रहो, तो इसको अनपढ़ लोग भी जान सकते हो।
 सन् 1922 ई0 में छपरा में मैं एक महीने ठहरा हुआ था, वहाँ एक सत्संगी था। वह पढ़ा- लिखा नहीं था, किंतु सत्संग सुना था। शब्द के बारे में चर्चा होने पर उसने कहा-एक शब्द और होता है, जिसको श्रुतात्मक शब्द कहते हैं। उस सत्संगी का नाम था-तहबल दास। जाति का वह मेहतर था, लेकिन सत्संग के प्रभाव से वह इस बात को जानता था। आपलोग भी सत्संग कीजिए। आपलोग भी बहुत बात समझिएगा।
 नाम-भजन की बड़ी महिमा है। यह नाम-भजन ध्वन्यात्मक शब्द का होता है। ध्यान में डूबनेवाला ही उस ध्वन्यात्मक नाम को पकड़ सकता है। इसके लिए संत कबीर साहब ने बताया कि-
 चंचल मन थिर राखु जबै भल रंग है।
 तेरे निकट उलटि भरि पीव सो अमृत गंग है।।
 अपने को उस अमृत को पाने के लिए उलटाओ अर्थात् बहिर्मुख से अंतर्मुख करो। बहती हुई पवित्र धारा को गंगा कहते हैं। आपके अंदर बहती हुई चेतन-धारा पवित्र गंगा है। अपने अंदर जो उलटेगा, वही इस गंगा को पावेगा और उस शब्द को भी पावेगा। यह जानकर भजन कीजिए। अपने अंदर में खोजिए। आपके अंदर ऐसा भण्डार है, कितना भी खर्च कीजिए, कमने को नहीं है।
 इस शरीर रूपी गुफा के अंदर परमात्मा रहते हैं। इस शरीर में बुद्धि है। आजकल के वैज्ञानिकों ने भी माना है कि बुद्धि से क्या-क्या चीजें निकलती रहती हैं। कितनी चीजें, कितनी बातें और निकलेंगी, ठिकाना नहीं। पता लगाइए कि विज्ञान का छोर किधर है? अपने अंदर है। भगवान श्रीराम का राज्य किधर है, आपके अंदर है। उस रामप्रताप-रूपी सूर्य के दर्शन से अज्ञानता जाती रहती है। काम, क्रोधादिक विकार दमित होते हैं। सुख, संतोष, विराग, विवेक आदि बढ़ जाते हैं।
 संत लोग कहते हैं-परमात्मा पर विश्वास करो। उस परमात्मा को पाने का यत्न अपने अंदर करो। गुरु के बताए अनुकूल यत्न करने के लिए सत्संग प्रेरण करता है। इसलिए सत्संग करो। बिना सत्संग के लोग मार्ग से गिर जाते हैं। आपलोग नित्य प्रति प्रातः-सायंकालीन सत्संग कीजिए। नित्य सद्ग्रंथां का पाठ कीजिए। जो समझ में नहीं आवे, वह बात अपने से विशेष जानकार से समझ लीजिए। कभी-कभी मेरे पास आकर भी समझिए। एक आदमी सब आदमी के पास नहीं जा सकता, लेकिन सब आदमी एक आदमी के पास जा सकते हैं।
 इन बातों को समझाने के लिए मासिक पत्र ‘शान्ति संदेश’ महीने-महीने निकलता है, उसको पढ़िये। इससे मेरा विचार आपलोगों को मालूम होता रहेगा। रविवार को दिन में सत्संग किया कीजिए। जो सत्संग नहीं करते हैं, उनका ख्याल पाप में गिर जाता है। सत्संग करते रहने से, पाप-कर्म करने से मन रुकता है। कटिहार शहर के सत्संग मंदिर में दिन को, सुबह में और शाम में भी सत्संग होता है। आपलोग भी नित्य सत्संग किया कीजिए। सत्संग नहीं करने से वह समय फजूल- फजूल बातों में लग जाता है। इसलिए नित्य प्रातः और सायंकाल सत्संग कीजिए। रविवार को दिन के अपर्रांकाल में भी सत्संग कीजिए।
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यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत ग्राम-तौफिर दियारा में दिनांक 25.4.1954 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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82. पाँच किस्म की मुक्ति

प्यारे लोगो!
 हमलोग अभी जिस हालत में हैं, यह बंध दशा है। हमलोग शरीर और संसार में बंधे हुए हैं। जितने संत-महात्मा हो गए हैं, सभी ने इस बंधन से छूटने के लिए कहा है। इस बंध दशा से छूट जाने को मुक्ति कहते हैं। अपने यहाँ पुराणों और अध्यात्म ग्रंथों में मुक्ति के भिन्न-भिन्न नाम कहे गए हैं-सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य और ब्रह्मनिर्वाण। ये पाँच किस्म की मुक्ति हैं। मुक्तिको- पनिषद् में भगवान श्रीराम ने श्रीहनुमानजी को उपदेश देते हुए बताया है-
 चतुर्विधा तु या मुक्तिर्मदुपासनया भवेत्।।
 ( सालोक्य=उपास्यदेव के लोक की प्राप्ति, सामीप्य=उपास्यदेव की समीपता प्राप्त करनी, सारूप्य=उपास्यदेव के शरीर सदृश रूप प्राप्त करना, सायुज्य=उपास्यदेव के साथ युक्त होना अर्थात् उपास्यदेव के शरीर से भिन्न अपना दूसरा शरीर न रखना। ) इन चार प्रकार की मुक्तियों का वर्णन हुआ, ये मेरी उपासना से होती हैं।
 इन चारों प्रकार की मुक्तियों में देह का रहना कहा गया है। सायुज्य मुक्ति में ऐसा कि अपना स्थूल शरीर नहीं रहा। इष्ट की देह में रहा, किंतु देहसहित रहा। ब्रह्मनिर्वाण में इष्टदेव का रूप-रंग नहीं रहता और भक्त का भी रूप-रंग नहीं रहता। वहाँ कोई लोक नहीं, स्थान और समय नहीं; देश और काल से घिरा हुआ नहीं। उस दशा को जो प्राप्त करता है, वह हुआ ब्रह्मनिर्वाण।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरिपद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।। - गोस्वामी तुलसीदासजी
 यह है ब्रह्मनिर्वाण-विदेह मुक्ति। मुक्तिको- पनिषद् में श्रीराम ने हनुमानजी को यही उपदेश दिया था। इसमें कहा गया कि जबतक चित्त का स्वभाव होता रहता है, तबतक बंध दशा है। चित्त का स्वभाव है-मैं कर्ता, भोक्ता, सुखी और दुःखी हूँ। इस तरह की उपज जबतक होती रहती है, तबतक जीव बंधन में रहता है। कर्ता, भोक्ता, सुखी, दुःखी होने के भाव से जब वह मुक्त होता है, गोया ऐसा भाव उठता नहीं, तब जबतक उसका शरीर रहता है, वह जीवन-मुक्त कहलाता है और जब शरीर छूट जाता है, तब विदेह-मुक्ति होती है। जैसे घड़े की दीवार फूट जाने से वह घटाकाश घट से मुक्त हो गया, उसी तरह जब साधक का शरीर नहीं रहा, प्रारब्ध नाश हो गया, तब वह विदेह-मुक्त हो गया। वहाँ भी भगवान श्रीराम के कथानुकूल विदेह-मुक्ति को श्रेष्ठ बतलाया। तुलसीकृत रामायण में भी भगवान श्रीराम का उपदेश है-
 जीवन मुक्त ब्रह्म पर, चरित सुनहिं तजि ध्यान।
 जे हरि कथा न करहिं रति, तिन्हके हिय पाषान।।
 मुक्तिकोपनिषद् में जिन चार प्रकार की मुक्तियों का वर्णन हुआ, उन मुक्तियों से विदेह- मुक्ति नहीं होती है। ये चार प्रकार की मुक्तियाँ शरीर छूटने पर मिलती है; किंतु ब्रह्मनिर्वाण या जीवन-मुक्त ऐसा नहीं। जीवन-काल में जीवन- मुक्त होता है और शरीर छूटने पर विदेहमुक्त होता है। कुम्भकर्ण के मरने पर उनके मुँह से एक तेज निकला। वह तेज श्रीराम के मुँह में प्रवेश किया। रामचरितमानस में लिखा है-
तासु तेज प्रभु बदन समाना। सुर मुनि सबहिं अचम्भव माना।।
 चार प्रकार की मुक्तियों में ऐसा होता है, उसमें स्थूल आवरण से छूट जाता है। भीष्म अष्ट वसुओं में से थे। मरने पर उसकी सायुज्यता वसु में हो गई। युधिष्ठिर की सायुज्यता धर्मराज में और श्रीकृष्ण की सायुज्यता सनातन नारायण में हुई। विदेह-मुक्ति वह है, जिसमें कोई शरीर नहीं रहता। देश-काल के घेरे में जो नहीं रहता, वह ब्रह्मनिर्वाण है। गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
जल तरंग जिउ जलहि समाइआ।
      तिउ जोती संगि जोति मिलाइआ।।
कहु नानक भ्रम कटे किवाड़ा, बहुरि न होइअै जउला जीउ।।
 जल तरंग की तरह जीव ब्रह्म में लीन हो जाता है। जिस मुक्ति के लिए संतलोग कहते हैं, वह ब्रह्मनिर्वाण है। वह ऐसा सायुज्य है, जहाँ कोई शरीर नहीं। किसी शरीर में नहीं समाया, निर्गुण निराकार में या उससे भी परे जाकर समाया। इसी मुक्ति के लिए भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को उपदेश दिया।
 इसके लिए अध्यात्म-विद्या की शिक्षा, साधु- संग, वासना-परित्याग और प्राणस्पंदन-निरोध करने के लिए भगवान श्रीराम ने बतलाया। प्राणायाम के द्वारा प्राण-निरोध होता है। वासना-परित्याग या प्राणायाम करने से प्राणस्पन्दन-निरोध होता है। उपर्युक्त चारों कामों को करो। ध्यान अभ्यास से प्राण-स्पन्दन-निरोध और वासना-परित्याग होता है। साधु-संग से अध्यात्म-विद्या की शिक्षा मिलती है। इन चारों में दो बातां की मुख्यता हुई-साधु- संग और ध्यान। जब अहंकार वृत्ति ब्रह्माकार होकर रहे, तब सम्प्रज्ञात समाधि है। जाग्रत और स्वप्न में अहंकारवृत्ति रहती है। गहरी नींद में मैं हूँ या नहीं हूँ, कुछ भी नहीं रहता, अचेतपन रहता है। अहंकारवृत्ति में पृथक्त्व रहता है। अहंकारवृत्ति ब्रह्माकार होकर रहने से ‘सोऽहमस्मि इति वृत्ति अखण्डा’ होती है। जब यह वृत्ति भी नहीं रहती, तब असम्प्रज्ञात समाधि होती है। अहं ब्रह्मास्मि में द्वैत रहता है। ब्रह्मनिर्वाण में अहं ब्रह्मास्मि कहनेवाला कोई नहीं रहता। वह वही रूप होकर रहता है। रामचरितमानस में ‘एहि तन कर फल विषय न भाई’ कहा गया है। यह चौपाई भी ब्रह्मनिर्वाण की ओर संकेत करती है। इसी ब्रह्मनिर्वाण के लिए भजन है और सदाचार का पालन है। ब्रह्मनिर्वाण का अर्थ है-ब्रह्म प्राप्ति संबंधी मोक्ष। साधक को उस ओर चलने से उसका जीवन पवित्र होता है। पवित्र जीवन से संसार में मर्यादा भी होती है। इसके द्वारा दूसरे को भी लाभ पहुँचता है।
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यह प्रवचन संतमत सत्संग मंदिर मनिहारी, कटिहार में दिनांक 1.5.1954 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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83. मौत को कौन नहीं जानता है?

धर्मानुरागी प्यारे महाशयो!
 यह बात कहने की आवश्यकता नहीं कि बुढ़ापा आता है, मृत्यु होती है। लोग बराबर इसको देखते ही हैं, फिर भी स्मरण के लिए संतलोग कहते हैं। जिस समय मृतक को उठाकर कोई श्मशान ले जाता है, उस समय का ज्ञान और उसके बाद का ज्ञान कैसा होता है? पहलेवाला ज्ञान पीछे भूल-सा जाता है। जब वह कंधे पर मृतक को जलाने के लिए चलता है, तब उसके मन में विराग रहता है कि मेरी भी एक दिन यही हालत होगी।
 बलख बुखारे का बादशाह बहुत विलासी था, परंतु सत्य का अन्वेषण करता रहता था। वह यह नहीं समझता था कि साधु लोग संसार से विमुख क्यों होते हैं, लोग संन्यासी-फकीर क्यों बनते हैं? जो साधु उसके दरबार के सामने जाता, उससे वह पूछता कि तुम फकीर क्यों हुए? जो साधु ठीक- ठीक नहीं समझा सकता था, उसको कैद कर लेता था। उस देश के बहुत फकीर कैद हो गए। भारत के भी बहुत फकीर वहाँ जा-जाकर कैद हुए। यह खबर रामानंद स्वामी के पास पहुँची। उन्होंने अपनी शिष्य-मण्डली से कहा कि कोई वहाँ जाकर राजा को समझा सकता है और फकीरों को छुड़ा सकता है? कबीर साहब ने इसका बीड़ा उठाया और वहाँ जाकर बोले-‘मैंने भी घर छोड़ दिया है, मुझे कुछ खिलाओ।’ बादशाह ने उनसे पूछा कि तुम संन्यासी फकीर क्यों हुए? उन्होंने कहा कि यदि मैं अपने फकीर होने का कारण कहूँ तो तुम भी फकीर हो जाओगे। बादशाह ने कहा-‘कहो।’ संत कबीर साहब ने कहा-‘मैंने मौत को पहचाना है।’ बादशाह के वजीरेआजम ने कहा-‘मौत को कौन नहीं जानता है? सबलोग जानते ही हैं कि एक दिन मरेंगे ही, फिर भय कैसा?’ बादशाह ने आदेश दिया-‘यह फकीर बात बनाता है। इसको भी कैद कर लो।’ कबीर साहब को जेल ले जाया जाने लगा तो उन्होंने बादशाह के कान में कहा-‘यदि आप ठीक ही मौत को जानना चाहते हैं तो आज यह आदेश पारित करवा दीजिए कि आज से सातवें दिन वजीरेआजम को फाँसी की सजा होगी। फाँसी होगी नहीं।’ बादशाह ने आदेश पारित कर दिया। अब वजीरेआजम को काटो तो खून नहीं। अब तो मृत्यु उनके सामने नृत्य करने लगी। उनको मौत ही मौत सूझने लगी। न खाना अच्छा लगता था और न कुछ। सातवें रोज फाँसी का सब साज- सामान इकट्ठा किया गया और वजीर साहब को फाँसी के लिए तैयार कर खड़ा कर दिया गया। कबीर साहब को भी बुला लिया गया। कबीर साहब पूछते हैं-‘वजीर साहब! आप अपनी घोड़ी पर सैर कर आइए।’ वजीर ने कहा-‘मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता।’ तब कबीर साहब ने कहा- ‘अच्छा, अब तो आपकी मृत्यु होगी ही। मृत्यु के पहले अपनी प्यारी बच्ची को थोड़ा प्यार से खिला लें। वजीर ने कहा-‘मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता है।’ कबीर साहब ने पूछा-‘क्या अच्छा लगता है?’ वजीर ने कहा-‘मुझे तो बस मौत-ही- मौत दिखायी देती है और कुछ नहीं।’ कबीर साहब ने कहा-‘मौत को तो आप आज से सात रोज पहले भी, जब मैं दरबार में यहाँ आया था, देख रहे थे, फिर आज क्या हुआ? आप उस दिन तो इतने दुःखी और उदास नहीं थे?’ वजीर ने कहा- ‘उस दिन तो केवल सुनी-सुनाई बात ही कही थी। वास्तव में मौत को आज मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ।’
 जो मौत को इस तरह देखता है कि अब कुछ ही क्षण में मैं मर जाऊँगा, तो उसका मन संसार से विरक्त हो जाता है। मौत को जानने से सभी विलास छूट जाते हैं। मौत को ठीक-ठीक जानने से संसार छोड़ सकते हो। साधु-संत लोग कहते हैं तो कुछ-कुछ ख्याल आता है और जब किसी मृतक को जलाने जाते हैं, तब ख्याल आता है। जन्म होने पर और उससे बढ़ते जाने पर मालूम होता है कि अच्छा होता है, किंतु उसकी आयु क्षीण होती जाती है। रोग सताने पर भी शरीर क्षीण होता है। बुढ़ापा होने पर भी शरीर क्षीण होता है और अंत में ‘रामनाम सत्त’ हो जाता है।
 550 जन्मों में भगवान बुद्ध ने सिद्धि प्राप्त की। साधना के जन्म 550 हुए। 550 जन्म तक साधन-भजन किया और दृढ़ता से कहा कि अब शरीर का कर्ता इस शरीर को बना नहीं सकता अर्थात् मैं इस संसार में फिर नहीं आऊँगा और जो संसार में आने से दुःख होता है, वह नहीं भोगूँगा। संसार में दुःख-ही-दुःख है। जनमने से पहले माता के गर्भ में उलटे लटके हुए रहते हो, जन्मभर कष्ट होता है। मरने पर स्वर्ग-नरकादि जाते हो। कोई भी केवल नरक या कोई स्वर्ग ही नहीं जाता। सबसे कुछ-न-कुछ पाप-पुण्य होता है, जैसे युधिष्ठिर को थोड़े पाप के कारण नरक देखना पड़ा। उपनिषद् कहती है कि मरने के समय जो-जो भावना करोगे, वही-वही होगा। इसलिए ऐसा यत्न करो कि फिर जन्म लेना न पड़े। भगवान बुद्ध ने अपना रास्ता आप निकाला। उनको बहुत कष्ट हुए। छह वर्षों तक इतना तप किया कि एक आसन से उठे ही नहीं, किंतु उनके ही शिष्यों ने उनके समय में उनकी सहायता से उतना कष्ट भोगे बिना ही सिद्धि प्राप्त की। सारिपुत्र और मोदगल्यायन बुद्ध के बड़े साहसी और बड़े भजनीक भक्त थे। उपालि नाइक भगवान बुद्ध के यहाँ गए, उनसे शिक्षा- दीक्षा ली और वे बहुत बड़े महात्मा हुए। आनंद, महाकश्यप आदि बहुत बड़े-बड़े महात्मा हुए। उनको रास्ता खोजना नहीं पड़ा। उनके गुरु रास्ता बतलानेवाले हुए। संतों के ग्रंथों में उस रास्ते का भेद बतलाया गया है, किंतु उसे बिना गुरु के जान नहीं सकते। हमलोगों के समय में हमलोगों को अवश्य ही अच्छे गुरु मिले, जिस कारण भगवान बुद्ध, गुरु नानक, कबीर साहब आदि किन्हीं संत की वाणी को पढ़ते हैं तो वही ज्ञान मालूम होता है।
  सबकी लाठी एक-सी नहीं होती। लाठी सहारा होती है। टेढ़ी-सीधी सभी लाठियाँ सहारे हैं। इसी तरह से जो लोग उपासनाओं के लिए कहते हैं कि उनकी उपासना वह है और उनकी वह है तो ये सब सहारे हैं। सबसे एक ही काम होता है। शैव, शाक्त, वैष्णव आदि अनेक उपासक होते हुए भी काम एक ही होता है। इस तरह यदि समझ जाओ तो स्पष्ट होगा कि अनेक उपासनाएँ लिए जो अनेक सम्प्रदाय हैं, उनमें एक ही काम होता है। जानने के बाद भेद भाव नहीं रहता, परंतु यह क्यों जानना चाहिए? इसलिए कि इस संसार में आने-जाने से छूट जाएँ। जिस केन्द्र पर पहुँचने पर संसार से छूटना होता है, वह केन्द्र परमात्मा है। उसके अनेक नाम हैं- कोई ईश्वर, कोई अल्लाह, कोई गॉड कहते हैं। कोई कहते हैं कि वह केन्द्र आत्मतत्त्व है। आत्मतत्त्व कहो, परमात्मा कहो-एक ही बात है। जैसे आकाश कहने से मठाकाश और महदाकाश-दोनों का ज्ञान होता है, वैसे ही ‘आत्मा’ कहने से जीवात्मा और परमात्मा- दोनों का ज्ञान होता है। हाँ, यह अवश्य है कि हमारे यहाँ कितने ही वाद हैं-अद्वैत, द्वैत, त्रैत आदि; किंतु सबका केन्द्र परमात्मा है। असीम अनंत तत्त्व जो महान है, वह दो नहीं हो सकता। एक ही एक है। दो कहने से दोनों जहाँ मिलेंगे, वहाँ सीमा हो जाएगी। इसलिए अनादि अनंत तत्त्व एक ही होगा। जिस समय जिस वाद के प्रवर्तक और उसके माननेवाले विशेषरूप से होते हैं, उस वाद का प्रचार उस समय विशेष रूप से होता है। कभी अद्वैतवाद का डंका बजता है, तो कभी द्वैत का। श्ांकराचार्य ने अद्वैत का डंका बजाया। एक परमात्मा है। एकान्त होकर अपने अंदर प्रवेश करो। इसमें शिव-शक्ति का दर्शन कर सकते हो। इसका यत्न सत्संग से, सद्गुरु से प्राप्त करो। दर्शन करके कृतकृत्य हो जाओगे। इसी का यत्न सभी संत बताते हैं, इसका यत्न जानो और कोशिश करके अपने अंदर की शिव-शक्ति का दर्शन करो। सब दुःखों से छूट जाओगे। ‘शिव’ का अर्थ ही कल्याण है। तुम करोगे, तुम्हारा कल्याण होगा और जो सब कोई करेंगे, उन सबका कल्याण होगा। इसलिए तो सबको इसका अभ्यास करना चाहिए।
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यह प्रवचन शिक्षक प्रशिक्षण केन्द्र टीकापट्टी, पूर्णियाँ में दिनांक 9.5.1954 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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84. हमारी इन्द्रियाँ बिल्कुल स्थूल हैं

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 संतों के मत में यह अत्यंत आग्रह है कि सब लोगों को ईश्वर से मिलना चाहिए। पहले ईश्वर-स्वरूप का निर्णय जानना चाहिए। फिर ईश्वर से मिलने का यत्न जानना चाहिए और उनसे मिलने का यत्न करना चाहिए तथा जो आचरण अपेक्षित है, वह आचरण करना चाहिए। इसके लिए पहले श्रवण और मनन करना चाहिए। फिर निदिध्यासन करना चाहिए और अंत तक पहुँचकर उसकी प्राप्ति करनी चाहिए।
 परमात्मा के स्वरूप के विषय में ऐसी बात है कि जैसे कोई पूछे कि रूप क्या है? तो उसका उत्तर होगा-जो आँखों से देखा जाय। उसी तरह ईश्वर क्या है? तो उसके लिए यही कहना बिल्कुल ठीक-ठीक है कि जिसको आप अपने से यानी चेतन आत्मा से, न कि इन्द्रियों से, पहचानें; वह ईश्वर है। सबलोगों को यह जानना चाहिए कि यह समझ में आना कोई कठिन नहीं है कि जीवात्मा शरीर में है, किंतु शरीर जीवात्मा नहीं है। लोग जानते हैं कि मृत्यु होती है, शरीर से जीव निकल जाता है। शरीर को जला देते हैं। हमलोगों के यहाँ लोग श्राद्ध-किया करते हैं। यह क्रिया इस बात कों दृढ़ कर देती है कि शरीर छूटने पर जीवात्मा रहता है। शरीर से चेतन आत्मा निकल गई है। शरीर सड़ जाएगा, दुर्गन्ध होगी, इसलिए शरीर को जला देते हैं। जीवात्मा इससे चला गया, इसलिए श्राद्ध-क्रिया करते हैं। यदि शरीर के साथ चेतन आत्मा भी नष्ट हो जाती, तब श्राद्ध किसके लिए किया जाता? शरीर छोड़कर जीवात्मा कहीं चला गया है, उसके लिए श्राद्ध क्रिया करते हैं। शरीर में चेतन आत्मा है। शरीर में रहकर यह दुःख-सुख भोगती है। इन दुःखों से बचने के लिए सभी संतों ने उपदेश दिया है।
 शरीर के भीतर और बाहर की सभी इन्द्रियाँ यंत्र हैं, जिनके द्वारा देखते, सुनते, रस चखते हैं; संकल्प-विकल्प करते हैं, अहं भाव लाते हैं आदि। इन सबको छोड़कर चेतन आत्मा अकेले रहकर क्या करती है-लोग नहीं जानते हैं। किसी भी इन्द्रिय में यह शक्ति नहीं है कि वह ईश्वर को पहचाने। चेतन आत्मा अपने ही ज्ञान से परमात्मा को पहचानेगी। इसको समझने के लिए ऐसा जानना चाहिए कि जो वस्तु जिस तरह की होती है, उसी किस्म का यंत्र हो, तभी उसका ग्रहण किया जाना संभव हो सकता है। पेचकश, सँड़सी-लोहार के पास में है और घड़ीसाज के भी पास में है। जैसे-जैसे महीन यंत्र होते हैं, उसी तरह की उनके पास में सँड़सी और पेचकश भी होता है; किंतु बढ़ई की सँड़सी, पेचकश से घड़ी के कल पूर्जों का ग्रहण होना असम्भव है।
 परमात्मा आदि-अंत-रहित असीम है। इससे अधिक और सूक्ष्म क्या हो सकता है? एक सेर बर्फ के ढेले को देखिए, कितनी दूर व्यापक है। फिर एक सेर पानी को देखिए, वह कितना व्यापक है। जो पदार्थ जैसे-जैसे फैला, उसी तरह सूक्ष्म भी हुआ। जो सबसे विशेष व्यापक है, वह सबसे विशेष सूक्ष्म है। हमारी इन्द्रियाँ बिल्कुल स्थूल हैं। ये हमारी मोटी-मोटी इन्द्रियाँ परमात्मा को ग्रहण करें, सम्भव नहीं है। मन-बुद्धि से भी ग्रहण नहीं हो सकता। परमात्मा को चेतन आत्मा ग्रहण करे, यही सम्भव है। यह बाहर-बाहर का काम नहीं है। चेतन आत्मा इन्द्रियों के संग में है, इसलिए सूक्ष्मातिसूक्ष्म को इन्द्रियों से नहीं पा सकती। मन और चेतन आत्मा इस तरह संग-संग हैं, जैसे दूध में घी रहता है। जिस साधन, अभ्यास से यह काम हो सके, वह काम करो। अंतर्मुख ध्यान करो। यही ईश्वर की असली भक्ति है। अंतर्मुख भजन करने के लिए अंदर-अंदर चलना होगा और तभी मायिक सब आवरणों को पार करना होगा।
 जाग्रत अवस्था से स्वप्न में जाने से पहले तन्द्रा में जाना पड़ता है और उस समय कुछ-कुछ ज्ञान भी रहता है और कुछ-कुछ भूलते भी जाते हैं। ऐसी अवस्था में कोई जगा दे, तो दुःख होता है; क्योंकि उसमें चैन-आराम मिलता है। अंतर के सरकाव में सुख है। यह प्रत्यक्ष नमूना है कि अंदर में सरकाव होता है। इसमें स्वाभाविक बात है कि अंदर के सरकाव में सुख मिलता है। चिंताआें को छोड़ो। अवश्य ही गुरु महाराज ने जो बताया है, वह याद रखो और सब कुछ भूल जाओ। ध्यान अंतर्मुख होकर करो।
 शरीर के जिस तल पर मन रहता है, सिमटाव होने से वहीं से उसकी ऊर्ध्वगति होगी। ऊर्ध्वगति होने से अंधकार से प्रकाश में जाएगा। वहाँ शब्द का सहारा मिलने पर विशेष ऊर्ध्वगति होगी। तब चेतन आत्मा के ऊपर जो इन्द्रियों की पट्टी लगी है, इससे वह मुक्त हो जाएगी। तब वह अपने को और परमात्मा को भी पहचान लेगी।
 ऐसा ध्यान करो कि पूर्ण सिमटाव हो और सिमटाव में ऊर्ध्वगति हो। ऊर्ध्वगति में आवरण भेदन होगा, फिर परमात्मा की प्रत्यक्षानुभूति होगी। स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण-इन चारों जड़ावरणों से पार उतरने पर तब वह स्वयं रहता है। सूक्ष्म रूप-रंग में वह देखा नहीं जा सकता। चारों खोलों के उतर जाने पर परमात्मा की प्राप्ति होती है। जहाँ अपनी पहचान होती है, वहीं पर परमात्मा की भी।
 स्थूल मण्डल का रूप अंधकार है। अंधकार से पार गुजरने पर प्रकाश पाता है। ब्रह्म के प्रकाश की ओर खींच जाता है। इसमें ज्योति का बड़ा आग्रह है। पहले ब्रह्मज्योति का, फिर ब्रह्मनाद का सहारा होता है। संतों के ज्ञान का यही रहस्य है।
 संतों ने मनोनिरोध के लिए जो बतलाया, वह बड़ा ही सरल है। नैति-धौति करने की जरूरत नहीं है। भोजन उतना करो, जितना पच सके। न बेशी खाओ, न कम खाओ। न बेशी सोओ, न बेशी जगो। मध्य में रहकर जगो, बैठो, ध्यान करो। किसी नाम में विशेष महत्त्व है, किसी में कम-ऐसा नहीं। राम, कृष्ण, गॉड, अल्लाह-सब एक ही हैं। जप के लिए ऐसा शब्द अवश्य होना चाहिए, जो गुरु बतलावे। ऐसा जप करो कि मन भागे नहीं। एकाग्र मन से जप हो, तो समझो कि मन बहुत बहका नहीं, तब जप हुआ। फिर उसके एक रूप का ध्यान करो। जो जिस शरीर में रहता है, उसके शरीर का ध्यान करो। पहले किसी एक पर श्रद्धा रखकर उसका ध्यान करो। कोई एक रूप बिना अंग-प्रत्यंग के नहीं रहता। इससे ऐसा ध्यान करो, जो अंग-प्रत्यंग के बिना हो, वही है विन्दु। यह भगवान का सूक्ष्म रूप है। पेन्सिल की नोक जहाँ पड़े, वहीं विन्दु होता है। स्थूल में पूर्ण सिमटाव होने से स्थूल ज्ञान से ऊपर उठ जाता है। भेद की बात किसी जानकार से जानो। वे जो कहें, जैसा ध्यान करने के लिए बतलावें, वैसा करो। गुरु का काम है सिखलाना और शिष्य का काम है, उसे करके बताना।
 गुरु नाम है ज्ञान का, सिष्य सीख ले सोइ ।
 ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न होइ ।।
       - संत कबीर साहब
 जो गुरु स्वयं ध्यान करते हों और दूसरों को बताते हों, वे जिन कर्मों की मनाही करें, उन कर्मोंं को छोड़ो। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार मत करो। मत्स्य-मांस का भोजन नहीं करो। मछली पानी में रहती हुई दुर्गन्धित रहती है। स्नान करने से जो पवित्रता होती है, ध्यान में उससे विशेष पवित्रता होती है। खुजलाहट होने पर नोचने से कीड़े मरते हैं। यह अनिवार्य हिंसा है। खेती करने, औषधि-सेवन करने में जो हिंसा होती है, वह अनिवार्य हिंसा है। आक्रामक के साथ युद्ध करना-यह अनिवार्य हिंसा है।
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यह प्रवचन शिक्षक प्रशिक्षण केन्द्र, टीकापट्टी, पूर्णियाँ में दिनांक 9.5.1954 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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85. अजर अमर शब्द को कैसे जपोगे?

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 संतमत के सत्संग से ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। यही एक विषय इस सत्संग का है। यह इतने बड़े कोष का भण्डार है, जिसमें अध्यात्म- संबंधी, योग संबंधी सारी बातें आ जाती हैं। इतना ही नहीं, इस ज्ञान से संसार में भी लोग अपना जीवन-यापन अच्छी तरह कर सकते हैं। एक किसी कुत्ते या किसी पशु या किसी जलचर या और किसी का क्या दर्जा है? दूसरी ओर मनुष्य का क्या दर्जा है?
 मनुष्य से उच्च कोई जलचर, नभचर या इतर थलचर नहीं हो सकते। मनुष्य को आत्मा- अनात्मा, सत्य-असत्य का विचार अवश्य होता है, यदि वह उसकी तरफ अपने को जरा भी लगावे; परंतु मनुष्य के अतिरिक्त और किसी जीव को इस तरह का ज्ञान, जिस तरह का ज्ञान मनुष्य को बतलाया गया है, संभव नहीं है। मनुष्य विचार करके असत्य की ओर से सत्य की ओर चल सकता है, किंतु और कोई जीव नहीं।
 मनुष्य के अतिरिक्त और सब जीव-जंतुओं में यह ज्ञान कि विषयों की ओर से मुड़ो और इन्द्रियों के भोगों से अपने को ऊपर उठाओ, असम्भव है। यह ज्ञान इतना विशेष है कि देवताआें को भी दुर्लभ है। इसलिए मनुष्य-देह देवताओं को भी दुर्लभ कहा गया है; यथा-
बडे़ भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।
 इसीलिए कहा गया है, शरीर मोक्ष का द्वार है। शरीर यदि एक घर है, तो सम्पूर्ण घर-द्वार नहीं हो सकता। घर में द्वार और खिड़कियाँ होती हैं। बड़े-बड़े छिद्रों को द्वार और छोटे-छोटे छिद्रों को खिड़कियाँ कहते हैं। हमारे शरीर में आँख के दो, कान के दो, नाक के दो, मुँह का एक और मल- मूत्र विसर्जन के दो-ये नौ द्वार हैं और जितने रोम- कूप हैं-ये खिडकियाँ हैं। अनेक बार जनमने-मरने से छूट जाने के लिए इसमें दसवाँ द्वार है। यह शरीर बड़ा पवित्र है। अभी हमलोगों को वही शरीर प्राप्त है। क्या हमलोगों को पशु की तरह रहना चाहिए?
 पशु की तरह विषय-भोग ही को यदि हम जानें, तो पशु से उच्च कैसे हो सकते हैं? ईश्वर की भक्ति में यह अत्यंत आवश्यक है कि इन्द्रियों के भोगों से हम अपने को ऊपर उठाकर उसका भजन करें। जो अपने को भोगों में लगाकर रखता है, वह उस ओर बढ़ नहीं सकता। जिस ओर जाने से भव-बंधन छूटता है, मुक्ति मिलती है, उस निर्विषय की ओर चलो। अर्थात् विष के ग्रहण से यानी खा जाने से मृत्यु होती है, किंतु उसी विष को वैद्य के बताए यत्न से सेवन करते हैं, तो रोग का नाश होता है। इसी तरह से संसार में जबतक जीवन है, संसार में से कुछ भी न लेना असंभव है। जिस प्रकार वैद्य के बताए प्रयोग से विष को दवाई के रूप में लिया जाता है, उसी तरह संतों के बताए अनुकूल विषय को सहायक बनाया जा सकता है। इसलिए साधु लोग मितभोगी होते हैं। बिना कुछ खाए-पिए, साँस लिए रह नहीं सकते। जलपान करना, खाना, साँस लेना भी रोग है, इसके बिना आप जी नहीं सकते। इसलिए इसे दवाई के रूप में लीजिए। किसी के ज्ञान में ऐसा नहीं आ जाय कि विषय से छूटा नहीं जा सकता। संतलोग विषयों से अलग रहने के लिए कहते हैं, इसलिए संतों का उपदेश झूठा है। संतों ने यह बतलाया कि भक्ति करते-करते ऐसे तल पर अपने अंदर में पहुँच सकते हो, जिस तल पर पहुँचने से तुम संसार के भोगों से बिल्कुल छूटे हुए रहोगे। वहाँ हरि-रस प्राप्त करते रहोगे।-
   सोइ हरिपद अनुभवइ परमसुख अतिशय द्वैत वियोगी।
 इस पद तक उठ सकते हो।
 ब्रह्म पियूष मधुर सीतल जो पै मन सो रस पावै।
 तौ कत मृगजल रूप विषय कारन निसिवासर धावै।।
      -विनय-पत्रिका
 गोस्वामीजी का ब्रह्म सम्बन्धी अमृत और गुरु नानकदेवजी का कथन-‘झिम झिम बरसै अम्रित धारा’ दोनों एक ही बात है। यदि मन उस ब्रह्म-पीयूष को प्राप्त कर जाय, तो विषयों की ओर क्यों दौड़े? यदि विषय-रस से अधिक रस मालूम हो, तो विषय आप ही छूट जाय। जो अमृतधारा को प्राप्त कर सकता है और प्राप्त करके उस तल से नीचे आता है अर्थात् तुरीय अवस्था से पिण्ड में आकर बरतता है, तो उसको उसका ख्याल रहता है। जैसे आप परसाल जो खाए थे, उसका स्वाद अभी तक याद है, उसी तरह तुरीय अवस्था के ब्रह्म-रस को जो प्राप्त करेगा, उसको सदा वह रस याद रहेगा और यहाँ के विषय-रस को कुरस मालूम करेगा। संतों के मत में वह यत्न बताया जाता है, जिससे चौथे तल के हरि-रस को साधक प्राप्त कर सकता है।
 पहले जो विषयों से मुड़कर तुरीय पर अवस्थित होता है, उसको हरि-रस मिलता है। तुरीय अवस्था में जानेवाले के लिए विषय-रस कुछ मूल्य नहीं रखता। तुरीय अवस्था के रस का विस्मरण नहीं होने के कारण संसार के विषय का रस तुच्छ-से- तुच्छ हो जाता है। यदि ऐसा नहीं होता, तो आज तक कोई संत-महात्मा नहीं होते। इसलिए नाम भजन करो। आपलोगों ने संत कबीर साहब के वचन में सुना-‘अजर अमर एक नाम है, सुमिरन जो आवै।’ नाम शब्द होता है। शब्द नहीं, तो नाम नहीं। जिस शब्द से जिस किसी पदार्थ या जिस किसी व्यक्ति की पहचान होती है, वह शब्द उस पदार्थ या व्यक्ति का नाम कहलाता है और वह उसका नामी होता है। यह शब्द ऐसा होता है, जिसको आप वर्णों में लिख सकते हैं। इसलिए यह वर्णात्मक शब्द है। यथा-रामनाम, शिवनाम आदि सब वर्णात्मक शब्द हैं।
 शब्द केवल वर्णात्मक ही नहीं, ध्वन्यात्मक भी होते हैं। पाठशाला में भी लड़के सार्थक और निरर्थक शब्द पढ़ते हैं। सार्थक का अर्थ होता है-वह वर्णात्मक है और दूसरा है बिना अर्थ का, वह ध्वन्यात्मक है। निरर्थक का अर्थ बेकाम का नहीं। परंतु वह बहुत महत्त्व रखता है। अर्थ नहीं होता, किंतु महत्त्व वर्णात्मक से विशेष है। किसी विशेष गवैये को मँगाइए, तो आप देखेंगे कि एक भजन के टुकड़े को गाने में ही वह कितना समय लगाता है और आप पर कितना अधिक प्रभाव पड़ता है, इस बात को सर्वसाधारण नहीं जानते; विशेष बुद्धिमान जानते हैं।
 एक वकील वर्णात्मक शब्द को बना-बनाकर बहस करके जन्मभर में जितनी कमाई कर सकते हैं, उतनी कमाई तानसेन ऐसे गवैये के एक ही भजन में हो जाएगी।
 वर्णात्मक से ध्वन्यात्मक का महत्त्व विशेष होता है। वर्णात्मक शब्द से दीपक नहीं जल सकता; किंतु ध्वन्यात्मक राग से दीपक भी जल जाता है। तानसेन ने दीपक जलाया था, प्रसिद्ध है। उसका गला दीपक राग के गाने से जल गया था, तो दो महिलाओें ने मेघ राग गाकर ठीक कर दिया।
 ध्वनि बहुत बड़ी बात है। भीष्म ने प्रतिज्ञा की थी कि वे पाँचो तीरों से पाँचों पाण्डवों को मारेंगे। पाँचो पाण्डव महादुःखी हुए। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-सोचो मत, इसके लिए उपाय करो। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को संग लेकर दुर्योधन के पास गए और भगवान के निर्देशानुसार अर्जुन ने दुर्योधन से उसका मुकुट माँग लिया और भीष्म के पास जाकर दुर्योधन के स्वर में उच्चारण करके उन वाणों को माँगा। अर्जुन का रूप दुर्योधन से मिलता-जुलता था। भीष्म ने दुर्याधन जानकर अर्जुन को पाँचो वाण दे दिए। इस प्रकार पाँचो पाण्डवों के प्राण बच गए।
 आंतरिक ध्वन्यात्मक शब्द सुनने के लिए कान बंद करो। सदा आवाज होती है, वह सुनने में आएगी। बाजे-गाजे की आवाज ध्वन्यात्मक है; किंतु आहत है। वर्णात्मक शब्दों में जैसे परमात्मा का नाम है, वैसे ही ध्वन्यात्मक में भी है। वर्णात्मक शब्द परमात्मा की ओर झुकाता है, ध्वन्यात्मक शब्द निर्मल चेतन की ओर खि्ांचकर परमात्मा से मिला देता है। हमलोग बोलते हैं, तो शब्द होता है; नहीं बोलते हैं, तो शब्द नहीं होता है, ऐसा नहीं। जबतक आकाश है, तबतक शब्द रहता है। स्थूल आकाश जबतक है, तबतक स्थूल शब्द रहेगा। यह शब्द अजर अमर नहीं है। संत कबीर साहब ‘अजर अमर’ शब्द के लिए कहते हैं कि उस शब्द को कैसे जपोगे? तो कहते हैं कि बिना मुँह के जपो। अपनी सुरत को उलटाओ, तब ‘अजर अमर नाम’ को पाओगे।
 अपने अंदर पिúाम की ओर जाने को कहा। अपने अंदर में चारो दिशाओं को संतों ने माना है। पूर्व का अर्थ है पहले। पहले अंधकार है, यह पूर्व है। उसके उलटे पिúाम है। अंधकार का उलटा प्रकाश होता है। संत कबीर साहब पिúाम जाने के लिए कहते हैं। अर्थात् प्रकाश में जाने के लिए कहते हैं; वहाँ पर नाम प्राप्त करने के लिए कहा। इसी को गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा-
 सुमति पाए नाम धिआए, गुरुमुखि होए मेला जीउ।
 संतों ने वर्णात्मक नाम का जप और ध्वन्यात्मक नाम का ध्यान करने के लिए कहा। वर्णात्मक शब्द के जप से स्थिरता आती है-
 नाम जपत स्थिर भया, ज्ञान कथत भया लीन।
 सुरत सबद एकै भया, जल ही ह्वैगा मीन।।
 सुरत-शब्द-योग का जो अभ्यास करता है, वह शरीरस्थ होने की दशा को छोड़कर ऊपर उठता है। जैसे मछली पानी में पानी को भोगती हुई रहती है, उसी तरह जीव शरीर में रहकर शरीर के सुख-दुःख को भोगता है। किंतु जो ध्वन्यात्मक शब्द का ध्यान करता है, वह शरीर से ऊपर उठकर ब्रह्म-रस को प्राप्त कर ऐसा मग्न हो जाता है कि संसार के विषय उसके लिए तुच्छ-से-तुच्छ हो जाते हैं। इसी ध्वन्यात्मक नाम का भजन करने के लिए संतों ने कहा।
 लोग संतों की वाणी की गहराई को नहीं जान पाते, इसीलिए उन्हें छोड़ देते हैं, जिस हेतु उससे जो लाभ होना चाहिए, उससे वि०चत रहते हैं। संतमत ऐसा नहीं कहता कि भक्ति के मोटे-मोटे कर्मों को करो ही नहीं, उसी को बराबर करते रहो; बल्कि ऐसा कहते हैं कि पहले मोटे-मोटे कर्मों को करो, फिर उससे सूक्ष्म कर्मों में भी आ जाओ। श्रीमद्भागवत में प्राणमय, मनोमय और इन्द्रियमय-तीन प्रकार के शब्द बताए गए हैं। प्राणमय शब्द को पकड़ोगे, तो प्राणमय शब्द में पिता को पाओगे। इसी का ध्यान अजर-अमर नाम का ध्यान है। यदि मोटी-मोटी भक्ति से ही काम चल जाता, तो गोस्वामीजी ऐसा क्यों लिखते- ‘रघुपति भगति करत कठिनाई।’ रामायण में ‘रघुपति भगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सुहाई’ ऐसा लिखा है। वहाँ सुखदायी और यहाँ कठिनाई ऐसी बात क्यों? तो गोस्वामीजी कहते हैं-कहने में सुगम है, किंतु करनी अपार है। इसे वही जानता है, जिससे बन आया है। सफरी मछली जल की धारा में भाठे से सिरे की ओर चढ़ जाती है; किन्तु हाथी नहीं चढ़ सकता। जबतक मन फैला हुआ है, तबतक हाथी-रूप है और जब उसका सिमटाव होता है, तब मछली-रूप होकर ऊपर उठेगा।
 जड़-चेतन की फेंट बालू-चीनी का मिलाप है। जो अपने को सूक्ष्म चींटी बनाता है, वही चेतन रूपी चीनी को चुन लेता है। यह उससे होता है, जो सब दृश्यों को समेटकर अपने अंदर में प्रवेश करता है। उस समय आप सोचेंगे भी नहीं और संसार का भी ज्ञान नहीं रहेगा। इसी के लिए गोस्वामीजी ने लिखा-
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी।।
        - विनय-पत्रिका
 जो अपनी चेतन-धारा को समेटकर अन्दर कर लेता है, वह सब दृश्यों को अपने अंदर देखता है। नींद छोड़कर सो जाता है, वह जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में नहीं रहता, तुरीयावस्था में रहता है। वही हरिपद का परम सुख भोगता है। द्वैत-वियोगी यानी अद्वैत होकर।
   सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं।
   तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं।। - विनय पत्रिका
 नाम जपने के समय नाम जपो और ध्यान की जगह ध्यान भी करो। इस प्रकार संतां की वाणी में नाम की बड़ी महिमा है। संतों से सद्युक्ति प्राप्त करो, रहनी अच्छी रखो।
कहै कबीर निज रहनी सम्हारी । सदा आनंद रहै नर नारी।।
 सदाचार का पालन करो, तो संसार में भी प्रतिष्ठा होगी और परमार्थ के लिए भी आप अग्रसर होकर परमात्मा को प्राप्त करेंगे। इसके लिए नित्य सत्संग करो। मैं बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिए कि नजदीक-नजदीक ही पुस्तकालय है। पुस्तकालय से लोगों को ज्ञान होता है, ज्ञान का प्रचार होता है। उत्तम-उत्तम ग्रंथों को रखो, ऐसा ग्रंथ नहीं रखो, जिसको पढ़कर लोग विषयी बनें; ऐसी पुस्तकों का संग्रह नहीं करो। अच्छी-अच्छी पुस्तकों का संग्रह करो और संघ बनाकर पढ़ो। बड़ी प्रसन्नता की बात है कि इन छोटे-छोटे देहातों में भी पुस्तकालय है। पुस्तकालय से सत्संग को लाभ होगा और सत्संग से पुस्तकालय को लाभ होगा। पुस्तकालय का अर्थ ‘पुस्तक का घर’ होता है। पुस्तक के लिए अलग- अलग घर बनाइए। सत्संगालय को धार्मिक दृष्टि से देखिए। इस घर से हमें शिक्षा मिलती है। इस घर के लिए लोगों को तन, मन, धन लगाना चाहिए। सत्संगालय का अंग पुस्तकालय है। इसलिए पुस्तकालय के लिए भी तन, मन, धन दीजिए।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत ग्राम-नवटोलिया में दिनांक 11.5.1954 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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86. मन-जीवात्मा में इतना मिलाप, जैसे दूध में घी

प्यारे लोगो!
 आपलोगों को यह अच्छी तरह जानने में आता होगा कि शरीर से जो कुछ भी काम करते हैं, उसको काम करने के लिए लगानेवाला मन है। मन यदि किसी काम को करने के लिए प्रेरणा नहीं करे तो हाथ, पैर, शरीर आदि कोई काम नहीं कर सकता। मन भीतर में रहता है और सब काम करता रहता है। एक बात और है कि मन ही सब कुछ नहीं है, मन के साथ आप भी हैं अर्थात् जीवात्मा रहता है। आप जीवात्मा हैं, भीतर में रहते हैं। मन के संग जीवात्मा नहीं रहे तो मन कुछ नहीं कर सकता, जैसे इन्द्रियों के साथ मन नहीं रहे तो इन्द्रियाँ कुछ कर नहीं सकतीं। जैसे बाहर में इन्द्रियाँ हैं, वैसे ही भीतर में इन्द्रिय, मन है। कोई कहता है-मेरा मन है। तो वह वैसा ही हुआ जैसे आप कहते हैं-मेरा घर, मेरा शरीर है। घर उसका है, जो उसमें रहता है; वह घर नहीं है। उसी तरह जो कहता है-मेरा पैर, तो वह पैर नहीं है, पैर उसका है। उसी तरह ‘मेरा मन’ कहनेवाला भी मन नहीं है, वह मन के संग में वहाँ रहता है। मन का काम बाहर-भीतर होता है, किंतु अपना काम क्या है-कुछ मालूम नहीं होता।
 मन और जीवात्मा में इतना मिलाप है, जैसे दूध में घी। दूध और घी दोनों एक साथ रहते हैं और दोनों को अलग-अलग भी किया जाता है। जो काम दूध से होता है, वह काम घी से नहीं और जो काम घी से हो सकता है, वह दूध से नहीं होता। उसी तरह मन से जो काम हो सकता है, वह जीवात्मा से नहीं और जो जीवात्मा से हो सकता है, वह मन से नहीं। जीवात्मा सूक्ष्म है।
 संसार में दो तरह के पदार्थ हैं-एक सत् और दूसरा असत्। जो विनाश नहीं हो, बदले नहीं, वह सत् है। जो विनाश हो, बदलता रहे, वह असत् है। शरीर कुछ दिनों तक रहता है; किंतु यह बच्चे से जवान, फिर बूढ़ा हो जाता है। कुछ काल शरीर ठहरता है, फिर नहीं रहता है। मन भी एक तरह नहीं रहता। यह सभी जानते हैं। बच्चे में मन कैसा, जवान मेें कैसा और बूढ़े में कैसा? कभी मन एक तरह का, फिर दूसरी तरह का। जैसे देह में अदल- बदल होता है, वैसे मन में भी अदल-बदल होता है। शरीर जैसे कमजोर और बलवान होता है, उसी तरह मन भी कमजोर और बलवान होता है। जो ज्ञानी है, उनका मन वैसा नहीं बदलता, जैसे साधारण जन का बदलता है। ज्ञानी लोग समझाते हैं कि झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार नहीं करना चाहिए, तो नहीं करते हैं। किंतु साधारण लोग इन बातों को सोच-समझकर भी संसार की ओर झूक जाते हैं। भोग की ओर मन हो जाता है और वे पाप में गिर जाते हैं। इस प्रकार मन एक तरह नहीं रहता।
 दूध से घी निकाला जाता है, तो दूध का दाम कम हो जाता है। जितनी देर में बिना घी का दूध खराब होता है, उतनी जल्दी दूध के साथ घी रहने से नहीं। उसी तरह जब जीवात्मा मन से निकल जाता है, तब मन मर जाता है; किंतु यह ऊँची बात है। इसी प्रकार मन भी असत् है, किंतु जीवात्मा सत् है। शरीर और मन बलवान और कमजोर होते हैं, किंतु जीवात्मा एक तरह रहता है। अपने को जीवात्मा समझो। जबतक कोई अपने को मन समझता है या शरीर को ही अपना कहकर जानता है, तबतक शरीर और संसार का जो मेल होता है, वही ज्ञान होता है अर्थात् वह शरीर और संसार को ही जानता है। जैसे स्वप्न में शरीर का ज्ञान नहीं रहता, तो संसार का भी ज्ञान नहीं रहता, संसार का भी सरोकार नहीं मालूम होता है। उसी तरह जबतक जीवात्मा मन के साथ है, तबतक इसको अपने का ज्ञान नहीं होता है और जो इससे काम होना चाहिए, वह भी नहीं हो पाता है। मन और इन्द्रियों से जानने योग्य संसार है और केवल जीवात्मा से जानने योग्य परमात्मा है। जबतक जीव संसार के पदार्थों को एकत्रित करने में रहता है, तबतक दुःखी-सुखी होता रहता है। शान्ति नहीं मिलती है। संत लोग कहते हैं-परमात्मा को पहचानोगे तो तुम दःुख-सुख से छूट जाओगे। वह वैसा सुख है, जो मन इन्द्रियों के भोगों से ऊपर है। उसके बाद दुःख नहीं होता। उसको पाकर और कुछ पाना नहीं रहता। उसके पाने से संसार- बंधन से छूटकर मुक्ति पाता है, जन्म-मरण से छूट जाता है। इसी का उपदेश संतों ने दिया। उन्होंने कहा, यदि तुम उसे नहीं प्राप्त करते हो, तो तुम काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों में फँसकर दुःख उठाते रहोगे। इसके लिए ‘नेम, धरम, आचार, तप, ज्ञान, जोग, जप, दान’ आदि कितना ही करो; किंतु ये रोग नहीं छूटते। इसका मतलब यह नहीं कि नेम, धरम, आचार, तप, ज्ञान, जोग, जप, दान आदि नहीं करो। यह सब काम तो समय-समय पर करना ही पड़ता है। किंतु यह मत समझो कि इन्हीं से सब विकार दूर होंगे। इसके लिए ईश्वर की भक्ति करो। उसको पहचानो। पहले अपने को पहचानो। अपने को पहचानने के लिए नयन से देखते रहो अर्थात् दृष्टि-साधन करो। इसके पहले मूर्ति-ध्यान करो। इसके भी पहले जप करो। जप करने से मूर्ति-ध्यान करने में बल मिलेगा। मूर्ति- ध्यान करने से दृष्टि-साधन में सहायता मिलेगी। जिसकी दृष्टि-साधन क्रिया ठीक-ठीक होती है, उसको अपनी स्थूल देह का भी ज्ञान नहीं रहता है। वह जानता है कि मैं कुछ हू़ँ और कुछ पा रहा हूँ। इतना ही नहीं है, और भी है। इसके बाद शब्द को पकड़ना है, जो ईश्वर की ध्वनि है। जो इस शब्द को पकड़ता है, उसके बचे और सूक्ष्म, कारण, महाकारण आदि सब शरीर छूट जाएँगे। वह अकेला हो जाएगा और ईश्वर को प्राप्त कर लेगा। इतना मार्ग तय करना है। इसमें बहुत समय लगता है। जो विशेष करते हैं, उनके लिए जल्दी रास्ता तय होता है और जो आहिस्ते-आहिस्ते करते हैं, उनको देर में। इसलिए सब कोई नित्य नियमित रूप से ध्यान अभ्यास कीजिए। धीर-धीरे, होते-होते एक-न-एक दिन उस मंजिल को तय करके अवश्य परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त करेंगे। सत्संग से विचार संभलता है और ध्यान के लिए प्रेरणा मिलती है। सत्संग नहीं करने से जो नहीं करने योग्य कर्म है, वह भी करने लगता है। इसलिए प्रतिदिन सत्संग अवश्य करना चाहिए।
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यह प्रवचन अररिया जिलान्तर्गत संतमत सत्संग मंदिर, सैदाबाद में दिनांक 18.5.1954 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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87. ईश्वर को मानिए, उसमें विश्वास कीजिए

प्यारे लोगो!
 आपलोगों को बहुत उत्तम शरीर मिला है। इसे पाकर आप साँप, बिच्छू भी बन सकते हैं और देवता भी बन सकते हैं। पाप-कर्म करेंगे, अधर्म कर्म करेंगे तो फिर साँप, बिच्छू बनेंगे और सदाचार का पालन करेंगे; भगवद्भजन करेंगे, पाप नहीं करेंगे, तो देवता-तुल्य हो जाएँगे। झूठ नहीं बोलें, एक शब्द को छिपा लेने से भी झूठ है। बात मत चुराइए। एक बात से किसी को लाख रुपये मिल जाते हैं और किसी को लाख रुपये की घटी हो जाती है। हिंसा नहीं करें। मन से, वचन से और कर्म से-तीनों प्रकार की हिंसा से बचें। किसी भी नशीली चीज का सेवन न करें। व्यभिचार न करें। यह तो हुआ संसार में कैसे रहेंगे। अब ईश्वर भजन कैसे हो, इसके लिए सुनिए- आप कहेंगे-हम कमाते हैं, खाते हैं, ईश्वर-भजन का क्या काम है? दूसरे कहते हैं-ईश्वर नहीं माने तो नहीं सही, किंतु दुनिया में प्रतिष्ठा से रहो। तो वे कहते हैं-दुनिया में धन से प्रतिष्ठा होती है, तो धन जैसे-तैसे जमा कर लो। तो कोई कहता है-अभी जैसे-तैसे धन जमा कर लो; लेकिन मरने पर नरक जाओगे तब? तब वे कहते हैं-नरक-स्वर्ग कहाँ है? खाओ पियो, धन जमा करो। पाप-पुण्य किसको लगता है? जबतक जियो, सुख से रहो, नहीं तो ऋण लेकर भी घी पियो। मरने पर शरीर जलकर भस्म हो जाता है। यमराज कहाँ है? सब कल्पना है।
 किंतु ऐसा मत समझो। ईश्वर और जीवात्मा दोनों हैं। मरोगे तो जीवात्मा अवश्य रहेगा। पाप करोगे तो शरीर छूटने पर नरक देखना पड़ेगा। युधिष्ठिर जरा-सा झूठ बोले थे तो नरक देखना पड़ा था। यहाँ आप देखते हैं कि कोई बच्चा जन्म लेता है तो हृष्ट-पुष्ट और कोई बच्चा दुबला-पतला रोग लिए हुए। कोई धनी के यहाँ जन्म लेता है, तो कोई निर्धन के यहाँ। ऐसा क्यों होता है? इसके लिए पूर्व जन्म का संस्कार मानना पड़ेगा। पूर्व जन्म के कोई दानी पुण्यात्मा होंगे, इसलिए श्रीमान् के यहाँ जन्म लेकर वे बचपन से ही सुखी रहते हैं। पाप-कर्म का भी फल मिलता है। किसी को तो इसी जन्म में उसका फल मिल जाता है।
 सिकलीगढ़ धरहरा में एक अंग्रेज रहता था। वह मनुष्य को मनुष्य नहीं समझता था, पशु समझता था। बड़ा बदमाश था, लोगों को बहुत सताता था। कुछ दिनों के बाद वह पागल हो गया। भीख माँगकर खाया। राजदण्ड हुआ। पुलिस उसको खूब पीटती थी। उसी से चाबी लेकर उसी का धन खोल-खोलकर लेता था।
 ईश्वर को मानिए, उसमें विश्वास कीजिए। स्वर्ग-नरक है, इसको भी मानिए। कर्म-फल के अनुसार नरक-स्वर्ग और दुःख-सुख भोगना पड़ेगा ही। संसार में तो सुख है ही नहीं। ईश्वर-भजन कीजिए, मोक्ष मिलेगा, तभी सुख है। पहले ईश्वर को जानिए कि स्वरूपतः कैसा है? लोग समझते हैं कि ईश्वर बड़ी सुन्दर देहवाला और सिंहासन पर विराजमान होगा। किंतु असली बात तो यह है कि ईश्वर की पहचान आँख से होने योग्य नहीं है। वह कान से सुनने और नाक से सूँघने योग्य भी नहीं है। त्वचा से स्पर्श होने योग्य नहीं है। वह इन्द्रियों से ऊपर है। शरीर और इन्द्रियों को छोड़कर आप स्वयं रहते हैं, तब अपने से जो पकड़ेंगे, वही ईश्वर है। लेकिन जबतक वह चेतन आत्मा मन, बुद्धि और शरीर इन्द्रियों में रहती है, तबतक पहचान नहीं सकती। जो चेतन आत्मा से जाना- पहचाना जाय, उसके लिए कोशिश कीजिए। उसकी युक्ति गुरु से जानिए। अपने गाँव से आप यहाँ आए हैं। जब आप घर जाने लगेंगे, तो जैसे-जैसे जिस रास्ते से यहाँ आए हैं, यहाँ से उधर जाने में वैसे-वैसे इन सब गाँवों को छोड़ते-छोड़ते अपने गाँव पहुँचेंगे। उसी तरह आप शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि में आ गए हैं। इन सबको पार कर वहाँ पहुँचिए, जहाँ से आए हैं।
 किसी चीज को समेटिए, तो उसके विपरीत की ओर उसकी गति हो जाती है। इसी तरह जब यह मन इन्द्रियों की ओर से रोका जाएगा, तो जिधर मन-इन्द्रिय आदि नहीं है, उधर को बढ़ेगा। इसी तरह से जाते-जाते ईश्वर के स्थान पर पहुँचेगा, वहाँ जाकर ईश्वर को पहचानेगा। वह ईश्वर को पहचान कर मुक्ति प्राप्त करेगा। इसके लिए जो जप और ध्यान करने के लिए बतलाया गया है, उसको करते रहिए। जो आदमी पाप में फँसा रहेगा, वह उस ओर नहीं जा सकता है। जिसका मन सत्संग में जाने से कतराता है तो समझिए कि उसका मन पापी है। जिसके मन में लगा रहे कि सत्संग में कब जायँ, कब जायँ तो उससे पाप नहीं होगा। यदि उससे पाप हो भी जाय और वह कह दे कि भाई! मुझसे यह पाप हो गया तो उससे फिर पाप नहीं होगा। जो गलती से झूठ बात आप में आ गयी है, उसको छोड़ दीजिए। अपने को पाप में मत डुबाइए।
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यह प्रवचन अररिया जिलान्तर्गत संतमत सत्संग मंदिर, सैदाबाद में दिनांक 25.5.1954 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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88. मछली की देह अधिक पवित्र है या तुम्हारी देह?

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 जितने लोग हैं, सब डर से काम करते हैं। किसान को होता है कि खेती का काम जिस-जिस समय में जो-जो होता है, उस-उस समय में काम नहीं करने से खेत नहीं उपजेगा। अन्न के लिए वस्त्र के लिए दुःख होगा, किसान को डर है। लोग कहते हैं कि वह स्वतंत्र है, किंतु नहीं, पेट का नौकर है। ठीक समय पर खेती का काम नहीं करने से उसको दुःख होगा, इसी डर से धूप में खेती करता है, पानी में सड़-सड़कर काम करता है।
 नौकरीवाले को अपने से ऊपर के हाकिम का डर रहता है कि ठीक से काम नहीं करने से नौकरी से अलग न कर देवे, ऊँचे से नीचे पद पर न दे देवे। लड़के को पिता का डर रहता है, शिक्षक या मौलवी साहब का डर रहता है कि नहीं पढ़ेंगे, तो ये लोग मारेंंगे। बड़े होने पर जानते हैं कि ठीक से नहीं पढ़ने पर परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं होंगे, लज्जा होगी। किन्तु इसके साथ-साथ यह भी जानना चाहिए कि यह शरीर अवश्य छूटेगा, चाहे कब्र में गड़े या चिता में जले। इसी के लिए संत कबीर साहब कहते हैं-‘यह शरीर जल के बुदबुदे (बुलबुले) के समान है।’ बच्चे मर गए, जवान मर गए, बूढ़े मर गए। बूढे़ देह से मरते हैं, किंतु उनका मन नहीं मरता।
 निधड़क बैठा नाम बिनु, चेति न करै पुकार।
 यह तन जल का बुदबुदा, बिनसत नाहीं बार।।
 आज कहै मैं काल्ह भजूँगा, काल्ह कहै फिर काल।
 आज काल्ह के करत ही, औसर जासी चाल।।
 काल करै सो आज कर, आज करै से अब्ब।
 पल में परलै होयगा, बहुरि करैगा कब्ब।।
 इससे शरीर भी बिगड़ जाता है और धर्म भी बिगड़ जाता है धर्म के बिगड़ने से दुनिया में भी हँसी होती है और दुनिया छोड़ने पर नरक जाना पड़ता है।
 साधु-संत जो भोजन करने के लिए बतावें, वह भोजन करो। जितना भोजन ठीक-ठीक पच जाय, उतना भोजन करो। जीभ-स्वाद के लिए धर्म का नाश मत करो। जीभ का स्वाद क्या है? वह तो आदत है, उसको अच्छा लगता है, किन्तु जो नहीं खाता, उसे पसन्द नहीं होता।
 हमारे यहाँ दो धर्म हैं-एक धर्म में मांस-मछली नहीं खाने की बात है और दूसरे धर्म में मांस-मछली खाने की बात है। मांस-मछली खाने में कोई दोष भी लगा सकता है, किंतु नहीं खाने में कोई दोष नहीं लगा सकता। इसलिए जिसमें दोष नहीं लगावे, वही अच्छा है। जो लोग मांस-मछली नहीं खाते हैं, उनको दूसरे लोग जो मांस-मछली खाते हैं, नहीं कहते कि तुम नहीं खाते हो, इसलिए तुमको दोष लगेगा; बल्कि जो नहीं खाता है, वह उसे जो मांस-मछली खाता है, कहता है कि तुमको दोष लगेगा। उसको अधर्मी कहता है। खानेवाले को एक अच्छा कहता है, दूसरा अच्छा नहीं कहता। इसके लिए जिसको अच्छा नहीं लगता, क्यों खाया जाय? मुसलमानों के धर्म में है कि जबतक शगल (साधना- भ्यास) करते रहो, कोई चिकनी चीज नहीं खाओ। मांस-मछली नहीं खाओ। शगल करना एक दो दिन की बात नहीं है। शगल करते-करते सालों लग जाते हैं। जो साल-साल, कई सालों तक नहीं खाएगा, उससे फिर आप ही वह खाना छूट जाएगा। इस तरह उसमें भी मांस-मछली आदि का खाना मना है।
 मछली की देह अधिक पवित्र है या तुम्हारी देह? चिड़िया की देह मनुष्य देह से उत्तम नहीं है। इसलिए अपने से नीच शरीर के मांस को अपनी ऊँची और पवित्र देह में डालना ठीक नहीं।
 हमा आस्त=सब वही है। हमा अज आस्त-सब उससे है। सब वही है-यह अद्वैतवाद है। सब उससे है-इसमें द्वैतवाद है। हमलोगों के यहाँ अद्वैतवाद है, उसमें है-एक वही है।
 मंसूर ने ‘अनलहक’ कहा था।
 जब दिल मिला दयाल से, तब कछु अंतर नाहिं।
 पाला गलि पानी मिला, यों हरिजन हरि माहिं।।
          - कबीर साहब
 जैसे पाला गलकर पानी हो जाता है, उसी प्रकार ईश्वर से मिल जाने पर एक ही हो जाता है। संत कबीर साहब ने कहा-
 बुन्द समानी समुँद में , यह जानै सब कोय ।
 समुँद समाना बुन्द में, बूझै बिरला कोय ।।
 निरबन्धन बन्धा रहै, बन्धा निरबन्ध होय ।
 करम करै करता नहीं, दास कहावै सोय ।।
 झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पाँचों पापों को नहीं करने का बंधन रखो। एक ईश्वर पर विश्वास, उसकी प्राप्ति अपने अंदर होगी-इसका दृढ़ निश्चय रखना, गुरु-सेवा, सत्संग और ध्यान; इन पाँचों को करने का बंधन रखो।
 कोटि कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करि धाम।
 जब लग संत न सेवई, तब लग सरै न काम।।
 जहँ आपा तहँ आपदा, जहँ संसय तहँ सोग।
 कह कबीर कैसे मिटे, चारो दीरघ रोग।।
 अहं अग्नि हिरदे जरै, गुरु से चाहै मान ।
 तिनको जम न्योता दिया, हो हमरे मेहमान।।
    - संत कबीर साहब
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यह प्रवचन श्रीसंतमत सत्संग मंदिर पलासी, अररिया में दिनांक 28.5.1954 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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89. संसार में पनडुब्बी चिड़िया की तरह रहो

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 जहाँ कहीं कभी नहीं गए हो, राजाज्ञा हो कि वहाँ जाना पड़ेगा; किसी प्रकार की सहायता नहीं मिलेगी, उस स्थान पर जाना होगा, तब तुम्हारे मन में कैसा दुःख होगा! नहीं मालूम कि कहाँ ले जाया जाएगा, वह स्थान कैसा है, दुःख-सुख वहाँ के कैसे हैं? परन्तु जाना अवश्य होगा। बिना गए कल्याण नहीं होगा। जिस क्षण के लिए आज्ञा हो जाएगी, उस क्षण से कुछ आगा-पीछा नहीं होगा; कुछ मुरौवत (लिहाज) नहीं होगा।
 चलना है रहना नहीं, चलना बिस्वावीस।
 सहजो तनिक सुहाग पै, कहा गुथावै सीस।।
 संत लोग कहते हैं कि इस आज्ञा में अदल- बदल नहीं हो सकता। किंतु तुम यदि कोशिश करो तो जिस स्थान में तुम जाओगे, उसको जीवन में देख लोगे। यदि पूरी कोशिश करो, तो उस स्थान में भी जा सकोगे, जहाँ सदा सुख-ही-सुख है, वहाँ से लौटना नहीं होता। सब लोगों के घर में कोई-न-कोई शरीर छोड़ते हैं। ऐसा कोई घर नहीं, जिस घर में किसी ने शरीर न छोड़ा हो। जो जाता है, वह जानता नहीं कि कहाँ जाना होगा; किंतु जाना होता है। सुख-दुःख मिला हुआ भी स्थान है और कहीं दुःख-ही-दुःख का भी स्थान है, ये ही स्वर्ग-बैकुण्ठादि स्थान हैं। वहाँ का भोग समाप्त होने से या किसी कारण के उपस्थित हो जाने से बहुत शीघ्र ही इस मृत्युलोक के किसी स्थान पर जन्म हो जाएगा।
 राजा ययाति बड़े प्रभावशाली और पुण्यात्मा थे। किसी कारण इन्द्र लुके (छिपे) हुए थे। इन्द्रासन खाली था, तो विचार हुआ कि मृत्युलोक में वैसा कोई है, जिसे इस आसन पर बैठाया जाय, जो इन्द्र जैसा ठीक-ठीक प्रबंध कर सके। ययाति को ही चुना गया। ययाति गए और उस आसन पर विराजे। यदि ययाति ठीक तरह से रह सकते, तो जबतक इन्द्र नहीं आते, तबतक वहाँ रहते; किंतु ययाति को घमण्ड हो गया। वहाँ लोगों को वे अपमानित करते थे। सभी ने विचारा कि इनको नीचे गिराना चाहिए, इसलिए उनके सामने उनके पुण्य की चर्चा करो। वे अपने मुख से पुण्य की चर्चा करेंगे और नीचे गिर जाएँगे। ऐसा ही हुआ, घमण्ड में आकर अपने पुण्य का वर्णन करने लग गए और वहाँ से नीचे गिरा दिए गए। ‘सुर पुर ते जनु खसेउ ययाती।’ उनके गिरते समय मुँह से बहुत लार निकली, वही कर्मनाशा नदी है। उनके कुल का कोई तपस्या कर रहा था। उसने समझा कि मेरे कुल के श्रेष्ठ आदमी नीचे गिर रहे हैं। इसलिए उसने कहा कि ठहर जाइए, तो वे वहीं ठहर गए।
 भगवान विष्णु के पार्षद जय-विजय ने सनक, सनंदन आदि को द्वार पर रोक दिया, जिस कारण वे क्रोधित हुए और शाप दिया-मृत्युलोक में जाकर राक्षस होकर जन्म लो। वे बहुत डरे और विनती की, तब उन सनक, सनंदन आदि ऋषियों ने कहा- ‘भगवान से प्रार्थना करना, वे तुम्हारा उद्धार करेंगे।’ भगवान के पास वे बहुत गिड़गिड़ाए। भगवान ने कहा-‘मैं तुम्हारे लिए अवतार लूँगा और अपने हथियार से उद्धार करूँगा। चाहे बड़ी अवधि ही क्यों न हो, किंतु उनके समाप्त होने पर फिर यहाँ जन्म लेना पड़ेगा।’
 गोलोक में राधाजी ने कृष्ण के सखा श्रीदामा को शाप दिया। श्रीदामाजी ने भी राधाजी को शाप दिया। श्रीदामाजी राक्षस हो गए और राधाजी को इस पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ा। श्रीदामाजी राक्षस हुए और भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें मारा। इस प्रकार कितने इतिहास हैं। ऊँचे-से-ऊँचे लोक से भी गिरना होता है। स्वर्गादि जो पितृलोक हैं, वहाँ के भोग समाप्त होने पर फिर यहाँ जन्म लेना पड़ता है। इस प्रकार कहाँ जाना होगा, ठिकाना नहीं। निरापद तो कोई भी लोक नहीं। संतों ने कहा- निरापद स्थान भी है, जहाँ जाकर कोई आपदा नहीं रहती। संतों की आज्ञा के अनुकूल यदि तुम बरतो (आचरण करो) यानी भक्ति करना आरंभ करो और पूरी भक्ति नहीं कर सको, तो शरीर छूटने पर फिर तुम स्वर्ग स्थान को पाओगे और वहाँ से लौट आकर फिर ईश्वर का भजन करोगे और उस निरापद पद को भी प्राप्त कर लोगे। किंतु तुम उसका ख्याल नहीं करते और निडर होकर बैठे हुए हो। कब तुम्हें काल की ठोकर लगेगी और तुम चले जाओगे, ठिकाना नहीं। इसलिए चेतो और ईश्वर-भजन करो। यह शरीर पानी का बुदबुदा है, कब फूट जाएगा, ठिकाना नहीं।
 नहिं बालक नहिं यौवने, नहिं बिरधी कछु बंध।
 वह औसर नहिं जानिये, जब आय पड़े जम फंद।।
 बालकपन में मरोगे कि जवानी में मरोगे कि बूढ़े होकर मरोगे, ठिकाना नहीं। यम के फन्दे में कब पड़ोगे, तुम नहीं जानते। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-
   प्र्रयाण काले मनसा चलेन भक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव।
   भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।
 अर्थात् वह भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में भी योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी तरह स्थापित करके, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य परमपुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है।
  जो कोई इसके दर्शन का हिस्सक (आदत) लगा लेता है और मरने के समय उसी ओर मन लगाता है, तो उसी परम पुरुष को प्राप्त करता है। ‘उस’ शब्द यहाँ पर अणु-से-अणु तमस से परे के लिए कहा गया है। यह बिल्कुल निरापद तो नहीं है; किंतु इसको जो प्राप्त करके शरीर छोड़ेगा, तब जो फिर इस संसार में आएगा, तो इस संस्कार से प्रेरित होकर फिर भजन करेगा और निरापद स्थान को प्राप्त कर लेगा। इसलिए संसार में पनडुब्बी चिड़िया की तरह रहो।
 जैसे जल महि कमलु निरालमु मुरगाई नैसाणै।
 सुरति सबदि भवसागरु तरिअै नानक नामु बखाणै।।
 हमलोगों का दृष्टियोग-साधन अणोरणीयान् को पकड़ने के लिए है। अनहद नाद का ध्यान सुरत-शब्द-योग का अभ्यास करना है। इसके आगे अनाहत नाद है। अनाहत नाद से ही ईश्वर की पहचान होगी, परंतु पहले उस अणोरणीयान् का ध्यान किए बिना अनहद नाद को पकड़ना नहीं हो सकता। इसलिए पहले विन्दु को पकड़ो, फिर अनहद शब्द को सुनो। पापी हृदय में भजन नहीं हो सकता; झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार आदि पाप बुद्धि से भजन नहीं कर सकते।
 तुलसी दया न छोड़िये, जब लगि घट में प्राण।
 हमारा किसी ने अपकार किया है, हम उसका अपकार नहीं करें। जिसने अपकर्म किया-पाप किया, वह दया का पात्र होगा, उसपर दया करो, उसका अपकार मत करो। अभी कुछ दिन जियोगे, किंतु जीव का जीवन अनंत है। इसलिए अनंत जीवन के लिए पाप-कर्म क्यां करो, जो दुःख-ही- दुःख भोगते रहो। इसलिए पाप-कर्म छोड़ो और भजन करो।
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यह प्रवचन श्रीसंतमत सत्संग मंदिर सिकलीगढ़ धरहरा, पूर्णियाँ में दिनांक 6.6.1954 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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90. यह तो घर है प्रेम का,खाला का घर नाहीं
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 जब किसी प्रकार का दुःख नहीं ज्ञात होता है, तब लोग अपना कल्याण मानते हैं; परंतु यह संसार ऐसा है कि ऐसा हो ही नहीं सकता। सांसारिक पदार्थों को भोगते हुए, उसमें रहते हुए क्लेश नहीं हो, क्लेश से छूटे हों, हो नहीं सकता। इसको संतों ने समझा और कहा कि इसमें कल्याण नहीं, कल्याण परमात्मा में खोजो। परमात्म-प्राप्ति का उपाय खोजो। जबतक प्रभु को न पा लो, तबतक जिस तरह हो परमात्म-प्राप्ति का उपाय करो। इसके लिए संतों ने प्रेम करने के लिए कहा। प्रेम ही भक्ति में प्रधान है। प्रेम से ही भक्ति होती है। बिना प्रेम के भक्ति या सेवा नहीं होती। दिखलावे के लिए कोई सेवा करे, तो वह भक्ति में दाखिल नहीं है। आपलोगों ने सुना-
 यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं ।
 सीस उतारै भूइँ धरै, तब पैठे घर माहिं ।।
 सीस उतारै भूइँ धरै, ता पर राखै पाँव ।
 दास कबीरा यों कहै, ऐसा होय सो जाव ।।
 भक्ति प्रेम का घर है। प्रेममय घर नहीं है, तो भक्ति नहीं। ‘खाला’ माता की बहन को कहते हैं। मौसी बहुत प्यार करती है। मौसी के घर में जैसे आप प्यार किए जाते हैं, वह वैसा घर नहीं है। इसमें आपही को प्यार करना होगा। किसी भी संत की वाणी में पढ़िए, तो ईश्वर की भक्ति करने कहते हैं। और प्रेम करने कहते हैं। सिर उतारकर भूमि पर रखने कहा। फिर ऐसा भी कहा कि कटे सिर पर फिर पैर रख दो, तब इस घर में पैठोगे; इतना ऊँचा वह घर है। ‘सिर’ का अर्थ है-बड़प्पन, मर्यादा, अहंकार, बुद्धि। इसको उतारो, गोया इस पर पैर रख दो। अहंकारी मत बनो। अहंकारी से प्रेम नहीं किया जाता। कोई किसी का प्रेमी नहीं हो सकता, जो उसके यहाँ जाकर अहंकारी बने। मित्र बनने के लिए अहंकार को छोड़ना होता है। दो लोहों को जोड़ना होता है, तो आग में तपाकर लोहे से खूब पीटते हैं, तब ऐसा जुड़ जाता है कि संधि नहीं दिखलाई पड़ती। ऐसा हो, तब दोनों में मैत्री होगी। किंतु कच्चा लोहा हो, तो उसको पीटने से पसरता नहीं, ठीक से जुटता नहीं। दो आदमी आपस में मैत्री करने के लिए कड़ाई छोड़ देते हैं। एक छोड़े, दूसरा नहीं छोड़े, तब भी नहीं होगा। यदि किसी को विशेष गरज है कि किसी से प्रेम करूँ, तो इसको बहुत नवना (झुकना) होगा। चाहे वह कितनाहू कड़ा हो, इसके नवते-नवते वह भी मुलायम हो जाएगा। इसी प्रकार ईश्वर से प्रेम करो। ईश्वर को पहले कोई प्रत्यक्ष देखता नहीं, विचार में होता है। प्रत्यक्ष नहीं देखने के कारण मन में होता है कि हम तो प्रेम करते हैं और वह प्रेम करता है कि नहीं। तो वैसे ही बनना होगा, जैसे कोई बड़ा कड़ा हो, उससे प्रेम करना हो तो एक को बहुत नवना होता है, उसी तरह नवना होगा। संतों की वाणी में तो ऐसी बात है कि अव्यक्त परमात्मा व्यक्त भी हो जाता है। इसके लिए ईश्वर के किसी विभूति-रूप का ध्यान करो। जो अपने को सब व्यक्त पदार्थों से हटा लेता है, तो वह अव्यक्त की ओर हो जाता है। यह बहुत बुद्धिगम्य साधन है। इसको बड़े-बड़े ज्ञानी कर सकते हैं। ‘बड़े-बड़े ज्ञानी’ का अर्थ वेदान्त के केवल पढ़े हुए नहीं, बल्कि उसे आचरण में भी लानेवाले हां। गंगा के बहाव को रोक दीजिए, तो उसकी गति उसके विपरीत की ओर हो जाएगी। जिधर बहाव है, उसको उधर से रोको, तो उससे उलट जाएगा। व्यक्त में आसक्ति है, इससे रोकें तो अव्यक्त की ओर गति हो जाएगी। श्रवण, मनन, अध्ययन बहुत हो, आचरण भी वैसा ही हो, तो वे ज्ञान-साधन में रह सकते हैं। यहाँ भी भक्ति और प्रेम है। ज्ञान तो है और जिधर आसक्ति है, उधर प्रेम है। प्रेम में अहंकार नहीं होता। अहंकारी से प्रेम नहीं होता। जो अपने मान का मर्दन करता है, वही प्रेमी होता है।
 बलख बुखारे का बादशाह इब्राहीम संत कबीर साहब के उपदेश से फकीर हो गया था। राजपाट छोड़कर फकीरी वेश में घूमता था। एक बार का प्रसंग है कि वह अपने बाल बनवाने के लिए नाई के यहाँ गया। नाई बादशाह को पहचान न सका। उसका नियम था कि जो जिस क्रम से उसके पास आता था, उसकी हजामत वह उसी क्रम से बनाता था। नाई ने एक पात्र अपने पास रख रखा था। जिस समय बादशाह वहाँ पहुँचा, उसके पूर्व से ही कई लोग वहाँ पहुँच चुके थे। बादशाह ने उन लोगों को देखकर सोचा कि इतने लोगों की हजामत बनाकर तब हजाम मेरी हजामत बनाएगा। क्यों नहीं, और लोगों से अधिक पैसे हजाम को देकर इन लोगों से पहले ही बाल बनवा लूँ। ऐसा सोचकर बादशाह ने हजाम के पात्र में एक अशर्फी रख दी। हजाम ने उस अशर्फी को उठाकर अपनी जेब में रख लिया। किंतु उसका बाल उस समय नहीं बनाकर जब उसकी बारी आयी, तब बनाया। नाई के इस व्यवहार से बादशाह के मन में दुःख नहीं हुआ, बल्कि खुशी हुई और सोचा कि अपने नियम में नाई पक्का है और मैं कच्चा हूँ। अभी भी मेरे मन में अहंकार भरा हुआ है, इसको दूर करना चाहिए। इसी विचार में वह घूम रहा था।
 बादशाह को घर से निकले बहुत दिन हो गए थे। अतः शाहजादा के मन में चिन्ता हुई और उसने अपने पिता की खोज में सिपाही को भेजा। सिपाही को उससे भेंट हुई; किंतु वह उसको पहचान न सका; क्योंकि बादशाह शाही लिवास में नहीं था, बादशाह फकीरी वेश में था। सिपाही ने फकीर से पूछा-‘आप बादशाह इब्राहीम को जानते हैं जो कि राजपाट, कुटुम्ब-परिवार; सबको छोड़कर फकीर हो गए हैं? फकीर ने उत्तर दिया-‘वह कमबख्त इब्राहीम क्या फकीर बनेगा, वह तो मक्कार है। फकीर का वेश बनाकर घूमता है। उसके मन में अभी तक बादशाही बू निकली नहीं है।’ अपने बादशाह की निन्दा सुनकर सिपाही को क्रोध आया और उसने फकीर को खूब पीटा। जब सिपाही चला गया, तब फकीर अपने-आप से कहने लगा-‘अब अच्छा हुआ। बादशाही तख्त छोड़ने के बाद भी अभी तक तुममें बादशाहत की बू थी, वह आज निकल गई।’
 ईश्वर के प्रेमी में अहंकार नहीं होता। तुम ईश्वर से प्रेम करो, तभी कल्याण होगा। विषयों से प्रेम करके कितना कल्याण हुआ है, सो अपने अपने जान लो। ईश्वर-भक्ति में ईश्वर का ज्ञान होना चाहिए। हमारे देश में ईश्वर के अव्यक्त और व्यक्त दो रूपों का ख्याल है। व्यक्तवालों का ख्याल है कि ईश्वर देखने में बहुत सुन्दर, बहुत बलवान, हमारे जैसा ही हाथ-पैरवाला आदि है। दूसरे अव्यक्तवालों के ख्याल में है कि वह इन्द्रिय- गोचर नहीं है। तीसरे कहते हैं कि वह अव्यक्त एवं व्यक्त दोनां हैं, जैसे गोस्वामी तुलसीदासजी। गुरु नानक साहब और कबीर साहब ने बेशक अवतारवाद को नहीं माना, किंतु गुरु को माना।
 गुरु तो शुद्ध स्वरूप है, शिष तो माने देह ।
 कहे कबीर गुरुदेव से, कैसे बढ़े सनेह ।।
 ईश्वर व्यक्त एवं अव्यक्त-यह ख्याल, ईश्वर अव्यक्त-यह ख्याल और केवल व्यक्त-ये तीन ख्याल हैं। जिस तत्त्व को अव्यक्त कहते हैं, वह परमात्मा का स्वरूप है। वह सर्वव्यापी है, सबमें रहता है। सबके अंदर वही है। सगुण-निर्गुण भाववाले, दोनों को मान्य है कि वह सर्वव्यापी है। संत लोग कहते हैं कि जब वह तमाम रहता है तो सब और सबमें रहनेवाला-ये दो पदार्थ हुए। ‘सब’ व्यक्त पदार्थ हुआ और सबमें रहनेवाला अव्यक्त पदार्थ हुआ। अव्यक्त पदार्थ है ईश्वर का स्वरूप। व्यक्तरूप के दर्शन से किसी का पूर्ण कल्याण हुआ, ऐसा आज तक किसी इतिहास में नहीं है। इसके प्रमाण के लिए अठारह पुराण, रामायण, महाभारत, भागवत आदि हैं।
 ‘भागवत’ पुराण के अंदर नहीं है, महापुराण है। इन सब ग्रंथों में क्या वर्णन है? एक क्लेश का समय था, वह दूर हुआ। फिर दूसरा आया, वह दूर हुआ। फिर तीसरा आया। इस प्रकार क्लेश का क्रम आता ही रहता है। रावण को विष्णु, ब्रह्मा और शिव का भी दर्शन हुआ था; किंतु जब क्लेश का समय आ गया, तब रोना-पीटना भी क्या, दुःखी हुआ। इसके अलावा रावण एक रूप से अनेक रूप बन सकता था। अनेक राम, अनेक लक्ष्मण, अनेक हनुमान आदि का शरीर भी बना-बनाकर युद्ध में लड़ता था। ऐसी माया भी वह जानता था। श्रीराम के अतिरिक्त सभी योद्धा चकित हो गए। इस तरह शक्तिशाली होते हुए भी वह दुःखी हुआ। अर्जुन को इन्द्र का दर्शन हुआ था, शिव का दर्शन हुआ था और श्रीकृष्ण उनके मित्र ही थे; किंतु फिर भी उसने दुःखों को भोगा। युधिष्ठिर ने धरातल पर और स्वर्ग में जाकर भी कर्मफल को भोगा।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।। -रामचरितमानस
 इन आँखों से जो कुछ देखिए, वह माया है। इस माया में जो हानि-लाभ, दुःख-सुख का गुण है, वह तो होगा ही। जैसे लवण-समुद्र में रहकर आप कहें कि पानी खारा नहीं लगे, कब संभव है? उसी प्रकार माया में जो गुण है, उससे कैसे छूट सकते हैं? किंतु परमात्मा जो इन्द्रियों से परे है, उसमें ऐसी बात नहीं। उसे इन्द्रियों से नहीं पकड़ सकते हैं, शुद्ध सुरत से पकड़ सकते हैं। वहाँ माया नहीं है, फिर मायिक दुःख-सुख कैसे हो? वहीं कल्याण है। पहले अव्यक्त भाव में नहीं रह सकोगे, तो व्यक्त रूप में ईश्वर का भाव चाहिए, गुरु-रूप में या अवतारी रूप में। कबीर साहब और नानक साहब ने गुरु-रूप को ईश्वर रूप मानने कहा है। आप किसी अवतारी में ही वह भाव रखिए तो ठीक है; किंतु और आगे चलिए, स्थूल से सूक्ष्म की ओर भी चलिए। ईश्वर के सूक्ष्म रूप में आसक्त होइए। श्रीमद्भगवद्गीता बतला देती है कि ईश्वर का अणोरणीयाम् रूप है। उपनिषद् भी अणोरणीयाम् कहती है। इसी को हमलोग विन्दु कहते हैं। यह दर्शन सूक्ष्म-दर्शन है। स्थूल व्यक्त छूट गया, सूक्ष्म व्यक्त उपस्थित हो गया। केवल इतना ही कहकर संतों ने नहीं छोड़ा। विवेकानन्दजी ने कहा-‘वह प्रभु अंतर्दृष्टि से ही देखा जाता है।’ जब केवल आत्मा ही रहे, तब जो आत्मदृष्टि होती है, उस अंतर-आत्मदृष्टि से परमात्म- दर्शन होता है। आत्मा ही दृष्टिरूप है और आत्मा ही सब ज्ञान को जानती है। केवल चेतन आत्मा हो, तब अंगविहीन आत्मा से परमात्म-स्वरूप की पहचान और प्राप्ति होती है।
 अंग बिना मिलि संग, बहुत आनंद बढ़ावै।।
       -संत सुन्दरदासजी
 अंतर में चलो और अंतर के अन्तिम तह तक चलो। किसी मंत्र का जाप करो। स्थूल मूर्ति का ध्यान करो। दृष्टि-साधन करो। रूपातीत का ध्यान यानी शब्द-ध्यान करो। शब्द की समाप्ति में अव्यक्त की प्राप्ति होती है। यह एक सिलसिला है। इसी का वर्णन सभी संतों ने किया। संसार में व्यावहारिक ज्ञान भी होना चाहिए। इसलिए रामायण से पातिव्रत्य धर्म का पाठ सुनाया गया। वेद में पति-पत्नी कैसे रहो, राज्य-प्रबंध कैसे हो, इसका विशेष वर्णन है। योग, ज्ञान, ध्यान, आध्यात्मिक विषय भी है; किंतु कम। किंतु संसार-प्रबंध बहुत है। मनुस्मृति में पति-पत्नी साथ रहे और पत्नी पति के साथ रहे, इसके लिए भी बहुत वर्णन है; क्योंकि इसमें गड़बड़ होने से संसार का काम कैसे चलेगा? पति के प्रति कैसा ख्याल होना चाहिए, गोस्वामीजी ने बहुत अच्छा वर्णन किया है। जैसे एक स्त्री को पतिव्रता होना चाहिए, उसी तरह पुरुष को भी एक पत्नीव्रत होना चाहिए श्रीराम की तरह। सीता- वनवास होने पर या सीता पाताल-प्रवेश करने पर भी श्रीराम ने दूसरी शादी नहीं की। यज्ञ में सोने की सीता बनायी गयी थी। आजकल पिता-पुत्र में वैमनस्य है, क्यों? इसी कारण से कि पुत्र के सयाने रहने पर भी पिता दूसरी शादी करते हैं। शाहजहाँ के समय में एक लड़की ने मन-ही-मन एक क्षत्रिय को वरण कर लिया। वह बूढ़ी हो गई, किंतु उसने दूसरे की ओर नहीं देखा। क्षत्रिय भी बूढ़ा होने चला, किंतु विवाह नहीं किया। अंत में शाहजहाँ ने बूढ़े और बूढ़ी की शादी करा दी। यह एक अच्छा नमूना है कि वह बूढ़ी हो गई, किंतु एक वरण करके दूसरे को पतिरूप में नहीं देखा। संसार में कैसे रहो? पति-पत्नी मिलकर रहो, सुख से रहोगे। आगे के सुख के लिए दोनों मिलकर ईश्वर का भजन करो, सुखी होओगे।
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यह प्रवचन श्रीसंतमत सत्संग मंदिर मनिहारी, कटिहार में दिनांक 17.7.1954 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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91. स्तुति, प्रार्थना और उपासना

प्यारे लोगो!
 बारंबार का जन्म लेना दुःखकर है। इसलिए संतों ने साग्रह कहा कि इस जन्म-मरण से छूट जाने के लिए ईश्वर का भजन करो। जिस प्रकार कोई भले आदमी किसी के दुःख को देखकर उसको सुख पाने की शिक्षा देते एवं उपाय करते हैं, उसी प्रकार संतों ने संसार के लोगों को दुखिया देखकर ईश्वर की भक्ति करने के लिए बताया। ईश्वर की भक्ति में केवल तीन बातों को बताया गया-स्तुति, प्रार्थना और उपासना। स्तुति कहते हैं यशगान को। अपने उपकारक का गुणगान करना स्तुति है। ईश्वर ने माता के गर्भ-काल से ही सबों की रक्षा की है। जन्म लेने से पूर्व ही माता के पास दूध का भण्डार देना, यह ईश्वर की दया है। हमलोग हर घड़ी, हर समय, हर जगह ईश्वर से अपने को उपकृत पाते हैं। ऐसे परम उपकारक परम प्रभु परमात्मा का यशगान नहीं करना कृतघ्नता है।
 प्रार्थना कहते हैं, माँग को। ईश्वर से क्या माँगें? ईश्वर से ईश्वर को माँगो। जब ईश्वर की प्राप्ति होगी, तो कोई माँंग नहीं रहेगी। इसलिए ईश्वर की प्रार्थना करो। ईश्वर के पास जाने के लिए भजन करना, उपासना है। संतों की शिक्षा के अनुकूल गुरु महाराज ने हमलोगों को तीनों प्रकार की शिक्षा दी। त्रयकाल संध्या करने बताया-ब्राह्ममुहूर्त्त में, दिन में स्नान के बाद और सायंकाल। इन तीनों समयों में अबाधित रूप से उपासना करो। वह कर्म पाप है, जो ईश्वर-भक्ति में विघ्न डाले। इसलिए संतों ने कहा-झूठ मत बोलो, चोरी नहीं करो, व्यभिचार मत करो। नशाओें का सेवन नहीं करो और हिंसा मत करो। मत्स्य-मांस का भक्षण मत करो।
 जैसे हाथी-घोड़े को सिखाकर लोग उनपर सवारी करते हैं। उसी प्रकार तुम अपने को सिखाओ, संयत में रखो अपने को। यदि तुम संयत में रखोगे, तो अपने पर ही अपनी सवारी द्वारा परमात्मा तक पहुँचोगे। भजन में जप, ध्यान दो ही बातें हैं। जप में वाचिक, उपांशु और मानस; तीन प्रकार के होते हैं। बोल-बोलकर जप करना वाचिक जप है। इससे श्रेष्ठ जप है उपांशु जप। उपांशु जप में केवल होठ हिलते हैं। उसकी आवाज केवल अपने सुन सकते हैं। मानस जप-जपों का राजा है। यह केवल मन से ही जपा जाता है। वाचिक और उपांशु से हजार गुणा श्रेष्ठ है मानस जप। मानस जप एक प्रकार से ध्यान ही है। तीनों में विशेष मानस जप है। यह सब जपों से श्रेष्ठ है। इसके बाद गुरु-मूर्ति का ध्यान है। जैसा कि संत कबीर साहब ने कहा-
 मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
 मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।
 स्थूल ध्यान के बाद सूक्ष्म ध्यान करो। सूक्ष्म ध्यान के लिए कबीर साहब ने कहा-
 गगन मण्डल के बीच में, तहवाँ झलके नूर ।
 निगुरा महल न पावई, पहुँचेगा गुरु पूर ।।
 नैनों की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय ।
 पलकों की चिक डारि के, पिय को लिया रिझाय ।।
 कबीर कमल प्रकासिया, ऊगा निर्मल सूर ।
 रैन अंधेरी मिटि गई, बाजे अनहद तूर ।।
 तथा बाबा नानक के वचन में भी आया है-
 तारा चड़िया लंमा किउ नदरि निहालिआ राम।
 सेवक पूर करंमा सतिगुरसबदि दिखालिआ राम।
 गुरु सबदि दिखालिआ सचु समालिआ
        अहिनिसि देखि विचारिआ।
 धावतु पंच रहे घरु जाणिआ कामु क्रोध विषु मारिआ।
 अंतरि जोति भई गुरु साखी चीने राम करंमा।
 नानक हउमै मारि पतीणे तारा चड़िया लंमा।।
 और श्रीमद्भगवद्गीता के अनुकूल अणोर- णीयाम् प्रत्यक्ष हो जाता है। इसी अणोरणीयाम् को उपनिषद् में परम विन्दु कहा है-
 बीजाक्षरं परम विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
          -ध्यानविन्दूपनिषद्
 अर्थात् परम विन्दु ही बीजाक्षर है; उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अनाश ब्रह्म) में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है।
 इस विन्दु को पकड़कर नाद को ग्रहण करके परमात्मा तक पहुँचो। नाद यानी शब्द तीन प्रकार के होते हैं-प्राणमय, इन्द्रियमय, मनोमय। प्राणमय शब्द ध्वन्यात्मक है। जो सूक्ष्म ध्यान में प्रकट होता है। मुँह से कहना, कान से सुनना इन्द्रियमय शब्द है। इसके लिए गुरु से जानो कि किस शब्द का जप करेंगे। फिर इसको मन ही मन जपना मनोमय शब्द है।
 नित्य इस विषय को सुनिए। सुनने से इस ओर प्रेरण होता है। इसलिए नित्य सत्संग करो। सत्संग से ही लोग ईश्वर-भजन करते हैं। सत्संग से जितना लाभ होता है, उससे विशेष कोई लाभ नहीं।
 किसी एक खास उपासना या सम्प्रदाय को श्रेष्ठ कहना, दूसरे को न्यून समझना गलत बात है। जो जिस सम्प्रदाय में हैं, उसमें जो उपासना है, वह करें। किसी को नीच, किसी को ऊँच कहना हमारे गुरु महाराज (बाबा देवी साहब, मुरादाबाद) के ज्ञान में पाप है। किसी सम्प्रदाय से लड़ाई-झगड़ा मत करो। सभी मिलकर रहो। ईश्वर का भजन करो। सभी संतों ने सदाचार पालन करने कहा, ध्यान करने कहा और सत्संग करने कहा। इन तीनों को नित्य किया कीजिए।
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यह प्रवचन कटिहार नगर स्थित श्रीसंतमत सत्संग मंदिर में दिनांक 26.8.1954 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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92. संगत ही जरि जाय न चरचा नाम की

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 जैसे प्रत्येक जाप करने की माला में सुमेरु होता है, वैसे ही संसार में सुमेरु पर्वत सबसे ऊँचा है। उसी तरह धर्मों में सुमेरु ईश्वर की मान्यता है। ईश्वर की मान्यता को हटा दो तो धर्म उथल-पुथल हो जाएगा। धर्म मिट जाएगा। किसी भी धर्म में जहाँ ईश्वर की मान्यता नहीं है, वहाँ धर्म-भाव अवश्य डगमग रहेगा। संतों में उसकी मान्यता बहुत बड़ी है। संत कबीर साहब कहते हैं-
 संगत ही जरि जाय, न चरचा नाम की ।
  दूलह बिना बारात, कहो किस काम की ।।
 ईश्वर की मान्यता को केवल कहा ही नहीं है कि मान लो और बुद्धि से कुछ काम मत लो। बुद्धिगम्य बात यह है कि सोचने-विचारनेवाले जान सकते हैं और निर्णय कर सकते हैं कि इस विश्व का आदि तत्त्व अवश्य है। वह आदि तत्त्व ऐसा नहीं कि थोड़ा ही हो, व्यापक न हो। जो व्यापक नहीं होगा, थोड़ा ही होगा अपना तल थोड़ी दूर में समाप्त कर लेता है। तो दूसरे कहेंगे कि उस तल के बाद में क्या है? इस प्रकार कम समझी के साथ संतों ने नहीं कहा है। उन्होंने कहा है जैसे संत बाबा नानक के वचनों में है-
   अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा।।
 अपार शब्द का व्यवहार किया। उपनिषद् वाक्यों में भी है-
 वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
 एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च।।
 वह ऐसा है जैसा वायु प्रत्येक के अन्दर भी है और बाहर भी है। सबके अंदर और सबके बाहर के तत्त्व पर सोचने से अपार तत्त्व हो जाता है। वह आदि तत्त्व अनादि-अनंत है। ऐसा विचार में भी निर्णय होता है। जो स्वरूपतः अनादि-अपरिमित है तो उसकी शक्ति भी अपार अपरिमित हो तो क्या संदेह है? अपरिमित, शक्तियुक्त, आदि और अनादि भी। सबसे पहले का इसलिए आदि और उसका कहीं कभी आदि नहीं-इसलिए अनादि। उसको सर्वेश्वर कुल्ल मालिक मानते हैं। इस ईश्वर का ज्ञान देते हुए संतों ने कहा कि उसका दर्शन आँख से नहीं कर सकते। उसे हाथ से नहीं पकड़ सकते। वह इन्द्रियों के ज्ञान से परे है, इसलिए ‘अगम अगोचर’ शब्द कहा। यह कह कर उन्होंने कहा-तुम अपने शरीर और इन्द्रियों से भिन्न पदार्थ अपने शरीर के अंदर रहते हो। इन्द्रियों को छोड़कर तुम क्या कर सकते हो, क्या पहचान सकते हो, इसको नहीं जानते हो। तुम्हारा काम ईश्वर की पहचान करना है। इन्द्रियों से ईश्वर की पहचान करना चाहो तो यह ज्ञान अपूर्ण है। प्रेममय गाना को गाना, उसके विचार में तल्लीन होना, केवल इतना ही बस नहीं है। आत्मज्ञान को विचार से विचार लो, सुन लो, समझ लो; किंतु कहोगे कि पहचान नहीं हुई। जाना, किंतु पहचाना नहीं। तुलसी साहब का आदेश है-
 हिय नैन सैन सुचैन सुंदरि साजि स्रुति पिउ पै चली।
 पिय के पास चलो। चलने के लिए अंतर-दृष्टि का सहारा लो। सहारा कैसे लिया जाए? केवल ख्याली पोलाव नहीं है, जिससे पेट नहीं भरता। यह कैसे होता है? यह गुरुगम्य है। जैसे कोई महिला अपने रूप को बनाती है और पति से मिलने के लिए जाती है, उसी प्रकार जीवात्मा अपने को अंतर-दृष्टि से सजाकर ईश्वर से मिलने के लिए जाती है और इसकी युक्ति गुरु से प्राप्त होती है। अन्न-अन्न कितनाहू कहो, किंतु बिना भोजन किए पेट नहीं भरता। इसी तरह ज्ञान की बातें कितनी ही कहो, इससे ज्ञान के पद तक पहुँचा नहीं जाता और न संतुष्टि होती है। जो ईश्वर सर्वव्यापी है, उनको पहचानने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं, यदि ऐसा कोई कहे तो वे सज्जन अपने हृदय पर हाथ रखकर कहें ‘सर्वेश्वर- सर्वेश्वर कहते-कहते कभी उनको प्रत्यक्ष हुआ?’ मिट्टी में पानी अवश्य है, किंतु बिना खोदे नहीं मिलता। मिट्टी खोदते-खोदते पानी तक जाओ, तभी पानी पाओगे। उसी तरह तुम अपने अंदर धँसो तो सर्वेश्वर को पाओगे। इसी को ‘सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर औरु अक्षर पार में। निर्गुण सगुण के पार में......।।’ वाले भजन में कहा गया है। किसी सज्जन ने मुझसे कहा-‘सब पार में ही है, इधर नहीं है?’ मैंने कहा-‘इधर भी है, किंतु उसे पहचान नहीं सकते। उधर अर्थात् मायिक आवरणों से पार जाकर ही पहचान करेंगे।’ ईश्वर को पार नहीं किया जाता। सृष्टि के तत्त्वों को जिधर पार करो (उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम) उधर ही मिल जाएँगे। इन तत्त्वों को पार करना ही कठिन मसला है। मेरे सामने सृष्टि के तत्त्व हमेशा रहते हैं। इसीलिए उपनिषद् में है जिस इस (देशकालाविच्छिन्न वस्तु) की लोक उपासना करता है, वह ब्रह्म नहीं है।
 यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनोमतम्।
 तदेव ब्रह्मत्वं विद्धिनेदं यदिदमुपासते।।
      -केनोपनिषद्
 यह जो भूतल है, एक महान टापू है। कई महादेश हैं, सब मिलाकर महान टापू है। इन सबको जिधर पार करो, उधर ही जल है। उसी तरह सृष्टि के तत्त्वों को जिधर पार करो, उधर ही ईश्वर है। ईश्वर का स्वरूप और उसका ज्ञान ऐसा देकर संतों ने कहा है-ईश्वर का भजन करो। भजन वही है, जिससे सृष्टि के सब तत्त्वों को पारकर ईश्वर को पहचाना जा सके। इसी को हमलोग समझते, सोचते और विचारते हैं। मायिक तत्त्वों से ही मनुष्य-पिण्ड बना है। जिसमें सतगुरु बाबा देवी साहब ने चौदह दर्जे बताए हैं। मूलाधार से आज्ञाचक्र तक छह और उसके ऊपर आठ दर्जे मानते हैं। इन चौदहों दर्जे में आप चलें तो धर्म की सचाई मापने में आ जाएगी। उन्हांने कोई खास किताब नहीं लिखी। तुलसी साहब की घटरामायण उन्होंने छपवायी, उसकी भूमिका में यह लिखा है। हमलोगों को चाहिए कि ईश्वर की उपासना अंतर्मुख होकर करें। उपनिषद् में बड़ा अच्छा लिखा है-
 ना विरतो दुश्चरितान्नाशान्तो ना समाहितः।
 ना शान्तो मानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ।।
      -कठोपनिषद्
 जो पाप कर्मों से निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं हैं और जिसका चित्त असमाहित या अशान्त है, वह इसे आत्मज्ञान द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता है। पाप करनेवाला विषयों में लसका हुआ रहता है। जो अपने को पापां से छुड़ावे, वही उसको पा सकता है। पापों से छूटने के लिए संतों ने कहा है-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार मत करो। इनसे छूटने की ताकत आपमें तब होगी, जब आप इनसे बचने के लिए कोशिश करेंगे और आप की चढ़ाई ऊपर होगी। इन दोनों प्रकारों की कोशिश होनी चाहिए। इसलिए ‘नाम का तेल सुरत की बाती, ब्रह्मअगिन उद्गारु रे।’ आँख बंदकर देखो और सोचो कि मैं कहाँ हूँ? आपको उत्तर आवेगा-मैं अंधकार में हूँ। इसमें क्या मिलेगा? अंधकार में क्या मिलेगा? भगवान बुद्ध ने कहा-‘अंधकारेन ओनद्धा प्रदीपं न गवेस्सथ।’ अंधकार में पड़े हुए तुम प्रदीप की खोज क्यों नहीं करते? कोई कहे मैं तो विद्वान हूँ, मैं अंधकार में कहाँ हूँ? तो आप आँख बंदकर देखिए, अंधकार मिलेगा। आपके अंदर प्रकाश का तल भी है। अंधकार के तल को पार कीजिए, फिर प्रकाश का तल मिलेगा। तब ‘जगमग जोत निहारु मंदिर में’ संत कबीर साहब की यह वाणी चरितार्थ होगी। यह कोई गप की बात नहीं है। सब कोई अभ्यास कीजिए, प्रत्यक्ष होगा।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत मुरादाबाद में दिनांक 10.10.1954 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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93. समस्त प्रकृति मण्डल को जानिए

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 हमलोग संसार में अच्छी हालत में हैं या बुरी हालत में, इसका विचार करना चाहिए। यदि अच्छी हालत में हैं तो ठीक है। यदि बुरी हालत में हैं, तो क्या इसी हालत में रहना अच्छा है? यदि इससे कोई अच्छी हालत है, तो उसमें जाना चाहिए। पशु भी बुरी हालत में रहना नहीं चाहता, हम तो मनुष्य हैं। यह संसार बहुत बड़ा है। जो पढ़े-लिखे हैं, वे जब इस संसार के चित्र को मन में लाते हैं, तो उन्हें बहुत विस्तृत मालूम होता है। संसार के जिस तल पर हमलोग हैं, संसार इतना ही बड़ा नहीं है। हमलोग जिस तल पर रहते हैं, वह स्थूल है। स्थूल तबतक नहीं हो सकता, जबतक इसका पूर्व रूप सूक्ष्म न हो। सूक्ष्म भी तबतक नहीं हो सकता, जबतक उसका पूर्व रूप कारण न हो। इसके, अर्थात् संसार के, स्थूल तल को बहुत लोग भूगोल में पढ़े हैं। किंतु इसके जो दो तल और बच जाते हैं, इसको किसी स्कूल और कॉलेज में किसी ने पढ़ा है? कभी नहीं। यह संसार अनंत नहीं है, किंतु बहुत बड़ा है। तुलसीकृत रामायण में है-
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
 एक अनादि-अनंत अवश्य है। दो अनादि- अनंत कभी नहीं हो सकते। दो अनंत के होने से दोनों की सीमा मिल जाएगी, दोनों सान्त हो जाएँगे। अनंत दो नहीं हो सकते, एक ही होगा। प्रकृति व्याप्य है और परमात्मा व्यापक है। परमात्मा मोहितेकुल्ल और प्रकृति मोहान है। परमात्मा इस प्रकृति को भरकर और भी आगे है। समस्त प्रकृति मण्डल को जानिए कि कितना बड़ा है? समस्त प्रकृति मण्डल का कहीं नक्शा है? कहीं नहीं। गुरु महाराज कहा करते थे-वह नक्शा मनुष्य के अंदर है, उसने किसी छापेखाने का मुँह नहीं देखा है। बहुत बड़ा संसार है, इसलिए उसको समुद्र कहा गया। इसमें हमलोग रहते हैं, क्या हालत है? आप बड़े धनवान हैं तो क्या आप सब तरह सुखी हैं? आपकी प्रतिष्ठा बहुत बड़ी है। आप बहुत विद्वान हैं; तो क्या आप सब तरह सुखी हैं? कभी नहीं। कहेंगे यह दुःख है और वह दुःख है। महात्मा बुद्ध को भी पेचिश का रोग हुआ। वे पहुँचे हुए महात्मा थे। समाधि में सुखी रहते थे। समाधि से उतरने पर दुःखी होते थे, उन्होंने अपने शिष्य आनंद से कहा था। जो पिण्ड में रहता है, स्थूल संसार में रहता है। इससे ऊपर उठता है,तो उन कष्टों से बचता है। उस तल से ऊपर उठकर भगवान बुद्ध रहते थे, तब कष्ट नहीं होता था। इस संसार में कोई सुखी नहीं रह सकता। संत कबीर साहब ने कहा है-
तन धर सुखिया कोइ न देखा, जो देखा सो दुखिया हो।
उदय अस्त की बात कहतु हैं, सबका किया विवेका हो।।
घाटे बाढ़े सब जग दुखिया, क्या गिरही बैरागी हो।
सुकदेव अचारज दुख के डर से, गर्भ से माया त्यागी हो।।
जोगी दुखिया जंगम दुखिया, तपसी को दुख दूना हो।
आसा तृस्ना सबको व्यापै, कोई महल न सूना हो।।
साँच कहौं तो कोइ न मानै, झूठ कहा न जाई हो।
ब्रह्मा विष्णु महेसुर दुखिया, जिन यह राह चलाई हो।।
अवधू दुखिया भूपति दुखिया, रंक दुखी विपरीती हो।
कहै कबीर सकल जग दुखिया, संत सुखी मन जीती हो।।
 तुलसी साहब को लोग ‘साहब’ कहते थे, वे अपने को ‘दास’ कहते थे। ‘साहब’ अरबी शब्द है। इसका अर्थ है- प्रभु, स्वामी आदि। तुलसी साहब ने कहा है-
 आली देख लेख लखाव मधुकर भरम भौ भटकत रही।
 दिन तीनि तन संग साथ जानौ अंत आनंद फिरि नहीं।।
 संत लोग ऐसा ही कहते चले गए हैं। यह संसार सुख का स्थान नहीं है, दुःख का स्थान है। यहाँ रहकर हम अच्छी हालत में नहीं रह सकते हैं। इसलिए यहाँ से हमलोग चल दें, तभी अच्छा है। किंतु फिर चलें तो किधर? पूर्व, पश्चिम, उत्तर या दक्षिण? चारो ओर संसार-ही-संसार दिखता है। यह संसार बहुत बड़ा है। ऊपर की ओर आकाश है, यह भी संसार है। नीचे भी संसार है। बचे हुए आठो दिशाओं में भी संसार है। इसलिए किसी जानकार से जानें कि किधर जाएँ? कबीर साहब कहते हैं-‘संत सुखी मन जीती हो।’ इसलिए मन जीतने की ओर चलें।
 चंचल मन थिर राखु जबै भल रंग है।
 तेरे निकट उलटि भरि पीव सो अमृत गंग है।।
     - संत कबीर साहब
 चंचल चित्त को थिर करो तो भला रंग देखोगे। तुम्हारे नजदीक ही अमृत की गंगा बहती है। तुम उलटकर पीओ। संत कबीर साहब की एक कड़ी और याद आती है-‘उलटि पाछिलो पैंड़ो पकड़ो, पसरा मना बटोर।’ बड़े मजे का भजन है-
मोरे जियरा बड़ा अन्देसवा, मुसाफिर जैहो कौनी ओर ।।
मोह का शहर कहर नर नारि , दुइ फाटक घन घोर ।
कुमती नायक फाटक रोके, परिहौ कठिन झिंझोर ।।
संशय नदी अगाड़ी बहती, विषम धार जल जोर ।
क्या मनुआँ तुम गाफिल सोवौ, इहवाँ मोर न तोर ।।
निसि दिन प्रीति करो साहेब से, नाहिंन कठिन कठोर ।
काम दिवाना क्रोध है राजा, बसैं पचीसो चोर ।।
सत्त पुरुष इक बसैं पछिम दिसि, तासों करो निहोर ।
आवै दरद राह तोहि लावै, तब पैहो निज ओर ।।
उलटि पाछिलो पैंड़ो पकड़ो, पसरा मना बटोर ।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, तब पैहो निज ठौर ।।
पता कौन बता देगा? तो कहा-
 सत्त पुरुष इक बसैं पछिम दिसि, तासों करो निहोर।
 आवै दरद राह तोहि लावै, तब पैहो निज ओर ।।
 मन को जीतने के लिए किधर जाइएगा? आकाश में उड़ने से मन वश होता तो आकश में उड़नेवाला, वायुयान पर चलनेवाले का मन काबू हो जाता। पहले जानो कि मन कहाँ है?
 इस तन में मन कहँ बसै, निकसि जाय केहि ठौर।
 गुरु गम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और।।
 नैनों माहीं मन बसै, निकस जाय नौ ठौर।
 गुरु गम भेद बताइया, सब संतन सिरमौर।।
      - कबीर साहब
 ब्रह्मोपनिषद् में भी यही बात है-‘नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्...’ यह आँख में रहता है। आँख का स्थान सबसे ऊँचा है। कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों में सबसे ऊँचे में आँख है। कान से भी ऊपर आँख है। संत दरिया साहब बिहारी ने कहा है-
जानिले जानिले सत्त पहचानिले, सुरति साँची बसै दीद दाना।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै, पलक परवीन दिव दृष्टि ताना।।
 इस साधन अभ्यास में-
 मन में मन नैनन में नैना, मन नैना एक होइ जाई।
 मन में मन तब होगा, जब नैनन में नैना होगा।।
 दरिया साहब ने कहा-‘दृष्टि भीतर अब दृष्टि समोए। लागी झरी अमृत रस पोए।।’ मन को काबू में करने के लिए बाहर जाना नहीं है। मन को सम्हाल कर उसके केन्द्र में समेटना है। समेट लो तो मन में मन हो जाएगा। उसको मिठास मिल जाएगा, अपना आनंद अपना सुख उसको मिल जाएगा। भगवान श्रीकृष्ण के वचन अनुकूल ‘कछुए की तरह अंगों को समेट लेगा।’ शरीर के अंग तो नहीं सिमटेंगे, इन्द्रियों की चेतनधारा सिमटेगी। यदि कोई कहे कि यहाँ भी संसार में सुख मिलता है, तो वह अल्प है। भगवान बुद्ध ने कहा यदि विशेष सुख-प्राप्ति की संभावना दीखे तो विशेष सुख की प्राप्ति के लिए स्वल्प सुख छोड़ दे। मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् में है-
 निद्रा भय सरीसृपं हिंसादि तरंग तृष्णावर्त्तंदारपंकं
 संसार वार्धितर्तुं सूक्ष्म मार्गमवलम्ब्य..............।
 शरीर के जितने सरोकारी हैं, सब पंक हैं। सन का बंधन, लोहे का बंधन, मजबूत बंधन नहीं है। जिसमें अपनी ममता है, वह बड़ा बंधन है’ भगवान बुद्ध ने कहा। अज्ञानता से ममता उत्पन्न होती है। इस अज्ञानता के कारण हम पंक में लसके हैं। इसको पार करने के लिए सूक्ष्म मार्ग का अवलंब करो। ‘मन में मन नैनन में नैना’ जो कहा, वह सूक्ष्ममार्ग है। कबीर साहब ने कहा है-
 गुरुदेव बिन जीव की कल्पना ना मिटै,
        गुरुदेव बिन जीव का भला नाहीं।
 गुरुदेव बिन जीव का तिमिर नासे नहीं,
        समुझि विचारि ले मने माहिं।।
 राह बारीक गुरुदेव तें पाइए,
       जनम अनेक की अटक खोलै।
 कहै कबीर गुरुदेव पूरन मिलै,
      जीव और सीव तब एक तोलै।।
 अनेक जन्मों से इस पिण्ड में अटके थे। यह अटक सूक्ष्म मार्ग के अवलंब से खुलता है। इस संसार से पार होने के लिए सूक्ष्ममार्ग का अवलंबन करें। सूक्ष्ममार्ग का अभ्यास करने के लिए गुरु से जानो। इससे आखिर में क्या मिलता है? जीव परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। उसकी प्राप्ति में जो मिठास है, उसको पाकर फिर जीव दुःखी नहीं होता। इस संसार में नहीं आता है। ‘फिर आवना नहिं या देश।’ फर्ज करो कि मैं पहली बार यहाँ (मुरादाबाद) आया। निशाना था कि मुरादाबाद पहुँचूँ। रास्ते में बहुत शहर से मिले, किंतु वह मुरादाबाद नहीं। सबको पार करता हुआ अब मुरादाबाद पहुँचा हूँ। उसी तरह अपना लक्ष्य परमात्मा में रखो और चलो। कबीर साहब ने कहा-‘उलटि पाछिलो पैंड़ो पकड़ो।’ इस पिछले पैड़े को पकड़ो। बहिर्मुख से अंतर्मुख होओ। यह चेतन आत्मा सूक्ष्म तल से स्थूल तल (पिण्ड) में आई है। सूक्ष्मतल में जाने को ही ब्रह्माण्ड में जाना कहते हैं। पिण्ड से ब्रह्माण्ड की ओर चलो, यही उलटना है। सिमटी हुई चीज की ऊर्ध्वगति होती है। सुरत के सिमटाव से उसकी ऊर्ध्वगति हो जाएगी। रास्ता पकड़ने के लिए सत्संग करो। जिसमें श्रद्धा हो, उसको गुरु धारण कर उसके बताए हुए रास्ते पर चलो। सिनेमा की बिजली क्या है? अपने अंदर एक बार भी देख पाओ तो समझ में आ जाए कि सिनेमा की बिजली कुछ नहीं है। अंदर में तारा देखने से क्या होगा?-मेरे एक मित्र ने कहा। मैंने कहा-‘जिस कर्म के करने में विशेष कष्ट होता है, उसको पाकर वह उतना ही सुखी होता है। इस तारे को (बाहर आकाश के तारे को) देखने में क्यों, कष्ट है? गर्दन ऊपर उठाया कि देखा। किंतु अंदर के तारे को देखने में कितना परिश्रम होता है? सतोगुण को पार कर दोनों भौओं के बीच में तारक ब्रह्म (...सत्त्वादि गुणानतिक्रम्य तारकमवलोकयेत्। भ्रूमध्ये सच्चिदा- नन्दतेजः कूट रूपं तारकं ब्रह्म।।) का अवलोकन करने के लिए मंडल ब्राह्मण उपनिषद् में वचन आया है। सतोगुण से कैसे पार होंगे?
बायें इड़ा नाड़ी दक्षिणे पिंगला, रजस्तमो गुणे करि ते छे खेला, मध्ये सत्त्व गुणे सुषुम्ना विमला धर धर तारे सादरे।
 दायें-बायें को रोक कर सुषुम्ना में चलो, सतोगुण को भी पार कर जाओगे। यह परा भक्ति है।
 श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै।
 रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै।।
 नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै।
 अंग बिना मिलि संग, बहुत आनंद बढ़ावै।।
 बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिए रहै।
 मिलि परमातम सों आतमा, परा भक्ति सुन्दर कहै।।
 इसी का प्रचार गुरु महाराज करते थे। गुरु महाराज की दया से 1909 ई0 में मुझे विश्वास हुआ। 1904 ई0 में मैंने स्कूल छोड़ा। इस मार्ग के पहिला मेरे गुरु थे बाबू राजेन्द्रनाथ सिंह वकील। मैंने उनसे पूछा-‘कैसे विश्वास हो कि तारा अंदर में देखने में आवेगा?’ उन्होंने कहा-‘आकाश के तारे को कैसे देखते हो? बाहर के तारा की ओर नजर करके देखते हो, उसी तरह उस तारा की ओर भी नजर करो तो देखोगे। ‘जौं लग नहिं देखौं निज नैना। तब लग नहिं मानौं गुरु के बैना।।’ जिस तरह गुरु कहें उस तरह करो, तब नहीं देखोगे तो कहो कि गुरु झूठा है। जैसा गुरु ने कहा, वैसा किया नहीं और कहे कि नहीं है, ठीक नहीं। द
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत मुरादाबाद में दिनांक 10.10.1954 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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94. तिल परिमाण जान जन कोई
प्यारी धर्मानुरागिनी जनता!
 हमलोग संतों की तारीफ में गाते हैं-विन्दु- ध्यान-विधि नाद-ध्यान-विधि, सरल-सरल जग में परचारी।।’ विन्दु-ध्यान और नाद-ध्यान बतलानेवाले संत होते हैं। यह सरल साधन है। वैसे तो सरल- से-सरल और मोटे-से-मोटा काम भी अभ्यास नहीं होने के कारण कठिन जान पड़ता है।
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं।। - गोस्वामी तुलसीदासजी
 संशयों को निर्मूल करने के लिए विन्दु-ध्यान और नाद-ध्यान है। विन्दु और नाद-ध्यान के लिए ध्यानविन्दूपनिषद् में है-
 बीजाक्षरं परम विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम्।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम्।।
          -ध्यानविन्दूपनिषद्
 परमविन्दु कहने का मतलब क्या है? एक छोटे-से-छोटा र्चिं बाहर में अंकित कर उसे विन्दु कहते हैं, किन्तु उसकी परिभाषा को पढ़ने पर कहते हैं कि उसका विभाग नहीं होता। छोटे-से-छोटा र्चिं भी अंकित कीजिए, फिर भी उसका विभाग होगा। परमविन्दु बाहर में अंकित नहीं किया जा सकता। पतली-से-पतली कोई भी नोंक, विन्दु अंकित करने योग्य नहीं है। परम विन्दु से स्थूल में कोई स्थान छेका नहीं जा सकता। बाहर में उसको अंकित करना असम्भव है। आप अपनी दृष्टि की नोंक से अपने अन्दर के प्रथम तल पर उसे अंकित कर सकते हैं। अंकित करने का अर्थ है-प्रथम पट पर दृष्टि की नोंक रखिए, स्वयं परम विन्दु उदित हो जाएगा। जैसे पेन्सिल की नांक जहाँ रखते हैं, वहाँ स्वतः विन्दु हो जाता है, परन्तु इसका विभाग हो सकेगा। परम विन्दु अर्थात् परिभाषा के अनुकूल विन्दु का विभाग नहीं होगा। कबीर साहब का कहना है कि-‘स्याह सुफैद तिलों बिच तारा अविगत अलख रबी है।’ पहले स्याह है, फिर सफेद हो जाता है-वही तारा हो जाता है। बाबा नानक साहब के वचन में भी है-‘तारा चड़िया लंमा....।’ तुलसी साहब का इसके लिए कथन है-
स्याम कंज लीला गिरि सोई। तिल परिमाण जान जन कोई।।
 श्रीमद्भगवद्गीता के आठवें अध्याय के श्लोक 9 में ‘अणोरणीयाम्’ कहकर परमात्मरूप का वर्णन है और मनुस्मृति के अध्याय 12, श्लोक 122 में भी अणुरूप को परमात्म-ध्यान कहा गया है-
     कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
     सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।। -गीता, अध्याय 8/9
      प्रशासितारं सर्वेषामनीयां समणोरपि ।
 रूक्माभं स्वप्न धीमगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम ।। -मनुस्मृति, अध्याय 12/122
 बाहर के विषयों का ध्यान छूटता है, तब अंदर का ध्यान होता है। बाहरी विषयों के चिंतन से मोटा ध्यान भी नहीं हो सकता है, फिर उस चिंतन में रहकर कोई सूक्ष्म ध्यान कैसे कर सकता है? ध्यानाभ्यासी की वृत्ति पाप की ओर से हटी होती है। उससे पाप-रहित कर्म होगा। जो पहले का किया हुआ पाप है, वह ध्यान-योग से नष्ट हो जाएगा। ध्यानाभ्यासी ध्यानबल से कर्ममण्डल के ऊपर उठ जाता है। इस तरह वह पाप-पुण्य; दोनों से ऊपर उठ जाता है। उसे पाप और पुण्य वहाँ से लौटा नहीं सकते। इसलिए उपनिषद् के वचनों पर विश्वास करना चाहिए। जितने भी अक्षर (लिपि), या दृश्य या रूप हैं, सबका बीज विन्दु है। किसी भी दृश्य का रूप बनाने के लिए पहले विन्दु बनता है। बिना विन्दु के कोई रूप नहीं बना सकते। जैसे वट के बीज के बिना वट का वृक्ष नहीं हो सकता, उसी प्रकार समस्त आकारों की उत्पत्ति विन्दु से है, अंत भी विन्दु है। उस विन्दु को जो प्राप्त करता है, वह दृश्य जगत के शिखर पर चढ़ जाता है। इसी को ब्रह्मरन्ध्र से होकर ब्रह्माण्ड में जाना कहते हैं। रूप दृश्यमान है। रस जिभ्या से, गंध नाक से, शब्द कान से तथा स्पर्श छूने से आपको मालूम होता है। इन सबका रूप क्या है? गन्ध का क्या दृश्य है? इसी प्रकार अदृश्य पदार्थ भी संसार में हैं। दृश्य का आरम्भ विन्दु से और अन्त विन्दु पर होता है। और अदृश्य का आरम्भ किससे होता है? अदृश्य का आरंभ शब्द से होता है, जो अदृश्य है। गति या कम्प का सहचर ध्वनि है। कम्प के बिना कुछ नहीं बन सकता। ध्वनि कम्प या गति के साथ अवश्य होती है।
 साधो गति में अनहद बाजै।
 झंझकार और झनक झनक है, एहि मन्दिर में साजै।।
     -दरिया साहब, बिहारी
 अतएव सारी सृष्टि शब्द से अवश्य ही हुई है। जबतक शब्द रहेगा, तबतक संसार रहेगा। जब शब्द को पार कर जाय, तब संसार के पार में पहुँच जाय। संसार का दूसरा हिस्सा अरूप है, वह नाद- ध्यान से पार किया जाएगा। नाद भी अरूप है। जैसे जल के सहारे से जल को पार किया जाता है, उसी तरह अरूप के सहारे से अरूप को पार किया जाएगा। शब्द में आकर्षण करने का गुण है-
 यही बड़ाई शब्द की, जैसे चुम्बक भाय।
 बिना शब्द नहिं ऊबरै, केता करै उपाय।।
      -कबीर साहब
चुम्बक सत्त शब्द है भाई । चुम्बक शब्द लोक ले जाई ।।
लेई निकारि होखै नहिं पीरा । सत्त शब्द जो बसै शरीरा ।।
          -दरिया साहब, बिहारी
 विन्दु-ध्यान की यह महिमा है कि उसके द्वारा रूप जगत से ऊपर उठ जाएँगे और नाद- ध्यान से अरूप जगत से ऊपर उठ जाएँगे। कितने लोग कहते हैं कि शरीर के अंदर अनेक रग-रेशे चलते हैं, उनकी ये ध्वनियाँ हैं; उनको सुनकर क्या होगा? मैं उनसे कहता हूँ कि अपनी वृत्ति को आप स्थूल मण्डल से ऊपर उठा लीजिए, तब सुनिए, उस समय आपकी वृत्ति स्थूल में नहीं रहेगी, तब आप स्थूल ध्वनियां को कैसे सुन सकते हैं? उस अंतर्नाद को सुनिए। इसी को तुलसी साहब ने कहा है-
स्रुति ठहरानी रहे अकाशा। तिल खिरकी में निसदिन बासा।।
गगन द्वार दीसै एक तारा। अनहद नाद सुनै झनकारा ।।
तिल परमाने लगे कपाटा। मकर तार जहँ जीव का बाटा।।
 शब्द की धार सबके अंदर है। मकड़ा तार पर नीचे से ऊपर जाता-आता है, उसी तरह शब्द के द्वारा भी नीचे से ऊपर उठ सकते हैं। अपने अंदर में यात्रा करने के लिए विन्दुनाद ही सहारा है। इसी का अवलंब लेकर हम वहाँ पहुँच सकते हैं, जहाँ परमेश्वर परमात्मा का साक्षात्कार होगा। यही विन्दु-नाद-ध्यान की महिमा है। यही मुनियों का नादानुसंधान है।
 नास्ति नादात्परो मंत्रो न देवः स्वात्मनः परः।
 नानुसंधे परा पूजा न हि तृप्तेः परं सुखम्।।
   -योगश्खिपनिषद्, अध्याय 2
 नादानुसंधान के समान कोई पूजा नहीं है। सबको चाहिए कि नाद और विन्दु का ध्यान करे। गुरु महाराज हमलोगों को कृपा करके इसकी शिक्षा और युक्ति दे गए हैं। उनका अभ्यास हमलोगों को करना चाहिए। भोजन कम कीजिए। विशेष भोजन से निद्रा आएगी और भजन नहीं होगा। इसलिए कम खाइए और भजन कीजिए।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत मुरादाबाद में दिनांक 11.10.1954 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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95. जो कोई निर्गुण दरसन पावै
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 आपलोगों को यह विदित हुआ है कि अखिल भारतीय संतमत सत्संग का यह वार्षिक अधिवेशन यहाँ हो रहा है। और कल्ह से ही हो रहा है और कल्ह समाप्त होगा। मुझे जानने में आया है कि कुछ लोग कुछ विचित्र-सा मानते हैं कि संतमत कौन-सी बात है? तो मैंने सोचा यह प्रश्न तो उन्हीं के अंदर उठ सकता है जो संत का अर्थ और मत का अर्थ नहीं जानते। और यह शब्द पहले व्यवहृत हुआ है कि नहीं, यह उनको मालूम नहीं है। और इस मत में ईश्वर की मान्यता है कि नहीं? यह प्रश्न तो और विचित्र है। जो संतवाणी का पाठ नहीं किए होंगे, नहीं सुने होंगे, वे ऐसी बात कहें तो ठीक ही है। मैं उस विद्यालय में आज हूँ, जहाँ से मैं इस विद्या का शिक्षा पाया हूँ। गुरु महाराज अताई मुहल्ले में विराजते थे। सन् 1909 ई0 में मैं यहाँ आया था। वहाँ सत्संग हुआ करता था। ताज्जुब की बात है कि मैं कहाँ पुरैनियाँ जिला बिहार प्रान्त के पूर्व-उत्तर के अंत में और यहाँ मुरादाबाद युक्त प्रान्त के उत्तर-पश्चिम के अंत भाग के निकट। इतनी दूर की फासला में मैं संतमत के बारे में जानता हूँ और खास मुरादाबाद में इसकी चर्चा हो कि संतमत क्या चीज है? विचित्र बात है। 1909 ई0 से अबतक शायद 5-6 वर्ष यहाँ नहीं आया हूँ। और तो मैं प्रत्येक वर्ष यहाँ आया हूँ। जब गुरु महाराज थे, तब मैं यहाँ साल-साल आता था। कभी-कभी तो साल में दो बार भी आया। इस वर्ष भी मैं दो बार आया हूँ, जनवरी में और इस बार अक्टूबर में। बात यह है कि संतमत परम आस्तिक मत है। ईश्वर की मान्यता जिस मत में नहीं है, ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।’ जहाँ नहीं है, वह नास्तिक है। किंतु यहाँ तो ये दोनों हैं ही। हाँ! ईश्वर के बोध होने में लोगों को कठिनाई होती है। ईश्वर के लिए जो अनेक नाम-सतनाम, शिव, राम, कृष्ण आदि हैं; इस बात को बहुत लोग जानते हैं। किंतु स्वरूप नहीं जानते। स्वरूप का अर्थ निजरूप। इस निजरूप को लोग नहीं समझते।
अगुन अखंड अलख अज जोई। भगत प्रेमवस सगुन सो होई।।
उमा राम विषयक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा।।
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।
         -रामचरितमानस
 इन चौपाइयों से ईश्वर-स्वरूप का विचार सार रूप में मिलता है। मूल में ‘अगुन अखण्ड अलख अज’ है। अगुण का अर्थ त्रैगुणातीत न कि सम्पूर्ण विशेषणों से रहित। सम्पूर्ण विशेषणों से रहित का वर्णन नहीं हो सकता। राम, ब्रह्म, परमात्मा कहने से कुछ-न-कुछ विशेषण आ ही जाता है। इसलिए सम्पूर्ण विशेषणों से रहित मानना हो नहीं सकता। किंतु सत, रज, तम से रहित मानना ठीक है। अखण्ड अर्थात् जिसका खण्ड नहीं हो सकता। अलख अर्थात् इन्द्रियातीत। अज=जो उत्पन्न नहीं हुआ हो, जो हई है, कहीं से आया नहीं, हुआ नहीं। इन्द्रियों के ज्ञान से ऊपर, बुद्धि के ज्ञान से भी ऊपर है। यह किसी कारणवश प्रगट और इन्द्रियगोचर होता है। भक्त के प्रेमवश होकर सगुण रूप धारण करता है। प्रश्न होता है-‘जो गुण रहित सगुन सो कैसे।’ तो शिवजी उत्तर देते हैं-‘जल हिम उपल बिलग नहिं जैसे।।’ जल, हिम, उपल तत्त्व रूप में अलग-अलग पदार्थ नहीं, सब एक ही है। किंतु आज तक यहाँ किसी ने नहीं जाना है कि संसार का सम्पूर्ण जल पाला है या उपल? जो आकाश से गिरता है, पानी है। किंतु पानी से पाला और ओला रूपान्तर दशा में है। पानी से खेती सींची जाती है, किंतु ओला और पाला से खेती का नाश होता है। सम्पूर्ण जल कभी हिम या उपल नहीं होता, उसी तरह सम्पूर्ण अगुण, अखण्ड, अलख, अज कभी सगुण नहीं हो सकता है। इतना बड़ा कभी कोई मन्दिर नहीं हो सकता है, जिसमें संपूर्ण आकाश अँट जाय। मंदिर में आकाश व्यापक है? अवश्य, किंतु संपूर्ण आकाश उसमें अँट नहीं सकता। उसी प्रकार जो स्वरूपतः अपार है, वह परिमित हो जाय, यह बुद्धि में अँटने के काबिल बात नहीं है। श्रद्धा से मान लें तो उसको कौन रोक सकता है? संतों ने परमात्मा के उस स्वरूप को लखाया है। उस स्वरूप को पकड़ो, तो मोक्ष हो जाएगा। लोग कहते हैं जो हाथ से पकड़ने, आँख से देखने योग्य नहीं, उससे प्रेम कैसे करें? उसमें अपना मन कैसे लगावें? लोग अपनी कमजोरी दिखलाते हैं। संतमत कहता है-तुम और कुछ सुनो-समझो, तब तुम स्वयं कहोगे कि ठीक मैं उससे प्रेम कर सकता हूँ, उसे प्राप्त कर सकता हूँ। यदि कहो कि सगुण से ही काम चल जाएगा, निर्गुण की क्या आवश्यकता, तो गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप।
 किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप।।
 यथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ।
 सोइ सोइ भाव देखावइ, आपु न होइ न सोइ।।
 और निर्गुण स्वरूप के लिए कहते हैं-
प्र्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाही ं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।
 रामचरितमानस का वर्णन करते हैं तो कहते हैं-कथा-रूप जल है, जल में स्वच्छता और मिठास सगुण का वर्णन है। गंभीरता चाहिए तो कहते हैं-
रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनव सोइ वर वारि अगाधा।।
 यह निर्गुण महिमा है। जहाँ तक कहना चाहिए कह देते हैं। गोस्वामीजी की दोहावली पढ़िए तो-
 हिय निर्गुन नयनन्हिं सगुन, रसना राम सुनाम ।
 मनहु पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम ।।
 हृदय में निर्गुण है और आँखों में सगुण है। बेचारी आँख को सगुण के आगे गति ही नहीं है, करे तो क्या? फिर कहते हैं ‘रसना राम सुनाम’ यह कैसा हुआ? मानो सोने के डिब्बे में सुन्दर रत्न हो। हृदय में निर्गुण है, आँख में सगुण है और जिभ्या पर सुन्दर राम नाम है। यह क्या हुआ? मेरी समझ से सगुण सोने का डब्बा है और उसके अंदर ‘ललित ललाम’ निर्गुण है। वह उसमें शोभा पा रहा है। उसी तरह मेरे हृदय में निर्गुण है और आँख से सगुण को देखता हूँ। यह भाव ईश्वर मानने का है। जो लोग यह कहते हैं कि निर्गुण में अपने को कैसे सटावें, इन्द्रियां से मैं मिलाजुला हूँ। इसका उत्तर है कि तुम ईश्वर के अंश हो। यदि तुम अपने को ईश्वर का अंश मानते हो, तो भी तत्त्वतः वही हो। शरीर का जन्म हुआ है। यह वैसे हुआ है, जैसे कोई घट बन जाय। यहाँ सत्संग-घर नहीं था, घर बन गया। घर के अंदर शून्य है, शून्य के अंदर घर है। ईंट और पत्थर के जुड़ जाने से घटाकाश और मठाकाश के हो जाने से आकाश नहीं टूट जाता। जब आप कहते हैं कि मेरी आँख और मेरा पैर, आप आँख और पैर नहीं हैं। जैसे कहते हैं कि मेरा कुरता है, तो आप कुरता नहीं हैं। आप अपने को शरीर और इन्द्रियों से पृथक तो जानते ही हैं और पृथक भी कर सकते हैं, यह आपके लिए असंभव नहीं है। अपने को शरीर और इन्द्रियों से पृथक करके ही कैवल्य दशा में संतों ने परमात्म-स्वरूप को पाया था और इसी दशा में अपने को लाकर उन्होंने परमात्मा को प्राप्त करने की शिक्षा दी है। शरीर और इन्द्रियों से अपने को छुड़ाने में कोई आपदा नहीं है। इसके लिए संतों की सुगम रीति जानकर ईश्वर की भक्ति का अभ्यास करना चाहिए।
 कर्ण कैसा वीर था कि कवच लिए जन्म लिया था। शरीर बढ़ता था तो कवच भी बढ़ता था। वह सदा कवच के साथ रहता था। अर्जुन से उसका युद्ध होगा, अर्जुन उसका संहार करेगा, किंतु कवच सहित उसका संहार नहीं कर सकता है। इन्द्र का पुत्र अर्जुन था। इसलिए उसको हुआ कि किसी तरह कर्ण का कवच लेना चाहिए। सूर्य का पुत्र कर्ण था। सूर्य ने कर्ण से कहा था कि इन्द्र तुमसे कवच-कुण्डल माँगने आवेगा, तुम नहीं देना। नहीं तो तुम मारे जाओगे। कर्ण ने कहा-माँगने आवेगा, तो कैसे नहीं दूँगा? इन्द्र एक भिक्षुक के रूप में आये। वे कहते हैं, हम तुमको जाँचने आए हैं, तुम अपना कवच उतारकर मुझे दे दो। देह से सटा हुआ उसका कवच था। जन्म से ही था। देह से सटे को तलवार से काटकर वह दे देता है। आज भी इस दान के लिए उसकी प्रसिद्धि है। इस कर्म में उसका रक्त भी बहा होगा और उसको कष्ट भी हुआ होगा। किंतु अपने को शरीर से, इन्द्रिय से और मन से फुटा लेने में रक्त भी नहीं बहेगा और न कोई कष्ट होगा। तुम अंश हो, अपने अंशी में अपने को मिलाओ तो इसमें क्या कष्ट है? अपने सम्पूर्ण शरीर को आँख से देखते हो और आइने में अवलोकन कर आँख को आँख से देखते हो। इसी तरह जीवात्मा को परमात्मा का दर्शन होता है और जैसे त्वचा के स्पर्श का ज्ञान त्वचा से ही होता है, उसी तरह जीवात्मा से परमात्मा के मिलन का ज्ञान होता है। उसका सुख कैसा है, तो सूरदासजी कहते हैं-
अविगत गति कछु कहत न आवै ।
ज्यों गूँगहिं मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै ।।
परम स्वाद सबही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै ।
मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै ।।
 परमस्वाद = अलौकिक स्वाद है, सांसारिक स्वाद नहीं। जबसे वह स्वाद मिले, तब से वह बराबर बना रहेगा। स्वाद हो, तुष्टि नहीं सो नहीं। स्वाद के सहित अत्यंत तुष्टि होती है। गोस्वामी तुलसीदासजी जिस तरह श्रीराम के उपासक थे, उसी तरह सूरदासजी श्रीकृष्ण के उपासक थे। इन्होंने भी सगुण का वर्णन करते हुए निर्गुण का वर्णन किया है। निर्गुण के लिए तो सूरदासजी कहते हैं-
रूप रेख गुन जाति जुगति बिनु, निरालंब मन चकृत धावै।
सब विधि अगम विचारहि तातें, ‘सूर’ सगुन लीला पद गावै।।
 निर्गुण को सब तरह से अगम विचारकर सगुण का वर्णन किया। हमलोगों को यह नहीं समझना चाहिए कि हम निर्गुण स्वरूप को नहीं प्राप्त कर सकेंगे। परमात्मा और जीवात्मा स्वजातीय पदार्थ हैं। हम पिण्ड, ब्रह्माण्डादि आवरणों से आवरणित हैं। हमको काम, क्रोध, लोभ, मोह सताते हैं। यह आवरण से आवृत रहने के कारण ही होता है। इससे अपने को पार करो। कैसे पार करोगे, तो किसी संत से पूछ लो। एक प्रेमी ने गाया है-
 भेद यह गुप्त पाना किसी गं्रथ स े ।
   है असंभव समझ लो किसी संत से ।।
 प्रसिद्ध है कि संतों का भेद और पण्डितों का वेद। कबीर साहब पढ़े-लिखे नहीं थे, रामकृष्ण परमहंस भी पढ़े-लिखे नहीं थे। किंतु इतने बड़े ज्ञानी थे कि नरेन्द्र (स्वामी विवेकानंद) उनसे सीखते थे। उनसे कोई वेद का और कोई कुरान का अर्थ पूछने जाते थे। वे उनका अर्थ उन्हीं से पूछते थे, फिर अपनी बात कहते थे कि इस तरह का अर्थ करने से नहीं होगा? और इन्हीं का अर्थ ठीक होता। हमारे यहाँ योगशास्त्र प्रसिद्ध है।
   जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानु । जहँ नहिं राम प्रेम प्रधानू ।।
 योगशिखोपनिषद् में है कि योग बिना ज्ञान और ज्ञान बिना योग मोक्ष कार्य में समर्थ नहीं होता।
   योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः ।
 योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ।।
 तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत् ।।
 चित्तवृत्ति-निरोध को योग कहते हैं। संत वेश बनाने से नहीं होता। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
अमित बोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कवि कोविद जोगी।।
 संत केवल गेरुआ वस्त्र पहनने से नहीं होता। किसी वेश में रहो, संत हो सकते हो, किंतु जानो इसका भेद।
 कबीर भेदी भक्त से, मेरा मन पतियाय ।
 सेरी पावै शब्द की, निर्भय आवै जाय ।।
 भेदी जाने सबै गुण, अनभेदी क्या जान ।
 कै जानै गुर पारखी, कै जाकै लागा बान ।।
     -संत कबीर साहब
 यहाँ से जगन्नाथजी जाएँगे, जगन्नाथ के लिए जैसे-जैसे पैर पड़ता है, वैसे-वैसे उसकी भक्ति होती है। उसी तरह शरीर-इन्द्रियों से जैसे- जैसे अपने को छुड़ाते हैं, उसकी भक्ति होती है। संतों ने इसका सरल तरीका बताया है। जप करो और ध्यान करो। ध्यान के बहुत दर्जे हैं। कबीर साहब की वाणी है-
 जो कोई निरगुन दरसन पावै।।टेक।।
 प्रथमे सुरति जमावै तिल पर, मूल मंत्र गहि लावै।
 गगन गराजै दामिनि दमकै, अनहद नाद बजावै।।
 बिन जिभ्या नामहिं को सुमिरै, अमिरस अजर चुवावै।
 अजपा लागि रहै सूरति पर, नैनन पलक डुलावै।।
 गगन मंदिल में फूल फुलाना, उहाँ भँवर रस पावै।
 इंगला पिंगला सुखमनि सोधै, प्रेम जोति लौ लावै।।
 सुन्न महल में पुरुष विराजै, जहाँ अमर घर छावै।
 कहै कबीर सतगुरु बिनु चीन्हे, कैसे वह घर पावै।।
 कुछ पढ़े-लिखे लोग भी भ्रम वश कहते हैं कि कबीर साहब कुछ करने नहीं कहते। वे कहते हैं-‘साधौ सहज समाधि भली।....आँखि न मूंदौं कान न रुधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं। खुले नयन पहिचानौं हँसि हँसि, सुन्दर रूप निहारौं।’ संपूर्ण पद्य को पढ़ा कि नहीं, किंतु इतना पढ़ लिया कि-‘आँखि न मूंदौं कान न रुधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं। खुले नयन पहिचानौं हँसि हँसि, सुन्दर रूप निहारौं।’ संपूर्ण पद्य को भी पढ़ो-
  साधो सहज समाधि भली।
  गुरु प्रताप जा दिन से जागी, दिन दिन अधिक चली ।।
  जहँ जहँ डोलौं सो परिकरमा, जो कुछ करौं सो सेवा ।
  जब सोवौं तब करौं दण्डवत, पूजौं और न देवा ।।
  कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खावँ पियौं सो पूजा ।
  गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा ।।
  आँख न मूँदौं कान न रूँधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं ।
  खुले नयन पहिचानौं हँसि-हँसि, सुन्दर रूप निहारौं ।।
  शब्द निरंतर से मन लागा, मलिन वासना भागी ।
  ऊठत बैठत कबहुँ न छूटै, ऐसी ताड़ी लागी ।।
  कहै कबीर यह उनमुनि रहनी, सो परगट कर गाई ।
  दुख सुख से कोइ परे परम पद, तेहि पद रहा समाई ।।
 समस्त पद्य को पढ़कर पाठक को यह सोचना चाहिए कि ‘गिरह उजाड़ एक सम लेखौं,भाव मिटावौं दूजा’ के अनुकूल ठीक-ठीक उनकी दशा हुई है या नहीं? फिर ‘शब्द निरंतर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी। ऊठत-बैठत कबहुँ न छूटै, ऐसी तारी लागी।’ इस पद्य में वर्णित ‘निरंतर शब्द’ में उनकी सुरत सदैव लगी रहती है या नहीं? यदि ‘दूजा भाव’ (द्वैत बुद्धि) सम्पूर्णतः छूट गया हो, घर और उजाड़ यथार्थ में एक ही तरह मालूम होते हों, निरन्तर शब्द में सुरत सदा लगी रहती हो और ‘मलिन वासना’-कभी नहीं आती हो, तो इस दशा पर पहुँचे हुए को अवश्य ही ‘सहज समाधि’ प्राप्त है। ‘निरन्तर शब्द’ के विषयों में तो बिहारी दरिया साहब कहते हैं-
 सोवत जागत ऊठत बैठत, टुक विहीन नहिं तारा ।
 झिन झिन जंतर निस दिन बाजै,जम जालिम पचिहारा ।।
 परन्तु यह ‘सहज समाधि’ की अवस्था किसी को आरंभ में ही होने योग्य नहीं है। दृष्टियोग और नादानुसन्धान करते-करते जब कोई साधन को अंत कर देता है, तब उसे यह दशा प्राप्त होती है। फिर उसको आँख बन्द और कान बन्द करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। प्रथम से ही आँख-कान बन्द नहीं करते हुए अथवा अभ्यास के कुछ भी कष्ट को नहीं धारण करते हुए सहज समाधि प्राप्त हो कभी संभव नहीं है। उसके अतिरिक्त वराहोपनिषद् का यह वाक्य भी ध्यान में रखने योग्य है-
 दुर्लभो विषय त्यागो दुर्लभं तत्त्व दर्शनम् ।
 दुर्लभासहजावस्था सद्गुरोः करुणां विना ।।
और कबीर साहब ने कहा ही है-
  साधो सहज समाधि भली।
  गुरु प्रताप जा दिन से जागी, दिन दिन अधिक चली ।।
 बिना योगाभ्यास के समाधि नहीं होती है। कबीर साहब कहते हैं-
 ‘सबद खोजि मन बस करै, सहज योग है येहि ।’
 ‘नैनों की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय ।
 पलकां की चिक डारि के, पिय को लिया रिझाय ।।’
‘बंद कर दृष्टि को फेरि अंदर करै, घट का पाट गुरुदेव खोलै।’
‘आँख कान मुख बंद कराओ। अनहद झींगा शब्द सुनाओ।
दोनों तिल एक तार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है ।।’
‘सहज ध्यान रहु सहज ध्यान रहु,गुरु के वचन समाई हो ।
 मेली चित्त चराचित राखो, रहो दृष्टि लौ लाई हो ।।’
 गुरु नानक साहब कहते हैं-
 ‘सुखमन कै घरि राग सुनि सुन मंडल लिव लाइ ।
 अकथ कथा वीचारीअै मनसा मनहि समाइ ।।’
 ‘तीन बंद लगाय कर सुन अनहद टंकोर ।
 नानक सुन्न समाधि में नहीं साँझ नहि भोर।।’
दादू दयालजी महाराज कहते हैं-
‘सहज समरपण सुमिरन सेवा, तिरवेणी तट संयम सपरा ।
सुन्दरि सन्मुख जागण लागी, तहँ मोहन मेरा मन पकरा।।’
        ‘सहज सुन्नि मन राखिये, इन दुन्यूँ के माहिं।
 लय समाधि रस पीजिये, तहाँ काल भय नाहिं।।’
 ‘क्यों करि उलटा आणिये, पसरि गया मन फेरि।
 दादू डोरी सहज की, यों आणै घेरि घेरि।।’
 ‘साध सबद सौं मिलि रहै, मन राखै बिलमाय।
 साध सबद बिन क्यों रहै, तबहीं बीखरि जाय।।’
पलटू साहब कहते हैं-
 धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव ।।
 सो मेरा गुरुदेव सेवा मैं करिहौं वाकी ।
 शब्द में है गलतान अवस्था ऐसी जाकी ।।
 निसदिन दशा अरूढ़ लगै ना भूख पियासा ।
 ज्ञान भूमि के बीच चलत है उलटी स्वासा ।।
 तुरिया सेती अतीत सोधि फिर सहज समाधी ।
 भजन तेल की धार साधना निर्मल साधी ।।
 पलटू तन मन वारिये, मिलै जो ऐसा कोउ ।
 धुन आनै जो गगन की, सो मेरा गुरुदेव ।।
 इन सब उद्धरणों से यही सिद्ध होता है कि आरंभ से ही ‘आँख न मूँदौं कान न रूँधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं। खुले नयन पहिचानौं हँसि-हँसि, सुन्दर रूप निहारौं ।।’ नहीं होता है। इस दशा पर आने के लिए पहले दृष्टियोग फिर नादानुसंधान पूर्णरूपेण करके उपर्युक्त दशा की प्राप्ति होती है। पद्य में कथित सहजयोग के अभ्यास के बिना सहज समाधि कदापि प्राप्त नहीं होगी। केवल मानसिक चिंतन ही सहज समाधि की अवस्था पर नहीं पहुँचाएगी, जिस समाधि में पहुँचकर पिण्ड में उतार होने पर भी सहज समाधि लगी रहती है, उस समाधि में मन नहीं पहुँचता। वहाँ केवल चेतनधारा की ही गति है। एक बार भी इस समाधि की प्राप्ति होने पर इस समाधिवाले को समाधि में प्राप्त सार पदार्थ (शब्द निरन्तर) कभी छूटता नहीं है। यद्यपि यह विषय सम्पूर्णतः वचन में आने योग्य नहीं है, तथापि देश में फैले हुए सहज समाधि के भ्रामक विचारों को कुछ-न-कुछ कहकर दूर करना आवश्यक है। इसीलिए इस विषय पर यह थोड़ी- सी बात कही गई। पुनः कह देना चाहता हूँ कि यह अन्तिम बात है, आदि की नहीं। आदि में तो है-
गुरु की मूरति मन महि धिआनु। गुरु के शबद मंत्र मन मानु।।
     - गुरु नानक साहब
 मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
 मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।
         - कबीर साहब
और सूक्ष्म ध्यान है-
 नैंनो की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय ।
 पलकों की चिक डारिके, पिय को लिया रिझाय ।।
 गगन मंडल के बीच में, तहँवा झलके नूर ।
 निगुरा महल न पावई, पहुँचेगा गुरु पूर ।।
 कबीर कमल प्रकाशिया, ऊगा निर्मल सूर ।
 रैन अंधरी मिटि गई, बाजै अनहद तूर ।।
 इन वाणियों से उनका ध्यान स्पष्ट मालूम होता है। कबीर साहब के पद्य में ‘प्रथमहिं सुरत जमावै तिल पर’ पहले कहा जा चुका है और अब ‘मूल ध्यान गुरु रूप है’ कहा गया। इसमें लोग भ्रम में आ सकते हैं और जिज्ञासा कर सकते हैं कि अभ्यास के आरंभ में गुरु-रूप का ध्यान होना चाहिए अथवा तिल पर सुरत जमाना चाहिए। इसके लिए जानना चाहिए कि गुरु-रूप का ध्यान स्थूल और मानस ध्यान है और तिल पर सुरत जमाने का ध्यान सूक्ष्म है और मन से विन्दु या तिल (इसकी युक्ति भेदी अभ्यासी गुरु से जानी जा सकती है।) बनाकर देखना नहीं है। अभ्यास के आरम्भ में स्थूल से ही आरम्भ करना स्वाभावानुकूल है। इससे दृष्टि और मन का सिमटाव स्थूल मूर्ति को मनोमय बनाकर मन और दृष्टि को उस पर रखने से मन और दृष्टि का जितना सिमटाव होता है, उससे तिल या विन्दु वा सूक्ष्म ध्यान के आरम्भिक अभ्यास करने की योग्यता अभ्यासी को होती है। जैसे मोटे-मोटे अक्षरों का लिखना सीखकर बारीक-बारीक अक्षरों के लिखने की योग्यता होती है। इसलिए अभ्यास के आरम्भ में गुरु-रूप का स्थूल ध्यान कहा गया है और सूक्ष्म ध्यान के आरंभ के लिए तिल वा विन्दु-ध्यान कहा गया है।
 यह संतमत परम आस्तिक मत है। इसमें सगुण रूप का ध्यान भी है और निर्गुण स्वरूप की भक्ति भी है। अभ्यासी गुरु के बिना लोग गड़बड़ में पड़े रहते हैं। अभ्यासी गुरु हो, अपने अभ्यास करे, तब संतमत ठीक-ठीक समझ में आता है। इसमें परहेज है-पंच पापों (झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार) से बचो। इन पंच पापों से अपने को बचाने के लिए कोशिश करो। ईश्वर से प्रार्थना करो और अभ्यास करो। संतलोग यही कहते हैं कि तुम्हारा कल्याण हो। साथ ही जो संत बताते हैं वह करो। यही संतमत है।
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यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत मुरादाबाद में दिनांक 11.10.1954 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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96. भगवान श्रीकृष्ण स्वयं संध्या करते थे
प्यारे लोगो!
 कबीर साहब की निस्बत विद्वान लोग कहते हैं कि वे बहुश्रुत थे। इससे वे ज्ञान-ध्यान की बात बहुत जानते थे। किंतु कबीर साहब स्वयं कहते हैं-
 मैं मरजीवा समुँद का, डुबकी मारी एक।
 मुट्ठी लाया ज्ञान की, जामें वस्तु अनेक।।
 इसमें संशय नहीं कि कबीर साहब बहुश्रुत थे, किंतु उन्होंने साधन भी किया था और तब वे ज्ञानी हुए थे। जैसा कि उनके उपर्युक्त वचन से पता चलता है। वे कहते हैं-
 डुबकी मारी समुँद में, निकसा जाय अकाश ।
 गगन मंडल में घर किया, हीरा पाया दास ।।
दूसरी जगह वे कहते हैं-‘शून्य ध्यान सबके मन माना।’
 शून्य ध्यान कैसे होगा, इसका पता अभ्यासी को मालूम होता है। शून्य ध्यान भगवान श्रीकृष्ण को भी पसंद था। श्रीमद्भागवत में आया है-उद्धव से भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-‘पहले तुम मेरे सम्पूर्ण शरीर का ध्यान करो, फिर चेहरे का और इन दोनों में दृढ़ हो जाने पर शून्य में ध्यान करो।’ यथा-
 इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाऽऽकृष्य तन्मनः।
 बुद्ध्या सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः।।
 तत्सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत् ।
 नान्यानि चिन्तयेद्भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम् ।।
 तत्र लब्ध पदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत् ।
  -श्रीमद्भागवत, स्कन्ध 11, अध्याय 14
 अर्थात् बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से खींचकर उस मन को बुद्धि रूपी सारथी की सहायता से सर्वांगयुक्त मुझमें ही लगा दे। सब ओर से फैले हुए चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थिर करे और फिर अन्य अंगों का चिंतन न करता हुआ केवल मेरे मुस्कानयुक्त मुख का ही ध्यान करे। मुखारविन्द में चित्त के स्थिर हो जाने पर उसे वहाँ से हटाकर आकाश में स्थिर करे।
 भगवान श्रीकृष्ण स्वयं संध्या करते थे। वे बा्रह्ममुहूर्त्त में संध्या करते थे। हर संध्या के समय करते होंगे; किंतु एक विद्वान ने लिख दिया कि महाभारत के मैदान में संध्या के समय अन्य लोग संध्या करते थे और भगवान श्रीकृष्ण घोड़े की परिचर्या करते थे। संत कबीर साहब की वाणी-‘झीनी झीनी बीनी चदरिया।’-पर उन्होंने यह लिखा है कि कबीर चादर बिनता जाता था और यह पद ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया।’ गाता जाता था। मानो परमात्मा को ओढ़ाने के लिए वह चादर बिनता हो। लेकिन उनके सम्पूर्ण पद्य को सुनिए-
झीनी झीना बीनी चदरिया।।टेक।।
काहे कै ताना काहे कै भरनी, कौने तार से बीनी चदरिया।।
इंगला पिंगला ताना भरनी, सुषमन तार से बीनी चदरिया।।
आठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्त गुन तीनी चदरिया।।
साईं को सियत मास दस लागै, ठोक ठोक के बीनी चदरिया।।
सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी, ओढ़िके मैली कीन्हीं चदरिया।।
दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया।।
 एक विद्वान ने-‘सतपुरुष इक बसैं पछिम दिसि, तासों करो निहोर ’ का अर्थ किया था कि ‘कबीर मुसलमान खानदान के थे। इसलिए उन्होंने मक्का का संकेत किया।’ किंतु वे इसका क्या अर्थ करेंगे, जब कबीर साहब ने चारो दिशाओं का हाल कहा है-
जानता कोई ख्याल ऐसा।.....
पूरब सोधि पछिम दिस लावै, अर्ध उर्ध के भेद बतावै।
सिला नाथि दक्खिन को धाओ, उत्तर दिसा को सुमिरन चाखो।
चारो दिसा का हाल।।ऐसा.।।
 केवल विद्या-बुद्धि से ही संतवाणी का अर्थ नहीं हो सकता। इसके लिए युक्ति जाननी चाहिए और अभ्यास भी करना चाहिए, तभी संतवाणी का ठीक-ठीक अर्थ हो सकेगा। स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करना मरना है। कबीर साहब ने कहा है-
 मरिये तो मरि जाइये, छूटि पड़ै जंजार।
 ऐसी मरनी को मरै, दिन में सौ सौ बार।।
 यहाँ दिन का अर्थ समय से है। समय में ही रहकर लोग जनमते-मरते हैं। लेकिन जबतक जन्म का कारण जो है, उसके पार न हो जाय, तबतक यह छूट नहीं सकता। स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महा- कारण; इन सब शरीरों को जो पार कर जाएगा, तब जो उसका मरना होगा, तो फिर जनमना-मरना नहीं होगा। ऐसा जिस जन्म में होगा, उसके बाद फिर उसका जन्म नहीं होगा। इसलिए बहुत भजन करना है।
 एक गरीब का बच्चा हो या अमीर का, दुःख सबको होता है। बचपन में मलमूत्र पर पड़े रहना, जवानी में विकारों में फँसना, इसी दुःख में लगे रहना बुद्धिमत्ता नहीं है। इससे छूटने के लिए भजन करना चाहिए। ऐसा विश्वास है कि अभी कुछ जपते हैं, प्राणायाम करते हैं, इससे ही हमारी मुक्ति हो जाएगी, इसका विश्वास नहीं करना चाहिए। यह तो उतना ही है-जहाँ से योग का आरंभ किया जाता है। किंतु इस विन्दु के बिना काम नहीं चलता और केवल इसी में लगे रहने से भी काम नहीं चलता। इससे आगे बढ़ने के लिए किसी जानकार गुरु को धारण करो। योगशिखोपनिषद् में गुरु को कर्णधार कहा है-
 कर्णधारं गुरुं प्राप्य तद्ववाक्यं प्लवव दृढम्।
 अभ्यासवासनाशक्त्या तरन्ति भवसागरम्।।
 अर्थात् गुरु को कर्णधार (मल्लाह) पाकर और उनके वाक्य को दृढ़ नौका पाकर अभ्यास (करने की) वासना की शक्ति से भवसागर को लोग पार करते हैं। द
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यह प्रवचन मुरादाबाद नगर स्थित श्रीसंतमत सत्संग मंदिर में दिनांक 14.10.1954 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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97. एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो
प्यारे लोगो!
 आपलोगों को संसार की वस्तुओं में से कुछ- न-कछ अवश्य प्राप्त है। किंतु इन वस्तुआें से आप अपने को कैसा समझते हैं, मालूम है। सांसारिक वस्तुओं में से अधिक या कम जो कुछ भी प्राप्त है, इसमें संतुष्टि नहीं आती है। जहाँ संतुष्टि नहीं है, वहाँ सुख-शान्ति नहीं है। यह खोज अवश्य चाहिए कि जिसको पाकर पूरी संतुष्टि हो जाए, वह क्या है? इसके लिए संसार में कोई खोजे तो संसार के सभी पदार्थ इन्द्रियों के द्वारा जानते हैं। रूप को आँख से, शब्द को कान से आदि; इन सब पंच विषयों से विशेष कुछ संसार में नहीं है। यदि है भी तो आप कैसे जान सकते हैं। इसलिए संत महात्मा कहते हैं कि जिसमें पूरी संतुष्टि है, वह पूरी संतुष्टि देनेवाला पदार्थ परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। उस परमात्मा की खोज करो। इसका कारण है कि परमात्मा पूर्ण हैं और इन्द्रियाँ अपूर्ण शक्तिवाली हैं। अपूर्ण शक्तिवाली इन्द्रियों से पूर्ण सुख-शान्ति को कैसे प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए पूर्ण परमात्मा को खोजो। वह परमात्मा कहाँ है, स्वरूपतः वह क्या है? इसका पता लगाओ। मुख्तसर में है कि जो इन्द्रियों से अगोचर है, आत्मगम्य है, वह वही है। वह सर्वत्र है। कहीं से भी खाली नहीं है। बाहर-भीतर एक रस सब में है। ‘बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआन बताई।’ (गुरु नानक साहब) इसलिए उसकी खोज करो। जो वस्तु आपके घर में हो और दूसरे के घर में भी हो तो उसे लेने की सुगमता कहाँ होगी? अपने घर में या दूसरे घर में? अपने घर की वस्तुओं को लेने में ही सुगम है। दूसरी बात है कि इन्द्रियों से विषयों का बाहर में ज्ञान होता है, किंतु परमात्मा इन्द्रिय-ज्ञान द्वारा जाना नहीं जाता। तब फिर उसे बाहर में इन्द्रियों से खोजकर कैसे प्राप्त कर सकते हैं। संत कबीर साहब ने कहा है-‘परमातम गुरु निकट विराजैं जागु जागु मन मेरे।’ परमात्मा अपने अंदर में अत्यंत निकट है। यह शरीर कब गुजर जाएगा, ठिकाना नहीं। भजन करने का अवसर निकल जाता है, पीछे पछतावा होती है। इसलिए इसके छूटने के पहले से ही भजन करो। परमात्मा को ढ़ूढ़ने में विलम्ब मत करो।
 काल्ह करै सो आज कर, आज करै सो अब ।
 पल में परलै होयगा, बहुरि करैगा कब ।।
       - संत कबीर साहब
 इसलिए जल्दी खोज करनी चाहिए। फिर कहा-
     जुगन जुगन तोहि सोवत बीते, अजहुँ न जाग सबेरे।
       - संत कबीर साहब
 माया मुख जागे सभै, सो सूता कर जान।
 दरिया जागे ब्रह्म दिसि, सो जागा परमान।।
       - संत दरिया साहब
 गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज का कहना है-
मोह निशा सब सोवनिहारा । देखिअ सपन अनेक प्रकारा।।
 जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति; ये तीनों अवस्थाएँ सबको प्रतिदिन हुआ करती हैं। यह कैसे होता है? जागने के समय में एक स्थान में, स्वप्न में दूसरे स्थान में, सुषुप्ति में तीसरे स्थान में जीव रहता है। स्थान-भेद से अवस्था-भेद और अवस्था-भेद से ज्ञान-भेद होता है। अभी आप जगे हुए हैं, किंतु साधु-संत इस जगना को भी जगना नहीं कहते हैं। तीन अवस्थाओं से ऊपर तरीय अवस्था में अपने को ले जाओ तब जगना है। ‘तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त।’ जबतक तुरीय में जीव नहीं जाता है, तबतक जगना नहीं है। केवल विचार में जान लेने से जगना नहीं है, जगना तब होता है, जब चौथी अवस्था में जाओ। इसके लिए गुरु से यत्न जानो। गुरु यत्न बता भी दे और यत्न जाननेवाला अभ्यास नहीं करे तो वहाँ कैसे पहुँच सकता है? जितने पदार्थों में हमारी आसक्ति होती है, वहाँ-वहाँ हम लसकते हैं। इस लसकाव से अपने को विचार द्वारा छुड़ाओ और अंतर-अभ्यास द्वारा उस लसकाव के संबंध को ढीला करो। तुरीय का मैदान भी बहुत लम्बा है। इसमें बढ़ने पर आसक्ति छूटती जाती है। साधु-संत लोग ईश्वर की खोज अपने अंदर करने कहते हैं। गुरु नानकदेव ने भी कहा है-
  काहे रे वन खोजन जाई।
 सरब निवासी सदा अलेपा, तोही संग समाई ।।
 पुहुप मधि जिउ बासु बसतु है, मुकुर माहिं जैसे छाई ।
 तैसे ही हरि बसे निरंतरि, घटही खोजहु भाई ।।
 बाहरि भीतरि एको जानहु,इहु गुर गिआन बताई ।
 जन नानक बिनु आपा चीनै,मिटै न भ्रम की काई ।।
 गोस्वामी तुलसीदासजी को भी अपने अन्दर में ईश्वर की प्राप्ति हुई। वे कहते हैं-
एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो ।
परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं, बाहर फिरत विकल भय धायो।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद, अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल, परम सुगंध कहाँ ते आयो।।
ज्यों सर विमल वारि परिपूरन, ऊपर कछु सेंवार तृन छायो ।
जारत हियो ताहि तजिहौं सठ, चाहत यहि विधि तृषा बुझायो।।
व्यापित त्रिविध ताप तन दारुण, तापर दुसह दरिद्र सतायो।
अपने धाम नाम सुरतरु तजि, विषय बबूर बाग मन लायो।।
तुम्ह सम ज्ञाननिधान मोहि सम, मूढ़ न आन पुरानन्हि गायो।
तुलसिदास प्रभु यह विचारि जिय, कीजै नाथ उचित मन भायो।।
 लोग ग्रंथों को पढ़-पढ़कर व्याख्यानों को सुन-सुनकर ईश्वर का ज्ञान समझते हैं। किंतु यह ज्ञान पूर्ण नहीं है। पूर्ण ज्ञान प्रत्यक्षता में है। गोस्वामी तुलसीदासजी अपने लिए कहते हैं-
ज्यों सर विमल वारि परिपूरन, ऊपर कछु सेंवार तृन छायो।
जारत हियो ताहि तजिहौं सठ, चाहत यहि विधि तृषा बुझायो।।
सूरदासजी महाराज भी यही कहते हैं-
  अपुनपौ आपुन ही में पायो।
  शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो ।।
  ज्यों कुरंग नाभि कस्तूरी, ढूँढ़त फिरत भुलायो ।
  फिर चेत्यो जब चेतन ह्वै करि, आपुन ही तनु छायो ।।
  राज कुँआर कण्ठे मणि भूषण, भ्रम भयो कह्यो गँवायो ।
  दियो बताइ और सत जन तब, तनु को पाप नशायो ।।
  सपने माहिं नारि को भ्रम भयो, बालक कहुँ हिरायो ।
  जागि लख्यो ज्यां को त्यों ही है, ना कहूँ गयो न आयो ।।
  सूरदास समुझै की यह गति, मन ही मन मुसुकायो।
  कहि न जाय या सुख की महिमा, ज्यों गूँगो गुर खायो।।
 गोस्वामी तुलसीदासजी की तरह सूरदासजी भी मृगा की उपमा देते हैं। फिर ये एक माई की उपमा देते हैं कि जैसे कोई माई अपने बच्चे को साथ में लेकर सो गई और स्वप्न में देखती है कि बच्चा खो गया। किंतु जगने पर उसे अपने नजदीक ही मिलता है। उसी तरह माया में सोया हुआ प्राणी को ईश्वर खोया हुआ मालूम होता है, किंतु ईश्वर उसके नजदीक में ही है। पलटू साहब भी कहते हैं-
 बैरागिन भूली आप में जल में खोजै राम ।।
 जल में खोजै राम जाय के तीरथ छानै ।
 भरमै चारिउ खूँट नहीं सुधि अपनी आनै ।।
 फूल माहिं ज्यों बास काठ में अगिन छिपानी ।
 खोदे बिनु नहिं मिलै अहै धरती में पानी ।।
 दूध मँहै घृत रहै छिपी मिंहदी में लाली ।
 ऐसे पूरन ब्रह्म कहूँ तिल भरि नहिं खाली ।।
 पलटू सत्संग बीच में करि ले अपना काम ।
 बैरागिन भूली आप में जल में खोजै राम ।।
 हमलोगों का यह संतमत-सत्संग है। संतमत वह है, जो सब संतों की राय है। यह ज्ञान कि ईश्वर अपने अंदर है, अपने अंदर उसकी खोज करो यही सब संतों की राय है। लोग ईश्वर की खोज में दूर-दूर तक हैरान न हों, उसकी खोज अपने अंदर में करें। इसलिए संतों का सत्संग है। शरीर से जैसे मनुष्य है, उसी प्रकार ज्ञान से भी मनुष्य होना चाहिए। जब बाहर के विषयों को छोड़कर परमात्मा को प्राप्त कर लेता है, तब वह पूरा मनुष्य होता है। इसलिए हमलोगों को चाहिए कि पूरा मनुष्य बनें और सारे क्लेशों से दूर हो जाएँ। त्रैकाल संध्या अवश्य करनी चाहिए। ब्राह्ममुहूर्त्त में उठकर मुँह-हाथ धोकर, दिन में स्नान के बाद और फिर सायंकाल; तीनों काल संध्या करो। यह कितने पूर्व से है ठिकाना नहीं। हमारे मुसलमान भाइयों के लिए पंचबख्ती नमाज है। बहुत मुसलमान भाई करते हैं, वे बहुत अच्छा करते हैं। जो नहीं करते हैं, वे ठीक नहीं करते हैं, पाप करते हैं। उसी तरह हमारे भारतीय वैदिक धर्मावलम्बी को भी त्रैकाल संध्या करनी चाहिए। जो नहीं करते हैं, वे ठीक नहीं करते, पाप करते हैं। अपने अंदर में परमात्मा की खोज होनी चाहिए। मन्दिरों में जो दर्शन होता है, वह अपूर्ण है। इच्छा रह ही जाती है कि प्रत्यक्ष दर्शन होता। इसलिए अपने अंदर में खोजिए। ***************
यह प्रवचन रोहतास जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर डेहरी ऑन सोन में दिनांक 18.10.1954 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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98. सिमटी दृष्टि से देखो
प्यारे लोगो!
 मन की चंचलता में संसार है और मन की निश्चलता में परमात्मा है। मन चंचल होता है, विषयों के अवलम्ब से। जैसे भौंरा एक फूल से दूसरे फूल पर जाता है सुगंधि के लिए; क्योंकि बगीचे में विविध प्रकार के फूल रहा करते हैं। जहाँ एक-ही-एक फूल हो और फूल नहीं हो, वहाँ भौंरा एक ही फूल पर रहेगा। इसी प्रकार रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द; इन पंच विषयों पर मन दौड़ता रहता है। यदि इन पंच विषयों को हटा दीजिए तो संसार क्या रहता है? जो आँख से देखा जाय, वह रूप है, जो कान से ग्रहण हो वह शब्द है, जो जिभ्या से ग्रहण हो वह रस है, जो त्वचा से ग्रहण हो वह स्पर्श है तथा जो नासिका से ग्रहण हो वह गन्ध है। इन पाँचो को हटा दो तो संसार नहीं रहेगा। इन्हीं पाँचों में विविध प्रकार हैं। एक ही शब्द में छत्तीस प्रकार हैं। तीस राग और छह रागिनी। इसी प्रकार दृश्य कितने प्रकार के हैं, ठिकाना नहीं। इन्हीं सब विषयों की ओर मन दौड़ता रहता है। मन केवल एक ही विषय पर नहीं दौड़ता। जहाँ एक विषय है, वहाँ दूसरा विषय भी है। एक विषय दूसरे विषय का साथी है। इन सब विषयों में मन जब किसी एक विषय पर रहता है तो अन्य विषयों पर भी दौड़ता है। दूसरी बात यह कि घर में बहुत चीजें हैं, सबको निकाल दीजिए तो केवल शून्य बच जाता है। मन बिना किसी एक पर रहे नहीं मानता। मन से पंच विषयों को हटा दीजिए तो संसार नहीं बचता, तब परमात्मा बचता है। ईश्वर में मन को लगाना चाहे तो पंच-विषयों से मन को हटा लीजिए। परमात्मा की ओर हो जाएगा। ईश्वर की भक्ति यही है कि निर्विषय की ओर मन जाए।
 ध्यान करना भक्ति है। मन को निर्विषय करना ध्यान है। ‘ध्यानं निर्विषयं मनः।’ संसार को पंच-विषयमय कहते हैं, तीन को छोड़ देने पर दो रहने पर भी संसार है नाम और रूप। शब्द और दृश्य। शब्द और दृश्य चले गए तो संसार भी चला गया। नाम और रूप संसार है। संसार-मुख नहीं, ईश्वर-मुख होना है। संसार को नहीं, ईश्वर को पकड़ना है। नाम और रूप छूट जायँ, तो ईश्वर को पाओगे। शब्द बहुत-से हैं और रूप भी बहुत- से हैं। ये कैसे छूटे? तो किसी एक शब्द को जपो और सब शब्दों को छोड़ दो, यही गुरु-मंत्र है। इसी तरह रूप भी बहुत हैं तो एक रूप को लो और सब रूपों को छोड़ दो। जो रूप गुरु ने दिखाया है, उस रूप पर आसक्त होकर उसमें लगे रहो। अब नाम-रूप में सिमटाव हो गया। केवल एक ही नाम और एक ही रूप है, फिर भी संसार मौजूद है। एक नाम और एक रूप में जो मन रहा तो स्थूल नाम रूप में रहा। एक ही नाम रूप में रहते-रहते मन का इतना सिमटाव हुआ कि एक पर रह सकता है। जैसे राम कहो, वाह गुरु कहो अथवा ओ3म् कहो, इसमें भी विस्तार है। बिल्कुल विस्तार सिमटाव में आ जाय, ऐसा कौन रूप है? जो रूप सब रूपों का बीज है, वही एक रूप है जिसमें विस्तार नहीं है। जब वर्णात्मक नाम को जपते हैं तो उसका सिमटाव नाद में होता है। नाम का सिमटाव नाद में और रूप का सिमटाव विन्दु में होता है। इसलिए विन्दु में सिमटाव होने से स्थूल से सूक्ष्म में चले आए। नाम-रूप छूटे नहीं हैं भगवान, तो क्या छूट सकते। वे तो सर्वगत हैं। विन्दु रूप भी हरि का है। अणोरणीयाम् रूप का वर्णन भी श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने किया है। विन्दु रूप भगवान का ज्योर्तिमय रूप है। यह इस दृष्टि से देखा नहीं जाता। दृष्टियोग- अभ्यास से प्राप्त होता है। वह दिव्य दृष्टि है। फैली दृष्टि से नहीं सिमटी दृष्टि से देखिए। ऐसा सिमटाव हो, ऐसा निशाना कि जिसका निशान हो कि केवल वही रहे। अर्जुन, भीष्म, कर्ण सबका ऐसा निशान था। दृष्टि समेटने के लिए बाहर मत देखो, अंदर देखो। फैली दृष्टि से नहीं, सिमटी दृष्टि से देखो।
 इसी तरह अणोरणीयाम् रूप भगवान का दर्शन होता है। फिर भी सूक्ष्म जगत रहता है। इस दर्शन से भी ऊपर उठना होगा। विराटरूप जगतरूप है। जगतरूप से ऊपर उठने के लिए अरूपी को लेना होगा। इसलिए नाद लेना पड़ेगा। नाद अरूप है। जहाँ मन का पूर्ण सिमटाव होता है, वहीं नाद का उदय होता है। विन्दु पर मन का पूर्ण सिमटाव होता है, वहीं नाद मिलता है। इसीलिए ध्यान- विन्दूपनिषद् में कहा है-
 बीजाक्षरं परम विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम्।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम्।।
 शब्द में भी जबतक विविधता है, तबतक संसार है और तबतक परमात्मा का दर्शन नहीं होता है। जब अक्षर ब्रह्म में शब्द लय हो जाता है, वहीं परमात्मा का दर्शन होता है। शून्य के बिना सगुण शब्द नहीं होता। शून्य से सगुण शब्द की उत्पत्ति है और वहीं लय भी होता है। उसी प्रकार ईश्वर से निर्गुण शब्द का उदय होता है और वह शब्द फिर ईश्वर में जाकर लय हो जाता है। तब वहीं ‘निःशब्दं परमं पदम्’ है। ‘एक अनीह अरूप अनामा’ ही निःशब्दं परमं पदम्’ है। मन की स्थिरता में भक्ति है, मन की चंचलता में भक्ति नहीं है। नाम-रूप के द्वारा इसको टप कर ईश्वर को प्राप्त करो। यही भक्ति है।
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यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर फुलवड़िया में दिनांक 31.10.1954 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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