1953 (प्रवचन संख्या : 040-058 )

40. सन्तमत का उपदेश (03.01.1953)


40. संतमत का उपदेश

प्यारे लोगो!
 आपलोगों में से बहुतों को यह मालूम है कि मैं किस कारण से यहाँ आया करता हूँ। इसपर कुछ कहना व्यर्थ ही समय बिताना है। मेरे गुरु महाराज बाबा देवी साहब थे। एक बार उन्होंने मुझसे यहाँ (मुरादाबाद मुहल्ला अताई में) ही कहा था कि तुम कहाँ रहते हो और मैं कहाँ रहता हूँ? तुम बिहार के पुरैनियाँ जिले में और मैं यहाँ। तुम कहाँ और मैं कहाँ? दोनां में कैसे सरोकार हो गया? पहले जन्म में भी तुमको मुझसे संतमत के द्वारा संबंध था।
 बाबा साहब का प्रचार संतमत का उपदेश है। संतमत का मतलब कोई अपना-निज मतलब का मत निकालना और उसका नाम संतमत रखना नहीं। बल्कि सब संतों के मत को गुरु महाराज मानते थे और कहते थे कि सब संतों की वाणियों को मानो। बाबा साहब के पितामह तथा पिता आदि के गुरु हाथरस निवासी तुलसी साहब थे, जिनको लोग ‘घटरामायण’ (घटरामायण बाबा देवी साहब ने छपवायी है, जिसे सत्संग में पढ़ने का आदेश वे दे गए हैं।) के कर्ता मानते हैं। उन्होंने भी यही कहा कि मेरा कोई खास मत नहीं है। सब संतों ने जो कहा, वही मत मेरा है।
( तुलसी संत भेद विधि गाई । संत भेद तब अगम लखाई।। -घटरामायण, पृष्ठ 194
संत गुरु और पंथ न जाना । येे ही संत पंथ हित माना।।
      -घटरामायण, पृष्ठ 198
तुलसी गति गाई, शब्द सुनाई। पंथ अगम सुर्त सार भई।।
नानक और दादू, दरिया साधू । मीरा सूर कबीर कही।।
नाभा नभ जानी, भाखी बखानी। सुरति समानी पार गई।।
सबकी विधि न्यारी, एक विचारी। सब संतन एक राह लई।।
सब चढ़े एक धारा, पहुँचे पारा। लखी गगन गति गवन गई।।
कोई करिहैं शंका, महापति रंका। तुलसी डंका दीन कही।।
      -घटरामायण, पृष्ठ 236
तुलसी मैं अति नीच निकामा। मैं गुरु बिन कछु नाहिं बखाना।।
मैं किंकर संतन कर दासा। सतसंगति में सुनौ विलासा।।
अस अस संत सबन मिलि गाई। दास बनैजिन जिन कछु पाई।।
तुलसी तासे पंथ न कीना। भेष जगत भया पंथ अधीना।।
तुलसी मैं कछु जानौ नाई। पलक राम तुमरी सरनाई।।
मैं हूँ संत चरन की लारा । बन्दौं चरणन बारम्बारा।।
संत बिना कोउ देख न आना। सत सत सुरत संत को माना।।
      -घटरामायण, पृष्ठ 374
संतन गति गाई, अगम सुनाइ। जिन जिन पाई पार भई।।
सब सब मिलि गावा, मैं हूँ सुनावा। अगम अथाहा आदि कही।।
देखौ निज बानी, संत बखानी। जिन जिन जानी, जानि लई।।
      -घटरामायण, पृष्ठ 375
हम संतन मत अगम बखाना। हम तो इष्ट संत को जाना।।
      -घटरामायण, पृष्ठ 434
देखौं सब संतन की साखी। बूझि ज्ञान जब खुलिहैं आँखी।।
      -घटरामायण, पृष्ठ 435)
 सब संतों की वाणियों से यही जाना कि-ईश्वर की भक्ति करो। सब संतांं की वाणियों को पढ़ा जाय तो यही जानने में आएगा कि सब संत ईश्वर की भक्ति करने के लिए कहते हैं। सब मनुष्य दुःखी हैं। कोई धनी, गरीब, विद्वान, अविद्वान कुछ भी हों; सब-के-सब दुःखी रहते हैं। दैहिक विकार के साथ-साथ मन के विकार सताते रहते हैं। इनसे छूटना मनुष्य का काम है। दुःख से बिल्कुल छुट्टी मिल जाय, इसीलिए संत कहते हैं कि ईश्वर की भक्ति करो। यहाँ तुलसीकृत रामायण की यह बात याद आती है-
      राकापति षोडस उअहिं, तारागण समुदाय।
      सकल गिरिन्ह दव लाइय, बिनु रवि राति न जाय।।
ऐसेहि बिनु हरि भजन खगेशा। मिटहिं न जीवन केर कलेसा।।
 अर्थात् पूर्णिमा के सोलह चंद्रमा (अथवा सोलह कलाओं से युक्त चंद्रमा) उगें; तारेगणों के सब झुण्ड भी उगें, सब पर्वतों में आग लगा दी जाय, परंतु बिना सूर्य के रात नहीं जाती। हे गरुड़जी ! इसी प्रकार बिना हरि भजन किए जीवों का क्लेश नहीं मिटता। यह बिल्कुल ठीक है। इसीलिए संतों ने ईश्वर का भजन करने कहा। ईश्वर का भजन कैसे हो, इसके लिए ईश्वर का स्वरूप जानना चाहिए। पहले स्वाध्याय और साधु-संत, विद्वान से सुनकर श्रवणज्ञान होता है। पढे़-सुने के विचार करने को मननज्ञान कहते हैं। श्रवण और मनन के बाद जानने में आता है कि प्राप्तव्य वस्तु क्या है? ईश्वर को प्राप्त करो, वही प्राप्तव्य वस्तु है। जिस कर्म से वह पाया जाय, वही भक्ति है। ईश्वर स्वरूप क्या है? इसके बारे में संतों के गं्रथां में ऐसा लिखा है कि स्वरूपतः वह परमात्मा इन्द्रियातीत है अर्थात् बाहर की दश इन्द्रियाँ और भीतर की चार इन्द्रियाँ; इन चौदहों इन्द्रियों के ज्ञान से वह परे है।
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।
 यह उनका स्वरूप है।
जग पेखन तुम देखनिहारे । विधि हरि सम्भू नचावन हारे।।
तेउ न जानहिं मरम तुम्हारा । अउर तुम्हहिं को जाननिहारा।।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।।
तुम्हरिहि कृपा तुम्हहिं रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन।।
चिदानंदमय देह तुम्हारी। विगत विकार जान अधिकारी।।
     -गोस्वामी तुलसीदास
 चिदानंदमय-देह कोई मनुष्य-देह नहीं हो सकती, उसे अधिकारी-जन जानते हैं। अधिकारी जन साधन-भजन कुछ करके ही बनते हैं। तब चिदानंदमय-देह को पहचान कर वह जानते हैं; अन्य प्रकार से नहीं। देह क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है। अन्नमय कोष चिदानंदमय नहीं है, चेतन शरीर चिदानंदमय है। चिदानंद और नरतन में भेद नहीं था, ऐसा नहीं। नरतन और चिदानंद में पृथकता है। नरतन को सब कोई देखते हैं, किंतु चिदानंद को अधिकारी-जन ही जानते हैं। जिस शरीर में लड़कपन, युवावस्था और बुढ़ापा होता है तथा जिसका होना रहना और विनसना होता है, वह चिदानंद-शरीर नहीं है। जिसमें शोक-दुःख हो, वह चिदानंद-शरीर नहीं है, वह तो नर रूप है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने क्षीरशायी भगवान विष्णु का नर-रूप धारण करना इस भाँति लिखा है-
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप।
 किए चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप।।
 यथा अनकेन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ।
 सोइ सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ।।
 इस दोहे से स्पष्ट है कि नरतन और चिदानंद देह में अंतर है। अपनी लीला के हेतु नरतन धारण किया। नरतन धारण करने से वे स्वरूपतः नर ही थे, मानने योग्य नहीं है। जैसे नाटक करनेवाला नाटक के खेल में जो रूप धारण करता है, वह वही नहीं हो जाता है। चेतन ही चिदानंदमय शरीर को देखेगा। अपने को जड़ के चारों शरीरों से ऊपर उठावे, तभी वह अधिकारी भक्त उसे जान सकता है। इसलिए ‘जान अधिकारी’ कहा। वह चेतनमय देह और उसका फिर देही क्या है और कैसे है ? वह शुद्ध आत्मस्वरूप है। वह चेतन से वैसे संबंध रखता है जैसे आकाश वायु से। बीच में कुछ परदा नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी की विनयपत्रिका में है-
 तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त।
 मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनंत।।
 वचन से, कर्म से और मन से उसे पहचान नहीं सकते। ‘व्याप्य’ और ‘व्यापक’ फिर ‘अनंत’ कहा। व्याप्य के बाद वह और कितना बाकी है, ठिकाना नहीं। यह ईश्वर का स्वरूप है।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवई निद्रा तजि योगी ।
सोइ हरि पद अनुभवइ परम सुख, अतिशय द्वैत वियोगी ।।
शोक मोह भय हरष दिवस निशि, देश काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दशा हीन , संशय निर्मूल न जाहीं ।। योगी, जो सकल ब्रह्माण्ड के दृश्य को अपने उदर में मेलकर देखता है, देश-कालातीत अर्थात् स्थान और समय से रहित शुद्ध आत्मतत्त्व पद को प्रत्यक्ष रूप से जानता है और अत्यंत द्वैतरहित होकर हरिपद के परम सुख को पाता है। देश- कालातीत परम तत्त्व ही हरिपद या परमात्म-स्वरूप है। सूरदासजी से पूछने पर कहते हैं-
अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यों गूंगहिं मीठे फल को रस, अंतर्गत ही भावै।।
परम स्वाद सबही जु निरन्तर, अमित तोष उपजावै।
मन बानी को अगम अगोचर , सो जानै जो पावै।।
रूप रेख गुन जाति जुगति बिनु, निरालंब मन चक्रित धावै।
सब विधि अगम विचारहिं तातें, ‘सूर’ सगुण लीला पद गावै।।
 विषयों में संतुष्टि नहीं, परंतु विभु-परमात्मा तो परमस्वाद-रूप निरंतर अमित तोषदायक है। वह स्वाद विनसनेवाला नहीं, सदा स्वाद बना रहता है, उसमें पूर्ण संतुष्टि है, मानो अधिकारी भक्त संतुष्टि के समुद्र में डूबा रहता है, वह कुछ चाहता नहीं है। जो मन, वचन से अगोचर है, उसे वही जानता है, जो पाता है। कबीर साहब कहते हैं-
 ‘नैना बैन अगोचरी, श्रवणा करनी सार ।
 बोलन कै सुख कारने, कहिये सिरजनहार ।।’
 ‘जस कथिये तस होत नहीं, जस है तैसा सोय ।
 कहत सुनत सुख ऊपजै, अरु परमारथ होय ।।’
 श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य।।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींहीं तें सब लेखा।
 सबके मध्य निरंतर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा।।
 चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना।
 चून चगून वजूद न मानु तैं सुभा नमूना ऐना।।
 दृष्टि की दृष्टि अर्थात् आत्मा से देखने योग्य है। ये भी बुद्धिवचन के परे कहते हैं। बाबा नानक कहते हैं-
अलख अपार अगम अगोचरि ना तिसु काल न करमा।
जाति अजाति अजोनी संभउ ना तिसु भाउ न भरमा।।
साचे सचिआर विटहु कुरवाणु ।।
ना तिसु रूप वरणु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु।।रहाउ।।
 उपनिषद् में पढ़ने से यही मालूम होता है कि जो संतां का ज्ञान है, उपनिषद् में भी वही है। या उपनिषद् में जो बात है, संत भी वही बात बताते हैं। पंच विषयों को पंच ज्ञानेन्द्रियों से जानते हैं। जिस इन्द्रिय का जो विषय है, उसी इन्द्रिय से वह जाना जाता है। एक इन्द्रिय का जो विषय है, उसके अतिरिक्त दूसरी इन्द्रिय से उस विषय को नहीं जान सकते। कोई पूछे कि रूप विषय क्या है, तो कहेंगे जो आप नेत्र से ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार परमात्म-विषय वही है, जिसे केवल चेतन आत्मा से जान सकते हैं। वही सतनाम, सतसाहब और कर्ता पुरुष है, वही आत्मा है, वही परमात्मा है। आकाश कहने से घर के भीतर और बाहर दोनों का ज्ञान होता है। इसी तरह आत्मा कहने से शरीरस्थ आत्मा और सर्वपर आत्मा; दोनों का ज्ञान होता है। चाहे कोई शरीरस्थ आत्मा कहे, कोई परमात्मा कहे; एक ही बात है।
 यह जान लेने पर अब भक्ति कैसे करें? उस परमात्म-पुरुष को देख लेते, पहचान लेते तो हम संतुष्ट हो जाते। वह है, सर्वत्र है। अपना रहना अपने शरीर में है, वह परमात्मा भी अपने अंदर में है। फिर पहचानते क्यों नहीं? हम शरीर और इन्द्रियों में फँसे हुए हैं। इसलिए हमको चाहिए कि अपने को शरीर और इन्द्रियों से निकालें, तभी हम देखेंगे। जिस प्रकार दूध में घी मिला है, उसी तरह शरीर और इन्द्रियों में जीवात्मा मिला है। इससे अलग करना कठिन मालूम होता है। किंतु यह हो सकता है, ऐसा संतों ने कहा है। दूध से मथकर घी निकाल कर उसमें रखने से फिर उसमें पहले जैसा वह मिलता नहीं, उसी प्रकार शरीर और इन्द्रियों से अपने को निकाल लेने पर पुनः शरीर और इन्द्रिय में रहकर उसमें पूर्ववत् मिलाप से बचते हुए रहकर परमात्मा को प्रत्यक्ष पहचान सकते हैं। ऐसा हो जाने पर तुम उसे बाहर भीतर सब जगह आत्मदृष्टि से देखोगे।
 बाहरि भीतरि एकहु जानहु इहु गुर गिआन बताई।
 जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई।।
          -गुरु नानक साहब
 अपने शरीर से अपने को अलग करो। इसी भक्ति के लिए सब संतों का उपदेश है। गुरु महाराज का भी यही उपदेश था। गुरु महाराज का उपदेश था कि अपने अंदर में कोशिश करो। ईश्वर बाहर में भी है, किंतु इन्द्रियों से पहचानने योग्य नहीं। संसार देखने के नेत्र से हम संसार को पहचानते हैं, परंतु यदि उसपर पट्टी बँधी हो तो उससे हम दृश्य जगत को कैसे देखें? इसी प्रकार चेतन आत्मा पर जड़ आवरण की पट्टी रहने से परमात्मा को कैसे पहचान सकते हैं? आप शरीर के संग-संग काम करते हैं, जब आप जगे रहते हैं। इसके बाद और स्वप्न के पहले तन्द्रा या अधनिनियाँ होती है। इसमें बाहर का कुछ ज्ञान रहता है और कुछ भूलते भी जाते हैं। शक्ति भीतर सिमटती जाती है, गला झुक जाता है। धीरे-धीरे बाहर का ज्ञान बिल्कुल भूल जाते हैं। स्वप्नमें जाने से आपकी सब बाह्य इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हो जाती हैं। मुँह में मिसरी रहने से भी उसकी मिठास कुछ मालूम नहीं होती। इस प्रकार मोटी इन्द्रियों से आपको छुट्टी मिली, किंतु मानसिक इन्द्रियाँ रहती हैं। फिर आप गहरी नींद में सो जाते हैं और इनसे भी छुट्टी मिल जाती है। किंतु आप बेहोश रहते हैं। फिर जगते हैं और पहले जैसे बरतते हैं। यह साधारणतः होते रहता है। ऐसा कोई साधन हो, ऐसी कोई अवस्था हो, जिसमें नींद भी नहीं रहे और जगा भी नहीं रहे। संतों ने उसी को तुरीय अवस्था कहा है। इस अवस्था में रहने से इन्द्रियों से आपका ऊपर उठा रहना होगा। इसी का उपदेश गुरु महाराज हमलोगों को दे गए हैं। इस काम के करने में स्थूल शरीर को कोई कष्ट नहीं होता। लेट कर करो या बैठकर, किंतु आलस्य न आवे, इसपर पहरा कीजिए। लेटा हुआ भजन करना शवासन से होता है। किंतु यह आसन साधन में कुछ बढ़े लोगों का है। साधारणतः बैठकर भजन करे, इसी का अभ्यास करे और भजन के समय को बढ़ावे। होते-होते अपने को इन्द्रियों से और शरीरों से छुटा सकेंगे और ईश्वर का साक्षात्कार कर सकेंगे।
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यह प्रवचन संतमत सत्संग मंदिर मुरादाबाद (यू.पी.) में बाबा देवी साहब की जयंती के अवसर पर दिनांक- 3.1.1953 ई0 के अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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41. जहाँ रहो, सत्संग करो

पूज्य संतजन!
 आपको मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ। आपको कुछ सुनाकर आनन्दित करूँ, मैं इस योग्य नहीं; क्योंकि आप मुझसे विशेष हैं। सज्जनवृन्द जो उपस्थित हैं, संभवतः ये सबके सब कई दिनों से मेरे कथन को सुन रहे हैं। इनसे भी कुछ विशेष कहना नहीं है। केवल कही हुई बातों को पुनः कहकर इन्हें स्मरण दिलाना है। मेरे पूज्य गुरुदेव ने
मुझे आज्ञा दी थी कि ‘जहाँ रहो, सत्संग करो।’ सत्संग की विशेषता पर अपने देश में घटित प्राचीन काल की एक कथा है-
 गोपीचन्द एक राजा थे। उनकी माता बहुत बुद्धिमती और योग की ओर जानेवाली साधिका थी। वे योग जानती थीं और करती भी थीं। उनके हृदय में ज्ञान, योग और भक्ति भरी थी। गोपीचन्द वैरागी हो गए थे। गुरु ने कहा-‘अपनी माता से भिक्षा ले आओ।’ वे माता से भिक्षा लेने गए। माताजी बोलीं-‘भिक्षा क्या दूँ ? थोड़ा-सा उपदेश लेकर जाओ। वह यह है-बहुत मजबूत किले (गढ़) के अंदर रहो। बहुत स्वादिष्ट भोजन करो और मुलायम शय्या पर सोओ। यही भिक्षा है जाओ।’ गोपीचन्द बोले-‘आपकी ये बातें मेरे लिए पूर्णतः विरुद्ध हैं।’ माताजी बोलीं-‘पुत्र! तुमने समझा नहीं। मजबूत गढ़ सत्संग है। इससे दूसरा और कोई मजबूत गढ़ नहीं है। जिस गढ़ में रहकर काम-क्रोधादिक विकार सताते हैं, जिससे मनुष्य- मनुष्य नहीं रह जाता और वह पशु एवं निशाचर की तरह हो जाता है, वह गढ़ किस काम का? संतों का संग ही ऐसा गढ़ है, जिसमें रहकर विकारों का आक्रमण रोका जाता है और उनका दमन करते-करते नाश किया जाता है।’ फिर सुस्वादु भोजन तथा मुलायम शय्या के लिए माता बोलीं-‘कैसा ही सुंदर स्वादिष्ट भोजन क्यों न हो, भूख नहीं रहने से वह स्वादिष्ट नहीं लगेगा। इसलिए खूब भूख लगने पर खाओ। मुलायम बिछावन वह है कि जब तुमको खूब नींद आवे, तब तुम कठोर वा कोमल जिस किसी भी बिछौने पर सोओेगे, वही तुम्हें मुलायम मालूम पड़ेगा।’ यह शिक्षा सबको धारण करने योग्य है। गुरु महाराज कहते थे-‘जहाँ रहो, सत्संग करो। स्वयं सीखो और जहाँ तक हो सके, दूसरों को भी सिखाओ, जिससे उनको भी लाभ हो।’
 लोगों की इच्छा ऐसी है कि दुःख भागे और सुख-ही-सुख मिले। साधारणतः जो मन और इन्द्रियों को सुहाता है, उसे सुख और जो नहीं सुहाता, उसे दुःख कहते हैं। मन और इन्द्रियों को सुहानेवाले पंच विषय हैं। लोग इन पंच विषयों को भोगते हैं, किंतु संतुष्ट नहीं होते हैं। संतों ने कहा है कि विषय-भोग में सुख नहीं है। तुम स्वयं सुख-स्वरूप हो। मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों से अगम्य, केवल आत्मगम्य-परमात्मा, नित्य सुख का समुद्र है। विषय-सुख क्षणिक और अनित्य है। परमात्मा नित्य है। उसको प्राप्त करने से नित्य सुख मिलेगा, इसलिए उसकी भक्ति करो। भक्ति का अर्थ भजन- सेवा है। जिसकी भक्ति करेंगे, वह पदार्थ रूप में कैसा है? यह नहीं जानने से उसकी सेवा-भक्ति नहीं की जा सकती। परमात्म-स्वरूप क्या है? इस विषय पर कई दिन कह चुका हूँं। फिर भी समास रूप में कहता हूँ-‘इन्द्रियों के द्वारा नहीं, जिसको आप स्वयं (चेतन-आत्मा) पहचानें, वह परमात्मा है। आप शरीर और इन्द्रिय नहीं हैं। शरीर और इन्द्रियाँ आपकी हैं। इनका संग छोड़कर अकेले हो जाइए, तब जो पहचानेंगे, वह परमात्मा है। उस परमात्मा की भक्ति कैसे हो? जैसे गंगाजी स्नान करने अथवा किसी विशेष देवालय में लोग जाते हैं, तो यह जाना गंगा तथा देवालय के देवता की भक्ति है। वैसे ही अपने को जब आप शरीर और इन्द्रियों से छुड़ा सकेंगे, तभी परमात्मा को पाएँगे, यही भक्ति है। इसके लिए गमन करना होता है। शरीर और इन्द्रियों से ऊपर उठना, यही गमन है-जाना है। प्रभु सर्वव्यापी हैं, किंतु यहाँ उन्हें पहचान नहीं सकते। यहाँ पहचान हो जाती, तो कहीं जाना नहीं पड़ता। यहाँ हम इन्द्रियों के संग रहते हैं, इसलिए पहचान नहीं सकते। आँख पर रंगीन चश्मा लगाने से संसार के पदार्थ उसी रंग के मालूम होते हैं, जिस रंग का वह चश्मा है। या आँख पर पट्टी लगाने से कुछ भी नहीं देख सकते। हमारे ऊपर जड़ का आवरण है। इसके रहने से कुछ सूझता ही नहीं है। इन्द्रियरूपी चश्मा लगा है। गोस्वामी तुलसीदासजी के वचनानुकूल-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 हरे, पीले जो देखने में आते हैं, सभी माया है। परमात्मा को पहचानने की शक्ति उस चश्मे में नहीं है। इस चश्मे को उतारकर देखो। जिस प्रकार रज्जु में सर्प का भ्रम होता है, उसी प्रकार ब्रह्म में जगत का भ्रम होता है। यह शंकर स्वामी के ज्ञान के अनुकूल है तथा गोस्वामी तुलसीदासजी ने उसी के अनुकूल कहा है-
 रजत सीप महँ भास जिमि, जथा भानु कर वारि।
 यद्यपि मृषा तिहुँ काल सो, भ्रम न सकै कोउ टारि।।
यहि विधि जग हरि आश्रित रहई। यदपि असत्य देत दुख अहई।।
 जबतक पूर्व कथित पट्टी और चश्मे नहीं उतरेंगे, तबतक उपर्युक्त भ्रम दूर नहीं होगा। इन पट्टी और चश्मे से ऊपर होना है। हम पर चश्मा और पट्टी नहीं रहे; हम अकेले रहें।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।
 केवल यही रहे।
सो माया वस भयेउ गुसाईं । बंधेउ कीर मर्कट की नाईं।।
 चेतन-आत्मा पर यह वश्यता नहीं रहे, तब वह परमात्म-स्वरूप को पहचान सकती है। इन आवरणों से छूटने के लिए चेतन-आत्मा को जहाँ जाना होगा, वहाँ उसे जाना चाहिए। संतों ने कहा-बाहर में जहाँ जाओगे, शरीर और इन्द्रियों के साथ जाओगे। अपने अंदर जाने से शरीर और इन्द्रियोंं से छूटते हुए जाओगे और अंत में पूर्ण रूपेण इनसे छूट जाओगे। इसके लिए जाग्रत और स्वप्न की स्थिति पर विचार करो। जाग्रत में रहने पर बाहर संसार के कामों को करते हैं। स्वप्न में बाहर की कोई इन्द्रिय बाहर में कुछ काम नहीं करती। मुँह में मीठा डालने पर भी स्वाद मालूम नहीं होता। जग जाओ तब मीठा लगेगा। इसका यह कारण है कि जाग्रत में चेतन-धारा इन्द्रियों के घाटों पर रहती हुई काम करती है और स्वप्न में बाहरी इन्द्रियों के घाटों से सिमटकर अंतर्मुख हो मनोमय कोष में रहती है और वहीं काम करती है। फिर जाग्रत अवस्था में स्वाभाविक ही वह बाह्य इन्द्रियों के घाटों पर आ जाती है। अंदर में चेतनवृत्ति के प्रवेश करने पर बाहर की इन्द्रियों से छुट्टी मिलती है, यह इसका नमूना है। अन्न का थोड़ा नमूना दिखाकर लाखों मन का दाम करके बेचते हैं। उसी प्रकार संत लोग नमूना दिखाते हैं। जाग्रत से स्वप्न में जाने से तुम बाह्य इन्द्रियों से छूट जाते हो। यदि और अंदर धँसो और अंतर के अंत तक पहुँचो तो कहना ही क्या है? स्थूल और सूक्ष्म, सब इन्द्रियों से छूट जाओगे। इसी अंतर्गमन के विषय में तुलसी साहब ने कहा है-
 हिय नैन सैन सुचैन सुंदरि साजि स्रुति पिउ पै चली।
 गिरि गवन गोह गुहारि मारग चढ़त गढ़ गगना गली।।
 जहँ ताल तट पट पार प्रीतम परसि पद आगे अली।
 घट घोर सोर सिहार सुनिकै सिंध सलिता जस मिली।।
 यह भेद की बात है और अंदर में चलने के विषय का वर्णन किया गया है। बाहर में खूब पूजा करें-आरती उतारें, किंतु इससे भीतर में प्रवेश नहीं कर सकते। नैवेद्य, पुष्प, धूप, दीप लेकर मन को उपास्यदेव की ओर, एकओर करते हैं। यदि कोई दूसरा ख्याल नहीं रहे तो मन अवश्य एकओर होता है। स्तुति करने में भी एकओर होता है। जप में भी यही बात होती है। बल्कि स्तुति से जप में विशेष सिमटाव होता है। कारण यह है कि स्तुति करने में बहुत शब्द उच्चारण करने पड़ते हैं। जप में केवल एक ही शब्द को जपते हैं।
 पूजा कोटि समं स्तोत्रं स्तोत्र कोटि समं जपः।
 जाप कोटि समं ध्यानं ध्यान कोटि समों लयः।।
 पूर्ण सिमटाव होने से स्थूल सूक्ष्मादि आवरणों का छेदन होता है। महाकारण रूप आवरण के छूटने से जड़ के सभी आवरण उतर जाते हैं। अब अपनी और अपने प्रभु की पहचान होती है। तब प्रभु हेराया हुआ नहीं रहेगा। इसी का प्रचार हमारे गुरु महाराज करते थे और मैं भी इसी का करता हूँ। और इसी विषय को जहाँ जाता हूँ, सुनाता हूँ, समझाता हूँ। किंतु यदि किसी तरफ जाना चाहे और पीछे को पिछड़ता रहे, तो निर्दिष्ट स्थान तक कोई कैसे पहुँच सकता है? बाबा नानक ने कहा-
 सूचै भाड़ै साचु समावै विरले सूचाचारी।
 चलना चाहे पवित्रता में और पिछड़े अपवित्रता की ओर, तब उस ओर कैसे बढ़ सकते हैं? इसलिए सदाचारी बनो-पवित्र बनो यानी व्यभिचार, चोरी, नशा, िंहंसा और झूठ; इन पाँचों पापों को मत करो। यह संयम है।
सतगुरु वैद्य वचन विस्वासा। संयम यह न विषय कै आसा।।
     -गोस्वामी तुलसीदास
 एक ईश्वर पर अचल विश्वास और पूर्ण भरोसा करो। ऐसा नहीं कि-
मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तो कहौ कहा विस्वासा।।
 प्रभु अपने अंदर में पहले मिलेंगे, फिर सर्वत्र। एक बार प्रत्यक्ष मिलने पर फिर वह मिलन कभी नहीं छूटेगा। अन्य सभी पदार्थ मिलकर छूटते हैं, किंतु यह कभी छूटता नहीं। यह साक्षात्कार बराबर बना रहता है। कबीर साहब को वह प्राप्त था। वे कहते हैं-
 न पल बिछुड़ें पिया हमसे, न हम बिछुड़ें पियारे से।
 ध्यानाभ्यास करो। त्रयकाल संध्या प्रसिद्ध है। ब्राह्ममुहूर्त में उठकर भजन करो। दिन में स्नान के बाद करो। स्नान करने से मस्तिष्क ठण्ढा रहता है। इस ठण्ढे मस्तिष्क में भजन अच्छा बनेगा। फिर सायंकाल पैर-हाथ धोकर भजन करो, फिर दूसरा काम करो। रात में सोते समय दो मिनट भी भजन करके उसमें मन लगाते हुए सो जाओ, तो बुरा स्वप्न नहीं होगा। इसके अतिरिक्त सब कामों को करते हुए भजन में मन लगाते रहो। ‘तन काम में मन राम में।’ संत पलटू साहब ने कहा है-
 कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।।
 सो ध्यानी परमान, सुरत से अण्डा सेवै ।
 आप रहे जल माहिं, सूखे में अण्डा देवै ।।
 जस पनिहारी कलस भरे, मारग में आवै ।
 कर छोड़ै मुख वचन, चित्त कलसा में लावै ।।
 फणि मणि धरै उतार, आपु चरने को जावै ।
 वह गाफिल ना पड़ै, सुरत मणि माहिं रहावै ।।
 पलटू कारज सब करै, सुरत रहै अलगान ।
 कमठ दृष्टि जो लावइ, सो ध्यानी परमान ।।
 ‘बंगाल में बाउल नाम के एक सम्प्रदाय के साधु होते हैं। वे एक हाथ से तंबूरा और दूसरे हाथ से करताल बजाते हैं और मुँह से गाना भी गाते हैं। इसी तरह ऐ संसारी जीव! तुम भी दोनों हाथों से संसार के सब काम करते जाओ और मुख से भगवान का नाम जपा करो; चुको मत।’
     -रामकृष्ण परमहंस
 मतलब यह कि काम करते और चलते- फिरते हुए भी किसी न किसी तरह जप या मानस ध्यान द्वारा उस ओर आपका ख्याल लगा रहे। जो कहते हैं कि भजन करने के लिए मुझको समय नहीं है, यह बहुत गलत बात है। गप-शप करने के लिए समय है, सिनेमा देखने के लिए समय है और भजन करने के लिए समय नहीं है। यह बहुत गलत बात है।
 फिर सबकी जड़ है, गुरु की सेवा करो। ‘आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा।’ एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा तथा अपने अंदर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखो और नित्य सत्संग करो। इन पाँचों को करो और पहले के कहे पाँच पापों को छोड़ो। यदि भूल से पाँच पापों में से कोई हो जाय तो झूरो-पछताओ। ईश्वर से प्रार्थना करो कि फिर ऐसा कर्म मुझसे नहीं बने। स्वयं सचेत रहो और पापों से बचने के लिए शक्ति लगाओ। मन पवित्र करो। क्योंकि पवित्र मनवाले को ही समाधि लगती है। ‘सहज विमल मन लागि समाधी।’ चंचलता में दुःख होता है, स्थिरता में सुख है। ध्यान में स्थिरता होती है, इसमें सुख मिलता है। इसी स्थिरता में सुख पाते हुए अपने अंतर में प्रवेश होता है। अपने भीतर में जाने के लिए खुलाशा यह है कि मन को एक ओर करो। जप-ध्यान से मन एकओर होता है। स्तुति से विशेष जप में, जप से विशेष ध्यान में मन की एकओरता होती है। ध्यान पहले रूप का, फिर अरूप का होता है। इष्ट-मूर्ति का ध्यान करो, इसमें मन को लगाओ। इसके आगे बढ़ो, सूक्ष्म-ध्यान करो। सबसे सूक्ष्म रूप कौन है? एक तस्वीर बनाओ, पहले क्या हुआ? पेन्सिल रखते ही एक छोटा र्चिं हुआ। उसी र्चिं को इधर-उधर करने से रूप बना। तो वह प्रथम र्चिं अर्थात् विन्दु ही सब रूपों का बीज हुआ। किन्तु यह तो माना हुआ विन्दु है। परिमाण-रहित यथार्थ विन्दु वह है, जिसका वर्णन ध्यानविन्दूपनिषद् के इस श्लोक में है-
 बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम्।
 स शब्दं चाक्षरे क्षीणे निशब्दं परमं पदम्।।
 जिसे परम विन्दु कहा गया है, उसे पेन्सिल से नहीं लिख सकते। हाँ, दृष्टि की पेन्सिल से लिख सकते हैं। जहाँ दृष्टि का पसार खतम हो जाएगा, उसकी धारा का जहाँ अटकाव हो जाएगा, वहीं परमात्मा का अणोरणीयाम् रूप उदय हो जाएगा। जबतक यह नहीं होता है, तबतक मन को सँभालने में बड़ी कठिनाई मालूम होती है। दृष्टि सँभालकर रखनी चाहिए, तब ज्योतिर्विन्दु का उदय होगा, ऐसा ध्यान करो। यह सूक्ष्म रूप-ध्यान हुआ। इतना ही नहीं, उसके बाद रूपातीत ध्यान अर्थात् नाद-ध्यान करना होगा। जिसको विन्दु प्राप्त हो जाएगा, उसके लिए यह अंतर्नाद खुल जाएगा। उस नाद को ग्रहण कर परमात्मा तक पहुँचना होगा। नाद परमात्मा से स्फुटित है और उनसे लगा हुआ है। इस प्रकार ध्यान करना चाहिए। बहुत लोग केवल गाने और बजाने में ही परमात्मा की प्राप्ति और मुक्ति मानते हैं, परंतु केवल गाने-बजाने से ही मुक्ति नहीं होती है।
     मुक्ति न होवै नाचे गाये। मुक्ति न होवै मृदंग बजाये।।
     मुक्ति न होवै साखी पद बोले। मुक्ति न होवै तीरथ डोले।।
     गुप्त जाप जानै जो कोई। कहै कबीर मुक्त भल सोई।।
 गुप्त जप के लिए ऐसा कहा गया है-
 जाप अजपा हो सहज धुन परख गुरु गम धारिये।
 होत ध्वनि रसना बिना करमाल बिनु निरवारिये।।
            - कबीर साहब
 मुख कर की मेहनत मिटी, सतगुरु करी सहाय ।
 घट में नाम प्रगट भया, बक-बक मरै बलाय ।।
 सहजे ही धुन होत है, हरदम घट के माहिं ।
 सुरत शब्द मेला भया, बिछुड़त कबहुँ नाहिं ।।
             - कबीर साहब
 संतों का अजपा जप है। स्वामी शंकराचार्य ने भी कहा है-
 भेरीमृदंगशंखाद्याहत नादे मनः क्षणं रमते।
 किं पुनरनाहतेऽस्मिन्मधु मधुरेऽखण्डिते स्वच्छे।।
          -प्रबोध सुधाकर- नादानुसंधान
 मन तो भेरी, मृदंग और शंख आदि के आघातजन्य नादों में भी एक क्षण के लिए मग्न हो जाता है, फिर इस मधुवत् मधुर, अखंडित और स्वच्छ अनाहत नाद की तो बात ही क्या है?
 नादानुसंधान से बढ़कर कोई साधन नहीं है। यह ऐसा सहारा है कि हम नहीं पकड़ेंगे, शब्द ही हमको पकड़ लेगा। जैसे चुम्बक से लोहा पकड़ा जाता है। चुम्बक से लोहे को लोग अलग भी कर सकते हैं, किंतु इस शब्द से पकड़े जाने पर शब्द से सुरत को कोई छुड़ा नहीं सकता, चाहे उसको बाघ पकड़े या उसपर बमगोला बरसे।
 शब्द निरन्तर से मन लागा, मलिन वासना भागी।
 ऊठत बैठत कबहुँ न छूटे, ऐसी ताड़ी लागी।।
                                - कबीर साहब
     सोवत जागत ऊठत बैठत टुक विहीन नहिं तारा।
     झिन झिन जंतर निस दिन बाजै जम जालिम पचिहारा।।
     -दरिया साहब, बिहारी
 यदि कहा जाय कि साधन एक शरीर में समाप्त नहीं होगा, तो साधन का कष्ट व्यर्थ ही किया जाएगा। तो इसके उत्तर में कहा है कि एक देह में किए गए साधन का संस्कार दूसरी देह में पुनः जागृत होता है। इसलिए एक देह में साधन समाप्त नहीं होगा तो दूसरी वा तीसरी देह में, कभी न कभी अवश्य समाप्त हो जाएगा।
 साधना में सफल होने के लिए कितने लोग कृपा माँगा करते हैं। किंतु कृपा केवल माँगने से नहीं होगी। कृपापात्र बनना चाहिए, तब बिना माँगे ही कृपा मिलती रहेगी। टीले पर पानी बरसने से भी गहरे में जाकर पानी जमा होता है। इसलिए अपने को पात्र बनाओ। इसके लिए घर छोड़ने की जरूरत नहीं। कबीर साहब के बताए अनुकूल चलो।
 अवधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भावै।।टेक।।
 घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि वन नहिं जावै।
 वन के गए कलपना उपजै, तब धौं कहाँ समावै ।।
 घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरु अलख लखावै।
 सहज सुन्न में रहै समाना, सहज समाधि लगावै।।
 उनमुनी रहै ब्रह्म को चीन्है, परम तत्त को ध्यावै ।
 सुरत निरत सां मेला करिके, अनहद नाद बजावै ।।
 घर में बसत वस्तु भी घर है, घर ही वस्तु मिलावै ।
 कहै कबीर सुनो हो अवधू, ज्यों का त्यों ठहरावै ।।
 संसार में कैसे रहोगे? अब यह भी सुनो। संसार में महात्मा गाँधीजी के समान रहो अर्थात् संसार के भी सब कामां को करो और परमार्थ के साधन को भी निभाते जाओ। इसीलिए महात्माजी के निधन होने पर सब राष्ट्रों ने अपना-अपना झण्डा झुकाया। अमेरिका, इंगलैण्ड तथा रूस आदि सभी राष्ट्रों ने झण्डा झुकाया।
 हमलोगों को स्वराज्य मिला है, किंतु सुराज्य नहीं। यहाँ चोरी, घूसखोरी और नैतिक पतन आदि वर्तमान हैं, जिनसे जनता में दुःख फैला हुआ है। इनसे बचने के लिए संतमत उपदेश करता है। कानून से नैतिक पतन छूट नहीं सकता। कानून चलता ही है और घूस-फूस चलते ही हैं। जहाँ झूठ नहीं, वहाँ घूस कहाँ से आवे? इसलिए सदाचार का पालन करो। सदाचार के पालन से स्वराज्य में सुराज्य हो जाएगा। हमारा देश द्रव्य के लिए महाकंगाल है। लाचारी है, कमाओ, जमा करो; किंतु सच्ची कमाई करो।
 हम देखते हैं कि शब्द के लिए भी हम कंगाल हो गए हैं। अपनी भाषा से अपनी भावों को प्रकट नहीं कर सकते। अपने शब्द को भूल गए। हमलोग हिन्दू नहीं, हमारी भाषा हिन्दी नहीं और हमारा देश हिन्दुस्तान नहीं। हिन्दू, हिन्दी और हिन्दुस्तान; ये तीनों शब्द हमारे देश की भाषा के शब्द नहीं हैं। दूसरी बात है कि अपनी भाषा में दूसरे की भाषा को फेंटकर नहीं बोलो। आजकल ऐसा हो गया है कि जो एक अक्षर भी अंग्रेजी लिखना-पढ़ना नहीं जानता है, वह भी अपनी भाषा में अंग्रेजी शब्दों को मिला-मिलाकर बोलता है। यहाँ तक कि घर की माई-दाई भी समय के स्थान पर टाइम बोलती हैं। टाइम नहीं बोल सकती है, तो टेम बोलती हैं। यह बात अच्छी नहीं। सब कोई सदाचार का पालन करो, सब दुःख भाग जाएँगे।
 हमारे गुरु महाराजजी ने 1909 ई0 में कहा था-पहले आध्यात्मिकता का पद है, तब सदाचार, फिर सामाजिक नीति और अंत में राजनीति का पद है। तात्पर्य यह है कि आध्यात्मिकता की ओर चलने से सदाचार का पालन करना अवश्य होगा। समाज के लोग सदाचारी बन जाएँगे, तो सामाजिक नीति अच्छी हो जाएगी और सामाजिक नीति जब अच्छी होगी, तो राजनीति कभी बुरी नहीं हो सकेगी। वह आप-ही-आप सुधर जाएगी। अपने देश तथा सारे संसार को गुरु महाराज के उपर्युक्त उपदेश को मानना और पालन करना बहुत आवश्यक है। नहीं तो स्वराज्य में सुराज्य नहीं आ सकता, यह बात सब लोग दृढ़ता से जान लें।
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यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत रोहतास जिले के सासाराम में दिनांक 13.1.1953 ई0 के रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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42. ईश्वर-भक्ति की युक्ति

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 मैं ईश्वर-भक्ति के बारे में इस समय कहूँगा और यही एक विषय है, जिसपर मैं बराबर कहता हूँ। संसार में लोग सुख पाने के लिए चाहते हैं, परन्तु सांसारिक वस्तुओं से सुखी नहीं होते हैं, यह प्रत्यक्ष है। यहाँ जो अल्प सुख मालूम होता है, इससे तृप्ति नहीं होती। जिस सुख से तृप्ति होती है, वह अलौकिक है और वह सुख ईश्वर की प्राप्ति में है। सद्ग्रन्थों से ऐसा ही विदित होता है। ईश्वर की भक्ति से सब दुःखों का अन्त हो जाता है, और किसी दूसरे उपाय से उसका अन्त नहीं हो सकता है।
     राकापति षोड़स उअहिं, तारागन समुदाय ।
     सकल गिरिन्ह दब लाइय, बिनु रवि राति न जाय ।।
ऐसेहि बिनु हरि भजन खगेसा । मिटहिं न जीवन केर कलेसा ।।
 अर्थात्-पूर्णिमा के सोलह चन्द्रमा (अथवा सोलह कलाओं से युक्त चन्द्रमा) उगें, तारेगणों के सब झुण्ड भी उगें, सब पर्वतों में आग लगा दी जाय; परन्तु बिना सूर्य के रात नहीं जाती। हे गरुड़जी! इसी प्रकार बिना हरि-भजन किए जीवों का क्लेश नहीं मिटता।
 ईश्वर-भक्ति करने के लिए ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए। स्वरूप-निर्णय हुए बिना उसकी भक्ति कैसे की जाय, विदित नहीं हो सकती है। ईश्वर के लिए कोई उसे साकार कहते हैं, कोई निराकार कहते हैं और कोई कहते हैं, साकार-निराकार दोनों हैं। सर्वव्यापी होने के कारण सब रूपों में वे रहते हैं, इसलिए वे सर्वरूपी हैं। अतएव रूप-सहित साकार हैं। कोई रूप स्थूल साधारण दृष्टि से और कोई रूप सूक्ष्म दिव्य दृष्टि से दर्शित है, किन्तु रूप और रूप में बसनेवाले में भेद है, जैसे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ में भेद है। क्षेत्ररूप इन्द्रिय-गोचर होने के कारण लोग पहचानते हैं, किंतु क्षेत्रज्ञ इन्द्रिय-गोचर नहीं रहने के कारण लोग नहीं पहचानते हैं। ईश्वर-स्वरूप-निर्णय के लिए सन्तों की वाणियाँ हैं-
 श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य।।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींहीं तें सब लेखा।
 सबके मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा।।
 चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना।
 चून चगून वजूद न मानु तैं सुभा नमूना ऐना।।
 जैसे ऐना सब दरसावै जो कुछ वेश बनावै।
 ज्यों अनुमान करै साहब को त्यों साहब दरसावै।।
 जाहि रूह अल्लाह के भीतर तेहि भीतर के ठाईं।
 रूप अरूप हमारि आस है हम दूनहुँ के साईं।।
 जो कोउ रूह आपनी देखा सो साहब को पेखा।
 कहै कबीर स्वरूप हमारा साहब को दिल देखा।।
      -कबीर साहब
 अलख अपार अगम अगोचरि ना तिसु काल न करमा।
 जाति अजाति अजोनी संभउ ना तिसु भाउ न भरमा।
 साचे सचिआर विटहु कुरबाणु।
 ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ, साचे सबदि नीसाणु।
 ना तिसु मात पिता सुत बंधप, ना तिसु काम न नारी।
 अकुल निरंजन अपर परंपरु, सगली जोति तुमारी।
 घट-घट अन्तरि ब्रह्मु लुकाइआ, घटि-घटि जोति सबाई।
 बजर कपाट मुकते गुरमती, निरभै ताड़ी लाई ।।
 जंत उपाइ कालु सिरिजंता, बस गति जुगति सबाई ।
 सतिगुर सेवि पदारथु पावहि, छूटहि सबदु कमाई ।।
 सूचै भाड़ै साचु समावै, बिरले सूचाचारी ।
 तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ, नानक सरणि तुमारी ।।
         -गुरु नानक साहब
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सब दरसी अनवद्य अजीता।। निर्मल निराकार निर्मोहा। नित्य निरंजन सुख सन्दोहा।।
प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी। ब्रह्म निरीह बिरज अविनासी।।
 अगुन अखण्ड अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
 किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
 यथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करै नट कोइ ।
 सोइ सोइ भाव दिखावइ, आपुन होइ न सोइ ।।
              -गोस्वामी तुलसीदासजी
अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यों गूँगहि मीठे फल को रस, अन्तर्गत ही भावै ।।
परम स्वाद सब ही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै ।
मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै ।।
रूप रेख गुण जाति जुगुति बिनु, निरालम्ब मन चक्रित धावै ।
सब विधि अगम विचारहिं तातें, सूर सगुण लीला पद गावै ।।
                                               -संत सूरदासजी
 मुक्तिकोपनिषद् में श्रीरामजी का अपने स्वरूप के विषय में श्रीहनुमानजी से ऐसा ही कथन है, (अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्। अनामगोत्रं मम रूपमीदृशं भजस्व नित्यं पवनात्मजार्तिहन्।।) जो सन्तवाणी से मिलता है।
 जिसकी सीमा नहीं है, ऐसा एक तत्त्व अवश्य है, ऐसा बुद्धि को जँचता है। सबको सान्त-सान्त कहने से प्रश्न होगा कि सब सान्तों के पार में क्या है? सारे सान्तों के पार में अनन्त कहे बिना प्रश्न हल नहीं होता। इसी अनन्त को सन्तों ने परमात्म-स्वरूप माना है। जो अनन्त है, वह सबसे विशेष झीना है। विशेष झीना होने के कारण वह सबमें व्यापक है और सबसे बाहर भी है। ‘है सबमें सब ही तें न्यारा। जीव जन्तु जल थल सब ही में, सबद वियापत बोलनहारा।।’ -कबीर साहब। इन्द्रियगोचर-रूप को आँख से देख सकते हैं, इसलिए ठाकुरवाड़ी में चित्र रखते हैं, दर्शन करते हैं। कितने को सगुण का दर्शन हुआ; किन्तु दर्शन होने पर जब उन देवों ने कहा-यह करो और वह करो, तब जानना चाहिए कि यदि रूप-दर्शन से ही काम समाप्त हो जाता, तब फिर और काम करने की आज्ञा श्रीराम या श्रीकृष्ण क्यों देते? श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिव्यदृष्टि दी, जिससे अर्जुन ने उनके दिव्य-रूप का दर्शन किया। इन्द्रियों से दर्शन होने योग्य रूप से दिव्य-दर्शन श्रेष्ठ है; किन्तु इससे भी परे और कोई स्वरूप है, जिसे दिव्य दृष्टि से भी नहीं देख सकेंगे, आत्मदृष्टि से देख सकेंगे। जाग्रत् की दृष्टि, स्वप्न की दृष्टि, मानस दृष्टि और दिव्यदृष्टि के बाद पाँचवीं दृष्टि वह है, जहाँ स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण- कोई जड़ शरीर नहीं रहता। अर्जुन को दिव्यदृष्टि मिलने पर भी वह देह के साथ था। मामूली दृष्टि नहीं रही, दिव्यदृष्टि हुई। भगवान के तेज के कारण से अर्जुन को भय हो रहा था। भगवान की कृपा से वह उस दर्शन को कर पाता था।
 सीताजी की खोज में श्रीराम-लक्ष्मण; दोनों भाई जाते हैं। अगस्त्य मुनि के आश्रम में आते हैं, मुनिजी ने श्रीराम से कहा-‘शिवजी की उपासना करो। पाशुपत अस्त्र मिलेगा, तब रावण मारा जाएगा।’ श्रीराम ने तप किया, शिवजी के विराट-रूप का दर्शन हुआ। लक्ष्मण बेहोश हो गए और श्रीराम ठेहुने के बल बैठ गए। (शिव-गीता पढ़िए)। यह आपस की लीला उनलोगों ने की थी। अर्जुन श्रीकृष्ण के विराट-रूप का दर्शन करता है और विनती भी करता है, जो अवयव-युक्त पदार्थ है, उसको देखता है। अनेक रूप होकर व्यापक होना पूर्ण सर्वव्यापकता नहीं है। अनेक में एक-दो की गिनती तब होगी, जब उनके बीच में कुछ अवकाश हो। ऐसी अवस्था में बीच के अवकाश में वह व्यापक नहीं होता है। किन्तु जो एक ही तत्त्व अत्यन्त सघनता से ऐसा फैला हो कि एक-दो की गिनती नहीं हो सकती, उसे दिव्यदृष्टि से भी नहीं देख सकते। चेतन-आत्मा ही उसका दर्शन कर सकती है। कठोपनिषद् पढ़कर देखिए- ‘यह आत्मा वेदाध्ययन द्वारा प्राप्त होने योग्य नहीं है और न धारणा-शक्ति अथवा अधिक श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है। यह (साधक) जिस आत्मा का वरण करता है, उस (आत्मा) से ही यह प्राप्त किया जा सकता है। उसके प्रति यह आत्मा अपने स्वरूप को अभिव्यक्त कर देता है।’
  (नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
  यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनू ्ँ स्वाम्।। -कठोपनिषद्, द्वितीय वल्ली, अध्याय 1)
 उस सर्वव्यापी का दर्शन करनेवाली चेतन- आत्मा जड़ शरीरवाली नहीं होगी, सब जड़ शरीरों से छूटी हुई होगी। इस दर्शन का जिसको ज्ञान हो जाता है, वह जानता है कि शरीर में रहते हुए शरीर-सम्बन्धी दर्शन होता है। परन्तु जबतक चेतन-आत्मा स्वयं शरीर में लिप्त है, तबतक अलिप्त सर्वव्यापी का दर्शन वह नहीं पा सकती है। भक्ति-साधन के आरम्भ में ही यह दर्शन होने योग्य नहीं है। स्थूल में रहता हुआ स्थूल पदार्थ को ही ग्रहण कर सकता है। इसलिए ईश्वर-भक्ति में पहले स्थूल-उपासना है। श्रीराम ने नवधा भक्ति बतलायी है-
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
  गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान।
  चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मो तें सन्त अधिक करि लेखा।।
आठवँ यथा लाभ सन्तोषा। सपनहुँ नहिं देखइ पर दोषा।।
नवम सरल सब सन छल हीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।।
 पहली से पाँचवीं भक्ति तक स्थूल भक्ति है। मन्त्र-जप स्थूल ज्ञान में होता है। इसके आगे छठी भक्ति में दमशील बनने कहते हैं, अर्थात् इन्द्रियों को रोकने का स्वभाववाला होने कहते हैं। जबतक नाम जपते थे, तबतक मन में था, ईश्वर का नाम जपते हैं। किन्तु अब छठी भक्ति से ईश्वर का क्या संबंध हुआ? पहले जो जप करते थे, उससे विशेष काम हुआ। इन्द्रियों का दमन करने के स्वभाववाले होने के कारण विषय से निर्विषय की ओर जाते हैं। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द; इन पाँच विषयों से चित्त हट जाएगा। कम-से-कम स्थूल विषय से सूक्ष्म विषय में तो अवश्य गति हो जाएगी। श्रीराम ने प्रजा को जो उपदेश दिया- ‘एहि तन कर फल विषय न भाई,’ सो विषय-त्याग दम के साधन से ही होने योग्य है। पहले स्थूल विषय छूटेगा, फिर सूक्ष्म विषय। इन्द्रियों के निग्रह के स्वभाववाले की वृत्ति निर्विषय की ओर हो जाती है, तब वह प्रभु की ओर विशेष लग जाता है। साधक के लिए अवश्य यह बात है। तर्कबुद्धि से भी यही बात जँचती है। जो स्थूल विषय से छूटता है, वह सूक्ष्म विषय को ग्रहण करता है। सूक्ष्म विषय क्या है? ब्रह्म-तेज ही सूक्ष्म विषय है। जिस प्रकार दर्शक सूर्योदय होने के पहले सूर्य-किरण को देखता है, उसी प्रकार साधक ब्रह्म प्राप्त करने के पहले ब्रह्म-तेज को प्राप्त करता है। सूर्य की किरण को लेनेवाला अपना सीधा संबंध सूर्य से करता है, उसी प्रकार बह्म-तेज को पकड़नेवाला ब्रह्म से संबंध करता है। मन और इन्द्रियों का संग-संग साधन करने को दम कहते हैं। इसके बाद ‘शम’ है। ‘शम’ मनोनिग्रह को कहते हैं। केवल मन के साधन को ‘शम’ कहते हैं। इन्द्रियों का संग छोड़कर केवल मन का साधन करना ‘शम’ का साधन करना है। ‘शम’ के साधन से हीन किसी तरह गिर भी सकता है, किन्तु ‘शम’ में पूर्ण हो जानेवाला गिर नहीं सकता है।
 ईश्वर के अंश जीवात्मा आप हैं। आपका शरीर जड़ है। शरीर में आपके रहने से आपका शरीर जीवित है। चारो अन्तःकरणों का संग जीवात्मा को ऐसा हो गया है, जैसे दूध के साथ घी का। इसके लिए यही अच्छी उपमा है। जबतक मन-चेतन संग-संग हैं, तबतक जहाँ मन है, वहाँ चेतन है। आप अपनी देह में भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न स्थानों में रहते हैं। जगने की हालत से स्वप्न में और स्वप्न से गहरी नींद में जाते हैं। इन तीनों अवस्थाओं में तीन स्थानों में रहते हैं। मन का केन्द्र जगने के समय नेत्र में है। प्रश्न होगा- बायें या दायें में? तो कहेंगे बायें-दायें में उसकी धारें हैं, किन्तु केन्द्र तीसरी आँख (शिवनेत्र) में है। उससे नीचे उतरकर कण्ठ में जाते हैं। यह सोलह स्वरों का स्थान है। इसलिए स्वप्न में बोलते भी हैं। इसका चित्र बनानेवाले सोलह दलों का कमल बनाकर प्रत्येक दल में एक-एक स्वर लिख देते हैं। योगी लोग इसको षोड़श दल कमल कहते हैं। उससे नीचे उतरने पर हृदय में चले जाते हैं। यहाँ रहने पर श्वास की क्रिया होती है। यह द्वादश व्यंजनों का स्थान है, इसलिए इसको द्वादश दल कमल कहते हैं। बिना स्वर के व्यंजन बोल नहीं सकते, इसलिए यहाँ उच्चारण-ज्ञान जाता रहता है। फिर हृदय से ऊपर कण्ठ में और कण्ठ से ऊपर आँख में आकर जगते हैं। स्थान के बदलने से अवस्था-भेद होता है। इन तीन अवस्थाओं में रहने से स्थूल विषयों से नहीं छूट सकते। श्रवण-मनन जाग्रत में होते रहते हैं। इन तीनों अवस्थाओं से ऊपर उठने पर इन्द्रियों का निग्रह होगा और साधक दमशील होगा। यह भजन, विशेष भजन होगा। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
   तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त।
    मन क्रम बचन अगोचर व्यापक व्याप्य अनन्त।।
                                                                     -विनय-पत्रिका
 पहले ब्रह्म का दर्शन नहीं होता। पहले ब्रह्म-तेज का दर्शन होता है, जैसे सूर्य-दर्शन होने के पहले सूर्य के तेज का दर्शन होता है। इन्द्रिय-निग्रह को ईश्वर से क्या संबंध है, इसपर कहा। पहले अन्धकार में रहकर जप आदि स्थूल भजन किया जाता है। अन्धकार से पार होकर, प्रकाश में आकर अर्थात् तुरीय अवस्था में रहकर परा-भक्ति का दिव्य वा सूक्ष्म भेदवाला भजन किया जाता है। यह श्रेष्ठ भजन है। इसके आगे शम का साधन आता है। शम का साधन वहाँ होता है, जहाँ इन्द्रियों के संग से मन छूट जाता है और बाहर देखने-सुनने के सब यंत्रों से वह अलग हो जाता है। साधक प्रत्यक्ष अनुभूति में रहते हुए कल्पित वस्तुओं से भी ऊपर उठ गया है। दृश्य के ऊपर अदृश्य नाद है, वही नाम है। किन्तु यह नाम सगुण नहीं, निर्गुण है।
 जाके लगी अनहद तान हो, निर्वाण निर्गुण नाम की ।
 जिकर करके शिखर हेरे, फिकर रारंकार की ।।
            -जगजीवन साहब
बन्दौं राम नाम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को।। विधि हरिहर मय वेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो।।
नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी ।।
                                            -गोस्वामी तुलसीदासजी
नाद-उपासना ही ‘शम’ का साधन है।
    नासनं सिद्ध सदृशं न कुम्भक सदृशं बलम्।
      न खेचरी समा मुद्रा न नाद सदृशो लयः।।
                                                                                 -शिव-संहिता
 अर्थात्-न सिद्धासन-सम आसन, न कुम्भक- सम बल, न खेचरी के समान मुद्रा और न नाद के तुल्य लय है।
     सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा।
          नाद एवानुसंधेयो योगसाम्राज्यमिच्छता।।
                                      -वराहोपनिषद्, अध्याय 2
 अर्थात्- योग-साम्राज्य की इच्छा करनेवाले मनुष्यों को सब चिन्ता त्यागकर सावधान होकर नाद की ही खोज करनी चाहिए।
 नाद ग्रहणतश्चित्तमन्तरंग भुजंगमः ।
 विस्मृत्य विश्वमेकाग्रः कुत्रचिन्नहि धावति ।।
 मनोमत्त गजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः ।
 नियामन समर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः ।।
 नादोऽन्तरंग सारंग बन्धने वागुरायते ।
 अन्तरंग समुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि वा ।।
        -नादविन्दूपनिषद्
 अर्थात्-नागरूप चित्त नाद का अभ्यास करते-करते पूर्ण रूप से उसमें लीन हो जाता है और सभी विषयों को भूलकर नाद में अपने को एकाग्र करता है।। 43।। नाद मदान्ध हाथीरूप चित्त को, जो विषयों की आनन्द-वाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है।। 44।। मृगरूपी चित्त को बाँधने के लिए यह (नाद) जाल का काम करता है। समुद्र-तरंगरूपी चित्त के लिए यह (नाद) तट का काम करता है।। 45।।
 साँप बाहर में टेढ़ा-मेढ़ा चलता है; किन्तु बिल में जाने के समय सीधा हो जाता है। उसी प्रकार यह मन टेढ़ा है, नाद में प्रवेश करने पर सीधा हो जाता है। तात्पर्य यह कि नाद-उपासना में शम (मनोनिग्रह) का साधन पूर्ण होने पर नवधा भक्ति की सातवीं भक्ति पूरी हो जाएगी। इसके पूर्ण होने से परमात्म-राम के स्वरूप की प्राप्ति हो जाएगी; क्योंकि शब्द में अपने उद्गम-स्थान पर आकर्षण करने का गुण होने के कारण उपासक उससे ब्रह्म तक खिंच जाएगा। शरीर और इन्द्रियों से रहित होकर वह अपने को प्रत्यक्ष परमात्मा की शरण में अर्पित कर देगा। यह बड़ी ऊँची भक्ति है। ऐसी सेवकु सेवा करै। जिसका जीउ तिसु आगे धरै।।
 गुरु नानकदेवजी के इस आदेश का वह ठीक-ठीक पालन करेगा। यही असली शरणागत होना है, यही आत्म-निवेदन है। किसी के सम्मुख अपने शरीर को गिरा देने से अथावा मन को भी अर्पित कर देने से आत्म-निवेदन नहीं कहा जा सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता के 18वें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, ‘सब धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जा।’ (सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। -गीता अ0 18। 66) भगवान तो अर्जुन के सब प्रकार से अवलम्ब थे ही और अर्जुन भी भगवान् की शरण में तन-मन से थे ही, फिर भगवान ने ऐसा क्यों कहा? केवल मानसिक निवेदन पूर्ण निवेदन नहीं है। मानसिक और बौद्धिक निवेदन तक ही निवेदन का भाव पूर्णरूपेण परिपुष्ट और ध्रुव-दृढ़ नहीं होता है। अतएव ऐसा भक्त नीचे भी गिर सकता है। किन्तु जिसने बाह्याभ्यन्तर इन्द्रियों से ऊपर उठकर कैवल्य दशा को प्राप्त कर आत्मनिवेदन किया है, वह कदापि गिर नहीं सकता है। ऐसा होकर शरण में आना अर्जुन के लिए भगवान का उक्त आदेश जानने में आता है।
 इस प्रकार भक्ति का साधन करते हुए आप किसी इष्ट को मानिए, राम, कृष्ण, शिव-सब एक ही हैं; क्योंकि पृथक-पृथक रूपों में पृथक-पृथक आत्मा नहीं बल्कि एक ही आत्मा है। भक्त उस आत्मा का आत्म-निवेदन करके भक्ति का साधन समाप्त करता है और परम गति को प्राप्त करके सारे क्लेशों से छूट जाता है। भक्ति-साधन में तन-मन की पवित्रता अत्यन्त अपेक्षित है। इस हेतु पंच पापों (व्यभिचार, चोरी, नशा, हिंसा और झूठ) से बचिए। सदाचार का पालन कीजिए। सदाचार का पालन किए बिना भक्ति-पथ पर कोई एक डेग भी नहीं चल सकता है। सदाचार को ध्यान का बल है और ध्यान को सदाचार का बल है। एक के बिना दूसरा नहीं बढ़ सकता। दोनों में बड़ा मेल है। बढ़ते-बढ़ते जहाँ तक बढ़ना चाहिए, दोनों बढ़ जाते हैं। दोनों का साधन संग-संग होता है। पूजा-पाठ कीजिए; त्रयकाल संध्या कीजिए। भक्ति का साधन धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते बढ़ेगा। इसके लिए घर छोड़ने की जरूरत नहीं। कोई उपासक बनिए, साम्प्रदायिकता के फेर में नहीं आइए। भ्
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यह प्रवचन जवाहर टाउन, गया में दिनांक 17.1.1953 ई0 को श्रीगौरीशंकर एवं श्रीलक्ष्मीनारायण डालमिया के द्वारा आयोजित सत्संग में हुआ था।
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43. दृष्टिसाधन की महिमा

प्यारे लोगो!
रघुपति भगति करत कठिनाई।
कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई।।
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी।
सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं।
तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं।। - गोस्वामी तुलसीदासजी
अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यों गूँगहिं मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै।।
परम स्वाद सबही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै।
मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै।।
रूप रेख गुन जाति जुगुति बिनु, निरालंब मन चकृत धावै।
सब विधि अगम विचारहि तातें, ‘सूर’ सगुन लीला पद गावै।।
                                                     - भक्त सूरदासजी
 स्थूल मण्डल में जहाँ तक स्थान है, वहाँ तक लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, गहराई और मोटाई होती है। स्थान हो और इन पाँचो में से एक भी नहीं हो, असम्भव है। स्थान में ये पाँचो होते ही हैं। इसलिये लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, गहराई और मोटाई जहाँ है, वहाँ स्थान है। विन्दु में स्थान है, किन्तु उसका परिमाण नहीं है। रेखा में लम्बाई है, चौड़ाई नहीं; किन्तु परिभाषा के अनुकूल बाहर में विन्दु या लकीर नहीं बन सकती। दृष्टिसाधन से विन्दु देखने में आता है। जहाँ स्थान है, वहाँ समय है। देश है, समय नहीं और समय है, देश नहीं; ऐसा नहीं हो सकता। जहाँ देश-काल नहीं है, वहाँ लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई और गहराई कुछ नहीं है। परमात्मा देशकालातीत है तथा सर्वव्यापी है। समय और स्थान माया में है, माया से ऊपर समय और स्थान नहीं हो सकते। परमात्मा में लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई, गहराई और ऊँचाई मानने से वह माया-रूप हो जायगा। जिसमें विस्तृतत्व या फैलाव नहीं है, वह कैसा है ? बुद्धि में नहीं आ सकता। इसलिये वह बुद्धि के परे है। परमात्मा निर्विकार है। वह विस्तृतत्व-रूप नहीं है। सब फैलावों में रहते हुए वह उन सबसे बचकर है। इसी परमात्म-स्वरूप को गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने ‘देस काल तहँ नाहीं’ कहा है।
 लोग कहते हैं कि श्रीसूरदासजी भगवान श्रीकृष्ण के भक्त थे। वे कहते हैं-‘अविगत गति कछु कहत न आवै।’ अ = नहीं। विगत = खाली। अविगत अर्थात् सर्वव्यापी। सर्वव्यापी की महिमा को कुछ कह नहीं सकते। इसका मतलब यह नहीं कि वह है ही नहीं। बल्कि वह ऐसा है कि उसके विषय में कहने में कुछ नहीं आता। प्राप्त होने पर भी उसका कोई वर्णन नहीं कर सकता। जैसे गूँगा किसी मीठे फल के स्वाद का वर्णन नहीं कर सकता, उसी प्रकार अविगत की प्राप्ति तो होती है, किन्तु उसका वर्णन करने के लिये जिह्ना में शक्ति नहीं है, भीतर-ही-भीतर अच्छा लगता है, कहने में नहीं आता। उसे पा लेने से क्या होता? तो कहा-परम स्वाद। जो उसको पाता है, उसको सर्वोत्कृष्ट स्वाद मिलता है। सब स्वादों से जो बढ़कर स्वाद है, वह उसको मिलता है। जब कोई उसको पाता है, तबसे उसका स्वाद उसे बराबर लगा ही रहता है। एक पल-क्षण भी नहीं छूटता। वह अमित सन्तुष्टि को पाता है। उसको पा लेने पर इच्छा ही नहीं रहेगी। इच्छा में रहकर ही मन चंचल होता है। उसको सन्तुष्टि नहीं कहते कि भूख लगी, खा लिया, फिर पच गया तो भूख लगी। वह सन्तुष्टि ऐसी है कि फिर और कुछ पाने की इच्छा ही नहीं रहती। मन और वचन की पहुँच से बाहर है। यदि मन-वचन के बाहर नहीं होता, तो मन जानता और वचन से वर्णन होता। किन्तु वह वैसा नहीं, मन-वचन से परे है। उसे वही जानता है, जो उसे पाता है। रूप नहीं है, रेखा नहीं है और गुण भी नहीं, त्रिगुणातीत है। किसी किस्म का नहीं है, कहने के लिए युक्ति नहीं है। इसलिए परमात्म-स्वरूप के विषय में केवल माया तक की गतिवाला मन (गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।-रामचरितमानस) बिना अवलम्ब के चक्कर खाता रहता है। इसी कारण से श्रीसूरदास जी ने सगुण-लीला के अनेक पद्यों को गाया है।
 वहाँ जाने के लिये, उसका कुछ प्रकाश देखने के लिए श्रीसूरदासजी महाराज कहते हैं-
   नैन नासिका अग्र है, तहाँ ब्रह्म को वास।
    अविनासी बिनसै नहीं, हो सहज जोति परकास।।
 ऐसा देखने का ढंग जानो और करो, तो प्रकाश देखोगे। सूर्योदय के पहले जैसे थोड़ा प्रकाश मालूम होता है, फिर लालिमा देखते-देखते सूर्य को देखते हैं, उसी प्रकार ब्रह्म को देखने के पहले ब्रह्म का प्रकाश देखने में आता है, फिर ब्रह्म को देखते हैं। देखने के लिए दृष्टिसाधन करो। परन्तु यह न समझो कि दृष्टिसाधन करके देख सकने पर भी वह देशकालातीत परमात्मा प्राप्त हो जायगा। स्थूल वा सूक्ष्म दृश्य, सब ब्रह्म के रूप हैं। वह परमात्मा- ब्रह्मतत्त्व ऐसा है कि केवल चेतन-आत्मा ही कैवल्य दशा में रहती हुई उसको प्रत्यक्ष पा सकती है। दृष्टिसाधन से प्राप्त दिव्य दृष्टि केवल सूक्ष्म माया तक ही रह जाती है। वह अन्तःकरण के परे की दृष्टि नहीं है। अन्तःकरण और मूल प्रकृति से परे हो जाने पर ही चैतन्य आत्मा कैवल्य दशा प्राप्त करती है, तब उससे अभिन्न चेतनमय दृष्टि से ही उस देशकालातीत परमात्मा-ब्रह्म की अपरोक्षता होती है। इसी अपरोक्षानुभूति में देशकालातीत भाव का बोध होता है। परन्तु इस सर्वोच्च पद तक आने के लिए दृष्टियोग अभ्यास इसलिए परमावश्यक है कि चैतन्य आत्मा स्थूलावरण से निकलकर ब्रह्म-ज्योति मण्डल में अपने को रख सके और उससे भी आगे बढ़ जाने के लिए सूक्ष्म अनहद नादों को ग्रहण करते हुए अन्त में स्फोट- प्रणव ध्वनि-आदिनाम-सत्यनाम-सारशब्द- राम- नाम को ग्रहण करके बचे हुए सारे मायिक आवरणों को पार कर अपने को कैवल्य दशा में ला परमात्मा का दर्शन करे। भ्
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यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर मनिहारी में दिनांक 20.2.1953 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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44. आत्मा को जानना सच्चा ज्ञान है

प्यारे सज्जनो!
 बहुत पहले यहाँ संस्कृत का अत्यधिक प्रचार था। प्रायः सब संस्कृत में बोलते थे। उस समय ऋषियों तथा मुनियों ने जो समय-समय पर प्रवचन कहे, उन्हीं के सदुपदेशों को उपनिषद् कहते हैं। कुछ काल पहले अपने देश में संकुचित विचार भी था। लोग सर्वसाधारण को यह उपनिषद्-ज्ञान नहीं बताते थे, इसलिए इसका विशेष प्रचार नहीं हुआ। योगशिखोपनिषद् में शिव और ब्रह्मा का संवाद है। ब्रह्मा ने शिवजी से पूछा-कोई योग और कोई ज्ञान को मोक्ष-प्राप्ति के लिए बतलाते हैं, आपका क्या मत है? इसपर शिवजी ने उत्तर दिया-ज्ञानहीन योग और योगहीन ज्ञान मोक्ष कर्म में समर्थ नहीं होता, इसलिए मुमुक्षु को ज्ञान और योग; दोनों का दृढ़ता के साथ अभ्यास करना चाहिए।
 मोक्ष का अर्थ है-बन्धन से छूट जाना। हम सबलोग बन्धन में बँधे हुए कैद हैं। शरीर में कैद हैं और जड़-चेतन की गिरह से बँधे हुए हैं। इसलिए सब लोग दुःख उठाते हैं। यह दुःख क्यों होता है? शरीर रहने पर ही दुःख होते रहते हैं, काम-क्रोध उत्पन्न होते रहते हैं। इसका कारण शरीर है। शरीर और संसार से छूटने से ही दुःख छूटेगा। ज्ञान का अर्थ है-जानना। योग का अर्थ है-मिलना। ज्ञान से जानने में आवेगा कि किससे मिलना है। योग जानने से उसकी क्रिया करके उससे मिलेंगे। ईश्वर से मिलने के लिए जो क्रिया है, वह योग है। जप-ध्यान सरल योग का अभ्यास है। सत्संग करना ज्ञान का अभ्यास करना है। शरीर और आत्मा को जानना ज्ञान है। लिखा-पढ़ा आदमी पुस्तक पढ़ता है, तो उससे उसको ज्ञान होता है; किंतु किसी विशेषज्ञ के पास जाकर सुनने से विशेष ज्ञान होता है। अक्षर और मात्रा को पढ़ने से पुस्तक पढ़ लेते हैं, किंतु उसका अर्थ ठीक-ठीक नहीं समझ सकते। ठीक-ठीक समझने-पढ़ने के लिए ही लोग कॉलेज और विद्यालयों में जाते हैं। इसीलिए पढ़े-लिखे लोगों को चाहिए कि जहाँ कहीं कोई विशेषज्ञ हों, उनके पास जाकर सुनें और सीखें। यह जानकर ज्ञान और योग; दोनों का अभ्यास अत्यन्त आवश्यक है।
 बहुतों का ख्याल है कि थोड़ा जप-ध्यान करते हैं, मरने पर मुक्ति हो जाएगी; किंतु उपनिषद्कार ने बताया कि मरने पर जो मुक्ति होती है, वह मुक्ति नहीं है। जब तुम जीवन में मुक्ति प्राप्त करो और तुम्हें परमात्म-स्वरूप की प्रत्यक्षता हो, तब तुम मरने पर मुक्त ही हो।
 जीवन मुक्त सो मुक्ता हो।
 जब लग जीवन मुक्ता नाहीं, तब लग दुख सुख भुगता हो।
 देह संग नहिं होवे मुक्ता, मुए मुक्ति कहँ होई हो।
 जल प्यासा जैसे नर कोई, सपने मरे पियासा हो।।
      -कबीर साहब
 जीवत छूट ै देह गुण, जीवत मुक्ता होइ ।
 जीवत काटे कर्म सब, मुक्ति कहावै साइ ।।
 जीवत जगपति कौं मिलै, जीवत आतम राम ।
 जीवत दरसन देखिये, दादू मन विसराम ।।
 जीवत मेला ना भया, जीवत परस न होइ ।
 जीवत जगपति ना मिले, दादू बूड़े सोइ ।।
 मूआँ पीछे मुकति बतावै, मूआँ पीछै मेला ।
 मूआ पीछै अमर अभै पद, दादू भूले गहिला ।।
                     -दादू दयाल
 सुनि समुझहिं जन मुदित मन, मज्जहिं अति अनुराग।
 लहहिं चारि फल अछत तनु, साधु समाज प्रयाग।।
        -गोस्वामी तुलसीदासजी
 फिर इस योगशिखोपनिषद् में कहा गया है कि ‘मरते समय जैसी भावना रहेगी, उसी के अनुकूल शरीर होगा।’ यदि मरने के समय पाशविक भावना हो तो बड़ा बुरा होगा। इसलिए सचेत रहो कि मरने के समय यह बुरी भावना न आने पावे। जिस आदमी की जाग्रत अवस्था के काल में जिस ओर विशेष ख्याल लगा रहता है, स्वप्न में भी वही वह देखता है। उसी प्रकार जीवनकाल में जैसी भावना बारम्बार होती रहेगी, मरने के समय भी वैसी ही भावना होगी। इसलिए जीवनकाल में अच्छी भावना रखो, जिससे कि मरने के समय भी अच्छी भावना हो। श्रीमद्भगवद्गीता में लिखा है-
  कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
  सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।।
  प्र्रयाण काले मनसा चलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
  भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।। -गीता, अध्याय 8/9-10
 अर्थात् जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से, भक्ति से सराबोर होकर और योगबल से भृकुटी के बीच में अच्छी तरह प्राण को स्थापित करके सर्वज्ञ, पुरातन, नियन्ता, सूक्ष्मतम, सबके पालनहार, अचिन्त्य, सूर्य के समान तेजस्वी, अंधकार से पर स्वरूप का ठीक स्मरण करता है, वह दिव्य परमपुरुष को पाता है।
 जीवन-भर अपना कुछ पूजा-पाठ करो, यदि उससे दर्शन नहीं हो या किसी प्रकार का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं हो जाय, तो संतोष नहीं होता। संतों की युक्ति है, जिसके अनुकूल साधन-भजन करने से ऐसा होता है। जैसे ठाकुरबाड़ी में कोई जाय और ठाकुरजी को नहीं देखे तो कहना चाहिए कि उसको देखने की आँख नहीं है। उसी प्रकार जिससे परमात्मा का कुछ र्चिं देखने में आता है, वह दृष्टि सबको है, किंतु उससे काम लेने के लिए-देखने के लिए लोग नहीं जानते हैं। जानकर भी कितने साधन नहीं करते। यदि साधना किया जाय तो प्रत्यक्ष हो जाय। जिनको दर्शन हुआ वे कहते हैं- आपका शरीर शिवालय है, इसमें शिवलिंग की स्थापना है। बाहर में प्रस्तर का शिवलिंग बनाकर पूजते हैं। आपके अंदर बनी हुई प्रतिमा या शिवलिंग प्राकृतिक है। वह बना हुआ है ही, बनाने की जरूरत नहीं। वह नादरूप है। शब्दरूप शिवलिंग है। शिवलिंग के नीचे जलढरी रहती है, उसी प्रकार उस नाद के नीचे विन्दु है। शिवलिंग नाद है और विन्दु (शक्तिर्चिं) रूप जलढरी है। जो साधन करे, उसको ये अपने अंदर में प्रत्यक्ष होंगे। जो अच्छी तरह कोशिश करे, तो अवश्य देखेगा। ये कोई ऊँचे दर्जे की चीजें नहीं है, नीचे की ही हैं। किन्तु मन को पवित्र रखना जरूरी है। जिसका मन पवित्र नहीं है, वह उसे देख नहीं सकता। नाद का अर्थ है-शब्द और विन्दु का अर्थ है-छोटे-से-छोटा र्चिं। जिसमें परिमाण नहीं, केवल स्थान है, वह विन्दु है। बाहर में ऐसा र्चिं नहीं हो सकता है, जो आँख से देख सकते हो। कोई भी आकार या दृश्य विन्दु के बिना बन नहीं सकता। कोई चित्र बनाओ, पेन्सिल रखने से जो पहले र्चिं उदय होगा, वही विन्दु होगा। फिर उसी को बढ़ाकर, लंबाई, चौड़ाई बनाकर आकार बनाते हैं। इसलिए बिना विन्दु के कोई आकार नहीं बन सकता। असली विन्दु को कोई यौगिक दृष्टि से देख सकता है। उसके लिए किसी पेन्सिल वा कलम की जरूरत नहीं। अपनी दृष्टि की नोक जहाँ दृढ़ता से ठहरा रखेंगे, वहीं विन्दु उदित होगा। विन्दु जलढरी है। जलढरी पर शिवलिंग खड़ा रहता है। उसी प्रकार जहाँ विन्दु उदित होता है, उसके ऊपर नाद खड़ा हो जाता है। संसार में बिना शब्द के कोई जगह नहीं है। शब्द कैसे होता है? शब्द संघर्ष से होता है, गति से होता है। गति कहते हैं, चलने को-कम्प को। तारे चलते हैं, पृथ्वी चलती है। सबकी गति में शब्द होता है। किंतु आप सुन नहीं पाते। गति में ध्वनि है, संसार में सब पदार्थों की गति है। बिना शब्द के संसार का एक रत्ती भी खाली नहीं। हमलोगों का शरीर बढ़ता है, इसमें भी गति होती है। इसके शब्द को सुन नहीं पाते। नाड़ियाँ चलती हैं, इससे भी आवाज होती है। जहाँ कुछ गति है-संचालन है, वहाँ ध्वनि है। संसार गतिशील है, इसलिए संसार शब्द से भरा है। आपके शरीर में भी शब्द है। स्थूल शब्द को डॉक्टर लोग कान में यंत्र लगाकर सुनते हैं; किंतु बारीक शब्द को नहीं सुन सकते। बारीक शब्द तब सुन सकते हैं, जब आप विन्दु को प्राप्त कर लें। विन्दु को प्राप्त करनेवाला उस सूक्ष्म शब्द को सुन सकता है। वह शब्द शिवरूप है। शिव का अर्थ ‘कल्याणकारी’ है। उसको जो प्रत्यक्ष करता है, उसका कल्याण होता है। विन्दु में जो अपने मन को समेटता है, दृष्टि को समेटकर देखता है, तो उसमें शक्ति आ जाती है। फैलाव में शक्ति घटती है, सिमटाव में शक्ति बढ़ती है। जिसकी दृष्टि सिमट गई है, उसकी शक्ति बढ़ जाती है। रूप या दृश्य का बनना बिना विन्दु के नहीं होता। इसलिए सब दृश्य का बीज विन्दु है। किसी आकार और दृश्य का आरम्भ एक विन्दु से होता है और उसका अंत एक विन्दु पर ही होता है। दृश्य जगत का बीज विन्दु है और अदृश्य जगत का बीज शब्द है। जिसकी वृत्ति शब्द-रूप शिव को पकड़ लेती है, वह सारी सृष्टि को अंत कर जाता है। उसे मोक्ष के साथ परमात्म-स्वरूप की प्राप्ति हो जाती है।
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यह प्रवचन खगड़िया जिलान्तर्गत ग्राम-मानसी में दिनांक 24.2.1953 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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45. पिण्ड-ब्रह्माण्ड की खोज

प्यारे लोगो!
 जिसको अपने तईं का ज्ञान नहीं है, उसको दूसरे का भी ज्ञान नहीं होता। जैसे गहरी नींद में सोए को अपने तईं का ज्ञान नहीं है, तो उसे दूसरे का भी ज्ञान नहीं होता। बुद्धिमान पुरुष अपने को खोजकर पाता है तो उसे दूसरे की भी ठीक-ठीक खोज मिल जाती है। फिर दूसरी बात यह है कि यह जो जगत दिखाई पड़ता है, जो देहधारियों के रहने का स्थान मालूम होता है, यह क्या है? इसमें कोई विशेष तत्त्व ऐसा भी है, जो इसके अंदर के अंत तल पर अन्दर-अन्दर है।
 उसको हम नहीं पहचान रहे हैं। बुद्धिमान इसका पता लगाना चाहते हैं और इसको यथार्थतः पहचान लेने को उत्सुक रहते हैं। अति प्राचीन काल में यह खोज और यह उत्सुकता मुनियों के हृदय में हुई और उन्होंने इसका पता लगाया, पहले विचार में, फिर इसकी प्रत्यक्षता की विधि में। इसका प्रत्यक्षानुभव हो जाने पर उन्होंने दृढ़तापूर्वक लोगों से कह दिया कि एक-एक पिण्ड में जो व्यापक सार-तत्त्व है, संसार में भी वही व्यापक है। अर्थात् पिण्ड में जो सारतत्त्व व्यापक है, वही ब्रह्माण्ड में भी व्यापक है। यह पता मनुष्य को ही लगा, दूसरे को नहीं; क्योंकि मनुष्य ही यह पता लगाने के योग्य है। इसका पता लगने से क्या फल? इसका पता जिनको नहीं लगा है, वे सांसारिक- मायिक चीजों में संलग्न हैं। इस संलग्नता में संतुष्टि नहीं, शान्ति नहीं और सुख नहीं है। परंतु जिनको पिण्ड-ब्रह्माण्ड में व्यापक उस एक सार-तत्त्व का पता लगा, उन्होंने कहा कि उस सार-तत्त्व का पता लगते ही सांसारिक-मायिक वस्तुआें की संलग्नता छूट जाती है और कथित सार-तत्त्व में उनकी संलग्नता हो जाती है। सब दुःख छूट जाते हैं, फिर नीचे गिरना नहीं होता है। इस संसार के दुःखों में वह कभी नहीं आता है।
 यह शरीर पिण्ड कहलाता है। बाहर विश्व- ब्रह्माण्ड है। पिण्ड-ब्रह्माण्ड की खोज कोई पक्षी नहीं कर सकता या चार पैरवाला पशु नहीं कर सकता। जो स्थावर है (जो अपने से कहीं नहीं जा सकता), वह तो यह खोज कर ही नहीं सकता। जो जंगम है, उसमें किसी को कम, किसी को विशेष ज्ञान है। स्थावर में इसके लिए ज्ञान है ही नहीं। जंगम प्राणी में भी मनुष्य के अतिरिक्त दूसरा कोई पिण्ड-ब्रह्माण्ड की खोज कर ही नहीं सकता। शरीर जब मृतक होता है, तब उसे जला देते हैं। उसमें जो सार था, वह कहीं चला गया। इस शरीर में जो अव्यक्त था, उसे नहीं देखा; वह चला गया। इस संसार के अंदर भी सार है। जो इन्द्रियों के ज्ञान में नहीं आता, वह अव्यक्त है। शरीर में जो सार है और ब्रह्माण्ड में जो सार है; इन दोनों में कुछ अंतर है कि नहीं? कोई कहता है अंतर नहीं, एक ही है। यही शंकराचार्य का अद्वैत सिद्धांत है। दूसरा वह है, जो कहता है कि पिण्ड-ब्रह्माण्ड में व्यापक एक ही ईश्वर है, किंतु पिण्ड में ईश्वर के अतिरिक्त दूसरा और भी है, जिसे जीव कहते हैं। हमारे यहाँ ऐसे विचार-ज्ञान को ही वेदान्त-दर्शन कहते हैं। इसके छह आचार्योंं ने छह प्रकार के सिद्धांत बताए हैं-अद्वैत, द्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत और त्रैत। (1.-श्रीमदाद्य शंकाराचार्य का अद्वैत, 2.-श्रीमाधवाचार्य का द्वैत, 3.-श्रीरामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत, 4.-वल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैत, 5.-श्रीनिम्बार्काचार्य का द्वैताद्वैत और 6.-श्रीदयानंद स्वामी का त्रैत ) ये छहो विचार आज आपस में लड़ते हैं, परंतु ये सब मिल-जुलकर एक सिद्धांत पर नहीं आए हैं। इनमें के एक-एक के दूसरे-दूसरे पर ऐसे-ऐसे प्रश्न हैं, जिनका पूर्ण समाधान कर देने के उत्तर नहीं मिलते हैं। एक कहता है कि माया देश-काल के ज्ञान से अनादि हैं, किंतु उपज ज्ञान से सादि हैं; क्योंकि यह ब्रह्म से उपजी हुई है। जहाँ देश होगा, वहाँ समय जरूर होगा। माया कब से है, बता नहीं सकते, किंतु उसका अंत है, इसलिए उसे अनादि सांत कहते हैं। माया को भ्रम कहते हैं, चाहे इसकी स्थिति माने या न माने, किंतु दोनों माया के पार होने कहते हैं। ‘प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी। ब्रह्म निरीह बिरज अविनासी।।’ अद्वैतवादी के ऊपर यह प्रश्न होता है कि यदि एक-ही-एक है, दूसरा कुछ नहीं है तो भ्रम किसको हुआ? सर्प और रस्सी दोनों को देखता है, तब उसको धुँधली रोशनी में भ्रम होता है, किंतु जिसने कभी साँप को देखा नहीं है, उसको भ्रम क्यों होगा? यहाँ अद्वैत सिद्धांत भी ठण्ढा पड़ जाता है। द्वैतवाले से प्रश्न होता है कि आप ब्रह्म को स्वरूप से अनादि मानते हैं कि देश-काल-ज्ञान से अनादि मानते हैं? तो कहेंगे कि वह सब तरह से अनादि है। तत्त्वरूप से अनादि अनंत है तो फिर प्रश्न होगा कि अनादि अनंत एक ही हो सकता है कि दो? तो कहना पड़ेगा कि अनंत एक ही हो सकता है। तत्त्वरूप में अनंत एक ही हो सकता है, जिसकी सीमा नहीं हो। असीम या अनन्त तत्त्व एक ही हो सकता है, दो नहीं। यदि दो मानो तो दोनों की सीमा जहाँ होगी, दोनों ससीम हो जाएँगे। दो पदार्थ तब मालूम होंगे, जहाँ सीमा मालूम होगी। असीम या अनंत एक ही होगा। तत्त्व में उससे दूसरा तत्त्व उसके अंदर मानो तो वह दूसरी चीज जो उसके अन्दर में होगी, उस पदार्थ से उसको फुटाने के लिए तो कुछ सीमा बतानी होगी। जहाँ सीमा होगी, वहीं दो हो जाएँगे। यदि कहो कि अनंत उसके परमाणु-परमाणु में व्यापक है तो परमाणु वह वस्तु है, जिसमें पोल नहीं होता, जो उसमें दूसरा कुछ घुसेगा। तब यह कहा जाएगा कि जो उसके परमाणु में भी व्यापक है, तब वह परमाणु भी उसी से बना हुआ है। मैं कहता हूँ, इन सब झगड़े से अलग रहो। द्वैत मत वाले अपने मत को जबर्दस्त और अद्वैत मत वाले अपने मत को जबर्दस्त बताते हैं। दोनों अपने-अपने मत पर अड़े हैं। किन्तु नम्रता से कहो कि एक परमात्मा ही सब तरह से अनादि-अनंत है, तो इसको सब मानते हैं। इसकी खोज में चलो। खोजकर निर्णय हो जाएगा कि क्या है? उसको प्राप्त करने से जिस सुख के लिए अभी ललचते हो, उसको प्राप्त कर लोगे, नित्य सुख मिलेगा। उसके पास जाओगे कैसे, इसको जानो। पहले यह जानो कि जिस ज्ञान से तुम संसार को पहचानते हो, यह जानते ही हो कि इससे तुम ईश्वर को नहीं पहचानते। तुम इन्द्रिय-ज्ञान से संसार को जानते-पहचानते हो, इस इन्द्रिय-ज्ञान से ईश्वर को नहीं पहचानोगे। इन्द्रियों से युक्त होकर जो ज्ञान होना चाहिए, वह तुम जानते हो। इन्द्रियों से अलग होकर जो ज्ञान होना चाहिए, वह ज्ञान तुमको नहीं है। इसलिए इन्द्रियों से अलग होकर केवल आत्मा से देखो। संसार के रूप-ज्ञान के लिए नेत्र है। घ्राण को ग्रहण करने के लिए नाक है। जिसकी घ्राण- शक्ति खराब हो गई है, वह नेत्र से गन्ध ग्रहण नहीं कर सकता। एक-एक विषय के लिए एक- एक इन्द्रिय है। उसी प्रकार तुम्हारे निज के लिए अर्थात् आत्मा के लिए भी कोई विषय है। सब इन्द्रियों को छोड़कर, मन-बुद्धि को छोड़कर केवल तुम्हारा विषय परमात्मा है। वह परमात्मा आत्मगम्य है। आत्मा से उन्हें तब पहचानोगे, जब इन्द्रियों से छूट जाओगे। इन्द्रियों से छूटने का उपाय सीखो। बाहर पर्वत पर जाओ या मक्का जाओ या पवित्र स्थान में जाओ या जगन्नाथजी जाओ; कहीं जाओ, इन्द्रियाँ साथ रहेंगी। अपने अंदर चलो। पहले मोटी इन्द्रियों से फिर सूक्ष्म इन्द्रियों से छूटोगे। जाग्रत में बाहर के इन्द्रियों के संग रहते हो। स्वप्न में बाहर की इन्द्रियाँ छूट जाती हैं। नाक से इत्र का फूहा रहने पर भी स्वप्न में उसकी सुगंध नहीं मालूम होती। अपने अंदर में प्रवेश करो। श्रीमद्भगवद्गीता में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार दिया है। क्षेत्र मानी खेत और क्षेत्रज्ञ मानी खेत को जाननेवाला। आकाश, हवा, अग्नि, जल, मिट्टी, अहंकार, बुद्धि अव्यक्त; पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ, मन, रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द; इच्छा, द्वेष, दुःख, सुख, संघात, चेतना और धृति; इन इकतीस तत्त्वों के समुदाय को क्षेत्र (महाभूतान्यऽहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च। इन्द्रियाणि दशैकं च पंचचेन्द्रिय गोचराः।। इच्छा द्वेष सुखं संघातश्चेतना धृतिः। एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।।) कहते हैं। बत्तीसवाँ क्षेत्रज्ञ है। आप क्षेत्र नहीं हैं, क्षेत्रज्ञ हैं। क्षेत्र के सब तत्त्वों से जीवात्मा या क्षेत्रज्ञ अलग हो जाय तो आप अकेले हो जाओगे। अब अकेले में जो पहचान हो, वही परमात्मा है। इसके लिए बाहर में कहीं जाने से क्षेत्र से नहीं छूट सकते। स्वप्न में जाने से स्थूल शरीर और स्थूल इन्द्रियाँ छूट जाती हैं। यह थोड़ा-सा नमूना है कि अंतर्मुख होने से स्थूल शरीर और इन्द्रियों से छूटते हो। इस प्रकार अंदर-ही-अंदर चलने से तुम सब शरीरों और इन्द्रियों से छूटकर अकेले होकर रहोगे, तब तुम अपने को और परमात्मा को पहचान सकोगे। देह के सब अंगों को आँख से देखते हो, किंतु आँख को देखने के लिए आँख ही है। वैसे ही परमात्मा को आत्मा से ही पहचानोगे। बाहर से भीतर जाने में सब ख्यालों को छोड़ना होगा। इसके लिए अनेक पीढ़ियों के संस्कार की, दीर्घोद्योग की तथा दृढ़ ध्यानाभ्यास की अत्यंत आवश्यकता है। इसी शरीर में जैसा संस्कार बैठाओगे, वैसा ही शरीर मिलेगा। मानवीय संस्कार मन में बैठाओगे तो मनुष्य-शरीर मिलेगा। भजन में पूरे हो जाने से ईश्वर को प्राप्त कर लोगे। पूरा भजन नहीं होने से फिर मनुष्य का शरीर मिलेगा; क्योंकि भजन-संस्कार को बढ़ानेवाला दूसरा शरीर नहीं है। यदि पाशविक ख्याल का संस्कार हृदय में रखोगे तो पशु शरीर हो जाएगा। जैसे राजा भरत को हुआ था। ( राजा भरत जंगल में तप करते थे। उनको हरिण के बच्चे से प्रेम हो गया था। इसी ख्याल में उनका शरीर छूट गया तो हरिण का ही शरीर मिला। पूर्व जन्म के तप के कारण उनका ज्ञान नष्ट नहीं हुआ था। इस शरीर को पाकर वे बहुत पश्चात्ताप करते थे। उनका वह हरिण का शरीर छूटने पर ब्राह्मण कुल में जन्म हुआ और उनका नाम जड़भरत पड़ा। ) ईश्वर का भजन करो, सदाचार का जीवन बिताओ। भजन में अपूर्ण रहने से दूसरे जन्म में मनुष्य होना धु्रव है। मन को एकाग्र कर भजन करो, पूजा पाठ के द्वारा मन को एकाग्र करते हैं, जप के द्वारा एकाग्र करते हैं। एकाग्रता एकविन्दुता तक है। जबतक एकविन्दुता नहीं होगी, पूर्ण सिमटाव नहीं होगा, पूर्ण सिमटाव के लिए एकविन्दुता प्राप्त करो। एकविन्दुता में पूर्ण सिमटाव होगा, ऐसे सिमटाववाले की ऊर्ध्वगति हो जाएगी। तुलसी साहब के पद्य में है कि-
 सुरत शिरोमणि घाट गुमठ मठ मृदंग बजैं रे ।
 नव दरवाजा शिरोमणि घाट नहीं, दसवाँ दरवाजा शिरोमणि घाट है। यहाँ पर सिमटाव होने से मृदंग बजेगा। तुलसी साहब के वचन पर विश्वास करो तथा ध्यानविन्दूपनिषद् में पढ़ो-
 बीजाक्षरं परम विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 स शब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
      -ध्यानविन्दूपनिषद्
योगशिखोपनिषद् में लिखा है-
 विन्दुपीठं विनिभि्र्ाद्य नादलिंगमुपस्थितम्।
 यही संतमत है। मुझे किसी सम्प्रदाय-द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैती, त्रैत आदि से झगड़ा नहीं, मैं किसी का खण्डन नहीं करता। मैं कहता हूँ, परमात्मा को पहचानने के लिए चलो। चलने के लिए बाहर जाना छोड़कर अन्दर में चलो। अन्दर में चलने के लिए कोट-कमीज तथा कुर्तेरूप शरीरों को उतारो। शरीर-रहित जीवात्मा को परमात्मा का साक्षात्कार होगा। इसलिए जिस युक्ति से सब शरीरों से रहित होओगे, वह यत्न करो। सदाचार का पालन करो। सबके लिए हित की बात है। बहुत प्राचीन काल में केवल यज्ञ था। पीछे कुछ देव-उपासना का ख्याल हुआ और पीछे चलकर अध्यात्म -ज्ञान हुआ। अध्यात्म-ज्ञान से निर्णीत पद पर आरूढ़ करा देने के लिए योग शास्त्र बना।
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यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत ग्राम-रामगंज सत्संग मंदिर में दिनांक 27.2.1953 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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46. सूक्ष्म मार्ग का अवलम्ब

प्यारे लोगो!
 सब लोग दुःखों से छूटने के लिए उत्सुक हैं।
वैसे ही वे सुख की प्राप्ति के लिए भी उत्सुक हैं। लोग जितना सुख पाते हैं, उससे वे संतुष्ट नहीं होते । साधारणतया लोग जो सुख जानते हैं, वह विषय सुख है, जिसे इन्द्रियों के द्वारा भोगते हैं। इन विषय सुखों से कोई संतुष्ट नहीं हुए और न होते हैं। इसके लिए ज्ञानियों ने कहा है कि तुम जो संतोषप्रद नित्य सुख चाहते हो, वह इन्द्रियों के सुख में नहीं है। उसको पाने का रास्ता दूसरा है। वह सांसारिक सुख नहीं है, ब्रह्म सुख है। उस ओर चलो, यही उनका आदेश है। ईश्वर की ओर चलने से उनका तात्पर्य है। यद्यपि ईश्वर सर्वव्यापी हैं, परंतु उसको पहचान नहीं सकते। इसलिए उनकी पहचान और मिलन से जो प्राप्त होना चाहिए नहीं होता है। संसार को पहचानते हैं, उससे जो प्राप्त होता है, उससे संतुष्टि नहीं होती। परमात्मा को पहचानने चलो। किंतु उसकी पहचान के लिए चलने में आपका शरीर नहीं जाएगा। वह रास्ता शरीर के चलने का नहीं है, जिसके लिए कबीर साहब ने कहा है-
 बिन पावन की राह है, बिन बस्ती का देश ।
 बिना पिण्ड का पुरुष है, कहै कबीर सन्देश ।।
 उसपर पहले आपका मन चलेगा। क्योंकि मन भी सूक्ष्म है और वह रास्ता भी सूक्ष्म है। मन स्वयं जड़ है, यह अपने से कुछ करता हो, संभव नहीं। इसके अंदर चेतन-धारा है। मन और चेतन इस प्रकार मिला है जैसे दूध में घी। दूध से घी को अलग कर सकते हैं, उसी प्रकार चेतन को मन से अलग कर सकते हैं। मन और चेतन अलग-अलग हो जाय, इसके लिए सूक्ष्ममार्ग का अवलम्बन करना होगा। सूक्ष्ममार्ग पर मन चलते-चलते कुछ दूर जाएगा, फिर आगे नहीं जा सकेगा। तब केवल चेतन ही अकेला चलेगा।
 सहस कमल दल पार में मन बुद्धि हेराना हो।
 प्र्राण पुरुष आगे चले सोइ करत बखाना हो।।
     -तुलसी साहब, हाथरस
 बाहर की दश इन्द्रियों और भीतर की चार इन्द्रियों को शक्ति नहीं कि परमात्मा को पहचाने। परमात्मा को पहचानने के लिए चेतन-आत्मा ही योग्य है। किंतु चेतन-आत्मा अभी इसलिए नहीं पहचान रही है कि यह जड़ के संग-संग है। इसलिए इसको जड़ से फुटाओ। जड़ से फुटाने के लिए उपनिषद्कार कहता है- सूक्ष्ममार्ग ( निद्राभय सरीसृपं हिंसादितरंगं तृष्णावर्तं दारपंकं संसारवार्धि तर्तुं सूक्ष्ममार्गमवलम्ब्य सत्त्वादिगुणानतिक्रम्य तारकम- वलोकयेत्। भ्रूमध्ये सच्चिदानन्दतेजः कूटरूपं तारकं ब्रह्म। -ब्राह्मणोपनिषद्, ब्राह्मण 1
 गुरुदेव बिन जीव की कल्पना ना मिटै,
   गुरुदेव बिन जीव का भला नाहीं।
 गुरुदेव बिन जीव का तिमिर नासे नहीं,
   समुझि विचारि ले मने माहिं।।
 राह बारीक गुरुदेव तें पाइए,
   जनम अनेक की अटक खोलै।
 कहै कबीर गुरुदेव पूरन मिलै,
    जीव और सीव तब एक तोलै।।
                                -कबीर साहब )
का अवलंबन करो। मार्ग वह है, जिसका कहीं पर न ओर है और न कहीं पर छोर है, बीच में कुछ फासला है, जिस पर चला जा सकता है। जो जहाँ बैठा रहता है, वह वहीं से चलता है। शरीर में मन का बैठक या इसका केन्द्रीय रूप जहाँ है, वहीं से चलेगा। जाग्रत अवस्था में नेत्र ( नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत। सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूधि्र्नं संस्थितम्।। (ब्रह्मोपनिषद््) , नैनों माहीं मन बसै निकसि जाय नौ ठौर। गुरु गम भेद बताइया सब संतन शिरमौर।। (कबीर साहब), जानि ले जानि ले सत्त पहचानि ले, सुरत साँची बसै दीद दाना। खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै, पलक परवीन दिव दृष्टि ताना।।-दरिया साहब, बिहारी ।) में वासा है। नेत्र कहने से तीसरी आँख जाननी चाहिए, जहाँ से इन दोनों आँखों में धारा आती है। जिसे शिवनेत्र कहते हैं, इसे आज्ञाचक्र का केन्द्र भी कहते हैं। आज्ञाचक्र के दो भाग हैं; एक भाग को अंधकार और दूसरे भाग को प्रकाशमय बतलाया है। आज्ञाचक्र का जो केन्द्र है, वहीं मन की बैठक है, किंतु बाह्य इन्द्रियों से संबंधित रहने के कारण उसका रुख बिल्कुल अंधकार और बाह्य विषयों की ओर है। इसलिए जब पहले वह अपने अंदर में देखता है, तब उसे अंधकार मालूम होता है। इन्द्रियों में जो मानस-धारा है, वह नीचे की ओर है। यदि इसकी धारा इन्द्रियों से हटे तो इन्द्रियाँ सचेष्ट हो नहीं सकेंगी। जो कोई लेटा पड़ा है, उसके दोनों हाथ दो तरफ और पैर तीसरे तरफ है, यदि वह उठना चाहे तो हाथ-पैर समेटकर उठना होगा। उसी प्रकार चेतन की धारा जो संपूर्ण शरीर में फैली हुई है, जबतक केन्द्र में केन्द्रित न हो, तबतक मन और चेतन की ऊर्ध्वगति नहीं हो सकती। चेतनधारा केन्द्र में केन्द्रित हो तब वह उस मार्ग पर चलेगी। वहाँ स्थूल देह का कोई अंश नहीं है। वह लकीर या मार्ग सूक्ष्म है, जिसपर सुरत चलेगी। चेतनमय मानस-धारा इन्द्रियों के घाटों से छूटते ही और केन्द्र में केन्द्रित होते ही मन का रुख नीचे की ओर से ऊपर की ओर उलट जाएगा। रुख फिरते ही उसे प्रकाश मालूम होगा।
 सूक्ष्म-मार्ग ज्योति-मार्ग है। इसी सूक्ष्म-मार्ग पर चलना है। इस विषय को यदि कोई सिर्फ पढ़े और सुने, किंतु उस मार्ग पर चलने के लिए नहीं जाने, तो वह लाभ नहीं होगा जो होना चाहिए। सूक्ष्म-मार्ग ज्योति-मार्ग है, किन्तु वह ज्योति भूमण्डल की ज्योति नहीं है, वह ब्रह्मज्योति है। उस पथ पर पहले मन सहित चेतन जाएगा, फिर मन को छोड़कर केवल चेतन जाएगा। इसके वास्ते बाहर-बाहर यत्न करने पर पता नहीं लग सकता। यह यत्न अंदर-अंदर करने का है। अपनी वृत्तियों को समेटकर अंदर कीजिए। इस सिमटाव के लिए शाम्भवी या वैष्णवी मुद्रा का अभ्यास कीजिए। देखने के किसी विशेष ढंग को शाम्भवी और वैष्णवी मुद्रा कहते हैं। देखने के लिए उपनिषदों में तीन दृष्टियों-
(तद्दर्शने तिस्रो मूर्तयः अमाप्र्रतिपत्पूर्णिमा चेति ।
निमीलितदर्शनममादृष्टिः अर्धोन्मीलितं प्रतिपत्। सर्वोन्मीलनं पूर्णिमा भवति।..........
तल्लक्ष्यं नासाग्रम्। ....तदभ्यासान्मनः स्थैर्यम् । ततो वायु स्थैर्यम् । -मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् , ब्राह्मण 2
 द्वादशांगुल पर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे ।
  संविद्दृशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।।
  भूमध्ये तारकालोक शान्तावन्तमुपागते ।
  चेतनैक तने बद्धे प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।
 चिरकालं हृदेकान्तव्योमसंवेदनान्मुने ।
 अवासनमनोध्यानात्प्राणस्पन्दा निरुध्यते ।।
      -शाण्डिल्योपनिषद्, अध्याय 1)
का वर्णन है। अमावस्या, प्रतिपदा और पूर्णिमा। आँख बंदकर देखना अमादृष्टि है, आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा है और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा है। उसका लक्ष्य नासाग्र होना चाहिए। प्रतिपदा और पूर्णिमा में आँखां में कष्ट होता है, किन्तु अमावस्या की दृष्टि में कोई कष्ट नहीं होता। दृष्टि-आँख, डीम और पुतली को नहीं कहते, देखने की शक्ति को दृष्टि कहते हैं। दृष्टि और मन एकओर रखते हैं, तो मस्तिष्क में कुछ परिश्रम मालूम होता है। इसलिए संतों ने कहा-जबतक तुमको भार मालूम नहीं हो, तबतक करो, भार मालूम हो तो छोड़ दो। किसी गम्भीर विषय को सोचने से मस्तिष्क पर बल पड़ता है, मस्तिष्क थका-सा मालूम होता है, तब छोड़ दीजिए। रेचक, पूरक और कुम्भक के लिए कुछ कहा नहीं गया है, केवल दृष्टिसाधन करने को कहा। प्राणायाम करने के लिए नहीं कहा। जो ध्यानाभ्यास करता है, उसको प्राणायाम आप-ही-आप हो जाता है। मन से जब आप चंचल काम करते हैं, तो स्वाँस की गति तीव्र हो जाती है और जब उससे कोई अचंचलता का काम करते हैं, तो स्वास-प्रस्वास की गति धीमी पड़ जाती है।
 श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बैठने के स्थान और आसनियों के नाम बतलाकर उसपर शरीर को बैठाकर रखने का ढंग बतलाया है। परंतु प्राणायाम के लिए उस सम्पूर्ण अध्याय में नहीं कहा है, केवल ध्यानयोग का ही वर्णन किया है। और अंत में चलकर इसी से परमगति की प्राप्ति को निश्चय कर दिया है।
( प्रयत्नाद्यत मानस्तु योगी सं शुद्ध किल्विषः। अनेक जन्म संसिद्धस्ततो यान्ति परां गतिम्।।-श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 6/45) बिना प्राणायाम किए हुए भी ध्याना- भ्यास द्वारा श्वाँस की गति रुकती है। इसके लिए दृष्टियोग बहुत आवश्यक है। किंतु दृष्टियोग के पहले कुछ मोटा अभ्यास करना पड़ता है। क्योंकि जो जिस मण्डल में रहता है, वह पहले उसी मण्डल का अवलम्ब ले सकता है। इसीलिए दृष्टियोग के पहले मानस जप और मानस ध्यान की विधि है। श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कन्ध में भी इसी क्रम से अभ्यास करने का आशय विदित होता है।
 (इन्द्रियाणिन्द्रियार्थेभ्यो मनसाऽऽकृष्य तन्मनः ।
 बुद्ध्या सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः ।।
 तत्सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत् ।
 नान्यानि चिन्तयेद्भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम् ।।
 तत्र लब्ध पदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत् ।
 तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किंचिदपि चिन्तयेत् ।।) इसमें श्रीकृष्ण भगवान ने उद्धव से पहले संपूर्ण शरीर का, फिर चेहरे का और फिर शून्य में ध्यान करने को कहा। ध्यानाभ्यास के आरंभ में कुछ-न-कुछ स्थूल अवलम्बन लेना ही होगा। परन्तु ऐसा नहीं कि उसी को जीवनभर पकड़े रह जाइए। आर्य संन्यासी श्रेष्ठ श्रीनारायण स्वामी ने चित्र बनाकर बताया है-पहले एक बड़ा गोलाकार, फिर उससे छोटा, फिर उससे भी छोटा एवम् प्रकार से बड़े से छोटा गोलाकार बनाते-बनाते विन्दु के मोताविक र्चिं बनाकर उसपर ध्यान करते जाने को कहा है। यह क्या हुआ? स्थूल अवलम्ब हुआ। ऐसा जिद्द नहीं होना चाहिए कि जो अवलम्ब एक ले दूसरा भी उसी को ले। कितने ईश्वर के नाम को लिखकर ध्यान करते हैं। मुसलमान फकीरों में भी ऐसी बात है। इसपर ठीक हो जाने से सूक्ष्म- ध्यान कीजिए। भागवत की यह बात अच्छी तरह जँचती है-समस्त रूप का ध्यान करके चेहरे का, फिर शून्य में ध्यान। इस प्रकार फैलाव से सिमटाव की ओर आता है। किसी चित्र वा रूप का मूल एक विन्दु है। सबसे सूक्ष्मरूप विन्दु है, इसकी बड़ी तारीफ है। उपनिषद् में ब्रह्मरूप को ‘अणोरणीयाम् महतो महीयान्’ कहा है तथा श्रीमद्भगवद्गीता में भी अणोरणीयाम् कहो या विन्दु कहो एक ही बात है। विन्दु मन से नहीं बनाया जा सकता है। देखने के ढंग से देखिए। दृष्टि को जितना समेट सकें, समेटिए।
 कहै कबीर चरण चित राखो, ज्यों सूई में डोरा रे ।
      -कबीर साहब
 एक बार आचार्य द्रोण कौरवों तथा पाण्डवों को संग लेकर जंगल की ओर टहलने गए। वृक्ष पर बैठे हुए एक पक्षी की ओर संकेत कर गुरु द्रोण ने प्रत्येक को एक-एक करके निशाना करने को कहा। निशाना करने पर सबसे पूछते जाते थे कि कहो, क्या देख रहे हो? किसी ने कहा-वृक्ष, उसकी डालियाँ तथा पत्तों के सहित पक्षी को देख रहा हूँ। किसी ने वृक्ष की डालियाँ एवं पत्तियों के सहित पक्षी को देखने की बात कही, किसी ने डाली सहित पक्षी को देखा। अंत में अर्जुन के निशाना करने पर आचार्य ने पूछा-कहो, क्या देख रहे हो? अर्जुन ने उत्तर दिया-केवल पक्षी देख रहा हूँ। इसमें दृष्टि का कितना सँभाल है? स्वयं द्रोण ऐसे थे कि सींकी के पेंदे को सींकी से छेदकर कुएँ से गेन्द निकाले थे। द्रोण की दृष्टि बाहर में कितनी सिमटी थी। विन्दु के लिए और भी दृष्टि को समेटना पड़ेगा। बहिर्मुख होकर नहीं देखो, अंतर्मुख होकर देखो; फैली दृष्टि से नहीं, सिमटी दृष्टि से देखो। पेन्सिल की नोंक जहाँ पड़ेगी, वहीं विन्दु होता है; उसी प्रकार दृष्टि की नोंक जहाँ टिकेगी, वहीं विन्दु उदय होगा। यहीं से सूक्ष्ममार्ग का आरम्भ होता है। कबीर साहब ने कहा-‘मुर्शिद नैनों बीच नबी है। स्याह सुफेद तिलों बिच तारा अविगत अलख रवी है।।’ पहले काला र्चिं होगा, फिर सफेद हो जाएगा। अंदर सुषुम्ना में सिमटी दृष्टि का अवलोकन दृढ़ रहने से इन्द्रियों की धार सिमटकर उस केन्द्र में केन्द्रित हो जाएगी। इससे ऊर्ध्वगति होगी। जो चीज जितना सूक्ष्म है, उसमें उतना ही अधिक सिमटाव होगा और सिमटाव के अधिकाधिक मान के अनुकूल ही अधिकाधिक उसकी गति उतनी ही ऊर्ध्व होगी। इसलिए अंधकार मण्डल में समेटने से उसकी ऊर्ध्वगति होने के कारण प्रकाश में जाएगा। इसका अभ्यास अमादृष्टि से करना आसान है। यही सूक्ष्ममार्ग का अवलम्ब है। दृश्यमण्डल में का यह अवलम्ब है। यह स्थूल ज्योति नहीं, सूक्ष्म ज्योति है। किन्तु यह निर्मायिक नहीं मायिक ही है। किन्तु यह विद्या माया है। दृश्य समाप्त होता है अदृश्य में। जहाँ ज्योति काम नहीं करती, वहाँ दृष्टि भी समाप्त है। जहाँ ज्योति नहीं है, वहाँ शब्द से रास्ता मिलता है। मनुष्य को कौन कहे, पशु भी शब्द सुनकर आता है। अँधेरी रात हो, कुत्ता को पुकारिए, वह आपके पास पहुँच जाएगा। शब्द अपने उद्गम स्थान पर आकृष्ट करता है। शब्द वह है जो अंधकार और प्रकाश दोनों में भरपूर है, फिर इन दोनों के परे भी है और वहाँ ‘निःशब्दं परमं पदम्’ हो जाता है, परमात्मा से मिला देता है।
 बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
           -ध्यानविन्दूपनिषद्
 प्रकाश के शब्द को पकड़ने के लिए संतों ने कहा, यही सूक्ष्ममार्ग है। इसपर अच्छी तरह विचार करना चाहिए। और विचार में जँचे, श्रद्धा करने योग्य हो तो श्रद्धा करनी चाहिए। गुरुवाक्य है, उस पर हमलोगों को तो बड़ा विश्वास है। गुरु महाराज तो कहते थे, जाँचकर देख लो। इसके लिए सदाचार का पालन करो। जो सदाचार का पालन नहीं करते उनका मन विषयों में आसक्त रहता है, वह इस ओर बढ़ नहीं सकता। इस हेतु सदाचार का पालन अवश्य करो।
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यह प्रवचन मुंगेर जिलान्तर्गत ग्राम-खगड़िया में दिनांक 28.2.1953 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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47. साधन के अन्त तक पहुँचो

प्यारे महाशयो!
 आपलोगों का यह वार्षिक सत्संग होना मैं भी आवश्यक समझता हूँ। क्योंकि अखिल भारतीय संतमत सत्संग में इधर के बहुत लोग उपस्थित नहीं हो सकते हैं। ठीक ही है कि आपलोगों ने ऐसा सत्संग किया है। संथाल परगना के अंदर के और भागलपुर के दक्षिण बांका इलाके के सत्संगियों को यह छठा वार्षिक सत्संग है। इस (वार्षिक सत्संग) का जन्म ग्राम कोरका में 1948 ई0 में हुआ। वहाँ ‘संथाल परगना जिला अधि- वेशन’ नाम रखा गया। बांका डिवीजनवाले बोले-हमको क्यों अलग करते हो? हमलोगां ने तो सब दिन आपके साथ मिलकर सत्संग किया है। अतएव बांका (दक्षिण भागलपुर) और संथाल परगना दोनों का यह सत्संग है। इसका उपयुक्त नाम ‘बांका (भागलपुर) और संथाल परगना वार्षिक सत्संग’ होना चाहिए। यह संतमत-सत्संग किसी मत विशेष का खण्डन करनेवाला नहीं है। इसीलिए आपलोग संत-स्तुति पढ़ते हैं-
 सब सन्तन्ह की बड़ि बलिहारी।
 उनकी स्तुति केहि विधि कीजै,
    मोरी मति अति नीच अनाड़ी।
 दुःख-भंजन भव-फंदन-गंजन,
   ज्ञान-ध्यान-निधि जग उपकारी।
 विन्दु-ध्यान-विधि नाद-ध्यान-विधि,
   सरल-सरल जग में परचारी ।।
 धनि ऋषि संतन्ह धन्य बुद्ध जी,
   शंकर रामानन्द धन्य अघारी ।
 धन्य हैं साहब संत कबीर जी,
   धनि नानक गुरु महिमा भारी ।।
 गोस्वामी श्री तुलसिदास जी,
   तुलसी साहब अति उपकारी ।
 दादू सुन्दर सूर श्वपच रवि,
    जगजीवन पलटू भयहारी ।।
 सतगुरु देवी अरु जे भये हैं ,
    होंगे सब चरणन शिरधारी ।
 भजत है ‘मेँहीँ’धन्य धन्य कही,
   गही संत पद आशा सारी ।।
 किसी संत को हेय मत समझो। किसी एक संत के नाम पर पंथ का नाम रखकर उसपर श्रद्धा रखनी और दूसरे को नीचा दबाना, हेय समझना उचित नहीं। कोई राम, कोई ब्रह्म, कोई अल्लाह या खुदा कहता है। इस प्रकार किसी एक नाम से कोई ईश्वर को पुकारता है तो वह कम नहीं। ईश्वर, गॉड, खुदा आदि नहीं कहकर यदि कोई उसी को दूसरे शब्द से संकेत करता है तो वह भी आस्तिक है। जैसे-महात्मा बुद्ध। उन्होंने ईश्वर है या नहीं, इसपर कुछ नहीं कहा, किन्तु सदाचार का पालन करने, ध्यान-अभ्यास करने और नामरूपातीत पदार्थ को ग्रहण करने की शिक्षा दी। वे ईश्वर नहीं कहकर नामरूपातीत तत्त्व को बताते हैं, तो मेरी समझ में वे भी उसी ईश्वर का संकेत करते हैं; जिसके लिए और संतों ने कहा है। संतों के विचारानुकूल मूलतत्त्व में कुछ भेद नहीं। जो प्रत्यक्ष संत हैं, उनका आदर करो। यदि किसी की तारीफ नहीं कर सको, तो उसकी निन्दा भी मत करो, तटस्थ रहो। निन्दा-स्तुति दोनों से अलग रहो।
 कबीर साहब के वचन में पाठ हुआ, सुरत को जगाने का, नादानुसंधान करने का, संत के पास जाकर नम्रता से उनको प्रणाम कर भक्ति मार्ग की शिक्षा-दीक्षा लेने का और संसार की ओर पीठ कर भागने का आदेश है। उनके वचन में ‘सुरत’ ‘जीवात्मा’ के लिए प्रयोग हुआ है। ‘सुरत’ उनका पारिभाषिक शब्द है। और संतों ने भी सुरत का प्रयोग कबीर साहब के अर्थ में ही किया है। सुरत का अर्थ केवल ख्याल ही नहीं है। ‘आदि सुरत सतपुरुष से आई। जीव सोहं बोलिये सो ताई।।’ कबीर दास सुरत को जगाते हैं और कहते हैं कि अज्ञानता की नींद में तुम क्यों सोए हो? उठो और भजन में लगो। उठने के वास्ते वे कहते हैं कि चित्तवृत्ति को जोड़कर-चित्त लगाकर आंतरिक कान से सुनो, मधुर ध्वनि का स्वर होता है। यह कहाँ सुनने को कहते हैं-कहीं बाहर में या अंदर में, अपने अंदर में सुनने को कहते हैं; क्योंकि सुरत को सुनने कहते हैं। इसी को सुरत-शब्द-योग या नादानुसंधान कहते हैं। ऋषियों ने इसी को नादानु- संधान कहा और आजकल के सन्तगण इसको नाम-नाम-भजन या सुरत-शब्द-योग कहते हैं। सब संतों ने इसी का साधन किया और इस विषय में प्रचुरता से उपदेश वाक्य कहे भी हैं। कबीर साहब के पहले भी श्रीरामानन्द स्वामी का प्रचार था। श्रीरामानन्द स्वामी के पहले गोरखनाथजी का प्रचार था। किन्तु उनका प्रचार साथ-साथ हठयोग लिए हुआ था। श्री रामानन्द स्वामी ने इस नादानु- संधान के द्वारा भगवद्भक्ति का प्रचार किया था। श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामायण की चौपाइयों में इस साधन का संकेत किया है-
बन्दउँ रामनाम रघुबर को । हेतु कृसानु भानु हिमकर को।।
विधि हरिहर मय वेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो।।
नाम रूप दुइ ईश उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी।।
 निर्गुण और अकथ अनादि रामनाम वर्णात्मक नहीं, ध्वन्यात्मक ही हो सकता है।
 सुरत को जगानेवालों में दो प्रकार के मनुष्य हो सकते हैं। एक वह जो देख-सुन सकते हैं। दूसरे वह जो केवल सुन सकते हैं। जन्मान्ध को देखना नहीं होता, वह सुन सकता है। किन्तु जिनकी आँख अच्छी है, वह देख और सुन सकते हैं। यह अच्छा है जहाँ कि देखना-सुनना दोनों हो सकते हैं। लेकिन नहीं देख सकनेवाला नहीं देखता है, केवल सुनता है। यदि आप अपने अन्दर देखना चाहो तो बाहर देखना बन्द करो। यानी आँख बन्द कर लो, तो बाहर देखना नहीं होगा। बाहर देखना बन्द होने से और भीतर देखने से अंधकार मालूम होगा। ऐसा सबको होता है। इस देखने में कुछ देखना नहीं होता है, किन्तु सुनना चाहो तो अन्दर में कुछ सुन सकते हो! सुरत अन्धकार में है और सुन भी सकती है। इसको जगना कहो तो जगना है, किन्तु देखता नहीं है, सुनता है। दूसरा वह है, जो अंतःप्रकाश में अपनी सुरत को ले गया है। वह देखता और सुनता दोनों है। जो पहले तरह आँख बंद करने से मालूम होता है, वह पहले तल पर है। किंतु जो प्रकाश में जाकर देखता-सुनता है, वह वैसा है, जैसे आँखवाला हो। इन दोनों में बड़ा फर्क है। देखने और सुननेवाला ऊँचे में है, केवल सुननेवाला नीचे में है। साधन के अंदर देखो भी और सुनो भी, यह जगना ठीक है। यह प्रातःकाल है, आप जगे हुए हैं ही, थोड़ी देर पहले आप सोए थे। सोए में कभी स्वप्न भी देखते होंगे। दिन-रात में बहुत काल जगे रहते हैं, अल्पकाल ही सोते हैं। फिर जगाते क्या हैं? तो ये कहते हैं-अज्ञानता में पड़े हो, गोया सोए हो। ज्ञानीजन ज्ञान से समझाते हैं, गोया जगाते हैं। फिर कहते हैं-वचन ज्ञान से जगना अल्प है। पहले सुनो, फिर विचारो; विचार से जो कर्म निर्णय हो जाय, उसका साधन करो, फिर साधन के अंत तक पहुँचो, तब पूरा जगना होगा। इसी को श्रवण, मनन, निदिध्यासन और अनुभव ज्ञान कहा गया है। सुनो, विचारो, साधन करो और साधन के अंत तक पहुँचो। जो प्राप्त होना चाहिए, प्राप्त हो गया, यह अनुभव ज्ञान है। सुनना-श्रवण ज्ञान है, विचारना-मनन ज्ञान है, अभ्यास करना-निदिध्यासन ज्ञान है। श्रवण-मनन का जगना अंधों का जगना है। जैसे अन्धा जगता है, किंतु कुछ देखता नहीं है।
      वाक्य ज्ञान अत्यन्त निपुण, भव पार न पावइ कोई ।
      निशिगृह मध्य दीप की बातन्हि, तम निवृत नहिं होई ।।
     - गोस्वामी तुलसीदास
 अन्धकार दूर करने के लिए जो यत्न करना चाहिए, करना होगा, तब ठीक जगना होगा।
      तेल तूल पावक पुट भरि धरि, बनै न दिया प्रकाशत ।
      कहत बनाय दीप की बातें, कैसे हो तम नाशत ।।
        - संत सूरदासजी
 तात्पर्य यह कि प्रकाश पाने का जो यत्न है, वह करते नहीं केवल बोलते हैं, इससे प्रकाश नहीं हो सकता। भगवान बुद्ध ने भी कहा-तुम जो अंधकार में पड़े हो, प्रदीप की खोज क्यों नहीं करते। और मुक्तिकोपनिषद् में श्रीराम ने श्रीहनुमानजी से अंतर की ज्योति की खोज करने के लिए कहा है। प्रकाश पाने के लिए जो दृष्टि होती है, वह साधारण दृष्टि नहीं। साधारणतः तीन अवस्थाओं में जो आते-जाते रहते हैं, सो क्यों? एक ही जगह में सब समय नहीं रहते हैं। यह शरीर एक घर के समान है, इसी को घट भी कहते हैं, इसी में आप रहते हैं। इसमें कभी जगते हैं, कभी स्वप्न में जाते हैं और कभी सुषुप्ति में जाते हैं, ऐसा क्यों? जाग्रत के स्थान में जाने से जगते हैं, स्वप्न के स्थान में जाने पर स्वप्न होता है और सुषुप्ति के स्थान में जाने पर वह अवस्था होती है। इन तीनों अवस्थाआें में आना-जाना जगना नहीं है। सुनने, समझने, विचारने से मोह नहीं छूटता। तुरत ज्ञानी बन जाते हैं और तुरत अज्ञानी के समान काम करते हैं। यह जगना नहीं है। इसके लिए कुछ और बात है। जाग्रत से स्वप्न में जाते समय आपकी शक्ति भीतर खींचती है। हाथ पैर कमजोर होते जाते हैं। शक्ति खींचकर उस स्थान में चली जाती है और स्वप्न में चले जाते हैं। जाग्रत का स्थान आँख, स्वप्न का कण्ठ, सुषुप्ति का हृदय और तुरीय में आँख के ऊपर जाना होता है। भजन किया अंतःप्रकाश पाया और आंतरिक नाद को सुना भी, यह जगना है। यह जगना बिना साधन के नहीं हो सकता। इसके लिए चाहिए कि ‘दोउ कर जोड़ि शीश चरणन दे, भक्ति अचल वर माँग री।’ किसी के यहाँ जाकर नम्र होओ, उसको प्रणाम करो और जानो। अर्थात् जनाने के लिए गुरु चाहिए, उनसे जानो और करो। फिर कहा ‘जगत पीठ दै भाग री’ कहीं भी जाओ, संसार रहेगा ही। धरती पर कहीं जाने से संसार की ओर पीठ नहीं हो सकती। जब वह साधन के समय संसार के ज्ञान से रहित हो जाता है, इन्द्रियों के ज्ञान से ऊपर रहता है, तब जगत की ओर पीठ देना होता है। उपनिषद् में भी लिखा है-उठो, जागो और ज्ञानी के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करो। फिर बतलाया कि वह छुरे की धार के समान है। इस सूक्ष्म मार्ग पर पैर नहीं चलता मन सूक्ष्म है, सूक्ष्ममार्ग पर मन चलेगा। मन का सिमटाव हो तब जा सकता है। फैलाव होने से सूक्ष्म पथ पर नहीं चल सकता। फैलाव से सिमटाव में आने के लिए ही भजन-अभ्यास करना है। क्योंकि इसी भजन से परमात्म-स्वरूप प्राप्त होता है। लोगों को डर नहीं होना चाहिए कि छुरे की धार पर चलना विकट काम है। हाँ! इस रास्ते पर चलना कठिन है, परंतु असम्भव नहीं। जितने जो कोई बड़े हुए हैं, वे सब इसी रास्ते पर चलकर। उस रास्ते पर चलकर किधर जाना होगा? परमात्मा की ओर। लोग संसार की ओर रहते हैं, तो संसार की अस्थिरता में कभी शान्त नहीं होते-सुखी नहीं होते। किंतु परमात्मा को पाने से सांसारिक कष्टों से वे छूट जाएँगे। परमात्मा को पाकर उस मिलन-सुख में निमग्न हो जाएँगे। उपर्युक्त मार्ग को केवल जानने से ही काम समाप्त नहीं होगा। जानना होगा और उसके अंत तक चलना होगा। इस रास्ता को जानिए और चलिए। यह रास्ता सबके अंदर एक तरह है। किसी दूसरे देश के रहने वाले हों या दूसरी जाति के हों, इस कारण से उनके लिए दूसरा रास्ता हो, यह बात नहीं। सबके लिए एक ही रास्ता है। यह भी दृढ़ता से जानिए कि जो सदाचारपूर्वक रहता है और गुरु से युक्ति जानकर नित्य दृढ़ ध्यानाभ्यास करता है, वह अज्ञानता से छूटकर ब्रह्म को पाता है और पूर्ण रूप से जगकर ब्रह्मानन्द में मग्न रहता है।
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यह प्रवचन बिहार राज्य के संथालपरगना जिलान्तर्गत ग्राम-तेलो, (अब साहेबगंज) में दिनांक 6.3.1953 ई0 को हुआ था।
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48. भोजन का प्रभाव मन पर भी पड़ता है

प्यारे धर्मप्रेमी सज्जनो!
 पापों का नाश करने के लिए लोग यज्ञ, तीर्थ, दान, व्रत आदि करते हैं, किंतु पौराणिक इतिहास से पता चला है कि इस प्रकार दान-पुण्यादि कर्म से पाप नहीं कटता। हाँ, पाप का फल अलग और पुण्य का फल अलग भोगना पड़ेगा। महाराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से एक झूठ कहा था। उसके बाद और पहले भी उन्होंने कितने दान-पुण्य आदि किए, भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन तो बारम्बार और बहुत समय तक उनको हुआ ही करता था। किंतु पाप का फल उनको भोगना ही पड़ा। वह फल न भगवान के दर्शन और सान्निध्यता से मिटा, न पुण्य कर्म करने से ही कटा। कर्म-मन से, वचन से और कर्म से; तीन प्रकार से होते हैं। तीनों के फल भी अवश्य होते हैं। हम जो कुछ भी करते हैं, सब पुण्य-ही-पुण्य या सब पाप-ही-पाप नहीं कर सकते। कुछ अच्छे और कुछ बुरे कर्म दोनों अनिवार्य रूप से होते रहते हैं तथा इन दोनों का फल इस लोक और परलोक दोनां में अनिवार्य रूप से भोगना पड़ेगा। कायिक, वाचिक और मानसिक तीन तरह से कर्म होते हैं और कर्म भी तीन तरह के होते हैं। कर्मों में जो पूर्व संस्कार रूप कारण के बिना अथवा प्रारब्ध रूप कारण के बिना हो वह पुरुषार्थ जनित क्रियमाण कर्म कहलाता है। जिनके फल भोगे नहीं गए हैं, जो एकत्र हुए पड़े रहते हैं, वे संचित कर्म कहलाते हैं। और संचित कर्मों में से जिन कर्मां के फल को जीव भोगते हैं, वे प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं। हमलोगों के अनेक जन्म हुए हैं, अनेक जन्मों के कर्म को हमलोग भोगते रहते हैं। तीनों कर्मों से छूटने के लिए ध्यानयोग के अतिरिक्त और कोई साधन हो, ऐसा संभव नहीं। ध्यानयोग करनेवाला सदाचारी होगा। अगर सदाचारी नहीं होगा तो उससे ध्यानयोग नहीं बन सकता। इसलिए हमारे यहाँ के सत्संग में पंच पाप-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार का निवारण करने के लिए कहा जाता है। पाप कर्म करनेवाला ध्यान की ओर नहीं जा सकता। कोई झूठ बोलता है, क्यों? पापों को छिपाने के लिए, किसी को ठगने के लिए। सब पापों को छिपाने के लिए झूठ एक आड़-परदा है। झूठ बोलना अनैतिक है। अनैतिक में बरतनेवाला विषयासक्त होगा, वह निर्विषय की ओर बढ़ नहीं सकता। चोरी मत करो। चोरी-कर्म करनेवाला कितना अर्थ लोलुप हैं कि दूसरे का धन छिपकर लेने जाता है। मादक द्रव्यों के सेवन से तामस प्रधान राजसी वृत्ति होती है। ऐसी वृत्तिवाले को ध्यानाभ्यास में सफलता की प्राप्ति नहीं होती। जो व्यभिचारी है, वह काम लोलुप है, विषयासक्त है; वह ध्यानयोग में कैसे बढ़ सकता है।
 आहार से मन-बुद्धि पर असर पड़ता है। बकरे का मांस और हिरण का मांस दोनों का एक ही गुण नहीं होता। सोना-भस्म खाने से और गोइठा-भस्म खाने से दोनों एक समान नहीं होता। रजोगुणी भोजन में चंचलता और तमोगुणी भोजन में मूढ़ता उत्पन्न होती है। सात्त्विकी भोजन में सात्त्विक ज्ञान, मनोनिरोध और शान्ति का गुण उपजता है। आजकल के कुछ नए ख्याल के लोग जिनके यहाँ पहले अण्डा नहीं खाया जाता था, अण्डा खाने लगे हैं। सुनकर दुःख होता है। मानव शरीर का उच्च गुण जलचर, थलचर और नभचर आदि पशु-पक्षियों के शरीर में नहीं है। अपने उच्च गुणवाले शरीरों में नीच गुणवाले शरीरों का मांस और अण्डा देकर अपनी बुद्धि को नीच गुणवाले शरीरधारी की बुद्धि की तरह मत बनाओ। क्योंकि भोजन का प्रभाव मन-बुद्धि पर अवश्य होता है। यदि कोई बड़े कह दें कि अण्डा खाने में हर्ज नहीं, तो जानना चाहिए कि उस बड़े से भी भूल हो गई है। यदि डॉक्टरी ख्याल से दूध और अण्डा में एक ही शक्ति है तो भी राजसी, तामसी और सतोगुणी ख्याल से वह भोजन के योग्य नहीं।
 अमेरिकावाले और अंग्रेज आदि भी राजनीतिज्ञ थे और महात्मा गांधीजी भी राजनीतिज्ञ थे। वे लोग मांस-मत्स्यादि खानेवाले थे और महात्माजी ये सब नहीं खाते थे। उन लोगों ने दूसरे की खून- खराबी करके अपनी सत्ता स्थापित करना सीखा, किन्तु महात्माजी ने बिना खून-खराबी के ही अपनी सत्ता स्थापित की। खून-खराबी के भोजन से वे लोग जो विज्ञान में बढ़े हुए हैं, दूसरों को मारने के लिए ही यंत्र बनाया है। आज तक वे ऐसा यंत्र नहीं बना सके कि किसी मरे हुए को जिलावें। भारत में अशोक के समान बड़ा राज्य किसी का नहीं हुआ। अंग्रेज का भी यहाँ उतना बड़ा राज्य नहीं हुआ। अशोक बिना खून-खराबी के शासन करते थे, मांस-मछली नहीं खाते थे। हमलोगों के भारत का मस्तिष्क कैसा है? देखिए। अशोक ने कल्रिंग की लड़ाई में बहुत-से लोगों को मारा था। उनकी स्त्रियाँ लड़ने को आईं। अशोक ने अपनी तलवार रख दी और कहा देवियो! तुम जो चाहो, करो। किंतु अंग्रेज ने एक झांसी की रानी को मारने के लिए कितनी फौजें भेजीं। क्या-क्या उपाय किया और अंत में मार ही दिया। गुरु गोविन्द सिंह के पास सिक्ख शत्रुओं की कई स्त्रियों को कैद करके ले आए। इसपर गुरु गोविन्द सिंह बहुत बिगड़े और उन सब स्त्रियों को उनके घर वापस करवा दिया। और उन्होंने कहा-यदि शत्रु पाप करें तो हम भी वही करें? भोजन का प्रभाव मन पर पड़ता है। इसलिए संतों ने मत्स्य-मांसादि भोजनों को मना किया। ध्यानाभ्यासी को सदाचारी बनना पड़ता है। सदाचारी पाप कर्म नहीं करता। उससे नया कर्म में पाप नहीं हो सकता। तब सि०चत कर्म जो है, उसको वह भोगता है, किन्तु सांसारिक लोगों के जैसे नहीं। उसको उन कर्मों को भोगने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। ध्यानाभ्यासी को समाधि में कोई दुःख नहीं होता, शरीर ज्ञान में आने से उसे दुःख होता है। परन्तु उसकी सहनशक्ति बढ़ा रहने के कारण वह साधारण मनुष्य की भाँति दुःख में विकल नहीं होता। दिन में गेन्द खेलते समय पैर में चोट लगी, स्वप्न में उस चोट का दर्द नहीं है और सपने में भी गेन्द खेलता है। फिर जगने पर चोट का दर्द भी मालूम होता है और गेन्द नहीं खेल सकता। उसी प्रकार जो समाधि में चला जाता है, इन्द्रियों से ऊपर उठ जाता है, कर्ममण्डलों को पार कर जाता है, उसके संचित और प्रारब्ध कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। इसी तरह जानना चाहिए कि ध्यानयोग से पापों का नाश हो जाता है और कर्मपाश का क्षय हो जाता है।
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यह प्रवचन संथालपरगना जिलान्तर्गत ग्राम-कोरका के संतमत सत्संग मंदिर में दिनांक 11.3.1953 ई0 को हुआ था।
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49. ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता एक ही है

प्यारे लोगो!
 सब लोग सुख चाहते हैं। सुख भी वह जो सदा रहे और जिसमें संतुष्टि हो। साधारणतया सब लोगों को जो विषयसुख होता है, उसमें सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख दिन-रात की तरह बरबस आते रहते हैं। इसमें पूरी संतुष्टि नहीं, इसलिए पूर्ण सुख भी नहीं। पूर्व के लोगों ने सोचा कि क्या ऐसा भी सुख हो सकता है, जिसके बाद दुःख नहीं है। पहले उन लोगों ने विचारा, देखा- हम संसार की पीठ पर हैं, इसलिए ऐसा होता है। संसार से ऊपर चले जायँ, तब जो है वह परिवर्तन- शील नहीं। उसी को सब धर्मों के लोगों ने कोई ईश्वर, कोई अल्लाह कहा है। वह संसार से बिल्कुल उलटा है। संसार को पहचानने से पूर्ण सुख नहीं मिलता। पूर्ण सन्तुष्टि नहीं मिलती। किन्तु संसार के परे का जो पदार्थ है, उसको पाने से पूर्ण सन्तुष्टि और पूर्ण सुख होगा। संसार के सुख को इन्द्रियों से प्राप्त करते हैं, किन्तु उस सुख को इन्द्रियों से छू नहीं सकते। हमारी देह-इन्द्रियाँ माया से बनी हुई हैं। इसके अन्दर उस प्रभु का अंश जो इस शरीर में है, उसी से उस सुख को पहचानेंगे। शरीरस्थ उसी ईश्वर अंश को जीव कहते हैं। वह प्रभु भी इस शरीर में है और जीव भी। यही जीव उस प्रभु को छू सकता है। इसको पूर्व के लोगों ने ठीक से सोचा और प्रत्यक्ष पहचानने तथा पाने का यत्न किया। यत्न करने में सफल होने पर इस बात को संसार में विदित कर दिया। देह-इन्द्रियों के संग में रहकर क्या होता है, उसे लोग जानते हैं, किंतु इनका संग छोड़कर लोग देखें कि क्या होता है? शरीर, इन्द्रियों का संग छोड़ने के लिए चलना पड़ेगा। चलने के लिए बना हुआ रास्ता रहता है या रास्ता बना लेते हैं। बड़े-बड़े रास्तों को लोग बनाते हैं, पगडंडी तो चलते-चलते ही बनती है। यूरोप, एशिया आदि सब महादेश के आदमियों के शरीरों में इन्द्रियाँ और द्वार जहाँ एक को हैं, वहीं दूसरे को भी है। तथा इन्द्रिय-द्वारों का कर्म सबका एक-सा है। सब शरीरों में जीवात्मा या रूह का भी रहना एक ही तरह है। इसी तरह परमात्मा की ओर चलने का मार्ग भी सब शरीरों में एक ही तरह है। बाहर में पूजा का ढंग भले ही अलग-अलग हो, किन्तु अन्दर का काम एक ही तरह होगा। भीतर का रास्ता एक ही है। रास्ता किसको कहते हैं? रास्ता कहते हैं लकीर को। जिसका एक किनारा एक स्थान पर हो और दूसरा किनारा दूसरे स्थान पर हो, बीच में कुछ फासला हो। हम जब अपने शरीर में परमात्मा की ओर चलेंगे तो इसका भी शरीर के भीतर-ही-भीतर कोई मार्ग अवश्य चाहिए। जब हम अपने शरीर को जानने लगते हैं, तो इसके दो भाग मालूम होते हैं। एक स्थूल भाग और दूसरा सूक्ष्म भाग। स्वप्न में जाने पर बाहर की इन्द्रियों में जैसे जान ही नहीं रहती है। इत्र यदि कान में या कपड़े में लगा है, तो जगने के समय उसका सुगन्ध मालूम होगा, किन्तु स्वप्न में नहीं। जागने में जीवनीधारा-रूहानी धारा जिस स्थान में रहती है, स्वप्न में वहाँ से भीतर की ओर हो जाती है। तन्द्रा के समय बाहर का कुछ खटखुट मालूम भी होता है और भूलते भी जाते हैं। उस तन्द्रा या अधनिनियाँ में जानने में आता है, शरीर की शक्ति भीतर को खींच रही है, गला झुक जाता है। वैदिक धर्म के माननेवाले को एक तरह, कुरान माननेवाले को दूसरी तरह और बाइबिल को माननेवाले को तीसरी तरह नहीं मालूम होता, एक ही तरह मालूम होता है। इस तरह जाना जाता है कि सब कोई एक तरह भीतर में चलते हैं। चलने में एक चैन मालूम होती है। सब मजहबों के वास्ते ईश्वर से मिलने के लिए चलने में एक ही रास्ता है। किसी पहाड़ पर या किसी समुद्र के तट पर ईश्वर का दर्शन हो जाय, संभव नहीं। पनडुब्बी जहाज से पानी के भीतर जाने पर भी वहाँ ईश्वर का दर्शन नहीं हो सकता। चाहे घर में बैठा रहे या मक्का या बद्रीनारायण में उसका दर्शन नहीं होगा। किंतु इन स्थानों में कहीं भी रहे, अपने अन्दर-अन्दर चले तो वहीं दर्शन होगा। बाहर की दुनिया में चलने से शरीर और इन्द्रियों से संग छूटता है। यह स्वप्न में जाने की स्वाभाविक क्रिया से जाना जाता है। भीतर में रवानगी के लिए ख्यालों को छोड़ना पड़ता है। बहुत चिन्तित आदमी को नींद नहीं आती है। चिन्ताओं को-ख्यालों को छोड़ने से अंतर में प्रवेश करेंगे, ऐसा पहले के लोगों ने सिद्धांत निकाला। किसी प्रकार का ख्याल नहीं रहे, यह भी असंभव है। तो गं्रथों में लिखा भी है कि अपने को किसी एक पर लगाओ। कोई राम, कोई शिव, कोई गुरु किसी एक पर लगाते हैं। इसलिए हमारे यहाँ मूर्तिपूजन है कि बारम्बार उसको देखो। बारम्बार के दर्शन से उसका रूप अन्दर में छप जाएगा, फिर उसका ध्यान करो। इसलिए नहीं कि केवल उसको दण्डवत् करके चले जाओ। लोग कहते हैं मिट्टी, पत्थर या धातु पूजते हैं। तो मिट्टी, पत्थर या कोई धातु नहीं पूजता है, वह जो उसी शकल को पूजता है-ध्यान करता है। बौद्ध धर्म के लोग बुद्ध की मूर्ति बनाते थे, इसलिए कि मूर्ति बनाते-बनाते उसका रूप उनके हृदय में छप जाता था। कोई भी लिपि लिखो, जब वह दिमाग में छप जाता है, तब लिखते हैं। वैदिक धर्म के अन्दर भी ऐसे लोग हैं, जिनको किसी मूर्ति का ध्यान करना पसंद नहीं होता। किंतु कोई मोटा रूप अवश्य लेते हैं। आर्य समाज में नारायण स्वामी एक साधु हुए। वे पहले बड़ा गोलाकार, फिर छोटा एवम् प्रकार से छोटे-से- छोटा बनाकर ध्यान करने को कहते हैं। कोई ॐ लिखकर ध्यान करते हैं। कोई अल्लाह लिखकर ध्यान करते हैं, कहते हैं चाँदी जैसे चमकने लगता है। कोई फनाफिल लिखकर ध्यान करते हैं। कोई मुर्शिद के चेहरे का ध्यान करते हैं, फनाफिल मुर्शिद हो जाते हैं। उनको विश्वास है कि फनाफिल मुर्शिद से फनाफिल रसूल हो जाएँगे और फिर वही अल्लाह हो जाएँगे। इसमें जिस किसी रूप पर अपनी श्रद्धा हो वह लीजिए। साम्प्रदायिक खैंच में नहीं पड़िए कि खास करके यही होना ही चाहिए। रूप के सहित नाम अवश्य रहेगा और ऊँचे दर्जे में जाकर नाम रहेगा और रूप नहीं रहेगा। अर्थात् शकल नहीं रहेगा, निराकार नामी और नाम रहेगा। कोई-न-कोई एक शब्द जपना, वह भी एक पर अपने को लगाना है। किसी एक रूप पर मन लगाना यह भी मन को एकओर करना है, किन्तु यह पूर्ण रूप से एकओर होना नहीं है। वर्णात्मक शब्दों का टुकड़ा वर्णों में होता है और मूर्ति का अंग-प्रत्यंग में। शब्द जपने में और रूप ध्यान करने में भी कुछ फैलाव है, पूर्ण सिमटाव नहीं। इसलिए किसी ऐसा एक पर आओ, जिसमें फैलाव नहीं। वही है नोख्ता या विन्दु। इसमें फैलाव नहीं है, देखने के यत्न से देखो। इसको मन से बनाने की आवश्यकता नहीं। पेन्सिल की नोक जहाँ रखेंगे, वहीं विन्दु बनेगा, उसी प्रकार दृष्टि की नोंक जहाँ रखेंगे, वहीं ज्योतिर्विन्दु का उदय होगा। किंतु इसका गुर किसी गुरु से जानना चाहिए। एक स्थान पर दृष्टिधारों के आकर टिकने से विन्दु उदय होता है और पूर्ण सिमटाव हो जाता है।
 सुन्नहि मारग आइया, सुन्नहिं मारग जाइ।
 चेतन पैंड़ा सुरति का, दादू रहु ल्यौ लाइ।।
           -संत दादू दयाल
 यही रास्ता का छोर है। यहीं से रास्ता पर चलकर ईश्वर के पास सब धर्म के लोग जाते हैं। शरीर-इन्द्रियों को छोड़कर शरीर के अन्दर-अन्दर चलते हैं। यही एक रास्ता है। पथिक को ब्रह्मज्योति का सहारा मिलता है। एकविन्दुता प्राप्त करने पर उसको प्रकाश मिल जाता है, यही रास्ता और सहारा होता है। जिस प्रकार जल में तैरनेवाले का रास्ता भी जल ही है और सहारा भी जल ही है, उसी प्रकार प्रकाश ही सहारा और रास्ता भी है। इसके बाद-
 बीजाक्षरं परम विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
          -ध्यानविन्दूपनिषद्
 विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नाद लिंगमुपस्थितम्।
          -योगशिखोपनिषद्
 केवल नाद रहेगा, ओ3म् रहेगा, इसमें आजम रहेगा। यह ज्योतिर्मार्ग और शब्दमार्ग सबके लिए है, जो अपने अन्दर प्रवेश करता है। हाँ, एक बात अवश्य है कि ज्योति छूट जाती है और शब्द रह जाता है, किन्तु यह शब्द भी जहाँ जाकर लय हो जाता है, वहीं रास्ता का ओर या अन्त हो जाता है। तब आप रह जाएँगे और आपको प्रभु मिल जाएँगे। इसी मार्ग का उपदेश गुरु महाराज करते थे।
 सुरत शिष्य शब्दा गुरु मिलि मारग जाना हो।
        -तुलसी साहब
 हम सब लोगों का ईश्वर एक है, उस तक पहुँचने के लिए रास्ता भी एक ही है; उस अन्तर मार्ग को पकड़कर हमलोग चलें।
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यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत आशानन्दपुर परवत्ती के संतमत सत्संग मन्दिर में दिनांक 12.3.1953 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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50. गोद में बालक नगर में ढिंढोरा

प्यारे लोगो!
 संतमत-सत्संग में प्रधान उपदेश ईश्वर-प्राप्ति का है। मुख्यता इसी विषय की रहती है। केवल इसी का उपदेश हो और संसार में जीवन-यापन का कोई विषय नहीं हो, ऐसा नहीं। संतों के सदुपदेशों को जानकर संसार में निरापद रह सकते हैं। जैसे-
  ‘छिमा गहो हो भाई, धरि सतगुरु चरनी ध्यान रे ।
  मिथ्या कपट तजो चतुराई, तजो जाति अभिमान रे ।।
  दया दीनता समता धारो, हो जीवत मृतक समान रे ।।
  सुरत निरत मन पवन एक करि, सुनो शब्द धुन तान रे ।।
  कहै कबीर पहुँचो सतलोका, जहाँ रहे पुरुष अमान र े।।’
    ‘भाई कोई सतगुरु संत कहावै, नैनन अलख लखावै ।।
      डोलत डिगै न बोलत बिसरै, जब उपदेश दृढ़ावै ।
      प्रान पूज्य किरिया तें न्यारा, सहज समाधि सिखावै ।।
      द्वार न रूंधे पवन न रोकै, नहिं अनहद अरुझावै ।
      यह मन जाय जहाँ लग जबहीं, परमातम दरसावै ।।
      करम करै निःकरम रहै जो, ऐसी जुगत लखावै ।
      सदा विलास त्रास नहिं मन में, भोग में जोग जगावै ।।
     धरती त्यागी अकासहुँ त्यागै, अधर मड़इया छावै ।
     सुन्न शिखर के सार सिला पर,आसन अचल जमावै ।।
     भीतर रहा सो बाहर देखै, दूजा दृष्टि न आवै ।
      कहै कबीर वसा है हंसा, आवागमन मिटावै ।।’
       -कबीर साहब
 कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।।
 सो ध्यानी परमान, सुरत से अण्डा सेवै ।
 आप रहै जल माहिं, सूखे में अण्डा देवै ।।
 जस पनिहारी कलस भरे , मारग में आवै ।
 कर छोड़ै मुख वचन, चित्त कलसा में लावै ।।
 फणि मणि धरै उतारि, आपु चरने का े जावै ।
 वह गाफिल ना परै, सुरति मणि माहिं रहावै ।।
 पलटू सब कारज करै, सुरति रहै अलगान ।
 कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।।
        -पलटू साहब
कर से कर्म करो विधि नाना। मन राखो जहँ कृपा निधाना।।
 संतों की वाणी में इस तरह सांसारिक कार्यों के सम्पादन सहित ईश्वर-दर्शन के साधन का वर्णन है और उनकी वाणी में ईश्वर से प्रेम और उसकी प्राप्ति के विषय का भी प्रचुर वर्णन है। जहाँ प्रेम है, वहाँ भक्ति है; जहाँ प्रेम नहीं, वहाँ भक्ति नहीं। बिना श्रद्धा या विश्वास के प्रेम नहीं होता है।
ईश्वर की सत्ता और प्रभुताई जानने पर आपको ईश्वर में श्रद्धा होगी, प्रेम होगा और उसके प्रति भक्ति होगी। संतों ने कहा है-ईश्वर, परमात्मा की स्थिति अवश्य है, इसको आप अन्धविश्वास से मान लें, सत्संग का यह आग्रह नहीं है। बल्कि तर्कयुक्त विचार से भी इसे मानिए। यदि वहाँ तक आपका विचार नहीं जाता है, तो आप इसके लिए यत्न कीजिए। करते-करते यत्न का अन्त होगा, तब आपको मालूम होगा, उसकी-परमात्मा की स्थिति है या नहीं? संतों के ग्रंथों में परमात्मा उस परम पदार्थ को माना गया है, जो आदि अन्त रहित स्वरूपतः असीम और अज है।
 आप पहले अज पर विचार लीजिए। अज का मतलब जो जन्म नहीं ले। जो जन्म लेता है, उसका जन्म माता के पेट से भले नहीं हो, किंतु किसी तरह उत्पन्न होना भी एक प्रकार का जन्म है। अब विचारणीय है कि ऐसा कुछ है कि नहीं, जो किसी से उपजा नहीं, बना नहीं और बनाया गया नहीं। संसारके पदार्थों में विचार को दौड़ाइए तो मालूम होगा कि यह पदार्थ इससे जनमा और वह पदार्थ उससे हुआ। इस प्रकार का ज्ञान आजकल भौतिक विज्ञान देगा। इससे विशेष दर्शनशास्त्र ज्ञान कराता है। दर्शनशास्त्र केवल विचार में समझाता है। आधिभौतिक-विज्ञान प्रयोग द्वारा दिखा देता है। दर्शन जितना बोध करा देता है, उन सबको आधिभौतिक-विज्ञान प्रत्यक्ष नहीं करा सकता। आधिभौतिक-विज्ञान के प्रत्यक्ष प्रयोग को हम इन्द्रियों से देखते हैं। आधिभौतिक विज्ञान स्थूल इन्द्रियों को प्रत्यक्ष कराता है। भले ही इस आँख से नहीं देखते हैं, तो खुर्दबीन आदि लगाकर दिखाते हैं। किंतु आखिर आपको उसका ज्ञान इन्द्रियों से ही होता है। दर्शनशास्त्र इससे आगे बतलाता है। मन को पकड़ने का यंत्र अभी तक नहीं निकला है; क्योंकि यह स्थूल इन्द्रियों से ऊपर की चीज है। दर्शनशास्त्र सूक्ष्म भौतिक ज्ञान का बोध कराता है, फिर अभौतिक का भी बोध कराता है। दर्शन मायिक और अमायिक दोनों का बोध कराता है। परंतु भौतिक-विज्ञान स्थूल मायिक तत्त्व तक रहता है। फिर भी कहा जाता है कि अभी यह अपूर्ण है, कब पूर्ण होगा, ठिकाना नहीं। भौतिक-विज्ञान के सहारे जो कोई ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं, वह असंभव को संभव करना चाहते हैं। भौतिक-विज्ञान को स्थूल मायिक पदार्थों की प्रत्यक्षता होती है। भौतिक-विज्ञान से जो ऊपर है, जो अमायिक है, वह भौतिक-ज्ञान से प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है? यहाँ पर परमात्मतत्त्व है,यह अभौतिक है, निर्मायिक है, इसको भौतिक- विज्ञान से कोई जान नहीं सकता। दर्शनशास्त्र कह सकता है कि उसकी स्थिति है। जैसे कहते हैं-वह अनादि है, असीम है, अजन्मा है। संसार में एक पदार्थ दूसरे पदार्थ से तथा दूसरे तीसरे से उत्पन्न होते हैं। सांसारिक पदार्थों में ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो सदा से हई है, कभी जन्म नहीं लिया है। स्थूल इन्द्रियों के ज्ञान में जो है, उसमें अज कुछ भी नहीं है। माया का अर्थ छल है। इन्द्रिय-गोचर निश्छल पदार्थ तो कुछ हई नहीं है। सांसारिक पदार्थ रहता है और नहीं भी रहता है। गंगाजी की धारा यहाँ थी, अब नहीं है। गंगाजी यहाँ नहीं थी, अब है और प्रलय होने पर फिर नहीं रहेगी। संसार के जितने पदार्थ हैं, सब होते हैं, विनसते हैं, इसलिए सांसारिक पदार्थ कोई अज नहीं है। जो पदार्थ अज नहीं है, उसे अविनाशी मानने के लिए बुद्धि नहीं मानती। भगवान श्रीराम तथा श्रीकृष्णजी आए, उनको लोग अपने देश में भगवान मानते हैं। वे संसार में आए और चले गए। रूप में अदल-बदल हुआ। वाल्मीकीय रामायण में है-‘श्रीराम बहुत लोगों के साथ सरयू नदी के जल में गए। सबकी देह छूट गयी और श्रीराम की देह छूटी तो नहीं, देह बदल गया।’ परंतु महाभारत में तो उनका भी शरीर छूटना लिखा है। (रामं दाशरथिं चैव मृतं सृ०जय शुश्रुम। योऽन्वकम्पत वै नित्यं प्रजाः पुत्रानि वौर सान।। शान्ति-पर्व, राजधर्म अ0 29, किसी- किसी प्रति में यह श्लोक अ0 28 में है। पुनः-रामं दाशरथिं चैव मृतं सृ०जय शुश्रुम। यं प्रजा अन्वमोदतं पिता पुत्रानि वौर सान।। द्रोणपर्व। दशरथजी के पुत्र रामचन्द्रजी को देह छोड़नेवाला सुनते हैं। महाभुजवाले रामचन्द्रजी ने ग्यारह हजार वर्ष पर्यन्त राज्य किया। वह भी तुझ (सृंजय) पिता-पुत्र से अधिक पुण्यात्मा, दानी, प्रतापी होकर इस अनित्य शरीर को त्याग गए। फिर तू पुत्र शोक व्यर्थ करता है। ) श्रीराम जिस समय जन्म लिए चतुर्भुजी रूप थे। माता बोली- बालक रूप बनिए, तो भगवान श्रीराम उस रूप को छोड़कर बालक रूप में आ गए। श्रीकृष्ण के लिए तो लिखा है उनका शरीर छूटा ( ततः शरीरे रामस्य वासुदेवस्य चोभयोः। अन्विष्य दाहयामास पुरुषैराप्तकारिभिः।। महाभारत मूसलपर्व अ0 7, ‘यः स मेघवपुः श्रीमान्बृहत्पंकज लोचनः। सकृष्णः सः रामेण त्यक्त्वा देहं दिवं गतः।।’ महाभारत मूसलपर्व अ09। ) जिनका दाह अर्जुन ने किया। भागवत में लिखा है जैसे कोई एक काँटे से दूसरे काँटे को निकालकर फिर दोनों को फेंक देते हैं, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने दुष्ट के विनाश के लिए जो नर शरीर धारण किया था। उससे दुष्टों का विनाश कर अपना उस नर शरीर को छोड़ दिया। ( ययाऽहरद् भुवो भारं तां तनुं विजहावजः।। कण्टकं कण्टकेनेव द्वयं चापीशितुः समम्। -श्रीमद्भागवत स्कन्ध 1 अ0 15। यथा मत्स्यादि रूपाणि धत्तेजह्याद् यथा नटः। भूभारः क्षपितो येन जहौ तच्च कलेवरम्। -श्रीमद्भागवत स्कन्ध 1 अ0 15। अर्थात् भगवान कृष्ण ने लोक दृष्टि में जिस यादव शरीर से पृथ्वी का भार उतारा था, उसका वैसे ही परित्याग कर दिया, जैसे कोई काँटे-से-काँटा निकालकर फिर दोनों को फेंक दे। भगवान की दृष्टि में दोनों ही समान हैं। जैसे वे नट के समान मत्स्यादिरूप धारण करते हैं और उनका त्याग कर देते हैं,वैसे ही उन्होंने जिस यादव शरीर से पृथ्वी का भार दूर किया था उसी का त्यागकर दिया। लोकाभिरामाः स्वतनुं धारणा ध्यान मंगलम्। योग धारणयाऽऽग्ने -याऽऽदग्ध्वा धामा विशत्स्वकम्।। -श्रीमद्भागवत स्कन्ध 11 अ0 31।
 अर्थात् भगवान का श्रीविग्रह उपासकों के ध्यान और धारण का मंगलमय आधार है और समस्त लोकों के लिए परम रमणीय आश्रय है, इसलिए उन्होंने अग्नि देवता संबंधी योग धारण के द्वारा उसको जलाया नहीं सशरीर अपने धाम में चले गए। महाभारत और श्रीमद्भागवत दोनों के कर्ता व्यासदेव माने जाते हैं। उद्धृत किए गए महाभारत के श्लोकों के विषय का मेल तो श्रीमद्भागवत के पहले स्कन्ध के श्लोकों से मिलता है। परंतु श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कंध से उद्धृत किया हुआ श्लोक से वह मेल नहीं मिलता है। इसलिए पहले स्कन्ध के श्लोकों के विषय का पक्ष विशेष दृढ़ जान पड़ता है। ) इस प्रकार का शरीर भी अज नहीं है। कोई भी व्यक्त या इन्द्रियगोचर पदार्थ को अज अविनाशी नहीं मान सकते। प्रत्येक देह में अव्यक्त आत्मा है। मनुष्य अपनी देह को देखता है, किन्तु अपने को नहीं। अपने अन्दर दृष्टियोग साधन से दिव्य दृष्टि प्राप्त होने पर भी आत्मस्वरूप देखा नहीं जा सकता। आत्मा अव्यक्त तत्त्व है। आपकी एक-एक देह में वह अव्यक्त भरा है। किसी का शरीर छूट जाने पर-मर जाने पर उसका मृत शरीर रहता है। किंतु वह बोलता, चलता और कुछ करता नहीं। जिससे बोलता, चलता और कुछ करता था, वह क्या है? वह ज्ञानमय अव्यक्त पदार्थ है। वह चेतन तत्त्व है। चेतन तत्त्व अव्यक्त है, किंतु उसका कार्य व्यक्त होता है। शरीर में चेतन के रहने से शरीर हिलता डुलता है तथा उसके नहीं रहने से शरीर निश्चेष्ट रहता है, इससे मालूम होता है कि चेतन चलनात्मक है। तब यह कहेंगे कि उसका जनम हुआ या नहीं? शरीर के मरने पर वह मरा या नहीं? तो उसके मरने की बात नहीं। स्थूल शरीर का विनसना बारम्बार होता है, किन्तु सूक्ष्म देह का विनसना स्थूल की भाँति नहीं होता। अब इसपर विचार करते हैं कि यह आदि-अंत-रहित है कि नहीं? जो आदि-अंत-रहित हो, असीम हो, उससे बचा हुआ कुछ खाली स्थान नहीं रह सकता है। जब खाली स्थान नहीं है, तब वह हिल-डोल कैसे सकता है? चेतन चलनात्मक है, इसलिए उसके अगल-बगल में खाली जगह है। इसलिए यह असीम नहीं है, सादि सांत है। उसके अतिरिक्त कुछ दूसरा पदार्थ होगा, जो कम्पनमय नहीं होगा, धु्रव होगा। आदि-अन्त सहित ससीम के बाद कुछ नहीं है, कहना बुद्धि के विपरीत है। सादि सांत के बाद अनादि अनंत तत्त्व है, यह बुद्धि को मानना पड़ता है। जो अनादि अनंत है, असीम है, वह ध्रुव है, निश्चल है। ऐसा एक पदार्थ का होना अवश्य मानना पड़ेगा। असीम जो होगा, वह अजन्मा होगा। वह किसी से जन्मा हुआ नहीं होगा। जो चलनात्मक है, उसका पैदा होना उसी परमात्मा से हुआ है। जिस प्रकार आकाश से हवा उत्पन्न होती है। यदि शून्य नहीं रहे तो हवा नहीं पा सकते। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल तथा जल से पृथ्वी उत्पन्न होती है। आकाश से वायु उपजती है। आकाश धु्रव है, कँपता नहीं है, किन्तु हवा कँपती है। उसी प्रकार परमात्मा से चेतन उपजा है। चेतन-मण्डल बहुत बड़ा है, किन्तु वह अज नहीं है। वह कारणरूप नहीं, कार्यरूप है। संतों ने कहा, मायिक पदार्थ को पकड़े हो, तब देखो तुम्हारी क्या हालत है? कभी तृप्ति नहीं होती और दरिद्रता छूटती नहीं है। ‘नहिं दरिद्र सम दुःख जग माहीं। संत मिलन सम सुख कछु नाहीं।।’ किसी को बहुत धन है, किंतु उसको तृप्ति नहीं है, तो वह महादरिद्र है। संतों ने कहा-यहाँ तुमको सुख, संतोष और तृप्ति नहीं हो सकती। तुम छल की दुनिया में पड़े हो। इससे परे परमात्मा को पकड़ो तो तुम तृप्त हो जाओगे। उसको पकड़ना तो दूर है, किंतु यदि तुम उसके पकड़ने के रास्ते पर चलो तो तुमको शांति और तृप्ति मिलने लगेगी। उस प्रभु को अपने अंदर में पकड़ो। जो अपने घर में वस्तु है और बाहर में भी है, तो घर में लेना सुगम होगा कि बाहर का लेना? गोदी में बालक शहर में ढिंढोरा। कभी-कभी ऐसा होता है, गमछा कंधे पर है और बाहर में खोजते हैं।
 अपुनपौ आपुन ही में पायो।
 शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो।।
 ज्यों कुरंग नाभि कस्तूरी, ढूँढ़त फिरत भुलायो।
 फिर चेत्यो जब चेतन ह्वै करि, आपुन ही तन छायो।।
 राज कुँआर कण्ठे मणि भूषण, भ्रम भयो कह्यो गँवायो।
 दियो बताइ और सत जन तब, तनु को पाप नशायो।।
 सपने माहिं नारि को भ्रम भयो, बालक कहुँ हिरायो।
 जागि लख्यो ज्यां को त्यों ही है, ना कहूँ गयो न आयो।।
 सूरदास समुझै की यह गति, मन ही मन मुसुकायो।
 कहि न जाय या सुख की महिमा, ज्यों गूँगो गुर खायो।।
     -सूरदासजी महाराज
 अपने अन्दर तलाश करो। इसका यत्न संतों ने सिलसिले के साथ बताया है। तुलसी साहब का छन्द है-
     ‘हिये नैन सैन सुचैन सुन्दरि। साजि श्रुति पिउ पै चली।।
      गिरि गवन गोह गुहारि मारग। चढ़त गढ़ गगना गली।।
      जहाँ ताल तट पट पार प्रीतम। परसि पद आगे अली।।
      घट घोर सोर सिहार सुनि कै। सिंध सलिता जस मिली।।
      जब ठाट घाट वैराट कीना। मीन जल कंवला कली।।
      आली अंस सिंध सिहार अपना। खलक लखि सुपना छली।।
      अस सार पार सम्हारि सुरति। समझि जगजुग जुग जली।।
      गुरु ज्ञान ध्यान प्रमान पद बिन। भटकि तुलसी भौ भिली।।’
 
     ‘जब बल विकल दिल देखि विरहिन। गुरु मिलन मारग दई।।
       सखी गगन गुरुपद पार सतगुरु। सुरति अंस जो आवई।।
       सुरति अंस जो जीव घर गुरु। गगन वस कंजा मई।।
       आली गगन धार सवार आई। ऐनि वस गोगुन रही।।
       सखी ऐन सूरति पैन पावै। नील चढ़ि निर्मल भई।।
       जब दीप सीप सुधार सजकै। पछिम पट पद में गई।।
      गुरु गगन कंज मिलाप करिकै। ताल तज सुनि धुनि लई।।
      सुनि शब्द से लखि शब्द न्यारा। प्राल बद जद क्या कही।।
      जेहि पार सतगुरु धाम सजनी। सुरति सजि भजि मिलि रही।।
      जस अलल अंड अकार डारै। उलटि घर अपने गई।।
      यहि भांति सतगुरु साथ भेटै। कर अली आनन्द लई।।
      दुःख दाव कर्म निवास निसदिन। धाम पिया दरसत बही ।।
    सतगुरु दया दिल दीन तुलसी। लखत भै निरभै भई ।।’
 अपने अन्दर की दृष्टि से अपने को सजाकर
सुरत सुन्दरी अपने पिउ के पास चली। दृष्टि आपके पास है, उसे अन्तर्मुखी कीजिए। अन्तर्मुख होने से अन्तर की यात्रा कर सकेंगे। बाहर के दर्शन को कोई परमात्मा का दर्शन कहे तो मेरी समझ में नहीं आती। बाहरी इन्द्रियों से उसे कोई ग्रहण नहीं करता। वह इन्द्रियों से परे है। बाहर की इन्द्रियों से खोज करनी थोथी खोज है। आँख से सुनना चाहें तो कैसे होगा? उसी प्रकार इन्द्रियों से ईश्वर को ग्रहण करना नहीं हो सकता। इसको चेतन आत्मा ही पहचान सकती हैं, इसके लिए अन्तर-ही-अन्तर चलना होगा। सन्तों ने विश्वास दिलाया कि एकबार भी यदि भीतर में पाओगे, तो बाहर भीतर एक ही हो जाएगा। ‘बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआन बताई।’ (गुरु नानक) संतां के विचार में ऐसा ही है और सदग्रंथों में भी ऐसा ही है। इसपर विश्वास रखना चाहिए। उपर्युक्त साधन में अनिवार्य रूप से सदाचार का पालन करना पड़ता है, जिससे संसार में भी निरापद रहना पूर्ण संभव है।
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यह प्रवचन पूणियाँ जिलान्तर्गत संतमत सत्संग मंदिर, मनिहारी में दिनांक 21.3.1953 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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51. आध्यात्मिकता की ओर चलिए

प्यारे लोगो!
 संसार की सँभाल बहुत जरूरी है। साथ ही यह भी जरूरी है कि संसार के उस पार में देखो। संसार में जबतक जीवन रहता है, तबतक इसकी सँभाल किए बिना आराम नहीं मिलता। संसार के पार में क्या है, इसकी खबर यदि नहीं लो तो वह आराम, जिस आराम के बाद कोई तकलीफ नहीं आती, जिसके बाद कोई दूसरा आराम पाने की इच्छा नहीं होती, वह आराम नहीं मिलता। संसार में बहुत थोड़ी देर का आराम मिलता है। इस आराम या चैन का सुख क्षणिक है-अपूर्ण है। किन्तु संसार के बाद का सुख कल्याणपूर्ण और नित्य है। संतों ने कहा है कि संसार के कामों को भी करो और संसार के पार में भी दखने की कोशिश करो।
पलटू कारज सब करै सुरति रहै अलगान। -पलटू साहब
 इसके लिए यत्न सीखो और अमल (अभ्यास) करो। उस अभ्यास को बढ़ाओ। ऐसी बात नहीं कि संसार का काम करते हुए वह अमल नहीं होगा। शंकराचार्य के हाथ में कितना काम था, फिर भी वे लोगों को रास्ता बताते फिरते थे कि जिससे संसार का कल्याण हो। शंकराचार्य का कुटुम्ब समस्त संसार था-‘वसुधैव कुटुम्बकम्।’ संतों ने कहा है कि नैतिकता के पतन से दुःख पाओगे। सदाचारहीन होने से नैतिक पतन होगा। सदाचार का पालन करो। सदाचार का पालन करना, बिना आध्यात्मिक ज्ञान के नहीं होगा। केवल आधिभौतिक पदार्थों को लेते रहो, तब तुम सदाचारी बनोगे, यह नहीं होगा। संसार का पदार्थ येन-केन विधि से ले सकोगे, किंतु जो रूहानी चीज है, उसको जिस-तिस तरह से नहीं ले सकोगे। दुरुस्त और ठीक एखलाक वा त्रुटि-विहीन सदाचार से ही अध्यात्म-तत्त्व का पाना हो सकता है, जिसमें शांतिदायक सुख है। सदाचार के पालन में लगे रहने से नैतिकता का पतन नहीं होगा और जनता में नैतिकता की बढ़ती से संसार सुखी हो जाएगा। यदि सदाचार से गिरे तो नैतिक पतनवालों को संसार में चैन कहाँ? श्रीशंकराचार्य जी महाराज ने लोगों को उपदेश दिया और इसमें उन्हें बहुत कष्ट तथा परिश्रम हुआ, तो भी उन्होंने जनसुख हेतु कथित परिश्रम को नहीं छोड़ा।
 श्रीशंकराचार्यजी महाराज का जिस समय आविर्भाव हुआ, उस समय आजकल की तरह सवारियों की भरमार सुविधा नहीं थी। पैदल ही उन्होंने सारा देश भ्रमण कर अपना ज्ञान फैलाया। उन्होंने ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की पुकार लगायी। संन्यासी होते हए उन्होंने देश का बहुत बड़ा काम किया। देश में सदा अध्यात्मवाद का प्रचार होते रहना चाहिए। यह विश्वास मत करो कि केवल भौतिकवाद में ही शान्ति और संतुष्टि मिलेगी, ऐसा कभी नहीं हुआ और न कभी होगा। आध्यात्मिकता की ओर बढ़ो और सांसारिक वस्तुओं को भी सँभालते रहो। मैं देखता हूँ कि आजकल देश में नैतिक पतन हो गया है। जो जिस कदर खाने-पहनने पाते हैं, उसी में किसी तरह गुजर करते हैं। किंतु सदाचार का पालन हो, अध्यात्म-ज्ञान हो, तो जिन्हें खाने-पहनने कम मिलते हैं, उन्हें विशेष मिल जायँ।
 हमारी सरकार देश को सुखी बनाने के लिए विधान बनाती है, किन्तु उस विधान के रहते हुए भी नैतिक पतन के कारण लोग अन्न और वस्त्र की कमी को अत्यधिक महसूस करते ही हैं। इसलिए नैतिक पतन न हो, इसके लिए सदाचार का पालन कीजिए। इस सदाचार का अवलम्ब ईश्वर की भक्ति है। ईश्वर की भक्ति कीजिए अर्थात् आध्यात्मिकता की ओर चलिए। योग, ज्ञान और ईश्वर भक्ति; सब संग-संग मिले-जुले हुए हैं। बिना ज्ञान के किसकी भक्ति हो, जान नहीं सकते। भक्ति सेवा को कहते हैं। सेवा में क्या ईश्वर का पैर दबाया जाय या उनको कोई बीमारी है, जो उनकी चिकित्सा की जाय? परंतु परमात्मा के लिए यह सेवा नहीं है, यह सेवा साधारण लोगों के लिए है।
 एक राजा शिकार खेलने के लिए जंगल गया। वहाँ उसने एक भोले-भाले सुन्दर बालक को देखा। उस बालक की सुन्दरता पर मुग्ध होकर राजा ने उसे अपने यहाँ ले जाने की इच्छा उस बालक के समक्ष प्रकट की। बालक बोला-‘राजा! यदि तुम मेरी शर्त को मंजूर करो तो मैं तुम्हारे साथ जाऊँ।’ शर्त यह थी कि मुझे खिलाओ, तुम मत खाओ; मझे अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनाओ, तुम मत पहनो तथा मुझे सुलाओ, तुम मत सोओ, तुम जगकर मेरी रक्षा करो।
 राजा ने कहा-‘ऐसा तो नहीं होगा, किन्तु मैं जैसा खाऊँगा तथा पहनूँगा, उसी तरह तुम्हें खिलाऊँगा तथा पहनाऊँगा और जिस तरह मेरे सोने पर पहरे- दार पहरा करते हैं, उसी तरह तुम्हारे सोने पर भी पहरा होगा।’
 बालक बोला-‘मुझे ऐसा मालिक नहीं चाहिए। मेरा मालिक तो मुझे खिलाता है, किंतु स्वयं नहीं खाता, मुझे वस्त्र पहनाता है, किंतु वह स्वयं नहीं पहनता। मैं सोता हूँ और वह जगकर मेरा पहरा करता है।’
 परमात्मा के लिए खाना, पीना, पहनना और सोना नहीं। उस प्रभु की सेवा क्या होगी? उनके पास जाओ, अपने को उनके पास हाजिर करो, यही उनकी सेवा है।
    ऐसी सेवकु सेवा करै। जिसका जीउ तिसु आगे धरै।।
     -गुरु नानक साहब
 अपने को ईश्वर के चरणों में समर्पित करो, यही संयम है। शम-यम के पालन के साथ त्रिवेणी पर सुमिरण करो।
सहज समर्पण सुमिरण सेवा। तिरवेणी तट संयम सपरा।।
      -दादू दयालजी
 ऐसा ही सेवक ईश्वर से मिलता है। सदाचार का पालन करना जरूरी है। सदाचार के पालन से संसार में सुख और परलोक में भी मोक्ष मिलेगा। सब लोगों को इसका पालन करना चाहिए।
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यह प्रवचन पूणियाँ जिलान्तर्गत संतमत सत्संग मंदिर, मधुबनी में दिनांक 28.3.1953 ई0 को सत्संग में हुआ था।
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52. मनुष्य अपने स्वरूप को जाने

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 संसार के जितने प्राणधारी हैं, सबको अपना सुख बहुत पसन्द है। अपने सुख को छोड़कर कोई भी आनन्दित नहीं होता। सुख के लिए सभी कोशिश करते हैं। इसके लिए सभी परिश्रम करते हैं। सुख को पहचानना चाहिए। बच्चे खेल-कूद में सुख समझते हैं। कुछ दिनों के बाद वे खेल-कूद को छोड़ देते हैं, जिस तरह वे बचपन में खेलते हैं। या तो विद्याध्ययन करते हैं अथवा घर के कामों में लगते हैं। जवान लोग विषयों को भोगते हैं, उसमें सुख मानते हैं। उम्र बढ़ने पर फिर कुछ ज्ञान-ध्यान की बात समझने लगते हैं और तब इसी में सुख मानने लगते हैं। सबको इस सुख के लिए चेष्टा करनी चाहिए। धर्म को सभी चाहते हैं, लेकिन बिना कर्म के धर्म नहीं होता। सुख के पहले थोड़ा दुःख उठाना होता है। शिक्षा पाने के पहले बच्चे शिक्षा पाने में दुःखी होते हैं, फिर वे सुखी होते हैं। जो विषय में सुख समझते हैं, उसके बाद जो निर्विषय सुख है, उन्हें उसको भी समझना चाहिए। इहलोक के सुख को छोड़ने से परलोक के सुख की प्राप्ति होती है। परलोक को पाने के लिए जब दत्तचित्त होते हैं, उसको पाने पर तब धीरे-धीरे वे इधर के सुख को छोड़ते हैं और उधर के सुख को पाने लगते हैं। कितने यहाँ के सुख के सुख में लगे रहते हैं और परलोक के सुख का ख्याल नहीं करते, यह ठीक नहीं है। संतों ने कहा है कि परलोक सुख को भी देखो। इन्द्रियजन्य सुख को सुख कहें, यह ठीक नहीं है। भौतिक के बाद आध्यात्मिक है, उसके लिए भी यत्न करना चाहिए। जो आध्यात्मिक सुख पाने की कोशिश करता है, वही धर्मवान होता है। वही इस लोक और परलोक; दोनों में सुखी रहता है। हमलोग सुख चाहते हैं। संसार में धनवान, प्रतिष्ठावान, शक्तिमान किसी तरह से कुछ बनकर रहो, उसमें कभी दुःख न आवे, सुख-ही-सुख रहे, ऐसा नहीं होता। बड़े-बडे़ हुकूमतवाले, बड़े-बड़े ज्ञानी आए, राजराजेश्वर आए, उन सबको सुख के साथ दुःख भोगना पड़ा। श्रीराम, श्रीकृष्ण जैसे अवतारी पुरुषों के जीवन में भी ऐसा नहीं मालूम होता है कि उनको दुःख नहीं हुआ। इसलिए परलोक के सुख की ओर देखना चाहिए। हमलोग शरीर और संसार के बंधन में पड़े हैं, इनसे छूटना चाहिए। यह शरीर स्थूल हाड़- ़मांस-चाम का बना हुआ है। इसकी आयु है। आयु भोगकर 100 वा 50 वर्ष में ही यह शरीर छूट जाता है, लेकिन इसके छूटने से ही मुक्ति नहीं होती। जड़ के चार शरीर होते हैं, वे सभी छूट जायँ तब मुक्ति होती है। आयु पूरी होने पर जो शरीर छूटता है, इससे मुक्ति नहीं होती है। अपने अख्तियार से स्थूल-सूक्ष्म आदि चारों शरीरों को छोड़ता है, तब मोक्ष पाता है, उसको दुःख नहीं होता। जीवनकाल में जो बंधनों से छूटे होते हैं, वे जीवनमुक्त कहाते हैं। ऐसे पुरुष भी सत्संग करते हैं। संसार में रहकर वे संसार का उपकार करते हैं। संसार में रहकर भी सुखी रहो, इसके लिए उद्यमी, पुरुषार्थी बनो, डरपोक नहीं। जो आलसी हैं, अनुद्यमी हैं, वे दुःखी होते हैं। जो साहसी, पुरुषार्थी, उद्यमी और परिश्रमी होते हैं, वे संसार में सुखी होते हैं और परलोक का यत्न करने पर वहाँ भी सुख पाते हैं।
 रामचरितमानस में है कि श्रीराम राज्य करते थे, उनकी सारी प्रजा सुखी थी, उनका राज्य बहुत अच्छा था। उन्होंने देखा कि केवल ऐहिक सुख ही हो, परलोक सुख नहीं हो तो प्रजा को अवश्य दुःख होगा। इसलिए उन्होंने एक सभा की और उपदेश दिया। यद्यपि उनके गुरु भी उस सभा में थे, जो बड़े ज्ञानी थे। उस सभा में और बड़े-बड़े ज्ञानी विद्वान भी थे। उनलोगों से नहीं कुछ कहलाकर स्वयं कहा। ऐसा क्यों? इसमें बात है कि कोई विद्वान और कोई महात्मा हैं तो उनको उपदेश देने का बल है और राजा उपदेश देता है तो उसको उपदेश देने का भी बल है और शासन का भी बल है। इसलिए उन्होंने अपने से अपनी प्रजा को उपदेश दिया। श्रीराम ने जो पहली बात कही, वह यह कि ‘बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।’ मनुष्य शरीर पानेवाले सभी बड़े भाग्यवान हैं, चाहे वे कोई भी कहीं के हों। एक नीच कुल का लोग अगर मोक्ष का यत्न करके उसको पाता है, तो उसका सुख जैसा उनको मिलता है, उच्चवर्ण के लोग यत्न करेंगे तो उनको भी वैसा ही सुख मिलता है। आप देखते हैं कि मनुष्य ही बाघ, सिंह और हाथी को भी काबू में करके नाच तमाशा करवाता है। आप जानते हैं कि आराधना के द्वारा देवताओं को भी मनुष्य वश में कर लेते हैं। इसलिए यह शरीर बहुत उत्तम है, जो कि देवताओं को भी दुर्लभ है। इस शरीर को पाकर यदि आप पशुओं की तरह विषयों में लगे रहो तो क्या हुआ? आप किसी रूप को देखकर प्रसन्न होते हैं, शब्द सुनकर प्रसन्न होते हैं। रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द; ये पाँच प्रकार के विषयों को लोग भोगते हैं। इन्हीं विषयों के भोगों को सुख कहते हैं। ये पाँचो विषयसुख पशु में भी हैं। साँप विषैला जन्तु है। शब्द से उसको ऐसा प्रेम है कि शब्द सुनकर मस्त हो जाता है और नाच दिखाता है। उसको भी अपनी जिभ्या में जो स्वाद मालूम होता है, खाता है। मनुष्य भी पंच विषयों में लगा रहा तो क्या विशेष हुआ? मनुष्य को सोचने-विचारने की शक्ति है। मनुष्य अपने को जाने, केवल अपने शरीर को ही नहीं। पशु को अपने शरीर का ज्ञान होता है, अपने स्वरूप का नहीं। कितने मनुष्य तो अपने शरीर को ही जानते हैं और स्वरूप को जानने की कोशिश भी नहीं करते। शरीर नाशवान है और जीवात्मा अनाशवान है।
 आज जो आपके देश में बहुत आवश्यक काम है, वह है-जैसा कि अभी ग्रामोफोन के रेकार्ड में सुना। ‘देश कुर्बानी माँगता है, अपने को न्योछावर करने कहता है।’ यह देश दूसरे देश पर चढ़ाई नहीं करता। हाँ, जो देश पर चढ़ाई करता है, उसको इस देश के लोग मार भगाते हैं। जो डरपोक है, वह लड़ नहीं सकता। मूल चीज है कि-
आकर चारि लच्छ चौरासी। योनि भ्रमत यह जीव अविनासी।।
 जीव अविनाशी है, इसका विनाश नहीं होता। महाभारत का युद्ध आरम्भ होने वाला था। श्रीकृष्ण से अर्जुन ने कहा कि हमको दोनों सेनाआें के बीच में ले चलिए। श्रीकृष्ण दोनों सेनाओं के बीच में रथ को ले गये। युद्ध के मैदान में दोनों सेनाओं में अपने स्वजन परिवार को देखकर अर्जुन को मोह हुआ। लड़ना अच्छा नहीं है, अर्जुन ने कहा। श्रीकृष्ण ने कहा- तुम बुद्धिमान आर्य की भाषा नहीं बोलते। अभी युद्ध करने का समय है, यदि तुम युद्ध नहीं करोगे तो लोक में हँसी होगी और परलोक में भी दुःखी होओगे। शरीर को कोई मार सकता है, शरीर के अन्दर में जो आत्मा है, वह पानी में सड़ती नहीं है, अग्नि में जलती नहीं है, हवा से सूखती नहीं है, अस्त्र-शस्त्र से उसका भेदन नहीं होता। मेरा मामा, मेरा दादा कहकर तुम अपने को क्षत्रिय-धर्म से नीचे गिराते हो। शरीर मरेगा, शरीर में रहनेवाला नहीं मारा जाएगा। मेरे और तेरे बहुत जन्म हो गए हैं। जैसे पुराना कपड़ा फटने पर नया कपड़ा पहनते हैं, इसी तरह चेतन आत्मा पर नया-नया शरीर चढ़ता है। इस तरह उन्होंने आत्मज्ञान की शिक्षा देकर अर्जुन को मजबूत बनाया और कहा कि तुम युद्ध भी करो और परलोक-चिन्तन भी मत छोड़ो। इस तरह हमारे देश के लोगों को आज भी जरूरत है। आत्मज्ञान बलवान बनाता है और शरीर-ज्ञान कमजोर बनाता है।
 इस देश के पंजाब प्रान्त में बन्दावीर ने अपना पुरुषार्थ दिखलाया था। वह गुरु गोविन्द सिंह का शिष्य था। जब वह मुगल बादशाह से पकड़ा गया था तो लोहे के चूँटे को आग में तबाकर उसका मांस नोचा जाता था, फिर भी वह प्रसन्न था। बादशाह फर्रुखसियार ने पूछा-‘तुम अभी भी प्रसन्न मालूम पड़ते हो, ऐसा क्यों?’ उन्होंने कहा-‘हमारे यहाँ श्रीमद्भगवद्गीता है, तुम मेरे शरीर को नोचते हो, मुझे नहीं नोच सकते।’ अध्यात्म-ज्ञान के बिना आदमी घबराता है, साहसी नहीं होता है। इसलिए अध्यात्म-ज्ञान होना आवश्यक है। इसीलिए श्रीराम ने अध्यात्म-ज्ञान का उपदेश दिया। अध्यात्म-ज्ञान केवल सुनने से पूरा नहीं होता। इसके लिए साधन करना चाहिए, जिससे आत्मा की पहचान हो। केवल सुनने से ज्ञान पूरा नहीं होता। पहले सुनने से, विचारने से, साधन करने से और साधन के पूर्ण होने से अंत में पूर्ण ज्ञान होता है। इसी को श्रवण, मनन, निदिध्यासन और अनुभव ज्ञान कहते हैं। इसलिए तबतक उतने मजबूत नहीं होते, जबतक कि वे पहचानवाला ज्ञान प्राप्त नहीं करते।
 ‘समत्व प्राप्त कर युद्ध करो’ श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था। समत्व की प्राप्ति समाधि में होती है। इसके पहले श्रवण-मनन अवश्य चाहिए। श्रवण-मनन से निर्णय हो जाता है, तब कोई कुछ कर सकता है। निदिध्यासन ज्ञान के पूरा होने पर पूरा ज्ञान होता है। श्रीराम ने प्रजा को उपदेश दिया था-‘एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुःखदाई।।’ अर्थात् मनुष्य-शरीर प्राप्त करने का फल विषय-सुख भोगना नहीं है। अगर स्वर्ग का सुख प्राप्त कर सको, तो वह भी थोड़ा ही है। यहाँ जैसे विषयों से कोई तृप्त नहीं होता, वैसे ही स्वर्ग में भी विषयों से कोई तृप्त नहीं होता और उसका कर्मफल समाप्त होने पर फिर यहाँ लौटा दिया जाता है। इसलिए श्रीराम ने कहा कि पंच विषयों को, जो पंच ज्ञान-इन्द्रियों से ग्रहण होते हैं, उनको छोड़ो। ये सुख पूर्ण नहीं हैं, अल्प सुख हैं। इन्द्रिय-ज्ञान के परे के सुख को पूर्ण सुख कहते हैं। इन्द्रिय-ज्ञान के परे के सुख को विषय सुख नहीं कहते हैं। इन्द्रिय-ज्ञान से विशेष सुख वह है, जो चेतन-आत्मा से प्राप्त होता है। वह पूर्ण आत्मज्ञान का सुख है। उसी को निर्विषय सुख कहते हैं। श्रीराम ने इसी सुख की तरफ संकेत किया था अर्थात् ‘नर तन कर फल निर्विषय भाई।।’ यह इन्द्रिय-ज्ञान में आने योग्य नहीं है। यह तुम्हारा शरीर है, इस शरीर में उस निर्विषय सुख को पाने के लिए तुम कोशिश कर सकते हो, अन्य शरीरों में नहीं। ईश्वर की विशेष कृपा होती है, तब मनुष्य-शरीर मिलता है। इसमें ईश्वर की कृपा है, जो तुमको आगे की ओर बढ़ाती है। मनुष्य- शरीरधारी उस सुख को पा सकता है, जो सुख संसार-समुद्र को पार कर मिलाता है। जैसे नाव हो, नदी हो और मल्लाह नहीं हो तो उसको पार कौन लगावे? उसी तरह मनुष्य-शरीर नाव है, संसार समुद्र है, इसमें सद्गुरु मल्लाह चाहिए। सद्गुरु उनको कहते हैं जो सद्ज्ञान जानें, उसके अनुकूल अपना आचरण करें और औरों को भी इसकी शिक्षा-दीक्षा दें। मल्लाह ठीक होता है तो नाव को खतरे से बचाता है। जो इस मनुष्य शरीर-रूप नाव को चलावें, वे सद्गुरु मल्लाह हैं। मनुष्य शरीर-रूपी नाव को ईश्वर की कृपारूप अनुकूल वायु प्राप्त है, अब चाहिए सद्गुरु। सद्गुरु पहले भी थे, अब भी हैं, सदा से होते आए हैं और होते रहेंगे। शरीरधारी सद्गुरु होते हैं, उनकी जो कोई खोज करता है, वह सत्संग के अंदर जाकर खोज करता है। कहीं संत-महात्मा का नाम सुनता है, वहाँ जाता है-खोज करता है, तो कहीं- न-कहीं मिल ही जाते हैं। जो उनकी बताई हुई युक्ति से कोशिश करता है, वह मोक्ष को पाता है।
 श्रीराम ने कहा था-‘यह शरीर साधन का धाम और मोक्ष का द्वार है।’ मन्दिर के बड़े-बड़े छिद्रों को द्वार और छोटे-छोटे छिद्रों को खिड़कियाँ कहते हैं। हमलोगों के शरीर में नौ बड़े-बड़े छिद्र हैं, ये द्वार हैं। संत लोग कहते हैं कि नौ द्वारों में रहोगे तो संसार में भटकते रहोगे। नौ द्वारों के अतिरिक्त और भी द्वार है, वह बाहर में नहीं है, अन्दर में है। स्वप्न में नौ द्वार से जो अन्दर होते हो, वह थोड़ा अन्दर जाते हो और यदि उस दशवें द्वार में जाओ, तो अधिक अंदर जा सकते हो। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से भी विशेष तुरीय में जाओगे। स्वभावतः जैसे नौ द्वारों में लोग बरतते हैं अर्थात् उनमें आते-जाते रहते हैं, वैसे ही इस दशवें में जाना नहीं होता, इसके लिए क्रिया की जाती है और तब उसमें जाना होता है। और तब श्रीराम के कहे अनुकूल निर्विषय की ओर होता है। यह साधन द्वारा होता है। अपने देश में यह विद्या बहुत प्राचीन है। यही विद्या है जो सारे संसार को चकित करती है। सारे संसार में यहाँ से यह ज्ञान गया है। यह विद्या डरपोक नहीं बनाती। कमजोर को भी बलवान बनाती है। इस विद्या का जानकार किसी से डरता नहीं है। श्रीराम ने यह जानकर ही प्रजा को अध्यात्म-ज्ञान दिया था और यह कि विषय-सुख में लिपटकर कमजोर न हो जाय। यह विद्या कहीं खो नहीं गई है। सभी इस विद्या को जानें, करें और सीखें।
 अभी देश को जो जरूरत है, वह यह है कि लोग साहसी बनें। देश की मांग के मोताबिक देश के लिए तन, मन और धन की कुर्बानी करें। बिना आध्यात्मिक विद्या के कमजोर होंगे। शरीर के बलवान होने पर भी अध्यात्मज्ञान के बिना मनुष्य कमजोर रहता है। आध्यात्मिक ज्ञान संसार के सुखों में लट्ट ू नहीं होने देता, मितभोगी बनाता है। जैसे मात्रा के मोताबिक औषधि लेते हैं, उसी तरह मात्रा के अनुकूल विषयों को लेना चाहिए; क्योंकि बिना विषय के कोई रह नहीं सकता।
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यह प्रवचन बिहार राज्य के सहरसा जिलान्तर्गत ग्राम-तुलापट्टी में दिनांक 3.4.1953 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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53. शरीर के सुखों में लिप्त होना दानवी स्वभाव है

प्यारे लोगो!
 यद्यपि शरीर बहुत प्यारा होता है और सुन्दर भी होता है, फिर भी यह अवश्य छूट जाता है और इसके हाड़-मांस अलग-अलग हो जाते हैं या जल जाते हैं। संतों का उपदेश है कि ऐसे शरीर में आसक्त मत होओ। शरीर में आसक्त न होने का मतलब है कि शरीर-सुख में लिप्त मत होओ। शरीर बनता है और बिगड़ता है। संसार में यह उत्पन्न होता है, देखा जाता है और फिर नहीं देखा जाता है। अंत का फल लोग प्रत्यक्ष देखते हैं कि यह सड़ जाता है-इसके टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं, जला देने से यह भस्म हो जाता है; किंतु इसमें जो रहता था, वह जलता और सड़ता नहीं। वह जलने-सड़ने से बचा रहता है। इस शरीर को छोड़कर जब वह चला गया, तभी यह शरीर जला और सड़ा। कितनी बार ऐसा हुआ, इसका ठिकाना नहीं। बहुत जन्मों से जीवात्मा शरीर को पहनती हुई चली आयी है, जैसे आप अपने जीवन में कितने कपडों को बदल देते हैं। पुराने कपडे़ बिगड़कर खराब हो जाते हैं और छोड़ दिए जाते हैं; उसी तरह जीवात्मा शरीरों को पहनती है और छोड़ती है। इसलिए शरीर के सुख में आसक्त होना दानवी स्वभाव है और शरीर को अनित्य समझकर इसके सुख को नाशवान समझकर उसमें आसक्त न होना दैवी स्वभाव है।
 उपनिषद्-कथा है कि देवताओं के राजा इन्द्र और दानवों के राजा विरोचन ने आपस में आत्मज्ञान प्राप्त करने की बातचीत की। दोनों मिलकर ब्रह्मा के पास गए और उनसे आत्मज्ञान देने की प्रार्थना की। ब्रह्मा ने उन दोनों को कहा-‘तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन कर मेरे पास आओ, तब बताऊँगा।’ दोनों तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन कर ब्रह्मा के पास गए। ब्रह्मा ने कहा-‘तुम्हारे पास पहनने के जितने वस्त्राभूषण हैं, पहनकर आओ और जल में अपने-अपने रूप को देखो।’ जल में उन दोनों ने अपने-अपने रूप को देखा। ब्रह्मा ने कहा-‘पानी में जो रूप देखते हो, वही ब्रह्म है।’ बहस करने का साहस नहीं हुआ। जो कहा गया, उसे सुन लिया। उन्हें कुछ कहने की युक्ति भी नहीं आई। दोनों चले गए। विरोचन दानव था। उसने समझा-‘शरीर ही आत्मा है। खूब खाओ, पीओ और इसी के विलास में रहो।’ इन्द्र ने सोचा-‘पितामह ने इस शरीर की छाया को आत्मा बताया। यदि शरीर में हाथ टूट जाय, तो छाया में भी हाथ टूटा हुआ मालूम होगा। रूप जैसा बनाएँगे, वैसी छाया देखने में आएगी। तो ब्रह्म या आत्मा के भी कई रूप हो जाएँगे।’ ऐसा विचारकर वे फिर लौटकर ब्रह्मा के पास गए और बोले-‘मुझे सन्देह है।’ अपना सन्देह प्रकट करने पर ब्रह्मा ने उन्हें तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालन करने कहा। दूसरे तीस वर्षों तक ब्रह्मचर्य पालन करने के बाद इन्द्र पुनः ब्रह्मा के पास गए। ब्रह्मा ने कहा-‘आँख में सबका चित्र देखा जाता है, वही आत्मा या ब्रह्म है।’ फिर इन्द्र ने विचारा-‘यदि आँख फूट जाय तो उसमें कुछ नहीं दीख पड़ेगा। फिर तो वही बात हुई।’ यह सोचकर इन्द्र फिर ब्रह्मा के पास लौटे और उन्होंने फिर अपना सन्देह प्रकट किया। पुनः ब्रह्मा ने कहा-‘तीस वर्ष तक फिर ब्रह्मचर्य पालन करके आओ।’ इन्द्र फिर तीस वर्ष के बाद ब्रह्मा के पास उपस्थित हुए। तब ब्रह्मा ने कहा-‘तुम्हारे शरीर की जो छाया है, वही आत्मा है।’ फिर इन्द्र को सन्देह हुआ तो वह पुनः लौटा और ब्रह्मा से अपना सन्देह प्रकट किया। ब्रह्मा ने पुनः पाँच वर्ष ब्रह्मचर्य पालन करने कहा। पाँच वर्ष ब्रह्मचर्य का पालन कर इन्द्र ब्रह्मा के पास गए। तब ब्रह्मा ने कहा-आत्मा शरीर नहीं, शरीर में जो रहता है, वही आत्मा है।’ ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया। शरीर के सुखों में लिप्त होना दानवी स्वभाव है। जो शरीर-सुखों के भोग में नहीं फँसता, दुःखों को सहता है, वह दैविक स्वभाव का है। आपलोगों को क्या चाहिए? दानवी बुद्धि की प्रशंसा नहीं की जाती। सबों को दैविक बुद्धि चाहिए। उपर्युक्त कथा से सब लोगों को जानना चाहिए कि आत्मतत्त्च क्या है? केनोपनिषद्, खण्ड 1 में है-
 यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्।
 तदेव ब्रह्मत्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।
 अर्थात् मन से जो नहीं जाना जाता और जो आपके पास में है यानी जिसका ज्ञान इन्द्रियों से होता है; वह ब्रह्म नहीं है। साधारणतः हम इन्द्रियों से जिसे नहीं जानते, उसके लिए कहते हैं कि वह नहीं है। जैसे वायु में अनेक पदार्थ मिले हैं, किन्तु इस आँख से नहीं देख सकते, यंत्र से देख सकते हैं। घर में खिड़की या छिद्र होकर सूर्य की रोशनी आती है, तो उसमें बहुत टुकडे़ देखने में आते हैं; किंतु युक्ति और यंत्र से नहीं देखने पर-केवल हवा है, ऐसा कहते हैं। उसमें और क्या है, नहीं जानते। कैसा भी सुन्दर और पवित्र शरीर क्यों न हो, जिसको हम प्रणाम करते हैं, किन्तु यह शरीर परमात्मा या ब्रह्म नहीं है; चाहे वह शरीर इष्ट या गुरु आदि का ही क्यों न हो। कोई भी इन्द्रिय-गोचर पदार्थ ब्रह्म नहीं हो सकता है। इस तरह से आपका यह शरीर इन्द्रिय-गोचर है, अतएव यह ब्रह्म नहीं है। कोई भी शरीर-पवित्र-अपवित्र, सुन्दर-असुंदर, जिस शरीर से अद्भुत कार्य ही क्यों न होता हो, चमकीला हो, दिव्य हो, फिर भी वह परमात्मा नहीं। वह परमात्मा की माया है। इन्द्रिय-गोचर पदार्थ निर्माया-ईश्वर नहीं है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने बड़ा अच्छा कहा है-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।। -रामचरितमानस
 इस कसौटी पर कसिए तो जो मन से या इन्दियों से जानते हैं, माया है। जो बदलता जाय, एक तरह नहीं रहे, वह माया है। जो किसी प्रकार के भ्रमवश मालूम हो, परन्तु यथार्थतः वह वैसा नहीं हो, वह माया है। जैसे, धुँधली रोशनी में रस्सी को साँप समझने का भ्रम होता है, उसको देखकर लोग डर भी जाते हैं, लेकिन वह साँप नहीं है-माया है। माया को भ्रम भी कहते हैं। सीपी में सूर्य की किरण लगने से चाँदी-सी भासती है, किंतु चाँदी नहीं है; उसी को माया कहते हैं। हमारा शरीर मांसपिण्ड था, वह फिर बच्चा, जवान और बूढ़ा हुआ-यह माया है। एक वृक्ष कभी अंकुर था, वह बढ़ा, फूला, फिर सूख गया-यह माया है। इस प्रकार सब इन्द्रिय-गोचर पदार्थ सत्य ब्रह्म परमात्मा नहीं, माया है। केनोपनिषद् खण्ड 2 में लिखा है-
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।।
 अर्थात् इस जन्म में यदि ब्रह्म को जान लिया तब तो बहुत ठीक है, नहीं तो बड़ी भारी हानि होगी। बुद्धिमान लोग उसे समस्त प्राणियों में उपलब्ध करके इस लोक से जाकर (मरकर) अमर हो जाते हैं।
 जानना दो तरह से होता है। एक जाना है, परंतु पहचाना नहीं है; यह परोक्ष ज्ञान है। जिसको पहचान कर जाना है, वह अपरोक्ष ज्ञान है। जिसको परमात्मा का अपरोक्ष या परोक्ष, कुछ भी ज्ञान नहीं हुआ, उसके लिए बहुत बड़ी हानि हुई। परोक्ष ज्ञान भी मनुष्य को ही होता है-बैल, कुत्ते आदि अन्य शरीरधारियों को नहीं। जो मनुष्य परोक्ष ज्ञान भी प्राप्त करके मर गया है, तो उसके लिए भी उतना अच्छा नहीं, किंतु उसका जन्म होगा तो मनुष्य योनि में ही होगा; क्योंकि ब्रह्म-सम्बन्धी परोक्ष ज्ञान के संस्कार को धारण करने और बढ़ानेवाला और दूसरा शरीर नहीं है। एक वृक्ष के अंकुर के लिए यदि उसे ठीक हवा, प्रकाश और अवकाश न हो तो वह अंकुर ठीक-ठीक नहीं बढ़ सकता। किन्तु जहाँ ये सब चीजें हैं, वहाँ अंकुर बढ़ते-बढ़ते वृक्ष होगा। उसी प्रकार मनुष्य शरीर के अतिरिक्त दूसरा अनुकूल शरीर नहीं है, जिसमें यह संस्कार बढ़े। इसलिए मनुष्य देह में जब यह बीज उगेगा, तब ब्रह्मज्ञान-संबंधी संस्कार पूर्ण-रूप से उन्नत दशा को प्राप्त होगा। तब इसको कुल और मूल की अपेक्षा नहीं होगी।
 मैंने एक हरिजन (मेहतर) को संभवतः 1910 ई0 में छपरा शहर में देखा था, जिनका नाम तहबल दास था। उनको सत्संग सुनने का बड़ा अच्छा शौक था। वे मांस, मछली तथा मद्यादि नहीं खाते-पीते थे। उन्होंने अपने टोले को सुधार दिया था। वे जगजीवन साहब के पंथ के महन्थ सियाराम दासजी के शिष्य थे। वे अपने टोले भर को पवित्र किए हुए थे। उस टोले में एक सत्संग घर भी था। उसमें उस टोले के सब हरिजन सत्संग करते थे।
 एक बार श्रीतहबल दासजी ने दो बड़े विद्वान संन्यासियां से आत्मज्ञान दान के लिए प्रार्थना की थी। उनको (श्रीतहबल दासजी को) हाथ में झाड़ू लिए हुए देखकर उन्हें मेहतर जानकर दोनों संन्यासियों ने आश्चर्यचकित हो उनसे पूछा-‘क्या तुम आत्मज्ञान समझ सकोगे?’ श्रीतहबल दासजी ने कहा-‘यदि सरकार समझा दीजिएगा तो मैं समझ सकूँगा।’ संन्यासियां ने कहा-‘क्या इस विषय में कभी कुछ सुना है?’ तहबल दासजी ने कहा-‘हाँ, सरकार! श्रीगुरुजी के सत्संग में थोड़ा सुना है।’ संन्यासियों ने कहा-‘हमलोगों को ज्ञात नहीं था कि तुमलोगों में भी इस ज्ञान की खोज है। अच्छा, हमलोग अभी अमेरिका जा रहे हैं, लौट आने पर तुमलोगों के दरजे के लोगों में प्रचार करेंगे। अभी तुम अपने गुरु के सत्संग में सुनो और समझो।’
 ईश्वर संबंधी ज्ञान के लिए जाति-पाँति की कोई विशेषता नहीं है। मनुष्य जाति के किसी भी कुल के शरीर में आने पर उस ज्ञान का संस्कार मिटता नहीं।
 भक्ति बीज बिनसे नहीं, आय पड़े जो चोल।
 कंचन जौं बिष्ठा पड़ै, घटै ना ताको मोल।।
      -कबीर साहब
 यह ज्ञान जब किसी एक जन्म में आरम्भ हो जाता है, तो उस ज्ञान को धारण करने और बढ़ाने के लिए पुनः-पुनः मनुष्य शरीर होता है। मनुष्य- शरीर के अतिरिक्त कोई दूसरा शरीर इसको धारण करनेवाला नहीं है। जो परोक्ष आत्म-ब्रह्म-ईश्वर-ज्ञान में भी रत रहता है, वह बारम्बार मनुष्य-शरीर पाते हुए एक दिन अपरोक्ष ज्ञान भी प्राप्त कर लेता है।
तब उसका काम समाप्त हो जाता है। वह संसार में नहीं लौटता, उसको मोक्ष हो जाता है।
 आत्मज्ञान से विहीन केवल शरीर-ज्ञान में रहने के कारण पशुवृत्ति रहती है, इसलिए वह पशु-योनि में जन्म लेता है। जो श्रवण-मनन द्वारा परोक्ष तथा निदिध्यासन और अनुभव द्वारा अपरोक्ष ज्ञान नहीं प्राप्त करता है, उसको मरने पर मुक्ति होगी, इसका विश्वास नहीं करना चाहिए। जीवन- काल की मुक्ति को ही संतलोग मानते हैं। कोई कितना ही वेद-वाक्य जानता हो, ज्ञान का विषय बहुत कण्ठस्थ हो, स्मरण-शक्ति विशेष हो; परंतु इससे ब्रह्म को नहीं प्राप्त कर सकता। जिनको सांसारिक चाहना नहीं है, केवल परमात्म-प्राप्ति की जिनको चाहना है, वह परमात्मा को प्रत्यक्ष पाता है।
 यह जानना चाहिए कि आत्मा से ही परमात्मा का ज्ञान होता है। आँख से कोई शब्द को नहीं सुनता तथा कान से कोई रूप नहीं देखता; उसी तरह एक चेतन-आत्मा के सिवाय और किसी से ब्रह्म को ग्रहण नहीं कर सकते। एक-एक इन्द्रिय के लिए एक-एक विषय है, उसी भाँति चेतन-आत्मा का विषय परमात्मा है।
 मन का काम प्रस्ताव करना तथा संकल्प- विकल्प करना है। मन संकल्प-विकल्प उसका करता है, जिसको उसने कभी देखा-सुना है। जिससे और जिसके सम्बन्ध में कभी कुछ देखा-सुना नहीं है, उसका संकल्प-विकल्प वह नहीं करता। भ्रमवश रस्सी में साँप का देखना तब हो सकता है, जब पहले साँप देखा हो। पहले साँप नहीं देखा हो तो सर्प होने का भ्रम नहीं हो सकता।
 आप इन्द्रिय से काम करते हैं, मन से काम करते हैं। उनमें आप रहते हैं, तब इन्द्रियाँ या मन काम करता है; किन्तु आपका निज काम क्या है? वह अपना निज काम है-ईश्वर या ब्रह्म की पहचान। किंतु शरीर और इन्द्रियों को पहनकर आपका निज काम नहीं होगा। सब ख्याल छूटकर केवल परमात्म- दर्शन की लालसा जिनकी रहती है, उनके मन और बुद्धि का काम छूट जाता है और उनका उपर्युक्त निज काम तभी होता है। मन-बुद्धि से छूटने के लिए अंदर-अंदर चलना होता है। मन-बुद्धि के अंदर ब्रह्म है, किंतु उसे पहचान नहीं सकते। उस ब्रह्म को जना देने के लिए-उसकी प्राप्ति का उपाय बताने के लिए सत्संग का प्रचार है-केवल कथा कहने के लिए नहीं। फिर मैं इसकी आवश्यकता नहीं समझता कि इसके लिए किसमें योग्यता है या नहीं है? सुग्गा पक्षी होते हुए भी मनुष्य की भाषा-राम-राम बोलता है; उसी प्रकार सत्संग में सुनते-सुनते अयोग्यों में योग्यता हो जाएगी। लोग कहते हैं कि जिसको योग्यता नहीं, उसे यह ज्ञान नहीं कहना चाहिए; किंतु जिसको योग्यता नहीं, उसकी योग्यता को कौन बतावेगा। आप (अयोग्यों) को योग्य बना दीजिए।
 पलटू ऊँची जाति का मत कोइ करै हंकार।
 साहब के दरबार में केवल भगति पियार।।
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यह प्रवचन मोरंग मण्डलान्तर्गत श्रीसंतमत-सत्संग मंदिर अमरदह (नेपाल) में दिनांक 4.4.1953 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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54. भौतिक विद्या भी आवश्यक

प्यारे लोगो!
 विद्या की बड़ी आवश्यकता है। विद्या नहीं प्राप्त करनेवाले संसार के कामों को ठीक-ठीक नहीं कर सकते और न वे परमार्थ के कामों को कर सकते हैं; क्योंकि विद्या ही जानने की शक्ति है। विद्या कर्तव्य को जना देती है। विद्या नहीं रहे तो यह जानना नहीं हो सकता। विद्या का अर्थ भी जानना ही है। जो उसको अपनाता है, वह जानकार हो जाता है। जो नहीं अपनाता, वह जानकार नहीं होता है।
 विद्या शब्दमयी है। कोई कुछ जानता है तो शब्द के द्वारा ही। मन में कुछ जानता है तो मनोमय शब्द होता है। इसलिए विद्या पाने के लिए शब्द, उसके प्रयोगों और उसके अर्थों को जानना पड़ता है। संसार में जितने विद्यालय हैं, सबमें शब्द की ही शिक्षा मिलती है। सब कोई शब्द ही सीखते हैं। इस शिक्षा के बिना लोग बहुत बातों को सुनने पर भी समझ नहीं सकते। हमलोगों का जो यह सत्संग है, इसमें भी शब्दों को ही सीखना है। बिना शब्द को जाने सत्संग का विचार नहीं जान सकते। इसलिए जहाँ शब्द को ठीक-ठीक नहीं समझते हैं, वहाँ संतों के वचन भी लोग ठीक-ठीक नहीं समझ सकते। इसलिए कहता हूँ कि आप भी जो बूढ़े ही क्यों न हों, और आपके बाल-बच्चे सबको विद्या सीखनी चाहिए। आप शब्द को अर्थ सहित नहीं जानेंगे तो सत्संग वचन को ठीक-ठीक नहीं समझ सकेंगे। बिना शब्द-ज्ञान के संत के उपदेशों को सुनेंगे, किंतु समझ नहीं सकेंगे। इसीलिए मेरी ओर से आपलोगों को ताकीद है-प्रेरण है कि विद्या सीखो और बच्चों को सिखलाओ। साधारणतः आपलोग अपने-अपने घर में बच्चों को कम पढ़े-लिखे गुरुजी से पढ़वाते-लिखवाते हैं, नहीं से तो यह कुछ अच्छा है, किंतु इससे विशेष काम चलने का नहीं। जो गुरुजी शुद्ध-शुद्ध अपने ही न पढ़ सकते, न लिख सकते हैं, तो वह लड़कों को किस तरह शुद्ध-शुद्ध लिखा-पढ़ा सकते हैं? तब बच्चा नीचे से ही गलत तरह से उच्चारण करेगा और बूढ़ा होते-होते तक भी वह गलती उससे नहीं छूटेगी। इसलिए आपलोगों को ताकीद है कि आपलोग खर्च करें। भोज-भण्डारा में खर्च करते हो, घर बनाने में खर्च करते हो, मुकदमा करने में खर्च करते हो; किन्तु विद्या के लिए खर्च नहीं करते-यह ठीक नहीं। योगशिखोपनिषद् में आदेश है-
 योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः।
 योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ।।
 तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत् ।।
 योग-हीन ज्ञान और ज्ञान-हीन योग; दोनों मोक्ष कार्य में असमर्थ हैं। योग कहते हैं, मनो- निरोध करने को वा मन को एकाग्र करने को। मन अनेक विषयों में दौड़ता रहता है, एक पर स्थिर नहीं रहता। मन की चंचलता छोड़ देने योग्य है। इसी को मन की एकाग्रता कहते हैं। इसी को चित्तवृत्ति-निरोध कहते हैं। मन को एकओर लगाओ, इधर-उधर मन बहके नहीं, यह योग है। ऐसा क्यों करो? मन की चंचलता में शान्ति नहीं आती है। जब शांति नहीं आती तो सुख नहीं होता। अशांत को सुख कभी नहीं होता, चाहे वह कोई हो- पढ़ा-लिखा हो, अनपढ़ हो, व्यापारी हो, या खेती करनेवाला-कोई हो, यदि उसका मन अशांत है, तो उसको सुख नहीं होता। साधु-संत-महात्मा कहते हैं-‘जिससे सुखी रहो, वह उपदेश देता हूँ। मन को एकाग्र करो, सुखी होओगे।’
 लोग समझते हैं कि विशेष धन हो और लोगों पर हुकूमत हो जाय, इन्द्रिय के भोग मिलें तो सुखी होऊँ, िंकन्तु ऐसा हो नहीं सकता। किसी को भी धन, हुकुमत और इन्द्रिय-भोग में सुख नहीं होता। सुख मन की एकाग्रता में है, चंचलता में सुख नहीं है। मन की एकाग्रता में जो शान्ति मिलती है, उसके साथ-साथ और बातें हैं। मन एकओर लगा रहता है, चंचल नहीं होता। जैसे आपकी देह स्थिर रहे तो आपको आराम मालूम होता है, दौड़ने चलने से दुःख मालूम होता है, उसी तरह मन स्थिर रहने से सुख होता है। सुखी होने के लिए बाहर का सामान नहीं चाहिए। अपने अंदर मन को समेटो। स्थिरता का स्वरूप बिल्कुल ऐसा होना चाहिए कि थोड़ा-सा भी फैलाव न रहे। ऐसा सिमटाव हो कि एक ऐसा रूप पकड़ ले, जिसमें बाँट न हो-फैलाव न हो। इतना होने में पूर्ण सिमटाव होगा। किसी देवता या इष्ट के रूप पर मन लगाने से उसके हाथ, पैर, मुँह आदि पर मन दौड़ता है। चेहरा देखने से पैर नहीं देखा जाता, इसलिए कभी चेहरा देखते हैं और कभी पैर। इसमें भी च०चलता रहती है। मानो और ख्याल छूट गए, किन्तु एक ही रूप में भी मन की चंचलता नहीं गई। कबीर साहब के वचन में है-
 गगन मण्डल के बीच में, तहवाँ झलके नूर ।
 निगुरा महल न पावई, पहुँचेगा गुरु पूर ।।
 ठीक-ठीक बीच कितना बड़ा होता है? किसी मण्डल का बीच केवल एक ही विन्दु होगा। विन्दु से बड़ा करने से ठीक-ठीक बीच नहीं होगा। वह किसी ओर विशेष और किसी ओर कम होता। किन्तु छोटे-से-छोटा र्चिं विन्दु है, उसमें फैलाव नहीं है। मन की एकाग्रता के अभ्यास को क्रमशः धीरे-धीरे करते-करते मन एकाग्र होता है। मन का फैलाव शरीर और इन्द्रियों में है। इसका सिमटाव होने से ऊर्ध्वगति होती है। ऊर्ध्वगति होने से ऊपरी दर्जे की बात मालूम होती है। मालूम होते-होते सबसे ऊँचे दर्जे की बात मालूम होती है। बढ़ते-बढ़ते वहाँ तक जाता है, जिसके आगे और कुछ नहीं है। वही परमात्मा है। संसार में तो एक पदार्थ के ऊपर दूसरा और फिर उसपर तीसरा होता है, किन्तु परमात्मा के ऊपर कुछ नहीं है। योग में एकाग्रता होती है, शान्ति होती है, ऊर्ध्वगति होती है, ऊर्ध्व- गति में परमात्मा की प्राप्ति होती है और इसी में मुक्ति है। शान्ति, मुक्ति और परमात्मा की प्राप्ति योग में है। योगशिखोपनिषद् में कहा गया है कि योग और ज्ञान दोनों सीखो। एक के बिना दूसरा अपूर्ण है। ज्ञान कहते हैं जानने को। कोई बिना जाने कुछ करेगा तो वह जो नहीं लेने का, वह भी ले लेगा! ऊर्ध्वगति में साधक ऊपर उठता है। प्रत्येक मण्डल में उस मण्डल के अनुकूल उसको शक्ति मिलती है। यदि नीचे दर्जे में ही फँसकर रह जाय, तो परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए ज्ञान सीखने को कहा। गुरु महाराज ने कहा है-‘सत्संग करो।’ इसमें ज्ञान की शिक्षा होगी। फिर कोई केवल ज्ञान में लगे रहे-योग नहीं करे तो प्राप्तव्य वस्तु प्राप्त नहीं होगी। जैसे केवल आम-आम कहने से न तो आम मिलता है और न उसका स्वाद या मजा ही।
 ज्ञान दो तरह के होते हैं-परोक्ष और अपरोक्ष। इसलिए ज्ञान और योग; दोनों का अभ्यास नित्य करना चाहिए। सत्संग से ज्ञान का साधन होता है। यह थोड़ी देर सबको करना चाहिए। जैसे भाँग पीने से नशा होता है, उस नशे में जबतक कोई रहता है-नशे में रहने से जो करना चाहिए, वही वह करता है, उसी प्रकार सत्संग वचन मन में रहने से सत्संग में जो काम होना चाहिए-वह काम होगा। इस सत्संग-वचन का नशा छूटने से वह अपकर्म भी करने लगता है, किंतु जो सत्संग-वचन के नशे में रहता है, उससे अपकर्म नहीं होता।
 योग तीनों काल करें। हमलोगों के यहाँ त्रयकाल संध्या प्रसिद्ध है-भोर में, दिन में स्नान के बाद और फिर संध्याकाल। संध्या का अर्थ है-सन्धि करना। परमात्मा की ओर अपनी वृत्ति को जोड़ना, मेल करना संध्या है। इसी में एकाग्रता है। इसका यत्न जाने और त्रयकाल संध्या करे। तब बढ़ते-बढ़ते बढ़ेगा। योग-अभ्यास करने से डरना नहीं चाहिए कि इसके लिए घर छोड़ना पड़ेगा या अँतड़ी धोनी पड़ेगी। अँतड़ी को धोना तो कम खाना है। कम खाइए, आलस्य नहीं आवेगा। मुक्ति के विषय में जानना चाहिए कि मरने पर जो मुक्ति होती है, वह मुक्ति नहीं है। जीवनकाल में ही मुक्ति हो जाय; जैसे लवण समुद्र में घुलकर एक हो जाता है-उसी प्रकार परमात्मा से मिलकर एक हो जाओ, वही मुक्ति है। किसी लोक-ब्रह्मलोक, विष्णुलोक या शिवलोक में जाना, असल में मुक्ति नहीं है। जिस ख्याल से उसको मुक्ति कहते हैं, उसको चार दर्जे में बाँटते हैं-सालोक्य-उपास्यदेव के लोक की प्राप्ति; सामीप्य-उपास्यदेव की समीपता प्राप्त करनी; सारूप्य-उपास्यदेव के शरीर सदृश रूप प्राप्त करना और सायुज्य-उपास्यदेव के साथ युक्त होना अर्थात्् उपास्यदेव के शरीर से भिन्न अपना दूसरा शरीर नहीं रखना। किन्तु पहले जो मैंने कहा है, वह ब्रह्मनिर्वाण मुक्ति है। ब्रह्मनिर्वाण उसको कहते हैं, जिसमें न तो आपकी देह और न इष्टदेव की देह रहे, आत्मा से आत्मा युक्त हो जाय। वह ब्रह्मनिर्वाण मुक्ति है। असली मोक्ष यही है। और लोक-लोकान्तरों से इस नरलोक में पुनः पुनः जाना-आना पड़ता है; किन्तु ब्रह्मनिर्वाण में आना-जाना नहीं होता। जीवनकाल में मुक्ति असली मुक्ति है। मरने पर जो मुक्ति होती है, वह मुक्ति नहीं है। जिस प्रकार भोजन करनेवाले को स्वयं मालूम होता है कि मेरा पेट भर गया या रोगग्रसित होनेवाले को रोग छूटने से स्वयं मालूम होता है कि मैं रोगमुक्त हो गया और कैदखाने से छूट जाने पर कैदी को मालूम होता है कि मैं कारागार से मुक्त हो गया; उसी प्रकार जीवनकाल में ही महाभाग्यवान भजनीक महापुरुष को भजनान्त में निजी प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है कि मैं मायिक आवरणों से छूट गया हूँ-जीवनमुक्त हूँ। इस तरह इसलिए कहा जाता है कि संतों की वाणी में ऐसी ही दृढ़ता से कहा गया है। जिस जीवनकाल में ऐसा मालूम नहीं हुआ, साधन करता रहा, तो फिर मनुष्य शरीर मिलेगा और भगवान श्रीकृष्ण के कहे अनुकूल अनेक जन्मों के अनन्तर वह मुक्ति प्राप्त कर लेगा।
 मरने के समय पाशविक भावना रहने से उस पशु-भावना के अनुकूल शरीर मिल जाय, इसमें कोई संशय नहीं। आपलोग सुने होंगे कि राजा भरत राज्य छोड़ जंगल तप करने गए थे। एक हिरणी के बच्चे को प्यार से पालते थे। वह बच्चा जंगल में भाग गया तो उनका ख्याल उसी हिरणी के बच्चे पर लगा रहता था। मरने के समय उनको वह ख्याल बना रहा तो पुनर्जन्म में उनको हिरण का शरीर मिला। इससे मालूम होता है कि मरने के समय जो भावना होगी, उसी के अनुकूल शरीर होगा। जो भावना जीवनकाल में बहुत होती है, मरने के समय वैसी भावना हो-यह संभव है। किन्तु जो भावना जीवनकाल में नहीं हो, वह भावना मरने के समय हो-यह संभव नहीं। अब आप अपनी भावना चुन लीजिए। मुक्ति नहीं मिले तो यही भावना रहे कि मरने के समय ध्यान-भजन करते रहें। दूसरी भावना रहने से और शरीर मिलेगा, जैसे राजा भरत को। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-
   प्र्रयाण काले मनसा चलेन भक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव।
   भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।
       -गीता, अध्याय 8/10
 अर्थात् जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से, भक्ति से सराबोर होकर और योगबल से भृकुटी के बीच में अच्छी तरह प्राण को स्थापित करता है, वह दिव्य परम पुरुष को पाता है। इसके पहले भगवान ने कहा है-
     कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
     सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।। -गीता, अध्याय 8/9
 कहकर विन्दु रूप का वर्णन किया और कहा कि जो अंधकार के पार में आदित्य वर्ण का अणु- से-अणु रूप है अर्थात् विन्दु रूप है, उसका ध्यान करो। यह परमात्मा की दिव्य माया है। किंतु इस दिव्य माया रूप का उपासक स्थूल माया के ऊपर उठा रहेगा। इसका साधन बराबर कीजिए कि मरने के समय इसी तरफ मन फिरे। नहीं तो विशेष दुर्गति होगी। मरने के समय आपकी पवित्र भावना हो। मनुष्य-देह पाने से भी वह मनुष्य-शरीर मिले, जिसमें अध्यात्मज्ञान मिले। बिना अध्यात्मज्ञान जाने मनुष्य शरीर किस काम का?
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यह प्रवचन मोरंग मण्डलान्तर्गत ग्राम-सिजुआ (नेपाल) में दिनांक 4.4.1953 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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55. मनुष्य शरीर में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है

प्यारे लोगो!
 मनुष्य का शरीर अद्भुत है। अज्ञानी लोग ख्याल करते हैं कि यह शरीर केवल मांस, हड्डी, चर्म आदि का समूह है, परंतु विशेषज्ञ जानते हैं कि इतना ही नहीं है। केवल स्थूल ज्ञान में रहनेवाले जो जानते हैं, वह तो प्रत्यक्ष है; किन्तु इस प्रत्यक्ष के अन्दर अप्रत्यक्ष भी है, उसे विशेषज्ञ और सूक्ष्मदर्शी जानते हैं। स्थूलदर्शी दो तरह के होते हैं-एक विद्या-बुद्धि में बढ़े लोग और दूसरे विद्या-बुद्धि में कम और हीन। अच्छे- अच्छे डॉक्टर शरीर के भीतर को जानते हैं, किन्तु उसके स्थूल अंशों को ही। इसके अतिरिक्त जो अधिक जाननेवाले हैं, वे जानते हैं कि शरीर के अन्दर स्थूल भाग के अतिरिक्त सूक्ष्म भाग भी है, जो डॉक्टरी यंत्र से नहीं जाना जाता। कोई केवल पढ़-सुनकर, समझकर जानते हैं, दूसरे सुन-समझ और प्रत्यक्ष पाकर जानते हैं। उन लोगों के ज्ञानानुसार यह शरीर विचित्र है। विश्व ब्रह्माण्ड में जो सब तत्त्व हैं, शरीर में भी वे सब ही हैं। यदि अपने अन्दर सूक्ष्मतल पर कोई जाय, तो उसको सूक्ष्मतल पर का सब कुछ वैसा ही मालूम होगा, जैसा स्थूल तल पर रहने से उस तल का सब कुछ मालूम होता है। स्थूल तल पर आप दूर तक देखते हैं और विचरण करते हैं; उसी प्रकार सूक्ष्मतल पर आरूढ़ हुआ दूर तक देख सकता है और विचरण कर सकता है। स्थूल तल पर रहने से आपको मालूम होता है कि स्थूल शरीर में रहता हूँ और स्थूल संसार में काम करता हूँ। उसी प्रकार आप अपने सूक्ष्म तल पर रहें तो मालूम करेंगे कि सूक्ष्म शरीर में हूँ और सूक्ष्म संसार में विचरण करता हूँ, काम करता और देखता हूँ।
 ब्रह्माण्ड लक्षणं सर्व्व देहमध्ये व्यवस्थितम्।
     - ज्ञानसंकलिनी तंत्र
 सकल दृश्य निज उदर मेलि सोवइ निद्रा तजि योगी।
      -गोस्वामी तुलसीदासजी
जो जग घट घट माहिं समाना।घट घट जग जीव माहिं जहाना।।
 पिण्ड माहिं ब्रह्माण्ड, ताहि पार पद तेहि लखा।
 तुलसी तेहि की लार, खोलि तीनि पट भिनि भई।।
      -तुलसी साहब
 सागर महिं बुंद बुंद महि सागरु, कवणु बुझै विधि जाणै।
 उतभुज चलत आपि करि चीनै, आपे ततु पछाणै।।
       -गुरु नानक साहब
 बूँद समानी समुँद में, यह जानै सब कोय।
 समुँद समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय।।
      -कबीर साहब
 सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड शरीर में है और सब देवता भी इस शरीर के अंदर हैं। आँख में चन्द्रसूर्य का, कान में दशों दिशाओं का, नाक में अश्विनी कुमार का, मुँह में अग्निदेव का, जिभ्या में वरुण का, हाथ में इन्द्र का और पैर में उपेन्द्र ( वामन-वामन अवतार में श्रीविष्णुदेव ने उन्हीं के यहाँ अवतार लिया, जिनके यहाँ इन्द्र ने अवतार लिया था। इन्द्र पहले जन्मे थे और ये पीछे, इसलिए उपेन्द्र कहलाए। ) का वासा है। पुनः मूलाधारचक्र (गुदाचक्र) में गणेश का, स्वा- धिष्ठान (लिंग) चक्र में ब्रह्मा का, मणिपूरक (नाभि) चक्र में विष्णु-लक्ष्मी का, अनाहत (हृदय) चक्र में शिव-पार्वती का, विशुद्ध (कण्ठ) चक्र में सरस्वती का, षटचक्र (आज्ञाचक्र) में शिव का वासा है और परमप्रभु परमात्मा भी इसी शरीर में विराजमान हैं, जो अन्दर के सब मायिक स्थानों के परे केवल चेतन आत्मा को प्रत्यक्ष ज्ञान में आने योग्य हैं। इस प्रकार का वर्णन संतवाणी में पाया जाता है। उर्पयुक्त वर्णनानुसार परमप्रभु परमात्मा के सहित सब देव अन्दर में हैं-
 देहस्थाः सर्व्वविद्याश्च देहस्थाः सर्व्वदेवताः।
 देहस्थाः सर्व्वतीर्थानि गुरुवाक्येन लभ्यते।।
         - ज्ञानसंकलिनी तंत्र
 किन्तु इसको वही देखेगा, जो अपने अन्दर में प्रवेश करेगा। भीतर जाने का मार्ग जानिए। यह कैसे जाना जाएगा? गुरु उपदेश से। इसलिए गुरु की आवश्यकता है। गुरु मुँह से कहेंगे और देखेंगे तो साधना के द्वारा आप ही, जब गुरु के कहे अनुकूल साधन करेंगे। कोई कहे कि ये सब ख्याल-ही-ख्याल हैं, यथार्थ में नहीं, तो कहनेवाले कहते हैं कि तुम अभ्यास करके देख लो। अभ्यास करने पर तुमको मालूम नहीं हो, तब झूठा बनाओ। वैज्ञानिक ने कहा कि हाइड्रोजन और ऑक्सीजन मिलाने से पानी होता है। कोई कहे-झूठा है, तो दोनों गैसों को मिलाकर देखो कि होता है कि नहीं। उसी प्रकार संतों की युक्ति के अनुकूल साधन करो-अवश्य देखा जाएगा। भीतर का काम, जो भीतर में होता है, वह दिखाया नहीं जा सकता। स्वयं करके देखा जाएगा। जो करने का काम है, उसे नहीं करते हैं और कहते हैं कि नहीं होता है। इस तरह कहना अयोग्य है। संतवाणी में जैसी युक्ति बताई गई है, उस युक्ति से करके देखिए, तब यदि देखने में नहीं आवे, तब झूठा कहिए।
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यह प्रवचन मोरंग मण्डलान्तर्गत श्रीसंतमत-सत्संग मंदिर झुरकिया (नेपाल) में दिनांक 8.4.1953 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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56. मानस रोगों से मुक्ति

प्यारे धर्मप्रेमी सज्जनो!
 देह की बीमारी को लोग प्रत्यक्ष देखते हैं और अपने शरीर में पाते हैं। साधु-संत कहते हैं-सब बीमारियों से आप छूटें, अच्छी बात है, किन्तु बीमारी सिर्फ आपकी देह में है या और भी कहीं है? आपके मन में भी काम है, जैसे आपकी देह में बीमारी होती है। किसी को कोई देह की बीमारी हो, परन्तु मन अच्छा हो तो वह खुश रह सकता है। किन्तु मन बीमार हो और शरीर अच्छा हो तो वह खुश नहीं रह सकेगा। देह की बीमारी आपकी छूट जाय, अच्छी बात है। कोई कह नहीं सकता कि मेरे मन में बीमारी नहीं है। अज्ञ लोग भले ही कहें कि मेरे मन में बीमारी नहीं है, किन्तु ज्ञानी लोग कहेंगे कि मन बीमारियों से भरा है। मोह अर्थात् अज्ञानता सब रोगों की जड़ है। नहीं जानना अज्ञानता है। क्या नहीं जानते हैं? तो अब यह सोचिए कि जानना कितने तरह का होता है? उत्तर है कि ये दो तरह के होते हैं-एक पढ़-सुनकर जानना और दूसरा पहचान कर जानना। पढ-़सुनकर जानना पूरा जानना नहीं है, पहचानकर जानना पूरा जानना है। साधु-संत कहते हैं कि अपने को तुम जानते हो कि तुम शरीर में हो, किन्तु क्या तुम अपने को पहचानते हो? अपने को जानते हो, परन्तु अपने को पहचानते नहीं। इस तरह स्वज्ञान नहीं होने की अज्ञानता या मोह में अपनी देह को ही कहते हो कि मैं यही हूँ। देह अवश्य छूट जाएगी। देह छूटने को लोग मर जाना कहते हैं।
 हमलोगों के धर्मशास्त्र के अनुकूल, मरने पर श्राद्ध-क्रिया होती है। इससे विश्वास यह होता है कि मरनेवाली देह है। इसमें रहनेवाला इसे छोड़कर कहीं चला गया है। उसकी अच्छी गति हो, इसलिए लोग श्राद्ध करते हैं। अपनी देह को भले पहचानते हो, किन्तु अपने को नहीं पहचानते और अपनी देह को ही अपने तईं जानते हो, यह है मोह। इसी देह की पहचान की सबब से देह के सरोकार में जितनी चीजें, पशु और आदमी आदि आते हैं, उनसे सम्बन्ध हो जाता है, उनमें ममता हो जाती है। यह मोह का तमाशा है। इसी मोह-ममता के कारण अहंकार, क्रोध, लोभ, काम, द्वेष, ईर्ष्या आदि मन के सब रोग उत्पन्न होते हैं। और इन मानस रोगों में पड़कर पाप और कसूर; दोनों करते हैं। पाप उसको कहते हैं, जिसकी सजा परमात्मा देते हैं और कसूर उसको कहते हैं, जिसकी सजा राष्ट्रीय सरकार देती है। बहुत-से कसूर और पाप, इन विकारों में फँसकर होते हैं। एक मोह से ही बड़े-बड़े पाप हो जाते हैं। अज्ञानता-अविद्या सब मन के रोग हैं। इन्हीं रोगों में रहकर मन रोगी रहता है। किसी देश के चिकित्सालय में इसकी इलाज नहीं है। इसकी इलाज सत्संग में होता है। इसकी औषधि वचन है, जिसमें ज्ञान है। अज्ञान को ज्ञान से साफ किया जाता है। कोई औषधि ऐसी है, जिससे रोग को दबा दिया जाता है, किन्तु वह मूल से नष्ट नहीं होता।
जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी।।
 मानस रोगों को जड़ से नष्ट करने के लिए साधु लोग जानते हैं। वे उसकी युक्ति बतलाते हैं-उस युक्ति से रोग को जड़ से उखाड़ देते हैं। पहले कहा जा चुका है कि ये सब काम, क्रोध, लोभ, मोहादि रोग हैं। संसार में कौन कहेगा कि मैं कामी, क्रोधी, लोभी मोही आदि नहीं हूँ? किसी का तो प्रकट हो जाता है कि फलाँ महा- क्रोधी है, फलाँ महालोभी है; कोई इन रोगों को छिपाकर रखते हैं। पहले मोह, काम, क्रोधादिक को मानस रोग कहकर जानो, जिससे ये कुछ भी हटे। फिर समूल नष्ट करने के लिए जानना। इन रोगों को समूल नष्ट करने के लिए ईश्वर का भक्त बनना चाहिए। ईश्वर का दर्शन अपने अंदर होता है, बाहर में नहीं। बाहर मायिक दृष्टि से देखा जाता है। ईश्वर इस दृष्टि से देखा नहीं जा सकता। अंतर की आत्मदृष्टि से देखा जाएगा। किसी की खोज लोग आँख और कान से करते हैं। कोई बोलता तो नहीं है, कान से सुनते हैं। फिर देखते हैं कि कौन बोलता है? इसी तरह ईश्वर की खोज अपने अंदर संवित् या सुरत के द्वारा देखने और सुनने से करनी चाहिए। सबके अन्दर में ब्रह्मज्योति और ब्रह्मनाद अवश्य है; क्योंकि सर्वव्यापी ब्रह्म की ये विभूतियाँ, परमात्मा ब्रह्म के सहित सबमें व्यापक होकर रहें, इसमें संशय नहीं है। ब्रह्मनाद, ब्रह्मज्योति के दर्शन के बिना सुना नहीं जा सकता। पहले बिजली की चमक देखते हैं, फिर बादल का गर्जन सुनते हैं। ईश्वर का पता लगाने के लिए पहले ईश्वर का प्रकाश देखो, फिर उनका शब्द पकड़ो। वह शब्द सबके अन्दर होता है, किन्तु लोग उसे सुन नहीं पाते। सुरत अन्दर की ओर नहीं होती, इसलिए आवाज सुन नहीं सकते। संतों का कहना है कि अपने अन्दर में जैसे-जैसे प्रवेश करोगे, वैसे-वैसे ब्रह्मज्योति और ब्रह्मनाद की अनुभूतियाँ पा सकोगे। दिव्यदृष्टि अन्तर में देखते-देखते खुलती है। अंतर में कोई साधन करें-ईश्वर के तेज को देखें तो उनके विकार दूर हो जायँ। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में लिखा है-
जब तें राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतेन्ह मन सोका।।
जिन्हहिं सोक ते कहउँ बखानी। प्रथम अविद्या निसा नसानी।।
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने।।
विविध कर्म गुण काल सुभाउ। ये चकोर सुख लहहिं न काउ।।
मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कबनिहुँ ओरा।।
धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना। ये पंकज बिकसे विधि नाना।।
सुख संतोष विराग विवेका। विगत सोक ये कोक अनेका।।
 यह प्रताप रवि जाके , उर जब करइ प्रकास।
 पिछले बाढ़हिं प्रथम जे, कहे ते पावहिं नास।।
 जिसकी दिव्यदृष्टि खुलती है, वह परमात्मा- राम-ब्रह्म का परम प्रताप विभूति-रूप प्रबल दिनेश का दर्शन पाता है और वह तीनों लोकों को भी अंदर में देखता है और उसके सब मानस रोग समूल नष्ट हो जाते हैं। केवल सुनकर-पढ़कर अज्ञानता दूर नहीं होती। अन्दर में ध्यान करने से राम का प्रबल प्रकाश पाता है। सूर्य से बड़ा तेज कुछ भी नहीं होता। ब्रह्म का प्रकाश सब प्रकाशों से बढ़कर है। पहले प्रकाश का कुछ तेज, फिर उससे विशेष तेज-फिर और उससे भी विशेष तेज देखने में आता है, जिससे विशेष तेज नहीं हो सकता। उसको देखनेवाले की अज्ञानता दूर हो जाती है। पाप-कर्म सब भाग जाते हैं, वह पाप-कर्म की ओर नहीं जाता। काम, क्रोध, लोभ, मोह,तृष्णा, पाखण्ड आदि भाग जाते हैं उस सूर्य के दर्शन से। कथित सूर्य-दर्शन से विहीन कितना ही ज्ञान-ध्यान की बातें कहे, किन्तु उसके अन्दर से विकार दूर नहीं होता। अपने अंतर में साधन करे, ब्रह्म-प्रकाश को देखे, तो सब विकार दूर हो जायँ। भजन और सत्संग करो, यही इसकी चिकित्सा है।
 बाहर की दवाई से मानस रोग नहीं छूटते। केवल बाहरी सत्संग से मानस रोग कम हो सकता है, किंतु बिल्कुल नष्ट नहीं होता। इसको नष्ट करने के लिए जो ब्रह्म-तेज का दर्शन करे तो वह नष्ट होगा। अपने को अन्दर में ले चलो। इसके लिए गुरु करो और युक्ति जानकर अभ्यास करो, तो मानस रोग से मुक्त होकर कान्तिमय सुख मिल जाएगा।
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यह प्रवचन मोरंग मण्डलान्तर्गत श्रीसंतमत-सत्संग मंदिर डाइनियाँ (नेपाल) में दिनांक 16.4.1953 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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57. चिट्ठी आधी मुलाकात होती है

प्यारी धर्मानुरागिनी जनता!
 संत अथवा सत्जन-सत्पुरुषों के संग का नाम सत्संग है। साधारणतया लोग अच्छे आचरणवाले को- शीलता से बरतनेवाले को सज्जन कहते हैं। संत भी ऐसे ही होते हैं; किन्तु कुछ विशेषता यह कि-
अमित बोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कवि कोविद योगी।।
 अर्थात् वे अति विशेष ज्ञानवान, इच्छारहित, अल्पभोगी, सत्य के साररूप, कवि, विद्वान और योगी होते हैं।
 यह बहुत बड़ी बात है। इतने गुणोंवाले लोगों की पहचान होना कोई साधारण बात नहीं। सीधी बात में, शान्ति प्राप्त करनेवाले को संत कहते हैं। शान्ति प्राप्त कर लेने के लिए जबतक कोशिश है, तबतक संत नहीं। अपरिवर्तनशील और पूर्णरूपेण हलचल से मुक्त पदार्थ को शान्ति कहते हैं। इस शान्ति को जो प्राप्त करते हैं, वे संत कहलाते हैं। इस प्रकार का पदार्थ परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं। आशय यह कि परमात्मा को जो प्राप्त करते हैं, वे संत कहलाते हैं।
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।
 अर्थात् परे-से-परे को (परमात्मा को) देखने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है; सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।
संत के लिए यह उपनिषद्-वाक्य प्रत्यक्ष है। इस उपनिषद्-वाक्य के अनुकूल जिनमें कोई कोर-कसर नहीं, वे संत हैं। जिनके जड़-चेतन की ग्रन्थि खुल गयी है, वे सन्त हैं। इस शरीर के अन्दर चेतन है। शरीर तो जड़ है ही। इन दोनों की गिरह जिनकी खुल गई, कर्म-मण्डल के ऊपर जिनकी चढ़ाई हुई, वे ही परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन पाते हैं, वे ही संत हैं। बड़े विद्वान को बड़े विद्वान ही जान सकते हैं कि बड़े विद्वान हैं। उसी प्रकार संत को संत ही पहचान सकते हैं। संत की पहचान अत्यंत दुर्लभ है। हमारा अख्तियार नहीं कि इनको पहचानें। फिर सत्संग कैसे करें? गुरु महाराज ने कहा-साधारणतः लोग कहते हैं कि चिट्ठी आधी मुलाकात होती है। चिट्ठी में अपना-अपना ख्याल लिखते हैं, लेकिन रहते हैं दूर-दूर में। इस प्रकार चिट्ठी से भी किसी के ख्याल जानते हैं, गोया भेंट हो गई। याज्ञवल्क्य, रामानुज, गोस्वामी तुलसीदास, कबीर साहब आदि संत गुजर गए हैं। आज ऐसे बहुत कम लोग होंगे, जिनको कि विश्वास नहीं होगा कि ये लोग संत नहीं थे। इन संतों की वाणी को पढ़ो, सुनो, समझो और समझाओ-वही सत्संग है। इसलिए मैं जहाँ जाता हूँ, संतों की वाणी का पाठ करता हूँ या कराता हूँ। फिर उस वचन को समझने और समझाने की कोशिश करता हूँ। इसलिए आपलोगों के सामने कबीर साहब, गुरु नानक साहब, गोस्वामी तुलसी- दासजी, सूरदासजी, पलटू साहब-पाँचों संतों की वाणी का पाठ कराया। एक ही संत के वचन से काम चल सकता था; किंतु एक ही तरह की बात यदि अन्य संत कहें तो यह बात बहुत मजबूत हो जाती है, विश्वास दृढ़ हो जाता है। हमारे यहाँ कई पंथ हैं, कई धर्म के दल हैं। कोई कबीरपंथी, तो कोई नानकपंथी, कोई गाणपत्य, तो कोई शैव हैं। अनेक संप्रदायों के कारण लोगों के मन में होता है कि इन संतों के विचार अलग-अलग हैं। इस प्रकार जो जिन संत के सम्प्रदाय को अपनाते हैं, उसे विशेष कहा करते हैं। इस व्यवहार से आपस में कटुता, वैमनस्य हो जाता है। इस कटुता को दूर हटाने के लिए आवश्यक है कि अनेक संतों के विचारों को जानो। यदि विचार मिल जाय तो कटुता आप ही दूर हो जाएगी। कटुता से जो वैमनस्य होता है, वह दूर हो जाएगा। आपस में मेल होगा, घर में मेल, गाँव में मेल, देश में मेल होगा। इसलिए संतों ने कहा कि सभी संतों की वाणियों को जानो। संतों की सबसे बड़ी बात है-एक ईश्वर को मानना।
 संगति ही जरि जाव, न चर्चा राम की।
 दुलह बिना बारात कहो किस काम की।।
जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू । जहँ नहिं राम प्रेम प्रधानू।।
 एक ईश्वर की विशेषता उड़ा दो, तो संतों के वचन का सार उड़ जाएगा। पूर्वकाल में भी ऐसे आदमी थे और आज भी हैं, जो ईश्वर के होने में सन्देह किया करते हैं। वे ईश्वर को व्यक्त रूप में जानना चाहते हैं। उनके लिए बात यह है कि तुम पहले भौतिक विज्ञान की ओर सोचो। पहले प्रयोग द्वारा प्रत्यक्ष की गई वस्तु को अथवा उसके लिए पहले कुछ सोचा गया, विचारा गया कि ऐसा होना संभव है कि नहीं? बिना सोचे-विचारे प्रयोग नहीं होता। पहले सोचना-विचारना होता है, तब फिर प्रयोग होता है। इसी तरह ईश्वर के लिए पहले सोच-समझ लीजिए। कितने कहते हैं कि ईश्वर सोच-समझ से बाहर है। इसलिए श्रद्धा से मान लो। कितने ऐसे हैं कि श्रद्धा से मान लेते हैं। हमारा देश तो ऐसा है कि बच्चे के मुँह से ही राम-राम, शिव-शिव, वाह-गुरु कहलाना आरंभ कर देते हैं। उस समय बच्चा ‘राम-राम’ कहता है, किंतु जानता नहीं कि ‘राम-राम’ क्या है? कोई तर्क भी नहीं, जैसे बच्चे को गुरुजी ने कहा-यह ‘अ’ है, लड़के ने सीख लिया। कोई तर्क नहीं किया। जैसे उसको कहा गया, वैसे सीख लिया। इस श्रद्धा से भी काम चलता है; किन्तु अन्धी श्रद्धा गड्ढे में गिराती है। ज्ञानवान अंधी श्रद्धा लेकर नहीं चलें। बचपन में राम-राम कहा, अब उम्र आयी है समझने के लिए कि राम क्या है और प्रयोग द्वारा जाना जाएगा कि राम क्या है। जो जैसी वस्तु है, उसके लिए प्रयोग भी वैसा ही होना चाहिए। संतवाणी में पढ़ते हैं कि राम-राम क्या है। राम-नाम का रामानंद स्वामी ने विशेष प्रचार किया। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी राम-नाम का बहुत जोर से प्रचार करवाया।
राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अविगत अलख अनादि अनूपा।।
 पारमार्थिक स्वरूप मायिक स्वरूप नहीं है।
सकल विकार रहित गत भेदा। कहि नित नेति निरूपहिं वेदा।।
 सर्वव्यापी वह है, जो कहीं से भी खाली नहीं। वही परमार्थस्वरूप है।
 देखिय सुनिय गुनिय मन माहीं। मोह मूल परमारथ नाहीं।।
 जो कान के सुनने से बाहर है, जो आँख से देखने योग्य नहीं है; मन से जो छुआ नहीं जाता है, वह परमार्थ-स्वरूप है।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 इन्द्रियों के परे निर्विषय तत्त्व परमार्थ है; राम वही है। देश-काल से परे पदार्थ असीम होगा वा सीमावाला? जिसके पहले कुछ नहीं है, वही अनादि होगा। वही सबसे प्रथम का होगा, उसके पहले का कुछ नहीं होगा। कितना भी विचार करो, दार्शनिक दृष्टि या विज्ञान के विचार से देखो, एक पदार्थ सबसे पहले का जो अनादि है, वह होगा। इसलिए-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।
 देश-काल के अन्दर और बाहर एक अनादि अनन्त तत्त्व है या नहीं? निर्णय करने पर ऐसा अवश्य है, ऐसा जानने में आता है। यद्यपि बुद्धि से नहीं जान-पहचान सकते, फिर भी बुद्धि निर्णय कर देती है कि एक पदार्थ अनादि अनन्त अवश्य है, असीम पदार्थ एक अवश्य मानना पड़ेगा। सब ससीमों को जोड़कर भी असीम नहीं हो सकता। ससीमों के पार अनन्त,असीम के कहे बिना बुद्धि को संतोष नहीं होता। सभी संतों ने परमात्म-स्वरूप को असीम बताया है। चाहे वेद, शास्त्र, पुराण, उपनिषद् वचन-कहीं देखो। यदि कहो कि जो अनादि अनंत है, उसको ईश्वर क्यों मानें? तो उत्तर में कहा जाएगा कि जिसके अन्दर सब हैं, तो उसका प्रभुत्व उन सब पर है। इसलिए वह सबका ईश्वर है। फिर कहा-माना कि वह सबका ईश्वर है, फिर उसकी भक्ति क्यों करो? मैंने कहा-संसार में रहते संसार के पदार्थ को एकत्रित करते-करते बहुत लोग संसार से चले गए। संसार के भौतिक पदार्थ को संचित करनेवाले क्या चीज लेकर संसार से गए? असंतुष्टि लेकर। यह सबके लिए है। चाहे तैमूरलंग हो, महमूद गजनवी हो या पृथ्वीराज हो अथवा आज के लोगों को देखिए, स्वयं अशांत हैं और लोगों को अशान्त करते हैं। लोगों को भी लूटकर सुख करें, ऐसी इच्छावाले लोगों की यह हालत होती है। वर्षों लड़-झगड़कर स्वराज्य प्राप्त किया; किंतु सुख कहाँ? हमारा देश कंगाल है, किंतु तमाम संसार के हाल को देखो, क्या होता है? शेख सादी ने कहा था कि जो बहुत लालची है, उसकी आँख संसार-भर की दौलत से वैसे ही नहीं भरती, जैसे शीत से कुआँ नहीं भरता।
बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहु नाहीं।।
रामभजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल विहीन तरु कबहुँ कि जामा।। -रामचरितमानस
 इसलिए संतों ने जोरों से कहा कि ईश्वर है, उसको पकड़ो, शान्ति आएगी। रावण, सहस्त्रबाहु- जैसे भी हो जाओ; किंतु शान्ति नहीं आएगी। तेज में, बल में परशुराम-जैसे हो जाओ, फिर भी संतोष नहीं। दिन के बाद रात, रात के बाद दिन अनिवार्य रूप से होता ही रहता है। उसी तरह दुःख के बाद सुख, सुख के बाद दुःख होगा ही। संसार में रहने से ऐसा होगा ही। इसलिए ईश्वर को पहचानो। संसार को देखते हो, तो संसार का गुण तुम पर होता है। इसलिए संसार से परे परमात्मा को पकड़ो, शान्ति मिलेगी। इसलिए संतों ने ईश्वर को पकड़ने पर बहुत जोर दिया।
 राकापति षोडस उअहिं, तारागण समुदाय।
 सकल गिरिन्ह दव लाइअ, बिनु रवि राति न जाय।।
ऐसे हि बिनु हरि भजन खगेसा। मिटहिं न जीवन केर कलेसा।।
            -रामचरितमानस
 आजकल की बिजली-बत्तियों को जला दो, तो भी रात नहीं जा सकती, वैसे ही जागतिक कितना भी वैभव हो जाय, ईश्वर-भजन किए बिना दुःख दूर नहीं होता। संसार का काम छोड़कर ईश्वर भजन करो-ऐसी बात नहीं। लोगों को जमीन का कर देना पड़ता है। इसी तरह संसार में रहकर संसार का काम करो; किंतु उसमें लिप्त मत होओ। संसार के कामों को करते हुए भजन करो। मन को परमात्मा में लगा रखो। ऐसा करने से ईश्वर-भजन होगा। ईश्वर सबके अन्दर हैं और सब उसके अन्दर हैं।
 हमलोग अभी जगे हुए हैं। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति-ये तीन अवस्थाएँ होती हैं। शरीर के जिस तल पर जब हम रहते हैं, संसार के भी उसी तल पर तब हम रहते हैं। शरीर के जिस तल को जब हम छोड़ते हैं, संसार के भी उसी तल को तब हम छोड़ते हैं। इसी प्रकार शरीर के समस्त तलों को यदि हम छोड़ सकें, तो संसार के भी सभी तल छूट जाएँगे। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति-इन तीन अवस्थाओं में रहने से ईश्वर की पहचान नहीं होती। उसके लिए चौथी अवस्था है। अवस्था में परिवर्तन होने से नीचे से ऊपर चढ़ते हैं। हल जोतने वाले हो, चाहे बारीक काम करनेवाले हो, इसकी युक्ति गुरु से सीखो। आज का साधन कल के लिए नहीं छोड़ो। योग सुनकर डरना नहीं चाहिए।
 अगर है शौक मिलने का तो हरदम लौ लगाता जा।
 परमात्मा की ओर मन लगे, इसके लिए मन कैसा होना चाहिए? मन को पवित्र बनाने के लिए इसकी विधि जानकर प्रयोग करना होगा। ईश्वर सर्वव्यापी है, देशकालातीत है, सूक्ष्मातिसूक्ष्म है, परमात्मा इन्द्रिय-ज्ञान में नहीं है आदि-आदि; सब संतों ने एक ही बात कही है।
 इन्द्रियों के द्वारा परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकते। अन्तर्मुखी होने से इन्द्रियों से छूटना होता है। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति-ये तीनों अवस्थाएँ छूट जाएँ, ऐसा भजन करो। जब कैवल्य दशा प्राप्त होगी, तब सब संशय छूट जाएँगे। इसके लिए अंतर्मुख होना पड़ेगा। इसकी युक्ति किन्हीं संत से जानो और साधना करो।
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यह प्रवचन पूर्णियाँ जिलान्तर्गत ग्राम-टीकापट्टी में दिनांक 8.5.1953 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
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58. एक दिन सबको जाना होगा

प्यारे लोगो!
 आपलोग खेती करते हैं, आपलोग किसान हैं। खेती से ही सब लोग जीते हैं, खेती नहीं करने में आपलोग डरते हैं, क्यों? इसलिए कि यदि खेती नहीं करेंगे तो खाने-पहनने के लिए तकलीफ हो जाएगी। फिर आप लोगों की संतति है। अपनी संतान के पालन-पोषण के लिए पिता की इच्छा रहती है। साथ में डर रहता है कि यदि संतान को अच्छी शिक्षा नहीं दें, तो संसार के योग्य काम को वह नहीं कर सकेगा। सरकारी नौकर या अपना नौकर ही लीजिए, वे भी डरते हैं कि यदि ठीक से काम नहीं करेंगे तो पद से हटा दिए जाएँगे।
 चुनाव में क्या होता है? हर पाँच वर्ष के बाद चुनाव होता है। उसमें भी डर रहता है कि इस चुनाव में मतदान नहीं मिलेगा, तो हटा दिए जाएँगे। सिपाही अपने बड़े अफसर से डरता है। डरने से ही सब काम संसार का चलता है। संत कबीर साहब ने कहा है-
 डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार।
 डरत रहै सो ऊबरै, गाफिल खावै मार।।
 यहाँ तो खेती करने का डर, नहीं पढ़ने का डर आदि-आदि डर बना रहता है। यह डर करना कब तक के लिए है? मात्र एक जीवन के लिए। एक साल सुख से रहने के लिए कितना परिश्रम करते हैं? डरकर खेती करते हैं, अच्छी बात है। किन्तु इसके साथ-साथ एक बात और है कि आज हम हैं; लेकिन हमारे पिता या पिता के पिता कहाँ चले गए? उसी तरह हमको भी एक दिन जाना होगा।
 अभिमन्यु के मरने पर युधिष्ठिर को नारदजी ने बहुत समझाया और कहा कि भगवान श्रीराम ग्यारह हजार वर्ष पर्यन्त राज्य कर फिर इस असार संसार से चले गए। तुम पुत्र-शोक व्यर्थ करते हो।
 जब यह समझ में आता है कि एक दिन हमको भी जाना होगा, तब घर-दरवाजा आदि बेकार मालूम होने लगता है। यदि कोई किसी को कहे कि मरने पर तुम नरक में जाओगे, तो यह सुनकर महादुःखी होगा। इसके लिए ऐसा उपाय करो कि शरीर छूटने पर दुःख में न चले जाओ। अभी जो आपलोगों ने पाठ में सुना है, उसमें कबीर साहब कहते हैं-
 निधड़क बैठा नाम बिनु, चेति न करै पुकार।
 यह तन जल का बुदबुदा, बिनसत नाहीं बार।।
 पानी का फोंका (बुदबुदा) कुछ काल ठहरता है, फिर फूट जाता है। उसी तरह शरीर थोड़ी देर रहेगा, फिर नाश हो जाएगा। इसलिए भजन करो और डरो कि कब शरीर छूट जाएगा।
 भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय।
 भय पारस है जीव को, निर्भय होय न कोय।।
      -कबीर साहब
 भजन करने के लिए हमको वैसा बनना पड़ेगा, जिससे हम भजन करने के योग्य होंगे। अतरदान में अंगुलि देनी हो, तो गोबर जिस हाथ से फेंके हो, उस हाथ की अंगुलि को धो लो, तब इत्र की सुगंध मालूम होगी। उसी तरह ईश्वर भजन करने के लिए अपने मन-हृदय को शुद्ध करना होगा। इसके लिए पाँच पाप मत करो। पहला पाप है झूठ। झूठ मत बोलो। यदि गाँव भर के लोग झूठ नहीं बोलेंगे तो किसी से किसी को लड़ाई-झगड़ा आदि नहीं होगा। झूठ में सब पाप छिपे हैं। झूठ छोड़ा तो सब पाप भाग जाएँगे। संत कबीर साहब ने कहा है-
 साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
 जाके हृदय साँच है, ताके हृदय आप।।
 चोरी मत करो। व्यभिचार मत करो। व्यभिचार कहते हैं-अनैतिक मिलन को। मनुष्य के लिए जो शास्त्रानुकूल वैवाहिक नियम है, उस तरह विवाह कर पुरुष-स्त्री एक साथ रहें। इसके विरुद्ध जो है, वही है-व्यभिचार। नशा नहीं पियो और न खाओ। संत कबीर साहब ने कहा है-
 मांस मछरिया खात है, सुरापान से हेत ।
 सो नर जड़ से जाहिंगे, ज्यों मूरी की खेत ।।
 खेत से मूली उखाड़ने पर उसका कुछ नहीं बचता है। उसी तरह जो मांस मछली खाता है, मद्य पीता है, वह धर्म के खेत से उखड़ जाता है।
 भांग तम्बाकू छूतरा, अफयूँ और शराब।
 कह कबीर इनको तजै, तब पावै दीदार।।
 नशीली चीज सत्यमार्ग से गिरानेवाली है। हिंसा मत करो। हिंसा नहीं करने के सम्बन्ध में मांस-मछली भोजन मत करो। मांस-मछली खाने से केवल हिंसा ही नहीं होती है, उसकी तासीर भी कुछ और है। गाय के दूध में जो गुण है, भैंस के दूध में वैसा गुण नहीं है। बकरी के दूध में फिर दूसरा ही गुण है। उसे आप पी सकते हैं, किन्तु गदही का दूध नहीं पी सकते। दूध-दूध में भी गुण है। गदही के दूध को अपवित्र समझते हैं। आप अपनी देह को समझिए और एक मछली की देह को समझिए। दोनों पर विचार कीजिए। मछली की देह में कितनी गन्ध रहती है? मछली खानेवाले मछली को धोकर खाते हैं। मछली क्या खाती है, सो विचारिए। वह निकृष्ट-से-निकृष्ट वस्तु को खाती है। ‘जैसा अन्न वैसा मन।’ उस खराब वस्तु को खाने से मन कैसा होगा, विचारिए। मछली छूने पर हाथ धोते हैं। उसके शरीर के गुण और अपने शरीर के गुण में अंतर है। इसलिए अपने उत्तम शरीर में नीच गुणवाले शरीर को देकर अपने को नीचे गिराना है।
 परमात्मा ने अनेक प्रकार के फल दिए हैं, मिठाई दी है, उसे खाइए। खराब चीज खाने से मन भी खराब हो जाता है। इन पंच पापों से अपने को बचाकर रखिए। मनुस्मृति में आठ घातक बताए गए हैं-1. वध करने की आज्ञा प्रदान करनेवाला, 2. शस्त्र से मांस काटनेवाला, 3. मारनेवाला, 4. बेचनेवाला, 5.मोल लेनेवाला, 6. मांस पकानेवाला, 7. परोसने के लिए लानेवाला और 8. खानेवाला। ये आठो घातक कहलाते हैं।
 इसलिए हिंसा से बचो। जो पंच पापों से बचेगा, वही भजन कर सकेगा। भजन करने में टालमटोल मत करो।
 आज कहै मैं काल्ह भजूँगा, काल्ह कहै ि फर काल्ह।
 आज काल्ह के करत ही, औसर जासी चाल।।
       -कबीर साहब
 इसलिए उन्होंने कहा-
 काल्ह करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब।
 पल में परलय होयगा, बहुरि करैगा कब्ब।।
 यह अच्छे कर्म के लिए कहा है, बुरे कर्म के लिए नहीं।
 पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल्ह की साज।
 काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज।।
          -कबीर साहब
 काल राजा एक दिन सब पर झपट्टा मारता है। कब झपेटा लगेगा, ठिकाना नहीं। इसलिए होशियार रहो।
 भक्त शब्द की सीढ़ी पाता है। सबके अंदर ईश्वर की ध्वनि होती है। उस शब्द को जो पकड़ता है, वह परमात्मा तक पहुँचता है। इसके लिए घर छोड़ने की जरूरत नहीं। घर में रहो, भजन करो। हल जोतो, खेती करो और भजन करो। जो सोवै, सो खोवै। जो जागै सो पावै।’
 जग-जगकर भी ध्यान करो। हमारे ऋषियों ने त्रयकाल संध्या बतायी है। भैंस चराने जिस समय जाते हो, उस समय भजन करो। यदि कहो कि भैंस चरावेंगे कि ध्यान करेंगे? तो भैंस चराने के कुछ काल पहले उठो, भजन करके फिर भैंस चराने जाओ। भैंस चराने जाओ तो किसी दूसरे का खेत मत चराओ। नहीं तो सब ध्यान उसीमें खतम हो जाएगा। दोपहर में स्नान करके, फिर शाम में ध्यान करो। समय तो बहुत रहता है। किंतु लोग गपशप में बिता देते हैं। कुछ नींद को जीतो और गपशप छोड़ो, तो भजन कर सकोगे। आपलोगों ने पहले नशे के सम्बन्ध में सुना। वे तो मोटे-मोटे नशे हैं। बारीक नशे के सम्बन्ध में भी सुनिए-
 मद तो बहुतक भाँति का, ताहि न जानै कोय ।
 तन मद मन मद जाति मद, माया मद सब लोय ।।
 विद्या मद और गुनहु मद, राजमद्द उनमद्द ।
 इतने मद को रद्द करै, तब पावै अनहद्द ।।
 सदाचारपूर्वक सबसे मिलकर रहिए। गाँव- समाज में भी मिलकर रहिए। आपस में झूठ व्यवहार नहीं कीजिए। सुचरित्र से रहिए। जरा-सा झूठ के कारण भगवान शिवजी ने सती को मन से त्याग दिया था। इसलिए झूठ को छोड़िए।
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यह प्रवचन पूर्णियाँ जिलान्तर्गत ग्राम-बोकनतरी में श्रीरूपलाल यादवजी के निवास स्थान पर दिनांक 23.12.1953 ई0 को साप्ताहिक सत्संग में हुआ था।
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