32. ईश्वर-भक्ति की विशेषता
प्यारी धर्मानुरागिनी जनता !
मैं आज क्या कहूँगा, कल्ह ही विदित कर दिया हूँ। आज का वर्णन है-ईश्वर की भक्ति कैसे की जाएगी? किंतु आपको याद दिलाने के लिए कह दूँ कि इसकी आवश्यकता क्या है। लोग कहते हैं, ईश्वर-भक्ति का प्रचार तो होता ही है, फिर इसका क्या काम? तो ठीक ही है, सब कोई प्रचार करें; किंतु कुछ इस सत्संग को भी थोड़ा मौका मिले कहने-सुनने के लिए।
देखिए मन कैसा है, किधर जाता है? विशेष करके विषय की ओर ही दौड़ता है। सत्संग करते-करते भी मन भाग जाता है। यदि कहिए कि भक्ति-प्रचार का क्या काम है, तो-
राकापति षोडस उअहिं, तारागन समुदाय।
सकल गिरिन्ह दव लाइये, बिनु रवि राति न जाय।।
ऐसेहि बिनु हरि भजन खगेशा।मिटहिं न जीवन केर कलेसा।।
इसके लिए भक्ति का प्रचार है। अपने हृदय से पूछिए कि कुछ तकलीफ, दुःख भी है? प्रति घंटे अपने क्लेश का वर्णन करता है। काम- क्रोधादिक विकार आने पर कैसे करते हैं? विचारिए-
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
काम-रूप वात है, लोभ-रूप अपार कफ है और क्रोध-रूप पित्त है, जो सदा हृदय जलाता है।
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्निपात दुखदाई।।
हे भाई! जब ये तीनों प्रीति करते हैं, तब दुःखदायी सन्निपात (त्रिदोष ज्वर) उत्पन्न होता है।
एक व्याधि बस नर मरहिं, ये असाधि बहु व्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहँ, सो किमि लहइ समाधि।।
मनुष्य तो एक ही रोग के वश होकर मर जाते हैं; परंतु ये बहुत से असाध्य रोग हैं, जो जीव को सदा दुःख दिया करते हैं-इस दशा में वह(जीव) कैसे सुख पा सकता है?
बहुत दुःख है इस संसार में, तो करना क्या है? ईश्वर-भजन करके ही इन दुःखों से छूट सकते हैं। सूर्योदय होने से ही अंधकार दूर होता है, उसी प्रकार ईश्वर-भक्ति से ही क्लेश दूर होगा। इसी उद्देश्य से ईश्वर-भक्ति का प्रचार करते हैं।
संतो भक्ति सतोगुर आनी।
नारी एक पुरुष दुई जाया, बूझो पंडित ज्ञानी ।।
पाहन फोरि गंग इक निकसी, चहुँ दिसि पानी पानी ।
तेहि पानी दोउ पर्वत बूड़े, दरिया लहर समानी ।।
उड़ि माखी तरुवर कै लागै, बोलै एकै बानी ।
वह माखी को माखा नाहीं, गर्भ रहा बिनु पानी ।।
नारी सकल पुरुष लै खाये, तातैं रहै अकेला ।
कहहिं कबीर जो अबकी समझौ, सोइ गुरू हम चेला ।।
-संत कबीर साहब
जिन्होंने भारती भाषा में प्रवाह रूप से कहने का आंरभ किया, वे संत कबीर साहब थे। उनके बाद और सब कहे। इसलिए मैं उन्हें सुमेरु रूप में रखता हूँ। ये विशेष थे और नानक, तुलसी कम थे, इसलिए नहीं; बल्कि इसलिए कि ईश्वर की मौज से पहले संत कबीर साहब आए थे, पीछे ये लोग। इसलिए इनकी दूसरी ही भक्ति है, जो प्रचलित रूप से जानते हैं, वह नहीं।
एक स्त्री ने दो पुरुष उत्पन्न किया, उसको पंडित-ज्ञानी बुझिये। नारी प्रकृति को कहते हैं। प्रकृति के बिना कोई जीव पुरुष और ब्रह्म पुरुष नहीं बोल सकते। ब्रह्म और जीव दोनों थे ही, किंतु प्रकृति के पहले जीवत्व और ब्रह्मत्व दशा नहीं हो सकती। व्यापक व्याप्य भेद के बिना ब्रह्म कौन कहे और कैसे कहे? प्रकृति से शरीर, इन्द्रिय, अंतःकरण बने। शरीर, इन्द्रिय, अंतःकरण के बिना जीव कैसे कहा जाय? इसलिए ‘नारी एक पुरुष दुई जाया, बूझो पंडित ज्ञानी।’ यह जड़ता पाहन है। यह जीव यदि परमात्मा से मिलना चाहता है, क्लेश से छूटना चाहता है तो जड़ को फोड़कर निकल जाय। वह धारा पवित्र है। इक निकसी=जीव निकला। और चहुँ दिशि पानी पानी= सच्चिदानंद पद में जाना। उस पानी में जाने से जीवत्व दशा नहीं है। व्याप्य के हट जाने से जीव पुरुष और ब्रह्मपुरुष नहीं कहे जाते; क्योंकि जीव उसमें लय हो गया।
उड़ि माखी तरुवर कै लागै, बोलै एकै बानी।
मक्खी उड़कर एक वृक्ष पर बैठ गई। एक वाणी बोलने लगी। मक्खी=सिमटी सुरत। सिमटी हुई सुरत अंतराकाश में उड़ी और तरुवर (तरुवर= अछय पुरुष एक पेड़ है, निरंजन वाकी डार। त्रिदेवा साखा भया पात भया संसार।।) परमात्मा में लग गया।
एकै वाणी=एक शब्द=सारशब्द।
विकारों को पुरुष वर्ग में लिया है, ज्ञान-वैराग्य आदि को वह नारी अपने में पचा ली। अब वह अकेले-अकेले है। इस प्रकार की भी भक्ति है।
इस ज्ञान का कितना विशेष कम प्रचार है, जान लीजिए। इस सत्संग के द्वारा इसी भक्ति का प्रचार होता है। किसकी भक्ति करेंगे? ईश्वर की भक्ति करेंगे। परमात्मा के लिए ही कभी ईश्वर और कभी परमात्मा कहूँगा, इसको जान लीजिए। ईश्वर की ओर कैसे लगावें, कल्ह कहा गया था कि जो मन, बुद्धि इन्द्रियों को ग्रहण नहीं हो वह परमात्मा है। वही ‘व्यापक व्याप्य अखंड अनंता’-राम, परशुराम आदि दश अवतारों में होने से वे बँट गए? नहीं। सब रूपों में होते हुए कितना विशेष है, ठिकाना नहीं।
भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप।
किए चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप।।
यथा अनेकन भेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ।
सोइ सोइ भाव दिखावइ, आपुन होइ न सोइ।।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई।सो सब माया जानहु भाई।।
कसौटी पर कसकर जानिए कि परमात्मा का स्वरूप क्या है?
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।
प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी। ब्रह्म निरीह बिरज अविनासी।।
या आप उपनिषद को लीजिए-
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।
-महोपनिषद्, अध्याय 4
परे से परे को (परमात्मा को) देखने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं। जब दर्शन करें और आपको ऐसा मालूम हो कि कुछ संशय नहीं रहा, कोई बंधन मुझपर नहीं है, जड़-चेतन का प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाय, वही परमात्मा है। जितने इन्द्रियों के द्वारा दर्शन है, उसके द्वारा ‘भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः’ हो नहीं सकता। इसी बात को गोस्वामीजी ने कहा है-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई।सा ेसब माया जानहु भाई।।
जब ये माया ही है, तब इसे परमात्मा कैसे कहिएगा? अब उसकी भक्ति कैसे की जाय, जो मन, बुद्धि से बाहर है। इन्द्रियाँ पहचान नहीं सकतीं। कितनी बुद्धि कहती है-ईश्वर है, कितनी बुद्धि कहती है-ईश्वर नहीं है। आजकल नास्तिकवाद की भी पताका उड़ रही है। जीव माने ईश्वर नहीं। कोई जीव ईश्वर कुछ नहीं माने। कहते हैं-तुम्हारा शरीर है, जड़-जड़ के मिलने से ऐसा कुछ काम करने के योग्य हो गया है। शरीर छूटेगा, कुछ भी बाकी नहीं रहेगा। किंतु हमारा सत्संग तो कहता है-ईश्वर है, तुम जीव हो, दुःख में पड़े हो। ईश्वर की भक्ति करो सुखी होओगे। फिर कहेंगे, जब ईश्वर मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों से परे हैं, उसे कैसे पकड़ा जाय? हमलोगों को विश्वास है, ईश्वर अवश्य है।
अलख अपार अगम अगोचरि ना तिसु काल न करमा।
जाति अजाति अजोनि संभउ ना तिसु भाउ न भरमा।।
साचे सचिआर बिटहु कुरबाणु ना तिसु रूप
बरणु नहिं रेखिआ साँचे सबदि नीसाणु।
- गुरु नानक साहब
एक-एक विषय को एक-एक इन्द्रिय ग्रहण करती है। उसी प्रकार तुम अकेले होकर स्थूल, सूक्ष्मादि चारो शरीरों को छोड़कर कैवल्य दशा में रहो, ईश्वर की प्रत्यक्षता होगी। मन तुम्हारा नौकर है, इन्द्रियाँ नौकरानी हैं। तुम नौकर-नौकरानी के पंजे में फँस गए हो, इससे निकलो। तुम इनके भरोसे क्यों रहते हो? तुम स्वयं बहुत शक्तिमान हो, किंतु अपने को भूले हुए हो। कबीर साहब ने कहा है-
बिन सतगुरु नर रहत भूलाना।
खोजत फिरत राह नहीं जाना।।टेक।।
केहर सुत ले आयो गड़रिया, पाल पोष उन कीन्ह सयाना।
करत कलोल रहत अजयन संग, आपन मर्म उनहूँ नहिं जाना।।
केहर इक जंगल से आयो, ताहि देख बहुतै रिसियाना।
पकड़ि के भेद तुरत समुझाया, आपन दसा देख मुसक्याना।।
जस कुरंग बिच बसत बासना,खोेजत मूढ़ फिरत चौगाना।
कर उसवास मनै में देखै, यह सुगंधि धौं कहाँ बसाना।।
अर्ध उर्ध बिच लगन लगी है, छक्यो रूप नहिं जात बखाना।
कहै कबीर सुनो भाई साधो,उलटि आपु में आप समाना।।
बकरी और भेड़ को चरानेवाला एक गड़ेरी सिंह के एक बच्चे को ले आया। सिंह के उस बच्चे की आँखें बंद थीं। सिंह-बाघ के बच्चे की आँखें जन्मकाल में बंद रहती हैं। वह सिंह का बच्चा नहीं जान सका कि वह किसका बच्चा है। कुछ दिनों के बाद उसकी आँखें खुलीं तो उसने अपने को बकरी-भेड़ के बच्चों के साथ पाया। जैसे भेड़ बकरी का बच्चा खेल-कूद करता, वैसे ही वह भी उसके साथ खेल-कूद करने लगा। एक दिन एक सिंह जंगल से आ गया। उसने देखा कि यह तो मेरी ही जाति का बच्चा है, लेकिन भेड़-बकरी के साथ रहता है। जंगली सिंह को देखकर गड़ेरी, भेड़ और बकरियाँ सभी भागते हैं, उन सबके साथ सिंह का बच्चा भी भागता है। यह देख जंगली सिंह ने उसको पकड़ा। उसने उसको पकड़कर पानी में अपना और उसका मुँह दिखाया और कहा-‘देखो, तुम्हारा रंग-रूप जैसा है, मेरा भी वैसा ही है।’ पानी में अपने रूप को देखकर उसको ज्ञान हो गया कि मैं भी सिंह ही हूँ।
ऐसे ही जीवात्मा, परमात्मा-रूपी सिंह का बच्चा है यानी परमात्मा का अंश है। इन्द्रियाँ जितने हैं, वे भेड-़बकरी के समान हैं। जीवात्मा इनके साथ रहकर अपने को इन्द्रिय समझता है। जब सच्चे सद्गुरु मिलते हैं तब उसको दिखला देते हैं कि तुम संसार की ओर से उलटो, अपने अंदर देखो। वैसे तो विचार में हम ईश्वर के अंश हैं, जानते हैं, लेकिन उलटकर देखने से प्रत्यक्षता होती है। हम ईश्वर को तब प्रकट कर सकते हैं, जब हम शरीर और इन्द्रियों से अपने को छुड़ा सकें। यह कैसे होगा? यह तबतक नहीं होगा, जबतक सद्गुरु नहीं मिलते हैं। सद्गुरु मिलते हैं तो बता देते हैं कि तुम भी आत्म-स्वरूप हो। जो गुण ईश्वर में है, वही गुण तुममें भी है। परमात्मा का गुण शरीरस्थ चेतन-आत्मा में है। जो अपने शुद्ध चेतन रूप को पहचानता है, वही ईश्वर को पहचानता है। कबीर साहब अनपढ़ थे, पर उनका वचन अद्भुत है। गुरुजी से ‘क’, ‘ख’ भी नहीं जाने और उनका वचन इतना दृढ़।
तुम अपने स्वरूप को अपने अंदर में देखो। कैसे देखोगे, तो का-‘अर्ध-उर्ध बीच लगन लगी है।’ उलटकर बहिर्मुख से अंतर्मुख हो जाओ। अपने नौकर-नौकरानी का संग छोड़कर कबीर के बतलाए हुए स्थान पर लगन लगावें, तो अवश्य अपने को पहचान पाएँगे।
मायाबस मति मंद अभागी। हृदय जवनिका बहुविधि लागी।।
ते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अज्ञान राम पर धरहीं।।
काम क्रोध मद लोभ रत, गृहासक्त दुःखरूप।
ते किमि जानहिं रघुपतिहिं, मूढ़ पड़े तम कूप।।
-गोस्वामी तुलसीदास
जो काम, क्रोध, मद और लोभ में लिप्त, घर के कामों में फँसे हुए, दुःखरूप हैं, वे अंधकार के कुएँ में गिरे हुए मूर्ख राम को कैसे जान सकते हैं? अर्थात् नहीं जान सकते हैं। अंधकार के कुएँ से अपने को निकालो। भीतर में जितने स्थूल-सूक्ष्मादि जड़ आवरण हैं, उसको हटावें। यही भक्ति है। इसी विषय को संत कबीर साहब की वाणी में पाहन फोड़ना कहा गया है। कहेंगे कि यह भक्ति कैसे? तो विचार में जानने में आता है कि जब हम सब आवरणों को पार कर जाएँगे, तब ईश्वर से इस प्रकार सटेंगे कि कभी हटेंगे नहीं। इसलिए ईश्वर पाने के लिए जो यत्न है, उसको करना भक्ति है। बाबा नानक ने कहा-
भगता की चाल निराली।
चाल निराली भगताह केरी विखम मारगि चलणा।।
लबु लोभु अहंकारु तजि त्रिसना बहुतु नाहीं बोलणा।
खंनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा।।
गुर परसादी जिनि आपु तजिआ हरि वासना समानी।
कहै नानक चाल भगताह केरी जुगहु जुगु निराली।।
-नानक साहब
तलवार की धार से भी तेज और बाल की नोंक से भी महीन वह रास्ता है। कहेंगे इस पर कैसे चला जाय? आपको डरना नहीं चाहिए। इस तलवार की धार पर पैर नहीं चलेगा, इसपर मन चलेगा। कहेंगे-चलना चाहिए चेतन को, कहते हैं मन को? तो जानना चाहिए कि जहाँ दूध रखो, वहीं घी भी है; उसी प्रकार जबतक मन-चेतन संग-संग है। जहाँ मन रखो, वहीं चेतन है। ‘मन उलटे तब सुरत कहावै।’ मन को उलटो अर्थात् सिमटो तो पहले जिस ओर था, उसके विपरीत ओर को हो जाएगा। स्थूल पसार में हो, इसमें सिमटने से सूक्ष्म में प्रवेश करोगे।
सुरत फँसी संसार में ताते परिगा दूर।
सुरत बाँधि सुस्थिर करो आठो पहर हुजुर।।
-कबीर साहब
यदि कहिए यह तो कॉलेज की बात है। नीचे वर्ग की पढ़ाई भी कहिए, तो कबीर साहब की वाणी में ही सुनिए-
मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव।।
इससे उलटिए तो-
गगन मंडल के बीच में, तहँवा झलके नूर।
निगुरा महल न पावई, पहुँचेगा गुरु पूर।।
बाँका परदा खोलि के, सन्मुख ले दीदार।
बाल सनेही साईयां, आदि अंत का यार।।
-कबीर साहब
मायाबस मति मंद अभागी। हृदय जवनिका बहुविधि लागी।।
अन्धकार बाँका परदा है। यदि मोटी बात ही लीजिए तो तुलसीदासजी की वाणी में है- ‘प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।’ संत कबीर साहब भी सत्संग करने कहते हैं। सब संत सत्संग करने कहते हैं। शवरी से राम कहते हैं-‘दूसरी रति मम कथा प्रसंगा।’ नवो प्रकार की भक्ति कहते-कहते अंत में कहते हैं-‘सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।’ गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान। मान मर्यादा को छोड़कर गुरु की सेवा करो शिवाजी की तरह। अथवा हाल के रायबहादुर शालिग्राम की तरह। पोस्टमास्टर जनरल होते हुए भी अपने गुरु के लिए अपने से आटा पीसना, रोटी बनाना, जमुनाजी से पैदल पानी लाना, इसपर भी यदि कोई कहे-पानी नहीं है, बच्चा रोता है तो उसे पानी दे देते थे और फिर अपने पानी लाने चले जाते।
गुरु का सेवक अपने समय में शिवाजी ऐसे बहुत कम हैं। वे छत्रपति होते हुए भी अपने हाथ से सब प्रकार की सेवा करते थे। शिवाजी अपने हाथ से अपने गुरु को तेल लगाते थे। अपना संपूर्ण राज्य अपने गुरु को दिए थे।
एक दिन समर्थ रामदासजी कुछ चेलों के साथ चले आ रहे थे। चेलों ने कहा-‘हमलोगों को भूख लग गई है।’ समर्थ रामदासजी ने कहा-‘देखो, खेत में मकई के भुट्टे लगे हैं, खा लो।’ शिष्यों ने वैसा ही किया। तबतक खेतवाले आ गए। वह गुस्से में आकर समर्थ रामदासजी को मकई के डण्ठल से मार बैठा। समर्थ मार बर्दाश्त कर गए और शिष्यों से कहा-‘शिवा को यह बात मत कहना, नहीं तो इसे भारी दण्ड देगा।’ जब समर्थ रामदासजी शिवाजी के यहाँ पधारे, तो शिवाजी उनको अपने से ही स्नान कराने लगे। पीठ में मार का दाग देखकर अन्य शिष्यों से पूछा कि यह दाग पीठ में कैसे आया? सबके सब चुप थे, कोई कुछ बोलते ही नहीं थे। शिवाजी ने कहा-‘सही-सही बोलिए, नहीं तो आपलोगों को ही इसका दंड भोगना पड़ेगा।’ तब उनलोगों ने उक्त किसान का नाम कहा, जिसने समर्थ रामदासजी को मारा था। उसको शिवाजी ने पकड़वाकर अपने सामने मँगवाया। शिवाजी के डर से वह किसान बहुत ही कंपित हो रहा था। समर्थ रामदासजी ने कहा, शिवा! देखो, तुम्हारे डर से यह बहुत दुःखी हो रहा है, इसे क्षमा कर दो। इसका मालपोत (मालगुजारी) माफ कर दो।
ये महान त्यागी पुरुष गुरु की भक्ति करते थे।
चौथि भगति मम गुन गण, करइ कपट तजि गान।
पाँचवीं भक्ति- मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा।
पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।
ऐसा नहीं कि-
माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं।
बल्कि ऐसा-
तन थिर मन थिर वचन थिर, सुरत निरत थिर होय।
कह कबीर इस पलक को, कलप न पावै कोय।।
पहले जैसे मन भागता था, उससे कम भागे। संतों का संग होगा, कथा प्रसंग होगा, उनसे ज्ञान सीखेंगे।
ईश्वर-भक्ति कैसे होगी? गुरु की सेवा करेंगे। ईश्वर का गुणगान करेंगे, जप करने कहेंगे। यह क्रमबद्ध है। छठी भक्ति ‘दम’ आती है। इन्द्रियों को रोकने का स्वाभाव आपको हो जाय, तब दमशील हो जाइएगा। बहुत-से कर्मों से अपने मन को हटाइए। सज्जनों के धर्म के अनुसार संसार में बरतिए। सज्जनों का धर्म है-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार नहीं करने का। इस तरह आप इन्द्रियों के रोकने का स्वभाववाला हो जाइएगा। इन्द्रियों के साथ मन की धार है। इन्द्रियों में मन की धार होने से ही इन्द्रियाँ सचेष्ट होती हैं और काम करती हैं। मन ही विषयों की ओर इन्द्रियों को ले जाने की प्रेरणा करता है। इन्द्रिय बेरोक में दमशीलता नहीं होती। जिस केंद्र से इस धार का बिखार हुआ है, उस केन्द्र में केंद्रित करो। केंद्र में केंद्रित होने पर विषयों की ओर नहीं जाएगा। इस प्रकार अभ्यास बारंबार करते- करते इन्द्रियों को रोकने का स्वभाववाला बन जाइएगा। आप कहेंगे, मन को विषयों में बड़ा अच्छा लगता है, इससे विपरीत कैसे जाएगा? तो देखिए, भीतर जाने में भी बड़ा आनंद मालूम होता है। जाग्रत से तंद्रा में जाने पर बड़ा आनंद मालूम होता है,उस समय कोई गड़बड़ करे तो मन बड़ा रंज हो जाता है। तन्द्रा=जागने से स्वप्न में जाने के बीच रास्ते में जो मिलता है= अधनिनिया। वहाँ कोई विषय नहीं है, फिर भी आनंद है। इसलिए कबीर साहब ने कहा-
भजन में होत आनंद आनंद।
बरसत बिषद अमी के बादर भींजत है कोई संत।।
अगर अंदर के सरकाव में दुःख होता, तो आप सो नहीं सकते। सब दिन सोते हैं और यह हालत होती है। छठी भक्ति से सूक्ष्म भक्ति का आरंभ होता है। अपनी धारों को कैसे और कहाँ पर उलटेंगे? तो कहेंगे-तुम हो कहाँ, वहीं से उलटो। दरिया साहब की वाणी है-
जानि ले जानि ले सत्त पहचानि ले ।
सुरत साँचि बसै दीद दाना ।।
आँख का तिल=शिवनेत्र। दोनों आँखों के मध्य मुकाबले अंदर में। राय शालिग्राम साहब ने कहा है। संत कबीर साहब का वचन लीजिए-
इस तन में मन कहाँ बसत है, निकसि जाय केहि ठोर ।
गुरु गम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और ।।
नैनों माहिं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर ।
सतगुरु भेद बताइया, सब संतन सिरमौर ।।
ब्रह्मोपनिषद् में है-
जाग्रत्स्वप्ने तथा जीवो गच्छत्यागच्छते पुनः।
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् ।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्निसंस्थितम् ।।
जीव जाग्रत, और स्वप्न में पुनः-पुनः आता- जाता रहता है। जीव का वासा जाग्रत में-नेत्र में और स्वप्न में-कण्ठ में, सुषुप्ति में-हृदय में और तुरीयावस्था में-मस्तक में होता है। आप जाग्रत में काम करेंगे, इसलिए यहीं से चलो। जगने में आप आँख में हैं। फिर कहेंगे, कैसे चलेंगे? तो दोनों धारों को एक करो, कैसे करो, यह बात गुरु से जानो। इससे सरल और कुछ नहीं हो सकता। 1904 ई0 से 1952 ई0 तक की मेरी खोज है। मैं इतने दिनों तक क्या करता रहा !
यह दृष्टि साधन है। अमादृष्टि, प्रतिपदादृष्टि, और पूर्णिमादृष्टि। ‘तद्दर्शने तिस्रो अमाप्रतिपत्पूर्णिमा चेति निमीलितदर्शनममादृष्टि। अर्धोन्मीलितं प्रतिपत्। सर्वोन्मीलिनं पूर्णिमा भवति।’
उसे देखने के लिए तीन दृष्टियाँ होती हैं; अमावस्या, प्रतिपदा और पूर्णिमा। आँख बंदकर देखना अमादृष्टि है, आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा है।
अंधकार में यत्न करो तो तारा चमकेगा। ईसा मसीह ने दो आँख को एक आँख करने को कहा। सुषुम्ना में जाना चाहते हो, तो गुरु से जानकर करो। किसी का दोनों हाथ पकड़कर कोई खींचे, तो संपूर्ण शरीर उसी ओर हो जाता है। उसी प्रकार दोनों दृष्टिधारों को एक करो तो फैली हुई सब धारें उसी ओर हो जाएँगी, यही दमशील होगा। दृष्टियोग के साधन में कुछ कष्ट नहीं होता है। बिना प्राणनिरोध के ही ध्यानाभ्यास द्वारा श्वास बंद हो जाता है। इस प्रकार होने से छठी भक्ति होगी। अब सप्तमी भक्ति आती है। ‘सातम सम मोहिमय जग देखा।’ जहाँ दम है, वहाँ शम होना ही चाहिए। यदि कहो कि मन का साधन तो हो ही चुका, तो देखिए मन और इन्द्रियों का संग-संग साधन होना दम है। केवल मन का निग्रह शम है। यहाँ दृश्य नहीं है, केवल नादानुसंधान है। न नाद सदृशो लयः। मनोलय होकर तब क्या होता है-
सहस कमलदल पार में, मन बुद्धि हिराना हो।
प्र्राण पुरुष आगे चले,सोइ करत बखाना हो।।
निर्मल-चेतन परमपुरुष से जाकर मिलती है। यहाँ दम और शम क्या होता है वर्णन किया। इसी प्रकार की भक्ति सब किया करें। ‘आठम यथा लाभ संतोषा।’ जिसको ‘शम’ होगा, उसको ‘सम’ भी हो जाएगा। इसके लिए अपना-पराया, सुख-दुःख, शीत-उष्ण सब ‘सम’ हो जाता है। ऐसा होनेवाले के लिए ‘आठम यथा लाभ संतोषा।’ उसकी खरीदी हुई चीज हो जाएगी। वह टेढ़ा क्यों होगा? सरल हो जाएगा। एक ईश्वर पर भरोसा रखो।
भक्ति तो सात ही समझिए। बाकी दो भक्ति तो फल है, यही जानिए। भक्ति को केवल मोटी ही नहीं जाननी चाहिए। उन छठी और सातवीं भक्ति को भी जानिए। इसके लिए संयम की जरूरत है। झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, व्यभिचार मत करो, नशा का सेवन मत करो। पंच पाप मत करो। आगे बढ़नेवाले को चाहिए-पापों से बचें। पापों में फैला हुआ आदमी आगे नहीं बढ़ सकता, वह विषयों में अनुरक्त रहता है। नशा के विषय में तम्बाकू तक मना है। अपना खून आप पीओ तो घृणा होगी, किंतु अपने उच्च रक्त में पशुओं के नीच रक्त को क्यों मिलाते हो? इसी के लिए किसी संत ने कंठी पहनायी, किसी ने कहा-कंठी पहनो या नहीं पहनो, अपने मन को ठीक करो।
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यह प्रवचन सहरसा जिला विशेषाधिवेशन ग्राम-खापुर ( अब जिला-मधेपुरा ) में दिनांक 9.11.1952 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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