1952 (प्रवचन संख्या : 017-039 )

17. मोह निशा में रहना पशुता है (30.04.1952)


17. मोह निशा में रहना पशुता है

प्यारे लोगो!
 उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत क्षुरस्य धारा। निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।
                                                          - कठोपनिषद्
 (अरे अविद्याग्रस्त लोगो!) उठो, (अज्ञान-निद्रा से) जागो और श्रेष्ठ पुरुषों के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करो। जिस प्रकार क्षुरे की धार तीक्ष्ण और दुस्तर होती है, तत्त्वज्ञानी लोग उस मार्ग को वैसा ही दुर्गम बतलाते हैं।
  ‘जाग पियारी अब का सोवै। रैन गई दिन काहे को खोवै।।’
     ‘जनम जनम तोहि सोवत बीते, अजहुँ न जाग सबेरे।’
    ‘भक्ती का मारग झीना रे।’
 - कबीर साहब
    खंनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा।
                                           - गुरु नानकदेव
मोह निसा सब सोवनिहारा। देखिय सपन अनेक प्रकारा।।
एहि जग जामिनि जागहिं जोगी।परमारथी प्रपंच वियोगी।।
                                 - गोस्वामी तुलसीदासजी
 क्या सोवै जग में नींद भरी। उठ जागो जल्दी भोर भई।।
                                                 - राधास्वामी साहब
 लेटे और बैठे हुए को कहा जा सकता है- ’उठो !‘ उठते ही वह ऊँचा हो जाता है। और निद्रित रहकर यदि कोई स्वप्न या सुषुप्ति में रहता है, तब भी उसको कहा जाता है-‘उठो!’ जब वह जगता है, तब वह जाग्रत् के स्थान पर आकर जाग्रत-अवस्था में आ जाता है। स्थान बदलने से अवस्था बदलती है और तभी ज्ञान भी बदलता है।
 सुषुप्ति का स्थान हृदय, स्वप्न का स्थान कण्ठ और जाग्रत का स्थान आँख है।
 नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत्।
  सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्नि संस्थितम्।।
                                                                 - ब्रह्मोपनिषद्
 जीव का वासा जाग्रत में नेत्र में, स्वप्न में कण्ठ में, सुषुप्ति में हृदय में और तुरीयावस्था में मस्तक में होता है। अवस्थाओं के स्थानों को जानकर विदित होता है कि निद्रित रहनेवाला नीचे रहता है और जाग उठनेवाला ऊपर उठता है। स्वप्न में रहनेवाले को साधारणतया यह ज्ञान नहीं होता है कि मैं स्वप्न में हूँ। वह तब जो कुछ भोगता है, जो कुछ जानता है और जो कर्म करता है, सबको सत्य ही प्रतीत करता है। परन्तु जब ऊपर उठता है, जाग्रत के स्थान पर आकर जगता है, तब जगकर स्वप्न की सब बातों को मिथ्या बोध करता है। जगने के स्थान से नीचे उतरने पर स्वप्न और उससे भी नीचे उतरने पर सुषुप्ति के स्थान पर जाकर पूर्ण-रूप से अचेत हो जाना- दोनां ही बातें होती हैं।
 सर्वसाधारण को यह नहीं ज्ञात है कि जगने के स्थान (आँख) से ऊपर उठा जाता है या नहीं? यदि ऊपर उठा जाता है, तो उस स्थान का क्या नाम है? उस स्थान पर पहुँचने पर कौन-सी अवस्था होती है और उस अवस्था में रहने के सदृश ही इस स्थूल जगत्-सम्बन्धी ज्ञान रहता है वा इससे भिन्न प्रकार का ज्ञान होता है? चेतन विश्व-ब्रह्माण्ड और पिण्ड में; दो रूपों (समष्टि और व्यष्टि) में परिव्याप्त है और वही अन्तःकरण-व्यापी रहकर अन्तःकरण- सम्बन्धी बाह्य करणों (इन्द्रियों) द्वारा ज्ञानगुण को प्रकाशित करता है और व्यष्टि चेतन कहलाता है। संतमत में इसको सुरत भी कहते हैं। इसी का भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में होना होता है। भक्तयोगी अपनी सुरत को वा अपने को आँख के ऊपर के स्थान में ले जा सकते हैं। इसका वर्णन उपनिषदों और सन्तवाणियों में भरपूर है। ऊपर के स्थानों में तुरीय और तुरीयातीत; दो अवस्थाओं के नाम इनमें मिलते हैं।
 पंचावस्थाः जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयतुरीयातीताः।
                                                               - मण्डलब्राह्मणोपनिषद्
 जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय और तुरीयातीत; ये पाँच अवस्थाएँ हैं।
 सर्वपरिपूर्ण तुरियातीत ब्रह्मभूतो योगी भवति।
                                - मण्डलब्राह्मणोनिषद्, ब्राह्मण 2
 पूर्ण योगी तुरीयातीत अवस्था को प्राप्त कर ब्रह्मस्वरूप हो जाता है।
   तुरिया सेति अतीत सोधि फिर सहज समाधी।
  भजन तेल की धार साधना निर्मल साधी।।
                                                         - पलटू साहब
 जैसा कि ऊपर में वर्णन हुआ है, इससे जानना चाहिए कि स्थान-भेद से अवस्था-भेद हुआ और अवस्था-भेद में ज्ञान-भेद होता है। तब आँख से ऊपर के स्थान पर पहुँचने से तुरीय अवस्था में रहकर जाग्रत् अवस्था-सदृश ज्ञान नहीं रहकर अवश्य भिन्न प्रकार का ज्ञान होगा, जो सर्वेश्वर- परमात्मा की सूक्ष्म विभूति-सम्बन्धी होगा और जो ब्रह्म-संबंधी कहा जा सकेगा। इस अवस्था में स्थूल इन्द्रिय-संबंधी विषयों से मन उपराम रहकर कथित सूक्ष्म विषय में अनुरक्त होगा और साधारण जाग्रत अवस्था तुरीयावस्था वाले के लिए स्वप्न-सदृश होगी।
    माया मुख जागे सभे, सो सूता कर जान ।
   दरिया जागे ब्रह्म दिसि, सो जागा परमान ।। -दरिया साहब
 इसी अवस्था में आने के लिए ‘उठो, जागो’ शब्दों का प्रयोग हुआ है।
 जबतक कोई श्रेष्ठ पुरुष-गुरु के पास जाकर ज्ञान-लाभ नहीं करता है, तबतक वह अविद्या-ग्रस्त रहता है और उपर्युक्त उठने-जगने में नहीं आता है। इसी अवस्था में प्रवेश करने के लिए छुरे की धार-सदृश और बाल से भी बारीक सूक्ष्म मार्ग कहा गया है। इस मार्ग पर शरीर को चलना नहीं है। मन-सहित सुरत को चलाना है। सूक्ष्म मार्ग पर सूक्ष्म यात्री यात्रा करेगा, इसमें आश्चर्य ही क्या? चाहिए कि सत्संग हो और इस मार्ग को जाननेवाले तथा इस मार्ग के छोर को पकड़ने की युक्ति बतलानेवाले गुरु मिलें, इसपर चलने का अपना अत्यन्त अनुराग और आग्रह हो। साथ ही, संयम में बरतते हुए, प्रमाद और शिथिलता से बचते हुए नित्य प्रति नियमित रूप से दृढ़ता के सहित अभ्यास होता रहे।
 यह अन्तर-मार्ग है, इसी मार्ग पर चलनेवाला परमार्थी, योगी, भक्त कहलाता है और परमार्थ- स्वरूप परमात्मा को वह पाता है।
 राम ब्रह्म परमारथ रूपा।
  अविगत अलख अनादि अनूपा।।
 सकल विकार रहित गत भेदा।
  कहि नित नेति निरूपहिं वेदा।।
                       -गोस्वामी तुलसीदास
 ऊपर कथित यत्नों को करो। अवश्य उठोगे, अवश्य जगोगे और यह मोह-निशा समाप्त हो जाएगी। मोह-निशा में रहना पशु-देह का काम है। अब मनुष्य-शरीर मिला है, मोह-निशा का प्रभात हुआ है। अब मत सोओ, जगो।
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यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत ग्राम ढोलबज्जा ( जिला-भागलपुर ) में दिनांक 30.4.1952 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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18. नरतन की उपादेयता


प्यारे महाशयगण!
 मनुष्य-योनि के शरीर से सबसे उत्तम काम यही हो सकता है कि अपने को संसार के बन्धनों से छुड़ा लिया जाय। दूसरी योनि के शरीरों में यह काम नहीं हो सकता है। उनमें इसका ज्ञान भी नहीं हो पाता है कि संसार से अपने को किसलिए छुड़ाना चाहिए। किन्तु मनुष्य-शरीर में यह ज्ञान सोचने-विचारने से, सत्संग से और विद्याध्ययन करने से होता है। पशु में भी ऐसा नहीं है। सब शरीरों में देव-दुर्लभ मनुष्य-शरीर हमलोगों को मिला है। केवल इसी शरीर से यत्न करके संसार- सागर को पार किया जा सकता है। गोस्वामी तुलसीदास- कृत रामचरितमानस में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का ऐसा उपदेश है-
बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रन्थहिं गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहि परलोक सँवारा।।
  सो परत्र दुख पावई, सिर धुनि धुनि पछिताई।
  कालहि कर्महि ईस्वरहि, मिथ्या दोष लगाइ।।
एहितन कर फल विषय न भाई।स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई।।
नर तनु पाइ विषय मन देहीँ ।पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं।।
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई।।
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अविनासी।।
फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा।।
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही।।
नर तनु भव वारिधि कहँ बेरो। सनमुख मरुत अनुग्रह मेरो।।
करनधार सद्गुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।
 जो न तरइ भव-सागर, नर समाज अस पाइ।
 सो कृत निन्दक मन्द मति, आतम-हन गति जाइ।।
 इस सारे संसार को भवसागर कहा गया है। इसमें पंच विषयों का जल सर्वत्र उमड़ रहा है। देव, दानव, नर और किन्नर आदि सब-के-सब इसमें डूब रहे हैं। निद्रा और भय आदि इसके जीव-जन्तु सबको निगले जा रहे हैं। हिंसा-तरंग, तृष्णा-भँवर और ममता-पंक में थपेड़े खाते, घूमते और फँसे रहकर सब-के-सब दुःख भोग रहे हैं। अतएव इस संसार-सागर को पार करने के लिए मनुष्य-शरीर- धारी जीव को अवश्य यत्न करना चाहिए। यह यत्न केवल मनुष्य-शरीर में ही हो सकता है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का उपदेश यह है कि इहलोक और स्वर्गादिक लोकों में दुःख-परिणामी स्वल्प सुख है। यह दुःख-परिणामी स्वल्प सुख विषय-सुख है। मनुष्य-शरीर का फल विषय-सुख प्राप्त करना नहीं है। इस सुख में लगा हुआ मनुष्य अमृत त्याग कर विष लेता है और बहुत भारी हानि में पड़ा रहता है। मनुष्य को चाहिए कि सद्गुरु का सहारा ले और संसार-समुद्र को पार कर जाय। उपर्युक्त उपदेश के अनुकूल तो सब मनुष्यों को निर्विषय तत्त्व की ओर चलना परम आवश्यक है। निर्विषय की ओर चलने का पथ स्थूल नहीं है। उसपर यह स्थूल शरीर चलेगा, ऐसा वह पथ नहीं होना चाहिए। उसपर पहले मन-सहित चेतन-आत्मा चले और पश्चात् केवल चेतन आत्मा ही चले, ऐसा वह सूक्ष्म मार्ग होना चाहिए। पहले स्थूल विषय छूटना चाहिए, फिर सूक्ष्म विषय को भी पार कर निर्विषय तत्त्व तक पहुँचना चाहिए। निर्विषय-स्वरूप स्वयं परम पुरुष परमात्मा हैं। परमात्म-स्वरूप को प्राप्त करने के पूर्ण यत्न में चेतन-आत्मा संसार-समुद्र को पूर्ण रूप से पार कर जाती है। मनुष्य-शरीर पाने का यही परम फल है। सूक्ष्म मार्ग ग्रहण करने के लिए नासाग्र और भ्रुवोर्मध्य में ध्यान लगाने को सद्ग्रन्थों में कहा गया है। ये स्थान आज्ञाचक्र (षटचक्र) संबंधी हैं। सारांश यह है कि सूक्ष्ममार्ग का ग्रहण आज्ञाचक्र से होता है। इस मार्ग के ग्रहण से निर्विषय की ओर चलना और विषयों से छूटना होता है। इसको दृढ़ जानना चाहिए। इस संबंध में विभिन्न सन्तों के वचन सुनिये-
 निद्राभयसरीसृपं हिंसादितरंग तृष्णावर्तं दारपंकं संसारवार्धि तर्तुं सूक्ष्ममार्गमवलम्ब्य सत्त्वादि गुणानतिक्रम्य तारकमवलोकयेत्। भ्रूमध्ये सच्चिदानन्दतेजः कूटरूपं तारकं ब्रह्म...। -मण्डलब्राह्मणोपनिषद्
 गुरुदेव बिन जीव की कल्पना ना मिटै,
   गुरुदेव बिन जीव का भला नाहीं ।।
 गुरुदेव बिन जीव का तिमर नासे नहीं,
   समुझि विचारि ले मने माहीं ।।
 राह बारीक गुरुदेव तें पाइये,
   जन्म अनेक की अटक खोलै ।
  कहै कबीर गुरुदेव पूरन मिलै,
   जीव और सीव तब एक तोलै ।।
                                                  - कबीर साहब
 भगता की चाल निराली।
 चाल निराली भगताह केरी बिखम मारगि चलणा।।
 लबु लोभु अहंकारु तजि त्रिसना बहुतु नाहीं बोलणा।
 खंनिअहु तीखी बालह ु नीकी एतु मारगि जाणा।।
 गुर परसादी जिनि आपु तजिआ हरि वासना समाणी।
 कहै नानक चाल भगताह केरी जुगहु जुगु निराली।।
                                                             -गुरु नानक
 मार्ग, पथ या रास्ते को कहते हैं। जिस लकीर पर कोई चलता है और चलकर कहीं-से-कहीं तक पहुँचता है, वही लकीर मार्ग कहलाती है। उपर्युक्त सूक्ष्म मार्ग भी ऐसा ही है। इसका निचला छोर जो प्रथम धरा जा सकता है-ज्योतिर्विन्दु है। यह इस छोर से आगे दूर तक तेजोमय ज्योति- लकीर-ज्योतिपथ कहा गया है।
 प्रगटी ज्योति ज्योति महि जाता। -गुरु नानक
 हंसादिच्चपथे यन्ति...........।
                 -बुद्ध-वचन, धम्मपद, लोकबग्गो, वचन 175
 हंस सूर्यपथ पर जाते हैं, इससे आगे शब्द- मार्ग है।
    सुरत शिष्य सबदा गुरु मिलि मारग जाना हो।
                                                  -तुलसी साहब
 शब्द-पथ पर चलते हुए जहाँ शब्द लय हो जाता है अर्थात् जहाँ शब्द-पथ की समाप्ति हो जाती है, वहाँ सृष्टिप्रसार का अन्त हो जाता है, परमात्म-स्वरूप की प्रत्यक्षता वहीं हो जाती है। सन्तों का ज्ञान और उनकी साधना यहाँ तक पहुँचाती है, यही अन्त और परम पद है।
     बीजाक्षरं परं विन्दु नादं तस्योपरि स्थितम्।
        सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम्।।
                                      -ध्यानविन्दूपनिषद्
 परम विन्दु ही बीजाक्षर है; उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अविनाशी ब्रह्म) में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है।
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यह प्रवचन सहरसा जिलान्तर्गत ग्राम-धुरियाकलासन ( अब जिला-मधेपुरा ) में दिनांक 2.5.1952 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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19. बँधा हुआ कौन है?

प्यारे लोगो !
 यह सत्संग संतों के विचारों के अनुकूल होता है या संतों के विचारों को जानने के लिए होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
 संत संग अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ।
 कहहिं संत कवि कोविद, श्रुति पुरान सदग्रंथ।।
 संतों का रास्ता मोक्ष का है और वासना-युक्त मनुष्योंं का मार्ग संसार में रहने का होता है। मोक्ष में जाने का जो रास्ता हो वह संतों का रास्ता है। पाँच सौ वर्षों से कुछ पूर्व और अंदर में जो संत हुए, सबने अपनी-अपनी प्रांतीय भाषा में अपना उपदेश कहा। किसी ने लिखा, किसी ने लिखा नहीं लिखवाया तथा किसी ने लिखवाया भी नहीं, केवल कहा और लोगों ने सुन-सुनकर लिख लिया। इसी प्रकार उपनिषदों में भी मोक्ष का ही उपदेश है और संतों के विचार उपनिषदों के विचार के अनुकूल ही हैं। मोक्ष का अर्थ है छुटकारा। जबतक कोई दुःख में या बंधन में नहीं बँधा हो तो छूटे तो किससे? बँधा हुआ कौन है? यह जीव एक-एक शरीर में बँधा हुआ है। प्रत्येक मनुष्य को मालूम होता है ‘मैं देह में हूँ’। इस देह में जो आप भोगते हैं, वह भोग आपको तृप्त नहीं करता है। इसमें कभी सुख, कभी दुःख, कभी संपत्ति, कभी विपत्ति आती है। सुख सुहाता है, दुःख सुहाता नहीं है। परंतु जैसे दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आते जाते रहते हैं, उसी प्रकार सुख-दुःख आते-जाते रहते हैं। दुःख शारीरिक और मानसिक; दोनों मिलते रहते हैं। सुख जिसमें मानते हैं, वह विषय अनस्थिर है और भोगने की इन्द्रियाँ स्वल्प शक्तियुक्त हैं। तब इन दोनों के योग से तृप्तिदायक पूर्ण सुख कैसे मिल सकता हैं? भूख लगी, भोजन किया; कुछ काल संतुष्ट हुए, सुखी रहे। पच गया, फिर भूख लगी और वही भूख लगी और वही भूख का दुःख लौटा। विषय-भोगों का सुख-दुःखात्मक चक्र उसी तरह अनवरत घूमा करता है। भला, इन भोगों में तृप्ति, शान्ति और सुख कहाँ?
 शिशुपन में कुछ ज्ञान नहीं, भूख लगती है, देह में दर्द है, किंतु व्यक्त नहीं कर सकते; केवल रोते रहते हैं। अपना अख्तियार नहीं, मल-मूत्र पर पड़े रहे। जवान हुए, कुछ अच्छा, कुछ बुरा ज्ञान हुआ। कभी विहित, कभी अविहित कर्मों को किया। वही शरीर है, बूढ़ा हो गया है, शरीर में शक्ति नहीं है, विषयों की ओर मन दौड़ता है। किन्तु उनका संग्रह और भोग नहीं कर सकते; बहुत दुःखी रहते हैं। काम-क्रोधादिक विकार मन में उपजते रहते हैं, जिनसे अनेक कष्ट मन में होते रहते हैं। जो समझते हैं, उनको कष्ट होता है। इन्हीं मनोविकारों को साधुओं ने मानस रोग कहा है।
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
प्र्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई।उपजइ सन्निपात दुखदाई।।
विषय मनोरथ दुर्गम नाना । ते सब सूल नाम को जाना।।
ममता दादू कन्डु इरषाई।हरष विषाद गरह बहुताई।।
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई।।
अहंकार अति दुखद डमरुआ।दम्भ कपट मद मान नहरुआ।।
तृष्णा उदर वृद्धि अति भारी।त्रिविध ईषना तरुण तिजारी।।
जुग विधि ज्वर मत्सर अविवेका।कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका।।
     एक व्याधि बस नर मरहिं, ये असाधि बहु व्याधि।
     पीड़हिं सन्तत जीव कहँ, सो किमि लहै समाधि।।
 कहाँ सुख है? शरीर और मन सुख देनेवाले नहीं हैं। इनसे यदि अलग हो जाते-दूर हो जाते तो कितना सुख मिलता? इनसे दूर होने में आप कठिनाई मालूम करते होेंगे। सोचते होंगे इनसे निकलना कैसे होगा? जैसे आप शरीर नहीं हैं, वैसे ही मन भी आप नहीं हैं। आप शरीर और मन से भिन्न पदार्थ चेतन-आत्मा हैं। बाहर देह में जैसे दश इन्द्रियाँ हैं, उसी प्रकार इसके भीतर में भी चार इन्द्रियाँ हैं, जिनमें एक मन है। आप शरीर से छूट जायँ, इन्द्रियों के बंधन से छूट जायँ; इसी छूटने को मुक्ति कहते हैं। मोक्ष समझने के लिए बंधन समझना होगा। आप शरीर, इन्द्रिय और अंतःकरण में बँधे हैं। जैसे कोई कारागार में रहता है, वैसे ही आप शरीर में बंद हैं। शरीर से निकलने के लिए यदि कहें कि विष खाकर वा और किसी तरह वा साधारण मृत्यु से शरीर छोड़ सकते हैं, तो इस प्रकार शरीर छोड़ने से शरीर नहीं छूटता। अंतःकरण सहित सूक्ष्म, कारण और महाकारण; ये तीनां जड़ शरीर रह जाते हैं। जिनके रह जाने से पुनः-पुनः स्थूल शरीर का पाना या इस भूमि पर जन्म होना होता रहता है। शरीर के अंदर शरीर है। यह स्थूल शरीर क्या है? हड्डियों का ढाँचा (नगर) बना है, जिसपर मांस और लहू का लेप चढ़ा है, जिसमें जरा, मृत्यु, अभिमान और द्वेष छिपे हैं। इसमें क्या खुशी है? भगवान बुद्ध का यह वचन पूर्ण रूपेण सत्य है। शरीरों के इस कारागार से छूटने का यत्न सीखो और छूटो। संतों का उपदेश इसी कारागार से छूटने का है। और इसी छूटने का नाम मोक्ष है। मुक्ति में नित्यानंद की प्राप्ति होती है। इसी आनंद की प्राप्ति के लिए मुक्ति का प्रयोजन है। संतों ने इसी प्रयोजन की पूर्ति के हेतु मोक्ष का उपदेश दिया है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भगवान का भी यही उपदेश मुक्तिकोपनिषद् में है। इसमें बतलाया गया है कि मैं करनेवाला, भोगनेवाला, सुखी तथा दुःखी हूँ। यह चित्त का धर्म है। इनके निरोध को ही मुक्ति कहते हैं। इनके निरोध के लिए श्रवण, मनन, निदिध्यासन और अनुभव ज्ञान प्राप्त करने का साधन करना चाहिए। इन साधनों के द्वारा जीवन्मुक्त होना असंभव नहीं है। यदि असंभव होता तो श्रीराम ऐसा उपदेश नहीं देते। जन्मान्ध को प्रकाश असंभव मालूम होता है, किंतु यदि उसे आँख हो जाए तो संभव होता है।
 मोक्ष-प्राप्ति के लिए सुनो, विचारो, साधन अभ्यास करो और अभ्यास के अंत तक पहुँचो। सुनना, विचारना तो लोग समझते हैं, किन्तु साधन क्या करना है यह नहीं जानते हैं। इस पर कहते हैं-चित्तरूप वृक्ष के दो बीज हैं। प्राणस्पन्दन और वासना। प्राण का हिलना और इच्छा दोनों में से किसी को चुप करो। एक को खतम करने से दोनों खतम हो जाएँगे। एक को रोकने से दोनों समाप्त होते हैं। प्राण का अर्थ है-जीवनीशक्ति। नाक से निकलनेवाली वायु प्राण नहीं है। प्राणवायु वह है जिस वायु का प्राण से संबंध हो। वायु खींचने के लिए आपके पास यंत्र है, जिसे फेफड़ा कहते हैं। इसमें संकोचन-विकाशन दो क्रियाएँ होती हैं। संकोचन में हवा खींचते हैं और विकाशन में हवा निकल जाती है। फेफड़े को जो पसारे और समेटे उस शक्ति को प्राण कहते हैं। वायु से यह काम नहीं होता। फेफड़े में जो हवा आती-जाती है वह है-प्राणवायु। इसे चुप करने कहा गया है। इसी हवा के साथ व्यायाम करते हैं, उसे प्राणायाम कहते हैं। इसमें तीन क्रियाएँ हैं-पूरक, रेचक और कुम्भक। पूरक में वायु खींचते हैं, कुम्भक में रोकते हैं तथा रेचक में निकाल देते हैं। हवा का साधन करके प्राण स्थिर करना चाहते हैं। दूसरा है-इच्छा का रोकना। प्राणायाम में भी इच्छा का रोकना होता है। परंतु मुख्यतः हवा की तीनों क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। दूसरा साधन है-मन को एक ओर लगाओ। इच्छा आवे, हटाओ। कोई इच्छा आने न पावे। मन समेटकर एकान्त मन से कुछ सोचने से स्वाँस धीमा हो जाता है। चंचल काम में स्वॉस तेजी से चलता है। मन अचंचल हो तो हवा भी स्थिर होगी। हवा को खींचने, ठहराने और फेंकने में हवा की ठोकर भीतर में लगती है, जैसे बाहर की हवा देह में टकराती है। बाहर के चमड़े से भीतर के तंतु कोमल होते हैं। इसमें प्राणायाम की क्रिया से हवा की यदि कड़ी ठोकर लग जाए तो मस्तिष्क बिगड़ जाय, कलेजा में चोट लगना संभव है। ऐसा सुनने में आया भी है कि किसी का मस्तिष्क घूमता है, कितने को रोग हो गया है इत्यादि। इसलिए इसको सापद कहा गया। यदि ठीक तरह से किया जाय तो जो लिखा है वह फल प्राप्त होगा। किंतु यह सापद है। फिर दूसरा साधन है-आप बैठे-बैठे मन को एक ओर लगाओ। मन भागता है समेटो, एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास करो, तो हेमन्तकाल के कमल-सदृश भोग-वासना का नाश हो जाएगा। इसके लिए फिर चार बातें बतलाई गई हैं। अध्यात्म-विद्या की शिक्षा, साधुसंग, वासना-परित्याग और प्राणस्पन्दन निरोध। इन युक्तियों को छोड़कर जो मनमाना ही काम करते हैं, तो वे प्रकाश को छोड़कर अंधकार में ढूँढ़ते हैं। अथवा मदमस्त गजराज को कमलनाल के तंतु में बाँधते हैं। इसके आगे मुक्तिकोपनिषद् में कहा गया है कि वासनापरित्यागार्थ चित्त की पूर्ण एकाग्रता अर्थात् मन की एकविन्दुता के ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। इसके द्वारा अंतर की ज्योति मिलेगी। इस ज्योति की प्राप्ति में विशेष संलग्न होना चाहिए। पुनः इस ज्योति, मन और बुद्धि से ऊपर उठ जाना चाहिए। और भी विशेष ऊपर उठकर अदृश्य (शब्द-प्रणवध्वनि, सारशब्द) को भी पारकर श्रीराम के अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अविनाशी, अस्वाद, अगंध, अनाम और गोत्रहीन दुःखहरण करनेवाले स्वरूप की उपर्युक्त साधन द्वारा भजन कर प्राप्ति करनी चाहिए। इसमें पारमार्थिक समाधि प्राप्त होकर मोक्ष हो जाएगा। परंतु बिना सतगुरु के यह काम नहीं हो सकता। इसलिए कबीर साहब ने कहा है-
बिन सतगुरु नर रहत भुलाना, खोजत फिरत राह नहिं जाना।।
केहर सुत ले आयो गड़रिया, पाल पोस उन कीन्ह सयाना।
करत कलोल रहत अजयन संग, आपन मर्म उनहुँ नहिं जाना।।
केहर इक जंगल से आयो, ताहि देखि बहुतै रिसियाना।
पकरि के भेद तुरत समुझाया, आपन दशा देख मुसक्याना।।
जस कुरंग बिच बसत वासना, खोजत मूढ़ फिरत चौगाना।
कर उसवास मनै में देखै, यह सुगन्धि धौं कहाँ बसाना।।
अर्ध उर्ध बिच लगन लगी है,छक्यो रूप नहिं जात बखाना।
कहै कबीर सु नो भाइ साधो, उलटि आपु में आपु समाना।।
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यह प्रवचन सहरसा जिलान्तर्गत ग्राम-पुरैनीबाजार ( अब जिला-मधेपुरा ) के हाई स्कूल के पास दिनांक 4.5.1952 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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20. अन्तर्ज्याति की खोज


प्यारे लोगो!
 सब आँख बन्द करके देखते हैं, तो अन्धकार मालूम होता है। सन्तों की वाणियों में यह है कि तुम्हारे शरीर के अन्दर अखुट (अघट) भण्डार है। इसमें प्रकृति के सब रूपों और उसके सब विभागों के सहित परमात्मा भी हैं। उन सबको अपने अन्दर पहचान सकते हो। किन्तु जब तुम्हारे अन्दर में अन्ध- कार है, तब तुम क्या देख सकते हो? इसके लिए अन्तःप्रकाश की जरूरत होती है। इसी अन्तःप्रकाश को प्राप्त करने के लिए सन्त कबीर साहब ने कहा है-
   अपने घट दियना बारु रे।।टेक।।
   नाम का तेल सुरत कै बाती, ब्रह्म अगिन उद्गारु रे।
   जगमग जोत निहारु मन्दिर में, तन मन धन सब वारु रे।।
   झूठी जान जगत की आसा, बारम्बार बिसारु रे।
   कहै कबीर सुनो भाइ साधो, आपन काज सँवारु रे।।
 अन्तर में प्रकाश होगा, इसके लिए साधन कीजिये। राधास्वामी साहब कहते हैं-
 सुरत क्यों भूल रही, अब चेत चलो स्वामी पास।।
 हे मनुवाँ तुम सदा के संगी, त्यागो जगत की आस।
 हे इन्द्रियन तुम भोग दिवानी, क्यों फँसो काल की फाँस।।
 जल्दी से अब मुख को मोड़ो, अन्तर अजब विलास।
 जैसे बने तैसे करो कमाई, धर चरनन विश्वास।।
 विषयों की ओर से मन हटे और बहकना छूटकर अन्तर्मुख हो जाय, यही मन का फेरना है। तब अन्तर के अजब विलास प्रत्यक्ष पाये जायँगे।
  सखी री क्यों देर लगाई, चटक चढ़ो नभ द्वार।
  इस नगरी में तिमिर समाना, भूल भरम हर बार।
  खोज करो अन्तर उजियारी, छोड़ चलो नौ द्वार।।
                                                 - राधास्वामी साहब
 नौ द्वारों से सुरत सिमटे, इसके लिए युक्ति मालूम होनी चाहिये। केन्द्र में यदि सुरत केन्द्रित हो जाय, तो अवश्य ही प्रकाश होगा। जबतक सुरत फैली हुई है, तबतक अन्धकार है। सुरत सिमटकर एकविन्दुता हुई कि प्रकाश हुआ। सुरत-सिमटाव के लिए ध्यानाभ्यास की आवश्यकता है। इसके लिए शरीर को तोड़ने-मरोड़ने की आवश्यकता नहीं है। अन्धकार से पार जाना बहुत आवश्यक है। सन्त तुलसी साहब ने कहा है-
सम सील लील अपील पेलै। खेल खुलि खुलि लखि परै। नित नेम प्रेम पियार पिउ कर । सुरति सजि पल-पल भरै ।।
 जो मनोनिग्रह का स्वभाववाला है, वह लील = काला = अंधकार को काटेगा-पार कर जाएगा। तब उसे परमात्मा की लीला देखने में आएगी। फिर परमात्मा के प्रति प्रेम अधिक-से-अधिक हो जाएगा। जब परमात्मा की लीला मालूम होने लगे, तब जो आनन्द होगा, वह आनन्द बाहर की लीला में क्या थोड़ा भी हो सकता है? कदापि नहीं। साधक उस ब्रह्मलीला को शरीर और संसार को भूलकर देखता रहेगा। अंदर में अवश्य प्रकाश है। उपनिषत्कार, मुनिगण और सन्त-महात्मागण- सब-के-सब इस प्रकार का वर्णन करते हैं।
 भगवान बुद्ध का यह वचन ‘धम्मपद’ नामक ग्रन्थ में है-‘अन्धकारेन ओनद्धा पदीपं न गवेस्सथ।’ (जरावग्गो, वचन 146) अंधकार से घिरे तुम प्रदीप की खोज क्यों नहीं करते ? भगवान श्रीराम भी श्रीहनुमानजी से अंतर की ज्योति की खोज करने कहते हैं-
 बहुशास्त्र कथाकन्थारो मन्थेन वृथैव किम् ।
 अन्वेष्टव्यं प्रयत्नेन मारुते ज्योतिरान्तरम् ।।
                                                    - मुक्तिकोपनिषद्
 अर्थात्-बहुत-से शास्त्रों की कथाओं को मथने से क्या फल? हे वायुसुत! अत्यन्त यत्नवान होकर केवल अंतर की ज्योति की खोज करो।
 यह वचन मिथ्या नहीं है। ये बातें उनके लिए झूठी हैं, जिनको परमात्मा पर विश्वास नहीं और संतों की सत्यता पर विश्वास नहीं। किंतु जिनको ईश्वर पर विश्वास है और संतों की सत्यता पर विश्वास है, उनके लिए अंतर्ज्योति होने के विषय में अविश्वास की कोई बात नहीं है। बाबा नानक कहते हैं-
 अन्तरि ज्योति भई गुर साखी चीनै राम करंमा।
 लोग सद्ग्रंथों की गवाही देते हैं, किंतु वे कहते हैं कि अपने अंदर में प्रकाश हुआ, यही गुरु की साक्षी है। जिनको अंतर में प्रकाश मालूम पड़े, उनको अविश्वास कैसे होगा? और जो श्रद्धालु हैं, वे संत-वचन पर ही पूर्ण विश्वास कर लेते हैं कि संतों के वचन ठीक हैं। परंतु जो विचारवान, श्रद्धालु एवं अच्छे साधक भी हैं, वे तो विचार से, श्रद्धा से और साधन से; तीनों तरह से अंतर के प्रकाश का विश्वास करते हैं। ज्ञान के साथ श्रद्धा और श्रद्धा के साथ ज्ञान चाहिए। ज्ञान हो, श्रद्धा नहीं हो तो उसकी स्थिरता नहीं होगी। वे तर्क-वितर्क में किधर-से-किधर बह जाएँगे। जिनको श्रद्धा है और ज्ञान नहीं है, तो हो सकता है वे भी गिर सकते हैं। अंधविश्वास के कारण जो नहीं ग्रहण करने का है, वह ग्रहण कर ले, संभव है। इसलिए ज्ञान और श्रद्धा; दोनों चाहिए।
 परमात्मा के पास चलो, तो वहाँ प्रकाश ही प्रकाश है। यहाँ की राजधानी में बिजली बत्ती जलती है और नौबत बाजा बजता है, उसी प्रकार ईश्वर के दरबार में बिना बिजली के प्रकाश और बिना लौकिक यंत्र के ही वहाँ पर नौबत बाजा बजता है। इस चर्मदृष्टि और कर्ण से उसे नहीं देख-सुन सकते।
 रोशनी के ऊपर लाल या हरा शीशा रहने से शीशे के रंग की रोशनी मालूम होती है; किंतु उस शीशे के आवरण को हटाकर देखने से रोशनी का शुद्ध रूप देखा जाता है। उसी तरह स्थूल से दृष्टि छुड़ाकर केवल दृष्टि रहे, तब अंतःप्रकाश देख सकते हैं। यह दृष्टिसाधन से होगा। अंतर्ज्योति के विषय में संतों ने बहुत उपदेश किया है। दृष्टि वहाँ तक जाती है, जहाँ तक दृश्य है। जहाँ दृश्य नहीं है, वहाँ के लिए शब्द साधना कीजिए। यह शब्द कैसे मिलता है? इसके लिए उपनिषद् में लिखा है-
 बीजाक्षरं परम विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम्।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परं पदम्।।
          -ध्यानविन्दूपनिषद्
 अर्थात् परम विन्दु ही बीजाक्षर है। उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अनाश ब्रह्म) में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है। विन्दु-ग्रहण होने से सूक्ष्म नाद की पहचान होगी। अन्धकार में भी शब्द सुन सकता है; किन्तु केन्द्रीय शब्द पकड़ने में उसे मुश्किल होगी। इसीलिए सूक्ष्म में प्रवेश करके शब्द पकड़ने के लिए ऋषियों तथा संतों ने कहा है। दृष्टियोग ऐसा हो, जिससे एकविन्दुता प्राप्त हो जाय। इसके लिए तीन प्रकार से दृष्टि- साधन या दृष्टियोग होता है- अमादृष्टि, प्रतिपदा दृष्टि और पूर्णिमा दृष्टि। तद्दर्शने तिस्रो मूर्तयः अमाप्रतिपत् पूर्णिमा चेति। निमीलित दर्शनममादृष्टिः अर्धोन्मीलितं प्रतिपत्। सर्वोन्मीलनं पूर्णिमा भवति। -मण्डलब्राह्मणोपनिषद्
 अर्थात् उसके देखने के लिए तीन दृष्टियाँ होती हैं- अमावस्या, प्रतिपदा और पूर्णिमा। आँख बन्द करके देखना अमादृष्टि है; आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा है और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा है।
 हमलोगों का साधन अमादृष्टि है। प्रतिपदा और पूर्णिमा दृष्टि में आँख में कष्ट होता है। सर्व-साधारण के लिए अमादृष्टि ठीक है। भगवान् बुद्ध का ध्यानावस्थित चित्र जहाँ देखिये, वहाँ उनको चित्र में आँख बन्द करके ही ध्यान करते देखियेगा। मेरे पास व्यासदेवजी का एक चित्र है, जिसमें व्यासदेवजी आँख बन्द करके ध्यान कर रहे हैं, ऐसा दर्शन होता है। इसलिए अन्तःप्रकाश को पाने के लिए आँख बन्द कीजिये; किन्तु नींद से बचते रहिये। भजन में ये दो बड़े विघ्न हैं- एक तो आलस्य और दूसरा गुनावन। गुनावन आता जाय, हटाते जाओ। जैसे श्रावण-भाद्र महीने में गंगा की धारा में घास-कूड़े बहते रहते हैं, किन्तु स्नान करनेवाला घास-फूस को हाथ से हटाकर डुबकी लगा लेता है, उसी तरह मन की धारा में बहुत-सी चीजें बह-बहकर आती हैं, उनको हटाकर डुबकी लगाइये, ध्यान कीजिये। ध्यान ऐसा कीजिये कि एकविन्दुता प्राप्त हो जाय। यदि आप कहें कि एकविन्दुता से परमात्मा को क्या सम्बन्ध है, तो गीता में भगवान् श्रीकृष्णजी ने उस विन्दु-रूप को परमात्मा का रूप बताया है-
     कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
     सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।। -गीता, अध्याय 8/9
 यह परमात्मा का सूक्ष्म रूप है। मैं तो इसे ज्योतिर्मय शालिग्राम कहता हूँ। शालिग्राम (शालीग्राम) में भी हाथ-पैर नहीं हैं और विन्दु में भी हाथ-पैर नहीं हैं। योगशिखोपनिषद् के प्रथम अध्याय में लिखा है-
    विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम्।
       देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम्।।
 अर्थात्- विन्दु-नाद महालिंग है और शिव- शक्ति का घर है। इस देह को शिवालय कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है। पुनः इसी उपनिषद् के पाँचवें अध्याय में इस प्रकार कहा है-
 विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम्।
 देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम्।।
 अर्थात्-विन्दुनाद-रूप जो महालिंग है, वही विष्णु और लक्ष्मी का घर है। इस देह को विष्णु-मंदिर (ठाकुरवाड़ी) कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।
 इस (विन्दु) का दर्शन हो, मन टिक जाय, तो कहना ही क्या? एक बंगाली साधु कहते हैं- ‘देखे आँखी कोनो मते फिरे ना।’ जिसको ईश्वर के अणोरणीयाम् रूप का दर्शन होता है, वह ब्रह्मनाद को ग्रहण करता है तथा ब्रह्मनाद को ग्रहण कर परमात्मा को प्राप्त करता है।
 जिस शब्द से परमात्मा की पहचान हो, वह परमात्मा का नाम है। परमात्मा के नाम वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक; दोनों प्रकार के हैं। जाग्रत में वर्णात्मक नाम का जप होता है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति; तीनों अवस्थाओं को छोड़ने पर वर्णात्मक नाम का जप नहीं हो सकता, तब ध्वन्यात्मक नाम का ध्यान होगा। वर्णात्मक नाम का अर्थ होता है; ध्वन्यात्मक नाम का अर्थ नहीं होता है; किन्तु ध्वन्यात्मक नाम बड़ा सुरीला और आकर्षक होता है। इस शब्द से खिंचकर परमात्मा तक पहुँच जाते हैं।
     यही बड़ाई शब्द की, जैसे चुम्बक भाय।
       बिना शब्द नहिं ऊबरै, केता करै उपाय।।
चम्ुबक सत्त शब्द है भाई। चम्ुबक शब्द लोक ले जाई।।
मृतु अंध जबही नियरावै। चुम्बक शब्द जीव मुक्तावै।।
लेइ निकारि होखै नहिं पीरा। सत्त शब्द जो बसै सरीरा।।
                                          -दरिया साहब बिहारी
 कोई उपासक गाणपत्य, कोई शैव, कोई शाक्त, कोई सौर तथा कोई वैष्णव होते हैं। इनमें किसी एक को विशेष और दूसरे को न्यून बतलाना ठीक नहीं। स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण, कैवल्य तथा आत्मस्वरूप; आपको और आपके इष्ट को भी है। शुद्ध आत्मु-स्वरूप सबका एक है। अपने इष्ट के सब रूपों का दर्शन कीजिये, तब आपकी भक्ति पूरी होगी। चाहे आप जिसकी भी भक्ति कीजिये, इन दर्शनों के लिए आपको अन्तर्मुख होना ही पड़ेगा तथा अन्तर्मुख होकर आपकी ऊर्ध्वगति हो, इसके लिए (ब्रह्मज्योति और ब्रह्मनाद) का सहारा लेना पड़ेगा। इन दोनों (ब्रह्मज्योति और ब्रह्मनाद) का सहारा लेकर जो कोई अन्त तक पहुँचेगा, वह कहेगा-जो देवीजी हैं, वे ही शिवजी, वे ही विष्णु, वे ही गणेश और वे ही सूर्य भी हैं- सब एक ही हैं। इसलिए ऐसा भजन हो कि अन्तःप्रकाश और अन्तर्नाद का सहारा लेकर उनके आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लें। तब उसके लिए गणेश, शिव, विष्णु और सूर्य-सब एक ही हो जायँगे। तो इस प्रकार अपने कल्याण के लिए सबको साधना करनी चाहिए।
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यह प्रवचन बिहार राज्य के भागलपुर जिलान्तर्गत ग्राम-दयालपुर में दिनांक 11.5.1952 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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21. संत-साहित्य से परम हित


प्यारे विद्वान साहित्यसेवी सज्जन, महाशयगण तथा अन्य सर्व सज्जनवृन्द! 
 मैं अपने को आप सबके बीच में उपस्थित करके अवश्य ही प्रसन्न हो रहा हूँ। क्योंकि आप महानुभावों के साक्षात्कार से मुझे सुख हो रहा है। परंतु जिस पद पर आप महानुभावों ने मुझे बैठाया है, उस पद पर बैठने की योग्यता अपने में मैं रंचमात्र भी नहीं पाता, इसलिए मुझे संकोच हो रहा है। मैंने अपनी इस अयोग्यता को सम्मेलन के मंत्री महोदय तथा श्रीनरेन्द्र प्रसादजी ‘स्नेही’ के सामने प्रकट कर दिया था और भागलपुर से पत्र लिखा था कि मैं आपके बुलाने की अवहेलना करने का साहस नहीं करता हूँ। आपके सम्मेलन में उपस्थित होऊँगा, परंतु सभापति के आसन पर योग्य विद्वान को ही आप आसीन करें। मैं उस आसन पर बैठने की योग्यता नहीं रखता। इसके उत्तर में मंत्री महोदयजी ने लिखा-‘आपके सभापति होने में जनता और साहित्यिक सभी प्रसन्न हैं। अतः यह निर्णय अब नहीं बदला जा सकता। इसलिए इस संबंध में आपको कृपा करनी ही होगी।’ निज भाषा के साहित्यिक सम्मेलन में बुलाए जाने पर उसमें उपस्थित नहीं होना अपनी भाषा की शिक्षा से अपने को वंचित रखना है, जो निज-दुःख का हेतु है। मेरी सम्मति में ऐसे सम्मेलनों में सब लोग उपस्थित होकर लाभ उठाया करें। जबकि मुझ अयोग्य को ही सभापति के आसन पर बैठाया गया है, तब एक अयोग्य से जो होने की संभावना होती है, वही होगी। इसके लिए मैं आप सज्जनों से क्षमाप्रार्थी हूँ।
 वाङ्मय अथवा पठन-पाठन विषयक सर्व- साधारण-हित-संबंधी गद्य-पद्यात्मक वाक्यों को अथवा इनकी पुस्तकों को मैं साहित्य कहकर जानता हूँ। परंतु वाक्य का कहने या लिखनेवाला मनुष्य होता है, इसमें किसी को भी संशय नहीं। पुस्तकें मनुष्य के वाक्यों को सुरक्षित रखनेवाली हैं, इसीलिए ये अत्यन्त यत्नपूर्वक विशेष सुरक्षित रखने-योग्य है। इन्हीं पुस्तकों के भण्डार को मैं साहित्य-भण्डार कहूँगा। आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक; दोनों पक्षों के हितों और उन्नतियों में सफल रहना मनुष्य जीवन की सफलता है, जो मनुष्य का हित मानने योग्य है। इसी हित के ज्ञान देनेवाले ग्रंथां को साहित्य कहा जा सकता है। साहित्य से सदा लाभ होता आया है और सदा लाभ होता रहेग। साहित्य- हीन देश और समाज में हानि-ही-हानि और हीनता ही हीनता देखने को मिलती है। आर्य और अनार्य; दोनों समाज इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। आर्यों में भी जो साहित्यिक ज्ञान से हीन हैं, वे हीन दशा का ही भोग, भोग रहे हैं। इहलौकिक, पारलौकिक, सांसारिक तथा पारमार्थिक लाभों का ज्ञान देनेवाला, कला-कौशल और विज्ञान का सिखलानेवाला, गिरे हुए को उठानेवाला, असाहसी को साहसी, आलसी को निरालसी, निरुत्साही को उत्साही, निरुद्यमी को उद्यमी, असंयमी को संयमी, विचारहीन को विचार- शील, अज्ञानी को ज्ञानी, अभक्त को भक्त, आसक्त कर्मनिरत को निरासक्त कर्मनिरत, अवनत को उन्नत करनेवाला और रोते को हँसानेवाला साहित्य है। जिस भाषा का साहित्य-भण्डार आध्यात्मिक और आधिभौतिक; दोनों पक्षों के संपूर्ण विषयों की पुस्तकों से भरा हुआ है, उस भाषा के साहित्य से सर्वसाधारण का परम हित होगा। हमारे साहित्य-सेवी विद्वान सज्जन अपनी भाषा के साहित्य-भंडार को ऐसा ही बनाने का प्रयत्न करें। जनता इसमें सहायता पहुँचावे और अपनी सरकार भी इसमें सब प्रकार से बल देने की विशेष कृपा करे।
 मैं पुनः साहित्यिक विद्वानों से निवेदन करता हूँ कि वे अपने मस्तिष्क के साहित्य-भण्डार की धन राशि को लेखबद्ध करके रखते जाएँ। इसके लिए वे किसी पुरस्कार वा आय की इच्छा न करें। सेवा का फल लोकहित होना चाहिए।
 अपने देश में अब कई वर्षों से स्वराज्य प्राप्त है। यह हमें भारतीय जनता के लिए सर्वेश्वर की असीम कृपा से अहोभाग्य है। स्वराज्य प्राप्त होने के पहले आशा थी कि स्वराज्य प्राप्त होने पर हमलोगों को सुराज्य होगा और हमलोग सुखी हो जाएँगे। परंतु हमलोग स्वराज्य पाने पर अपने को सुखी नहीं पा रहे हैं। क्योंकि अपने में अनैतिकता, भ्रष्टाचार, केवल भौतिकता की ओर झुकाव और आध्यात्मिकता की ओर से मुख मोड़ाव का साम्राज्य हमारे यहाँ हो गया है। इसी से स्वराज्य में हम सुराज्य नहीं देख रहे हैं और जनता दुःखी है। जैसे विदेशी शासन की प्रबल शक्ति को हमलोगों ने अनेक कष्टों और अपमानों को सहन करके अपने देश से हटाया है, उसी तरह चाहिए कि इस कथित साम्राज्य को भी हमलोग दूर कर दें। विदेशी शासन को उखाड़कर फेंकने में साहित्य और साहित्यिकों का बड़ा हाथ था। साहित्य से ही देश में स्वराज्य प्राप्ति की प्रेरणा, ज्ञान और शक्ति मिली थी। ऊपर कथित अनैतिकता आदि के साम्राज्य को भी हमलोग साहित्य से ही बल पाकर दूर कर सकेंगे। मैं केवल संत-साहित्य का ही स्वल्पातिस्वल्प अंश जानता हूँ, जिसमें कथित साम्राज्य को नष्ट करने का प्रेरण और बल मैं पाता हूँ। संत कबीर साहब कहते हैं-
    छिमा गहो हो भाई, धर सतगुरु चरणी ध्यान रे ।।
    मिथ्या कपट तजो चतुराई, तजो जाति अभिमान रे।
    दया दीनता समता धारो, हो जीवन मृतक समान रे।।
    सुरत निरत मन पवन एक करि, सुनो शब्द धुन तान रे।
    कहै कबीर पहुँचो सतलोका, जहाँ रहै पुरुष अमान रे।।
 इस अमृतमय शब्द को समझकर इसमें निहित सदुपदेशों के अनुकूल यदि लोग आचरण करें, तो वे झूठ, चोरी, चोर-बाजारी और घूसखोरी, घृणित स्वार्थ, पर-पीड़न, धूर्तता और कपट आदि जो सुराज्य के परमबाधक हैं और जनता के परम दुःखदायी हैं, सबको छोड़ देंगे। देश में सुराज्य होगा, जनता सुखी हो जाएगी और साथ-ही-साथ मोक्ष धर्म-साधन में भी जनता लग जाएगी, जिससे उसका परम कल्याण हो जाएगा। संत-साहित्य में ऐसे सदुपदेशों की प्रचुरता है, जिससे जनता को इहलोक और परलोक; दोनों में सुख प्राप्त हो। वर्तमान साहित्यिकों को चाहिए कि अपनी भाषा के साहित्य के भण्डार को समृद्धशाली बनाने के लिए संत-साहित्य का अध्ययन तथा अनुसरण करें। परमात्म-भक्ति की ओर अर्थात् आध्यात्मिकता की ओर का प्रेरण, समाज को सदाचार पालन की ओर प्रेरण करेगा। सदाचार पालन से सामाजिक-नीति और आचरण उत्तम बनेंगे। राजनीति तथा शासनसूत्र का संचालन भी तब निर्दोष और सुखदायक होगा। इस तरह स्वराज्य में सुराज्य होगा और देशवासी सुखी हो जाएँगे।
 उपर्युक्त कहे गए प्रेरणों की पुरानी और नई रचनाओं के प्रचार की देश में अत्यंत आवश्यकता है। सबलोग इस ओर अच्छी तरह ध्यान दें और इसके व्यापक प्रचार तथा प्रसार में विशेष संलग्नता से तन, मन और धन लगाने की कृपा करें।
 साहित्यिक महानुभावों से नम्र निवेदन है कि संत-रचनाओं का अर्थ साहित्यिक ज्ञान-बल के साथ-साथ संतों के पारिभाषिक शब्दार्थ-बल तथा संत साधना-बल को मिलाकर करने की कृपा करें, तो संभव है कि उसमें त्रुटि नहीं रहने पाएगी। संत साधना की युक्ति जानकर साधन करते हुए तथा उनमें निरन्तर बढ़ते रहकर रहस्य का ज्ञान अनुभूति के द्वारा प्राप्त होने पर संतवाणी का शुद्ध बोध होना संभव है। भूगोल के पुस्तकीय ज्ञान और भूमण्डल भ्रमण करने के व्यावहारिक ज्ञान में अवश्य ही अंतर होना चाहिए। इसी तरह संत साहित्य के केवल साहित्यिक-ज्ञान तथा संतसाधना साधक के ज्ञान में अंतर मानना चाहिए। अब अपने देश और अपनी भाषा के नामों के विषय में कुछ कहना मुझे आवश्यक जान पड़ता है।
 क्या हमलोग अपने को ‘हिन्दू’ ही कहते रहें?
क्या अपने देश को ‘हिन्द’ वा ‘हिन्दुस्तान’ ही कहें? क्या अपनी भाषा को हमलोग हिन्दी ही कहें? ‘साहित्यालाप’ में उच्चकोटि के साहित्यिक श्रीमहावीर प्रसाद द्विवेदीजी ने लिखा है-‘हिन्द’ शब्द फारसी भाषा का है। फारसी ‘हिन्द’ बहुत पुराना है। उसका प्रचार इस देश में मुसलमानों के द्वारा हुआ। ‘‘फारसी भाषा में ‘हिन्दू’ शब्द जो काले के अर्थ में व्यवहृत होता है, वह मुसलमानों की कृपा का फल है।’’ जबकि ‘हिन्द’ या ‘हिन्दू’ शब्दों के विषय में उपर्युक्त जानकारी है, तब ‘हिन्द’ या ‘हिन्दू’ शब्दों का अर्थ फारसी कोष में जो दिया गया है, वही मानना ठीक है, न कि संस्कृत के अनुकूल मानना ठीक है। यदि हमारे पूर्वजों के द्वारा हिन्द शब्द अपने देश के लिए और हिन्दू शब्द अपने लिए रखे गए होते और मुसलमानों के द्वारा प्रचार के पहले से ही ऐसा हुआ होता तो हिन्द शब्द फारसी भाषा का है, कहने का कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता है। जिन लोगां ने हमारे देश के नामकरण के लिए फारसी का शब्द हिन्द रखा और हमको हिन्दू कहा, उन्होंने ही इन शब्दों का प्रचार हमारे देश में किया तो उनका ही अर्थ न्यायतः संसार को उचित जँचेगा, न कि संस्कृतवाला अर्थ। लोग यह भी कहा करते हैं कि अफगानिस्तान, कन्दहार, ईरान और अरब इत्यादि के रहनेवाले ‘स’ का उच्चारण नहीं कर सकते। उन्होंने सिन्धु नदी को हिन्द कहा और उसी से हिन्दू और हिन्दुस्तान बने हैं। फारसी लिपि में चार ‘स’ हैं। से, सीन, शीन और साद। ये लोग सुभान अल्लाह, शख्स, साहब, गुलशन और शाह आदि बोल सकते हैं, पर सिन्ध वे नहीं बोल सकते, यह कैसे विश्वास किया जाय? सिन्ध को हिन्द कहने से समस्त भारतवर्ष का नाम हिन्द हो गया, पर सिन्ध प्रांत का नाम सिन्ध ही रह गया। हमारे सप्ताह को उन्होंने हप्ता कहा है। वे ‘स’ के बदले ‘ह’ कहा करते हैं। उसके पुष्टिकरण के लिए कुछ लोग उपर्युक्त प्रमाण भी देते हैं, पर यह प्रमाण भी मुझे संतुष्ट नहीं करता।
 ‘साहित्यालाप’ में संस्कृत व्याकरण के अनुसार हिन्द और हिन्दू शब्दों को संस्कृत शब्द सिद्ध किया गया है और अर्थ ‘हिंसा करनेवाले को खण्डन करनेवाले अथवा संताप पहुँचानेवाला’ कहा गया है। यह भी कहा गया है कि हिन्दू शब्द का प्रयोग संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। एक स्थल में उसका अर्थ भी लिखा है-हीन लोगों पर दोषारोपण करें, उसे हिन्दू कहते हैं। भेद इतना ही है कि यहाँ हिंसक अर्थ न लेकर हीन लिखा गया है। प्राचीन संस्कृत ग्रंथ के अनुसार जब हीन अर्थ किया है, तब उस स्थान पर जो हिंसक अर्थ कहा गया है, तो बतलाना चाहिए था कि दोनों में से कौन सा अर्थ शुद्ध और पूर्ण है? और उद्धरणों के सहित उन प्राचीन ग्रंथों के नामों को भी लिखकर बता देना चाहिए था। यह भी बता देना चाहिए था कि संस्कृत भाषा विज्ञान के अनुकूल उन प्राचीन संस्कृत ग्रंथां की प्राचीनता कितनी है? परंतु ये सब कुछ नहीं बतलाए गए हैं। अतएव मैं साहित्यालाप से भी हिन्द, हिन्दू, हिन्दुस्तान और हिन्दी के अर्थां के विषय में संतुष्ट नहीं हूँ। क्योंकि हमलोग मुसलमानों के राजत्वकाल से अपने को हिन्दू कहते और कहलाते चले आ रहे हैं, इसीलिए हिन्दू, हिन्द, हिन्दुस्तान और हिन्दी शब्दों को महत्व देकर अपना लें, यह मुझे उचित नहीं जँचता। मुझे तो काला, गुलाम और चोर आदि अर्थवाले शब्द से अपने को अलग रखना ही अच्छा मालूम पड़ता है। गुलाम, गुलाम का देश और गुलाम की भाषा अर्थवाले शब्दों से संसार की दृष्टि में अपने को हेयतर दर्शाना हमारे लिए अत्यंत अयोग्य है।
 महाभारत युद्धकाल में और उसके बाद महाभारत पुस्तक बनने के समय तक तथा बौद्ध और जैनकाल तक भी हमारे पूर्वज अपने को हिन्दू अपने देश को हिन्दुस्तान और अपनी भाषा को हिन्दी संभवतः नहीं कहते थे। कर्मकाण्ड में कुछ संकल्प कराते समय हमको हमारे पुरोहित आर्यावर्ते, भरतखण्डे आदि पढ़ाते हैं, न कि हिन्दे वा हिन्दुस्ताने। इससे अच्छी तरह विदित होता है कि मुसलमानों के द्वारा हिन्द वा हिन्दुस्तान और हिन्दू शब्दों के प्रचार के पहले हमारे पूर्वज अपने देश को हिन्द वा हिन्दुस्तान और अपने को हिन्दू नहीं कहा करते थे। इस तरह जानकर अपनी भाषा को हम हिन्दी कहें, यह उचित नहीं जँचता। ऐसा कौन है, जो अपने देश तथा अपनी भाषा के लिए घृणित और घोर अपमानजनक शब्दों को सहन करे और रखे रहे? हमको हेय और नीच दृष्टि से देखनेवाले लोगों के द्वारा दिए गए जिन शब्दों से अपना घोर अपमान किया गया जानने में आता है, उन शब्दों का अर्थ आदरसूचक मानकर अपने लिए रहने देना, मुझे उचित नहीं जँचता। साहित्यालाप में फारसी हिन्दी बहुत पुराना है, लिखा गया है और फिर दूसरी जगह उस शब्द को संस्कृत का शब्द सिद्ध किया गया है। हिन्द शब्द को फारसी कहना और फिर उसको संस्कृत बना लेना मुझे अयुक्त प्रतीत होता है। तब यह भी विश्वास होने लगता है कि हिन्दू शब्द को भी इसी तरह संस्कृत बनाया गया है और बनाया जाता है। यदि हमारे पूर्वज अपने को हिन्दू कहे होते और उनके लिए यह शब्द उसी काल में अधिक प्रचलित हुआ होता तो फारसवाले हिन्दू शब्द की उत्पत्ति हिन्दू शब्द से किए होते। परंतु ऐसा प्रतीत नहीं होता है। साहित्यालाप को संस्कृत हिन्द से हिन्द शब्द की उत्पत्ति संभव मालूम होता है। जबकि हिन्द को संस्कृत भाषा का शब्द सिद्ध किया गया है, तब फिर उसकी उत्पत्ति हिन्द से फारसवाले किए हों और वह शब्द फारसी बन गया, इस प्रकार का कथन मुझे संतुष्ट नहीं करता। यदि हमारे पूर्वज अपने को हिन्दू कहे होते तो अपने देश को भी हिन्दुस्थान अवश्य कहते, हिन्दुस्तान नहीं। देश के लिए जिन वीरों ने विदेशी शासन को दृढ़ और भारी जंजीर को तोड़ डाला है, उनके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं कि वे हिन्द, हिन्दुस्तान और हिन्दी शब्दां को हटाकर अपने देश, अपने और अपनी भाषा के लिए दूसरे अशोभनीय शब्दों का व्यवहार करें। जबतक मैं अपने विद्वानों और शासन-सूत्र संचालकों द्वारा दूसरे शोभनीय शब्दों को स्थिर किया हुआ नहीं पाऊँगा, तबतक मैं अपने देश को भारत, अपने को भारतीय और अपनी भाषा को भारती कहा करूँगा। अतएव मैं इस साहित्य-सम्मेलन को भारती साहित्य-सम्मेलन कहता हूँ।
 मुझे ज्ञात हुआ है कि साहित्य-सम्मेलन के लिए कार्यालय तथा कला भवन बनाने की माँग कई वर्षों से चली आ रही है। इस माँग की पूर्ति करके साहित्य की उन्नति करने में कार्य-कर्ताओं को सहयोग और साहस देना परमोचित है। अपने जिला के साहित्य-सम्मेलन के सदस्यों और हितैषियों से मैं निवेदन करता हूँ कि वे इस ओर कृपया अपना पूरा ध्यान दें।
 मैं भारती भाषा, जिसको अनेक लोग अभी हिन्दी भाषा कहते हैं, के साहित्य की पूर्ण उन्नति चाहता हूँ। जो सज्जनवृन्द इस उन्नति में सफल सचेष्ट हैं, उनको अनेकानेक धन्यवाद देता हूँ। उनकी इस उदारता पर तो मैं अत्यंत मुग्ध हूँ कि ये मुझसे अयोग्य का भी आदर करते हैं। मैं इसलिए इनको पुनः धन्यवाद देता हूँ। मैं परम प्रभु परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि उनकी शुभ उन्नतियाँ हों और ये उत्तरोत्तर सफल होते जाएँ।
 हे प्यारे विद्वान महोदयगण! आपके सामने जो धृष्टता और भूलें मैंने की हों, उसके लिए आप कृपा कर मुझे क्षमा करें।
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यह प्रवचन पूर्णियाँ जिला साहित्य-सम्मेलन का 14 वाँ अधिवेशन, उच्च माध्यमिक विद्यालय बनमनखी में दिनांक- 1 .6.1952 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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22. पाप और पुण्य दोनों बंधन

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता! 
पुण्य और पाप; इन दोनों शब्दों को सर्वसाधारण जानते हैं। अच्छे-अच्छे कर्मों को पुण्य और बुरे-बुरे कर्मां को पाप कहते हैं। पुण्य का फल सुख और पाप का फल दुःख होता है। पुण्य करने से स्वर्ग और पाप करने से नरक में जाते हैं। दोनों भोगियों का पुनः जन्म होने पर स्वर्ग जानेवाले श्रीमान के घर में और दूसरे ठीक उसके उलटे घर में जन्म लेते हैं। पाप को लोग पसंद नहीं करते और पुण्य को पसंद करते हैं। पाप करनेवाले की बदनामी और पुण्य करनेवाले की नेकनामी होती है। पाप करनेवाले अप्रतिष्ठा और पुण्य करनेवाले प्रतिष्ठा को प्राप्त करते हैं। पुण्य वांछनीय है और पाप अवांछनीय है। ऐसा कोई नहीं जिससे कुछ पुण्य और पाप नहीं हुआ हो। कुछ लोगों से पुण्य अधिक और पाप कम होते हैं, वे ही भले कहे जाते हैं। किसी से पाप अधिक और पुण्य कम होते हैं, वे ही बुरे कहे जाते हैं। ऊँचे पद पर रहनेवाले भी यदि पाप करते हैं तो सामने में नहीं, किंतु पीछे में लोग उनकी निंदा करते हैं। कुछ भले लोग भी ऐसे काम करते हैं और भले कहे जाते हैं, किंतु वे भले नहीं हैं। उनके सामने में उनकी बुराई लोग नहीं कहें, किंतु पीछे अवश्य कहते हैं। लहसुन खाने से गंध होती है, छिपती नहीं। उसी प्रकार एकांत में पाप करने पर भी वह प्रकट हो जाता है। श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम का पद लोगों ने संसार में दिया है, उनको लोग विष्णु भगवान का अवतार मानते हैं। उनकी जितनी प्रतिष्ठा है औरों की उतनी नहीं हो सकती। राजनीति का पेंच और बालि को मिला हुआ वरदान की कठिनाई के कारण उन्होंने बालि को छिपकर मारा। उनसे भी भूल हो गई। बालि का शासन कुशासन था। उसने अपने भाई के साथ अन्याय किया था। ऐसा श्रीराम ने उसे कहा भी। बालि को वरदान था कि जो उसके सामने होकर लड़े, उससे दूना बल उसको हो जाय। इसलिए सुग्रीव से लड़ते हुए बालि को ‘बिटप ओट देखहिं रघुराई’-तुलसीकृत रामायण में लिखा हुआ है। बालि के मारे बिना उसका कुशासन नहीं मिटता, इसलिए श्रीराम ने उसको मार डाला। फिर भी कितने लोग कहते हैं कि श्रीराम ऐसे महान से भी भूल हुई। बालि जानता नहीं था कि किधर से वाण आवेगा। वह तो अपने भाई से लड़ता था। उसका बदला दूसरे अवतार में अर्थात् कृष्णावतार में उस भगवान को व्याधा ने छिपकर वाण से मारा था। महाभारत के मैदान में भगवान श्रीकृष्ण को किसी अस्त्र से कुछ नहीं हो सका। जैसे समुद्र में सब लय होते हैं, उसी तरह सब अस्त्र-शस्त्र उनकी देह में लय हो जाते थे। किंतु एक तीर से उनका शरीर छूटता है, गोया वाण को वह ग्रहण कर लेते हैं। युधिष्ठिर को लीजिए, इतने धर्मात्मा कि उनके रथ का पहिया पृथ्वी से ऊपर होकर चलता था, जमीन में स्पर्श नहीं करता था। राजनीति का पेंच आता है, दोनों दल आमने-सामने युद्ध के लिए खड़े हैं। युधिष्ठिर अस्त्र-शस्त्र छोड़कर खाली देह भीष्म के पास चले जाते हैं। लोग समझने लगे उनकी शरण में जा रहे हैं। कौरव दल में खूब हँसी मच रही थी। भीष्म पितामह को जाकर राजा युधिष्ठिर ने प्रणाम किया और कहा-आप वरदान दीजिए कि मैं शत्रुओं को परास्त करूँ। भीष्म बोले-तुम बड़े सुशील हो। मैं कौरव की ओर से तुम्हारे विरुद्ध लड़ने को हूँ, फिर भी तुमने मुझको आकर प्रणाम किया, मैं बहुत प्रसन्न हुआ। वर माँगो, किंतु मुझको अपनी ओर लेने का वर छोड़कर। युधिष्ठिर ने कहा-वर दीजिए कि मैं जीत जाऊँ। भीष्म बोले-तुम सब भाई मिलकर मुझे किसी तरह गिरा देना। फिर वह द्रोणाचार्य के पास गए और उनको प्रणाम किया। वे बोले कि मैं कहता हूँ-तुम सब भाई मिलकर किसी तरह मुझे मार देना। पुनः वे कृपाचार्य के पास गए और उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने कहा-मेरे रहते हुए भी तुम जीतोगे।
भीष्म के गिरने के बाद द्रोण सेनापति हुए और युद्ध आरंभ हुआ। घनघोर लड़ाई हुई। द्रोण हारते ही नहीं थे। अश्वत्थामा नामक एक हाथी को मारकर भीम ने हल्ला कर दिया कि द्रोणपुत्र अश्व- त्थामा मारा गया। भीम की बातों का द्रोण को विश्वास नहीं हुआ। श्रीकृष्ण के कहने पर लाचार होकर युधिष्ठिर को झूठ बोलना पड़ा। द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से तीन बार पूछा, तीनों बार युधिष्ठिर ने नर अश्वत्थामा के मरने की बात कही। इतने बड़े मनुष्य से भी पाप हो गया। उन्होंने कितने तीर्थ, व्रत, यज्ञ, दानादि पुण्य-कर्म किया था, किंतु झूठ बोलने का एक पाप-कर्म करने से उन्हें नरक देखना पड़ा। ‘भलेउ प्रकृति वश चूक भलाई।’ लाचार होकर भी ऐसा काम हो जाने पर कोई पाप के फल से बच नहीं सकता। पाप का फल अवश्य भोगना पड़ेगा। लोग पाप करते हैं और चाहते हैं कि पाप का फल दुःख न हो। तो क्या ऐसा कुछ उपाय है, जिससे पाप का नाश हो जाय? तो ध्यानविन्दूपनिषद् में लिखा है-
यदि शैल समं पापं विस्तीर्ण बहु योजनम्।
भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन।।
कई योजन तक फैला हुआ पहाड़ के समान यदि पाप हो तो वह ध्यानयोग से नष्ट हो जाता है; इसके समान पापों का नष्ट करनेवाला कभी कुछ नहीं हुआ है।
कर्म तीन प्रकार के होते हैं-क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध। जो किसी प्रारब्ध के कारण से नहीं होता, केवल पुरुषार्थ ही से होता है, वह नया है। पुराने कर्म के कारण से ऐसा हुआ सो नहीं, वह क्रियमाण कहलाता है। जितने कर्म करते हैं वे जमा होते हैं, उस जमा में से थोड़ा-थोड़ा भोगते हैं वह है प्रारब्ध। और अभी जो जमा है और उसमें जमा होता रहता है, वह है संचित कर्म। ध्यानाभ्यास करनेवाला क्रियमाण कर्मरूप पाप से बचता रहता है। क्योंकि पाप करनेवाले से ध्यान नहीं होगा। पापकर्म करनेवालों का मन विषयी होता है, वह संसार में लिपटा रहता है। उसे ध्यानाभ्यास में एकाग्रता आवे और उसका ध्यान बने, यह संभव नहीं है। ध्यान करनेवाला मन को विषयों से हटाता है और पाप से बचाता है। खाना, पीना, पहनना भी विषय है; किंतु वह इन सबको भोगते हुए इनमें लिप्त नहीं होता। डॉक्टर जानता है कि शरीर अस्वस्थ होने से कौन भोजन नहीं करना चाहिए और कौन भोजन करना चाहिए। उसकी बातों के अनुकूल रोगी चलता है और धन पास रखनेवाला धनी यात्री संकट के रास्ते से बचता है। बुद्धिमान पापों से बचने का इच्छुक, गुरु-वाक्य के अनुकूल विषय के कुपथ्य से बचता है और वह परमार्थ मार्ग का यात्री प्रमाद और कुसंग रूप संकटों से भी बचता है। इसलिए क्रियमाण पापकर्म उसको नहीं होता है। शरीर में बरतते हुए प्रारब्ध का भोग नहीं हो, कब संभव है? कितना हू ध्यान में चढ़ा हो, उसका फल भोगना ही पड़ेगा। किंतु उसका भोग वैसा होगा, जैसे कोई मद्य या भाँग पीनेवाला मस्त हो जाता है, तब कहीं चोट लगने से उसका दर्द उसे कम मालूम होता है। डॉक्टर क्लोरोफॉर्म देकर किसी रोगी की चीर-फाड़ करता है, किंतु उसका दर्द उसे मालूम नहीं होता, उसी प्रकार भजन के नशे में उसे कर्म-फल भोग का दुःख और सुख कभी कम और कभी कुछ मालूम नहीं होता। संसार का सुख भी उसे आकर्षित नहीं करता। वह सुख को सह लेता है। साधारण लोग सुख नहीं सह सकते, दुःख को भले सह लें। सांसारिक सुख में लिप्त होना और अहंकारी बनना सुख नहीं सह सकना है। किंतु ध्यानाभ्यासी सुख-दुःख; दोनों को सहते रहते हैं। फिर ध्यानाभ्यास द्वारा ऊर्ध्वगति होती है और अभ्यासी कर्ममण्डल को पार कर जाता है। उसका कर्म-बीज जल जाता है और उसके तीनों कर्म नष्ट हो जाते हैं। इसीलिए उपनिषदों में लिखित श्लोकों में ध्यानाभ्यास द्वारा कर्मों का क्षय दृढ़ता से बतलाया गया है। पाप-पुण्य दोनों कर्मों के फलों से बचने के लिए ध्यानाभ्यास करना सीखो। पाप-पुण्य दोनों बंधन हैं। ध्यान क्या है? ‘ध्यानं निर्विषयं मनः।’ विषय को मन जरा भी नहीं पकड़े। रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द; ये पाँच विषय हैं। इन विषयों को छोड़कर मन रहे, ऐसा होना मन के लिए मुश्किल है। मूर्ति-ध्यान रूप हो ही जाता है, भोजन करते ही कुछ रस हो ही जाता है, संसार में रहोगे कुछ न कुछ गंध लगेगी ही। जप करते हो, शब्द को पकड़े हुए हो, विषय से मन कहाँ हटा? इसका अर्थ नहीं कि जप और इष्ट का ध्यान ही नहीं करो। जपो, ध्यान करो। संसार में बहुत रूप हैं, सब रूपों से आसक्ति हटाकर अपने मन को एक रूप पर रखो। कितने रूप छूट गए? बहुत शब्द हैं, सब शब्दों को छोड़कर एक शब्द के जप में लगे रहो। कितने शब्द छूट गए? इस अभ्यास में पहले दृढ़ हो जाना चाहिए, तब स्थूल रूप का ध्यान और अभ्यास करना चाहिए। भजन करने के समय यदि ख्याल करो कि हलुआ खाऊँ, तो ध्यान कैसे होगा? मतलब यह कि नाम जप और इष्ट-मूर्ति ध्यान के अतिरिक्त मन में कुछ न आने दो। इस तरह सब विषय छूटकर केवल एक नाम और एक रूप रह जायँ, ये स्थूल नाम-रूप हैं। इस साधन के दृढ़ हो जाने पर इसको छोड़कर सूक्ष्म-रूप और सूक्ष्म-नाम के साधन में मन को लगाना चाहिए। सूक्ष्म-रूप का साधन ही दृष्टि-साधन है। जिस रूप को कभी नहीं देखा है, उसे देखने की कोशिश करनी चाहिए। स्थूल मण्डल में आँख खुलते ही स्थूल रूप देखने में आता है। उसी प्रकार दृष्टि साधन ठीक-ठीक बनने से सूक्ष्ममंडल में सूक्ष्म दृष्टि खुल जाती है और सूक्ष्म रूप देखने में आता है। तब कहो कि इष्ट का ध्यान छूट गया? नहीं, इष्ट के स्थूल रूप का ध्यान छूटा, अब उनके सूक्ष्म रूप के ध्यान में मन लग गया। यहाँ सूक्ष्म विषय रह जाता है, इसको भी त्यागकर इष्ट का निर्विषय स्वरूप (आत्म-रूप) प्राप्त करना होगा। इस प्रकार के स्थूल और सूक्ष्म रूप छूटेंगे, किंतु इष्ट नहीं छूटेंगे। सूक्ष्म रूपमंडल में सूक्ष्म शब्द अर्थात् ध्वन्यात्मक नाम का ग्रहण हो सकेगा। जिसके विशेष भजन से सूक्ष्म रूपमंडल, कारण और महाकारण जड़- रूपमण्डल छूट जाएँगे। और सच्चिदानंद पद के केन्द्र में वह शब्द भी लय हो जाएगा। वही केन्द्र निर्विषय तत्त्व पद इष्ट का परम स्वरूप या आत्म-रूप है। ध्वन्यात्मक शब्द जहाँ छूटेगा, वहीं परमात्मा का साक्षात्कार होगा। इस प्रकार निर्विषय तत्त्व को पाते हैं। जिसके पानेवाले को संचित और प्रारब्ध कर्म छू नहीं सकते हैं।
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यह प्रवचन बिहार राज्य के पूर्णियाँ जिलान्तर्गत ग्राम-रघुवंशनगर में दिनांक 8.7.1952 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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23. परम पद से कभी गिरते नहीं

प्यारे लोगो!
 जितने मनुष्य हैं, सब लोग सुख पाना चाहते हैं-यह स्वाभाविक है। जो मन-इन्द्रियों को सुहाता है, वह सुख है। जो मन-इन्द्रियों को नहीं सुहाता है, उसे दुःख कहते हैं। मन-इन्द्रियों को सुहानेवाले पंच विषय हैं। विषय सुखों के अंदर लोग जितने बढ़ते हैं, उनकी तृष्णा भी उतनी ही बढ़ती है। फल यह होता है कि अतृप्त रहकर ही वे शरीर छोड़ते हैं। देवलोक में जाने पर भी वे ही विषय वहाँ मिलते हैं, जो यहाँ मिलते थे। जो इन्द्रियाँ यहाँ सताती थीं, देवलोक में भी वे ही वहाँ सताती हैं। इन्द्रियों के कारण ही देवताओं को भी कलंक लगा। इन्द्रिय-सुख स्वल्प है और दुःखपरिणामी है, यह सुख कभी तृप्तिदायक नहीं, क्षणभंगुर है। मन और इन्द्रियों के सुख के अतिरिक्त और कोई सुख है, जिसे इन्द्रियाँ नहीं जानतीं हैं, वह आत्म-सुख है। सर्वसाधारण में इसकी चर्चा तो कभी-कभी होती है। किंतु आत्म-सुख कैसा होता है, बहुत लोग जानते नहीं हैं। आत्म-सुख नित्य, पूर्ण और तृप्तिदायक है। भक्तवर साधु सूरदासजी महाराज ने अपने सूरसागर में इस सुख का इस प्रकार गुण-वर्णन किया है-
      परम स्वाद सब ही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै।
      मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै।।
 इस सुख के लिए मनुष्य को यत्न करना चाहिए। जिस प्रकार पंच विषय पंच इन्द्रियों के विषय हैं, उसी प्रकार जीवात्मा का विषय परमात्मा है। जबतक चेतन-पुरुष जीवात्मा या सुरत शरीर, इन्द्रिय और अंतःकरण से आवृत्त रहती है, तबतक इसको ईश्वर की पहचान नहीं होती है। जड़ के स्थूल वा सूक्ष्म जिस प्रकार के आवरण में यह रहती है, उसी प्रकार के पदार्थ को पकड़ सकती हैै। आपकी आँख अच्छी होने से संसार की जो चीजें जिस रूप में या जितनी लंबाई-चौड़ाई में हैं, आप उनको ठीक वैसे ही जानेंगे। किंतु यदि आँख पर मोटी पट्टी बाँधी जाय तो कुछ भी नहीं देखेंगे। यदि कोई इस प्रकार का शीशा या चश्मा पहना दिया जाय, जिससे छोटी चीज बड़ी और कम चौड़ी चीज बड़ी चौड़ी देखने में आती है अथवा लाल या हरे रंग का चश्मा लगा दिया जाय, तो चश्मे के गुण और रंग के अनुरूप उस चीज की लंबाई, चौड़ाई और रंग को आप देखेंगे; न कि उसकी असली लंबाई, चौड़ाई और रंग को। इसी तरह जीवात्मा के ऊपर जड़ का परदा पड़ा हुआ है। इस जड़ावरण के अंदर रहकर जीवात्मा को जड़ तत्त्व के विविध भेद-रूप ज्ञान के अतिरिक्त ईश्वर के यथार्थ स्वरूप का कुछ ज्ञान नहीं हो पाता। इस स्थूल आँख से स्थूल रूप देखा जाता है। कोई तो ऐसा भी कहते हैं-ईश्वर है ही नहीं। किंतु यह कहना ठीक नहीं। यह जो मोटा शरीर या आवरण है, इसमें रहकर मोटी-मोटी चीजों को देखते हैं, महीन चीजों को नहीं देख सकते। महीन चीजों को देखने के लिए महीन यंत्रों की आवश्यकता होती है, जिसे खुर्दबीन कहते हैं। हम जो कुछ भी संसार में देखते हैं, वह कभी सुंदर देखते हैं तो कभी वही असुंदर हो जाता है। इस आँख से जो कुछ भी देखते हैं, माया-ही-माया देखते हैं।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई।सो सब माया जानहु भाई।।
         -गोस्वामी तुलसीदासजी
 इन परदों में रहकर ईश्वर के ज्ञान को नहीं जान सकते। जीवात्मा के ऊपर से शरीर-रूपी पट्टी और इन्द्रिय-रूप चश्मा उतर जाय और अकेले होकर रहे, तब जीवात्मा अपने विषय परमात्मा को पहचानेगा। परमात्म-स्वरूप का बौद्धिक ज्ञान अवश्य होता है, किंतु प्रत्यक्ष ज्ञान होने के लिए शरीर और इन्द्रियों के आवरण से छूट जाना चाहिए। उस दर्शन का जो आनंद है, वह तृष्णावर्द्धक नहीं; परम संतोषदायक है। माया के विषयों में संतुष्टि नहीं है, इसलिए तृप्ति नहीं है। ईश्वर-प्राप्ति का सुख संतुष्टि देनेवाला है और इसीलिए इसमें तृप्ति है। जीवात्मा परमात्मा का अंश है। परमात्मा पूर्ण है। इस पूर्ण को पाकर कभी कोई अतृप्त रहे, संभव नहीं। संत-महात्मागण यही कहते हैं कि जो लोग सुख पाने की इच्छा करते हैं, उन्हें ईश्वर प्राप्ति का यत्न करना चाहिए। इसके लिए कोई योग, कोई ज्ञान और कोई भक्ति पर जोर देते हैं, किंतु समझानेवाले ज्ञानी समझाते हैं-आप तीनों को पृथक्-पृथक् क्यों मानते हैं? तीनों एक ही जगह हैं। जहाँ योग है, वहीं ज्ञान और भक्ति है। जहाँ भक्ति है, वहीं ज्ञान और योग है। तथा जहाँ ज्ञान है, वहीं भक्ति औैर योग है। लोग कहते हैं-योग कठिन और भक्ति सरल है। किंतु तीनों का अर्थ जानना चाहिए। भक्ति का अर्थ है सेवा, ज्ञान का अर्थ है जानना और योग का अर्थ है मिलाप। बिना ज्ञान के अर्थात् जाने बिना किसकी सेवा और कैसे सेवा की जाय? और यदि योग अर्थात् मिलाप करने के लिए नहीं जाने तो भक्ति करता है किसलिए? मिलने के लिए, यह कैसे होगा? इसलिए ज्ञान, भक्ति और योग; तीनों एक संग हैं। अर्थात् तीनों का अभ्यास करना चाहिए। हाँ! आरंभ में कोई तीनों को पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं कर सकता। पहले तो स्वल्प-ज्ञान है। संतों के संग से उनपर रंग लगता है। कोई-कोई ऐसे भी होते हैं, जो संतों का संग तो करते हैं, किंतुु मन संसार में लगाकर रखते हैं। उनपर वैसा रंग नहीं लगता।
 नित प्रति दरशन साधु के, औ साधुन के संग।
 तुलसी काहि वियोग ते, नहिं लागा हरि रंग।।
 मन तो रमे संसार में, तन साधुन के संग।
 तुलसी याहि वियोग ते, नहिं लागा हरि रंग।।
                               -तुलसी सतसई
 साधु के पास जाकर भी सांसारिक वस्तु पाने की इच्छा करते हैं।
 ऐसी दीवानी दुनिया, भक्ति भाव नहिं बुझै जी।।
 कोई आवै तो बेटा माँगै, यही गुसाईं दीजै जी।।
 कोई आवै दुख का मारा, हम पर कृपा कीजै जी।।
 कोई आवै तो दौलत माँगे, भेंट रुपैया लीजै जी।।
 कोई करावै व्याह सगाई, सुनत गुसाईं रीझै जी।।
 साँचे का कोई गाहक नाहीं, झूठे जक्त पतीजै जी।।
 कहै कबीर सुनो भाइ साधो, अंधों को क्या कीजै जी।।
 किंतु चाहिए तो ऐसा होना-
विषयन सो जो रहे उदासा। परमारथ की जा मन आशा।।
धन संतान प्रीति नहिं जाके। विषय पदारथ चाह न ताके।।
तन इन्द्री आसक्त न होई। नींद भूख आलस जिन खोई।।
बिरह बान जिन अंतर लागा। खोजत फिरै साध गुरू जागा।।
      -राय बहादुर शालिग्राम, राधास्वामी द्वितीय आचार्य
 ऐसा रहे तो झट रंग लग जाय। इसलिए पहले साधु-संग करें। संग करने से, सदाचार पालन करने का, अनुकरण करने को मिलता है। साधु- संग में जाने पर परमार्थ ओर की कोई कथा अवश्य होगी। इसलिए दूसरी भक्ति कथा प्रसंग है। कथा प्रसंग से ज्ञान उपजेगा और गुरु से भक्ति करने के लिए सीखेगा। गुरु की सेवा करेगा, यह तीसरी भक्ति होगी। कोई किसी की सेवा करेगा, तभी उससे कुछ गुण प्राप्त करेगा। सेवा करनेवाला मान-प्रतिष्ठा का ख्याल छोड़कर करेगा, तभी गुण प्राप्त करेगा। फिर ईश्वर का गुण-गान गावेगा, चाहे पद्य में अथवा गद्य में। यह चौथी भक्ति होगी। फिर पाँचवी भक्ति आती है, दृढ़ विश्वास से गुरु मंत्र का जप करना। विश्वास इस बात का कि जपने का जो शब्द है, वह ईश्वर की ओर कर देता है। जिस शब्द का जप करना हो उसका अर्थ जानना चाहिए। जप करने से जापक की वृत्ति ईश्वर की ओर जावेगी। जप करते समय मन को समेटकर जप करना चाहिए। जप तीन प्रकार के हैं-बहुत लोग जानते हैं। वाचिक, उपांशु और मानस। वाचिक जप में, जप के शब्द को मुँह से उच्चारण करते हैं, जिसे स्वयं तो सुनते ही हैं और दूसरे लोग भी सुनते हैं। उपांशु जप में होठ हिलते हैं और मुँह में ही उच्चारण होता है, स्वयं ही सुनते हैं, बाहर और किसी को सुनाई नहीं देता। मानस जप में मुँह से उच्चारण नहीं होता है, मन से ही मंत्रावृत्ति होती रहती है। उत्तम मानस जप है। और आगे बढ़ते हैं-इन्द्रियनिग्रह करने का स्वभाव वाला हो जाना। यह बहुत बड़ी बात है। इन्द्रियाँ वश में हो जाएँ, बहुत से कर्मों की ओर से चित्त हट जाय और संसार में सज्जनों के धर्म के अनुकूल बरता करे। पाप की ओर-बुराई की ओर न जाय। भलाई की ओर-पुण्यकर्म की ओर जाय। जानना चाहिए कि बाहर की इन्द्रियाँ मन की प्रेरणा से चलती हैं। और जब बाहर की इन्द्रियाँ बाहर विषय की ओर होती है, तब मन में उस विषय की चाहना होती है। जैसे आँखें खुली हैं, कोई सुंदर रूप देखा तो मन में सुंदर रूप देखने की इच्छा होती है। फिर मन आँख को प्रेरणा करता है, उस सुंदर रूप को देखते रहने को। इस प्रकार जानना चाहिए कि मन की धार जो इन्द्रियों में है, विषयों में लगकर विषयों को जानती है। बाहरी इन्द्रियों में असल में तो मनोवृत्ति ही है। इसलिए मनोवृत्ति को समेटने का साधन होना चाहिए। आजकल लोग कहते हैं, यह समय यांत्रिक है। यंत्र से सब काम होते हैं। खेत को यंत्र से जोतते हैं, यंत्र से पानी पटाते हैं, आटा-चावल यंत्र से तैयार करते हैं तथा चलना-फिरना भी यंत्र से होता है। यह शरीर भी यंत्रमय है, हमलोग इसमें पड़े हैं। पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ बाहर की ओर और चार अंतःकरण भीतर की ओर हैं। इन दोनों में बड़ा मेल है। बिजली के यंत्र में बिजली सार है, उसी के बल पर चलती है। उसी प्रकार मन है। जिस प्रकार पानी खींचने का जो यंत्र है, उसको गाड़ी में लगा देने से गाड़ी को खींचता है। उसी प्रकार मन जिस विषय में दौड़ता है, उसको उससे उलटाकर यदि निर्विषय की ओर लगाओ तो वही करने लगेगा। इन्द्रियां की घाटों पर जबतक मन रहता है, विषय की ओर होता है। उनसे उनको समेट लेने पर वह विषय से निर्विषय की ओर हो जाएगा। निर्विषय तत्त्व परमात्मा है। पंच ज्ञानेन्द्रियों में से मन की धारों को खींचकर उसे वहाँ ले जाय, जहाँ से इसका प्रसार होता है।
अर्थात् वहाँ सबको समेटकर मिला दे, तब यही हो जाएगा योग। अथवा इसी को आप चित्तवृत्ति-निरोध कहेंगे। क्योंकि चित्तवृत्ति-निरोध को ही योग कहते हैं। ऐसा होने से केन्द्र में केन्द्रित होकर आगे को बढ़ाव होगा, इसी को कहेंगे भक्ति। क्योंकि यह बढ़ाव स्थूल विषयों की ओर के प्रतिकूल जाना निर्विषय परमात्मा की ओर जाना है। किसी चीज को समेटिए तो वह अपने प्रथम प्रसार की ओर से विपरीत दिशा को हो जाती है। इसी प्रकार स्थूल में सिमटाव होने से उसके विपरीत सूक्ष्म की ओर सुरत की गति होगी। कोई किसी की पूजा करने के लिए अथवा दर्शन के लिए चलता है तो यह चलना उसकी भक्ति में दाखिल है। इसी प्रकार जो अपनी वृत्ति को समेटता है और उपर्युक्त गति होती है, तब यह गति ही उसकी भक्ति होगी। अंतर की ऊर्ध्वगति में जैसे-जैसे उससे उत्पन्न स्वाभाविक चैन और ब्रह्मज्योति तथा ब्रह्मनाद की प्रत्यक्षता होती है, वैसे-वैसे विषयों की ओर से मन छूटता जाता है। यही होगी छठी भक्ति। कथित योग युक्ति के जाने बिना तीनों क्रमशः बढ़ते हैं और साधक पूर्णज्ञान, पूर्णयोग और पूर्णभक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। तब तीनों तीन नहीं रहेंगे, एक हो जाएँगे। इसलिए कहते हैं भक्ति करो। किसकी और कैसे भक्ति करें? इसके लिए आपलोग रामचरित मानस की नवधा भक्ति सुनिए और समझिए-
 प्रथम भक्ति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
 गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भक्ति अमान।
 चौथि भगति मम गुन गन, करै कपट तजि गान।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विश्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।
षट दमशील विरति बहुकर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
सातवँ सम मोहिमय जग देखा। मोते संत अधिक कर लेखा।।
आठवँ यथा लाभ संतोषा। सपनेहु नहिं देखइ पर दोषा।।
नवम सरल सब सन छल हीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।।
 ये नवो प्रकार की भक्तियाँ क्रमबद्ध हैं। पहली भक्ति है संतों का संग। भक्ति में जो पूर्ण हैं, वे संत हैं।
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।
          -महोपनिषद्
 अर्थात् परे से परे को (परमात्मा को) देखने पर हृदय की ग्रंथि खुल जाती हैं, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं। या गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के वचन में है-
 षट विकार जित अनघ अकामा।
  अचल अकिंचन सुचि सुख धामा।।
 अमित बोध अनीह मित भोगी।
  सत्य सार कवि कोविद योगी।।
 अर्थात् (संत) छहों विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य) को जीते हुए, निष्पाप, इच्छारहित, स्थिर, धनत्यागी, पवित्र और सुख के स्थान होते हैं। वे अति विशेष ज्ञानवान, इच्छारहित, अल्पभोगी, सत्य के साररूप कवि, विद्वान और योगी होते हैं।
 ऐसे जो कोई हों, वे संत हैं। सर्वसाधारण इनको पहचान नहीं सकते। और ऐसे पुरुष बहुत कम होते हैं। इसलिए संतों की पहचान कठिन हो जाती है। फिर जिनको आप सचाई में बरतते देखें, ईश्वर की आराधना नित्य करते देखें और उत्तम आचरण के हों तो उनको साधु-संत कहकर जानने में कोई आपत्ति नहीं। इनकी पहचान भी तभी होती है, जब उनका कुछ दिनों तक संग किया जाय। भले लोग साधारण रूप में देखे जाते हैं। उनका संग करने से उनकी विशेषता जानने में आ जाती है। बुरे लोग अपने को अच्छे रूप में दरसाते हैं, किंतु उनका संग करने से उनके अवगुण उघर जाते हैं।
 उघरे अंत न होहिं निबाहु। कालनेमि जिमि रावण राहू।।
 इसलिए पहले संतों का संग करने को कहा और बिना उसके अभ्यास के छठी भक्ति नहीं हो सकेगी। इसी में दमशीलता होती है। इसके किए बिना कोई छठी भक्ति नहीं कर सकता। मन और इन्द्रिय का जबतक संग-संग साधन होता रहता है, तबतक ‘दम’ का साधन है, जिससे दमशीलता प्राप्त होती है। और जब केवल मन का साधन होता है, तब होता है ‘शम’। दम और शम दोनों में विशेष संबंध है। शम के साधन में प्रवृत्त रहना सातवीं भक्ति है। बिना शम के कोई ‘सम’ प्राप्त नहीं कर सकता। दम और शम के साधन में ब्रह्मज्योति और ब्रह्मनाद प्राप्त होते हैं। जहाँ ब्रह्मज्योति हैं, वहीं ब्रह्मनाद भी हैं। जब सुरत अनहद ध्वनि में रत होती रहती है, तब शम का साधन होता रहता है तथा जब साधक ब्रह्मनाद के निरुपाधिक मूल और शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, तब वह शम हो जाता है। अर्थात् उसको समता प्राप्त हो जाती है। ऐसे भक्त साधक को ‘यथा लाभ संतोषा’ का गुण प्राप्त हो ही जाएगा। और वह सरल और छलहीन होकर एक परमात्मा का ही भरोसा रखते हुए हर्ष, द्वेष, दीनता आदि विकारों से रहित हो जाएगा। इस तरह वह साधक नवो प्रकार की भक्तियों को प्राप्त कर लेता है। भक्ति केवल मोटी भक्ति में ही समाप्त नहीं होती हैं। भक्ति सूक्ष्म भी है और अत्यंत सूक्ष्म भी है।
 कथित प्रकार से भक्ति को जानें और इसका साधन करके साधक परम भक्त होकर परमप्रभु परमात्मा को पाकर पूर्ण शांतिमय निर्बन्ध पद को प्राप्त करता है और नित्यानंद में निमग्न होकर उस पद से कभी नहीं गिरता है। इसी भक्ति से लोग आवागमन के चक्र से छूटते हैं। नित्य सुख को सदा भोगते रहते हैं। यह जानकर सबको ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए।
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यह प्रवचन बिहार राज्य के भागलपुर जिलान्तर्गत ग्राम-बैकुण्ठपुर दियारा दिनांक 18.7.1952 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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24. अंतर में देखने का यत्न गुरु से सीखो

धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
 मन और चित्त का संबंध बहुत घनिष्ठ है। कहीं-कहीं मन की जगह चित्त और चित्त की जगह मन का व्यवहार करते हैं; किंतु दोनों दो चीज हैं। जिस प्रकार बाहर में दश इन्द्रियाँ हैं, उसी प्रकार अंदर में चार इन्द्रियाँ हैं, जिसे चतुष्ट्य अंतःकरण कहते हैं। मन का संकल्प-विकल्प करने का काम है। बुद्धि का विचार करने का, चित्त का हिलाने का और अहंकार का ‘मैंपन’ का बोध करने का। लोगों के चित्त में यह उठता रहता है कि मैं सुखी हूँ, दुःखी हूँ, मैं कर्ता हूँ, भोक्ता हूँ। ये अनिवार्य रूप से आते रहते हैं। यदि चित्त को चुप करें तो यह रुक सकता है, किंतु केवल विचार से रुक नहीं सकता। भूख को भोजन करके ही चुप कर सकते हैं, केवल ख्याल से चुप नहीं कर सकते। उसी प्रकार मैं सुखी हूँ, दुःखी हूँ, कर्ता हूँ, भोक्ता हूँ; इसको भी केवल विचार से चुप नहीं कर सकते। इसको चुप करने के लिए चित्त को चुप करो, इसके लिए साधन करना होगा। साधन द्वारा जो जीवन में रहते हुए इसको चुप करके रहता है, वह जीवन-मुक्त कहलाता है। शरीर में रहनेवाला जीवात्मा है। जीवात्मा के लिए शरीर उपाधि है। यह शरीर बड़ा वृक्ष है। सूक्ष्म शरीर अंकुर है, कारण शरीर बीज है।
 बिना क्रियमाण के प्रारब्ध नहीं होता। पुरुषार्थ को क्रियमाण कहते हैं। पुरुषार्थ का एकत्रित होना संचित कर्म कहलाता है। संचित से थोड़ा-थोड़ा (भोग) खर्च होता है, वही प्रारब्ध कर्म है। जब प्रारब्धकर्म क्षय हो जाय, तब सभी कर्म छूटने पर विदेहमुक्त होता है, जड़-चेतन की गाँठ खुल जाती है। दूध को मथकर घी अलग कर फिर घी में रखने से जैसे रहता है; उसी प्रकार जड़-चेतन की ग्रंथि खुल जाय और फिर इस शरीर में रहे, वह विदेहमुक्ति है। संसार में जो आनंद होता है, वह स्वल्पानंद है, अनित्यानंद है। नित्यानंद में शान्ति है, संतोष है। इसी नित्यानंद प्राप्ति के लिए मोक्ष का प्रयोजन है।
 जीवन कमजोर रस्सी है। दिन-रात उजला और काला मूसा है, सांसारिक विषय-सुख शहद के समान है। यह थोड़ा-सा सुख नित्यानंद नहीं है। नित्यानंद की प्राप्ति का यत्न करो।
 पुत्र चाहनेवाला पुत्रेष्टि यज्ञ करता है। ज्योति- ष्टोम यज्ञ से स्वर्ग-लाभ करते हैं। वाणिज्यादि द्वारा धन-लाभ करते हैं। इसी प्रकार वेदान्त श्रवणादि- जनित ज्ञान से जीवनमुक्तादि लाभ होता है। ज्ञान को चार दर्जां में बाँटा गया है-श्रवण, मनन, निदि- ध्यासन और अनुभव। अनुभव जो ज्ञान सबसे पीछे उत्पन्न हो। सुनता है, विचारता है, साधन करता है, साधन करके अंत कर देता है, तब अनुभव ज्ञान होता है। इसलिए ये तीनों कर्म करो। तीनों का अंतिम फल अनुभव ज्ञान है।
 चित्त का धर्म तब रुकेगा, जब इसकी क्रिया रुके। चित्त की क्रिया हिलना है। इस हिलने को बंद करो। चित्त के हिलने से ही सब इन्द्रियाँ काम करती हैं। इन्द्रियों को प्रेरण करनेवाला मन है। चित्त का हिलना बंद होते ही संसार का पसार बंद हो जाता है। पसार का बंद होने से सिमटाव होता है। सिमटाव से ऊर्ध्वगति होती है। ऊर्ध्वगति इतनी होती है कि कर्म-मण्डल को पार कर जाता है और प्रारब्ध कर्म क्षय हो जाता है। तो चित्त के हिलने को बंद करने के लिए श्रीराम ने कहा-चित्तवृक्ष के दो बीज हैं, प्राणस्पन्दन और वासना। इन दोनों में से एक को चुप करो, दोनों बंद हो जाएँगे। प्राणस्पन्दन को बंद करके भी चित्त को रोकते हैं और दूसरा है वासना को रोकना। मन किसी एक ओर लग जाता है, तो दूसरी ओर से फिर जाता है। किसी तरफ की इच्छा प्रबल हो जाती है, तो दूसरी तरफ से फिर जाता है। ईश्वर की तरफ इच्छा प्रबल हो जाय, तो संसार की ओर से छूट जाएगी। इच्छा को छोड़ने के लिए एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास करने कहा। प्राणायाम द्वारा प्राणस्पंदन रोकना विपद्जनक है।
 यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः शनैः।
 तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम्। -शाण्डिल्योपनिषद्
 जैसे सिंह, हाथी और बाघ धीरे-धीरे काबू में आते हैं, इसी तरह प्राणायाम (अर्थात् वायु का अभ्यास कर वश में करना) भी किया जाता है, प्रकारान्तर होने से वह अभ्यासी को मार डालता है। वासना को रोकने के लिए यत्न करना सरल साधन है। एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास करने से हेमन्त-काल के कमल के समान भोग-वासना का नाश हो जाएगा। एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास-एक मंत्र का जप करना, एक मूर्ति का ध्यान करना। (अनेक मूर्ति का ध्यान करने से मनोजय नहीं होगा) एक मूर्ति का ध्यान नख से शिख तक लोगे। हाथ, पैर, नाक, मुखारविंद, माला, वस्त्र आदि होने से ये भी एक तत्त्व नहीं हुआ। एक तत्त्व वही होगा, जिसे श्रीराम ने कहा-एकविन्दुता, जिसमें अंग-प्रत्यंग नहीं है। मोटे-रूप में एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास शालिग्राम है, इसमें हाथ, पैर, नाक, कान, मुँह नहीं। अल्प ज्ञान के लिए सुंदर-असुंदर रूप को जानते हैं, यह मायिक ज्ञान है। यदि आत्मा से देख पाओ तो वहाँ का सुंदर-असुंदर कुछ भी नहीं रहेगा। आत्मा की सुंदरता को प्राप्त कर इस सांसारिक रूप में नहीं फँसता। एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास विन्दु ध्यान है। बिना दिव्यदृष्टि खुले उसका दर्शन नहीं हो सकता। यही श्रीमद्भगवद्गीता का अणोरणीयां है। यह मन से गढ़ने का नहीं है। इसमें लंबाई-चौड़ाई नहीं है। देखने के ढंग से देखो। तुलसीदासजी ने बहुत आढ़, परदे से कहा है-
लोचन चातक जिन्ह करि राखै। रहहिं दरस जलधर अभिलाखै।।
निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप विन्दू जल होहिं सुखारी।।
 देखने का यत्न गुरु से सीखो। यह एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास है। ऐसा रहनेवाले की भोग-वासना एकदम छूट जाएगी। इसके लिए साधु-संग, वासना-परित्याग, अध्यात्म-विद्या की शिक्षा और प्राणस्पन्दन-निरोध करो। इच्छा छूटेगी, मन एक ओर होता जाएगा, प्राणस्पंदन रुक जाएगा। साधु- संग, वासना-परित्याग, प्राणस्पंदन-निरोध, अध्यात्म- विद्या की शिक्षा; ये चारो बातें सद्युक्ति हैं। इनको छोड़कर जो हठात् चित्त पर काबू करना चाहता है, वह प्रकाश त्यागकर अंधकार में ढूँढ़ता है। मदमस्त गजराज को कमल-नाल के तंतु में बाँधना चाहता है। सब लोगों को चाहिए कि ईश्वर का भजन करें। ईश्वर का स्वरूप अमायिक है, आत्मा से ग्रहण होने योग्य है। जड़-चेतन ग्रंथि नहीं खुलने से दिव्यदृष्टि नहीं हो सकती। दिव्यदृष्टि प्राप्त करने के लिए यत्न सीखो। इसके लिए पहले किसी मंत्र का जप, किसी स्थूल रूप का ध्यान करो। फिर विन्दु रूप का ध्यान करो। ज्योति के जितने प्रकार हैं, सूक्ष्म रूप हैं, इसके और आगे बढ़ो। स्थूल-सूक्ष्म रूप उपासना के बाद अरूप उपासना होगी, वह नाद उपासना है। वह ब्रह्मनाद है-चेतन- धारा सुनती है, कान नहीं सुन पाता। उसमें जो ध्यान लगाता है, उसमें खिंचाव होता है। नाद उपासना से नाद के उदगम में खिंचाव होगा और वह नाद भी लय होगा, निःशब्द हो जाएगा। जिस क्लेश में हमलोग पड़े हैं, यह क्लेश नहीं हों, इसलिए ईश्वर की भक्ति कर मोक्ष-प्राप्ति कर लें।
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यह प्रवचन संतमत सत्संग मंदिर मनिहारी, जिला कटिहार में दिनांक 18.10.1952 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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25. बहुदेव उपासना ठीक नहीं

प्यारे लोगो!
   लोका मति का भोरा रे ।
      जौं काशी तन तजे कबीरा, रामहिं कौन निहोरा रे ।।
      तब हम ऐसे अब हम ऐसे, यही जनम का लाहा ।
       जौं जल में जल पैठ न निकसे, यौं ढूरि मिला जुलाहा ।।
      राम भगति में जाको हित चित, वाको अचरज काहा ।
      गुरु प्रसाद साधु की संगति, जग जीते जात जुलाहा ।।
      कहै कबीर सुनो हो संतो, भरम परो जनि कोई ।
      जस काशी तस मगहा ऊसर, हृदय राम जौं होई ।।
 कबीर साहब कहते हैं-अरे, सीधी बुद्धि का मनुष्य! यदि काशी में कबीर शरीर छोड़े अर्थात् काशी की लोकोक्ति-महिमा के भरोसे कबीर काशी में शरीर छोड़े, तो राम से विनय करने का (राम भजन करने का) कौन-सा फल? तब अर्थात् शरीर धारण से पूर्व में ऐसा था और अब अर्थात् शरीर धारण करके ऐसा हूँ अर्थात् शरीर धारण के पूर्व में विकार-रहित था और अब शरीर धारण करने पर भी विकार-रहित हूँ-यही मनुष्य जन्म का लाभ है। जिस तरह जल में जल प्रविष्ट होकर फिर भिन्न होकर नहीं निकलता है, उसी तरह मैं (जुलाहा) शरीर-रूपी घडे़ से ढरककर ईश्वर से जा मिला। राम-भक्ति में जिसका चित्त प्रेम से लगा है, उसके लिए यह कौन-सा आश्चर्य है! गुरु की कृपा और साधु के संग से जुलाहा (कबीर) संसार को जीतकर जाता है। कबीर साहब कहते हैं कि हे संतो! भ्रम में मत कोई पड़ो। यदि हृदय में राम हो तो काशी जैसा है, ऊसर (मगहा) भी वैसा ही है।
 बहुदेव उपासना में ईश्वर का ज्ञान नहीं होता। एक ईश्वर पर निर्भरता भी नहीं होती। ऐसे व्यक्ति से पूछने पर ईश्वर के विषय में कुछ कह भी नहीं सकते। किंतु इसी भारतवर्ष के अंदर जो केवल एक ईश्वर की उपासना करते हैं, वे कह सकते हैं। आर्य-समाजी या कबीर, नानक आदि संतवाणी को समझने, बूझनेवाले जानते हैं। किंतु इन लोगों में भी अब कमी आ गई है। एक ईश्वर पर विश्वास नहीं और बहुदेव उपासना करनी एक प्रकार की नास्तिकता ही है। किंतु आजकल ऐसी हवा चल गई है कि लोग बाहरी आडम्बर के कारण बाह्यपूजक को ही आस्तिक कहते हैं। जो बाह्य-पूजन नहीं करते, उसे ही नास्तिक कहा करते हैं। यह इस देश के लिए ठीक नहीं हुआ। संतवाणी में देवताओं का भी वर्णन है, किंतु इनको उतना स्थान नहीं दिया गया है। एक ईश्वर पर स्थिर होने कहा गया है।
     देव दनुज मुनि नाग मनुज सब, माया विवश विचारे ।
     तिनके हाथ दास तुलसी, प्रभु कहा अपुनपौ हारे ।।
 गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- ‘देवताओं का व्रत करनेवाले देवताओं के पास, पितरों का व्रत करनेवाले पितरों के पास, (भिन्न-भिन्न) भूतों को पूजनेवाले (उन) भूतों के पास जाते हैं और मेरा भजन करनेवाले मेरे पास आते हैं। संत कबीर साहब ने कहा-
 देवता पित्तर भूइयाँ भवानी, यह मारग चौरासी चलन की।
 इसलिए मेरी भी यही इच्छा है कि सब कोई एकदेव उपासी अर्थात् ईश्वर उपासी बनें। जो कोई ऐसा समझते हैं कि देवता की भक्ति नहीं करके एक ईश्वर की भक्ति करने से देवता रुष्ट हो जाएँगे, तो उनको क्या कहा जाय? वे तो राक्षस हैं। कोई-कोई कहा करते हैं कि साधारण लोगों में यह ज्ञान देना ठीक नहीं। उन्हें गंगा स्नान करने, दान-दक्षिणा देने की ही शिक्षा दो। यदि सदा सबको यही शिक्षा दी जाय तो ऊँची शिक्षा कैसे प्राप्त करेगा? यदि कहो कि सबलोग खूब पढ़-लिख लेंगे, विद्वान होंगे, तब उन्हें यह शिक्षा दो। तो इतने ऊँचे-ऊँचे विद्यालय में पढ़कर सब विद्वान हो जाय, कठिन है। यह ईश्वरीय ज्ञान तो धीरे-धीरे सुनते-सुनते सीख जाएँगे, चाहे एक अक्षर का भी ज्ञान नहीं हो। तोता जिसे मनुष्य के समान कण्ठ नहीं, उसे सिखाते- सिखाते मनुष्य की तरह बोलने लगता है और अपनी ओर से भी पीछे बोलने लगता है, तब मनुष्य क्यों नहीं सीख सकता? लोग हमारे सत्संग पर आक्षेप करते हैं कि ये सबको ब्रह्मज्ञानी बना देंगे। वे चाहते हैं कि सबको नीचे ही रखें, तो रहो सब मिट्टी पूजते ही। लोग कहते हैं ये नीची जाति के लोग हैं, इन्हें उपदेश नहीं दो। यह कितना संकीर्ण हृदय है। यह बात अच्छी नहीं। एक ईश्वर की उपसनावाले की ऊर्ध्वगति होती है और वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। किंतु अनेक देव-उपासी संसार की ओर जाता है और जन्म-मरण के चक्र में रहता है। यह संतमत एक उपासी बनने के लिए शिक्षा देता है। इसलिए ईश्वर के स्वरूप को जानो। ईश्वर के स्वरूप को जानने के लिए थोड़े में जानना चाहो तो पाँच कर्मेन्द्रियाँ-हाथ, पैर, मुँह, गुदा और लिंग; पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ-आँख, नाक, कान, जीभ और त्वचा और चार अंतःकरण-मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार; कुल चौदहों इन्द्रियों से उसका ज्ञान नहीं होता। पैर से तीर्थादि जाओ, हाथ से हवनादि करो, मुँह से स्तुति या अच्छे-अच्छे शब्दों में भजन गाओ, किंतु ईश्वर को नहीं जान सकते। ये सब चौदहों इन्द्रियाँ ईश्वर को पाने के सर्वदा अयोग्य हैं। मन तो अंधा है, यह पहचान ही नहीं सकता। बुद्धि के विचार में ईश्वर-स्वरूप आता है, किंतु पहचान नहीं सकती। चित्त केवल कम्पन अर्थात् मन को डुलाने के लिए जानता है और अहंकार से ‘मैंपन’ का ज्ञान होता है। इन इन्द्रियों से पहचान नहीं सकते। अपनी चेतनात्मा से पहचान सकते हो, जब इसपर इन्द्रिय आदि चश्मे का आवरण न हो। इन इन्द्रियों से अपने को छुड़ाकर चलना भक्ति है। जगन्नाथजी का दर्शन करने अथवा गंगा-स्नान करने के लिए चलना उसकी भक्ति है। उसी प्रकार ईश्वर से मिलने के लिए चलना ईश्वर की भक्ति में दाखिल होना है।
 ईश्वर-भक्ति का ज्ञान सबको देना चाहिए। एक ईश्वर की उपासना ठीक है। बहुदेव उपासना ठीक नहीं। बहुदेव उपासी ईश्वर को भूल जाता है। वही नास्तिक है। फिर ऐसा भ्रम कि अमुक जगह मरने से स्वर्ग और अमुक जगह मरने से नरक होगा, यह बात नहीं हो सकती। गंगा-स्नान करने से, आपके मृतक शरीर को गंगा के किनारे जलाने से अथवा आपकी हड्डियाँ या भस्म को गंगाजी में देने से स्वर्ग हरगिज नहीं हो सकता। पाप करके पुण्य करें, इससे पाप नहीं कट सकता। पुण्य का फल अलग और पाप का फल अलग मिलेगा। आपने किसी से दो रुपया कर्ज लिया और किसी को दो रुपया दान दिया, इसलिए वह महाजन आपसे रुपया नहीं माँगे, यह कहाँ की बात है? वह तो कहेगा कि आपने दान अपने लिए किया, मुझे उससे क्या? मेरा रुपया दो।
 युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष झूठ बोले, बल्कि उनकी प्रेरणा से झूठ बोले, फिर भी दो मुहूर्त तक नरक में रहना पड़ा। उसके लिए खातिरदारी नहीं हुई।
 जो कर्म कीजिएगा, उसका फल भोगना ही पड़ेगा। तब आप कहेंगे कि क्या कर्म-फल से कोई छूट नहीं सकता? सौर-जगत में रहने से सूर्य का प्रभाव पड़ेगा ही। यदि सौर जगत से कोई पार हो जाए तो उस पर सूर्य का प्रभाव नहीं पड़ता। उसी प्रकार कर्म मंडल में रहने से कर्म का फल भोगना ही पड़ेगा। कर्ममण्डल पार कर जाने से कर्मफल छूट जाएगा। इसीलिए मैंने पहले ही कहा कि अपने को इन्द्रियों से छुड़ाओ।
 चौथ चारि परिहरहु, बुद्धि मन चित अहंकार ।
 विमल विचार परमपद, निज सुख सहज उदार ।।
      -विनय-पत्रिका
 विचार में अपने का ज्ञान होता है, किंतु पहचान नहीं। अपने को चतुष्ट्य अंतःकरण से छुड़ाओ, कर्ममण्डल से पार हो जाओगे। अपनी पहचान होगी और मोक्ष मिलेगा। फिर कर्मबंधन से छूटोगे। ‘कर्म कि होहिं स्वरूपहिं चिन्हें।’ लोक- लोकान्तर में जाने से मुक्ति नहीं मिलती। कभी न कभी फिर यहाँ आना ही पड़ेगा। इसलिए अपने को सब आवरणों से छुड़ाकर कैवल्यता प्राप्त करो और मोक्ष प्राप्त कर लो। फिर आवागमन से रहित हो जाओगे।
 अगस्त्यजी ने श्रीराम को कहा था कि राजा श्वेत ब्रह्मा के लोक में गए, दान नहीं किया था, अतः उसको वहाँ भी भूख-प्यास सताती थी। उसको निज-मृत शरीर का मांस भोजन करने की आज्ञा ब्रह्मा ने दी। वहाँ भी भूख-प्यास सताती थी, कर्म से छुट्टी वहाँ भी नहीं। बैकुण्ठ में जय-विजय एक समय सनक, सनन्दन और सनत्कुमार आदि को रोका तो वहाँ भी शाप लगा और रावण- कुम्भकर्ण हुआ। जहाँ तक द्वैत है, वहाँ तक ऐसा ही रहेगा। अद्वैत में ऐसा नहीं होगा।
 एक ईश्वर उपासना में कोई विघ्न नहीं हो सकता। मजबूत होकर एक ईश्वर की उपासना में लगो। ईश्वर नहीं है, यह बहुत बुरी बात है। पहला-जो जीव माने, ईश्वर नहीं; दूसरा-ईश्वर माने, किंतु उपासना नहीं, बहुदेव उपासी हो और तीसरा-जीव, ईश्वर कुछ नहीं माने; स्वर्ग, नरक भी नहीं माने-ये तीन प्रकार के नास्तिक हैं। इन तीनों से बचना चाहिए।
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यह प्रवचन संतमत सत्संग मंदिर मनिहारी, जिला कटिहार में दिनांक 25.10.1952 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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26. मन बिजली से भी सूक्ष्म है

प्यारी जनता!
 सत्संग में संतों के वचन का पाठ होना चाहिए। सुनने में मीठा, समझने में और भी विशेष मीठा मालूम होता है। पहले ध्यानविन्दूपनिषद् का पाठ हुआ। इसमें कहा गया कि पाप को नाश करने के लिए ध्यान ही सबसे बड़ी चीज है। ध्यान का आरंभ प्रत्याहार से होता है। प्रत्याहार के बिना धारणा नहीं होगी, धारणा बिना गहराई नहीं होगी, गहराई के बिना ध्यान नहीं हो सकता।
 मन भागता है, उसको समेटकर लगाओ, यह प्रत्याहार है। फिर कुछ काल ठहरता है, वह धारणा होती है। धारणा बहुत बार होने पर गहराई होती है। मन देर से टिकता है, तब ध्यान होता है। पहले प्रत्याहार, फिर धारणा; यह ध्यान के लिए प्रयास करना है। यह प्रयास के बिना ध्यान नहीं हो सकता।
 लोग कहते हैं, मन भागता है, यह ठीक है, सबको ऐसा होता है। थोड़ा-सा यत्न करके कोई कहे, नहीं होता है तो भूल है। जितना अभ्यास करना चाहिए उतना करना जरूरी है। पहले किसी का मन नहीं लगता है। भागे तो सम्हाल कर रखो। यह जितनी बार भागे, उतनी बार समेटो। कितनी बार समेटना पड़ेगा, ठिकाना नहीं! करते-करते होगा। कबीर साहब ने कहा-
   लखत लखत लखि पड़ै, कटै जम फंद है।
 भगवान श्रीकृष्ण भी कहते हैं-तुम्हारा मन जहाँ-जहाँ भागे, वहाँ से हटा-हटाकर फिर लगाओ। लोग कहते हैं-कुछ काल देखा, फिर भाग गया। अरे! वह नहीं भागा, वह जहाँ का तहाँ है, तुम भाग गए। ‘ बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादि ।’
 पहले लिखते समय कितनी बार हाथ टेढ़ा हुआ, फिर ठीक हुआ है। यह करना होगा। भजन- भेद जाननेवाले सब अभ्यास कीजिए, कभी निराश नहीं होइए, होगा कि नहीं! पहले प्रत्याहार होगा, उसका फल धारणा होगी, धारणा का फल ध्यान होगा। ध्यान कहते हैं-मन की एकाग्रता को, इतना सिमटाव कि जिसका बाँट नहीं हो सकता। जिससे छोटा कुछ नहीं हो सकता, वह है विन्दु-गीता का अणोरणीयाम्। इस तरह की धारणा हो कि एकविन्दुता हो। उसपर पूर्ण सिमटाव हो, यही श्रीमद्भागवत का शून्य ध्यान होगा।
 तत्र लब्धपदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत।
 तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किंचिदपिचिन्तयेत।।
   -स्कन्ध 11, अध्याय 14
 मुखारविन्द में चित्त के स्थिर हो जाने पर उसे वहाँ से हटाकर आकाश में िंस्थर करें, तदनन्तर उसको भी त्यागकर मेरे शुद्ध-स्वरूप में आरूढ़ हो और कुछ भी चिंतन न करे।। 14।।
 मुखारविन्द का ध्यान, फिर शून्य का ध्यान।
शून्य ध्यान सबके मन माना।
     -संत कबीर साहब
 जबतक कोई एक स्वरूप अवयव सहित रहता है, मन की बाँट समस्त शरीर पर होती है। एकविन्दुता पर पूर्ण सिमटाव होता है। सिमटाव का फल ऊर्ध्वगति स्वाभाविक है। जिस परिमाण में पूर्ण सिमटाव होगा, उसके विरुद्ध की ओर गति हो जाएगी, बढ़ाव हो जाएगा। किसी चीज को समेटो तो ऊपर की ओर वह बढ़ेगी। चाहे वह ठोस, तरल या वाष्पीय हो। जो जितना सूक्ष्म है, उसका उतना ही अधिक सिमटाव और ऊर्ध्वगति होगी। बर्फ से पानी और पानी से वाष्प अधिक सूक्ष्म होने के कारण बर्फ से पानी, पानी से वाष्प में विशेष ऊर्ध्वगति होगी।
 अब मन को लो, मन बिजली से भी सूक्ष्म है। इसको समेटकर देखो, तब मन की चाल देखोगे। मन जाय, ठीक-ठीक जाय। वहाँ तीव्रता जो आती है, उसको देखो। यहाँ पूर्ण सिमटाव पहले स्थूल मंडल में होगा। स्थूलमंडल कर्ममंडल के अंदर का है। यहाँ सिमटाव होने से सूक्ष्ममंडल में जाता है, यह भी कर्मभूमि है। यह स्वर्ग या देवलोक है। यहाँ भी सिमटाव होने से जहाँ कर्म बीज रूप है, वहाँ चला जाएगा। वहाँ भी सिमटाव हो जाय तो कर्ममंडल को पार कर जाएगा। पाप-पुण्य कर्म दोनों छूट जाएँगे। पाप-पुण्य कर्म का फल भोगने के लिए संसार ही है। हमलोग जो कर्म करते हैं, इन कर्मों के फल को भोगकर कोई समाप्त नहीं कर सकता, किंतु ध्यानाभ्यास द्वारा कर्ममंडल को पार कर जाएगा और पाप-पुण्य दोनां कर्मों से छूट जाएगा। इस पाप से निवृत्त हो जाएगा। पाप ही क्यों? पुण्य-कर्म का फल भी संसार में ही भोगना पड़ता है। संत तुलसी साहब कहते हैं-
आली अधर धार निहार निजकै। निकरि सिखर चढ़ावहीं।।
जहाँ गगन गंगा सुरति जमुना । जतन धार बहावहीं।।
जहाँ पदम प्रेम प्रयाग सुरसरि । धुर गुरू गति गावहीं।।
जहाँ संत आस विलास वेनी । विमल अजब अन्हावहीं।।
कृत कुमति काग सुभाग कलिमल । कर्म धोइ बहावहीं।।
हिये हेरि हरष निहार घर कौ । पार हंस कहावहीं।।
मिलि तूल मूल अतूल स्वामी। धाम अविचल बसि रही।।
आली आदि अंत विचारि पद कौ। तुलसी तब पिउ की भई।।
    त्रिवेणी संगमो यत्र तीर्थराजः स उच्यते ।
    तत्र स्नानं प्रकुर्वीत सर्व्वपापैः प्रमुच्यते ।।
 अर्थात् देह में जहाँ उल्लिखित तीनों नाड़ियों का संगम है, उस स्थान को गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम-त्रिवेणी कहते हैं। यह त्रिवेणी सर्वप्रधान तीर्थ कहकर गिनी जाती है। इस तीर्थ में स्नान करने से सब पापों से मुक्ति मिलती है।
 इस प्रकार कर्ममंडल से पार हो सकेंगे। एक तो ऋषि वाक्य है, इसलिए दूसरे विचार द्वारा भी यह बात ठीक जँचती है। पाप-कर्म करनेवाले से ध्यान नहीं होगा। पुण्य-कर्म करनेवाला भी यदि फलाशा रखता है तो वह भी बँधा हुआ रहेगा। सत्संग के बल से विचार के द्वारा पाप कर्मां से बचें। पुण्य कर्म करें, किंतु फलाशा नहीं रखें। पुण्य कर्म क्यों करें? तो संसार में रहकर कोई निष्कर्म नहीं रह सकता। कुछ कर्म करना ही होगा। यदि कहो कि पाप-पुण्य दोनों बाँधते हैं तो पाप करो ही नहीं, किंतु पुण्य करो। फिर फलाशा त्यागकर, इससे बंधन नहीं होगा।
 ध्यानाभ्यास के द्वारा उसकी वहाँ तक गति होगी, जिसको कोई पार नहीं कर सकता। वह है परमात्मा। उसको पाने पर फिर जन्म-मरण के चक्र में नहीं पडे़गा।
 पहले बीजाक्षर, फिर नाद और फिर नाद को भी लयकर देना। बीजाक्षर क्या होता है ? अक्षर का बीज जहाँ कलम रखते हैं, पहले विन्दु होता है, फिर कोई अक्षर। विन्दु के बिना लकीर नहीं हो सकता। बिना लकीर के कोई आकार या अक्षर नहीं हो सकता। इसलिए किसी आकार या अक्षर का बीज विन्दु है। फिर उन्होंने विन्दु में भी परम लगा दिया है। रेखागणित में विन्दु पढ़ता है, किंतु उसकी परिभाषा के अनुकूल बाहर में कोई बना नहीं सकता। बाल की नोक से एक चिह्न देने पर भी परम विन्दु नहीं हो सकता। परम विन्दु लिखने के लिए परमात्मा ने कलम दे दी है, वह है दृष्टि।
 दृष्टि दो प्रकार की होती है-एक फैली हुई, दूसरी सिमटी हुई। अर्जुन को निशाना मालूम होता था और कुछ नहीं। सूई की छेद में तागा करते समय कितना सम्हाल करना होता है ?
कहै कबीर चरणचित राखो, ज्यों सूई बिच डोरा रे।
 एक बार द्रोण ने स्वयं अपने निशाने का परिचय दिया था। एक बार कौरव तथा पांडव सब भाई मिलकर गेंद खेल रहे थे। संयोगवश गेंद कुएँ में गिर पड़ा। अब इन लोगों को कुएँ से गेंद निकालने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। उसी समय द्रोण उसी होकर वहाँ आ निकले। इन लोगों ने उनसे गेंद निकाल देने की प्रार्थना की। द्रोण ने एक सींकी से गेंद में मारा, पुनः सींकी के पेन्दें में दूसरी सींकी से, एवं प्रकार सींकी के पेन्दे को सींकी से छेदते हुए कुएँ के ऊपर तक सींकी का छोर लगा दिया और गेंद को निकालकर उनलोगों को दे दिया। सींकी के पेंदे में सींकी मारना दृष्टि को कितना महीन करना है? इनकी दृष्टि कितनी सिमटी हुई थी? अपनी दृष्टि को इस प्रकार सूक्ष्म बनाओ।
 बाहर में भी कितनी दृष्टि सिमटी है, जो अभ्यास कर पाता है वह जानता है। यह गप वाली बात नहीं। केवल सिद्धांत ही हो और प्रयोग नहीं, ऐसी बात नहीं। यह बाहर का हाईड्रोजन, ऑक्सीजन नहीं है, जो दोनों वाष्पों को मिलाकर दिखलाया जाय कि जल किस प्रकार होता है। एकविन्दुता होने पर जो दर्शन होता है, वह परमात्मा का सूक्ष्म-रूप है। शालिग्राम में हाथ-पैर नहीं है, मुकुट नहीं है, भगवान मानते हो। यह विन्दु ज्योतिर्मय है, इसे भगवान क्यों नहीं मानते, यह भीतर का शालिग्राम है। बड़भागी पुरुष एक बार भी दर्शन कर पाता है तो कितना हृदय शांत मालूम होता होगा। उसका दर्शन होने पर मुनि कहते हैं- नादं तस्योपरिस्थितम्। संसार में जहाँ भी देखो, शब्द होता है।
 सृष्टि शब्दमय है। स्थूल जगत में शब्द है, उसी प्रकार सूक्ष्म जगत में भी शब्द है। ध्यान करके देखो, ठीक है या नहीं। चित्त जैसे-जैसे स्थिर होगा, शब्द सुनने में आता जाएगा। विन्दु प्राप्त करने पर सूक्ष्म नाद खुल पड़ेगा। यह वचन अतिशयोक्ति या रोचक नहीं है, यथार्थ है। शब्द से क्या होगा? शब्द में अपने उद्गम स्थान पर आकर्षण करने का गुण है। सब प्राणी शब्द के आकर्षण में खींच जाता है। विन्दु पर जहाँ से शब्द आता है, उसको पकड़नेवाला वहाँ लय होता है। जहाँ से वह शब्द आया है, वह लय होता है निःशब्द में। वही परमपद है। अंत में शब्द का अभ्यास होता है।
 नास्ति नादात्परो मंत्रो न देवः स्वात्मनः परः।
 नानुसंधे परा पूजा न हि तृप्ते परं सुखम्।।
 अर्थ- नाद से बढ़कर कोई मंत्र नहीं है, अपनी आत्मा से बढ़कर कोई देवता नहीं है, (नाद वा ब्रह्म की) अनुसन्धि (अन्वेषण या खोज) से बढ़कर कोई पूजा नहीं है तथा तृप्ति से बढ़कर कोई सुख नहीं है।
 नासनं सिद्ध सदृशं न कुंभक सदृशं बलम्।
 न खेचरी समा म ुद्रा न नाद सदृशो लयः।।
 अर्थ- न सिद्धासन सम आसन, न कुंभक सम बल, न खेचरी के समान मुद्रा और न नाद के तुल्य लय है।
 विन्दु के प्रकट होने से नाद स्वयं प्रकट हो जाता है। गुरुदेव कहते थे-‘माता का स्तन पान करने में बच्चा को जो आनंद मिलता है, उससे विशेष आनंद नाद को प्राप्त करने पर होता है।’ इसको अपने अंदर में देखो। जैसे तेलधारा अटूट है। घंटे का दीर्घनादवत् जो नाद है, उसको ग्रहण करे। इसके लिए मनिहारी में रहो या काशी में। श्वपच अपने घर मे करें, वहाँ होगा। भूदेव अपने घर में करें, वहाँ भी होगा, किंतु हृदय दोनों का एक होना चाहिए।
 युधिष्ठिर के यज्ञ में भगवान श्रीकृष्ण ने श्वपच को चुना था। नाभाजी इस युग में हुए हैं, जिनकी ‘भक्तमाल’ बनाई हुई हे। ये तुलसीदासजी के समय में हुए थे। किसी बड़ी या छोटी जाति के कारण हृदय बनेगा या नहीं यह बात नहीं। रविदास को सब कोई जानते ही हैं चमार थे। हृदय वैसा ही था, जैसा तुलसीदासजी का।
 पुरुष नपुंसक नारि वा, जीव चराचर कोई ।
 सर्वभाव भज कपट तजि,मोहि परम प्रिय सोइ।।
 तो ध्यान से मोक्ष होना, परमपद का प्राप्त होना, आवागमन का छूट जाना है। इसके लिए बाहर में भटकने की जरुरत नहीं।
 कबीर गुरु की भक्ति कर,तजि विषया रस चौज ।
 बार बार नहिं पाइए, मानुष जन्म की मौज ।।
     - कबीर साहब
 विषय की मौज छोड़ने कहा। विषय की मौज में रहनेवाला अपने सुख में लगा रहेगा। दूसरे की सेवा करनेवाले को अपना शारीरिक सुख छोड़ना पड़ता है। तन, मन, धन की आसक्ति छोड़नेवाला तन, मन, धन से सेवा कर सकता है। विषय से संसार भरा हुआ है। विषय छोड़कर कहाँ जाओगे? तो विषय में आसक्त होकर मत रहो। फिर कहो, इस बार मौज करने दो, दूसरे जन्म में देखा जाएगा। तो कबीर साहब ने कहा-‘बार-बार नहिं पाइये मानुष देह की मोज।’
 राजा भरत को मरने के समय हिरण का ख्याल हो गया, मरने के बाद हिरण हो गया। भक्ति सब कर सकते हैं, इसके बीज का विनाश नहीं होता। हिरण हो जाने पर भी बीज नष्ट नहीं हुआ। दूसरे जन्म में और बढ़ गया। इसी को गीता के छठे अध्याय में भगवान ने कहा है-
    अनेकजन्मसंसिद्धिस्ततो याति परांगतिम्।
     -अध्याय 6, श्लोक 45
 अनेक जन्मों से अन्तःकरण की शुद्धिरूप सिद्धि को प्राप्त हुआ और अति प्रयत्न अभ्यास करनेवाला योगी संपूर्ण पापों से अच्छी प्रकार शुद्ध होकर, उस साधन के प्रभाव से परमगति को प्राप्त होता है अर्थात् परमात्मा को प्राप्त होता है।
 भक्ति बीज बिनसै, नहीं आय पड़ै जो चोल।
 कंचन जो विष्ठा परै, घटै न ताको मोल।।
 भक्ति बीज पलटै नहीं, जो जुग जाय अनंत।
 ऊँच नीच घर जन्म ले, तउ संत को संत।।
 नीच कुल में जन्म होने पर बीज नष्ट नहीं होता। ‘भक्ति ठानि शब्दै गहै, बहुरी न काछै भेख।’ शब्द को पकड़ ले। जाग्रत से ऊपर उठकर देखो तुरीय अवस्था में, तब यह जाग्रत स्वप्नवत् मालूम होगा। इसके ऊपर जाओ, अद्वैत पद में पहुँचो, तब फिर मिलना -बिछुड़ना, सुख -दुःख देनेवाला कोई नहीं रहेगा। जहाँ जड़-चेतन की ग्रन्थि खुल जाय।
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।
        - महोपनिषद्, अध्याय 4
 अर्थ- परे से परे को (परमात्मा को) देखने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।
 उसी कर्म को करने में मनुष्य की सार्थकता है। सबको यही विचार ग्रहण करना चाहिए। सब संतों का मार्ग एक ही है। इसके लिए विषय की तरफ से आकर्षण को हटावें विचार से। विचार से कोई विषय की ओर से मन को हटाए बिना भजन में बढ़ नहीं सकता। खुलाशा में समझो तो झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार मत करो। एक ईश्वर पर अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा तथा अपने अंतर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना, सद्गुरु की निष्कपट सेवा, सत्संग और दृढ़ ध्यानाभ्यास; इन पाँचों को मोक्ष का कारण समझना चाहिए।
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यह प्रवचन संतमत-सत्संग मन्दिर, मनिहारी, कटिहार में दिनांक 25.10.1952 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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27. सज्जनों का धर्म क्या है?

प्यारी जनता!
 आपलोग और संसार के लोग पूर्ण शान्तिपूर्वक रहना चाहते हैं। मनुष्य ही क्या? संपूर्ण प्राणी सुख पाने की इच्छा करते हैं, चेष्टा करते हैं; किंतु पूर्ण संतुष्टि नहीं होती। सांसारिक सुख में दौड़ते हैं और पूर्ण संतुष्टि चाहते हैं, यह हो नहीं सकता। आप इतिहास, पुराण पढ़कर देखिए, कोई भी इस विषय सुख में पूर्ण सुखी और संतुष्ट नहीं हुए। इसलिए संतों ने कहा- परम सुख, शांतिमय सुख चाहते हो तो वह परमात्मा में है। उसको प्राप्त किए बिना पूर्ण सुख नहीं मिलेगा। इसलिए आपलोगों को नवधा- भक्ति सुनायी गयी।
 संतों ने कहा कि भक्ति करो। और कोई कर्म करो तो उससे ईश्वर नहीं मिलेंगे, भक्ति करने से ईश्वर मिलेंगे। इसलिए आपलोगों को भक्ति का विषय सुनाया। बहुत धन, प्रतिष्ठा, हुकुमत मिल गई; किंतु इसमें सुख नहीं, यह महाजंजाल है। प्रबन्धकर्ता हैरान रहते हैं, किंतु फिर भी जैसा चाहते हैं, वैसा कर नहीं पाते।
 श्रीराम देव-प्रेरणा से जंगल को चले गए। माता कैकयी और राजा दशरथ का कोई दोष नहीं-
 काहू न कोउ सुख दुखकर दाता ।
   निज कृत करम भोग सुनु भ्राता ।।
 श्रीराम जंगल में घुमते थे। वे जीव-कोटि के नहीं थे, ईश्वर-कोटि के थे। संसार में सज्जनों के कल्याण के लिए, दुष्टों के दमन करने के लिए आए थे। रावण के द्वारा सीताजी का हरण हुआ। ऐसा होने से रावण के साथ दुष्ट आए और श्रीराम के द्वारा सबका दमन हुआ।
 मातंग ऋषि के रहने का स्थान जंगल में था। उनके शिष्य उस आश्रम में रहते थे। ऋषि का शरीर छूट गया। उस कुटी में उनकी शिष्या शवरी रहती थी। वह बड़ी कुरूपा थी। उसकी कुरूपता देखकर उसके पति ने उसको छोड़ दिया था। जबतक मातंग ऋषि थे, तबतक शवरी उस आश्रम में रही, बाद में साधुओं ने उसे हटा दिया। वहाँ के तालाब से भी पानी लेने से मना कर दिया। फल यह हुआ कि तालाब का पानी सड़ गया। तब साधुओं को भी दूर से पानी लाना पड़ने लगा। अंत में श्रीराम उस आश्रम में आए। उन्होंने साधुओं से पूछा कि आपलोगों को कोई कष्ट भी है? उनलोगों ने कहा कि जिस तालाब से हमलोग पानी लाते थे, उसका पानी सड़ गया है। हमलोगों को दूर से पानी लाना पड़ता है; यही कष्ट है। तब भगवान के कहने पर शवरी उस तालाब में गई, तो पानी शुद्ध हो गया।
 शवरी भक्ति में पूर्ण थी, किंतु भगवान ने उससे नवधा-भक्ति का उपदेश इसलिए कहा कि पीछे के लोग इस उपदेश का अनुकरण करेंगे। नवधा-भक्ति में प्रथम भक्ति संतों का संग बतलाया गया है। पढ़ा-लिखा हो, दो-चार बातें बोलना जानता हो, वेश-भूषा साधु का हो, इसलिए कोई संत नहीं होते। संत होने के लिए उपनिषद् में लिखा है-
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
  क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।
  -योगशिखोपनिषद्, अध्याय 5
 उस परे से परे ब्रह्म को देख लेने पर हृदय की ग्रन्थि (गाँठ-गिरह) टूट जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है-
 अमित बोध अनीह मित भोगी।
     सत्य सार कवि कोविद योगी।।
 ऐसे लोगों का संग प्रथम भक्ति है। अग्नि के पास बैठने से गर्मी लगती है, मनुष्य के पास बैठने से उसकी गर्मी एक दूसरे में जाती है। इसी प्रकार संतों के पास बैठने से उनकी गर्मी भी समाती है, उसमें पवित्रता बढ़ेगी। संतों में योग, ज्ञान आदि भरे रहते हैं। उनके पास बैठने से उसी प्रकार की गर्मी समाती है। संतों के पास जाय और कुछ परदा रखे तो बेरोक गर्मी नहीं जाती। मन में कुछ-से-कुछ विचार बनाकर जाता है, यह परदा है। सांसारिक इच्छा लेकर संतों के पास जाते हैं, यही परदा है। संत लोग ज्ञान-ध्यान समझाते है,ं तो वह आम और इमली माँगता है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
 नितप्रति दरसन साधु का, औ साधु का संग।
 तुलसी काहि वियोग तें, नहीं लागा हरि रंग।।
 मन तो रमै संसार में, तन साधु के संग।
 तुलसी याहि वियोग तें, नहीं लागा हरि रंग।।
संत कबीर साहब ने कहा है-
 ऐसी दिवानी दुनियाँ, भक्ति भाव नहिं बूझै जी।
 कोई आवै तो बेटा माँगे, यही गुसाईं दीजै जी।।
 कोई आवै दुख का मारा, हम पर कृपा कीजै जी।
 कोई आवै तो दौलत माँगे, भेंट रुपैया लीजै जी।।
 कोई करावै विवाह सगाई, सुनत गुसाईं रीझै जी।
 साँचे का कोई गाहक नाहीं, झूठे जक्त पतीजै जी।।
 कहै कबीर सुनो भाई साधो, अंधों को क्या कीजै जी।।
 यही परदा है। यह परदा संतों के संग बैठने से दूर होगा। दूसरी भक्ति है-ईश्वर की चर्चा में प्रेम करना। तीसरी भक्ति-मान, घमण्ड छोड़कर गुरु की भक्ति करो। जैसे छत्रपति शिवाजी राव थे-आर्य धर्म को बचानेवाले और मुगलों से टक्कर देनेवाले। इतने बड़े होते हुए भी गुरु की सेवा अपने हाथ से करते थे। श्रीराम और श्रीकृष्ण भी अपने गुरु की सेवा अपने हाथां से करते थे। लकड़ी पर्यन्त तोड़ते थे। इस समय भी ऐसे लोग हुए हैं। अपने देश में स्वतंत्र राज्य के थे-छत्रपति शिवाजी राव।
 गुरु कैसा होना चाहिए? जैसे संत का वर्णन पहले हुआ। चौथी भक्ति है-निष्कपट होकर ईश्वर का गुणगान करो। ये सब क्रमबद्ध हैं। संतों का संग करेगा, संग से ज्ञान होगा और गुरु-सेवा करेगा। गुरु ईश्वर-उपासना के लिए मंत्र देते हैं। यह मंत्र जप पाँचवीं भक्ति है। पहले मंत्र या शब्द का अर्थ जानो। वह शब्द ईश्वरपरक होता है। उस शब्द को जपते हुए, उसका अर्थ जानते हुए ईश्वर की ओर मन जाता है। मन एकाग्र हो जाता है, इसी को योग कहेंगे। छठी भक्ति और इससे विशेष है। गुरु से ज्ञान जानकर भक्ति करो। कोई कहे मैं तो किताब में पढ़कर अपने ही मंत्र जपने के लिए और भक्ति करने के लिए जानता हूँ। किंतु यह विधि नहीं है। शुकदेवजी गर्भ से ही ईश्वर की भक्ति करते थे, किंतु बैकुण्ठ में रहने योग्य नहीं समझे गए।
 गर्भ योगेश्वर गुरु बिना लागा हरि के सेव।
 कहै कबीर बैकुण्ठ से फेर दिया सुकदेव।।
 जनक विदेही गुरु किया लागा हरि के सेव।
 कहै कबीर बैकण्ठ में जाय मिला सुकदेव।।
 मंत्र को एकाग्रता से जपेगा तो चित्त एकाग्र होगा, यह पाँचवीं भक्ति होगी। ‘छठ दम शील विरति बहु करमा।’ दम- इन्द्रियों के निग्रह का स्वभाववाला हो जाना। इस प्रकार का विचार और मन हो जाय तो इन्द्रियाँ काबू में हो जाएँ। उसकी इन्द्रियाँ विषयों की ओर बहके नहीं और सज्जनां के धर्म के अनुकूल बरते; यह है छठी भक्ति।
 सज्जनों का धर्म क्या है? झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पापों को करते हुए कोई सज्जन होता है? तमाम संसार के धर्मों के लोगों से पूछिए, इन पाँच पापों को करना सज्जन का धर्म है? कोई नहीं कह सकते। सज्जन इन पापों से अलग रहते हैं। दमशीलता कैसे होती है ? गुरु महाराज की कृपा ने मुझे जैसा ज्ञान दिया है, वह यह है सुनिए- इन्द्रियों का सूत्र मन तक और मन का सूत्र इन्द्रियों तक है। मन चलेगा तो इन्द्रियाँ चलेंगी, नहीं तो नहीं। आप कहिए कि फलानी चीज चाहिए। आप आँख से देखते हैं, तब कहते हैं- फलानी चीज चाहिए। आप एक ओर देखिए और कान दूसरी ओर रखिए या मन किसी दूसरी बात को सोचे तो किसी के पूछने पर कि आप ने क्या-क्या देखा, तो ठीक-ठीक कह नहीं सकते। लड़के कॉलेज में पढ़ने जाते हैं, प्रोफेसर शिक्षा देते हैं। लड़के का मन यदि दूसरी ओर रहा तो प्रोफेसर का लेक्चर कुछ सुन-समझ नहीं पाते। इन्द्रियों का निग्रह कैसे होगा? अब सोचिए। मन-सूत्र जो इन्द्रियों में फैला हुआ है, उस सूत्र को उस ओर फिरा ले, जिस ओर से इसका बिखार होता है; ऐसा होने से फिर बिखार नहीं होगा, तभी दमन होगा और शास्त्रों का ‘दम’ कहलावेगा। यह कैसे होगा? मन का सूत्र कैसे घुरेगा? इसके लिए गुरु जो बताते हैं, वही छठी भक्ति है। मन के सूत्र सब इन्द्रियों के साथ है और मन के साथ भी है। और इन्द्रियों की अपेक्षा आँख के साथ विशेष है। कोई रूप को आँख देखती है, तब उस ओर और इन्द्रियाँ जाती हैं, तब रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द का भोग करते हैं। किसी पुष्प की गंध नासिका को लगी, इसी से संतुष्ट नहीं होता। आँख से देखे बिना मन नहीं मानता। आँख का सूत्र फेरिए तो सब सूत्र आप ही फिर जाएँगे। दायीं-बायीं आँखों की धारों को मिलाकर एक ओर फेरिए, यही है दृष्टि-साधन। इसको सुन कर मत कीजिए। आँख को उलटा-पुलटा देने से आँख खराब हो जाएगा, इसलिए जानकार से जानिए। यहाँ मन इन्द्रियों के संग-संग साधन होता है, यह है ‘दम’। सातवीं भक्ति आती है- मनोनिग्रह, इसको ‘शम’ कहते हैं। पहले ‘दम’ शब्द आता है, इसलिए यहाँ ‘शम’ लिया है, ‘सम’ नहीं। जहाँ ‘दम’ और ’शम’ है, वहाँ सम आ ही जाएगा। सम=बराबर=भेदरहित। शम होने से सम होगा। ‘शम’ के बिना ‘सम’ नहीं हो सकता। इन्द्रियों के निग्रह के लिए शाम्भवी मुद्रा या दृष्टियोग करने कहा। जबतक आपके अंदर कुछ संकल्प-विकल्प है, तबतक मन है। जब संकल्प-विकल्प छूट जाय, तब मन उन्मुन हो जाता है। इसके लिए ऐसा साधन चाहिए, जिसको इन्द्रियों के साधन का कुछ भी संबंध न हो। जब इतना हो जाएगा, तब स्थूल को कौन कहे सूक्ष्म विषय भी छूट जाएगा, तब कारण रहेगा। कारण कहते हैं बीज को। उस कारण माया में उसका स्वरूप शब्द है। शब्दविहीन सृष्टि नहीं होती है। सृष्टि के आदि में शब्द अवश्य होता है सृष्टि के आदि में शब्द है, उसका सहचर कम्प है। कारण शब्दरूप है, उस शब्द को जब कोई ग्रहण करता है, तब उसकी वृत्ति संसारमुखी नहीं रहती, ईश्वरमुखी हो जाती है और ‘शम’ को प्राप्त करके ‘सम’ हो जाता है; यह सातवीं भक्ति है। मुनियों के शब्द में नादानुसंधान कहते हैं, इसके समान और दूसरी साधना में लय नहीं होता। ‘न नाद सदृशो लयः।’ इसमें नाद साधन होगा। इसको इस कान से नहीं सुन सकते, सुरत सुनती है। शम का साधन नादानुसंधान है। आठवीं भक्ति है- जो मिल जाय, उसी में संतुष्ट रहना है। जो ‘सम’ को प्राप्त किया है, उसको ‘यथा लाभ संतोष’ होगा ही। दूसरे का दोष वह क्यों देखेगा? हाँ, यदि पहले से भी ऐसा हिसाब लगावे कि जो मिले, उसमें संतुष्ट रहे तो बहुत अच्छा है। कोई आशा करे कि सातवीं भक्ति करके, समता प्राप्त करके ऐसा कर लेंगे, तो ऐसा उसके लिए बहुत मुश्किल होगी। अंतर का साधन भी हो और बाहर में ऐसा मन भी हो तो बड़ा मजबूत हो जाएगा।
 नौवीं भक्ति है कि सबसे सरल हो जाए- महात्मा गाँधी के समान। जो करेंगे, वे पहले कह देते थे। इंगलैंड के एक पादरी ने कहा है कि बहुत सीधा होना खतरे से खाली नहीं, किंतु यह संसार के लिए है। जब वे इंगलैंड गए तो उन्हें सबसे उच्च स्थान पर बैठाए।
 एक ईश्वर का भरोसा करो। इस प्रकार ईश्वर-भक्ति सब कोई करें। जब रास्ता कोई पकड़ लेता है, तो अंत भी कभी-न-कभी अवश्य होता है। संतों ने जो रास्ता बता दिया है, उसके अनुकूल सब कोई चलिए। हम तो चाहते हैं कि सब कोई सुखी हों। और सुखी होने के लिए जो यत्न होना चाहिए, बता दिया। अब सबको जानकर भक्ति करनी चाहिए।
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यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत मनिहारी, निवासी श्रीशुकदेव पोद्दार के निवास पर दिनांक 29.10.1952 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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28. गागर ऊपर गागरी चोले ऊपर द्वार

प्यारी जनता !
 विषय अनित्य है, इसका सुख क्षणभंगुर है। जीवन स्वल्प है। यह बाल, युवा और वृद्ध होता है, फिर एक दिन ‘रामनाम सत्त है’ कहकर श्मशान में ले जाकर जला देते हैं। यह देखकर आपको ज्ञान होना चाहिए कि एक दिन हमारी भी हालत यही होगी। संसार के अंदर विषयों में रहकर कोई सुखी नहीं हुआ। ऐसा कोई इतिहास नहीं कि इन्द्रियों के सुखों से कोई तृप्त हुआ हो। धनवान, ऐश्वर्यवान, विद्वान किसी से पूछिए- सबको कोई- न-कोई कमी है। शारीरिक एवं मानसिक दुःख व्यापते हैं, चाहे धनी रहो या निर्धन रहो। तो क्या ऐसा सुख नहीं है, जो नित्य हो, पूर्ण हो, संतुष्टि- दायक हो? संतलोग कहते हैं-हाँ, अवश्य है। वह सुख है ईश्वर की प्राप्ति में। ईश्वर की प्राप्ति पूर्ण सुख, शांति, कल्याण और तृप्तिदायक है। उस ईश्वर की प्राप्ति इन्द्रियों से नहीं हो सकती। इन्द्रियों में वह शक्ति नहीं कि उसे ग्रहण कर सके। इन्द्रियों को एक-एक विषय ग्रहण करने की शक्ति है, दूसरे विषय को ग्रहण करने की नहीं। ग्रहण करनेवाला आप हो। आप ईश्वर का अंश हो।
ईस्वर अंस जीव अविनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।
 जैसे महदाकाश का अंश घटाकाश और मठाकाश है, उसी प्रकार तुम ईश्वर के अंश हो, अटूट अंश हो, अभिन्न अंश हो। ईश्वर अपरम्पार शक्तियुक्त है, इसके अंश में कुछ भी शक्ति नहीं हो, कैसे संभव है। समुद्र के जल में तरलता है, तो क्या एक बूँद में तरलता नहीं है ! महदाकाश का गुण शब्द, घटाकाश, मठाकाश और पटाकाश में नहीं हो कैसे संभव है? शून्य नहीं रहने से ढोलक नहीं बज सकता। उसको ठोस रखो खोखला नहीं रखो तो आवाज नहीं होगी। तो उस ढोलक के अंदर आकाश है। उसी का गुण शब्द है। महदाकाश में शब्द है तो उसका अंश ढोलक में है। वह भी शब्दयुक्त है। उसी प्रकार तुम ईश्वर के अंश हो, तुममें कुछ नहीं हो कब संभव है। तुम केवल देह नहीं हो। केवल देह रहने से मृतक शरीर कोई काम नहीं करता, क्यों? आप ईश्वर को बुद्धि के द्वारा भी पहचान नहीं सकते। आप अकेले होकर रहो तो परमात्मा हेराया, खोया हुआ नहीं रहेगा। यही है कैवल्य दशा। शरीर, इन्द्रिय को छोड़कर देखो। जब आपको ईश्वर प्राप्त होगा, तब आपको क्या कमी रहेगी। जो विद्वान हैं, वे सब अक्षरों का मिलान जानते हैं। जो ईश्वर को प्राप्त करते हैं, वे महाविद्वान हैं। जो ईश्वर को प्राप्त करेंगे, उनकी सब इच्छा चली जाती है। जिसे इच्छा नहीं वही पूर्ण सुखी है। जिसको कोई चीज लेने की इच्छा है, उसे अभी कमी है। विषयों में रहकर, शरीर में रहकर कभी कोई पूर्ण सुखी नहीं होता।
 ईश्वर-दर्शन के लिए आपको कहीं जाने की आवश्यकता नहीं। वह तो अनादि अनंत अपरिमित है। जो चाहे कि यहीं आकर भगवान दर्शन देंगे, तो वह दर्शन मायारूप का ही होता है। वह ईश्वर कैसा है-
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनंता। अखिल अमोघ शक्ति भगवंता।।
 अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सब दरसी अनवद्य अजीता।।
 निर्मल निराकार निर्मोहा। नित्य निरंजन सुख संदोहा।।
 प्र्रकृति पार प्रभु सब उरवासी।ब्रह्म निरीह बिरज अविनासी।।
 यदि उसका होना कहो कि नहीं है, ऐसा हो नहीं सकता है। इसको तुम पहचान नहीं सकते हो। जबतक मन बुद्धि के साथ रहोगे, कभी सुखी नहीं होओगे। श्रीराम से लक्ष्मण ने पूछा, माया क्या है? श्रीराम ने कहा-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 आँख, कान आदि इन्द्रियों से जो कुछ गोचर हो, वह माया है। जो आकर दर्शन दे अथवा आप किसी लोक में जाकर इस आँख से देखें, वह माया ही है। आप आडम्बर को पहचानते हैं, उनके स्वरूप को नहीं। उनके स्वरूप को इस आँख से तो क्या, दिव्यदृष्टि से भी उसे देख नहीं सकते। सुन्दरदासजी ने कहा है-
 श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै।
 रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै।।
 नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै।
 अंग बिना मिलि संग, बहुत आनंद बढ़ावै।।
 बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिए रहै।
 मिलि परमातम सो आतमा, परा भक्ति सुन्दर कहै।।
 इसके लिए किसी इन्द्रियों की जरूरत नहीं। इन्द्रिय-शरीर-रहित होकर कैवल्य दशा प्राप्त कर जो दर्शन होता है, उस दर्शन के लिए दिव्यदृष्टि भी लाचार है।
उघरहिं विमल विलोचन हिय के। मिटहिं दोष दुख भव रजनीके।।
सूझहिं रामचरित मनि मानिक।गुपुत प्रगट जब जो जेहि खानिक।।
 तुम अपने को चारो जड़ शरीरों से छुड़ा लो। चाहे जहाँ रहो-वह ठण्ढ देश हो या गर्म देश हो, घर में रहो या वन में जाओ, इन्द्रियों से अपने को छुड़ाओ।
 गागर ऊपर गागरी चोले ऊपर द्वार।
   सूली ऊपर साँथरा जहाँ बुलावे यार।।
 स्थूल शरीर में स्थूल इन्द्रियाँ, सूक्ष्म शरीर में सूक्ष्म इन्द्रियाँ, कारण शरीर में कारण इन्द्रियाँ हैं। साधारण मृत्यु में केवल स्थूल शरीर छूटता है, सूक्ष्म शरीर वा लिंग शरीर रह जाता है। इसलिए एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने का जो रास्ता है, उसको जानो। इसी रास्ता को जना देनेवाला गुरु होता है। आप बड़े विद्वान या अविद्वान हों, ऐसा करें कि एक शरीर से दूसरा शरीर निकालकर अलग रखिए तो देखें! ‘चोले ऊपर द्वार कहा’ नव द्वार- आँख, कान, नाक, मुँह, लिंग आदि। सबसे ऊपर कौन द्वार है? आँख है, इसी में द्वार है।
जानि ले जानि ले सत्त पहचानि ले सुरत साँचि बसै दीद दाना।
खोलो कपाट यह बाट सहजे मिलै परख परवीन दिव्यदृष्टि ताना।।
 यही चोले ऊपर द्वार है। शूली=लोहे का एक छड़। एक धार जो सारे प्रकृति मंडलों को छेद किया हुआ है। यह विषय गूढ़ है। कम्प नहीं होता तो सृष्टि नहीं होती। जहाँ शब्द है, वहाँ कम्प है; जहाँ कम्प है, वहाँ सृष्टि है। शब्द या कम्प ही एक धार है, जो प्रकृति-मंडल में ओर से छोर तक व्यापक है। इस धार को पकड़ने के लिए अपने को अंतर्मुखी बनाना, साधनशील बनाना और संयमी बनाना होगा। इस प्रकार अपने को बनाने में बड़ा कष्ट होता है। यदि इस कष्ट को नहीं उठाया तो आप मनुष्य नहीं। नाराज मत होइए। यदि अपने को संयम में, साधन में नहीं लगाया, तो मनुष्य क्या? क्या झगड़ा करना, दूसरे को दबाने की चेष्टा करना, युद्ध करना; यही मानवता का काम है? मनुष्यता प्राप्त करने में आधिभौतिक विज्ञान पूर्ण नहीं है। अवश्य ही संतों ने जो कहा है कि अपने को ऊपर उठाओ। शरीर इन्द्रियों से ऊपर उठाओ, यही मनुष्यता है।
 एक ही शरीर नहीं, सब शरीरों से अपने को ऊपर उठाओ। केवल मुख से ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ कहने से नहीं होगा। भीतर में ‘आत्मवत् न सर्वभूतेषु’ और बाहर में ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’- यह मनुष्यता नहीं है। फिर कहा-
 वास सुरति ले आवई, शब्द सुरति ले जाय।
 परिचय श्रुति है स्थिरे सो गुरु दई बताय।।
 इच्छा संसार में ले आती है और सुरत जब शब्द में लग जाय तो वह खींच जाती है।
      यही बड़ाई शब्द की जैसे चुम्बक भाय।
      बिना शब्द नहीं ऊबरै केता करे उपाय।।
    चुम्बक सत्त शब्द है भाई । चुम्बक शब्द लोक ले जाई।।
   लेइ निकारि होखै नहीं पीड़ा। सत्त शब्द जो बसै शरीरा।।
 यह कहीं से लाना नहीं है। वह तुम्हारे अंदर में हई है, पहचानो। इसीलिए कबीर साहब ने कहा-
 ‘परिचय स्रुति है स्थिरे सो गुरु देइ बताय।’
 ‘हम चाले अमरापुरी टार े टूरे टाट।
  आवन होय तो आइयो सूली ऊपर बाट।।’
 कहने का आशय है कि परमानंद-परमसंतुष्टि को प्राप्त करो। वह सुख परमात्मा की प्राप्ति में है। उसके पास जाने के लिए सबका एक रास्ता है। चाहे वह भारतीय, मुसलमान, ईसाई कुछ भी होओ, सबके लिए संयम एक ही है। सबको चाहिए संयम से रहकर उस परमात्मा के पास जाने का राह जानकर उस पर चलें।
 संतों का मत कबीर साहब, नानक, दादू, सूर, तुलसी साहब आदि सबकी वाणियों में यही दर्शाया गया है। उपनिषदों में भी यही दर्शाया कि सब संतों का एक ही मत है। ईश्वर प्राप्ति का एक ही रास्ता है। उसको दर्शाने में मैंने कुछ सफलता भी पाई है। वह मैंने संग्रह कर सत्संग-योग में दे दिया है।
 ठाकुरजी बनावें, उसे भोग लगवावें, यह तो राजाओं का काम है। श्रीराम मुनियों की कुटी में गए थे। वहाँ कहाँ वर्णन है कि मुनियों की कुटी में ठाकुरबाड़ी थी। हाँ, अवश्य ही राजा जनक, रावण आदि राजा के यहाँ ठाकुरबाड़ी थी।
देहि सत्संग निज अंग श्रीरंग भवभंग कारण सरण शोकहारी।
 सत्संग को ठाकुरजी का निज अंग कहा है। जिस घर में सत्संग हो, वह ठाकुरबाड़ी है। ठाकुरजी की स्थापना सब ठाकुरबाड़ी में सब तरह से होती है। यहाँ सत्संग निज अंग है, उसी को यहाँ स्थापित किया है। इसके लिए किसी ठाकुरबाड़ी की मूर्ति की निंदा करें, ठीक नहीं। सुतीक्ष्ण मुनि राम का आना सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। आनन्दित होकर उनका ध्यान करने लगे। ध्यान में इतना मग्न हुए कि श्रीराम उनके आगे में खड़े हैं, किंतु उन्हें मालूम नहीं। वे अपने अंदर की ठाकुरबाड़ी में ही ठाकुरजी के दर्शन कर रहे थे। तो आपको यह ठाकुरबाड़ी प्राप्त है, उसमें ऐसा यत्न कीजिए कि ठाकुरजी का प्रत्यक्ष दर्शन हो। ध्यान कीजिए। सदाचार से रहिए। सदाचार-पालन के बिना ध्यान ठीक-ठीक नहीं हो सकेगा। ध्यान होने से सदाचार में दृढ़ता हो जाएगी। यदि सबके सब सदाचारी बन जाएँ, तो सारे देश में कल्याण हो जाय। झूठ-फूस, घूस सब मिट जायँ। हमारे ऊपर कोई राजा नहीं है, फिर भी दुःखी हैं। इसका कारण है कि हमलोग सदाचार का पालन नहीं करते। यदि सब सदाचार का पालन करने लगें तो देश सुखी हो जाए। विशेष लोग सदाचारी बन जाय, कम लोग सदाचारी नहीं बने तो पीछे वे भी सुधर जाएँगे। इसी के लिए सबको उपदेश दिया। सब कोई सदाचारपूर्वक रहिए, ध्यानाभ्यास कीजिए, तभी सुखी रहेंगे।
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यह प्रवचन संतमत-सत्संग मंदिर मनिहारी, जिला कटिहार में दिनांक 1.11.1952 ई0 के अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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29. पंडितों का वेद संतों का भेद

प्रिय महाशयो !
 सत्संग करने हमलोग यहाँ आए हैं। सत्संग विलास-विनोद का, आमोद-प्रमोद का स्थान नहीं, पूजा-पाठ-ध्यान करने का स्थान समझते हैं। पूजा, पाठ, ध्यान हम क्यों करें, इस बात को समझने के लिए सत्संग में जाते हैं। और हमलोग पूजा-पाठ करें, इन्हीं दो बातों के लिए यह सत्संग है। सत्संग उसे कहते हैं कि इन बातों का उपदेश हो और जहाँ पारमार्थिक बात सुनने-समझने के लिए लोग एकत्र होते हैं, वह बाहरी सत्संग है और ध्यान करना आंतरिक सत्संग है। ऐसा बाबा साहब कहते थे। घूम-घूमकर नहीं, किंतु बासे में बैठकर ही मालूम हुआ कि हमलोग अपने कर्तव्य को भूल गए हैं। आप काल की उपासना नहीं करते। काल की उपासना यह है कि जिस समय जो काम करने का, नहीं करते; इसीलिए समय-समय पर जो काम है, वह करना काल उपासना है। काल कोई भयंकर जीव नहीं है। काल का अर्थ समय है। काल की उपासना किए बिना कोई मुक्ति या मोक्ष नहीं पा सकता। पूजा की तो कितनी सामग्रियाँ हैं, लोग उतने कर भी नहीं सकते। किंतु पूजा वह कीजिए जिससे प्रभु प्रसन्न हों।
 कबीर सोया क्या करै, जागन की करुचौंप।
 ये दम हीरा लाल है, गिन गिन गुरु को सौंप।।
 गुरु का अर्थ यहाँ परमात्मा है। गुरु का अर्थ बहुत गंभीर है। परमात्मा से लेकर अपने से श्रेष्ठ गुरुजनों को भी गुरु कहते हैं। गुरु का अर्थ है ज्ञानदाता। आदि ज्ञानदाता परमेश्वर है। उस मनुष्य को मनुष्य सिखाता है, जिसको परमात्मा ने ज्ञान दिया है। यदि किसी को दावा है कि मैं महागुरु हूँ तो उसने किसी वृक्ष या बैल, पशु को मोक्ष का उपदेश दिया है? आपलोग जानते हैं कि सात बजे से सत्संग का कार्यक्रम आरंभ है। अपने समय को उसमें लगाइए, जिससे लाभ हो। लाभ भजन करने में है और संसार के काम में। सत्संग के समय सत्संग कीजिए और संसार के काम के समय संसार का काम कीजिए।
 ध्यानविन्दूपनिषद् का पाठ आपलोग सुने। कहावत है पंडितों का वेद, संतों का भेद। वेद नहीं पढे़, केवल भेद जाने और करे, तो संत हो जाएगा। ईसामसीह कोई विशेष विद्वान नहीं थे। यहाँ कबीर, नानक क्या पढ़े-लिखे थे ? तुलसीदासजी भी बड़े-बड़े विद्वानों के सामने बहुत कम थे। संत पढ़े-अनपढे़ सब हो सकते हैं। किंतु पंडित बिना पढ़े नहीं हो सकता है। पंडित अयोध्या प्रसाद ने कहा-‘वेद का अर्थ आकाश में लिखा है।’ बाबा साहब कहते थे मैं वह पुस्तक पढ़ा हूँ, जिसमें 1 पत्र, 2 पृष्ठ और 4 अध्याय। पढ़ते-पढ़ते थक जाता हूँ, अंत नहीं होता। भारी इतनी कि हजारों इंजिन नहीं खींच सकती। 1 पत्र है, 2 पृष्ठ और 4 अध्याय क्या है? सारा विश्व (पिण्ड-ब्रह्माण्ड मिलाकर) एक पत्र है। सारा विश्व का अर्थ सारा प्रकृतिमण्डल। यदि कहें कि समस्त प्रकृति मंडल का संसार बन गया है। प्रकृति का विकृत रूप होकर और कितना बचा है, ठिकाना नहीं। ये ही प्रकृति एक पत्र है। दो पृष्ठ-एक स्थूल और दूसरा सूक्ष्म। अंधकार, प्रकाश, शब्द, निःशब्द-चार अध्याय हैं। यह पढ़ो, गुरु महाराज कहे थे। 1909 ई0 की जुलाई में मैं सत्संग में सम्मिलित हुआ था। धरती पर के किसी विश्वविद्यालय में यह पढ़ाई नहीं होती है। कोई प्रोफेसर और गुरुजी नहीं कह सकते, न पढ़ा सकते। वह तो चुप बैठेगा। अंतर में प्रवेश करेगा, जन्मों पढ़ेगा और अंत में समाप्त करेगा। यह आकाश में जो वेद का अर्थ लिखा है, सो पढ़ेगा। बाबा साहब इसी पुस्तक को पढ़ने कहते थे। और अन्य पुस्तकों का भी आदर करते थे-तुलसी साहब का घटरामायण, तुलसीदासकृत रामायण और भगवान बुद्ध का धम्मपद।
 आपने सुना पाप बहुत बड़ा हो, बहुत योजन तक फैला हुआ पहाड़ के समान हो तो ध्यानयोग के द्वारा नष्ट हो जाता है। सुनकर आश्चर्य मालूम होता है। ऋषि-मुनियों का वचन हो, इसलिए मानो, यह भी अच्छी बात है, वचन प्रमाण भी लोग मानते हैं। फिर एक बात और यदि बड़े लोगों के कहने में भी त्रुटि हो तो उनके विचारों की त्रुटि निकालकर तब अभ्यास करो। मन की एकओरता को ध्यान कहते हैं। यदि कहो मेरा खेत है, उसी ओर मन लगाकर रहेंगे, तो पाप नाश हो जाएगा? नहीं। खेत का अर्थ मैंने स्थूल ध्यान के लिए इशारा किया। इससे और बड़े के पास जाकर सुनिए-ध्यानं निर्विषयं मनः। मन को निर्विषय कैसे करें? शून्य में जाना कैसे होगा? तो दोनों में मेल है। शून्य में जाना-आकाश में जाना और बाबा साहब का वह 1 पन्ने की किताब पढ़ना आ जाता है। विषय छूटेंगे कैसे? इसपर विचारो। लोग कहते हैं संसार में बहुत वस्तुएँ हैं,किंतु विद्वान विचार कर कहते हैं। अरे! पाँच ही वस्तुएँ हैं-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द। इन सबों से अपने को खाली करो, तब ध्यान होगा। सुनकर असंभव मालूम होता है। फिर ज्ञानी कहते हैं कि असंभव नहीं, असंभव होता तो उपदेश नहीं देते। पहले बचपन में खेलते हैं, फिर पढ़ते हैं, फिर उपार्जन करते हैं। उसी प्रकार बिना एक छोड़े एक नहीं हो सकता। परमात्मा की भक्ति करने के लिए संतों ने कहा। यदि कहो, परमात्मा को नहीं देखा तो उसकी भक्ति, उसकी सेवा-सुश्रुषा कैसे करें? तो संतों ने कहा, कुछ नहीं जानते हो तो राम-राम, शिव-शिव कहो। एक मन से मंत्र जपो। कोई ऐसा कहे मेरा मंत्र अच्छा है, उसका अच्छा नहीं, यह सुनकर भूलिए नहीं। एक मंत्र को जपिए, जिसका अर्थ ईश्वर-संबंधी हो। स्थूल जप जपिए। सब शब्द छूटकर एक शब्द रहेगा। अन्य विषयों को छोड़कर केवल शब्द में लगे रहो। फिर लोग ध्यान करने बतलाते हैं। अपने इष्टदेव का ध्यान करो। कोई गुरु का ध्यान, कोई राम का, कोई कृष्ण का ध्यान करते हैं। आँख बंदकरके जप जपना और मानस- ध्यान करना। कोई ॐ का ध्यान करते हैं और कोई अल्लाह लिखकर ध्यान करते हैं। अलीफ पर और विशेष सिमटाव होता है, इसका भी ध्यान करते हैं। देखते-देखते सोना के समान, चाँदी के समान चमकता है। पहला अध्याय अंधकार मंडल में रहकर स्थूल जप, स्थूल ध्यान है। पहला अध्याय थोड़ा है, दूसरा अध्याय बहुत बड़ा है। स्थूल जप में और ध्यान में बहुत रूप और बहुत शब्द छूट जाते हैं। फिर दूसरे अध्याय में जाने से स्थूल रूप और स्थूल शब्द छूट जाता है। किंतु ऐसा नहीं समझिए कि इष्ट छूट गए। इष्टदेव का सूक्ष्म रूप रह गया। इसको मोटी आँख से नहीं, सूक्ष्म आँख से देखेंगे। वहाँ स्थूल कान भी नहीं। जहाँ स्थूल आँख है, वहीं स्थूल कान है। उसी प्रकार जहाँ सूक्ष्म दृष्टि है, वहीं सूक्ष्म श्रवण भी है, तब स्थूल रूप, नाम को नहीं देख सकेंगे। सूक्ष्म दृष्टि और सूक्ष्म श्रवण से सूक्ष्म रूप और सूक्ष्म शब्द को सुनोगे। तब सुन्दरदासजी का यह वचन आ जाएगा-
श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै ।
रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै ।।
नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै ।
अंग बिना मिलि संग, बहुत आनंद बढ़ावै ।।
बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को , सेवक भाव लिए रहै ।
मिलि परमातम सों आतमा परा भक्ति सुंदर कहै ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी भी कहते हैं-
श्रीगुरुपद नख मनि गन जोती।सुमिरत दिव्यदृष्टि हिय होती।।
 ज्योतिवाला नख स्थूल नख नहीं है। यह दृष्टियोग से देख सकेंगे। फैलाव से सिमटाव में आओ, दृष्टि सूक्ष्म हो जाएगी। दृष्टि तो सूक्ष्म है ही। आँख और डीम, पुतली को दृष्टि नहीं कहते हैं। दृष्टि सूक्ष्म हई है। इसको समेटो तो सिमटाव में ऊध्वर्गति होगी। स्थूल दर्शन और स्थूल श्रवण छूट जाय तो स्थूल विषय छूट जाएँगे। इससे सूक्ष्म का फैलाव विशेष है। होना ही चाहिए। स्थूल से सूक्ष्म का फैलाव विशेष होता ही है। संतों ने सूक्ष्ममण्डल में आकर सुनने के लिए कहा। शब्द अपनी ओर खींचते हुए अपने उद्गम स्थान पर खींचता है। शब्द बहुत हैं। हाथरस-निवासी संत तुलसी साहब कहते हैं-
 सुरत सिरोमनि घाट, गुमठ मठ मृदंग बजै रे।।टेक।।
 किंगरी बीन संख सैनाई, बंकनाल की बाट।
 चितवत चाट खाट पर जागी, सोवत कपट कपाट।।
 मुरली मधुर झाँझ झनकारी, रंभा नचत वैराट।
 उड़त गुलाल ज्ञान गुन गाँठी, भर भर रंग रस माट।।
 गाई गैल सैल अनहद की, उठ ै तान सुर ठाट।
 लगन लगाई जाइ सोइ समझी, सुरति सैल नभ फाट।।
 तुलसी निरख नैन दिन राती, पल पल पहरौ आठ।
 यहि विधि सैल करै निस वासर, रोज तीन सै साठ।।
 पहले विविध शब्दों में सुरत चलेगी। पहले शब्द का पता लगा उसके उद्गम पर पहुँचा, तब दूसरा शब्द मालूम हुआ, उसको पकड़ा। इस प्रकार चलते-चलते सुरत निःशब्द में पहुँच जाएगी। साधक गुण को पकड़े हुए गुणी में रहता है। शब्द को पकड़कर रखना आकाश में रहना है। इस साधना में होने से सभी पाठ समाप्त हो जाएँगे। परंतु इसके लिए बहुत लंबा समय चाहिए और परवाह करनेवाले कर सकेंगे, बेपरवाह कर नहीं सकते। भगवान बुद्ध ने कहा-‘बुद्ध केवल उपदेश कहनेवाले हैं, करना तो तुम्हें ही पड़ेगा।’ तो क्या किसी की आशा छोड़ दें? नहीं। जिसको श्रद्धा है, आशा है तो जिस प्रकार वर्षा का पानी गड्ढे में जाकर जमा हो जाता है, उसी प्रकार जिनमें श्रद्धा है, उनमें ज्ञान आकर टिक जाता है। भगवान बुद्ध के एक शिष्य भगवान के शरीर छूटने के समय रोने लगे तो बुद्ध ने कहा, अपना दीपक आप बन। वेद की पुस्तकों को खूब पढ़िए और समझिए। अच्छी तरह तो प्रायः ही कोई कह सकेंगे कि मैं बिल्कुल समझ गया। जानने के लिए बहुत बातें हैं, किंतु जिससे अपना काम चले, वह अवश्य जानना चाहिए। बाबा साहब कहते थे-संतमत का सिद्धांत बहुत छोटा है और दो सफे में है।
 शून्यगत मन और निर्विषय मन। जब मन निर्विषय होता है तो पाप आप ही नष्ट हो जाते हैं। यदि कहो कि पहले का जो पाप किया हुआ है? कर्म तीन प्रकार के होते हैं-क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध। जिस कर्म को भोग रहे हैं प्रारब्ध है। थोड़ा भोगा है, थोड़ा बाकी है भोगने को, वह संचित। क्रियमाण वह है जिसका कारण प्रारब्ध नहीं है। अभी जो हम नया कर्म करते हैं बिना प्रारब्ध के, आधार के वह क्रियमाण है। जो ध्यान में स्थित होगा, उसका क्रियमाण पाप छूट जाएगा, बाकी प्रारब्ध और संचित का स्थूल और सूक्ष्म में भोग होगा। जहाँ तक कर्ममंडल है, वहाँ तक सुख-दुःख का भोग भोगना ही पड़ेगा। किंतु परमात्मा के पास दोनों बराबर है, जिससे सब तृप्त है। वहाँ कम, विशेष सुख नहीं। इससे नीचे के लोक में अपने कर्मानुसार कम, विशेष सुख पाते हैं। ध्यानाभ्यासी तो कहीं किसी लोक में नहीं ठहरते, वे चले ही जाते रहते हैं। ध्यानाभ्यास में ऊर्ध्वगति होती है और राधास्वामी साहब ने कहा है-
 बैठे ने रास्ता काटा चलते ने बाट न पायी।।
 है रहनि गहनि की बाता, बैठा रहे चला पुनि जाता।
 कहै को तात्पर्य है ऐसा, जस पंथी वोहित चढ़ि वैसा।।
 इस प्रकार की ऊर्ध्वगति में वह कर्ममंडल को पार कर जाता है। और स्वरूप की पहचान हो जाती है, तब कर्म नहीं होता। ‘कर्म कि होहिं स्वरूपहिं चीन्हें।’ बुद्ध को पेचिस की बीमारी हुई थी तो वे कहते थे आनंद! जबतक समाधि में रहता हूँ, तो आराम रहता है। पिण्ड में आने पर बहुत कष्ट होता है। उनको ऐसी शक्ति हो जाएगी कि परमात्मा को प्राप्त कर कर्मफल का दर्द कम रहेगा। जैसे किसी को क्लोरोफॉर्म सुँघा दिया जाय तो चीर-फाड़ के समय उसे दर्द महसूस नहीं होता। बिल्कुल नष्ट तो नहीं होगा, दुःख कम हो जाएगा। इसके लिए ‘बीजाक्षरं परं विन्दुं’ है। कहा, विन्दु परिभाषा के अनुकूल हो। यह विन्दु हाथ से नहीं पकड़ सकते। सूक्ष्म मण्डल में प्रवेश होने से बाबा साहब का दूसरा अध्याय प्रारंभ होगा। इस विन्दु को धारण करने से नाद प्राप्त होता है। एक ही श्लोक में सब बात आ गई। यदि मोटे में समझो तो-
 मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव।
 मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव।।
फिर दूसरे अध्याय में-
 गगन मंडल के बीच में, तहवाँ झलके नूर।
 निगुरा महल न पावई, पहुँचेगा गुरु पूर।।
 नैनों की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय।
 पलकोंकी चिक डारी के, पिय को लिया रिझाय।।
 कबीर कमल प्रकासिया, उगा निर्मल सूर।
 रैन अंधेरी मिटि गई, बाजे अनहद तूर।।
 आँख, डीम, पुतली थिर रखो। आँख बंदकर रखने में कोई कष्ट नहीं, बल्कि विशेष देर तक आँख खोलकर देखने से कष्ट होता है। बाह्यजगत के सूर्य में तो गरमी है, किंतु उस अंतर के सूर्य में शीतलता है, जिससे काम, क्रोधादिक सब विकार दूर हो जाएँगे। ज्ञान-विज्ञान बढ़ जाएँगे। पिण्ड- ब्रह्माण्ड का प्रत्यक्ष ज्ञान होगा। केवल वचन ज्ञान नहीं। बाबा नानक के वचन में सुनें।
 सागर महि बूंद बूंद महि सागरु कवणु बुझै विधि जाणै।
 उतभुज चलत आपि करि चीनै आपे ततु पछाणै।।
 अैसा गिआन विचारै कोई। तिसते मुकति परम गति होई।।
 दिन महि रैणि रैणि महि दीनी अरु उसन सीति विधि सोई।
 ताकी गति मति अवरु न जाणै गुर बिन समझ न होई।।
 पुरख महि नारि नारि महि पुरखा बूझहु ब्रह्म गिआनी ।
 धुनि महि धिआनु धियान महि जानिआ गुरमुखि अकथ कहानी।।
 मन महि जोति जोति महि मनुआँ पंच मिले गुरभाई।
 नानक तिनके सद बलिहारी जिन एक सबदि लिवलाई।।
 आप संसार में रहते हैं तो देखते हैं कि बाहर ब्रह्माण्ड में यह पिण्ड है। किंतु यदि अपने पिंड में प्रवेश कर देखिए तो देखिएगा, पिण्ड में ब्रह्माण्ड है। दिन में रात, रात में दिन, गरमी में सर्दी, सर्दी में गरमी करने कहा। दोनों धारों को मिलाकर, ठहराकर रहो। बिना गुरु के इसका बोध नहीं होता। पुरुष में नारी, नारी में पुरुष का मतलब ब्रह्म में प्रकृति और प्रकृति में ब्रह्म व्यापक है। मन के अंदर ज्योति है। ज्योति में मन को रखो तो उस नाद को प्राप्त करोगे। पंच सहायक गुरु भाई मिलेंगे। बिना निदिध्यासन के स्थिरता नहीं आती। विचार-ज्ञान बिजली के समान है, पढ़ने-सुनने, करने के लिए प्रेरणा करता है। इसीलिए पढ़ो, सुनो और करो। अंत समय में कुछ काम नहीं आवेगा। गप-शप, विचार-ज्ञान, लेक्चर झाड़ना किस काम का। हमको तो गीता का यह श्लोक बड़ा मीठा मालूम होता है-
 प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।
 भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में भी योगबल से भृकुटि के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापन करके फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य स्वरूप परमपुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है।
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यह प्रवचन सहरसा जिला विशेषाधिवेशन ग्राम-खापुर ( अब जिला-मधेपुरा ) में दिनांक 8.11.1952 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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30. संतों का संग दुर्लभ है

प्यारे धर्मप्रेमी महाशयो!
 हमलोग सत्संग, संतों की वाणी के सहारे किया करते हैं। हमारे गुरु महाराज यही बतलाए हैं।
संत संसर्ग त्रैवर्ग पर परम पद प्राप्य निःप्राप्य गति त्वयि प्र्रसन्ने।
 संतों के संग का नाम सत्संग है। संतों का संग दुर्लभ है, पहचान दुर्लभ है। संत की पहचान होना साधारण प्राणी से अंसभव है। संत बड़े ऊँचे होते हैं। त्रयवर्ग पर परमपद-तीनां पदों से ऊपर पहुँचे हुए; स्थूल, सूक्ष्म, कारण मण्डलों से ऊपर उठे हुए। विद्वान अर्थ, धर्म, काम; इन तीनों से परे को भी त्रयवर्ग कहते हैं। उनको धन चाहिए ऐसा नहीं। उनको धर्म-शिक्षा की कमी नहीं रहती। इहलोक, परलोक कामना से रहित होते हैं। स्थूल, सूक्ष्म, कारण से जो ऊपर होंगे वे अर्थ, धर्म, काम में क्यों फँसेंगे ? अथवा यह कि जो-
अमित बोध अनीह मित भोगी। सत्यसार कवि कोविद योगी।।
 संसार में रहकर कुछ-न-कुछ लिया करते ही हैं, मितभोगी होते हैं। विषयासक्त नहीं होते, स्वल्पभोगी होते हैं। बिना कुछ लिए संसार में कोई नहीं रह सकते। इसलिए वे थोड़ा लेते हैं। किंतु संसार का बड़ा उपकार करते हैं। संत लिखने-पढ़ने जाने या नहीं जाने; पंडित वे ही नहीं होते, जो खूब पढ़े-लिखे हो; बिना पढ़े-लिखे भी पण्डित होते हैं। पहले लिखना नहीं था, केवल श्रवण-ज्ञान था, सुनते थे। कबीर साहब के लिए लोग कहते हैं कि वे बहुश्रुत थे। किंतु वे कहते हैं-
 मैं मरजीवा समुँद का, डुबकी मारी एक ।
 मुट्ठी लाया ज्ञान का, जामें वस्तु अनेक ।।
 इस प्रकार शरीर में डुबकी लगाने से ये ज्ञानी हुए। बहुश्रुत होने से, अंतर में गोता लगाने से ज्ञानी होते हैं। कोई पढ़े भी, सुने भी, अंतर में गोता भी लगाए। तीनों तरह तथा एक तरह भी; जैसे भगवान बुद्ध। उनके गुरु अवश्य थे, किंतु उनको उस ज्ञान से तृप्ति नहीं हुई। वे कहते हैं-मैं अपने -आप सीखकर अपना गुरु किसे बताऊँ? पूर्ण योगी वही हैं, जो पूर्ण योग द्वारा पद प्राप्त करते हैं। तो संत बहुत बोध रखते हैं, अमित बोध। इतने बड़े को साधारण लोग पहचान जाय, कैसे संभव है? कल्याण के एक लेख में आया था-मैं साधु, महात्मा, ज्ञानी आदि भले कहूँगा; किंतु संत नहीं कह सकता। संत उसे कह सकते हैं, जिनके लिए यह उपनिषद- वाक्य सार्थक हो चुका हो-
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।
 अर्थ-परे से परे को (परमात्मा को) देखने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है, सभी संशय छिन्न- भिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं। तुलसी साहब-
 जो कोई कहै साधु को चीन्हा। तुलसी हाथ कान पर दीन्हा।।
 इतने बड़े को कौन पहचाने? बरेली स्टेशन के बाद के एक स्टेशन पर एक सज्जन का गाड़ी पर चढ़ना-स्थितप्रज्ञ का लक्षण कहाँ? पूछने से संत की पहचान हो तब सत्संग करे, तो संतों की पहचान असंभव है। फिर सत्संग कैसे हो, तो गुरु महाराज ने कहा-संतों की वाणी को पढ़ो, यही सत्संग होगा। सत्संग का आधार संत है। बिना संत के सत्संग हो नहीं सकता।
 सत्संग भगवान का निज अंग है। संसार दूर हो जाय, इसके लिए सत्संग है। क्या संसार छोड़ने योग्य है? देखो, यह सबको मानना पड़ेगा कि यह शरीर माता के पेट में था। लोगों को याद तो नहीं, किंतु यह कहते हैं कि सिर नीचे होता है और पैर ऊपर। माता के पेट में रहना ऊपर लटका हुआ कितना दुःख होता होगा? अभी कोई वैसे लटका दे, तब देखिए क्या दुःख है? समय पूरा हुआ और निकले, तो क्रन्दन पसार दिया। जनमते समय बच्चा रोवे नहीं, तो लोग समझेंगे मरा हुआ है। रोना दुःख की पहचान है। इससे जाना जाता है, उसको दुःख अवश्य हुआ होगा। मुँह से कुछ बात नहीं कर सकते कि भूख लगी है या कुछ रोग। मल- मूत्र त्याग हो, उसी पर पड़े रहना। अपने से हिल- डुल नहीं सकता।
 सोने का झूला हो, मखमल का पलंग हो, कोई बच्चा उसपर पड़ा हुआ हो तो भी उसे क्या सुख? फिर कुछ बढ़े तब क्या हुआ ? जो मुँह में नहीं देने का वही दिया, जो नहीं छूने का वह भी छुआ। फिर बढ़े, कुछ पढ़े-लिखे नहीं, तो उसका भी भारी दुःख। पढ़ने पर घर-गृहस्थी में गए, पारिवारिक झंझट। फिर दैहिक, दैविक, भौतिक ताप से कौन बच सकता। श्रीराम भी रोए। इससे कौन बच सकता है? ‘काम’ आया कुकर्म में चले गए, लोगों की नजर से गिर गए। अपने मन में भारी ग्लानि हुई। ‘क्रोध’ आया हृदय जल गया, अंधे हो गए, क्या करें, नहीं करें, कुछ सूझता नहीं। ‘लोभ’ आया, जो नहीं लेने का वह ले लिया, चोरी कर ली, राजा से दंडित हुए; इसी प्रकार सब विकारों को जानिए, तो क्या इस प्रकार संसार में रहना पसंद करते हैं? कभी नहीं। इसीलिए संत कहते हैं-सत्संग करो।
 प्रबल भव जनित त्रयव्याधि भेषज भक्ति,
          भक्त भैषज्यमद्वैत दरसी।
 औषध भक्ति है और वैद्य भक्त हैं। यह औषधि लेनी आवश्यक है। इसलिए सत्संग करना आवश्यक है। भक्ति करो तो किसकी? परमेश्वर की-ईश्वर की भक्ति समझने के लिए पहले ईश्वर को समझना होगा। ईश्वर नहीं है, सुनकर रुलाई आती है। आधार को छोड़कर कैसे रहोगे? आधार को मत छोड़ो। जो आधार तुमको अच्छा बनावेगा, उसको छोड़कर तुम कैसे रहोगे? वह ईश्वर हई है।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनंता। अखिल अमोघ शक्ति भगवंता।।
 यह ईश्वर है, जो सबमें भरा हुआ है ही। ईश्वर है, अंतरहित है, नहीं रहेगा सो नहीं, रहेगा ही। हई है, कहीं से आया नहीं है। जब कुछ नहीं था, तब भी वह था, रहेगा ही। सारी प्रकृति को भर कर कितना विशेष है, कहा नहीं जा सकता। इसका नहीं होना असंभव है। यदि कहो, नहीं है तो प्रश्न उदय होगा, सारे सांतों के पार में क्या होगा? अनंत कहना ही पड़ेगा। यदि कहो अनंत के पार में क्या है, तो तुम्हारा प्रश्न ही गलत है। अनंत का अंत ही नहीं होगा। उसके पार में कैसे क्या होगा? वह ईश्वर नहीं है, ऐसा कहने से गुंजाइश नहीं है। वह स्थूल इन्द्रियों से प्राप्त नहीं हो सकता। उपनिषद् में सुना-मन से जिसका मनन नहीं हो सकता, बुद्धि भी नहीं जान सकती। लोग समझते हैं मन, बुद्धि आदि इन्द्रिय नहीं रहेगी तो हम कैसे देखेंगे, समझेंगे। आप बहुत शक्तिशाली हैं, जैसे एक-एक इन्द्रिय का एक-एक विषय है, उसी प्रकार आपके निज का विषय परमात्मा है। इन्द्रियों का संग छूटे शरीर-रहित होकर, अकेले होकर रहे तो आप महान हैं, तब परमात्मा को प्राप्त करेंगे। इन्द्रियों के संग से आपकी शक्ति घट जाती है। जैसे रोशनी पर आवरण पड़ने से उसका तेज कम हो जाता है। जैसे आँख से जो देखते हो, उसे ही रूप कहते हैं; उसी प्रकार जो चेतन-आत्मा से पकड़ा जाय, वह परमात्मा है। जन्मांध व्यक्ति चीजों के रूप को नहीं देख सकते। आँखवाले पहचानते हैं। यह बात दूसरी है।
 परमात्मा सबका आधार है, इसी की भक्ति करो। जो विषयों में फँसते हैं, अपना दुर्नाम करवाते हैं। कभी-कभी राजा से दंडित होते हैं और अंत में नरक भी होता है, तो इस प्रकार विषय सुख से होता है। यदि परमात्मा की भक्ति करो, तब उस परमात्मा को प्राप्त कर देखो कि वह सुख कैसा है?
 जिसकी इन्द्रियाँ शांत नहीं, जिसका मन अशांत है, वह आत्मज्ञान द्वारा परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता। पापात्मा को ईश्वर की भक्ति में दिल नहीं लगता।
 सेख सबूरी बाहरा, क्या हज कावे जाय।
 जाका दिल साबत नहीं, ताको कहाँ खुदाय।।
 रूहे पाक से पहचान सकते हो, हवस से नहीं। पवित्र आत्मा से ईश्वर को पहचानो। शरीर- युक्त इन्द्रियों के संग के कारण जो मलिनता है, उससे जबतक ऊपर नहीं उठेंगे, तबतक ईश्वर को पहचान नहीं सकते। ईश्वर की भक्ति कैसे हो, इसपर कल्ह कहूँगा।
देहि सत्संग निज अंग श्रीरंग, भवभंग कारण सरन सोकहारी।
 मुझे सत्संग दीजिए, वह आपका अपना शरीर है। जन्म को नाश करने का कारण और शरणागत के शोक को हरनेवाला है।
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यह प्रवचन सहरसा जिला विशेषाधिवेशन ग्राम-खापुर ( अब जिला-मधेपुरा ) में दिनांक 8.11.1952 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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31. सूर संग्राम को देख भागै नहीं

प्यारे भाइयो !
 आपलोगों ने संतों के वचनों का पाठ सुना। आपलोगों को सुनने में प्रिय लगे, इसलिए कुछ लय और बाजा बजवाया। लय सुनकर जो अच्छा लगा हो तथा अर्थ समझ-समझकर गोता लगाते हों तो बहुत अच्छा। यदि लय-बाजा अच्छा नहीं लगता हो, केवल अर्थ को समझ-समझकर गोता लगाते हो, तो यह भी अच्छा है, किंतु यदि केवल लय में आनंद हो तो वह अच्छा नहीं है।
 संतों की माला मेरे हृदय में है। माला में एक सुमेरु होता है। सुमेरु को टपते नहीं हैं। सुमेरु से लौटकर फिर गिनते-गिनते सुमेरु तक जाते हैं। कोई भी सुमेरु को टपते नहीं हैं। मेरी माला संतों की माला है। सुमेरु में संत कबीर साहब हैं। इसलिए संत कबीर साहब का वचन मेरे पाठ में सबसे प्रथम आता है। इनको सबसे प्रथम धक्का लगा और धक्का को सह गए। जिस समय सामाजिक और धार्मिक समस्या ऐसी थी कि उसके सामने ठठना मुश्किल था, कबीर साहब ने इन धक्कों को सहा। चूल्हे पर देकर देग में उबाला गया, बाँधकर हाथी के पैरों तले दबवाया गया; सिकंदर लोदी का समय था, उन्होंने बहुत जबरदस्त धक्का दिया। किंतु ये सह गए और अपनी जो उक्ति थी कही, जो उक्ति उपनिषदों में है। नानक, दादू, तुलसी आदि संत कोई कम नहीं थे, किंतु पहले इन्हीं को सब धक्का सहना पड़ा। वे कहते हैं-सबलोग अंधकार में पड़े हुए हैं। आपलोग कहेंगे- हमलोग चन्द्र, सूर्य, तारे आदि के प्रकाश से प्रकाशित हैं; अनेक प्रकार की रोशनियों को जलाकर प्रकाश करते हैं, फिर अंधकार में कैसे? कहेंगे विद्या नहीं रहने के कारण। किंतु इससे भी प्रकाश नहीं होता। इतना पढ़ गए कि पढ़ने का अंत ही कर डाले, किंतु आँख बंदकर देखो तो अंधकार ही मिलेगा। छान्दोग्योपनिषद् में नारद की कथा है कि-
 नारद ऋषि सनत्कुमार अर्थात् स्कन्द के यहाँ जाकर कहने लगे-‘मुझे आत्मज्ञान बतलाओ।’ तब सनत्कुमार बोले-‘पहले बतलाओ, तुमने क्या सीखा है, फिर मैं बतलाता हूँ।’ इसपर नारद ने कहा-‘मैंने इतिहास-पुराणरूपी पाँचवें वेद सहित ऋग्वेद प्रभृति समग्रवेद, व्याकरण, गणित, तर्कशास्त्र, कालशास्त्र, नीतिशास्त्र, सभी वेदांग, धर्मशास्त्र, भूतविद्या, क्षेत्र- विद्या, नक्षत्रविद्या और सर्पदेवजनविद्या प्रभृति सब कुछ पढ़ा है; परंतु जब इससे आत्मज्ञान नहीं हुआ, तब अब तुम्हारे यहाँ आया हूँ।’ इसको सुनकर सनत्कुमार ने यह उत्तर दिया-‘तूने जो कुछ सीखा-पढ़ा है, वह तो सारा नाम-रूपात्मक है, सच्चा ब्रह्म इस नाम-रूपात्मक ब्रह्म से बहुत आगे है।’
 विद्या का प्रकाश, बाहर का प्रकाश रहते हुए भी आत्मज्ञान नहीं होता है। अपरोक्ष ज्ञान-अनुभव ज्ञान नहीं हो सकता। अनुभव को लोग विचार में ले लेते हैं, किंतु नहीं। समाधि द्वारा अनुभव-ज्ञान प्राप्त होता है। संत कबीर साहब कहते हैं-‘अपने घट दियना बारू रे।’
 चिराग है, बत्ती है। आग लगा दीजिए, फुन- फुनाकर जलता है, फिर बुत जाता है। यह प्रकाश क्या है? उसी प्रकार कुछ भजन करते हैं, ईश्वर की कृपा से कुछ देखने में आता है, फिर बुत जाता है। तेल नहीं है इसलिए। संत कबीर साहब कहते हैं-नाम का तेल दो। अर्थात् प्रकाश में पहुँचकर यदि शब्द को पकड़ो तो वह स्थिर प्रकाश मिलेगा, जो बुतेगा नहीं। उसमें सुरत की बाती दो। ब्रह्म अग्नि से जलाओ। ब्रह्मज्योति कहाँ है? संत सूरदासजी के वचन में सुना-
नैन नासिका अग्र है, तहाँ ब्रह्म को वास।
अविनाशी विनसै नहीं ,हो सहज ज्योति प्रकास।।
 इस शरीर-इन्द्रिय से अपने की पहचान नहीं होती है, फिर परमात्मा को कैसे पहचानेगा?
 आपुन ही कूँ खोज, मिलै जब राम सनेही। -सहजोबाई
 देह के अतिरिक्त ‘मैं’ कुछ और हूँ, देह नहीं हूँ। देह में हूँ, किंतु देह में अंधकार है। जैसे घर में कुछ वस्तु है, किंतु घर में अंधकार है, फिर क्या देख सकेंगे? इसी प्रकार देह के अंदर अंधकार है, क्या देखेंगे? इसलिए संत कबीर साहब अपने में प्रकाश करने के लिए कहते हैं। नाम का तेल और सुरत की बत्ती के लिए कहते हैं। सुरत चेतन को कहते हैं। (प्रो0 विश्वानंदजी का प्रश्न-‘चेतन-आत्मा और चेतन-धार में क्या अंतर है?’ परमाराध्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का उत्तर-‘जैसे सूर्य और सूर्य की किरण।’)
 नाम में सुरत लगाकर रखिए, चिराग जलती रहेगी। लोग कहेंगे-चिराग, चाँद, सूर्य देखते ही हैं, इससे क्या होता है? क्या होगा?
 जिस समय सुरत सिमटती है, स्थूल विषय में फैलाव नहीं रहता। इन्द्रियों में फैलाव तब होता है, जब चेतन-धार इन्द्रियों में रहती है। इन्द्रियों में रहने पर ही पाप-पुण्य कर्म करते हैं और स्वर्ग- नरक भोगते हैं। इनसे निवृत्ति तभी होगी, जब कोई इन्द्रियों से अपनी चेतन-धारा को सिमट ले। इसलिए संत कबीर साहब कहते हैं- अपने अंदर प्रकाश करो और जगमग ज्योति को निहारो। देखने से उसमें तल्लीनता आ जाएगी, पापों से छूट जाएँगे। बंगला पद्य में कल्ह सुना-‘देखे आँखी कोनो मते कीनी ना।’ फिर संत कबीर साहब ने कहा- अपने काम को सँभालो। अपना काम बनाना यही है। हम सबसे ऊँचे रहें, लोग नीचे रहें, अपना काम बनाना नहीं है। एक मुखिया दूसरे मुखिया को दबाना चाहते हैं। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को दबाना चाहते हैं। यह अपना काम बनाना नहीं है। सबसे मिलकर रहो, तभी आनंद से रहोगे। भजन करो। मन-इन्द्रियों से युद्ध करो।
सूर संग्राम को देख भागै नहीं,देख भागै सोई सूर नाहीं।
काम व क्रोध मद लोभ से जूझना, मरा घमसान तहँ खेत माहीं।।
साँच औ शील संतोष शाही भये,नाम शमशेर तहँ खूब बाजे।
कहै कबीर कोई जूझिहैं शूरमा, कायराँ पीठ दै तुरत भाजै।।
 सच्चाई, शीलता, संतोष ध्वजा है। जो सूरमा है, वह लड़ाई में लड़ेगा। कायर भागेगा, उसका काम नहीं बनेगा। उन्होंने दिलाशा दिया-
 करता की गति अगम है, चल गुरु की उनमान।
 धीरे धीरे पाँव दे , पहुँचोगे परमान।।
 काम बहुत बड़ा है। मन-इन्द्रियों को समेटना, अधोगति से ऊर्ध्वगति करना कठिन है, किंतु कठिन कहकर छोड़ने से काम चलने का नहीं। एम0ए0 तक पढ़ना बड़ा मुश्किल है। बच्चे से गुरुजी की मार कौन खाए, फटकार को कौन सहे, कॉलेज में कौन सड़े; यह सोचकर नहीं पढ़ने से कोई विद्वान नहीं हो सकता, उसको पद-प्रतिष्ठा नहीं मिल सकती। जो पढ़ते हैं-गुरुजी की मार खाते हैं, फटकार सहते हैं, कॉलेज जाते हैं; वे विद्वान होते हैं, उनको पद-प्रतिष्ठा मिलती है। उसी प्रकार यदि तुम पढ़ो, अध्यात्म-ज्ञान सीखो, तो उतने ही बड़े होओगे, जितने बड़े संत कबीर थे। भगवान कृष्ण ने कहा-भक्त तो मुझसे भी बड़े हैं, इतने ऊँचे दर्जे में हैं कि जिनका दर्शन मैं नहीं कर पाता।
 ऊँचा पद पर आसीन होना कोई साधारण काम नहीं। किंतु थोड़ा-थोड़ा करते-करते सरल हो जाएगा। भगवान बुद्ध का वचन-पानी की बूंदों से घड़ा को भरते-भरते वह भर जाता है, उसी प्रकार थोड़ा-थोड़ा ध्यान करते-करते पूर्णता को प्राप्त करोगे। यही अपना काम है। अपना काम बनाना क्या है, इसपर कहा।
 संसार में जो कोई प्रतिष्ठावान होकर हैं, वही अच्छा है। प्रतिष्ठाहीन किस काम का? संसार में प्रतिष्ठा का मोल जितना है, धन का उतना नहीं। झूठे को, विषयी को प्रतिष्ठा नहीं मिलती। जो झूठे नहीं, विषयी नहीं, उनको प्रतिष्ठा मिलती है।
 छपरा के पास एक संत थे। वे बोले थे-‘दिन में रात होगी, इतने आदमी मरेंगे कि आदमी को आदमी नहीं फेकेंगे।’ पहली बात सूर्यग्रहण हुआ। पूरा सूर्य डूब जाने पर अंधकार हो गया। जैसे संध्या के समय चिड़िया बोलती है, चिड़िया बोलने लगी। दूसरी बात प्लेग की बीमारी हुई, जिसमें इतने लोग मरे कि लोग नहीं फेंक सकते। नगरपालिकावाले गाड़ी पर भर-भरकर उन लाशों को फेंकते थे। तीसरी बात यह देश स्वतंत्र हो जाने के कारण आजकल संत का राज्य हो गया और संत-राज्य होगा। उनकी तीनों बातें मिल गईं। पहली बात हुई सूर्यग्रहण होना, अंधकार होना, चिड़िया बोलना। दूसरी बात प्लेग की इतनी बीमारी हो गई कि लोगों को फेंकना पड़ा। आजकल संत-राज्य हो गया। डाकघर के टिकटां पर संतों का छाप चल रहा है।
  दादू जानै न कोई, संतन की गति गोई।।टेक।।
 अविगत अंत अंत अंतर पट, अगम अगाध अगोई।
 सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई।।
 अंड न पिंड खण्ड ब्रह्मण्डा, सुरत सिंध समोई।
 निराकार आकार न जोती, पूरन ब्रह्म न होई।।
 इनके पार सार सोइ पइहैं, मन तन गति पति खोई।
 दादू दीन लीन चरनन चित, मैं उनकी सरनोई।।
अर्थ-अ=नहीं। गोई=कहना। अगोई= अनिर्वचनीय।
 अंतर शून्यं बाहर शून्यं, त्रिभुवन शून्यं शून्यं।
 तीनों शून्य को जो कोई जाने, ताको पाप न पुण्यं।।
 1. स्थूलाकाश=अंधकार का आकाश। 2. सूक्ष्माकाश=प्रकाशाकाश। 3. कारण का आकाश= शब्दाकाश। दादू दयालजी का वचन है-‘सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा।’ अर्थात् शून्य, महाशून्य और भँवर गुफा के परे जो जाता है, उसको पाप-पुण्य नहीं लगता। त्रैगुण रहितता का गुण है, त्रैगुण का गुण नहीं है। दिव्यगुण-सहित और त्रैगुण-रहित होने से ईश्वर सगुण हैं, किंतु इस प्रकार केवल सगुण कहने से साधारण लोग ओरझा जाएँगे। इसलिए संतों ने सगुण-निर्गुण तथा उसके परे कहकर समझाया। त्रैगुण-सहित सगुण, त्रैगुण-रहित निर्गुण तथा इन दोनों के परे भी। सगुण जड़, निर्गुण चेतन तथा इन दोनों के परे जो है, वही परमात्मा है। बाहर इन्द्रियों से जो हम जानते हैं स्थूल सगुण है। अंतर में प्रकाश तथा अनहद शब्द सूक्ष्म सगुण है तथा सारशब्द सार्थक निर्गुण है। सारशब्द की उपासना निर्गुण उपासना है। इसकी उपासना करनेवाले इसके पार हो जाते हैं। वे निर्गुण- सगुण के परे चले जाते हैं-‘पूरण ब्रह्म न होई।’
 जो प्रकृति-मंडल में व्यापक है, वही पूरण ब्रह्म है। प्रकृति व्याप्य और वह व्यापक है। किंतु ‘प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी। ब्रह्मनिरीह बिरज अविनाशी।।’ जो प्रकृति के पार में है, उसे पूरणब्रह्म नहीं कह सकते। किनके पार? यानी पिण्ड-ब्रह्माण्ड के परे, सगुण-अगुण के परे और सुन्नी सुन्न सुन्न के परे जो है, वही परब्रह्म परमात्मा है।
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यह प्रवचन सहरसा जिला विशेषाधिवेशन ग्राम-खापुर ( अब जिला-मधेपुरा ) में दिनांक 9.11.1952 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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32. ईश्वर-भक्ति की विशेषता

प्यारी धर्मानुरागिनी जनता !
 मैं आज क्या कहूँगा, कल्ह ही विदित कर दिया हूँ। आज का वर्णन है-ईश्वर की भक्ति कैसे की जाएगी? किंतु आपको याद दिलाने के लिए कह दूँ कि इसकी आवश्यकता क्या है। लोग कहते हैं, ईश्वर-भक्ति का प्रचार तो होता ही है, फिर इसका क्या काम? तो ठीक ही है, सब कोई प्रचार करें; किंतु कुछ इस सत्संग को भी थोड़ा मौका मिले कहने-सुनने के लिए।
 देखिए मन कैसा है, किधर जाता है? विशेष करके विषय की ओर ही दौड़ता है। सत्संग करते-करते भी मन भाग जाता है। यदि कहिए कि भक्ति-प्रचार का क्या काम है, तो-
      राकापति षोडस उअहिं, तारागन समुदाय।
      सकल गिरिन्ह दव लाइये, बिनु रवि राति न जाय।।
ऐसेहि बिनु हरि भजन खगेशा।मिटहिं न जीवन केर कलेसा।।
 इसके लिए भक्ति का प्रचार है। अपने हृदय से पूछिए कि कुछ तकलीफ, दुःख भी है? प्रति घंटे अपने क्लेश का वर्णन करता है। काम- क्रोधादिक विकार आने पर कैसे करते हैं? विचारिए-
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
 काम-रूप वात है, लोभ-रूप अपार कफ है और क्रोध-रूप पित्त है, जो सदा हृदय जलाता है।
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्निपात दुखदाई।।
 हे भाई! जब ये तीनों प्रीति करते हैं, तब दुःखदायी सन्निपात (त्रिदोष ज्वर) उत्पन्न होता है।
 एक व्याधि बस नर मरहिं, ये असाधि बहु व्याधि।
 पीड़हिं संतत जीव कहँ, सो किमि लहइ समाधि।।
 मनुष्य तो एक ही रोग के वश होकर मर जाते हैं; परंतु ये बहुत से असाध्य रोग हैं, जो जीव को सदा दुःख दिया करते हैं-इस दशा में वह(जीव) कैसे सुख पा सकता है?
 बहुत दुःख है इस संसार में, तो करना क्या है? ईश्वर-भजन करके ही इन दुःखों से छूट सकते हैं। सूर्योदय होने से ही अंधकार दूर होता है, उसी प्रकार ईश्वर-भक्ति से ही क्लेश दूर होगा। इसी उद्देश्य से ईश्वर-भक्ति का प्रचार करते हैं।
 संतो भक्ति सतोगुर आनी।
 नारी एक पुरुष दुई जाया, बूझो पंडित ज्ञानी ।।
 पाहन फोरि गंग इक निकसी, चहुँ दिसि पानी पानी ।
 तेहि पानी दोउ पर्वत बूड़े, दरिया लहर समानी ।।
 उड़ि माखी तरुवर कै लागै, बोलै एकै बानी ।
 वह माखी को माखा नाहीं, गर्भ रहा बिनु पानी ।।
 नारी सकल पुरुष लै खाये, तातैं रहै अकेला ।
 कहहिं कबीर जो अबकी समझौ, सोइ गुरू हम चेला ।।
-संत कबीर साहब
 जिन्होंने भारती भाषा में प्रवाह रूप से कहने का आंरभ किया, वे संत कबीर साहब थे। उनके बाद और सब कहे। इसलिए मैं उन्हें सुमेरु रूप में रखता हूँ। ये विशेष थे और नानक, तुलसी कम थे, इसलिए नहीं; बल्कि इसलिए कि ईश्वर की मौज से पहले संत कबीर साहब आए थे, पीछे ये लोग। इसलिए इनकी दूसरी ही भक्ति है, जो प्रचलित रूप से जानते हैं, वह नहीं।
 एक स्त्री ने दो पुरुष उत्पन्न किया, उसको पंडित-ज्ञानी बुझिये। नारी प्रकृति को कहते हैं। प्रकृति के बिना कोई जीव पुरुष और ब्रह्म पुरुष नहीं बोल सकते। ब्रह्म और जीव दोनों थे ही, किंतु प्रकृति के पहले जीवत्व और ब्रह्मत्व दशा नहीं हो सकती। व्यापक व्याप्य भेद के बिना ब्रह्म कौन कहे और कैसे कहे? प्रकृति से शरीर, इन्द्रिय, अंतःकरण बने। शरीर, इन्द्रिय, अंतःकरण के बिना जीव कैसे कहा जाय? इसलिए ‘नारी एक पुरुष दुई जाया, बूझो पंडित ज्ञानी।’ यह जड़ता पाहन है। यह जीव यदि परमात्मा से मिलना चाहता है, क्लेश से छूटना चाहता है तो जड़ को फोड़कर निकल जाय। वह धारा पवित्र है। इक निकसी=जीव निकला। और चहुँ दिशि पानी पानी= सच्चिदानंद पद में जाना। उस पानी में जाने से जीवत्व दशा नहीं है। व्याप्य के हट जाने से जीव पुरुष और ब्रह्मपुरुष नहीं कहे जाते; क्योंकि जीव उसमें लय हो गया।
 उड़ि माखी तरुवर कै लागै, बोलै एकै बानी।
 मक्खी उड़कर एक वृक्ष पर बैठ गई। एक वाणी बोलने लगी। मक्खी=सिमटी सुरत। सिमटी हुई सुरत अंतराकाश में उड़ी और तरुवर (तरुवर= अछय पुरुष एक पेड़ है, निरंजन वाकी डार। त्रिदेवा साखा भया पात भया संसार।।) परमात्मा में लग गया।
 एकै वाणी=एक शब्द=सारशब्द।
 विकारों को पुरुष वर्ग में लिया है, ज्ञान-वैराग्य आदि को वह नारी अपने में पचा ली। अब वह अकेले-अकेले है। इस प्रकार की भी भक्ति है।
 इस ज्ञान का कितना विशेष कम प्रचार है, जान लीजिए। इस सत्संग के द्वारा इसी भक्ति का प्रचार होता है। किसकी भक्ति करेंगे? ईश्वर की भक्ति करेंगे। परमात्मा के लिए ही कभी ईश्वर और कभी परमात्मा कहूँगा, इसको जान लीजिए। ईश्वर की ओर कैसे लगावें, कल्ह कहा गया था कि जो मन, बुद्धि इन्द्रियों को ग्रहण नहीं हो वह परमात्मा है। वही ‘व्यापक व्याप्य अखंड अनंता’-राम, परशुराम आदि दश अवतारों में होने से वे बँट गए? नहीं। सब रूपों में होते हुए कितना विशेष है, ठिकाना नहीं।
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप।
 किए चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप।।
 यथा अनेकन भेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ।
 सोइ सोइ भाव दिखावइ, आपुन होइ न सोइ।।
 गो गोचर जहँ लगि मन जाई।सो सब माया जानहु भाई।।
 कसौटी पर कसकर जानिए कि परमात्मा का स्वरूप क्या है?
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।
प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी। ब्रह्म निरीह बिरज अविनासी।।
या आप उपनिषद को लीजिए-
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।
    -महोपनिषद्, अध्याय 4
 परे से परे को (परमात्मा को) देखने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं। जब दर्शन करें और आपको ऐसा मालूम हो कि कुछ संशय नहीं रहा, कोई बंधन मुझपर नहीं है, जड़-चेतन का प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाय, वही परमात्मा है। जितने इन्द्रियों के द्वारा दर्शन है, उसके द्वारा ‘भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः’ हो नहीं सकता। इसी बात को गोस्वामीजी ने कहा है-
  गो गोचर जहँ लगि मन जाई।सा ेसब माया जानहु भाई।।
 जब ये माया ही है, तब इसे परमात्मा कैसे कहिएगा? अब उसकी भक्ति कैसे की जाय, जो मन, बुद्धि से बाहर है। इन्द्रियाँ पहचान नहीं सकतीं। कितनी बुद्धि कहती है-ईश्वर है, कितनी बुद्धि कहती है-ईश्वर नहीं है। आजकल नास्तिकवाद की भी पताका उड़ रही है। जीव माने ईश्वर नहीं। कोई जीव ईश्वर कुछ नहीं माने। कहते हैं-तुम्हारा शरीर है, जड़-जड़ के मिलने से ऐसा कुछ काम करने के योग्य हो गया है। शरीर छूटेगा, कुछ भी बाकी नहीं रहेगा। किंतु हमारा सत्संग तो कहता है-ईश्वर है, तुम जीव हो, दुःख में पड़े हो। ईश्वर की भक्ति करो सुखी होओगे। फिर कहेंगे, जब ईश्वर मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों से परे हैं, उसे कैसे पकड़ा जाय? हमलोगों को विश्वास है, ईश्वर अवश्य है।
अलख अपार अगम अगोचरि ना तिसु काल न करमा।
जाति अजाति अजोनि संभउ ना तिसु भाउ न भरमा।।
साचे सचिआर बिटहु कुरबाणु ना तिसु रूप
   बरणु नहिं रेखिआ साँचे सबदि नीसाणु।
        - गुरु नानक साहब
 एक-एक विषय को एक-एक इन्द्रिय ग्रहण करती है। उसी प्रकार तुम अकेले होकर स्थूल, सूक्ष्मादि चारो शरीरों को छोड़कर कैवल्य दशा में रहो, ईश्वर की प्रत्यक्षता होगी। मन तुम्हारा नौकर है, इन्द्रियाँ नौकरानी हैं। तुम नौकर-नौकरानी के पंजे में फँस गए हो, इससे निकलो। तुम इनके भरोसे क्यों रहते हो? तुम स्वयं बहुत शक्तिमान हो, किंतु अपने को भूले हुए हो। कबीर साहब ने कहा है-
बिन सतगुरु नर रहत भूलाना।
   खोजत फिरत राह नहीं जाना।।टेक।।
 केहर सुत ले आयो गड़रिया, पाल पोष उन कीन्ह सयाना।
 करत कलोल रहत अजयन संग, आपन मर्म उनहूँ नहिं जाना।।
 केहर इक जंगल से आयो, ताहि देख बहुतै रिसियाना।
 पकड़ि के भेद तुरत समुझाया, आपन दसा देख मुसक्याना।।
 जस कुरंग बिच बसत बासना,खोेजत मूढ़ फिरत चौगाना।
 कर उसवास मनै में देखै, यह सुगंधि धौं कहाँ बसाना।।
 अर्ध उर्ध बिच लगन लगी है, छक्यो रूप नहिं जात बखाना।
कहै कबीर सुनो भाई साधो,उलटि आपु में आप समाना।।
 बकरी और भेड़ को चरानेवाला एक गड़ेरी सिंह के एक बच्चे को ले आया। सिंह के उस बच्चे की आँखें बंद थीं। सिंह-बाघ के बच्चे की आँखें जन्मकाल में बंद रहती हैं। वह सिंह का बच्चा नहीं जान सका कि वह किसका बच्चा है। कुछ दिनों के बाद उसकी आँखें खुलीं तो उसने अपने को बकरी-भेड़ के बच्चों के साथ पाया। जैसे भेड़ बकरी का बच्चा खेल-कूद करता, वैसे ही वह भी उसके साथ खेल-कूद करने लगा। एक दिन एक सिंह जंगल से आ गया। उसने देखा कि यह तो मेरी ही जाति का बच्चा है, लेकिन भेड़-बकरी के साथ रहता है। जंगली सिंह को देखकर गड़ेरी, भेड़ और बकरियाँ सभी भागते हैं, उन सबके साथ सिंह का बच्चा भी भागता है। यह देख जंगली सिंह ने उसको पकड़ा। उसने उसको पकड़कर पानी में अपना और उसका मुँह दिखाया और कहा-‘देखो, तुम्हारा रंग-रूप जैसा है, मेरा भी वैसा ही है।’ पानी में अपने रूप को देखकर उसको ज्ञान हो गया कि मैं भी सिंह ही हूँ।
 ऐसे ही जीवात्मा, परमात्मा-रूपी सिंह का बच्चा है यानी परमात्मा का अंश है। इन्द्रियाँ जितने हैं, वे भेड-़बकरी के समान हैं। जीवात्मा इनके साथ रहकर अपने को इन्द्रिय समझता है। जब सच्चे सद्गुरु मिलते हैं तब उसको दिखला देते हैं कि तुम संसार की ओर से उलटो, अपने अंदर देखो। वैसे तो विचार में हम ईश्वर के अंश हैं, जानते हैं, लेकिन उलटकर देखने से प्रत्यक्षता होती है। हम ईश्वर को तब प्रकट कर सकते हैं, जब हम शरीर और इन्द्रियों से अपने को छुड़ा सकें। यह कैसे होगा? यह तबतक नहीं होगा, जबतक सद्गुरु नहीं मिलते हैं। सद्गुरु मिलते हैं तो बता देते हैं कि तुम भी आत्म-स्वरूप हो। जो गुण ईश्वर में है, वही गुण तुममें भी है। परमात्मा का गुण शरीरस्थ चेतन-आत्मा में है। जो अपने शुद्ध चेतन रूप को पहचानता है, वही ईश्वर को पहचानता है। कबीर साहब अनपढ़ थे, पर उनका वचन अद्भुत है। गुरुजी से ‘क’, ‘ख’ भी नहीं जाने और उनका वचन इतना दृढ़।
 तुम अपने स्वरूप को अपने अंदर में देखो। कैसे देखोगे, तो का-‘अर्ध-उर्ध बीच लगन लगी है।’ उलटकर बहिर्मुख से अंतर्मुख हो जाओ। अपने नौकर-नौकरानी का संग छोड़कर कबीर के बतलाए हुए स्थान पर लगन लगावें, तो अवश्य अपने को पहचान पाएँगे।
मायाबस मति मंद अभागी। हृदय जवनिका बहुविधि लागी।।
ते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अज्ञान राम पर धरहीं।।
 काम क्रोध मद लोभ रत, गृहासक्त दुःखरूप।
 ते किमि जानहिं रघुपतिहिं, मूढ़ पड़े तम कूप।।
     -गोस्वामी तुलसीदास
 जो काम, क्रोध, मद और लोभ में लिप्त, घर के कामों में फँसे हुए, दुःखरूप हैं, वे अंधकार के कुएँ में गिरे हुए मूर्ख राम को कैसे जान सकते हैं? अर्थात् नहीं जान सकते हैं। अंधकार के कुएँ से अपने को निकालो। भीतर में जितने स्थूल-सूक्ष्मादि जड़ आवरण हैं, उसको हटावें। यही भक्ति है। इसी विषय को संत कबीर साहब की वाणी में पाहन फोड़ना कहा गया है। कहेंगे कि यह भक्ति कैसे? तो विचार में जानने में आता है कि जब हम सब आवरणों को पार कर जाएँगे, तब ईश्वर से इस प्रकार सटेंगे कि कभी हटेंगे नहीं। इसलिए ईश्वर पाने के लिए जो यत्न है, उसको करना भक्ति है। बाबा नानक ने कहा-
 भगता की चाल निराली।
 चाल निराली भगताह केरी विखम मारगि चलणा।।
 लबु लोभु अहंकारु तजि त्रिसना बहुतु नाहीं बोलणा।
 खंनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा।।
 गुर परसादी जिनि आपु तजिआ हरि वासना समानी।
 कहै नानक चाल भगताह केरी जुगहु जुगु निराली।।
 -नानक साहब
 तलवार की धार से भी तेज और बाल की नोंक से भी महीन वह रास्ता है। कहेंगे इस पर कैसे चला जाय? आपको डरना नहीं चाहिए। इस तलवार की धार पर पैर नहीं चलेगा, इसपर मन चलेगा। कहेंगे-चलना चाहिए चेतन को, कहते हैं मन को? तो जानना चाहिए कि जहाँ दूध रखो, वहीं घी भी है; उसी प्रकार जबतक मन-चेतन संग-संग है। जहाँ मन रखो, वहीं चेतन है। ‘मन उलटे तब सुरत कहावै।’ मन को उलटो अर्थात् सिमटो तो पहले जिस ओर था, उसके विपरीत ओर को हो जाएगा। स्थूल पसार में हो, इसमें सिमटने से सूक्ष्म में प्रवेश करोगे।
 सुरत फँसी संसार में ताते परिगा दूर।
 सुरत बाँधि सुस्थिर करो आठो पहर हुजुर।।
     -कबीर साहब
 यदि कहिए यह तो कॉलेज की बात है। नीचे वर्ग की पढ़ाई भी कहिए, तो कबीर साहब की वाणी में ही सुनिए-
 मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव।
 मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव।।
इससे उलटिए तो-
 गगन मंडल के बीच में, तहँवा झलके नूर।
 निगुरा महल न पावई, पहुँचेगा गुरु पूर।।
 बाँका परदा खोलि के, सन्मुख ले दीदार।
 बाल सनेही साईयां, आदि अंत का यार।।
      -कबीर साहब
मायाबस मति मंद अभागी। हृदय जवनिका बहुविधि लागी।।
 अन्धकार बाँका परदा है। यदि मोटी बात ही लीजिए तो तुलसीदासजी की वाणी में है- ‘प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।’ संत कबीर साहब भी सत्संग करने कहते हैं। सब संत सत्संग करने कहते हैं। शवरी से राम कहते हैं-‘दूसरी रति मम कथा प्रसंगा।’ नवो प्रकार की भक्ति कहते-कहते अंत में कहते हैं-‘सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।’ गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान। मान मर्यादा को छोड़कर गुरु की सेवा करो शिवाजी की तरह। अथवा हाल के रायबहादुर शालिग्राम की तरह। पोस्टमास्टर जनरल होते हुए भी अपने गुरु के लिए अपने से आटा पीसना, रोटी बनाना, जमुनाजी से पैदल पानी लाना, इसपर भी यदि कोई कहे-पानी नहीं है, बच्चा रोता है तो उसे पानी दे देते थे और फिर अपने पानी लाने चले जाते।
 गुरु का सेवक अपने समय में शिवाजी ऐसे बहुत कम हैं। वे छत्रपति होते हुए भी अपने हाथ से सब प्रकार की सेवा करते थे। शिवाजी अपने हाथ से अपने गुरु को तेल लगाते थे। अपना संपूर्ण राज्य अपने गुरु को दिए थे।
 एक दिन समर्थ रामदासजी कुछ चेलों के साथ चले आ रहे थे। चेलों ने कहा-‘हमलोगों को भूख लग गई है।’ समर्थ रामदासजी ने कहा-‘देखो, खेत में मकई के भुट्टे लगे हैं, खा लो।’ शिष्यों ने वैसा ही किया। तबतक खेतवाले आ गए। वह गुस्से में आकर समर्थ रामदासजी को मकई के डण्ठल से मार बैठा। समर्थ मार बर्दाश्त कर गए और शिष्यों से कहा-‘शिवा को यह बात मत कहना, नहीं तो इसे भारी दण्ड देगा।’ जब समर्थ रामदासजी शिवाजी के यहाँ पधारे, तो शिवाजी उनको अपने से ही स्नान कराने लगे। पीठ में मार का दाग देखकर अन्य शिष्यों से पूछा कि यह दाग पीठ में कैसे आया? सबके सब चुप थे, कोई कुछ बोलते ही नहीं थे। शिवाजी ने कहा-‘सही-सही बोलिए, नहीं तो आपलोगों को ही इसका दंड भोगना पड़ेगा।’ तब उनलोगों ने उक्त किसान का नाम कहा, जिसने समर्थ रामदासजी को मारा था। उसको शिवाजी ने पकड़वाकर अपने सामने मँगवाया। शिवाजी के डर से वह किसान बहुत ही कंपित हो रहा था। समर्थ रामदासजी ने कहा, शिवा! देखो, तुम्हारे डर से यह बहुत दुःखी हो रहा है, इसे क्षमा कर दो। इसका मालपोत (मालगुजारी) माफ कर दो।
 ये महान त्यागी पुरुष गुरु की भक्ति करते थे।
 चौथि भगति मम गुन गण, करइ कपट तजि गान।
पाँचवीं भक्ति- मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा।
     पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।
ऐसा नहीं कि-
 माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं।
बल्कि ऐसा-
 तन थिर मन थिर वचन थिर, सुरत निरत थिर होय।
 कह कबीर इस पलक को, कलप न पावै कोय।।
 पहले जैसे मन भागता था, उससे कम भागे। संतों का संग होगा, कथा प्रसंग होगा, उनसे ज्ञान सीखेंगे।
 ईश्वर-भक्ति कैसे होगी? गुरु की सेवा करेंगे। ईश्वर का गुणगान करेंगे, जप करने कहेंगे। यह क्रमबद्ध है। छठी भक्ति ‘दम’ आती है। इन्द्रियों को रोकने का स्वाभाव आपको हो जाय, तब दमशील हो जाइएगा। बहुत-से कर्मों से अपने मन को हटाइए। सज्जनों के धर्म के अनुसार संसार में बरतिए। सज्जनों का धर्म है-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार नहीं करने का। इस तरह आप इन्द्रियों के रोकने का स्वभाववाला हो जाइएगा। इन्द्रियों के साथ मन की धार है। इन्द्रियों में मन की धार होने से ही इन्द्रियाँ सचेष्ट होती हैं और काम करती हैं। मन ही विषयों की ओर इन्द्रियों को ले जाने की प्रेरणा करता है। इन्द्रिय बेरोक में दमशीलता नहीं होती। जिस केंद्र से इस धार का बिखार हुआ है, उस केन्द्र में केंद्रित करो। केंद्र में केंद्रित होने पर विषयों की ओर नहीं जाएगा। इस प्रकार अभ्यास बारंबार करते- करते इन्द्रियों को रोकने का स्वभाववाला बन जाइएगा। आप कहेंगे, मन को विषयों में बड़ा अच्छा लगता है, इससे विपरीत कैसे जाएगा? तो देखिए, भीतर जाने में भी बड़ा आनंद मालूम होता है। जाग्रत से तंद्रा में जाने पर बड़ा आनंद मालूम होता है,उस समय कोई गड़बड़ करे तो मन बड़ा रंज हो जाता है। तन्द्रा=जागने से स्वप्न में जाने के बीच रास्ते में जो मिलता है= अधनिनिया। वहाँ कोई विषय नहीं है, फिर भी आनंद है। इसलिए कबीर साहब ने कहा-
 भजन में होत आनंद आनंद।
 बरसत बिषद अमी के बादर भींजत है कोई संत।।
 अगर अंदर के सरकाव में दुःख होता, तो आप सो नहीं सकते। सब दिन सोते हैं और यह हालत होती है। छठी भक्ति से सूक्ष्म भक्ति का आरंभ होता है। अपनी धारों को कैसे और कहाँ पर उलटेंगे? तो कहेंगे-तुम हो कहाँ, वहीं से उलटो। दरिया साहब की वाणी है-
 जानि ले जानि ले सत्त पहचानि ले ।
    सुरत साँचि बसै दीद दाना ।।
 आँख का तिल=शिवनेत्र। दोनों आँखों के मध्य मुकाबले अंदर में। राय शालिग्राम साहब ने कहा है। संत कबीर साहब का वचन लीजिए-
 इस तन में मन कहाँ बसत है, निकसि जाय केहि ठोर ।
 गुरु गम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और ।।
 नैनों माहिं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर ।
 सतगुरु भेद बताइया, सब संतन सिरमौर ।।
ब्रह्मोपनिषद् में है-
 जाग्रत्स्वप्ने तथा जीवो गच्छत्यागच्छते पुनः।
 नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् ।
 सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्निसंस्थितम् ।।
 जीव जाग्रत, और स्वप्न में पुनः-पुनः आता- जाता रहता है। जीव का वासा जाग्रत में-नेत्र में और स्वप्न में-कण्ठ में, सुषुप्ति में-हृदय में और तुरीयावस्था में-मस्तक में होता है। आप जाग्रत में काम करेंगे, इसलिए यहीं से चलो। जगने में आप आँख में हैं। फिर कहेंगे, कैसे चलेंगे? तो दोनों धारों को एक करो, कैसे करो, यह बात गुरु से जानो। इससे सरल और कुछ नहीं हो सकता। 1904 ई0 से 1952 ई0 तक की मेरी खोज है। मैं इतने दिनों तक क्या करता रहा !
 यह दृष्टि साधन है। अमादृष्टि, प्रतिपदादृष्टि, और पूर्णिमादृष्टि। ‘तद्दर्शने तिस्रो अमाप्रतिपत्पूर्णिमा चेति निमीलितदर्शनममादृष्टि। अर्धोन्मीलितं प्रतिपत्। सर्वोन्मीलिनं पूर्णिमा भवति।’
 उसे देखने के लिए तीन दृष्टियाँ होती हैं; अमावस्या, प्रतिपदा और पूर्णिमा। आँख बंदकर देखना अमादृष्टि है, आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा है।
 अंधकार में यत्न करो तो तारा चमकेगा। ईसा मसीह ने दो आँख को एक आँख करने को कहा। सुषुम्ना में जाना चाहते हो, तो गुरु से जानकर करो। किसी का दोनों हाथ पकड़कर कोई खींचे, तो संपूर्ण शरीर उसी ओर हो जाता है। उसी प्रकार दोनों दृष्टिधारों को एक करो तो फैली हुई सब धारें उसी ओर हो जाएँगी, यही दमशील होगा। दृष्टियोग के साधन में कुछ कष्ट नहीं होता है। बिना प्राणनिरोध के ही ध्यानाभ्यास द्वारा श्वास बंद हो जाता है। इस प्रकार होने से छठी भक्ति होगी। अब सप्तमी भक्ति आती है। ‘सातम सम मोहिमय जग देखा।’ जहाँ दम है, वहाँ शम होना ही चाहिए। यदि कहो कि मन का साधन तो हो ही चुका, तो देखिए मन और इन्द्रियों का संग-संग साधन होना दम है। केवल मन का निग्रह शम है। यहाँ दृश्य नहीं है, केवल नादानुसंधान है। न नाद सदृशो लयः। मनोलय होकर तब क्या होता है-
 सहस कमलदल पार में, मन बुद्धि हिराना हो।
 प्र्राण पुरुष आगे चले,सोइ करत बखाना हो।।
 निर्मल-चेतन परमपुरुष से जाकर मिलती है। यहाँ दम और शम क्या होता है वर्णन किया। इसी प्रकार की भक्ति सब किया करें। ‘आठम यथा लाभ संतोषा।’ जिसको ‘शम’ होगा, उसको ‘सम’ भी हो जाएगा। इसके लिए अपना-पराया, सुख-दुःख, शीत-उष्ण सब ‘सम’ हो जाता है। ऐसा होनेवाले के लिए ‘आठम यथा लाभ संतोषा।’ उसकी खरीदी हुई चीज हो जाएगी। वह टेढ़ा क्यों होगा? सरल हो जाएगा। एक ईश्वर पर भरोसा रखो।
 भक्ति तो सात ही समझिए। बाकी दो भक्ति तो फल है, यही जानिए। भक्ति को केवल मोटी ही नहीं जाननी चाहिए। उन छठी और सातवीं भक्ति को भी जानिए। इसके लिए संयम की जरूरत है। झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, व्यभिचार मत करो, नशा का सेवन मत करो। पंच पाप मत करो। आगे बढ़नेवाले को चाहिए-पापों से बचें। पापों में फैला हुआ आदमी आगे नहीं बढ़ सकता, वह विषयों में अनुरक्त रहता है। नशा के विषय में तम्बाकू तक मना है। अपना खून आप पीओ तो घृणा होगी, किंतु अपने उच्च रक्त में पशुओं के नीच रक्त को क्यों मिलाते हो? इसी के लिए किसी संत ने कंठी पहनायी, किसी ने कहा-कंठी पहनो या नहीं पहनो, अपने मन को ठीक करो।
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यह प्रवचन सहरसा जिला विशेषाधिवेशन ग्राम-खापुर ( अब जिला-मधेपुरा ) में दिनांक 9.11.1952 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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33. शरीर छूटने पर क्या गति होगी?

प्यारे धर्मप्रेमी सज्जनो!
 सबलोगों को जीवन भर सुख से रहने का ख्याल रहता है। वे इसी के लिए काम करते हैं और आज का काम कल्ह के लिए नहीं छोड़ते। सोचते हैं-आज का काम कल्ह के लिए छोड़ने से जो लाभ होना चाहिए, नहीं होगा। कृषक खेती करते हैं। जोतने के समय, बोने के समय, कोड़ने के समय जोतते,बोते और कोड़ते हैं। सोचते हैं कि ठीक समय पर काम नहीं करने से जमीन परती रहेगी, उपज नहीं होगी। भूखे रहेंगे तो दुःख होगा। आपलोग कृषक हैं, जानते हैं। धूप में, पानी में सब कुछ बर्दाश्त करके खेती करते हैं। इसलिए कि सालभर सुखी रहें। इसके अतिरिक्त जो और कोई काम करनेवाले हैं, सबको डर रहता है। बड़े पदवाले को डर है कि ठीक से काम नहीं करने से पद से नीचे गिरा दिए जाएँगे। देश की हालत खराब हो जाएगी। विद्यार्थी को डर रहता है कि ठीक से पढ़ाई नहीं करने पर परीक्षा में असफल हो जाएँगे। यह काम एक जीवन का है। साधु- महात्मा लोग कहते हैं, जिस प्रकार डर-डरकर संसार का काम करते हो, उसी प्रकार यह भी डर रखो कि तुम्हारा शरीर छूट जाएगा, तब तुम क्या करोगे? तब के लिए क्या प्रबंध करोगे? सब धर्मों में, अपने वैदिक धर्म में भी इसकी चिंता है कि शरीर छूटने पर क्या मेरी गति होगी? इसके लिए सब धर्मां में कुछ-न-कुछ प्रयत्न किया करते हैं। कोई-कोई कहते हैं- पुत्र श्राद्ध-क्रिया करते हैं, इससे स्वर्ग-प्राप्ति होती है। इस प्रकार कुछ-न-कुछ कर्म किया करते हैं। स्वर्ग में भी सदा के लिए रहना नहीं होता। पुण्य-भर स्वर्ग में रहता है और क्षीण हो जाने पर फिर स्थूल संसार में, स्थूल शरीर में आना पड़ता है। इसलिए साधु-संत कहते हैं-अरे! स्वर्ग का सुख भोगते हो तो क्या? यहाँ भी इन्द्रियों का भोग और वहाँ भी इन्द्रियों का भोग! फर्क इतना ही है कि यहाँ विशेष परिश्रम करने पर विषय-सुख प्राप्त होता है, किंतु वहाँ का सुख बिना परिश्रम के ही मिलता है। जैसे पहले का जमा किया हुआ पुण्य मिलता है। यहाँ का सुख विशेष टिकाऊ नहीं, िंकंतु वहाँ का उससे कुछ विशेष टिकाऊ है। किंतु जिस प्रकार विषयों में यहाँ संतुष्टि नहीं, उसी प्रकार वहाँ भी है। जिन विषयां में यहाँ सुख नहीं, वहाँ भी पूर्ण शान्ति, संतुष्टि नहीं। इसके लिए यत्न करना किस काम का? इसीलिए संत कबीर साहब कहते हैं-
 निधड़क बैठा नाम बिनु, चेति न करै पुकार ।
 यह तन जल का बुदबुदा बिनसत नाहीं बार ।।
 लोग देखते हैं कि उनकी उम्र से छोटे,बड़े और समान के कितने लोग मर गए। यह शरीर अबतक है, तो यह ईश्वर की कृपा है। जब स्वर्ग के सुख में भी पूर्ण शांति नहीं है, तब उससे जो विशेष सुख है उसके लिए यत्न करो। यह शरीर कब छूटेगा ठिकाना नहीं। इसलिए शीघ्र यत्न करो। अशुभ कर्म करना नहीं चाहिए। इसलिए शुभ कर्मों को करो। यदि चूक से अशुभ कर्म हो भी जाय तो उसके लिए पछताओ तथा फिर नहीं करने का बंधन अपने ऊपर लो। फिर शुभकर्मों को करके भी अपनी आसक्ति न रखो, अहंकारी मत बनो। आसक्ति रहित होकर शुभकर्मों को करोगे और ईश्वर का भजन करोगे तो वह बंधन तुम पर नहीं पड़ेगा, गौण हो जाएगा। आसक्त और अहंकारी बनकर शुभ काम करोगे, तो फिर बंधन में पड़ोगे। पाप में लिप्त मत होओ। इसमें लगने से महान दुःख में पड़ोगे। इसलिए पाप कर्मों को छोड़ो और ईश्वर का भजन करो।
 बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।
 श्रीराम का उपदेश है-‘बड़े भाग्य से मनुष्य- शरीर मिलता है, सब ग्रंथों ने कहा है कि यह देवताओं को भी दुर्लभ है।’ संसार-सागर से पार होने के लिए यत्न करो। खेती का काम नहीं करने से डरते हैं, डरकर काम करते हैं। इसी प्रकार इसके लिए भी डरो और भजन करो।
 डर करनी डर परम गुरु,डर पारस डर सार ।
 डरत रहै सो उबरै, गाफिल खावै मार ।।
 जाकी जिभ्या बंध नहीं, हिरदे नाहीं साँच ।
 ताके संग न लागिये, घाले बटिया काँच ।।
     -संत कबीर साहब
 जिभ्या में बोलने का बंधन रखो। सत्य और प्रिय बोलने का बंधन रखो। असत्य और कड़ुवा नहीं बोलने का बंधन रखो। दूसरी बात यह है कि भोजन विशेष मत करो, जिससे पचे नहीं,अपच होकर शरीर में रोग उपजे। शरीर में अधिक रस उत्पन्न होकर विकार उत्पन्न न हो। स्वाद के मारे जो नहीं भोजन करने का वह भोजन मत करो।
 कबीर भेदी भक्त से, मेरा मन पतियाय।
 सेरी पावै शब्द की निर्भय आवै जाय।।
 भजन करनेवाला भेदी भक्त है। युक्ति जानकर जो भजन करता है, उसका भजन अच्छा होता है। युक्ति यह है कि शब्द की सीढ़ी को पकड़ो। ईश्वर का नाम जप करना शब्द की सीढ़ी पर आरूढ़ होना है। इसके बाद शब्द-ध्यान भी होता है, जिसे ऋषियों ने नादानुसंधान कहा। मन को बहुत अंतर्मुखी करने से इस शब्द का पता मिलता है। यह शब्द की सीढ़ी है। इन दोनों (वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक) शब्दों के भेद को जो जानता है, वही भेदी भक्त है। वह विश्वास पात्र भक्त है। इसलिए संतों ने कहा सब कोई इसको जानें। वैसे तो सब कोई कुछ-न-कुछ नाम जपते हैं, किंतु जपने की युक्ति चाहिए। युक्ति जानकर भजन करनेवाला मुक्ति पाता है। भवसागर से पार हो जाता है।
 मांस मछरिया खात है, सुरा पान से हेत ।
 सो नर जड़ से जाहिंगे, ज्यो ं मूरी की खेत ।।
 यह कूकर को खान है, मनुष देह क्यों खाय ।
 मुख में आमिख मेलता, नरक पड़ै सो जाय ।।
      - कबीर साहब
 संतों ने कहा मांस-मछली मत खाओ। तुम्हारे शरीर और पशु-पक्षी का शरीर; दोनों में महान अंतर है। तुम्हारे शरीर का रक्त उच्चकोटि का रहै और पशु-पक्षी के निम्नकोटि का। उच्चकोटि के रक्त में निम्नकोटि का रक्त मिलाना उचित नहीं। इससे बुद्धि भ्रष्ट होती है, आलस आता है। फिर नशा के लिए कहा-
 भांग तमाखू छूतरा, अफयू़ँ और सराब ।
 कह कबीर इनको तजै, तब पावै दीदार ।।
 इसका सेवन मत करो। कोई नशा लेने योग्य नहीं, इनसे बचो। यक्ष्मा (टी0बी0), थाइसिस इससे बहुत बढ़ता है। सब नशाओं को संतों ने मना किया। मत्स्य-मांस न खाओ, नशा को मत पीओ, खाओ। इन शिक्षाओं को ग्रहण करना चाहिए। केवल सुनकर नहीं रहना चाहिए। माया मद, शरीर का मद, मेरे पास धन है, हुकुमत है, इन सब मदों का त्याग करो। माया मद में आदमी ऐसा काम कर बैठता है कि जैसा नहीं करना चाहिए। सब मदों से अपने को बचाकर रखो, घमण्डी की पस्ती होती है।
 राम आदर्श राजा थे। वे केवल कर वसूल ही नहीं करते थे, प्रजा को सुखी करने के लिए भी प्रबंध करते थे। प्रजा का शरीर छूटेगा, शरीर छूटने पर भी वे सुखी रहें, उनको इसकी भी चिंता थी। इसलिए उन्होने उपदेश दिया कि देवताओं को नहीं मिलने योग्य शरीर तुमको मिला है। इस शरीर का सदुपयोग करो। इस शरीर का फल विषय-भोग करने के लिए नहीं। इसलिए विषय- भोगों में लीन मत होओ। सद्गुरु मल्लाह हैं-
नरतन भव वारिधि कहँ बेरो। सनमुख मरुत अनुग्रह मेरो।।
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।
     -गोस्वामी तुलसीदास
 मनुष्य-देह और ईश्वर की कृपा हो, फिर भी कोई भक्ति न करे तो उसे आत्महत्या का पाप लगेगा। कोई कहे मनुष्य शरीर प्राप्त है, पर ईश्वर की कृपा नहीं है, यह फिजुल बात है। ईश्वर की कृपा हई है। सद्गुरु को ढूँढ़ो। सद्गुरु एक ही नहीं होते। सद्गुरु जितने होते हैं सबका आचरण एक ही होता है। उनसे युक्ति जानकर ईश्वर की भक्ति करो, कल्याण होगा।
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यह प्रवचन जिला-मधेपुरा, ग्राम-देवैल में दिनांक 11.11.1952 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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34. शास्त्रों को मथने से क्या फल?

प्यारी जनता !
 संत कबीर साहब का वचन है-
 अस संगति जरि जाय, न चर्चा राम की ।
 दुलह बिना बारात, कहो किस काम की ।।
 जिस संगति में रामनाम की चर्चा न हो, वह संगति बेकार है, जैसे बिना दुल्हे की बारात। हमलोगों का सत्संग ईश्वर-भक्ति का वर्णन करता है। इस सत्संग में जो कुछ कहा जाता है, वह परमात्मा राम को प्राप्त करने के यत्न के संबंध में ही। किस यत्न से हम उन्हें पावें, यह हम जानें। स्वरूप से वे कैसे हैं? उनके स्वरूप का निर्णय करके ही हम यत्न जान सकेंगे कि इस यत्न से ईश्वर को प्राप्त करेंगे। इसलिए पहले स्वरूप-ज्ञान अवश्य होना चाहिए। श्रीराम हनुमानजी से कहते हैं-
 बहुशास्त्र कथा कन्थारो मन्थेन वृथैव किम्।
 अन्वेष्टव्यं प्रयत्नेन मारुते ज्योतिरान्तरम्।।
             -मुक्तिकोपनिषद् 2
 बहुत-से शास्त्रों की कथाओं को मथने से क्या फल? हे हनुमान! अत्यंत यत्नवान होकर केवल अंतर की ज्योति की खोज करो। जैसे अंधकार-घर में बिना प्रकाश के किसी चीज को ढूँढ़ने के लिए कोई जाता है तो उसे वह चीज मिले या नही मिले, कोई निश्चित नहीं। किंतु प्रकाश लेकर जाने से वह चीज मिले, संभव है। आँख बंद करने से सब कोई अंधकार देखते हैं। यह मत सोचो कि तुम्हारे अंदर प्रकाश नहीं है। तुम्हारे अंदर प्रकाश नहीं रहने से तुम देख नहीं सकते। साधु, संत और ज्ञानी, ध्यानी, योगी कहते हैं-हमारे अंदर प्रकाश है। इसके लिए किसी जाँच से जाँचते हैं तो जानने में आता है कि यदि हमारे अंदर प्रकाश नहीं होता, तो हम देख नहीं सकते। दो सजातीय वस्तु आपस में सहायक होते हैं, किंतु विजातीय वस्तु को सहायता मिले संभव नहीं। यह दर्शन ज्ञान है। आपकी दृष्टि को प्रकाश से सहायता मिलती है। तब जानना चाहिए कि यह दृष्टि भी प्रकाशस्वरूप है। साधनशील को समझाने की जरूरत नहीं। किंतु जो नहीं जानते हैं, तर्कबुद्धि से जानना चाहते हैं, तो उन्हें जानना चाहिए कि प्रकाश से जब दृष्टि को सहायता मिलती है तो यह दृष्टि भी प्रकाशस्वरूप है। इन दोनों दृष्टियों से जो प्रकाश निकलता है, इसके मूल में ज्योति नहीं हो, तो दोनों दृष्टि में प्रकाश नहीं आ सकता। इसलिए जानना चाहिए कि इसके केंद्र में प्रकाश का पुंज है, वह प्रकाश का पुंज बाहर में नहीं है, अपने अंदर में है। इसलिए हनुमानजी को श्रीराम अंतर की ज्योति की खोज करने कहते हैं। जैसे अंधकार-घर की वस्तु को लोग नहीं पाते, प्रकाश होने से पाते हैं, उसी प्रकार अपने अंदर में ईश्वर है। उसे ढूँढ़ने के लिए प्रकाश की जरूरत है। अंधकार हो तो ठाकुरबाड़ी में ठाकुरजी के रहने पर भी दर्शन नहीं हो सकता। प्रकाश हो जाने से ठाकुरजी का दर्शन होगा। उसी प्रकार आपका शरीर भी ठाकुरबाड़ी है। इसमें प्रकाश कीजिए, तभी ठाकुरजी का दर्शन होगा। अभी सुना, दृश्य और अदृश्य को छोड़कर पुरुष कैवल्यस्वरूप हो जाता है। वह ब्रह्मज्ञानी नहींं, स्वयं ब्रह्मवत् हो जाता है।
 केवल विचार से दृश्यमण्डल को पार नहीं कर सकता। इसीलिए दृश्यमण्डल से पार होकर जहाँ तक सीमा है, वहाँ तक आप जाइएगा। पहले ज्योति होकर गुजरना होगा, तब अदृश्य में जाइएगा। यह पहला पाठ है कि ज्योति की खोज करो। जो ज्योति की खोज नहीं करता, वह अदृश्य में नहीं जा सकता। अपने अंदर की ज्योति कोई कैसे खोज करे-अंतर में प्रवेशकर या बाहर फैलकर? अंतर्मुखी होने से ही उस प्रकाश को देख सकेंगे। आप जागते हैं, स्वप्न में जाते हैं, गहरी नींद में जाते हैं। बाहर के सब ख्यालों को छोड़कर आप स्वप्न में जाते हैं। इसलिए जानना चाहिए, अंदर में जाने के लिए कामों की चिन्ता को छोड़कर प्रवेश कीजिए। सब चिन्ताओं को, काम को साथ में लेकर कोई अन्दर प्रवेश नहीं कर सकता। इसलिए जितने समय भजन करते हो, उतनी देर के लिए भी केवल काम-धंधा, घर की चिन्ताओं को छोड़ो, तभी अपने अंदर में प्रवेश कर सकोगे। बाहरी काम और ख्यालों को छोड़ने के लिए कोई काम चाहिए। जैसे शरीर को साबुन से धोने पर भी मैल उगता रहता है, उसी प्रकार मन में कुछ न कुछ उगता रहता है, यह स्वाभाविक है। विद्यार्थी अपने पाठ को ठीक- ठीक पढ़ेगा, तभी उसको पाठ याद होगा। मन को कुछ करने नहीं दो, ऐसा होगा ही नहीं। जबतक मन की स्थिति है, तबतक मन का काम छूट नहीं सकता। इसलिए संतों ने जप बतलाया। जप भी ऐसा हो कि एकाग्र मन से जप को जपो। चाहे माला, चाहे हाथ पर जपे तो भी अंतर में प्रवेश नहीं कर सकते। जप-वाचिक जप, उपांशु जप और मानस जप; तीन प्रकार के होते हैं। वाचिक जप बोलकर किया जाता है, उपांशु जप में होठ हिलते हैं, पर दूसरे उसे नहीं सुनते हैं और मानस जप मन-ही-मन होता है। इसमें होंठ-जीभ आदि नहीं हिलते। अन्तर में प्रवेश करने के लिए पहले मानस जप कीजिए। वैसा नाम जिसका अर्थ ईश्वर संबंधी है, उस नाम को जपिए, मानस जप के बाद मानस ध्यान कीजिए। अंतर्मुख होकर अंतर में जाना और अंतर में ठहरना मुश्किल है। बड़े अक्षरों को लिखकर ही छोटा अक्षर लिखा जाता है। अंतर की ज्योति ठीक-ठीक ग्रहण करने के लिए पहले जप करें, फिर ध्यान। जप अन्धकार में करता है, ठहरना भी अन्धकार में है। मानस-जप और मानस-ध्यान के बाद विन्दु-ध्यान कीजिए। इसके लिए ऐसा साधन चाहिए कि एकविन्दुता प्राप्त किया जाए। एकविन्दुता प्राप्ति के कारण पूर्ण सिमटाव का गुण ऊर्ध्वगति है। तो क्या होता है? मानस- जप, मानस-ध्यान और दृष्टियोग करने से अंधकार से प्रकाश में पहुँच जाएगा। इस प्रकार साधक स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करता है। जिस द्वार से स्थूल से सूक्ष्म, अंधकार से प्रकाश में जाना होता है, वह बता दिया। अब केवल करने मात्र की देरी है। अगर शब्द छूट जाय तो सब छूट जाता है। शब्द अदृश्य है। दृश्य के अवलंब से दृश्य को पार किया जाता है। जैसे पानी के अवलंब से पानी को पार करता है, ज्योति से ज्योति को पार करता है; उसी प्रकार शब्द को पकड़कर शब्द को पार करता है। और उसके परे जो परमात्मा है, उसको प्राप्त कर लेता है। श्रीराम ने कहा-
अशब्दमर्स्पशमरूपव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्चयत्।
अनाम गोत्रं मम रूपमीदृशं भजस्व नित्यं पवनात्मजार्त्तिहन्।।
      -मुक्तिकोपनिषद्, अध्याय 2
 हे हनुमान! अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अविनाशी, अस्वाद, अगंध, अनाम और गोत्रहीन, दुःखहरण करनेवाले मेरे इस तरह के रूप का तुम नित्य ध्यान करो। अभी आपलोगों ने संत कबीर साहब का वचन सुना-
 नाद विन्दु ते अगम अगोचर, पाँच तत्त्व ते न्यार ।
 तीन गुनन ते भिन्न है, पुरुष अलख अपार ।। विन्दुनाद में रहकर ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकते, नाद को पार करने पर ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। अपार-जिसकी सीमा नहीं है। वह कभी उत्पन्न हो, पीछे बने, संभव नहीं। वह सदा से है। ईश्वरवादी तो मानेंगे ही, किंतु जो अनीश्वरवादी हैं, उनको भी एक अपार तत्त्व को मानना ही पड़ेगा। चाहे उसको ईश्वर नहीं कहकर दूसरा ही नाम कहे। सबको ससीम मानने पर प्रश्न रहेगा ही कि उसके बाद क्या है? जबतक ऐसा नहीं कहो कि असीम है, तबतक प्रश्न हल नहीं होगा। ईश्वर को अपने से पहचानना पड़ेगा। इन्द्रि्रयाँ उसको पहचान नहीं सकतीं।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
 रामस्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।
 उपनिषदवाक्य है-
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।
 उस परे से परे (ब्रह्म) को देख लेने पर हृदय की ग्रन्थि (गाँठ-गिरह) टूट जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।
 लाल लाल जो सब कोई कहे, सबकी गाँठी लाल ।
 गाँठी खोलि के परखे नाहीं, तासो भयो कंगाल ।।
       -कबीर साहब
 कितने आदमी कहते हैं कि, वहाँ आँख नहीं है, देखेंगे कैसे? उन्हें जानना चाहिए कि आपकी सत्ता पर सब इन्द्रियाँ आश्रित हैं। इन्द्रियाँ आपके नौकर-चाकर हैं, इनको शक्ति कहाँ? आपके रहने से ही इन्द्रियाँ देखती-सुनती हैं। आप अकेले होकर रहिए, तब देखिए कि आपमें कितनी शक्ति है। अकेले रहकर ही उसकी पहचान कर सकते हैं। कैसे पहचान करो? इसके लिए कहा-
 सर्गुण की सेवा करौ, निर्गुण का करु ज्ञान ।
 निर्गुण सर्गुण के परे, तहैं हमारा ध्यान ।।
          -कबीर साहब
 निर्गुण-सगुण के परे क्या है? जो कुछ देखते सुनते हैं, ये पंच विषय सगुण हैं। जड़ के सब रूप सगुण हैं। जड़ के परे चेतन, निर्गुण-सगुण के परे परमात्मा है। कोई कहते हैं-निर्गुण तो हो ही नहीं सकता। तो जिद्द करने पर कहते हैं हाँ, ठीक है। दिव्य-गुण-सहित त्रयगुण-रहित, यह भी तो एक गुण है। इसलिए यह भी सगुण ही है। इसके लिए बड़ी पवित्रता की आवश्यकता है। अंतर हृदय को पवित्र रखो, पंच पापों से बचो, एक ईश्वर पर पूरा भरोसा रखो।
मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तो कहहूँ कहा विश्वासा।।
 लोग यह भी कहते हैं कि सगुण ईश्वर तो प्रत्यक्ष मदद करते हैं, अर्जुन का रथ भी हाँका था। निर्गुण से तो कुछ नहीं हो सकता है। तो देखो- कबीर साहब को पानी में डुबाया गया, पहाड़ से गिराया गया, बर्तन में बंद करके चूल्हे पर चढ़ाकर औंटा गया, तो बर्तन खाली हो गया। कबीर साहब दूसरे ओर से टहलते हुए आ गए। हाथी के पैर के नीचे दबाया गया तो हाथी को वह सिंह-जैसा देखने में आया। साधु से श्राप दिलाने के लिए साधु को निमंत्रण दे दिया।
 वह ईश्वर सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं। परमात्मा को साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण या सगुण-निर्गुण के परे, किसी प्रकार भी मानो, किंतु पूर्ण भरोसा रखो, सुख-दुःख में, हानि-लाभ में; सबमें भरोसा रखो। सत्संग करो, ध्यान करो और गुरुजनों की सेवा करो।
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यह प्रवचन जिला-पूर्णियाँ, ग्राम-सिकलीगढ़ धरहरा सत्संग मंदिर में दिनांक 16.11.1952 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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35. इस जीवन के बाद और क्या होगा?

प्यारी जनता!
 आप सबलोग खेती करते हैं। यदि आपलोग खेती न करें तो क्या होगा? अन्न नहीं होगा, भोजन समाप्त हो जाएँगे, संसार में कैसे जीवन रहेगा? भूख लगने पर जो कष्ट होता है लोगों को मालूम है। भोजन नहीं मिलने पर जो नहीं खाने का वह खा लेता है, जो नहीं करने का वह कर लेता है। विश्वामित्र बड़े तपी थे। उनके समय अकाल पड़ा था, तो किसी तरह प्राण बचाने के लिए लोग वृक्ष का छिलका, पत्ता खा गए। विश्वामित्र ऐसे तपस्वी होते हुए भी डोम के यहाँ कुत्ता का मांस लिया, सो भी चोर के रूप में। डोम के पहचानने पर विश्वामित्र बोला-मनुष्य मरने की अवस्था में प्राण बचाने के लिए, प्राण रक्षार्थ कोई भी उपाय कर सकता है। प्राण बचने पर अनेक धर्म हो सकते हैं, कहकर भोजन किया। भंगहा में एक माई दूसरे गाँव से आई थी। भूख सहन न कर सकी, तो अपने बच्चे को पकाकर खा गई। बिना खेती किए खाना कैसे होगा, वस्त्र कैसे पहने, द्रव्य भी कहाँ से आवे? केवल हीरा-मोती घर में रहे और खाने की चीज न रहे, तो भूखे मर जाएँगे। लोग इसी डर से खेती करते हैं कि खेती नहीं करेंगे तो भूखे रहना पड़ेगा। लड़के गुरुजी के डर से, घर में माता-पिता के डर से पढ़ते हैं। इस अवस्था में नहीं पढ़ने से पीछे संसार में विद्याहीन होकर महादुःखी होगा।
 ऊँचे-ऊँचे हाकिम तक डर के मारे अपना- अपना काम करते हैं। ठीक-ठीक काम नहीं करने से पद से नीचे गिरा दिये जाएँगे, बदनामी होगी। इस प्रकार अपने जीवन में सुख से रहने के लिए लोग डर के मारे प्रबंध किया करते हैं। जो अपने लिए सुप्रबंध नहीं करते, वे दुःखी रहा करते हैं। डर बहुत बड़ी कड़ी छड़ी है। डर से लोग संसार का प्रबंध करते हैं, सुखी रहने के लिए। यह भी डर रखो कि इस जीवन के बाद और क्या होगा? केवल शरीर को जला देने से ही काम समाप्त नहीं हो जाता, शरीर छूटने पर वह अपने कर्म के अनुकूल लोक में जाते हैं- पितृलोक, ब्रह्मलोक या नरक; जैसा कर्म किया है उसके अनुकूल। फिर उसको भोगकर इस संसार में आता है। गाड़ी की पहिया के समान उलट-पुलट होता रहता है। प्रत्येक बार के जन्म में दुःख-सुख होता रहता है। ब्रह्मा के धाम में जाओ तो भी कर्म फल नहीं छूटता। इस प्रकार आवागमन का कष्ट लगा रहता है। सब सुकर्म या सब दुष्कर्म ही, किसी से हो संभव नहीं। सब कुछ-न-कुछ सुकर्म और दुष्कर्म करते हैं। आदमी कर्म से ही बुरे या भले का संग करता है। सुकर्म करके लोग स्वर्ग जाते हैं, किंतु सब दिन वहाँ रहना नहीं होता। संसार में एक जीवन के लिए प्रबंध करते हैं, किंतु इस एक जीवन के बाद फिर क्या होगा, इसके लिए भी करो।
    ‘निधड़क बैठा नाम बिनु, चेति न करै पुकार ।
     यह तन जल का बुदबुदा, बिनसत नाहीं बार ।।’
     ‘पाँचो नौबत बाजती, होत छतीसो राग ।
      सो मन्दिर खाली पड़ा, बैठन लागे काग ।।’
    -संत कबीर साहब
 पूर्ण ईश्वर का भजन करो तो सब दुःखों से छूट जाओगे।
 शरीर का यह स्थूल तल है, इसके भीतर जो प्रवेश करता है तो वह सूक्ष्मतल में जाता है। सूक्ष्मतल जहाँ तक है उसको पार करने पर कारण आता है। यह कारण भी छूट जाता है, तब महाकारण होता है। ये चारो जड़ शरीर हैं। जड़= अज्ञान, इसके बाद चेतन अर्थात् ज्ञानमय शरीर आता है। ये ही पाँच तल हैं। इन्हीं पाँचों तल से शब्द होते रहते हैं। कोई कहे शब्द क्या होता है? बिना शब्द के सृष्टि नहीं होती है। इन पाँचों के केन्द्र हैं। बिना केन्द्र के मण्डल नहीं बन सकता।
 बिना विद्या के कोई ईश्वर को, धर्म को नहीं समझ सकता। कबीर साहब नहीं पढ़े थे। उनका नकल नहीं हो सकता। सूर्य ईश्वर का बनाया हुआ है। मनुष्य अपने से ऐसा कोई बना नहीं सकता। उसी प्रकार कबीर साहब बनाए हुए थे, उनको बनना नहीं था।
 मिट्टी से बर्तन बनता है। भूमंडल की थोड़ी-थोड़ी मिट्टी एक-एक बर्तन का कारण है। उन सब थोड़ी मिट्टी का खजाना भूमंडल है। जितनी मिट्टी से बर्तन बनता है और वह जहाँ से मिट्टी ली गई, वह भी स्थान है। तो जहाँ से मिट्टी ली गई, वह महाकारण है। सब मिट्टी कारण है और उसकी खानि महाकारण है। कारण=बीज, सबब। जो कारण रूप में आता है वह फूट-फूट= अलग-अलग रूप में हो जाता है। यह व्यष्टि रूप में है। जो समष्टि रूप में है, महाकारण है। तीन गुणों के मिलने को प्रकृति कहते हैं। उत्पत्ति, स्थिति और विनाश; ये ही तीन गुण हैं। उत्पन्न करने की शक्ति रजोगुण, पालन करने की शक्ति सतोगुण, विनाश करने की शक्ति तमोगुण है।
 इन तीन गुणां से विशेष संसार में क्या है? संसार में यही तीनों गुण काम करते हैं। तीन गुणों के समरूप जो है वह प्रकृति है। उत्पादक, पोषक, विनाशक; तीनों का सम्मिश्रण रूप जो है, वह है प्रकृति। यही प्रकृति समरूप में रहने से महाकारण है। इसका नाप-जोख नहीं हो सकता। तीन शक्ति जहाँ समरूप में है, कुछ हलचल नहीं हो सकता। तीन छोरवाली रस्सी को तीन बराबर बलवाला आदमी खीचे तो हलचल नहीं होगा। उसी प्रकार तीनों गुण समरूप में रहने से महाकारण है। जब ईश्वर की मौज होगी, प्रकृति के किसी अंश पर मौज पड़ने से उस अंश का भाग कंपित हो जाएगा, यह हो जाएगा कारण और अकंपित भाग महाकारण होगा। महाकारण के बिना कारण नहीं होगा। धान का बीज कारण है। धान बोने से अंकुर होता है, यह है सूक्ष्म। फिर धान का वृक्ष हो जाता है, तब होता है स्थूल। इस प्रकार प्रकृति के चार रूप हैं, यही रचना है। हमलोग प्रकृति के स्थूल भाग में हैं। अपने अंदर धँसो तो सबसे बारीक वह है, जो आँख बंद करने पर अंधकार मालूम पड़ता है। अंधकार से आगे बढ़ो तो सूक्ष्म में चले जाओगे। अंधकार छूटने पर क्या मिलेगा? प्रकाश। अंधकार से जिसकी वृत्ति प्रकाश में गई, वह सूक्ष्म में चला गया। यही ऊपर उठना है। स्थूल भाग में रहने पर कितना दूर देखते हो, कितना दूर तक विचरण करते हो ! उसी प्रकार सूक्ष्म में जाने पर सूक्ष्म संसार को दूर तक देखोगे और विचरण करोगे। यह अवस्था जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति-किसी में नहीं रहोगे, तीनों अवस्थाओं को पार कर जाओगे, तब पाओगे। स्थूल में ये तीन अवस्थाएँ हैं। किंतु सूक्ष्म में प्रवेश करने पर ये तीनों अवस्थाएँ छूट जाती हैं और वह अवस्था तुरीय होती है। तुरीय अवस्था का मैदान बहुत लम्बा है। सूक्ष्म, कारण, महाकारण इसी अवस्था में है। यह चौथी अवस्था है। अन्धकार से ऊपर उठने पर अपने शरीर का और संसार का ज्ञान नहीं रहता। इस शरीर के भी पाँच दर्जे हैं और संसार के भी पाँच दर्जे हैं। हमलोग जिसमें घूमते-फिरते हैं-कहाँ? शून्य में। स्थूल आकाश बाहर में भी है और आपके अंदर में भी है। शून्य सूक्ष्म है, सूक्ष्म स्थूल में स्वाभाविक समाया हुआ रहता है। शरीर स्थूल है, इसमें शून्य का समाना स्वाभाविक है। लोहा जो ठोस है, उसमें भी शून्य है। शून्य नहीं रहने से अग्नि में डालने से वह लाल रंग का नहीं हो सकता, वह गर्म नहीं हो सकता। उसी प्रकार स्थूल में सूक्ष्म, सूक्ष्म में कारण, कारण में महाकारण एक दूसरे में समाए हुए हैं। इन दोनों में (आपके शरीर और संसार में ) बड़ा मेल है। आप अपने शरीर के स्थूल भाग में रहते हैं, तो संसार के भी स्थूल भाग में रहते हैं। शरीर के सूक्ष्म भाग में जाने पर संसार के भी सूक्ष्म भाग में चले जाते हैं। शरीर के जिस तल पर जब जो रहता है, संसार के भी उसी तल पर तब वह रहता है। शरीर के जिस तल को जब जो छोड़ता है, संसार के भी उस तल को तब वह छोड़ता है। जिभ्या में चेतन रहने से मिश्री मीठी मालूम होती है। स्वप्न में जिभ्या से समेटकर भीतर में प्रवेश करता है, तब उस में मिश्री मीठी नहीं लगेगी, क्यों? स्थूल मिश्री और स्थूल जिभ्या भी है, किंतु चेतना सिमटकर जाग्रत से स्वप्न में चली गई है, इसलिए स्थूल मिश्री का ज्ञान नहीं होता है।
 सृष्टि कम्पमय है। बिना हील-डोल के कुछ नहीं होता है। पहाड़ बढ़ता है और सड़ता भी है। यह भी कम्पन ही है। शरीर बढ़ता-घटता है। बिना कंपन से घटना-बढ़ना नहीं हो सकता। कंपन में शब्द अनिवार्य है। पाँच नौबत के पाँच केन्द्र हैं, पाँचो में शब्द होते हैं। जिस मंडल में रहते हो उस मंडल के शब्द का ज्ञान छोटा है। पाँचो मंडल के जो शब्द हैं, वह नौबत है। नौबत खुशयाली में बजाया जाता है। इस अंदर की नौबत में भी बहुत मीठा शब्द होता है। शब्द में अपनी ओर आकर्षण करने का गुण है, अपने उद्गम स्थान पर खींचता है। अपने अंदर रहकर सूक्ष्म मण्डल का जो शब्द सुनेगा, उसको क्या होगा? सूक्ष्म के केन्द्र में उसकी वृत्ति चली जाएगी। दूसरी बात है ऊपर का शब्द नीचे दूर तक आता है। नीचे का शब्द ऊपर दूर तक नहीं जाता। इसलिए सूक्ष्म के केन्द्र पर पहुँचने पर कारण के शब्द को पहचानना, सुनना संभव है। इसी प्रकार कारण के केन्द्र पर पहुँचने पर महाकारण के शब्द को पकड़ना संभव है और महाकारण के केन्द्र पर पहुँचकर कैवल्य के शब्द को सुनना सम्भव है। इस पाँचवें केन्द्र में पहुँचने पर वह सतनाम को पहचानेगा, उसी को ऋषियों ने ॐ, उद्गीथ आदि कहा। उसका केन्द्र परमात्मा है। उसको पकड़ने से परमात्मा को प्राप्त कर लोगे। इसीलिए कबीर साहब ने कहा-
 पाँचो नौबत बाजती, होत छतीसो राग।
 सो मंदिर खाली पड़ा, बैठन लागे काग।।
 तुम्हारे अंदर में ऐसे महान यंत्र हैं, जिनको पकड़ो तो ईश्वर की पहचान हो जाए। इनको काम में नहीं लिया तो शरीर नाश हो गया। यंत्र खराब हो गए, कौआ बैठने लगा, किस काम का? इस शरीर पर कौआ बैठाओ या ईश्वर को प्राप्त करो।
 एक केन्द्र से उसके ऊपर के केन्द्र के शब्द को पकड़ना शब्द की सीढ़ी पाना है। उस पर चढ़ा जा सकता है। ऊपर पहुँचकर वह जीवन-मुक्त होता है। जबतक जीवन है, उसपर चढ़कर जाता है और आता है।
 अन्तर में चलने के लिए भोजन पवित्र होना चाहिए। मांस-मछली का तो कहना ही क्या? आपलोगों को पहले से ही मालूम है, जिस-जिस कुल में मांस-मछली खाने का चलन नहीं है, वह कुल बहुत उत्तम है। नशा में अपव्यय, अपवित्रता और रोग है। चावल को धोकर भी खाते हैं, किंतु तंबाकू को बिना धोए ही मुँह में डालते हैं। कोई भी नशा अच्छा नहीं है, इससे रोग उत्पन्न होते हैं। इसको नहीं खाना चाहिए। जो खाते हो, उन्हें छोड़ देना चाहिए। इसके अतिरिक्त और नशा है-
 मद तो बहुतक भाँति का, ताहि न जानै कोय।
 तनमद मनमद जातिमद, मायामद सब लोय।।
 विद्यामद और गुणहु मद, राजमद उनमद्द।
 इतने मद को रद्द करै, तब पावै अनहद।।
                         -कबीर साहब
 तानसेन से बैजूबाबरा गाने में विशेष था। अकबर के दरबार में तानसेन रहता था। वह गाने-बजाने में बहुत प्रवीण था। वह अकबर से हुक्म दिला दिया कि दिल्ली में कोई गाना गाने न पावे। जो गावे, उसको सजा मिल जाती थी। बैजूबाबरा जान-बूझकर शहर में गाना गाने लगा। गिरफ्तार करके दरबार में लाया गया। तानसेन से उसका मुकाबला हुआ। तानसेन हार गया।
 भगवान बुद्ध का वचन है-‘किसी से वैर मत करो। जो तुमसे वैर करता है, उससे प्रेम करो। वैर पर ख्याल मत करो। वह पीछे तुम्हारा मित्र बन जाएगा।’ इसी तरह जीवन जीना चाहिए।
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यह प्रवचन ग्राम-बेलसरा, जिला-पूर्णियाँ में दिनांक 18. 11. 1952 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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36. अपने शरीर को पार करो

प्यारे धर्मप्रेमी महाशयो!
 बड़े हर्ष की बात है कि एक देहात में इतने लोग एकत्रित होकर सत्संग सुनने के लिए उत्सुक हैं। शुभ दिन जब आते हैं, तब धर्म की ओर मनुष्य की रुचि होती है। मैं जहाँ-तहाँ जाकर देखता हूँ तो ज्ञात होता है कि इस देश में विशेष लोगों को धर्म में रुचि है, किंतु ऐसे भी लोग हैं, जो रुचि नहीं रखते। यहाँ सत्संग का नाम सुनकर कई गाँवों के लोग आए हैं। हमलोगों के लिए यह शुभ है।
बड़े भाग पाइये सत्संगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा।।
 मैं सत्संग करता-फिरता हूँ और लोग इसमें जो कुछ कहते हैं, सुन लेता हूँ, समझता हूँ। इस सत्संग से बड़ा लाभ होता है। देश को भी बड़ा लाभ है। अब मैं अपने विषय पर आता हूँ। रामायणजी के पाठ में आपलोगों ने सुना कि मनुष्य की क्या-क्या दशा होती है। पहले पशु पर विचार करें। कोई पशु बंधन में रहता है, कोई बिना बंधन का। आपके पास जो जानवर रहते हैं, उन्हें आप बाँधते हैं। कोई ऐसे हैं, जो यों ही विचरण करते हैं। मनुष्य में भी ऐसे लोग हैं, जो कसूर के कारण कारागार में रहते हैं। कारागार नहीं समझनेवाले कैदखाना या जेल समझे। पर, यह दुःख की बात है कि लोग कारागार नहीं समझे, कैदखाना और जेल समझे। यह हमारी भाषा नहीं है, मुसलमानों और अंग्रेजों की भाषा है। जो बंधन में रहते हैं, वे दुःख अनुभव करते हैं। अब कुछ विचार करें। आप निर्बन्ध दशा में हैं या बन्धन में? यदि आप कहें कि मैं किसी के अधीन नहीं, मैं स्वतंत्र हूँ, मेरा देश स्वतंत्र है। जनता का राज्य है, फिर जनता का या अपना राज्य होते हुए भी आप सुखी हैं या दुःखी, विचारिए। जिस प्रकार अन्न- वस्त्र से पहले सुखी थे, उस प्रकार आज नहीं हैं। जहाँ अन्न-वस्त्र की कमी है, वहाँ दैहिक सुख कहाँ? यह तो मोटी बात है। फिर आप विचारिए, जिस समय आपको अन्न-वस्त्र मिलते थे, तब रोग-शोक होते थे कि नहीं? या अब होते हैं कि नहीं? कोई नहीं कह सकते कि अन्न-वस्त्र के विशेष होने के समय रोग-शोक नहीं था, अब है। अरे! उस समय भी शारीरिक-मानसिक कष्ट झेलने पड़ते थे और अब भी। जब विकार उत्पन्न होता है, तब लोग अनुचित-से-अनुचित कर्म कर लेते हैं। पीछे पछताते हैं-मैंने क्या किया? इस प्रकार लोभ-मोह आदि से ग्रसित होते हैं। काम उत्पन्न होता है। उस वेग में आकर नीचे-से-नीचे गिर जाते हैं। ईर्ष्या होती है, दूसरे को देखकर जलते हैं। जो बाहरी सुखों में विलास कर रहे हैं, उनके हृदयों को विकार जितना जलाता है, उतना बाहरी सुखों में नहीं बरतनेवाले को नहीं जलाता। शारीरिक व्याधि को तो कौन कहे, मानसिक अनेक व्याधियाँ मनुष्य को सदा सताती रहती है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
 एक व्याधि बस नर मरहिं, ये असाधि बहु व्याधि।
 पीड़हिं संतत जीव कहँ, सो किमि लहइ समाधि।।
 आपका यह शरीर जो हड्डियों और मांसों से घिरा हुआ है, जब स्वप्न में जाता है तो यह पृथ्वी पर पड़ा रहता है, केवल साँस लेता है। स्वप्न में जाने पर जागने के समान ही काम-क्रोधादिक विकार उत्पन्न होते देखते हैं। यह स्थूल शरीर तो वहाँ नहीं है, एक दूसरा ही शरीर है। जिस शरीर से आप संसार में घूमते दिखलाई देते हैं, यह स्थूल शरीर तो यों ही खाट पर पड़ा हुआ था। कहानी है कि सत्यवान के स्थूल शरीर से दूसरा लिंग शरीर निकाल कर यमराज लेकर चले गए थे। सत्यवान और सावित्री दम्पति थे। सत्यवान अपने पिता के राज्यभ्रष्ट हो जाने के कारण जंगल में लकड़ी काटकर अपने माता-पिता-पत्नी का भरण-पोषण करते थे। एक दिन सावित्री ने अपने पति से कहा-आर्य! तुम जंगल लकड़ी चुनने जाओगे, मैं भी जाऊँगी। वह पति के साथ जंगल गई। जंगल में लकड़ी काटते-काटते ही सिर दर्द से सत्यवान बेचैन होकर बेहोश हो गए। संयोगवश सावित्री उस दिन साथ में ही थी। उसने अपनी जंघा पर अपने पति का सिर रख लिया। सत्यवान का अंतिम समय जान, यमदूत उसे लेने आए। किंतु सती स्त्री के तेज के सामने वे ठहर न सके। अंत में यमराज स्वयं आकर सत्यवान के स्थूल शरीर से उनके सूक्ष्म शरीर को निकालकर चलते बने। सावित्री यमराज के पीछे-पीछे अनुनय-विनय करती चली। यमराज ने प्रसन्न हो सावित्री को इच्छित वर देकर सत्यवान के स्थूल शरीर में उनके सूक्ष्म शरीर को प्रविष्ट कर दिया। फलस्वरूप सत्यवान जीवित हो उठे।
 आर्य का अर्थ है-जो बुद्धिमान हो, विद्या को जानता हो, सभ्य हो, विद्वान हो। हमलोगों के धर्म का नाम वैदिक धर्म या आर्य धर्म है। महाभारत का छोटा अंश श्रीमद्भगवद्गीता है। बड़ा तेजस्वी टुकड़ा है। महाभारत से यदि इस गीता को निकाल दिया जाय, तो महाभारत वैसे ही हो जाएगा, जैसे ढाई या पाँच मन मांस-खून से लदे शरीर से सूक्ष्म प्राण निकल जाय। गीता या महाभारत में कहीं हिन्दी या हिन्दू नहीं लिखा गया। यह पुस्तक कलि-काल के आदि में हुआ था। । आज कलि-काल को हुए पाँच हजार वर्ष हुए। युधिष्ठिर को यहाँ से गए पाँच हजार वर्ष के करीब हुए। आज से ढाई हजार वर्ष पहले या कलि-काल के आरंभ के ढाई हजार वर्ष बाद भगवान बुद्ध हुए। उनके वचन में कहीं हिन्दी या हिन्दू नहीं है। इनके वचन में भी आर्य शब्द ही प्रयोग हुआ है। महाभारत में भी आर्य है। उसी प्रकार सावित्री अपने पति को आर्य कहकर संबोधित करती है। यमराज सत्यवान की देह में लिंग शरीर को प्रवेश करा देते हैं। इससे यह समझो कि इस शरीर के अंदर एक और शरीर है, जिसे लिंग शरीर कहते हैं। हमलोगों के यहाँ घर-घर में श्राद्ध-क्रिया होती है। श्राद्ध-क्रिया इस विश्वास पर होता है कि शरीर में कोई था, वह शरीर छोड़कर चला गया। वह अच्छे लोक में जाए, अच्छी गति में जाए। इस श्राद्ध-क्रिया से यह वेदांत शिक्षा मिलती है कि शरीर के जलाने से इसमें रहनेवाला चेतनात्मा जलता नहीं, काटने से कटता नहीं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-
 नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः।
 न चैनं क्लेद्यन्त्यापो, न शोषयति मारुतः।।
 फिर ज्ञानी कहते हैं- सूक्ष्म ही नहीं, इसके अंदर कारण और कारण के अंदर महाकारण, फिर इसमें भी चेतन शरीर है।
 चिदानंदमय देह तुम्हारी। विगत विकार जान अधिकारी।।
 इन पाँचों शरीरों से युक्त चेतनात्मा जीवात्मा कहलाता है। जबतक किसी इन्द्रिय में या अंतःकरण या किसी शरीर में रहते हैं, इस स्थूल शरीर से आप किसी भी तरह निकल नहीं सकते। स्थूल से जब आप निकल नहीं सकते; सूक्ष्म, कारण- महाकारण से कैसे निकल सकते हैं? इसलिए जीव इन्हीं शरीरों के फँदे में पड़ा हुआ है। एक कारागार में बंद रहते हुए किसी को अच्छा नहीं लगता। यहाँ तो जीवात्मा चार कारागारों के अंदर पड़ा है। क्या आराम मिलेगा? जिस स्थान में जो रहते हैं, उस स्थान के भोग से बचे, संभव नहीं है। इसी प्रकार शरीर में रहकर शरीर के विकार से कैसे बचोगे। इसके लिए संतों ने बताया, अपने शरीर से निकल जाओगे तो सब विकारों से छूट जाओगे। जीव संसार में देहों के बंधनों से लिपटा हुआ रहता है। शरीर में रहनेवाला संसार में रहता है। संसार में रहनेवाला शरीर में रहता है। शरीर और संसार का बड़ा मेल है। स्थूल शरीर में रहनेवाला स्थूल संसार में रहेगा। अभी आपलोग सुने-
 जो न तरइ भवसागर, नर समाज अस पाय ।
 सो कृत निन्दक मंद मति, आतम हन गति जाय ।।
 भवसागर से पार होने के लिए अपने शरीर को पार करो। इसके लिए बाहर में कोई यत्न करने से नहीं होगा और न शरीर छूटने के बाद होगा। जीवनकाल में ही भवसागर तरना होगा।
जीवन मुक्त सोइ मुक्ता हो।
जब लग जीवन मुक्ता नाहीं, तब लग दुख सुख भुक्ता हो। -संत कबीर साहब
  जीवत छूटै देह गुण, जीवत मुक्ता होइ।
  जीवत काटै कर्म सब, मुक्ति कहावै सोइ।।
       -संत दादू दयाल
 इस शरीर में रहकर हम शुभ कर्म कर सकते हैं। जीवन-मुक्त की दशा प्राप्त कर सकते हैं। दूसरे शरीर में नहीं होगा। इसीलिए अपने जीवन-काल में यत्न करो। जो जीवन-काल में अपने को मुक्त कर पाता है, वह जीवन-मुक्त है। जो जीवन-मुक्त नहीं है, उसे कोई कहे कि तुम जीवन-मुक्त हो, यह कैसे हो सकता है? जिसके पास में धन नहीं है, उसे यदि लोग कहे कि तुम धनी हो, कैसे होगा? वह स्वयं जानता है, मेरे पास धन नहीं है। जो जीवन-काल में मुक्त है, वह जीवन-मुक्त है। जीवन-मुक्त पुरुष ब्रह्म पर है। ब्रह्म=जो प्रकृति मंडल में व्यापक है। सारा प्रकृति-मण्डल व्याप्य है और उसमें जो व्यापक है, वह ब्रह्म है। जैसे लोहे के गोले को अग्नि में देने से उसमें अग्नि प्रवेश कर जाती है। लोहे का गोला व्याप्य है और अग्नि व्यापक है। उसी प्रकार सारे प्रकृति मण्डल में व्यापक को ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्म परमात्मा का अंश है। परमात्मा प्रकृति के पार कितना विशेष है, इसका अंदाजा नहीं किया जा सकता, वह परमात्मा है। प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी। तो प्रकृति के पर या ब्रह्म के पर जो परमात्मा है, उसको प्राप्त करनेवाला जीवन-मुक्त ब्रह्म कहलाता है। जीवन-मुक्त पुरुष की अपनी इच्छा रहती है- जबतक संसार में रहना चाहें या जब शरीर छोड़ना चाहें, किंतु वे ईश्वरीय विधान का खंडन नहीं करते, ईश्वरीय नियम का पालन करते हैं। जबतक जीवन है, संसार में रहते हैं, उन्हें अपने लिए कुछ करना बाकी नहीं रहता। संसार में रहते हैं तो संसार की सेवा के भाव से कर्म करते हैं और सत्संग करते हैं। उनके बिना सत्संग में जो आनंद होना चाहिए, जो सदुपदेश होना चाहिए नहीं होता। इसलिए जहाँ जाना चाहिए, वहाँ जाकर वे सत्संग करते हैं। जब इस प्रकार के लोग भी सत्संग करते हैं तो साधारण जन जो सत्संग नहीं करते, उनका हृदय पत्थर के समान है।
 श्रीराम का राज्य बहुत अच्छा था। इसलिए आज भी लोग रामराज्य बनाना चाहते हैं। बौद्ध काल में अशोक के राज्य का भी बहुत अच्छा प्रबंध था। राज्य बहुत बड़ा था। कोई बकरी को नहीं बाँधते थे। कहते थे कि यह गरीब जीव है, इसे मत बाँधो।
 श्रीराम आदर्श राजा थे। एक साधारण मनुष्य के कहने पर सीता ऐसी सती का परित्याग कर दिया। वे अपना सब कुछ छोड़ सकते थे, जिसमें प्रजा सुखी रहे। संसार में जबतक प्रजा रहेगी, सुखपूर्वक रहेगी। किंतु शरीर छोड़ने पर भी ये प्रजाएँ सुखी रहे, इसके लिए श्रीराम ने उपदेश दिया-
 बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब गं्रथहि गावा।।
 देव देही भोग देही है। मनुष्य देह में योग-भोग दोनों होता है। मनुष्यों को भोगने के पदार्थ कम मिलते हैं और इन्द्रियों में भोगने की शक्ति भी कम है; किंतु देवता में भोग बहुत मिलते हैं और भोगने की शक्ति भी बहुत है। इसलिए इस भोग से छूटना देवताओं को कठिन हो जाता है।
नारद भव बिरंचि सनकादी ।जे मुनि नायक आतमवादी ।।
मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही।।
     ‘ देव दनुज मुनि नाग मनुज सब माया विवस विचारे ।’
 ये सब माया के विवश में हैं, तो हमलोगों को देवताओं से भी श्रेष्ठ शरीर मिला है। यह शरीर साधन का घर है। भण्डार से जो निकालना चाहो, निकाल सकते हो। इसी प्रकार यह साधनों का भण्डार और मोक्ष का द्वार है। पहले वर्णित पाँचों शरीरों से निकलना ही मोक्ष है। मोक्ष प्राप्त करने के लिए द्वार की खोज कीजिए। शरीर में नौ द्वार हैं। बड़े-बड़े छिद्र को द्वार और छोटे-छोटे को खिड़कियाँ कहते हैं। रोएँ-रोएँ के छिद्र खिडकियाँ हैं। मोटे-मोटे छिद्र द्वार हैं। आँख के दो, कान के दो, नाक के दो, मुँह, मल-मूत्र के एक-एक-नव छिद्र हैं। इनमें पड़े रहो तो बंधन में पड़े रहोगे। मोक्ष का द्वार कौन है ?
  नउ दरवाजे नवे दर फीके रस ु अमृतु दसवै चुअीजै।।
  नउ दरि ठाकै धावतु रहाए, दसवें निज घरि वासा पाए।।
 नौ द्वार में ठहरनेवाला संसार में दौड़ता रहता है। दसवें द्वार में जानेवाला आत्मघर, निजघर, मोक्ष घर में जाता है। इसको बतानेवाला गुरु पूरे भाग्यवान को मिलता है। बाहर में नौ दरवाजे हैं। भीतर में दसवाँ दरवाजा है। शिवजी का चित्र देखिए, इनके दो आँखों के बीच में एक और आँख है। शिवजी इसको जानते थे। इस आँख से जो करना चाहिए, वे प्रयोग किए थे। उसी आँख से चेतन धाराएँ निकलकर इन दोनों आँखों में आती है। यह स्थूल में नहीं सूक्ष्म में है। बाहर में नहीं, भीतर में है। स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्म से स्थूल में आने का द्वार है। मन सहित चेतन उसमें प्रवेश कर सकता है। इसका यत्न जानें और घुसने के लिए प्रयत्न करें। यह शाम्भवी मुद्रा, वैष्णवी मुद्रा से होगा। साधारण वचन में दृष्टि- साधन से प्राप्त होगा। बड़ा भण्डार कर लेने पर भी इसमें प्रवेश नहीं कर सकते।
 चीन देश के राजा ने बहुत पुण्य किया था। एक साधु ने कहा-जिधर जाना चाहिए, उधर तुम एक डेग भी नहीं चले हो। हाँ, जिसके पास धन है, दान देने से भण्डारा करने से आसक्ति छूट सकती है। वह इस ओर चलने में सहायक है। उसे शुभ कर्म भी करना चाहिए। किंतु केवल इसी कर्म से मुक्ति नहीं मिलेगी। उस कर्म से सहायता मिलेगी।
 ‘सो परत्र दुख पावई, सिर धुनि धुनि पछताय ।
  कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं, मिथ्या दोष लगाय ।।’
   ‘लंबा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहु मार।’
 यह मार्ग लंबा है। एक जन्म का काम नहीं है। जन्म-जन्मांतर का काम है। अनेक जन्म करो, करते-करते मोक्ष मिलेगा। भगवान ने कहा-
     दिन दिन बढ़त सबाई,राम धन कबहु न लागी काई ।
 यह भजन का लसंग ऐसा है कि छूटनेवाला नहीं। जरा-सा लग जाने से भजन करते-करते भजन का अंत करवाकर ही छोड़ेगा।
 कर्म दो प्रकार के होते हैं। पहले मन से, फिर कर्म से। इसलिए पहले सूक्ष्म भोग को भोगोगे, फिर स्थूल को। स्वर्ग में सुख भोगना सूक्ष्म भोग है और इस स्थूल संसार में आकर भोगना स्थूल। पहले मन में कर्म किया जाता है, फिर बाहर में। इसलिए पहले स्वर्ग में भोगकर यहाँ भी भोगना पड़ता है। मनुष्य शरीर का काम केवल विषय भोगना नहीं है। विषय केवल पाँच ही हैं-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द। आँख, नाक, कान, जीभ और त्वचा से जो ग्रहण करते हैं। इन्हीं में सब लगे हैं। श्रीराम कहते हैं-विषय में लगे रहो यह मनुष्य शरीर का काम नहीं। स्वर्ग का सुख भी थोड़ा है और अंत में दुःख देनेवाला है। विषयों से कैसे बचा जाएगा, इसका उपाय पीछे कहूँगा।
नर तन पाय विषय मन देही। पलटि सुधा ते सठ विष लेही।।
ताहि कबहुँ भल कहहिं न कोई। गुुंजा ग्रहइ परसमनि खोई।।
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जीव अविनासी।।
फिरत सदा माया कर प्रेरा । काल कर्म सुभाउ गुन घेरा।।
 मनुष्य का शरीर माया, काल-कर्म के घेरे से छूटने के लिए है, न कि विषयों के पहिए की पुट्ठी की तरह घूमने के लिए। फिर कहा-
नरतन भव वारिधि कहँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।।
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।
 सन्मुख मरुत अनुकूल पवन है। नारद को बंदर का मुँह अच्छा नहीं लगता था। किंतु भगवान ने अच्छा ही किया। नारद विषय-धार में बहना चाहता था, भगवान ने रोका। जो हवा उलटे जाने के लिए ठोकर दे, वह अनुकूल हवा है। वेग बहाव का है। इसलिए उलटी हवा रहने पर भी नाव कुछ-न-कुछ बह ही जाती है अर्थात् मन विषय की ओर बहता है। ईश्वर की कृपा-रूप अनुकूल वायु होने पर भी नाव बहती है, लेकिन सद्गुरु रूप मल्लाह खेवकर पार लगाते हैं। जो सद्ज्ञान में अपने रहे, दूसरां को सद्ज्ञान की शिक्षा दे, वह सद्गुरु हैं। वे युक्ति बतावेंगे और उस ओर चलने के लिए प्रेरित करेंगे। जो बात बहुत सुनी जाती है, मन वही करने के लिए चाहता है। किसी को जिस ओर फेरना हो, उस तरह की बात सुनाइए, उस ओर हो जाएगा। अच्छी-अच्छी बातों को सुनते- सुनते मन अच्छा हो जाता है। अच्छा कर्म करने लगता है। सद्गुरु सद्ज्ञान की शिक्षा देते हैं। विषय की ओर से मन को फेरने की शिक्षा देते हैं। उसका मन फिर जाता है। गोया नाव उलट गई।
 जो न तरइ भवसागर , नर समाज अस पाय।
 सो कृत निंदक मंद मति, आतम हन गति जाय।।
 विषय से कैसे बचा जाय? एक को पकड़ो, अनेक को छोड़ो। हमलोग बहुत शब्द सुनते और बोलते हैं। अनेक शब्दों में से एक शब्द को लीजिए। शब्द का अर्थ होता है। एक शब्द को लो, जो शब्द ईश्वर की ओर खींचता हो। एक शब्द लेकर जपो। पंच विषयों में रूप और शब्द दो ही प्रबल हैं। गंध उतनी दूर तक नहीं जाती, स्पर्श तो चमड़ा सटने पर ही मालूम होता है, रस भी जिभ्या में स्पर्श होने पर ही स्वाद जाना जाता है। आँख का विषय दूर तक जाता है, किंतु प्रकाश रहने पर ही। अंधकार में विशेष दूर तक नहीं जाता। किंतु शब्द तो अंधकार, प्रकाश सब में सुन सकते हैं। इसलिए शब्द के समान और प्रबल दूसरा कोई विषय नहीं है। तो एक शब्द को लीजिए। रामनाम, शिवनाम, कृष्णनाम, जो लीजिए सब एक ही है। राम सर्वव्यापक को कहते हैं। शिव कल्याणकारी को कहते हैं। किसी एक नाम को लेकर जपो, जो नाम ईश्वर की ओर झुकानेवाला हो। त्रैकाल संध्या करने के लिए ऋषियों ने बतलाया। हमलोग ऋषि पुत्र हैं, थोड़ा समय लेकर एक घण्टा या आधा घण्टा भी सब शब्दों को छोड़कर एक ऐसे शब्द को जपो। फिर अपने इष्ट के रूप को ले लो और उसका ध्यान करो। काम करते हुए भी उन दोनों को गौण रूप से करते रहो। तन काम में, मन राम में।
 कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान।
 सो ध्यानी परमान, सुरत से अण्डा सेवै।।
 -संत पलटू साहब
 इन दोनों विषयों को पकड़ो और तीन विषय को छोड़ दो। फिर दृष्टिसाधन करके पाँचो विषयों को छोड़ दो। दृष्टिसाधन से स्थूल विषय छूट जाएँगे। फिर सूक्ष्म विषय से छूटने के लिए नादानु-
संधान करो और भवसागर से पार हो जाओ। संसार में अनासक्त होकर काम करो। जैसा कि पहले कहा- तन काम में, मन राम में। इसके लिए कोई मन को संसार में रखे और इस ओर जाना चाहें, हो नहीं सकता।
 दुई कि होइ एक समय भुआला।हसब ठठाइ फुलाउव गाला।।
 इसलिए नित्य नियमित रूप से भजन-अभ्यास करते रहिए।
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यह प्रवचन ग्राम-बेलसरा, जिला पूर्णियाँ (बिहार) में दिनांक 18.11.1952 ई0 के अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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37. धर्म से विराग होता है

प्यारे लागो !
 इतिहास भी कुछ-कुछ सुनना चाहिए। इसलिए कि जो कोई अच्छे-अच्छे कर्म किए हैं, उनके कर्मां का इतिहास सुनकर अच्छे-अच्छे कर्म करने की इच्छा होती है और इतिहास में ऐसी भी बातें होती हैं कि बुरे-बुरे कर्म करनेवाले भी लोग हुए हैं। उनका परिणाम जो दुःख होता है, उसे सुनकर लोग बुरे कर्म नहीं करेंगे।
 स्त्री को पातिव्रत्य-धर्म का पालन करना चाहिए। वह लोक में भी यश पाती है और परलोक में भी सुखी रहती है। विपरीत चलनेवाली को दुःख और नरक होता है। पातिव्रत्य-धर्म से मोक्ष नहीं मिलता। मोक्ष तो ईश्वर की भक्ति से होता है, किंतु पातिव्रत्य-धर्म का पालन करने से इहलोक और परलोक दोनों मेें सुखी रहती है।
 मैं और मेरा दोनों माया है। माया दो हैं-विद्या और अविद्या। अविद्या माया अंधी है, अपने को भी नहीं देखती। यह दुष्ट माया है। इसके बाद विद्या माया है। दान, पुण्य, सत्संग विद्या माया है। अपने को जो नहीं पहचानता, ब्रह्म को नहीं पहचानता, माया को नहीं पहचानता, वह जीव है। ईश्वर वह है, जो माया को अपने अधीन रखता है, जीव को बंधन और मुक्ति दोनों दे सकता है।
 ज्ञान किसको कहते हैं? जो सबमें एक ईश्वर को देखता है। विराग वह है, जो त्रयगुण (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) की शक्ति को तुच्छ समझता है। उसमें जो आसक्त नहीं है, विरक्त वही है। ज्ञान से मुक्ति, योग से ज्ञान और धर्म से विराग होता है। दान-पुण्य भी धर्म है। धर्म-कर्म करनेवाले की आसक्ति धन से छूटती है। ध्यान करने में उसका मन लगता है, उसको पहले से ही विरक्ति है।
 तुम्हारा शरीर समुद्र है। लंबा साढ़े तीन हाथ, चौड़ा एक हाथ देखने में आता है; किंतु यह समुद्र है। इसका अंत नहीं मिलता। संत इसका अंत करते हैं। शरीर का अंत पाकर ही कोई संत होते हैं। मृतक होकर रहना-इन्द्रियाँ मृतक देह में निश्चेष्ट रहती हैं। इसी प्रकार साधना में जिसकी इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हैं, वह मृतकवत् है। जो मृतक है, वही इस शरीररूपी समुद्र में डुबकी लगा सकता है। कबीर साहब कहते हैं-
 मैं मरजीवा समुँद का, डुबकी मारी एक।
 मुट्ठी लाया ग्यान की, जामें वस्तु अनेक।।
 कबीर साहब कहते हैं-जो शरीर समुद्र के समान गहरा है, मैंने उसमें ध्यान द्वारा डुबकी लगायी। अर्थात् इस शरीर के अंतर में प्रवेश किया तो वह वस्तु (परमात्मा) प्राप्त हुई, जिसमें अनेक प्रकार की चीजें भरपूर हैं। फिर कहते हैं-
 डुबकी मारी समुँद में, निकसा जाय अकाश।
 गगन मण्डल में घर किया, हीरा पाया दास।।
 अर्थात् डुबकी शरीररूपी समुद्र में मारते हैं और आकाश में निकलते हैं। यह तो भजन करने से मालूम होगा।
 भक्त वह है जो ईश्वर को पाने का यत्न है, उसको करता है। जो कोई अपने अंदर में अच्छी तरह से ध्यान करता है, उसी को ईश्वर मिलता है। एक बार ईश्वर मिलने से फिर हेराता नहीं है। और चीजें मिलकर हेरा जाती हैं; किंतु यह हेराता नहीं है। इसलिए नित्य ध्यानाभ्यास करना चाहिए, सत्संग करना चाहिए। इसमें गफलत नहीं करनी चाहिए।
 जिस प्रकार पत्नी के लिए एक पातिव्रत्यधर्म है, उसी प्रकार पुरुष को भी एक पत्नीव्रतधर्म का पालन करना चाहिए। श्रीराम भगवान विष्णु के अवतार थे। वे चक्रवर्ती राजा थे। वे जितनी शादी करना चाहते, कर सकते थे, किंतु एक सीता ही उनकी पत्नी थी।
 पुरुष एक पत्नीव्रत धर्म का पालन करे और स्त्री एक पातिव्रत्य-धर्म का पालन करे, साथ ही भजन-अभ्यास करे, इससे स्वर्ग को कौन कहे, मोक्ष भी मिल जाएगा। ज्ञान-प्राप्ति के लिए सत्संग कीजिए और ध्यानाभ्यास नित्य कीजिए।
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यह प्रवचन संतमत सत्संग मंदिर सैदाबाद, जिला पूर्णियाँ (अब जिला-अररिया) में दिनांक 9.12.1952 ई0 के साप्ताहिक सत्संग में हुआ था।
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38. तन धर सुखिया काहू न देखा

प्यारे लोगो !
 मुक्ति का अर्थ है छुटकारा। कोई बंधन में रहता है, तब उससे छूटना चाहता है। तो हमलोग बंधन में बँधे हैं। जिस प्रकार कोई कारागार में हो, उसी प्रकार हमलोग शरीर और संसार के कारागार में बंदी हैं। बंदी नहीं समझो तो कैदी जरूर समझो। कारागार नहीं समझो तो जेल और कैदखाना जरूर समझोगे। हमारा दुर्भाग्य कि अपने भाषा को भूलकर अन्य भाषा को अपनाए हुए हैं।
 यहाँ लोग जहाँ पर हैं, यह सौर जगत है। अर्थात् यहाँ से सूर्यमण्डल जहाँ देखते हैंं-स्थूल मंडल है। इसके सहित सूक्ष्म, कारण, महाकारण; ये चार मण्डल जड़ के हैं। आँख बंद करने से अंधकार मालूम होता है। लक्ष्मणजी ने परशुरामजी से कहा था- ‘मुंदे आँख कतहुँ कोउ नाहीं।’ अंधकार में जो चीज है, वह आप नहीं पा सकते, वह चीज तभी मिलेगी, जब प्रकाश हो। आप चाहते हो कि मेरे शरीर में कोई रोग नहीं आवे। संयम से रहते हैं, तो भी दैहिक, दैविक, भौतिक किसी-न-किसी प्रकार का रोग आ ही जाता है। संत कबीर साहब ने कहा-
      तन धर सुखिया काहू न देखा, जो देखा सो दुखिया हो । उदय अस्त की बात कहतु हौं, सबका किया विवेका हो ।।
      घाटे बाढ़े सब जग दुखिया, क्या गिरही वैरागी हो ।
      शुकदेव अचारज दुख के डर से, गर्भ से माया त्यागी हो ।। जोगी दुखिया जंगम दुखिया, तपसी को दुख दूना हो ।
      आसा तृष्णा सबको व्यापै, कोई महल न सूना हो ।। साँच कहौं तो कोई न मानै, झूठ कहा नही जाई हो ।
      ब्रह्मा विष्णु महेसुर दुखिया, जिन यह राह चलाई हो ।।
     अवधू दुखिया भूपति दुखिया, रंक दुखी विपरीती हो ।
     कहै कबीर सकल जग दुखिया, संत सुखी मन जीती हो ।।
 भगवान श्रीराम संसार में रोने की लीला करते हैं। जब वे ही रोते हैं, तब औरों की बात ही क्या? बालक जन्म लेते ही रोता है। राज-राजेश्वर का पुत्र भी रोते ही जन्म लेता है। श्रीराम ने प्रकट होकर कौशल्याजी को दर्शन दिया चतुर्भुजी रूप में। माता कौशल्या बोली, यह रूप छोड़िए और साधारण बच्चे का भेष धरकर रोइए।
 सुनि वचन सुजाना रोदन ठाना।
 संसार में जाओगे, तो संसार में रोना-ही-रोना पड़ेगा। संसार दुःखमय है। इसमें जो आवेंगे, उनको रोना ही पड़ेगा। हिमालय के शिखर पर जाने से भी दुःख नहीं छूटेगा। शरीरिक, दैविक, भौतिक और मानसिक कोई न कोई कष्ट होगा ही।
 शरीर और संसार की फाँस में हमलोग फँसे हैं। इससे छूटने का नाम है-मुक्ति। यदि कहो कि मरने पर शरीर छूट जाएगा, मुक्ति होगी, तो सो नहीं। स्थूल शरीर छूटेगा, लेकिन सूक्ष्म शरीर रहेगा। फिर स्थूल शरीर होकर दुःख होगा। यदि दान-पुण्य कर स्वर्ग जाओ तो भी फिर यहाँ आकर दुःख भोगना पड़ेगा। युधिष्ठिर ने कितने दान-पुण्य, तीर्थ किए। उसके बदले में स्वर्ग आदि भोगे, फिर उनको नरक भी देखना पड़ा, थोड़ा-सा झूठ बोलने पर। चित्त का स्वभाव है-मैं सुखी-दुःखी, भोग करनेवाला हूँ। यह स्वभाव चित्त से कोई हटा नहीं सकता। जैसे देह से मैल को कोई हटा नहीं सकता। चाहे उबटन लगाकर स्नान करो। इस प्रकार चित्त में कर्ता भोक्ता, सुखी-दुःखी होते रहना दुःख का कारण है।
 अभी जो आपलोगों ने मुक्तिकोपनिषद् का पाठ सुना। उसमें भगवान श्रीराम हनुमानजी को उपदेश देते हैं-मैं सुखी हूँ, दुःखी हूँ, करनेवाला हूँ तथा भोगनेवाला हूँ-यह चित्त का धर्म है। यही बंधन का कारण है। चित्त के धर्म पर जो काबू पा लेता है, वह जीवन-मुक्त है। शरीर रहते मुक्ति मिल गई, शरीर में है, किंतु शरीर-संसार का बंधन उसपर असर नहीं करता। ऐसे पुरुष का जब शरीर छूटता है, तो केवल स्थूल नहीं, जड़ के तीनों शरीर छूट जाते हैं। घर के अंदर जो आकाश है, घट आवरण टूटने से मुक्त हो जाता है। उसी प्रकार जीवन-मुक्त के शरीर के छूटने से वह घटाकाश की तरह मुक्त हो जाता है। तब वह विदेह-मुक्त हो जाता है। राजा जनकजी जीवन-मुक्त थे। शरीर में रहते हुए भी वे विदेह कहलाते थे। जीवन-मुक्त पुरुष को अख्तियार है कि वह शरीर और संसार में रहें या नहीं। किंतु नियम पालन के लिए अपने शरीर को रखे रहते हैं। जैसे हनुमानजी को ताकत थी कि मेघनाद की फाँस को काट दे; किंतु ब्रह्मफाँस की मर्यादा रखने के लिए अपने बँधकर रावण के दरबार में गए। उसी प्रकार जीवन-मुक्त परमात्मा के विधान का पालन करते हैं और संसार का उपकार करते हैं। तो यह जीवन- मुक्ति शरीर में रहते हुए ही होती है, मरने पर नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामायण में लिखा है-
 लहहिं चारि फल अछत तनु, साधु समाज प्रयाग।
संत कबीर साहब ने भी कहा है-
 जीवन मुक्त सोइ मुक्ता हो।
 जब लग जीवन मुक्ता नाहीं, तब लग दुख सुख भुगता हो।
 देह संग ना होवै मुक्ता, मुए मुक्ति कहँ होई हो।
 तीरथवासी होय न मुक्ता, मुक्ति न धरनी सोई हो।।
 जीवत कर्म की फाँस न काटी, मुए मुक्ति की आसा हो।
 जल प्यासा जैसे नर कोई, सपने फिरै पियासा हो।।
 ह्वै अतीत बंधन तें छूटै, जहँ इच्छा तहँ जाई हो।
 बिना अतीत सदा बंधन में, कितहूँ जानि न पाई हो।।
 आवागमन से गये छूटि कै, सुमिरि नाम अविनासी हो।
 कहै कबीर सोई जन गुरु है, काटी भ्रम की फाँसी हो।।
 इस प्रकार उपनिषद् और संतवचन मिलाने पर एक ही मिल जाता है। यह एक जन्म की बात नहीं है। एक जन्म में नहीं होगा, तो दूसरे, तीसरे कई जन्मों में हो जाएगा। यह राम धन है।
 दिन दिन बढ़त सवाई,रामधन कबहूँ न लागै काई।।
 श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में पढ़िये- भगवान श्रीकृष्ण से अर्जुन ने कहा-हे महाबाहो! यदि ध्यानयोग में श्रद्धा रखे, परंतु साधन में ढीला रहे तो ये योगभ्रष्ट पुरुष किस गति को प्राप्त करेंगे? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-ऐसे योगभ्रष्ट पुरुष अपने स्वल्पातिस्वल्प ध्यानयोगाभ्यास के फल से दुर्गति को प्राप्त न होकर प्रथम स्वर्ग सुख भोगेगा; पुनः इस पृथ्वी पर किसी पवित्र श्रीमान के घर में अथवा किसी ज्ञानवान योगी के घर में जन्म लेगा। पूर्व के अभ्यास संस्कार से प्रेरित होकर ध्यान योगाभ्यास में लग जाएगा। वह मोक्ष की ओर आगे बढ़ेगा और इस प्रकार अनेक जन्मों की कमाई के द्वारा पापों से छूटकर पवित्र होता हुआ परमगति (मोक्ष) को प्राप्त करेगा।
 विद्यालय में जो विद्यार्थी पढ़ते हैं। पढ़ते-पढते कितने की आधी उम्र खतम हो जाती है, तब कहीं योग्य समझे जाते हैं और इस जीवन-मुक्त अवस्था के लिए कहना कि जल्दी क्यों नहीं होती है? जिस तरह विद्यार्थी धीरे-धीरे पढ़ते-पढ़ते योग्य होते हैं, उसी प्रकार यह अवस्था प्राप्त करने के लिए श्रवण, मनन, निदिध्यासन करके अनुभव ज्ञान में जीवनमुक्त की दशा प्राप्त करेंगे।
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यह प्रवचन पूणियाँ जिलान्तर्गत ग्राम-पटनेगा ( अब जिला-अररिया ) में दिनांक 22.12.1952 ई0 को साप्ताहिक सत्संग में हुआ था।
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39. दृश्य जगत का मूल विन्दु है

प्यारे लोगो!
 नाद का अर्थ है शब्द और विन्दु का अर्थ है छोटे-से-छोटा चिह्न। पाठशाला में पढ़नेवाले विद्यार्थी पढ़ते हैं कि जिसका स्थान है परिमाण नहीं, वह विन्दु है। वह इतना छोटा है कि उसका बाँट नहीं हो सकता। नाद ध्वन्यात्मक शब्द है, हमलोग जो बोलते हैं, वह वर्णात्मक है। बाजों का शब्द ध्वन्यात्मक आहत नाद है। परंतु जिस नाद का अभी वर्णन किया जा रहा है, वह आंतरिक अनाहत ध्वन्यात्मक नाद है। जो ईश्वर को माननेवाले हैं, वे ईश्वर को सबसे पूर्व का मानते हैं। ईश्वर के पहले कुछ और था माना नहीं जा सकता। ईश्वर किसी शरीर को धारण किए हुए हैं एक ख्याल है। दूसरा ख्याल यह है कि ईश्वर है, किंतु उनको शरीर नहीं है। रंगरूप माननेवाला भी उस रंग-रूप के अंदर ईश्वर को शरीर रहित मानते हैं। पहला शरीर-रहित स्वरूप है या जो शरीरवाला है, वह दोनों में पहले से कौन है? जो हाथ-पैर आदि इन्द्रियों से युक्त तथा गोचर है वह कैसा है? तथा आपकी इन्द्रियाँ कैसी हैं? बनती हैं, ठहरती हैं और बिगड़ती हैं। रजोगुण, सतोगुण और तमोगुण; त्रैगुणों से निर्मित इन्द्रियाँ हैं। इन्हीं (रजोगुण, सतोगुण और तमोगुण) तीनों गुणों को त्रिगुण कहते हैं। त्रिगुण से बनी हुई इन्द्रियाँ त्रिगुण से रहित पदार्थ को पकड़े कैसे संभव है? शरीर त्रिगुण निर्मित है, इसके सहित रहनेवाले को सगुण कहते हैं। शरीरधारी सगुण है। सगुण कहने से दो पदार्थों का बोध होता है। एक वह जो धारण करता है। और दूसरा वह जिसे वह धारण करता है। जो त्रिगुण को धारण करता है, वह त्रिगुण नहीं है; वह निर्गुण है, वह गुणातीत है। असल में मूल स्वरूप निर्गुण है।
अगुन अखंड अलख अज जोई। भगत प्रेम वस सगुण सो होई।।
 -गोस्वामी तुलसीदास
 यह चौपाई विदित करती है कि पहले अगुण= त्रैगुण रहित, अखण्ड=खण्डरहित, अलख=जो नेत्र के ज्ञान से बाहर है, अज=जो कभी जन्मा नहीं है; जो हई है। वही भक्त के प्रेमवश सगुण होता है। यानी त्रैगुण को धारण करता है।
  (गो गोचर जहँ लगि मन जाई।सो सब माया जानहु भाई।।
इस सिद्धांत से कोई भी इन्द्रिय-गोचर रूप मायिक होगा। चाहे वह दिव्य ही क्यों न कहलावै। चाहे उसका स्थूल इन्द्रियों से दर्शन हो अथवा सूक्ष्म या दिव्य-दृष्टि से दर्शन हो। इस तरह के मायिक दर्शन को निर्गुण निर्मायिक स्वरूप का दर्शन कहा नहीं जा सकता। ) यह तुलसीदासजी का विचार है। मूल स्वरूप परमात्मा का निर्गुण है। वहाँ पर रूप या दृश्य नहीं है। निर्गुण अरूप ईश्वर पहले पहल क्या बनावेगा नाद को अथवा विन्दु को? पहले रूप को या अरूप को? अरूप रूप से सूक्ष्म है। रूप स्थूल है और अरूप सूक्ष्म है। पानी देखने में आता है और हवा देखने में नहीं आती। पानी स्थूल है और हवा उससे सूक्ष्म है। यह जगत जो पंचभौतिक है, आकाश सबका मूल है। पहले आकाश है, तब वायु। आकाश अदृश्य है, इससे उत्पन्न वायु भी अदृश्य है। फिर वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी ऐसे क्रमशः पाँचों तत्त्व बने हैं। पृथ्वी से जल, जल से अग्नि और अग्नि से हवा सूक्ष्म है। पृथ्वी, जल और अग्नि दृश्य है, हवा और आकाश अदृश्य है। आकाश से वायु उत्पन्न हुआ। वह आकाश अदृश्य और हवा भी अदृश्य है। तात्पर्य यह कि अदृश्य से अदृश्य उत्पन्न हुआ, परंतु कुछ भेद-सहित। भेद यह कि आकाश स्पर्श रहित और हवा स्पर्श सहित। अतएव आकाश सूक्ष्म और हवा स्थूल है। इसी प्रकार निर्गुण, अलख ईश्वर से सृष्टि की आदि में जो उत्पन्न हुआ वह ईश्वर की सूक्ष्मता से न्यून सूक्ष्मता रूप अदृश्य ध्वन्यात्मक नाद हुआ। उसके बाद रूप अर्थात् सब रूपों का बीज विन्दु उस नाद से उत्पन्न हुआ। विन्दु दृश्य जगत का उपादान कारण हुआ और अदृश्य जगत नादात्मक हुआ। जहाँ नाद और दृश्य दोनों हैं, वह दृश्य जगत है। दृश्य जगत का मूल विन्दु है। कुछ नक्शा बनाने में पहले विन्दु होगा। दृश्य जगत का जहाँ अंत होगा, वह भी एक विन्दु पर होगा। नाद तो वह चीज है, जिसे सृष्टि की आदि में परमात्मा ने सृजन किया। एकविन्दुता प्राप्त होने अर्थात् विन्दु पर आरूढ़ हो जाने से दृश्य जगत के अंत तक आ जाओगे। विन्दु- ध्यान से दृश्य जगत से छूट जाओगे। दृश्य का आवरण छूट गया।
 नाद-ध्यान से क्या होता है, सो सुनो। नाद में अपने उद्गम स्थान पर खींच लाने का गुण है। इसका उद्गम स्थान स्वयं परमात्मा है, इसलिए इसके ध्यान से खींचकर उस परमात्मा तक पहुँच जाओगे। हमलोग जो प्रतिदिन संत-स्तुति में ‘विन्दु ध्यान विधि नाद ध्यान विधि, सरल सरल जग में परचारी।’ गाते हैं, सो विन्दु और नाद-ध्यान की यही महिमा है।
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यह प्रवचन संतमत सत्संग मंदिर मनिहारी, जिला कटिहार (बिहार) में दिनांक 30.12.1952 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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