मुक्ति का अर्थ है- छूट जाना। किससे छूट जाना? शरीर और संसार से। जब शरीर और संसार से छूटा जाय, तब मुक्ति है। शरीर और संसार का आपस में बड़ा संबंध है। जितने तत्त्वों से संसार बना है, उतने ही तत्त्वों से शरीर भी बना है। तत्त्वों के स्थूल-सूक्ष्म भेद से जितने ही शरीर के तल हैं, संसार के भी उतने ही तल हैं। शरीर को पिण्ड तथा संसार को ब्रह्माण्ड कहते हैं। शरीर के जिस तल पर जब जो रहता है, संसार के भी उसी तल पर तब वह रहता है। शरीर (पिण्ड) के जिस तल को जब जो छोड़ता है, संसार (ब्रह्माण्ड) के भी उसी तल को तब वह छोड़ता है। इससे यह जानने में आता है कि अगर शरीर के सब तलों को कोई छोड़े, तो संसार के भी सब तलों को वह छोड़ेगा।
लोग अगर समझे कि मरने पर शरीर से छूटता है और संसार से भी छूट जाता है, तो जानना चाहिए कि इस साधारण मृत्यु से किसी की मुक्ति नहीं होती। यह एक स्थूल देह देखने में आती है, किन्तु इसके भीतर तीन और शरीर हैं, जिन्हें सूक्ष्म, कारण तथा महाकारण शरीर कहते हैं। ये चारो शरीर जड़ हैं। इनके भीतर भी एक और शरीर है, जिसको चेतन शरीर कहते हैं। कबीर साहब तो छह प्रकार के शरीर मानते हैं, जैसे उनके इस शब्द से ज्ञात होता है-
साधो ! षट प्रकार की देही।
स्थूल सूक्ष्म कारण महाकारण कैवल्य हंस की लेही।।
अर्थात् वे छठा शरीर हंस का मानते हैं। किन्तु चारो शरीरों से छूट जाय, तो जड़ावरण से छूट जाता है। साधारण मृत्यु में केवल एक स्थूल शरीर छूटता है, किन्तु इसके अन्दर में तीन और जड़ शरीर रह जाते हैं, जिससे फिर स्थूल शरीर हो जाता है। जैसे वृक्ष के कट जाने पर अगर जड़ मजबूत है, तो पुनः वृक्ष उग आता है। कैसे विश्वास करें कि पाँच शरीर हैं? हम देखते हैं कि यह स्थूल शरीर है। किन्तु किसी भी स्थूल का बनना तबतक सम्भव नहीं है, जबतक सूक्ष्म न हो अर्थात् बिना सूक्ष्म के स्थूल नहीं हो सकता है। और सूक्ष्म भी बिना कारण के नहीं हो सकता। इस घर में आपलोग हैं, यह स्थूल है, किन्तु यह स्थूल घर तबतक नहीं बना, जबतक कि इसका चित्र पहले मन में नहीं आता। पहले मन से बनता है, पीछे कागज पर नक्शा खींच लेते हैं, फिर घर बनता है। बिना कारण के कार्य नहीं होता, इसके बिना सूक्ष्म नहीं बनता। कारण भी एक ही हो तब तो? अनेक कारण हैं। इस तरह सब कारणों को एकत्र कर देखें, तो वही महाकारण कहलाता है। संसार में कारण उत्पन्न होते जाते हैं और घर बनते जाते हैं। एक बर्त्तन बनाने में जितनी मिट्टी लगती है, वह एक बर्त्तन का कारण है। सब बर्त्तनों के कारण वही नहीं है। एक बर्तन के कारणरूप मिट्टी से असंख्य बर्तनों के कारण अथवा सब बर्त्तनों के कारण की मिट्टी अवश्य ही अत्यन्त अधिक होगी। उसके अतिरिक्त समस्त भूमण्डल की मिट्टी, जो कार्यरूप होने से बची रहती है, कितनी अधिक है, जानने में आती है? यही महाकारण का स्वरूप है। महाकारण=त्रयगुणमयी साम्यावस्थाधारिणी मूल प्रकृति। कारण दो होते हैं-एक उपादान, दूसरा निमित्त कारण। कुम्हार निमित्त कारण है और मिट्टी उपादान कारण। सृष्टि का निमित्त कारण परमात्मा है। जिससे सृष्टि बनती है, उसे उपादान कारण कहते हैं, यह महाकारण है। साम्यावस्थाधारिणी कहने का अर्थ है- जिसमें उत्पादक शक्ति, पालक शक्ति तथा विनाशक शक्ति अर्थात् रजोगुण,सतोगुण तथा तमोगुण-ये तीनों शक्तियाँ समान हों। इन तीनों से खाली संसार का काम नहीं है। मूल प्रकृति त्रयगुणमयी होते हुए भी उसकी प्रथमावस्था सम अवस्था में है। रज, सत्त्व, तम; तीनों बराबर रहने से कुछ बनता नहीं है। जबतक किसी की शक्ति में कमी वा बेशी नहीं, तबतक तीनों में सम शक्ति है। इसलिए तबतक मूल रूप में कोई हलचल नहीं। जैसे तीन पुरुष बराबर जोरवाले हों और एक रस्सी में तीन छोर हों, तीनों पुरुष एक-एक छोर लेकर खींचे, तो कोई हलचल नहीं होगी।
‘मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ’-जब ईश्वर की यह मौज होती है, तब उस प्रकृति में उनकी मौज-रूपी वेग से उसके जिस भाग में ठोकर लगी, उस भाग में स्थित त्रयगुण में से किसी में उत्कर्ष तथा किसी में अपकर्ष हुआ। और वह भाग कम्पित हो गया, यह कम्पित भाग कारण-रूप है, जिससे अनेक पिण्ड-ब्रह्माण्ड बनते हैं। कुम्हार संसार से मिट्टी लेकर वर्तन बनाता है, किंतु संसार की मिट्टी का अंत नहीं होता। आशय यह है कि अनेक पिण्ड-ब्रह्माण्ड बनते रहने पर भी साम्यावस्था- धारिणी मूल प्रकृति का सम्पूर्ण मण्डल कारण और कार्य-रूप नहीं बना है। बल्कि कारण और कार्य-रूप बनने से वह कितनी अधिक बची हुई है, इसकी माप कोई बतला नहीं सकता, यही महाकारण है। उस कम्पित भाग से जो कुछ बना, वह सूक्ष्म है, उससे फिर यह स्थूल, जो हमलोगों का शरीर है। इन चारों से जो छूट जाता है, वह मोक्ष प्राप्त करता है।
शरीर के जितने तल हैं, संसार के भी उतने ही तल हैं। जाग्रत् अवस्था में शरीर के जिस तल पर रहते हैं या काम करते हैं, संसार के भी उसी तल पर रहते हैं या काम करते हैं। जाग्रत् अवस्था से स्वप्नावस्था में जाते हैं। इन दोनों अवस्थाओं के बीच में तन्द्रावस्था होती है। उस समय क्या होता है? बाहरी बातों को भूलते जाते हैं; हाथ-पैर कमजोर होने लगते हैं, इनकी शक्ति भीतर की ओर खि्ांचती जाती है, शरीर का ख्याल भूलते जाते हैं, संसार से भी बेखबर होते जाते हैं। इससे मालूम होता है कि स्थूल शरीर के स्थूल तल से दूसरे तल पर चले जाते हैं। इसलिए स्थूल संसार के भी स्थूल तल को छोड़कर दूसरे तल पर जाते हैं। इसलिए शरीर के सब तलों को जो पार करें, तो ब्रह्माण्ड के भी सब तलों को पार कर लेंगे। जिसने पिण्ड को जीता, उसने ब्रह्माण्ड को भी जीता। पिण्ड से तबतक नहीं छूटता, जबतक कि ‘मैं सुखी हूँ, दुखी हूँ, कर्त्ता हूँ, भोगता हूँ’-यह न छूटे। जाग्रत् या स्वप्न में यह नहीं छूटता। नशे में-क्लोरोफॉर्म में यह थोड़ी देर के लिए नहीं जानता, किन्तु कुछ देर के बाद जानता है। ‘मैं कर्त्ता हूँ, भोक्ता हूँ, सुखी हूँ, दुःखी हूँ’-यह जाग्रत् तथा स्वप्न-दोनों अवस्थाओं में होता है। सुषुप्ति में यह नहीं होता, परन्तु जगने पर कहता है-‘मैं आज खूब सुख से सोया।’ सुषुप्ति में ऐसा नहीं कह सकता। ऐसा क्यों होता है? तीन अवस्थाओं में तीन प्रकार का बोध क्यों होता है? तीन अवस्थाओं में तीन स्थानों में रहते हैं। स्थान-भेद से अवस्था-भेद होता है, अवस्था-भेद से ज्ञान-भेद होता है।
इस तन में मन कहँ बसै, निकसि जाय केहि ठौर।
गुरुगम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और।।
नैनों माहीं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर।
सतगुरु भेद बताइया, सब सन्तन्ह सिरमौर।। -कबीर साहब
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत्।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूधि्र्न संस्थितम्।। -ब्रह्मोपनिषद्
तीनों अवस्थाओं से ऊपर जाय, तब ‘मैं सुखी हूँ, दुःखी हूँ, कर्त्ता हूँ, भोक्ता हूँ’ मिट जायगा। जाग्रत् से स्वप्न और स्वप्न से सुषुप्ति में जाना यह स्वाभाविक है। किन्तु इन तीनों से ऊपर जाने के लिए साधन करें। ख्यालों को छोड़ना, यही यत्न है। ध्यान में ख्यालों को छोड़ते हैं। प्रत्याहार से ख्यालों को भगाते हैं। ख्याल आता है और उसे भगाते हैं। इस युद्ध में जो हार गया, वह पस्त हो जायगा तथा कायर कहलावेगा; किन्तु इस लड़ाई में जो जीत जायगा, वही शूर कहलावेगा।
शूर संग्राम को देख भागै नहीं, देख भागै सोइ शूर नाहीं।
काम औ क्रोध मद लोभ से जूझना, मँड़ा घमसान तहँ खेत माहीं।।
साँच औ शील सन्तोष शाही भये, नाम शमशेर तहँ खूब बाजै।
कहै कबीर कोइ जूझिहै शूरमा, कायराँ भीड़ तहँ तुरत भाजै।’
‘साध संग्राम तो विकट बेड़ा मती, सती और शूर की खेल आगे।
शूर संग्राम है पलक दो चार का, सती संग्राम पल एक लागे।। साध संग्राम है रैन दिन जूझना, जन्म पर्यन्त का काम भाई।
कहै कबीर टुक बाग ढ़ीली करै, उलटि मन गगन सों जमीं आई।।’ - कबीर साहब
यह युद्ध करना होगा। यह पुरुष के प्रयत्न से साधित होगा। जैसे पुत्रकामी व्यक्ति पुत्रेष्टि-यज्ञ द्वारा पुत्र, धनार्थी व्यक्ति वाणिज्यादि द्वारा धन तथा स्वर्गकामी मनुष्य ज्योतिष्टोम यज्ञ द्वारा स्वर्ग-लाभ करते हैं, वैसे ही पुरुष के प्रयत्न से साधन-द्वारा वेदान्त श्रवणादि जनित समाधि से जीवन्मुक्त्यादि लाभ होते हैं।
लोग धन-पुत्रादि से ऊब जाते हैं। किसी को धन है, तो पुत्र नहीं, पुत्र है तो धन नहीं। शान्ति किसी को नहीं मिलती। अपने जीवन-काल में यज्ञ करके अथवा लोगों के कहे अनुसार श्राद्ध-क्रिया से स्वर्ग चले जायँ, तो क्या लाभ होगा? वहाँ भी सुख नहीं। यहाँ के समान ही वहाँ भी छोटे-बड़े होते हैं। काम-क्रोधादिक विकार वहाँ भी उत्पन्न होते हैं तथा दूसरे से ईर्ष्या होती है आदि। फिर पुण्य क्षीण होने पर वहाँ से वापस होना पड़ता है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी अपनी रामायण में लिखते हैं-
‘एहि तन कर फल विषय न भाई।
स्वरगउ स्वल्प अन्त दुखदाई।।’
‘नर तन दुर्लभ देव को,सब कोई कहै पुकार।।
सब कोइ कहै पुकार, देव देही नहिं पावै।
ऐसे मूरख लोग, स्वर्ग की आस लगावै।।
पुण्य क्षीण सोइ देव,स्वर्ग से नरक में आवै।
भरमै चारिउ खानि, पुण्य कहि ताहि रिझावै।।
तुलसी सतमत तत गहे, स्वर्ग पर करे खखार।
नर तन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहै पुकार।।’ - तुलसी साहब, हाथरसवाले
स्वर्ग या बहिश्त कहीं भी जाओ, विषय-सुख ही है। इसलिए सूफी लोग बताते हैं-मुक्ति ( नजात ) को प्राप्त करो। स्वर्ग के राजा को भी विषय-सुख से तृप्ति नहीं। उस राजा के गुरु बृहस्पति को भी विषय से तृप्ति नहीं हुई, ऐसी कहानी है। वहाँ भी काम-क्रोधादि विकार सब-के-सब रहते हैं। अन्तर यह कि वहाँ विषय-सुख अल्पायास में प्राप्त होते हैं। विषयानन्द से कोई तृप्त नहीं हुआ, होने की संभावना भी नहीं। इसलिए नित्यानंद को, जो सदा एक-सा रहे, प्राप्त करे। इसलिए मुक्ति का प्रयोजन है। मुक्ति जीवात्मा की होगी, जब यह अकेले होकर रहे, जब केवल अपने आप ही रहे। जहाँ इन्द्रियाँ नहीं हैं, वहीं आत्म-स्वरूप की प्राप्ति होती है, जो निर्विषय है। इसी में नित्यानन्द है, इसी के लिए मोक्ष का प्रयोजन है। शरीर छूटने पर मुक्ति होगी, ऐसा नहीं। पहले जीवन्मुक्ति होगी, पीछे विदेहमुक्ति।
जीवन मुक्त सो मुक्ता हो।
जब लग जीवन मुक्ता नाहीं, तब लग दुख सुख भुक्ता हो।। - कबीर साहब
जीवत छूटै देह गुण, जीवत मुक्ता होय।
जीवत काटे कर्म सब, मुक्ति कहावै सोय।। - दादू साहब
शरीर के साथ मोक्ष-जीवन्मुक्त-दशा है, शरीर छूटने पर विदेहमुक्ति है। मोक्ष पाने का साधन करें वा परमात्मा को प्राप्त करने का साधन करें, दोनों एक ही बात है। स्थूल-सूक्ष्मादि सब आवरणों से जहाँ छूटे, वहीं मुक्ति है।
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई ।
कोटि भाँति कोउ करइ उपाई ।।
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई ।
रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ।। - गोस्वामी तुलसीदासजी
भक्ति को छोड़कर मुक्ति अलग नहीं रह सकती।
राकापति षोड़स उअहिं, तारागन समुदाय ।
सकल गिरिन्ह दब लाइय,बिनु रबि राति न जाय ।।
ऐसेहि बिनु हरि भजन खगेसा।
मिटहिं न जीवन केर कलेसा ।।
श्रवण-ज्ञान के बाद मनन-ज्ञान, फिर निदिध्यास- ज्ञान और तब अनुभव-ज्ञान। श्रवण-ज्ञानकहते हैं- सुनने को। मनन-ज्ञान कहते हैं-सुने हुए विषयों को विचारने को। निदिध्यास-ज्ञान कहते हैं-सुने तथा विचारे हुए विषय को अमल में लाने को अर्थात् उसकी प्राप्ति के लिए यत्न करने को तथा अनुभव-ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान को कहते हैं, जिसके बाद और ज्ञान नहीं है। श्रवन-ज्ञान अग्नि के समान है, जो मायारूपी जल के बरसने पर बुत जाय। मनन-ज्ञान बिजली के समान है, यह जल से तो नहीं बुझता, किन्तु यह चंचल है, इसमें स्थिरता नहीं है। निदिध्यास-ज्ञान बड़वानल के समान है। बड़वानल समुद्र में रहता है, समुद्र को मर्यादित रखता है, किन्तु समुद्र के समस्त जल का शोषण नहीं कर सकता। उसी प्रकार निदिध्यास-ज्ञान माया को मर्यादित रखता है; किन्तु इससे सम्पूर्ण माया का नाश नहीं होता। अनुभव-ज्ञान महाप्रलय की अग्नि के समान है, वह द्वैत-प्रपंच अर्थात् माया को जलाकर भस्म कर देता है। अनुभव-ज्ञान पूर्ण समाधि में प्राप्त होता है। तुरीयावस्था से परे अर्थात् तुरीयातीतावस्था में जहाँ ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय-त्रिपुटी का लय है, वहाँ पूर्ण समाधि है। यह अवस्था प्राप्त करनेवाले पुरुष की सदा सहज समाधि-अवस्था बनी रहती है।
साधो सहज समाधि भली।
गुरु प्रताप जा दिन से जागी, दिन दिन अधिक चली ।।
जहँ जहँ डोलौं सो परिकरमा, जो कुछ करौं सो सेवा ।
जब सोवौं तब करौं दण्डवत, पूजौं और न देवा ।।
कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खावँ पियौं सो पूजा ।
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा ।।
आँख न मूँदौं कान न रूँधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
खुले नयन पहिचानौं हँसि-हँसि, सुन्दर रूप निहारौं ।।
शब्द निरंतर से मन लागा, मलिन वासना भागी ।
ऊठत बैठत कबहुँ न छूटै, ऐसी ताड़ी लागी ।।
कहै कबीर यह उनमुनि रहनी, सो परगट कर गाई ।
दुख सुख से कोइ परे परम पद, तेहि पद रहा समाई ।।
यही अपरोक्ष ज्ञान है, यही अनुभव ज्ञान है, इसी से तृप्ति हो सकती है। इसके अतिरिक्त कितनाहू पढ़े-लिखे, बके-व्याख्यान दे; किन्तु यह अवस्था नहीं आ सकती।
चित्तवृत्तियों के या ख्यालों के रोकने के विषय में अब विशेष प्रकाश डाला जाता है।
द्वे बीजे चित्तवृक्षस्य प्राणस्पन्दनवासने।
एकस्मिंश्च तयोः क्षीणे क्षिप्रं द्वे अपि नश्यतः।।
अर्थ-चित्तरूपी वृक्ष के दो बीज हैं-प्राणस्पन्दन और वासना। इन दोनों में से एक के क्षीण हो जाने से दोनों ही नाश को प्राप्त होते हैं।
व्याख्या-जैसे एक बीज में दो दालें होती हैं, उसी प्रकार चित्त के बीज की दो दालें- प्राण-स्पन्दन और वासना हैं। इसमें एक तो प्राण, दूसरा प्राणवायु-दो बातें हैं। फेफड़े में संकोचन-विकासन होता है, इसी से श्वास-प्रश्वास की क्रिया होती है। संकोचन- विकासन की जो शक्ति है, वह प्राण है। चेतन-शक्ति ही प्राण है। फेफड़े से इसको विशेष संबंध है। जिस वायु को प्राण से सम्बन्ध हो, उसे प्राणवायु कहते हैं। यहाँ प्राण-स्पन्दन को बन्द करने के लिए कहा गया है, यह कैसे होगा? किसी हिलती हुई चीज पर आप बैठिये, अगर आपमें विशेष शक्ति नहीं रही, तो आप भी हिलिएगा, किन्तु आपमें विशेष शक्ति हो, तो हिलती हुई चीज को भी आप बैठा देंगे। इसी प्रकार वायु का हिलना बन्द हो सकता है-रुक सकता है। वायु को सम रखना अर्थात् सुषुम्ना में वायु रखना। जो श्वास को नासापुट के भीतर रखता है, तो उसको ध्यान अच्छा लगता है। प्राण को सम करने में रेचक-पूरकादि जो क्रियाएँ की जाती हैं, वे अगर विहित रूप से की जायँ, तब तो ठीक है, नहीं तो-
यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः शनैः।
तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम्।। -शाण्डिल्योपनिषद्
अर्थात् जैसे सिंह, हाथी और बाघ धीरे-धीरे काबू में आते हैं, उसी तरह प्राणायाम (वायु का अभ्यास कर वश में करना) भी किया जाता है, प्रकारान्तर होने से वह अभ्यासी को मार डालता है।
दूसरी बात केवल ध्यानाभ्यास से प्राणस्पन्दन का निरोध हो जायगा। वासना आती है, हटाते हैं। चित्तवृत्ति भागती है, उसको सँभाल-सँभालकर स्थिर रखते हैं। यही बारम्बार की जो कोशिश होती है, इसी को प्रत्याहार कहते हैं। इसी को बारम्बार करते-करते कुछ-न-कुछ काल अवश्य ठहरेगा, यह धारणा होगी तथा जब धारणा देर तक रहेगी, वही असली ध्यान होगा। यह ध्यानाभ्यास निरापद है, किन्तु प्राणायाम सापद है। किसी बात को मन लगाकर सोचिए, तो साँस की गति मन्द पड़ जाती है। कोई चंचल काम करने पर, काम-क्रोधादिक से उत्तेजित होने पर श्वास की गति तीव्र हो जाती है। मन की स्थिरता में श्वास भी स्थिर होता है। मन को कितनी दूरी पर स्थिर करने से प्राण की गति रुकती है, यह भी लिखा है-
द्वादशांगुल पर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे।
संविद्दृशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पन्दो निरुध्यते।। -शाण्डिल्योपनिषद्
अर्थात्-जब ज्ञान-दृष्टि (सुरत-चेतनवृत्ति) नासाग्र से बारह अंगुल पर स्वच्छ आकाश में स्थिर हो, तो प्राण का स्पन्दन रुद्ध हो जाता है।
इन दोनों (प्राणस्पन्दन बन्द करने तथा वासना- परित्याग करने) में जो अच्छा लगे, कीजिए। अगर आपदा से लड़ना-झगड़ना है, तो प्राणायाम कीजिये, अगर लड़ना-झगड़ना नहीं है, तो ध्यानाभ्यास कीजिए।
अवासनत्वात्सततं यदा न मनुते मनः।
अमनस्ता तदोदेति परमोपशमप्रदा।।
अर्थात्-मन जब वासना-विहीन होकर विषय को ग्रहण नहीं करता है, तब मन का अस्तित्व नष्ट हो जाता है और परम शान्ति का उदय होता है।
व्याख्या- संकल्प-विकल्पकारक ही मन है। जब मन गल गया या लीन हो गया, तो शान्ति किसने भोगी? वह पदार्थ जो मन से परे है, मन जिसे जान नहीं सकता। आप मन से परे हैं, आपको स्वयं वह शान्ति प्राप्त होगी।
मन बुद्धि चित हंकार की, है त्रिकुटी लग दौड़ ।
जन दरिया इनके परे, ब्रह्म सुरत की ठौर ।। -दरिया साहब, मारवाड़ी
सहस कँवल दल पार में, मन बुद्धि हिराना हो ।
प्रान पुरुष आगे चले, सोइ करत बखाना हो ।। -तुलसी साहब, हाथरसवाले
एकतत्त्व दृढाभ्यासाद्यावन्न विजितं मनः।
प्रक्षीणचित्त दर्पस्य निगृहीतेन्द्रियद्विषः।
पद्मिन्य इव हेमन्ते क्षीयन्ते भोगवासनाः।।
अर्थ- जबतक मन नहीं जीता गया हो, एकतत्त्व के दृढ़ अभ्यास से चित्त-अहंकार को पूर्ण रूप से नष्ट करके इन्द्रिय-शत्रु का निग्रह करना। ऐसा होने से ही हेमन्तकाल के कमल-सदृश भोग-वासना का नाश हो जायगा।
व्याख्या- एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास; वह एक तत्त्व क्या है? चाहे कोई प्राणायाम करें अथवा ध्यानाभ्यास करें; दोनों क्रियाओं में जप अनिवार्य रूप से करना ही पड़ता है, क्योंकि यह आरम्भिक क्रिया है। इस जप से मन कुछ समेट में आता है। जप के लिए बहुत छोटा शब्द हो। शब्द जितना छोटा होगा, उतना ही सिमटाव होगा और जितना बड़ा शब्द होगा, उतना ही फैलाव होगा। तन्त्र में एकाक्षर का ही जप करने का आदेश है और वेद में भी वही एक अक्षर। कबीर साहब कहते हैं-
पढ़ो रे मन ओ ना मा सी धं ।
अर्थात् ‘ॐ नमः सिद्धम्।’ तात्पर्य यह कि सृष्टि इसी ‘ॐ’ से है। शब्द से सृष्टि हुई है। यह (ॐ) त्रैमात्रिक है, इसीलिए इस प्रकार भी ‘ओ3म्’ लिखते हैं। इसको इतना पवित्र और उत्तम माना गया कि इस शब्द के बोलने का अधिकार अमुक वर्ण को ही होगा, अमुक वर्ण को नहीं। इतना प्रतिबन्ध लगाया गया कि बड़े ही कहेंगे। सन्तों ने कहा, कौन लड़े-झगड़े; ‘सतनाम’ ही कहो, ‘रामनाम’ ही कहो, आदि। बाबा नानक ने ‘ॐ’ का मन्त्र ही पढ़ाया-
1ॐ सतिगुरु प्रसादि।
और कहा- चहु वरणा को दे उपदेश ।
यह ईश्वरी शब्द है; किन्तु हमलोग इसका जैसा उच्चारण करते हैं, वैसा यह शब्द सुनने में आवे, ऐसा नहीं। यह तो आरोप किया हुआ शब्द है, जिसके मत में जैसा आरोप होता है। जैसे- पंडुक अपनी बोली में बोलता है, किन्तु कोई उस
‘कुकुम कुम’ और कोई उसी शब्द को ‘एके तुम’ आरोपित करता है।
किन्तु यथार्थतः इस (ओ3म्) को लौकिक भाषा में नहीं ला सकते, यह तो अलौकिक शब्द है। इस अलौकिक शब्द को लौकिक भाषा में प्रकट करने के लिए सन्तों ने ‘ॐ’ कहा। क्योंकि जिस प्रकार वह अलौकिक ॐ सर्वव्यापक है, उसी प्रकार यह लौकिक ‘ॐ’ भी शरीर के सब उच्चारण-स्थानों को भरकर उच्चरित होता है। इस प्रकार का कोई दूसरा शब्द नहीं है, जो उच्चारण के सब स्थानों को भरकर उच्चरित हो सके। इसी शब्द का वर्णन सन्त कबीर साहब इस प्रकार करते हैं-
आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह।
परसत ही कंचन भया, छूटा बन्धन मोह।।
शब्द शब्द सब कोइ कहै, वो तो शब्द विदेह।
जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि देह।।
शब्द शब्द बहु अन्तरा, सार शब्द चित देय।
जा शब्दै साहब मिलै, सोइ शब्द गहि लेय ।।
आदिनाम वा शब्द सर्वव्यापक है। इसी प्रकार एक शब्द लो, जो उच्चारण के सब स्थानों को भरपूर करे, तो संतों ने उसी को ‘ॐ’ कहा तथा इसी शब्द से उस आदि शब्द ॐ का इशारा किया। यह जो वर्णात्मक ओ3म् है, जिसका मुँह से उच्चारण करते हैं, यह वाचक है तथा इस शब्द से जिसके लिए कहते हैं, वह वाच्य है तथा उस परमात्मा के लिए वह भी वाचक है तथा परमात्मा वाच्य है। तो इस एक शब्द का दृढ़ अभ्यास, एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास करना है।
पहले वर्णन हो चुका है कि जप में जो शब्द जितना छोटा होता है, उससे उतना ही विशेष सिमटाव होता है। इसलिए किसी एक छोटे शब्द का जप करो। फिर जप छोड़कर स्थूल ध्यान कीजिए। स्थूल-ध्यान वह, जिसमें आपकी पूर्ण श्रद्धा हो। यह एक शब्द का जपना तथा एक रूप का ध्यान करना भी एक तत्त्व का अभ्यास करना है। किन्तु जब आप सोचिएगा, तो मालूम होगा कि इस एक रूप में भी अंग-प्रत्यंग हैं, तो अंग-प्रत्यंग होने के कारण इसमें भी पूर्ण सिमटाव नहीं होगा, फैलाव ही रहेगा। इसलिए इससे आगे कुछ दूसरा और होना चाहिए, जिसमें फैलाव न होकर पूर्ण सिमटाव हो। इसके लिए कबीर साहब ने कहा-
शून्य ध्यान सबके मन माना। तुम बैठो आतम असथाना।।
श्रीमद्भागवत स्कन्ध 11 में भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव से कहा है- ‘सब ओर फैले हुए चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थिर करे और फिर अन्य अंगों का चिन्तन न करता हुआ केवल मेरे मुस्कान-युक्त मुख का ही ध्यान करे। मुखारविन्द में चित्त के स्थिर हो जाने पर उसे वहाँ से हटाकर आकाश में स्थिर करे। शून्य-ध्यान किसे कहते हैं? शून्य में भी एक जगह होनी चाहिए। वह ऐसा विलक्षण स्थान है, जिसका स्थान तो है, किन्तु परिमाण नहीं। वह क्या है ? विन्दु। स्थूल में उसको र्चिैंत नहीं कर सकते। अपने को जब कोई उस स्थान पर रखेगा, जिसका स्थान है, परिमाण नहीं, तब वहाँ पर पूर्ण सिमटाव होगा। यही एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास है।
इसमें हेमन्त-काल के कमल-पत्रवत् भोग- वासना का नाश हो जाएगा। जप और स्थूल रूप- ध्यान, स्थूल साधन है। इसका अभ्यास करके तब सूक्ष्म ध्यान करे; क्योंकि मोटे अक्षर के लिखे बिना बारीक अक्षर नहीं लिख सकते।
चित्तैकाग्रयाद्यतो ज्ञानमुक्तं समुपजायते।
तत्साधनमथो ध्यानं यथावदुपदिश्यते।।
अर्थ-ध्यान का कारण, जिससे ज्ञान तथा मुक्ति उपजती है, मन की एकविन्दुता (चित्त की एकाग्रता) है। अब तुमको जना दिया गया।
व्याख्या-ध्यान से ज्ञान तथा ज्ञान से शान्ति उपजती है। यह ध्यान एक विन्दु का ध्यान है। एकविन्दुता होने से मन का हिल-डोल बन्द हो जायगा। यहाँ पूर्ण सिमटाव होगा। यह क्रिया कैसे होगी? दो रेखाओं के मिलन पर एक विन्दु होता है। अपनी आँखों की दोनों धाराओं को एक बनाइये। दृष्टि का बहुत संकोचन होना चाहिए। एक फैली हुई दृष्टि होती है, जिसका व्यवहार हमलोग बराबर करते हैं तथा इसका फल भी देखते हैं। दूसरी सिमटी हुई दृष्टि होती है। सिमटी हुई दृष्टि वह है-जिस चीज को देखना चाहें, केवल वही अवलोकित हो, दूसरी चीज नहीं। यह असली देखना या सिमटी हुई दृष्टि है, जैसे तीर तथा बन्दूक का निशाना करनेवाला लक्ष्य वस्तु के अतिरिक्त और कुछ नहीं देखता। एक बार आचार्य द्रोण कौरवों तथा पाण्डवों को संग लेकर वन में भ्रमण करने के लिए निकले। द्रोण ने वृक्ष पर बैठी हुई चिड़िया की आरे संकेत कर अर्जुन के अतिरिक्त सब भाइयों को लक्ष्य वस्तु पर निशाना करने कहा। बारी-बारी से लक्ष्य करते समय द्रोण उन सबसे पूछते जाते थे-‘कहो, क्या देखते हो?’ एक ने कहा-‘वृक्ष, डालियाँ तथा पत्तां सहित चिड़िया।’ आचार्य ने उसे हटाकर दूसरे से पूछा-‘तुम क्या देखते हो?’ दूसरे ने उत्तर दिया-‘डालों के सहित पक्षी को।’ एवं प्रकार से एक-एक करके सबसे पूछते गये; किन्तु किसी ने ठीक उत्तर नहीं दिया। और अन्त में अर्जुन को लक्ष्य पर निशाना करने कहा और पूछा-‘तुम क्या देखते हो?’ उन्होंने उत्तर दिया- ‘मैं केवल चिड़िया को देख रहा हूँ, इसके अतिरिक्त और कुछ नजर नहीं आता।’ आचार्य ने कहा- ‘तुम्हारा निशाना ठीक है।’ निशाना इसी प्रकार होना चाहिए।
उपर्युक्त घटना के पहले ही एक बार द्रोण ने स्वयं अपने निशाने का परिचय दिया था। एक बार कौरव तथा पाण्डव सब भाई मिलकर गेंद खेल रहे थे। संयोगवश गेंद कुएँ में गिर पड़ा। अब इन लोगों को कुएँ से गेंद निकालने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। उसी समय द्रोण उसी होकर वहाँ आ निकले। इन लोगों ने उनसे गेंद निकाल देने की प्रार्थना की। द्रोण ने एक सींकी से गेंद में मारा। पुनः सींकी के पेंदे में दूसरी सींकी से, एवं प्रकार सींकी के पेंदे को सींकी से छेदते हुए कुएँ के ऊपर तक सींकी का छोर लगा लिया और गेंद को निकालकर उन लोगों को दे दिया।
सींकी के पेंदे में सींकी मारना दृष्टि को कितना महीन करना है? इनकी दृष्टि कितनी सिमटी हुई थी? अपनी दृष्टि को इस प्रकार सूक्ष्म बनाओ। इतना कह देने पर भी गुरु के संकेत की आवश्यकता रह जाती है। ‘कहै कबीर चरण चित राखो, ज्यों सूई में डोरा रे।’
एकविन्दुता से पूर्ण सिमटाव होगा, इससे ऊर्ध्वगति होगी, ऊर्ध्वगति में एक तल से दूसरे तल पर की गति होगी। इस तरह मायिक सब आवरणों के पार होना हो सकेगा। कैवल्य प्राप्त होगा, ईश्वर-दर्शन होगा। जैसे आँख की पट्टी खोले बिना कोई चीज नहीं देख सकते, उसी प्रकार शरीर और माया की पट्टी उतारे बिना परमात्मा का दर्शन नहीं हो सकता।
इस माया की पट्टी अथवा चश्में को उतारने के लिए शारीरिक श्रम की आवश्यकता नहीं, यह कोई कठिन कार्य नहीं, इसके लिए चाहे पलँग पर बैठकर या जमीन पर बैठकर किसी प्रकार भी अभ्यास कर सकते हैं। इसमें घर-वार छोड़ने की आवश्यकता नहीं। कोई घर के काम-धन्धों को छोड़कर केवल इसी को करे, तो नहीं होगा; क्योंकि मन उतना समेटा हुआ नहीं है कि हर समय इसी को करता रहेगा। इसलिए घर-गृहस्थी के कामों को करते हुए भजन करे। सदाचारी बने अर्थात् व्यभिचार, चोरी, नशा, हिंसा और झूठ; इन पाँच पापों से अपने को पृथक् रखे। अपने को इन पापों से बचावे। एक ईश्वर पर विश्वास करे।
मोर दास कहाइ नर आसा। करई तो कहहु कहा बिस्वासा।।
-ऐसा नहीं होना चाहिए। उनकी (परमात्मा की) प्राप्ति अपने अन्दर में होगी, बाहर में नहीं; यह दृढ़ निश्चय रखना चाहिए। बाहर में इन्द्रियगम्य पदार्थ है। अन्दर में इन्द्रियगम्य पदार्थ नहीं है। आँख का विषय रूप है। इससे शब्द-ग्रहण करना चाहे, तो नहीं हो सकता है। जिस इन्द्रिय का जो विषय है, वह उसी को ग्रहण करेगी। उसी प्रकार परमात्मा इन्द्रियगम्य पदार्थ नहीं है, आत्मगम्य है। इसलिए ईश्वर-भजन करने का ऐसा यत्न होना चाहिए कि कैवल्य दशा प्राप्त कर ले, फिर उसे कहीं खोजना नहीं होगा, वह तो प्राप्त ही है। सत्संग के द्वारा कर्म में प्रेरणा होती है, इसलिए सत्संग नित्य करना चाहिए। गुरु की सेवा करनी चाहिए; क्योंकि इसके बिना अध्यात्म-पथ में चलना असम्भव है। किन्तु गुरु होना चाहिए, गोरू (गाय, बैल) नहीं। जो सन्मार्ग पर चलता हो, जिस ज्ञान का उपदेश करता हो, उसके मुताबिक चलता हो। अगर ज्ञानोपदेश के मुताबिक चलता नहीं है, तो वह नीचे गिर जाता है, उसके संग से अच्छा रंग नहीं लगेगा। नित्य ध्यानाभ्यास करना चाहिए। ये पाँच विधि कर्म हैं। इन्हें नित्य करना चाहिए।
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यह प्रवचन श्रीरामचन्द्रजी अष्ठाना, (के निवास पर) ग्राम-तारवा, पो0-शाहगंज, उत्तरप्रदेश में दिनांक 17.1.1951 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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