05. मुक्ति और उसकी साधना

प्यारे धर्मप्रेमी सज्जनो!
मुक्ति का अर्थ है- छूट जाना। किससे छूट जाना? शरीर और संसार से। जब शरीर और संसार से छूटा जाय, तब मुक्ति है। शरीर और संसार का आपस में बड़ा संबंध है। जितने तत्त्वों से संसार बना है, उतने ही तत्त्वों से शरीर भी बना है। तत्त्वों के स्थूल-सूक्ष्म भेद से जितने ही शरीर के तल हैं, संसार के भी उतने ही तल हैं। शरीर को पिण्ड तथा संसार को ब्रह्माण्ड कहते हैं। शरीर के जिस तल पर जब जो रहता है, संसार के भी उसी तल पर तब वह रहता है। शरीर (पिण्ड) के जिस तल को जब जो छोड़ता है, संसार (ब्रह्माण्ड) के भी उसी तल को तब वह छोड़ता है। इससे यह जानने में आता है कि अगर शरीर के सब तलों को कोई छोड़े, तो संसार के भी सब तलों को वह छोड़ेगा।
लोग अगर समझे कि मरने पर शरीर से छूटता है और संसार से भी छूट जाता है, तो जानना चाहिए कि इस साधारण मृत्यु से किसी की मुक्ति नहीं होती। यह एक स्थूल देह देखने में आती है, किन्तु इसके भीतर तीन और शरीर हैं, जिन्हें सूक्ष्म, कारण तथा महाकारण शरीर कहते हैं। ये चारो शरीर जड़ हैं। इनके भीतर भी एक और शरीर है, जिसको चेतन शरीर कहते हैं। कबीर साहब तो छह प्रकार के शरीर मानते हैं, जैसे उनके इस शब्द से ज्ञात होता है-
साधो ! षट प्रकार की देही।
स्थूल सूक्ष्म कारण महाकारण कैवल्य हंस की लेही।।
अर्थात् वे छठा शरीर हंस का मानते हैं। किन्तु चारो शरीरों से छूट जाय, तो जड़ावरण से छूट जाता है। साधारण मृत्यु में केवल एक स्थूल शरीर छूटता है, किन्तु इसके अन्दर में तीन और जड़ शरीर रह जाते हैं, जिससे फिर स्थूल शरीर हो जाता है। जैसे वृक्ष के कट जाने पर अगर जड़ मजबूत है, तो पुनः वृक्ष उग आता है। कैसे विश्वास करें कि पाँच शरीर हैं? हम देखते हैं कि यह स्थूल शरीर है। किन्तु किसी भी स्थूल का बनना तबतक सम्भव नहीं है, जबतक सूक्ष्म न हो अर्थात् बिना सूक्ष्म के स्थूल नहीं हो सकता है। और सूक्ष्म भी बिना कारण के नहीं हो सकता। इस घर में आपलोग हैं, यह स्थूल है, किन्तु यह स्थूल घर तबतक नहीं बना, जबतक कि इसका चित्र पहले मन में नहीं आता। पहले मन से बनता है, पीछे कागज पर नक्शा खींच लेते हैं, फिर घर बनता है। बिना कारण के कार्य नहीं होता, इसके बिना सूक्ष्म नहीं बनता। कारण भी एक ही हो तब तो? अनेक कारण हैं। इस तरह सब कारणों को एकत्र कर देखें, तो वही महाकारण कहलाता है। संसार में कारण उत्पन्न होते जाते हैं और घर बनते जाते हैं। एक बर्त्तन बनाने में जितनी मिट्टी लगती है, वह एक बर्त्तन का कारण है। सब बर्त्तनों के कारण वही नहीं है। एक बर्तन के कारणरूप मिट्टी से असंख्य बर्तनों के कारण अथवा सब बर्त्तनों के कारण की मिट्टी अवश्य ही अत्यन्त अधिक होगी। उसके अतिरिक्त समस्त भूमण्डल की मिट्टी, जो कार्यरूप होने से बची रहती है, कितनी अधिक है, जानने में आती है? यही महाकारण का स्वरूप है। महाकारण=त्रयगुणमयी साम्यावस्थाधारिणी मूल प्रकृति। कारण दो होते हैं-एक उपादान, दूसरा निमित्त कारण। कुम्हार निमित्त कारण है और मिट्टी उपादान कारण। सृष्टि का निमित्त कारण परमात्मा है। जिससे सृष्टि बनती है, उसे उपादान कारण कहते हैं, यह महाकारण है। साम्यावस्थाधारिणी कहने का अर्थ है- जिसमें उत्पादक शक्ति, पालक शक्ति तथा विनाशक शक्ति अर्थात् रजोगुण,सतोगुण तथा तमोगुण-ये तीनों शक्तियाँ समान हों। इन तीनों से खाली संसार का काम नहीं है। मूल प्रकृति त्रयगुणमयी होते हुए भी उसकी प्रथमावस्था सम अवस्था में है। रज, सत्त्व, तम; तीनों बराबर रहने से कुछ बनता नहीं है। जबतक किसी की शक्ति में कमी वा बेशी नहीं, तबतक तीनों में सम शक्ति है। इसलिए तबतक मूल रूप में कोई हलचल नहीं। जैसे तीन पुरुष बराबर जोरवाले हों और एक रस्सी में तीन छोर हों, तीनों पुरुष एक-एक छोर लेकर खींचे, तो कोई हलचल नहीं होगी।
‘मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ’-जब ईश्वर की यह मौज होती है, तब उस प्रकृति में उनकी मौज-रूपी वेग से उसके जिस भाग में ठोकर लगी, उस भाग में स्थित त्रयगुण में से किसी में उत्कर्ष तथा किसी में अपकर्ष हुआ। और वह भाग कम्पित हो गया, यह कम्पित भाग कारण-रूप है, जिससे अनेक पिण्ड-ब्रह्माण्ड बनते हैं। कुम्हार संसार से मिट्टी लेकर वर्तन बनाता है, किंतु संसार की मिट्टी का अंत नहीं होता। आशय यह है कि अनेक पिण्ड-ब्रह्माण्ड बनते रहने पर भी साम्यावस्था- धारिणी मूल प्रकृति का सम्पूर्ण मण्डल कारण और कार्य-रूप नहीं बना है। बल्कि कारण और कार्य-रूप बनने से वह कितनी अधिक बची हुई है, इसकी माप कोई बतला नहीं सकता, यही महाकारण है। उस कम्पित भाग से जो कुछ बना, वह सूक्ष्म है, उससे फिर यह स्थूल, जो हमलोगों का शरीर है। इन चारों से जो छूट जाता है, वह मोक्ष प्राप्त करता है।
शरीर के जितने तल हैं, संसार के भी उतने ही तल हैं। जाग्रत् अवस्था में शरीर के जिस तल पर रहते हैं या काम करते हैं, संसार के भी उसी तल पर रहते हैं या काम करते हैं। जाग्रत् अवस्था से स्वप्नावस्था में जाते हैं। इन दोनों अवस्थाओं के बीच में तन्द्रावस्था होती है। उस समय क्या होता है? बाहरी बातों को भूलते जाते हैं; हाथ-पैर कमजोर होने लगते हैं, इनकी शक्ति भीतर की ओर खि्ांचती जाती है, शरीर का ख्याल भूलते जाते हैं, संसार से भी बेखबर होते जाते हैं। इससे मालूम होता है कि स्थूल शरीर के स्थूल तल से दूसरे तल पर चले जाते हैं। इसलिए स्थूल संसार के भी स्थूल तल को छोड़कर दूसरे तल पर जाते हैं। इसलिए शरीर के सब तलों को जो पार करें, तो ब्रह्माण्ड के भी सब तलों को पार कर लेंगे। जिसने पिण्ड को जीता, उसने ब्रह्माण्ड को भी जीता। पिण्ड से तबतक नहीं छूटता, जबतक कि ‘मैं सुखी हूँ, दुखी हूँ, कर्त्ता हूँ, भोगता हूँ’-यह न छूटे। जाग्रत् या स्वप्न में यह नहीं छूटता। नशे में-क्लोरोफॉर्म में यह थोड़ी देर के लिए नहीं जानता, किन्तु कुछ देर के बाद जानता है। ‘मैं कर्त्ता हूँ, भोक्ता हूँ, सुखी हूँ, दुःखी हूँ’-यह जाग्रत् तथा स्वप्न-दोनों अवस्थाओं में होता है। सुषुप्ति में यह नहीं होता, परन्तु जगने पर कहता है-‘मैं आज खूब सुख से सोया।’ सुषुप्ति में ऐसा नहीं कह सकता। ऐसा क्यों होता है? तीन अवस्थाओं में तीन प्रकार का बोध क्यों होता है? तीन अवस्थाओं में तीन स्थानों में रहते हैं। स्थान-भेद से अवस्था-भेद होता है, अवस्था-भेद से ज्ञान-भेद होता है।
इस तन में मन कहँ बसै, निकसि जाय केहि ठौर।
गुरुगम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और।।
नैनों माहीं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर।
सतगुरु भेद बताइया, सब सन्तन्ह सिरमौर।। -कबीर साहब
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत्।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूधि्र्न संस्थितम्।। -ब्रह्मोपनिषद्
तीनों अवस्थाओं से ऊपर जाय, तब ‘मैं सुखी हूँ, दुःखी हूँ, कर्त्ता हूँ, भोक्ता हूँ’ मिट जायगा। जाग्रत् से स्वप्न और स्वप्न से सुषुप्ति में जाना यह स्वाभाविक है। किन्तु इन तीनों से ऊपर जाने के लिए साधन करें। ख्यालों को छोड़ना, यही यत्न है। ध्यान में ख्यालों को छोड़ते हैं। प्रत्याहार से ख्यालों को भगाते हैं। ख्याल आता है और उसे भगाते हैं। इस युद्ध में जो हार गया, वह पस्त हो जायगा तथा कायर कहलावेगा; किन्तु इस लड़ाई में जो जीत जायगा, वही शूर कहलावेगा।
शूर संग्राम को देख भागै नहीं, देख भागै सोइ शूर नाहीं।
काम औ क्रोध मद लोभ से जूझना, मँड़ा घमसान तहँ खेत माहीं।।
साँच औ शील सन्तोष शाही भये, नाम शमशेर तहँ खूब बाजै।
कहै कबीर कोइ जूझिहै शूरमा, कायराँ भीड़ तहँ तुरत भाजै।’
‘साध संग्राम तो विकट बेड़ा मती, सती और शूर की खेल आगे।
शूर संग्राम है पलक दो चार का, सती संग्राम पल एक लागे।। साध संग्राम है रैन दिन जूझना, जन्म पर्यन्त का काम भाई।
कहै कबीर टुक बाग ढ़ीली करै, उलटि मन गगन सों जमीं आई।।’ - कबीर साहब
यह युद्ध करना होगा। यह पुरुष के प्रयत्न से साधित होगा। जैसे पुत्रकामी व्यक्ति पुत्रेष्टि-यज्ञ द्वारा पुत्र, धनार्थी व्यक्ति वाणिज्यादि द्वारा धन तथा स्वर्गकामी मनुष्य ज्योतिष्टोम यज्ञ द्वारा स्वर्ग-लाभ करते हैं, वैसे ही पुरुष के प्रयत्न से साधन-द्वारा वेदान्त श्रवणादि जनित समाधि से जीवन्मुक्त्यादि लाभ होते हैं।
लोग धन-पुत्रादि से ऊब जाते हैं। किसी को धन है, तो पुत्र नहीं, पुत्र है तो धन नहीं। शान्ति किसी को नहीं मिलती। अपने जीवन-काल में यज्ञ करके अथवा लोगों के कहे अनुसार श्राद्ध-क्रिया से स्वर्ग चले जायँ, तो क्या लाभ होगा? वहाँ भी सुख नहीं। यहाँ के समान ही वहाँ भी छोटे-बड़े होते हैं। काम-क्रोधादिक विकार वहाँ भी उत्पन्न होते हैं तथा दूसरे से ईर्ष्या होती है आदि। फिर पुण्य क्षीण होने पर वहाँ से वापस होना पड़ता है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदासजी अपनी रामायण में लिखते हैं-
‘एहि तन कर फल विषय न भाई।
स्वरगउ स्वल्प अन्त दुखदाई।।’
‘नर तन दुर्लभ देव को,सब कोई कहै पुकार।।
सब कोइ कहै पुकार, देव देही नहिं पावै।
ऐसे मूरख लोग, स्वर्ग की आस लगावै।।
पुण्य क्षीण सोइ देव,स्वर्ग से नरक में आवै।
भरमै चारिउ खानि, पुण्य कहि ताहि रिझावै।।
तुलसी सतमत तत गहे, स्वर्ग पर करे खखार।
नर तन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहै पुकार।।’ - तुलसी साहब, हाथरसवाले
स्वर्ग या बहिश्त कहीं भी जाओ, विषय-सुख ही है। इसलिए सूफी लोग बताते हैं-मुक्ति ( नजात ) को प्राप्त करो। स्वर्ग के राजा को भी विषय-सुख से तृप्ति नहीं। उस राजा के गुरु बृहस्पति को भी विषय से तृप्ति नहीं हुई, ऐसी कहानी है। वहाँ भी काम-क्रोधादि विकार सब-के-सब रहते हैं। अन्तर यह कि वहाँ विषय-सुख अल्पायास में प्राप्त होते हैं। विषयानन्द से कोई तृप्त नहीं हुआ, होने की संभावना भी नहीं। इसलिए नित्यानंद को, जो सदा एक-सा रहे, प्राप्त करे। इसलिए मुक्ति का प्रयोजन है। मुक्ति जीवात्मा की होगी, जब यह अकेले होकर रहे, जब केवल अपने आप ही रहे। जहाँ इन्द्रियाँ नहीं हैं, वहीं आत्म-स्वरूप की प्राप्ति होती है, जो निर्विषय है। इसी में नित्यानन्द है, इसी के लिए मोक्ष का प्रयोजन है। शरीर छूटने पर मुक्ति होगी, ऐसा नहीं। पहले जीवन्मुक्ति होगी, पीछे विदेहमुक्ति।
जीवन मुक्त सो मुक्ता हो।
जब लग जीवन मुक्ता नाहीं, तब लग दुख सुख भुक्ता हो।। - कबीर साहब
जीवत छूटै देह गुण, जीवत मुक्ता होय।
जीवत काटे कर्म सब, मुक्ति कहावै सोय।। - दादू साहब
शरीर के साथ मोक्ष-जीवन्मुक्त-दशा है, शरीर छूटने पर विदेहमुक्ति है। मोक्ष पाने का साधन करें वा परमात्मा को प्राप्त करने का साधन करें, दोनों एक ही बात है। स्थूल-सूक्ष्मादि सब आवरणों से जहाँ छूटे, वहीं मुक्ति है।
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई ।
कोटि भाँति कोउ करइ उपाई ।।
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई ।
रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ।। - गोस्वामी तुलसीदासजी
भक्ति को छोड़कर मुक्ति अलग नहीं रह सकती।
राकापति षोड़स उअहिं, तारागन समुदाय ।
सकल गिरिन्ह दब लाइय,बिनु रबि राति न जाय ।।
ऐसेहि बिनु हरि भजन खगेसा।
मिटहिं न जीवन केर कलेसा ।।
श्रवण-ज्ञान के बाद मनन-ज्ञान, फिर निदिध्यास- ज्ञान और तब अनुभव-ज्ञान। श्रवण-ज्ञानकहते हैं- सुनने को। मनन-ज्ञान कहते हैं-सुने हुए विषयों को विचारने को। निदिध्यास-ज्ञान कहते हैं-सुने तथा विचारे हुए विषय को अमल में लाने को अर्थात् उसकी प्राप्ति के लिए यत्न करने को तथा अनुभव-ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान को कहते हैं, जिसके बाद और ज्ञान नहीं है। श्रवन-ज्ञान अग्नि के समान है, जो मायारूपी जल के बरसने पर बुत जाय। मनन-ज्ञान बिजली के समान है, यह जल से तो नहीं बुझता, किन्तु यह चंचल है, इसमें स्थिरता नहीं है। निदिध्यास-ज्ञान बड़वानल के समान है। बड़वानल समुद्र में रहता है, समुद्र को मर्यादित रखता है, किन्तु समुद्र के समस्त जल का शोषण नहीं कर सकता। उसी प्रकार निदिध्यास-ज्ञान माया को मर्यादित रखता है; किन्तु इससे सम्पूर्ण माया का नाश नहीं होता। अनुभव-ज्ञान महाप्रलय की अग्नि के समान है, वह द्वैत-प्रपंच अर्थात् माया को जलाकर भस्म कर देता है। अनुभव-ज्ञान पूर्ण समाधि में प्राप्त होता है। तुरीयावस्था से परे अर्थात् तुरीयातीतावस्था में जहाँ ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय-त्रिपुटी का लय है, वहाँ पूर्ण समाधि है। यह अवस्था प्राप्त करनेवाले पुरुष की सदा सहज समाधि-अवस्था बनी रहती है।
साधो सहज समाधि भली।
गुरु प्रताप जा दिन से जागी, दिन दिन अधिक चली ।।
जहँ जहँ डोलौं सो परिकरमा, जो कुछ करौं सो सेवा ।
जब सोवौं तब करौं दण्डवत, पूजौं और न देवा ।।
कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खावँ पियौं सो पूजा ।
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा ।।
आँख न मूँदौं कान न रूँधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
खुले नयन पहिचानौं हँसि-हँसि, सुन्दर रूप निहारौं ।।
शब्द निरंतर से मन लागा, मलिन वासना भागी ।
ऊठत बैठत कबहुँ न छूटै, ऐसी ताड़ी लागी ।।
कहै कबीर यह उनमुनि रहनी, सो परगट कर गाई ।
दुख सुख से कोइ परे परम पद, तेहि पद रहा समाई ।।
यही अपरोक्ष ज्ञान है, यही अनुभव ज्ञान है, इसी से तृप्ति हो सकती है। इसके अतिरिक्त कितनाहू पढ़े-लिखे, बके-व्याख्यान दे; किन्तु यह अवस्था नहीं आ सकती।
चित्तवृत्तियों के या ख्यालों के रोकने के विषय में अब विशेष प्रकाश डाला जाता है।
द्वे बीजे चित्तवृक्षस्य प्राणस्पन्दनवासने।
एकस्मिंश्च तयोः क्षीणे क्षिप्रं द्वे अपि नश्यतः।।
अर्थ-चित्तरूपी वृक्ष के दो बीज हैं-प्राणस्पन्दन और वासना। इन दोनों में से एक के क्षीण हो जाने से दोनों ही नाश को प्राप्त होते हैं।
व्याख्या-जैसे एक बीज में दो दालें होती हैं, उसी प्रकार चित्त के बीज की दो दालें- प्राण-स्पन्दन और वासना हैं। इसमें एक तो प्राण, दूसरा प्राणवायु-दो बातें हैं। फेफड़े में संकोचन-विकासन होता है, इसी से श्वास-प्रश्वास की क्रिया होती है। संकोचन- विकासन की जो शक्ति है, वह प्राण है। चेतन-शक्ति ही प्राण है। फेफड़े से इसको विशेष संबंध है। जिस वायु को प्राण से सम्बन्ध हो, उसे प्राणवायु कहते हैं। यहाँ प्राण-स्पन्दन को बन्द करने के लिए कहा गया है, यह कैसे होगा? किसी हिलती हुई चीज पर आप बैठिये, अगर आपमें विशेष शक्ति नहीं रही, तो आप भी हिलिएगा, किन्तु आपमें विशेष शक्ति हो, तो हिलती हुई चीज को भी आप बैठा देंगे। इसी प्रकार वायु का हिलना बन्द हो सकता है-रुक सकता है। वायु को सम रखना अर्थात् सुषुम्ना में वायु रखना। जो श्वास को नासापुट के भीतर रखता है, तो उसको ध्यान अच्छा लगता है। प्राण को सम करने में रेचक-पूरकादि जो क्रियाएँ की जाती हैं, वे अगर विहित रूप से की जायँ, तब तो ठीक है, नहीं तो-
यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः शनैः।
तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम्।। -शाण्डिल्योपनिषद्
अर्थात् जैसे सिंह, हाथी और बाघ धीरे-धीरे काबू में आते हैं, उसी तरह प्राणायाम (वायु का अभ्यास कर वश में करना) भी किया जाता है, प्रकारान्तर होने से वह अभ्यासी को मार डालता है।
दूसरी बात केवल ध्यानाभ्यास से प्राणस्पन्दन का निरोध हो जायगा। वासना आती है, हटाते हैं। चित्तवृत्ति भागती है, उसको सँभाल-सँभालकर स्थिर रखते हैं। यही बारम्बार की जो कोशिश होती है, इसी को प्रत्याहार कहते हैं। इसी को बारम्बार करते-करते कुछ-न-कुछ काल अवश्य ठहरेगा, यह धारणा होगी तथा जब धारणा देर तक रहेगी, वही असली ध्यान होगा। यह ध्यानाभ्यास निरापद है, किन्तु प्राणायाम सापद है। किसी बात को मन लगाकर सोचिए, तो साँस की गति मन्द पड़ जाती है। कोई चंचल काम करने पर, काम-क्रोधादिक से उत्तेजित होने पर श्वास की गति तीव्र हो जाती है। मन की स्थिरता में श्वास भी स्थिर होता है। मन को कितनी दूरी पर स्थिर करने से प्राण की गति रुकती है, यह भी लिखा है-
द्वादशांगुल पर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे।
संविद्दृशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पन्दो निरुध्यते।। -शाण्डिल्योपनिषद्
अर्थात्-जब ज्ञान-दृष्टि (सुरत-चेतनवृत्ति) नासाग्र से बारह अंगुल पर स्वच्छ आकाश में स्थिर हो, तो प्राण का स्पन्दन रुद्ध हो जाता है।
इन दोनों (प्राणस्पन्दन बन्द करने तथा वासना- परित्याग करने) में जो अच्छा लगे, कीजिए। अगर आपदा से लड़ना-झगड़ना है, तो प्राणायाम कीजिये, अगर लड़ना-झगड़ना नहीं है, तो ध्यानाभ्यास कीजिए।
अवासनत्वात्सततं यदा न मनुते मनः।
अमनस्ता तदोदेति परमोपशमप्रदा।।
अर्थात्-मन जब वासना-विहीन होकर विषय को ग्रहण नहीं करता है, तब मन का अस्तित्व नष्ट हो जाता है और परम शान्ति का उदय होता है।
व्याख्या- संकल्प-विकल्पकारक ही मन है। जब मन गल गया या लीन हो गया, तो शान्ति किसने भोगी? वह पदार्थ जो मन से परे है, मन जिसे जान नहीं सकता। आप मन से परे हैं, आपको स्वयं वह शान्ति प्राप्त होगी।
मन बुद्धि चित हंकार की, है त्रिकुटी लग दौड़ ।
जन दरिया इनके परे, ब्रह्म सुरत की ठौर ।। -दरिया साहब, मारवाड़ी
सहस कँवल दल पार में, मन बुद्धि हिराना हो ।
प्रान पुरुष आगे चले, सोइ करत बखाना हो ।। -तुलसी साहब, हाथरसवाले
एकतत्त्व दृढाभ्यासाद्यावन्न विजितं मनः।
प्रक्षीणचित्त दर्पस्य निगृहीतेन्द्रियद्विषः।
पद्मिन्य इव हेमन्ते क्षीयन्ते भोगवासनाः।।
अर्थ- जबतक मन नहीं जीता गया हो, एकतत्त्व के दृढ़ अभ्यास से चित्त-अहंकार को पूर्ण रूप से नष्ट करके इन्द्रिय-शत्रु का निग्रह करना। ऐसा होने से ही हेमन्तकाल के कमल-सदृश भोग-वासना का नाश हो जायगा।
व्याख्या- एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास; वह एक तत्त्व क्या है? चाहे कोई प्राणायाम करें अथवा ध्यानाभ्यास करें; दोनों क्रियाओं में जप अनिवार्य रूप से करना ही पड़ता है, क्योंकि यह आरम्भिक क्रिया है। इस जप से मन कुछ समेट में आता है। जप के लिए बहुत छोटा शब्द हो। शब्द जितना छोटा होगा, उतना ही सिमटाव होगा और जितना बड़ा शब्द होगा, उतना ही फैलाव होगा। तन्त्र में एकाक्षर का ही जप करने का आदेश है और वेद में भी वही एक अक्षर। कबीर साहब कहते हैं-
पढ़ो रे मन ओ ना मा सी धं ।
अर्थात् ‘ॐ नमः सिद्धम्।’ तात्पर्य यह कि सृष्टि इसी ‘ॐ’ से है। शब्द से सृष्टि हुई है। यह (ॐ) त्रैमात्रिक है, इसीलिए इस प्रकार भी ‘ओ3म्’ लिखते हैं। इसको इतना पवित्र और उत्तम माना गया कि इस शब्द के बोलने का अधिकार अमुक वर्ण को ही होगा, अमुक वर्ण को नहीं। इतना प्रतिबन्ध लगाया गया कि बड़े ही कहेंगे। सन्तों ने कहा, कौन लड़े-झगड़े; ‘सतनाम’ ही कहो, ‘रामनाम’ ही कहो, आदि। बाबा नानक ने ‘ॐ’ का मन्त्र ही पढ़ाया-
1ॐ सतिगुरु प्रसादि।
और कहा- चहु वरणा को दे उपदेश ।
यह ईश्वरी शब्द है; किन्तु हमलोग इसका जैसा उच्चारण करते हैं, वैसा यह शब्द सुनने में आवे, ऐसा नहीं। यह तो आरोप किया हुआ शब्द है, जिसके मत में जैसा आरोप होता है। जैसे- पंडुक अपनी बोली में बोलता है, किन्तु कोई उस
‘कुकुम कुम’ और कोई उसी शब्द को ‘एके तुम’ आरोपित करता है।
किन्तु यथार्थतः इस (ओ3म्) को लौकिक भाषा में नहीं ला सकते, यह तो अलौकिक शब्द है। इस अलौकिक शब्द को लौकिक भाषा में प्रकट करने के लिए सन्तों ने ‘ॐ’ कहा। क्योंकि जिस प्रकार वह अलौकिक ॐ सर्वव्यापक है, उसी प्रकार यह लौकिक ‘ॐ’ भी शरीर के सब उच्चारण-स्थानों को भरकर उच्चरित होता है। इस प्रकार का कोई दूसरा शब्द नहीं है, जो उच्चारण के सब स्थानों को भरकर उच्चरित हो सके। इसी शब्द का वर्णन सन्त कबीर साहब इस प्रकार करते हैं-
आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह।
परसत ही कंचन भया, छूटा बन्धन मोह।।
शब्द शब्द सब कोइ कहै, वो तो शब्द विदेह।
जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि देह।।
शब्द शब्द बहु अन्तरा, सार शब्द चित देय।
जा शब्दै साहब मिलै, सोइ शब्द गहि लेय ।।
आदिनाम वा शब्द सर्वव्यापक है। इसी प्रकार एक शब्द लो, जो उच्चारण के सब स्थानों को भरपूर करे, तो संतों ने उसी को ‘ॐ’ कहा तथा इसी शब्द से उस आदि शब्द ॐ का इशारा किया। यह जो वर्णात्मक ओ3म् है, जिसका मुँह से उच्चारण करते हैं, यह वाचक है तथा इस शब्द से जिसके लिए कहते हैं, वह वाच्य है तथा उस परमात्मा के लिए वह भी वाचक है तथा परमात्मा वाच्य है। तो इस एक शब्द का दृढ़ अभ्यास, एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास करना है।
पहले वर्णन हो चुका है कि जप में जो शब्द जितना छोटा होता है, उससे उतना ही विशेष सिमटाव होता है। इसलिए किसी एक छोटे शब्द का जप करो। फिर जप छोड़कर स्थूल ध्यान कीजिए। स्थूल-ध्यान वह, जिसमें आपकी पूर्ण श्रद्धा हो। यह एक शब्द का जपना तथा एक रूप का ध्यान करना भी एक तत्त्व का अभ्यास करना है। किन्तु जब आप सोचिएगा, तो मालूम होगा कि इस एक रूप में भी अंग-प्रत्यंग हैं, तो अंग-प्रत्यंग होने के कारण इसमें भी पूर्ण सिमटाव नहीं होगा, फैलाव ही रहेगा। इसलिए इससे आगे कुछ दूसरा और होना चाहिए, जिसमें फैलाव न होकर पूर्ण सिमटाव हो। इसके लिए कबीर साहब ने कहा-
शून्य ध्यान सबके मन माना। तुम बैठो आतम असथाना।।
श्रीमद्भागवत स्कन्ध 11 में भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव से कहा है- ‘सब ओर फैले हुए चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थिर करे और फिर अन्य अंगों का चिन्तन न करता हुआ केवल मेरे मुस्कान-युक्त मुख का ही ध्यान करे। मुखारविन्द में चित्त के स्थिर हो जाने पर उसे वहाँ से हटाकर आकाश में स्थिर करे। शून्य-ध्यान किसे कहते हैं? शून्य में भी एक जगह होनी चाहिए। वह ऐसा विलक्षण स्थान है, जिसका स्थान तो है, किन्तु परिमाण नहीं। वह क्या है ? विन्दु। स्थूल में उसको र्चिैंत नहीं कर सकते। अपने को जब कोई उस स्थान पर रखेगा, जिसका स्थान है, परिमाण नहीं, तब वहाँ पर पूर्ण सिमटाव होगा। यही एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास है।
इसमें हेमन्त-काल के कमल-पत्रवत् भोग- वासना का नाश हो जाएगा। जप और स्थूल रूप- ध्यान, स्थूल साधन है। इसका अभ्यास करके तब सूक्ष्म ध्यान करे; क्योंकि मोटे अक्षर के लिखे बिना बारीक अक्षर नहीं लिख सकते।
चित्तैकाग्रयाद्यतो ज्ञानमुक्तं समुपजायते।
तत्साधनमथो ध्यानं यथावदुपदिश्यते।।
अर्थ-ध्यान का कारण, जिससे ज्ञान तथा मुक्ति उपजती है, मन की एकविन्दुता (चित्त की एकाग्रता) है। अब तुमको जना दिया गया।
व्याख्या-ध्यान से ज्ञान तथा ज्ञान से शान्ति उपजती है। यह ध्यान एक विन्दु का ध्यान है। एकविन्दुता होने से मन का हिल-डोल बन्द हो जायगा। यहाँ पूर्ण सिमटाव होगा। यह क्रिया कैसे होगी? दो रेखाओं के मिलन पर एक विन्दु होता है। अपनी आँखों की दोनों धाराओं को एक बनाइये। दृष्टि का बहुत संकोचन होना चाहिए। एक फैली हुई दृष्टि होती है, जिसका व्यवहार हमलोग बराबर करते हैं तथा इसका फल भी देखते हैं। दूसरी सिमटी हुई दृष्टि होती है। सिमटी हुई दृष्टि वह है-जिस चीज को देखना चाहें, केवल वही अवलोकित हो, दूसरी चीज नहीं। यह असली देखना या सिमटी हुई दृष्टि है, जैसे तीर तथा बन्दूक का निशाना करनेवाला लक्ष्य वस्तु के अतिरिक्त और कुछ नहीं देखता। एक बार आचार्य द्रोण कौरवों तथा पाण्डवों को संग लेकर वन में भ्रमण करने के लिए निकले। द्रोण ने वृक्ष पर बैठी हुई चिड़िया की आरे संकेत कर अर्जुन के अतिरिक्त सब भाइयों को लक्ष्य वस्तु पर निशाना करने कहा। बारी-बारी से लक्ष्य करते समय द्रोण उन सबसे पूछते जाते थे-‘कहो, क्या देखते हो?’ एक ने कहा-‘वृक्ष, डालियाँ तथा पत्तां सहित चिड़िया।’ आचार्य ने उसे हटाकर दूसरे से पूछा-‘तुम क्या देखते हो?’ दूसरे ने उत्तर दिया-‘डालों के सहित पक्षी को।’ एवं प्रकार से एक-एक करके सबसे पूछते गये; किन्तु किसी ने ठीक उत्तर नहीं दिया। और अन्त में अर्जुन को लक्ष्य पर निशाना करने कहा और पूछा-‘तुम क्या देखते हो?’ उन्होंने उत्तर दिया- ‘मैं केवल चिड़िया को देख रहा हूँ, इसके अतिरिक्त और कुछ नजर नहीं आता।’ आचार्य ने कहा- ‘तुम्हारा निशाना ठीक है।’ निशाना इसी प्रकार होना चाहिए।
उपर्युक्त घटना के पहले ही एक बार द्रोण ने स्वयं अपने निशाने का परिचय दिया था। एक बार कौरव तथा पाण्डव सब भाई मिलकर गेंद खेल रहे थे। संयोगवश गेंद कुएँ में गिर पड़ा। अब इन लोगों को कुएँ से गेंद निकालने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। उसी समय द्रोण उसी होकर वहाँ आ निकले। इन लोगों ने उनसे गेंद निकाल देने की प्रार्थना की। द्रोण ने एक सींकी से गेंद में मारा। पुनः सींकी के पेंदे में दूसरी सींकी से, एवं प्रकार सींकी के पेंदे को सींकी से छेदते हुए कुएँ के ऊपर तक सींकी का छोर लगा लिया और गेंद को निकालकर उन लोगों को दे दिया।
सींकी के पेंदे में सींकी मारना दृष्टि को कितना महीन करना है? इनकी दृष्टि कितनी सिमटी हुई थी? अपनी दृष्टि को इस प्रकार सूक्ष्म बनाओ। इतना कह देने पर भी गुरु के संकेत की आवश्यकता रह जाती है। ‘कहै कबीर चरण चित राखो, ज्यों सूई में डोरा रे।’
एकविन्दुता से पूर्ण सिमटाव होगा, इससे ऊर्ध्वगति होगी, ऊर्ध्वगति में एक तल से दूसरे तल पर की गति होगी। इस तरह मायिक सब आवरणों के पार होना हो सकेगा। कैवल्य प्राप्त होगा, ईश्वर-दर्शन होगा। जैसे आँख की पट्टी खोले बिना कोई चीज नहीं देख सकते, उसी प्रकार शरीर और माया की पट्टी उतारे बिना परमात्मा का दर्शन नहीं हो सकता।
इस माया की पट्टी अथवा चश्में को उतारने के लिए शारीरिक श्रम की आवश्यकता नहीं, यह कोई कठिन कार्य नहीं, इसके लिए चाहे पलँग पर बैठकर या जमीन पर बैठकर किसी प्रकार भी अभ्यास कर सकते हैं। इसमें घर-वार छोड़ने की आवश्यकता नहीं। कोई घर के काम-धन्धों को छोड़कर केवल इसी को करे, तो नहीं होगा; क्योंकि मन उतना समेटा हुआ नहीं है कि हर समय इसी को करता रहेगा। इसलिए घर-गृहस्थी के कामों को करते हुए भजन करे। सदाचारी बने अर्थात् व्यभिचार, चोरी, नशा, हिंसा और झूठ; इन पाँच पापों से अपने को पृथक् रखे। अपने को इन पापों से बचावे। एक ईश्वर पर विश्वास करे।
मोर दास कहाइ नर आसा। करई तो कहहु कहा बिस्वासा।।
-ऐसा नहीं होना चाहिए। उनकी (परमात्मा की) प्राप्ति अपने अन्दर में होगी, बाहर में नहीं; यह दृढ़ निश्चय रखना चाहिए। बाहर में इन्द्रियगम्य पदार्थ है। अन्दर में इन्द्रियगम्य पदार्थ नहीं है। आँख का विषय रूप है। इससे शब्द-ग्रहण करना चाहे, तो नहीं हो सकता है। जिस इन्द्रिय का जो विषय है, वह उसी को ग्रहण करेगी। उसी प्रकार परमात्मा इन्द्रियगम्य पदार्थ नहीं है, आत्मगम्य है। इसलिए ईश्वर-भजन करने का ऐसा यत्न होना चाहिए कि कैवल्य दशा प्राप्त कर ले, फिर उसे कहीं खोजना नहीं होगा, वह तो प्राप्त ही है। सत्संग के द्वारा कर्म में प्रेरणा होती है, इसलिए सत्संग नित्य करना चाहिए। गुरु की सेवा करनी चाहिए; क्योंकि इसके बिना अध्यात्म-पथ में चलना असम्भव है। किन्तु गुरु होना चाहिए, गोरू (गाय, बैल) नहीं। जो सन्मार्ग पर चलता हो, जिस ज्ञान का उपदेश करता हो, उसके मुताबिक चलता हो। अगर ज्ञानोपदेश के मुताबिक चलता नहीं है, तो वह नीचे गिर जाता है, उसके संग से अच्छा रंग नहीं लगेगा। नित्य ध्यानाभ्यास करना चाहिए। ये पाँच विधि कर्म हैं। इन्हें नित्य करना चाहिए। 

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यह प्रवचन श्रीरामचन्द्रजी अष्ठाना, (के निवास पर) ग्राम-तारवा, पो0-शाहगंज, उत्तरप्रदेश में दिनांक 17.1.1951 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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6. ईश्वर इन्द्रिय ज्ञान से परे

प्यारे धर्मप्रेमी महाशयो!
 प्रभु की प्राप्ति के लिए उनकी भक्ति करनी आवश्यक है। भक्ति-मार्ग में तीन बातों का होना आवश्यक है- स्तुति, प्रार्थना और उपासना। स्तुति से परमात्मा की प्रभुता जानने में आती है।
राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई।।
जाने बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीति।।
प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई। जिमि खगेस जल कै चिकनाई।।
ईश्वर-स्तुति के पद्यों में परमेश्वर की जो स्तुति की जाती है, उससे उसकी महानता जानने में आती है। इससे उसमें श्रद्धा तथा प्रेम उत्पन्न होता है। वह परमात्मा अव्यक्त है, इन्द्रियों के ज्ञान से परे है। अव्यक्त परमात्मा की तुलना में व्यक्त संत होते हैं। वे इन्द्रियों से जाननेयोग्य होते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है- 
 सन्त भगवन्त अन्तर निरन्तर नहीं,
 किमपि मति विमल कह दास तुलसी।।
 इसलिए ईश-स्तुति के बाद सन्त-स्तुति करते हैं। इसके बिना अध्यात्म-पथ कुछ भी जानने में नहीं आता। फिर प्रार्थना करते हैं अर्थात् परमात्मा से कुछ माँगते हैं। क्या माँगते हैं ? मोक्ष। भिन्न-भिन्न देवता और सब वरदान दे सकते हैं; किन्तु यह वरदान (मोक्ष) नहीं दे सकते। मोक्ष देना अथवा परमात्मा की प्राप्ति करा देना सिवाय परमात्मा के और कोई नहीं कर सकते, अगर दें तो सन्त ही दे सकते हैं।
ओ3म् सयोजत उरुगायस्य जूतिं वृथा क्रीडन्तं मिमिते न गावः।
परीणसं कृणुते तिग्म शृंगो दिवा हरिर्ददृशे नक्तमृज्रः।।
 सारांश-ईश्वर को प्राप्त करने के लिए हाथ, पैर, गुदा, लिंग, रसना, कान, त्वचा, आँखें, जिह्ना, नाक और मन-बुद्धि आदि इन्द्रियाँ असमर्थ हैं; क्योंकि ईश्वर इन्द्रिय-ज्ञान से परे हैं। मैं इस शरीर में रहकर भी इन्द्रियों से भिन्न हूँ, अगर यह बात कोई नहीं जानता है तो उसे यह जानना चाहिए कि इन्द्रियों में चेतन-धार है। क्योंकि जाग्रत् अवस्था में चेतन-धार इन्द्रियों में रहती है, तभी इन्द्रियाँ काम करती हैं। जब स्वप्नावस्था में चेतन-धार सिमट जाती है, तो इन्द्रियाँ कुछ नहीं कर पातीं, निश्चेष्ट हो जाती हैं। इन्द्रियाँ तो यन्त्र हैं। प्रत्येक इन्द्रिय का अपना-अपना काम है, उसी प्रकार सब इन्द्रियों को छोड़कर निज, अपना काम क्या है? सब इन्द्रियों को छोड़ने पर अपना निज काम परमात्मा की प्रत्यक्षता है। इसलिए अपने को शरीर और इन्द्रियों से छुडा़ओ। जिस कर्म के द्वारा शरीर और इन्द्रियों से छूटकर रहोगे, वह साधन करो। जबतक यह ज्ञान नहीं होता, तबतक लोग भूले रहते हैं, परमात्मा की प्रत्यक्षता नहीं होती। दोभुजी, चौभुजी, अष्टभुजी आदि का दर्शन करना, परमात्मा का दर्शन नहीं है। जिसने उस रूप को धारण किया है, उसको पहचानो। श्रीकृष्ण को उसके समकालीन बहुत-से लोगों ने देखा था; किन्तु उनके स्वरूप को अधिकारी जन ही देखते थे। राजा जनकजी की सभा में राम को सब लोगों ने अपनी-अपनी भावना के अनुरूप देखा था; किन्तु योगी लोग उनके निज स्वरूप को देखते थे।
जिन्ह कै रही भावना जैसी। प्रभु मूरति देखी तिन तैसी।।
देखहिं भूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रस धरेउ सरीरा।।
डरे कुटिल नृप प्रभुहिँ निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी।।
रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट काल सम देखा।।
पुरवासिन्ह देखे दोउ भाई। नर भूषन लोचन सुखदाई।।
नारि बिलोकहि ँहरषि हिय,निज निज रुचि अनुरुप।
जनु सोहत शृ ंगार धरि, मूरति परम अनूप।।
विदुषन्ह प्रभु बिराट मय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा।।
जनक जाति अवलोकहिँ कैसे।सजन सगे प्रिय लागहि ँ जैसे।।
सहित बिदेह बिलोकहिँ रानी। सिसु सम प्रीति न जाइ बखानी।।
जोगिन्ह परम तत्त्वमय भासा।सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा।।
हरि भगतन देखे दोउ भ्राता।इष्ट देव इव सब सुख दाता।।
 अर्थात् केवल संत-योगी के अतिरिक्त उनके यथार्थ रूप को और कोई नहीं देख सका। भगवान् श्रीकृष्ण के संग-संग अर्जुन रहते थे। किन्तु भगवान् ने यह नहीं कहा कि तुमने मेरे रूप को देख लिया, अब काम समाप्त हो गया; बल्कि यह कहा-
     अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
     परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।। -गीता 7-24
अर्थात् यद्यपि मैं अव्यक्त हूँ, तथापि मूर्ख लोग मुझे व्यक्त अर्थात् देहधारी मानते हैं; परन्तु यह बात सच नहीं है; मेरा अव्यक्त रूप ही सत्य है। फिर जब अपना विराट् रूप नारद को दिखलाते हैं, तो कहते हैं-‘तू मेरे जिस रूप को देख रहा है, यह सत्य नहीं है, यह माया है। मेरे सत्यस्वरूप को देखने के लिए इससे भी आगे तुझे जाना चाहिए।’ 
-महाभारत, शान्तिपर्व 339-44
 अगर अर्जुन का काम समाप्त हो गया होता, तो फिर गीता-जैसे सुन्दर सदुपदेश देकर ‘यह करो’ कहकर कर्म करने के लिए भगवान क्यों प्रेरित करते ! अतः किसी के रूप को देखकर उसके स्वरूप को नहीं जाना जा सकता। 
गो गोचर जहँ लगि मन जाई।सो सब माया जानहु भाई।।
 इसलिए यह बात आवश्यक जाननी चाहिए कि उसको अपने से कैसे जानेंगे।
 जो पाप-कर्मों से निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ अशान्त हैं, वह इसे आत्म-ज्ञान द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता। अर्थात् पाप-कर्मों से नहीं बचनेवाले का मन चंचल रहता है, इन्द्रियों में बँधा हुआ रहता है, विषयों में आसक्त रहता है, इस कारण वह असमर्थ है; क्योंकि चंचलता के कारण अपने को समेट नहीं सकता, नहीं समेटने से ऊर्ध्वगति नहीं हो सकती, ऊर्ध्वगति नहीं होने के कारण परदों (आवरणों) का छेदन नहीं हो सकता और न कैवल्य प्राप्त हो सकता है। कैवल्य प्राप्त किये बिना कोई परमात्म-स्वरूप को प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। इसलिए मनुष्यों को पापों से अलग रहना चाहिए। पापों से अलग रहनेवाले का हृदय शुद्ध होता है। तब-
 सूचै भाडै साचु समावै बिरले सूचाचारी।
 तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी।।
 बाबा नानक का यह वचन पूर्णरूपेण लागू हो जायगा।
 मृतक का शरीर और इन्द्रियाँ निश्चेष्ट रहती हैं, उसी प्रकार जो अपने शरीर और इन्द्रियों को साधन-द्वारा साधकर रहता है, वही मृतक है। मृतक शरीर में नाड़ी नहीं रहती, नाड़ी बन्द हो जाती है और मर जाता है। अर्थात् शरीर के त्याग को मृतक कहते हैं। इस प्रकार ध्यानाभ्यास में जिसकी नाड़ी बन्द हो जाती है, वह अन्तर- ही-अन्तर प्रवेश करता है तथा जैसे-जैसे वह अपने शरीर में डूबता है, वैसे-वैसे उसकी इन्द्रियाँ शिथिल पड़ती जाती हैं। आत्मबल प्राप्त होता जाता है और इन्द्रियाँ सधती जाती हैं। धीरे-धीरे उसकी इन्द्रियाँ बिल्कुल सध जाती हैं। शरीर से छूटना मरना है। जो स्थूल शरीर से सूक्ष्म में तथा सूक्ष्म से कारण में एवं प्रकार से साधना-द्वारा सब शरीरों को छोड़ देता है, वह पूरा मरा हुआ है। जो इन्द्रियों के वेगों का दमन कर सकता है, वह शरीर में रहते हुए भी मृतक है। वही परमात्मा को प्र्र्राप्त कर सकेगा। 


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यह प्रवचन श्रीरामचन्द्रजी अष्ठाना, (के निवास पर) ग्राम-तारवा, पो0-शाहगंज, उत्तरप्रदेश में दिनांक 18.1.1951 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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7. मेरे गुरुजी ने कहा था

प्यारे लोगो!
 हमलोगों को चाहिए कि गुरु महाराज के उपदेशां को याद करें कि उनका क्या उपदेश था? मेरी जानकारी में जो कुछ है; वही आपलोगों के समक्ष रखता हूँ। बाबा साहब का उपदेश मोक्ष प्राप्त करने के लिए था। इसलिए वे उपदेश करते थे कि सब मोक्ष को प्राप्त हो जायँ। मोक्ष किसे कहते हैं? शरीर और संसार से छूटने को मोक्ष कहते हैं। इस मोक्ष को प्राप्त करने के लिए ईश्वर की भक्ति का ही परम अवलंब है। ईश्वर-भक्ति में केवल मोटी भक्ति ही नहीं है, बल्कि उस भक्ति के लिए अत्यन्त सूक्ष्म तथा अत्यन्त सरल साधन बाबा साहब ने बतलाया था। उन्होंने ही इस सूक्ष्म साधन मार्ग को निकाला था, ऐसी बात नहीं। वे तो कहते थे कि सब संतों का निकाला हुआ यह साधन है। वह बारीक साधन क्या था? केवल दो ही। एक तो दृष्टि साधन तथा दूसरा शब्द साधन; इसके पहले जप तथा मोटा ध्यान भी बतलाते थे, जो संतों की वाणियों में मिलता है। यही समास रूप में मैं जो जानता था, वही आपलोगों से कहा।
 ईश्वर-भक्ति का आधार तथा उसकी प्राप्ति के लिए उसके स्वरूप को जानना परमावश्यक है; क्योंकि स्वरूप-ज्ञान से विहीन रहकर अपने को किस ओर लगाया जाय तथा उसकी भक्ति भी कैसे की जाय? अर्थात् स्वरूप-ज्ञान से विहीन रहकर उसकी भक्ति करनी भी असंभव ही है। इसलिए उसके स्वरूप को अवश्य जानना चाहिए। स्वरूप-ज्ञान के लिए ऋषियों, वेदों तथा संतों की वाणियों से यही जानने में आता है कि ईश्वर इन्द्रियातीत है। इन्द्रियों से उसको प्राप्त करने की चेष्टा करना खेल भर है। उस स्वरूप को मन से मनन नहीं कर सकते, मन उसे छू नहीं सकता। जो देशकाल से घिरा हुआ है, मर्यादित है, ऐसी वस्तु ईश्वर नहीं हो सकती। इस स्थान से उस स्थान तक तथा इस समय से उस समय तक, ऐसी जो वस्तु है, वह ईश्वर नहीं। तब प्रश्न होगा कि वह इन्द्रियगम्य नहीं है, तो किस प्रकार जाना जा सकता है? तो कहेंगे कि आत्मगम्य है-आत्मा से ही जान सकते हैं। एक इन्द्रिय से एक ही विषय का ज्ञान होता है, दूसरे का नहीं। जैसे-आँख से केवल रूप-विषय का ज्ञान होता है, शब्द का नहीं, तथा कान से केवल शब्द का ज्ञान होता है, स्पर्श का नहीं। इसी प्रकार और सब इन्द्रियों के विषय में जानिए। बाहर के पदार्थां को गिनें तो बहुत है, किंतु विचारने पर केवल पाँच ही होते हैं-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द। ऐसी एक कोई इन्द्रिय नहीं, जिससे पाँचों विषय का ज्ञान हो। इनमें केवल एक-एक इन्द्रिय से एक-एक विषय को ही जान सकते हैं। एक पदार्थ को ग्रहण करने के लिए जैसे एक ही इन्द्रिय है, उसी प्रकार उस परमात्मा को ग्रहण करने के लिए क्या हो सकता है, जिससे उसको जाना जाय? हम केवल मायिक पदार्थों को जानते हैं, बाहर की कौन कहे, भीतर की इन्द्रिय भी माया ही जानती है। माया किसे कहते हैं? जो एक तरह नहीं रहे-जो परिवर्तनशील है। मायातीत पदार्थ कुछ है; बुद्धि इसे सोच सकती है, किंतु पहचान नहीं सकती। भीतर तथा बाहर की इन्द्रियाँ केवल मायिक पदार्थां को ग्रहण कर सकती हैं। केवल आत्मा से जो पदार्थ जाना जाता है, वही परमात्मा है। जो आत्मा से ही जाना जाता है, उसे इन्द्रियों से ग्रहण करने की चेष्टा करना खेल भर है। इसके लिए कोई बहुत पढ़े, सुने, स्मरण शक्ति बहुत तेज हो, फिर भी वह ईश्वर को नहीं प्राप्त कर सकता, ऐसा आपलोगों ने उपनिषद् से सुना। आत्मा शरीर में है ही, फिर भी हम ईश्वर को क्यों नहीं पहचानते हैं? जबतक आत्मा पर आवरण है; वह शरीर और इन्द्रियों के साथ है, तबतक वह ईश्वर को नहीं पहचान सकती। जैसे आँख पर रंगीन चश्मा जबतक लगा है, तबतक संसार की वस्तु चश्मे के रंग के अनुरूप हम देखते हैं, पट्टी रहने से तो और कुछ भी नहीं दरसता। उसी प्रकार शरीरों और इन्द्रियों के मायिक चश्मे तथा पट्टियाँ जबतक आत्मा पर लगी हुई हैं, तबतक परमात्मा का साक्षात्कार नहीं हो सकता। इन मायिक चश्मों तथा पट्टियों को हटा दें, तब साक्षात्कार होगा। यही बाबा साहब का उपदेश था, यही साधन वे बतलाया करते थे। ईश्वर को देखने की शक्ति प्राप्त करने के लिए दृष्टियोग की साधना करनी चाहिए। दृष्टियोग का साधक स्थूलावरण से ऊपर उठ जाता है। दृष्टि वहाँ तक रहेगी,जहाँ तक दृश्य है। दृश्य-मण्डल से पार होने की योग्यता केवल दृष्टिसाधन से नहीं होगी, इसके लिए शब्द अभ्यास करना होगा। बाबा साहब का यह वचन युक्तियुक्त है। शब्द अभ्यास करना संतों के वचनों के अनुकूल सुरतशब्दयोग या नामभजन है। ऋषियों ने इसी को नादानुसंधान कहा है। ध्यानविन्दूपनिषद् में-
 बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम्।
 स शब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परं पदम्।।
कहकर बहुत थोड़े में ही सारी बातें बतलाई गई हैं। परम विन्दु ही बीजाक्षर (वर्णमाला का अक्षर) है। उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (ब्रह्म) में लय हो जाता है तो निःशब्द परम पद है। उपनिषद कहती है कि अक्षर का बीज जो परम विन्दु है उसका पता लगाओ, तब उसके ऊपर नाद मिलेगा। नाद जहाँ जाकर लय होगा, वही निःशब्द परम पद है। उसी को अनाम पद तथा शब्दातीत पद भी कहते हैं। ‘अनाम’ सब संतों की वाणी में आया है। इस (अनाम) से परे कुछ और का होना मानना केवल अंधविश्वास भर ही होगा, परंतु विचार में नहीं अटेगा। जो शब्द कहने में नहीं आवे, उसकी भी जहाँ समाप्ति हो जाय, वह शब्दातीत या अनाम पद है। तुलसी साहब की वाणी में-‘तुलसी तोल बोल अबोल बानी।’ जहाँ यह भी समाप्त हो जाय, तब और कुछ है, कहना व्यर्थ है।
 लोग देखते हैं कि वे जहाँ तक संसार में जाते हैं, उन्हें शब्दहीन स्थान कहीं नहीं मिलता। जहाँ सृष्टि होगी, वहाँ शब्द होगा। जहाँ शब्द लय होता है, वहाँ सृष्टि का अंत होता है। जहाँ तक सृष्टि है, वहाँ तक कम्प है। कम्प नहीं रहेगा तो शब्द भी नहीं रहेगा। शब्द के नहीं रहने से सृष्टि रह नहीं सकती। ऐसा कि जहाँ सृष्टि हो और कम्प वा शब्द नहीं हो, यह मानने योग्य नहीं है। अनाम में कम्प तथा शब्द; दोनों लय को प्राप्त हो जाते हैं। अनाम से आगे कुछ और है या सृष्टि के अंदर अनाम है, इसको कोई मान नहीं सकता। वही अनाम पद सबसे ऊँचा है। इसी पद तक पहुँच हो, यही बाबा साहब का उपदेश था।
 हमलोगों को जैसा साधन मिला है, हमको पूर्ण विश्वास है कि इस साधन द्वारा भक्ति करके अवश्य मोक्ष प्राप्त होगा। मोटे में भक्ति की क्रिया तो बहुत कम है, किंतु अंतस्साधन में सूक्ष्म क्रिया बहुत है। भक्ति का केवल यही अर्थ नहीं है कि किसी सेव्य का पैर दबावे, भोजन करावे, स्नान करावे, धोती पहनावे और बाह्य पूजापाठ इत्यादि करता रहे। भक्ति तो उसे कहते हैं, जिसमें स्थूल-सूक्ष्म सब तरह की भक्ति करके उस परमात्मा को प्राप्त कर लें। बाहर में स्थूल भक्ति के द्वारा हम कुछ प्रेमी बनते हैं, किंतु और विशेष ऐसी भक्ति है-
     ऐसी सेवकु सेवा करे, जिसका जिउ तिसु आगे धरे। -गुरु नानक
 ऐसी सेवा कि अपने को समर्पण कर दे, यही आत्मनिवेदन है। इसी भक्ति का उपदेश बाबा साहब करते थे। इसका साधन दृष्टियोग और शब्दयोग के द्वारा होता है। किंतु इन दोनों साधनों में वही सफलता प्राप्त कर सकता है, जो इस साधन का पूर्ववर्ती साधन (सत्संग, साधु की सेवा, जप तथा स्थूल ध्यान) भी करता हो। नाद का पता विन्दु प्राप्त करने पर लगता है।
  विन्दुपीठं विनिभि्र्ाद्य नादलिगमुपस्थितम्। -योगशिखोपनिषद्
 विन्दुपीठ को भेदन करने की यह क्रिया है।
जब या मुक्ति जीव की होई । मुक्ति जानि सतगुरु पद सेई।।
सतगुरु संत कंज में बासा। सुरत लाइ जो चढ़ै अकाशा।।
श्याम कंज लीला गिरि सोई।तिल परिमान जान जन कोई।।
छिन छिन मन को तहाँ लगावै।एक पलक छूटन नहिं पावै।।
स्रुति ठहरानी रहे अकासा। तिल खिरकी में निसदिन वासा।।
गगन द्वार दीसै एक तारा। अनहद नाद सुनै झनकारा।। -तुलसी साहब
 इसी तरह विन्दु का भेदन कर नाद प्राप्त करना है। हमलोगों को चाहिए कि गुरु महाराज के विचारों को बारम्बार स्मरण करें तथा साधन करें। सत्संग इसलिए करते हैं कि बोध हो। बिना बोध के क्या करेंगे, कुछ पता नहीं चलता। कोई कहे कि बोध हो गया, अब सत्संग करके क्या करेंगे, तो उसे जानना चाहिए कि सत्संग साधन करने की प्रेरणा करता है, बिना सत्संग के यह प्रेरणा नहीं मिलती। प्रेरणा से भजन होता है। भजन नहीं हो तो केवल बोध से ही क्या होगा? ईश्वर तथा गुरु महाराज से प्रार्थना है कि हमलोग अपने कर्तव्य कार्य से गिरें नहीं।


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यह प्रवचन बाबा देवी साहब की जयन्ती के शुभ अवसर पर संतमत सत्संग मन्दिर, मुरादाबाद, उत्तरप्रदेश में दिनांक 19.1.1951 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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8. स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश का द्वार

प्यारे लोगो!
 परमात्मा की प्राप्ति के लिए ज्ञान तथा योग; दोनों आवश्यक हैं। आज मैं योगशिखोपनिषद के आधार पर दोनों की विवेचना करना चाहता हूँ। इस उपनिषद् में शिवजी वक्ता हैं और ब्रह्माजी श्रोता हैं।
 योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः।
 योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमोमोक्षकर्मणि।।
 तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत्।।
 ‘योगहीन ज्ञान मोक्षप्रद भला कैसे हो सकता है? उसी तरह ज्ञानरहित योग भी मोक्षकार्य में समर्थ नहीं हो सकता है। इसलिए ज्ञान और योग दोनों का दृढ़ता के साथ अभ्यास मुमुक्षु को करना चाहिए।’ पहले कुछ जानना होगा। उस जानकारी से निर्णय होगा कि योग करना चाहिए-जोड़ना चाहिए। क्या जोड़ना चाहिए? फैली हुई वृत्ति को समेटकर जोड़ना चाहिए। इस काम का निर्णय विचार से होता है। इसलिए योग तथा ज्ञान, दोनों का अभ्यास करे, तो सिद्धि-प्राप्ति होती है। केवल योग करे और प्राप्तव्य वस्तु को न जाने, तो भटक जाएगा। इसलिए ज्ञानविहीन योग फलप्रद नहीं होता। योग परमात्मा तक पहुँचाता है तथा पहले ही ज्ञान में निर्णय होता है कि परमात्मा तक पहुँचना है। केवल वाक्य विनोद से काम नहीं चलेगा। योग से सिमटाव होता है, सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। ऊर्ध्वगति में आवरण छेदन होता है तथा सब आवरणों को पार कर कैवल्य दशा प्राप्त होती है, तब परमात्मा की प्रत्यक्षता होती है। हमलोगों को गुरु महाराज का उपदेश है, ‘ध्यान करो तथा सत्संग करो’ अर्थात् योग एवं ज्ञान दोनों करो। मेरे पास गुरु महाराज की बहुत-सी चिट्ठियाँ हैं। एक चिट्ठी में लिखते हैं-‘रोजाना अभ्यास करो, चाहे कुछ देखो या न देखो।’ अभ्यास के समय देखते जाओ, चाहे कुछ दृश्य देखने में आवे या नहीं। बाबा साहब कहते थे-‘जिस प्रकार लाह से लपेटी हुई लकड़ी को अग्नि के तेज में रखो तो पिघलते-पिघलते लाह गिर जाएगी और केवल लकड़ी रह जाएगी, उसी तरह ध्यानाभ्यास से सब आवरण उतर जाएँगे और तुम अकेले रह जाओगे।’ यह गुरु महाराज की आज्ञा है। इसका पालन हमलोगों को करना चाहिए। उनकी यह हिदायत थी; योग और ज्ञान, दोनों करो। 
 देेहावसान समये चित्ते यद्यद्विभावयेत्।
 तत्तदेव भवेज्जीव इत्येव जन्मकारणम्।।
 देह-त्याग के समय चित्त में जो-जो भावनाएँ जीव करता है, वही-वही वह होता है, यही जन्म का कारण है।
 जीवनभर जो अपने मन में सोचते हैं, वही भावना अंत में याद आवे, यह संभव है। जन्मभर में कभी जो काम नहीं किया अथवा कभी कभी किया, वह अंत समय याद आवे, संभव नहीं। इसलिए नित्य भजन करें। सब कामों को छोड़कर तथा सब कामों को करते हुए, दोनों ढंग से करें तो अंत समय में अवश्य याद आवेगा तथा अपना परम कल्याण होगा। 
प्र्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।। -गीता 8/10
 अर्थात् जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से भौओं के बीच भक्ति से शराबोर होकर और योगबल से अच्छी तरह प्राणों को स्थिर करता है तो दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है। यह शरीर चला जाएगा, कुछ संग जाने को नहीं है।
 माल मुलुक को कौन चलावे, संग न जात शरीर।
 करो रे बन्दे वा दिन की तदवीर।।
 इसलिए हमलोग भजन-अभ्यास अधिक करें। केवल जानें अथवा पढ़ें, किंतु ध्यान नहीं करें तो उसको लाभ नहीं होता। वैसे ही जैसे-
 धन धन कहत धनी जो होते, निर्धन रहत न कोय।
 केवल धन-धन के कहने से कोई धनी नहीं होता। काम करते हुए भी अपना ख्याल भजन में लगाकर रखना चाहिए।
 कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।।
 सो ध्यानी परमान, सुरत से अण्डा सेवै ।
 आप रहे जल माहिं, सूखे में अण्डा देवै ।।
 जस पनिहारी कलस भरे, मारग में आवै । 
 कर छोड़ै मुख वचन,चित्त कलसा में लावै ।।
 फणि मणि धरै उतार, आपु चरने को जावै ।
 वह गाफिल ना परै, सुरति मणि माहिं रहावै ।।
 पलटू कारज सब करै, सुरति रहै अलगान ।
 कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।।  
        -पलटू साहब
 भगवान श्रीकृष्ण का गीता में अर्जुन के प्रति यह उपदेश है-‘युद्ध भी करो तथा ध्यान भी करो।’ काम करने के समय भी हमारा ध्यान न छूटे, ऐसी कोशिश करनी चाहिए। जो दोनों तरह से भजन करते हैं, उनका मन विशेष बिखरता नहीं। इसलिए ऐसा अभ्यास करना चाहिए कि प्रयाणकाल में हमारा ख्याल गड़बड़ न हो जाय कि बारम्बार जन्म लेना पड़े तथा दुःख उठाना पड़े। इससे जो नहीं डरते, वह नहीं कर सकते।
 ‘डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार ।
 डरत रहे सो ऊबरे, गाफिल खावै मार ।।’
 ‘पिण्डपातेन या मुक्तिः सा मुक्तिर्नतु मन्यते ।
 देहे ब्रह्मत्वमायाते जलानां सैन्धवं यथा ।।
 अनन्यतां यदा याति तदा मुक्तः स उच्यते ।’
 अर्थ-मरने पर जो मुक्ति होती है, वह मुक्ति नहीं है; मुक्ति वह है, जबकि जीव ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लेता है, जैसे नमक जल में घुलकर एक हो जाता है। इस तरह जब जीव उससे अन्य नहीं रह जाता, तब मुक्ति होती है।
 जीवन-काल में जिसने मुक्ति प्राप्त कर ली है, उसे मरने पर भी मुक्ति प्राप्त होगी। जीवन- काल में मुक्ति प्राप्त नहीं हो तो मरने पर मुक्ति प्राप्त हो, यह संभव नहीं। संतों ने इसका अपनी वाणी में इस भाँति वर्णन किया है-
 लहहिं चारि फल अछत तनु, साधु समाज प्रयाग। -गोस्वामी तुलसीदासजी
जीवन मुक्त सो मुक्ता हो।
जब लग जीवनमुक्ता नाहीं, तब लग दुख सुख भुगता हो। -संत कबीर साहब
 जीवत छूटै देह गुण, जीवत मुक्ता होइ ।
 जीवत काटे कर्म सब, मुक्ति कहावै सोइ ।।
 जीवत जगपति कौं मिलै, जीवत आतम राम ।
 जीवत दरसन देखिये, दादू मन विसराम ।।
 जीवत मेला ना भया, जीवत परस न होइ ।
 जीवत जगपति ना मिले, दादू बूड़े सोइ ।।
 मूआँ पीछे मुकति बतावै, मूआँ पीछै मेला ।
 मूआ पीछै अमर अभै पद, दादू भूले गहिला ।। -दादू दयाल
 चिता में जलने-कब्र में दाखिल होने के पहले मोक्ष प्राप्त करो। -बाबा देवी साहब
 बाबा साहब ने इस उपदेश को विज्ञापन में छपवाकर बँटवाया था। सब संतलोग मजबूती के साथ कहते हैं-‘जीवनकाल में जो प्राप्त होगा, मरने पर भी वही प्राप्त होगा।’
विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्ति निकेतनम् । 
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।
 विन्दुनाद महालिंग है और शिवशक्ति का घर है। इस देह को शिवालय कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।
 विन्दु जलढरी है और नाद शिवलिंग है। शिवा- लय में देखते हैं-जलढरी पर शिवलिंग स्थापित है। उसी तरह यह शरीर शिवालय है। शरीर को पवित्र बनाकर मंदिर बना लें अथवा अपवित्र कर पैखाने का घर बना लें। पवित्र होने में पापों की ओर झुकते रहें, तो पवित्र कैसे होंगे? हमलोग अपनी इन्द्रियों को विषयों की ओर न ले जायँ, तब पाप नहीं होगा तथा तभी यह शिवालय होगा और तभी पवित्र दशा में इस शरीर में शिव अर्थात् कल्याण प्राप्त होगा। मंदिर को लोग साफ करते हैं, उसी प्रकार शौच के द्वारा शरीर को पवित्र रखना चाहिए तथा झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पाँचों पापों से बचना चाहिए। अगर कभी गलती से करो तो बहुत पश्चात्ताप करो तथा ईश्वर से प्रार्थना करो कि हे ईश्वर! मुझमें शक्ति दो, जिससे मैं इससे बच सकूँ तथा स्वयं खूब मुस्तैद रहो।
 ध्यान के समय अगर कुछ र्चिं मालूम होता है तो कैसा कल्याण जान पड़ता है। संतों की वाणी में केवल बात ही नहीं है। भजन करो तो अवश्य चैन-कल्याण मालूम होगा।
 भजन में होत आनंद आनंद।
 बरसत विशद अमी के बादर, भीजत हैं कोई संत।। -कबीर साहब
 अपने को इन्द्रियों के घाटों से छुड़ाते हुए उस ओर चलो, जहाँ परमात्मा का साक्षात्कार कर सकोगे। जिस तरह से हो सके, अपने को इन्द्रिय- धारों से कुछ भी आगे सरकाओ। जाग्रत और स्वप्न के बीच एक अवस्था होती है, जिसे तन्द्रा कहते हैं। उसमें ज्ञात होता है कि हम बाहर की बातों को भूलते जाते हैं। हाथ, पैर, गला; सब कमजोर होते जा रहे हैं, शक्ति भीतर की ओर खिंची जा रही है। इस समय बड़ा चैन मालूम होता है। यह परमात्मा का दिया हुआ नमूना है। इस (तन्द्रा) अवस्था में कुछ गड़बड़ होने से बहुत दुःख होता है। भजन करो, भजन बनने लगेगा और चैन होता जाएगा। इसलिए यह शरीर शिवशक्ति का घर है। शरीर में चेतन-धारा को समेटकर विन्दु प्राप्त करना शक्ति को प्राप्त करना है तथा विन्दु-भेदन करके नाद को ग्रहण करना शिव को प्राप्त करना है। इस प्रकार विन्दु तथा नाद दोनों को ग्रहण करने से शक्ति और शिव, दोनों प्राप्त हो जाते हैं। इसलिए अपने शरीर को विषयों में फँसाकर नरक मत बनाओ। इसे विषयों से हटाकर शिवालय बनाओ।
नादरूपं भु्रवोर्मध्ये मनसो मण्डलं विदुः।
 नादरूप मन का मण्डल भौओं के बीच में है, यह ज्ञानियों ने कहा है।
 पहला स्थान आज्ञाचक्र संबंधी बातों का संकेत किया है, ‘भ्रुवोर्मध्ये’। इसी को तीसरा तिल कहकर भी जनाया गया है। इसको ऊपर-नीचे, मध्य का स्थान भी कहते हैं। स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करने का यह द्वार है। इसी द्वार होकर सूक्ष्म में प्रवेश करने से ऊर्ध्वगति होती है। इसलिए भ्रुवोर्मध्ये की बड़ी महिमा है। संतों की वाणियों में भी इसका विस्तृत वर्णन है।
 बाँका परदा खोलि के, सन्मुख ले दीदार।
 बाल सनेही साइयाँ, आदि अंत का यार।।
 बाँका परदा खोलकर सम्मुख ही दर्शन करो। बाँका परदा-अंधकार का परदा कठिन है। इसको खोलने का भेद जानो। दृष्टियोग के द्वारा यह कठिन परदा खोला जाता है। इसके लिए शांभवी मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए। शांभवी मुद्रा का अभ्यास तीन तरह से करते हैं-अमादृष्टि, प्रतिपदा दृष्टि तथा पूर्णिमा दृष्टि। आँख बंदकर देखना अमादृष्टि से, आधी आँख खुली तथा आधी आँख बंदकर देखना प्रतिपदा दृष्टि से और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा दृष्टि से अभ्यास करना है। आधी आँख खोलकर यानी प्रतिपदा दृष्टि से तथा पूरी आँख खोलकर यानी पूर्णिमा दृष्टि से अभ्यास करना कष्टसाध्य है; किंतु आँख बंदकर अर्थात् अमादृष्टि से अभ्यास करना कष्टसाध्य नहीं, सुगम यथा सरल साधन है।
 अन्तरि जोति भई गुरु साखी चीने राम करंमा।
 बाबा नानक ऐसा नहीं कहते कि फलाने किताब में अथवा फलाने गं्रथ में ऐसा है। वे कहते हैं, अंतर में ज्योति जग गई, यही गुरु की साक्षी है। तब राम की ओर से जो बख्शीश-दयादान होता है; पहचान में आता है।


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यह प्रवचन संतमत सत्संग मंदिर, मुरादाबाद, उत्तरप्रदेश में दिनांक 20.1.1951 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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9. बाबा साहब के उपदेशों का सार

प्यारे लोगो!
 मैं पहले पहल सन् 1909 ई0 के अंत में बाबा साहब (पूज्य देवी साहबजी) के साथ यहाँ (मुरादाबाद) आया था। बाबा साहब सत्संग-प्रचार के लिए बहुत भ्रमण करते थे। वे भागलपुर गए थे, वहाँ पहले से ही उनका प्रचार था। सत्संग के लिए भागलपुर में एक घर बन चुका था, जो खपड़े से छाया हुआ था। उसमें लगभग पाँच-सात सौ आदमी बैठ सकते थे। वह समय अक्टूबर दुर्गापूजा का था। वहाँ वे एक पखवारे से अधिक ठहर गए। चलते समय मेरे विनय करने पर उन्होंने मुझे भी संग लेने की कृपा की। यहाँ (मुरादाबाद) आते-आते 1909 का अंत ही हो गया। उनके (बाबा साहब के) साथ मैं यहाँ (मुरादाबाद) पहुँचा। सत्संग होता था तो मैं बहुत कम समझता था। बाबा साहब मुझे विशेष समझाना चाहते थे। सत्संग वचन कहकर वे सबसे पूछते थे, क्या समझा? हमसे भी पूछते थे। वे विद्यालय की शिक्षा के समान ही-जिससे याद रहे, सत्संग वचन समझाकर प्रश्न किया करते थे। इनका (बाबा साहब का) लेख बहुत कम मिलता है। रामायण के ‘बाल का आदि तथा उत्तर का अंत’ तथा ‘घटरामायण की भूमिका’; इन दो ही पुस्तकों में इनका लेख पाया जाता है। इनका मत ऐसा नहीं था कि जिसमें किसी दूसरे मत का खंडन हो। मैं यही जानकर उनके सत्संग में सम्मिलित हुआ था। पुरैनियाँ जिलान्तर्गत ग्राम जोतरामराय में बाबू धीरजलालजी सत्संग कराते थे। मैंने उनसे पूछा-‘सत्संग क्या है?’ उन्होंने उत्तर दिया-‘ईश्वर-
भक्ति का उपदेश।’ मैंने पूछा-‘आपका क्या मत है?’ उन्होंने उत्तर दिया-‘संतमत।’ मैंने फिर पूछा- ‘संतमत क्या है ?’ उन्होंने उत्तर दिया-‘जो सब संतों का मत है।’ मैंने फिर पूछा-‘आप सब संतों को मानते हैं?’ उन्होंने उत्तर दिया-‘हाँ, सब संतों को मानता हूँ।’ 
 मेरे हृदय में यह सुनकर कि ये सब संतों को मानते हैं, संतमत-सत्संग की ओर बड़ा आकर्षण हुआ। मैं पहले सत्संग का विरोधी था। अन्य लोगों को भी सत्संग में जाने के लिए मना करता था। मैं लोगों से कहता था-‘ये लोग (सत्संगी) गुरु को नहीं मानते, वहाँ मत जाओ।’ क्योंकि मैं तो कभी सत्संग में गया था नहीं, केवल लोगों से सुना था कि ये लोग गुरु, देवता-देवी आदि किसी को नहीं मानते।
 बाबा साहब कहते थे-‘वैदिकधर्मी, मुसलमान, ईसाई कुछ बने रहो, असली चीज धर्म को जानो और ध्यानाभ्यास किए बिना एक दिन भी मत रहो।’ इनमें (बाबा साहब में) मत-मतान्तर नहीं था, उनको यह उपदेश करते मैंने देखा था। हमलोग उनको याद करें, इसलिए मैं उनके उपदेशों का वर्णन करता हूँ, उनके शरीर का नहीं। उनके उपदेश का वर्णन करने से हममें उस कर्म को करने के लिए प्रेरणा होती है। सन् 1909 ई0 में मुझे बाबा साहब के प्रथम दर्शन हुए। सन् 1919 ई0 में वे परमधाम सिधारे। वे सिखाते थे-‘सत्य बोलो।’ अगर कोई झूठ बोले और उनको मालूम हो तो वे कहते थे-‘ऐसा क्यों किया?’ अपनी झूठ बोलनेवाली जिह्ना को निकालकर क्यों नहीं फेंक देते?’
 सन् 1912 ई0 में मैं फिर मुरादाबाद आया। वे कहते थे,‘सबको दुनिया में आजादी हासिल करनी चाहिए।’ उनके कथनानुसार अपनी कमाई से अपना गुजर करना, दुनिया में आजादी हासिल करना था। कभी-कभी तो वे यह भी कहा करते थे कि चालीस वर्ष की उम्र तक अपनी कमाई से इतना जमा कर लो, फिर पीछे काम न करना पड़े।
 बाबा साहब के पूछने पर मैंने मधुकरी वृत्ति से अपने जीवन-यापन के विषय में (बाबा साहब से) कहा था। इस पर बाबा साहब ने कहा कि जो अपनी इच्छा कम रखते हैं, वे थोड़ी-सी पूँजी पाकर भी संतुष्ट रहेंगे। विशेष इच्छा रखनेवाले संतोषी नहीं होते और इसी कारण वे दुःखी रहते हैं। फिर मुझसे बोले-‘तुम थोड़ी-सी जमीन लेकर बाँस लगाओ।’ किंतु मुझे पिताजी से जमीन माँगने में लज्जा आती थी; क्योंकि मैंने पिताजी की सेवा कुछ भी नहीं की थी। उन्होंने मुझको पढ़ाया, लिखाया तथा बचपन में सेवा की आदि, लेकिन मैंने उनका बदला कुछ नहीं दिया था। दूसरी बात यह थी कि अगर जमीन मिल भी जाय तो पूँजी चाहिए थी उसे जोतने, कोड़ने तथा कुछ लगाने के लिए। मैंने बाबा साहब से कहा-‘अगर जमीन तैयार करते-करते ही शरीर चला जाय तब?’ बाबा साहब बोले-‘तुम मुझे ज्ञान सिखाने आए हो, अगर तुम सौ वर्ष तक जीते रहे, तब क्या खाओगे?’ उन्होंने मुझे बहुत फटकारा और मुझे 80 रुपये देने लगे और बोले-‘इससे जाकर काम करो। कम जाय तो फिर लेना, जब तुम्हें हो तब वापस करना।’ मैंने मन में कहा-‘गुरुऋण रहा सोच बड़ जी के।’ फिर मैंने कहा-‘अगर आपकी ऐसी इच्छा है, तो गुजारा हो जाएगा। मैं जाता हूँ काम करने।’
 वे (बाबा साहब) चाहते थे कि कोई आदमी ऐसा न हो जो अपने कमाई से नहीं खा सके। इसलिए मैंने कुछ मोटा काम किया, बाँस बाड़ी लगाई। फिर पौने दो वर्षों तक लड़कों को पढ़ाकर अपना गुजारा किया। उन बाबा साहब की कृपा से अब यों ही चलता है। कुछ दिनों तक यहाँ (मुरादाबाद) रहने के पश्चात् मैं अपने वहाँ लौट गया। फिर लौटकर जब मैंने यहाँ बाबा साहब से भेंट की, तब बाबा साहब बोले-‘मोक्ष तो दूर की बात है, पर संसार से तुम आजाद हो गए।’ खाने के लिए कोई दूसरे का मुहताज बने, ऐसा उनका ख्याल नहीं था। लालची की नजर में कितना ही धन हो, वह कम ही है। लालच पर एक सुप्रसिद्ध कथा है- 
 एक राजा बड़ा लालची था। कितना ही धन मिले, पर वह संतुष्ट नहीं होता था। अपनी प्रजा से अनेक प्रकार के कर लेकर जब उसे संतोष नहीं हुआ, तो उसने फौज लेकर समुद्र पर चढ़ाई कर दी और कर माँगने लगा। जब सीधी बातों से समुद्र ने कर नहीं दिया, तो वह राजा समुद्र में गोले, बम आदि बरसाने लगा। समुद्र मनुष्य के रूप में आकर बोला-‘राजन्! क्या बात है? जो गोले गिराकर मेरे अंदर रहनेवाले मगर, मछली, कछुए आदि अनेकों जीवों की हत्या कर रहे हो?’ राजा बोला- ‘समुद्र! तुम मेरे राज्य के अंदर कितने वर्षों से निवास करते हो, किंतु आजतक तुमने मुझे कर- स्वरूप कुछ भी नहीं दिया है। वही कर वसूल करने के लिए तुम्हारे पास आया हूँ।’ समुद्र बोला-‘राजा! तुम जितना धन लेना चाहो; मैं तुम्हें एक खजाना बता देता हूँ, उससे ले लो।’ यह कहकर समुद्र राजा को धन का एक खजाना बताकर गुप्त हो गया। समुद्र के बताए हुए खजाने से राजा धीरे-धीरे धन ढोने लगा। धन ढोते-ढोते राजा के कितने बैल मर गए; गाड़ियाँ टूट गईं; कितने नौकर बीमार हो गए, राजा का घर धन से भर गया, किंतु राजा का मन नहीं भरा; क्योंकि समुद्र के बताए हुए खजाने के धन का अंत ही नहीं होता था। राजा फिर फौज लेकर समुद्र किनारे पहुँचा और बम-गोला आदि बरसाने लगा। समुद्र फिर मनुष्यरूप में आकर बोला-‘राजन्! अब क्या बात है, कहिए?’ राजा बोला-‘तुम्हारे धन को ढोते-ढोते मेरे सब घर भर गए, किंतु तुम्हारे धन का अंत नहीं हुआ। अब मेरे पास स्थान नहीं, जहाँ धन को ले जाकर रख सकूँ। इसलिए कोई ऐसा बर्तन दो, जिसमें सब धन अँट सके।’ समुद्र ने राजा के हाथ में मनुष्य-खोपड़ी देते हुए कहा-‘राजा! यह खोपड़ी लो, इसी में रखो।’ यह कहकर समुद्र अंतर्द्धान हो गया। राजा तो पहले मन-ही-मन घबड़ाया। भला! इसमें कितना धन अँट सकता है? फिर जब उसमें धन भरने लगा, तब न तो खोपड़ी ही भरती है और न धन का ही अंत होता है। यह देखकर राजा और भी विशेष व्याकुल हो गया। उन्होंने (राजा ने) फिर समुद्र पर गोले बरसाना आरंभ कर दिया। समुद्र फिर मनुष्यरूप में प्रकट हुआ और बोला-‘राजा! क्या बात है, जो बारम्बार मुझ पर गोलेबारी करते हो?’ राजा बोला-‘समुद्र! देखो, यह न खोपड़ी भरती है और न इस धन का अंत होता है। अब क्या किया जाय?’ समुद्र बोला- ‘राजा! तुम बड़े मूर्ख हो, मनुष्य की खोपड़ी भी कहीं भरती है? इसपर राख डालो, तभी यह खोपड़ी भरेगी।’ यह कहकर समुद्र ने थोड़ी-सी मिट्टी ले खोपड़ी में रख दी। मिट्टी रखते ही खोपड़ी भर गई। इसका सारांश यह है कि मनुष्य जबतक अपनी इच्छा पर धूल नहीं डालता, अर्थात् मनुष्य जबतक संतोष धारण नहीं करता, तबतक वह बराबर दुःखी रहता है और संतोष कर लेने पर ही वह दुःख-रहित हो जाता है। इसलिए मनुष्य को संतोषी होना चाहिए।
 गोधन गजधन बाजिधन, और रतन धन खान।
 जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान।।
 अपनी जीवन-रक्षा के लिए सच्ची कमाई करके खाओ, यही सांसारिक आजादी है।
 संतों के मत में सबसे बड़ी चीज मोक्ष है। किंतु शरीर के अंदर जो कैद हो, इससे तुम्हारा छूटकारा हो जाय तो संसार से भी छूटकारा हो जाय। पिण्ड से छूट जाय तो ब्रह्माण्ड (बाह्य जगत) से भी छूटकारा हो जाय। कोई कहे-पिण्ड से निकल जाय तो बाहर संसार से भी कैसे निकल जाएगा? तो इस शरीर और संसार में बड़ा सरोकार है। जितने तत्त्वों से शरीर बना है, संसार भी उतने ही तत्त्वों से बना है। तल की दर्जेबंदी करने पर स्थूल-सूक्ष्म भेद से जितने तल शरीर के होते हैं, संसार के भी उतने ही तल हैं। शरीर जिस प्रकार पाँच तत्त्वां तथा तीन गुणों से बना हुआ है, संसार में भी पाँच चीजें अर्थात् आकाश, अग्नि, वायु, जल और पृथ्वी तथा तीन गुण-रज (उत्पादक शक्ति), सत्त्व (पालक शक्ति) और तम (विनाशक शक्ति) है। जाग्रत में शरीर के स्थूल तल पर काम करने से संसार के भी स्थूल तल पर ही काम करते हैं। स्वप्न में शरीर के स्थूल तल पर काम नहीं करने से संसार के भी स्थूल तल पर काम नहीं कर सकते। इस प्रकार यदि आप अपने शरीर के सूक्ष्म तल पर पहुँच जायँ तो संसार के भी सूक्ष्म तल पर पहुँच जाएँगे तथा जिस प्रकार शरीर के स्थूल तल पर रहकर स्थूल संसार को दूर तक देखते हैं तथा विचरण करते हैं, उसी प्रकार शरीर के सूक्ष्म तल पर पहुँचने पर आप सूक्ष्म संसार (ब्रह्माण्ड के सूक्ष्म तल) को दूर तक देखेंगे तथा विचरण करेंगे। इस प्रकार जो पिण्ड को पार करेगा, वह ब्रह्माण्ड को भी पार कर जाएगा। स्थूल को देखकर सूक्ष्म का ज्ञान होता है। सूक्ष्म भी बिना कारण के नहीं हो सकता तथा कारण भी बिना महाकारण के हो नहीं सकता। इन चारों से छूटने पर कैवल्य परम पद है। बाबा साहब इसी का उपदेश करते थे तथा साधन बताते थे। वे कभी नहीं कहते थे कि हम तुमको ऊपर चढ़ा देंगे। वे कहते थे कि उस ईश्वर को पाने के लिए उसका अवलंब, उसके प्रति तुम्हारी भक्ति होनी चाहिए। इसके लिए साधन ठीक है, करो। जहाँ ईश्वर की प्राप्ति होती है, वहाँ सारे मायिक आवरणों का पार होना होता है। जहाँ सब आवरणों का पार होना होता है, वहीं परमात्मा है। 
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई।कोटि भाँति कोउ करै उपाई।।
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई।रहि न सकई हरि भगति बिहाई।। - गोस्वामी तुलसीदास
 बाबा साहब वही बतलाते थे, जो वेद, उपनिषदों तथा संतवाणियों में है। वे कहते थे-‘कब्र में दाखिल होने तथा चिता में जलने के पहले मोक्ष प्राप्त कर लो।’ इसके साधन बतलाते थे-‘मन को एकाग्र करो।’ इसकी बड़ी आवश्यकता है।
 सुरत फँसी संसार में, ताते परिगा दूर।
 सुरत बाँधि सुस्थिर करो, आठो पहर हजूर।।
 पहले मोटा-मोटी जप करो। फिर किसी स्थूल रूप का मानसध्यान करो। फिर सूक्ष्म ध्यान के लिए दृष्टिसाधन करो। दृष्टिसाधन उसको कहते हैं कि जो आँख के साथ अभ्यास किया जाता है। इसके साधन करने के सैकड़ों गुर और अमल हैं कि जो भारतवर्ष और दूसरे मुल्कों में जारी है, लेकिन बाजे इनमें ऐसे हैं कि जिनसे आँख के दोनों गोले टेढ़े पड़ जाते हैं। और बाजे ऐसे हैं कि जिनसे आँख जाती रहती है और बाजे कायदे ऐसे भी हैं जो कि आँख की दोनों पुतलियों को, जिनमें होकर रोशनी बाहर को निकलती है, खराब कर देते हैं। जिससे फिर आँखों से धुँधला दिखाई पड़ता है और चाहे तमाम उमर हकीम, वैद्य, डॉक्टर इलाज करे, किसी तरह पुतलियाँ दुरुस्त नहीं होती। दृष्टि से अभ्यास करने का वह भी कायदा है जिसको आँख और आँख के गोले से कुछ तअल्लुक नहीं है और न दृष्टि के मानी आँख और आँख के गोले हैं, जिससे कि यह नुकसान होते हैं। जो ऊपर बयान किए गए हैं, दृष्टि निगाह को कहते हैं कि जो मांस और खून की बनी हुई नहीं है। मनुष्य में यह निगाह ऐसी बड़ी ताकतवर चीज है कि जितने बड़े-बड़े छिपे हुए साइन्स और विद्याओें को निकालकर दुनिया में जाहिर किया है और सिद्धि वगैरह की असलियत और मसालों का पता जिससे कि वह हो सकती है। सिवाय इसके और किसी से नहीं लग सकता है। योगविद्या सिखने का दृष्टि पहिला कायदा है और इससे अभ्यास करने का गुर ऐसा उमदा है, जिससे स्थूल शरीर के किसी हिस्से को कुछ तकलीफ नहीं होती है और अभ्यासी इसके अभ्यास से उन निसानों को जिनको की ईश्वर या खुदा की आकाशी या आसमानी गं्रथां और किताबों में सबसे बड़ा बतलाया है। जल्द पाकर मालूम कर लेता है और तमाम दुनिया के सिद्धांत और उसूल अभ्यासी के रूबरू हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं कि जो तमाम उमर पोथियों और ग्रंथों के पढ़ने और सुनने से हासिल नहीं होते, लेकिन दृष्टि सिर्फ उसी जगह पहुँच सकती है, जहाँ तक की रूप है और जहाँ से कि आवागमन हो सकता है, दृष्टि उसके आगे नहीं जा सकती, जहाँ कि रूप और रेखा कुछ भी नहीं है और जहाँ से कि मोक्ष होता है। संतों के मत में सबसे बड़ा पदार्थ मोक्ष है और उस जगह तक दृष्टि नहीं जा सकती। इसलिए शब्द का दूसरा कायदा वहाँ पहुँचने को उपदेश दिया गया है। 
बाबा साहब के दृष्टियोग (दृष्टिसाधन) तथा शब्दयोग (शब्दसाधन) विषयक वर्णन को कबीर साहब का यह शब्द अत्यंत पुष्ट करता है-
गगन की ओट निशाना है।
दहिने सूर चंद्रमा बायें, तिनके बीच छिपाना है ।।
तन की कमान सुरत का रोदा, शब्द बान ले ताना है ।
मारत बान बिंधा तन ही तन, सतगुरु का परवाना है।।
मारयो बान घाव नहिं तन में, जिन लागा तिन जाना है ।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, जिन जाना तिन माना है ।।
इसी प्रकार की वाणी सब संतों की वाणियों में पायी जाती है। बाबा साहब कहते थे कि दृष्टि- अभ्यास के बाद शब्द-अभ्यास करो। भजन के समय सब ख्यालों का विर्सजन कर बैठो। भाव- शून्य होकर बैठो। गुरु के बताए निसाने पर अपने को लगाओ। भावना करते हुए जो बैठता है, वह भावना के अनुकूल होता है। इसलिए भावना को छोड़ो। वे अनेक शब्दों का जिकर नहीं करते थे, एक सार शब्द पर ही विशेष जोर देते थे। गवैया लोग गाने के लिए बैठते हैं, तो बाजा मिलाते हैं। क्या मिलाते हैं? सितार, सारंगी, तबला, डुग्गी, हारमोनियम, मजीरा आदि। इन सबकी अलग-अलग आवाजें हैं- उनलोगों से पूछने पर मालूम हुआ कि हमलोग साज को एक समान कसते हैं, जिससे सबका स्वर एक मिले। सबका स्वर मिलने पर सब ध्वनियाँ एक ही मालूम होती है। सब साजों की ध्वनियों में एकता होने पर तब यह मालूम नहीं होता कि यह इसकी और यह उसकी आवाज है। सब एक ही हो जाती है। उसी प्रकार सब आवाजों की एक आवाज सारशब्द है यह बाबा साहब कहते थे। वह ध्वनि देर तक रहती है।
 महति श्रूयमानोऽपि मेघ भेर्यादिके ध्वनौ।
 तत्र सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं नादमेव परामृशेत््।।
(हठयोग प्रदीपिका, गोरखनाथजी महाराज के शिष्य स्वात्मारामजी महाराज)
 अर्थ-मेघ, भेरी आदि का जो महान शब्द है, उसके तुल्य शब्द के सुनने पर भी उन शब्दों में सूक्ष्म-से-सूक्ष्म जो नाद है, उसका चिंतन करे; क्योंकि सूक्ष्म नाद चिरकाल तक रहता है। उसमें आसक्त हुआ है चित्त जिसका, ऐसा मनुष्य भी चिरकाल तक स्थिरमति हो जाता है।
 इसलिए बाबा साहब एक सारशब्द के लिए उपदेश देते थे। एक शब्द को कहाँ पकड़ोगे? इसलिए दृष्टियोग पर बहुत जोर देते थे।
सुखमन के घरि राग सुनि, सुन मण्डल लिव लाइ ।
अकथ कथा बीचारीअै, मनसा मनहिं समाइ ।।
उलटि कमलु अंमृति भरिआ, इहु मन कतहुँ न जाइ ।
अजपा जाप न बीसरै, आदि जुगादि समाइ ।।
सभि सखिया पंचे मिलै, गुरमुखि निज घरि वासु ।
सबदु खोजि इहु घर लहै, नानकु ताका दासु ।। - गुरु नानक साहब
 यही उपदेश हमलोगों को बाबा साहब दे गए हैं, जिसका वर्णन कबीर साहब और गुरु नानक साहब आदि संतों की वाणियों में भी पाया जाता है। सदाचार का पालन करना चाहिए। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा तथा व्याभिचार; इन पाँचों पापों से अलग रहना चाहिए। बाबा साहब हमलोगों को जो उपदेश दे गए हैं, वह अत्यंत दृढ़ है तथा रास्ता बिल्कुल ठीक है। हमलोगां को उसपर दृढ़ता के साथ चलना चाहिए।


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यह प्रवचन बाबा देवी साहब के निर्वाण दिवस पर संतमत सत्संग मंदिर, मुरादाबाद, उत्तरप्रदेश में दिनांक 21.1.1951 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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10. ध्यान-योग की महिमा

प्यारे लोगो!
 यदि शैल समं पापं विस्तीर्णं बहु योजनम्।
 भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन।।
 बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम्।
 सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम्।। -ध्यानविन्दूपनिषद्
 संसार में लोग बराबर काम किया करते हैं। कामों को साधारणतः दो भागों में बाँट सकते हैं- शुभ और अशुभ। शुभ कर्म को पुण्य कहते हैं तथा अशुभ कर्म को पाप कहते हैं। जिस कर्म से आत्मा की ऊर्ध्वगति हो, उसे पुण्य तथा जिस कर्म से आत्मा की अधोगति हो, उसे पाप कहते हैं। पुण्य कर्म करनेवाले को पुण्यात्मा-धर्मात्मा कहते हैं और पाप कर्म करनेवाले को पापात्मा कहते हैं। पाप का फल दुःखमय तथा पुण्य का फल सुखमय होता है। लोग अधिकतर पाप ही करते हैं तथा उसका फल दुःख भोगना नहीं चाहते, शान्तिमय सुख प्राप्त करने की ही अभिलाषा रखते हैं। फिर लोग यह भी समझते हैं कि पाप किया, फिर पुण्य करने पर पाप कट जायेगा, किन्तु ऐसा नहीं होता। यहाँ यह हिसाब नहीं है कि दो में से दो घटाओ (2 - 2 = 0), तो बाकी कुछ नहीं बचेगा। हाँ, यह अवश्य है कि पुण्य का फल अलग तथा पाप का फल अलग भोगना पड़ेगा। 
 महाराज युधिष्ठिर बड़े धर्मात्मा थे। नित्य ब्राह्मण भोजन कराते थे, दान करते थे, बड़े-बड़े यज्ञ करते थे, दुर्गम-से-दुर्गम स्थान में तीर्थ करने गये थे। जहाँ वे स्वयं नहीं जा सकते, वहाँ भीम के पुत्र घटोत्कच की सहायता से उस दुर्गम स्थान में जाते थे। भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन भी उनको बराबर ही हुआ करता था। वे सदा सत्य बोलते थे; लेकिन केवल एक शब्द झूठ बोलने पर मिथ्या नरक देखना पड़ा तथा नरक का दुःख भोगना पड़ा, जैसा कि महाभारत में लिखा है। तप, दान-पुण्य, तीर्थ, यज्ञ आदि कितना शुभ कर्म, पुण्य कर्म उन्होंने किया, किन्तु इतने पुण्य करने पर भी एक झूठ बोलने के कर्म-फल से नहीं बच सके। इससे जानना चाहिए कि पुण्य करने से पाप कर्म के फल से कोई बच नहीं सकता। किन्तु ध्यानविन्दूपनिषद् के उपर्युक्त श्लोक एक से जानने में आता है कि कई योजन तक फैला हुआ पहाड़ के समान यदि पाप हो, तो वह ध्यानयोग से नष्ट हो जाता है; इसके समान पापों का नाश करनेवाला कभी कुछ नहीं हुआ है। 
 तो अब विचार करना चाहिए कि ध्यानाभ्यास से पाप नष्ट हो जायगा, यह ऋषि-वाक्य (उपनिषद् में) है; इसलिए मान लें अथवा इसको तर्क-बुद्धि से भी जानने की कोशिश करें, तो तर्क-बुद्धि से विचारने पर भी यही ज्ञात होता है कि ध्यानाभ्यास से अवश्य नष्ट होगा; क्योंकि जो मनुष्य ध्यानाभ्यास करता है, वह अपने मन को विषयों से हटाकर एक ओर लगाता है। वह एकओरता एक विन्दु है। विन्दु उसे कहते हैं, जिसका स्थान हो, परिमाण नहीं। तो इतने सूक्ष्म पर अपने मन को पहले-पहल लगाना सम्भव नहीं; क्योंकि मोटे अक्षर के लिखे बिना बारीक अक्षर नहीं लिख सकते। इसलिये पहले मोटा-मोटी इन्द्रिय-गम्य पदार्थ का ही अवलम्बन लेना उचित होगा। साधु-सन्तों ने पंच विषयों में से दो विषयों-रूप और शब्द को लेने बताया अर्थात् किसी एक रूप को, जिसमें अपनी पूर्ण श्रद्धा हो, उस रूप के मानस-ध्यान का तथा उस इष्ट- सम्बन्धी शब्द के मानस-जप का अवलम्ब सन्तों ने बताया। यह आरम्भिक साधन है। इस प्रकार मन को एक ओर करते हैं। फिर विन्दु-ध्यान के द्वारा मन का पूर्ण सिमटाव हो जाता है। सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। ऊर्ध्वगति होने के कारण वह स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश कर जाता है। लोग स्थूल विषयों में फँसकर ही पाप करते हैं। जो स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश कर जाय, उससे पाप होना सम्भव नहीं; क्योंकि इस प्रकार सूक्ष्म-ध्यान करते-करते उसका मन स्थूल विषयों से हट जाता है। ऐसी अवस्था में उससे पाप हो सके, असम्भव है अर्थात् उससे पाप-कर्म नहीं हो सकता है। फिर सूक्ष्म में सूक्ष्म नादों का ग्रहण होगा, जिसके द्वारा ऊर्ध्व की ओर खिंचाव होगा, तब कारण और महाकारण को भी पार कर कैवल्य दशा प्राप्त कर, इस प्रकार वह जड़ के सब मण्डलों को पार कर कर्म-मण्डलों को पार कर जाता है। जो कर्म-मण्डलों को पार कर गया, उसका पीछे का किया हुआ जो सि०चत कर्म है, उससे वह छुटकारा पाकर प्रारब्ध के बन्धन से छूट जाता है। जो कर्म-मण्डल को पार कर गया है, वह कर्म-फल के घेरे में नहीं रह सकता। इस प्रकार ध्यानाभ्यास के द्वारा सब पापों से मुक्त हो जाता है और परमपद प्राप्त कर लेता है। 
  ब्रह्महत्या सहस्त्राणि भ्रूणहत्या शतानि च।
 एतानि ध्यानयोगश्चदहत्यग्निरिवेन्धनम्।।38।। -उत्तरगीता, अ0 2
 किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि पाप करते जाओ और ध्यान करते जाओ, पाप कट जायगा। बात तो यह है कि जबतक कोई संयमी नहीं बनेगा, पाप-कर्मों से अपने को नहीं बचावेगा, तबतक उससे ध्यान हो नहीं सकता है। अतः मनुष्य को संयमी होना चाहिए अर्थात् झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पाँच पापों से मनुष्यों को अलग रहना चाहिए। एक सर्वेश्वर पर अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा तथा अपने अन्तर में ही उसकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना चाहिए।
 आप कहेंगे कि बाहर में परमात्मा को क्यों नहीं प्राप्त करेंगे? तो पहले यह जानना चाहिए कि परमात्मा इन्द्रियगम्य नहीं है, वह आत्मगम्य है। बाहर में आप इन्द्रियों के संग-संग चलेंगे; किन्तु अन्तर में चलने के समय इन्द्रियों से छूटते हैं। इसके लिए जाग्रत् से स्वप्नावस्था में जाने की स्थिति पर विचार कीजिए। जाग्रत्-स्वप्न के बीच एक तन्द्रवस्था होती है। उसमें क्या होता है? हाथ-पैर कमजोर होते जाते हैं। उसमें गला झुक जाता है, ज्ञात होता है कि शक्ति भीतर की ओर खिंची जा रही है, बाहर का ज्ञान जाता रहता है। सामने का कोई रूप नहीं देख सकते; कोई सुमधुर शब्द में गाना गाता है, तो उसे भी नहीं सुन सकते, क्यों ? उस समय बाहर से सिमटकर भीतर प्रवेश करने में बाह्य इन्द्रियों का संग छूटता है। इन्द्रियों का संग छोड़कर आप अकेले रहकर उस परमात्मा की पहचान कर सकते हैं। इसलिए अपने भीतर प्रवेश कीजिये। जब अपने अन्दर में पहचान हो जायगी, तब बाहर में भी पहचान सकते हैं। 
 सब किछु घर महि बाहरि नाहीं। 
 बाहरि टोलै सो भरमि भुलाहीं।।
 गुरु परसादी जिनि अन्तरि पाइआ। 
 सो अन्तरि बाहरि सुहेला जीउ।। -गुरु नानकदेव
 सद्गुरु की निष्कपट सेवा, सत्संग और दृढ़ ध्याना -भ्यास; इन त्रिविध कर्मों को नित्य करना चाहिए।


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यह प्रवचन बिहपुर ( जिला-भागलपुर ) हाई स्कूल के प्रांगण में दिनांक 26.1.1951 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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11. ईश्वर-भक्ति से सुख की प्राप्ति

प्यारे धर्मप्रेमी सज्जनो!
 हम सब लोग सुख की ओर दौड़ते हैं। दुःख नहीं होने पावे, ऐसी इच्छा करते हैं। इसके लिए जो यत्न जानने में आता है, उसका प्रयोग करते हैं, किन्तु फिर भी पूर्णरूपेण सफलता प्राप्त नहीं कर पाते। यह आज ही ऐसा है, यह बात नहीं। पौराणिक काल के इतिहास को पढ़कर देखते हैं, तो मालूम होता है कि तब के लोगों की भी यही हालत थी तथा आगे भी यही हालत रहे, संभव है। क्यों? आखिर इसका कारण क्या है? हमलोग उसी को सुख कहते हैं, जो मन और इन्द्रियों को सुहाता है तथा मन और इन्द्रियों को जो नहीं सुहाता, उसे ही दुःख कहते हैं। जो विषय जिस इन्द्रिय का है, वह विषय उस इन्द्रिय को मिलने से सुख तथा वही विषय उतना नहीं मिलने पर दुःख मानते हैं। किन्तु यथार्थतः इन विषयों से कभी भी तृप्त नहीं हो पाते। सुख की तलाश में अपनी शक्ति भर कोशिश करते हैं, फिर भी अतृप्ति ही रहती है। पहले के लोगों ने इस सुख के लिए स्वर्ग पाने की कोशिश की; क्योंकि वहाँ विशेष सुख है। अतः वहीं चलना चाहिए। किन्तु जब स्वर्ग के विषय में विचारते हैं, तो श्रीराम का यह उपदेश ‘एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई।।’ सामने आ जाता है। वहाँ भी सुख के बाद दुखः, दुःख के बाद सुख-ऐसे ही आते-जाते रहते हैं, जैसे गाड़ी का पहिया-‘चक्रवत् परिवर्त्तन्ते दुःखानि च सुखानि च।’ उसी प्रकार हमलोगों के पीछे सुख-दुःख घूमते रहते हैं। दिन- ही-दिन रहे, रात न हो, ऐसा हो नहीं सकता। किन्तु लोग दुःख को नहीं चाहते, सुख ही चाहते हैं। सुख भी ऐसा हो, जो तृप्तिदायक, कल्याणदायक तथा पूर्ण शान्तिदायक हो। किन्तु ऐसा सुख नहीं मिलने पर मालूम होता है कि यथार्थ में ऐसा सुख है ही नही। जैसे कोई जन्मांध कहे कि रूप है ही नहीं, तो क्या यह विश्वास-योग्य है? संतों ने जो उस सुख को प्राप्त किया, वे दृढ़ता के साथ कहते हैं कि ऐसा सुख भी अवश्य है। अगर ऐसा सुख नहीं होता, तो क्या सन्त लोग झूठ-मूठ अपनी वाणी में कहते? अथवा क्या यह गप है? किन्तु उनकी बातों पर दृढ़ होने से यह ज्ञात होता है कि वे मिथ्या नहीं बोल सकते। क्या झूठ बोल कर ही वे लोग साधु-सन्त कहलाए? कभी नहीं। उनलोगों से पूछने पर मालूम होता है कि लोग जो साधारण रीति से दुःख-सुख जानते हैं, वह इन्द्रियजन्य दुःख-सुख है। यह विषय-सुख है-विषयानन्द है। विषय-सुख परिवर्तनशील, क्षणभंगुर सुख है। इन्द्रियों में वह पूरी-पूरी शक्ति भी नहीं है, जो विषयों को पूर्णरूपेण भोग सकें तथा पूर्ण तृप्ति प्राप्त कर सकें। जिसमें पूर्ण शक्ति ही नहीं, वह विषय को पूर्णरूपेण भोग कैसे सकती है तथा उससे जो तृप्ति हो, वह पूर्ण कैसे? वह अनित्यानन्द है। इसके अतिरिक्त कुछ और है, जो इन्द्रियगम्य (पाँच कर्मेन्द्रियाँ-हाथ, पैर, गुदा, लिंग तथा मुँह; पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ-आँख, कान, नाक, जिह्ना तथा त्वचा; चार अंतःकरण-मन, बुद्धि चित्त और अहंकार-कुल चौदह इन्द्रियाँ) नहीं है। वह इन्द्रियों से परे क्या है? इन्द्रियों के ज्ञान से परे चेतन आत्मा है। इससे जानने अथवा ग्रहण करने योग्य जो पदार्थ है, उस पदार्थ को प्राप्त कर लेने पर सुख-ही-सुख है, दुःख लेशमात्र भी नहीं है। वह पदार्थ क्या है? ईश्वर। वह केवल चेतन-आत्मा से जानने योग्य है। चेतन-आत्मा क्या है? जब इस पर विचारते हैं, तो पता चलता है कि इस शरीर में मैं रहता हूँ; मेरी आँखें, मेरे हाथ, मेरे पैर, मेरा शरीर आदि कहकर जानता हूँ, किन्तु अपने को नहीं पहचानता। अपने स्वयं कौन हैं? इसपर सन्त सुन्दरदासजी की यह वाणी सुनिए-
 तू तौ कछु भूमि नाहिं , अप तेज वायु नाहिं।
 व्योम पंच¹ विष नाहिं, सो तौ भ्रम कूप है।।
 तू तौ कछु इन्द्रिय रु, अन्तःकरण नाहिं।
 तीन गुण तू तौ नाहिं, न तौ छाहिं धूप है।।
 तू तौ अहंकार नाहिं, पुनि महतत्त्व नाहिं।
 प्रकृति पुरुष नाहिं, तू तौ स्व अनूप है।।
 सुन्दर विचार ऐसे, शिष्य सूँ कहत गुरु।
 नाहिं नाहिं कहत रहै, सोई तेरो रूप है।।
                                                                --सुन्दरदासजी
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी।
                        -गोस्वामी तुलसीदास
 इस प्रकार अपने शरीर में रहने का बौद्धिक ज्ञान तो हो जाता है; किन्तु यथार्थ में मैं कौन हूँ, इसकी पहचान नहीं होती। अपनी पहचान नहीं होने पर भी यह ज्ञान अवश्य बना रहता है कि ‘मैं हूँ’ तथा ये (पंच ज्ञान की, पंच कर्म की तथा चार अंतर की) इन्द्रियाँ मेरी हैं, मैं इनसे भिन्न हूँ। किन्तु जिस तरह मैं अपने शरीर को पहचानता हूँ, उस तरह अपने को नहीं। अपने की पहचान नहीं होने का क्या कारण है? इसपर सन्त लोग बतलाते हैं कि तुम अपने को इन्द्रियों से जानना चाहते हो, यह कैसे होगा? तुम अन्दर में हो और इन्द्रियों को बाहरी विषयों का ज्ञान है, अन्तर का नहीं। इसलिए तुम अपने को तभी पहचान सकते हो, जब तुम अपने अन्तर में प्रवेश करो तथा शरीर के घेरे से पार हो जाओ। शरीर का तात्पर्य यह नहीं कि केवल स्थूल शरीर को पार करो, बल्कि जड़ के चारो (स्थूल, सूक्ष्म, कारण तथा महाकारण) शरीरों को भी पार करो। तब पता चलेगा कि तुम कौन हो तथा उसे अकेलेपन में अर्थात् चारो जड़ शरीरों से छूटकर कैवल्य दशा में रहने पर जो सुख मालूम होगा, वह कौन सुख है? वह हरि-रस का सुख है। उसी को पाने का यत्न करो, तभी वह सुख मिलेगा, जिसके बाद दुःख नहीं, जो सुख कभी बिछुड़नेवाला नहीं, जिसमें उकताहट नहीं, जो तृप्तिदायक, कल्याण दायक तथा पूर्ण शान्तिदायक है। 
 यत्न क्या है? ईश्वर-भजन करो, इसी से सब क्लेश (दुःख) मिट जाएँगे।
           राकापति षोड़स उअहिं, तारागन समुदाय।
           सकल गिरिन्ह दब लाइये, बिनु रवि राति न जाइ।।
 ऐसेहि बिनु हरि भजन खगेसा । मिटइ न जीवन केर कलेसा ।। -गोस्वामी तुलसीदासजी
 पूर्णिमा के सोलह चन्द्रमा (अथवा सोलह कलाओं से युक्त चन्द्रमा) उगें; तारेगणों के सब झुण्ड भी उगें, सब पर्वतों में आग लगा दी जाय, परन्तु बिना सूर्य के रात नहीं जाती। हे गरुड़जी! इसी प्रकार बिना हरि-भजन किए जीवों का क्लेश नहीं मिटता।
 ईश्वर का भजन करने के लिए उसके स्वरूप को जानना आवश्यक हो जाता है। इसलिए उसके स्वरूप की खोज करने जब चलते हैं, तब गोस्वामी तुलसीदासजी तथा संत कबीरदासजी के वचन सामने आते हैं-
 राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर।
 अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सब दरसी अनवद्य अजीता।।
 निर्मल निराकार निर्मोहा ।नित्य निरंजन सुख सन्दोहा।।
प्रकृति पार प्रभु सब उरबासी ।ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाही ं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।
 भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप।
 किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप।।
 जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ।
 सोइ सोइ भाव देखावइ, आपु न होइ न सोइ।।
                                           -गोस्वामी तुलसीदासजी
  
       ‘नाद बिन्दु तें अगम अगोचर, पाँच तत्त तें न्यार।
 तीन गुनन तें भिन्न है, पुरुष अलक्ख अपार।।
 संपुट माहिं समाइया, सो साहिब नहिं होय।
 सकल माँड़ में रमि रहा, मेरा साहिब सोय।।
 सर्गुण की सेवा करौ, निर्गुण का करु ज्ञान।
 निर्गुण सर्गुण के परे, तहैं हमारा ध्यान।।
 कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूँढ़े बन माहिं।
 ऐसे घट में पीव है, दुनिया जानै नाहिं।।’
 ‘श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य।
 ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य।।
 बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींही ँ तें सब लेखा।
 सब के मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा।।
 चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना।
 चून चगून वजूद न मानु तैं सुभानमूना ऐना।।
 जैसे ऐना सब दरसावै जो कुछ वेष बनावै।
 ज्यों अनुमान करै साहब को त्यों साहब दरसावै।।
 जाहि रूप अल्लाह के भीतर तेहि भीतर के ठाईं।
 रूप अरूप हमारि आस है हम दूनहुँ के साईं।।
 जो कोउ रूह आपनी देखा सो साहब को पेखा।
 कहै कबीर स्वरूप हमारा साहब को दिल देखा।।’
                                                 - कबीर साहब
 अब गुरु नानक साहब के पास चलो, वे क्या कहते हैं-
   अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
   जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
      साचे सचिआर बिटहु कुरवाणु ।
  ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।
  ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु काम न नारी ।
  अकुल निरंजन अपर परंपरु सगली जाति तुमारी ।।
  घट घट अंतरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ।
  बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।।
 ऊपर वर्णनानुसार जैसे गोस्वामी तुलसीदासजी के ‘अविगत अकथ अपार’, ‘अखण्ड अनन्ता’, कबीर साहब के ‘पुरुष अलक्ख अपार’, ‘श्रूप अखण्डित’ तथा गुरु नानक के ‘अलख अपार अगम अगोचरि’ से सन्तों की वाणी में ‘अनन्त, अपार’ शब्द आता है, इन्हीं को ईश्वर-परमात्मा कहकर पुकारते हैं। अगर कहें, ऐसा हो सकता है कि नहीं? अगर कहें, नहीं हो सकता है, तो विचारिए-जो कुछ होगा, अगर सब सीमावाला ही होगा, तो सब ससीमों को एकत्रित करने पर क्या होगा? ससीमों का पुंज भी ससीम ही होगा, असीम नहीं होगा। साथ ही यह प्रश्न उठेगा कि सब ससीम पदार्थों के पार में क्या है? यह प्रश्न तबतक हल नहीं हो सकता, जबतक कि असीम न कह दें। इसलिए संतों की वाणियों में जो ‘अनन्त-अपार’ शब्द आता है, वह अतिशयोक्ति नहीं, यथार्थ ही जँचता है। एक अनादि अनन्त तत्त्व अवश्य है। इसमें तर्क का स्थान नहीं है। लोग बहस करते हैं, ईश्वर को नहीं मानते हैं। कहते हैं कि ‘आस्तिकवादियों ने ईश्वर को अपने विचार में बना लिया है, यथार्थतः ईश्वर की स्थिति है ही नहीं।’ इस विचार का भी प्रचार हो रहा है, किन्तु ऐसा विचार मन में धँसता नहीं। बचपन से ही माता-पिता ने राम-राम, शिव-शिव, कृष्ण-कृष्ण आदि कहलाया तथा इन्हीं शब्दों से मस्तिष्क भर दिया है। तभी से श्रद्धा आई और जमी हुई है। जिस समय तर्क-वितर्क का ज्ञान नहीं था, पाठशाला में पढ़ने गए, पण्डितजी ने कहा- यह ‘अ’ है। बस, इसमें कुछ भी तर्क- वितर्क नहीं किया, वैसे ही लिखा और पढ़ा। सीखते-सीखते सीखा, तो इसका ज्ञान अब होता है कि पंडितजी ने बचपन में जो-‘अ’ पढ़ाया था, ठीक है। साथ ही इसका भी ज्ञान हुआ कि पहले की वर्णमाला से आजकल की वर्णमाला में क्या अन्तर है। पहले की वर्णमाला की लिपि या लिखावट से आजकल की वर्णमाला की लिपि या लिखावट में परिवर्तन हो गया है। फिर आगे और भी इसमें परिवर्तन हो संभव है। किन्तु उच्चारण में वर्णमाला नहीं बदलेगी, सदा पूर्ववत् रहेगी, उसी प्रकार ईश्वर है और रहेगा। एक अनादि अनन्त असीम तत्त्व का मानना आस्तिक और नास्तिक-दोनों के लिए अनिवार्य है। उस तत्त्व का नाम बदलकर दोनों भले ही स्वीकारात्मक और नकारात्मक भिन्न-भिन्न नामों से कह सकते हैं; परन्तु उसकी स्थिति को नहीं मिटा सकते हैं। इसपर तर्क करना व्यर्थ है। तर्क क्या है? तर्क तो बुद्धि से होती है; किन्तु परमात्म- स्वरूप-ज्ञान के लिए बुद्धि भी लँगड़ी है। बुद्धि से केवल निर्णय होता है; किन्तु पहचान नहीं होती; क्योंकि वह तो ‘वचन अगोचर बुद्धि पर’ है। उस परमात्मा को प्राप्त करने का जो यत्न है, वही उसकी भक्ति है। या यों कहो कि जिस यत्न के द्वारा परमात्म-स्वरूप की प्राप्ति हो, वही भक्ति है। जिस प्रकार जिह्ना पर मिसरी डालने से मीठी मालूम होती है, उसी प्रकार परमात्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान हो। 
    सूचै भाड़ै साचु समावै बिरले सूचाचारी।
     तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुम्हारी।।
 अर्थात् पवित्र वर्तन में सत्य अँटता है। -‘पवित्र वर्तन’ कहने का तात्पर्य है-शुद्ध अन्तःकरण। ‘साचु’ का अर्थ है-सत्यब्रह्म। अन्तःकरण की शुद्धि के बिना सत्यब्रह्म को नहीं प्राप्त कर सकते। उत्तम विचार से अन्तःकरण की शुद्धि होती है; उत्तम विचार भले लोगों के संग से होता है। भले लोग उसे कहते हैं, जो आत्मानन्द के विषय में जानते हैं, उसकी प्राप्ति के लिए इच्छुक हैं और जो प्राप्त कर गए हैं, उनके लिए तो कहना ही क्या है! उनका संग ही सत्संग है। जिन्होंने आत्मानन्द को प्राप्त किया है, उनकी पहचान दुर्लभ है, फिर भी वे अपना गुण कुछ-न-कुछ अवश्य देंगे। घटा में छिपा हुआ सूर्य अपनी गर्मी देने से चूकता नहीं है, उसकी गर्मी हमलोगों तक आती है। उसी प्रकार सन्त अपने स्वभाव के कारण कुछ दिए बिना नहीं रहते।
    कबीर संगति साध की, ज्यों गंधी का बास।
       जो कुछ गंधी दे नहीं, तौ भी वास सुवास।।
                                              - कबीर साहब
 ईश्वर की प्राप्ति के लिए पापों से बचिए। पापों से बचना अन्तःकरण की शुद्धि पर निर्भर है। झूठ बोलना पाप है। झूठ नहीं बोलना चाहिए। लोग अपना दोष छिपाने के लिए अथवा कुछ ठगने के लिए झूठ बोलते हैं। झूठ सब पापों का भण्डार है। किसी ने खराब काम किया, उससे पूछने पर उसने बोल दिया-नहीं, मैंने नहीं किया। गोया झूठ की आड़ में उसको छिपा लिया। अतः पापों से बचने के लिए झूठ मत बोलो। चोरी मत करो। नशा न खाओ, न पियो। तम्बाकू तक नशा है।
  भाँग तमाखू छूतरा, अफयूँ और शराब।
  कह कबीर इनको तजै, तब पावै दीदार।। - कबीर साहब दारू गाँजा भाँग अफीमा। ताड़ी चण्डू मदक कोकीना।।
सहित तम्बाकू नशा हैं जितने।तजन योग्य तज डारो तितने।।
 नशीली वस्तु के सेवन से मस्तिष्क अच्छा नहीं रहता। नशा लगते-लगते ऐसा हो जाता है कि शरीर तक को बर्बाद कर देता है। व्यभिचार मत करो अर्थात् पुरुषवर्ग स्त्री को तथा स्त्री-वर्ग पुरुष को कुदृष्टि से अवलोकन न करे; बल्कि ‘परदारा निज माता जान।’ हिंसा मत करो। हिंसा उत्तम ध्यान-ज्ञान से वंचित रखती है। जानवरों का मारना हिंसा है। कटु वचन कहना, दूसरे की हानि के लिए कुछ काम कर देना हिंसा है। इसलिए मन, वचन तथा कर्म; तीनों तरह की हिंसा से बचो। हिंसा दो प्रकार की होती है-एक वार्य, दूसरी अनिवार्य। अपनी रक्षा के लिए श्वास लेते हैं, इससे भी हिंसा होती है; किन्तु यह अनिवार्य हिंसा है। एक देश पर दूसरे देश के लोग चढ़ाई करें या लूटें अथवा किसी के घर में डकैती हो, ऐसी हालत में अपनी रक्षा के लिए उसपर चढाई करनी, मार-काट करनी अनिवार्य हिंसा है। घर के लेप-पोत, बुहारने, खलिहान करने आदि में हिंसा है; किन्तु अनिवार्य हिंसा है। किसान खेती का काम करते हैं, इसमें भी हिंसा होती है, किन्तु वह भी अनिवार्य हिंसा है। अनिवार्य हिंसा का प्रायश्चित्त होता है; किन्तु वार्य हिंसा का प्रायश्चित्त नहीं होता। खेती आदि अनिवार्य हिंसा के प्रायश्चित्त के लिए लोग दान-पुण्य करते हैं, अभ्यागत-सत्कार करते हैं। पहले अभ्यागत- सत्कार करो, पीछे अपने खाओ। अब वार्य हिंसा के विषय में भी थोड़ा-सा सुन लीजिए। वार्य हिंसा उसे कहते हैं, जिसके बिना हम बच सकते हैं। इस प्रकार पंच पापों से बचने के लिए सन्त-महात्मागण उपदेश करते हैं। साथ ही मांस-मछली का भोजन भी मत करो; क्योंकि इसमें भी हिंसा होती है। मनुस्मृति में आठ घातक लिखे हैं-1. हिंसा करने के लिए आज्ञा देनेवाला, 2. हिंसा करनेवाला, 3. टुकड़ा करनेवाला, 4. बेचनेवाला, 5. खरीदनेवाला, 6. पकाने (राँधने) वाला, 7. परोसनेवाला तथा 8. खानेवाला। दूसरी बात यह है, भोजन में अपना- अपना गुण कुछ-न-कुछ अवश्य रहता है। अगर अपना-अपना गुण अलग-अलग नहीं होता, तो भाँग खाने पर नशा क्यों आता? स्वर्ण-भस्म खाने पर जितनी गर्मी आती है, गोयठे को जलाकर खाने से उतनी गर्मी क्यों नहीं आती? इससे प्रत्यक्ष है कि भोजन अपना-अपना गुण रखता है। हमारे शरीर में जो परमाणु हैं तथा पशु शरीर में जो परमाणु हैं, दोनों एक ही गुणवाले नहीं हैं। पशुओं के परमाणुओं में विशेष अन्धकार और अज्ञानता है। हमारे अन्दर में भी अज्ञानता तो है ही, परन्तु पशुओं से कम। फिर पशुओं को खाकर, उनके परमाणु को अपने शरीर में बढ़ाते हैं। इसलिए ईश्वर-भक्ति में ये बाधक हैं।
   कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बड़ा हुलास।
   मन मनसा माँजे नहीं, होन चहत है दास।।
उपनिषद् में है-
    नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
      नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्।।
                                    - कठ, द्वितीय वल्ली, अध्याय 1
 जो पापकर्मों से निवृत नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं हैं और जिसका चित्त असमाहित या अशान्त है, वह इसे आत्मज्ञान-द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता।
 इसलिए पापों का परित्याग कर ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए; क्योंकि हमें सुख की अभिलाषा है। सुख की प्राप्ति के लिए हमें यत्न करना चाहिए, केवल ‘सुख-सुख’ कहने से सुख नहीं होगा। वह यत्न ईश्वर-भजन है। इसी से परम शान्तिमय सुख मिलेगा।

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 यह प्रवचन शाहआलमनगर, जिला-मधेपुरा में श्रीसीताराम भगत जी के द्वारा आयोजित दिनांक 27.1.1951 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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12. सन्तमत के ज्ञान से परम कल्याण

प्यारे धर्मप्रेमी सज्जनो! 
आपलोगों को यह बात मालूम हो चुकी है कि यहाँ सन्तमत का सत्संग होगा। सन्तमत कोई खास सम्प्रदाय नहीं है, सब सन्तों के मत को मिलाकर ‘सन्तमत’ कहते हैं। यहाँ किसी सन्त को छोटा अथवा किसी सन्त को बड़ा नहीं कहा जाता। साम्प्रदायिकता का भाव लेकर जो झगड़ा उठता है, वह इसमें बिल्कुल नहीं। सन्त चाहे अपने देश के हों या दूसरे देश के, सब एक हैं। कितने ही सन्तों के नामों के जो पन्थ या सम्प्रदाय सुनते हैं, पता लगाने पर ज्ञात होता है कि वे पन्थ या सम्प्रदाय उन सन्तों के बनाए हुए नहीं हैं; बल्कि उनके नामों पर श्रद्धालु भक्तों ने बनाए हैं। किन्तु उन सन्तों का सिद्धान्त उनके ग्रन्थों में है। मेल मिलाने से सबका एक ही मत होता है। जीवों को चाहिए कि वे सारे दुःखों से छूट जाएँ। दुःख से छूटने तथा सुख प्राप्त करने की अभिलाषा सब जीवों को है। सुख भी वैसा कि जिस सुख से ऊब नहीं हो, आनन्द-ही -आनन्द हो। कभी अल्प सुख, कभी विशेष सुख; ऐसा भी नहीं हो; एक समान उदार सुख मिले, जिसमें नित्यानन्द हो। इस प्रकार के सुख को सन्त के अतिरिक्त दूसरे कोई पाते हैं, कहा नहीं जा सकता। सन्त का मतलब यह नहीं कि जो घर छोड़कर रहता हो, बल्कि ऐसा कि पुत्र-कलत्रवाले गृही, अपने परिश्रम की कमाई से गुजर करता हो अथवा भिक्षा माँगकर भी जीविका करता हो; दोनों ही तरह के सन्त होते हैं।
उस नित्यानन्द सुख को बहुत कम लोग जानते हैं। उस सुख के अतिरिक्त दूसरा सुख वह है, जो इन्द्रिय और मन को सुहावे। इसी को विशेष लोग जानते हैं। किन्तु जैसे दिन के बाद रात तथा रात के बाद दिन होता है, उसी प्रकार यह सुख-दुःख आता-जाता रहता है। यह सुख वह है, जिसे इन्द्रियाँ विषय की ओर प्रेरित होकर लेती हैं। यह विषय-सुख है; किन्तु वह सुख जिसका वर्णन पहले हुआ, ब्रह्म-पीयूष प्राप्त करने का सुख है। विषय में अनित्य आनन्दप्रद सुख है तथा उसमें (ब्रह्म प्राप्त करने में) नित्यानन्द सुख है।
ब्रह्म पियूष मधुर शीतल जो, पै मन सो रस पावै।
तौ कत मृग जल रूप विषय, कारण निशिवासर धावै।।
                            - विनय-पत्रिका
इसी ब्रह्म-पीयूष के मिलने के सुख को प्राप्त करने के लिए सन्तों का आदेश है। सन्त घर छोड़ने के लिए नहीं कहते, पारिवारिक पालन-पोषण करते हुए यह काम करो। धीरे-धीरे होगा। एक-एक अक्षर सीखकर विद्वान होते हैं, उसी प्रकार थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करते-करते उस परम सुख को प्राप्त करेंगे। भगवान् श्रीकृष्ण का गीता में यह उपदेश है-
‘पुण्यकर्त्ता पुरुषों को मिलनेवाले (स्वर्गादि) लोकों को पाकर और (वहाँ) बहुत वर्षों तक निवास करके फिर यह योगभ्रष्ट पुरुष पवित्र श्रीमान लोगों के घर में जन्म लेता है अथवा बुद्धिमान योगियों के कुल में जन्म पाता है। इस प्रकार का जन्म (इस) लोक में बड़ा दुर्लभ है, इसप्रकार प्राप्त हुए जन्म में वह पूर्वजन्म के बुद्धि-संस्कार को पाता है; और हे कुरुनन्दन! यह उससे भूयः अर्थात् अधिक सिद्धि पाने का प्रयत्न करता है। अपने पूर्वजन्म के उस अभ्यास से ही अवश अर्थात् अपनी इच्छा न रहने पर भी वह (पूर्ण सिद्धि की ओर) खींचा जाता है। जिसे योग की जिज्ञासा अर्थात् जान लेने की इच्छा हो गयी है, वह भी शब्द-ब्रह्म के परे चला जाता है। इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक उद्योग करते-करते पापों से शुद्ध होता हुआ योगी अनेक जन्मों के अनन्तर सिद्धि पाकर अन्त में उत्तम गति पा लेता है।’ (श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 6, श्लोक 41 से 45)
यह बहुत विश्वास की बात है कि स्थूल शरीर छूटता है, पर इसके अन्दर रहनेवाले मन-बुद्धि आदि नहीं छूटते। सूक्ष्म शरीर में जीवात्मा रहकर स्वर्ग-सुख भोगता है, फिर स्थूल शरीर को धारण करता है। यह रास्ता बड़ा लम्बा है-
लम्बा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहु मार ।
कहौ सन्तो क्यूँ पाइये, दुर्लभ हरि दीदार ।।
फिर- ऊँची अटरिया पोल चढ़ौ गिरि गिरि पड़ौ ।
सतगुरु बुधि लइ नाहिं पार कैसे पड़ौ ।।
जहाँ गैल सिलहली चढ़ौ गिरि गिरि पड़ौ ।
उठौ सम्हारि सम्हारि चरन आगे धरौ ।।
                                            - कबीर साहब
गिरना क्या है? सुरत का पिछड़ना। सँभालते- संभालते अथक परिश्रम-द्वारा प्रत्याहार करते-करते अवश्य धारणा होगी। जब बार-बार धारणा होगी, तब उसमें अवश्य गहराई आएगी। इसी को ध्यान कहते हैं। उतावलेपन के साथ यह होना संभव नहीं। इस सुख को पूर्ण रूप से प्राप्त करने के लिए बहुत दूर तक जाना है। किन्तु कम-से-कम समय भी अगर ठीक-ठीक भजन बने तो मुझे विश्वास है कि इस थोड़े समय का सुख जो आपको मिलेगा, तो कहिएगा कि ऐसा सुख विषय में नहीं है। इस सुख के लिए यत्न करें। इस सुख के लिए कोई आवश्यकता नहीं कि घर-वार छोड़े।
नानक सतिगुरु भेटिअै पूरी होवै जुगती ।
हसं दिआ खैलं दिआ पैनं दिआ
खावं दिआ बिचे होवै मुकती ।।
बाबा नानक ने गृहस्थी के कार्यों को करते हुए दिखलाया कि देखो! गृह-कार्य करते हुए मैंने यह पद पाया है। गुरु अर्जुनदेवजी ने जैसा कहा, वैसा करके दिखला दिया। विपत्तियों में प्रसन्नचित्त रहे और दुःखों को झेला। उन्होंने कहा था-
ब्रह्म गियानी सदा निरलेप।
जैसे जल महि कमल अलेप।।
ब्रह्म गियानी कै धीरज एक।
खोदै जिउ बसुधा कोउ चन्दन लेप।।
एक लेखक लिखते हैं - ‘लोग श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ करते हैं; किन्तु सिक्ख-सम्प्रदाय के दस गुरुओं ने उसका आचरण करके दिखाया।’ भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा-‘युद्ध भी करो और ध्यान भी करो।’ कबीर साहब जाति-कर्म करके अपना पालन-पोषण करते थे। ये रामानन्द स्वामी के शिष्यों में एक प्रसिद्ध शिष्य थे। ये प्रसन्नचित्त से कहते थे-
जोलहा बीनहुँ हो हरिनामा।
तू ब्राह्मण मैं काशी का जुलाहा देखहु मेरा ज्ञाना।।
ये अपना ताना-बाना करते थे तथा थोड़े में सन्तुष्ट रहते थे। कपड़े बेचने के लिए जाते तो एक ही दाम कहते थे, दुहराते नहीं थे। इस विषय की उनकी यह कहानी प्रसिद्ध है-
एक समय कबीर साहब एक दुपट्टा (चादर) तैयार कर हाट में बेचने के लिए गए। लोगों के पूछने पर उस चादर का एक ही मूल्य कबीर साहब ने पाँच रुपये बताया। लोग उस चादर का मूल्य चार-साढ़े चार रुपये कहते थे। संध्या होने चली; किन्तु इनकी चादर बिकी नहीं। अन्त में ये अपनी चादर उठाकर घर की ओर चलते बने। रास्ते में एक परिचित आदमी से भेंट हो गई। उन्होंने पूछा- ‘कबीरजी! हाट से लौट गए, क्या चादर बिकी नहीं? कबीर साहब ने उत्तर दिया- ‘नहीं, मैं पाँच रुपये इस चादर का मूल्य बताता था, लोग चार-साढ़े चार रुपये बताते थे।’ उस आदमी ने कहा कि आप यह चादर मुझे दे दें, मैं बिक्री करके मूल्य पाँच रुपये आपको दे दूँगा। और इनसे विशेष जो बचेगा, मैं ले लूँगा। कबीर साहब ने कहा-‘भाई! मुझे तो इसका मूल्य पाँच रुपये ही चाहिए, इससे विशेष की मुझे आवश्यकता नहीं; इससे जो विशेष हो, उसे आप ले लेना।’ यह कहकर कबीर साहब ने वह चादर उस आदमी को दे दी। वह आदमी उस चादर को लेकर हाट चला गया और उसका मूल्य आठ रुपये सुनाने लगा। किसी ने सात रुपये में उस चादर को खरीद लिया। उस आदमी ने हाट से लौटकर पाँच रुपये तो कबीर साहब के हाथ में दिए और दो रुपये दिखाते हुए कहा कि यह नफा मेरा हुआ अर्थात् आप जिस चादर को पाँच रुपये में नहीं बेच सके, उसे मैंने सात रुपये में बेचा। इस पर कबीर साहब का यह शब्द प्रसिद्ध है-
कबीर चाले हाट को, कहै न कोइ पतियाय।
पाँच टके का दोपटा, सात टके को जाय।।
कबीर साहब थोड़ी-सी चाहना रखते थे और थोड़ी-सी कमाई में पूरे सन्तुष्ट रहते थे तथा इसी थोड़ी-सी कमाई से ही साधु-सन्त की सेवा- अभ्यागत-सत्कार; सब किया करते थे। इनके दोहे से स्पष्ट विदित होता है कि ये कितने सन्तोषी थे-
साहब इतना दीजिए, जामें कुटुँब समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय।।
इसलिए साधक को कम इच्छा रखनी चाहिए। जो विशेष इच्छाएँ रखते हैं, वे एकान्तचित्त होकर भजन नहीं कर सकते।
कोई ऐसे भी हुए हैं, जो अपने शरीर के लिए भिक्षा कर लेते थे, जैसे शंकराचार्य। भिक्षा करनेवाले भी तथा अपने घर के कामों को करनेवाले भी सन्त होते हैं। इसलिए सन्तों का ख्याल यह नहीं कि घर छोड़ो, तब भक्त बनोगे। योगी भूपेन्द्रनाथ सान्याल एक बड़े प्रसिद्ध व्यक्ति थे। बात के सिलसिले में उन्होंने मुझसे कहा-‘आप संन्यासी हैं; मैं गृहस्थ हूँ; इसलिए मुझसे आप अच्छे हैं।’ इसपर मैंने कहा-‘आप अच्छे हैं; क्योंकि मुझे देखकर लोग समझेंगे कि संन्यासी होकर, घर-वार छोड़कर ही आत्म-सुख मिलता है; किन्तु आपको देखकर लोग यह समझेंगे कि गृहस्थ-आश्रम में रहकर भी यह सुख मिलता है। आपका यह सौम्य भेष है; किन्तु मेरा भयंकर।’
मैं स्वयं अपने विषय में कहता हूँ-
एक बार भागलपुर में बाबा साहब ने मुझसे पूछने की कृपा की कि तुम अपना जीवन कैसे व्यतीत करना चाहते हो, स्वावलम्बी बनकर अथवा तुलसी-सिस्टम (मधुकरी वृत्ति) से? मैंने उत्तर दिया-‘तुलसी-सिस्टम से।’ इस पर बाबा साहब हँसे और बोले-‘संतमत के लोगों को स्वावलम्बी बनकर रहना होता है।’ इसलिए मैंने बाड़ी लगायी तथा कुछ दिनों तक लड़कों को पढा़या। बाबा साहब के आदेशानुसार अपने पिताजी के गृह में रहने लगा; किन्तु पिताजी के घर में रहने में वे कहते थे कि ‘पिताजी का कुछ काम कर दो, तब अन्न खाओ, नहीं तो खून खराब हो जाएगा।’
संन्तों ने कहा-‘आत्म-सुख को प्राप्त करने के लिए भक्ति-मार्ग सरल है, इसपर चलो।’ तब प्रश्न होगा-किसकी भक्ति? एक परमात्मा की। फिर प्रश्न होगा-वह ईश्वर या परमात्मा कैसा है? स्वरूपतः अव्यक्त और अचर-चररूप धारण करते हुए व्यक्त।
अचर-चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा वसत इति वासना धूप दीजै।
                                            - गोस्वामी तुलसीदासजी
इसलिए व्यापक तथा व्याप्य-दोनों रूप परमात्मा के हैं। व्यापक रूप अव्यक्त निर्मायिक है; किन्तु व्याप्य रूप व्यक्त तथा मायिक है। अभी हमारी योग्यता अव्यक्त को ग्रहण करने की नहीं है, इसलिए प्रथमावस्था में स्थूल सगुण-रूप को लेकर ही भक्ति का आरम्भ करें। स्थूल सगुण रूप के लिए आप किसी अवतारी रूप-राम, कृष्ण, शिव आदि देवता, देवी, गुरु, पिता आदि किसी एक को लेकर आरम्भ करें, यह सन्तों ने कहा है। फिर यह भाव कि एक मनुष्य का इष्टदेव त्राण कर सकते हैं, परन्तु दूसरे का नहीं, ऐसा ख्याल नहीं करना चाहिए। फिर ऐसा भी ख्याल नहीं होना चाहिए कि जिस किसी व्यक्त रूप को पकड़ा है, उसी को पकड़े रहें, बल्कि उस रूप में जो व्यापक है, उसको भी पकड़ें, यह ख्याल भी अवश्य ही होना चाहिए। क्षेत्र, शरीर-पिण्ड, विश्व-विराट ब्रह्माण्ड; सब नाशवान और बदलनेवाले पदार्थ हैं, अतएव क्षर हैं। और अक्षर, जो नष्ट नहीं होता, स्थिर रहनेवाला पदार्थ है तथा इन दोनों (क्षर-अक्षर) से जो परे है, उसे पुरुषोत्तम कहते हैं। क्षर-अक्षर दोनों को ग्रहण करके फिर पुरुषोत्तम को ग्रहण करें। इस प्रकार ईश्वर को जानें। ठीक-ठीक युक्ति जानकर अभ्यास किया जाएगा, तो कभी-न-कभी अवश्य मार्ग तय होगा, चाहे हजारों कोस का रास्ता क्यों न हो! जो चलता है, घबड़ाता नहीं है, चलने में अनवरत रूप से चलता है, चाहे धीरे-धीरे ही चले, कभी-न-कभी निर्दिष्ट स्थान पर अवश्य पहुँचेगा। इसके लिए कछुए और खरहे की कथा प्रसिद्ध है-
किसी जंगल में एक खरहा रहता था। समीप ही तालाब में एक कछुआ भी रहता था। एक दिन दोनों में परस्पर भेंट हुई और दोनों ने उस जंगल को पार करने की बाजी लगायी। दोनों नियमित समय पर जंगल को पार करने के लिए अपनी-अपनी चाल से चल पड़े। खरहा छलाँग मारता हुआ बहुत आगे बढ़ गया और पीछे उलटकर देखता है, तो कछुए का कहीं पता नहीं है। खरहा मन में सोचने लगा-‘भला, कछुआ कब मुझसे आगे बढ़ सकता है! अच्छा, कुछ देर इसी झाड़ी में आराम कर लूँ, फिर छलांग मारता हुआ जंगल को पार कर जाऊँगा।’
यह स्वाभाविक बात है कि चलते-चलते बैठने की, बैठने पर लेटने की तथा लेटने से सोने की इच्छा होती है। ठीक इसी तरह खरहे की हालत हुई। वह आराम करना चाहता था, लेट गया और प्रगाढ़ निद्रा में सो गया। उधर कछुआ धीरे-धीरे आ रहा था। आते-आते वह वहाँ पहुँचा, जहाँ खरहा गहरी निद्रा में बेहोश पड़ा था। खरहे को निद्रा में देखकर कछुआ दबे पैर आगे निकल गया और चलते-चलते उस जंगल को पार कर गया। जब खरहे की नींद टूटी, तब उसने चलना आरम्भ किया और चौकड़ी भरता हुआ जंगल को पार करने पर वह देखता है कि कछुआ पहले से ही वहाँ बैठा हुआ है। यह देखकर उसे बहुत लज्जा हुई और उसे नीचा देखना पड़ा। अँगरेजी की एक छोटी-सी किताब में मैंने पढ़ा था। 'Slow and steady wins the race'  अर्थात् धीरे ही हो, किन्तु जो अनवरत रूप से चलता है, उसी की जीत होती है।
नचिकेता को यम ने यही उपदेश दिया था- ‘हे नचिकेता! यह आत्म-दर्शन-यह तत्त्वज्ञान बहुत ही कठिन विषय है। निर्दिष्ट स्थान तक पहुँचना कोई आसान काम नहीं। जिन्हें बहुत ही सूक्ष्म दृष्टि मिली है, केवल वे ही उसका दर्शन कर पाते हैं, वे ही उसको समझा सकते हैं। परन्तु इसमें निराश होने की बात नहीं है। उठो, जागो और कर्म-निरत होओ। जबतक लक्ष्य पर न पहुँच सको, अपने उद्योग में शिथिलता मत आने दो।’
भक्ति-मार्ग में तीन बातों की प्रधानता है- 1. स्तुति, 2. प्रार्थना और 3. उपासना। ये तीनों भक्ति-मार्ग में अनिवार्य रूप से रहती हैं। इन तीनों में किसी एक को निकाल लेने से भक्ति अधूरी हो जाती है। स्तुति कहते हैं, गुण-गान करने, बडा़ई करने को। इससे श्रद्धा होती है।
राम कृपा बिनु सुनु खगराई ।
जानि न जाइ राम प्रभुताई।।
उनकी महानता को जानना, कहना स्तुति है। उनकी महानता को जानने से विश्वास होता है। विश्वास से प्रेम तथा प्रेम से भक्ति उत्पन्न होती है।
जाने बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती।।
प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई।जिमि खगेस जल कै चिकनाई।।
                                            - गोस्वामी तुलसीदासजी
स्तुति किए बिना कोई श्रद्धावन्त नहीं हो सकता। श्रद्धाहीन को प्रेम नहीं हो सकता तथा बिना प्रेम के भक्ति नहीं हो सकती।
प्रेम बिना जो भक्ति है, सो निज डिंभ विचार ।
उद्र भरन के कारने, जनम गँवायो सार ।।
                                               - कबीर साहब
प्रार्थना क्या है? माँग है। संसार के जितने जन हैं, सब कुछ-न-कुछ अपनी माँग अवश्य ही रखते हैं। जो कुछ नहीं माँगते, वे ही पूरे सन्त हैं। माँगने के लिए जाओ, तो उस विशेष प्रभु से क्या माँगोगे? भगवान श्रीराम नारदजी को वर माँगने के लिए कहते हैं, तो नारदजी कहते हैं-‘जो दीजिए।’ फिर कहते हैं-‘आपका नाम सब नामों से बड़ा हो।’ इसलिए जो माँगना हो, विचारकर माँगना चाहिए।
जो सुख सुर पुर नरक गेह बन, आवत बिनहिं बोलाये।
तेहि सुख कहँ बहु जतन करत नर, समुझत नहिं समुझाये।।
कोई पशु-पक्षी पुत्र, धन, घर आदि के लिए किसी से याचना नहीं करता।
पौ फाटी पगरा भया, जागे जीवा जून ।
सब काहू को देत है, चोंच समाना चून ।।
परमात्मा जो चीज स्वयं देता है, उससे फिर वही (धन, पुत्र आदि) माँगने की क्या आवश्यकता है।
ऐसी दिवानी दुनियाँ, भक्ति भाव नहिं बूझै जी।।
कोई आवै तो बेटा माँगे, यही गुसाईं दीजै जी।।
कोई आवै दुख का मारा, हम पर किरपा कीजै जी।।
कोई आवै तो दौलत माँगै, भेंट रुपैया लीजै जी।।
कोइ करावै ब्याह सगाई, सुनत गोसाईं रीझै जी।।
साँचे का कोइ गाहक नाहीं, झूठे जगत पतीजै जी।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, अन्धों को क्या कीजै जी।।
                                                  - कबीर साहब
अगर माँगना चाहिए, तो वह चीज, जो अत्यावश्यक हो, जिसे कोई आदमी अथवा देवता भी नहीं दे सकते अर्थात् उस परमात्मा से उसी को माँगो।
प्रभुता को सब कोइ भजै, प्रभु को भजै न कोय।
कह कबीर प्रभु को भजै, प्रभुता चेरी होय।।
                                                - कबीर साहब
कोई देवता ईश्वर की प्राप्ति नहीं करा दे सकते।
देव दनुज मुनि नाग मनुज सब माया विवश बिचारे।
तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु कहा अपुनपौ हारे।।
                                    - गोस्वामी तुलसीदासजी
‘उपासना’ का अर्थ होता है- नजदीक आसन। यही परमात्मा की उपासना है। जिस कर्म के द्वारा परमात्मा की समीपता प्राप्त हो, उसे उपासना कहते हैं। पूजा-पाठ, जप और ध्यान ही उपासना है। मानस जप और मानस ध्यान से स्थूल में एकाग्रता होती है। जप में भी उत्तम जप वह है, जो जपते हैं, केवल वही ख्याल रहे। ध्यान तो वह है-‘ध्यानं निर्विषयं मनः।’ थोड़ा भी ध्यान बनता है, तो उसमें बड़ा आनन्द मिलता है। जैसे-जैसे भजन बनता जाता है, आनन्द बढ़ता जाता है। कबीर साहब कहते हैं-‘भजन में होत आनन्द आनन्द।’ इसके लिए यत्न जानना चाहिए और भजन करना चाहिए। आरंभ में मायिक-रूपों को लेकर चलें, फिर मायातीत स्वरूप को जानने के लिए आगे बढ़ें। माया में रहकर अर्थात् इन्द्रिय और शरीर के संग रहकर उसे प्राप्त नहीं कर सकते, स्वयं कैवल्य दशा प्राप्त करके ही उसे ग्रहण कर सकेंगे। जहाँ यह दशा आवेगी, वहीं प्रत्यक्ष होगा। हम शरीर और इन्द्रियों से आवृत हैं, जैसे अपने शरीर को कपड़े से लपेटते हैं। अपने शरीर को देखने के लिए कपड़े को उतारकर ही देख सकते हैं। उसी प्रकार अपने निज-रूप पर से शरीर और इन्द्रियों की लपेटन को उतारकर ही उसको देख सकते हैं। भजन करने की रीति गोस्वामी तुलसीदासजी इस प्रकार बतलाते हैं-
तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त।
मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनन्त।।
तीन अवस्था अर्थात् जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति। इन तीनों अवस्थाओं को पार करो, तब क्या होगा? चौथी अवस्था आवेगी, जिसे तुरीय कहते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी इसी तुरीय अवस्था में रहकर ध्यान-भजन करने कहते हैं। जो इस अवस्था को प्राप्त नहीं करता तथा इस अवस्था से भी आगे तुरीयातीत अवस्था को नहीं प्राप्त करता, उसके लिए परमात्म-स्वरूप अप्राप्त ही रहेगा। तीनों अवस्थाओं को छोड़कर भजन करना ही असली उपासना है।
श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै।
रसना बिनु उच्चरै , प्रशंसा बहु विस्तारै।।
नृत्य चरण बिनु करै , हस्त बिनु ताल बजावै।
अंग बिना मिलि संग, बहुत आनन्द बढ़ावै।।
बिनु शीश नवै जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिये रहै।
मिलि परमातम सों आतमा, परा भक्ति सुन्दर कहै।।
                                          - सन्त सुन्दरदासजी
यह परा भक्ति है। इस भक्ति में बिना कान के शब्द सुनते हैं, बिना आँख के रूप देखते हैं, बिना जिह्ना के उच्चारण करते हैं, बिना पैर के नृत्य करते हैं, बिना हाथ के ताल बजाते हैं और शरीर-रहित होकर संग होते हैं; इसमें बहुत आनन्द होता है। अपने सेव्य को बिना सिर के नवते हैं आदि ...। ये बातें बड़ी विचित्र मालूम होती होंगी, किन्तु विचारने पर ये बातें ठीक-ठीक जँचती हैं। आप कौन हैं? आपका निज स्वरूप यही है-
अशरीरं शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम्।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति।।22।।
                              - कठ, द्वितीय वल्ली, अध्याय 1
आप शरीर में शरीर-रहित तथा अनित्यों में नित्य हैं। शरीरों (स्थूल, सूक्ष्म, कारण तथा महाकारण) रूप कुरतों को हटाकर आप अकेले हो जाइए, तब उसको (परमात्मा को) कहीं खोजना नहीं पड़ेगा। इसलिए जिस उपाय से हो, अपने ऊपर के इन सब आवरणों को उतारिए, तभी कल्याण है। इसके बिना कल्याण नहीं।
हमलोग चाहते हैं कि इस कर्म में शीघ्र सफलता मिले, तुरत कैवल्य दशा प्राप्त कर परमात्मा का साक्षात्कार कर लें। यह इच्छा तो बहुत अच्छी है; किन्तु यह तो विचारिए कि कोई विद्यार्थी विद्यालय में भर्ती होने पर तुरत ही सब विद्याओं को सीख लेता है? विद्यालय में भर्ती होने पर तुरत सब विद्याओं को सीख लेना चाहे, तो कैसे होगा ? लेकिन हाँ, थोडा़-थोड़ा अभ्यास करते-करते वह बड़ा विद्वान हो जाता है। उसी प्रकार थोड़ा-थोड़ा ध्यानाभ्यास नित्य नियमित रूप से कीजिए, अवश्य सफलता मिलेगी तथा कभी-न-कभी परमात्मा का साक्षात्कार भी अवश्य ही होगा। यह एक जन्म की बात नहीं है-
अनेक जन्म संसिद्धिस्ततो याति परां गतिम्’। -गीता
किन्तु इसके लिए ऐसा नहीं करना चाहिए कि अच्छा, आज नहीं, कल करूँगा।
आज कहै मैं काल्ह भजूँगा, काल्ह कहै फिर काल।
आज काल्ह के करत ही, औसर जासी चाल।।
बल्कि ऐसा होना चाहिए-
काल्ह करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब।
पल में परलै होयगा, बहुरि करैगा कब्ब।।
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यह प्रवचन जिला सासाराम में श्रीभरतभुआल सिन्हा के यहाँ दिनांक 09.02.1951 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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13. बंदीगृह में स्वतंत्रता नहीं

प्यारे लोगो!
 हमलोगों के सत्संग से ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता रहता है। इसी विषय का हमलोग मनन करते रहते हैं। ईश्वर-भक्ति में तीन बातें परमावश्यक रूप से होती हैं- स्तुति, प्रार्थना और उपासना। इन तीनों में से किसी को हटाने से भक्ति पूरी नहीं होती। इसलिए हमलोग नित्यप्रति नियमित रूप से इन तीनों कामों को करते रहते हैं। 
 सन्तों के वचनों का पाठ किस उद्देश्य से किया जाता है? यही कि हमलोग जानें कि इस देश में हमारे पहले जो बड़े-बड़े साधु, सन्त, महात्मा, अवतार वगैरह हुए हैं, उनका विचार ईश्वर और उनकी प्राप्ति के विषय में क्या है? इसीलिए हमलोग अवतारों और सब संतों की वाणियों का पाठ सत्संग में किया करते हैं। मुक्तिकोपनिषद् भारती-सन्तवाणी से पहले की है। इसमें श्रीराम हनुमानजी को उपदेश देते हैं-‘नित्यानन्द प्राप्त करने के हेतु ईश्वर की भक्ति करके मुक्ति को प्राप्त करो।’
 जीव शरीर और संसार में बन्दी हो गया है, उसका इससे छूट जाना उसकी मुक्ति है। इस बन्दीगृह में पड़े रहने से स्वतंत्रता नहीं है। स्वतंत्रता नहीं रहने से अवश्य कष्ट होता है। शरीर और इन्द्रियों के घेरे में रहने से चेतन-आत्मा विषयों की ओर रहती है। विषयों में रहने से चंचलता रहती है और तृष्णा बढ़ जाती है। चेतन-आत्मा तृष्णा की डोरी पर दौड़ती रहती है; फिर शान्ति, तृप्ति और मुक्ति कहाँ? इसी शान्ति, तृप्ति और मुक्ति के लिए कहते हैं कि चित्त की वृत्ति का निरोध करो। शरीर में रहते हुए इसका निरोध होने पर जीवन्मुक्ति तथा शरीर छूटने पर विदेहमुक्ति होती है।
 पुनः श्रीराम ने बताया-‘मेरे स्वरूप का ध्यान करो। मेरा स्वरूप अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अविनाशी, अस्वाद, अगन्ध, अनाम और गोत्रहीन, दुःख-हरण करनेवाला है, मेरे इस तरह के रूप का नित्य भजन करो।’
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्।
अनामगोत्रं ममरूपमीदृशं भजस्व नित्यं पवनात्मजार्तिहन्।।
 इस ध्यान में बड़ी एकाग्रता की जरूरत है; क्योंकि एकाग्रता में सुरत का सिमटाव, सिमटाव में उसकी ऊर्ध्वगति और ऊर्ध्वगति से ही मायिक आवरणों से पार कर परमात्म-स्वरूप का ग्रहण हो सकेगा। चित्त-धर्म-निरोध वा एकाग्रता के लिए प्राण-स्पन्दन और वासना; इन दोनों में से किसी एक को रोको। प्राण का हिलना बन्द करो, तो वासना नष्ट हो जायगी और वासना रोकने पर प्राण-स्पन्दन रुक जायगा। इसके लिए एकतत्त्व का दृढ़ अभ्यास करो। ऐसा करने से जैसे बहुत जाड़े के समय (हेमन्त ऋतु) में कमल का नाश हो जाता है, इसी तरह जो एकतत्त्व का दृढ़ अभ्यास करेगा, तो वह काम-वासना का नाश करेगा और वही परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर परम शान्ति को भोगेगा। इसके लिए अध्यात्म विद्या की शिक्षा, साधु-संग, वासना-परित्याग तथा प्राणस्पन्दन-निरोध-ये चार बातें आवश्यक हैं। इन चार बातों को त्यागकर जो हठात् ही चित्तवृत्ति का निरोध करना चाहता है, वह इस काम में असफल होता है। जिस प्रकार कमल-नाल में बहुत कोमल सूत होते हैं, उनमें मस्त हाथी को नहीं बाँध सकते, उसी प्रकार दुराग्रह से मन को नहीं रोक सकते। प्राण-स्पन्दन-निरोध तथा सुरत के पूर्ण सिमटाव के लिए एकविन्दुता प्राप्त करो। मन की एकविन्दुता में एक-ही-एक का ग्रहण होता है। इसी में ध्यान स्थिर होता है, इसी में ज्ञान की वृद्धि होती है और बढ़ते-बढ़ते जहाँ तक बढ़ना चाहिए, बढ़ जाता है। इससे मोक्ष मिलेगा, जिसमें एक परमात्मा का स्वरूप ही रह जाता है। तब संसार को देखते हुए भी साधक ब्रह्म को ही देखता है, तब वह ब्रह्म-स्वरूप ही हो जाता है।


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यह प्रवचन बाँका जिला, मंदार पहाड़ पर श्रीकीर्तिनारायण सिंह द्वारा आयोजित दिनांक 31.3.1951 ई0 के प्रातःकाल के सत्संग में हुआ था। 
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14. घूँघट का पट खोल रे

प्यारे लोगो!
 मैं बड़े लोगों से कुछ उपदेश-वाक्य कहूँ, यह योग्यता मुझमें नहीं। इसलिए मैं उनको सम्बोधित नहीं करता, वे केवल मेरी निगरानी करें कि मेरे कहने में जो त्रुटि हो, उसे वे कृपया सुधार दें।
 नई बात एक भी नहीं, सब पुरानी बातें हैं। केवल लिखने-कहने का तर्ज कुछ अलग-अलग है। हमलोगों ने गुरु महाराज के उपदेश से यही समझा है कि सन्तों की वाणियों को पढ़ना और समझना चाहिए। पहले हमको चाहिए कि सन्तों की वाणियों को पढ़ें, सुनें और समझें। जब इससे कर्तव्य कर्म का निर्णय हो जाय, तब उसको करें। केवल वाक्य-ज्ञान को ही धरे रहने से कर्तव्य करके जो फल प्राप्त होता है, सो नहीं मिलेगा।
 वाक्य ज्ञान अत्यन्त निपुण भव पार न पावइ कोई।
 निशि गृह मध्य दीप की बातन्हि तम निवृत्त नहिं होई।।
                                -गोस्वामी तुलसीदास
 तेल तूल पावक पुट भरि धरि बनै न दिया प्रकाशत।
 कहत बनाय दीप की बातें कैसे हो तम नाशत।।
                                                             -सूरदासजी
 सन्त-वचन के अनुकूल कर्म करने का जो महत्व है, केवल कहने-सुनने का वह महत्व नहीं है। मैं सन्त कबीर साहब, गुरु नानक साहब, गोस्वामी तुलसीदासजी तथा तुलसी साहब के पद्यों को गाकर आपलोगों को सुनाता हूँ और यथासाध्य इनके आशयों को भी आपके सामने रक्खूँगा। आपलोग कृपा कर सुनें-
 घूँघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे।
 घट-घट में वह साईं रमता, कटुक वचन मत बोल र े।।
 धन यौवन का गर्व न कीजै, झूठा पँच रंग चोल रे ।
 शून्य महल में दियना बारि ले, आशा से मत डोल र े।।
 जोग जुगत से रंग महल में, पिय पायो अनमोल र े।
 कहै कबीर आनन्द भयो है, बाजत अनहद ढोल र े।।
                                          -सन्त कबीर साहब
 सब किछु घर महिँ बाहरि नाहीं, 
   बाहरि टोलै सो भरमि भुलाहीं।
 गुर परसादी जिनी अन्तरि पाइआ,
   सो अन्तरि बाहरि सुहेला जीउ।।
 झिमि-झिमि बरसै अंम्रित धारा, 
   मनु पीवै सुनि सबदु विचारा।
 अनद विनोद करे दिन राती, 
   सदा सदा हरि केला जीउ।।
 जनम जनम का बिछुड़िआ मिलिआ, 
   साध क्रिपा ते सूका हरिआ।
 सुमति पाए नामु धिआए, 
   गुर-मुखि होए मेला जीउ।।
 जल तरंग जिउ जलहि समाइआ, 
   तिउ जोती संग जोति मिलाइआ।
 कहु नानक भ्रम कटे किवाड़ा, 
   बहुरि न होइअै जउला जीउ।।
                                                   -गुरु नानक साहब
रघुपति भगति करत कठिनाई।
कहत सुगम करनी अपार जानइ, सो जेहि बनि आई।।
जो जेहि कला कुसल ता कहँ,सो सुलभ सदा सुखकारी।
सफरी सनमुख जल-प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं विलगावै।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी।
सोइ हरिपद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं।
तुलसिदास एहि दसा हीन, संसय निर्मूल न जाहीं।।
                                   - गोस्वामी तुलसीदासजी
आली अधर धार निहार निजकै । निकरि सिखर चढ़ावहीं।।
जहाँ गगन गंगा सुरति जमुना । जतन धार बहावहीं।।
जहाँ पदम प्रेम प्रयाग सुरसरि । धुर गुरू गति गावहीं।।
जहाँ सन्त आस विलास बेनी । विमल अजब अन्हावहीं।।
कृत कुमति काग सुभाग कलिमल ।कर्म धोइ बहावहीं।।
हिय हेरि हरष निहार घर कौ । पार हंस कहावहीं।।
मिलि तूल मूल अतूल स्वामी । धाम अविचल बसि रही।।
आली आदि अन्त विचारि पद कौ । तुलसी तब पिउ की भई।।
                                                         - तुलसी साहब
 अब यथासम्भव इन शब्दों के आशयों को कहता हूँ। कोई पुजारी जैसे प्रसाद बाँटते हैं, वैसे ही मैं सन्तों की वाणियों की प्रसादी देता हूँ। इससे बड़ा कल्याण होगा, मुझे बड़ा विश्वास है। जो संतवचनामृत का सेवन करते हैं अर्थात् उनके वचनों का श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन करके आदर करते हैं, उनका परम कल्याण होता है। इसमें किसी को रंच मात्र भी सन्देह नहीं करना चाहिए। सन्तपद से ऊँचा कोई और हो, मैं नहीं जानता।
     सन्त भगवन्त अन्तर निरन्तर नहिं,
      किमपि मति विमल कह दास तुलसी।।
                                                                - तुलसीदासजी
      परम पुरुष की आरसी, साधुन की ही देह।
      लखा जो चाहे अलख को, इनही में लखि लेह।।
                                          - सन्त कबीर साहब
 शान्ति-पद प्राप्त करनेवाले को सन्त कहते हैं। शान्तिपद को ही परमात्मा का पद कहते हैं, इससे ऊँचा पद नहीं है। यह जानकर ‘सन्त कबीर साहब’ शब्द मेरे मुँह से निकलता है। गृहस्थी भेष छोड़कर किसी अन्य प्रकार का विशेष भेष बनाने से कोई सन्त नहीं होता। आत्मोन्नति के शिखर पर पहुँचनेवाले को सन्त कहते हैं। इसकी पहचान कठिन है-‘जो कोइ कहै साधु को चीन्हा। तुलसी हाथ कान पर दीन्हा।।’ (तुलसी साहब)। केवल भेष बना लेने से नहीं होता है-‘अमित बोध अनीह मित भोगी। सत्य सार कवि कोविद योगी।।’ (गोस्वामी तुलसीदासजी)। ये होते हैं सन्त। यह बड़ा गुण है।
 सन्त कबीर साहब कहते हैं कि घूँघट का पट खोलो, परमात्मा मिल जायेंगे। घूँघट-इस चेतन आत्मा पर शरीर-रूप घूँघट लगा हुआ है। केवल यह स्थूल शरीर ही नहीं, सूक्ष्म, कारण, महाकारण भी, जो क्रमशः एक के अन्दर एक वा एक के ऊपर एक है। हमलोगों के यहाँ श्राद्ध-क्रिया होती है। इस क्रिया से क्या विश्वास होता है? आत्मा की अमरता या नित्यता और शरीर की नश्वरता या अनित्यता। शरीर में रहनेवाला अमर है, वह नहीं मरा है; शरीर छोड़कर कहीं चला गया है और शरीर मरकर नष्ट हो गया है। श्राद्ध-क्रिया से यह वेदान्त-ज्ञान जाना जाता है। आप यह भी कह सकेंगे कि इस स्थूल शरीर से जीवात्मा मुक्त, और शरीर निकल गए। सावित्री और सत्यवान की कथा सब कोई जानते ही हैं। यमराज सत्यवान के स्थूल शरीर से लिंग अर्थात् सूक्ष्म शरीर निकालते हैं और सती सावित्री की प्रार्थना पर उस सूक्ष्म शरीर को स्थूल शरीर में प्रविष्ट कर देते हैं। स्थूल शरीर फिर जीवित हो जाता है। इस कथा में यही व्यक्त किया गया है कि शरीर के अन्दर दूसरे शरीर भी हैं। नारी जाति अबला नहीं, सबला है। यमदूत सती सावित्री के पास नहीं जा सका। पातिव्रत्य धर्म का पालन कर नारी प्रचण्ड सबला हो जाती है। इसलिए स्त्रियाँ इस व्रत का अच्छी तरह पालन करें। सूक्ष्म हो, कारण नहीं हो, यह हो नहीं सकता। फिर महाकारण के बिना कारण भी नहीं हो सकता। ये ही चार जड़ शरीर हैं, ये ही घूँघट हैं, इन्हीं को उतारो। यहाँ संसार में शरीर पर कपड़ा नहीं रहने से शरीर असुन्दर लगता है; किन्तु चेतन-आत्मा के ऊपर से जड़ शरीर-रूप सब कपड़े उतर जायँ, केवल ‘चिदानन्दमय देह तुम्हारी’ रह जाय, तो सुन्दरता की विशेषता का पूछना ही क्या! अलौकिक सुन्दरता से चेतन-आत्मा शोभायमान हो जाती है। 
 इस मनुष्य-जीवन का खास काम है-परमात्मा को पहचानना। मैं संतालपरगना के गोड्डा डिविजन के कई ग्रामों में सत्संग-सेवा करता हुआ भागलपुर पहुँचने के लिए पंजवारा बाजार होकर एक बार यात्रा कर रहा था। वहाँ के कुछ बनिये भाइयों ने मुझसे कहा-‘कुछ कहिए।’ मैंने कहा-‘रास्ते चलते?’ अच्छा सुनिए-
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वरगउ स्वल्प अन्त दुखदाई।।
                        -गोस्वामी तुलसीदास
 मनुष्य-शरीर का यह फल नहीं है कि विषय-सुख में लगे रहो। यहाँ का क्या, स्वर्ग का सुख भी थोड़ा ही है और अन्त में दुःख देनेवाला है। यह बात कहने में तो थोड़ी ही है; किन्तु सब बातें इसी के अन्दर हैं। विषयों को कैसे छोड़ा जाय? जिन इन्द्रियों से विषयों को भोगते हैं, उन इन्द्रियों से अपने को ऊपर उठाओ, घूँघट के पट से अपने को छुड़ाओ। यही तो करना है। यह साधन द्वारा होता है और परमात्मा में अत्यन्त रत होना भी तभी हो सकता है। प्रभु से मिलने का जिसको शौक नहीं है और जिसको विषयों में अधिक आसक्ति है, उसे ईश्वर में विश्वास रखने पर भी उससे मिलने के साधन करने में वह कमजोर रहता है। 
 अब आगे सन्त कबीर साहब उपदेश देते हैं- किसी से कडुवा वचन मत कहो; क्योंकि सब घटों में प्रभु विराजते हैं। जब किसी को कड़ुवा वचन न कहो, तब किसी के लिए अप्रिय कर्म करो, यह कब संभव है? धन और जवानी का घमण्ड मत करो; यह पंचरँगा-पाँच तत्त्वों का चोला नाशवान है। शरीर की नश्वरता का दृश्य तो सदा से सब अवस्थाओं में देखा जाता रहा है। 
 नहँ बालक नहँ यौवने, नहँ बिरधी कछु बन्ध। 
 वह अवसर नहिं जानिए, जब आय पड़े यम-फन्द।। 
              --गुरु नानकदेव 
 किस समय शरीर छूट जाएगा, इसका ठिकाना नहीं। जितने बच्चे और जवान मर गए हैं, आज उतने संसार में नहीं हैं। बूढ़े का तो कहना ही क्या? बूढ़े के लिए तो लोग कहते हैं, ‘ये अब जायेंगे।’
 अपने देश में बँटवारा होने के लिए जो साम्प्रदायिकता का भाव लेकर एक सम्प्रदाय के लोगों ने दूसरे सम्प्रदाय के लोगों को कष्ट पहुँचाया, उसमें धन-जन को कितनी हानि हुई है और कैसे-कैसे परिणामों को लोगों ने देखा है, सो धन- जन की नश्वरता का दृश्य अभी लोग भूल गए हों, संभव नहीं है। अब चीन के पूर्व कोरिया देश उत्तर से दक्षिण और दक्षिण से उत्तर युद्ध की प्रचण्डता से बार-बार रौंदा जा रहा है। वहाँ धन- जन का क्या ठिकाना है, सोचने-योग्य है। 
 कबीर साहब के उपर्युक्त उपदेश से शरीर तथा संसार-सुख से आसक्ति छूटती है, मन विषयों की ओर से फिर जाता है। तब घूँघट-पट खोलने के कामों में मन लगता है। सन्तों की वाणियों से उपर्युक्त काम करने के लिए बहुत प्रेरणा मिलती है। मन में संसार की ओर से विरक्ति आती है। बिना इस विरक्ति के जो घूँघट-पट खोलने का काम करता है, वह सफल नहीं होता है। आगे उक्त यह उपदेश है-
 शून्य महल में दियना बारि ले, आशा से मत डोल रे।
 शून्य-महल क्या है? आपके मन से सब ख्याल चले जायँ। बाहर संसार में शून्य-महल नहीं पा सकते। अंदर की ओर अवलोकन करें, बाहरी ख्यालों को छोड़ दें, तो शून्य-महल हो जाता है। गुरु भेद से अवलोकन करो, अवश्य चिराग जलेगा। सूर्यमुखी पत्थर को सूर्य की किरणें पार करती हुई एक विन्दु होकर जहाँ स्थिर होती हैं, वहाँ आग जल जाती है। दृष्टियोग साधन-रूप चकमक पत्थर से निकलती हुई दृष्टि-धार की एकविन्दुता के स्थिर रहने पर ब्रह्म-तेज का दीपक अवश्य ही बलता हुआ दीखता है। करके देखो, यह अवश्य होगा। कथित अभ्यास से सिमटाव होगा, सिमटी हुई सुरत अन्धकार को पार कर जाएगी। (क्योंकि सिमटाव में ऊर्ध्वगति स्वाभाविक है) और वह अवश्य कथित प्रकाश को देखेगी। दृष्टि की स्थिरता के बिना एकविन्दुता नहीं होगी, और उसके बिना पूर्ण सिमटाव नहीं होगा, और पूर्ण सिमटाव के बिना ऊर्ध्वगति नहीं होगी। ऊर्ध्वगति होगी, तब अन्धकार से पार हो जाओगे। कबीर साहब का यह वचन सत्य है। जाँचने पर प्रत्यक्ष है। गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
 अन्तरि जोति भई गुरु साखी चीने राम करंमा । दियना बलेगा, प्रकाश मिलेगा, इस आशा से डोलो मत। कर्म बनेगा, प्रकाश की प्राप्ति होगी। आशा छोड़नेवाला कर्म करना छोड़कर बैठ जाता है, तब होने-योग्य काम भी वह नहीं कर सकता है। इसलिए उपर्युक्त फल प्राप्त करने की आशा से डोलो मत अर्थात् इस आशा को दृढ़ हो धरे रहो और उसके लिए कथित साधन को करते रहो। कहा गया साधन योग की युक्ति है। योग की महिमा बड़ी है। और शास्त्र वचन-द्वारा निरूपण करके छोड़ देते हैं; किन्तु योग प्रत्यक्ष करानेवाला है। इसी से परमात्मा की प्राप्ति होती है। भाई! केवल ज्योति की ही महिमा नहीं है, अनहद ढोल भी बजता है, जिसकी ध्वनि मिलने पर नित्यानन्द की प्राप्ति हो जाती है। उपनिषदों में भी ज्योति को पार करके शब्द-धारण कर परमात्मा की प्राप्ति का होना लिखा है; यथा-
      हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मूखम्।
           तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।
                                                                                              - ईशावास्योपनिषद्
 अर्थात्-आदित्य-मण्डलस्थ ब्रह्म का मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढका हुआ है। हे पूषण! मुझ सत्यधर्मा को आत्मा की उपलब्धि कराने के लिए तू उसे उघाड़ दे।
      विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम्।
                                                   - योगशिखोपनिषद्
 अर्थात्- विन्दु-पीठ का भेदन करके नाद-लिंग उपस्थित होता है।
     बीजाक्षरं परं विन्दु नादं तस्योपरि स्थितम्।
         सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम्।।
                                                    - ध्यानविन्दूपनिषद्
 अर्थात्-परमविन्दु ही बीजाक्षर है, उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अनाश ब्रह्म) में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है।
      तदेतद्दृष्टं च श्रुतं चेत्युपासीत चक्षुस्यः श्रुतो भवति।
               - छान्दोग्योपनिषद्, अध्याय 3, खण्ड 13
 अर्थात्- इस तरह उसे देखा भी, और सुना भी, अतः चक्षुस्य और श्रुत, दोनों से उसकी उपासना करनी चाहिए।
   प्रभा शून्यं मनः शून्यं बुद्धि शून्यं चिदात्मकम्।
   अतद््व्यावृत्तिरूपोऽसौ समाधिर्मुनिभावितः।।
                                        - मुक्तिकोपनिषद्, अध्याय 2
 अर्थात्- ज्योति, मन तथा बुद्धि-रहित होकर केवल चैतन्य आत्मा ही रहे, यह अतद्व्यावृत्ति (जिसको किसी दूसरे की आवश्यकता न हो) समाधिस्थ मुनियों से अभिलषित है। 
 जहाँ प्रभा नहीं है, वहाँ क्या है? वहाँ केवल शब्द-ब्रह्म (प्रणव-ध्वनि, अनाहत नाद, सारशब्द, सत्यनाम, रामनाम) है।
      अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते।
                                              - योगशिखोपनिषद्
 अर्थात्-अक्षर (अनाश) परम नाद को शब्द ब्रह्म कहते हैं। यही शब्द सुरत को प्रभु तक ले जाता है। 
 कबीर साहब के उपर्युक्त थोड़े-से पद्य में परमात्म-प्राप्ति-विषयक बातें समाप्त हैं।
 बाबा नानक के पद्य के आशय ये हैं-बाहर में क्यों खोजते हो, सब कुछ तुम्हारे अन्दर है। बाहर में जो टटोलता है, वह भ्रम में भूला रहता है। गुरु की दया से जो अन्तर में अपने प्रभु को पाता है, उसके लिए अन्दर और बाहर सुहावना प्रत्यक्ष रहता है। बाहर में जो कुछ प्राप्त होता है, वह इन्द्रियों के द्वारा ही; परन्तु अन्दर में इन्द्रियों से छूटकर जड़-विहीन हो कैवल्य दशा में इन्द्रियातीत प्रभु से मिला जाता है। जो अन्दर में प्रवेश करता है, वह अमृत (जो शरीर को जिलाता है- चेतन) को प्राप्त करता है। चेतन दो प्रकार में लक्षित होते हैं, पहले प्रकाश-रूप में, फिर शब्द-रूप में। प्रकाश और शब्द से ज्ञान होता है, इसलिए इसको चेतन वा अमृत-रूप मानते हैं। अन्दर में इस अमृत की धारा की वर्षा होती है, जिसको साधक प्रत्यक्ष पाता है और पीता है। तब वह हरि के साथ आनन्द-विनोद करता है। उससे जो प्रभु अनेक जन्मों से बिछड़ा हुआ था, सो साधु की कृपा से मिल गया। यह कैसा हुआ ? जैसे सूखा वृक्ष हरा हो जाय। गुरुमुख-गुरु की बुद्धि के अनुकूल चलनेवाले को सुबुद्धि मिलती है; वह नाम- शब्दब्रह्म का ध्यान करता है और उसको हरि-परमात्मा से मिलाप होता है। जैसे जल की लहर जल में लीन हो गयी, उसी तरह ज्योति के संग में ज्योति मिल गई। चेतन-आत्मा उस परमात्मा का ढेव रूप है, सो उसमें मिल गई। गुरु नानक कहते हैं कि भ्रम का किवाड़ कट गया, फिर बन्धन नहीं होगा।
 गुरु नानकदेव अन्तर में ढूँढ़ने कहते हैं। अन्तर में ढूँढ़ने से सन्त कबीर साहब-कथित ‘घूँघट पट’ निःसंशय उतरेगा। इसलिए सन्त कबीर साहब और गुरु नानक साहब के ख्यालों में ईश्वर और मोक्ष की प्राप्ति के लिए एक ही विचार प्रत्यक्ष मिलता है।
 गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज का यह शब्द ‘रघुपति भगति करत कठिनाई’ भी आपलोगों ने सुना। ये ईश्वर की भक्ति को कभी ‘कठिनाई’ और कभी ‘असि हरि भगति सुलभ सुखकारी’ भी कहते हैं। कहीं रोचक, कहीं भयानक तथा कहीं यथार्थ वचन कहते हैं। रोचक में ‘सुलभ सुखकारी’ है। परन्तु यथार्थ में तो ‘रघुपति भगति करत कठिनाई’ ही है; क्योंकि इस बात को भक्ति-साधन में पूर्ण भक्त जानता है कि साधन में अनेक कर्म करने पड़ते हैं, इसलिए भक्ति करने में कठिन है। फिर कहते हैं-घबड़ाते क्यों हो? जो जिस कला में कुशल होता है, उसके लिए वह सदा सुलभ और सुखकारी होती है। कुशल होना क्या है? कोई भी किसी विद्या या कार्य में तुरत ही कुशल वा प्रवीण नहीं हो जाता, बारम्बार उसका अभ्यास करते-करते होता है। पहले एक अक्षर लिखने में हाथ कितना टेढ़ा हो जाता है! फिर लिखते-लिखते पूर्ण अभ्यस्त होने पर सुलभ हो जाता है और सुन्दर-से-सुन्दर अक्षर लिख सकता है। उसी प्रकार बारम्बार के अभ्यास से भक्ति सुलभ हो जाएगी। छोटी-सी-छोटी मछली जल के सम्मुख-प्रवाह में भाठे से सीरे की ओर चली जाती है, लेकिन यह काम हाथी नहीं कर सकता। मछली को इसका अभ्यास है। चीनी के बालू में मिश्रित हो जाने पर बालू से फुटाकर उसे निकालना अत्यन्त कठिन है, किन्तु छोटी चींटी बहुत सुलभता से निकाल लेती है। सब दृश्यों को अपने पेट में घुसाकर नींद को छोड़कर योगी सो जाता है अर्थात् सारे ब्रह्माण्ड का दृश्य वह अपने अन्दर में रहते हुए देखता है। हाथी-फैली हुई सुरत। तमाम शरीर में फैली हुई सुरत हाथी है। सिमटी हुई सुरत सफरी मछली और सूक्ष्म पिपीलिका है। वह ब्रह्माण्डी चेतन धारा को पकड़कर ऊपर को चल देगी। यह योग के अन्दर की बात है। बालू जड़ है, चीनी चेतन है। अगर चींटी बनो अर्थात् सिमटाव हो तो जड़ छोड़कर चेतन को ग्रहण करोगे। तब क्या होगा? योगी हो जाओगे। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति को छोड़कर ऊपर उठ जाओगे। नींद को छोड़कर अर्थात् सुषुप्ति से ऊपर उठकर बाहर संसार और शरीर से वह बेखबर है, गोया निट्ठाह नींद में सो गया है। ऐसा भजन करनेवाला ही परमात्म-पद का प्रत्यक्ष सुख प्राप्त करता है। वह द्वैत को अत्यन्त कर त्यागनेवाला होता है। वहाँ शोक, मोह, भय, हर्ष, दिन-रात तथा देश-काल कुछ भी नहीं है। इस दशा में नहीं पहुँचनेवाले का संशय निर्मूल होकर नष्ट नहीं होता है। 
 गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज भी भक्ति- साधन में अन्दर में प्रवेश करने को ही आवश्यक बतलाते हैं। इस प्रकार इनका विचार भी कबीर साहब और गुरु नानक साहब के भक्ति-साधन के विचारों से पूर्णरूपेण मिल जाता है। अन्तर्मुख हो अन्तर में प्रवेश करनेवाले का घूँघट-पट खुलेगा, इसमें संशय नहीं है। क्या कबीर साहब, क्या गुरु नानक साहब और क्या गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज; सबका यही उपदेश है कि घूँघट का पट खोलो, तो तुमको प्रभु मिलेंगे। यही सब सन्तों का विचार है। उनकी ओर से यही प्रसाद है, इस प्रसाद को पावें केवल सुनने से पाना नहीं होता, इसके लिए युक्ति प्राप्त कर साधना करें, तब पाना होगा। 
 तुलसी साहब का तो कहना ही क्या? ये तो अपने प्रत्येक शब्द से अन्तर में प्रवेश कर भक्ति करने को बताते हैं। ये कहते हैं-ब्रह्माण्ड-स्थित निज चेतना- त्मक गगन-धारा को पिण्ड से निकलकर अर्थात् पिण्ड के ऊपर उठकर देखो वा धारण करो। यह कथित धारा परम पावनी गगन-गंगा है। अपने को यमुना-धारावत् इसमें मिला दो। यह मिलन-स्थान प्रयागराज का तीर्थस्थान है। इस मिलन में गंगा-धारा की ध्वनि आदिगुरु-गति की खबर देती है। सन्त लोग इसी मिलन-स्थान के त्रिवेणी तीर्थ में पवित्र स्नान करके सारे कर्म-बन्धनों को धोकर बहा देते हैं और ‘तूल मूल अतूल स्वामी’ से मिल जाते हैं। 
 इस कर्म को करते हुए आप अपने को रामानन्दी, कबीर-पंथी, नानक-पन्थी और दरिया-
पंथी आदि किसी पंथ का मानिए, तो अवश्य ही आप उस पंथ के यथार्थ पंथी हैं।
 परम श्रद्धेय सद्गुरु बाबा देवी साहब ने एक पत्र मुझे लिखा था-‘पहले तुम दरिया-पंथी थे, अब समुद्र-पंथी हो गए।’ उनके इस कृपामय वचन की यथार्थता मुझे प्रत्यक्ष-सी ज्ञात हो रही है; क्योंकि उनकी कृपा से संतों के परमानन्ददायक वचन-समूह के समुद्र में मैं अपने को पाता हूँ। और सब संतों का एक ही पंथ उस परमानन्द-सिन्धु में गुरु-कृपा से मुझे दर्शित हो रहा है।
 श्री गुरु महाराज ने प्रत्यक्ष में अनेक पंथ-से ज्ञात होने योग्य बातों में एक ही पंथ का दृढ़ता से बोध करा दिया है। गुरु धन्य हैं! गुरु धन्य हैं!!


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यह प्रवचन बाँका जिला, मंदार पहाड़ पर श्रीकीर्तिनारायण सिंह द्वारा आयोजित दिनांक 31.3.1951 ई0 के रात्रिकाल के सत्संग में हुआ था। 
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15.संतवाणियों के अनुकूल चलें

प्यारे लोगो!
 हमलोग सत्संग करने के लिए यहाँ पर एकत्र हुए हैं। सत्संग में सन्तों की वाणियों को पढ़ते-समझते हैं। परम श्रद्धेय बाबा देवी साहब जी द्वारा प्रचारित इस सन्तमत (सन्तमत के अनेक प्रचारक पहले हो चुके हैं। परन्तु उन प्रचारकों के नामों पर अलग-अलग पन्थ या सम्प्रदाय भारत में वर्त्तमान हैं; जैसे कबीर-पन्थ, नानक-पन्थ, दरिया-पन्थ और राधा स्वामी-पंथ आदि।) सत्संग का इस प्रान्त में सन् 1892 या 1896 ई0 से आरम्भ हुआ है। और उसी समय इसकी नींव भागलपुर में पड़ी तथा वहीं से प्रचार भी हुआ। अवश्य ही उस समय पटने में भी सत्संगी थे, किन्तु उनलोगों ने प्रचार करने की कोशिश नहीं की। पटने में एक बंगाली डॉक्टर सत्संगी थे। श्री गुरु महाराज के साथ पटना जाने पर मैंने उन्हें देखा था। अब ऐसा मालूम होता है, जैसे पटने में अपने सत्संगी ही नहीं हैं। (यह प्रवचन आज से कई वर्ष पूर्व का है। ) गुरु महाराज का उपदेश है। ‘सन्तवाणियों को पढ़ो, समझो और उनके अनुकूल चलो।’ इतने दिनों में मैंने कोई नयी बात सुनी हो या मुझे कोई नयी उक्ति आयी हो, तो मेरा ज्ञान कहता है- नहीं सब बातें पुरानी ही हैं। जिस ज्ञान को ऋषियों तथा सन्तों ने कहा, उसे ही बुद्धि-वचन के फेर-फार में लाकर दूसरे ढंग से औरों ने भी बताया। इसका मतलब यह नहीं कि पुरानी बातों को ही मानें, नयी को नहीं। यदि नयी बातों से लाभ हो, तो क्यों न मानें? किन्तु सन्तमत की सब बातें पुरानी हैं, जिन्हें सन्तों ने वचन-रूप में हमलोगों के लिए रख दिया है। लोग संसार के सब दुःखों से छूट जायँ, इसी विशेष अभिप्राय से सन्तों ने उपदेश दिया है।
   सन्त पन्थ अपवर्ग कर, कामी भव कर पन्थ।
   कहहिं सन्त कवि कोविद, श्रुति पुरान सद्ग्रन्थ।।
                                  - गोस्वामी तुलसीदासजी
 सन्तों का मार्ग मोक्ष में पहुँचाने का है। उनका मार्ग संसार-सागर को पार करने के लिए, संसार के सारे बन्धनों से छूट जाने के लिए है। उन्होंने ऐसा नहीं कहा कि वर्णभेद से, जाति-भेद से या देश-भेद से कोई इसके योग्य है वा कोई इसके योग्य नहीं है; किन्तु हाँ, आचरण-भेद से योग्य वा अयोग्य अवश्य है। गुरु महाराज कहते थे- ‘जिसको भजन करने के लिए दो घण्टे की भी फुर्सत न हो, उसे भजन-अभ्यास मत बताओ।’ संसार में उत्तम ढंग से बरतो। जो कोई उत्तम ढंग से बरतते हैं, वे चाहे नर हों या नारी, आनन्द-ही-आनन्द में रहेंगे। ‘कहै कबीर निज रहनि सम्हारी। सदा आनन्द रहै नर नारी।।’ संसार में रहने का अच्छा ढंग है-‘व्यभिचार, चोरी, नशा, हिंसा और झूठ; इन पाँच पापों को त्याग कर रहो।’ इस तरह संसार में बरतने से संसार तथा परलोक, दोनों में आनन्द से रहोगे। परलोक कहने का तात्पर्य केवल स्वर्ग-वैकुण्ठादि ही नहीं, बल्कि मोक्ष-धाम तक से है। सन्तलोग भजन करने के लिए घर छोड़ने को नहीं कहते। वे कहते हैं-
    अवधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भाव ै।।टेक।।
    घर में जोग भेग घर ही में, घर तजि बन नहिं जावै ।
    वन के गये कलपना उपजै, तब धौं कहाँ समावै ।।
    घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरु अलख लखावै ।
    सहज सुन्न में रहै समाना, सहज समाधि लगावै ।। उनमुनि रहै ब्रह्म को चीन्है, परम तत्त को ध्यावै । सुरत निरत सों मेला करिके, अनहद नाद बजावै ।। घर में बसत वस्तु भी घर है, घर ही वस्तु मिलावै ।
    कहै कबीर सुनो हो अवधू, ज्यों का त्यों ठहरावै ।।
                                        - कबीर साहब
  नानक सतिगुरु भेटिअै पूरी होवै जुगती । - गुरु नानक
 यह बात बहुत प्रसिद्ध है कि ‘सन्तों का भेद और पंडितों का वेद’ दोनों में बड़ा संबंध है। यदि दोनों हैं, तो सोने में सुगन्ध है। ‘वेद’ का अर्थ ज्ञान और ‘भेद’ रहस्य वा मर्म को कहते हैं। इसी को योगयुक्ति भी कहते हैं। 
  योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः।
  योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि।।
  तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत्।।
                                                                    -योगशिखोपनिषद्
 योग-हीन ज्ञान मोक्षप्रद भला कैसे हो सकता है? उसी तरह ज्ञान-रहित योग भी मोक्षकार्य में समर्थ नहीं हो सकता। इसलिए ज्ञान और योग; दोनों का दृढ़ता के साथ अभ्यास मुमुक्षु को करना चाहिए।’ सन्तों की वाणी और सत्संग में ज्ञान और योग प्राप्त होते हैं। गुरु नानक कहते हैं-
जैसे जल महि कमलु निरालमु मुरगाई नैसाणै ।
सुरति सबदि भव सागरु तरीअै नानक नामु बखाणै ।। रहहि इकांति एको मनि बसिआ आसा माहि निरासा ।
अगमु अगोचर देखि दिखाए नानक ताका दासो ।।
   बिनु सतगुरु सेवे जोगु न होई।
    बिनु सतगुरु भेटे मुक्ति न कोई।
 बिनु सतगुरु भेटे नामु पाइआ न जाई
     बिनु सतगुरु भेटे महा दुखु पाई।।
    बिनु सतगुरु भेटे महागरबि गुवारि।
    नानक बिनु गुर मूआ जनमु हारि।।
 ऊपर की वाणी में बतलायी हुई युक्ति से जो नहीं रहते हैं, परन्तु क्षणभंगुर शरीर, स्वल्प जीवन- काल और दुःख-परिणामी क्षणिक विषय-सुख में जो लवलीन रहते हुए माते रहते हैं और इसी में अपना कुशल समझते हैं, वे अत्यन्त भूल में हैं। उनको समझना चाहिए-
   चलना है रहना नहीं, चलना बिस्वाबीस।
   सहजो तनिक सुहाग पर, कहा गुँथावे सीस।।
     -भक्तिन सहजोबाई
 संसार के पदार्थों में अनासक्त रहते हुए अपनी घर-गृहस्थी के कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए तथा उन कर्त्तव्यों के संग-संग परमात्मा के भजन में भी लौ लगाते रहने का अभ्यास करना चाहिए। इसी आशय का उपदेश भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्- भगवद्गीता में अर्जुन को दिया है-‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।’ सदा मुझे स्मरण कर और जूझता रह। और सन्तों ने भी इस प्रकार कहा-
  ‘जो कोइ या विधि मन को लगावै। मन के लगाये हरि पावै।।
    जैसे नटवा चढ़त बाँस पर, ढोलिया ढोल बजावै।
    अपना बोझ धरै सिर ऊपर, सुरति बाँस पर लावै।।
    जैसे भुवंगम चरत बनी में, ओस चाटने आवै।
    कभी चाटै कभी मनि तन चितवै, मनि तज प्राण गँवावै।।
    जैसे कामिनी भरत कूप जल, कर छोड़ै बतरावै। 
    अपना रंग सखियन संग राचै, सुरति गगर पर लावै।।’
‘जाके रहनि अपार जगत में, सो गुरु नाम पियारा हो।।
 जैसे पुरइन रहि जल भीतर, जलहि में करत पसारा हो।
 वाके पानी पत्र न लागै, ढरकि चलै जस पारा हो।।’
                                                -कबीर साहब
 कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान।।
 सो ध्यानी परमान, सुरत से अण्डा सेवै।
 आप रहै जल माहिं सूखे में अण्डा देवै।।
 जस पनिहारी कलस भरे मारग में आवै। 
 कर छोड़ै मुख वचन चित्त कलसा में लावै।। 
 फणि मणि धरै उतारि आपु चरने को जावै।
 वह गाफिल ना पड़ै सुरति मनि माहिं रहावै।।
 पलटू कारज सब करै, सुरति रहै अलगान।
 कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान।।
                                                        -पलटू साहब
 कहने का आशय यह है कि संसार में रहकर तुम्हारा जो कर्त्तव्य है, सो भी करो और भजन भी करो। लोकमान्य बालगंगाधर तिलकजी तथा महात्मा गाँधीजी इसी उपदेश के अनुकूल रहकर देश-सेवा और निज-निज जीवन-यापन के कार्यों में लगे हुए थे। भजन करनेवाले संसार का काम करके भी भजन कर सकते हैं तथा संसार का काम छोड़कर भी वे भजन नहीं कर सकते, जिनको भजन करने की इच्छा नहीं है। भजन करनेवाले सब भेषों में रहकर भजन कर सकते हैं। भजन नहीं करनेवाले किसी भेष में रहकर भी भजन नहीं कर सकते। कबीरजी का जीवन याद करके मेरा मन बड़ा प्रसन्न होता है। वे बहुत सन्तोषी, बहुत बुद्धिमान, इच्छा को जीते हुए, मितभोगी-अल्पभोगी थे। इसलिए वे थोड़े पदार्थों में ही सन्तुष्ट एवं खुश रहते थे। कपड़ा बनाकर बेचते थे, यही उनका रोजगार था। वे केवल परिश्रम और सूत का मूल्य लेते थे। 
    कबीर चाले हाट को, कहै न कोइ पतियाय ।
    पाँच टके का दोपटा, सात टके को जाय ।।
 एक दिन कबीर साहब दुपट्टा बनाकर बाजार में बेचने गये थे। वह पाँच टके उसका मूल्य बतलाते थे। लोग कम दाम में लेना चाहते थे। कबीर साहब दुपट्टा लेकर लौटे आते थे। रास्ते में एक चतुर मनुष्य ने कबीर साहब से दुपट्टा ले लिया और उनसे कहा कि बेचकर मैं ला देता हूँ। वह सात टके में बेचकर कबीर साहब के पास लौट आया और कहा, ‘देखो! मैंने सात टके में बेचा है।’ कबीर साहब ने कहा, ‘भाई! मुझे तो पाँच ही चाहिए।‘ वह चतुर मनुष्य कबीर साहब को पाँच टके देकर बाकी दो टके को अपने हाथ में लिये घर चला आया। जिनपर ईश्वर की बड़ी कृपा होती है, वे ऐसे ही सन्तुष्ट होते हैं।
    खुश खाना है खीचड़ी, माहिं पड़ा टुक नोन।
   मांस पराया खाय कर, गला कटावै कौन।।
        कबीर साहब ने तो ईश्वर से प्रार्थना की थी कि मुझे सूखी रोटी दो। चुपड़ी माँगते मैं डरता हूँ कि सूखी भी न छिन जावे।
   कबीर साईं मुज्झ को, सूखी रोटी देय।
    चुपड़ी माँगत मैं डरूँ, यह भी छीनि न लेय।।
 जो इन्द्रियों के स्वाद को तुच्छ जानता है, इन्द्रियों के स्वाद में फँसना अपने पर बन्धन जानता है, वह गृहस्थ होते हुए भी योगी है। भजन करने की युक्ति से विहीन को कितनाहू वैराग्य हो, तो उसका काम पूर्णरूप से बनने को नहीं है। इसलिए योग्य गुरु से युक्ति जानकर साधन में लगे हुए रहकर संसार के कामों को करते रहना चाहिए।
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यह प्रवचन ग्राम धरहरा ( जिला-पूर्णियाँ ) जिला विशेषाधिवेशन के अवसर पर दिनांक 23.12.1951 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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16. सुरत का जगना क्या है?

मेरी सुरत सुहागिनी जाग री।
क्यों तू सोवत मोह नींद में, उठि के भजनियाँ में लाग री।।
चित से शब्द सुनो सरवन दे, उठत मधुर धुन राग री।।
दोउ कर जोरि शीश चरणन दे, भक्ति अचल वर माँग री।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, जगत पीठ दै भाग री।।
 प्यारे भाइयो! आपलोगों ने सन्त कबीर साहब का वचन ‘मेरी सुरत सुहागिनी जाग री’ का पाठ सुना। सुरत का जगना क्या है? 
 जबतक मनुष्य अज्ञानता की नींद में सोया है; विषयों में लवलीन रहता है, तबतक जगा हुआ नहीं है। अज्ञानता किसे कहते हैं ? आत्म-ज्ञान- विहीनता को अज्ञानता कहते हैं। विषयों से मन को उलटो, भजन में लगो; उठो, बेखबर मत होओ। भजन में लगना, विषयों की ओर से फिरकर जगना है। हमलोग स्थूल विषयों में फँसे रहते हैं तथा इनमें सुख मानकर इन्हीं विषयों में लगे रहते हैं। इनसे यदि मुड़ जायँ, तो स्थूल विषय से सूक्ष्म विषय की ओर हो जाएँगे। स्थूल विषय से सूक्ष्म विषय की ओर होकर फिर उससे आगे की ओर बढ़ना चाहिए। जब स्थूल विषय का कुछ भी चिन्तन किए बिना रहता है, तब स्थूल विषय छूटता है। यह दृष्टि-साधन से होता है। अपने को रूप-रसादि से हटाकर किसी एक जगह पर रख सकें, तो विषयों से छूट सकते हैं। स्थूल विषय से मुड़ जाने के लिए नहीं जानें, तो जग नहीं सकते। यह जगना दृष्टि-साधन से होगा। नादविन्दूपनिषद् में लिखा है-
दृष्टिः स्थिरा यस्य विना सदृश्यं वायुः स्थिरो यस्य विना प्रयत्नम्।
चित्तं स्थिरं यस्य विनावलम्बं स ब्रह्मतारान्तरनादरूपः।।
 अर्थात् जिसकी दृष्टि बिना किसी दृश्य आधार के स्थिर हो जाती है, जिसका प्राणवायु बिना किसी प्रयत्न के अचल हो जाता है और जिसका चित्त बिना किसी अवलम्ब के स्थिर हो जाता है, वह तारब्रह्म (प्रणवब्रह्म) के आन्तरिक नाद का स्वरूप ही हो जाता है।
 इस प्रकार की क्रिया द्वारा स्थूल विषय से सूक्ष्म विषय में जायेंगे। इसका निशाना कहाँ होना चाहिए, यह भेदी-भक्त ही जानते हैं। इसका खुलासा करना गुरु-आज्ञा नहीं है। जिनको समझने की जरूरत हो, उनको बताने के नियुक्त किए हुए समय पर इसका खुलासा मिलता है। बाहर का दृश्य बिल्कुल छोड़ दिया, मन में जो चित्र उदय हुआ, उसको भी छोड़ दिया; फैली निगाह से नहीं देखना, सिमटी निगाह से देखना, दृष्टि का ऐसा सिमटाव हो कि कुछ भी फैलाव न रहे। जहाँ फैलाव का स्थान नहीं रहे, ऐसे स्थान पर दृष्टि को रक्खे। सिमटी निगाह से देखना, दृष्टि-साधन है। इस साधन से स्थूल दृश्य से तथा स्थूल विषय से मुड़ियेगा, यही पहला जागना होगा। यही काम करते रहना भजन करना है। स्थूल से मुड़कर सूक्ष्म में प्रवेश करें, यही भजन में लगना है। भजन कोई किसी को देता नहीं है, भजन करने की युक्ति बता दे सकता है। भजन कैसे दिया जाएगा? वह तो करने से होगा।
 जो कोई घोर निद्रा में सोया हुआ होता है, उसे पुकारा जाता है उठाने के लिए। पुकार से नहीं उठने पर शरीर को पकड़कर हिलाते हैं। शब्द कहकर जगाना सूक्ष्म है, देह पकड़कर हिलाना स्थूल है। मानस जप और मानस ध्यान स्थूल साधन हैं। इन दोनों सीढ़ियों पर स्थिर होकर आप अपनी परीक्षा आप करें कि कितनी देर तक उन्हें एकाग्र मन से आप करते हैं? मैं तो कहता हूँ कि दो मिनट भी ऐसा जप करें कि जप है और आप हैं, तो मैं कहूँगा कि बहुत अच्छा करते हैं। जो मानस जप ठीक से करते हैं, उससे मानस ध्यान भी ठीक-ठीक होता है। मानस ध्यान ऐसा होना चाहिए कि हू-ब-हू देख लिया जाय। परम श्रद्धेय बाबा देवी साहब ने एक दिन मुझसे पूछने की कृपा की, ‘क्या तुम मानस ध्यान में रूप हू-ब-हू निकाल लेते हो?’ मैंने कहा-‘जी नहीं, धुँधला दिखाई देता है।’ इस बात पर बाबा साहब ने कहा-‘मैंने मानस ध्यान किया और हू-ब-हू निकाल लिया है।’ तो इस प्रकार दोनों सीढ़ियों पर मजबूत होने पर विशेष युक्ति-द्वारा बिना दृश्य आधार के दृष्टि स्थिर हो जाती है, तब विन्दु का उदय होता है। 
  कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
    सर्वस्यधातारमचिन्त्यरूपमादित्य वर्णं तमसः परस्तात्।। - गीता ़8/9
 इसके दर्शन करनेवाले स्थूल जगत् के साँवले- गौर आदि सब रूपों को भूल जाते हैं। यहाँ तक देह डुलाकर जगाना है। 
 अब आगे पुकारने की बात आती है। किन्तु यहाँ विघ्न है। यहाँ आज्ञाचक्र में पुकार आती है और तब ऋद्धि-सिद्धि प्रेरणा करने लगती है। इससे यदि बच जायँ, तो यहाँ क्या आवेगा?
    बीजाक्षरं परं विन्दु नादं तस्योपरि स्थितम्।
    सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम्।।
                                                   - ध्यानविन्दूपनिषद्
 अर्थात् विन्दु के बाद नाद आवेगा। यथार्थतः यहाँ नाद तो हई है; किन्तु पकड़ नहीं सकते। पुकार का शब्द यही है, ईश्वर पुकारता है, आदमी क्या पुकारेगा? ‘है आ रही धुर से सदा तेरे बुलाने के लिए।’-आदि से जोर की आवाज तुमको बुलाने के लिए आ रही है।
 क्यों भटकता फिर रहा तू ऐ तलाशे यार में।
 रास्ता शहरग में है दिलवर पै जाने के लिये।।
 अपने मित्र की खोज में क्यों भटक रहे हो, उनके पास जाने के लिए सुषुम्ना में रास्ता है। दृष्टि-साधन से सुषुम्ना में जा सकते हो।
      गोश बातिन हो कुशादा जो करे कुछ दिन अमल।
 ला इलाह अल्लाह हो अकबर पै जाने के लिये।।
 उस शब्द को बाहर के कान से नहीं, भीतर के कान से (सुरत के कान से) सुनते हैं।
 तीनों बन्द लगाइ देखि, सुनि धरि ध्वनि धारा ।
 चलिय शब्द में खिंचत, बजत जो विविध प्रकारा ।।
 झिंगुर का झनकार, भँवर गुंजार हो ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ ’घण्ट शंख शहनाइ, आदि ध्वनि धार हो ।।
 आगे शून्य समाधि, नाद ही नाद की ।
 लहै सन्त का दास, जाहि सुधि आदि की ।।
 मीठी मुरली सुनै सुरत के कान से ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ बड़ा कौतुहल होय, ध्वनिन के ध्यान से ।।
 कुछ दिन अभ्यास करने पर शब्द खुल जायगा। यह अनुपम शब्द परमात्मा के पास ले जाने के लिए होता है, यही पूरा जगना है। ‘चित से शब्द सुनो सरवन दे, उठत मधुर धुन राग री।’ यह कहाँ प्राप्त होगा? इसलिए कहा- ‘दोउ कर जोरि शीश चरणन दे भक्ति अचल तर माँग री।’ यहाँ चरण कहने से ‘स्थूल मूर्ति’ आ जाती है। किन्तु यहाँ गुरु-चरणों को शीश पर लेने का अर्थ है-आज्ञा-चक्र में उसका ध्यान करना। इसलिये यहाँ ‘कर’ का अर्थ किरण लेंगे। दोनों किरणों को जोड़कर भक्ति का वर माँगो। सन्त तुलसीदासजी ने कहा है-
    औरउ एक गुपुत मत, सबहिं कहउँ कर जोरि।
     संकर भजन बिना नर, भगति न पावइ मोरि।।
 अर्थात् मैं सबको और एक गुप्त विचार कहता हूँ। (वह यह है कि) किरणों (चैतन्यवृत्तियों- सुरत की धारों) को जोड़कर (एकत्र करके) कल्याण करनेवाला भजन किये बिना कोई मेरी भक्ति नहीं पाता है। कर = किरण। किरण प्रकाश-रूप होनी चाहिए। शरीर में चैतन्यवृत्ति वा सुरत की धार ज्ञानमयी तथा प्रकाशमयी है, अतएव इसी वृत्ति वा धार को किरण मानना चाहिए।
    कहै कबीर सुनो भाइ साधो जगत पीठ दै भाग री।
 संसार की ओर पीठ देकर भाग जाओ। पीठ दिखाना कैसे होगा? कहीं भी जाओ, संसार में रहना होगा। जबतक इन्द्रियों के ज्ञान से ऊपर नहीं उठें, तबतक संसार में रहना होगा। इन्द्रियों के ज्ञान से ऊपर उठने पर जगत को पीठ देना होगा। जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति से परे तुरीय में चला जाय, तो संसार की ओर पीठ हो जायेगी। ‘सकल दृस्य निज उदर मेलि सोवइ निद्रा तजि योगी।’ जबतक सुरत का सिमटाव नहीं होगा, जगत को पीठ देना नहीं होगा। सुरत को केन्द्र में केन्द्रित करने से जगत को पीठ देना होगा, वही वैरागी है तथा संन्यासी है। केवल घर छोड़ने से कोई वैरागी अथवा संन्यासी नहीं होता और न जगत को पीठ देना हो सकता है। इसके लिए दृष्टि-साधन करके नादानुसन्धान करें। तभी वह पूर्ण रूप से ‘जगत पीठ दै भाग री’ होगा।

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 यह प्रवचन ग्राम धरहरा ( जिला-पूर्णियाँ ) विशेषाधिवेशन के अवसर पर दिनांक 24.12.1951 ई0 के प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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