04. अन्तर में डूबने से चैन
प्यारे लोगो!
जो ‘अहं ब्रह्मास्मि’, ‘अनलहक’; ऐसे शब्दों की पुकार करते हैं, उन्हें मैं ज्ञानमार्गी कहता हूँ। जो कहते हैं-प्रभु हम तुमसे मिलना चाहते हैं, प्रभु के लिए पुकार लगाते हैं, मैं उन्हें भक्त कहता हूँ। ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग को मैंने ऐसा ही समझा है।
कुछ लोग निर्गुण उपासक को ज्ञानी तथा सगुण के स्थूल उपासक को भक्त कहते हैं। जो जिसकी भक्ति करता है, उसे वह अपना प्रभु मानता है, चाहे अपने इष्टदेव को निर्गुण नहीं माने, सगुण ही माने। सगुण के माननेवाले संत निर्गुण नहीं मानते थे ऐसा नहीं; निर्गुण भी मानते थे। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
हिय निर्गुण नयनन्हि सगुण रसना राम सुनाम।
उनके हृदय में निर्गुण भरा था। तुलसीदासजी, सूरदासजी एवं कबीर साहब की वाणी में एक ही बात झलकती है।
‘संतो आवै जाय सो माया।
है प्रतिपाल काल नहिं वाके, ना कहुँ गया न आया।’
‘दस अवतार ईश्वरी माया कर्ता कै जिन पूजा।
कहै कबीर सुनो हो संतो, उपजै खपै सो दूजा।।’ -संत कबीर साहब
रामचरितमानस में है-
‘निर्गुन रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोइ ।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होइ ।।’
‘भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेहु तनु भूप।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप।।’ -गोस्वामी तुलसीदास
गुरु साहब तो एक है, दूजा साहब आकार।
आपा मेटै गुरु मिलै, तो पावै करतार।। -कबीर साहब
अवतारी राम को जिस गद्दी पर तुलसीदासजी ने बिठाया, उसी गद्दी पर गुरु को संत कबीर साहब ने बिठाया। तुलसीदासजी के हृदय में निर्गुण भरा है, किंतु अपने-अपने कहने का ढंग है। सगुण का अर्थ है गुण सहित, गुण को धारण करनेवाला। जिसने त्रयगुण को धारण किया है, उसे सगुण कहते हैं। जो निर्गुण ही निर्गुण मानते हैं, किंतु गुरुचरण में नबते हैं तो वे सगुण को भी मानते हैं।
लीला सगुन जो कहहिं बखानी।
सोइ स्वच्छता करइ मल हानी।।
रघुपति महिमा अगुन अबाधा।
बरनव सोइ बर बारि अगाधा।। -रामचरितमानस, बालकाण्ड
रामचरितमानस में सगुण सरिता जल है, निर्गुण उसकी गंभीरता है। जो गंभीरता है उसका महत्व विशेष है। सगुण मिठास है। मीठा खाने में लोगों को अच्छा लगता है, किंतु मीठा खाने से बीमारी भी होती है। निर्गुण तीता नीम-सा है।
अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यों गूँगहिं मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै।।
परम स्वाद सबही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै।
मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै।।
रूप रेख गुन जाति जुगुति बिनु, निरालंब मन चकृत धावै।
सब विधि अगम विचारहि तातें, ‘सूर’ सगुन लीला पद गावै।।
अविगत=सर्वव्यापी। निरालंब होने के कारण मन उसे ग्रहण नहीं कर पाता है। चक्कर काटता रहता है। मन-बुद्धि के परे जानकर सूरदासजी सगुण लीला पद गाते हैं। जिसने उसे पाया है, मन वाणी से आगे जाकर पाया है।
तापर अकह लोक है भाई। पुरुष अनामी तहाँ रहाई।।
जे पहुँचे जानेगा साँई। कहन सुनन ते न्यारा है।। -राधास्वामी साहब
जब गुरु की मूरति मन महि ध्यान कहते हैं, तब कहाँ निर्गुण रहता है, सगुण हो जाता है। फिर जब ‘अलख अपार अगम अगोचर’ कहते हैं तो निर्गुण हो जाता है। निर्गुण-सगुण किसी की पकड़ संतों ने नहीं छोड़ी। जाते-जाते वे अंत तक चले जाते हैं।
संतों की वाणी में अंतस्साधना विषय पर विशेष जोर है। सगुण-निर्गुण, द्वैत-अद्वैत, त्रैत कुछ मानिये; खूब वर्णन कीजिए हाथ में कुछ नहीं आएगा। अंतर में गोता लगाओ, तब पाओगे। जहाँ तक गति है वहाँ तक चले जाओ, तब जो पाओ सो असली है। तब सगुण-निर्गुण क्या है, द्वैत-अद्वैत क्या है-प्रत्यक्ष हो जाएगा। इस मतलब का विचार सुनें। जिस विचार को लोग विशेष सुनते हैं, उसको करने का मन होता है। संतलोग संतवाणी कहकर ध्यान करने के लिए प्रेरणा करते हैं। संत तुलसी साहब कहते हैं-
सखी सीख सुनि गुनि गाँठि बांधौ,
ठाठ ठठ सत्संग करो।
सत्संग बहुत करें। इससे मिलता क्या है? प्रतिष्ठा से ऊँचे आसन से बैठते हैं। बड़े लोगों से मेल है। यह बाहर में देखे जाते हैं, किंतु संतुष्टि नहीं। संतुष्टि जिसमें है, वह यह बात है कि संसार में छोटे होकर रहें, लेकिन आप बाहरी चीज में चंचल नहीं होवें। अपने को इतना समेटें कि एकविन्दुता प्राप्त कर लें। मन जमा हुआ रहे। उस समय आप कितना संतुष्ट होंगे, ठिकाना नहीं। यदि मिठास मालूम नहीं हो तो भी थोड़े-से-थोड़े काल ध्यान कीजिए तो उसका मिठास मालूूम होगा। अंतर में डूबनेवाले को जो चैन मिलता है, बाहर में भटकनेवाले को नहीं। इसके लिए परमात्मा ने एक नमूना आपके अंदर दिया है, किंतु आप उसपर विचारते नहीं हैं।
तन्द्रा के समय में (स्वप्न जाग्रत के बीच में) हाथ-पैर में कमजोरी होती जाती है, चैन मालूम होता है। भीतर प्रवेश करते जाते हैं। अगर कोई थोड़ा-सा भी खट-खुट करे तो बड़ा दुःख मालूम होता है। इसको कौन सुख कहें? पाँच इन्द्रियों में जो सुख-रस मिलता है वैसा है या कैसा है? इसे भी तो नहीं बोल सकते। इससे जाना जाता है, अंतर में डूबने से चैन मिलता है। अंतर में डूबते-डूबते जब अंतिम गति तक पहुँचोगे, तो किसी से पूछना नहीं पड़ेगा कि क्या है? सत्संग में खास करके यह बात बताई जाती है कि अंदर में डूबते जाओ। यात्री बनो, जैसे जगन्नाथ के यात्री चलते हैं। यह भक्ति है। इसी तरह से अपने अंदर में डूबो।
संतलोग कहते हैं- हाथ-पैर को मत डुलाओ, मन को अंतर में चलाओ। मन चलते-चलते फिर आप चलेंगे। पहले मन के साथ-साथ आप चलेंगे जैसे दूध में घी रहता है।
सहस कँवल दल पार में, मन बुद्धि हिराना हो।
प्राण पुरुष आगे चले, सोइ करत बखाना हो।। -तुलसी साहब
फिर मन से छूटकर आप स्वयं चलेंगे, यह पराभक्ति है।
श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै ।
रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै ।।
नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै ।
अंग बिना मिलि संग, बहुत आनंद बढ़ावै ।।
बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिये रहै।
मिलि परमातम सों आतमा पराभक्ति सुन्दर कहै।।
यहाँ (संसार में) अंग से मिलता है, किंतु वहाँ तो बिना अंग के ही संग होता है। इसे हमलोगों को करना चाहिए। आप करके देखिए, करने से सब पता चल जाएगा। योगी को संशय कहाँ? जो पाओ सो सत्य है, जो नहीं पाओ असत्य है।
भौतिक विज्ञानवाले एक चीज दूसरे से मिलाकर तीसरी चीज बनाते हैं। यह तो बाहर की बात है। इनमें बहुत से सामान इकट्ठे करने पड़ते हैं। किंतु अंतर में चलने के लिए सब सामान आपके साथ है। किंतु ईमानदारी से ;चतंबजपबंसद्ध प्रयोग करो।
चश्म बंद गोश बंद लब बंद।
गर नवीने नूर हक बरबन बखन्द।।
मौलाना रूम का वचन है-चश्म, गोश, लब, आँख, कान, मुँह बन्द करके देखो। अगर ब्रह्म ज्योति (नूरे हक) नहीं देखो तो मुझपर हँसना।
मुरशिद नैनां बीच नबी है।
स्याह सफेद तिलों बीच तारा, अविगत अलख रबी है।
आँखी मद्धे पाँखी चमकै, पाँखी मद्धे द्वारा।
तेहि द्वारे दुरबीन लगावै, उतरे भव जल पारा।।
सुन्न शहर में वास हमारा, तहुँ सरवंगी जावै।
साहब कबीर सदा के संगी, शब्द महल लै आवै।।
मुर्शद=गुरु। हमलोग बहुत प्रकार के गुरु का प्रयोग करते हैं, किंतु यहाँ आध्यात्मिक गुरु के लिए लिया गया है। हे मुर्शिद! आँखों के बीच में नवी है अर्थात् संदेशवाहक है। उनके पैगम्बर मुहम्मद साहब थे। उनको खुदा का नूर भी कहते हैं। अर्थात् वे खुदा के नूर थे। वह ब्रह्म प्रकाश तुम्हारी आँख में है। रब्ब=शब्द को रबी किया है। काले-उजले तिलों के बीच में तारा है। यह भी बाहर में कैसे समझाया जा सकता है। जब दृष्टि एक होती है तो पहले काले फिर उजले तिल का दर्शन होता है। जो अंधकार में एक ही स्थान पर देखता है, उसे वह काला चमकदार मालूम होता है, पीछे वही उजला हो जाता है, फिर तारा का दर्शन होता है। यह जो तारा है वह सर्वव्यापी सब में है।
खोज करो अंतर उजियारी छोड़ चलो नौ द्वार। -राधास्वामी साहब
श्याम कंज लीला गिरि सोई।तिल परमान जान जन कोई।।
छिन छिन मन को तहाँ लगावै। एक पलक छूटन नहिं पावै।।
स्रुति ठहरानी रहे अकाशा। तिल खिरकी में निसदिन बासा।।
गगन द्वार दीसै एक तारा। अनहद नाद सुनै झनकारा ।।
जबतक आप जिन्दा हैं, तबतक आँख में चमक है, प्राण निकल जाने से आँख की ज्योति चली जाती है, वह चमक नहीं रहती। उस ज्योति में द्वार है। जहाँ ज्योति नहीं है, वहाँ द्वार कैसे पाते हैं? एक स्थान में देखने से। एकविन्दुता प्राप्त होने से ज्योतिमण्डल में पहुँचता है। दृष्टियोग करने से शून्य शहर में वास होता है। सरवंगी=जो अंग में हो। सदा के संगी सब शरीर में सदा व्यापक है। उस शब्द की महिमा क्या है? जो सदा के संगी परमात्मा हैं, उनके महल में वही शब्द ले जाएगा। कबीर साहब कहते हैं-परमात्मा सदा के संगी हैं। उस महल में शब्द ही ले जाएँगे। संतो की वाणी में दृष्टियोग और शब्दयोग सूक्ष्म साधना है, किंतु स्थूल में-
नाम जपत स्थिर भया, ज्ञान कथत भया लीन।
सुरति शब्द एकै भया, जल ही ह्वैगा मीन।।
नाम जपत कुष्टी भला, चुई चुई पड़ै जो चाम।
कंचन देह केहि काम का, जा मुख नाहीं नाम।। -कबीर साहब
वर्णात्मक जाप स्थूल है। गुरु की मूरति, यह स्थूल रूप ध्यान है, इसके बाद है दृष्टियोग और शब्द ध्यान। शब्द ध्यान वहाँ तक ले जाता है जहाँ कि शब्द विलीन न हो जाय। वहाँ देखना-सुनना सब बंद हो जाता है। वहाँ निःशब्द-परमात्मा मिलते हैं।
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यह प्रवचन पूर्णियाँ जिला विशेषाधिवेशन, मोकमा में दिनांक 25.12.1950 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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