02. वेद पुरान संतमत भाखौं 

प्यारे भाइयो!
मैं आपलोगों के दर्शन से बहुत प्रफुल्लित होता हूँ। आप सब लोगों को मैं वन्दगी और प्रणाम करता हूँ।
अररिया इलाके में मैं बुलाया गया था। वहाँ एक पुराने सत्संगी थे, अब उनका शरीर नहीं है। मिड्ल स्कूल में सत्संग का प्रबंध था। मैं स्वभावतः अपने जैसा (धीरे-धीरे) बोला। लोग कुछ दूर, कुछ नजदीक थे। कुछ सुने, कुछ नहीं सुने, इसलिए लोगों ने हल्ला किया। वहाँ लाउड-स्पीकर का प्रबंध नहीं था। उसी प्रकार मैं जोर से नहीं बोल सकता। आपलोग नजदीक-नजदीक बैठिए तो अच्छा है।
आज आप क्या देखते हैं ? देश में अनेक ख्याल-विचार-धाराएँ हैं। एक कांग्रेस है, जिसका राज्य शासन है, दूसरा सोसलिस्ट-समाजवादी और तीसरा साम्यवादी है। ये तीनों हमसे पूछते हैं कि तुम क्या कहते हो? तुम शरीर और संसार से अपने को छुड़ाने के लिए कहते हो, इससे देश को क्या फायदा होगा? इस प्रश्न का उत्तर सुन लीजिए और इसमें अगर देश को कोई फायदा हो तो चुन लीजिए। इस सत्संग के उपदेशों में क्या है, सुनिये। जो सदाचारी होगा, वह शरीर और संसार को छोड़ेगा, वही आत्मज्ञान में ऊँचा होगा और माया के आवरणों को पार करेगा। अपने को ऊँचा चढ़ावेगा, ऊँचे-से-ऊँचा पद जिसे मुक्ति कहते हैं, प्राप्त करेगा। जिसमें सदाचार की कमी है, वह मुक्ति-लाभ नहीं कर सकेगा। सदाचार जिस समाज में होगा, उसकी सामाजिक नीति बहुत अच्छी होगी। जहाँ कि सामाजिक नीति उत्तम होगी, वहाँ कि राजनीति अनुत्तम हो, संभव नहीं। सब सदाचारी होंगे तो समाज अच्छा होगा। अच्छे समाज जब राजनीति को बनाएँगे, तो वह कितनी अच्छी होगी! यह मेरी युक्ति नहीं, बाबा देवी साहब की है। उन्होंने यह युक्ति 1909 ई0 में बतलाई थी।
सुल्तानगंज से पश्चिम बरियारपुर रेलवे स्टेशन के पास पुरुषोत्तमपुर बिलिया एक ग्राम है। वहाँ प्रेम दास नाम के मेरे एक प्रेमी साधु रहते थे। वे मुझे अपनी कुटिया में बुलाकर सत्संग करवाए। अंग्रेजों का समय था। कांग्रेस का दमन हो रहा था। संयोग से दारोगा साहब उसी ओर आ पहुँचे। देखा कि सामियाना टंगा है। चौकीदार को कहा कि साधु को बुलाओ। प्रेम दास गए। दारोगाजी ने पूछा- ऐ साधु! क्या हो रहा है? प्रेम दास ने उत्तर दिया- मेरे गुरु-साधु महाराज आए हैं, सत्संग होगा। ईश्वर का नाम लेंगे, उन्हें याद करेंगे। दारोगा साहब दफादार को वहीं छोड़ गए। दफादार सत्संग सुनकर बोले-ऐसा सत्संग हो तो चोरी-डकैती सब बंद हो जाय। हमलोगों को पहरा भी नहीं देना पडे़। मैंने उनसे कहा-आप तो समझे, अब दारोगा साहब को जाकर कहिए। सत्संग में पाँच पाप-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार छोड़ने के लिए कहते हैं। अगर सब सदाचारी बन जाएँगे, तो वहाँ झगड़ा मिट जाएगा। मुकदमा वगैरह भी नहीं होगा। शासन अच्छा हो जाएगा। शासनकर्ता को बहुत सुविधा होगी। इसलिए आपलोगों से प्रार्थना है कि अपने देश को ऊँचा उठाने के लिए सदाचारी बनिए। अभी वेद-मंत्र-केन और कठ उपनिषदों के श्लोकों का पाठ हुआ। संत कबीर तथा गुरु नानक आदि संतों के वचनों का पाठ भी आपलोगों ने सुना। वेदमंत्र पढ़ना नहीं जाने तो संतों की वाणी को पढ़कर जान सकेंगे। इन सबको पढ़कर विचारिए कि सबका मत एक है अथवा नहीं? अगर है तो जिस पदार्थ को प्राप्त करने कहते हैं, वह एक ही है या नहीं? काम का है या नहीं? काम का पदार्थ होगा तो लेना चाहिए, नहीं तो नहीं। अगर सबका मत नहीं मिलता है तो जो उसमें श्रेष्ठ जाना जाता है, उसे ही मानेंगे। अगर सबका एक ही मत हो तो सामुदायिक भाव मिट जाए। यह जो अलग-अलग मत का नाम सुनते हैं, इससे मालूम होगा कि इन सबका अलग-अलग मत है। लेकिन जैसे कोई गोरे, कोई काले हैं, किंतु मनुष्य ही हैं; वैसे ही सब संतों का मत है। सब एक ही मत के लोग हैं। तो फिर साम्प्रदायिक भाव के कारण जो लड़ाई होती है, मिट जाएगी।
बहुत पहले राजा लोग देश को टुकड़े-टुकड़े करके अलग-अलग रहते थे। आपस में लड़ते-झगड़ते थे तो दूसरे देश के लोग आकर चढ़ बैठे। ‘घर फूटे गँवार लूटे’-यह बात बहुत दिनों से चली आ रही है। किंतु वे इस ज्ञान को अपने काम में नहीं लाए। पचास वर्षों से बेशी कोशिश करने के बाद अब अपना देश स्वतंत्र हुआ है। शासनकर्ता कहते हैं- साम्प्रदायिकता का भाव एक होने नहीं देता। हमलोगों की तरफ देखिए-मोक्ष, परलोक, ईश्वर को रखते हुए संसार के सारे लोग एकता में रहें, साम्प्रदायिकता का भेद-भाव मिटकर एक हो जाए तो उसका नाम क्या कहा जायगा? संतमत। यह कोई नयी बात या नया नाम नहीं।
यहाँ न पच्छपात कछु राखौं।
बेद पुरान संतमत भाखौं।।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामायण में लिखा है। ‘घर फूटे गँवार लूटे’-कहकर भी जैसे उसे कार्यान्वित नहीं करते; उसी प्रकार संतमत को मानते हुए भी भेद-भाव रखते हैं, यह अच्छा नहीं। संतमत में चलते-चलते ईश्वर को प्राप्त कर लेंगे, मोक्ष प्राप्त होगा और आवागमन से मुक्त हो जाएँगे। इस सत्संग में घर छोड़ने के लिए नहीं कहा जाता। कमाई करके खाओ। इच्छाओं को समेटते-समेटते एकदम कम कर दो तो आनंदपूर्वक रह सकोगे। अगर इच्छाओं को बढ़ाओ तो संसार की सब संपत्ति मिलने पर भी शान्ति नहीं मिलेगी।
बसुधा सपत दीप है सागर कढ़ि कंचनु काढ़ि धरीजै।।
मेरे ठाकुर के जन इनहु न बांछहि हरि मांगहि हरि रसु दीजै।।
जो इच्छाओं को बढ़ाते हैं, वे इससे दुःख पाते हैं। 
भक्ति का मारग झीना रे ।
नहिं अचाह नहिं चाहना चरनन लौ लीना रे।। 
संत कबीर साहब भी कहते हैं-इच्छारहित मन बने। यह देह संसार में आकर अकेले नहीं रहेगा। इसके लिए कपडे़-भोजन चाहिए। परिवार में लोगों की संभाल बड़ा कठिन है। बाबाजी बन जाओ, स्त्री, पुत्र आदि अगर नहीं हो, शादी नहीं हुई हो तो अकेले ही रहो, जैसे मैं। परंतु दोनों ओर कठिनाइयों के समुद्रों को ही पार करने पड़ते हैं। वा दोनों ओर अग्निकुण्डों में गिरकर ही अपने को सुरक्षित रखना होता है। गृहस्थी में रहना किले के अंदर रहकर लड़ना है, परंतु गृहस्थी छोड़कर रहना, मैदान में रहकर लड़ना है। 
शूर संग्राम को देखि भागै नहीं ।
देख भागै सोइ सूर नाहीं ।।
काम औ क्रोध मद लोभ से जूझना ।
मड़ा घमसान तहँ खेत माहिं ।। 
साँच औ शील संतोष शाही भये।
नाम शमशेर तहँ खूब बाजै ।।
कहै कबीर कोई जूझिहैं शूरमा । 
कायराँ भीड़ ता तुरत भाजै ।।
अच्छी बात है कि गृहस्थी में रहकर लोग भजन करें। यदि मेरी निस्वत पूछो कि तुमने गृहस्थी क्यों छोड़ी? तो जानना चाहिए कि पहले जैसी जानकारी थी, वैसी आजकल नहीं है, बदल गयी है। परंतु जिस व्रत को धारण करना चाहिए, उसको निभाना चाहिए। 
बौद्ध संन्यासी नागसेन ने राजा मिलिन्द से पूछा-आप किस पर आए? राजा बोला-रथ पर। क्या पहिया रथ है? धूरी रथ है? जुआ रथ है? पहिए धूरी आदि जितने यंत्र हैं, सब मिलाकर रथ है। उसी प्रकार आपका शरीर है। वैसे कोई अकेला नहीं हो सकता। अद्वैत पद में जाकर ही अकेला हो सकता है। संसार में अकेला रह नहीं सकता। 
बाबा साहब (बाबा देवी साहब) ने मुझसे पूछा था-तुलसी सिस्टम में रहना चाहते हो या स्वावलंबन में? मैंने कहा-तुलसी सिस्टम में। जिसे सुनकर सब हँस पड़े। बल्कि एक सत्संगी ने तो मुरादाबाद में ऐसा कहा कि माँगकर लाओगे तो फेंक दूँगा। 
मैंने पौन दो वर्षों तक लड़कों को पढ़ाया। मैं स्वयं खेती का काम भी देखता हूँ। उपदेश यह है-अपने जीवन-निर्वाह के लिए उपार्जन करो। गुरु महाराज का जोर था कि अपने जीवन-निर्वाह के लिए कमाओ। काम करते रहो, निठल्ला मत बैठो। भजन-सत्संग का काम करो। अपने गुजारा के लिए भी काम करो। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से बचने का प्रयास करते रहो। बाबा साहब डाकघर में काम किए, खेती भी किए। बैंक में कुछ जमा हुआ, फिर बैंक फेल भी हो गया। अपनी कमाई से ही अपना गुजारा करो। सदाचार से रहो, ईश्वर की भक्ति करो।
जीवात्मा बहुत हैं, ईश्वर कोई नहीं है-कोई ऐसा भी कहते हैं, किंतु यह बात भीतर नहीं जाती। यहाँ आध्यात्मिक, राजनीति किसी के लिए विरोध नहीं है। आपको संतमत कहना पसंद नहीं है तो आर्यसमाज या संन्यासी जो कहिए। किंतु मैं तो कहूँगा कि अपने में पृथक-पृथक की भावना न हो, एक मिल-जुलकर रहें। हम देश की रिवाज नहीं तोड़ते। आप सबका छुआ खाइए या स्वयं पाकी बनिए। इसके लिए सत्संग को कोई दखल नहीं। देश में छोटा-बड़ा बहुत दिनों से रहा है। देश में नया विधान हो, इसके लिए मुझे कोई लड़न्त-भिड़न्त नहीं।
अभी आपलोग ईश्वर के विषय में सुन रहे हैं। परमात्मा, ईश्वर है। उसकी स्थिति को हमलोग मानते हैं। संत मानते हैं, इसलिए हम मानते हैं, ऐसा नहीं। हमें तो विश्वास है। घर-घर में बचपन से राम-राम, वाह गुरु आदि कहते आए हैं। यह श्रद्धा नहीं मिट सकती। राम-राम तो बच्चे में कहते थे, किंतु पदार्थ रूप में परमात्मा कैसा है, क्या है, यह सत्संग से जाना जाता है। कोई कहते हैं कि ईश्वर नहीं है तो आश्चर्य मालूम होता है। वेद-पुराण संत की वाणी में एक राय यह है कि ईश्वर को जानकर जानना और पहचानकर जानना। ईश्वर इन्द्रिय से जानने योग्य नहीं है। हाथ-पैर से नहीं जानेंगे, स्वाद, गंध आदि मालूम ही नहीं होगा। किंतु वह बिन पावन की राह है, बिन बस्ती का देश।
बस्ती न शुन्यं शुन्यं न बस्ती, अगम अगोचर ऐसा । 
गगन शिखर मँहि बालक बोलहिं, वाका नाँव धरहुगे कैसा ।।
बस्ती या शून्य, देश या काल, इन्द्रिय-ज्ञान में है। जो इन्द्रिय-ज्ञान से ऊपर है, उसके लिए मालूम होता है, जैसे हई नहीं है। वेद में आया है कि आत्मा से आत्मा जाना जाता है। आँख, कान दोनों इन्द्रियाँ हैं, किंतु एक का ज्ञान दूसरे के द्वारा नहीं हो सकता। उसी प्रकार मन-बुद्धि के द्वारा उस परमात्मा को नहीं जान सकते। अपने से ही जानेंगे अपने को इन्द्रिय से रहित करके। गोरख, नानक, कबीर; सबकी वाणी में यही कहा गया है कि इन्द्रियों से नहीं, आत्मा से जानेंगे। तभी अन्तर साधना सफल है। जिस किसी देश में यह सत्संग होगा, जिस देश में ईश्वर के मानने में हिचक नहीं है, उसके लिए फायदा है। सब राष्ट्र एक हों, जैसे मुंगेर, भागलपुर आदि अलग-अलग जिलों में रहकर भी एक देश के हैं, ऐसा मानते हैं। उसी प्रकार अलग-अलग देश में रहकर भी अगर अपने को एक मानें तो लड़ाई-झगड़ा सब मिट जाय। जबतक अपने को अलग-अलग मानेंगे, तबतक लड़ाई होती रहेगी। नदी के दोनों पार में एक ही देश के लोग हैं। इसी तरह से एक देश से दूर तक समुद्र में चलकर जो दूसरा देश कहलाता है, वह भी तो इसी भूमंडल का देश है। दोनों देशों के लोग एक ही भूमंडल में हैं। दोनों को एक ही भाव से रहना चाहिए। हम दोनों देश के सब अपने ही हैं, ऐसा जानें तो सब लड़ाई झगड़ा मिट जायँ।

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यह प्रवचन पूर्णियाँ जिला विशेषाधिवेशन, ग्राम-मोकमा में दिनांक 24.12.1950 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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03. ब्रह्मलोक में भी दुःख है

प्यारे धर्मानुरागी भाइयो !
हमलोग संतमत का सत्संग करते हैं। यह सत्संग हमलोगों को ईश्वर की भक्ति सिखलाता है। ईश्वर की भक्ति से सब दुःख दूर हो जाएँगे। इसी आशा को लेकर हमलोग सत्संग करते हैं। साथ ही अगर सत्संग के ख्याल के मुताबिक रहेंगे तो शांतिपूर्वक रहेंगे। शांतिपूर्वक रहने का नमूना ठीक-ठीक प्रत्यक्ष उनलोगों को होता है, जो मन बनाकर सत्संग के अनुकूल रहते हैं। इसी जन्म में मोक्ष प्राप्त कर लें और अगर मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकें तो फिर दूसरे जन्म में काम को खतम करें; इसीलिए सत्संग है। इहलोक-परलोक दोनों को सुधारने के लिए हम सत्संग करते हैं तथा लोगों को भी करने के लिए कहते हैं। इसी ईश्वर-भक्ति के संबंध में थोड़ा-सा कहूँगा, जैसी मेरी शिक्षा है, जैसा मैं जानता हूँ। पहली बात यह है कि ईश्वर-स्वरूप को जानें कि वह कैसा है? प्राप्तव्य वस्तु की जानकारी होनी चाहिए। जो आप इन्द्रिय से जान सकें, वह परमात्मा नहीं। तुलसीकृत रामायण में ईश्वर-स्वरूप जानने के लिए लक्ष्मण से रामजी कहते हैं-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई।
सो सब माया जानहु भाई।।
इन्द्रियों को जो प्रत्यक्ष हो और जहाँ तक मन जाय, सब माया है। ईश्वर-स्वरूप इससे बहुत आगे है। इन्द्रियगम्य जो कुछ भी है, वह मायिक पदार्थ है। ईश्वर आत्मगम्य है। जिसे केवल आत्मा से ही पहचान सकते हैं, वह ईश्वर है। जो इन्द्रियों से जानते हैं, वह ईश्वर नहीं है। राम उपदेश करते हैं- ‘एहि तन कर फल विषय न भाई।’
स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई।।
नर-तन का यह फल नहीं है कि विषयानुरागी बनो। स्वर्ग का विषय भी ओछा है और अंत में दुःख देता है। विषय उसे कहते हैं, जिसे इन्द्रियों से जानते हैं; इसके पाँच प्रकार हैं-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द। स्पर्श त्वचा से, शब्द कान से, रस जिभ्या से, गंध नाक से और रूप नेत्र से; इनके अतिरिक्त संसार में कुछ जानने में नहीं आता। कोई भी पदार्थ हो-कठिन (ठोस), तरल, वाष्पीय; लेकिन पंच विषयों में से कोई एक अवश्य है। पुराण में स्वर्ग के लिए जाना जाता है कि इन्द्रियों के विषय वहाँ भी भोगते हैं; चाहे कितने ऊँचे दर्जे का स्वर्ग क्यों न हो। राजा श्वेत ब्रह्मलोक गए। उन्होंने दान नहीं किया था, फलस्वरूप उनको ब्रह्मलोक में भूख-प्यास सताने लगी। तब उन्होंने ब्रह्माजी को कहा। ब्रह्माजी ने कहा-‘यहाँ खाने का सामान है ही नहीं। आपने कभी दान नहीं किया, उसका ही फल है कि यहाँ आपको भूख-प्यास सता रही है। इसलिए आप अमुक सरोवर में जाएँ, वहाँ आपका मृत शरीर सुरक्षित है, उसी का भोजन करें।’ राजा श्वेत ने पूछा-‘महाराज! यह भोग मुझे कबतक भोगना पड़ेगा?’ ब्रह्माजी ने कहा- ‘जब आपको अगस्त्य मुनि के दर्शन होंगे और उनका आशीर्वाद आपको मिलेगा, तो आप इस कष्ट से मुक्त हो जाएँगे।’
राजा श्वेत लाचारी नितप्रति उक्त सरोवर जाते और अपने मृत शरीर का मांस खाकर भूख बुझाते। संयोगवश वहाँ अगस्त्य मुनि पहुँचे। उन्हांंने देखा कि दिव्य शरीर है, लेकिन मृतशरीर का मांस खा रहे हैं तो उनसे पूछा-‘आप कौन हैं?’ राजा श्वेत ने अपना परिचय दिया और आशीर्वाद माँगा, तब वे उस भोग से मुक्त हुए।
ब्रह्मलोक जाकर भी भूख-प्यास सताती है। इसीलिए कहा-‘स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई।’ वहाँ भी जबतक पुण्य है, तभी तक रहो, फिर मृत्युलोक आओ। इससे यह जाना गया कि जैसे विषय यहाँ है, वैसे ही वहाँ भी। यह विशेष बात है। इसी का विचार कीजिए, नित्यानित्य विचारिए। वहाँ पर क्या सुख? इन्द्रियगम्य पदार्थ का ग्रहण करना। जो इिंन्द्रयों के ज्ञान से ऊपर है, वह है ईश्वर-ज्ञान। चाहे भीतर की या बाहर की इन्द्रिय से जो आप जानते हैं, सो माया है। इन्द्रियों का संग छोड़कर जो आप जानें, वही परमात्मा-ईश्वर है। उसकी भक्ति करें, उसका भक्त बनें, उसको प्राप्त करें फिर सुख की कमी क्या? यहाँ का सुख थोड़ा तथा अंग-अंग में दुःख है। रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द का सुख प्राप्त करने के लिए कमाई और परिश्रम कीजिए, कितना करना पड़ता है? कितना दुःख है ! फिर भी एक ही दिन की कमाई से काम नहीं चलता है। संतोष नहीं होता। परमात्मा को जिन लोगों ने प्राप्त किया, उन्होंने कहा- यही सुख है। जबतक प्राप्त नहीं हो, परिश्रम करें। भक्ति करने के अभ्यास में आनंद मिलता है।
भजन में होत आनंद आनंद।
बरसत बिसद अमी के बादर, भींजत है कोइ संत।।
अगर बास जहँ तत की नदिया, मानो धारा गंग।
करि असनान मगन होइ बैठी, चढ़त शब्द कै रंग।।
रोम रोम जाके अमृत भीना, पारस परसत अंग।
शब्द गह्यो जिव संसय नाहीं, साहिब भयो तेरे संग।।
सोइ सार रच्यो मेरे साहिब, जहँ नहिं माया अहं।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, जपो सोहं सोहं।।
अगर=चन्दन। शब्द का रंग चढ़े तो क्या होगा? साहिब भये तेरे संग। संग में हई है, जबसे हम नहीं जानते, तबसे ही। किंतु शब्द को पकड़ लेने से प्रत्यक्ष हो जाएगा। बिना शब्द गहे प्रत्यक्षता हो जाएगी? नहीं होगी। ध्यानविन्दूपनिषद् में है-
बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम्।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम्।।
अक्षर का बीज विन्दु है। पेन्सिल या कलम रखो, पहले विन्दु ही बनता है। लकीर बनाते हैं, वह विन्दुमय है। आपलोगों ने जो ध्यानविन्दूपनिषद् के पाठ में सुना, वही परम विन्दु है। यहाँ आपलोगों ने सुना ‘विन्दु ध्यान विधि, नाद ध्यान विधि, सरल सरल जग में परचारी।’ विन्दु इतना छोटा होता है कि उसका विभाग नहीं हो सकता। बहुत छोटा है, इसीलिए इसे विन्दु नहीं कहकर परम विन्दु कहा। संसार में लोग चिह्न करके विन्दु मानते हैं। लेकिन उसकी परिभाषा के अनुकूल बाहर में विन्दु नहीं बना सकते। इस परम विन्दु को प्राप्त करने से शब्द मिलता है। फिर शब्द का भी जहाँ लय हो जाता है, वह ‘निःशब्दं परमं पदम्’ है। अंतस्साधना करते-करते आनंद आने लगेगा। मलयागिरि का सुगंध मालूम होगा तथा शब्द का रंग चढ़ जाएगा। तब हो जाएगा-‘साहिब भयो तेरे संग।’ (कबीर) कोई कहे शब्दातीत परम पद है और यहाँ शब्द को ही परम पद बना दिया, ऐसा क्यों? इसके उत्तर में कहा जा सकता है, गुरु नानकदेव ने कहा है-‘ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ, साचे शबदि नीसाणु।’ शब्द ही सही चिह्न है। देवता को प्रसन्न करने के लिए देवताओं की प्रतिमा पूजते हैं; उसी प्रकार यह शब्द भी परमात्मा है। प्रतिमा पूजते हैं तथा उसे ठाकुरजी कहते हैं। उसी प्रकार यह शब्द भी परमात्मा है। शब्द अपने उद्गम स्थान पर पहुँचाता है। घोर अँधेरी रात में जहाँ से शब्द आता है, वहाँ चलते-चलते पहुँच जाय, असम्भव नहीं। जो कोई विन्दु को ग्रहण करेगा, वह शब्द को ग्रहण कर लेगा। जहाँ से इस शब्द का विकास हुआ है, वहाँ पहुँचा देगा। इसलिए मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों से आगे बढ़कर शब्द को पकड़ने की कोशिश करें। आँख, कान; सब मोटी-मोटी इन्द्रियाँ हैं। इसमें सूक्ष्म रूप से जो चेतनवृत्ति है, उसके अंदर रहने के कारण सूक्ष्म इन्द्रियाँ हैं। यह वृत्ति आँख में आई तो देखने की शक्ति दृष्टि हुई। जो स्थूल में लिपट कर रहेगा तो सूक्ष्म में क्या उठ सकता है? इन सब पदार्थों को लें तो वह विन्दुमय है। परमात्मा की कृपा, गुरु की दया हो, विन्दु पर अपने को रख सकें तो पूर्ण सिमटाव होगा। सिमटाव का फल ऊर्ध्वगति होगी। कठिन या तरल किसी पदार्थ को समेटिए ऊर्ध्वगति होगी। जहाँ मन का समेट है, स्थूल में सिमटने पर सूक्ष्म में प्रवेश होगा। इसके शौकीन को बाबा नानक की बात याद रहे-
सूचै भाड़ै साचु समावै बिरले सूचाचारी।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी।।
पवित्र बर्तन में सत्य अँटता है। हमारा अंतःकरण शुद्ध होना चाहिए। इसके लिए संयम तथा परहेज करें। अपने को काम-क्रोध से बचाकर रखें। बाहर में पाप कर्म नहीं करें। जिस कर्म को करने से अधोगति हो, उसे पाप कहते हैं। पाप-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार नहीं करें, तब ईश्वर की ओर जाएँगे। इस पर संशय उठेगा कि क्या यहाँ ईश्वर नहीं है? इसका उत्तर गो0 तुलसीदासजी ने लिखा है-
अग जग मय सब सहित विरागी।
यहाँ हम नहीं पहचानते हैं, इसलिए हम जहाँ जाकर पहचानेंगे, वहाँ जाएँगे। प्रत्यक्ष वहाँ पाएँगे, जहाँ जाएँगे। उसको प्राप्त करने के लिए अभ्यास करना तथा परहेज करना; इतनी बातों को जानें। इससे विशेष जानें तो और अच्छा। यह बहुत दृढ़ है कि कोई बिना संयम किए प्राप्त करना चाहे तो ‘भूमि पड़ा चह छुवन आकाशा’ वाली बात है। संयमी होने पर संसार में भी सुखी रहता है। वह फजूल खर्च नहीं करता है। उसके पास धन भी जमा हो जाता है। संयमी आदमी बहुत रोग में नहीं पड़ते। धन एकत्रित होने के कारण और पापविहीन होने के कारण लोगों की नजर में वे श्रेष्ठ देखने में आते हैं तथा अंत में परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं। पुरुष को स्त्री का और स्त्री को पुरुष का संग करना पड़ता है। इसके लिए वैवाहिक विधान है। विवाह करने से व्यभिचार नहीं होगा। शास्त्र के नियम छोड़कर अथवा विवाह नहीं होने पर जो संग है, वह व्यभिचार है।
तम्बाकू, बीड़ी, सिगरेट, खैनी-नशा है। दाँत खराब, थू-थू करने की आदत, ऐसी चीज क्यों खाते हो? बच्चे थे, तब इसकी आदत नहीं थी, बड़े होकर लगाया तो आदत लग गई। अब रास्ते चलते नशा करते हैं। तम्बाकू संसार में क्यां हुआ? औषधि के लिए हुआ। तम्बाकू की गद्दी में साँप ठहर नहीं सकता। साँप के मुँह में खैनी देने से वह मर जाता है। चावल को धोकर खाते हैं, किंतु खैनी को क्या करते हैं? यह अपवित्र तथा नशा भी है। हमारे सत्संग में यह कहा जाता है कि ताड़ी को कौन कहे, तम्बाकू तक मत लो।
‘भाँग तमाखू छूतरा, अफयूँ और सराब।
कह कबीर इनको तजै, तब पावै दीदार।।’
‘मद तो बहुतक भाँति का, ताहि न जानै कोय।
तन मद मन मद जाति मद, माया मद सब लोय।।
विद्या मद और गुनहु मद, राज मद्द उनमद्द।
इतने मद को रद करै, तब पावै अनहद ।।’ -संत कबीर साहब
छुतिया=छू जानेवाली चीज। लोग कहते हैं बिना हिंसा किए कैसे रह सकते हैं? एक हिंसा वार्य तथा दूसरा अनिवार्य होता है। वार्य से बच सकते हैं, किंतु अनिवार्य से नहीं बच सकते हैं। शरीर खुजलाने पर भी शरीर के कीड़े मरते हैं। जल पीने, हवा लेने में भी हिंसा है। इसको रोकने की कोई विधि नहीं है। यह अनिवार्य हिंसा है। खेती करने, घर बुहारने, आग जलाने आदि में भी हिंसा है, किंतु अनिवार्य है। इसका प्रायश्चित अतिथि-सत्कार और परोपकार से करो। राजा के लिए युद्ध अनिवार्य है। गृहस्थ के लिए घर बनाना, खेती करना अनिवार्य हिंसा है। जान-बुझकर स्वार्थ के लिए जो हिंसा होती है, वह वार्य हिंसा होती है, इसे त्यागना चाहिए। मांस-मछली भी छोड़ो, खाओ मत। मनुस्मृति में आठ आदमी को पाप लिखा है। भूपेन्द्रनाथ सान्याल ने कहा है-
अष्ट कुलाचल सप्त समुद्रा ब्रह्म पुरन्दर दिनकर रूद्रा।
न त्वं नाहं नायं लोकस्तदपि किमर्थं क्रियते शोकः।।
हमारे देह में जो परमाणु है, जलचर, नभचर आदि में जो परमाणु है एक नहीं। हमलोगों के शरीर में मानषिक परमाणु है तथा उनमें पाशविक परमाणु है। मनुष्य शरीर में पशु शरीर का परमाणु रखना उचित नहीं। मानसिक हिंसा भी छोड़ो। ईश्वर पर विश्वास करो, उसकी प्राप्ति अपने अंदर में होगी। तब ‘बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआन बताई।’ ऐसा ध्यानाभ्यास से होगा।
सबकी दृष्टि पड़े अविनाशी बिरला संत पिछानै ।
कहै कबीर यह भ्रम किबारी जो खोले सो जानै ।।
सत्संग करो, ध्यानाभ्यास करो; यह अंतर का सत्संग है और गुरु की सेवा करो।
तेल तुल पावक पुट भरि धरि, बनै न दिया प्रकाशत।
कहत बनाय दीप की बातें, कैसे हो तम नाशत।। -संत सूरदास
साधना करते-करते करने की शक्ति प्राप्त होगी, तब मालूम होगा कि पहले से कुछ बदल गए। अन्यथा, हनोज रोज अब्बल-अब भी पहला ही दिन है। बाबा साहब से एक सत्संगी ने कहा था- जिसका नाम रंगलाल था।
पानी बहुत दूर में है। मानो हजार हाथ नीचे है। हजार हाथ की रस्सी लगेगी, पानी खींचने के लिए बाल्टी भी चाहिए। रस्सी कुएँ में गिराकर केवल छोर पकड़े रहते हैं फिर पानी निकालकर पीते हैं। अगर छोर छूट जाय तो पानी नहीं पी सकते हैं। उसी प्रकार भजन तथा आशा की छोर पकड़े रहो, कल्याण होगा। आशा कभी मत छोड़ो। आशा से मत डोल रे तोको पीव मिलेंगे।

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यह प्रवचन पूर्णियाँ जिला विशेषाधिवेशन, मोकमा में दिनांक 24.12.1950 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
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04. अन्तर में डूबने से चैन

प्यारे लोगो!
जो ‘अहं ब्रह्मास्मि’, ‘अनलहक’; ऐसे शब्दों की पुकार करते हैं, उन्हें मैं ज्ञानमार्गी कहता हूँ। जो कहते हैं-प्रभु हम तुमसे मिलना चाहते हैं, प्रभु के लिए पुकार लगाते हैं, मैं उन्हें भक्त कहता हूँ। ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग को मैंने ऐसा ही समझा है। 
कुछ लोग निर्गुण उपासक को ज्ञानी तथा सगुण के स्थूल उपासक को भक्त कहते हैं। जो जिसकी भक्ति करता है, उसे वह अपना प्रभु मानता है, चाहे अपने इष्टदेव को निर्गुण नहीं माने, सगुण ही माने। सगुण के माननेवाले संत निर्गुण नहीं मानते थे ऐसा नहीं; निर्गुण भी मानते थे। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
हिय निर्गुण नयनन्हि सगुण रसना राम सुनाम।
उनके हृदय में निर्गुण भरा था। तुलसीदासजी, सूरदासजी एवं कबीर साहब की वाणी में एक ही बात झलकती है। 
‘संतो आवै जाय सो माया।
है प्रतिपाल काल नहिं वाके, ना कहुँ गया न आया।’
‘दस अवतार ईश्वरी माया कर्ता कै जिन पूजा।
कहै कबीर सुनो हो संतो, उपजै खपै सो दूजा।।’ -संत कबीर साहब
रामचरितमानस में है-
‘निर्गुन रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोइ ।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होइ ।।’
‘भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेहु तनु भूप।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप।।’ -गोस्वामी तुलसीदास
गुरु साहब तो एक है, दूजा साहब आकार।
आपा मेटै गुरु मिलै, तो पावै करतार।। -कबीर साहब
अवतारी राम को जिस गद्दी पर तुलसीदासजी ने बिठाया, उसी गद्दी पर गुरु को संत कबीर साहब ने बिठाया। तुलसीदासजी के हृदय में निर्गुण भरा है, किंतु अपने-अपने कहने का ढंग है। सगुण का अर्थ है गुण सहित, गुण को धारण करनेवाला। जिसने त्रयगुण को धारण किया है, उसे सगुण कहते हैं। जो निर्गुण ही निर्गुण मानते हैं, किंतु गुरुचरण में नबते हैं तो वे सगुण को भी मानते हैं।
लीला सगुन जो कहहिं बखानी।
सोइ स्वच्छता करइ मल हानी।।
रघुपति महिमा अगुन अबाधा।
बरनव सोइ बर बारि अगाधा।। -रामचरितमानस, बालकाण्ड
रामचरितमानस में सगुण सरिता जल है, निर्गुण उसकी गंभीरता है। जो गंभीरता है उसका महत्व विशेष है। सगुण मिठास है। मीठा खाने में लोगों को अच्छा लगता है, किंतु मीठा खाने से बीमारी भी होती है। निर्गुण तीता नीम-सा है।
अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यों गूँगहिं मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै।।
परम स्वाद सबही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै।
मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै।।
रूप रेख गुन जाति जुगुति बिनु, निरालंब मन चकृत धावै।
सब विधि अगम विचारहि तातें, ‘सूर’ सगुन लीला पद गावै।।
अविगत=सर्वव्यापी। निरालंब होने के कारण मन उसे ग्रहण नहीं कर पाता है। चक्कर काटता रहता है। मन-बुद्धि के परे जानकर सूरदासजी सगुण लीला पद गाते हैं। जिसने उसे पाया है, मन वाणी से आगे जाकर पाया है।
तापर अकह लोक है भाई। पुरुष अनामी तहाँ रहाई।। 
जे पहुँचे जानेगा साँई। कहन सुनन ते न्यारा है।। -राधास्वामी साहब
जब गुरु की मूरति मन महि ध्यान कहते हैं, तब कहाँ निर्गुण रहता है, सगुण हो जाता है। फिर जब ‘अलख अपार अगम अगोचर’ कहते हैं तो निर्गुण हो जाता है। निर्गुण-सगुण किसी की पकड़ संतों ने नहीं छोड़ी। जाते-जाते वे अंत तक चले जाते हैं।
संतों की वाणी में अंतस्साधना विषय पर विशेष जोर है। सगुण-निर्गुण, द्वैत-अद्वैत, त्रैत कुछ मानिये; खूब वर्णन कीजिए हाथ में कुछ नहीं आएगा। अंतर में गोता लगाओ, तब पाओगे। जहाँ तक गति है वहाँ तक चले जाओ, तब जो पाओ सो असली है। तब सगुण-निर्गुण क्या है, द्वैत-अद्वैत क्या है-प्रत्यक्ष हो जाएगा। इस मतलब का विचार सुनें। जिस विचार को लोग विशेष सुनते हैं, उसको करने का मन होता है। संतलोग संतवाणी कहकर ध्यान करने के लिए प्रेरणा करते हैं। संत तुलसी साहब कहते हैं-
सखी सीख सुनि गुनि गाँठि बांधौ,
ठाठ ठठ सत्संग करो।
सत्संग बहुत करें। इससे मिलता क्या है? प्रतिष्ठा से ऊँचे आसन से बैठते हैं। बड़े लोगों से मेल है। यह बाहर में देखे जाते हैं, किंतु संतुष्टि नहीं। संतुष्टि जिसमें है, वह यह बात है कि संसार में छोटे होकर रहें, लेकिन आप बाहरी चीज में चंचल नहीं होवें। अपने को इतना समेटें कि एकविन्दुता प्राप्त कर लें। मन जमा हुआ रहे। उस समय आप कितना संतुष्ट होंगे, ठिकाना नहीं। यदि मिठास मालूम नहीं हो तो भी थोड़े-से-थोड़े काल ध्यान कीजिए तो उसका मिठास मालूूम होगा। अंतर में डूबनेवाले को जो चैन मिलता है, बाहर में भटकनेवाले को नहीं। इसके लिए परमात्मा ने एक नमूना आपके अंदर दिया है, किंतु आप उसपर विचारते नहीं हैं।
तन्द्रा के समय में (स्वप्न जाग्रत के बीच में) हाथ-पैर में कमजोरी होती जाती है, चैन मालूम होता है। भीतर प्रवेश करते जाते हैं। अगर कोई थोड़ा-सा भी खट-खुट करे तो बड़ा दुःख मालूम होता है। इसको कौन सुख कहें? पाँच इन्द्रियों में जो सुख-रस मिलता है वैसा है या कैसा है? इसे भी तो नहीं बोल सकते। इससे जाना जाता है, अंतर में डूबने से चैन मिलता है। अंतर में डूबते-डूबते जब अंतिम गति तक पहुँचोगे, तो किसी से पूछना नहीं पड़ेगा कि क्या है? सत्संग में खास करके यह बात बताई जाती है कि अंदर में डूबते जाओ। यात्री बनो, जैसे जगन्नाथ के यात्री चलते हैं। यह भक्ति है। इसी तरह से अपने अंदर में डूबो।
संतलोग कहते हैं- हाथ-पैर को मत डुलाओ, मन को अंतर में चलाओ। मन चलते-चलते फिर आप चलेंगे। पहले मन के साथ-साथ आप चलेंगे जैसे दूध में घी रहता है। 
सहस कँवल दल पार में, मन बुद्धि हिराना हो।
प्राण पुरुष आगे चले, सोइ करत बखाना हो।। -तुलसी साहब
फिर मन से छूटकर आप स्वयं चलेंगे, यह पराभक्ति है।
श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै ।
रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै ।।
नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै ।
अंग बिना मिलि संग, बहुत आनंद बढ़ावै ।।
बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिये रहै।
मिलि परमातम सों आतमा पराभक्ति सुन्दर कहै।।
यहाँ (संसार में) अंग से मिलता है, किंतु वहाँ तो बिना अंग के ही संग होता है। इसे हमलोगों को करना चाहिए। आप करके देखिए, करने से सब पता चल जाएगा। योगी को संशय कहाँ? जो पाओ सो सत्य है, जो नहीं पाओ असत्य है।
भौतिक विज्ञानवाले एक चीज दूसरे से मिलाकर तीसरी चीज बनाते हैं। यह तो बाहर की बात है। इनमें बहुत से सामान इकट्ठे करने पड़ते हैं। किंतु अंतर में चलने के लिए सब सामान आपके साथ है। किंतु ईमानदारी से ;चतंबजपबंसद्ध प्रयोग करो।
चश्म बंद गोश बंद लब बंद। 
गर नवीने नूर हक बरबन बखन्द।।
मौलाना रूम का वचन है-चश्म, गोश, लब, आँख, कान, मुँह बन्द करके देखो। अगर ब्रह्म ज्योति (नूरे हक) नहीं देखो तो मुझपर हँसना।
मुरशिद नैनां बीच नबी है।
स्याह सफेद तिलों बीच तारा, अविगत अलख रबी है।
आँखी मद्धे पाँखी चमकै, पाँखी मद्धे द्वारा।
तेहि द्वारे दुरबीन लगावै, उतरे भव जल पारा।।
सुन्न शहर में वास हमारा, तहुँ सरवंगी जावै।
साहब कबीर सदा के संगी, शब्द महल लै आवै।।
मुर्शद=गुरु। हमलोग बहुत प्रकार के गुरु का प्रयोग करते हैं, किंतु यहाँ आध्यात्मिक गुरु के लिए लिया गया है। हे मुर्शिद! आँखों के बीच में नवी है अर्थात् संदेशवाहक है। उनके पैगम्बर मुहम्मद साहब थे। उनको खुदा का नूर भी कहते हैं। अर्थात् वे खुदा के नूर थे। वह ब्रह्म प्रकाश तुम्हारी आँख में है। रब्ब=शब्द को रबी किया है। काले-उजले तिलों के बीच में तारा है। यह भी बाहर में कैसे समझाया जा सकता है। जब दृष्टि एक होती है तो पहले काले फिर उजले तिल का दर्शन होता है। जो अंधकार में एक ही स्थान पर देखता है, उसे वह काला चमकदार मालूम होता है, पीछे वही उजला हो जाता है, फिर तारा का दर्शन होता है। यह जो तारा है वह सर्वव्यापी सब में है।
खोज करो अंतर उजियारी छोड़ चलो नौ द्वार। -राधास्वामी साहब
श्याम कंज लीला गिरि सोई।तिल परमान जान जन कोई।।
छिन छिन मन को तहाँ लगावै। एक पलक छूटन नहिं पावै।।
स्रुति ठहरानी रहे अकाशा। तिल खिरकी में निसदिन बासा।।
गगन द्वार दीसै एक तारा। अनहद नाद सुनै झनकारा ।।
जबतक आप जिन्दा हैं, तबतक आँख में चमक है, प्राण निकल जाने से आँख की ज्योति चली जाती है, वह चमक नहीं रहती। उस ज्योति में द्वार है। जहाँ ज्योति नहीं है, वहाँ द्वार कैसे पाते हैं? एक स्थान में देखने से। एकविन्दुता प्राप्त होने से ज्योतिमण्डल में पहुँचता है। दृष्टियोग करने से शून्य शहर में वास होता है। सरवंगी=जो अंग में हो। सदा के संगी सब शरीर में सदा व्यापक है। उस शब्द की महिमा क्या है? जो सदा के संगी परमात्मा हैं, उनके महल में वही शब्द ले जाएगा। कबीर साहब कहते हैं-परमात्मा सदा के संगी हैं। उस महल में शब्द ही ले जाएँगे। संतो की वाणी में दृष्टियोग और शब्दयोग सूक्ष्म साधना है, किंतु स्थूल में-
नाम जपत स्थिर भया, ज्ञान कथत भया लीन।
सुरति शब्द एकै भया, जल ही ह्वैगा मीन।।
नाम जपत कुष्टी भला, चुई चुई पड़ै जो चाम।
कंचन देह केहि काम का, जा मुख नाहीं नाम।। -कबीर साहब
वर्णात्मक जाप स्थूल है। गुरु की मूरति, यह स्थूल रूप ध्यान है, इसके बाद है दृष्टियोग और शब्द ध्यान। शब्द ध्यान वहाँ तक ले जाता है जहाँ कि शब्द विलीन न हो जाय। वहाँ देखना-सुनना सब बंद हो जाता है। वहाँ निःशब्द-परमात्मा मिलते हैं।  

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यह प्रवचन पूर्णियाँ जिला विशेषाधिवेशन, मोकमा में दिनांक 25.12.1950 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
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