1. संतमत में ईश्वर की स्थिति


बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।
प्यारे लोगो!
संतमत में ईश्वर की स्थिति का बहुत दृढ़ता के साथ विश्वास है; परन्तु उस ईश्वर को इन्द्रियों से जानने योग्य नहीं बताया गया है। वह स्वरूपतः अनादि और अनंत है, जैसा कि संत सुन्दरदासजी ने कहा है-
व्योम को व्योम अनंत अखण्डित,
आदि न अन्त सुमध्य कहाँ है ।
किसी अनादि और अनंत पदार्थ का होना बुद्धि-संगत प्रतीत होता है। मूल आदि तत्त्व कुछ अवश्य है। वह मूल और आदि तत्त्व परिमित हो, ससीम हो, तो सहज ही यह प्रश्न होगा कि उसके पार में क्या है? ससीम को आदि तत्त्व मानना और असीम को आदि तत्त्व न मानना हास्यास्पद होगा।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनंता ।
अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता ।
सब दरसी अनवद्य अजीता ।।
निर्मल निराकार निर्मोहा ।
नित्य निरंजन सुख संदोहा ।।
प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी ।
ब्रह्म निरीह विरज अविनासी ।।
उपर्युक्त चौपाइयों में मूल आदि तत्त्व का वर्णन गोस्वामी तुलसीदासजी ने किया है। संतों ने उसे ही परमात्मा माना है। गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।
जाति अजाति अजोनी सम्भउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
साचे सचिआर विटहु कुरबाणु,ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ ।
                     साचे सबदि नीसाणु ।। इत्यादि।
संतां का यह विचार है कि जो सबसे महान है, जो सीमाबद्ध नहीं है, उससे कोई विशेष व्यापक हो, सम्भव नहीं है। जो व्यापक-व्याप्य को भर कर उससे बाहर इतना विशेष है कि जिसका पारावार नहीं है, वही सबसे विशेष व्यापक तथा सबसे सूक्ष्म होगा। यहाँ सूक्ष्म का अर्थ ‘छोटा टुकड़ा’ नहीं है, बल्कि ‘आकाशवत् सूक्ष्म’ है। जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म है, उसको स्थूल या सूक्ष्म इन्द्रियों से जानना असम्भव है।
वह ईश्वर आत्मगम्य है। केवल चेतन-आत्मा से जाना जाता है। शरीर के भीतर आप चेतन-आत्मा हैं और उस आत्मा से जो प्राप्त होता है, उसी को परमात्मा कहते हैं। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द; इन पाँचों में से प्रत्येक को ग्रहण करने के लिए जो-जो इन्द्रिय हैं अर्थात् आँख से रूप, जिभ्या से रस, नासिका से गन्ध, त्वचा से स्पर्श और कान से शब्द; इन इन्द्रियों के अतिरिक्त और किसी से ये पाँचो विषय ग्रहण नहीं किए जाते हैं। इसी प्रकार जो चेतन-आत्मा के अतिरिक्त और किसी से नहीं पकड़ा जाय, वही परमात्मा है। जो जितना विशेष व्यापक होता है, वह उतना ही सूक्ष्म होता है। परमात्मा अपनी सर्वव्यापकता के कारण सबसे विशेष सूक्ष्म है। स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता है। एक बहुत छोटी घड़ी के महीन कील-काँटों को बढ़ई और लोहार की सँड़सी, पेचकश आदि मोटे-मोटे यंत्रों से घड़ी में बिठाने और निकालने के काम नहीं हो सकते। उसके लिए यंत्र भी महीन ही होते हैं। हमारी भीतरी और बाहरी सब इन्द्रियाँ-नेत्र, कर्ण, नासिका, जिह्ना, त्वचा, मुख, हाथ, पैर, गुदा और लिंग-बाहर की इन्द्रियाँ तथा मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार-अन्तर की इन्द्रियाँ; सब-की-सब उस दर्जे की सूक्ष्म नहीं हैं, जो परमात्म-स्वरूप को ग्रहण कर सकें। ये तो परमात्मा की सूक्ष्मता के सम्मुख स्थूल हैं। भला ये उसको कैसे ग्रहण कर सकती हैं!
ओ3म् सयोजत उरुगायस्य जूतिं वृथा क्रीडन्तं मिमिते न गावः ।
परीणसं कृणुते तिग्म शृंगो दिवा हरिर्ददृशे नक्तमृज्रः ।।
(सा0 उ0, अ0 8, मं0 3)
इस मन्त्र के द्वारा वेद भगवान उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यो ! हाथ, पैर गुदा, लिंग, रसना, कान, त्वचा, आँख, नाक और मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर को प्रत्यक्ष करने की चेष्टा करना झूठ ही एक खेल करना है; क्योंकि इनसे वह नहीं जाना जा सकता है। वह तो इन्द्रियातीत है।
यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।
-कनोपनिषद् (खण्ड 1, श्लोक 5)
अर्थात् जो मन से मनन नहीं किया जाता, बल्कि जिससे मन मनन किया हुआ कहा जाता है, उसी को तू ब्रह्म जान। जिस इस (देशाकालाविच्छिन्न वस्तु) की लोक उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँस्वाम् ।।
-कठोपनिषद् (अ0 1, वल्ली 2, श्लोक 23)
अर्थात् यह आत्मा वेदाध्ययन-द्वारा प्राप्त होने योग्य नहीं है और न धारणा-शक्ति अथवा अधिक श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है, यह (साधक) जिस (आत्मा) का वरण करता है, उस आत्मा से ही यह प्राप्त किया जा सकता है। उसके प्रति यह आत्मा अपने स्वरूप को अभिव्यक्त कर देता है।
अब यह साफ तरह से जना देता हूँ कि अनादि आदि परम तत्त्व परमात्मा केवल चैतन्य आत्मा से ही ग्रहण होने, पहचाने जाने योग्य है। जबतक शरीर और इन्द्रियों के सहित चैतन्य आत्मा रहेगी, तबतक परमात्मा को नहीं पहचान सकेगी। आँख पर पट्टी बँधी हो, तो आँख में देखने की शक्ति रहने पर भी बाहरी दृश्य नहीं देखा जाता और आँख पर रंगीन चश्मा लगा रहने पर बाहर का यथार्थ रंग नहीं देखने में आता है, चश्मे के रंग के अनुरूप ही रंग बाहर में देखने में आता है। आँख पर से पट्टी और चश्मा उतार दो, बाहर के यथार्थ रंग देखने में आएँगे। शरीर और इन्द्रियों के आवरण से छूटते ही या यों कहो कि चैतन्य आत्मा पर से शरीर और इन्द्रियों की पट्टी और चश्मे उतरते ही चैतन्य आत्मा को परमात्म-स्वरूप की पहचान हो जाएगी। शरीर, इन्द्रिय और स्थूल, सूक्ष्म आदि मायिक सब आवरणों के उतर जाने पर, जो इस पिण्ड में बच जाता है, वही चेतन-आत्मा है और इनसे जो पहचाना जाता है, वही अनादि आदि तत्त्व परमात्मा है। मैं तो इस अनादि आदि परमतत्त्व को परमात्मा कहता हूँ और कहता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी रुचि के अनुसार इस मूल अनादि परमतत्त्व को जिस नाम से पुकारना चाहे, पुकारे। परन्तु यथार्थ में यह अवर्णनीय- अनिर्वचनीय है।
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
अविगत गति कछु कहत न आवै ।
ज्यों गूँगहि मीठे फल को रस,अन्तरगत ही भावै ।।
परम स्वाद सबही जु निरन्तर,अमित तोष उपजावै ।।
मन बानी को अगम अगोचर,सो जानै जो पावै ।।
-भक्त सूरदासजी
नैना बैन अगोचरी, श्रवणा करनी सार ।
बोलन के सुख कारनै, कहिये सिरजनहार ।।
आदि अन्त ताहि नहिं मधे ।
कथ्यौ न जाई आहि अकथे ।।
अपरंपार उपजै नहिं विनसै ।
जुगति न जानियै कथिये कैसे ।।
जस कथिये तस होत नहिं, जस है तैसा सोइ ।
कहत सुनत सुख ऊपजै, अरु परमारथ होइ ।।
-कबीर साहब
शरीर, इन्द्रियों और मायिक जड़-आवरण से चैतन्य आत्मा को अलग कर परमात्मा को पाना केवल ध्यान-साधना से ही हो सकता है। इड़ा अर्थात् बायीं ओर की धारा में तामसी वृत्ति रहती है। पिंगला अर्थात् दायीं ओर की धारा में राजसी वृत्ति रहती है और सुषुम्ना अर्थात् मध्य की धारा में सात्त्विकी वृत्ति रहती है। ध्यान-साधना सुषुम्ना में करने की विधि है। गुरु महाराज से जैसा सुना, आपलोगों को वैसा सुना दिया। वैज्ञानिक लोग ऑक्सीजन और हाइड्रोजन-दो वाष्पों द्वारा पानी बनाकर दिखला देते हैं। वैसे ही ध्यान-अभ्यास के प्रयोग द्वारा परमात्मा की प्रत्यक्षता होती है; परन्तु यह आधिभौतिक वैज्ञानिक का बाहरी प्रयोग नहीं है। वह प्रयोग अपने अन्दर में करने का है। ध्यान-योग का साधक संशय में नहीं रहता है। वह ध्यानाभ्यास के प्रयोग से जो कुछ पाता है, उसको सत्य मानता है और त्रुटि-विहीन ध्यान-अभ्यास के प्रयोग में जो नहीं पाया जाता है, उसको असत्य मानता है। उसको संशय कैसा?
अब ध्यान-अभ्यास के विषय पर कुछ प्रकाश पाने के लिए सन्त दादू दयालजी महाराज के वचन सुनिये-
सब काहू को होत है, तन मन पसरै जाइ ।
ऐसा कोई एक है, उलटा माहिं समाइ ।। 1।।
क्यों करि उल्टा आणिये, पसरि गया मन फेरि ।
दादू डोरी सहज की, यौं आणै घेरि घेरि ।।2।।
साध सबद सौं मिलि रहै, मन राखै बिलमाइ ।
साध सबद बिन क्यौं रहै, तब हीं बीखरि जाइ ।।3।।
तन में मन आवै नहीं, निसदिन बाहरि जाइ ।
दादू मेरा जिव दुखी, रहै नहीं ल्यौ लाइ ।।4।।
कोटि जतन करि करि मुए, यहु मन दह दिसि जाइ ।
राम नाम रोक्या रहै, नाहीं आन उपाइ ।।5।।
मन हीं सन्मुख नूर है, मन हीं सन्मुख तेज ।
मन हीं सन्मुख जोति है, मन हीं सन्मुख सेज ।।6।।
मन हीं सौं मन थिर भया, मन हीं सौं मन लाइ ।
मन हीं सौं मन मिली रह्या, दादू अनत न जाइ ।।7।।
सबदैं बन्ध्या सब रहै, सबदैं सबही जाइ ।
सबदैं ही सब ऊपजै, सबदैं सबै समाइ ।।8।।
सबदैं ही सूषिम भया, सबदैं सहज समान ।
सबदैं ही निर्गुण मिलै, सबदैं निर्मल ज्ञान ।।9।।
एक सबद सब कुछ किया, ऐसा समरथ सोइ ।
आगैं पीछैं तौ करै, जे बलहीणा होइ ।।10।।
यन्त्र बजाया साजि करि, कारीगर करतार ।
पंचौं कारज नाद है, दादू बोलणहार ।।11।।
पंच ऊपना सबद थैं, सबद पंच सौं होई ।
साईं मेरे सब किया, बूझै बिरला कोइ ।।12।।
सबद जरै सो मिली रहै, एकै रस पूरा ।
काइर भाजे जीव ले, पग माँड़ै सूरा ।। 13।।
दादूदयालजी कहते हैं कि सर्वसाधारण का मन शरीर में पसरा हुआ रहता है; परन्तु ऐसा कोई बिरला है, जिसका मन उलटकर (बहिर्मुख से) अन्तर्मुख होकर अन्दर में समाता है। (मन का स्थान तो शरीर के अन्दर है ही, फिर अन्दर में समाने का तात्पर्य यह है कि जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में जिस-जिस स्थान पर मन रहता है, उन तीनों स्थानों से विशेष अन्तर में मन प्रवेश कर जाय। ये तीनों स्थान शरीर के अन्दर के स्थूल तल पर ही हैं। इन तीनों से छूटकर मन सूक्ष्म तल पर आरूढ़ हो, मन के अन्दर समाने का भाव यही है) ।। 1।। मन को किस तरह उलटाकर (अंदर में) लावें ? यह फिर पसर गया, हे दादू ! संग-संग उत्पन्न होनेवाली स्वाभाविक डोरी (धारा) पकड़ और मन को घेर-घेरकर अन्दर में ला। (सृष्टि-निर्माण के आदि में कम्प अवश्य होता है और कम्प का सहचर शब्द अनिवार्य रूप से होता है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य (जड़-विहीन चेतन), स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्मातिसूक्ष्म भेदों से सृष्टि के ये पाँच मण्डल जानने में आते हैं। इन सबके केन्द्रों एवं उनसे उत्थित कम्पों के सहित शब्द के उदय से ही सम्पूर्ण सृष्टि का विकास तथा पूर्णतया निर्माण हुआ है। कथित केन्द्रीय शब्द को ही ‘सहज डोरी’ कहा गया है। अपने केन्द्र में आकृष्ट करने का गुण शब्द में है, इसलिए इस शब्द-रूप सहज डोरी को ग्रहण करके मन बहिर्मुख से अन्तर्मुख खिंचकर रहेगा) ।। 2।। साधु शब्द से मिलकर रहे और मन को ठहराकर रहे। साधु शब्द के बिना क्यों रहता है ? तभी तो (शब्द-विहीन रहते हुए साधु का मन) बिखर जाता है ।। 3।। मन (उलटकर) शरीर में नहीं आता है, दिन-रात बाहर-बाहर जाता है। (इसलिए) दादूदयालजी कहते हैं कि मेरा मन दुःखी है; क्योंकि साधन में मन लगकर नहीं रहता है। ।।4।। लोग मन रोकने के करोड़ों उपाय करके मर जाते हैं, परन्तु मन रुकता नहीं, दसो दिशाओं में जाता रहता है, यह रामनाम (रामनाम के ग्रहण) से रुका रहता है। दूसरा उपाय नहीं है।। 5।। (यहाँ पर राम-नाम से तात्पर्य सर्वव्यापिनी अनाहत ध्वनि से है। इस ध्वनि को नाम इसलिए कहते हैं कि इसके द्वारा चैतन्य आत्मा को आदि मूलतत्त्व अक्षर पुरुषोत्तम परमात्मा की पहचान हो जाती है-
नीके राम कहतु है बपुरा ।
घर माहैं घर निर्मल राखै, पंचौं धोवै काया कपरा।। टेक।।
सहज समरपण सुमिरण सेवा,तिरवेणी तट संयम सपरा ।
सुन्दरि सन्मुख जागण लागी,तहँ मोहन मेरा मन पकरा ।।
बिन रसना मोहन गुण गावै, नाना वाणी अनभै अपरा ।
दादू अनहद ऐसैं कहिये, भगति तत यहु मारग सकरा ।।
सन्त दादूदयालजी के इस शब्द से विदित है कि रामनाम से उनका तात्पर्य अनाहत नाद से है। मन के सन्मुख ही प्रकाश है और आराम करने का स्थान-बिछावन है। (जाग्रत् अवस्था में आज्ञाचक्र के केन्द्र में मन की बैठक है। उसके सम्मुख वृत्ति के सिमटाव और स्थिरता से प्रकाश और चैन का स्थान प्रत्यक्ष होता है)।। 6।। मन से मन को लगाकर मन स्थिर हो गया, मन से मन मिलकर रहा, तब अन्यत्र नहीं जाता है। (मन के केन्द्रीय रूप को निज मन-आत्ममुखी मन कहते हैं और उसकी किरणें वा धारा जो समस्त शरीर में फैली हुई है, उसे तन-मन या शरीर-मुखी मन कहते हैं। तन-मन को निज मन में समेटकर केन्द्रित करने को मन से मन को मिलाकर रखना है) ।। 7।।
वर्णन हो चुका है कि शब्द से ही सारे विश्व का तथा उसके पंच मण्डलों का निर्माण और विकास हुआ है, इसीलिए शब्द के विषय में उपर्युक्त रीति से कहा गया है। ध्यान-साधना में ज्योति और शब्द के ग्रहण की विशेषता, मुख्यता और विशेष आग्रह है। युक्ति जानकर सब लोगों को इस ध्यान का अभ्यास करना चाहिये; क्योंकि इसी साधना के द्वारा निर्वाणपद पर पहुँचना और अपना परम कल्याण बना लेना पूर्ण सम्भव है। परम प्रभु परमात्मा की दया सब लोगों पर हो!

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यह प्रवचन ग्राम डोभाघाट (जिला पूर्णियाँ) अ0 भा0 सं0 स0 विशेषाधिवेशन के अवसर पर दिनांक 5.12.1949 ई0 के सत्संग में हुआ था
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