भजन-सूची

क्रम भजन/पद राग/धुन
तालअन्य / विशेष
[53]विनवत हौं कर जोरि कैसंत कबीर साहब
[54]झीनी झीनी बीनी चदरियापारंपरिक धुनकहरवासंत कबीर साहब
[55]पछिम नगरिया से, उमड़ल नदियालगनीकहरवासंत कबीर साहब
[56]मानत नहिं मन मोरा साधोराग-शिवरंजनीकहरवासंत कबीर साहब
[57]सुकिरत करि ले नाम सुमिरि लेपारंपरिक धुनकहरवासंत कबीर साहब
[58]सुरति के डोरिया गगन बिच लागलमंगलकहरवासंत कबीर साहब
[59]बीत गये दिन भजन बिना रेपारंपरिक धुनकहरवासंत कबीर साहब
[60]चेतो मानुष तन पाइकेसोहररूपकसंत कबीर साहब
[61]रहना नहिं देस बिराना हैपारंपरिक धुनकहरवासंत कबीर साहब
[62]मत कर मोह तू हरि भजन को मान रे मारू विहागतीनतालसंत कबीर साहब
[63]जिनकी लगन गुरू सों नाहीं राग-देशअद्धासंत कबीर साहब
[64]हाँ रे ! कौन परदेसिया सेसमदाउनरूपकसंत कबीर साहब
[65साधो भाई जीवत ही करो आसाराग-आसावरीअद्धासंत कबीर साहब
[66]जो कोइ निरगुन दरसन पावै राग-आसावरीतीनतालसंत कबीर साहब
[67]कोई चतुर न पावे पारपारंपरिक धुनकहरवासंत कबीर साहब
[68]हम काँ ओढ़ावे चदरियानिर्गुणखेमटासंत कबीर साहब
[69]भजु मन जीवन नाम सबेरापारंपरिक धुनकहरवासंत कबीर साहब
[70]मेरी सुरत सुहागिनि जाग रीराग-अहीर भैरवकहरवासंत कबीर साहब
[71]शैर-साँस साँस पर नाम लेचैती धुनरूपकसंत कबीर साहब
[72]सन्तन के पद लाग रेपारंपरिक धुनखेमटासंत कबीर साहब
[73]मन जीति सद्गुरु खेलै होरीहोली धुनखेमटासंत कबीर साहब
[74]नरहरि चंचल है मति मोरीराग-शिवरंजनीकहरवासंत कबीर साहब
[75]साहेब चितवो हमरी ओरराग-बागेश्वरीतीनतालधनी धर्मदासजी महाराज
[76]गुरु कतेक दिन नैहर में भरब गगरीझूमरखेमटाधनी धर्मदासजी महाराज
[77]करि ले भजनियाँ हो भैयाचेतावनीकहरवाधनी धर्मदासजी महाराज
[78]जब हम छलिये माता के गर्भ मेंमंगलकहरवाधनी धर्मदासजी महाराज
[79]भक्ति दान गुरु दीजियेपारंपरिक धुनकहरवाधनी धर्मदासजी महाराज
[80]गुरु बिन तेरो कोई न सहाईराग-भीमपलासीतीनतालगुरु नानक साहब
[81]साधो यह मन गह्यो न जाईराग-भीमपलासीतीनतालगुरु नानक साहब
[82]काहे करत गुमानऽ मूरख मनुवाँ निर्गुणकहरवागुरु नानक साहब
[83]सुमिरन करि ले मेरे मनाराग-देशकहरवागुरु नानक साहब
[84]जगत में झूठी देखी प्रीतराग-मियाँ की तोड़ीकहरवागुरु नानक साहब
[85]काहे रे वन खोजन जाईराग-शिवरंजनीकहरवागुरु नानक साहब
[86]गुरदेव माता गुरदेव पितापारंपरिक धुनगुरु नानक साहब
[87]हे अचुत हे पारब्रह्म, अविनाशी अघनास पारंपरिक धुनगुरु नानक साहब
[88]अजहूँ न निकसै प्राण कठोरपारंपरिक धुनकहरवासंत दादू दयाल
[89]सतगुरु भव सागर डर भारीराग-भीमपलासीकहरवासंत चरणदासजी
[90]दिन को हरि सुमिरन करोपारंपरिक धुनसंत चरणदासजी
[91]मनुवाँ राम के व्यापारीराग-मालकोंसतीनतालसंत चरणदासजी
[92]हमारे गुरु पूरण दातारराग-देशकहरवाभक्तिन सहजोबाई
[93]भया जी हरि रस पी मतवारापारंपरिक धुनकहरवाभक्तिन सहजोबाई
[94]राम तजूँ पै गुरु न विसारूँपारंपरिक धुनकहरवाभक्तिन सहजोबाई
[95]अबरि के बार बकसु मोरे साहेबमंगलकहरवासंत दरिया साहब (बिहारी)
[96]साधो अलख निरंजन सोईराग-मालकोंसतीनतालसंत दरिया साहब (मारवाड़ी)
[97]प्रभुजी अब जनि मोहि बिसारोराग-आसावरीतीनतालसंत बाबा धरणी दास 
[98]साधो सुमिरन भजन करोराग-केदारतीनतालसंत जगजीवन साहब
[99]संत चरन को छोड़िकैपारंपरिक धुनसंत पलटू साहब
[100]पतिबरता को लच्छन सब से रहै अधीनपारंपरिक धुनसंत पलटू साहब
[101]नहीं मुख राम गाओगेपारंपरिक धुनकहरवासंत पलटू साहब
[102]प्रानी ! जप ले तू सत्तनामरागा-आसावरीकहरवासंत दूलन दास
[103]सुखमनि सुरति डोरि बनावपारंपरिक धुनकहरवासंत बुल्ला साहब
[104]उलटि देखो घट में जोति पसार पारंपरिक धुनकहरवासंत गुलाल साहब

(53) दोहा
विनवत हौं कर जोरि कै, सुनिये कृपानिधान ।
साध संगति सुख दीजिये, दया गरीबी दान ।।
सुरति करो मेरे साइयाँ, हम हैं भवजल माहिं ।
आपैहि बह जाएँगे, जो नाहिं पकरो बाहिं ।।
क्या मुख लै विनती करौं, लाज आवत है मोहिं ।
तुम देखत औगुन करौं, कैसे भावौं तोहि ।।
सतगुरु तोहि बिसारि के, काके सरने जायँ ।
सिव विरंचि मुनि नारदा, हिरदे नाहिं समाय ।।
मैं अपराधी जनम का, नख सिख भरा विकार ।
तुम दाता दुःख भंजना, मेरी करो सँभार ।।
अवगुन मेरे बाप जी, बकस गरीब निवाज ।
जो मैं पूत कपूत हौं, तऊ पिता को लाज ।।
औगुन किये तो बहुत किये, करत न मानी हार ।
भावै बन्दा बकसिये, भावै गरदन मार ।।
कर जोरे विनती करौं, भवसागर आपार ।
बन्दा ऊपर मिहर करि, आवागमन निवार ।।
अन्तरजामी एक तुम, आतम के आधार ।
जौ तुम छोड़ो हाथ से, कौन उतारे पार ।।
साहिब तुम ही दयाल हो, तुम लगि मेरी दौर ।
जैसे काग जहाज को, सूझै और न ठौर ।।
तुम तो समरथ साइयाँ, दृढ़ करि पकरो बाँह ।
धुरहि लै पहुँचाइयो, जनि छाड़ो मग माँहि ।।
सतगुरु बड़े दयाल हैं, संतन के आधार ।
भवसागरहि अथाह से, खेइ उतारै पार ।।
भक्ति दान मोहि दीजिये, गुरु देवन के देव ।
और नहीं कछु चाहिये, निसुदिन तेरो सेव ।।



(54) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
झीनी झीनी बीनी चदरिया।। टेक।।
काहे कै ताना काहे कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया ।
इँगला पिंगला ताना भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिया ।।
अष्ट कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्त गुन तीनी चदरिया ।
साँईं को सियत मास दस लागे, ठोक ठोक के बीनी चदरिया ।।
सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी, ओढ़ि के मैली कीन्हीं चदरिया ।
दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया ।।



(55) लगनी, ताल-कहरवा
पछिम नगरिया से, उमड़ल नदिया, बरसल बूँद भिंजल मोर अँगिया ।
सखिया हे! सरोवर गेलै सुखाय, कमल कुम्हिलाय गेलै हो राम ।।1।।
पाँच सखी मिलि अइली बजरिया, सँगहु के सखी सब भइली बैरिनियाँ ।
सखिया हे! गुरु सौदा करियो न भेल, समय नियरायल हो राम ।।2।।
सुतली मैं छेलिया, एक संग सेजिया, आबि गेलै नींद, झपाय गेलै अँखिया ।
सखिया हे! सँग ही में पिया मोरा सूतल, मुखहु न बोलै छै हो राम ।।3।।
सरजू नीर बहल एक नदिया, वहवाँ में बैठल पाँचो साधु भइया ।
सखिया हे! बैरिन बैठल घटवार, पार कैसे जायब हो राम ।।4।।
साहेब कबीर येहो गैलन लगनियाँ, समुझि-समुझि पग धरु हे सजनियाँ ।
सखिया हे! जो नर रहत अचेत, पाछे पछतावत हो राम ।।5।।



(56) राग-शिवरंजनी, ताल-कहरवा
मानत नहिं मन मोरा साधो, मानत नहिं मन मोरा रे ।।
बार बार मैं कहि समुझावौं, जग में जीवन थोरा रे ।।
या काया का गर्ब न कीजै, क्या साँवर क्या गोरा रे ।।
बिना भक्ति तन काम न आवै, कोटि सुगंधि चभोरा रे ।।
या माया जनि देखि रे भूलौ, क्या हाथी क्या घोड़ा रे ।।
जोरि-जोरि धन बहुत बिगूचे, लाखन कोटि करोरा रे ।।
दुबिधा दुरमति औ चतुराई, जनम गयौ नर बौरा रे ।।
अजहूँ आनि मिलौ सत संगति, सतगुरु मान निहोरा रे ।।
लेत उठाइ परत भुइँ गिरि गिरि, ज्यों बालक बिन कोरा रे ।।
कहै कबीर चरण चित राखो, ज्यों सूई बिच डोरा रे ।।



(57) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
सुकिरत करि ले नाम सुमिरि ले, को जानै कल की ।।
   जगत में खबर नहीं पल की ।।टेक।।
झूठ कपट करि माया जोरिन, बात करैं छल की ।।
पाप की पोट धरे सिर ऊपर, किस बिधि ह्वै हलकी ।।
यह मन तो है हस्ती मस्ती, काया मिट्टी की ।।
साँस साँस में नाम सुमिरि ले, अवधि घटै तन की ।।
काया अंदर हंसा बोलै, खुसियाँ कर दिल की ।।
जब यह हंसा निकरि जायेंगे, मट्टी जंगल की ।।
काम क्रोध मद लोभ निवारो, याहि बात असल की ।।
ज्ञान बैराग दया मन राखो, कहै कबीरा दिल की ।।



(58) मंगल, ताल-कहरवा
सुरति के डोरिया गगन बिच लागल, लागी गेलै गुरु से सनेह हे ।
गुरु रंग रसिया मन हरि लेलन्ह, पूर्वे जनम के सनेह हे ।।
गिरि पर्वत के ऊपर बसथिन हो साहब, वहाँ से समदिया दैलन पठाय हे ।
अइलै समदिया उठि चलु साजन, जहाँ होय छै सत व्यवहार हे ।।
भवजल नदिया अगम बहै धरवा, सूझे न आर पार हे ।
कैसें के पार उतरबै हो साहब, गुरु बिनु लागै छै अन्हार हे ।।
सत्य सुकृत के नैया हो साहब, सुरति करलौं पतवार हे ।
पार उतरि जैबै नैहरा बिसरि जैबै, तजि देबै कुल परिवार हे ।।
साहब कबीर मुख मंगल गावल, शब्द परेखु टकसार हे ।
आपन-आपन संभर बाँधो हे साहब, वहाँ नहिं पैंचा उधार हे ।।



(59) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
बीत गये दिन भजन बिना रे ।।टेक।।
बाल अवस्था खेल गमायो, जब जवानी तब मान घना रे ।।
पाके केश थके इन्द्रिन सब, रोग ग्रसित भये सकल तना रे ।।
लाहे कारण मूल गँवायो, अजहुँ न मिटि मन की तृष्णा रे ।।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, पार उतर गये संत जना रे ।।



(60) सोहर, ताल-रूपक
चेतो मानुष तन पाइके, गुरु के भजन करु हे ।।
सखि हे ! फेरु न मिलतौं ऐसन देह से ,
तन धन छुटि जइतौं हे ।।
पाँच ही तत्त्व के पिंजड़ा से, अधिक सुहावन लागै हे ।।
सखि हे ! नख-सिख भरल विकार से ,
हंसा बिन कोइ न राखै हे ।।
कुटुम्ब परिवार तोर दुश्मन होयतौं हे ।
सखि हे ! खोलि लेतौं कान हूँ के सोनवाँ ,
सुन्दर तन माटी मिलतौं हे ।।
घर रोवै सुंदर नारी, से बुढ़िया दुवारि रोवै हे ।
सखि हे ! भइया रोवै, शमशान घाट से ,
तन जारि घर आवै हे ।।
गहि ले तू पातिव्रत धर्म से, नित सत्संग करु हे ।।
सखि हे ! येहो गहना अइतौं तोरा काम से ,
जाइब अमरपुर हे ।।
साहब कबीर सोहर गावल, गाबि के सुनावल हे ।।
सखि हे ! फेरु न मिलतौं ऐसन अवसर ,
गुरु के भजन करु हे ।।



(61) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
रहना नहिं देस बिराना है ।।टेक।।
यह संसार कागद की पुड़िया, बूँद पड़े घुल जाना है ।।
यह संसार काँटे की बाड़ी, उलझ पुलझ मरि जाना है ।।
यह संसार झाड़ औ झाँखर, आग लगे बरि जाना है ।।
कहत कबीर सुनो भाइ साधो, सतगुरु नाम ठिकाना है ।।



(62) मारू विहाग, ताल-तीनताल
मत कर मोह तू हरि भजन को मान रे ।
नयन दिये दरसन करने को, कान दिये सुन ज्ञान रे ।।
बदन दिया हरिगुन गाने को, हाथ दिये कर दान रे ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, कंचन नृप जस खान रे ।।



(63) राग-देश, ताल-अद्धा
जिनकी लगन गुरू सों नाहीं ।।टेक।।
ते नर खर कूकर सम जग में, बिरथा जन्म गँवाहीं ।
अमृत छोड़ि बिषय रस पीवैं, धृग धृग तिनके ताईं ।।
हरी बेल की कोरि तुमड़िया, सब तीरथ करि आई ।
जगन्नाथ के दरसन करके, अजहुँ न गई कड़˜वाई ।।
जैसे फूल उजाड़ को लागो, बिन स्वारथ झरि जाई ।
कहै कबीर बिन बचन गुरू के, अन्त काल पछिताई ।।



(64) समदाउन, ताल-रूपक
हाँ रे ! कौन परदेसिया से, जोड़लाँ पिरीतिया हे ,
बिछुड़त विलंब नहीं भेल ।।
फोड़बै मैं शंख-चूड़िया, फेंकबै गहनमा हे ,
धरबै जोगिनियाँ के भेष ।।
हाँ रे ! नदिया किनारे, कदम के गछिया हे ,
ताहि चढ़ि श्याम बसिया बजाय ।।
बसिया सबद सुनि, जिया मोरा सालल ,
कौन बिधि उतरब पार ।।
काटबै मैं साँमर सिंकिया, बेड़वा बनैबै हे ,
वहि चढ़ि उतरब पार ।।
टूटी जैतै बंधन, छिलकि जैतै बेड़वा ,
डूबिये मरब मँझधार ।।
सतगुरु सत के, नैया निरमावल ,
वहि चढ़ि उतरब पार ।।
साहब कबीर येहो, गावल समदनियाँ हे ,
संतो जन लिहो ना विचार ।।
अबरि के गउना, बहुरि नहीं अउना ,
फेरू ना मानुष अवतार ।।



(65) राग-आसावरी, ताल-अद्धा
साधो भाई जीवत ही करो आसा ।।टेक।।
जीवत समुझै जीवत बूझै, जीवत मुक्ति निवासा ।
जियत करम की फाँस न काटी, मुए मुक्ति की आसा ।।
तन छूटे जिव मिलन कहतु है, सो सब झूठी आसा ।
अबहुँ मिला सो तबहुँ मिलैगा, नहिं तो जमपुर वासा ।।
दूर दूर ढूँढ़ै मन लोभी, मिटै न गर्भ तरासा ।
साध सन्त की करै न बँदगी, कटै करम की फाँसा ।।
सत्त गहै सतगुरु को चीन्है, सत्तनाम बिस्वासा ।
कहै कबीर साधन हितकारी, हम साधन के दासा ।।



(66) राग-आसावरी, तीनताल
जो कोइ निरगुन दरसन पावै ।। टेक ।।
प्रथम सुरति जमावै तिल पर, मूल मन्त्र गहि लावै ।
गगन गराजै दामिनि दमकै, अनहद नाद बजावै ।।
बिन जिभ्या नामहिं को सुमिरै, अमिरस अजर चुवावै ।
अजपा लागि रहै सूरति पर, नैन न पलक डुलावै ।।
गगन मँदिल में फूल फुलाना, उहाँ भँवर रस पावै ।
इँगला पिंगला सुखमनि सोधै, प्रेम जोति लौ लावै ।।
सुन्न महल में पुरुष बिराजै, जहाँ अमर घर छावै ।
कहै कबीर सतगुरु बिन चीन्हे, कैसे वह घर पावै ।।



(67) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
कोई चतुर न पावे पार, नगरिया बाबरी ।।टेक।।
लाल लाल जो सब कोइ कहै, सबकी गाँठी लाल ।
गाँठि खोलि के परखै नाहीं, तासे भयो कंगाल ।।
काया बड़े समुद्र केरो, थाह न पावै कोइ ।
मन मरि जैहैं डूबि के हो, मानिक परखै सोइ ।।
ऊँचा महल अगमपुर जहवाँ, सन्त समागम होइ ।
जो कोइ पहुँचे वही नगरिया, आवागमन न होइ ।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, का खोजो बड़ी दूर ।
जो कोइ खोजै यही नगरिया, सो पावै भरपूर ।।



(68) निर्गुण, ताल-खेमटा
हम काँ ओढ़ावे चदरिया, चलती बिरिया ।।टेक।।
प्रान राम जब निकसन लागे, उलट गईं दूनों नैन पुतरिया ।
भीतर से जब बाहर लाये, छूटि गई सब महल अटरिया ।।
चार जने मिलि खाट उठाइन, रोवत ले चले डगर डगरिया ।
कहत कबीर सुनो भाइ साधो, संग चले वहि सूखी लकरिया ।।



(69) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
भजु मन जीवन नाम सबेरा ।।टेक।।
सुन्दर देह देखि जिनि भूलौ, झपट लेत जस बाज बटेरा ।
या देही कौ गरब न कीजै, उड़ि पंछी जस लेत बसेरा ।।
या नगरी में रहन न पैहौ, कोइ रहि जाय न दुक्ख घनेरा ।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, मानुष जनम न पैहौ फेरा ।।



(70) राग-अहीर भैरव, ताल-कहरवा
मेरी सुरत सुहागिनि जाग री ।।टेक।।
का तुम सोवत मोह नींद में, उठिके भजनियाँ में लाग री ।
चित से सब्द सुनो सरवन दै, उठत मधुर धुन राग री ।।
दोउ कर जोड़ि सीस चरनन दै, भक्ति अचल बर माँग री ।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, जगत पीठ दै भाग री ।।



(71) चैती धुन, ताल-रूपक
शैर-साँस साँस पर नाम ले, वृथा साँस न खोय ।
   ना जाने इस साँस का, आवन होय न होय ।।
कैसे गुरु घर जैबै हो रामा, समझ न आबै।।टेक।।
तन की चुनरिया, धूमिल मोरी हो गईल, गुरु के की देखैैबै हो रामा ।।
प्रेम नेम कछु जानत नाहिं, गुरु के कैसे रिझबै हो रामा ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, पकड़ि चरण सुख पैबै हो रामा ।।



(72) पारंपरिक धुन, ताल-खेमटा
सन्तन के पद लाग रे तेरी अच्छी बनेगी,
अच्छी बनेगी तेरी बिगड़ी बनेगी । संतन0
हंसन की गति हंस ही जाने, क्या जाने कोई काग रे। तेरी0।
ध्रुव की बन गई प्रीांद की बन गई, गुरु सुमिरन बैराग रे।
शबरी की बनी सुदामा की बन गई, केवट के खुल गये भाग रे।
संतन के संग पूर्ण कमाई, होय तेरो बड़ो भाग रे। तेरी0अच्छी।
अहिल्या की बनी, अजामिल की बन गई,
गनिका के खुल गये भाग रे। तेरी0।
कहे कबीर सुनो भाई साधो, गुरु भजन में लाग रे ।।तेरी अच्छी।



(73)
शैर-खेल सिताबी फाग तूँ, बीती जात बहार ।।
बीती जात बहार, सम्पति रखने को आया ।
लीजै तत्त्व बचाय, सुभग मानुष तन पाया ।।
प्रेम के माँटि भरा, सूरत की करूँ पिचकारी ।
ज्ञान के बिनु राम नाम के दीजे गारी ।।
खेले घूँघट खोलि, लाज फागुन में नाहिं ।
जो कोई करिहै लाज, काज सपने को माहिं ।।
पलटू राणा में नहिं, सपनो यह संसार ।
खेल सिताबी फाग तूँ, बीती जात बहार ।।
~~~~~~~~~~~~
होली धुन, ताल-खेमटा
मन जीति सद्गुरु खेलै होरी।।
संशय सकल जात चित नाहिं, आवागमन के फंदा तोड़ी ।।
बाजत ताल मृदंग झाँझ डफ, अनहद ध्वनि के तन घोली ।
गावत गीत सभै अनुरागी, सारशब्द अन्तर होरी ।।
ज्ञान-ध्यान की कर पिचकारी, केशर गुरु कृपा घोरी ।
अजर अमर फगुवा नित गावै, कहे कबीर दे जम छोड़ी ।।



(74) राग-शिवरंजनी, ताल-कहरवा
नरहरि चंचल है मति मोरी , कैसे भगति करूँ मैं तोरी ।।टेक।।
मै तोहि देखूँ, तू मोहि देखे, प्रीति परस्पर होई ।।1।।
तूँ मोहिं देखै तोहि न देखूँ, यह मति सब बुध खोई ।।2।।
सब घट अंतर रमै निरंतर, मैं देखन नहिं जाना ।
गुन सब तोर मोर सब औगुन, कृत उपकार न माना ।।3।।
मैं तौं तोरि मोरि असमझ सों, कैसे करि निस्तारा ।
कहै रैदास कृष्ण करुणामय, जै जै जगत अधारा ।।4।।



(75) राग-बागेश्वरी, तीन-ताल
साहेब चितवो हमरी ओर ।
हम चितवैं तुम चितवो नाहीं, तुम्हरो हृदय कठोर ।।1।।
औरन को तो और भरोसो, हमैं भरोसो तोर ।।2।।
सुखमनि सेज बिछाओं गगन में, नित उठि करौं निहोर ।।3।।
धरम दास बिनवौं कर जोरी, कबीर बन्दी छोर ।।4।।



(76) झूमर, ताल-खेमटा
गुरु कतेक दिन नैहर में भरब गगरी ।।
गगरी भरत मोर दिन माह बीत गेल ।
रतिया बीतल पीसत चकरी।।
बचपन उमरिया ब्याह जे करि देल ।
पिया के विरह में भेलै दुवरी ।।
जनमैत जनमैत माय-बाप मरि गेल ।
नगरी के लोग कहै टुगरी ।।
गगरी भरि भरि नेहरा लगावल ।
कोई नहिं बतावे, पिया के डगरी ।।
भैया मोर मारै, भउजिया गरियावै ।।
कतेक दिन नीपबै, भैया के देहरी ।
धर्मदास इहो अरज करतु है।।
गुरु लेने चलियो, हमरा अपन नगरी।।



(77) चेतावनी, ताल-कहरवा
करि ले भजनियाँ हो भैया, देहिया के कौन ठेकान ।।टेक।।
एक दिन उड़िये हो जैतै, कायागढ़ हो मकान ।
जरिये जैतै देहिया हो भैया, रहिये जैतै हो नाम ।।1।।
माया के नगरिया हो भैया, स्वारथ के हो दूकान ।
धर्महिं दास के अरजिया हो भैया, कैलन सतगुरु नाम ।।2।।



(78) मंगल, ताल-कहरवा
जब हम छलिये माता के गर्भ में, चहु दिशि लगल केबार हे ।
रोई रोई अरजि साहेब से केलिये, करु साहब हमरो उबार हे ।।
कौल करार बहुत हम कैलो, करू साहब इतवार हे ।
अबकी उबारहु बहुरि न विसरव, करवै में भक्ति तोहार हे ।।
हमरो सदगुरु दया के सागर, गर्भ से दिहल उबार हे ।
बाहर ऐलों सुधि विसरैलौ, कहाँ कहाँ कैलौं पुकार हे ।।
बालापन हम खेल गमैलौं, तरुणी में व्यापल काम हे ।
बृद्धापन में रोग सतावे, लटकन लागे चाम हे ।।
कुल परिजन सब डाँटन लागल, पुत्र करैय बदनाम हे ।
इन्द्री थकित भेलै नैनो न सूझे, शब्द सुनिये नहीं कान हे ।।
धर्मदास यह मंगल गावल, छोडु माया के जाल हे ।
काम क्रोध मद लोभ को त्यागो, तब पैहो निज धाम हे ।।



(79) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
भक्ति दान गुरु दीजिये, देवन के देवा हो ।
चरन कँवल बिसरौं नहीं, करिहौं पद सेवा हो ।।1।।
तिरथ बरत मैं ना करौं, ना देवल पूजा हो ।
तुमहिं ओर निरखत रहौं, मेरे और न दूजा हो ।।2।।
आठ सिद्धि नौं निद्धि हैं, बैकुंठ निवासा हो ।
सो मैं ना कछु माँगहूँ, मेरे समरथ दाता हो ।।3।।
सुख सम्पति परिवार धन, सुन्दर वर नारी हो ।
सपनेहु इच्छा ना उठै, गुरु आन तुम्हारी हो ।।4।।
धरमदास की बीनती, साहेब सुनि लीजै हो ।
दरसन देहु पट खोलि कै, आपन करि लीजै हो ।।5।।



(80) राग-भीमपलासी, तीनताल
गुरु बिन तेरो कोई न सहाई ।
काकी मात पिता सुत बनिता, को काहू का भाई ।।
धन धरनी और सम्पत्ति सगरी, जो मान्यो अपनाई ।
तन छूटे कुछ संग न जाई, कहा ताहि लिपटाई ।।
दीन दयाल सदा दुख भंजन, तासो रूचि न बढ़ाई ।
नानक कहत जगत सब मिथ्या, ज्यों सपने रैनाई ।।



(81) राग-भीमपलासी, तीनताल
साधो यह मन गह्यो न जाई।।टेक।।
चंचल तृष्णा संग बसत है, याते मन न थिराई ।।
कठिन क्रोध घट ही के भीतर या विधि सब बिसराई ।
रतन ज्ञान सबको हर लीन्हा, ताते कछु न बसाई ।।
जोगी जतन करत सब हारे, गुणी रहे गुण गाई ।
जब नानक गुरु भये दयाला, तो सब विधि बनिआई ।।



(82) निर्गुण, ताल-कहरवा
काहे करत गुमानऽ मूरख मनुवाँ ।।
माटि का यह बना पूतला, इसमें ज्योति समाना ।
एक साँस की आस नहीं है, काहे चलत उताना ।।
माँटि ओढ़न माँटि बासन, माँटि का सिरहौना ।
सकल जगत माँटि का भयलौ, माँटि ना पहचाना ।।
किया नहिं कुछ भली कमाई, तीरथ व्रत जप दाना ।
जब जमराजा लेखा माँगिहैं, करबै कौन बहाना ।।
ओ वेला छिन-छिन नहिं जाना, जे दिन होत पयाना ।
कहते नानक और काम तजि, सुमिरो श्रीभगवान ।।



(83) राग-देश, ताल-कहरवा
सुमिरन करि ले मेरे मना तेरी, बीती उमर गुरुनाम बिना रे ।।
पंछी पंख बिनु हस्ती दंत बिनु, नारी पुरुष बिना रे ।
वेश्या पुत्र पिता बिन हीना, तैसे प्राणी गुरुनाम बिना रे ।।
देह नैन बिनु रैन चंद्र बिनु, धरती मेह बिना रे ।
जैसे तरुवर फल बिन हीना, तैसे प्राणी गुरुनाम बिना रे ।।
कूप नीर बिनु धेनु छीर बिनु, मंदिर दीप बिना रे ।
जैसे पंडित वेद विहिना, तैसे प्राणी गुरुनाम बिना रे ।।
काम क्रोध मद लोभ निवारो, छोड़ो अब संत जना रे ।
कहै नानक साह सुनो भगवन्ता, या जग में कोइ नहिं अपना रे ।।



(84) राग-मियाँ की तोड़ी, ताल-कहरवा
जगत में झूठी देखी प्रीत।
अपने ही सुख सिऊ सब लागे, क्या दारा क्या मीत ।।
मेरो मेरो सभै कहत हैं, हित सिऊ बाँध्यो चीत ।
अंत काल संगी नहिं कोऊ, इह अचरज है रीत ।।
मन मूरख अजहूँ नहीं समुझत, सिख दै हारिओ नीत ।
‘नानक’ भउजल पारि परे जो, गावै गुरु के गीत ।।



(85) राग-शिवरंजनी, ताल-कहरवा
काहे रे वन खोजन जाई ।
सरब निवासी सदा अलेपा, तोही संग समाई ।।
पुहप मधि जिउ बासु वसतु है, मुकर माहिं जैसे छाई ।
तैसे ही हरि बसे निरंतरि, घटि ही खोजहु भाई ।।
बाहरि भीतरि एको जानहु, इहु गुर गिआन बताई ।
जन नानक बिनु आपा चीनै, मिटै न भ्रम की काई ।।



(86) पारंपरिक धुन
गुरदेव माता गुरदेव पिता, गुरदेव स्वामी परमेसुरा ।।
गुरदेव सखा अगिआन भंजनु, गुरदेव बंधिप सहोदरा ।
गुरदेव दाता हरिनामु उपदेशै, गुरदेव मंतु निरोधरा ।।
गुरदेव शांति सति बुधि मूरति, गुरदेव पारस परसपरा ।
गुरदेव तीरथु अमृत सरोवरु, गुर गिआन मजनु अपरंपरा ।।
गुरदेव करता सभि पाप हरता, गुरदेव पतित पवितकरा ।
गुरदेव आदि जुगादि जुगु जुगु, गुरदेव मंतु हरि जपि उधरा ।।
गुरदेव संगति प्रभु मेल करि किरपा, हम मूढ़ पापी जितु लगि तरा ।
गुरदेव सतगुरु पारब्रह्म परमेसरु, गुरदेव नानक हरि नमस्करा ।।



(87) पारंपरिक धुन
हे अचुत हे पारब्रह्म, अविनाशी अघनास ।
हे पूरन हे सरब मै, दुखभंजन गुणतास ।।
हे संगी हे निराकार, हे निरगुण सभ टेक ।
हे गोविन्द हे गुण निधान, जाके सदा विवेक ।।
हे अपरंपार हरि हरे, हहि भी होवनहार ।
हे संतह के सदा संगि, निधारा आधार ।।
हे ठाकुर हउ दास रो, मैं निरगुन गुनु नहिं कोइ ।
 नानक दीजै नाम दानु, राखउ हीऐ परोइ ।।



(88) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
अजहूँ न निकसै प्राण कठोर ।
दरसन बिना बहुत दिन बीते, सुंदर प्रीतम मोर ।।
चारि पहर चारौं जुग बीते, रैनि गँवाई भोर ।
अवधि गई अजहूँ नहिं आये, कतहूँ रहे चितचोर ।।
कबहूँ नैन निरखि नहिं देखे, मारग चितवन चोर ।
‘दादू’ ऐसे आतुर बिरहिणि, जैसे चंद चकोर ।।



(89) राग-भीमपलासी, ताल-कहरवा
सतगुरु भव सागर डर भारी।
काम, क्रोध मद लोभ भँवर बिच, लरजत नाव हमारी।।
तृष्णा लहर उठत दिन राती, लागत अति झकझोरा।
ममता पवन अधिक डरपावे, काँपत है मन मोरा।।
और महा डर नाना विधि के, छिन छिन मैं दुख पाऊँ।
अन्तर्यामी विनती सुनिये, यह मैं अरज सुनाऊँ।।
गुरु शुकदेव सहाय करो अब, धीरज रहा न कोई।
चरण दास को पार उतारो, शरण तुम्हारी खोई।।



(90) पारंपरिक धुन
दिन को हरि सुमिरन करो, रैनि जागि कर ध्यान ।
भूख राखि भोजन करो, तजि सोवन को बान ।।1।।
चारि पहर नहिं जगि सकै, आधि रात सूँ जाग ।
ध्यान करो जप हीं करो, भजन करन कूँ लाग ।।2।।
जो नहिं सरधा दोपहर, पिछले पहरे चेत ।
उठ बैठो रटना रटो, प्रभु सूँ लावहु हेत ।।3।।
जागै ना पिछले पहर, करै न गुरु मत जाप ।
मुँह फारे सोवत रहै, ताकूँ लागै पाप ।।4।।



(91) राग-मालकोंस, तीनताल
मनुवाँ राम के व्यापारी ।
अबकी खेप भक्ति की लादी, बनिज कियो तैं भारी ।।1।।
पाँचो चोर सदा मग रोकत, इन सूँ कर छुटकारी ।
सतगुरु नायक संग मिलि चल, लूट सकै नहिं धारी ।।2।।
दो ठग मारग माँहि मिलेंगे, एक कनक एक नारी ।
सावधान हो पेंच न खैयो, रहियो आप सँभारी ।।3।।
हरि के नगर में जा पहुँचोगे, पैहो लाभ अपारी ।
‘चरणदास’ तो कूँ समझावें, रे मन बारम्बारी ।।4।।



(92) राग-देश, ताल-कहरवा
हमारे गुरु पूरण दातार ।
अभय दान दीनन्ह को दीन्हें, किन्हें भव जल पार ।।
जनम जनम के बंधन काटे, जम को बंध निवार ।
रंकहुँ ते सो राजा किन्हें, हरि धन दियो अपार ।।
दिन्हें ज्ञान भक्ति पुनि दिन्हें, जोग बतावनिहार ।
तन-मन-वचन सकल सुखदाई, हृदय बुद्धि उजियार ।।
सब दुख गंजन पातक भंजन, रंजन ध्यान विचार ।
सज्जन दुर्जन जो चलि आवे, एकहि दृष्टि निहार ।।
आनंद रूप स्वरूप मयी है, लिप्त नहीं संसार ।
चरणदास गुरु ‘सहजो’ केरे, नमो-नमो बारम्बार ।।



(93) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
भया जी हरि रस पी मतवारा ।
आठ पहर झूमत ही बीते, डारि दियो सब भारा ।।
इड़ा पिंगला ऊपर पहुँचे, सुखमन पाट उघारा ।
पीवन लगे सुधा रस जब ही, दुर्जन पड़ी बिडारा ।।
गंग जमुन बिच आसन मार्यो, चमक चमक चमकारा ।
भँवर गुफा में दृढ़ ह्वै बैठे, देख्यो अधिक उजारा ।।
चित स्थिर चंचल मन थाका, पाँचो का बल हारा ।
चरणदास किरपा सूँ सहजो, भरम करम भयो छारा ।।



(94) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
राम तजूँ पै गुरु न विसारूँ। गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ ।।
हरि ने जन्म दियो जग माहीँ । गुरु ने आवागमन छुटाहीँ ।।
हरि ने पाँच चोर दिये साथा । गुरु ने लई छुटाय अनाथा ।।
हरि ने कुटुँब जाल में गेरी । गुरु ने काटी ममता बेरी ।।
हरि ने रोग भोग उरझायौ । गुरु जोगी कर सबै छुटायौ ।।
हरि ने कर्म भर्म भरमायौ । गुरु ने आतम रूप लखायौ ।।
हरि ने मो सूँ आप छिपायौ । गुरु दीपक दे ताहि दिखायौ ।।
फिर हरि बंधमिुक्त गति लाये । गुरु ने सबही भर्म मिटाये ।।
चरणदास पर तन मन वारूँ। गुरु न तजूँ हरि कूँ तजि डारूँ ।।



(95) मंगल, ताल-कहरवा
अबरि के बार बकसु मोरे साहेब, जनम जनम के चेरि हे ।। 1।।
चरण कमल में हृदय लगायेब, कपट कागज सब फाड़ि हे ।। 2।।
मैं अबला किछुओ नहिं जानौं, परपंचन के साथ हे ।। 3।।
पिया-मिलन बेरि इन्ह मोरा रोकल, तब जिव भयल अनाथ हे ।। 4।।
जब दिल में हम निहचे जानल, सूझि पड़ल जम फन्द हे ।। 5।।
खूलल दृष्टि दिया मनि नेसल, मानहु शरद के चन्द हे ।। 6।।
कह दरिया दरसन सुख उपजल, दुख सुख दूरि बहाय हे ।। 7।।



(96) राग-मालकोंस, तीनताल
साधो अलख निरंजन सोई ।
गुरु परताप राम-रस निर्मल, और न दूजा कोई ।।
सकल ज्ञान पर ज्ञान दयानिधि, सकल जोत पर जोती ।
जाके ध्यान सहज अघ नासै, सहज मिटै जम छोती ।।
जाकी कथा के सरवन तेंही, सरवन जागत होई ।
ब्रह्मा बिस्नु महेस अरु दुर्गा, पार न पावै कोई ।।
सुमिर-सुमिर नर होइहैं राना, अति झीना से झीना ।
अजर अमर अच्छय अबिनासी, महा बीन परबीना ।।
अनंत संत जाके आस-पिआसा, अगन मगन चिर जीवैं ।
जन दरिया दासन के दासा, महाकृपा रस पीवैं ।।



(97) राग-आसावरी, तीनताल
प्रभुजी अब जनि मोहि बिसारो ।
असरन-सरन अधम-जन तारन, जुग जुग बिरद तिहारो ।।1।।
जहँ-जहँ जनम करम बसि पायो, तहँ अरुझे रस खारो ।
पाँचहुँ के परपंच भुलानो, धरेउ न ध्यान अधारो ।।2।।
अंध गर्भ दस मास निरंतर, नख सिख सुरति सँवारो ।
मज्जा मुत्र अग्नि मल कृम जहँ, सहजै तहँ प्रतिपारो ।।3।।
दीजै दरस दयाल दया करि, गुण औगुन न विचारो ।
धरनी भजि आयो सरनागति, तजि लज्जा कुल गारो ।।4।।



(98) राग-केदार, तीनताल
साधो सुमिरन भजन करो ।
मन महँ दुविधा आनहु नाहीं, सहजहिं ध्यान धरो ।।
धीरज धरि संसय नहीं राखहु, नाम भरोसे रहो ।
जगजीवन सतगुरु को भेंटो, भवजल पार तरो ।।



(99) पारंपरिक धुन
संत चरन को छोड़िकै, पूजत भूत बैताल ।।
पूजत भूत बैताल, मुए पर भूतै होई ।
जेकर जहवाँ जीव, अन्त को होवै सोई ।।
देव पितर सब झूठ, सकल यह मन की भ्रमना ।
यही भरम में पड़ा, लगा है जीवन-मरना ।।
देई देवा सेइ, परम पद केहि ने पावा ।
भैरो दुर्गा सीव, बाँधिकै नरक पठावा ।।
पलटू अन्त घसीटिहै, चोटी धरि धरि काल ।
संत चरन को छोड़िकै, पूजत भूत बैताल ।।



(100) पारंपरिक धुन
पतिबरता को लच्छन सब से रहै अधीन ।।
सब से रहै अधीन टहल वह सब की करती ।
सास ससुर और भसुर ननद देवर से डरती ।।
सब का पोषन करै सभन की सेज बिछावै ।
सब को लेय सुताय पास तब पिय के जावै ।।
सूतै पिय के पास सभन को राखै राजी ।
ऐसा भक्त जो होय ताहि की जीति बाजी ।।
पलटू बोलै मीठे बचन भजन में है लौलीन ।
पतिबरता को लच्छन सब से रहै अधीन ।।



(101) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
नहीं मुख राम गाओगे। आगे दुख बड़ा पाओगे ।।1।।
राम बिन कौन तारेगा । पकड़ जमदूत मारेगा ।।2।।
कबौं सत्संग ना कीन्हा। भूखे को नाहिं कुछ दीन्हा ।।3।।
माया औ मोह में झूले। कुटुम परिवार लखि फूले ।।4।।
पुछै धर्मराज जब भाई। वचन मुख नािंहं कहि आई ।।5।।
पलटू दास लखि रोया। सुघर तन पाय के खोया ।।6।।



(102) रागा-आसावरी, ताल-कहरवा
प्रानी ! जप ले तू सत्तनाम ।।
मात पिता सुत कुटुम कबीला, यह नहिं आवै काम ।
सब अपने स्वारथ के संगी, संग न चलै छदाम ।।
देना लेना जो कुछ होवै, करिले अपना काम ।
आगे हाट बजार न पावै, कोइ नहिं पावै ग्राम ।।
काम क्रोध मद लोभ मोह ने, आन बिछाया दाम ।
क्यों मतवारा भया बावरे, भजन करो निःकाम ।।
यह नर देही हाथ न आवै, चल तू अपने धाम ।
अब की चूक माफ नहीं होगी, ‘दूलन’ अचल मुकाम ।।



(103) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
सुखमनि सुरति डोरि बनाव ।
मिटिहैं सब कर्म जिव के, बहुरि इतहि न आव ।।
पैठि अंदर देखु कंदर, जहाँ जिय को वास ।
उलटि प्रान अपान मेटो, सेत सबद निवास ।।
गंग जमुना मिलि सरसुति, उमँगि शिखर बहाव ।
लवकंति बिजली दामिनी, अनहद्द गरज सुनाव ।।
जीति आया आपुहीं, गुरु यारि सबद सुनाव ।
तब दास बुल्ला भक्ति ठानो, सदा रामहिं गाव ।।



(104) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
उलटि देखो घट में जोति पसार ।
बिनु बाजे तहँ धुनि सब होवै, विगसि कमल कचनार ।।
पैठि पताल सूर ससि बाँधौ, साधौ त्रिकुटी द्वार ।
गंग जमुन के वारपार बिच, भरतु है अमिय करार ।।
इंगला पिंगला सुखमन सोधो, बहत शिखर-मुख धार ।
सुरति निरति ले बैठ गगन पर, सहज उठै झनकार ।।
सोहं डोरि मूल गहि बाँधो, मानिक बरत लिलार ।
कह गुलाल सतगुरु बर पायो, भरो है मुक्ति भंडार ।।


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