भजन-सूची

महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की वाणी

क्रम भजन/पद राग/धुन
तालअन्य / विशेष
[01]अपनी भगतिया सतगुरु साहबबरसाती/पारंपरिक धुनकहरवा
[02]अधर डगर को सद्गुरु भेद बतावैचैती धुनरूपक
[03]अति पावन गुरु मंत्रपारंपरिक धुनधीमा कहरवा
[04]अद्भुत अन्तर की डगरियाराग-देशकहरवा
[05]आहो भाई होऊ गुरु आश्रित होपारंपरिक धुनकहरवा
[06]आगे माई सतगुरु खोज करहुपारंपरिक धुनकहरवा
[07]ऐन महल पट बन्द कैलोकगीतधीमा कहरवा
[08]क्या सोवत गफलत के मारेप्रभातीधीमा कहरवा
[09]करिये भाई सतगुरू गुरू पद सेवाराग-आसाावरीतीनताल
[10]खोज करो अन्तर उजियारीपारंपरिक धुनकहरवा
[11]खोजत खोजत सतगुरु भेटि गेलासमदाउनरूपक
[12]गुरु कीजै भव-निधि पारपारंपरिक धुनकहरवा
[13]गुरु गुरु त्राहि गुरु त्राहि गुरु कहु होपारंपरिक धुनरूपक
[14]गुरु दीन दयाला, नजर निहालापारंपरिक धुनदादरा
[15]गुरु धन्य हैं गुरु धन्य हैं गुरु धन्य दाता दयालराग-यमनरूपक
[16]गुरु-हरि-चरण में प्रीति होपारंपरिक धुनकहरवा
[17]गुरु मम सुरत को गगन पर चढ़ानापारंपरिक धुनकहरवा
[18]गंग जमुन जुग धारपारंपरिक धुनकहरवा
[19]घट बीच अजब तमाशा, हे साधोचैती धुनरूपक
[20]घटवा घोर रे अंधारी राग-देशकहरवा
[21]चलु चलु चलू भाईपारंपरिक धुनकहरवा
[22]छन छन पल पल, समय सिरावेविद्यापति का धुनकहरवा
[23]जय जयति सद्गुरु जयति जय जयराम-यमनरूपक
[24]जनि लिपटो रे प्यारे जग परदेसवाराग-यमनकहरवा
[25]जेठ मन को हेठ करियेचौमासारूपक
[26]जौं निज घट रस चाहोराग-आसावरी/दरबारी कान्हरातीनताल
[27]जीव उद्धार का द्वार पुकार कहापारंपरिक धुनकहरवा
[28]तुम साहब रहमान होविनतीकहरवा
[29]ध्यानाभ्यास करो सद सद हीपारंपरिक धुनकहरवा
[30]निज तन में खोज सज्जनपारंपरिक धुन कहरवा
[31]प्रभु तोहि कैसे देखन पाऊँराग-मालकोंसतीनताल
[32]प्रभु वरणन में आवैं नाहींपारंपरिक धुनकहरवा
[33]बिना गुरु की कृपा पायेपारंपरिक धुनकहरवा
[34]भजो हो गुरु चरण कमलराग-जनसम्मोहिनीएकताल
[35]भजु मन सतगुरु दयालराग-केदारएकताल
[36]भजो हो मन गुरु उदारराग-जनसम्मोहिनीदादरा
[37]मोहि दे दो भगती दानपारंपरिक धुनकहरवा
[38]मन तुम बसो तीसरो नैनाराग-देश, कजरीकहरवा
[39]यहि विधि जैबै भव पारपारंपरिक धुनकहरवा
[40]योग हृदय में वास नापारंपरिक धुनकहरवा
[41]सतगुरु दरस देन हित आएस्वागत-गीतकहरवा
[42]सतगुरु जी से अरज हमारीविनतीकहरवा
[43]सृष्टि के पाँच हैं केन्द्रनमंगल, पारंपरिक धुनरूपक
[44]सुखमनियाँ में मोरी नजर लागीहोलीखेमटा
[45]सूरति दरस करन को जातीराग-देश, कजरीकहरवा
[46]साँझ भये गुरु सुमिरो भाईराग-मारवाकहरवा
[47]सतगुरु चरण टहल नित करियेपारंपरिक धुनकहरवा
[48]सतगुरु सेवत गुरु को सेवतराग-जनसम्मोहनीकहरवा
[49]सुरत सम्हारो अधर चढ़ाओराग-मालकोंसखेमटा
[50]समय गया फिरता नहींचेतावनीकहरवा
[51]सन्तन मत भेद प्रचार कियापारंपरिक धुनकहरवा
[52]त्राहि गुरु त्राहि गुरु, त्राहि गुरु कहु होपारंपरिक धुनरूपक

(1) बरसाती/पारंपरिक धुन, ताल कहरवा
अपनी भगतिया सतगुरु साहब, मोहि कृपा करि देहु हो ।
जुगन-जुगन भव भटकत बीते, अब भव बाहर लेहु हो ।।1।।
पशु पक्षी कृमि आदिक योनिन, में भरमेउ बहु बार हो ।
नर तन अबहिं कृपा करि दीन्हों, अब प्रभु करो उबार हो ।।2।।
हरहु भव दुख देहु अमर सुख, सर्व दाता समरत्थ हो ।
जो तुम चाहिहु होइहिं सोई, सब कुछ तुम्हरे हत्थ हो ।।3।।
करहु अनुग्रह प्रीतम साहब, तुम अंशक मैं अंश हो ।
तुम सूरज मैं किरण तुम्हारी, तुम वंशक मैं वंश हो ।।4।।
मोहि तोहि इतनेहि भेद हो साहब, यहि भेद भव दुख मूल हो ।
करो कृपा नासो यहि भेदहिं, होउ अति ही अनुकूल हो ।।5।।
आस त्रास भय भाव सकल ही, मम मन कर जत जाल हो ।
सकल सिमिटि तुम्हरो पद लागे,‘मेँहीँ’ के यहि अर्ज हाल हो ।।6।।



(2) चैती धुन, ताल-रूपक
अधर डगर को सद्गुरु भेद बतावै ।।1।।
कज्जल केन्द्र सूई अग्र दर होई, दृष्टि रथ चढ़ि स्रुति धावै ।।2।।
प्रकाश मंडल तजि शब्द समावै, अचल अमर घर पावै ।।3।।
‘मेँहीँ’दास आस सद्गुरु की, हरदम शीश नवावै ।।4।।



(3) पारंपरिक धुन, ताल-धीमा कहरवा
अति पावन गुरु मंत्र, मनहिं मन जाप जपो ।
उपकारी गुरु रूप को, मानस ध्यान थपो ।।1।।
देवी देव समस्त, पुरण ब्रह्म परम प्रभू ।
गुरु में करैं निवास, कहत हैं संत सभू ।।2।।
प्रभुहू से गुरु अधिक, जगत विख्यात अहैं ।
बिनु गुरु प्रभु नहिं मिलैं, यदपि घट माहिं रहैं ।।3।।
उर माहीं प्रभु गुप्त, अँधेरा छाइ रहै ।
गुरु गुर करत प्रकाश, प्रभू को प्रत्यक्ष लहै ।।4।।
हरदम प्रभु रहैं संग, कबहुँ भव दुख न टरै ।
भव दुख गुरु दें टारि, सकल जय जयति करै ।।5।।
तन मन धन को अरपि, गुरू-पद सेव करो ।
‘मेँहीँ’ आज्ञा पालि, दुस्तर भव सुख से तरो ।।6।।



(4) राग-देश, ताल-कहरवा
अद्भुत अन्तर की डगरिया, जा पर चल कर प्रभु मिलते ।। टेक।।
दाता सतगुरु धन्य धन्य जो, राह लखा देते ।
चलत पन्थ सुख होत महा है, जहाँ अझर झरते ।।1।।
अमृत ध्वनि की नौबत झहरत, बड़भागी सुनते ।
सुनत लखत सुख लहत अद्भुती, ‘मेँहीँ’ प्रभु मिलते ।।2।।



(5) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
आहो भाई होऊ गुरु आश्रित हो, बिना गुरु अंधकार,
 सूझए न कछु सार, होऊ गुरु आश्रित हो ।।1।।
आहो भाई गुरु सेवी भेद लेहु हो, स्थूल दृश्य पिड तोर,
 भरा अंधकार घोर, तिल पैसी पार होउ हो ।।2।।
आहो भाई ब्रह्म जोति पार करु हो, कमल सहस दल,
 जोति करे झलमल, त्रिकुटी में सूर्य उगे हो ।।3।।
आहो भाई जोति छाड़ी गहु शब्द हो, गही ले अनूप धुन्न,
 टपु सुन्न महासुन्न, भँवर गुफाहु टपु हो ।।4।।
आहो भाई शब्द में सुरत मेली हो, ब्रह्माण्डहि पार होउ,
 सत्य में समाय रहु, भव न परउ पुनि हो ।।5।।
आहो भाई गुरु भेद गुप्त यही हो, गुरु सेवै जन जोई,
 सत पथ पावै सोई, ‘मेँहीँ’ न दोसर लहे हो ।।6।।



(6) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
आगे माई सतगुरु खोज करहु सब मिलिके,
  जनम सुफल कर राह ।।टेक।।
आगे माई सतगुरु सम नहिं हित जग कोई,
मातु पिता भ्राताह ।
सकल कल्पना कष्ट निवारें,
  मिटैं सकल दुख दाह ।।आगे0।।1।।
भवसागर अंध कूप पड़ल जिव,
सुझइ न चेतन राह ।
बिन सतगुरु ईहो गति जीव के,
  जरत रहे यम धाह ।।आगे0।।2।।
सतगुरु सत उपकारि जिवन के,
राखैं जिवन सुख चाह ।
होइ दयाल जगत में आवैं,
  खोलैं चेतन सुख राह ।।आगे0।।3।।
परगट सतगुरु जग में विराजैं,
मेटयँ जिवन दुख दाह ।
बाबा देवी साहब जग में कहावयँ,
  ‘मेँहीँ’ पर मेहर निगाह ।।आगे0।।4।।



(7) लोकगीत, ताल-धीमा कहरवा
ऐन महल पट बन्द कै, चलु सुखमन घाटी हो ।।धुआ।।
दृष्टि डोरि स्थिर रहे, तम बिचहि में फाटी हो ।
खुले राह असमान की, टूटय भ्रम टाटी हो ।।1।।
ज्योति मण्डल धँसि धाय के, निरखत वैराटी हो ।
धुर धुन गहि लहि परम पद, बन्धन लेहु काटी हो ।।2।।
सन्तन की यह राज रही, भेख भर्म से पाटी हो ।
‘मेँहीँ’ देवी साहब दया, दीन्हीं भ्रम काटी हो ।।3।।



(8) प्रभाती, ताल-धीमा कहरवा
क्या सोवत गफलत के मारे, जाग जाग मन मेरे ।
अन्तकाल संगी ना होगा, संग न चल कोउ तेरे ।।1।।
यह धन धाम कुटुम्ब कबीला, सब स्वारथ के चेरे ।
अपने-अपने सुख के साथी, हेर न कोउ सुख तेरे ।।2।।
तन-मन सुख है ना सुख तेरो, आतम सुख निज तेरे ।
तू तन-मन-सुख निज कै जान्यो, भयो काल को चेरे ।।3।।
दृढ़ परतीत प्रीत करि गुरु से, कर सत्संग सबेरे ।
या विधि भव फंदा कटि जैहैं,‘मेँहीँ’ कहत हित हेरे ।।4।।



(9) राग-आसाावरी, तीनताल
करिये भाई सतगुरू गुरू पद सेवा ।।टेक।।
विषय भोग मन ललचि-ललचि धरे, जाय पड़े यम जेवा ।
मात पिता दारा सुत बन्धू, कुटुम्ब न करे तव सेवा ।।1।।
धन को गिने निज तन न सहाई, तुम हंसा एक एका ।
याते चेति सतगुरु गुरु सेवो, करिहैं सहाइ अनेका ।।2।।
गुरु निज भेद दें अधर चढ़न को, गुरुमुख चढ़त बिसेखा ।
चढ़त-चढ़त सो टपत गगन सब, जाय मिलत सब सेखा ।।3।।
देवी साहब पूरण सतगुरु, जिन सम भेदि न दूजा ।
‘मेँहीँ’ निशिदिन चरण शीश धरि, आप अरपि करु पूजा ।।4।।



(10) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
खोज करो अन्तर उजियारी, दृष्टिवान कोइ देखा है ।।टेक।।
गुरु भेदी का चरण सेव कर, भेद भक्त पा लेता है ।
निशिदिन सुरत अधर पर कर कर, अंधकार फट जाता है ।।1।।
पीली नीली लाल सफेदी, स्याही सन्मुख आता है ।
छट-छट छट-छट बिजली छटकै, भोर का तार दिखाता है ।।2।।
चन्दा उगत उदय हो रविहू, धूर शब्द मिल जाता है ।
गुरु सतगुरु के चरण अधीनन, अगम भेद यह पाता है ।।3।।
विविध भाँति के कर्म जगत में, जीवन घेरि फँसाता है ।
बाबा देवि कहैं कह ‘मेँहीँ’, सतगुरु गुरु ही बचाता है ।।4।।



(11) समदाउन, ताल-रूपक
खोजत खोजत सतगुरु भेटि गेला, शहर मुरादाबाद ।।टेक।।
महल्ला अताइ से ज्ञान प्रकाशलनि, अमित अमित परकाश ।
घोर अंधारि में जीव दुखित छल, होइ गेल सकल सनाथ ।।1।।
पूरन भेदी बाबा देवी साहब, नाम विदित जग जास ।
परम दयालु बाबा तनिको परेमी पर, धन धन कहै ‘मेँहीँ’ दास ।।2।।



(12) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
गुरु कीजै भव-निधि पार, स्वामी हो दयालु जी ।। 1 ।।
नौ द्वारन दस चारि इन्द्रिन में, भव दुख सहउँ अपार ।। 2 ।।
जन्म-मरण दुख अगणित भोगे, बिनु प्रभु पद आधार ।। 3 ।।
तन धन परिजन मान की ममता, फँसि खोयो ततु सार ।। 4 ।।
मन अति कठिन कराल प्रभू हो, तजय न विषय विकार ।। 5 ।।
मन दृढ़ हो न लागु प्रभु पद में, होत न मो से सम्हार ।। 6 ।।
युगन युगन सों यहि विधि अहऊँ, अब गुरु करिय उबार ।। 7 ।।
ईश्वर देव पितर परिजन सों, होत न यह उपकार ।। 8 ।।
यह ‘मेँहीँ’ होवत गुरु से ही, गुरु की अमित बलिहार ।। 9 ।।


(13) पारंपरिक धुन, ताल-रूपक
गुरु गुरु त्राहि गुरु त्राहि गुरु कहु हो ।
तन मन गुरु पद अरपन करु हो ।।1।।
तन मन आपन दुखद महान हो ।
गुरु पद अरपि अरपि लहु ज्ञान हो ।।2।।
गुरु ज्ञान दिव्य भान हृदय उगाउ हो ।
मोह तम नाशै मोक्ष सुख पाउ हो ।।3।।
सर्व क्षण गुरु मन जौं ‘मेँहीँ’ रहै हो ।
निश्चय निर्वाण होय सन्त सब कहैं हो ।।4।।



(14) पारंपरिक धुन, ताल-दादरा
गुरु दीन दयाला, नजर निहाला, भक्तन पूरन काम ।।1।।
भव भय दुख नाशय, आत्म विलासय, जो रे भजै गुरु नाम ।।2।।
ममता मद हीना, अनहद लीना, बास बसैं सत धाम ।।3।।
सब सद्गुण सागर, ज्ञान उजागर, पर हित रत सब काम ।।4।।
भौ निधि कड़िहारा, संसृति पारा, भजन मगन प्रति याम ।।5।।
सत शब्द सनेही, जग में विदेही, दान करैं सत नाम ।।6।।
दें ज्ञान बताई, ध्यान बुझाई, ‘मेँहीँ’ भजो गुरु नाम ।।7।।



(15) राग-यमन, ताल-रूपक
 गुरु धन्य हैं गुरु धन्य हैं गुरु धन्य दाता दयाल ।
 दया करैं औगुन हरैं दें टाल भव जंजाल ।।1।।
 गुरु धन्य हैं गुरु धन्य हैं गुरु धन्य दाता दयाल ।
 जन्म अनेकन को अँटक खोलैं करें निहाल ।।2।।
 गुरु धन्य हैं गुरु धन्य हैं गुरु धन्य दाता दयाल ।
 ज्ञान ध्यान बुझाय दें स्त्रुति शब्द को सब ख्याल ।।3।।
 गुरु धन्य हैं गुरु धन्य हैं गुरु धन्य दाता दयाल ।
 गुरु बिन प्रभु मिलते नहीं ऐसा बड़ा मजाल ।।4।।
 गुरु धन्य हैं गुरु धन्य हैं गुरु धन्य दाता दयाल ।
 प्रभु गुप्त हैं गुरु प्रकट हैं हैं एक ही दयाल ।।5।।
 गुरु धन्य हैं गुरु धन्य हैं गुरु धन्य दाता दयाल ।
 सगुण सरूपी ईश हो सबको नजर निहाल ।।6।।
 गुरु धन्य हैं गुरु धन्य हैं गुरु धन्य दाता दयाल ।
 सब मिल कहो जपते रहो जी बने रहो खुशहाल ।।7।।
 गुरु धन्य हैं गुरु धन्य हैं गुरु धन्य दाता दयाल ।
 हरदम रटो कभु ना हँटो तोहि छेड़ेगा न काल ।।8।।



(16) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
गुरु-हरि-चरण में प्रीति हो, युग-काल क्या करे ।
कछुवी की दृष्टि दृष्टि हो, जंजाल क्या करे ।।1।।
जग-नाश का विश्वास हो, फिर आस क्या करे ।
दृढ़ भजन धन ही खास हो, फिर त्रास क्या करे ।।2।।
वैराग-युत अभ्यास हो, निराश क्या करे ।
सत्संग-गढ़ में वास हो, भव-पाश क्या करे ।।3।।
त्याग पंच पाप हो, फिर पाप क्या करे ।
सत् बरत में दृढ़ आप हो, कोइ शाप क्या करे ।।4।।
पूरे गुरू का संग हो, अनंग क्या करे ।
‘मेँहीँ’ जो अनुभव ज्ञान हो, अनुमान क्या करे ।।5।।



(17) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
 गुरु मम सुरत को गगन पर चढ़ाना ।
  दया करके सतधुन की धारा गहाना ।।
 अपनी किरण का सहारा गहाकर ।
  परम तेजोमय रूप अपना दिखाना ।।
 साधन-भजन-हीन मों सम न कोऊ ।
  मेरी इस दुर्बलता को प्रभु जी हटाना ।।
 पापों के संस्कार जन्मों के मेरे ।
  हैं जो दया कर क्षमा कर मिटाना ।।
 तुम्हरो विरद गुरु है पतितन को तारन ।
  अपनो विरद राखि ‘मेँहीँ’ निभाना ।।



(18) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
गंग जमुन जुग धार, मधहि सरस्वति बही ।
फुटल मनुषवा के भाग, गुरुगम नाहि लही ।।1।।
सतगुरु संत कबीर, नानक गुरु आदि कही ।
जोइ ब्रह्मांड सोइ पिण्ड, अन्तर कछु अहइ नहीं ।।2।।
पिगल दहिन गंग सूर्य, इंगल चन्द जमुन बाईं ।
सरस्वति सुषमन बीच, चेतन जलधार नाईं ।।3।।
सतगुरु को धरि ध्यान, सहज स्त्रुति शुद्ध करी ।
सन्मुख बिन्दु निहारि, सरस्वति न्हाय चली ।।4।।
होति जगामगि जोति, सहसदल पीलि चली ।
अद्भुत त्रिकुटी की जोति, लखत स्त्रुत सुन्न रली ।।5।।
सुन मद्धे धुन सार, सुरत मिलि चलति भई ।
महासुन्य गुफा भँवर, होइ सतलोक गई ।।6।।
अलख अगम्म अनाम, सो सतपद सूर्त रली ।
पाएउ पद निर्वाण, सन्तन सब कहत अली ।।7।।
छूटेउ दुख को देश, गुरुगम पाय कही ।
सतगुरु देवी साहब, दया ‘मेँहीँ’ गाइ दई ।।8।।



(19) चैती धुन, ताल-रूपक
घट बीच अजब तमाशा, हे साधो, घट बीच अजब तमाशा ।।
घट की काली घटा में स्थिर, तड़ित जड़ित परकाशा, हे साधो ।।
घट में घट ता माहीँ घट है, तेहु घट में घट पासा, हे साधो ।।
सगुण जड़ क्षर घट चारि चौथ में, चेतन अगुण तन खासा, हे साधो ।।
‘मेँहीँ’ शब्द अनाहत सह प्रभु, घट-घट व्यापक पासा, हे साधो ।।



(20) राग-देश, ताल-कहरवा
घटवा घोर रे अंधारी स्त्रुति आँधरी भई ।।1।।
सुधि बुधि भागी तम गुण लागी, गुरु ने सुधी दई ।
टकुआ ताकन दिये बताई, तिल खुलि तिमिर फटी ।।2।।
चमके तारा सुषमन द्वारा, सहस कमल लख री ।
त्रिकुटी सूरज ब्रह्म दरस कर, सुरत शब्द रल री ।।3।।
सद्गुरु साहब प्रभु को नायब, भेद प्रचार करी ।
प्रभु के निर्मल भेद प्रचारैं, ‘मेँहीँ’ शरण धरी ।।4।।



(21) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
चलु चलु चलू भाई, धरु गुरु पद धाई ,
होउ भाई दृढ़ अनुरागी, भ्रम त्यागी हो भाई ।।1।।
तन-सुख मन-सुख, इन्द्री-सुख सब दुःख ,
तजि दे विषय दुखदाई, भ्रम खाई हो भाई ।।2।।
तन नव द्वार हो रामा, अति ही मलीन हो ठामा ,
त्यागि चढ़ु दशम दुआरे, सुख पाउ रे भाई ।।3।।
भजु भाई गुरु गुरू, गुरु रूप ध्यान धरू ,
सनमुख बिन्दु निरेखो, सुख देखो रे भाई ।।4।।
गुरु बिनु ज्ञान नाहीं, गुरु बिनु ध्यान नाहीं ,
‘मेँहीँ’ न गुरु बिन आने, उपकारी हो भाई ।।5।।



(22) विद्यापति का धुन ताल-कहरवा,
छन छन पल पल, समय सिरावे,
नर तन दुर्लभ, फिर नहि पावे ।।1।।
धन जन परिजन, सहित आपन तन,
सब छाड़ि जैहो काम, अंत न आवे ।।2।।
दुर्लभ मानुष तन, करिये गुरू भजन,
बिना रे भजन व्यर्थ, जनम नसावे ।।3।।
गुरु गुरु जपु नाम, गुरु ध्यान धरु राम,
गुरु पद नख मणि, सन्मुख लखावे ।।4।।
पदनख विन्दु धरि, मन दृष्टि थिर करि,
नखतेन्दु भानुमय, गुरु रूप पावे ।।5।।
यहि विधि ध्यान धरि, दिव्य दृष्टि करि करि,
रामनाम सार धुन, गुरु परखावे ।।6।।
गुरु ही सो शब्द रूप, शांतिप्रद औ अनूप,
‘मेँहीँ’ यहि विधि गुरु, भजि मोक्ष पावे ।।7।।



(23) राम-यमन, ताल-रूपक
जय जयति सद्गुरु जयति जय जय, जयति श्री कोमल तनुं ।
मुनि वेष धारण करण मुनिवर, जयति कलिमल दल हनं ।।
जय जयति जीवन्मुक्त मुनिवर, शीलवन्त कृपालु जो ।
सो कृपा करिकै करिय आपन, दास प्रभु जी मोहि को ।।
जय जयति सद्गुरु जयति जय जय, सत्य सत् वक्ता प्रभू ।
हरि कुमति भर्महिं सुमति सत्य को, पाहि मोहि दीजै अभू ।।
यह रोग संसृति व्यथा शूलन्ह, मोह के जाये सभै ।
अति विषम शर बहु होय बेध्यो, मोहि अब कीजै अभै ।।
प्रभु ! कोटि कोटिन्ह बार इन्ह दुख, मोहि आनि सतायेऊ ।
यहु बार जहु एक वचन आशा, आय तहु में समायेऊ ।।
बिनु तुव कृपा को बचि सकै, तिहु काल तीनहु लोक में ।
प्रभु शरण तुव आरत जना तू, सहाय जन के शोक में ।।



(24) राग-यमन, ताल-कहरवा
जनि लिपटो रे प्यारे जग परदेसवा, सुख कछु इहवाँ नाहिं ।।टेक।।
यह परदेसवा काल को भेसवा, जो रे आवयँ दुख पाहिं ।।
सुधि करो प्यारे हो आपन देश के, जहवाँ क्लेश कछु नाहिं ।।1।।
निज काया गढ़ में ऐन महल होय, आपन घर पथ पाहिं ।।
चलु चलु यहि पथ हाँकत दृष्टि-रथ, धनि सतगुरु बतलाहिं ।।2।।
जौं नहिं समझहु सतगुरु पद गहु, परगट सतगुरु आहिं ।।
बाबा देवी साहब परगट सतगुरु, ‘मेँहीँँ’ जा पद बलि जाहिं ।।3।।



(25) चौमासा, ताल-रूपक
जेठ मन को हेठ करिये, मान मद बिसराइये ।
गुरु सद्गुरु पद सेव करि करि, कठिन भव तरि जाइये ।।1।।
आषाढ़ गाढ़ अंधार घट में, जातें दुःख अपार है ।
गुरु-कृपा तें भेद लहि तम, तोड़ि दुःख निवारिये ।।2।।
सावन सुखमन दृष्टि आनत, दामिनि छिन-छिन दमकई ।
हील डोल तजि सुरत थिर करि, प्रणव तार उगाइये ।।3।।
भादो भव दुख छोड़ि चलिये, जोति छेदि पड़ाइये ।
सारशब्द में लीन होइ कर, ‘मेँहीँ’ गुरु-गुण गाइये ।।4।।



(26) राग-आसावरी/दरबारी कान्हरा, तीनताल
जौं निज घट रस चाहो ।।टेक।।
तो अपने को पाँच पाप से, हरदम खूब बचाहो ।।1।।
है एक झूठ नशाँ है दुसरा, तिसर नारि पर के हो ।।2।।
चौथी चोरी पंचम हिंसा, दिल से इन्हें अलगाहो ।।3।।
‘मेँहीँ’ सहजहिं इन्हसे बचन चहो, गुरु पद टहल कमाहो ।।4।।



(27) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
 जीव उद्धार का द्वार पुकार कहा,
  घट भीतर ही सत संतों ने ।। टेक ।।
 संसृति संताप से काँप रहे,
  भव भौंर भ्रमत जिव हाँफ रहे ।
 तिन्हें ढाढ़स दे समुझाय कहे,
  गुरु नाम सुमर सत संतों ने ।। 1 ।।
 गुरु ध्यान धरो मन में अपने,
  तिल द्वार लखो तन में अपने ।
 स्त्रुति जोड़ि चलो धुनि धारण में,
  ये यत्न कहे सत संतों ने ।। 2 ।।
 पँच केन्द्रन पै पाँचो बजती,
  अनहद नौबत जोती जरती ।
 कहुँ केवल ध्वनि अनुभव करती,
  सूरत तन में कहे संतों ने ।। 3 ।।
 सत सन्तन की सत युक्ति यही,
  यहि से भव बंधन दूर सही ।
 होता ‘मेँहीँ’ शंका न रही,
  सत सत्य कहा सत संतों ने ।। 4 ।।



(28) विनती, ताल-कहरवा
तुम साहब रहमान हो, रहम करो सरकार ।
भव सागर में हौं पड़ो, खेइ उतारो पार ।।1।।
भव सागर दरिया अगम, जुलमी लहर अनंत ।
षट विकार की हर घड़ी, ऊठत होत न अंत ।।2।।
इन लहरों की असर तें, गई सुबुद्धी खोइ ।
प्रेम दीनता भजन-सँग, तीनहु बने न कोइ ।।3।।
आप अपनपौ सब भुले, लहरों के ही हेत ।
सो भूले कैसे लहौं, सुख जो शान्ती देत ।।4।।
तेहि कारण अति गरज सों, अरज करौं गुरुदेव ।
भव-जल लहरन बीच में, पकड़ि बाँह मम लेव ।।5।।
बुद्धि शुद्धि कुछ भी नहीं, कहै क्या ‘मेँहीँ दास’ ।
सतगुरु खुद जानैं सभै, बेगि पुराइय आस ।।6।।
मेरे मुअलिज जगत में, सतगुरु बिन कोइ नाहिं ।
तेहि कारण विनती करौं, हे सतगुरु तोहि पाहिं ।।7।।



(29) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
 ध्यानाभ्यास करो सद सद ही, चातक दृष्टि बनाई हो ।
 लखत-लखत छवि बिन्दु प्रभू की, ज्योति मंडल धँसि धाई हो ।।1।।
 राम नाम धुन सतधुन सारा, शब्द केन्द्र तें आई हो ।
 ता धुन भजत मिलो प्रभु से निज, आवागमन नसाई हो ।।2।।
 गुरु की भक्ति साधु की सेवा, बिनु नहिं कछुहू पाई हो ।
 याते भजो गुरू गुरु नित ही, रहो चरण लौ लाई हो ।।3।।
 विन्दु चन्द तब सूर प्रकाशे, शब्द-लहर लहराई हो ।
 जो अति सिमिटि रहै सुखमन में, ताको पड़ै जनाई हो ।।4।।
 ‘मेँहीँ’ सतगुरु की बलिहारी, जिन यह युक्ति बताई हो ।
  धन्य धन्य सतगुरु मेरे पूरे, निसदिन तुव शरणाई हो ।।5।।



(30) पारंपरिक धुन ताल-कहरवा
निज तन में खोज सज्जन, बाहर न खोजना ।
अपने ही घट में हरि हैं, अपने में खोजना ।।1।।
दोउ नैन नजर जोड़ि के, एक नोक बना के ।
अन्तर में देख सुन-सुन, अन्तर में खोजना ।।2।।
तिल द्वार तक के सीधे, सुरत को खैंच ला ।
अनहद धुनों को सुन-सुन, चढ़-चढ़ के खोजना ।।3।।
बजती हैं पाँच नौबतें, सुनि एक-एक को ।
प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना ।।4।।
पंचम बजै धुर घर से, जहाँ आप विराजैं ।
गुरु की कृपा से ‘मेँहीँ’, तहँ पहुँचि खोजना ।।5।।



(31) राग-मालकोंस, तीनताल
 प्रभु तोहि कैसे देखन पाऊँ ।
 तन इन्द्रिन संग माया देखूँ, मायातीत धरहु तुम नाऊँ ।।1।।
 मेधा मन इन्द्रिन गहें माया, इन्ह में रहि माया लिपटाऊँ ।
 इन्द्रिन मन अरु बुद्धि परे प्रभु, मैं न इन्हें तजि आगे धाऊँ ।।2।।
 करहु कृपा इन्ह संग छोड़ावहु, जड़ प्रकृति कर पारहि जाऊँ ।
‘मेँहीँ’ अस करुणा करि स्वामी, देहु दरस सुख पाइ अघाऊँ ।।3।।



(32) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
प्रभु वरणन में आवैं नाहीं,
 अकथ अनामी अहैं सब माहीं ।। 1 ।।
प्रत्येक परमाणु अणु, लघु दीर्घ सर्व तनु,
 प्रभुजी व्यापक जनु गगन रहाहीं ।। 2 ।।
दृश्यऽरु अदृश्य सब, सहित प्रकृति भव,
 प्रभु में अँटहि प्रभु अँटि न सकाहीं ।। 3 ।।
अनादि अनन्त प्रभु, निर अवयव विभु,
 अछय अजय अति सघन रहाहीं ।। 4 ।।
गो गुण अगोचर, आत्मगम्य सूक्ष्मतर,
 गुरु भेद लहि भजि ‘मेँहीँ’ गति पाहीं ।। 5 ।।



(33) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
बिना गुरु की कृपा पाये, नहीं जीवन उधारा है ।।टेक।।
फँसी स्त्रुति आइ यम फाँसी, अयन सुधि आपनी नासी ।
भई भव सोग की वासी, कठिन जहँ ते उधारा है ।।1।।
गुरू निज भेद बतलावैं, सुरत को राह दरसावैं ।
जीव-हित आपही आवैं, सुरत को आइ तारा है ।।2।।
गुरू हितु हैं गुरू पितु हैं, गुरु ही जीव के मितु हैं ।
गुरू सम कोइ नहिं दूजा, जो जीवों को उधारा है ।।3।।
गुरू की नित्त कर पूजा, जगत इन सम नहीं दूजा ।
‘मेँहीँ’ को आन नहिं सूझा, फकत गुरु ही अधारा है ।।4।।



(34) राग-जनसम्मोहिनी, ताल-एकताल
 भजो हो गुरु चरण कमल, भव भय भ्रम टारनं ।।1।।
 अति कराल काल व्याल, विषम विष निवारणं ।।2।।
 दीन बन्धु प्रेम सिन्धु, ज्ञान खड्ग धारणं ।।3।।
 महा मोह कोह आदि, दानव संघारणं ।।4।।
 सर्वेश्वर रूप गुरु, भगतन को तारणं ।।5।।
 ‘मेँहीँ’ जपो गुरु गुरु, गुरु गुरु मन मारनं ।।6।।



(35) राग-केदार, एकताल
भजु मन सतगुरु दयाल, काटैं जम जाला ।।1।।
प्रणतपाल अति कृपाल, प्रेम को अगाधि ताल,
हरत सकल द्वन्द्व जाल, शम दमादि शाला ।।2।।
पाँचो अघ दैत्य साल, पाँच को कराल काल,
पंच कोष दहन ज्वाल, प्रीतम हियमाला ।।3।।
टालन भव खेद जाल, जालन भ्रम भेद काल,
कालन को अति कराल, समरथ गुरु दयाला ।।4।।
‘मेँहीँ’ कहै हो दयाल, तुमहीं जन रच्छपाल,
सबके तुम मुकुट माल, मोको प्रतिपाला ।।5।।



(36) राग-जनसम्मोहिनी, ताल-दादरा
 भजो हो मन गुरु उदार, भव अपार तारणं ।।1।।
 ज्ञानवान अति सुजान, प्रेम पूर्ण हृदय ध्यान,
 विगत मान सुख निधान, दास भाव धारणं ।।2।।
 रहे जहाँ सतसंग नित्त, सुजन जन सों नेह हित्त,
 शब्द तार धरे सार, प्रकृति पार उतारनं ।।3।।
 छन-छन मन ध्यान रत्त, स्त्रुति रमे धुन राम सत,
 प्रेम मगन जग में भ्रमण, करि करि जन तारणं ।।4।।
 पलहू नहिं अनत चैन, सतसंग में दिवस रैन,
 सरब जगत सुक्ख दैन, भक्तजन उधारनं ।।5।।
 जग में गुरु ही आधार, ‘मेँहीँ’ नहिं आन सार,
 गुरु बिनु सब अंधकार, सूर्य चन्द्र तारनं ।।6।।



(37) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
मोहि दे दो भगती दान, सतगुरु हो दाता जी ।। 1 ।।
दस दिसि विषय-जाल से हूँ घेरो, टरत नहीं अज्ञान ।। 2 ।।
गाढ़ अविद्या प्रबल धार में, भये हूँ बहि हैरान ।। 3 ।।
निज बुधि बल को कछु न भरोसा, गुरु तव आस न आन ।। 4 ।।
जग के सब सम्बन्धिन देखे, तुम बिनु हित न महान ।। 5 ।।
बाहर अंतर भक्ति कराई, दीजै आतम ज्ञान ।। 6 ।।
नात्म द्वैत से बाहर कीजै, यहि विनती नहि आन ।। 7 ।।



(38) राग-देश, कजरी, ताल-कहरवा

मन तुम बसो तीसरो नैना महँ तहँ से चल दीजो रे ।।टेक।।

स्थूल नैन निज धार दृष्टि दोउ सन्मुख जोड़ो रे ।

जोड़ि जकड़ि सुष्मन में पैठो गगन उड़ीजो रे ।।1।।

तन संग त्यागि त्यागि उड़ि लीजो धार धरीजो रे ।

‘मेँहीँ’ चेतन जोति शब्द की सो पकड़ीजो रे ।।2।।




(39) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
यहि विधि जैबै भव पार, मोर गुरु भेद दिये ।। टेक ।।
दृष्टि युगल कर लेबै सुखमनियाँ हो, देखबै अजब रंग रूप ।।1।।
तममा जे फुटि फुटि ऐतै पँच रँगवा हो, बिजली चमकि अइतै तार ।।2।।
सुरति जे चढ़ि चढ़ि चन्द निहारतै हो, लखतै सुरज ब्रह्म रूप ।।3।।
सुन्न धँसिये स्त्रुति शब्द समैतै हो, पहुँचि मिलिये जैतै सत्त ।।4।।
सन्तन केर यह भेद छिपल छल , बाबा कयल परचार ।।5।।
तोहर कृपा से बाबा आहो देवी साहब,‘मेँहीँ’ जग फैली गेल भेद ।।6।।



(40) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
योग हृदय में वास ना, तन वास है तो क्या ।
सत सरल युक्ति पास ना, और पास है तो क्या ।।1।।
सद्गुरु कृपा की आस ना, और आस है तो क्या ।
करता जो नित अभ्यास ना, विश्वास है तो क्या ।।2।।
अन्तर में हो प्रकाश ना, बाहर प्रकाश क्या ।
अन्तर्नाद का उपास्य ना, दीगर उपास्य क्या ।।3।।
पालन हो सदाचार ना, आचार ‘मेँहीँ’ क्या ।
गुरु-हरि-चरण में प्रीति ना, रूखा विचार क्या ।।4।।



(41) स्वागत-गीत, ताल-कहरवा
सतगुरु दरस देन हित आए, भाग जगे हमरे ।। टेक।।
आनन्द मंगल पूरि रहे सब, शुभ-शुभ भा सगरे ।
पाप समूह दरस ते भागे, पुण्य सकल डगरे ।। 1 ।।
परम उछाह आजु सभ सखिया, सतगुरु पद भज रे ।
तन मन धन आतम करि अर्पण, ‘मेँहीँ’ आजु तरे ।। 2 ।।



(42) विनती, ताल-कहरवा
सतगुरु जी से अरज हमारी ।। टेक ।।
मैं एक दीन मलीन कुटिल खल, सिर अघ पोट है भारी ।
कामी क्रोधी परम कुचाली, हूँ कुल अघन सम्हारी ।।
अधम मो ते नहिं भारी ।। 1 ।।
सुनत कठिनतर गति अधमन की, काँपत हृदय हमारी ।
कवन कृपालु जो अधम उधारें, जहँ तहँ करउँ पुछारी ।।
सुनउँ इक नाम तुम्हारी ।। 2 ।।
अधम उधारन हो अस सुनऊँ, तेहि ते कहउँ पुकारी ।
मोसे अधम को जो सको तारी, तो तुम्हरी बलिहारी ।।
सुनो चित्त दै अघहारी ।। 3 ।।
सतगुरु देवी साहब जी के, पद में विनती हर बारी ।
‘मेँहीँ’ पतित को हो पतित-उधारन, अबकी लेहु उधारी ।।
मैं जाउँ हर घड़ि बलिहारी ।। 4 ।।



(43) मंगल, पारंपरिक धुन, ताल-रूपक
 सृष्टि के पाँच हैं केन्द्रन सज्जन जानिये ।
  सब से होते नाद हैं नौबत मानिये ।।1।।
 यहि विधि नौबत पाँच बजै सब राग में ।
  परखहिं हरषहिं धसहिं जो अन्तर भाग में ।।2।।
 अपरा परा द्वै प्रकृति दुहुन केन्द्र दो अहैं ।
  कारण सूक्ष्म स्थूल के केन्द्रन तीन हैं ।।3।।
 निर्मल चेतन परा कहिय केवल सोई ।
  महाकारण अव्यक्त जड़ात्मक प्रकृति जोई ।।4।।
 विकृति प्रथम जो रूप ताहि कारण कहैं ।
  ‘मेँहीँ’ परखि तू लेय अपन घट ही महैं ।।5।।



(44) होली, ताल-खेमटा
सुखमनियाँ में मोरी नजर लागी ।।1।।
अगल बगल कहुँ दृष्टि न डोलै, सन्मुख विन्दु पकड़ लागी ।।2।।
ब्रह्मजोति खुलि गई अन्तर में, निसि अँधियारी हदस भागी ।।3।।
दिव्य जोति को सूर प्रकट भा, सूरत सार सबद लागी ।।4।।
बाबा देवी कहैं ‘मेँहीँ’ सों, ऐसहि कर निसिदिन जागी ।।5।।



(45) राग-देश, कजरी, ताल-कहरवा
सूरति दरस करन को जाती, तकती तीसरि तिल खिरकी ।।टेक।।
जोति बिन्दु ध्रुवतार इन्दु लखि, लाल भानु झलकी ।
बजत विविध विधि अनहद शोरा, पाँच मण्डलों की ।।1।।
सन्तमते का सार भेद यह, बात कही उनकी ।
समझा ‘मेँहीँ’ लखा नमूना, बात है सत हित की ।।2।।



(46) राग-मारवा, ताल-कहरवा
साँझ भये गुरु सुमिरो भाई, सुरत अधर ठहराई ।
  गुरु हो सुरत अधर ठहराई ।।1।।
सुषमन सुरति लगाइ के सुमिरो, मुख तें रहहु चुपाई ।
बाहर के पट बन्द करो हो, अन्तर पट खोलो भाई ।।2।।
सूर चन्द घर एके लावो, सन्मुख दृष्टि जमाई ।
ब्रह्मजोति को करो उजेरो, अन्धकार मिटि जाई ।।3।।
सूक्ष्म सुरत सुषमन होइ शब्द में, दृढ़ से धरो ठहराई ।
सारशब्द परखो विधि एही, भव-बन्धन जरि जाई ।।4।।
बुद्धि परे चिन्तन से न्यारा, अगम अनाम कहाई ।
रह ‘मेँहीँ’ गुरु-सेवा लीना, तब ही होइ रसाई ।।5।।



(47) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
सतगुरु चरण टहल नित करिये नर तन के फल एहि हे ।
युग-युग जग में सोवत बीते सतगुरु दिहल जगाय हे ।।1।।
आँधरि आँखि सुझत रहे नाहीं थे पड़े अन्ध अचेत हे ।
करि किरपा गुरु भेद बताए दृष्टि खुलि मिटल अचेत हे ।।2।।
भा परकाश मिटल अँधियारी सुक्ख भएल बहुतेर हे ।
गुरु किरपा की कीमत नाहीं मिटल चौरासी फेर हे ।।3।।
धन धन धन्य बाबा देवी साहब सतगुरु बन्दी छोर हे ।
तुम सम भेदि न नाहिं दयालू ‘मेँहीँ’ कहत कर जोरि हे ।।4।।



(48) राग-जनसम्मोहनी, ताल-कहरवा
सतगुरु सेवत गुरु को सेवत मिटत सकल दुख झेला रे ।।टेक।।
यह दुनिया दिन चारि बसेरा यहाँ न मेरा तेरा रे ।
मेरा तेरा दोउ यम के हाथें पकड़ि-पकड़ि जिन घेरा रे ।।1।।
यह दुनिया बन्दी गृह यम के जिव बन्दी रहै घेरा रे ।
सतगुरु गुरु बिन ना कोइ कबहूँ जो तोड़ै यम-घेरा रे ।।2।।
याते उठो सतगुरु गुरु हेरो सेव करो बहुतेरा रे ।
तन मन धन आतम तिनके पद अरपि बचो यम फेरा रे ।।3।।
जागृत जिन्दा सतगुरु जग में सब जिनको कर जोड़ा रे ।
बाबा सतगुरु देवी साहब जा पद को ‘मेँहीँ’ चेरा रे ।।4।।



(49) राग-मालकोंस, ताल-खेमटा
सुरत सम्हारो अधर चढ़ाओ, झिलमिल जोत जगाओ री ।
तारा झलके दामिनि दमके, दीपक जोति उगाओ री ।।1।।
चाँदनी चन्द सूर परेखो, आतम अनुभव पाओ री ।
पाँच तीन मन न्यारा होके, सत्त शब्द मिल जाओ री ।।2।।
शान्ति-लाभ का यत्न यही है, सब सन्तन ने गायो री ।
देवी साहब प्रचार करैं यहि, ‘मेँहीँ’ गाइ सुनायो री ।।3।।



(50) चेतावनी, ताल-कहरवा
समय गया फिरता नहीं, झटहिं करो निज काम ।
जो बीता सो बीतिया, अबहु गहो गुरु नाम ।।1।।
सन्तमता बिनु गति नहीं, सुनो सकल दे कान ।
जौं चाहो उद्धार को, बनो सन्त सन्तान ।।2।।
‘मेँहीँ’ मेँहीँ भेद यह, सन्तमता कर गाइ ।
सबको दियो सुनाइ के, अब तू रहे चुपाइ ।।3।।



(51) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
सन्तन मत भेद प्रचार किया, गुरु साहब बाबा देवी ने ।।टेक।।
थे अन्ध बने फिरते बाहिर, अन्तर-पथ भेद न थे जाहिर ।
हमें बोधि बुझाय सुझाय दिया, गुरु साहब बाबा देवी ने ।।1।।
बन्द कराय पलक पट को, कहे बाहर में तुम मत भटको ।
सीधे सन्मुख सुषमन बिन्दु को, गहवाया बाबा देवी ने ।।2।।
सुषमन घर में ध्वनि धार बजै, चढ़ि श्वेत सुरत सो धार भजै ।
अनहद उलझन यहि युक्ति तजै, सत ध्वनि की युक्ति दई गुरु ने ।।3।।
गुरु की यह युक्ति बड़ी मेँहीँ, ‘मेँहीँ’ परगट संसार नहीं ।
यहि ढोल पिटाय सुनाय दिया, गुरु साहब बाबा देवी ने ।।4।।



(52) पारंपरिक धुन, ताल-रूपक
त्राहि गुरु त्राहि गुरु, त्राहि गुरु कहु हो ।
असार संसार सए, गुरु बल तरु हो ।।1।।
असार संसार मधे, दुख भरपूर हो ।
गुरु कृपा बिन होय, कबहुँ न दूर हो ।।2।।
गुरु कृपा होय भाई, होय दुख नाश हो ।
स्थूल सूक्ष्म कारण झड़ए सब फाँस हो ।।3।।
मन में विचार ‘मेँहीँ’, प्रभु तेरे साथ हो ।
गुरु बिना कभुँ नाहीं, पाउ सोइ नाथ हो ।।4।।


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