(18) पारंपरिक धुन, ताल-कहरवा
गंग जमुन जुग धार, मधहि सरस्वति बही ।
फुटल मनुषवा के भाग, गुरुगम नाहि लही ।।1।।
सतगुरु संत कबीर, नानक गुरु आदि कही ।
जोइ ब्रह्मांड सोइ पिण्ड, अन्तर कछु अहइ नहीं ।।2।।
पिगल दहिन गंग सूर्य, इंगल चन्द जमुन बाईं ।
सरस्वति सुषमन बीच, चेतन जलधार नाईं ।।3।।
सतगुरु को धरि ध्यान, सहज स्त्रुति शुद्ध करी ।
सन्मुख बिन्दु निहारि, सरस्वति न्हाय चली ।।4।।
होति जगामगि जोति, सहसदल पीलि चली ।
अद्भुत त्रिकुटी की जोति, लखत स्त्रुत सुन्न रली ।।5।।
सुन मद्धे धुन सार, सुरत मिलि चलति भई ।
महासुन्य गुफा भँवर, होइ सतलोक गई ।।6।।
अलख अगम्म अनाम, सो सतपद सूर्त रली ।
पाएउ पद निर्वाण, सन्तन सब कहत अली ।।7।।
छूटेउ दुख को देश, गुरुगम पाय कही ।
सतगुरु देवी साहब, दया ‘मेँहीँ’ गाइ दई ।।8।।