प्रवचन पीयूष

महर्षि संतसेवी जी का प्रवचन-संग्रह
[स्वामी नंदनाचार्य  और स्वामी निर्मलानन्द]

प्रवचन पीयूष [प्रथम भाग]

[स्वामी नंदनाचार्य और स्वामी निर्मलानन्द]

  1. सतगुरु की महिमा अनन्त
  2. काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक कर पन्थ
  3. सुख-शान्ति विषय-भोग में नहीं है
  4. गुरु पूर्णिमा महापर्व है
  5. सरस्वती की धारा में स्नान करने से मुक्ति
  6. इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान नहीं होता है
  7. हमलोग अभी स्व में स्थित नहीं हैं
  8. विन्दुरूप होहिं सुखारी
  9. विन्दु से सिन्धु की ओर
  10. कर्मफल अमिट होता है
  11. संतमत बतलाता है कि ईश्वर एक है अनेक नहीं
  12. सब-के-सब नाशवान हैं
  13. देव-दुर्लभ मनुष्य का शरीर
  14. ज्ञान से अभिमान नहीं होता है
  15. छिपकर पूजा ध्यान करो
  16. शिक्षा के आरंभ से ईश्वर का ज्ञान दिलाया जाता है
  17. तुलसी राम सनेह कर, त्याग सकल उपचार
  18. जाति न पूछो साधु के पूछ लीजै ज्ञान
  19. परमात्मा की अद्भुत रचना है
  20. वेद का गर्जन के सामने सब शास्त्र फीके पड़ जाते हैं
  21. रामकाज हेतु तव अवतारा
  22. अनुभव बिन मोहजनित भव दारुन विपति सतावै
  23. एहि तन कर फल विषय न भाई
  24. कबीर दर्शन साधु के बड़ भागे दरसाय
  25. गुरु सर्व समर्थ होते हैं
  26. तुलसी यह तन खेत है
  27. ईश्वर की सृष्टि अद्भुत है
  28. कहता पै करता नहीं, मुख का बड़ा लबार
  29. जाने बिना न होय परतीती
  30. ब्रह्म सत्य जगन्मिथ्या
  31. हृदय की बात गुरु जानते हैं
  32. ध्यान करने से सभी जन्मों की मैल छूटती है
  33. भवभंग का कारण श्रीरंग का निज अंग सत्संग है
  34. संत उदय संतत सुखकारी
  35. दृष्टिनिरोध की आवश्यकता है
  36. संतमत आस्तिक मत है
  37. गुरुदेव के भेद को जीव जाने नहीं
  38. राम विमुख न जीव सुख पावै
  39. यह संसार नाम-रूपात्मक है
  40. जो रज मुनि पत्नी तरी
  41. महर्षि मेँहीँ परमहंसजी की साधना-तपस्या सर्वोत्कृष्ट थी
  42. संतमत की साधना सरल और कठिन
  43. सगुण निर्गुण के पार परमात्मा है
  44. अपने अंदर प्रकाश और शब्द हैं
  45. तपबल से सत्संग का बल अधिक होता है
  46. संतमत के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है
  47. रामभक्ति से सब क्लेशों का नाश
  48. दर्पण लागी काई दर्शन कहाँ ते पाई
  49. सभी मतों में संतमत व्यापक है
  50. परमात्म-भक्ति से परमसुख
  51. सन्मुख विन्दु पकड़ लागी
  52. संतों का ज्ञान महान है
  53. संत समागम दुर्लभ भाई
  54. बिनु रवि राति न जाय
  55. सभी समय सत्संग करें
  56. हरि सगुण रूप में गुरु हैं
  57. राजयोग और प्राणायाम
  58. निज अनुभव कहउँ खगेसा
  59. त्रयावरणों से पार होने पर परमात्म-साक्षात्कार
  60. सारशब्द-साधना के अंत में जीव पीव मिलकर एक हो जाते हैं
  61. राम का स्वरूप: अंतरंग एवं बहिरंग
  62. सहसा करि पाछे पछिताहिं, कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं
  63. संत और संतवाणी के संग को भी सत्संग कहते हैं
  64. अविद्या माया दुःखरूपा है
  65. राज महि राज योग महि योगी
  66. आवै जाय सो माया साधो
  67. हरि चर्चा सुन लीजै
  68. माया की प्रबलता
  69. निःशब्दं परमं पदम्
  70. सरस्वती की धारा अंतःसलिला है
  71. तमसो मा ज्योतिर्गमय
  72. परमात्म-प्राप्ति के लिए गुरु-दीक्षा की आवश्यकता
  73. अनासक्त रहकर भगवद्भजन करें
  74. सर्वश्रेष्ठ साधन विन्दु और नाद
  75. रघुपति भक्ति सजीवन मूरी
  76. साहब के दरबार में केवल भगति पियार
  77. सुषुम्ना-ध्यान यज्ञ सर्वोत्तम है
  78. संतमत में सभी मत समाहित हैं
  79. परमप्रभु का तत्त्वज्ञान प्राप्त कर जीव भवपार हो जाता है
  80. भवभंजन पद विमुख अभागी
  81. त्रिकाल सन्ध्या करें
  82. गोवंश की रक्षा करें
  83. श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश
  84. साम्प्रदायिकता को छोड़ो, अपने अंदर जाओ
  85. सीय राम मय सब जग जानी
  86. एक शब्द से सारी सृष्टि हुई है
  87. सत्संग से असंग होता है
  88. विगत विकार जान अधिकारी
  89. कहे कबीर चेत अजहुँ
  90. अन्तर का पट खोल
  91. यह संसार परिवर्तनशील और विनाशी है
  92. जहँ नहिं राम प्रेम प्रधानू
  93. त्रिशूल को निर्मूल करने का उपाय
  94. सदाचार-पालन से यमराज की हार
  95. सबद खोजि मन बस करै, सहज योग है येही
  96. काम क्रोध मद लोभ निवारो
  97. रामकथा मन्दाकिनी
  98. अन्तः ज्ञान के सामने बाह्य ज्ञान तुच्छ है
  99. दसइ दसहु कर संयम
  100. क्या माँगूँ कछु थिर न रहाई
  101. सतगुरु मिलै तो उबरै बाबू
  102. हम प्रणव के स्वरूप को जानें
  103. भारत सभी देशों का धर्मगुरु है
  104. परमात्म-भक्ति से सुख मिलता है
  105. सदाचार से प्रभु की प्राप्ति
  106. सबका मालिक एक है
  107. जीव पर तीन तरह के पर्देर् हैं
  108. सतगुरु अलख लखाया हो
  109. विजयादशमी इन्द्रिय-विजय का प्रतीक है
  110. त्रिदेवों में महान महादेव
  111. वेद के आधार पर सब ग्रंथ टिके हैं
  112. धर्म ते विरति योग ते ज्ञाना
  113. दीपक लै कुएँ पड़े
  114. सोई है पिव की प्यारी
  115. संतमत में ईश्वर पाने का रास्ता दृष्टियोग और नादयोग है
  116. रामचरितमानस के श्रवण-मनन से कल्याण
  117. ब्रह्म-दर्शनार्थ तीनों पर्दों को पार करना आवश्यक
  118. रैन जागि कर ध्यान
  119. काक न सोहत पाक पर हंस सजे शर तीर
  120. गुरु ईश्वर का रूप हैं
  121. द्रौपदी क्यों गिर गयी
  122. ‘सत्संग-योग’ मेरा प्रतिनिधित्व करेगा
  123. कालरूपी चक्की चले सदा दिवस अरु रात
  124. पापकर्म मत करो
  125. सुनि धुनि ज्योति निहारि के पंथ सिधारिये
  126. सृष्टि के रचयिता परम प्रभु परमात्मा हैं
  127. सबसे सेवक धरम कठोरा
  128. चिन्ता सापिन काहि न खाया
  129. अपने आप को जानो
  130. गुरु आज्ञा पालन ही सच्चा सेवा है
  131. धर्म नहीं हृदय परिवर्तन करें
  132. खुदा का रास्ता सीधा है
  133. सत्संग से कल्याण होता है
  134. जीवन में पवित्रता की आवश्यकता
  135. सखिया वा घर सबसे न्यारा
  136. गुरु मिला तब जानिये, मिटे मोह तन ताप
  137. संसार में रहने की कला
  138. परमात्मा इन्द्रियातीत हैं
  139. ईश्वर विश्वासी बनें
  140. ईश-स्तुति से हृदय पवित्र होता है
  141. भक्ति में प्रेम की प्रधानता है
  142. सठ सुधरहिं सत्संगति पाई
  143. आखिर सुख मिलेगा कहाँ
  144. वासना और इच्छा ही संसार में लाती है
  145. ध्यान की क्रिया जानें
  146. संतों का जीवन परोपकार के लिए होता है
  147. दानशीलता की महिमा
  148. गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है
  149. तालवृतेन किं कार्यम् लभते मलयमारुते
  150. साँचा को साँचा मिलै, अधिका जुड़ै स्नेह
  151. सृष्टि विकास का क्रम सूक्ष्मता से स्थूलता की ओर
  152. मन निग्रह के समर क्षेत्र में सन्मुख थिर डटना होगा
  153. बड़ा होय तेहि पूजिये
  154. जाको कछु न चाहिये, सोइ शाहंशाह
  155. नर-तन की उपादेयता, ईश्वर-भक्ति की मादकता में है
  156. रामचरितमानस एक विलक्षण ग्रंथ है
  157. मम अनुशासन मानै जोई
  158. सत् वह है, जो त्रय काल अबाधित है
  159. प्रेम मिलावै राम
  160. घट-घट अंतरि ब्रह्म लुकाइया
  161. तुलसी ममता राम सों
  162. बिनु गुरु ज्ञान नाम न पैहो
  163. निरगुण सरगुण के परे तहाँ हमारा ध्यान
  164. घूँघट का पट खोल रे
  165. सूर संग्राम को देखि भागै नहीं
  166. नादरूपी सीमा का पार सरस्वती नहीं जानती हैं
  167. सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे
  168. यहि जग जामिनी जागहिं जोगी
  169. राम से अधिक राम कर दासा
  170. रघुपति भगति करत कठिनाई
  171. राम नाम वर वरन युग सावन भादो मास
  172. आदि गुरु परमात्मा हैं
  173. प्रभु को पाने का एक ही रास्ता है
  174. साधो मन का मान त्यागो
  175. सत्संग जंगम तीर्थराज है
  176. मानव तन प्रभु भजन के लिए है
  177. एक ईश्वर की भक्ति करें
  178. वर्तमान बनाएँ भविष्य बनेगा
  179. अन्तर्जोति और अन्तर्नाद की प्राप्ति से विकार समूल नष्ट होते हैं
  180. संत मन की बात भी जानते हैं
  181. नरतन दुर्लभ देव को
  182. धीरज धरै तो कारज सरै

प्रवचन पीयूष [द्वितीय भाग]

[स्वामी नंदनाचार्य ]

  1. लक्ष्मी पूजा [ दिसम्बर 1953 ]
  2. क्या तथागत नास्तिक थे [ दिसम्बर 1953 ]
  3. हठयोग और राजयोग एवं मनोनिग्रह [ जनवरी 1955 ]
  4. भक्ति और उसके संयम [ नवम्बर 1956 ]
  5. सूक्ष्मागतिर्हि धर्मस्य [ मार्च 1958 ]
  6. ईश्वर-भक्ति-स्तुति प्रार्थना और उपासना [ जनवरी 1960 ]
  7. जाति न पूछो साध की [ नवम्बर 1960 ]
  8. मुसाफिर जैहौं कौनी होर [ जनवरी 1961 ]
  9. दुःख सहने पर दुःख मिलता है [ फरवरी 1961 ]
  10. नरतन की सार्थकता ज्ञान-प्राप्ति में [ जनवरी 1962 ]
  11. भक्ति भेष पर अवलंबित नहीं [ जून 1962 ]
  12. हृदय जवनिका बहुविधि लागी [ 4 अप्रैल 1964 ]
  13. वेदान्त ज्ञान के समक्ष सब शास्त्र फीके [ 28-10-1966 ]
  14. संत संग अपवर्ग कर [ 15-12-1968 ]
  15. घूँघट का पट खोल रे [ 29-12-1968 ]
  16. हतभागी, बड़भागी, अभागी कौन [ 02-02-1969 ]
  17. कहै कबीर चरण चित राखो [ 27-02-1969 ]
  18. सामूहिक प्रार्थना करो विघ्न टल जाएगा [ 09-03-1969 ]
  19. देवाभागं यथापूर्वं सज्जनां उपासते [ मई 1969 ]
  20. मानव जीवन-पर्यन्त दुःख सहते रहता है [ मई 1969 ]
  21. यह तन साधना के अंतिम चरण [ 22/29-06-1969 ]
  22. जिज्ञासा समाधान [ 30-10-1969 ]
  23. पूरे गुरु का संग हो अनंग क्या करे [ अक्टूबर+नवम्बर 1969 ]
  24. गुरु हैं बड़े गोविन्द तें [ दिसम्बर 1969 ]
  25. पाप करै सो तरे तुलसी [ 01-03-1970 ]
  26. जो विषया सन्तन्ह तजि मूढ़ ताहि लपटात [ 02-03-1970 ]
  27. मनुष्य का शरीर पाना दुर्लभ है [ 03-03-1970 ]
  28. भक्त की भावना होती है ईश्वर-दर्शन [ 03-03-1970 ]
  29. भगवान दरबार में भक्त और भक्ति के चमत्कार [ अप्रैल 1970 ]
  30. संत विकार के शिकार नहीं [ जून 1970 ]
  31. शरीर परिवर्तन और नाशवान है [ अगस्त 1970 ]
  32. रघुपति भक्ति में ही कुशल सन्निहित [ अक्टूबर 1970 ]
  33. श्रद्धावान जितेन्द्रिय जन ज्ञान प्राप्त करता है [ 13-12-1970 ]
  34. कोई चतुर न पावै पार नगरिया बावरी [ 07-01-1971 ]
  35. संतमत किसी का खंडन नहीं करता [ 21-03-1970 ]
  36. योगी की दृष्टि में संसार का अस्तित्व नहीं [ 21-03-1971 ]
  37. त्रिशूल को निर्मूल करने का उपाय [ 21-03-1971 ]
  38. स्वर्ग नरक क्या है? [ 23-03-1971 ]
  39. स्वकर्मानुसार लोग सुख-दुःख भोगते हैं [ 23-03-1971 ]
  40. भगवान बुद्ध और महर्षि मेँहीँ [ 23-03-1971 ]
  41. अैसी सेवकु सेवा करै जिसका जीउ तिसु आगे धरै [ 09-05-1971 ]
  42. ध्यानयोग से पापों का समूल नष्ट [ मार्च 1972 ]
  43. योग और ज्ञान दोनों का दृढ़ता से अभ्यास [ मार्च 1972 ]
  44. ईश्वर-प्राप्ति का सरल और सीधा मार्ग [ 1972 ]
  45. गोद लिये हुलसी फिरै तुलसी सों सुत होय [ जून 1972 ]
  46. पुत्रवती सोइ नारि भक्त जेहि कोख में [ 16-08-1972 ]
  47. जिमि हरिभजन हिय उपज न कामा [ 19-10-1972 ]
  48. महतत्त्व पर मूल माया [ दिसम्बर 1972 ]
  49. संतमत संकुचित नहीं विशाल विचार रखता है [ 24-03-1973 ई0 प्रातः ]
  50. एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति [ 04-03-1976 ई0 ]
  51. प्रत्येक मानव शान्ति चाहता है [ 05-02-1978 ई0 ]
  52. नाम भेद जाने बिना सकल समझ महँ धूर [ मई,1978 ई0 ]
  53. रामनाम अमर नाम भजो भाई सोई [ जून, 1978 ई0 ]
  54. त्रिविध जीव जग बेद बखाने [ जून, 1971 ई0 ]
  55. साध संग्राम है दिन रैन जुझना [ 11-12-1994 ई0 ]
  56. सुदामा और कृष्ण क्या है? [ अक्टूबर 1986 ई0 ]
  57. सठ हठ पियत विषय विष माँगी [ 22-12-1980 ई0 ]
  58. गुरु को सिर पर राखिये [ 28-02-1981 ई0 ]
  59. तेरो को है रोकनहार मगन से आव चली [ 19-03-1981 ई0 ]
  60. संतमत समुद्रमत है [ 16-01-1983 ई0 ]
  61. ईश्वर-भजन से भवसागर तर सकते हैं [ 19-06-1983 ई0 ]
  62. विहंगम वा पिपीलिका मार्ग [ जून, 1984 ई0 ]
  63. संत उदय संतत सुखकारी [ 03-05-1985 ई0 ]
  64. प्रेम समान और न आन [ सितम्बर 1985 ई0 ]
  65. केहि न राजमद दीन्ह कलंकू [ फरवरी, 1986 ई0 ]
  66. ज्योति और नाद क्या है? [ मार्च, 1986 ई0 ]
  67. स्वर्ग और नरक क्या है [ अगस्त 1986 ई0 ]
  68. सन्तवाणी का गूढ़ार्थ सत्संग से प्राप्त [ सितम्बर, 1986 ई0 ]
  69. यह मन विषयों के पीछे दौड़ लगाता है [ दिसम्बर, 1997 ई0 ]
  70. सा विद्या या विमुक्तये [ सितम्बर, 1988 ई0 ]
  71. तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त [ नवम्बर, 1988 ई0 ]
  72. जाप कोटि समं ध्यानं [ दिसम्बर, 1988 ई0 ]
  73. संतमत का सत्संग [ 01-01-1989 ई0 ]
  74. ईश्वर का स्वरूप इन्द्रियातीत [ जनवरी, 1989 ई0 ]
  75. भक्ति निसेनी मुक्ति की संत चढ़े सब धाय [ 12-03-1989 ई0 ]
  76. जीवत ही मुक्ति हो जाइए जी [ 12-03-1989 ई0 ]
  77. समुँद समाना बूँद में यह जानै सब कोय [ 01-09-1991 ई0 ]
  78. जीवन बिताओ स्वावलंबी [ मार्च, 1991 ई0 ]
  79. किसी वेश में रहो भजन करो [ अप्रैल, 1991 ई0 ]
  80. सद्गुरु की महिमा अनन्त [ 26-07-1991 ई0 ]
  81. संतों की दृष्टि पैनी होती है [ जुलाई, 1991 ई0 ]
  82. दुर्बल को न सताइये जाकी मोटी हाय [ 12-08-1991 ई0 ]
  83. गुरुपद पंकज रेणु [ 22-03-1993 ई0 ]
  84. कमठ दृष्टि जो लावई सो ध्यानी परमान [ 02-05-1993 ई0 ]
  85. भारत में संतों की खोज [ 14-08-1994 ई0 ]
  86. भाग्यहीन को ना मिले भली वस्तु की भोग [ अक्टूबर, 1994 ई0 ]
  87. श्रवण मनन से साधनाभ्यास का ज्ञान विशेष [ नवम्बर, 1994 ई0 ]
  88. मनुवाँ रामनाम रस पीजै [ दिसम्बर, 1994 ई0 ]
  89. सुरति साँची बसै दीद दाना [ जुलाई, 1995 ई0 ]
  90. मैं सीखने के लिए आता हूँ [ 16-09-1995 ई0 ]
  91. तीनों बंद लगाय कर सुन अनहद [ 05-12-1995 ई0 ]
  92. मम माया संभव संसारा [ 18-08-1997 ई0 ]
  93. साँस-साँस में नाम सुमिरि ले [ 16-11-1995 ई0 ]
  94. आप मेरे स्वामी हैं मैं आपका सेवक [ 02-01-1998 ई0 ]
  95. निर्वाण दिवस की वेला [ 16-06-1999 ई0 ]
  96. पारगमन ही सार भगति है [ 27-06-1999 ई0 ]
  97. पाँचो कुतिया मिल गई पहरा किसका होय [ 11-07-1999 ई0 ]
  98. नाम लेत भवसिन्धु सुखाहीं [ 22-01-2000 ई0 ]
  99. मैं तो संतमत का कनिष्ठ सेवक हूँ [ 25-01-2000 ई0 ]
  100. सेवक सेव्य भाव न तरिय उरगारी [ 01-10-2000 ई0 ]
  101. संतमत प्रमादी नहीं पुरुषार्थी बनाता है [ अक्टूबर,-2000 ई0 ]
  102. आप संतसेवीजी हैं, अब बिहार जाने नहीं दूँगा [ 29-10-2000 ई0 ]
  103. मोह निशा सब सोवनिहारा [ 20-08-2001 ई0 ]
  104. मन मलिन तन सुन्दर कैसे [ 14-10-2001 ई0 ]
  105. महाजनो येन गतः स पन्थाः [ 10-02-2002 ई0 ]
  106. जीवन में पवित्रता की आवश्यकता [ 10-02-2002 ई0 ]
  107. दसवै निज घरि वासा पाये [ 07-04-2002 ई0 ]
  108. रमन्ति योगिनो यस्मिन् सः रामः [ 08-04-2002 ई0 ]
  109. बड़ा होय तेहि पूजिये [ 25-05-2002 ई0 ]
  110. दुःख पाने का मूल कारण शरीर है [ 26-01-2003 ई0 ]
  111. सबसे बड़े हैं संत दूसरा नाम है [ 12-05-2006 ई0 ]
  112. आहार विहार का संयम [ जुलाई 2003 ]
  113. सूर्य की उपासना कैसे करें [ नवम्बर 2003 ]
  114. काम कथा सुनिये नहीं सुनि के उपजै काम [ 12-09-2004 ई0 ]
  115. हरि को भजै सो हरि का होई [ 11-09-2005 ई0 ]
  116. परात्पर पुरुष से परे [ जून 2005 ]
  117. अपने अंदर दीप जलाएँ [ 30-10-2005 ई0 ]
  118. परम पुरुषहु तें अधिक गावैं संत सुजान [ 18-12-2005 ई0 ]
  119. जहाँ मैं रहूँगा, वहाँ आप रहेंगे [ 20-12-2005 ई0 ]
  120. नववर्ष 2006 ई0 की शुभकामना [ 01-01-2006 ई0 ]
  121. देखि दृष्टि पग धरना [ 08-01-2006 ई0 ]
  122. नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो [ 27-01-2006 ई0 ]
  123. पति बिना सूना सब संसार [ 27-01-2006 ई0 ]
  124. गहणा कर्मणो गतिः [ 28-01-2006 ई0 ]
  125. उठ जागो जल्दी भोर भई [ 19-02-2006 ई0 ]
  126. बका ढकोरे माछरी हंसा मोती खाहिं [ 26-02-2006 ई0 ]
  127. धर्मानुगो गच्छति जीव एकः [ 05-03-2006 ई0 ]
  128. सब प्यारा परिवार अरु सम्पति नहिं भावै [ 12-03-2006 ई0 ]
  129. नरतन भव वारिधि कहँ बेरो [ 19-03-2006 ई0 ]
  130. खन्निअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाना [ 09-04-2006 ई0 ]
  131. जो तोको काँटा बोये ताहि बोय तू फूल [ 23-04-2006 ई0 ]
  132. हमारे गुरुदेव साधारण मानव नहीं थे [ 12-05-2006 ई0 ]
  133. पापाचारी को मारने से पाप नहीं लगता [ 04-06-2006 ई0 ]
  134. भ्रम न सकई कोउ टारि [ 18-06-2006 ई0 ]
  135. पीव मिलन को ठानिये रहि ना पड़ि सोय [ 25-06-2006 ई0 ]
  136. काहु न कोउ सुख दुख कर दाता [ 30-12-2006 ई0 ]
  137. एक राम सबसे न्यारा [ 18-12-2006 ई0 ]
  138. वैदिक धर्म की विशेषता और प्रासंगिकता [ दिसम्बर 2006 ]
  139. देशहित में अपना हित [ दिसम्बर 2007 ]

महर्षि संतसेवी 

हमारा भारतवर्ष भी शून्य प्रतीत होने लगेगा, यदि व्यास-वाल्मीकि, शुकदेव-नारद, याज्ञवल्क्य- जनक, वशिष्ठ-दधीचि, बुद्ध-महावीर, शंकर- रामानुज, मध्व-चैतन्य, नानक-कबीर, सूर-तुलसी, नम्भलवार-माणिक्य वासगर, ज्ञानदेव-तुकाराम और ज्ञान संबंध-राम-कृष्ण, संत तुलसी साहब, संत बाबा देवी साहब, महर्षि मेँहीँ, महर्षि संतसेवी प्रभृति सन्तों को उसके इतिहास में से निकाल दिया जाए।
सन्त ही भारतवर्ष के स्मृतिकार हैं, संत ही उसके कवि हैं, सन्त ही उसके संदेशवाहक हैं और सन्त ही उसकी संतान को प्रेम, ज्ञान और शान्ति का पाठ पढ़ानेवाले हैं। उन सन्तों को हमारा बार-बार प्रणाम है।
सन्त ही मानव जाति के प्राण हैं, सन्त ही संसाररूपी पादप के अमृत-फल हैं, सन्त ही सभ्य समाज को प्रकाश देनेवाले प्रदीप हैं। वे ही पाप-ताप से पीड़ित मानव-जाति को ऊपर उठानेवाली शक्ति हैं।
संसार में पाप बढ़ जाने से ही संत और भगवन्त अवतरित होते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-
“ यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
परित्रणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।।”
महायोगेश्वर भगवान् के अनुसार धर्म उद्धार एवं स्थापना के निमित्त संत भगवन्त आवश्यकतानुकूल रूप धारण कर अवतार लेते रहते हैं। आज महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज इसी श्रृंखला की कड़ी के रूप में भारत के साथ-साथ सारे विश्व को सत्य-धर्म के सही, अनुभूत और युक्तियुक्त मार्ग का संदेश दिये हैं।
भारतीय धर्म साधना के इतिहास में सर्वधर्म समन्वयकारी संत के रूप में महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का अद्वितीय स्थान बना रहेगा। ऐसे महान् संतों के माता-पिता एवं वंश भी धन्य है। इसीलिए संत पलटू साहब ने कहा-
“ धन जननी जिन जाया है, सुत संत सखी री”
भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने रामचरित मानस में भगवान महादेव के श्रीमुख से ऐसे वंश को महान बताते हुए कहा-
“ सो कुल धन्य उमा सुनु, जगत पूज्य सुपुनीत ।
श्रीरघुवीर परायण, जेहि नर उपज विनीत ।।”
-रामचरित मानस
संसार में जन्म प्राप्त कर जिनका चित्त परब्रह्म परमेश्वर में लीन हो जाता है तो उनकी जन्मदात्री माता की कोख धन्य-धन्य हो जाती है और संपूर्ण धरती उनके पद-रज को स्पर्श कर पवित्र हो जाती है।
“ कुल पवित्रं जननी कृतार्था वसुन्धरा पुण्यवती च तेन ।
अपार सच्चित्सुख सागरेऽस्मिन लीनं परे ब्रह्मणि यस्य चेतः ।।”
पूज्यपाद महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का आविर्भाव बिहार राज्यान्तर्गत मधेपुरा जिले (पूर्व सहरसा) के गम्हरिया गाँव में सन् 1920 ई॰ के 20 दिसम्बर को हुआ। माता-पिता ने इनका नाम महावीर रखा। बचपन में ये महावीर बजरंगवली के अनन्य उपासक भी थे। हनुमान चालीसा इन्हें कंठस्थ था और ये नित्य उसका पाठ किया करते थे। पिताश्री बलदेव दासजी कृषि-कार्य से जीविकोपार्जन करते थे और माताश्री राधा देवीजी विशेष बुद्धिमती, कार्यकुशल एवं भक्ति परायणा थी। बचपन से ही ये निर्भीक, साहसी और प्रखर बुद्धि के रहे, बड़े मेधावी, आज्ञाकारी, श्रुतिधर और स्मृतिधर रहे-एक बार जो पढ़ या सुन लेते, वह सदा के लिए स्मृतिपटल पर अंकित हो जाता। अपनी कक्षा में ये सदा प्रथम स्थान पर रहे। खेल-कूद में भी अभिरुचि रही। फुटबॉल के अच्छे खिलाड़ी थे और खेल में ये कभी हारे नहीं। पढ़ाई का क्रम जारी ही था कि इसी बीच इनके पिता की आकस्मिक मृत्यु हो गयी। पिता की आकस्मिक मृत्यु ने इनके पारिवारिक जीवन में अस्तव्यस्तता ला दी। इनके जीवन में एक महान संकटमय परिस्थिति आ खड़ी हुई। ठीक इसी प्रकार ऐसी ही घटना विश्व विख्यात संन्यासी स्वामी विवेकानन्द के साथ घटित हुआ था।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज की शिक्षा मिड्ल तक ही हो पाई। ये आगे नहीं पढ़ सके। घरेलू खर्च के लिए इन्होंने छात्रें को ट्यूशन पढ़ाना आरम्भ किया। सुचरित्र, परिश्रमी, प्रतिभासम्पन्न तो थे ही; अतः अभिभावकों ने अपने बच्चों को इनके हवाले करने में जरा भी संकोच नहीं किया।
एक समय की बात है। ये अररिया जिला (पूर्व पूर्णियाँ) के सैदाबाद ग्राम में अध्यापन कार्य करते थे। यहाँ से कुछ दूरी पर कनखुदिया गाँव में मार्च 1938 ई॰ में बाबा लच्छन दासजी ने सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की स्वीकृति पाकर मास-ध्यानाभ्यास का आयोजन किया था। महर्षिजी वहाँ मास भर ठहरे थे। यह शुभ अवसर जान इनके अंदर पड़ा भक्ति-बीज प्रस्फुटित हो चला। भक्ति की ज्वाला तेज हो गई। ये उनके दर्शनार्थ चल पड़े। वहाँ सद्गुरु महर्षि मेँहीँ के शरणागत हो, इन्होंने भजन-भेद लेने की इच्छा व्यक्त की। गुरु ने शिष्य की पात्रता को पहचाना। आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर होने की उत्सुकता देखकर महर्षि मेँहीँ ने इन्हें 29 मार्च 1939 ई॰ में मानस जप, मानस ध्यान और दृष्टियोग की दीक्षा दी। इन्होंने पुनः इच्छा व्यक्त की कि गुरुदेव इस तुच्छ सेवक को अपने चरणों में रख लेने की कृपा करें। गुरुदेव का उत्तर था-‘आप जो कर रहे हैं, करें, समय पर बुलाऊँगा।’ गुरुदेव का स्पष्ट संकेत था कि अभी आप अध्यापन कार्य करते हुए विधवा माँ की देखभाल और उनकी सेवा में अभी समय दें। कुछ दिन ठहरकर आप वहाँ से आने लगे। आते वक्त आप गुरुदेव के पास गए और श्रद्धा-भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। गुरुदेव ने आपको करुणा और कृपादृष्टि से आपाद-मस्तक निहारा। उनसे अनुमति प्राप्त कर आप सैदाबाद चले आए, जहाँ अध्यापन-कार्य करते थे।
किसको पता था कि गुरुदेव की करुणा दृष्टि इनमें एक दिन उस पात्रता का सृजन करेगी, जिससे ये बाबा ‘संतसेवीजी’ के रूप में सदा-सदा के लिए उनका मानसपुत्र और अद्वितीय गुरुसेवी बनकर उनके परम पावन पाद-पप्रों में सदा सेवानिरत देखे जाएँगे। 1946 ई॰ से आगे सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस द्वारा रचित सारे ग्रंथों के प्रणयन, प्रकाशन, धर्म-प्रचार एवं अन्य सभी बाह्य कार्यों में इन्होंने अपना सक्रिय और महत्त्वपूर्ण सहयोग किया है। महर्षि मेँहीँ चरित में वर्णन आया है-1940 ई॰ में बभनगामा (भागलपुर) के एक सत्संग में वहाँ के श्रीकालीचरणजी सत्संगी ने महर्षिजी से निवेदन किया-‘सरकार! इनको साथ में रख लिया जाता, तो अच्छा होता। इनके स्वर में बड़ी मिठास है, संतवाणियों का पाठ बहुत अच्छा करते हैं।’
महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने उत्तर दिया-‘मन तो मेरा भी करता है, लेकिन अभी इनकी माँ को क्यों रुलावें।’
ये गुरु-प्रदत्त साधना को एकनिष्ठ होकर तत्परता से विधिवत् करते रहे। सन् 1940 ई॰ से 1945 ई॰ तक ये महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के आज्ञानुसार उनके पास आया-जाया करते तथा भ्रमण-कार्य में सम्मिलित होकर ध्यानाभ्यास करते हुए विविध प्रकार की सेवाएँ भी कर लिया करते। (महर्षि मेँहीँ के दिनचर्या उपदेश, पृष्ठ 119)
सन् 1946 ई॰ में इनकी माताजी परलोक सिधार गई, तब गुरुदेव ने इन्हें अपने पास 1949 ई0 से बुला लिया। सत्संग के प्रचार में वे कहीं जाते, तो इन्हें साथ ले लेते। गुरुदेव इनसे ग्रंथ-पाठ कराते और भजन गवाते। इनकी वाणी में मधुरता थी और आवाज सुरीली थी। अतः सत्संगियों का इनकी ओर ध्यानाकर्षण बढ़ता गया।
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ इन्हें पुत्रवत् स्नेह देते थे। उन्होंने कुछ वर्षों तक धरहरा आश्रम में रखकर इन्हें मनिहारी आश्रम भेज दिया। मनिहारी आश्रम में गुरुदेव ने इन्हें गुरुमुखी लिपि सिखायी। मनिहारी समाज ने आपके शुद्ध आचरण और आपकी विद्वता पर रीझकर अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा का भार आपपर देना चाहा और इसके लिए महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज से अनुमति भी मिल गई। मनिहारी में आप सत्संग के बाद अध्यापन में समय देते रहे।
आपकी इच्छा-पूर्ति करने के लिए महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने आपको दस वर्षों तक अपनी कसौटी पर कसकर सन् 1949 ई॰ में सदा के लिए आपको अपने सेवार्थ रख लिया। तब से 8 जून, 1986 ई॰ तक (जब महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने अपना पार्थिव शरीर छोड़ा।) आपने गुरु-सेवा में अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया। लगातार 37 वर्षों तक संत मेँहीँ के श्रीचरणों में रहकर जो सेवा-कार्य सम्पादित किया वह गुरु-शिष्य परम्परा के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।
जिस प्रकार त्रेता में ब्रह्मर्षि वशिष्ठ, राजर्षि विश्वामित्रजी की सेवा में श्रीरामजी, श्रीराम की सेवा में अनन्य भाव से श्रीहनुमानजी, द्वापर में श्रीगर्गाचार्य एवं संदीपन मुनि की सेवा में श्रीकृष्ण, श्रीकृष्ण की सेवा में श्रीउद्धवजी, कलियुग में भगवान बुद्ध की सेवा में भिक्षु आनन्द, श्रीमदाद्य शंकराचार्य की सेवा में श्रीसुरेश्वराचार्यजी, गुरुनानक साहब की सेवा में श्रीअंगददेवजी, श्रीअंगददेवजी की सेवा में श्रीअमरदासजी, संत दादू दयाल की सेवा में जग्गा साहब, संत चरणदासजी की सेवा में भक्तिन सहजोबाई एवं दयाबाई, गोसाईं लक्ष्मीनाथ परमहंस की सेवा में रघुवर गोसाईं, श्रीरामकृष्ण परमहंस की सेवा में स्वामी विवेकानन्द, समर्थ रामदास की सेवा में छत्रपति शिवाजी तथा स्वामी विरजानन्द की सेवा में स्वामी दयानन्द रहते थे; उसी प्रकार सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की सेवा में पूज्यपाद महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज अपने आपको न्यौछावर करके सदा गुरुमय होकर रहते थे।
सन् 1949 ई॰ से छाया की तरह महर्षिजी के साथ रहकर सभी तरह की सेवाचर्या करने लग गए। निजी आय-व्यय का हिसाब रखना, स्नान के समय जल आदि की व्यवस्था करना, पहनने-ओढ़ने के वस्त्रें की सँभाल तथा सफाई, शौचादि से आने पर लोटा माँजना, आचमन करने के लिए पानी, मिट्टी, साबुन आदि की व्यवस्था करना, थकावट दूर करने के लिए पाँव दबाना, ब्राह्ममुहूर्त्त में आलस्य त्यागकर आवश्यकतानुसार सेवा-कार्य करना, कभी-कभी रसोई बनाना, जिज्ञासुओं का शंका- समाधान करना, दीक्षार्थियों को दीक्षा देना, आए हुए पत्रें को पढ़कर सुनाना और महर्षिजी के कहे अनुसार उनके उत्तर लिखना, जिज्ञासु-दर्शनार्थियों की बातों को गुरुदेव तक पहुँचाना आदि सेवा-कार्य करते रहे।
2 जून 1952 ई॰ को सिकलीगढ़ धरहरा में प्रसन्न होकर गुरुदेव ने आपको नादानुसंधान की क्रिया बता दी और दिनांक 17 अक्टूबर, 1957 ई॰ को संन्यास प्रदान किया।
उपर्युक्त कार्यों को करते हुए आप सदा से यही ख्याल रखते थे कि गुरुदेव को कोई तकलीफ न हो। गुरुदेव की तकलीफ को अपनी तकलीफ समझते थे और उनको सदा प्रसन्न-ही-प्रसन्न देखना चाहते थे। गुरु की थोड़ी भी अस्वस्थता को देखकर आप चिंतित हो जाया करते और खाना-पीना भूलकर सेवा में लग जाते थे, जो अनुकरणीय है। और जब आप अस्वस्थ हो जाते थे, तो गुरुदेव भी चिंतित हो उठते थे। ‘प्रीति परस्पर प्रभु अनुगामी’ का कार्य कितना उत्तम दृष्टान्त है।
गुरु और शिष्य का संबंध एक जन्म का नहीं, कई जन्मों का होता है। आपकी अटूट सेवा-भक्ति से प्रसन्न होकर आपके गुरु महाराज ने आपको ‘संतसेवी’ का पद प्रदान किया था। तब से आप ‘संतसेवी’ नाम से जगत् में प्रसिद्ध हुए हैं। आप छाया की भाँति अपने गुरु महाराज की सेवा में सतत संलग्न रहे। कभी आप अपने गुरु महाराज को अकेले नहीं छोड़ते थे। यह है आपकी गुरु-सेवा, गुरु-भक्ति। तभी तो आपको ‘गुरु-पद’ प्राप्त हुआ। इसीलिए तो आपके गुरु महाराज कहते थे कि ‘मुझमें और संतसेवीजी में कोई फर्क नहीं है। जो मैं हूँ, सो संतसेवीजी हैं।’
आपने श्रीसद्गुरु महाराज की छत्रछाया में लगभग अर्द्ध शताब्दी तक रहकर उनकी ऐसी सेवा और साधना किए और गुरु-कृपा से आदिनाम का साक्षात्कार कर आप परमहंस हो गए। कबीर साहब ऐसे संतों के बारे में कहते हैं-
“ आदिनाम निज सार है, बुझि लेहु सो हंस ।
जिन जान्यो निज नाम को, अमर भयो सो वंस ।।”
आपके आत्मप्रकाश ने आपकी माताश्री, पिताश्री और आपके कुल को धन्य कर दिया है, आपका वंश अमर हो गया।
अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 86वें वार्षिक महाधिवेशन में देश-विदेश के धर्माचार्यों, महामण्डलेश्वरों एवं विद्वानों ने एक स्वर से आपको ‘महर्षि परमहंस’ की उपाधि से विभूषित कर अध्यात्म-जगत् को गौरव प्रदान किया। तब से आप ‘महर्षि संतसेवी परमहंस’ के रूप में जाने जाते हैं।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का उद्घोष है कि परमेश्वर के महल के द्वार की कुँजी सद्गुरु के पास होती है। सद्गुरु की सहायता के बिना कोई भी उस महल में प्रवेश नहीं पा सकता। सद्गुरु की महिमा बतलाते हुए वे कहते हैं-‘भगवान हमें धनवान बना सकते हैं, पर हमारे निर्माण और निर्वाण तो संत सद्गुरु के हाथों में ही है।’ सद्गुरु ईश्वर के साकार रूप हैं। श्रद्धा और आस्था के साथ उनके चरणों में अपने को न्योछावर करके मानव सदा के लिए भवचक्र से छूट सकता है।
महर्षि संतसेवी का देशप्रेम:
देश-हित में अपना हित निहित है, ऐसी भावना होनी चाहिए। देश की सुरक्षा अपनी सुरक्षा है। देश-हित को दृष्टिगत करते हुए हमारा कर्म होना चाहिए। हम भूलकर भी ऐसा कार्य नहीं करें, जिससे देश का अहित हो।
जिस जननी के गर्भ से हम जन्म लेते हैं, वह हमारी माता कहलाती है। उसी प्रकार जिस राष्ट्र की धरती पर हम जन्म धारण करते हैं, वह हमारी मातृ तुल्य होती है, बल्कि कुछ अंशों में उससे भी विशेष कहा जा सकता है।
‘जननि जन्म भूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसि ।’
जन्मदातृ मातृ की गोद में अज्ञानावस्था में रहकर हम मात्र कुछ महीने मल-मूत्र विसर्जन करते हैं; किन्तु पृथ्वी माता की गोद में हम ज्ञानावस्था में रहकर जीवन-पर्यन्त मल-मूत्र त्याग करते हैं। जन्मदातृ माता की गोद में हम शैशवावस्था में रहकर स्वल्पकाल ही उनका दुग्ध-पान कर किलकारियाँ भरते हैं; किन्तु धरती माता की गोद में हम जीवन-पर्यन्त खाते-पीते और आनन्द-चैन की वंशी बजाते हैं। इसकी सर्वतोमुखी उन्नति के लिए हमें तन, मन तथा धन समर्पण हेतु सतत प्रस्तुत रहना चाहिए। इतना ही नहीं, देश-रक्षार्थ यदि अपने को बलिवेदी पर चढ़ाना पड़े, तो उससे मुख नहीं मोड़ना चाहिए।
जात-पाँत, ऊँच-नीच, छुआ-छूत एवं पंथाई भावों के भूत को दूरीभूत कर एक जुट होकर हम रहें। सत्य, प्रिय, मृदु एवं मितभाषी बनें। परोपकार की भावना रखें। परमुखोपेक्षी न हों। स्वावलम्बी जीवन जीयें यानी श्रम-सीकर की सच्ची कमाई कर अपना जीवन-यापन करें। पवित्रेपार्जन से प्राप्त वस्तुओं में संतुष्ट रहें। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, चिढ़, द्वेष, ईर्ष्या आदि तामस विकारों से बचते हुए दया, क्षमा, नम्रता, शील, संतोष प्रभृति सात्त्विक गुणों को धारण करना हितकर है।
महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज का लीला संवरण 86 वर्ष की अवस्था में 4 जून 2007 ई॰ को महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट भागलपुर में रात्रि के 14:45 बजे लगभग में हुआ।
जिस प्रकार परम संत बाबा देवी साहब का अंतिम उपदेश ‘दुनिया वहम है, अभ्यास करो।’ महर्षि मेँहीँ की अंतिम वाणी ‘सुकिरत कर ले, नाम सुमिर ले, को जाने कल की।’ उसी प्रकार इनका अंतिम उपदेश “ धीरज धरै तो कारज सरै” मानव मात्र के कल्याण हेतु प्रेरणाप्रद एवं अनुकरणीय है।
इनकी साहित्य अध्यात्म ज्ञान का भंडार है। इनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ निम्न है-‘ओम विवेचन, योग-महात्म्य, जग में ऐसे रहना, गुरु-महिमा, सत्य क्या है?, सुख-दुःख, लोक-परलोक उपकारी, परमात्म-दर्शन, परमात्म-भक्ति, त्रितापों से मुक्ति एवं गुप्त-भेद, सुषुम्ना-ध्यान, सर्वधर्म-समन्वय, बाबा देवी साहब के संस्मरण, अध्यात्म विवेचन आदि।

बाल्यकाल:
संसार में प्राचीनकाल से सच्चे सद्गुरु का स्थान सर्वोपरि रहा है। किसी भी तरह के ज्ञान को प्राप्त करने के लिए गुरु की नितान्त आवश्यकता होती है। गुरु के ही प्रताप से लोग विद्वान, डॉक्टर या ऊँचे दर्जे के पदाधिकारी बनते हैं। इसीलिए मुक्तकंठ से कहना पड़ता है कि जगत् में गुरु का पद सर्वोत्कृष्ट है। गुरु की भक्ति भगवान श्रीराम ने भी की थी। भगवान श्रीकृष्ण की गुरुभक्ति सर्वविदित है। गुरु के लिए जंगल से जलावन काटकर लाना, यह भगवान श्रीकृष्ण की गुरुभक्ति में दाखिल है। गुरु की भक्ति कर आरुणि सारी विद्या को प्राप्त कर लिये। सत्यकाम की गुरु की भक्ति कर वेद-वेदांग के पूर्ण ज्ञाता हो गये। भगवान बुद्ध के भक्त थे आनंद। आनंद की गुरु- भक्ति ऐसी थी कि रात-दिन सदा सेवा में लीन रहते थे। उसी तरह हमारे परमाराध्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के अनन्य भक्त शिष्य थे-महर्षि संतसेवी जी महाराज। जब वे गुरु-सेवा में आये, वर्षों अनवरत रूप से गुरु-सेवा करते रहे। महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज की जन्मभूमि बिहार राज्य के मधेपुरा जिलान्तर्गत गमहरिया ग्राम में है। आपके पिताजी का नाम श्रीबलदेवलाल दासजी और माताजी का नाम था श्रीमती राधा देवी। पंडितों ने आपका नाम महावीर लाल दास रखा। धीरे-धीरे जब आप सयाने हुए तो माता-पिता ने आपका मुंडन संस्कार करवाया। बचपन से ही आपमें दयाभाव दीखने लगे थे। इसीलिए इनको सभी कोई हितसागर बाबू कहकर पुकारते थे। पारिवारिक पंडित ने परंपरागत रूप से सरस्वती की पूजा कर कैथी लिपि का अक्षर-बोध कराया था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा जन्मभूमि गम्हरिया के प्राथमिक विद्यालय में हुई। विद्यालय के प्रधानाध्यापक श्रीअधिकलाल भगत थे। वे इनका बहुत ख्याल रखते थे। आप पढ़ने में कुशाग्र बुद्धि के थे। प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर गम्हरिया से एक कोस की दूरी पर बभनी नामक गाँव के मिड्ल स्कूल में पढ़ने लगे। गाँव से स्कूल तक प्रतिदिन इन्हें पैदल ही आना-जाना पड़ता था। अपनी कक्षा में ये कभी प्रथम श्रेणी तो कभी द्वितीय श्रेणी प्राप्त करते थे। हिन्दी और गणित में आपकी विशेष रुचि थी। इनकी हस्तलिपि सुन्दर और सुघड़ होती थी। आपके गले का स्वर मधुर और कोमल था। मिड्ल स्कूल के प्रधानाध्यापक श्रीवेदानन्द ठाकुरजी ने एक शिक्षक के रूप में आपको साहित्यिक संस्कार देकर विकसित किया। आपके पिताजी परलोक गमन कर गये, फिर भी आपके लालन-पालन और प्यार में कोई कमी नहीं आयी। धीरे-धीरे आपके चाचा श्रीहरदेव लाल दास जी और अग्रज श्रीरघुनंदन लाल दासजी एवं श्रीभोला लाल दासजी भी जवानी में ही संसार से चले गये। बड़े भाई भी 15 वर्ष की आयु में संसार से चले गये।
मिड्ल पास कर आप किशोरावस्था में आये। पिताजी, चाचाजी और भाई के निधन से आपको संसार की क्षणभंगुरता का बोध हुआ। आपमें वैराग्य की भावना जागृत होने लगी। पढ़ाई-लिखाई से मन उचट गया।
आप बचपन से ही भगवान शिव की पूजा किया करते थे। गमहरिया से कुछ दूरी पर सिंहेश्वर स्थान में जाकर कभी-कभी जल भी चढ़ाया करते थे। बजरंगबली हनुमान के प्रति भी आपमें भक्ति-भावना थी। आप नित्यप्रति ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ किया करते थे। गाँव की कीर्तनमंडली में कीर्तन का गायन करते थे। आप बचपन से ही गोस्वामी तुलसीदास-कृत ‘रामचरितमानस’, ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ का पाठ किया करते थे। सगुण भक्ति के प्रति अभिरुचि रखने पर भी संत कबीर और गुरु नानक की निर्गुण उपासना से भी आप प्रभावित थे।
अध्यापन-कार्य
चाचाजी और दो बड़े भाई के निधन से आपके ऊपर आर्थिक समस्या आ गई। सन् 1938 ई0 में आपने घर छोड़ दिया। गमहरिया गाँव से 6 किलोमीटर की दूरी पर राजपुर गाँव में श्रीलक्ष्मीकांत झाजी के दरवाजे पर उनके बच्चों तथा गाँव के और बच्चों को पढ़ाने लगे। इसके अतिरिक्त आप आध्यात्मिक पुस्तकों का अध्ययन करते थे। झा जी के घर पर अनेक धार्मिक पुस्तकें थीं। उसे अध्ययन का पर्याप्त अवसर मिला। आपको योग्य शिक्षक समझकर झा जी आपको बहुत आदर करते थे। अध्यापन-कार्य करते एक वर्ष बीत गया। लेकिन विरक्ति की भावना से आप-से-आप वहाँ से नेपाल राज्य के मोरंग जिला स्थित राजाबासा ग्राम चले गए। वहाँ पर आप अध्यापन के साथ-साथ होम्योपैथिक चिकित्सा भी करने लगे। उस क्षेत्र के बीमार, पीड़ित और लाचार लोगों का इलाज करते थे। राजाबासा से कुछ दूर पर बिहार राज्य के पूर्णियाँ जिला (अब अररिया) स्थित सैदाबाद गाँव चले आए। यहाँ आपकी नियुक्ति एक प्राथमिक विद्यालय में हुई। यहाँ भी आपने अध्यापन के साथ-साथ चिकित्सा कार्य जारी रखा। इस तरह अध्यापन और चिकित्सा का कार्य करते रहे।
संसार की असारता और जीवन की नश्वरता से आपके वैराग्य की भावना बढ़ने लगी। इनके बड़े भाई श्रीयदुनंदनलाल दासजी ने इनकी इस विरक्ति को देखकर इन्हें पारिवारिक जीवन में लाने के लिए विवाह कर देना चाहा। भाई ने विवाह के लिए बहुत आग्रह किया; लेकिन आपकी वैराग्य भावना इतनी प्रबल थी कि आपने स्वीकार नहीं किया।
गुरुदेव का प्रथम दर्शन:
सैदाबाद से कुछ दूरी पर कनखुदिया गाँव में सन् 1939 ई0 के मार्च महीने में ‘संतमत-सत्संग’ के मास-ध्यान का कार्यक्रम था। इस ध्यान-साधना में परम पूज्य गुरुदेव मेँहीँ परमहंसजी महाराज भी भाग लिये थे। सैदाबाद से सत्संगी लोग इस मास-ध्यान- साधना में भाग लेने आ रहे थे। जब आपको गुरुदेव के पदार्पण की जानकारी मिली तो सत्संगियों के साथ आप भी चल पड़े।
जैसे ही आप गुरुदेव के भव्य आकर्षक कांतिमय मुखमंडल के दर्शन किए, वैसे ही आपकी सारी भक्ति-भावना गुरुदेव के चरणों में समर्पित हो गयी। आपने गुरुदेव से दीक्षा प्राप्त करने और सदा साथ रहने की प्रार्थना की।
अपराह्नकालीन सत्संग के बाद गुरुदेव कुछ विद्वानों के साथ टहल रहे थे। आप भी गुरुदेव के पीछे-पीछे टहलने लगे। वार्तालाप के क्रम में एक विद्वान सज्जन ने गुरुदेव से कहा-‘वर्णात्मक शब्द लिखे जाते हैं, ध्वन्यात्मक नहीं।’ यह सुनते ही आपने उन विद्वान को कहा-‘कितने वर्णात्मक शब्द भी ऐसे होते हैं, जो लिखे नहीं जाते।’ उन विद्वान ने आपसे पूछा- ‘ऐसे कौन से वर्णात्मक शब्द हैं जो लिखे नहीं जाते?’
आपने मिथिला में प्रचलित कुछ बोलियों को उदाहरण में प्रस्तुत किया। आपके वचन से विद्वान तो प्रभावित हुए ही, गुरुदेव भी प्रसन्न हुए। आपका परिचय गुरुदेव ने पूछा। परिचय पाकर गुरुदेव संतुष्ट हुए।
29 मार्च, 1939 ई0 को गुरुदेव ने आपको मानस जप, मानस ध्यान और दृष्टियोग की दीक्षा दी। दीक्षा पाकर इन्हें आत्मतुष्टि का बोध हुआ था। कनखुदिया के मास-ध्यान-साधना में आप भी शामिल हो गये। दीक्षा लिये दो दिन ही बीते थे कि गुरुदेव ने आपको ग्रंथपाठ करने के लिए बुलाये। ग्रंथ-पाठ सुनकर गुरुदेव प्रसन्न हुए। साधक-सत्संगीगण भी प्रभावित हुए। आपकी सुरीली आवाज से प्रसन्न हो, गुरुदेव संत दादू दयालजी के निम्न पद्य सस्वर पढ़वाते। आप पद्य का पाठ आगे-आगे और पीछे-पीछे सभी सत्संगीगण दुहराते। वे पद्य नीचे दिये जा रहा है-
(1)
मेरे तुम ही राखनहार, दूजा कोइ नहीं ।
यह चंचल चहुँ दिशि जाय, काल तहीं-तहीं ।।
मैं बहुतक कियो उपाय, निश्चल ना रहे ।
जहाँ बरजूँ तहँ जाय, मद माता बहे ।।
जहाँ बरजूँ तहँ जाय, तुमसे ना डरे ।
तासे कहा बसाय, भावे त्यों करे ।।
सकल पुकारे साधा, और मैं केता कहा ।
गुरु अंकुश माने नाहिं, निर्भय हो रहा ।।
मेरे तुम बिन और न कोय, जो इस मन को गहे ।
अब राखो राखनहार, दादू त्यों रहे ।।
(2)
तू स्वामी मैं सेवक तेरा, भावे सिर दे सूली मेरा ।
भावे करवत सिर पर सार,भावे लेकर गरदन मार ।।
भावे चहुँदिशि अगनि लगाय । भावे काल दसों दिशि खाय ।।
भावे गिरिवर गगन गिराय । भावे दरिया माहिं बहाय ।।
भावे कनक कसौटी देय । दादू सेवक कसि-कसि लेय ।।
कनखुदिया-मास-ध्यान-साधना समाप्त होने के बाद पूज्यपाद गुरुदेव उस क्षेत्र के कई गाँवों में घूम-घूमकर सत्संग का प्रचार करते रहे। इस अवसर पर गुरुदेव आपको भी अपने साथ में रखे और सद्ग्रंथों का पाठ करवाते थे। गुरुदेव आपके बारे में रसोइये से कहते-‘इनको समय पर बुलाकर भोजन करा दिया करो।’ जब उस क्षेत्र का सत्संग-प्रचार समाप्त हुआ, तो पूज्यपाद गुरुदेव ने आपको आज्ञा दी, ‘अब आप अपने काम पर वापस चले जाएँ।’ आपने गुरुदेव से प्रार्थना की-‘अब मैं हुजूर की ही सेवा में रहूँगा।’ गुरुदेव ने आपको वृद्धा माता की याद दिलायी और उनकी सेवा की आवश्यकता का आपको स्मरण कराया। गुरुदेव ने कहा-‘अभी जो काम आप करते हैं, वह कीजिये, आवश्यकता मुझे होगी, तो बुला लूँगा।’
गुरुदेव की आज्ञा-शिरोधार्य कर आप सैदाबाद ग्राम लौट आए। सैदाबाद में लगभग दो वर्षों तक साधना करते और अध्यापन का काम भी करते रहे। पर आपका ध्यान सदा गुरुदेव पर ही लगा रहता था। गुरुदेव भी आपकी खोज-खबर लेते रहते थे। गुरुदेव का जहाँ भी सत्संग-प्रचार का कार्यक्रम रहता, तो आपको बुलाकर अपने साथ ले जाते थे। इस तरह कार्यक्रम पूरा कर पुनः सैदाबाद लौट आते। यह क्रम कई बार चला।
सन् 1940 ई0 में गुरुदेव ने अनेक ग्रंथों एवं संतों की वाणियों का एक संकलन किया। उसी आधार पर कुछ अपनी भी स्वानुभूतिपूर्ण वाणियों का संग्रह कर ‘सत्संग-योग’ नाम का एक ग्रंथ निकालना चाहा। उसकी पांडुलिपि तैयार करने के लिए आपको बुलाये। उस समय गुरुदेव के भागलपुर जिले में सत्संग-प्रचार का कार्यक्रम चल रहा था। गुरुदेव के आदेशानुसार आप पहले भागलपुर परबत्ती आये। फिर वहाँ से बैकुंठपुर गुरुदेव के पास पहुँचे। फिर वहाँ से गुरुदेव के साथ भागलपुर-परबत्ती वापस आये। परबत्ती में ‘सत्संग-योग’ की पांडुलिपि आपने तैयार की। यहाँ गुरुदेव ने आपको बांग्ला और गुरुमुखी भी पढ़ने के लिए सिखाये। परबत्ती से गुरुदेव के साथ बभनगामा (बाराहाट) के सत्संग में गये। वहाँ वहीं के एक वयोवृद्ध सत्संगी श्रीचरण परिहतजी ने गुरुदेव से प्रार्थना की-‘सरकार! इनकी कंठध्वनि बड़ी मधुर है। संतवाणी आदि का पाठ भी ये अच्छी तरह करते हैं। इनको अपने साथ रख लिया जाए।’ गुरुदेव ने कहने की कृपा की-‘मेरी भी तो इच्छा है कि ये मेरे साथ रहें; लेकिन अभी इनकी वृद्धा माताजी हैं, उनको हम क्यों रुलावें ? अभी ये माताजी की सेवा करें।’ बभनगामा से लौटकर गुरुदेव के साथ आप परबत्ती आए। यहाँ आने पर आप सख्त बीमार हो गये। आपकी शारीरिक दुर्बलता बढ़ गयी। तेज बुखार था। उसी हालत में आपको लेकर गुरुदेव सिकलीगढ़-धरहरा आश्रम आ गये। यहाँ डॉक्टर को बुलवाकर आपकी चिकित्सा करवायी। ऐलोपैथी दवा में भोजन ग्रहण करना आवश्यक रहता है।
एक दिन ये जमीन पर चटाई बिछाकर लेटे हुए थे। गुरुदेव खड़ाऊँ पहने हुए आपके सामने आकर बैठ गये। आपने उठकर गुरुदेव का चरणस्पर्श कर प्रणाम किया। शीश नवाया और वहीं बैठ गए। गुरुदेव ने रसोइया भूपलालजी से बार्ली बनवाकर मँगवाया और बड़े प्यार से कहने की कृपा की-‘इसे खाइये।’ आपने दो-चार चम्मच बार्ली खाकर कहा कि अब खाने की इच्छा नहीं होती। गुरुदेव ने उसमें थोड़ी-सी चीनी मिलायी और आपसे कहा-‘अब खाइये, अच्छा लगेगा।’ आपने किसी तरह दो-चार चम्मच खाकर छोड़ दिया और कहा-‘यह भी खाने में अच्छा नहीं लगता है।’ गुरुदेव ने थोड़ा-सा नींबू का रस मिलाकर कहा-‘अब खाइये, अच्छा लगेगा।’ लेकिन आपकी अनिच्छा देखकर गुरुदेव ने कहा-‘बिल्कुल नहीं खाने से तो कमजोरी आ जायेगी।’ फिर गुरुदेव ने बार्ली में दूध और मिसरी मिलाकर कहा-‘अब खाइये, देखिये कितना अच्छा लगेगा?’ आपने थोड़ा-सा खाया। इस तरह धीरे-धीरे गुरुदेव की कृपा से स्वस्थ हो गए। आपके स्वस्थ होते ही गुरुदेव ने आपको माता की सेवा में गमहरिया भेज दिया। फिर भी आप समय-समय पर गुरुदेव के दर्शनार्थ आते-जाते रहते थे। 1946 ई0 में आपकी माताजी परलोक गमन कर गयीं। 1946 ई0 में ही ‘सत्संग-योग’ का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ था, जिसमें कुछ अशुद्धियाँ रह गयी थीं। उन अशुद्धियों के सुधार के लिए गुरुदेव ने आपको मनिहारी सत्संग-आश्रम बुलाया। आपने मनिहारी में ‘सत्संग-योग’ की सारी अशुद्धियों का संशोधन किया। सत्संग-योग की कुछ प्रतियाँ सिकलीगढ़ धरहरा में थीं, वहाँ भी जाकर आपने उसका संशोधन किया। इसके बाद फिर आप मनिहारी चले आये।
मनिहारी के सत्संगियों ने गुरुदेव से प्रार्थना की-‘ये तो ‘संतमत-सत्संग मंदिर’ में रहते ही हैं, कुछ समय निकालकर ये हमारे बच्चों को पढ़ा दिया करें, तो बड़ा ही उत्तम हो।’ गुरुदेव ने आपको पढ़ाने की आज्ञा दे दी। मनिहारी के दुर्गास्थान में जाकर आप बच्चों को पढ़ाकर चले आते थे। पर कुछ दिनों के बाद दुर्गास्थान में बच्चों को पढ़ाना छोड़ दिये। पुनः गुरुदेव की आज्ञा से सत्संग-मंदिर में ही बच्चों को पढ़ाने लगे। इस दौरान आपको एक बार चेचक हो गया। आपको काफी पीड़ा होती थी। श्रीनारायण अग्रवालजी की माताजी ने आपकी बड़ी सेवा की। आप जब स्वस्थ हो गये तो आपके पढ़नेवाले बच्चे भी बीमार हो गए। आपने बच्चों के स्वास्थ्य के लिए गुरुदेव से प्रार्थना की, सभी बच्चे स्वस्थ हो गये।
1949 ई0 में गुरुदेव ने आपसे पढ़ाने का कार्य बंद करवा दिया। अब आप स्थायी रूप से गुरुसेवा में रहने लगे। अब आप पूर्ण समर्पित भाव से गुरुदेव की सेवा में संलग्न हो गये। मनिहारी में ही गुरुदेव की मौज हुई कि गंगास्नान कार्तिक मास तक करने की। मनिहारी से उस समय गंगा दूर में थी। इसलिए ब्राह्ममुहूर्त में जगना जरूरी था। गुरुदेव ने आपको आज्ञा दी कि आप अलार्म घड़ी अपने पास रखें। जब पौने तीन बजे घड़ी की घंटी बजे, तो आप आकर मुझे जगा दिया करें। आप वैसा ही करने लगे। जब ब्राह्ममुहूर्त्त में पौने तीन बजे घड़ी की घंटी बजती तो आप उठकर गुरुदेव के बरामदे पर जैसे ही पहुँचते, वैसे ही गुरुदेव कहते-‘कौन? महावीरजी!’ आप कहते-‘जी हाँ।’ पुनः गुरुदेव कहते-‘जाइये, आप ध्यान कीजिए।’
इस प्रकार लगातार कई दिन आप ब्राह्ममुहूर्त्त में पौने तीन बजे गुरुदेव के निकट जाते। आपके निकट पहुँचते ही गुरुदेव कहते-‘महावीरजी! जाइये, आप ध्यान कीजिए।’ तब आपको समझ में आया कि मैं गुरुदेव को क्या जगाऊँगा, गुरुदेव तीनों लोक को जगानेवाले हैं। उनको मैं क्या जगाऊँगा, वे मुझे जगाते थे। चार बजे भोर में ही आप गुरुदेव के शौच जाने के लिए लोटे में पानी भरकर रख देते। जब गुरुदेव शौच से आने के पूर्व ही आप पानी, मिट्टी और दतवन रख दिया करते। इसके बाद ये अपने नित्य क्रियाकर्म से निवृत्त होते। गुरुदेव दतवन कर प्रातः टहलने के लिए निकल जाते। इसी बीच में आप आश्रम की सफाई करते और फूलों की क्यारी में निकौनी आदि कर उसमें पानी डालते।
प्रातः भ्रमण से गुरुदेव के लौटने के पहले ही आप पाँव धोने के लिए लोटे में पानी रख देते। पुनः प्रातःकालीन सत्संग में शामिल होते। सत्संग में स्तुति-विनती के बाद आप ग्रंथपाठ करते। जब गुरुदेव का प्रवचन होता, तो उसे लिपिबद्ध भी करते। जब गुरुदेव स्नान करते, तो आप कुएँ से पानी भरकर रखते। गुरुदेव के स्नान के बाद पहनने के वस्त्र वहाँ रख देते। जितनी देर में गुरुदेव स्नान से निवृत्त होते, उतने ही समय में आप भी स्नान कर गुरुदेव की सेवा में आ जाते।
गुरुदेव स्नान कर ध्यान में बैठ जाते, तो आप गुरुदेव के भीगें कपड़ों को साफ कर धूप में सूखने के लिए देते और अपने भी ध्यान करते। गुरुदेव जब ध्यान से उठते तो आप अपने से गुरुदेव को भोजन कराते। अपने भी भोजन कर गुरुदेव की सेवा में आ जाते। जब गुरुदेव विश्राम करते, तो आप आध्यात्मिक पुस्तकों का अध्ययन करते।
विश्राम के बाद गुरुदेव शौच जाते तो आप पानी और हाथ साफ करने के लिए मिट्टी रख देते। गुरुदेव जब शौच से लौटते, तो लोटे को साफ कर यथास्थान रख देते। सायंकाल जब गुरुदेव ध्यान में बैठते थे तो आप भी ध्यान करते। ध्यानाभ्यास के बाद रात्रिकालीन सत्संग होता तो आप भी सत्संग में बैठते। गुरुदेव की आज्ञा से आप संतवाणी का पाठ मीठे स्वर में गाते। सत्संग समाप्ति के बाद गुरुदेव को भोजन कराते। फिर आप अपने भोजन करते। जब गुरुदेव रात्रि-विश्राम में जाते, तो आप गुरुदेव के पाँव दबाते, सारे शरीर की सेवा करते, तब आप सोते थे। इस तरह प्रतिदिन का कार्यक्रम चलता। कभी-कभी रसोइये की अनुपस्थिति में गुरुदेव का भोजन आप बनाकर खिलाते।
गुरुदेव ने अपने सान्निध्य में रखकर आपको वेद, उपनिषद्, श्रीमद्भगवद्गीता, रामायण, महाभारत, भागवत आदि ग्रंथों का गहन अध्ययन कराया। आप स्वयं भी गीता-रहस्य, बांग्ला के कृतिवासीय रामायण, कुरान, हदीस आदि भी अध्ययन किये। गुरुदेव की सेवा में रहकर आपने कभी भी अपनी सुख-सुविधा पर नहीं दिया। आप सदा गुरुदेव की सुख-सुविधा पर ध्यान देते रहे। गुरुदेव का अधिकांश समय सत्संग-प्रचार में लगा रहता था। उस समय आप अपने कष्टों को हँस-हँसकर झेलते थे। अहर्निश आप गुरु-सेवा में लीन रहते। गुरु-सेवा के प्रताप से ही आप ‘संतसेवी’ कहलाने लगे। आप अपना नाम ‘महावीर संतसेवी’ लिखते थे। आपकी अनन्य भक्ति देखकर गुरुदेव ने 1952 ई0 को सुरत-शब्द-योग की भी विधि बतलाने की कृपा की।
1956 ई0 में गुजरात प्रांत के नामी शहर अहमदाबाद में ‘अखिल भारतीय साधु-समाज का सम्मेलन’ हो रहा था। उक्त सम्मेलन में पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज को भी निमंत्रण दिया गया था। पूज्य गुरुदेव ने धरहरा आश्रम के व्यवस्थापक स्वामी श्रीधर बाबा और आपको अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजने लगे। लेकिन दोनों श्वेतवस्त्रधारी थे, इसलिए पूज्यपाद गुरुदेव ने आप दोनों को आज्ञा दी कि आपलोग उस सम्मेलन में साधुवेश अर्थात् गैरिक वस्त्रधारण कर जाएँ। दोनों को बाल-दाढ़ी कटवाकर गैरिक वस्त्र धारण करवाया, तब दोनों साधुवेश में अहमदाबाद साधु-समाज के सम्मेलन में गये। वहाँ आपलोगों को बड़े सम्मान के साथ निवास दिया गया। सम्मेलन समाप्ति के बाद आप दोनों वहाँ से वापस आये।
गुरुदेव के सफल संदेशवाहक:
गुरुदेव की सेवा में रहकर साधना करते और सत्संग में ग्रंथपाठ भी करते रहे। कभी-कभी गुरुदेव सत्संग-प्रवचन भी करने की आपको आज्ञा देते। आपके प्रवचन से लोग बहुत प्रभावित होने लगे।
परमाराध्य गुरुदेव अपने सत्संग में घंटों प्रवचन करते रहते थे। आप गुरुदेव के प्रवचन को लिपिबद्ध किया करते थे। नागरी लिपि में लिखकर गुरुदेव के प्रवचन शान्ति-सन्देश में प्रकाशनार्थ भी देते थे, जिसे पढ़कर सत्संगीगण बड़े लाभान्वित होते। आपके ही प्रसाद से गुरुदेव के प्रवचन संग्रह ‘महर्षि मेँहीँ सत्संग- सुधा सागर’ के रूप में प्रकाशित हुआ। यह लेखन कार्य आपकी अनुपम देन है। ‘सत्संग-सुधा-सागर’ से लोग सदा लाभ उठाते रहेंगे। यह ग्रंथ संतमत का एक अनुपम निधि के रूप में है।
सत्संग के समय यदि गुरुदेव कुछ संतवाणी भूल जाते, तो आप तुरत गुरुदेव को याद दिलाते। इसीलिए गुरुदेव ने आपके लिए कहा-‘संतसेवीजी हमारे मस्तिष्क हैं।’
दीक्षा देने की आज्ञा
जब गुरुदेव दीक्षा देने में शरीर से असमर्थ हो गये, तो 1970 ई0 में अपनी दीक्षा-पुस्तिका आपको सौंपते हुए आदेश देते हैं-‘आज से आप ही मेरे बदले में दीक्षा दीजिये।’ गुरुदेव की आज्ञा से आप तबसे हजारों जिज्ञासुओं को दीक्षा दिये।
आपने गुरुदेव की सेवा अहर्निश जीवनभर अनवरत रूप से करते रहे। ‘आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा’ की उक्ति को चरितार्थ कर दिखाया। कभी भी किसी तरह आज्ञा की आज्ञा का आपने उल्लंघन नहीं किया। गुरुदेव के आय-व्यय का लेखा-जोखा रखते थे । समय-समय पर गुरुदेव लेखा की कॉपी को देखकर लिखते-‘हिसाब सही है।’ फिर उस कॉपी पर अपना हस्ताक्षर भी कर देते। इनकी अनुपस्थिति गुरुदेव को बड़ी खलती थी। आपकी अनन्य भक्ति देखकर गुरुदेव ने कहा-मुझमें और संतसेवीजी में क्यू (फ़) और यू (न्) का संबंध है। संतमत-सत्संग के प्रचार में गुरुदेव के साथ सदा रहते थे। घोर देहात में गुरुदेव की सवारी बैलगाड़ी होती थी। बैलगाड़ी पर गुरुदेव आगे बैठते थे। गुरुदेव के पीछे गुरुदेव की गठरी रहती थी। उस गठरी के पीछे आप बैठते थे।
बैलगाड़ी के पीछे बहुत झटका (जरकिंग) होता है। उस झटके को सहते हुए आप घंटों बैलगाड़ी पर चलते थे। सारे कष्टों को आप सहर्ष सह लेते थे। हर जगह ब्रह्ममुहूर्त में उठकर दतवन-आचमन कराना, सुबह-शाम हाथ-पाँव धुलाना, स्नान के पूर्व गुरुदेव के सारे शरीर में तेल मालिश करना, भोजन कराना। प्रत्येक बुधवार को गुरुदेव के हाथ-पैर की अंगुलियों के नख को काटना। नख को काटने के लिए एक चाकू थी, जिसकी धार सदा बनी रहती थी। उस चाकू से गुरुदेव के नख को काटना, सप्ताह में एक बार होता था। समय-समय पर नियमित रूप से दवा देना-यह सब आपकी सेवा थी।
गुरुदेव के नाम से आये हुए पत्रें को पढ़कर सुनाना, फिर उन पत्रें का यथोचित उत्तर देना-ये सारी सेवा आपके द्वारा संपादित होते थे।
गुरुदेव के साथ आप सत्संग-प्रचार में पंजाब के अमृतसर, उत्तरप्रदेश के दयालबाग, स्वामीबाग, पुष्कर, ऋषिकेश, हरिद्वार, दिल्ली, राजगीर आदि के अलावे नेपाल, बिहार, झारखंड के घोर-से-घोर देहातों में कभी पैदल तो कभी बैलगाड़ी से यात्र करते थे।
जब गुरुदेव शरीर से एकदम लाचार हो गये, तब बाहर के सत्संग-प्रचार में जाना बंद हो गया। फिर भी उन दिनों गुरुदेव की सेवा ही इनकी दिनचर्या बन गयी थी। 8 जून, 1986 ई0 को गुरुदेव महाप्रयाण कर गये। लाखों सत्संगी गुरुदेव के वियोग से विकल हो गये। लाखों सत्संगियों के बीच गुरुदेव के पार्थिव शरीर को चंदन की चिता पर आपने मुखाग्नि-संस्कार कर दिया।
गुरुदेव के महाप्रयाण के बाद सत्संगियों के एकमात्र आप ही सहारा हो गये। अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का वार्षिक महाधिवेशन को आपने पुनः चालू करवाया। 1989 ई0 में अररिया जिले के सैदाबाद ग्राम में वार्षिक सत्संग हुआ। उसमें आपके प्रवचन से लोग बहुत प्रभावित हुए। आपके प्रवचन काल में श्रोतागण हर्षध्वनि के रूप में ‘सद्गुरु महाराज की जय’ का घोष करते थे। इस तरह आपकी प्रतिभा बढ़ती गयी। कुप्पाघाट-आश्रम में आपसे मिलने विश्वविद्यालय के कुलपति, प्रोफेसरगण, जिलाधीश, तो कभी कमिश्नर, कभी आई0जी0, तो कभी डी0आई0जी0, कभी आरक्षी महानिरीक्षक, तो कभी आरक्षी निरीक्षक, विद्वान, मौलाना, पंडित लोग आश्रम आकर जिज्ञासा समाधान करवाते थे। आपकी योग्यता से लोग प्रभावित होने लगे। नवगछिया महाधिवेशन में लालू प्रसाद यादव तत्कालीन मुख्यमंत्री पार्टी के साथ आये। जब आपका महाधिवेशन भागलपुर के बरारी में हो रहा था, उसमें बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी आपका प्रवचन सुने थे और अपना उद्गार सुनाये थे। संयोग से एकबार बिहार के राज्यपाल बूटा सिंह जी आश्रम आये। आपने उनको गुरुनानक साहब की बहुत-सी वाणियाँ सुनायीं। वे बड़े प्रसन्न होकर गये। यह था महर्षि संतसेवीजी महाराज का प्रभाव। आपको संतमत के सुयोग्य ज्ञाता जानकर महासभा की ओर से आचार्य पद दिया।
उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, गुजरात आदि स्थानों में संतमत का प्रचार आपने किया। जगह-जगह ध्यान-साधना का भी आयोजन आपकी उपस्थिति में होने लगा। आपको कई भाषाओं की जानकारी थी। हिन्दी, संस्कृत, बांग्ला, मारवाड़ी, नेपाली भाषा में अच्छी तरह संतमत को समझा सकते थे। आपकी लिखावट इतनी अच्छी होती थी कि मालूम पड़ता था, जैसे अक्षर टाइप किया गया हो।
आपकी स्मरणशक्ति अद्भुत थी। बचपन में जो पाठ्य पुस्तक में पद पढ़े थे, वे सभी पद्य आपको कंठाग्र थे। मौके पर उन पद्यों को सबके सामने यथावत् सुनाते थे, इससे आपकी स्मरणशक्ति का परिचय मिलता है।
एक बार गुरुदेव के साथ लखनऊ पहुँचे। रेलवे पदाधिकारी मिस्टर जी0सी0 लालजी के निवास पर ठहरे थे। मिस्टर जी0सी0 लालजी बौद्धिष्ठ थे। आपने प्रसंगवश उनसे पूछा, ‘क्या भगवान बुद्ध ईश्वर को मानते थे?’ उन्होंने कहा, ‘नहीं। भगवान बुद्ध ईश्वर को नहीं मानते थे।’ आपने कहा, ‘धम्मपद में ईश्वर की मान्यता है।’ उसने धम्मपद पुस्तक लाकर कहा, ‘कहाँ है इसमें ईश्वर की मान्यता?’ आपने धम्मपद अत्तवग्गो पढ़कर सुनाया। उसमें लिखा है-
अत्ता हि अत्तनो नाथो को हि नाथो परो सिया ।
अत्तना व सुदन्तेन नाथं लभति दुल्लभं ।।
इसका अर्थ है-मनुष्य अपना स्वामी आप है, उसका दूसरा स्वामी और कौन हो सकता है, जो अपने को अच्छी तरह दमन कर लेता है, वह दुर्लभ स्वामी को प्राप्त कर लेता है।’ उपर्युक्त बातें कहकर इन्होंने उनसे पूछा- “ ये दुर्लभ स्वामी कौन हैं?’ ‘नाथं लभति दुल्लभं’-यह नाथ कौन है? क्या वह ईश्वर नहीं है?”
पुनः आपने उनके सामने ‘धम्मपद’ के ही जरावग्गो की इन पंक्तियों को सुनाया-
गहकारक ! दिट्ठोसि पुन गेहं न काहसि ।
सब्बा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसि३तं ।
विस३ारंगतं चित्तं तण्हानं खयमज्झगा ।।
अर्थात् हे गृह के निर्माण करनेवाले! मैंने तुम्हें देख लिया, तुम फिर घर नहीं बना सकते। तुम्हारी कड़ियाँ सब टूट गयीं, गृह का शिखर गिर गया। चित्त संस्कार-रहित हो गया, तृष्णाओं का क्षय हो गया।
उपर्युक्त पंक्तियों को सुनाने के पश्चात् आपने पूछा-‘यह गृहनिर्माणकर्ता कौन है?’ डी0आर0एम0 महोदय-द्वारा यह कहे जाने पर कि वह तृष्णा है। आपने पुनः पूछा-‘गृहनिर्माण के बाद तृष्णा हुई कि पहले?’ डी0आर0एम0 महोदय जरावग्गो को उलटकर बोले कि यह भी ईश्वर की ओर संकेत करता है। वे मान गये कि सही में गृहनिर्माणकर्ता ईश्वर है।
एक बार नेपाल राज्य के रंगेली में संतमत-सत्संग का आयोजन हुआ था। सत्संग के प्रचार से बहुत लोग आ गये थे। कुछ लोगों ने मंच पर केवल पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की तस्वीर को देखा। वे लोग आपसे प्रश्न करने लगे कि मंच पर किसी देवी-देवता या भगवान का तस्वीर नहीं रखकर केवल अपने गुरु की तस्वीर क्यों रखे हैं। आपने बड़ी सहजता में उनलोगों को उत्तर दिया। आपने कहा, “ जो भगवान कहते हैं, वही हमलोग मानते हैं। भगवान श्रीराम ने शबरी को नवधा भक्ति के उपदेश में कहा है-‘सातवँ सम मोहिमय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा।।’ अर्थात् भगवान् श्रीराम कहते हैं-हमसे भी बेशी संत हैं। हमारे गुरु महाराज संत हैं, इसीलिए भगवान के आदेशानुसार हमलोग गुरुदेव की तस्वीर मंच पर रखते हैं। आपके उत्तर से सभी मुग्ध हो गये। आपमें किसी प्रकार का अहंकार नहीं था। जब आप महाधिवेशन के अवसर पर मंच पर जाते, तो सभी लोग खड़े होकर आपका अभिवादन करते। यह देखकर आप कहते कि बच्चे को बड़े लोग कंधे पर चढ़ा लेते हैं, इसलिए वह बच्चा बड़ा नहीं हो जाता। उसी प्रकार आपलोग मुझे प्यार से ऊँचा स्थान देते हैं, इससे में बड़ा नहीं हो जाता। बल्कि आपलोगों का बड़प्पन है, मुझे आप ऊँचा स्थान देते हैं।
1984 ई0 में परमाराध्य गुरुदेव पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज को सौवीं जयन्ती के उपलक्ष्य में अभिनंदन समर्पण करना था। उसके प्रधान संपादक आप ही थे। संपादकीय में आपने कहा-‘अध्येतागण हंस बन अवगुण-वारि का परिहार कर गुण-पय को स्वीकार करें। साथ ही गुण को मेरे मित्रें, सहयोगियों और विद्वानों का और यदि इसमें कुछ दोष मालूम पड़े, तो वह मेरा मानकर उन्हें धन्यवाद दें और मुझे क्षमा करें। इस तरह इनकी लघु-भावना में भी उदारता के दर्शन स्वाभाविक हो जाते हैं।
आपके समझाने की कला निराली थी। एक बार की घटना है कि आप ट्रेन से यात्र कर रहे थे। इनके सामनेवाली सीट पर एक सज्जन अपने पुत्र के साथ बैठे थे। इनको साधु जानकर वे सज्जन विनम्रतापूर्वक बातचीत करने लगे। बातचीत के सिलसिले में आपने उस सज्जन से पूछा-‘आप कहाँ जा रहे हैं?’ उन्होंने कहा-‘ये मेरे पुत्र हैं। इनका नाम विश्वविद्यालय में लिखवाने जा रहे हैं। बाद में वे सज्जन अपनी जेब से सिगरेट का पैकेट और माचिस निकाले। आपने उस सज्जन से कहा-‘आपके पास पूर्णिमा और अमावस्या दोनों हैं।’ वे सज्जन ने कहा-‘महाराजजी! आपकी बात तो मेरी समझ में कुछ भी नहीं आयी कि आप क्या कह रहे हैं।’ आपने उनसे कहा-‘आप अपने लड़के का विश्वविद्यालय में नामांकन कराने जा रहे हैं, जिससे यह आगे पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनेगा। इसका भविष्य उज्ज्वल होगा। दूसरी बात यह है कि आप इसके सामने जो सिगरेट पीएँंगे और यह लड़का देखेगा, तो मन-ही-मन सोचेगा, हमारे पिताजी बहुत पढ़े-लिखे आदमी हैं। इनकी समाज में अच्छी प्रतिष्ठा है। शायद सिगरेट कोई अच्छी चीज है, तभी तो पिताजी इसे पीते हैं। आपकी देखा-देखी यह भी सिगरेट पीएगा। लड़के को पीने से यदि आप मना करेंगे या पीने के लिए पैसा नहीं देंगे, तो यह पैसे चुराकर सिगरेट खरीदेगा। यदि आप रोक लगाएँगे, तो घर के बदले यह दूसरी जगह से चोरी करके पैसा लाएगा। इस चौर्य कार्य में यदि पकड़ा गया, तो यह जेल में जाएगा, जिससे इसके भविष्य का जीवन अंधकारमय हो जाएगा। कहिये, आपके पास पूर्णिमा और अमावस्या यानी प्रकाश और अंधकार दोनों हैं कि नहीं!’ आपका उपदेश सुनकर उक्त महाशय ने गाड़ी की खिड़की से सिगरेट तथा माचिस का डिब्बा फेंकते हुए संकल्प किया कि लीजिए, अबसे मैं सिगरेट कभी नहीं पीयूँगा।
परमाराध्य गुरुदेव के सान्निध्य में रहने के कारण अनेक महात्माओं के विचारों से लाभ मिला; परन्तु आपपर गुरुदेव की सर्वोपरि कृपा होती रही। जब आप गुरुदेव के साथ 1977 ई0 में जालंधर पंजाब गये थे, वहाँ कुछ लोगों ने आपसे कहा, ‘आप पटना साहिब में जो प्रवचन किये थे, उसे हमलोगों ने पढ़ा है। गुरु गोविन्द सिंहजी का जन्म पटना में हुआ था। जब वे पंजाब आये तो यहाँ के लोगों ने उनको पटना जाने नहीं दिया। हमलोग भी आपको बिहार जाने नहीं देंगे।’ यह था आपके व्यक्तित्व का प्रभाव।
गुरुदेव की कृपा आपपर ऐसी होने लगी कि जहाँ भी गुरुदेव का सत्संग होता, वहाँ पहले आपका प्रवचन होता था। पीछे गुरुदेव प्रवचन करते थे। आपके प्रवचन का यह क्रम जिला वार्षिक सत्संग और महाधिवेशन में भी चलता रहा।
गुरुदेव की अहैतुकी कृपा:
आपने गुरुदेव की इतनी तन्मयता से सेवा की कि गुरुदेव आपको अपना अभिन्न अंग मान लिये। एक बार आपको कुप्पाघाट आश्रम में बुखार हो गया। दवा लेने के बाद भी बुखार उतरता नहीं था। जब आपको देखने डॉक्टर आये, तो गुरुदेव ने कहा, ‘ये हमारे मस्तिष्क हैं। इनके बिना मेरा काम नहीं चलेगा।’ यह कहते-कहते गुरुदव रोने लगे। कई दिनों तक बुखार चलता रहा। फिर दूसरे डॉक्टर आये। डॉक्टर साहब बड़े श्रद्धालु थे। गुरुदेव ने कहा-‘डॉक्टर साहब इनका ठीक से इलाज कीजिए।’ डॉक्टर साहब ने कहा-‘आप आशीर्वाद देंगे, तो निश्चित है कि संतसेवीजी महाराज स्वस्थ हो जाएँगे।’ गुरुदेव ने कहा, ‘मेरा आशीर्वाद है।’ डॉक्टर साहब की मात्र एक खुराक से बुखार उतर गया और आप स्वस्थ हो गये।
गुरुदेव की सेवा में आप अहर्निश संलग्न रहते थे। गुरुदेव भी आपपर सदा दयाभाव रखते थे। बहुत प्यार से बातचीत करते थे। जब ये सेवा में किसी तरह की त्रुटि नहीं करते थे, तो गुरुदेव भी इनको कभी भी डाँट-फटकार नहीं करते थे। एक बार आप सोये थे। रात्रि में आपने स्वप्न देखा कि गुरुदेव गंगा-स्नान करने गये। गंगाजी में जैसे ही गुरुदेव डुबकी लगाते हैं कि गंगा की प्रबल धारा में बह गये। यह देखते ही आप विकल हो गये। ‘गुरुदेव गंगाजी में डूब गये’ कहकर चिल्ला रहे हैं। इतने में गुरुदेव पुकारते हैं, ‘संतसेवीजी!’ यह सुनते ही आपकी नींद टूट गयी। गुरुदेव को आकर प्रणाम किये। गुरुदेव ने कहा-‘जाइये, सोइये।’ इस घटना से स्पष्ट होता है कि गुरुदेव आपको स्वप्न में भी दुःखी देखना नहीं चाहते थे।
एकबार आप किसी आवश्यक कार्यवश कटिहार जा रहे थे। तैयार होकर जब आप गुरुदेव को प्रणाम करने गये, तो गुरुदेव ने पूछा-‘आप कटिहार जा रहे हैं, कटिहार से कब लौटियेगा?’ आपने प्रार्थना के स्वर में कहा-‘हुजूर! आज कटिहार पहुँचेंगे, कल काम करके परसों लौट आयेंगे।’ गुरुदेव की आज्ञा हो गयी। आप बरारी घाट में स्टीमर पकड़कर महादेवपुर घाट गये। वहाँ से जो ट्रेन खुली, वह सीधे कटिहार तक गयी। कटिहार पहुँचते ही आपका काम हो गया। रात में सत्संग मंदिर में ठहरे। वहा सत्संगियों से कहा-‘मुझे तो यहाँ से परसों वापस जाना था, लेकिन जिस काम से हम यहाँ आये, वह काम आज ही हो गया। इसलिए हम कल कुप्पाघाट आश्रम के लिए वापस हो जाएँगे। वहाँ के सत्संगियों ने कहा-‘कल नहीं जाकर, परसों ही आप वापस जाएँ और कल यहाँ सत्संग कर दिया जाए।’ आपने कहा-‘यदि मैं कल यहाँ रहकर सत्संग करूँगा, तो एक दिन की गुरु-सेवा मेरी छूट जाएगी। मैं किसी भी हालत में कल यहाँ नहीं ठहरूँगा।’ आप दूसरे दिन कटिहार से वापस हो गये। यहाँ कुप्पाघाट आश्रम में गुरुदेव अधिकलाल दास से कहते हैं-‘संतसेवीजी आज आ रहे हैं। आप मेरी गाड़ी लेकर जाइये और उनको बरारीघाट स्टेशन से ले आइये।’ गुरुदेव की आज्ञानुसार वे गाड़ी लेकर बरारीघाट स्टेशन पहुँचे। वहाँ स्टेशन मास्टर उनसे पूछते हैं, ‘आप यहाँ किस काम से आये हैं?’ उसने कहा, ‘हमारे पूज्य संतसेवीजी महाराज आ रहे हैं। गुरुदेव ने मुझे भेजा है कि उनको ले आइये।’ स्टेशन मास्टर ने कहा, ‘वे तो कल आनेवाले हैं, अच्छा गुरुदेव ने आपको भेजा है, तो चलिये देखें, वे ठीक ही आ रहे हैं!’ वे दोनों घाट के जरी पर खड़े होकर स्टीमर की प्रतीक्षा कर रहे हैं। स्टीमर के पहुँचते ही पूज्य संतसेवीजी महाराज स्टीमर से उतरे और अधिकलाल दासजी से पूछते हैं-‘आप यहाँ कैसे आ गये?’ उन्होंने कहा, ‘गुरुदेव की आज्ञा हुई कि संतसेवीजी आ रहे हैं, ले आइये।’ यह सुनते ही पूज्य संतसेवीजी महाराज गंभीर हो गये और कहने लगे, ‘गुरुदेव की मुझपर कितनी कृपा है, कहा नहीं जा सकता!’ गुरुदेव की आपपर अहैतुकी कृपा बनी रहती थी।
एक बार रात्रि में आपने स्वप्न देखा कि मेरा शरीर श्मशान में मृत पड़ा हुआ है, जिसे दो गिद्ध नोंच-नोंचकर खा रहे हैं। जब आपकी नींद टूटी, तो आप गुरुदेव को प्रणाम करने गए। गुरुदेव ने आपको देखकर कहा-‘देखिए तो, मेरी चौकी के नीचे दो गिद्ध भी हैं?’ आपने चौकी के नीचे देखकर कहा-‘हुजूर! गिद्ध तो नहीं हैं।’ गुरुदेव ने कहा-‘अच्छा, काल था, चला गया।’
एक दिन आप गुरुदेव के साथ कुप्पाघाट- आश्रम में प्रातःकालीन भ्रमण करने गये। इस भ्रमण के क्रम में ही अचानक एक कौए ने क्रोध में आपके माथे पर झपट्टा मारना चाहा; लेकिन वह असफल रहा। उसी समय गुरुदेव ने अपने आप बोलने की कृपा की-‘भाग रे दुष्ट! भाग, पिता के रहते पुत्र को ले जाएगा? कदापि नहीं।’
जबतक परमाराध्य गुरुदेव शरीर में रहे, तबतक आप उनकी सेवा में छाया की भाँति अनवरत लीन रहे। 1949 ई0 से 1986 ई0 के 8 जून तक आप गुरु-सेवा के अलावे अपने निजी काम से कहीं नहीं गये। घर-परिवार को आपने कभी नहीं देखा। इस तरह का त्याग आपने जीवन में पूरा किया। इस त्याग का परिणाम गुरुदेव की कृपा भी आप पर ऐसी हुई कि गुरुदेव स्पष्ट रूप से आपको अपना उत्तराधिकारी मान लिया। यह सौभाग्य किसी को प्राप्त नहीं हुआ।
सन्तमत-प्रचार
गुरुदेव के महाप्रयाण के बाद संतमत-सत्संग- प्रचार का सारा भार आपपर आ गया। 1987 ई0 में अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का आयोजन बिहार राज्य के अररिया जिलान्तर्गत सैदाबाद ग्राम में सम्पन्न हुआ। इस महाधिवेशन में आपके प्रवचन से लोग बहुत प्रभावित हुए। भारत के प्रमुख तीर्थस्थल चित्रकूट में अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का महाधिवेशन हुआ। उसमें देश के प्रायः अधिकांश प्रान्तों के धर्मप्रेमीगण भाग लिये थे। वहाँ भी आपके प्रवचन से लोग काफी प्रभावित हुए।
इस तरह 1993 ई0 तक महाधिवेशन होते आया। कुछ राजनीतिक लोगों के चलते अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महासभा दो भागों में बँट गयी। दो महासभा हो गयी। दोनों का गठन अलग-अलग हो गया और अलग महाधिवेशन भी होने लगे। लेकिन आपके तत्त्वावधान में जहाँ भी महाधिवेशन होता था, बड़े ही विराट् और भव्यरूप में। लाखों की भीड़ महाधिवेशन में रहती थी। आपके प्रवचन से लोग इतने प्रभावित होते थे कि बीच-बीच में हर्ष के रूप में ‘गुरु महाराज की जय’ की ध्वनि से सारा पंडाल गुंजित हो जाता था।
इस तरह भारत की राजधानी दिल्ली के छत्तरपुर में भी महाधिवेशन हुआ। इस महाधिवेशन में जैन मुनिजी महाराज आपके प्रवचन से इतने प्रभावित हुए कि आपसे दीक्षा ग्रहण कर लिये।
1997 ई0 में उत्तराखंड के महान तीर्थ ऋषिकेश में अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का महाधिवेशन था। आपके ठहरने की व्यवस्था परमार्थ निकेतन में किया गया था। जब आप परमार्थ निकेतन की ओर चले तो आपके स्वागत में सैकड़ों सत्संगीगण दो किलोमीटर तक सद्गुरु महाराज की जय का नारा लगाते आपके पीछे-पीछे चल रहे थे। जब आप लक्ष्मणझूला के निकट सत्संग आश्रम में पहुँचे, तो आश्रम की ओर से सबों को स्वागत के रूप में शर्बत पिलाया गया। लक्ष्मणझूला से आपको कारगाड़ी से परमार्थ निकेतन ले गये। परमार्थ निकेतन के चेयरमैन मुनि श्रीचिदानंदजी सरस्वती ने आपका स्वागत किया।
इस महाधिवेशन के स्वागताध्यक्ष स्वामी चिदानंद सरस्वती जी ही थे। जब ये महाधिवेशन में स्वागत-भाषण करने लगे, तो बड़ी उदारता से बोले, ‘इनको मैं सद्गुरु मानता हूँ। ये महर्षि हैं, ये परमहंस हैं। आस्ट्रेलिया के एक जिज्ञासु स्वामी चिदानंद सरस्वतीजी से दीक्षा लेने आये थे। उनको कहा, ‘मुझसे दीक्षा क्या लोगे? मेरे यहाँ बड़े महात्मा आये हैं, उनसे दीक्षा लो।’ पूज्य महर्षि संतसेवीजी महाराज से ही उनको दीक्षा दिलवाये। यह थी मुनिजी की उदारता और आपके प्रति श्रद्धाभाव। इस महाधिवेशन के अवसर पर महामंडलेश्वर श्रीजगदीशपुरीजी महाराज अपना उद्गार प्रकट करते हुए बोले, ‘महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का मैं दर्शन नहीं कर सका; लेकिन आपलोगों का दर्शन उन्हीं के रूप में कर रहा हूँ। संतों की महिमा अपार है। जब भगीरथ जी गंगा माता से प्रार्थना करने लगे कि धरती पर आप चलें। तो गंगा माई ने कहा, ‘देखो भगीरथ! धरती पर बहुत पापी लोग रहते हैं। जब मैं धरती पर जाऊँगी, तो पापी लोग सभी पाप मेरे अंदर धोयेंगे। मैं पापों से भर जाऊँगी।’ भगीरथ ने कहा, ‘माताजी! पृथ्वी पर केवल पापी लोग ही नहीं रहते हैं, वहाँ संतगण भी विराजते हैं। जब आपके अंदर संतों के चरण पड़ जायेंगे, तो सभी पाप धूल जायेंगे। संतों की सर्वोपरि महिमा यही है कि वे गंगा को भी पावन करते हैं। इसी अवसर पर हरिद्वार के मायापुरी महामंडलेश्वर स्वामी श्री श्यामसुन्दर दासजी महाराज का भी प्रवचन हुआ। उन्होंने अपने प्रवचन शुरू करने के पहले बोले, ‘जगद्गुरु स्वामी रामानुज महाराज की जय! जगद्गुरु श्रीरामानंद स्वामीजी महाराज की जय! जगद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की जय! और अंत में बोले-‘जगद्गुरु स्वामी संतसेवीजी महाराज की जय!’ यह सुनते ही श्रोतागण बड़े जोर से हर्ष करने लगे। इस महाधिवेशन पूरा ऋषिकेश सत्संगमय हो गया था। इस अखिल भारतीय संतमत-सत्संग में प्रायः अधिकांश प्रांतों के सत्संग-प्रेमियों ने भाग लिया था। महाधिवेशन का पंडाल वानप्रस्थ आश्रम के प्रांगण में बनाया गया था।
झारखंड प्रान्त की राजधानी राँची में अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का वार्षिक महाधिवेशन हुआ। उस अधिवेशन में आपके प्रवचन की ही प्रधानता रही। बहुत धर्मप्रेमियों ने आपसे दीक्षा ग्रहण किया। अनेक प्रांतों के सत्संगियों ने इसमें भाग लिया था। गुरुदेव के महाप्रयाण के बाद आपसे लाख से अधिक लोगों ने आपसे दीक्षा ली।
विश्वविख्यात नगर मुम्बई में श्रीमन्नारायण स्वामी के सत्संग का बृहत् आयोजन था। उसमें आपको भी आमंत्रित किया गया। एक महीने का आयोजन था। लोगों को बैठने के लिए लाखों कुर्सियाँ लगी हुई थीं। उस आयोजन में जब आपका प्रवचन हुआ, 15 मिनट में 9 बार करतल ध्वनि श्रोताओं की ओर से की गयी। आपके प्रवचन के समय स्वामी श्रीचिदानंद सरस्वती, स्वामी सुशील मुनि भी मंच पर विराजमान थे। मंच पर आपके स्वागत में प्रमुख स्वामीजी महाराज ने अपने कर-कमलों से द्वारा पुष्प की माला आपके गले में डाली थी। आपके प्रवचन और प्रतिभा से लोग बड़े प्रभावित हुए।
एक बार भागलपुर विश्वविद्यालय में आपका अध्यात्म पर प्रवचन हुआ। आपने अपने प्रवचन में कहा-‘हमारे गुरुदेव महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने अन्तस्साधना की व्याख्या जिस तरह सिलसिलेवार की है, वैसी शायद किन्हीं संतों की वाणियों में नहीं मिलेगी।’ एक प्रोफेसर ने आपसे पूछा कि ‘वह कौन-सी साधना है, जो आपके गुरुदेव ने सिलसिलेवार से व्याख्या की है।’ आपने कहा, ‘जब आप दीक्षा लेंगे, तभी उस साधना को समझ सकेंगे।’ आप प्रत्युत्पन्नमति थे। किस विषय को किस तरह, कहाँ, कैसे प्रस्तुत करेंगे, इसकी अद्भुत क्षमता आपमें थी।
1989 ई0 के नवम्बर माह में हरियाणा प्रांत के करणाल शहर में मानव-सेवा संघ के प्रांगण में तीन दिनों का सत्संग हुआ था। सत्संग का आयोजन श्रीरामावतार प्रेमशंकर गौतमजी ने किया था। बहुत अच्छे ढंग से पंडाल का निर्माण किया गया था। तीनों दिन के प्रवचन से श्रोतागण बहुत प्रभावित हुए। आपने इस अवसर पर अपने प्रवचन में कहा, ‘जितने लोग आस्तिक बुद्धि के हैं, चाहे वे ईसाई, वैदिक, इस्लाम, बौद्ध, जैन, सिख आदि कोई क्यों न हों, सबके प्रभु एक हैं। सारी सृष्टि के प्रभु एक हैं। सभी ईश्वरवादी उस परमात्मा की स्तुति किसी-न-किसी रूप में करते हैं, चाहे उसकी संज्ञा हम जो भी दे दें। स्तुति कहें, प्रेयर कहें अथवा नमाज कहें-एक ही बात है। भले ही लोग राम या ब्रह्म कहें, खुदा या अल्लाह कहें, गॉड या स्वर्गस्थ पिता कहें; स्वरूपतः वे एक ही हैं। भाषा में भिन्नता है, पर तत्त्वरूप में अभिन्न है। इस सत्संग के द्वारा ईश्वरस्वरूप का ज्ञान दिया जाता है।
महर्षि संतसेवीजी महाराज की शारीरिक क्षमता:
श्यामलवर्ण, न ज्यादे लंबे, न नाटे, छरहरा शरीर, स्फूर्ति तन, जब आप टहलने निकलते थे, तो इतनी तेजी से चलते थे कि आपके पीछे-पीछे चलनेवाले को दौड़ना पड़ता था। प्रायः स्वस्थ ही रहा करते थे। कभी-कभी आपको सिरदर्द (माइग्रेन) थोड़ी परेशानी होती थी। आपको हाई ब्लडप्रेशर (उच्च रक्तचाप) भी था; लेकिन इतने संयम रहते थे कि रोगों का कोई खास प्रभाव आपपर नहीं पड़ता था।
एक बार आप सत्संग-प्रचार के सिलसिले में पंजाब गये। वहाँ आपको डेंगू ज्वर हो गया। पंजाब से आप दिल्ली चले आये। दिल्ली के डॉक्टर ने जब आपकी गंभीर स्थिति देखी, तो वे लोग दंग हो गये। प्लेटलेट (खून की स्थिति) जहाँ चार लाख होना चाहिए, वहाँ आपके शरीर में मात्र ग्यारह हजार प्लेटलेट था। इस अवस्था में शायद ही कोई रोगी बच पाते हैं; लेकिन आपपर इसका कोई प्रभाव नहीं था। डॉक्टर लोग इलाज करने से मुकर रहे थे। वहीं के एक डार्ट के बड़े डॉक्टर थे। उनको जब मालूम हुआ तो वे आये और डॉक्टरों से कहा-‘तुमलोग घबराओ नहीं। इनके साथ बहुत बड़ी शक्ति है। देखते हो, उस शक्ति के प्रभाव के कारण इनपर डेंगू ज्वर का कोई प्रभाव है? तुमलोग निस्संकोच इलाज करो।’ तब डॉक्टर लोग इलाज करने लगे। सबसे पहले इनको खून चढ़ाया गया। खून को वैसे ही नहीं चढ़ाये, पहले उसको रिफाइन किया गया, तब इनको खून चढ़ाया गया। धीरे-धीरे स्वास्थ्य में सुधार होने लगा। कई महीने के इलाज होने पर तब आप पूर्ण स्वस्थ हो गये। यह थी इनके ऊपर गुरुदेव की कृपा शक्ति। जबतक आप स्वस्थ रहे, घोर-से-घोर देहात में आप सत्संग-प्रचारार्थ जाते रहे। आपके समय में पूर्ववत् महाधिवेशन, जिला वार्षिक अधिवेशन का आयोजन बड़े ही बृहत् रूप में होते रहे। आपसे लाखों लोगों ने दीक्षा ली।
महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट में भी जब आप रहते थे, तो दर्शनार्थियों की भीड़ लगी रहती थी। जाड़े के मौसम में आप अपने निवास के दो मंजिलें मकान में धूप लगाने के ख्याल से वहीं स्नान-भोजन करते थे। दर्शनार्थियों की काफी भीड़ हो जाती थी। जब आप ऊपर से लोगों को दर्शन देते थे, तो लोग प्रसन्न और गद्गद हो जाते थे।
आश्रम में आप नियमित रूप से सत्संग करते थे। टहलने के समय टहलने जाते थे। परमाराध्य गुरुदेव की समाधि से पश्चिम और उत्तर की जमीन में फुलवाड़ी लगाई गई है। फुलवाड़ी निराली ढंग से बनायी गई है। उसमें तरह-तरह के फूल लगाये गये हैं। आपके टहलने के लिए फूल की क्यारियों के बीच में पक्की रास्ता बनाया गया है, उसी रास्ते पर आप टहलते हैं। आज वह फुलवाड़ी दर्शनीय बन गयी है। गुरुदेव के समाधि-मंदिर तक एक पुल बनवा दिया गया है, उस पुल पर से फुलवाड़ी की शोभा को देखते हैं। 

1- प्रोफेसर नजीर मुहम्मद
एम0ए0, पीएच0डी0, डी0लिट्0,
अध्यक्ष हिन्दी विभाग,
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (उ0प्र0)
महर्षि संतसेवीजी महाराज के जीवन में सदाचार और स्वावलंबन को महत्त्वपूर्ण माना है। महर्षि संतसेवीजी महाराज ने योग-साधना के लिए सद्गुरु की अनिवार्यता को सर्वोपरि माना है; क्योंकि संत-सद्गुरु मानव में पाशविक और दानवीय दुर्वृत्ति दूर कर विशुद्ध मानवीय गुणों को भरकर वस्तुतः मानव बना देते हैं। इतना ही नहीं, वे मानव से सिद्ध, सिद्ध से देव और देव से ब्रह्म बना देते हैं। वहीं दूसरी ओर उन्होंने सदाचार समन्वित जीवन को योग-साधना की आधारशिला माना है। उनके अनुसार सदाचार का पालन करो। पंच पापों अर्थात् झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से पृथक् रहो और भक्ति में अनुरक्त रहो। जीवन-यापन के लिए सच्ची कमाई करो। अपने देश का कल्याण करो, फिर संसार का भी कल्याण हो जाएगा।
महर्षि संतसेवीजी महाराज ईश्वर-भक्ति और सदाचार की अन्योन्याश्रित महत्ता बतलाते हुए कहते हैं-‘यह सुनिश्चित है कि जो भक्ति करके सदाचार का पालन करेंगे, उनका अंतःकरण शुद्ध और शान्त होगा। फलतः सदाचारी का जीवन निर्विकारी और परोपकारी होना स्वाभाविक है। ऐसे जन जीवनकाल में मंगलमय प्रभु को पाकर अपने मानव-जीवन को मंगलमय बना सकेंगे। यही भी स्वाभाविक ही है। स्मरण रहे कि बूँद का ही समष्टि रूप सिन्धु होता है और व्यक्ति का समूह समाज, देश और विश्व होता है।
अतएव प्रथम हम स्वयं को सन्मार्ग पर चलकर उस शान्ति का अनुभव करें। पश्चात् वही शान्ति-किरण विकिर्णित होकर सभी देश और विश्व में शान्ति स्थापित करेगी। अन्यथा ‘पानी मिलै न आपको, औरन बख्शत क्षीर’ की चरितार्थता का घोर प्रयास कर सफलता प्राप्त करने में कदापि सक्षम नहीं हो सकता।


2- डॉ0 रामेश्वर तिवारी
एम0ए0, पी-एच0डी0, हिन्दी विभाग,
शासकीय महाविद्यालय, पंचमढ़ी, मध्यप्रदेश
महर्षि संतसेवीजी महाराज ने जीवन में सदाचार और स्वावलंबन को महत्त्वपूर्ण माना है। इन्होंने इस संसार में रहते हुए ही हंस के समान जीवन-यापन की बात कही है। प्रेम की संकुचित दायरे से बाहर निकालकर विश्वबंधुत्व में स्थापित करने का प्रयोजन बतलाया है। अतः इस संसार में रहकर ही उस परम तत्त्व को प्राप्त करना अभीष्ट है। मन सभी मूढ़ताओं का मूल है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि विकारों से जबतक व्यक्ति मुक्त नहीं होता है, तबतक ईश्वर का उसके साथ योग संभव नहीं। व्यक्ति के आचार-विचार और आहार-विहार में संयम जरूरी है। सात्विक आहार और सादगीपूर्ण जीवन को विशेष महत्त्व दिया गया है।
महर्षि संतसेवीजी दुःख, सुख, आवागमन के चक्र से मुक्त होने हेतु धैर्य धारण कर सदुपदेश करते हुए भगवद्भजन करने का आग्रह करते हैं। उनके अनुसार-‘भूत अर्थात् अतीत तो व्यतीत हो चुका, भविष्यत् अज्ञात है, वर्तमान हमारे साथ है, हाथ है। अतएव हम वर्तमान को बनायें, भविष्यत् बनेगा। इसी से दुःख का प्रहाण और सुख का विहान होगा।
निष्कर्षतः महर्षि संतसेवी का साहित्य 20वीं- 21वीं सदी के संक्रमण काल की वैचारिक एवं सांस्कृतिक गति का निर्देशन कराता है।
महाप्राज्ञ महर्षि संतसेवी जी महाराज का साहित्य ही नहीं, जीवन भी इस चेतना का वाहक बना है। ये सच्चे अर्थों में संत हैं; क्योंकि भारत की उदात्त आध्यात्मिक परंपरा के अनुसार, ‘जिन्हें हम संत पुरुष कहते हैं, वे प्राणिमात्र के अहैतुक मित्र होते हैं, जो मन, वचन, कर्म से जीवमात्र के कल्याण की भावना से अनुप्राणित रहते-बरतते हैं।’ महर्षि संतसेवीजी महाराज का रचनात्मक व्यक्तित्व संघर्ष और सामंजस्य का आध्यात्मिक प्रतिमान देता है।

3- डॉ0 तपेश्वरनाथ
एम0ए0, पीएच0डी0, डी0लिट्0
यूनिवर्सिटी प्रोफेसर हिन्दी विभाग
तिलकामाँझी भागलपुर विश्वविद्यालय (बिहार)
महर्षि संतसेवी जी योगमार्ग के आधुनिक संत हैं। वे संतमत के विख्यात संत महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के पट्ट शिष्य हैं। इनकी साधनात्मक उपलब्धि को जानने के लिए इनकी रचनाओं का वैचारिक वर्गीकरण पहले आवश्यक है। तो इस दृष्टि से इनकी रचनाओं के मुख्यतः छह वर्ग हैं-1- योगपरक, 2- आधारपरक, 3- वैराग्य परक, 4- भक्तिपरक, 5- सत्संग परक, 6- संत स्वभावपरक।
महर्षि संतसेवीजी विद्वान साधक हैं। अतः किसी तथ्य की संपुष्टि में ये वेद-पुराण, गीता, उपनिषद्, योगसूत्र आदि के सूत्रें के साक्ष्य दिये बिना नहीं रह सके। यही प्रामाणिक चिंतन व प्रतिपादनविधि है। संतों ने आत्मज्ञान पर बल दिया है। पर महर्षि संतसेवीजी ने अपने प्रतिपादन में प्रतिपादन और शास्त्रज्ञान दोनों का योग उपस्थित किया है। सिद्ध गुरुओं में जैसे गोरखनाथ थे, निर्गुण संतों में जैसे सुन्दरदासजी बहुपठित थे, वैसे ही आधुनिक संतों में आप विद्वान और सम्मान्य हैं। तभी तो आपके गुरुदेव ने आपको अपना मस्तिष्क कहा है।

4- प्रो0 भरत प्रसाद शर्मा
समायोजन भू0ना0म0 विश्वविद्यालय, मधेपुरा
सह अध्यक्ष हिन्दी विभाग,
दर्शन साह महाविद्यालय, कटिहार (बिहार)
‘ढाई अक्षर प्रेम का’ पढ़ानेवाले और उसकी अतल गहराई एवं अछोर व्याप्ति में अवगाहन करनेवाले महर्षि संतसेवीजी संत-परंपरा के सिद्ध पुरुष संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के संकल्पित समर्पित साधक शिष्य हैं। इन्होंने ‘श्रीगुरु चरण सरोज रज’ से ‘निज मन मुकुर’ को सुधारने एवं निर्मल करने का जो नैष्ठिक निर्णय अपने बाल्यकाल में ही लिया था, उसे जीवन में क्रियान्वित किया है। ये अपने सेव्य गुरु की छाया ही बन गये। इनकी निश्छल, हार्दिक सेवा-भावना एवं अटूट भक्ति के कारण गुरु की करुणा भी विगलित हुए बिना न रह सकी। अपने प्रधान शिष्य का स्थान देकर संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमंहसजी ने इनके आध्यात्मिक संस्कार का द्वारा खोल दिया। धीरे-धीरे इनके मन-मानस उर्वर-उर्मिल होता गया। फिर तो इन्हें तत्त्वज्ञान की सम्बोधि भी मिली। इन्हें जन-समाज उसी तरह पहचानने लगा, जिस तरह से गौतम बुद्ध के आनंद तथा रामकृष्ण परमहंस के साथ स्वामी विवेकानंद को पहचानता आया था।
गुरु की अथक सेवा के कारण उनके विश्वास और स्नेह का जो प्रसाद इन्हें उपलब्ध होता रहा, उसका क्रम अनवरत चला रहा। इस अभिन्न सन्निधि के कारण ये अहर्निश गुरु-कथन को टहलते, बैठते, घूमते, सभा-सम्मेलनों, साक्षात्कारों, मिलन-पर्वों आदि अवसरों पर अंकित-टंकित करते रहे और अंततः उन वाणियों को मुद्रित करवाकर जन समाज का व्यापक कल्याण करते रहे। संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस की अमृतवाणी से वैयक्तिक स्तर पर तो इनके ज्ञान-चक्षु निरंतर उन्मीलन होता ही रहा। अधिकारी शिष्य और संस्था के उत्तराधिकारी की हैसियत से इन्होंने व्यापक जन-समाज को प्रेस-पत्रिका एक पुस्तक प्रकाशन के माध्यम से गुरु के दिव्य वचनामृत का भरसक पान कराया। इस विराट श्रमयज्ञ को ज्ञानकांड बनाने में महर्षि संतसेवी को कितना खून-पसीना एक करना पड़ा होगा, कितना धैर्य एवं कितनी सन्नद्धता रखनी पड़ी होगी, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता है। गुरु की दिनचर्या के साथ दिन-रात संलग्न रहने के कारण इन्हें तो सदा उत्कर्ण एवं एकाग्र रहकर बड़े मनोयोग से गुरु के उपदेशों का पान करने का सुयोग मिला ही, साथ ही साधक समाज भी आप्यायित हुआ। महर्षि संतसेवीजी ने इस गुरुतर दायित्व को गुरु की अहैतुकी कृपा का प्रसाद मानकर निश्छल-निःस्वार्थ हृदय से ‘त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये’ ही नहीं किया, बल्कि हजारों-लाखों भक्तों को श्रवण-सुलभ भी कराया तथा वाचन-भजन-कीर्तन का विषय बनाकर प्रवचनों को प्रस्तुत और उपस्थित भी किया। वास्तव में इन्होंने अपनी व्यक्ति-वाचकता को तिरोहित कर संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस की वाणी को सार्वजनीन बनाने में अद्भुत सार्थकता महसूस की और संभाषण, लेखन, पत्र-व्यवहार, पत्रिका-प्रकाशन एवं पुस्तक प्रकाशन द्वारा जन-जन तक ज्ञान-संदेश का वतरण किया। इस पूरे प्रकरण में इनका प्रयास अप्रतिम रहा। महर्षि संतसेवी की सम्पादन कला का शिखर ग्रंथ ‘महर्षि जन्मशती अभिनंदन-ग्रंथ’ है। सन् 1984 ई0 में प्रकाशित 500 पृष्ठों का यह सचित्र विशालग्रंथ संत मेँहीँ की साधना, दर्शन एवं व्यक्तित्व का महान आकर ग्रंथ है।
अंततः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि महर्षि संतसेवीजी में पत्र, पत्रिका, पुस्तक आदि के संपादन- प्रकाशन की एक तलस्पर्शी दृष्टि निस्पृह भावना और प्रकाण्ड पांडित्ययुक्त परोपकारी विनय चेतन हैं, जिसके बल पर इन्होंने सम्पादकीय गरिमा के कला-शिखर को हस्तामलकवत् किया है। ये धन्य हैं।

5- डॉ0 आर0के0 रवि
संसद सदस्य (राज्य सभा)
पूर्व कुलपति, बी0एन0एम0यू0, मधेपुरा;
प्राचार्य टी0पी0 कॉलेज, मधेपुरा (बिहार)
महर्षि संतसेवीजी एक साधक हैं। योग के बल पर उन्होंने साधा है स्वयं को और जाना है मानव कल्याण को। वे महाकारुणिक हैं। इन्होंने ॐ विवेचन, योग-माहात्म्य, सुख-दुःख, जग में ऐसे रहना, गुरु- महिमा आदि अनेक पुस्तकों का प्रणयन किया है। सुख-दुःख सामान्य और विशिष्ट हर प्राणी के जीवन में रात-दिन के समान, छाया और धड़कन की तरह विराजमान हैं। महर्षि संतसेवीजी की पुस्तक-‘सुख-दुःख’ में ये सुख-दुःख, इच्छा की क्रिया और ज्ञान की त्रिवेणी से चिंतन-सलिला बनकर निकलते हैं। ‘सुख-दुःख’ जीवन क्रम और जगत् सत्य के अपरिहार्य नियम हैं। जो वाद-विवाद एवं प्रतिवाद से ऊपर हैं। उन्हें जीवनधारक सुख-दुःख की कैसी अनुभूति करते हैं-उन्हें किस तरह भोगते और पाटते हैं-ढोते और सहलाते हैं-यह निर्भर करता है उस भोक्ता पर, प्राणी पर, उपभोक्ता पर। सच तो यह है कि सुख-दुःख आधारिक और अनिवार्य हैं-धूप-छाँव की तरह, आशा-निराशा की तरह, उत्कर्ष और अपकर्ष की तरह। सुख-दुःख सापेक्ष हैं। एक के बिना दूसरे की अनुभूति नहीं होती। ‘पुरुष’ नहीं होता, तो ‘नारी’ का महत्त्व क्या होता? पराशक्ति-अपरा शक्ति, विद्या और अविद्या माया की कहानी ही क्यों आती? कोई भी व्यक्ति स्वल्पातिस्वल्प काल भी दुःख नहीं चाहता, वह सुख ही चाहता है-ऐसा सुख कि जिसके बाद दुःख न हो, जो शाश्वत हो। सच तो यह है कि बाह्य जगत् में शाश्वत सुख है ही नहीं। महर्षि संतसेवीजी के शब्दों में, ‘बाह्य जगत् में यथार्थतः सुख है ही नहीं, यदि हम नित्य शाश्वत सुख चाहते हैं, तो हमें चाहिए कि अपनी बहिर्वृत्ति को अंतर्मुखी करें। बाह्य जगत् का अवलोकन बंद कर अंतर्जगत् की झाँकी लें।’
महर्षि संतसेवीजी का कथन है, ‘हम अपने मन में इस बात को अच्छी तरह बैठा लें कि परम प्रभु परमात्मा सुखस्वरूप हैं, उनकी प्राप्ति में ही सच्चा सुख मिल सकता है, अन्यथा नहीं। अतएव हम सुख-कामी जन को चाहिए कि भगवद्भक्ति की विधिवत् विधि जानकर मनोयोगपूर्वक साधना करें और संसार के सारे दुःखों से छूटकर अक्षर सुख को प्राप्त करें।
इस प्रकार महर्षि संतसेवीजी का साहित्य भौतिकता से भयाक्रांत और विकल मानव-समाज को महत्तर जीवन-मूल्यों का दिशा-निर्देश देता है-विश्वकल्याण के लिए ऐसे साहित्य की महती आवश्यकता है।

5- डॉ0 कामेश्वर पंकज
एम0ए0, पीएच0डी0
व्याख्याता हिन्दी विभाग
के0बी0 झा महाविद्यालय, कटिहार (बिहार)
महर्षि संतसेवीजी महाराज के टीका-लेखन की प्रेरणा को, उनके गुरुदेव पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के कथन के प्रकाश में देखा जाए, तो बेहतर है। इससे महर्षि संतसेवीजी की टीकाओं को भलीभाँति समझा जा सकता है। पूज्यपाद संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस ने ‘संतवाणी सटीक’ की भूमिका में लिखा है- “ संतों की वाणी संतों की अनुभूतियों और अनुभवों का अगम और अपार सिन्धु है। संतों का अनुभव योग-समाधि का अनुभव है, जो योग-अभ्यास की अन्तिम प्रत्यक्षता है, न कि केवल सोच-विचार का साहित्यिक अनुभव। ऐसे समुद्र में उसके ऊपरी तल में भी गोता लगाना अति दुर्लभ है, फिर उसके अन्तर की तह के अंत तक पहुँचकर उसका पूर्ण ज्ञाता बनना विकट से भी विकट, दुर्लभ से भी दुर्लभ और अद्वितीय महान कार्य हैं।
संतों ने ज्ञान और योग-युक्त ईश्वर-भक्ति को अपनाया। ईश्वर के प्रति अपना प्रगाढ़ प्रेम अपनी वाणियों में दर्शाया है। उनकी यह प्रेमधारा ज्ञान से सुसंस्कृत तथा सुरत-शब्द के सरलतम योग-अभ्यास से बलवती होकर, प्रखर और प्रबल रूप से बढ़ती हुई अनुभूतियों और अनुभव से एकीभूत हो गई थी, जहाँ उन्हें ईश्वर का साक्षात्कार हुआ और परम मोक्ष प्राप्त हुआ था। उनकी वाणी उन्हीं गम्भीरतम अनुभूतियों और सर्वोच्च अनुभव को अभिव्यक्त करने की क्षमता से सम्पन्न और अधिकाधिक समर्थ है।” इसी सामर्थ्य से अभिभूत होकर महर्षि संतसेवीजी महाराज पूज्यपाद परमाराध्य संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस सहित अन्य संतों की वाणी की टीका लिखने में प्रवृत्त हुए और यह उनका गुरुतर दायित्व भी है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि ये टीकाएँ हिन्दी-संत-साहित्य की अक्षय निधि है।

6- डॉ0 नवीन कुमार झा
एम0ए0, पीएच0डी0
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
महाप्राज्ञ महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज कृत ‘योग-माहात्म्य’ नाम ग्रन्थरत्न के आद्योपांत अवलोकन से संत प्रवर की तलस्पर्शिनी दृष्टि का पूर्ण परिचय प्राप्त हो जाता है। इनकी सरल-सुबोध व्याख्या-पद्धति तथ्यात्मक संश्लेषण-विश्लेषण के माध्यम से शास्त्र को न जाननेवाला जिज्ञासु व्यक्ति भी अधिकृत होकर विषय में प्रवृत्त हो सकता है। महर्षि संतसेवीजी महाराज ने अनेक ग्रंथों को पुष्कल प्रमाणों को उपस्थापित करते हुए विषय का संक्षिप्त; किन्तु सारवान तथा सांगोपांग विवेचन प्रस्तुत किया है। योग-दर्शन जैसे गूढ़ विषय का एतादृक सरल प्रतिपादन कोई सामान्य बात नहीं है। मेरी दृष्टि में निश्चितरूपेण या उनकी आर्ष-दृष्टि का प्रमाण है।

7- डॉ0 श्रीरंजन सूरिदेव
एम0ए0, पीएच0डी0, डी0लिट्0, पटना, बिहार
महर्षि संतसेवीजी का दार्शनिक चिंतन दुःख से विमुक्ति और आत्यंतिक सुख की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ और उसकी सिद्धि के उपाय का निर्देश करता है। स्वामीजी ने सुख-दुःख पर बहुत ही विवेक- पूर्ण, गंभीर और मौलिक चिंतन वैष्णव-बौद्धदर्शन, विभिन्न नीतिकारों तथा अनेक मध्यकालीन संत कवियों के दार्शनिक मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में, बहुकोणीय दृष्टि से, बहुपथीन मनीषा और अकाटड्ढ आन्वीदिकी के साथ किया है तथा निष्कर्ष रूप में बताया है कि ‘बाह्यजगत् का सुख यथार्थ सुख नहीं है। शाश्वत सुख तो अंतर्जगत् में है। इसलिए यथार्थ सुख की प्राप्ति के निमित्त बहिर्जगत् को देखना छोड़कर अंतर्जगत् की झाँकी लेनी चाहिए। बहिर्मुखी वृत्ति को अंतर्मुखी बनाने से ही सच्ची सुखानुभूति प्राप्त हो सकती है।
अवश्य ही, यहाँ महर्षिजी ने भोग से योग की ओर प्रस्थान का संकेत किया है। महर्षि पतंजलि के प्रसिद्ध योगसूत्र ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ में ‘चित्तवृत्ति निरोध’ का यह अर्थ है-‘बहिर्मुख से अंतर्मुख होना, बाह्यवृत्ति का त्यागकर अंतर्वृत्ति का आश्रय लेना ही योग है। योग की रहस्य भाषा में इसे ‘चक्रारूढ़’ से ‘चक्रस्थ’ होना कहा गया है। महर्षिजी की विवेचन पद्धति इसलिए सहज ग्राह्य होती है कि इन्होंने गूढ़ से गूढ़तर विषय को कथा या दृष्टांत की गूढ़ बातें इसलिए वेद से सरल हो गयी हैं कि वे कथा के माध्यम से विवेचित हुई हैं।
महर्षिजी मूलतः एक साधक हैं। योग की रहस्यात्मकता की स्वीकृति के बावजूद इनका मानना है कि योग ही जीवन है। बिना योग के लौकिक या पारलौकिक कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता। इन्होंने समस्त जागतिक व्यवहार को योगाश्रित कहा है। महर्षि संतसेवीजी के प्रवचनों से हमें ऐसा लगता है कि जैसे इनमें सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस का परकाय-प्रवेश हो गया है।

8- डॉ0 प्रताप सिंह चौहान
एम0ए0, पीएच0डी0, लखीमपुर (उ0प0)
महर्षि संतसेवीजी ने सद्गुरु की महत्ता प्रतिपादित की है। इनके अनुसार-‘किसी भी ज्ञान के लिए गुरु अनिवार्य आवश्यकता होती है। बिना गुरु के ज्ञान नहीं होता, यह सर्वविदित है। अवश्य ही जिस ज्ञान की हमें अपेक्षा रहती है। तद्विषयक कुशल गुरु के निकट हम जाते हैं। उनके निर्देशानुसार हम चलते हैं, अंत में लक्ष्य की प्राप्ति होती है। इसी भाँति पारलौकिक आध्यात्मिक ज्ञान के लिए संत सद्गुरु का सान्निध्य आवश्यक होता है। इनके आदेश और उपदेश के परिवेश में अपने को रखनेवाले का भव क्लेश निःशेष होता है। जैसे एक प्रज्वलित दीपक दूसरे बुझे दीपक को जलाकर उसे उद्दीप्त करता है, वैसे ही साधनासुम्पन्न सुयोग्य संत सद्गुरु अपने सुयोग्य शिष्यों के सुषुप्त संस्कार को जागृत कर उसका अंतः उजागर करते हैं।
महर्षि संतसेवीजी की दृष्टि में सद्गुरु शरीर को नहीं ज्ञान को कहते हैं। वे आध्यात्मिक ज्ञानप्रदायक गुरु को सर्वाधिक उच्च मानते हैं, जो मानव में से पाशविक और दानवीय दुर्वृत्ति दूर कर, विशुद्ध मानवीय गुणों को भरकर, वस्तुतः उसे मानव बना देते हैं। इतना ही नहीं, वे मानव से सिद्ध, सिद्ध से देव और देव से ब्रह्म बना देने की भी क्षमता रखते हैं-बना भी देते हैं। पूरे और सच्चे सद्गुरु के संदर्भ में महर्षि संतसेवीजी का कथन है-‘पूरे गुरु का लौकिक और लोकोत्तर जीवन प्रकाशपूर्ण होता है। ऐसे गुरु के संग से शिष्य का जीवन भी प्रकाशमय हो जाता है। पूरे गुरु का संग करनेवाले को अनंग तंग नहीं करता; क्योंकि वह सही रूप में गुरु का अंतरंग भक्त होता है।’
अतः महर्षि संतसेवीजी की मान्यता है कि जिस प्रकार छतविहीन मकान में सर्दी, धूप और वर्षा के कष्टों से बचा नहीं जा सकता, ठीक उसी भाँति सद्गुरु-विहीन मानव दैहिक, दैविक और भौतिक त्रयतापों से संतप्त होता रहेगा।

9- डॉ0 कृष्ण मुरारि मिश्र
एम0ए0, पीएच0डी0, डी0लिट्0
आचार्य हिन्दी विभाग,
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (उ0प्र0)
महर्षि संतसेवीजी महाराज को अपने देश की आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों और सांस्कृतिक परंपराओं की गहरी जानकारी है। लोकजीवन में विभिन्न ईश्वर-वाचक संज्ञाओं के प्रचलन पर विचार करते हुए वे लिखते हैं-‘एक जमाना था जबकि इस देश में ‘स्त्रीशूद्रोनाधीयताम्’-स्त्री और शूद्र को वेद नहीं पढ़ना चाहिए कि ध्वनि चतुर्दिक मुखरित थी। उस समय ‘ओ3म्’ उच्चारण करने का अधिकार द्विजातियों के अतिरिक्त अन्य किसी जाति को न था। उक्त सामयिक सामाजिक संस्कृति की मर्यादा में व्याघात न हो, इस दृष्टिकोण को अपनाये रहकर ही विभिन्न संतों ने ‘ओ3म्’ को विविध संज्ञाओं से अभिघोषित किया। अतएव संतों की वाणियों में ‘ओ3म्’ का नामांतरण रामनाम, सतनाम, आदिनाम, अविगत नाम, अनाहद नाद, सारशब्द, आदिशब्द प्रभृति विभिन्न नामों के रूप में पाते हैं। इस उद्धरण से स्पष्ट है कि महर्षि संतसेवीजी केवल संत ही नहीं है, बल्कि उन्हें अपने देश की प्रथाओं तथा सामाजिक व्यवस्थाओं का भी गंभीर ज्ञान है।
समग्र विवेचन के उपरांत कहा जा सकता है कि महर्षि संतसेवीजी महाराज का चिंतन निश्चय ही सारग्राही है। उन्होंने विश्व की अनेकानेक परंपराओं के मूल उत्स तक पहुँचने का स्तुत्य प्रयास किया है।

10- डॉ0 गायत्री सिन्हा
एम0ए0, पीएच0डी0, प्रवाचक दर्शन विभाग,
रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर (मध्यप्रदेश)
महर्षि संतसेवीजी महाराज का जन्म एक मध्यवर्गीय परिवार में सन् 1920 ई0 में हुआ। बाल्यकाल से ही इनकी रुचि भगवत्साधना की ओर रही। प्रखर मेधा एवं सूक्ष्म विश्लेषण और असाधारण क्षमता के कारण धर्म, दर्शन और नैतिकता के गूढ़ रहस्यों को जीवन के प्रारंभिक काल में ही इन्होंने जान लिया था। खोज थी तो केवल एक ऐसे गुरु की, जो उचित मार्गदर्शन कराने में सक्षम हो। संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस में इन्होंने सद्गुरु के सभी लक्षणों को पाया एवं पूर्ण समर्पण की भावना से उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस ने प्रथम दृष्टि में ही इन्हें अपने शिष्यत्व के योग्य जाना और इन्हें विभिन्न विषयों की शिक्षा एवं दीक्षा देकर क्रमशः अध्यात्म के मार्ग पर अग्रशील कराते रहे। सद्गुरु को सच्चे शिष्य को खोज करती है, ठीक उसी प्रकार एक सच्चे शिष्य को सद्गुरु की खोज रहती है। यह चाह दोनों में समान रूप से थी एवं जब साक्षात्कार हुआ, तो गुरु ने अपने शिष्य को ठीक उसी प्रकार पहचान लिया, जैसे श्रीरामकृष्ण परमहंस ने स्वामी विवेकानंद को पहचान लिया था। संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस के मानस पुत्र महर्षि संतसेवी जी ने 1957 में विधिवत् संन्यास ग्रहण किया एवं देश के कोने-कोने में अपने प्रवचनों से श्रोताओं को न केवल मंत्रमुग्ध किया, अपितु अनेक भक्तों को दीक्षा देकर साधना का पथ आलोकित किया। इन्होंने भागलपुर के कुप्पाघाट को ही अपनी तपस्थली बनाया।
अपने गुरु की वाणी ‘अनासक्त जग में रहो भाई। दमन करो इंद्रिन दुःखदाई।।’ में इन्हें जीवन का वास्तविक सार समझ में आया। ये जहाँ एक ओर वेद, उपनिषद्, गीता और वेदान्त से प्रभावित रहे, वहीं दूसरी ओर भगवान बुद्ध, महावीर, संत कबीर, गुरु नानक, सूफी संप्रदाय, गो0 तुलसीदास, श्रीरामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद एवं संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ के विचारों से भी अत्यन्त प्रभावित रहे। इन्होंने इन संतों के उपदेशों को अपना पाथेय बनाया एवं अपने प्रवचनों में एक मौलिकता के साथ प्राचीन एवं अर्वाचीन विचारों का सुंदर समायोजन किया। इनकी कृतियों को यदि ‘गागर में सागर’ कहा जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इनके उपदेश जनसाधारण के हृदय को स्पर्श करने की क्षमता रखते हैं। आज महर्षि संतसेवीजी महाराज का संत-परम्परा में एक विशिष्ट स्थान है।

11- डॉ0 रामपूजन तिवारी
एम0ए0, पीएच0डी0, पूर्व रीडर, हिन्दी विभाग,
विश्वभारती शान्ति-निकेतन, (पश्चिम बंगाल)
वर्तमान समय में संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस के उत्तराधिकारी महर्षि संतसेवीजी इस पावन आध्यात्मिक ज्ञान को जन-जन तक पहुँचाने के स्तुत्य कार्य किये हैं। इनकी मान्यता है कि ‘संसार में सब ज्ञानों में श्रेष्ठ ज्ञान है-अध्यात्म-ज्ञान। यह अनुभव की चीज है, मात्र वाचन की नहीं। इसके बाद जानने के लिए कुछ शेष नहीं रह जाता।’(सुख-दुःख) मानव- जीवन के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए इन्होंने कहा है-‘मानव-जीवन की सार्थकता आत्मदर्शन अथवा परमात्म-स्वरूप के प्रत्यक्षीकरण में है और इसी में शाश्वत सुख, शान्ति तथा कल्याण भी निहित है। इसे हम दृढ़तापूर्वक हृदय में धारण करें। सदाचार को जीवन की आधारशिला बतलाते हुए ये कहते हैं-‘जहाँ सदाचार है, वहीं चमत्कार है। जहाँ सदाचार नहीं है, वहाँ मात्र दिखावे के चमत्कार का कोई महत्त्व नहीं। जहाँ सदाचार का पालन होगा, वहाँ से मिथ्याचार, अनाचार, अत्याचार, व्यभिचार आदि समस्त दुर्गुण उसी प्रकार दूरीभूत होंगे, जिस प्रकार सूर्योदय होने पर अंधकार का साम्राज्य। ईश्वर-प्राप्ति के लिए इन्होंने मानव-शरीर की महत्ता की ओर संकेत करते हुए कहा है-‘ईश्वर न तो मंदिर में मिलते हैं और न मस्जिद में। उनकी प्राप्ति का एक ही मार्ग है-अंतस्साधना, जो शरीर के अंदर है। शरीर ही मंदिर और मस्जिद है।
महर्षि संतसेवीजी के ही शब्दों में कहा जा सकता है कि मानव-समाज के लिए मूल मंत्र है- ‘सदाचार का पालन करो अर्थात् झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच महापापों से विरत रहो, संयमित जीवन व्यतीत करो। सत्यता के साथ श्रम करके जो संपत्ति प्राप्त हो, उसमें संतुष्ट रहो और सर्वेश्वर की प्राप्ति का साधन भी करो। जगत् की ओट में जगदीश है। जगत् के स्थूल-सूक्ष्मादि आवरणों का अतिक्रमण किये बिना अखिलेश का अपरोक्ष ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए ऐसी साधना करो, जिससे जीवनकाल में ही उसका प्रत्यक्षीकरण कर सको।’
निस्संदेह संत सद्गुरु महर्षि परमहंसजी महाराज एवं उनके परम प्रिय शिष्य महर्षि संतसेवीजी महाराज दुनिया और समाज के लिए रक्षाकवच की तरह हैं। ऐसे संतों का प्रादुर्भाव जगत् के कल्याण के लिए होता है।


12- डॉ0 गुरुनाम कौर वेदी
एम0ए0, पीएच0डी0, डी0लिट्0
राजकीय महाविद्यालय, अमृतसर (पंजाब)
महर्षि संतसेवीजी ने ‘ॐ विवेचन’ पुस्तक में ‘ॐ’ शब्द पर गंभीर चर्चा की है। उनकी मान्यता है कि ‘ॐ’ को जाने बिना सृष्टि के रहस्य को नहीं समझा जा सकता। ‘ॐ’ के दार्शनिक रहस्य पर इस पुस्तक में गंभीर चिंतन है। गुरुवाणी के मूल में भी परम सत्ता के अस्तित्व पर विचार किया गया है। गुरु वाणी में यह प्रश्न बार-बार उठाया गया है कि सृष्टि के रचनाकार कौन हैं? सृष्टि की रचना कब और कैसे हुई? ईश्वर की सृष्टि-रचना के पीछे उद्देश्य क्या है? इस सृष्टि में विचरते हुए मानव को इसका उपभोग कैसे करना चाहिए? गुरुवाणी का मूल मंत्र है-‘1 ॐ सतिनाम करता पुरख निरभउ निरवैर अकालमूरति अजूनी सैभं गुरप्रसादि।’ और सृष्टि के बारे में कहा गया है-
‘कीता पसाउ एको कवाउ।
तिस ते होइ लख दरिआउ ।’
साचे ते पवना भइआ पवनै ते जलु होइ ।।
जल ते त्रिभवनु साजिआ घटि घटि जोति समोइ ।।
कवणु सु वेला वखतु कवणु कवण थिति कवणु वारु ।।
कवणि सि रुती माहु कवणु जितु होआ आकारु ।।
वेल न पाइआ पंडती जि होव लेखु पुराणु ।।
वखतु न पाइउ कादीआ जि लिखनि लेखु कुराणु ।।
थिति वारु न जोगी जाणै रुति माहु न कीजै ।।
जा करता सिरठी कउ साजे आपे जाणै सोई ।।
महर्षि संतसेवीजी ‘सुख-दुःख’ के बारे में भी सांसारिक प्राणियों को जागरूक करना चाहते हैं। वे सुख-दुःख में सम रहने तथा इस समत्व के लिए ‘शम’ के साधन का निर्देशन करते हैं। गुरुवाणी की मूल चेतना भी यही है-
जो नर दुख में दुख नहिं मानै ।
सुख सनेह अरु भय नहिं जाके, कंचन माटी जानै ।।
नहिं निंदा नहिं अस्तुति जाके, लोभ मोह अभिमाना ।
हरष सोक तें रहै नियारो, नाहिं मान अपमाना ।।
आसा मनसा सकल त्यागिकै, जग तें रहै निरासा ।
काम क्रोध जेहि परसै नाहिन, तेहि घट ब्रह्म निवासा ।।
गुरु किरपा जेहिं नर पै कीन्हीं, तिन्ह यह जुगति पिछानी ।
नानक लीन भयो गोबिंद सों, ज्यों पानी सँग पानी ।।
महर्षि संतसेवीजी पर गुरुवाणी का गहरा प्रभाव है। महर्षि संतसेवीजी के प्रवचन गुरुवाणी की चेतना से ओतप्रोत है। महर्षि संतसेवीजी महाराज सिखधर्म के आस्था संसार से जुड़े हुए हैं। महान् पुरुषों के लिए धर्म और सम्प्रदाय की कोई सीमा नहीं होती। महर्षि संतसेवीजी ऐसे ही महान पुरुषों में से एक हैं। इनके ‘व्यक्तित्व एवं कृतित्व’ पर जो अभिनंदन ग्रंथ लिखा गया है, वह आधुनिक समाज उसका खुले मन से स्वागत कर रहे हैं। मैं निजी तौर पर महर्षि संतसेवीजी महाराज को हार्दिक साधुवाद देती हूँ।

13- सेवक सरदार खजान सिंह,
सत्संग-सेवा मंडल
श्रीगुरु नानक गुरुद्वारा, कटिहार (बिहार)
नाम सुमिरण के संबंध में लोगों के बीच भाँति-भाँति के भ्रामक विचार फैले हुए हैं। प्रायः लोगों की मान्यता है कि ‘उलटा नाम जपत जग जाना। वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।।’ पर पूज्यपाद महर्षि संतसेवीजी महाराज ने इन भ्रामक धारणाओं के निराकरण हेतु नाम-सुमिरण की अति वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की है और इसके द्वारा इन उक्तियों के गूढ़ार्थ को सर्वग्राह्य बना दिया है। महर्षि संतसेवीजी ने बतलाया है-
‘वर्णात्मक नाम का उलटा ध्वन्यात्मक नाम होता है और सगुण का उलटा निर्गुण होता है। वर्णात्मक नाम की उत्पत्ति पिंड के नीचे नाभि से होकर ऊपर होंठ पर जाकर उसकी समाप्ति होती है और ध्वन्यात्मक निर्गुण नाम की उत्पत्ति परम प्रभु परमात्मा से होकर नीचे ब्रह्मांड तथा उससे भी नीचे पिंड में व्यापक है। अर्थात् वर्णात्मक नाम की गति नीचे से ऊपर की ओर और ध्वन्यात्मक निर्गुण नाम की गति ऊपर से नीचे की ओर है। इस तरह वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक नाम एक-दूसरे के उलटे हैं। शब्द अपने उद्गम स्थान पर आकर्षण करने का स्वाभाविक गुण है। परमात्मा ने जो सृष्टि की, उसका उपादान कारण उन्होंने निर्गुण रामनाम को ही बनाया। स्थूल- सूक्ष्मादि भेद से सृष्टि के पाँच स्तर हुए और इन पाँचो के निर्माण-निमित्त पाँच केन्द्रों की भी स्थापना हुई। साधक प्रथम निम्नस्तर के केन्द्रीय शब्द को ग्रहण कर उसके आकर्षण से आकृष्ट हो उसके ऊर्ध्व-स्थित केन्द्र में प्रतिष्ठित होता है। पुनः वहाँ के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर उस मंडल के ऊपर के केन्द्र में पहुँचता है। एवं प्रकार प्रत्येक निम्नस्तरीय मंडल के केन्द्रीय शब्द का ग्रहण एवं त्याग करता हुआ, अंत में वह उस आदिनाद निर्गुण शब्द-ब्रह्म को पाकर परब्रह्म को प्राप्त करता है।’ (वही, पृ0 97)
महर्षि संतसेवीजी के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि ‘उलटा नाम’ अर्थात् ध्वन्यात्मक निर्गुण रामनाम का ‘सुमिरण’ कर रत्नाकर डाकू वाल्मीकि ऋषि हुए थे, मात्र वर्णात्मक ‘राम-नाम’ का उलटा ‘मरा-मरा’ जपकर नहीं। अतः आवश्यकता है, ध्वन्यात्मक निर्गुण राम-नाम के ‘सुमिरण’ (ध्यान) की। क्योंकि इस नाम-सुमिरण से ही व्यक्ति शुद्ध होकर ब्रह्मविद् हो जायेंगे। इतना ही नहीं ‘ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति’ के अनुसार वे ब्रह्म ही हो जायेंगे।
इस प्रकार देखा जाता है कि ‘संतमत-सत्संग’ के आचार्य महर्षि संतसेवीजी महाराज ने महान सिख गुरुओं की पावन परंपरा के अनुरूप ही ‘नाम-जप’ और ‘नाम-ध्यान’ को ईश्वर-प्राप्ति का प्रमुख आधार माना है।

14- डॉ0 महेन्द्र प्रसाद साह
एम0एस-सी0, पीएच0डी0, भौतिक विभाग,
डी0एस0 कॉलेज , कटिहार (बिहार)
ॐ विवेचन एवं अन्य पुस्तकों (योग-माहात्म्य, सुख-दुःख, जग में ऐसे रहना इत्यादि) के अध्ययन एवं मनन से प्रतीत होता है कि संतमत के शब्द-विज्ञान से इनके विचारों की पूर्ण सहमति है। फिर समानता हो भी क्यों नहीं?
जे पहुँचे ते कहि गये, तिनकी एकै बाति ।
सबै सयाने एक मत, तिनकी एकै जाति ।।
सृष्टि-निर्माण-संबंधी इनके विचार अन्य संतों के विचारानुकूल है। महर्षि संतसेवीजी महाराज का कथन है-‘भौतिक विज्ञान के अनुसार किसी भी निर्माण या विनाश में कम्प (शब्द) का होना अनिवार्य है। कंप वा गति के बिना जागतिक किसी तत्त्व की स्थिति भी असंभव है। सृष्टि-निर्माण-निमित्त ‘एकोऽहं बहुस्याम्’ की जब सर्वाधार ईश ने ईषणा की, तब एक घोर-शोर ध्वन्यात्मक ध्वनि का आविर्भाव हुआ और उसी ध्वनि (शब्द) से सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ। परमात्मा से सर्वप्रथम इस ध्वनि से प्रस्फुटित होने के कारण इसे स्फोट, आदिनाम तथा ऋषियों-महर्षियों ने ‘ॐ’, उद्गीथ, प्रणव आदि कहा।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि संतमत के शब्द-विज्ञान और भौतिकी के शब्द-विज्ञान में साम्य है। भौतिक विज्ञान बताता है कि सृष्टि के सभी छोटे-बड़े पिंड असंख्य कंपायमान अणुओं से बने हैं। उनके अणुओं का कंपायमान रखने के लिए वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म आवृत्ति के एक ध्वनि-स्त्रोत की चर्चा करता है और ‘संतमत’ का शब्द-विज्ञान भी अखिल विश्व-ब्रह्मांड को सतत गतिशील रखने के लिए-उसे संचालित करने के लिए एक अत्यंत शक्तिशाली आदि ध्वनि-स्त्रोत (परमात्मा) का ज्ञान करता है। वह बतलाता है कि संपूर्ण सृष्टि में परमात्मा से निःसृत शब्द ‘ॐ’ के रूप में सर्वव्यापक है। इसी से सृष्टि हुई है। परमात्म-प्राप्ति के लिए इसका अवलंबन अनिवार्य है।

15- डॉ0 वीरकिशोर सिंह
एम0ए0, पीएच0डी0
व्याख्याता, हिन्दी विभाग
पार्वती साइंस कॉलेज, मधेपुरा (बिहार)
जिन रचनाओं में ‘सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम्’ की समन्वति दृष्टि का प्रतिफलन हो, वही सच्चा साहित्य है। इस प्रकार के साहित्य का अंतिम लक्ष्य ईश्वर-प्राप्ति ही हो सकता है। इन अर्थों में महर्षि संतसेवीजी महाराज निश्चय ही एक सफल साहित्यकार हैं। इनका संपूर्ण साहित्य ‘सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम्’ से ओतप्रोत है। ‘ओ3म् विवेचन’, ‘योग-माहात्म्य’, ‘जग में ऐसे रहना’, ‘गुरु- महिमा’, ‘लोक-परलोक-उपकारी’, ‘सत्य क्या?’, सुख-दुःख’ इत्यादि-ये सब इनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं। इनका साहित्य इनके अनुभव ज्ञान की खान है-इनके आध्यात्मिक जीवन का निचोड़ है। इनके समस्त साहित्य में ईश्वर-स्वरूप, ईशभक्ति की सच्ची अवधारणा, सदाचार, शिष्टाचार और शुच्याचार की महत्ता, भक्त लक्षण तथा स्वावलंबन जैसे आत्मोपयोगी विषयों का सुंदर समावेश हुआ है। इनके साहित्य में आदर्श जीवन जीने की सत्प्रेरणा मिलती है। इनकी रचनाएँ धर्मशास्त्र, वेद-वेदांग-सम्मत एवं संतानुमोदित है। इनका अनुभव-ज्ञान वह प्रकाश स्तंभ है, जिसके आलोक की रश्मियाँ जड़ता के अंधकार को दूर कर देती हैं। इनके इस दिव्यज्ञान से मानवमात्र की परम कल्याण सहज ही संभव है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर स्पष्टतः कहा जा सकता है कि महर्षि संतसेवीजी महाराज का साहित्य लोककल्याण की मांगलिक चेतना का संवाहक है।

16- डॉ0 महेश्वर प्रसाद सिंह
एम0ए0, पीएच0डी0, डी0लिट्0
पूर्व यूनिवर्सिटी प्रोफेसर
डी0एस0 कॉलेज कटिहार (बिहार)
महर्षि संतसेवीजी ने भी योग-साधना में गुरु के महत्त्व तथा उनकी अनिवार्यता पर प्रकाश डाला है। उन्होंने अपनी ‘गुरु-महिमा’ नाम की पुस्तक में बताया है-‘किसी भी ज्ञान के लिए गुरु की अनिवार्य आवश्यकता होती है। बिना गुरु के ज्ञान नहीं होता, यह सर्वविदित है। अवश्य ही जिस ज्ञान की हमें अपेक्षा रहती है, तद्विषयक कुशल गुरु के निकट हम जाते हैं, उनके निर्देशानुकूल चलते हैं; अंत में लक्ष्य की प्राप्ति होती है। इसी भाँति पारलौकिक आध्यात्मिक ज्ञान के लिए संत सद्गुरु का सान्निध्य आवश्यक होता है। उनके आदेश और उपदेश के परिवेश में अपने को रखनेवाले का भव निःशेष होता है। अपनी ‘सत्य क्या?’ नाम की पुस्तक में इनका कथन है-‘गुरु शरीर को नहीं, ज्ञान को कहते हैं। गुरु में ज्ञान और शुद्ध आचरण का होना अनिवार्य है। वैसे ही शिष्य में श्रद्धा और विश्वास का होना अनिवार्य है।’ गुरु-शिष्य के संबंध में ये ‘गुरु-महिमा’ नाम की पुस्तक में कहते हैं-‘जैसे उत्तम खेत में अनुत्तम बीज अथवा अनुत्तम खेत में उत्तम बीज पड़ने से लाभ नहीं होता, वैसे ही अयोग्य शिष्य को सुयोग्य गुरु या सुयोग्य शिष्य को अयोग्य गुरु मिलने से संतोषप्रद फल नहीं मिलता। जैसे उर्वर खेत में सजीव बीज पड़ने से फसल लहलहा उठती है, वैसे ही अधिकारी शिष्य को क्रियावान शुद्धचारी गुरु मिलने से उसकी साधना फलवती होती है। जैसे एक प्रज्वलित प्रदीप दूसरे बुझे हुए दीपक को जलाकर उसे उद्दीप्त करता है, वैसे ही साधनासुसम्पन्न सुयोग्य संत-सद्गुरु अपने सुयोग्य शिष्यों के सुषुप्त संस्कार को जागृत कर उसका अंतः उजागर करते हैं।’ अपनी ‘लोक-परलोक-उपकारी’ नाम की पुस्तक में इनकी उक्ति है-‘संसार सागर का अतिक्रमण करने के लिए सद्गुरु की नितांत आवश्यकता है। अतएव यदि आप अपना परम कल्याण चाहते हैं, तो विषयों की ओर से अपने मुख को मोड़िये और संत-सद्गुरु की शरण ग्रहण कीजिए।’ महर्षि मेँहीँ-जन्मशती अभिनंदन-ग्रंथ के अपने एक आलेख में इन्होंने संत सद्गुरु की प्राप्ति की अनिवार्यता पर बल देते हुए लिखा है-‘यदि सर्वेश्वर में आस्था भी हो और सत्संग भी करते हों; किन्तु संत-सद्गुरु की प्राप्ति नहीं हुई, तो वैसा ही समझना चाहिए, जैसे मकान की नींव हो गयी और दीवाल बन गयी; लेकिन छत नहीं पड़ी। छत के बिना सर्दी, धूप और वर्षा के कष्टों से बच नहीं सकते। ठीक इसी भाँति सद्गुरु विहीन मानव दैहिक, दैविक और भौतिक- त्रयतापों से संतप्त होता रहेगा।’
किन्तु गुरु धारण करने के प्रसंग में एक बात विशेष रूप से ध्यातव्य है और वह यह कि किसी कान फूँकनेवाले विषयी व्यक्ति को गुरु बनाने से साधक की अधोगति ही होती है। अपनी ‘गुरु-महिमा’ नाम की पुस्तक में महर्षि संतसेवीजी ने बताया है- ‘गुरु की उपादेयता बताने का अर्थ यह नहीं कि जैसे-तैसे को गुरु धारण कर लिया जाय। इसके लिए बड़ी खोज, सावधानी और सतर्कता की आवश्यकता है। कुछ गुरुओं ने कान फूँकने की ठीकेदारी ले ली है। वे अपने शिष्यों और शिष्याओं के कान फूँकते हैं, आँख के आस-पास दबाकर रोशनी दिखाते हैं, कान बंद करवाकर शब्द सुनवाते हैं। इस भाँति के गुरु भोले-भाले शिष्यों को धोखा देकर उनके दुर्लभ मानव-जीवन के साथ खिलवाड़ करते हैं। ऐसे गुरुओं से अवश्य होशियार रहना चाहिए। पूरे और सच्चे सद्गुरु की पहचान के लिए ये अपने गुरुदेव महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज रचित ‘सत्संग-योग’ की पंक्तियाँ प्रवचन में योग-साधकों के समक्ष सुनाया करते हैं। वे पंक्तियाँ हैं-‘पूरे और सच्चे सद्गुरु की पहचान अत्यन्त दुर्लभ है। फिर भी जो शुद्धाचरण रखते हैं, जो नित्य नियमित रूप से नादानुसंधान का अभ्यास करते हैं और जो संतमत को अच्छी तरह समझा सकते हैं, उनमें श्रद्धा रखनी और उनका गुरु धारण करना अनुचित नहीं।’ महर्षि संतसेवीजी उनके समक्ष ‘सत्संग-योग’ की ये पंक्तियाँ भी सुनाया करते हैं-‘जीवनकाल में जिनकी सुरत सारे आवरणों को पारकर शब्दातीत पद में समाधि समय लीन होती है और पिंड में बरतने के समय उन्मनी रहनी में रहकर सारशब्द में लगी रहती है, ऐसे जीवनमुक्त परम संत पुरुष पूरे और सच्चे सद्गुरु कहे जाते हैं।’
पूज्यपाद महर्षि संतसेवीजी महाराज की योग-साधना के विवेचन-विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि इन्होंने अपनी योग-साधना के लिए मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टियोग और सुरति-शब्द-योग की क्रियाएँ अपनायी हैं। इन्होंने सत्संग की उपादेयता स्वीकार की है। गुरु इनकी साधना का अनिवार्य तत्त्व है। गुरु की प्राप्ति से प्रायौगिक साधना की पहली आवश्यकता पूरी हो जाती है। शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि के लिए इनकी साधना में सदाचार को प्रमुखता प्रदान की गयी है। इसके पालन से साधना की योग्यता आती है। सत्संग भी इनकी साधना का अनिवार्य अंग ही सत्संग साधक को अव्यवस्थित होने से बचाता है। साधना की इस शारीरिक एवं मानसिक पृष्ठभूमि के बाद वास्तविक साधना का आरंभ होता है। यूँ ये भी साधना के ही अंग हैं, पर प्रायोगिक क्रमिक साधना इसके पश्चात् शुरू होती है। सबसे पहले पूज्यपाद महर्षि संतसेवीजी ने मानस जप की साधना बतायी है। शास्त्रीय ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। संत-साहित्य में इसका विवेचन प्राप्त होता है। मानस जप के बाद मानस ध्यान की साधना है। यह मानस ध्यान स्थूल ध्यान है। शास्त्रीय ग्रंथों में इसका विवेचन मिलता है। इस स्थूल ध्यान से ‘सुरति’ स्थिर होती है और साधक में सूक्ष्म ध्यान की योग्यता आती है। यह स्थूल ध्यान या मानस ध्यान साधना की प्रारंभिक भूमि से संबंधित है। मानस ध्यान के पश्चात् महत्त्वपूर्ण साधना है- दृष्टियोग वा विन्दु-ध्यान अथवा शून्य-ध्यान की। यह दृष्टियोग वेदों से लेकर संतों तक प्रचलित है। यह स्थूल ध्यान से आगे की भूमि है। यह भी सगुण ध्यान है, पर सूक्ष्म सगुण ध्यान है। इसमें मन का पूर्ण सिमटाव होता है। दृष्टियोग के उपरांत नाद की भूमि है। ‘सुरति को शब्द में लीन करना’ सुरत-शब्द-योग या नादानुसंधान कहलाता है।
इस योग-साधना की परंपरा काफी प्राचीन है। अपने परम पूज्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज से पूज्यपाद महर्षि संतसेवीजी ने इस योग-साधना का दार्शनिक आधार ग्रहण किया है और उसका सम्यक् विवेचन किया है। यह नाद-साधना बड़ी रहस्यमयी है। यह योग-साधना परम पद प्राप्त कराती है। इसी से आत्म-साक्षात्कार होता है, ईश्वर के दर्शन होते हैं। पूज्यपाद महर्षि संतसेवीजी ने अपनी योग- साधना में मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टियोग और सुरति-शब्द-योग के अतिरिक्त ज्ञान, कर्म एवं भक्ति को स्वतंत्र साधना-पद्धति के रूप में न मानकर प्रत्येक साधक के लिए तीनों की अनिवार्यता बतायी हैं। इस प्रकार पूज्यपाद महर्षि संतसेवीजी प्रमुखतः मध्यकाल से संतों की साधना को नवयुग के द्वार तक लाकर उस साधना से सिद्ध अपनी वाणी का अमृत जनकल्याण के निमित्त चतुर्दिक बरसा रहे हैं।
1996 ई0 में महर्षि संतसेवीजी महाराज को अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महासभा की ओर से अभिनन्दनग्रंथ समर्पित किया गया था, जिसका नाम रखा गया-‘महाप्राज्ञ महर्षि संतसेवी अमृत महोत्सव अभिनंदनग्रंथ।’ इस अभिनंदनग्रंथ के संपादन मंडल में कुमार अशोक का भी नाम है। कुमार अशोक कटिहार डी0एस0 कॉलेज के प्रोफेसर डॉ0 महेश्वर प्र0 सिंह, एम0ए0, पीएच0डी0 के कनिष्ठ पुत्र थे। कुमार अशोक बड़ा ही मेधावी युवक थे। इस अभिनंदनग्रंथ में बड़े-बड़े विद्वानों से लेख प्राप्त करने का श्रेय कुमार अशोक को है। उन विद्वानों से लेख प्राप्त करने में इन्होंने घोर और अथक प्रयास किया है। वे भी अपने लेख में महर्षि संतसेवीजी के संबंध में अपना मन्तव्य लिखा है, जो निम्नलिखित है-
निष्कर्षतः महर्षि संतसेवीजी महाराज के जीवन और भव्य व्यक्तित्व की मनोरम झाँकी से यह ज्ञात होता है कि प्रारंभिक जीवनकाल से ही इनमें बुद्धि की कुशाग्रता, हृदय की विशालता, निर्लोभिता, दानशीलता और सात्विकता के गुण रहे हैं। बाल्यकाल से ही ये संवेदनशील रहे हैं। आध्यात्मिकता इनमें इसी समय से परिलक्षित होती है। इनका अध्ययन क्षेत्र काफी व्यापक है। फलतः इनमें शास्त्रीय गरिमा आ पायी तथा समन्वयवादी चेतना का विकास हुआ है। यही कारण है कि विश्व वाघ्मय की व्यापक पृष्ठभूमि पर ये ‘संतमत’ का विवेचन-विश्लेषण प्रस्तुत करने में सक्षम है।
परमाराध्य ब्रह्मलीन संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस के साथ भ्रमण के क्रम में भारतीय समाज के अनेकानेक महान पुरुषों के सान्निध्य का लाभ भी इन्हें मिला है। उनके साथ विचारों के आदान-प्रदान से भी इनका व्यक्तित्व निखरा है। इनके व्यक्तित्व में सत्य, अहिंसा और मानव-कल्याण की भावना कूट-कूटकर भरी है। यह इनमें प्रायः गाँधीवादी युग की देन है। पर इनके व्यक्तित्व के पूर्ण निखार में परमाराध्य गुरुदेव संत महर्षि मेँहीँ परमहंसजी की महती कृपा ही सर्वोपरि है। इनके पूर्ण निखरे हुए व्यक्तित्व का ही यह चुम्बकीय प्रभाव है कि जब जालंधर में ये ‘संतमत-सत्संग’ के प्रचार-प्रसार हेतु गये हुए थे, तो वहीं कुछ लोगों ने इनसे कहा कि ‘पटना साहिब’ का प्रवचन हमलोगों ने पढ़ा है। गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज का जन्म पटना में हुआ था। वे जब पंजाब आये, तो यहाँ के लोगों ने उन्हें जाने नहीं दिया। हमलोग भी आपको बिहार वापस नहीं जाने देंगे।
परमाराध्य संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस ने अपनी कृपा का महत्फल अपने संतमत-सत्संग के उत्तराधिकारी महर्षि संतसेवीजी महाराज के रूप में सौंपा है। वस्तुतः परमाराध्य संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस बिम्ब है और पूज्यपाद महर्षि संतसेवी जी महाराज उनके प्रतिबिम्ब हैं।
[प्रो0 रामेश्वर प्रसाद सिंहजी पूज्यपाद महर्षि संतसेवी परमहंसजी से बड़े प्रभावित थे। इनकी श्रद्धा सराहनीय है। इन्होंने महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज के साहित्य पर जो प्रकाश डाला है, वह प्रशंसनीय है। इसे अवलोकन कर देखें।,ह्

17- डॉ0 रामेश्वर प्रसाद सिंह
एम0ए0, पीएच0डी0, डी0लिट्0
पूर्व यूनिवर्सिटी प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
तिलकामाँझी भागलपुर विश्वविद्यालय (बिहार)
साहित्यकार महर्षि संतसेवीजी पर विचार करो समय सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि पूर्ववर्ती संतों की तरह इनके साहित्य का लक्ष्य भी मनोरंजन, मनःप्रसादन, कलात्मक परितोष की प्राप्ति अथवा अभिव्यक्ति के लक्ष्यमात्र की सिद्धि नहीं है। इनके साहित्य का सुविचारित लक्ष्य सभी जनों तक संतों के जीवनादेशों, अनुभूतियों, उपदेशों, निर्देशों और विचारों आदि को पहुँचाना है। संत चाहते हैं कि सभी लोगों को जीवन की वास्तविकता की पहचान करायी जाय और उस उद्देश्य की सिद्धि का मार्ग भी बताया जाए। अतः इन्होंने जो भी साहित्य लिखा है, सोद्देश्य लिखा है। मम्मट की भाषा में कहें, तो ‘शिवेतर क्षराये’ के लिए जीवन और साधना की युक्ति का निर्देश इनकी कृतियों का परम लक्ष्य ज्ञात होता है।
कहा जा सकता है कि साहित्य से महर्षि संतसेवीजी का लगाव लगभग 35-40 वर्षों का है। सन् 1960 ई0 के उपरांत जब परम पूज्य गुरुदेव महर्षि मेँहीँ परमहंसजी ने इन्हें प्रवचन देने की आज्ञा दी, तभी से सूक्ष्म रूप से इनके भीतर का साहित्यकार सजग हुआ, ऐसा अनुमान किया जा सकता है। वैसे संतवाणियों के पाठ, महर्षि मेँहीँ के प्रवचनों का संकलन तथा ‘शान्ति-सन्देश’ से जुड़ने आदि की प्रक्रिया के कारण इनमें साहित्य-रचना की प्रवृत्ति का विकास होने लगा था। बीज रूप में पूर्व के संस्कार भी रहे ही होंगे। साहित्य का बीज भी भक्ति के बीज की तरह ही होता है-‘भक्ति बीज बिनसे नहीं, जो जुग जाय अनन्त।’ समय और सुयोग पाकर वह अंकुरित-पल्लवित और पुष्पित होता है।
महर्षि संतसेवीजी की स्कूली शिक्षा मात्र मिडिल तक हुई, पर साधना के लिए बाहरी शिक्षा शायद उतनी आवश्यक नहीं होती। महर्षि मेँहीँ परमहंस के सान्निध्य, संत-वाणी के पाठ, गायन, मनन, गुरुदेव द्वारा आर्षग्रंथों एवं संतवाणी के अध्यापन के कारण महर्षि संतसेवीजी में संत-साहित्य के संस्कार पड़े और ये प्रवचन, संपादन आदि के माध्यम से निबंध-लेखन और पुस्तक प्रणयन में, कालान्तर में प्रवृत्त हुए।
महर्षि मेँहीँ परमहंसजी के हजारों प्रवचन इनके द्वारा संकलित कर सुरक्षित रखे गये हैं, ‘गुरुदेव के लगभग 40-50 वर्षों के सहस्त्रों प्रवचन का संग्रह मेरे पास है, जो अबतक सुरक्षित है।’ (महर्षि मेँहीँ-वचनामृत, प्रथम खंड, प्रकाशकीय पृ02) महर्षि मेँहीँ परमहंसजी के प्रवचनों एवं पुस्तकों की पाण्डुलिपि तैयार कर उन्हें प्रकाशन-योग्य बनाने का काम भी इन्होंने मनोयोगपूर्वक किया। महर्षि मेँहीँ परमहंसजी की तरह ही महर्षि संतसेवीजी के हजारों प्रवचन हैं। ‘---साथ ही इनके भी हजार से ऊपर प्रवचन होंगे, जिन्हें संत-साहित्य में स्थान मिलेगा।’
महर्षि संतसेवीजी को कई भाषाओं और लिपियों का ज्ञान है-नेपाली, पंजाबी, मैथिली, अंगिका, हिन्दी, फारसी, संस्कृत और अंग्रेजी। संस्कृत और फारसी श्रेष्ठ भाषाएँ हैं। ये इनके आध्यात्मिक साहित्य से परिचित हैं। अंग्रेजी का भी इन्हें अच्छा ज्ञान है। नेपाली, बांग्ला, अंगिका और मैथिली तो पड़ोस की भाषाएँ हैं। इनका मुख्य लेखन हिन्दी में हुआ है और अपने लेखन में इन्होंने इन भाषाओं के उद्धरणों का अच्छा उपयोग किया है।
इनके अध्ययन का क्षेत्र अध्यात्म, दर्शन और साधना है। बंगाल से भक्ति-साहित्य और नाथ-साहित्य की खोज में नेपाल की चर्चा आती है। संत-साहित्य की कड़ी सिद्ध, नाथ और भक्ति-साहित्य से जुड़ती ही है। इनका जन्म-स्थान मधेपुरा नेपाल के निकट ही है। अतः नेपाली भाषा-साहित्य से परिचय स्वाभाविक है। मैथिली इनकी मातृभाषा है, जिसमें लक्ष्मीनाथ गोसाईं ऊँचे संत हो चुके हैं। संस्कृत से परिचय बिना भारतीय अध्यात्म और दर्शन-परंपरा से अवगत होना कठिन है; क्योंकि सभी आकर ग्रंथ प्रायः संस्कृत में हैं। जैन और बौद्ध साहित्य के लिए प्राकृत और अपभ्रंश का परिचय भी आवश्यक हो जाता है। गुरु नानक देव एवं सिख-पंथ के कारण संत-साहित्य के जिज्ञासु के लिए पंजाबी का ज्ञान जरूरी हो जाता है। ‘संतमत-सत्संग’ में स्तुति-विनती के समय ग्रंथपाठ करते समय ‘श्रीगुरुग्रंथ-साहिब’ की संतवाणी का पाठ भी होता है। ये सभी भाषाएँ इनकी साधना, अभिव्यक्ति और ज्ञान को समृद्ध करने में योग देनेवाली रही है।
महर्षि संतसेवीजी की अबतक कुल सात पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इनमें दो स्वतंत्र पुस्तकें हैं-‘योग-माहात्म्य’ और ‘गुरु-महिमा’। ‘ॐ विवेचन’ शीर्षक पुस्तक में इनके तीन निबंध संकलित हैं; परन्तु निबंधों के पूर्व ‘ॐ’ के बारे में लंबी भूमिका है। शेष चार पुस्तकें इनके प्रवचनों/निबंधों के संकलन हैं। इनमें इनके 71 निबंध/प्रवचन संकलित हैं। इन निबंधों के बारे में यह कहना कठिन है कि ये निबंध ही के रूप में लिखे गये हैं या इनमें से कुछ प्रवचन के रूप में प्रस्तुत हुए और बाद में संशोधित-परिवर्धित होकर निबंध बने हैं। इनका खुलासा तो लेखक या संपादक ही कर सकते हैं और उन्हें ऐसा करना भी चाहिए। इस प्रकार महर्षि संतसेवीजी के लेखन का अधिकांश निबंधात्मक है। पुस्तकें एक विशेष विषय को लेकर लिखी गयी है और उनमें उसी से जुड़े विषयों का उपयोग किया गया है। अनेक प्रवचन अभी भी अप्रकाशित हैं। उनका प्रकाशन होना चाहिए।
‘योग-माहात्म्य’ अड़सठ पृष्ठों की एक लघु पुस्तिका है। नौ उपशीर्षकों में ‘योग’ को समझाने की इसमें चेष्टा की गयी है। योग के स्वरूप, इसकी प्राचीनता तथा अष्टांग योग और इसकी साधना के संबंध में लेखक ने विस्तार से बताने की कोशिश की है।
वस्तुतः भारतीय साहित्य में योग शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया गया है; किन्तु मुख्यतः इसका संबंध साधना से रहा है। इसे सांख्य का क्रियापक्ष भी कहा जाता है। सांख्य और योग का प्रभाव अत्यंत प्राचीन काल से भारत में रहा है। वेद, उपनिषद्, पुराण और श्रेण्य साहित्य ही नहीं, भारत के प्रायः सभी धर्म-संप्रदायों एवं साधना-पद्धतियों में इसका प्रभाव पाया जाता है। एक समय तो ऐसा आया जब कर्म, ज्ञान, भक्ति सभी को योग कहा गया-कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग। जप, ध्यान, तप आदि को भी योग से जोड़कर तपयोग, जपयोग, ध्यानयोग आदि कहा गया। ‘आत्मा की परमात्म-परिणति के सभी उपाय क्षेत्रें-मन, प्राण, वाक्, शुक्र, काय-को सांग-एकांग रूप में योग ने छेका।’ (डॉ0 हरवंशलाल शर्मा)। वैदिक, अवैदिक, वैष्णव, सूफी, बौद्ध, जैन, संत, नाथ सभी समय के अनुसार प्रभाव में आये। योग का कोई एक विशिष्ट संप्रदाय मानना उचित नहीं लगता। ‘पातंजल-योग-दर्शन’ में योग की सभी पूर्व परंपराओं को व्यवस्थित रूप देने-अनुशासित करने का प्रयास है।
‘योग-माहात्म्य’ के प्रारंभ में बाह्य और आंतरिक आपदाओं की चर्चा करते हुए बताया गया है कि इन दुःखों के प्रहाण का मार्ग है-योग मार्ग। ‘टूटे हुए हृदय को जोड़नेवाला योग है। बिछुड़े हुए को मिलानेवाला योग है। योग ज्ञान-प्रदाता और अज्ञानहर्ता है। मनोनिग्रह का चित्त को एकाग्र करनेवाला है। त्रयताप संतप्त प्राणी को कल्पतरु की शीतल छाया में बिठानेवाला योग है। बहिर्मुख मानव को अंतर्मुख बना, अंतर की अंतिम तह तक पहुँचानेवाला योग है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ कराने में योग ही समर्थ है। भवभय को पराजित करानेवाला योग है। प्रभु-पद में लीन करानेवाला योग है। भवरोगों का विनाशक तथा सब शोकों का निवारक योग है। सर्वसिद्धिदाता योग है। समता प्राप्त कराने की क्षमता योग में है। ममता-पाश से मुक्त करानेवाला योग है। स्वरूप का साक्षात्कार करानेवाला तथा सर्वेश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान करा देनेवाला योग है।---- वासनाक्षय, प्राण-जय और मनोलय करानेवाला योग है।’ (योग-माहात्म्य, पृ04) इस योग के आदि वक्ता हिरण्यगर्भ थे। गीता में श्रीकृष्ण ने योग के इतिहास पर प्रकाश डाला है। इसके उपरांत अष्टांगयोग के आठो अंगों का परिचय दिया गया है। योग की व्याख्या करते हुए गीता और अन्य ग्रंथों की योग-परिभाषाओं की चर्चा की गयी है और बताया गया है कि ‘अपनी ध्येयवस्तु से मन की वृत्ति का पृथक् होना, वियोग तथा संयुक्त होना योग है। चंचल मन की बहिर्वृत्ति का एकत्रीकरण करके केन्द्रीभूत करना ही योग है। इसी को महर्षि पतंजलि ने ‘चित्तवृत्तिनिरोधः इति योगः’ कहा है।’ (योग- माहात्मय, पृ0 16) इस योग को हठयोग और राजयोग के रूप में विभाजित किया गया है। यह राजयोग वस्तुतः ध्यानयोग है। भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा राजयोग-ध्यानयोग की ओर ही थी। (वही, पृ0 22) इस योग के प्रारंभ का न तो विनाश होता है और न ही इसका विपरीत परिणाम निकलता है। यह महाभय से बचाता है।
योग-चर्चा में वस्तुतः गीता को इस पुस्तक में महत्ता दी गई है और उसी के माध्यम से संतों की योग-साधना का भी परिचय दिया गया है। योग-साधना के प्रारंभ की मनोदशा का चित्रण करते हुए इसकी तुलना पढ़ने के लिए विद्यालय जानेवाले बच्चे के साथ की गयी है। (पृ0 26) इस ध्यान, राजयोग का भक्तियोग में विषय-चिंतन कुपथ्य माना जाता है। योग की सिद्धियों की चर्चा करते हुए भगवान बुद्ध-द्वारा इसकी महिमा का उल्लेख किया गया है। (पृ0 32)
यौगिक साधना की चर्चा इस पुस्तक में विस्तार से की गयी है; क्योंकि योग का सही क्रियापक्ष उसकी महत्ता का प्रमाण होता है। संतों-द्वारा अनुमोदित सहजयोग या नादानुसंधान अथवा सुरत-शब्द-योग की चर्चा के क्रम में साधना के स्थूल सोपानों की क्रमिक चर्चा अत्यन्त विश्वसनीय ढंग से की गयी है। सभी योग-मार्ग अंततः निम्नोक्त चार सोपानों में समाविष्ट हो जाते हैं-बुद्धियोग, मानसयोग, ज्योतियोग और नादयोग। साधना का प्रथम सोपान जपयोग है और दूसरा नादयोग।
इसी प्रसंग में महर्षि संतसेवीजी ने हिन्दी-समीक्षा के एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विवाद ‘सगुण-निर्गुण’ की विवेचना भी की है। महर्षि संतसेवीजी का विचार है कि गुरु नानक और कबीर साहब भी गो0 तुलसीदास, सूरदास आदि की तरह सगुणोपासक भी थे। इसके समर्थन में उन्होंने कबीर साहब की प्रसिद्ध साखी-‘गुरु गोविन्द दोउ खड़े’, ‘मूल ध्यान गुरुरूप है, मूल पूजा गुरु पाँव’ आदि का उद्धरण प्रस्तुत किया है। इसी तरह गुरु नानक के पद का भी उदाहरण देकर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि ‘उपर्युक्त उद्धरणों से यह सरलतापूर्वक समझा जा सकता है कि गुरु का स्थूल रूप तथा उनके स्थूल नाम सगुण हैं वा निर्गुण? हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि गो0 तुलसीदास जी और संत सूरदासजी ने भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण को जिस उच्चासन पर प्रतिष्ठित किया, उसपर संत कबीर साहब और गुरु नानक ने गुरु को प्रतिष्ठित किया। फिर भी गो0 तुलसीदास जी ने भी उन अवतारी पुरुषों को गुरु से कम प्रतिष्ठा नहीं की।’ (पृ0 38)
इस सगुण-निर्गुण विवाद में पड़ने का यहाँ समय नहीं है, पर अभी तक हिन्दी समीक्षा में तुलसीदास, सूरदास आदि को अवतारी राम, कृष्ण आदि का सगुण-उपासक माना गया है और संत कबीर, गुरु नानक आदि को निर्गुणोपासक। मध्यकाल के प्रारंभ के दिनों में संतों में अवतारवाद की प्रतिष्ठा नहीं थी। कालांतर में उसमें अवतारवाद की प्रवृत्ति पनपी और विभिन्न संतों को, विभिन्न देवताओं और ऋषि-मुनियों का अवतार माना जाने लगा। यह प्रवृत्ति तब पनपी, जब संतसाधना की क्रांति की गंगा में शैवाल उत्पन्न होने लगे। संतों को भी और गुरु को भी, अवतार के माध्यम से प्रतिष्ठित करने की चेष्टा परवर्ती काल की देन है और इसी प्रकार अवतारी राम, कृष्णादि की सगुण-कथा की संत-साहित्य में स्वीकृति भी परवर्ती घटना है।
गुरु गोविन्द सिंह, संत रामचरण, साईं दास आदि ने विभिन्न अवतारों की कथा का वर्णन अपने साहित्य में किया है, पर उसे संत-परंपरा में स्वीकृति नहीं मिली। जहाँ तक योग-साधना में स्थूल की स्वीकृति की बात है, उसे साधना के प्राथमिक सोपान के रूप में स्वीकार करने में कोई विसंगति नहीं है। गुरु का स्थूल नामरूप क्रमशः विलीन होता जाता है और अंततः गुरु-गोविन्द में कोई फर्क नहीं रह जाता। गोविन्द तो परम तत्त्व या परब्रह्म को व्यक्त करने का एक अभिधानमात्र है।
इसके उपरांत मानस जप, मानस ध्यान आदि के विषय में वेद, उपनिषद्, श्रीमद्भागवत, श्रीमद् भगवद्गीता, विभिन्न योगोपनिषद् आदि के साक्ष्य पर सविस्तार चर्चा की गयी है।
ज्योतियोग या दृष्टियोग के संदर्भ में भ्रूमध्य, नासिकाग्र, नासाग्र, भृकुटी आदि शब्दों की चर्चा चलती रही है और इनके अर्थ को लेकर कई प्रकार का विवाद उठता रहा है। निष्कर्षतः लेखक-द्वारा यह बताया गया है-‘तुम्हारे शरीरस्थ इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाम्नी त्रिधारा है। इन तीनों धाराओं के मिलन-स्थान पर खोदने अर्थात् दृष्टि-साधन-द्वारा खोजने से परम प्रभु सर्वेश्वर-रूप निधि का पता मिलता है। इसी स्थान को नासिकाग्र, नासिका, भ्रुवोर्मध्य, भृकुटी के बीच आदि नामों से संकेत किया गया है।’ (पृ046) दृष्टियोग के बाद सुरत-शब्द-योग या शब्द-ब्रह्म की उपासना का विवेचन किया गया है। यही कबीर का सहजयोग है। इस शब्द-साधना से मनोनिग्रह होता है, सहज में समाधि लगती है और अमरपुर में निवास होता है।
इसी क्रम में प्रणव-साधना का भी उल्लेख किया गया है और ध्वन्यात्मक एवं वर्णात्मक ॐकार के स्वरूप तथा जप को समझाने का भी प्रयास किया गया है। जप और ध्यान में भेदों की चर्चा करते हुए योग के संयमों की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है; क्योंकि इन आचारों का पालन नहीं करने से योगमार्ग में सफलता असंभव है। इन योग-मार्ग को अपनाने के लिए अधिकारी कौन है? ‘इस योग के सभी अधिकारी हैं, चाहे वे स्त्रियाँ हों, पुरुष हों, शूद्र हों अथवा पाप-योनि-संभव ही क्यों न हों।’ (पृ0 67)
स्पष्ट है कि इस छोटी-सी पुस्तिका में योग के संबंध में आवश्यक सारी बातों का संक्षेपतः उल्लेख करने का प्रयास किया गया है। भाषा और अभिव्यक्ति-पद्धति प्रांजल है। कहीं-कहीं चमत्कार उत्पन्न करने के लिए अनुप्रास का भी आश्रय लिया गया है-‘किन्तु यदि विवेक-विलोचन से अवलोकन किया जाए, तो योग कोई हिंस्त्र जंतु या भयंकर जानवर नहीं।’ (पृ015)
सगुण-निर्गुण, नासाग्र-ध्यान एवं प्रणव- साधना के विषय में कुछ ऐसी बातें कही गयी हैं, जो मौलिक और अनुभूति प्रसूत ज्ञात होती हैं। इनसे कई प्रकार की शंकाओं का निवारण भी होता है और साधना-मार्ग के अंतरायों को पार करने में सुविधा प्राप्त होती है। लेखक के अनुसार इस पुस्तक के प्रणयार्थ परिश्रम इसलिए किया गया कि ‘योग के सरलतम रहस्य का यथासंभव सही रूप से उद्घाटन हो सके।’ लेखक अपने इस उद्देश्य की सिद्धि में सफल हुए हैं, ऐसा निस्संकोच कहा जा सकता है। यह इनकी पहली पुस्तक है और इसमें ‘संतमत-सत्संग’ में प्रयुक्त साधना-प्रणाली को योग के शास्त्रीय ग्रंथों के आलोक में भी प्रतिष्ठित करने का सफल प्रयास किया गया है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज की दूसरी पुस्तक है-‘ओ3म् विवेचन’। इसका प्रकाशन-वर्ष 1970 ई0 है और यह भी करीब सौ पृष्ठों की छोटी-सी, किन्तु महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। इस ग्रंथ के लगभग आधे पूर्वार्द्ध में ‘ओ3म्’ का विवेचन-विश्लेषण एवं साधनादि की चर्चा है और उत्तरार्द्ध में महर्षि संतसेवीजी के तीन प्रवचन संकलित हैं। ये प्रवचन पहले ‘शान्ति-सन्देश’ के चार या पाँच अंकों में प्रकाशित हो चुके हैं। इन निबंधों को पुनः पढ़कर उनमें संशोधन, परिवर्द्धन करके वर्तमान तीन निबंधों का स्वरूप प्रदान किया गया है। इस पुस्तक के प्रारंभ में आशीर्वचन के अंतर्गत पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने लिखा है- “ वस्तुतः ‘ॐ’ का स्वरूप गहरे ध्यान में ही विदित होने योग्य है। यद्यपि इसका जप भी होता है; परन्तु इसका यथार्थ स्वरूप ध्यान में ही प्राप्त हो सकता है।” यह ‘आश्ाीर्वचन’ विषय की गंभीरता और विवेचन की दिशा का संकेत देने के लिए पर्याप्त है। इस ग्रंथ की महत्ता निर्दिष्ट करते हुए महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने बड़ी गंभीर बात कही है-‘यह सत्संग में पाठ करने के योग्य है।’
इस ग्रंथ में ‘ॐ’ की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि “ ॐ’ को ऐसा विशिष्ट स्थान प्राप्त है, जैसे उसके अभाव में वेद एवं उपनिषद्-मन्त्र अपूर्ण ही रह जाते हैं। इसलिये प्रत्येक मन्त्ररम्भ में ‘ॐ’ शब्द सन्निविष्ट करना अनिवार्य हो गया।” (ओ3म् विवेचन, पृ0 2) यह ‘ॐ’ शब्द ही स्फोट है, उद्गीथ है, ब्रह्मनाद है, शब्दब्रह्म है, परमात्म-प्रतीक है, प्रभु का ध्वन्यात्मक नाम है, सारशब्द है, सत्शब्द है, सत्नाम है। (महर्षि मेँहीँ-पदावली के पृ0 5 के आधार पर गद्यांतर) इस ‘ॐ’ शब्द की व्याख्या विभिन्न उपनिषदों, संतवाणियों आदि के माध्यम से करने का सफल प्रयास किया गया है-‘‘ओ3म्’ समस्त सृष्टि का सामूहिक रूप है। ‘ओ3म्’ गुरु शब्द है। ‘ओ3म्’ हिरण्यगर्भ की वाणी है। ‘ओ3म्’ वेदों की माता है। ‘ओ3म्’ सभी ध्वनियों की जीवनमूरि है। ‘ओ3म्’ विश्व की महाध्वनि है। ‘ओ3म्’ सृष्टि की आदिध्वनि है। ‘ओ3म्’ ज्ञानयोग के जिज्ञासु-विद्यार्थी का अमूल्य शब्द है। ‘ओ3म्’ वेदान्तियों का (वेदान्तवेद्य) ‘वेदान्त-प्रमाण’ है। ‘ओ3म्’ अभय और अमृतत्व रूप आत्मा वा ‘ब्रह्म’ प्राप्ति के लिए आत्मज्ञान की नौका है। उस पार जाने का ‘प्रमाणपत्र’ है। (प्रणव-रहस्य से उद्धृत, ओ3म्-विवेचन, पृ0 13)’
यह ओ3म् आदिनाद, आदिशब्द और आदिनाम है। सभी वर्णात्मक शब्द उच्चारण के लिए शरीरस्थ विभिन्न अवयवों पर निर्भर करते हैं, यह ओ3म् बाह्याभ्यंतरेन्द्रिय से सर्वथा अग्राह्य है। संत कबीर ने इसे सहज ध्वनि कहा है। ‘इसी अंतर्नाद में सुरत या चेतनवृत्ति के योग को ‘अजपाजप’ भी कहते हैं। ॐकार का उच्चारण नहीं किया जा सकता; क्योंकि यह स्वर या व्यंजन नहीं है और न ही शरीरस्थ अंगों के घात-प्रतिघात से यह उत्पन्न ही होता है। उपनिषदों में इसे अनाहत नाद और तंत्र में अकृतनाद कहा गया है। संतों ने ‘ॐ’ को स्फोट या ‘प्रणव’ को सारशब्द कहा है। यह न तो आकाश का गुण है और न ही कर्णेन्द्रिय का विषय है। इसका उद्गम आकाश नहीं, परम प्रभु परमात्मा है, अतः यह नित्य है। आदिशब्द या ओ3म् या प्रणव-ध्वनि का उद्गम परम प्रभु परमात्मा है। अतः यह परमात्मा तक, अपने उद्गम केन्द्र तक स्वभावतः ही खिंचता है। संतों ने विभिन्न नामों से इस ॐकार रूप शब्दब्रह्म का ही परिचय दिया है।
ओ3म् विवेचन के क्रम में महर्षि संतसेवीजी ने स्वामी रामतीर्थ, स्वामी विवेकानंद, महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज आदि के विचारों को उद्धृत कर इसके स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। हिन्दी, पंजाबी आदि भाषाओं में जो सारशब्द, सत्यशब्द, सत्यनाम, आदिनाम, अविगत नाम, अनाहत नाद, आदिशब्द, रामनाम आदि कहे गये हैं, वे वस्तुतः उपनिषदों के ‘ॐ’ के ही नामांतर है। इस आदिनाम के ध्यान के पूर्व की साधना-मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि-योग आदि की चर्चा भी इसी प्रसंग में महर्षि संतसेवीजी ने की है।
यह संपूर्ण विवेचन आर्ष साहित्य के उद्धरणों और संतों की अनुभूत वाणियों से प्रमाणपुष्ट है। एक ओर विवेचन की तार्किक परिणति के लिए लेखक ने शास्त्र-प्रामाण्य का आश्रय लिया, तो दूसरी ओर संतों की अटपटी पारिभाषिक शब्दावली की व्यावहारिक एवं प्रायोगिक क्षमता का भी भरपूर उपयोग किया है। फलतः संपूर्ण विवेचन क्रमबद्ध, प्रमाणपुष्ट और अनुभव संबलित हो गया है। लेखक की विवेचन-क्षमता, संयोजन-कुशलता एवं प्रस्तुतीकरण की विलक्षणता का परिचय संपूर्ण पुस्तक में मिलता है।
लगभग आधी पुस्तक की इस ओ3म्-विवेचना के उपरांत लेखक के तीन संशोधित-परिवर्द्धित प्रवचन हैं, जो प्रवचन में विन्दु और नाद की महत्ता तथा उनकी साधना-विधि का परिचय है। दूसरे प्रवचन में नाद और विन्दु, नाम और रूप के आधार, जगत् आदि के तत्त्व और जीवन-तत्त्व की चर्चा विस्तार से की गयी है। यहाँ इस विवाद के समाधान की भी चेष्टा की गयी है कि नादानुसंधान करते-करते अंतःप्रकाश मिलता है अथवा अंतःप्रकाश पाने पर कम-से-कम ज्योतिर्विन्दु ग्रहण करने के पश्चात् नादानुसंधान करना अपेक्षित है। अंत में उन्होंने यह निर्णय दिया कि ‘अन्तर्ज्योति वा ब्रह्मज्योति प्राप्त करने के लिए दृष्टियोग की और शब्दब्रह्म के साक्षात्कार के लिए नाद-योग वा नाद-साधना की क्रिया अपरिहार्य है। इन उभय साधनाओं में क्रिया का आरम्भ होगा दृष्टियोग से और अन्त होगा-नादयोग में; जो सबके लिए सरल, सुखद और सुगम साधन है।’ (ओ3म् विवेचन, पृ0 74-75)
तीसरे प्रवचन की शुरुआत नाम-भजन की महिमा से की गयी है। यह नाम श्रवणात्मक, वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक तीन प्रकार का होता है। इनके रहस्य को समझे बिना नाम-साधना संभव नहीं। नाम के दो प्रकार हैं-एक का जप होता है और दूसरे का ध्यान। एक वर्णात्मक है और दूसरा ध्वन्यात्मक। संकल्प-विकल्प रहित मन से ईश्वरवाची इष्टमंत्र का जप करना चाहिए। गो0 तुलसीदासजी की राय में ध्वन्यात्मक नाम ॐकार और राम-नाम में समता है। वे दोनों वस्तुतः एक ही हैं। ध्वन्यात्मक के भी दो भेद हैं-आहत और अनाहत। अनाहत शब्द चेतनमंडल का शब्द है, जो अनाहत आदिनाद है, वह एक ही एक है। वह परमात्मा का वाचक ‘ॐ’ है। इसका ध्यान किया जाता है, जपा नहीं जाता। (पृ0 91-94) इस हेतु इसे अजपाजाप भी कहते हैं।
वाल्मीकि के संबंध में उलटा नाम जपने की जो कथा प्रचलित है, उसके मर्म को उद्घाटित करने का प्रयास भी लेखक ने किया है। इनका विचार है कि ‘वर्णात्मक नाम का उलटा ध्वन्यात्मक नाम होता है और सगुण नाम का उलटा निर्गुण नाम होता है।-----इसी ‘उलटा नाम’ अर्थात् ध्वन्यात्मक निर्गुण राम-नाम का भजन कर रत्नाकर डाकू-वाल्मीकि ऋषि हुए थे; मात्र वर्णात्मक ‘राम-राम’ का उलटा ‘मरा-मरा’ जप कर नहीं। आज भी जो कोई ध्वन्यात्मक निर्गुण रामनाम का भजन (ध्यान) करेंगे, वे शुद्ध होकर ब्रह्मविद् हो जायेंगे।’ (वही पृ0 96-97)
यह पुस्तक लेखक की दूसरी कृति है। इसका भी लक्ष्य ॐकार, सारशब्द, नादानुसंधान का मुख्य रूप से और मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टियोग का गौणरूप से आख्यान है। सर्वत्र इसकी उपस्थापन-शैली सफल है और भाषा बोधगम्य है। उद्धरणों के कारण गति कुछ बाधित अवश्य हुई है, पर प्रवचनशैली में प्रभविष्णुता, प्रामाणिकता और भक्ति-उन्मेष के लिए इसकी अपेक्षा से इन्कार करना संभव नहीं है। कुल मिलाकर यह ग्रंथ अपने लक्ष्य में सफल कहा जा सकता है। इससे लेखक की प्रौढ़ि को भी गंभीर होने में सहायता मिलती है।
लगभग दस वर्षों के अंतराल के बाद प्रकाशित ‘जग में ऐसे रहना’ इनके 24 प्रवचनों/निबंधों का संग्रह है। इसका प्रकाशन वर्ष है 1981 ई0। इसके संबंध में लेखक की उक्ति है-‘कई वर्षों से सत्संगप्रेमी जनों का आग्रह था कि मेरे विखरे निबंधों को एकत्र कर एक ग्रंथ का रूप दिया जाए।--- उन सज्जनों की सदिच्छा के साथ-साथ मेरी शुभेच्छा भी जुड़ गयी थी और किन्हीं प्रयोज्य जन की प्रतीक्षा कर रहा था, जो मुद्रण योग्य पांडुलिपि प्रस्तुत कर सके।’ यह सुयोग्य घटित होते ही पुस्तक प्रकाशित हो गई। लगभग दो सौ बीस पृष्ठों की यह उत्तम कृति है। चूँकि निबंधों के प्रारंभ में प्रवचन का आवश्यक अंग, संबोधन नहीं है, अतः ऐसा मानकर चलना चाहिए कि ये निबंध ही हैं, प्रवचन के निबंधातरण नहीं। निश्चय ही ये ‘विखरे हुए निबंध’ या तो शान्ति-सन्देश में प्रकाशित हुए होंगे या समय-समय पर लिखे जाकर यत्र-तत्र रखे रहे होंगे अथवा प्रवचन-रूप में श्रोतामंडली के सम्मुख प्रस्तुत हुए होंगे। भूमिका से स्पष्ट नहीं हो पाता है कि ‘विखरे होने’ का वस्तुतः क्या अभिप्राय है?
प्रकाशकीय में यह सूचना है कि ‘अनेक जिज्ञासुओं, विद्वानों एवं धर्मप्रेमियों का वर्षों से आग्रह हो रहा था कि श्रद्धेय महर्षि संतसेवीजी के पुराने निबंधों का एक संकलन निकल पाता, तो बड़ा अच्छा होता।---- उन पुरानी प्रतियों (शान्ति-संदेश की) से अच्छे-अच्छे 24 निबंध मैंने एक सादी पुस्तिका में उतार लिये।---- महर्षि संतसेवीजी से प्रार्थना की गयी कि इन निबंधों को एक बार सरसरी निगाह से देख लिया जाए। इनके द्वारा इनमें यत्र-तत्र आवश्यक जोड़-तोड़ व संशोधन किये जाने के बाद पांडुलिपि जल्द ही प्रेस में आ गयी।’ (पृ0 घ) इस पुस्तक की महत्ता के बारे में प्रकाशकीय में कहा गया है-‘इसमें साहित्य के रसिकों को काव्यानंद मिलेगा, संतमत के प्रचारकों को प्रचारार्थ नवीन सामग्री मिलेगी, ज्ञानपिपासुओं की प्यास बुझेगी और अध्यात्म-पथिकों को अक्षय संबल और प्रेरणा प्राप्त होगी। (पृ0च)
प्रकाशकीय में भी यह स्पष्ट नहीं किया गया कि ये सभी प्रवचन हैं या निबंध? शान्ति-सन्देश के प्रत्येक अंक में इनका एक-एक निबंध अथवा प्रवचन छपा करता है----इन्हीं रचनाओं का यह संकलन है। यदि इनके प्रवचनात्मक ढाँचे में परिवर्तन करके निबंध नहीं बनाया गया हो, तो इन्हें निबंध कहना ही उचित होगा।
‘संसार में रहने की कला’ शीर्षक पहले निबंध में यह बताने का प्रयास है कि ‘इस संसार में नाते-रिश्ते सभी स्वार्थ पर आधारित हैं। जो भी तुम्हारे हितैषी, संगी या प्रेमी हैं, वे सभी तुम्हारे जीवनकाल, सुखकाल और संपत्तिकाल के हैं, देहावसानोपरांत काल, धन- हीनकाल और विपत्तिकाल के नहीं।’ (पृ0 7) यह शरीर की आसक्ति भी क्षणभंगुर सुखों के लिए है। सारे वैभव सुखों के बीच भी मनुष्य वास्तव में प्यासा ही रहता है। तापों से उसकी रक्षा वैभव नहीं कर पाते। अतः संतो ं की राय है कि संसार में सारे कर्म करते हुए भी तटस्थ रहना चाहिए। जैसे नौकरानी घर को बाहर से अपना कहकर भी भीतर से जानती है कि जिस घर में वह काम कर रही है, वह मालिक का घर है, उसका नहीं; उसी प्रकार सभी मनुष्य को संसार में रहना चाहिए। अतः ‘यदि आप अपना परम कल्याण बनाना चाहते हैं, तो विषयों से उदासीन रहते हुए सदाचार-समन्वित हो, संतादेशानुकूल नित्य नियमित रूप से सत्संग तथा दृढ़ ध्यानाभ्यास किया कीजिए।’ (पृ0 10) संसार में रहने की यह यथार्थ कला है।
दूसरे निबंध ‘संत और संसार’ में संतों की परिभाषा दी गयी है और बताया गया है कि संतों का आचरण कैसा होता है। वे निर्वैर, निष्काम और परमात्मा-प्रेमी होते हैं। संत सदाचारी होते हैं। वे जगत् को मिथ्या मानते हैं। वे संसार को भयावह मानते हुए उसके बंधन से छूटने का प्रयास करते-कराते हैं। ‘विवेक दृष्टि से देखने से मानव जीवन भी एक बृहत् अरण्य है-घनघोर जंगल है। प्राणी जब इस जंगलमय जीवन में उतरता है, तो उसे चारो ओर गहन माया के अभेद्य पर्वत और दुर्गम मनोरथ के सघन वन नजर आते हैं। जगजीवन के गंभीर वन में कभी क्रोध के बादल गरजते हैं, तो कभी काम के प्रचंड पवन चलते हैं, कहीं चिंता-सर्पिणी फुफकारती है, तो कहीं लोभ-व्याघ्र निगलने के लिए सम्मुख उपस्थित होता है। (पृ0 18-19) इस दशा से मनुष्य को मुक्त करने के लिए भक्तभयहारी भगवंत-संत के रूप में अवतरित हो सकते हैं।
इसी प्रकार ‘संत और संसार की सापेक्षता’ शीर्षक निबंध में यह बताने का प्रयास किया गया है कि संत और असंत की संसार के प्रति दृष्टि प्रायः उलटी होती है। संत संसार-सुख का अभिशाप मानते हैं, पर संसारी मनुष्य उसके मोह में सहर्ष फँस जाता है। ‘संत श्रेय से और संसारी प्रेय से प्रसन्न रहते हैं। संसारी विषयासक्त होता है, तो संत उसमें अनासक्त रहते हैं। संसार कोल्हू की तरह है, तो संत भ्रमर की तरह। संसार की उपमा यदि चलनी से की जाए, तो संत की उपमा सूप से।---- संसार काम, क्रोध, मद-लोभरत रहता है, तो संत ‘विगत काम प्रभु नाम परायण’ होते हैं।---- संतों का जीवन कर्म और कथन का सुंदर समन्वय रूप रहता है। संसार कहता कुछ और है और करता कुछ और है।’ (पृ0 23)
आगे ये लिखते हैं, ‘संसारी भोगी और संत योगी होते हैं। इस हेतु दोनों के कामों में सर्वथा भिन्नता अवश्यंभावी है।’ (पृ0 25) संत हर प्रकार से कष्ट दिये जाने के बावजूद संतपने को नही छोड़ सकते। इनका निष्कर्ष है-‘साधक संसार में रहे, कोई असंगत बात नहीं, किन्तु साधक में सांसारिकता नहीं आनी चाहिए। (पृ0 31)
इसी भावना को अपने चौथे निबंध ‘संसार के दूसरे पृष्ठ की ओर भी देखें’ में आगे बढ़ाते हुए इन्होंने कहा, ‘जगत् में अंड-कमठ की नाईं रहो अर्थात् जागतिक कार्य संपादन करते हुए निरंतर जगदा- धार का चिंतन भी किया करो।’ (पृ0 41) इस प्रकार संसार के दूसरे पृष्ठ अर्थात् सूक्ष्म संसार के प्रकाश की ओर की यात्र भी हो सकेगी।
मनुष्य का ‘साधन-धाम, मोक्ष का द्वार’ यह शरीर केवल सांसारिक सुखोपभोग के लिए नहीं मिला है। पिंड में ब्रह्मांड और बूँद में समुद्र छिपा है, इस सत्य को जानकर परमात्म-तत्त्व की प्रत्यक्षानुभूति के लिए योगयुक्त ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए, यही पाँचवें निबंध का सार है।
सदाचार ईश्वर-भक्ति के लिए अनिवार्य है। बिना सदाचार के, शील के, साधना के मार्ग में सिद्धि संभव नहीं है। सदाचार से लोक और परलोक, अपना और समाज दोनों का कल्याण संभव होता है। सदाचार की सुगंध फूलों की सुगंध के विपरीत हवा की उलटी दिशा में भी फैलती है। यह शाश्वत सुगंध है। बिना सदाचार के ईश्वर-भक्ति संभव ही नहीं। यह ईश्वर-भक्ति जाति, वर्ण, गोत्र, रंग, भाषा, धर्म आदि का कोई भेद नहीं स्वीकार करती। ‘ब्राह्मण हो वा शूद्र, भक्त होने के नाते सभी समान हैं।’ (पृ0 60) भक्ति का बीज नष्ट नहीं होता। वह देर-सवेर मुक्ति के द्वार तक पहुँचा ही देता है। भक्ति करने के लिए मधुकरी वृत्ति का आश्रय उचित नहीं कहा जा सकता। ‘जीवन बिताओ स्वावलंबी’ जीवन का मूलमंत्र होना चाहिए। जो संयम-संयुक्त हो संत सद्गुरु द्वारा निर्देशित भक्तिमार्ग पर चलेंगे, उनपर ईश्वर की कृपा आप ही होगी। संतमत प्रमादी नहीं बनाता, बल्कि कर्मठ कर्मयोगी बनाता है। छठे से लेकर नवें निबंध में उपर्युक्त विचार ही व्यक्त किये गये हैं।
दसवें निबंध में ‘सत्संग’ की महत्ता बतायी गयी है। इसकी तीन श्रेणियाँ निर्धारित की गयी हैं-‘उस परमात्म-स्वरूप से इस जीवात्म-तत्त्व वा चेतनात्मा का अंग सर्वोत्कृष्ट सत्संग है और यह प्रथम श्रेणी का सत्संग है। ऋषि, मुनि, साधु, संत, सज्जन, महात्मा आदि के संग को भी सत्संग कहते हैं, यह द्वितीय श्रेणी का सत्संग है। साधु-संतों के अभाव में उनकी वाणियों, सद्ग्रंथों का अवलोकन, अनुशीलन वा श्रवण-मनन तृतीय श्रेणी का सत्संग है। किन्तु ये तीनों सत्संग अन्योन्याश्रित हैं। तृतीय श्रेणी के सत्संग से द्वितीय श्रेणी के सत्संग की जिज्ञासा होती है और द्वितीय श्रेणी के सत्संग से प्रथम श्रेणी के सत्संग की सत्प्रेरणा मिलती है।
यह सत्संग बहुत उपयोगी है। ‘सत्संग से कुबुद्धि का विनाश और सुबद्धि का विकास होता है।---- सत्संग यह कल्पवृक्ष है, जिसमें अर्थ, धर्म, काम और मोक्षरूप चार फल लगे हैं।--- मन और इन्द्रियों के संयमन की कला का ज्ञान सत्संग से मिलते हैं। सत्योपदेश और सच्ची सीख सत्संग से मिलती है। सत्संग के द्वारा संसार से असंगता होती है। असंगता से मोहासक्ति छूटती है।’ (पृ0 83)
इसी प्रकार साधना के लिए आहार-नियमन आवश्यक है। खान-पान का संयम नहीं रहने से साधना संभव नहीं है। ‘तमोगुणी भोजन से तमोगुणी वृत्ति होती है। राजस आहार से बुद्धि चंचल होती है। सात्त्विक खान-पान से सत्त्वगुणी वृत्ति होती है।’
आहार-संयम की ही तरह मनोज अर्थात् काम और क्रोध-विजय भी साधना-मार्ग के राही के लिए आवश्यक है। काम-विजय के लिए भी आहार-संयम आवश्यक है। अतः काम और क्रोध पर नियंत्रण करना आवश्यक है। दसवें, ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें निबंध में इन्हीं बातों को सोदाहरण सांगोपांग वणर््ान किया गया है। चौदहवें निबंध का विषय संतमत में स्वावलंबन और पुरुषार्थ की महत्ता है।
शेष निबंध योग, उसके भेद राजयोग और हठयोग, मोक्ष और बंधन की अवधारणा, निर्वाण और अमृतसिद्धि से संबंधित है। इनमें पारस्परिक संबंध अत्यन्त प्रगाढ़ है। ‘योग-महिमा’, ‘हठयोग’ और ‘राज योग’ तथा ‘काजर दिये से क्या भया’ शीर्षक निबंधों में प्रायः वे ही विचार हैं, जिनका परिचय ‘योग माहात्म्य’ शीर्षक ग्रंथों से हम प्राप्त कर चुके हैं। ‘बंध और मोक्ष-दशा’, ‘निर्वाण तथा अमृत-चर्चा’ शीर्षक निबंधों में मुख्यतः जीवन के लक्ष्य को निर्धारित करने की चेष्टा की गयी है। महर्षि संतसेवीजी की दृष्टि में ‘मुक्त या मोक्ष का अर्थ है-छूट जाना। किससे छूटना? जिससे जुटना हुआ है।’ (पृ0 165) मोक्ष के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लेखक कहते हैं-‘वास्तव में हृदय की अज्ञानग्रंथि के नाश हो जाने को ही मोक्ष कहते हैं। यथार्थतः पूर्ण आत्मज्ञान जब और जहाँ होगा, उसी क्षण में उसी स्थान पर मोक्ष धरा हुआ है; क्योंकि मोक्ष तो आत्मा की ही मूल शुद्धावस्था है, निराली स्वतंत्र वस्तु या स्थल नहीं।’
‘निर्वाण’ शब्द के अनेक अर्थों में एक अर्थ मोक्ष या मुक्ति ही है।’ (पृ0 174) ‘निर्वाण शब्द बौद्ध साहित्य में बहुशः प्रयुक्त है। पालि भाषा में वाण शब्द का अर्थ होता है-तृष्णा। इस प्रकार निर्वाण शब्द का अर्थ हुआ-वीततृष्णा अर्थात् तृष्णा रहित। निर्वाण का दूसरे शब्दों में ‘प्रदीप का बुझ जाना’ वा वासनारूपी दीपक का अत्यन्ताभाव हो जाना भी अर्थ किया जाता है।’ (पृ0 175) लेखक ने आगे यह भी बताया है, ‘भगवान बुद्ध ने जिसको निर्वाण की संज्ञा दी, ऋषियों एवं संतों ने उसको मुक्ति के नाम से अभिहित किया।----वही वैदिक सद्ग्रंथों में परमपद वा परमात्म-पद कहकर वर्णित है।’
‘अमृत-चर्चा’ शीर्षक निबंध में यह बताने का प्रयास किया है कि ‘अमृत इस स्थूल संसार में नहीं है और इसी कारण उसका प्रत्यक्ष अवलोकन भी हम इस चर्मदृष्टि से नहीं कर सकते।----- क्रियावान शुद्धाचारी गुरु से प्राप्त साधन-द्वारा जब साधक अपने स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर में प्रवेश करता है, यानी जगत्, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं का अतिक्रमण करके तुरीयावस्था में प्रवेश करता है, तब उसे इस अमृत की प्रत्यक्षता होती है। (पृ0 187) आगे वे निष्कर्षतः कहते हैं-‘हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ब्रह्मनाद तथा ब्रह्मज्योति ही अमृत है। (पृ0 190) अथवा ‘संक्षिप्ततः समझ लीजिए कि शरीरस्थ ज्योति और शब्द ही अमृत हैं। दृष्टिसाधन तथा नादानुसंधान के द्वारा इन दोनों अमृतों को आप प्राप्त कर सकते हैं। अमृत उपलब्ध करने का यही एक विशेष कला है।’ (पृ0 192)
‘नौ दो ग्यारह’, ‘छः तीन नौ’ तथा ‘तीन से हीन होने की कला’ में चमत्कारपूर्ण शैली में नौ दरवाजे के आगे दसवें द्वार, षट्विकार, षट्कर्म, षट्चक्र तथा तीन गुणादि के बारे में विस्तार से चर्चा की गयी है। घुमा-फिराकर ये सभी शब्द मुख्यतः योग-साधना से जुड़े हैं और उसी रूप में ये चर्चित हुए हैं। नौ दरवाजे को छोड़कर दसवें द्वार में प्रवेश करके अंतर्ज्योति की खोज करनी चाहिए। नौ अंक की बड़ी महिमा है। नव द्वार, नव खंड, नव ग्रह, नव रस, नव रत्न, नव निधि, नवधा भक्ति आदि से सभी परिचित हैं। इसी प्रकार षट्कर्म, षट्विकार, षटचक्र, षट्संग तथा त्रिदशा, त्रिताप, त्रयावस्था, त्रिलोक, त्रिदोष, त्रिवेणी, त्रयवर्ग, त्रिपुटी, त्रिकुटी आदि हैं। इससे हीन होने की कला का ज्ञान आवश्यक है। व्यक्ति इससे हीन होकर, ‘जल ही ह्वैगा मीन’ की भाँति प्रभुपद में लीन हो अभिन्न हो जाता है। उपर्युक्त सभी तीन, छह और नौ से मुक्त होने अथवा उन्हें नियंत्रित करने की कला ही साधना है, जिसका प्रचार संतमत में जप, ध्यान, दृष्टियोग और सुरति-शब्द-योग के रूप में किया जाता है।
‘जग में ऐसे रहना’ इस प्रकार ऐसे निबंधों का संकलन है, जिसमें साधना और उससे जुड़े अन्य अवांतर प्रसंगों, संदर्भों और विषयों की सविस्तार, सोदाहरण विवेचना की गयी है। इसकी भाषा अनेक स्थानों पर काव्यात्मक है और सामान्य शब्दों में कही जानेवाली बात को भी कुछ कठिन शब्दावली में प्रस्तुत करने की चेष्टा की गयी है। इससे चमत्कार और प्रभावशीलता का समावेश तो हुआ है, पर सामान्य जनों के लिए संप्रेषण भी यदा-कदा बाधित हुआ है। यथा-‘एक समय श्रीचतुराननजी ने श्रीपंचाननजी से पूछा कि हे मन्मथारी! इस दुःखमय संसार में सब जीव पड़े हैं और अपने-अपने कर्मों का सुख-दुःखात्मक फलोपभोग कर रहे हैं, इनकी मुक्ति किस सुगम उपाय से हो, यह कृपया बताइये। (पृ0 173) या फिर ‘हमें दुरालोचन-लोचन-विमोचन कर विवेक-विलोचन का निरावरण करके अवलोकन करना चाहिए कि महाराज अशोक जो कि---।’ (पृ0 113)--- अथवा ‘छाग के चमड़े से वाद्ययंत्रदि, गो-वृष आदि के चमड़ों से पद- त्रणादि, गेंडे के चमड़े से ढाल और मृगव्याघ्रादि के चमड़ों से ऋषि-मुनियों के आसन बनते हैं। (पृ0 42) इन वाक्यों में शब्द- क्रीड़ा का जो विशेष गुण है, वह निश्चय ही भाषा को बोझिल बनाता है। किन्तु ऐसे स्थल कम ही हैं। इन निबंधों में प्रचुर मात्र में संत-वाणियों के जो उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं, उनसे तथ्यों की प्रामाणिकता सिद्ध होती है तथा लेखक के व्यापक अध्ययन और सम्यक् स्मृति का पता भी चलता है। तथ्यों का विनियोजन भी योजनाबद्ध और अनुकूल है।
‘गुरु-महिमा’ का प्रकाशन वर्ष 1989 ई0 है और इसमें कुल 144 पृष्ठ हैं। इस पुस्तक का लक्ष्य इसके शीर्षक से ही ध्वनित होता है। साधना-सम्प्रदायों में गुरु की महत्ता सर्वोपरि है। इस प्रकार गुरु की महत्ता, आवश्यकता तथा अपने परम पूज्य गुरु महाराज के बारे में लेखक ने इस ग्रंथ में प्रवचनोपयोगी पद्धति से बताने का प्रयास किया है। इसके 15 प्रवचन गुरु-पूर्णिमा के अवसर पर किये गये हैं। भूमिका में ही लेखक ने स्पष्ट कर दिया है-‘किसी भी ज्ञान के लिए गुरु की अनिवार्य आवश्यकता होती है। बिना गुरु के ज्ञान नहीं होता है। ---- पारलौकिक-आध्यात्मिक ज्ञान के लिए संत-सद्गुरु का सान्निध्य आवश्यक होता है। उनके आदेश और उपदेश के परिवेश में अपने को रखनेवाले का भवक्लेश निःशेष होता है। -----पूरे और सच्चे सद्गुरु का मिलना परम प्रभु सर्वेश्वर के मिलने के तुल्य ही है। (भूमिका, पृ0 3)
इन्होंने कान फूँकने की ठीकेदारी लेनेवाले उन गुरुओं से लोगों को सावधान किया है। (पृ0 23) वस्तुतः गुरु की खोज बड़ी सावधानी और सतर्कता से करने की जरूरत होती है। दृष्टियोग और नादानुसंधान की साधना बिना जानकार गुरु के निर्देश के संभव नहीं है। (पृ0 27) लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है कि भगवान अवतार लेकर दुष्टों का नाश करते हैं, पर संत सद्गुरु ‘दुष्ट को सुष्ठ बनाकर दुःखों का संहार करते हैं।’ (पृ0 38) ये आगे बताते हैं कि ‘वास्तव में गुरु शरीर को नहीं ज्ञान को कहते हैं। ----सामान्यतः भौतिक और आध्यात्मिक दो प्रकार के गुरु होते हैं। ज्ञानप्रदाता गुरु और ज्ञानग्रहण करनेवाले शिष्य कहलाते हैं। (पृ0 42) ‘जैसे गुरु में ज्ञान और शुद्धाचरण का होना अनिवार्य है, वैसे ही शिष्य में श्रद्धा और विश्वास का होना अनिवार्य है। ---सुयोग्य गुरु हों और शिष्य भी सुयोग्य हों, तो सफलता मिलती है, अन्यथा अच्छे गुरु के मिलने पर भी मूर्ख शिष्य सच्चे नहीं हो सकते, कच्चे ही रहते हैं।’ (पृ0 43) ‘गुरु के अनुग्रह से शिष्य को लौकिक आचार-व्यवहार का ज्ञान होता है, विज्ञान की प्राप्ति होती है और वह मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। यथार्थ में महत्तम गुरु वे होते हैं, जो अपने शिष्य को संसार-सागर से पार कर देते हैं।’ (पृ0 44) गुरु कुम्हार और शिष्य कुंभ होता है। संतमत में गुरु की महत्ता तो गोविंद से भी बढ़कर है। ‘संतमत अर्थात् संतों के मत में संत-सद्गुरु का स्थान शीर्ष पर है। यही कारण है कि हम संतों की वाणियों और सद्ग्रंथों में संत से श्रेष्ठ अन्य किन्हीं को नहीं मानते। यदि कहा जाए कि संतमत की मूल भित्ति सर्वेश्वर है, तो उसके साथ यह भी कह देना अपेक्षित है कि जिस भव्य भवन की मूल भित्ति भगवान हैं, उसकी छत संत सद्गुरु हैं और उसकी दीवार सत्संग है, जिसे सच्चे प्रेम-भक्ति के गिलावे से जोड़कर सच्चरित्रता या सदाचारिता के सीमेंट से प्लास्टर किया गया है।
इस प्रकार प्रस्तुत पुस्तक में परम पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी की अहैतुकी कृपा, महत्ता के साथ ही गुरु की आवश्यकता, उसकी पहचान, शिष्य की योग्यता-क्षमता आदि पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। बीच-बीच में निजी अनुभव के प्रसंग हैं, जिनसे पुस्तक की महत्ता और विश्वसनीयता और दृढ़ हो गयी है। भाषा प्रवचनोपयोगी है। कठिन शब्द और चमत्कार से प्रायः भाषा मुक्त है। संतों और शास्त्रें के वचनों और जीवन-प्रसंगों के कारण पुस्तक की उपदेयता बहुत बढ़ गयी है।
‘लोक-परलोक-उपकारी’ का प्रकाशन वर्ष है 1989 ई0 और पृष्ठ संख्या है-126; इसमें कुल 14 निबंध (प्रवचन) संकलित हैं, जिनके विषय प्रायः भिन्न-भिन्न हैं। पहले निबंध ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ में यह बताने का प्रयास है कि यहाँ धर्म से क्या तात्पर्य है और श्रीकृष्ण धर्म को त्यागने की बात किस अर्थ में करते हैं। ‘शुभ कर्म ही धर्म है। जिस धर्म से आत्मोत्थान हो, वह धर्म या शुभ कर्म है तथा जिस धर्म से आत्मा का अधःपतन हो, उसे अधर्म या अशुभकर्म कहते हैं। (पृ06) लेखक बताते हैं कि ‘श्रीकृष्ण जी की यही सम्मति है कि मन को स्वाधीन रखते हुए इन्द्रिय के धर्मों को छोड़ो, सुतरां आत्मनिष्ठ होवो। आत्मनिष्ठ ही स्वधर्म से आरूढ़ होना है।’ (पृ0 10) ‘इन्द्रिय-धर्म यानी स्वभाव, जो विषय ग्रहण करने का है, का त्याग करके चेतन-आत्मा के धर्म में आरूढ़ होवें, चाहे इसके लिए कुछ हो जाए।’ (पृ0 12) धर्म के परित्याग से भगवान का यही तात्पर्य है। तत्पश्चात् एकमात्र भगवान की शरणागति को स्वीकार करें।
भगवान गूँगे का गुड़ है। यह वाचा और मन दोनों से अप्राप्य है। ‘वाचा-द्वारा उसी तत्त्व का कथन हो सकता है, जिस तत्त्व या पदार्थ को मन जानता है। जहाँ मन की गति नहीं, उसकी अभिव्यक्ति वाणी कैसे कर सकती है? मन के गति-निरोध की स्थिति में वाणी-द्वारा कुछ व्यक्त करने की चेष्टा निष्फल होगी।’ (पृ0 15) अतः भगवान, परम तत्त्व गूँगे का गुड़ है। ये इस बात को और आगे स्पष्ट करते हुए कहते हैं-‘साधक जब साधनारंभ करता है, तो चित्तैकाग्रता के कारण सर्वप्रथम तो इन्द्रिय-ग्रामों से मन का पृथक्करण हो जाता है। पश्चात् साधना में अग्रसर होने पर अष्टधा प्रकृति मंडल के अभ्यंतर ही वह विलीयमान हो जाता है। उसके आगे चेतन आत्मा की गति होती है। ऐसी अवस्था में आत्मा या ब्रह्म के संबंध में मन कुछ भी वर्णन करे, कब संभव है। (वही, पृ0 18) निष्कर्षतः ये कहते हैं-‘आत्मतत्त्व जानने वा उसका प्रत्यक्ष ज्ञान पाने के लिए साधना करके आत्मज्ञानी बनने की आवश्यकता है, न कि कोरा वाचक ज्ञानी बनने की; क्योंकि आत्म-अनुभव की अथवा आत्मसुख की बात वाणी का विषय नहीं।
‘आखिर हमारे दुःख का कारण क्या है?’ शीर्षक निबंध में संसार के अनेक प्रकार के दुःखों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि इच्छित वस्तु की प्राप्ति से सुख और अनिच्छित वस्तु की प्राप्ति से दुःख होता है। वैसे ‘सब क्लेशों का मूल हमारी अविद्या है, अज्ञानता है, अधिक क्या कहें-हमारी मूर्खता है।’ (वही, पृ0 27) संसार के दुःखों के प्रति संतुलित दृष्टि अपनाने और उससे मुक्ति के लिए ‘चेतो और हरिभजन करो’ की सलाह देते हुए इन्होंने लिखा है-‘जीव अपने कर्म के वश में है। अपने कर्मों के अनुसार वह जन्मता है और कर्मों के अनुसार ही मरता है। अपने कर्म के अनुसार वह सुख वा दुःख पाता है।’ (वही, पृ0 42) ‘दुःख की निवृत्ति के लिए किसी सद्गुरु से आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त करके ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए। तभी आवागमन से मुक्त होकर परम कल्याणमय सच्चे सुख को वह प्राप्त कर सकेगा।’ (पृ0 49)
‘भक्ति भेष पर अवलंबित नहीं’ शीर्षक निबंध में यह बताने का प्रयास किया गया है। साधना को वेश या ‘भेष’ के साथ जोड़ना उचित नहीं है। साधु के वेश में अनेक दुराचारी, अज्ञानी लोग मिल जायेंगे और गृहस्थ के सामान्य वेश में अनेक वास्तविक साधु। ‘ईश्वरभक्ति सुवेश या कुवेश पर अवलंबित नहीं, अपितु सर्वथा उसके अंतःकरण की शुद्धता पर निर्भर है। ----कुवेशित रविदास संत, जामवंत और हनुमंत भगवद्भक्त होकर समादृत, प्रतिष्ठित एवं पूजित हुए तथा कालनेमि, रावण और राहु सुवेशित होने पर भी अभक्त, दुष्ट रहकर निरादृत, तिरष्कृत और साधु समाज से बहिष्कृत किये गये।’ (पृ0 64) ‘इस देश में वशिष्ठ, याज्ञवल्क्य, अत्रि, जनक, तुलसीदास, तुकाराम आदि सद्गृहस्थ साधु हुए और हनुमान्, शंकराचार्य, समर्थ रामदास, रामानंद आदि वैरागी, ब्रह्मचारी साधु हुए। वे सद्गृहस्थ होते हुए भी परिवार में जलकमलवत् थे।’ (पृ0 64)
अतः वेश-कुवेश के साथ साधुत्व की परस्परता नहीं है। ‘जिसकी भक्ति उत्कृष्ट हो, वही सबमें श्रेष्ठ माना जाता है-फिर चाहे वह गृहस्थ हो, वानप्रस्थ या वैरागी हो।’ (पृ0 69)
संसार की यह रीति है कि जो दुःख सह लेता है, उसको सुख की प्राप्ति होती है। कृषक सुख की लालसा से ही कृषिकर्म के सारे कष्ट सहता है। यही हाल विद्यार्थी, योद्धा, संतानेच्छुक महिला आदि का भी है। ‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्’ सब कष्ट ही है। इनसे मुक्ति का रास्ता खोजना चाहिए और वह रास्ता हरिभक्ति का रास्ता है और उसी से सच्चा सुख प्राप्त हो सकता है। यह विचार ‘दुःख सहने से सुख मिलता है’ शीर्षक निबंध में व्यक्त किया गया है। संपत्ति-विपत्ति और शरीर-संसार की भूल-भुलैया में फँसकर कभी विश्वास न करें कि ये पदार्थ सदा एक समान ही रहेंगे और इन्हें पाकर मदांध होना तो निरीमूर्खता है। ‘जरा विचारिये तो सही, जब सभी पदार्थ परिवर्तनशील तथा छूटनेवाले हैं, तब आप उसे पकड़कर सुख पायें, यह कब संभव है? अतएव यदि आप नित्य, शाश्वत सुख पाना चाहते हैं, तो अपरिवर्तनशील परमात्मा को प्राप्त करने का सत्प्रयत्न करें।’ (पृ0 90)
‘हरिशरण भक्त को कोई बाधा नहीं’ शीर्षक निबंध में भक्ति के स्वरूप और उसकी निष्कामता की सोदाहरण चर्चा है। ‘काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मात्सर्य प्रभृति विकारों से पूरित जन की कभी भी शुभ गति नहीं हो सकती और न वह हरिशरण के योग्य हो सकता है।’(पृ0 98)
‘शरीर से परमात्मा की शरण जाने से असली शरण-ग्रहण नहीं हो सकता। असली शरण में जाना तो ‘आत्मनिवेदनम्’ कर देना है। ----निजमन अर्पण अथवा आत्म-समर्पण कोई विरही भक्त ही कर सकता है। ----जिन्हें इन्द्रियों के भोगों में आसक्ति नहीं, विषय में अनुरक्ति नहीं, वे ही भक्त परमात्म-शरण होने के योग्य होते हैं।’ (पृ0 98)
---विषय-प्राप्ति की कामना लेकर जो भक्ति की जाएगी, उसमें विषय-वासनारूप विघ्न मौजूद ही है। इसलिए विषय-कामयुक्त भक्ति निरुपाधि भक्ति नहीं कही जा सकती। भक्तियोग के साधन से विषय की इच्छाओं को हटाकर राम के निर्भ्रान्त निर्गुण स्वरूप में रत होना ही निरुपाधि विघ्न-रहित भक्ति है। इस प्रकार की भक्ति करनेवाला भक्त ही हरिशरण हो सकता है और उस भक्त के लिए कोई विघ्न बाधा नहीं है।’ (पृ0 100)
अंतिम दो निबंध ‘वाणी का व्यवहार’ और ‘मन’ में वाणी व्यवहार के आध्यात्मिक, सैद्धांतिक और व्यावहारिक पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है तथा मन, उसकी गति, दिशा और मनोनिरोध के साधनों के बारे में बतलाने की भी चेष्टा की गयी है। अध्यात्म-विज्ञान में वाणी के चार प्रकार होते हैं-परा, पश्यन्ती, मध्यमा और बैखरी। ‘परा, पश्यन्ती और मध्यमा वाणी का ज्ञान सामान्य जन को नहीं होता। वे मुख से विखरी हुई वाणी वैखरी वाणी को ही जानते हैं। इस वैखरी वाणी में अद्भुत चमत्कार है। ---वाणी से ही विपद, विप्लव और विध्वंस होते हैं तथा वाणी से ही विजय, वैभव और विश्वबंधुत्व होते हैं। ---वाणी से हानि और लाभ दोनों होते हैं। हमें चाहिए कि वाणी का संयम जानें। वाणी के वाण से देवी द्रौपदी की दिल्लगी ने ही कुरुक्षेत्र में महाभारत संग्राम मचाकर सर्वनाश करवाया।’ (पृ0 106-107)
ये आगे लिखते हैं-‘रसना बहुत शक्तिशाली इन्द्रिय है। यह वाचन और रसास्वादन दोनों कलाओं में कुशल है। ----रसनेन्द्रिय का संयम ही वाणी का संयम है। ----इसमें दो प्रकार के संयमों की अनिवार्य आवश्यकता है-प्रथम भोजन-संयम की, द्वितीय वचन-संयम की।’ (पृ0 110) ‘वाणी का संबंध नाद से है। अतएव हम अंतर्नाद की साधना करके वाणी-व्यवहार की कला जानें, तो कितना उत्तम हो।’ (पृ0 113) इस प्रकार निबंध में व्यावहारिक और आध्यात्मिक स्तर पर वाणी के विनियोग का मंत्र भी बताया गया है।
‘इस स्थूल शरीर के भीतर एक मन भी है, जो शरीर और इन्द्रियों को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। ---संयमित मनरूप अश्व के द्वारा ही आप आत्मोन्नति के शिखर पर चढ़ सकते हैं तथा इसकी बागडोर ढीली कर देने से अधोपतन के गड्ढे में भी गिर सकते हैं।’ (पृ0 114) यह मन संकल्प- विकल्पात्मक है। इसकी गति अत्यन्त चंचल है। यह मन मथनेवाला है। ध्यानाभ्यास काल में भी यह साधक के चित्त को, अंदर के विकारों को बाहर विखेर कर असंतुलित करने की चेष्टा करता है। सच है-‘जेती लहर समुद्र की तेती मन की दौड़।’ इस मन पर विजय प्राप्त करना दुष्कर है; परन्तु है अत्यन्त आवश्यक। ‘अतएव मनोनिरोधेच्छुक साधक को सर्वप्रथम किसी स्थूल मंत्र का मानस जप, जिसमें अपनी पूर्ण श्रद्धा हो, इष्ट का मानस ध्यान, विन्दु-ध्यान तथा नादानुसंधान; इन चारो का अभ्यास दृढ़तापूर्वक करना चाहिए। मनोनिग्रह का सदाचार से अत्यधिक संबंध है। इसलिए साधकों को पंच पापों (झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार) से बचकर रहना चाहिए। (पृ0 126)
‘सत्य क्या है,’ एक सौ बारह पृष्ठों की 1992 में प्रकाशित लेखक की महत्त्वपूर्ण रचना है। इस पुस्तक के विषय में लेखक ने इसकी भूमिका में लिखा है-‘जो असत्य है, उसका अस्तित्व नहीं है और जो सत्य है, वह नित्य शाश्वत है। प्रस्तुत पुस्तक में इसी सत्य और असत्य के विषय में विविध भाँति से समझाया गया है।’ इस ग्रंथ के पहले निबंध में सत्य के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। ग्रंथ के शेष निबंध या प्रवचन अध्यात्म क्षेत्र के अन्यान्य विषयों से संबंधित है। पहला निबंध प्रवचन का ही मार्जित स्वरूप लगता है। ‘आप देखेंगे, इसी पंडाल के अंदर कहीं चालीस वाट का बल्ब लगा हुआ है, तो कहीं सौ वाट का और कहीं हजार वाट का। (पृ0 13) ऊपर का उद्धरण इसके प्रवचन होने को प्रमाणित करता है। बाद में इसे यत्र-तत्र जोड़-घटाकर निबंध का रूप दिया गया है। इस निबंध में बताया गया है कि ‘इन्द्रियों को जो कुछ गोचर हो, मन से जहाँ तक जानकारी हो सके, वह सबकी सब माया है और माया परिवर्तनशील होती है। सत् परिवर्तनशील नहीं होता है। ऐसा क्या है? वह परम प्रभु परमात्मा है। परम प्रभु के अतिरिक्त और कोई सत् नहीं है। उस परम प्रभु परमात्मा का अभिन्न अंश यह जीवात्मा है। जीवात्मा भी सत् है।---मात्र अणुता और विभुता का फर्क है। मनुष्य भी सत् है, पर उसको असत् का संग हो गया है। अपने को असत् से निकाल देना चाहिए। जबतक चेतन जड़ के साथ है, तबतक उसका परमात्मा से मेल संभव नहीं। अतः जीव अपने को जड़ से अलग करके अपने स्वरूप में स्थित होकर परमात्मा से मिलन प्राप्त कर सकता है। यह ‘जड़त्व को छोड़ने और परमात्मा से मिलने की कला’ संत बताते हैं।
‘परमात्मस्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान’ शीर्षक निबंध के अनुसार-‘इन्द्रियातीत ईश्वर का अपरोक्ष ज्ञान चेतन आत्मा को होगा; क्योंकि वह भी उसकी ही भाँति सूक्ष्म है। ---जबतक चेतन आत्मा जड़ के साथ संयुक्त रहेगी, तबतक वह उस ईश्वर की अपरोक्ष अनुभूति में सर्वथा असमर्थ रहेगी।’ (पृ0 33) ‘जब चेतन आत्मा के ऊपर से स्थूल-सूक्ष्मादि जड़ के सभी आवरण उतर जाते हैं, इसी कैवल्य दशा में ब्रह्म की अनुभूति होती है।’ (पृ0 34) यह शरीर क्षेत्र है और क्षेत्रज्ञ जीवात्मा है। इस चेतन का निवास जाग्रत अवस्था में नेत्र में, स्वप्न में कंठ में, सुषुप्ति में हृदय में और तुरीय अवस्था में मस्तक में होता है। तीन अवस्थाओं को पार कर चौथी अवस्था अर्थात् तुरीयावस्था में जाने पर आत्मस्वरूप और परमात्मस्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है। ‘सत्संग की आवश्यकता’ शीर्षक निबंध में सत्संग की उपयोगिता और स्वरूप का विवेचन करते हुए कहा गया है कि ‘सत्संग श्रीरंग का निज अंग है। इसके संग से विषयों का असंग होता है, हरि का अभंग रंग लगता है और अंत में भव-भंग हो जाता है।’ (पृ0 49)
‘पाप का समूल नाश’ कैसे संभव है? इसपर विचार करते हुए कहा गया है-‘जब ईश्वर की अनुकंपा होती है, तब संतों की संगति मिलती है और जब संतों की संगति मिलती है, तब उनके दर्शन से, स्पर्शन से तथा समागमादिक से पापराशि का नाश हो जाता है।’ (पृ0 66)
ध्यानयोग से भी पाप-क्षय होता है। जो विधि-सम्मत धर्म है, शुभकर्म है, वह पुण्य है, उसका फल सुखद होता है। जो अवैधानिक कर्म है, अशुभ कर्म है, वह पाप है और ऐसे कर्म का फल दुःखमय होता है। शुभ कर्म का फल सब भोगना चाहते हैं, पर पापकर्म का फल भोगना कोई नहीं चाहता। परन्तु जो जिस प्रकार का भी कर्म करेगा, उसका फल उसे भोगना ही पड़ेगा। मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है, फल देनेवाला है। (पृ0 64-65 के आधार पर) पाप कर्म के फल से मुक्ति का रास्ता ध्यान, सत्संगादि है, जिसकी क्रिया-विधि संतजन बताते हैं।
‘श्रेष्ठ ज्ञान’ शीर्षक निबंध का विषय श्रेष्ठ ज्ञान का निर्धारण और उसकी प्राप्ति के उपाय हैं। ‘ज्ञान चार प्रकार के होते हैं-श्रवण-ज्ञान, मनन-ज्ञान, निदिध्यासन-ज्ञान और अनुभव-ज्ञान।’ (पृ0 69) ‘श्रवणज्ञान साधारणतः अग्निवत् होता है, मननज्ञान बिजली के समान होता है, निदिध्यासन-ज्ञान बड़वानल की भाँति होता है और अनुभव-ज्ञान महाप्रलय की अग्नि के सदृश होता है। यह अनुभव-ज्ञान संतों को होता है।’ (पृ0 70-71)
‘संतमत और राष्ट्रहित’ शीर्षक निबंध ‘संतमत प्रमादी नहीं, पुरुषार्थी बनाता है’ शीर्षक से ‘जग में ऐसे रहना’ में संकलित हो चुका है। यहाँ से शीर्षक बदलकर सम्मिलित किया गया है। इसके विषय की चर्चा पूर्व में की जा चुकी है। परवर्ती संस्करण में इसका शीर्षक है ‘संतों से वीरता और निर्भीकता का पाठ सीखें।’
‘मानव का परम कल्याण’ शीर्षक निबंध का निष्कर्ष है कि ‘मानव परम कल्याण आत्मज्ञान में है। किन्तु जो बलहीन है, उनको आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं होती।’ (पृ0 92) आत्मज्ञान के लिए योग-साधना की चर्चा की गयी है और उसके आठ अंगों-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के स्वरूप को समझाया गया है। इनमें ध्यान की बड़ी महत्ता है। समाधि तो एक प्रकार से इस ध्यान का फल है। ध्यान से सिमटाव होता है। पूर्व की साधनाएँ ध्यान की योग्यता प्रदान करती है। स्थूलरूप के ध्यान के बाद शून्य-ध्यान अर्थात् विन्दु- ध्यान किया जाता है। इससे पूर्ण सिमटाव होता है। विन्दु-ध्यान सुषुम्ना में होता है। सुषुम्ना में तीनों धाराएँ मिलती हैं। बायीं धार (इड़ा) में रजोगुणी और दायीं धार (पिंगला) में तमोगुणी वृत्ति रहती है। जब ये सतोगुणी वृत्ति (सुषुम्ना) में सिमटती है, तब रास्ता मिलता है और ध्यान सिद्ध होता है।’ (पृ0 102 के आधार पर) ‘यहीं आज्ञाचक्र है और यहीं से अंतर्मार्ग का प्रारंभ होता है। यहाँ से सहस्त्रदलकमल, शून्य, महाशून्य, भँवरगुफा, सतलोक होते हुए परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त किया जाता है।’ (पृ0104)
‘सुख-दुःख’ में 11 निबंध या प्रवचन संकलित हैं। इसका प्रकाशन वर्ष 1993 ई0 एवं पृष्ठ संख्या 100 है। विषय-सूची प्रस्तुत करते हुए शीर्षकों के ऊपर प्रवचन लिखा गया है। लगता है प्रस्तुत पुस्तक के निबंध भी प्रवचनों के परिमार्जित रूप हैं। संभव है, इनमें से कुछ स्वतंत्र निबंध भी हों। प्रकाशित पुस्तकों में यह लेख के प्रकाशन-काल की दृष्टि से सबसे ताजा ग्रंथ है। इसमें संकलित सामग्री 1968-1971 के बीच की है। इनमें से दो शीर्षकों के नीचे रचनाकाल अंकित नहीं है-‘सांसारिक दुःखों से मुक्ति’ तथा ‘मन को एकाग्र करें।’ सामग्री को देखने से ऐसा स्पष्ट होता है कि आज से लगभग 24-27 वर्ष पहले ये लिखे गये थे। संभव है, ‘ये ‘शान्ति-संदेश’ या अन्यत्र प्रकाशित भी हों। यदि इनके प्रकाशन-काल, प्रकाशन पत्रिका आदि का विवरण दे दिया गया होता, तो मूल्यांकन में अधिक सहूलियत होती।
विषयों की सूची देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि इस पुस्तक में भी प्रायः वे ही विषय हैं, जो किसी-न-किसी रूप में पिछली पुस्तकों में वर्णित हुए हैं। ‘सुख-दुःख’ शीर्षक निबंध में सुख और दुःख की अवधारणा तथा सुख-प्राप्ति तथा दुःख निवृत्ति के उपायों के बारे में बतलाया गया है। संसार में सर्वत्र किसी-न-किसी रूप में दुःख व्याप्त है। कोई अभाव को दुःख और भाव को सुख कहते हैं। किसी की दृष्टि से इच्छित वस्तु की प्राप्ति सुख और उसकी अप्राप्ति दुःख है। कोई कहता है कि न्यूनता या प्रचुरता में नहीं, बल्कि तृप्ति में ही सुख है। कुछ लोग कहते हैं कि संसार रमणीय है। संसार के सारे पदार्थ हमारे सुखोपभोग के लिए हैं। फिर दुःख कैसा? वह तो भ्रममात्र है। किन्तु सुखोपभोगों से कभी किसी को आत्यंतिक तृप्ति मिली है? विषय-भोग के घी के हवन से क्या कामाग्नि तृप्त हो सकती है? वस्तुतः सुख बाह्य जगत् में कहीं नहीं है। ‘यदि यथार्थ सुख चाहो तो अपने अंदर धँसो और अंतर में अंतिम तह तक धँसकर देखो, तो वह सुख मिलेगा।’ (पृ0 22)
‘साधना में सफलता’ के लिए आवश्यक है कि साधक धैर्य रखे, संलग्नचित्त हो निरंतर साधना करे। सभी को सफलता एक ही तरह से नहीं मिलती। जिसका चित्त परिशुद्ध और पूर्व उत्तम संस्कारों से युक्त रहता है, उसको सफलता शीघ्र मिलती है। जो रजोगुणी, आलसी, निरंतरता बनाये रखने में असमर्थ साधक होते हैं, उन्हें देर से सफलता मिल सकती है। परन्तु निराश होने की बात किसी के लिए नहीं है। ‘धैर्यवान हो प्रयत्नपूर्वक उसमें लगा रहना चाहिए। सिद्धि या सफलता प्राप्त करने का यह अमोघ मंत्र है।’ (पृ0 28) ‘हम भी आशावादी, आस्तिकवादी और साहसी बन श्रम करें, फिर साधना में सफलता क्यों न मिलेगी?’
‘सुख-दुःख में सम रहें’ कहने में चाहे जितना आसान हो, व्यवहार में अत्यन्त ही कठिन है। ‘साधु को समरस रहना चाहिए। हानि, लाभ, सुख-दुःख, निंदा, स्तुति, मान, अपमान आदि सभी अवस्थाओं में सम रहें। किन्तु यह समरसता-समत्व या समता आवे तो कैसे? संतों ने समत्व प्राप्त करने के लिए ‘शम’ के साधन का निर्देशन किया है, जो नादानुसंधान द्वारा सम्पन्न होता है। अतः विचार-द्वारा मन पर अंकुश ला, सुरत-शब्द-योग की साधना करनी अत्यन्त अपेक्षित है।’ (पृ0 65)
‘शाश्वत सुख की प्राप्ति’ का भी उपाय है। ‘नित्य सत्य एवं शाश्वत सुख के लिए ईश्वर-भक्ति करनी चाहिए। ईश्वरस्वरूप इंद्रियातीत होने के कारण उसका सुख भी इंद्रियातीत है। अतएव इन्द्रियों के द्वारा उस सुख की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती और न कोई इंद्रिय उस संबंध में कुछ कह सकती है। जो इन्द्रिय का विषय नहीं, जो अनिर्वचनीय है, उसके संबंध में वाणी मूक है। (पृ0 84)
‘संतों की रहस्यात्मक वाणी’ को समझना केवल ‘सुनन्त’ और ‘पढ़न्त’ विद्या से संभव नहीं है। ‘संतज्ञान की मर्यादा जानने के लिए अनेक जन्मों के अर्जित पुरस्कारों की, सत्संग की, सद्गुरु-कृपा की और संयमित जीवनयापन करते हुए प्रयत्नशील होकर नित्य निरंतर सत्साधना की अपरिहार्य आवश्यकता है।’ (पृ0 87) केवल पारिभाषिक शब्दों का अर्थ जानने और संतवाणी के ऊपरी वाक्यपरक अर्थ समझने-समझाने से काम नहीं चलनेवाला है। बिना साधना के अधिकार नहीं मिलता कि कोई संत-साहित्य के मर्म के उद्घाटन का दावा करे। ‘साधनहीन, आचरणहीन, केवल वाक्य-प्रवीण जन का प्रभाव नहीं पड़ता।’ (पृ0 89)
संतमत की विशेषता क्या है? संतमत में सभी संतों की मान्यता है। इसके मात्र तीन सिद्धांत हैं-गुरु, ध्यान और सत्संग। यदि और कुछ कहना चाहें, तो वे हैं सदाचार और स्वावलंबी जीवन। इसके पाँच विधि कर्म हैं और पाँच निषिद्ध कर्म हैं। यह किसी धर्म, मत, मजहब वा संप्रदाय आदि का खंडन नहीं करता। संतमत अपना सिद्धांत सबके सामने रखता है। इसकी बतायी गयी क्रिया-विधि अपनाने का अधिकार सभी को है। ‘चाहे वे पढ़े-लिखे हों, अनपढ़े हों, धनी हों वा निर्धन हों, गृहस्थ हों वा विरक्त हों, पुरुष हों वा स्त्रियाँ हों, किसी भी धर्म या जाति के हों, इस देश के हों या दूसरे देश के हों, सभी कोई बेखटक साधना कर सकते हैं। संतमत का उद्देश्य सारे संसार के जनकल्याण के लिए हैं। (पृ0 97)
यद्यपि इस पुस्तक के निबंधों में विषय की दृष्टि से पहले की पुस्तकों से कोई खास नवीनता नहीं है, परन्तु भाषा-सौष्ठव की दृष्टि से इसमें अधिक प्रांजलता और सरलता है।
इनके अतिरिक्त अनेक प्रवचन या निबंध हैं, जो पुस्तकाकार प्रकाशित नहीं हो सके हैं। कहते हैं, इनकी संख्या हजारों में हैं। कुछ तो ‘शान्ति-सन्देश’ के पुराने अंकों में खोजने से मिल जा सकते हैं। प्रायः उन निबंधों में भी संतमत के किसी-न-किसी विन्दु से संबंधित विचार ही वर्णित-विवेचित हैं।
इन्होंने कुछ टीकाएँ भी की हैं। परम पूज्य महर्षि मेँहीँ-कृत ‘ईश-स्तुति और नाम-संकीर्तन की व्याख्या शीर्षक से ‘शान्ति-संदेश’ में उनके दो पदों की व्याख्या की गई है। इसी प्रकार ‘शान्ति-सन्देश’ के वर्ष 1966 एवं 1967 के कुछ अंकों में संत सुन्दरदासजी, संत रामचरण, सहजोबाई, बुल्ला साहब, दरिया साहब (बिहारी), संत सिंगाजी, दीन दरवेश, धन्ना भगत, पलटू साहब, मलूक दास एवं कबीर साहब के कुछ पदों के अर्थ और व्याख्याएँ भी प्रस्तुत हैं। इन व्याख्याओं को परिशोधन महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने किया है। अतएव इनकी प्रामाणिकता असंदिग्ध है।
यह भी कहा जाता है कि पूज्य महर्षि मेँहीँ परमंहसजी महाराज के अधिकांश साहित्य के प्रकाशन के पूर्व पांडुलिपिबद्ध करने का काम भी इन्होंने किया है। इधर ये उनके प्रवचनों को पुस्तकाकार छापने का प्रयास में भी लगे हैं। ‘महर्षि मेँहीँ-वचनामृत, प्रथम खंड ऐसा ही प्रयास है। इसमें उनके सोलह प्रवचन संकलन हैं। इसका प्रकाशन 1988 ई0 में हुआ है। इस प्रकार पृष्ठभूमिरूप में महर्षि मेँहीँ परमहंसजी के प्रवचन, अन्य साहित्य और जीवन, लेखक के लेखन-संस्कार के प्रेरक रहे हों, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
अभी तक वैचारिक धरातल पर लेखक-साहित्य के मूल विचार-विन्दुओं को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। इनकी दार्शनिक विचार-सरणि, सिद्धांत-निष्ठा और क्रिया-कलाप का परिचय भी इसके माध्यम से सुलभ हो गया है। दर्शन और सिद्धांतवाद के धरातल पर इनका संपूर्ण साहित्य ‘संतमत-सत्संग’ के सिद्धांतवाद और अंततः संपूर्ण संत-साहित्य के सिद्धांतवाद के अनुरूप है। इतना अवश्य है कि वेद, शास्त्र, पुराण और रामचरितमानस को जो प्रतिष्ठा ‘संतमत-सत्संग’ के साहित्य में है, वह मध्यकालीन संत-साहित्य में नहीं है। मध्यकालीन संत-साहित्य न तो वेद-प्रामाण्य को स्वीकार करता है और न ही शास्त्रीय और स्मार्त-परंपरा की जीवन-दृष्टि का कायल है। वह दाशरथि राम की भगवता को भी नहीं स्वीकार करता। अवतारवाद में उसका विश्वास नहीं है और न ही जाति या वर्ग की श्रेष्ठता को शास्त्रज्ञान या जन्म से जोड़ने का वह हिमायती है। ‘संतमत-सत्संग’ भी जाति, धर्म के पचड़े में नहीं पड़ता और भजन का दरवाजा सबके लिए खुला रखता है, पर वर्ण-व्यवस्था पर निर्मम चोट करके उसे धराशायी करने का जो पराक्रम, मध्यकालीन निर्गुण काव्य में सुलभ है, उससे अलग रहने का संकल्प ‘संतमत-सत्संग’ में दृष्टिगोचर होता है। मध्यकालीन संतकाव्य की क्रांतिकारी भूमिका में वर्ण, शास्त्रज्ञान, वेद-प्रामाण्य, अवतारवाद को नकारने का जो उत्साह है, वह धीरे-धीरे परवर्ती काल के संत-साहित्य से तिरोहित होता गया है। कालांतर में तो अवतारवाद को भी स्वीकार कर लिया गया है और संत स्वयं परम प्रभु के अंशावतार अथवा किसी देवी-देवता या पुराण महापुरुष के अवतार हो गये हैं। संत-परंपरा ने संभवतः इसे समय की माँग समझते हुए स्वीकार कर लिया है अथवा क्रांति की मशाल की लौ के मद्धिम हो जाने से ऐसा हुआ है। तुलसीदास आदि ने निर्गुणवादियों की भर्त्सना की और वर्ण-व्यवस्था का समर्थन किया। उन्होंने राम के चरित में अपने दृष्टिकोण पिरोने का यत्न किया। ऐसे राम को, उनकी भगवत्ता को कबीरादि ने स्वीकार नहीं किया। राम के परब्रह्मत्व पर कबीर सहमत हैं और अंततः सगुणवादी भी। परवर्ती काल में दोनों की सहमति को स्वीकृति मिली और तुलसीदास संतों में उद्धृत होने लगे। हिन्दी-समीक्षा में निर्गुणवादियों के लिए संत और सगुणवादियों के लिए भक्त शब्द प्रायः रूढ़ हो गया है, वर जनजीवन में यह विभेद नहीं है। समाज में तुलसीदासजी भक्त हैं और कबीर दासजी संत। इस पृथक्करण के मूल में जाने का यहाँ अवसर नहीं है।
‘संतमत-सत्संग’ के साहित्य के अंतर्गत महर्षि संतसेवीजी के साहित्य में संत-साहित्य की ऐतिहासिक परंपरा की सारी विशिष्टताएँ हैं। यह साहित्य सर्वधर्म- समभाव पर केन्द्रित है। ‘संतमत-सत्संग’ में किसी भी धर्म, देश, जाति, वर्ण अथवा धार्मिक मतवाद के व्यक्ति के लिए ‘प्रवेश-निषेध’ नहीं है। सभी के लिए इसकी साधना-पद्धति के द्वार खुले हुए हैं।
इसकी क्रिया प्रणाली में कहीं कुछ ऐसा नहीं है, जो किसी धर्म-विशेष के मार्ग में बाधक हो अथवा किसी के विश्वास को चोट पहुँचाये। सत्संग में कुछ भी ऐसा नहीं है, जो किसी के लिए वर्जित हो। ‘जप’ सभी जगह विहित है। किसी नाम पर जोर, जिद नहीं है। किसी भी धर्म, वर्ण का अनुयायी अपने अनुकूल परमात्मा का कोई नाम चुनकर जप कर सकता है। ‘मानस ध्यान’ में भी कोई प्रतिबंध नहीं है। उसके ध्यान की छवि किसी भी पवित्र आत्मा की हो सकती है। ‘दृष्टियोग’ और ‘नादानुसंधान’ में तो किसी धर्म, संप्रदाय या वर्ण के विश्वास से टकराव का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। इस प्रकार इसकी साधना प्रणाली बिना किसी के विश्वास में हस्तक्षेप करते हुए, सबके लिए परमात्म-सुख-प्राप्ति का दरवाजा खोले हुए है। ऊँच-नीच आदि का यहाँ कोई भेद-भाव नहीं, बल्कि जो जितना उपेक्षित है, पीड़ित है, वह यहाँ उतना ही वांछित तथा करुणा और स्नेह का अधिकारी है।
महर्षि संतसेवीजी का साहित्य मुख्यतः गद्य में है। कहा जाता है कि उन्होंने कुछ कविताएँ भी लिखी हैं, जिसका प्रकाशन ‘महर्षि संतसेवी ज्ञान-गंगा’ मेंं प्रकाशित है। गद्य में भी मुख्यतः निबंध ही उन्होंने लिखे हैं। प्रवचनों को भी निबंध के रूप में परिमार्जन के साथ रूपांतरित कर प्रकाशित कराया गया है। तीन स्वतंत्र पुस्तकें भी हैं, जिनका मूल्यांकन पूर्व के पृष्ठों में किया गया है।
लेखक ने प्रवचन और निबंधों में अपनी बात को स्पष्ट करने और समझाने के लिए उद्धरणों और उदाहरणों का प्रायः आश्रय लिया है। प्राचीन काल से ही अपने प्रवचन को प्रभावशाली, व्यावहारिक, प्रकरण-सिद्ध और विश्वसनीय बनाने के लिए उसमें ऐतिहासिक, पौराणिक और लोकजीवन में प्रचलित कथा-प्रसंगों का आश्रय लिया जाता रहा है। महर्षि संतसेवीजी ने भी इस पद्धति का उपयोग किया है। उनके निबंधों/प्रवचनों में ऐसे अनेक कथा-प्रसंग हैं।
‘जग में ऐसे रहना’ में नारद-द्वारा वृद्ध से और फिर श्रेष्ठि से बैकुंठ चलने के आग्रह की कथा के द्वारा मोह को उजागर किया गया है (पृ0 184-185), लोमड़ी और श्रेष्ठिपुत्र की कथा के द्वारा पुरुषार्थ को प्रेरित करने (पृ0 76), नरेन्द्र और परमहंस रामकृष्ण की कथा के द्वारा साधनकाल में ऐषणा की विस्मृति (पृ0 131) के प्रसंगों को उजागर किया गया है।
‘सत्य क्या?’ में सारिपुत्र को चारिका और श्रेष्ठि की कंजूसी, सारिपुत्र की कृतज्ञता और श्रेष्ठता (पृ098), मथुरा के भोजनभट्ट की कथा-द्वारा संतोष के अभाव (पृ0 74), राजा जनक तथा अष्टावक्र आदि की कथा के द्वारा सत्य-असत्य का निरूपण (पृ0 17) किया गया है।
‘योग-माहात्म्य’ में सांकेतिक भाषा में धन-संकेत की श्रेष्ठिपुत्र की कथा (पृ0 44-45), राजा जनक एवं शुकदेव मुनि के भोगों में अनासक्ति की कथा (पृ0 16), ‘सुख-दुःख’ में समर्थ रामदास की सहनशीलता और करुणा की कथा (पृ0 98), मेल के महत्त्व को प्रतिपादित करने के लिए मरणासन्न वृद्ध और उसके पुत्रें की कथा (पृ0 99), लकीर को बिना काट/मिटाये छोटा करने की अकबर-बीरबल की कथा (पृ0 96), चरित्रवान आदमी के भाषण के प्रभाव पड़ने के प्रसंग में राजा और मंत्री की कथा (पृ0 88), विषय-चिंतन के लिए काली-मंदिर में रामकृष्ण-द्वारा रानी रासमणि को थप्पड़ मारने का प्रसंग (पृ0 68), दान में सड़ा अन्न देने के लिए लांछित करने के संदर्भ में श्रेष्ठि और उसकी पतोहू का दृष्टांत (पृ0 51) आदि वर्णित हैं।
‘लोक-परलोक-उपकारी’ में ब्राह्मणी गौतमी और अर्जुनक व्याध की प्र्रतिहिंसा और करुणा की कथा (पृ0 41), राजा चित्रकेतु के पुत्रवधू का दृष्टांत (पृ0 30) तथा दत्तात्रेय और बारात की कथा के द्वारा एकाग्रचित्तता की महत्ता की प्रतिष्ठा (पृ0 17) की गयी है। ‘गुरु-महिमा’ में वसिष्ठ-नंदिनी और विश्वामित्र का दृष्टान्त (पृ0 87), लोई के छूरा पर धार करने का प्रसंग (पृ0 84), समर्थ रामदास, शिवाजी एवं सिंहनी के दूध का प्रसंग (पृ0 68) अनुस्यूत हैं। इनके माध्यम से लेखक के पुराण, इतिहास, लोककथा आदि के ज्ञान के साथ उनके सामयिक विनियोजन की क्षमता का भी परिचय मिलता है।
दृष्टान्तों के अतिरिक्त उद्धरणों का एक विशाल कोश भी इनके पास है। संत-वचन के बाद सर्वाधिक उद्धरण योगोपनिषदों के मिलते हैं। वेद, पुराण आदि के भी उद्धरण हैं, पर वे संख्या में कम हैं। प्राचीन उपनिषदों में मुंडक, छांदोग्य आदि के उद्धरण प्रायः मिल जाते हैं। ‘गीता’ और ‘रामचरितमानस’ के उद्धरण क्रमशः चौथे और तीसरे नंबर पर है। ज्यादातर इनका उपयोग साक्ष्य के तौर पर किया गया है। इनके साहित्य में उद्धरणों के माध्यम से अपने मंतव्य को प्रामाणिक बनाने की चेष्टा है और सत्संगी जनता को यह विश्वास कराना भी कि जो कुछ कहा या बताया जा रहा है, वह निर्मूल, कल्पना या प्राचीन परंपरा- विरोधी नहीं है। इस प्रकार संत-साहित्य, मानस, योगोपनिषद्! और गीता-उद्धरण इनकी विचार-सरणि के मुख्य स्त्रोत रहे हैं। भारतीय जनता में इनकी प्रामाणिकता असंदिग्ध है और सभी में प्रायः इनके प्रति पूज्य-बुद्धि है। इनके अलावा दूसरे धर्म के विचारों में तुलनात्मक या समर्थनमूलक अनुशीलन के लिए उनके धर्मग्रंथों से भी उद्धरण दिये गये हैं, पर उनकी संख्या थोड़ी है। यह स्वाभाविक भी है।
निबंध के विषय में शास्त्रीय चिंतन और सिद्धांत-कथन में नहीं उलझकर इतना ही कहना अपेक्षित होगा कि निबंध प्रायः किसी विषय को उसकी पूर्ण आनुसंगिकता के साथ प्रायः समास-शैली में उपस्थित करने की अभिव्यक्ति-पद्धति है। यह ठीक है कि विषय और लक्ष्य की भिन्नता के कारण उसकी शैली, अभिव्यक्ति-विधान और शब्द-संपदा के विनियोग में भिन्नता आती है। पर इस बात में भेद की गुंजाइश नहीं है कि अंततः निबंध का लक्ष्य सुग्रथितरूप से किसी विचार को प्रस्तुत करना होता है। लेखक के निबंधों को यदि इस कसौटी पर कसें, तो हमें निराश होने का कोई कारण नहीं मिलेगा। इनके निबंधों की भाषा समर्थ, संस्कृतनिष्ठ और व्याकरण- सम्मत है तथा इनमें निर्धारित विषय को सांगोपांग प्रस्तुत करने का कौशल है।
ऐसे अनेक स्थल हैं, जहाँ शुष्क विषय को भी काव्यात्मक शब्दावली-द्वारा मोहक बनाने का प्रयास किया गया है। प्रकृति के दृश्य-चित्रण और मनोवृत्ति के उद्वेलन के प्रसंगों में यह कल्पनाशीलता और काव्यात्मकता ज्यादा स्पष्ट दिखायी पड़ती है। उदाहरणार्थ-‘मलय पर्वत से जब पवन प्रवाहित होता है, तब वह शाल, शीशम, नीम, बबूल प्रभृति सार-संयुत तरु को सुवासित कर चंदन बना देता है; किन्तु उसके निकट आक, अरंड और बाँस जैसे सारहीन वृक्ष ज्यों-के-त्यों बने रहते हैं, सुगंधित नहीं हो पाते-चंदन नहीं बन पाते। (सुख-दुःख, पृ0 66) अथवा ‘इस विशाल ब्रह्मांड के अंतर्गत सूर्य, चन्द्र तथा उडुगण अपने-अपने आलोक से गगनमंडल के सहित इस भूतल को आलोकित करते हैं। ग्रीष्मकालीन प्रचंड गर्मी तथा लू से संतप्त एवं व्यथित मानवहित निशीथ में चंद्र अपनी शीतल धवल चंद्रिका विखेरता है। साथ ही उसमें सौंदर्य, माधुर्य एवं विशेष शीतलता प्रदान करने के लिए वायु भी अपनी शीतल मंद सुगंध मिला देती है।’ (जग में ऐसे रहना, पृ0 1) भावोच्छ्वास को व्यक्ति करनेवाले स्थल भी अनेक हैं। एकाध नमूना प्रस्तुत है- “ धन्य हैं क्षत्रियकुलोद्भव श्रीलक्ष्मणजी और धन्य हैं उनकी सदाचारिता, रामभक्ति और संस्कृतबुद्धि। किन्तु उस ब्राह्मण कुलांगार, ब्रह्मा के प्रपौत्र और ऋषि पुलस्त्य यश विमल मयंक’ में कलंक लगानेवाले, कामी, क्रोधी, लालची एवं व्यभिचारी विभीषण को क्या कहा जाए?”
(लोक-परलोक-उपकारी, पृ0 97)
महर्षि संतसेवीजी का शब्द-संयम गंभीर आध्यात्मिक अनुभूति पर आश्रित है। इनका अलंकार- विधान सुचारु है। इससे इनकी भाषा में अनुप्रास का सौंदर्य आता है, श्रुतिमधुरता की वृद्धि होती है और इनके भाषा-कौशल का परिचय मिलता है।
‘हमें दुरालोचन-लोचन-विमोचन कर विवेक- विलोचन का निरावरण करके अवलोकन करना चाहिए।---।’ (जग में ऐसे रहना, पृ0 113) ‘छः के परे तीन में यदि कोई प्रवीण हो जाए, तो वह दीन न रहकर दीनेश जो जाएगा।’ (वही, पृ0 201)
‘अंतःप्रकाश की आवश्यकता क्यों’ शीर्षक काव्यात्मक उद्गार, जो ‘लोक-परलोक-उपकारी’ के प्रथम पृष्ठ पर अंकित है, के कुछ वाक्यांश देखिये-‘दंपति में परस्पर भरा-पूरा प्यार हो, घर में नन्हे-मुन्ने-मुन्नियों की अहर्निश किलकार हो, पद-प्रतिष्ठा और प्रभुत्व के कारण संसार में जय-जयकार हो; लेकिन जबतक अपने भीतर घोर अंधकार हो, तबतक भव-कारागार-बद्ध भविष्य जीवन हाहाकार है’ आदि---।
किन्तु, चमत्कारपूर्ण एवं काव्यात्मक वाक्य-विन्यास के ऐसे स्थल विचार-प्रवाह में बाधक बनकर प्रायः नहीं आते। इनके ध्वनि-सौंदर्य से मनःप्रसादन ही होता है और विज्ञजन चमत्कृत भी होते हैं। कुछ निबंधों के शीर्षक से बौद्धिकता के आग्रह की भी सूचना मिलती है। ‘नौ दो ग्यारह’, ‘छः तीन नौ’ तथा ‘तीन से हीन होने की कला’-इन निबंधों में अंक क्रीड़ा के माध्यम से अध्यात्म-तत्त्व को समझाने की चेष्टा की गयी है।
भाषा और अभिव्यक्ति को सक्षम और विषय को ग्रहणीय बनाने के लिए लेखक ने लोक-जीवन, खासकर दैनंदिन जीवन के प्रसंगों और उदाहरणों का आश्रय लिया है। जैसे-ईश्वर को ‘पावर हाउस’ और भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न वाटों के बल्ब कहना, दूध मथने, दूध से पूड़ी नहीं छाने जाने, स्कूली बच्चों को स्कूल जाने में भय आदि के प्रसंग।
लेखक की भाषा संस्कृतनिष्ठ है, साहित्यिक है और परिनिष्ठित है। जहाँ प्रवचन, प्रवचन के रूप में ही प्रकाशित हुए हैं, वहाँ भाषा में प्रवाह है और सरलता है।
संत-साहित्य पर लिखने का अधिकार सभी को नहीं है। जो स्वयं इस दिशा में साधना-द्वारा कुछ अर्जित कर साधना के मर्म से अवगत नहीं हो सके हैं, उनके लिए तो इसपर लेखनी चलाना अनधिकार चेष्टा है। लेखक के विचार हैं-‘शब्दजाल तो चित्त को भटकानेवाला एक महा वन है। विभिन्न प्रकार की शब्द रचनाएँ, सुंदर भाषा में बोलने के विभिन्न ढंग और शास्त्र मर्म की नाना प्रकार से व्याख्या करना-ये सब पंडितों के भोग के लिए ही हैं। इनसे अंतर्दृष्टि का विकास नहीं होता। जो लोग इन उपायों से दूसरों को धर्म की शिक्षा देते हैं, वे केवल अपना पांडित्य प्रदर्शित करना चाहते हैं। उनकी यही इच्छा रहती है कि संसार में उन्हें बड़ा विद्वान मानकर उनका सम्मान करे। संसार के प्रधान आचार्यों में से कोई भी शास्त्रें की इस प्रकार नानाविध व्याख्या करने के झमेले में नहीं पड़ा। उन्होंने श्लोकों के अर्थ में खींचातानी नहीं की। वे शब्दार्थ और धात्वर्थ के फेरे में नहीं पड़े। फिर भी उन्होंने संसार को बड़ी सुंदर शिक्षा दी। इसके विपरीत उनलोगों ने, जिनके पास सिखाने को कुछ नहीं, कभी एकाध शब्द को ही पकड़ लिया और उसपर तीन भागों की मोटी पुस्तक लिख डाली, जिसमें उस शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई, किसने उस शब्द का सबसे पहले उपयोग किया, वह क्या खाता है, वह कितनी देर सोता है आदि का वर्णन रहता है।’ (गुरु महिमा, पृ0 132) उपर्युक्त उद्धरण के आलोक में अनुभवहीन शब्दविलासी आदमी के लिए संत-साहित्य का विवेचन-विश्लेषण अनधिकार चेष्टा है। अतः शब्द-व्यवसायी समीक्षक के लिए भी साहित्य-समीक्षा के कार्य को नहीं विराम देना उपयुक्त होगा; क्योंकि संत कबीर साहब के शब्दों में यह सब कुछ ‘बातन कहा न जाई हो’ है।
‘पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उनमान ।
कहिये को सोभा नहीं, देखे ही परवान ।।’