प्रवचन पीयूष [ द्वितीयभाग ]

[ स्वामी नंदनाचार्य ]

भारतान्तर्गत यह पूजा प्राचीन काल से प्रचलित है। यह पूजा कार्तिक कृष्ण अमावस्या की रात्रि में हुआ करती है। लोग बड़े ही उत्साह से धूम धाम के साथ इस त्योहार को मनाते हैं। सभी अपने घर दरवाजों को साफ-सुथरा करते हैं, मकानों को लीप-पोतकर बरसात की गंदगियों को दूर भगाते हैं और बाहर-भीतर घर-दरवाजों को अनेक रंग-बिरंगी रोशनियों से सुसज्जित कर उस अमानिशीथ की तमिस्त्रा को दूर भगाते हैं। सभी नवीन वस्त्रभूषणों से आभूषित हो चतुर्दिक उज्ज्वल आलोक का अवलोकन करते हैं। सभी प्रसन्न मुद्रा में आनंद विभोर हो एक दूसरे से मिलते हैं और उस दिन सबके सब उस महोत्सवानन्द की लहर में अपने को खोया हुआ पाते हैं। अब प्रश्नोदय होता है कि इस तिथि में लोग ऐसे आनंद विह्वल क्यों होते हैं? क्या यह पूजा का त्योहार केवल उसी तिथि भर की आनंदोपलब्धि के लिए ही मनाया जाता है अथवा इसके अंतस्थल में कोई गुप्त रहस्य अथवा गुप्त भावना भी निहित है? प्रत्युत्तर में ‘नहीं’ कहने से गुंजाइश नहीं हो सकती, बल्कि कहना पड़ेगा कि अवश्य ही इसके अंदर कोई गुप्त भावना भी संनिहित है और वह यह कि श्री लक्ष्मी देवी का शुभागमन मेरे यहाँ हो और मैं खुशी होऊँ। तो क्या इस महोत्सव में श्रीलक्ष्मीजी का पदार्पण सभी गृह में होता है? कभी नहीं। यदि सभी गृह में लक्ष्मीजी का पाद-पप्र पहुँच जाता, तो आज भारतवासी दाने-दाने के लिए क्यों तरसता तथा अन्नाभाव में जो इसे दूसरे देश का मुहताज होना पड़ता है, वह क्यों होता? ऐसी परिस्थिति में यह प्रश्न सहज ही उदय होता है कि तब लक्ष्मीजी जाती कहाँ है? तो इसका उत्तर सरल है कि कोई भी सर्व साधारण जन वहाँ जाता है, जहाँ उसका प्रेमी या प्रेमपात्र होता है। अब विचारणीय है कि लक्ष्मीजी का प्रेमपात्र कौन है? यह सभी जानते हैं कि अपने प्रिय पदार्थ को कोई भी छोड़ना नहीं चाहता। या तो उसके पास स्वयं जाता है अथवा उसको ही अपने समीप बुला लेता है।
प्रेम खेलनवा यही विशेष,
मैं तोहि देखूँ तू मोहि देख ।
प्रेम खेलनवाँ यही स्वभाव,
तु चलि आव कि मोहि बुलाव ।।
प्रेमियों की गति ही विचित्र है, वह एक दूसरे से क्षणभर के लिए भी पृथक् होना पसंद नहीं करता। चाहे उसका प्रेमी मनुष्य हो या जानवर। कहना नहीं पड़ेगा, यह तो प्रायः सभी देखा करते हैं कि कुत्ते के प्रेमी शौकीन जन रेलगाड़ी के फर्स्ट क्लास में बैठकर कुत्ते को भी समीप में ही बैठाते हैं। इस भाँति जानना चाहिए कि लक्ष्मीजी का जो प्रिय होगा, वह उसी के पास में जाकर बैठेंगी अथवा उसी को अपने निकट बैठाएँगी। लक्ष्मीजी के चित्र में उनके निकट उल्लू पक्षी रहता है, अतः स्पष्ट है कि उल्लू ही लक्ष्मीजी का प्रिय है और उसी के निकट वह जाती हैं। या यों भी कह सकते हैं कि जिसके पास लक्ष्मीजी जाती हैं, तो वह उसे उल्लू बनाकर अपना वाहन बना लेती हैं। लक्ष्मीजी का आना तो अभी दूर ही है कि उनके आह्वान की अभीप्सा में ही प्रदीपकादि जलाकर लाखों-करोड़ों जीवों की हत्या कर महाहत्यारा बन पाप के भोगी होते हैं। (महाराज अशोक के राज्य में इस जीव हिंसा के डर से यह दीपमालिका नहीं मनायी जाती थी। आज भी जैन धर्मावलंबी जीव हिंसा के डर से रात में विशेष प्रदीपादि नहीं जलाते, बल्कि रात में वे लोग भोजन भी नहीं करते। किन्तु सर्वसाधारण के लिए मध्यमार्गावलम्बी होना ही मंगलमय होगा। न तो विशेष रोशनियों को जलाकर हिंसा पाप के भागी बनें और न बिल्कुल प्रकाश हीन हो अँधेरे में टटोलें। बल्कि मध्य में रहकर अपना काम निकालें अर्थात् जितने प्रकाश से अपना काम चल सके, उतना ही जलावें। शौक में आकर विशेष रोशनियों को न जलावें।) और उनके (लक्ष्मीजी के) आने पर तो कहना ही क्या, वह धनमद में धर्माधर्म का भी ज्ञान भूल जाता है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने ठीक ही कहा है-‘श्रीमद वक्र न कीन्ह केहि’ उल्लू पक्षी को सूर्य का प्रकाश अच्छा नहीं लगता, उसे अँधेरी रात सुहाती है। उसी प्रकार जिनके पास लक्ष्मीजी रहती है, उन्हें अध्यात्मज्ञानरूप सूर्यप्रकाश अच्छा नहीं लगता। उसे तो आधिभौतिक रूप अँधेरी रात ही अच्छी लगती है और वे चेतन की उपासना छोड़कर जड़ उपासी बनते हैं। धन-ऐश्वर्यादि स्थूल पदार्थों को पाकर उसकी बुद्धि भी स्थूल हो जाती है। संतों ने तो लक्ष्मी धनैश्वर्य को माया कहा है और कहा है कि यह माया तो छाया की तरह है। छाया माया या लक्ष्मी एक स्थान में स्थिर नहीं रहती, नित्य नहीं रहती। दूसरी बात यह है कि यदि उसे पकड़ने चलिए तो वह पकड़ में नहीं आती। आप अपने शरीर की छाया को ही पकड़ने जाइए, तो आप उसे पकड़ नहीं सकते। आप जितना उसका पीछा करेंगे, वह उतना ही आगे भागती जाएगी। किन्तु उसे पकड़ना छोड़कर आप उलट कर अपना रास्ता पकड़ लीजिए, तो वह आपके पीछे-पीछे आएगी। उसी प्रकार आप माया या लक्ष्मी को मानिए। यदि आप उसे प्राप्त करने के लिए चलिए तो वह भागती ही जाएगी और यदि आप उसे पकड़ना छोड़ उस ओर से उलटकर मायापति या लक्ष्मीपति परमात्मा की ओर का रास्ता पकड़िये, तो वह आपके पीछे-पीछे चलेगी, गोया आपकी दासी बन जाएगी। इसीलिए तो संत कबीर साहब ने कहा-
प्रभुता को सब कोइ भजै, प्रभु को भजै न कोइ ।
कह कबीर प्रभु को भजै, प्रभुता चेरी होइ ।।
केवल संत कबीर साहब ही नहीं, वरन् सभी संतों ने माया को छोड़कर निर्मायिक-तत्त्व परमात्मा को ग्रहण करने कहा। उन्होंने तो यह भी कहा कि धनैश्वर्य या मायिक पदार्थों को पाकर तुम अपने को गौरवान्वित मत समझो, बल्कि तुम अपने को दृढ़ बंधन में जकड़े हुए समझो। संत कबीर साहब का ही यह वचन है-
पड्यो माया के जाल, रह्यो मन फूलिकै।
गर्भवास की त्रस, रह्यो नर भूलि कै।।
भगवान् बुद्ध ने भी कहा है-
नतं दलहं बन्धन माहु धीरा यदायसं दारुजं बब्बजञ्च।
सारत्त रत्ता मणिकुण्डलेसु पुत्तेसु दारेसु चया अपेक्खा।
-धम्मपद गाथा, 345
अर्थात् यह लोहे, लकड़ी या रस्सी का बंधन है, उसे बुद्धिमान (जन) दृढ़ बंधन नहीं कहते। (वस्तुतः दृढ़ बंधन है जो यह) मणि, कुंडल, स्त्री, पुत्र में इच्छा का होना है। राधास्वामी साहब ने कहा है-
पहला बंधन पड़ा देह का,
दूजा बन्धन तिरिया जान ।
तीजा बन्धन पुत्र विचारो,
चौथा नाती मान ।
नाती के फिर नाती हो गये,
तब बन्धन का कौन ठिकान ।
धन संपत्ति और हाट हवेली,
यह बन्धन क्या करूँ बखान ।
चौलड़ पँचलड़ सतलड़ रसरी,
बाँध लियो तोहि बहुविधि तान ।।
अतः इस लक्ष्मी देवी के मनाने, उसे प्राप्त करने अथवा उसे अपने गृह में आह्वान करने के फेर में न पड़कर उससे पृथक् रहना ही साधक के पक्ष में हितकर एवं कल्याणकर है। किसी ने यह ठीक ही कहा है-
कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय ।
इक खाये बौरात नर, इक पाये बौराय ।।
मदमस्त, उन्मत्त एवं विषयासक्त जन से परमात्म-भजन होना कब संभव है? संतों ने बताया है कि जो लक्ष्मी आती और जाती है, उसके लिए तुम क्यों हैरान होते हो, जो तुम्हें उल्लू रूप वाहन बनाएगी। इतना ही नहीं, धनमद में मस्त होकर यदि तुम अध्यात्म-पथ से च्युत हुए, तो चौरासी लाख योनियों में जाकर सूकर और कूकर के शरीरों को पाकर अत्यधिक कष्ट के भागी होगे।
कहै कबीर चेत अजहुँ, नहिं फिर चौरासी जाई ।
पाय जन्म सूकर कूकर की, भोगेगा दुख भाई ।।
(संत कबीर साहब)
इसलिए उस लक्ष्मी की ओर से मुँह फेर कर तुम अपने अंदर की लक्ष्मी की प्राप्ति में अपनी सारी शक्तियों को लगा दो। जो तुम्हारे अंदर अंग-संग सदा सर्वावस्था में अवस्थित है और तुम उसे प्राप्त कर सको, तो वही तुम्हारा वाहन बन जाएगी। अंतः बाहर की लक्ष्मी को खुशामद करना छोड़ अपने अंदर की लक्ष्मी की आराधना करो। अंतर आराधना के लिए तुम्हें अपने अंदर में प्रवेश करना होगा। अंतर प्रवेशार्थ बाह्यावलोकन बंद करो। अर्थात् नेत्र बंद कर अंतरावलोकन करो। आँख बंद कर अंतरावलोकन करने से तुम्हें अमावस्या की काली रात प्रत्यक्ष हो जाएगी, जिसमें तुम श्रीलक्ष्मीजी का पूजन कर सकोगे। किन्तु हाँ! इसमें एक बात अत्यन्त दृढ़ करके जानो कि ‘बिन गुरु होहिं कि ज्ञान’? यदि तुम्हारे सामने वह अमावस्या की काली निशा प्रकट भी हो जाए, तो तुम उसमें लक्ष्मीजी की उपासना या आराधना करोगे तो कैसे? इसके लिए तो किसी क्रियावान शुद्धाचरणी गुरु से संकेत समझकर ही करने में कुशल है। अन्यथा युक्ति विहीन रहकर अंधकार में टटोलने से क्या लाभ होगा? अतः सद्गुरु से लक्ष्मी आराधना की युक्ति जानकर साधनारम्भ करो। यदि तुम गुरु संकेतित निर्दिष्ट स्थान पर अपनी दृष्टि धारों को एकत्र कर स्थिर कर सको, तो तुम्हें उसी स्थान पर विन्दुरूप लक्ष्मी का प्रत्यक्ष दर्शन होगा।
जिस प्रकार बाह्य संसार की ठाकुरवाड़ी में भगवान विष्णु और श्रीलक्ष्मीजी के विग्रह को प्रत्यक्ष देखते हो, उसी भाँति तुम्हारे शरीररूपी ठाकुरवाड़ी में नादरूपी विष्णु और बिन्दुरूप लक्ष्मी विराजमान हैं। किन्तु उन्हें देखने की कला किसी जानकार से जानकर देखो। योगशिखोपनिषद् में लिखा है-
विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मी निकेतनम् ।
देहं विष्णवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्व देहिनाम् ।।
बिन्दुरूप लक्ष्मी और नादरूप विष्णु तुम्हारे अंग संग हैं। साधन द्वारा यदि इस विन्दुरूप लक्ष्मी को प्राप्त कर सको, तो वह तुम्हारा वाहन बन जाएगा। अर्थात् तुम विन्दु पर आरूढ़ हो प्रकाशमंडल की सैर कर सकोगे। गुरु नानकदेव ने इसी विन्दु को तारा कहा है और उन्होंने कहा कि ‘मैं फाँदकर तारा पर चढ़ गया।’ ‘तारा चड़िया लम्मा।’ इसी प्रकार जो साधक दृढ़ ध्यानाभ्यास करेगा, तो वह अवश्य ही बिन्दुरूपी लक्ष्मी को प्राप्त कर शब्दरूप विष्णु को भी प्राप्त कर लेगा। योगशिखोपनिषद् में ही लिखा है-‘विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम्।’ अर्थात् विन्दुपीठ का भेदन करके नाद या शब्द उपस्थित होता है। यह नाद या शब्द ब्रह्मध्वनि है। इसका अवलंब लेकर भक्त-साधक ब्रह्म के शुद्ध स्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त कर लेता है। संत कबीर साहब ने कहा है-
शब्द गह्यो जिव संशय नाहिं साहेब भयो तेरे संग।
यह जानकर साधक को चाहिए कि अपने अंदर स्थित लक्ष्मी की नित्य उपासना करें और इसी उपासना के द्वारा परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर चिरन्तन परमानन्द के अधिकारी बनें।
(संतमत-सत्संग मंदिर, मनिहारी, दिसम्बर, 1953)
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संसार के समस्त आस्तिक धर्मों में एक ईश्वर की मान्यता है, चाहे वे उसे अपनी-अपनी भाषा में ब्रह्म, गॉड वा स्वर्गस्थ, अल्लाह, बुद्ध, अहुरमज्द, तितीन, जेहोवा आदि किसी नाम से अभिहित क्यों न करते हों। अथवा ऐसा भी कह सकते हैं कि जिस धर्म में ईश्वर की मान्यता वा आस्था है, वह आस्तिक धर्म है और जिसमें ईश्वर की मान्यता वा आस्था नहीं, वह नास्तिक धर्म है।
विचार करने पर नास्तिक भी दो तरह के प्रतीत होते हैं-एक पूर्ण नास्तिक और दूसरे अर्द्ध नास्तिक। जो ईश्वर और जीव, इन दोनों में से किसी के कभी अस्तित्व में विश्वास नहीं करता, वह पूर्ण नास्तिक है और जो केवल जीव की स्थिति मानता है, ईश्वर की नहीं, वह अर्द्ध नास्तिक है।
वर्तमान युग में कतिपय सज्जन भगवान् बुद्ध को भी नास्तिक कहने लगे हैं। उनका कहना है कि उन्होंने ईश्वर, आत्मा व जीवात्मा का प्रतिपादन अपने वचनों द्वारा कहीं नहीं किया।
मेरी समझ से ऐसा कहना अपनी अदूरदर्शिता और विशाल बौद्ध साहित्य से अपनी अनभिज्ञता का परिचय देने के सिवा और कुछ नहीं। बौद्धग्रंथ में अनेक स्थल पर अत्ता (आत्मा), नाथ, शरीर कर्ता आदि शब्द पर्याप्त मात्र में मिलते हैं। बुद्ध के अन्य ग्रंथों की तो बात ही क्या, उनकी छोटी पुस्तिका, जो धम्मपद के नाम से प्रसिद्ध है, के कई स्थलों पर उन्होंने इन शब्दों का प्रयोग किया है। यथा-
अत्ताहि अत्तनो नाथो को हि नाथो परो सिया ।
अत्तना’व सुदन्तेन नाथं लभति दुल्लभं ।।
-अत्तवग्गो
अर्थात् आत्मा ही आत्मा का स्वामी है, भला कोई दूसरा उसका स्वामी क्या होगा? आत्मा (जीवात्मा) को अच्छी तरह दमन कर लेने से वह दुर्लभ स्वामी परमात्मा को प्राप्त करता है।
कुछ विद्वानों ने ‘नाथं’ शब्द का अर्थ ‘स्वामित्व का’ भी किया है; किन्तु विचारणीय है कि यहा ‘नाथ’ शब्द द्वितीया कारक में प्रयुक्त होने के कारण इसका अर्थ ‘स्वामी को’ होना चाहिए। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने उपर्युक्त गाथा का अर्थ इस प्रकार किया है-‘पुरुष अपने ही अपना मालिक है, दूसरा कौन मालिक हो सकता है। अपने को भली प्रकार दमन कर लेने पर (वह एक) दुर्लभ मालिक को पाता है।’ (धम्मपद, 1957, बुद्ध विहार, लखनऊ से प्रकाशित)
पुनः इसी धम्मपद के जरावग्गो में उन्होंने ‘गहकारक! दिट्ठोसि----’ कहकर स्पष्ट संबोधन किया है कि हे ‘शरीररूप’ गृह के निर्माण करनेवाले! मैंने तुम्हें देख लिया---।
वेदान्त ग्रंथ, उपनिषद् एवं संतवाणियों में जगत् को नाम-रूपात्मक कहा है और नाम-रूपात्मक जगत् को माया और मिथ्या कहा है। छान्दोग्य (6-1 और 7-1), बृहदारण्यक (1-6-3), मुण्डक (3-2-8) और प्रश्न (6-5) आदि उपनिषदों में बारंबार बतलाया गया है कि नित्य बदलते रहनेवाले अर्थात् नाशवान नाम-रूप सत्य नहीं है; जिसे सत्य अर्थात् नित्य स्थिर तत्त्व देखना हो, उसे अपनी दृष्टि को इन नाम-रूपों से बहुत आगे पहुँचाना चाहिए। इसी नाम-रूप को कठ (2-5) और मुण्डक (1-2-9) आदि उपनिषदों में अविद्या तथा श्वेताश्वतर उपनिषद् (4-10) में माया कहा है।
नामरूप विहीनात्मा पर संवित् सुखात्मकः ।
तुरीयातीत रूपात्मा शुभाशुभ विवर्जितः ।।
(तेजोविन्दूपनिषद्)
और भगवान बुद्ध कहते हैं-
सव्वसो नामरूपस्मिं यत्स नत्थि ममाथितं ।
असता च न सोचति स वे भिक्खूति बुच्चति ।।
-धम्मपद, भिक्षुवग्गो
अर्थात् नाम-रूप (जगत्) में जिनकी बिल्कुल ममता नहीं और असत् के लिए जो शोक नहीं करता, वही भिक्षु कहा जाता है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-‘नाम रूप दुइ ईस उपाधी।’ (रामचरितमानस) इस तरह उपनिषद् ग्रंथों वा संतों की वाणियों से भगवान् बुद्ध के वचन में कोई पृथक्कता का भान नहीं होता, वरं एकता का ही ज्ञान होता है।
परमात्म-स्वरूप के लिए किसी ने ‘अनाम’ कहा है, तो किसी ने ‘निःशब्दं’ कहा है। तीसरा व्यक्ति यदि उसके लिए स्वयं निःशब्द रह जाता है अर्थात् उसका कुछ नाम नहीं कहता, इसलिए तीसरा ईश्वर को नहीं मानता है, यह कहाँ तक युक्तिसंगत है? विचारवान विचार सकते हैं। ‘अनाम’ का अर्थ ‘नाम-रहित’ होता है। इसलिए जिसका नाम ही नहीं, उसको किसी ने ‘अनाम’ कहा और किसी ने नाम नहीं कहा, मौन रहा, तो इसमें फर्क ही क्या पड़ा?
ईश्वर-स्वरूप की जिज्ञासा के उत्तर में ‘चुप होना’ हम उपनिषद् के वाह्व-वाष्कल-सम्वाद में तथा योगवाशिष्ठ के ऋषि और भगवान् श्रीराम के संवाद में भी पाते हैं। श्रीराम ने वशिष्ठ से पूछा कि आत्म-स्वरूप क्या है? प्रश्न करने पर वशिष्ठजी चुप रहे। श्रीराम के तीन बार पूछने पर भी वशिष्ठजी ने कुछ उत्तर नहीं दिया, बिल्कुल चुप रहे। श्रीरामजी ने हाथ जोड़कर पूछा-गुरुदेव! आप मुझसे रुष्ट तो नहीं हो गये हैं कि मैं बारंबार जिज्ञासा करता हूँ और कुछ उत्तर नहीं देते। ऋषि ने कहा-प्रिय वत्स! मैं आपसे रुष्ट नहीं, बल्कि आप जबसे पूछ रहे हो, तबसे उत्तर दे रहा हूँ। इसका उत्तर ही चुप है; क्योंकि वह अवर्णनीय है, अव्यक्त है, इन्द्रियातीत है, उसका वर्णन इन्द्रियों से कैसे हो सकता है? यदि ईश्वर-स्वरूप के संबंध में चुप रहनेवाले को अनीश्वरवादी कहा जाए, तो इस दृष्टि से वाह्व मुनि और ऋषि वशिष्ठ को क्या कहा जा सकता है? जिन वशिष्ठ मुनि को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के गुरु होने का गौरव प्राप्त था।
कितने विद्वान् तथागत को शून्यवादी बताकर उन्हें तिरस्कृत दृष्टि से देखते हुए कहते हैं कि वे ईश्वरवादी नहीं थे। किन्तु क्या, शून्यवादी-आस्तिक नहीं होते? मात्र बुद्ध ही नहीं, प्रायः समस्त संतों की वाणी में हमें शून्य की चर्चा भरपूर मिलती है। यथा-
बस्ती न शून्यं शून्यं न बस्ती अगम अगोचर ऐसा।
-गोरखनाथजी
शून्य ध्यान सबके मन माना। (संत कबीर साहब)
भ्रम भै मोह न माइया जाल।
सुन्न समाधि प्रभु किरपाल।।
-गुरु नानकदेव
इक पहर एकान्त ह्वै कै शून्य ध्यान लगावनं।
-संत पलटू साहब
‘सुन्नी सुन्न के पारा, अगुण सगुण नहिं दोई।’
‘सुन्नहिं मारग आइया, सुन्नहिं मारग जाई।’
-संत दादू दयाल
भन चरणदास ताड़ी लगै तो सुन्न शिखर में मंडिता।
-संत चरणदासजी
शून्य को ही आकाश वा अवकाश कहते हैं। गो0 तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में चिदाकाशवासं भजेहं कहकर शिवजी के आत्मस्वरूप का और ‘नभ सत कोटि अमित अवकासा’ कहकर परमात्म रामस्वरूप का वर्णन किया है। तंत्रशास्त्र में भी हम शून्य की चर्चा पाते हैं, यथा ज्ञानसंकलिनीतंत्र में है-‘न ध्यानं ध्यानमित्याहुर्ध्यानं शून्य गतं मनः।’ महर्षि मेँहीँ परमहंस की वाणी में हम पढ़ते हैं-
सुन्न अरु महासुन्न भँवर गुफाहु गुन,
तहँ सतधुन धारा, गुरुरूप सारा,
धरि स्त्रुति मिलु सत नाम रे।
इतना ही नहीं, उपनिषत्कर्ता ऋषि के महावाक्य में भी हम शून्य वा आकाश का वर्णन पाते हैं। मंडलब्राह्मणोपनिषद् के चतुर्थ ब्राह्मण में कहा है- “ आकाशं पराकाशं महाकाशं सूर्याकाशं परमाकाशमिति पंच भवन्ति। बाह्याभ्यन्तरमन्धकारमयमाकाशम्। सबाह्यस्याभ्यन्तरे कालानलसदृशं पराकाशम्। सबाह्याभ्यन्तरेऽपरिमितद्युतिनिभं तत्त्वं महाकाशम्। सबाह्याभ्यन्तरे सूर्यनिभं सूर्याकाशम्। अनिर्वचनीयज्योतिः सर्वव्यापकं निरतिशयानन्दलक्षणं परमाकाशम्।।”
अर्थात् वर्णित पंचाकाशों में पंचमाकाश को अकथ सर्वव्यापक और सर्वोत्तम आनंद आदिशब्दों से विभूषित कर उसे परम तत्त्व माना है। तो क्या, उक्त उपनिषद् प्रणेता ऋषि नास्तिक थे? यदि नहीं, तो भगवान् बुद्ध कैसे नास्तिक हुए?
संत कबीर साहब, गुरु नानक साहब, गो0 तुलसीदासजी आदि संतों की वाणियों में हम जिस निर्वाणपद की चर्चा पाते हैं, भगवान् बुद्ध की वाणी में उसका विशद विवेचन पाते हैं। फिर इनमें कोई आस्तिक और कोई नास्तिक कैसे हो गये? समझ में नहीं आता। निम्नलिखित वाणियों के अध्ययन से हमें निर्वाण संबंधी एक झाँकी मिल सकेगी।
जहाँ पुरुष तहँवाँ कछु नाहीं, कहै कबीर हम जाना ।
हमरी सैन लखै जो कोई, पावै पद निरवाना ।।
-कबीर साहब
शबदि धरु पाइअै निरवाणी पदु नीति।
-गुरु नानक साहब
जाकी लगी अनहद तान हो निर्वाण निर्गुण नाम की।
-संत जगजीवन साहब
सुखकंद अनहद नाद सुनि दुख दुरित क्रम भ्रम भाज
सतलोक घर सो पानि धुनि निर्वाण यहि मन बाज।।
-दूलनदासजी
रामचन्द्र के भजन बिनु, जो चह पद निर्वाण।
ज्ञानवन्त अपि सो नर, पशु बिनु पूंछ विषाण।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
वर्तमान युग में संत महर्षि मेँहीँ की वाणी में भी हम निर्वाण की काफी चर्चा पाते हैं-
‘अलख अगम अनाम सो, सत पद सुर्त रली।
पायेउ पद निर्वाण सन्तन्ह सब कहत अली।।’
‘सुरति शब्द सों चढ़िय अमर घर, घट अंतरपूजि रामा।’
‘मेँहीँ दास’ दया सतगुरु को पाइये पद निर्वाणा।’
‘करि सतधुन को ध्यान, लहै सन्त अनाम।
यहि निर्मल निर्वाण, भजो लक्ष्य गुरु ए।।’ इत्यादि
वेद, उपनिषद् एवं संतों की वाणियों में हम सदाचार-पालन करने की प्रेरणा पाते हैं। इतना ही नहीं, ‘ब्रह्माण्ड पुराणोत्तरगीता’ में भी इसकी चर्चा है और उसमें तो यहाँ तक कहा गया है कि ब्रह्मवत् परिशुद्ध हुए बिना कोई ब्रह्म को नहीं पा सकता।
नव छिद्रान्विता देहाः स्नुवत्ते जालिका इव ।
नैव ब्रह्म न शुद्धं स्यात् पुमान् न विन्दति ।।
कहै कबीर निज रहनि सम्हारी।
सदा आनंद रहै नर नारी।।
-संत कबीर साहब
सूचै भाड़ै साँचु समावै बिरले सूचाचारी।
-गुरु नानक साहब
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्।।
अर्थात् जो पापकर्मों से निवृत्त्ा नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं हैं और जिसका चित्त असमाहित या अशान्त है, वह इसे आत्मज्ञान-द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता।
और भगवान् बुद्ध भी पंचशील पालन अर्थात् झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार-विरत रहने का आदेश देते हैं। उन्होंने तो स्पष्ट ही कहा है कि जो उपर्युक्त पंच पापों को करता है, वह संसार में अपनी ही जड़ खोदता है।
यो पाणमतिपातेति मुसावदञ्च भासति ।
लोके अदिन्नं आदियति परदारञ्च गच्छति ।।
सुरामेरय पानञ्च यो नरो अनुयुञ्जति ।
इधेवमेसो लोकस्मिं मूल खनति अत्तनो ।।
-धम्मपद, मलवग्गो
महर्षि मेँहीँ के वचन में भी हम पढ़ते हैं- “ झूठ बोलना, नशा खाना, व्यभिचार करना, हिंसा करनी अर्थात् जीवों को दुःख देना वा मत्स्य-मांस को खाद्य पदार्थ समझना और चोरी करनी; इन पाँचो महापापों से मनुष्यों को अलग रहना चाहिए ।”-संतमत-सिद्धांत और गुरुकीर्तन
गुरु, ध्यान और सत्संग की गुण-गाथा प्राचीन ऋषि-मुनि से लेकर अर्वाचीन साधु-संतों तक ने मुक्तकंठ से गायी है और भगवान् बुद्ध ने इन्हीं तीनों को ‘त्रिशरण-बुद्धं धम्मं च संघं शरणं गतो’ नाम से उद्घोषित किया, तो इसमें उन्होंने कोई अतिशयोक्ति वा नयी बातें क्या कही? जिस हेतु वे तिरस्कृत किये जाएँ?
यह बात भी ध्यान देनेयोग्य है कि जहाँ अनात्मवाद में पुनर्जन्म का लवलेश स्थान नहीं है, वहाँ भगवान् बुद्ध ने स्वयं अपने अनेक जन्मों की चर्चा की है, जिन्हें हम जातक कथा में पढ़ सकते हैं। तथा धम्मपद के निम्नलिखित वाक्य भी जन्मान्तर- वाद का प्रबल समर्थक है।
अनेक जाति संसारं सन्धाविस्सं अनिब्बिसं ।
गहकारक गवेसन्तो दुक्खा जाति पुनप्पुनं ।।
-जरावग्गो
अर्थात् अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा, शरीररूप गृह-निर्माण करनेवाले की खोज में बार-बार का जन्म दुःखमय हुआ।
जहाँ अनीश्वरवादी परलोक में विश्वास नहीं करते, शरीर-सुख को ही सब कुछ मानते हैं, स्थूल शरीर छूटने के बाद उनके विचार से कुछ रह नहीं जाता। वहाँ भगवान् परलोक में विश्वास करते हैं, शरीर-सुख को ही सब कुछ नहीं समझते और शरीर छूटने के बाद भी कुछ रह जाता है, जो स्वयं नरकादि का भोग करता है। जहाँ नास्तिक सिद्धांत है-‘संदिग्ध स्वर्ण मुद्रा की अपेक्षा हस्तगत कौड़ी ही विशेष मूल्यवान है। कल मुझे सोने का मयूर मिलेगा, इस आशा से आज हाथ में आये हुए कबूतर को कौन छोड़ सकता है?’ आदि। वहाँ भगवान् बुद्ध के वचन में पढ़िए-
मत्ता सुख परिच्चागा पस्से चे विपुलं सुखं ।
चजे मत्ता सुखं धीरो सम्पस्सं विपुलं सुखं ।।
-धम्मपद, पकिण्णवग्गो
अर्थात् थोड़े सुख के परित्याग से यदि अधिक सुख प्राप्ति की संभावना दीखे, तो बुद्धिमान जन अधिक सुख के ख्याल से अल्प सुख का त्याग कर दे। फिर उन्हें अकारण ही नास्तिक कहकर घोषित किया जाए, तो क्यों?
हमारी बुद्धिमत्ता का विशेष परिचय तो तब होता है, जब हम एक ओर तो ‘केशव धृत बुद्ध शरीर’ कहकर विष्णु के दश अवतार में एक मानकर उन्हें भगवान् शब्द से विभूषित करते हैं और दूसरी ओर उन्हें नास्तिक कहकर तिरस्कृत एवं बहिष्कृत करते हैं, बाहरी हमारे तर्क एवं विवेकशील बुद्धि। अतएव अब हम गंभीरतापूर्वक विचार कर देखें कि तथागत आस्तिक थे वा नास्तिक?
दिसम्बर-1953

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मन या चित्तवृत्ति-निरोध को ही योग कहते हैं। यौगिक प्रसाधनों में मनोनिग्रह के बिना कोई सफलीभूत नहीं हो सकता है। अतएव मनोनिग्रहार्थ योगियों के किसी एक संप्रदाय ने हठयोग का और दूसरे संप्रदाय ने राजयोग का आश्रय लिया। हठयोग पिपीलिका मार्ग के नाम से विख्यात है और इसके प्रवर्त्तक वामदेव मुनि हैं तथा राजयोग विहंगम मार्ग के नाम से विख्यात है और इसके प्रवर्तक शुक मुनि हैं।
शुक वामदेवश्च द्वै सृती देव निर्मिते।
शुको विहंगमः प्रोक्तो वामदेवः पिपीलिका।।
(वराहोपनिषद्)
हठयोग में प्राणायाम (पूरक, कुम्भक और रेचकादि) प्रक्रिया द्वारा प्राणस्पंदन का अवरोध कर मनोनिग्रह करने पर जोर दिया जाता है और राजयोग में नाड़ी-शोधन तथा प्राणायाम के झंझटों से बिल्कुल अछूता रहकर शांभवी मुद्रा द्वारा मनोनिग्रह करने पर ध्यान दिया जाता है। यद्यपि हठयोग-प्राणायाम प्रक्रिया द्वारा भी मनोनिग्रह होना संभव है, फिर भी यह कुछ विशेष कठिन एवं क्लेशदायक है, जो सर्व साधारण से सधने योग्य नहीं। शांडिल्योपनिषद् में आया है-
यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः शनैः।
तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम्।।
अर्थात्-जैसे सिंह, हाथी और बाघ धीरे-धीरे काबू में आते हैं, इसी तरह प्राणायाम (अर्थात् वायु का अभ्यास कर वश में करना) भी किया जाता है, प्रकारान्तर होने से वह अभ्यासी को मार डालता है।
यह बिल्कुल सत्य है कि योग के प्रथम और द्वितीय अंग यम-नियम की प्राप्ति और आसनसिद्धि के बिना प्राणायाम विशेष लाभदायक नहीं होगा। किन्तु हठयोगियों का कथन है-प्राणायाम द्वारा प्राणवायु शुद्ध होगा और वायु अवरुद्ध होने पर मन भी टिकेगा। किन्तु प्राणायाम द्वारा मन पूर्णरूपेण निग्रह हो, यह पूर्ण संभव प्रतीत नहीं होता। जैसे कि शास्त्रें में प्राणायाम की बहुत प्रशंसा की गयी है; किन्तु यह भी कहा गया है, जैसा कि श्रीमद् भागवत पुराण में मिलता है कि वायु को जीतने पर भी मन नहीं जीतने से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती। इससे विदित होता है कि प्राणायाम द्वारा वायु जीतने पर भी मन नहीं जीता जाता।
विचारणीय तो यह है कि मन प्राणवायु से उच्च है; क्योंकि प्राणवायु मन का अनुसरण करता है; परन्तु मन प्राणवायु का अनुसरण नहीं करता। काम, क्रोध से उत्तेजित होने पर श्वास की गति तीव्र हो जाती है और मन शान्त होने पर प्राण (वायु) निग्रह न करके (ध्यानाभ्यास द्वारा) मन का निरोध किया जाता है। जिससे प्राणवायु का निरोध हठ के बिना स्वयं हो जाता है। ध्यानाभ्यास करते-करते मन जैसे-जैसे स्थिर होता जाता है, वैसे-वैसे वायु भी स्वतः अवरुद्ध होता जाता है और जब साधक साधन द्वारा एकविन्दुता प्राप्त कर लेता है, तो उसका पूर्ण मनोनिग्रह हो जाता है। मन के पूर्ण निग्रह हो जाने पर प्राणस्पंदन भी बिल्कुल अवरुद्ध हो जाता है। इसके लिए उपनिषदों में अनेक प्रमाण भरे पड़े हैं। यथा-
द्वादशांगुल पर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे ।
संविद्दृशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।।
भ्रूमध्ये तारकालोकशान्तावन्तमुपागते ।
चेतनैकतने बद्धे प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।।
चिरकालं हृदेकान्तव्योमसंवेदनान्मुने ।
अवासनमनोध्यानात्प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।।
अर्थात् जब ज्ञानदृष्टि (सुरत, चेतन-वृत्ति) नासाग्र से बारह अंगुल पर स्वच्छ आकाश में स्थिर हो, तो प्राण का स्पन्दन रुद्ध हो जाता है। जब चेतन अथवा सुरत भौंओं के बीच के तारक-लोक (तारा- मंडल) में पहुँचकर स्थिर होती है, तो प्राण की गति बन्द हो जाती है। हृदयाकाश में संकल्प- विकल्प और वासनाहीन मन से बहुत दिनों तक ध्यान करने से प्राण की गति रुक जाती है, इत्यादि।
वायु स्पंदन अवरुद्ध होने का दूसरा कारण यह भी है कि वायु स्थूल है और मन सूक्ष्म है। इसलिए स्थूल पर सूक्ष्म का प्रभाव होना स्वाभाविक एवं पूर्ण संभव है और सूक्ष्म के ऊपर स्थूल का प्रभाव होना असंगत और असंभव भी है। महायोगी गोरखनाथजी महाराज ने ‘हठयोग प्रदीपिका’ में हठयोग की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट कहा है कि राजयोग के ज्ञान से विहीन हठयोग केवल श्रममात्र ही है, फलदायक नहीं।
राजयोगमजानन्तः केवलं हठधर्मिणा ।
एतानभ्यासिनो मन्ये प्रयागफलं वर्जितान् ।।
-हठयोग प्रदीपिका, उपदेश 4
मुक्तिकोपनिषद् में लिखा है-
विमूढाः कर्तुमुद्युक्ता ये हठाच्चेतसो जयम् ।
ते निबध्नन्ति नागेन्द्रमुन्मत्तं विसतन्तुभिः ।।
भावार्थ-जो मूढ़ व्यक्तिगण हठात् (दुराग्रह से) चित्त जीतने को उद्यत होते हैं, वे मदमस्त गजराज को कमल-नाल के तन्तु में बाँधते हैं। (अर्थात् जैसे कमल-नाल के तन्तु में मदमस्त गजराज बाँधा नहीं जा सकता, वैसे ही हठात् चित्त जीता नहीं जा सकता) । मनोनिग्रह करने में असमर्थ होकर वीर अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण से जब कहा कि-
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढ़म् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।34।।
इसके उत्तर में भगवान ने प्राणायाम की कुछ भी चर्चा न करते हुए ‘असंशयं महाबाहो मनोदुर्निग्रहं चलम्। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते। (गी0 अ0 6) कहकर अभ्यास और वैराग्य द्वारा मन को वश में करने की आज्ञा दी। इस पर अर्जुन ने पुनः जिज्ञासा नहीं की कि भगवन्! अभ्यास (ध्यान-अभ्यास) कैसे किया जाता है, इसकी प्रक्रिया मुझे बतलाइए। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने ध्यानाभ्यास की क्रिया उन्हें पहले ही बता दी थी-
समं काय शिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।।
(गीता, अध्याय 6)
तीसरी बात यह है कि जातीय पदार्थ को जातीय पदार्थ से सहायता मिलती है, विजातीय पदार्थ से नहीं। अंधकार को अंधकार से और प्रकाश को प्रकाश से सहायता मिलती है, न कि अंधकार को प्रकाश से और प्रकाश को अंधकार से। उदाहरणार्थ-अमानिशीथ की काली घटा में जब गगनमंडल काले-काले बादलों से आच्छादित हो, उस समय आपकी दृष्टि शक्ति अच्छी रहने पर भी आपको कोई पदार्थ अवलोकित नहीं होता। अथवा मध्याह्नकालिक स्वच्छ आकाश में, जबकि प्रचंड सूर्य की प्रखर किरणों से संपूर्ण जगत आलोकित हो रहा हो और आपकी आँखों में ज्योति नहीं हो; ऐसी अवस्था में भी आपकी दृष्टिशक्ति अच्छी हो यानी आँखों में प्रकाश और बाह्य जगत् में भी (चिराग, लालटेन, बिजली, चन्द्र या सूर्य प्रभृति किसी का) प्रकाश हो, ऐसी अवस्था में दर्शनीय सभी पदार्थ आपको दृष्टिगोचर होंगे।
अतएव हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मन सूक्ष्म है और दृष्टि भी सूक्ष्म है। इसलिए मनोनिग्रहार्थ (सूक्ष्म) मन को (सूक्ष्म) दृष्टि से मिलनी पूर्ण संभव है। इसके लिए जाग्रत और स्वप्नादि अवस्थाओं की परिस्थितियों पर विचार करने से इसका स्पष्ट ज्ञान होगा। जाग्रत एवं स्वप्न अवस्था में दृष्टि चंचल रहती है और मन भी चंचल रहता है और सुषुप्ति अवस्था में दृष्टि का काम बंद होने से मन का काम भी बंद हो जाता है। किन्तु स्मरण रहे कि उस समय (यानी सुषुप्ति अवस्था में) श्वास-प्रश्वास की क्रिया बंद नहीं होती, चलती ही रहती है। इससे भी स्पष्ट है कि मनोनिरोधार्थ वायु अवरोध की अपेक्षा दृष्टिनिरोध की विशेष आवश्यकता है।
उपनिषद् तथा श्रीमद्भगवद्गीता में आये हुए ‘नासाग्र नासिकाग्रं तथा भ्रूमध्ये’ दृष्टि साधन की क्रिया का ही संकेत करता है। जिसे शांभवी और वैष्णवी मुद्रा भी कहते हैं। इसी क्रिया के द्वारा दृष्टिनिरोध होता है। यह क्रिया या मुद्रा गुरुगम्य है।
(जनवरी,1955 ई0)
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स्थूल, पिण्ड, पांचभौतिक एवं त्रिगुणात्मक होने के कारण सामान्यतः सभी प्राणी त्रिविध तापों- दैहिक, दैविक तथा भौतिक से सतत संतप्त होते अवलोकित होते हैं। यद्यपि इस व्यथा-पूरित जीवन में आनंदकण-प्राप्ति के क्षण भी उपलब्ध होते हैं, तथापि उनसे कहीं अधिक-अत्यधिक दुःख की कड़ियाँ गिनते- गिनते जीवन की घड़ियाँ व्यतीत होती हैं। त्रिविध ताप-तापित जन इनसे मुक्ति पाने के लिए यदि कुछ प्रयास भी करता है, तो अविलंब ही उसके समक्ष दुर्जय दुर्दान्त मानस-विकार अपना शिकार बना उसे उदरस्थ करने को उद्यत हो उठता है।
ऐसी विषम परिस्थिति में अज्ञ प्राणी स्वधैर्य खो किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और शोक-सागर में निमग्न होता हुआ सोचने लगता है-क्या, इन दुःखों से मुक्ति पाने के लिए कोई यत्न नहीं? क्या, इनके प्रहाण का कोई साधन नहीं? क्या, इन व्याधियों के समूल नष्टार्थ कोई औषधि वा उपचार भी नहीं? हाय! कोई पथ-प्रदर्शक भी नहीं दीख पड़ता, जो भव-जनित इन प्रबल त्रय-व्याधियों से निष्क्रमण करने का प्रशस्त मार्ग प्रदर्शित कर सकें। इस भाँति व्याधि-विह्वल प्राणी चतुर्दिक अंधकार-ही-अंधकार देख, हतोत्साह हो, स्व जीवनोत्सर्ग करने के लिए उतारू हो जाता है।
प्राणियों की कारुणिक दशा देख, ‘संत सरल चित जगत हित’ तथा ‘पर उपकार वचन मन काया। संत सहज सुभाव खगराया।।’ को चरितार्थ करते हुए भक्त शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज आते हैं और उन दीन-हीन, संकटापन्न, भवरुज संत्रस्त एवं निरुत्साहित प्राणियों को प्रोत्साहित करते हुए कहते हैं-घबड़ाओ मत, अधीर न होओ, धैर्य धारण को नष्ट करने के लिए अमोघ है और वह है परमात्म-भक्ति।
प्रबल भवजनित त्रय व्याधि भेषज
भक्ति भक्त भैषजज्यमद्वैत दरसी।
संत भगवन्त अंतर निरंतर नहिं
किमपि मत विमल कह दास तुलसी।।
अतएव परमात्मा पर दृढ़ विश्वास कर उनकी भ्िाक्त करो तो उनकी कृपा से निश्चय ही तुम्हारे सभी रोग समूल नष्ट होंगे।
राम कृपाँ नासहिं सब रोगा ।
जौं एहि भाँति बनइ संजोगा ।।
सदगुरु बैद बचन बिस्वासा ।
संजम यह न बिषय कै आसा ।।
रघुपति भगति सजीवन मूरी ।
अनूपान श्रद्धा मति पूरी ।।
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं ।
नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के कहने का तात्पर्य यह है कि भवरोग से ग्रसित जीव सद्गुरु वैद्य से राम-भक्ति संजीवनी-बूटी प्राप्त कर श्रद्धायुक्त होकर सेवन करेगा और विषयासक्ति रूप कुपथ्य नहीं करेगा, (वैराग्ययुक्त रहेगा) तब वह रोगमुक्त हो जाएगा।
विचारणीय है कि यदि कोई व्याधिग्रस्त जन संयम की अवहेलना कर केवल भेषज-सेवन करे तो वह उससे लाभान्वित नहीं हो सकता। ठीक इसी भाँति यदि कोई भक्त भक्तिमार्ग में निर्देशित संयमों का तिरस्कार कर केवल भक्ति करे, तो वह उस लाभ से वंचित रहेगा, जो अभीष्ट है। दूसरी बात यह है कि भक्तिमार्ग में भक्ति सिर है, तो सदाचार पैर। जैसे सिर हीन जन मृतक होता है और पद-विहीन जन पंगु, वैसे ही भक्ति-विहीन जन मृतवत् है और संयम विहीन जन पगहीन, पगहीन जन एक डेग चलने में भी असमर्थ होता है, उसी तरह संयमशून्य भक्त भक्ति मार्ग में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता। अतएव भक्तिमार्गी का संयमी होना अत्यन्त अपेक्षित है।
अंग्रेजी वर्णमाला के ‘Q’ ओर ‘U’ में घनिष्ट संबंध रहता है। शब्दान्तर्गत जहाँ कहीं भी ‘Q’ का प्रयोग होता है, वहाँ अनिवार्य रूप से ‘U’ रहता है। जैसे-फ़नंतजमतए म्दुनंतल प्रभृति। इसी भाँति भक्ति के साथ संयम वा सदाचार अनिवार्यरूप में रहता है। इन दोनों को भी भिन्न-भिन्न करना कठिन ही नहीं, वरन् असंभव है। कोई भी सदाचार-अतिक्रमणकारी कभी भी भक्त नहीं हो सकता। उससे न तो भक्ति ही हो सकती है और न वह परमात्म-स्वरूप वा आत्मस्वरूप को ही उपलब्ध कर सकता है। कठोपनिषद् में सुस्पष्ट कहा है कि ‘जो पापकर्मों से निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं हैं और जिसका चित्त असमाहित या अशान्त है, वह इसे आत्मज्ञान-द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता है।’
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्।।
ब्रह्माण्डपुराणोत्तर गीता में लिखा है-मानवगण इन्द्रिय-संयम करके देहाभिमान और रागादि परित्याग पूर्वक साक्षात् ब्रह्मवत् परिशुद्ध हुए बिना ब्रह्म को लाभ नहीं कर सकते।
नवछिद्रान्विता देहाः स्नुवत्ते जालिका इव।
नैव ब्रह्म न शुद्धं स्यात् पुमान् ब्रह्म न विन्दति।।
ईश्वर-भक्ति और विषयानुरक्ति दोनों एक साथ नहीं हो सकते। यह मन तुला सदृश है, इसके जिस पल्ले पर अधिक भार होगा, वह नीचे और जिस पर कम भार होगा, वह ऊपर उठेगा। ईश्वर-भक्ति का पल्ला वजनदार होगा, तो विषय का पल्ला हल्का होकर ऊपर उठेगा और यदि विषय-वासना का पल्ला वजनदार होगा, तो ईश्वर-भजन का पल्ला हल्का होकर ऊपर उठेगा। आखिर मन तो एक ही है, चाहे इसे जिस ओर लगावें।
कबीर मन तो एक है, भावै तहाँ लगाय।
भावै गुरु की भक्ति कर, भावै विषय कमाय।।
चींटी चावल ले चली, बिच में मिल गई दार।
कह कबीर दोउ ना मिलै, इक लै दूजी डार।।
-कबीर साखी संग्रह
ऐसे दो प्रकार के कर्म एक ही साथ नहीं हो सकते, जो आपस में उल्टे-उल्टे हों। जैसे हँसना और रोना, दानी और कृपण, दिन और रात इत्यादि।
दुइ कि होइ एक समय भुआला।
हँसब ठठाय फुलाउब गाला।।
दानि कहाउब अरु कृपणाई।
होइ कि षेम कुसल रौताई।।
-रामचरितमानस
पीया चाहै प्रेम रस, राखा चाहै मान।
एक म्यान में दो खड्ग, देखा सुना न कान।।
जहँ काम तहँ राम नहिं, जहाँ नाम नहिं काम।
कह कबीर दोउ ना मिलै, रवि रजनी इक ठाम।।
-कबीर साखी संग्रह
काम और नाम इन दोनों के रखनेवाले को गो0 तुलसीदासजी ने ‘वंचक भक्त’ की उपाधि दी है-
वंचक भक्त कहाइ राम के।
किंकर कंचन कोह काम के।।
-रामचरितमानस
संतों की उपर्युक्त वाणियों का आशय यह नहीं कि लोग ‘गृह-आँगन वास का त्याग करें, गुह कानन जाय निवास करे।’ बल्कि-
गृही बान्हि जो रहे उदासी।
कह कबीर हम तिनकी दासी।।
-संत कबीर साहब
जो कोइ साधू गृही में, माहिं राम भरपूर।
दरिया कह उस दास की, मैं चरणन की धूर।।
-संत दरिया साहब, मारवाड़ी
गृहस्थ हो या विरक्त, जो जिस आश्रम में रहते हों, वे उस आश्रम-धर्म का पालन करते हुए, संयम-संयुक्त हो ईश्वर की भक्ति करें। संयम के अर्थ-परहेज, हानिकारक या बुरी वस्तुओं से बचने की क्रिया, रोक, इन्द्रिय-निग्रह, मनोनिग्रह प्रभृति होते हैं। किसी भी व्यवसाय अथवा व्यवहार में ‘अति’ का सर्वथा अभाव, भक्त के पक्ष में हितकर है। ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्।’
अति का भला न बोलना, अति का भला न चूप।
अति का भला न बरसना, अति का भला न धूप।।
-कबीर साखी संग्रह
‘महायोगेश्वरो हरिः’ भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद् भगवद्गीता के षष्ठ अध्याय में स्पष्ट कहा है-‘हे अर्जुर्न! अतिशय खानेवाले या बिल्कुल न खानेवाले और खूब खानेवाले अथवा जागरण करनेवाले को (यह) योग सिद्ध होता है-
नात्यश्नतस्तु योगीऽस्ति चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ।।16।।
बल्कि जिसका आहार-विहार नियमित है, कर्मों का आचरण नपा-तुला है और सोना जागना परिमित है, उसको यह योग दुःख घातक अर्थात् सुखावह होता है-
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।17।।
“ खाये भी मरिए अणखाये भी मरिए ।
गोरख कहै पूता संजमि ही तरिए ।।
धाये न खाइबा, भूखे न मरिबा । अहिनिसि लेबा ब्रह्म अगिनि का भेवं ।।
हठ न करिबा, पड़े न रहिबा ।
यूं बोल्या गोरख देवं ।।8।।”
साधक को स्वावलंबी होना चाहिए। अपने पसीने की कमाई से उसे अपना निर्वाह करना चाहिए। थोड़ी-सी वस्तुओं को पाकर ही अपने को संतुष्ट रखने की आदत लगाना उसके लिए परमोचित है।
काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, चिढ़, द्वेष आदि मनोविकारों से खूब बचते रहना और दया, शील, संतोष, क्षमा, नम्रता आदि मन के उत्तम और सात्विक गुणों का धारण करते रहना, साधक के पक्ष में अत्यन्त हितकर है।
मत्स्य-मांस का भोजन तथा मादक-द्रव्यों का सेवन मन में विशेष चंचलता और मूढ़ता उत्पन्न करते हैं, साधकों को इनसे अवश्य बचना चाहिए।
ज्ञान बिना कर्तव्य-कर्म का निर्णय नहीं हो सकता। कर्तव्य-कर्म निर्णय के बिना अकर्तव्य-कर्म भी किया जाएगा, जिससे अपना परम कल्याण नहीं होगा। इसलिए ज्ञानोपार्जन अवश्य करना चाहिए, जो विद्याभ्यास और सत्संग से होगा।
जो कोई संयम-संयुक्त हो संत सद्गुरु द्वारा निर्देशित भक्ति मार्ग पर चलेंगे, उनपर ईश्वर की कृपा आप ही होगी और वे निश्चय ही भव-व्याधि से मुक्त होंगे। किन्तु स्मरण रहे कि ईश्वर उन्हीं की मदद करते हैं, जो अपनी मदद आप करते हैं। ‘God helps those who help’ गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने भी अत्यन्त दृढ़तापूर्वक कहा है कि-
जौं तेहि पंथ चलइ मन लाई।
तौ हरि काहे न होहिं सहाई।।
-विनय-पत्रिका
अतएव धीरे-धीरे ही सही; किन्तु यदि अनवरत रूप से गंतव्य मार्ग पर चलते रहे, तो मार्ग की दूरी कितनी भी क्यों न हो-निर्दिष्ट स्थान पर, कभी-न-कभी अवश्य पहुँचेंगे। ‘Slow and steady wins the race.’ (शान्ति-संदेश, मार्च 1958)

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देश और काल के अनुसार प्रायः धर्म में भिन्नता का बोध होता है। जैसे भारतीय वैदिक धर्मावलंबी वेदशास्त्र विहित कर्म को ‘धर्म’ कहते हैं, मुसलमान अपने कुरान के अनुकूल चलने में ‘धर्म’ समझते हैं और ईसाई बाइबिल में निर्देशित कर्म को ‘धर्म’ कहते हैं। यदि किसी ईसाई के सामने गो-मांस का एक टुकड़ा हो और वह अपनी अथवा दूसरे की जीवन-रक्षा के लिए उसका व्यवहार न करे, तो वह अवश्य अपनी ओर से एक अधर्म का बोध करेगा। किन्तु यदि कोई वैदिक धर्मावलंबी गो-मांस का एक टुकड़ा स्वयं खा ले अथवा किसी अन्य वैदिक धर्मावलंबी को दे, तो वह उससे कम अधर्म की बात नहीं सोचेगा। सामान्यतः कोई व्यक्ति किसी का सिर फोड़ डाले, तो वह धर्मच्युत कहलावेगा और न्यायालय में वह दंड का भागी होगा। किन्तु वही मनुष्य किसी चोर, डाकू, लुटेरा वा आततायी की हत्या कर डाले, तो वह न तो धर्मच्युत कहला सकता है और न विधान के अनुकूल दंड का भागी होगा। प्रत्युत् वह धर्मधर कहलाकर पुरस्कार का भागी होगा। पुनः वही मनुष्य सैनिक बनकर युद्धस्थल में अपने शत-शत शत्रुओं का काम तमाम कर डाले, तो वह कदापि अधर्मी नहीं कहला सकता। बल्कि वह धर्मधीर और वीर कहकर संबोधित करने योग्य होता है।
एक दूसरी सुस्पष्ट बात यह भी है कि एक देश का धर्म दूसरे देश के लिए अधर्म होता है। उदाहरणार्थ-एक देश में चचेरे भाई-बहन (विवाह) ब्याह कर लेते हैं, दूसरे देश में ऐसा करना घोर अधर्म समझा जाता है। एक देश में बड़े भाई की स्त्री से विवाह करना उचित है, दूसरे में अनुचित। एक देश में पुरुष वा स्त्री को केवल एक ही विवाह करने का अधिकार है, दूसरे में अनेक। इस भाँति सभी का एक ही धर्म कहा नहीं जा सकता।
एक बात और है, और वह है-जातीय अस्पृश्यता। अपने को ऊँची जाति के माननेवाले अन्त्यज का स्पर्श करना भी नहीं चाहते। यदि किसी तरह उससे स्पर्श हो जाए, तो उसके लिए वे प्रायश्चित करते हैं। किन्तु आपत्काल में वे ही श्रेष्ठ जन उस अन्त्यज के स्पर्श करने की बात तो कौन कहे, उसके (उच्छिष्ट) जूठन तक को खा लेने में अधर्म का बोध नहीं करते, बल्कि आपद्धर्म कहकर सद्धर्माभिमानी बनते हैं। उपनिषद् में एक ऋषि की कथा कि ‘अकाल से पीड़ित होकर दीर्घकाल के उपवास के अनंतर उन्होंने एक शूद्र को उड़द खाते देखा। बहुत माँगने और समझाने पर शूद्र ने उनको जूठन उड़द दे दिये। उड़द खाने के बाद शूद्र ने जल भी देना चाहा। ऋषि ने अस्वीकार किया और बतलाया कि ‘मेरे प्राण क्षुधा के कारण प्राण जानेवाले थे, मैं इन उड़दों से शरीर-रक्षा करके अब धर्माचरण की इच्छा करता हूँ। ये उड़द मैंने आपत्ति के कारण स्वीकार किये हैं। जल तो जाकर निर्झरी में पी लूँगा। तुम्हारे स्पर्श से प्राप्त जल लेने से मैं धर्मभ्रष्ट हो जाऊँगा। (कल्याण, हिन्दू संस्कृति अंक पृष्ठ 166)
इस भाँति धर्म की गति अति सूक्ष्म और चक्कर में डालनेवाली होती है। कर्मवीर मानव के जीवन में ऐसे अनेक मौके आते हैं, जब वह अपने कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय स्वयं नहीं कर पाता। वह सोचता है-यह करूँ वा वह? ऐसे अवसर पर यदि सुयोग्य मार्गदर्शक उसे मिल जाता है, तब तो उसकी डूबती किश्ती किनारे लग जाती है, नहीं तो कर्ण- धार के अभाव में कितने अपनी आत्महत्या कर लेते हैं, कितने पागल बन जाते हैं और कितने की क्या-क्या दुर्दशाएँ होती हैं, इसके अनेक इतिहास हैं। जैसे डेनमार्ग के एक प्राचीन राजा को उसके भाई ने मार डाला और उसकी पत्नी को अपनी स्त्री बनाकर स्वयं राजा बन राज्य करने लगा। प्राचीन राजा का एक पुत्र था, जिसका नाम था हैमलेट। अब उस राजपुत्र के मन में यह द्वंद्व उत्पन्न हुआ कि ऐसे पापी चाचा की हत्या कर पुत्र धर्म के अनुसार अपने पिता के ऋण से मुक्त होऊँ अथवा अपने सगे चाचा, अपने माता के पति और वर्तमान राजा पर दया करूँ? उस समय उसका मार्ग-दर्शन करनेवाला कोई न हो सका। इस ऊहापोह में फँस कोमल हृदय हैमलेट की क्या दशा हुई, अवर्णनीय है। दिन-रात चिंता में निमग्न रहते-रहते वह पागल हो गया और ‘जियें या मरें’ इस बात की चिंता करते-करते उसका अंतिम क्षण व्यतीत हुआ।
यही मोह महाभारत के मैदान में अर्जुन को हुआ था। वह विचारने लगा कि कौरव और पांडव दो नहीं हैं, एक ही हैं। सभी स्वजन, भाई-बंधु हैं। हम सब एक साथ पले हैं, एक साथ रहे हैं। द्रोणाचार्य हम दोनों (कौरव-पांडव) के गुरु और भीष्म पितामह हैं। इनके साथ युद्ध करना न्यायोचित नहीं, सरासर अन्याय है। यद्यपि कौरव अन्यायी हैं, आततायी हैं, हमारे (पांडवों के) साथ बहुत ही बुरे सलूक किये हैं, हमारी धन-संपत्ति को अन्याय से अपने अधिकार में कर लिये हैं, द्रौपदी जैसी सती का भरी सभा में अपमान किया है इत्यादि-ये सब दोष उनके अवश्य हैं। फिर भी उन सबको मारकर मैं क्या ले लूँगा? वे मूढ़ हैं, मैं कुछ समझ-बूझ रखता हूँ। मैं समझ-बूझकर उन अज्ञानियों से अज्ञानी की भाँति लडूँ-युद्ध करूँ, उचित नहीं। अपने स्वजन संबंधियों की हत्या कर रक्त सने राज्योपभोग की अपेक्षा संन्यासी बन भिक्षान्न से अपना जीवन-यापन करना अधिक कल्याणकर होगा।
ऐसे अवसर पर ‘महायोगेश्वरो हरिः’ भगवान् श्रीकृष्ण जैसे महारथी उनके पथ-प्रदर्शक बन जाते हैं और कहते हैं-अर्जुन! तुम किस मोह में फँसे हो? नपुंसक की भाँति तुम क्या बक रहे हो? क्षात्रधर्म के अनुसार युद्ध में प्रवृत्त होना तुम्हारा धर्म है। इसके बाद भगवान ने उसे स्व-पर भेद को मिथ्या बताकर सांख्य ओर योगवादानुसार आत्म-अनात्म का ज्ञान-शरीर की अनित्यता और आत्मा की नित्यता का उपदेश दिया और कहा कि फलाशा त्यागकर अपने कर्तव्य-कर्म में प्रवृत्त होओ। वह समय युद्ध का था, इसलिए भगवान ने कहा-‘तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।’ (गीता 8/7) अर्थात् सर्वदा- सब काल में मेरा स्मरण कर और जूझता रह।
‘धर्मज्ञान’ में बुद्धि चकित होने का अन्यान्य अनेकानेक बातें हैं। जैसे सभी सद्ग्रंथ, संत और भगवन्त एक स्वर से कहते हैं-‘धर्म’ अर्थात् सत्य, अहिंसा, अस्तेय, शान्ति, क्षमा, दया प्रभृति का पालन करो। किन्तु क्या, इन धर्मों के पवित्र पालन में सभी सब क्षण सक्षम हो सकते हैं? जैसे अहिंसा ही को लीजिए। यदि हमारे देश पर कोई आक्रमण करे तो क्या, ‘अहिंसा परमोधर्मः’ कहकर अपने देश को लूटने वा परतंत्र होने देना चाहिए? कभी नहीं। हम भले ही अन्यों पर पहले आक्रमण न करें; किन्तु आक्रमणकारी को हटाने के लिए, देश को सुरक्षित रखने के लिए हमें अपनी जानों पर खेलना ही ‘धर्म’ होगा। उसके लिए युद्ध करना ही होगा। स्वयं मरना और उन्हें मारना होगा। ऐसी परिस्थिति में जहाँ युद्ध करना अनिवार्य हो, वहाँ उपर्युक्त ‘अहिंसा’ धर्म का पालन कैसे किया जा सकता है? अथवा हमारी जान लेने के लिए या हमारी स्त्री अथवा कन्या पर बलात्कार करने के लिए या हमारा धन छीन लेने के लिए कोई दुष्ट मनुष्य हाथ में शस्त्र लेकर सामने तैयार हो जाए और उस समय हमारी रक्षा करनेवाला हमारे पास कोई न हो, तो उस समय हमको क्या करना चाहिए? क्या, ‘अहिंसा परमो धर्मः’ कहकर ऐसे आततायी मनुष्यों की उपेक्षा की जाय? या यदि वह सीधी तरह से न माने तो यथा- शक्ति उसका शासन किया जाए? मनु जी कहते हैं-
गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम् ।
आततायिनमायान्तं हन्यादेव विचारयन् ।।
अर्थात् ऐसे आततायी या दुष्ट मनुष्य को अवश्य मार डाले; किन्तु यह विचार न करे कि वह गुरु है, बूढ़ा है, बालक है या विद्वान ब्राह्मण है। शास्त्रकार कहते हैं कि (मनु 8-350) ऐसे समय हत्या करने का पाप हत्या करनेवाले को नहीं लगता, किन्तु आततायी मनुष्य अपने अधर्म से ही मारा जाता है। ऐसे मौके पर अहिंसा से आत्मरक्षी की योग्यता अधिक मानी जाती है। भ्रूणहत्या सबसे अधिक निंदनीय मानी गयी है; किन्तु जब बच्चा पेट में टेढ़ा होकर अटक जाता है, तब क्या उसको काटकर निकाल नहीं डालना चाहिए?(गीता-रहस्य)
रामायण की कथा हमें क्या सिखाती है? एक स्त्री की नाक कटती है, तो उसके लिए सैकड़ों राक्षस कट-मरते हैं। पुनः एक दूसरी स्त्री का अपहरण होता है, तो उसके लिए सहस्त्रों बंदर-भालू और मनुष्य अपनी जान न्योछावर कर डालते हैं। इतना ही नहीं, अपहरणकर्ता का गला तो उतर ही जाता है, साथ ही उनके परिवार और सहायकों का भी नामोनिशान नहीं रह पाता है। जिसके लिए लोग आज कहा करते हैं-
एक लाख पूत सवा लाख नाती।
जा रावण घर दिया न बाती।।
और भी, ‘रहा न कुल में कोइ रोवनहारा।’
यह तो हुआ हिंसा का स्थूल रूप। यदि इसके सूक्ष्म रूप पर विचार किया जाए, तो चलने-फिरने, खाने-पीने, बोलने-चालने, यहाँ तक कि श्वास लेने और छोड़ने में भी हिंसा होती है। आज आधिभौतिक विज्ञानवेत्ता से यह बात छिपी नहीं है कि यह जगत सूक्ष्म जीवाणुओं से ओतप्रोत है। ऐसे छोटे-छोटे जीव जन्तु इस शून्य मे भरे हैं, जिनको इन आँखों से हम नहीं देख सकते। किन्तु हाँ, यदि यंत्र विशेष (खुर्दबीन- अुणवीक्षण यंत्र) के द्वारा देखना चाहें, तो देख सकते हैं। फिर भी वे संख्या में इतने अधिक होते हैं, जिनकी गणना नहीं हो सकती। महाभारत शान्तिपर्व 15/26 में है-
सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्क गम्यानि कानिचित् ।
पक्ष्मणोऽपि निपातेन येषांस्यात् स्कन्धपर्ययः ।।
इस जगत में ऐसे सूक्ष्म जन्तु हैं, जिनका अस्तित्व यद्यपि नेत्रें से नहीं दीख पड़ता, तथापि तर्क से सिद्ध है; ऐसे जन्तु इतने हैं कि यदि हम अपनी आँखों की पलक हिलावें, उतने ही से उन जन्तुओं का नाश हो जाता है।
ऐसी परिस्थिति में महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने हिंसा को दो भागों में विभक्त किया है-एक वार्य हिंसा और दूसरी अनिवार्य हिंसा। जिस हिंसा से हम बच सकें, वार्य हिंसा है और जिस हिंसा से बचना कठिन ही नहीं, असंभव हो, वह अनिवार्य हिंसा है। वार्य हिंसा से बचा जा सकता है; किन्तु अनिवार्य हिंसा से नहीं। जैसे निशाना ठीक करने के लिए अथवा रसना-विलास के लिए हिंसा करनी वार्य हिंसा है और औषधि-उपचारादि से जो रोग-कीटाणु मरते हैं, यह अनिवार्य हिंसा है। इसी तरह कृषिकर्म, घर की सफाई तथा न्यायोचित युद्धादि अनिवार्य हिंसा है।
धर्म की गहराई में यदि हम थोड़ा और भी उतरना चाहेंगे, तो बुद्धि और भी विशेष चकित और हैरान होगी। श्रीमद्भगवद्गीता तथा अन्यान्य धर्मग्रंथों में बारंबार कहा गया है कि अपने धर्म की रक्षा करो। धर्म के लिए मृत्यु अच्छी है। अधर्ममय शतायु जीवन से एक दिन धर्ममय जीवन श्रेष्ठ है। चारुदत्त कहता है-
न भीतो मरणादस्मि केवलं दूषितं यशः ।
विशुद्धस्य हि मे मृत्युः पुत्रजन्म समः किल ।।
-मृच्छकटिक नाटक (10/27)
अर्थात् मैं मृत्यु से नहीं डरता, मुझे यही दुःख है कि मेरी कीर्ति कलंकित हो गयी। यदि कीर्ति शुद्ध रहे और मृत्यु भी आ जाए तो मैं उसको पुत्र जन्मोत्सव के समान मानूँगा। इसलिए कटुवाणी सहकर, सभी यातनाओं एवं अपमानों को सहकर भी धर्म न छोड़ो। और धर्मरक्षार्थ सामान्य मनुष्य को कौन गिने, स्वयं विष्णु भगवान इस भूतल पर अवतरित होते हैं। एक ओर तो यह बात और दूसरी ओर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।
अर्थात् सब धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा, शोच मत कर। उपर्युक्त श्लोक से मालूम होता है कि अर्जुन बहुत-से धर्म को ग्रहण किये हुए थे, जिस हेतु भगवान कहते हैं कि ‘सब धर्मों को छोड़कर----’ पुनः कहते हैं-‘मेरी शरण में आ जा।’ क्या, अर्जुन भगवान की शरण में नहीं थे? भगवान की शरण के अतिरिक्त अर्जुन के कल्याण का अन्य स्थान ही कहाँ था? अर्जुन को कौन कहे, संपूर्ण पांडव उनकी शरण में थे। (शान्ति-संदेश, अप्रैल 1960)

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इस संतमत-सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। ईश्वर-भक्ति में तीन बातों की प्रधानता होती है-स्तुति, प्रार्थना और उपासना। स्तुति कहते हैं यशगान करने को। ईश्वर के यशगान से उनकी महिमा-विभूति जानी जाती है। महिमा-विभूति जानने के लिए उनके प्रति श्रद्धा होती है। श्रद्धा होने से उनकी भक्ति करने की प्रेरणा मिलती है। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने बतलाया है-
जाने बिनु न होइ परतीती।
बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती।।
प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई।
जिमि खगेस जल कै चिकनाई।।
जिनकी भक्ति या सेवा करना चाहें, जबतक उनके गुणों को हम नहीं जानते हैं, तो उनके ऊपर हमारा विश्वास नहीं होता है। जब विश्वास नहीं होता है, तो उनके साथ प्रेम भी नहीं होता। प्रेम जब नहीं होता, तो उनकी हम सेवा क्या कर सकेंगे? तब अगर हम सेवा भी करेंगे, तो वह दिखावटी सेवा होगी। यह उस तरह की सेवा होगी, जिस तरह से जल की चिकनाई नहीं ठहरती। उसी तरह वह भक्ति भी नहीं ठहर सकती। इसलिए आवश्यक है, पहले हम ईश्वर स्वरूप को समझ लें।
ईश्वर इन्द्रियों से जानने योग्य नहीं है। इन्द्रियों से जो कुछ हम जानते हैं, वह सब-के-सब माया है। इन्द्रियों से यानी पाँच कर्मेन्द्रियों से-आँख, कान, नाक, जिह्वा तथा त्वचा से हम पंच विषयों को ग्रहण करते हैं और परमात्म-स्वरूप निर्विषय है। इन इन्द्रियों के द्वारा परमात्म-स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता। जो वैदिक धर्म के माननेवाले हैं, उनका मूल ग्रंथ है वेद। वेद बतलाता है कि जो कोई हाथ, पैर, गुदा, लिंग, रसना, कान, त्वचा, आँखें, नाक और मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर को प्रत्यक्ष करने की चेष्टा करना, झूठ ही एक खेल करना है; क्योंकि परमात्मा इन्द्रियातीत है। अर्थात् इन्द्रियों से वे जाननेयोग्य नहीं हैं। उन प्रभु परमात्मा को हम स्वयं जान सकते हैं। जैसे एक-एक इन्द्रिय का एक-एक विषय है, उसी तरह परमात्मा भी आत्मा का विषय है। आँख का एक ही मात्र काम है-गंध का ग्रहण करना। जिह्वा का एक काम है-रसास्वादन करना। त्वचा का एक ही काम है-गंध ग्रहण करना। जिह्वा का एक काम है रसास्वादन करना। त्वचा का एक ही काम है-स्पर्श करना। दो छेद हमारी नाक में भी है और दो छेद हमारे कान में भी हैं, तो क्या कान का काम नाक कर सकती है? कान का काम कान ही कर सकता है। यद्यपि छेद दोनों के बराबर ही हैं। आँख का काम क्या कान कर सकता है या नाक कर सकती है? एक इन्द्रिय का काम दूसरी इन्द्रिय नहीं कर सकती है। जब आपको देखना होगा, तो आँख से ही देखेंगे। जब सुनना चाहेंगे, तो कान से ही सुनेंगे। जब आपको गंध ग्रहण करने की आवश्यकता होगी, तो आप नाक से ग्रहण करेंगे। रसास्वादन करने की इच्छा होगी तो जिह्वा से ही करेंगे। स्पर्श करने की इच्छा होगी, तो त्वचा से ही करेंगे। यह निश्चित है, इसे कोई टाल नहीं सकता है। उसी तरह से ईश्वर का साक्षात्कार करने के लिए- प्राप्त करने के लिए उनका अनुभव करने के लिए चेतन आत्मा है। चेतन आत्मा के द्वारा ही वे ग्रहण हो सकते हैं।
आँख से रूप का ग्रहण होता है। लेकिन आँख के ऊपर यदि पट्टी बाँध दीजिए, तब देखने में आवेगा! उसी तरह आत्मा से परमात्मा का साक्षात्कार होता है; लेकिन जबतक चेतन आत्मा के ऊपर आवरण पड़े हुए हैं, तबतक परमात्मा का वह दर्शन नहीं कर सकता। इसी को संत कबीर साहब ने कहा-‘घूँघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे।’ अर्थात् परमात्मा का दर्शन करना चाहते हो, तो घूँघट का पट हटा दो। माई लोग घूँघट रखती है। यदि आँखों के ऊपर घूँघट रहे, तो वे कैसे देखेंगी? जीवात्मा के ऊपर स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण जड़ के ये चार आवरण हैं, इनके कारण वह परमात्मा का दर्शन नहीं कर पाता। इन चारो आवरणों को हटाओ, चेतन स्वरूप में स्थित होओ, तो परमात्मा का दर्शन होगा। इसी को संत पलटू साहब ने कहा-
साहिब साहिब क्या करै, साहिब तेरे पास ।।
साहिब तेरे पास, याद करु होवै हाजिर ।
अन्दर धसि के देखु, मिलैगा साहिब नादिर ।।
मान मनी हो फना, नूर तब नजर में आवै ।
बुरका डारै टारि, खुदा बाखुद दिखरावै ।।
रूह करै मेराज, कुफर का खोलि कुलाबा ।
तीसौ रोजा रहै, अन्दर में सात रिकाबा ।।
लामकान में रब्ब को, पावै पलटू दास ।
साहिब साहिब क्या करै, साहिब तेरे पास ।।
जिसको कबीर साहब ने घूँघट का पट कहा है, उसी को पलटू साहब जी महाराज ने बुरका कहा। हमलोगों के यहाँ मुसलमान परिवार की जो माई लोग होती हैं, वे बुरका पहनती है। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
माया बस मति मन्द अभागी।
हृदय जबनिका बहु विधि लागी।
ते सठ हठ बस संसय करही।
निज अज्ञान राम पर धरही।।
काम क्रोध मद लोभ रत, गृहासक्त दुखरूप।
ते किमि पावहिं रघुपतिहि, मूढ़ पड़े तमकूप।।
गो0 तुलसीदासजी महाराज ने उसको यवनिका कहा। घूँघटपट कहिये, बुरका कहिये, यवनिका कहिए-एक ही बात है। आवरणों को हटाने का यत्न है। यत्न करेंगे, तो यवनिका हट जाएगी। ईश्वर का स्वरूप बुद्धि के परे है।
नैना बैन अगोचरि, श्रवणा करनी सार ।
बोलन के सुख कारनै, कहिये सिरजनहार ।।
यों हमलोग कहते हैं-ईश्वर सगुण है, ईश्वर निर्गुण है। ईश्वर सगुण, निर्गुण हैं और उनसे परे भी हैं। बड़ा गंभीर ज्ञान है ईश्वर का।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई।
सो सब माया जानहु भाई।।
-रामचरितमानस
इन्द्रियों को जो कुछ प्रत्यक्ष हो, मन जहाँ तक जाय, वह जिसको ग्रहण कर ले, सब-के-सब माया है। सगुण रूप के दर्शन करके, इन्द्रिय-ग्राह्य रूपों के दर्शन करके माया से छूटा नहीं जा सकता। सगुण में जो व्यापक ब्रह्म है, जबतक उनके दर्शन न हो जाएँ, तबतक यथार्थ में ईश्वर के दर्शन नहीं हुए, तबतक हम मायिक बंधनों से नहीं छूट सकते। आवागमन के चक्र से नहीं छूट सकते।
आप जानते हैं, सीता-हरण हो चुका था। भगवान श्रीराम-लक्ष्मण सीता की खोज में चले। स्वयं राम भगवान हैं, वे सीता की खोज में चलते हैं। माया रूप धारण किया था, उन्होंने मायिक नरलीला शुरू की। हमलोग के घर की स्त्री यदि कहीं खो गई हो, भटक गई हो, तो हमलोग पूछेंगे किससे? किसी मनुष्य से पूछेंगे कि भाई! ऐसी स्त्री है, इस रंग की है, गोरी है या काली है, नाटी है या लंबी है, मोटी है या पतली है कहेंगे और पूछेंगे कि ऐसी स्त्री को आपने दखा है? लेकिन वे भगवान हैं। वे अपनी लीला या माया फैलाते हैं, तो पूछते हैं, किससे?-
हे खगमृग हे मधुकर श्रेणी।
तुम देखी सीता मृगनयनी।।
चिड़िया से पूछते हैं, मृग से पूछते हैं, भौंरों से पूछते हैं, जैसे वे पागल हो गये हों। यह उनकी लीला है। उसी होकर भगवान शंकर सती के साथ जा रहे थे। भगवान शंकर राम को देखते हैं, भगवान तो भगवान को पहचानते हैं, केवल बाहर से ही नहीं, अंतर से भी पहचानते हैं। भगवान शंकर ने देखा कि इस समय में भेंट करने का सुअवसर नहीं है। इसलिए उन्होंने दूर से ही प्रणाम कर लिया। सती माई पूछती हैं कि आपने किनको प्रणाम किया? भगवान शंकर ने कहा-‘देखती नहीं हो, भगवान जा रहे हैं।’ सतीजी कहती हैं-‘भगवान हैं ये? मुझे तो मालूम पड़ता है कि ये भगवान नहीं हैं। ये तो राजा दशरथ के पुत्र हैं?’ ये जब दशरथ के पुत्र हुए तो ये ब्रह्म (परमात्मा) कैसे हुए? अगर भगवान परमात्मा ये ही हो गये, तो फिर स्त्री के वियोग में ये इतने विकल क्यों हैं? सतीजी कहती हैं-
जौं नृप तनय सो ब्रह्म किमि, नारि बिरह मति भोर।
लखत चरित महिमा सुनत, थकित बुद्धि अति मोर।।
अगर ये राजा के पुत्र हैं, तो ब्रह्म किमि-ब्रह्म किस तरह हैं? अगर ब्रह्म हैं, तो स्त्री के विरह में पागल क्यों बने हुए हैं। इनकी जब महिमा सुनती हूँ और चरित्र देखती हूँ, तो मेरी बुद्धि कोई काम नहीं करती है। भगवान शंकर ने कहा-
जौं तेरे मन अति संदेहू।
तौ किन जाइ परीक्षा लेहू।।
अर्थात् अगर मेरी बात पर विश्वास नहीं होता, तो जाकर परीक्षा ले लो और देखो कि वे भगवान हैं कि नहीं? सती सोचती है कि किस तरह परीक्षा उनकी ली जाए? कहीं वे भगवान ही हो गये तो? अगर वे भगवान हों तो मुझे पहचान जायेंगे कि मैं कौन हूँ? इसलिए मैं सीता का ही रूप धारण कर लेती हूँ, जिसकी खोज में ये निकले हैं। रास्ते में सीता के रूप में बैठ जाती हूँ। मुझको वे सीता जानकर पकड़ने आयेंगे, तो मैं समझ जाऊँगी कि कितने पानी में हैं वे। अगर वे पहचान गये, तब तो समझूँगी कि ठीक ही हैं वे भगवान्! सतीजी कहती हैं अपने मन में-
सीता छवि धर के बन में चल के करूँ परीक्षा आज।
जौं पहचान गये तो मैं समझूँगी हैं भगवन्त ।
नहीं तो कोइ नर है, पर हैं अति बलवन्त ।।
सती सीता का रूप धारण कर लेती हैं और जिस मार्ग से भगवान आनेवाले थे, उसी मार्ग में आगे जाकर बैठ जाती हैं। भगवान राम और लक्ष्मण जा रहे हैं। लक्ष्मणजी की दृष्टि पड़ी उनपर। वे पहचान गये सती ने सीता का रूप धारण किया है, लेकिन वे कुछ बोले नहीं। सोचा कि क्यों बोलूँ। जब ये भगवान हैं, तो सब जानते ही हैं। नजदीक पहुँच गये दोनों भाई, जहाँ सती थीं। भगवान राम ने कहा-‘आप यहाँ हैं, भगवान शंकर कहाँ हैं?’ अब तो सती बेचारी का जो लाज लगी, उन्होंने अपनी आँखें बंद कर लीं। आँखें बंद करने पर देखती हैं भीतर में भगवान राम भी है, लक्ष्मणजी हैं और सीताजी भी हैं। अब तो मोह उनको व्याप गया। सीताजी की खोज में जा रहे हैं, सीता तो इनके साथ ही में है। आँख खोलकर देखती हैं, तो आगे में श्रीराम हैं, लक्ष्मण हैं और सीता जी भी। अब तो न आँख बंद किये बनता है और न आँख खोले बनता है। फिर वे आँख बंद करती हैं, वे ही राम-लक्ष्मण, सीता। फिर आँख खोलती है, तो न राम है, न लक्ष्मण है, न सीता ही, कोई नहीं। यह सगुण रूप क्या हुआ? सती में इतनी शक्ति है कि अपने रूप को बदल सकती है। भगवान शंकर की अर्द्धांगिनी है। लेकिन फिर भी भ्रम हो जाता है कि ये भगवान नहीं हैं? सगुण रूप जो है, वह भ्रामक है। इसीलिए तो गो0 तुलसीदासजी ने लिखा है-
निर्गुन रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोय ।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होय ।।
काकभुशुण्डिजी को भ्रम हो गया। गरुड़जी को भ्रम हो गया। नारदजी को भ्रम हो गया, ब्रह्माजी को भ्रम हो गया। यह सगुण रूपों के दर्शन में हुआ। इसका अर्थ यह नहीं है कि सगुण को तिरस्कृत करके निर्गुण रूप को पकड़ा जाए। जबतक कोई सगुण से आरंभ नहीं करेंगे, निर्गुण की प्राप्ति हो नहीं सकती। फिर वे पार कैसे जा सकते?
जबतक कोई सरलाक्षर नहीं लिख लेता, तबतक कोई संयुक्ताक्षर नहीं लिख सकता। उसी तरह स्थूल सगुण से भक्ति का आरंभ है। लेकिन उसी को जकड़कर पकड़े नहीं रह जाएँ, उससे आगे बढ़ें।
जैसे हमलोग स्कूल में पढ़ने जाते हैं। वर्णमाला पढ़ते हैं, पहले दर्जे की किताब पढ़ते हैं, दूसरे दर्जे की किताब पढ़ते हैं, तीसरे दर्जे की किताब पढ़ते हैं, लोअर पास करते हैं, अपर पास करते हैं, मिड्ल पास करते हैं। मैट्रिक पास करते हैं, आई0ए0 पास करते हैं, बी0ए0 पास करते हैं, एम0ए0 करते हैं, पीएच0डी0 करते हैं, डी0लिट्0 करते हैं-यह क्रम है। उसी तरह साधना का भी क्रम है। एक तरफ चलिए। अगर जीवन भर हम ‘अ’ से अनार, ‘आ’ से आम पढ़ते रहें, तो कभी भी विद्वान नहीं हो सकते हैं? पढ़ना जरूरी है। अ से अनार, आ से आम पढ़ना जरूरी है। लेकिन वही पढ़ते रह जाएँ, यह ठीक नहीं है। स्थूल सगुण साकार से उपासना का आरंभ कर सूक्ष्म सगुण साकार में जाएँ, फिर निर्गुण निराकार में जाएँ, उनको भी पार करें, यह क्रम है।
जिस मंडल में जो कोई रहता है, उसके लिए प्रथम अवलंब वही आवश्यक होता है। जिस तरह से कोई नदी पार कर रहा हो, या यों समझिए कोई गंगा स्नान करने गया हो। गया वह गंगास्नान करने, पैर फिसल गया उसका। डूबने लग गया वह पानी में। अब उपाय क्या है? जिस पानी में वह डूब रहा है, उसी पानी का अवलंब लेकर वह तैरेगा। तैरने की कला यह है कि आगे के पानी को पकड़ो और पीछे के पानी को ठेलो। आगे पानी पकड़ते हैं और पीछे पैर से पानी ठेलते हैं। इस तरह आगे बढ़ते-बढ़ते सूखी जमीन पर चले आते हैं। उसी तरह जिस नाम-रूपात्मक जगत में हम डूब रहे हैं, उसी नाम-रूप का सहारा लेकर हम अनाम तक जायेंगे। अगर कोई तैरनेवाला आगे के पानी को पकड़े नहीं और पीछे के पानी को छोड़े नहीं, जहाँ वह हो, उसी पानी को भर पाँजा पकड़े रहे, तो वह पानी में डूब जाएगा और उसका रामनाम सत्त हो जाएगा। उसी तरह उपासना का आरंभ जहाँ से हमलोग करते हैं, उसी को जीवनभर पकड़े रहें-सगुण साकार को ही, तो संसार-सागर से हम पार नहीं हो सकेंगे। इसलिए क्रम है। क्रम से हम बढ़ें। बढ़ते-बढ़ते निर्गुण निराकार को पार करें। इसलिए तो हमलोग प्रतिदिन पढ़ते हैं-
सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर, औरु अक्षर पार में ।
निर्गुण सगुण के पार में, सत् असत् हू के पार में ।।
पार ही पार है। इस पार की बात नहीं। इसलिए ईश्वर-स्वरूप को हम पहचानें। इसीलिए स्तुति होती है। फिर हमलोग प्रार्थना करें। प्रार्थना अर्थात् नम्रता-सहित कुछ माँग लेना। हर एक के हृदय में कुछ-न-कुछ माँग अवश्य है। ऐसा कोई हृदय नहीं, जिसमें कुछ-न-कुछ माँग न हो। जो पहुँचे हुए महात्मा हैं, उनकी बात जाने दीजिए, सामान्यजन की बात कह रहा हूँ। सबको कुछ-न-कुछ अवश्य चाहिए। जिनको कुछ भी नहीं चाहिए।
चाह गई चिन्ता मिटी, मनुवाँ बेपरवाह ।
जाको कछु न चाहिए, सोई शाहंशाह ।।
-संत कबीर साहब
यह तो संत-महात्मा की बात है। सामान्य लोगों की चाहना होती है, वासना होती है, अभिलाषा होती है, अभीप्सा होती है। संत-महात्मा लोग कहते हैं-अगर माँगना ही है, तो क्या माँगो? समझ-सोचकर माँगो। माँग तो ऐसी करो कि फिर माँगना न पड़े। एक ही बार माँग लिया, सब हो गया। संत कबीर साहब सोच में पड़ गये कि क्या माँगूँ? वे कहते हैं-
‘क्या माँगूँ कछु थिर न रहाई।
देखत नैन चल्यो जग जाई।।’
सांसारिक कोई चीज स्थिर नहीं है, क्या माँगूँगा? देखते-ही-देखते आँखों के सामने ही वह चीज चली जाती है। इसलिए क्या माँगूँ? बाल-बच्चे माँगकर ही क्या होगा। दो-चार बच्चों से क्या होगा? ‘इक लाख पुत्र सवा लाख नाती। जा रावन घर दिया न बाती।।’ जब लाख खाक हो गया तो यह माँगकर क्या करो?
भगवान बुद्ध की एक शिष्या बड़ी श्रद्धामती थी। उसका नाम था विशाखा। उसको एक नाती था, वह मर गया। उसके लिए बहुत विकल हुई विशाखा। रोती-धोती भगवान बुद्ध के पास आई। उसके बाल बिखरे थे; साड़ी भींगी हुई थी। भगवान के चरणों पर गिर गई और रोने लग गई। भगवान ने पूछा, ‘विशाखे! तुमको क्या हो गया? तुम क्यों रोती हो?’ विशाखा ने कहा, ‘भगवन्! एक ही नाती था, वह चल बसा, इसीलिए रोती हूँ।’ भगवान बुद्ध में समझाने की बड़ी अच्छी कला थी। उन्होंने कहा-‘इस नगर में जितने लोग हैं, उतने नाती तुमको दे दूँ तो!’ विशाखा ने कहा, ‘भगवन्! तब तो मेरे सुख का वारापार न होगा। मैं बहुत सुखी हो जाऊँगी।’ भगवान ने कहा, ‘अच्छा, यह तो बताओ, इस शहर में कोई मरता तो नहीं है?’ विशाखा ने कहा, ‘भगवन्! जहाँ लाखों की आबादी है, वहाँ दो-चार तो रोज मरते ही हैं।’ तब भगवान ने कहा, ‘विशाखे! इतने बड़े शहर की आबादी के बराबर यदि तुमको नाती हो जाएँ, तो तुम्हारा कल्याण होगा? तुम सुखी होओगी कि दुःखी होओगी?’ विशाखा ने कहा, ‘भगवन्! अब मुझको कुछ नहीं चाहिए।’ संत कबीर साहब कहते हैं-बाल-बच्चे नहीं माँगो, तो धन-संपत्ति माँग लो। यह माँग कर भी क्या करोगे-
सोने का महल रूपे का छाजा।
छोड़ चले नगरी के राजा।।
रावण को सोने का महल था, रूपे की उसकी छावनी थी। वह भी कहाँ चला गया, पता नहीं। तब क्या माँगो?
आवत संग न जात संगाती।
काह भये दल बाँधे हाथी।।
यह भी नहीं रहने को है। तब क्या माँगो? तो संतों ने कहा-अगर माँगना ही है, तो प्रभु से प्रभु को ही माँगो। प्रभु मिल जायेंगे, फिर कुछ बाकी नहीं रहेगा। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-‘जग जाँचिये काहु न। सोचिये जो----।’ अरे! किसी से माँगना ठीक है ही नहीं। संत कबीर साहब कहते हैं-
माँगन मरन समान है, मत कोउ माँगो भीख ।
माँगन से मरना भला, यह सतगुरु की सीख ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
तुलसी कर पर कर करो, कर तर कर न करो।
जा दिन कर तर कर करो, ता दिन मरन करो।।
माँगो नहीं, अगर माँगना ही है, तो उनसे माँगो, उन पूर्णदाता से माँगो, जो है-‘एक सिरोमनि साँचो।’ उस प्रभु से माँगो तो क्या माँगो? कहते हैं कि संसार की याचना तो छोड़ ही दो। ‘जग जाँचिये काहू न’, अगर माँगना ही है, तो ‘जग जानकी जानहिं जाँचिये जी।’ जो जग की जान हैं, प्रभु हैं, उनसे माँगो। ‘जेहि जाँचत जाँचकता जरि जाय।’ जिनसे एक बार याचना कर लेने पर, माँग लेने पर माँग जल जाती है। फिर याचना करने की जरूरत नहीं रह जाती अर्थात् याचना ही समाप्त हो जाती है। अगर प्रभु मिल जाएँगे, तो सब कुछ घर आ जाएगा। कुछ भी बाकी नहीं रहेगा। अब एक लघु कथा कहकर मैं समाप्त करूँगा।
एक राजा थे। उसको दो पत्नियाँ थीं। राजा विदेश जाने लगे, तो अपनी पत्नियों से पूछा, ‘मैं विदेश जा रहा हूँ, बताओ, तुमलोगों के लिए क्या- क्या लाऊँगा?’ छोटी रानी जो थी, उसको मालूम था कि जहाँ राजा जा रहे थे, वहाँ क्या-क्या चीजें मिलती हैं। उसने लंबी फिहरिश्त लिखा दी। दूसरी रानी जो थी, उससे राजा ने पूछा, ‘तुम्हारे लिये क्या ले आऊँगा?’ उसने कहा, ‘आप सकुशल लौटकर मेरे पास आ जाइए।’ चले गये राजा विदेश, वहाँ से जब लौटने लगे तो छोटी रानी के लिए जो चीजें चाहिए थीं, उन्हें उन्होंने खरीद लिया। जिसने कुछ भी नहीं माँगी थी, उसके लिए भी उन्होंने सामान ले लिया। जब लौटकर घर आये तो छोटी रानी ने जितनी चीजें माँगी थीं, उन्हें उसे देकर कहा, ‘यही चीजें चाहिए थीं न?’ बड़ी रानी ने कहा, ‘मुझे कुछ नहीं चाहिए, मुझे केवल आप चाहिए।’ उसको सामान भी दिया और राजा भी उसके पास चले गये। इसी तरह जो कोई ईश्वर को भजते हैं, उनको ईश्वर तो मिलते ही हैं, उनको संसार की भी किसी चीज की कमी नहीं रहती है। इसलिए ईश्वर से ईश्वर को ही माँगें, किसी चीज की कमी नहीं रहेगी।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अपराह्णकालीन सत्संग के अवसर पर दिनांक-8-4-1971, स्थान: संतमत-सत्संग मंदिर भवानीपुर राजधाम, पूर्णियाँ में हुआ था। (शान्ति-संदेश, नवम्बर 1986)

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थोड़े ही दिन पूर्व जब मैं गंगातट बैकुंठपुर दियरा के लिए यात्र कर रहा था, रेलगाड़ी में कुछ सज्जनों से भेंट हुई। मुझे साधुवेशी देखकर उनलोगों ने मेरे साथ कुछ सत्संग-वार्ता आरंभ की। मैंने यथासंभव कुछ वेदमंत्रें, उपनिषद् एवं श्रीमद्भगवद्गीता के कुछ श्लोकों आैर कुछ संतवाणी एवं पौराणिक कथाओं से उनलोगों को समझाने की भरपूर चेष्टा की। वे लोग सत्संग-वचन सुन-सुनकर प्रसन्न होते रहे। इसी बीच में एक सज्जन ने मुझसे पूछा-आप ब्राह्मण हैं? मैंने कहा-जी नहीं, मैं ‘चमार’-हरिजन हूँ। उन्होंने कहा-आप ऐसा क्यों कहते हैं? आप चमार-हरिजन नहीं हैं। मैंने कहा-अच्छा, एक पौराणिक लघु कथा आप सुन लें। एक बार राजर्षि जनक की सभा में अष्टावक्र मुनि गये। उनके शरीर के सभी अवयव टेढ़े-मेढ़े थे, जो देखने में बेढंग, विचित्र और कुरूप लगते थे। उन्हें देखकर सभी सभासद हँस पड़े। अष्टावक्र मुनि ने कहा-मैंने समझा था कि जनकजी के दरबार में, उनकी सभा में बड़े-बड़े ज्ञानी-ध्यानी, ऋषि-मुनि तथा कुलीन एवं विद्वान् ब्राह्मण होंगे; किन्तु यहाँ आने पर मुझे तो सभी चमार-ही-चमार प्रतीत होते हैं। क्योंकि इन लोगों ने मेरी कुरूपता को-टेढ़े-मेढ़े अंगों की, चमड़े की अच्छी पहचान की है। ये लोग यह नहीं जानते कि आत्मस्वरूप-
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।।
गी02/24।।
तथा-
जो टेढ़ों में रहकर भी टेढ़ा न होता।
जो सीधों में रहकर भी सीधा न होता।
जो जिन्दों में रहकर न जिन्दा कहता।
जो मुर्दों में रहकर न मुर्दा कहाता।
सभी के परे जो परम तत्त्व रूपी।
सोई आत्मा है सोई आत्मा है।
ऐसा है।-महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज
शरीर ज्ञान-चर्मज्ञान होने के नाते मैं अपने को ‘चमार’ और यथासाध्य हरिभजन करता हूँ, इसलिए ‘हरिजन’ कहना मुझे अयुक्त नहीं जँचता। इसलिए ‘चमार-हरिजन’ कहकर मैंने आपको अपनी जाति का परिचय दिया। साथ ही यह स्मरण रखिए-
जाति न पूछो साध की, पूछ लीजिये ज्ञान ।
मोल करो तलवार की, पड़ा रहन दो म्यान ।।
ऐसा मैंने सुना, एक बार एक सज्जन ने आचार्य बिनोवा भावे से पूछा-आप कौन जाति हैं? उन्होंने उत्तर दिया-मैं पूजा-पाठ और धर्मशास्त्रदि का अवलोकन करता हूँ, तो ब्राह्मण; पर विचार एवं राजनैतिक समस्याओं पर विचार एवं राजनैतिक कर्मों को करता हूँ, तो क्षत्रिय; कृषि-वाणिज्य एवं गोपालनादि के संबंध में सोचता-विचारता हूँ, तो वैश्य और परिचर्य्या वा सेवा-कर्म करता हूँ, तो शूद्र होता हूँ।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने कहा है-‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः’ (गी0 4/13) अर्थात् चारो वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की व्यवस्था मैंने गुण और कर्म के भेद से निर्माण की है और गी0अ0 18, 42-44 तक में चारो वर्णों के स्वभावज कर्मों की व्याख्या उन्होंने इस भाँति की है-
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिराजर्वमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।।
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धेचाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वर भावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ।।
कृषि गोरक्ष्य वाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ।।
अर्थात् शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, शौर्य, तेज, धृति, दक्षता, युद्ध में पीछे न हटना, दान, शासन-ये क्षत्रिय के स्वभावजन्य कर्म हैं। कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य-ये वैश्य के स्वभावजन्य कर्म हैं और परिचर्या-सेवा शूद्र का स्वभावजन्य कर्म हैं।
वस्तुतः संतों ने जातिवाद एवं जातीय अस्पृश्यता को कभी प्रश्रय नहीं दिया। अपितु उन्होंने सदा-सर्वदा इसकी भर्त्सना ही की। हाँ, उनका ऐसा कहना अवश्य ही था और है कि जो सदाचारी है, धर्मनिष्ठ है, ईश्वरभक्त है, तपोनिष्ठ है, सत्य के गवेषक हैं, चाहे वह किसी भी जाति का, कुल का हो, स्त्री हों वा पुरुष हों अथवा क्लीव ही क्यों न हो, वह श्रेष्ठ तथा वंदनीय है। गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में कह सकेंगे-
सो कुल धन्य उमा सुनु, जगत पूज्य सुपुनीत ।
श्री रघुवीर परायण, जेहि नर उपज विनीत ।।
पुरुष नपुंसक नारि वा, जीव चराचर कोइ ।
सर्वभाव भज कपट तजि, मोहि परम प्रिय सोइ ।।
भगतिवन्त अति नीचहू प्रानी।
मोहि परम प्रिय असि मम बानी।।
-रामचरितमानस
इसके विपरीत जो दुराचारी है, अधर्मिष्ठ है, नास्तिक है, भक्तिरिक्त है, वह पूजनीय वा प्रशंसनीय नहीं हो सकता, चाहे वह धनवान, बलवान, विद्वान्, कुलवान, गुणवान आदि अन्य गुण सम्पन्न क्यों न हों। भगवान श्रीराम कहते हैं-
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई।
धन बल परिजन गुन चतुराई ।।
भगति हीन नर सोहइ कैसा।
बिनु जल वारिद देखिय जैसा ।।
भक्तिहीन लहि विधि सम देही।
कवि कोविद न प्रशंसहिं तेही ।।
-रामचरितमानस
ब्राह्मणकुलदीपक परम यशस्वी पुलस्त्य ऋषि का पौत्र और विश्वश्रवा मुनि का पुत्र रावण दुराचारी एवं ईश्वर-भक्ति से हीन होने के कारण दुष्ट राक्षस की संज्ञा से अभिहित किया गया। यद्यपि वह स्वयं वेद-शास्त्रदि विद्या का प्रकांड विद्वान् भी था। इतना ही नहीं, सभी देवी-देवताओं को अपने वश में कर रखा था और तपोबल से उन्होंने कई भाँति की ऋद्धि-सिद्धियाँ भी प्राप्त कर ली थीं। इससे जाना जाता है कि श्रेष्ठकुलोद्भव होने मात्र से कोई पूजनीय नहीं हो जाता।
पूजनीय वे ही हो सकते हैं, जो युक्ताहार- विहार, जितेन्द्रिय, विगतस्पृह और यति धर्म का पालन करते हुए परमात्म-भक्ति कर उनमें परायण हो सकें। चाहे वे नीच वा ऊँच किसी भी कुल या जाति के क्यों न हों। भक्तप्रवर सूरदासजी महाराज कहते हैं-
हरि की भक्ति करै जो कोई।
सूर नीच सूँ ऊँच सो होई।।
गो0 तुलसीदासजी महाराज स्वचरित रामचरित मानस के बालकांड में लिखते हैं-
बाल्मीकि नारद घट योनी।
निज निज मुखन कही निज होनी।।
जलचर थलचर नभचर नाना।
जे जड़ चेतन जीव जहाना।।
मति कीरति गति भूति भलाई।
जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई।।
सो जानब सत्संग प्रभाऊ।
लोकहु बेद न आन उपाऊ।।
गीता-रहस्य, भक्ति-मार्ग प्रकरण में प्रकांड विद्वान् लोकमान्य बालगंगाधर तिलक महोदयजी लिखते हैं-‘जिसकी बुद्धि सम हो जावे, वही श्रेष्ठ है; फिर चाहे वह सुनार हो, बढ़ई हो, बनिया हो वा कसाई, मनुष्य की योग्यता उसके धंधे पर, व्यवसाय पर या जाति पर अवलंबित नहीं, किन्तु सर्वथा उसके अंतःकरण की शुद्धता पर अवलंबित होती है। संत पलटू साहब के शब्दों में हम कह सकेंगे-
साहिब के दरबार में, केवल भत्तिफ़ पियार ।।
केवल भत्तिफ़ पियार, गुरु भत्तफ़ी में राजी ।
तजा सकल पकवान, खाया दासीसुत भाजी ।।
जप तप नेम अचार, करे बहुतेरा कोई ।
खाये सबरी के बेर, मुए सब रिषि मुनि रोई ।।
किया युधिष्ठिर यज्ञ, जोड़ा सकल समाजा ।
मरदा सबका मान, श्वपच बिन घंट न बाजा ।।
पलटू ऊँची जाति का, जनि कोइ करै हंकार ।
साहिब के दरबार में, केवल भत्तिफ़ पियार ।।
भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता, अ0 18/41 में कहते हैं-
ब्राह्मण क्षत्रिय विशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभाव प्रभवैर्गुणैः।।
अर्थात् परंतप! स्वाभाव से उत्पन्न गुणों के कारण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र के कर्म अनायास ही (स्वभावानुसार) विभक्त यानी अलग-अलग हो जाते हैं-
मां हि पार्थ व्यापाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
िÐयो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्य सुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्वमाम्।।
-गी0अ0 9/32-33
अर्थात् हे पार्थ! जो पापयोनि हों, वे भी और स्त्रियाँ, वैश्य तथा शूद्र जो मेरा आश्रय लेते हैं, वे परम गति को पाते हैं। तब फिर पुण्यवान ब्राह्मण और राजर्षि जो मेरा भक्त है, उनका तो कहना ही क्या? इसलिए इस अनित्य और सुख-रहित लोक में जन्म लेकर तू मुझे भज। अतः हमें चाहिए कि मिथ्या जात्या- भिमान का परित्याग कर आज ही संत सद्गुरु की शरण ग्रहण करें और उनसे भक्ति की युक्ति पाकर साधन- भजन कर अपने मानव-जीवन को सार्थक बनावें।
मनुस्मृति आज्ञा देती है कि उत्तम विद्या, उत्तम धर्म शूद्र और चांडाल से भी सीखे। (दे0 अ0 2 श्लोक 238 और 240) इसका ज्वलंत प्रमाण है कि श्रीकृष्ण ने पांडवों के द्वारा उनके यज्ञ में काशी से वाल्मीकि डोम को सादर निमंत्रित कर भोजन करा कर यज्ञ पूर्ण करवाया। परम भक्तिमती राजकुमारी मीराबाई ने अपना परम हित जानकर रैदास जी को, जो जाति के चमार थे, गुरु धारण किया और भक्तमाल के कर्ता नाभाजी की मान्यता इन्हीं विचारों से स्वीकार की जाती है।
जे पहुँचे ते कहि गये, तिनकी एकै बात ।
सबै सयाने एक मत, तिनकी एकै जाति ।।
इसलिए इसे सदा याद रखिए-
जाति न पूछो साध की, पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार की, पड़ा रहन दो म्यान ।।



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संत कबीर साहब के उपर्युक्त पद्य में तीन बातें विचारणीय हैं। सर्वप्रथम तो यह कि उसके हृदय में चिंता लगी हुई है। दूसरी बात यह कि वे सांसारिक जीव को मुसाफिर कहते हैं और तीसरी बात यह कि ‘ओर’ कहकर उन्होंने संकेत किया है किस ओर जाओगो? आइये, इन तीनों बात पर समास रूप से विचार करें। संत कबीर साहब एक स्थल पर कहते हैं-
चाह गई चिंता मिटी, मनुआँ बेपरवाह ।
जिनको कछु न चाहिये, सोई शाहंशाह ।।
एक कहावत भी है कि ‘फकर के बिना फिकर क्या है?’ किन्तु उपर्युक्त पद्य के अध्ययन-मनन करने पर स्वयं उन्हीं की चिंता की झाँकी स्पष्ट झलक उठती है। ऐसा क्यों? यह स्वाभाविक प्रश्नोदय होता है। गो0 तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में कहा है-‘संत हृदय नवनीत समाना।’
मक्खन बहुत मुलायम और श्वेत वर्ण का होता है, उसमें तनिक भी आँच लगते ही वह द्रवित हो जाता है-पिघल जाता है। संतों का हृदय षट्विकार रहित होने के कारण परिमल-विशुद्ध-श्वेत स्फटिक वर्ण का होता है। साथ ही मुलायम तो इतना कि मक्खन की सादृश्यता करते हुए भी कवि को लजाते हुए कहना पड़ा-‘कहा कविन्ह पै कहइ न जाना।’ किसी ने पूछा-‘ऐसा क्यों?’ तो उन्होंने कहा-
निज परिताप द्रवहिं नवनीता।
पर दुःख द्रवहिं संत सुपुनीता।।
एक सज्जन ने श्रीरामकृष्ण परमहंसदेवजी से पूछा-‘संत हृदय कैसा होता है?’ परमहंसजी ने उत्तर दिया-यह क्या पूछना? बैंगन की तरकारी नहीं खाये हो? जैसा वह मुलायम होता है, उसी तरह संतों का हृदय मुलायम होता है। महात्मा गाँधी ने संत-असंत को बेर और नारियल की उपमा देते हुए कहा था-दुष्ट का बाहर दिखलावा मुलायम होता है, किन्तु अंदर कठोर होता है; जैसे-बेर और संत का बाह्य प्रदर्शन कठोर, किन्तु अंतर मुलायम होता है। साथ ही बिल्कुल शुद्ध-पवित्र और साफ होता है; जैसे नारियल।
एक बार श्रीरामकृष्ण परमहंसजी ने भावोद्रेक में अपने शिष्यों से कहा था-‘तुमलोगों का हृदय काँच की आलमारी है।’ अर्थात् काँच की आलमारी में कुछ भी छुपाकर नहीं रखा जा सकता, वह बाहर से ही प्रत्यक्ष दीखता है, उसी तरह जागतिक जीवों का हृदय किसी भाँति कुछ करके उसे संत-महात्मा के समक्ष छिपाकर रख सकने में सर्वथा अयोग्य है।
अजातशत्रु की जिज्ञासा पर भगवान बुद्ध ने भी उनसे कहा था-हे राजन्! जिस प्रकार कोई ऊँचे पहाड़ के शिखर पर खड़ा होकर नीचे बहते हुए निर्मल जल के स्त्रोत की ओर देखे, तो उस निर्मल जल के भीतर घोंघा, शंख, कंकड़-पत्थर, कोयला इत्यादि वस्तुएँ जैसी-की-तैसी साफ दिखाई पड़ती हैं, वैसे ही मुक्त भिक्षु वासनाओं और तृष्णाओं से घिरे हुए जीवों के कष्टों को भी प्रत्यक्ष अनुभव करता है।
संत-महात्मागण प्राणियों के व्यक्ताव्यक्त सभी कर्मों को अपरोक्ष रूप से देखते हैं कि किस कर्म का फल विषमय है, किस कर्म के द्वारा अशांति और अनर्थ उत्पन्न होते हैं, मनुष्य के लिए कौन-सा मार्ग दुःख और कंटकमय है, कौन व्यक्ति क्या कर्म कर रहा है और परिणाम में उसे किस-किस प्रकार का फल भोगना पड़ेगा। इसको वह इस प्रकार देखता है, जैसे कोई ऊँचे मकान के ऊपर से नीचे के मनुष्य को देखता है कि कौन क्या कर रहा है? कहाँ से आ रहा है? किधर जा रहा है? आदि।
अस्तु, अभिभावक अपनी संतान की भविष्य चिंता करते हुए उसकी शिक्षा-दीक्षा की सारी व्यवस्था कर शिक्षित बना उसके भविष्य-भाग्य को समुज्ज्वल बना जागतिक मार्ग प्रशस्त करता है। एक माता अपने प्यारे बच्चों के लिए असह्य यातनाओं-पीड़ाओं एवं कष्टों को झेलती हुई उसका लालन-पालन कर उसे सुखी बनाती है और एक गौ अपने वत्स को प्रेमपूर्वक हिंकार से बुलाती हुई, उसे अग्नि, अहि और अंधकूप आदि से रक्षा करती है, तो फिर संत जिनका स्वभाव ही परोपकार करना है, अपनी संतान-जगत की चिंता क्यों न करें? जगत के जीव जो दैहिक, दैविक और भौतिक-त्रिताप तापित हो आकुल हैं-दुखी हैं-जर्जर हैं, उन्हें देख ये क्योंकर सुखी रह सकते हैं? क्योंकि उन्होंने तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात् सारी वसुधा को ही अपना कुटुम्ब बना लिया है। साथ ही जब कि ‘आत्मवत् सर्वेभूतेषु’ की दृष्टि से वे अवलोकन करते हैं, तब उनका अपना कौन और पराया कौन? वहाँ स्व-पर का हिसाब ही नहीं लगता। इसीलिए तो जब भैंस की पीठ पर लाठी मारी गई, तो ज्ञानदेव को चोट लगी। इतना ही नहीं, आघात के चिह्न भी स्पष्ट उनकी पीठ पर दिखाई पड़े।
इसलिए वे दूसरे के दुःख से दुःखी ‘विश्व उपकार हित व्यग्रचित सर्वदा त्यक्त मदमन्युकृत पुण्यरासी’ होकर स्वयं नाना यातनाएँ झेलते हैं। गो0 तुलसीदासजी ने बड़ा ही अच्छा कहा है-
संत सहहिं दुख परहित लागी।
पर दुख हेतु असंत अभागी ।
भूरज तरु सम संत कृपाला।
परहित नित सह विपति विशाला ।।
दूसरी बात है कि उपर्युक्त पद्यांश में संत कबीर साहब ने ‘मुसाफिर’ शब्द का प्रयोग किया है। सामान्यतः ‘मुसाफिर’ शब्द का अर्थ होता है-यात्री। अर्थात् जिसका स्थिर निवास किसी एक स्थान में हो और वह किसी कार्य विशेष से अन्यत्र कहीं जाकर कार्य-सम्पन्न पर्यन्त वहाँ रहकर पुनः स्वस्थान को लौट आवे।
मानवमात्र-क्या स्त्री और क्या पुरुष, संत कबीर साहब की दृष्टि में पथिक है। क्योंकि यह सभी को विदित है कि अमुक व्यक्ति जिसको उसके जन्म से आज पर्यन्त निरंतर देख रहा हूँ, अभी उसकी आयु जितनी है, इसके पूर्व मैंने उसको कभी देखा नहीं और शरीरायु पर्यन्त वह यहाँ रहकर फिर अदृश्य हो जाएगा। तात्पर्य यह कि वह कहीं से आया है, वर्तमान है और भविष्य नहीं रहेगा। इसलिए यह मुसाफिर है। दूसरी दृष्टि से परमात्म-अंश जीव इस शरीररूप नगर में आया है-
सुरति अंश जो जीवन पर गुरु गगन वश कंजा भई।
आली गगन धार सँवार आई ऐनि बस गो गुण रही।।
सखी ऐन सुरति पैन पावै नील चढ़ि निर्मल भई।
जब दीप सीप सुधार सजकै पछिम पट पद में गई।।
जस अलल अंड अकार डारै उलटि घर अपने गई।
यह भाँति सतगुरु साथ में होकर अली आनन्द लई।।
-संत तुलसी साहब
अवधिपर्यन्त शरीर में अवस्थित रह पुनः इसका परित्याग कर चला जाएगा। जिस भाँति कोई भी यात्री एक नगर वा घर में सतत नहीं रहता, उसी तरह यह जीवात्मा भी सतत एक शरीर में नहीं रहता। इसलिए भी कबीर साहब ने इसको ‘मुसाफिर’ की संज्ञा दी है।
‘ओर’ की ओर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि और वा तरफ दो है-एक तो इहलौकिक तथा दूसरा पारलौकिक। पारलौकिक को भी हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं-एक स्वर्ग-वैकुंठादि परलोक तथा दूसरा मोक्ष। कठोपनिषद् के अनुकूल हम उसे दो मार्ग कह सकते हैं-एक श्रेय और दूसरा प्रेय। श्रेय निवृत्ति मार्ग है और प्रेय प्रवृत्ति मार्ग।
श्रेयश््य प्रेयश््य मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः।
श्रेयो हि वीरोऽपि प्रेयसो वृणीते प्रेयोमन्दोयोगक्षमाद्वृणीते।।
-कठ0, श्लोक 2, अ0 1, वल्ली 2
गो0 तुलसीदासजी के शब्दों में हम कह सकते हैं-
संत संग अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।
कहहिं संत कवि कोविद, श्रुति पुराण सद्ग्रंथ ।।
यदि हम निवृत्ति मार्ग-मोक्ष मार्ग की ओर चलें, तब तो कहना ही क्या? तब उसकी चिंता किस बात की हो? किन्तु हम तो चल रहे हैं-प्रवृत्ति मार्ग- संसार मार्ग-जड़-चेतन की ग्रंथि को सुदृढ़ करनेवाले मार्ग पर। यदि इसे मार्ग नहीं कहकर कुमार्ग ही कहें, तो शायद अयोग्य नहीं होगा। उस मार्ग पर चलकर हमारी जो दुर्दशा होती है, वह संतों से छिपी नहीं है।
एक तो अँधेरी कोठरी, जामें दिया न बाती हो ।
बहियाँ पकड़ि जम ले चले, कोइ संग न साथी हो ।।
हमारे इस दुर्दिन एवं निस्सहायावस्था को देख कर, हमारे दुःख से दुखित होकर ही वे चिंताशील होकर कहते हैं-‘मोरे जियरा बड़ा अंदेशवा मुसाफिर जैहौं कौनी ओर।’

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संसार में प्राणिमात्र को अपना जीवन प्रिय है। सभी मृत्यु और क्लेश के भय से संत्रस्त रहते हैं। जन-जन के मन-मन की कामना सुख-शान्तिपूर्वक जीवन-यापन करने को होती है। किन्तु यह सुख भी एक ऐसी विकट पहेली है कि जिस किसी को भी बिना प्रयास के ही-अनायास ही नहीं मिल पाता।
बीज जबतक पृथ्वी के अंदर सड़ता नहीं, उसका अंकुर और न उसमें पत्ते तथा फूल-फलादि ही लगते हैं। सरसों की जबतक पेराई नहीं होती, उससे तेल नहीं निकलता। हीरे को घन चोट की कसौटी पर कसे बिना उसकी सच्ची परख नहीं होती और न उसका ठीक-ठीक मूल्यांकन ही किया जा सकता है। वर्णमालान्तर्गत (भारती भाषा की देवनागरी वा बंगला लिपि में) जबतक कोई ‘त’ वर्गीय ‘द’ नहीं पढ़ लेता, तबतक उसे उष्म वर्णीय ‘स’ से साक्षात्कार नहीं होता। अर्थात् प्रथम ‘द’ जो दुःख का और पश्चात् ‘स’ जो सुख का द्योतक है, नहीं मिल सकता। आशय यह है कि बिना दुःख के सुखोपलब्धि की लालसा स्वप्नवत् सफेद झूठ-असत्य है और भी लीजिए-
बाल-विद्यार्थी विद्या प्राप्त्यर्थ विद्यालय जाने एवं विद्याध्ययन करने में प्रथम क्लेशानुभव करते हैं; क्योंकि उन्हें बाल-क्रीड़ा में जो आनंदानुभूति होती थी, उसका सर्वथा अपहरण होने का उन्हें ज्ञान होता है। वह अपने माता-पिता अथवा अभिभावक के भय के मारे ही विद्यालय जाता है। मन तो खेल-कूद और पलायमान होता है; किन्तु विवशता वश मन को मारकर उसे शिक्षालय में बैठना पड़ता है। फलस्वरूप धीरे-धीरे, क्रम-क्रम से एक-एक अक्षर सीखता हुआ भविष्य में एक दिन वह महाविद्वान् होकर सुख का अनुभव करता है।
कृषक सुख की अभीप्सा से पहले अपार कष्टों को सहता है। वह ग्रीष्मऋतु के मध्याह्नकालीन प्रखर धूप के प्रचंड ताप से अपनी त्वचा को झुलसाता है। शिशिर एवं हेमन्त ऋतुओं की बर्फीली हवा एवं आले-पाले से निष्ठुर जाड़े में ठिठुरकर थरथराता हुआ कंपायमान होता रहता है। वर्षा ऋतु के श्रावण, भाद्र महीने में दिवा-निशि पानी में रह-रहकर अपने शारीरिक अवयवों को सड़ाता है। इतना ही नहीं, अपनी प्यारी पत्नी एवं दुलारे लाड़ले का मोहक मुखड़ा छवि-एक प्रकार से कहिए विरागी बन एकांतवासी हो रात के गुप्प अँधियाले में आँखों को चकाचौंध कर देनेवाली बिजली एवं हृदयविदारक मेघगर्जन को देख-देख और सुन-सुनकर छूटती हुई हिम्मत को टूटी झोंपड़ी के एक कोने में बाँध बँधाकर येन-केन प्रकारेण कृषि-रक्षा करता है। इतने कष्टों को झेल लेने के पश्चात् कृषक अन्न उपजाकर सपरिवार सानंद भोजनादि कर हर्षित एवं प्रफुल्लित होता है।
योद्धागण अपनी जान को हथेली में लेकर युद्धभूमि में जा युद्ध करते हैं। परिणामस्वरूप विजित होकर या तो स्वर्गारोहण करते हैं अथवा विजेता बनकर स्वातंत्र्य जीवन का आनंदोपभोग करते हैं।
साध्वी महिलाएँ दस महीने पर्यन्त क्षुधा-तृषा सुख-दुःख तथा जाग्रन्निद्रादि; किसी की भी चिंता न कर महती व्यथा से व्यथित होती है। अपने शरीर के रक्त को पानी बना असह्य पीड़ा से पीड़ित हो मृत्युवत् यंत्रणादायक दारुण दुःख को सह लेने के पश्चात् ही कहीं संतान का मुख देख पाती हैं। किन्तु इतने से ही उनके कष्टों का ‘इतिश्री’ नहीं हो जाता। संतान हो जाने के बाद भी उसके मल-मूत्रदि से अपने शरीर को महीनों सराबोर करके उसका लालन-पालन करती है। जब वह भावी संतान सुशिक्षा-दीक्षा प्राप्त कर सुशिक्षित, सुसंस्कृत, सुसभ्य एवं सदाचारी बन स्व, स्वजन, स्वदेश और समस्त जगत् के कल्याणार्थ उच्चादर्श रख कर्तव्यपरायण होती है, तब वह माता संतानोत्पत्ति का स्वर्णिम सुखोपभोग करती है।
ठीक इसी भाँति जिन्हें निजानंद-नित्यानंद- आत्मानंद-ब्रह्मानंद वा परमानंद प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा है, उन्हें अपने को तप से तपाना होगा, जलाना होगा और अपने आपको भस्मीभूत करना होगा। जैसे कनक अनल में प्रविष्ट होकर निर्मल हो अपने शद्ध सौंदर्य को पाता है, उसी तरह जीव-आत्मा योगाग्नि में प्रवेश करती है, तो उसकी स्थूल-सूक्ष्मादि सभी उपाधियाँ जलकर भस्मसात् हो जाती हैं और तब उसके निज स्वरूप की दीप्ति निखर उठती है। किन्तु स्मरण रहे कि-
यहाँ ‘योग’ वा ‘तप’ शब्द से कदापि ऐसा न समझें कि इनमें हठयोगियों की नेती-धौती, नौली वस्ती, प्राणायामादि यौगिक प्रक्रिया करनी होगी अथवा जलशयन वा पंचधुनि में अपने शरीर को तपाना वा जलाना होगा। यहाँ तो संतों का सहज योग और सरलतम तप है, जिनसे शरीर में तनिक भी आँच नहीं लग पाती। ‘शबद खोजि मन बस करै, सहज योग है येहि’ और योगाग्नि के संबंध में श्रीमद्भगवद्गीता और रामचरितमानस में इस प्रकार वर्णन है-
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयम योगाग्नो जुह्वति ज्ञानदीपिते ।।
अर्थात् दूसरे योगिजन संपूर्ण इन्द्रियों की चेष्टाओं को तथा प्राणों के व्यापारों को ज्ञान से प्रकाशित हुई परमात्मा में स्थितरूप योगाग्नि में हवन करते हैं।
कहि कथा सकल विलोकि हरिमुख हृदय पद पंकज धरे ।
तजि योगपावक देह हरिपद लीन भइ जहँ नहिँ फिरै ।।
(रामचरितमानस, अयोध्याकांड)
न योगी योग से ध्यावै न तपसी देह जरवावै ।
सहज में ध्यान से पावै, सुरत का खेल जहि आवै ।।
(संत कबीर)
‘योग’ एवं ‘योगाग्नि’ की अभिज्ञता के पश्चात् हमें इसकी भी जानकारी होनी चाहिए कि ‘तप’ किसे कहते हैं? ‘तपः किं? विषयभोग परिहरई।’ ज्ञान संकलिनी तंत्र में लिखा है-
न तपस्तप इत्याहुर्ब्रह्मचर्य्यं तपोत्तमम् ।
ऊर्ध्वरेता भवेद्यस्तु स देवो न तु मानुषः।।
अर्थ-तप को तप नहीं कहते हैं, ब्रह्मचर्य्यानुष्ठान ही तपस्या कहकर विशेष प्रसिद्ध किया गया है। जो मनुष्य ऊर्ध्वरेता हैं, वे देवतुल्य कहे गए हैं।
महात्मा गाँधी ने कहा है- “ ब्रह्मचर्य का अर्थ मशीनवत् कुँवारापन नहीं है। लोग ब्रह्मचर्य का बहुत मोटे रूप में अर्थ लेते हैं-वीर्यनिग्रह। किन्तु ब्रह्मचर्य का अर्थ है-ऐसी चर्या जिनसे ब्रह्म की अनुभूति हो।”
उपर्युक्त वचन का तात्पर्य यह नहीं हो जाता है कि ब्रह्मानुभूति के लिए ब्रह्मचर्य अर्थात् वीर्य निग्रह वा जननेन्द्रिय-संयम की आवश्यकता नहीं है। बल्कि ऐसा कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए कि इन्द्रिय-संयम के बिना ब्रह्म की प्राप्ति हो ही नहीं सकती। इन्द्रियों में भी केवल उपस्थेन्द्रिय ही नहीं, सर्वेन्द्रिय-संयम की नितांत आवश्यकता है। कठोपनिषद् में लिखा है-
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ।।
जो पापकर्मों से निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं हैं और जिसका चित्त असमाहित या अशान्त है, वह इसे आत्मज्ञान-द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता है।
भगवान् बुद्ध की धम्मपद नाम्नी पुस्तिका है- चक्खुना सँवरो साधु साधु सोतेन सँवरो ।
योगेन सँवरो साधु साधु जिह्वाय सँवरो ।।
कायेन सँवरो साधु साधु वाचाय सँवरो ।
मनसा सँवरो साधु साधु सब्बथ सँवरो ।।
सब्बत्थ सवुतो भिखु सब्ब दुक्खापमच्चति ।।
-त्रिक्खुवग्गो
अर्थात् आँख का संयम ठीक है, ठीक है कान का संयम, घ्राण का संयम ठीक है, ठीक है लोभ का संयम। काया का संयम ठीक है, ठीक है वचन का संयम, मन का संयम ठीक है, ठीक है सर्वत्र इन्द्रिय का संयम। सर्वत्र संयम युक्त भिक्षु सारे दुःखों से छूट जाता है।
संयमित करण (इन्द्रिय) के कारण स्थूल बाह्य विषयों में मन रमण नहीं करता और अखिलेन्द्रिय संयम संयुक्त जन जब सद्गुरु निर्देशानुकूल ब्रह्म-प्राप्त्यर्थ निदिध्यासन का अनुष्ठान करता है, तो सहज ही स्थूल से सूक्ष्म वा अंधकार से प्रकाश में उसकी गति हो जाती है। साधक जाग्रत स्वप्नादि अवस्थाओं को पार कर तुरीयावस्था में ब्रह्म के युगल रूपों-ब्रह्मज्योति और ब्रह्मनाद का प्रत्यक्ष पाकर हर्षातिरेक हो अपने आप अहंता को भूल जाता है। क्योंकि-‘ध्वनेरन्तर्गत ज्योति ज्योतिरन्तर्गतं मनः।’ मंडलब्राह्मणोपनिषद्, 5 वह सूक्ष्म मंडल में सूक्ष्म ध्वनि-सूक्ष्म मंडल के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर कारण मंडल और वहाँ की केन्द्रीय ध्वनि को धारण कर महाकारण मंडल में प्रवेश करता है। पुनः साधना द्वारा उसका भी अतिक्रमण कर ‘अति दुर्लभ कैवल्य परम पद’ को पाकर चेतन आत्मा जड़ावरण से सर्वथा विनर्मुक्त हो जाती है। इसी अवस्था में उसे निजस्वरूप का तथा परम प्रभु परमात्मा का अपरोक्ष ज्ञान होता है और तब वह शोक, मोह, भय, हर्ष, दिवस, निशि और देश- काल से परे होकर निजानंद-नित्यानंद, आत्मानंद और ब्रह्मानंद के सुख में निमग्न हो जाता है।
इसलिए पंचतन्मात्रओं में मिलनेवाला सुख जो तृष्णावर्धक, क्षणभंगुर और यथार्थतः दुःखरूप है, किन्तु हम अपनी अज्ञानता के कारण इंद्रिय और विषय के संयोग से जो उसमें सुख का भान करते हैं अथवा जो सुख मान बैठे हैं। इस अनित्य सुख के त्याग में जो हमें मिथ्या दुःख होता है, इस दुःख का प्रहाण वा सहनकर यदि हम संत सद्गुरु की बतायी सीख के अनुकूल उनकी लीक पर चल सकें, तो वह दिन दूर नहीं, जबकि हम उपर्युक्त नित्य सुख को प्राप्त कर कृतकृत्य हो सकेंगे।


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कोयल स्वसुकंठ से सुमधुर सुरीले स्वर से संगीत सुनाकर सुख का सहस्त्रांश ही सही, सांसारिक जन को समुचित और समयोचित सुख प्रदान करती है। कुत्ता अन्न के कुछ कौर पाकर स्व स्वामी के काय, कनक, कोष, कामिनी एवं कुटुम्बादि की रक्षा करता है। मृग और मृगाधीश मृत्यूपरान्त भी अपने मनोहर मनभावनत्वक् से मानव-सेवा का अधिकारी होता है। गाय, भैंस और छागादि स्वदूध, दधि और घृतादि से, इतना ही नहीं अपने अस्थि, चर्म एवं गों त-गोबर से भी बहुविधि लोकोपकार करते हैं।
किन्तु, क्या कभी कुछ अपनी निस्बत भी आपने सोचा है कि आपको जो सुरदुर्लभ, सुंदर, सुयोग्य और स्वस्थ शरीर मिला है, इसकी क्या उपयोगिता है? आपके इस चिकने-चुपड़े, सफेद, सुगठित, सलोने और साधन-सम्पन्न शरीर से समाज- सेवा, स्वदेश-सेवा, साधु-सेवा और सर्वेश्वर-सेवा कुछ भी हो सकती है? यदि नहीं तो, इस अनमोल शरीर को अच्छे-अच्छे खाना खिलाकर दाने पर पले हुए सूअर की तरह मोटापा प्रदान कर व्यर्थ ही बर्बाद क्यों कर रहे हैं? भगवान् बुद्ध ने कहा है- “ अगर आदमी मोटा हो जाता है और बहुत खाने लग जाता है, अगर वह बहुत सोता है और पड़ा लोटता रहता है, वह तो मूर्ख दानों पर पले हुए सूअर की तरह बार-बार गर्भ में पड़ता है।” संत कबीर साहब कहते हैं-
खाय खुराका पहना पोशाका, जम का बकरा पलता है ।
जम बदजाती तोड़े छाती, उससे क्यों नहीं डरता है ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
तुलसीदास हरिनाम सुधा तजि
शठ हठ पियत विषय विष मागी।
शूकर स्वाान शृगाल सरिस जन,
जनमत जगत जननि दुख लागी।।
ईश्वर-भक्ति-विहीन जन के लिए, चाहे वह वैदिक धर्मावलंबी हो या इस्लाम धर्मावलंबी, संत कबीर साहब फटकार लगाते हुए कहते हैं-
बैल गढ़न्ता नर गढ़ा, चूका सींग अरु पूँछ ।
एकहि गुरु की भक्ति बिन, धिक दाढ़ी धिक मूँछ ।।
उत्तर-गीता के द्वितीय अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है-
आहारनिद्राभयमैथुनञ्च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
ज्ञानं नराणामधिकं विशेषो ज्ञानेनहीनाः पशुभिः समानाः।।
अर्थ-आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन; ये सब विषय पशु और मनुष्य में एक समान ही हैं यानी कुछ भी प्रभेद नहीं है। केवल ज्ञान-लाभ करने पर ही मनुष्य पशु से श्रेष्ठ हो सकता है; सुतरां स्पष्ट प्रतीत होता है कि ज्ञानहीन मनुष्य पशु-तुल्य है।
भगवान् के उपर्युक्त वचन के मनन से मन में एक उत्सुकता उत्पन्न होती है कि वह कौन-सा ज्ञान है, जिसके अभाव में मानव पशु-संज्ञा से अभिहित किया जाता है। यदि ‘ज्ञान’ शब्द का अर्थ अभिज्ञता, जानकारी या जानना हम करते हैं, तो सामान्यतया सभी जन कुछ-न-कुछ अवश्य जानते हैं। मात्र मानव ही नहीं, सृष्टि में प्राणिमात्र न्यूनाधिक रूप से जानते हैं। बल्कि कतिपय ऐसे भी ज्ञान प्रकार हैं, जो मानव से पशु में अधिक है। इतना ही नहीं, जब हम जान-बूझकर भी अनजान बन जाते हैं, तब इस दृष्टि से यदि पशु को मनुष्य से श्रेष्ठ कहा जाए, तो इसमें अतिशयोक्ति क्या है? महात्मा गाँधीजी के शब्दों में हम कह सकेंगे- “ पशु भरपेट भोजन पाकर चारागाह से लौटना जानता है; किन्तु मनुष्य अपने भोजन की मात्र नहीं जानता। मनुष्य जितना भोजन करता है, उसका चतुर्थांश भी पचा नहीं सकता। आहार नियमितता के कारण पशु जननेन्द्रिय संयमित होती है। इस हेतु केवल संतानोत्पत्ति के लिए ही पशु विषय-भोग करता है; किन्तु मानव इस मामले में बहुत आगे बढ़ा हुआ है। केवल विलास के लिए शरीर निचोड़ना, इससे अधिक मूर्खता की बात और क्या हो सकती है?”-महात्मा गाँधी
और भी लीजिए, मकड़ी के प्रसूत-महीन, मुलायम, मजबूत और हल्के सूते का अवलोकन आज के बड़े-बड़े वैज्ञानिक दाँतों तले अंगुली दबाते हैं और इस तरह के सूते निर्माण करने में वे अपने को सर्वथा असमर्थ पाते हैं।
अस्तु, गंभीरतापूर्वक विचारणीय है कि किस ज्ञान का लक्ष्य करके भगवान् श्रीकृष्ण ने उसकी इतनी बड़ी महत्ता देकर उसको उपादेय बताया है। अतएव भगवान् के शब्दों में ही समझने की हमें भरसक चेष्टा करनी चाहिए कि ‘ज्ञान’ शब्द की वे क्या परिभाषा देते हैं? श्रीमद्भगवद्गीता के त्रयोदश अध्याय में भगवान् कहते हैं-
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्र क्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तजज्ञानं मतं मम ।।
अर्थात् हे भारत! समस्त क्षेत्रें-शरीरों में रहनेवाला क्षेत्रज्ञ मुझको जान। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद का ज्ञान ही ‘ज्ञान’ है, ऐसा मेरा मत है।
इस तरह जब कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद-ज्ञान को ही ‘ज्ञान’ कहते हैं, तब इन दोनों के भेद की अभिज्ञता भी अनिवार्य हो जाती है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-
महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्चचेन्द्रियगोचराः ।।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतनाधृतिः ।
एतत्क्षेत्र समासेन सविकारमुदाहृतम् ।।
(गी0 13/5-6।।)
अर्थात् पंच महाभूत-अहि, अप, अनल, अनिल और आकाश, अहंकार, बुद्धि, प्रकृति, दशेन्द्रियाँ (ज्ञानेन्द्रिय पाँच-नासिका, श्रवण, नेत्र, रसना और त्वक्; कर्मेन्द्रिय पाँच-कर, पद, बदन और दो गुहेन्द्रियाँ), पंच विषय-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, चेतन-शक्ति, धृति-यह अपने विकारों सहित क्षेत्र संक्षेप में कहा गया है। और ‘क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत’ (गी0 13/2) कहकर स्पष्ट ही क्षेत्र निवासी को क्षेत्रज्ञ कहा गया है। महाभारत शान्ति-पर्व (187, 24 में भी लिखा है-
आत्मा क्षेत्रज्ञ इत्युक्तः संयुक्तः प्राकृतैर्गुणैः।
तैरेव तु विनिर्मुक्तः परमात्मेत्युदाहृतः।।
अर्थ-जब आत्मा प्रकृति में या संसार में बद्ध रहता है, तब उसे क्षेत्रज्ञ वा जीवात्मा कहते हैं और वही प्राकृत गुणों से यानी प्रकृति या शरीर के गुणों से मुक्त होने पर ‘परमात्मा’ कहलाता है।
उपर्युक्त देह और देही के ज्ञान को ही भगवान् श्रीकृष्ण ने ज्ञान बताया है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के शब्दों में हम कह सकेंगे-
ज्ञान मान जहँ एकउ नाहीं।
देख ब्रह्म समान तब माहीं।।
(रामचरितमानस, तृतीय सोपान)
अर्थात् ‘ज्ञान’ वह है, जहाँ एक भी मान न हो, सबमें समान ब्रह्म देखे। ऐसा लगता है मानो जिस ‘ज्ञान’ का ज्ञान त्रेतायुग में भगवान् श्रीराम ने लक्ष्मण को सूत्र रूप में दिया था, द्वापरयुगान्त के कृष्णावतार में उन्होंने उसी ज्ञान का विशद विश्लेषण कर अर्जुन को बताया।
अमानित्वदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्म विनिग्रहः ।।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधि दुःख दोषानुदर्शनम्।।
असक्तिरनभिष्वंग पुत्रदार गृहादिषु ।
नित्यं च समचितत्त्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ।।
मयि चानन्य योगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्त देश सेवित्वमरतिर्जन संसदि ।।
अध्यात्मज्ञान नित्यत्वं तत्त्व ज्ञानार्थ दर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ।।
(गी0 13/7-11)
अर्थात् अमानित्व, अदम्भित्व, अहिंसा, क्षमा, सरलता, आचार्य की सेवा, शुद्धता, स्थिरता, आत्मसंयम, इन्द्रियों के विषयों में वैराग्य, अहंकार रहितता, जन्म, मरण, जरा, व्याधि, दुख और दोषों का निरंतर भान, पुत्र, स्त्री और गृह आदि में मोह तथा ममता का अभाव, प्रिय और अप्रिय में नित्य समभाव, मुझमें अनन्य ध्यानपूर्वक एकनिष्ठ भक्ति, एकान्त स्थान का सेवन, जन-समूह में सम्मिलित होने की अरुचि, आध्यात्मिक ज्ञान की नित्यता का भान और आत्मदर्शन-यह सब ज्ञान कहलाता है। इससे जो उलटा है, वह अज्ञान है। इस भाँति, श्रवण, मनन और निदिध्यासन ज्ञान के सहित अनुभव ज्ञान के द्वारा क्षेत्रज्ञ वा आत्मा का प्रत्यक्षीकरण करने में ही नरतन की उपयोगिता है।
महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का यह अवतरण भी विशेष पठनीय है- “ मननशील होने के कारण मानव, मानव कहलाता है। जो परमात्मा को कभी भूलता नहीं, वह तन और मन दोनों से ही मनुष्य है। जो नर परमात्मा को भूलता है, वह शरीर मात्र का ही मनुष्य है। जो नाशवान पदार्थों में लगा रहता है और अनाश को भूला रहता है, वह मनुष्य कैसे हैं? किन्तु सत्यासत्य का निर्णय कर असत्य से मन को हटाकर जो सत्य तत्त्व परमात्मा में सदा लव लगाये रहता है, वह मनुष्य है।” भगवान श्रीराम ने भी अपने प्रजा को यही शिक्षा दी थी कि-
एहि तन कर फल विषय न भाई।
स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई ।।
नरतन पाइ विषय मन देहीं।
पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं ।।
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई।
गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई ।।
जबकि ‘विषय न भाई’ तब उसका अर्थ निर्विषय तत्त्व हो ही जाता है। अर्थात् पंच विषय- रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द से परे है तथा जिसके लिए यह उपनिषद्-वाक्य सार्थक होती है-
नामरूप विहीनात्मा परसंवित् सुखात्मकाः।
तुरीयातीत रूपात्मा शुभाशुभ विवर्जितः।।
(तेजोविन्दूपनिषद्)
अर्थात् आत्मा नाम और रूप से विहीन, परज्ञानस्वरूप, सुखमय, तुरीय से अतीत, शुभ और अशुभ से वर्जित है। ज्ञान की प्राप्ति के लिए ही नरतन की उपादेयता है। अतएव यह निर्विवाद रूप से सिद्ध है कि उपर्युक्त परमात्मस्वरूप के अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने में ही मानव शरीर की सार्थकता है।


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वर्तमान युग में साधु-सन्तों की संख्या अवनति पर और साधुवेशियों की संख्या उन्नततर दृष्टिगोचर होती है। यही कारण है कि आज सर्व साधारण जन खासकर दो अक्षरों का ज्ञान रखनेवालों में अपने को विशेष समझनेवाले, साधु और साधुवेशियों से व्यंग्य करने में विशेष विनोद का अनुभव करते हैं। इतना ही नहीं, उनसे व्यंग्य करने, ताना मारने तथा उन्हें हेय दृष्टि से देखने में अपने को गौरवान्वित, प्रतिष्ठित, सुशिक्षित एवं सुसभ्य होने का दम भी भरते हैं।
अभी हाल की एक घटना है। लौहपथगामी धुम्रशकट पर यात्र करते हुए अपने को सुसभ्य कहनेवाले एक सज्जन ने निकटस्थ एक साधु से व्यंग्य कसते हुए कहा- “ साधु महाराज! आप बाबा हैं या बाबाजी?” साधु ने पूछा- “ आपके ‘बाबा’ और ‘बाबाजी’ शब्द के अर्थ वा उनकी परिभाषा क्या है?” “ बाल ब्रह्मचारी साधु को ‘बाबा’ और बाह्य वेश-भूषा में तो योगी, किन्तु आन्तर बाल-बच्चे संयुक्त गृहस्थ-धर्मी भोगी को ‘बाबाजी’ कहते हैं”-सज्जन ने कहा। “ आपके ये अर्थ क्या सचमुच ही सर्वमान्य और यथार्थ हैं?”-साधु ने जिज्ञासा की। “ अवश्य, क्यों नहीं? बिल्कुल यथार्थ है।” समर्थ एवं उत्तेजित शब्दों में उक्त सज्जन ने उत्तर दिया।
“ मैं विशेष बातें नहीं जानता। अतएव आपसे कुछ जिज्ञासा कर समझने का भरसक चेष्टा करूँगा। आशा है, आप दुःख न मानेंगे”-साधु ने कहा।
“ तो क्या, आपने बिना समझे-बूझे ही गैरिक वस्त्र धारण कर साधु-वेश बना लिया? यदि साधु बनना ही था तो पहले ही समझ-बूझ लेते।” कटु- मधु-मिश्रित स्वर में सज्जन ने कहा- “ महाशय! मानव जीवन पर्यन्त सीखता है, फिर भी शिक्षा शेष रह जाती है। ‘मैं सर्वज्ञानसम्पन्न हूँ’ कहनेवाले अंगुली पर गिने जाने योग्य ही इने-गिने व्यक्ति कहीं हो सकते हैं और वेश की बात तो अकथनीय है; क्योंकि बाल बढ़ाकर, कटाकर अथवा अगल-बगल छँटाकर, श्वेताम्बर, पीताम्बर, पाटाम्बर या दिगम्बर -किसी-न-किसी वेश में तो रहना ही पड़ेगा” -साधु ने विनम्र भाव से कहा।
“ अच्छा, तो आप क्या पूछना चाहते हैं?”- आवेश भरे शब्दों में सज्जन ने कहा। साधु ने पूछा- “ प्राचीनकालिक ऋषि-मुनि जैसे-अत्रि, याज्ञवल्क्य, जनक, वशिष्ठ, व्यास, भारद्वाज, कत्य आदि सद्गृहस्थ थे वा बालब्रह्मचारी?”
“ वे लोग कुछ भी थे, आपको जानने से प्रयोजन? आप स्वयं क्या हैं?-कुछ झुँझलाकर आवेशित स्वर में उक्त सज्जन ने उत्तर दिया।
साधु ने कहा- “ जानने से शायद मुझे लाभ हो और यथार्थता की छान-बीन कर उसका स्पष्टीकरण करना तो आप विद्वानों का परम कर्तव्य ही है। इसमें आपकी भी तो कुछ हानि नहीं और यदि संत कबीर साहब के कथनानुकूल ‘दरस-परस के मेल से, भई अगम की सूझ’ वाली कहावत चरितार्थ हो जाए, तब तो कहना ही क्या? हम दोनों ही उससे लाभान्वित हों।”
“ ये लोग सद्गृहस्थ थे”-एक अन्य सज्जन ने उत्तर दिया। साधु ने लगे हाथ पूछ डाला- “ और उनकी वेश-भूषा?” अल्पकालिक गंभीर मुद्रा के पश्चात् मौन भंग करते हुए दबी जबान से उक्त सज्जन ने कहा- “ विरक्त का।”
साधु ने कहा- “ अच्छा, अब आपही विचार कर कहें कि आपकी परिभाषा के अनुकूल उपर्युक्त ऋषि-मुनि ‘बाबा’ हुए या ‘बाबाजी’?” सज्जन मौन रहे। साधु ने पुनः कहा- “ आप जैसे सुसभ्य, सुशिक्षित सज्जन समाज के मुखारविन्द से हमारे आध्यात्मिक देश के गौरव ऋषि-मुनि एवं साधु-संतों के प्रति ऐसी वाणी निःसृत हो, यह बहुत दुःख की बात है।” साधु के इस कथन से वे लोग बहुत लज्जित हुए।
साधु ने कहा- “ सुनिये, हमारे यहाँ गृहस्थ और बाल-ब्रह्मचारी, दोनों ही प्रकार के साधु-संत, ऋषि-मुनि और पीर-पैगम्बर आदि हो गये हैं। जैसे वशिष्ठ, विश्वामित्र, याज्ञवल्क्य, अत्रि, जनक, गुरु नानकदेव, गो0 तुलसीदास, तुकारामजी, श्रीरामकृष्ण प्रभृति सद्गृहस्थ तथा हनुमान, वाल्मीकि, दुर्वासा, शंकराचार्य, रामानंद स्वामी, समर्थ स्वामी रामदास, तुलसी साहब (हाथरस) आदि बालब्रह्मचारी थे। फिर भी, उभय प्रकार के संत ने संत-साधना के माध्यम से उस एक परम तत्त्व को प्राप्त कर परम पदाधिकारी हुए। किन्तु उनका आदर्श बहुत उच्च था। वे सद्गृहस्थ होते हुए भी परिवार में जलकमलवत् थे। गृहस्थजीवी ईश्वरभक्त के लिए संत दरिया साहब (मारवाड़ी) का उद्गार-वचन सुनिए-
जो कोई साधु गृही में, माहिं राम भरपूर।
दरिया कह उस दास को, मैं चरणन की धूर।।
वे स्वयं तो अनासक्त थे ही और अन्य को भी उन्होंने संसार की असारता का बोध करा अनासक्त होने की सीख दी।
अनासक्त जग में रहो भाई।दमन करो इन्द्रिन दुखदाई।।
-महर्षि मेँहीँ
जैसे जल महि कमल निरालमु मुरगाई नैसाणै ।
सुरत शबद भवसागर तरिए नानक नाम बखाणै ।।
-गुरु नानक साहब
संत कबीर साहब की यह कड़ी स्मरणीय है कि-
भक्ति भेष बहु अंतरा, जैसे धरनि अकाश ।
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आस ।।
ईश्वर-भक्ति सुवेश या कुवेश पर अवलंबित नहीं, अपितु सर्वथा उसके अंतःकरण की शुद्धता पर निर्भर है। जिसका अंतःकरण जितना विशुद्ध होता है, उसके हृदय में ईश्वर-भक्ति उतनी ही उद्दाम और अबाध गति से प्रवाहित एवं तरंगायित होती है। इसीलिए तो कुवेशित रविदास संत, जाम्बवंत और हनुमन्त भगवद्भक्त कहकर समादृत, प्रतिष्ठित एवं पूजित हुए और कालनेमि, रावण और राहु सुवेशित होने पर भी अभक्त-दुष्ट कहकर निरादृत, तिरस्कृत और साधु-समाज से बहिष्कृत किये गये। श्वपच भक्त बाह्य भेष से नहीं, वरं अंतःभक्ति के कारण ही युधिष्ठिर के यज्ञ में अन्यों की तो बात ही क्या, भगवान श्रीकृष्ण द्वारा भी सम्मानित हुए। महिमा भक्ति की है, वेश की नहीं। इसीलिए तो-
भगतिवन्त अति नीचहु प्रानी।
मोहि प्रान-प्रिय असि मन बानी।।
-रामचरितमानस
साहिब के दरबार में, केवल भत्तिफ़ पियार ।।
केवल भत्तिफ़ पियार, साहिब भत्तफ़ी में राजी ।
तजा सकल पकवान, लिया दासीसुत भाजी ।।
जप तप नेम अचार, करे बहुतेरा कोई ।
खाये सबरी के बेर, मुए सब रिषि मुनि रोई ।।
किया युधिष्ठिर यज्ञ, बटोरा सकल समाजा ।
मरदा सबका मान, श्वपच बिन घंट न बाजा ।।
पलटू ऊँची जाति कौ, जनि कोइ करै हंकार ।
साहिब के दरबार में, केवल भत्तिफ़ पियार ।।
साथ ही जो साधु-वेश-संयुक्त होकर साधु आचरण से समन्वित होते हैं, वे विश्ववन्द्य एवं प्रशंसित होते हैं। भगवान बुद्ध ने कहा है-
निक्खं जम्बोनदस्सेव को तं निन्दितुमरहति ।
देवापि तं प्रसंसन्ति ब्रह्मुणाऽपि पसंसितो ।।
-धम्मगाथा-230
अर्थात् जिस निर्दोष आचरणवाले मेधावी, प्रज्ञा और शील से युक्त पुरुष की प्रशंसा विज्ञ लोग दिन-प्रतिदिन समझ-समझकर करते हैं, उस सच्चे सोने जैसे की निंदा भला कौन कर सकता है? देवता लोग भी उसकी प्रशंसा करते हैं और ब्रह्मदेव भी। संत दरिया साहब (मारवाड़ी) कहते हैं-
बाहर बाना भेष का, माहिं राम का राज ।
कह दरिया वे साधवा, है मेरे सिर का ताज ।।
किन्तु जिसकी बाह्य वेश-भूषा का साधु की है और अंतः असाधु की, वह तो मानव संज्ञा से अभिहित कहने के भी सर्वथा अयोग्य है। हाँ, गो0 तुलसीदासजी के शब्दों में उसे दानव अवश्य कहा जाएगा।
परद्रोही परदार रत, परधन पर अपवाद ।
ते नर पामर पापमय, देह धरे मनुजाद ।।
-रामचरितमानस
ऐसे मनवाले जन जन्म-जन्मान्तर में भी परमात्मोपलब्धि नहीं कर सकते। चाहे उसका वेश और वचन कितना भी सुन्दर एवं मधुर क्यों न हो। ऐसे ‘बोलहिं मधुर वचन जिमि मोरा। खाहिं महा अहि हृदय कठोरा।।’ को चरितार्थ करनेवाले के लिए गो0 तुलसीदासजी ने कहा है-
वेष विशद बोलनि मधुर, मन कटु करम मलीन ।
तुलसी राम न पाइये, भये विषय जल मीन ।।
-दोहावली
ऐसे ही साधुवेशियों के लिए संत कबीर साहब ने अपनी खरी वाणी में कहा है-
मन न रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा।।टेक।।
आसन मारि मंदिर में बैठे,
नाम छाड़ि पूजन लागे पथरा।
कनवाँ फड़ाय जोगी जटवा बढ़ौले,
दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गैले बकरा।
जंगल जाय जोगी धुनिया रमौले,
काम जराय जोगी होय गेलै हिजरा।
मथवा मुँड़ाय जोगी कपड़ा रंगौले,
गीता बाँचि के होय गेलै लबरा।
कहै ‘कबीर’ सुनो भाई साधो,
जम दरबजवा बाँधल जैबै पकरा।।
भगवान बुद्ध ने इसपर पूरा प्रतिबंध लगाया था कि जबतक अंतःशुद्धि न हो, साधुवेश धारण न करे। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि हृदय के कल्मष-काषाय को हटाये बिना संयम और सत्य से हीन काषाय वस्त्र का अधिकारी नहीं है।
अनिक्कसावो कासायं यो वत्थं परिदहेस्सति।
अपेतो दम सच्चेन न स कासायमरहति।।
-धम्मपदगाथा 9
तथागत ने यह भी कहा कि भीख माँगकर खाने मात्र से कोई भिक्षु नहीं हो जाता, बल्कि मात्र भिक्षावृत्ति से जीवन-यापन करनेवाले असंयमी- दुराचारी की भर्त्सना कहते हुए उन्होंने कहा था कि ऐसे जन को राष्ट्र का पिण्ड (देश का अन्न) खाने की अपेक्षा अग्नि-शिखा के समान तप्त लोहे का गोला खाना उत्तम है। देखिये, धम्मपद गाथा 308
सेय्यो अयोगुलो भुत्तो ततो अग्गिसिखूपमो।
यञ्चे भुञ्जेय्यदुस्सीलो रट्ठपिण्डं असञ्जतो।।
-धम्मपदगाथा 308
हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने भी यही कहा था कि कर्म वा घर-वार के परित्याग से संन्यास-दीक्षा ग्रहण करने से वा संन्यास के दीक्षा-मंत्र के उच्चारण मात्र से कोई परिव्राजक वा संन्यासी नहीं हो जाता। बल्कि सांसारिक सभी कामनाओं को जो वमन के समान विचारता है और जिसने देहाभिमान का परित्याग किया है, उसी का संन्यास में अधिकार है।
कर्मं त्यागान्न संन्यासो न प्रेषोच्चारणेन तु।
संघौ जीवात्मनोरैक्यं संन्यासः परिकीर्तितः।।
वमनाहारवद्यस्य भाति सर्वेषणादिषु।
तस्याधिकारः संन्यासे त्यक्तदेहाभिमानिनः।।
-मैत्रेय्युपनिषद्
यदा मनसि वैराग्यं जातं सर्वेषु वस्तुषु।
तदैव संन्यसेद्विद्वानन्यथा पतितो भवेत्।।
द्रव्यार्थमन्नवस्त्रर्थं यः प्रतिष्ठार्थमेव वा।
संन्यसेदुभयभ्रष्टः स मुक्तिं नाप्तुमर्हति।।
सब विषयों से मन में जभी वैराग्य उत्पन्न हो, उसी समय विद्वान संन्यास धारण करे। प्रकारान्तर से (संन्यास ग्रहण करने पर) उसका पतन हो जाएगा। जो द्रव्य के लिए, अन्न-वस्त्र के लिए या प्र्रतिष्ठा के लिए संन्यास करे, तो वह उभय (संसार और परमार्थ से) भ्रष्ट होकर मुक्ति नहीं पा सकता है।
“ स्मार्त मार्ग में चतुर्थाश्रम का जो महत्व है, वह भक्तिमार्ग में अथवा भागवत धर्म में नहीं है। वर्णाश्रम धर्म का वर्णन भागवत धर्म में भी किया जाता है, परन्तु उस धर्म का सारा दारमदार भक्ति पर ही होता है, इसलिए जिसकी भक्ति उत्कट हो, वही सबमें श्रेष्ठ माना जाता है-फिर चाहे वह गृहस्थ हो, वानप्रस्थ या वैरागी हो, इसके विषय में भागवतधर्म में कुछ विधि-निषेध नहीं है।”
-भाग0 11-18-13-14
आज देश में हमें मात्र वेश की नहीं, अपितु उनके उपदेश की आवश्यकता है, जो सदाचार समन्वित भक्तिवन्त साधु एवं संत है। जो स्वयं सन्मार्ग का पथिक बन अन्यों को भी उस मार्ग का पथिक बनावे, देश की सुप्त जनता को सत्यता की झंकार से झंकृत कर जागृत करे और अज्ञानांधकार से उन्मुक्त कर उन्हें ज्ञान-प्रकाश की ओर उन्मुख करे।

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आदरणीय गुरुजन, सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं बहनो!
अभी आपलोगों ने संत कबीर साहब की एक वाणी सुनी-
घूँघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे।
संत कबीर साहब की वाणी के लिए यह मुहावरा सुप्रसिद्ध है कि-
‘कबीर का गाया गावै, तो गजब का धक्का खावै।’
और-
‘कबीर की वाणी बूझै, तो तीनों लोक सूझै।।’
उपर्युक्त वाणी का अर्थ यदि सामान्य तरह से किया जाए, तो होगा-‘घूँघट के परदे को खोल दो, हटा दो, तो तुमको प्रियतम मिलेंगे।’ किन्तु रहस्यात्मक वाणी का अर्थ साधारण तरह से करना अभीष्ट नहीं, इसका रहस्योद्धाटन करना अत्यंत अपेक्षित है। भक्त जन अपनी-अपनी भावना के अनुकूल भिन्न-भिन्न भावों में भगवान को देखते हैं। यथा-कोई दास्य-भाव, कोई सख्य-भाव, कोई वात्सल्य-भाव और कोई पति-पत्नी भाव आदि। हमारे यहाँ जहाँ पति-पत्नी का भाव दर्शाया जाता है, वहाँ जीवात्मा का पत्नी-भाव में और परमात्मा को पति-रूप में मानते हैं और इस्लाम धर्म के सूफी सम्प्रदाय में इसका उल्टा माना गया है अर्थात् जीवात्मा को पति-रूप में और परमात्मा को पत्नी के रूप में देखते हैं। संत कबीर साहब की इस वाणी में पति-पत्नी का भाव दरसाया गया है-जीवात्मा को स्त्री के रूप में और परमात्मा को पति रूप में वर्णन किया गया है। चेतन आत्मा रूप वधू के ऊपर स्थूल-सूक्ष्मादि रूप आवरण वा घूँघट है। जबतक यह आवरण-रूप घूँघट हटता नहीं, जीवात्मा को परमात्म-रूप पति का दर्शन नहीं हो पाता। इसी विषय को गो0 तुलसीदासजी महाराज इस भाँति कहते हैं-
‘मायाबस मति मंद अभागी ।
हृदय जवनिका बहु विधि लागी ।।
ते सठ हठ बस संसय करहीं ।
निज अज्ञान राम पर धरहीं ।।’
‘काम क्रोध मद लोभ रत, गृहासक्त दुख रूप ।
ते किमि जानहिं रघुपतिहि, मूढ़ पड़े तम कूप ।।’
ये आवरण कौन-से हैं, इसका स्पष्टीकरण संत दादू दयालजी महाराज ने किया है। उन्होंने बताया है कि शरीर ही आवरण है और यह शरीर एक नहीं वरं पाँच हैं-स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य अर्थात् जड़-विहीन चेतन। आवश्यकता है इन चारो को पवित्र बनाने की अथवा दूसरे शब्दों में जीवात्मा के ऊपर से इन शरीरों को हटाने की; क्योंकि शरीरों का हटना ही जीवात्मा का अपने स्वरूप में आना अथवा निरावरण होना है, जिस अवस्था में ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। वे कहते हैं-
नीके राम कहतु हे बपुरा।
घर माहैं घर निर्मल राखै, पंचौं धोवे काया कपरा।।
-संत दादू दयालजी
संत पलटू साहब कहते हैं-ईश्वर को पाने के लिए ईश्वर-ईश्वर कहकर चिल्लाने अथवा अन्यत्र जाने की जरूरत नहीं, वह प्रभु तो तुम्हारे निकट हैं। जरूरत तो इस बात की है कि भगवच्चिन्तन द्वारा तुम अपने अन्दर पैठ कर अपने को आवरण मुक्त कर सको।
साहिब साहिब क्या करै साहिब तेरे पास ।
साहिब तेरे पास याद करु होवै हाजिर ।
अन्दर धँसि के देखु मिलैगा साहिब नादिर ।।
-संत पलटू साहब
संत कबीर साहब ने जिसको ‘घूँघट’ कहा, संत पलटू साहब ने उसको ‘बुरका’ कहा और परम भक्तिन मीराबाई उसी को ‘तन-गाँति’ कहकर सम्बोधित करती हैं। वह शरीर-रूपी गाँती वा आवरण को हटाकर श्याम से मिलाती हैं। यथा-
मैं तो गिरिधर की रंग राती।----
खोल मिली तन गाँती।।
संत पलटू साहब कहते हैं-इस ‘बुरका’ को हटाओ और प्रभु को पाओ। ‘बुरका’ हटाने की देर है, प्रभु पाने में देर नहीं।’ ‘बुरका डारै टारि खुदा बाखुद दिखरावै।’ गो0 तुलसीदासजी महाराज ने ब्रह्म, जीव और माया की उपमा श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी से देकर तुलनात्मक विवेचन का एक सुन्दर चित्र चित्रित किया है; यथा-
आगे राम लखनु बने पाछें ।
तापस वेष विराजत काछें ।।
उभय बीच सिय सोहति कैसे ।
ब्रह्म जीव बिच माया जैसे ।।
कानन-काल में भगवान श्रीराम, श्रीलक्ष्मण और जगजननी जानकी जो गाँव, गिरि तथा वनादि में भ्रमण करते थे। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भगवान आगे में, श्रीलक्ष्मणजी पीछे में और श्रीसीताजी बीच में थीं। श्रीलक्ष्मणजी श्रीरामजी को नहीं देख पाते हैं; क्योंकि बीच में श्रीसीताजी हैं। तात्पर्य यह कि जीवात्मा को परमात्मा की प्रत्यक्षता इसलिए नहीं हो पाती है कि जीव और ब्रह्म के बीच में माया है। श्रीलक्ष्मणजी के आगे से श्रीसीताजी हट जाएँ, तो श्रीरामजी के दर्शन होने में उनको यानी श्रीलक्ष्मणजी को तनिक भी बाधा न हो। इसी भाँति जीवात्मा के ऊपर स्थूल-सूक्ष्मादि-अंधकार-प्रकाशादि जो मायिक आवरण हैं, इनके हट जाने पर जीव को पीव पाने में पल भर की भी देर नहीं लगेगी। गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
जीव हृदय तम मोह विशेखी ।
छूटि न ग्रंथि परइ किमि देखी ।।
यदि शंका हो कि ईश्वर अत्यंत निकट है, तो फिर उनके दर्शन क्यों नहीं हो पाते? इसके उत्तर में निवेदन है कि कोई भी वस्तु जो निकटतम होती है अथवा अति दूर होती है, तो इन दोनों ही दशाओं में उस वस्तु की पहचान नहीं हो पाती। जैसे जिस वायुयान को हम अपने समीप से उड़ते देखते हैं, वही वायुयान अत्यधिक दूर हो जाने पर नहीं दीख पड़ता अथवा किसी परिचित व्यक्ति को भी दूर में आते देखकर हम उसे पहचान नहीं सकते; किन्तु निकट आने पर उसकी पहचान होती है। यह तो अति दूर के कारण पहचान नहीं हो सकने की बात हुई। अब निकटतम होने के कारण नहीं पहचान होने के कारण को हम जानें।
कोई भी वस्तु वा व्यक्ति दूर हों वा निकट, उसको देखने का साधन क्या है? हमारी आँख! अब हम विचार करें-जब हमारी आँख में लाली हो जाती है, तो क्या उस लाली को बिना किसी माध्यम के हम देख सकते हैं? सभी दर्शनीय वस्तु को हम नेत्र से देखते हैं और अपने नेत्र की लाली को हम अपने चक्षु से नहीं देख पाते; क्यों? इसका कारण इसकी अत्यंत निकटता है।
गो0 तुलसीदासजी महाराज ने तो और गजब ढाया है, कहने में कमाल कर दिया है। वे कहते हैं-अरे भाई! वस्तु की निकटता वा सुदूरता की बात छोड़ो। पहले यह बताओ-जिसकी आँख में मोतियाबिन्द हो जाता है, उसको कुछ सूझता है? कुछ भी नहीं। इसी तरह इस जागतिक जन की दर्शन-शक्ति को मायारूप मोतियाबिन्द ने आवृत्त कर रखा है, उसे सूझे तो कैसे?
है नेरे सूझत नहीं, ल्यानत ऐसो जिन्द ।
तुलसी या संसार को, भयो मोतियाबिन्द ।।
यदि मोतियाबिन्द की शल्य-क्रिया (व्चमतं-जपवद) हो जाय और रोगी संयमपूर्वक रहे, तो गई आँख-खोयी दृष्टि-शक्ति पुनः वापस लौट आवे। उसी भाँति साधक संयमित जीवन व्यतीत करते हुए सद्गुरु से सरल-योग-युक्ति जानकर नित्य अभ्यास करे, तो उसकी वह दृष्टि खुल जाएगी, जिससे वह प्रथम तो ब्रह्म की ज्योति का दर्शन कर सकेगा और बाद में ब्रह्म का भी। जैसे सूर्योदय के समय हम पहले सूर्य के प्रकाश को पाते हैं, पश्चात् सूर्य को।
जैसे रवि के तेज से, देख पड़े रवि जात ।
तैसे आतम तेज से, आतम रूप लखात ।।
तथा- श्री गुरु पद नख मनि मन जोति ।
सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती ।।
दलन मोह तम सो सु प्रकासू ।
बड़े भाग उर आवहिं जासू ।।
उघरहिं विमल विलोचन ही के ।
मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ।।
सूझहिं राम चरित मनि मानिक ।
गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ।।
यथा सुअंजन आँजि दृग, साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखहिं सैल बन, भूतल भूरि निधान ।।
प्रातःस्मरणीय परमाराध्य अनन्त श्रीविभूषित महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के वचनों में हम कह सकेंगे-केवल पढ़न्त और सुनन्त विद्या द्वारा ज्ञान प्राप्त करने से अज्ञान-अन्धकार पूर्ण रूप से दूर नहीं होता है। जब अन्तर में दिव्य दृष्टि खुलती है और ब्रह्मज्योति दरसती है, तभी तम-मोह दूर होता है। अन्तर में ब्रह्मज्योति देखनेवाली तुरीयावस्था की दृष्टि और विवेक-दृष्टि (बुद्धि में सारासार-बोध की शक्ति यानी विद्या) हृदय के दो निर्मल नेत्र हैं।
दृष्टि-योग साधन में रत रहनेवाले साधक के नेत्रें में उपर्युक्त सुअंजन लगता है। दृष्टि-योग साधन करना, इस सुअंजन के लगाने का यत्न-रूप है। बहुत-सी धरतियों की खान परम विराट रूप माया है, जिसमें अनेकानेक ब्रह्माण्डों की रचनाएँ हैं।
‘गूलरि तरु समान तब माया।
फल ब्रह्माण्ड अनेक निकाया।।’ (रा0च0मा0)
‘रोम रोम ब्रह्माण्ड मय, देखत तुलसीदास ।
बिन देखे कैसे कोऊ, सुनि मानै विश्वास ।।
उपर्युक्त सुअंजन प्राप्त करनेवाले को अखिल ब्रह्माण्ड दरसते हैं। दृष्टियोग के साधन से सूक्ष्म वा दिव्य दृष्टि खुल जाती है। मन एकविन्दुता प्राप्त कर स्थूल और सूक्ष्म मण्डलों के संधि-विन्दु वा केन्द्र विन्दु से उत्थित नाद वा अनहदनाद को ग्रहण करता है। शब्द में अपने उद्गम स्थान पर आकर्षण करने का गुण होने के कारण केन्द्रीय शब्द से खिंचती हुई सुरत स्थूल-सूक्ष्मादि जड़ के चारो आवरणों को पार कर अपने स्वरूप में स्थित होगी, जड़ के आवरणों से निरावरण होने पर अपने स्वरूप की पहचान के साथ-साथ परमात्म-स्वरूप की भी पहचान वा प्रत्यक्षता होगी। जीवात्मा परमात्मा को प्राप्त कर कृत-कृत्य हो जाएगी। ‘इस प्रकार घूँघट का हटना और परमात्मा को पाना होता है।’ अ
यह प्रवचन पूर्णियाँ में दिनांक 04-04-1964 ई0 को जिला वार्षिक अधिवेशन के सुअवसर पर ग्राम-रोशना हाट में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मार्च 2011 ई0)

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उपस्थित सज्जनो एवं देवियो!
बच्चा जब पिता के कंधे पर बैठा रहता है, तो वह पिता से बड़ा मालूम पड़ता है; परन्तु सही माने में वह बड़ा नहीं होता। अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के इस विराट् सत्संग-समारोह के अवसर पर आपलोगों ने मुझे उच्चासन पर आसीन किया, इसके लिए मैं आपलोगों का आभारी हूँ। साथ ही आपलोग मुझसे कुछ अध्यात्म-चर्चा सुनना चाहते हैं, यह आपलोगों के उदार एवं विशाल हृदय का परिचायक है। एतदर्थ में आपलोगों को धन्यवाद और साधुवाद देता हूँ। किसी सुभाषितकार ने कहा है-
तावत् गर्जन्ति शास्त्रणि जम्बुका विपिने यथा।
न गर्जति महाशक्तिः यावत् वेदान्तकेशरी।।
अर्थात् अन्यान्य शास्त्र-रूप शृगाल तबतक ही बोलते हैं, जबतक वेदान्त-केशरी का गर्जन नहीं होता। सिंह-गर्जन के समक्ष अन्य किसी वन्य जन्तु का गर्जन कोई मूल्य नहीं रखता। समुद्र-गर्जन के सामने सरिता-सुर की स्थिति कहाँ? अथवा दूसरे शब्दों में जाज्वल्यमान दिनकर के आगे टिमटिमाते दीपक की हस्ती क्या? परम पूज्य सद्गुरु देवजी के वचनामृत के पश्चात् मेरा कुछ कहना कैसा होगा, आपलोग स्वयं समझ सकते हैं। हाँ, उनके प्रवचन के पूर्व यदि मैं कुछ कहता, तो बात कुछ दूसरी होती और तब कुछ अंश में ठीक भी कहा जा सकता। किन्तु----। फिर भी प्रातःस्मरणीय परम पूज्य गुरुदेवजी महाराज का आदेश है कि कुछ कहूँ, अतएव उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर आपलोगों को यथाशक्ति सामयिक सेवा करने की चेष्टा करूँगा।
इस सत्संग के द्वारा ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर- भक्ति का प्रचार होता है। ईश्वर-भक्ति आरम्भ करने के पूर्व उसके स्वरूप की अभिज्ञता अवश्य होनी चाहिए; किन्तु मुझ जैसे से परमात्म-स्वरूप के संबंध में कलात्मक ढंग से कहा जाना अथवा उसपर प्रकाश डालना सहज नहीं, टेढ़ी खीर है; क्योंकि यह ज्ञान बड़ा गम्भीर है। यदि कहा जाए कि ब्रह्म-ज्ञान से बढ़कर अन्य कोई ज्ञान नहीं, तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। जिन्होंने ब्रह्म-तत्त्व का स्वरूपतः ज्ञान प्राप्त किया है, उनको ही इस संबंध में कहने का अधिकार है और वे ही यथार्थतः कह सकते हैं। इनके अतिरिक्त जन का कथन तो जन्मान्ध द्वारा हाथी के रूप को बताने जैसा होगा अर्थात् टटोली हुई बात होगी, आँखों देखी-अपरोक्ष नहीं। संत कबीर साहब बड़े मजे की बात कहते हैं-
अंधारन को हाथी सही, है साचे सगरे।
हाथन की टोई कहै, आँखिन के अंधारे।।
एक महात्मा का कथन है-‘यदि कहें कि (ब्रह्म को) जान लिया, तो अत्युक्ति है और यदि कहें कि जाना नहीं, तो यह भी यथार्थ नहीं है। हाँ, यह कह सकते हैं कि समुद्र का जल जितना एक नन्हे से सीमित लोटे में आ सकता है, उतना अल्पज्ञ ने सर्वज्ञ को जाना।’ और संत कबीर कहते हैं-
पाया कहै ते बावरे, खोया कहै ते कूर।
पाया खोया कछु नहीं, ज्यों का त्यों भरपूर।।
अगर कोई कहता है कि मैंने ईश्वर को पाया, तो वह पागल है अथवा यदि कहता है कि खोया हुआ है, तो वह दुष्ट है; क्योंकि ऐसी कोई जगह नहीं, जहाँ परमात्मा नहीं अर्थात् वह सर्वत्र भरपूर है।
वस्तुतः परमात्म-स्वरूप वर्णनातीत वा वाणी- अतीत होने के कारण जैसा कहा जाता है, वैसा वह नहीं है। इसीलिए वेद ने ब्रह्म को ‘अवाघ् मनसगोचर’ कहा है तथा उपनिषद् में-‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।’ (शाण्डिल्योपनिषद्) जिसको प्राप्त करने में मन सर्वदा असमर्थ है और वाणी की गति जहाँ नहीं है, उसके विषय में कौन क्या कह सकता है?
जस कथिये तस होत नहीं, जस है तैसा सोय।
कहत सुनत सुख ऊपजै, अरु परमारथ होय।।
-संत कबीर साहब
कठोपनिषद् में एक मंत्र आया है-
पराञ्चिखाणिव्यतृणत् स्वयंभूस्तस्मात्पराङ्
पश्यति नान्तरात्मन्।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्।।
तात्पर्य यह है कि परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त करने में चेतन आत्मा ही समर्थ है, अन्य कोई इन्द्रिय नहीं। किन्तु अफसोस? चेतन आत्मा देख सकती है, तो बोल नहीं सकती और वागिन्द्रिय बोल सकती है, तो देख नहीं सकती। बड़ी विचित्र बात मालूम पड़ती है।
इस संबंध की एक मनोहर कथा सुनिये। एक अरण्यवासी साधु थे। वे अपनी कुटिया में बैठे थे। आखेट करते हुए उसी वन में एक व्याधे ने एक हिरण को तीर मारा। वह शरविद्ध मृग उसी होकर भागता हुए एक झाड़ी में जा छिपा। थोड़ी देर बाद व्याधे ने आकर साधु से पूछा-‘महात्मन्! क्या आपने वाण-विद्ध हिरण को जाते देखा है?’ साधु बड़े असमंजस में पडे़। वे सोचने लगे-क्या करूँ? क्या कहूँ? सत्य बोलने से मृग की जान जाएगी और असत्य भाषण महापाप है।
नहिं असत्य सम पातक पुंजा।
गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा।।
फिर प्रत्युत्पन्नमति साधु ने कहा- “ भाई व्याध! जिसने देखा, वह बोल नहीं सकती और जो बोल सकता है, उसने देखा नहीं, मैं क्या कहूँ?” व्याधा वापस चला गया। मृग की जान बच गई। साधु के इस कथन का तात्पर्य क्या हुआ? आँख देख सकती है; लेकिन वह बोल नहीं सकती और मुँह बोल सकता है; परन्तु वह देख नहीं सकता। संत कबीर साहब की वाणी सुनिये, वे कितने पते की बात कहते हैं-
जो देखै सो कहै नहिं, कहै सो देखै नाहिं।
सुनै सो समझावे नहीं, रसना दृग सरवन काहिं।।
ठीक इसी तरह ईश्वर के संबंध में है। किसी भी विषय को कहने-सुनने वा समझाने के लिए इन्द्रियों की आवश्यकता होती है। बिना इन्द्रिय-व्यापार के कथन, श्रवण वा मनन नहीं हो सकता। परमात्म- स्वरूप की प्राप्ति जहाँ जिस अवस्था में होगी, वहाँ उस अवस्था में स्थूल वा सूक्ष्म, बाह्य या आंतरिक किसी भी करण की पहुँच नहीं, फिर उसके संबंध में कैसे क्या कहा जाए? तो कहते हैं कि जो कोई वहाँ पहुँचे हैं, उनसे ही पूछो कि यथार्थ बात क्या है? इसके उत्तर में संत कबीर साहब कहते हैं-
उततें कोइ न बाहुरा, जासे पूछूँ जाय।
इततें सबहीं जात हैं, भार लदाय-लदाय।।
संत कबीर के इस उत्तर से समस्या सुलझने के बजाय और गम्भीर हो उलझ जाती है। वस्तुतः बात भी सत्य है। प्रायः देखा भी जाता है कि इस असार संसार को छोड़कर नित्य प्रति कुछ-न-कुछ लोग क्रम-क्रम से परलोक के लिए प्रस्थान कर रहे हैं; किन्तु वहाँ से लौटकर कोई आये हैं, ऐसा सामान्य ज्ञान में ज्ञात नहीं होता।
आप कहेंगे, उपर्युक्त वाक्य ‘सामान्य ज्ञान में ज्ञात नहीं होता।’ श्रवण कर मन से एक आशा-किरण का स्फुटन होता है और आकुल हृदय जिज्ञासा लेकर खड़ा होता है कि ‘यदि सामान्य ज्ञान में नहीं हो, तो विशेष ज्ञान में इसकी अभिज्ञता अवश्य होनी चाहिए।’ इसके समाधान-हित संत-महात्मागण कहते हैं-हाँ, क्यों नहीं? संत कबीर साहब की वाणी में सुनिये-
उततें सतगुरु आइया, जाकी मति है धाीर।
भवसागर के जीव को, खेइ लगावैं तीर।।
अर्थात् सर्वेश्वर के स्वरूप की सही जानकारी के लिए संत सद्गुरु के पास जाओ। श्रीमद्भगवद्गीता भी इसकी परिपुष्टि करती है। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गीता अ0 4/34 में कहते हैं-
तद्विि) प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिस्तत्त्वदर्शिनः।।
इसे तू तत्त्व के जाननेवाले ज्ञानियों की सेवा करके और नम्रतापूर्वक विवेक-सहित बारम्बार प्रश्न करके जानना। वे तेरी जिज्ञासा तृप्त करेंगे।
इस विषय पर महात्मा गाँधीजी ने ‘अनासक्ति- योग’ में बड़ी अच्छी टिप्पणी लिखी है-ज्ञान प्राप्त करने की तीन शर्तें-प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा; इस युग में खूब ध्यान में रखने योग्य है। प्रणिपात यानी नम्रता, परिप्रश्न यानी बार-बार पूछना। सेवा-रहित नम्रता खुशामद में खप सकती है और ज्ञान खोज के बिना सम्भव नहीं है। इसलिए जबतक समझ में न आवे, तबतक शिष्य का गुरु से नम्रतापूर्वक प्रश्न पूछते रहना जिज्ञासा की निशानी है, इसमें श्रद्धा की आवश्यकता है। जिस पर श्रद्धा नहीं होती, उसकी ओर हार्दिक नम्रता नहीं होती, उसकी सेवा तो हो ही कहाँ से सकती है?
त्रिपाद्विभूति महानारायणोपनिषद् में लिखा है कि जिज्ञासु शिष्य को कैसा होना चाहिए, उपदेष्टा गुरु कैसा होना चाहिए तथा गुरु के निकट जाकर तत्त्व-ज्ञान-हित किस भाँति प्रार्थना करनी चाहिए-
“ शान्तो दान्तोऽतिविरक्तः सुशु)ो गुरभक्त- स्तपोनिष्ठः।शिष्यो ब्रह्मनिष्ठं गुरुमासाद्य प्रदक्षिणापूर्वकं दण्डवत् प्रणम्य प्राञ्जलिर्भूत्वा विनयेनोपसंगम्य भगवन् गुरो मे परमतत्त्व रहस्यं विविच्य वक्तव्यमिति।”
अर्थात् शान्त, दमनशील, अति विरक्त, अति शुद्ध, गुरु-भक्त, तपोनिष्ठ शिष्य ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाकर प्रदक्षिणा और दण्डवत् प्रणाम करके हाथ जोड़कर नम्रता के साथ कहे-‘हे भगवन् मेरे गुरु! परम तत्त्व-रहस्य विवेचन के साथ मुझे बतलाइये।’ अपने प्रातःस्मरणीय परम पूज्य श्रीसद्गुरु महाराजजी के शब्दों में मैं कह सकूँगा-किसी से कोई विद्या सीखनेवाले को सिखानेवाले से नम्रता से रहने का तथा उसको प्रेम-सहित कुछ सेवा करने का ख्याल हृदय में स्वाभाविक ही उदय होता है, इसलिए गुरु-भक्ति स्वाभाविक है। गुरु-भक्ति के विरोध में कुछ कहना फजूल है। निस्सन्देह अयोग्य गुरु की भक्ति को बुद्धिमान आप त्यागेंगे और दूसरे से भी इसका त्याग कराने की कोशिश करेंगे, यह भी स्वाभाविक ही है।’ परमात्म- स्वरूप के संबंध में कठोपनिषद् में लिखा है-
नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा।
वह परब्रह्म परमेश्वर न तो वाणी से, न मन से और न नेत्रें से ही प्राप्त किया जा सकता है।
अस्तीत्येवोपलब्धा व्यस्तत्त्वभावेन चोभयोः।
अतः उस परमात्मा के लिए कि ‘वह अवश्य है’ इस प्रकार निश्चयपूर्वक ग्रहण करना चाहिए अर्थात् पहले उसके अस्तित्व का दृढ़ निश्चय करना चाहिए। तदनन्तर तत्त्वभाव से भी उसे प्राप्त करना चाहिए।
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा चेऽस्य हृदि श्रिताः।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते।।
साधक के हृदय में स्थित जो कामनाएँ हैं, वे सब-की-सब जब समूल नष्ट हो जाती हैं, तब मरण- धर्मा मनुष्य अमर हो जाता है और वह यहीं ब्रह्म का भलीभाँति अनुभव कर लेता है।
यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्येताबद्ध्यनुशासनम्।।
जब हृदय की सारी ग्रंथियाँ भली-भाँति खुल जाती हैं, तब वह मरणधर्मा मनुष्य इसी जीवन में अमर हो जाता है। बस, इतना ही सनातन उपदेश है।
ईश्वर-स्वरूप की उत्कृष्टता का वर्णन करते हुए संत सुन्दरदासजी कहते हैं-
भूमि पर अप आपहू के परे पावक है।
पावक के परे पुनि, वायुहू बहत है।।
वायु के परे व्योम, व्योमहू के परे इन्द्री दश।
इन्द्रिन के परे, अन्तःकरण रहत है।।
अन्तःकरण पर, तीनों गुण अहंकार।
अहंकार पर, महतत्त्व कूँ लहत है।।
महतत्त्व पर मूल माया, माया पर ब्रह्म।
ताहितें परात्पर, सुन्दर कहत है।।
यह विज्ञान-सम्मत बात है कि जो पूर्व का पदार्थ होता है, वह परापेक्षा सूक्ष्म होता है और सूक्ष्म तत्त्व स्वाभाविक ही अपने से स्थूल में व्यापक हो स्व-मण्डल उससे ऊपर रखता है। प्रमाणार्थ पंच भौतिक जगत् में आकाश सर्वापेक्षा सूक्ष्म होने के कारण अन्य चार तत्त्वों-क्षिति, जल, पावक और समीर में व्यापक होकर अपना मण्डल ऊपर रखता है। इसी प्रकार पवन तीन तत्त्वों-पृथ्वी, पानी और पावक में; अग्नि दो तत्त्वों-अहि और अप में तथा जल केवल पृथ्वी में प्रविष्ट होकर निज मण्डल ऊपर रखता है।
यदि सर्वसाधारण इन बातों को यथार्थतः अवगत नहीं कर सकें, तो वे इस प्रकार समझें। आप थोड़ी-सी मिट्टी को पानी में घोलकर एक साफ शीशे के पात्र में बंद करके रख दीजिए। कुछ घण्टे के बाद देखने से आप प्रत्यक्ष पाएँगे कि मिट्टी शीशे के नीचे के भाग में जम गयी है और पानी उसके ऊपर है। तात्पर्य यह हुआ कि जलापेक्षा मिट्टी स्थूल होने के कारण नीचे रह गई और जल उस (मिट्टी) में व्यापक होकर उसके ऊपर अवस्थित हो गया। इसी तरह अन्य तत्त्वों के संबंध में भी जानें। साथ ही, यह भी जानें कि उन पंच तत्त्वों के परे दशेन्द्रियाँ हैं, दशेन्द्रियों के परे चतुष्टय अन्तःकरण, चतुष्टय अन्तःकरण के परे त्रय गुण, त्रय गुण के परे अहं, अहं के परे बुद्धि, बुद्धि के परे जड़ात्मिका (अपरा) प्रकृति, अपरा प्रकृति के परे चेतनात्मिका प्रकृति और उसके भी परे परमात्म-स्वरूप है। अब यह सरलतापूर्वक समझा जा सकता है कि उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते-होते परमात्म-स्वरूप की सूक्ष्मता और उसकी व्यापकता कितनी अधिकतम हो जाएगी? सर्वापेक्षा सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्व को यदि हम स्थूल वा सूक्ष्म किसी इन्द्रिय से प्राप्त करना चाहें, तो यह कितना हास्यास्पद होगा, विवेकी जन विचार सकते हैं।
यही कारण है कि ऋषियों एवं संतों ने बताया है कि इन्द्रियातीत ईश्वर का अपरोक्ष ज्ञान चेतन आत्मा को होगा; क्योंकि वह भी उसी भाँति का सूक्ष्म है। किन्तु स्मरण रहे कि जबतक चेतन आत्मा जड़ के साथ संयुक्त रहेगी, तबतक वह उस ईश्वर की अपरोक्षानुभूति में सर्वथा असमर्थ रहेगी। अतएव आवश्यकता है कि ऐसी क्रिया-विशेष की, जिसके द्वारा चेतन आत्मा जड़ से पृथक् होकर कैवल्य स्वरूप में प्रतिष्ठित हो सके।
यदि कहा जाए कि ‘चेतन-आत्मा के कारण ही नेत्रेन्द्रिय दृश्यावलोकन करती है, श्रवणेन्द्रिय शब्द श्रवण करती है, रसनेन्द्रिय रसास्वादन करती है, त्वगिन्द्रिय स्पर्श का ज्ञान करती है, नासिका गंध ग्रहण करती है। मन संकल्प-विकल्प करता है, बुद्धि विचारती है आदि कहने का तात्पर्य यह कि चेतन-युक्त इन्द्रियाँ क्रियाशील होती हैं और चेतन-विहीन इन्द्रियाँ कुछ नहीं कर सकतीं। तो फिर, जिस चेतन आत्मा से स्थूल-सूक्ष्मादि समस्त इन्द्रियाँ संचालित होती हैं, वह चेतन आत्मा इन्द्रिय-ग्राम में अधिष्ठित रहकर सर्वेश्वर का साक्षात् क्यों नहीं कर सकती?’
इसके उत्तर में संतों ने कहा है-सम्प्रति जड़ और चेतन का संग दुग्ध में घृत की भाँति है अर्थात् जैसे जहाँ पय रहता है, वहाँ घृत भी। वैसे ही जहाँ मन रहता है, वहाँ चेतन भी। जैसे दूध में घी रहता है; परन्तु उससे पूड़ियाँ छनतीं नहीं। हाँ, उस क्षीर से खीर अवश्य बन सकती है; क्योंकि पूड़ियाँ तो घी में छनेगीं, दुग्ध-मिश्रित घृत में नहीं। इसलिए जब दूध का मंथन करके घृत विलग कर लेते हैं, तब उसमें पूड़ियाँ छनती हैं। ठीक इसी भाँति ध्यान के मंथन से जड़-चेतन भिन्न-भिन्न हो जाता है। चेतन आत्मा के ऊपर से स्थूल-सूक्ष्मादि जड़ के सभी आवरण उतर जाते हैं और इसी कैवल्य दशा में ब्रह्म की अनुभूति होती है। एक महात्मा ने बहुत ही अच्छा कहा है-
जिमि दूध के मथन से, निकसत है घी जतन से।
तिमि धयान की लगन से, पर ब्रह्म ले निहारा।।
इसी विषय को अब एक दूसरी तरह से समझें-जाग्रत अवस्था में हमको अपने स्थूल शरीर का ज्ञान रहता है, तो स्थूल संसार का भी। जाग्रत अवस्था से जब हम स्वप्नावस्था में जाते हैं, तो हम अपने स्थूल शरीर का ज्ञान भूल जाते हैं। फलस्वरूप स्थूल संसार का भी ज्ञान नहीं रहता। अपने स्थूल शरीर की सुधि हमें नहीं रहने के कारण हम यह नहीं जान पाते कि उस समय स्थूल संसार में कहाँ क्या हो रहा है? और तो और, हमें यह भी पता नहीं कि हमारे निकट हमारे मित्र बैठे हैं वा शत्रु? वे हमारी प्रशंसा कर रहें वा निन्दा? किन्तु जगने पर जैसे ही हमें अपने स्थूल शरीर का ज्ञान होता है, वैसे ही स्थूल संसार का भी ज्ञान हो जाता है और तत्सम्बन्धी कार्य-कलाप भी। इसी भाँति जब हम स्व-स्वरूप को स्वरूपतः जान पायेंगे, तभी परमात्म-स्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। जबतक अपने आत्म-स्वरूप का हमें अनुभव नहीं होता, तबतक ईश्वर-स्वरूप के प्रत्यक्ष ज्ञान से भी हम दूर रहेंगे। इसलिए आवश्यकता है कि हम अपने स्वरूप को जड़ से पृथक् कर प्रत्यक्ष पावें।
अपनी स्थिति का बौद्धिक ज्ञान तो सबको है; किन्तु उसका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं। किसी से पूछने पर कि आप कौन हैं? हम उत्तर देते हैं-‘हम हैं’ अथवा ‘मैं हूँ’। हम नहीं हैं अथवा मैं नहीं हूँ, ऐसा कोई नहीं कहते। यदि कोई पूछता है कि आप कौन हैं-शरीर हैं? तो हम कहते हैं-नहीं, मैं शरीर नहीं, शरीर में रहनेवाला हूँ। उनके पुनः प्रश्न करने पर कि आप शरीर नहीं हैं, तो क्या शरीर के अवयव-आँख हैं वा कान? नाक हैं वा जिभ्या? त्वचा हैं वा हस्त? पाद हैं वा मुख? उपस्थ हैं वा पायु? ये सब आप हैं? तो हम कहेंगे-नहीं, मैं इनमें से कुछ नहीं, ये सब तो मेरी इन्द्रियाँ हैं। इतना ही नहीं, मैं मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार भी नहीं हूँ, ये मेरी अन्तरिन्द्रियाँ हैं। तत्पश्चात् प्रश्नोदय हो कि आप पाँच तत्त्व, तीन गुण हैं वा इनमें से कुछ हैं? तो कहेंगे-पंच तत्त्वों और त्रय गुणों से शरीर और संसार-निर्मित्त है; किन्तु मैं इन सबसे भिन्न हूँ। यदि कहा जाय कि कथित वस्तुओं में से कोई एक भी स्वीकारात्मक सिद्ध नहीं हुई, सभी नकारात्मक ही हुई, तो आखिर आप हैं कौन? इसका उत्तर संत सुन्दरदासजी की वाणी में सुनिये-
तू तौ कछु भूमि नाहिं, अप तेज वायु नाहिं।
व्योम पंच विष नाहिं, सो तौ भ्रम कूप है।।
तू तौ कछु इन्द्रिय रु, अन्तःकरण नाहिं।
तीन गुन तू तौ नाहिं, न तौ छाहिं धूप है।।
तू तौ अहंकार नाहिं, पुनि महतत्त्व नाहिं।
प्रकृति पुरुष नाहिं, तू तौ स्व अनूप है।।
सुन्दर विचार ऐसे, शिष्य सूँ कहत गुरु।
नाहिं नाहिं कहत रहै, सोई तेरो रूप है।।
किन्तु इतने विवेचन के बाद भी क्या स्वरूपानुभूति हुई? नीर के बीच मीन का पिपासित रहना जितना हास्यास्पद है, उससे कहीं अधिक हास्य और आश्चर्य का विषय है कि जिस शरीर में ‘हम’ रहें, उस शरीर की तो हमें पहचान हो और हम स्वयं कौन हैं, इसका पता नहीं। एक बंगाली साधु ने प्रश्नोत्तर के रूप में इस विषय का कितना मर्मस्पर्शी विवेचन किया है। वे कहते हैं-
आमी आमी करी, बुझिते ना पारी,
के आमी अमाते आछे की रतन।
कौन शक्ति बले, बेड़ाइ चलि-बलि,
कार अभावे हले हय देह अचेतन।।
देह माँझे आछे प्राणेरि संचार,
ताहा तेई बली आमी बा आमार।
प्राण गेले चले हवे शवाकार,
केवाकार कोथाय रबे धान-जन।।
अर्थात् मैं-मैं करता हूँ, किन्तु समझ में नहीं आता कि मैं कौन हूँ तथा मुझमें क्या रत्न-बहुमूल्य तत्त्व है, किस शक्ति से बोलता हूँ, चलता हूँ? और किस तत्त्व के अभाव में यह शरीर अचेतन-जड़वत् हो जाता? इस शरीर में प्राण का संचरण है, उसी को ‘मैं’ वा ‘मेरा’ शब्द से सम्बोधित करते हैं। प्राण के उत्क्रमण करने पर यह शरीर शववत् हो जाता है, फिर उससे संबंधित धन और जन किसका कहाँ रहता है? इसी प्राण वा चेतन को संत सुन्दर दासजी ने पच्चीसवाँ तत्त्व बताकर उसे जीव की संज्ञा दी और छब्बीसवाँ तत्त्व को ब्रह्म शब्द से अभिहित किया; यथा-
क्षिति जल पावक पवन नभ मिलि करि,
शब्द अरु सपरस, रूप रस गन्ध जू।
श्रोत्र त्वक चक्षु घ्राण, रसना रस को ज्ञान,
वाक पाणि पाद पायु, उपस्थहि बन्ध जू।।
मन बुद्धि चित्त अहंकार, ये चौबीस तत्त्व,
पंचविंश जीवतत्त्व, करत है द्वन्द्व जू।
षटविंश जानु ब्रह्म, सुन्दर सु निहकर्म,
व्यापक अखण्ड एक रस निरसंध जू।।
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के त्रयोदश अध्याय में सत्ताईस तत्त्वों के समूह को क्षेत्र और इकतीस तत्त्वों के समुदाय को सविकार क्षेत्र कहा है। साथ ही, उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि इसी शरीर को क्षेत्र कहते हैं तथा इस क्षेत्र को जो जानता है, वह क्षेत्रज्ञ यानी जीवात्मा है। जैसे-गीता अध्याय 13-
महा भूतान्यहंकारो बुद्धि रव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पंच चेन्द्रिय गोचराः।।5।।
इच्छा द्वेष सुखं दुःखं संघातश्चेतना घृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।।6।।
तथा, गीता में है-
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधाीयते।
एतद्यो वेत्ति तं क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।1।।
इसी प्रकार गीता 15/7 में भगवान ने इस शरीर में बसनेवाले जीव को अपना सनातन अंश कहा है। ‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।’
मानो इसी का भाषानुवाद कर गो0 तुलसीदासजी ने ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ कहा है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलकजी के शब्दों में हम कह सकेंगे-‘शरीर-आत्मा परब्रह्म का ही अंश है। तथापि अंश या भाग शब्द का अर्थ-काटकर अलग किया हुआ टुकड़ा या अनार के अनेक दानों में से एक दाना नहीं है; किन्तु तात्त्विक दृष्टि से उसका अर्थ यह समझना चाहिए कि जैसे घर के भीतर का आकाश और घड़े का आकाश (मठाकाश और घटाकाश) एक ही सर्वव्यापी आकाश का ही भाग है, उसी प्रकार शरीर-आत्मा भी परब्रह्म का अंश है।
(गीता-रहस्य)
ब्रह्मविन्दूपनिषद् में लिखा है-
घट संभृतमाकाशं लीयामाने घटे यथा ।
घटो लीयते नाकाशं तद्वज्जीवो घटोपमः ।।
महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के शब्दों में-
जीवात्म प्रभु का अंश है, जस अंश नभ को देखिये।
घट मठ प्रपंचन्ह जब मिटैं, नहिं अंश कहना चाहिये।।
जब यह निश्चित हो गया कि हम इस शरीर में हैं, तो अपने शरीर में अपने को खोजना अत्यंत अपेक्षित है। अपने अन्दर खोज करने के लिए हमें क्या करना होगा? जब हम बाहर की वस्तुओं को आँख खोलकर खोजते हैं, तब भीतर की वस्तु की खोज में आँख बंद करके करनी चाहिए, यह युक्तियुक्त बात है; क्योंकि बाहर का उल्टा भीतर होता है। आँख बंद करने पर क्या मालूम होता है? आँख बंद करके देखिये, अंधकार! घोर अंधकार!! अब आप अपने से प्रश्न कीजिये-मैं कहाँ हूँ? उत्तर आवेगा-मैं अंधकार में हूँ। यह अंधकार कहाँ है? नयनाकाश में। इस नयनाकाश में आपका वासा है अथवा दूसरे शब्दों में इसी नयनाकाश के अंधकार में ‘हम हैं।’
इसी विषय को संत कबीर साहब ने प्रश्नोत्तर के रूप में इस भाँति कहा है-
इस तन में मन कहाँ बसै, निकसि जाय केहि ठौर।
गुरु गम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और।।
इसके उत्तर में उन्होंने बताया है-
नैनों माहिं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर।
गुरुगम भेद बताइया, सब सन्तन सिरमौर।।
आप कहेंगे, प्रसंग तो जीवात्मा, चेतन आत्मा वा प्राण का चल रहा था, बीच में यह ‘मन’ का प्रसंग क्यों आ गया? तो उत्तर में निवेदन है कि यह कोई असामयिक चर्चा नहीं; क्योंकि जैसे जहाँ दूध रहता है, वहाँ घृत भी। इसी दृष्टिकोण को अपनाये रखकर संत कबीर ने नेत्र में मन वा जीवात्मा का निवास बताया, पश्चात् साधना-द्वारा ऊर्ध्वगति होने पर मन नीचे छूट जाता है और चेतन का ऊपर आरोहण होता है। इसी भाँति संत दरिया साहब (बिहारी) कहते हैं-
जानि ले जानि ले सत्त पहचानि ले,
सुरत साँची बसे दीद दाना।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै,
पलक परबीन दिव दृष्टि ताना।।
ऐन के भवन में बैन बोला करै,
चैन चंगा हुआ जीति दाना।
मनी माथे बरे छत्र फ़ीरा करै,
जागता जिन्द है देखु धयाना।।
चेतन स्वभावतः चलनात्मक होने के कारण किसी एक जगह स्थिर नहीं रहता। वह शरीरान्तर्गत विभिन्न स्थानों में भ्रमण करता रहता है। यही कारण है कि स्थान-भेद से अवस्था-भेद और अवस्था-भेद से ज्ञान-भेद होता है। जाग्रत अवस्था में जीव की बैठक शरीर के जिस स्थान में रहती है, स्वप्न में उससे भिन्न और सुषुप्ति में उससे भी भिन्न स्थान में हो जाती है अर्थात् जाग्रत में जीव का वासा नेत्र में, स्वप्न में कण्ठ में, सुषुप्ति में हृदय में और तुरीय में मस्तक में होता है। इसी को ब्रह्मोपनिषद् में इस भाँति कहा है-
जाग्रत स्वप्ने तथा जीवो गच्छत्यागच्छते पुनः।
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत्।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्घ्नि संस्थितम्।।
और चरणदासजी कहते हैं-
जाग्रत वासा नैन में, स्वप्न कण्ठ स्थान।
जान सुषुप्ति हृदय में, नाभि तुरिय मन तान।।
वर्णित विषय वाणी-विलास नहीं; विज्ञान- सम्मत है। यदि कोई तर्क की कसौटी पर कसना चाहे, तो कसकर देख ले, यह बिल्कुल खरा उतरेगा।
जीव का वासा जाग्रत में आँख में, स्वप्न में कण्ठ में, सुषुप्ति में हृदय में और तुरीय में मूर्द्धा में होने का भी रहस्य है। आप विचार कर देखें-शरीरस्थ बाह्येन्द्रियों में किस इन्द्रिय का स्थान सबसे ऊपर है। आप कहेंगे-आँख का। क्यों? शरीर और इन्द्रियों का राजा मन है। राजा का स्थान सबसे ऊपर होता है। ऊपर में निवास करनेवाला नीचे के निवासियों को सरलतापूर्वक देख सकता है और उसका ज्ञान रख सकता है। जैसे पर्वतारूढ़ जन पृथ्वीतल के जीव-जन्तुओं को देखता और उसके कार्य-कलापों से अवगत होता है, वैसे ही शरीर-इन्द्रियों का अधिपति जीवात्मा ऊपर अवस्थित होकर इन सबका निरीक्षण करता रहता है अर्थात् स्थूल शरीर का ज्ञान रखता हुआ स्थूल संसार का भी ज्ञान रखता है।
नेत्र से नीचे उतरकर कण्ठ में आने पर वह स्वप्नावस्था में आ जाता है, फलस्वरूप स्थूल शरीर और स्थूल संसार के ज्ञान से विस्मृत हो जाता है। ऐसा देखा जाता है कि कितने जन की आँखें स्वप्नावस्था में खुली रहती हैं; लेकिन उनसे वह कुछ देख नहीं सकता। यदि मुँह में मिसरी लेकर कोई सो जाय और वह स्वप्न में देखे कि मैं नीम का दँतवन करता हूँ, तो उसको उस समय नीम के तीतेपन वा कड़˜वेपन का ही ज्ञान होगा, मिसरी के मीठेपन का नहीं। इस प्रकार वह स्थूल जगत् से संबंध-विच्छेद कर मानसिक जगत् में विचरण करता है और तदनुरूप सुख वा दुःख का भोक्ता बनता है। बिना स्वर की सहायता से कोई बोल नहीं सकता। संतों ने कण्ठ को षोड़शदल कमल बताकर वहाँ सोलह स्वर का स्थान बताया है। यही कारण है कि कितने लोग स्वप्न में बोलते हैं, जिनकी वैखरी वाणी अन्य जन सुन पाते हैं। इस नमूने से सिद्ध होता है कि जीव का वासा स्वप्नावस्था में कण्ठ में होता है।
कण्ठ से नीचे हृदय में आने पर स्वप्नावस्था से सुषुप्ति अवस्था में आ जाता है। उस समय स्वप्नावस्था की तरह मनोमय जगत् वा मानसिक दृश्य नहीं देखता। साथ ही हृदय में स्वर वर्ण नहीं रहने के कारण वह कुछ बोल नहीं सकता। बाह्य जगत् से बेसुध होकर वह बिछावन पर पड़ा रहता है। फिर भी उसके हृदय की गति बंद नहीं होती, क्रियाशील रहती है। पुनः जब जीव हृदय से ऊपर उठकर कण्ठ में आता है, तब वह सुषुप्ति अवस्था से स्वप्न अवस्था में आ जाता है और मनोकल्पित जगत् में भ्रमण करने लगता है। पश्चात् जब नेत्र में आकर जाग्रत अवस्था प्राप्त करता है, तो उसे स्थूल शरीर और स्थूल संसार का पूर्ववत् ज्ञान हो जाता है।
इन प्रमाणों से चेतन आत्मा के गमनागमन का ज्ञान सरलतापूर्वक हो जाता है। साथ ही, यह भी स्पष्ट हो जाता है कि स्थान-भेद से अवस्था-भेद और अवस्था-भेद से ज्ञान-भेद होता है। आशय यह कि जीवात्मा के अवरोहण में ज्ञान-हीनता और आरोहण में ज्ञान की वृद्धि होती है। इसको इस तरह से भी कहा जा सकता है कि जैसे-जैसे हम नीचे उतरते गये, वैसे-वैसे अज्ञानता बढ़ती गई और जैसे-जैसे हम ऊपर उठते गये, वैसे-वैसे हमारा ज्ञान बढ़ता गया।
संतों ने बताया कि यदि तुम इन तीनों अवस्थाओं के परे चौथी अवस्था में जाओ, तो तुमको अपनी तईं का और परमात्म-स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाए। अतएव आवश्यकता है ऐसी साधना-विधि की जानकारी की, जिससे चौथी-तुरीय अवस्था में अवस्थित होकर निज की ओर परम प्रभु परमात्मा की प्रत्यक्षानुभूति हो सके। त (दिसम्बर, 1970)
दिनांक-28-10-1966, 58वाँ महाधिवेशन का विशेषाधिवेशन

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आदरणीय सज्जनवृंद, माताओ एवं बहनो!
आपलोगों को देखकर प्रसन्नता होती है कि आपलोगों को सत्संग से कितना स्नेह है। आपलोग वास्तव में श्रम, सम्पत्ति और समय का सदुपयोग करना जानते हैं। इसका यह प्रतीक है कि आपलोग कष्ट उठाकर भी सत्संग के हेतु यत्र-तत्र से एकत्र होकर यहाँ पधारे हैं। वे बड़े भाग्यशाली होते हैं, जिनका मन सत्संग में लगता है। यह सत्संग ईश्वर की अहैतुकी अनुकम्पा से ही मिलता है। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने अपनी विनय- पत्रिका में लिखा है-
जब द्रवहिँ दीन दयाल राघव, साधा संगति पाइये।
जेहि दरस परस समागमादिक, पाप रासि नसाइये।।
तथा-
संत संग अपबर्ग कर, कामी भव कर पंथ।
कहहिं संत कवि कोबिद, स्त्रुति पुरान सदग्रंथ।।
अर्थात् संत, कवि, पण्डित, वेद, पुराण और सद्ग्रंथ कहते हैं कि संतों का संग मोक्ष का है और संसारासक्तजन का संग संसार-मार्ग का।
यह प्रत्यक्ष है कि रज-कण पवन-प्रसंग से गगनगामी होता है और वही नीर का संग कर नीच अवस्था को प्राप्त होता है। धुआँ कुसंग पाकर कालिख होता है और सुसंग पाकर सुन्दर स्याही बन जाता है। यही कारण है कि बुधजन कुसंग का परित्याग कर सुसंग वा सत्संग किया करते हैं। परिणामस्वरूप सत्संग के द्वारा सद्ज्ञान मिलता है, जिससे सरलतापूर्वक संसार-सागर से मुक्ति मिलती है।
मुक्ति कहिये अथवा मोक्ष; एक ही बात है, जिसका अर्थ होता है-छूट जाना। किससे छूट जाना? संसृति-संताप से, आवागमन के चक्र से, शरीर और संसार के बन्धनों से। बाबा नानकदेवजी ने बड़ा अच्छा कहा है-
भूलिउ मनु माइआ उरझाइउ।
जो जो करम कीउ लालच लगि, तिह-तिह आपु बंधाइउ।।
समझ न परी बिखै रस रचिउ, जसु हरि को बिसराइउ।
संिंग सुआमि सो जानिउ नाहिन, वनु खोजन कउ धाइउ।।
रतनु राम घट ही के भीतरि, ताको गिआनु न पाइउ।
जन नानक भगवन्त भजन बिन, बिरथा जनमु गवाइउ।।
इस तरह हम मायिक बन्धनों से बँधे हैं-जकड़े हैं। किन्तु यह बंधन भी अद्भुत है, विचित्र है, ओह! यह प्रबल माया-मोह मानो मानव मात्र को ऊहापोह में डालकर नरक के गर्त में गिराने की टोह में ही रहता है। बन्धन भी कैसा जबर्दस्त और भयंकर है। भगवान बुद्ध कहते हैं- “ यह जो लोहे, लकड़ी या रस्सी का बंधन है, उसे बुद्धिमान जन दृढ़ बन्धन नहीं कहते। वस्तुतः दृढ़ बन्धन है-मणि, कुण्डल, पुत्र और स्त्री में इच्छा का होना।” यह मोह की बेड़ी कितनी मजबूत है कि खिंच जाती है, लचक जाती है; परन्तु टूटती नहीं। गोस्वामीजी कहते हैं-
ईस्वर अंस जीव अविनासी ।
चेतन अमल सहज सुख रासी ।।
सो माया बस भयेउ गोसाईं ।
बँधोउ कीर मर्कट की नाईं ।।
जड़ चेतनहि ग्रंथि पड़ि गई ।
जदपि मृषा छूटत कठिनई ।।
(रामचरितमानस, उत्तरकाण्ड)
हम बन्धन-युक्त होते हुए भी बन्धन-मुक्त हैं और बन्धन-मुक्त होते हुए भी बन्धन-युक्त हैं-सुनकर बड़ा आश्चर्य होता है। विचार करने पर विस्मय होता है, हँसी लगती है और अपने पर तरस भी आता है। क्यों? इसलिए कि हम ईश्वर अंश होने के नाते स्वरूपतः ईश्वर ही हैं। ईश्वर के ऊपर बन्धन कैसा? प्रखर सूर्य-तेज के सम्मुख अन्धकार का अस्तित्व कहाँ? ‘रवि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं?’ कदापि नहीं और पाश-बद्ध इसलिए कि हम एक श्वास लेने के लिए भी स्वतंत्र नहीं, हमें अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं।
अपुनपौ आपुन ही विसर्यो।
जैसे स्वान काँच मंदिर में, भ्रमि-भ्रमि भूकि मर्यो।।
हरि सौरभ मृग नाभि बसत है, द्रुम तृन सूँघि मर्यो।
ज्यों सपने में रंक भूप भयो, तस करि अरि पकर्यो।।
ज्यों केहरि प्रतिबिम्ब देखि कै, आपुन कूप पर्यो।
जैसे गज लखि फ़टिक शिला में, दसननि जाइ अर्यो।।
मरकट मूठि छाड़ि नहिँ दीनी, घर घर द्वार फि़र्यो।
सूरदास नलनी को सुवटा, कहि कौने जकर्यो।।
-संत सूरदासजी
उपर्युक्त सुग्गे और बन्दर को किसने बाँधा है-किसने पकड़ा है? कोई नहीं। सुग्गा स्वयं नली को अपने चंगुल से पकड़ा हुआ अपने मानसिक बंधन से जकड़ा हुआ है और बंदर स्वयं अपने हाथ से संकीर्ण बिल में मिठाई पकड़े हुए है। सुग्गा नली छोड़ दे और बंदर मिठाई छोड़ दे, तो उसका मानसिक बंधन छूट जाए और वह मुक्त हो जाए; किन्तु दोनों के मन की इतनी दुर्बलता है कि बन्धन नहीं रहते हुए भी अपने ऊपर बंधन का मिथ्या आरोप कर दुःखी होता रहता है। यही हालत मानव का है। वह स्वयं माया को पकड़े हुए है और कहता है कि मैं माया-ग्रसित हूँ-माया ने मुझको पकड़ रखा है, अपने पास में बाँध रखा है आदि।
संत-महात्मागण समझाते हैं-‘यह मायिक बंधन मिथ्या है; क्योंकि जब माया ही असत्य है, तब फिर उसका बंधन सत्य कैसे हो सकता है? अतएव बंधन झूठा है, मात्र तुम सत्य हो। अपने को जानो-अपने स्वरूप को पहचानो।’ वर्णित कथन वा उल्लिखित आप्त-वचन विश्वसनीय होते हुए भी, उनपर विश्वास करते हुए भी वस्तुतः हम विश्वास नहीं कर पाते। फलतः स्थिति ज्यों-की-त्यों बनी रहती है। समस्या सुलझने की जगह उलझती जाती है। कठिनाई किसी भी भाँति हल नहीं होकर अटल-सी व जटिल बन जाती है। ठीक वैसे ही, जैसे कि दिक्-भ्रम होने पर दिशा का ज्ञान खोया रहता है। यद्यपि सभी जन जानते हैं कि सूर्य सदा पूर्व दिशा में ही उदय होता है, अन्य किसी दिशा में नहीं; किन्तु दिशा का ज्ञान खो जाने पर मानव अपने ही ऊपर अपना विश्वास नहीं कर पाता। यद्यपि उसका विचार कहता है कि अन्य दिनों की भाँति दिनकर आज भी प्राच्य दिशा में ही उदित है, तथापि उसका मन इसको स्वीकार नहीं करता। इस तरह उसके मन और उसके विचार में सामंजस्य नहीं हो पाता। मन और विचार के बीच बड़ी खाई पड़ जाती है। वस्तुतः मोह की महिमा बहुत बड़ी है। उसकी सीमा-उसकी चहारदिवारी को लाँघना सहज नहीं, जन साधारण के बूते के बाहर की बात हो जाती है।
अफसोस! मिथ्या मोह-पाश में किसने अपना गला नहीं फँसाया? ममता के जाल में फँसकर किसने अपने को पामाल नहीं किया? जैसे मकड़ी अपने निर्मित जाल में आप फँसती है, वैसे ही मानव अपने मायाजाल में आप फँसकर अपना विनाश करता है। माया के पीछे पड़े प्राणी बँधे खरगोश की भाँति चक्कर काटते हैं और मन के बंधनों में पड़कर पुनः पुनः चिरकाल तक दुःख पाते रहते हैं। माया की प्रबल धार प्राणी को बड़ी प्रिय और मनोहर लगती है; किन्तु उसके भोग भँवर में पड़कर बारम्बार जन्म और मरण को प्राप्त होते रहते हैं। जैसे दृढ़ मूल के समूल नष्ट नहीं हो जाने से कटा हुआ वृक्ष फिर बढ़ आता है, वैसे ही ममता के बिल्कुल विनष्ट हुए बिना दुःख-चक्र बारम्बार प्रवर्तित होता रहता है। शराबी आदमी शराब के नशे में इहलौकिक लज्जा को खो बैठता है; किन्तु ममता-मद्यप्रमत्त मानव उभय लोकों की लज्जा को धो बैठता है। सांसारिक धन-जन वा पुरजन-परिजन में आसक्त मनवाले मनुष्य को मृत्यु उसी तरह ले जाती है, जैसे सोये गाँव को बड़ी बाढ़। जैसे सर्प के डँसने पर विष चढ़ने से लहरें आती हैं, वैसे ही ममता-साँपिन जिसे काट खाती है, उसे बहुत-सी कुतर्क रूप दुःख देनेवाली लहरें आती रहती हैं।
ममता-ग्रस्त पतित प्राणी अपने को जिस अवस्था में ले जाता है, वह उसके लिए इतनी प्यारी हो जाती है कि उसे वह छोड़ना नहीं चाहता। किन्हीं के समझाने पर भी नहीं समझता। उसका मस्तिष्क ऐसा विकृत हो जाता है कि वह सत्य को स्वीकृत करना नहीं चाहता। फलतः उसके विचार कुछ ऐसे बन जाते हैं कि वह अपने हितैषी के हितकारी वचन को सुनकर भी सुनना नहीं चाहता। इस अवसर पर मुझे मोह की एक बड़ी मधुर और मनोरंजक कथा याद आती है, वह आपलोगों को सुनाऊँ।
किसी समय किसी कारणवश देवराज इन्द्र शूकर बनकर कीचड़ में रहते थे। उनको एक शूकरी थी और शूकरी से उनके बहुत-से बच्चे हो गये थे। वे सुखपूर्वक अपना समय व्यतीत करते थे। कुछ देवगण उनकी इस दुरवस्था को देखकर उनके पास गये और बोले-‘आप देवराज हैं, समस्त देवगण आपके शासन के अधीन हैं। फिर आप यहाँ क्यों हैं? आप स्वर्ग पधारें।’ इन्द्र ने उत्तर दिया-‘मैं बड़े मजे में हूँ। जो सुख मुझे यहाँ उपलब्ध है, उसके सामने स्वर्ग की मुझे परवाह नहीं। यह मेरी शूकरी और ये मेरे बच्चे जबतक हैं, तबतक स्वर्ग आदि मुझे कुछ नहीं चाहिए।’ देवगण देवराज की बात सुनकर अवाक् रह गये और उस समय उन्हें कुछ सूझ न पड़ा। कुछ दिनों के पश्चात् देवगण को एक उपाय सूझा। उन्होंने मन में विचार किया-जिससे इनको आसक्ति है, जिसके प्रति इनकी इतनी ममता है, पहले उसको विनष्ट किया जाए। जबतक आकर्षण-वस्तु नष्ट नहीं होगी, तबतक इनकी आसक्ति नहीं छूटेगी। अतएव उन देवों ने एक-एक करके उनके सभी बच्चों को मार डाला। बच्चों का क्रमानुगत मरते देख इन्द्र बहुत रोते और कातर होकर विलाप करते। उनकी शूकरी उनको ढाढ़स दिलाती। इन्द्र भी शूकरी के मुख को देखकर अपने हृदय को थाम्हते-धैर्य धारण करते। ‘डूबते को तिनके का सहारा’ की भाँति उनकी शूकरी उनका अवलम्ब था। बच्चों को मारकर भी देवगण चुप नहीं बैठे। उन्होंने एक दिन उस शूकरी को भी मार दिया। आज इन्द्र के दुःख का पारावार न था, मानो दुःख का पहाड़ ही उनके ऊपर टूट पड़ा हो। बच्चों के मरने पर जो मन-बहलाने का, मन लगाने का, धैर्य धारण करने का एक आलम्बन था, आज उससे भी बिछुड़न हो गया। अब तो इन्द्र को रोने-धोने का ठिकाना नहीं रहा। अंत में उस देवगण ने इन्द्र के उस शूकर शरीर को भी चीरकर समाप्त कर दिया। अब अपने रूप में आकर वे अपनी पूर्वावस्था पर सोचकर हँसने लगे और बोले-अफसोस! मैं कैसा भयंकर स्वप्न देख रहा था। आज मेरी नींद टूटी है। कहाँ मैं देवराज इन्द्र और कहाँ यह शूकर शरीर! मैं इसी शरीर शूकर जन्म को ही एकमात्र जन्म समझकर बैठा था। इतना ही नहीं, वरन् समस्त संसार शूकर-देह धारण करे, ऐसी कामना करता था।
मानव भी इसी प्रकार अपने स्वरूप को भूलकर मिथ्या माया के पीछे पागल हो रहा है। समझ रहा है-यही मेरी सन्तति, यही मेरी सम्पत्ति और यही हम दम्पति जो कुछ हैं; सो हैं इसके आगे क्या है? वह तन-मद, मन-मद, धन-मद, गुण-मद, जाति-मद, माया-मद, विद्या-मद, पद-मद प्रभृति मदों की मदिरा पी उन्मत्त हो उठता है। वह कहना जानता है, सुनना नहीं। सज्जनों का सत् वचन भी उसको नहीं जँचता। उसको सारी उलटी-ही-उलटी बातें सूझती हैं। परिणामस्वरूप वह यथार्थता से कोसों दूर रहकर भरपूर कष्टों का भोग भोगता है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज मोह के इस नग्न नृत्य को देखकर कहते हैं-
जिन्ह कृत महामोह मद पाना ।
तिन्ह कर कहा करिय नहिं काना ।।
अब प्रश्न होता है-इस महामोह से मुक्त होने के लिए-संसृति-संताप से परित्रण पाने के लिए कोई यत्न है वा नहीं? सभी संतों ने एक स्वर में इसका उत्तर दिया है और वह यह कि सत्संग करो-सत्संग करो। पुनः उन्होंने उसपर प्रकाश डालते हुए बताया कि सत्संग के द्वारा विषयों की ओर से विमुखता होगी, विषय-विमुख होने से जागतिक प्रपंच से आसक्ति छूटेगी, आसक्ति छूटने से मोहहीनता होगी, मोह-रहित होने से निश्चलता आएगी और निश्चलता आते ही जीवन्मुक्त ही दशा आ जाएगी। इस अवस्था को प्राप्त कर लेने पर फिर किसी प्रकार का बंधन कैसा? इसी विषय को मदाद्य श्रीशंकराचार्यजी महाराज के शब्दों में सुनिये-
सत्संगत्वे निस्संगत्वं निस्संगत्वे निर्मोहत्वम् ।
निर्मोहत्वे निश्चलितत्वं निश्चलितत्त्वे जीवन्मुक्तिः।।
अर्थात्-
सत्संगति से हो जाता नर विषयों से निस्संग ।
फि़र व्यामोह रहित हो जाता हो सर्व= असंग ।।
मोह विगत होते ही होता मन निश्चलता युक्त ।
निश्चलता आते ही वह हो जाता जीवन्मुक्त ।।
परम पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने ‘सत्संग’ को बाह्याभ्यन्तर कहकर दो भागों में विभक्त किया है। यथा-
धार्म कथा बाहर सत्संगा। अन्तर सतसंग ध्यान अभंगा।।
आवश्यकता है उभय भाँति के सत्संग की सद्युक्ति पाकर संयमपूर्वक नित्य निरन्तर अभ्यास करने की। अ (अक्टूबर 2010)
पूज्यपाद महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन भागलपुर स्थित महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 15-12-1968 ई0 को साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था।




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आपलोग जानते हैं कि एक होते हैं-रसोई बनानेवाले और दूसरे होते हैं-परोसनेवाले। पाककर्ता द्वारा सुन्दर सुस्वादु भोजन तैयार किये जाने पर भी परोसनकर्ता यदि कुशल नहीं हो, तो भोजनकर्ता भूखे रह जाएँ, कोई आश्चर्य की बात नहीं। क्योंकि भोजन करनेवालों में सभी एक ही प्रकृति के नहीं होते-भिन्न- भिन्न प्रकृति के हुआ करते हैं।
प्रायः देखा जाता है कि किन्हीं की रुचि मिठाई में होती है, तो किन्हीं की खटाई में, किन्हीं की रुचि मिरचाई में, तो किन्हीं की तीताई में, कोई नमकीन पसंद करते हैं, तो कोई इस विषय में बिल्कुल गमगीन रहते हैं आदि।
पाककर्ता को पाचक और उपहर्ता को बारीक कहते हैं। ‘बारीक’ शब्द के अनेक अर्थों में एक अर्थ सूक्ष्म वा महीन भी होता है। तात्पर्य यह कि परोसनेवाले की बुद्धि इतनी सूक्ष्म-पैनी होनी चाहिए कि भोजनकर्ता की रुचि परखने में उसे तनिक भी देर न लगे और सबको उनकी रुचि के अनुकूल भोजन देकर संतृप्त करावे। यही उसकी कार्य-कुशलता का परिचायक है।
मेरे इस प्रकार के कथन का तात्पर्य यह है कि ठीक इसी भाँति ऋषि-मुनि एवं संत-मनीषीगण ज्ञान, योग-युक्त, ईश्वर-भक्ति, विराग तथा सदाचारादि रूप उत्तम-उत्तम भोज्य एवं पेय पदार्थ स्वरचित ग्रंथरूप पात्र में रख गये हैं। आवश्यकता है अध्यात्म-जिज्ञासु, पिपासु एवं क्षुधित जन को उनकी अभिरुचि के अनुसार उन उत्तमोत्तम ग्रंथरूप पात्रें में से वर्णित सुरुचिकर, सुपाच्य और पौष्टिक पेय एवं भोज्य पदार्थ देने की और इसी में प्रवचनकर्ता रूप बारीक की विशेषता है।
मेरी समझ से सत्संग में संतों की वाणी का अवलंब अवश्य चाहिए। संतवाणी की अपेक्षा होनी चाहिए न कि उपेक्षा। संतवाणी-विहीन सत्संग ऐसा ही है, जैसे लवणहीन व्यंजन। साथ ही यह भी कहते ही बनता है कि संतवाणी का अर्थ करना उतना सरल नहीं, जितना कि लोग समझते हैं। प्रथम तो संतवाणी सुनना कठिन है, सुनकर भी समझना कठिन है। यदि येन-केन-प्रकारेण समझने और समझाने की कुछ क्षमता आ भी जाए, तो इन दोनों से कहीं अत्यधिक कठिनाई होती है उसकी रहनी रहने में।
भूगोल पढ़कर तथा देश-विदेश के मानचित्रें को देखकर उनमें से किसी भी देश का पता बता देना सरल है; किन्तु उन समस्त देशों में पहुँचकर वहाँ की सारी बातों की जानकारी कर लेनी, सबके लिए सरल व संभव नहीं। भूगोल अध्ययन कर हम सुगमतापूर्वक बता सकते हैं कि भारत में गुजरात कहाँ है? गुजरात में सोमनाथ का मंदिर कहाँ है, यह भी बता सकते हैं; किन्तु जब हमसे पूछा जाए कि मंदिर में प्रवेश करने के लिए कितनी सीढ़ियाँ हैं और उन सीढ़ियों की लंबाई-चौड़ाई कितनी-कितनी हैं; तब हमें मौन हो जाना पड़ेगा।
यही बात संतवाणी के लिए भी समझना उपादेय है। संतों की वाणी के मात्र शब्दार्थ हम अपनी अर्जित विद्या-बुद्धि के आधार पर कर सकते हैं। किन्तु उनकी रहस्यात्मक वाणी-भेदवाणी के अध्ययन मनन वा श्रवण-मनन अथवा इधर-उधर की सुनी-सुनाई दो चार बातों को रट लेने से संतवाणी की वास्तविक समझ नहीं हो सकती और वास्तविक ज्ञान से हीन जन यदि संतवाणी की व्याख्या करे, तो वह भूल से रहित नहीं हो सकता।
समुद्र की अगाध गहराई जानने की यदि इच्छा हो तो किससे पूछा जाए? इसमें संदेह नहीं कि राम- रावण युद्ध के समय सैकड़ों वानर वीर धड़ाधड़ समुद्र के ऊपर कूदते हुए लंका चले गये थे; परन्तु उनमें से कितने को समुद्र की गहराई का ज्ञान है? समुद्र-मंथन के समय देवताओं ने मंथन-दंड बनाकर जिस बड़े भारी पर्वत को समुद्र के नीचे छोड़ दिया था और जो सचमुच समुद्र के नीचे पाताल तक पहुँच गया था, वही मंदराचल पर्वत समुद्र की गहराई को जान सकता है। वाग्देवी के रहस्य को जाननेवालों तथा उनकी ऊपरी और बाहरी बातों के जिज्ञासुओं में जो भेद है, उसे कवि ने बड़ी ही सरसता के साथ दरसाया है-मुरारि कवि ने कितना ही अच्छा कहा है-
अब्धिर्लंघित एव वानर भटैः किं त्वस्य गंभीरताम् ।
आपाताल निमग्न पीवरतनुर्जानाति मंथाचलः ।।
संतवाणी को समझने-समझाने के लिए विद्या की आवश्यकता है सही; साथ ही संतों के पारिभाषिक शब्दों, रहस्यात्मक वाणियों, उनकी साधनाएँ और तदनुकूल साधना कर अनुभूति प्राप्त कर लेने की अनिवार्य आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकेंगे-संतज्ञान की मर्यादा जानने के लिए अनेक जन्मों के अर्जित सुसंस्कारों की, सत्संग की, सद्गुरु कृपा की और संयमित जीवन-यापन करते हुए प्रयत्नशील होकर नित्य निरंतर सत्साधना करने की अपरिहार्य आवश्यकता है। कहने की आवश्यकता नहीं, अनुभूति के लिए हमें अपने अंदर गोता लगाना पड़ेगा अर्थात् शरीर-सागर में ध्यान-साधना की डुबकी लगानी पड़ेगी। संत कबीर साहब कहते हैं-
कबीर काया समुँद है, अंत न पावै कोय।
मिरतक होइ के जो रहै, मानिक लावै सोय।।
मैं मरजीवा समुँद का, डुबकी मारी एक।
मुट्ठी लाया ज्ञान की, जामें वस्तु अनेक।।
संत-साधना के माध्यम अंतःप्रविष्ट किये बिना ज्ञान-मोती, ज्ञानरत्न अथवा भक्ति-मणि मिलना कठिन ही नहीं, वरं असंभव है। क्योंकि संत कबीर साहब के शब्दों में हम पाते हैं-
जिन ढूँढ़ा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
किन्तु यदि हमारी अवस्था इस साखी की दूसरी कड़ी ‘मैं बौरी बूड़न डरी, रही किनारे बैठ’ को चरितार्थ कर रही है, तो फिर भला हमें संतवाणी के अर्थ करने का अधिकार ही क्या है? अधिकार प्राप्त किये बिना कुछ कहना अनधिकार चेष्टा तो है ही, साथ ही उसका कथन सत्य-सारहीन होने के कारण प्रभावोत्पादक नहीं होता। इस संबंध में एक मधुर कथा सुनिए-
एक राजा ने अपने मंत्री से पूछा-भगवान बुद्ध और भगवान शंकराचार्य प्रभृति संतों के वाक्य का प्रभाव लोगों के ऊपर बहुत गहरा पड़ता था। आज उन संतों के ज्ञान-जैसे ही ज्ञानोपदेश अन्य साधु-महात्मा भी किया करते हैं। फिर क्या कारण है कि उन संतों जैसा इन महात्माओं के प्रवचन प्रभावकारी क्यों नहीं होते? मंत्री ने कहा-राजन्! इस प्रश्न का उत्तर तो आप स्वयं आज के तीसरे दिन देनेवाले हैं। राजा ने पूछा-सो क्या? मंत्री ने कहा-हाँ, ऐसी ही बात है। आप कृपापूर्वक दो दिन इसकी प्रतीक्षा करें।
दो दिन व्यतीत हो जाने के बाद तीसरे दिन राजा अपने सिंहासन पर बैठे थे। निकट में मंत्री सिपाही तथा अन्यान्य राज्य पदाधिकारी भी बैठे थे। मंत्री ने एकाएक तमककर उक्त सिपाही से कहा- सिपाही! इस राजा को कान पकड़कर सभा से बाहर कर दो। सिपाही हक्का-बक्का हो मंत्री की ओर देखने लगा। मंत्री ने पुनः डाँटते हुए कहा-अबे! मेरी ओर क्या देखता है? राजा को कान पकड़कर शीघ्र सभा-स्थल से बाहर करो। मंत्री की बात सुनकर सिपाही सन्न रह गया, जैसे वह काठ की मूर्ति हो, खड़ा का खड़ा रह गया-टस-से-मस नहीं किया। राजा ने कहा- मंत्रीजी! आप क्या बोल रहे हैं? कहीं आप पागल तो नहीं हो गये? मंत्री ने कहा-महाराज! यही आपके प्रश्न का उत्तर है। जो लोग अधिकार प्राप्त किये बिना ही बोलते हैं, वे पागल हैं। साधना- हीन, आचरण-हीन, केवल वाक्य-प्रवीण जन का प्रभाव नहीं पड़ता। भगवान् बुद्ध और भगवान् शंकराचार्य प्रभृति संतगण साधना-सम्पन्न आचरण और ज्ञान में पूर्ण होकर उपदेश करते थे। इसीलिए उनके ज्ञान को लोग शीघ्र ग्रहण कर लेते थे। अभी आपलोगों ने संत कबीर साहब की एक वाणी सुनी-
घूँघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे।
संत कबीर साहब की वाणी के लिए यह मुहावरा सुप्रसिद्ध है-
कबीर का गाया गावै, तो गजब का धक्का खावै।
और-
कबीर की वाणी बूझै, तो तीनों लोक सूझै।।
उपर्युक्त वाणी का अर्थ यदि सामान्य तरह से किया जाए, तो होगा-घूंघट का पट खोल दो, हटा दो, तो तुमको प्रियतम मिलेंगे। किन्तु रहस्यात्मक वाणी का अर्थ साधारण तरह से करना अभीष्ट नहीं, इसका रहस्योद्घाटन करना अत्यन्त अपेक्षित है। भक्त जन अपनी-अपनी भावना के अनुकूल भिन्न-भिन्न भावों में भगवान को देखते हैं। यथा-कोई दास्यभाव, कोई सख्य भाव, कोई वात्सल्य भाव और कोई पति-पत्नी भाव आदि। हमारे यहाँ जहाँ पति-पत्नी का भाव दर्शाया जाता है, वहाँ जीवात्मा का पत्नी-भाव में और परमात्मा को पतिरूप में मानते हैं और इस्लाम धर्म के सूफी सम्प्रदाय में इसका उलटा माना गया है। अर्थात् जीवात्मा को पतिरूप में और परमात्मा को पत्नी के रूप में देखते हैं। संत कबीर साहब की इस वाणी में पति-पत्नी का भाव दरसाया गया है। जीवात्मा को स्त्री रूप में और परमात्मा को पति रूप में वर्णन किया गया है। चेतन आत्मा रूप वधू के ऊपर स्थूल- सूक्ष्मादि रूप आवरण का घूँघट है। जबतक यह आवरण रूप घूँघट हटता नहीं, जीवात्मा को परमात्मरूप पति का दर्शन नहीं हो पाता। इसी विषय को गो0 तुलसीदासजी महाराज इस भाँति कहते हैं-
मायाबस मति मंद अभागी।
हृदय जवनिका बहु विधि लागी।।
ते सठ हठ बस संसय करहीं।
निज अज्ञान राम पर धरहीं।।
काम क्रोध मद लोभ रत, गृहासक्त दुःख रूप।
ते किमि जानहिं रघुपतिहिं, मूढ़ पड़े तम कूप।।
ये आवरण कौन-से हैं, इसका स्पष्टीकरण संत दादूदयालजी महाराज ने किया है। उन्होंने बताया है कि शरीर के अंदर ही अंधकार, प्रकाश और शब्द के आवरण हैं और यह शरीर एक नहीं वरं पाँच हैं-स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य अर्थात् जड़-विहीन चेतन। आवश्यकता है, इन शरीरों को पवित्र बनाने की अथवा दूसरे शब्दों में जीवात्मा के ऊपर से इन शरीरों को हटाने की। क्योंकि शरीरों का हटना ही जीवात्मा का अपने स्वरूप में आना अथवा निरावरण होना है, जिस अवस्था में ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। वे कहते हैं-
नीके राम कहतु है बपुरा।
घर माहैं घर निर्मल राखै, पंचौ धोवै काया कपरा।।
-संत दादू दयालजी
संत पलटू साहब कहते हैं-ईश्वर को पाने के लिए ईश्वर-ईश्वर कहकर चिल्लाने अथवा अन्यत्र जाने की जरूरत नहीं, वह प्रभु तो हमारे निकट हैं। जरूरत तो इस बात की है कि भगवच्चिंतन द्वारा तुम अपने अंदर पैठकर अपने को आवरणमुक्त कर सको।
‘साहब साहब क्या करै साहब तेरे पास।
साहब तेरे पास याद कर होवै हाजिर।
अंदर धँसिके देखु मिलेगा साहब नादिर।।’
-संत पलटू साहब
संत कबीर साहब ने जिसको ‘घूँघट’ कहा, संत पलटू साहब उसको ‘बुरका कहा और परम भक्तिन मीराबाई उसी को ‘तन-गाँती’ कहकर संबोधित करती हैं। वह शरीररूपी गाँती वा आवरण को हटाकर श्याम से मिलती है। यथा-
मैं तो गिरिधर के रंग राती।--खोल मिली तन गाँती।
-मीराबाई
संत पलटू साहब कहते हैं, इसको ‘बुरका’ को हटाओ और प्रभु को पाओ। ‘बुरका’ हटाने की देर है, प्रभु पाने की देर नहीं। ‘बुरका डारै टारि खुदा बाखुद दिखरावै।’ गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने ब्रह्म, जीव और माया की उपमा श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी से देकर तुलनात्मक विवेचन का एक सुंदर चित्र-चित्रित किया है। यथा-
आगे राम लखनु बने पाछें।
तापस बेष विराजत काछें।।
उभय बीच सिय सोहति कैसे।
ब्रह्म जीव बिच माया जैसे।।
कानन-काल में भगवान श्रीराम, श्रीलक्ष्मण और जगज्जननी जानकीजी गाँव, गिरि तथा वनादि में भ्रमण करते थे। ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ श्रीराम भगवान आगे में, श्रीलक्ष्मणजी पीछे में और श्रीसीताजी बीच में थीं। श्रीलक्ष्मणजी श्रीराम को नहीं देख पाते हैं; क्योंकि बीच में श्रीसीताजी हैं। तात्पर्य यह है कि जीवात्मा को परमात्मा की प्रत्यक्षता इसलिए नहीं हो पाती है कि जीव और ब्रह्म के बीच में माया है। श्रीलक्ष्मणजी के आगे से श्रीसीताजी हट जाएँ, तो श्री लक्ष्मणजी को तनिक भी बाधा न हो। इस भाँति जीवात्मा के ऊपर स्थूल-सूक्ष्मादि-अंधकार-प्रकाशादि जो मायिक आवरण हैं, इनके हट जाने से जीव को पीव पाने में पलभर की भी देर नहीं लगेगी। गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
जीव हृदय तम मोह बिसेखी।
छूटि न ग्रंथि परइ किमि देखी।।
यदि शंका हो कि ईश्वर अत्यन्त निकट है, तो फिर उनके दर्शन क्यों नहीं हो पाते? इसके उत्तर में निवेदन है कि कोई भी वस्तु जो निकटतम होती है अथवा अति दूर होती है, तो इन दोनों की दशाओं में उस वस्तु की पहचान नहीं हो पाती। जैसे जिस वायुयान को हम अपनी समीप से उड़ते देखते हैं, वही वायुयान अत्यधिक दूर हो जाने पर नहीं दीख पड़ता। अथवा किसी परिचित व्यक्ति को भी दूर में आते देखकर हम उसे पहचान नहीं सकते; किन्तु निकट आने पर उसकी पहचान होती है। यह तो अति दूरी के कारण पहचान नहीं हो सकने की बात हुई। अब निकटतम की पहचान नहीं होने के कारण को हम जानें।
कोई भी वस्तु वा व्यक्ति दूर हों वा निकट, उसको देखने का साधन क्या है? हमारी आँख। अब हम विचार करें-जब हमारी आँख में लाली हो जाती है, तो क्या उस लाली को बिना किसी माध्यम के हम देख सकते हैं? सभी दर्शनीय वस्तु को हम नेत्र से देख सकते हैं और अपने नेत्र की लाली को हम अपने चक्षु से नहीं देख पाते; क्यों? इसका कारण इसकी अत्यन्त निकटता है।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने तो और गजब ढाया है, कहने में कमाल कर दिया है। वे कहते हैं-अरे भाई! वस्तु की निकटता वा सुदूरता की बात छोड़ो। पहले यह बताओ, जिसकी आँख में मोतियाबिन्द हो जाता है, उसको कुछ सूझता है? कुछ भी नहीं। इसी तरह इस जागतिक जन की दर्शन शक्ति को मायारूप मोतियाबिन्द ने आवृत्त कर रखा है, उसे सूझे तो कैसे?
हे नेरे सूझत नहीं, ल्यानत ऐसे बिन्द ।
तुलसी या संसार को, भयो मोतियाबिन्द ।।
यदि मोतियाबिन्द की शल्य क्रिया (व्चमतं-जपवद) हो जाए और रोगी संयमपूर्वक रहे तो गई आँख, खोई दृष्टि-शक्ति पुनः वापस लौट आवे। उसी भाँति साधक संयमित जीवन व्यतीत करते हुए सद्गुरु से सरल योग-युक्ति जानकर नित्य अभ्यास करे, तो उसकी वह दृष्टि खुल जाएगी, जिससे वह प्रथम तो ब्रह्म की ज्योति का दर्शन कर सकेगा और बाद में ब्रह्म का भी। जैसे सूर्योदय के समय हम पहले सूर्य के प्रकाश को पाते हैं, पश्चात् सूर्य को।
जैसे रवि के तेज से, देख पड़े रवि जात ।
तैसे आतम तेज से, आतम रूप लखात ।।
तथा-
श्रीगुरु पद नख मनि गन जोति। सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती।।
दलन मोह तम सो सुप्रकासू। बड़े भाग उर आवहिं जासू।।
उघरहिं विमल विलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनीके।।
सूझहिं रामचरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जेहि खानिक।।
जथा अंजन आँजि दृग, साधाक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखहिं शैल वन, भूतल भूरि निधान।।
प्रातः स्मरणीय अनन्त श्रीविभूषित महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के वचनों में हम कह सकेंगे-केवल पढ़न्त और सुनन्त विद्या द्वारा ज्ञान प्राप्त करने से अज्ञान अंधकार पूर्ण रूप से दूर नहीं होता है। जब अंतर में दिव्यदृष्टि खुलती है और ब्रह्मज्योति दरसती है, तभी तम मोह दूर होता हो। अंतर में ब्रह्मज्योति देखनेवाली तुरीयावस्था की दृष्टि और विवेकदृष्टि (बुद्धि में सारासार बोध की शक्ति यानी विद्या) हृदय के दो निर्मल नेत्र हैं।
दृष्टियोग साधन में रत रहनेवाले साधक के नेत्रें में उपर्युक्त सुअंजन लगता है। दृष्टियोग साधन करना, इस सुअंजन के लगाने का यत्नरूप है। बहुत-सी धरतियों की खान परम विराट रूप माया है, जिसमें अनेकानेक ब्रह्मांडों की रचनाएँ हैं।
गूलरि तरु समान तव काया।
फल ब्रह्माण्ड अनेक निकाया।।
(रामचरितमानस)
रोम रोम ब्रह्मांडमय, देखत तुसलीदास ।
बिन देखे कैसे कोऊ, सुनि मौन विस्वास ।।
(तुलसी सतसई)
उपर्युक्त सुअंजन प्राप्त करनेवाले को अखिल ब्रह्मांड दरसते हैं। दृष्टियोग के साधन से सूक्ष्म वा दिव्यदृष्टि खुल जाती है। मन एकविन्दुता प्राप्त कर स्थूल और सूक्ष्म मंडलों के सन्धि-विन्दु वा केन्द्रविन्दु से उत्थित नाद वा अनहदनाद को ग्रहण करता है। शब्द में अपने उद्गम स्थान पर आकर्षण करने का गुण होने के कारण केन्द्रीय शब्द से खिंचती हुई सुरत स्थूल-सूक्ष्मादि जड़ के चारो आवरणों को पार कर अपने स्वरूप में स्थित होगी, जड़ के आवरण से निरावरण होने पर अपने स्वरूप की पहचान के साथ-साथ परमात्म-स्वरूप की भी पहचान वा प्रत्यक्षता होगी। जीवात्मा परमात्मा को प्राप्त कर कृतकृत्य हो जाएगी। ‘इस प्रकार घूँघट का हटना और परमात्मा को पाना होता है।’ (फरवरी, 1969)
स्थान: कुप्पाघाट,भागलपुर दिनांक-29-12-1968 ई0
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आदरणीय सज्जनो तथा आदरणीया देवियो!
आप श्रद्धालुजनों की अपार भीड़ देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है, किन्तु एक बात निवेदन करना चाहूँगा कि सत्संग में शान्ति का होना आवश्यक है। अतएव आपलोग शान्तचित होकर बैठें और सुचित एवं शांतभाव से सत्संग-वचन श्रवण करें। साथ ही, यदि बात अच्छी लगे, तो उसे ग्रहण करें। मैं दृढ़तापूर्वक कहूँगा कि सत्संग-वचन श्रवणीय, ग्रहणीय और स्मरणीय होते हैं। सुनें-
अस्पतालों में जहाँ अधिक भीड़-भाड़ हो, तो आप समझें कि उस क्षेत्र के लोगों का शारीरिक पतन हो चुका है। कचहरियों में जहाँ अधिक भीड़-भाड़ देखें, तो समझें कि उस क्षेत्र के लोगों का नैतिक पतन हो चुका है। जहाँ के चलचित्र-गृहों में अधिक भीड़ देखें, तो आप निश्चित समझें कि उस क्षेत्र के लोगों का चारित्रिक पतन हो चुका है और जहाँ के सत्संग में अधिक भीड़ देखें, तो सुनिश्चितरूप से समझ लें कि उस क्षेत्र के लोगों का अध्यात्म-विकास हो रहा है-आध्यात्मिक उन्नति हो रही है।”
साथ ही, आप यह भी जान लें- “ जहाँ का आध्यात्मिक स्तर उच्च और उन्नततर होगा, वहाँ के लोग सदाचारी होंगे। जहाँ के लोग सदाचार समन्वित होंगे, वहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी। जहाँ की सामाजिक नीति उत्तम होगी, वहाँ की राजनीति कभी अनुत्तम हो नहीं सकती और जहाँ की राजनीति अच्छी होगी, उस राज्य की जनता कभी दुःखी नहीं हो सकती। वहाँ सदा सुराज्य बना रहता है।”
इसलिए सुशासक स्वराज्य-सुप्रबंध-हित राजनीति के साथ आध्यात्मिकता को अपनाते हैं। आध्यात्मिकता राजनीति को पवित्रता प्रदान करती है। अध्यात्म-विहीन भौतिक विज्ञान परम कल्याण की प्राप्ति कराने में सदा अक्षम रहता है। यही कारण है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने अपनी मर्यादा के रक्षार्थ अपने राजत्वकाल में प्रजा-सहित पुरजन को अध्यात्म-ज्ञान की शिक्षा दी थी। यह प्रसंग रामचरित मानस के उत्तरकांड में है, जिसका पाठ अभी आपलोगों ने सुना।
सज्जनो! यों तो कितने श्रद्धालुजन श्रद्धा-पूर्वक नित्यप्रति श्रीरामायणजी का पाठ करते हैं, कितने नवाह्न पाठ करते हैं और कितने मास-परायण भी करते हैं; किन्तु पाठ-कर्ताओं की अपनी-अपनी भिन्न- भिन्न दृष्टि और रुचि होती है। यद्यपि रामायणजी का बहिरंग कथारूप में अवलोकित होता है और उसमें राजनीति, समाज-नीति एवं जागतिक जीवन की व्यवहार नीति प्रभृति विभिन्न नीतियों का समावेश है, तथापि उसका अंतरंग अध्यात्म-ज्ञान से ओत-प्रोत है। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है-
नव रस जप तप जोग विरागा।
ते सब जलचर चारु तड़ागा।।
तथा, सद्गुरु ज्ञान विराग जोग के।
विबुध वेद भव भीम रोग के।।
साथ ही, गोस्वामीजी ने रामचरितमानस को देखने के लिए मानस चक्षु-सूक्ष्म दृष्टि-दिव्यदृष्टि की आवश्यकता बतायी है। यथा-
यहि मानस मानस चखु चाही।
भइ कवि बुद्धि विमल अवगाही।।
रामचरितमानस अर्थात् राम के चरित्र का मान सरोवर। जैसे तालाब के निकट जाकर देखने पर उसके ऊपर तल पर जल ही जल दीखता है, उसके अंतस्तल में क्या है, वह अज्ञात ही रहता है। हाँ, यदि जाल फेंककर देखा जाए, तो उसके अंदर का हाल जाना जा सकता है अर्थात् जल-जन्तुओं को देखा जा सकता है।
इसी भाँति हम आद्योपान्त रामायण पढ़ लें-कंठाग्र कर लें; परन्तु सत्य यह है कि हम ऊपर ही ऊपर देखेंगे और कथारूप जल पायेंगे; क्योंकि कवि ने जप, तप, योग, विराग आदि को मानस का जलचर बनाकर रखा है। इस हेतु रामचरितमानस के अंतरंग अवलोकनार्थ योग-युक्तिरूपी जाल की जरूरत है, जिससे दिव्यदृष्टि प्राप्त होती है।
सूझहिं रामचरित मनि मानिक।
गुपुत प्रगट जहँ जेहि खानि।।
और भी,
यथा सुअंजन आंजि दृग, साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखहिं सैल वन, भूतल भूरि निदान ।।
अतएव रामायणजी के गूढ़ाशय-परिज्ञान के लिए सूक्ष्म-दृष्टि की अपरिहार्य आवश्यकता है। सम्प्रति आपलोगों का ध्यान में उस ओर आकर्षित करना चाहूँगा, जिसका उपदेश भगवान श्रीराम ने त्रेतायुग में दिया था। वह उपदेश इतना उत्कृष्ट है कि सर्वकाल में सबके लिए सुमंगल दाता है। भगवान श्रीराम ने जो पहली बात कही, वह यह है-
बड़े भाग मानुष तन पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहिं गावा।।
अर्थात् बड़े भाग्य से मनुष्य का शरीर मिलता है। यह देवताओं को भी दुर्लभ है, ऐसा सभी सद्ग्रंथ कहते हैं। आज के कुछ नयी विचारधारा के लोगों को उपर्युक्त बातें मान्य नहीं। वे कहते हैं कि ये बातें कवि की कोरी कल्पना मात्र है, इसमें सत्यता का-यथार्थता का किंचित् लेश नहीं है। इस विषय की पुष्टि के लिए वे अपनी दलील इस भाँति पेश करते हैं- “ आज प्रत्यक्ष है कि कितने जन ऐसे हैं, जो दाने-दाने के लिए मुहताज हैं, घर पर खड़ नहीं, तन पर वस्त्र नहीं, रहने का कोई आश्रय-स्थान नहीं, परिणामस्वरूप वे दर-दर की ठोकरें खाते फिरते हैं। क्या ये ही बड़भागी मानव तनधारी हैं? यदि वे ही बड़भागी और सुर दुर्लभ नरतनधारी हैं, तो हतभागी, अभागी और भिखारी किनको कहा जाए?”
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं- “ भगवान श्रीराम के भाव की अभिव्यक्ति मैंने अपनी भाषा में की है। मेरी अन्य रचना भी पढ़िए, पढ़कर देखिए। तब पता चलेगा कि ‘बड़े भाग मानुष तनु पावा’ किनके लिए कहा गया है? साथ ही यह बात भी स्पष्ट रूप से समझ में आ जाएगी कि बड़भागी कौन है? हतभागी कौन है और अभागी कौन है?” अतएव बिना सोचे समझे किन्हीं के कुछ कहे को कुतर्क की कैंची से कतरने में कतराना भी चाहिए। इस संबंध में भगवान श्रीराम की राय सुनिए-
जे गुरु पद अम्बुज अनुरागी।
ते लोकहु वेदहु बड़भागी।।
तथा, बड़े भाग पाइअ सत्संगा।
बिनहिं प्रयास होहिं भवभंगा।।
श्रीभरत जी की भावना में-
अहइ धन्य लछिमन बड़भागी।
राम पदारविन्द अनुरागी।।
और सुग्रीव के शब्दों में-
सोइ गुनज्ञ सोइ बड़ भागी।
जो रघुवीर चरन अनुरागी।।
अर्थात् जो जन हरि-गुरु-पदानुरागी हैं तथा सत्संग जिनको प्रिय हैं, वे धन्य और बड़भागी हैं। तथा मनुष्य-शरीरधारी होते हुए भी जिनको भक्ति-मणि प्यारी नहीं, वे हतभागी हैं। यथा-
सो मुनि जदपि प्रगट जग अहई।
रामकृपा बिनु नहिं कोउ लहई।।
सुगम उपाय पाइबे केरे।
नर हतभाग्य देहिं भट भेरे।।
और अभागी नर कौन है? रामचरितमानस के वाक्यों में ही सुनिए-
सुनहु उमा ते लोग अभागी।
हरि तजि होहिं विषय अनुरागी।।
अर्थात् हरि-त्यागी विषयानुरागी जन अभागी हैं। अब गोस्वामीजी की निज उक्ति सुनिए-
ते नर नरक-रूप जीवत जग,
भव-भंजन पद विमुख अभागी ।
निसि वासर रुचि पाप असुचि मन,
खल मति मलिन निगम पथ त्यागी ।।1।।
नहिं सतसंग भजन नहिं हरि को,
स्त्रवन न राम-कथा अनुरागी ।
सुत वित दार भवन ममता निसि,
सोवत अति न कबहुँ मति जागी ।।2।।
तुलसिदास हरिनाम-सुधा तजि,
सठ हठ पियत विषय-विष माँगी ।
सूकर स्वान सृगाल सरिस जन,
जनमत जगत जननि दुख लागी ।।3।।
तात्पर्य यह कि मनुष्य-शरीर उनका सार्थक है, जो ईश्वर-भजन और सत्संग करते हैं। अन्यथा वह सूकर, कूकर और गीदड़वत् है। इस संबंध में उत्तरगीता में एक बड़ी अच्छी बात लिखी है-
आहारनिद्राभयमैथुनञ्च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
ज्ञानं नराणामधिकं विशेषो ज्ञानेनहीनाः पशुभिः समानाः।।
अर्थात्-आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन; ये सब विषय पशु और मनुष्य में एक समान ही हैं यानी कुछ भी प्रभेद नहीं है। केवल ज्ञान-लाभ करने पर ही मनुष्य पशु से श्रेष्ठ हो सकता है; अतएव स्पष्ट है कि ज्ञानहीन मानव पशु श्रेणी में है।
अब आवश्यकता इस बात की है कि हम जानें वह कौन-सा ज्ञान है, जिसके अभाव में देव दुर्लभ नर तन भी पशुतुल्य हो जाता है?
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के त्रयोदश अध्याय के आरंभ में ही इसपर अच्छा प्रकाश डाला है, जो सबके लिए पठनीय है।
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।1।।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ।।2।।
अर्थात् हे कुन्तीपुत्र! इसी शरीर को क्षेत्र कहते हैं। इसे (इस शरीर को) जो मानता है, उसे तद्विद अर्थात् इस शास्त्र के जाननेवाले-क्षेत्रज्ञ कहते हैं। हे भारत! सब क्षेत्रें में क्षेत्रज्ञ भी मुझे ही समझ। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरा (परमेश्वर का) ज्ञान माना गया है। इसी अध्याय में, आगे चलकर ज्ञान और अज्ञान की विशद् व्याख्या करते हुए भगवान् बताते हैं-
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ।।7।।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहघड्ढारः एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ।।8।।
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ।।9।।
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ।।10।।
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ।।11।।
अर्थात् मानहीनता, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरुसेवा, पवित्रता, स्थिरता, मनोनिग्रह, इन्द्रियों के विषयों में विराग, अहंकारहीनता और जन्म-मृत्यु, बुढ़ापा-व्याधि एवं दुःखों को (अपने पीछे लगे हुए) दोष समझना, इष्ट या अनिष्ट की प्राप्ति से चित्त की सर्वदा एक ही सी वृत्ति रखना, मुझमें अनन्य भाव से अटल भक्ति, चुने हुए अथवा एकांत स्थान में रहना, साधारण लोगों के जमाव को पसंद न करना, अध्यात्म ज्ञान की नित्य समझना और तत्त्व ज्ञान के सिद्धांतों का परिशीलन; इनको ज्ञान कहते हैं, इसके अतिरिक्त जो कुछ है, वह सब अज्ञान है।
दिनांक 2 फरवरी, 1969 सिंहेश्वर स्थान अखिल भारतीय 61वें विशेषाधिवेशन (जुलाई, 1970)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृंद, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
सर्वेश्वर-स्वरूप सूक्ष्मातिसूक्ष्म है तथा उसका अपरोक्ष ज्ञानकर्त्ता चेतन आत्मा भी स्वरूपतः सूक्ष्म है। अतएव सन्तों ने उसकी प्राप्ति का मार्ग भी सूक्ष्म ही निर्देशन किया है। इसका हेतु यह है कि स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं होता। वरं स्थूल यंत्र से स्थूल तत्त्व का और सूक्ष्म यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण होता है।
यद्यपि स्वयं चेतन आत्मा स्वरूपतः अत्यन्त सूक्ष्म है, तथापि जबतक वह शरीर अन्तःकरण से आबद्ध वा सम्बद्ध है, तबतक उसे परमात्म-स्वरूप की प्रत्यक्षता वैसे ही नहीं हो पाती, जैसे दुग्ध में घृत की स्थिति रहने पर भी परिस्थितिवश उससे पूड़ी नहीं छानी जा सकती। पूड़ी छानने के लिए दुग्ध-मिश्रित घृत नहीं, बल्कि विशुद्ध घृत की आवश्यकता होती है और उसके लिए पय-मंथन कर मक्खन को पृथक् करना होता है। ठीक इसी भाँति ध्यान की मथानी से चेतन आत्मा को जड़ से यानी शरीर और अन्तःकरण से विलग करना होगा, तभी परमात्म- स्वरूप की प्राप्ति हो सकती है, अन्यथा नहीं।
यदि शंका हो कि जड़ से चेतन को भिन्न करना किस तरह संभव है? तो इसके उत्तर में निवेदन है कि आपने स्वर्णकार के यहाँ पीतल या ताम्बे का एक छोटा-सा प्लेट वा तख्ती देखी होगी। उसमें बड़े-छोटे क्रम से अनेक छिद्र होते हैं। स्वर्णकार सुवर्ण के तार को जितना महीन करना चाहता है। तार के सिरे वा नोक को उतना ही महीन बना; उसी अनुपात के छिद्र से वह उस तार को खींचता है। परिणाम-स्वरूप वह तार उतना ही महीन बन जाता है। इसी तरह आवश्यकता है उस सूक्ष्म छिद्र की जानकारी प्राप्त करने की और चेतन आत्मा की बिखरी धाराओं को समेटकर एक बना उसमें प्रविष्ट कराने की।
कहै कबीर चरण चित राखो, ज्यों सूई में डोरा रे।
स्मरण रहे, पूर्व वर्णनानुसार चेतन आत्मा अकेली नहीं है, वरं उसके साथ अन्तःकरण भी है और अन्तःकरण में मुख्यता मन की है। जैसे पतंग के संग छोटा-सा भी ढेला बँधा रहने से उसके गगनगामी होने में बाधक सिद्ध होता है, उसी भाँति चेतन आत्मा के अन्तःकरण का वा मन का साथ प्रभु-प्राप्ति में सुनिश्चित बाधक है। साथ ही यह भी स्पष्ट रूप से कह देना आवश्यक है कि जैसे चेतन आत्मा का अधोमुखी निकटस्थ संगी मन है, वैसे ही मन का समीपस्थ साथी स्थूल तन है। स्थूल तन के साथ मन विषयों का संग कर मदमस्त गजराज बना है। ऐसी अवस्था में उस सूक्ष्म द्वार में प्रवेश हो तो कैसे? इसी विषय को संत कबीर साहब इस भाँति कहते हैं-
भक्ति मारग साँकरा, राई दसवाँ भाव ।
मन ऐरावत ह्वै रहा, कैसे होय समाव ।।
तथा-
भक्ति का मारग झीना रे ।
नहिं अचाह नहिँ चाहना चरणन लौलीना रे ।।
साधुन के सतसंग में, रहे निशिदिन भीना रे ।
शब्द में सूर्त ऐसे बसै, जैसे जल मीना रे ।।
मान मनी को यों तजै, जस तेली पीना रे ।
दया छिमा संतोष गहि, रहे अति आधाीना रे ।।
परमारथ में देत सिर, कछु बिलम्ब न कीना रे ।
कहै कबीर मत भक्ति का, परगट कह दीना रे ।।
यह झीना मार्ग कैसा है? वाष्पवत् महीन? नहीं, आकाशवत् सूक्ष्म। मार्ग की सूक्ष्मता बतलाने लिये कठोपनिषद् के ऋषि कहते हैं-
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधात ।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।
अर्थात अरे अविद्या ग्रस्त लोगो! उठो, (अज्ञान-निद्रा से) जागो और श्रेष्ठ पुरुषों के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करो। जिस प्रंकार क्षुरे की धार तीक्ष्ण और दुस्तर होती है, तत्त्व ज्ञानी लोग उस मार्ग को वैसा ही दुर्गम बतलाते हैं। मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् के प्रथम ब्राह्मण में, संसार-सागर से पार होने के लिए सूक्ष्म मार्ग का अवलम्ब बताया है। यथा-
संसार वार्धिा तर्तुं सूक्ष्म मार्गमवलम्ब्य---- ।।
सूक्ष्म मार्ग के सम्बन्ध में बाबा नानक देवजी से जिज्ञासा करने पर वे हमें कठोपनिषद् की कठिन भाषा को अपने सरल स्वभावानुसार सुगम बनाकर कहते हैं:-खंनिअहु तिखी बालहु नीकी एतु मारग जाना।
तथा-
गागर ऊपर गागरी, चोले ऊपर द्वार ।
सूली ऊपर साँथरा, जहाँ बुलावै यार ।।
(कबीर साहब)
गुरु नानकदेवजी महाराज के वचन में प्रयुक्त ‘बाल की नोंक’, ‘तलवार की धार’ तथा संत कबीर साहब की वाणी में वर्णित ‘शूली’ शब्द से साधक को घबड़ाने अथवा उत्साह-हीन होने की आवश्यकता नहीं और न उसको निराशा देवी की गोद में ही बैठना चाहिये कि हमसे यह दुर्गम काम नहीं हो सकेगा। वरं उसको इस बात की अभिज्ञता होनी चाहिये कि असि- धार से भी सूक्ष्मतर मार्ग पर कौन चलेगा; शरीर? कदापि नहीं। उसपर चलनेवाला चेतन पुरुष है, जो मन के साथ संयुक्त है, जिसको शूली की तीक्ष्ण धार अथवा तलवार का वार बाल बाँका नहीं कर सकता।
भक्त-भय-भंजन प्रातः स्मरणीय सन्तगण कहते हैं-अरे! राजयोग जैसे सरल साधन में डरने की जरूरत क्या? उस सूक्ष्म मार्ग अथवा कृपाण की धार पर तुम्हारा शरीर तो चलेगा नहीं, फिर भयभीत क्यों होते कि हमारा शरीर कट जाएगा? उस सूक्ष्म पथ का पथिक भी सूक्ष्म है और वह इतना सूक्ष्मतर व सूक्ष्मतम है कि खंग किसी भी भाँति उसको भंग नहीं कर सकता। ईसाई धर्म के पवित्रतम ग्रन्थ बाइबिल में भी हम सूक्ष्म मार्ग की चर्चा पाते हैं, जिसको सेन्ट मेथ्यू ने सकेत फाटक कहकर संकेत किया है। यथा-
‘सकेत फाटक से प्रवेश करो; क्योंकि चौड़ा है वह फाटक और चाकर है वह मार्ग, जो विनाश को पहुँचाता है और बहुत हैं, जो उसमें पैठते हैं। वह फाटक सकेत है और वह मार्ग सँकरा है, जो जीवन को पहुँचाता है और थोड़े हैं, जो उसे पाते हैं।’
(सेन्ट मेथ्यू, अध्याय 7)
वर्णित सूक्ष्म मार्ग वा सकेत फाटक में प्रवेश करने की कला तथा उसके प्रवेश-कर्त्ता के सम्बन्ध में यदि हम स्पष्ट रूप से जानना चाहें, तो परम पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के इस वचन का अनुशीलन करें।
योग हृदय केन्द्र विन्दु में, युग दृष्टियों को जोड़िकर ।
मन मानसों को मोड़ि, सब आशा निराशा छोड़िकर ।।
तथा-
मन सह चेतन धार सुरत ही केवल पैठि सकै जामें ।
जेहि हो गमनत छुटत पिण्ड ब्रह्माण्ड खंड सुधि हो जामें ।।
उस मार्ग में प्रवेश करने के लिए हमारी मनोभावना कैसी हो? इसके लिए संत कबीर साहब कहते हैं- नहिं अचाह नहिं चाहना, चरणन लौलीना रे।।
अर्थात् प्रभु पद-प्रेम की अचाहना नहीं हो और सांसारिक वस्तु की चाहना नहीं हो। तात्पर्य यह कि जगत् से अनासक्ति और जगदीश से अनुरक्ति हो। पूज्य महर्षिजी महाराज की अमृतवाणी में हम इस भाँति कह सकते हैं-
मन मानसों को मोड़ि, सब आशा निराशा छोड़िकर।
अर्थात् जागतिक इच्छाओं और आशाओं को छोड़ो; किन्तु परमात्म-प्राप्ति की आशा को मत छोड़ो-निराश न होओ। पुनः संत कबीर साहब कहते हैं-
साधुन के सतसंग में, रहे निसिदिन भीना रे ।
शब्द में सुर्त ऐसे बसे, जैसे जल मीना रे ।।
अर्थात् संतों का, सत्पुरुषों का, सज्जनों का संग करो और उनके ज्ञान-विचार में दिन-रात निमग्न रहो। अपनी सुरत को शब्द में इस तरह रखो, जैसे जल में मीन हो। ‘जल-मीना’ शब्द के दो अर्थ होते हैं-एक तो यह है कि जैसे बिना जल के मीन जीवित नहीं रह सकती, वैसे ही तुम शब्द के बिना जीवन धारण नहीं करो अर्थात् नादानुसन्धान वा सुरत-शब्द- योग की साधना करो। दूसरी बात यह कि जैसे सफरी मछली पानी की उल्टी धारा पर चलती है, वैसे ही तुम अपनी पसरी सुरत को सिमटाकर सूक्ष्म बनाओ और ब्रह्याण्डी शब्द-जिसको संत तुलसी साहब ने ‘गगन गंगा’ की संज्ञा दी है-को पकड़कर भाठा से सीरा की ओर बढ़ो अर्थात् पिण्ड से ब्रह्माण्ड की ओर जाओ। यह क्रिया भी नादानुसन्धान के द्वारा ही साधित होती है। अतः नाद-साधना करो।
किन्तु स्मरण रहे, पूर्ववर्ती साधना के किये बिना परवर्ती साधना में सफलता-प्राप्त करने की इच्छा ‘भूमि पड़ा चह छुअन अकाशा’ की नाईं असम्भव है। अतएव साधना की यथानुक्रम झाँकी पूज्य महर्षिजी महाराज के शब्द से हम इस भाँति करें।
ब्रह्म ज्योति ब्रह्म ध्वनि-धार धारि, आवरण सारे तोड़िकर ।
सूरत चला प्रभु-मिलन को, विषयों से मुख को मोड़ि कर।।
अर्थात् प्रथम दृष्टि-साधन क्रिया द्वारा ब्रह्मज्योति-प्राप्ति की साधना करो, पश्चात् ब्रह्मनाद वा नादानुसन्धान की। संत कबीर साहब ने अपने पद्य में यह भी कहा कि-
मान मनी को यों तजै, जस तेली पीना रे ।
दया छिमा संतोष गहि, रहे अति आधाीना रे ।।
अर्थात् मान रूपी मणि का त्याग करो। इस तरह जैसे कि तेली खल्ली को छोड़ देता है। आज के जमाने में तो खल्ली की भी कीमत कम नहीं है। इसलिए आज के युग में कोई यों ही खल्ली को नहीं छोड़ देता; किन्तु संत कबीर साहब के समय में खल्ली की कोई कीमत नहीं थी। अतएव उन्होंने ‘मान’ को ‘खल्ली’ की उपमा देकर त्यागने कहा था। वर्तमान युग में खल्ली की कीमत होते हुए भी, लोग उसका त्याग कर सकते हैं; किन्तु ‘मान’ का परित्याग करना सरल नहीं। संत कबीर साहब के शब्दों में ही हम कह सकेंगे-
कंचन तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह ।
मान बड़ाई ईरषा, दुर्लभ तजना येह ।।
इतना ही नहीं, बुद्धिहीन जन के मन में तो अहंकार रूपी अग्नि की ऐसी भट्ठी जलती है कि औरों की तो बात जाने दीजिए, वह अपने गुरु से भी मान चाहता है, जिसके परिणाम स्वरूप वह यमपुर जाकर यम की अनेक यातनाओं को पाते हुए नरक की भट्ठी में जलता रहता है। संत कबीर साहब कहते हैं-
अहं अग्नि हिरदै जरै, गुरु से चाहे मान ।
तिनको यम न्योता दिया, हो हमरे मेहमान ।।
यह मान बड़ा टेढ़ा प्रश्न है-मान रूपी मणि का त्याग कैसे हो? संत कबीर साहब कहते हैं-पहले यह जानो कि मान खोजता कौन है? मन। अतएव मन को ऐसा बनाओ कि वह ‘मान’ की माँग न करे। इसके लिए हमें क्या करना होगा, उसका निर्देशन यदि संत कबीर साहब के शब्दों में ही मिल पाता, तो उत्तम होता। अतएव इस सम्बन्ध में वे क्या कहते हैं, सुनिये-
कबीर चेरा संत का, दासन हू का दास ।
अबतो ऐसा होइ रहु, ज्यों पाँव तले की घास ।।
रोड़ा होइ रहु बाट का, तजि आपा अभिमान ।
लोभ मोह तृष्णा तजै, ताहि मिलै निजनाम ।।
ऐसा लगता है-जैसे दास का घास और रोड़ा होना भी संत कबीर साहब को पसन्द नहीं; क्योंकि उनके विचार में दास का घास और बाट का रोड़ा होने से वह पद-दलित होकर पदाघात सहने की क्षमता प्राप्त करेगा अवश्य; किन्तु पथिकों के पद-कष्ट का कारण भी सुनिश्चित रूप से बन जाएगा। अतएव ऐसा भी बनना उत्तम नहीं जँचता। हाँ, यदि पथ-धूल बना जाए, तो वह फूल जैसा मुलायम होगा और तब यात्री के लिए सुखकर होगा। इसी दृष्टि को अपनाये रखकर वे कहते हैं-
रोड़ा भया तो क्या भया, पंथी को दुख देय ।
साधू ऐसा चाहिये, ज्यों पैँड़े की खेह ।।
किन्तु धूल बन जाने पर भी कबीर साहब संतुष्ट नहीं हुए; क्योंकि उनके मन में यह आशंका होती है कि कहीं हवा चल पड़ी है, तो वह धूल फूल नहीं बनकर शूल बन जाएगी। एक तो लोगों के शरीर में लगकर उसको गन्दा करेगी, दूसरे कहीं उड़कर आँख में पड़ गई, तब तो कहना ही क्या?
कबहूँ उड़ि आँखिन पड़ै, पीर घनेरी होय।
इसी भाँति यदि भक्त भी विषय-बयार में बह पड़े, तो वह अन्यों को क्लेशित करेगा। अतएव यह भी ठीक नहीं। इससे तो कहीं वह उत्तम हो कि नीरवत् बन जाए, जिसमें पवन के लगने पर भी गमन की वह गति न हो, जिससे दूसरों को कुछ क्षति हो। किन्तु पानी बनने पर बिल्कुल हानि नहीं हो, यह कब संभव है? क्योंकि उसमें भी एक ऐब है और वह यह कि नीर कभी स्थिर और कभी अस्थिर होता है। साथ ही संग पाकर कभी शीतलता और कभी उष्णता को भी प्राप्त करता है। इसी तरह भक्त यदि कभी तो शान्त चित्त रहे और कभी विषय-विकार का शिकार बन काम-क्रोधाग्नि से जलते हुए ज्वालामुखीवत् अग्नि उगलने लग जाय, तो ठीक नहीं। अतः ऐसा होना भी उपयुक्त नहीं। संत कबीर साहब कहते हैं-
खेह भई तो क्या भया, उड़ि-उड़ि लागै अंग ।
साधू ऐसा चाहिये, जैसे नीर निपंग ।।
नीर भया तो क्या भया, ताता सीरा जोय ।
साधू ऐसा चाहिये, जो हरि ही जैसा होय ।।
हरि भया तो क्या भया, जो करता हरता होय ।
साधू ऐसा चाहिये, जो हरि भज निर्मल होय ।।
निर्मल भया तो क्या भया, निर्मल माँगै ठौर ।
मल निर्मल तें रहित है, ते साधू कोइ और ।।
‘मल निर्मल ते रहित’ अर्थात् साधु को समरस रहना चाहिये। हानि-लाभ, सुख-दुःख, निन्दा-स्तुति, मान-अपमान आदि सभी अवस्थाओं में सम रहे। किन्तु यह समरसता-समत्व वा समता आवे तो कैसे? सन्तों ने समत्व प्राप्त करने के लिए ‘शम’ के साधन का निर्देशन किया है, जो नादानुसन्धान द्वारा सम्पन्न होता है। अतः विचार द्वारा अपने मन पर अंकुश ला, सुरत-शब्द-योग की साधना करनी अत्यन्त अपेक्षित है।
पूज्यपाद महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 27-02-1969 ई0 को स्थान-संतमत-सत्संग मंदिर, मनिहारी, कटिहार में मास-ध्यान-साधना के अवसर पर हुआ था।

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आदरणीय गुरुजन, पुरजन, सज्जन, जननीजन तथा भगिनीगण!
किसी भी कर्म करने से पूर्व बुद्धिमान जन सोच लेते हैं कि यह काम करने योग्य है या नहीं। यदि योग्य यानी विहित कर्म होता है, तो उसे वे करते हैं, अन्यथा नहीं करते। साथ ही, विवेकीजन यह भी विचार लेते हैं कि अमुक कर्म की उपादेयता क्या है? आवश्यकता जानकर उस कर्म को करते हैं, अन्यथा नहीं करते। इसीलिए विद्वानों की भाषा में आवश्यकता आविष्कार की जननी है तथा बिना कारण के कार्य नहीं होता-ऐसा कहा जाता है। अभी हमलोगों ने जो स्तुति-प्रार्थना आदि में चालीस-पैंतालीस मिनट समय लगाए, इसकी आवश्यकता क्या? कोई तो आज ऐसा भी कहने लगे हैं, जैसा कि कठोपनिषद् में आया है कि- ‘नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो---’
अब हमको यह समझना है कि ऋषियों ने बलहीन शब्द का प्रयोग किस भाव में किया है? शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक वा आध्यात्मिक; किस बल की हीनता में ब्रह्म वा आत्मा की प्राप्ति नहीं होती। हम शरीर से बलवान हों वा जो शरीर से खूब बलवान है, उनको ईश्वर की प्राप्ति हो जानी चाहिए; किन्तु बात ऐसी नहीं। केवल शारीरिक बल ही या किसी और बल की भी आवश्यकता है? शारीरिक बल के साथ-साथ मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक बल भी चाहिए। मात्र शारीरिक बल ब्रह्म की प्राप्ति में सर्वथा अक्षम है।
महाभारत में शरीर बल की कथा है। कहते हैं-जब भीम ने जन्म लिया, तो वे जिस पत्थर पर गिरे, वह टुकड़े-टुकड़े हो गये। रावण इतने बलवान थे कि उनके डर से देवता काँपते थे और उनके पदाघात से पृथ्वी प्रकम्पित होती थी। जिनके लिए रामायण में लिखा है-
चलत दसानन काँपत धारनी। गर्जत गर्भ-स्त्रवत सुर रमनी।।
तो क्या इन सबों को ईश्वर की प्राप्ति हो गई थी? कदापि नहीं। जबतक हम मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक बलों को भी प्राप्त न कर लें, तबतक ब्रह्म की प्राप्ति नहीं हो सकती।
शारीरिक बल भी चाहिए। बिना शारीरिक बल के हम देर तक ध्यान में नहीं बैठ सकते। मेधा- बल के बिना ध्यान में मन नहीं लग सकता है। मेधा- बल के लिए ब्रह्मचर्य का पालन अवश्य चाहिए। इस संबंध में एक मधुर कथा है-देवताओं के राजा इन्द्र और दानवों का राजा विरोचन, दोनों प्रजापति के पास ब्रह्मज्ञान सीखने गए। प्रजापति ने कहा यह शरीर ही ब्रह्म है। खूब खाओ, पियो; जाओ। विरोचन वापस चले गये और खूब खाने-पीने और मस्ताने लगे। इधर इन्द्र ने सोचा यह शरीर तो नाशवान है, इसमें परिवर्तन होता है। यह ब्रह्म कैसे हो सकता है? वे पुनः प्रजापति के पास गये और उन्होंने अपनी शंका की बातें सुनायीं। पितामह! ब्रह्म अजर, अमर, अविनाशी है। इसको शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, पानी भिंगा नहीं सकता और हवा उसका शोषण नहीं कर सकती। आपने जो शरीर को ब्रह्म बताया, यह कैसे संभव है? प्रजापति ने कहा- पहले 32 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करो, पीछे बताऊँगा, जाओ। 32 वर्ष ब्रह्मचर्य-पालन के बाद इन्द्र ब्रह्माजी के पास पहुँचे। ब्रह्मा ने शरीर की छाया दिखाते हुए कहा-देखो! यही ब्रह्म है। इसको शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, पानी भिंगा नहीं सकता तथा हवा सुखा नहीं सकती। इसलिए यह ब्रह्म है।’ इन्द्र लौटकर घर आए और इसपर फिर विचार करने लगे। मेरा अंग-भंग हो जाए, तो छाया का भी अंग-भंग हो जाएगा। पुनः ब्रह्माजी के पास जाकर इन्द्र ने कहा-पितामह! यह छाया ब्रह्म कैसे हो सकती है! मेरे शरीर कि किसी अंग के भंग होने पर छाया का भी अंग-भंग होगा। क्या ब्रह्म का भी अंग-भंग होता है? ब्रह्म व्यापक और व्याप्य दोनों होते हैं; क्योंकि सब कुछ ब्रह्म के अंदर है और उन सबमें ब्रह्म व्याप्त है। छाया में ऐसा गुण कहाँ दीखता? प्रजापति ने कहा-‘अच्छा, 32 वर्ष और ब्रह्मचर्य का पालन करो।’ 32 वर्ष ब्रह्मचर्य-पालन के बाद फिर इन्द्र प्रजापति के पास गये। प्रजापति ने आँख की पुतली को दिखाते हुए कहा-‘यही ब्रह्म है।’ इन्द्र ने विचार किया कि यदि आँख फूट जाए, तो पुतली खत्म हो जाएगी। यह ब्रह्म कैसे हो सकती? फिर इन्द्र ने अपनी शंका प्रजापति को सुनाई। इस बार प्रजापति ने कहा- ‘जाओ, अब केवल 5 वर्ष और ब्रह्मचर्य का पालन करो, फिर ब्रह्मज्ञान बताऊँगा। इस प्रकार एक सौ एक वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य-पालन करने के बाद इन्द्र को प्रजापति ने ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया। तात्पर्य यह कि ब्रह्मचर्य-पालन से मेधाशक्ति बढ़ती है और ब्रह्मज्ञान के यथार्थ बोध की क्षमता होती है। ब्रह्मचर्य के पालन से दिनानुदिन इन्द्र की मेधाशक्ति अधिकाधिक बढ़ती गई और तब वे ब्रह्मज्ञान-लाभ के योग्य हुए। महात्मा गाँधीजी ने कहा है-‘ब्रह्मचर्य का अर्थ मशीनवत् कुमारापन नहीं है, बल्कि ब्रह्म-प्राप्ति के लिए सभी आवश्यक आचरणीय कर्म ब्रह्मचर्य के अंतर्गत हैं।’
यह सुनिश्चित है कि जिस मकान की नींव कमजोर होगी, उसपर ऊँची अट्टालिका नहीं हो सकती। इसी भाँति ब्रह्मचर्य के अभाव में ईश्वर-भक्ति रूपी भव्य-भवन का निर्माण नहीं हो सकता, अतएव ब्रह्मचर्य-पालन आवश्यक है। ब्रह्मचर्य-पालन शारीरिक बल के संतुलन को यथोचित ढंग से रखता है। शारीरिक बल के बाद मनोबल की आवश्यकता है। यह कैसे होगा? प्रार्थना से। प्रार्थना किसे कहते हैं? नम्रतापूर्वक ईश्वर से कुछ माँगने को प्रार्थना कहते हैं। क्या माँगो? ईश्वर से ऐसी चीज माँगो, जो कभी तुमसे बिछुड़े नहीं और न तुम कभी उनसे बिछुड़ो। कबीर साहब ने कहा-
न पल बिछुड़े पिया हमसे, न हम बिछुड़ें पियारे से।
वह कौन-सा पिया है, जिनसे कभी बिछुड़न नहीं हो? वह है-परमात्मा। अतएव परमात्मा से परमात्मा को और उनकी भक्ति को माँगो; क्योंकि संसार की किसी और कितनी भी चीजों को पाकर तुम्हारी माँग पूरी नहीं होगी। इच्छा का कभी अन्त ही नहीं होगा।
‘बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ, विषय भोग बहु घी ते।’
‘पावक काम भोग घृत तें सठ कैसे चहत बुझायो।’
(गो0 तुलसीदासजी)
संत कबीर साहब कहते हैं-
‘कबीर औंधाी खोपड़ी, कबहूँ धापै नाहिँ ।
तीन लोक की सम्पदा, कब आवै घर माहिँ ।।’
‘जग जाँचिय काहु न जाँचिय जौ,
जग जानकी जानहिँ जाँचिये जी ।
जेहि जाँचत जाँचकता जरि जाय,
जो जारत जोर जहानहिँ जी ।।’
(गो0 तुलसीदासजी)
जो पहुँचे हुए संत-महात्मा हैं, उनकी बात मैं नहीं कहता; किन्तु जो साधारण जन हैं, उनका मन कुछ-न-कुछ माँग अवश्य रखता है। इसी हेतु परमात्मा से कुछ माँग लेने पर मन को संतोष होता है कि मैंने प्रभु से प्रार्थना की है, वे परम कृपालु प्रभु मेरी माँग को अवश्य पूरी करेंगे, कभी ठुकराएँगे नहीं। इसी आशा को लेकर हमलोग परमात्मा की प्रार्थना करते हैं। इससे मन में परमात्म-निर्भरता का बल बढ़ता है। इसीलिए हम परमात्मा से ही माँगें।
मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तो कहो कहा विश्वासा।।
ईश्वर पर कैसा विश्वास होना चाहिए, इसपर एक मधुर कथा सुनिये-कुछ दिन हुए एक फौज का कैप्टन जलयान से विदेश यात्र कर रहा था। उनकी पत्नी उनके साथ थी। दैव-संयोग से तूफान आ गया। जहाज डूबने-डूबने को हो गया। भय के मारे लोग रोने-चिल्लाने लगे। कैप्टन आँख बन्द कर अपने ध्यान-धारणा में लगा हुआ, निश्चिन्त बैठा था। उसकी पत्नी घबड़ाकर (कैप्टन से) बोली-‘जहाज डूबने को है और आप चुपचाप बैठे हैं। ऐसा लगता है, जैसे आपको कोई चिन्ता ही नहीं है?’ पत्नी की बात सुनकर कैप्टन हँसने लगा। पत्नी ने कहा-‘आप हँसते हैं।’ कैप्टन ने कहा-‘क्या करूँ?’ ‘प्राण-रक्षा का यत्न कीजिये’-उनकी पत्नी बोली। कैप्टन ने कहा-
‘कबीर मैं क्या चिन्तऊँ, मम चिन्ता क्या होय ।
मेरी चिन्ता हरि करें, चिन्ता मोहि न कोय ।।’
‘माता बालक कहैं राखती ज्यों प्राण है ।
फ़णि मणि धारै उतारि वाही पर धयान है ।।
माली रक्षा करै सींचता वृच्छ ज्यों ।
अरे हाँ पलटू भक्त संग भगवान गऊ औ बच्छ त्यों ।।’
तथा भगवान श्रीराम कहते हैं-‘हे नारद! जैसे माता अपने बच्चे की रक्षा करती है, उसी प्रकार मैं अपने भक्तों की रक्षा करता हूँ।’
करउँ सदा तिन्हकै रखवारी ।
जिमि बालक राखहिं महतारी ।।
(गो0 तुलसीदासजी)
पुनः उसने अपना रिवाल्वर खोलकर अपनी पत्नी के सीने से सटा दिया। पत्नी खिल-खिलाकर हँस पड़ी। कैप्टन ने पूछा-‘तुम हँसती क्यों हो?’ पत्नी ने कहा-‘आपका रिवाल्वर मेरे ऊपर नहीं चलेगा।’ पति ने पूछा-क्यों?’ पत्नी ने कहा-इसलिए कि आप मेरे पति हैं।’ कैप्टन ने कहा-‘तुम अपने पति पर विश्वास करती हो और जो परमपिता परमात्मा समस्त जगत के पति हैं, उनपर विश्वास क्यों नहीं करती? वे किसी का अमंगल नहीं करते। मुझे विश्वास है कि परमात्मा हमारा मंगल ही करेंगे।’ थोड़े ही देर में तूफान चला गया। जहाज भी डूबने से बच गया और सभी यात्री काल के गाल में जाने से बाल-बाल बच गये।
इतिहास के पढ़नेवाले जानते हैं कि मुगल साम्राज्य का प्रथम सम्राट बाबर था। उनका पुत्र हुमायूँ जब बीमार हुआ, तो बाबर ने हुमायूँ की चारों तरफ घूम-घूमकर ईश्वर से प्रार्थना की कि हे खुदा! हुमायूँ को चंगा कर दे और उसके बदले में मेरी जान ले ले। ईश्वर ने उनकी प्रार्थना सुनी। हुमायूँ चंगा हो गया और बाबर बीमार होकर मर गया और आपलोगों ने तो यह प्रत्यक्ष ही देखा कि जब सन् 1962 ई0 में चीनियों ने अपने देश भारत पर आक्रमण किया, तो समस्त देश में आतंक छा गया था। उस अवसर पर प्रातः स्मरणीय परम पूज्य अनन्त श्रीविभूषित श्रीसद्गुरु महाराजजी ने हमलोगों को महती सभा में आदेश देने की कृपा की थी कि-‘सामूहिक प्रार्थना करो, विघ्न टल जाएगा।’ हमलोगों ने सामूहिक प्रार्थना की और ‘मृषा न होहिँ देव ;षि वानी’-यह चरितार्थ हुआ। जिस दिन हमलोगों ने सामूहिक प्रार्थना की, ठीक उसी रात को युद्ध विराम हो गया और हम सभी देशवासियों ने शान्ति की साँस ली।
परमात्मा शुद्ध मन की प्रार्थना सुनते हैं, दिखावटी वा बनावटी नहीं। अतः प्रार्थना शुद्ध मन से होनी चाहिए। एकाग्रता से प्रार्थना करने पर अपने मन को संतोष भी होता है कि मैंने अपनी प्रार्थना प्रभु के समक्ष रख दी है, अब प्रभु जानें।
मैं गरजी अरजी करूँ, मरजी जस होई ।
अरज विपति लिखौं आपनी, राखौं नहिं गोई ।।
प्रार्थना से मनोबल बढ़ता है। इसीलिए प्रार्थना की जरूरत है। स्तुति कहते हैं-यश-गान करने को। जिनकी स्तुति करते हैं, उससे उनकी महिमा जानी जाती है। किन्हीं की बिना महिमा जाने, उनके प्रति श्रद्धा नहीं होती, बिना श्रद्धा के प्रीति नहीं होती और बिना प्रीति के दृढ़ भक्ति नहीं होती। गो0 तुलसीदासजी कहते हैं-
जाने बिनु न होय परतीती ।
बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ।।
प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई ।
जिमि खगेस जल कै चिकनाई ।।
जबतक हम जानेंगे नहीं, तबतक करेंगे क्या? ईश्वर की महिमा-प्रभुता जानकर उनके प्रति हमारी श्रद्धा दृढ़ होती है। बुद्धि कहती है, जो स्वयं देनेवाले हैं, उनसे माँगना क्या है? जब माता अपने पुत्र की वा पिता अपने पुत्र की माँग को स्वयं जानते और पूर्ण करते हैं, तब जो हमारे परम पिता परमात्मा हैं, क्या वे नहीं जानते हैं कि हमें क्या आवश्यकता है? फिर माँगो क्यों? उनकी केवल स्तुति करो। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-‘योगक्षेमं वहाम्यहम्।’ क्या यह बात झूठी है? कदापि नहीं। ईश्वर हमारी प्रतिपल रक्षा करते हैं। स्तुति वा निंदा से ईश्वर प्रसन्न वा अप्रसन्न नहीं होते। वे दोनों में सम रहते हैं। स्तुति वा यशगान से हमारी भलाई होती है, हम स्वयं लाभान्वित होते हैं। उनकी ओर हमारी श्रद्धा उमड़ती है और भक्ति दृढ़ होती है।
एक बार सारिपुत्र भिक्षा माँगने गये थे। उनको एक ब्राह्मण ने एक कलछी भात किसी से दिलवा दिया था। जब वह ब्राह्मण भगवान बुद्ध के यहाँ प्रव्रजित होने आया, तो भगवान ने सभी भिक्षुओं से पूछा-क्या, इन ब्राह्मण से किसी का उपकार हुआ है? सारिपुत्र ने कहा- हाँ भन्ते! इन्होंने एक बार मुझे एक कलछी भात दिलवाया था। भगवान बुद्ध ने कहा-धन्य है सारिपुत्र! छोटे-से-छोटे उपकार को भी याद रखता है। ‘सारिपुत्र! इनको तुम्हीं प्रव्रजित करो।’
जब एक कलछी भात दिलाने का उपकार माना गया, तो जो परमात्मा हमारा इतना बड़ा उपकार करते हैं-हवा, पानी देकर हमें जीवित रखते हैं। गर्भावस्था में उन्होंने हमारी रक्षा की। जन्म लेने पर जब दाँत नहीं थे, दूध दिया। दाँत होने पर अन्न, जल, कंद, मूल तथा विविध फल दिये। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति में पल-पल हमारी रक्षा वे करते हैं। तब हम उनकी स्तुति भी नहीं करें, यह कितनी बड़ी कृतघ्नता होगी?
उपासना-भक्ति मार्ग में स्तुति, प्रार्थना और उपासना-इन तीनों की आवश्यकता है। ईश्वर से निकटता प्राप्त करने के लिए उपासना की जरूरत होती है। स्तुति से बुद्धि-बल बढ़ता है। प्रार्थना से मनोबल बढ़ता है और उपासना से आत्म-बल बढ़ता है। यह उपासना हम कैसे करें, इसकी विधि क्रियावान शुद्धाचरणी संत सद्गुरु से जानें। स
पूज्यपाद महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 61वें वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर दिनांक 09-03-1969 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-संदेश, जनवरी, 2011)


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ऋग्वेद सू0 19।12 में एक मंत्र आया है-
संगच्छघ्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्व सज्जनानां उपासते ।।
अर्थात् हे मनुष्यो ! आपलोग परस्पर अच्छे प्रकार मिलकर रहो। परस्पर मिलकर प्रेम से बातचीत करो, विरोध छोड़कर एक समान वचन कहो। आपलोगों के चित्त एक समान होकर ज्ञान प्राप्त करें। जिस प्रकार पूर्व के विद्वान् जन सेवनीय और भजन करने योग्य प्रभु का ज्ञान सम्पादन करते हुए अच्छे प्रकार उपासना करते रहे, उसी प्रकार आपलोग भी ज्ञान-सम्पन्न होकर सेवनीय अन्न और उपास्य प्रभु का सेवन और उपासना करो।
इस वेद मंत्र में पहली आज्ञा है कि ‘परस्पर अच्छे प्रकार मिलकर रहो।’ क्यों? इसलिये कि मेल में बल होता है। जहाँ मेल है वहाँ बल है; जहाँ मेल नहीं, वहाँ बल नहीं और यह तो सर्व-विदित बात है कि ‘संघौ शत्तिफ़ः कलियुगे।’ जबतक भारत सम्राट् पृथ्वीराज का अपने मौसेरे भाई जयचन्द के साथ मेल रहा, तबतक उनमें अटूट बल रहा। उनके सामने अन्यों की दाल गल न पाई, किन्तु ज्यों ही दोनों के परस्पर का प्रेम वा मेल टूटा, त्यों ही ‘घर फूटे गँवार लूटे’ वाली बात चरितार्थ हो गई। अर्थात् गोरी ने पृथ्वीराज पर चढ़ाई की और विजेता बन उनको गोर देश ले जाकर गोर की गर्त में सदा के लिये निवास दे दिया। परिणमस्वरूप भारत की स्वतन्त्रता परतंत्रता में परिणत हो गई।
पुनः आपलोगों ने स्वदेश-गौरव-रक्षा-हित अपने मेल के बल का संचयन किया और सदियों की परतंत्रता की बेड़ी को तोड़कर स्वतंत्रता की साँस ली।
आपस के मेल से क्या नहीं हो सकता है? ईंटों की सीमेन्ट और बालू के साथ मेल का रूप ही अट्टालिका कहलाता है और जल-विन्दु-राशि का मिलन रूप ही सिन्धु कहलाता है। इतना ही नहीं, मेल की महिमा से दुर्गम भी सुगम और दुर्लभ भी सुलभ हो जाता है।
यदि सुरत को सत् शब्द से मेल हो जाय तो उसे सर्वेश्वर तक की भी प्राप्ति हो जाती है, अधिक क्या कहा जाय?
आवश्यकता है, हम आपस में मेल पैदा करनेवाली चीज को समझें। सम्प्रति हमलोग सहस्त्रों ही नहीं, लगभग लाख की संख्या में यहाँ उपस्थित हैं और सबकी स्वर-लहरी एक साथ एक ही दिशा को इंगित कर रही है-प्रवाहित हो रही है। सबके विचार एक-से हैं, सभी एक ही उद्देश्य को लेकर एक ही दिशा की ओर निहार रहे हैं और सभी एक ही शान्ति की शीतल छाया पाने की उत्कण्ठा से उसकी बाट जोह रहे हैं, क्यों? इसलिए कि हम सभी एक ही पथ के पथिक, एक ही राह के राही और एक ही बाट के बटोही हैं। अब आप सरलतापूर्वक समझ गये होंगे कि इतनी बड़ी उमड़ती भीड़ को एक सूत्र में बाँधनेवाला क्या है? वह है धर्म।
यहाँ एकत्रित हम सभी जन एक ही ‘धर्म’ के माननेवाले हैं। स्मरण रहे, मेरे ‘एक ही धर्म’ कहने का संकुचित अर्थ करके कोई अनर्थ की गर्त्त में स्वयं गिरने वा अन्यों को गिराने की भूल न करें। मेरे ‘एक ही धर्म’ कहने का तात्पर्य है-आस्तिक धर्म से। इस आस्तिक धर्म के अन्दर विश्व के सभी आस्तिक धर्मा- वलम्बी आ जाते हैं। चाहे ईसाई हों, इस्लाम हों, वैदिक हों अथवा एक सर्वेश्वर में निष्ठा रखनेवाले सत् जन अपने धर्म को जिस किसी भी संज्ञा से अभिहित करते हों, वे सभी आस्तिक धर्म हैं। विश्व के अन्दर एकेश्वरवादी जितने मत, धर्म, सम्प्रदाय पंथ, मजहब वा Religion (रिलिजियन) हैं, सभी ‘आस्तिक धर्म’ शब्द से पुकारे जाने योग्य हैं।
जैसे कोई गाय काली होती है, कोई लाल रंग की होती है, कोई उजले रंग की होती है आदि; किंतु सबके अन्दर के दूध का रंग धवल होता है। इसी भाँति कोई मनुष्य काला होता है, कोई गोरा होता है, कोई नाटा होता है, कोई लम्बा होता है, कोई मोटा होता है और कोई दुबला-पतला होता है; किन्तु सबके अन्दर के रक्त का रंग लाल होता है। और भी लीजिए- बाहर से तकिया कोई लाल होता है, कोई नीला होता है और कोई पीला आदि किन्तु सबके भीतर एक ही रूई रहती है। इसी तरह अपने को कोई किसी भी धर्म, मजहब वा Religion का कहे; सबके अन्दर एक ही ईश्वर विद्यमान है। सबमें एक ईश्वर की मान्यता है और सभी उसी एक ईश्वर के पुजारी हैं, अतएव सभी आस्तिकधर्मी हैं।
इस्लाम धर्म के अन्दर एक बहुत बड़े फकीर हुए थे, उनका नाम था-‘संत दीन दरवेशजी’। वे गुजरात प्रान्त में रहते थे। उन्होंने एक बहुत ही अच्छी बात कही है।
हिंदु कहैं सो हम बड़े, मुसलमान कहें हम्म ।
एक मूंग दो फ़ाड़ है, कुण ज्यादा कुण कम्म ।।
कुण ज्यादा कुण कम्म,कभी करना नहीं कजिया ।
एक भजत है राम, दूजा रहिमान से रँजिया ।।
कहत दीन दरवेश, दोय सरिता मिल सिन्धू ।
सब का साहब एक, एक ही मुसलिम हिंदु ।।
संतों ने कहा-अरे! आब कहो, अप् कहो वा Water (वाटर) कहो; इन तीनों शब्दों में से कुछ कहो, वस्तु एक ही है। उसी तरह अल्लाह कहो, ईश्वर कहो वा God (गॉड) कहो; इन तीनों में से किसी शब्द से सम्बोधन करो, तत्त्वतः वह प्रभु एक ही है। भाषा-भिन्नता के कारण हम भले ही स्तुति- प्रार्थना, नमाज वा Prayer (प्रेयर) शब्द कहेंः किन्तु क्रियात्मक रूप में होती एक ही बात है-होता एक ही काम है। अपने-अपने विचारानुकूल कोई पूर्व दिशा, कोई पश्चिम दिशा और कोई उत्तर दिशा की ओर होकर अर्चन, वन्दन व पूजन करते हैं, किन्तु इसमें भी कोई अंतर नहीं पड़ता; क्योंकि जो परमात्मा सर्वत्र है-सर्वव्यापक है-मोहितेकुल्ल है, वह कहाँ है और कहाँ नहीं हैं? अपनी अनभिज्ञता के कारण राग-द्वेष पैदा कर हम भले ही आपस में लड़-झगड़ लें, किन्तु तत्त्व वस्तु में कोई फर्क नहीं पड़ता। संत पलटू साहब कहते हैं-
पूरब में राम है, पश्चिम में खुदाय है,
उत्तर और दक्षिण कहो कौन रहता ।
साहिब वह कहाँ है कहाँ फि़र नहीं है,
हिंदू और तुरक ताफ़ेान करता ।।
हिंदु और तुरक मिलि पड़े हैं खैंचि में,
आपनी वर्ग दोउ दीन कहता ।
दास पलटू कहै साहिब सब में रहै,
जुदा ना तनिक मैं साँच कहता ।।
इस अवसर पर मुझे एक मधुर कहानी की स्मृति हो आती है। तीन बच्चे आपस में एक खेल खेल रहे थे। कुछ लोग वहाँ तमाशा देखने के लिए एकत्र हो गये। खेल समाप्ति के पश्चात् कुछ लोगों ने प्रसन्न होकर उन्हें कुछ पैसे दिये और सभी लोग अपने घर की ओर प्रस्थान किये। उन बच्चों ने उत्तफ़ पैसों से कुछ खरीद कर खाने की अपनी-अपनी अच्छा प्रकट की। एक ने कहा-मैं तरबूजा खाऊँगा, दूसरे ने कहा-मैं हिन्दवाना खाऊँगा और तीसरे ने कहा-मैं Watermelon (वाटरमेलन) खाऊँगा।
एक-दूसरे की भाषा की अजानकारी के कारण तीनों बच्चों में तनाव पैदा हो गया। प्रेम रोष में परिणत हो गया। परिणम-स्वरूप तीनों लड़ने लग गए। संयोगवश इतने में एक पथिक सज्जन वहाँ पधारे और उन्होंने प्यार भरे शब्दों में पूछा-बच्चो! तुमलोग कितने सुन्दर, सभ्य और सुशील प्रतीत होते हो, फिर भी आपस में लड़-झगड़ रहे हो, यह शोभनीय बात नहीं। बताओ, बात क्या है? तीनों बच्चों ने क्रम-क्रम से अपने-अपने मन्तव्यों को अभिव्यत्तफ़ किया। परिस्थिति-परिज्ञान के पश्चात् उक्त पथिक सज्जन ने उनसे पैसे ले लिए और बाजार से सामान मँगाकर कपड़े से ढँक रखा। पुनः अंग्रेज बच्चे को समीप बुला कर पूछा तुमको क्या चाहिए? उसने-कहा ॅंजमत उमसवद (वाटर मेलन)। कपड़े की ओट से निकाल कर देते हुए उत्तफ़ सज्जन ने पूछा-‘तुमको यही चाहिये न?’ इच्छित वस्तु को पाकर लड़के ने अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा-‘जी हाँ।’ पश्चात् इस्लाम बच्चे को निकट बुलाकर पूछा-‘तुमको क्या चाहिये? उसने कहा-‘हिन्दवाना।’ पुनः उसी कपड़े की ओट से दूसरा टुकड़ा निकालकर उस लड़के को दिया। वह खुशी के मारे उछलता हुआ बोला-‘यही तो मैं चाहता था।’ तत्पश्चात् वैदिक बच्चे को अपने पास बुलाकर बचा हुआ तीसरा टुकड़ा देते हुए पूछा-‘तुम्हारी इच्छा यही खाने की थी न?’ अपनी मनोवांछित वस्तु प्राप्त करके लड़के ने कहा-‘जी हाँ।’ और वह गद्गद चित्त होकर चला गया।
वस्तुतः तरबूजा, हिन्दवाना और वाटर मेलन एक ही वस्तु है। भाषा-ज्ञान की कमी के कारण बालकों को आपस में झगड़ा हुआ।
यदि हम भी परम प्रभु परमात्मा को किसी एक ही भाषा का जानकार जानकर उसी में बाँधकर रखना चाहें और आपस में ईर्ष्या-द्वेष की अग्नि भड़का कर लड़ना आरम्भ करें, तो वह हमारी ऐसी ही बाल-बुद्धि का परिचायक होगा और तब ऐसा कहना भी कुछ अयोग्य नहीं होगा कि हम भी उन्हीं बच्चों की भाँति हैं, उनसे कुछ भी विशेष नहीं। हाँ, तो मैं कह रहा था कि सबको एक सूत्र में बाँधने वाला ‘धर्म’ है और धर्म की जड़ ‘सत्य’ है। हमारे प्राचीन ऋषि याज्ञवल्क्य जी कहते हैं-‘सत्यं वद। सत्यान्न प्रमदितव्यम्। सत्यान्नास्ति परोधर्मः। सत्यमेव जयते नाऽनृतम्।’ आदि। और गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
धार्म न दूसर सत्य समाना ।
आगम निगम पुरान बखाना ।।
सत्य-मूल सब सुकृत सुहाये ।
वेद पुरान विदित मनु गाये ।। (रामचरितमानस)
अतएव आपस में मेल से रहने के लिए अपने को आस्तिक धर्म में रखना और सत्यव्रत में बरतना सबके लिए नितान्त आवश्यक है। यह वेदाज्ञा है। साथ ही, उत्तफ़ वेद-मंत्र में यह बात भी कही गयी कि हमलोग आपस में वैर-विरोध छोड़कर रहें, सब कोई ज्ञान प्राप्त करें और ज्ञान-सम्पन्न होकर परम प्रभु की उपासना करें। सभी कल्याण-कामी जनों को वेदादेश शिरोधार्य होना ही चाहिए। (मई, 1969)



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आज मैं आपलोगों को सुख-दुःख के सम्बन्ध में कुछ कहना चाहूँगा। किन्तु यह इतनी सामान्य बात है कि इसको एक शैशव-शिशु से लेकर नख-शिख श्वेत तक के लोग जानते हैं। मात्र मानव नहीं, अपितु जागतिक जीव मात्र सुख और दुःख से सुपरिचित हैं। इतना होने पर भी, मेरी समझ से जो बात जितनी सरल होती है, उसके विश्लेषण में वह उतना ही क्लिष्ट बन जाती है। उदाहरणार्थ आप ‘सूर्य’ को लीजिए। ‘सूर्य’ को कौन नहीं जानता? किन्तु यदि सूर्य का सरल शब्दार्थ किया जाए, तो जैसे-जैसे उसका अर्थ किया जाएगा, वैसे-ही-वैसे वह दुरूह होता जाएगा।
अब आप सूर्य के अर्थ पर ध्यान दीजिए। कोई पूछे कि ‘सूर्य’ शब्द का अर्थ क्या है? तो कहेंगे-‘रवि’। इससे सरल? दिनकर और सरल? दिवाकर। और भी? दिनेश। और? भास्कर, मार्तण्ड, भानु, प्रभाकर, पतंग, अंशुमाली, अंशु, अंशुधर, अंशुमान, सारंग, पूषण, अर्क, अर्यमा आदि कितने गिनाये जाएँ? जितना आगे बढ़ते जाइए, क्लिष्टता बढ़़ती जाएगी।
आपने देखा कि ‘सूर्य’ शब्द का किस भाँति सरलता से जटिलता में परिणत होता गया। इसी भाँति सुख-दुःख के विवेचन के संबंध में भी आप जानें। यूँ तो दुःख-सुख को कौन नहीं जानता? जन्म-धारण-काल से लेकर मानव मरण-पर्यन्त प्रायः दुःख का ही मुख देखा करता है।
जन्म-धारण-काल में शिशु रोता है अथवा यों समझिए कि रोते हुए ही शिशु संसार में आता है। आज तक कोई भी शिशु हँसते हुए जन्म नहीं लेता है और रोना दुःख का प्रतीक है। जन्म-धारण की बात जाने दीजिए, गर्भ से ही कष्ट का आरम्भ हो जाता है। विनय-पत्रिका ग्रंथ में गोस्वामीजी ने गर्भस्थ शिशु के करुण-क्रन्दन और कष्ट के चित्रें को इस भाँति चित्रित किया है-
आगे अनेक समूह संसृत उदरगत जान्यो सोऊ ।
सिर हेठ ऊपर चरन संकट बात नहिं पूछै कोऊ।।
सोनित पुरीष जो मूत्रमल कृमि कर्दमावृत सोवई ।
कोमल शरीर गंभीर वेदन सीस धुनि धुनि रोवई ।।
मातृ-गर्भ में आना, मानो निमन्त्रण देकर दुःखों को बुलाना है। गर्भस्थ शिशु का शिर नीचे और पैर ऊपर रहता है। उस महान कष्ट के काल में वहाँ कोई कुछ भी पूछनेवाला नहीं। रक्त, विष्ठा, मलमूत्र, कीड़े और कीचड़ जैसे घृणित वस्तुओं से घिरा हुआ वहाँ वह पड़ा रहता है। सुकोमल शरीर में गम्भीर पीड़ा के कारण सिर धुन-धुन कर रोता है। लेकिन सहायक कोई नहीं-न माँ, न बाप, न बन्धु और न कोई कुटुम्ब परिवार ही। यह तो जन्म लेने के पूर्व की बात है और जन्म लेने के पश्चात् की बात सुनिए-
नवजात अबोध शिशु भूख-प्यास से व्याकुल होने पर भी अपने मनोभावों को व्यक्त करने में सर्वथा असमर्थ रहता है; क्योंकि उस समय वह बोलने के लिए जानता नहीं, मात्र रोना जानता है। जाड़ा, गर्मी वा बरसात कुछ भी हो, पेशाब और पखाने पर लेटा रहता है। भूख लगने, प्यास लगने, पेट दर्द, सिर दर्द आदि किसी भी प्रकार के कष्ट होने में, वह रोने के अतिरिक्त कुछ जानता नहीं। बेचारी माता बच्चे को मात्र दूध पिलाना जानती है, पर उसके रोने के अर्थ को जानती नहीं, परिमाण-स्वरूप उसको चुप करने के सभी उपाय व्यर्थ हो जाते हैं। मान लीजिए किसी बच्चे के पेट में दर्द है, इस हेतु वह बच्चा क्रन्दन करता है और उसकी माता यह जानकर कि बच्चा भूख के कारण रोता है; उसको स्तन-पान कराती है। इसका परिणाम क्या होगा-बच्चे को सुख वा दुःख? विचारवान जान सकते हैं।
प्रातःस्मरणीय परम पूज्य अनन्त श्रीविभूषित श्रीसद्गुरुजी महाराज के श्रीमुख से मैंने इस संबंध की एक रोमांचकारी घटना सुनी थी। उषाकाल वा अरुणोदय का समय था। रेलगाड़ी के प्लेटफार्म पर अपने पिता की गोद में एक नवजात शिशु रो रहा था। उसको शान्त करने के लिए उसका पिता विविध यत्न करता, किन्तु बच्चा रोना बन्द नहीं करता। जब वह उस शिशु के मुँह में दूध की शीशी लगा देता, तो एक-दो घूँट दूध चूसकर बच्चा चुप हो जाता। पुनः अविलम्ब अपना क्रन्दन आरंभ कर देता। यह क्रम कब से, किस समय से-कितनी देर से जारी था, पता नहीं। देखते-देखते कुछ काल के पश्चात् परम पूज्य गुरुदेवजी महाराज से उसकी दयनीय दशा देखी नहीं गई और उन्होंने द्रवित होकर पूछ ही डाला-‘इस नन्हें बच्चे को कहाँ ले जाते हो-यह बच्चा इतना रोता क्यों है?’ उस बच्चे के पिता ने कहा- ‘महाराज! यह मेरा लड़का है। इनकी माता इसको छोड़कर परलोक सिधार गई। इस शिशु की मौसी को जब इस बात की जानकारी हुई, तो उसने इसके पालन-पोषण करने की इच्छा प्रकट की। अतएव इस शिशु को लेकर मैं उसके घर गया था। किन्तु प्रभु की लीला क्या थी, पता नहीं; विपत्ति अकेली आती नहीं। इसकी मौसी ने इसको अपने पास रखना स्वीकार नहीं किया। मैं क्या करता? किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो-विवश होकर पुनः इस बच्चे को लेकर वतन लौट रहा हूँ। और, मातृहीन होने के कारण बच्चे का रोना तो स्वाभाविक ही है।’ पूज्य गुरुदेवजी ने पुनः पूछने की कृपा की-‘इतने सवेरे दूध तुमको कहाँ मिला?’ उसने निवेदन किया- ‘महाराज! यह आज का नहीं है, कल्ह वाला बासी दूध है। बच्चा जब कभी रोता है, मुँह में लगा देता हूँ, तो चुप हो जाता है।’ पूज्य गुरुदेवजी ने कहा-‘अरे! यह क्या कर रहे हो? बच्चे को बासी दूध मत पिलाओ।’ इतने ही में उनकी अहैतुकी कृपा से बच्चे को उल्टी हो गई। पेट का संचित बासी दूध बाहर निकल आया, बच्चे की तकलीफ दूर हुई और रोना छोड़कर वह सो गया।
विचारणीय है, जो बच्चा पेट की व्यथा से व्यथित हो क्रन्दन कर रहा हो और उस अवस्था में उसको बासी दूध पिलाया जाय, यह कितनी दर्दनाक दशा है? किन्तु क्या किया जाए, अपने उस पुत्र से उसके पिता को कोई शत्रुता तो थी नहीं कि इस तरह का व्यवहार वह उसके साथ करता था। पिता तो जो कुछ करता था, अपने पुत्र की भलाई को दृष्टि में रखकर ही, किन्तु परिणाम प्रतिकूल होता था। गो0 तुलसीदासजी ने इस विषय को इस भाँति कहा है-
बाल दशा जेते दुख पाये । अति असीम नहिँ जाहिँ गनाये ।।
छुधा व्याधि बाधा भई भारी । वेदन नहिँ जानै महतारी ।।
जननी न जानै पीर सो, केहु शिशु रोदन करै ।
सोइ करइ विविधा उपाय, जातें अधिक तव छाती जरै ।।
कौमार सैसब अरु किसोर, अपार अघ को कहि सकै ।।
व्यतिरेक तोहि निरदय! महाखल आन कहु को सहि सकै ।।
कुछ बड़े हुए, पढ़ने लगे, कहीं अनुत्तीर्ण हुए तो महान कष्ट। पढ़ते-पढ़ते कॉलेजों में जहाँ तक पढ़ना चाहिए, पढ़ चुके। अब नौकरी के लिए दौड़-धूप और चिन्ता। जबतक नौकरी नहीं मिली, कोई काम-रोजगार हाथ नहीं आया, तबतक उसी की चिन्ता में सड़ते और गलते रहे। युवा अवस्था आई, विवाह हुआ। दम्पति में सम्पत्ति रही, तब तो सुख-शांति मिली, नहीं तो विपत्ति-ही-विपत्ति। समृद्धिशाली दाम्पत्य जीवन में भी संतान-विहीन दशा में सुख कहाँ? अटूट सम्पत्ति होने पर भी संतानहीन का जीवन सारशून्य होता है। यदि किसी भाँति संतान हुई और वह रुग्णावस्था में रहने लगा, तब तो और भी चिन्ता बढ़ जाती है कि कहीं देनेवाला लेने को तैयार नहीं हो गया! जबतक रोग मुक्त न हो जाए, इसी चिंता में घुलते रहते हैं। रोग मुक्त हुआ, पढ़ा-लिखाकर सुशिक्षित बनाया, विवाह करवा दिया, विवाह के बाद यदि बेटा बाप से विलग होकर कहीं अलग ही बंगला बसाना शुरू कर दिया, तब तो कहना ही क्या? और संग रहते हुए ही यदि कहीं पिता का परित्याग कर पुत्र ही परलोकगामी हुआ, तब तो दुःख का पहाड़ ही टूट पड़ता है।
यह एक बार अथवा एक जन्म की बात नहीं। कितनी बार इस भूतल के हम भार बने, ठिकाना नहीं और कितनी बार नाना प्रकार के दुःखों एवं चिन्ताओं की चिन्ता-ज्वाला में जले, कौन कह सकता है? असंख्य बार हमने जन्म लिये, असंख्य बार काल के गाल में गए। असंख्य बार पति-पत्नी का मिलन और बिछुड़न हुआ; असंख्य बार सम्पत्ति और संतति की हीनता के दुःख भोगे। असंख्य बार रोग-सोग से संतप्त हुए। असंख्य बार कुटुम्ब-परिवार हुए और नष्ट हुए। असंख्य पुत्र-पुत्रियाँ, नाती एवं पोते हुए और सभी प्रातःकालीन नक्षत्र की भाँति विलीन हुए। असंख्य बार संसार और वियोगरूपी सुख-दुःखात्मक थपेड़े खाये, रोये, चिल्लाये और बिलबिलाये। हाय सम्पत्ति! हाय संतति! हाय परिवार! आदि। और, हाय-हाय का क्रन्दन करते असंख्य बार संसार से सिधार गए, लेकिन मिला क्या? लाभ क्या हुआ? संतों ने कहा-यदि यही हरकत आगे भी तुम्हारी जारी रही, तो स्वयं समझ लो भविष्य में तुमको क्या मिलेगा?
एक बार भगवान बुद्ध ने अपनी शिष्या पटाचारा से कहा था-‘पटाचारे! जिस प्रकार तू आज पुत्रदिकों के मरण के लिए आँसू बहा रही है, उसी प्रकार इस अनादि संसार में पुत्रदिकों के मरण के लिए बहाए हुए तेरे आँसू चार महासमुद्रों के जल से भी बहुत अधिक हैं। पटाचारे! तेरे पुत्रदि तेरी शरण नहीं हो सकते। तू अपने शील का शोधन कर, जिससे तू निर्वाणगामी मार्ग को प्राप्त करेगी। पुत्र रक्षा नहीं कर सकते और न पिता, न बन्धु लोग ही। जब मृत्यु पकड़ती है, तो जातिवाले रक्षक नहीं हो सकते।’
इस प्रकार सामान्यतया सुख-दुःख को सभी जन जानते हैं। किन्तु परिभाषा के अनुकूल सुख- दुःख-विवेचन कितना पेचीदा है, अवलोकन कीजिए।
किन्हीं का कथन है-संसार सुखमय और रमणीय है, इसमें दुःख कहाँ? जो कोई कहते हैं कि संसार सुखमय है, वे भ्रम में हैं। उन्होंने अपनी भावना को दूषित कर लिया है, संसार में जितने पदार्थ हैं; सभी सुखोपभोग के साधन हैं। दूसरे का कथन है-दुनिया दुःखमय है, इसमें सुख कहाँ? संसार में सुख तो एक ऐसा विलक्षण पदार्थ है, जैसे दूज का चाँद। बल्कि दूज के चाँद के लिए सुनिश्चित है कि महीना पूरा होते-होते वह आएगा ही। किन्तु सुख के दर्शन जीवन में कब होंगे, पता नहीं-बिल्कुल अनिश्चित। जैसे बादल में बिजली चमकी, क्षीण प्रकाश-सा मालूम हुआ, पर प्रकाश कहाँ? सामने घोर अंधकार का साम्राज्य। यही यह संसार है और यही संसार का सुख है। गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
अनविचार रमणीय महा संसार भयंकर भारी ।
अर्थात् बिना विचार किए, विवेकहीन के लिए संसार रमणीय है, किन्तु विचारवान के लिए यह संसार महा भयंकर है। जैसे साँप का बाह्याकार देखने में सुन्दर, सुहावना और मनोहर हार-जैसा प्रतीत होता है, किन्तु उसके भीतर में विष भरा रहता है। इस संसार को और यहाँ के सुखों को ऐसा ही जानो। महाभारत शान्तिपर्व में लिखा है-
यदिष्ट तत्मुखं प्राहुः द्वेष्यं दुखमिहेष्यते ।
अर्थात् जो कुछ हमें इष्ट है, वही सुख है और जिसका हम द्वेष करते हैं यानी जो हमें नहीं चाहिए, वही दुःख है। अन्य का कथन है यदि इष्ट ही सुख है तो सभी के अभीष्ट एक-से नहीं होते। अतएव भिन्न-भिन्न इष्ट होने के कारण सबके सुख भिन्न-भिन्न होंगे, एक नहीं। किन्तु सुख की संज्ञा से अभिहित करना तो उसी के लिए अपेक्षित है, जो सबके लिए समान हो-एक हो। जैसे जिसको हम अग्नि कहते हैं, उसको जिस किसी की हथेली पर रखिए, उसका गुण वहाँ काम करेगा। अर्थात् अग्नि से उष्णता का बोध होगा और उसकी दाहक क्रिया वहाँ काम करेगी यानी हाथ जलेगा। इसी तरह सुख की संज्ञा से हम उसे ही सम्बोधित करें, जिसको पाकर सभी प्राप्तकर्त्ता सुख का अनुभव कर सकें।
एक दूसरे सिद्धांत के अनुसार अभाव दुःख है और भाव सुख है। जैसे अंधकार के अभाव को प्रकाश और प्रकाश के अभाव को अंधकार कहते हैं। यदि दिन नहीं है, तो रात है और रात नहीं है, तो दिन है। तात्पर्य यह कि रात के अभाव को दिन और दिन के अभाव को रात कहते हैं। रात हो वा दिन, एक ही समय के दो विभाग हैं, ठीक वैसे ही, जैसे एक ही सिक्के के दो पृष्ठ हों।
तीसरे सिद्धांत के अनुकूल इच्छित वस्तु की अपूर्णता को ‘दुःख’ और उसकी प्रचुरता को ‘सुख’ कहते हैं। अन्य का कथन है-यह सिद्धांत भी पूर्णरूपेण दोषमुक्त नहीं कहा जा सकता। यदि थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि इच्छित वस्तु की प्राचुर्य-प्राप्ति ही सुख है, तो मान लीजिए किसी को प्यास लगी, अब उसके सुख के लिए उसको प्रचुर मात्र में पानी चाहिए। पानी पीने के लिए वह गंगा के उपकूल में उपस्थित हुआ। जलपान-काल मेंं उसका पैर फिसल गया और वह गंगा के अथाह जल में डूबने लग गया, तो क्या ऐसी अवस्था में यह कहा जा सकता है कि वह मनुष्य सुख में डूब रहा है? कदापि नहीं।
अन्य कहते हैं-न्यूनता वा प्रचुरता की बात नहीं, तृप्ति में ‘सुख’ है। जितने पानी से उसकी प्यास बुझती, उतनी पानी पी लेने पर वह तृप्त हो जाता, इसी ‘तृप्ति’ को सुख कहते हैं। इसके विरोध में प्रतिपक्षी कहते हैं-सांसारिक पदार्थों को पाकर संसार में तृप्ति किसको हुई है? मान लिया कि एक गिलास पानी पी लेने पर वह संतुष्ट हो गया, लेकिन कितनी देर के लिए? पुनः पुनः उसको प्यास लगती रहेगी और पुनः पुनः उस दुःख से दुःखित होता रहेगा, सुख मिला कहाँ?
भर्तृहरिजी कहते हैं-‘प्यास से जब मुख सूख जाता है, तब हम उस दुःख के निवारण के लिए पानी पीते हैं; भूख से जब हम व्याकुल होते हैं, तब मिष्टान्न खाकर उस व्यथा को हटाते हैं और काम-वासना के प्रदीप्त होने पर उसकी स्त्री-संग द्वारा तृप्त करते हैं।’ इतने कहकर अन्त में कहा है कि-
प्रतीकारो व्याधोः सुखमिति विषर्यस्यति जनः।
अर्थात् किसी व्याधि अथवा दुःख के होने पर उसका जो निवारण या प्रतिकार किया जाता है, उसी को लोग भ्रमवश ‘सुख’ कहते हैं। दुःख निवारण के अतिरक्ति ‘सुख’ कोई भिन्न वस्तु नहीं है।
विचार करने पर वर्णित सिद्धांत भी सर्वमान्य सिद्ध नहीं होता। क्योंकि महाभारत आदिपर्व 75।49 में एक प्रसंग आया है कि शुक्राचार्य के श्राप से जब राजा ययाति जरावस्था को प्राप्त कर गया, तब उसने अपने पुत्र पुरु से उसकी युवावस्था को माँग लिया। फलतः उसका वह पुत्र वृद्ध हो गया और ययाति जवान। उस जवानी को पाकर राजा ने दस-बीस वा सौ-दौ सौ वर्ष ही विषय-भोग नहीं भोगा, अपितु पूरे एक हजार वर्ष तक सब प्रकार के विषय-सुखों का उपभोग किया, किन्तु अन्त में उन्होंने अपने अनुभव की बात कही-
न जातु कामः कामानां उपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धाते ।। (म0भा0आ0 74।49)
अर्थात् काम के उपभोग से विषय-वासना की तृप्ति तो होती ही नहीं, किन्तु विषय-वासना दिनानुदिन उसी प्रकार बढ़ती जाती है, जैसे अग्नि की ज्वाला हवन पदार्थों से बढ़ती जाती है।
राजा ययाति के इस अनुभवपूर्ण वाक्य का समर्थन धम्मपद नामक बौद्ध ग्रंथ भी करता है। यथा-
न कहापण बस्सेन तित्ति कामेसु विज्जती ।
अप्सस्सादा दुखा कामा इति बिं´ाय पंडितो ।।
अपि दिब्बेसु कामेसु रति सो नाधिगच्छति ।
तण्हक्खयरतो होति सम्मासम्बु) साबको ।। (बुद्धवग्गो 8।9)
अर्थात् यदि रुपयों की वर्षा हो, तो भी मनुष्यों की भोगों से तृप्ति नहीं हो सकती। सभी काम (भोग) अल्प स्वाद और दुःखद हैं, ऐसा जानकर पंडित देवताओं के भोगों में भी रति नहीं करता और सम्यक् सम्बुद्ध का अनुयायी तृष्णा को नाश करने में लगा रहता है। और गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
पावक काम भोग घृततें सठ कैसे चहत बुझायो ।
और भी दूसरे शब्दों में-
बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ विषय भोग बहु घी ते ।।
वस्तुतः विषयोपभोग से तृप्ति व सुख का होना, कभी भी कदापि सम्भव नहीं। जैसे अज्ञ श्वान शुष्क अस्थि को चबाता है, उसकी ठोकर से उसके दाँतों के जबड़े से रक्त स्त्रावित होता है, मूर्ख कुत्ता उसको चूसता है और यह समझकर कि उक्त हड्डी से ही यह रस निःसृत हो रहा है, प्रसन्न होता है। उसी प्रकार इन्द्रियों के द्वारा विषयों के सम्पर्क से हम जिस किसी भी प्रकार के सुख का भान करते हैं, वह हमारे अन्दर का सुख है, बाह्य विषयों का नहीं, किन्तु अपनी अज्ञता के कारण हम विषय-विष को अपने सुख-प्राप्ति का साधन समझकर प्रसन्न होते हैं। यह हमारी कितनी निरीमूर्खता है?
सुख-दुःख के संबंध में हमारे शास्त्र का यह भी कथन है कि जो हमारे मन और इन्द्रियों को सुहावे, वह सुख तथा जो हमारे मन और इन्द्रियों को नहीं सुहावे, वह दुःख है।
अनुकूल वेदनीय सुखं प्रतिकूल वेदनीयं दुखम् ।
विवेक-विलोचन से अवलोकन करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि बाह्य जगत में यथार्थतः सुख है ही नहीं। यदि हम नित्य शाश्वत सुख चाहते हैं, तो हमें चाहिए कि हम अपनी बहिर्मुखी वृत्ति को अन्तर्मुखी करें। बाह्य जगत का अवलोकन बन्द कर अन्तर्जगत की झाँकी करें।
एक बड़ी अच्छी रोचक कथा है। दो भाई थे। एक देहात में रहते थे और दूसरे सुदूर शहर में। दोनों भाइयों को दोनों जगहों में निरंतर निवास करते वर्षों बीत गए। अधिक दिनों तक एक स्थान में रहते हुए ग्रामीण भाई का चित्त गाँव से ऊबने लगा। यह मन-ही-मन सोचने लगा-मेरा छोटा भाई, जो शहर में रहता है, उसका जीवन कितना सुखी व सम्पन्न होगा? बस, ट्राम, रेलगाड़ी, इक्के, टमटम, स्कूटर आदि की सवारी करता होगा, अच्छे-अच्छे होटलों में अच्छा-अच्छा खाना खाता होगा, सुन्दर सुसज्जित सुरम्य भवन में सुवस्त्र सह सुखपूर्वक निवास करता होगा। कभी नाटक, कभी नौटंकी, कभी सिनेमा से अपने मन को बहलाकर आीांदित करता होगा। कभी क्लब, कभी वन-उपवन, कभी सुन्दरवन की सैर कर मन के अरमानों को पूर्ण करता होगा। छोटे भाई का बड़ा भाग्य अहा! कितना अहोभाग्य है उसका!
और मैं बड़ा भाई होकर ही क्या हुआ? निट्ठाह देहात में निरंतर सड़ रहा हूँ। क्या शहर का सुनहला जीवन और कहाँ देहात की दैन्य-दरिद्रता को कौन नहीं जानता? घर पर फूटा खपड़ा और तन पर फटा कपड़ा------। काश, मैं भी एक बार अपने जीवन में शहर की सैर कर पाता! इतना सोचकर वह शहर की ओर चल पड़ा।
उसका दूसरा भाई, जो शहर में रहता था, उसके मन में आया-मेरे बड़े भाई साहब बड़े भाग्यवान हैं, जो देहात में रहते हैं। देहात का कितना दोष-हीन वातावरण, कितने भोले-भाले भले दिल के लोग, कितना भला व्यवहार, कितना सादा, सुन्दर और साफ जीवन! उफ्-- और यहाँ (शहर) का-कितना विषाक्त और गन्दा वातावरण, ईर्ष्या, द्वेष, कलह और प्रपञ्च परिपूरित लोग। कितना छल-छद्म और विकारी जीवन! अफसोस! और देहात का-देवदुर्लभ शुद्ध दुग्ध, घृत, शुद्ध अन्न-फल तथा शुद्ध पवन और पानी; क्या कहना!
और, शहर में तो कहर होता है, कौन नहीं जानता? क्या कहा जाए? कल का आटा, नल का पानी और मीलों विषाक्त करनेवाली मिल की धुआँ मिश्रित हवा। अतएव, रे मन! चलो अपने वतन की ओर-यह कहकर वह घर की ओर चल पड़ा।
छोटे भाई ने शहर से घर की ओर और बड़े भाई ने घर से नगर की ओर प्रस्थान किया। कुछ पथ तय करने के पश्चात् संयोग-वश रास्ते में ही दोनों भाइयों की भेंट हो गई। परस्पर प्रणिपात, आशीर्वाद और कुशलोपरान्त दोनों एक-दूसरे से उनकी यात्र का कारण पूछा। अपने-अपने मनोभावों का स्पष्टीकरण करते हुए छोटे भाई ने कहा-भाई साहब! शहर में सुख-शांति-संयुत कोई नहीं। बड़े भाई ने कहा-भाई! देहात में भी दुःख से मुक्त कोई नहीं।
इस प्रकार एक ने देहात के दुर्गुणों को बताकर उसको हेय बताया, तो दूसरे ने नगर के नग्न नृत्य का चित्र चित्रित कर उसे श्रेय-हीन सिद्ध किया।
अन्त में दोनों भाइयों ने यही निष्कर्ष निकाला-न तो शहर में सुख है और न देहात में। बाह्य जगत में कहीं भी सुख नहीं है। यदि यथार्थ सुख चाहो, तो अपने अन्दर धँसो और अन्तर के अन्तिम तह तक धँस कर देखो। तब वह सुख मिलेगा, जिसको प्राप्त कर कोई भी प्राप्तिकर्त्ता स्वप्न में भी नहीं कह सकता कि यह दुःख है या अब किसी प्रकार का दुःख है।
पावइ सदा सुख हरि कृपा, संसार आशा तजि रहै ।
सपनेहु नहीं दुख द्वैत दरशन, बात कोटिक को कहै ।।
(गो0 तुलसीदासजी महाराज) शां0सं0जून, 1969
दिनांक 11-5-1969, स्थान: आश्रम कुप्पाघाट
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गुरु-प्रदत्त साधना में संलग्न साधक उसमें सफलता की आकांक्षा रखता है। किन्तु साधना में सबको समान रूप से सफलता नहीं। परिणामस्वरूप कितने साधक घबड़ा जाते हैं, धीरज खो बैठते हैं और निराशा देवी की गोद में बैठने की तैयारी करने लगते हैं। अतएव उन साधकों को थोड़ा धैर्य धारण कर यह जान लेना आवश्यक है कि उनकी साधना में सफलता नहीं होने देने में बाधक का व्यवधान उत्पादक क्या है? जैसी किसी भी रोग के कारण को जाने बिना उसके निवारण का समुचित उपचार वा यथोचित चिकित्सा संभव नहीं। उसी भाँति असफलता का कारण जाने बिना उसके निवारण का समुचित यत्न नहीं हो सकता।
हमारी साधना में सफलता क्यों नहीं? यह प्रश्न ठीक वैसा ही है, जैसे कोई पूछता हो कि साबून लगाने पर हमारा कपड़ा साफ क्यों नहीं होता? इस विषय को इस भाँति समझें-जैसे कपड़ा और साबून ये दो चीजें हैं। इसी तरह एक साधक होता है और दूसरी साधना होती है। जैसे सभी कपड़े एक से और उसी साबून भी एक से नहीं होते अर्थात् कपड़े-कपड़े और साबून-साबून में भिन्नता होती है। इसी भाँति सभी साधक एक-से नहीं होते। सभी के अपने-अपने संस्कार होते हैं। अर्थात् साधक-साधक और साधना- साधना में भिन्नता होती है।
यदि किसी का कपड़ा कम मैला है और साबून अच्छा है, तो वह कपड़ा शीघ्र साफ हो जाता है और यदि कपड़ा अधिक मैला हो, तो अच्छा साबून रहने पर भी उसकी शीघ्र सफाई गोचर नहीं होती। उसी प्रकार जिस साधक के अंतःकरण के कल्मष कम हों और साधना-क्रिया यथोचित हो और हो रही हो, तो उसका शीघ्र सफलता मालूम हो, यह असंभव नहीं, वरन् पूर्ण संभव है और जिस साधक का अंतःकरण काषायपूरित हो, उसकी साधना-विधि उत्तम होने पर भी उसे शीघ्र सफलता दीखती नहीं और जैसे यदि साबून ही ठीक नहीं हो, तो वह कपड़े को क्या साफ करेगा? उसी भाँति जिस साधक की साधना- विधि ही गलत हो, तो वह अपनी साधना में प्रगति क्या देख सकता है? इसी तरह साधना की सफलता विफलता साधक और उसकी साधना विधि इन दोनों पर अवलंबित है।
जैसे एक ही सूर्य-रश्मि मिट्टी, पानी और काँच-इन तीनों चीजों पर पड़ती है, किन्तु जो चमक काँच से निःसृत होता है, वह पानी से नहीं और जो पानी से निकलता है, वह मिट्टी से नहीं। प्रायः ऐसा देखा भी जाता है कि एक ही सद्गुरु के अनेक शिष्य हैं, जिन सबको समान रूप से शिक्षा-दीक्षा दी गयी। किन्तु उन शिष्यों में किसी का तेज अधिक, किसी का कम और किसी में कुछ भी नहीं दीखता।
जैसे जिस बीज का छिलका जितना पतला होता है, वह उतना ही शीघ्र अंकुरित होता है और जिसका छिलका जितना मोटा होता है, उससे उतनी ही अधिक देर में अंकुर निकलता है। प्रमाणस्वरूप आप मूँग, बेर और बेल को लीजिए। मूँग का त्वचा पतली होने के कारण उसको अंकुरित होने में कोई देर नहीं लगती अर्थात् उसके लिए मात्र दो-तीन दिन पर्याप्त है। किन्तु यदि बेर और बेल का अंकुर देखना चाहते हैं, तो उसके लिए हमें महीनों प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। इसी तरह फल लगने के समय में भी अंतर होता है। जैसे आप एक ही दिन केले, आम और अखरोट के पेड़ लगावें, तो आप देखेंगे कि छः महीने से एक वर्ष के अंदर ही केला फलने लगता है। आम्र-फल प्राप्त करने में चार-पाँच वर्ष लग जाते हैं और अखरोट के फल पाने के लिए हमें चालीस वर्ष पर्यन्त प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। क्योंकि चालीस वर्ष के पूर्व उसमें फल नहीं लगते। इसी भाँति एक ही गुरु के कई शिष्य होने पर भी सबकी सफलता में समय का अंतर पड़ सकता है।
साधना में सफलता के लिए साधक की संलग्नता देखी जाती है। साधना विधि उचित रहने पर भी जो जितनी तत्परता से साधना करता है, वह उतना शीघ्र सफलता प्राप्त कर सकता है। यह कोई आवश्यक बात नहीं है कि जो बहुत पूर्व दीक्षित हो चुके हैं, वे साधना में बहुत आगे बढ़ गये हों और जो बहुत पीछे दीक्षित हुए हैं, वे पीछे ही रह जाएँ। अपने जन्मों के अर्जित संस्कार के कारण अधिक दिनों के दीक्षित जन भी साधना में पीछे छूट सकते हैं और पीछे के दीक्षित जन भी साधना में आगे बढ़ सकते हैं। जैसे रेलगाड़ी का एक ही मार्ग होने पर भी एक्सप्रेस और डाकगाड़ी (Express & Mail Train) सवारी गाड़ी (Passanger Train) से आगे निकल जाती है। प्रमाणार्थ हावड़ा से 335 नं0 की सवारी गाड़ी 15 बजकर चालीस मिनट में छूटती है और 18 बजे 14 मिनट पर वर्द्धमान पहुँचती है। उसी हावड़ा स्टेशन से 309 नं0 की कोल फिल्ड एक्सप्रेस 16 बजकर 35 मिनट पर छूटती है और वह ठीक 18 बजे वर्द्धमान पहुँच जाती है। यानी पैसेंजर गाड़ी से 55 मिनट पश्चात् एक्सप्रेस गाड़ी के खुलने पर भी वह पूर्व गाड़ी से 14 मिनट पूर्व ही पहुँचती है। यही हालत साधकों के संबंध में भी समझना चाहिए। भगवान बुद्ध के समय यह रेलगाड़ी नहीं थी। अतएव उन्होंने घोड़े से इसकी उपमा दी है। यथा-
अप्पमत्तो पमत्तेसु सुत्तेसु बहु जागरो।
अब्बलस्सं’व सीघस्सो हित्वा याति सुमेधसो।।
(धम्मपद, अप्पमादवग्गो)
अर्थात् प्रमादी लोगों में अप्रमादी तथा सोये लोगों में जागरणशील विज्ञ उसी प्रकार आगे निकल आता है, जैसे तेज घोड़ा दुर्बल घोड़े से आगे हो जाता है। साधना में श्रद्धा और इन्द्रिय संयमन की अनिवार्य आवश्यकता। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने गी0 अ0 4/39-40 में कहा गया है-
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।।39।।
अज्ञश््याश्रद्दधानश््य संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ।।40।।
अर्थात् श्रद्धावान और जितेन्द्रिय जन ज्ञान प्राप्त करता है और वह ज्ञान पाकर तुरत परम शान्ति पाता है। किन्तु जो अज्ञानी और श्रद्धारहित होकर संशयवान है, उसका नाश होता है। संशयग्रस्त के लिए न तो यह लोक है, न परलोक; उसे कहीं सुख नहीं है। श्रद्धा की श्रेष्ठता गोस्वामीजी को भी स्वीकार है। वे धर्म की मूलभित्ति ‘श्रद्धा’ को मानते हैं। यथा-
श्रद्धा बिना धरम नहिं होई।
बिनु महि गन्ध कि पावइ कोई।।
(रामचरितमानस)
श्रद्धा किसे कहते हैं?
‘श्रद्धा किं? करिये जहँ प्रीती।
लखि न अभाव होइ विपरीती।।
परम पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के शब्दों में हम कह सकेंगे-‘गुरुवाक्य, सच्छास्त्र और सद्विचार; इन तीनों के मेल मिलने पर जो अटल विश्वास होता है, उसी को श्रद्धा कहते हैं।’ पुनः गीता 9/3 में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-
अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्यु संसारवर्त्मनि ।।
अर्थात् हे परन्तप! इस धर्म में जिन्हें श्रद्धा नहीं है, ऐसे लोग मुझे न पाकर मृत्युरूप संसार मार्ग में बारंबार ठोकर खाते हैं।
श्रद्धाहीन, संदेह मथित संशय-ग्रस्त जन से साधना नहीं हो सकती। तब ऐसे जन के लिए ‘मुक्ति’ की इच्छा वैसी ही है, जैसे गगन-दोहन कर पयपान की इच्छा कोई करता हो। इसलिए मैत्रेय्युपनिषद् अध्याय 2/16 में कहा है-
असंशयवतां मुक्तिः संशयाविष्टः चेतसाम् ।
न मुक्तिर्जन्म जन्मान्ते तस्ताद्विश्वासमाप्नुयात् ।।
अर्थात् असंशयवालों को मुक्ति मिलती है, संशयवालों को कई जन्मों में भी मुक्ति नहीं प्राप्त होती। अतः विश्वास प्राप्त करना चाहिए।
साधना में निरंतरता और गहरी निष्ठा का होना नितांत आवश्यक है। साधना को संयमपूर्वक नित्य नियमित रूप से निरंतर नहीं करके, (साधना को) बारंबार बदलते रहने से उसमें सिद्धि नहीं मिल सकती। दो-चार महीने वा दो-चार वर्ष नियमपूर्वक साधना करके छोड़ देना, पुनः दूसरी साधना को करना और बारंबार इसी तरह पकड़ते-छोड़ते रहनेवाले को साधना में सफलता नहीं मिलती। उसकी हालत उस कुआँ खोदनेवाले जन जैसी होती है। जैसे कि एक कथा प्रसिद्ध है-किसी एक आदमी ने कुआँ खोदना आरंभ किया। पन्द्रह-बीस गज जमीन खोदने पर जब उसको पानी नहीं मिला, तो उसने वहाँँ कुआँ खोदना छोड़कर दूसरा स्थान पसंद किया। वहाँ भी उसने तीस-चालीस गज खोद डाले; किन्तु जब वहाँ भी उसको जल नहीं मिला, तो उसने तीसरी जगह चुनकर कुआँ खोदना शुरू किया। लगभग साठ गज की खुदाई उसने वहाँ की। किन्तु इतने पर भी जब उसको पानी प्राप्ति का कोई चिह्न प्रकट नहीं दिख पड़ा, तो उसने कुआँ खोदना बंद कर दिया, यह कहकर कि जमीन में जल ही नहीं है।
यदि वह पानी प्राप्त्यर्थ 20 गज+40गज+ 60गज =120गज की खुदाई एक ही जगह किया होता, तो बहुत संभव था कि उतनी खुदाई के बाद पानी अवश्य मिल जाता। उसी प्रकार जो आदमी गुरु वाक्य, सच्छास्त्र और स्वविचारानुमोदित किसी एक ही साधना पर स्थिर नहीं रहता-मुस्तैदी के साथ साधना नहीं करता, वरं थोड़े-थोड़े दिनों में साधना बदलता रहता है, उसे सिद्धि रूपी जल की प्राप्ति नहीं होती।
अतएव एक बार साधना आरंभ करने पर जब तक अभीष्ट सिद्ध न हो जाए, तबतक धैर्यवान हो प्रयत्नपूर्वक उसमें लगा रहना चाहिए। सिद्धि वा सफलता प्राप्त करने का यह अमोघ मंत्र है।
साधना में सहनशीलता और धैर्य-बंगप्रदेश के एक प्रसिद्ध संत श्रीरामकृष्ण परमहंस देवजी ने कहा है-सहनशक्ति सबसे बड़ा गुण है। जो सहता है, उसकी बनती है। जो सहना नहीं जानता, उसका सब कुछ बिगड़ जाता है। रत्नाकर (समुद्र) रत्नों से भरा हुआ है। एक बार डुबकी मारने से कुछ न मिलने पर भी तुम यह न समझ बैठना कि रत्नाकर रत्नहीन हो गया है। धैर्य के साथ साधना करते रहो, समय आने पर भगवान की कृपा आप होगी।
एक दिन एक मनुष्य ने परमहंस जी ने पूछा- प्रभो! मैं बहुत दिनों से साधन-भजन कर रहा हूँ, पर मुझे अभी तक कुछ भी सिद्धि नहीं मिली। क्या मेरी सारी साधना वृथा गई? परमहंसजी ने कुछ हँसकर कहा-देखो, धर्म के राज्य में सबको पुश्तैनी किसान बनकर रहना चाहिए। जो पुश्तैनी खेती करता आया है, वह बारह वर्ष तक फसल नष्ट होते रहने पर भी खेती का काम नहीं छोड़ता और जो वंश-पंरपरा से किसान नहीं है-मुनाफे के लोभ में पड़कर खेती करता है, वह एक साल नुकसान होते हुए खेती करना छोड़ बैठता है। सच्चे विश्वासी भक्त इस श्रेणी के नहीं होते। वे जीवन-पर्यन्त ईश्वर के दर्शन नहीं पाने पर उसका भजन नहीं छोड़ते।
साधना में त्याग और संयमित जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। संयमहीन को किसी भी जन्म में सफलता नहीं मिल सकती। कठोपनिषद्, अ0 1, वल्ली 2, श्लोक 24 में लिखा है-
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्।।
जो पापकर्मों से निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं हैं और जिसका चित्त असमाहित या अशान्त है, वह इसे आत्मज्ञान-द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
सदगुरु बैद वचन बिस्वासा।
संयम यह न विषय के आसा।।
-रामचरितमानस
परम पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के शब्दों के हम कह सकेंगे-जैसे जल बिना रस नहीं होता है, उसी तरह तप के बिना तेज नहीं बढ़ता है। विषयभोग में लिप्त नहीं होना, तप है। भक्तिमार्ग में तप की बड़ी आवश्यकता है। भक्तिरूपी औषधि के सेवन करने में संयम यही है कि विषय की आशा नहीं रखो। ‘तप किं?’ विषय भोग परिहरई।
बिना विषय त्याग रूप तप के अंतर्ज्योति की दीप्ति नहीं दमकती। जैसे स्वर्ण अनल में जलकर कुंदन कहलाता है, वैसे ही साधक अध्यवसायपूर्वक साधना करके तेजवान होता है। जैसे प्रदीप जब तेल और बत्ती को जलाता है, तो उससे प्रकाश निःसृत होता है और सैकड़ों पतंग उसके समीप उसपर न्योछावर होने के लिए उपस्थित होते हैं। यदि दीपक तेल और बत्ती जलाना बंद कर दे तो प्रकाश भी बंद हो जाएगा, फिर उसके पास एक भी पतंग नहीं आएगा। इसी प्रकार जो भाग्यवान साधक अपने को संयम और साधना की अग्नि में जला पाते हैं, तो उनको ब्रह्मज्योति की अनुभूति होती है और मुमुक्षु उनके जिज्ञासार्थ और उसके दर्शनार्थ उपस्थित होते हैं। किन्तु जो अपने को उपर्युक्त तप से तपाता नहीं, उससे ब्रह्मज्योति निःसृत नहीं होती, फिर तो उसकी पूछ ही क्या? कौन पूछता है ऐसे को?
जैसे बीज जमीन में जाकर सड़ता, गलता, पचता है, तब कहीं उससे अंकुर निकलता है, वृक्ष बनकर फल देता है और उसकी छाया में सहस्त्रों प्राणी सुख पाते हैं। इसी तरह जो साधक अपने को सच्ची साधना में अच्छी तरह संलग्न करता है। अपने को गलाता है, पचाता है, उन्हीं को सिद्धिरूपी फल मिलता है और उनके आश्रय से सहस्त्रों प्राणी संसार- सागर से उत्तीर्ण होने का सन्मार्ग पाते हैं।
एक बात और भी बता देने योग्य है और वह यह है कि मान लीजिए साधक ठीक है यानी सच्चरित्र है, साधना क्रिया भी ठीक है, किन्तु अपने भोलेपन के कारण यदि साधक साधना में सुस्ती करे अर्थात् आजकल करके टालता रहे, यानी संत कबीर साहब के वाक्यानुकूल ‘आज कहै में काल्ह भजूँगा, काल्ह कहै फिर काल्ह’ करता रहे, तो उसको विफलता नहीं मिलकर सफलता कैसे मिल सकती है? बाल्यकाल की अपनी पाठ्य-पुस्तक में मैंने कछुआ और हिरण की कथा पड़ी थी। बड़ी अच्छी लगी थी। मुझे आज भी पद्यात्मक कथानक अक्षरशः याद है। यथा-
कछुआ हिरण लगाकर बाजी।
हुए दौड़ करने पर राजी।।
पहले वहाँ पहुँच जो जावे।
वीर तभी से वह कहलावे।।
हिरण लगा यों कहने मन में।
दौड़ धूप जाऊँगा छन में।।
मन में लापरवाही छाई।
सोया उसे नींद भी आई।।
कछुआ चलता ही जाता था।
आलस जरा न दिखलाता था।।
पहले पहुँचा नदी किनारे।
पीछे हिरण गया मन मारे।।
लापरवाही कभी न करना।
काम रोज का फौरन करना।।
अंग्रेजी में एक अच्छी कहावत इस संबंध की प्रसिद्ध है- Slow and steady wins the race अर्थात् धीरे ही हो, किन्तु जो निरंतर चलता रहता है, अंत में उसकी निश्चित विजय होती है। अतएव प्रत्येक साधक को प्रमादहीन होकर नित्य नियमित रूप से साधना करते रहना परमोचित है।
सिक्ख सम्प्रदाय के प्रवर्तक बाबा गुरु नानक देवजी महाराज ने ईश्वर-भक्ति के संबंध में एक बड़ी अच्छी बात कही है। वे कहते हैं-
सतगुरु अगम अगम है ठाकुर
भरि सागर भगति करीजै।
कृपा कृपा करि दीन हम सारिग
एक बूँद नाम मुखि दीजै।।
अर्थात् इस वाणी द्वारा वे समुद्र को अथाह एवं विस्तृत जलराशि की भाँति बहुत अधिक भक्ति करने का आदेश देते हैं। और हम नित्यप्रति कितनी भक्ति करते हैं, इसका अंकन (संचय) करें। हम नित्यप्रति शौच, आसन, व्यायाम, स्नान, भोजन और विश्राम में कितना समय लगाते हैं, इसको ध्यान में रखें। फिर दैनिक धंधा-ऑफिस, कोर्ट, कृषि, वाणिज्य, अध्ययन, अध्यापन एवं नाना प्रकार के गृहकार्यों में हमारा कितना समय व्यय होता है, इसका विचार करें। पश्चात् इष्ट-मित्रें से मिलने, टहलने, मन-बहलाने (सैर-सपाटे करने) तथा बच्चों के लाड़-प्यार में हमारे सीमित जीवनकाल का कितना भाग व्यतीत होता है; इन सब समयों को जोड़कर हम एक ओर रखें। इन सब कामों के संपादन के पश्चात् जो स्वल्पातिस्वल्प समय बच पाता है, उसमें हम साधना करने के लिए बैठते हैं। वह समय स्वल्प वा अधिक कितना होता है, उसका अपना-अपना हिसाब हम सभी के पास है-हम सभी जानते हैं। फिर भी जितनी देर हम साधना-हेतु बैठते हैं, उसमें कितनी देर हमारा मन एकाग्र हो पाता है, उसे हम स्वयं ही जानते हैं, अन्य जन क्या जानें?
अब, हम अपने हृदय पर हथेली रखकर अपने मन से पूछें-रे मन! बाबा नानक का वचन ‘भरि सागर भगति करीजै’ के कौन-सा वा किस अंश का तुमने पालन किया? ठीक-ठीक बता। तो देखिए, आपको क्या उत्तर मिलता है? कहेगा-कहाँ सिन्धु और कहाँ विन्दु! क्या कहा जाए? कुछ भी नहीं।
अतएव अब हम अपनी निसबत स्वयं निर्णय करें कि सफलता सिन्धु के सुदूर अंतस्तल स्पर्श करने, छूने में हमें कितनी देर होनी चाहिए! किन्तु इसमें अधीर या आशाहीन होने की बात नहीं है। ‘बूँद-बूँद से तालाब भरता है।’ और समुद्र ही क्या है? बूँद ही का तो समष्टि रूप समुद्र है। भगवान बुद्ध कहते हैं-
मामञ्ञ्ोथ पुञ्ञस्स न मन्तं आगमिस्सति।
उदविन्दुनिपातेन उदकुम्भोपि पूरति।
धीरो पूरति पुञ्ञस्य थोक-थोकम्पि आचिनं।।
(धम्मपद, पापवग्गो)
अर्थात् ‘वह मेरे पास नहीं आएगा’ ऐसा सोच पुण्य की अवहेलना न करे। पानी की बूँदें गिरने से घड़ा भर जाता है। ऐसे ही धीर थोड़ा-थोड़ा संचय करते-करते पुण्य से अपने को भर लेता है। और यह भी-
अनुपुब्बेन मेधावी थोक थोकं खणे खणे।
कम्मारो रजतस्सेव निद्धमे मल मत्तनो।।5।।
(धम्मपद, मलवग्गो)
अर्थात् जैसे सोना-चाँदी की मैल को क्रमशः क्षण-क्षण थोड़ा-थोड़ा जलाकर साफ करता है, वैसे ही बुद्धिमान पुरुष अपने मल को क्रमशः दूर करे।
तात्पर्य यह कि हम अपने दोषों, दुर्गुणों एवं अवगुणों का शनैः शनैः त्याग करते हुए नित्यप्रति नियमित रूप से ध्यानाभ्यास अवश्य करें; फिर साधना में सफलता क्यों न मिलेगी।
साधना-सफलता का शिखर मुक्ति-मोक्ष- निर्वाण वा नजात है। इसके लिए कई जन्मों के संस्कृत संस्कार की अनिवार्य आवश्यकता है। यह बच्चों का खेल नहीं है और न बाजीगर का तमाशा है।
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के शब्दों में हम कह सकेंगे-‘परमेश्वर स्वरूप की इस प्रकार पूरी पहचान हो जावे कि एक ही परब्रह्म सब प्राणियों में व्याप्त है और उसी भाव से संकट के समय भी पूरी समता से बर्ताव करने का अचल स्वभाव हो जावे; परन्तु इसके लिए सदैव से हमारे समान चार अक्षरों का कुछ ज्ञान होना ही बस नहीं है, अनेक पीढ़ियों के संस्कार की, इन्द्रिय-निग्रह की, दीघोद्योग की तथा ध्यान और उपासना की सहायता अत्यन्त आवश्यक है। (गीता-रहस्य)
परिनिर्वाण करने के पूर्व भगवान बुद्ध के अंतिम दर्शन करते हुए धर्म-सेनापति सारिपुत्र ने कहा था-‘भन्ते! इन चरणों की वंदना के लिए सौ हजार कल्पों से अधिक काल तक मैंने असंख्य पारमिताएँ पूर्ण कीं। वह मेरा मनोरथ सिर तक पहुँच गया---। अब मैं---- निर्वाणपुर जाऊँगा। (बुद्धचर्या)
और, सारिपुत्र के निर्वाण के पश्चात् उनकी अस्थि को हाथ में लेकर भिक्षुओं को संबोधित कर भगवान बुद्ध ने स्वयं कहा था-‘भिक्षुओ! जिस भिक्षु ने पहले (एक) दिन अनेक सौ प्रातिहार्य (यौगिक चमत्कार) करके निर्वाण होने के लिए अनुज्ञा माँगी, उसकी ही यह आज शंखवर्ण समान धातुएँ (हड्डियाँ) दिखाई पड़ रही हैं। भिक्षुओ! सौ हजार कल्प [काल का एक विभाग जिसे ब्रह्मा का एक दिन कहते हैं और जिसमें 14 मन्वन्तर (इकहत्तर चतुर्युगों का काल) या 4,32,00,00,000 वर्ष होते हैं।,ह् से अधिक समय तक पारमिता (दान-आदि) पूर्ण किया हुआ यह भिक्षु था। ---उस वीतराग जितेन्द्रिय निर्वाण-प्राप्त सारिपुत्र की वंदना करो। (बुद्धचर्या)
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा कथित ‘अनेक जन्म संसिद्धस्ततो याति परांगतिम्’ (6/45) से इस विषय की भली भाँति परिपुष्टि हो जाती है और इसी गीता 7/19 में-
बहूनां जन्मजन्मान्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ।।19।।
कहकर भगवान ने अनेक जन्म पर्यन्त साधना करने को दृढ़ाया है-सिद्ध किया है। भगवान श्रीकृष्ण ने जन्मों की संख्या नहीं बताकर ‘अनेक जन्म’ कहा। यह ‘अनेक जन्म’ समय स्वल्पता बोध नहीं, वरं असंख्यता का परिचायक प्रतीत होता है। क्योंकि ‘अनेक जन्म’ शब्द समय की सीमा का निर्धारण नहीं करता कि सौ जन्म, दो सौ जन्म, हजार जन्म अथवा बहु हजार जन्म? अतएव ऐसा लगता है कि यह ‘अनेक जन्म’ वा ‘बहूनां जन्म जन्मान्ते’ शब्द अनगिनत जन्म की ओर ही इंगित करता है।
‘महायोगेश्वरो हरिः’ भगवान श्रीकृष्ण का महावाक्य महाप्राज्ञ लोकमान्य बालगंगाधर तिलक जी को भी मान्य है। वे कहते हैं-पहले पहल जान पड़ता है कि यह सिद्धि जनक आदि को एक ही जन्म में मिल गई होगी; परन्तु तात्विक दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि उन्हें भी यह फल जन्म-जन्मान्तर के पूर्व संस्कार से ही मिला होगा। (गीता-रहस्य)
और थियोसोफिकल सोसाइटी की एक विख्यात नेत्री डॉक्टर एनी वीसेंट अपनी बिल्डिंग ऑफ दी कौस मौस (सृष्टि की रचना) पुस्तक में लिखती है-‘प्रत्येक उस ज्ञान को, जो कि पूर्व से असंख्य मन्वन्तरों में प्राप्त किया था, अगले मन्वन्तर में साथ लाता है। (कैवल्य शास्त्र)
एक कहावत है-‘सिद्धांत का कण। अभ्यास एक टन’ जिसका पूरा वजन साढ़े सत्ताईस मन।’ तात्पर्य यह कि सिद्धांत तो स्वल्प, किन्तु उसकी साधना उससे कितनी ही गुणी अधिक होती है। गो0 तुलसीदासजी के शब्दों में हम कह सकेंगे-
कहत सुगम करनी अपार, जानइ जो जेहि बनि आई।
मेरे कथन का आशय यह है कि ‘ईश्वर-भक्ति करो’ इतना कहने में तो कोई देर नहीं लगती, किन्तु उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने में एक लंबी अवधि की अनिवार्य आवश्यकता होती है। यद्यपि सिद्धांत बहुत थोड़ा है, फिर भी अभ्यास करना बहुत अधिक है।
मान लिया जाए कि हमारी साधना एक-एक रत्ती रोज होती है और साधना की सफलता अथवा भक्ति की पूर्णता एक टन में होती है। तो हम उसका हिसाब करके देखें कि उसके लिए अनिवार्य रूप से कितना समय अपेक्षित है?
8 रत्ती=एक माशा, 12 माशा=1 तोला। इसलिए 12 ग 8=96 रत्ती यानी 1 तोला। प्रत्येक दिन एक-एक रत्ती के हिसाब से भक्ति करने के कारण 1 तोला भक्ति में गोया 96 दिन लगेंगे। 5 तोला=एक छटाँक, 16 छटाँक=1सेर। इसलिए एक सेर भक्ति के लिए-16 ग 5 ग 96 =7680 दिन (7680360)=21 वर्ष, 4 महीने। 40 सेर। 40 सेर का एक मन। इस हेतु एक मन भक्ति के लिए 21 वर्ष 4 महीने ग 40 = 853 वर्ष 4 महीने। इसी न्याय से 1 टन भक्ति के लिए 853 वर्ष 4 महीने 27=23466 वर्ष 8 महीने।
अब कण के हिसाब से एक टन की अवधि क्या होगी, साधक स्वयं विचारें। इस प्रकार मार्ग की दूरी और लंबी अवधि देखकर संत कबीर साहब कहते हैं-
लंबा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहु मार ।
कहौ संतो क्यों पाइये, दुर्लभ हरि दीदार ।।
कष्टकर लंबा मार्ग आैर उसपर लंबी अवधि पर्यन्त चलने के भय से साधक उकता कर कहीं साधना ही न छोड़ बैठे। इस भय को भगाने के लिए संत कबीर साहब सान्त्वना देते हुए कहते हैं-
अनहद बाजै नीझर झरै, उपजै ब्रह्म ज्ञान ।
अवगति अंतरि प्रगटै, लागै प्रेम धियान ।।
पुनः अपने जोरदार शब्दों में साधक के हृदय में सद्गुरु के प्रति अगाध श्रद्धाभक्ति उत्पन्न करने के लिए दृढ़तापूर्वक अपनी अनुभूति बताते हैं। वे कहते हैं-अरे! घबड़ाने, उकताने का साहस हीन होने की क्या बात है? साधक को सद्गुरु की कृपा पर अडिग विश्वास होना चाहिए, सद्गुरु क्या नहीं कर सकते? उनकी कृपा से कल्प का काल पलक में व्यतीत हो सकता है और करोड़ों जन्म का रास्ता पल में कट सकता है।
सतगुरु पशु माणस करैं, माणस थें सिध सोय।
दादू सिध थैं देवता, देव निरंजन होय।।
(संत दादू दयाल)
सतगुरु दीन दयाल हैं, दया करी मोहि आय।
कोटि जन्म का पंथ था, पल में पहुँचा जाय।।
(संत कबीर साहब)
समय के संबंध में एक बात और भी ज्ञातव्य है। समय अपनी सीमा में सबको बद्ध रखता है, किन्तु वह स्वयं स्वच्छंद रहता है। अर्थात् अपने पर कोई प्रतिबंध नहीं रखता। जैसे परिस्थितिवश रबड़ फैलता और सिकुड़ता है, उसी भाँति समय भी अवस्था पाकर संकुचित और विकसित होता है। प्रमाणार्थ जैसे जब हम स्वप्नावस्था में जाते हैं, तो उस समय के कार्य-कलाप से घंटों जैसा प्रतीत होता है; किन्तु निद्रा भंग होने पर यानी जाग्रतावस्था में आने पर ज्ञात होता है कि अभी तो मात्र कई मिनट ही हुए थे। जैसे स्वप्नावस्था के घंटों का समय मिनटों में समाप्त हो जाता है, वैसे ही तुरीयावस्था में जाने पर कल्पों का समय पलकों में व्यतीत हो जाता है।
इस विषय की परिपुष्टि के लिए रामचरितमानस (उत्तरकांड) में वर्णित प्रसंग का बड़ा ही रोचक, रोमांचकारी और ज्वलन्त प्रमाणस्वरूप है। उसमें लिखा है कि कागभुशुण्डिजी ने अनेक अखिल ब्रह्मांड, अनेक लोक-लोकांतर, करोड़ों ब्रह्मा, करोड़ों शिव, अनगिनत सूर्य, अनगिनत चन्द्र, अनगिनत तारे, अनगिनत लोकपाल, अनगिनत यम-काल, अगणित शेषनाग, असंख्य समुद्र, असंख्य सरिता, असंख्य सरोवर, प्रत्येक लोक में ब्रह्मा, शिव और प्रत्येक ब्रह्मांड में उन्होंने राम को भी देखा। इस समस्त लोक-लोकांतरों में भ्रमण करते हुए उनको कितना समय जान पड़ा, उसकी चर्चा वे इस भाँति करते हैं-
भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका।
बीते मनहू कलप सत एका।।
ये सारी घटनाएँ वा अद्भुत रचनाएँ उन्होंने भगवान श्रीराम को माया से वा कृपा से असाधारण अवस्था में देखी थीं। किन्तु साधारण अवस्था आने पर उनको कैसा ज्ञात हुआ, इसके लिए वे क्या कहते हैं, सो भी सुनिए-
उभय घड़ी महँ में सब देखा।
भयेउँ भ्रमित मन मोह विसेषा।।
तात्पर्य यह है कि सौ कल्प के समय की इति मात्र दो घड़ी में भी हो जाती है। वस्तुतः नाम और रूप की भाँति देश और काल भी ईश्वर की माया ही है। अतएव मानव के अवस्था-भेद में ये भी भिन्न-भिन्न भाँति में विदित हो, कोई आश्चर्य वा असंभव बात नहीं, संभव ही है।
विचारणीय है कि सृष्टि की रचना आज से 1,97,29,49,070 वर्ष पूर्व हुई है। जब से सृष्टि है, तब से हम चले आ रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से गीता 4/5 में कहा था-
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ।।5।।
अर्थात् हे अर्जुन! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं, उन सबको मैं जानता हूँ और परंतप! तू नहीं जानता।
इस भाँति हमारे अनेक जन्म हो चुके हैं। अनेक जन्मों से हम साधना करते चले आ रहे हैं; किन्तु अर्जुन की भाँति ही हमें स्मरण नहीं है कि हम कितने जन्मों वा वर्षों से साधना करते आ रहे हैं। क्या ठिकाना है, यदि हमारी साधना-सफलता का कहीं यह अंतिम जन्म ही हो! अतएव अपनी साधना में शिथिलता लाकर अपने आवागमन के चक्र को क्यों बढ़ावें? क्यों न, आज से ही कटिबद्ध होकर हम अपनी साधना में पिल पड़ें।
यदि शंका हो कि हमारी साधना का यह अंतिम जन्म है, यह कैसे विश्वास किया जाए? क्योंकि कहावत है-होनहार बिरवान के होत चिकने पात। इसके अनुसार तो अपने में कुछ भी शुभ लक्षण दीख पड़ता नहीं। इसके उत्तर में निवेदन है कि ऐसी शंका के समाधानार्थ हमारे यहाँ अनेक इतिहास व पौराणिक गाथाएँ हैं। उसके अध्ययन से यह निर्णीत है कि यहाँ ऐसे भी जन हुए हैं, जिनके जीवन का पूर्वांश घोर तमसाच्छन्न था और उन्हीं के जीवन के उत्तरार्द्ध वा अंतिमांश इतना समुज्ज्वल हुआ, जिनके जीवनालोक से जीवन आलोकित हुआ, होता है और होगा।
प्रमाणार्थ आप वाल्मीकि मुनि जी के जीवन वृत्त को जानते होंगे, उनका पूर्वनाम रत्नाकर था। क्या, रत्नाकर के जीवन के पूर्व भाग में कोई भी ऐसा चिह्न प्रकट था, जिससे उनके भविष्य जीवन के संबंध में कोई कल्पना कर सकता कि इतना पतित जन को में परम पावन हो सकता है। जिनके लिए यह प्रसिद्ध है कि-
जान आदि कवि नाम प्रतापू।
भयेउ सुद्ध करि उलटा जापू।।
तथा, उलटा नाम जपत जग जाना।
वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।।
क्या चांडाल और हत्यारा भी ब्रह्मविद् व ब्रह्मवत् हो सकता है? यदि नहीं, तो रत्नाकर जैसे हत्यारा डाकू ब्रह्मवत् कैसे हुआ? जब ब्रह्मघाती भी अपने इसी जीवन में ब्रह्मवादी बन सकता है, यह सत्य है; तो हम निराशा देवी की गोद में क्यों बैठें? हम ऐसी आशा क्यों न करें कि मुझ जैसे ममताग्रस्त मानव में भी वह क्षमता हो सकती है, जिससे समता प्राप्त कर हम रमता-राम हो सकते हैं अर्थात् राम में रावण कर सकते हैं।
भगवान बुद्ध जैसे महान् गुरु और कौन हो सकते हैं, जिनके जीवनकाल में ही उनके एक सहस्त्र शिष्य साधना में सिद्ध हो चुके थे। उन भगवान बुद्ध को भी अपने जीवन के पूर्वभाग में, अपने अंतिम जन्म होने का ज्ञान नहीं था। अनेक प्रकार की साधनाएँ और तपस्या करके भी जब उनको अंतःशान्ति नहीं मिली, तो वे चिंतित होकर सोचने लगे-अफसोस! जिस कारण राजपाट, धन-दौलत, स्त्री-पुरुष, परिवार- कुटुम्ब प्रभृति सबको त्यागा, काया को तप में तपाया, खाना-पीना, सोना-विश्रामादि को तिलांजलि दे अमित कष्टों को उठाया; परिणाम में कुछ मिला नहीं। जिस परम शान्ति की प्राप्ति की आशा से, सभी सांसारिक आशाओं को छोड़ा, उस आशा-वल्ली पर तुषारापात हो गया। उस लक्ष्य की प्राप्ति भी न हो सकी और न यह शरीर अब वैसा रह गया, जिससे राज-काज ही चलाया जा सके। क्या करूँ, कहाँ जाऊँ? न इधर का रहा, न उधर का!
आँख बंदकर ऐसा सोचते हुए वे चिंतासागर में डूब रहे थे। इतने में उन्होंने एक स्वप्न-सा देखा- देवराज इन्द्र पधार रहे थे। उनके हाथ में तानपूरा है, जिनमें तीन तार लगे हुए हैं। उन तीनों तारों में से एकतार जोरों से कसा हुआ था, जिसकी आवाज ठस -कर्णकटु मालूम पड़ती थी। दूसरा तार बिल्कुल ढीला था, उसकी आवाज बेसुरा-बिल्कुल नीरस थी। तीसरा तार जो समुचित ढंग से कसा था, उसकी आवाज बड़ी मीठी और सुरीली थी।
इतने में उनकी नींद टूट जाती है और वे विचार करने लगते हैं-यह क्या बात हुई, इस स्वप्न का आशय क्या? मन-ही-मन विचार-विमर्श करते वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मैंने अपना तार बहुत कसा और सांसारिक-संसारासक्त जन का तार बहुत ढीला रहता है। अतएव इन उभय अवस्थाओं में अभिलषित वस्तु-लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। आवश्यकता है-मध्यमार्गी बनने की। फिर उन्होंने दृढ़ साधना की और एक ही रात में उन्होंने अपने परम लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त किया।
जब जन्मों के अर्जित सुसंस्कार के फलस्वरूप एक रात में भी निर्वाण-मोक्ष-मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है, तो फिर हमें निराशा देवी की गोद में बैठने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। और जब ऐसा कहना भी भारी भूल होगी कि हमसे इस जन्म में साधना नहीं हो सकेगी।
दूसरी बात हम तैमुरलंग के जीवन से भी शिक्षा-ग्रहण कर सकते हैं। उन्होंने इक्कीस बार समरकंद पर चढ़ाई की और इक्कीसो बार वे पराजित होते गये। अंत में वे निराश होकर आत्महत्या हेतु उन्होंने एक गुहा में प्रवेश किया। प्रभु की लीला अगम है, अपार है और अद्भुतता एवं विलक्षणता से ओत-प्रोत है। न जाने किसके द्वारा वे किनको क्या संदेशा देते हैं! तैमूरलंग की दृष्टि में एक नन्हीं पिपीलिका आती है। वह मुँह में दाना लेकर ऊपर पर्वत पर चढ़ना चाहती है; किन्तु फिसल-फिसलकर गिर जाती है। इस प्रकार उस चीटी ने इक्कीस बार उस शिलाखंड पर चढ़ने की चेष्टा की और इक्कीसो बार वह गिरी, फिर भी उसने हिम्मत नहीं छोड़ी। पुनः बाईसवीं बार वह साहस कर उसपर चढ़ने लगी और दाना-सहित चढ़ गई। तैमूरलंग आस्तिकवादी और आशावादी; दोनों थे। साथ ही, वे परिश्रमी और सत्साहसी भी थे। उन्होंने बाईसवीं बार चढ़ाई की और समरकंद को पराजित कर विजयी हुए। अतएव हम अपनी साधना करने में ढील न करें, हो सकता है हमारा भी यह लक्ष्य-प्राप्ति की अंतिम साधना ही हो।
(जुलाई+अगस्त, 1969)
स्थान: कुप्पाघाट दिनांक 22 एवं 29-6-1969 ई0



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धर्मानुरागी आदरणीय श्रीमान्, सादर अभिवादन!
प्रातःस्मरणीय परम पूज्य अनंत श्रीविभूषित श्रीसद्गुरु महाराज जी आपको शुभाशीर्वाद प्रदान करते हैं। आपके दिनांक 6-10-1969 का पत्र यथा समय प्राप्त हुआ था, किन्तु सत्संग-सेवार्थ बाहर चले जाने के कारण तथा वहाँ आने पर यहाँ की कार्य व्यस्तता के कारण पत्रोत्तर शीघ्र दे न सका, कृपया क्षमा करेंगे।
आपने जिस ऊँची निगाह से मुझे देखने की चेष्टा की है, यह आपकी महानता है। मैं तो एक साधारण जन हूँ। अपने विचारानुसार आपकी जिज्ञासाओं का यथासंभव समाधान करने की चेष्टा की है। वस्तुतः मानव अपने अर्जित ज्ञान के आधार पर ही कुछ कह सकता है। अतएव त्रुटि के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।
प्रश्न 1-मनु-शतरूपा का अपार तप देखकर आकाशवाणी हुई कि ‘वर माँगो’। यह सुनकर दम्पति ने प्रार्थना की कि-
जो सरूप बस सिव मन माहीं।
जेहि कारण मुनि यतन कराहीं।।
जो भुसुन्ड मन मानस हंसा।
सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा।।
इससे साबित होता है कि जो सरूप (रूप सहित) शिवजी के मन में बसता है तथा जो रूप कागभुशुण्डिजी के मनरूपी सरोवर का हंस है इत्यादि- इत्यादि; उसी रूप का हम दर्शन चाहते हैं। यह सुनकर-
भगत बछल प्रभु कृपा निधाना।
विस्ववास प्रगटे भगवाना।।
अर्थात् विराट भगवान प्रकट हो गये, तो यह साक्षात् सगुण (मायिक रूप) का दर्शन हुआ। तब पूछना यह है कि शिवजी के मन मंदिर में ‘साकार रूप’ मायिक रूप विराजते हैं यानी सगुण रूप के दर्शन आदि के सुख में शिवजी लगे रहते हैं या ‘सहज सरूप’ के सुख में लगे रहते हैं; क्योंकि सगुणता स्थूल है और निर्गुणता सूक्ष्म।
उत्तर में निवेदन है कि गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस में लिखा है-‘गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।’ (अरण्यकांड) अर्थात् इन्द्रियों से जो प्रत्यक्ष हो और जहाँ तक मन की गति है अथवा जो मन से ग्रहीत है, वह माया है। इस दृष्टि से ‘जो सरूप बस सिव मन माहीं----।’ अथवा ‘जो भुसुण्ड मन मानस हंसा’ सगुण साकार ही है। शिवजी, काकभुशुण्डिजी अथवा किसी के भी मन और इन्द्रियों के द्वारा जो कुछ भी ग्रहण होगा, वह माया ही होगा। माया अवश्य ही सगुण होगी, निर्गुण कदापि नहीं।
किन्तु शिवजी के लिए दूसरा प्रसंग जहाँ पर ‘तब सिव सहज सरूप संभारा। लागि समाधि अखंड अपारा।।’ आया है, वह ‘सहज स्वरूप’ सगुण कथमपि नहीं, निर्गुण है। निर्गुण अथवा सहज स्वरूप इन्द्रियातीत यानी स्थूल-सूक्ष्मादि इन्द्रियों से रहित होता है, जिसका वर्णन गो0 तुलसीदासजी महाराज ने विनय-पत्रिका में इस इस भाँति किया है-
अनुराग सो निजरूप जो, जग तें विलच्छन देखिये ।
सन्तोष सम सीतल सदा दम, देहवन्त न लेखिये ।।
निर्मल निरामय एकरस, तेहि हरष सोक न व्यापई ।
त्रयलोक पावन सो सदा, जाकी दसा ऐसी भई ।।
तात्पर्य यह कि समाधि काल में शिवजी निर्गुण में रत रहते हैं और समाधि से उतरने पर जब वे शरीर और मन के साथ होते हैं, तो सगुण में लगे रहते हैं, गोस्वामीजी के लिखे अनुकूल ऐसा ही मालूम होता है।
प्रश्न 2-पार्वतीजी ने शिव से अनेक प्रश्न करके उत्तर पाकर अपनी शंकाएँ मिटायीं; परन्तु अन्त का एक प्रश्न यह भी था कि-
बहुरि कहहु करुणायतन, किन्हु जो अचरज राम ।
प्रजा सहित रघुवंस मनी, किमि गमने निजधाम ।।
इसका उत्तर शिवजी ने क्या दिया, इसका उल्लेख कहीं रामायण में नहीं है। बल्कि रामचरितमानस सार-सटीक में भी प्रातः स्मरणीय श्रीसद्गुरु महाराज जी भी ऐसा ही लिखकर छोड़ दिये हैं कि कहीं रामायण में जिक्र नहीं है। परंतु सत्संग-योग में उन्होंने इतना अवश्य लिखा है कि “ अध्याय (29) दशरथजी के पुत्र रामचन्द्रजी को देह छोड़नेवाला सुनते हैं। महाभुजवाले रामचन्द्रजी ने ग्यारह हजार वर्ष पर्यन्त राज्य किया और तब इस अनित्य शरीर को त्याग गये।” लेकिन बकिये प्रश्न का उत्तर नहीं है। इसलिए मेरा अनुरोध है कि बकिये प्रश्नों पर आप प्रकाश डालें कि वास्तविक क्या बात है?
उत्तर में निवेदन है-वास्तव में पार्वती जी के उक्त प्रश्न का उत्तर गो0 तुलसीदासजीकृत रामायण में नहीं है। इसका उत्तर वाल्मीकीय रामायण में है। किन्तु वह प्रसंग इतना हृदय-द्रावक व कारुणिक है कि गोस्वामीजी जैसे नवनीतवत् सुकोमल हृदय से उसका वर्णन नहीं हो सका। वस्तुतः मैं भी जब कभी उक्त प्रसंग को पढ़ता हूँ, तो मुझे अश्रुपात हुए बिना नहीं रहता। अतएव मुझसे भी उसका उल्लेख संभव नहीं। यदि आप चाहें, तो वाल्मीकीय रामायण पढ़कर जान सकते हैं।
प्रश्न 3-
पुरुष नपुंसक नारि वा, जीव चराचर कोइ ।
सर्वभाव भज कपट तजि, मोहि परम प्रिय सोइ ।।
मन क्रम वचन कपट तजि, जे कर भूसुर सेव ।
मोहि समेत बिरंचि सिव, बस ताके सब देव ।।
यहाँ ‘मन क्रम से--- सब देव तक की बातों का लक्ष्य है। यह कहा हुआ तो भगवान की ओर से है; लेकिन पद बनाया हुआ तो गो0 तुलसीदासजी का है। इससे यह झलकता है कि चूँकि तुलसीदास द्विज यानी विप्र थे, इसलिए अपनी जाति की ओर खींचकर उन्होंने ऐसा लिखा, नहीं तो क्या द्विज की सेवा करने मात्र से ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश सब देव वश हो जाएँगे? मामूली तौर से यह जातीय रूपी पक्षपात दृष्टिगोचर होता है। परन्तु ऐसे श्रद्धा संत के ऊपर ऐसा कलंक लगाना भी अनुचित जान पड़ता है। हो सकता है कि इसमें कुछ रहस्य हो, कृपया इसपर प्रकाश डालें।
उत्तर में निवेदन है-उपर्युक्त दोहों को पढ़कर यह समझना उपयुक्त नहीं कि ब्राह्मण कुलोद्भव होने के कारण गोस्वामीजी ने जातीय पक्षपात किया। गोस्वामी जी ने यहाँ द्विज या विप्र शब्द का प्रयोग नहीं किया है, वरं ‘भूसुर’ शब्द लिखा है। ‘भूसुर’ ब्राह्मण को कहते हैं। जो यथार्थ में ब्राह्मण हैं, उनकी सेवा से ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रसन्न होकर वश में होंगे, इसमें आश्चर्य ही क्या? हम ‘सेवा’ शब्द पर ध्यान दें। ‘सेवा’ का अर्थ चरण-दबाना आदि स्थूल सेवा मात्र नहीं है। वरं सेवा का अर्थ इस रूप में भी लेना आवश्यक है। यथा-‘आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा। सो प्रमाद जन पावइ देवा।।’ (अयोध्याकांड) अर्थात् आज्ञा पालन के समान अच्छे प्रभु की दूसरी सेवा नहीं है, हे देव! यह सेवा वही प्रसाद पावे।
शूद्रो चैतद्भवेल्लक्ष्यं द्विजे तच्च न विद्यते ।
न वै शूद्रो भवेच्छूद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मणः ।।
अर्थात्-जो ब्राह्मण के गुण शूद्र में दृष्टि पड़ें और ब्राह्मण में वर्त्तमान न हों, ऐसी दशा में शूद्र, शूद्र नहीं और ब्राह्मण, ब्राह्मण नहीं गिना जाएगा।)
सच्चे ब्राह्मण अपने शिष्य वा सेवक को विधि-निषेध कर्मों का ज्ञानोपदेश अवश्य देंगे। जिसमें विधि के पालन और निषेध के वर्णन का आदेश भी सुनिश्चित रूप से रहेगा ही। परिणामस्वरूप कर्तव्याकर्तव्य को जानकर अकर्तव्य से अरुचि और कर्तव्यपालन की अभिरुचि उस सच्चे सेवक में अवश्य होगी। इस तरह अविहित कर्मों-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचारादि से विरक्ति और विहित कर्मों- ईश्वरोपासना एवं सत्संगादि में उसकी अनुरक्ति स्वाभाविक होगी। फिर तो ऐसे सेवक के लिए गोस्वामी जी के वचनों में ही-‘सुचि सुसील सेवक सुमति, प्रिय कहु काहि न लाग।’ चरितार्थ हो जाएगा ही।
दूसरी बात-ईश्वरोपासना में जप और ध्यान प्रधान है। जप की महिमा-गाथा गाते हुए गोस्वामीजी बालकांड में लिखते हैं-
मंत्र परम लघु जासु बस, विधि हरि हर सुर सर्व ।
महामत्त गजराज कहँ, बस कर अंकुस खर्ब ।।
और जब वह ध्यान करेगा यानी ध्यान के स्थूल, सूक्ष्म और सगुण-निर्गुण के भेद को जानकर निदिध्यासन करेगा, तो उसका परिणाम ‘ध्यानं शून्यगतं मनः’ और ‘ध्यानं निर्विषयं मनः’ होगा; यह सुस्थिर है, तब उसके लिए उपर्युक्त बात कोई निराली व अद्भुत नहीं रहेगी।
प्रश्न 4 आपने लिखा है-
मम दरसन फल परम अनूपा।
जीव पाव निज सहज सरूपा।।
निराकार तो दर्शन की चीज ही नहीं, फिर साकार के दर्शन से ‘सहज सरूप’ कैसे जीव को प्राप्त हो सकता है? इसपर प्रकाश डाला जाए।
उत्तर में निवेदन है-यहाँ ‘मम दर्शन’ कहने का तात्पर्य सगुण साकार रूप के दर्शन से नहीं है। हाँ, उस सगुण साकार रूप में प्रतिष्ठित आत्मस्वरूप के लिए निर्देशन है। यदि ‘मम दरसन’ का अर्थ सगुण साकार ही मान लिया जाए, तो यह प्रश्न होगा कि उस सगुण रूप के दर्शन जिन-जिनको हुए, उन सबकी एक ही गति होनी चाहिए। किन्तु रामचरितमानस में ऐसा वर्णन पाया नहीं जाता।
प्रमाणार्थ भगवान श्रीराम के दर्शन उनके सम कालीन अनेक जन को हुए थे, यहाँ तक की खरदूषण, कुंभकर्ण और रावण को भी। किन्तु इस दर्शन से ‘निज सहज स्वरूप’ की प्राप्ति तो सुदूर रही, उन सबके अंतःकरण की मलिनता तक नहीं मिटी। यदि कहा जाए कि भगवान के दर्शन का उपर्युक्त फल दुष्ट को नहीं मिलता, भक्त को मिलता है, तो कहा जाएगा कि जो दर्शन जटायु को हुए, वही दर्शन शबरी को भी; फिर दोनों की एक गति क्यों नहीं हुई? जटायु की अंतिम गति और शबरी की अंतिम गति में आकाश पाताल का अंतर है। जटायु शरीर छोड़ने पर वहाँ पहुँचते हैं, जहाँ दशरथजी पूर्व से ही विद्यमान थे और पश्चात् जहाँ सपरिवार रावण भी पधारे। इसीलिए तो मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने जटायु को उनके महाप्रयाण-काल में कहा था-
सीता हरण तात जनि, कहेहु पिता सन जाय ।
जौं मैं राम तो कुल सहित, कहहिं दसानन जाय ।।
(अरण्यकांड)
जटायु के शरीर की अंतिम क्रिया भगवान श्रीराम स्वयं अपने हाथों संपादन कर उन्हें बैकुंठ भेजते हैं। स्मरण रहे उसी बैकुंठ में जय-विजय को शाप मिला था, जो इस भूतल पर रावण और कुंभकर्ण हुए थे। यह बात सभी जन जानते हैं। अतएव कहना पड़ता है कि वह वही स्थान है, जहाँ पहुँचने पर आवागमन छूटता नहीं।
किन्तु शबरी के लिए लिखा है कि वह स्वयं योगाग्नि में शरीरों को त्याग कर हरि के उस पद में लीन होती है, जहाँ से कभी कोई लौटता नहीं है, पुनर्जन्म पाता नहीं है। ‘तजि योग पावक देह हरिपद लीन भई जहँ नहिं फिरै।’ (अरण्यकांड)
शबरी मातंग ऋषि की शिष्या थी और योगाभ्यास करती थी। इतना ही नहीं, वह योग- साधना में भी निपुण थी और भक्ति की पराकाष्ठा तक पहुँच चुकी थी। यही हेतु है कि अपने मुखारविन्द से भगवान श्रीराम ने उनको कहा भी था-‘सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।’ किन्तु जटायु के लिए ऐसी बात कहीं भी अंकित नहीं है।
उपर्युक्त चौपाई ‘मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा।।’ में प्रयुक्त ‘दर्शन’ शब्द नेत्र का विषय-रूप नहीं। क्योंकि आत्मस्वरूप की प्रत्यक्षता स्थूल वा सूक्ष्म किसी भी इन्द्रिय से संभव नहीं, यह तो आत्मगम्य है। ‘आत्मगम्य भजहिं जेहि संता’ वहाँ न तो जाग्रत की दृष्टि रहती है, न स्वप्न की। न मानस दृष्टि रहती है और न दिव्यदृष्टि ही। मात्र आत्मदृष्टि रहती है, जिसको संत सुंदरदासजी के शब्दों में कह सकेंगे-
श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै ।
रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै ।।
नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै ।
अंग बिना मिलि संग, बहुत आनन्द बढ़ावै ।।
बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिये रहै ।
मिलि परमातम सों आतमा, परा भक्ति सुन्दर कहै ।।
यह परा भक्ति है, अपरा नहीं।
किसी भी विषय का विस्तारपूर्वक पत्र में लिखा जा सकना कहाँ तक संभव हो सकता है! विशेष कभी साक्षात् होने पर। आपकी जिज्ञासा से प्रसन्नता हुई। यथासंभव नित्य-नियमित रूप से ईश्वराधन अवश्य करते रहना चाहिए। शुभेति।
30-10-1969 ई0

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सर्वेश्वर-स्वरूप की प्राप्ति करके संतों की दृष्टि सम हो जाती है। एतदर्थ वे सबमें एक ही आत्मा के दर्शन करते हैं। जैसे स्वर्णकार सहस्त्रों स्वर्णालंकारों में एक ही स्वर्ण पाता है, वैसे ही संतगण समस्त चराचर प्राणियों में एक ही चैतन्यश्चैतन्य को पाते हैं। इसी पैनी दृष्टि को अपनाकर संत गरीब दासजी महाराज सर्वेश्वर, सद्गुरु और संत को त्रिविध या विविध रूपों में अवलोकन न कर एक ही रूप में देखते हैं। वे कहते हैं-
साहब से सतगुरु भये, सतगुरु से भये संत ।
धार-धार भेष विलास अंग, खेलैं आदि अरु अंत ।।
तथा-
साहिब से सतगुरु भये, सतगुरु से भये साधा ।
ये तीनों अंग एक हैं, गति कछु अगम अगाधा ।।
संतमत अर्थात् संतों के मत में गुरु की ज्ञान- गरिमा तथा उनकी महिमा-विभूति की जो विशेषता है, वह विलक्षण है, अद्भुत है और किसी से छिपी नहीं है। इस संबंध में जितना भी कहा जाय, थोड़ा ही होगा और कहा भी जाय तो क्या?
स्वप्रकाशस्वरूप को अन्य किसी प्रकाश के माध्यम से प्रकाशित करने की चेष्टा पूषण को प्रदीप द्वारा प्रदर्शित करने के अतिरिक्त और हो ही क्या सकता है? अनन्त लोचन प्रदायक गुरु की अनन्त महिमा और उनके अनन्त उपकार का वर्णन कौन कर सकता है? जिनकी महिमा-विभूति का बखान करने में सहस्त्रमुख शेष और वरदा शारदा के मन में भी संकोच होती है, भला, उन गुरु की समुज्ज्वल गाथा का सम्पूर्णरूपेण कथन करने का दुस्साहस कौन कर सकता है? आखिर, ऐसी क्षमता ही किसमें है? भगवान बुद्ध कहते हैं-
येसं सन्निचयो नत्थि ये पञ्ञित भोजना ।
सुञ्ञतो अनिमित्तो च विमोक्खो यस्स गोचरो ।
आकासे व सकुन्तानं गति ते सं दुरन्नया ।।

अर्थात् जिन्हें कोई संग्रह नहीं, जो भोजन में संयत हैं, शून्य और अनिमित्तस्वरूप निर्वाण पर जो समाधिस्थ हैं, उनकी गति आकाश के पक्षी की भाँति अज्ञेय है। संत दादूदयालजी महाराज कहते हैं-
दादू जानै न कोई, सन्तन की गति गोई ।
और संत कबीर साहब का कहना है कि-
मुझमें इतनी शक्ति कहँ, जो गाऊँ गला पसार ।
बन्दे को इतनी धानी, पड़ा रहे दरबार ।।
फिर भी गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की प्रेरणात्मक वाणी-
सब जानहिं प्रभु प्रभुता सोई । तदपि कहे बिन रहा न कोई ।।
तहाँ बेद अस कारन राखा । मति अनुमान निगम अस भाखा ।।
से कुछ कहने के लिए हृदय में सत् साहस का संचार होता है और तब ऐसा लगता है कि यदि मशक गरुड़वत् तीव्र गगनगामी न हो सके, तो क्या वह मठाकाश में अपने पंख फैलाने और गुनगुनाने से भी वंचित रहे-हाथ धो बैठे? ऐसा कदापि नहीं होना चाहिए। बस, इसी संवल को लेकर और साहस बटोरकर आज गुरु-पूर्णिमा के अवसर पर इस विशिष्ठ सभा में आपलोगों के सेवार्थ कुछ निवेदन करने का दुस्साहस कर रहा हूँ।
संत-साहित्य में गुरु के लिए सतगुरु, परम गुरु, संत सद्गुरु, गुरुदेव प्रभृति विभिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया है। ‘गुरु’ शब्द के अनेक अर्थों में ज्ञानदाता भी एक अर्थ है, चाहे वह ज्ञान लौकिक हो या पारलौकिक अथवा दूसरे शब्दों में-आधिभौतिक हो या आध्यात्मिक। संत कबीर साहब ने गणना कर उसकी संख्या सात बतायी है-
प्रथम गुरु है माता-पिता । रज बिरज का सोई दाता ।।
दूसर गुरु हैं मन की धाई । गिरह-वास की बन्द छोड़ाई ।।
तीसर गुरु जिन धारिया नामा । लै लै नाम पुकारै गामा ।।
चौथे गुरु जिन शिक्षा दीन्हा । जग-व्यवहार सबै तब चीन्हा ।।
पंचम गुरु जिन वैष्णव कीन्हा । राम नाम का सुमिरन दीन्हा ।।
छठे गुरु जिन भरम गढ़ तोड़ा । दुविधा मेटि एक से जोड़ा ।।
सातवँ गुरु जिन सत शब्द लखाया ।
जहाँ का तत्त्व सो तहाँ समाया ।।
कबीर सात गुरु संसार में, सेवक सब संसार ।
सतगुरु सोई जानिये, जो भवजल उतारै पार ।।
‘खग जाने खग ही की भाषा’ की भाँति संतों की गति को संत ही जान सकते हैं-जानते हैं। संत दादूदयालजी महाराज की दृष्टि में संत सद्गुरु की गति ‘सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा’ यानी अन्धकाराकाश, प्रकाशाकाश और शब्दाकाश के परे की होती है। दूसरे शब्दों में हम ऐसा भी कह सकते हैं, जैसा कि गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा है कि संतगण सगुण और निर्गुण शब्द-ब्रह्म के भी परे के प्रत्यक्ष ज्ञाता होते हैं; यथा-
सान्त निपेच्छ निर्मम निरामय ,
अगुन सब्दब्रह्मैक परब्रह्म ज्ञानी ।
तथा-
शब्द धार वारिधि अगम, को गम करै अपार ।
जन तुलसी गुरुदेव बल, पायेउ विशद विचार ।।
वस्तुतः संत सद्गुरु उस शब्द-सागर के परे के ब्रह्मज्ञानी होते हैं, जिस नादाम्बुनिधि में गोता लगाने में वाग्देवी भी अपने को असमर्थ पाती हैं। शायद कहीं डूब ने जाऊँ, इस भय से वे आज भी अपने हृदय के पास तुम्बे को धारण किए हुई हैं। शास्त्र इसका साक्षी है-
नादाब्धोस्तु परं पारं न जानाति सरस्वती ।
अद्यापि मज्जनभयात् तुम्बं वहति वक्षसि ।।
प्रायः ‘गुरु’ शब्द को दो भागों में विभक्त कर ‘गु’ का अर्थ अन्धकार और ‘रु’ का अर्थ तन्निवारक भी किया जाता है; यथा-
‘गु’शब्दस्त्वन्धाकारः स्याद् ‘रु’ शब्दस्तन्निवारकः।
अन्धाकारनिरोधित्वाद् गुरुरित्यभिधाीयते ।।
इस प्रकार ‘गुरु’ शब्द का अर्थ अंधकार का निवारक होता है। तात्पर्य यह कि जो अज्ञानान्धकार को दूरीभूत कर प्रकाशपुञ्ज में प्रतिष्ठित करें, वे गुरु हैं। लोकप्रसिद्ध है-
अज्ञानतिमिरान्धाानां ज्ञानाजञ्नशलाकया ।
चक्षूरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ‘गुरु’ की परिभाषा बताते हुए उनकी योग्यता की विलक्षण व्याख्या करते हैं। वे कहते हैं-जो अज्ञान-पद से ऊपर उठकर ज्ञान का कथन करते हों, अन्धकारहीन होकर प्रकाश का वर्णन करते हों और त्रयगुणों के परे निर्गुण में प्रतिष्ठित होकर अगुण का गुणगान करते हों, वे गुरु हैं-
ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास ।
निरगुन कहै जो सगुन बिनु, सो गुरु तुलसीदास ।।
संत पलटू साहब की दृष्टि में-जिन्होंने नादा- नुसन्धान की ऐसी साधना की है, उनकी सुरत तैल धारावत् अविच्छिन्न रूप से अन्तर्नाद में लगी रहती है और समाधि-समय साधना-शिखर-तुरीयातीत पद में प्रतिष्ठित होती है, ऐसे नादानुसन्धान के उपदेष्टा गुरु होनेयोग्य हैं; यथा-
धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव ।।
सो मेरा गुरुदेव सेवा मैं करिहौं वाकी ।
सब्द में रहै गलतान अवस्था ऐसी जाकी ।।
निस दिन दसा अरूढ़ लगै न भूख पियासा ।
ज्ञान-भूमि के बीच चलत है उलटी श्वासा ।।
तुरिया सेति अतीत सोधि फि़रि सहज समाधि ।
भजन तेल की धार साधना निर्मल साधी ।।
पलटू तन मन वारिये मिलै जो ऐसा कोउ ।
धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव ।।
सद्गुरु के संबंध में संत पलटू साहब की उपर्युक्त वाणी से महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की इस वाणी का बहुतांश में सामञ्जस्य प्रतीत होता है। उनका कथन है-‘जीवनकाल में जिनकी सुरत सारे आवरणों को पार कर शब्दातीत पद में समाधि-समय लीन होती है और पिण्ड में बरतने के समय उन्मुनी रहनी में रहकर सारशब्द में लगी रहती है, ऐसे जीवन्मुक्त परम संत पुरुष पूरे और सच्चे सद्गुरु कहे जाते हैं।’
गुरु की उपर्युक्त परिभाषा सर्वसाधारण की बुद्धि के परे होने के कारण दुरूह-सी मालूम पड़े, असम्भव नहीं। अतएव पुनः परमाराध्य परमपूज्य सद्गुरु महाराज की ही सरस, सरल एवं सहज बोधगम्य वाणी में सुनिए-
मुक्ति मारग जानते साधान करते नित्त ।।
साधन करते नित्त-सत्त चित्त जग में रहते ।
दिन-दिन अधिक विराग प्रेम सत्संग सों करते।।
दृढ़ ज्ञान समुझाय बोधा दे कुबुधि को हरते ।
संशय दूर बहाय सन्तमत स्थिर करते।।
‘मेँहीँ ’ ये गुण धार जोई, गुरु सोई सत्चित्त ।
मुक्ती मारग जानते साधान करते नित्त।।
संत कबीर साहब ने ‘गुरु’ और ‘शिष्य’ दोनों की परिभाषा और योग्यता का अंकन इस भाँति किया है-
गुरु नाम है ज्ञान का, सिष्य सीख ले सोइ ।
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोइ।।
तात्पर्य यह कि शिक्षा देनेवाले-ज्ञानदाता को ‘गुरु’ और शिक्षा ग्रहण करनेवाले को ‘शिष्य’ कहते हैं। यदि गुरु ज्ञान-दान में समर्थ नहीं है और शिष्य सद्गुरु की सीख को सीख नहीं लेता, शिक्षा- दीक्षानुकूल आचरण नहीं करता, तो ऐसी दशा में न तो कोई गुरु है और न कोई शिष्य ही।
गुरु के आचरण का शिष्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए गुरु का क्रियावान और शुद्धाचारी होना अत्यन्त आवश्यक है। क्रियाहीन और आचरणहीन गुरु से शिष्य का मंगल कभी हो नहीं सकता। अतएव यदि भूल से ऐसे गुरु को किसी ने धारण भी कर लिया हो तो उसका अविलम्ब त्याग कर देना चाहिए। महाभारत के उद्योग पर्व मे लिखा है-
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः ।
उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधाीयते ।।
अर्थात् यदि गुरु कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य को न समझते हुए कुपथ का आश्रय ले, तो ऐसे गुरु का परित्याग करना ही उचित है।
गर्वित कार्य अकार्य नहिं, जानत चलत कुपंथ ।
ऐसे गुरु कहँ त्यागिये, यही कहत शुभ ग्रन्थ ।।
बृहत्तन्त्रसार में लिखा है-
ज्ञानान्मोक्षमवाप्नोति तस्माज्ज्ञानं परात्परम् ।
अतो यो ज्ञानदाने हि न क्षमस्तंत्यजेद् गुरुम् ।।
अर्थात् ज्ञान से मोक्ष होता है, इसलिए ज्ञान से बढ़कर दूसरा उपदेश नहीं है। अतएव जो गुरु ज्ञान-दान में समर्थ नहीं है, ऐसे गुरु का त्याग कर देना चाहिए। और संत कबीर साहब कहते हैं-
झूठे गुरु के पच्छ को, तजत न कीजै बार ।
द्वार न पावै शब्द का, भटकै बारम्बार ।।
‘गुरु’ के संबंध में महात्मा गाँधीजी के विचार भी विचारणीय हैं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है- “ हिन्दू धर्म में गुरुपद को जो महत्त्व दिया गया है, उसे मैं मानता हूँं। ‘गुरु बिन होत न ज्ञान’ यह बहुतांश में सच है। अक्षर-ज्ञान देनेवाला शिक्षक यदि अधकचरा हो तो एक बार का काम चल सकता है, परन्तु आत्मदर्शन करानेवाले अधूरे शिक्षक से हरगिज काम नहीं चलाया जा सकता। सफलता गुरु की खोज में ही है; क्योंकि गुरु शिष्य के योग्यतानुसार ही मिला करते हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक साधक को योग्यता प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने का पूरा-पूरा अधिकार है;़ परन्तु इस प्रयत्न का फल ईश्वराधीन है।”
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज डंके की चोट देकर कहते हैं-
गुरु बिनु भव निधि तरइ न कोई ।
जौं बिरंचि संकर सम होई ।।
और संत कबीर साहब की भी सुनिए, वे क्या कहते हैं-
बिन सतगुरु उपदेश, सुर नर मुनि नहिं निस्तरै ।
ब्रह्मा विष्णु महेश, और सकल जिव को गिनै ।।
वस्तुतः संतमत अर्थात् संतों के मत में संत सद्गुरु का स्थान शीर्ष है। यही कारण है कि हम संतों की वाणियों एवं सद्ग्रन्थों में संत से श्रेष्ठ अन्य किन्हीं को नहीं पाते। यदि कहा जाय कि संतमत की मूल भित्ति सर्वेश्वर है, तो उसके साथ यह भी कह देना अपेक्षित है कि जिस भव्य भवन की मूल भित्ति भगवान हैं, उसकी छत संत सद्गुरु हैं और उनकी दीवार सत्संग है, जिनकी सच्ची प्रेमभक्ति के गिलावे से जोड़कर सच्चरित्रता या सदाचारिता के सीमेंट से प्लास्टर किया गया है।
जैसे किसी अट्टालिका की उत्तमोत्तम नींव होने पर भी दीवार और छत के अभाव में प्राणी आश्रय नहीं पाता, उसी भाँति सर्व व्यापक सर्वेश्वर के सर्वत्र रहने पर भी सत्संग और सद्गुरु के अभाव मेंं मानव आश्रयहीन हो यत्र-तत्र भटकता रहता है; कहीं आश्रय-स्थल नहीं-मंगलदायक शरण नहीं, सर्वत्र अशान्ति-ही-अशान्ति। प्राणी त्रयतापों से संतप्त हो उसकी भीषण ज्वाला से दग्ध हो कराह रहा है। भगवान बुद्ध कहते हैं-
बहुं वे सरणं यन्ति पब्बतानि बनानि च ।
आराम रूक्ख चेत्यानि मनुस्सा भय तज्जिता।।
नेतं खो सरणं खेमं नेतं सरणमुत्तमं ।
नेतं सरनमागम्म सब्ब दुक्खा पमुच्चति ।।
अर्थात् मनुष्य भय के मारे पर्वत, वन, उद्यान, वृक्ष, चैत्य आदि को देवता मान उनकी शरण में जाते हैं; किन्तु ये शरण मंगलदायक नहीं; ये शरण उत्तम नहीं; क्योंकि इन शरणों में जाकर सब दुःखों से छुटकारा नहीं मिलता। विवेक विलोचन से अवलोकन करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि संत सद्गुरु की शरण जाने पर ही मानव-जीवन कुशलमय, मंगलमय और कल्याणमय हो सकता है, अन्यथा नहीं। इसी दृष्टि को अपनाए रखकर सन्तों ने स्पष्ट कहा है-
सन्त शरण जो पड़ा, ताहि का लगा ठिकाना ।
और कहीं नहिं कुशल, सकल वैराट चबाना ।।
क्यों? इसलिए कि-
सबसे बड़े हैं सन्त दूसरा नाम है ।
तीजे दश अवतार तिन्हें परनाम है ।।
ब्रह्मा विष्णु महेश, सकल अवतार है ।
अरे हाँ पलटू सबके ऊपर, संत मुकुट सरदार है ।।
(सन्त पलटू साहब)
अतएव यह दृढ़ निश्चित है कि सन्त सद्गुरु की शरण ग्रहण करने पर ही जन-जीवन की डूबती किश्ती किनारे लग सकती है। संतमत में सद्गुरु को सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित करने का यही हेतु है।
सन्तगण सद्गुरु की गाथा गाते नहीं अघाते। वे अपने हृदयोद्गार की उद्दाम धारा को रोके नहीं, रोक पाते और वह बैखरी वाणी के रूप में उनसे बरबस निःसृत हो जाती है। संतों सद्गुरु को अनेक और अनन्त रूप में देखने का भरसक प्रयास किया है। यही कारण है कि उन्होंने उनको सद्ग्रन्थों में कहीं सुर-रूप में, कहीं ईश्वर-रूप में और कहीं सुर एवं सर्वेश्वर से भी श्रेष्ठ रूप में अभिव्यंजित किया है; यथा-
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ।
(योगशिखोपनिषद् अ0 2)
पुनः इसी उपनिषद् के पञ्चम अध्याय, मन्त्र 56, 57 और 58 में लिखा है-
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवः सदाशिवः ।
न गुरोरधिकः कश्चिनि्=षु लोकेषु विद्यते ।।
दिव्य ज्ञानोपदेष्टारं देशिकं परमेश्वरम् ।
पूजयेत्परया भक्त्या तस्य ज्ञानफ़लं भवेत् ।।
यथा गुरुस्तथैवेशो यथैवेशस्तथा गुरुः ।
पूजनीयो महाभक्तया न भेदो विद्यतेऽनयोः।।
(योगशिखोपनिषद्)
अर्थात् गुरुदेव ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। त्रिभुवन में गुरु से विशेष कोई नहीं। दिव्य ज्ञान के उपदेष्टा गुरु की भक्ति उनको प्रत्यक्ष परमेश्वर वत् करनेवाले शिष्य ही ज्ञान का फल प्राप्त करेगा। अतएव जैसे गुरु हैं, वैसे ही ईश हैं; जैसे ईश हैं, वैसे गुरु हैं, अर्थात् दोनों में अभेद है, इस भावना से भावित होकर-महाभक्ति के साथ पूजा वा उपासना करे।
संत चरणदासजी महाराज की गुरु-निष्ठा देखिए। वे संत कबीर साहब की ‘गुरु को तजि हरि सेव कबहूँ नहिं कीजिये’ वाली उक्ति को स्वीकृत करते हुए अपनी मृदुवाणी में कहते हैं-
गुरु बिन और न जान मान मेरो कहो ।
चरणदास उपदेश विचारत ही रहो ।।
इतना ही नहीं, वे अपने गुरु में विश्वदर्शन करते हैं। इस हेतु कभी वेद के रूप में, कभी पण्डित के रूप में, कभी कल्पवृक्ष के रूप में, कभी काम- धेनु के रूप में वे गुरु को देखते हैं। कभी शेषावतार, कभी महेशावतार, कभी विधिरूप में अवतार, कभी विष्णुरूप में अवतार भी अवलोकन करते हैं। कभी सूर्यरूप में दर्शन कर अपने को अज्ञानान्धकार से वियुक्त और प्रकाश से युक्त पाते हैं, तो कभी उनकी ज्ञान-गंगा में अवगाहन कर वे अपने समस्त अघ-ओघ से मुक्त होते हैं।
गोस्वामी तुलसीदासजी कृत ‘रामचरितमानस’ के एक प्रसंग में आया है कि जनकपुर में श्रीसीताजी के स्वयंवर के अवसर पर भगवान श्रीराम को अनेक लोगों ने अपनी-अपनी भावना के अनुरूप अनेक रूपों में देखा था। किन्तु संत चरणदासजी जैसे एकनिष्ठ गुरु-भक्त के विवेक-विलोचन में उनके सद्गुरुदेव अनेक रूपों में उद्भासित होते हैं। वे अपने गुरु के विराट् रूप का वर्णन इस भाँति करते हैं-
वेद रूप गुरु होहिं कि कथा सुनावहीं ।
पण्डित को धारि रूप कि अर्थ बतावहीं ।।
कल्पवृच्छ गुरुदेव मनोरथ सब सरैं ।
कामधोनु गुरुदेव क्षुधा तृष्णा हरैं ।।
गुरु ही शेष महेश तोहि चेतन करैं ।
गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु होय खाली भरैं ।।
गंगा सम गुरु होय पाप सब धोवहीं ।
सूरज सम गुरु होय तिमिर हरि लेवहीं ।।
संतों की अटूट श्रद्धा एवं अविचल भक्ति अपने इष्ट गुरु में होती है। उनकी दृष्टि में उनके इष्ट से श्रेष्ठ अन्य कोई भी नहीं दीखते। यही हेतु है कि अन्य लोग जो अन्य देव-देवी प्रभृति की महिमागाथा गाते हैं, उन सबकी महिमा-विभूतियों को ये अपने मात्र गुरु में ही समाहित कर देते हैं। समाहित कर देते हैं भावुकतावश-ऐसी बात नहीं है, वरन् वे तत्त्वतः वैसा उनमें प्रत्यक्ष पाते हैं।
इसी जनपद के उत्तरी भाग में, जो सम्प्रति सहर्षा जनपद के नाम से सुविख्यात है, एक अच्छे महात्मा हुए थे। उनका नाम था-परमहंस श्रीलक्ष्मीपतिजी महाराज। सम्प्रति इनको कुछ लोग लक्ष्मीपति गोसाईं भी कहते हैं। इनकी वाणी से महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की वाणी का अद्भुत साम्य है। ऐसा लगता है, जैसे उभय परमहंसजी महाराज की वाणियाँ उभय नहीं अद्वय हैं। दोनों के आविर्भाव-काल में अन्तर अवश्य है, किन्तु देश में नहीं। तात्पर्य यह कि युगल परमहंसजी महाराज की जन्मभूमि जनपद एक ही है। अब इन दोनों की तुलनात्मक वाणी का अध्ययन कीजिए; यथा-
प्रथम देव गुरुदेव जगत में और न दूजो देवा ।
गुरु पूजे सब देवन पूजे, गुरु सेवा सब सेवा ।।
और भी-
गुरु इष्ट गुरु मन्त्र देवता, गुरु सकल उपचारा ।
गुरु मन्त्र गुरु तंत्र गुरु हैं, गुरु सकल संसारा ।।
गुरु आवाहन धयान गुरु हैं, गुरु पंच विधि पूजा ।
गुरु पद हव्य कव्य गुरु पावक, सकल वेद गुरु दूजा ।।
गुरु होता गुरु जाग महा यशु, गुरु भागवत ईशा ।
गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु सदाशिव, इन्द्र वरूण दिग धाीशा ।।
गुरु बिन जप तप दान व्यर्थ व्रत, तीरथ फ़ल नहिं दाता ।
लक्ष्मीपति निंहं सिद्ध गुरु बिनु , वृथा जीव जग जाता ।।
जैसे वृक्ष-मूल के सिंचन से समस्त वृक्ष यानी उसकी डाली, टहनियाँ और पत्तियाँ प्रभृति सभी स्वभावतः अभिसिंचित होती हैं, वैसे ही गुरु की एकनिष्ठ भक्ति से अखिल देवी-देव के सहित देवाधिदेव परमात्मा-पर्यन्त की भक्ति हो जाती है। इसी दृष्टि को अपनाए रखकर परम पूज्य सद्गुरुदेवजी (महर्षि मेँहीँ परमहंसजी) ने निखिल संतों की साक्षी देकर एक ही वाक्य में सब कुछ कह दिया है, मानो गागर में सागर सन्निविष्ट कर दिया हो-
देवी देव समस्त पूरण ब्रह्म परम प्रभु ।
गुरु में करे ं निवास कहत हैं सन्त सभू ।।
वस्तुतः अनेक गुणसम्पन्न होने के कारण एक ही गुरु को अनेक रूपों में देखना स्वाभाविक है। अनंतस्वरूपी के दर्शक और दर्शायक होने के कारण अनंत रूप में भी उनके दर्शन हों, कोई अनर्गल बात नहीं। सद्गुरु धन्य हैं, उनकी महिमा अनंत है। शिष्य के ऊपर उनका अनंत उपकार रहता है। वे शिष्य के अनंत लोचन का उन्मेष कराकर अनंतस्वरूपी सर्वेश्वर का साक्षात् कराते हैं। इस संबंध में संत कबीर साहब की यह कड़ी बड़ी खरी उतरती है-
सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार ।
लोचन अनंत उघारिया , अनंत दिखावनहार ।।
संत दरिया साहब की वाणी भी उपर्युक्त वाणी से मिली-जुली मालूम पड़ती है। शिष्य पर सद्गुरु की कृपा होती है अथवा यों समझिए कि गुरुदेव कृपा कर शिष्य को एक शब्द में संलग्न कराते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि उस शब्द में लगते ही वे चेतन हो जाते हैं और उनके अनेक नेत्र खुल जाते हैं।
दरिया सतगुरु कृपा करि, शब्द लगाया एक ।
लागत ही चेतन भया, नेत्तर खुला अनेक ।।
(दरिया साहब, मारवाड़ी)
साथ ही, संत दरिया साहब संत सद्गुरु को एक कुशल तैराक के रूप में देखते हैं। लेकिन वह कौन-सा तैराक? सर, सरित्, सुरसरि या समुद्र का तैरनेवाला? नहीं, अरे प्रवीण तैरू का संकेत करते हैं, जिन्होंने प्रथम स्वयं भवसिन्धु तैरकर पार किया और पश्चात् वे अन्यों के भी पारकर्त्ता बने। गुरु ने संसार-सागर के लोभ-मोह की प्रबल-प्रखर धारा में डूबते हुए का उद्धार किया, यह प्रसिद्ध है। वे कहते हैं-
डूबत रहा भव सिन्धा में, लोभ मोह की धार ।
दरिया गुरु तैरू मिला, कर दिया पैले पार ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी श्री हनुमानजी की वंदना कर रहे थे-‘जय जय हनुमान गुसाईं।’ एकाएक उनको गुरु की स्मृति हो आती है और वे झट लगे हाथ कह बैठते हैं-‘कृपा करो गुरुदेव की नाईं।।’ इससे ज्ञात होता है कि उनको गुरुदेव के प्रति कितनी गहरी निष्ठा थी। यह बात सर्वविदित है कि गोस्वामीजी के इष्ट दाशरथि राम भी थे और उनमें इनकी श्रद्धा भी थी। किन्तु गुरु और राम की कृपा का तुलनात्मक विचार करने पर उनको गुरु में ही अधिक गंभीरता जान पड़ी। अतएव ‘जय जय जय हनुमान गोसाईं। कृपा करो रघुवर की नाईं।।’ नहीं कहकर ‘जय जय जय हनुमान गुसाईं। कृपा करो गुरुदेव की नाईं।।’ ये वाक्य उनके मुख से निःसृत हो पड़ते हैं। संभवतः संत कबीर साहब की यह साखी भी उनके समक्ष साक्षी रूप में उपस्थित हो गई हो-
गुरु देवें तासों अधिक, राम सकें नहिं देय ।
मूर्ख बिगाड़ें आपने, गुरु तजि रामहिं सेय ।।
तथा,
गुरु रुचि स्वीकृत राम को, जानहु बारम्बार ।
जो गुरु रुचि देवन नहीं, कधी न दे करतार ।।
संत दादूदयालजी की दृष्टि में सच्चे गुरु शिष्य की पाशविक वृत्ति को मानवीय वृत्ति में बदल देते हैं। इतना हीं नहीं, वे उससे सिद्ध, देवता और उससे भी परब्रह्म-परमात्मा के स्वरूप में परिवर्तित कर उसमें प्रतिष्ठित कर देते हैं।
सतगुरु पसु मानस करै, माणस थैं सिधा सोइ ।
दादू सिधा थैं देवता, देव निरंजन होइ ।।
पुनः वे कहते हैं-सद्गुरु शिष्य को काल के गाल से निकालकर बाल-बाल बचा लेते हैं। अंधों को आँख-दिव्यदृष्टि, ज्ञानदृष्टि, आत्मदृष्टि देते हैं और जीव को शिव (ब्रह्म) बना लेते हैं।-
दादू काढ़े काल मुख, अन्धो लोचन देइ ।
दादू ऐसा गुरु मिल्या, जीव ब्रह्म करि लेइ ।।
सद्गुरु अपने कामान्ध शिष्य को ज्ञानाञ्जन देकर निर्मल नेत्रधारी बनाते हैं। इसकी एक रोमांचकारी कथा सुनिए-भगवान बुद्ध के अनेक शिष्यों में एक का नाम था राजकुमार नन्द। वह भगवान् बुद्ध का मौसेरा भाई था। उनके मन में विषयों की ओर से विराग और आत्मसाक्षात्कार के लिए अनुराग हुआ, तो उन्होंने अपनी संतति, सम्पत्ति और दम्पत्ति के संबंध को त्यागकर भगवान् की शरण ली। किन्तु कभी-कभी उनके मन में अपनी पत्नी की स्मृति हो आती थी; क्योंकि प्रव्रज्या के लिए गृह से प्रस्थान करते समय उनकी वधू (नवविवाहिता पत्नी) ने करुण स्वर में उनसे कहा था-‘शाक्यपुत्र (प्रियतम)! जाओ, किन्तु इस पतिता पत्नी को भूल न जाना।’ राजकुमार भगवान बुद्ध के पास जाकर प्रव्रजित हुए। किन्तु पद कल्याणी की यह मर्म वाणी ‘शाक्यपुत्र! भूल न जाना’ की अमिट छाप उनके अंतःकरण अंकित हो चुकी थी। परिणामस्वरूप रह-रहकर उसकी स्मृति होती ओर उनके मर्मस्थल पर आकर बिछुड़न की असह्य व्यथा उत्पन्न करती रहती। इस भाँति कुछ दिनों तक उसकी निरंतर स्मृति रहने के अनन्तर उनका मन पुनः गृहस्थ आश्रम प्रवेश करने का होने लगा। यदा-कदा वह भिक्षुओं के समक्ष चर्चा करता-मैं ब्रह्मचर्य-पालन नहीं कर सकूँगा, अपने घर लौट जाऊँगा। भिक्षुओं ने राजकुमार नन्द की यह बात भगवान बुद्ध को ज्ञात करायी। भगवान ने नंद को बुलाकर पूछा, ‘नंद! क्या यह बात सत्य है कि तुम प्रव्रज्या का परित्याग कर गृहस्थ होना चाहते हो?’ नंद ने संकुचित स्वर में कहा, ‘हाँ भन्ते!’ भगवान ने पुनः पूछा, ‘नंद! तुम संन्यासी होकर पुनः गृहस्थ होना क्यों चाहते हो?’ राजकुमार नंद ने कहा, ‘भन्ते! जिस दिन मैं प्रव्रज्या होने भगवान के पास आ रहा था, उस दिन करुणस्वर में जनपद कल्याणी बोली थी, ‘शाक्यपुत्र! मुझे भूल न जाना।’ भगवन्! यह वाक्य मेरे मानसपटल पर अंकित हो गया और बारंबार उस आकृति की स्मृति मुझे होती रहती है। अब अपने अवश मन के अधीन हो विवश हो गया। बिना उसको देखे बिना मन विकल हो रहा है।
तथागत ने अच्छा, कहकर राजकुमार नंद को आलिंगन किया और उनके साथ अंतर्द्धान हो, वहाँ प्रकट हुए, जहाँ पाँच सौ महासुन्दरी अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं। भगवान् ने कहा-‘नंद! देख रहो हो इन अप्सराओं को?’ हाँ भन्ते! राजकुमार नंद ने कहा। तुम अपनी गृहिणी की सुन्दरता के साथ इन अप्सराओं से तुलना करो और बताओ कि किसका सौंदर्य विशेष है।-भगवान बुद्ध ने कहा। अगर तुम एक वर्ष तक कड़ी साधना करो, तो वे सभी अप्सराएँ तुम्हें दिलाने का प्रतिभू होता हूँं। भगवान् बुद्ध के विचार को नन्द ने आनन्द से स्वीकार कर लिया। पश्चात् उनके सान्निध्य में रहकर उन्होंने एक वर्ष तक बड़ी तत्परता से ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए कड़ी साधना की। अन्तर्यामी भगवान बुद्ध ने एक दिन नन्द को बुलाकर कहा-‘नन्द! तुम्हारी तपस्या पूरी हो गई। अब बताओ, वे सभी अप्सराएँ मैं तुम्हें दूँ?’ नन्द ने कर जोड़कर कहा-‘भन्ते! अब मुझे एक भी नहीं चाहिए।’
पूरे गुरु का संग हो, अनंग क्या करे ।
संतों ने सद्गुरु की गरिमा-गाथा भूरि-भूरि गाई है। उन्होंने बताया है कि लौकिक वा पारमार्थिक कोई भी कार्य क्यों न हो, बिना गुरु के उसकी सफलता सम्भव नहीं है। जब जागतिक कार्य की सम्पन्नता भी गुरु के अभाव में असम्भव है, तब पारलौकिक बात के लिए कहना ही क्या? गोस्वामी तुलसीदास जी ने कितने स्पष्ट शब्दों में कहा है-
गुरु बिन भवनिधि तरइ न कोई । जौं बिरंचि संकर सम होई ।।
यह कितना मर्मस्पर्शी उद्घोष है उनका। जहाँ गुरुहीन विरंचि और शंकर के लिए भी असार संसार अपार सागर है, पार किया नहीं जा सकता, वहाँ हम किस खेत की मूली हैं? ऐसा लगता है, जैसे ‘छुद्र नदी चली तोराई। जस थोरे धन खल बौराई।।’ को चरितार्थ करने हम चले हैं। अपनी अल्प विद्या-बुद्धि पर इठलाते हैं, फूले नहीं समाते हैं। हमारा शास्त्र हमें सम्मति देता है- उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधात क्षुरस्य धारा ।
निशिता दुरत्या दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।
अर्थात् (अरे अविद्याग्रस्त लोगो!) उठो (अज्ञान निद्रा से), जागो और श्रेष्ठ पुरुषों के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करो। जिस प्रकार छुरे की धार तीक्ष्ण और दुस्तर होती है, तत्त्व-ज्ञानी लोग उस मार्ग को वैसा ही दुर्गम बतलाते हैं। कठोपनिषद् (अ01, वल्ली 3, श्लोक 14) ही नहीं, गीता भी कहती है-
तद्विि) प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।
इसलिए तत्त्व के जाननेवाले ज्ञानीपुरुषों से भली प्रकार दण्डवत् प्रणाम तथा सेवा और निष्कपट भाव से किए हुए प्रश्न द्वारा उस ज्ञान को जान वे मर्म। को जाननेवाले ज्ञानीजन तुझे ज्ञान का उपदेश करेंगे। वृष्टि का जल सर्वत्र समरूप में बरसता है, तथापि वह गहरे गढ़े में ही एकत्र होता है, ऊँचे टीले पर नहीं। इसी भाँति संत सद्गुरु की दया सभी शिष्यों पर समान रूप से होती रहती है; किन्तु वह दया श्रद्धावान के ही निकट टिकती है, श्रद्धाहीन के निकट नहीं। कभी-कभी संत सद्गुरु मौज में आते हैं तो स्वजन पर उनकी अदृश्य दया होती है; किन्तु अज्ञजन उसको समझ नहीं पाते। वे उनकी अहैतुकी कृपा का आदर नहीं करते। फलतः वे उससे वंचित रह जाते हैं। एक मधुर लघु कथा है-पीरो मुर्शिद ने अपने शिष्य चंदाशाह के द्वारा एक अनार बादशाह तानाशाह के पास भेजा। तानाशाह गुरु का भेजा हुआ अनार पाकर बहुत खुश हुआ और उस अनार में से पाँच दाने निकालकर मुँह में लिए। अनार खट्टा था। उपने गुरु के भेजे अनार के दानें को वह मुँह से फेंक नहीं सकता था। किसी तरह उसे निगल गया। तानाशाह के गुरु-भाई की बात निभाने के लिए पाँच दाने और खाए। लेकिन बादशाह से उनके गुरु-भाई ने और दाना खाने कहा। बादशह ने कहा-‘भाई! आप इसे मुझे दे दें, मैं पीछे सब खा लूँगा।’ गुरुभाई ने कहा-‘भाई! गुरु ने तो मुझे कहा था कि अनार के सभी दाने खिला देना। अच्छा ये चार दाने और खा लो।’ इसके बाद चंदाशाह अपने गुरु के पास वापस पहुँचे। पीरो मुर्शिद ने पूछा-‘तानाशाह ने अनार खा लिया?’ चंदाशाह ने कहा-‘दो पाँच-पाँच और चार यानी चौदह दाने।’‘अफसोस!’ मुर्शिद ने धीरे से कहा- ‘उसकी किस्मत में चौदह साल की बादशाहत थी।’
संत सद्गुरु की अहैतुकी कृपा शिष्यों पर कब किस तरह होती है, सामान्य बुद्धि के लोग समझ नहीं पाते। (शान्ति सन्देश, अक्टूबर+नवम्बर, 1969)
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संत चरणदासजी महाराज कहते हैं-
पितु सूँ माता सौ गुना, सुत को राखै प्यार ।
मन सेती सेवन करै, तन सूँ डाँट अरु गार ।।
माता सूँ हरि सौ गुना, जिनसे सौ गुरुदेव ।
प्यार करैं औगुन हरैं, चरणदास शुकदेव ।।
तात्पर्य यह कि पुत्र का प्यार जितना पिता करते हैं, उससे सौ गुणा अधिक प्यार माता करती हैं। माता की गोद में शिशु जितना पलता है, उतना पिता की गोद में नहीं। पिता की अपेक्षा माता में ममता के साथ क्षमा-शक्ति की क्षमता भी अधिक मात्र में होती है। इसका ज्वलंत प्रमाण यह है कि यदि पिताजी की गोद में बच्चा एक बार भी पेशाब या पाखाना कर दे, तो वे अविलंब उस बच्चे को अपनी गोद से उतार देंगे। किन्तु माता की गोद में वही बच्चा सहस्त्र बार भी पेशाब या पाखाना क्यों न कर दे, उनके लिए कोई अप्रसन्नता की बात नहीं, उनके चित में विषाद की रेखा नहीं। माताजी के मन में तनिक भी मलिनता आ नहीं पाती और उकताना तो वे जानती ही नहीं। वस्तुतः माता धरित्री हैं, पृथ्वी हैं, थोड़ी भी घृणा नहीं। बल्कि साफ-सुथरा होकर पुनः बच्चे को गोद में बिठाकर निहाल हो जाती है। प्यार करने लगती है और हर्षातिरेक में मस्त हो एक बार झूम उठती है।
कोई भी पिता अपने नन्हें पुत्र को प्रसन्नतापूर्वक पीठ पर पाँच प्रहर नहीं ढो सकते, किन्तु माता जी ऐसी सहृदयता होती है कि पीठ को कौन कहे, अपने पेट में रखकर अनवरत, अहर्निश दस महीने ढोती है। उस समय उसका खाना-पीना, सोना-बैठना तथा ऐशो- आराम सभी हराम हो जाते है। अपनी सारी सुख- सुविधाओं को तिलांजलि देकर माता शिशु की सेवा में संलग्न रहती हैं। बच्चे के भूमिष्ठ होने पर उसे कोई कष्ट न हो, इसके लिए वे सतत सचेष्ट व जागरुक रहती हैं। यदि कहीं, किसी कारण शिशु अस्वस्थ हो गया, तब तो कहना ही क्या? वे अपने खून को पसीना बनाकर बहा देती हैं। शिशु के पूर्ण स्वस्थावस्था पर्यन्त अपने समय का सदुपयोग वे शिशु-सेवा के लिए करती हैं। समयानुकूल शिशु के संरक्षण व सँभाल का भार माता तबतक निरंतर करती है, जबतक उसको अपनी स्वयं सूझ न हो जाए। गो0 तुलसीदासजी ने भी कहा है-‘गहि शिशु बच्छ अनल अहि धाई। तहँ राखहिं जननी अरु गाई।। (रामचरितमानस)
बच्चों को बचपन में अपनी माता के अधिक संग का अवसर मिलता है। इसलिए जैसे कच्चे बाँस को जिस ओर मोड़ना चाहे, सरलतापूर्वक मोड़ सकते हैं, उसी तरह बच्चे का हृदय कच्चा होता है, माता जिस ओर मोड़ना चाहे, मोड़ सकती हैं। बचपन से बच्चे को सीख देकर सत्पथ पर लाने का श्रेय माता को ही है। इसके लिए मदालसा-जैसी माता का आदर्श हमारे सम्मुख है।
जैसे साफ कपड़े पर जो भी रंग चढ़ाया जाता है, वह शीघ्र चढ़ जाता है, वैसे ही शिशु के सरल व शुद्ध मन पर माता की शिक्षा जादू का काम करती है। उसके अंतःकरण पर उसकी अमिट छाप पड़ जाती है। इसलिए सुत के सुधार, सँभाल और उसके भविष्य जीवन का निर्माण माता के हाथ में है। माता अपने पुत्र-पुत्री को जिस साँचे में ढालना चाहे, ढाल सकती है-जैसा बनाना चाहें, बना सकती हैं; ठीक वैसे ही जैसे गीली मिट्टी के लौंदे को कुम्हार जैसा बनाना चाहता है, बना लेता है।
स्वसंतान के दोष पर पिता रोष प्रकट करते हैं, किन्तु माता रोष नहीं करके अफसोस करती है। इतना ही नहीं, बल्कि वे अपने आर्त एवं करुण हृदय से उसके दोष को ऐसे शोष लेती है, जैसे प्रातः अरुण उदय ओसकण का शोषण करती है। वस्तुतः माता का जितना स्नेह पुत्र को मिलता है, उतना पिता का नहीं। महाभारत ग्रंथ में एक प्रसंग आया है। कौरवों के अन्याय युद्ध में अभिमन्यु वीरगति को प्राप्त हुआ। उसके वियोग में उनकी माता सुभद्रा फूट-फूटकर रो रही थी। धर्मराज पर्यन्त समझाते- समझाते थक गये, किन्तु उनका करुण क्रंदन बंद नहीं हुआ। वर्षाकाल की झड़ी की भाँति उनकी आँखों से अश्रुधारा बह रही थी। अंत में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण उनको समझाने आये। बोले-बहन! यह क्या कर रही हो, क्यों रो रही हो, किनके लिए रो रही हो? देह सर्वदा किसी की रहती नहीं और आत्मा तो अजर, अमर, अविनाशी है; फिर इतना विकल होकर विलाप क्यों कर रही हो? जरा सोच, समझ, विचार तू कौन है? किसकी बहन है, किसकी पत्नी है और किसकी तू माता है? तेरे लिए इस प्रकार का रुदन शोभनीय नहीं। अन्य लोग भी क्या कहेंगे? उपहास करेंगे। बहन सुभद्रे!
वीर माँ वीर पत्नी बहन वीर की,
वीर कन्या जगत में कहाती है तू।
इस तरह शोभती क्या तुझे है रुदन,
गीत गा-गा के मुझको सुनाती है तू।।
भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशात्मक वाक्यों को सुनकर सुभद्रा क्या उत्तर देती है, सुनिये-भैया! इस समय चुप रहो, पीछे बोलना; सम्प्रति मुझे कुछ सुहाता नहीं। भैया! तुम्हारी बहन सुभद्रा नहीं रो रही है और न वीर-पत्नी रो रही है। यह तो बेटे की माँ रो रही है। इसे तू रोक नहीं सकते, समझा नहीं सकते। क्योंकि भैया! तुम जानते नहीं कि माता का हृदय कैसा होता है। अतएव अभी जाओ, पहले बेटे की माँ बनो और जब तुम्हारा वह इकलौता लाड़ला मर जाय और तुम न रोओ, तब मुझे समझाने के लिए आना। सुभद्रा की मर्मवाणी सुनकर भगवान श्रीकृष्ण आवाक् रह गये। यह है माता का हृदय।
उस स्नेहमयी माताजी की जितनी गाथा गायी जाए, थोड़ी होगी। इसलिए ‘पितु सूँ माता सौ गुणा, सुत को राखै प्यार।’ संत चरणदासजी महाराज ने कहा है-ऐसा प्रतीत होता है। इसके पश्चात् वे कहते हैं-
माता सूँ हरि सौ गुना, जिनसे सौ गुरुदेव ।
प्यार करैं औगुन हरैं, चरणदास शुकदेव ।।
अतएव अब इसपर हम विचार करें। माता अपने सद्यःजात शिशु को जबसे अपनी आँखों देख पाती हैं, तबसे उसके संरक्षण और उसकी सँभाल किया करती हैं। किन्तु गर्भस्थ शिशु के कल्याण, संरक्षण और सँभाल का हाल बेचारी माँ क्या जाने, उस समय सर्वेश्वर के सिवा उस शिशु को देखनेवाला कौन था? आश्चर्य है-एक बूँद से पिंड की रचना, उसका बढ़ना, पलित होना और समयानुकूल सुंदर सुगठित शरीर से शिशु का भूमिष्ठ होना, इनकी क्रमबद्ध योजना करनेवाला और उसका संचालनकर्ता कौन है? अरे, शिशु के जन्म धारण करने पर माता उसको स्तनपान कराती हैं, लेकिन जरा सोचो तो सही, उस अज्ञ शिशु को दूध चूसने और घूँटने की कला किसने सिखाई? शिशु जब गर्भ में था, तब वह क्या खाता था, क्या पीता था, कैसे सोता था, कैसे बैठता था, श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया कैसे कर पाता था। बेचारी माता और बेचारा पिता का वहाँ चारा कहाँ? उसका वहाँ सर्वेश्वर सर्वाधार के अतिरिक्त और कोई आधार नहीं, कोई अवलंब नहीं, कोई सहारा नहीं। अरे! जरा विचारो तो सही, वहाँ जलती जठराग्नि में जलने से बचाने और जीवन दान देनेवाला कौन है? धन्य वह प्रभु! प्रभु तुम धन्य हो! इसीलिए संत के दिल दरियाव से उनकी बैखरी वाणी में ‘माता सूँ हरि सौ गुणा’ की वेगवती धारा बह चली।
वह प्रखर और उद्दाम धारा और भी आगे की और अपनी कल-कल ध्वनि में हरि से भी शतगुण बेशी सद्गुरु को बताये बिना कल न पड़ा। अर्थात् ‘माता सूँ हरि सौ गुणा, जिनसे सौ गुरुदेव।’
अब हम जरा गंभीरतापूर्वक विचार करें। संत चरणदासजी महाराज ने ऐसा क्यों कहा। उनका यह वचन रोचक है, भयानक है, सत्य है अथवा इसमें कोई तथ्य है?
मेरी समझ से संतों की वाणियाँ चिकनी-चुपड़ी नमक-तेल व गोलमिर्च मिली नहीं होतीं, वरं जस का तस, ज्यों-का-त्यों, बिल्कुल साफ, स्वच्छ और स्वाभाविक होती हैं। आइए, अन्य संत-वाणियों के सहारे इसपर विचार-विमर्श करें।
संत कबीर साहब एक स्थल पर कहते हैं- ‘परमातम गुरु निकट विराजैं जागु जागु मन मेरे।’ इस शब्द में संत कबीर साहब ने गुरु को परमात्मरूप बताया है। किन्तु जब उनके सामने गुरु और गोविन्द दोनों एक साथ उपस्थित होते हैं, यों उभय साकार के सामने अभय होकर प्रथम वे गुरु के आकार का ही अभिवादन करते हैं, जिसके लिए उनकी यह साखी प्रसिद्ध है।
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पायँ।
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविन्द दियो बताय।।
और भी,
गुरु हैं बड़े गोविन्द तें, मन में देखु विचार।
हरि सुमिरै सो वार है, गुरु सुमिरै सो पार।।
तीन लोक ब्रह्माण्ड में, गुरु तें बड़ा न कोय।
करता करै न करि सकै, गुरु करै सो होय।।
इन शब्दों में संत कबीर साहब ने गोविंद, हरि और कर्ता शब्द का प्रयोग ईश्वर के लिए किया है। किन्तु इन सबमें श्रेष्ठ उन्होंने गुरु को ही बताया है। गुरु नानक देवजी महाराज की वाणी में गुरु की महत्ता इस भाँति करते हैं-
गुरु करता गुरु करनै जोगु।
गुरु परमेसुर है भी होगु।।
कहु नानक प्रभ इहै जनाई।
गुरु बिनु मुकति न पाइअै भाई।।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज अज्ञान तम नाशक कृपासिन्धु गुरु में हरि के दर्शन पाते हैं और उनके चरण-कमल की वंदना करते हैं।
बन्दौं गुरुपद कंज, कृपा सिन्धु नर रूप हरि ।
महामोह तम पुंज, जासु वचन रवि कर निकर ।।
यह लोकप्रसिद्ध बात है कि श्रीहनुमानजी की अनुकम्पा से गोस्वामीजी महाराज को भगवान् श्रीराम के दर्शन हुए थे और वे उनको इष्ट रूप में मानते भी थे। किन्तु रामचरितमानस के अनेक स्थलों पर प्रसंगवश ऐसा भी पाया जाता है कि गोस्वामीजी ने उन राम से भी गुरु को विशेष रूप में देखा है। जैसे काननकाल में जब भगवान श्रीराम वाल्मीकि मुनिजी के आश्रम में पधारते हैं और उनसे सीता-लक्ष्मण सहित निवासयोग्य आवास की जिज्ञासा करते हैं, तो मुनिजी कहते हैं-हे राम! जो अपने गुरु को तुमसे अधिक जानकर सेवा सम्मान करे, उनके मन-मंदिर में सीता-सहित निवास करो।
तुम्हतें अधिक गुरु हि जय जानी।
सकल भायँ सेवहिं सनमानी।।
इतना ही नहीं और भी लीजिए। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज गुरु-मर्यादा-रक्षार्थ मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और शेषावतार श्रीलक्ष्मणजी से गुरु चरण-चापन-कार्य भी संपादन करवाते हैं, जिसका वर्णन रामचरितमानस के प्रथम सोपान में मिलता है। यथा-
मुनिबर सयन कीन्ह तब जाई।
लगे चरन चापन दोउ भाई।।
जिन्हके चरन सरोरूह लागी।
करत विविध जप जोग बिरागी।।
तेइ दोउ बन्धु प्रेम जनु जीते।
गुरु पद कमल पलोटत प्रीते।।
बार-बार मुनि आज्ञा दीन्ही।
रघुवर जाइ सयन तब कीन्ही।।
(बालकांड)
गुरु और गोविन्द के तुलनात्मक विचार करने में संत सुंदरदासजी महाराज गुरु को ही गरिष्ठ और वरिष्ठ बतलाते हैं। साथ ही, इसके कारण का स्पष्टीकरण करते हुए वे कहते हैं-
गोविन्दकृत कर्म के कारण जीव रसातल को जाता है और गुरूपदेश से वह यमजाल से छूटता है। गोविन्द के कारण जीव कर्मपाश में फँसता है और गुरु की कृपा से वह मुक्तपाश होता है, स्वतंत्र विचरण करता है। जीव को भवसागर में डुबानेवाले गोविन्द है और द्वंद्व-दुःख से उसकी निवृत्ति करानेवाले गुरु हैं। गुरु-महिमा गाते हुए अंत में वे कहते हैं-इस तरह मुँह से गुरु की जितनी भी महिमा गायी जाए, थोड़ी होगी। वस्तुतः गोविन्द से गुरु की महानता अत्यधिक है-बहुत विशेष है।
गोविन्द के किये जीव, जात है रसातल को ।
गुरु उपदेशै सो तो, छूटै यम फन्द तैं ।।
गोविन्द के किये जीव, वश परे कर्मन के ।
गुरु के निवारे सूँ, फिरत है स्वछंद तैं ।।
गोविन्द के किये जीव, डूबत भवसागर में ।
सुन्दर कहत गुरु, काढ़ै दुख द्वन्द्व तें ।।
औरहू कहाँ लौं कछु, मुख तें कहूँ बनाय ।
गुरु की तो महिमा, अधिक है गोविन्द तें ।।
-संत सुंदरदासजी
यही हेतु है कि महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के वचनों में-नित्य प्रातःकालीन प्रार्थना में सद्गुरु स्तुति करते समय हम पाते हैं।
नमो नमो सद्गुरु नमो, जा सम कोउ न आन ।
परम पहुरुषहु ते अधिक, गावें संत सुजान ।।
और भी,
प्रभुहू से गुरु अधिक, जगत विख्यात अहैं ।
बिनु गुरु प्रभु नहिं मिलैं, यदपि घट माहिं रहैं ।।
उर माहीं प्रभु गुप्त, अँधेरा छाइ रहै ।
गुरु गुर करत प्रकाश, प्रभू को प्रत्यक्ष लहै ।।
हरदम प्रभु रहैं संग, कबहुँ भव दुख न टरै ।
भव दुख गुरु दें टारि, सकल जय जयति करै ।।
तन मन धन को अरपि, गुरू-पद सेव करो ।
‘मेँहीँ’ आज्ञा पालि, दुस्तर भव सुख से तरो ।।
संत चरणदासजी महाराज की शिष्या थी भक्तिन सहजोबाई। उनकी प्रगाढ़ निष्ठा अपने गुरु में थी। अपने हृदय के संचित समस्त उद्गारों को जैसे वे गुरु चरणों में उड़ेल देती हैं-अपने को गुरुचरणों में अर्पित कर देती हैं। उनकी दृष्टि में गुरु की गुरुता, गंभीरता और महत्ता के सामने हरि भी सर्वोपरि नहीं, वरं वे बहुत साफ शब्दों में कहती हैं-
परमेसर सूँ गुरु बड़े, गावत वेद पुरान।
यदि उनसे जिज्ञासा की जाय कि परमेश्वर से गुरु बड़े हैं, इसके लिए आपके पास कोई प्रमाण है अथवा आप भावुकतावश कह रही हैं? तो वे निःसंकोच कहती हैं-प्रमाण? अरे! प्रमाण तो इतना प्रबल है कि मैं दृढ़तापूर्वक कह सकती हूँ-‘राम तजूँ पै गुरु न बिसारूँ। गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ।।’ जिज्ञासु पुनः जिज्ञासा करते हैं और कहते हैं-आप अपने वचन प्रमाण के लिए कुछ तो बताइए, ताकि भ्रम के कारण का निवारण हो। इसके समाधानार्थ उन्होंने जो उत्तर दिया है, उसमें उन्होंने हरि और गुरु के कार्य-कलापों में महान् अंतर का दिग्दर्शन कराया है अर्थात् उन्होंने हरि को बंधनकारक और गुरु को उद्धारक सिद्ध किया है। जैसे परम भक्तिन सहजोबाई जी कहती हैं-हरि हमें संसार में जन्म देकर हमारे आवागमन के चक्र की वृद्धि करते हैं और गुरुदेव ज्ञानोपदेश देकर संसृति-संताप से मुक्ति दिलाते हैं। दूसरे शब्दों में हरि हमें विषय-विष का पान कराते हैं और गुरु ज्ञानामृत का। हरि ने हमारे पीछे पाँच तस्कर तैनात कर दिये हैं, जिनके वश होकर हम विवश हैं और वे हमें लाचार पाकर चारो ओर से दिन-रात, सोते-जागते, बैठते-उठते लूटते रहते हैं। संत कबीर साहब के शब्दों में-
पाँच चोर बरजोर कुसंगी अति घने ।
ये ठगियन जीव संग मूसत घर निसि दिने ।।
सोवत जागत रैन दिवस घर मूसहीं ।
ठाढ़ खड़े पुठवार भली विधि लूटहीं ।।
अब समझो, हरि हमारे कैसे हितैषी हैं? किन्तु कृपालु गुरु ने हमें अनाथ जानकर उन दुष्टों का संबंध छुड़ाकर सनाथ कर दिया। हरि ने कुटुम्ब- परिवारादि में ममता में गिराकर काल के जाल में बँधवाया और गुरु अपनी शिक्षा-दीक्षा देकर काल के गाल से बाल-बाल बचा लिया। हरि ने रोग और भोग में फँसाकर रोगी-सोगी बना दिया और गुरु ने योगी बनाकर निःसोगी कर दिया। हरि ने कर्म और भ्रम के फंदे में फँसाया और गुरु ने आत्मस्वरूप का मर्म बता उसका साक्षात्कार कराया। हरि ने अपने आपको मुझसे छिपाया और गुरु ने मुझे दीपक देकर उनको दिखाया। पुनः हरि ने बंधन और मुक्ति की चाल चली, किन्तु गुरु के समक्ष उनकी एक दाल न गली। अर्थात् गुरु-कृपा से कर्मबंधन गले-भ्रम-फंदन जले। इसीलिए मैं अपने गुरुवर पर तन, मन, धन न्योछावर करती हूँ। वस्तुतः मेरे गुरु-भजने और हरि-तजने का यही तथ्य है। उनका उद्घोष है-
राम तजूँ पै गुरु न बिसारूँ ।
गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ ।।
हरि ने जन्म दियो जग माहीं ।
गुरु ने आवागमन छुटाहीं ।।
हरि ने पाँच चोर दिये साथा ।
गुरु ने लई छुटाय अनाथा ।।
हरि ने कुटुँब जाल में गेरी ।
गुरु ने काटी ममता बेरी ।।
हरि ने रोग भोग उरझायौ ।
गुरु जोगी कर सबै छुटायौ ।।
हरि ने कर्म भर्म भरमायौ ।
गुरु ने आतम रूप लखायौ ।।
हरि ने मो सूँ आप छिपायौ ।
गुरु दीपक दे ताहि दिखायौ ।।
फिर हरि बंधमिुक्त गति लाये ।
गुरु ने सबही भर्म मिटाये ।।
चरणदास पर तन मन वारूँ ।
गुरु न तजूँ हरि कूँ तजि डारूँ ।।
किन्तु सावधान! संत कबीर साहब की यह साखी सदा स्मरण रहे-
तन मन ताको दीजिए, जाके विषया नाहिं।
आपा सबहीं डारिके, राखे साहब माहिं।।
अपने को उसपर न्योछावर करो, जो कामी- क्रोधी वा लोभी नहीं हो और जो क्रियावान व सदाचार समन्वित हो। गुरु में अन्यान्य अनेक गुण होने पर भी यदि वह आचरणहीन है, तो ऐसे गुरु को धारण करना कदापि योग्य नहीं। यदि अपनी अज्ञता, अल्पज्ञता अथवा अनभिज्ञता के कारण ऐसे गुरु को किसी ने धारण कर भी लिया है, तो उसके अविलंब त्यागने में ही शिष्य का कुशल व कल्याण है; अन्यथा कहीं भी त्रण नहीं, जन्म-जन्मांतर में भटकता हुआ वह दुःखों को भोगता रहेगा। इसलिए-
झूठे गुरु के पच्छ को, तजत न कीजै बार।
द्वार न पावै शब्द का भटकै बारम्बार।।
(संत कबीर साहब) दिसम्बर, 1969
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आपलोगों को ज्ञात हुआ है कि यहाँ संतमत का सत्संग होगा। अतएव सर्वप्रथम मैं यह बताऊँ कि संतमत क्या है? संतमत कोई नया धर्म, मत वा पंथ नहीं है। यह परम प्राचीन और वेद-सम्मत मत है। संतमत किसी एक संत के नाम पर आधारित मत नहीं है। इसमें सभी संतों की समान मान्यता है। अतएव आप इस सत्संग में परमपदगत विभिन्न संतों की वाणियाँ सुन पाएँगे। संतमत के संबंध में गो0 तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में कहा है-
इहाँ न पच्छपात कछु राखौं । वेद पुरान संत मत भाखौं ।।
यही यह संतमत है। वस्तुतः संतमत का अर्थ है-संतों का मत। इसलिए संत तुलसी साहब (हाथरस के संत) ने कहा है-
संत गुरु और पंथ न जाना । येही संत पंथ हित माना ।।
संतों के ज्ञान से अनजान जन का कथन था-‘संतों का ज्ञान वेद-बाह्य है।’ वेद-ज्ञानविहीन जन का वचन था कि ‘संतों के उच्चतम ज्ञान से वेद हीन है।’ इस भाँति अपनी हीन भावना के कारण वे एक-दूसरे को दीन दृष्टि से देखा करते थे। इस हेतु दोनों के बीच में जो हृदय की दूरी बढ़ गई थी-बढ़ती जा रही थी, संतमत इस दूरी को भरपूर दूर करता है। अर्थात् उभय के वैमनस्य को मिटाकर परस्पर सामञ्जस्य स्थापित कराता है।
संतमत का उद्घोष है कि संतों और वेदों का अध्यात्म-ज्ञान अभिन्न है। अर्थात् पूर्व के संतगण ईश्वर-संबंधी ज्ञान जो दे गये हैं और वर्तमान काल में जो संत उस आधार पर ज्ञान दे रहे हैं, वह वेद में विद्यमान है। आवश्यकता है उसकी खोज की। संत कबीर साहब की वाणी में-
जिन ढूँढ़ा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ ।
मैं बौरी बूड़न डरी, रही किनारे बैठे ।।
ऋषियों एवं संतों की वाणी का अध्ययन और अनुशीलन करने पर परस्पर अद्भुत साम्य का बोध होता है। संत दादू दयालजी की उदात्त भावना में हम कह सकेंगे-
जे पहुँचे ते कहि गये, तिनकी एकै बाति ।
सबै सयाने एक मत, तिनकी एकै जाति ।।
परम प्रभु सर्वेश्वर ने देखने के लिए सबको दृष्टि दी है, देखते सभी हैं, किन्तु अपनी-अपनी दृष्टि से। अर्थात् अर्जित ज्ञान के आधार पर ही देखते हैं-देख सकते हैं।
एक मंदिर है। उसमें एक पवित्र मूर्त्ति प्रतिष्ठित है। जो श्रद्धालु भक्त हैं, वे उस मूर्त्ति को परमात्मा का प्रतीक मानकर प्रणाम करते हैं। दूसरे जन उस मूर्त्ति की कला का अवलोकन करते हैं। तीसरे उस मूर्त्ति की धातु को देखते हैं-खरा है वा खोटा? चौथा व्यक्ति चोर वृत्ति का है। वह उस मूर्त्ति को देखकर यह सोचता है कि इसको चुराने से इतना लाभ होगा?
मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि लोगों के दृष्टिकोण में भिन्नता हो सकती है, परन्तु वस्तुतः तत्त्व एक ही है। इसी तरह संतों एवं ऋषियों का ज्ञान एक ही है। आज भले ही हम उसे भिन्न-भिन्न दृष्टियों से देखें, किन्तु मैं तो दृढ़तापूर्वक कहूँगा कि संतों एवं ऋषियों का ज्ञान एक है और उन्हें देखने के लिए हमको उनकी ही दृष्टि अपनानी आवश्यक है। अर्थात् उन ऋषियों एवं संतों की पूतवाणी की अभिज्ञता के लिए हमारी दृष्टि पवित्र होनी चाहिए। हम विवेक- विलोचन प्राप्त कर ही उनकी वाणियों के यथार्थ रूप का अवलोकन कर पाएँगे, अन्यथा नहीं।
अतएव आवश्यकता है हम उनकी वाणियों का अध्ययन, श्रवण और मनन करें। उनके शब्दार्थों और गूढ़ाशयों को जानें। साथ ही, संतों के पारिभाषिक शब्द, उनकी रहस्य-वाणियों और तत्संबंधी साधना का परिज्ञान कर नियमित रूप से निदिध्यासन भी करें। मात्र विद्या-बुद्धि में प्रवीण किन्तु संत-साधना से हीन और संतों के पारिभाषिक एवं रहस्यवाणी से विहीन जन जो संतवाणी का अर्थ करते हैं, वे अर्थ की जगह अनर्थ कर अपना अमूल्य समय तो व्यर्थ करते ही हैं; साथ ही भोले-भाले मानव को वे यथार्थता से कोसों दूर रखते हैं।
कई वर्ष पूर्व की बात है। एक मासिक पत्रिका में संत कबीर साहब की वाणी ‘मोरे जियरा बड़़ा अंदेशवा मुसाफिर जैंहौं कौनी ओर’ निकली थी; जिसका अर्थ एक विद्वान सज्जन ने किया था। इस पद्य के अन्तर्गत की दो कड़ियाँ-
सत्त पुरुष इक बसै पछिम दिसि, तासों करो निहोर ।
आवै दरद राह तोहि लावै, तब पैहौ निज ठौर ।।
इन उभय पंक्तियों में ऊपरवाली पंक्ति में प्रयुक्त ‘पछिम दिसि’ का अर्थ उक्त विद्वान ने किया था-‘चूँकि संत कबीर साहब मुसलमान खानदान में पाले-पोसे गए थे, इसलिए पश्चिम कहकर उन्होंने मक्का का निर्देशन किया है।’
आप विद्वज्जन इसपर गंभीरता से विचार करें। ऐसा लगता है, जैसे उक्त सज्जन को संत कबीर साहब की उस वाणी से भेंट नहीं हो पायी थी, जिसमें उन्होंने चारों दिशाओं का वर्णन किया है। यथा-
पूरब सोधि पछिम दिस लावै, अर्धा उर्धा के भेद बतावै।
सिला नाथि दक्षिण को धाओ, उतर दिशा को सुमरण चाखो।
चारो दिसा का हाल, ऐसा जानता कोइ ख्याल ।।
संत कबीर साहब ने अपनी वाणी में बाह्य जगत का नहीं; वरन् अन्तर्जगत का दिग्दर्शन कराया है, जिसको उन्होंने साधना के माध्यम से स्वयं अनुभूत किया था। संतों की वाणियों में पूर्व दिशा को अन्धकार पश्चिम दिशा को प्रकाश, दक्षिण दिशा को शब्द और उत्तर दिशा को निःशब्द कहकर अभिहित किया गया है। इसकी विशेष जानकारी के लिए हमारे यहाँ से प्रकाशित ‘सत्संग-योग’ पुस्तक का अनुशीलन करें। मात्र पश्चिम दिशा के संबंध में समास रूप में सुनिए। मण्डलब्राह्मणोपनिषद्, ब्राह्मण 2 में लिखा है-तदा पश्चिमाभिमुख प्रकाशः स्फ़टिक धूम्र विन्दु नाद कला नक्ष= खद्योत दीप नेत्र सुवर्ण नवरत्नादि प्रभा दृश्यन्ते। तदेव प्रणव-स्वरूपम् ।।२।।
अर्थात् तब पश्चिम की ओर प्रकाश दिखाई देता है। स्फटिक, धूम्र, विन्दु, नाद, कला, तारा, जुगनू, दीपक, नेत्र, सोना और नवरत्न आदि की प्रभा दिखाई देती है। यही प्रणव का स्वरूप है।
संत तुलसी साहब (हाथरस) ने भी अपनी वाणी में पश्चिम दिशा की चर्चा की है, जिसमें उन्होंने प्रकाश का वर्णन किया है। यथा-
जब दीप सीप सुधारि सजि कै पछिम पट पद में गई ।
(घटरामायण)
इसी तरह संत कबीर साहब की दूसरी वाणी भी विचारणीय है, जो परम रहस्यमयी है। वे कहते हैं-
जियत न मार मुआ मत लैयो, मास बिना मत ऐयो रे ।
जिसका सामान्य अर्थ होता है-‘जीवित को मारो नहीं, मरे हुए को लाओ नहीं और बिना मांस के आओ नहीं।’
किन्तु विचारणीय है कि वह कौन-सा मांस होगा, जो न जीवित होगा और न मृत ही। अथवा यदि ऐसा मांस कोई हो भी, तो संत को उस मांस की आवश्यकता ही क्या? वस्तुतः इसमें कुछ रहस्य है, जिसका उद्घाटन उनके ही पारिभाषिक शब्द के द्वारा होना संभव है। अतएव अब यही सर्वश्रेयस्कर होगा कि हम उनकी वाणियों की खोजकर यह सिद्ध करें कि उन्होंने जीवित और मृतक की क्या परिभाषा दी है? ‘कबीर साखी संग्रह’ नाम की पुस्तक में इसका इस भाँति समाधान मिलता है-
साधा सिंह का एक मत, जीवत ही को खाय ।
भाव-हीन मिरतक दशा, ताके निकट न जाय ।।
इसका तात्पर्य यह हुआ कि भाव-हीन मनुष्य मृतक है यानी जिसके हृदय में भगवत्-भक्ति भाव नहीं है, वह मृतक है और जिसके हृदय में ईश्वर-अनुराग है, वह जीवित है। ‘मास’ शब्द के अनेक अर्थों में ‘चन्द्रमा’ भी एक अर्थ है।
इस प्रकार संत कबीर साहब की उपर्युक्त कड़ी का अर्थ हुआ-‘भगवत् प्रेमी को दुःखाओ नहीं, भावहीन को लाओ नहीं और ऐसी साधना करो, जिससे साधना काल में जबतक चन्द्र-दर्शन नहीं हो जाए, लौटकर आओ नहीं। इस भाँति संत कबीर साहब की वाणी लोगों को विचित्र-सी जान पड़ती है। कहावत भी है-
कबीर का गाया गावै, तो गजब का धक्का खावै ।
और,
कबीर की वाणी बूझै, तो तीनों लोक सूझै ।।
संत कबीर साहब का एक वचन और उपस्थित करता हूँ, ध्यान देकर श्रवण करें।
दिल्लगी देवर भौजाय रे, कछु कहलो ना जाय ।
ऐसन कठिन भौजाय रे, कछु कहलो ना जाय ।।
इसका साधारण अर्थ-देवर और भौजाई की दिल्लगी होता है, किन्तु इसके गूढ़ाशय-परिज्ञान के लिए मर्मज्ञ की आवश्यकता है। संत कबीर साहब के कहने की यह एक विशेष कला है। यहाँ इसका अर्थ इस प्रकार कीजिए-दिल्लगी=दिल-लगी, देवर=देव- वर= परमात्मा, भौ=भव=संसार, जाय= जाना=नष्ट होना। आशय यह कि यदि परमात्मा से दिल लग जाए, तो भव-सागर, संसार-चक्र- आवागमन का चक्र छूट जाए, नष्ट हो जाय। मात्र कबीर साहब की ही नहीं गो0 तुलसीदासजी महाराज की वाणी भी कुछ इसी तरह की है। रामचरितमानस में लिखा है-
सुखी मीन जहँ नीर अगाधा ।
जिमि हरि सरन न एकउ बाधा ।।
और एक दूसरे स्थल में है, जो कि श्रुत है-
नीर अगाधा में मीन मरै, कबहूँ न मरै जल तें बिलगाये ।
पिय परदेश में नारि सुखी, कबहूँ न सुखी पिय अंक लगाये।
अमृत पान करै सो मरै, कबहूँ न मरै विष पान कराये।
पाप करै सो तरै तुलसी, कबहूँ न तरै हरि के गुन गाये।
गोस्वामीजी का यह वचन कितना विपरीत प्रतीत होता है? किन्तु यदि स्वल्प मात्र में ही बुद्धि का व्यायाम किया जाए, तो अर्थ स्पष्ट हो जाएगा। अतएव इस कला का प्रयोग कर देखें, यथार्थता निखर उठेगी-
नीर अगाधा में मीन मरै ? कबहूँ न(
मरै ? जल तें बिलगाये ।
पिय परदेश में नारि सुखी ? कबहूँ न(
सुखी ? पिय अंक लगाये ।।
अमृत पान करै सो मरै ? कबहूँ न(
मरै ? विष पान कराये ।
पाप करै सो तरै तुलसी ? कबहूँ न(
तरै ? हरि के गुन गाये ।।
संत कबीर साहब की वाणी भी इससे बिल्कुल मिलती-जुलती मालूम पड़ती है। जैसे-
पाप करे बिनु गति नहीं, पाप करे तब चैन ।
कहै कबीर विचारि के, पाप करो दिन रैन ।।
लौकिक दृष्टि से अवलोकन करने पर एक संत ऐसी वाणी असम्बद्ध और अशोभनीय ही नहीं, निन्दनीय भी मालूम पड़ती है, किन्तु उनकी दृष्टि कुछ और ही थी और वह आध्यात्मिक एवं विलक्षण थी।
जैसे श्रीमद्भगवद्गीता अ0 4।34 में भगवान श्रीकृष्ण ने ‘तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।’ कहकर तत्त्वज्ञानी की चरण-शरण में जाकर उनसे उपदेश प्राप्त करने का आदेश दिया है; वैसे ही संत कबीर साहब ने इस वाणी में संत सद्गुरु के पादपप्रों को पकड़ने की प्रेरणा दी है। शब्दार्थ इस प्रकार है-संत सद्गुरु के पाँव पकड़े बिना गति-मुक्ति नहीं मिल सकती, पाँव पकड़ने पर ही चैन-कल्याण मिल सकता है। संत कबीर साहब विचारकर कहते हैं कि संत सद्गुरु के पाँव दिन-रात पकड़ो अर्थात् दिन-रात उनकी चरण-शरण में रहो। अतएव इस दोहे को इस भाँति पढ़ें-
पा-पकरे बिनु गति नहीं, पा पकरे तब चैन ।
कहै कबीर विचारि के, पा पकरो दिन रैन ।।
इसका दूसरी तरह से ऐसा भी अर्थ किया जा सकता है, जिसके लिए हमें यह खोज करना अपरिहार्य होगा कि कबीर साहब ने किस कर्म को पाप बताया है? उनकी वाणी के अध्ययन-मनन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि उन्होंने पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच तत्त्वों की पचीस प्रकृतियों को मारने के काम को पाप तथा इनके मारनेवाले को पापी की संज्ञा से अभिहित किया है। यथा-
पाँच पचीसो मारिया, पापी कहिये सोय ।
यह परमारथ जानिके, पाप करो सब कोय ।।
परमार्थ-पथ के पथिक को पाँच-पचीसो को मारना-उन पर अधिपत्य प्राप्त करना अत्यन्त अपेक्षित है। बिना इसके वह सफलता प्राप्त करने में सक्षम नहीं हो सकता। इस दृष्टि से उस तरह के पाप करने का जो व्यंग्यात्मक प्रयोग संत कबीर साहब ने किया है, वह कोई अनुचित, अयोग्य वा अशोभनीय बात नहीं।
हाँ, तो मैं संतमत के प्रसंग में कह रहा था। संतमत परम आस्तिक मत है। यह एक ईश्वर का ज्ञान देता है और उसका प्रत्यक्षीकरण अपने अन्दर बतलाता है। ईश्वर-स्वरूप और उसकी प्राप्ति के संबंध में संतमत वेद, उपनिषद् और संतों की वाणियों का साक्ष्य देकर बौद्धिक विचार भी देता है। उसका कथन है-‘जो परम तत्त्व आदि-अन्त- रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है, उसे ही सर्वेश्वर-सर्वाधार मानना चाहिए।’ यजुर्वेद के इकतीसवें अध्याय के प्रथम मन्त्र में लिखा है-
सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्र पात् ।
स भूमन सर्वतस्पृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम् ।।
अर्थात् हजारों यानी असंख्य शिरोंवाला, हजारों यानी अनन्त आँखोंवाला, हजारों यानी अनन्त पैरोंवाला ‘पुरुष’ सर्वत्र पूर्ण जगदीश्वर है। वह सबको उत्पन्न करनेवाली भूमि के समान सर्वाश्रय प्रकृति को सब प्रकार व्याप कर और भी दश अंगुल अर्थात् दस अंग विकार महत् आदि या पृथ्वी आदि स्थूल और सूक्ष्म भूतों का अतिक्रमण करके उनमें भी व्याप्त होकर, उनसे भी अधिक शक्तिमान अध्यक्ष होकर विराजता है। मुण्डकोपनिषद् मुण्डक 2, खण्ड 2 के नवम श्लोक में लिखा है-
ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद्ब्रह्म पश्चाद्ब्रह्म दक्षिणतश्चोत्तरेण ।
अधाश्चोधर्व च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम् ।।
अर्थात् यह अमृत ब्रह्म ही आगे है, ब्रह्म ही पीछे है, ब्रह्म ही दायीं-बायीं ओर है तथा ब्रह्म ही नीचे-ऊपर फैला हुआ है। यह सारा जगत सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म ही है और कठोपनिषद् अध्याय 2, वल्ली 2, श्लोक 10 के अनुकूल-
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ पवन प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
मुण्डकोपनिषद् के उपर्युक्त मंत्र से संत कबीर साहब की वाणी में विलक्षण समता है, मनन करके देखिए।
श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
ऊपर नीचे आगे पीछे दाहिन बाँय अनन्य ।।
सर्वेश्वर के लिए अखण्ड, अनन्त, अपार, अगोचर, सर्वव्यापक, अजन्मा आदि शब्दों का प्रयोग प्रायः सभी संतों की वाणियों में हम पाते हैं। गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा ।।
जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा ।।
और गो0 तुलसीदासजी के शब्दों में हम कह सकेंगे-
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बृि) पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
दूसरे शब्दों में-
ब्यापक ब्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता ।
सब दरसी अनवद्य अजीता ।।
निर्मल निराकार निर्मोहा ।
नित्य निरंजन सुख संदोहा ।।
प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी ।
ब्रह्म निरीह विरज अविनासी ।।
संतों के ज्ञानानुकूल सूक्ष्मातिसूक्ष्म सर्वेश्वर का साक्षात्कार चेतन आत्मा ही कर सकती है, स्थूल वा सूक्ष्म कोई भी इन्द्रिय नहीं। बल्कि सामवेद में तो स्पष्ट ही कहा है कि हाथ, पैर, गुदा, लिंग, वाक्, रसना, कान, त्वचा, आँखें, नाक और मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर को प्रत्यक्ष करने की चेष्टा करना झूठ ही एक खेल करना है; क्योंकि वह इनसे नहीं जाना जा सकता है। वह तो इन्द्रियातीत है।
ओ३म् सयोजत उरुगास्य जूतिं वृथा क्रीड़न्तं मिमिते न गावः।
परीणसं कृणुते तिग्म शृंगो दिवा हरिर्ददृशेनक्तमृज्रः ।।
मुण्डकोपनिषद् में भी लिखा है-
न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मणा वा।
ज्ञानप्रसादेन विशु) सत्त्वस्तस्तु तं पश्यते निष्कलं धयानमानः।
अर्थात् यह आत्मा न नेत्र से ग्रहण किया जाता है, न वाणी से, न अन्य इन्द्रियों से और न तप अथवा कर्म से ही। ज्ञान के प्रसाद से पुरुष विशुद्ध चित्त हो जाता है और तभी वह ध्यान करने पर उस निष्कल आत्मतत्त्व का साक्षात्कार करता है।
पलटू साहब, कबीर साहब प्रभृति संत भी इसी विषय का अनुमोदन और प्रतिपादन करते हैं कि ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान इन्द्रियों को नहीं, चेतन आत्मा को होगा। इसलिए दृढ़ स्वर में संत कबीर साहब ने आदेश दिया है-
चाम चश्म सों नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
और संत पलटू साहब भी कहते हैं-
रूह करे मेराज कफ़ुर का खोलि कुलाबा ।
तीसो रोजा रहे अन्दर में सात रिकाबा ।।
लामकान में रब्ब को पावै पलटू दास ।
साहब-साहब क्या करै, साहब तेरे पास ।।
हाथरसवाले संत तुलसी साहब स्वानुभूति की बातें कहते हैं। उनका अनुभव सिद्ध वाक्य है कि मन-बुद्धि की गति सहस्त्रदल कमल के परे अर्थात् त्रिकुटी पर्यन्त है। उसके आगे किसी भी इन्द्रिय की गति नहीं है। वहाँ तो मात्र चेतन आत्मा-प्राण पुरुष ही जा सकता है-जाता है, जिसको परमात्मा की प्राप्ति होती है।
सहस्त्र कमल दल पार में मन बुद्धि हेराना हो ।
प्राण पुरुष आगे चले सोइ करत बखाना हो ।।
इस संदर्भ में परम पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के अनुभवगम्य वचन इस भाँति है-‘जब मन लय होगा, तब सुरत को मन का संग छूट जाएगा। मन-विहीन हो, शब्दधारों से आकर्षित होती हुई निःशब्द में अर्थात् परम प्रभु सर्वेश्वर में पहुँचकर वह भी लय हो जाएगी। अन्तःसाधन की यहाँ पर इति हो गई। प्रभु मिल गए। काम समाप्त हुआ।’ संतमत मोक्ष- धर्म यानी ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग है। इसीलिए सर्वेश्वर साक्षात्कार के लिए संतों के मत में चार सोपान वर्णित हैं, जो क्रमबद्ध हैं और वे हैं-मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि-साधन और शब्द-साधन यानी नादानुसंधान-सुरत-शब्द-योग।
संतमत दृढ़तापूर्वक इस बात का विश्वास दिलाता है कि सदाचार की आधारशिला पर ही ईश्वर-भक्ति रूपी भव्य भवन का निर्माण हो सकता है, अन्यथा नहीं। अपवित्र मनवाले को पवित्रतम परमात्मा की प्रत्यक्षता हो, कदापि संभव नहीं। कठोपनिषद् में कहा है-
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।
नाशान्त मानसोवापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ।।
अर्थात् जो पाप कर्मों से निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ शांत नहीं हैं और जिसका चित्त असमाहित या अशांत है, वह इसे आत्मज्ञान द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता है।
इस हेतु संतमत-सत्संग द्वारा लोगों को सदाचार पालन-हित प्रबल प्ररेणा दी जाती है। अर्थात् झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों से विरत रहने की तथा गुरु-सेवा, सत्संग और दृढ़ ध्यानाभ्यास में निरत रहने की इसमें समुचित सीख दी जाती है। साथ ही, संतमत प्रमादी वा परमुखापेक्षी के पक्ष में नहीं है, वरन् अप्रमादी, पुरुषार्थी एवं स्वावलम्बी जीवन-यापन का आदेश देता है।
इस सम्बन्ध की एक रोचक कथा है-एक सेठ ने अपने पुत्र को व्यापार करने के लिए बाहर भेजा। सेठ-पुत्र ने शीघ्र सम्पत्तिवान होने की बात सोच नेपाल राज्य की राह ली। मार्ग में एक अरण्य मिला, जिसमें प्रवेश करने पर उसको एक बाघ दीख पड़ा। वह भय के मारे एक विशाल वृक्ष पर चढ़ गया। इतने में वह बाघ एक हिरण को मारकर लाता है और उसे खाने लगता है। खाने के बाद बचे हुए अंश को छोड़कर वह घनघोर जंगल की ओर चला जाता है। इसके बाद एक लँगड़ी लोमड़ी अपनी माँद से निकलती है और उस मरे जानवर के बचे मांस को खाने लगती है।
इस घटना को देखकर सेठ-पुत्र के मन में यह भावना उत्पन्न हुई कि ‘ईश्वर बड़े दयालु हैं। जबकि वे एक लँगड़ी लोमड़ी को भी भर पेट भोजन देते हैं, तो क्या वे मुझे भूखा रखेंगे? कदापि नहीं।’
ऐसा सोच वह वहाँ से घर लौट आया। सेठ ने अपने पुत्र से शीघ्र घर लौटने का कारण पूछा। उत्तर में पुत्र ने लँगड़ी लोमड़ी और बाघ की कथा कह सुनायी और कहा-‘पिताजी! परमात्मा बड़े कृपालु हैं। वे एक लँगड़ी लोमड़ी को भी खिलाने का प्रबन्ध कर देते हैं। क्या वे मुझे पेट भर भोजन नहीं देंगे? यदि हाँ, तो फिर अपने जीवन के साथ जूझकर जंगल और पहाड़ की खाक क्यों छानूँ?’
सेठ ने कहा-‘पुत्र! तुमने सर्वेश्वर के संकेत को उलटा समझ लिया। अरे! परमेश्वर ने तुमको निकम्मी लँगड़ी लोमड़ी बनने के लिए नहीं, वरन् बाघ जैसे उद्गामी बनने का उपदेश दिया है। जैसे बाघ ने परिश्रम किया, स्वयं भर पेट खाया और शेष अन्यों के लिए छोड़ दिया। उसी तरह तुम भी पुरुषार्थी बनो, अपनी सच्चाई की कमाई से अपना जीवन-यापन करो और बचे हुए धन को लूलों-लँगड़ों, दीन-दुखियों आदि के सेवार्थ छोड़ दो।’ सन्तमत की यही सीख है। भूलकर भी भीख माँगो नहीं। प्रातःस्मरणीय परमपूज्य अनन्त श्रीविभूषित श्रीसद्गुरु महाराजजी का यह उद्घोष है-
जीवन बिताओ स्वावलम्बी, भरम भाँड़े फ़ोड़िकर ।
क्या गृहस्थ, क्या विरक्त; सभी साधकों के लिए उनका सामान्य उपदेश है-‘साधक को स्वावलम्बी होना चाहिए। अपने पसीने की कमाई से उसे अपना निर्वाह करना चाहिए। थोड़ी-सी वस्तुओं को पाकर ही अपने को संतुष्ट रखने की आदत लगानी उसके लिए परमोचित है। (शान्ति-सन्देश, नवम्बर, 1970)
दिनांक-1-3-1970, स्थान: दिल्ली
महाधिवेशन 62वें, रामलीला मैदान (दल्ली)
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उपस्थित धर्मप्रेमी सज्जनो, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
संसार के सभी प्राणी सुख की इच्छा रखते हैं। प्राणियों में मानव श्रेष्ठ है। वह भी सुख-प्राप्ति के लिए विविध प्रकार के प्रयत्नों को करता है। जबसे नींद टूटती है, तबसे लेकर जबतक निद्रा देवी की गोद में नहीं जाता, वह प्रयत्नशील रहता है। प्राप्त सुख से वह संतुष्ट नहीं होता, वरन् सुख की वृद्धि और अतिवृद्धि चाहता है। इतना ही नहीं, उसकी अभिवृद्धि कहाँ तक हो, उसकी सीमारेखा उसके मस्तिष्क में नहीं। यह बात विचित्र-सी लगती है कि सुदूर रहकर जिनको हम सुखी और सम्पन्न समझते हैं, उनके निकट जाने पर वे भी दुःखी ही दीखते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे विश्व में ऐसा कोई नहीं, जो दैहिक, दैविक, भौतिक तथा मानसिक; किसी-न- किसी पीड़ा से पीड़ित नहीं हो। बात क्या है? लोग धन- वान, बलवान, ऐश्वर्यवान प्रभृति होते हुए भी दुःखी क्यों दीखते हैं? यथार्थ बात यह है कि सुख है कहीं और उसकी खोज हो रही है कहीं। दूसरे शब्दों में-
सुख है नहीं जहाँ। खोज हो रही तहाँ।।
संत कबीर साहब के शब्दों में हम कह सकेंगे-
वस्तु कहीं ढूँढ़ै कहीं, केहि विधि आवै हाथ।
बस, यही बात चरितार्थ हो रही है और जागतिक नश्वर भोग जो हमें मिलता है, बस इसी में हम मस्त रहते हैं। एक लघु कथा है, सुनिये-
आचार्य द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा थे। उनको गाय नहीं थी। अतएव बालपन में उनको पीने के लिए गाय का दूध नहीं मिलता था। उनके बाल साथी जब बाल-क्रीड़ा के समय एकत्र होते, तो कहते कि हमलोग गाय का दूध पीते हैं और तुमको पीने के लिए दूध नहीं मिलता है, ऐसा कहकर उनको चिढ़ाया करते थे। वे बेचारे रोते हुए अपनी माता के पास आते और कहते-‘माँ! मुझे गाय का दूध पिलाओ, मेरे संगी-साथी गाय का दूध पीकर खेलने आते हैं।’ बेचारी माता के पास लाचारी थी, गाय थी नहीं, वह करती क्या? अरवा चावल को पीसकर, पानी में घोलकर और चीनी मिलाकर, उनको पीने देती; कहती-‘ले बेटा! गाय का दूध पी।’ बड़ी प्रसन्नता के साथ अश्वत्थामा उसको पी लेते और अपने साथियों से कहते कि ‘अरे, मैंने भी गाय का दूध पिया है।’
विचारणीय है कि वे ही अश्वत्थामा बड़े हुए होंगे और उनको मालूम हुआ होगा कि मुझे पीने के लिए गाय का दूध नहीं मिलता था, बल्कि चावल को पानी में पीसकर चीनी मिलाकर मुझे पीने के लिए दिया जाता था, गाय का दूध कहकर, तो उनको कितनी आत्मग्लानि, कितनी लज्जा और कितना पश्चात्ताप होता होगा?
ठीक यही हालत हमारी है। हम भी मायिक मिथ्या सुख को, जो विषयोपभोग करने पर हमें मिलता है, सत्य सुख समझकर मस्त हो रहे हैं-उन्मत्त-से हो रहे हैं। जिन विषयों को संतों ने वमन-सदृश जानकर परित्याग कर दिया, उन्हीं विषयों को हम श्वान की नाईं स्वाद से स्वीकार कर प्रसन्न होते हैं, फूले नहीं समाते हैं।
जो विषया सन्तन्ह तजि, मूढ़ ताहि लपटात ।
जौं नर डारत वमन करि, स्वान स्वाद सों खात ।।
विचारणीय है, ज्ञान बढ़ने पर जब हमें विषय-सुख की असारता का बोध होगा, तो हमें भी कितनी ग्लानि, कितनी लज्जा और कितना दुःख एवं पश्चात्ताप होगा। अतएव हम सवेरे से ही क्यों न सँभलें। महान आश्चर्य है कि संतों की सद्वाणी सुनकर भी हमारे कानों पर जूँ तक रेंगने नहीं पाती और हम विषयों-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द को पाकर, उन विषयों को भोगकर तृप्त होना चाहते हैं-सुखी होना चाहते हैं; कब सम्भव है? विषयोपभोग कर आजतक कोई संतुष्ट हुआ है-किसी ने सुख का अनुभव किया है? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
पावक काम भोग घृत ते सठ कैसे चहत बुझायो।
तथा-
बुझै न काम अगिनि तुलसी कहूँ, विषय भोग बहु घी ते।
संतों ने कहा-अरे मानव! जरा सोच- विचार और समझकर देख। तू जिन पंच विषयों को भोगकर सुखी होना चाहता है, उन पंच विषयों के भोग और उनके परिणाम कैसे हैं, श्रवण कर। किसी कवि ने कितना अच्छा कहा है-
मृग मीन भृंग पतंग कुंजर, एक दोष बिनासहीं ।
पंच दोष असाध्य जामें, ताकी केतिक आसहीं ।।
मृग को कर्णेन्द्रिय का विषय-शब्द बहुत प्रिय प्रतीत होता है। इसीलिए वह व्याधे की मीठी सुरीली वंशी की तान सुन, जाल में फँसकर अपनी जान देता है। झष जिभ्या के रस में फँस परवश हो प्राण गँवाती है। भौंरा सरोवर-कूल-स्थित कमल फूल पर जाता है और उसकी सुगन्धि में मशगूल हो अपने को भूल जाता है। उसको उसके पराग से इतना अत्यधिक अनुराग है कि पिण्ड से प्राण भले भाग जाएँ; किन्तु वह उसका त्यागकर भाग नहीं सकता। कुछ काल पश्चात् रात होती है और अरविन्द की बिखरी पंखुड़ियाँ बंद हो जाती हैं। परिणामस्वरूप चन्द समय में उसका भी प्राणस्पन्द बंद हो जाता है अथवा दूसरे शब्दों में निशीथ के पश्चात् प्रभात में गयन्द के पदाघात से उसका प्राणान्त होता है।
जिस नेत्र-विषय-रूप में लोलुप हो बड़े-बड़े भूप तम-कूप में गिरे हैं, वहाँ बेचारे पतंग को बचने का ढंग कहाँ? वह नेत्र-विषय रूप में लोलुप हो प्रदीप के प्रकाश में अपना नाश करता है। बेचारे पंतग का क्या चारा? वह प्रदीप के प्रकाश में अपना सर्वस्व नाश करता है। इसी प्रकार मतिमन्द गयन्द स्पर्श विषय के फन्द में पड़ अपने जीवन-विध्वंस का कारण बनता है।
इस भाँति हम देखते हैं कि मात्र एक-एक विषय में आसक्ति के कारण एक-एक जीव की जान जाती है; किन्तु हम मानवों को तो इन पाँचों विषयों में अनुरक्ति है और उनपर विजय पाने के लिए न तो शारीरिक शक्ति है और न मानसिक विरक्ति ही। फिर इतने पर भी हम जीवित हैं, यह इस तुच्छ जीव पर पीव की अति कृपा है।
और भी देखिये, हम जिन पंच विषयों के भोग में सुख-प्राप्ति की इच्छा रखते हैं, उन पंच विषयों के भोग के परिणाम क्या है, विचारिये। संतजन कहते हैं-विषय तत्त्व विषवत् है। समस्त संसार पंच विषयों से भरा है, जैसे स्वर्ण-घट में विषरस। जरा विचार करें, यदि हम ‘विषय’ शब्द लिखना चाहेंगे, तो कैसे लिखेंगे? विषय में तीन अक्षर हैं-‘वि’, ‘ष’ और ‘य’। इन तीनों अक्षरों में ‘य’ को ढक्कन समझिये। अब ‘विषय’ में से ‘य’ रूप ढक्कन को हटाकर देखिये, क्या बचता है? ‘विष’। फिर, ‘विष’ पान करके यदि अपने जीवन की आशा हम करते हैं, तो वह दुराशा मात्र है और उसमें निराशा अवश्यम्भावी है। इसलिए भगवान श्रीराम ने अपने राजत्वकाल में गुरुजन, पुरजन और सज्जन को आमंत्रण कर ये उपदेश-वाक्य कहे थे-
एहि तन कर फ़ल विषय न भाई ।
स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई।।
नर तन पाइ विषय मन देहीं ।
पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं ।।
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई ।
गुँजा ग्रहइ परस मनि खोई ।।
अर्थात् हे भाई! इस मनुष्य-शरीर को प्राप्त करने को फल विषयों का भोगना नहीं है। यदि स्वर्ग प्राप्त कर सको, तो वह भी स्वल्प और अंत में दुःख देनेवाला है। नर-तन पाकर जो जन विषयों में मन लगाता है, वह मूर्ख अमृत के बदले विष लेता है। उसको कभी कोई अच्छा नहीं कहता, जो पारसमणि खोकर करजनी लेता है।
इस उपदेश के अंदर भगवान का आदेश है कि उत्कृष्ट मानव-शरीर पाकर सर्वोत्कृष्ट सुख के लिए सर्वेश्वर की भक्ति करो, जो इन्द्रियातीत और विषयातीत है। बिना सर्वेश की आराधना किए वह शाश्वत सुख दूर ही नहीं, सुदूर है। इस संबंध में गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के आकाशवत् अलोल एवं अनमोल बोल सुनें। कितनी दृढ़ता है, उनकी वाणी में। वे कहते हैं-
सिव अज सुक सनकादिक नारद ।
जे मुनि ब्रह्म विचार विसारद ।।
सब कर मत खगनायक एहा ।
करिय राम पद पंकज नेहा ।।
श्रुति पुराण सद्ग्रन्थ कहाहीं ।
रघुपति भगति बिना सुख नाहीं ।।
कमठपीठ जामहिं बरु बारा ।
बन्ध्या सुत बरु काहुहि मारा ।।
फ़ूलहिं नभ बरु बहु विधि फ़ूला ।
जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला ।।
तृषा जाइ बरु मृगजल पाना ।
बरु जामहिं सस सीस विषाना ।।
अन्धाकार बरु रबिहिं नसावै ।
राम विमुख न जीव सुख पावै ।।
हिम ते प्रगट अनल बरु होई ।
विमुख राम सुख पाव न कोई ।।
बारि मथे घृत होइ बरु, सिकता तें बरु तेल ।
बिनु हरि भजन न भव तरिय, यह सि)ान्त अपेल ।।
अर्थात् शिव, ब्रह्मा, शुकदेव, सनकादिक, नारद और जो मुनि ब्रह्म-विचार में प्रवीण हैं, हे पक्षिराज! सबका यही मत है, सब ग्रंथ (सद्ग्रंथ) कहते हैं कि राम की भक्ति के बिना सुख नहीं है। कछुए की पीठ पर चाहे बाल जम आवें और चाहे बाँझ का बेटा किसी को मार डाले, चाहे आकाश में बहुत तरह के फूल फूलें; परन्तु राम से विमुख रहकर जीव सुख नहीं पा सकता है। चाहे मृग-तृष्णा का जल पीने से प्यास दूर हो जावे, चाहे खरहे के माथे पर सींग जम आवे, चाहे अंधकार सूर्य को नाश कर दे; किन्तु राम से विमुख रहकर जीव सुख नहीं पा सकता है। चाहे पाले से अग्नि प्रकट हो जावे; परन्तु राम से विमुख होकर कोई सुख नहीं पा सकता है। चाहे पानी के मथने से घी हो जाय, चाहे बालू से तेल निकल आवे; परन्तु यह सिद्धांत अटल है कि बिना हरि-भजन के कोई संसार-समुद्र से पार नहीं हो सकता है।
अतएव नित्य, सत्य एवं शाश्वत सुख के लिए ईश्वर-भक्ति करनी चाहिए। ईश्वर-स्वरूप इन्द्रियातीत होने के कारण उसका सुख भी इन्द्रियातीत है। अतएव इन्द्रियों के द्वारा उस सुख की प्राप्ति कदापि हो नहीं सकती और न कोई भी इन्द्रिय उसके संबंध में कुछ कह सकती है। जो इन्द्रियों का विषय नहीं, जो अनिर्वचनीय है, उसके संबंध में वाणी मूक है। ठीक उसी तरह जैसे गूँगे को मीठा फल खिलाया जाय, तो वह उसके विषय में कुछ कह नहीं सकता। इस विषय का स्पष्टीकरण सूरदासजी महाराज ने इस भाँति किया है-
अविगत गति कछु कहत न आवै ।
ज्यों गूँगहि मीठे फ़ल को रस, अन्तर्गत ही भावै ।।
परम स्वाद सबही जु निरन्तर, अमित तोष उपजावै ।
मन वाणी को अगम अगोचर, सो जानै जो पावै ।।
अमित तोष के लिए संतों ने ईश्वर की भक्ति बतलायी है; क्योंकि वह परम स्वाद और परम तृप्ति ईश्वर में ही है। यही हेतु है कि इस सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार किया जाता है। त
पूज्यपाद महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 62वें वार्षिक महाधिवेशन, दिनांक 02-03-1970 ई0 को दिल्ली के रामलीला मैदान में प्रातःकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, अप्रैल 2010)


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उपस्थित सज्जनवृन्द तथा देवियो!
भगवान बुद्ध ने कहा है-मनुष्य का शरीर पाना दुर्लभ है। मनुष्य-शरीर पाकर भी उसका जीवित रहना कठिन है। जीवित रहकर भी सद्धर्म-श्रवण कठिन है और श्रवण करने पर भी उसका पालन और भी कठिन है। यह वर्णन ‘धम्मपद’ नामक पुस्तक में है। जिस प्रकार गीता महाभारत ग्रंथ का एक छोटा-सा; किन्तु अत्यंत तेजस्वी अंश है, उसी प्रकार त्रिपिटिक ग्रंथ का एक अंश ‘धम्मपद’ है। श्रीरामकृष्ण परमहंसजी ने कहा है-‘अपने को मारने के लिए एक छोटी-सी आलपीन काफी है; परन्तु दूसरे को मारने के लिए तलवार और ढाल की जरूरत पड़ती है। उसी तरह अपने को समझाना आसान है; परन्तु दूसरों को समझाने के लिए बहुत शास्त्र और सद्ग्रंथों के प्रमाण की जरूरत होती है। अगर हम गो0 तुलसीदासजी महाराज की वाणी पढ़ते हैं, तो वही बात पाते हैं-
सुनिय गुनिय समझिय समझाइय, दसा हृदय नहिं आवै ।
जेहि अनुभव बिनु मोह-जनित, भव दारुण विपति सतावै ।।
वस्तुतः धर्म का सुनना कठिन है, समझना और कठिन है तथा समझाना और भी कठिन है। और यदि सुन-समझकर अन्यों को समझा भी दिया जाय, तो उसका आचरण करना सबसे विशेष कठिन है। और आचरण बनाये बिना उसका प्रभाव नहीं पड़ता। परिणामस्वरूप वह वक्ता बकता ही रह जाता है। एक बार एक राजा ने अपने मंत्री से पूछा-‘मंत्रीजी! क्या कारण है कि भगवान बुद्ध, संत कबीर, गुरु नानक आदि महात्माओं का जितना प्रभाव लोगों पर पड़ता था, आज के महात्माओं का प्रभाव उतना नहीं पड़ता?’ मंत्री ने कहा-‘महाराज! इस प्रश्न का उत्तर मैं परसों दूँगा।’ तीसरे दिन जब राजदरबार लगा, सभासद के साथ राजा और मंत्री भी बैठे, तो एकाएक मंत्री ने एक सिपाही को आदेश दिया-‘ऐ सिपाही! राजा को अभी कान पकड़कर राजसभा से बाहर निकाल दो।’ सिपाही मंत्री का मुँह देखने लगा और मन में सोचने लगा-‘आखिर मंत्री ऐसा क्यों बोल रहे हैं?’ इसी तरह मंत्री ने दूसरी और तीसरी बार भी सिपाही से वही बात दुहरायी; लेकिन सिपाही टस-से-मस नहीं हुआ। राजा ने समझा, शायद मंत्री का मस्तिष्क तो कहीं विकृत नहीं हो गया है। इसलिए उन्होंने शंकित स्वर में पूछा-‘मंत्रीजी! आपके मस्तिष्क का संतुलन ठीक तो है?’ मंत्री ने मुस्कुराते हुए कहा-‘महाराज! यही आपके प्रश्न का उत्तर है। मैं आपके प्रश्न का उत्तर दे रहा हूँ। जिस तरह मैंने सिपाही को आदेश देकर अनधिकार चेष्टा की और उसका प्रभाव सिपाही पर कुछ भी नहीं पड़ा, उसी तरह जो अपने को योग्य नहीं बना लेते और उपदेश करते हैं, तो उनका प्रभाव लोगों पर अवश्य ही कुछ नहीं पड़ता। अस्तु!
अभी आपलोगों ने सद्ग्रंथों के पाठ में ‘योग’ के संबंध में सुना है। उसपर जो कुछ मैं कहूँगा और मेरे कहने का जो प्रभाव पड़ेगा, उससे कहीं विशेष प्रभाव पूज्यपाद गुरुदेव के उपदेश का पड़ेगा; किन्तु जबतक वे यहाँ (मंच पर) नहीं पधारे हैं, आपकी सामयिक सेवा करने की चेष्टा करूँगा। ‘योग’ के संबंध में आप पूर्व भी सुन चुके होंगे, सम्प्रति मैं केवल आपलोगों को स्मरण दिलाऊँगा। भगवान बुद्ध ने कहा है-‘स्मरण के लिए नहीं दुहराना धब्बा है।’ अतः कभी-कभी स्मरण दिलाना भी आवश्यक होता है और वह बड़ा कारगर भी होता है। हनुमानजी अपने बल को भूल गये थे। उनको बल की याद दिलायी गई और कहा गया-‘राम काज हित तव अवतारा।’ सुनने भर की देर थी, क्या हुआ? ‘सुनतहिं भयेउ पर्वताकारा।’ फिर तो ‘पवन तनय बल पवन समाना।’ की स्मृति हो आई और एक ही छलाँग में वे सागर पार कर लंका पर चढ़ बैठे।
कितने जन ‘योग’ के नाम से घबराते हैं- आतंकित होते हैं। वे समझते हैं, ‘योग’ साधु-संन्यासियों, गृहत्यागियों के लिए है-गृहस्थों के लिए नहीं। संत-महात्मागण कहते हैं-‘योग’ को समझो। ‘योग’ किसे कहते हैं? ‘योग’ का अर्थ है-जोड़ना। अपनी चित्तवृत्ति को ईश्वर में लगाओ-जोड़ो, यही ‘योग’ है। पारमार्थिक जीवन के लिए तो कहना ही क्या, हमारा जागतिक जीवन भी योग के बिना सार-शून्य होता है। विचारिये, यदि हमारा मनोयोग पत्नी, पुत्र, पति, प्रतिष्ठा अथवा पैसे में है, तो इनमें से किसी का वियोग हमारे लिए कैसा होता है; सुखदायक वा दुःखदायक?
एक सज्जन का अपनी पत्नी से मन इतना जुड़ा हुआ था कि उनसे विलग होना उनके लिए असह्य होता था। अतएव वे कभी उनका साथ छोड़ना नहीं चाहते थे। विधि का विधान ही कुछ और है। कौन जानता है-कल क्या होनेवाला है! पत्नी बीमार हुई। बीमारी बढ़ी और एकाएक वह इस दुनिया से चल बसी। अब तो उनके लिए ऐसा हुआ जैसे विपत्ति का पहाड़ ही उनके ऊपर टूट पड़ा। सतत चिन्तामग्न रहते। आँख खोलते तो कहते-देखो, मेरी पत्नी कमरे में घुस रही है, कभी कहते-देखो, पेड़ पर चढ़ रही है आदि।
और तो और, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम जब इस जगती तल पर नर-रूप में अवतीर्ण हुए, तो उन्होंने नर-लीला में पत्नी-वियोग का नग्न-नृत्य दिखलाया। वे विरही हो वन-वन भटकते हुए व्याकुल एवं अधीर हो-धैर्य खोकर पशु-पक्षियों से पूछते हैं-‘हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम देखी सीता मृग नैनी।’ खैर, मेरे कहने का आशय है कि हम योग को पसंद करते हैं, वियोग को नहीं।
योग जीवन है और वियोग मृत्यु है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि शरीर में जबतक प्राण का योग है, तबतक यह जीवित है, वियोग होते ही यह मृतक हो जाता है। योग मानव को नीरोग बनाता है और वियोग नाना रोग उत्पन्न करता है। जबतक परमात्मा से जीवात्मा का वियोग है, तबतक यह भव के नाना रोगों से आक्रान्त है। जब जीवात्मा का परमात्मा से योग हो जाय, तो वह सभी रोगों से मुक्त हो, परम शांत पद को प्राप्त कर ले। जबतक ईश से बिछुड़न है, तबतक दुःख है, क्लेश है-विपद् है। ईश से मिलन होते ही सभी दुःख विपद् और क्लेश निःशेष हो जाते हैं।
लोग ‘योग’ का नाम सुनकर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। उनको ऐसा लगता है, जैसे योग हिंस्त्र जन्तु हो। लोग योग को भयावह समझ बैठे हैं; किन्तु बात वस्तुतः वैसी नहीं। योग दो प्रकार के होते हैं-एक हठयोग और दूसरा राजयोग। अवश्य ही, हठयोग सबके लिए साध्य नहीं-दुःसाध्य है; किन्तु राजयोग सर्वसाधारण के लिए सरल है और सुसाध्य है। इसके सभी समान अधिकारी हैं, चाहे वे गृहस्थ हों वा विरक्त।
आप जानते हैं, भगवान श्रीकृष्ण ने पार्थ अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश दिया, जिसमें अठारह अध्याय हैं और वे अष्टादश योग के नाम से अभिहित किये गये हैं। भगवान श्रीकृष्ण ‘महायोगेश्वरो हरिः’ थे और सद्गृहस्थ थे तथा अर्जुन भी गृहस्थ थे, न कि गृहत्यागी संन्यासी। गीता के छठे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने ध्यानयोग का उपदेश अर्जुन को दिया है-
समं काय शिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।
अर्थात् शरीर, गर्दन और मस्तक को सम करके अचल और स्थिर होवे। पश्चात् किसी दिशा का अवलोकन नहीं करके नासिका के आगे देखे।
गीता में प्रयुक्त नासाग्र, नासिकाग्र, भ्रुवोर्मध्य, भृकुटी के बीच प्रभृति शब्दों के संबंध में विभिन्न प्रकार के भ्रामक विचार फैले हुए हैं। कोई नासिका के ऊपर भाग का संकेत करते हैं, तो कोई नीचे की ओर इंगित करते हैं और कोई दोनों भौओं के बीच का स्थान बताते हैं; किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि ये सभी भूलभुलैया में भूले हुए हैं। कारण? विवेकीजन विचार सकते हैं कि जब भगवान का वचन है कि ‘दिशश्चानवलोकयन्’ अर्थात् दिशाओं को नहीं देखते हुए ‘सम्प्रेक्ष्यनासिकाग्रं’ नासिका के आगे अवलोकन करे, तब क्या होगा? दिशाओं को नहीं देखने के लिए आँखों को बंद करना होगा अथवा आँख खुली रहेगी? उन्मीलित नेत्र में दिशा अवश्य देखी जाएगी। अतएव निमीलित नेत्र का आदेश भगवान का है-यह सरलतापूर्वक समझा जाता है। दूसरी बात ज्ञातव्य यह है कि दिशाएँ दश हैं-उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम; वायव्य, ईशान, नैऋर्त्य और अग्नि; अधः और ऊर्ध्व। नेत्र बंद करने पर यद्यपि स्वतः आठ दिशाएँ छूट जाती हैं, तथापि अधः और ऊर्ध्व अर्थात् ऊपर और नीचे-ये दो दिशाएँ तो रह जाती हैं। अतएव यह ध्रुव निश्चित है कि चक्षु बंद करने के पश्चात् भी यदि नासिका के ऊपर अथवा नीचे किसी भी भाग पर देखा जाएगा, तो दिशा रहेगी ही और भगवान का कथन है कि दिशाओं को नहीं देखते हुए नासाग्र में देखो। इसमें एक और भी रहस्यमयी बात है कि मूल श्लोक में ‘भाग’ शब्द नहीं आया है। अतः अर्थ में ‘भाग’ शब्द को जोड़ना गीता-ज्ञान से अपनी अनभिज्ञता का परिचय देने के सिवा और क्या कहा जा सकता है? इसकी जानकारी किसी क्रियावान् शुद्धाचारी संत सद्गुरु से हो सकती है, मात्र पाण्डित्य से नहीं। इसी नासिकाग्र-ध्यान के संबंध में भक्तप्रवर सूरदासजी महाराज कहते हैं-
नयन नासिका अग्र है, तहाँ ब्रह्म को वास।
अविनासी विनसै नहीं, हो सहज जोति परकास।।
और बाबा धरनीदासजी महाराज कहते हैं-
धारनी निर्मल नासिका, निरखो नैन के कोर ।
सहजै चन्दा ऊगिहैं, भवन होइ उजियोर ।।
गीता के इसी छठे अध्याय के चौवालीसवें श्लोक में भगवान ने शब्द-ब्रह्म की भी चर्चा की है; यथा-‘जिज्ञासुरपि योगस्य शब्द ब्रह्माति वर्तते।’ योगशिखोपनिषद् में शब्दब्रह्म की परिभाषा इस भाँति है-अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते।’ अर्थात् अनाशी परम नाद को शब्दब्रह्म कहते हैं। नासिकाग्र-ध्यान की क्रिया को दृष्टि-योग और शब्द की उपासना को सुरत-शब्द-योग कहते हैं; किन्तु ये उभय परवर्ती योग हैं, इसकी पूर्ववर्ती क्रिया को मानस-योग कहते हैं।
इस प्रकार मानस-योग (मानस जप, मानस ध्यान), दृष्टियोग (शाम्भवी मुद्रा, वैष्णवी मुद्रा) और सुरत-शब्द-योग (नादानुसंधान)। श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण का अमोघ वाक्य है-
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रयते महतो भयात्।।
अर्थात्-इस योग के आरम्भ का नाश नहीं होता, उलटा परिणाम नहीं मिलता, धर्म का थोड़ा-सा अभ्यास भी महाभय से बचाता है। इस सरल योग- साधना की दीक्षा सद्गुरु से प्राप्त करनी चाहिए और नित्य-नियमित रूप से अभ्यास कर अपने जीवन को कल्याणमय बनाना चाहिए।
दिनांक-03-03-1970 ई0, प्रातःकाल, दिल्ली
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आदरणीय गुरुजन, पुरजन, सज्जन, भ्रातृगण तथा भगिनीगण!
आपलोगों को समझाने के उद्देश्य से मैं यहाँ नहीं बैठा हूँ। मैंने सत्संग में क्या समझा, वही कहूँगा। अगर आपको मेरे कथन में सार जँचे, तो उसे ग्रहण करें, अन्यथा जिस ज्ञान को आप ग्रहण किये हैं, उसी पर प्रतिष्ठित रहें।
भक्त की भावना होती है ईश्वर-दर्शन की। वह चाहता है कि कब ईश्वर का साक्षात्कार हो। भक्त के मन में विह्वलता, आतुरता, व्याकुलता होती है। उसके लिए वह सब कुछ न्योछावर करने को तैयार रहता है। संतों ने अपनी वाणी में कहीं-कहीं जीव और पीव में पति-पत्नी का भाव भी दिखाया है अर्थात् जीवात्मा को पत्नी और परमात्मा को पति भाव में वर्णित किया है। सूफी मत में इससे थोड़ा भिन्न ही माना है। अर्थात् उसमें जीवात्मा को पति के रूप में और परमात्मा को पत्नी का रूप माना है। संत कबीर साहब पति-पत्नी के भाव में एक पद्य कहते हैं-
घूँघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे।
घट घट में वह साईं रमता, कटुक वचन मत बोल रे।।
धन यौवन का गर्व न कीजै, झूठा पँच रंग चोल रे।
शून्य महल में दियना बारि ले, आसा से मत डोल रे।।
जोग जुगत सों रंग महल में, पिय पायो अनमोल रे।
कहै कबीर आनन्द भयो है, बाजत अनहद ढोल रे।।
हमारे देश की माताएँ घूँघट से अपने चेहरे को ढँकती हैं। घूँघट के कारण वह पति का दर्शन नहीं कर पाती हैं।
जीवात्मा-रूपी पत्नी के ऊपर शरीर का घूँघट लगा हुआ है। इसीलिए वह परमात्मा का दर्शन नहीं कर पाता है। श्रीरामचरितमानस में गो0 तुलसीदासजी ने इसका एक सुन्दर रूपक खींचा है-
आगे राम लखन पुनि पाछे । मुनिवर भेष मनोहर काछे ।।
उभय बीच सिय सोहित कैसे । जीव ब्रह्म बीच माया जैसे ।।
इस चौपाई में लक्ष्मणजी को जीव-रूप में, भगवान राम को पीव-रूप में, सीता माता को माया के रूप में चित्रित किया है। लक्ष्मण-रूप जीवात्मा के आगे से सीता-रूपी माया का आवरण हट जाए, तो उसे राम-रूप परमात्मा का दर्शन हो जाय। यह मायिक जड़ आवरण चार रूपों में है और वे हैं-स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण। इन्हीं आवरणों को गो0 तुलसीदासजी महाराज ने विविध यवनिका कहकर वर्णित किया है; यथा-
माया बस मतिमन्द अभागी।
हृदय यवनिका बहु विधि लागी।।
गो0 तुलसीदासजी कहते हैं कि जीव के ऊपर बहुत तरह के परदे पड़े हुए हैं। उन आवरणों का स्पष्टीकरण संत दादू दयालजी महाराज ने बहुत अच्छे ढंग से किया है। उन्होंने चार जड़ावरणों के साथ एक चेतन चोला भी जोड़ दिया है, जिससे पाँच आवरण हो जाते हैं। ये पाँच आवरण पाँच शरीर हैं-स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य।
नीके राम कहतु है बपुरा।
घर माहैं घर निर्मल राखे, पंचौं धोवै काया कपरा।।
संत दादू दयालजी महाराज कहते हैं-हे लोगो! राम-राम कहते हो, बहुत अच्छा करते हो; लेकिन राम-राम कहने की कला जानो और वह कला है-घर में घर को पवित्र रखो, काया-शरीर-रूप पाँचो कपड़ों को धो डालो। एक बड़ी अच्छी मधुर कथा है-एक साधु थे। वे भिक्षाटन किया करते थे। मुँह से टेर लगाते थे-‘राम-राम करै, भव सागर तरै।’ यह आवाज एक सुग्गे ने सुनी, जो एक सद्गृहस्थ के दरवाजे पर लोहे के पिंजड़े में बंद था। उस सुग्गे ने महात्माजी से कहा-‘महाराज! आप क्या बोल रहे हैं?’ साधुजी ने कहा-‘राम-राम करै, भव सागर तरै।’ तोते ने कहा-‘आपकी बात सही नहीं है। सही तो यही है कि ‘राम-राम करै, लौह पिंजर पड़े। देखिये न! मैं राम-राम करता हूँ, तो लोहे के पिंजड़े में पड़ा हूँ और जो सुग्गा राम-राम नहीं करता है, वह स्वतंत्र होकर विचरण करता है।’ साधु ने कहा-‘नहीं जी! जुगती करै, तो सहजै तरै। तुम राम-राम तो कहते हो; किन्तु बिना युक्ति के कहते हो। इसलिए राम-राम कहने का ढंग जानो।’ सुग्गे ने कहा-‘महाराज! कृपा करके मुझे आप वह युक्ति बताएँ, जिससे मैं लौह-पिंजर के बंधन से छूट सकूँ।’ महात्माजी ने प्राण-स्पन्दन-निरोध की युक्ति बता दी और कहा-देखो! जब तुम्हारा प्राण दीर्घकाल तक रुकने लगे, तब तुम मालिक के सामने भी वैसा ही करना। मालिक तुम्हें मरा हुआ समझकर बाहर फेंक देंगे और तुम उड़ जाना। सुग्गे ने महात्माजी की बताई हुई युक्ति से आरम्भ किया। जब वह उसमें निष्णात हो गया, तब एक दिन उसने मालिक के आने पर अपने को मृतकवत् बना लिया। मालिक ने समझा, सुग्गा मर चुका है। इसलिए उसे पिंजड़े से बाहर फेंक दिया। सुग्गा उड़कर भाग गया। गुरु गोरखनाथजी ने कहा है-
सप्त धातु का काया प्यंजरा, ता माहिं जुगति बिन सूवा।
सतगुरु मिलै तो ऊबरै बाबू, नहीं तो परलै हूआ।।
संत दादू दयालजी महाराज ने कहा है-एक ही शरीर नहीं है। जीवात्मा पाँच शरीरों में बँधा हुआ है। संत राधास्वामीजी महाराज ने इन शरीरों के अतिरिक्त और भी बंधन गिनाये हैं-
बँधो तुम गाढ़े बन्धान आन।।
पहला बन्धान पड़ा देह का, दूसर तिरिया जान।
तीजा बन्धान पुत्र विचारो, चौथा नाती मान।।
नाती के कहीं नाती हो गये, तब कहो कौन ठिकान।
धन सम्पत और हाट हवेली, यह बन्धान क्या करूँ बखान।।
चौलड़ पँचलड़ सतलड़ रसरी, बाँधा लियो तोहि बहु विधि तान।
कैसे छूटन होय तुम्हारा, क्या कहूँ अजब सुजान।।
पुरुष-पुरुष में वार्तालाप होने के कारण राधा स्वामी साहब ने ‘दूजा बन्धन तिरिया जान’ कहा; किन्तु कहीं मीराबाई और सहजोबाई यानी भक्तिन- भक्तिन में इसकी चर्चा हुई होती, तो वे स्पष्ट कहतीं- ‘पहला बन्धन पड़ा देह का, दूसरा बन्धन पुरुषा जान।’ वस्तुतः जिस भाँति पुरुष के लिए स्त्री बन्धन है, वैसे ही स्त्री के लिए पुरुष भी बंधन है। संत पलटू साहब कहते हैं-
यार फ़कीर तू पड़ा किस ख्याल में, पाँच पचीस संग तीस नारी।
एक तू छोड़िया तीस तेरे संग में, होय अस ज्ञान से नर्क भारी।।
तीस के कारने भीख तू माँगता, एक ने कवन तकसीर पारी।
दास पलटू कहै खेल यह ना बदो, जब छूटै तीस तब छोड़ प्यारी।।
तीस को छोड़ो तो एक स्वयं छूट जाएगी। स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण आदि का आवरण जीव पर उसी तरह है, जिस तरह केले के वृक्ष में होता है। केला बाहर से देखने में एक ही मालूम पड़ता है; लेकिन जब उसके तने पर से परत उघारी जाती है, तो कई एक परतें निकालने पर तब केले का मध्य स्तम्भ निकलता है, जिसमें फल लगता है। यथार्थ तो यह है कि बन्धन और मोक्ष उभय का कारण अपना मन ही है-‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धामोक्षयो।’
आवरण से मुक्त होने के लिए ध्यान-साधना की सरल क्रिया संत सद्गुरु से जानना अत्यंत अपेक्षित है। संत कबीर साहब ने अपनी वाणी में घूँघट-पट यानी आवरण हटाने के लिए शून्य महल में दियना जलाने की आज्ञा दी है। यह वही बात है कि जो भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीउद्धवजी से श्रीमद्भागवत के द्वादश स्कन्ध में कही है। श्रीउद्धवजी ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा है-
यथा त्वामरविन्दाक्ष यादृशं वा यदात्मकम्।
धयायेन्मुमुक्षुरेतन्ये धयानं त्वं वक्तुमर्हसि।।
हे कमलनयन! अब आप मुझे यह बतलाइये कि मुमुक्षु पुरुष को आपका ध्यान किस प्रकार, किस रूप में और किस भाव से करना चाहिए।
सम आसन आसीनः समकायो यथासुखम्।
हस्तावुत्संग आधाय स्वनासाग्र कृतेक्षणः।।
श्रीभगवान बोले-हे उद्धव! सुखपूर्वक सम आसन से शरीर को सीधा रखकर बैठे। हाथों को तर-ऊपर गोद में रखे और दृष्टि को नासिका के अग्र भाग में स्थिर करे।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाऽऽकृष्य तन्मनः।
बुद्ध्या सारिथना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः।।
बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से खींचकर उस मन को बुद्धिरूपी सारथी की सहायता से सर्वांगयुक्त मुझमें ही लगा दे।
तत् सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैक्ष= धारयेत्।
नान्यानि चिन्तयेद् भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम्।।
सब ओर से फैले हुए चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थिर करें और फिर अन्य अंगों का चिन्तन न करता हुआ केवल मेरे मुस्कान-युक्त मुख का ही ध्यान करे।
त= लब्धापदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत्।
तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।।
मुखारविन्द में चित्त के स्थिर हो जाने पर उसे वहाँ से हटाकर आकाश में स्थिर करें, तदनन्तर उसको भी त्यागकर मेरे शुद्ध स्वरूप में आरूढ़ हो कुछ भी चिन्तन न करे।
संत कबीर साहब ने ‘दियना जलाने’ अर्थात् प्रकाश पाने के पश्चात् अनहद ढोल की भी चर्चा की है। ये प्रकाश और शब्द सर्वेश्वर के दोनों हाथों के तुल्य हैं, जिनके सहारे साधक सर्वेश्वर की गोद में पहुँचता है। जैसे पिता अपने पुत्र को दोनों हाथों से अपनी गोद में उठा ले, वैसे ही परमात्मा अन्तर्ज्योति और अन्तर्नाद का अवलम्ब देकर साधक को अपने में मिला लेता है।
ध्यान-साधना-द्वारा विषय से निर्विषय की ओर गमन होगा। निर्विषय तत्त्व परमात्मा है, जिसकी प्रत्यक्षता में सभी विषय छूटते हैं-बन्धन टूटते हैं तथा आवरण फूटते हैं। प्रथम स्थूल सगुण रूप उपासना, फिर सूक्ष्म सगुण रूप उपासना, पश्चात् अरूप सगुण उपासना और अंत में निर्गुण निराकार की उपासना होती है। उपासना की यहाँ समाप्ति है और काम भी समाप्त है। ,
दिनांक-03-03-1970 ई0, रात्रिकाल, दिल्ली

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परम प्रभु परमात्मा स्वरूपतः अनंत है। उनके नाम और गुण अनंत हैं। उनके अनेक नामों में ॐ सर्वादि नाम है। परम प्रभु वदन-विहीन होने के कारण वचनहीन है अवश्य; फिर भी यदि कहा जाए कि उनकी एक वाणी है और वह ‘ॐ’ है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि सृष्टि के शुभारंभ में सर्वेश्वर से अत्याश्चर्यजनक अलौकिक एक ध्वन्यात्मक ध्वनि प्रस्फुटित हुई, जिसको ऋषियों ने विशेष कारणों से ‘ॐ’ में आरोपित किया।
इस नाम को अत्यन्त पावन मानकर इतना गोपित रखा गया है कि इसके वाचक वर्णात्मक नाम को भी िद्वजातियों के अतिरिक्त अन्य किन्हीं को जपने का अधिकार नहीं था। यहाँ तक कि उन द्विजातियों की स्त्री-जाति पर भी यह संविधान लागू था। यद्यपि प्रकृत ‘ॐ’ वाणी का विषय नहीं होने के कारण किन्हीं के भी जपयोग के योग्य कदापि हो नहीं सकता, फिर भी उस अनिर्वचनीय प्रकृत ‘ॐ’ के वर्णात्मक वाचक ‘ॐ’ के जप से इतर जन की वैचारिक संकीर्णता के कारण वंचित रखा गया था। वस्तुतः एक जमाना था, जबकि ‘स्त्रीशूद्र द्विज बन्धूनां त्रयी न श्रुति गोचराः’ की ध्वनि चतुर्दिक मुखरित थी।
विश्व उपकारहित व्यग्रचित्त संत ने विश्व के व्यथित मानव की मूक वाणी सुनी और अन्यों के संकीर्ण हृदय की शृंखला को निःशेष कर सबको समान रूप से ‘ॐ’ के वर्णात्मक नाम का जप और उसकी ध्वन्यात्मक स्वरूप के ध्यान की स्वतंत्रता प्रदान की। यथा गुरु नानकदेवजी ने ‘1ॐ सतनाम---’ का मंत्र दिया और उदारतापूर्वक आदेश दिया।
चहुँ बरना को दे उपदेश।
तिसु पंडित को सदा अदेश ।।
तथा,
जाति पाँति पूछै नहिं कोई।
हरि को भजै सो हरि का होई।।
संतों ने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की, ‘मानव मात्र सर्वेश्वर की संतान होने के नाते ईश-भजन के सभी अधिकारी हैं और उनके पावन नाम के सभी पूजारी समान हैं।’ ये तो भक्त के जोश भरे वाक्य आपने सुना, अब भगवान के उद्घोष सुनें-
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ।।32।।
अर्थात् हे पार्थ! मेरा आश्रय करके स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र अथवा अन्त्यज आदि जो पाप योनि हों, वे भी परम गति पाते हैं।
जहाँ भक्त और भगवान के वचन में ऐक्य है अर्थात् जहाँ संत और भगवन्त के वाक्य में पार्थक्य नहीं, वहाँ उभय भगवान के ज्ञान में कोई असमंजस नहीं, सामंजस्य ही सामंजस्य है। अतएव जहाँ मुरली- धर श्याम की वाणी आपने सुनी, वहाँ धनुर्धर राम की वाणी भी सुनें। रामचरितमानस के अरण्यकांड में परम भक्तिन शबरी (श्रमणी) से वे क्या कहते हैं?
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता।
मानउँ एक भगति कर नाता।।
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई।
धन बल परिजन गुन चतुराई।
भगति हीन नर सोहइ कैसा।
बिनु जल वारिद देखिय जैसा।।
तथा,
भगति वन्त अति नीचहु प्रानी।
मोहि प्रान प्रिय असि मम बानी।।
‘भगति हीन विरंचि किन होई।’
पुरुष नपुंसक नारि वा, जीव चराचर कोइ।
सर्व भाव भज कपट तजि, मोहि परम प्रिय सोइ।।
यथार्थ बात तो यह है कि ‘जिसकी बुद्धि सम हो जावे, वही श्रेष्ठ है; फिर चाहे वह सुनार हो, बढ़ई हो, बनिया हो या कसाई; किसी मनुष्य की योग्यता उसके धंधे पर, व्यवसाय पर, जाति पर अवलंबित नहीं; किन्तु सर्वथा उसके अंतःकरण की शुद्धता पर अवलंबित होती है और यही भगवान का अभिप्राय भी है। (गीता-रहस्य, भक्तिमार्ग)
भगवान की दृष्टि में स्त्री हो वा पुरुष, वैश्य हो या वेश्या, ब्राह्मण हो वा शूद्र, भक्त होने के नाते सभी समान हैं। साधु तुकाराम जी के विचार कितने स्पष्ट निखरे हैं। निम्नलिखित वाणी से समझिए-
क्या द्विजाति क्या शूद्र ईश को
वेश्या भी भज सकती है।
श्वपचों को भी भक्ति भाव में,
शुचिता कब तज सकती है।
अनुभव से कहता हूँ मैंने, उसे कर लिया है वश में।
जो चाहे सो पिये प्रेम से, अमृत भरा है इस रस में।।
उक्त पद में ‘वेश्या’ शब्द (जो साधु तुकाराम के इस वचन के आधार से रखा गया है) को देखकर पवित्रता का ढोंग करनेवाले बहुतेरे विद्वानों को निश्चित बुरा लगे; परन्तु सच तो यह है कि ऐसे लोगों को सच्चा धर्म तत्त्व मालूम ही नहीं। न विश्व-हिन्दूधर्म में, किन्तु बुद्ध धर्म में भी यही सिद्धांत स्वीकार किया गया है। (मिलिन्द, प्रश्न 3-7-2) उनके धर्मग्रंथों में ऐसी कथाएँ हैं कि बुद्ध ने आम्रपाली नामक किसी वेश्या को और अंगुलिमाल नामक डाकू को दीक्षा दी थी। ईसाइयों के धर्मग्रंथ में भी यह वर्णन है कि क्राइस्ट के साथ जो दो चोर शूली पर लटकाये गये थे, उनमें से एक चोर मृत्यु के समय क्राइस्ट की शरण में गया और क्राइस्ट ने उसे सद्गति दी। (ल्यूक 23, 42, और 43) स्वयं क्राइस्ट ने भी एक स्थान में कहा है कि हमारे धर्म में श्रद्धा रखनेवाली वेश्याएँ भी मुक्त हो जाती हैं। (मेथ्यू 21, 31; ल्यूक 7-50)
संत और भगवन्त की परंपरा में सदा से यही परिपाटी चली आ रही है कि पतितों को पावन करना उनका विरद है। ‘तुम्हारो विरद गुरु हैं पतितन को तारन।’ और इस पावन विरद के रक्षार्थ स्वयं महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने भी कई वर्ष पूर्व एक वेश्या को दीक्षा देकर उसका उद्धार किया।
इस प्रकार ऐतिहासिक और पौराणिक कथाएँ यह प्रमाणित करती हैं कि भागवत धर्म में-भगवदीय स्थिति में जाति-पाँति की उच्चता वा निम्नता पर भक्ति आधारित नहीं। ‘भक्ति’ गणिका जैसी पतिता को पावन करती है और रत्नाकर जैसे घोर दुराचारी को भी सदाचारी बना ब्रह्मवत् बना देती है। कहा नहीं जाता-यह भक्ति की महिमा वा भक्त अथवा भगवन्त की? महायोगेश्वरो हरिः भगवान श्रीकृष्ण के आदेशा- नुसार काशी के वाल्मीकि नामक श्वपच का पूजन राजा युधिष्ठिर करते हैं, अपने निवास-निकेत में यज्ञ- पूर्णता के हेतु। कहना नहीं होगा, भक्त प्रवर श्वपच ने महाराजा युधिष्ठिर की प्रतिष्ठा-पानी रख ली, अन्यथा यज्ञ की अपूर्णता के कारण वे बेपानी हो गये होते।
स्वयं भगवान श्रीकृष्ण महाराजा दुर्योधन का आतिथ्य स्वीकार नहीं कर शूद्राणी विदुरानी के निकेतन अनामंत्रित मेहमान बनते हैं। त्रेता युग में भगवान श्रीराम ने अन्त्यज शबरी के गृह खान-पान कर भक्ति की आन और भक्तिन की शान रखी। भला, ऐसा क्यों न हो, मर्यादा पुरुषोत्तम ही तो थे; फिर उनके समक्ष मर्यादा-उल्लंघन का प्रश्न ही कहाँ उठता? इसी को लक्ष्य कर संत पलटू साहब ने कहा है-
साहिब के दरबार में, केवल भत्तिफ़ पियार ।।
केवल भत्तिफ़ पियार, साहिब भत्तफ़ी में राजी ।
तजा सकल पकवान, लिया दासीसुत भाजी ।।
जप तप नेम अचार, करे बहुतेरा कोई ।
खाये सबरी के बेर, मुए सब रिषि मुनि रोई ।।
किया युधिष्ठिर यज्ञ, बटोरा सकल समाजा ।
मरदा सबका मान, श्वपच बिन घंट न बाजा ।।
पलटू ऊँची जाति का, जनि कोइ करै हंकार ।
साहिब के दरबार में, केवल भत्तिफ़ पियार ।।
निम्न कुलो७व कबीर साहब, रविदासजी, दादू दयालजी भक्ति की भागीरथी में अवगाहन कर स्वयं निर्मल संत हुए और अनन्त जीवों को निर्मल बना अनंतस्वरूपी के मार्ग-दर्शन दिये। यह क्या है? भक्ति की ही तो महिमा है। दासीसुत का देवर्षि होना, घट योनि का श्रेष्ठ मुनि होना और वाल्मीकि का ब्रह्म होना, भ्रम नहीं सत्य है। और सत्य का साक्षात्कार करा देना भक्ति का चमत्कार है।
इस दृष्टि से ऐसा प्रतीत होता है कि अध्यात्म शास्त्र को यह सिद्धांत निर्विवाद स्वीकृत है कि कोई बड़ा दुराचारी ही क्यों न हो, यदि वह अनन्य भाव से भगवद्भजन करता है, तो उसे बड़ा साधु ही समझना चाहिए; क्योंकि उसकी बुद्धि का निश्चय अच्छा रहता है। वह जल्दी धर्मात्मा हो जाता है और नित्य शान्ति पाता है। भगवान श्रीकृष्ण का यह महावाक्य है-हे अर्जुन! तू खूब समझे रह कि मेरा भक्त कभी भी नष्ट नहीं होता। गीता अध्याय 9 में है-
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।।30।।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्भच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ।।31।।
तीसवें श्लोक का भावार्थ ऐसा न समझना चाहिए कि भगवद्भक्त यदि दुराचारी हों, तो भी वे भगवत् के प्यारे ही रहते हैं। भगवान इतना ही कहते हैं कि पहले कोई मनुष्य दुराचारी भी रहा हो; परन्तु जब एक बार उसकी बुद्धि का निश्चय परमेश्वर का भजन करने में हो जाता है, तब उसके हाथ से फिर कोई भी दुष्कर्म नहीं हो सकता। और वह धीरे-धीरे धर्मात्मा होकर सिद्धि पाता है तथा इसी सिद्धि से उसके पाप का बिल्कुल नाश हो जाता है। (लो-मा-तिलक) भक्ति बीज अर्थात् योगारम्भ-रूप संस्कार की अविनश्वरता के संबंध में पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के विचार ये हैं- “ योगारम्भ रूप संस्कार जबसे अभ्यासी के अंदर बीज रूप में पड़ जाता है, तबसे वह उसके साथ तबतक वर्तमान रहता है, जबतक अभ्यासी को मोक्ष और परम शान्ति न मिल जाए।” संत कबीर साहब ने भी कहा है-
भक्ति बीज बिनसै नहीं, जो जुग जाय अनन्त ।
ऊँच नीच घर जन्म ले, तऊ संत को सन्त ।।
भक्ति बीज पलटै नहीं, आय पड़ै जो चोल ।
कंचन जौं बिष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।
और श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण की यह अमरवाणी है-
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रयते महतो भयात् ।।40।।
अर्थात् इस योग मार्ग में (एकबार) आंरभ किये हुए कर्म का नाश नहीं होता और (आगे) विघ्न भी नहीं होते। इस धर्म का थोड़ा-सा भी आचरण बड़े महाभय से संरक्षण करता है।
तात्पर्य यह कि ‘आत्मा अमर होने के कारण इसपर लिंग शरीर द्वारा इस जन्म में जो थोड़े-बहुत संस्कार होते हैं, वे आगे भी ज्यों के त्यों बने रहते हैं। तबतक यह ‘योगभ्रष्ट पुरुष अर्थात् कर्मयोग को पूरा न करने के कारण उससे भ्रष्ट होनेवाला पुरुष अगले जन्म में अपना प्रयत्न वहीं से शुरू करता है, जहाँ से उसका अभ्यास छूट गया था और ऐसा होते-होते ‘अनेक जन्म संसिद्धस्ततो याति परां गतिम्’ (गी0 6/45)-अनेक जन्मों में पूर्ण सिद्धि हो जाते हैं एवं अंत में उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इस सिद्धांत को लक्ष्य करके दूसरे अध्याय में कहा गया है कि ‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रयते महतो भयात्’ इस धर्म का स्वल्प आचरण भी बड़े-बड़े कष्टों से बचा देता है। जितना आज हो सके, उतने ही योगबल को प्राप्त करके योग का आचरण शुरू कर देना चाहिए। इससे धीरे-धीरे बुद्धि अधिकाधिक सात्त्विक तथा शुद्ध होती जाएगी और योग का यह स्वल्पाचरण ही जिज्ञासा तक रहँट में लगे हुए मनुष्य की तरह आगे ढकेलते-ढकेलते अंत में आज नहीं तो कल, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में उसकी आत्मा को पूर्ण ब्रह्म प्राप्ति करा देगा। इसीलिए भगवान ने गीता में साफ कहा है कि योग में एक विशेष गुण यह है कि उसका स्वल्प आचरण कभी व्यर्थ नहीं जाने पाता।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान् मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सु दुर्लभः।।
जब कोई मनुष्य एक बार भक्तिमार्ग से चलने लगता है, तब इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में, अगले जन्म में नहीं तो उसके आगे जन्म में, कभी-न- कभी उसको परमेश्वर के स्वरूप का ऐसा यथार्थ ज्ञान हो जाता है कि ‘यह सब वासुदेवात्मक ही है’ इस ज्ञान से अंत में उसे मुक्ति भी मिल जाती है।
(शान्ति-सन्देश, अप्रैल, 1970 ई0)

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यह घटना पटना की नहीं, पूर्णियाँ की है। पूर्णियाँ की भी पुरानी नहीं, बिल्कुल नई है। तीन मई का दिन था। सन् उन्नीस सौ उनहत्तर नहीं, सत्तर ईसवी थी। रविवार के प्रातः रवि के उदय का काल था। स्थानीय संतमत-सत्संग मंदिर में सुजन समाज के साथ एक योगिराज विराज रहे थे। प्रशान्त महासागर की भाँति शांत, किन्तु प्रसन्न मुद्रा में। उनकी दिव्य- मूर्त्ति, चौड़े ललाट, उन्नत भाल, रेशम के-से मश्न, मुलायम एवं धवल लम्बे बाल, गौरवर्ण तन पर गैरिक वस्त्र लाल प्रभृति प्राचीन काल के ऋषि की स्मृति दिला रहे थे।
उन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के वर्तमान आचार्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के समक्ष बिहार राज्य के मुख्य आमात्यऽ (माननीय श्रीदारोगा प्रसाद रायजी महोदय) अपनी भद्र जमात के साथ अध्यात्म-प्रीति-प्रतीति से प्रेरित हो वहाँ उपनीत हुए और विनम्र अभिवादन कर एक ओर बैठ गए।
वह अरुणोदय काल प्रार्थना-सभा के शुभारम्भ का था। सत्संग-प्रेमीजन कुछ आ चुके थे और अन्य आ रहे थे। उस प्रातः वेला में प्रातःस्मरणीय पूज्य आचार्य गुरुदेव के सहित सबने सामूहिक ईशादिक स्तुति की। तत्पश्चात् ऋषिजी महाराज का प्रवचन हुआ। जिसका सार था-‘ईश्वर एक है। वह स्वरूपतः अनन्त है। अगोचर है अर्थात् इन्द्रियातीत है। इन्द्रिय ज्ञान में रहनेवाला उसके स्वरूप-ज्ञान से सदा अनजान रहता है। शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण से ऊपर उठकर जड़विहीन होकर-अकेली रहकर चेतन आत्मा उस एक को पा सकती है। तात्पर्य यह कि निजस्वरूप में स्थित होने पर ही परमात्मस्वरूप का प्रत्यक्षीकरण होगा। सापेक्ष पद के परे होने पर ही अपरोक्ष ज्ञान होगा, अन्यथा नहीं। इसके लिए साधक का संयममय पवित्र जीवन का होना अपरिहार्य है।’
अंत में, बाल सूर्य के उदय काल के बाद संत शिशु-सूर्य ने उन बाबू की ओर इंगित करते हुए परम पूज्य परमहंसजी से पाणिबद्ध प्रार्थना कर निवेदन किया-महाराज! इनका कथन है कि ‘मनोविकार का दमन होता है, शमन नहीं। अवश्य ही साधना के माध्यम से कोई साधक अपने विकारों को अधिक मात्र में दमन कर पाते हैं और कोई कम मात्र में, किन्तु उसका समूल नष्ट नहीं किया जा सकता, वस्तुतः नाश होता नहीं।’ यदि इस पर कुछ प्रकाश डाला जाता तो महती कृपा होती।
परमपूज्य महर्षिजी ने कहा-‘वेदान्त शास्त्र में श्रवणादिक चार प्रकार के ज्ञान का वर्णन है। यावत्पर्यन्त साधक श्रवण और मनन ज्ञान में रहता है, तावत्पर्यन्त वह विकारों को विचारों-द्वारा दमन करता है और जब निदिध्यासन-द्वारा मनोलय की अवस्था प्राप्त कर पाता है, तब वह विकार का शिकार नहीं होता। क्योंकि मन के कारण ही विकार उत्पन्न होते हैं और जब मन की स्थिति ही नहीं, तब फिर उसके विकार का प्रश्न ही कहाँ रह जाता है? अर्थात् मन के विलय में विकारों का क्षय होता है।’
पुनः बिहार के उन परम पूज्य परमहंसजी ने बंगाल के प्रसिद्ध परमहंसजी की चर्चा करते हुए कहा कि उनके पास भी एक सज्जन ने ऐसी ही शंका की थी कि ‘महात्मन्! साधु-महात्माओं में भी यदा-कदा मनोविकार के दर्शन होते हैं।’ इसके उत्तर में श्रीपरमहंसदेवजी ने कहा था-‘रस्सी से गठरी बाँधते हो, किन्तु जब वह रस्सी जल जाती है, तब फिर उससे गठरी नहीं बँध सकती। यद्यपि देखने में वह पूर्ववत् रस्सी-जैसी ही लगती है, तथापि उसका स्पर्श करके देखो, उसमें कोई जान नहीं रह जाती। इसी तरह साधु-महात्माओं में क्रोधादिक विकार देखे जाते हैं, किन्तु वह बन्धन कारक नहीं होता।’
वस्तुतः अन्तरसाधना करते-करते विषयानु- रक्ति छूटती है। विषयों से विरक्ति होने पर इन्द्रियों में वह शक्ति नहीं रह जाती, जिससे वह साधक को आपत्ति में डाल सके। वरं साधक साधना करके ब्रह्मानन्द की अनुभूति करता है।
भजन में होत आनन्द आनन्द ।
वरसत विशद अमी के बादर, भींजत हैं कोइ संत ।।
अगर वास जहँ तत की नदिया, मानो धारा गंग ।
कर स्नान मगन होइ बैठो, चढ़त शब्द को रंग ।।
(कबीर साहब)
उस ब्रह्मरस प्राप्त साधक के लिए विषय-रस विष-रस-सम हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदासजी इसके साक्षी हैं। वे कहते हैं-
ब्रह्मपियूष मधुर शीतल जो पै मन सो रस पावै ।
तौ कत मृग जल-रूप विषय कारण निशिवासर धावै ।।
संत चरणदासजी अन्यों का साक्ष्य देना पसन्द नहीं करते और न कोरी कल्पना की बातें करते, बल्कि वे अपने साधनानुभव की बातों को दृढ़तापूर्वक कहते हैं-
जबसे अनहद घोर सुनी ।
इन्द्रिय थकित गलित मन हूआ, आशा सकल भुनी ।।
घूमत नैन शिथिल भइ काया, अमल जो सुरत सनी ।
रोम-रोम आनन्द उपज करि, आलस सहज भनी ।।
मतवारे ज्यों शब्द समाये, अंतर भींज कनी ।
करम भरम के बन्धन छूटे, दूविधा विपति हनी ।।
आपा विसरि जक्त कूँ विसरो, कित रहि पाँच जनी ।
लोक भोग सुधि रही न कोई, भूले ज्ञानि गुनी ।।
हो तहँ लीन चरण ही दासा, कहैं शुकदेव मुनी ।
ऐसा धयान भाग सूँ पैये, चढ़ि रहै शिखर अनी ।।
अर्थात् आन्तरिक अनहद नाद-श्रवण करने पर इन्द्रियाँ थक गईं, मन गल गया और सकल आशाएँ जल गईं। अन्तर्दृष्टि होने पर निर्मल शब्द में सुरत सन गई और शरीर शिथिल पड़ गया। रोम-रोम से आनन्द की लहरियाँ उद्भूत होने लगीं और आलस्य सहज ही भस्मीभूत हो गया। अपनपौ की स्मृति मिटी, जागतिक विस्मृति हुई, फिर बेचारी पाँच जनी-(पंच ज्ञानेन्द्रियों) का क्या ठिकाना कि वे कहाँ रहीं? परिणाम-स्वरूप किसी भी भाँति की लौकिक भोग- वासना नहीं रह गई-समाप्त हो गई।
एक बंगदेशीय महात्मा की अनुभूति उपर्युक्त संत की वाणी से कितनी मिलती-जुलती और कितना साम्य है, अनुशीलन करके देखें।
आनन्दे आनन्द बाढ़े प्रतिक्षण,
दशेन्द्रिय थाके शून्ये ते बन्धान ।
रिपुचय पराजय सकलि आनन्दमय,
अनुभव मात्र रय, आर सब पाय लय,
जेमन जीवने जीवन थाके ना ।
अनुभव ज्ञान के उद्भव में यानी साधना की सुनिष्पन्न अवस्था में षट्रिपुओं की खटपट मिट जाती है। दुष्ट की दुष्टता शिष्टता में परिणत हो जाती है। परतत्त्व-दर्शन के पश्चात् परेशान करनेवाली कोई परिस्थिति रह नहीं जाती। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता अ0 2/59 में स्पष्ट कहा है-
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।।
अर्थात् निराहारी प्राणी के विषयों से हटाव होने पर भी उनका रस और चाह नहीं छूटती। ये तो परब्रह्म परमात्मा के दर्शन से ही छूटते हैं।
दूसरी बात यह है कि मन की उत्पत्ति का स्थान जड़ात्मिका मूल प्रकृति होने के कारण उसके आगे उसकी गति हो नहीं सकती। संत दरिया साहब (मारवाड़ी) ने बताया है कि मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों की दौड़ त्रिकुटी तक है।
मन बुधि चित हंकार की,है त्रिकुटी लग दौड़।
जन दरिया इनके परे, ब्रह्म सुरत की ठौर।।
मन बुधि चित्त हंकार ये, रहैं अपनी हद माहिँ ।
आगे पूरण ब्रह्म है, सो इनकी गम नाहिँ ।।
और संत तुलसी साहब (हाथरस) कहते हैं-
सहस कमल दल पार में, मन बुद्धि हेराना हो ।
प्राण पुरुष आगे चले, सोइ करत बखाना हो ।।
अतएव यह स्वयं सिद्ध है कि साधना के द्वारा साधक जब त्रिकुटी का अतिक्रमण कर जाता है, तब मन के विकार उसके बाधक नहीं हो सकते। क्योंकि जहाँ मन का अस्तित्व नहीं, वहाँ उसके विकार की चर्चा शशकशृंगवत् ही होगी।
संतों के विचार में त्रिकुटी ज्योतिःपुंज का स्थान है, जहाँ से मन आगे प्रस्थान नहीं कर सकता। वहाँ पहुँचने पर मन के समस्त विकार और सभी कुत्सित विचार स्वतः क्षार हो जाते हैं। जैसे सहस्त्रों मन ईंधन को अग्नि-कण क्षणभर में भस्मीभूत करता है, वैसे ही ब्रह्म-प्रकाश विकारों का नाश करता है। इस संबंध में गो0 तुलसीदासजी महाराज के विचार कितने स्पष्ट निखरे हैं, पठनीय हैं। रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में है-
जब तें राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतेन्ह मन सोका।।
जिन्हहिं सोक ते कहउँ बखानी। प्रथम अविद्या निसा नसानी।।
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोधा कैरव सकुचाने।।
विविधा कर्म गुण काल सुभाउ। ये चकोर सुख लहहिं न काउ।।
मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कबनिहुँ ओरा।।
धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना। ये पंकज बिकसे विधि नाना।।
सुख संतोष विराग विवेका। विगत सोक ये कोक अनेका।।
यह प्रताप रवि जाके , उर जब करइ प्रकास ।
पिछले बाढ़हिं प्रथम जे, कहे ते पावहिं नास ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी के उपर्युक्त विषय पर महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की टिप्पणी इस भाँति है- “ यह राम-प्रताप-रूप सूर्य त्रिकुटी महल में विराजित ओ3म् ब्रह्म का स्वरूप है। त्रिकुटी महल में विद्या सारा, घनहर गरजै बजै नगारा। लाल वरन सूरज उजियारा, चत्र कँवल मँझार सब्द ओंकारा’ है।।” (कबीर साहब)
भक्तियोग के सच्चे साधकों को अपने हृदय में यह तब दरसता है, जब वे रामचरितमानस में वर्णित नवधा भक्ति में छठी भक्ति का साधन पूर्णरूप से कर लेते हैं। यह सूर्य हिमकरयुक्त है। इसी (सूर्य) को रामचरितमानस के बालकाण्ड में ‘कृसानु-भानु- हिमकर’ कहा गया है। उपर्युक्त चौपाई में वर्णित अज्ञान, पाप, काम और क्रोधादिक ताप मनुष्य के हृदय को दग्ध करते हैं, परन्तु साधन में लवलीन भक्त अपने हृदय में त्रिकुटी महल पर चढ़कर ऊपर कथित सूर्य का दर्शन पाते हैं और इससे ऊपर वर्णित विकारों का ताप उनके हृदय से दूर हो जाता है। फलस्वरूप हृदय शीतल एवं शान्त हो जाता है और उसमें ज्ञान, विज्ञान, सुख, संतोष, विराग और विवेक बढ़ जाता है।
जैसे उल्लू पक्षी को आकाश में उदित सूर्य नहीं दरसता है, उसी तरह छठी भक्ति के साधन से हीन भक्त को वर्णित ‘राम प्रताप प्रबल दिनेश’ अपने अन्तर में नहीं दरसता है। इसीलिए उसके हृदय के विकार दूर नहीं होते और न उसमें ज्ञान, विज्ञान, सुख, संतोष, विराग और विवेक आते हैं।
‘राम प्रबल प्रताप दिनेश’ के प्रसंग को पढ़कर यह समझ लेना बड़ी भूल होगी कि यह सूर्य त्रेतायुग में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के अवधेश रहने के समय में उदित था और अब अस्त हो गया है। वास्तव में यह सूर्य सर्वदा सबके हृदय-रूपी आकाश में (बाहरी आकाश में नहीं) उदित है, पर उल्लू पक्षीरूप अनधिकारी को अपने अन्तर में नहीं दरसता है।
घूघर अंधे भेष टेक अभिमान में,
सूझै न सबमें ब्रह्म धुन्ध अज्ञान में।
घूघर नेत्र खुलैं सुनो भाइ साध है।
देखै तन बिच भान सो ब्रह्म अगाध है।
जो दुपहैर गगन रवि छाई।
तासे उजास भया घट माहीं।।
(तुलसी साहब)
‘यह प्रताप रवि जाके, उर, जब करइ प्रकास’ का अर्थ यह नहीं होता है कि किसी एक ही युग वा युग-भाग में वह सूर्य उगा था; परन्तु यह अर्थ होता है कि यह सूर्य जिसके हृदय में प्रकाश जब करेगा, तब वह अपने अंतर में दर्शन पावेगा। मैत्रय्युपनिषद् का यह मंत्र भी इसी विषय को उत्कृष्ट करता है-
हृदाकाशे चिदादित्यः सदा भासति भासति।
नास्तमेति न चोदेति कथं संध्यामुपास्महे।। 14।।
अर्थात्-हृदय-आकाश में चैतन्य-रूप सूर्य बराबर उगा रहता है, न कभी अस्त होता है और न कभी उदय लेता है; संध्या कैसे करूँ ?
और संतों ने की वाणियों में तो इसकी भरपूर चर्चा मिलती ही है। यथा-
यहि घट चंदा यहि घट सूर।
यहि घट बाजै अनहद तूर।
यहि घट बाजै तबल निसान।
बहिरा शब्द सुनै नहीं कान।
(कबीर साहब)
पंच ततु मिलि अहिनिसि दीपकु निरमल जोति अपारी।
रवि ससि लउके इहु तनु किंगुरी बाजै सबदु निरारी।।
निरमल जोत जरत घट माहीं,
देखत दृष्टि दोष सभ छीजै ।
(तुलसी साहब)
ऐसे योगी ज्ञानी भक्त के चित्तमल समूल नष्ट हो जाते हैं। उनके समक्ष कभी भी ऐसी परिस्थिति की उपस्थिति नहीं हो सकती, जिस कारण वे विकार के शिकार हो सकें।
(महामहिम महर्षिजी महाराज के मर्ममय महावाक्य को मन में मनन करें माननीय मुख्यमंत्री महोदयजी ने कहा-‘मैंने तो मध्यम वर्गीय मानव की मनःस्थिति की बात कही थी, किन्तु यहाँ तो भ्पही ैजंदकंतक की बात हो गई।’ और, अन्त में उनका अभिवादन कर वे प्रसन्न मुद्रा में पड़ाव के लिए प्रस्थान किए।) (शांति-संदेश, जून, 1970)


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सम्प्रति हमलोग जाग्रत अवस्था में है। इसमें हमलोगों को स्थूल शरीर और स्थूल संसार का ज्ञान होता है। जब हमलोग जाग्रतावस्था से स्वप्नावस्था में चले जाते हैं, उस समय हमें अपने स्थूल शरीर का ज्ञान नहीं रहता है। फलतः स्थूल शरीर के ज्ञानाभाव में स्थूल संसार के ज्ञान का भी अभाव हो जाता है। पुनः जगने पर अपने स्थूल शरीर का ज्ञान होता है, तो स्थूल संसार का भी ज्ञान होता है। किन्तु अफसोस! अपने स्वरूप की अभिज्ञता नहीं हो पाती-स्वरूप का प्रत्यक्षज्ञान नहीं हो पाता। वस्तुतः हमें मानव शरीर मिला है, अपने स्वरूप को पहचानने के लिए ही।
यह मानव-शरीर परिवर्तनशील है, नाशवान है। इसके अंदर रहनेवाला चेतन पुरुष अपरिवर्तनशील है, अनाशी है। वह अजर है, अमर है, अक्षर है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के पन्द्रहवें अध्याय में कहा है-
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश््याक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।।16।।
अर्थात् इस लोक में क्षर और अक्षर दो पुरुष हैं जिनमें समस्त भूत क्षर हैं यानी नाशवान हैं और उनमें स्थित रहनेवाला पुरुष अक्षर है, अविनाशी है। पुनः इसी गीता के द्वितीय अध्याय में जीवात्मा से अविनश्वरता दिखलाते हुए उन्होंने कहा है-
न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्भतोऽयंपुराणो-
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।
अर्थात् यह कभी जन्म लेता नहीं और न मरता है। यह भूतकाल में था और भविष्य में नहीं रहेगा, इनकी बात भी नहीं। क्योंकि यह अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत है और पुरातन है; इसलिए शरीर के नष्ट होने पर भी इसका नाश नहीं होता। और भी,
नैनं छिन्दन्ति शस्त्रणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।
अर्थात् कोई भी शस्त्र आत्मा का छेदन नहीं कर सकता और न अनल जला सकता है। जल इसे सजल नहीं कर सकता और न अनिल सुखा सकता है। इसी विषय की भावाभिव्यक्ति गोस्वामीजी ने अपनी भाषा में, सार संक्षेप में इस भाँति की है-
ईस्वर अंस जीव अविनासी।
चेतन अमल सहज सुख रासी।।
(गो0 तुलसीदासजी)
भगवान श्रीकृष्ण ने भी ‘ममैवांशोजीव लोके जीव भूतः सनातनः’ कहकर जीवात्मा को अपना यानी ईश्वर का सनातन अंश जताया गया है।
जीवात्म प्रभु का अंश है, जस अंश नभ को देखिये।
घट मठ प्रपंचन्ह जब मिटैं, नहीं अंश कहना चाहिये।।
इस तरह आप्त वाक्यों द्वारा विश्वास होता है कि जीवात्मा ईश्वर का अंश है सही, किन्तु इसका सही ज्ञान नहीं होता। जिज्ञासा होती है इसकी सही जानकारी की और सही जानकारी नहीं होने के कारण को भी।
अभी हम सुन चुके हैं कि जाग्रत अवस्था में जब हमको अपने स्थूल शरीर का ज्ञान रहता है, तब स्थूल संसार का भी ज्ञान होता है। स्वप्नावस्था में जब स्थूल शरीर का ज्ञान नहीं रहता, तब स्थूल संसार का भी ज्ञान जाता रहता है। पुनः जब हम जग जाते हैं, तो प्रथम अपने शरीर का ज्ञान हमको होता है, पश्चात् संसार का। ठीक इसी भाँति जबतक हम मोह-निशा में निद्रित हैं, तबतक अपने स्वरूप से विस्मृत हैं। जबतक मोह-निद्रा भंग नहीं होती, तबतक जग से जीव का असंग नहीं होता। जबतक जगत से असंगता नहीं होती, तबतक अज्ञानता नहीं मिटती। परिणाम- स्वरूप हम स्वरूप-साक्षात्कार से सुदूर रहते। फिर ऐसी दुरवस्था में सर्वेश्वर-स्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान हो तो कैसे?
आवश्यकता है ऐसी युक्ति विशेष की ज्ञप्ति की, जिसके द्वारा मोह-निशा निःशेष हो-अज्ञान तिमिर का अवसान हो; फिर तो स्वरूप की पहचान में कोई व्यवधान नहीं रह जाता। संत चरणदासजी महाराज की शिष्या परम भक्तिन सहजोबाई स्व-स्वर में दृढ़तापूर्वक कहती हैं-‘आपुन ही कूँ खोज मिलैं जब राम सनेही।’ अर्थात् सबके स्नेही राम तभी मिल सकते हैं, जब तुम अपनी यानी आत्मा की खोज करो। भगवान बुद्ध की बातें भी प्रायः इसी से मिलती-जुलती दीखती हैं-
अत्ताहि अत्तनो नाथो कोहि नाथो परोसिया ।
अत्तनाव सुदन्तेन नाथं लभति दुल्लभो ।।
जिसका अर्थ होता है- “ आत्मा ही आत्मा का अधिपति है, इसका अन्य पति कौन हो सकता है? अपने को ही अच्छी तरह दमन करने से वह दुर्लभ नाथ को प्राप्त करता है।”
तात्पर्य यह कि परमात्मा ही जीवात्मा का नाथ है, इसके अतिरिक्त इसका कोई दूसरा नाथ वा स्वामी नहीं है। किन्तु उस परम प्रभु परमात्मारूप दुर्लभ पति की प्राप्ति आत्मसंयम करने से होती है।
भगवान बुद्ध की वाणी में प्रयुक्त ‘आत्मा’ शब्द के विविध रूपों में व्यवहार अर्वाचीन नहीं, प्राचीन है। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 6/5-6 में ‘आत्मा’ शब्द भिन्न-भिन्न भावों में व्यवहृत है। यथा-
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।।5।।
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ।।6।।
अर्थात् मनुष्य आत्मा द्वारा आत्मा का उद्धार करे। अपनी आत्मा की अधोगति नहीं होने दे। क्योंकि आत्मा ही आत्मा का शत्रु है। जिसने अपने आपको जीत लिया, उसकी आत्मा बन्धु है और जिसने अपनी आत्मा को नहीं जीता, वह अपने साथ शत्रु का-सा व्यवहार करता है।
इस तरह भगवान बुद्ध और भगवान श्रीकृष्ण के आत्मा-संबंधी विचार में कुछ भी अंतर ज्ञात नहीं होता। वरं ऐसा कहने में कोई अनुचित नहीं जान पड़ता कि “ उपर्युक्त श्लोकों के अनुशीलन करने पर प्रतीत होता है कि जैसे द्वापर युग की श्रीकृष्ण-वाणी कलियुग में बुद्ध-वाणी के रूप में प्रतिध्वनित हुई हो।” हाँ, अब एक जिज्ञासा हो सकती है कि इस आत्मा का अर्थात् जीवात्मा का निवास कहाँ है? अथवा दूसरे शब्दों में हम कहाँ हैं? इसके उत्तर के लिए संतों और सद्ग्रंथों में कोई अंतर नहीं, सभी एक स्वर से एक बात कहते हैं-
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कंठे स्वप्नं समाविशेत्।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तरीयं मुर्ध्निं संस्थितम्।।
अर्थात् जीव जाग्रतकाल में नेत्र में, स्वप्नकाल में कंठ में, सुषुप्ति समय हृदय में और तुरीयावस्था में मूर्द्धा में निवास करता है।
संतों ने जीवात्मा को ‘सुरत’ की संज्ञा से भी अभिहित किया है, इसलिए संत दरिया साहब (बिहारी) ने उसी प्राचीन प्रचलन का अनुकरण कर जीवात्मा के लिए ‘सुरत’ शब्द का प्रयोग किया है और उसकी जाग्रत कालिक बैठक आँख बतायी गयी है।
‘जानिले जानिले सत्त पहचानिले,
सुरत साँची बसै दीद दाना।’
संत तुलसी साहब (हाथरस) कहते हैं-
सत सुरत समझि सिहार साधौ निरखि्ा नित नैनन रहो।
और संत कबीर साहब क्या कहते हैं-
नैनों माहीं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर ।
गुरुगम भेद बताइया, सब सन्तन्ह सिरमौर ।।
कुछेक लोगों की यह धारणा है कि ‘चतुष्टय अंतःकरण में एक ‘मन’ भी है। उसको ‘सुरत’ की जगह स्थानापन्न करना समुचित नहीं जँचता। उनको जानना चाहिए कि यद्यपि अन्तरेन्द्रियाँ-मन, बुद्धि, चित और अहंकार; ये चार हैं। फिर यदा-कदा ‘मन’ की जगह ‘चित’ और ‘चित’ की जगह ‘मन’ शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। जैसे मेरा मन चंचल है। मन स्थिर नहीं हो पाता। मेरा चित चंचल है। चित स्थिर नहीं हो पाता। गीता के अध्याय 6 में भगवान श्रीकृष्ण के वचन हैं-
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।34।।
अर्थात् हे कृष्ण! मन चंचल है, मनुष्य को को मथ डालता है और यह बहुत बलवान है। उसका निरोध करना वैसे ही अत्यन्त कठिन है; जैसे वायु को वश करना। भगवान बुद्ध कहते हैं-
फन्दनं चपलं चित्तं दूरक्खं दुन्निवारयं ।
उजुं करोति मेधावी उसुकरो’व तेजनं ।।
(धम्मपद 3/1)
अर्थात् चित्त अस्थिर है, चंचल है, इसे रोक रखना कठिन है और इसका निवारण करना भी दुष्कर है। इस प्रकार के टेढ़े व कठिन चित को बुद्धिमान जन सरल व सीधा करते हैं, जैसे वाण बनानेवाले वाण को।
चक्रहु चाहि चलै चित चंचल
मूल मता गहि निश्चल कौरे।
-बाबा धरनी दासजी
चंचल चित को थीर कर, चौथी में चित लाव।
चन्द्रसुधा रस चाखि के, चिंतामणि पद पाव।।
(परमहंस लक्ष्मीपतिजी)
दूसरी बात यह है कि स्वयं संत कबीर साहब ने मन के दो रूप बताये हैं-1- तन-मन और 2- निज-मन। यथा-
तन मन दिया तो क्या हुआ, निजमन दिया न जाय।
कह कबीर ता दास से, कैसे मन पतियाय।।
तनमन दिया आपना, निजमन ताके संग।
कह कबीर निर्भय भया, सुन सतगुरु परसंग।।
तनमन=शरीर संबंधी मन=पिंडी मन=बहिर्मुखी मन और निजमन=ब्रह्मांडी मन=अंतर्मुखी मन। बहिर्मुखी मन जब उलटकर अंतर्मुखी होता है, तो वही सुरत कहलाता है। जैसे-‘मन उलटे तो सुरत कहावे।’ इसलिए संत कबीर साहब ने जो ‘सुरत’ की जगह ‘मन’ का व्यवहार किया है, यह कोई अप्रासंगिक नहीं।
दूसरी बात यह है कि जैसे सामान्यतया दुग्ध में निश्चितरूप से घृत मिश्रित रहता ही है, उसी प्रकार सामान्य अवस्था में जीवात्मा के साथ मन भी अवश्यमेव रहता है। अतएव इस दृष्टि से-सामान्य व्यवहार के लिए यदि संत कबीर साहब ने जीवात्मा की जगह ‘मन’ कहकर उसका निवास नयन बताया हो, तो यह भी अनुचित नहीं, आनुषंगिक ही है। संत चरणदासजी महाराज की भी सुनिये। उनकी वाणी ब्रह्मोपनिषद् की ऋषिवाणी से बिल्कुल साम्य है-
जाग्रत वासा नैन में, स्वप्न कंठ स्थान ।
जान सुषुप्ति हृदय में, नाभि तुरिय मन तान ।।
इस संबंध में अन्य संतों की भी आप्तवचन पर्याप्त हैं, जिसमें किसी प्रकार के संशय का लेश नहीं। फिर भी यदि कोई तर्कदृष्टि से देखना चाहे, तो उसमें भी कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि यह किसी को भी अंगीकार नहीं हो सकता कि वह अपने शरीर में नहीं है। अर्थात् यह सभी को मान्य है और होगा कि वह अपने शरीर में अवश्य है। अपनी देह में अपनी अवस्थिति की अभिज्ञता हो जाने पर पुनः यह जिज्ञासा हो सकती है कि मैं इस तन में हूँ, तो कहाँ हूँ तथा इसका प्रत्यक्ष ज्ञान कैसे हो?
इसके उत्तर में ऐसा कहना कोई अप्रासंगिक नहीं होगा कि ‘बाह्य जागतिक वस्तु को देखने के लिए हम बाह्य दृष्टि का प्रयोग करते हैं अर्थात् उन्मीलित नेत्र से उसका अवलोकन करते हैं। ‘बाहर’ का विपरीत होता है ‘अंतर’। इसलिए आंतरिक पदार्थ अवलोकनार्थ हम अंतर्दृष्टि का प्रयोग करें अर्थात् निमीलित नेत्र से निहारें, निरीक्षण करें।
नेत्र द्वय बंद करने पर स्वतः तमस् मंडल सम्मुख गोचर होगा। अब अपने आपसे हम पूछें-‘मैं कहाँ हूँ?’ उत्तर आएगा-‘अंधकार में हूँ?’ पुनः उत्तर मिलेगा-‘नयनाकाश में।’ इस भाँति यह सिद्ध हो गया कि मैं नयनाकाश के अंधकार मंडल में हूँ। किन्तु इतना ज्ञान होने पर भी यह परोक्ष ज्ञान ही है अपरोक्ष वा अप्रत्यक्ष ज्ञान नहीं; क्योंकि अंधकूप में उस अनूप स्वरूप का साक्षात्कार नहीं हो सकता। अतएव इससे आगे बढ़ें तथा इससे भी आगे बढ़कर उसके अंत तक पहुँचें।
यदि अनुभव ज्ञान प्राप्त संत की अनुभूत पूतवाणी श्रवण करना चाहें, तो संत सूरदासजी महाराज की सुनें। उन्होंने आपबीती बात बतायी है कि उनको कहाँ और कैसे ‘अपुनपौ’ की प्राप्ति हुई?
अपुनपौ आपुन में ही पायो।
शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो।।
वस्तुतः जो वस्तु जहाँ हो, उसकी खोज वहाँ ही हो, यही श्रेयस्कर और समीचीन है। अतएव संत सद्गुरु से प्राप्त सद्युक्ति के द्वारा अपने अंदर अपनी खोज अत्यन्त अपेक्षित है। यद्यपि अपुनपौ की प्रत्यक्षता त्रयावस्थातीत और त्रिगुणातीत अवस्था में ही संभव है, तथापि उसके पूर्ववर्ती प्राप्तव्य पदार्थ प्रकाश और शब्द की प्राप्ति वांछनीय है-जैसा कि संत सूरदासजी महाराज ने कहा।
प्रकाश के संबंध में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 8, श्लोक 9 में भगवान श्रीकृष्ण के महावाक्य-‘तमसः परस्तात्’ यानी अंधकार के परे प्रकाश का और ऋषि वाक्य-‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ के रहस्य का उद्घाटन जो संत पलटू साहब ने किया है, वह अत्यन्त विलक्षण है और एक बार सबको चमत्कृत किये बिना नहीं रहता। देखिए, उनके कहने की कैसी अद्भुत कला है-
काजर दिये से का भया, ताकन को ढब नाहिं ।।
ताकन को ढब नाहिं, ताकन की गति है न्यारी ।
इक टक लेवै ताकि, सोई है पिय की प्यारी ।।
ताकै नैन मिरोरि, नहीं चित अंतै टारै ।
बिन ताके केहि काम, लाख कोउ नैन सँवारै ।।
ताके में है फेर, फेर काजर में नाहीं ।
भंगि मिली जो नाहिं, नफा क्या जोग के माहीं ।।
पलटू सनकारत रहा, पिय को खिन खिन माहिं ।
काजर दिहे से का भया, ताकन को ढब नाहिं ।।
और यही बात संत कबीर साहब ने कही है; किन्तु उनके कहने की शैली भिन्न है।
सहज ध्यान रहु सहज ध्यान रहु गुरु के वचन समाई हो ।
मैली चित चराचित राखो रहो दृष्टि लौलाई हो ।।
समस्त पद के तात्पर्यार्थ को यदि हम एक वाक्य में कहना चाहें, तो इस भाँति कह सकेंगे-‘अविचलित चित से निमीलित निर्निमेष दृष्टि को गुरु-निर्देशित स्थान पर स्थापित करें।’
किन्तु इतना स्पष्ट कह देने के बाद भी कहने के लिए बात बाकी ही रह जाती है और वह यह कि अंतर्निरीक्षण की प्रयोगात्मक प्रक्रिया का ज्ञान किसी क्रियावान्, शुद्धाचारवान् सत् जन से ग्रहण करना परमावश्यक है। (अगस्त, 1970 ई0)



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लोक-व्यवहार में एक सज्जन दूसरे सज्जन से, एक मित्र दूसरे मित्र से तथा एक परिचित जन दूसरे परिचित जन से भेंट होने पर-मिलने पर, परस्पर जिज्ञासा करते हैं-कहिए, कुशल है-समाचार अच्छे हैं न? इसके उत्तर में वे एक दूसरे को बताते हैं-हाँ, कुशल है। समाचार अच्छे हैं। किन्तु हम अपने हृदय पर अपनी हथेली रखकर अपने से पूछें-विचार करें, क्या सचमुच ही हम कुशल हैं? इसके उत्तर में ‘नहीं’ के सिवा ‘हाँ’ नहीं कह सकते।
यदि यह विचार किन्हीं को अस्वीकार हो, तो वे स्वयं अपने संबंध में गम्भीरतापूर्वक सोच सकते हैं। हमारी अपनी सोच-समझ जैसी है, जितनी है, हम स्वयं जानते हैं। अतएव अपना निर्णय स्वयं नहीं कर जो कोई हमसे विशेष जन हों, हमारे परम हितैषी हों तो हमें चाहिए कि हम उनसे निकट सम्पर्क स्थापित कर उनके आगे अपना विचार निवेदन कर उनकी समझ-बूझ से भी कुछ सूझ प्राप्त करें।
विवेक विलोचन से अवलोकन करने पर हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि संत से बढ़कर हमारे अन्य विशेष शुभैषी कोई नहीं हो सकते। क्योंकि जिनका हृदय मक्खन से भी विशेष मुलायम होता है, जो अपने ऊपर आए पहाड़वत् पीड़ाओं के प्रहार की परवाह नहीं कर, पर-दुःख दुःखी एवं कातर हो, विश्व उपकार-हित सतत व्यग्रचित्त हो कार्य निरत हों, ऐसे निश्छल संत की अनन्त महिमा के समक्ष सभी नतमस्तक हैं। अतएव आइए, हम उन संतों से ही इस संबंध में पूछें, वे क्या कहते हैं? प्रथम हम भगवान बुद्ध से सीख लें, उनका क्या कथन है? धम्मपद ग्रंथ में उनका वचन है-
कोनु हासो किमानन्दो निच्चं पज्जलिते सती ।
अन्धाकारेन ओन)ा पदीपं न गवेस्सथ ।।
अर्थात् अज्ञानान्धकार से आवृत्त, प्रदीप वा प्रकाश की खोज नहीं करनेवाला, नित्य जलता रहता है-प्रज्वलित होता रहता है; फिर ऐसी स्थिति में हँसी क्या है? खुशी कहाँ है? अर्थात् सदा निरानन्द-ही- निरानन्द है। संत कबीर साहब की सुनिए, वे कितनी रहस्यमयी बात कहते हैं-
कुशल कुशल ही पूछते, जग में रहा न कोय ।
जरा मुई ना भय मुआ, कुशल कहाँ ते होय ।।
जवानी जाती है, जरापन आता है, लोग मरते हैं, किन्तु भय मरता नहीं-भय छूटता नहीं-निर्भयता आती नहीं-फिर कुशलता का प्रश्न ही कहाँ रह जाता है? वस्तुतः मन की प्रतिकूल परिस्थिति में जिसकी अवस्थिति हो, उसकी कुशलता कहाँ? जिसका हम संग चाहें, उनसे असंग हो और जिसके संग से तंग आकर हम उससे निस्संग होना चाहें, उसका ही सतत संग हो, फिर चित्त की अभंग दशा रहे तो कैसे? और अभंग-दशाहीन दीन की दुर्दशा नहीं, तो कुशल कहाँ से? किसी ने कहा भी है-
जो जाकर न आये वह जबानी देखी ।
जो आकर न जाये वह बुढ़ापा देखा ।।
जहाँ लोग त्रिविध तापों से संतप्त होते हों अथवा कभी दैहिक, कभी दैविक, कभी भौतिक और कभी मानसिक तापों से दुर्बल वृक्ष की भाँति प्रबल प्रचंड पवन से झकझोरे जाते हों, वहाँ कुशल कैसा? जहाँ कामरूप वात, लोभरूप कफ और क्रोधरूप पित्त; इन त्रिदोषों से चित्त विक्षिप्त होता हो, वहाँ कुशल कैसा? गो0 तुलसीदासजी ने भी कहा है-
काम बात कफ़ लोभ अपारा । क्रोधा पित्त नित छाती जारा ।।
प्रीति करइ जौं तीनिउँ भाई । उपजइ सन्निपात दुखदाई ।।
भला, जहाँ भीतर-ही-भीतर सुत, वित्त, लोक, ईष्ण की भीषण ज्वालामुखी भड़क रही हो, वहाँ कुशल कैसा? इस भयदायिनी-दुःख प्रदायिनी स्थिति में कोई सुख का मुख कैसे देख सकता है? एक मधुर कथा है-किसी समय नारद मुनि वैकुण्ठवासी भगवान विष्णु के निकट उपस्थित हुए। भगवान ने समयोचित सत्कार कर कुशल-क्षेम पूछा। मुनिजी ने कहा-भगवन्! लोग माया को अबला कहते हैं, किन्तु वह इतनी सबला और प्रबला होती है कि आपके पास आपके भक्तों को आने नहीं देती-वर्जन करती है और बरबस रोक रखती है। जीव परवश हो जड़़वत् हो जाता है और उसकी सारी सुधि-बुद्धि जाती रहती है।
मुनिजी की बातों को सुन और मन में गुन गोविंद ने माया को बुलवाया। आदेश पा उपस्थित हो पाणिबद्ध प्रार्थना करती हुई माया बोली-भगवन्! क्या आज्ञा है? भगवान ने सतेज स्वर में कहा-मुनिजी कहते हैं-‘तू मेरे भक्तों को भटकाकर, माया में लटकाकर और विषयों में अटकाकर रखती है; मेरे निकट फटकने तक नहीं देती। अन्यथा क्या बात है, ठीक-ठीक बताओ।
भयभीत हो थर-थर काँपती हुई माया बोली-देवेश! मेरा कोई दोष नहीं, मैं निरा निर्दोष हूँ। प्रभो! मैं बार-बार चेतावनी देती हूँ-‘ऐ जीव! जाग, जग-जाल से तू भाग और प्रभु-पद में लाग।’ भगवन्! मैं स्पष्ट कहती हूँ-‘मेरी ओर मत आ, जगदीश की ओर जा।’ किन्तु जड़ जीव अपनी जड़ता छोड़ता नहीं, मेरी बात मानता नहीं और जागतिक यात्र करता है। भगवान! आप ही न्याय करें और इन मुनिजी को समझा दें, मेरा क्या दोष है, जो रोष में आकर ये मुझे कोस रहे हैं। भक्त-भय भंजन भगवान ने कहा-अंजन! तुमने जितनी बातें मुझसे कहीं, सो मेरे मनोरंजन के लिए अथवा इसको तुम सत्य प्रमाणित भी कर सकती हो?
इसके उत्तर में माया ने कितनी मार्मिक बात मायापति से कही, सो सुनिए। ‘हे जगपालक! यदि कोई ट्रेन एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन की ओर जाती हो और उस स्टेशन का स्टेशन मास्टर खतरे का सिगनल दे-एक बार, दो बार, तीन बार; फिर भी यदि गाड़ी चालक अबोध बालक बन वर्जित पड़ाव पर गाड़ी ले जाने की धृष्टता करे, तो उसकी क्या गति हो भगवन्! क्या वह रथ-युथ रथी और सारथि सहित यमपुर-भवन गमन नहीं करेगा?
एक बात और निवेदन करूँ परवरदिगार। यदि कोइ पथिक किसी निर्दिष्ट स्थान के लिए प्रस्थान करे और यात्र करने के समय ही कोई छींक दे, तो क्या वह यात्र ठीक समझी जाती है? अथवा यदि यात्रकाल में ही कोई क्रन्दन करने लगे, तब भी वह शुभ नहीं समझा जाता। कितना कहूँ, अशरण शरण! घर से चलते समय अगर कोई टोक देता है, तो कुशल यात्री अशकुन समझकर अपनी यात्र रोक देता है।
देव! अब आप ही दया कर इन्साफ फरमावें, जबकि उपर्युक्त तीनों में से कोई भी घटना घटित होने पर अशुभ और अमंगल होता है, तब जहाँ ये तीनों ही घटनाएँ घटित हों, वहाँ यदि उस राही की राह में राहजनी हो-जान जाने की नौवत आए अथवा जान ही जाए; कौन-सी असम्भव बात है?
हे जगन्नियन्ता! जीव जब जगदीश का संग छोड़कर जगत की ओर अग्रसर होता है यानी जग में जन्म ग्रहण करता है, उसी समय भूमिष्ठ होते ही उसे पहले छींक आती है, पीछे वह शिशु रोता है और ‘कहाँ, कहाँ’ प्रश्न कर क्रन्दन प्रसारित करता है। इस तरह छींक, रुदन और प्रश्न; इन तीनों रूपों में मैं वर्जन करती हूँ। इतने पर भी यदि कोई नहीं माने, तो इसमें मेरा क्या दोष भगवन्? कहा भी है-
जनमत पहिले छींक भई, पाछे दीन्हा रोइ ।
ताते जग में जीव की, कुशल कहाँ ते होइ ।।
जीव की ऐसी निस्सहायावस्था में जिज्ञासा होती है-क्या शरणदायक, मंगलदायक और कुशलक्षेम-प्रदायक कोई आश्रय-स्थल नहीं? संतों ने दृढ़ता के स्वर में कहा है-हाँ, है; अवश्य है और वह सर्वेश्वर-शरण। रामचरितमानस में एक प्रसंग आया है। लंकेश जब अवधेश के चरण-शरण ग्रहण की इच्छा से उनके निकट उपस्थित हुए, तो भगवान श्रीराम ने भक्त विभीषण से पूछा-
कहु लंकेश सहित परिवारा ।
कुशल कुठाहर बास तुम्हारा ।।
खल-मंडली बसहु दिन राती ।
सखा धरम निबहइ केहि भाँति ।।
इसके उत्तर में विभीषण क्या कहते हैं, सुनिए-
अब पद देखि कुशल रघुराया ।
जौं तुम कीन्हि जानी जन दाया ।।
तथा-
तब लगि कुशल न जीव कहँ, सपनेहु मन विश्राम ।
जब लगि भजत न राम कहँ, शोक धाम तजि काम ।।
और भी,
अब मैं कुशल मिटे भय मारे ।
देखि राम पद कमल तुम्हारे ।।
अर्थात् कोशलपति के पद में ही कुशल है, अन्यथा विपद्-ही-विपद् है। वह कोशलपति राम कैसा है? इस संबंध में गोस्वामीजी के निम्नलिखित वचन का अध्ययन और मनन कीजिए।
राम ब्रह्म परमारथ रूपा ।
अविगत अलख अनादि अनूपा ।।
सकल विकार रहित गत भेदा ।
कहि नित नेति निरूपहिँ वेदा ।।
रघुपति की भक्ति में ही कुशल सन्निहित है, अन्यत्र तो विपत्ति ही है। कुशल कहाँ?
(शांति-संदेश, अक्टूबर, 1970)
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मलय पर्वत से जब पवन प्रवाहित होता है, तब वह शाल, शीशम, नीम, बबूल प्रभृति सार-संयुत तरु को सुवासित कर चंदन बना देता है; किन्तु उसके किकट निवासी आक, अरण्ड और बाँस जैसे सारहीन वृक्ष ज्यों-के-त्यों बने रहते हैं-सुगंधित नहीं हो पाते, चंदन नहीं बन पाते। प्रश्न होता है, इसमें हाथ किसका- सारहीन पेड़ का वा सुगंधि-संयुत समीर का?
ठीक इसी भाँति ईश्वर का ज्ञान संत-सद्गुरु सबको समान रूप से प्रसादरूप में प्रदान करते हैं। जो श्रद्धावान होते हैं, वे उस ज्ञान को पाकर और उसे अपने आचरण में लाकर महान बन जाते हैं; किन्तु अपने को बाँस की तरह बड़ा मान, बड़ाई और अहंकार में आबद्ध प्राणी श्रद्धाहीन-सारहीन-असार होता है, वह सदा अनजान-अज्ञान बना रहता है। संत कबीर साहब ने कहा है-
गुरु बेचारा क्या करै, जो शिष्ये माहीं चूक ।
भावै ज्यों परबोधिये, बाँस बजायी फूँक ।।
सुरसा-वदन की भाँति जिसका अहंकार बढ़ता है और बढ़ते-बढ़ते द्रौपदी की साड़ी जैसे बढ़ता ही चला जाता है अर्थात् गुरुजन को कौन कहे, गुरुवर से आदर पाने की अभिलाषा जिसकी जागृत हो उठती है, वैसे जन के लिए संत कबीर साहब ने कड़ी चेतावनी भी दी है। यथा-
अहं अग्नि हिरदे जरै, गुरु से चाहै मान ।
तिनको जम न्योता दिया, हो हमरे मेहमान ।।
तात्पर्य यह कि उसका यमपुर-निवासी होना निश्चित है। ऐसे जन दया के पात्र हैं, प्रभु इनके विचार को विमल करें। और भगवान श्रीकृष्ण ने गीता, 4/39-40 में कहा है-
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।।
अज्ञश््याश्रद्दधानश््य संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ।।
अर्थात् श्रद्धावान जितेन्द्रिय जन ज्ञान पाता है और ज्ञान पाकर वह परम शान्ति का लाभ करता है। किन्तु जो अज्ञानी, श्रद्धाहीन और संशयसंयुत है, उसका विनाश होता है। ऐसे संशयात्मा को न इस लोक में सुख मिलता है और न परलोक में ही।
भगवान के कहने का आशय यह है कि ‘शान्ति सुख-प्राप्ति के लिए मानव का श्रद्धावान और जितेन्द्रिय होना आवश्यक है। किन्तु यह शान्ति वा शाश्वत सुख है कहाँ?
हम देखते हैं, जब पड़ोसी के बच्चे परस्पर मार-पीट करते हैं, तो जिस बच्चे पर अधिक प्रहार पड़ता है, वह भय और दुःख के मारे भागकर घर की ओर जाता है और अपनी माँ की शरण लेता है, ताकि कहीं वह पहला लड़का अपने अभिभावक को संग लाकर उसका प्रतिशोध न करे! तात्पर्य यह कि घर जाकर माँ की छत्रच्छाया पाकर शिशु अपने को सुरक्षित पाता है तथा वहाँ ही शान्ति और सुख का अनुभव करता है।
एक बार का प्रसंग है कि कलकत्ते के महान् संत श्रीरामकृष्ण परमहंस देवजी महाराज जब कि वे काली मंदिर में रहते थे और उनकी पूजा-अर्चना किया करते थे, तो रानी रासमणि भी श्रीकाली माता जी के दर्शनार्थ प्रायः प्रतिदिन आया करती थीं।
एक दिन काली मंदिर में कुछ सज्जन बैठे थे, भगवद्चर्चा चल रही थी, पूज्य परमहंसजी महाराज भी वहाँ उपस्थित थे और रानी रासमणि भी थी। रानी रासमणि ने परमहंसजी महाराज से एक भजन गाने के लिए निवेदन किया। परमहंसजी महाराज प्रेममग्न होकर प्रभुगान गाने लगे। इधर रानी रासमणिजी को अपने मुकदमे की बात याद हो आयी और उसकी पैरवी के लिए वह मन-ही-मन वकील नियुक्त करने लगी। उनके मन की बात को महान संत मन-ही-मन जान गये और उन्होंने उनको एक थप्पड़ मारते हुए कहा-‘मुझे गाना गाने के लिए कहती है और स्वयं वकील बहाल करती है।’ रानी रासमणि का हृदय भय से प्रकंपित हो उठा और मुँह से चूँ शब्द तक नहीं निकला। सभा का कार्यक्रम समाप्त होने पर रानी रासमणि जी अपने घर चली गयी।
दूसरे दिन पुनः वे काली जी के दर्शनार्थ उक्त मंदिर की ओर जा रही थीं। उनको देखकर परमहंसजी के मामा जी ने उनसे कहा-‘देखते हो, जिनको तुमने कल्ह थप्पड़ मारा था, वे आ रही हैं प्रतिशोध करने।
परमहंसजी श्रीकालीजी की मूर्ति को मातृवत् मानते थे। जैसे कोई आतंकित शिशु अपनी रक्षा के लिए अपनी माता की शरण में जाए और उनका स्नेह बल पाकर उसके मन में सत्साहस का संचार हो, उसी भाँति परमहंसजी महाराज श्रीकाली जी की मूर्ति के पीछे जाकर खड़े हो गये और वे मूर्ति के अगल-बगल से झुक-झुककर रानी की ओर झाँकते और कभी कभी बोल उठते-‘अच्छा, आओ तो देखूँ, मारो तो देखूँ। मुझे मारोगी, तो माँ तुझे मारेगी।’
वह दृश्य रानी को ऐसा लगा, जैसे भयंकर रूप धारण कर कालीजी क्रोधावेश में आकर बोलती हो-‘आओ तो देखूँ, मारो तो देखूँ!’
रानी रासमणि डर के मारे थर-थर काँपने लगी और हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाती हुई लड़खड़ाते स्वर में काली जी से बोली-‘माँ! मेरे अपराध को क्षमा कर और अपने इस भयंकर रूप का सँवरन कर अपने सौम्य रूप में आ जा। कलकत्ते शहर के अंदर जो सबसे उत्तम और सबसे अधिक मूल्यवान साड़ी होगी, माँ! मैं वह तुम्हें पहनाऊँगी।’
फिर क्या था, थोड़ी ही देर के पश्चात् उनके सामने श्रीकालीजी का पूर्ववत् सौम्यरूप आ गया- ऐसा उनको ज्ञात हुआ। पश्चात् उनको प्रणाम करके वह निज निकेतन चली गयी।
दूसरे दिन अपने वचन के अनुकूल रानीजी ने ठीक वैसी ही साड़ी मँगवायी और श्रीकालीजी को पहनाने के लिए उनके मंदिर में गयी। पंडितों ने इसका घोर विरोध किया और कहा-कालीजी दिगम्बरी होती है, उनको साड़ी पहनाना असम्बद्ध बात है। रानीजी किंकर्तव्यविमूढ़ हो काठ की भाँति खड़ी रह गयीं। उसने हाथ से उस बहुमूल्य साड़ी को लेकर परमहंसजी ने यह कहते हुए कि ‘मैं अपनी माँ को जो चाहूँगा, पहना दूँगा।’ काली को साड़ी पहना दिया।
हाँ, तो मैं कह रहा था-‘शान्ति बाहर की वस्तु नहीं, अंदर की है।’ अतएव शान्ति के आकांक्षी को अपने अंदर झाँकना चाहिए। बाह्य जगत् के आकर्षण में आकर्षित होनेवाला, विकार का शिकार बन मार की मार खाता है, दुःखी होता है और रोता है। किन्तु अंतर्जगत् के अवलोकन करनेवाले पर उस काल की दाल नहीं गलती। परिणामस्वरूप वे प्रसन्न एवं प्रमुदित हो परमात्म-पथ का पथिक बन परमानंद का अधिकारी होता है।
अंतर्गमन की विधि का निर्देशन संतों ने किया है, संत बुल्ला साहब की वाणी में हम सकते हैं-
सुखमनि सुरति डोरि बनाव ।
मिटिहैं सब कर्म जिव के, बहुरि इतहि न आव ।।
पैठि अंदर देखु कंदर, जहाँ जिय को वास ।
उलटि प्रान अपान मेटो, सेत सबद निवास ।।
गंग जमुना मिलि सरसुति, उमँगि शिखर बहाव ।
लवकंति बिजली दामिनी, अनहद्द गरज सुनाव ।।
जीति आया आपुहीं, गुरु यारि सबद सुनाव ।
तब दास बुल्ला भक्ति ठानो, सदा रामहिं गाव ।।
इस पद्य में संत बुल्ला साहब ने अंदर पैठने की क्रिया का संकेत किया है और कहा है कि सुषुमना में अपनी सुरत की डोरी बनाओ अर्थात् जैसे डोरी बनाने के लिए बिखरे धागों को एक करना होता है, वैसे ही सुरत को बिखरी धारों को मिलाकर एक करो। इसका क्रियात्मक रूप यह होगा कि गंगा और यमुना को सरस्वती से संयुक्त करो। फलतः प्राण और अपान का भिन्न-भिन्न स्थिति नहीं रहेगी। दोनों की विलीनता में विद्युत्-छटा छिटकेगी, अनहद की अनुभूति, सभी कर्म बंधन क्षय होंगे, अक्षय शान्ति को पाओगे और आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाओगे।
ऐसा लगता है, जैसे संतों के साज-बाज भिन्न-भिन्न हों, किन्तु आवाज सबकी एक है। तात्पर्य यह कि संतों के कहने की कथाएँ अनेक हैं, परन्तु बात सब एक ही है-लक्ष्य सबका एक है-प्राप्तव्य वस्तु एक है। संत बुल्ला साहब की वाणी से मिलती जुलती बातें संत गुलाल साहब कहते हैं-
उलटि देखो घट में जोति पसार ।
बिनु बाजे तहँ धुनि सब होवै, विगसि कमल कचनार ।।
पैठि पताल सूर ससि बाँधौ, साधौ त्रिकुटी द्वार ।
गंग जमुन के वारपार बिच, भरतु है अमिय करार ।।
इंगला पिंगला सुखमन सोधो, बहत शिखर मुख धार ।
सुरति निरति ले बैठ गगन पर, सहज उठै झनकार ।।
सोहं डोरि मूल गहि बाँधो, मानिक बरत लिलार ।
कह गुलाल सतगुरु बर पायो, भरो है मुक्ति भंडार ।।
अर्थात् उलटो, बहिर्मुख से अंतर्मुख होओ, बाह्य जगत् से अंतर्जगत् में प्रवेश करो। कैसे प्रवेश करोगे? ‘इड़ा और पिंगला यानी बायीं और दायीं धार का संयम सुषुम्ना में करो-युगल धारों का एकत्रीकरण करो। इंगला-पिंगला कहो वा गंगा-यमुना कहो, दोनों एक ही बात है। यदि जिज्ञासा हो कि युगधार के मिलन का परिणाम क्या होगा? तो इसके उत्तर में संत गुलाल साहब ने कहा-‘बहत शिखर मुख धार’ होगा।
अर्थात् सुरत की ऊर्ध्वगति हो जाएगी, पिंड से ब्रह्मांड में गति हो जाएगी, स्थूल से सूक्ष्म में गमन होगा, अंधकार से प्रकाश में प्रतिष्ठित होओगे और वहाँ सुरत की विशेष तल्लीनता रही, तो स्वाभाविक ही झनकार सुनोगे अर्थात् अनहद नाद की अनुभूति होगी। ॐ सोहं नाद की डोरी दृढ़ता से ग्रहण कर उसके मूल में पहुँचो, तो तुम्हारे लिए मुक्ति का खजाना खुला हुआ है। गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
सुखमन के घर राग सुन सुन मंडल लिव लाय ।
अकथ कथा बीचारीअै मनसा मनहिं समाय ।।
सुषुम्ना में नाद ग्रहण का संकेत संत तुलसी साहब के वचन में भी हम पाते हैं और संत गुलाल साहब की भाँति ये भी इंगला-पिंगला और गंगा-यमुना की चर्चा करते हैं। यथा-
गंग जमुन सुन संयम कीना। इंगल पिंगल पट पौरी।
तथा,
गगन द्वार दीसै एक तारा। अनहद नाद सुनै झनकारा।।
तात्पर्य यह कि ईश्वर-दर्शनार्थ बाह्य जागतिक यात्र का परित्याग कर, जो अंतर्जगत् का यात्री बनता है, वह अंतर्ज्योति और अंतर्नाद पाता है। अनंत ज्योतिपुंज में वह निमज्जन करता है और वह सेवक अपने स्वामी के संग सदा आनंद विहार करता है। संत कबीर साहब कहते हैं-
उलटि समाना आप में, प्रगटी ज्योति अनन्त ।
साहब सेवक एक संगे, खेलैं सदा बसन्त ।।
(दिनांक-13-12-1970, स्थान: महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर)


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आदरणीय महात्मागण, सज्जनवृन्द तथा देवियो!
आपलोगों ने संत कबीर साहब की वाणी सुनी- कोई चतुर न पावै पार नगरिया बाबरी। मैं इसी संतवाणी के आधार पर समास रूप में प्रकाश डालने की चेष्टा करूँगा।
परमात्मा ने देखने के लिए सबको समान दृष्टि दिया है। सभी कोई अपनी-अपनी आँखों से देखते हैं; किन्तु सबके दृष्टिकोण एक से नहीं होते। जैसे-किसी मंदिर में एक मूर्ति है। एक भक्त उस मूर्ति को भगवान मानकर प्रणाम करता है। दूसरा आदमी देखता है कि यह मूर्ति जिस धातु से बनी है, वह धातु खरा है वा खोटा? तीसरा आदमी उस मूर्ति को कला की दृष्टि से अवलोकन करता है। चौथा आदमी उसे इस नजर से निहारता है कि मूर्ति चाँदी की है, लोग यदि सो जाएँ, तो उसे लेकर ‘नौ दो ग्यारह’ हो जाऊँ। कहने का मतलब यह कि चीज एक है; लेकिन देखने का दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न है। वस्तुतः मानव अपने अर्जित ज्ञान के आधार पर ही कुछ देखता, सुनता, समझता और करता है। एक उपनिषद् कथा है-एक बार ब्रह्माजी के पास देव, दानव और मानव तीनों गये। ब्रह्माजी ने पूछा-‘आपलोग कहाँ आए हैं?’ तीनों ने एक स्वर में उत्तर दिया-‘आपसे उपदेश ग्रहण करने के लिए।’ ब्रह्माजी ने तीनों को क्रम-क्रम से बुलाया। पहले देवता उनके सामने गये। ब्रह्माजी ने कहा- “ तुम्हारे लिए मेरा उपदेश है-‘द’। बताओ, इस उपदेश को तुमने क्या समझा?” देवता ने कहा-‘जी हाँ! हमलोगों की इन्द्रियाँ विषयों में बहुत बहकती हैं, इसलिए उनके दमन करने का आदेश आपने हमलोगों को दिया है।’ ब्रह्माजी ने कहा-‘ठीक है जाओ।’ उसके बाद दानव उपस्थित हुए। उनको भी प्रजापति ने कहा- “ तुम्हारे लिए मेरा उपदेश है-‘द’। थोड़ी देर के बाद में उन्होंने दानव से पूछा-‘तुमने मेरे उपदेश को समझा?” दानव ने कहा-‘जी हाँ! समझ गया। हम दानवगण क्रूर और हिंसक स्वभाव के होते हैं। आपने जीवों पर दया करने का उपदेश दिया है।’ ब्रह्माजी ने कहा-‘ठीक है, जाओ।’ अंत में मानव की बारी आई। ब्रह्माजी ने कहा- “ तुम्हारे लिए मेरा उपदेश है-‘द’। बोलो, इस उपदेश से तुमने क्या समझा?’ मानव ने कहा-‘भगवन्! हमलोग येन-केन-प्रकारेण संग्रह करते हैं। आपका उपदेश है-संगृहीत वस्तुओं का दान करो।’ ब्रह्माजी ने कहा-‘हाँ, ठीक ही समझा।’ अब समझिए अक्षर तो एक ही था-‘द’; लेकिन समझनेवाले का अपना-अपना दृष्टिकोण था। इसलिए एक ही उपदेश को सबने भिन्न-भिन्न भाषा में ग्रहण किया। इसी भाँति यह शरीर एक है; किन्तु लोग इसको भिन्न-भिन्न रूपों में देखते हैं। अभी जो संत कबीर साहब के वचन का पाठ हुआ-
कोई चतुर न पावे पार, नगरिया बाबरी ।
लाल-लाल जो सब कोइ कहै, सबकी गाँठी लाल ।।
गाँठी खोलि के परखै नाहीं, तासे भयो कंगाल ।।
काया बड़े समुद्र केरो, थाह न पावै कोइ ।
मन मरि जैहैं डूबि के हो, मानिक परखै सोइ ।।
ऊँचा महल अगमपुर जहवाँ, संत समागम होइ ।
जो कोइ पहुँचै वही नगरिया, आवागमन न होइ ।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधाो, का खोजो बड़ि दूर ।
जो कोइ खोजै यही नगरिया, सो पावै भरपूर ।।
इसमें संत कबीर साहब काया (शरीर) को समुद्र की दृष्टि से देखते हैं। एक दूसरे स्थल पर भी उन्होंने कहा है-
कबीर काया समुँद है, अंत न पावै कोय ।
मिरतक होइ कै जो रहे, मानिक लावै सोय ।।
किसी संत का कथन है-
यह शरीर सागर अवगाहा।यहि कर नहिं कोइ पावत थाहा ।।
अन्तरि उलटि निरेखै जोई।आवागमन मिटावै सोई ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने नर-शरीर को भवसागर की नाव की दृष्टि से अवलोकन किया है और भगवान श्रीराम के वचनों में उन्होंने कहा है-
नर तन भव वारिधि कहँ वेरो ।
सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ।।
गुरु नानकदेवजी महाराज ने इस शरीर को नगर के रूप में देखा तथा इसको हरि-रस के व्यापार करने का उत्तम माध्यम बताया।
काइआ नगर नगर गड़ अंदरि,
साचा वासा पुरि गगनंदरि।
तथा-
काइआ नगरू नगरू है नीको बिचि,
सउदा हरि रसु कीजै।
महायोगी गोरखनाथजी महाराज ने सप्त धातु से निर्मित इस तन को पिंजड़े की संज्ञा दी और इसमें निवास करनेवाली जीवात्मा को सुग्गा की। यथा-
सप्त धातु का काया प्यंजरा ता माहिं जुगति बिन सूवा।
संत कबीर साहब इस पद में तीन नगरों का वर्णन करते हैं। यथा-कोई चतुर न पावै पार नगरिया बावरी। यह प्रथम नगर हुआ। द्वितीय नगर है-
ऊँचा महल अगमपुर जहँवाँ, संत समागम होय।
जो कोइ पहुँचे वही नगरिया, आवागमन न होय।।
और तीसरा नगर है-
कहै कबीर सुनो भाइ साधाो, का खोजो बड़ि दूर।
जो कोइ खोजै यही नगरिया, सो पावै भरपूर।।
इस तरह एक ही शब्द में तीन नगरियों का वर्णन है। पहला नगर तो उन्होंने इस संसार को बताया है और इस संसार रूप नगर में रहनेवाले को पागल कहा है। जैसे पागल को कर्त्तव्याकर्त्तव्य का ज्ञान नहीं रहने के कारण जो कर्म नहीं करने योग्य है, उसे भी वह कर बैठता है, उसी तरह संसारासक्त लोग भी विषय-मदपान कर उन्मत्त की भाँति विचरता है और जो नहीं करना चाहिए-जिस कर्म से घोर कष्ट होता है। वैसे ही कर्मों को करता है और बारम्बार दुःख की अग्नि में जला करता है। इसलिए इस जगत् को संत कबीर साहब ने पागलों का नगर कहा है। एक दूसरे शब्द में उन्होंने इस संसार को चोर का नगर भी कहा है-
मैं तो आन पड़ी चोरन के नगर, सत्संग बिना जिया तरसे।
ऐसा क्यों? चोर वह चीज लेता है, जो उसे नहीं दी गई है अर्थात् अनैतिक तरीके से- छुपाकर वस्तु लेनेवाले को चोर कहते हैं। हम अपने हृदय पर हथेली रखकर सोचें, कहीं हम भी तो ऐसी वस्तु नहीं लेते? परम पूज्य गुरुदेवजी महाराज के मुखारविन्द से मैंने सुना था। एक दिन के सत्संग में प्रवचन करते हुए उन्होंने फरमाया था-‘भगवद्-भजन करने से जो जी चुराता है, वह चोर है। संसार के बहुत-से लोग इसी तरह के हैं, इसीलिए संत कबीर साहब ने इस संसार को चोर का नगर कहा है।
एक बार रेकार्ड में मैंने गाते हुए सुना था-
इस दुनिया में सब चोर चोर।
कोइ चोरी करे खजाने की, कोइ आने की दो आने की।
कोइ छोटा चोर कोइ बड़ा चोर,
इस दुनिया में सब चोर-चोर----।।
लेकिन उन चोरों में सबसे बढ़कर चोर हम हैं; क्योंकि हम तो चोरी करते ही हैं, ‘सीना जोरी’ भी करते हैं और वादा-खिलाफी करके मिथ्यावादी भी बनते हैं। हम स्मरण करें, क्या हमने कभी कोई वादा वा करार भी किया था? यदि याद नहीं आती हो, तो संतों की वाणी सुनिये, वे हमें याद दिलाते हैं-
‘करके कौल करार, आया था भजन को ।
अब तू मूरख गँवार, कुएँ लगा पड़न को ।।’
‘गर्भवास में रह्यो कह्यो मैं भजिहौं तोही ।
निसदिन सुमिरौं नाम कष्ट से काढ़ो मोही ।।
इतना कियो करार काढ़ि गुरू बाहर कीन्हा ।
भूलि गयेउ वह बात भयेउ माया आधाीना ।।’
-संत कबीर साहब
दस मास रहे जब गर्भ में ही,
तबही प्रभु से हम कौल किया ।
मैं बाहर होऊँ हरि भक्ति करूँ,
तेहि कारण मोहि निकाल दिया ।।
संत कबीर साहब ने दूसरा नगर परमात्म-धाम को बताया है, जहाँ पहुँचकर पुनः कोई आवागमन के चक्र में नहीं पड़ता है। जिस धाम का वर्णन भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता अ0 15/6 में इस भाँति किया है-
न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते त)ाम परमं मम ।।
कठोपनिषद् अध्याय दो के द्वितीय वल्ली में ठीक इसी भाँति कहा है-
न त= सूर्यो भाति न चन्द्र तारकं,
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं,
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ।।
अर्थात् उस आत्मलोक में सूर्य प्रकाशित नहीं होता, चन्द्रमा और तारे भी नहीं चमकते और न यह विद्युत ही चमचमाती है; फिर इस अग्नि की तो बात ही क्या है? उसके प्रकाशमान होते हुए ही सब कुछ प्रकाशित होता है और उसके प्रकाश से ही यह सब कुछ भासता है।
यदि संत कबीर साहब से पूछा जाए कि जिस नगर में पहुँचने पर आवागमन नहीं होता है, वह धाम कैसा है? तो वे कहेंगे-
कहौं उस देश की बतियाँ, जहाँ नहिं होत दिन रतियाँ ।
नहीं रवि चन्द्र औ तारा, नहीं उँजियार अँधियारा ।
नहीं तहँ पवन औ पानी, गये वहि देस जिन जानी ।।
और गुरु नानकदेवजी महाराज इस संबंध में क्या कहते हैं?
झिलमिल झिलकैं चंदु न तारा,
सूरज किरणि न बिजुलि गैणारा।
अकथी कथहु चिहनु नहिं कोई,
पूरि रहिआ मन भाइदा।।
संतों की वाणियों से अद्भुत विलक्षणता है। ऐसा लगता है, जैसे भिन्न-भिन्न साज-बाज की एक ही आवाज हो। जैसा वर्णन हम उपनिषद् में पाते हैं, वैसा ही गीता और संतों की विभिन्न वाणियों में भी।
हाँ, तो मैं दूसरे नगर का वर्णन कर रहा था। अब तीसरे नगर के संबंध में सुनिये। स्मरण रहे, पहला नगर संसार, दूसरा नगर परमात्म-धाम और तीसरा नगर संत कबीर साहब ने इस शरीर को बताया; क्योंकि उक्त पद्य में संत कबीर साहब ने कहा है-‘जो कोई खोजै यही नगरिया सो पावै भरपूर।’ अर्थात् जो कोई इस शरीर रूप नगर में ईश्वर की खोज करेगा, वह पूर्णरूपेण पावेगा। संत कबीर साहब को यह मान्य है कि सर्वेश्वर का साक्षात्कार बाहर में नहीं, घर में यानी घट में होगा।
सब घट मेरा साइयाँ, सूनी सेज न कोय ।
बलिहारी वा घट की, जा घट परगट होय ।।
परमात्मा कहाँ है? रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड में एक प्रसंग है कि भगवान श्रीराम जब वाल्मीकि मुनि के आश्रम में पहुँचते हैं और उनसे पूछते हैं कि मैं कहाँ रहूँ? तब मुनिजी राम के स्वरूप का वर्णन करते हुए उनके निवास का निर्देशन करते हैं-
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति-नेति नित निगम कह ।।
‘पूछेहु मोहि कि रहौं कहँ, मैं पूछत सकुचाउँ ।
जहँ न होउ तहँ देहु कहि, तुम्हहिं बतावउँ ठाउँ ।।’
अर्थात् वह प्रभु सर्वत्र है। ‘प्रभु व्यापक सर्वत्र समाना।’ ईश्वर की व्यापकता के संबंध में ही इस पद्य में संत कबीर साहब ने कहा है-
लाल लाल जो सब कोइ कहै, सब की गाँठी लाल ।
गाँठी खोलि कै परखै नाहीं, तासे भयो कंगाल ।।
परमात्मा सबके अंदर समान रूप में व्यापक हैं। फिर भी जड़ और चेतन की ग्रंथि खुले बिना उनका दर्शन सम्भव नहीं।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी कहा है-
जड़ चेतनहि ग्रंथि पड़ि गई ।
यदपि मृषा छूटत कठिनई ।।
एक रोचक कथा है-एक बार एक पुराने ठग को एक नए ठग से भेंट हो गई। पुराने ठग के पास अशर्फी थी। नए ठग को यह बात मालूम हो गई। अब उसके मन में उसकी अशर्फी लेने की लालसा जग उठी। उसकी भाव-भंगिमा को पुराने ठग ने परख लिया। जब रात्रि हुई तो पुराने ठग ने नये ठग से कहा-भाई! देखो, हमलोगों के पास सामान है, उसकी सुरक्षा भी हो और हमलोग सोयें भी; इसके लिए कोई उपाय सोचो। नये ठग ने कहा-बात ठीक है, हमलोग बारी-बारी से सोयें और जगें। दोनों को यह बात मंजूर हो गई। पुराने ठग ने नये ठग से कहा-पहले तुम सो जाओ। जब दो घंटे तुम सो जाओगे, तब मैं तुम्हें जगा दूँगा; तब तुम जगना और मैं सोऊँगा। नये ठग ने वैसा ही किया। जब नए ठग को सोये दो घंटे हो गये, तब पुराने ठग ने अपनी अशर्फी नये ठग की गठरी में घुसाकर उसे जगाया और कहा-भाई! जगो दो घंटे पूरे हो गये। अब जगकर तुम पहरा दो, तबतक मैं सोता हूँ। ऐसा कहकर वह सो गया। इसी तरह दो-दो घंटे के क्रम से दोनों ठग सोते और जगते। जब-जब पुराना ठग सोने जाता, तो वह अपनी अशर्फी नये ठग की गठरी में घुसा देता और जब नये ठग जगकर पहरा करने लगता, तो वह पुराने ठग को सोया जानकर उसकी जेब और गठरी टटोलता; लेकिन उसको अशर्फी मिली नहीं। सारी रात यह क्रम चलता रहा; किन्तु नया ठग अशर्फी प्राप्त नहीं कर सका। सबेरा होने पर जब दोनों ठग अपने-अपने घर जाने लगा, तब नये ठग ने पूछा-भाई साहब! मेरी समझ में यह बात एकदम नहीं आई कि आखिर आप अपनी अशर्फी रखते कहाँ थे? आप जब-जब सोते थे, तब-तब मैं आपकी देह, गठरी और जेब टटोलता। अनेक बार आपकी गठरी और सारी देह को टटोलते- टटोलते मैंने रातभर छान डाला; लेकिन अशर्फी से भेंट नहीं हो पायी। तब पुराने ठग ने कहा-अरे भाई! तुम तो मेरी गठरी में अशर्फी ढूँढ़ता था; लेकिन मैं अपनी अशर्फी तुम्हारे जगने के पहले ही तुम्हारी गठरी में रख देता था। अतएव तुमको अशर्फी कैसे मिलती? तुम अपनी गठरी में खोज करते, तो अवश्य मिल जाती। ठीक इसी तरह हमलोग भी परमात्मा को अपने अंदर नहीं खोजकर दूसरी-दूसरी जगह, बाहर-बाहर ढूँढ़ते-फिरते हैं। भला! परमात्मा का दर्शन हो तो कैसे? अपने अंदर जो जड़ और चेतन की ग्रंथि पड़ी है, इसी को खोलने पर परमात्मा रूपी लाल मिलेंगे। संत कबीर साहब ने कहा था-
कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूँढ़ै वन माहिं ।
ऐसे घट में पीव है, दुनियाँ जानै नाहिं ।।
समुझे तो घर में रहै, परदा पलक लगाय ।
तेरा साईं तुज्झ में, अनत कहूँ मत जाय ।।
पुनः संत कबीर साहब कहते हैं-
काया बड़े समुद्र केरो, थाह न पावै कोय ।
अर्थात् ‘यह शरीर महासागर है, इसकी थाह कोई नहीं पाता।’ केवल विचार द्वारा ही नहीं, साधक साधना करके इसका साक्षात्कार करता है। साधक जब साधना आरम्भ करता है, तब उसे घोर अन्धकार दीख पड़ता है, जिसकी सीमा उसकी दृष्टि में आती नहीं। यह विशाल अंधकार पहला समुद्र है। सद्गुरु की विशेष कृपा प्राप्त कर साधक साधन द्वारा जब अंधकार को पार करता है, तब वह प्रकाश में प्रवेश करता है। यह सुविस्तृत प्रकाश दूसरा समुद्र है। इसके आगे तीसरा समुद्र नाद का है।
आप सरस्वतीजी की तस्वीर देखते हैं। उसमें क्या देखते हैं? वाणीजी अपने कर-कमलों में वीणा धारण की हुई हैं। शास्त्रकारों ने लिखा है-
नादाब्धोस्तु परं पारं न जानाति सरस्वती ।
अद्यापि मज्जन भयात् तुम्बं वहति वक्षसि ।।
अर्थात् नादरूपी समुद्र की सीमा का पार सरस्वती नहीं जानती हैं। इसीलिए आज भी डूबने के भय से हृदय के पास तुम्बे को धारण की हुई हैं। इन तीनों समुद्रों की थाह कौन पावेगा? कबीर साहब कहते हैं-
मन मरि जैहैं डूबि के हो, मानिक परखै सोय।
जैसे जो कोई गोताखोर समुद्र में देर तक डुबकी लगा पाता है, वह मोती पाता है। उसी तरह अंधकार रूपी समुद्र में जो साधनशील साधक डूब पाते हैं, उनको ब्रह्मज्योति रूप माणिक मिलता है। भक्तवर सूरदासजी के शब्दों में हम कह सकेंगे-
ज्यों-ज्यों बूड़े श्याम रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होय।
इस काया-समुद्र में डूबने की युक्ति हम संत सद्गुरु से जानें। शरीर रूप नगर स्थित अंधकार, प्रकाश और शब्द को जो पार करता है, वह संत दादू दयालजी के विचारानुकूल ‘सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा’ हो जाता है। यह ऐसा ऊँचा महल है, जिससे ऊँचा महल और नहीं हो सकता। परम संत सद्गुरु गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के शब्दों में हम कह सकेंगे-
स्थूल सूक्ष्म कारण महाकारण कैवल्यहु के पार ।
तन में पिल पाँचों तन पारा जा पाओ प्रभु सार ।।
यहाँ ही प्रभु-मिलन वा संत-समागम होता है। अब अंत में, एक लघु कथा कहकर मैं अपना प्रवचन समाप्त करना चाहूँगा।
संत कबीर साहब इस देह को उदधि रूप में देखा और गुरु गोरखनाथजी ने पिंजड़े के रूप में।
सप्त धातु का काया प्यंजरा,ता माहिं जुगति बिनु सूवा।
सतगुरु मिलै तो उबरै बाबू,नहिं तो परलय हूआ।।
एक कथा है-एक साधु यह रट लगाते हुए घूमते थे कि-‘राम राम करै, भव सागर तरै।’ यह रट एक सुग्गा ने सुनी, जो लोहे के पिंजड़े में बंद था। जब साधु उस सुग्गे के निकट पहुँचे, तो सुग्गा ने पूछा-‘महात्माजी! आप क्या रट लगाते हैं?’ साधु ने कहा-‘राम राम करै, भव सागर तरै।’ सुग्गा ने कहा-‘नहीं, महात्मा जी! ‘राम राम करै, लौह पिंजड़ पड़ै।’ साधु बाबा ने कहा-‘यह बात तुम कैसे कहते हो?’ सुग्गे ने कहा-‘यह तो प्रत्यक्ष है, जो सुग्गा राम-राम नहीं कहता, वह स्वतंत्र विचरण करता है। जब चाहता है, जैसा चाहता है, वैसा करता है, खाता है, आराम करता है और मैं ही एक अभागा राम-नाम रटनेवाला ठहरा, जो लौह के पिंजड़े में बंद हूँ। साधु ने कहा-‘नहीं जी! युक्ति करै, तो सहजै तरै।’ सुग्गा ने कहा-‘महात्माजी! आप मुझे वह युक्ति बताने की कृपा करें, जिससे मैं इस पिंजड़े से मुक्त हो सकूँ। महात्माजी ने उसे युक्ति बता दी और कहा-‘अभ्यास करते-करते तुम्हारा प्राणस्पन्दन निरुद्ध होने लगेगा। इस अभ्यास को धीरे-धीरे बढ़ाना। जब देर तक प्राणस्पन्दन बंद होने लग जाएगा, तब तुम्हारे मालिक तुम्हें मरा हुआ जानकर पिंजड़े से निकाल फेकेंगे; तब तुम उड़ जाना।’
सुग्गे ने श्रद्धापूर्वक साधु की बताई सद्युक्ति से साधना का शुभारम्भ किया। अभ्यास क्रम को शनैः शनैः बढ़ाया। अब वह कुछ काल पर्यन्त उस अवस्था में रहने लग गया, जिस अवस्था में उसका प्राणस्पन्दन भी बंद रह सकता था। एक दिन वह उसी साधना में संलग्न था, प्राणस्पन्दन अवरुद्ध था। मालिक ने जब आकर देखा, तो उसे वह श्वास-हीन मृत जान पड़ा। सुग्गे को मरा जानकर उसने पिंजड़े से निकाल कर फेंक दिया। मालिक ने ज्यों ही सुग्गे को फेंका, त्यों ही गगनगामी होकर लौह-पिंजर से सदा के लिए मुक्त हो गया।
यह तो एक कथा मात्र है, वस्तुतः पिण्ड रूप पिंजड़े में जीव रूप सुग्गा आबद्ध है। संत सद्गुरु की कृपा से ही शरीर स्थित जीव रूप सुग्गे का सुधार और उद्धार हो सकता है अन्यथा प्रलय के गर्त में तो है ही। अ
यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत खगड़िया जिला के पितौंझिया ग्राम में जिला संतमत-सत्संग के वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर दिनांक 07-01-1971 ई0 को हुआ था।

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परम प्रभु सर्वेश्वर की असीम अनुकम्पा से आज अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का 63वाँ वार्षिक महाधिवेशन का शुभारंभ यहाँ होने जा रहा है। आपमें से बहुतों की जिज्ञासा हो सकती है-संतमत क्या है? अतः मैं अभी इसी के ऊपर प्रकाश डालूँगा। संतमत परम प्राचीन आस्तिक मत है। संतमत में सब संतों की मान्यता है। संतमत में अधिक सिद्धांत नहीं है। मात्र तीन हैं-गुरु, ध्यान और सत्संग। यदि और कुछ कहना चाहें, तो वह है-सदाचार और स्वावलंबी जीवन। उसमें पाँच विधि कर्म हैं-एक सर्वेश्वर पर अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा तथा अपने अंतर में उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना, सद्गुरु की निष्कपट सेवा, सत्संग और दृढ़ ध्यानाभ्यास और पाँच निषेध कर्म भी हैं-झूठ बोलना, नशा खाना, व्यभिचार करना, हिंसा करनी (अर्थात् जीवों को दुःख देना वा मत्स्य-मांस को खाद्य पदार्थ समझना) और चोरी करनी। संतमत किसी एक संत के नाम पर का प्रचालित नहीं है। संतमत में सभी संतों की समान मान्यता है। संत दादू दयालजी के शब्दों में हम कह सकते हैं-
जे पहुँचे ते कहि गये, तिनकी एकै बाति।
सबै सयाने एक मत, तिनकी एकै जाति।।
इसीलिए संतमत किसी संत को बड़ा और किसी को छोटा नहीं मानता है। संतमत की विशेषता यह है कि यह किसी धर्म, मत, मजहब वा संप्रदाय आदि का खंडन नहीं करता। संतमत अपना सिद्धांत सबके सामने रखता है। लोग उसे अपने अर्जित ज्ञान के आधार पर उसे समझ लें।
एक समय की बात है-बादशाह अकबर अपनी सभा में बैठे थे। एकाएक बादशाह ने बीरबल से पूछा-‘बीरबल! तुम कुछ पढ़े-लिखे भी हो? बीरबल ने कहा-‘जी हाँ, जहाँपनाह! थोड़ा-बहुत लिखा-पढ़ा हूँ।’ बादशाह ने पूछा, ‘बीरबल! थोड़ा भी कहते हो और बहुत भी; कोई निश्चयात्मक बात बताओ-थोड़ा या बहुत।’ बीरबल ने कहा, ‘जहाँ बहुत बड़े-बड़े विद्वान लोग रहते हैं, वहाँ मैं कम हो जाता हूँ और जहाँ कम पढ़े-लिखे रहते हैं, वहाँ मैं बहुत हो जाता हूँ।’ बादशाह ने हँसते हुए एक लकीर खींच दी और कहा, ‘बीरबल! इस लकीर को छूओ नहीं, मिटाओ नहीं; किन्तु छोटा कर दो।’ बीरबल ने अविलंब उस लकीर की सीध में उससे अधिक लंबी लकीर खींच दी और कहा, ‘बादशाह सलामत! देखिए, मैंने आपकी लकीर को छुआ नहीं, मेटा नहीं; किन्तु आपही आप वह छोटी हो गयी।’ इस तरह संतमत किसी मत वा पंथ का खंडन नहीं करता, केवल अपना सिद्धांत सबके सामने रख देता है।
संतमत की यह घोषणा है-सबके ईश्वर एक हैं और इस ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता एक ही है। जबतक अपने अंदर-अंदर कोई नहीं चलेगा, तबतक उस तक कोई पहुँच नहीं सकता है। उस आंतरिक मार्ग पर चलने का सबको समान अधिकार है।-
क्या द्विजाति वा शूद्र ईश को
वेश्या भी भज सकती है।
श्वपचों को भी भक्तिभाव में शुचिता कब तज सकती है।
अनुभव से कहता हूँ इसको मैंने कर लिया है वश में।
जो कोई चाहे पिये प्रेम से अमृत भरा है इस रस में।।
परम पूज्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का उद्घोष है- “ सबके ईश्वर एक हैं। ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग एक है। सब स्थूल सगुण उपासनाएँ उस मार्ग को पकड़ने की योग्यता प्रदान करती हैं।’ ‘ईश्वर की भक्ति ही संसार में शान्ति प्रदान करेगी। उस सर्वेश्वर की प्राप्ति सर्वप्रथम अपने अंदर होगी, पश्चात् सर्वत्र।”
संतमत जिस ईश्वर को मानता है, वह स्वरूपतः कैसा है? अभी सिद्धांत के पाठ में आपलोगों ने सुना- “ जो परम तत्त्व, आदि-अन्त-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के परे है, उसे ही सर्वेश्वर सर्वाधार मानना चाहिए।” उस परम प्रभु सर्वेश्वर की प्राप्ति की जो साधना वा प्रक्रिया है, वह इतनी सरल और सुगम है, जिसे सभी कोई कर सकते हैं। चाहे वे पढ़े-लिखे हों, अनपढ़े हों, धनी हों वा निर्धन हों, गृहस्थ हों वा विरक्त हों, पुरुष हों वा स्त्रियाँ हों, किसी भी धर्म वा जाति के हों, इस देश के हों वा दूसरे देश को हों, सभी कोई बेखटक साधना कर सकते हैं। संतमत का उद्देश्य सारे संसार में जनकल्याण के लिए है। वस्तुतः संतों का अवतार विश्वकल्याण के लिए ही हुआ करता है। गो0 तुलसीदासजी के शब्दों में-सन्त उदय संतत सुखकारी।
विस्व सुखद जिमि इन्दु तमारी।।
संतों के संबंध में गो0 तुलसीदासजी ने जो बतलाया, उसके अनुसार कोई वेशधारी ही संत नहीं होता। वेशधारी भी संत होते हैं और बिना वेशधारी भी। गो0 तुलसीदासजी ने संतों के ये लक्षण बतलाये-
अमित बोध अनीह मितभोगी।
सत्य सार कवि कोविद योगी।।
षट विकार जित अनघ अकामा।
अचल अकिंचन सुचि सुखधामा।।
ये संतों के लक्षण हैं। संतों का हृदय कैसा होता है? इसपर गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा-
संत हृदय नवनीत समाना।
कहा कविन्ह पै कहइ न जाना।।
निज परिताप द्रवइ नवनीता।
पर दुख द्रवइ संत सुपुनीता।।
बंगाल के संत श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज ने कहा है कि तुमने आलू और बैगन की सब्जी खायी है? जैसे बैगन की सब्जी बहुत कोमल और मुलायम होती है। संतों का भी हृदय उसी तरह कोमल और मुलायम होता है। उन्होंने दूसरा उदाहरण दिया कि संत नारियल की तरह होते हैं। नारियल ऊपर से तो कड़ा होता है; किन्तु उसके भीतर की गरी स्वच्छ, धवल, अनाविल और शीतल जल लिये रहती है। उसी तरह संतों का हृदय साफ, स्वच्छ, निर्मल और शीतलता-संयुत होता है। एक बार छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ रामदासजी महाराज भिक्षाटन करते हुए एक गृहस्थ के घर पहुँचे। उस गृहस्थ के घर भोजन समाप्त हो चुका था। घर की माई चौका लगा रही थी। अपने गृह में भोजनार्थ साधु को आये देखकर क्रोधावेश में आ उस माई ने उसी जूटे पोतना से दे मारा। उनका समूचा शरीर जूठा से भर जाता है; परन्तु समर्थ रामदासजी महाराज बिना कोई दुःख वा क्रोध प्रकट किये उस पोतना को लेकर चल पड़े। स्नान करके उस पोतना को भी साफ करके सुखा लेते हैं और उसकी बत्ती बनाकर भगवान के आगे आरती जलाते हैं और भगवान से प्रार्थना करते हैं- “ हे प्रभु! जिस प्रकार उस माई के कपड़े से मैं आपके सामने प्रकाश कर रहा हूँ, उसी तरह उस अबोध माई के हृदयाकाश में प्रकाश कर।” यह है संतों का हृदय।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-कवियों ने संतों का हृदय की उपमा मक्खन से दी है। किन्तु उपमा उपयुक्त नहीं हुई। क्योंकि मक्खन तो अपनी ही गर्मी पाकर पिघल जाता है; परन्तु संत दूसरों के दुःख को देखकर पिघलते हैं अर्थात् दुःखी होते हैं। क्योंकि उनका अवतार ही विश्व-कल्याणार्थ हुआ करता है। जैसा गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
संत उदय संतत सुखकारी।
विस्व सुखद जिमि इन्दु तमारी।।
तथा, विश्व उपकार हित व्यग्र चित सर्वदा
त्यक्त मदमन्यु कृत पुण्य रासी।।
यत्र तिष्ठन्ति तत्रैव अज सर्व हरि
सहित गच्छन्ति क्षीराब्धि वासी।।
अर्थात् विश्वकल्याण के लिए जिनका चित सतत व्यग्र रहता है, ऐसे संत-महात्मा जहाँ कहीं रहते हैं, वहीं ब्रह्मा, विष्णु, शिव उपस्थित रहते हैं। इस तरह के जो संत है, उनका जो सत्संग है, उसी सत्संग का यह 63वाँ वार्षिक महाधिवेशन है। इन संतों की साधना इतनी सरल है, खाते-पीते, सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते कर सकते हैं। इस सत्संग का आधार संतवाणी है। इसीलिए आपलोगों ने अभी वेद, उपनिषद् तथा विभिन्न संतों का वाणियों के पाठ सुनें।
वेद भगवान की आज्ञा है कि ‘संगच्छध्वं’ अर्थात् आपस में सब मेल से रहो। प्रेम से बातचीत करो और ईश्वर की उपासना करो। मिलकर रहने में क्या होता है? जहाँ मेल है, वहाँ बल है। जहाँ मेल नहीं, वहाँ बल नहीं। समुद्र क्या है? जल बूँद का समूह है। एक-एक बूँद यदि समुद्र से निकल जाए, तो समुद्र का अस्तित्व मिट जाएगा। इसलिए मानना पड़ता है कि मेल में बल निहित है। कोई भी कपड़ा अनेक सूतों का एकत्रीकरण है। जिस कपड़े से हमारी इज्जत की रक्षा होती है। जाड़े से रक्षा होती है, यदि उसे एक-एक सूत अलग हो जाए, तो उसी संज्ञा ‘कपड़ा’ रह नहीं सकती। एक-एक अक्षरों के पढ़ने पर ही विद्वान् होते हैं। जिसने अक्षरों का एकत्रीकरण नहीं किया है, वह विद्याहीन है। हमलोग एक-एक कौर भोजन करते जाते हैं और पेट भरता जाता है। उसी से शरीर में बल आता है।
एक बूढ़े आदमी मरने लगे। उन्होंने अपने सभी पुत्रें को बुलाकर कहा-एक-एक गट्ठर लकड़ी जंगल से ले आओ। उनके सभी पुत्रें ने वैसा किया। बूढ़े ने कहा, ‘तुमलोग अपने-अपने गट्ठर को तोड़ो। पुत्रें ने अपने-अपने गट्ठर को तोड़ने का प्रयास किया; किन्तु सभी असफल रहे। सबने एक स्वर से कहा, पिताजी! गट्ठर टूटता नहीं है। बूढ़े ने कहा-पुत्रे! उस गट्ठर की लकड़ियों को अलग-अलग करके एक-एक करके तोड़ो। पुत्रें ने वैसा ही किया। लकड़ियों को अलग-अलग कर तोड़ने पर सभी लकड़ियाँ टूट गयीं। बूढ़े ने कहा- प्रिय वत्सगण! तुमलोगों को मैंने यही शिक्षा दी। पुत्रें ने कहा-पिताजी! इसका स्पष्टीकरण कीजिए। हमलोग समझ नहीं सके। बूढ़े ने कहा, देखो पुत्रे! जबतक तुमलोग आपस में मेल से रहोगे, तबतक तुम्हारा कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकेगा। जिस तरह उस एकत्रित लकड़ियों के गट्ठर नहीं तोड़ सके। किन्तु जैसे तुमलोगों के आपस का मेल टूटेगा, वैसे ही जो चाहेगा, तुमको धर दबावेगा। अतः आपस में मेल से रहना। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना ।
जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना ।।
एक अच्छी कहावत है-
बाहर उपजै फूट तो सब कोय खाय ।
घर में उपजै फूट तो घर को खाय ।।
प्राचीनकाल की बात है। किसी समय किसी देश में एक बड़े प्रभावशाली राजा थे। एक बार उन्होंने किसी दूसरे राज्य पर चढ़ाई करके उसे जीत लिया और उस राज्य-प्रबंध के लिए अपने मंत्री को वहाँ रखकर स्वदेश लौट गया। कुछ दिनों के बाद अपने मंत्री से वहाँ का उत्तम-उत्तम फल माँगा। उनके मंत्री राजनीति में निपुण थे। उन्होंने फूट और बैर; ये दोनों फल उनके पास भेज दिये। जब राजा जी ने इन फलों को चखा, तो वे उन्हें अत्यन्त बेस्वाद मालूम हुए। क्रुद्ध होकर उन्होंने मंत्री की बुलाहट की बड़ी कड़ी चेतावनी के साथ। राजाजी की बुलाहट पर मंत्रीजी उसके निकट उपस्थित हुए और विनयपूर्वक कहा, “ राजन्! आपके लिए वहाँ का ये सर्वोत्तम फल है-बैर और फूट। जबतक उस देश में ये दोनों फल रहेंगे अर्थात् आपस में बैर-फूट रहेगा, तबतक आपका राज्य वहाँ रहेगा। बैर-फूट दूर होते ही आपका साम्राज्य भी वहाँ से सुदूर हो जाएगा।” राजाजी मंत्री की बात से बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे पुरस्कृत किया।
इतिहास इसका साक्षी है कि भारत की पराधीनता का कारण पृथ्वीराज और जयचन्द की फूट ही था। पति-पत्नी के मेल टूटने से कितना बड़ा अनर्थ हुआ, यह बात रामायण बताता है। पिता-पुत्र के वैमनस्य से क्या हानि होती है, यह हिरण्यकशिपु और प्रीांद की कथा बताती है।
अंगेरजी में एक कहावत है-‘ब्ींतपजल इमहपद-दपदह तिवउ ीवउम’ अर्थात् उदारता गृह से ही आरंभ होती है। अतएव हम सर्वप्रथम अपने गृह का निर्माण सुधार करें। किन्तु स्मरण रहे गृह-सुधार तबतक संभव नहीं है, जबतक हम स्वयं अपना निर्माण वा सुधार न कर लें।
इसलिए वेद भगवान कहते हैं-आपस में सब मेल से रहो। यदि एक घर के सभी कोई मेल से रहें, तो एक घर सुधर जाएगा। इसी तरह उस घर का अनुकरण पड़ोसी सुधरेंगे। फिर गाँव सुधर जाएगा। इस तरह अनुकरण करते चले जाएँगे, तो गाँव के सुधार से थाना सुधरेगा, थानाओं के सुधार से जिला सुधरेगा, जिलाओं के सुधार से कमिश्नरी सुधरेगी, कमिश्नरियों के सुधार से प्रान्त सुधरेगा, प्रान्तों के सुधार से देश सुधरेगा और देशों के सुधार से विश्व का सुधार होगा। इस तरह गाँव से थाना, जिला, प्रान्त, देश और संसार के सारे देश के लोग एक मेल में आकर सुधर जाएँगे। इस तरह विश्व में शान्ति विराजेगी।
लेकिन इस मेल को दृढ़ रखनेवाला कौन है? आपस में लोगों को जोड़नेवाला क्या है? वह है-धर्म और सभी धर्मों का मूल है-सत्य। ‘धर्म न दूसर सत्य समाना।’-गोस्वामीजी ने कहा है। इसीलिए संतमत सत्य की सीख देता है। असत्य व्यवहार में मेल टूटता है। सती और शंकर के मेल टूटने का कारण असत्य भाषण ही था। वस्तुतः झूठ के कारण ही बेमेल, अत्याचार, अनाचार, व्यभिचार, दुराचार आदि पाप होते हैं। संतमत सत्य धर्म का प्रचार करता है। संतमत एक सर्वेश्वर का ज्ञान देता है। जो स्वरूपतः नित्य है, सत्य है। वह एक ही एक है, चाहे उसे हम ब्रह्म की संज्ञा दें या ईश्वर की। गॉड की वा अल्लाह की। भाषा की भिन्नता है; वस्तु एक ही है। चाहे हम जल कहें, नीर कहें, पानी कहें, वाटर कहें, आब कहें, कोई फर्क नहीं पड़ता। केवल शब्द की लड़ाई है, वस्तु की नहीं, जिसे हम बच्चों की लड़ाई कह सकते हैं।
एक स्थान पर तीन बच्चे बड़े प्रेम से खेल रहे थे। एक सज्जन ने उनलोगों के खेल से प्रसन्न होकर तीनो बच्चों को एक सज्जन ने कुछ पैसे दिये। तीनों ने विचार किया कि इन पैसों से कुछ खरीदकर खाना चाहिए। उन बच्चों में से एक ने कहा (जो अंग्रेज था)-‘इस पैसे का मैं वाटरमेलन खरीदूँगा।’ दूसरे ने कहा (जो इस्लाम था)-‘नहीं, मैं इस पैसे का हिन्दवाना खरीदूँगा।’ तीसरे ने कहा (जो वैदिक था)-‘मैं इस पैसे का तरबूज खरीदूँगा।’ इस प्रकार विचार-वैषम्य के कारण तीनों बच्चे आपस में झगड़ने लगे। पैसे देनेवाले सज्जन ने तीनों का झगड़ा देखकर कहा-‘बच्चो! मुझे पैसे दो। तुमलोग जो चीज चाहते हो, वही लाकर तुमलोगों को दूँगा।’ उनलोगों ने पैसे दे दिए। वे सज्जन पैसे लेकर बाजार से एक तरबूज खरीद कर ले आए और उसे कपड़े से ढँककर तीनों को क्रम-क्रम से बुलाकर एक-एक टुकड़ा देते हुए कहा-‘कहो! तुमको यही चाहिए ना?’ तीनों अपनी-अपनी मनोवांछित वस्तु को पाकर बड़े प्रसन्न हुए। वस्तुतः चीज एक ही थी, मात्र भाषा की भिन्नता थी। भाषा की अनभिज्ञता के कारण वे लोग आपस में झगड़ रहे थे। इसी भाँति परम प्रभु परमात्मा एक हैं। उसे लोग अनेक नामों से अभिहित करते हैं। ईसाई उसे गॉड कहते हैं, मुसलमान अल्लाह कहते हैं, पारसी अहुरमज्द, चीनी तितीन और वैदिक उसे ब्रह्म कहते हैं। विभिन्न संज्ञाओं के कारण ब्रह्म या परमात्मा अनेक हैं, ऐसी बात नहीं है। इसी शब्दजाल में उलझकर हम आपस में लड़-झगड़ रहे हैं-हमारा ईश्वर भिन्न है और अमुक का गॉड वा अल्लाह भिन्न है।
हम जिस किसी भी देश, जाति वा धर्म के क्यों न हों, सब लोगों के देखने का रास्ता एक है और वह है आँख। किसी भी देश, जाति वा धर्म के लोग आँख के अतिरिक्त कान, नाक, जिभ्या वा त्वचा से नहीं देखते। कोई भी नाक से नहीं सुनते, जब कोई कुछ सुनते हैं, तो कान से ही। इसी प्रकार सभी कोई मुँह से ही भोजन करते हैं, ऐसा नहीं कि कोई कान से वा अन्य इन्द्रिय से भोजन ग्रहण करते हैं। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि परमात्मा ने सबको समान इन्द्रियाँ दी हैं। एक देश, जाति वा धर्म के लोग जिस इन्द्रिय से जो काम लेते हैं, सभी देश, जाति वा धर्म के लोग उस इन्द्रिय से वही काम लेते हैं। जैसे सबके देखने का एक रास्ता आँख है, सबके सुनने का एक रास्ता कान है, सबके भोजन करने का एक रास्ता मुँह है, उसी तरह परमात्मा तक जाने के लिए भी सबका एक ही रास्ता है और वह है अंदर का रास्ता।
बेहोशिये इंसान से यह ख्याल जुदा है ।
जाहिर में है मुहम्मद बातिन में खुदा है ।।
भिन्न-भिन्न इष्टों की भिन्न-भिन्न प्रकार से जो उपासनाएँ की जाती हैं, वे राह नहीं हैं, बल्कि उस राह पर पहुँचने का मात्र माध्यम है। दूसरे शब्दों में हम ऐसा भी कह सकते हैं कि सभी स्थूल सगुण उपासनाएँ वा आराधनाएँ उस राह को पकड़ने की योग्यता प्रदान करती हैं, वस्तुतः रास्ता लकीर को कहते हैं। जिसका कहीं आरंभ होता है, कहीं अन्त होता है और मध्य की दूरी होती है।
यह निर्विवाद रूप से निश्चित है कि परम प्रभु परमात्मा को चेतन आत्मा ही प्राप्त कर सकती है और उस तक पहुँचने में उसके अतिरिक्त और कोई सक्षम नहीं। जो जहाँ बैठा रहता है, वह वहीं से चलता है। यहाँ जितने लोग बैठे हैं, क्या कोई कह सकते हैं कि वे शरीर से बाहर हैं? कदापि नहीं। आप इस शरीर में रहते हैं। अब जिज्ञासा हो सकती है कि यदि आप इसी शरीर में हैं, तो शरीर के किस भाग में, कहाँ पर रहते हैं?
बाहर की चीजों को हम आँख खोलकर देखते हैं, यह स्वाभाविक बात है। किन्तु जो चीज अंदर में है, उसकी खोज हम कैसे करेंगे? बाहर का उलटा होता है अंदर, इसलिए खुले नेत्र का उलटा होता है बंद नेत्र। अतएव हम आँख बंद कर देखें। आँख बंद कर देखते हें तो अपने को अंधकार में पाते हैं। यह अंधकार कहाँ है? नयनाकाश में। इसलिए कबीर साहब ने कहा है-
नैनों माहीं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर ।
सतगुरु भेद बताइया, सब सन्तन सिरमौर ।।
यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि जैसे जहाँ दूध रहता है, वहाँ घृत भी। इसी तरह पिंड में जहाँ मन रहता है, वहाँ चेतन आत्मा वा सुरत भी। इसीलिए संत कबीर साहब ने इस साखी में ‘जीव’ वा ‘सुरत’ के लिए ‘मन’ का प्रयोग किया है। फिर ब्रह्मोपनिषद् के इस श्लोक से तो यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि किस अवस्था में जीव का कहाँ वासा होता है? ब्रह्मोपनिषद् में लिखा है-
जाग्रत्स्वप्ने तथा जीवो गच्छत्यागच्छते पुनः।
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् ।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्निं संस्थितम्।।
जीव जाग्रत् और स्वप्न में पुनः पुनः आता-जाता रहता है। जीव का वासा जाग्रत् में नेत्र में, स्वप्न में कण्ठ में, सुषुप्ति में हृदय में और तुरीयावस्था में मस्तक में होता है।
संत दरिया साहब बिहारी कहते हैं-
जानिले जानिले सत्त पहचानिले,
सुरत साँची बसै दीद दाना।।
संत चरणदासजी महाराज ब्रह्मोपनिषद् से बिल्कुल मिलती-जुलती बातें कहते हैं। ऐसा लगता है कि जैसे दो साजों की एक ही आवाज हो-
जाग्रत बासा नैन में, स्वप्न कंठ स्थान ।
जान सुषुप्ति हृदय में, नाभि तुरीय मन तान ।।
साधना का आरंभ जाग्रतावस्था से ही होगा। अतएव नेत्र संबंधी स्थान से ही साधना का आरंभ वा ईश्वर से मिलन के लिए यात्र का आरंभ होगा।
यही रास्ता संतमत बतलाता है। कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं है। अंतर्गमन की सद्युक्ति संतमत बतलाता है। आवश्यकता है इन्द्रियों में पसरी हुई चेतनवृत्तियों को एकत्रीकरण करने की, जिसका यत्न और लक्ष्य-स्थान संतमत बतलाता है। संतमत की उपासना-विधि-मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टिसाधन और सुरत-शब्द-योग वा नादानुसंधान है। जो वेद, उपनिषद्कालीन ऋषियों से लेकर अद्यावधि संतों तक चली आ रही है। जितने संत हुए हैं सबने एक ईश्वर को बताया और उस तक पहुँचने की सबों ने एक ही राह बतायी। गो0 तुलसीदासजी की वाणी में अभी आपलोगों ने सुना-
पात पात के सींचवो, बरी-बरी के लोन ।
तुलसी खोटे चतुरपन, कलि डहके कहु कोन ।।
आप वृक्ष के मूल में पानी नहीं डालकर उसके पत्ते-पत्ते पर पानी डालें, तो वह वृक्ष सूख जाय, संभव है; परन्तु यदि उसके मूल का सिंचन किया जाए, तो वृक्ष पल्लवित, पुष्पित और फलित हो, इसमें संदेह क्या। उसी तरह बरी के बेसन में ही यदि नमक मिला दें, तो छोटी-बड़ी सभी बरियों में समान रूप से नमक पड़ जाएगा। यदि बेसन में नमक नहीं डालेंगे और अलग-अलग प्रत्येक बरी में नमक देंगे, तो किसी में अधिक, किसी में कम और किसी बरी में लवण नहीं भी हो, संभव है। गोस्वामीजी के कहने का भाव यह है कि एक परमात्मा की उपासना करो, बहुदेव उपासी नहीं बनो। एक ईश्वर की भक्ति से सबकी भक्ति आप ही आप हो जाएगी। संतमत यही सिखलाता है कि एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वास एवं पूर्ण भरोसा करो।
ईश्वर-स्वरूप का ज्ञान बड़ा गंभीर है। जैसे हवा का रूप कैसा होता है, वह समझाना कठिन है, उसी प्रकार ईश्वर का स्वरूप ऐसा है, यह समझाना और भी अति कठिन, बल्कि असंभव है। फिर भी संतों एवं ऋषियों ने उपमा-उपमेय के द्वारा समझाने की भरसक चेष्टा की है। कठोपनिषद् मेंं आया है-
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।10।।
अर्थात्-जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
जिस प्रकार साइकिल का चक्का चक्राकार होता है, उस चक्के में जो हवा रहती है, वह चक्राकार हो जाती है। उसी तरह बैलून में-यदि लंबा है, तो उसकी हवा लंबी हो जाती है और फूटबॉल जो कि गोलाकार है, उसमें हवा गोल रूप धारण करती है। वस्तुतः हवा का क्या रूप है? यथार्थ में हवा न तो लंबी है, न गोल है और न चक्राकार ही। जिस वस्तु में प्रविष्ट होती है, वैसा ही रूप वह धारण करती है। उसी तरह परमात्मा सब रूपों में व्यापक होकर सर्वरूपी होते हुए सबसे परे भी है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा वसत,
इति वासना धूप दीजै।
स्मरण रहे सब रूपों में परमात्मा है सही; परंतु सब रूप ही परमात्मा नहीं। जो सबमें व्यापक है, उनका ज्ञान हमें होना चाहिए, उस ज्ञान के लिए सर्व प्रथम अपना ज्ञान होना आवश्यक है। क्योंकि जबतक हम अपने को नहीं जानेंगे, तबतक परमात्मा को नहीं जान सकेंगे। भक्तिन सहजोबाई ने कहा है-
आपनही कूँ खोज मिलै जब राम सनेही।
जबतक अपनी पहचान नहीं होगी, तबतक परमात्मा का सही ज्ञान नहीं होगा। ठीक वैसे ही, जैसे जबतक अपने शरीर का ज्ञान नहीं होता, तबतक किसी के शरीर के ज्ञान नहीं होता। जब अपने शरीर का ज्ञान हमें होता है, तब अन्यों के शरीर का भी ज्ञान होता है। इसके लिए हम जाग्रत एवं स्वप्न की अवस्था पर विचार करें। जाग्रत अवस्था में अपने शरीर का ज्ञान हमें रहता है, तो संसार का भी ज्ञान रहता है। जाग्रतावस्था से स्वप्नावस्था में जाने पर अपने शरीर का ज्ञान नहीं रहता है, तो स्थूल संसार का ज्ञान नहीं रहता है। पुनः जगने पर स्व-शरीर का ज्ञान होता है, तब पर-शरीर वा संसार का भी ज्ञान होता है। इसलिए संतों ने कहा-परम प्रभु परमात्मा की खोज करना चाहो, तो उसके पूर्व अपनी खोज कर लो। अपने स्वरूप का ज्ञान होगा, तो परमात्म-स्वरूप का भी; क्योंकि दोनों तत्त्वरूप में एक ही है। जैसे जल-बूँद की पहचान से जल-सिन्धु की पहचान होती है, वैसे ही जीव की पहचान से शिव की-सर्वेश्वर की पहचान होती है। परम प्रभु की प्राप्ति का सरल साधन ध्यान विन्दूपनिषद् में इस भाँति बताया है-
बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
अर्थात्-परम विन्दु ही बीजाक्षर है; उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अनाश ब्रह्म) में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है।
अक्षर का बीज विन्दु कैसे बनता है? स्थूल जगत में कागज के ऊपर कलम की नोक जहाँ रखते हैं, वहाँ एक छोटा चिह्न अंकित होता है, वही विन्दु कहलाता है। किन्तु विन्दु की परिभाषा है-जिसका स्थान हो, परन्तु परिमाण नहीं। बाल के नोक से चिह्नित करने पर भी जो विन्दु बनेगा, वह परिभाषा के अनुकूल विन्दु नहीं हो सकता। उसी तरह उसी विन्दु के समूह को रेखा कहते हैं। रेखा में लंबाई होती है, पर मोटाई, चौड़ाई नहीं। स्थूल जगत में किसी भी तरह यथार्थ विन्दु वा रेखा नहीं बन सकती।
हमलोग रेखागणित वा ज्यामिति में पढ़ते हैं-कल्पना किया कि ‘अ ब स’ एक त्रिुभज है। क्यों? इसलिए कि कल्पित विन्दु से जो रेखा बनी, वह कल्पित रेखा और उस कल्पित रेखा से जो त्रिभुज बना, वह कल्पित त्रिभुज है।
ध्यानविन्दूपनिषद् के ऋषि कल्पित विन्दु की बात नहीं करते। वे यथार्थ विन्दु वा परम विन्दु की बात कहते हैं। यह दृष्टि की लेखनी से गुरु निर्देशानुकूल निर्दिष्ट स्थान पर क्रिया-विशेष द्वारा बनता है। इसका यत्न संत गुरु से सीखना चाहिए, जहाँ विन्दु का उदय होता है, वहाँ ध्वनि भी सुनाई पड़ती है। वह ध्वनि अंतर्ध्वनि है, ब्रह्मध्वनि है। उस ध्वनि को ग्रहण कर, उसके अवलंब से बढ़ते-बढ़ते अंत में सुरत अध्वनि में पहुँचती है, जिसको ऋषि ने ‘परमं पदम्’ कहा और गो0 तुलसीदासजी के शब्दों में ‘एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद परधामा।।’ है। यही संतों का अभीष्ट है-मोक्ष पद है, जहाँ से पुनः आवागमन नहीं होता है। यही संतमत बतलाता है।
दिनांक-21-3-1971, स्थान: पटना (63वाँ महाधिवेशन) प्रातःकाल
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एक महात्मा के पास तीन सज्जन पधारे और अभिवादन कर एक ओर बैठ गये। महात्माजी ने पूछा-‘आपलोग किस उद्देश्य से पधारे हैं?’ तीनों ने कहा-‘आपसे शिक्षा ग्रहण करने के लिये।’ महात्माजी ने पुनः उन तीनों से पूछा-आपलोग पहले यह बतलाइए कि आँख और कान में क्या अंतर है? तब मैं उपदेश करूँगा।’ उन तीनों में से एक ने कहा-‘आँख और कान में चार अंगुल का अंतर है। दूसरे ने कहा, ‘कान से सुनी हुई बातों की अपेक्षा आँख से देखी हुई बातें अधिक प्रामाणिक होती हैं।’ तीसरे ने उत्तर दिया, ‘महात्मन्! इन बातों के सिवा श्रवणेन्द्रिय और नेत्रेन्द्रिय में यह भी अंतर है कि चक्षु केवल विषय-मायिक पदार्थों को देख सकता है, किन्तु कर्ण मायिक वार्ता विषय संबंधी बातों के अतिरिक्त निर्मायिक, निर्विषय तत्त्व के संबंध में भी सुन सकता है।
महात्माजी ने पहले को सत्संग करने का, दूसरे को भक्ति का और तीसरे को ज्ञान का उपदेश दिया। अखिल भारतीय संतमत-सत्संग की इस महती सभा में आपलोग भी सत्संग के संबंध में, भक्ति के संबंध में और ज्ञान के संबंध में सुन पायेंगे। किन्तु इस प्रकार के कथन से आप ऐसा न समझें कि इसमें ‘योग’ की चर्चा नहीं होगी। ‘योग’ का संयोग तो भक्ति के साथ और ज्ञान के साथ स्वभावतः रहता ही है। इसीलिए हम कहते हैं-भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि। ‘योग’ के बिना किसी भी साधन में सफलता संभव नहीं। किन्तु हाँ, यह भी कह देना आवश्यक है कि वह हठयोग नहीं, कठिन योग नहीं, राजयोग-सरलयोग है।
दूसरी बात बताऊँ-आप देखते हैं, सरिता के शब्द तबतक ही सुन पाते हैं, जबतक वह समुद्र की समीपता प्राप्त नहीं करती। गगन में उडुगण तबतक ही टिमटिमाते हैं, जबतक सूर्य का उदय नहीं होता है। इसी तरह वन में गीदड़ तबतक ही भूकते हैं, जबतक सिंह का गर्जन नहीं होता। ठीक इसी भाँति वेदान्त ज्ञान के सामने अन्य सभी ज्ञान उसी तरह फीके पड़ जाते हैं, जिस तरह सूर्य के प्रकाश के सामने चन्द्र वा अन्य प्रकाश। श्रवणादिक सभी प्रकार के ज्ञान का जहाँ पर्यवसान होता है, उसे वेदान्त कहते हैं। इसीलिए वेद अर्थात् ज्ञान की परिसमाप्ति जहाँ है, वह ज्ञान वेदान्त कहता है। वेदान्त कहता है-‘सत्य ब्रह्म जगन्मिथ्या’ अर्थात् ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या है। सामान्यतया सत्य और असत्य की परिभाषा बड़ी सीधी है। यथा- हम जैसे सुनते और देखते हैं, ठीक उसी तरह वर्णन करने को सत्य कहते हैं। जिस तरह सुना और देखा, उस तरह नहीं कहा, बात बदल दिया, उसको झूठ कहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जो जैसा था, वैसा ही रहा, वह सत्य है और जो जैसा था, वैसा नहीं रहा, परिवर्तन हो गया, मिथ्या है।
ब्रह्म जैसा था, वैसा ही सदा रहता है, इसलिए वह सत्य है और संसार परिवर्तनशील है-बदलनेवाला है और बदलते-बदलते नाश भी हो जाता है, इसलिए यह असत्य है। दूसरी तरह से संतगण ऐसा भी कहते हैं, यह संसार स्वप्नवत् हैं। अर्थात् स्वप्न के समय स्वप्न की चीजें सत्य प्रतीत होती हैं, किन्तु जगने पर असत्य हो जाती हैं, वस्तु का अभाव हो जाता है। वस्तुतः वह वस्तु थी ही नहीं। उसी तरह अज्ञान की रात में सोये जन को संसार सत्य प्रतीत होता है, किन्तु जगे हुए योगी की दृष्टि में संसार का अस्तित्व ही नहीं है।
स्वप्न में राजा भिखारी और दरिद्र इन्द्र बन जाता है, पर जग जाने पर राजा को न तो कोई हानि होती है और न दरिद्र को कुछ लाभ होता है। ऐसे ही इस संसार को स्वप्नवत् जानो। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
सपने होहिं भिखारी नृप, रंक नाकपति होय ।
जागे हानि न लाभ कछु, तिमि प्रपंच जिय जोय ।।
मोह निसा सब सोबनिहारा।
देखइ सपन अनेक प्रकारा।।
यहि जग जामिनि जागहिं जोगी।
परमारथी प्रपंच बियोगी।
विनय-पत्रिका में उन्होंने इस प्रकार कहा है-
सुभग सेज सोवइ सपने वारिधि बूड़त भय लागे।
कोटिन्ह नाव न पार परै तहँ जब लगि आपु न जागे।।
कोई राजकुमार सुन्दर शय्या पर सोया हुआ है और वह स्वप्न देख रहा है कि मैं समुद्र में डूब रहा हूँ; किन्तु उसके निकट में करोड़ों नावें बँधी रहने पर भी उसके डूबने का विकट भय दूर नहीं हो सकता, जबतक कि वह जग न जाए।
एक बड़ी अच्छी कथा है-राजा जनकजी अपने महल में सोए हुए थे। उन्हेंने स्वप्न देखा कि किसी राजा ने उनके राज्य पर चढ़ाई कर दी। लड़ाई होने लग गयी और भीषण युद्ध हुआ। अन्त में राजा जनकजी हार गये। वे बन्दी बनाकर नये राजा के सामने लाये गये। राजा जनक डर के मारे थर-थर काँप रहे थे। जिस राजा के अधिकार में राजा जनक हो गए थे, उसने कहा-‘जनक! डरने की कोई बात नहीं है। मैं तुम्हारी जान नहीं लूँगा। तुम्हारे शरीर पर जो राजसी वस्त्र-अलंकारादि हैं, उन्हें उतारकर नीचे रख दो। एक कौपीन पहन लो और तुम इस राज्य से बाहर चले जाओ। अब यह सारी प्रजा मेरी हो गयी है।’ तदनन्तर प्रजाओं में यह ढिंढोरा पिटवा दिया कि अब राजा जनक राजा नहीं रहे। राजा मैं हुआ। अब जनक से कोई बोल तक नहीं सकता। अगर मुझे पता चला कि जनक से कोई एक शब्द भी बोला है, तो उसके समूचे परिवार को जलाकर समाप्त कर दिया जाएगा।
अब इधर देखिए-राजा जनकजी पैदल जा रहे हैं। शरीर पर एक कौपीन मात्र है। उनको राज्य सीमा पार करनी है। एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन, पाँच दिन; भूखे-प्यासे चले जा रहे हैं, कोई पूछता तक नहीं। चलते-चलते पैरों में फफोले पड़ गए हैं। अब भूख और प्यास के मारे जीभ मुँह से बाहर हो रही है। येन-केन-प्रकारेण सातवाँ दिन होता है, तो राज्य सीमा पार करते हैं। दुर्बल हो गये हैं। राज्य-पाट पहले ही छीन गया है। जब राज्य-सीमा पार करते हैं, तो पूछते हैं किसी से-‘भाई! बताओ, यहाँ आस-पास में कहीं कुछ खाने को मिलेगा? एक ने कह दिया-‘थोड़ी दूर आगे जाओ, वहाँ खिचड़ी बँटती है। तुमको खिचड़ी मिल जाएगी; लेकिन समय पूरा होने जा रहा है, कहीं ताला न लग जाए भण्डार घर में।’ पैरों में फफोले हैं, चल नहीं सकते हैं और भण्डार के बंद होने का भी भय है। इसलिए वे किसी प्रकार आगे बढ़ते हैं। फफोले फूटते हैं, पानी बहता है और घावों में पीड़ा होती है। इधर भूख भी सता रही है। अतः बढ़ते चले जाते हैं।
जाते-जाते जबतक पहुँचते हैं-भण्डार में ताला लग ही जाता है। अब क्या हो! कहते हैं-‘मुझे तो बड़ी भूख सता रही है, कुछ खिलाओ।’ उत्तर मिला- ‘पहले आते, तो तुमको खाना मिल जाता, अब तो जितनी खिचड़ी बनी थी, सब बँट चुकी है। हाँ, हो सकता है, जली हुई खिचड़ी बर्त्तन में लगी रह गयी हो।’ कहा-‘वही खुरचकर खुरचन ही दे दो। भूख से आग लगी हुई है मेरे भीतर।’ बरतन के पेंदे खुरचकर कहा-‘लो! बरतन कहाँ है?’ बरतन तो था नहीं। कहा-‘हाथ में दे दो।’ हाथ फैलाता है। हाथ पर जली हुई खिचड़ी की खुरचन डाल दी गई। जैसे ही वे उसमें मुँह लगाना चाहते हैं कि एक चील आती है, झपट्टा मारती है और वह खिचड़ी भी हाथ से गिर जाती है।
तबतक राजा की नींद टूट जाती है। इतनी देर तक तो राजा स्वप्न में थे। नींद में थे। अब नींद टूटती है, तो देखते हैं-‘अरे! यह तो राजमहल है। यह मेरी पत्नी है। यह सिंहासन है। यह पलंग है।’ अब वे सोचने लगते हैं-यह जो अभी देख रहा हूँ, यह सच है कि वह सच था? कुछ बोलते नहीं हैं। बोलते हैं, तो बस इतना ही ‘यह सच है कि वह सच?’
रानी जगकर देखती है कि राजा की छाती धक-धक कर रही है। रानी ने पूछा-‘क्या हो गया है आपको?’ बारम्बार पूछती है, राजा कोई उत्तर नहीं देते। यही कहते हैं-‘यह सच है कि वह सच।’ इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं बोलते। एक दिन, दो दिन, कई दिन बीत गए। डॉक्टर आए, वैद्य-ओझा आए, सबसे एक ही प्रश्न-‘यह सच है कि वह सच?’ कोई उत्तर दे नहीं सके। आखिर राजा जनक ने घोषणा की-‘जो कोई मेरे प्रश्न का उत्तर दे देगा, उसको मैं अपना गुरु बना लूँगा और आधा राज्य दक्षिणा में दे दूँगा।’ राजा जनक बड़े ज्ञानी राजा हैं, जो कोई उनके गुरु बने, उसमें उनका कितना बड़ा सम्मान होगा, यह जानकर बड़े-बड़े धुरन्धर पण्डित आए, समझाने-बुझाने के लिए, प्रश्न का उत्तर देने के लिए; लेकिन समाधान नहीं हो सका। अन्त में, जब प्रश्न निरुत्तरित ही रहा तो राजा जनक ने सोचा कि ऐसे अब घर बैठे-बैठे नहीं होगा। वे एक रथ पर सवार होकर चल पड़ते हैं गुरु की खोज में।
उधर से अष्टावक्र मुनि आ रहे थे। अष्टावक्र अर्थात् जिनके आठो अंग टेढ़े हों। जो रथवाहक था उसने कहा-‘अरे तुमको सूझता नहीं है? राजा की सवारी आ रही है और तू सीधे चला आ रहा है।’ अष्टावक्र मुनि के कहा-‘अन्धा मैं हूँ या तुम हो या जो उस रथ पर बैठा हुआ है वह है? अरे! कोई लंगड़ा होता है, लूला होता है, अंधा होता है, अंग-विहीन होता है, तो उसे रास्ता दिया जाता है, उससे रास्ता माँगा नहीं जाता। तुम देख रहे हो, मैं आठो अंग से टेढ़ा हूँ, चलने-फिरने में भी लाचार हूँ और उल्टे तू मुझसे रास्ता माँग रहा है। तारीफ यह है कि उस रथ पर बैठा हुआ जो अंधा है, वह भी कुछ कहता नहीं है।’ राजा जनक ने सोचा यह कोई साधारण आदमी नहीं हो सकता। राजा जनक रथ से उतर पड़े और बोले-‘महात्मन्! आप कौन हैं?’ मुनि ने कहा-‘तुम कौन हो?’ राजा बोले-‘मैं तो राजा जनक हूँ।’ मुनि ने कहा-‘कहाँ चले हो?’ राजा ने कहा-‘गुरु की खोज में चला हूँ।’ मुनि ने हँसकर कहा-‘तुम रथ पर बैठकर चले हो गुरु खोजने के लिए। रास्ते में गुरु मिल जाएँ, तो उन्हें कैसे ले जाओगे?’ राजा बोले- ‘महाराज! मैं पैदल चलूँगा, गुरु को रथ पर बैठा लूँगा। अगर आप मेरे प्रश्न का उत्तर देना चाहें तो रथ पर पधारें।’ मुनि ने कहा-‘चल, मैं तेरे प्रश्न का उत्तर दूँगा।’ राजा अष्टावक्र मुनि को रथ पर बैठा लेते हैं और स्वयं पैदल चलते हैं। प्रजा देखती है कि महाराज पैदल चले आ रहे हैं। सब चकित हैं। आखिर रथ पर कौन है? राजमहल आता है। अष्टावक्र मुनि को रथ पर से उतारा जाता है। उनके हाथ, पैर, मुँह, कान, नाक सब-के-सब टेढ़े थे। यह देखकर राजा जनक के सभासद हँस पड़े। इधर अष्टावक्र मुनि ने भी ठहाका लगाकर हँस दिया। राजा जनक ने मुनि को आदर-सत्कार के साथ बैठाया और पूछा-‘आपके हँसने का कारण?’ मुनि ने कहा-‘राजन्! तुम्हारे जो सभासद हैं, पहले उनसे हँसने का कारण पूछो। पहले वे उत्तर दे दें, उसके बाद मैं उत्तर दूँगा।’ सभासदों ने कहा-‘इस तरह की कुरूपता हमलोगों ने पहले कभी देखी नहीं थी। इस प्रकार के रूप देखने से हमलोगों को एकाएक हँसी आ गई।’
अब अष्टावक्र मुनि बोले-‘मेरे हँसने का कारण यह है कि मैंने सुन रखा था-महाराज जनक की सभा में बड़े-बड़े ज्ञानी हैं, विद्वान् हैं, विज्ञानी हैं, ब्रह्मवेत्ता हैं, आत्मदर्शी हैं; लेकिन जब मैं सभा में पहुँचा हूँ, तो मुझे बड़ी निराशा हो रही है। यहाँ तो देखता हूँ कि सब-के-सब चमार बैठे हुए हैं।’ राजा जनक ने विस्मयपूर्वक कहा-‘महाराज! आप ऐसी बात क्यों कर रहे हैं?’
मुनि ने उत्तर दिया-‘अगर कोई आत्मविद् होता, आत्मज्ञानी होता, यथार्थ में कोई ब्राह्मण होता, तो वह ब्रह्म की पहचान करता। ब्रह्म की पहचान करनेवाला ही ब्राह्मण होता है। चमड़े और हड्डी की पहचान करनेवाले, भला चमार नहीं तो और क्या हो सकते हैं? इन सभासदों ने तो मेरे चमड़े और हड्डी की पहचान की है। मेरा यह अंग टेढ़ा, मेरी यह हड्डी टेढ़ी, यह चमड़ा टेढ़ा। चमड़े और हड्डी की पहचान करनेवालों को चमार की संज्ञा न दी जाए, तो और क्या कहा जाय? समझो, विचारो तो तुम। नदी टेढ़ी होती है; लेकिन उसका पानी टेढ़ा नहीं होता। उसी प्रकार यह शरीर टेढ़-मेढ़ा हो सकता है; परन्तु इसके अन्दर निवास करनेवाली आत्मा टेढ़ी नहीं हो सकती। वह तो ज्यों-की-त्यों है। अरे! अपने बगल में लगे तकियों को देखो-तकियों के ऊपर के खोल जो हैं-कोई लाल है, कोई नीला है, कोई पीला है, कोई कैसा है; लेकिन सबों के अन्दर एक ही प्रकार की रूई रहती है। उसी तरह शरीर बाहर से गोरा है, काला है, लम्बा है, नाटा है, मोटा है, दुबला-पतला है, यह तो शरीर का रूप-रंग है, आकार-प्रकार है; लेकिन उसके अन्दर रहनेवाली आत्मा का स्वरूप तो एक ही है।’
राजा जनकजी समझ गए कि ये कोई सामान्य व्यक्ति नहीं हैं। उन्होंने कहा-‘महाराज! अब मेरी जो जिज्ञासा है, उसका समाधान किया जाए।’ मुनि ने कहा-‘पूछो।’ राजा ने कहा-‘यह सच है कि वह सच?’ मुनि ने अल्पकाल के लिए अपनी आँखें बन्द की और फिर खोल दी। सारी स्थिति को जान लिया। आँख बन्द करते ही वे सारी घटना देख चुके। उन्होंने कहा-‘राजन्! न यह सच है और न वह सच है।’ राजा ने कहा-‘यह आप क्या कह रहे हैं? खुलासा कीजिए।’ मुनि ने कहा-‘राजन्! जिस प्रकार तुम्हारे राज्य पर किसी दूसरे राजा ने चढ़ाई की थी, घनघोर युद्ध हुआ था, तुम हार गये थे, सभी राजोचित वस्त्र- अलंकार तुमको छोड़ने पड़े थे, एक कौपीन पहनकर सात दिनों तक भूखे पैदल चले थे। पैरों में फफोले पड़ गये थे, भूख-प्यास के मारे तुम्हारी जान निकल रही थी और भिक्षा में हाथ में जली हुई खिचड़ी की खुरचन मिली थी, उसी वक्त चील ने झपट्टा मार दिया था, क्यों याद है ना?’ जनक ने कहा-‘हाँ याद तो है।’ मुनि ने पूछा-‘क्या वह स्थिति अभी है?’ राजा बोले-‘नहीं महाराज! अभी तो नहीं है।’ मुनि ने कहा-‘जिस वक्त तुम उस अवस्था में थे, क्या अभी की अवस्था थी तुम्हारी?’ राजा ने कहा-‘नहीं।’ मुनि ने पूछा-‘यह राज्य-वैभव था?’ राजा ने कहा-‘नहीं, राज्य-वैभव कहाँ? तब तो मैं कंगाल था।’ मुनि ने कहा-‘उस कंगाल की अवस्था में थे, तब यह राज्य वैभव नहीं था और जब तुम राजा बने हुए हो, तब वह कंगालवाली अवस्था नहीं है। इसलिए न यह सच, न वह सच। उस अवस्था के लिए यह अवस्था झूठी और इस अवस्था के लिए वह अवस्था झूठी। इसलिए न यह सच है, न वह सच है।’ राजा ने पूछा-‘महाराज तब क्या सच है?’ मुनि बोले-‘कंगाल कौन था?’ राजा ने कहा-‘मैं था।’ मुनि बोले-‘अभी राजा बना कौन बैठा है?’ राजा ने कहा-‘मैं हूँ राजा।’ मुनि बोले-‘तब तुम ही सच हो, तब भी तुम थे और अब भी तुम हो। इसलिए तुम सच हो।’
मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि यद्यपि वह झूठा था, फिर स्वप्नावस्था में जनकजी को बहुत कष्ट था। जिस तरह राजा जनकजी के स्वप्न के दुःख अष्टावक्र मुनि की कृपा से जगने पर छूटा, उसी तरह मोह-निशा में सोया हुआ जागतिक जीव असत्य जगत को सत्य मानकर दुःख भोग रहा है। संत सद्गुरु की दया पाकर जगने पर ही उससे छूट सकता है। संत-महात्मागण बतलाते हैं कि जगत् स्वप्नवत् है। स्वप्न में स्वप्नावस्था के कार्य-कलापों को कोई मिथ्या नहीं जानता। किन्तु जब उसकी निद्रा टूटती है अर्थात् जगता है, तब उसको स्वप्न में मिथ्यात्व का बोध होता है। आवश्यकता है, बहिर्मुख से ईश्वराभिमुख होकर जगने की। इसी के संबंध में संत दरिया साहब ने कहा है-
माया मुख जागे सबै, सो सूता कर जान ।
दरिया जागे ब्रह्म दिसि, सो जागा परमान ।।
यह वेदान्त ज्ञान बतलाता है। संसार की अस्तित्वशून्यता के संबंध में पुनः गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
रजत सीप महँ भास जिमि, जथा भानुकर वारि ।
यद्यपि मृषा तिहुँ काल महँ, भ्रम न सकै कोउ टारि ।।
यह विधि जग हरि आस्त्रित रहई।
यद्यपि असत्य देत दुःख अहई ।।
अर्थात् जैसे सीपी पर जब सूर्य की किरण पड़ती है, तो वह चाँदी जैसी भासती है। बालू में धूप के कारण प्यासा मृग को पानी-जैसा भासता है। वह उसे पानी समझकर पान करने के लिए दौड़ता है। दौड़ते- दौड़ते वह मर जाता है, पर पानी मिलता नहीं। पानी मिले भी तो कैसे? वहाँ तो पानी है नहीं। लेकिन उस अज्ञ मृग को कौन समझा सकता है! इसी तरह ईश्वर की सत्ता पर यह जगत भासता है। लेकिन जगत का स्वयं अस्तित्व नहीं है। ठीक वैसे ही, जैसे सित्तू (सीपी) के आधार पर चाँदी भासती है, लेकिन वहाँ चाँदी है नहीं। अंधकार में रस्सी को देखकर साँप का भ्रम होता है। इसी तरह अज्ञानता में संसार दीखता है। ज्ञान प्रकाश पाने पर संसार नहीं रह जाता, फिर उससे उत्पन्न भ्रम और भय स्वयं भाग जाते हैं। यही संत महात्मागण बतलाते हैं।
संतगण ऐसा भी कहते हैं कि यह संसार बाजीगर के खेल जैसा है। बाजीगर अपने खेल वा तमाशे में जो कुछ दिखलाता है, देखने में तो सत्य प्रतीत होता है, किन्तु यथार्थ में वह कुछ नहीं है। जैसा जो कुछ देखने में आता है, वैसा वह है नहीं, यही है माया। उसी तरह यह जगत् है। जैसा दीखता है, वैसा नहीं है। वनवासकाल में भगवान श्रीराम से लक्ष्मणजी ने पूछा था, माया क्या है? भगवान ने कहा था-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई।
सो सब माया जानेहु भाई।।
अर्थात् इन्द्रियों को जो प्रत्यक्ष हो और जहाँ तक मन जाता है, सब माया ही माया है। आपको जितने भी प्रकार के रंग-रूपों के दर्शन हों, सबको इसी कसौटी पर कसकर देख लीजिए। स्वतः पता चल जाएगा कि वह ब्रह्म है वा भ्रम है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ब्रह्मस्वरूप का वर्णन करते हैं।
जो माया सब जगहिं नचावा।
जासु चरित लखि काहु न पावा ।।
सो प्रभु भ्रू विलास खग राजा।
नाच नटी इव सहित समाजा ।।
व्यापक व्याप्य अखंड अनन्ता।
अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता।
सबदरसी अनवद्य अजीता ।।
निर्मल निराकार निर्मोहा।
नित्य निरंजन सुख संदोहा ।।
प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी।
ब्रह्म निरीह बिरज अविनासी ।।
और भी,
निर्गुन रूप सुलभ अति, सगुन जान नहि कोय ।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होय ।।
कोई कहते हैं-‘जो भगवान निर्गुण है, निराकार है, अव्यक्त है, फिर उनसे लेना क्या? न कभी भेंट, न मुलाकात। जब चाहें, तब दर्शन; जो माँगना चाहें, प्रत्यक्ष माँग लें।’ उनसे दूसरे कहते हैं-‘आपके ईश्वर सगुण, साकार और व्यक्त हैं, तो क्या अभी उनके दर्शन हो सकते हैं?’ इसके उत्तर में वे कहते हैं-नहीं, वे तो समय पाकर अवतार धारण करते हैं और कार्य संपादन काल तक ठहरकर फिर चले जाते हैं।’ हमारे भगवान तो सगुण हैं, साकार हैं, व्यक्त हैं। दूसरे कहते हैं- “ आपके कहने का तात्पर्य यह हुआ कि पहले वे अव्यक्त थे, कार्यवश व्यक्त हो गये। पहले वे निर्गुण थे, कार्यवश सगुण हुए, फिर निर्गुण स्वरूप को प्राप्त हो गये। पहले निराकार थे, भक्त प्रेमवश साकार हुए, दर्शन देकर फिर निराकार हो गये। अब तराजू के दोनों पलड़ों पर एक ओर निर्गुण, निराकार और अव्यक्त को रखिए और दूसरे पलड़े पर सगुण, साकार और व्यक्त को रखकर देखिए, कौन पलड़ा भारी होता है? आदि में निर्गुण और अंत में निर्गुण; किन्तु बीच में सगुण। इसलिए दोनों निर्गुणों को एक पलड़े पर रखिए और सगुण को दूसरे पलड़े पर। आदि में निराकार, अंत में निराकार, केवल मध्य में साकार। इसलिए दोनों निराकार को एक पलड़े पर रखिए और साकार को दूसरे पलड़े पर। पुनः आदि में अव्यक्त, अंत अव्यक्त और बीच में कुछ काल के लिए व्यक्त। इसलिए दोनों अव्यक्त को एक पलड़े पर और एक व्यक्त को दूसरे पलड़े पर रखिए। साथ ही, यह भी स्मरणीय है कि उस सगुण, साकार, व्यक्त के साथ निर्गुण, निराकार, अव्यक्त सतत अव्याहत रूप से व्यापक रहता है। अब विवेक विलोचन से अवलोकन करें, निश्चित कर नित्य स्थिर वा शाश्वत सत्य कौन है?”
मूलारंभ तत्त्व क्या है? गोस्वामीजी कहते हैं- ‘अगुन अखंड अलख अज जोई।’ और पश्चात् का? तो वे पुनः स्पष्ट कह देते हैं-
‘भगत प्रेम बस सगुन सो होई।’
गोस्वामी तुलसीदासजी ने और भी कहा है-
भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
भगवान श्रीकृष्ण के अवतार की बात श्रीमद् भागवत स्कन्ध 1, अध्याय 15 के 34-35 श्लोकों में लिखा है-जैसे किसी को काँटा गड़ जाए, तो उस काँटे को दूसरे काँटे से निकालकर पुनः दोनों को फेंक देते हैं। उसी तरह पृथ्वी पर जब दुष्टरूप काँटों का उदय होता है, तब भगवान भी शरीररूपी काँटों को धारण करते हैं और दुष्टरूप काँटों का विनाश कर फिर अपना शरीर भी त्याग देते हैं।
यथा हरद् भुवो भारं ता तनुं विजहावजः ।
कण्टकं कण्टकेनेव द्वयं चापीशितुः समम् ।।
यथा मत्स्यादि रूपाणि धत्ते जह्याद् यथानटः ।
भूभारः क्षपितोयेन जहौ तच्च कलेवरम् ।।
और, भगवान श्रीराम के अवतार के विषय में रामचरितमानस के उत्तरकांड में लिखा है-
यथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोय ।
सोइ सोइ भाव दिखावइ, आपु न होय न सोय ।।
अर्थात् जैसे कोई नट वा बहुरूपिया अनेक रूप बनाकर नाच करता और वही-वही भाव दिखाता है; किन्तु आप वह यानी जिस व्यक्ति का रूप धारण किया है, नहीं हो जाता है। एक कथा है-
एक बहुरूपिया था। एक दिन वह वहाँ के राजा के घर पर पहुँचा। राजा ने कहा-‘अजी! सुनता हूँ कि तुम अनेक प्रकार का वेश बनाकर लोगों को ठग लेते हो, लोग तुम्हें पहचान नहीं सकते। क्या तुम मुझे ठग सकते हो? यदि तुम मुझे ठग सको, तो मैं तुमको इनाम दूँगा। बहुरूपिया ने कहा-‘जी हाँ, हुजूर को भी ठग सकता हूँ। ऐसा कहकर और राजा को प्रणाम कर वह वहाँ से चल पड़ा। बाजार से नकली दाढ़ी-मूँछ और बाल लेकर साधु वेश बनाकर वह शहर से बाहर धुनी रमाकर बैठ गया। साधु जानकर लोग उसके निकट जाता, प्रणाम करता, कुछ भेंट चढ़ाता; किन्तु वह चुपचाप बैठा रहता, किसी का कुछ ग्रहण नहीं करता। धीरे-धीरे शहर में बात फैल गयी कि एक सिद्ध महात्मा पहुँचे हुए हैं। वे बड़े त्यागी और विरक्त हैं, किसी के दिये हुए को छूते तक नहीं। अब उसकी खबर राजा तक पहुँच गयी। राजा के मन में इच्छा हुई कि ऐसे सिद्ध महात्मा का दर्शन अवश्य किया जाए। राजा भी उसके निकट पहुँचे। उसके रूप और वेश-भूषा से प्रभावित होकर राजा ने सौ रुपये का नोट सामने रखकर श्रद्धावनत हो प्रणाम किया। बहुरूपिया (जो संन्यासी वेश में था) ने उस नोट को हाथ से नहीं छूकर अपने चिमटा से उठाकर जलती धुनी की आग में डाल दिया। यह देखकर राजा चकित हो गया और उसके त्याग, तपस्या, विरक्ति और महानता की मन-ही-मन प्रशंसा करता हुआ घर लौटा। थोड़ी देर के बाद संन्यासी का वेश त्यागकर बहुरूपिया राजा के दरबार में हाजिर हुआ और राजा को सलाम कर इनाम माँगा। राजा ने पूछा-‘कैसा इनाम?’ बहुरूपिया से राजा ने पूछा तुमने मुझे संन्यासी का स्वांग दिखाया? बहरूपिया ने कहा- हुजूर! ने मुझे रूप बनाकर ठगने कहा था और ठगने पर इनाम देने की बात हुजूर ने कही थी। राजा ने विस्मित होकर पूछा, ‘तुमने मुझे ठग लिया?’ कब? बहुरूपिया ने कहा, ‘महाराज! कल्ह आपने सौ रुपये के नोट देकर जिस संन्यासी को प्रणाम किया था, वह कौन था? मैं ही तो था।’ बहुरूपिया के उस संन्यास वेश को याद कर और अपने को ठगा जानकर राजा ने हँसते हुए कहा, ‘देखो! मैं तो तुमको मामूली इनाम दूँगा, जो उस सौ रुपये से कम होगा। किन्तु तुमने उस सौ रुपये के नोट को आग में क्यों जला दिया?’ बहुरूपिया ने कहा, ‘महाराज! यदि मैं उस रुपये को नहीं जलाता, तो मेरे संन्यास वेश को कलंक लगता।’ राजा प्रसन्न हुआ और बहुरूपिया को पुरस्कृत कर विदा किया। जैसे वह बहुरूपिया मात्र लीला दिखाने के लिए संन्यासी का रूप बनाया था। वास्तव में वह संन्यासी नहीं हो गया, जो का सो ही रहा। उसी तरह ईश्वर सगुण रूप को धारण करते हैं, किन्तु वे सगुण ही नहीं हो जाते, स्वरूपतः वे जैसे के तैसे रहते हैं। संत कबीर साहब कहते हैं-
जस कथिये तस होत नहिं, जस है तैसा सोय।
असल में ईश्वर का स्वरूप तो ‘व्यापक व्याप्य अखंड अनन्ता। अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।’ है जैसा गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है। कठोपनिषद् में है-
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च।। 10।।
अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है। उसी तरह सर्वभूतों में रहनेवाली एक आत्मा सर्वव्यापक होकर उसको भरकर भी कितना बाकी बच जाता है, उसका अंदाजा नहीं किया जा सकता। ऐसे परमात्म-स्वरूप के संबंध में सभी संतों का एक ही विचार है। संत दादू दयालजी कहते हैं-
ये हौं बूझि रही जीव जैसा, तैसा कोइ न कहै रे ।
अगम अगाध अपार अगोचर, सुधि बुधि कोई न लहै रे ।।
संत कबीर साहब ने कहा है-
नाद बिन्दु तें अगम अगोचर, पँच तत्त तें न्यार ।
तीन गुनन तें भिन्न है, पुरुष अलक्ख अपार ।।
गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा है-
अलख अपार अगम अगोचरि ना तिसु काल न करमा ।
जाति अजाति अजोनी संभउ ना तिसु भाउ न भरमा ।।
साचे सचिआर विटहु कुरबाणु ।
ना तिसु रूप बरनु नहिं रेखिआ साचे सबदि नीसाणु ।।
ना तिसु मात पिता सुत बंधपु ना तिसु काम न नारी ।
अकुल निरंजन अपर-परंपरु सगली जोति तुमारी ।।
घट घट अंतरी ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ।
बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।।
जंत उपाइ कालु सिरिजंता बसगति जुगति सबाई ।
सतिगुरु सेवि पदारथु पावहि छूटहि सबदु कमाई ।।
सूचै भाडै साचु समावै बिरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।
ऐसे प्रभु के दर्शन इस स्थूल नेत्र से नहीं हो सकते तथा स्थूल और सूक्ष्म किसी भी इन्द्रिय से उस सर्वेश्वर का साक्षात्कार संभव नहीं; क्योंकि इन्द्रियों में ऐसी क्षमता नहीं। सामवेद में लिखा है-
ओ3म् सयोजत उरुगायस्य जूतिं वृथा क्रीडन्तं मिमिते न गावः।
परीणसं कृणुते तिग्म शृंगो दिवा हरिर्ददृशे नक्तमृज्रः।।
अर्थात् इस मंत्र के द्वारा वेद भगवान् उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यो ! हाथ, पैर, गुदा, लिंग, रसना, कान, त्वचा, आँखें, नाक और मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर को प्रत्यक्ष करने की चेष्टा करना, झूठ ही एक खेल करना है; क्योंकि इनसे वह नहीं जाना जा सकता। वह तो इन्द्रियातीत है। तब किससे जाना जाएगा? कठोपनिषद् में आया लिखा है-
पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयं-
भूस्तस्मात्पराघ् पश्यति नान्तरात्मन् ।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदा-
वृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्।।1।।
अर्थात्-स्वयंभू-परमात्मा ने इन्द्रियों को बहिर्मुखी बनाया है, इसलिए वे बाहर ही देखती हैं; अन्तरात्मा को नहीं। तब कोई-कोई धीर अमृतत्व की इच्छा करते हुए आवृत्तचक्षु होकर अर्थात् ढँके हुए नेत्र-बन्द नेत्रवाला होकर-दृष्टिशक्ति को अन्तर्मुख फेरकर आत्मा का दर्शन करते हैं।
इसलिए कबीर साहब ने कहा है-
चाम चश्म न नजरि न आवै खोजु रूह के नैना ।
यदि पूछा जाय कि इन नेत्रें से हमें ईश्वर के दर्शन नहीं हो सकने का कारण क्या है? अथवा स्थूल वा सूक्ष्म किसी भी इन्द्रिय द्वारा परमेश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान क्यों संभव नहीं है? तो इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि जैसे स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता, वैसे ही हमारी स्थूल वा सूक्ष्म सभी इन्द्रियाँ उस परमात्म-स्वरूप को सूक्ष्मता के समक्ष अत्यन्त स्थूल हैं। इसलिए ईश्वर-दर्शन में ये सक्षम नहीं हैं।
यदि इसे तर्क की कसौटी पर कसकर देखना चाहें, तो हमें थोड़ा बुद्धि का व्यायाम करना होगा। सृष्टिक्रम की ओर दृष्टि करने पर इस विषय की परिपुष्टि हो जाती है कि विश्व का विरचना सूक्ष्म से स्थूलता की ओर हुआ है। हमलोग सृष्टि के जिस मंडल में अभी अवस्थित हैं, इसको पांचभौतिक जगत कहते हैं। इस पांचभौतिक जगत के पाँच तत्त्वों-क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर में किसको सबसे पूर्व का माना जाए? विवेकी जन सरलतापूर्वक कह सकेंगे आकाश को। क्योंकि आकाश के बिना अवकाश कहाँ, जहाँ ये अन्य चार तत्त्व रह सकें? अतएव ये सर्वमान्य है कि पंच तत्त्व में प्रथम गगन, फिर पवन, तब अनल, पश्चात् जल और तत्पश्चात् स्थल हुआ। पर पदार्थ की अपेक्षा पूर्व का पदार्थ सूक्ष्म होता है। अतएव वह अपने स्थूल पदार्थ में यानी पर पदार्थ में स्वभावतः व्यापक होकर अपना मंडल ऊपर रखता है। जैसे पाँच तत्त्वों में सबसे प्रथम आकाश होने के कारण आकाश चार तत्त्वों में व्यापक होकर वह अपना मंडल सबसे ऊपर रखता है। यदि सर्व साधारण जन की समझ में यह बात स्पष्ट नहीं हो सके, तो वे इस तरह समझें। पानी में मिट्टी को घोलकर एक काँच के गिलास में रखकर चौबीस घंटे के बाद वे देखें। देखने में आएगा कि मिट्टी का भाग नीचे जमा है और उसमें व्यापक होता हुआ पानी उसके ऊपर भी है। इससे यह निचोड़ निकला कि मिट्टी से पानी पहले का है, इसलिए वह मिट्टी के ऊपर है और सूक्ष्म होने के कारण उसमें व्यापक भी है। मिट्टी का गुण गंध और इसके पूर्व के चार तत्त्व इसमें व्यापक होने के कारण उन चारों तत्त्वों के गुण इसमें व्याप्त हैं। यही हेतु है कि यह अपने निज गुण गंध के अतिरिक्त रस, रूप, स्पर्श और शब्द से भी अपने को संयुक्त किये रहती है। जल के पश्चात् थल की रचना होने के कारण जल में मिट्टी व्यापक नहीं हो सकती है, इसलिए शुद्ध जल में मिट्टी का गुण गंध व्यापक नहीं होती। किन्तु उक्त जल में अग्नि का गुण रूप, वायु का गुण स्पर्श और आकाश का गुण शब्द तो उसमें व्यापक रहता ही है। फिर अग्नि के पश्चात् जल और मिट्टी के गुण होने के कारण इन दो तत्त्वों के गुण रस और गंध इसमें व्यापक नहीं होते, किन्तु इसके पूर्व के दो तत्त्व वायु और आकाश के गुण स्पर्श और शब्द तो व्यापक रहते ही हैं। अब वायु को लीजिए। वायु के पश्चात् अग्नि, जल और पृथ्वी के होने के कारण, इन तीन तत्त्वों के तीन गुण इसमें प्रवेश कर नहीं पाते, किन्तु निज गुण स्पर्श के सहित आकाश का गुण शब्द को धारण किये तो यह रहती ही है और आकाश इन सब तत्त्वों से पूर्व होने के कारण मात्र अपने गुण शब्द को यह धारण करता है, अन्य चार तत्त्वों के किसी गुण को नहीं।
हम क्षिति, जल, पावक; इन तीन तत्त्वों को देखते हैं; किन्तु वायु और आकाश को नहीं। क्यों? इसका यही कारण है कि अग्नि का गुण रूप है। यह रूप-गुण वायु और आकाश में व्यापक नहीं है। इसलिए इन दो तत्त्वों को नहीं देखते; परंतु उन तीन तत्त्वों में व्यापक है, इसलिए उन तीन तत्त्वों को देखते हैं। वायु का स्पर्श होता है, किन्तु आकाश का स्पर्श ज्ञान नहीं होता। क्यों? इसका कारण है कि वायु का स्पर्श-गुण आकाश में व्यापक नहीं है।
अब विचारवान विचार सकते हैं-जबकि हम पवन को इस नयन से नहीं देख पाते और गगन को किसी इन्द्रिय से स्पर्श नहीं कर पाते; तब उसके भी पूर्व के तत्त्व हैं और उन तत्त्वों के रचयिता जो परमात्मा हैं, उनको हम कैसे देख सकते हैं और किसी इन्द्रिय से स्पर्श भी कैसे कर सकते हैं?
मैंने तो पंच तत्त्वों की बात कही। अब संत सुंदर दासजी की वाणी में उन तत्त्वों के सहित अन्य तत्त्वों के एवं उनके निर्माता के संबंध में भी सुनिए-
भूमि पर अप आपहू के, परे पावक है ।
पावक के परे पुनि, वायुहू बहत है ।।
वायु के परे व्योम, व्योमहू के परे इन्द्री दश ।
इन्द्रिन के परे अन्तःकरण रहत है ।।
अन्तःकरण पर, तीनों गुण अहंकार ।
अहंकार पर, महतत्त्व कूँ लहत है ।।
महतत्त्व पर मूल माया, माया पर ब्रह्म ।
ताहि तें परातपर, सुन्दर कहत है ।।
एक छोटी-सी उपमा दूँ, अब विचार कीजिए, वह कितना सूक्ष्म होगा और उसकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? एक घड़ी होती है, जिसे हाथ में बाँधते हैं और दूसरी घड़ी होती है, जिसे दीवाल पर टाँगते हैं। दीवाल घड़ी बड़ी होती है, उसके कल-पूर्जे को पकड़नेवाला यंत्र बड़ा होता है और हाथ की घड़ी के कल-पुर्जे को खोलने के यंत्र छोटे-छोटे होते हैं। यदि हम बड़ी घड़ी के औजार से छोटी घड़ी के कल-पुर्जों को खोलना चाहें, तो खोल नहीं सकते! उसके लिए तो छोटे महीन यंत्र की ही आवश्यकता होगी और तभी हम खोल भी सकते हैं।
इसी तरह हमारी बाह्यान्तर की सभी इन्द्रियाँ स्थूल हैं। ये उस सूक्ष्मतम परमात्मा को ग्रहण नहीं कर सकती। हाँ, जैसा कि कठोपनिषद् में कहा है-
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनू ँ ् स्वाम्।।
अर्थात् साधक ही जिस आत्मा का वरण करता है, उस आत्मा से ही यह प्राप्त किया जा सकता है। उसके प्रति यह आत्मा अपने स्वरूप को अभिव्यक्त कर देता है। अर्थात् चेतन आत्मा ही परमात्मा को प्राप्त कर सकती है; क्योंकि यह उसका अभिन्न अंश है। गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में हम कह सकेंगे-
ईस्वर अंस जीव अबिनासी।
चेतन अमल सहज सुखरासी।।
और अंत में यह तो सबको समझे ही निस्तार है कि प्रभु-मिलन की सद्युक्ति संत सद्गुरु से ही मिल सकती है। अतएव हम उनकी शरण ग्रहण करें और सत्साधना जानकर नित्य प्रति अभ्यास करें।
यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 63वें वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर दिनांक-21-3-1971, स्थान: पटना के राजेन्द्रनगर में रात्रिकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।
(शान्ति-संदेश, मई 1971)
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मैं अपनी बात आपको सुनाने नहीं आया हूँ। संतों तथा ऋषियों के उपदेशपूर्ण वाणियों को सुनाने आया हूँ। हमलोगों के संतमत-सत्संग में वेद-वाणी, उपनिषद्-वाणी, संतवाणी आदि के पाठ हुआ करते हैं। अभी आपलोगों ने योगशिखोपनिषद् का यह प्रसंग सुना है, जिसमें ब्रह्माजी तथा शिवजी का संवाद है। एक समय षडानन जी उपस्थित हो कहने लगे-हे शूलपाणि! संसार के लोग त्रयताप तापित हैं। उस त्रिशूल के निर्मूल नाश के लिए आप कोई निर्भूल उपाय बताइए। शिवजी ने कहा-इसके लिए कोई योग बताते हैं और कोई ज्ञान। किंतु मेरे विचार से केवल योग के द्वारा वा केवल ज्ञान के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति हो, मोक्ष की प्राप्ति हो, संभव नहीं। इसलिए ज्ञान और योग दोनों का अभ्यास मुमुक्षु को करना चाहिए।
योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः ।
योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत् ।।
अर्थात्-योगहीन ज्ञान मोक्षप्रद भला कैसे हो सकता है ? उसी तरह ज्ञान-रहित योग भी मोक्ष-कार्य में समर्थ नहीं हो सकता। इसलिए ज्ञान और योग; दोनों का अभ्यास दृढ़ता के साथ मुमुक्षु को करना चाहिए ।
इतने में गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज उपस्थित हो जाते हैं-
जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू।
जहँ नहिं राम प्रेम परधानू।।
योग के कुयोग होने से सर्वेश्वर से संयोग नहीं हो सकता। वस्तुतः जिसको भक्ति की युक्ति की उपलब्धि नहीं, उसके लिए योग कुयोग और ज्ञान अज्ञानू है। इसलिए ज्ञान, योग और भक्ति-तीनों चाहिए। जैसे मिष्टान्न बनाने के लिए अन्न, घृत और मिठाई-तीनों की आवश्यकता होती है। वैसे ही मोक्ष प्राप्त्यर्थ ज्ञान, योग और भक्ति-इन तीनों का प्रबल प्रयोजन है। इस महाधिवेशन के विज्ञापन में भी आप पढ़े होंगे-‘ज्ञान- योग-युक्त ईश्वर-भक्ति-सन्देश।’
सम्प्रति मैं योग के ऊपर समासरूप में प्रकाश डालने की चेष्टा करूँगा। क्योंकि योग के नाम से लोग ऐसे चौंक उठते हैं, जैसे कोई हिंस्त्र जानवर से। कहते हैं कि एक बार गोनू झा को बिल्ली पालने के लिए किसी ने एक गाय दी। झा जी ने बिल्ली को दूध पिलाने के बजाय स्वयं दूध पीने का एक उपाय सोचा। इसलिए एक दिन उन्होंने बहुत गर्म दूध में बिल्ली का मुँह पकड़कर घुसेड़ दिया। बिल्ली का मुँह जल गया। मुँह जल जाने के कारण डर के मारे अब वह ठंढे दूध में भी मुँह नहीं देती। उसी तरह किसी ने हठयोग की क्रिया की। संयम-विहीन को हठयोग हानि पहुँचाता ही है। उस योग के कारण उसको रोग हुआ। इसीलिए लोग योग का नाम सुनकर घबड़ाने लगे और अब भी बहुत लोग घबड़ाते हैं। असल में सोचा जाए, तो योग के बिना हम रह नहीं सकते। हमलोगों का जीवन नहीं रह सकता है। हम योग से ही जीवित हैं। योग का अर्थ है जोड़ना। एक किसान यदि मनोयोगपूर्वक खेती का काम नहीं करेगा, तो वह भूखा मरेगा। विद्यार्थी यदि अपना पाठ मनोयोगपूर्वक नहीं पढ़ेगा, तो वह विद्योपार्जन नहीं कर सकता। युद्ध में यदि सैनिक मनोयोगपूर्वक लड़े नहीं, तो देश की आजादी रहेगी नहीं। हमारे मन का योग पत्नी में, पति में, पुत्र में और सम्पत्ति में है। सम्पत्ति के योग में सुख का अनुभव करते हैं और सम्पत्ति के वियोग में दुःख का। अगर मन का योग नहीं रहे तो माताएँ और बहनें जो रसोई बनाती हैं, नहीं बना सकतीं। रोटी जल जाएगी, सब्जी कच्ची रह जाएगी, दाल लवण-हीन रह जाएगी। हम चलते हैं, उसमें योग रहता है। रास्ते पर चलने में मनोयोग नहीं रहे, तो पल में लोगों का जीवन खतरे में पड़ जाए। भोजन करते हैं, उसमें योग है। यदि भोजन काल में भोजन से मन का योग नहीं रहे, तो भोजन का स्वाद ही नहीं मालूम पड़े। इसलिए योग से डरने का प्रश्न ही नहीं उठता है। हठयोग में हठात् क्यों पड़ते हैं? राजयोग सरल है और सबके लिए सुलभ है। इसे राजा-रंक, पंडित-मूर्ख, स्त्री-पुरुष इस देश वा उस देश, सभी देश के सभी कोई कर सकते हैं। आवश्यकता है, सद्युक्ति प्राप्ति और संयममय जीवन व्यतीत करने की। स्मरणीय है कि योग का अर्थ जहाँ जोड़ना होता है; वहाँ कभी-कभी योग का अर्थ घटाव भी होता है। जैसे कमाने के दो अर्थ होते हैं- संग्रह करना और व्यय करना भी। चेतनवृत्ति के निरोध में चित्त को रोका जाता है अर्थात् मन की धारा जहाँ-जहाँ जाती है, वहाँ-वहाँ से उसको रोकना होता है। मन का जहाँ से हटाव होगा, वहीं घटाव हो जाएगा। संत-महात्मागण परमात्म-प्राप्ति के लिए एक लक्ष्य पर मन को लगाने के लिए कहते हैं। लेकिन जबतक संसार से हटाव नहीं होगा, तबतक परमात्मा से जुटाव नहीं होगा। जिस हिसाब में जाड़, घटाव दोनों रहता है, वहाँ पहले घटाव की क्रिया होती है, तब जोड़ की क्रिया होती है। उसी तरह साधना में पहले घटाव होता है, तब जोड़। संतों ने घटाने की कला बतायी है। इस संसार से मन को हटाना है। संसार को कहते हैं-‘नामरूपात्मक जगत्’। दिन-रात में कितने रूपों को देखते हैं। कितने शब्दों में बोलते हैं, ठिकाना नहीं। बहुत-से शब्दों को छोड़कर एक शब्द में, जो ईश्वर-वाचक हो, मन लगावें। यह है- मानस जप। बहुत-से रूपों को छोड़कर एक रूप में जो ईश्वर की पवित्र विभूति हो, उसमें मन लगावें, यही है मानस ध्यान। अब कितना घटाव हो गया, प्रत्यक्ष देखिए। स्थूल मंडल में स्थूल का सहारा लेकर ही स्थूल जगत को पार किया जाता है। जैसे पानी में तैरनेवाले के लिए पानी ही सहारा होता है और उसी के सहारे वह सूखी जमीन पर जाता है। लेकिन यदि कोई तैरना छोड़कर पानी को एक ही जगह पकड़े रहे, तो वह डूब मरेगा। इसी भाँति संतों ने भवसिन्धु से पार होने के लिए स्थूल-सूक्ष्मादि का अवलंब बताया है। अर्थात् संतों ने कहा-स्थूल मंडल को पार करने के लिए पहले स्थूल नामरूप को पकड़ो, फिर सूक्ष्म नामरूप को पकड़ना। सूक्ष्मरूप के सहारे रूप ब्रह्मांड को और सूक्ष्म नाम के अवलंब के सहारे अरूप ब्रह्मांड को पार कर सकोगे। इस क्रम से बढ़ते- बढ़ते सभी नाम और रूप छूटेंगे तथा अंत में-‘एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदांनद परधामा।।’ की प्राप्ति होगी। किन्तु यदि कोई साधक अनजाने में वा अपने भोलेपन के कारण केवल स्थूल नाम और स्थूल रूप को ही जकड़कर पकड़ रखे, तो वह भक्तिमार्ग में आगे नहीं बढ़कर भवसागर में डूबता रहेगा। स्थूल नामरूप के बाद सूक्ष्म नामरूप है। यह असली सहारा है संसार-सागर पार होने का। नाम की महिमा हमलोग बहुत सुनते हैं। लोग कहते हैं-
जान आदि कवि नाम प्रतापू।
भयेउ सुद्ध करि उलटा जापू।।
उलटा नाम जपत जग जाना।
बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।।
बाल्मीकि मुनि का पहला नाम-रत्नाकर था। लोग कहते हैं कि बहुत बड़ा पापी होने के कारण वह मुँह से राम-राम नहीं कह सकता था, मरा-मरा कहता था। लेकिन यह तो विचारिये कि कोई कितना भी बड़ा पापी हो, क्या वह ‘राम-राम’ अर्थात् वर्णात्मक चार अक्षर का उच्चारण नहीं कर सकता? यदि हम उनकी यह बात मान भी लें कि वाल्मीकिजी ‘राम-राम’ का उलटा ‘मरा-मरा’ जपकर ब्रह्म हो गये, तो जो व्यक्ति सुलटा ‘राम-राम’ जपते हैं, ब्रह्म क्यों नहीं हो जाते? पुनः नाम की ऐसी महिमा है कि ‘नाम लेत भवसिन्धु सुखाहीं।’ मैं कहता हूँ कि समुद्र और नदी की बात तो जाने दीजिए, नाम लेकर एक चुल्लू पानी ही सुखा दीजिए तो। यदि कोई कहे कि ‘तो शास्त्रें में लिखित महिमा क्या झूठी है?’ तो उत्तर होगा, यह बात झूठी नहीं हो सकती है। नाम को बहुत थोड़े लोग जानते हैं। यदि यथार्थ में उस नाम को जान लें, तो चुल्लू भर पानी को कौन कहे, समुद्र सूखा सकता है। वह नाम वर्णन में आने योग्य नहीं है। वर्णात्मक नहीं है, वर्णनातीत है। यह साधारण विचार में, जैसा सामान्यतया हम जानते हैं, नाम दो तरह के होते हैं-वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक। वर्णात्मक नाम सुलटा है। उसका उलटा क्या होगा? ध्वन्यात्मक होगा। ध्वन्यात्मक में भी भेद है-सगुण और निर्गुण नाम। श्रीमदभागवत में शब्द के तीन भेद बताए गये हैं-इन्द्रिय मय, मनोमय और प्राणमय शब्द। इन्द्रियमय और मनोमय शब्द सगुण है तथा प्राणमय शब्द निर्गुण है। यह निर्गुण ध्वन्यात्मक शब्दब्रह्म सगुण ब्रह्म से उलटा है, का अभ्यास कर वाल्मीकि मुनिजी ब्रह्मवत् हुए थे। आज भी यदि हम उस निर्गुण शब्दब्रह्म की आराधना करें, तो ब्रह्मवत् होने में किसी प्रकार की शंका का लवलेश स्थान नहीं है। ब्रह्मविन्दूपनिषद् में लिखा है-
द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्द ब्रह्म परं च यत् ।
शब्द ब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्मधिगच्छति ।।
अर्थात् दो विद्याएँ समझनी चाहिए, एक तो शब्द ब्रह्म और दूसरा परब्रह्म। शब्दब्रह्म में जो निपुण हो जाता है, परब्रह्म को प्राप्त करता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने नाम के तीन भेद बताये हैं। यथा-
श्रवणात्मक धवन्यात्मक, वर्णात्मक विधि तीन।
त्रिविधा शब्द अनुभव अगम, तुलसी कहहिं प्रवीन।।
चौदह चारो अष्टदश, रस समझव भरपूर।
नाम-भेद जाने बिना, सकल समझ महँ धूर।।
भेद जाहि विधि नाम महँ, बिन गुरु जान न कोय।
तुलसी कहहिं विनीत वर, जो विरंचि शिव होय।।
नाम के इन भेदों को क्रियावान शुद्धाचरणी सद्गुरु से जानकर अभ्यास करना चाहिए। तभी नाम के गंभीरतम रहस्य का उद्घाटन हो सकता है, अन्यथा नहीं। दिनांक-23-3-1971, स्थान: पटना
(63वाँ महाधिवेशन) प्रातःकाल
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बात भारत की अथवा चीन की नहीं, अर्वाचीन भी नहीं, प्राचीन है और जापान की है। एक समय एक महात्मा अपनी कुटिया में विराज रहे थे। उनके पास एक आदमी ने जो शस्त्रशस्त्र से सुसज्जित था, उपस्थित होकर पूछा, ‘महात्मन्! स्वर्ग और नरक क्या है?’ महात्मा जी ने पूछा, ‘तुम कौन हो? प्रथम अपना परिचय दो, फिर स्वर्ग और नरक की बात पूछना?’ उसने कहा, ‘मैं फौज का कैप्टन हूँ।’ महात्माजी ने कहा, ‘तुम कतई कैप्टन हो नहीं सकता। तेरे अंदर से विषय-रस की बू आ रही है। यदि तू कैप्टन होता, तो तेरे अंदर से वीररस टपकता। कैप्टन का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। उसने अपने म्यान से तलवार निकाली और महात्मा जी पर चलाना चाहा। महात्माजी ने उसकी तलवार हाथ से पकड़ ली और व्यंग्य भरे शब्दों में कहा-अच्छा, तेरे पास तलवार भी है; लेकिन तेरी तलवार एक तिनका तक नहीं काट सकती, फिर मेरे गले की तो बात ही क्या?’ कैप्टन की क्रोधाग्नि भड़की जैसे प्रज्वलित अग्नि में घृत की आहुति पड़ी हो। उसने महात्माजी के हाथ से तलवार खींचकर उसे गले पर प्रहार करना चाहा। महात्माजी ने कहा, ‘जरा रुको और मेरी सुनो। देख, तुम्हारे प्रश्न का यही उत्तर है। कैप्टन ने कहा, ‘मेरे प्रश्न का यह उत्तर कैसा?’ महात्माजी ने कहा, ‘जब हृदय में क्रोध उत्पन्न हो, दया दूर चली गयी हो, विवेक खो गया हो, निर्दयता, क्रूरता और अज्ञानता पराकाष्ठा पर पहुँच चुकी हो, तो समझ लो कि नरक का द्वार खुल चुका है, जिस अवस्था में तुम अभी हो।’ कैप्टन लज्जित होकर अपनी तलवार म्यान में रख लेता है और महात्माजी के चरणों में अपना मस्तक रखकर क्षमा याचना करता है। महात्माजी ने उसके सिर का स्पर्श कर शरीर को सहलाते हुए कहा- “ बेटा! क्षमा है। जब हृदय में दया, प्रेम, निरभिमानता, विवेक और सद्बुद्धि की अभिवृद्धि हो, तो समझना कि स्वर्ग का द्वारा खुला है, जिस अवस्था में सम्प्रति तुम हो।”
कैप्टन को स्वर्ग और नरक का ज्ञान का मान हुआ और वह महात्माजी को शतशः प्रणाम करता हुआ अपना अहोभाग्य समझा। यह बात हुई विदेश की, किन्तु स्वदेश की भी बात सुनिये। जापानी महात्मा ने स्वर्ग और नरक की बात कही, हमारे देश के महात्मा इन दोनों से परे एक तीसरी बात भी कहते हैं और यह है अपवर्ग वा मोक्ष?
नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी।
ज्ञान विराग भगति सुख देनी।।
तथा,
संत संग अपवर्ग कर, कामी भवकर पंथ।
कहहिं संत कवि कोविद, श्रुति पुरान सद्ग्रंथ।।
संतों का मार्ग मोक्ष का है। मोक्ष का अर्थ है-छुटकारा। किससे छुटकारा? शरीर और संसार के बंधनों से । भगवान बुद्ध ने कहा है-‘बुद्धिमान लोग उसे मजबूत बेड़ी नहीं कहते जो लोहे, लकड़ी अथवा सन की बनी हुई हो। रत्न, आभूषण, बच्चे और स्त्री के बंधन अधिक मजबूत हैं।
आगरे में एक संत हो गये हैं। उनका नाम था संत राधास्वामी साहब। उन्होंने अपनी वाणी में इन बंधनों पर अच्छा प्रकाश डाला है।
“ बंधे तुम गाढ़े बंधन आन ।।
पहला बंधन पड़ा देह का, दूजा बंधन तिरिया जान ।
तीसर बंधन पुत्र बिचारो, चौथा नाती मान ।।
नाती के कहीं नाती होवै, तब कहो कौन ठिकान ।
धन संपत्ति और हाट हवेली, यह बंधन क्या करुँ बखान ।।
चौलड़ पंचलड़ सतलड़ रसरी, बाँध लियो बहु विधि तान ।
कैसे छूटन होय तुम्हारा, गहरे खूँटे गड़े निदान ।।
मरे बिना तुम छूटो नाहीं, जीते जी तुम सुनो न कान ।
जगत लाज और कुल की मरयादा, यह बंधन सब ऊपर ठान ।।
लीक पुरानी कभी न छोड़ो, जो छोड़ो तो जग की हान ।
क्या क्या कहूँ विपत मैं तुम्हारी, भटको जोनी भूत मसान ।।
तुम तो जगत सत्त कर पकड़ा, क्यों कर पावो नाम निशान ।
बेड़ी तोड़ हथकड़ी बाँधे, काल कोठरी कष्ट समान ।।
काल दुष्ट तुम्हें बहुविधि बाँधा, तुम खुश होके रहो गलतान ।
ऐसे मूरख दुख-सुख जाना, क्या कहुँ अजब सुजान ।।
शरम करो कुछ लज्जा जानो, नाहिं तो जमपुर का भोगो डान ।
‘राधास्वामी’ सरन गहो अब, तो कुछ पाओ उनसे दान ।।”
यहाँ पर पुरुष-पुरुष का संवाद है, इसलिए ‘दूसर बंधन तिरिया जान’ कहा गया है। यदि यहाँ नारी-नारी का संवाद हुआ होता, तो कहना पड़ता कि-‘पहला बंधन पड़ा देह का, दूसर पुरुषा जान।’ अर्थात् जिस प्रकार पुरुष के लिए स्त्री बंधन है, उसी प्रकार स्त्री के लिए पुरुष भी। इसका अर्थ यह नहीं कि दाम्पत्य जीवन का परित्याग करने से बंधन छूटता है। संत पलटू साहब ने बड़ा अच्छा कहा है।
“ यार फक्कीर तू पड़ा किस ख्याल में ,
पाँच पच्चीस संग तीस नारी ।
एक तुम छोड़िया तीस तेरे संग में ,
होय अस ज्ञान से नर्क भारी ।।
तीस के कारने भीख तुम माँगता ,
एक ने कवन तकसीर पारी ।
दास पलटू कहै खेल या न बदो ,
छुटै जब तीस तो छोड़ प्यारी ।।”
संतों ने मोक्ष-प्राप्ति वा ईश्वर-भजन के लिए घर-वार वा परिवार परित्याग की सीख नहीं दी। संपत्ति, दम्पति और संतति को तिलांजलि देने की सलाह नहीं दी, बल्कि उन्होंने कहा-
अबधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भावै ।।
घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि बन नहिं जावै ।
बन के गये कलपना उपजै, तब धौं कहाँ समावै ।।
घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरु अलख लखावै ।
सहज सुन्न में रहै समाना, सहज समाधि लगावै ।।
उनमुनि रहै ब्रह्म को चीन्है, परम तत्त को ध्यावै ।
सुरत निरत सों मेला करिकै, अनहद नाद बजावै ।।
घर में बसत बस्तु भी घर है, घर ही बस्तु मिलावै ।
कहै कबीर सुनो हो अबधू, ज्यों का त्यों ठहरावै ।।
इस संबंध में बाबा नानक साहब क्या कहते हैं? सुनिये-
जैसे जल महि कमलु निरालमु मुरगाई नैसाणै।
सुरत सबद भवसागर तरीअै नानक नामु बखाणै।।
अर्थात् जागतिक जीव को जल-जलजवत् रहते हुए जगदीश का भजन करना चाहिए और उस भजन का भेद है-सुरत-शब्द-योग। संतगण कहते हैं-परिवार में रहो। लेकिन उसमें लिप्त नहीं होओ। एक संत ने कहा है-‘पानी में नाव रहे, कोई हानि की बात नहीं, लेकिन नाव में पानी नहीं आने पावे, नहीं तो नाव डूब जाएगी। उसी तरह भक्त संसार में रहे, लेकिन याद रख्ंो, उसके मन में सांसारिकता नहीं आने पावे, नहीं तो वह भवसागर में डूब मरेगा। संसार में भला से रहने की कला सहजोबाई बताती हैं-
सहजो जग में यों रहो, ज्यों जिभ्या मुँह माहिं ।
घीव घना भोजन करै, तो भी चिकनी नाहिं ।।
संत पलटू साहब ने कहा है-
कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।।
सो ध्यानी परमान, सुरति से अंडा सेवै ।
आप रहै जल माहिं, सूखे में अंडा देवै ।।
जस पनिहारी कलस, भरे मारग में आवै ।
कर छोड़े मुख बचन, चित्त कलसा में लावै ।।
फनि मनि धरै उतारि, आपु चरने को जावै ।
वह गाफिल ना पड़ै, सुरति मनि माहिं रहावै ।।
पलटू सब कारज करै, सुरति रहै अलगान ।
कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।।
कछुवी पानी में रहती है, लेकिन अंडा सूखे में देती है। वह सुरत से अंडा सेवती रहती है। अगर कोई कछुवी को मार डाले, तो अंडा सड़ जाएगा। संत लोग कहते हैं-जागतिक कार्य करते हुए कछुवी की तरह अपने इष्टदेव पर मन को लगाये रखो। पानी भरने के लिए माई-दाई कुएँ पर जाती है। वह हाथ से घड़े को बिना पकड़े माथे पर घड़ा लेकर लेकर मार्ग में चलती है और मुँह से बातचीत भी करती जाती है। उसी तरह तुम भी संसार के कामों को करते जाओ; परंतु अपने को परमात्मा की ओर लगाये रखो। जिस तरह साँप मणि को मुँह से निकालकर उसी के प्रकाश में विचरण करता है, उसी तरह तुम भी अपने को अंतःप्रकाश में रखते हुए सांसारिक कार्य का संपादन करते रहो। साथ ही जैसे फणि अपने मन को मणि की ओर लगाकर रखता है, उसी तरह तुम भी प्रभु-चरणों में मन लगाकर रखो।
सुप्रसिद्ध संत रामकृष्ण परमहंसदेवजी ने कहा- बंगाल में बाउल नाम के एक संप्रदाय के साधु होते हैं। वे एक हाथ से तंबूरा और दूसरे हाथ से करताल बजाते हैं और मुँह से गाना गाते हैं। इसी तरह ऐ संसारी जीव! तुम भी दोनों हाथों से संसार के कामों को करते जाओ और मुँह से भगवान का नाम जपा करो, चूको मत।
जिस तरह माई लोग, ढेकी से धान कूटती है और हाथ से धान को सँभालती है, पर हाथ को मूसल से सदा बचाती भी रहती है। इसी तरह संसार का काम करते हुए अपने को सांसारिकता से बचाते रहो। परन्तु यह ज्ञान बिना गुरु के होना असंभव है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
बिनु गुरु होइ कि ज्ञान, ज्ञान कि होइ बिराग बिनु।।
वस्तुतः गुरु होना चाहिए, गरु नहीं।
संत पलटू साहब कहते हैं, गुरु कैसा होना चाहिए-
धुन आनै जो गगन की, सो मेरा गुरुदेव ।।
सो मेरा गुरुदेव, सेवा मैं करिहौं वाकी ।
सब्द में है गलतान, अवस्था ऐसी जाकी ।।
निस दिन दसा अरूढ़, लगै ना भूख पियासा ।
ज्ञान भूमि के बीच, चलत है उलटी स्वासा ।।
तुरिया सेति अतीत, सोधि फिर सहज समाधी ।
भजन तेल की धार, साधना निर्मल साधी ।।
पलटू तन मन वारिये, मिलै जो ऐसा कोउ ।
धुन आनै जो गगन की, सो मेरा गुरुदेव ।।
जो अंदर की गगन-ध्वनि को बतलावे, वह गुरु है। कान बंद कर नाद सुनने की बात नहीं, नाद सुनने की कला होती है, वह कला क्या है? नाद- विन्दूपनिषद् में लिखा है-
बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम्।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम्।। 2।।
अर्थ-परम विन्दु ही बीजाक्षर है; उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अनाश ब्रह्म) में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है। योगशिखोपनिषद् में लिखा है-
विन्दुपीठं विनिर्भेद्य नादलिंगमुपस्थितम्।
अर्थात् पहले विन्दु को प्राप्त करो, उसके बाद नाद है, उसको सुनो। संत तुलसी साहब (हाथरसवाले) कहते हैं-
“ गगन द्वारा दीसै एक तारा।
अनहद नाद सुनै झनकारा।।”
अर्थात् पहले तारा देखो, पश्चात् झनकारा सुनते हैं। योगशिखोपनिषद में विन्दुनाद को शिवशक्ति का लिंग (चिह्न) कहा गया है।
“ विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम् ।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।”
अर्थात्-विन्दु-नाद महालिंग है और शिव-शक्ति का घर है। इस देह को शिवालय कहते हैं। इस शरीर में सभी प्राणियों को सिद्धि मिलती है। हमलोगों का यह शरीर शिवालय है। जब विन्दु का नहीं प्रकट करोगे, तबतक शब्द को कैसे ग्रहण करोगे। सृष्टि की ओर दृष्टि करने पर भी इसकी परिपुष्टि हो जाती है कि पहले प्रकाश होता है, तब शब्द। जब-जब आकाश में काले-काले बादल मँड़राते हैं, तब-तब पहले बिजली चमकती है, फिर उसके बाद ठनके की आवाज होती है। संत बुल्ला साहब इसका एक चित्र खींचकर हमलोगों के समक्ष रखते हैं। अंतर्ज्योति और अंतर्नाद के संबंध में उनका कथन है-
श्याम घटा घनघेरि चहुँदिसि आइया।
अनहद बाजे घोर जो गगन सुनाइया ।
दामिनि दमकि जो चमकि त्रिवेणी न्हाइया।
बुल्ला हृदय विचारि तहाँ मन लाइया ।।
इसकी सद्युक्ति बतलानेवाले संत सद्गुरु होते हैं, किन्तु इसकी पहचान आसान नहीं।
ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास ।
निर्गुन कहै जो सगुन बिनु, सो गुरु तुलसीदास ।।
गोस्वामीजी के विचारानुसार ऐसे गुरु की पहचान कौन कर सकते हैं? किसी मीटर से इसकी जाँच हो कि ये अंधकार से परे प्रकाश में प्रतिष्ठित पुरुष हैं? अज्ञानावस्था से रहित ज्ञानावस्था में अवस्थित है और त्रयगुण से उच्च निर्गुण देश के निवासी हैं?
बिना गुरु के ज्ञान नहीं और बिना पहचान के गुरु धारण करना उचित नहीं; क्योंकि हमारे यहाँ यह प्रसिद्ध है कि ‘गुरु कीजिये जान। पानी पीजिए छान।’ ऐसी अवस्था में एक कठिन समस्या उपस्थित हो जाती है कि किनको गुरु धारण किया जाए? पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज इसकी एक सरल सद्युक्ति बतलाते हैं। वे कहते हैं-
मुक्ती मारग जानते, साधन करते नित्त ।।
साधन करते नित्त, सत्त चित जग में रहते ।
दिन दिन अधिक विराग, प्रेम सतसँग सों करते ।।
दृढ़ ज्ञान समुझाय, बोध दे कुबुधि को हरते ।
संशय दूर बहाय, सन्त मत स्थिर करते ।।
‘मेँहीँ’ ये गुण धर जोई, गुरु सोई सतचित्त ।
मुक्ती मारग जानते, साधन करते नित्त ।।
तात्पर्य यह कि गुरु उनको कहना चाहिए, जो सर्वेश्वर प्राप्ति की साधना की युक्ति जानते हों, स्वयं साधना करते हों और दूसरे को भी उसकी सद्युक्ति बतलाते हों। साथ ही सदाचारनिष्ठ भी हों। भगवान् श्रीकृष्ण की ‘महायोगेश्वरो हरिः’ हमलोग कहते हैं, फिर भी वे स्वयं नित्यप्रति ध्यान-साधना करते थे। श्रीमद्भागवत के 10वें स्कंध में आया है-
ब्राह्मे मुहूर्ते उत्थाय वार्युपस्पृश्य माधवः।
दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमसः परम्।। 4।। अ0 70।।
अर्थात्-भगवान श्रीकृष्ण प्रतिदिन ब्राह्म मुहूर्त में ही उठ जाते और हाथ-मुँह धोकर अपने मायातीत आत्मस्वरूप का ध्यान करने लगते। उस समय उनका रोम-रोम आनन्द से खिल उठता था।
गुरु के संग करने से आचरण का सही पता लगता है। अध्यात्म-जगत में ‘हाट का गुरु और बाट का चेला’ से काम चलने को नहीं है। वास्तव में गुरु की महिमा अति गंभीर है। जितने संत हो गये हैं, सबने एक स्वर से गुरु की मान्यता दी है। सद्गुरु के सत्संग से ही प्रभु का ज्ञान होता है। संत कबीर साहब ने कहा है-
परमातम गुरु निकट बिराजैं, जागु जागु मन मेरे।
धाइ के सतगुरु चरनन लागो, काल खड़ा सिर तेरे।।
गोस्वामी तुलसीदासजी गुरु वंदना करते हुए उनकी महत्ता देते हैं, सो देखिए-
बन्दौं गुरुपद कंज, कृपा सिन्धु नररूप हरि ।
महा मोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
अर्थात् वे नररूप गुरु में हरि के दर्शन करते हैं। इतना ही नहीं गोस्वामी जी की दृष्टि में गुरु की महिमा तो यह है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम भी गुरु के चरण दबाते हैं। यथा-
मुनिवर सयन कीन्ह तब जाई।
लगे चरन चापन दोउ भाई।।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज हनुमानजी से प्रार्थना करते हैं-
जय जय जय हनुमान गुसाईं।
कृपा करहु गुरुदेव की नाई।।
अथवा, जय जय जय हनुमान गुसाईं।
कृपा करहु जो तुम्हहिं सुहाई।।
विचारवान विचार करें, गोस्वामीजी की निष्ठा, उनकी श्रद्धा-भक्ति की धारा किनकी ओर प्रबल प्रवाहित थी, भगवान श्रीराम की ओर, हनुमान की ओर अथवा अपने गुरुदेव की ओर? अब आगे गोस्वामीजी की इस वाणी पर भी ध्यान दिया जाए-
राम नाम कलि काम तरु, राम भगति सुरधेनु ।
सकल सुमंगल मूल जग, गुरु पद पंकज रेनु ।।
-दोहावली
सामान्य ज्ञान में लोग समझते हैं कि कामधेनु ओर कल्पवृक्ष मिल जाने पर किस बात की कमी रह सकती है? सकल मनोरथ पूर्ण होंगे। किसी प्रकार का क्लेश, दुःख, पीड़ा आदि नहीं रहेगी। किन्तु विवेक विलोचन से अवलोकन करने पर सारासार का पता लगता है। कामधेनु के लिए विश्वामित्र और वशिष्ठ मुनि में लड़ाई हुई। वशिष्ठजी के सौ पुत्र मारे गये। परिणामस्वरूप उनकी सौ पुत्रवधुएँ विधवा हो गयीं। मुनिजी के ऊपर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा। कामधेनु पाकर भी वशिष्ठजी का कैसा मंगल हुआ! विवेकशील विचारें। अब कल्पवृक्ष के विषय में सुनिए।
एक आदमी जंगल गया। संयोग से वह कल्पवृक्ष के नीचे पहुँचा। जैसे भूख-प्यास सता रही थी। थका- माँदा श्रान्त-क्लान्त था वह। उसने सोचा, यदि भेाजन मिलता, तो भूख मिट जाती। कल्पवृक्ष की महिमा से उसे भोजन तुरंत मिल गया। भोजन के बाद पानी पीने की इच्छा हुई। पानी भी मिल गया। अब उसे आलस आने लगा। उसने सोचा कि इस वृक्ष के नीचे जो-जो इच्छा करता हूँ, पूरी होती जाती है। यदि बिछावन होता तो मैं सो जाता। इच्छा करने मात्र की देर थी, कल्पवृक्ष की कृपा से बिछावन मिल गया। पुनः उसने सोचा, बिछावन तो हो गया; लेकिन जंगल में जमीन पर सोना ठीक नहीं, पलंग मिलता तो, उसपर बिछावन बिछाकर आराम से सो लेता। कल्पना करने से पलंग आ गया। पलंग पर बिछावन बिछाकर सोते हुए वह सोचता है, पलंग पर सोने से लाभ ही क्या? वृक्ष के ऊपर चिड़िया बीट कर दे, तो सारा शरीर अपवित्र हो जाएगा। यदि किसी प्रकार का घर बन जाता, तो पूरा विश्राम कर लेता। इच्छा मात्र से मकान बन गया। इस प्रकार जितनी भी इच्छाएँ उसके मन में उठीं, सभी पूरी होती गयीं। अंत में एकाएक उसके मन में आता है, यह तो घोर जंगल है, कहीं बाघ आया, तो मंगल कहाँ, वह तो मुझे मार डालेगा। मन में इतनी बात आते ही अविलंब वहाँ बाघ आया और उसे मार डाला। तात्पर्य यह कि कल्पवृक्ष के नीचे भी कल्याण नहीं। इसीलिए गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
सकल सुमंगल मूल जग, गुरुपद पंकज रेनु।।
अर्थात् सब तरह का सुमंगल चाहते हो तो ‘गुरु पद पंकज रेनु’ प्राप्त करो।
(शान्ति-सन्देश, सितम्बर, 1971)
दिनांक-23-3-1971, स्थान: पटना
(63वाँ महाधिवेशन) सायंःकाल

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एक विचित्र बात बताऊँ? संसार के प्रायः सभी लोग सुख-भोग की कामना करते हैं। कोई भी दुःख की इच्छा नहीं करते। बल्कि ऐसा कहना अनुपयुक्त नहीं होगा कि प्राप्त दुःख की इतिश्री और प्राप्त सुख की अभिवृद्धि की टेक में सबकी सम्मति एक मिलती है। फिर भी इच्छा वा अनिच्छा से स्वकर्मानुसार लोग सुख-दुःख का भोग भोगते हैं।
अब अपवादस्वरूप ही सही, फिर भी कोई- कोई ऐसे जन भी हैं, जो अपने दुःख में ही सुख का अनुभव करते हैं। दूसरे शब्दों में हम ऐसा भी कह सकते हैं कि वे सुख का समादर नहीं कर दुःख का सत्कार करते हैं। उदाहरणस्वरूप आप संत कबीर साहब को ले सकते हैं। वे कितने बड़े संत थे, कुछ विश्लेषण कर बताना, पूषण को प्रदीप दिखाने जैसे हैं। वैसे महान् संत के ये अमोघ वचन हैं- “ उस सुख के सिर पर शिला-पत्थर पड़ जाए, जिस सुख में हृदय से प्रभु का नाम निकल जाय अर्थात् प्रभु नाम का स्मरण हृदय में नहीं रहे, अतएव उस दुःख को धन्य- वाद है, जिससे प्रभु की स्मृति विस्मृति रूप में परिवर्तन नहीं होती। वस्तुतः क्षण मन प्रभु नाम-भजन में रमण करता रहे, ऐसे दुःख की बलिहारी है।
सुख के माथे सिल परै, (जो) नाम हृदय से जाय ।
बलिहारी वा दुक्ख की, पल पल नाम रटाय ।।
संत कबीर साहब जब सुख की खोज में निकलते हैं और बीच बाट में उनको दुःख मिलता है, तो वे चिल्लाते नहीं है, पर प्रसन्नतापूर्वक दुःख का वरण करते हुए विनम्र हो सुख से संबोधन कर कहते हैं-हे सुख! आप अपने घर को वापस जाएँ और मुझे स्वतंत्र हो दुःख से निबट लेने दें।
हम चाले थे सुक्ख को, बाटहिं मिलिया दुक्ख ।
जाहु सुक्ख घर आपने, मैं जानूँ और दुक्ख ।।
संत कबीर साहब कहते हैं-ईश्वर के नाम का जप करनेवाला कुष्ट रोग से पीड़ित शरीर, जिससे गल-गल कर मांस गिरता हो, श्रेष्ठ है, उत्तम है, भला है। किन्तु भगवन्नाम-जप नहीं करनेवाला स्वर्ण समान कान्तिमान शरीर किस काम का है? उसका क्या प्रयोजन? अर्थात् निष्प्रयोजन है। तात्पर्य यह कि किसी भी प्रकार का शरीर चाहे वह निष्कृष्ट वा घृणित ही क्यों न हो, यदि उससे भगवन्नाम-भजन होता है, तो वह धन्य है और जिस सुन्दर, स्वस्थ, सबल, सलोना, सुगठित शरीर से सर्वेश्वर स्मरण नहीं होता, उसे धिक्कार है।
नाम जपत कुष्टी भला, चुइ चुइ पड़ै जो चाम ।
कंचन देह केहि काम का, जा मुख नाहीं नाम ।।
अतः वे कहते हैं-वह द्रव्यहीन-दरिद्र नाम जापक अच्छा है, जिसके घर का छप्पर टूटा हुआ है। वर्षा में पानी चूता है, जाड़े में शीत टपकता है और ग्रीष्म में लू लपकती है; परंतु वह कनकवत् गगनचुम्बी अट्टालिका भस्मीभूत भवन के समान है, यदि उसके गृहपति गुरु-भक्ति का ज्ञान नहीं रखते हैं।
नाम जपत दरिद्री भला, टूटी घर की छानि ।
कंचन मंदिर जारि दे, जहँ गुरु भक्ति न जानि ।।
और भी देखिए, महाभारत का सुप्रसिद्ध सर्वश्रेष्ठ नायिका कुन्ती देवी की भी अद्भुत गाथा है। वह सुख से सुदूर रह दुःख को आलंगिन करनेवाली एक महान् महिला थी। अपने आदर्श जीवन का जो ज्वलंत उदाहरण उन्होंने हमारे समक्ष रखा है, वह अतीत का इतिहास हमारी भविष्य-संस्कृति को भी गौरवान्वित करनेवाला है। उनका त्याग, उनकी तपस्या, उनके दयार्द्र एवं करुणा से विगलित हृदय की उपमा नहीं दी जा सकती। उनकी गौरवगाथाओं से भारतीय इतिवृत्त आज भी अनुगूंजित है और भविष्य में भी रहेगा।
आप भी सोचें, भला, ऐसी धीरवती और गंभीर मति की महिला दूसरी कौन हो सकती है, जो अपने लाल को काल के गाल में डालकर अपने को निहाल समझे। किन्तु नहीं, पर दुःख दुःखी एवं कातर हृदयवाली कुन्ती देवी की आत्मा चीत्कार कर बोल उठती है- “ भले ही हमारे पुत्र का काम तमाम हो जाए, यदि गाम के लोग आराम से रह सकें, तो उसी में मुझे विश्राम है।”
मात्र वचन में नहीं, बल्कि कर्तव्यरूप में परिणत कर उन्होंने संसार को दिखा दिया। भले ही भीमसेन ने ईश की असीम अनुकम्पा से असुर का ही संहार का डाला, यह दूसरी बात थी।
धन्य है, दया की जीती जागती प्रतिमूर्ति कुन्ती देवी! जिन्होंने अपने पुत्र को असुर-बलि देकर बस्ती के लोगों को अभय वर दिया। उनकी विस्मृति कैसे हो सकती! भला, ऐसी दिव्य देवी को भूला कैसे जा सकता?
इस समय उनके एक लघु-प्रसंग की चर्चा करना चाहूँगा, महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। धर्मराज युधिष्ठिर सिंहासनारूढ़ हो चुके थे। अश्वत्थामा ने पांडव-वंशवृक्ष को समूल नष्ट करने के लिए जिस ब्रह्मास्त्र का प्रक्षेपण किया था, भगवान ने उसे असफल कर दिया और उत्तरा की गर्भस्थ संतान का संरक्षण कर पांडव-वंशवृक्ष को सफल बनाया। पश्चात् भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों के समक्ष अपनी द्वारिका जाने की इच्छा प्रकट की।
जब कुन्ती देवी को इस बात का पता लगा, तो वह अत्यन्त दुःखी होकर सजल जलज नेत्र से भगवान के निकट आयी और प्रार्थना करने लगी। प्रार्थना भी उनकी विचित्र थी। इस देवी की प्रार्थना में श्रीकृष्णचन्द्र से ऐसी चीज की माँग की थी, जिसकी माँग शायद सर्वप्रथम इसने ही की है, जिसे सुनकर स्वयं भगवान भी एक क्षण विस्मृत हो उनकी ओर एकटक निहारते रहे। देवी कुन्ती की माँग थी-
विपदः सन्तु नः शस्वत् तत्रतत्र जगद्गुरो ।
भवतो दर्शनं यत! स्याद पुनर्भव दर्शनम् ।।
(श्रीभद्भागवत 1/8/25)
अर्थात् हे जगद्गुरो! जीवन में मुझपर बार-बार विपत्तियाँ ही आती रहें। क्योंकि जिनके दर्शन से जीव जगत के आवागमन से मुक्त होता है, उन आपके दर्शन तो विपत्तियों में ही होते हैं।
वस्तुतः यह कुन्ती देवी का वाचक ज्ञान नहीं, अपना अनुभव है। क्योंकि उनका समस्त जीवन विपत्तियों में ही बीता और विपत्तियाँ भगवान का वरदान है, अभिशाप नहीं। यद्यपि उनके पुत्रें का निष्कंटक राज्य हो चुका था और एकछत्र राजा युधि-ष्ठिर राज्य करने लगे थे, फिर भी देवी कुन्ती को ऐसा लगा, जैसे कि विपत्तिरूपी सम्पत्ति उनके हाथ से चली गयी, तो भगवान श्रीकृष्ण भी उनके निकट से दूर होने लगे। यही हेतु है कि किन्तु देवी ने भगवान से विपत्तियों को वरदान माँगा।
उस जागतिक वैभव विलास से जीवन को धिक्कार है, जिसमें भगवान भूले-से रहते हैं। धन्य है वह दुःखमय संकटग्रस्त जीवन, जिसमें सर्वेश्वर के सर्वक्षण स्मरण होते रहते हैं। इस दृष्टि से यह कथन असंगत नहीं है, वरणीय दुःख है, सुख नहीं।
प्राणिमात्र सुख पाने का प्रयत्न करता है। प्राणियों में मानवमात्र सर्वश्रेष्ठ गिना जाता है। मानव को जीवन घटनाओं के अध्ययन-आधार पर इस सार का पता लगता है कि वह सुख का सुख नहीं, वरन् दुःख ही दुःख देखता है।
बल्कि यदि मानव अपने जीवन के अबतक प्राप्त सुख-दुःखों को तुला के दो पल्लों पर पृथक्-पृथक् कर रखे, तो दर्पण में प्रतिबिम्ब की भाँति उसे स्पष्ट दीख पड़ेगा कि उसके जीवन में दुःखमय क्षण ही अधिक व्यतीत हुए हैं।
वैचारिक दृष्टि से जागतिक सुख-दुःख की परिभाषा भी बड़ी विचित्र है। लोग अपने-अपने दृष्टिकोण से उसका माप-तौल किया करते हैं। एक के विचार में जैसे अंधकार के अभाव को प्रकाश और प्रकाश के अभाव को अंधकार कहते हैं, वैसे ही दुःख के अभाव को सुख और सुख के अभाव को दुःख कहते हैं। जैसे एक ही समय दो भागों में विभाजन कर दिन और रात की संज्ञा देते हैं, जैसे एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं, जैसे एक ही पन्ना के दो पृष्ठ होते हैं, वैसे ही एक ही जीवन के दो भाग हैं-एक सुख और दूसरा दुःख। जैसे दिन नहीं है, तो रात्रि है और रात्रि नहीं है, तो दिन है। वैसे ही सुख नहीं है, तो दुःख है और दुःख नहीं है, तो सुख है। दूसरे पक्ष वाले इस मत को मान्यता नहीं देते। उनका कथन है कि यदि अभाव में दुःख और बहुतायत में सुख के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया जाए, तो कहा जा सकता है कि जैसे कोई पिपासित आदमी पानी पीने के उद्देश्य से नदी किनारे जाए और पानी पीते-पीते उसका पैर पिसल जाए, परिणामस्वरूप वह उस नदी के पानी में डूबने लग जाए, तो यह कहा जा सकता है कि वह सुख में डूब रहा है? अथवा यदि जल पीते-पीते वह उस नदी में जलमग्न हो जाए, तो क्या यह कहा जा सकता है कि वह सुखमग्न हो गया? कदापि नहीं। तीसरी तरह के लोग कहते हैं-अभिलषित वस्तु की प्राप्ति को सुख और अनिच्छित वस्तु की प्राप्ति को दुःख कहते हैं। जैसे जब हमें मित्र से मिलने की इच्छा होती है और वे हमें मिल जाते हैं, तो हम सुख का अनुभव करते हैं। इसी तरह इसके विपरीत शत्रु से मिलने पर दुःख का अनुभव करते हैं। चौथे विचार के लोग कहते हैं-दुःख-सुख की यह परिभाषा भी परिष्कृत नहीं है। क्योंकि जब हम यात्र करते हैं और मार्ग में एकाएक सुरभित सुमन से सुसज्जित साफ-सुथरा सुंदर उद्यान मिल जाता है, तो क्या उसे देखकर हम सुखी नहीं होते? और मार्ग चलने में यदि पैर में काँटा चुभ जाता है, तो क्या हम दुःखी नहीं होते हैं? अवश्य होते हैं। तब ऐसी स्थिति में उपयुक्त सिद्धांत की सिद्धि कहाँ हो पाती है? क्योंकि यात्रकाल में हमने न तो सुंदर फुलवाड़ी प्राप्ति की इच्छा की थी और न काँटे की ही कल्पना की थी इत्यादि। सांसारिक सुख-दुःख की विभिन्न परिभाषाएँ हैं। शास्त्र ने सांसारिक सुख-दुःख के इस सिद्धांत को स्वीकार किया है कि ‘अनुकूल वेदनीयं सुखम् प्रतिकूल वेदनीयं दुःखम्। अर्थात् अनुकूलता को सुख और प्रतिकूलता को दुःख कहते हैं। इस विचारधारानुकूल कोई भी दुःख वा सुख सामूहिक नहीं रह जाता, वरं व्यक्तिगत हो जाता है। क्योंकि सभी अपने-अपने अर्जित ज्ञान के आधार पर सुख और दुःख का ज्ञान करते हैं।
वस्तुतः जिस सुख और दुःख की व्याख्या की गयी, वह विषय संबंधी है। विषयोपभोग में सुख प्राप्ति की कामना करनी दहकती अग्नि में हाथ डालकर जलने से बचने की अभिलाषावत् है। यथार्थतः विषयों-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द में सुख है ही नहीं। संत कबीर साहब ने कहा है-
झूठे सुख को सुख कहै, मानत है मनमोद ।
जगत चबेना काल का, मुख में कुछ गोद ।।
सच्चा सुख वह है, जो सबके लिए समान है। उसमें किसी के लिए भी न्यूनाधिक का प्रश्न ही नहीं रह जाता और वह है विषय से सुदूर निर्विषय तत्त्व।
निर्विषय तत्त्व परमात्मा है। परमात्म-प्राप्ति में ही परम सुख है, चरम शान्ति है और शाश्वत कल्याण है। इसकी प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन जो सबके लिए सुलभ और सरल है, वह है सर्वेश्वर की भक्ति।
जैसे बिना जल के नाव नहीं चल सकती और जैसे बिना जमीन के वृक्ष नहीं जम सकता; वैसे ही बिना ईश्वर-भक्ति के जीव सुख नहीं पा सकता।
सर्वेश्वर के सिवा अन्य किसी में ऐसी शक्ति नहीं जो शाश्वत सुख प्रदान कर सके; चाहे वे महान् से महान् देव हों वा दनुज; नाग हों वा मनुज। सुप्रसिद्ध भक्तकवि अब्दुर्रहीम खानखाना ने इस संबंध में बड़ी ही मर्मस्पर्शी बात कही है-उन्होंने विभिन्न उपमाओं द्वारा इसकी पुष्टि करने का भरसक प्रयास किया है कि जिसके संरक्षक सर्वेश्वर नहीं, उसकी रक्षा करने की क्षमता दूसरे किसी में नहीं। भगवद्भक्ति रूपी भागीरथी में जिसका क्लेश और कलुष नहीं घुला, उसका अन्यत्र धुल नहीं सकता। यथा-
बड़ेन सौं जान-पहचान कै ‘रहीम’ कहा,
जो पै करतार ही, न सुख देनहार है।
सीतहर सूरज सौं नेह कियौ याही हेतु,
ताहू पै कमल जारि, डारत तुषार है।
छीरनिधि माहि धस्यौ संकर के सीस बस्यौ,
तऊ न कलंक नस्यौ, ससि में सदा रहै।
बड़ौ रिझवार है चकौर दरबार है,
कला निधि-सौ यार, तऊ चाखत अंगार है।
इस विषय की विशेष जानकारी गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की इन पंक्तियों से कीजिए-
सिव अज सुक सनकादिक नारद ।
जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद ।।
सब कर मत खगनायक एहा ।
करिअ राम पद पंकज नेहा ।।
श्रुति पुरान सब ग्रन्थ कहाहीं ।
रघुपति भगति बिना सुख नाहीं ।।
कमठ पीठ जामहिं बरु बारा ।
बन्ध्या सुत बरु काहुहि मारा ।।
फूलहिं नभ बरु बहु बिधि फूला ।
जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला ।।
तृषा जाइ बरु मृगजल पाना ।
बरु जामहिं सस सीस बिषाना ।।
अन्धकार बरु रबिहि नसावै ।
राम बिमुख न जीव सुख पावै ।।
हिम ते प्रगट अनल बरु होई ।
बिमुख राम सुख पाव न कोई ।।
बारि मथें घृत होइ बरु, सिकता ते बरु तेल ।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ, यह सिद्धान्त अपेल ।।
मसकहि करइ बिरंचि प्रभु, अजहि मसक ते हीन ।
अस बिचारि तजि संसय, रामहि भजहिं प्रबीन ।।
शिव, ब्रह्मा, शुकदेव, सनकादिक, नारद और जो मुनि ब्रह्म विचार में प्रवीण हैं। हे पक्षिराज! सबका यही मत है कि राम के चरण-कमल में प्रेम करना चाहिए। वेद, पुराण और सब ग्रंथ (सद्ग्रंथ) कहते हैं कि राम की भक्ति बिना सुख नहीं है। कछुए की पीठ पर चाहे बाल जम आवें, चाहे आकाश में बहुत तरह के फूल फूलें; परन्तु राम से विमुख रहकर जीव सुख नहीं पा सकता। चाहे मृगतृष्णा का जल पीने से प्यास दूर हो जावे, चाहे खरहे के माथे पर सींग जम आवे, चाहे अंधकार सूर्य को नाश कर दे; किन्तु राम से विमुख होकर जीव सुख नहीं पा सकता है। चाहे पाला से अग्नि प्रकट हो जावे, परन्तु राम से विमुख होकर कोई सुख नहीं पा सकता है। चाहे पानी के मथने से घी हो जाए और चाहे बालू से तेल निकल आवें; परन्तु यह सिद्धांत अटल है कि बिना हरिभजन के कोई संसार समुद्र से पार नहीं हो सकता। प्रभु मच्छर को ब्रह्मा बना सकते हैं, ब्रह्मा को मच्छर से तुच्छ कर सकते हैं। ऐसा विचारकर और सब संदेहों को छोड़कर बुद्धिमान चतुर प्राणी राम का भजन करते हैं।
दिनांक-23-3-1971, स्थान: पटना (63वाँ महाधिवेशन) सायंःकाल,
शान्ति-संदेश अक्टूबर+नवम्बर, 1971
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समवेत सज्जनो तथा देवियो!
आज हमारे आराध्यदेव की जन्मतिथि है। अतएव स्वाभाविक ही हमारे सौभाग्योदय का यह परम पावन पर्व है। यह बात लोक और वेद में प्रसिद्ध है कि शशि और सूर्य की भाँति सन्तों का अवतरण जगन्मंगल के लिए हुआ करता है। सन्तों की गति अनन्त होती है। उनकी महिमा-विभूति के गायन के लिए वाणी के वाणी भी मूक हो जाती है। मुझ अज्ञानी के लिए तो आसानी की बात ही क्या हो सकती है! सन्त सद्गुरु अपने कृपा-कटाक्ष से अनन्त शिष्यों के अनन्त-अक्ष का उन्मेष कराकर अनन्तस्वरूपी के दर्शन करानेवाले होते हैं-
सतगुरु की महिमा अनन्त , अनन्त किया उपकार ।
लोचन अनन्त उघारिया, अनन्त दिखावनहार ।।
(सन्त कबीर साहब)
वस्तुतः, सर्वेश को पाकर वे इतने विशेष हो जाते हैं कि शेष निःशेष हो जाता है। उनकी दृष्टि इतनी पैनी हो जाती है कि उसे व्यष्टि और समष्टि वेष्टित नहीं कर पाती, वरं इन उभय का अतिक्रमण कर निर्भय हो सम हो जाती है। यही हेतु है कि सन्तों ने कहीं ‘गुरु शंकररूपिणौ’, कहीं ‘कृपासिन्धु नररूप हरि’ तो कहीं ‘गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवः महेश्वरः’ के रूप में गुरु के दर्शन किये हैं। इतना ही नहीं, किसी स्थल पर राम-सम, तो कहीं गोविन्द से विशेष और कहीं ‘परम पुरुषहू तें अधिक’ की दृष्टि से वे गुरु को निहारते हैं।
किन्तु मुझ-जैसा ‘मुकुर मलिन अरु नयन विहीना’ तथा ‘अज्ञ अकोविद अंध अभागी। काई विषय मुकुर मन लागी।।’ जन अपने परम गुरुदेव के दिव्य रूप को देखे तो किस दृष्टि से और कुछ बोले तो किस मुँह से?
का मुख ले विनती करौं, लाज आवत है मोहि ।
तुव देखत औगुन करौं, कैसे भावौं तोहि ।।
(सन्त कबीर साहब)
फिर भी आपलोगों की प्रीति-प्रतीति देखकर कहना आवश्यक प्रतीत होता है। अस्तु, आज तिथि यानी वैशाख चतुर्दशी के दिन ही 88 वर्ष पूर्व हमारे गुरुदेवजी महाराज का आविर्भाव इस जगती-तल पर हुआ था। चैत और वैशाख वसन्त ऋतु कहलाता है। वसन्त ऋतु के बहार में सन्त और भगवन्त उभय के अवतार हुए हैं अर्थात् भगवन्त और सन्तरूप में भगवंत-उभय के अवतरण हुए हैं, जैसे चैत्र शुक्ल नवमी को भगवान राम और वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को भगवान बुद्ध। और भी लीजिए, वैशाख शुक्ल पंचमी को आचार्य शंकर और वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को संतमत के महान आचार्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज हुए। ऋतुराज को योगिराज और ऋषिराज को लाने का नाज (श्रेय) स्वाभाविक है।
अपने परमाराध्य को मैं राम कहूँ, कृष्ण कहूँ, बुद्ध कहूँ, शंकर कहूँं; समझ में नहीं आता। सन्त कहूँ या भगवंत कहूँ, अपनी अल्प बुद्धि में निर्णय नहीं कर पाता।
रामावतार त्रेतायुग में हुआ। नाम राम था, किन्तु वर्ण श्याम था। कृष्णावतार द्वापर में हुआ। उस समय नाम श्याम और रूप भी श्याम हुआ। गोया त्रेतायुग का अधूरापन द्वापर में पूरा हुआ; किन्तु जब उसमें भी कमी दृष्टिगोचर हुई, तो कलियुग के अवतार में उसकी पूर्त्ति की गई। वह क्या? नाम और रूप तो मिला, किन्तु ग्राम का अभाव था। इसलिए त्रेता युगवाला नाम (राम) रहा और जन्मभूमि का ग्राम श्याम हुआ। यदि और भी स्पष्ट करना चाहें, तो ऐसा कह सकते हैं कि भगवान राम ही दूसरे अवतार में श्याम हुए थे। तो ऐसा क्यों न कहा जाए कि इन युगल युगों के योग से कलियुग में राम+अनुग्रह= ‘रामानुग्रह’ नाम पड़ा अर्थात् अनुग्रहपूर्वक राम ग्राम श्याम में अवतरित हुए।
इस अवसर पर सन्त और भगवन्त के अवतरण पर स्वल्प प्रकाश डालना असंगत न होगा।
साधारण लोग मायावश होकर जन्म लेते हैं; परन्तु महायोगेश्वर माया को स्ववश में रखते हुए संसार के कार्यों का सम्पादन करने के लिए जन्म धारण करते हैं।
संत-संतजन सर्वश्रेष्ठ होते हैं। वे माया को कौन कहे, मायापति को वश में किए होते हैं। अपने बस करि राखेउ रामू । (रामचरितमानस) संत पलटू साहब की वाणी में हम कह सकेंगे-
सबसे बड़े हैं सन्त दूसरा नाम है ।
तीजै दस अवतार तिन्हें परनाम है ।।
ब्रह्मा विष्णु महेश सकल अवतार हैं ।
अरे हाँ रे पलटू सबके ऊपर सन्त मुकुट सिरताज हैं ।।
संतजन-लोक-कल्याणार्थ निज इच्छा से जन्म धारण करते हैं।
भगवंत-उनके जन्म का कारण होता है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
परित्रणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे ।।
-श्रीमद्भगवद्गीता 4/7-8
अर्थात् हे भारत! जब-जब धर्म मंद पड़ता है, अधर्म की प्रबलता होती है, तब-तब मैं जन्म धारण करता हूँ। साधुओं की रक्षा, दुष्टों का विनाश तथा धर्म के प्रतिष्ठापन-हेतु युग-युग में जन्म लेता हूँ।
संत-संतजन के लिए दुष्ट और शिष्ट सभी समान होते हैं। अतः वे दुष्टों का नहीं, वरं दुष्टों की दुर्वृत्ति-दुर्बुद्धि का नाश करते हैं। वे अज्ञान का नाश एवं सद्ज्ञान का प्रकाश करते हैं। वे अपकारक के भी उपकारक होते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में-
सन्त उदय सन्तत सुखकारी ।
विस्व सुखद जिमि इन्दु तमारी ।।
भूरज तरु सम सन्त कृपाला ।
परहित नित सह बिपति बिसाला ।।
तुलसी सन्त सुअम्ब तरु, फ़ूलै फ़रै पर हेत ।
इत तें वे पाहन हनें, उत तें वे फ़ल देत ।।
संतजन विश्व-उपकार की भावना स्वेच्छापूर्वक शरीर धारण करके संसार में विचरण करते हैं, इसीलिए अपने आराध्यदेव के संबंध में हम कह सकेंगे कि उनका इस संसार में सहर्ष आना हुआ, इसलिए सहर्ष+आ=सहर्षा उनकी जन्मभूमि का जनपद (जिला) हुआ।
भगवंत-संसार-रूपी कारागार में कारापाल की भाँति रहते हैं।
संत-जलकमलवत् जगत में रहते हैं।
भगवंत-का अवतरण कारण-मंडल से स्थूल मंडल में किसी कारणवश होता है। कार्य सम्पन्न करके पुनः कारण मंडल में प्रतिष्ठित होते हैं।
संत-का अवतरण सत् गुरुधाम-परमात्मपद से होता है और लौकिक लीला संपन्न करके परम धाम- अजर लोक में निवास करते हैं। संत कबीर साहब के शब्दों में-
जमीं आसमान वहाँ नहीं, वह अजर कहावै ।
कहै कबीर कोइ साधा जन,या लोक मँझावै ।।
हमारे सद्गुरु महाराज का जन्म श्याम ग्राम के मँझुआ टोले में हुआ। ऐसा लगता है, जैसे ‘मँझावै’ का ही यह अपभ्रंश हो। मँझुआ+आवै=मँझुवावै। यदि हम गुरुदेव को बुद्ध की दृष्टि से देखना चाहें तो उससे भी एक विलक्षण बोध प्राप्त होगा; जैसे-
भगवान बुद्ध-इनका पूर्व का नाम सिद्धार्थ था और पश्चात् का नाम बुद्ध।
हमारे सद्गुरु देव-आपका पूर्व नाम ‘राम- अनुग्रह’ था और पश्चात् का नाम महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज।
भगवान बुद्ध-का पित्तृगृह नेपाल की तराई कपिलवस्तु नगर में था, जो बिहार प्रांत में ही कभी अवस्थित था।
हमारे सद्गुरुदेव-का पितृगृह नेपाल की तराई- पुरैनियाँ (पूर्णियाँ) जिले में है, जो बिहार राज्यान्तर्गत है।
भगवान बुद्ध-का जन्म वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को हुआ था।
हमारे सद्गुरु-का जन्म वैशाख शुक्ला चतुर्दशी को हुआ अर्थात् एक दिन पूर्व।
द्रष्टव्य-इस दृष्टि से यदि कहा जाए कि भगवान बुद्ध से हमारे गुरु महाराज एक दिन के बड़े हैं, तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी।
भगवान बुद्ध-की माता जब अपने पितृगृह- मायके जा रही थीं, तब मार्ग में ही-शालवन में बुद्ध का जन्म हुआ था।
हमारे सद्गुरुदेव-की माता जब अपने पितृगृह-मायके पहुँच चुकी थीं, तब वहाँ ही आपका जन्म हुआ।
भगवान बुद्ध-जन्म धारण करते ही तत्क्षण सात डेग चले थे, जो अलौकिक बात है वा यौगिक सजन जन विचारें।
हमारे सद्गुरुदेव-जन्मजात सात जटाएँ
थीं, जो प्रतिदिन सुलझा देने पर भी पुनः सात-की-सात ही जटाएँ बन जाती थीं, यह विलक्षणता जन्मजात योगी के प्रतीक नहीं तो और क्या?
भगवान बुद्ध-की अल्पावस्था में ही उनकी माता की मृत्यु हुई थी।
हमारे सद्गुरुदेव-की भी अल्पावस्था में यानी चार वर्ष की उम्र होने पर इनकी माता की मृत्यु हुई।
भगवान बुद्ध-के पिता राजा शुद्धोधन ने पुनर्विवाह किया था।
हमारे सद्गुरुदेव-के पिता बबुजनलाल दासजी ने भी पुनर्विवाह किया था।
भगवान बुद्ध-की सौतेली माँ का अद्भुत स्नेह उसके प्रति था। उसने लाड़-प्यार से उनका पालन-पोषण किया था और बड़े होने पर भी-बुद्ध होने पर गुरुवत् उसी प्रतिष्ठा की दृष्टि से उनको देखती थी।
हमारे सद्गुरुदेव-की सौतेली माँ का अलौकिक प्यार आपको प्राप्त था और जब आप बड़े हुए, तो वे आपको पुत्र की दृष्टि से नहीं, वरं एक सन्त की दृष्टि से देखती थीं। इसका प्रबल प्रमाण है कि जब वे इस जगत से महाप्रयाण कर रही थीं, उस समय उन्होंने आपका आवाहन कर आपके शुभ दर्शन किये थे।
भगवान बुद्ध-ने विवाह करके कुछ काल के लिए गृहस्थ धर्म स्वीकार किया था, तत्पश्चात् वे संन्यासी बने।
हमारे सद्गुरुदेव-ने बाल-ब्रह्मचारी रहकर संन्यास व्रत धारण किये।
भगवान बुद्ध-को वृद्ध, रुग्न और मृतक- दर्शनरूप प्रचंड पवन के तीन झकझोरे लगने पर प्रबल वैराग्य हुआ।
हमारे सद्गुरुदेव-को अध्ययन-काल में ही वैराग्य हुआ। आपको परीक्षा-काल में श्ठनपसकमतेश् (निर्माणकर्ता) शीर्षक कविता का मात्र एक झटका लगा और वैराग्याग्नि प्रदीप्त हो उठी। ऐसा लगता है कि जैसे सूखी दियासलाई पर मात्र एक काठी घिसने की आवश्यकता थी।
भगवान बुद्ध-छः वर्षों तक जंगल में कठोर तप करने पर इस निर्णय पर पहुँचे कि इससे अभीष्ट सिद्धि की प्राप्ति नहीं हो सकती।
हमारे सद्गुरुदेव-ने छः महीने तक जमीन के नीचे रहकर यह निष्कर्ष निकाला कि इस कठिन तपश्चर्या से सर्वेश्वर का साक्षात्कार नहीं हो सकता।
भगवान बुद्ध-को बिहार राज्यान्तर्गत गया जिले की गया-भूमि में वटवृक्ष के नीचे परम सिद्धि की प्राप्ति हुई थी।
हमारे सद्गुरु-को बिहार राज्यान्तर्गत भागलपुर जिले में गंगा-पुलिन-स्थित कुप्पाघाट की गुफा, भागलपुर में परम सिद्धि मिली।
स्मरणीय है कि इन दोनों सन्तों की जन्मभूमि गंगा के उत्तरी पार थी और उभय को अभय सिद्धि की प्राप्ति गंगा के दक्षिणी पार में हुई।
भगवान बुद्ध-ने ध्यान करने और पंचशील पालन करने का उपदेश दिया।
हमारे सद्गुरुदेव-ने ध्यानाभ्यास करने और झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार; इन पंच पापों से विरत रहने का प्रबल आदेश दिया।
भगवान बुद्ध-ने बुद्ध, धर्म और संघ की त्रिशरण बताई-‘बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि ।’
हमारे गुरुदेव-ने त्रिशरण के समास-रूप-गुरु, ध्यान और सत्संग का निर्देशन करते हुए एक सर्वेश्वर पर अचल विश्वास एवं पूर्ण भरोसा रखने की शिक्षा दी।
भगवान बुद्ध-ने अंगुलिमाल नामक डाकू तथा आम्रपाली नामक वेश्या का उद्धार किया।
हमारे गुरुदेव-ने कितने ही दुष्टों तथा अज्ञात- नामा (कटिहार नगर की) वेश्या का उद्धार किया।
भगवान बुद्ध-ने पैदल घूम-घूमकर सम्पूर्ण देश में अपने धर्म का प्रचार किया।
हमारे सद्गुरुदेव-ने भी पदयात्र करके बीहड़ मार्गों को तय कर सन्तमत का प्रचार और प्रसार किया; मात्र अपने देश में ही नहीं, अपितु नेपाल राज्य में भी। अनपढ़, असभ्य और गिरे हुए, जिनको पूछनेवाला कोई नहीं, ऐसों को आपने सद्ज्ञान दिया।
अब स्वल्प रूप में जो विषमताएँ हैं, उनका समास रूप में दिग्दर्शन कराना चाहूँगा।
कहते हैं, भगवान बुद्ध ने वेद और ब्रह्म को अस्वीकार किया; परन्तु हमारे सद्गुरुदेवजी ने उन दोनों को स्वीकार किया और मानवीय मर्यादा दी। भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं और भिक्षुणियों की संख्या बढ़ाने में प्रोत्साहन दिया; किन्तु हमारे सद्गुरुजी ने देशकालानुकूल गृहस्थाश्रम में रहने तथा स्वावलम्बी जीवन-यापन का आदेश दिया। भगवान बुद्ध ने मौखिक उपदेश दिया; किन्तु परम पूज्य गुरुदेवजी ने मौखिक उपदेश के साथ साहित्य-सृजन भी किये। वेदवादी और पंथवादी के बीच का पाटन-कार्य आपने सफलतापूर्वक सम्पन्न किया। साथ ही, साम्प्रदायिक भाव के कारण सगुण- निर्गुण, साकार-निराकार आदि की जो आपस में कटुता थी, आपने अपने अर्जित ज्ञान और सामंजस्यपूर्ण विचार द्वारा उसकी झंझट का आमूल उन्मूलन करके उसमें मधुरिमा ला दी।
अन्य संतों की भाँति आपने एक ईश्वर पर विश्वास दिलाया और उनकी भक्ति दृढ़ाई। साथ ही, उनकी प्राप्ति का एकमात्र मार्ग अन्तर्मार्ग बताया, जो ज्योतिर्मय और ध्वनिमय है। जैसे जल में तैरनेवाले के लिए जल ही मार्ग होता है और जल ही अवलम्ब, वैसे ही अंतर्मार्गी साधक के लिए ज्योति और नाद ही मार्ग हैं तथा ये ही दोनों अवलम्ब भी। आपने प्रकाश और शब्द को परमात्मा का वाम और दक्षिण हस्त बतलाया और कहा कि यह शब्द जहाँ विलीन होगा, वहाँ ही उपनिषद् का यह वाक्य ‘निःशब्दं परमं पदम्’ सार्थक होगा अर्थात् वही परमात्म-धाम है। वही गोस्वामी तुलसीदासजी का ‘एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानन्द परधामा।।’ है। इन कतिपय शब्दों के साथ मैं श्री सद्गुरुजी महाराज के चरणों में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।
(शान्ति-सन्देश, जून 1971 ई0)
(श्रद्धेय श्रीसंतसेवीजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 9 मई, 1971 ई0 को परम पूज्य अनंत श्रीविभूषित महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की 88वीं जयन्ती के अवसर पर महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट में हुआ था।)

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आदरणीय सज्जनो तथा आदरणीया देवियो!
आपलोगों को ज्ञात है कि यहाँ संतमत का सत्संग होगा। अभी पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के पधारने में थोड़ी देर है। अतएव तबतक के लिए उनका आदेश है कि मैं आपलोगों की कुछ सामयिक सेवा करूँ। किन्तु आप जानते हैं-सेवा के प्रकार बहुत हैं। जैसे समाज-सेवा, देश-सेवा, मातृ-सेवा, पितृ-सेवा, गुरु-सेवा आदि विविध प्रकार की सेवाएँ हैं। मैं आपलोगों की सेवा किस तरह करूँ?
महाभारत ग्रन्थ में एक आख्यान आया है कि महाभारत युद्ध के समय भीष्म पितामह के शरीर में इतने वाण लगे थे कि उनके शरीर में दो ईंच से अधिक जगह खाली नहीं बची थी। तीर पर ही उनका शरीर टँग गया था। इसलिए उसे शर-शय्या कहा गया। भीष्म का धड़ तो शर पर था; किन्तु उनका गला नीचे लटक रहा था। भीष्म ने दुर्योधन की ओर देखा। दुर्योधन ने अपने सहयोगी से कहा- “ मखमली सुन्दर तकिया ले आओ।” दुर्योधन की बात सुनकर भीष्म ने खिन्न होकर कहा- “ दुर्योधन, तुमको सामयिक ज्ञान नहीं; तुमने कभी बड़े-बूढ़े की सेवा नहीं की। तुम सदा मूर्ख ही रहे।” फिर उन्होंने अर्जुन की ओर देखा। अर्जुन ने उनके सिर में तीन तीखे वाणों को मारकर ऊपर उठा दिया। भीष्म ने प्रसन्न होकर कहा-शाबाश बेटा! तुम धन्य हो। जैसा बिछावन, वैसा तकिया देकर तुमने मेरी शूरता की शोभा बढ़ायी है, मैं तुमको आशीर्वाद करता हूँ।
पुनः दुर्योधन की ओर देखकर कहा- “ मुझे प्यास लगी है।” फिर दुर्योधन ने किसी सेवक से कहा- “ सोने की झारी में पानी ले आओ।” यह सुनते ही उसकी ओर से निराश होकर भीष्म ने अर्जुन को देखा। अर्जुन ने अपने तरकश से वाण निकाला, धनुष पर चढ़ाया और पृथ्वी में जोर से मारा। फिर क्या था, पाताल से पानी का स्त्रोत निकलकर पितामह के मुँह में जाने लगा। वे अत्यंत प्रसन्न होकर अर्जुन को शुभाशीर्वाद देने लगे। यह है सामयिक सेवा। उसी तरह अभी जो यहाँ आयोजन किया गया है, इसमें आपकी सेवा मैं संतवाणी एवं सत्संग-द्वारा करूँ, यही सामयिक सेवा होगी।
इस सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। हरि सर्वत्र हैं। ऐसी कोई जगह नहीं, जहाँ ईश्वर नहीं। जैसे मछलियाँ पानी में रहती हैं, उसके चतुर्दिक पानी-ही-पानी रहता है। उसी तरह जीवात्मा संसार में है; किन्तु अफसोस है कि प्रभु के सर्व व्यापक होने पर भी जीवात्मा को उसकी प्रत्यक्षता नहीं। संत कबीर साहब ने कहा है-‘पानी बिच मीन प्यासी, मोहि सुनि-सुनि आवत हाँसी।’ यही बात हमलोगों के लिए चरितार्थ हो रही है। परमात्म-प्राप्ति की प्यास लगती है, वे मिलते नहीं, प्यास बुझती नहीं। स्मरण रहे कि मछली के चतुर्दिक पानी रहने पर भी साधारण ढंग से वह पानी नहीं पी सकती। जब वह पानी में उलटती है, तभी पानी पी सकती है। उसी तरह जीव भी परमात्मा के अन्दर में है; लेकिन जबतक वह बहिर्मुखी है, अन्तर्मुखी नहीं हो जाता, तबतक ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। बहिर्मुखी रहने पर जीव को माया का दर्शन होता है, ब्रह्म का नहीं। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
‘गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई ।।’
माया कभी सत्य नहीं होती, ब्रह्म सदा सत्य है। माया बाजीगर के खेल-सदृश असत्य है। ब्रह्म सत्य, शाश्वत और नित्य है। माया और छाया एक-सी होती है। उसकी कोई हस्ती नहीं है। “ आपलोग कहेंगे-हम देखते हैं कि चौंकी है, इतने लोग इकट्ठे हैं, शामियाना है। फिर वेदान्त कहता है-जो कुछ तुम देखते हो, वह सत्य नहीं है। यह कैसी बात है?” अच्छा सुनिये, एक बाजीगर था। उसने एक लम्बी रस्सी आकाश में फेंक दी। रस्सी अधर में लटक गयी। उसका नीचेवाला छोर तो दिखाई पड़ता था; किन्तु ऊपरवाला छोर कहाँ लगा था, दीख नहीं पड़ता था। बाजीगर का साथी उस रस्सी के सहारे ऊपर की ओर जाता है। कुछ देर तक, कुछ दूरी तक तो वह जाते हुए दीख पड़ा। पीछे वह आकाश में कहाँ विलीन हुआ, पता नहीं। थोड़ी देर के बाद अपने साथी पर बाजीगर बिगड़ने लगा। अपने साथी से कुछ भी उत्तर नहीं पा आवेश में आकर वह भी उसी रस्सी को पकड़ते हुए नंगी तलवार लेकर ऊपर जाता है। और कुछ दूर जाने के पश्चात् वह भी ओझल हो जाता है। पश्चात् क्रम-क्रम से हाथ, पैर, धड़, सिर आदि कट-कटकर गिरने लगे। वहाँ कैमरा लेकर जितने फोटोग्राफर थे, सभी ने उन सबका फोटो ले लिया। थोड़ी देर के बाद जब बाजीगर नीचे उतरा, तो उसने देखा कि अपने साथी को ही उसने मार डाला है। वह फूट-फूटकर रोने लगा और रोते ही रोते उसने शरीर के सभी कटे हुए अंगों को एकत्र किया और एक कपड़े से ढँक दिया। कपड़ा हटाने पर उसका साथी जीवित हो उठा। उसका भी फोटो ले लिया गया। किन्तु जब उन चित्रें की सफाई हुई, तो उसमें केवल एक उड़ती हुई चील की तस्वीर आयी और कुछ नहीं। बाजीगर ने जो कुछ दिखलाया, वह सब मिथ्या था। उसी तरह हम देखते सब कुछ हैं; परन्तु सत्य कुछ भी नहीं। संतों ने कहा-ब्रह्म को जानो, तो भ्रम जायेगा। जीव भ्रम में पड़कर नाना प्रकार के दुःख, क्लेश, शोक, पीड़ा आदि से पीड़ित होते रहता है। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
राका पति षोड़स उअहिं, तारागन समुदाय ।
सकल गिरिन्ह दव लाइय, बिनु रवि राति न जाय ।।
ऐसेहि बिनु हरि भजन खगेसा।
मिटहि न जीवन केर कलेसा।।
-रामचरितमानस
जबतक सूर्योदय नहीं होता, तबतक दिन नहीं होता। उसी तरह ईश-भजन के बिना क्लेश नहीं मिट सकता। स्मरण रहे, भक्ति अकेली नहीं रहती। उसके साथ ज्ञान और योग का भी संयोग रहता ही है। भक्ति, ज्ञान और योग-तीनों का घनिष्ठ सम्बन्ध है। ज्ञान-हीन योग और योग-हीन ज्ञान मोक्षप्रद नहीं होता; यह उपनिषद्-वाक्य है। और गो0 तुलसीदासजी कहते हैं-
‘जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू। जहँ नहिं राम प्रेम परधानू।।’
वह योग, कुयोग है और वह ज्ञान, अज्ञान है, जहाँ ईश्वर में प्रेम नहीं। आटा, चीनी और घृत को अलग-अलग कर खाने से न तो स्वाद मिलता है और न बल ही मिलता है; किन्तु तीनों को मिलाकर अच्छी मिठाई बनती है, तब उसका स्वाद भी बढ़ जाता है और वह पौष्टिक भी बन जाता है। इसी तरह अध्यात्म- पथ के पथिक के लिए भक्ति, योग और ज्ञान मिश्रित रूप उत्कृष्ट पाथेय है। भक्ति अर्थात् सेवा; किनकी? ईश्वर की। ज्ञान अर्थात् जानना; किनको? अपने को-ईश्वर को। योग अर्थात् मिलन; किनसे? ईश्वर से। इस तरह योग, ज्ञान वा भक्ति; जो कुछ कहा वा किया जाए, ईश्वर के लिए ही होता है।
योग का नाम सुनकर कुछ लोग बहुत घबराते हैं। कहते हैं-कलियुग में योग नहीं हो सकता; परन्तु मैं कहता हूँ कि आप योग के बिना नहीं रह सकते। योग के बिना आपका जीवन भारस्वरूप हो जायगा। आप विचार कर देखें-जिस वस्तु वा व्यक्ति के साथ आपके मन का प्रबल योग है, उसके वियोग को सहर्ष सहन कर सकते हैं? कुम्भ-मेला के अवसर पर कहलगाँव के एक पति-पत्नी गये हुए थे। पहले पति स्नान करके आये, तब पत्नी स्नान करने गई। भीड़ इतनी अधिक थी कि वह स्नान करके ऊपर होते समय भटक गई। उसका पति उसे खोजने लगे। खोजते-खोजते वे लाश की भी तलाश करने लगे। माघ का महीना था। पत्नी अलग व्याकुल है। खोजते-खोजते दूसरे दिन दोनों की भेंट हुई। दोनों मिलते ही काफी देर रोये। यह क्या है, योग या वियोग।
योग का अर्थ है-जोड़। श्रीमद्भगवद्गीता में अठारह अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय को एक-एक ‘योग’ की संज्ञा देकर अठारह प्रकार के योगों का वर्णन किया गया है। साथ ही योग की भिन्न-भिन्न प्रकार की परिभाषाएँ भी दी गयी हैं- “ योगः कर्मसु कौशलम्य्, “ समत्वं योग उच्चते” आदि।
महर्षि पतंजलि ने चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा है। यथा- “ चित्तवृत्ति निरोधः इतियोगः।” यद्यपि योग के अर्थ जोड़, मिलन, मिलाप आदि विशेष व्यवहृत हैं, तथापि यत्र-तत्र योग का अर्थ घटाव भी होता है। जिस तरह कमाने का अर्थ जमा करना भी होता है और घटाना भी। श्रीमद्भगवद्गीता और पातंजल योग के अनुसार- “ जहाँ-जहाँ तुम्हारी चित्तवृत्ति जाती है, वहाँ-वहाँ से उसको हटाओ।” विषयों से चित्तवृत्ति को हटाना, घटाना ही तो हुआ। इसलिए योग का अर्थ घटाव भी होता है। वस्तुतः जबतक हटाव नहीं-तबतक घटाव नहीं और जब घटाव नहीं, तो फिर परमात्मा से सटाव भी नहीं।
मेरे कथन का आशय यह कि शब्दों के हेर-फेर से योग को जोड़ वा घटाव कहें, हटाव या सटाव कहें; किन्तु इसमें हठयोग का लेश नहीं है, जिससे कितने को क्लेश हुआ है। यह तो वह सरल राजयोग है, जिसमें दैहिक, दैविक भौतिक सभी प्रकार के क्लेश निःशेष होते हैं। हठयोग अवश्य ही सबके लिए सरल, सुगम और सुख साध्य नहीं है; किन्तु राजयोग के लिए ऐसी बात नहीं है। इसमें तो वह आसान क्रिया बतलायी जाती है, जिसको क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या गरीब, क्या अमीर, क्या विद्वान्, क्या अविद्वान्, क्या इस देश, क्या अन्य देश; विश्व के मानव मात्र कर सकते हैं। क्या गृहस्थ क्या विरक्त सभी के लिए समान अधिकार है। यह कठिन साधना नहीं, सहज साधना-ध्यान योग है। संत कबीर साहब ने कहा है-
‘न योगी जोग से ध्यावै, न तपसी देह जरवावै ।
सहज में ध्यान से पावै, सुरति का खेल जेहि आवै ।।’
यह है राजयोग और श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय का ध्यान योग। इसमें कहीं भी हठयोग नहीं, प्राणायाम की चर्चा तक नहीं।
महाभारत युद्ध से मुख मोड़कर अर्जुन जंगल जाना चाहता था; किन्तु महायोगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने समझाया- “ मामनुस्मर युध्य च।” मेरा स्मरण करो और युद्ध भी। “ तन काम में मन राम में।” यही सीख संत कबीर साहब ने दी। उन्होंने कहा-
घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि बन नहिं जावै।
बन के गये कलपना उपजै, तब धौं कहाँ समावै।।
और बाबा नानक ने कहा है-
जैसे जल महि कमलु निरालमु मुरगाई नैसाणै।
सुरति सबदि भवसागरु तरीअै नानक नामु बखाणै।।
अर्थात् संसार में जल-कमलवत् रहो और भवसागर पार होने हेतु सुरत-शब्द का अभ्यास भी करो। श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने कहा है-भक्त संसार में रहे कोई हानि नहीं; परन्तु उसमें सांसारिकता नहीं आनी चाहिये। क्योंकि सांसारिकता उसके अनर्थ का कारण होती है। जैसे पानी में नाव के रहने से हानि नहीं; परन्तु नाव में पानी नहीं आना चाहिये। नाव में पानी के आने से वह डूब जायगी। देहात की एक मशहूर कहावत है-
‘घर में हो खट पट, तो चल बाबाजी के मठ पर।
बाबाजी माँगे टहल, तो रमते रहल।।
रमता में मिलै टक्का, तो संन्यासी भेष पक्का।।
और कहीं-रमता में हो फ़क्का, तब गृहस्थी चक्का।।’
संत पलटू साहब ने कहा-
यार फ़क्कीर तू पड़ा किस ख्याल में,
पाँच पचीस संग तीस नारी।
एक तू छोड़िया तीस तेरे संग में,
होय अस ज्ञान से नर्क भारी।।
तीस के कारने भीख तू माँगता,
एक ने कवन तकसीर पारी।
दास पलटू कहै खेल यह ना बदो,
जब छूटै तीस तब छोड़ प्यारी।।
इस योग में घर-वार वा रोजगार छोड़ने की आवश्यकता नहीं। राजा जनक भी तो गृहस्थ ही थे। वे कितने महान थे कि उनके यहाँ शुकदेव मुनि भी शिक्षा-ग्रहण करने के लिए गये थे। एक बार का प्रसंग है कि श्रीशुकदेव मुनि को उनके पिता व्यासदेवजी ने शिक्षा ग्रहण करने के लिए राजा जनक के पास भेजा। शुकदेवजी जब राजा जनकजी के यहाँ पहुँचे, तो वे उनके राज्य-वैभव को देखकर चकित हो गये। उन्होंने मन में सोचा-पिताजी ने मुझे कहाँ भेज दिया! भला, राजभोग करनेवाले मुझे योग, ज्ञान, ध्यान क्या सिखायेंगे? उनके मन की बात को जानकर राजा जनकजी ने उनके परीक्षार्थ कई दिनों तक उनको फाटक पर ही रखा। पश्चात् उनको भोजन कराने के लिए भवन के भीतर ले गये। भोजन के पदार्थ विविध प्रकार के बने थे। मुनिजी के बैठने के बाद राजशाही भोजन परोसकर उनके सामने रखा गया और उनसे कहा गया कि गलती से चौका यहाँ लगाया गया है। जिस स्थान पर आप बैठे हैं, उसके ऊपर की छत गिरने ही वाली है। ऊपर देखने पर मुनिजी को भी ऐसा लगा कि छत शीघ्र ही धराशायी होनेवाली है। भय के मारे भोजन करने में उन्होंने इतनी शीघ्रता की कि भोजन के स्वाद का उनको कुछ पता ही नहीं चला। फिर कटोरी में पानी भरकर कहा कि “ इसे हाथ में लेकर शहर देखकर आइये; लेकिन देखिये, एक बूँद भी पानी नीचे गिरने न पावे। यदि एक बूँद भी पानी नीचे गिरा, तो धड़ से सर अलग कर दिया जायगा।” शुकदेव मुनि की दोनों तरफ दो सिपाही साथ लगा दिये गये और दोनों को राजाज्ञा मिली- “ अगर कटोरे से पानी गिरे, तो धड़ से सिर काटकर अलग कर देना।” सम्पूर्ण शहर घुमाकर मुनिजी को जब राजा जनक के सामने लाया गया, तो राजा जनक ने पहले पूछा- “ कहिये! क्या-क्या भोजन हुआ और भोजन कैसा बना था?” शुकदेव मुनि ने कहा- “ छत गिरने के भय से मैंने इतनी शीघ्रता से भोजन किया कि पता भी न चला कि मैंने क्या-क्या भोजन किया और भोजन कैसा बना था?” तब फिर राजा ने पूछा- “ अच्छा, बताइये शहर कैसा था?” शुकदेव मुनि ने पुनः कहा- “ मैं शहर क्या देखता? डर के मारे मैं तो कटोरी को ही देखता था कि कहीं पानी न गिर जाय।” राजा जनक ने कहा-यही आपको उपदेश दिया। जिस तरह छत गिरने के भय से आपको भोजन का स्वाद नहीं मालूम पड़ा। पानी गिरने के भय से शहर नहीं देख सके। आपका ध्यान छत में और कटोरी के पानी में लगा था, इसी तरह अपना ध्यान ईश्वर की ओर लगाकर संसार का काम करना चाहिए। जिस तरह पनिहारिन पानी का एक घड़ा सिर पर रखती है, दूसरे घड़ा को दूसरे हाथ से पकड़कर बगल में दबाती है और एक हाथ में बाल्टी और रस्सी रखती है, साथ ही अपने सहचरी के संग बातचीत भी करती जाती है। इसी प्रकार कर से कर्म करते हुए मन ईश्वर की ओर लगाये रखना चाहिये, यह संतो ं की सीख है। यही है- “ तन काम में, मन राम में।” उसी तरह संसार में रहो। यह सरल योग है।
बिना मनोयोग के किसी भी काम में सफलता नहीं मिल सकती। और तो और अगर मन का योग चौके में नहीं रहे, तो माताएँ रोटी भी बना नहीं सकतीं। कभी रोटी जल जायगी, तो कभी साग जलेगा। कभी दाल में नमक छूट जायगा, तो कभी अधिक हो जायगा। किसान यदि मनोयोगपूर्वक खेती नहीं करे, तो खेती का काम हो नहीं सकता। सिपाही मनोयोगपूर्वक लड़ाई में नहीं लड़े, तो वह देश को खो देगा। इसलिए योग का संयोग तो हमारे दैनन्दिन कार्य के साथ भी रहता ही है, फिर इससे डरने वा घबराने की बात क्या?
ज्ञान कहते हैं, जानने को। ज्ञान चार प्रकार के होते हैं-श्रवण, मनन, निदिध्यासन और अनुभव। श्रवण-ज्ञान सामान्य अग्नि के समान होता है। मनन-ज्ञान बिजली की चमक के समान होता है। निदिध्यासन ज्ञान बड़वानल के समान और अनुभव ज्ञान महाप्रलय की अग्नि के समान होता है। अनुभव ज्ञान में माया-प्रपंच का नाश हो जाता है। श्रवण और मनन ज्ञान में चंचलता रहती है। निदिध्यासन ज्ञान माया को मर्यादित रखता है, नाश नहीं कर सकता। ‘अनु’ का अर्थ होता है-‘पीछे’ और ‘भव’ का अर्थ होता है-‘होना’। अनुभव ज्ञान के बाद कोई ज्ञान बाकी नहीं रह जाता-किसी ज्ञान की आवश्यकता नहीं रह जाती। यही प्रत्यक्ष ज्ञान है। आत्म-ज्ञान है-स्वरूप ज्ञान है, सर्वोपरि ज्ञान है। श्रीमदाद्य शंकराचार्यजी ने स्वरूपानुसन्धान को ‘भक्ति’ संज्ञा से अभिहित किया है। उन्होंने कहा है-
‘मोक्ष कारण सामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी ।
स्वस्वरूपानुसंधानं भक्तिरित्यभि धीयते ।।’
भक्ति की श्रेणियाँ हैं, जिसको नवधा भक्ति कहते हैं। जो जहाँ गिरा रहता है, वह वहीं से उठकर चलना आरम्भ करता है। स्थूल मण्डल निवासियों के लिए प्रथम स्थूल उपासना की सहायता अत्यन्त अपेक्षित है। जैसे जबतक कोई मोटे अक्षर को नहीं लिखता, तबतक बारीक अक्षर लिख नहीं सकता। वस्तुतः भक्ति का आरम्भ स्थूल उपासना से होता है और उसका अन्तिम चरण है-आत्मनिवेदनम्। गुरु नानकदेव ने कहा है-
अैसी सेवकु सेवा करै। जिसका जीउ तिसु आगै धारै।।

यह प्रवचन दिनांक 28-11-71 ई0 को बिहार की राजधानी पटना के राजेन्द्र नगर में प्रस्तावित महर्षि मेँहीँ योगाश्रम की ओर से आयोजित साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, अप्रैल, 2012 ई0)

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ध्यानविन्दूपनिषद् में लिखा है-
यदि शैलसमं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम् ।
भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ।।
अर्थ-कई योजन तक फैला हुआ पहाड़ के समान यदि पाप हो तो वह ध्यानयोग से नष्ट हो जाता है; इसके समान पापों का नष्ट करनेवाला कभी कुछ नहीं हुआ है। आइये, इस विषय पर हम विचार करें कि ध्यानयोग से पापों का समूल नष्ट कैसे होता है। किन्तु इसके पूर्व एक निवेदन करना चाहूँगा कि गो0 तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस के उत्तरकांड में लिखा है-
संत उदय संतत सुखकारी ।
विस्व सुखद जिमि इन्दु तमारी ।।
अर्थात् जैसे शशि-सूर्य संसार को सुख पहुँचाने के लिए उदित होते हैं, उसी तरह संतों का अवतार जगन्मंगल के लिए ही होता है। अब प्रश्न होता है-‘जगत् कल्याण के लिए संतो ं का अवतरण होने पर भी जागतिक जन अकल्याण की दशा में क्यों रहते हैं? उत्तर में निवेदन है, किसी ने अमानिशीथ से पूछा, तू इतनी काली क्यों है? उसने उत्तर दिया, मुझे सूर्य से नफरत है। सूर्य अर्थात् प्रकाशपुंज से जिसे घृणा है, वह अंधकारपूर्ण रहेगा, इसमें संदेह ही क्या है? इसी प्रकार जो साधु-संत, ज्ञानी-ध्यानी और सदाचारी सज्जन से घृणा या द्वेष करता हो, यह दुर्जन बनकर अज्ञान की दशा में या अकल्याणावस्था में रहे, इसमें आश्चर्य ही क्या है? चाहे वे अपने मन से अपने को कितना भी ज्ञानी क्यों न मानते हो। ठीक इसी प्रकार जो पुण्य से घृणा करता है, वह पाप में प्रवृत्त हो जाय, इसमें संशय का स्थान ही कहाँ है? भगवान बुद्ध ने कहा है-
अभित्थरेथ कल्याणे पापा चित्तं निवारये ।
दग्धंहि करो तो पुञ्ञं पापस्मिं रमते मनो ।।
अर्थात् पुण्य करने में शीघ्रता करें। पाप से चित्त को हटावें। पुण्यकार्य में शिथिलता करनेवाले का मन पाप में लग जाता है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
सरदातप निसि ससि अपहरई।
संत दरस जिमि पातक टरई।।
जिस तरह शरद ऋतु में उसकी गरमी को रात्रि में चन्द्रमा हरण कर लेता है, उसी तरह संतों के दर्शन से पातक टल जाते हैं। विचारणीय है कि जैसे आकाश में काले-काले बादल उमड़ने पर हवा उसे दूर उड़ा ले जाती है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि फिर कभी बादल आएगा ही नहीं और वर्षा होगी ही नहीं। यथार्थ बात तो यह है कि हवा उसे थोड़ी ही देर के लिए दूर हटा देती है, पुनः बादल आ सकता है और वर्षा भी हो सकती है। उसी तरह संत दर्शन से पातक टरते हैं, नष्ट नहीं होते हैं। जैसे सरोवर में जल के ऊपर मल यानी हरी-हरी काई (सेंवार) जम जाता है, लगातार कुछ काल तक उस जल को हिलाते रहने से कुछ काल के लिए काई दूर हो जाती है, किन्तु जैसे हिलाना बंद हुआ, वैसे ही धीरे-धीरे वह काई आने लगती है और थोड़ी देर के बाद पूर्ववत् हो जाती है। उसी तरह जबतक संत दर्शन और उनके प्रवचन श्रवण करते रहते हैं, तबतक मन विषयों की ओर से, पापों की ओर से हटा रहता है; किन्तु जैसे ही संतों का संग, सत्संग छूटता है, वैसे ही धीरे- धीरे वे विकार आने लगते हैं और मन पुनः पूर्ववत् विकारी बन विषयों में विचरण करने लगता है, पाप कर्मों में रत हो जाता है। ऐसी अवस्था में जिज्ञासा होती है कि क्या इसको समूल नष्ट करने का कोई यत्न नहीं है? हाँ, है।
मेरे विचार में, जैसे गाय के पेट से जिस समय बच्चा निकलता है, उस समय उस बच्चे के शरीर में दुर्गन्धयुक्त रस, रक्त और मांस की झिल्लियाँ लिपटी रहती हैं; लेकिन उसकी माँ धीरे-धीरे उसको चाट-चाटकर उसकी सारी दुर्गन्धियों को दूर कर देती है। इसी प्रकार संसार में जब जीव आता है, तो उसके अंदर काम-क्रोधादिक बहुत प्रकार के विकार मल भरे रहते हैं; किन्तु संत सद्गुरु की शरण से ये सभी विकार धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं। संत जन अपने ज्ञानोपदेश व शिक्षा-दीक्षा द्वारा उसके समस्त मल का शनैः शनैः हरण कर लेते हैं। जैसे सूर्योदय होने पर अंधकार नहीं रह जाता है। इस संबंध में गो0 तुलसीदासजी महाराज के विचार भी पठनीय हैं। उन्होंने पाप को समूल नष्ट करने की एक अच्छी सद्युक्ति बतलायी है और वह यह है-
जब द्रवहिं दीनदयाल राघव, साधु संगति पाइये।
जेहि दरस परस समागमादिक, पाप रासि नसाइये।।
अर्थात् जब दीन दयालु रघुनाथजी कृपा करते हैं, तब संत समागम होता है। जिन संतों के दर्शन, स्पर्श और सत्संग से पाप समूह समूल नष्ट हो जाते हैं।
तात्पर्य यह कि ईश्वर की अनुकम्पा से और साधु-संग से उनके दर्शन, स्पर्शन और समागम आदि का सौभाग्य प्राप्त होता है। फलतः अघ का वध करना सुलभ हो जाता है। किन्तु सावधान! गो0 तुलसीदासजी महाराज ने अपनी कविता में बड़ी ही कुशलतापूर्वक इस विषय का विश्लेषण और प्रतिपादन किया है। ध्यान में रखें-संतों के दर्शन हों, स्पर्शन हों, समागम हों ठीक है; किन्तु इतने से ही पातकों की परिसमाप्ति नहीं हो जाती। ‘समागम’ में आदिक शब्द जोड़कर गोस्वामीजी ने उनके अंतर्निहित गूढ़ रहस्य का उद्घाटन नहीं किया, वरन् गोपनीय रख दिया। वह रहस्य क्या है? ‘खग ही जाने खग की भाषा’ के अनुकूल क्रियावान, शुद्धाचरणी मर्मी सज्जन ही इस मर्म को जान सकते हैं।
आवश्यकता है, ऐसे संत सद्गुरु की जो उस रहस्य का उद्घाटन कर सकें और जिनकी बताई क्रिया विशेष के द्वारा पाप राशि को निःशेष किया जा सके। वह है ध्यानयोग। कहते हैं कि अमानिशीथ की तमिस्त्रा को नाश करने तथा दिन के प्रकाश को लाने के लिए बड़े-बड़े प्रयत्न किये गये। चन्द्रदेव से प्रार्थना करने पर वे समस्त ताराओं के साथ षोडश कलाओं से आकाश में उदित हुए। गृह-गृह में प्रदीप प्रज्वलित किये गये। सड़कों पर करोड़ों मशाल जलाए गए। समस्त वन, गिरि, वृक्ष एवं लताओं में अग्नि लगा दी गयी। फिर भी दिन का प्रकाश नहीं हो सका और न अंधकार जा सका। किन्तु जैसे ही सूर्योदय हुआ, वैसे ही समस्त विश्व प्रकाशपुंज से प्रकाशित हो गया। तम का नामोनिशान नहीं रहा। इसी तरह कितने भी बड़े से बड़े यज्ञ किये जाएँ, तीर्थ किये जाएँ, व्रत किये जाएँ; किन्तु पापों का नाश नहीं किया जा सकता। जैसे कपड़ा साफ करने के लिए साबुन और पानी की आवश्यकता पड़ती है, वैसे ही मन की मैल धोने के लिए ध्यान और सदाचार का पालन है।
पुनः सुषुम्ना ध्यान की महिमा का वर्णन करते हुए शिवजी ने ब्रह्माजी से इस भाँति कहा है, जिसका उल्लेख हम योगशिखोपनिषद् में पाते हैं-
अश्वमेधसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च ।
सुषुम्ना ध्यानयोगस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।
अर्थ-हजारों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ सुषुम्ना-ध्यान-योग का सोलहवाँ भाग भी नहीं है।
सुषुम्नायां सदा गोष्ठीं यः कश्चित्कुरुते नरः ।
स मुक्तेः सर्वपापेभ्यो निःश्रेयसमवाप्नुयात् ।।
अर्थ-जो नर सुषुम्ना में सदा सभा करता है, वह सब पापों से मुक्त होकर सच्चा कल्याण पाता है।
सुषुम्नैव परं तीर्थं सुषुम्नैव परो जपः ।
सुषुम्नैव परं ध्यानं सुषुम्नैव परा गतिः ।।
अर्थ-सुषुम्ना ही प्रधान तीर्थ है, सुषुम्ना ही प्रधान जप है, सुषुम्ना ही प्रधान ध्यान है और सुषुम्ना ही परा (ऊँची) गति है।
अनेक यज्ञदानानि व्रतानि नियमास्तथा ।
सुषुम्नाध्यानलेशस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।
अर्थ-अनेक यज्ञ, दान, व्रत और नियम; स्वल्पमात्र सुषुम्ना-ध्यान के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं है।
मुहूर्त्तमपि यो गच्छेन्नासाग्रे मनसा सह ।
सर्व्वं तरति पापानां तस्य जन्मशताजिर््जतम् ।।
अर्थ-जो मुहूर्त भर भी (अर्थात् कुछ काल भी) मन-सहित नासाग्र में जाता है (अर्थात् नासाग्र में मन को रोककर ठहरता है), वह सैकड़ों जन्मों का किया हुआ जो पाप है, उससे पार उतर जाता है।
इडा भगवती गंगा पिंगला यमुना नदी ।
इडा पिंगलयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती ।।
अर्थ-देह में इड़ा, पिंगला तथा सुषुम्ना नाम की तीन प्रधान नाड़ियाँ हैं। इड़ा गंगा, पिंगला यमुना और इड़ा-पिंगला के बीच में रहनेवाली सुषुम्ना सरस्वती नदी के नाम से कही जाती है।
त्रिवेणीसंगमो यत्र तीर्थराजः स उच्यते ।
तत्र स्नानं प्रकुर्वीत सर्व्वपापैः प्रमुच्यते ।।
अर्थ-देह में जहाँ उल्लिखित तीनों नाड़ियों का संगम है, उस स्थान को गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम-त्रिवेणी कहते हैं। यह त्रिवेणी सर्वप्रधान तीर्थ कहकर गिनी जाती है। इस तीर्थ में स्नान करने से सब पापों से मुक्ति मिलती है।।
यदि कहा जाय कि ‘ध्यानयोग द्वारा पापों का समूल नष्ट होता है।’ इसमें विश्वास क्यों किया जाए? तो जानना चाहिए कि ध्यानयोग में एकाग्रता होती है। एकाग्रता में तन्मयता स्वाभाविक होती है। जिसमें मनोवृत्ति का सभी ओर से सिमटाव होकर एक ओर होना होता है। दूसरे शब्दों में हम ऐसा भी कह सकते हैं कि-एकाग्रता में पूर्ण सिमटाव होता है। पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है और ऊर्ध्वगति में आवरण भेदन होता है। जिसके परिणामस्वरूप साधक अंधकार से प्रकाश में और प्रकाश से शब्द में, पुनः शब्द से निःशब्द में पहुँचकर परमात्म-स्वरूप का लाभ करता है। जिनके लिए ध्यानविन्दूपनिषद् में लिखा है-
बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
अर्थ-परम विन्दु ही बीजाक्षर है; उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अनाश ब्रह्म) में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है। ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त करनेवाला ब्रह्मरस को छोड़कर विषयरस पान करे, यह कब संभव है? गोस्वामीजी ने लिखा भी है-
ब्रह्म पियूष मधुर शीतल, जो पै मन सो रस पावै ।
तौ कत मृगजल रूप विषय कारण निसिवासर धावै ।।
अर्थात् मन तबतक ही विषयरस की ओर दौड़ता है, जबतक इनको ब्रह्मरस की प्राप्ति नहीं हो जाती। ब्रह्मरस प्राप्त करने पर विषय रस नीरस हो जाता है। इतना ही नहीं, ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त करनेवाला ब्रह्म ही हो जाता है। गोस्वामीजी के शब्द में ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ जाई’ हो जाता है। फिर ऐसे जन के लिए तो कहना ही क्या है?
यह प्रवचन डेहरी ऑन-सोन, शाहाबाद में श्रीहरिहर प्रसाद के यहाँ आयोजित मास-ध्यान-साधना के अवसर पर (शान्ति-सन्देश, मार्च 1972ई0) में हुआ था।

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बात अपनी नहीं, भाव गोस्वामीजी का और भाषा मेरी सुनें-संत का पंथ निर्बन्ध अर्थात् मोक्ष का होता है और कामान्ध के भव-बंध का; यही वेद, पुराण, कवि, कोविद, संत और सद्ग्रंथ का शुभ कथन है-
संत संग अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।
कहहिं संत कवि कोबिद, श्रुति पुराण सद्ग्र्रंथ ।।
इसी मोक्ष-धर्म के संबंध में अभी आपलोग योगशिखोपनिषद् के पाठ में श्रवण कर रहे थे-
योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः।
योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत् ।।
इस उपनिषद् में विधि और हर का मधुरतर संवाद है। प्रसंग इस भाँति है कि किसी समय गजानन और षडानन के पिता पंचानन अपने आसन पर आसीन थे। उसी समय विधिवत् विधि वहाँ उपनीत हो विनीत भाव से कहने लगे, ‘हे शंकर! संसार के लोग लोकैषणा में पड़ भयंकर कष्ट को सहते प्रपीड़ित हो रहे हैं। हे त्रिलोचन! उनके भवदुःख मोचन के लिए यदि आप अपना अनुभव-सिद्ध ज्ञान कह सकें, तो आपके उस ज्ञान से जग-जनजीवन कल्याणमय हो।
पुनः लगे हाथ दूसरे शब्दों में उन्होंने कहा-हे शूलपाणि! त्रयशूल को निर्मूल करने का यदि कोई निर्भूल उपाय हो, तो आप कृपा कर बतायें। शिवजी ने प्रजापति से कहा-हे अज! बात आज की नहीं, बहुत पुरानी है। इसके लिए कोई ज्ञान का सम्मान करते हैं, तो कोई योग का प्रयोग करते हैं। परन्तु उक्त वचन चाहे जिन सज्जन का हो अथवा प्राचीन हो वा अर्वाचीन, मुझे समीचीन नहीं मालूम पड़ता। वस्तुतः ज्ञान का सम्मान हो और उसमें योग का भी संयोग हो, यही उत्तम है; क्योंकि योगतत्त्वोपनिषद् में भी इसकी चर्चा हुई है, जो इस प्रकार है-
योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः ।
योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत् ।।
अर्थ-योगहीन ज्ञान मोक्षप्रद भला कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है, यह निश्चित है। उसी तरह ज्ञान-रहित योग भी मोक्ष-कार्य में समर्थ नहीं हो सकता। इसलिए ज्ञान और योग; दोनों का अभ्यास दृढ़ता के साथ मुमुक्षु को करना चाहिए ।
उपनिषद्काल के पश्चात् संत-काल का आगमन होता है। संतों की वाणियों के श्रवण-मनन वा अध्ययन-अनुशीलन से भी यही बात ज्ञात होती है। भगवान बुद्ध मोक्ष को निर्वाण की संज्ञा देते हैं। उनका कथन है-
नत्थि झानं अपञ्ञस्स पञ्ञा नत्थि अझायतो ।
यम्हि झानञ्च पञ्ञा च स वे निब्बान सन्तिके ।।
अर्थात् प्रज्ञा-विहीन को ध्यान नहीं होता है, ध्यान न करनेवाले को प्रज्ञा नहीं होती। जिसमें ज्ञान और ध्यान दोनों हैं, वह निर्वाण के समीप है।
भगवान बुद्ध के अनेक वर्षों के अनन्तर रविकुल कमल दिवाकर भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त कविकुल कमल दिवाकर संत गोस्वामी तुलसी दासजी महाराज हुए। उन्होंने ज्ञान और योग के संग भक्तियोग का भी सगम संयोग किया है।
जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानु।
जहँ नहिं राम प्रेम परधानू ।।
तथा,
धर्म तें बिरति जोग तें ज्ञाना।
ज्ञान मोक्षप्रद बेद बखाना ।।
सरिता-स्नान से शारीरिक मल साफ होता है, किन्तु ज्ञान, योग और भक्ति की त्रिवेणी में स्नान करने से मानव त्रिताप के संताप से मुक्त होता है। विवेक विलोचन से अवलोकन करने पर यह स्वतः सिद्ध हो जाएगा कि भक्ति, ज्ञान और योग से रिक्त नहीं। भक्ति और ज्ञान में योग का योग अनिवार्य रूप से रहता ही है तथा ज्ञान और योग को भक्ति सतत अभिसिक्त करती रहती है।
साधना-पथ में प्रगति कर चरम अवस्था प्राप्त्यर्थ प्रत्येक साधक के लिए ये तीनों अत्यन्त अपेक्षित हैं। ठीक वैसे ही, जैसे गगन-पथ में उड़ान भरने के लिए पक्षी को पर, पैर और पूँछ का प्रबल प्रयोजन होता है। अतः मोक्ष-पथ के पथिक के लिए ज्ञान, योग और भक्ति; ये तीनों अत्यन्त आवश्यक हैं।
कुछ लोग ‘योग’ का नाम सुनते ही भयभीत हो घबड़ा उठते हैं, ठीक वैसे ही जैसे किसी बिल्ली का मुँह एक बार गर्म दूध में जल गया, तो वह ठंढा मट्ठा को देखकर भी भागने लगती है। लोगों के मन में होता है-‘योग करने से रोग होगा, घर-वार, व्यापार और परिवार का परिहार करना होगा।’ किन्तु मैं जिस योग की चर्चा करना चाहता हूँ, वह ‘योग’ भवरोग को छुड़ाता है। उसमें शारीरिक क्लेश का तनिक भी लेश नहीं, न उसमें गृहस्थी का विरक्ति का भेद लेकर किसी वेश-विशेष की गुंजाइश है और न उसमें जात-पात के कारण वाद-विवाद की ही कोई बात है।
योग शब्द के श्रवणमात्र से महर्षि पतंजलि की स्मृति हो आती है। उन्होंने चित्त-वृत्ति-निरोध को ‘योग’ की संज्ञा दी है। यथा-‘चित्त-वृत्ति-निरोध इति योगः।’ श्रीमद्भगवद्गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने योग के विविध प्रकार तथा उसकी विभिन्न परिभाषाएँ बतायी हैं। यथा-‘योगः कर्मसु कौशलम्’, ‘समत्वं योग उच्यते’ आदि।
यद्यपि ‘योग’ के प्रकार अनेक हैं, किन्तु इनके प्रकार प्रसार में पड़ना नहीं है। फिर भी इसे सामान्य तया दो भागों में हम विभक्त कर सकते हैं-राजयोग और हठयोग। वराहोपनिषद् के अ0 4 में लिखा है-
शुकश्च वामदेवश्च द्वे सृती देवनिर्मिते ।
शुको विहंगमः प्रोक्तो वामदेवः पिपीलिका ।।36।।
अर्थात्-देवताओं ने शुक और वामदेव नामक दो मार्गों को बनाया है। शुक-मार्ग विहंगम-मार्ग के नाम से विख्यात है और वामदेव-मार्ग पिपीलिका-मार्ग के नाम से। विहंगम मार्ग को राजयोग और पिपीलिका मार्ग को हठयोग के नाम से अभिहित किया जाता है। हठयोग कंटकाकीर्ण होने के कारण, सबके लिए सुलभ नहीं होने से सापद भी है; किन्तु राजयोग सर्वसाधारण के लिए सुलभ, सुगम, सुखद और निरापद है। इसी राजयोग की सीख भगवान श्रीकृष्ण ने राजकुमार पार्थ अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता के छठे और आठवें अध्याय में दिया है। साथ ही योग की गरिमा-गाथा को गाते हुए उन्होंने कहा है, वह छठे अध्याय के श्लोक 40 और 46 पर्यन्त पठनीय है।
‘योग’ के अनेक अर्थों में ‘मिलन’ भी एक अर्थ है। यथार्थ में जीवात्मा का परमात्मा से मिलन ही योग है। क्योंकि यही एक ऐसा मिलन वा योग है, जिससे बिछुड़न का कभी प्रश्न ही नहीं उठता। संत कबीर साहब ने कहा है-
न पल बिछुड़ें पिया हमसे न हम बिछुड़े पियारे से ।
उन्हीं से ने लागी है, हमन को बेकरारी क्या ।।
परम भक्तिन मीराबाई की सूझ देखिये, पते की बात कहती हैं-
ऐसी पति को को बरै, जो जनमे मरि जाय ।
पति तो ऐसो कीजिए, चुड़लो अमर होइ जाय ।।
अमर सुहाग के लिए परम आवश्यक है-मानस योग, दृष्टियोग ओर शब्दयोग का अभ्यास करना।
‘नान्यो पन्थाः विद्यतेऽयनाय।’
और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। ज्ञान के प्रकार चार हैं और वे-श्रवण, मनन, निदिध्यासन और अनुभव कहलाते हैं। श्रवण वा अध्ययन से ज्ञान का शुभारंभ होता है और अनुभव में समापन होता है; क्योंकि ‘अनु’ का अर्थ होता है-पीछे और ‘भव’ का अर्थ होता है-‘उत्पन्न’ होना, इसलिए जो ज्ञान सबसे पीछे उत्पन्न हो, वह अनुभव ज्ञान कहलाता है। इन चारो ज्ञान का विश्लेषण बड़े ही विलक्षण ढंग से संत सुंदर दासजी ने किया है। यथा-
काहू कूँ पूछत रंक कैसे पाइयत ।
कान दै कै सुनत, श्रवण सोई जानिये ।।
जब कह्यो धन हम, देख्यो है फलानो ठौर ।
मनन करत भयो, कब घर आनिये ।।
फेरि जब कह्यो धन, गड्यो तेरे घर माहिं ।
खोदन लाग्यो है तब, निदिध्यासन ठानिये ।।
धन निकस्यो है जब, दारिद गयो है जब ।
सुन्दर साक्षात्कार, नृपति बखानिये ।।
और भी,
एक तौ श्रवण ज्ञान, पावक ज्यूँ देखियत ।
माया जल परसत, बेगि बूझि जात है ।।
एक है मनन ज्ञान, बिजली ज्यूँ धन मध्य ।
माया जल बरसत, तामें न बुझात है ।।
एक निदिध्यास ज्ञान, बड़वा अनल जैसे ।
प्रगट समुद्र माहिं, माया जल खात है ।।
अनुभव साक्षात ज्ञान, प्रलय को अगिन सम ।
सुन्दर कहत द्वैत, प्रपंच बिलात है ।।
यदि ज्ञान के प्रकार को हम दो भागों में विभक्त करें, तो एक को परोक्ष ज्ञान और दूसरे को अपरोक्ष ज्ञान कह सकते हैं। श्रवण, मनन और निदिध्यासन; इन तीनों को परोक्ष और अनुभव को प्रत्यक्ष वा अपरोक्ष ज्ञान कहेंगे। वस्तुतः ब्रह्म साक्षात्कार ही प्रत्यक्ष ज्ञान वा अनुभव ज्ञान है और जहाँ ब्रह्मानुभूति है, वहीं मोक्ष वा मुक्ति है। सुनिये, शिवगीता (13-12) की सूक्ति कितनी सुन्दर और सूक्तियुक्त है-
मोक्षस्य न हि वासोऽस्ति ग्रामन्तरमेव वा ।
अज्ञान हृदयग्रंथिनाशो मोक्ष इति स्मृतः ।।
ज्ञान की गंभीरता वा उसकी महिमा-विभूति का दिग्दर्शन भगवान ने गीता के चतुर्थ अध्याय में किया है-
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ।।36।।
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ।।37।।
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमहि विद्यते ।
तत्स्त्रयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।।38।।
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।।39।।
अर्थात् तू समस्त पापियों में बड़े-से-बड़ा पापी होने पर भी ज्ञान रूपी नौका द्वारा सब पापों को पार कर जाएगा। हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित पावक ईन्धन को भस्म कर देता है, वैसे ज्ञानरूपी अनल सब कर्मों को भस्म कर देता है। ज्ञान के समान इस संसार में दूसरा कुछ पवित्र नहीं है। योग में पूर्णता प्राप्त मनुष्य समय पर अपने आपमें उस ज्ञान को पाता है। श्रद्धावान ईश्वर-परायण, जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान पाता है और ज्ञान पाकर तुरंत परम शान्ति को पाता है।
शान्तिरूप सर्वेश्वर जानो ।
शब्दातीत कहि सन्त बखानो ।।
क्षर अक्षर के पार हैं येही ।
सगुण अगुण पर सकल सनेही ।।
अलख अगम अरु नाम अनामा ।
अनिर्वाच्य सब पर सुखधामा ।।
ये सब मन पर गुण इनके ही ।
पड़े महादुख संशय जेही ।।
यहि तुम्हरा निज प्रभु रे भाई ।
जहाँ तहाँ तव सदा सहाई ।।
इन्ह की भक्ति करो मन लाई ।
भक्ति भेद सतगुरु से पाई ।।
योग और ज्ञान-कथन के अनन्तर अब समास रूप में सर्वेश्वर की भक्ति के संबंध में श्रवण कीजिए। श्रीमद्भागवत में नवधा भक्ति का वर्णन है और गोस्वामी तुलसीदासजी की कृत रामचरितमानस में भी। किन्तु उभय सद्ग्रंथों की विषयवस्तु में थोड़ी भिन्नता और विलक्षणता है, जिससे विद्वज्जन अनुशीलन कर समझ सकते हैं। यथा-
श्रवणं कीर्तनं विष्णोस्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं साख्यं आत्मनिवेदनम् ।।
-भागवतपुराण
और रामचरितमानस में-
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं ।
सावधान सुनु धरु मन माहीं ।।
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा ।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।।
गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।
चौथि भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।।
मन्त्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा ।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा ।।
छठ दम सील बिरति बहु कर्मा ।
निरत निरन्तर सज्जन धमार् ।।
सातवँ सम मोहिमय जग देखा ।
मोतें सन्त अधिक करि लेखा ।।
आठवँ जथा लाभ सन्तोषा ।
सपनेहुँ नहिं देखइ पर दोषा ।।
नवम सरल सब सन छल हीना ।
मम भरोस हियँ हरष न दीना ।।
नव महुँ एकउ जिन्हके होई ।
नारि पुरुष सचराचर कोई ।।
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें ।
सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें ।।
जोगिबृन्द दुर्लभ गति जोई ।
तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई ।।
मम दरसन फल परम अनूपा ।
जीव पाव निज सहज सरूपा ।।
ये नौ प्रकार की भक्तियाँ भगवान श्रीराम ने भक्तिमयी श्रीशबरी जी को सुनाया था। यथार्थ बात तो यह है कि भक्ति शब्द ‘भज्’ धातु में ‘क्तिन’ प्रत्यय लगाने से बनता है, जिसका अर्थ होता है-सेवा। प्रश्न होगा-कौन-सी सेवा? क्योंकि सेवा के प्रकार अनेक हैं। गो0 तुलसीदासजी ने इसका उत्तर दिया है-‘आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा।’ अर्थात् सेव्य का आज्ञानुवर्ती होना सर्वोत्तम सेवा है और गुरु नानकदेव जी ने इसका उत्तर इस भाँति दिया है-
ऐसी सेवकु सेवा करे, जिसका जीउ तिसु आगे धरै।
यहाँ आत्म-निवेदन की भावना है। किन्तु जबतक आत्म-दर्शन नहीं, तबतक आत्म-निवेदन कैसा? इसीलिए श्रीमदाद्य शंकराचार्यजी ने ‘आत्मानुसंधान’ को भक्ति की संज्ञा से अभिहित किया है और कहा है कि यह भक्ति ही मुक्ति-प्राप्त्यर्थ गरिष्ठ सामग्री है। यथा-
मोक्षस्य कारण सामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी ।
स्वस्वरूपानुसंधानं भक्तिरित्यभिधीयते ।।
अर्थात् मुक्ति के कारणरूप सामग्री में भक्ति ही सबसे बढ़कर है और अपने वास्तविक स्वरूप का अनुसंधान करना ही ‘भक्ति’ कहलाती है।
आत्म-अनुसंधान के लिए आवश्यकता है-‘मैं कौन हूँ?’ इसके परिज्ञान की। ‘मैं हूँ, मैं हूँ’-हमलोग कहते हैं, किन्तु मैं कौन हूँ? यह हम नहीं जानते। यह हमारी स्त्री है, ये हमारे पति हैं, यह हमारी सम्पत्ति है, यह हमारी संतति है आदि; इन सारी बातों को हम जानते हैं; परन्तु ‘हम स्वयं कौन हैं?’ नहीं जानते-यह कितने आश्चर्य का विषय है? अफसोस! मूल का पता नहीं, पर फूल को ही मूल जानकर उसे ही जकड़कर पकड़ने चले हैं, फिर भी अपनी भूल का हमें पता नहीं। संत कबीर साहब ने कहा है-
मूल गहे ते सब कछु पावे।
डाल पात में मूल गँवावे।।
एक बंग-प्रदेशीय संत ने कहा है-
“ आमि आमि करि बुझिते ना पारि ।
के आमि आमाते आछे कि रतन ।।
वस्तुतः अपनी खोज में परमात्मा की खोज होगी और अपनी पहचान में ही परमात्मा की पहचान होगी। अतः प्रथम हम अपनी खोज करें, जो सबकी खोज करता है। इसीलिए संत चरणदासजी महाराज की शिष्या परम भक्तिन सहजोबाई का यह उद्घोष है।
आपन ही कूँ खोज मिलै जब राम सनेही।।
अपनी प्रत्यक्षता में परमात्मा की प्रत्यक्षता होगी। जैसे एक बूँद जल की पहचान से गिलास के, लोटे के, कुएँ के, सरोवर के, सरिता के और समुद्र प्रभृति के समस्त जल की पहचान होती है। क्योंकि जैसे महदाकाश का अभिन्न अंश घटाकाश, मठाकाश और पटाकाशादि होते हैं, वैसे ही हम परमात्मा के अभिन्न अंश हैं। परमात्मा अंशी हैं और हम अंश हैं। गोस्वामीजी ने कहा है-
ईस्वर अंस जीव अबिनासी।
चेतन अमल सहज सुख रासी।।
संतों ने कहा-‘अपनी खोज आप अपने अंदर करें; क्योंकि आप अपने अंदर हैं।’ कोई भी अपनी निसबत नहीं कह सकते कि वे अपने शरीर में नहीं हैं-बाहर हैं। अर्थात् अपनी स्थिति से सभी अवगत हैं कि वे स्व-शरीरस्थ हैं।
अब प्रश्नोदय हो सकता है कि हम अपने शरीर के अंदर अपनी खोज कैसे करें? खोज करने की कला क्या है?
उत्तर इसका बड़ा ही सरल है कि हम बाहर की चीजों को आँखें खोलकर देखते हैं, तो भीतर की चीजों को आँखें बंदकर खोजेंगे; क्योंकि बाहर का उलटा अंदर होता है। इसलिए बाह्य-खोज की जो क्रिया होगी, उसकी उलटी क्रिया आंतरिक खोज की हो, यह स्वाभाविक है।
आँखें बंद कर देखिए और स्वयं से पूछिये- आप कहाँ हैं? उत्तर मिलेगा-अंधकार में। यदि पूछा जाय कि यह अंधकार कहाँ है? तो कहा जाएगा- नयनाकाश में। अतएव कहा जाएगा कि नयनाकाश में हमारा वासा है। यह तो वैचारिक दृष्टि हुई, यदि शास्त्रीय रीति से विचार किया जाए, तो इन वाणियों पर ध्यान दें। ब्रह्मोपनिषद् में लिखा है-
जाग्रत्स्वप्ने तथा जीवो गच्छत्यागच्छते पुनः ।
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् ।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्निं संस्थितम् ।।
अर्थात् जीव जाग्रत् और स्वप्न में पुनः पुनः आता-जाता रहता है। जीव का वासा जाग्रत् में नेत्र में, स्वप्न में कण्ठ में, सुषुप्ति में हृदय में और तुरीयावस्था में मस्तक में होता है।
संत चरणदासजी महाराज ने कहा है-
जाग्रत वासा नैन में, स्वप्न कंठ स्थान ।
जान सुषुप्ति हृदय में, नाभि तुरीय मन तान ।।
संत दरिया साहब बिहारी ने कहा है-
जानि ले जानि ले सत्त पहिचानि ले
सुरति साँची बसै दीद दाना ।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै
पलक परवीन दिव दृष्टि ताना ।
ऐन के भवन में बैन बोला करै
चैन चंगा हुआ जीति दाना ।
मनी माथे बरै छत्र फीरा करै
जागता जिन्द है देखु ध्याना ।
पीर पंजा दिया रसद दाया किया
मसत माता रहै आपु ज्ञाना ।
हूआ बेकैद यह और सभ कैद में
झूमता दिव्य निशान बाना ।
गगन घहरान वए जिन्द अमान है
जिन्हि यह जगत सब रचा खाना ।
कहै दरिया सर्वज्ञ सब माहिं है
कफा सब काटि के कुफुर हाना ।
और हाथरस निवासी संत तुलसी साहब कहते हैं-
सत सुरत समझि सिहार साधौ।
निरखि नित नैनन रहौ ।।
धुनि धधक धीर गंभीर मुरली।
मरम मन मारग गहौ ।।
जीवात्मा के नेत्र-निवासी होने का एक प्रबल और प्रत्यक्ष प्रमाण बुद्धिजीवी व्यक्तियों के लिए इस भाँति दिया जा सकता है। सूर्य यानी सूर से जो जितनी दूर रहता है, उसको उसकी गर्मी उतनी ही कम लगती है और सूर्य के जो जितना निकट रहता है, उसको उसकी उतनी ही विकट गर्मी सहनी पड़ती है। दूसरी भाँति ऐसा भी कहा जा सकता है कि नृपति का प्रभुत्व उसके निकटवर्ती क्षेत्र में जितना अधिक रहता है, उतना उनसे दूरस्थ क्षेत्र में नहीं।
यही हेतु है कि अन्य ज्ञानेन्द्रियों की अपेक्षा नेत्र इन्द्रिय में अधिक शक्ति है; क्योंकि इसमें जीवात्मा का निवास है। इसका ज्वलन्त प्रमाण यह है कि जितनी दूर के रूप को आँख ग्रहण कर सकती है, उतनी दूर के शब्द को कान ग्रहण नहीं कर सकता। बाह्येन्द्रिय की बनावट पर विचार करने से यह प्रत्यक्ष ही है कि नेत्रेन्द्रिय ऊपर है और कर्णेन्द्रिय नीचे है। श्रवणेन्द्रिय से भी नाशा-इन्द्रिय निम्न स्तर पर रहने के कारण जितनी दूर का शब्द-श्रवण कर्ण कर सकता है, उतनी दूर का गंध ग्रहण घ्राणेन्द्रिय नहीं कर सकती। नासिका से भी नीचे रसना इन्द्रिय है। इसलिए यह थोड़ी भी दूर-स्थित खाद्य पदार्थ के स्वाद को नहीं जान सकती अर्थात् जिभ्या पर रखने पर ही इसको स्वाद का ज्ञान होता है।
मेरे कहने का तात्पर्य यह हुआ कि आप चेतन स्वरूप होकर नेत्र-स्थित है। इस कारण जो इन्द्रिय चेतन के जितना अधिक निकट संपर्क में है, वह उतना ही अधिक सचेतन है।
दूसरी बात और बताऊँ-जागतिक व्यवहार में हम प्रतिदिन देखते हैं कि बड़े जन को (बैठने के लिए) वरासन मिलता है। इस दृष्टि से भी ज्ञानेन्द्रियों में नयन का सर्वोच्च स्थान प्राप्त है ही और भी लीजिए, श्रेष्ठजन यानी सज्जन की बातों पर सभी जन विश्वास करते हैं। उसी प्रकार कान से सुनी हुई बातों की अपेक्षा आँख से देखी बातें अधिक प्रामाणिक होती हैं।
इसी भाँति भी चेतन आत्मा का नयन निवासी होना निश्चित प्रतीत होता है। हाँ, अब एक नयी जिज्ञासा हो, संभव है और वह यह कि ‘हमारी दो आँखें हैं, हमारा वासा इन दोनों आँखें में है अथवा किसी एक में? यदि दोनों में है, तो यह संभव कैसे सकता है? क्योंकि हम हैं एक, ‘एक’ का वासा एक ही समय में दो स्थानों में कैसे हो सकता है? यदि किसी एक ही नेत्र में निवास है, तो वह कौन नेत्र है, दायाँ या बायाँ?
इसके उत्तर में निवेदन है कि हम इन उभय आँखों में अथवा दोनों में से किसी एक में भी नहीं रहते हैं। बल्कि युगल नेत्रें के मध्य मुकाबले अंदर रहते हैं, जिसको तीसरा नेत्र वा शिव-नेत्र भी कहते हैं। गोस्वामीजी के शब्दों में कह सकेंगे-
तब सिव तीसर नयन उघारा।
चितवत काम भयेउ जरि छारा।।
और संत प्रवर सूरदासजी महाराज कहते हैं-
नयन नासिका अग्र है, तहाँ ब्रह्म को वास ।
अविनासी बिनसै नहीं, हो सहज ज्योति प्रकास ।।
इस प्रकाश को कैसे पाया जाए? प्रकाश के पाने का यत्न क्या है? हम तो अंधकार में पड़े हैं।
आप यहाँ देखिए। यहाँ एक बैट्री और एम्लीफायर है। बैट्री में दो क्लिप लगे हैं, जिसके तार को संबंध एम्पलीफायर से है। साथ ही एम्पलीफायर के दूसरे तार का संबंध लाउडस्पीकार-हॉर्न से जुड़ा है। जबतक एम्लीफायर का तार बैट्री के दोनों क्लिप निगेटिव (छमहंजपअम) और पोजिटिव (च्वेपजपअम) से संबंध स्थित है, तबतक एम्लीफायर में बल्ब जलता है यानी प्रकाश होता है, उसमें वाइब्रेशन यानी कम्पन होता है और शब्द सुन पड़ता है।
इसी भाँति अपने अंदर युग-दृष्टिधार यानी इड़ा और पिंगला वा दायीं और बायीं धार अथवा शीत और उष्ण (छमहंजपअम - च्वेपजपअम) मिलकर एक हो, तो अंतःप्रकाश होगा और अंतर्नाद भी सुन पड़ेगा। इस संबंध में संस्कृत ग्रंथों एवं संतों की वाणियों में भरपूर चर्चा मिलती है। यथा-
विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम्।
अर्थात् बिन्दुपीठ का भेदन करके नादलिंग उपस्थित होता है। ध्यानविन्दूपनिषद् में लिखा है-
बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम्।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम्।।
अर्थ-परम विन्दु ही बीजाक्षर है; उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अनाश ब्रह्म) में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है। इसी भाँति संत पलटू साहब ने भी कहा है-
विन्दु में तहँ नाद बोलै रैन दिवस सुहावनं।
हाथरस के तुलसी साहब के वचन में हम कह सकेंगे-
गगन द्वार दीसै एक तारा।
अनहद नाद सुनै झनकारा।।
अर्थात् अंतर्साधना करके पहले तारा देखो, फिर झनकारा सुनो। मुक्तिकोपनिषद् में भगवान श्रीराम ने पवनसुत हनुमान से कहा है-
बहुशास्त्रकथाकन्थारोमन्थेन वृथैव किम्।
अन्वेष्टव्यं प्रयत्नेन मारुते ज्योतिरान्तरम्।।
अर्थात्-बहुत-से शास्त्रें की कथाओं को मथने से क्या फल? हे वायुसुत ! अत्यन्त यत्नवान होकर केवल अन्तर की ज्योति की खोज करो । भगवान बुद्ध की धम्मपद नाम्नी पुस्तक में भी हम प्रकाश पाने की चर्चा पाते हैं। उन्होंने कहा है-
“ कोनु हासो किमानन्दो निच्चं पज्जलितेसति ।
अन्धकारेन ओनद्धा पदीपं न गवेस्सथ ।।”
अर्थात् जब सभी नित्य (चिंतानल में) जल रहे हैं, तो हँसी कैसी और आनंद कैसा? तुम जो अंधकार से आच्छादित हो, प्रकाश की खोज क्यों नहीं करते? संत कबीर साहब के वचन में हम पाते हैं।
यहि घट चंदा यहि घट सूर।
यहि घट बाजै अनहद तूर।।
यहि घट बाजै तबल निशान।
बहिरा शब्द सुनै नहिं कान।।
सूर्य, चन्द्र, दीपक, तारे प्रभृति के प्रकाश का वर्णन हम गुरु नानक देवजी महाराज के वचनों में भी पाते हैं; किन्तु इसकी प्राप्ति का पता वे संत सद्गुरु के माध्यम बतलाते हैं। यथा-
सतिगुर मिलहु आपे प्रभ तारे।
ससि धरि सूर दीपक गैणारे।।
तथा-
अंतरि जोत भई गुर साखी चीने राम करंमा।
नानक हउमै मारि पतीणे तारा चड़िया लंमा।।
परम पूज्य श्रीगुरुदेव (महर्षि मेँहीँ परमहंसजी) महाराज की रचनाओं अंतर्साधना में अनुभूत शशि- सूर्यादि प्रकाश का विलक्षण वर्णन मिलता है। शास्त्र पुराण का प्रमाण नहीं देकर वे अपनी साधना-अनुभूति की बातें कहते हैं-
सुष्मनियाँ में नजरिया थिर होइ,
बिन्दु लखी तिल की।
झकझक ज्योती जगमग होती, चकमक चकमक सी।
मोती हीरा ध्रुव सा तारा, विद्युत् हू चमकी।।
तथा-
सूरति दरस करन को जाती, तकती तीसरि तिल खिरकी ।।
जोति बिन्दु ध्रुवतार इन्दु लखि, लाल भानु झलकी ।
बजत विविध विधि अनहद शोरा, पाँच मंडलों की ।।
सन्तमते का सार भेद यह, बात कही उनकी ।
समझा ‘मेँहीँ’ लखा नमूना, बात है सत हित की ।।
और भी-
खोज करो अंतर उजियारी दृष्टिवान कोइ देखा है।
और तो और, भारतीय संतों की बातें तो जाने दीजिए, ईसाइयों के पवित्र ग्रंथ बाइबिल में संत ल्यूक ने जो कहा, पठनीय है-शरीर का दीपक आँख है। इसलिए जब तेरी आँख एक हो तो तेरा संपूर्ण शरीर प्रकाशमय होगा। परन्तु जब तेरी आँख बुरी हो, तो तेरा शरीर भी अंधकारमय होता है। इसलिए इसका ध्यान रख कि यह ज्योति (दीपक) जो तुम्हारे अंदर है, अंधकारमय न हो। इसलिए अगर तेरा संपूर्ण शरीर प्रकाश से पूरित हो, उसका कोई भी अंश अंधकार मय नहीं हो, तो जिस प्रकार तेज जलनेवाली मोमबत्ती तुझे प्रकाश देती है-संपूर्ण उजियारा हो जाएगा। संत कबीर साहब ने कड़ी, किन्तु बड़ी खरी बात कही है-
घर घर दीपक बरै, लखै नहिं अंध है।
लखत लखत लखि पड़ै, कटै जम फंद है।।
घर-घर अर्थात् घट-घट में ब्रह्मज्योति ज्योतित हो रही है; किन्तु सभी कोई उसको देख नहीं पाते। क्यों? इसलिए कि वे अंध हैं-दिव्यदृष्टि विहीन है। फिर भी उत्साह-हीन होने की बात नहीं, वे आश्वासन देते हैं-देखने की कला जानकार से जानकर देखो, देखते-देखते देखने में आवेगा और यमफंद कटेगा। वह देखने की कला क्या है? संत पलटू साहब से सीखिए-
काजर दिहे से का भया, ताकन को ढब नाहिं ।।
ताकन को ढब नाहिं, ताकन की गति है न्यारी ।
इक टक लेवै ताकि, सोई है पिय की प्यारी ।।
ताकै नैन मिरोरि, नहीं चित अंतै टारै ।
बिन ताके केहि काम, लाख कोउ नैन सँवारै ।।
ताके में है फेर, फेर काजर में नाहीं ।
भंगि मिली जो नाहिं, नफा क्या जोग के माहीं ।।
पलटू सनकारत रहा, पिय को खिन खिन माहिं ।
काजर दिहे से का भया, ताकन को ढब नाहिं ।।
संत चरणदासजी महाराज की शिष्या परम भक्तिन सहजोबाई की सहज एवं सरल वाणी सुनिये-
सहजो गुरु प्रसन्न ह्वै, मुंद लियो दोउ नैन ।
फिर मोसूँ ऐसो कह्यो, समुझि लेहु यह सैन ।।
संतों के सैन को यदि बैन में रूपायित कर जानना चाहे, तो सावधान हो श्रीसद्गुरु महाराज जी के शब्द को समासरूप में श्रवण कीजिए-
दोउ नैन नजर जोड़ि के, एक नोक बना के ।
अंतर में देख सुन-सुन, अंतर में खोजना ।।
तिल द्वार तक के सीधे, सूरत को खैंच ला ।
अनहद धुनों को सुन सुन, चढ़-चढ़ के खोजना ।।
अंतर्ज्योति और अंतर्नाद के संबंध में संत कबीर साहब ने इस भाँति कहा है
कबीर कमल प्रकाशिया, ऊगा निर्मल सूर ।
रैन अंधेरी मिटि गई, बाजै अनहद तूर ।।
अर्थात् संत सद्गुरु से सद्युक्ति जानकर सत् साधन करो, तो अंधकार दूर होगा, सूर के नूर को देखोगे और अंतर के तूर को सुनोगे। गुरु नानक देवजी महाराज सुषुम्ना में सुरत को थिर कर शब्द सुनने की सलाह देते हैं।
सुखमन के घर राग सुनि, सुन मंडल लिव लाय ।
अकथ कथा बिचारिअै, मनसा मनहिं समाय ।।
शब्द में स्वाभाविक गुण है कि वह अपने केंद्र में आकर्षित करता है, केन्द्र के गुण को साथ लिये रहता है और सुननेवाले को उससे गुणान्वित करता है। ऊपर का शब्द नीचे दूर तक जाता है, किन्तु नीचे का शब्द ऊपर दूर तक नहीं जाता।
इसका प्रबल प्रमाण यह है कि अमानिशीथ की घोर तमिस्त्रा में कुत्ते को पुकारने पर वह पुकारनेवाले के निकट पहुँच जाता है। शब्दबेधी वाण भी इसी भाँति छोड़ा जाता है। राजा दशरथ जी के शब्दबेधी सर के शिकार श्रवण कुमार हुए, यह सभी जानते हैं। यह तो त्रेतायुग की बात हुई। द्वापर में अर्जुन शब्दबेधी वाण चलाना जानते थे और कलिकाल का हाल पूछिये तो भारत सम्राट पृथ्वीराज जानते थे और तो और, आप सर्कस में एक खेल देखे होंगे, जो करीब-करीब शब्दबेधी वाण से ही मिलता-जुलता होता है। एक लकड़ी का तख्ता खड़ा कर उसी के सहारे एक आदमी को खड़ा कर दिया जाता है। एक दूसरे आदमी की आँखों में पट्टी बाँधकर उसके पास दश-बीस छुरे देकर उनको दर खड़ा कर देते हैं। तीसरे आदमी लकड़ी के तख्ते में क्रम-क्रम से जहाँ-तहाँ ठोकर देते हैं, जिनकी आँखों में पट्टी बँधी रहती है, वे क्रम-क्रम से छुरे को फेंकते हैं और वे छुरे ठीक वहीं-वहीं पड़ते हैं, जहाँ-जहाँ ठोकर दी जाती है।
हाँ, तो मैं कह रहा था कि शब्द अपने उद्गम स्थान पर आकर्षण करता है। जो शब्द परमात्मा की मौज से उत्थित है, उस शब्द को जो कोई ग्रहण करते हैं, वे उनके आकर्षण से आकृष्ट हो परमात्मा तक पहुँचते हैं। किन्तु यह नाद-साधना बचपन का खेल नहीं है, यम-नियम हीन जन से कभी हो नहीं सकती। साथ ही, इसकी पूर्ववर्ती साधना दृष्टियोग हैं। इसमें सफलता प्राप्त किये बिना नादानुसंधान की क्रिया कहीं नादान अनुसंधान न हो जाय, इसका भी भय रहता है। दृष्टियोग-क्रिया में कुशलता प्राप्त करने पर सुरत-शब्दयोग-साधना करने की क्षमता आती है। दृष्टियोग-क्रिया के लाभ का वर्णन रामचरित मानस में गोस्वामीजी ने इस भाँति किया है-
“ जब ते राम प्रताप खगेसा ।
उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा ।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका ।
बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका ।।
जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी ।
प्रथम अबिद्या निसा नसानी ।।
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने ।
काम क्रोध कैरव सकुचाने ।।
बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ ।
ए चकोर सुख लहहिं न काऊ ।।
मत्सर मान मोह मद चोरा ।
इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा ।।
धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना ।
ए पंकज बिकसे बिधि नाना ।।
सुख सन्तोष बिराग बिबेका ।
बिगत सोक ए कोक अनेका ।।
यह प्रताप रबि जाकें, उर जब करइ प्रकास ।
पछिले बाढ़हिं प्रथम जे, कहे ते पावहिं नास ।।”
आज कुछ ऐसे भी ज्ञान प्रचार हो रहा है, जिसमें अध्यात्म-ज्ञान से अनभिज्ञ धर्मभीरू जन की आँखों की ऊपरी भाग का चीप-चाप किया जाता है और उससे जो कुछ भक्-भुक् वा कुछ प्रकाश का आभास-सा मालूम होता है, तो उसी को दिव्य ज्योति वा ‘क्पअपदम सपहीज’ की संज्ञा दी जाती है।
मैं नहीं कहता-संतों का ज्ञान कहता है और आप भी विवेकशील प्राणी हैं, स्वयं विचार सकते हैं। यदि हमें ‘क्पअपदम सपहीज’ मिल जाय, तो हमारी ‘क्पअपदम सपमि’ हो जाएगी। अभी जो तुलसीकृत रामायण से अंतःप्रकाश के संबंध में कुछ चौपाइयाँ पढ़ी गयीं, उनमें वर्णित सभी सद्गुण यदि अपने में मेरे कथित ‘क्पअपदम सपहीज’ से मिल जाए तो अत्युत्तम, अन्यथा दिव्यप्रकाश को पाकर भी यदि जीवन दिव्य नहीं हुआ तो वैसे प्रकाश का विश्वास हो गया? वा वैसी ज्योति की कीमत हो क्या? स्मरण रहे, दिव्यजीवन विकार-रहित होता है। विकारी जीवन को कभी भी दिव्य जीवन की संज्ञा नहीं दी जा सकती। अपने अंतःकरण का अध्ययन हम स्वयं करें। देखें, हममें काम-क्रोधादिक विकार तो नहीं है, किसी भी परिस्थिति में हम किसी भी विकार के शिकार तो नहीं हो जाते? किसी भी प्रकार के पाप करने की प्रवृत्ति तो हममें नहीं है? मत्सर, मान, मोह और मद के मद से कभी अंध तो नहीं हो जाते? यदि ये बातें होती हैं अथवा इन बातों में से किसी भी बात के साथ किसी भी प्रकार का हमारा संबंध है, तो हमारा जीवन दिव्य नहीं कहा जा सकता और यह निश्चय जानिए कि वह ब्रह्मज्योति नहीं, भ्रम ज्योति है।
कितने लोग कहते हैं-कान बंद करो और शब्द सुनो, यही अनहद नाद है। मैं कहता हूँ-कान बंद नहीं करो और हमारे कुप्पाघाट स्थित गुहा में प्रवेश करो, आप ही शब्द सुनोगे। किन्तु यह अनहद नाद कदापि नहीं है। अनहद नाद सुनने से साधक की स्थिति कैसी होती है, उनकी मनोदशा कैसी होती है, संसार में उनकी रहनी कैसी होती है आदि बात संत चरणदासजी महाराज की वाणी में श्रवण कीजिए। साथ ही, नाद साधना करनेवाले अपने में इन गुणों की खोज करे-
जब से अनहद घोर सुनी ।
इन्द्री थकित गलित मन हूआ, आशा सकल भुनी ।।
घूमत नैन शिथिल भइ काया, अमल जो सुरत सनी ।
रोम रोम आनन्द उपज करि, आलस सहज भनी ।।
मतवारे ज्यों शब्द समाये, अंतर भींज कनी ।
करम भरम के बन्धन छूटे, दुविधा विपति हनी ।।
आपा विसरि जक्त कूँ विसरो, कित रहि पाँच जनी ।
लोक भोग सुधि रही न कोई, भूले ज्ञानि गुनी ।।
हो तहँ लीन चरण ही दासा, कहै शुकदेव मुनी ।
ऐसा ध्यान भाग सूँ पैये, चढ़ि रहै शिखर अनी ।।
तथा-
करते अनहद ध्यान के, ब्रह्म रूप हो जाय ।
चरणदास यों कहत हैं, बाधा सब मिट जाय ।।
अनहद नाद-श्रवण की स्थिति कब प्राप्त होती है, संत तुलसी साहब की वाणी से जानिए-
गगन द्वार दीसै एक तारा।
अनहद नाद सुनै झनकारा।।
और संत राधास्वामी साहब के वचन में है-
तू तो सुरत जमा नभ द्वार, शब्द मिलै छूटै जंजार ।
शब्द भेद तू जना गँवार, क्यों भरमे तू मन की लार ।।
तात्पर्य यह कि दृष्टियोग-क्रिया के द्वारा कम- से कम एकविन्दुता प्राप्त कर फिर अंतर्नाद वा अनहद नाद की आराधना वा साधना करनी चाहिए। शब्द से सृष्टि हुई है। इसलिए सृष्टि को पार करने के लिए शब्द से बढ़कर अन्य कोई दूसरा अवलंब नहीं हो सकता। वह आदिशब्द सृष्टि का साराधार है। सृष्टि अणु-परमाणु में वह व्यापक है। नाद-साधना सभी संतों की सूक्ष्मतम साधना है। इसी आदिनाद वा शब्द-ब्रह्म के सहारे परब्रह्म परमात्मा के साक्षात्कार की सीख सभी संतों ने दी है। यथा-
साधो शब्द साधना कीजै।
जेहि शब्द से प्रकट भये सब, सोई शब्द साधना कीजै ।।
गुरु नानकदेवजी महाराज की वाणी में-
शब्द तत्तु बीर्ज संसार । शब्दु निरालमु अपर अपार ।।
शब्द विचारि तरे बहु भेषा । नानक भेदु न शब्द अलेषा ।।
शब्दै सुरति भया प्रगासा । सभ को करै शब्द की आसा ।।
पंथी पंखी सिऊँ नित राता । नानक शब्दै शब्दु पछाता ।।
हाट बाट शब्द का खेलु । बिनु शब्दै क्यों होवै मेलु ।।
सारी स्त्रिष्टि शब्द कै पाछै । नानक शब्द घटै घटि आछै ।।
संत सुन्दरदासजी ने कहा है-
शब्दब्रह्म परिब्रह्म भली विधि जानिये ।
पाँच तत्त्व गुण तीन, मृषा करि मानिये ।।
बुद्धिवन्त सब संत कहैं गुरु सोइ रे ।
और ठौर शिष जाइ, भ्रमे जिनी कोइ रे ।।
ईसाई संत की मूल बाइबिल में सेंट जॉन ने कहा है- “In the beginning was the word, the word was with god and word was god” अर्थात् आदि में शब्द था, शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ईश्वर था।
अंतर्ज्योति और अंतर्नाद की बड़ी महिमा है। क्या जागतिक क्या पारमार्थिक, क्या इहलोक क्या परलोक, सर्वजीवन का संगी शब्द और प्रकाश है। शब्द और प्रकाश से ही यह शरीर जीवित। सब जीवों के जीवनदाता-जगदीश के दर्शन में शब्द और प्रकाश ही सहायक होते हैं। अतएव बाहर भटकने की जरूरत नहीं, अपने अंदर ज्योति की खोज करें और नाद की भी। ज्योति शब्द को पकड़ायेगी और एक शब्द दूसरे शब्द को पकड़ाता हुआ सर्वेश्वर तक पहुँचावेगा। अर्थात् स्थूल मंडल का केन्द्रीय शब्द ग्रहण कर उसके आकर्षण से सूक्ष्म मंडल के केन्द्र पर पहुँचेंगे। एवं क्रम-क्रम से एक-एक मंडल का अतिक्रमण करते हुए कारण, महाकारण और कैवल्य के केन्द्र पर पहुँचा जाएगा।
कैवल्य मंडल का केन्द्र स्वयं परम प्रभु सर्वेश्वर हैं। कैवल्य शरीर चेतन है। यह परम प्रभु सर्वेश्वर का अत्यन्त निकटवर्ती है अर्थात् इसके परे सर्वेश्वर के सिवा और कुछ भी नहीं है। इसके सहित रहने पर परम प्रभु सर्वेश्वर का तथा निज आत्मस्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान होना, परम संभव है। साथ ही, आत्मा का अपना और परम प्रभु सर्वेश्वर का अपरोक्ष ज्ञान हो, इसमें संशय करने का कारण ही नहीं है।
-परम पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज
और संत कबीर साहब ने तो अत्यन्त दृढ़तापूर्वक कहा है-शब्द गह्यो जीव संशय नाहीं, साहब भयो तेरो संग।।
अर्थात् सारशब्द सर्वेश्वर का साक्षात्कार करावेगा, यह सुनिश्चित है। कितना कहा जाए, ज्योति और शब्द की महिमा अमित है। इनकी सद्युक्ति जानकर संयमपूर्वक साधना करते हुए हम अपनी जीवन को मंगलमय बनावें।
(शान्ति-संदेश, जुलाई एवं अगस्त 1972)

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आस्तिक बुद्धि के लोग सदा लालायित रहते हैं कि त्वरित परमात्म-दर्शन हों और इसके लिए वे यथासाध्य चेष्टाएँ भी किया करते हैं। किन्तु संत सद्गुरु द्वारा निर्देशित मार्ग से अनभिज्ञ रहकर अज्ञान अन्धकार में यत्र-तत्र भटकते फिरते हैं और इस प्रगाढ़ अज्ञानता की अमानिशीथ में अनात्मा को ही आत्मा मान बैठते हैं, जिससे अपना परम कल्याण नहीं हो पाता। संतों ने बहुत अच्छा कहा है-
बिन सतगुरु नर रहत भुलाना ।खोजत फि़रत राह नहिं जाना ।।
बिन गुरु ज्ञान नाम ना पैहो, बिरथा जनम गँवाई हो ।।
(संत कबीर साहब)
बिनु सतगुरु भेटे महा गरबि गुबारि ।
नानक बिन सतगुरु मूआ जनम हारि ।।
-गुरुनानक देवजी
गुरु बिनु भवनिधि तरै न कोई ।जौं विरंचि संकर सम होई ।।
बिनु गुरु होइ कि ज्ञान, ज्ञान कि होइ विराग बिनु ।
गावहिं वेद पुरान, सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु ।।
-गो0 तुलसीदासजी
सन् 1933 ई0 का एक प्रसंग है। उस समय प्रातः स्मरणीय श्री 1008 महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज बिहार-भागलपुर की गंगा- कूलस्थ कुप्पाघाट गुहा में निवास करते थे। एक दिन एक मुसलमान सज्जन वहाँ आए और पूज्य महर्षिजी महाराज से कुछ काल तक पारमार्थिक बातचीत करते रहे। पूज्य महर्षिजी महाराज ने उन्हें उनके बोधार्थ उनसे पूछने की कृपा की कि ‘पैगम्बर मुहम्मद साहब जी कि खुदा को प्राप्त करने का सरल और सीधा मार्ग बताने आए थे
वह कौन-सा मार्ग है?’ उक्त सज्जन ने कहा-‘वह मार्ग है-रोजा, नमाज, जकात और हज।’ पूज्य महर्षिजी महाराज ने पुनः कहने की कृपा की कि रोजा-व्रत वा उपवास को, नमाज, प्रार्थना वा स्तुति को, जकात, दान वा खैरात को और हज-मक्का जाने को कहते हैं। व्रत वा उपवास से शारीरिक शुद्धि होती है और विषय मंद पड़ते हैं-
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।।
-गीता0 2/59
प्रार्थना वा स्तुति से खुदा वा परमेश्वर के प्रति श्रद्धा होती है, दान से आसक्ति घटती है और मक्का में जाकर नमाज पढ़ने से चित्त की शुद्धि होती है। ये मार्ग कैसे हुए? उक्त सज्जन ने कहा-हजरत! मैं तो आजतक इसी को रास्ता समझता आया हूँ। यदि इसके अलावा कोई और राह है, फरमाने की मेहरवानी की जाए।
पर उपकार वचन मन काया। संत सहज सुभाव खगराया ।।
को चरितार्थ करते हुए पूज्य महर्षिजी महाराज ने उन्हें समझाने की कृपा की कि आजकल एक भ्रान्ति फैल गई है, जिससे वैदिक धर्मावलम्बी कतिपय सज्जन भी ज्ञान, भक्ति, प्रेम आदि को मार्ग घोषित कर कई मार्ग बतलाने लग गए हैं। किन्तु यथार्थ में ये मार्ग नहीं, ये तो सहारे मात्र हैं। जैसे किसी पथ पर चलने के लिए किसी निर्बल पथिक को उसकी लाठी।
रास्ता, मार्ग वा पथ उस लकीर को कहते हैं, जिसके छोर का आरम्भ एक स्थान से होकर दूसरे स्थान पर समाप्त होता है और बीच में फासला यानी दूरी होती है। यथार्थतः जिस पर चला जाए, वह मार्ग है। मुहम्मद साहब द्वारा निर्देशित मार्ग बाह्य जगत में नहीं; वह आपके, मेरे और सबके अन्दर-अन्दर मौजूद है। इस मार्ग पर चलने के सभी अधिकारी हैं, चाहे वे भारतीय आर्य, मुसलमान, ईसाई, मुसाई, बौद्ध, जैन, पारसी, स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि किसी जाति वा धर्म के हों। मुहम्मद साहब खुदा को प्राप्त करने का मार्ग बतलाने आए थे, जो बिल्कुल सरल और सीधा है और वह है-निरापद आभ्यान्तरिक मार्ग न कि जागतिक कँटकाकीर्ण उलझनपूर्ण सापदमार्ग।
होगा फ़जल दर्गाह तक खाफ़ैो खतर की जा नहीं ।
सीधो चला जाना वहाँ मुर्शद ने ये फ़तवा दिया ।।
मनसूर सरमद बू अली और शम्श मौलाना हुए ।
पहुँचे सभी इस राह से जिसने दिल पुख्ता किया ।।
(तुलसी साहब)
यह सभी जानते हैं कि खुदा दिल-दिल में रहते हैं। इसलिए किसी ने कहा भी है-
बेहोशिये इन्सान से वह ख्याल जुदा है ।
जाहिर में है मुहम्मद बातिन में खुदा है ।।
और,
निकट निरंजन नूर जहूर जुहारिये ।
मीनी मारग खोजि सिंधु यूँ फ़ारिये ।।
-संत गरीब दासजी
नहिँ जाइ दूर हजूर साहिब फ़ूलि सब तन में रह्यो ।
अमर अछय सदा जुंगन जुग जक्त दीपक उगि रह्यो ।।
-संत केशव दासजी
है नेरे सूझत नहीं, ल्यानत ऐसो जिंद ।
तुलसी या संसार को, भयो मोतियाबिन्द ।। - गो0 तुलसीदासजी
घट घट अंतरी ब्रह्मु लुकाइया, घटि घटि जोति सबाई ।
बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।। - गुरुनानक साहब
परमात्मा हमारे इतने निकट रहते हुए भी हम अज्ञजन मूढ़ मृगवत् उन्हें यत्र-तत्र ढूढ़ते फिरते हैं।
ज्यों कुरंग निज अंग रूचिर मद,
अति मति हीन मरम नहिं पायो ।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल,
परम सुगंधा कहाँ ते आयो ।। -गो0तुलसीदासजी
कोई दौड़े द्वारिका कोई कासी जाहिं ।
कोई मथुरा को चले साहिब घट ही माहिं ।।
कोउक जात प्रयाग बनारस कोउ गया जगनाथहिँ धावै ।
कोउ मथुरा बदरी हरिद्वारजु कोउ गंगा कुरूक्षेत्र नहावै ।।
कोउ पुष्कर ह्वै पंच तीरथ, दौड़हि दौड़ि जु द्वारिका आवै ।
सुन्दर वित्त गर्यो घर माहिँ सु, बाहिर ढूँढ़त क्यों करि पावै ।।
-संत सुन्दरदासजी
स्पष्टवादी संत कबीर ने कहा कि यदि तुम्हारा दिल स्थिर नहीं हो तो काशी, द्वारिका; बद्री, हरिद्वार वा मक्का आदि पवित्र स्थानों में जाने से भी खुदा नहीं मिल सकता।
सेख सबूरी बाहरा क्या हज काबे जाय ।
जा का दिल साबत नहीं, ताको कहाँ खुदाय ।।
संत-महात्मा, पीर-पैगम्बर आदि सभी ने कहा है कि वह खुदा अपने अन्दर सातवें आसमान वा चौदहवें तबक में रहता है। उसे हवासों के जरिए हासिल नहीं कर सकते। उसे प्राप्त या ग्रहण करने के लिए रूह चेतन आत्मा ही काबिल है। क्योंकि जो हवासों के जरिए हासिल हो, वह माद्दा (माया) है। और जो केवल रूह की पकड़ में आवे, वह खुदा-निर्मायिक तत्त्व (परमात्मा) है। इसलिए वह तरीका अख्तियार कर उसपर अमल करना चाहिए, जिससे रूह का मेराज (सुरत की ऊर्ध्वगति) हो।
रूह करे मेराज कफ़ुर का खोलि कुलावा ।
तीसो रोजा रहै अन्दर में सात रिकावा ।।
संत पलटू साहब ने कितना अच्छा कहा है-
साहब साहब क्या करै, साहब तेरे पास ।।
साहब तेरे पास याद करु होवै हाजिर ।
अन्दर धांसिकै देखु मिलेगा साहिब नादिर ।।
मान मनी हो फ़ना नूर तब नजर में आवै ।
बुरका डारै टारि खुदा बाखुद दिखरावै ।।
रूह करै मेराज कफ़ुर का खोलि कुलाबा ।
तीसो रोजा रहै अन्दर में सात रिकाबा ।।
ला मकान में रब्ब को पावैपलटू दास ।
साहिब साहिब क्या करै साहब तेरे पास ।।
जब यह निश्चित हो गया कि खुदा अपने अन्दर सातवें रिकावे वा चौदहवें तबक में है और रूह भी इस जिस्म (शरीर) में है, तो इसका भी पता लगाना चाहिए कि इस जिस्म के अन्दर रूह (चेतन आत्मा) कहाँ है? क्योंकि खुदा से मिलने के काबिल रूहे पाक (निर्मल-चेतन) ही है। यही उससे मिल सकता है-उसे छू सकता है।
यहाँ एक बात का स्पष्टीकरण (खुलासा) कर देना अच्छा होगा कि मौजूदगी हालत (वर्त्तमान अवस्था) में रूह और मन इन दोनों का ऐसा संग है, जैसे घृत और दूध का। जबतक दूध बिलोया नहीं जाता, घृत उससे जुदा (पृथक) नहीं होता। जहाँ दुग्ध रहता है, वहीं घृत भी। ठीक इसी भाँति वर्त्तमान काल में जहाँ मन है, वहीं रूह है। इसलिए पहले मन का पता लगाना चाहिए कि वह कहाँ है? संत कबीर साहब कहते हैं-
इस तन में मन कहाँ वसत है, निकसि जाइ केहि ठौर ।
गुरुगम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और ।।
इसके उत्तर में संत कबीर साहब के अतिरिक्त अन्य संतों के वचन भी द्रष्टव्य हैं-
नैनों माहीँ मन बसै, निकसि जाइ नौ ठौर ।
गुरुगम भेद बताइया, सब सन्तन्ह सिर मौर ।। - कबीर साहब
जानिले जानिले सत्त पहिचानिले, सुरत साँची बसै दीद दाना।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै,
पलक परवीन दिव दृष्टि ताना ।। - दरिया साहब बिहारी
जाग्रत वासा नैन में, स्वप्न कंठ स्थान ।
जान सुषुप्ति हृदय में , नाभि तुरिय मन तान ।। - संत चरण दासजी
संतवाणी से बिल्कुल मिलते-जुलते शब्दों को उपनिषद्-वाणी में पढ़िए-
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कंठे स्वप्नं समाविशेत् ।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूघिर््न संस्थितम् ।। - ब्रह्मोपनिषद्
उपर्युक्त संतवाणी के व्यतिरिक्त तर्क की कसौटी पर कसकर भी आप इसे देख सकते हैं। इस विचार को कोई अस्वीकार नहीं कर सकते कि इस जिस्म में रूह-चेतन-वा स्वयं अपने आप हैं। अब प्रश्न होगा कि अन्दर में आप कहाँ है? अन्तरावलोकन करने के लिए बाह्यावलोकन का सर्वथा त्याग करना होगा। इसलिए चश्म (नेत्र) बन्द कर भीतर देखिए क्या है? अंधकार! घोर अंधकार!! पुनः प्रश्नोदय होगा कि यह अंधकार कहाँ है? उत्तर मिलेगा- नयनाकाश में। बस! इसी नयनाकाश में आपका वास है और इसी नयनाकाश के घोर अंधकार में आप अहर्निश घूमते रहते हैं। अंधकार में रहने के कारण ही आपको कुछ अवलोकित नहीं होता। यहाँ तक कि इस प्रत्यक्षान्धकार की अमानिशीथ में आपको स्वयं अपने का भी अपरोक्ष ज्ञान नहीं हो पाता। फिर परमात्मा के लिए तो कहना ही क्या है? संत कबीर साहब कहते हैं-
देख माया को रूप तिमिर आगे फि़रै ।
तेरी भक्ति गई बड़ी दूर जीव कैसे तरै ।
और संत बुल्ला साहब-
श्याम घटा घन घेरि चहुं दिसि आइया ।।
इसी का स्पष्टीकरण पूज्यपाद श्रीमहर्षिजी महाराज ने कितने अच्छे ढंग से किया है-
तू उतरि पर्यो तम माहिँ पीव निःशब्द में ।
याहि ते पड़ि गयो दूरि चलो निःशब्द में ।।
यह सर्वसम्मत है कि जो जहाँ बैठा रहता है, वह वहीं से यात्र करता है। ऊपर वर्णनानुसार जीवात्मा का वासा आँख में नयनाकाश में रहने के कारण उसी स्थान से यात्र करनी उसके लिए अत्यन्त अपेक्षित होगा। इसीलिए तो-
नैन कमल तम मांझ से पंथहिँ धारिये ।
सुनि धुनि ज्योति निहारि के पंथ सिधारिये ।।
-महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज
और संत तुलसी साहबजी महाराज कहते हैं-
हिय नैन सैन सुचैन सुन्दरि साजि स्रुति पिउ पै चली ।
गिरि गवन गोह गुहारि मारग चढ़त गढ़ गगना गली ।।
सखी ऐन सुरति पैन पावै नील चढ़ि निर्मल भई ।
जब दीप सीप सुधारि सजिकै पछिम पट पद में गई ।।
‘पछिम पट’ अर्थात् प्रकाश मंडल। सागिल (अभ्यासी) मुर्शिद कामिल से एक सूई दिल (मन की एकाग्रता का राज रहस्य-भेद) पाकर अंधकार का अतिक्रमण कर प्रकाश मंडल में ब्रह्मज्योति (नूरे खुदा) को प्राप्त करता है। वहाँ वह नाना प्रकार की ज्योतियों, जलवों का अवलोकन कर उससे भी निष्क्रमण करने के लिए अथवा यों कहिए कि अपने ऊपर से प्रकाशावरण को हटाने के लिए परमात्मा से इस प्रकार प्रार्थना करता है-
हिरण्मयेण पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
तत्त्वं पूषन्न पावृणु सत्यधार्माय दृष्टये ।।१५।। - ईशावास्योनिषद्
रूह केवल प्रार्थना ही नहीं करती, बल्कि सगलेनसीरा का अमल करती हुई प्रकाश मंडल का सैर करती हुई अन्तर्ध्वनि (ब्रह्म नाद, आवाजे गैब) को सुनती है और उसी के सहारे वह खुदा तक पहुँचाती है।
गोश बातिन हो कुशादा जो करे कुछ दिन अमल ।
ला इलाह अल्लाह हो अकबर पै जाने के लिये ।।
दूसरी तरह ऐसा कहा जा सकता है-
ब्रह्म ज्योति ब्रह्म धवनि को धार धार ले चेतन आधार ।
तन में पिल पाँचो तन पारा जा पाओ प्रभु सार ।। - महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज
मेरे कहने का आशय थोड़े शब्दों में यह है कि वर्णित दृष्टियोग (सगलेनसीरा) और सुरत- शब्द-योग यानी नादानुसंधान (सुलतानउलजकार) ही मुहम्मद साहब का बताया हुआ खुदा को प्राप्त करने का सरल और सीधा मार्ग है। ऊपर किए गए बयान के अनुकूल यह बेतकल्लुफ (निःसंकोच) कहा जा सकता है कि कामिल फकीर से सगलेनसीरा और सुलतान उजलकार का राज पाकर जो उसका अमल करेगा वह बेशक खुदा को हासिल करेगा। (शांति-संदेश, जून 1972)
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आज का बुधवार हमलोगों के लिए महा-मंगलवार है; क्योंकि रविकुल कमल दिवाकर भगवन्त श्रीराम के अनन्य भक्त कविकुलकमल दिवाकर संत गो0 तुलसीदासजी महाराज की ‘जयन्ती’ मनाने के लिए हमलोग एकत्रित हुए हैं।
‘शब्दानां अनेकार्थः’ के न्याय से ‘जयन्ती’ शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, जिनमें प्रचलित हैं-किसी की जन्म-तिथि पर होनेवाला उत्सव, किसी महान् आत्मा के महाप्रयाण की तिथि में किया जानेवाला उत्सव, वर्षगाँठ का उत्सव, जौ के छोटे पौधे, जिन्हें विजयादशमी के दिन ब्राह्मण यजमानों को भेंट करते हैं आदि। इन अर्थों के अतिरिक्त ‘जयन्ती’ शब्द के अर्थ को हम इस भाँति भी समझ सकते हैं। ‘जयंती’ शब्द स्त्रीलिंग है। इसका पुल्लिंग ‘जयन्त’ होता है, जिसका अर्थ होता है-विजयी। और ‘जयन्ती’ शब्द का अर्थ विजया या विजयिनी होता है।
इससे स्पष्ट है कि हमलोग जिनकी जयन्ती मनाने के लिए यहाँ एकत्रित हुए हैं, वे महान योद्धा वा विजयी पुरुष थे। इस दृष्टि को अपनाने पर सामान्य जन के मन में एक शंका हो सकती है-गो0 तुलसीदास जी महाराज न तो राजा थे और न वे कोई राजनीतिक पुरुष ही। वे तो एक आध्यात्मिक महापुरुष थे, संत थे। संतो ं की दृष्टि सम होती है; क्योंकि वे समत्व प्राप्त किये होते हैं। वे ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ तथा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की दृष्टि से देखते हैं। गोस्वामीजी के वचन में ही हम कह सकते हैं-
सम अभूत रिपु विमद विरागी।
लोभामरष हरष भय त्यागी।।
उनके लिए कोई शत्रु नहीं, कोई मित्र नहीं, उनके लिए हानि-लाभ, सुख-दुःख, हर्ष-शोक, मान- अपमान, स्तुति-निंदा सभी समान हैं। फिर उनका युद्ध किनसे और उनकी विजय कैसी? इस प्रसंग में एक आख्यान आया है कि किसी समय राजा गोपीचंद की माता जी अपने राजमहल में बैठी थीं। उनके निकट ही गोपीचन्द भी बैठे हुए थे। एकाएक उनकी माताजी के मुख से यह शब्द निकल पड़ा-उफ्! शत्रु बहुत सताता है। चकित होकर गोपीचंद ने पूछा, ‘माताजी! आपको शत्रु कष्ट दे रहा है? आपका कौन शत्रु है? बतायें, मैं उनका खड्ग से उसके अंग का भंग कर तुरत नाश करूँगा। आप शत्रु द्वारा सताये जाएँ और मैं सुख की नींद सोऊँ? पुत्र के जीवन में माता को कष्ट हो, ऐसे पुत्र का जीना संसार में किस काम का? पुत्र के वचन को सुनकर उनकी माता जी गंभीर मुद्रा में बोली-बेटा! तू समझ नहीं रहा है। वह शत्रु कोई बाहर का नहीं है कि तुम अपने तलवार से उसका संहार कर सकोगे। वे तो अंदर के षट्विकार-षट् रिपु है। बेटा! इन रिपुओं के साथ दिन-रात जूझना पड़ता है। बेटा! तनिक भी असावधानी पर वह आक्रमण कर बैठता है। गोपीचंद अपनी माताजी की बातें सुन स्तब्ध-चुप हो गये।
वस्तुतः ये काम-क्रोधादि षट्विकार इतने प्रबल हैं कि अध्यात्म-पथ के पथिक को एक डेग भी आगे बढ़ने देना नहीं चाहते। इस हेतु साधकों का इनसे युद्ध करना अनिवार्य हो जाता है। समर में संग्राम कर इन्हें पराजित करने पर ही उनके आगे का मार्ग-मुक्तिमार्ग उन्मुक्त हो पाता है। इसमें जीवन पर्यन्त बड़ी सावधानी बरतनी पड़ती है, अन्यथा बनी बनायी बातें भी बिगड़ जाती हैं। संत कबीर साहब ने भी कहा है-
“ साध संग्राम तो बिकट बेड़ा मती,
सती और सूर की खेल आगे ।
सूर संग्राम है पलक दो चार का,
सती संग्राम पल एक लागे ।।
साध संग्राम है रैन-दिन जूझना,
जन्म-पर्यन्त का काम भाई ।
कहै कबीर टुक बाग ढीली करै,
उलटि मन गगन सों जमीं आई ।।”
कामदेव की सेना को देखकर भगवान श्रीराम जी श्रीलक्ष्मणजी से कह रहे हैं-
लछिमन देखहिं काम अनीका।
रहहिं धीर तिन्हकै जग लीका।।
इस मार के साथ सभी संतों को मार मचानी पड़ी है और बड़ी सावधानी से संग्राम करना पड़ा है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ सूर संग्राम को देखि भागै नहीं,
देखि भागै सोई सूर नाहीं ।
काम औ क्रोध मद लोभ से जूझना,
मँड़ा घमसान तहँ खेत माहीं ।।
सील औ साँच संतोष साही भये,
नाम समसेर तहँ खूब बाजै ।
कहत कबीर कोइ जूझिहैं सूरमा,
कायराँ भीड़ तहँ तुरत भाजै ।।”
और संत पलटू साहब कहते हैं-
“ खैंचि समसेर तब पैठु रणमेर में,
करै ना देर सोइ साध बंका।
कम दल जारि के क्रोध को मारि कै,
रहै निरसंक ना करै संका।।
मन राव को पकड़ि के ज्ञान से जकड़ि कै,
छिमा दे ढाल गढ़ लेत लंका।
पलटू सोइ दास कहै सून्न में वास तब,
गैव घर बैठ के देत डंका।।”
साथ ही सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के शब्दों में हम कह सकते हैं-
आओ वीरो मर्द बनो अब, जेल तुम्हें तजना होगा ।
मन-निग्रह के समर क्षेत्र में, सन्मुख थिर डटना होगा ।।
इस संबंध में अनेक आख्यान हैं। महायोगी श्रीशंकरजी की काम-विजय प्रसिद्ध ही है और भगवान बुद्ध की मार के साथ जो मार रची है, विद्वज्जन जानते हैं। गो0 तुलसीदासजी महाराज के साथ भी यह घटना अघटित नहीं है। रामचरितमानस के एक स्थल पर उन्होंने कहा है-
व्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचंड ।
सेनापति कामादि भट, दंभ कपट पाखंड ।।
गो0 तुलसीदासजी के जीवनवृत्त से सभी सुपरिचित हैं कि अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में वे कैसे विषयोन्मुख थे, इन्द्रियों के दास थे। ऐसा लगता है- जबतक वे इन्द्रियों के दास बने रहे होंगे, तबतक उनकी उपाधि ‘गो स्वामी’ की नहीं हुई होगी। गो अर्थात् इन्द्रिय को वश में कर लेने पर ही वे गोस्वामी की उपाधि से विभूषित किये गये। इन्द्रियों पर आधि- पत्य पा लेने पर उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा है-
‘अब लौं नसानी अब ना नसैहौं।
परबस जानि हँसेउ इन इन्द्रिन्ह निज बस ह्वै न हँसैहौं।’
किसी दिन इन्द्रियाधीन रहने के कारण स्वपत्नी से ही निंदित और अपमानित हुए थे; किन्तु इन्द्रियों को स्वाधीन कर लेने पर आज वे परम पूज्य, अति प्रतिष्ठित और जगत प्रशंसित हैं।
यहाँ परवश और निजवश को भी समझ लेना अपेक्षित है। परवश और निजवश की अवस्था में अंतर क्या है? स्वयं गोस्वामीजी ने ही कहा है-
परबस जीव स्वबस भगवन्ता।
जीव अनेक एक श्रीकन्ता।।
जबतक ये परवश थे, तबतक इनमें ‘जीवता’ थी। अब स्ववश में होने से ये ‘भगवन्ता’ हो गये। अब विद्वज्जन विवेक दृष्टि से अवलोकन कर देखें-आज हम संत की ‘जयंती’ मना रहे हैं वा भगवंत की?
संत भगवंत अन्तर नहीं,
किमपि मति विमल कह दास तुलसी।
-विनय-पत्रिका
बात पक्षपात की नहीं, यथार्थ और जगत् विख्यात है। भगवान श्रीराम गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के उपास्य थे और गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज थे उनके उपासक। यद्यपि ये स्थूल सगुण साकार को इष्ट मानते थे, तथापि निर्गुण निराकार राम उनका अभीष्ट था। वैसे तो गोस्वामीजी ने ‘सियाराम मय सब जग जानी’ को प्राप्त कर अचर-चर सब रूपों में हरि के दर्शन करते हुए सबको प्रणाम किया है-श्रद्धा निवेदन किया है; फिर भी वैचारिक दृष्टि से अवलोकन करने पर ऐसा ज्ञात होता है कि जैसे एक सभ्य सम्भ्रान्त परिवार की सुशिक्षित सुशीला, साध्वी पतिव्रता महिला स्व-परिवार के समस्त सदस्यों को सामयिक समुचित सेवा सुश्रूषा करती हुई अपने एक नैष्ठिक प्रेम को स्वपति के लिए संजोये रहती है, उसी भाँति गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ‘देव-दनुज मुनि नाग मनुज’ प्रभृति सबका समादर, अभिवंदन और अभिवादन करते हुए अपने निश्छल और निश्चल प्रेम भक्तिसूत्र को प्रभु पद में लगाये रखते हैं।
बात रोचक वा भौचक की नहीं, उनकी इस विषय की मानो प्रच्छन्न परीक्षा ली गई। उन्होंने परीक्षा दी और वे उत्तीर्ण भी हुए। एक श्रुत प्रसंग है कि मथुरा में गोस्वामी जी को पीत परिधान पहने मोरमुकुट मकराकृत कुण्डल, वंशी और स्वमाला संयुक्त श्याम सलोने रूप में भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य मूर्ति के दर्शन हुए; किन्तु गोस्वामीजी टस-से-मस नहीं हुए। होते भी क्यों? बादल चाहे कितना भी गर्जन वा वर्षण क्यों न कर ले; सर-सरिता और समुद्र को क्यों न भर ले, पर उसकी पपीहा को परवाह क्या? उसे तो मात्र एक बूँद चाहिए और वह भी स्वाति की। कोई कितना भी धनवान, बलवान, विद्वान, गुणवान, कामदेव के समान, सुन्दर, रूपवान शरीरवाला पुरुष क्यों न हो, पतिव्रता स्त्री को उससे प्रयोजन क्या? उसको तो स्वपति चाहिए, चाहे वह रोगी हो, निर्धन हो, विद्याहीन हो, कुरूप हो और भी लीजिए-उपवास पर उपवास हो और पास में पर्याप्त हरी-हरी घास हो, किन्तु वनराज को उससे क्या काज? उसे तो गजराज चाहिए। किसी कवि ने कितना सुन्दर कहा है-
“ सरवर नीर न पीवई, स्वाती बूँद की आस ।
केहरि कबहूँ न तृण चरै, ज्यों व्रत करै पचास ।।
ज्यों व्रत करै पचास, विपुल गज जूह विदारै ।
धन है गर्व न करै, निर्धन नहिं दीन उचारै ।।
नरहरि कुल के मिटै, भाय नहिं जब लगि जीयै ।
बरु चातक मरि जाय, नीर सरवर नहिं पीयै ।।”
गोस्वामीजी के हृदय में उस दिव्य-दर्शन से क्या भाव उत्पन्न हुए और उस रूप का अवलोकन कर उन्होंने क्या कहा? उनकी ही वाणी में सुनिये-
कहा कहौं छवि आज की, भले बने हो नाथ ।
तुलसी मस्तक तब नवै, जब धनुषवाण लो हाथ ।।
यह है गोस्वामीजी की एकनिष्ठता का प्रबल प्रमाण और अनन्य भक्त होने का विलक्षण उदाहरण। गोस्वामीजी राम के सगुण और निर्गुण उभय रूपों के ज्ञाता और ध्याता थे। वे सगुण राम-रूप को नयन में धारण करते थे और निर्गुण राम स्वरूप को हृदय में। दोहावली में उन्होंने कहा है-
हिय निर्गुण नयनन्हि सगुण, रसना नाम सुनाम।
मनहु पुरट सम्पुट लसत, तुलसी ललित ललाम।।
विद्वज्जन सरलतापूर्वक समझ सकते हैं-नयन ग्राह्य वस्तु विशेष होती है वा दृश्य ग्राह्य? जबकि गोस्वामीजी ने ही रामचरितमानस में इन्द्रिय गोचर पदार्थ को माया की संज्ञा से अभिहित किया है। यथा-गो गोचर जहँ लगि मन जाई
सो सब माया जानेहु भाई।।
पुनः सगुण और निर्गुण उभय स्वरूपों की महिमा-गाथा गाते हुए उन्होंने स्पष्ट कहा है-
महिमा सगुन जो कहब बखानी।
सोइ स्वच्छता करइ मल हानी।।
संत कवि ने रामचरितमानस के वर्णन में सगुण साकार रूप को जल की स्वच्छता बताया है और यह भी कहा है कि वह स्वच्छता मल की हानि करती है। विचारणीय है-जल स्वच्छ होने पर भी मात्र में यदि स्वल्प हो, तो उससे स्वल्प मल की ही कमी होगी, समस्त की नहीं। इसलिए कवि ने अपने कथन में कलात्मक ढंग से काम लिया है अर्थात् ‘करइ मल हानी’ कहा है, नाश होगा-ऐसा नहीं कहा। मल को संपूर्णतः निर्मूल करने के लिए उस स्वच्छ जल में अगाधता आवश्यक है, जो निर्गुण स्वरूप में है। जैसा कि कवि ने कहा है-
रघुपति महिमा अगुन अबाधा।
बरनव सोइ बरवारि अगाधा।।
निर्गुण स्वरूप में अगाधता के साथ, जिसकी प्राप्ति में, सुलभता का भी अद्भुत वर्णन गोस्वामी जी ने किया है। यथा-
निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुण जान नहिं कोय।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होय।।
देखिए, भगवान श्रीराम के दर्शन करते हुए भी उनकी दृष्टि कितनी पैनी है! अद्भुत है! विलक्षण है! वाल्मीकि मुनि जी के सम्मुख श्रीसीताराम श्रीलक्ष्मण जी सहित उपस्थित हैं। किन्तु ‘नीलाम्बुज श्यामल- कोमलांगं सीता समारोपित वाम भागम् पाणौ महासायक चारु चापं----।’ संयुक्त श्रीरघुवंश नाथम् के स्थूल रूप पर जैसे उनकी दृष्टि पड़ ही नहीं रही है। ठीक वैसे ही जैसे एक कुशल स्वर्णकार की दृष्टि स्वर्ण-अलंकार में कलाकार प्रदत्त आकार पर नहीं पड़ती-शुद्ध स्वर्ण की ही ओर जाती है। यही हेतु है कि कानन-काल में श्रीराम की इस जिज्ञासा पर कि ‘मैं कहाँ रहूँ?’ के समाधान में वाल्मीकि मुनिजी ने तत्क्षण उत्तर दिया था-
पूछेहु मोहि कि रहउँ कहँ, मैं पूछत सकुचाउँ ।
जहँ न होहु सो देहु कहि, तुम्हइ बतावउँ ठाउँ ।।
तथा,
राम स्वरूप तुम्हारा, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अलख अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
पुनः श्रीलक्ष्मणजी ने गुह-निषाद के समक्ष राम के वास्तविक स्वरूप का कितना सुन्दर चित्र चित्रण किया है, पठनीय है।
सखा परम परमारथ एहु।
मन क्रम वचन राम पद नेहू।।
राम ब्रह्म परमारथ रूपा।
अविगत अलख अनादि अनूपा।।
सकल विकार रहित गत भेदा।
कहि नित नेति निरूपहिं बेदा।।
और भी देखिए, श्रीकागभुशुण्डिजी श्रीगरुड़जी से राम के तत्त्वतः रूप के संबंध में क्या कहते हैं-
जो माया सब जगहि नचावा ।
जासु चरित लखि काहुँ न पावा ।।
सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा ।
नाच नटी इव सहित समाजा ।।
सोइ सच्चिदानन्द घन रामा ।
अज बिग्यान रूप बल धामा ।।
ब्यापक ब्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
अखिल अमोघसक्ति भगवन्ता ।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता ।
सबदरसी अनवद्य अजीता ।।
निर्मल निराकार निर्मोहा ।
नित्य निरंजन सुख सन्दोहा ।।
प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी ।
ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाहीं ।
रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।
भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
किए चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
जथा अनेकन बेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ ।।
यह तो बात हुई कागभुशुण्डि और गरुड़-संवाद की, किन्तु स्वयं भगवान श्रीराम ने श्रीहनुमानजी से जो स्व-स्वरूप का वर्णन किया है, वह कह देना भी अप्रासंगिक नहीं, बल्कि विशेष प्रामाणिक होगा। मुक्तिकोपनिषद् में उन्होंने कहा है-
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्। अनामगोत्रं मम रूपमीदृशं भजस्व नित्यं पवनात्मजार्त्तिहन्।।
अर्थात् हे पवनतनय ! अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अविनाशी, अस्वाद, अगन्ध, अनाम और गोत्रहीन, दुःखहरण करनेवाले मेरे इस तरह के रूप का तुम नित्य भजन करो।
अब इस प्रसंग को आगे नहीं बढ़ाकर हम जानना चाहेंगे कि उस प्रभु की प्राप्ति का मार्ग क्या है? गोस्वामीजी ने प्रभु-प्राप्ति-पथ इतना सरल, सुगम और निरापद बताया है कि किसी भी देश, जाति वा धर्म के धनी वा निर्धन, विद्वान वा अविद्वान, नर वा नारी सभी समान रूप से चल सकने में सक्षम हैं। स्वयं भगवान श्रीराम कहते हैं-
सरल सुखद मारग यह भाई।
भगति मोरि पुरान श्रुति गाई।
भगति के साधन कहउँ बखानी।
सुगम पंथ मोहिं पावहिं प्रानी।।
वह कौन-सी भक्ति है? वह भक्ति है, जिसका विशद वर्णन रामचरितमानस के अरण्यकांडान्तर्गत श्रीराम-शबरी संवाद रूप में हम पाते हैं।
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं ।
सावधान सुनु धरु मन माहीं ।।
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा ।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।।
गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।
चौथि भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।।
मन्त्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा ।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा ।।
छठ दम सील बिरति बहु कर्मा ।
निरत निरन्तर सज्जन धर्मा ।।
सातवँ सम मोहिमय जग देखा ।
मोतें सन्त अधिक करि लेखा ।।
आठवँ जथालाभ सन्तोषा ।
सपनेहुँ नहिं देखइ पर दोषा ।।
नवम सरल सब सन छल हीना ।
मम भरोस हियँ हरष न दीना ।।
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई ।
नारि पुरुष सचराचर कोई ।।
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें ।
सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें ।।
जोगिबृन्द दुर्लभ गति जोई ।
तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई ।।
मम दरसन फल परम अनूपा ।
जीव पाव निज सहज सरूपा ।।
श्रीशबरीजी को भगवान श्रीराम द्वारा उपदिष्ट नवधा भक्ति में प्रथम भक्ति से पंचम भक्ति पर्यन्त सत्संग, कथा-प्रसंग, गुरु-पद-पंकज सेवा, ईश- गुण- गान तथा मंत्रजप को सरलतापूर्वक सभी समझ सकते हैं। किन्तु छठी और सातवीं भक्ति में उन्होंने ‘दम और शम’ की साधना कही है। यथा-
छठ दम सील बिरति बहु कर्मा ।
निरत निरन्तर सज्जन धर्मा ।।
तथा-
सातवँ सम मोहिमय जग देखा ।
मोतें सन्त अधिक करि लेखा ।।
‘दम’ अर्थात् इन्द्रिय-निग्रह। इन्द्रियाँ बलवती हैं। इसका निग्रह कैसे हो? जैसे हम अपने दोनों हाथों से किसी एक वस्तु को जकड़कर पकड़ रखें, तो संपूर्ण शरीर की सारी शक्ति उस ओर खिंच जाएगी, यह स्वाभाविक है। इसी भाँति जहाँ से समस्त इन्द्रियों में चेतनधार प्रवाहित होती है, उस केन्द्र में यदि दृष्टि की युगल धाराओं को गुरु-संकेतानुसार समेटकर एकत्र किया जाए, तो समस्त इन्द्रियगत चेतन-धाराएँ वहाँ इकट्ठी जो जाएँगी और इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हो जाएँगी, विषयों में नहीं जाएँगी, इन्द्रिय-निग्रह हो जाएगा। संतों ने इस क्रिया को दृष्टियोग की संज्ञा दी है। अर्थात् दृष्टियोग की क्रिया से दमशीलता होगी।
‘शम’ के संबंध में ऐसी बात है कि गोस्वामी जी ने ‘स’ और ‘श’ में कोई अंतर नहीं माना है। ‘शम’ का अर्थ होता है-‘मनोनिग्रह’ और ‘सम’ का होता है-‘समत्व’। ‘समत्व’ प्राप्त करने के लिए ‘शम’ की साधना अनिवार्य है। क्योंकि मनोनिग्रह के बिना साधना में सफलता संभव नहीं। फिर तो ऐसी अवस्था में आगे की प्रगति और समत्व की प्राप्ति सुदूर रह जाती है। इस हेतु मन को वशीभूत करने के लिए संतों ने सर्वश्रेष्ठ और सरलतम साधना नादानुसंधान बतलायी है। संत कबीर साहब कहते हैं-
सबद खोजि मन बस करै, सहज योग है येहि ।
सत्त सब्द निज सार है, यह तो झूठी देहि ।।
तथा संत दादूदयालजी का वचन है-
साध सबद सों मिलि रहै, मन राखै बिलमाय ।
साध सब्द बिन क्यों रहै, तब ही बीखरि जाय ।।
शब्द-साधना से इन्द्रियों के थकने और मन के गलने की बात हम संत चरणदासजी की वाणी में पाते हैं। यथा-
जबसे अनहद घोर सुनी।
इन्द्री थकित गलित मन हूआ, आशा सकल भुनी।।
नादविन्दूपनिषद् में इस प्रकार की बहुत चर्चा मिलती है। उसमें लिखा है-जिस प्रकार मधुमक्खी मधु को पीती हुई उसकी सुगंध की चिंता नहीं करती है, उसी प्रकार चित्त जो नाद में सर्वदा लीन रहता है, विषय चाहना नहीं करता है; क्योंकि वह नाद की मिठास में वशीभूत होकर अपनी चंचल प्रकृति को त्याग चुका होता है। नागरूप चित्त नाद का अभ्यास करते-करते पूर्ण रूप से उसमें लीन हो जाता है और सभी विषयों को भूलकर नाद में अपने को एकाग्र करता है। नाद-मदांध हाथीरूप चित्त को, जो विषयों की आनंद वाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है। मृगरूपी चित्त को बाँधने के लिए यह नाद जाल का काम करता है और समुद्ररूपी चित्त के लिए यह नाद तट का काम करता है आदि।
अतएव इस विचार को स्वीकार करने में किसी प्रकार का संकोच वा भ्रम नहीं रहना चाहिए कि रामचरितमानस में वर्णित छठी और सातवीं भक्ति, जो कि ‘दम’ और ‘शम’ की साधना है, वह दृष्टियोग और नादयोग है। इस विषय का संकेत गोस्वामीजी ने रामचरितमानस के अयोध्याकांड में इस भाँति किया है-
लोचन चातक जिन्ह करि राखे ।
रहहिं दरस जलधर अभिलाषे ।।
निदरहिं सरित सिन्धु सर भारी ।
रूप बिन्दु जल होहिं सुखारी ।।
तिन्ह कें हृदय सदन सुखदायक ।
बसहु बन्धु सिय सह रघुनायक ।।
तथा,
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना ।
कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना ।।
भरहिं निरन्तर होहिं न पूरे ।
तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे ।।
किन्तु इसका यथार्थ ज्ञान क्रियावान सच्चे सद्गुरु के बिना संभव नहीं है। शब्द-साधना के द्वारा निःशब्द में पहुँचा जाता है, जैसे सरिता-जल के सहारे तैरते हुए प्राणी सूखी जमीन पर जाता है। गोस्वामी जी ने जिसको ‘एक अरूप अनीह अनामा’ कहा है। ध्यानविन्दूपनिषद् वही ‘निःशब्दं परमं पदम्’ कहकर वर्णित है। अनाम कहिये अथवा अशब्द वा निःशब्द, कोई अंतर नहीं पड़ता-एक ही बात है। यहाँ सभी प्रकार की साधनाओं की समाप्ति है। प्रभु मिल गये, काम समाप्त हुआ।
यह प्रवचन ‘तुलसी-जयन्ती’ के सुअवसर पर दिनांक-16-8-1972, स्थान: महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में हुआ था।
(शान्ति-संदेश, सितम्बर एवं अक्टूबर 1972)

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अनन्तस्वरूपी सर्वेश्वर की सृष्टि में जिस ओर दृष्टि कीजिए, उनकी अनंतता की परिपुष्टि का ही बोध होगा। प्रभु की रचना कला-कौशल और अद्भुतता से परिपूर्ण है, जिनको देखकर बड़े-बड़े वैज्ञानिक का मस्तिष्क भी चक्कर काटता है। श्रीब्रह्मानंद स्वामी ने कहा है-
रचना प्रभू की देख के, ज्ञानी बड़े-बड़े।
पावे न कोई पार, तो नादान क्या करे।।
और गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
केशव कही न जाय का कहिये ।
देखत तव रचना विचित्र हरि! समुझि मनहि मन रहिये ।।
शून्य भीति पर चित्र रंग नहिं, तनु बिना लिखा चितेरे ।
धोये मिटइ न मरइ भीति, दुःख पाइय एहि तनु हेरे ।।
रवि कर नीर बसै अति दारुन, मकर रूप तेहि माहीं ।
वदन हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं ।।
कोउ कह सत्य झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै ।
‘तुलसीदास’ परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै ।।
अर्थात् गोस्वामीजी कहते हैं-हे प्रभु! तुम्हारी विचित्र रचना को देख और समझकर मन-ही-मन रह जाता हूँ। क्या कहूँ, कुछ कहा नहीं जाता। चित्रकार- निराकार प्रभु से शून्य की दीवार पर बिना रंग के असंख्य चित्र चित्रित किये हैं। वह विचित्र चित्र धोने से धुलता नहीं और देहाभिमानी-अनात्मदर्शी होने के कारण दुःखों को भोगता हूँ।
विवेकी जन विचार सकते हैं-बिना आधार के आकाश में असंख्य तारे, चन्द्र, सूर्य आदि कैसे लट्टू की भाँति लटके हुए हैं? और अति विचित्रता तथा विलक्षणता तो यह है कि सभी नक्षत्र और ग्रहों की अपनी-अपनी भिन्न-भिन्न गति भी है, फिर भी कभी किसी से किसी को परस्पर संघर्ष नहीं होता- कभी कोई दुर्घटना नहीं घटती। कितना बड़ा कुशल वैज्ञानिक और नियन्ता है वह?
यही हेतु है कि गोस्वामीजी ने उस प्रभु को ‘विज्ञानस्वरूप’ कहा है। ‘अज विज्ञान रूप बलधामा।’ किन्तु आज के कितने आधिभौतिक वैज्ञानिक आये दिन स्वयं नित्य नवीन घटना के शिकार बने देखे जाते हैं, फिर उनकी रचना की दुर्घटना से बचना कैसे संभव है? उस अलौकिक प्रभु की इस लौकिक रचना को देखकर किसी कवि ने आश्चर्यचकित होकर कहा है-
ध्यान लगाकर जो देखो, तुम सृष्टि की सुघराई को ।
बात-बात में पाओगे, उस ईश्वर की चतुराई को ।।
ये सब भाँति-भाँति के पक्षी, ये सब रंग-रंग के फूल ।
ये वन की लहलही लता औ, ललित-ललित शोभा के मूल ।।
ये पर्वत की रम्य शिखा और शोभा, सहित चढ़ाव-उतार ।
निर्मल जल के सोते झरने, सीमा सहित महा विस्तार ।।
छह प्रकार के ऋतु का होना, नित नवीन शोभा के संग ।
पाकर काल वनस्पति का फलना, रूप बदलना रंग-बिरंग ।।
चाँद सूर्य की शोभा अद्भुत, वारी से आना दिन-रात ।
त्यों अनन्त तारा मंडल से, सज जाता रजनी का गात ।।
लर्जन-गर्जन घन मंडल का, बिजली वर्षा का संचार ।
जिसमें देखो परमेश्वर की, लीला अद्भुत अपरम्पार ।।
प्रभु की रचना अद्भुत है। उनकी सारी रचनाओं में मानव-प्राणी अति अद्भुत है। मानव शरीरस्थ चेतन आत्मा अंशरूप में जीव और अंशी में मिलकर ‘पीव’ वा ‘शिव’ होता है। जीवत्व इसलिए कि यह अपने में अभाव का अनुभव करता है। अंतर्साधना के माध्यम, जब उसके अभाव का तिरोभाव वा अत्यन्ताभाव हो जाता है, तब वह ‘शिवत्व’ की प्राप्ति करता है। इसलिए कहा गया है कि अपूर्णता में जीव और पूर्णता में ब्रह्म है वह। वस्तुतः कामना के कारण मानव कंगाल बना रहता है, अन्यथा अचाह में ‘शाह’, ‘बादशाह’ और ‘शाहंशाह’ है वह। संत कबीर साहब ने कहा है-
चाह गई चिन्ता मिटी, मनुवा बेपरवाह ।
जाको कछु न चाहिए, सोई शाहंशाह ।।
अज्ञ जीव अपने वर्तमान जीवन की जागतिक आवश्यकताओं को जितना समझता है, उतना भविष्य जीवन को नहीं। यही कारण है कि वह इसकी पूर्ति हेतु प्रयत्न में पिल पड़ता है, पर उसकी पूर्ति में ढील करता है। यह जीव की अदूरदर्शिता का प्रबल प्रमाण है कि उसके सामने सांसारिक कालक्षेपण का तो प्रश्न रहता है; परन्तु उस ओर उसका ध्यान नहीं जाता कि किसी-न-किसी दिन अन्यों की भाँति वह भी काल कलेवा बननेवाला है और तब उस मग के लिए उसको संबल भी चाहिए।
किसी ने एक बड़ी अच्छी उपमा दी है-‘हमारी घड़ी में दिन के तीन बजे हैं, हम यह जानते हैं; परन्तु हमारे जीवन के कितने दिन बीत चुके, यह नहीं जानते। सूर्यास्त होने के समय को हम जानते हैं, पर अपने जीवन-अस्त के काल को नहीं जानते, फिर भी हम निश्चिन्त हैं। जग-जीवन को सुखमय बनाने के लिए बीबी, बच्चा, बंगला और बैंक-बैलेंस की बड़ी आवश्यकता हमें विदित होती है; किन्तु इस जग के जीवन की कल्पना तक नहीं कर पाते। फिर तो वहाँ के सुख वा दुःख को समझने का प्रश्न ही कहाँ आता है? जीवन-रक्षा के लिए अन्न-वस्त्रदि चाहिए, यह अच्छी तरह जानते हैं; लेकिन मानव जीवन किसलिए है-यह सोचने-समझने की हमें फुर्सत कहाँ?
आइए, आज इसपर विचार किया जाए। एक बड़ा सुमधुर प्रसंग है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज और अब्दुल रहीम खानखाना साहब; दोनों समकालीन थे। उनमें यदा-कदा परस्पर मिलन होता और उस मिलन में भगवद्-चर्चा चल पड़ती। एक बार किसी समय उभय मिलन में गोस्वामीजी ने खानखाना साहब से पूछा-
सुरतिय नरतिय नागतिय, सह वेदन सब कोय ।
अर्थात् देवों की देवियाँ, मनुष्यों की स्त्रियाँ और नागों की नारियाँ प्रसव-पीड़ा क्यों सहती हैं? प्रसव-पीड़ा अति भयंकर होती है। यहाँ तक कि कभी-कभी प्राण जाने तक की नौबत आ जाती है। इस गंभीर वेदन का वर्णन गोस्वामीजी के वचन में हम इस भाँति पाते हैं-
ज्यों युवती अनुभवति प्रसव अति दारुण दुःख उपजै।
ध्यान देने योग्य बातें हैं-सामान्यतया सामान्य जन सामान्य दुःख सहने के लिए भी प्रसन्नचित्त से प्रस्तुत नहीं; परन्तु यदि दारुण दुःख हो, तब उसको सहने के लिए कौन तैयार हो? और जहाँ अति दारुण दुःख की उपस्थिति हो, ऐसी परिस्थिति में उस दुसह दुःख को कौन सहे? क्यों सहे? किन्तु स्त्रियाँ सहती हैं और भविष्य में भी सहने को तैयार रहती हैं, क्यों? इसके अंदर राज क्या है? इसके उत्तर में भाव-भीने स्वर में उक्त कवि रहीम ने क्या कहा, उनके ही शब्दों में सुनिए-
गोद लिये हुलसी फिरै, तुलसी सों सुत होय।
अर्थात् उस अतीव दुःख की दूरवस्था को वह दुःखदा नहीं समझती, बल्कि सुखदा समझकर सहर्ष स्वीकार करती है। क्यों? इस उल्लास में कि हमारे सुत तुलसीदास जी जैसे भगवद्भक्त होंगे।
विचारणीय है कि आज चार अक्षरों का ज्ञान कर लेने के बाद भी हम भगवद्भक्त नहीं हो पाये, तो क्या हम अपनी पूज्या माताजी की अभीप्सा पर कुठाराघात नहीं करते? क्या, उनकी आशाबेलि पर हम तुषारापात नहीं करते? उस ममतामयी माता की पवित्रतमा मनसा-पूर्ति में यदि हम असफल रहे, तो हम कैसे पूत हैं? जरा सोचें।
संत कबीर साहब ने इसकी बड़ी कड़ी आलोचना की है। उन्होंने कहा है-अभक्त पुत्र से भक्तिमती पुत्री ही भली है। ऐसा पुत्र तो वैसा ही है, जैसे बकरी के गले में लटके हुए मांस-पिंड, जिसमें न तो दूध ही होता और न मूत्र ही।
भक्ति करत कन्या भली, साकट भला न पूत ।
छेरी के गल गलथना, जामें दूध न मूत ।।
जननी इस अवनि पर हों वा अम्बर के अमर नगर में, उनकी आत्मा क्या कहती होगी? उनकी उपकारिता के समक्ष अपनी अदूरदर्शिता पर हमें तरस आनी चाहिए। मातृ-सेवा, पितृ-सेवा, गुरु-सेवा, समाज-सेवा, देश-सेवा तो दूर रही, हम भगवदानुरागी होने के बदले विषयानुरागी होते हैं। हमारा यह अशोभनीय व्यवहार संतों को स्वीकार नहीं, अतएव वे हमें फटकार लगाते हैं। काश, उसपर भी हम अपना होश-हवाश सँभालें। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
ते नर नरक-रूप जीवत जग,
भव-भंजन पद विमुख अभागी ।
निसि वासर रुचि पाप असुचि मन,
खल मति मलिन निगम पथ त्यागी ।।
नहिं सतसंग भजन नहिं हरि को,
स्त्रवन न राम-कथा अनुरागी ।
सुत वित दार भवन ममता निसि,
सोवत अति न कबहुँ मति जागी ।।
तुलसिदास हरिनाम-सुधा तजि,
सठ हठ पियत विषय-विष माँगी ।
सूकर स्वान सृगाल सरिस जन,
जनमत जगत जननि दुख लागी ।।
संतों ने केवल पुरुषों को ही परुष वचन कहकर छेड़ा है, ऐसी बात नहीं; बल्कि उन्होंने नारियों को भी न्यायपूर्ण निर्देशन दिये बिना नहीं छोड़ा है। संत पलटू साहब ने कहा है-अभक्त पुत्र उत्पन्न कर कोई महिला पुत्रवती नहीं होती। पुत्रवती वह होती है, जिनके पुत्र की अनुरक्ति ईश्वर-भक्ति में होती है। इसलिए उनको चाहिए कि वे अभक्त संतान उत्पन्न नहीं करें।
जननी रहे तो बाँझ पै साकट न जनै।
जनमत ही मरि जाय जिये से ना बनै।।
पुत्र से भला मदार फिरै न दोख में।
अरे हाँ पलटू पुत्रवती सोइ नारि, भक्त जेहि कोख में।
इसी से मिलती-जुलती बातें श्री सुमित्र जी ने स्वसुत शेषावतार श्रीलक्ष्मणजी से कही थी।
पुत्रवती युवती जग सोई।
रघुपति भगत जासु सुत होई।।
नतरु बाँझ भल वादि बियानी।
राम विमुख सुत ते हित जानी।।
स्मरणीय है कि संतों ने शासकीय शब्दों में नहीं, वरन् सहानुभूति के शब्दों में, जिससे सबकी शाश्वत सुख की प्राप्ति हो और सबकी शुभगति हो, इस शुभेच्छा से सदुपेदश दिया है। फिर भी सभी जन स्वधर्माचरण कर्म करने में सर्वतंत्र स्वतंत्र हैं। अतएव अपना निर्णय हम आप करें।
यह प्रवचन डॉ0 नंदलाल मोदी के निवास-स्थान पर दिनांक-19-10-1970, स्थान: पटना साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था।
(शान्ति-संदेश, मई 1971 ई0)

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मनुज के मानस षट् पुत्रें में ज्येष्ठ पुत्र का नाम ‘काम’ या ‘मनोज’ है। मन कोई शरीरधारी व्यक्ति-विशेष नहीं है, तब फिर इसके पुत्र को शरीरधारी मानना बिल्कुल असंगत ही होगा। शरीररहित होने के कारण ही इसका दूसरा नाम ‘अनंग’ भी है। अंगरहित होते हुए भी संसारासक्त जन के लिए ‘अंग बिना मिली संग अधिक आनन्द बढ़ावन’ इसका प्रमुख कार्य है। ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते ‘काम’ ने अपना कम नाम नहीं फैलाया। विद्वान-अविद्वान, धनी-निर्धन, स्वदेशी-विदेशी आदि सभी के घटों में इसने अपना घर बना लिया। मनोज ने अपनी प्रभुता को मानव तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि सभी थलचर, जलचर और नभचर तक निज प्रभुत्व से अपना साम्राज्य विस्तृत कर लिया। ऐहलौकिक समस्त चर प्राणियों पर आधिपत्य प्राप्त कर लेने पर जब उसे सन्तोष नहीं हुआ, तब उसने देवलोक की ओर अपना कदम बढ़ाया। सुचतुर ‘मनोज’ ने देवलोक जाने के पूर्व ही सोच लिया था-
एके साधो सब सधो, सब साधो सब जाय ।
जो गहि सेवे मूल को , फ़ूले फ़ले अघाय ।।
इसलिए उसने सर्वप्रथम देवराज इन्द्र पर ही धावा बोल दिया। मनोज की विपुल सेना के आगे इन्द्र की एक भी कला न चली; और इसीलिए उसने विवश होकर मनोज की शरण स्वीकार कर ली। कामाधीन इन्द्र ने नरलोक में आकर गौतम-गृह में प्रवेश किया और पुरस्कार-स्वरूप उसने वह पदार्थ प्राप्त किया, जिसे छिपाकर रखने में उसे वर्षों छिपकर रहना पड़ा।
तत्पश्चात् ‘जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई’ को चरितार्थ करते हुए मनोज ने एक-एक करके क्रमशः ब्रह्मलोक तथा शिवलोक प्रभृति लोकों पर एवं लोकपतियों पर हँसते-खेलते स्वशासन स्थापित कर लिया। इस प्रकार विजयी ‘मनोज’ त्रिभुवनपति बन बैठा। यह बिल्कुल सत्य है कि जो चीज जितनी कड़ी होती है, टूटने पर उसके उतने ही अधिक टुकड़े होते हैं। ठीक इसी भाँति मानव-जाति से बढ़े-चढ़े एवं कड़े बलशाली देवराज एवं देवों की शक्ति को मनोज ने चूर-चूर करके टुकडे़-टुकड़े कर डाला और उनको कामोन्मुख करके उनकी विलासिता एवं विषय-भोग-शक्ति को अत्यधिक उभाड़ दिया। इसीलिए गो0 तुलसीदासजी को ऐसे भक्त के लिए कहना पड़ा-
इन्द्रिय सुरन्ह न ज्ञान सुहाई। विषय-भोग पर प्रीति सदाई।।
पुरुषवर्ग पर आधिपत्य जमा लेने के पश्चात् ‘काम’ स्त्रीवर्ग की ओर बढ़ा और अपनी प्रभुता से उन्हें विशेष प्रभावित करके ‘कामिनी’ की उपाधि से विभूषित किया। साथ ही, उसने अपना डेरा भी वहीं डाल लिया अथवा यदि यों कहा जाए कि स्त्री-शरीरस्थ काम ने अपने को ‘नारि बिस्व माया प्रकट’ के रूप में रूपान्तरित कर लिया, तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी। देवगण ‘मनोज’ की शरण स्वीकार कर ही चुके थे, अब माया से भी विशेष मोहित हो उसके जाल में मृगा की नाईं फँसने लगे। काम की इस मायिक लीला को देखकर स्पष्टवादी संत कबीर साहब से रहा न गया और उन्होंने स्पष्ट कहा-
माया महा ठगनी हम जानी ।
तिरगुन फ़ाँस लिये कर डोलै, बोलै मधुरी बानी ।।
केशव के कमला ह्वै बैठी, शिव के भवन भवानी ।
पण्डा के मुरत ह्वै बैठी, तीरथ में भइ पानी ।।
जोगी के जोगिन ह्वै बैठी, राजा के घर रानी ।
काहू के हीरा ह्वै बैठी, काहू की कौड़ी कानी ।।
भगता के भक्तिन ह्वै बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्मानी ।
कहै कबीर सुनो हो संतो, यह सब अकथ कहानी ।।
मनोज की इस भाँति त्रिभुवन-प्रभुता बढ़ जाने पर भी नरलोक में कुछ ऐसे भी लोग थे, जो इसकी अधीनता स्वीकार नहीं करके बागी हो गए। दुर्जय मनोज ने उनलोगों पर चढ़ाई की और कल, बल तथा छल करके नारद, शृंगी तथा विश्वामित्र-सरीखे बागियों को अपने पंजे में करके शान्तनुपुत्र देवव्रत से लड़ाई प्रारम्भ कर दी। घनघोर संग्राम के बाद देवव्रत विजयी हुए। इस भीषण संग्राम में ही विजयी होने के कारण तबसे देवव्रत का नाम ‘भीष्म’ पड़ा। यद्यपि ‘काम’ देवव्रत से पराजित होने के कारण दुःखित तथा लज्जित था, तथापि वह पूर्वप्राप्त ऐश्वर्य से मदान्ध था। वह कहने लगा-‘निर्ममता और योगाभ्यास के बिना कोई उपाय करके भी कोई जीव मुझको नहीं मार सकता। जो पण्डित आत्मा को न जानकर मोक्ष-मार्ग में नियत होकर मेरे मारने का उपाय करता है, उस मोक्ष में प्रवृत्तचित्त मनुष्य को देखकर मैं नाचता हूँ और हँसता हूँ। मैं अकेला सनातन सब जीवमात्रें से अवध्य हूँ।’
(महाभारत, अश्वमेध पर्व, अ0 13)
इस प्रकार कहकर मनोज ने उन महान आत्माओं पर, जिनका अन्तःकरण स्फटिक के समान स्वच्छ एवं निर्मल था तथा जो अविचल भाव से अचल आत्मा में अवस्थित थे, आक्रमण किया; किन्तु-
बून्द अघात सहहिं गिरि कैसे । खल के वचन सन्त सह जैसे ।।
तथा-
ऊसर बरसइ तृन नहिं जामा । जिमि हरिजन हिय उपज न कामा ।। की भाँति श्रीशुकदेवजी, श्रीगोरखनाथजी तथा श्रीतुलसी साहबजी प्रभृति सरीखे आत्मज्ञानी संतों के समक्ष ‘काम’ की एक भी कला न चली। इन महान आत्माओं के दुर्ग के भीतर प्रविष्ट करना तो दूर रहा, उनके फाटक के समीप भी वह फटकने नहीं पाया। उनके द्वारपाल शम, दम और नियम-यम दृढ़तापूर्वक पहरा दे रहे थे तथा उस गढ़ के अन्दर आत्मसाक्षात्-रूपी महा प्रलय की अग्नि प्रज्वलित हो रही थी। प्रदीप में पतंग की भाँति उन महान आत्माओं के ब्रह्मतेज में जलकर वह भस्मीभूत हो गया।
अतएव, यदि आप भी दुष्ट काम का दमन और शमन करना चाहते हैं, तो शम-दम का साधन, यम-नियम का पालन कीजिए और संसार से अनासक्त रह, योगाभ्यास-द्वारा अपने अन्दर की ब्रह्मज्योति को जगाइए। श्रीमद्भगवद्गीता में लिखा है-
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।।59।। (अ02)
अर्थात्, यदि कोई भोजन छोड़े और उपवासी होकर रहे, तो विषयों की ओर से उसकी इन्द्रियों की गति मन्द पड़ती है, परन्तु विषय-रस की स्मृति और उसकी इच्छा नहीं छूटती है। ये तो पर- ब्रह्मपरमात्मा के ही दर्शन से छूटती है।
एवं बुद्धे: परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ।।43।। (अ03)
इस तरह बुद्धि से परे आत्मा को पहचानकर और आत्मा-द्वारा मन को वश में करके, हे महाबाहो! कामरूप दुर्जय शत्रु का संहार कर।
उपर्युक्त श्लोक पर महात्मा गाँधीजी की टिप्पणी इस भाँति है-‘यदि मनुष्य शरीरस्थ आत्मा को जान ले, तो मन उसके वश में रहेगा और मन जीता जाए, तो ‘काम’ क्या कर सकता है?’ मन और मनोज पर विजय प्राप्त करने के लिए मुक्तिकोपनिषद् में लिखा है-
एक तत्त्वदृढाभ्यासाद्यावन्न विजितं मनः।
प्रक्षीण चित्तदर्पस्य निगृहीतेन्द्रियद्विषः।
पद्मिन्य इव हेमन्त क्षीयन्ते भोगवासनाः।।
अर्थात् जबतक मन नहीं जीता गया हो, तबतक एक तत्त्व के दृढ़ अभ्यास से चित्त एवं अहंकार को पूर्ण रूप से नष्ट करके इन्द्रिय-शत्रु को निग्रह करना। ऐसा होने से ही हेमन्त काल के कमल-सदृश भोगवासना का नाश हो जाएगा। एक बात और, जो अत्यन्त प्राचीन एवं बिल्कुल सत्य कहावत है, इसे भी जरा स्मरण में रखिए-‘जैसा खाय अन्न, वैसा होय मन।’ संत कबीर साहब ने भी कहा है-
जैसा अन्न जल खाइये, तैसा ही मन होय ।
जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी होय ।।
आहार का प्रभाव मन पर पड़ता है। इसलिए अच्छे-बुरे भोजन के परिणामस्वरूप मन भी अच्छा-बुरा बनता है। मन से विचार उत्पन्न होते हैं, इसलिए अच्छे-बुरे मन के अनुकूल ही अच्छे या बुरे विचार उद्भूत होते हैं। फिर, विचारानुकूल ही व्यवहार होते हैं। इसलिए अच्छे-बुरे विचार के कारण ही व्यवहार भी अच्छे-बुरे, शुभ-अशुभ होते हैं। रजोगुणी और तमोगुणी भोजन से मन में चंचलता और मूढ़ता उत्पन्न होती है, जिससे काम-क्रोधादिक विकार उभड़ते हैं; और सतोगुणी भोजन से मन शान्त, शुद्ध और सात्त्विक रहता है, इससे पवित्र विचार उत्पन्न होते हैं।
अतएव, मनोज (काम)-विजय की अभीप्सा रखनेवाले के लिए संयमित आहार-विहार का पूर्ण ध्यान रखना अत्यन्त अपेक्षित है। भोजन सदा सात्त्विक और हल्का होना चाहिए। कभी भी, खास करके रात्रि के समय भूलकर भी गरिष्ठ भोजन नहीं करना चाहिए। उत्तेजक, बासी, अधिक मिर्च-मसालेदार, गर्म, खटाई और चरपरे भोजन से सदा बचते रहना चाहिए। अधिक बार और अधिक मात्र में भोजन करना या अधिक उपवास करना, अधिक जगना या अधिक सोना-ये सभी हानिकारक हैं। इनका व्यवहार करनेवालों से ब्रह्मचर्य का पालन नहीं हो सकता; और यह अत्यन्त दृढ़ निश्चय जानना चाहिए कि ब्रह्मचर्यविहीन, असंयमी जन के लिए ‘कामदहन मन वशकरण’ कठिन ही नहीं, बल्कि पूर्ण असंभव है। ठीक ही कहा है-
घास पात जो खात है, ताहि सतावै काम ।
नित प्रति हलुआ खाय जो, ताकी जानै राम ।।
किन्तु, जो इन्द्रियों का संयम करता है, आहार-विहार का परिणाम जानकर मितभोगी बनता है, सत्पुरुषों का समागम करता है तथा अपने ब्रह्मचर्य की अनमोल रत्न के समान रक्षा करता है, उसी आचरण-समन्वित वीर्यवान के अन्दर योगाभ्यास- साधन से ब्रह्मज्योति जगेगी और वही वीर साधक मन और मनोज पर विजयी प्राप्त कर सकेगा।
(शान्ति-सन्देश, दिसम्बर, 1972 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
इस संतमत-सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। ईश्वर-भक्ति की विधि जानने के पूर्व ईश्वर-स्वरूप की अभिज्ञता आवश्यक है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी लिखा है-
जाने बिनु न होइ परतीती ।
बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ।।
प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई ।
जिमि खगेस जल कै चिकनाई ।।
सर्वेश्वर-स्वरूप के सम्बन्ध में संतमत के सिद्धान्त हैं-‘जो परम तत्त्व, आदि-अन्त-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है, उसे ही सर्वेश्वर सर्वाधार मानना चाहिए।’
अब इसपर हम विचार करें। तत्त्वों में जो सर्वोत्कृष्ट तत्त्व है, वह है परमात्मा; किन्तु हम परमात्म-तत्त्व के सम्बन्ध में अनभिज्ञ हैं। अभिज्ञता हमें पाँच तत्त्वों की है, जिन्हें हम-क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर शब्द से सम्बोधित करते हैं। विवेकशील प्राणी सरलतापूर्वक समझ सकते हैं कि जो प्रथम का तत्त्व होता है, वह पश्चात् के तत्त्वों से सूक्ष्म होने के कारण उसमें व्यापक होकर अपना मण्डल ऊपर रखता है। पंच तत्त्वों में सर्वप्रथम तत्त्व आकाश है। इसलिए वह चार तत्त्वों-हवा, अग्नि, जल और पृथ्वी में व्यापक होकर अपना मण्डल इन सबसे ऊपर रखता है। इस दृष्टि को अपनाए रखकर संत सुन्दरदासजी ने सर्वेश्वर के सम्बन्ध में लिखा है, वह इस प्रकार है-
भूमि पर अप आपहू के परे पावक है ।
पावक के परे पुनि वायुहू बहत है ।।
वायु के परे व्योम व्योमहू के परे इन्द्रिन दश ।।
इन्द्रिन के परे अन्तःकरण रहत है ।।
अन्तःकरण पर तीनों गुण अहंकार ।
अहंकार पर महतत्त्व कूँ लहत है ।।
महतत्त्व पर मूल माया, माया पर ब्रह्म ।
ताहितें परात्पर सुन्दर कहत है ।।
तथा-
व्योम को व्योम अनन्त अखंडित,
आदि न अन्त सुमध्य कहाँ है।
इसी विषय को गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने इस भाँति कहा है- नभ सत कोटि अमित अवकासा।
सामान्य ज्ञान में तो एक आकाश के अन्त का ज्ञान नहीं होता, तब जो सौ करोड़ आकाश से भी विशेष अवकाशवाला तत्त्व है, उसके सम्बन्ध में बुद्धि कल्पना भी नहीं कर सकती; ठीक वैसे ही जैसे अनन्त विस्तृत समुद्र के गहरे गर्त में रहनेवाली मछली शुद्ध आकाश के सम्बन्ध में कुछ सोच नहीं सकती।
‘नभ सत कोटि अमित अवकासा।’ कहकर गोस्वामीजी ने जिस अनादि-अनन्त-अपरिमित तत्त्व का निर्देशन किया है, अन्यान्य संतों ने उसी को परम- तत्त्व वा परमात्म-तत्त्व शब्दों से अभिहित किया है।
वह अनन्त तत्त्व कहाँ होगा और कहाँ नहीं होगा? अर्थात् वह सर्वत्र यानी सर्वव्यापक होगा। गोस्वामीजी ने कहा है-
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।
इस अनन्त तत्त्व का वर्णन सभी सन्तों ने किया है। गुरु नानक साहब ने कहा है-
अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा।
जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा।।
संत कबीर साहब ने कहा है-
श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।
ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ।।
बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींहीं तें सब लेखा ।
सबके मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा ।।
कठोपनिषद् के वाक्यों में जो-‘अणोरणीयाम् महतो महीयान्’ है, उसको यह स्थूल आँख कैसे देख सकती है? जबकि यह आँख पुष्प को देख सकती है; किन्तु उसमें व्यापक उसकी गन्ध को नहीं, तब संसार के पदार्थों को देखकर उसमें व्यापक सर्वेश्वर का ज्ञान यह नेत्र कैसे कर सकती है? इसीलिए कबीर साहब ने साफ शब्दों में कहा है-
चाम चश्म सों नजरि न आवै ।
तब किससे देखा जाएगा? तो कहा- ‘खोजु रूह के नैना ।’
अर्थात् आत्म-दृष्टि से देखा जाएगा। तैत्तरीय उपनिषद् में आया है-
यतो वाचो निवर्त्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।
अर्थात् जो मन को भी दुर्गम है और वाणी जिसका वर्णन नहीं कर सकती, वह ब्रह्मस्वरूप है। इस आँख से हम सूक्ष्म जन्तुओं को भी नहीं देख सकते हैं, फिर सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम तत्त्व-परमात्मा को कैसे देख सकेंगे?
पटना में पैथोलॉजी के एक अच्छे डॉक्टर हैं। उनका नाम माननीय डॉक्टर एन0एल0 मोदी साहब है। बहुत दिन पूर्व की एक घटना है-मैंने देखा कि उन्होंने एक रोगी का रक्त लेकर एक शीशे के प्लेट पर रखकर दूसरे शीशे के प्लेट से उसको घिसकर पसार दिया। मैंने जिज्ञासा की-‘इस रक्त में आप क्या देखेंगे?’ उन्होंने प्रसन्न मुद्रा में मुस्कुराते हुए कहा-‘इसमें रोग के कीटाणुओं को देखूँगा।’ मैंने कहा-‘आपने तो रक्त को घिस दिया, जो भी कीड़े इसमें होंगे वे मर गये होंगे?’ मुझे ठीक स्मरण नहीं; किन्तु जहाँ तक स्मरण है, उन्होंने कहा-‘अभी भी ये कीटाणु छह घंटे जीवित रहेंगे। मैंने पूछा-‘इन कीटाणुओं को कैसे देखा जा सकता है?’ उन्होंने उत्तर दिया-‘इस आँख से नहीं, डपबतवेबवचम नामक यन्त्र से देखा जाएगा।’ अब यह बात सरलतापूर्वक समझी जा सकती है कि जब रक्त के कीड़े को इस आँख से हम नहीं देख पाते, तब उसमें निवास करनेवाली चेतन आत्मा का, परमात्मा का प्रत्यक्षीकरण इस चक्षु से कैसे सम्भव है? इसलिए यह अत्यन्त थिर है कि जो परमात्मा सूक्ष्मातिसूक्ष्म हैं, उनको इस स्थूल आँख से हम नहीं देख सकते। इस आँख से जो ग्रहण होगा, वह माया होगी। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई ।
सो सब माया जानेहु भाई ।।
अर्थात् इन्द्रियों तथा मन से जो कुछ जानते हैं, वह माया है। भगवान के मायिक रूप के दर्शन से कामनाएँ नहीं मिटतीं और जबतक कामनाएँ रहेंगी, गोस्वामी तुलसीदासजी के विचार में उसको स्वप्न में भी सुख नहीं मिलेगा अर्थात् ‘काम अछत सुख सपनेहु नाहीं।’ कश्यप-अदिति के कथा से भी विदित होता है कि भगवान विष्णु के दर्शन होने पर उन्हें पुत्र की कामना हुई; परन्तु अनन्त स्वरूपी परमात्मा की प्राप्ति में सारी कामनाएँ अन्त हो जाती हैं। संत कबीर साहब ने बड़ा ही अच्छा कहा है-
चाह गई चिन्ता मिटी, मनुवाँ बेपरवाह ।
जाको कछू न चाहिये, सोई शाहंशाह ।।
सन्तों की गति अनन्त तक होती है। जिसका आदि होगा, उसका अन्त अवश्य होगा, वह ससीम होगा। सभी ससीमों के बाद असीम कहे बिना प्रश्न बना ही रहेगा। आदि मूल तत्त्व अनादि है, असीम है। जो आदि-अन्त-रहित होगा, वह असीम होगा, अजन्मा होगा। वह किसी भी इन्द्रिय से ग्रहण होने योग्य नहीं। परमात्मा सर्वव्यापक हैं, सर्वव्यापकता के भी परे हैं। उसको ऐसे समझिए-जिस तरह लोहा को आग में डाल दीजिए, लोहा लाल हो जाएगा। अग्नि लोहा में व्यापक हो गई। लोहा का गोला जितना बड़ा था, उतने में ही अग्नि व्यापक होकर मर्यादित नहीं हो जाती, वरन् उसके बाहर भी अग्नि का विस्तृत मण्डल बना रहता है। उसी तरह परमात्मा प्रकृति मण्डल में व्यापक होकर मर्यादित नहीं हो जाते, बल्कि प्रकृति के परे और कितना विशेष बाकी बचा रहता है, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा-
प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी ।
ब्रह्म निरीह बिरज अविनासी ।।
और संत कबीर साहब कहते हैं-
सब घट मेरा साइयाँ, सूनी सेज न कोय ।
बलिहारी वा घट्ट की, जा घट्ट परगट होय ।।
और भी-
निज तन में खोज सज्जन, बाहर न खोजना ।
अपने ही घट में हरि हैं, अपने में खोजना ।।
-महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज
गोस्वामीजी ने जिस प्रभु को उर-वासी कहा, संत कबीर साहब ने उसको घट-वासी कहा और महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने ‘घट’ और ‘उर’ दोनों को मंजूर किया। फिर तीनों सन्तों के वचनों में अंतर क्या रहा? कुछ भी नहीं; किन्तु एक बात यह है कि महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने घट का बहुत विलक्षण विश्लेषण किया है, उन्होंने बतलाया है कि घट-त्रिपट के पार में जो घट है, यथार्थतः उसके उर-पुर में साईं यानी प्रभु बसते हैं। यथा-
घट पट तिहू के पार में साईं बसै हिय अन्तरे ।
इसी त्रिपट का वर्णन संत दादू दयालजी ने इस भाँति किया है-
सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुण सगुण नहिं दोई ।।
गुरु नानकदेवजी ने अत्यन्त दृढ़तापूर्वक कहा है- काहे रे वन खोजन जाई।
सरब निवासी सदा अलेपा, तोही संग समाई ।।
विचारवान विचार सकते हैं कि परम प्रभु परमात्मा सर्वव्यापक होने के कारण सर्वत्र व्यापक होकर हमारे अंदर भी हैं और हम स्वयं भी अपने अंदर ही हैं। दूसरे शब्दों में हम स्वयं और हमारे प्रभु दोनों ही अपने अन्दर हैं। ऐसी अवस्था में ईश्वर की खोज के लिए कहीं बाहर जाना कहाँ तक समीचीन होगा, विवेकी जन जान सकते हैं, सोच सकते हैं, विचार सकते हैं।
हमारे सद्गुरु महाराजजी ने जीव और पीव की बृहत् व्याख्या कर बताया है कि इस शरीर में जीव कहाँ है, पीव कहाँ है, दोनों की दूरी क्या है? इन दोनों की दूरी दूर कैसे हो सकती है, इस शरीर में जीव और पीव दोनों का मिलन कहाँ और किस भाँति होगा, प्रभु-प्राप्ति का पथ अपने अंदर-ही-अंदर किस प्रकार है, उसका आरम्भ, मध्य और अंत कहाँ होता है? इत्यादि विषयों का इतना सरल और मार्मिक वर्णन इन्होंने अपने एक पद्य में किया है, जिसका अध्ययन एवं मनन कर सर्वसाधारण भी सरलतापूर्वक समझ सकते हैं-
खोजो पंथी पंथ तेरे घट भीतरे ।
तू अरु तेरो पीव भी घट ही अन्तरे ।।
पिउ व्यापक सर्व= परख आवै नहीं ।
गुरुमुख घट ही माहिं परख पावै सही ।।
तू या=ी पीव घर को चलन जो चाहहू ।
तो घट ही में पंथ निहारु विलम्ब न लाबहू ।।
तम प्रकाश अरु शब्द निःशब्द की कोठरी ।
चारो कोठरिया अहइ अन्दर घट कोट री ।।
तू उतरि पर्यो तम माहिं पीव निःशब्द में ।
यहि तें पड़ि गयो दूर चलो निःशब्द में ।।
नयन कँवल तम माँझ से पंथहि धारिये ।
सुनि धुनि जोति निहारि के पंथ सिधारिये ।।
पाँचो नौबत बजत खिंचत चढ़ि जाइये ।
यहि ते भिन्न उपाय न दिल बिच लाइये ।।
संतन कर भक्ति-भेद अन्तर पथ चालिये ।
‘मेँहीँ’ मेँहीँ धुनि धारि सो पंथ पधारिये ।।
प्रभु-प्राप्ति के संबंध में संत कबीर साहब का विचार है- घूँघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे।
एक ही कमरे में पति और पत्नी दोनों हैं, पर परस्पर भेंट नहीं होती। क्यों? इसलिए कि पत्नी अपने ऊपर घूँघट ले रखी है। इसी भाँति इस शरीर में हम हैं और हमारे प्रभु भी हैं; परन्तु आवरण के कारण दर्शन नहीं हो पाता। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कितना ही उत्तम कहा है-
माया बस मति मन्द अभागी।
हृदय जवनिका बहु विधि लागी।।
ते सठ हठ बस संसय करहीं।
निज अज्ञान राम पर धारहीं।।
काम क्रोधा मद लोभ रत, गृहासक्त दुख रूप ।
ते किमि जानहिं रघुपतिहि, मूढ़ पड़े तम कूप ।।
परम प्रभु यद्यपि सर्वत्र हैं, फिर भी तम-कूप में पड़े रहने के कारण उनकी पहचान नहीं होती। वर्णित विचार से यह दृढ़ हो चुका कि परम प्रभु सर्वत्र होते हुए भी सर्वत्र उनकी पहचान नहीं हो सकती। अतएव सर्वप्रथम परमात्मा की पहचान जहाँ होगी, वहाँ जाना आवश्यक है। पूज्यपाद गुरुदेवजी की वाणी में है-
तू उतरि पर्यो तम माहिं, पीव निःशब्द में ।
यहि तें पड़ि गयो दूरि, चलो निःशब्द में ।।
रास्ता का आरम्भ अंधकार से होगा; क्योंकि हम अंधकार में पड़े हैं और जाना निःशब्द तक है; क्योंकि सर्वेश्वर का सर्वप्रथम साक्षात्कार वहाँ ही होगा। इसलिए-
नयन कँवल तम माँझ से पंथहिं धारिये ।
सुनि धुनि जोति निहारि के पंथ सिधारिये ।।
अंधकार के बाद प्रकाश होगा; किन्तु इस प्रकाश से भी परमात्मा की प्रत्यक्षता नहीं होती; क्योंकि वह प्रकाश भी एक परदा है। ईशावास्योपनिषद् में आया है-
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधार्माय दृष्टये ।।
अर्थात् आदित्य-मण्डलस्थ ब्रह्म का मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढका हुआ है। हे पूषन्! मुझ सत्य धर्मा को आत्मा की उपलब्धि कराने के लिए तू उसे उघाड़ दे। मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् में आया है-
अनाहतस्य शब्दस्य तस्य शब्दस्य यो धवनिः।
धवनेरन्तर्गतं ज्योतिर्ज्योतिरन्तर्गतं मनः।।
अर्थात् अनाहत शब्द का जो शब्द है, उसकी जो ध्वनि है, उस ध्वनि के अंदर ज्योति (चेतन) है और ज्योति के अंदर मन (लय को प्राप्त होता) है।
इस प्रकाश के परे जाने पर भी शब्द का आवरण रहता है। नादानुसंधान द्वारा शब्दावरण का अतिक्रमण कर निःशब्द में प्रतिष्ठित होना होता है। यह निःशब्द ही परम पद वा परमात्मपद है। इसको ध्यानविन्दूपनिषद् में लिखा है-
बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
अर्थात् परम विन्दु ही बीजाक्षर है, उसके ऊपर नाद है, नाद जब अक्षर (अनाश ब्रह्म) में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है। यही निःशब्द गोस्वामीजी का-
एक अनीह अरूप अनामा।अज सच्चिदानन्द परधामा।।
ब्रह्मविन्दूपनिषद् में आया है-
द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत् ।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।।
अर्थात् दो विद्याएँ समझनी चाहिए, एक शब्द ब्रह्म और दूसरा परब्रह्म। शब्द ब्रह्म में जो निपुण हो जाता है, वह परब्रह्म को प्राप्त करता है।
इसी विषय को संत सुन्दरदासजी ने इस भाँति कहा है-
शब्दब्रह्म परिब्रह्म, भली विधि जानिये ।
पाँच तत्त्व गुण तीन, मृषा करि मानिये ।।
बुद्धि वन्त सब सन्त, कहैं गुरु सोइ रे ।
और ठौर शिष जाइ, भ्रमे जिनि कोइ रे ।।
परमात्म-प्राप्ति के पश्चात् और कुछ अप्राप्त नहीं रह जाता। साधक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर पूर्ण काम हो जाता है।
सारांश यह कि प्रभु प्राप्त्यर्थ न बाहर जाने की आवश्यकता है, न घर-वार और काम-रोजगार छोड़ने की है। क्या पुरुष, क्या स्त्री सभी अपने घरों में रहो, ईश्वर-भजन की सद्युक्ति जानकर नित्य नियमित रूप से भजन करो, सत्संग करो, सदाचार का पालन करो और स्वावलम्बी जीवन बिताओ। सन्तों के उपदेशों का यह सार है। अ
यह प्रवचन दिनांक 24-03-1973 ई0 को अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 65वाँ वार्षिक महाधिवेशन बिहार राज्यान्तर्गत पुरैनियाँ जिले के झालीघाट ग्राम में प्रातःकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, नवम्बर, 2010)


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आदरणीय गुरुजन, सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं बहनो!
शिशु जब अपने से बड़े के भुजबल-सहारे उनके कन्धे पर खड़ा होता है, तो उनसे वह बड़ा मालूम होता है; किन्तु बात वास्तविक यह नहीं है। उसी भाँति आपलोगों ने जो मुझे उच्चासन पर आसीन किया है, यह आपलोगों की महानता है, विशेषता है, वस्तुतः आप विशेष हैं, धन्य हैं।
आपलोगों को ज्ञात हुआ है कि यहाँ अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का 65वाँ वार्षिक महाधि- वेशन है। इसमें अभी बिहार के वित्त मंत्री श्रीमान् दारोगा प्र0 रायजी का भाषण हुआ। इनको मैं बिहार का कुबेर कहता हूँ। कुबेर के भाषण के बाद अब फकीर का प्रवचन शुरू हो रहा है, आप विस्मित न हों। यह संतमत का सत्संग है। संतमत कहता क्या है? इससे पूर्व संतमत है क्या? इसको जान लेने पर मूल का पता चल जाएगा, जिससे भविष्य में भूल होने की संभावना नहीं रहेगी। संतमत संतों का विचार है। किसी एक संत के ज्ञान का आधार इसमें नहीं है और न संतमत किसी एक संत के नाम पर का प्रचलित पंथ है।
1919 ई0 के 19 जनवरी को परम संत बाबा देवी साहब का परिनिर्वाण हुआ था। एक दिन उन्होंने हमारे गुरुदेव से कहने की कृपा की-‘तुम पहले दरियापंथी थे, अब समुद्रपंथी हो गये।’ समुद्र में बहुत-सी नदियों का एकत्रीकरण होता है। उसमें बहुत-सी नदियों का पानी मिलता है। उसी तरह संतमत रूप समुद्र में बहुत-से संतों की वाणियाँ आपको मिलेंगी। मुण्डकोपनिषद् में है-
यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नाम रूपे विहाय ।
तथा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः परात्परं पुरूषमुपैति दिव्यम् ।।
अर्थात् जिस प्रकार निरन्तर बहती हुई नदियाँ अपने नाम-रूप को त्यागकर समुद्र में अस्त हो जाती हैं, उसी प्रकार विद्वान नाम-रूप से मुक्त होकर परात्पर दिव्य पुरुष को प्राप्त हो जाता है। इसी भाँति संतमत नाम-रूप से परे जाकर सर्वेश्वर का साक्षात्कार कराता है। जितने भी पंथ, धर्म, मजहब वा सम्प्रदाय हैं, सभी संतमत रूपी समुद्र में समाहित हो जाते हैं। यही हेतु है कि अभी आपलोग संत कबीर साहब, गुरु नानक साहब आदि संतों की वाणियाँ सुन रहे थे। वस्तुतः संतमत संकुचित नहीं है। यह विशाल विचार रखता है।
व्योम को व्योम अनन्त अखंडित,
आदि न अन्त सुमधय कहाँ है?
एक कथा है-एक कुएँ में एक मेढ़क रहता था। संयोग से बाढ़ आयी। बाढ़ के पानी के साथ बहता हुआ समुद्र का एक मेढ़क उसी कुएँ में जा गिरा। कुएँ के मेढ़क ने पूछा-‘तुम कहाँ से आए हो?’ समुद्र के मेढ़क ने कहा-‘मैं समुद्र से आया हूँ।’ पुनः उसने पूछा-‘समुद्र कितना बड़ा होता है?’ इस मेढ़क ने कहा-‘बहुत बड़ा।’ कुएँ के मेढ़क ने एक बित्ता उछलकर कहा-‘क्या समुद्र इतना बड़ा है?’ इसने कहा-‘नहीं; इससे बहुत बड़ा है।’ फिर कुएँ का मेढ़क एक छलाँग मारकर कुएँ के आधे भाग पर जाकर कहा-‘इतना बड़ा?’ इसने कहा-‘नहीं भाई! समुद्र इससे बहुत बड़ा होता है।’ इसपर वह मेढ़क कुएँ के दूसरे किनारे तक छलाँग मारकर कहा-‘अब?’ इसने कहा-‘उससे भी बहुत बड़ा।’ इसपर कुएँ के मेढ़क ने कहा-‘यह तुम्हारा गप्प मात्र है। भला, इस कुएँ से भी बड़ा कहीं कुछ हो सकता है?’
साम्प्रदायिक भावना रखना, कूप-मण्डूकता है। संतमत एक परिधि के अन्दर करना नहीं चाहता है। आज जिन-जिन संतों के नाम पर एक-एक मत की संज्ञा दी गई है, यदि उनसे पूछा जाए कि आप किस मत के हैं? तो क्या वे अपने नाम पर प्रचलित मत को स्वीकार कर कह सकेंगे कि ‘मैं अमुक नाम के पंथ का हूँ।’ यथार्थ बात तो यह है कि श्रद्धालु भक्तों ने अपने गुरु वा आचार्य के नाम पर मत का नाम रखा है। संत कबीर साहब को ही लिया जाय, उनको संतमत पसंद है और इसलिए वे हृदय की उद्गार-भावना को उड़ेलते हुए कहते हैं-
संतमता कुछ और है, खोजहु तिन पाई हो।
गोस्वामी तुलसीदासजी के वचन में आप पाएँगे-
यहाँ न पक्षपात कछु राखौं। वेद पुरान संतमत भाखौं।।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज का परलोक गमन 1680 ई0 में हुआ है। सम्वत् 1900 ई0 में तुलसी साहब हाथरस वाले का। इनका भी कथन है-
संत गुरु अरु पंथ न जाना। ये ही संतपंथ हित माना।।
संतों का विचार-संतों का मत यही संतमत है। संतमत को सप्त सकार स्वीकार है। (1) सर्वेश्वर में विश्वास (2) सद्गुरु की आश (3) सत्संग की प्यास (4) सदाचार का अभ्यास (5) सत्य साधना विधि (6) सतत प्रयास और (7) स्वावलम्बी जीवन।
संतमत में जहाँ सप्त सिद्धांतों का स्वीकार अनिवार्य बताया गया है, वहाँ पंच पापों-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार का परिहार भी आवश्यक कहा गया है। पापों के परिहारी सदाचारी कहलाते हैं और पापों के आचारी-पापाचारी वा दुराचारी। सदाचारी की सद्गति व शुभगति होती है, तो दुराचारी की दुर्गति।
भगवान बुद्ध ने कहा है-सदाचारी को पाँच चीजें मिलती हैं-(1) संसार में सुयश फैलता है। संसार में ही नहीं, तथागत ने तो यहाँ तक कहा है कि यह जो बेली, चमेली, जूही आदि पुष्पों की गंध है, वह तो तुच्छ है; किन्तु जो सदाचारी की सुगंध है, वह पवित्र गंध देवताओं तक पहुँचती है।
तगर पुष्प गन्धाो पटिवात मेति न, चन्दनं तगर मल्लिका वा ।
सतञ्च गन्धाो पटिवात मेति,सब्बा दिसा सप्पु रिसो पावति ।।
अर्थात् पुष्प, चन्दन, तगर या चमेली किसी की भी सुगंधि हवा के प्रतिकूल नहीं जाती; परन्तु संतों की सुगन्धि हवा के प्रतिकूल भी जाती है। सत्पुरुष सभी दिशाओं में सुगन्ध बहाता है।
(2) सदाचारी की सम्पत्ति बढ़ती है; क्योंकि वे अपव्ययी नहीं होते। (3) जिस किसी सभा में वे प्रवचन करते हैं, तो उनका प्रभाव पड़ता है। लोग उनपर विश्वास करते हैं। (4) जब शरीर छूटता है, तो सुख से छूटता है और (5) मृत्यु के बाद सुखकर स्थान को प्राप्त करता है। इसी तरह जो दुराचारी होते हैं, उन्हें भी पाँच चीजें मिलती हैं। (1) अपयश मिलता है अर्थात् संसार में उसकी अपकीर्ति फैलती है। (2) उसकी सम्पत्ति का नाश होता है। (3) किसी भी सभा में उसके भाषण का प्रभाव नहीं पड़ता। (4) उसकी मृत्यु कष्टकर होती है और (5) मरणोपरान्त वह दुःखकर स्थान को पाता है।
एक महात्माजी थे। वे कहीं जा रहे थे। एक भव्य नगर में प्रवेश करते हैं। आरम्भ में ही एक वेश्या का मकान था। वेश्या अपनी दासी से कह रही थी कि नगर में जो अमुक सेठ की मृत्यु हुई है, उन्हें तुम देख आओ-नरक हुआ वा स्वर्ग? महात्माजी आश्चर्य में पड़ गए कि वेश्या गृह में स्वर्ग-नरक का क्या हिसाब है? वह कैसे जानती है कि अमुक नरक को गया वा स्वर्ग को? दासी जाती है और थोड़ी देर में शहर से लौटकर आती है और कहती है-उस सेठ को स्वर्ग हुआ। अब तो महात्माजी को आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वे वेश्या के दरवाजे पर चले गए। वेश्या पूछती है-महाराज! आप मेरे यहाँ कैसे पधारे? महात्माजी ने कहा-‘तुम्हारी दासी कैसे जान गई कि अमुक आदमी के मरने पर उसे स्वर्ग हुआ? यह बात मेरी समझ में नहीं आई।’ वेश्या ने कहा-‘महाराज! यह कौन-सी बड़ी बात है? जो लोगों की सुख-सुविधा का ख्याल करते हैं। सदाचारमय, परोपकारमय जिनका जीवन होता है, उनके मरने पर लोग रोते हैं, शोक प्रकट करते हैं, ऐसे लोगों को स्वर्ग क्यों न होगा? किन्तु जो दूसरों को सताते हैं, उसके मरने पर लोग हषर् मनाते हैं, उसको नरक न होगा तो क्या होगा? मेरे विचार में स्वर्ग और नरक का यही विचार है।’ संतमत सदाचार का पालन सिखाता है; किन्तु स्मरण रहे यथार्थ में सदाचार का पालन होना चाहिए, मात्र आचार का नहीं। हमारे सद्गुरु महाराजजी का कथन है-
पालन हो सदाचार ना आचार मेँहीँ क्या ।
एक बड़ी मधुर कथा है। एक थे बाबाजी- आचारी बाबा। वे स्वयं पाकी तो थे ही, जलावन को भी धोकर जलाते थे। उनके चौके पर अन्य कोई पैर नहीं रख सकते। उनकी भोज्य सामग्रियों को अलग से ही चौके पर रख दिया जाता था। स्वयं भी स्नान के पश्चात् चौके पर चरण रखते थे। इतना ही नहीं, पाक-काल में तथा खान-पान-काल में बायें हाथ को चौके से बाहर रखते थे।
एक दिन किसी ग्रामीण ने विनीत भाव में पूछा-‘महाराज! बायाँ हाथ को चौका से बाहर क्यों रखा गया है?’ बाबाजी को यह बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने रंज होकर कहा-‘मूर्ख! तुम्हें क्या पता? तू नहीं जानता कि बायाँ हाथ शरीर की कैसी-कैसी अपवित्र जगहों में जाती है?’ जिज्ञासु ने हाथ जोड़कर कहा-‘महाराज! क्षमा करें, भूल हुई; किन्तु मेरी प्रार्थना है-जरा विचार करें, जिन-जिन अपवित्र स्थानों में जाने के कारण वाम हस्त को चौका-प्रवेश से निषेध किया गया है, वे सभी स्थान तो आपके चौके पर हैं, फिर बेचारे हाथ का क्या दोष!’
बस, क्या था? बाबाजी तो क्रोध के मारे आग बबूले हो गये----। यह आचार सदाचार नहीं, वरं दम्भ है। इसीलिए तो संत कबीर साहब ने कहा है-
आचारी सब जग मिला, बिचारी मिला न कोय ।
कोटि अचारी वारिये, इक विचारी जो होय ।।
मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं कि बाह्य शौच को बिल्कुल तिलांजलि दे दी जाए। बल्कि आवश्यक बाह्य शौच के साथ-साथ अन्तः शौच का होना अत्यावश्यक है। हाँ, तो मैं कह रहा था-संतमत में सदाचार पालन अत्यंत अपेक्षित है और सदाचार का ईश्वर-भजन से घनिष्ठ संबंध है। ठीक वैसे ही जैसे ‘Q’ के साथ ‘U’ का। आप देखेंगे जहाँ ‘Q’ रहता है, वहाँ ‘U’ का रहना भी अनिवार्य हो जाता है। जैसे ‘फ़नंतजमतए फ़नंसपजलए फ़नंदजपजल’ आदि।
इसीलिए भगवान बुद्ध ने कहा था- सदाचार चाहिए, चमत्कार नहीं। संतमत एक ईश्वर पर अचल विश्वास और पूर्ण भरोसा रखना सिखाता है तथा उनकी प्राप्ति अपने अन्दर में होगी, इसका दृढ़ निश्चय दिलाता है। संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का यह उद्घोष है-‘सबके ईश्वर एक हैं। उनतक पहुँचने का रास्ता एक है। सभी स्थूल सगुण उपासनाएँ उस मार्ग पर चलने के लिए योग्यता प्रदान करती हैं। ईश्वर-भक्ति में ही कल्याण है।’
कुछ लोग कहते हैं-जैसे एक गाँव में जाने के लिए अनेक रास्ते हैं, उसी तरह ईश्वर तक जाने के लिए भी अनेक मार्ग हैं; किन्तु वास्तव में ईश्वर तक जाने के मार्ग अनेक नहीं, एक है। जैसे किसी भी देश वा जाति के कोई मानव क्यों न हों, सबके भोजन करने का एक रास्ता मुँह है। देखने का एक रास्ता आँख है। सुनने का एक रास्ता श्रवण वा कान है। गंध लेने का एक मार्ग नाक है। पेशाब करने का एक रास्ता है। पाखाना करने का एक रास्ता है। उसी तरह ईश्वर सबके अन्दर है और ईश्वर तक जाने का मार्ग भी एक ही है। यह मेरा विचार नहीं, संतों का विचार है। इस मार्ग का कहीं से आरम्भ होता है, उसका कहीं अंत होता है और बीच में फासला होता है। अ
यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 65वें वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर झालीघाट, पूर्णियाँ में दिनांक 24-03-1973 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था। (शांति-संदेश, फरवरी 2011 ई0)

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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
मैं आपलोगों के दर्शनार्थ यहाँ आया हूँ। आपलोगों के दर्शन से मेरे मन में बड़ी प्रसन्नता हुई है। मैं आपलोगों को अपना उपदेश नहीं, संतों का सन्देश देने आया हूँ। यद्यपि शारीरिक क्लेश से मैं अस्वस्थ हूँ, तथापि परम पूज्य आराध्यदेव की कृपा और आपलोगों के दर्शन से आश्वस्त हूँ। एक तो मुझे बोलने की कला नहीं, दूसरे सर्दी-खाँसी से बझा हुआ गला है। इस स्थिति में भला आपके सामने मैं क्या कह सकता हूँ! तब भी आराध्यदेव के आदेश-पालनार्थ आपलोगों के समक्ष उपस्थित हुआ हूँ।
आपलोगों को ज्ञात है कि यहाँ अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का 68वाँ वार्षिक महाधिवेशन है। आज विश्व के कोने-कोने में अशान्ति फैली हुई है। जन-जन का मन राग, द्वेष, ईर्ष्यादि कलुषों से कलुषित हो रहा है। भाई-भाई, पिता-पुत्र, पति-पत्नी प्रभृति में परस्पर वैमनस्यता की आग सुलग रही है। सभी शान्ति की आकांक्षा रखते हैं। अपनी-अपनी विद्या-बुद्धि के बल पर यथासंभव सभी कोई प्रयास कर रहे हैं; किन्तु सफलता कहाँ तक मिली, यह सबके सामने है।
संतो ं ने बतलाया कि संसार के पद, प्रतिष्ठा, पदार्थ व पैसे-किसी की भी प्राप्ति में शान्ति नहीं है; क्योंकि शान्ति बाह्य जगत् की वस्तु में नहीं है, अपने अन्दर ही है। इसलिए अपने को बहिर्मुख से अन्तर्मुख करो। जो पदार्थ परस्पर एक दूसरे के उलटे होते हैं, उनके गुण भी उलटे होते हैं; जैसे रात और दिन, हानि और लाभ, दुःख और सुख आदि। इसी भाँति संसार का उल्टा परमात्मा है। संसार व्यत्तफ़ है और परमात्मा अव्यत्तफ़। संसार विषय है और परमात्मा निर्विषय। संसार इन्द्रियगम्य है और परमात्मा इन्द्रियातीत। संसार असार है और सर्वेश्वर सार है। जगत् का नाश है और जगत्पति अनाश है, विश्व उत्पत्ति और विनाशशील है; किन्तु विश्वेश्वर अज और अविनाशी है। संसार सगुण और साकार है; परन्तु ब्रह्म निर्गुण और निराकार है। जगत् उपाधिरूप और ब्रह्म निरुपाधि स्वरूप है। संसार अशाश्वत है और ब्रह्म शाश्वत है। संसार विषम है और परमेश्वर सम है। संसार सविकार है और अखिलेश निर्विकार है। संसार स्वल्प है और परमात्मा परिमाण-रहित है। संसार कालाधीन है और परम प्रभु कालातीत है। संसार समल और चंचल है, परब्रह्म निर्मल और निश्चल है। जगत् सापेक्ष है और जगदीश्वर निरपेक्ष है। संसार को पाकर शान्ति नहीं है, तो सर्वेश्वर को पाकर अवश्य ही शान्ति मिलेगी। संतो ं ने उसी एक परमात्मा को प्राप्त करने की सलाह दी है। हमारे सद्गुरु महाराज ने दृढ़तापूर्वक कहा है- “ एक ईश्वर पर अचल विश्वास और पूर्ण भरोसा करो। उसकी प्राप्ति अपने अन्दर होगी, इसका दृढ़ विश्वास रखो।” उनका उद्घोष है- “ सबके ईश्वर एक हैं। उनको पाने का रास्ता भी एक ही है। सभी स्थूल सगुण उपासनाएँ उस मार्ग तक पहुँचाने के माध्यम हैं। ईश्वर-भत्तिफ़ से ही विश्व में शान्ति आएगी।” सभी संतों ने एक ईश्वर का ज्ञान दिया है और उसी एक विचार पर दृढ़ विश्वास करने की सीख दी है। परम प्रभु परमात्मा के सम्बन्ध में सभी संतो ं ने एक स्वर में कहा है कि वह अनेक नहीं; एक है। विश्व का परम प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद है, उसमें यह मंत्र आया है- “ एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।” अर्थात् वह एक ही है और सद्विप्र उसे अनेक नामों से अभिहित करते हैं। यहूदी उसे जेहोवा कहते हैं, ईसाई गॉड या स्वर्गस्थ कहते हैं, मुसलमान अल्लाह कहकर पूजते हैं, बौद्ध बुद्ध, पारसी अहुरमज्द, चीनी तितीन और वैदिक ब्रह्म या ईश्वर कहते हैं। संत कबीर साहब के शब्दों में हम कह सकेंगे-
साहिब मेरा एक है, दूजा कहा न जाय ।
दूजा साहिब जो कहूँ, साहिब खड़ा रिसाय ।।
गुरु नानक देवजी महाराज कहते हैं-उस एक ईश्वर में सारी सृष्टि समाहित है और सारी सृष्टि में वह अकेला ही व्यापक है। इतना ही नहीं, उससे परे भी है। यथा-
एको एकु सुअपर परम्परु, परखि खजाने पाइदा । तथा-
एक महि सरब सरब महि एका,
यह सत्गुर देखि दिखाई ।।
कवि भूषण गोस्वामी जी ने उस सर्वव्यापक राम को ब्रह्म-रूप, अनाम, अज, अकाम, सत्, चित्, आनन्द और परधाम कहकर वर्णन किया है। तथा-
‘एक अरूप अनीह अनामा।
अज सच्चिदानन्द परधामा।।’
एक सही सबके उर अन्तर,
ता प्रभु कूँ कहू काहि न ध्यावै।
संकट माहि सहाय करै,
पुनि सो अपनो प्रभु क्यों विसरावै।।
चारि पदारथ और जहाँ लौं,
आठहु सिद्धि नवौ निधि पावै।
सुन्दर छार परै तिनके मुख,
जो हरि को तजि आन कूँ ध्यावै।।
-संत सुन्दर दासजी
और संत पलटू दासजी कहते हैं-
दास पलटू कहै एक ही एक है,
दूसरा नहीं कोउ राव रानी।
ईश्वर के सम्बन्ध में महात्मा गाँधीजी की कितनी अगाध और अविचल श्रद्धा है, उन्होंने कहा है- “ कोई सात बहनें थीं। उनमें से एक बहन की मृत्यु हो गई। फिर भी वह अपने को सात बहनवाली ही मानती थी। लोग उन्हें कितना भी समझावे; लेकिन वह अपने विचार पर दृढ़ थी। इसी भाँति मुझे कोई कितना भी कहे कि ईश्वर नहीं है, तो मैं मानने के लिए तैयार नहीं हूँ। कोई नास्तिक ईश्वर के सम्बन्ध में मुझसे बात-चीत करते हुए अपनी दलील से मुझे हरा भी दे, फिर भी ईश्वर की सत्ता को मैं कदापि अस्वीकार नहीं कर सकता।”
वास्तव में, जिस प्रकार समुद्र के अन्तस्तल में रहनेवाली मछली को स्वच्छाकाश का ज्ञान नहीं होता, उसी भाँति माया के गहन तम में पड़ा प्राणी को परमात्मा के स्वरूप की पहचान नहीं होती।
काम क्रोध मद लोभ रत, गृहासत्तफ़ दुख रूप।
ते किमि जानहि रघुपतिहिं, मूढ़ परे तम कूप।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
जैसे घूघर पक्षी को सूर्य के दर्शन नहीं होते, उसी भाँति अज्ञान-तमसाच्छन्न जन को परम ब्रह्म की प्रत्यक्षता नहीं होती। इसलिए यदि घूघर कहे कि सूर्य नहीं है और अज्ञजन कहे कि ईश्वर नहीं है, तो जैसे उलूक के बात की मान्यता नहीं हो सकती, वैसे ही उन अल्पज्ञ की यह बात भी अमान्य ही होगी।
घूघर अंधे भेष टेक अभिमान में ।
लखै न तन बिच ब्रह्म धुंध अज्ञान में ।।
घूघर नेतर खुलै लखै सोई साध है ।
देखै तन बिच भानु सो ब्रह्म अगाध है ।।
-संत तुलसी साहब
स्त्रष्टा को समझने के लिए उनकी सृष्टि की ओर जरा हम अपनी दृष्टि को करें। शायद इस शोध से भी कुछ बोध हो जाय। सर्वेश्वर की सृष्टि अति अद्भुत है, बड़ा ही विलक्षण है। स्थूल में सूक्ष्म और सूक्ष्म में कारण अधिष्ठित है। स्थूल निवासी सूक्ष्म निवासी को और सूक्ष्म निवासी कारण निवासी को सामान्य दृष्टि से देख नहीं पाते।
जब स्थूल-सूक्ष्मादि भेद से समस्त प्रकार की सृष्टियों को हम इस स्थूल दृष्टि से नहीं देख सकते, तब उस सृष्टिकर्त्ता को जो उसके कण-कण में अणु-परमाणु में प्रति-पल, प्रति-क्षण परिव्याप्त है, कैसे देख सकते हैं?
वास्तविक बात तो यह है कि जैसे इस स्थूल जगत् को देखने के लिए स्थूल दृष्टि की और सूक्ष्म जगत् को देखने के लिए सूक्ष्म दृष्टि वा दिव्य दृष्टि की आवश्यकता होती है; वैसे ही ब्रह्म-दर्शन वा आत्म-दर्शन के लिए आत्म-दृष्टि अत्यन्त अपेक्षित है।
सूक्ष्म-दृष्टि, दिव्य-दृष्टि वा आत्म-दृष्टि किसी भी दृष्टि के लिए संत सद्गुरु की सद्युत्तिफ़ और उनकी कृपा अपरिहार्य है। जबकि जागतिक कार्य का सफल सम्पादन सुयोग्य गुरु के अभाव में सम्भव नहीं होता, तब पारमार्थिक पथ बिना संत सद्गुरु के प्रशस्त हो, कैसे सम्भव है? संत सुन्दरदासजी महाराज कहते हैं-
गुरु बिन ज्ञान नहिं गुरु बिन ध्यान नहिं,
गुरु बिन आतम विचार न लहतु है।
गुरु बिन प्रेम नहिं गुरु बिन नेम नहिं,
गुरु बिन शीलहु संतोष न गहतु हैं।।
गुरु बिन प्यास नहिं बुद्धि को प्रकाश नहिं,
भ्रमहू को नाश नहिं संशय रहतु हैं।
गुरु बिनु बाट नहिं कौड़ी बिन हाट नहिं,
सुन्दर प्रकट लोक वेद यों कहतु हैं।।
किसी कवि ने कितना कमाल कहा है-
ध्यान लगा के जो देखो
तुम सृष्टि की सुघराई को।
बात-बात में पाओगे उस
ईश्वर की चतुराई को।।
ये सब भाँति-भाँति के पक्षी
ये सब रंग-रंग के फूल।
ये वन की लहलही लतायें
ललित-ललित शोभा के मूल।।
ये पर्वत की रम्य शिखा औ
शोभा सहित चढ़ाव उतार।
निर्मल जल के सोते झरने
सीमा रहित महा विस्तार।।
छः प्रकार की ऋतु का होना
नित नवीन शोभा के संग।
पाकर काल वनस्पति फलना
रूप बदलना रंग-बिरंग।।
चाँद-सूर्य की शोभा अद्भुत
बारी से आना दिन-रात।
त्यों अनन्त तारा मण्डल से
सज जाना रजनी का गात।।
लर्जन गर्जन घन मंडल का
बिजली वर्षा का संचार।
जिसमें देखो परमेश्वर की
लीला अद्भुत अपरम्पार।।
यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 68वें वार्षिक महाधिवेशन के अवसर पर भवानीपुर (राजधाम), पुरैनियाँ में दिनांक 7-3-1976 के अपराह्णकालीन सत्संग में हुआ था।


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