(७)
श्री सद्गुरु की सार शिक्षा, याद रखनी चाहिये।
अति अटल श्रद्धा प्रेम से, गुरु-भक्ति करनी चाहिये॥१॥
मृग वारि सम सबही प्रपंचन्ह, विषय सब दुख रूप हैं।
निज सुरत को इनसे हटा, प्रभु में लगाना चाहिये॥२॥
अव्यक्त व्यापक व्याप्य पर जो, राजते सबके परे।
उस अज अनादि अनन्त प्रभु में, प्रेम करना चाहिये॥३॥
जीवात्म प्रभु का अंश है, जस अंश नभ को देखिये।
घट मठ प्रपंचन्ह जब मिटैं, नहिं अंश कहना चाहिये॥४॥
ये प्रकृति द्वय उत्पत्ति लय, होवैं प्रभू की मौज से।
ये अजा अनाद्या स्वयं हैं, हरगिज न कहना चाहिये॥५॥
आवागमन सम दुःख दूजा, है नहीं जग में कोई।
इसके निवारण के लिये, प्रभु-भक्ति करनी चाहिये॥६॥
जितने मनुष तनधारि हैं, प्रभु-भक्ति कर सकते सभी।
अन्तर व बाहर भक्ति कर, घट-पट हटाना चाहिये॥७॥
गुरु जाप मानस ध्यान मानस, कीजिये दृढ़ साधकर।
इनका प्रथम अभ्यास कर, श्रुत शुद्ध करना चाहिये॥८॥
घट-तम प्रकाश व शब्द पट त्रय, जीव पर हैं छा रहे।
कर दृष्टि अरु ध्वनि योग साधन, ये हटाना चाहिये॥९॥
इनके हटे माया हटेगी, प्रभु से होगी एकता।
फिर द्वैतता नहिं कुछ रहेगी, अस मनन दृढ़ चाहिये॥१०॥
पाखण्ड अरु अहंकार तजि, निष्कपट हो अरु दीन हो।
सब कुछ समर्पण कर गुरु की, सेव करनी चाहिये॥११॥
सत्संग नित अरु ध्यान नित, रहिये करत संलग्न हो।
व्यभिचार, चोरी, नशा, हिंसा, झूठ तजना चाहिये॥१२॥
सब सन्तमत सिद्धान्त ये सब, सन्त दृढ़ हैं कर दिये।
इन अमल थिर सिद्धान्त को, दृढ़ याद रखना चाहिये॥१३॥
यह सार है सिद्धान्त सबका, सत्य गुरु को सेवना।
'मेँहीँ' न हो कुछ यहि बिना, गुरु सेव करनी चाहिये॥१४॥