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महर्षि-वाणी

भिन्न-भिन्न इष्टों के माननेवाले के भिन्न-भिन्न इष्टदेव कहे जाते हैं। इन सब इष्टों के भिन्न-भिन्न नाम-रूप होने पर भी सब की आत्मा अभिन्न ही है। भक्त जबतक अपने इष्ट के आत्मस्वरूप को प्राप्त न कर ले, तबतक उसकी भक्ति पूरी नहीं होती। किसी इष्टदेव के आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेने पर परम प्रभु सर्वेश्वर की प्राप्ति हो जाएगी, इसमें संदेह नहीं। प्रत्येक इष्ट के स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण, कैवल्य और शद्ध आत्मस्वरूप हैं। जो उपासक अपने इष्ट के आत्मस्वरूप का निर्णय नहीं जानता और उसकी प्राप्ति का यत्न नहीं करता परन्तु उसके केवल वर्णात्मक नाम और स्थूल रूप में फँसा रहता है, उसकी मुक्ति अर्थात्‌ उसका परम कल्याण नहीं होगा।
किसी से कोई विद्या सीखनेवाले को सिखलानेवाले से नम्रता से रहने का तथा उनकी प्रेम-सहित कुछ सेवा करने का खयाल हृदयमें स्वाभाविक ही उदित होता है, इसलिए गुरु-भक्ति स्वाभाविक है। गुरु-भक्ति के विरोध में कुछ कहना फजूल है। निःसन्देह अयोग्य गुरु की भक्ति को बुद्धिमान आप त्यागेंगे और दूसरे से भी इसका त्याग कराने की कोशिश करेंगे, यह भी स्वाभाविक ही है।
मस्तक, गर्दन और धड़ को सीध रखकर किसी आसन से देर तक बैठने का अभ्यास करना अवश्य ही चाहिए। दृढ़ आसन से देर तक बैठे रहने के बिना ध्यानाभ्यास नहीं हो सकता है।
आँखों को बंद करके आँख के भीतर डीम को बिना उलटाये वा उस पर कुछ भी जोर लगाये बिना, ध्यानाभ्यास करना चाहिए; परन्तु नींद से अवश्य बचते रहना चाहिए।

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