(१३७) बारहमासा
मास आसिन जगत बासिन, चेत चित में लाइये।
जीवनों थोड़ो अहै क्यों, जगत में गफिलाइये॥
ना भयो जग काहु को, कितनो कोउ अपनो कियो।
करि जतन जो याहि त्याग्यो, शांति-सुख सो ही लियो॥१॥
कातिक काया नीच माया, मुत्र-बुन्द से है बनो।
माहिं पूरन मलन सों जो, जाय नहिं सकलो गनो॥
ऐसो तन संग कहा गरबसि, मूढ़ अतिहि अजान रे।
नाम भजु अभिमान तजु, छनभंगु तन मस्तान रे॥२॥
अगहन दाहन प्रकृति भोगन, गहन को जो धावहीं।
क्लेश पावहिं हारि आवहिं, कबहुँ नहिं तृपतावहीं॥
भोगन सकल प्रत्यक्ष रोगन, जानि के हटते रहो।
गुरु टहल सत्संग-सेवन, में सदा डटते रहो॥३॥
पूस चोरी फूस पर-त्रिय, नशा हिंसा त्यागहू।
गुरु टहल सत्संग ध्यान में, दिवस निशि अनुरागहू॥
तरते गये जो अस किये सब, राय राणा रंक हो।
विप्र भंगी अपढ़ पढ़ुआ, करो तरिहौ न शंक हो॥४॥
माघ भूखा बाघ काल के, मुख पड़ो है बाबरे।
होश कर चेतो सबेरे, बचो ध्यानके दाव रे॥
काल मुख से निबुकि भागो, ध्यान के बल भाइ रे।
ऐसो औसर खोइहौ तो, रोइहौ पछिताइ रे॥५॥
मास फागुन मस्त होइ के, कियो बहुत बनाव हो।
ऊँच महलन जटित मणिगण, सुख तबहुँ नहिं पाव हो॥
कूल भल अरु रूप भल, अरु त्रिया भल पायो सही।
सुख तबहुँ नाहीं मिले, बिन ध्यान के स्वपनहुँ कहीं॥६॥
चैत सुख की चिन्त करहु, तो विविध कर्महिं त्यागहू।
ध्यान में लवलीन रहिकै, गुरु चरण अनुरागहू॥
विविध नेम अचार जप-तप, तिरथ व्रत मख दानहू।
कबहुँ सरवर ना करै जो, ध्यान बन पलहू कहूँ॥७॥
वैशाख सकलो साख ग्रन्थन, की रहै जानत कोऊ।
ध्यान बिन मन अथिर जौं, तो शांति नहिं पावै सोऊ॥
फिरै चहुँ दिशि जगत में, अरु वक्तृता देता फिरै।
ध्यान बिनु नहिं शान्ति आवै, लोगहू कितनहु घिरै॥८॥
जेठ उतरी हेठ सूरत, पिण्ड में वासा करी।
भूलि गइ घर आदि अपना, भव में सब सुधि गइ हरी॥
सुरत चेत अचेत छोड़ो, तू शिखर कीवासिनी।
माया में मगनो नहीं, यह अहै दारुण फाँसिनी॥९॥
आषाढ़ तम अति गाढ़ में, नीचो पड़ी री सूरती।
उद्धार कर निज गुरु दया, ले हेर प्रभु बिन्द मूरती॥
दोउ नयन बीचो बीच सन्मुख, एकटक देखत रहो।
आपही वह विन्दु झलके, पट गिरा निरखत रहो॥१०॥
सावन शिखर सोहावनो पर, धीरे-धीरे चढ़ि चलो।
तारा चन्दा सूर पूरा, नूर तजि शब्दहिं रलो॥
घट-घट में होता आपही, यह शब्द अगम अपार है।
प्रभु नाम निर्मल राम यह, शब्द सार सकल अधार है॥११॥
भादो भव दुख यों तजो, प्रभु नाम अवलम्बन करी।
पर नाम सो बिनु ध्यान कोउ न, परखि कै थम्भन करी॥
देवी साहब कहैं 'मेँहीँ', सुनो चित्त लगाइ के।
गुरु भक्ति बिनु नाहीं सफलता, सन्त कहैं सब गाइ के॥१२॥