(५१) मंगल
खोजो पन्थी पन्थ तेरे घट भीतरे।
तू अरु तेरो पीव भी घट ही अन्तरे॥१॥
तू यात्री पिव घर को चलन जो चाहहू।
तो घटहि में राह निहारु विलम्ब न लाबहू॥२॥
तिमिर प्रकाश वो शब्द निशब्द की कोठरी।
चारो कोठरिया अहइ अन्तर घट कोट री॥३॥
तू उतरि पर्यो तम माहिं पीव निःशब्द में।
याहि ते पड़ि गयो दूर चलो निःशब्द में॥४॥
पीव हैं सब ही ठाईं परख आवैं नहीं।
जौं निःशब्द गम होइ परख पावो सही॥५॥
अन्ध कोठरिया माहिं सुखमना हेरहू।
तीसर तिल तहाँ पाइ के पन्थ निबेरहू॥६॥
जोति कोठरि को द्वार केवाड़ इह खोलिके।
रमि चलु जोति के माँहिं गुरु गुन बोलिके॥७॥
यहँ से धुन की तार पकड़ि शब्द कोठरी।
सुरत पैठि कै दाहु गुणन की मोटरी॥८॥
निरशब्दी धुन पाइ निशब्द में गमि करो।
तहवाँ पीव को पावि सगुणागुण परिहरो॥९॥
देवि साहब की शिक्षा मंगल एह है।
इन्ह पद 'मेँहीँ' के अर्पित धन मन देह है॥१०॥