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वर्णमाला क्रमानुसार

 ( ख / 4)

1. खोज करो अंतर उजियारी

(६१)
खोज करो अन्तर उजियारी,
दृष्टिवान कोइ देखा है॥ टेक॥
गुरु भेदी का चरण सेवकर,
भेद भक्त पा लेता है।
निशिदिन सुरत अधर पर कर कर,
अंधकार फट जाता है॥१॥
पीली नीली लाल सफेदी,
स्याही सन्मुख आता है।
छट-छट छट-छट बिजली छटकै,
भोर का तार दिखाता है॥२॥
चन्दा उगत उदय हो रविहू,
धूर शब्द मिल जाता है।
गुरु सतगुरु के चरण अधीनन,
अगम भेद यह पाता है॥३॥
विविध भाँति के कर्म जगत में,
जीवन घेरि फँसाता है।
बाबा देवि कहैं कह 'मेँहीँ',
सतगुरु गुरु ही बचाता है॥४॥

2. खोजत खोजत सतगुरु भेटि गेला

(१०१) समदन
खोजत खोजत सतगुरु भेटि गेला, शहर मुरादाबाद॥टेक॥
महल्ला अताइ से ज्ञान प्रकाशलनि अमित अमित परकाश।
घोर अंधारि में जीव दुखित छल होइ गेल सकल सनाथ॥१॥
पूरन भेदी बाबा देवी साहब नाम विदित जग जास।
परम दयालु बाबा तनिको परेमी पर धन धन कहै 'मेँहीँ' दास॥२॥ 

3. खोजो पन्थी पन्थ तेरे घट (क)

(५१) मंगल
खोजो पन्थी पन्थ तेरे घट भीतरे।
तू अरु तेरो पीव भी घट ही अन्तरे॥१॥
तू यात्री पिव घर को चलन जो चाहहू।
तो घटहि में राह निहारु विलम्ब न लाबहू॥२॥
तिमिर प्रकाश वो शब्द निशब्द की कोठरी।
चारो कोठरिया अहइ अन्तर घट कोट री॥३॥
तू उतरि पर्‌यो तम माहिं पीव निःशब्द में।
याहि ते पड़ि गयो दूर चलो निःशब्द में॥४॥
पीव हैं सब ही ठाईं परख आवैं नहीं।
जौं निःशब्द गम होइ परख पावो सही॥५॥
अन्ध कोठरिया माहिं सुखमना हेरहू।
तीसर तिल तहाँ पाइ के पन्थ निबेरहू॥६॥
जोति कोठरि को द्वार केवाड़ इह खोलिके।
रमि चलु जोति के माँहिं गुरु गुन बोलिके॥७॥
यहँ से धुन की तार पकड़ि शब्द कोठरी।
सुरत पैठि कै दाहु गुणन की मोटरी॥८॥
निरशब्दी धुन पाइ निशब्द में गमि करो।
तहवाँ पीव को पावि सगुणागुण परिहरो॥९॥
देवि साहब की शिक्षा मंगल एह है।
इन्ह पद 'मेँहीँ' के अर्पित धन मन देह है॥१०॥

4. खोजो पन्थी पन्थ तेरे घट (ख)

(५२)
खोजो पंथी पंथ तेरे घट भीतरे।
तू अरु तेरो पीव भी घट ही अन्तरे॥१॥
पिउ व्यापक सर्वत्रा परख आवै नहीं।
गुरुमुख घट ही माहिं परख पावै सही॥२॥
तू यात्री पीव घर को चलन जो चाहहू।
तो घट ही में पन्थ निहारु विलम्ब न लाबहू॥३॥
तम प्रकाश अरु शब्द निःशब्द की कोठरी।
चारो कोठरिया अहइ अन्दर घट कोट री॥४॥
तू उतरि पर्‌यो तम माहिं पीव निःशब्द में।
यहि तें परि गयो दूर चलो निःशब्द में॥५॥
नयन कँवल तम माँझ से पंथहिं धरिये।
सुनि धुनि जोति निहारि के पन्थ सिधारिये॥६॥
पाँचो नौबत बजत खिंचत चढ़ि जाइये।
यहि ते भिन्न उपाय न दिल बिच लाइये॥७॥
सन्तन कर भक्ति-भेद अन्तर पथ चालिये।
'मेँहीँ' मेँहीँ धुनि धारि सो पन्थ पधारिये॥८॥