(३८) पीव प्यारा
है जिसका नहीं रंग नहिं रूप रेखा।
जिसे दिव्य दृष्टिहु से नहिं कोइ देखा॥
ये इन्द्रिन चतुर्दश में जो ना फँसा है।
तथा कोई बन्धन से जो ना कसा है॥
वही है परम पुर्ष सबको अधारा।
सोई पीव प्यारा सोई पीव प्यारा॥१॥
त्रितन पाँच कोषन में जो ना बझाहै।
जो लम्बा न चौड़ा न टेढ़ा-सोझा है॥
नहीं जो स्थावर न जंगम कहावे।
नहीं जड़ न चेतन की पदवी को पावे॥
जो है परम पुर्ष सबको अधारा।
सोई पीव प्यारा सोई पीव प्यारा॥२॥
नहीं आदि नहिं मध्य नहिं अन्त जाको।
नहिं माया के ढक्कन से है पूर्ण ढाको॥
पुरणब्रह्म पदवीहु से जो तुलै ना।
अगुण वा सगुण पदहू जामें लगै ना॥
जो है परम पुर्ष सबको अधारा।
सोई पीव प्यारा सोई पीव प्यारा॥३॥
सभी में भरा अंश रहता जिसी का।
परन्तु जो होता न आकृत किसी का॥
हैं निर्गुण सगुण ब्रह्म दोउ अंश जाको।
समता न पाता कोई भी है जाको॥
जो है परम पुर्ष सबको अधारा।
सोई पीव प्यारा सोई पीव प्यारा॥४॥
ब्रह्म सच्चिदानन्द अरु वासनात्मक।
मनोमय तथा ज्ञानमय प्राण आत्मक॥
ओ ओंकार शब्द ब्रह्म औ विश्वरूपी।
ये सप्त ब्रह्म श्रेणी जिसे न पहूँची॥
जो है परम पुर्ष सबको अधारा।
सोई पीव प्यारा सोई पीव प्यारा॥५॥
नहीं जन्म जाको नहीं मृत्यु जाको।
नहीं दस न चौबीस अवतार जाको॥
अखिल विश्व में हू जो सब ना समाता।
अपरा परा पूरि नहिं अन्त पाता॥
जो है परम पुर्ष सबको अधारा।
सोई पीव प्यारा सोई पीव प्यारा॥६॥
नहीं सूर्य सकता जिसे कर प्रकाशित।
न माया ही सकती जिसे कर मर्यादित॥
जो मन बुद्धि वाणी सबन को अगोचर।
बताया हो चुप जिसको वाह्व मुनिवर॥
जो है परम पुर्ष सबको अधारा।
सोई पीव प्यारा सोई पीव प्यारा॥७॥
ज्यों का त्यों ही सदा जो सबके प्रथम से।
जिसे उपमा देता बने कुछ न हम से॥
है जिसके सिवा आदि सबका ही भाई।
अन आदि एकही जो ही कहाई॥
जो है परम पुर्ष सबको अधारा।
सोई पीव प्यारा सोई पीव प्यारा॥८॥