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वर्णमाला क्रमानुसार

 ( ग / 16)

1. गंग जमुन जुग धार मधहि

(६५) 
गंग जमुन जुग धार मधहि सरस्वति बही।
फुटल मनुषवा के भाग गुरु गम नाहिं लही॥१॥
सतगुरु सन्त कबीर नानक गुरु आदि कही।
जोइ ब्रह्माण्ड सोइ पिण्ड अन्तर कछु अहइ नहीं॥२॥
पिंगल दहिन गंग सूर्य इंगल चन्द जमुन बाईं।
सरस्वति सुषमन बीच चेतन जलधर नाईं॥३॥
सतगुरु को धरि ध्यान सहज श्रुति शुद्ध करी।
सनमुख विन्दु निहारि सरस्वति न्हाय चली॥४॥
होति जगामगि जोति सहसदल पीलि चली।
अद्‌भुत त्रिकुटी की जोति लखत श्रुति सुन्न रली॥५॥
सुन मद्धे धुन सार सुरत मिलि चलति भई।
महा सुन्य गुफा भँवर होइ सतलोक गई॥६॥
अलख अगम्म अनाम सो सत पद सूर्त रली।
पाएउ पद निर्वाण सन्तन सब कहत अली॥७॥
छूटेउ दुख को देश गुरु गम पाय कही।
सतगुरु देवी साहब दया 'मेँहीँ' गाइ दई॥८॥ 

2. गंग जमुन सरस्वती संगम पर

(६६)
गंग जमुन सरस्वती संगम पर सन्ध्या करु नित भाई॥
दृष्टि युगल कर अंगुल द्वादश पर दृढ़ थिर धरु ठहराई।
प्राण स्पन्द बन्द होइ जाई, मनहु तजइ चंचलाई॥
अणुहू से अणुरूप ब्रह्म संग, सहजहिं सुरति मिलाई।
सुखदायिनी ध्वनि सहज गायत्री, हो तहँ सुनहु समाई॥
ध्वन्यात्मक गायत्री ध्याना, जो जन करइ सदाई।
'मेँहीँ' तासु ताप सब नासै, मुक्ति दिशासो जाई॥ 

3. गुरु कीजै भव-निधि पार

(२२)
गुरु कीजै भव-निधि पार,
स्वामी हो दयालु जी॥१॥
नौ द्वारन दस चारि इन्द्रिन में,
भव दुख सहउँ अपार॥२॥
 जन्म मरण दुख अगणित भोगे,
बिनु प्रभु पद आधार॥३॥
तन धन परिजन मान की ममता,
फँसि खोयो ततु सार॥४॥
मन अति कठिन कराल प्रभू हो,
तजय न विषय विकार॥५॥
मन दृढ़ हो न लागु प्रभु पद में,
होत न मो से सम्हार॥६॥
युगन युगन सों यहि विधि अहऊँ,
अब गुरु करिय उबार॥७॥
ईश्वर देव पितरपरिजन सों,
होत न यह उपकार॥८॥
यह 'मेँहीँ' होवत गुरु से ही,
गुरु की अमित बलिहार॥९॥

4. गुरु के शरण गहु, धन धन गुरु कहु

(५०) शब्द
गुरु के शरण गहु, धन धन गुरु कहु, सुखमन सुरत समाइ,
तिसर तिल हेरहु रे की॥ की आहो सन्तो हो॥ टेक॥
बिन्दु चमकि आवै, पँच रंग ऊगि आवै,
बिजली छटक अति तेज, सहस्रदल पैठहु रे की॥१॥ की०॥
दीपक बरत जोत, जगमग तारे होत,
चाँदनी पूरन चन्द लखत, जी जुड़ावई रे की॥२॥ की०॥
सुरत त्रिकुटी चढ़े, सूर्य ब्रह्म देखी अड़े,
बड़ ही अजब ब्रह्मलोक, तजिये दशमा द्वारियो रे की॥३॥ की०॥
शब्द धँसिये सूर्त, तजत अनृत नृत्य,
मिटत सकल दुख द्वन्द्व, मिलिये सतनामियो रे की॥४॥ की०॥
भेद असल सार, परम सरल आर,
बाबा देवी साहब प्रकासिये, जीव उबारत रे की॥५॥ की०॥
'मेँहीँ' युगल कर, जोड़ी नवत सर,
धन गुरु परम दयाल, कहल भल भेदियो रे की॥६॥ की०॥ 

5. गुरु को सुमिरो मीत क्यों अवसर

(१०८)
गुरु को सुमिरो मीत क्यों अवसर खोवहू।
भव में बहुतक दुक्ख युगन युग रोवहू॥१॥
चहुँ खानिन में दुर्लभ नर को देह हो।
सो तन धरि के मुक्ति जतन करि लेह हो॥२॥
केवल नर ही तनसे मुक्ति को पावहू।
याते या तन दुर्लभ मुक्ति कमावहू॥३॥
मुक्ति कमावहु झटपट विलम्ब न लावहू।
तन क्षण-भंगुर अहइ नहीं गफिलावहू॥४॥
पल-पल छीजत देह रहत छीजत सदा।
औचक ही गिरि जाय रहत छीजत सदा॥५॥
गुरु को सुमिरो भाइ मुक्ति कमाइ हो।
सुमिरन विधि लेहु जानि गुरुहि रिझाइ हो॥६॥
करि बाहर पट बन्द अन्तर पट खोलहू।
या विधि अन्तर अन्त में सुरत समोवहू॥७॥
ऐसेहि सुरत लगाय के सुमिरन नित करो।
देवि साहब की सीख समुझि हिरदय धरो॥८॥
'मेँहीँ' इन्ह पद दास रहे कर जोड़ि के।
गुरु दिशि लागो भाइ सकल दिशि तोड़ि के॥९॥

6. गुरु खोलिये वज्र कपाट

(२१)
गुरु खोलिये वज्र कपाट,
अन्धेरी सन्मुख की॥१॥
काया दुर्ग दुखद बन्दिखाना,
जले अग्नि या में दुख की॥२॥
हम बन्दी युग-युग से जलते,
चहैं सहारा तुअ रुख की॥३।
हम दिशि दृष्टि कृपा की धारिये,
खोलि दीजिये पथ सुख की॥४॥
चरण-शरण अब आये तुम्हारी,
सुनिये अर्ज दुखियन मुख की॥५॥
दीन हीन दुख दारिद घेरे,
हैं हम अन्त करिय दुख की॥६॥
'मेँहीँ' मेँहीँ विन्दु-द्वार होइ,
घैंचि दीजिये घर सुख की॥७॥ 

7. गुरु गुरु त्राहि गुरु

(९१)
गुरु गुरु त्राहि गुरु त्राहि गुरु कहु हो।
तन मन गुरु पद अर्पन करु हो॥१॥
तन मन आपन दुखद महान हो।
गुरु पद अरपि अरपि लहु ज्ञान हो॥२॥
गुरु ज्ञान दिव्य भान हृदय उगाउ हो।
मोह तम नाशै मोक्षसुख पाउ हो॥३॥
सर्व क्षण गुरु मन जौं 'मेँहीँ' रहै हो।
निश्चय निर्वाण होय संत सब कहैं हो॥४॥

8. गुरु जुगती लय घट पट टारौं

(१४४)
गुरु जुगती लय घट पट टारौं।
अन्तर अन्त धँसि तन मन वारौं॥१॥
हृदय गगन को थाल बनावौं।
ब्रह्म जोति आरती सजावौं॥२॥
आत्म समर्पि नैवेद्य चढ़ावौं।
सार शब्द धुनि मंगल गावौं॥३॥
अनहद घंटा शंख बजावौं।
यहि आरति करि प्रभु अपनावौं॥४॥
प्रभु को पाइ अपनपौ हारौं।
द्वैत भाव 'मेँहीँ' तज डारौं॥५॥

9. गुरु दीन दयाला नजर निहाला

(९६)
गुरु दीन दयाला, नजर निहाला, भक्तन पूरन काम॥१॥
भव भय दुख नाशय, आत्म विलासय, जो रे भजै गुरु नाम॥२॥
ममता मद हीना, अनहद लीना, बास बसैं सत धाम॥३॥
सब सद्‌गुण सागर, ज्ञान उजागर, पर हित रत सब काम॥४॥
भौ निधि कड़िहारा, संसृति पारा, भजन मगन प्रति याम॥५॥
सत शब्द सनेही, जग में विदेही , दान करैं सत नाम॥६॥
दे ज्ञान बताई, ध्यान बुझाई, 'मेँहीँ' भजो गुरु नाम॥७॥

10. गुरु धन्य हैं गुरु धन्य हैं

(९५)
गुरु धन्य हैं गुरु धन्य हैं गुरु धन्य दाता दयाल।
दया करैं औगुन हरैं दें टाल भव जंजाल॥१॥
गुरु धन्य हैं गुरु धन्य हैं गुरु धन्य दाता दयाल।
जन्म अनेकन को अँटक खोलैं करें निहाल॥२॥
गुरु धन्य हैं गुरु धन्य हैं गुरु धन्य दाता दयाल।
ज्ञान ध्यान बुझाय दें श्रुति शब्द को सब खयाल॥३॥
गुरु धन्य हैं गुरु धन्य हैं गुरु धन्य दाता दयाल।
गुरु बिन प्रभु मिलते नहीं ऐसा बड़ा मजाल॥४॥
गुरु धन्य हैं गुरु धन्य हैं गुरु धन्य दाता दयाल।
प्रभु गुप्त हैं गुरु प्रकट हैं हैं एक ही दयाल॥५॥
गुरु धन्य हैं गुरु धन्य हैं गुरु धन्य दाता दयाल।
सगुण सरूपी ईश हो सबको नजर निहाल॥६॥
गुरु धन्य हैं गुरु धन्य हैं गुरु धन्य दाता दयाल।
सब मिल कहो जपते रहो जी बने रहो खुशहाल॥७॥
गुरु धन्य हैं गुरु धन्य हैंगुरु धन्य दाता दयाल।
हरदम रटो कभु ना हँटो तोहि छेड़ेगा न काल॥८॥

11. गुरु नाम गुरु नाम गुरु नाम

(९४)
गुरु नाम गुरु नाम गुरु नाम जय गुरु नाम,
जय जय गुरु को नाम, पूरन काम॥१॥
गुरु नाम गुरु नाम गुरु नाम भज गुरु नाम,
भजि ले गुरु को नाम, पूरन काम॥२॥
सत्य विचार सुरत सत शब्द में,
सतगुरु को विश्राम, पूरन काम॥३॥
अगम ज्ञान परकाश करैं गुरु,
पाइय मूल ठेकान, पूरन काम॥४॥
सहज सहज श्रुति अधर चढ़न को,
सतगुरु को फरमान, पूरन काम॥५॥
मानस जाप ध्यान गुरु को ही,
दृष्टि जोड़ि करु ध्यान, पूरन काम॥६॥
नयन नासिका मध सन्मुख बिन्दु,
गहु सुषमन धरि ध्यान, पूरन काम॥७॥
दृष्टि युगल कर धरु सोई बिन्दु में,
झलकत श्वेत निशान, पूरन काम॥८॥
वज्र कपाट खुलै तम टूटै,
ब्रह्म ज्योति झलकान, पूरन काम॥९॥
मीन सुरत शब्द जल मिलि एकहि,
लहते अविचल धाम, पूरन काम॥१०॥
अगम भेद दाता गुरु पूरन,
'मेँहीँ' न गुरु सम आन, पूरन काम॥११॥ 

12. गुरु मम सुरत को गगन पर चढ़ाना

(२०)
गुरु मम सुरत को गगन पर चढ़ाना।
दया करके सतधुन की धरा गहाना॥
अपनी किरण का सहारा गहाकर।
परम तेजोमय रूप अपना दिखाना॥
साधन-भजन-हीन मों सम न कोऊ।
मेरी इस दुर्बलता को प्रभु जी हटाना॥
पापों के संस्कार जन्मों के मेरे।
हैं जो दया कर क्षमा कर मिटाना॥
तुम्हरो विरद गुरु है पतितन को तारन।
अपनो विरद राखि 'मेँहीँ' निभाना॥

13. गुरु सतगुरु सम हित नहिं कोऊ

(१०६)
गुरु सतगुरु सम हित नहिं कोऊ निशदिन करिये सेव हे।
तन-मन आतम रक्षक हैं गुरु गुरुहिक नाम एक लेव हे॥१॥
मातहु तें बढ़ि छोह करैं नित पितहुँ तें अधिक भलाइ हे।
कुल मालिकहु तें बढ़ि कृपा धारें गुरु सम नाहिं सहाइ हे॥२॥
तन-मन आतम पद पर वारिये गुरु हित पटतर नाहिं हे।
निश दिन चरण शरण में रहिये और न आन उपाइ हे॥३॥
जौं गुरु किरपा तनिहुँ विचारैं मिटय कल्पना सोग हे।
गुरु समदाता साहिब नाहीं गुरु गुरु जपिये लोग हे॥४॥
गुरु तजि और न चित्त बसाइये गुरु गुरु गुरु गुरु नित्त हे।
जपत रहिय 'मेँहीँ' कर जोड़ी गुरु चरणन धरि चित्त हे॥५॥

14. गुरु हरि चरण में प्रीति हो

(१३६)
गुरु हरि चरण में प्रीति हो, युग काल क्या करे।
कछुवी की दृष्टि दृष्टि हो, जंजाल क्या करे॥१॥
जग नाश का विश्वास हो, फिर आस क्या करे।
दृढ़ भजन धन ही खास हो, फिर त्रास क्या करे॥२॥
वैराग-युत अभ्यास हो, निराश क्या करे।
सत्संग-गढ़ में वास हो, भव पाश क्या करे॥३॥
त्याग पंच पाप हो, फिर पाप क्या करे।
सत बरत में दृढ़ आप हो, कोइ शाप क्या करे॥४॥
पूरे गुरू का संग हो, अनंग क्या करे।
'मेँहीँ' जो अनुभव ज्ञान हो, अनुमान क्या करे॥५॥

15. गुरुदेव दानि तारण

(१९)
गुरुदेव दानि तारन, सब भव व्यथा विदारन,
मम सकल काज सारन, अपना दरस दिखा दो॥१॥
विषयों में ही मन लागे, सत्संग से हटि भागे,
मोको करो सभागे, सत्संग में लगा दो॥२॥
जब जाप जपन लागूँ , तव ध्यान में जब पागूँ ,
चिन्तन सभी तब त्यागूँ, ऐसी लगन लगा दो॥३॥
दृष्टि अड़ै सुखमन में, मन मगन हो भजन में,
ललचे न कोउ रँग में, इक बिन्दु को धरा दो॥४॥
जौं सूर्त दल सहस में, वा त्रिकुटी महल में,
चढ़ि जाय तहँहुँ बिन्दु में, मम दृष्टि को लगा दो॥५॥
कोउ रूप को न देखूँ , इक बिन्दु सबमें पेखूँ ,
रिधि सिद्धि को न लेखूँ , ऐसी सुरत सिमटा दो॥६॥
घण्ट शंख ना नगारा, मुरली न बीन तारा,
की धुन में फँस रहूँ मैं, गुरु ऐसे ही बना दो॥७॥
धुन अनाहत की हो, घट-घट में जो सतत हो,
जो सार धुन अहत हो, तिसमें सुरत लगा दो॥८॥
जो जगत से विलक्षण, जिसमें न विषय लक्षण,
जो एकरस सकल क्षण, तिसमें मुझे रमा दो॥९॥
गुरु शरण हूँ तुम्हारी, भावे करो हमारी,
एक आस है तिहारी, भव-फन्द से छोड़ा दो॥१०॥
सब औगुणों से पूरे, हौं मैं गुरू जरूरे,
तुमसे न कुछ भी दूरे, औगुण सकल जला दो॥११॥
कपटी कपूत जौं हूँ, तुम्हरो कहाउँ तौ हूँ,
शरणी तिहार ही हूँ, चाहो सो मोहि बना दो॥१२॥

16. गुरू गुरू मैं करौं पुकारा

(१८) चौपाई
गुरू गुरू मैं करौं पुकारा।
सतगुरु साहब सुनो हमारा॥
अघ औगुण दुख मेटनहारा।
सतगुरु साहब परम उदारा॥
अपनि विरद प्रभु आप सम्हारो।
मुझ अघ-रूपहिं पार उतारो॥
मैं अति नीच निकाम अनाड़ी।
तुम दयाल प्रभु अगम अपारी॥
मैं बुधि-हीन शुद्धि कछु नाहीं।
सन्तत रहुँ मन नीच के पाहीं॥
तन मन गुण इन्द्रिन का बन्दी।
होइ भोगुँ विष रस आनन्दी॥
पाँच तत्त्व प्रकृति पंच बीसा।
के वश तिन्ह मुख बरतौं ईशा॥
काम क्रोध मद लोभा मोहा।
नींद भूख आलस तन छोहा॥
चंचलपन कटुता असहन्ता।
वृथा गुणावन प्रण विचलन्ता॥
सब मिलि करैं उपद्रव भारी।
सुस्थिरता नहिं सकौं सम्हारी॥
निज वश चलै न कछु इन्ह पाहीं।
तुम तजि और न कोइ सहाई॥
अस विचारि प्रभु दया करीजै।
चरणन बल मोहू को दीजै॥
सुस्थिरता के बाधक जेते।
तुम पद बल ले जीतउँ तेते॥
जीति थीरहोइ पद-रज ध्याउँ।
ध्यावत यम-हद ते बहराउँ॥
हो दयाल अस कीजिय दाया।
मो दुखिया कहँ दीजिय छाया॥