(१९)
गुरुदेव दानि तारन, सब भव व्यथा विदारन,
मम सकल काज सारन, अपना दरस दिखा दो॥१॥
विषयों में ही मन लागे, सत्संग से हटि भागे,
मोको करो सभागे, सत्संग में लगा दो॥२॥
जब जाप जपन लागूँ , तव ध्यान में जब पागूँ ,
चिन्तन सभी तब त्यागूँ, ऐसी लगन लगा दो॥३॥
दृष्टि अड़ै सुखमन में, मन मगन हो भजन में,
ललचे न कोउ रँग में, इक बिन्दु को धरा दो॥४॥
जौं सूर्त दल सहस में, वा त्रिकुटी महल में,
चढ़ि जाय तहँहुँ बिन्दु में, मम दृष्टि को लगा दो॥५॥
कोउ रूप को न देखूँ , इक बिन्दु सबमें पेखूँ ,
रिधि सिद्धि को न लेखूँ , ऐसी सुरत सिमटा दो॥६॥
घण्ट शंख ना नगारा, मुरली न बीन तारा,
की धुन में फँस रहूँ मैं, गुरु ऐसे ही बना दो॥७॥
धुन अनाहत की हो, घट-घट में जो सतत हो,
जो सार धुन अहत हो, तिसमें सुरत लगा दो॥८॥
जो जगत से विलक्षण, जिसमें न विषय लक्षण,
जो एकरस सकल क्षण, तिसमें मुझे रमा दो॥९॥
गुरु शरण हूँ तुम्हारी, भावे करो हमारी,
एक आस है तिहारी, भव-फन्द से छोड़ा दो॥१०॥
सब औगुणों से पूरे, हौं मैं गुरू जरूरे,
तुमसे न कुछ भी दूरे, औगुण सकल जला दो॥११॥
कपटी कपूत जौं हूँ, तुम्हरो कहाउँ तौ हूँ,
शरणी तिहार ही हूँ, चाहो सो मोहि बना दो॥१२॥