एकबिन्दुता दुर्बीन हो, दुर्बीन क्या करे।
पिण्ड में ब्रह्माण्ड दरस हो, बाहर में क्या फिरे॥१॥
सुनना जो अन्तर्नाद हो, बाहर में क्या सुने।
ब्रह्मनाद की अनुभूति हो, फिर और क्या गुने॥२॥
सुरत शब्द योग हो, और योग क्या करे।
सहज ही निज काज हो, कटु साज क्या सजै॥३॥
सद्गुरु कृपा ही प्राप्त हो, अप्राप्त क्या रहे।
'मेँहीँ' गुरु की आस हो, भव त्रास क्या करे॥४॥