(२४) छन्द
दया प्रेम सरूप सतगुरु, मोरि विनती मानिये।
मैं अधम कामी कुलच्छन, मलिन मति मोहि जानिये॥१॥
पर दुख दुखी तुव भक्त गुण, पुनि पर सुखी भक्तहु सुखी।
अस मैं नहीं सपनेहु कभुँ , मैं दुखद करुँ सब जग दुखी॥२॥
परदार परधन पर कभँू, नहिं भक्त निज मन फेरहीं।
मम मन फिरै तिन्ह पर सदा, कोइ कोटि कोटिन घेरहीं॥३॥
दया क्षमा संयुक्त भक्तन्ह, रहैंशीतल सर्वदा।
अति दयाहीन कठोर हूँ मैं, तपउँ अगनी सम सदा॥४॥
कहँ लगि कहुँ निज मति की उलटी, रीति प्रभु सुनि लीजिये।
तनि कहुँ जतन नाहीं मुझे, जेहि तुअ चरण चित दीजिये॥५॥
अस पाउँ सतसंग सिखबहू , चलुँ राह सोइ भक्तन्ह चलैं।
न तो जलत रहिहौं जगत में, सतगुरु-विमुख जहँ नित जलैं॥६॥
गुरु डरत हूँ अस सुनि सही, मन निज स्वभाव न त्यत
कभुँ निजउ देउँ सुसिखबहू, पर मनहिं कछु नहिं लागई॥७॥
हारे अहुँ मन ते गुरू, अब टेर के तुमको कहूँ।
हो दीनबन्धु दयाल सतगुरु, जतन सो करु पद गहूँ॥८॥
प्रकाश-मण्डल पद तुम्हारे, मैं पड़ा तम-कूप में।
अब त्राहि-त्राहि पुकार करुँ, गुरु ले चढ़ो दिव रूप में॥९॥
तिल राह होइ जो उठन कहेउ, सो राह मोहि दीखत नहीं।
गुरु करि दया हरि तम के मण्डल, पार तिल करु मोहि गही॥१०॥
तारा-मण्डल में चढ़ाओ, उठो ले दल सहस को।
जहँ ज्योति जगमग चन्द झलकत, गुरु दिखाओ रहस को॥११॥
त्रिकुटी तिहु गुण मूल घर, जहँ ब्रह्म पर राजत रहैं।
गुरु करउँ विनती चरण पड़ि, करु जतन जा या घर लहैं॥१२॥
यहँ सुरज ब्रह्म-प्रकाश गुरु, पुनि ले चलो येहि आगरे।
जहँ शुद्ध ब्रह्म विराजते, रहि सुन्न देश उजागरे॥१३॥
मानसरवर ले धँसो मोहि, दो धरा निज नाम ही।
निज नाम पूरण काम अमृत, धार सार सो नाम ही॥१४॥
पुनि देहु बल चढ़ुँ महासुन्नहिं, अवर बल ते तरन को।
भँवर गुफा में चढ़ा पुनि, जहँ न भवभय टरन को॥१५॥
करि कृपा तहँ चढ़न को बल, सतगुरू मोहि दीजिये।
यहि सतलोक में आनिके गुरु, मोहि निर्मल कीजिये॥१६॥
पुनि नाम निर्गुण पार करिके, अनाम धाम मिलाइये।
यहि भाँति निज घर लाइ मोहि, प्रभु निज कृपा दरसाइये॥१७॥