आहो ज्ञानी ज्ञान गुनी प्रभु भजु हो,
विषय पसारा, सकल असारा, दुखमय धारा हो॥१॥
आहो ज्ञानी तन धन परिजन हो, सबही सपना,
कछु नहिं अपना, आप अपन खोजु हो॥२॥
आहो ज्ञानी निज ततु खोजहु हो, त्रिगुण त्रितन पर,
मन बुद्धि चित पर, अहं प्रकृति पर हो॥३॥
आहो ज्ञानी जीव ब्रह्म पर हो, निज ततु ऐसो,
कछु नहिं जैसो, निज अनुभव करु हो॥४॥
आहो ज्ञानी तुम प्रभु एकहि हो, अद्वैत अखण्डित,
आत्म-सुख मण्डित, सब द्वैत माया हो॥५॥
आहो ज्ञानी नहिं स्थूल, नहिं सूक्ष्म हो,
कारणहु नाहीं सबके माहीं, सबतें न्यारा हो॥६॥
आहो ज्ञानी करु सत्संगति हो, श्रवण मनन करु,
ध्यान सुदृढ़ धरु, सब पाप परिहरु हो॥७॥
आहो ज्ञानी सतगुरु सेवहु हो, शब्द में सुरति धरु,
तन मन जय करु, निज अनुभव लहु हो॥८॥
आहो ज्ञानी पइहौ असहि प्रभु हो, बिनु निज अनुभव,
'मेँहीँ' भरम सब, प्रभु नहिं पइहौ हो॥९॥