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वर्णमाला क्रमानुसार

 ( आ / 10)

1. आओ वीरो मर्द बनो अब

आओ वीरो मर्द बनो अब,
जेल तुम्हें तजना होगा।
मन-निग्रह के समर क्षेत्र में,
सन्मुख थिर डटना होगा॥१॥
गुरु-पद धर कर ध्यान से शूरो,
दृष्टि अड़ा दो सुषमन में।
मन की चंचलताई से,
बल कर-करके बचना होगा॥२॥
वक्त नहीं है ऐ वीरो अब,
गाफिल होकर सोने का।
बिन्दु राह से निकल बहादुर,
तम मण्डल टपना होगा॥३॥
दामिनि दमकै चन्दा चमकै,
सूर्य तपै जोती मण्डल।
इस मण्डल से आगे वीरो,
और तुम्हें बढ़ना होगा॥४॥
शब्द मण्डल में सार शब्द ध्वनि,
गुरु गम होकर धर लेना।
जगत-जेल को इसी युक्ति से,
सुन 'मेँहीँ' तजना होगा॥ ५॥

2. आगे माई सतगुरु खोज करहु

आगे माई सतगुरु खोज करहु सब मिलिके,
जनम सुफल कर राह॥ टेक॥
आगे माई सतगुरु सम नहिं हित जग कोई,
मातु पिता भ्राताह।
सकल कल्पना कष्ट निवारें,
मिटैं सकल दुख दाह॥आगे०॥
भव सागर अन्ध कूप पड़ल जिव,
सुझइ न चेतन राह।
बिन सतगुरु इहो गति जीव के,
जरत रहे यम धाह॥आगे०॥
सतगुरु सत उपकारि जिवन के,
राखैं जिवन सुख चाह।
होइ दयाल जगत में आवैं,
खोलैं चेतन सुख राह॥आगे०॥
परगट सतगुरु जग में विराजैं,
मेटयँ जिवन दुख दाह।
बाबा देवी साहब जग में कहावयँ,
'मेँहीँ' पर मेहर निगाह॥आगे०॥

3. आरति अगम अपार पुरुष की

आरति अगम अपार पुरुष की।
 मल निर्मल पर पर दुख सुख की॥१॥
शीत उष्णादि द्वन्द्व पर प्रभु की।
अविनाशी अविगत अज विभु की॥२॥
मन बुधि चित पर पर अहंकार की।
सर्वव्यापी और सबतें न्यार की॥३॥
रूप गन्ध रस परस तें न्यार की।
सगुण अगुण पर पार असार की॥४॥
त्रैगुण दश इन्द्रिन तें पार की।
अमृत ततु प्रभु परम उदार की॥५॥
पुरुष प्रकृति पर परम दयाल की।
ब्रह्म पर पार महाहु काल की॥६॥
अति अचरज अनुपम ततु सार की।
अति अगाध वरणन तें न्यारकी॥७॥
अकह अनाम अकाम सुपति की।
जन त्राता दाता सद्‌गति की॥८॥
अखिल विश्व मण्डप करि उर की।
पूर्ण भरे ता महँ प्रभु धुर की॥९॥
दिव्य जोति आतम अनुभव की।
दिव्य थाल अभ्यास भजन की॥१०॥
असि आरति 'मेँहीँ' सन्तन की।
करि तरि हरिय दुसह दुख तन की॥११॥

4. आरति तन मन्दिर में कीजै

आरति तन मन्दिर में कीजै।
दृष्टि युगल कर सन्मुख दीजै॥१॥
चमके विन्दु सूक्ष्म अति उज्ज्वल।
ब्रह्मजोति अनुपम लख लीजै॥२॥
जगमग जगमग रूप ब्रह्मण्डा।
निरखि निरखि जोती तज दीजै॥३॥
शब्द सुरत अभ्यास सरलतर।
करि-करि सार शबद गहि लीजै॥४॥
ऐसी जुगति काया गढ़ त्यागि।
भव-भ्रम-भेद सकल मल छीजै॥५॥
भव-खण्डन आरति यह निर्मल।
करि 'मेँहीँ' अमृत रस पीजै॥६॥

5. आरति परम पुरुष की कीजै

आरति परम पुरुष की कीजै।
निर्मल थिर चित आसन दीजै॥१॥
तन मन्दिर महँ हृदय सिंहासन।
श्वेत बिन्दु मोती जड़ दीजै॥२॥
अविरल अटल प्रीति को भोगा।
विरह पात्र भरि आगे कीजै॥३॥
जत सत संयम फूलन हारा।
अरपि अरपि प्रभुको अपनीजै॥४॥
धूप अकाम अरु ब्रह्म हुताशन।
तोष धूपची धरि फेरीजै॥५॥
तारे चन्द्र सूर दीपावलि।
अधर थार भरि आरति कीजै॥६॥
आतम अनुभव जोति कपूरा।
मध्य आरती थाल सजीजै॥७॥
अनहद परम गहागह बाजा।
सार शब्द धुन सुरत मिलीजै॥८॥
द्वन्द्व द्वैत भ्रम भेद विडारन।
सतगुरु सेइ अस आरति कीजै॥९॥
'मेँहीँ' मेँहीँ आरति ये ही।
करि-करि तन मन धन अरपीजै॥१०॥

6. आरति संग सतगुरु के कीजै

नित्य प्रार्थना के अंत में गायी जानेवाली तुलसी साहब कृत आरती
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आरति संग सतगुरु के कीजै। अन्तर जोत होत लख लीजै॥१॥
पाँच तत्त्व तन अग्नि जराई। दीपक चास प्रकाश करीजै॥२॥
गगन-थाल रवि-शशि फल-फूला। मूल कपूर कलश धर दीजै॥३॥
अच्छत नभ तारे मुक्ताहल। पोहप-माल हिय हार गुहीजै॥४॥
सेत पान मिष्टान्न मिठाई। चन्दन धूप दीप सब चीजैं॥५॥
झलक झाँझ मन मीन मँजीरा। मधुर मधुर धुनि मृदंग सुनीजै॥६॥
सर्व सुगन्ध उड़ि चली अकाशा। मधुकर कमल केलि धुनि धीजै॥७॥
निर्मल जोत जरत घट माँहीं। देखत दृष्टि दोष सब छीजै॥८॥
अधर धार अमृत बहि आवै। सतमत-द्वार अमर रस भीजै॥९॥
पी-पी होय सुरत मतवाली। चढ़ि-चढ़ि उमगि अमीरस रीझै॥१०॥
कोट भान छवि तेज उजाली। अलख पार लखि लाग लगीजै॥११॥
छिन-छिन सुरत अधर पर राखै। गुरु-परसाद अगम रस पीजै॥१२॥
दमकत कड़क-कड़क गुरु-धामा। उलटि अलल 'तुलसी' तन तीजै॥१३॥

7. आहो ज्ञानी ज्ञान गुनी प्रभु भजु हो

आहो ज्ञानी ज्ञान गुनी प्रभु भजु हो,
विषय पसारा, सकल असारा, दुखमय धारा हो॥१॥
आहो ज्ञानी तन धन परिजन हो, सबही सपना,
कछु नहिं अपना, आप अपन खोजु हो॥२॥
आहो ज्ञानी निज ततु खोजहु हो, त्रिगुण त्रितन पर,
मन बुद्धि चित पर, अहं प्रकृति पर हो॥३॥
आहो ज्ञानी जीव ब्रह्म पर हो, निज ततु ऐसो,
कछु नहिं जैसो, निज अनुभव करु हो॥४॥
आहो ज्ञानी तुम प्रभु एकहि हो, अद्वैत अखण्डित,
आत्म-सुख मण्डित, सब द्वैत माया हो॥५॥
आहो ज्ञानी नहिं स्थूल, नहिं सूक्ष्म हो,
कारणहु नाहीं सबके माहीं, सबतें न्यारा हो॥६॥
आहो ज्ञानी करु सत्संगति हो, श्रवण मनन करु,
ध्यान सुदृढ़ धरु, सब पाप परिहरु हो॥७॥
आहो ज्ञानी सतगुरु सेवहु हो, शब्द में सुरति धरु,
तन मन जय करु, निज अनुभव लहु हो॥८॥
आहो ज्ञानी पइहौ असहि प्रभु हो, बिनु निज अनुभव,
'मेँहीँ' भरम सब, प्रभु नहिं पइहौ हो॥९॥ 

8. आहो प्रेमी करु प्रेम प्रभु सए हो

आहो प्रेमी करु प्रेम प्रभु सए हो, बिना प्रभु दुख सहु,
भव में भ्रमत रहु, करु प्रेम प्रभु सए हो॥१॥
आहो प्रेमी त्यागी देहु जग-प्रेम हो, जग-प्रेम फाँसी,
आत्म सुख नाशी, प्रभु-प्रेम मुक्ति-प्रद हो॥२॥
आहो प्रेमी करिला विचार सार हो, तन-धन परिजन,
इन्द्रिय अन्तःकरण, सह सर्व स्वर्ग झूठ हो॥३॥
आहो प्रेमी त्यागी देहु माया मोह हो, सर्व पिण्ड ब्रह्माण्ड,
अद्‌भुत नाटक काण्ड, प्रकृति मण्डल छय हो॥४॥
आहो प्रेमी सत्य केवल प्रभु हो, पिण्ड-ब्रह्माण्ड पर,
प्रकृति मण्डल पर, अव्यक्त अगोचर हो॥५॥
आहो प्रेमी आत्मगम्य प्रभु जी हो, मन तें विषय तजु,
अन्तर प्रभु को भजु, लेइ गुरु-गम 'मेँहीँ' हो॥६॥

9. आहो भक्त सार भगति करु हो

आहो भक्त सार भगति करु हो, असार भगति करि,
संसार भ्रमत रहि, भक्ति श्रम निष्पफल हो॥१॥
आहो भक्त छाड़ु बालक खेल हो,
बाहर भरमन, बाल खेल जैसन, अभिअन्तर धँसु हो॥२॥
आहो भक्त सर्वेश्वर सर्वमय हो,
सब महँ भरपूर, त्रैपट कारण दूर, घट त्रैपट खोलु हो॥३॥
आहो भक्त घट ही में लहिहौ हो, बाहर भरमिहौ,
नहिं प्रभु पइहौ, भव दुख सहिहौ हो॥४॥
आहो भक्त द्विभुज चतुरभुज हो, अष्ट रु अनन्त भुज,
श्याम शुक्ल तेज पुंज, सबरंग शब्द धोखा हो॥५॥
आहो भक्त प्रभु आत्म रूपी हो, स्थूल सूक्ष्म रूपी,
कारण सरूपी, सब माया कृत हो॥६॥
आहो भक्त प्रकृति परे प्रभु हो, धँसु अन्त अन्तर,
पहुँच त्रैपट पर, तहाँ 'मेँहीँ' प्रभु लहु हो॥७॥

10. आहो भाई होऊ गुरु आश्रित हो

आहो भाई होऊ गुरु आश्रित हो, बिना गुरु अंधकार,
सूझए न कछु सार, होऊ गुरु आश्रित हो॥१॥
आहो भाई गुरु सेवी भेद लेहु हो, स्थूल दृश्य पिण्ड तोर,
भरा अंधकार घोर, तिल पैसी पार होउ हो॥२॥
आहो भाई ब्रह्म जोति पार करु हो, कमल सहस दल,
जोति करे झलमल, त्रिकुटी में सूर्य उगे हो॥३॥
आहो भाई जोति छाड़ी गहु शब्द हो, गहीले अनूप धुन्न,
टपु सुन्न महासुन्न, भँवर गुफाहु टपु हो॥४॥
आहो भाई शब्द में सुरत मेली हो, ब्रह्माण्डहिं पार होउ,
सत्य में समाय रहु, भव न परउ पुनि हो॥५॥
आहो भाई गुरु भेद गुप्त यही हो, गुरु सेवै जन जोई,
सतपथ पावै सोई, 'मेँहीँ' न दोसर लहे हो॥६॥