(४४) अरिल
सन्तमते की बात, कहूँ साधक हित लागी।
कहूँ अरिल पद जोड़ि, जानि करिहैं बड़भागी॥
बातें हैं अनमोल, मोल नहिं एक-एक की।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ', कहूँ जो चाहूँ कहन,
सन्त पद सिर निज टेकी॥१॥
सत्जन सेवन करत, नित्य सत्संगति करना।
वचन अमियदे ध्यान, श्रवण करि चित में धरना॥
मनन करत नहिं बोध होइ, तो पुनि समझीजै।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' समझि बोध जो होइ,
रहनि ता सम करि लीजै॥२॥
करि सत्संग गुरु खोज करिय, चुनिये गुरु सच्चा।
बिनु सद्गुरु का ज्ञान-पंथ, सब कच्चहिं कच्चा॥
कुण्डलिया में कहूँ , सो सद्गुरु कर पहिचाना।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ', जौं प्रभु दया सों मिलैं,
सेविये तजि अभिमाना॥३॥
कुण्डलिया
मुक्ती मारग जानते, साधन करते नित्त॥
साधन करते नित्त, सत्त चित जग में रहते।
दिन-दिन अधिक विराग, प्रेम सत्संग सों करते॥
दृढ़ ज्ञान समुझाय बोध दे, कुबुधि को हरते।
संशय दूर बहाय, सन्तमत स्थिर करते॥
'मेँहीँ' ये गुण धर जोई, गुरु सोई सत्चित्त।
मुक्ती मारग जानते, साधन करते नित्त॥
अरिल
सत्य सोहाता वचन कहिय, चोरी तजि दीजै।
तजिय नशा व्यभिचार तथा हिंसा नहिं कीजै॥
निर्मल मन सों ध्यान करिय, गुरु मत अनुसारा।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' कहूँ सो गुरुमत ध्यान,
सुनो दे चित्त सम्हारा॥४॥
धर गर मस्तक सीध, साधि आसन आसीना।
बैठि के चखु मुख मूनि, इष्ट मानस जप ध्याना॥
प्रेम नेम सों करत-करत, मन शुद्ध हो।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' अब आगे को कहूँ ,
सुनो दे चित्त सों॥५॥
जहँ-जहँ मन भगि जाय, ताहि तहँ-तहँ से तत्क्षण।
फेरि फेरि ले आइ, लगाइय ध्येय में आपन॥
ऐसहि करि प्रतिहार, धारणा धारण करिके।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' औरो आगे बढ़िय,
चढ़िय धर धारा धरिके॥६॥
धर धर धर की धार, सार अति चेतना।
धर धर धर का खेल, जतन करि देखना॥
धर में सुष्मन घाट, दृष्टि ठहराइ के।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' यहि घाटे चढ़ि जाव,
धराधर धाइ के॥७॥
तजो पिण्ड चढ़ि जाव, ब्रह्माण्डहिं वीर हो।
पेलो सुष्मन दृष्टि, सिस्त ज्यों तीर हो॥
बिन्दु नाद अगुआइ, तुमहिं ले जायेंगे।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' ज्योति मण्डल सह नाद,
की सैर दिखायेंगे॥ ८॥
ज्योति मण्डल की सैर, झकाझक झाँकिये।
तिल ढिग जुगनू जोति, टकाटक ताकिये॥
होत बिज्जु उजियार, नजर थिर ना रहै।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' सुरत काँपती रहै,
ज्योति दृढ़ क्यों गहै॥९॥
दृष्टि योग अभ्यास अतिहि, करतहि करत।
कँपनी सहजहि छुटै, प्रौढ़ होवै सुरत॥
तिल दरवाजा टुटै, नजर के जोर से।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' लगे टकटकी खूब,
जोर बरजोर से॥१०॥
तीनों बन्द लगाइ, देखि सुनि धरि ध्वनि धारा।
चलिय शब्द में खिंचत, बजत जो विविध प्रकारा॥
झिंगुर की झनकार, भँवर गुंजार हो।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' घण्ट शंख शहनाइ,
आदि ध्वनि धार हो॥११॥
तारा सह ध्वनि धार, टेम दीपक बरे।
खुले अजब आकाश, अजब चाँदनी भरे॥
पूर अचरजी चन्द, सहित ध्वनि कस लगे।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' जानै सोई धीर,
वीर साधन पगे॥१२॥
साधन में पगि जाइ, अतिहि गम्भीर हो।
या तन सुधि नहिं रहे, धीर वर वीर सो॥
साँझभोर दिन रैन, कछू जानै नहीं।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' बाहर जड़वत् रहै,
माहिं चेतन सही॥१३॥
जा सम्मुख या सूर्य, अमित अन्धार है।
ऐसो सूर्य महान, चन्द हद पार है॥
होत नाद अति घोर, शोर को को कहै।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' महा नगाड़ा बजै,
घनहु गरजत रहै॥१४॥
आगे शून्य समाधि, नाद ही नाद की।
लहै सन्त का दास, जाहि सुधि आदि की॥
मीठी मुरली सुनै, सुरत के कान से।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' बड़ा कौतुहल होइ,
ध्वनिन के ध्यान से॥१५॥
सद्गुरु भेदी मिलै, सैन ध्वनि ध्यान बतावै।
अनुपम बदले नाहिं, शब्द सो सार कहावै॥
सोहू ध्वनि हो लीन, अध्वनि में जाय के।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' अध्वनि अशब्द अनाम,
सन्त कहैं गाय के॥१६॥
सार शब्द ध्वनि संग, सुरत हो अकह में लीनी।
अध्वनि अशब्द अनाम, परम पद गति की भीनी॥
द्वैत द्वन्द्व सों रहित, सो प्रभु पद पाइके।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' सुरत न लौटइ,बहुरि न जन्मइ आइके॥१७॥