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वर्णमाला क्रमानुसार

 ( ऊष्म )

  1. श्री सद्‌गुरु की सार शिक्षा

श्री सद्‌गुरु की सार शिक्षा

(७)
श्री सद्‌गुरु की सार शिक्षा, याद रखनी चाहिये।
अति अटल श्रद्धा प्रेम से, गुरु-भक्ति करनी चाहिये॥१॥
मृग वारि सम सबही प्रपंचन्ह, विषय सब दुख रूप हैं।
निज सुरत को इनसे हटा, प्रभु में लगाना चाहिये॥२॥
अव्यक्त व्यापक व्याप्य पर जो, राजते सबके परे।
उस अज अनादि अनन्त प्रभु में, प्रेम करना चाहिये॥३॥
जीवात्म प्रभु का अंश है, जस अंश नभ को देखिये।
घट मठ प्रपंचन्ह जब मिटैं, नहिं अंश कहना चाहिये॥४॥
ये प्रकृति द्वय उत्पत्ति लय, होवैं प्रभू की मौज से।
ये अजा अनाद्या स्वयं हैं, हरगिज न कहना चाहिये॥५॥
आवागमन सम दुःख दूजा, है नहीं जग में कोई।
इसके निवारण के लिये, प्रभु-भक्ति करनी चाहिये॥६॥
जितने मनुष तनधारि हैं, प्रभु-भक्ति कर सकते सभी।
अन्तर व बाहर भक्ति कर, घट-पट हटाना चाहिये॥७॥
गुरु जाप मानस ध्यान मानस, कीजिये दृढ़ साधकर।
इनका प्रथम अभ्यास कर, श्रुत शुद्ध करना चाहिये॥८॥
घट-तम प्रकाश व शब्द पट त्रय, जीव पर हैं छा रहे।
कर दृष्टि अरु ध्वनि योग साधन, ये हटाना चाहिये॥९॥
इनके हटे माया हटेगी, प्रभु से होगी एकता।
फिर द्वैतता नहिं कुछ रहेगी, अस मनन दृढ़ चाहिये॥१०॥
पाखण्ड अरु अहंकार तजि, निष्कपट हो अरु दीन हो।
सब कुछ समर्पण कर गुरु की, सेव करनी चाहिये॥११॥
सत्संग नित अरु ध्यान नित, रहिये करत संलग्न हो।
व्यभिचार, चोरी, नशा, हिंसा, झूठ तजना चाहिये॥१२॥
सब सन्तमत सिद्धान्त ये सब, सन्त दृढ़ हैं कर दिये।
इन अमल थिर सिद्धान्त को, दृढ़ याद रखना चाहिये॥१३॥
यह सार है सिद्धान्त सबका, सत्य गुरु को सेवना।
'मेँहीँ' न हो कुछ यहि बिना, गुरु सेव करनी चाहिये॥१४॥ 

  1. सतगुरु चरण टहल नित करिये  
  2. सतगुरु जी से अरज हमारी
  3. सतगुरु दरस देन हित आए
  4. सतगुरु दाता सतगुरु दाता
  5. सतगुरु पद बिनु गुरु भेटत नाहीं
  6. सतगुरु सत परमारथ रूपा
  7. सतगुरु सतगुरु नितहिं पुकारत
  8. सतगुरु साहब की बलिहारी
  9. सतगुरु सुख के सागर
  10. सतगुरु सेवत गुरु को सेवत
  11. सतगुरू गुरुदेव गुरु
  12. सतनाम सतनाम सतनाम भज
  13. सत्य ज्ञान दायक गुरु पूरा
  14. सत्यपुरुष की आरति कीजै
  15. सद्‌गुरु नमो सत्य ज्ञानं स्वरूपं
  16. सन्तन मत भेद प्रचार किया
  17. सन्तमत की परिभाषा
  18. सन्तमत-सिद्धान्त
  19. सन्तमते की बात, कहूँ साधक हित लागी
  20. सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर
  21. सब भव भय भंजन
  22. सब सन्तन्ह की बड़ि बलिहारी
  23. सम दम और नियम यम
  24. समय गया फिरता नहीं
  25. सर्वेश्वरं सत्य शान्ति स्वरूपं
  26. साँझ भये गुरु सुमिरो भाई
  27. सुखमन के झीना नाल से
  28. सुखमन झल झल बिन्दु
  29. सुनिये सकल जगत के वासी
  30. सुरत सम्हारो अधर चढ़ाओ
  31. सुषमनियाँ में नजरिया थिर
  32. सुषमनियाँ में मोरी नजर लागी
  33. सूरति दरस करन को जाती
  34. सृष्टि के पाँच हैं केन्द्रन

सतगुरु चरण टहल नित करिये

(१०५)
सतगुरु चरण टहल नित करिये नर तन के फल एहि हे।
युग-युग जग में सोवत बीते सतगुरु दिहल जगाय हे॥१॥
आँधरि आँखि सुझत रहे नाहीं थे पड़े अन्ध अचेत हे।
करि किरपा गुरु भेद बताए दृष्टि खुलि मिटल अचेत हे॥२॥
भा परकाश मिटल अँधियारी सुक्ख भएल बहुतेर हे।
गुरु किरपा की कीमत नाहीं मिटल चौरासी फेर हे॥३॥
धन धन धन्य बाबा देवी साहब सतगुरु बन्दी छोर हे।
तुम सम भेदि न नाहिं दयालू 'मेँहीँ' कहत कर जोरि हे॥४॥

सतगुरु जी से अरज हमारी

(३१)
सतगुरु जी से अरज हमारी॥ टेक॥
मैं एक दीन मलीन कुटिल खल, सिर अघ पोट है भारी।
कामी क्रोधी परम कुचाली, हूँ कुल अघन सम्हारी॥
अधम मो ते नहिं भारी॥१॥
सुनत कठिनतर गति अधमन की, काँपत हृदय हमारी।
कवन कृपालु जो अधम उधरें, जहँ तहँ करउँ पुछारी॥
सुनउँ इक नाम तुम्हारी॥२॥
अधम उधरन हो, अस सुनउँ, तेहि ते कहउँ पुकारी।
मोसे अधम को जो सको तारी, तो तुम्हरी बलिहारी॥
सुनो चित्त दै अघहारी॥३॥
सतगुरु देवी साहब जी के पद में विनती हर बारी।
'मेँहीँ' पतित को हो पतित उधारन, अबकी लेहु उधारी॥
मैं जाउँ हर घड़ि बलिहारी॥४॥ 

सतगुरु दरस देन हित आए

(२९) बरसाती
सतगुरु दरस देन हित आए, भाग जगे हमरे॥ टेक॥
आनन्द मंगल पूरि रहे सब शुभ-शुभ भा सगरे।
पाप समूह दरस ते भागे पुण्य सकल डगरे॥१॥
परम उछाह आजु सभ सखिया सतगुरु पद भज रे।
तन मन धन आतम करि अर्पण 'मेँहीँ' आजु तरे॥२॥ 

सतगुरु दाता सतगुरु दाता

(२८) पुकार
सतगुरु दाता सतगुरु दाता सतगुरु दाता सतगुरु दाता।
अरज सुनो हे मेरे प्रीतम तात पिता हे सतगुरु दाता॥टेक॥
हो दयाल दातार महा सुखदाई।
अघनाशन सुख देन कृपा अधिकाई॥१॥
जुग जुगान ते अहूँ पड़े दूखन में।
सुधि बुधि गई सब भूलि माया भुखन में॥२॥
मन-इन्द्रिन की फाँस गले हैं मेरे।
ताते वश होइ सदा रहूँ यम चेरे॥३॥
काम क्रोध मद लोभ सतावै हरदम।
नित पड़ा रहूँ इन्ह बीच न पाऊँ शम-दम॥४॥
सुख पावन मन ठानि दौड़ि जहँ जाऊँ।
दुख अगिन प्रबल होइ जरत तहाँ ही पाऊँ॥५॥
रवि कर जल मृग देखि दौड़ि दुख पावै।
तिमि जग सुख मध दुख कुण्ड मोहि को नावै॥६॥
हूँ पड़ा दुखन के माहिं प्रबल मुरछाई।
निज संकट सकुँ न बखानि जो पाउँ सदाई॥७॥
हूँ अन्धकार बिच पड़ा न पाउँ प्रकाशा।
नहिं सकूँ जान जित अहै प्रकाश-निवासा॥८॥
हो सर्वज्ञ दयाल प्रभू दातारा।
गुरु दीन-बन्धु तुम जानहु मर्म हमारा॥९॥
करु दया कहूँ मैं याहि पुकारि पुकारी।
हो दीन-बन्धु सुख-सिन्धु दीन-हितकारी॥१०॥
दुख दलन जलन कर हतन पतन यम-जारी।
कोमल चित दीन-दयाल कृपा धर भारी॥११॥
यम-फन्दन ते वेगि निकालि के मोही।
निज विरद सम्हारो नाथ! कहूँ मैं तोही॥१२॥
तम-कूप ते खैंचि के मोहि प्रकाश में लाओ।
पुनि शब्द-बाँह निज देइ पास बैठाओ॥१३॥
यहि विधि अपनाइ के मोहि छोड़ाइये यम से।
होइ आरत करूँ पुकार नाथ मैं तुम से॥१४॥
नहिं आन कोऊ जहँ जाइ के करौं पुकारा।
यम-फन्द-निकन्दन एकहि तुम दातारा॥१५॥
अब सतगुरु सतगुरु सतगुरु नित-नित गाऊँ।
प्रभु रीझि देहु निज चरण-शरण में ठाऊँ॥१६॥

सतगुरु पद बिनु गुरु भेटत नाहीं

(११०)
सतगुरु पद बिनु गुरु भेटत नाहीं॥टेक॥
दृढ़ विश्वासि बनिय गुरु पद के, सेवत रहिय सदाई।
मुक्ति डगर गुरु जबहिं बतावें, सुरत चलत सुख पाई॥१॥
अभ्यासी गुरु सेवी हंसा, मुक्ति डगर चलि जाई।
चलत चलत सतगुरु को पावत, भव दुख सकल मिटाई॥२॥
याते छाड़ि कपट अहंकारहिं, गुरु-पद भजिय सदाई।
भव सागर दुख परम कठिन से, आन उबारक नाहीं॥३॥
गुरु ही हितु गुरु ही पितु जाको, जाको गुरुहि सोहाई।
ते बड़ भागी पुरुष कहँ 'मेँहीँ', सहज परम गति पाई॥४॥

सतगुरु सत परमारथ रूपा

(१००) चौपाई
सतगुरु सत परमारथ रूपा।
अतिहि दयामय दया सरूपा॥१॥
अधम उधारन अमृत खानी।
पर हित रत जाकी सत वाणी॥२॥
सतगुरु ज्ञान सिन्धु अति निर्मल।
सेवत मन इन्द्रिन हों निर्बल॥३॥
धरम धुरन्धर सतगुरु स्वामी।
सत्य धरम मत संत को हामी॥४॥
सुरत शब्द मारग सुखदाई।
सतगुरु यहि पथ देहिं बताई॥५॥
बन्ध मोक्ष सब देहिं बताई।
आत्म अनात्महुँ देहिं जनाई॥६॥
विषय भोग तें लेहिं छोड़ाई।
भव निधि बूड़त लेहिं बचाई॥७॥
कोउ न कृपावंत सतगुरु सम।
पद सेवा महँ मन पल-पल रम॥८॥
दोहा-धन्य धन्य सतगुरु सुखद, महिमा कही न जाय।
जो कछु कहुँ तुम्हरी कृपा, मोतें कछु न बसाय॥

सतगुरु सतगुरु नितहिं पुकारत

(१०४)
सतगुरु सतगुरु नितहि पुकारत छीजत पाप समूह रहे॥टेक॥
सतगुरु रूप हिये में धारत काम क्रोध मद लोभ दहे।
अमिय रूप गहि मन सुख पावत सुरति शैल ब्रह्माण्ड लहे॥१॥
सतगुरु चरण डोरि दृढ़सब घट पिण्ड ब्रह्माण्ड से पार करे।
जो पकड़े भव पार उतरि गये 'मेँहीँ' सतगुरु चरण धरे॥२॥ 

सतगुरु साहब की बलिहारी

(३२)
सतगुरु साहब की बलिहारी॥टेक॥
जग तम-कूप बड़ा ही भयंकर, तन बिच घोर अंधारी।
ता में जीव सहे नाना दुःख, सुधि निज घर की बिसारी॥
सतगुरु बिन परम दुःखारी॥१॥
सतगुरु छाड़ि नहीं कोउ दूसर, भेद जो कहैं पुकारी।
जाते छूटै घोर अंधारी, जीव चले भव पारी॥
जहाँ निज घर सुख सारी॥२॥
सतगुरु कहैं पुकारि पुकारी, भवन गवन पथ न्यारी।
ना पानी महँ ना पाथर महँ, बड़ वैराट में ना री॥
सोहै निज घट में सँवारी॥३॥
बाबा देवि साहब सतगुरु पूरे, 'मेँहीँ' पुकारि पुकारी।
कहत सकल सौं जौं निज घर चहु,गहु सतगुरु शरणा री॥
तो पैहो निज घर-पथ सारी॥४॥ 

सतगुरु सुख के सागर

(१७) कजली
सतगुरु सुख के सागर, शुभ गुण आगर, ज्ञान उजागर हैं॥ टेक॥
अन्तर पथ गामी, अति निःकामी, अन्तर्यामी हैं।
त्रैगुण पर योगी, हरि-रस भोगी, अति निःसोगी हैं॥१॥
थिर बुद्धि सुजाना, यती सयाना, धरि ध्वनि ध्याना हैं।
सो ध्वनि सारा, 'मेँहीँ' न्यारा, सतगुरु धारे हैं॥२॥ 

सतगुरु सेवत गुरु को सेवत

(१०९)
सतगुरु सेवत गुरु को सेवत मिटत सकल दुख झेला रे॥टेक॥
यह दुनिया दिन चारि बसेरा यहाँ न मेरा तेरा रे।
मेरा तेरा दोउ यम के हाथें पकड़ि-पकड़ि जिन घेरा रे॥१॥
यह दुनिया बन्दी गृह यम के जिव बन्दी रहै घेरा रे।
सतगुरु गुरु बिन ना कोइ कबहूँ जो तोड़ै यम-घेरा रे॥२॥
याते उठो सतगुरु गुरु हेरो सेव करो बहुतेरा रे।
तन मन धन आतम तिनके पद अरपि बचो यम फेरा रे॥३॥
जागृत जिन्दा सतगुरु जग में सब जिनको कर जोड़ा रे।
बाबा सतगुरु देवी साहब जा पद को 'मेँहीँ' चेरा रे॥४॥ 

सतगुरू गुरुदेव गुरु

(९८)
सतगुरू गुरुदेव गुरु, गुरु गुरु गुरु तारणं॥१॥
गुरु गुरु गुरु दिव्य जोति, जगमग हिय भक्त होति
गुरु गुरु ब्रह्म अग्नि सोति, पंच दूत जारनं॥२॥
गुरु गुरु दस-चारि दमन, गुरु गुरु अघ धारि शमन,
गुरु गुरु सम कारि पवन, द्वैत घनहिं टारनं॥३॥
गुरु गुरु गुरु दिव्य देव, गुरु गुरू भक्ति भेव,
गुरु गुरु गुरु परम सेव, गुरु गुरु मन मारनं॥४॥
गुरु गुरु गुरु कल्प-विटप, गुरु गुरु गुरु 'मेँहीँ' जप
गुरु जाप जपन साँचो तप, सकल काज सारणं॥५॥

सतनाम सतनाम सतनाम भज

(७८)
सतनाम सतनाम सतनाम भज सतनाम,
भजो हो सत सतनाम, पूरन काम॥१॥
सार शब्द सत शब्द चुम्बक धुन,
सोइ सतनाम प्रमाण, पूरन काम॥२॥
ओत प्रोत सब घट-घट रमता,
याते राम अस नाम, पूरन काम॥३॥
परा पश्यन्ती मध्यमा बैखरी,
ये नहिं हैं सतनाम, पूरन काम॥४॥
ध्वन्यात्मक निःअक्षर सो है,
अआहत अनाहत नाम, पूरन काम॥५॥
अनहद अनाहत विमल विलक्षण,
आकर्षक सो महान, पूरन काम॥६॥
अति झीना अति मधुर अनूपम,
परम मोक्ष सुख धाम, पूरन काम॥७॥
जो पावै पूरन प्रभु पावै,
जन्म न धारय आन, पूरन काम॥८॥
अन्तर मुख होइ चढ़ै ब्रह्माण्ड में,
सोइ पावै सतनाम, पूरन काम॥९॥
गुरु सेवी पावै यह 'मेँहीँ',
और न कोउ सक जान, पूरन काम॥१०॥

सत्य ज्ञान दायक गुरु पूरा

(९९)
चौपाई
सत्य ज्ञान दायक गुरु पूरा। मैं उन चरणन को हौं धूरा॥१॥
तन अघ मन अघ ओघ नसावन। संशय शोक सकल दुख दावन॥२॥
गुरु गुण अमित अमित को जाना। संक्षेपहिं सब करत बखाना॥३॥
रुज भव नाशन सतगुरु स्वामी। बार-बार पद युगल नमामी॥४॥
मन्द मन्दता सकल निवारन। काम क्रोध मद लोभ सँघारन॥५॥
हानिलाभ सुख दुख समकारी। हर्ष विषाद गुरू दें टारी॥६॥
राजत सकल सिरन गुरु स्वामी। अगम बोध दाता सुखधामी॥७॥
जनम मरन गुरु देहिं छोड़ाई। जयति जयति जय जय सुखदाई॥८॥
कीरति अमल विमल बुधि जाकी। धनि धनि सतगुरु सीम दया की॥९॥
जगतारण कारण सद्‌गति की। पथ दाता सत सरल भगति की॥१०॥
यम नीयम सब में अति पूरन। सतगुरु महाराज की जय भन॥११॥

सत्यपुरुष की आरति कीजै

(१०) आरती
सत्यपुरुष की आरति कीजै।
हृदय-अधर को थाल सजीजै॥१॥
दामिनि जोति झकाझक जामें।
तारे चन्द अलौकिक तामें॥२॥
आरति करत होत अति उज्ज्वल।
ब्रह्म की जोति अलौकिक उज्ज्वल॥३॥
सन्मुख बिन्दु में दृष्टि समावे।
अचरज आरति देखन पावे॥४॥
दिव्य चक्षु सो अचरज पेखे।
या जग-सुक्ख तुच्छ करि लेखे॥५॥
होत महाधुन अनहद केरा।
सुनत सुरत सुख लहत घनेरा॥६॥
सूरत सार शबद में लागी।
पिण्ड-ब्रह्माण्ड देइ सब त्यागी॥७॥
आतम अरपि के भोग लगावे।
सेवक सेव्य भाव छुटि जावे॥८॥
हम प्रभु, प्रभु हम एकहि होई।
द्वन्द्व अरु द्वैत रहे नहिं कोई॥९॥
'मेँहीँ' ऐसी आरति कीजै।
भव महँ जनम बहुरि नहिं लीजै॥१०॥

सद्‌गुरु नमो सत्य ज्ञानं स्वरूपं

(१५)
सद्‌गुरु नमो सत्य ज्ञानं स्वरूपं।
सदाचारि पूरण सदानन्द रूपं॥१॥
तरुण मोह घन तम विदारण तमारी।
तरण तारणंह्णहं बिना तन विहारी॥२॥
गुण त्रयअतीतं सु परमं पुनीतं।
गुणागार संसार द्वन्द्वं अतीतं॥३॥
रुज संसृतं वैद्य परमं दयालुं।
रुलकर प्रभू मध्य प्रभू ही कृपालुं॥४॥
मननशील समशील अति ही गंभीरं।
मरुत मदन मेघं सुयोगी सुधीरं॥५॥
हानि रु लाभं युगल मध समं थीर।
हालन चलन शुभ्र इन्द्रिय दमन वीर॥६॥
राग रोषं बिनं शुद्ध शांतिं स्वरूपं।
राकापतिं तुल्यं शीतल अनूपं॥७॥
जरा जन्म मृत्युं परं पार धामी।
जगत आत्मतुल्यं हृदय अति अकामी॥८॥
कीरति सु भृंगं समं सो सु स्वामी।
कीटन्ह स्वयं सम करन गुरु नमामी॥९॥
जगत त्राण कर्त्ता रु हर्त्ता भवजालं।
जरा जन्म-हर्त्ता रु कर्त्ता सु भालं॥१०॥
यज्ञं जपं तप फलं हूँ न कामी।
यक सद्‌गुरुं पद नमामी नमामी॥११॥

सन्तन मत भेद प्रचार किया

(१०२)
सन्तन मत भेद प्रचार किया, गुरु साहब बाबा देवी ने॥टेक॥
थे अन्ध बने फिरते बाहिर, अन्तर-पथ भेद न थे जाहिर।
हमें बोधि बुझाय सुझाय दिया, गुरु साहब बाबा देवी ने॥१॥
बन्द कराय पलक पट को, कहे बाहर में तुम मत भटको।
सीधे सन्मुख सुषमन बिन्दु को, गहवाया बाबा देवी ने॥२॥
सुषमन घर में ध्वनि धार बजै, चढ़ि श्वेत सुरत सो धार भजै।
अनहद उलझन यहि युक्ति तजै, सत ध्वनि की युक्ति दई गुरु ने॥३॥
गुरु की यह युक्ति बड़ी मेँहीँ, 'मेँहीँ' परगट संसार नहीं।
यहि ढोल पिटाय सुनाय दिया, गुरु साहब बाबा देवी ने॥४॥

सन्तमत की परिभाषा

(८) संतमत की परिभाषा
१- शांति स्थिरता वा निश्चलता को कहते हैं।
२- शांति को जो प्राप्त कर लेते हैं, संत कहलाते हैं।
३- संतों के मत वा धर्म को संतमत कहते हैं।
४- शांति प्राप्त करने का प्रेरण मनुष्यों के हृदय में स्वाभाविक ही है। प्राचीन काल में ऋषियों ने इसी प्रेरण से प्रेरित होकर इसकी पूरी खोज की और इसकी प्राप्ति के विचारों को उपनिषदों में वर्णन किया। इन्हीं विचारों से मिलते हुए विचारों को कबीर साहब और गुरु नानक साहब आदि सन्तों ने भी भारती और पंजाबी आदि भाषाओं में सर्वसाधारण के उपकारार्थ वर्णन किया, इन विचारों को ही संतमत कहते हैं; परन्तु संतमत की मूल भित्ति तो उपनिषद्‌ के वाक्यों को ही मानने पड़ते हैं; क्योंकि जिस ऊँचे ज्ञान का तथा उस ज्ञान के पद तक पहुँचाने के जिस विशेष साधन नादानुसंधान अर्थात्‌ सुरत-शब्द-योग का गौरव संतमत को है, वे तो अति प्राचीन काल की इसी भित्ति पर अंकित होकर जगमगा रहे हैं। भिन्न-भिन्न काल तथा देशों में संतों के प्रकट होने के कारण तथा इनके भिन्न-भिन्न नामों पर इनके अनुयायियों द्वारा संतमत के भिन्न-भिन्न नामकरण होने के कारण संतों के मत में पृथक्त्व ज्ञात होता है; परन्तु यदि मोटी और बाहरी बातों को तथा पंथाई भावों को हटाकर विचारा जाय और संतों के मूल एवं सार विचारों को ग्रहण किया जाए, तो यही सिद्ध होगा कि सब संतों का एक ही मत है।

सन्तमत-सिद्धान्त

(६) संतमत-सिद्धान्त
१- जो परम तत्त्व आदि-अन्त-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है, उसे ही सर्वेश्वर-सर्वाधार मानना चाहिए तथा अपरा (जड़) और परा (चेतन) दोनों प्रकृतियों के पार में अगुण और सगुण पर अनादि-अनन्त-स्वरूपी, अपरम्पार शक्तियुक्त, देशकालातीत, शब्दातीत, नामरूपातीत, अद्वितीय, मन-बुद्धि और इन्द्रियों के परे जिस परम सत्ता पर यह सारा प्रकृति-मंडल एक महान यंत्र की नाईं परिचालित होता रहता है, जो न व्यक्ति है और न व्यक्त है, जो मायिक विस्तृतत्व-विहीन है, जो अपने से बाहर कुछ भी अवकाश नहीं रखता है, जो परम सनातन, परम पुरातन एवं सर्वप्रथम से विद्यमान है, संतमत में उसे ही परम अध्यात्म-पद वा परम अध्यात्मस्वरूपी परम प्रभु सर्वेश्वर (कुल्ल मालिक) मानते हैं।
२- जीवात्मा सर्वेश्वर का अभिन्न अंश है।
३- प्रकृति आदि-अंत सहित है और सृजित है।
४- मायाबद्ध जीव आवागमन के चक्र में पड़ा रहता है। इस प्रकार रहना जीव के सब दुःखों का कारण है। इससे छुटकारा पाने के लिए सर्वेश्वर की भक्ति ही एकमात्रा उपाय है।
५- मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि-साधन और सुरत-शब्द-योग द्वारा सर्वेश्वर की भक्ति करके अंधकार, प्रकाश और शब्द के प्राकृतिक तीनों परदों से पार जाना और सर्वेश्वर से एकता का ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पा लेने का मनुष्य मात्र अधिकारी है।
६- झूठ बोलना, नशा खाना, व्यभिचार करना, हिंसा करनी अर्थात्‌ जीवों को दुःख देना वा मत्स्य-मांस को खाद्य पदार्थ समझना और चोरी करनी इन पाँचों महापापों से मनुष्यों को अलग रहना चाहिए।
७- एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा तथा अपने अंतर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना, सद्‌गुरु की निष्कपट सेवा, सत्संग और दृढ़ ध्यानाभ्यास इन पाँचों को मोक्ष का कारण समझना चाहिए।

सन्तमते की बात, कहूँ साधक हित लागी

(४४) अरिल
सन्तमते की बात, कहूँ साधक हित लागी।
कहूँ अरिल पद जोड़ि, जानि करिहैं बड़भागी॥
बातें हैं अनमोल, मोल नहिं एक-एक की।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ', कहूँ जो चाहूँ कहन,
 सन्त पद सिर निज टेकी॥१॥
सत्‌जन सेवन करत, नित्य सत्संगति करना।
वचन अमियदे ध्यान, श्रवण करि चित में धरना॥
मनन करत नहिं बोध होइ, तो पुनि समझीजै।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' समझि बोध जो होइ,
 रहनि ता सम करि लीजै॥२॥
करि सत्संग गुरु खोज करिय, चुनिये गुरु सच्चा।
बिनु सद्‌गुरु का ज्ञान-पंथ, सब कच्चहिं कच्चा॥
कुण्डलिया में कहूँ , सो सद्‌गुरु कर पहिचाना।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ', जौं प्रभु दया सों मिलैं,
सेविये तजि अभिमाना॥३॥
कुण्डलिया
मुक्ती मारग जानते, साधन करते नित्त॥
साधन करते नित्त, सत्त चित जग में रहते।
दिन-दिन अधिक विराग, प्रेम सत्संग सों करते॥
दृढ़ ज्ञान समुझाय बोध दे, कुबुधि को हरते।
संशय दूर बहाय, सन्तमत स्थिर करते॥
'मेँहीँ' ये गुण धर जोई, गुरु सोई सत्‌चित्त।
मुक्ती मारग जानते, साधन करते नित्त॥
अरिल
सत्य सोहाता वचन कहिय, चोरी तजि दीजै।
तजिय नशा व्यभिचार तथा हिंसा नहिं कीजै॥
निर्मल मन सों ध्यान करिय, गुरु मत अनुसारा।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' कहूँ सो गुरुमत ध्यान,
सुनो दे चित्त सम्हारा॥४॥
धर गर मस्तक सीध, साधि आसन आसीना।
बैठि के चखु मुख मूनि, इष्ट मानस जप ध्याना॥
प्रेम नेम सों करत-करत, मन शुद्ध हो।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' अब आगे को कहूँ ,
सुनो दे चित्त सों॥५॥
जहँ-जहँ मन भगि जाय, ताहि तहँ-तहँ से तत्क्षण।
फेरि फेरि ले आइ, लगाइय ध्येय में आपन॥
ऐसहि करि प्रतिहार, धारणा धारण करिके।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' औरो आगे बढ़िय,
चढ़िय धर धारा धरिके॥६॥
धर धर धर की धार, सार अति चेतना।
धर धर धर का खेल, जतन करि देखना॥
धर में सुष्मन घाट, दृष्टि ठहराइ के।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' यहि घाटे चढ़ि जाव,
धराधर धाइ के॥७॥
तजो पिण्ड चढ़ि जाव, ब्रह्माण्डहिं वीर हो।
पेलो सुष्मन दृष्टि, सिस्त ज्यों तीर हो॥
बिन्दु नाद अगुआइ, तुमहिं ले जायेंगे।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' ज्योति मण्डल सह नाद,
की सैर दिखायेंगे॥ ८॥
ज्योति मण्डल की सैर, झकाझक झाँकिये।
तिल ढिग जुगनू जोति, टकाटक ताकिये॥
होत बिज्जु उजियार, नजर थिर ना रहै।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' सुरत काँपती रहै,
ज्योति दृढ़ क्यों गहै॥९॥
दृष्टि योग अभ्यास अतिहि, करतहि करत।
कँपनी सहजहि छुटै, प्रौढ़ होवै सुरत॥
तिल दरवाजा टुटै, नजर के जोर से।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' लगे टकटकी खूब,
जोर बरजोर से॥१०॥
तीनों बन्द लगाइ, देखि सुनि धरि ध्वनि धारा।
चलिय शब्द में खिंचत, बजत जो विविध प्रकारा॥
झिंगुर की झनकार, भँवर गुंजार हो।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' घण्ट शंख शहनाइ,
आदि ध्वनि धार हो॥११॥
तारा सह ध्वनि धार, टेम दीपक बरे।
खुले अजब आकाश, अजब चाँदनी भरे॥
पूर अचरजी चन्द, सहित ध्वनि कस लगे।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' जानै सोई धीर,
वीर साधन पगे॥१२॥
साधन में पगि जाइ, अतिहि गम्भीर हो।
या तन सुधि नहिं रहे, धीर वर वीर सो॥
साँझभोर दिन रैन, कछू जानै नहीं।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' बाहर जड़वत्‌ रहै,
माहिं चेतन सही॥१३॥
जा सम्मुख या सूर्य, अमित अन्धार है।
ऐसो सूर्य महान, चन्द हद पार है॥
होत नाद अति घोर, शोर को को कहै।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' महा नगाड़ा बजै,
घनहु गरजत रहै॥१४॥
आगे शून्य समाधि, नाद ही नाद की।
लहै सन्त का दास, जाहि सुधि आदि की॥
मीठी मुरली सुनै, सुरत के कान से।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' बड़ा कौतुहल होइ,
ध्वनिन के ध्यान से॥१५॥
सद्‌गुरु भेदी मिलै, सैन ध्वनि ध्यान बतावै।
अनुपम बदले नाहिं, शब्द सो सार कहावै॥
सोहू ध्वनि हो लीन, अध्वनि में जाय के।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' अध्वनि अशब्द अनाम,
सन्त कहैं गाय के॥१६॥
सार शब्द ध्वनि संग, सुरत हो अकह में लीनी।
अध्वनि अशब्द अनाम, परम पद गति की भीनी॥
द्वैत द्वन्द्व सों रहित, सो प्रभु पद पाइके।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' सुरत न लौटइ,बहुरि न जन्मइ आइके॥१७॥

सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर

(१) ईश स्तुति
सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर, औरु अक्षर पार में।
निर्गुण सगुण के पार में, सत्‌ असत्‌ हू के पार में॥१॥
सब नाम रूप के पार में, मन बुद्धि वच के पार में।
गो गुण विषय पँच पार में, गति भाँति के हू पार में॥२॥
सूरत निरत के पार में, सब द्वन्द्व द्वैतन्ह पार में।
आहत अनाहत पार में, सारे प्रपंचन्ह पार में॥३॥
सापेक्षता के पार में, त्रिपुटी कुटी के पार में।
सब कर्मकाल के पार में, सारे जंजालन्ह पार में॥४॥
अद्वय अनामय अमल अति, आधेयता गुण पार में।
सत्तास्वरूप अपार सर्वाधार, मैं-तू पार में॥५॥
पुनि ओ३म्‌ सोऽहम्‌ पार में, अरु सच्चिदानन्द पार में।
हैं अनन्त व्यापक व्याप्य जो, पुनि व्याप्य व्यापक पार में॥६॥
हैं हिरण्यगर्भहु खर्व जासों, जो हैं सान्तन्ह पार में।
सर्वेश हैं अखिलेश हैं, विश्वेश हैं सब पार में॥७॥
सत्‌ शब्द धर कर चल मिलन, आवरण सारे पार में।
सद्‌गुरु करुण कर तर ठहर धर, मेँहीँ जावे पार में॥८॥

सब भव भय भंजन

(८२)
सब भव भय भंजन, अघ गन गंजन,
केवल प्रभु को नाम॥१॥
तम मोह निकन्दन, खण्डन फन्दन,
नाशन दुखमय काम॥२॥
सत धुन अनहत, घट घट बिन हत,
सार नाम सोइ नाम॥३॥
सो नाम निरक्षर, सब वाणिन पर,
परम मोक्ष सुखधाम॥४॥
सो धुन सत सारा, सन्त पुकारा,
सोइ निर्मल सतनाम॥५॥
अति मधुर सो वाणी, सन्तन जानी,
सुनि श्रुति लह विश्राम॥६॥
चढ़ु होइ सुषमन, ब्रह्माण्ड महल मन,
यहीं गहो प्रभु नाम॥७॥
धुनि अत्यन्त झीना, सत भक्त चीना,
सार यही प्रभु नाम॥८॥
एक रस सब छन, बजत रहे धुन,
'मेँहीँ' भजो यही नाम॥९॥

सब सन्तन्ह की बड़ि बलिहारी

(२)
प्रातःसायंकालीन सन्त-स्तुति

सब सन्तन्ह की बड़ि बलिहारी।
उनकी स्तुति केहि विधि कीजै,
मोरी मति अति नीच अनाड़ी॥सब०॥१॥
दुःख-भंजन भव-फंदन-गंजन,
ज्ञान-ध्यान-निधि जग-उपकारी।
विन्दु-ध्यान-विधि नाद-ध्यान-विधि,
सरल-सरल जग में परचारी॥सब०॥२॥
धनि ऋषि-सन्तन्ह धन्य बुद्ध जी,
शंकर रामानन्द धन्य अघारी।
धन्य हैं साहब सन्त कबीर जी,
धनि नानक गुरु महिमा भारी॥सब०॥३॥
गोस्वामी श्री तुलसि दास जी,
तुलसी साहब अति उपकारी।
दादू सुन्दर सूर श्वपच रवि,
जगजीवन पलटू भयहारी॥सब०॥४॥
सतगुरु देवी अरु जे भये, हैं,
होंगे सब चरणन शिर धरी।
भजत है'मेँहीँ' धन्य-धन्य कहि,
गही सन्त पद आशा सारी॥सब०॥५॥

सम दम और नियम यम

(११४) चौपाई
सम दम और नियम यम दस दस।
सतगुरु कृपा सधें सब रस-रस॥१॥
तन-मन पीर गुरू संघारत।
तम अज्ञान गुरू सब टारत॥२॥
गुण त्रैफंद कटत हैं गुरु संगु।
गुण निर्मल लह रटत गुरू मगु॥३॥
रुचत कर्म सत धर्म-कथा अरु।
रुकत मोह मद संगकरत गुरु॥४॥
मरत आस जग हो सुख दुख सम।
मदद गुरू की हो अवगुण कम॥५॥
हाजत पूरै रहै न चाहा।
हानि न गुरु सों होवत लाहा॥६॥
राहत बखसनहार अपारा।
राग द्वेष तें करें नियारा॥७॥
जम दुख नासैं सारैं कारज।
जय जय जय प्रभु सत्य अचारज॥८॥
कीनर नर सुर असुर गुरू की।
कीरति भनत कहत जय गुरु की॥९॥
जनम नसै अरु होय अमर अज।
जय जय सद्‌गुरु जय सद्‌गुरु भज॥१०॥
यत्न सहित करु गुरु कहते सोय।
यम सम दम अरु नियम पूर्ण होय॥११॥ 

समय गया फिरता नहीं

(१२३)
समय गया फिरता नहीं, झटहिं करो निज काम।
जो बीता सो बीतिया, अबहु गहो गुरु नाम॥१॥
सन्तमता बिनु गति नहीं, सुनो सकल दे कान।
जौं चाहो उद्धार को, बनो सन्त सन्तान॥२॥
'मेँहीँ' मेँहीँ भेद यह, सन्तमता कर गाइ।
सबको दियो सुनाइ के, अब तू रहे चुपाइ॥३॥

सर्वेश्वरं सत्य शान्ति स्वरूपं

(१३)
सर्वेश्वरं सत्य शान्ति स्वरूपं।
सर्वमयं व्यापकं अज अनूपं॥१॥
तन बिन अहं बिन बिना रंग रूपं।
तरुणं न बालं न वृद्ध स्वरूपं॥२॥
गुण गो महातत्त्व हंकार पारं।
गुरु ज्ञान गम्यं अगुण तेहु न्यारं॥३॥
रुज संसृतं पार आधार सर्वं।
रुद्ध नहीं नाहिं दीर्घं न खर्वं॥४॥
ममतादि रागादि दोषं अतीतं।
महा अद्‌भुतं नाहिं तप्तं न शीतं॥५॥
हार्दिक विनय मम सृनो प्रभु नमामी।
हाटक वसन मणि की हू नाहिं कामी॥६॥
राज्यं रु यौवन त्रिया नाहिं माँगूँ।
राजस रु तामस विषय संग न लागूँ॥७॥
जन्मं मरण बाल यौवन बुढ़ापा।
जर-जर कर्‌यो रु गेर्‌यो अन्ध कूपा॥८॥
कीशं समं मोह मुट्‌ठी को बाँधी।
कीचड़ विषय फँसि भयो है उपाधी॥९॥
जगत सार आधार देहू यही वर।
जतन सों सो सेऊँ जो सद्‌गुरु कुबुद्धि हर॥१०॥
यही चाह स्वामी न औरो चहूँ कुछ।
यहि बिन सकल भोग गन को कहूँ तुछ॥११॥ 

साँझ भये गुरु सुमिरो भाई

(७३)
साँझ भये गुरु सुमिरो भाई, सुरत अधर ठहराई।
 गुरु हो सुरत अधर ठहराई॥१॥
सुषमन सुरति लगाइ के सुमिरो, मुखतें रहहु चुपाई।
बाहर के पट बन्द करो हो, अन्तर पट खोलो भाई॥२॥
सूर चन्द घर एके लावो, सन्मुख दृष्टि जमाई।
ब्रह्म जोति को करो उजेरो, अन्धकार मिटि जाई॥३॥
सूक्ष्म सुरत सुषमन होइ शब्द में, दृढ़ से धरो ठहराई।
सार शब्द परखो विधि एही, भव बन्धन जरि जाई॥४॥
बुद्धि परे चिन्तन से न्यारा, अगम अनाम कहाई।
रह 'मेँहीँ' गुरु सेवा लीना, तब ही होइ रसाई॥५॥

सुखमन के झीना नाल से

(६४)
सुखमन के झीना नाल से अमृत की धारा बहि रही।
मीन सूरत धार धर भाठा से सीरा चढ़ि रही॥१॥
गुरु-मंत्र जप गुरु-ध्यान कर गुरु-सेव कर अति प्रीति कर।
गुरु की आज्ञा मान प्यारे कर सदा गुरु की कही॥२॥
उस नाल का झीना दुआरा गुरु तुझे देंगे बता।
दोउ नैन नासा मध्य सन्मुख सूई अग्र दर ले लही॥३॥
तम फटे जोती भरे आकाश का तू सैर कर।
शब्द अनहत सार में मिल लह ले सतपद को सही॥४॥
दुख दर्द भव के सब मिटैं सतगुरु चरण नित सेइये।
गुरु-भक्ति बिन कछु ना बने 'मेँहीँ' सकल सन्तन कही॥५॥

सुखमन झल झल बिन्दु

(५९)
सुखमन झल झल बिन्दु झलकै।
लख ले भैया बन्द पलके॥१॥
तीसर तिल में दृष्टि धरे।
पिण्ड त्यागि ब्रह्माण्ड चले॥२॥
खुले आकाश भरे तारा।
दीप टेम हरे अँधियारा॥३॥
अनुपम चाँदनि जोति बरे।
तरुण सूर्य दिव जोति करे॥४॥
अनहत अनहद धुन मीठी।
सुरत गहे करि दिव दीठी॥५॥
धरि अस शब्द सुरत डोरी।
सुरत चलो घर सत को री॥६॥
'मेँहीँ' भेद कहा यह सार।
गुरु सेवी पावे निरधार॥७॥

सुनिये सकल जगत के वासी

(४७) उपदेश (चौपाई)
सुनिये सकल जगत के वासी।
यह जग नश्वर सकल विनाशी॥१॥
यह जग धूम धाम रे भाई।
यह जग जानो छली महाई॥२॥
सबहिं कहा यहि अगमापाई।
तुम पकड़ा यहि जानि सहाई॥३॥
मृग तृष्णा जल सम सुख याकी।
तुम मृग ललचहु देखि एकाकी॥४॥
याते भव दुख सहहु महाई।
बिन सतगुरु कहो कौन सहाई॥५॥
यहि सराइ महँ निज नहिं कोई।
सुत पितु मातु नारि किन होई॥६॥
भाई बन्धु कुटुम परिवारा।
राजा रैयत सकल पसारा॥७॥
सातो स्वर्गहु केर निवासी।
दिव्य देव सब अमित विलासी॥८॥
कोइ न स्थिर सबहिं बटोही।
सत्य शान्ति एक स्थिर वोही॥९॥
शान्ति स्वरूप सर्वेश्वर जानो।
शब्दातीत कहि सन्त बखानो॥१०॥
क्षर अक्षर के पार हैं येही।
सगुण अगुण पर सकल सनेही॥११॥
अलख अगम अरु नाम अनामा।
अनिर्वाच्य सब पर सुखधामा॥१२॥
ये सब मन पर गुण इनके ही।
पड़े महा दुख संशय जेही॥१३॥
यहि तुम्हरा निज प्रभु रे भाई।
जहाँ तहाँ तव सदा सहाई॥१४॥
इन्ह की भक्ति करो मन लाई।
भक्ति भेद सतगुरु से पाई॥१५॥
सतगुरु इन्ह में अन्तर नाहीं।
अस प्रतीत धरि रहु गुरु पाहीं॥१६॥
गुरु सेवा गुरु पूजा करना।
अनट बनट कछु मन नहिं धरना॥१७॥
अनासक्त जग में रहो भाई।
दमन करो इन्द्रिन दुखदाई॥१८॥
काम क्रोध मद मोह को त्यागो।
तृष्णा तजि गुरु-भक्ति में लागो॥१९॥
मन कर सकल कपट अभिमाना।
राग द्वेष अवगुण विधि नाना॥२०॥
रस-रस तजो तबहिं कल्याणा।
धरि गुरु मत तजि मन-मत खाना॥२१॥
पर-त्रिय झूठ नशा अरु हिंसा।
चोरी लेकर पाँच गरिंसा॥२२॥
तजो सकल यह तुम्हरो घाती।
भव-बन्धन कर जबर संघाती॥२३॥
दारु गाँजा भाँग अफीमा।
ताड़ी चण्डू मदक कोकीना॥२४॥
सहित तम्बाकू नशा हैं जितने।
तजन योग्य तज डारो तितने॥२५॥
मांस मछलिया भोजन त्यागो।
सतगुण खान पान में पागो॥२६॥
खान पान को प्रथम सम्हारो।
तब रस-रस सब अवगुण मारो॥२७॥
नित सतसंगति करो बनाई।
अन्तर बाहर द्वै विधि भाई॥२८॥
धर्म कथा बाहर सत्संगा।
अन्तर सत्संग ध्यान अभंगा॥२९॥
नैनन मूँदि ध्यान को साधन।
करो होइ दृढ़ बैठि सुखासन॥३०॥
मानस नाम जाप गुरु केरा।
मानस रूप ध्यान उन्हि केरा॥३१॥
यहि अवलम्ब ध्यान कछु होई।
पुनः दृष्टि बल कीजै सोई॥३२॥
सुखमन बिन्दु को धरो दृष्टि से।
सुरत छुड़ाओ पिण्ड सृष्टि से॥३३॥
धर कर बिन्दु सुनो अनहद ध्वनि।
विविध भाँति की होती पुनि पुनि॥३४॥
ध्वनि सुनि चढ़ती सूरति जाई।
अन्तर पट टूटै दुखदाई॥३५॥
छाड़ि पिण्ड तम देश महाई।
ज्योति देश ब्रह्माण्ड में जाई॥३६॥
ध्वनि धरि याहू पार चढ़ाई।
सुरत करै अब सुनै अघाई॥३७॥
राम नाम धुन सतधुन सारा।
सार शब्द जेहि सन्त पुकारा॥३८॥
सो ध्वनि निर्गुण निर्मल चेतन।
सुरत गहो तजि चलो अचेतन॥३९॥
यहु ध्वनि लीन अध्वनि में होई।
निर्गुण पद के आगे सोई॥४०॥
मण्डल शब्द केर छुटि जाई।
अधुन अशब्द में जाइ समाई॥४१॥
अधुन अशब्द सर्वेश्वर कहिये।
शान्ति स्वरूप याहि को लहिये॥४२॥
अस गति होय सो सन्त कहावै।
जीवन्मुक्त सो जगहिं चेतावै॥४३॥
सन्तमता कर भेद रे भाई।
गाइ गाइ दीन्हा समुझाई॥४४॥
जो जानै सो करै अभ्यासा।
सत चित करि करै जग में वासा॥४५॥
विरति पन्थ महँ बढ़े सदाई।
सत्संग सों करै प्रीति महाई॥४६॥
तोहि बोधे दृढ़ ज्ञान बताई।
सब संशय तव देइ छोड़ाई॥४७॥
ताको मानो गुरू सप्रीती।
सेवो ताहि संत की नीती॥४८॥
गुरु से कपट कछू नहिं राखो।
उनके प्रेम अमिय को चाखो॥४९॥
मीठी बोल बोलियो उनसे।
अहंकार से सब कछु बिनसे॥५०॥
सो उनसे कभुँ करियो नाहीं।
नहिं तो रहिहौ भव ही माहीं॥५१॥

सुरत सम्हारो अधर चढ़ाओ

(११८)
सुरत सम्हारो अधर चढ़ाओ, झिलमिल जोत जगाओ री।
ताराझलके दामिनि दमके, दीपक जोति उगाओ री॥१॥
चाँदनी चन्द सूर परेखो, आतम अनुभव पाओ री।
पाँच तीन मन न्यारा होके, सत्त शब्द मिल जाओ री॥२॥
शांति लाभ का यत्न यही है, सब सन्तन ने गायो री।
देवी साहब प्रचार करैं यहि, 'मेँहीँ' गाइ सुनायो री॥३॥

सुषमनियाँ में नजरिया थिर

(६३)
सुष्मनियाँ में नजरिया थिर होइ, बिन्दु लखी तिल की॥टेक॥
झक-झक जोती जगमग होती, चकमक-चकमक-सी।
मोती हीरा ध्रुव-सा तारा, विद्युत हू चमकी॥१॥
बरे जोतिध्वनि होति अनाहत, यन्त्र ताल बिन ही।
लखत सुनत श्रुत चलत नेह भरि, नाह-राह थिरकी॥२॥
मर्मी सज्जन सत्य भक्त सों, अन्तर मग एही।
चलत-चलत ध्वनि सार गहे ले, मेटि जरनि जी की॥३॥
सार शब्द ही नाह मिलावै, और नहीं कोई।
'मेँहीँ' कही जो सन्तन भाषी, बात नहीं निज की॥४॥ 

सुषमनियाँ में मोरी नजर लागी

(६२)
सुखमनियाँ में मोरी नजर लागी॥१॥
अगल बगल कहुँ दृष्टि न डोलै,
सन्मुख बिन्दु पकड़ लागी॥२॥
ब्रह्म जोति खुलि गई अन्तर में,
निसि अँधियारी हदस भागी॥३॥
दिव्य जोति को सूर प्रगट भा,
सूरत सार शबद लागी॥४॥
बाबा देवी कहैं 'मेँहीँ' सों,
ऐसहि कर निसदिन जागी॥५॥ 

सूरति दरस करन को जाती

(६९) कजली
सूरति दरस करन को जाती, तकती तीसरि तिल खिरकी॥टेक॥
जोति बिन्दु ध्रुवतार इन्दु लखि, लाल भानु झलकी।
बजत विविध विधि अनहद शोरा, पाँच मण्डलों की॥१॥
सन्तमते का सार भेद यह, बात कही उनकी।
समझा 'मेँहीँ' लखा नमूना, बात है सत हित की॥२॥ 

सृष्टि के पाँच हैं केन्द्रन

(४६)
सृष्टि के पाँच हैं केन्द्रन सज्जन जानिये।
सब से होते नाद हैं नौबत मानिये॥१॥
यहि विधि नौबत पाँच बजै सब राग में।
परखहिं हरषहिं धसहिं जो अन्तर भाग में॥२॥
अपरा परा द्वै प्रकृति दुहुन केन्द्र दो अहैं।
कारण सूक्ष्मस्थूल के केन्द्रन तीन हैं॥३॥
निर्मल चेतन परा कहिय केवल सोई।
महाकारण अव्यक्त जड़ात्मक प्रकृति जोई॥४॥
विकृति प्रथम जो रूप ताहि कारण कहैं।
'मेँहीँ' परखि तू लेय अपन घट ही महैं॥५॥ 

  1. हे प्रेमरूपी सतगुरु
  2. है जिसका नहीं रंग नहिं रूप

हे प्रेमरूपी सतगुरु

(२५)
हे प्रेम रूपी सतगुरु, प्रेमी मुझे बना दो॥ टेक॥
नर-नारि रूप सारे, मन मोहैं जो हमारे,
आकर्षि प्रेम लेवें, इनसे लगन छोड़ा दो॥१॥
ये स्थूल दृश्य जेते, मोको जो खैंचि लेते,
मम प्रेम धार खोते, इनसे मुझे हटा दो॥२॥
चौभुज औ अष्टभुज जो,अथवा अनेकभुज जो,
आश्चर्य तेज पुंज जो, सबसे सुरत फुटा दो॥३॥
रस शब्द गन्ध परसन, करते जो चित्त कर्षन,
करि प्रेम धार वर्षन, इनसे मुझे छुटा दो॥४॥
इक तजि अनुभवानन्दं, सारे आनन्द द्वन्द्वं,
है द्वन्द्व अनात्म फन्दं, अनात्म-आत्म फुटा दो॥५॥
अकल अभेद अछेदं, अनाम अद्वन्द्व अखेदं,
सर्वपर अनूप रूपं, तिस रूप में फँसा दो॥६॥
तुम्हरा यह रूप जानूँ , अपना भी यही मानूँ ,
तुम हम दुई मिटाकर, इक एकही बना दो॥७॥ 

है जिसका नहीं रंग नहिं रूप

(३८) पीव प्यारा
है जिसका नहीं रंग नहिं रूप रेखा।
जिसे दिव्य दृष्टिहु से नहिं कोइ देखा॥
ये इन्द्रिन चतुर्दश में जो ना फँसा है।
तथा कोई बन्धन से जो ना कसा है॥
वही है परम पुर्ष सबको अधारा।
सोई पीव प्यारा सोई पीव प्यारा॥१॥
त्रितन पाँच कोषन में जो ना बझाहै।
जो लम्बा न चौड़ा न टेढ़ा-सोझा है॥
नहीं जो स्थावर न जंगम कहावे।
नहीं जड़ न चेतन की पदवी को पावे॥
जो है परम पुर्ष सबको अधारा।
सोई पीव प्यारा सोई पीव प्यारा॥२॥
नहीं आदि नहिं मध्य नहिं अन्त जाको।
नहिं माया के ढक्कन से है पूर्ण ढाको॥
पुरणब्रह्म पदवीहु से जो तुलै ना।
अगुण वा सगुण पदहू जामें लगै ना॥
जो है परम पुर्ष सबको अधारा।
सोई पीव प्यारा सोई पीव प्यारा॥३॥
सभी में भरा अंश रहता जिसी का।
परन्तु जो होता न आकृत किसी का॥
हैं निर्गुण सगुण ब्रह्म दोउ अंश जाको।
समता न पाता कोई भी है जाको॥
जो है परम पुर्ष सबको अधारा।
सोई पीव प्यारा सोई पीव प्यारा॥४॥
ब्रह्म सच्चिदानन्द अरु वासनात्मक।
मनोमय तथा ज्ञानमय प्राण आत्मक॥
ओ ओंकार शब्द ब्रह्म औ विश्वरूपी।
ये सप्त ब्रह्म श्रेणी जिसे न पहूँची॥
जो है परम पुर्ष सबको अधारा।
सोई पीव प्यारा सोई पीव प्यारा॥५॥
नहीं जन्म जाको नहीं मृत्यु जाको।
नहीं दस न चौबीस अवतार जाको॥
अखिल विश्व में हू जो सब ना समाता।
अपरा परा पूरि नहिं अन्त पाता॥
जो है परम पुर्ष सबको अधारा।
सोई पीव प्यारा सोई पीव प्यारा॥६॥
नहीं सूर्य सकता जिसे कर प्रकाशित।
न माया ही सकती जिसे कर मर्यादित॥
जो मन बुद्धि वाणी सबन को अगोचर।
बताया हो चुप जिसको वाह्‌व मुनिवर॥
जो है परम पुर्ष सबको अधारा।
सोई पीव प्यारा सोई पीव प्यारा॥७॥
ज्यों का त्यों ही सदा जो सबके प्रथम से।
जिसे उपमा देता बने कुछ न हम से॥
है जिसके सिवा आदि सबका ही भाई।
अन आदि एकही जो ही कहाई॥
जो है परम पुर्ष सबको अधारा।
सोई पीव प्यारा सोई पीव प्यारा॥८॥