अज अद्वैत पूरण ब्रह्म पर की।
आरति कीजै आरत हर की॥१॥
अखिल विश्व भरपुर अरु न्यारो।
कछु नहिं रंग न रेख अकारो॥२॥
घट घट बिन्दु बिन्दु प्रति पूरन।
अति असीम नजदीक न दूर न॥३॥
वाष्पिय तरल कठिनहू नाहीं।
चिन्मय पर अचरज सब ठाहीं॥४॥
अति अलोल अलौकिक एक सम।
नहिं विशेष नहिं होवत कछु कम॥५॥
नहिं शब्द तेज नहीं अँधियारा।
स्वसंवेद्य अक्षर क्षर न्यारा॥६॥
व्यक्त अव्यक्त कछु कहि नहिं जाई।
बुधि अरु तर्क न पहुँचि सकाई॥७॥
अगम अगाधि महिमा अवगाहा।
कहन में नाहीं कहिये काहा॥८॥
करै न कछु कछु होय न ता बिन।
सबकी सत्ता कहै अनुभव जिन॥९॥
घट-घट सो प्रभु प्रेम सरूपा।
सबको प्रीतम सबको दीपा॥१०॥
सोइ अमृत ततु अछय अकारा।
घट कपाट खोलि पाइये प्यारा॥११॥
दृष्टि की कुंजी सुष्मन द्वारा।
तम कपाट तीसर तिल तारा॥१२॥
खोलिये चमकि उठे ध्रुव तारा।
गगन थाल भरपूर उजेरा॥१३॥
दामिनि मोती झालरि लागी।
सजै थाल विरही वैरागी॥१४॥
स्याही सुरख सफेदी रंगा।
जरद जंगाली को करि संगा॥१५॥
ये रंग शोभा थाल बढ़ावैं।
सतगुरु सेइ-सेइ भक्तन पावैं॥१६॥
अचरज दीप-शिखा की जोती।
जगमग-जगमग थाल में होती॥१७॥
असंखय अलौकिक नखतहु तामें।
चन्द औ सूर्य अलौकिक वामें॥१८॥
अस ले थाल बजाइये अनहद।
अचरज सार शब्द हो हदहद॥१९॥
शम दम धूप करै अति सौरभ।
पुष्प माल हो यम नीयम सभ॥२०॥
अविरल भक्ति की प्रीति प्रसादा।
भोग लगाइय अति मर्यादा॥२१॥
प्रभु की आरति या विधि कीजै।
स्वसंवेद्य आतम पद लीजै॥२२॥
अकह लोक आतम पद सोई।
पहुँचि बहुरि आगमन न होई॥२३॥
सन्तन कीन्हीं आरति एही।
करै न परै बहुरि भव 'मेँहीँ'॥२४॥