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यहि मानुष देह समैया में, करु परमेश्वर में प्यार।
कर्म धर्म को जला खाक कर, देंगे तुमको तार॥टेक॥
तहँ जाओ जहँ प्रकट मिलें वे, तब जानो है स्नेह।
स्नेह बिना नहिं भक्ति होति है, कर लो साँचा नेह॥१॥
स्थूल सूक्ष्म कारण महाकारण, कैवल्यहु के पार।
सुष्मन तिल हो पिल तन भीतर, होंगे सबसे न्यार॥२॥
ब्रह्मज्योति ब्रह्मध्वनि कोधरि-धरि, ले चेतन आधार।
तन में पिल पाँचो तन पारा, जा पाओ प्रभु सार॥३॥
'मेँहीँ' मेँहीँ होय सकोगे, जाओगे वहि पार।
पार गमन ही सार भक्ति है, लो यहि हिय में धार॥४॥