श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 1163 भैरउ बाणी नामदेउ जीउ की घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रे जिहबा करउ सत खंड ॥ जामि न उचरसि स्री गोबिंद ॥१॥ रंगी ले जिहबा हरि कै नाइ ॥ सुरंग रंगीले हरि हरि धिआइ ॥१॥ रहाउ ॥ मिथिआ जिहबा अवरें काम ॥ निरबाण पदु इकु हरि को नामु ॥२॥ असंख कोटि अन पूजा करी ॥ एक न पूजसि नामै हरी ॥३॥ प्रणवै नामदेउ इहु करणा ॥ अनंत रूप तेरे नाराइणा ॥४॥१॥ {पन्ना 1163} शब्दार्थ: रे = हे भाई! सत = सौ। खंड = टुकड़े। करउ = मैं कर दूँ। जामि = जब।1। रंगी ले = मैंने रंग ली है। नाइ = नाम में सुरंग = सुंदर रंग से।1। रहाउ। अन पूजा = अन्य (देवताओं आदि की) पूजा। नामै = नाम के साथ।3। करणा = करने योग्य काम।4। सरलार्थ: मैंने अपनी जीभ को परमात्मा के नाम में रंग लिया है, प्रभू का नाम सिमर-सिमर के मैंने इसको सुंदर रंग में रंग लिया है।1। रहाउ। हे भाई! अगर अब कभी मेरी जीभ प्रभू का नाम ना जपे तो मैं इसके सौ टुकड़े कर दूँ (भाव, मेरी जीभ इस तरह नाम के रंग में रंगी गई है कि मुझे अब यकीन है कि ये कभी नाम को नहीं बिसारेगी)।1। अन्य आहरों में लगी हुई जीभ व्यर्थ है (क्योंकि) परमात्मा का नाम ही वासना-रहित अवस्था पैदा करता है (और-और आहर बल्कि वासना पैदा करते हैं)।2। अगर मैं करोड़ों असंखों अन्य (देवी-देवताओं की) पूजा करूँ, तो भी वह (सारी मिल के) परमात्मा के नाम की बराबरी नहीं कर सकते।3। नामदेव विनती करता है- (मेरी जीभ के लिए) यही काम करने योग्य है (कि प्रभू के गुण गाए और कहे-) 'हे नारायण! तेरे बेअंत रूप हैं'।4।1। शबद का भावार्थ: केवल एक परमात्मा का नाम सिमरो। और करोड़ों देवताओं की पूजा प्रभू-याद की बराबरी नहीं कर सकती। भगत-बाणी के विरोधी सज्जन इस शबद के बारे में यूँ लिखते हैं- "उक्त रचना से ऐसा प्रकट होता है कि यह निर्गुण-स्वरूप व्यापक प्रभू की उपासना और भक्ति है। असल में है यह वेदांत मत।" विरोधियों ने हर हाल में विरोध करने का फैसला किया हुआ लगता है। पर धन पर दारा परहरी ॥ ता कै निकटि बसै नरहरी ॥१॥ जो न भजंते नाराइणा ॥ तिन का मै न करउ दरसना ॥१॥ रहाउ ॥ जिन कै भीतरि है अंतरा ॥ जैसे पसु तैसे ओइ नरा ॥२॥ प्रणवति नामदेउ नाकहि बिना ॥ ना सोहै बतीस लखना ॥३॥२॥ {पन्ना 1163} शब्दार्थ: दारा = स्त्री। परहरी = त्याग दी है। निकटि = नजदीक। नरहरी = परमात्मा।1। भीतरि = अंदर, मन में। अंतरा = (परमात्मा से) दूरी।2। नाकहि बिना = नाक के बिना। बतीस लखना = बक्तिस लक्षणों वाले, वह मनुष्य जिसमें सुंदरता के बक्तिस ही लक्षण मिलते हों।3। सरलार्थ: जो मनुष्य परमात्मा का भजन नहीं करते, मैं उनके दर्शन नहीं करता (भाव, मैं उनकी संगति में नहीं बैठता, मैं उनके साथ उठना-बैठना नहीं रखता)।1। रहाउ। (नारायण का भजन करके) जिस मनुष्य ने पराए धन व पराई स्त्री का त्याग किया है, परमात्मा उसके अंग-संग बसता है।1। (पर) जिन मनुष्यों के अंदर परमात्मा से दूरी बनी हुई है वे मनुष्य पशुओं के समान ही हैं।2। नामदेव विनती करता है-मनुष्य में सुंदरता के भले ही बक्तिस के बक्तिस ही लक्षण हों, पर अगर उसका नाक ना हो तो वह सुंदर नहीं लगता (वैसे, और सारे गुण हों, धन आदि भी हो, अगर नाम नहीं सिमरता तो किसी काम का नहीं)।3।2। शबद का भावार्थ: सिमरन से टूटे हुए बंदे पशू के समान हैं। उनका संग नहीं करना चाहिए। दूधु कटोरै गडवै पानी ॥ कपल गाइ नामै दुहि आनी ॥१॥ दूधु पीउ गोबिंदे राइ ॥ दूधु पीउ मेरो मनु पतीआइ ॥ नाही त घर को बापु रिसाइ ॥१॥ रहाउ ॥ सुोइन कटोरी अम्रित भरी ॥ लै नामै हरि आगै धरी ॥२॥ एकु भगतु मेरे हिरदे बसै ॥ नामे देखि नराइनु हसै ॥३॥ दूधु पीआइ भगतु घरि गइआ ॥ नामे हरि का दरसनु भइआ ॥४॥३॥ {पन्ना 1163} शब्दार्थ: कटोरै = कटोरे में। गडवै = लोटे में। कपल गाइ = गोरी गाय। दुहि = दुह के। आनी = ले आए।1। गोबिंदे राइ = हे प्रकाश रूप गोबिंद! पतीआइ = धीरज आ जाए। घर को बापु = (इस) घर का पिता, (इस शरीर रूप) घर का मालिक, मेरी आत्मा। रिसाइ = (सं: रिष् = to be injured) दुखी होगा (देखें गउड़ी वार कबीर जी 'नातर खरा रिसै है राइ')।1। रहाउ। सुोइन-- (अक्षर 'स' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'सोइन', यहां 'सुइन' पढ़ना है) सोने की। (नोट: राग आसा में नाम देव जी का एक शबद है जहाँ वे कहते हैं कि मन को गज़, जीभ को कैंची बना के जम का फंदा काटता जा रहा हूँ। वहीं कहते हैं कि सोने की सूई ले के, उसमें चाँदी का धागा डाल के, मैंने अपना मन प्रभू के साथ सिल दिया है। सोना कीमती धातु भी है और सारी धातुओं में पवित्र भी मानी गई है। जैसे उस शबद में 'सुोइने की सूई' का अर्थ है, 'गुरू का पवित्र शबद', वैसे ही यहाँ भी 'सुोइन' से 'पवित्रता' का भाव ही लेना है। दोनों शबदों का रचयता एक ही है)। सुोइन कटोरी = सोने की कटोरी, पवित्र हुआ हृदय । अम्रित = नाम अमृत। सुोइन...भरी = अमृत से भरपूर पवित्र हुआ हृदय।2। ऐकु भगत = अनन्य भगत। देखि = देख के। हसै = हसता है, प्रसन्न होता है।3। घरि = घर में। घरि गइआ = घर में गया, स्वै स्वरूप में टिक गया।4। शबद का भावार्थ: प्रीत का स्वरूप-जिससे प्यार हो, उसकी सेवा करने से दिल में ठंड पड़ती है। सरलार्थ: हे प्रकाश-रूप गोबिंद! दूध पी लो (ताकि) मेरे मन में ठंड पड़ जाए; (हे गोबिंद! तू अगर दूध) नहीं (पीएगा) तो मेरी आत्मा दुखी होगी।1। रहाउ। (हे गोबिंद राय! तेरे सेवक) नामे (नामदेव) ने गोरी गाय दुही है, लोटे में पानी डाला है और कटोरे में दूध डाला है।1। नाम-अमृत की भरी हुई पवित्र हृदय-रूप कटोरी नामे ने ले के (अपने) हरी के आगे रख दी है, (भाव, प्रभू की याद से निर्मल हुआ हृदय नामदेव ने अपने प्रभू के आगे खोल के रख दिया, नामदेव दिल की उमंगों से प्रभू के आगे अरदास करता है और कहता है कि मेरा दूध पी ले)।2। नामे को देख-देख के परमात्मा खुश होता है (और कहता है-) मेरा अनन्य भगत सदा मेरे हृदय में बसता है।3। (गोबिंद राय को) दूध पिला के भगत (नामदेव) स्वै-स्वरूप में टिक गया, (उस स्वै-स्वरूप में) मुझ (नामे) को परमात्मा का दीदार हुआ।4।3। नोट: इस शबद के बारे में पाँचवें संस्करण में विस्तार से चर्चा कर दी गई है। |
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धन्यवाद! |