श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गंग गुसाइनि गहिर ग्मभीर ॥ जंजीर बांधि करि खरे कबीर ॥१॥ मनु न डिगै तनु काहे कउ डराइ ॥ चरन कमल चितु रहिओ समाइ ॥ रहाउ ॥ गंगा की लहरि मेरी टुटी जंजीर ॥ म्रिगछाला पर बैठे कबीर ॥२॥ कहि क्मबीर कोऊ संग न साथ ॥ जल थल राखन है रघुनाथ ॥३॥१०॥१८॥ {पन्ना 1162}

नोट: कबीर जी सारी उम्र धार्मिक ज़ाहरदारी, भेख, कर्म काण्ड आदि को व्यर्थ कहते रहे। हिन्दूऔं के गढ़ बानारस में रहते हुए भी ये लोगों से नहीं डरे। यह कुदरती बात थी कि ऊँची जाति के लोग इनके विरोध बन जाते। उनकी तरफ से आए किसी कष्ट का इस शबद में वर्णन है, और फरमाते हैं कि जो मनुष्य प्रभू चरणों में जुड़ा रहे वह किसी मुसीबत में डोलता नहीं।

शब्दार्थ: गुसाइनि = जगत की माता। गोसाई = जगत का मालिक।

(नोट: शब्द 'गोसाई' से 'गुसाइन' स्त्री लिंग है)।

गहिर = गहरी। खरे = ले गए। डिगै = डोलता। रहाउ।

म्रिगछाला = मृग छाला, हिरन की खाल।2।

रघुनाथ = परमात्मा।3।

सरलार्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य का मन प्रभू के सुंदर चरणों में लीन रहे, उसका मन (किसी कष्ट के समय) डोलता नहीं, उसके शरीर को (कष्ट दे दे के) डराने का कोई लाभ नहीं हो सकता। रहाउ।

(ये विरोधी लोग) मुझे कबीर को जंजीरों से बाँध के गहरी गंभीर गंगा माता में (डुबोने के लिए) ले गए (भाव, उस गंगा में ले गए जिसको ये 'माता' कहते हैं और उस माता से जान से मरवाने का अपराध करवाने लगे)।1।

(पर डूबने की बजाए) गंगा की लहरों से मेरी जंजीर टूट गई, मैं कबीर (उस जल पर इस प्रकार तैरने लग पड़ा जैसे) मृगछाला पर बैठा हुआ हूँ।2।

कबीर कहता है- (हे भाई! तुम्हारे मिथे हुए कर्म-काण्ड व तीर्थ स्नान) कोई भी संगी नहीं बन सकते, कोई भी साथी नहीं हो सकते। पानी और धरती हर जगह एक परमात्मा ही रखने-योग्य है।3।10।18।

भैरउ कबीर जीउ असटपदी घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ अगम द्रुगम गड़ि रचिओ बास ॥ जा महि जोति करे परगास ॥ बिजुली चमकै होइ अनंदु ॥ जिह पउड़्हे प्रभ बाल गोबिंद ॥१॥ इहु जीउ राम नाम लिव लागै ॥ जरा मरनु छूटै भ्रमु भागै ॥१॥ रहाउ ॥ अबरन बरन सिउ मन ही प्रीति ॥ हउमै गावनि गावहि गीत ॥ अनहद सबद होत झुनकार ॥ जिह पउड़्हे प्रभ स्री गोपाल ॥२॥ खंडल मंडल मंडल मंडा ॥ त्रिअ असथान तीनि त्रिअ खंडा ॥ अगम अगोचरु रहिआ अभ अंत ॥ पारु न पावै को धरनीधर मंत ॥३॥ कदली पुहप धूप परगास ॥ रज पंकज महि लीओ निवास ॥ दुआदस दल अभ अंतरि मंत ॥ जह पउड़े स्री कमला कंत ॥४॥ अरध उरध मुखि लागो कासु ॥ सुंन मंडल महि करि परगासु ॥ ऊहां सूरज नाही चंद ॥ आदि निरंजनु करै अनंद ॥५॥ सो ब्रहमंडि पिंडि सो जानु ॥ मान सरोवरि करि इसनानु ॥ सोहं सो जा कउ है जाप ॥ जा कउ लिपत न होइ पुंन अरु पाप ॥६॥ अबरन बरन घाम नही छाम ॥ अवर न पाईऐ गुर की साम ॥ टारी न टरै आवै न जाइ ॥ सुंन सहज महि रहिओ समाइ ॥७॥ मन मधे जानै जे कोइ ॥ जो बोलै सो आपै होइ ॥ जोति मंत्रि मनि असथिरु करै ॥ कहि कबीर सो प्रानी तरै ॥८॥१॥ {पन्ना 1162}

शब्दार्थ: अगम = अ+गम, जिस तक पहुँच ना हो सके। द्रुगम = दुर+गम, जिस तक पहुँचना मुश्किल हो। गढ़ि = किले में। बास = बसेरा। जा महि = जिस (मनुष्य के हृदय) में। जिह पउढ़े = जिस ठिकाने में, जिस हृदय में।1।

जीउ = जीव। जरा = बुढ़ापा। मरनु = मौत। भ्रमु = भटकना।1। रहाउ।

अबरन बरन सिउ = नीच और ऊँची जाति से। अबरन = नीच जाति। सिउ = साथ। हउमै गीत गावनि = सदा अहंकार की बातें करते रहते हैं। अनहद = एक रस। झुनकार = सुंदर राग।2।

मंडा = बनाए हैं। त्रिअ असथान = तीनों भवन। अभ अंत = ('राम राम' के साथ 'लिव' लगाने वाले) हृदय में। अभ = हृदय। अंत = अंतरि। धरनीधर मंत = धरती के आसरे प्रभू के भेद का।3।

कदली = केला। पुहप = फूल। धूप = सुगंधि। रज = मकरंद, फूल के अंदर की धूल। पंकज = कमल फूल। (पंक = कीचड़। ज = पैदा हुआ। कीचड़ में उगा हुआ)। दुआदस दल अभ = बारह पक्तियों वाला (कमल फूल रूपी) हृदय, पूरी तौर पर खिला हृदय। दुआदस = बारह। दल = पक्तियां। कमला कंत = लक्ष्मी का पति, परमात्मा।4।

अरध = नीचे। उरध = ऊपर। मुखि लागो = दिखता है। कास = प्रकाश, रोशनी।5।

ब्रहमंडि = सारे जगत में। पिंडि = शरीर में। जानु = जानता है। मानसरोवरि = मानसरोवर में। करि = करे, करता है। जा कउ = जिस मनुष्य का। सो हं सो = वह मैं वह।6।

घाम = गरमी, धूप। छाम = छाया। घाम छाम = दुख सुख। साम = शरण। टारी = टाली हुई। न टरै = हटती नहीं।7।

मंत्रि = (गुरू के) मंत्र द्वारा। मनि = मन में।8।

नोट: शबद का केन्द्रिय विचार 'रहाउ' की तुक में है।

सरलार्थ: (जब) यह जीव परमात्मा के नाम में सुरति जोड़ता है, तो इसका बुढ़ापा (बुढ़ापे का डर) समाप्त हो जाता है, मौत (का सहम) समाप्त हो जाता है और भटकना दूर हो जाती है।1। रहाउ।

(नाम सिमरन की बरकति से) जिस हृदय में बाल-स्वभाव प्रभू गोबिंद आ बसता है, जिस मनुष्य के अंदर प्रभू अपनी ज्योति की रौशनी करता है उसके अंदर, मानो, बिजली चमक उठती है, वहाँ सदा खिड़ाव ही खिड़ाव हो जाता है, वह मनुष्य एक ऐसे किले में बसेरा बना लेता है जहाँ (विकार आदि की) पहुँच नहीं हो सकती, जहाँ (विकारों का) पहुँचना बहुत मुश्किल होता है।1।

पर, जिन मनुष्यों के मन में इसी ख्याल की लगन है कि फलाना नीच जाति का फलाना उच्च जाति का है, वे सदा अहंकार भरी बातें करते रहते हैं।

जिस हृदय में श्री गोपाल प्रभू जी बसते हैं, वहाँ प्रभू की सिफत-सालाह का एक रस, मानो, राग होता रहता है।2।

जो प्रभू सारे खंडों का, मंडलों का सृजन करने वाला है, जो (फिर) तीनों भवनों का, तीन गुणों का नाश करने वाला भी है, जिस तक मनुष्य की इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती, वह प्रभू उस मनुष्य के हृदय में बसता है (जिसने परमात्मा के नाम के साथ लिव लगाई हुई है)। पर, कोई जीव धरती-के-आसरे उस प्रभू के भेद का अंत नहीं पा सकता।3।

(सिमरन की बरकति से) जिस हृदय में माया-का-पति प्रभू आ बसता है उस मनुष्य के पूरी तौर पर खिले हुए हृदय में प्रभू का मंत्र इस प्रकार बस जाता है जैसे केले के फूलों में सुगंधि का वास होता है, जैसे कमल-फूल में मकरंद आ निवास करता है।4।

(जो मनुष्य प्रभू के नाम में लिव लगाता है) उसको आकाश-पाताल हर जगह प्रभू का ही प्रकाश दिखाई देता है, उसकी अफुर समाधि में (भाव, उसके टिके हुए मन में) परमात्मा अपनी रौशनी करता है (इतनी रौशनी कि) सूरज और चँद्रमा का प्रकाश उसकी बराबरी नहीं कर सकता (वह रोशनी सूरज और चाँद जैसी नहीं है)। सारे जगत का मूल माया-रहित प्रभू उसके हृदय में उमाह पैदा करता है।5।

जिस मनुष्य के हृदय में सदा ये लगन है कि वह प्रभू और मैं एक हूँ (भाव, मेरे अंदर प्रभू की ज्योति बस रही है), (इस लगन की बरकति से) जिस पर ना पुन्य ना पाप कोई भी प्रभाव नहीं पड़ सकता (भाव, जिसको ना कोई पाप-विकार आकर्षित कर सकते हैं, और ना ही पुन्य कर्मों के फल की लालसा है) वह मनुष्य (लिव की बरकति से) सारे जगत में उसी प्रभू को पहचानता है जिसको अपने शरीर में (बसता देखता है), वह (प्रभू नाम-रूप) मान-सरोवर में स्नान करता है।6।

(लिव के सदका) वह मनुष्य सदा अफुर अवस्था में टिका रहता है, सहज अवस्था में जुड़ा रहता है। यह अवस्था किसी के हटाए नहीं हट सकती, सदा कायम रहती है। उस मनुष्य के अंदर किसी ऊँची-नीच जाति का भेदभाव नहीं रहता, कोई दुख-सुख उसको नहीं व्यापते। पर यह आत्मिक हालत गुरू की शरण पड़ने से मिलती है।7।

कबीर कहता है- जो मनुष्य प्रभू को अपने मन में बसता पहचान लेता है, जो मनुष्य प्रभू की सिफत-सालाह करता है, वह प्रभू का ही रूप हो जाता है; जो मनुष्य गुरू के शबद से प्रभू की ज्योति को अपने मन में पक्का करके टिका लेता है, वह संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है।8।1।

भगत-बाणी विरोधी सज्जन जी इस शबद के बारे में लिखते हैं- "इस शबद के अंदर जोग-अभ्यास का पूर्ण मंडन है, पर गुरमति इसका जोरदार खंडन करती है। सिख धर्म में उक्त हठ योग कर्म को निंदा गया है, पर भगत जी प्रचार करते हैं।"

शबद के अर्थ पाठकों के सामने है। बड़ा कठिन शबद है। ठीक अर्थ समझने का प्रयत्न ना करने के कारण ही शायद विरोधी सज्जन भुलेखा खा गए हैं। जब पाठक सज्जन इस असूल को याद रखेंगे कि 'रहाउ' की तुक वाले केन्द्रिय-विचार की सारे शबद में व्याख्या की गई है, तो यहाँ किसी जोग-अभ्यास के प्रचार का भुलेखा नहीं रह जाएगा।

कोटि सूर जा कै परगास ॥ कोटि महादेव अरु कबिलास ॥ दुरगा कोटि जा कै मरदनु करै ॥ ब्रहमा कोटि बेद उचरै ॥१॥ जउ जाचउ तउ केवल राम ॥ आन देव सिउ नाही काम ॥१॥ रहाउ ॥ कोटि चंद्रमे करहि चराक ॥ सुर तेतीसउ जेवहि पाक ॥ नव ग्रह कोटि ठाढे दरबार ॥ धरम कोटि जा कै प्रतिहार ॥२॥ पवन कोटि चउबारे फिरहि ॥ बासक कोटि सेज बिसथरहि ॥ समुंद कोटि जा के पानीहार ॥ रोमावलि कोटि अठारह भार ॥३॥ कोटि कमेर भरहि भंडार ॥ कोटिक लखिमी करै सीगार ॥ कोटिक पाप पुंन बहु हिरहि ॥ इंद्र कोटि जा के सेवा करहि ॥४॥ छपन कोटि जा कै प्रतिहार ॥ नगरी नगरी खिअत अपार ॥ लट छूटी वरतै बिकराल ॥ कोटि कला खेलै गोपाल ॥५॥ कोटि जग जा कै दरबार ॥ गंध्रब कोटि करहि जैकार ॥ बिदिआ कोटि सभै गुन कहै ॥ तऊ पारब्रहम का अंतु न लहै ॥६॥ बावन कोटि जा कै रोमावली ॥ रावन सैना जह ते छली ॥ सहस कोटि बहु कहत पुरान ॥ दुरजोधन का मथिआ मानु ॥७॥ कंद्रप कोटि जा कै लवै न धरहि ॥ अंतर अंतरि मनसा हरहि ॥ कहि कबीर सुनि सारिगपान ॥ देहि अभै पदु मांगउ दान ॥८॥२॥१८॥२०॥ {पन्ना 1162-1163}

शब्दार्थ: कोटि = करोड़ों। सूर = सूरज। जा कै = जिस के दर पर। महादेव = शिव। कबिलास = कैलाश। मरदनु = मालिश, चरण मलना।1।

जउ = जब। जाचउ = मैं माँगता हूँ। आन = अन्य। काम = गरज़।1। रहाउ।

चराक = चिराग़, दीए की रोशनी, रौशनी। सुर तेतीस = तैतिस करोड़ देवते। उजोवहि = खाते हैं। पाक = भोजन। ठाढे = खड़े हैं। प्रतिहार = दरबान।2।

बासक = शेशनाग। बिसथरहि = बिछाते हैं। पानीहार = पानी भरने वाले। रोमावलि = रोमों की कतार, जिस्म के रोम। अठारह भार = सारी बनस्पति।3।

कमेर = धन का देवता। हिरहि = होरहि, ताक रहे हैं।4।

छपन कोटि = छप्पन करोड़। खिअत = चमक। लट छूटी = लटें खोल के। बिकराल = डरावनी (काली देवियाँ)। कला = शक्तियां।5।

गंध्रब = देवताओं के रागी।6।

बावन = बावन अवतार। जह ते = जिस श्री राम चंद्र से। सहस = हजारों। मथिआ = (जिस श्री कृष्ण जी ने) नाश किया।7।

कंद्रप = काम देवता। लवै न धरहि = (सुंदरता की) बराबरी नहीं कर सकते। अंतर अंतरि मनसा = लोगों के हृदयों की अंदरूनी वासना। अंतर = अंदर का, हृदय। अंतरि = अंदर। हरहि = (जो कामदेव) चुरा लेते हैं।8।

सरलार्थ: मैं जब भी माँगता हूँ, सिर्फ प्रभू के दर से ही माँगता हूँ, मुझे किसी और देवते के साथ कोई गर्ज नहीं है।1। रहाउ।

(मैं उस प्रभू के दर से माँगता हूँ) जिस के दर पे करोड़ों सूरज रौशनी कर रहे हैं, जिसके दर पर करोड़ों शिव जी और कैलाश हैं; और करोड़ों ही ब्रहमा जिसके दर पर वेद उचार रहे हैं।1।

(मैं उस प्रभू का जाचक हूँ) जिस के दर पर करोड़ों चँद्रमा रौशनी करते हैं, जिसके दर पर तैतीस करोड़ देवते भोजन करते हैं, करोड़ों ही नौ ग्रह जिसके दरबार में खड़े हुए हैं, और करोड़ों ही धर्म-राज जिसके दरबान हैं।2।

(मैं केवल उस प्रभू के दर का मँगता हूँ) जिसके चौबारे में करोड़ों हवाएं चलती हैं, करोड़ों शेषनाग जिसकी सेज बिछाते हैं, करोड़ों समुंद्र जिसका पानी भरने वाले हैं, और बनस्पति के करोड़ों ही अठारह भार जिसके जिस्म के, मानो, रोम हैं।3।

(मैं उस प्रभू से ही माँगता हूँ) जिसके खजाने करोड़ों ही कुबेर देवते भरते हैं, जिसके दर पर करोड़ों ही लक्षि्मयां श्रृंगार कर रही हैं, करोड़ों ही पाप और पुन्य जिसकी ओर ताक रहे हैं (कि हमें आज्ञा करें) और करोड़ों ही इन्द्र देवते जिसके दर पर सेवा कर रहे हैं।4।

(मैं केवल उस गोपाल का जाचक हूँ) जिसके दर पर छप्पन करोड़ बादल दरबान हैं, और जो जगह-जगह पर चमक रहे हैं; जिस गोपाल के दर पर करोड़ों शक्तियाँ खेल कर रही हैं, और करोड़ों ही कालिका (देवियां) केस खोल के भयानक रूप धार के जिसके दर पर मौजूद हैं।5।

(मैं उस प्रभू से ही माँगता हूँ) जिसके दरबार में करोड़ों ही यज्ञ हो रहे हैं, और करोड़ों गंधर्व जै-जैकार गा रहे हैं, करोड़ों ही विद्याएं जिसके बेअंत गुण बयान कर रही हैं, पर फिर भी परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पा सकती।6।

(मैं उस प्रभू का जाचक हूँ) करोड़ों ही वामन अवतार जिसके शरीर के, मानो, रोम हैं, जिसके दर पर करोड़ों ही वह (श्री रामचंद्र जी) हैं जिससे रावण की सेना हारी थी; जिसके दर पर करोड़ों ही वह (कृष्ण जी) हैं जिसको भागवत पुराण बयान कर रहा है, और जिसने दुर्योधन का अहंकार तोड़ा था।7।

कबीर कहता है- (मैं उससे माँगता हूँ) जिसकी सुंदरता की बराबरी वह करोड़ों कामदेव भी नहीं कर सकते जो नित्य जीवों के हृदयों की अंदरूनी वासना चुराते रहते हैं; ( और, मैं माँगता क्या हूँ? वह भी) सुन, हे धर्नुधारी प्रभू! मुझे वह आत्मिक अवस्था बख्श जहाँ मुझे कोई किसी (देवी-देवते) का डर ना रहे, (बस) मैं यही दान माँगता हॅूँ।8।2।18।20।

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