श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Page 286 नीकी कीरी महि कल राखै ॥ भसम करै लसकर कोटि लाखै ॥ जिस का सासु न काढत आपि ॥ ता कउ राखत दे करि हाथ ॥ मानस जतन करत बहु भाति ॥ तिस के करतब बिरथे जाति ॥ मारै न राखै अवरु न कोइ ॥ सरब जीआ का राखा सोइ ॥ काहे सोच करहि रे प्राणी ॥ जपि नानक प्रभ अलख विडाणी ॥५॥ {पन्ना 286} शब्दार्थ: नीकी = छोटी। कीरी = कीड़ी। कल = ताकत। भसम = राख। कोटि = करोड़। दे करि = दे कर। मानस = मनुष्य। बहु भाति = बहुत किस्म के। करतब = काम। बिरथे = व्यर्थ। अवरु = अन्य। सरब = सारे। काहे = क्यूँ? किस काम के? करहि = तू करता है। अलख = जिस का बयान ना हो सके। विडाणी = आश्चर्य। सरलार्थ: (जिस) छोटी सी कीड़ी में (प्रभू) ताकत भरता है, (वह कीड़ी) लाखों करोड़ों लश्करों को राख कर देती है। जिस जीव के श्वास प्रभू खुद नहीं निकालता, उसको हाथ दे कर रखता है। मनुष्य कई किस्मों के यतन करता है (पर अगर प्रभू सहायता ना करे तो) उसके काम व्यर्थ जाते हैं। (प्रभू के बिना जीवों को) ना कोई मार सकता है, ना रख सकता है, (प्रभू जितना) और कोई नहीं है, सारे जीवों का रक्षक प्रभू खुद है। हे प्राणी! तू क्यूँ फिक्र करता है? हे नानक! अलॅख व आश्चर्यजनक प्रभू को सिमर।5। बारं बार बार प्रभु जपीऐ ॥ पी अम्रितु इहु मनु तनु ध्रपीऐ ॥ नाम रतनु जिनि गुरमुखि पाइआ ॥ तिसु किछु अवरु नाही द्रिसटाइआ ॥ नामु धनु नामो रूपु रंगु ॥ नामो सुखु हरि नाम का संगु ॥ नाम रसि जो जन त्रिपताने ॥ मन तन नामहि नामि समाने ॥ ऊठत बैठत सोवत नाम ॥ कहु नानक जन कै सद काम ॥६॥ {पन्ना 286} शब्दार्थ: पी = पी के। ध्रपीअै = तृप्त करें। तनु = (भाव) शारीरिक इंद्रियां। जिन = जिस ने। गुरमुखि = जिसका मुख गुरू की ओर है। द्रिसटाइआ = देखा। नामो = नाम ही। नाम रसि = नाम के स्वाद में। त्रिपताने = तृप्त हो गए। नामहि नामि = नाम ही नाम में, केवल नाम में ही। समाने = जुड़े रहते हैं। सद = सदा। जन कै = सेवक के हृदय में। काम = काम, आहर। सरलार्थ: (हे भाई!) घड़ी-मुड़ी प्रभू को सिमरें, और (नाम-) अमृत पी कर इस मन को और शरीरिक इंद्रियों को तृप्त कर लें। जिस गुरमुख ने नाम रूपी रतन पा लिया है, उसे प्रभू के बिना और कहीं कुछ नहीं दिखता। नाम (उस गुरमुख का) धन है, और प्रभू के नाम का वह सदा संग करता है। जो मनुष्य नाम के स्वाद में तृप्त हो गए हैं, उनके मन तन केवल प्रभू नाम में जुड़े रहते हैं। हे नानक! कह कि उठते-बैठते, सोते-जागते (हर समय) प्रभू का नाम सिमरना ही सेवकों का सदा आहर होता है।6। बोलहु जसु जिहबा दिनु राति ॥ प्रभि अपनै जन कीनी दाति ॥ करहि भगति आतम कै चाइ ॥ प्रभ अपने सिउ रहहि समाइ ॥ जो होआ होवत सो जानै ॥ प्रभ अपने का हुकमु पछानै ॥ तिस की महिमा कउन बखानउ ॥ तिस का गुनु कहि एक न जानउ ॥ आठ पहर प्रभ बसहि हजूरे ॥ कहु नानक सेई जन पूरे ॥७॥ {पन्ना 286} शब्दार्थ: जिहबा = जीभ से। जसु = वडिआई। प्रभि = प्रभू ने। अपनै जन = अपने सेवकों को। कीनी = की है। करहि = करते हैं। चाइ = चाव से, उत्साह से। सिउ = साथ। महिमा = वडिआई। बखानउ = मैं बताऊँ। कहि न जानउ = कहना नहीं जानता। बसहि = बसते हैं। सरलार्थ: (हे भाई!) दिन रात अपनी जीभ से प्रभू के गुण गाओ, सिफत सालाह की ये बख्शिश प्रभू ने अपने सेवकों पर (ही) की है। (सेवक) अंदरूनी उत्साह से भक्ति करते हैं और अपने प्रभू के साथ जुड़े रहते हैं। (सेवक) अपने प्रभू का हुकम पहिचान लेता है, और, जो कुछ हो रहा है, उसको (रजा में) जानता है। ऐसे सेवक की कौन सी महिमा मैं बताऊँ? मैं उस सेवक का एक गुण भी बयान करना नहीं जानता। हे नानक! कह–वह मनुष्य संपूर्ण पात्र हैं जो आठों पहर प्रभू की हजूरी में बसते हैं।7। मन मेरे तिन की ओट लेहि ॥ मनु तनु अपना तिन जन देहि ॥ जिनि जनि अपना प्रभू पछाता ॥ सो जनु सरब थोक का दाता ॥ तिस की सरनि सरब सुख पावहि ॥ तिस कै दरसि सभ पाप मिटावहि ॥ अवर सिआनप सगली छाडु ॥ तिसु जन की तू सेवा लागु ॥ आवनु जानु न होवी तेरा ॥ नानक तिसु जन के पूजहु सद पैरा ॥८॥१७॥ {पन्ना 286} शब्दार्थ: तिन की = उन लोगों की। ओट = आसरा। तिन जन = उन सेवकों को। जिनि जनि = जिस मनुष्य ने। थोक = पदार्थ, चीज। दाता = देने वाला, देने में समर्थ। पावहि = तू पाएगा। दरसि = दीदार करने से। सिआनप = चतुराई। आवनु जानु = जनम और मरन। ना होवी = नहीं होगा। सरलार्थ: हे मेरे मन! (जो मनुष्य सदा प्रभू की हजूरी में बसते हैं) उनकी शरण पड़ और अपना तन मन उनके सदके कर दे। जिस मनुष्य ने अपने प्रभू को पहचान लिया है, वह मनुष्य सारे पदार्थ देने के स्मर्थ हो जाता है। (हे मन!) उसकी शरण पड़ने से तू सारे सुख पाएगा। उसके दीदार से तू सारे पाप दूर कर लेगा। और चतुराई त्याग दे, और उस सेवक की सेवा में जुट जा। हे नानक! उस संत जन के सदा पैर पूज, (इस तरह बार बार जगत में) तेरा आना-जाना नहीं होगा।8।17। सलोकु ॥ सति पुरखु जिनि जानिआ सतिगुरु तिस का नाउ ॥ तिस कै संगि सिखु उधरै नानक हरि गुन गाउ ॥१॥ {पन्ना 286} शब्दार्थ: सति = सदा कायम रहने वाला, अस्तित्व वाला। पुरखु = सब में व्यापक आत्मा। सति पुरखु = वह ज्योति जो सदा स्थिर और सब में व्यापक है। जिनि = जिस ने। तिस कै संगि = उस (सतिगुरू) की स्रगति में। उधरै = (विकारों से) बच जाता है। सरलार्थ: जिस ने सदा स्थिर और व्यापक प्रभू को पहिचान लिया है, उस का नाम सतिगुरू है, उसकी संगति में (रह के) सिख (विकारों से) बच जाता है। (इसलिए) हे नानक! (तू भी गुरू की संगति में रह कर) अकाल पुरख के गुण गा।1। असटपदी ॥ सतिगुरु सिख की करै प्रतिपाल ॥ सेवक कउ गुरु सदा दइआल ॥ सिख की गुरु दुरमति मलु हिरै ॥ गुर बचनी हरि नामु उचरै ॥ सतिगुरु सिख के बंधन काटै ॥ गुर का सिखु बिकार ते हाटै ॥ सतिगुरु सिख कउ नाम धनु देइ ॥ गुर का सिखु वडभागी हे ॥ सतिगुरु सिख का हलतु पलतु सवारै ॥ नानक सतिगुरु सिख कउ जीअ नालि समारै ॥१॥ {पन्ना 286} शब्दार्थ: प्रतिपाल = रक्षा। कउ = को, पर। दुरमति = बुरी मति। हिरै = दूर करता है। गुरबचनी = गुरू के बचनों से, गुरू के उपदेश से। हाटै = हट जाता है। देइ = देता है। वडभागी = बड़ा भाग्यशाली। हे = है। हलतु = (सं: अत्र = in this place, here) ये लोक। पलतु = (परत्र = in another world) पर लोक। जीअ नाल = जिंद के साथ। सरलार्थ: सतिगुरू सिख की रक्षा करता है, सतिगुरू अपने सेवक पर सदा मेहर करता है। सतिगुरू अपने सिख की बुरी मति रूपी मैल दूर कर देता है, क्योंकि सिख अपने सतिगुरू के उपदेश के द्वारा प्रभू का नाम सिमरता है। सतिगुरू अपने सिख के (माया के) बंधन काट देता है (और) गुरू का सिख विकारों से हट जाता है। (क्योंकि) सतिगुरू अपने सिख को प्रभू का नाम रूपी धन देता है (और इस तरह) सतिगुरू का सिख बहुत भाग्यशाली बन जाता है। सतिगुरू अपने सिख के लोक परलोक सवार देता है। हे नानक! सतिगुरू अपने सिख को अपनी जिंद के साथ याद रखता है।1। गुर कै ग्रिहि सेवकु जो रहै ॥ गुर की आगिआ मन महि सहै ॥ आपस कउ करि कछु न जनावै ॥ हरि हरि नामु रिदै सद धिआवै ॥ मनु बेचै सतिगुर कै पासि ॥ तिसु सेवक के कारज रासि ॥ सेवा करत होइ निहकामी ॥ तिस कउ होत परापति सुआमी ॥ अपनी क्रिपा जिसु आपि करेइ ॥ नानक सो सेवकु गुर की मति लेइ ॥२॥ {पन्ना 286-287} शब्दार्थ: ग्रिहि = घर में। गुर कै ग्रिहि = गुरू के घर में। सहै = सहता है। आपस कउ = अपने आप को। जनावै = जताता। रासि = सफल, सिद्ध। निहकामी = कामना रहित, फल की इच्छा ना रखने वाला। सुआमी = मालिक, प्रभू। सरलार्थ: जो सेवक (शिक्षा की खातिर) गुरू के घर में (भाव गुरू के दर पर) रहता है, और गुरू का हुकम मन में मानता है। जो अपने आप को बड़ा नहीं जताता, प्रभू का नाम सदा हृदय में ध्याता है। जो अपना मन सतिगुरू के आगे बेच देता है (भाव, गुरू के हवाले कर देता है) उस सेवक के सारे काम सिरे चढ़ जाते हैं। जो सेवक (गुरू की) सेवा करता हुआ किसी फल की इच्छा नहीं रखता, उसे मालिक प्रभू मिल जाता है। हे नानक! वह सेवक सतिगुरू की शिक्षा लेता है जिस पर (प्रभू अपनी मेहर करता है)।2। |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
धन्यवाद! |