श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 285 बिसमन बिसम भए बिसमाद ॥ जिनि बूझिआ तिसु आइआ स्वाद ॥ प्रभ कै रंगि राचि जन रहे ॥ गुर कै बचनि पदारथ लहे ॥ ओइ दाते दुख काटनहार ॥ जा कै संगि तरै संसार ॥ जन का सेवकु सो वडभागी ॥ जन कै संगि एक लिव लागी ॥ गुन गोबिद कीरतनु जनु गावै ॥ गुर प्रसादि नानक फलु पावै ॥८॥१६॥ {पन्ना 285} शब्दार्थ: बिसमन बिसम = हैरान से हैरान। बिसमाद = हैरान। स्वाद = आनंद। राचि रहे = मस्त रहते हैं। ओइ = वह मनुष्य (जिन को नाम पदार्थ मिलता है)। सरलार्थ: जिस जिस मनुष्य ने (प्रभू की बुजुर्गियत को) समझा है, उस उस को आनंद आया है, (महिमा देख के) वे बड़े हैरान और आश्चर्यमयी होते हैं। प्रभू के दास प्रभू के प्यार में मस्त रहते हैं, और सत्गुरू के उपदेश की बरकति से (नाम) पदार्थ हासिल कर लेते हैं। वह (सेवक खुद) नाम की दाति बाँटते हैं, और (जीवों के) दुख काटते हें, उनकी संगति से जगत के जीव (संसार समुंद्र से) तैर जाते हैं। ऐसे सेवकों का जो सेवक बनता है वह बड़ा भाग्यशाली होता है, उनकी संगति में जुड़ने से अकाल-पुरख के साथ सुरति जुड़ती है। (प्रभू का) सेवक प्रभू के गुण गाता है, और सिफत सालाह करता है। हे नानक! सतिगुरू की कृपा से वह (प्रभू का नाम रूपी) फल पा लेता है।8।16। सलोकु ॥ आदि सचु जुगादि सचु ॥ है भि सचु नानक होसी भि सचु ॥१॥ {पन्ना 285} शब्दार्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला, हसती वाला। आदि = शुरू से। जुगादि = युगों से। नानक = हे नानक! होसी = होगा, रहेगा। सरलार्थ: प्रभू आरम्भ से ही अस्तित्व में है, युगों के शुरू से मौजूद है। इस वक्त भी मौजूद है, हे नानक! आगे को भी सदा कायम रहेगा।1। असटपदी ॥ चरन सति सति परसनहार ॥ पूजा सति सति सेवदार ॥ दरसनु सति सति पेखनहार ॥ नामु सति सति धिआवनहार ॥ आपि सति सति सभ धारी ॥ आपे गुण आपे गुणकारी ॥ सबदु सति सति प्रभु बकता ॥ सुरति सति सति जसु सुनता ॥ बुझनहार कउ सति सभ होइ ॥ नानक सति सति प्रभु सोइ ॥१॥ {पन्ना 285} शब्दार्थ: सति = सदा स्थिर रहने वाले, अटॅल। परसनहार = (चरणों को) छूने वाले। सेवदार = सेवा करने वाले, पूजा करने वाले। पेखनहार = देखने वाले। सभ = सारी सृष्टि। धारी = टिकाई हुई। गुणकारी = गुण पैदा करने वाला। बकता = उच्चारन करने वाला, कहने वाला। सुरति = ध्यान। जसु = सिफत। सरलार्थ: प्रभू के चरन सदा स्थिर हैं, चरनों को छूने वाले सेवक भी सदा अटॅल हो जाते हैं; प्रभू की पूजा एक सदा निभने वाला काम है, (सो) पूजा करने वाले सदा के लिए अटॅल हो जाते हैं। प्रभू का दीदार सति- (कर्म) है, दीदार करने वाले भी जनम मरन से रहित हो जाते हैं; प्रभू का नाम अटॅल है, सिमरने वाले भी स्थिर हैं। प्रभू खुद सदा अस्तित्व वाला है, उसकी टिकाई हुई रचना भी अस्तित्व वाली है, प्रभू खुद गुण- (रूप) है, स्वयं ही गुण पैदा करने वाला है। (प्रभू की सिफत सालाह का) शबद सदा कायम है, शबद को उच्चारने वाला भी स्थिर हो जाता है, प्रभू में सुरति जोड़नी सति (-कर्म है), प्रभू यश सुनने वाला भी सति है। (प्रभू का अस्तित्व) समझने वाले को उसका रचा हुआ जगत भी हसती वाला दिखता है (भाव, मिथ्या नहीं प्रतीत होता); हे नानक! प्रभू स्वयं सदा स्थिर रहने वाला है।1। सति सरूपु रिदै जिनि मानिआ ॥ करन करावन तिनि मूलु पछानिआ ॥ जा कै रिदै बिस्वासु प्रभ आइआ ॥ ततु गिआनु तिसु मनि प्रगटाइआ ॥ भै ते निरभउ होइ बसाना ॥ जिस ते उपजिआ तिसु माहि समाना ॥ बसतु माहि ले बसतु गडाई ॥ ता कउ भिंन न कहना जाई ॥ बूझै बूझनहारु बिबेक ॥ नाराइन मिले नानक एक ॥२॥ {पन्ना 285} शब्दार्थ: सति सरूप = सदा स्थिर रहने वाले प्रभू की मूरति। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। मूलु = आरम्भ, कारण। बिस्वासु = श्रद्धा। बसतु = चीज। गडाई = मिलाई। भिंन = अलग। बिबेक = विचार, परख। नाराइन = अकाल-पुरख। सरलार्थ: जिस मनुष्य ने अटॅल प्रभू की मूरति को सदा मन में टिकाया हुआ है, उसने सब कुछ करने वाले और (जीवों से) कराने वाले (जगत के) मूल को पहिचान लिया है। जिस मनुष्य के हृदय में प्रभू (की हस्ती) का यकीन बंध गया है, उसके मन में सच्चा ज्ञान प्रगट हो गया है। (वह मनुष्य) (जगत के हरेक) डर से (रहित हो के) निडर हो के बसता है, (क्योंकि) वह सदा उस प्रभू में लीन रहता है जिस से वह पैदा हुआ है। (जैसे) एक चीज ले के (उसी तरह की) चीज में मिला दी जाए (तो दोनों में कोई फर्क नहीं रह जाता, वैसे ही जो मनुष्य प्रभू चरणों में लीन है) उसे प्रभू से अलग नहीं कहा जा सकता। (पर) इस विचार को विचारने वाला (कोई विरला) समझता है। हे नानक! जो जीव प्रभू को मिल गए हैं वे उसके साथ एक-रूप हो गए हैं।2। ठाकुर का सेवकु आगिआकारी ॥ ठाकुर का सेवकु सदा पूजारी ॥ ठाकुर के सेवक कै मनि परतीति ॥ ठाकुर के सेवक की निरमल रीति ॥ ठाकुर कउ सेवकु जानै संगि ॥ प्रभ का सेवकु नाम कै रंगि ॥ सेवक कउ प्रभ पालनहारा ॥ सेवक की राखै निरंकारा ॥ सो सेवकु जिसु दइआ प्रभु धारै ॥ नानक सो सेवकु सासि सासि समारै ॥३॥ {पन्ना 285} शब्दार्थ: आगिआकारी = आज्ञा मानने वाला। पूजारी = पूजा करने वाला। सेवक कै मनि = सेवक के मन में। परतीति = श्रद्धा, सिदक। रीति = रीति रिवाज, जिंदगी निभाने का ढंग। कउ = को। संगि = (अपने) साथ। रंगि = प्यार में, मौज में। राखै = (इज्जत) रखता है। सासि सासि = हरेक सांस में, दम-ब-दम। समारै = याद करता है। सरलार्थ: प्रभू का सेवक प्रभू की आज्ञा में चलता है और सदा उसकी पूजा करता है। अकाल-पुरख के सेवक के मन में (उसकी हसती का) विश्वास रहता है, (तभी तो) उसकी जिंदगी की स्वच्छ मर्यादा होती है। सेवक अपने मालिक प्रभू को (हर वक्त अपने) साथ जानता है और उसके नाम की मौज में रहता है। प्रभू अपने सेवक को सदा पालने के समर्थ है, और अपने सेवक की (सदा) लाज रखता है। (पर) सेवक वही मनुष्य (बन सकता) है जिस पर प्रभू खुद मेहर करता है; हे नानक! ऐसा सेवक प्रभू को दम-ब-दम याद रखता है।3। अपुने जन का परदा ढाकै ॥ अपने सेवक की सरपर राखै ॥ अपने दास कउ देइ वडाई ॥ अपने सेवक कउ नामु जपाई ॥ अपने सेवक की आपि पति राखै ॥ ता की गति मिति कोइ न लाखै ॥ प्रभ के सेवक कउ को न पहूचै ॥ प्रभ के सेवक ऊच ते ऊचे ॥ जो प्रभि अपनी सेवा लाइआ ॥ नानक सो सेवकु दह दिसि प्रगटाइआ ॥४॥ {पन्ना 285} शब्दार्थ: परदा ढाकै = लाज रखता है, अवगुणों पर पर्दा डालता है। सरपर = अवश्य, जरूर। राखै = (लाज) रखता है। वडाई = महिमा, सम्मान। पति = इज्जत। गति = हालत, अवस्था। मिति = गिनती, (बड़ेपन का) अंदाजा। न लाखै = नहीं समझ सकता। को न = कोई मनुष्य नहीं। प्रभि = प्रभू ने। दह = दस। दिसि = दिशाएं। सरलार्थ: प्रभू अपने सेवक का पर्दा ढकता है, और उसकी लाज अवश्य रखता है। प्रभू अपने सेवक को सम्मान बख्शता है और उसे अपना नाम जपाता है। प्रभू अपने सेवक की इज्जत स्वयं रखता है, उसकी उच्च अवस्था और उसके बड़ेपन का अंदाजा कोई नहीं लगा सकता। कोई मनुष्य प्रभू के सेवक की बराबरी नहीं कर सकता, (क्योंकि) प्रभू के सेवक ऊँचों से भी ऊँचे होते हैं। (पर) हे नानक! वह सेवक सारे जगत में प्रगट हुआ है, जिसे प्रभू ने खुद अपनी सेवा में लगाया है।4। |
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धन्यवाद! |