श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 278 कबहू साधसंगति इहु पावै ॥ उसु असथान ते बहुरि न आवै ॥ अंतरि होइ गिआन परगासु ॥ उसु असथान का नही बिनासु ॥ मन तन नामि रते इक रंगि ॥ सदा बसहि पारब्रहम कै संगि ॥ जिउ जल महि जलु आइ खटाना ॥ तिउ जोती संगि जोति समाना ॥ मिटि गए गवन पाए बिस्राम ॥ नानक प्रभ कै सद कुरबान ॥८॥११॥ {पन्ना 278} शब्दार्थ: बहुरि = दुबारा, वापस। गिआन परगासु = ज्ञान का प्रकाश, ज्ञान का जलवा। इक रंगि = एक प्रभू के प्यार में। खटाना = मिलता है। गवन = भटकना, जनम मरन के फेरे। बिस्राम = ठिकाना, आराम। सरलार्थ: (जब) कभी (प्रभू की अंश) ये जीव सत्संग में पहुँचता है, तो उस स्थान से वापस नहीं आता। (क्योंकि) इसके अंदर प्रभू के ज्ञान का प्रकाश हो जाता है (और) उस (ज्ञान के प्रकाश वाली) हालत का नाश नहीं होता। (जिन मनुष्यों के) तन मन प्रभू के नाम में और प्यार में रंगे रहते हैं, वे सदा प्रभू की हजूरी में बसते हैं। (सो) जैसे पानी में पानी आ मिलता है वैसे ही (सत्संग में टिके हुए की) आत्मा प्रभू की ज्योति में लीन हो जाती है। उस के (जनम मरन के) फेरे समाप्त हो जाते हैं, (प्रभू-चरणों में) उसे ठिकाना मिल जाता है। हे नानक! प्रभू से सदके जाएं।8।11। सलोकु ॥ सुखी बसै मसकीनीआ आपु निवारि तले ॥ बडे बडे अहंकारीआ नानक गरबि गले ॥१॥ {पन्ना 278} शब्दार्थ: मसकीनीआ = मसकीन मनुष्य, गरीबी स्वभाव वाला आदमी। आपु = स्वैभाव, अहम्। निवारि = दूर करके। तले = नीचे, झुक के। गरबि = गर्व में, अहंकार में। गले = गल गए। सरलार्थ: गरीबी स्वभाव वाला आदमी स्वै-भाव दूर करके, और विनम्र रहके सुखी रहता है, (पर) बड़े बड़े अहंकारी मनुष्य, हे नानक! अहंकार में गल जाते हैं।1। असटपदी ॥ जिस कै अंतरि राज अभिमानु ॥ सो नरकपाती होवत सुआनु ॥ जो जानै मै जोबनवंतु ॥ सो होवत बिसटा का जंतु ॥ आपस कउ करमवंतु कहावै ॥ जनमि मरै बहु जोनि भ्रमावै ॥ धन भूमि का जो करै गुमानु ॥ सो मूरखु अंधा अगिआनु ॥ करि किरपा जिस कै हिरदै गरीबी बसावै ॥ नानक ईहा मुकतु आगै सुखु पावै ॥१॥ {पन्ना 278} शब्दार्थ: राज अभिमानु = राज का गुमान। सुआनु = कुक्ता। नरकपाती = नर्कों में पड़ने का अधिकारी। जोबनवंतु = यौवन वाला, जवानी का मालिक, बड़ा सुंदर। बिसटा = विष्टा, गुह। जंतु = कीड़ा। करमवंतु = (अच्छे) काम करने वाला। जनमि = पैदा हो के, जनम ले के। भ्रमावै = भटकता है। भूमि = धरती। अगिआनु = जाहिल। ईहा = यहाँ, इस जिंदगी में। मुकतु = (माया के बंधनों से) आजाद। आगै = परलोक में। सरलार्थ: जिस मनुष्य के मन में राज का गुमान है, वह कुक्ता नर्क में पड़ने का अधिकारी है। जो मनुष्य अपने आप को बहुत सुंदर समझता है, वह विष्टा का ही कीड़ा होता है (क्योंकि सदा विषौ-विकारों के गंद में पड़ा रहता है)। जो अपने आप को बढ़िया काम करने वाला कहलाता है, वह सदा पैदा होता है मरता है, कई जूनियों में भटकता फिरता है। जो मनुष्य धन और धरती (की मल्कियत) का अहंकार करता है, वह मूर्ख है बड़ा जाहिल है। मेहर करके जिस मनुष्य के दिल में गरीबी का (स्वभाव) डालता है, हे नानक! (वह मनुष्य) इस जिंदगी में विकारों से बचा रहता है और परलोक में सुख पाता है।1। धनवंता होइ करि गरबावै ॥ त्रिण समानि कछु संगि न जावै ॥ बहु लसकर मानुख ऊपरि करे आस ॥ पल भीतरि ता का होइ बिनास ॥ सभ ते आप जानै बलवंतु ॥ खिन महि होइ जाइ भसमंतु ॥ किसै न बदै आपि अहंकारी ॥ धरम राइ तिसु करे खुआरी ॥ गुर प्रसादि जा का मिटै अभिमानु ॥ सो जनु नानक दरगह परवानु ॥२॥ {पन्ना 278} शब्दार्थ: धनवंता = धन वाला, धनाढ। गरबावै = गर्व करता है। त्रिण = घास का तीला। समानि = बराबर। संगि = साथ। भीतरि = में। आप = अपने आप को। बलवंतु = बलशाली, बली, ताकतवाला। भसमंतु = राख। बदै = परवाह करता है। सरलार्थ: मनुष्य धनवान हो के गुमान करता है, (पर उसके) साथ (अंत समय) कोई तीले जितनी चीज भी नहीं जाती। बहुते लश्करों और मनुष्यों पर आदमी आशाएं लगाए रखता है, (पर) पल में उसका नाश हो जाता है (और उनमें से कोई भी सहायक नहीं होता)। मनुष्य अपने आप को सब से बलशाली समझता है, (पर अंत के समय) एक छिन में (जल के) राख हो जाता है। (जो आदमी) खुद (इतना) अहंकारी हो जाता है कि किसी की भी परवाह नहीं करता, धर्मराज (अंत के समय) उसकी मिट्टी पलीत करता है। सतिगुरू की दया से जिसका अहंकार मिटता है, वह मनुष्य, हे नानक! प्रभू की दरगाह में कबूल होता है।2। कोटि करम करै हउ धारे ॥ स्रमु पावै सगले बिरथारे ॥ अनिक तपसिआ करे अहंकार ॥ नरक सुरग फिरि फिरि अवतार ॥ अनिक जतन करि आतम नही द्रवै ॥ हरि दरगह कहु कैसे गवै ॥ आपस कउ जो भला कहावै ॥ तिसहि भलाई निकटि न आवै ॥ सरब की रेन जा का मनु होइ ॥ कहु नानक ता की निरमल सोइ ॥३॥ {पन्ना 278} शब्दार्थ: कोटि = करोड़ों। हउ = अहंकार। स्रमु = थकावट। सगले = सारे (कर्म)। बिरथारे = व्यर्थ, बेफायदा। तपसिआ = तप के साधन। अवतार = जनम। द्रवै = द्रवित, नर्म होता। गवै = जाए, पहुँचे। आपस कउ = अपने आप को। तिसहि = उस को। निकटि = नजदीक। रेन = चरणों की धूड़। सोइ = शोभा। सरलार्थ: (यदि मनुष्य) करोड़ों (धार्मिक) कर्म करे (और उनका) अहंकार (भी) करे तो वह सारे काम व्यर्थ हैं, (उन कामों का फल उसे केवल) थकावट (ही) मिलती है। अनेको तप और साधन करके अगर इनका मान करे, (तो वह भी) नर्कों-स्वर्गों में ही बारंबार पैदा होता है (भाव, कभी सुख और कभी दुख भोगता है)। अनेकों यत्न करने से अगर हृदय नरम नहीं होता तो बताओ, वह मनुष्य प्रभू की दरगाह में कैसे पहुँच सकता है? जो मनुष्य अपने आप को नेक कहलाता है, नेकी उसके नजदीक भी नहीं फटकती। जिस मनुष्य का मन सबके चरणों की धूड़ हो जाता है, कह, हे नानक! उस मनुष्य की सुंदर शोभा फैलती है।3। जब लगु जानै मुझ ते कछु होइ ॥ तब इस कउ सुखु नाही कोइ ॥ जब इह जानै मै किछु करता ॥ तब लगु गरभ जोनि महि फिरता ॥ जब धारै कोऊ बैरी मीतु ॥ तब लगु निहचलु नाही चीतु ॥ जब लगु मोह मगन संगि माइ ॥ तब लगु धरम राइ देइ सजाइ ॥ प्रभ किरपा ते बंधन तूटै ॥ गुर प्रसादि नानक हउ छूटै ॥४॥ {पन्ना 278} शब्दार्थ: जब लगु = जब तक। मुझ ते = मेरे से। कछु = कुछ। धारै = मिथता है, ख्याल करता है। निहचलु = अडोल, अपने जगह पर। चीतु = चिक्त। मोह मगन संगि माइ = माइ मोह संगि मगन, माया के मोह में डूबा हुआ। मगन = गर्क, डूबा हुआ। देइ = देता है। हउ = अहंकार, विलक्षता का गर्व। छूटै = खत्म होता है। सरलार्थ: मनुष्य जब तक ये समझता है कि मुझसे कुछ हो सकता है, तब तक इसे कोई सुख नहीं होता। जब तक ये समझता है कि मैं (अपने बल से) कुछ करता हूँ, तब तक (अलग-पन के अहंकार के कारण) जूनियों में पड़ा रहता है। जब तक मनुष्य किसी को वैरी और किसी को मित्र समझता है, तब तक इसका मन ठिकाने नहीं आता। जब तक आदमी माया के मोह में गरक रहता है, तब तक इसे धर्मराज दण्ड देता है। (माया के) बंधन प्रभू की मेहर से टूटते हैं, हे नानक! मनुष्य का अहंकार गुरू की कृपा से खत्म होता है।4। |
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धन्यवाद! |