श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 277 असटपदी ॥ करन करावन करनै जोगु ॥ जो तिसु भावै सोई होगु ॥ खिन महि थापि उथापनहारा ॥ अंतु नही किछु पारावारा ॥ हुकमे धारि अधर रहावै ॥ हुकमे उपजै हुकमि समावै ॥ हुकमे ऊच नीच बिउहार ॥ हुकमे अनिक रंग परकार ॥ करि करि देखै अपनी वडिआई ॥ नानक सभ महि रहिआ समाई ॥१॥ {पन्ना 277} शब्दार्थ: जोगु = स्मर्थ, ताकत वाला। होगु = होगा। थापि = पैदा करके। उथापनहारा = नाश करने वाला। पारावारा = पार और अवार, इस पार और उस पार। धारि = टिका के। अधर = अ+धर, बिना आसरे। रहावै = रखावे, रखता है। उपजै = पैदा होता है। परकार = किस्म। सरलार्थ: प्रभू (सब कुछ) करने की स्मर्था रखता है, और (जीवों को) काम करने के लिए प्रेरित करने के स्मर्थ भी है, वही कुछ होता है जो कुछ उसे अच्छा लगता है। आँख की झपक में जगत को पैदा करके नाश भी करने वाला है, (उसकी ताकत) की कोई सीमा नहीं है। (सृष्टि को अपने) हुकम में पैदा करके बिना किसी आसरे टिकाए रखता है, (जगत उसके) हुकम में पैदा होता है और हुकम में लीन हो जाता है। ऊँचे और नीच लोगों की बरतों भी उसके हुकम में ही है, अनेक किस्मों के खेल तमाशे उसके हुकम में ही हो रहे हैं। अपनी बुजुर्गी (के काम) कर कर के खुद ही देख रहा है। हे नानक! प्रभू सब जीवों में व्यापक है।१। प्रभ भावै मानुख गति पावै ॥ प्रभ भावै ता पाथर तरावै ॥ प्रभ भावै बिनु सास ते राखै ॥ प्रभ भावै ता हरि गुण भाखै ॥ प्रभ भावै ता पतित उधारै ॥ आपि करै आपन बीचारै ॥ दुहा सिरिआ का आपि सुआमी ॥ खेलै बिगसै अंतरजामी ॥ जो भावै सो कार करावै ॥ नानक द्रिसटी अवरु न आवै ॥२॥ {पन्ना 277} शब्दार्थ: प्रभ भावै = अगर प्रभू को ठीक लगे। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। पतित = (धर्म से) गिरे हुए। आपन बीचारै = अपने विचार अनुसार। दुहा सिरिआ का = लोक परलोक का। खेलै = खेल खेलता है, जगत रचना की खेल खेलता है। बिगसै = (ये खेल देख के) खुश होता है। अंतरजामी = (जीवों के) अंदर की जानने वाला। द्रिसटी = नजर में। अवरु = (कोई) और। सरलार्थ: अगर प्रभू को ठीक लगे तो मनुष्य को उच्च आत्मिक अवस्था देता है और पत्थर (-दिलों) को भी पार लगा देता है। अगर प्रभू चाहे तो स्वास के बिना भी प्राणी को (मौत से) बचाए रखता है, उसकी मेहर हो प्रभू मेहर के गुण गाता है। अगर अकाल-पुरख की रजा हो तो गिरे चाल-चलन वालों को (विकारों से) बचा लेता है, जो कुछ करता है, अपनी सलाह अनुसार करता है। प्रभू खुद ही लोक परलोक का मालिक है, वह सबके दिल की जानने वाला खुद जगत खेल खेलता है और (इसे देख के) खुश होता है। जो उसे अच्छा लगता है वही काम करता है। हे नानक! (उस जैसा) कोई और नहीं दिखता।२। कहु मानुख ते किआ होइ आवै ॥ जो तिसु भावै सोई करावै ॥ इस कै हाथि होइ ता सभु किछु लेइ ॥ जो तिसु भावै सोई करेइ ॥ अनजानत बिखिआ महि रचै ॥ जे जानत आपन आप बचै ॥ भरमे भूला दह दिसि धावै ॥ निमख माहि चारि कुंट फिरि आवै ॥ करि किरपा जिसु अपनी भगति देइ ॥ नानक ते जन नामि मिलेइ ॥३॥ {पन्ना 277} शब्दार्थ: कहु = बताओ। हाथि = हाथ में, वश में। अनजानत = ना जानते हुए, मूर्ख होने के कारण। बिखिआ = माइआ। जानत = समझ वाला हो। दह = दस। दिसि = दिशाएं, तरफें। दहदिसि = दसों ओर। धावै = दौड़ता है। निमख = आँख फड़कने जितना समय। कुंट = कूट (सं: कूट = end, corner) कोने। नामि = नाम में। मिलेइ = जुड़ गए हैं, लीन हो गए हैं। सरलार्थ: बताओ, मनुष्य से (अपने आप) कौन सा काम हो सकता है? जो प्रभू को ठीक लगता है वही (जीव से) कराता है। इस (मनुष्य) के हाथ में हो तो हर चीज पर कब्जा कर ले, (पर) प्रभू वही कुछ करता है जो उसे भाता है। मूर्खता के कारण मनुष्य माया में उलझ जाता है, यदि समझदार हो तो अपने आप (इससे) बचा रहे। (पर इसका मन) भुलेखे में भूला हुआ (माया की खातिर) दसों दिशाओं में दौड़ता है, आँख की झपक में चारों कोनों में दौड़ भाग आता है। (प्रभू) मेहर करके जिस जिस मनुष्य को अपनी भक्ति बख्शता है, हे नानक! वे मनुष्य नाम में टिके रहते हैं।3। खिन महि नीच कीट कउ राज ॥ पारब्रहम गरीब निवाज ॥ जा का द्रिसटि कछू न आवै ॥ तिसु ततकाल दह दिस प्रगटावै ॥ जा कउ अपुनी करै बखसीस ॥ ता का लेखा न गनै जगदीस ॥ जीउ पिंडु सभ तिस की रासि ॥ घटि घटि पूरन ब्रहम प्रगास ॥ अपनी बणत आपि बनाई ॥ नानक जीवै देखि बडाई ॥४॥ {पन्ना 277} शब्दार्थ: कीट = कीड़ा। निवाज = मेहर करने वाला। जा का कछू = जिसका कोई गुण। द्रिसटि न आवै = नहीं दिखता। ततकाल = तुरंत। बशसीस = बख्शिश, दया। जगदीस = जगत+ईश, जगत का मालिक। रासि = पूँजी। तिस की = उस प्रभू की। घटि घटि = हरेक घट में, हरेक शरीर में। पूरन = व्यापक। प्रगास = जलवा। बणत = बनावट, आकार, जगत रूपी घाड़त। जीवै = जी रहा है, प्रसन्न हो रहा है। सरलार्थ: छिन में प्रभू कीड़े (जैसे) छोटे (मनुष्य) को राज दे देता है, प्रभू गरीबों पर मेहर करने वाला है। जिस मनुष्य में कोई गुण नहीं दिखाई देता, उसे एक पल में ही दसों दिशाओं में चमका देता है। जिस मनुष्य पर जगत का मालिक प्रभू अपनी बख्शिश करता है; उसके (कर्मों के) लेख नहीं गिनता। ये जिंद और शरीर सब उस प्रभू की दी हुई पूँजी है, हरेक शरीर में व्यापक प्रभू का ही जलवा है। ये (जगत) रचना उसने खुद रची है। हे नानक! अपनी (इस) बुजुर्गी को खुद देख के खुश हो रहा है।4। इस का बलु नाही इसु हाथ ॥ करन करावन सरब को नाथ ॥ आगिआकारी बपुरा जीउ ॥ जो तिसु भावै सोई फुनि थीउ ॥ कबहू ऊच नीच महि बसै ॥ कबहू सोग हरख रंगि हसै ॥ कबहू निंद चिंद बिउहार ॥ कबहू ऊभ अकास पइआल ॥ कबहू बेता ब्रहम बीचार ॥ नानक आपि मिलावणहार ॥५॥ {पन्ना 277} शब्दार्थ: सरब को नाथ = सारे जीवों का मालिक। बपुरा = विचारा। आज्ञाकारी = हुकम में चलने वाला। जीउ = जीव। थीउ = होता है, वरतता है। कबहू = कभी। सोग = चिंता। हरख = खुशी। निंद चिंद = निंदा की विचार। बिउहार = व्यवहार, सलूक। ऊभ = ऊँचा। पइआल = पाताल। बेता = जानने वाला, महरम। ब्रहम बीचार = ईश्वरीय विचार। सरलार्थ: इस (जीव) की ताकत इसके अपने हाथ में नहीं है, सब जीवों का प्रभू स्वयं सब कुछ करने कराने के स्मर्थ है। बिचारा जीव प्रभू के हुकम में चलने वाला है (क्योंकि) होता वही है जो उस प्रभू को भाता है। (प्रभू स्वयं) कभी ऊँचों में कभी छोटों में प्रगट हो रहा है, कभी चिंता में है और कभी खुशी की मौज में हँस रहा है। कभी (दूसरों की) निंदा विचारने का व्यवहार बनाए बैठा है, कभी (खुशी के कारण) आकाश में ऊँचा (चढ़ता है) (कभी चिंता के कारण) पाताल में (गिरा पड़ा है)। कभी खुद ही ईश्वरीय विचार का महरम है। हे नानक! जीवों को अपने में मेलने वाला स्वयं ही है।5। कबहू निरति करै बहु भाति ॥ कबहू सोइ रहै दिनु राति ॥ कबहू महा क्रोध बिकराल ॥ कबहूं सरब की होत रवाल ॥ कबहू होइ बहै बड राजा ॥ कबहु भेखारी नीच का साजा ॥ कबहू अपकीरति महि आवै ॥ कबहू भला भला कहावै ॥ जिउ प्रभु राखै तिव ही रहै ॥ गुर प्रसादि नानक सचु कहै ॥६॥ {पन्ना 277} शब्दार्थ: निरति = नाच। भाति = किस्म। सोइ रहै = सोया रहता है। बिकराल = भयानक। रवाल = चरणों की धूड़। बड = बड़ा। भेखारी = भिखारी। साजा = स्वांग। अपकीरति = अपकीर्ति, बदनामी। सचु कहै = अकाल-पुरख को सिमरता है। तिव ही = उसी तरह। सरलार्थ: (प्रभू जीवों में व्यापक हो के) कभी कई किस्मों के नाच कर रहा है, कभी दिन रात सोया रहता है। कभी क्रोध (में आ के) बड़ा डरावना (लगता है), कभी जीवों के चरणों की धूड़ (बना रहता है)। कभी बड़ा राजा बन बैठता है, कभी एक नीच जाति के मंगते का स्वांग (बना लेता है)। कभी अपनी बदनामी करा रहा है, कभी तारीफ करवा रहा है। जीव उसी तरह जीवन व्यतीत करता है जैसे प्रभू करवाता है। हे नानक! (कोई विरला मनुष्य) गुरू की कृपा से प्रभू को सिमरता है।6। कबहू होइ पंडितु करे बख्यानु ॥ कबहू मोनिधारी लावै धिआनु ॥ कबहू तट तीरथ इसनान ॥ कबहू सिध साधिक मुखि गिआन ॥ कबहू कीट हसति पतंग होइ जीआ ॥ अनिक जोनि भरमै भरमीआ ॥ नाना रूप जिउ स्वागी दिखावै ॥ जिउ प्रभ भावै तिवै नचावै ॥ जो तिसु भावै सोई होइ ॥ नानक दूजा अवरु न कोइ ॥७॥ {पन्ना 277-278} शब्दार्थ: बख्यानु = व्याख्यान, उपदेश। मोनधारी = चुप रहने वाला, कभी ना बोलने वाला। तट = नदी का किनारा। सिध = माहिर जोगी। साधिक = साधना करने वाले। मुखि = मुंह से। कीट = कीड़ा। हसति = हाथी। पतंग = पतंगा। भरमीआ = भरम में डाला हुआ, चक्कर खाया हुआ, बौंदला हुआ। सरलार्थ: (सर्व-व्यापी प्रभू) कभी पंडित बन के (दूसरों को) उपदेश कर रहा है, कभी मोनी साधू हो के समाधि लगाए बैठा है। कभी तीर्थों के किनारे स्नान कर रहा है, कभी सिद्ध और साधिक (के रूप में) मुंह से ज्ञान की बातें करता है। कभी कीड़े, हाथी, पतंगा (आदि जीव) बना हुआ है और (अपना ही) भरमाया हुआ कई जूनियों में भटक रहा है। बहु-रूपीए की तरह कई तरह के रूप दिखा रहा है, जैसे प्रभू को भाता है तैसे ही (जीवों को) नचाता है। वही होता है जो उस मालिक को ठीक लगता है। हे नानक! (उस जैसा) कोई और दूसरा नहीं है।7। |
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