मेरी न बनै बनाये मेरे कोटि कलप लौं,
राम !रावरे बनाये बनै पल पाउ मैं।
निपट सयाने हौ कृपानिधान ! कहा कहौं ?
लिये बेर बदलि अमोल मनि आउ मैं ॥ १ ॥
मानस मलीन,करतब कलिमल पीन,
जीह हू न जप्यो नाम,बक्यो आउ-बाउ मैं।
कुपथ कुचाल चल्यो, भयो न भूलिहू भलो,
बाल-दसा हू न खेल्यो खेलत सुदाउ मैं ॥ २ ॥
देखा-देखी दंभ तें कि संग तें भई भलाई,
प्रकटि जनाई, कियो दुरित-दुराउ मैं।
राग रोष दोष/द्वेष पोषे, गोगन समेत मन,
इनकी भगति कीन्ही इनही को भाउ मैं ॥ ३ ॥
आगिली-पाछिली, अबहूँकी अनुमान ही तें,
बूझियत गति, कछु कीन्हों तो न काउ मैं।
जग कहै रामकी प्रतीति-प्रीति तुलसी हू,
झूठे-साँचे आसरो साहब रघुराउ मैं ॥ ४ ॥
कह्यो न परत,बिनु कहे न रह्यो परत,
बड़ो सुख कहत बड़े सों,बलि,दीनता।
प्रभुकी बड़ाई बड़ी,आपनी छोटाई छोटी,
प्रभुकी पुनीतता, आपनी पाप-पीनता ॥ १ ॥
दुहू ओर समुझि सकुचि सहमत मन,
सनमुख होत सुनि स्वामी-समीचीनता।
नाथ-गुनगाथ गाये,हाथ जोरि माथ नाये,
नीचऊ निवाजे प्रीति-रीतिकी प्रबीनता ॥ २ ॥
एही दरबार है गरब तें सरब-हानि,
लाभ जोग-छेमको गरीबी-मिसकीनता।
मोटो दसकंध सो न दूबरो बिभीषण सो,
बूझि परी रावरेकी प्रेम-पराधीनता ॥ ३ ॥
यहाँकी सयानप,अयानप सहस सम,
सूधौ सतभाय कहे मिटति मलीनता।
गीध-सिला-सबरीकी सुधि सब दिन किये,
होइगी न साई सों सनेह-हित-हीनता ॥ ४ ॥
सकल कामना देत नाम तेरो कामतरु,
सुमिरत होत कलिमल-छल-छीनता।
करुनानिधान ! बरदान तुलसी चहत,
सीतापति-भक्ति-सुरसरि-नीर-मीनता ॥ ५ ॥
नाथ नीके कै जानिबी ठीक जन-जीयकी।
रावरो भरोसो नाह कै सु-प्रेम-नेम लियो,
रुचिर रहनि रुचि मति गति तीयकी ॥ १ ॥
कुकृत-सुकृत बस सब ही सों संग पर् यो,
परखी पराई गति, आपने हूँ कीयकी।
मेरे भलेको गोसाई ! पोचको,न सोच-संक,
हौंहुँ किये कहौं सौंह साँची सीय-पीयकी ॥ २ ॥
ग्यानहू-गिराके स्वामी,बाहर-अंतरजामी,
यहाँ क्यों दुरैगी बात मुखकी औ हीयकी ?
तुलसी तिहारो,तुमहीं पै तुलसीके हित,
राखि कहौं हौं तो जो पै व्हहौ माखी घीयकी ॥ ३ ॥
मेरो कह्यो सुनि पुनि भावै तोहि करि सो।
चारिहू बिलोचन बिलोकु तू तिलोक महँ,
तेरो तिहु काल कहु को है हितू हरि-सो ॥ १ ॥
नये-नये नेह अनुभये देह-गेह बसि,
परखे प्रंपंची प्रेम, परत उघरि सो।
सुहृद-समाज दगाबाजिहीको सौदा-सूत,
जब जाको काज तब मिलै पाँय परि सो ॥ २ ॥
बिबुध सयाने, पहिचाने कैधौं नाहीं नीके,
देत एक गुन, लेत कोटि गुन भरि सो।
करम-धरम श्रम-फल रघुबर बिनु,
राखको सो होम है, ऊसर कैसो बरिसो ॥ ३ ॥
आदि-अंत-बीच भलो भलो करै सबहीको,
जाको जस लोक-बेद रह्यो है बगरि-सो।
सीतापति सारिखो न साहिब सील-निधान,
कैसे कल परै सठ! बैठो सो बिसरि-सो ॥ ४ ॥
जीवको जीवन-प्रान, प्रानको परम हित,
प्रीतम,पुनीतकृत नीचन निदरि सो।
तुलसी! तोको कृपालु जो कियो कोसलपालु,
चित्रकूटको चरित्र चेतु चित करि सो ॥ ५ ॥
तन सुचि,मनरुचि, मुख कहौं 'जन हौं सिय-पीको'।
केहि अभाग जान्यो नहिं, जो न होइ नाथ सों नातो-नेह न नीको ॥ १ ॥
जल चाहत पावक लहौं, बिष होत अमीको।
कलि-कुचाल संतनि कही सोइ सही, मोहि कछु फहम न तरनि तमीको ॥ २ ॥
जानि अंध अंजन कहै बन-बाघिनी-घीको।
सुनि उपचार बिकारको सुबिचार करौं जब, तब बुधि बल हरै हीको ॥ ३ ॥
प्रभु सों कहत सकुचात हौं, परौं जनि फिरि फीको।
निकट बोलि,बलि,बरजिये,परिहरै ख्याल अब तुलसिदास जड़ जीको ॥ ४ ॥
ज्यों ज्यों निकट भयो चहौं कृपालु! त्यों त्यों दूरि पर् यो हौं।
तुम चहुँ जुग रस एक राम! हौं हूँ रावरो, जदपि अघ अवगुननि भर् यो हौं ॥
बीच पाइ एहि नीच बीच ही छरनि छर् यो हौं।
हौं सुबरन कुबरन कियो, नृपतें भिखारि करि, सुमतितें कुमति कर् यो हौं ॥ २ ॥
अगनित गिरि-कानन फिरयो, बिनु आगि जर् यो हौं।
चित्रकूट गये हौं लखि कलिकी कुचालि सब, अब अपडरनि डर् यो हौं ॥ ३ ॥
माथ नाइ नाथ सों कहौं, हात जोरि खर् यो हौं।
चीन्हों चोर जिय मारिहै तुलसी सो कथा सुनि प्रभुसों गुदरि निबर् यो हौं ॥ ४ ॥
पन करि हौं हठि आजुतें रामद्वार पर् यो हौं।
'तू मेरो'यह बिन कहे उठिहौ न जनमभरि, प्रभुकी सौकरि निर् यो हौं ॥ १ ॥
दै दै धक्का जमभट थके, टारे न टर् यो हौं।
उदर दुसह साँसति सही बहुबार जनमि जग, नरकनिदरि निकर् यो हौं ॥ २ ॥
हौं मचला लै छाड़िहौं, जेहि लागि अर् यो हौं।
तुम दयालु,बनिहै दिये,बलि,बिलँब न कीजिये, जात गलानि गर् यौ हौं ॥ ३ ॥
प्रगट कहत जो सकुचिये, अपराध-भर् यो हौं।
तौ मनमें अपनाइये, तुलसीहि कृपा करि, कलि बिलोकि हहर् यो हौं ॥ ४ ॥
तुम अपनायो तब जानिहौं,जब मन फिरि परिहै।
जेहि सुभाव बिषयनि लग्यो, तेहि सहज नाथ सौं नेह छाड़ि छल करिहै ॥ १ ॥
सुतकी प्रीति,प्रतीति मीतकी, नृप ज्यों डर डरिहै।
अपनो सो स्वारथ स्वामिसों, चहुँ बिधि चातक ज्यों एक टेकते नहिं टरिहै ॥ २ ॥
हरषिहै न अति आदरे, निदरे न जरि मरिहै।
हानि-लाभ दुख-सुख सबै समचित हित-अनहित,कलि-कुचालि परिहरिहै ॥ ३ ॥
प्रभु-गुन सुनि मन हरषिहै, नीर नयननि ढरिहै।
तुलसिदास भयो रामको बिस्वास,प्रेम लखि आनँद उमगि उर भरिहै ॥ ४ ॥
राम कबहुँ प्रिय लागिहौ जैसे नीर मीनको?
सुख जीवन ज्यों जीवको, मनि ज्यों फनिको हित, ज्यों धन लोभ-लीनको ॥ १ ॥
ज्यों सुभाय प्रिय लगति नागरी नागर नवीनको।
त्यों मेरे मन लालसा करिये करुनाकर! पावन प्रेम पीनको ॥ २ ॥
मनसाको दाता कहैं श्रुति प्रभु प्रबीनको।
तुलसिदासको भावतो,बलि जाउँ दयानिधि! दीजे दान दीनको ॥ ३ ॥
कबहुँ कृपा करि रघुबीर! मोहू चितैहो।
भलो-बुरो जन आपनो,जिय जानि दयानिधि! अवगुन अमित बितैहो ॥ १ ॥
जनम जनम हौं मन जित्यो, अब मोहि जितैहो।
हौं सनाथ ह्वेहौ सही,तुमहू अनाथपति, जो लघुतहि न भितैहो ॥ २ ॥
बिनय करौं अपभयहु तें, तुम्ह परम हितै हो।
तुलसिदास कासों कहै, तुमही सब मेरे,प्रभु-गुरु,मातु-पितै हो ॥ ३ ॥
जैसो हौं तैसो राम रावरो जन, जनि परिहरिये।
कृपासिंधु,कोसलधनी! सरनागत-पालक, ढरनि आपनी ढरिये ॥ १ ॥
हौं तौ बिगरायल और को, बिगरो न बिगरिये।
तुम सुधारि आये सदा सबकी सबही बिधि, अब मेरियो सुधरिये ॥ २ ॥
जग हँसिहै मेरे संग्रहे, कत इहि डर डरिये।
कपि-केवट कीन्हे सखा जेहि सील,सरल चित, तेहि सुभाउ अनुसरिये ॥ ३ ॥
अपराधी तउ आपनो, तुलसी न बिसरिये।
टूटियो बाँह गरे परै, फूटेहु बिलोचन पीर होत हित करिये ॥ ४ ॥
तुम जनि मन मैलो करो, लोचन जनि फेरो।
सुनहु राम! बिनु रावरे लोकहु परलोकहु कोउ न कहूँ हितु मेरो ॥ १ ॥
अगुन-अलायक-आलसी जानि अधम/अधनु अनेरो।
स्वारथके साथिन्ह तज्यो तिजराको- सो टोटक,औचट उलटि न हेरो ॥ २ ॥
भगतिहीन, बेद-बाहिरो लखि कलिमल घेरो।
देवनिहू देव! परिहरयो, अन्याव नतिनको हौं अपराधीसब केरो ॥ ३ ॥
नामकी ओट पेट भरत हौं, पै कहावत चेरो।
जगत-बिदित बात ह्वे परी, समुझिये धौं अपने, लोक कि बेद बड़ेरो ॥ ४ ॥
ह्वेहै जब-जब तुमहिं तें तुलसीको भलेरो।
दिन-हू-दिन देव/दीन बिगरि है,बलि जाउँ, बिलंब किये,अपनाइये सबेरो ॥ ५ ॥
तुम तजि हौं कासों कहौं, और को हितु मेरे ?
दीनबंधु!सेवक,सखा,आरत,अनाथपर सहज छोह केहि केरे ॥ १ ॥
बहुत पतित भवनिधि तरे बिनु तरि बिनु बेरे।
कृपा-कोप-सतिभायहू, धोखेहु-तिरछेहू,राम! तिहारेहि हेरे ॥ २ ॥
जो चितवनि सौंधी लगै, चितइये सबेरे।
तुलसिदास अपनाइये, कीजै न ढील, अब जिवन-अवधि अति नेरे ॥ ३ ॥
जाउँ कहाँ, ठौर है कहाँ देव! दुखित-दीनको ?
को कृपालु स्वामी-सारिखो, राखे सरनागत सब अँग बल-बिहीनको ॥ १ ॥
गनिहि,गुनिहि साहिब लहै, सेवा समीचीनको।
अधम/अधन अगुन आलसिनको पालिबो फबि आयो रघुनायक नवीनको ॥ २ ॥
मुखकै कहा कहौं, बिदित है जीकी प्रभु प्रबीनको।
तिहू काल, तिहु लोकमें एक टेक रावरी तुलसीसे मन मलीनको ॥ ३ ॥
द्वार द्वार दीनता कही, काढ़ि रद, परि पाहूँ।
हैं दयालु दुनी दस दिसा,दुख-दोष-दलन-छम, कियो न सँभाषन काहूँ ॥ १ ॥
तनु जन्यो/जनतेऊ कुटिल कीट ज्यों, तज्यों मातु-पिताहूँ।
काहेको रोष,दोष काहि धौं,मेरे ही अभाग मोसों सकुचत छुइ सब छाहूँ ॥ २ ॥
दुखित देखि संतन कह्यो, सोचै जनि मन माँहू।
तोसे पसु-पाँवर-पातकी परिहरे न सरन गये, रघुबर ओर बिनाहूँ ॥ ३ ॥
तुलसी तिहारो भये भयो सुखी प्रीती-प्रतीति बिनाहू।
नामकी महिमा,सील नाथको, मेरो भलो बिलोकि अब तें सकुचाहुँ,सिहाहूँ ॥ ४ ॥
२७६
कहा न कियो,कहाँ न गयो, सीस काहि न नायो ?
राम रावरे बिन भये जन जनमि-जनमि
जग दुख दसहू दिसि पायो ॥ १ ॥
आस-बिबस खास दास ह्वे नीच प्रभुनि जनायो।
हा हा करि दीनता कही द्वार-द्वार
बार-बार, परी न छार,मुह बायो ॥ २ ॥
असन-बसन बिनु बावरो जहँ-तहँ उठि धायो।
महिमा मान/असु प्रिय प्रानते तजि खोलि
खलनि आगे, खिनु-खिनु पेट खलायो ॥ ३ ॥
नाथ! हाथ कछु नाहि लग्यो, लालच ललचायो।
साँच कहौं,नाच कौन सो जो, न मोहि
लोभ लघु हौं निरलज्ज नचायो ॥ ४ ॥
श्रवन-नयन-मग मन/अग लगे, सब थल पतियायो।
मूड़ मारि,हिय हारिकै, हित हेरि हहरि
अब चरन-सरन तकि आयो ॥ ५ ॥
दसरथके! समरथ तुहीं, त्रिभुवन जसु गायो।
तुलसि नमत अवलोकिये,बाँह-बोल
बलि दै बिरुदावली बुलायो ॥ ६ ॥
राम राय! बिनु रावरे मेरे को हितु साँचो ?
स्वामी-सहित सबसों कहौं,सुनि-गुनि
बिसेषि कोउ रेख दूसरी खाँचो ॥ १ ॥
देह-जीव-जोगके सखा मृषा टाँचन टाँचो।
किये बिचार सार कदलि ज्यों, मनि कनक
संग लघु लसत बीच बिच काँचो।२।
'बिनय-पत्रिका' दीनकी,बापु! आपु ही बाँचो।
हिये हेरि तुलसी लिखी,सो सुभाय
सही करि बहुरि पूँछिये पाँचो ॥ ३ ॥
पवन-सुवन! रिपु-दवन! भरतलाल! लखन! दीनकी।
निज निज अवसर सुधि किये,बलि जाउँ,
दास-आस पूजि है खासखीनकी ॥ १ ॥
राज-द्वार भली सब कहैं साधु-समीचीनकी।
सुकृत-सुजस,साहिब-कृपा,स्वारथ-परमारथ,
गति भये गति-बिहीनकी ॥ २ ॥
समय सँभारि सुधारिबी तुलसी मलीनकी।
प्रीति-रीति समुझाइबी नतपाल कृपालुहि
परमिति पराधीनकी।३ ॥
मारुति-मन,रुचि भरतकी लखि लषन कही है।
कलिकालहु नाथ!नाम सों परतीति-प्रीति एक किंकरकी निबही है ॥ १ ॥
सकल सभा सुनि लै उठी, जानी रीति रही है।
कृपा गरीब निवाजकी,देखत गरीबको साहब बाँह गही है ॥ २ ॥
बिहँसि राम कह्यो 'सत्यहै,सुधि मैं हूँ लही है'।
मुदित माथ नावत, बनी तुलसी अनाथकी,
परी रघुनाथ/रघुनाथ हाथ सही है ॥ ३ ॥