विनयपत्रिका
[पद 211 से 275 तक]

196.

काहेको फिरत मन,

काहेको फिरत मन, करत बहु जतन,
मिटै न दुख बिमुख रघुकुल-बीर।
कीजै जो कोटि उपाइ,त्रिबिध ताप न जाइ,
कह्यो जो भुज उठाय मुनिबर कीर ॥ १ ॥
सहज टेव बिसारि तुही धौं देखु बिचारि,
मिलै न मथत बारि घृत बिनु छीर।
समुझि तजहि भ्रम, भजहि पद-जुगम,
सेवत सुगम, गुन गहन गंभीर ॥ २ ॥
आगम निगम ग्रंथ, रिषि-मुनि, सुर-संत,
सब ही को एक मत सुनु, मतिधीर।
तुलसिदास प्रभु बिनु पियास मरै पसु,
जद्यपि है निकट सुरसरि-तीर ॥ ३ ॥

197.

नाहिन चरन-रति ताहि तें

नाहिन चरन-रति ताहि तें सहौं बिपति,
कहत श्रुति सकल मुनि मतिधीर।
बसै जो ससि-उछंग सुधा-स्वादित कुरंग,
ताहि क्यों भ्रम निरखि रबिकर-नीर ॥ १ ॥
सुनिय नाना पुरान, मिटत नाहिं अग्यान,
पढ़िय न समुझिय जिमि खग कीर।
बँधत बिनहिं पास सेमर-सुमन-आस,
करत चरत तेइ फल बिनु हीर ॥ २ ॥
कछु न साधन-सिधि, जानौं न निगम-बिधि,
नहिं जप-तप, बस मन, न समीर।
तुलसिदास भरोस परम करुना-कोस,
प्रभु हरिहैं बिषम भवभीर ॥ ३ ॥ 

198.

मन पछितैहै अवसर बीते।

राग भैरवी

मन पछितैहै अवसर बीते।
दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरु ही ते ॥ १ ॥
सहसबाहु दसबदन आदि नृप बचे न काल बलीते।
हम-हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते ॥ २ ॥
सुत बनितादि जानि स्वारथरत, न करु नेह सबही ते।
अंतहु तोहिं तजैंगे पामर! तू न तजै अबही ते ॥ ३ ॥
अब नाथहिं अनुरागु, जागु जड़, त्यागु दुरासा जी ते।
बुझे न/कि काम अगिनि तुलसी कहुँ, बिषय-भोग बहु घी ते ॥ ४ ॥

199.

काहे को फिरत मूढ़ मन धायो।

काहे को फिरत मूढ़ मन धायो।
तजि हरि-चरन-सरोज सुधारस, रबिकर-जल लय लायो ॥ १ ॥
त्रिजग देव नर असुर अपर जग जोनि सकल भ्रमि आयो।
गृह बनिता, सुत, बंधु भये बहु, मातु-पिता जिन्ह जायो ॥ २ ॥
जाते निरय-निकाय निरंतर, सोइ इन्ह तोहि सिखायो।
तुव हित होइ, कटै भव-बंधन, सो मगु तोहि न बतायो ॥ ३ ॥
अजहुँ बिषय कहँ जतन करत, जद्यपि बहुबिधि डहँकायो।
पावक-काम भोग-घृत तें सठ, कैसे परत बुझायौ ॥ ४ ॥
बिषयहीन दुख, मिले बिपति अति, सुख सपनेहुँ नहिं पायो।
उभय प्रकार प्रेत-पावक ज्यों धन दुखप्रद श्रुति गायो ॥ ५ ॥
छिन-छिन छीन होत जीवन, दुरलभ तनु बृथा गँवायो।
तुलसिदास हरि भजहि आस तजि, काल -उरग जग खायो ॥ ६ ॥

200.

ताँबे सो पीठि मनहुँ तन पायो।

ताँबे सो पीठि मनहुँ तन पायो।
नीच,मीच जानत न सीस पर, ईस निपट बिसरायो ॥ १ ॥
अवनि रवनि, धन-धाम, सुहृद-सुत, को न इन्हहिं अपनायो ?
काके भये, गये सँग काके, सब सनेह छल-छायो ॥ २ ॥
जिन्ह भूपनि जग-जीति, बाँधि जम, अपनी बाँह बसायो।
तेऊ काल कलेऊ कीन्हे, तू गिनती कब आयो ॥ ३ ॥
देखु बिचारि, सार का साँचो,कहा निगम निजु गायो।
भजिहिं न अजहुँ समुझि तुलसी तेहि,जेहि महेस मन लायो ॥ ४ ॥

201.

लाभ कहा मानुष-तनु पाये।

लाभ कहा मानुष-तनु पाये।
काय-बचन-मन सपनेहुँ कबहुँक घटत न काज पराये ॥ १ ॥
जो सुख सुरपुर-नरक, गेह-बन आवत बिनहिं बुलाये।
तेहि सुख कहँ बहु जतन करत मन, समुझत नहिं समुझाये ॥ २ ॥
पर-दारा, परद्रोह, मोहबस किये मूढ़ मन भाये।
गरभबास दुखरासि जातना तीब्र बिपति बिसराये ॥ ३ ॥
भय-निद्रा, मैथुन-अहार, सबके समान जग जाये।
सुर-दुरलभ तनु धरि न भजे हरि मद अभिमान गवाँये ॥ ४ ॥
गई न निज-पर-बुद्धि सुद्ध ह्वे रहे न राम-लय लाये।
तुलसिदास यह अवसर बीते का पुनि के पछिताये ॥ ५ ॥

202.

काजु कहा नरतनु धरि सार् यो।

काजु कहा नरतनु धरि सार् यो।
पर-उपकार सार श्रुतिको जो, सो धोखेहु न बिचार् यो ॥ १ ॥
द्वैत मूल, भय-सूल, सोक-फल, भवतरु टरै न टार् यौ।
रामभजन-तीछन कुठार लै सो नहिं काटि निवार् यो ॥ २ ॥
संसय-सिंधु नाम बोहित भजि निज आतमा न तार् यो।
जनम अनेक विवेकहीन बहु जोनि भ्रमत नहिं हार् यो ॥ ३ ॥
देखि आनकि सहज संपदा द्वेष-अनल मन-जार् यो।
सम,दम,दया,दीन-पालन, सीतल हिय हरि न सँभार् यो ॥ ४ ॥
प्रभु गुरु पिता सखा रघुपति तैं मन क्रम बचन बिसार् यो।
तुलसिदास यहि आस, सरन राखिहि जेहि गीध उधार् यो ॥ ५ ॥

203.

श्रीहरि-गुरु-पद-कमल

श्रीहरि-गुरु-पद-कमल भजहु मन तजि अभिमान।
जेहि सेवत पाइय हरि सुख-निधान भगवान ॥ १ ॥
परिवा प्रथम प्रेम बिनु राम-मिलन अति दूरि।
जद्यपि निकट हृदय निज रहे सकल भरिपूरि ॥ २ ॥
दुइज द्वेत-मति छाड़ि चरहि महि-मंडल धीर।
बिगत मोह-माया-मद हृदय बसत रघुबीर ॥ ३ ॥
तीज त्रिगुन-पर परम पुरुष श्रीरमन मुकुंद।
गुन सुभाव त्यागे बिनु दुरलभ परमानंद ॥ ४ ॥
चौथि चारि परिहरहु बुद्धि-मन-चित-अहंकार।
बिमल बिचार परमपद निज सुख सहज उदार ॥ ५ ॥
पाँचइ पाँच परस,रस,सब्द,गंध अरु रूप।
इन्ह कर कहा न कीजिये, बहुरि परब भव-कूप ॥ ६ ॥
छठ षटबरग करिय जय जनकसुता-पति लागि।
रघुपति-कृपा-बारि बिनु नहीं बुताइ लोभागि ॥ ७ ॥
सातैं सप्तधातु-निरमित तनु करिय बिचार।
तेहि तनु केर एक फल, कीजै पर-उपकार ॥ ८ ॥
आठइँ आठ प्रकृति-पर निरबिकार श्रीराम।
केहि प्रकार पाइय हरि, हृदय बसहिं बहु काम ॥ ९ ॥
नवमी नवद्वार-पुर बसि जेहि न आपु भल कीन्ह।
ते नर जोनि अनेक भ्रमत दारून दुख लीन्ह ॥ १० ॥
दसइँ दसहु कर संजम जो न करिय जिय जानि।
साधन बृथा होइ सब मिलहिं न सारंगपानि।११ ॥
एकादसी एक मन बस कै सेवहु जाइ।
सोइ ब्रत कर फल पावै आवागमन नसाइ ॥ १२ ॥
द्वादसि दान देहु अस, अभय होइ त्रेलोक।
परहित-निरत सो पारन बहुरि न ब्यापत सोक ॥ १३ ॥
तेरसि तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवंत।
मन-क्रम-बचन-अगोचर, ब्यापक, ब्याप्य, अनंत ॥ १४ ॥
चौदसि चौदह भुवन अचर-चर-रूप गोपाल।
भेद गये बिनु रघुपति अति न हरहिं जग-जाल ॥ १५ ॥
पूनों प्रेम-भगति-रस हरि-रस जानहिं दास।
सम, सीतल, गत-मान, ग्यानरत, बिषय-उदास ॥ १६ ॥
त्रिबिध सूल होलिय जरे, खेलिय अब फागु।
जो जिय चहसि परमसुख, तौ यहि मारग लागु ॥ १७ ॥
श्रुति-पुरान-बुध-संमत चाँचरि चरित मुरारि।
करि बिचार भव तरिय, परिय न कबहुँ जमधारि ॥ १८ ॥
संसय-समन, दमन दुख, सुखनिधान हरि एक।
साधु-कृपा बिनु मिलहिं न, करिय उपाय अनेक ॥ १९ ॥
भव सागर कहँ नाव सुद्ध संतनके चरन।
तुलसिदास प्रयास बिनु मिलहिं राम दुखहरन ॥ २० ॥

204.

जो मन लागै रामचरन अस।

राग कान्हरा

जो मन लागै रामचरन अस।
देह-गेह-सुत-बित-कलत्र महँ मगन होत बिनु जतन किये जस ॥ १ ॥
द्वंद्वरहित, गतमान, ग्यानरत, बिषय-बिरत खटाइ नाना कस।
सुखनिधान सुजान कोसलपति ह्वे प्रसन्न, कहु, क्यों न होंहि बस ॥ २ ॥
सर्वभूत-हित, निर्ब्यलीक चित, भगति-प्रेम दृढ़ नेम, एकरस।
तुलसिदास यह होइ तबहिं जब द्रवै ईस, जेहि हतो सीसदस ॥ ३ ॥

205.

जो मन भज्यो चहै हरि-सुरतरु।

जो मन भज्यो चहै हरि-सुरतरु।
तौ तज बिषय-बिकार, सार भज, अजहूँ जो मैं कहौं सोइ करु ॥ १ ॥
सम,संतोष, बिचार बिमल अति, सतसंगति,यर चारि दृढ़ करि धरु।
काम- क्रोध अरु लोभ-मोह-मद, राग-द्वेष निसेष करि परिहरु ॥ २ ॥
श्रवन कथा, मुख नाम, हृदय हरि, सिर प्रनाम, सेवा कर अनुसरु।
नयननि निरखि कृपा-समुद्र हरि अग-जग-रूप भूप सीताबरु ॥ ३ ॥
इहै भगति, बैराग्य-ग्यान यह, हरि-तोषन यह सुभ ब्रत आचरु।
तुलसिदास सिव-मत मारग यहि चलत सदा सपनेहुँ नाहिंन डरु ॥ ४ ॥

206.

नाहिन और कोउ सरन लायक

नाहिन और कोउ सरन लायक दूजो श्रीरघुपति-सम बिपति-निवारन।
काको सहज सुभाउ सेवकबस, काहि प्रनत परप्रीति अकारन ॥ १ ॥
जन-गुन अलप गनत सुमेरु करि, अवगुन कोटि बिलोकि बिसारन।
परम कृपालु, भगत-चिंतामनि,बिरद पुनीत, पतितजन-तारन ॥ २ ॥
सुमिरत सुलभ,दास-दुख हरि चलत तुरत, पटपीत सँभार न।
साखि पुरान-निगम-अगम सब, जानत द्रुपद-सुता अरु बारन ॥ ३ ॥
जाको जस गावत कबि-कोबिद, जिन्हके लोभ-मोह,मद-मार न।
तुलसिदास तजि आस सकल भजु, कोसलपति मुनिबधू-उधारन ॥ ४ ॥

207.

भजिबे लायक, सुखदायक रघुनायक

भजिबे लायक, सुखदायक रघुनायक सरिस सरनप्रद दूजो नाहिन।
आनँदभवन, दुखदवन, सोकसमन रमारमन गुन गनत सिराहिं न ॥ १ ॥
आरत, अधम, कुजाति, कुटिल, खल, पतित, सभीत कहुँ जे समाहिं न।
सुमिरत नाम बिबसहूँ बारक पावत सो पद, जहाँ सुर जाहिं न ॥ २ ॥
जाके पद-कमल लुब्ध मुनि-मधुकर, बिरत जे परम सुगतिहु लुभाहिं न।
तुलसिदास सठ तेहि न भजसि कस, कारुनिक जो अनाथहिं दाहिन ॥ ३ ॥

208.

नाथ सों कौन बिनती कहि सुनावौं।

राग कल्याण

नाथ सों कौन बिनती कहि सुनावौं।
त्रिबिध बिधि अमित अवलोकि अघ आपने,
सरन सनमुख होत सकुचि सिर नावौं ॥ १ ॥
बिरचि हरिभगतिको बेष बर टाटिका,
कपट-दल हरित पल्लवनि छावौं।
नामलगि लाइ लासा ललित-बचन कहि,
ब्याध ज्यों बिषय-बिहँगनि बझावौं ॥ २ ॥
कुटिल सतकोटि मेरे रोमपर वारियहि,
साधु गनतीमें पहलेहि गनावौं।
परम बर्बर खर्ब गर्ब-पर्बत चढ्यो,
अग्य सर्बग्य,जन-मनि जनावौं ॥ ३।
साँच किधौं झूठ मोको कहत कोउ-
कोउ राम! रावरो, हौं तुम्हरो कहावौं।
बिरदकी लाज करि दास तुलसिहिं देव!
लेहु अपनाइ अब देहु जनि बावौ ॥ ४ ॥

209.

नाहिनै नाथ! अवलंब मोहि आनकी।

नाहिनै नाथ! अवलंब मोहि आनकी।
करम-मन-बचन पन सत्य करुनानिधे!
एक। गति राम! भवदीय पदत्रानकी ॥ १ ॥
कोह-मद-मोह-ममतायतन जानि मन,
बात नहि जाति कहि ग्यान-बिग्यानकी।
काम-संकलप उर निरखि बहु बासनहिं,
आस नहिं एकहू आँक निरबानकी ॥ २ ॥
बेद-बोधित करम धरम बिनु अगम अति,
जदपि जिय लालसा अमरपुर जानकी।
सिद्ध-सुर-मनुज दनुजादिसेवत कठिन,
द्रवहिं हठजोग दिये भोग बलि प्रानकी ॥ ३ ॥
भगति दुरलभ परम, संभु-सुक-मुनि-मधुप,
प्यास पदकंज-मकरंद-मधुपानकी।
पतित-पावन सुनत नाम बिस्रामकृत,
भ्रमित पुनि समझि चित ग्रंथि अभिमानकी ॥ ४ ॥
नरक-अधिकार मम घोर संसार-तम-
कूपकहीं, भूप! मोहि सक्ति आपानकी।
दासतुलसी सोउ त्रास नहि गनत मन,
सुमिरि गुह गीध गज ग्याति हनुमानकी ॥ ५ ॥

210.

औरु कहँ ठौरु रघुबंस-मनि! मेरे।

औरु कहँ ठौरु रघुबंस-मनि! मेरे।
पतित-पावन प्रनत-पाल असरन-सरन,
बाँकुरे बिरुद बिरुदैत केहि केरे ॥ १ ॥
समुझि जिय दोस अति रोस करि राम जो,
करत नहिं कान बिनती बदन फेरे।
तदपि ह्वे निडर हौं कहौं करुना-सिंधु,
क्योंऽब रहि जात सुनि बात बिनु हेरे ॥ २ ॥
मुख्य रुचि बसिबेकी पुर रावरे,
राम! तेहि रुचिहि कामादि गन घेरे।
अगम अपबरग, अरु सरग सुकृतैकफल,
नाम-बल क्यों बसौं जम-नगर नेरे ॥ ३ ॥
कतहुँ नहिं ठाउँ, कहँ जाउँ कोसलनाथ!
दीन बितहीन हौं, बिकल बिनु डेरे।
दास तुलसिहि बास देहु अब करि कृपा,
बसत गज गीध ब्याधादि जेहि खेरे ॥ ४ ॥

211.

कबहुँ रघुबंसमनि !

कबहुँ रघुबंसमनि ! सो कृपा करहुगे।
जेहि कृपा ब्याध, गज, बिप्र, खल नर तरे,
तिन्हहि सम मानि मोहि नाथ उद्धरहुगे ॥ १ ॥
जोनि बहु जनमि किये करम खल बिबिध बिधि,
अधम आचरन कछु हृदय नहि धरहुगे।
दीनहित! अजित सरबग्य समरथ प्रनतपालि,
चित मृदुल निज गुननि अनुसरहुगे ॥ २ ॥
मोह-मद-मान-कामादि खलमंडली,
सकुल निरमूल करि दुसह दुख हरहुगे।
जोग-जप-जग्य-बिग्यान ते अधिक अति,
अमल दृढ़ भगति दै परम सुख भरहुगे ॥ ३ ॥
मंदजन-मौलिमनि सकल, साधनहीन,
कुटिल मन, मलिन जिय जानि जो डरहुगे।
दासतुलसी बेद-बिदित बिरुदावली,
बिमल जस नाथ! केहि भाँति बिस्तरहुगे ॥ ४ ॥

212.

रघुपति बिपति-दवन।

राग केदारा

रघुपति बिपति-दवन।
परम कृपालु, प्रनत-प्रतिपालक, पतित-पावन ॥ १ ॥
कूर, कुटिल, कुलहीन,दीन,अति मलिन जवन।
सुमिरत नाम राम पठये सब अपने भवन ॥ २ ॥
गज-पिंगला-अजामिल-से खल गनै धौं कवन।
तुलसिदास प्रभु केहि न दीन्हि गति जानकी-रवन ॥ ३ ॥

213.

हरि-सम आपदा-हरन।

हरि-सम आपदा-हरन।
नहि कोउ सहज कृपालु दुसह दुख-सागर-तरन ॥ १ ॥
गज निज बल अवलोकि कमल गहि गयो सरन।
दीन बचन सुनि चले गरुड़ तजि सुनाभ-धरन ॥ २ ॥
द्रुपदसुताको लग्यो दुसासन नगन करन।
'हा हरि पाहि' कहत पूरे पट बिबिध बरन ॥ ३ ॥
इहे जानि सुर-नर-मुनि-कोबिद सेवत चरन।
तुलसिदास प्रभु को न अभय कियो नृग-उद्धरन ॥ ४ ॥

214.

ऐसी कौन प्रभुकी रीति ?

राग कल्यान

ऐसी कौन प्रभुकी रीति ?
बिरद हेतु पुनीत परिहरि पाँवरनि पर प्रीति ॥ १ ॥
गई मारन पूतना कुच कालकूट लगाई।
मातुकी गति दई ताहि कृपालु जादवराइ ॥ २ ॥
काममोहित गोपिकनिपर कृपा अतुलित कीन्ह।
जगत-पिता बिरंचि जिन्हके चरनकी रज लीन्ह ॥ ३ ॥
नेमतें सिसुपाल दिन प्रति देत गनि गनि गारि।
कियो लीन सु आपमें हरि राज-सभा मँझारि ॥ ४ ॥
ब्याध चित दै चरन मार् यो मूढ़मति मृग जानि।
सो सदेह स्वलोक पठयो प्रगट करि निज बानि ॥ ५ ॥
कौन तिन्हकी कहै जिन्हके सुकृत अरु अघ दोउ।
प्रगट पातकरूप तुलसी सरन राख्यो सोउ ॥ ६ ॥

215.

श्रीरघुबीरकी यह बानि।

श्रीरघुबीरकी यह बानि।
नीचहू सों करत नेह सुप्रीति मन अनुमानि ॥ १ ॥
परम अधम निषाद पाँवर, कौन ताकी कानि ?
लियो सो उर लाइ सुत ज्यौं प्रेमको पहिचानि ॥ २ ॥
गीध कौन दयालु, जो बिधि रच्यो हिंसा सानि ?
जनक ज्यों रघुनाथ ताकहँ दियो जल निज पानि ॥ ३ ॥
प्रकृति-मलिन कुजाति सबरी सकल अवगुन-खानि।
खात ताके दिये फल अति रुचि बखानि बखानि ॥ ४ ॥
रजनिचर अरु रिपु बिभीषन सरन आयो जानि।
भरत ज्यों उठि ताहि भैंटत देह-दसा भुलानि ॥ ५ ॥
कौन सुभग सुसील बानर, जिनहिं सुमिरत हानि।
किये ते सब सखा, पूजे भवन अपने आनि ॥ ६ ॥
राम सहज कृपालु कोमल दीनहित दिनदानि।
भजहि ऐसे प्षभुहि तुलसी कुटिल कपट न ठानि ॥ ७ ॥

216.

हरि तज और भजिये काहि ?

हरि तज और भजिये काहि ?
नाहिनै कोउ राम सो ममता प्रनतपर जाहि ॥ १ ॥
कनककसिपु बिरंचिको जन करम मन अरु बात।
सुतहिं दुखवत बिधि न बरज्यो कालके घर जात ॥ २ ॥
संभु-सेवक जान जग, बहु बार दिये दस सीस।
करत राम-बिरोध सो सपनेहु न हटक्यो ईस ॥ ३ ॥
और देवनकी कहा कहौं, स्वारथहिके मीत।
कबहु काहु न राख लियो कोउ सरन गयउ सभीत ॥ ४ ॥
को न सेवत देत संपति लोकहू यह रीति।
दासतुलसी दीनपर एक राम ही की प्रीति ॥ ५ ॥

217.

जो पै दूसरो कोउ होइ।

जो पै दूसरो कोउ होइ।
तौ हौं बारहि बार प्रभु कत दुख सुनावौं रोइ ॥ १ ॥
काहि ममता दीनपर, काको पतितपावन नाम।
पापमूल अजामिलहि केहि दियो अपनो धाम ॥ २ ॥
रहे संभु बिरंचि सुरपति लोकपाल अनेक।
सोक-सरि बूड़त करीसहि दई काहु न टेक ॥ ३ ॥
बिपुल-भूपति-सदहि महँ नर-नारि कह्यो 'प्रभु पाहि'।
सकल समरथ रहे, काहु न बसन दीन्हों ताहि ॥ ४ ॥
एक मुख क्यों कहौं करुनासिंधुके गुन-गाथ ?
भक्तहित धरि देह काह न कियो कोसलनाथ! ॥ ५ ॥
आपसे कहुँ सौंपिये मोहि जो पै अतिहि घिनात।
दासतुलसी और बिधि क्यों चरन परिहरि जात ॥ ६ ॥

218.

कबहि देखाइहौ हरि चरन।

कबहि देखाइहौ हरि चरन।
समन सकल कलेस कलि-मल ,सकल मंगल- करन ॥ १ ॥
सरद-भव सुंदर तरुनतर अरुन-बारिज-बरन।
लच्छि-लालित-ललित करतल छबि अनूपम धरन ॥ २ ॥
गंग-जनक अनंग-अरि-प्रिय कपट-बटु बलि-छरन।
बिप्रतिय नृग बधिकके दुख-दोस दारुन दरन ॥ ३।
सिद्ध-सुर-मुनि-बृंद-बंदित सुखद सब कहँ सरन।
सकृत उर आनत जिनहिं जन होत तारन-तरन ॥ ४ ॥
कृपासिंधु सुजान रघुबर प्रनत-आरति-हरन।
दरस-आस-पियास तुलसीदास चाहत मरन ॥ ५ ॥

219.

द्वार हौं भोर ही को आजु।

द्वार हौं भोर ही को आजु।
रटत रिरिहा आरि और न, कौर ही तें काजु ॥ १ ॥
कलि कराल दुकाल दारुन, सब कुभाँति कुसाजु।
नीच जन, मन ऊँच जैसी कोढँमेंकी खाजु ॥ २ ॥
हहरि हियमें सदय बूझ्यो जाइ साधु-समाजु।
मोहुसे कहुँ कतहुँ कोउ, तिन्ह कह्यो कोसलराजु ॥ ३ ॥
दीनता-दारिद दलै को कृपाबारिधि बाजु।
दानि दसरथरायके, तू बानइत सिरताजु ॥ ४ ॥
जनमको भूखो भिखारी हौं गरीबनिवाजु।
पेट भरि तुलसिहि जेंवाइय भगति-सुधा सुनाजु ॥ ५ ॥

220.

करिय सँभार, कोसलराय!

करिय सँभार, कोसलराय!
और ठौर न और गति, अवलंब नाम बिहाय ॥ १ ॥
बूझि अपनी आपनो हितु आप बाप न माय।
राम! राउर नाम गुर,सुर,स्वामि,सखा,सहाय ॥ २ ॥
रामराज न चले मानस-मलिनके छल छाय।
कोप तेहि कलिकाल कायर मुएहि घालत घाय ॥ ३ ॥
लेत केहरिको बयर ज्यों भैक हनि गोमाय।
त्योंहि राम-गुलाम जानि निकाम देत कुदाय ॥ ४ ॥
अकनि याके कपट-करतब, अमित अनय-अपाय।
सुखि हरिपुर बसत होत परीछितहि पछिताय ॥ ५ ॥
कृपासिंधु! बिलोकिये, जन-मनकी साँसति साय।
सरन आयो, देव! दीनदयालु! देखन पाय ॥ ६ ॥
निकट बोलि न बरजिये, बलि जाउँ, हनिय न हाय।
देखिहैं हनुमान गोमुख नाहरनिके न्याय ॥ ७ ॥
अरुन मुख, भ्रू बिकट, पिंगल नयन रोष-कषाय।
बीर सुमिरि समीरको घटिहै चपल चित चाय ॥ ८ ॥
बिनय सुनि बिहँसे अनुजसों बचनके कहि भाय।
'भली कही' कह्यो लषन हूँ हँसि,बने सकल बनाय ॥ ९ ॥
दई दीनहिं दादि, सो सुनि सुजन-सदन बधाय।
मिटे संकट-सोच, पोच-प्रपंच, पाप-निकाय ॥ १० ॥
पेखि प्रीति-प्रतीति जनपर अगुन अनघ अमाय।
दासतुलसी कहत मुनिगन,'जयति जय उरुगाय' ॥ ११ ॥

221.

नाथ! कृपाहीको पंथ चितवत

नाथ! कृपाहीको पंथ चितवत दीन हौं दिनराति।
होइ धौं केहि काल दीनदयालु! जानि न जाति ॥ १ ॥
सुगुन, ग्यान-बिराग-भगति, सु-साधननिकी पाँति।
भजे बिकल बिलोकि कलि अघ-अवगुननिकी थाति ॥ २ ॥
अति अनीति-कुरीति भइ भुइँ तरनि हू ते ताति।
जाउँ कहँ ? बलि जाउँ, कहूँ न ठाउँ, मति अकुलाति ॥ ३ ॥
आप सहित न आपनो कोउ, बाप! कठिन कुभाँति।
स्यामघन! सींचिये तुलसी, सालि सफल सुखाति ॥ ४ ॥

222.

बलि जाउँ, और कासों कहौं ?

बलि जाउँ, और कासों कहौं ?
सदगुनसिंधु स्वामि सेवक-हित कहुँ न कृपानिधि-सो लहौं ॥ १ ॥
जहँ जहँ लोभ लोल लालचबस निजहित चित चाहनि चहौं।
तहँ तहँ तरनि तकत उलूक ज्यों भटकि कुतरु-कोटर गहौं ॥ २ ॥
काल-सुभाउ-करम बिचित्र फलदायक सुनि सिर धुनि रहौं।
मोको तौ सकल सदा एकहि रस दुसह दाह दारुन दहौं ॥ ३ ॥
उचित अनाथ होइ दुखभाजन भयो नाथ! किंकर न हौं।
अब रावरो कहाइ न बूझिये, सरनपाल! साँसति सहौं ॥ ४ ॥
महाराज! राजीवबिलोचन! मगन-पाप-संताप हौं।
तुलसी प्रभु!जब तब जेहि तेहि बिधि राम निरबहौं ॥ ५ ॥

223.

आपनो कबहुँ करि जानिहौ।

आपनो कबहुँ करि जानिहौ।
राम गरीबनिवाज राजमनि, बिरद-लाज उर आनिहौ ॥ १ ॥
सील-सिंधु,सुंदर,सब लायक,समरथ, सदगुन-खानि हौ।
पाल्यो है,पालत,पालहुगे प्रभु, प्रनत-प्रेम पहिचानिहौ ॥ २ ॥
बेद-पुरान कहत,जग जानत, दीनदयालु दिन-दानि हौ।
कहि आवत, बलि जाऊँ,मनहुँ मेरी बार बिसारे बानि हौ ॥ ३ ॥
आरत-दीन-अनाथनिके हित मानत लौकिक कानि हौ।
है परिनाम भलो तुलसीको सरनागत-भय-भानि हौ ॥ ४ ॥

224

रघुबरहि कबहुँ मन लागिहै ?

रघुबरहि कबहुँ मन लागिहै ?
कुपथ,कुचाल,कुमति,कुमनोरथ, कुटिल कपट कब त्यागिहै ॥ १ ॥
जानत गरल अमिय बिमोहबस, अमिय गनत करि आगिहै।
उलटी रीति-प्रीति अपनेकी तजि प्रभुपद अनुरागिहै ॥ २ ॥
आखर अरथ मंजु मृदु मोदक राम-प्रेम-पगि पागिहै।
ऐसे गुन गाइ रिझाइ स्वामिसों पाइहै जो मुँह माँगिहै ॥ ३ ॥
तू यहि बिधि सुख-सयन सोइहै,जियकी जरनि भूरि भागिहै।
राम-प्रसाद दासतुलसी उर राम-भगति-जोग जागिहै ॥ ४ ॥

225.

भरोसो और आइहै उर ताके।

भरोसो और आइहै उर ताके।
कै कहुँ लहै जो रामहि-सो साहिब, कै अपनो बल जाके ॥ १ ॥
के कलिकाल कराल न सूझत, मोह-मार-मद छाके।
कै सुनि स्वामि-सुभाउ न रह्यो चित, जो हित सब अँग थाके ॥ २ ॥
हौं जानत भलिभाँति अपनपौ, प्रभु-सो सुन्यो न साके।
उपल,भील,खग,मृग रजनीचर, भले भये करतब काके ॥ ३ ॥
मोको भलो राम-नाम सुरतरु-सो, रामप्रसाद कृपालु कृपाके।
तुलसी सुखी निसोच राज ज्यों बालक माय-बबाके ॥ ४ ॥

226.

भरोसो जाहि दूसरो सो करो। 

भरोसो जाहि दूसरो सो करो।
मोको तो रामको नाम कलपतरु कलि कल्यान फरो ॥ १ ॥
करम उपासन,ग्यान,बेदमत, सो सब भाँति खरो।
मोहि तो 'सावनके अंधहि' ज्यों सूझत रंग हरों ॥ २ ॥
चाटत रह्यो स्वान पातरि ज्यों कबहुँ न पेट भरो।
सो हौं सुमिरत नाम-सुधारस पेखत परुसि धरो ॥ ३ ॥
स्वारथ औ परमारथ हू को नहि कुंजरो-नरो।
सुनियत सेतु पयोध पषाननि करि कपि कटक-तरो ॥ ४ ॥
प्रीति-प्रतीति जहाँ जाकी, तहँ ताको काज सरो।
मेरे तो माय-बाप दोउ आखर हौं सिसु-अरनि अरो ॥ ५ ॥
संकर साखि जो राखि कहौं कछु तौ जरि जीह गरो।
अपनो भलो राम-नामहि ते तुलसिहि समुझि परो ॥ ६ ॥

227.

नाम राम रावरोई हित मेरे।

नाम राम रावरोई हित मेरे।
स्वारथ-परमारथ साथिन्ह सों भुज उठाइ कहौं टेरे ॥ १ ॥
जननि-जनक तज्यो जनमि, करम बिनु बिधिहु सृज्यो अवडेरे।
मोहुँसो कोउ-कोउ कहत रामहि को, सो प्रसंग केहि केरे ॥ ३२ ॥
फिर् यौ ललात बिनु नाम उदर लगि, दुखउ दुखित मोहि हेरे।
नाम-प्रसाद लहत रसाल फल अब हौं बबुर बहेरे ॥ ३ ॥
साधत साधु लोक-परलोकहि,सुनि गुनि जतन घनेरे।
तुलसीके अवलंब नामको, एक गाँठि कइ फेरे ॥ ४ ॥

228.

प्रिय रामनामतें जाहि न रामो।

प्रिय रामनामतें जाहि न रामो।
ताको भलो कठिन कलिकालहुँ आदि-मध्य-परिनामो ॥ १ ॥
सकुचत समुझि नाम-महिमा मद-लोभ-मोह-कोह-कामो।
राम-नाम-जप-निरत सुजन पर करत छाँह घोर घामो ॥ २ ॥
नाम-प्रभाउ सही जो कहै कोउ सिला सरोरुह जामो।
जो सुनि सुमिरि भाग-भाजन भइ सुकृतसील भील-भामो ॥ ३ ॥
बालमीकि-अजामिलके कछु हुतो न साधन सामो।
उलटे पलटे नाम-महातम गुंजनि जितो ललामो ॥ ४ ॥
रामतें अधिक नाम-करतब, जेहि किये नगर-गत गामो।
भये बजाइ दाहिने जो जपि तुलसिदाससे बामो ॥ ५ ॥

229.

गरैगी जीह जो कहौं औरको हौं।

गरैगी जीह जो कहौं औरको हौं।
जानकी-जीवन! जनम-जनम जग ज्यायो तिहारेहि कौरको हौं ॥ १ ॥
तीनि लोक, तिहुँ काल न देखत सुहृद रावरे जोरको हौं।
तुमसों कपट करि कलप-कलप कृमि ह्वेहौं नरक घोरको हौं ॥ २ ॥
कहा भयो जो मन मिलि कलिकालहिं कियो भौंतुवा भौंरको हौं।
तुलसिदास सीतल नित यहि बल, बड़े ठेकाने ठौरको हौं ॥ ३ ॥

230.

अकारन को हितू और को है।

अकारन को हितू और को है।
बिरद 'गरीब-निवाज' कौनको, भौंह जासु जन जोहै ॥ १ ॥
छोटो-बड़ो चहत सब स्वारथ, जो बिरंचि बिरचो है।
कोल कुटिल, कपि-भालु पालिबो कौन कृपालुहि सोहै ॥ २ ॥
काको नाम अनख आलस कहें अघ अवगुननि बिछोहै।
को तुलसीसे कुसेवक संग्रह्यो, सठ सब दिन साईं द्रोहै ॥ ३ ॥

231.

और मोहि को है, काहि कहिहौं ?

और मोहि को है, काहि कहिहौं ?
रंक-राज ज्यों मनको मनोरथ, केहि सुनाइ सुख लहिहौं ॥ १ ॥
जम-जातना,जोनि-संकट सब सहे दुसह अरु सहिहौं।
मोको अगम,सुगम तुमको प्रभु, तउ फल चारि न चहिहौं ॥ २ ॥
खेलिबेको खग-मृग,तरु-कंकर है रावरो राम हौं रहिहौं।
यहि नाते नरकहुँ सचु या बिनु परमपदहुँ दुख दहिहौं ॥ ३ ॥
इतनी जिय लालसा दासके, कहत पानही गहिहौं।
दीजै बचन कि हृदय आनिये 'तुलसिको पन निर्बहिहौ' ॥ ४ ॥

232.

दीनबंधु दूसरो कहँ पावो ?

दीनबंधु दूसरो कहँ पावो ?
को तुम बिनु पर-पीर पाइ है ? केहि दीनता सुनावों ॥ १ ॥
प्रभु अकृपालु,कृपालु अलायक, जहँ-जहँ चितहिं डोलावों।
इहै समुझि सुनि रहौं मौन ही, कहि भ्रम कहा गवावों ॥ २ ॥
गोपद बुड़िबे जोग करम करौं, बातनि जलधि थहावों।
अति लालची,काम-किंकर मन, मुख रावरो कहावों ॥ ३ ॥
तुलसी प्रभु जियकी जानत सब, अपनो कछुक जनावों।
सो कीजै,जेहि भाँति छाँडि छल द्वार परो गुन गावों ॥ ४ ॥


233.

मनोरथ मनको एकै भाँति।

मनोरथ मनको एकै भाँति।
चाहत मुनि-मन-अगम सुकृत-फल, मनसा अघ न अघाति ॥ १ ॥
करमभूमि कलि जनम,कुसंगति, मति बिमोह-मद-माति।
करत कुजोग कोटि, कयों पैयत परमारथ-पद सांति ॥ २ ॥
सेइ साधु-गुरु,सुनि पुरान-श्रुति बूझ्यो राग बाजी ताँति।
तुलसी प्रभु सुभाउ सुरतरु-सो, ज्यों दरपन मुख-कांति ॥ ३ ॥

234.

जनम गयो बादिहिं बर बीति।

जनम गयो बादिहिं बर बीति।
परमारथ पाले न पर् यो कछु, अनुदिन अधिक अनीति ॥ १ ॥
खेलत खात लरिकपन गो चलि, जौबन जुवतिन लियो जीति।
रोग-बियोग-सोग-श्रम-संकुल बड़ि बय बृथहि अतीति ॥ २ ॥
राग-रोष-इरिषा-बिमोह-बस रुची न साधु-समीति।
कहे न सुने गुनगन रघुबरके, भइ न रामपद-प्रीति ॥ ३ ॥
हृदय दहत पछिताय-अनल अब, सुनत दुसह भवभीति।
तुलसी प्रभु तें होइ सो कीजिय समुझि बिरदकी रीति ॥ ४ ॥

235.

ऐसेहि जनम-समूह सिराने।

ऐसेहि जनम-समूह सिराने।
प्राननाथ रघुनाथ-से प्रभु तजि सेवत चरन बिराने ॥ १ ॥
जे जड जीव कुटिल,कायर,खल, केवल कलिमल-साने।
सूखत बदन प्रसंसत तिन्ह कहँ, हरितें अधिक करि माने ॥ २ ॥
सुख हित कोटि उपाय निरंतर करत न पायँ पिराने।
सदा मलीन पंथके जल ज्यो, कबहुँ न हृदय थिराने ॥ ३ ॥
यह दीनता दूर करिबेको अमित जतन उर आने।
तुलसी चित-चिंता न मिटै बिनु चिंतामनि पहिचाने ॥ ४ ॥

236.

जो पै जिय जानकी-नाथ न जाने।

जो पै जिय जानकी-नाथ न जाने।
तौ सब करम-धरम श्रमदायक ऐसेइ कहत सयाने ॥ १ ॥
जे सुर, सिद्ध,मुनीस, जोगबिद बेद-पुरान बखाने।
पूजा लेत,देत पलटे सुख हानि-लाभ अनुमाने ॥ २ ॥
काको नाम धोखेहू सुमिरत पातकपुंज पराने।
बिप्र-बधिक, गज-गीध कोटि खल कौनके पेट समाने ॥ ३ ॥
मेरु-से दोष दूरि करि जनके, रेनु-से गुन उर आने।
तुलसिदास तेहि सकल आस तजि भजहि न अजहुँ अयाने ॥ ४ ॥

237.

काहे न रसना, रामहि गावहि ?

काहे न रसना, रामहि गावहि ?
निसदिन पर-अपवाद बृथा कत रटि-रटि राग बढ़ावहि ॥ १ ॥
नरमुख सुंदर मंदिर पावन बसि जनि ताहि लजावहि।
ससि समीप रहि त्यागि सुधा कत रबिकर-जल कहँ धावहि ॥ २ ॥
काम-कथा कलि-कैरव-चंदनि, सुनत श्रवन दै भावहि।
तिनहिं हटकि कहि हरि-कल-कीरति, करन कलंक नसावहि ॥ ३ ॥
जातरूप मति, जुगति रुचिर मनि रचि-रचि हार बनावहि।
सरन-सुखद रबिकुल-सरोज-रबि राम-नृपहि पहिरावहि ॥ ४ ॥
बाद-बिबाद, स्वाद तजि भजि हरि, सरस चरित चित लावहि।
तुलसिदास भव तरहि, तिहुँ पुर तू पुनीत जस पावहि ॥ ५ ॥

238.

आपनो हित रावरेसों जो पै सूझै।

आपनो हित रावरेसों जो पै सूझै।
तौ जनु तनुपर अछत सीस सुधि क्यों कबंध ज्यों जूझै ॥ १ ॥
निज अवगुन,गुनराम! रावरे लखि-सुनि-मति-मन-रूझै।
रहनि-कहनि-समुझनि तुलसीकी को कृपालु बिनु बूझै ॥ २ ॥

239.

जाको हरि दृढ़ करि अंग कर् यो।

जाको हरि दृढ़ करि अंग कर् यो।
सोइ सुसील,पुनीत,बेदबिद, बिद्या-गुननि भर् यो ॥ १ ॥
उतपति पांडु-सुतनकी करनी सुनि सतपंथ डर् यो।
ते त्रैलोक्य-पूज्य, पावन जस सुनि-सुनि लोक तर् यो ॥ २ ॥
जो निज धरम बेदबोधित सो करत न कछु बिसर् यो।
बिनु अवगुन कृकलास कूप मज्जित कर गहि उधर् यो ॥ ३ ॥
ब्रह्म बिसिख ब्रह्मांड दहन छम गर्भ न नृपति जर् यो।
अजर-अमर, कुलिसहुँ नाहिंन बध, सो पुनि फेन मर् यो ॥ ४ ॥
बिप्र अजामिल अरु सुरपति तें कहा जो नहिं बिगर् यो।
उनको कियो सहाय बहुत, उरको संताप हर् यो ॥ ५ ॥
गनिका अरु कंदरपतें जगमहँ अघ न करत उबर् यो।
तिनको चरित पवित्र जानि हरि निज हृदि-भवन धर् यो ॥ ६ ॥
केहि आचरन भलो मानैं प्रभु सो तौ न जानि पर् यो।
तुलसिदास रघुनाथ-कृपाको जोवत पंथ खर् यो ॥ ७ ॥

240.

सोइ सुकृती,सुचि साँचो 

सोइ सुकृती,सुचि साँचो जाहि राम! तुम रीझे।
गनिका,गीध,बधिक हरिपुर गये, लै कासी प्रयाग कब सीझे ॥ १ ॥
कबहुँ न डग्यो निगम-मगतें पग, नृग जग जानि जिते दुख पाये।
गजधौं कौन दिछित, जाके सुमिरत लै सनाभ बाहन तजि धाये ॥ २ ॥
सुर-मुनि-बिप्र बिहाय बड़े कुल, गोकुल जनम गोपगृह लीन्हो।
बायों दियो बिभव कुरुपतिको, भोजन जाइ बिदुर-घर कीन्हो ॥ ३ ॥
मानत भलहि भलो भगतनितें, कछुक रीति पारथहि जनाई।
तुलसी सहज सनेह राम बस, और सबै जलकी चिकनाई ॥ ४ ॥

241.

तब तुम मोहूसे सठनिको

तब तुम मोहूसे सठनिको हठि गति न देते।
कैसेहु नाम लेइ कोउ पामर, सुनि सादर आगे ह्वे लेते ॥ १ ॥
पाप-खानि जिय जानि अजामिल जमगन तमकि तये ताको भे ते।
लियो छुड़ाइ, चले कर मींजत, पीसत दाँत गये रिस-रेते ॥ २ ॥
गौतम-तिय,गज,गीध,बिटप,कपि, हैं नाथहिं नीके मालुम जेते।
तिन्ह तिन्ह काजनि/ तिन्ह के काज साधु-समाजु तजि कृपासिंधु तब तब उठिगे ते ॥ ३ ॥
अजहुँ अधिक आदर येहि द्वारे, पतित पुनीत होत नहिं केते।
मेरे पासंगहु न पूहिहैं,ह्वे गये,है, होने खल जेते ॥ ४ ॥
हौं अबलौं करतूति तिहारिय चितवत हुतो न रावरे चेते।
अब तुलसी पूतरो बाँधिहै, सहि न जात मोपै परिहास एते ॥ ५ ॥

242.

तुम सम दींनबंधु,न दीन कोउ

तुम सम दींनबंधु,न दीन कोउ मो सम, सुनहु नृपति रघुराई।
मोसम कुटिल-मौलिमन नहिं जग, तुमसम हरि,!न हरन कुटिलाई ॥ १ ॥
हौं मन-बचन-कर्म पातक-रत, तुम कृपालु पतितन-गतिदाई।
हौं अनाथ, प्रभु! तुम अनाथ-हित, चित यहि सुरति कबहुँ नहिं जाई ॥ २ ॥
हौं आरत,आरति-नासक तुम, कीरति निगम पुराननि गाई।
हौं सभीत तुम हरन सकल भय, कारन कवन कृपा बिसराई ॥ ३ ॥
तुम सुखधाम राम श्रम-भंजन, हौं अति दुखित त्रिबिध श्रम पाई।
यह जिय जानि दास तुलसी कहँ राखहु सरन समुझि प्रभुताई ॥ ४ ॥

243.

यहै जानि चरनन्हि चित लायो।

यहै जानि चरनन्हि चित लायो।
नाहिन नाथ! अकारनको हितु तुम समान पुरान-श्रुति गायो ॥ १ ॥
जननि जनक,सुत-दार, बंधुजन भये बहुत जहँ जहँ हौं जायो।
सब स्वारथहित प्रीति, कपट चित,काहू नहिं हरिभजन सिखायो ॥ २ ॥
सुर-मुनि,मनुज-दनुज,अहि-किन्नर, मैं तनु धरि सिर काहि न नायो।
जरत फिरत त्रयताप पापबस, काहु न हरि! करि कृपा जुड़ायो ॥ ३ ॥
जतन अनेक किये सुख-कारन, हरिपद-बिमुख सदा दुख पायो।
अब थाक्यो जलहीन नाव ज्यों देखत बिपति-जाल जग छायो ॥ ४ ॥
मो कहँ नाथ! बूझिये, यह गति सुख-निधान निज पति बिसरायो।
अब तजि रौष करहु करुना हरि! तुलसिदास सरनागत आयो ॥ ५ ॥

244.

याहि ते मैं हरि ग्यान गँवायो।

याहि ते मैं हरि ग्यान गँवायो।
परिहरि हृदय-कमल रघुनाथहि, बाहर फिरत बिकल भयो धायो ॥ १ ॥
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
खोजत गिरि,तरु,लता,भूमि, बिल परम सुगंध कहाँ तें आयो ॥ २ ॥
ज्यों सर बिमल बारि परिपूरन, ऊपर कछु सिवार तृन छायो।
जारत हियो ताहि तजि हौं सठ, चाहत यहि बिधि तृषा बुझायो ॥ ३ ॥
ब्यापत त्रिबिध ताप तनु दारुन, तापर दुसह दरिद्र सतायो।
अपनेहि धाम नाम-सुरतरु तजि बिषय-बबूर-बाग मन लायो ॥ ४ ॥
तुम-सम ग्यान-निधान, मोहि सम मूढ़ न आन पुराननि गायो।
तुलसिदास प्रभु! यह बिचारि जिय कीजै नाथ उचित मन भायो ॥ ५ ॥

245.

मोहि मूढ़ मन बहुत बिगोयो।

मोहि मूढ़ मन बहुत बिगोयो।
याके लिये सुनहु करुनामय, मैं जग जनमि-जनमि दुख रोयो ॥ १ ॥
सीतल मधुर पियूष सहज सुख निकटहि रहत दूरि जन खोयो।
बहु भाँतिन स्रम करत मोहबस, बृथहि मंदमति बारि बिलोयो ॥ २ ॥
करम-कीच जिय जानि,सानि चित, चाहत कुटिल मलहि मल धोयो।
तृषावंत सुरसरि बिहाय सठ फिरि-फिरि बिकल अकास निचोयो ॥ ३ ॥
तुलसिदास प्रभु! कृपा करहु अब, मैं निज दोष कछू नहिं गोयो।
डासत ही गइ बीति निसा सब, कबहुँ न नाथ! नींद भरि सोयो ॥ ४ ॥

246.

लोक-बेद हूँ बिदित बात सुनि-समुझि।

लोक-बेद हूँ बिदित बात सुनि-समुझि।
मोह-मोहित बिकल मति थिति न लहति।
छोटे-बड़े,खोटे-खरे, मोटेऊ दूबरे,
राम! रावरे निबाहे सबहीकी निबहति ॥ १ ॥
होती जो आपने बस, रहती एक ही रस,
दूनी न हरष-सोक-सांसति सहति।
चहतो जो जोई जोई, लहतो सो सोई सोई,
केहू भाँति काहूकी न लालसा रहति। ॥ २ ॥
करम,काल, सुभाउ गुन-दोष जीव जग मायाते,
सो सभै भौंह चकित चहति।
ईसन-दिगीसनि, जोगीसनि,मुनीसनि हू,
छोड़ति छोड़ाये तें,गहाये तें गहति ॥ ३ ॥
सतरंजको सो राज, काठको सबै समाज,
महाराज बाजी रची, प्रथम न हति।
तुलसी प्रभुके हाथ हारिबो-जीतिबो नाथ!
बहु बेष, बहु मुख सारदा कहति ॥ ४ ॥

247.

राम जपु जीह! जानि, प्रीति

राम जपु जीह! जानि, प्रीति सों प्रतीत मानि,
रामनाम जपे जैहै जियकी जरनि।
रामनामसों रहनि, रामनामकी कहनि,
कुटिल कलि-मल-सोक-संकट-हरनि ॥ १ ॥
रामनामको प्रभाउ पूजियत गनराउ,
कियो न दुराउ, कही आपनी करनि।
भव-सागरको सेतु, कासीहू सुगति हेतु,
जपत सादर संभु सहित घरनि ॥ २ ॥
बालमीकि ब्याध हे अगाध-अपराध-निधि,
'मरा' 'मरा' जपे पूजे मुनि अमरनि।
रोक्यो बिंध्य, सोख्यो सिंधु घटजहुँ नाम-बल,
हार् यो हिय,खारो भयो भूसुर-डरनि ॥ ३ ॥
नाम-महिमा अपार, सेष-सुक बार बार,
मति-अनुसार बुध बेदहू बरनि।
नामरति-कामधेनु तुलसीको कामतरु,
रामनाम है बिमोह-तिमिर-तरनि ॥ ४ ॥

248.

पाहि,पाहि राम! पाहि रामभद्र

पाहि,पाहि राम! पाहि रामभद्र, रामचंद्र!
सुजस स्रवन सुनि आयो हौं सरन।
दीनबंधु! दीनता-दरिद्र-दाह-दोष-दुख,
दारुन दुसह दर-दुरित-हरन ॥ १ ॥
जब जब जग-जाल ब्याकुल करम काल,
सब खल भूप भये भूतल-भरन।
तब तब तनु धरि, भूमि-भार दूरि करि,
थापे मुनि,सुर,साधु, आस्रम, बरन ॥ २ ॥
बेद,लोक,सब साखी, काहूकी रती न राखी,
रावनकी बंदि लागे अमर मरन।
ओक दै बिसोक किये लोकपति लोकनाथ,
रामराज भयो धरम चारिहु चरन ॥ ३ ॥
सिला,गुह,गीध,कपि,भील,भालु,रातिचर,
ख्याल ही कृपालु कीन्हे तारन-तरन।
पील-उद्धरन! सीलसिंधु! ढील देखियतु,
तुलसी पै चाहत गलानि ही गरन ॥ ४ ॥

249.

भली भाँति पहिचाने-

भली भाँति पहिचाने-जाने साहिब जहाँ लौं जग,
जूड़े होत थोरे, थोरे ही गरम।
प्रीति न प्रवीन,नीतिहीन,रीतिके मलीन,
मायाधीन सब किये कालहू करम ॥ १ ॥
दानव-दनुज बड़े महामूढ़ मूँड़ चढ़े,
जीते लोकनाथ नाथ! बलनि भरम।
रीझि-रीझि दिये बर, खीझी-खीझि घाले घर,
आपने निवाजेकी न काहूको सरम ॥ २ ॥
सेवा-सावधान तू सुजान समरथ साँचो,
सदगुन-धाम राम! पावन परम।
सुरुख,सुमुख,एकरस,एकरूप,तोहि,
बिदित बिसेषि घटघटके मरम ॥ ३ ॥
तोसो नतपाल न कृपाल,न कँगाल मो-सो,
दयामें बसत देव सकल धरम।
राम कामतरु-छाँह चाहै रुचि मन माँह,
तुलसी बिकल,बलि, कलि-कुधरम ॥ ४ ॥

250.

तौं हौं बार बार प्रभुहि पुकारिकै

तौं हौं बार बार प्रभुहि पुकारिकै खिझावतो न,
जो पै मोको होतो कहूँ ठाकुर-ठहरु।
आलसी-अभागे मोसे तैं कृपालु पाले-पोसे,
राजा मेरे राजाराम,अवध सहरु ॥ १ ॥
सेये न दिगीस,न दिनेस,न गनेस, गौरी,
हित कै न माने बिधि हरिउ न हरु।
रामनाम ही सों जोग-छेम, नेम, प्रेम-पन,
सुधा सो भरोसो एहु,दूसरो जहरु ॥ २ ॥
समाचार साथके अनाथ-नाथ! कासों कहौं,
नाथ ही के हाथ सब चोरऊ पहरु।
निज काज, सुरकाज,आरतके काज,राज!
बूझिये बिलंब कहा कहूँ न गहरु ॥ ३ ॥
रीति सुनि रावरी प्रतीति-प्रीति रावरे सों,
डरत हौं देखि कलिकालको कहरु।
कहेही बनैगी कै कहाये,बलि जाउँ,राम,
'तुलसी! तू मेरो, हारि हिये न हहरु' ॥ ४ ॥

251.

राम! रावरो सुभाउ,

राम! रावरो सुभाउ, गुन सील महिमा प्रभाउ,
जान्यो हर,हनुमान,लखन,भरत।
जिन्हके हिये-सुथरु राम-प्रेम-सुरतरु,
लसत सरस सुख फूलत फरत ॥ १ ॥
आप माने स्वामी कै सखा सुभाइ भाइ,पति,
ते सनेह-सावधान रहत डरत।
साहिब-सेवक-रीति, प्रीति-परिमिति,नीति,
नेमको निबाह एक टेक न टरत ॥ २ ॥
सुक-सनकादिक, प्रहलाद-नारदादि कहैं,
रामकी भगति बड़ी बिरति-निरत।
जाने बिनु भगति न, जानिबो तिहारे हाथ,
समुझी सयाने नाथ! पगनि परत ॥ ३ ॥
छ-मत बिमत, न पुरान मत,एक मत,
नेति-नेति-नेति नित निगम करत।
औरनिकी कहा चली ? एकै बात भलै भली,
राम-नाम लिये तुलसी हू से तरत ॥ ४ ॥

252.

बाप! आपने करत मेरी घनी घटि गई।

बाप! आपने करत मेरी घनी घटि गई।
लालची लबारकी सुधारिये बारक,बलि,
रावरी भलाई सबहीकी भली भई ॥ १ ॥
रोगबस तनु, कुमनोरथ मलिन मनु,
पर-अपबाद मिथ्या-बाद बानी हई।
साधनकी ऐसी बिधि, साधन बिना न सिधि,
बिगरी बनावै कृपानिधिकी कृपा नई ॥ २ ॥
पतित-पावन, हित आरत-अनाथनिको,
निराधारको अधार,दीनबंधु,दई।
इन्हमें न एकौ भयो, बूझि न जूझ्यो न जयो,
ताहिते त्रिताप-तयो, लुनियत बई ॥ ३ ॥
स्वाँग सूधो साधुको, कुचालि कलितें अधिक,
परलोक फीकी मति, लोक-रंग-रई।
बड़े कुसमाज राज! आजुलौं जो पाये दिन,
महाराज! केहू भाँति नाम-ओट लईः ॥ ४ ॥
राम! नामको प्रताप जानियत नीके आप,
मोको गति दूसरी न बिधि निरमई।
खीझिबे लायक करतब कोटि कोटि कटु,
रीझिबे लायक तुलसीकी निलजई ॥ ५ ॥

253.

राम राखिये सरन, राखि आये सब दिन।

राम राखिये सरन, राखि आये सब दिन।
बिदित त्रिलोक तिहुँ काल न दयाल दूजो,
आरत-प्रनत-पाल को है प्रभु बिन ॥ १ ॥
लाले पाले,पोषे तोषे आलसी-अभागी-अघी,
नाथ! पै अनाथनिसों भये न उरिन।
स्वामी समरथ ऐसो, हौं तिहारो जै सो तैसो,
काल-चाल हेरि होति हिये घनी घिन ॥ २ ॥
खीझि-रीझि,बिहँसि-अनख, क्यों हूँ एक बार,
'तुलसी तू मेरो' बलि, कहियत किन?
जाहिं सूल निरमूल, होहिं सुख अनुकूल,
महाराज राम! रावरी सौं, तेहि छिन ॥ ३ ॥

254.

राम! रावरो नाम मेरो मातु-पितु है।

राम! रावरो नाम मेरो मातु-पितु है।
सुजन-सनेही, गुरु-साहिब, सखा-सुहृद्,
राम-नाम प्रेम-पन अबिचल बितु है ॥ १ ॥
सतकोटि चरित अपार दधिनिधि मथि,
लियो काढ़ि वामदेव नाम-घृतु है।
नामको भरो सो. बल चारिहू फलको फल,
सुमिरिये छाड़ि छल, भलो कृतु है ॥ २ ॥
स्वारथ-साधक, परमारथ-दायक नाम,
राम-नाम सारिखो न और हितु है।
तुलसी सुभाव कही, साँचिये परैगी सही,
सीतानाथ-नाम नित चितहूको चितु है ॥ ३ ॥

255.

राम! रावरो नाम साधु-सुरतरु है।

राम! रावरो नाम साधु-सुरतरु है।
सुमिरे त्रिबिध घाम हरत, पूरत काम,
सकल सुकृत सरसिजको सरु है ॥ १ ॥
लाभहुको लाभ, सुखहूको सुख, सरबस,
पतित-पावन, डरहूको डरु है।
नीचेहूको ऊँचेहूको, रंकहूको रावहूको,
सुलभ, सुखद आपनो-सो घरु है ॥ २ ॥
बेद हू, पुरान हू पुरारि हू पुकारि कह्यो,
नाम-प्रेम चारिफलहूको फरु है।
ऐसे राम-नाम सों न प्रीति, न प्रतीति मन,
मेरे जान, जानिबो सोई नर खरु है ॥ ३ ॥
नाम-सो न मातु-पितु, मीत-हित, बंधु-गुरु,
साहिब सुधी सुसील सुधाकरु है।
नामसों निबाह नेहु, दीनको दयालु! देहु,
दास तुलसीको, बलि, बड़ो बरु है ॥ ४ ॥


256.

कहे बिनु रह्यो न परत,

कहे बिनु रह्यो न परत,कहे राम! रस न रहत।
तुमसे सुसाहिबकी ओट जन खौटो-खरो,
कालकी, करमकी कुसाँसति सहत ॥ १ ॥
करत बिचार सार पैयत न कहूँ कछु,
सकल बड़ाई सब कहाँ ते लहत ?
नाथकी महिमा सुनि, समुझि आपनि ओर,
हेरि हारि कै हहरि हृदय दहत ॥ २ ॥
सखा न, सुसेवक न, सुतिय न, प्रभु आप,
माय-बाप तुही साँचो तुलसी कहत।
मेरी तौ थोरी है, सुधरैगी बिगरियौ,बलि,
राम! रावरी सों, रही रावरी चहत ॥ ३ ॥

257.

दीनबंधु! दूरि किये दीनको

दीनबंधु! दूरि किये दीनको न दूसरी सरन।
आपको भले हैं सब, आपनेको कोऊ कहूँ,
सबको भलो है राम! रावरो चरन ॥ १ ॥
पाहन,पसु,पतंग,कोल,भील,निसिचर,
काँच ते कृपानिधान किये सुबरन।
दंडक-पुहुमि पाय परसि पुनीत भई,
उकठे बिटप लागे फूलन-फरन ॥ २ ॥
पतित-पावन नाम बाम हू दाहिनो, देव!
दुनी न दुसह-दुख-दूषन-दरन।
सीलसिंधु! तोसों ऊँची-नीचियौ कहत सोभा,
तोसो तुही तुलसीको आरति-हरन ॥ ३ ॥

258.

जानि पहिचानि मैं बिसारे हौं

जानि पहिचानि मैं बिसारे हौं कृपानिधान!
एतो मान ढीठ हौं उलटि देत खौरि हौं।
करत जतन जासों जोरिबे को जोगीजन,
तासों क्योंहू जुरी, सो अभागो बैठो तोरि हौं ॥ १ ॥
मोसो दोस-कोसको भुवन-कोस दूसरो न,
आपनी समुझि सूझि आयो टकटोरि हौं।
गाड़ीके स्वानकी नाईं,माया मोहकी बड़ाई,
छिनहिं तजत, छिन भजत बहोरि हौं ॥ २ ॥
बड़ो साईं-द्रोही न बराबरी मेरीको कोऊ,
नाथकी सपथ किये कहत करोरि हौं।
दूरि कीजै द्वारतें लबार लालची प्रपंची,
सुधा-सो सलिल सूकरी ज्यों गहडोरिहौं ॥ ३ ॥
राखिये नीके सुधारि, नीचको डारिये मारि,
दुहूँ ओरकी बिचारि, अब न निहोरिहौं।
तुलसी कही है साँची रेख बार बार खाँची,
ढील किये नाम-महिमाकी नाव बोरिहौं ॥ ४ ॥

259.

रावरी सुधारी जो बिगारी बिगरैगी

रावरी सुधारी जो बिगारी बिगरैगी मेरी,।
कहौं,बलि,बेदकी न लोक कहा कहैगो ?
प्रभुको उदास-भाउ, जनको पाप-प्रभाउ,
दुहूँ भाँति दीनबन्धु ! दीन दुख दहैगो ॥ १ ॥
मैं तो दियो छाती पबि,लयो कलिकाल दबि,
साँसति सहत,परबस को न सहैगो ?
बाँकी बिरुदावली बनैगी पाले ही कृपालु !
अंत मेरो हाल हेरि यौं न मन रहैगो ॥ २ ॥
करमी-धरमी, साधु-सेवक, बिरत-रत,
आपनी भलाई थल कहाँ कौन लहैगो ?
तेरे मुँह फेरे मोसे कायर-कपूत-कूर,
लटे लटपटेनि को कौन परिगहैगो ? ॥ ३ ॥
काल पाय फिरत दसा दयालु ! सबहीकी,
तोहि बिनु मोहि कबहूँ न कोऊ चहैगो।
बचन-करम-हिये कहौं राम ! सौंह किये,
तुलसी पै नाथके निबाहेई निबहैगो ॥ ४ ॥

260.

साहिब उदास भये दास खास  

साहिब उदास भये दास खास खीस होत,
मेरी कहा चली ? हौं बजाय जाय रह्यो हौं।
लोकमें न ठाउँ, परलोकको भरोसो कौन ?
हौं तो, बलि जाउँ,रामनाम ही ते लह्यो हौं ॥ १ ॥
करम,सुभाउ,काम,कोह,लोभ,मोह,-
ग्राह अति गहनि गरीबी गाढ़े गह्यो हौं।
छोरिबेको महाराज,बाँधिबेको कोटि भट,
पाहि प्रभु !पाहि, तिहुँ ताप-पाप दह्यो हौं ॥ २ ॥
रीझि-बूझि सबकी प्रतीति-प्रीति एही द्वार,
दूधको जर् यो पियत फूँकि फूँकि मह्यो हौं।
रटत-रटत लट्यो,जाति-पाँति-भाँति घट्यो,
जूठनिको लालची चहौं न दूध-नह्यो हौं ॥ ३ ॥
अनत चह्यो न भलो,सुपथ सुचाल चल्यो,
नीके जिय जानि इहाँ भलो अनचह्यो हौं।
तुलसी समुझि समुझायो मन बार बार,
अपनो सो नाथ हू सों कहि निरबह्यो हौं ॥ ४ ॥

श्री सद्गुरु महाराज की जय!