विनयपत्रिका
[पद 133 से 210 तक]

133.

तोसो हौं फिरि फिरि हित,प्रिय,

तोसो हौं फिरि फिरि हित,प्रिय, पुनीत सत्य बचन कहत।
सुनि मन,गुनि,समुझि, क्यों न सुगम सुमग गहत ॥ १ ॥
छोटो बड़ो,खोटो खरो, जग जो जहँ रहत।
अपनो अपनेको भलो कहहु, को न चहत ॥ २ ॥
बिधि लगि लघु कीट अवधि सुख सुखी, दुख दहत।
पसु लौं पसुपाल ईस बाँधत छोरत नहत ॥ ३ ॥
बिषय मुद निहार भार सिर काँधे ज्यों बहत।
योहीं जिय जानि,मानि सठ! तू साँसति सहत ॥ ४ ॥
पायो केहि घृत बिचारु, हरिन-बारि महत।
तुलसी तकु ताहि सरन, जाते सब लहत ॥ ५ ॥ 

134.

ताते हौं बार बार देव!

ताते हौं बार बार देव! द्वार परि पुकार करत।
आरति,नति,दीनता कहें प्रभु संकट हरत ॥ १ ॥
लोकपाल सोक-बिकल रावन-डर डरत।
का सुनि सकुचे कृपालु नर-सरीर धरत ॥ २ ॥
कौसिक,मुनि-तीय, जनक सोच-अनल जरत।
साधन केहि सीतल भये, सो न समुझि परत ॥ ३ ॥
केवट,खग,सबरि सहज चरनकमल न रत।
सनमुख तोहिं होत नाथ! कुतरुíसुफरु फरत ॥ ४ ॥
बंधु-बैर कपि-बिभीषन गुरु गलानि गरत।
सेवा केहि रीझि राम, किये सरिस भरत ॥ ५ ॥
सेवक भयो पवनपूत साहिब अनुहरत।
ताको लिये नाम राम सबको सुढर ढरत ॥ ६ ॥
जाने बिनु राम-रीति पचि पचि जग मरत।
परिहरि छल सरन गये तुलसिहु-से तरत ॥ ७ ॥

135.

राम सनेही सों तैं न सनेह कियो।

राग सुहो बिलावल

राम सनेही सों तैं न सनेह कियो।
अगम जो अमरनि हूँ सो तनु तोहिं दियो ॥
दियो सुकुल जनम,सरीर सुंदर, हेतु जो फल चारिको।
जो पाइ पंडित परमपद, पावत पुरारि-मुरारिको ॥
यह भरतखंड,समीप सुरसरि,थल भलो,संगति भली।
तेरी कुमति कायर! कलप-बल्ली चहति है बिष फल फली ॥ १ ॥

135.

01. अजहूँ समुझि चित दै सुनु परमारथ।

अजहूँ समुझि चित दै सुनु परमारथ।
है हित सो जगहूँ जाहिते स्वारथ ॥
स्वारथहि प्रिय,स्वारथ सो का ते कौन बेद बखानई।
देखु खल,अहि-खेल परिहरि,सो प्रभुहि पहिचानाई ॥
पितु-मातु,गुरु,स्वामी,अपनपौ,तिय,तनय,सेवक,सखा।
प्रिय लगत जाके प्रेमसों,बिनु हेतु हित तैं नहि लखा ॥ २ ॥

135.

02. दूरि न सो हितू हेरि हिये ही है।

दूरि न सो हितू हेरि हिये ही है।
छलहि छाँड़ि सुमिरे छोहु किये ही है।
किये छोहु छाया कमल करकी भगतपर भजतहि भजै।
जगदीश,जीवन जीवको, जो साज सब सबको सजै ॥
हरिहि हरिता,बिधिहि बिधिता,सिवहि सिवता जो दई।
सोइ जानकी-पति मधुर मूरति,मोदमय मंगल मई ॥ ३ ॥

135.

03. ठाकुर अतिहि बड़ो,सील,

ठाकुर अतिहि बड़ो,सील,सरल,सुठि।
ध्यान अगम सिवहूँ,भेट्यो केवट उठि ॥
भरि अंक भेट्यो सजल नयन, सनेह सिथिल सरीर सो।
सुर,सिद्ध,मुनि,कबि कहत कोउ न प्रेमप्रिय रघुबीर सो।
खग,सबरि,निसिचर,भालु,कपि किये आपु ते बंदित बड़े।
तापर तिन्ह कि सेवा सुमिरि जिय जात जनु सकुचनि गड़े ॥ ४ ॥

135.

04. स्वामीको सुभाव कह्यो

स्वामीको सुभाव कह्यो सो जब उर आनिहै।
सोच सकल मिटिहै, राम भलो मन मानिहैं ॥
भलो मानिहै रघुनाथ जोरि जो हाथ माथो नाइहै।
ततकाल तुलसीदास जीवन-जनमको फल पाइहै ॥
जपि नाम करहि प्रनाम,कहि गुन-ग्राम,रामहिं धरि हिये।
बिचरहि अवनि अवनीस-चरनसरोज मन-मधुकर किये ॥ ५ ॥

136.

01. जिव जबते हरितें बिलगान्यो।

जिव जबते हरितें बिलगान्यो। तबतें देह गेह निज जान्यो ॥
मायाबस स्वरुप बिसरायो। तेहि भ्रमतें दारुन दुख पायो ॥
पायो जो दारुन दुसह दुख, सुख-लेस सपनेहुँ नहिं मिल्यो।
भव-सूल,सोक अनेक जेहि, तेहि पंथ तू हठि हठि चल्यो ॥
बहु जोनि जनम,जरा,बिपति, मतिमंद! हरि जान्यो नहीं।
श्रीराम बिनु बिश्राम मूढ़! बिचारु, लखि पायो कहीं ॥

136.

02. आनँद-सिंधु-मध्य तव बासा।

आनँद-सिंधु-मध्य तव बासा। बिनु जाने कस मरसि पियासा ॥
मृग-भ्रम-बारि सत्य जिय जानी। तहँ तू मगन भयो सुख मानी ॥
तहँ मगन मज्जसि,पान करि,त्रयकाल जल नाहीं जहाँ।
निज सहज अनुभव रूप तव खल! भूलि अब आयो तहाँ ॥
निरमल,निरंजन,निरबिकार,उदार,सुख तैं परिहर् यो।
निःकाज राज बिहाय नृप इव सपन कारागृह पर् यो ॥

136.

03. तैं निज करम-डोरि दृढ़ कीन्हीं।

तैं निज करम-डोरि दृढ़ कीन्हीं।
अपने करनि गाँठि गहि दीन्हीं ॥
ताते परबस पर् यो अभागे।
ता फल गरभ-बास-दुख आगे ॥
आगे अनेक समूह संसृत उदरगत जान्यो सोऊ।
सिर हेठ,ऊपर चरन, संकट बात नहिं पूछै कोऊ ॥
सोनित-पुरीष जो मूत्र-मल कृमि-कर्दमावृत सोवई।
कोमल सरीर,गँभीर बेदन, सीस धुनि-धुनि रोवई ॥

136.

04. तू निज करम-जालल जहँ घेरो। 

तू निज करम-जालल जहँ घेरो। श्रीहरि संग तज्यो नहिं तेरो ॥
बहुबिधि प्रतिपालन प्रभु कीन्हों। परम कृपालु ग्यान तोहि दीन्हों ॥
तोहि दियो ग्यान-बिबेक,जनम अनेककी तब सुधि भई।
तेहि ईसकी हौं सरन, जाकी बिषम माया गुनमई ॥
जेहि किये जीव-निकाय बस,रसहीन,दिन-दिन अति नई।
सो करौ बेगि सँभारि श्रीपति,बिपति, महँ जेहि मति दई ॥

136.

05. पुनि बहुबिधि गलानि जिय मानी। 

पुनि बहुबिधि गलानि जिय मानी। अब जग जाइ भजौं चक्रपानी ॥
ऐसेहि करि बिचार चुप साधी। प्रसव-पवन प्रेरेउ अपराधी ॥
प्रेर् यो जो परम प्रचंड मारुत,कष्ट नाना तैं सह्यो।
सो ग्यान,ध्यान,बिराग,अनुभव जातना-पावक दह्यो ॥
अति खेद ब्याकुल,अलप बल,छिन एक बोलि न आवई।
तव तीव्र कष्ट न जान कोउ, सब लोग हरषित गावई ॥

136.

06. बाल दसा जेते दुख पाये।

बाल दसा जेते दुख पाये। अति असीम, नहिं जाहिं गनाये ॥
छुधा-ब्याधि-बाधा भइ भारी। बेदन नहिं जानै महतारी ॥
जननी न जानै पीर सो,केहि हेतु सिसु रोदन करै।
सोइ करै बिबिध उपाय, जातें अधिक तुव छाती जरै ॥
कौमार,सैसव अरु किसोर अपार अघ को कहि सकै।
ब्यतिरेक तोहि निरदय! महाखल! आन कहु को सहि सकै ॥

136.

07. जोबन जुवती सँग रँग रात्यो।

जोबन जुवती सँग रँग रात्यो। तब तू महा मोह-मद मात्यो ॥
ताते तजी धरम-मरजादा। बिसरे तब सब प्रथम बिषादा ॥
बिसरे बिषाद,निकाय-संकट समुझि नहिं फाटत हियो।
फिरि गर्भगत-आवर्त सृंसतिचक्र जेहि होइ सोइ कियो ॥
कृमि-भस्म-बिट-परिनाम तनु, तेहि लागि जग बैरी भयो।
परदार,परधन,द्रोहपर,संसार बाढ़ै नित नयो ॥

136.

08. देखत ही आई बिरुधाई।

देखत ही आई बिरुधाई। जो तैं सपनेहुँ नाहिं बुलाई ॥
ताके गुन कछु कहे न जाहीं। सो अब प्रगट देखु तनु माहीं ॥
सो प्रगट तनु जरजर जराबस,ब्याधि,सूल सतावई।
सिर-कंप,इन्द्रिय-सक्ति प्रतिहत,बचन काहु न भावई ॥
गृहपालहूतें अति निरादर,खान-पान न पावई।
ऐसिहु दसा न बिराग तहँ,तृष्णा-तरंग बढ़ावई ॥

136.

09. कहि को सकै महाभव तेरे। 

कहि को सकै महाभव तेरे। जनम एकके कछुक गनेरे ॥
चारि खानि संतत अवगाहीं। अजहुँ न करु बिचार मन माहीं ॥
अजहुँ बिचारु,बिकार तजि, भजु राम जन-सुखदायकं।
भवसिंधु दुस्तर जलरथं, भजु चक्रधर सुरनायकं ॥
बिनु हेतु करुनाकर,उदारे, अपार-माया-तारनं।
कैवल्य-पति,जगपति,रमापति,प्रानपति,गतिकारनं ॥

136.

10. रघुपति-भगति सुलभ,सुखकारी। 

रघुपति-भगति सुलभ,सुखकारी। सो त्रयताप-सोक-भय-हारी ॥
बिनु सतसंग भगति नहिं होई। ते तब मिलै द्रवै जब सोई ॥
जब द्रवै दीनदलयालु राघव, साधु-संगति पाइये।
जेहि दरस-परस-समागमादिक पापरासि नसाइये ॥
जिनके मिले दुख-सुख समान, अमानतादिक गुन भये।
मद-मोह लोभ-बिषाद-क्रोध सुबोधतें सहजहिं गये ॥

136.

11. सेवत साधु द्वैत-भय भागै। 

सेवत साधु द्वैत-भय भागै। श्रीरघुबीर-चरन लय लागै ॥
देह-जनित विकार सब त्यागै। तब फिरि निज स्वरूप अनुरागै ॥
अनुराग सो निज रूप जो जगतें बिलच्छन देखिये।
सन्तोष,सम,सीतल,सदा दम, देहवंत न लेखिये ॥
निरमल,निरामय,एकरस,तेहि हरष-सोक न ब्यापई।
त्रैलोक-पावन सो सदा जाकी दसा ऐसी भई ॥

136.

12. जो तेहि पंथ चलै मन लाई।

जो तेहि पंथ चलै मन लाई। तौ हरि काहे न होहिं सहाई।
जो मारग श्रुति-साधु दिखावै। तेहि पथ चलत सबै सुख पावै ॥
पावै सदा सुख हरि-कृपा,संसार-आसा तजि रहै।
सपनेहुँ नहीं सुख द्वैत-दरसन, बात कोटिक को कहै ॥
द्विज,देव,गुरु,हरि,संत बिनु संसार-पार न पाइये।
यह जानि तुलसीदास त्रासहरन रमापति गाइये ॥

137.

जो पै कृपा रघुपति कृपालुकी,

जो पै कृपा रघुपति कृपालुकी, बैर औरके कहा सरै।
होइ न बाँको बार भगतको, जो कोउ कोटि उपाय करै ॥ १ ॥
तकै नीचु जो मीचु साधुकी, सो पामर तेहि मीचू मरै ॥ ñ
बेद-बिदित प्रहलाद-कथा सुनि, को न भगति-पथ पाउँ धरै ? ॥ २ ॥
गज उधारि हरि थप्यो बिभीषन, ध्रुव अबिचल कबहूँ न टरै।
अंबरीष की साप सुरति करि, अजहुँ महामुनि ग्लानि गरै ॥ ३ ॥
सों धौं कहा जु न कियो सुजोधन, अबुध आपने मान जरै।
प्रभु-प्रसाद सौभाग्य बिजय-जस, पांडवनै बरिआइ बरै ॥ ४ ॥
जोइ जोइ कूप खनैगो परकहँ, सो सठ फिरि तेहि कूप परै।
सपनेहुँ सुख न संतद्रोहीकहँ, सुरतरु सोउ बिष-फरनि फरै ॥ ५ ॥
है काके द्वै सीस ईसके जौ हठि जनकी सीवँ चरै।
तुलसिदास रघुबीर-बाहुबल सदा अभय काहु न डरै ॥ ६ ॥

138.

कबहुँ सो कर-सरोज रघुनायक!

कबहुँ सो कर-सरोज रघुनायक! धरिहौ नाथ सीस मेरे।
जेहि कर अभय किये जन आरे, बारकल बिबस नाम टेरे ॥ १ ॥
जेहि कर-कमल कठोर संभुधन भंजि जनक-संसय मेट्यो।
जेहि कर-कमल उठाइ बंधु ज्यों, परम प्रीती केवट भेंट्यो ॥ २ ॥
जेहि कर-कमल कृपालु गीधकहँ, पिंड देइ निजधाम दियो।
जेहि कर बालि बिदारि दास-हित, कपिकुल-पति सुग्रीव कियो ॥ ३ ॥
आयो सरन सभीत बिभीषन जेहि कर-कमल तिलक कीन्हों।
जेहि कर गहि सर चाप असुर हति, अभयदान देवन्ह दीन्हों ॥ ४ ॥
सीतल सुखद छाँह जेहि करकी, मेटति पापो,ताप,माया।
निसि-बासर तेहि कर सरोजकी, चाहत तुलसिदास छाया ॥ ५ ॥

139.

दीनदयालु,दुरित दारिद दुख

दीनदयालु,दुरित दारिद दुख दुनी दुसह तिहुँ ताप तई है।
देव दुवार पुकारत आरत, सबकी सब सुख हानि भई है ॥ १ ॥
प्रभुके बचन,बेद-बुध-सम्मत,'मम मूरति महिदेवमई है'।
तिनकी मति रिस-राग-मोह-मद,लोभ लालची लीलि लई है ॥ २ ॥
राज-समाज कुसाज कोटि कटु कलपित कलुष कुचाल नई है।
नीति,प्रतीति,प्रीति परमित पति हेतुबाद हठि हेरि हई है ॥ ३ ॥
आश्रम-बरन-धरम-बिरहित जग, लोक-बेद-मरजाद गई है।
प्रजा पतित,पाखंड-पापरत, अपने अपने रंग रई है ॥ ४ ॥
सांति,सत्य,सुभ,रीति गई घटि,बढ़ी कुरीति,कपट-कलई है।
सीदत साधु,साधुता सोचति,खल बिलसत,हुलसति खलई है ॥ ५ ॥
परमारथ स्वारथ,साधन भये अफल,सफल नहिं सिद्धि सई है।
कामधेनु-धरनी कलि-गोमर-बिबस बिकल जामति न बई है ॥ ६ ॥
कलि-करनी बरनिय कहाँ लौं,करत फिरत बिनु टहल टई है।
तापर दाँत पीसि कर मींजत, को जानै चित कहा ठई है ॥ ७ ॥
त्यों त्यों नीच चढ़त सिर ऊपर, ज्यों ज्यों सीलबस ढील दई है।
सरुष बरजि तरजिये तरजनी, कुम्हिलैहै कुम्हड़ेकी जई है ॥ ८ ॥
दीजै दादि देखि ना तौ बलि, महि मोद-मंगल रितई है।
भरे भाग अनुराग लोग कहैं, राम कृपा-चितवनि चितई है ॥ ९ ॥
बिनती सुनि सानंद हेरि हँसि, करुना-बारिñ भूमि भिजई है।
राम-राज भयो काज,सगुन सुभ, राजा राम जगत-बिजई है ॥ १० ॥
समरथ बड़ो,सुजान सुसाहब, सुकृत-सैन हारत जितई है।
सुजन सुभाव सराहत सादर, अनायास साँसति बितई है ॥ ११ ॥
उथपे थपन,उजारि बसावन, गई बहोरि बिरद सदई है।
तुलसी प्रभु आरत-आरतिहर, अभयबाँह केहि केहि न दई है ॥ १२ ॥

140.

ते नर नरकरूप जीवत जग

ते नर नरकरूप जीवत जग भव-भंजन-पद-बिमुख अभागी।
निसिबासर रुचिपाप असुचिमन,खलमति-मलिन,निगमापथ-त्यागी ॥ १ ॥
नहिं सतसंग भजन नहिं हरिको,स्त्रवन न राम-कथा-अनुरागी।
सुत-बित-दार-भवन-ममता-निसि सोवत अति, न कबहुँ मति जागी ॥ २ ॥
तुलसिदास हरिनाम-सुधा तजि, सठ हठि पियत बिषय-बिष माँगी।
सूकर-स्वान-सृगाल,सरिस जन, जनमत जगत जननि-दुख लागी ॥ ३ ॥

141.

रामचंद्र! रघुनायक तुमसों

रामचंद्र! रघुनायक तुमसों हौं बिनती केहि भाँति करौं।
अघ अनेक अवलोकि आपने, अनघ नाम अनुमानि डरौं ॥ १ ॥
पर-दुख दुखी सुखी पर-सुख ते, संत-सील नहिं हृदय धरौं।
देखि आनकी बिपति परम सुख, सुनि संपति बिनु आगि जरौं ॥ २ ॥
भगति-बिराग-ग्यान साधन कहि बहु बिधि डहकत लोग फिरों।
सिव-सरबस सुखधाम नाम तव, बेचि नरकप्रद उदर भरौं ॥ ३ ॥
जानत हौं निज पाप जलधि जिय, जल-सीकर सम सुनत लरौं।
रज-सम-पर अवगुन सुमेरु करि, गुन गिरि-सम रजतें निदरौं ॥ ४ ॥
नाना बेष बनाय दिवस-निसि, पर-बित जेहि तेहि जुगुति हरौं।
एकौ पल न कबहुँ अलोल चित हित दै पद-सरोज सुमिरौं ॥ ५ ॥
जो आचरन बिचारहु मेरो,कलप कोटि लगि औटि मरौं।
तुलसिदास प्रभु कृपा-बिलोकनि,गोपद-ज्यों भवसिंधु तरौं ॥ ६ ॥ 

142.

सकुचत हौं अति राम कृपानिधि!

सकुचत हौं अति राम कृपानिधि! क्यों करि बिनय सुनावौं।
सकल धरम बिपरीत करत,केहि भाँति नाथ! मन भावौ ॥ १ ॥
जानत हौं हरि रूप चराचर, मैं हठि नयन न लावौं।
अंजन-केस-सिखा जुवती, तहँ लोचन-सलभ पठावौं ॥ २ ॥
स्त्रवननिको फल कथा तुम्हारी, यह समुझौं,समुझावौं।
तिन्ह स्त्रवननि परदोष निरंतर सुनि सुनि भरि भरि तावौं ॥ ३ ॥
जेहि रसना गुन गाइ तिहारे, बिनु प्रयास सुख पावौं।
तेहि मुख पर-अपवाद भेक ज्यों रटि-रटि जनम नसावौं ॥ ४ ॥
'करहु हृदय अति बिमल बसहिं हरि', कहि कहि सबहिं सिखावौं।
हौं निज उर अभिमान-मोह-मद खल-मंडली बसावौं ॥ ५ ॥
जो तनु धरि हरिपद साधहिं जन, सो बिनु काज गँवावौं।
हाटक-घट भरि धर् यो सुधा गृह, तजि नभ कूप खनावौं ॥ ६ ॥
मन-क्रम-बचन लाइ कीन्हे अघ, ते करि जतन दुरावौं।
पर-प्रेरित इरषा बस कबहुँक किय कछु सुभ,सो जनावौं ॥ ७ ॥
बिप्र-द्रोह जनु बाँट पर् यो, हठि सबसों बैर बढ़ावौ।
ताहूपर निज मति-बिलास सब संतन माँझ गनावौं ॥ ८ ॥
निगम सेस सारद निहोरि जो अपने दोष कहावौं।
तौ न सिराहिं कलप सत लगि प्रभु, कहा एक मुख गावौं ॥ ९ ॥
जो करनी आपनी बिचारौं, तौं कि सरन हौं आवौं।
मृदुल सुभाउ सील रघुपतिको, सो बल मनहिं दिखावौं ॥ १० ॥
तुलसिदास प्रभु सो गुन नहिं, जेहि सपनेहुँ तुमहिं रिझावौं।
नाथ-कृपा भवसिंधु धेनुपद सम जो जानि सिरावौं ॥ ११ ॥

143.

सुनहु राम रघुबीर गुसाई,

सुनहु राम रघुबीर गुसाई, मन अनीति-रत मेरो।
चरन-सरोज बिसारि तिहारे, निसिदिन फिरत अनेरो ॥ १ ॥
मानत नाहिं निगम-अनुसासन, त्रास न काहू केरो।
भूल्यो सूल करम-कोलुन्ह तिल ज्यों बहु बारनि पेरो ॥ २ ॥
जहँ सतसंग कथा माधवकी, सपनेहुँ करत न फेरो।
लोभ-मोह-मद-काम-कोह-रत, तिन्हसों प्रेम घनेरो ॥ ३ ॥
पर-गुन सुनत दाह, पर-दूषन सुनत हरख बहुतेरो।
आप पापको नगर बसावत, सहि न सकत पर खेरो ॥ ४ ॥
साधन-फल,श्रुति-सार नाम तव, भव-सरिता कहँ बेरो।
सो पर-कर काँकिनी लागि सठ, बेंचि होत हठि चेरो ॥ ५ ॥
कबहुँक हौं संगति-प्रभावतें,जाँउ सुमारग नेरो।
तब करि क्रोध संग कुमनोरथ देत कठिन भटभेरो ॥ ६ ॥
इक हौं दीन,मलीन,हीनमति,बिपतिजाल अति घेरो।
तापर सहि न जाय करुनानिधि, मनको दुसह दरेरो ॥ ७ ॥
हारि पर् यो करि जतन बहुत बिधि, तातें कहत सबेरो।
तुलसिदास यह त्रास मिटै जब हृदय करहु तुम डेरो ॥ ८ ॥

144.

सो धौ को जो नाम-लाज ते,

सो धौ को जो नाम-लाज ते, नहिं राख्यो रघुबीर।
कारुनीक बिनु कारन ही हरि हरी सकल भव-भीर ॥ १ ॥
बेद-बिदित,जग-बिदित अजामिल बिप्रबंधु अघ-धाम।
घोर जमालय जात निवार् यो सुत-हित सुमिरत नाम ॥ २ ॥
पसु पामर अभिमान-सिंधु गज ग्रस्यो आइ जब ग्राह।
सुमिरत सकृत सपदि आये प्रभु, हर् यो दुसह उर दाह ॥ ३ ॥
ब्याध,निषाद,गीध,गनिकादिक, अगनित औगुन-मूल।
नाम-औटतें राम सबनिकी दूरि करी सब सूल ॥ ४ ॥
केहि आचरन घाटि हौं तिनतें, रघुकुल-भूषन भूप।
सीदत तुलसिदास निसिबासर पर् यो भीम तम-कूप ॥ ५ ॥

145.

कृपासिंधु! जन दीन दुवारे

कृपासिंधु! जन दीन दुवारे दादि न पावत काहे।
जब जहँ तुमहिं पुकारत आरत, तहँ तिन्हके दुख दाहे ॥ १ ॥
गज,प्रहलाद,पांडुसुत,कपि सबको रिपु-संकट मेट्यो।
प्रनत,बंधु-भय-बिकल,बिभीषन,उठि सो भरत ज्यों भेट्यो ॥ २ ॥
मैं तुम्हरो लेइ नाम ग्राम इक उर आपने बसावों।
भजन,बिबेक,बिराग,लोग भले, मैं क्रम-क्रम करि ल्यावों ॥ ३ ॥
सुनि रिस भरे कुटिल कामादिक, करहिं जोर बरिआई।
तिन्हहिं उजारि नारि-अरि-धन पुर राखहिं राम गुसाईं ॥ ४ ॥
सम-सेवा-छल-दान-दंड हौं, रचि उपाय पचि हार् यो।
बिनु कारनको कलह बड़ो दुख, प्रभुसों प्रगटि पुकार् यो ॥ ५ ॥
सुर स्वारथी,अनीस,अलायक,निठुर,दया चित नाहीं।
जाउँ कहाँ, को बिपति-निवारक, भवतारक जग माही ॥ ६ ॥
तुलसी जदपि पोच,तउ तुम्हरो, और न काहु केरो।
दीजै भगति-बाँह बारक, ज्यों सुबस बसै अब खेरो ॥ ७ ॥

146.

हौं सब बिधि राम,

हौं सब बिधि राम, रावरो चाहत भयो चेरो।
ठौर ठौर साहबी होत है, ख्याल काल कलि केरो ॥ १ ॥
काल-करम-इंद्रिय,बिषय गाहकगन घेरो।
हौं न कबूलत, बाँधि कै मोल करत करेरो ॥ २ ॥
बंदि-छोर तेरो नाम है, बिरुदैत बड़ेरो।
मैं कह्यो, तब छल-प्रीति कै माँगे उर डेरो ॥ ३ ॥
नाम-ओट अब लगि बच्यो मलजुग जग जेरो।
अब गरीब जन पोषिये पाइबो न हेरो ॥ ४ ॥
जेहि कौतुक बक/खग स्वानको प्रभु न्याव निबेरो।
तेहि कौतुक कहिये कृपालु! 'तुलसी है मेरो' ॥ ५ ॥

147.

कृपासिंधु ताते रहौं निसिदिन

कृपासिंधु ताते रहौं निसिदिन मन मारे।
महाराज! लाज आपुही निज जाँघ उघारे ॥ १ ॥
मिले रहैं, मार् यौ चहै कामादि संघाती।
मो बिनु रहै न, मेरियै जारैं छल छाती ॥ २ ॥
बसत हिये हित जानि मैं सबकी रुचि पाली।
कियो कथकको दंड हौं जड़ करम कुचाली ॥ ३ ॥
देखी सुनी न आजु लौं अपनायति ऐसी।
करहिं सबै सिर मेरे ही फिरि परै अनैसी ॥ ४ ॥
बड़े अलेखी लखि परै, परिहरै न जाहीं।
असमंजसमें मगन हौं, लीजै गहि बाहीं ॥ ५ ॥
बारक बलि अवलोकिये, कौतुक जन जी को।
अनायास मिटि जाइगो संकट तुलसीको ॥ ६ ॥

148.

कहौ कौन मुहँ लाइ कै

कहौ कौन मुहँ लाइ कै रघुबीर गुसाई।
सकुचत समुझत आपनी सब साइँ दुहाई ॥ १ ॥
सेवत बस,सुमिरत सखा, सरनागत सो हौं।
गुनगन सीतानाथके चित करत न हौं हौं ॥ २ ॥
कृपासिंधु बंधु दीनके आरत-हितकारी।
प्रनत-पाल बिरुदावली सुनि जानि बिसारी ॥ ३ ॥
सेइ न धेइ न सुमिरि कै पद-प्रीति सुधारी।
पाइ सुसाहिब राम सों, भरि पेट बिगारी ॥ ४ ॥
नाथ गरीबनिवाज हैं,मैं गही न गरीबी।
तुलसी प्रभु निज ओर तें बनि परै सो कीबी ॥ ५ ॥

149.

कहाँ जाउँ, कासों कहौं,

कहाँ जाउँ, कासों कहौं, और ठौर न मेरे।
जनम गँवायो तेरे ही द्वार किंकर तेरे ॥ १ ॥
मै तौ बिगारी नाथ सों आरतिके लीन्हें।
तोहि कृपानिधि क्यों बनै मेरी-सी कीन्हें ॥ २ ॥
दिन-दुरदिन दिन-दुरदसा, दिन-दुख दिन-दूषन।
जब लौं तू न बिलोकिहै रघुबंस-बिभूषन ॥ ३ ॥
दई पीठ बिनु डीठ मैं तुम बिस्व बिलोचन।
तो सों तुही न दूसरो नत-सोच-बिमोचन ॥ ४ ॥
पराधीन देव दीन हौं,स्वाधीन गुसाईं।
बोलनिहारे सों करै बलि बिनयकी झाई ॥ ५ ॥
आपु देखि मोहि देखिये जन मानिय साँचो।
बड़ी ओट रामनामकी जेहि लई सो बाँचो ॥ ६ ॥
रहनि रीति राम रावरी नित हिय हुलसी है।
ज्यों भावै त्यों करु कृपा तेरो तुलसी है ॥ ७ ॥

150.

रामभद्र! मोहिं आपनो सोच

रामभद्र! मोहिं आपनो सोच है अरु नाहीं।
जीव सकल संतापके भाजन जग माहीं ॥ १ ॥
नातो बड़े समर्थ सों इक ओर किधौं हूँ।
तोको मोसे अति घने मोको एकै तूँ ॥ २ ॥
बड़ी गलानि हिय हानि है सरबग्य गुसाईं।
कूर कुसेवक कहत हौं सेवककी नाई ॥ ३ ॥
भलो पोच रामको कहैं मोहि सब नरनारी।
बिगरे सेवक स्वान ज्यों साहिब-सिर गारी ॥ ४ ॥
असमंजस मनको मिटै सो उपाय न सूझै।
दीनबंधु! कीजै सोई बनि परै जो बूझै ॥ ५ ॥
बिरुदावली बिलोकिये तिन्हमें कोउ हौं हौं।
तुलसी प्रभुको परिहर् यो सरनागत सो हौं ॥ ६ ॥

151.

जो पै चेराई रामकी करतो

जो पै चेराई रामकी करतो न लजातो।
तौ तू दाम कुदाम ज्यों कर-कर न बिकातो ॥ १ ॥
जपत जीह रघुनाथको नाम नहिं अलसातो।
बाजीगरके सूम ज्यों खल खेह न खातो ॥ २ ॥
जौ तू मन! मेरे कहे राम-नाम कमातो।
सीतापति सनमुख सुखी सब ठाँव समातो ॥ ३ ॥
राम सोहाते तोहिं जौ तू सबहिं सोहातो।
काल करम कुल कारनी कोऊ न कोहातो ॥ ४ ॥
राम-नाम अनुरागही जिय जो रतिआतो।
स्वारथ-परमारथ-पथी तोहिं सब पतिआतो ॥ ५ ॥
सेइ साधु सुनि समुझि कै पर-पीर पिरातो।
जनम कोटिको काँदले हृद-हृदय थिरातो ॥ ६ ॥
भव-मग अगम अनंत है, बिनु श्रमहि सिरातो।
महिमा उलटे नामकी मुनि कियो किरातो ॥ ७ ॥
अमर-अगम तनु पाइ सो जड़ जाय न जातो।
होतो मंगल-मूल तू, अनुकूल बिधातो ॥ ८ ॥
जो मन-प्रीति-प्रतीतिसों राम-नामहिं रातो।
नसातो तुलसी रामप्रसादसों तिहुँताप नसातो ॥ ९ ॥

152.

राम भलाई आपनी भल कियो

राम भलाई आपनी भल कियो न काको।
जुग जुग जानकीनाथको जग जागत साको ॥ १ ॥
ब्रह्मादिक बिनती करी कहि दुख बसुधाको।
रबिकुल-कैरव-चंद भो आनंद-सुधाको ॥ २ ॥
कौसिक गरत तुषार ज्यों तकि तेज तियाको।
प्रभु अनहित हित को दियो फल कोप कृपाको ॥ ३ ॥
हर् यो पाप आप जाइकै संताप सिलाको।
सोच-मगन काढ्यो सही साहिब मिथिलाको ॥ ४ ॥
रोष-रासि भृगुपति धनी अहमिति ममताको।
चितवत भाजन करि लियो उपसम समताको ॥ ५ ॥
मुदित मानि आयसु चले बन मातु-पिताको।
धरम-धुरंधर धीरधुर गुन-सील-जिता को ? ॥ ६ ॥
गुह गरीब गतग्याति हू जेहि जिउ न भखा को ?
पायो पावन प्रेम ते सनमान सखाको ॥ ७ ॥
सदगति सबरी गीधकी सादर करता को ?
सोच-सींव सुग्रीवके संकट-हरता को ? ॥ ८ ॥
राखि बिभीषनको सकै तेहि काल कहाँ / (अस काल-गहा) को ?
आज बिराजत राज है दसकंठ जहाँको ॥ ९ ॥
बालिस बासी अवधको बूझिये न खाको।
सो पाँवर पहुँचो तहाँ जहँ मुनि-मन थाको ॥ १० ॥
गति न लहै राम-नामसों बिधि सो सिरिजा को ?
सुमिरत कहत प्रचारि कै बल्लभ गिरिजाको ॥ ११ ॥
अकनि अजामिलकी कथा सानंद न भा को ?
नाम लेत कलिकालहू हरिपुरहिं न गा को ? ॥ १२ ॥
राम-नाम-महिमा करै काम-भुरुह आको।
साखी बेद पुरान है तुलसी-तन ताको ॥ १३ ॥

153.

मेरे रावरियै गति है रघुपति

मेरे रावरियै गति है रघुपति बलि जाउँ ।
निलज नीच निरधन निरगुन कहँ, जग दूसरो न ठाकुर ठाउँ ॥ १ ॥
है घर-घर बहु भरे सुसाहिब, सूझत सबनि आपनो दाउँ ।
बानर-बंधु बिभीषन-हितु बिनु, कोसलपाल कहूँ न समाउँ ॥ २ ॥
प्रनतारति- भंजन जन-रंजन, सरनागत पबि-पंजर नाउँ ।
कीजै दास दासतुलसी अब, कृपासिंधु बिनु मोल बिकाउँ ॥ ३ ॥

154.

देव ! दूसरो कौन दीनको

देव ! दूसरो कौन दीनको दयालु ।
सीलनिधान सुजान-सिरोमनि, सरनागत-प्रिय प्रनत-पालु ॥ १ ॥
को समरथ सरबग्य सकल प्रभु, सिव-सनेह-मानस मरालु ।
को साहिब किये मीत प्रीतिबस खग निसिचर कपि भील भालु ॥ २ ॥
नाथ हाथ माया-प्रपंच सब,जीव-दोष-गुन-करम-कालु ।
तुलसिदास भलो पोच रावरो, नेकु निरखि कीजिये निहालु ॥ ३ ॥

155.

बिस्वास एक राम-नामको ।

बिस्वास एक राम-नामको ।
मानत नहि परतीति अनत ऐसोइ सुभाव मन बामको ॥ १ ॥
पढिबो पर् यो न छठी छ मत रिगु जजुर अथर्वन सामको ।
ब्रत तीरथ तप सुनि सहमत पचि मरै करै तन छाम को ? ॥ २ ॥
करम-जाल कलिकाल कठिन आधीन सुसाधित दामको ।
ग्यान बिराग जोग जप तप, भय लोभ मोह कोह कामको ॥ ३ ॥
सब दिन सब लायक भव गायक रघुनायक गुन-ग्रामको ।
बैठे नाम-कामतरु-तर डर कौन घोर घन घामको ॥ ४ ॥
को जानै को जैहै जमपुर को सुरपुर पर धामको ।
तुलसिहिं बहुत भलो लागत जग जीवन रामगुलामको ॥ ५ ॥

156.

कलि नाम कामतरु रामको ।

कलि नाम कामतरु रामको ।
दलनिहार दारिद दुकाल दुख, दोष घोर घन घामको ॥ १ ॥
नाम लेत दाहिनो होत मन,बाम बिधाता बामको ।
कहत मुनीस महेस महातम,उलटे सूधे नामको ॥ २ ॥
भलो लोक-परलोक तासु जाके बल ललित-ललामको ।
तुलसी जग जानियत नामते सोच न कूच मुकामको ॥ ३ ॥

157.

सेइये सुसाहिब राम सो ।

सेइये सुसाहिब राम सो ।
सुखद सुसील सुजान सूर सुचि, सुंदर कोटिक काम सो ॥ १ ॥
सारद सेस साधु महिमा कहैं, गुनगन-गायक साम सो ।
सुमिरि सप्रेम नाम जासों रति चाहत चंद्र-ललाम सो ॥ २ ॥
गमन बिदेस न लेस कलेसको,सकुचत सकृत प्रनाम सो ।
साखी ताको बिदित बिभीषन, बैठो है अबिचल धाम सो ॥ ३ ॥
टहल सहल जन महल-महल,जागत चारो जुग जाम सो ।
देखत दोष न रीझत ,रीझत सुनि सेवक गुन-ग्राम सो ॥ ४ ॥
जाके भजे तिलोक-तिलक भये,त्रिजग जोनि तनु तामसो ।
तुलसी ऐसे प्रभुहिं भजै जो न ताहि बिधाता बाम सो ॥ ५ ॥

158.

कैसे देउँ नाथहिं खोरि ।

राग नट

कैसे देउँ नाथहिं खोरि ।
काम-लोलुप भ्रमत मन हरि भगति परिहरि तोरि ॥ १ ॥
बहुत प्रीति पुजाइबे पर, पूजिबे पर थोरि।
देत सिख सिखयो न मानत,मूढ़ता असि मोरि ॥ २ ॥
किये सहित सनेह जे अघ हृदय राखे चोरि ।
संग-बस किये सुभ सुनाये सकल लोक निहोरि ॥ ३ ॥
करौं जो कछु धरौं सचि-पचि सुकृत-सिला बटोरि ।
पैठि उर बरबस दयानिधि दंभ लेत अँजोरि ॥ ४ ॥
लोभ मनहिं नचाव कपि ज्यों, गरे आसा-डोरि ।
बात कहौं बनाइ बुध ज्यों, बर बिराग निचोरि ॥ ५ ॥
एतेहुँ पर तुम्हरो कहावत,लाज अँचई घोरि ।
निलजता पर रीझि रघुबर, देहु तुलसिहिं छोरि ॥ ६ ॥

159.

है प्रभु ! मेरोई सब दोसु ।

है प्रभु ! मेरोई सब दोसु ।
सीलसींधु कृपालु नाथ अनाथ आरत-पोसु ॥ १ ॥
बेष बचन बिराग मन अघ अवगुननिको कोसु ।
राम प्रीती प्रतीति पोली, कपट-करतब ठोसु ॥ २ ॥
राग-रंग कुसंग ही सों, साधु-संगति रोसु ।
चहत केहरि-जसहिं सेइ सृगाल ज्यों खरगोसु ॥ ३ ॥
संभु-सिखवन रसन हूँ नित राम-नामहिं घोसु ।
दंभहू कलि नाम कुंभज सोच-सागर-सोसु ॥ ४ ॥
मोद-मंगल-मूल अति अनुकूल निज निरजोसु ।
रामनाम प्रभाव सुनि तुलसिहुँ परम परितोसु ॥ ५ ॥

160.

मैं हरि पतित-पावन सुने ।

मैं हरि पतित-पावन सुने ।
मैं पतित तुम पतित-पावन दोउ बानक बने ॥ १ ॥
ब्याध गनिका गज अजामिल साखि निगमनि भने ।
और अधम अनेक तारे जात कापै गने ॥ २ ॥
जानि नाम अजानि लीन्हें नरक सुरपुर मने ।
दासतुलसी सरन आयो, राखिये आपने ॥ ३ ॥

161.

तों सों प्रभु जो पै कहुँ कोउ होतो ।

राग मलार

तों सों प्रभु जो पै कहुँ कोउ होतो ।
तो सहि निपट निरादर निसिदिन, रटि लटि ऐसो घटि को तो ॥ १ ॥
कृपा-सुधा-जलदान माँगिबो कहाँ सो साँच निसोतो ।
स्वाति-सनेह-सलिल-सुख चाहत चित-चातक सो पोतो ॥ २ ॥
काल-करम-बस मन कुमनोरथ कबहुँ कबहुँ कुछ भो तो ।
ज्यों मुदमय बसि मीन बारि तजि उछरि भभरि लेत गोतो ॥ ३ ॥
जितो दुराव दासतुलसी उर क्यों कहि आवत ओतो ।
तेरे राज राय दसरथके, लयो बयो बिनु जोतो ॥ ४ ॥

162.

ऐसो को उदार जग माहीं ।

रागसोरठ

ऐसो को उदार जग माहीं ।
बिनु सेवा जो द्रवै दीनपर राम सरिस कोउ नाहीं ॥ १ ॥
जो गति जोग बिराग जतन करि नहिं पावत मुनि ग्यानी ।
सो गति देत गीध सबरी कहँ प्रभु न बहुत जिय जानी ॥ २ ॥
जो संपति दस सीस अरप करि रावन सिव पहँ लीन्हीं ।
सो संपदा बिभीषन कहँ अति सकुच-सहित हरि दीन्ही ॥ ३ ॥
तुलसिदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो ।
तौ भजु राम, काम सब पूरन करै कृपानिधि तेरो ॥ ४ ॥

163.

एकै दानि-सिरोमनि साँचो।

एकै दानि-सिरोमनि साँचो।
जोइ जाच्यो सोइ जाचकताबस, फिरि बहु नाच न नाचो ॥ १ ॥
सब स्वारथी असुर सुर नर मुनि कोउ न देत बिनु पाये।
कोसलपालु कृपालु कलपतरु,द्रवत सकृत सिर नाये ॥ २ ॥
हरिहु और अवतार आपने, राखी बेद-बड़ाई।
लै चिउरा निधि दई सुदामहिं जद्यपि बाल मिताई ॥ ३ ॥
कपि सबरी सुग्रीव बिभीषन, को नहिं कियो अजाची।
अब तुलसिहि दुख देति दयानिधि दारून आस-पिसाची ॥ ४ ॥

164.

जानत प्रीति-रीति रघुराई।

जानत प्रीति-रीति रघुराई।
नाते सब हाते करी राखत राम सनेह-सगाई ॥ १ ॥
नेह निबाहि देह तजि दसरथ, कीरति अचल चलाई।
ऐसेहु पितु तें अधिक गीधपर ममता गुन गरुआई ॥ २ ॥
तिय-बिरही सुग्रीव सखा लखि प्रानप्रिया बिसराई।
रन पर् यो बंधु बिभीषन ही को, सोच हृदय अधिकाई ॥ ३ ॥
घर गुरुगृह प्रिय सदन सासुरे,भइ जब जहँ पहुनाई।
तब तहँ कहि सबरीके फलनिकी रुचि माधुरी न पाई ॥ ४ ॥
सहज सरूप कथा मुनि बरनत रहत सकुचि सिर नाई।
केवट मीत कहे सुख मानत बानर बंधु बड़ाई ॥ ५ ॥
प्रेम-कनौड़ो रामसो प्रभु त्रिभुवन तिहुँकाल न भाई।
तेरो रिनी हौं कह्यो कपि सों ऐसी मानही को सेवकाई ॥ ६ ॥
तुलसी राम-सनेह-सील लखि, जो न भगति उर आई।
तौ तोहिं जनमि जाय जननी जड़ तनु-तरुनता गवाँई ॥ ७ ॥

165.

रघुबर! रावरि यहै बड़ाई।

रघुबर! रावरि यहै बड़ाई।
निदरि गनी आदर गरीबपर ,करत कृपा अधिकाई ॥ १ ॥
थके देव साधन करि सब, सपनेहु नहिं देत दिखाई।
केवट कुटिल भालु कपि कौनप, कियो सकल संग भाई ॥ २ ॥
मिलि मुनिबृंद फिरत दंडक बन, सो चरचौ न चलाई।
बारहि बार गीध सबरीकी बरनत प्रीति सुहाई ॥ ३ ॥
स्वान कहे तें कियो पुर बाहिर, जती गयंद चढ़ाई।
तिय-निंदक मतिमंद प्रजा रज निज नय नगर बसाई ॥ ४ ॥
यहि दरबार दीनको आदर, रीति सदा चलि आई।
दीनदयालु दीन तुलसीकी काहु न सुरति कराई ॥ ५ ॥

166.

ऐसे राम दीन-हितकारी।

ऐसे राम दीन-हितकारी।
अतिकोमल करुनानिधान बिनु कारन पर-उपकारी ॥ १ ॥
साधन-हीन दीन निज अघ-बस, सिला भई मुनि-नारी।
गृहतें गवनि परसि पद पावन घोर सापतें तारीं।२ ॥
हिंसारत निषाद तामस बपु, पसु-समान बनचारी।
भेंट्यो हृदय लगाइ प्रेमबस, नहिं कुल जाति बिचारी ॥ ३ ॥
जद्यपि द्रोह कियो सुरपति-सुत, कह न जाय अति भारी।
सकल लोक अवलोकि सोकहत, सरन गये भय टारी ॥ ४ ॥
बिहँग जोनि आमिष अहार पर, गीध कौन ब्रतधारी।
जनक-समान क्रिया ताकी निज कर सब भाँति सँवारी ॥ ५ ॥
अधम जाति सबरी जोषित जड़, लोक-बेद तें न्यारी।
जानि प्रीति, दै दरस कृपानिधि, सोउ रघुनात उधारी ॥ ६ ॥
कपि सुग्रीव बंधु-भय-ब्याकुल आयो सरन पुकारी।
सहि न सके दारुन दुख जनके, हत्यो बालि,सहि गारी ॥ ७ ॥
रिपुको अनुज बिभीषन निशिचर, कौन भजन अधिकारी।
सरन गये आगे ह्वे लीन्हौं भेट्यो भुजा पसारी ॥ ८ ॥
असुभ होइ जिनके सुमिरे ते बानर रीछ बिकारी।
बेद-बिदित पावन किये ते सब, महिमा नाथ! तुम्हारी ॥ ९ ॥
कहँ लगि कहौं दीन अगनित जिन्हकी तुम बिपति निवारी।
कलिमल-ग्रसित दासतुलसीपर, काहे कृपा बिसारी ? ॥ १० ॥

167.

रघुपति-भगति करत कठिनाई।

रघुपति-भगति करत कठिनाई।
कहत सुगम करनी अपार जानै सोइ जेहि बनि आई ॥ १ ॥
जो जेहि कला कुसल ताकहँ सोइ सुलभ सदा सुखकारी।
सफरी सनमुख जल-प्रवाह सुरसरी बहै गज भारी ॥ २ ॥
ज्यों सर्करा मिलै सिकता महँ, बलतें न कोउ बिलगावै।
अति रसस्य सूच्छम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ॥ ३ ॥
सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवे निद्रा तजि जोगी।
सोइ हरिपद अनुभवै परम सुख, अतिसय द्वैत-बियोगी ॥ ४ ॥
सोक मोह भय हरष दिवस-निसि देस-काल तहँ नाहीं।
तुलसिदास यहि दसाहीन संसय निरमूल न जाहीं ॥ ५ ॥

168.

जो पै राम-चरन-रति होती।

जो पै राम-चरन-रति होती।
तौ कत त्रिबिध सूल निसिबासर सहते बिपति निसोती ॥ १ ॥
जो संतोष-सुधा निसिबासर सपनेहुँ कबहुकँ पावै।
तौ कत बिषय बिलोकि झूँठ जल मन-कुरंग ज्यों धावै ॥ २ ॥
जो श्रीपति-महिमा बिचारि उर भजते भाव बढ़ाए।
तौ कत द्वार-द्वार कूकर ज्यों फिरते पेट खलाए ॥ ३ ॥
जे लोलुप भये दास आसके ते सबहीके चेरे।
प्रभु-बिस्वास आस जीती जिन्ह, ते सेवक हरि केरे ॥ ४ ॥
नहिं एकौ आचरन भजनको, बिनय करत हौं ताते।
कीजै कृपा दासतुलसी पर, नाथ नामके नाते ॥ ५ ॥

169.

जो मोही राम लागते मीठे।

जो मोही राम लागते मीठे।
तौ नवरस षटरस-रस अनरस ह्वे जाते सब सीठे ॥ १ ॥
बंचक बिषय बिबिध तनु धरि अनुभवे सुने अरु डीठे।
यह जानत हौं हृदय आपने सपने न अघाइ उबीठे ॥ २ ॥
तुलसिदास प्रभु सों एहि बल बचन कहत अति ढीठे।
नामकी लाज राम करुनाकर केहि न दिये कर चीठे ॥ ३ ॥

170.

यों मन कबहूँ तुमहिं न लाग्यो।

यों मन कबहूँ तुमहिं न लाग्यो।
ज्यों छल छाँड़ि सुभाव निरंतर रहत बिषय अनुराग्यो ॥ १ ॥
ज्यों चितई परनारि, सुने पातक-प्रपंच घर-घरके।
त्यों न साधु, सुरसरि-तरंग-निरमल गुनगन रघुबरके ॥ २ ॥
ज्यों नासा सुगंधरस-बस, रसना षटरस-रति मानी।
राम-प्रसाद-माल जूठन लगि त्यों न ललकि ललचानी ॥ ३ ॥
चंदन-चंदबदनि-भूषन-पट ज्यों चह पाँवर परस्यो।
त्यों रघुपति-पद-पदुम-परस को तनु पातकी न तरस्यो ॥ ४ ॥
ज्यों सब भाँती कुदेव कुठाकुर सेये बपु बचन हिये हूँ।
त्यों न राम सुकृतग्य जे सकुचत सकृत प्रनाम किये हूँ ॥ ५ ॥
चंचल चरन लोभ लगि लोलुप द्वार-द्वार जग बागे।
राम-सीय-आस्रमनि चलत त्यों भये न स्रमित अभागे ॥ ६ ॥
सकल अंग पद-बिमुख नाथ मुख नामकी ओट लई है।
है तुलसिहिं परतीति एक प्रभु-मूरति कृपामई है ॥ ७ ॥

171.

कीजै मोको जम जातनामई।

कीजै मोको जमजातनामई।
राम! तुमसे सुचि सुहृद साहिबहिं ,मैं सठ पीठि दई ॥ १ ॥
गरभबास दस मास पालि पितु-मातु-रूप हित कीन्हों।
जड़हि बिबेक,सुसील खलहिं, अपराधहिं आदर दीन्हों ॥ २ ॥
कपट करौं अंतरजामिहुँ सों, अघ ब्यापकहिं दुरावौं।
ऐसेहु कुमति कुसेवक पर रघुपति न कियो मन बावौं ॥ ३ ॥
उदर भरौं कोंकर कहाइ बेंच्यौं बिषयनि हाथ हियो है।
मोसे बंचकको कृपालु छल छाँड़ि कै छोह कियो है ॥ ४ ॥
पल-पलके उपकार रावरे जानि बूझी सुनि नीके।
भिद्यो न कुलिसहुँ ते कठोर चित कबहुँ प्रेम सिय-पीके ॥ ५ ॥
स्वामीकी सेवक-हितता सब, कछु निज साँई-द्रोहाई।
मैं मति-तुला तौलि देखी भइ मेरेहि दिसि गरूआई ॥ ६ ॥
एतेहु पर हित करत नाथ मेरो, करि आये, अरु करिहैं।
तुलसी अपनी ओर जानियत प्रभुहि कनौड़ो भरिहैं ॥ ७ ॥

172.

कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो।

कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो।
श्रीरघुनाथ-कृपालु-कृपातें संत-सुभाव गहौंगो ॥ १ ॥
जथालाभसंतोष सदा, काहू सों कछु न चहौंगो।
पर-हित-निरत निरंतर, मन क्रम बचन नेम निबहौंगो ॥ २ ॥
परुष बचन अति दुसह श्रवन सुनि तेहि पावक न दहौंगो।
बिगत मान, सम शीतल मन, परगुन नहिं दोष कहौंगो ॥ ३ ॥
परहरि देह-जनित चिंता, दुख-सुख समबुद्धि सहौंगो।
तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरि-भगति लहौंगो ॥ ४ ॥

173.

नाहिंन आवत आन भरोसो।

नाहिंन आवत आन भरोसो।
यहि कलिकाल सकल साधनतरु है स्रम-फलनि फरो सो ॥ १ ॥
तप,तीरथ,उपवास,दान,मख जेहि जो रुचै करो सो।
पायेहि पै जानिबो करम-फल भरि-भरि बेद परोसो ॥ २ ॥
आगम-बिधि जप-जग करत नर सरत न काज खरो सो।
सुख सपनेहु न जोग-सिधि-साधन, रोग बियोग धरो सो ॥ ३ ॥
काम, क्रोध,मद,लोभ,मोह मिलि ग्यान बिराग हरो सो।
बिगरत मन संन्यास लेत जल नावत आम घरो सो ॥ ४ ॥
बहु मत मुनि बहु पंथ पुराननि जहाँ-तहाँ झगरो सो।
गुरु कह्यो राम-भजन नीको मोंहि लगत राज-डगरो सो ॥ ५ ॥
तुलसी बिनु परतीती प्रीति फिरि-फिरि पचि मरै मरो सो।
रामनाम-बोहित भव-सागर चाहै तरन तरो सो ॥ ६ ॥

174.

जाके प्रिय न राम-बैदेही।

जाके प्रिय न राम-बैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ॥ १ ॥
सो छाँड़िये तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी ॥ २ ॥
नाते नेह रामके मनियत सुहृद सुसेब्य जहाँ लों।
अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं ॥ ३ ॥
तुलसि सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो।
जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो ॥ ४ ॥

175.

रहनि जो पै लगन रामसों नाहीं।

रहनि जो पै लगन रामसों नाहीं।
तौ नर खर कूकर सूकर सम बृथा जियत जग माहीं ॥ १ ॥
काम,क्रोध,मद,लोभ,नींद,भय,भूख,प्यास सबहीके।
मनुज देह सुर-साधु सराहत, सो सनेह सिय-पीके ॥ २ ॥
सूर,सुजान,सुपूत सुलच्छन गनियत गुन गरुआई।
बिनु हरिभजन इँदारुनके फल तजत नहीं करुआई ॥ ३ ॥
कीरति, कुल करतूति, भूति भलि, सील, सरूप सलोने।
तुलसी प्रभु-अनुराग-रहित जस सालन साग अलोने ॥ ४ ॥

176.

राख्यो राम सुस्वामी सों

राख्यो राम सुस्वामी सों नीच नेह न नातो।
एते अनादर हूँ तोहि ते न हातो ॥ १ ॥
जोरे नये नाते नेह फोकट फीके।
देहके दाहक, गाहक जीके ॥ २ ॥
अपने अपनेको सब चाहत नीको।
मूल दुहुँको दयालु दूलह सीको ॥ ३ ॥
जीवको जीवन प्रानको प्यारो।
सुखहूको सूख रामसो बिसारो ॥ ४ ॥
कियो करैगो तोसे खलको भलो।
ऐसे सुसाहब सों तू कुचाल क्यौं चलो ॥ ५ ॥
तुलसी तेरी भलाई अजहूँ बूझै।
राढ़उ राउत होत फिरिकै जूझै ॥ ६ ॥

177.

जो तुम त्यागों राम हौं तौं

जो तुम त्यागों राम हौं तौं नहीं त्यागो।
परिहरि पाँय काहि अनुरागों ॥ १ ॥
सुखद सुप्रभु तुम सो जगमाहीं।
श्रवन-नयन मन गोचर नाहीं ॥ २ ॥
हौं जड़ जीव,ईस रघुराया।
तुम मायापति,हौं बस माया ॥ ३ ॥
हौं तो कुजाचक,स्वामी सुदाता।
हौं कुपूत, तुम हितु पितु-माता ॥ ४ ॥
जो पै कहुँ कोउ बूझत बातो।
तौ तुलसी बिनु मोल बिकातो ॥ ५ ॥

178.

भयेहूँ उदास राम, मेरे आस रावरी।

भयेहूँ उदास राम, मेरे आस रावरी।
आरत स्वारथी सब कहैं बात बावरी ॥ १ ॥
जीवनको दानी घन कहा ताहि चाहिये।
प्रेम नेमके निबाहे चातक सराहिये ॥ २ ॥
मीनतें न लाभ-लेस पानी पुन्य पीनको।
जल बिनु थल कहा मीचु बिनु मीनको ॥ ३ ॥
बड़े ही की ओट बलि बाँचि आये छोटे हैं।
चलत खरेके संग जहाँ-तहाँ खोटे हैं ॥ ४ ॥
यहि दरबार भलो दाहिनेहु-बामको।
मोको सुभदायक भरोसो राम-नामको ॥ ५ ॥
कहत नसानी ह्वे ह्वे हिये नाथ नीकी है।
जानत कृपानिधान तुलसीके जीकी है ॥ ६ ॥

179.

कहाँ जाउँ, कासों कहौ, कौन सुनै दीनकी।

राग बिलावल

कहाँ जाउँ, कासों कहौ, कौन सुनै दीनकी।
त्रिभुवन तुही गति सब अंगहीनकी ॥ १ ॥
जग जगदीस घर घरनि घनेरे हैं।
निराधारके अधार गुनगन तेरे हैं ॥ २ ॥
गजराज-काज खगराज तजि धायो को।
मोसे दोस-कोस पोसे, तोसे माय जायो को ॥ ३ ॥
मोसे कूर कायर कुपूत कौड़ी आधके।
किये बहुमोल तैं करैया गीध-श्राधके ॥ ४ ॥
तुलसीकी तेरे ही बनाये,बलि,बनैगी।
प्रभुकी बिलंब-अंब दोष-दुख जनैगी ॥ ५ ॥

180.

बारक बिलोकि बलि कीजै मोहिं आपनो।

बारक बिलोकि बलि कीजै मोहिं आपनो।
राय दशरथके तू उथपन-थापनो ॥ १ ॥
साहिब सरनपाल सबल न दूसरो।
तेरो नाम लेत ही सुखेत होत ऊसरो ॥ २ ॥
बचन करम तेरे मेरे मन गड़े हैं।
देखे सुने जाने मैं जहान जेते बड़े हैं ॥ ३ ॥
कौन कियो समाधान सनमान सीलाको।
भृगुनाथ सो रिषी जितैया कौन लीलाको ॥ ४ ॥
मातु-पितु-बन्धु-हितु, लोक-बेदपाल को।
बोलको अचल, नत करत निहाल को ॥ ५ ॥
संग्रही सनेहबस अधम असाधुको।
गीध सबरीको कहौ करिहै सराधु को ॥ ६ ॥
निराधारको अधार, दीनको दयालु को।
मीत कपि-केवट-रजनिचर-भालु को ॥ ७ ॥
रंक,निरगुनी,नीच जितने निवाजे हैं।
महाराज! सुजन -समाज ते बिराजे हैं ॥ ८ ॥
साँची बिरुदावली न बढ़ि कहि गई है।
सीलसिंधु! ढील तुलसीकी बेर भई है ॥ ९ ॥

181.

केहू भाँति कृपासिंधु मेरी ओर हेरिये।

केहू भाँति कृपासिंधु मेरी ओर हेरिये।
मोको और ठौर न, सुटेक एक तेरिये ॥ १ ॥
सहस सिलातें अति जड़ मति भई है।
कासों कहौं कौन गति पाहनिहिं दई है ॥ २ ॥
पद-राग-जाग चहौं कौसिक ज्यों कियो हौं।
कलि-मल खल देखि भारी भीति भियो हौं ॥ ३ ॥
करम-कपीस बालि-बली, त्रास-त्रस्यो हौं।
चाहत अनाथ-नाथ! तेरी बाँह बस्यो हौं ॥ ४ ॥
महा मोह-रावन बिभीषन ज्यों हयो हौं।
त्राहि, तुलसीस! त्राहि तिहूँ ताप तयो हौं ॥ ५ ॥

182.

नाथ ! गुननाथ सुनि होत चित चाउ सो।

नाथ ! गुननाथ सुनि होत चित चाउ सो।
राम रीझिबेको जानौं भगति न भाउ सो ॥ १ ॥
करम,सुभाउ,काल, ठाकुर न ठाउँ सो।
सुधन न, सुतन न,सुमन, सुआउ सो ॥ २ ॥
जाँचौं जल जाहि कहै अमिय पियाउ सो।
कासों कहौं काहू सों न बढ़त हियाउ सो ॥ ३ ॥
बाप! बलि जाऊँ, आप करिये उपाउ सो।
तेरे ही निहारे परै हारेहू सुदाउ सो ॥ ४ ॥
तेरे ही सुझाये सूझै असुझ सुझाउ सो।
तेरे ही बुझाये बूझै अबुझ बुझाउ सो ॥ ५ ॥
नाम अवलंबु-अंबु दीन मीन-राउ सो।
प्रभुसों बनाइ कहौं जीह जरि जाउ सो ॥ ६ ॥
सब भाँति बिगरी है एक सुबनाउ-सो।
तुलसी सुसाहिबहिं दियो है जनाउ सो ॥ ७ ॥

183.

राम! प्रीतिकी रीति आप नीके जनियत है।

राग आसावरी

राम! प्रीतिकी रीति आप नीके जनियत है।
बड़े की बड़ाई, छोटे की छोटाई दूरि करै,
ऐसी बिरुदावली, बलि, बेद मनियत है ॥ १ ॥
गीधको कियो सराध, भीलनीको खायो फल,
सोऊ साधु-सभा भलीभाँति भनियत है।
रावरे आदरे लोक बेद हूँ आदरियत,
जोग ग्यान हूँ तें गरू गनियत है ॥ २ ॥
प्रभुकी कृपा कृपालु! कठिन कलि हूँ काल,
महिमा समुझि उर अनियत है।
तुलसी पराये बस भये रस अनरस,
दीनबंधु! द्वारे हठ ठनियत है ॥ ३ ॥

184.

राम-नामके जपे जाइ जियकी जरनि।

राम-नामके जपे जाइ जियकी जरनि।
कलिकाल अपर उपाय ते अपाय भये,
जैसे तम नासिबेको चित्रके तरनि ॥ १ ॥
करम-कलाप परिताप पाप-साने सब,
ज्यों सुफूल फूले तरु फोकट फरनि।
दंभ,लोभ,लालच,उपासना बिनासि नीके,
सुगति साधन भई उदर भरनि ॥ २ ॥
जोग न समाधि निरुपाधि न बिराग-ग्यान,
बचन बिशेष बेष, कहूँ न करनि।
कपट कुपथ कोटि, कहनि-रहनि खोटि,
सकल सराहैं निज निज आचरनि ॥ ३ ॥
मरत महेस उपदेस हैं कहा करत,
सुरसरि-तीर कासी धरम-धरनि।
राम-नामको प्रताप हर कहैं, जपैं आप,
जुग जुग जानैं जग, बेदहूँ बरनि ॥ ४ ॥
मति राम-नाम ही सों, रति राम-नाम ही सों,
गति राम नाम ही की बिपति-हरनि।
राम-नामसों प्रतीति प्रीति राखे कबहुँक,
तुलसी ढरैंगे राम आपनी ढरनि ॥ ५ ॥

185.

लाज न लागत दास कहावत।

लाज न लागत दास कहावत।
सो आचरन बिसारि सोच तजि,
जो हरि तुम कहँ भावत ॥ १ ॥

सकल संग तजि भजत जाहि मुनि,
जप तप जाग बनावत।
मो-सम मंद महाखल पाँवर,
कौन जतन तेहि पावत ॥ २ ॥

हरि निरमल, मलग्रसित हृदय,
असमंजस मोहि जनावत।
जेहि सर काक कंक बक सूकर,
क्यों मराल तहँ आवत ॥ ३ ॥

जाकी सरन जाइ कोबिद
दारुन त्रयताप बुझावत।
तहूँ गये मद मोह लोभ अति,
सरगहुँ मिटत न सावत ॥ ४ ॥

भव-सरिता कहँ नाउ संत,
यह कहि औरनि समुझावत।
हौं तिनसों हरि! परम बैर करि ,
तुम सों भलो मनावत ॥ ५ ॥

नाहिंन और ठौर मो कहँ,
ताते हठि नातो लावत।
राखु सरन उदार-चूड़ामनि!
तुलसिदास गुन गावत ॥ ६ ॥

186.

कौन जतन बिनती करिये।

कौन जतन बिनती करिये।
निज आचरन बिचारि हारि हिय मानि जानि डरिये ॥ १ ॥
जेहि साधन हरि! द्रवहु जानि जन सो हठि परिहरिये।
जाते बिपति-जाल निसिदिन दुख,तेहि पथ अनसरिये ॥ २ ॥
जानत हूँ मन बचन करम पर-हित कीन्हें तरिये।
सो बिपरीत देखि पर-सुख, बिनु कारन ही जरिये ॥ ३ ॥
श्रुति पुरान सबको मत यह सतसंग सुदृढ़ धरिये।
निज अभिमान मोह इरिषा बस तिनहिं न आदरिये ॥ ४ ॥
संतत सोइ प्रिय मोहिं सदा जातें भवनिधि परिये।
कहौं अब नाथ, कौन बलतें संसार-सोग हरिये ॥ ५ ॥
जब कब निज करुना-सुभावतें, द्रवहु तौ निस्तरिये।
तुलसिदास बिस्वास आनि नहिं, कत पचि-पचि मरिये ॥ ६ ॥

187.

ताहि तें आयो सरन सबेरें।

ताहि तें आयो सरन सबेरें।
ग्यान बिराग भगति साधन कछु सपनेहुँ नाथ! न मेरें ॥ १ ॥
लोभ-मोह-मद-काम-क्रोध रिपु फिरत रैनि-दिन घेरें।
तिनहिं मिले मन भयो कुपथ-रत, फिरै तिहारेहि फेरें ॥ २ ॥
दोष-निलय यह बिषय सोक-प्रद कहत संत श्रुति टेरें।
जानत हूँ अनुराग तहाँ अति सो, हरि तुम्हरेहि प्रेरें ? ॥ ३ ॥
बिष पियूष सम करहु अगिनि हिम, तारि सकहु बिनु बेरें।
तुम सम ईस कृपालु परम हित पुनि न पाइहौं हेरें ॥ ४ ॥
यह जिय जानि रहौं सब तजि रघुबीर भरोसे तेरें।
तुलसिदास यह बिपति बागुरौ तुम्हहिं सों बनै निबेरें ॥ ५ ॥

188.

मैं तोहिं अब जान्यो संसार।

मैं तोहिं अब जान्यो संसार।
बाँधि न सकहिं मोहि हरिके बल,प्रगट कपट-आगार ॥ १ ॥
देखत ही कमनीय, कछू नाहिंन पुनि किये बिचार।
ज्यों कदलीतरु-मध्य निहारत, कबहुँ न निकसत सार ॥ २।
तेरे लिये जनम अनेक मैं फिरत न पायों पार।
महामोह-मृगजल-सरिता महँ बोर् यो हौं बारहिं बार ॥ ३ ॥
सुनु खल! छल बल कोटि किये बस होहिं न भगत उदार।
सहित सहाय तहाँ बसि अब ,जेहि हृदय न नंदकुमार ॥ ४ ॥
तासों करहु चातुरी जो नहिं जानै मरम तुम्हार।
सो परि डरै मरै रजु-अहि तें, बूझै नहिं ब्यवहार ॥ ५ ॥
निज हित सुनु सठ!हठ न करहि,जो चहहि कुसल परिवार।
तुलसिदास प्रभुके दासनि तजि भजहि जहाँ मद मार ॥ ६ ॥

189.

राम कहत चलु, राम कहत चलु,

राग गौरी

राम कहत चलु, राम कहत चलु, राम कहत चलु भाई रे।
नाहिं तौ भव-बेगारि महँ परिहै, छूटत अति कठिनाई रे ॥ १ ॥
बाँस पुरान साज-सब अठकठ, सरल तिकोन खटोला रे।
हमहिं दिहल करि कुटिल करमचँद मंद मोल बिनु डोला रे ॥ २ ॥
बिषम कहार मार-मद-माते चलहिं न पाउँ बटोरा रे।
मंद बिलंद अभेरा दलकन पाइय दुख झकझौरा रे ॥ ३ ॥
काँट कुराय लपेटन लोटन ठावहिं ठाउँ बझाऊ रे।
जस जस चलिय दूरि तस तस निज बास न भेंट लगाऊ रे ॥ ४ ॥
मारग अगम, संग नहिं संबल,नाउँ गाउँकर भूला रे।
तुलसिदास भव त्रास हरहु अब ,होहु राम अनुकूला रे ॥ ५ ॥

190.

सहज सनेही रामसों

सहज सनेही रामसों तैं कियो न सहज सनेह।
तातें भव-भाजन भयो,सुनु अजहुँ सिखावन एह ॥ १ ॥
ज्यों मुख मुकुर बिलोकिये अरु चित न रहै अनुहारि।
त्यों सेवतहुँ न आपने, ये मातु-पिता, सुत-नारि ॥ २ ॥
दै दै सुमन तिल बासिकै, अरु खरि परिहरि रस लेत।
स्वारथ हित भूतल भरे, मन मेचक, तन सेत ॥ ३ ॥
करि बीत्यो, अब करतु है करिबे हित मीत अपार।
कबहुँ न कोउ रघुबीर सो नेह निबाहनिहार ॥ ४ ॥
जासों सब नातों फुरै, तासों न करी पहिचानि।
तातें कछू समझ् यो नहीं, कहा लाभ कह हानि ॥ ५ ॥
साँचो जान्यो झूठको,झूठे कहँ साँचो जानि।
को न गयो, को जात है,को न जैहै करि हितहानि ॥ ६ ॥
बेद कह्यो, बुध कहत हैं, अरु हौहुँ कहत हौं टेरि।
तुलसी प्रभु साँचो हितू, तू हियकी आँखिन हेरि ॥ ७ ॥

191.

एक सनेही साचिलो केवल

एक सनेही साचिलो केवल कोसलपालु।
प्रेम-कनोड़ो रामसो नहिं दूसरो दयालु ॥ १ ॥
तन-साथी सब स्वारथी, सुर ब्यवहार-सुजान।
आरत-अधम-अनाथ हित को रघुबीर समान ॥ २ ॥
नाद निठूर, समचर सिखी, सलिल सनेह न सूर।
ससि सरोग, दिनकरुबड़े, पयद प्रेम-पथ कूर ॥ ३ ॥
जाको मन जासों बँध्यो, ताको सुखदायक सोइ।
सरल सील साहिब सदा सीतापति सरिस न कोइ ॥ ४ ॥
सुनि सेवा सही को करै, परिहरै को दूषन देखि।
केहि दिवान दिन दीन को आदर-अनुराग बिसेखि ॥ ५ ॥
खग-सबरी पितु-मातु ज्यों माने, कपि को किये मीत।
केवट भेंट्यों भरत ज्यो, ऐसो को कहु पतित-पुनीत ॥ ६ ॥
देह अभागहिं भागु को, को राखै सरन सभीत।
बेद-बिदित विरुदावली, कबि-कोबिद गावत गीत ॥ ७ ॥
कैसेउ पाँवर पातकी, जेहि लई नामकी ओट।
गाँठी बाँध्यो दाम तो, परख्यो न फेरि खर-खोट ॥ ८ ॥
मन मलीन, कलि किलबिषी होत सुनत जासु कृत-काज।
सो तुलसी कियो आपुनो रघुबीर गरीब-निवाज ॥ ९ ॥

192.

जो पै जानकिनाथ सों नातो

जो पै जानकिनाथ सों नातो नेहु न नीच।
स्वारथ-परमारथ कहा, कलि कुटिल बिगोयो बीच ॥ १ ॥
धरम बरन आश्रमनिके पैयत पोथिही पुरान।
करतब बिनु बेष देखिये, ज्यों सरीर बिनु प्रान ॥ २ ॥
बेद बिहित/बिदित साधन सबै, सुनियत दायक फल चारि।
राम प्रेम बिनु जानिबो जैसे सर-सरिता बिनु बारि ॥ ३ ॥
नाना पथ निरबानके, नाना बिधान बहु भाँति।
तुलसी तू मेरे कहे जपु राम-नाम दिन-राति ॥ ४ ॥

193.

अजहुँ आपने रामके करतब

अजहुँ आपने रामके करतब समुझत हित होइ।
कहँ तू,कहँ कोसलधनी, तोको कहा कहत सब कोइ ॥ १ ॥
रीझि निवाज्यो कबहिं तू, कब खीझि दई तोहिं गारि।
दरपन बदन निहारिकै, सुबिचारि मान हिय हारि ॥ २ ॥
बिगरी जनम अनेककी सुधरत पल लगै न आधु।
'पाहि कृपानिधि' प्रेमसों कहे को न राम कियो साधु ॥ ३ ॥
बालमीकि-केवट-कथा, कपि-भील-भालु-सनमान।
सुनि सनमुख जो न रामसों, तिहि को उपदेसहि ग्यान ॥ ४ ॥
का सेवा सुग्रीवकी, का प्रीति-रीति-निरबाहु।
जासु बंधु बध्यो ब्याध ज्यों, सो सुनत सोहात न काहु ॥ ५ ॥
भजन बिभीषनको कहा, फल कहा दियो रघुराज।
राम गरीब-निवाजके बड़ी बाँह-बोलकी लाज ॥ ६ ॥
जपहि नाम रघुनाथको, चरचा दूसरी न चालु।
सुमुख,सुखद,साहिब,सुधी,समरथ,कृपालु,नतपालु ॥ ७ ॥
सजल नयन,गदगदगिरा, गहबर मन,पुलक सरीर।
गावत गुनगन रामके केहिकी न मिटी भव-भीर ॥ ८ ॥
प्रभु कृतग्य सरबस्य हैं,परिहरु पाछिली गलानि।
तुलसी तोसों रामसों कछु नई न जान-पहिचानि ॥ ९ ॥

194.

जो अनुराग न राम सनेही सों।

जो अनुराग न राम सनेही सों।
तौ लह्यो लाहु कहा नर-देही सों ॥ १ ॥
जो तनु धरि, परिहरि सब सुख, भये सुमति राम-अनुरागी।
सो तनु पाइ अघाइ किये अघ, अवगुन-उदधि अभागी ॥ २ ॥
ग्यान-बिराग,जोग-जप,तप-मख,जग मुद-मग नहिं थोरे।
राम-प्रेम बिनु नेम जाय जैसे मृग-जल-जलधि-हिलोरे ॥ ३ ॥
लोक-बिलोकि, पुरान-बेदि सुनि, समुझि-बूझि गुरु-ग्यानी।
प्रीति-प्रतीति राम-पद-पंकज सकल-सुमंगल-खानी ॥ ४ ॥
अजहुँ जानि जिय, मानि हारि हिय, होइ पलक महँ नीको।
सुमिरु सनेहसहित हित रामहिं, मानु मतो तुलसीको ॥ ५ ॥

195.

बलि जाउँ हौं राम गुसाईं।

बलि जाउँ हौं राम गुसाईं।कीजे कृपा आपनी नाईं ॥ १ ॥
परमारथ सुरपुर-साधन सब स्वारथ सुखद भलाई।
कलि सकोप लोपी सुचाल, निज कठिन कुचाल चलाई ॥ २ ॥
जहँ जहँ चित चितवत हित, तहँ नित नव बिषाद अधिकाई।
रुचि-भावती भभरि भागहि, समुहाहिं अमित अनभाई ॥ ३ ॥
आधि-मगन मन, ब्याधि-बिकल तन,बचन मलीन झुठाई।
एतेहुँ पर तुमसों तुलसीकी प्रभु सकल सनेह सगाई ॥ ४ ॥

श्री सद्गुरु महाराज की जय!