राम जपु,राम जपु, राम जपु बावरे।
घोर भव-नीर-निधि नाम निज नाव रे ॥ १ ॥
एक ही साधन सब रिद्धि-सिद्धि साधि रे।
ग्रसे कलि-रोग जोग-संजम-समाधि रे ॥ २ ॥
भलो जो है,पोच जो है,दाहिनो जो,बाम रे।
राम-नाम ही सों अंत सब ही को काम रे ॥ ३ ॥
जग नभ-बाटिका रही है फलि फूलि रे।
धुवाँ कैसे धौरहर देखि तू न भूलि रे ॥ ४ ॥
राम-नाम छाड़ि जो भरोसो करै और रे।
तुलसी परोसो त्यागि माँगै कूर कौर रे ॥ ५ ॥
राम राम जपु जिय सदा सानुराग रे।
कलि न बिराग,जोग,जाग,तप,त्याग रे ॥ १ ॥
राम सुमिरत सब बिधि ही को राज रे।
रामको बिसारिबो निषेध-सिरताज रे ॥ २ ॥
राम-नाम महामनि,फनि जगजाल रे।
मनि लिये,फनि जियै,ब्याकुल बिहाल रे ॥ ३ ॥
राम-नाम कामतरु देत फल चारि रे।
कहत पुरान,बेद,पंडित,पुरारि रे ॥ ४ ॥
राम-नाम प्रेम-परमारथको सार रे।
राम-नाम तुलसीको जीवन-अधार रे ॥ ५ ॥
राम राम राम जीह जौलौं तू न जपिहै।
तौलौं,तू कहूँ जाय, तिहूँ ताप तपिहै ॥ १ ॥
सुरसरि-तीर बिनु नीर दुख पाइहै।
सुरतरु तरे तोहि दारिद सताइहै ॥ २ ॥
जागत,बागत सपने न सुख सोइहै।
जनम जनम,जुग जुग जग रोइहै ॥ ३ ॥
छूटिबेके जतन बिसेष बाँधो जायगो।
ह्वेहै बिष भोजन जो सुधा-सानि खायगो ॥ ४ ॥
तुलसी तिलोक,तिहूँ काल तोसे दीनको।
रामनाम ही की गति जैसे जल मीनको ॥ ५ ॥
सुमिरु सनेहसों तू नाम रामरायको।
संबल निसंबलको,सखा असहायको ॥ १ ॥
भाग है अभागेहूको,गुन गुनहीनको।
गाहक गरीबको,दयालु दानि दीनको ॥ २ ॥
कुल अकुलीनको,सुन्यो है बेद साखि है।
पाँगुरेको हाथ-पाँय,आँधरेको आँखि है ॥ ३ ॥
माय-बाप भूखेको, अधार निराधारको।
सेतु भव-सागरको, हेतु सुखसारको ॥ ४ ॥
पतितपावन राम-नाम सो न दूसरो।
सुमिरि सुभूमि भयो तुलसी सो ऊसरो ॥ ५ ॥
भलो भली भाँति है जो मेरे कहे लागिहै।
मन राम-नामसों सुभाय अनुरागिहै ॥ १ ॥
राम-नामको प्रभाउ जानि जूड़ी आगिहै।
सहित सहाय कलिकाल भीरु भागिहै ॥ २ ॥
राम-नामसों बिराग,जोग,जप जागिहै।
बाम बिधि भाल हू न करम दाग दागिहै ॥ ३ ॥
राम-नाम मोदक सनेह सुधा पागिहै।
पाइ परितोष तू न द्वार द्वार बागिहै ॥ ४ ॥
राम-नाम काम-तरु जोइ जोइ माँगिहै।
तुलसिदास स्वारथ परमारथ न खाँगिहै ॥ ५ ॥
ऐसेहू साहबकी सेवा सों होत चोरु रे।
आपनी न बुझ, न कहै को राँडरोरु रे ॥ १ ॥
मुनि-मन-अगम,सुगम माइ-बापु सों।
कृपासिंधु,सहज सखा, सनेही आपु सों ॥ २ ॥
लोक-बेद-बिदित बड़ो न रघुनाथ सों।
सब दिन दब देस, सबहिके साथ सों ॥ ३ ॥
स्वामी सरबग्य सों चलै न चोरी चारकी।
प्रीति पहिचानि यह रीति दरबारकी ॥ ४ ॥
काय न कलेस-लेस, लेत मान मनकी।
सुमिरे सकुचि रुचि जोगवत जनकी ॥ ५ ॥
रीझे बस होत,खीझे देत निज धाम रे।
फलत सकल फल कामतरु नाम रे ॥ ६ ॥
बेंचे खोटो दाम न मिलै, न राखे काम रे।
सोऊ तुलसी निवाज्यो ऐसो राजाराम रे ॥ ७ ॥
मेरो भलो कियो राम आपनी भलाई।
हौं तो साई-द्रोही पै सेवक-हित साई ॥ १ ॥
रामसों बड़ो है कौन, मोसों कौन छोटो।
राम सो खरो है कौन, मोसों कौन खोटो ॥ २ ॥
लोक कहै रामको गुलाम हौं कहावौं।
एतो बड़ो अपराध भौ न मन बावौं ॥ ३ ॥
पाथ माथे चढ़े तृन तुलसी ज्यों नीचो।
बोरत न बारि ताहि जानि आपु सीचो ॥ ४ ॥
जागु,जागु,जीव जड़! जोहै जग-जामिनी।
देह-गेह-नेह जानि जैसे घन-दामिनी ॥ १ ॥
सोवत सपनेहूँ सहै संसृति-संताप रे।
बूड्यो मृग-बारि खायो जेवरीको साँप रे ॥ २ ॥
कहैं बेद-बुध,तू तो बूझि मनमाहिं रे।
दोष-दुख सपनेके जागे ही पै जाहिं रे ॥ ३ ॥
तुलसी जागेते जाय ताप तिहुँ ताय रे।
राम-नाम सुचि रुचि सहज सुभाय रे ॥ ४ ॥
राग विभास
जानकीसकी कृपा जगावती सुजान जीव,
जागी त्यागि मूढ़ताऽनुरागु श्रीहरे।
करि बिचार,तजि बिकार,भजु उदार रामचंद्र,
भद्रसिंधु दीनबंधु, बेद बदत रे ॥ १ ॥
मोहमय कुहू-निसा बिसाल काल बिपुल सोयो,
खोयो सो अनूप रूप सुपन जू परे।
अब प्रभात प्रगट ग्यान-भानुके प्रकाश,
बासना,सराग मोह-द्वेष निबिड़ तम टरे ॥ २ ॥
भागे मद-मान चोर भोर जानि जातुधान,
काम-कोह-लोभ-छोभ-निकर अपडरे।
देखत रघुबर-प्रताप, बीते संताप-पाप,
ताप त्रिबिध प्रेम-आप दूर ही करे ॥ ३ ॥
श्रवन सुनि गिरा गँभीर, जागे अति धीर बीर,
बर बिराग-तोष सकल संत आदरे।
तुलसिदास प्रभुकृपालु, निरखि जीव जन बिहालु,
भंज्यो भव-जाल परम मंगलाचरे ॥ ४ ॥
राग ललित
खोटो खरो रावरो हौं,रावरी सौं, रावरेसों झूठ क्यों कहौंगो,
जानो सब ही के मनकी।
करम-बचन-हिये,कहौं न कपट किये, ऐसी हठ जैसी गाँठि
पानी परे सनकी ॥ १ ॥
दूसरो,भरोसो नाहिं बासना उपासनाकी, बासव,बिरंचि
सुर-नर-मुनिगनकी।
स्वारथ के साथी मेरे,हाथी स्वान लेवा देई,काहू तो न पीर
रघुबीर! दीन जनकी ॥ २ ॥
साँप-सभा साबर लबार भये देव दिब्य,दुसह साँसति कीजै
आगे ही या तनकी।
साँचे परौं,पाँऊ पान,पंचमें पन प्रमान,तुलसी चातक आस
राम स्यामघनकी ॥ ३ ॥
रामको गुलाम,नाम रामबोला राख्यौ राम,
काम यहै, नाम द्वै हौ कबहूँ कहत हौं।
रोटी-लूगा नीके राखै,आगेहूकी बेद भाखै,
भलो ह्वेहै तेरो,ताते आनँद लहत हौं ॥ १ ॥
बाँध्यौ हौं करम जड़ गरब गूढ़ निगड़,
सुनत दुसह हौं तौ साँसति सहत हौं।
आरत-अनाथ-नाथ,कौसलपाल कृपाल,
लीन्हौ छीन दीन देख्यो दुरित दहत हौं ॥ २ ॥
बूझ्यौ ज्यौं ही,कह्यो,मैं हूँ चेरो ह्वेहौ रावरो जू
मेरो कोऊ कहूँ नाहिं, चरन गहत हौं।
मींजो गुरु पीठ,अपनाइ गहि बाँह,बोलि
सेवक-सुखद,सदा बिरद बहत हौं ॥ ३ ॥
लोग कहै पोच,सो न सोच न सँकोच मेरे
ब्याह न बरेखी,जाति-पाँति न चहत हौं।
तुलसी अकाज-काज राम ही के रीझे-खीझे,
प्रीतिकी प्रतीति मन मुदित रहत हौं ॥ ४ ॥
जानकी-जीवन,जग-जीवन,जगत-हित,
जगदीस,रघुनाथ,राजीवलोचन राम।
सरद-बिधु-बदन,सुखसील,श्रीसदन,
सहज सुंदर तनु,सोभा अगनित काम ॥ १ ॥
जग-सुपिता,सुमातु,सुगुरु,सुहित,सुमीत,
सबको दाहिनो,दीनबन्धु,काहुको न बाम।
आरतिहरन,सरनद,अतुलित दानि,
प्रनतपालु,कृपालु,पतित-पावन नाम ॥ २ ॥
सकल बिस्व-बंदित,सकल सुर-सेवित,
आगम-निगम कहैं रावरेई गुनग्राम।
इहै जानि तुलसी तिहारो जन भयो,
न्यारो कै गनिबो जहाँ गने गरीब गुलाम ॥ ३ ॥
राग टोडी
देव-
दीनको दयालु दानि दूसरो न कोऊ।
जाहि दीनता कहौं हौं देखौं दीन सोऊ ॥ १ ॥
सुर,नर,मुनि,असुर,नाग,साहिब तौ घनेरे।
(पै) तौ लौं जौं लौं रावरे न नेकु नयन फेरे ॥ २ ॥
त्रिभुवन,तिहुँ काल बिदित,बेद बदति चारी।
आदि-अंत-मध्य राम! साहबी तिहारी ॥ ३ ॥
तोहि माँगि माँगनो न माँगनो कहायो।
सुनि सुभाव-सील-सुजसु जाचन जन आयो ॥ ४ ॥
पाहन-पसु, बिटप-बिहँग अपने करि लीन्हे।
महाराज दसरथके ! रंक राय कीन्हे ॥ ५ ॥
तू गरीबको निवाज, हौं गरीब तेरो।
बारक कहिये कृपालु! तुलसिदास मेरो ॥ ६ ॥
देव-
तू दयालु ,दीन हौं तू दानि, हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज-हारी ॥ १ ॥
नाथ तू अनाथको, अनाथ कौन मोसो
मो समान आरत नहिं, आरतिहर तोसो ॥ २ ॥
ब्रह्म तू, हौं जीव, तू है ठाकुर,हौं चेरो।
तात-मात,गुरु-सखा, तू सब बिधि हितु मेरो ॥ ३ ॥
तोहिं मोहिं नाते अनेक, मानियै जो भावै।
ज्यों त्यों, तुलसी कृपालु ! चरन-सरन पावै ॥ ४ ॥
देव--
और काहि माँगिये, को माँगिबो निवारै।
अभिमतदातार कौन, दुख-दरिद्र दारै ॥ १ ॥
धरमधाम राम काम-कोटि-रूप रूरो।
साहब सब बिधि सुजान, दान-खडग-सूरो ॥ २ ॥
सुसमय दिन द्वै निसान सबके द्रार बाजै।
कुसमय दसरथके ! दानि तैं गरीब निवाजै ॥ ३ ॥
सेवा बिनु गुनबिहीन दीनता सुनाये।
जे जे तैं निहाल किये फूले फिरत पाये ॥ ४ ॥
तुलसीदास जाचक-रुचि जानि दान दीजै।
रामचंद्र चंद्र तू, चकोर मोहिं कीजै ॥ ५ ॥
दीनबंधु, सुखसिंधु, कृपाकर, कारुनीक रघुराई।
सुनहु नाथ ! मन जरत त्रिबिध जुर, करत फिरत बौराई ॥ १ ॥
कबहुँ जोगरत, भोग-निरत सठ हठ बियोग-बस होई।
कबहुँ मोहबस द्रोह करत बहु, कबहुँ दया अति सोई ॥ २ ॥
कबहुँ दीन,मतिहीन, रंकतर,कबहुँ भूप अभिमानी।
कबहुँ मूढ, पंडित बिडंबरत,कबहुँ धर्मरत ग्यानी ॥ ३ ॥
कबहुँ देव! जग धनमय रिपुमय कबहुँ नारिमय भासै।
संसृति-संनिपात दारुन दुख बिनु हरि-कृपा न नासै ॥ ४ ॥
संजम,जप,तप,नेम,धरम, ब्रत,बहु भेषज-समुदाई।
तुलसिदास भव-रोग रामपद-प्रेम-हीन नहिं जाई ॥ ५ ॥
मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई।
जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई ॥ १ ॥
नयन मलिन परनारि निरखि,मन मलिन बिषय सँग लागे।
हृदय मलिन बासना-मान मद, जीव सहज सुख त्यागे ॥ २ ॥
परनिंदा सुनि श्रवन मलिन भे, बचन दोष पर गाये।
सब प्रकार मलभार लाग निज नाथ-चरन बिसराये ॥ ३ ॥
तुलसिदास ब्रत-दान, ग्यान-तप, सुद्धिहेतु श्रुति गावै।
राम-चरन-अनुराग-नीर बिनु मल अति नास न पावै ॥ ४ ॥
राग जैतश्री
कछु ह्वे न आई गयो जनम जाय।
अति दुरलभ तनु पाइ कपट तजि भजे न राम मन बचन- काय ॥ १ ॥
लरिकाई बीती अचेत चित, चंचलता चौगुने चाय।
जोबन-जुर जुबती कुपथ्य करि, भयो त्रिदोष भरि मदन बाय ॥ २ ॥
मध्य बयस धन हेतु गँवाई, कृषी बनिज नाना उपाय।
राम-बिमुख सुख लह्यो न सपनेहुँ, निसिबासर तयौ तिहूँ ताय ॥ ३ ॥
सेये नहिं सीतापति-सेवक, साधु सुमति भलि भगति भाय।
सुने न पुलकि तनु, कहे न मुदित मन किये जे चरित रघुबंसराय ॥ ४ ॥
अब सोचत मनि बिनु भुअंग ज्यो, बिकल अंग दले जरा धाय।
सिर धुनि-धुनि पछिताय मींजि कर कोउ न मीत हित दुसह दाय ॥ ५ ॥
जिन्ह लगि निज परलोक बिगार् यौ, ते लजात होत ठाढ़े ठाँय।
तुलसी अजहुँ सुमिरि रघुनाथहिं,तर् यौ गयँद जाके एक नाँय ॥ ६ ॥
तौ तू पछितैहै मन मींजि हाथ।
भयो है सुगम तोको अमर-अगम तन,समुझिधौं कत खोवत अकाथ ॥ १ ॥
सुख-साधन हरिबिमुख बृथा जैसे श्रम फल घृतहित मथे पाथ।
यह बिचारि, तजि कुपथ-कुसंगति चलि सुपंथ मिलि भले साथ ॥ २ ॥
देखु-राम-सेवक, सुनि कीरति, रटहि नाम करि गान गाथ।
हृदय आनु धनुबान-पानि प्रभु,लसे मुनिपट, कटि कसे भाथ ॥ ३ ॥
तुलसिदास परिहरि प्रपंच सब, नाउ रामपद-कमल माथ।
जनि डरपहि तोसे अनेक खल, अपनाये जानकीनाथ ॥ ४ ॥
राग धनाश्री
मन! माधवको नेकु निहारहि।
सुनु सठ, सदा रंकके धन ज्यो,छिन-छिन प्रभुहिं सँभारहि ॥ १ ॥
सोभा-सील-ग्यान-गुन-मंदिर, सुंदर परम उदारहि।
रंजन संत, अखिल अघ-गंजन, भंजन बिषय-बिकारहि ॥ २ ॥
जो बिनु जोग-जग्य-ब्रत-संयम गयो चहै भव-पारहि।
तौ जनि तुलसिदास निसि- बासर हरि-पद कमल बिसारहि ॥ ३ ॥
इहै कह्यो सुत! बेद चहूँ।
श्रीरघुबीर-चरन-चिंतन तजि नाहिन ठौर कहूँ ॥ १ ॥
जाके चरन बिरंचि सेइ सिधि पाई संकरहूँ।
सुक-सनकादि मुकुत बिचरत तेउ भजन करत अजहूँ ॥ २ ॥
जद्यपि परम चपल श्री संतत, थिर न रहति कतहूँ।
हरि-पद-पंकज पाइ अचल भइ,करम-बचन-मनहूँ ॥ ३ ॥
करुनासिंधु,भगत-चिंतामनि,सोभा सेवतहूँ।
और सकल सुर,असुर-ईस सब खाये उरग छहूँ ॥ ४ ॥
सुरुचि कह्यो सोइ सत्य तात अति परुष बचन जबहूँ।
तुलसिदास रघुनाथ-बिमुख नहिं मिटइ बिपति कबहूँ ॥ ५ ॥
सुनु मन मूढ सिखावन मेरो।
हरि-पद-बिमुख लह्यो न काहु सुख सठ ! यह समुझ सबेरो ॥ १ ॥
बिछुरे ससि-रबि मन-नैननितें, पावत दुख बहुतेरो।
भ्रमत श्रमित निसि-दिवस गगन महँ,तहँ रिपु राहु बडेरो ॥ २ ॥
जद्यपि अति पुनित सुरसरिता, तिहुँ पुर सुजस घनेरो।
तजे चरन अजहूँ न मिटत नित,बहिबो ताहू केरो ॥ ३ ॥
छुटै न बिपति भजे बिनु रघुपति, श्रुति संदेहु निबेरो।
तुलसिदास सब आस छाँडि करि, होहु रामको चेरो ॥ ४ ॥
कबहूँ मन बिश्राम न मान्यो।
निसिदिन भ्रमत बिसारि सहज सुख, जहँ तहँ इंद्रिन तान्यो ॥ १ ॥
जदपि बिषय-सँग सह्यो दुसह दुख, बिषम जाल अरुझान्यो।
तदपि न तजत मूढ़ ममताबस,जानतहूँ नहिं जान्यो ॥ २ ॥
जनम अनेक किये नाना बिधि करम-कीच चित सान्यो।
होइ न बिमल बिबेक-नीर बिनु, बेद पुरान बखान्यो ॥ ३ ॥
निज हित नाथ पिता गुरु हरिसों हरषि हदै नहि आन्यो।
तुलसिदास कब तृषा जाय सर खनतहि जनम सिरान्यो ॥ ४ ॥
मेरो मन हरिजू! हठ न तजै।
निसिदिन नाथ देउँ सिख बहु बिधि, करत सुभाउ निजै ॥ १ ॥
ज्यो जुवती अनुभवति प्रसव अति दारुन दुख उपजै।
ह्वे अनुकूल बिसारि सूल सठ पुनि खल पतिहिं भजै ॥ २ ॥
लोलुप भ्रम गृहपसु ज्यौं जहँ तहँ सिर पदत्रान बजै।
तदपि अधम बिचरत तेहि मारग कबहुँ न मूढ़ लजै ॥ ३ ॥
हौं हार् यौ करि जतन बिबिध बिधि अतिसै प्रबल अजै।
तुलसिदास बस होइ तबहिं जब प्रेरक प्रभु बरजै ॥ ४ ॥
ऐसी मूढ़ता या मनकी।
परिहरि राम-भगति-सुरसरिता,आस करत ओसकनकी ॥ १ ॥
धूम-समूह निरखि चातक ज्यो, तृषित जानि मति घनकी।
नहिं तहँ सीतलता न बारि, पुनि हानि होति लोचनकी ॥ २ ॥
ज्यो गच-काँच बिलोकि सेन जड छाँह आपने तनकी।
टूटत अति आतुर अहार बस, छति बिसारि आननकी ॥ ३ ॥
कहँ लौं कहौं कुचाल कृपानिधि! जानत हौ गति जनकी।
तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पनकी ॥ ४ ॥
नाचत ही निसि-दिवस मर् यो।
तब ही ते न भयो हरि थिर जबतें जिव नाम धर् यो ॥ १ ॥
बहु बासना बिबिध कंचुकि भूषन लोभादि भर् यो।
चर अरु अचर गगन जल थलमें,कौन न स्वाँग कर् यो ॥ २ ॥
देव-दनुज,मुनि,नाग,मनुज नहिं जाँचत कोउ उबर् यो।
मेरो दुसह दरिद्र, दोष,दुख काहू तौ न हर् यो ॥ ३ ॥
थके नयन, पद, पानि, सुमति, बल, संग सकल बिछुर् यो।
अब रघुनाथ सरन आयो जन,भव,भय बिकल डर् यो ॥ ४ ॥
जेहि गुनतें बस होहु रीझि करि, सो मोहि सब बिसर् यो।
तुलसिदास निज भवन-द्वार प्रभु दीजै रहन पर् यो ॥ ५ ॥
माधवजू,मोसम मंद न कोऊ।
जद्यपि मीन-पतंग हीनमति, मोहि नहिं पूजैं ओऊ ॥ १ ॥
रुचिर रुप-आहार-बस्य उन्ह, पावक लोह न जान्यो।
देखत बिपति बिषय न तजत हौं, ताते अधिक अयान्यो ॥ २ ॥
महामोह-सरिता अपार महँ, संतत फिरत बह्यो।
श्रीहरि- चरन-कमल-नौका तजि,फिरि फिरि फेन गह्यो ॥ ३ ॥
अस्थि पुरातन छुधित स्वान अति ज्यौं भरि मुख पकरै।
निज तालूगत रुधिर पान करि,मन संतोष धरै ॥ ४ ॥
परम कठिन भव-ब्याल-ग्रसित भयो अति भारी।
चाहत अभय भेक सरनागत, खगपति-नाथ बिसारी ॥ ५ ॥
जलचर-बृंद जाल-अंतरगत होत सिमिटि इक पासा।
एकहि एक खात लालच-बस, नहिं देखत निज नासा ॥ ६ ॥
मेरे अघ सारद अनेक जुग, गनत पार नहिं पावै।
तुलसिदास पतित-पावन प्रभु यह भरोस जिय आवै ॥ ७ ॥
कृपा सो धौं कहाँ बिसारी राम।
जेहि करुना सुनि श्रवन दीन-दुख, धावत हौ तजि धाम ॥ १ ॥
नागराज निज बल बिचारि हिय, हारि चरन चित दीन्हों।
आरत गिरा सुनत खगपति तजि, चलत बिलंब न कीन्हों ॥ २ ॥
दितिसुत-त्रास-त्रसित निसिदिन प्रहलाद-प्रतिग्या राखी।
अतुलित बल मृगराज-मनुज-तनु दनुज हत्यो श्रुति साखी ॥ ३ ॥
भूप-सदसि सब नृप बिलोकि प्रभु-राखु कह्यो नर- नारी।
बसन पूरि,अरि-दरप दूरि करि, भूरि कृपा दनुजारी ॥ ४ ॥
एक एक रिपुते त्रासित जन,तुम राखे रघुबीर।
अब मोहिं देत दुसह दुख बहु रिपु कस न हरहु भव-पीर ॥ ५ ॥
लोभ-ग्राह, दनुजेस-क्रोध, कुरुराज-बंधु खल मार।
तुलसिदास प्रभु यह दारुन दुख भंजहु राम उदार ॥ ६ ॥
काहे ते हरि मोहिं बिसारो।
जानत निज महिमा मेरे अघ,तदपि न नाथ सँभारो ॥ १ ॥
पतित-पुनीत,दीनहित,असरन-सरन कहत श्रुति चारो।
हौं नहिं अधम,सभीत,दीन ? किधौं बेदन मृषा पुकारो ? ॥ २ ॥
खग-गनिका-गज-ब्याध-पाँति जहँ तहँ हौहूँ बैठारो।
अब केहि लाज कृपानिधान ! परसत पनवारो फारो ॥ ३ ॥
जो कलिकाल प्रबल अति होतो, तुव निदेसतें न्यारो।
तौ हरि रोष भरोस दोष गुन तेहि भजते तजि गारो ॥ ४ ॥
मसक बिरंचि,बिरंचि मसक सम, करहु प्रभाउ तुम्हारो।
यह सामरथ अछत मोहिं त्यागहु, नाथ तहाँ कछु चारो ॥ ५ ॥
नाहिन नरक परत मोकहँ डर,जद्यपि हौं अति हारो।
यह बडि त्रास दासतुलसी प्रभु,नामहु पाप न जारो ॥ ६ ॥
तरु न मेरे अघ-अवगुन गनिहैं ।
जौ जमराज काज सब परिहरि, इहै ख्याल उर अनिहैं ॥ १ ॥
चलिहैं छूटि पुंज पापिनके, असमंजस जिय जनिहैं ।
देखि खलल अधिकार प्रभूसों (मेरी) भूरि भलाई भनिहैं ॥ २ ॥
हँसि करिहैं परतीति भगतकी भगत-सिरोमनि मनिहैं ।
ज्यों त्यों तुलसिदास कोसलपति अपनायेहि पर बनिहैं ॥ ३ ॥
जौ पै जिय धरिहौ अवगुन जनके ।
तौ क्यों कटत सुकृत-नखते मो पै, बिपुल बृंद अघ-बनके ॥ १ ॥
कहिहै कौन कलुष मेरे कृत, करम बचन अरु मनके ।
हारहिं अमित सेष सारद श्रुति, गिनत एक-एक छनके ॥ २ ॥
जो चित चढ़ै नाम-महिमा निज, गुनगन पावन पनके ।
तो तुलसिहिं तारिहौ बिप्र ज्यों दसन तोरि जमगनके ॥ ३ ॥
जौ पै हरि जनके औगुन गहते ।
तौ सुरपति कुरुराज बालिसों, कत हठि बैर बिसहते ॥ १ ॥
जौ जप जाग जोग ब्रत बरजित, केवल प्रेम न चहते ।
तौ कत सुर मुनिबर बिहाय ब्रज, गोप-गेह बसि रहते ॥ २ ॥
जौ जहँ-तहँ प्रन राखि भगतको, भजन-प्रभाउ न कहते ।
तौ कलि कठिन करम-मारग जड़ हम केहि भाँति निबहते ॥ ३ ॥
जौ सुतहित लिये नाम अजामिलके अघ अमित न दहते ।
तौ जमभट साँसति-हर हमसे बृषभ खोजि खोजि नहते ॥ ४ ॥
जौ जगबिदित पतितपावन, अति बाँकुर बिरद न बहते ।
तौ बहुकलप कुटिल तुलसीसे, सपनेहुँ सुगति न लहते ॥ ५ ॥
ऐसी हरि करत दासपर प्रीति ।
निज प्रभुता बिसारि जनके बस, होत सदा यह रीति ॥ १ ॥
जिन बाँधे सुर-असुर, नाग-नर, प्रबल करमकी डोरी ।
सोइ अबिछिन्न ब्रह्म जसुमति हठि बाँध्यो सकत न छोरी ॥ २ ॥
जाकी मायाबस बिरंचि सिव, नाचत पार न पायो ।
करतल ताल बजाय ग्वाल-जुवतिन्ह सोइ नाच नचायो ॥ ३ ॥
बिस्वंभर, श्रीपति, त्रिभुवनपति,बेद-बिदित यह लीख ।
बलिसों कछु न चली प्रभुता बरु है द्विज माँगी भीख ॥ ४ ॥
जाको नाम लिये छूटत भव-जनम-मरन दुख-भार ।
अंबरीष-हित लागि कृपानिधि सोइ जनमे दस बार ॥ ५ ॥
जोग-बिराग, ध्यान-जप-तप करि, जेहि खोजत मुनि ग्यानी ।
बानर-भालु चपल पसु पामर, नाथ तहाँ रति मानी ॥ ६ ॥
लोकपाल,जम,काल,पवन,रबि,ससि सब आग्याकारी ।
तुलसिदास प्रभु उग्रसेनके द्वार बेंत कर धारी ॥ ७ ॥
बिरद गरीबनिवाज रामको ।
गावत बेद-पुरान, संभु-सुक, प्रगट प्रभाउ नामको ॥ १ ॥
ध्रुव,प्रहलाद,बिभीषन,कपिपति,जड,पतंग,पाडंव,सुदामको ।
लोक सुजस परलोक सुगति,इन्हमें को है राम कामको ॥ २ ॥
गनिका, कोल,किरात,आदिकबि इन्हते अधिक बाम को।
बाजिमेध कब कियो अजामिल, गज गायो कब सामको ॥ ३।
छली,मलीन,हीन सब ही अँग, तुलसी सो छीन छामको।
नाम-नरेस-प्रताप प्रबल जग, जुग-जुग चालत चामको ॥ ४ ॥
सुनि सीतापति-सील-सुभाउ।
मोद न मन,तन पुलक,नयन जल,सो नर खेहर खाउ ॥ १ ॥
सिसुपनतें पितु,मातु,बंधु,गुरु,सेवक,सचिव,सखाउ।
कहत राम-बिधु-बदन रिसोहैं सपनेहुँ लख्यो न काउ ॥ २ ॥
खेलत संग अनुज बालक नित, जोगवत अनट अपाउ।
जीति हारि चुचुकारि दुलारत, देत दिवावत दाउ ॥ ३ ॥
सिला साप-संताप-बिगत भइ परसत पावन पाउ।
दई सुगति सो न हेरि हरष हिय, चरन छुएको पछिताउ ॥ ४ ॥
भव-धनु भंजि निदरि भूपति भृगुनाथ खाइ गये ताउ।
छमि अपराध, छमाइ पाँय परि, इतौ न अनत समाउ ॥ ५ ॥
कह्यो राज, बन दियो नारिबस, गरि गलानि गयो राउ।
ता कुमातुको मन जोगवत ज्यों निज तन मरम कुघाउ ॥ ६ ॥
कपि-सेवा-बस भये कनौड़े, कह्यौ पवनसुत आउ।
देबेको न कछु रिनियाँ हौं धनिक तूँ पत्र लिखाउ ॥ ७ ॥
अपनाये सुग्रीव बिभीषन, तिन न तज्यो छल-छाउ।
भरत सभा सनमानि,सराहत, होत न हृदय अघाउ ॥ ८ ॥
निज करुना करतूति भगत पर चपत चलत चरचाउ।
सकृत प्रनाम प्रनत जल बरनत, सुनत कहत फिरि गाउ ॥ ९ ॥
समुझि समुझि गुनग्राम रामके, उर अनुराग बढ़ाउ।
तुलसिदास अनयास रामपद पाइहै प्रेम-पसाउ ॥ १० ॥
जाउँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।
काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दीन पियारे ॥ १ ॥
कौने देव बराइ बिरद-हित, हठि हठि अधम उधारे।
खग,मृग,ब्याध,पषान,बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे ॥ २ ॥
देव,दनुज,मुनि,नाग,मनुज सब, माया-बिबस बिचारे।
तिनके हाथ दासतुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे ॥ ३ ॥
हरि! तुम बहुत अनुग्रह कीन्हो।
साधन-धाम बिबुध दुरलभ तनु, मोहि कृपा करि दीन्हों ॥ १ ॥
कोटिहुँ मुख कहि जात न प्रभुके, एक एक उपकार।
तदपि नाथ कछु और माँगिहौं, दीजै परम उदार ॥ २ ॥
बिषय-बारि मन-मीन भिन्न नहिं होत कबहुँ पल एक।
ताते सहौं बिपति अति दारुन, जनमत जोनि अनेक ॥ ३ ॥
कृपा-डोरि बनसी पद अंकुस, परम प्रेम-मृदु-चारो।
एहि बिधि बेधि हरहु मेरो दुख, कौतुक राम तिहारो ॥ ४ ॥
हैं श्रुति-बिदित उपाय सकल सुर, केहि केहि दीन निहोरै।
तुलसिदास येहि जीव मोह-रजु, जेहि बाँध्यो सोइ छोरै ॥ ५ ॥
यह बिनती रघुबीर गुसाई।
और आस-बिस्वास-भरोसो, हरो जीव-जड़ताई ॥ १ ॥
चहौं न सुगति,सुमति,संपति कछु, रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई।
हेतु-रहित अनुराग राम-पद बढ़ै अनुदिन अधिकाई ॥ २ ॥
कुटिल करम लै जाहिं मोहि जहँ जहँ अपनी बरिआई।
तहँ तहँ जनि छिन छोह छाँड़ियो, कमठ-अंडकी नाई ॥ ३ ॥
या जगमें जहँ लगि या तनुकी प्रीति प्रतीति सगाई।
ते सब तुलसिदास प्रभु ही सों होहिं सिमिटि इक ठाई ॥ ४ ॥
जानकी-जीवनकी बलि जैहौं।
चित कहै रामसीय-पद परिहरि अब न कहूँ चलि जैहौं ॥ १ ॥
उपजी उर प्रतीति सपनेहुँ सुख, प्रभु-पद-बिमुख न पैहौं।
मन समेत या तनके बासिन्ह, इहै सिखावन दैहौं ॥ २ ॥
श्रवननि और कथा नहिं सुनिहौं, रसना और न गैहौं।
रोकिहौं नयन बिलोकत औरहिं, सीस ईस ही नैहौं ॥ ३ ॥
नातो-नेह नाथसों करि सब नातो-नेह बहैहौं।
यह छर भार ताहि तुलसी जग जाको दास कहैहौं ॥ ४ ॥
अबलौ नसानी, अब न नसैहौं।
राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं ॥ १ ॥
पायेउँ नाम चारु चिंतामनि, उर कर तें न खसैहौं।
स्यामरूप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसैहौं ॥ २ ॥
परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज बस ह्वे न हँसेहौं।
मन मधुकर पनकै तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौं ॥ ३ ॥
राग रामकली
महाराज रामादर् यो धन्य सोई।
गरुअ,गुनरासि,सरबग्य,सुकृती,सूर,सील-निधि,साधु तेहि सम न कोई ॥ १ ॥
उपल,केवट,कीस,भालु,निसिचर,सबरि,गीध सम-दम-दया-दान-हीने।
नाम लिये राम किये परम पावन सकल, नर तरत तिनके गुनगान कीने ॥ २ ॥
ब्याध अपराधकी साध राखी कहा, पिंगलै कौन मति भगति भेई।
कौन धौं सोमजाजी अजामिल अधम, कौन गजराज धौं बाजपेयी ॥ ३ ॥
पांडु-सुत,गोपिका,बिदुर,कुबरी,सबरि,सुद्ध किये सुद्धता लेस कैसो।
प्रेम लखि कृस्न किये आपने तिनहुको, सुजस संसार हरिहरको जैसो ॥ ४ ॥
कोल,खस,भील,जवनादि खल राम कहि, नीच ह्वे ऊँच पद को न पायो।
दीन-दुख-दवन श्रीरवन करुना-भवन, पतित-पावन विरद बेद गायो ॥ ५ ॥
मंदमति,कुटिल,खल-तिलक तुलसी सरिस, भो न तिहुँ लोक तिहुँ काल कोऊ।
नामकी कानि पहिचानि पन आपनो, ग्रसित कलि-ब्याल राख्यो सरन सोऊ ॥ ६ ॥
बिहाग
राग
बिलावल
है नीको मेरो देवता कोसलपति राम।
सुभग सरोरुह लोचन, सुठि सुंदर स्याम ॥ १ ॥
सिय-समेत सोहत सदा छबि अमित अनंग।
भुज बिसाल सर धनु धरे, कटि चारु निषंग ॥ २ ॥
बलिलपूजा चाहत नहीं, चाहत एक प्रीति।
सुमिरत ही मानै भलो, पावन सब रीति ॥ ३ ॥
देहि सकल सुख,दुख दहै, आरत-जन-बंधु।
गुन गहि, अघ-औगुन हरै, अस करुनासिंधु ॥ ४ ॥
देस-काल-पूरन सदा बद बेद पुरान।
सबको प्रभु,सबमें बसै,सबकी गति जान ॥ ५ ॥
को करि कोटिक कामना, पूजै बहु देव।
तुलसिदास तेहि सेइये, संकर जेहि सेव ॥ ६ ॥
बीर महा अवराधिये, साधे सिधि होय।
सकल काम पूरन करै, जाने सब कोय ॥ १ ॥
बेगि,बिलंब न कीजिये लीजै उपदेस।
बीज महा मंत्र जपिये सोई, जो जपत महेस ॥ २ ॥
प्रेम-बारि-तरपन भलो, घृत सहज सनेहु।
संसय-समिध, अगिनि छमा, ममता-बलि देहु ॥ ३ ॥
अघ-उचाटि, मन बस करै, मारै मद मार।
आकरषै सुख-संपदा-संतोष-बिचार ॥ ४ ॥
जिन्ह यहि भाँति भजन कियो, मिले रघुपति ताहि।
तुलसिदास प्रभुपथ चढ् यौ, जौ लेहु निबाहि ॥ ५ ॥
कस न करहु करुना हरे! दुखहरन मुरारि!
त्रिबिधताप-संदेह-सोक-संसय-भय-हारि ॥ १ ॥
इक कलिकाल-जनित मल, मतिमंद, मलिन-मन।
तेहिपर प्रभु नहिं कर सँभार, केहि भाँति जियै जन ॥ २ ॥
सब प्रकार समरथ प्रभो, मैं सब बिधि दीन।
यह जिय जानि द्रवौ नहीं, मै करम बिहीन ॥ ३ ॥
भ्रमत अनेक जोनि, रघुपति, पति आन न मोरे।
दुख-सुख सहौं, रहौं सदा सरनागत तोरे ॥ ४ ॥
तो सम देव न कोउ कृपालु, समुझौं मनमाहीं।
तुलसिदास हरि तोषिये, सो साधन नाहीं ॥ ५ ॥
कहु केहि कहिय कृपानिधे! भव-जनित बिपति अति।
इंद्रिय सकल बिकल सदा, निज निज सुभाउ रति ॥ १ ॥
जे सुख-संपति, सरग-नरक संतत सँग लागी।
हरि! परिहरि सोइ जतन करत मन मोर अभागी ॥ २ ॥
मै अति दीन, दयालु देव सुनि मन अनुरागे।
जो न द्रवहु रघुबीर धीर, दुख काहे न लागे ॥ ३ ॥
जद्यपि मैं अपराध-भवन, दुख-समन मुरारे।
तुलसिदास कहँ आस यहै बहु पतित उधारे ॥ ४ ॥
केसव! कहि न जाइ का कहिये।
देखत तव रचना बिचित्र हरि! समुझि मनहिं मन रहिये ॥ १ ॥
सून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिखा चितेरे।
धोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइय एहि तनु हेरे ॥ २ ॥
रबिकर-नीर बसै अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं।
बदन-हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं ॥ ३ ॥
कोउ कह सत्य,झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै।
तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै ॥ ४ ॥
केसव! कारन कौन गुसाई।
जेहि अपराध असाध जानि मोहिं तजेउ अग्यकी नाई ॥ १ ॥
परम पुनीत संत कोमल-चित, तिनहिं तुमहिं बनि आई।
तौ कत बिप्र,ब्याध,गनिकहि तारेहु, कछु रही सगाई ? ॥ २ ॥
काल,करम,गति अगति जीवकी, सब हरि! हाथ तुम्हारे।
सोइ कछु करहु, हरहु ममता प्रभु! फिरउँ न तुमहिं बिसारे ॥ ३ ॥
जौ तुम तजहु, भजौं न आन प्रभु, यह प्रमान पन मोरे।
मन-बच-करम नरक-सुरपुर जहँ तहँ रघुबीर निहोरे ॥ ४ ॥
जद्यपि नाथ उचित न होत अस, प्रभु सों करौं ढिठाई।
तुलसिदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुराई ॥ ५ ॥
माधव! अब न द्रवहु केहि लेखे।
प्रनतपाल पन तोर, मोर पन जिअहुँ कमलपद देखे ॥ १ ॥
जब लगि मै न दीन,दयालु तैं, मैं न दास, तैं स्वामी।
तब लगि जो दुख सहेउँ कहेउँ नहिं, जद्यपि अंतरजामी ॥ २ ॥
तैं उदार, मैं कृपन, पतित मैं, तैं पुनीत, श्रुति गावै।
बहुत नात रघुनाथ! तोहि मोहि, अब न तजे बनि आवै ॥ ३ ॥
जनक-जननि,गुरुबंधु,सुहृदकल-पति, सब प्रकार हितकारी।
द्वैतरूप तम-कूप परौं नहिं, अस कछु जतन बिचारी ॥ ४ ॥ ø
सुनु अदभ्र करुना बारिजलोचन मोचन भय भारी।
तुलसिदास प्रभु! तव प्रकास बिनु, संसय टरै न टारी ॥ ५ ॥
माधव! मो समान जग माहीं।
सब बिधि हीन,मलीन,दीन अति, लीन-बिषय कोउ नाहीं ॥ १ ॥
तुम सम हेतुरहित कृपालु आरत-हित ईस न त्यागी।
मैं दुख-सोक-बिकल कृपालु! केहि कारन दया न लागी ॥ २ ॥
नाहिंन कछु औगुन तुम्हार, अपराध मोर मैं माना।
ग्यान-भवन तनु दियेहु नाथ, सोउ पाय न मैं प्रभु जाना ॥ ३ ॥
बेनु करील,श्रीखंड बसंतहि दूषन मृषा लगावै।
सार-रहित हत-भाग्य सुरभि, पल्लव सो कहु किमि पावै ॥ ४ ॥
सब प्रकार मैं कठिन,मृदुल हरि,दृढ़ बिचार जिय मोरे।
तुलसिदास प्रभु मोह-सृंखला, छुटिहि तुम्हारे छोरे ॥ ५ ॥
माधव! मोह-फाँस क्यों टूटै।
बाहिर कोटि उपाय करिय, अभ्यंतर ग्रन्थि न छूटै ॥ १ ॥
घृतपूरन कराह अंतरगत ससि-प्रतिबिंब दिखावै।
ईंधन अनल लगाय कलपसत, औटत नास न पावै ॥ २ ॥
तरु-कोटर महँ बस बिहंग तरु काटे मरै न जैसे।
साधन करिय बिचार-हीन मन सुद्ध होइ नहिं तैसे ॥ ३ ॥
अंतर मलिन बिषय मन अति, तन पावन करिय पखारे।
मरइ न उरग अनेक जतन बलमीकि बिबिध बिधि मारे ॥ ४ ॥
तुलसिदास हरि-गुरु-करुना बिनु बिमल बिबेक न होई।
बिनु बिबेक संसार-घोर-निधि पार न पावै कोई ॥ ५ ॥
माधव! असि तुम्हारि यह माया ।
करि उपाय पचि मरिय, तरिय नहिं जब लगि करहु न दाया ॥ १ ॥
सुनिय,गुनिय,समुझिय,समुझाइय,दसा हृदय नहिं आवै ।
जेहि अनुभव बिनु मोहजनित भव दारुन बिपति सतावै ॥ २ ॥
ब्रह्म-पियूष मधुर सीतल जो पै मन सो रस पावै ।
तौ कत मृगजल-रूप बिषय कारन निसि-बासर धावै ॥ ३ ॥
जेहिके भवन बिमल चिंतामनि,सो कत काँच बटोरै ।
सपने परबस परै, जागि देखत केहि जाइ निहोरै ॥ ४ ॥
ग्यान-भगति साधन अनेक, सब सत्य,झूँठ कछु नाही ।
तुलसिदास हरि-कृपा मिटै भ्रम, यह भरोस मनमाहीं ॥ ५ ॥
हे हरि! कवन दोष तोहिं दीजै ।
जेहि उपाय सपनेहुँ दुरलभ गति, सोइ निसि-बासर कीजै ॥ १ ॥
जानत अर्थ अनर्थ-रूप, तमकूप परब यहि लागे ।
तदपि न तजत स्वान अज खर ज्यो, फिरत बिषय अनुरागे ॥ २ ॥
भूत-द्रोह कृत मोह-बस्य हित आपन मै न बिचारो ।
मद-मत्सर-अभिमान ग्यान-रिपु, इन महँ रहनि अपारो ॥ ३ ॥
बेद-पुरान सुनत समुझत रघुनाथ सकल जगब्यापी ।
बेधत नहिं श्रीखंड बेनु इव, सारहीन मन पापी ॥ ४ ॥
मैं अपराध-सिंधु करुनाकर ! जानत अंतरजामी ।
तुलसिदास भव-ब्याल-ग्रसित तव सरन उरग-रिपु-गामी ॥ ५ ॥
हे हरि ! कवन जतन सुख मानहु ।
ज्यों गज-दसन तथा मम करनी, सब प्रकार तुम जानहु ॥ १ ॥
जो कछु कहिय करिय भवसागर तरिय बच्छपद जैसे ।
रहनि आन बिधि, कहिय आन, हरिपद-सुख पाइय कैसे ॥ २ ॥
देखत चारु मयूर बयन सुभ बोलि सुधा इव सानी ।
सबिष उरग-आहार,निठुर अस,यह करनी वह बानी ॥ ३ ॥
अखिल-जीव-वत्सल, निरमत्सर,दरन-कमल-अनुरागी ।
ते तव प्रिय रघुबीर धीरमति, अतिसय निज-पर-त्यागी ॥ ४ ॥
जद्यपि मम औगुन अपार संसार-जोग्य रघुराया ।
तुलसिदास निज गुन बिचारि करुनानिधान करु दाया ॥ ५ ॥
हे हरि ! कवन जतन भ्रम भागै ।
देखत,सुनत,बिचारत यह मन, निज सुभाउ नहिं त्यागै ॥ १ ॥
भगति-ग्यान-बैराग्य सकल साधन यहि लागि उपाई ।
कोउ भल कहउ,देउ कछु, असि बासना न उरते जाई ॥ २ ॥
जेहि निसि सकल जीव सूतहिं तव कृपापात्र जन जागै ।
निज करनी बिपरीत देखि मोहिं समुझि महा भय लागै ॥ ३ ॥
जद्यपि भग्न-मनोरथ बिधिबस, सुख इच्छत, दुख पावै ।
चित्रकार करहीन जथा स्वारथ बिनु चित्र बनावै ॥ ४ ॥
हृषीकेश सुनि नाउँ जाउँ बलि, अति भरोस जिय मोरे ।
तुलसिदास इंद्रिय-संभव दुख, हरे बनिहिं प्रभु तोरे ॥ ५ ॥
हे हरि ! कस न हरहु भ्रम भारी ।
जद्यपि मृषा सत्य भासै जबलगि नहिं कृपा तुम्हारी ॥ १ ॥
अर्थ अबिद्यमान जानिय संसृति नहिं जाइ गोसाई ।
बिन बाँधे निज हठ सठ परबस पर् यो कीरकी नाई ॥ २ ॥
सपने ब्याधि बिबिध बाधा जनु मृत्यु उपस्थित आई ।
बैद अनेक उपाय करै जागे बिनु पीर न जाई ॥ ३ ॥
श्रुति-गुरु-साधु-समृति-संमत यह दृश्य असत दुखकारी ।
तेहि बिनु तजे, भजे बिनु रघुपति, बिपति सकै को टारी ॥ ४ ॥
बहु उपाय संसार-तरन कहँ, बिमल गिरा श्रुति गावै ।
तुलसिदास मैं-मोर गये बिनु जिउ सुख कबहुँ न पावै ॥ ५ ॥
हे हरि ! यह भ्रमकी अधिकाई ।
देखत, सुनत, कहत, समुझत संसय-संदेह न जाई ॥ १ ॥
जो जग मृषा ताप-त्रय-अनुभव होइ कहहु केहि लेखे ।
कहि न जाय मृगबारि सत्य,भ्रम ते दुख होइ बिसेखे ॥ २ ॥
सुभग सेज सोवत सपने, बारिधि बूड़त भय लागै ।
कोटिहुँ नाव न पार पाव सो, जब लगि आपु न जागै ॥ ३ ॥
अनबिचार रमनीय सदा, संसार भयंकर भारी ।
सम-संतोष-दया-बिबेक तें, व्यवहारी सुखकारी ॥ ४ ॥
तुलसिदास सब बिधि प्रपञ्च जग, जदपि झूठ श्रुति गावै ।
रघुपति-भगति, संत-संगति बिनु, को भव-त्रास नसावै ॥ ५ ॥
मै हरि, साधन करइ न जानी ।
जस आमय भेषज न कीन्ह तस,दोष कहा दिरमानी ॥ १ ॥
सपने नृप कहँ घटै बिप्र-बध, बिकल फिरै अघ लागे ।
बाजिमेध सत कोटि करै नहिं सुद्ध होइ बिनु जागे ॥ २ ॥
स्त्रग महँ सर्प बिपुल भयदायक, प्रगट होइ अबिचारे ।
बहु आयुध धरि, बल अनेक करि हारहिं, मरइ न मारे ॥ ३ ॥
निज भ्रम ते रबिकर-सम्भव सागर अति भय उपजावै ।
अवगाहत बोहोत नौका चढ़ि कबहुँ पार न पावै ॥ ४ ॥
तुलसिदास जग आपु सहित जब लगि निरमूल न जाई ।
तब लगि कोटि कलप उपाय करि मरिय, तरिय नहिं भाई ॥ ५ ॥
अस कछु समुझि परत रघुराया !
बिनु तव कृपा दयालु ! दास-हित ! मोह न छूटै माया ॥ १ ॥
बाक्य-ग्यान अत्यंत निपुन भव-पार न पावै कोई ।
निसि गृहमध्य दीपकी बातन्ह, तम निबृत नहिं होई ॥ २ ॥
जैसे कोइ इक दीन दुखित अति असन-हीन दुख पावै ।
चित्र कलपतरु कामधेनु गृह लिखे न बिपति नसावै ॥ ३ ॥
षटरस बहुप्रकार भोजन कोउ, दिन अरु रैनि बखानै ।
बिनु बोले संतोष-जनित सुख खाइ सोइ पै जानै ॥ ४ ॥
जबलगि नहिं निज हृदि प्रकास, अरु बिषय-आस मनमाहीं ।
तुलसिदास तबलगि जग-जोनि भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं ॥ ५ ॥
जौ निज मन परिहरै बिकारा।
तौ कत द्वैत-जनित संसृति-दुख,संसय,सोक अपारा ॥ १ ॥
सत्रु,मित्र,मध्यस्थ,तीनि ये, मन कीन्हे बरिआई।
त्यागन,गहन,उपेच्छनीय,अहि हाटक तृनकी नाई ॥ २ ॥
असन,बसन,पसु बस्तु बिबिध बिधिसब मनि महँ रह जैसे।
सरग,नरक,चर-अचर लोक बहु, बसत मध्य मन तैसे ॥ ३ ॥
बिटप-मध्य पुतरिका,सूत महँ कंचुकि बिनहिं बनाये।
मन महँ तथा लीन नाना तनु, प्रगटत अवसर पाये ॥ ४ ॥
रघुपति-भगति-बारि-छालित-चित, बिनु प्रयास ही सूझै।
तुलसिदास कह चिद-बिलास जग बूझत बूझत बूझै ॥ ५ ॥
मैं केहि कहौं बिपति अति भारी। श्रीरघुबीर धीर हितकारी ॥ १ ॥
मम हृदय भवन प्रभु तोरा। तहँ बसे आइ बहु चोरा ॥ २ ॥
अति कठिन करहिं बरजोरा। मानहिं नहिं बिनय निहोरा ॥ ३ ॥
तम,मोह,लोभ,अहँकारा। मद,क्रोध,बोध-रिपु मारा ॥ ४ ॥
अति करहिं उपद्रव नाथा। मरदहिं मोहि जानि अनाथा ॥ ५ ॥
मैं एक,अमित बटपारा। कोउ सुनै न मोर पुकारा ॥ ६ ॥
भागेहु नहिं नाथ! उबारा। रघुनायक, करहुँ सँभारा ॥ ७ ॥
कह तुलसिदास सुनु रामा। लूटहिं तसकर तव धामा ॥ ८ ॥
चिंता यह मोहिं अपारा। अपजस नहिं होइ तुम्हारा ॥ ९ ॥
मन मेरे,मानहि सिख मेरी। जो निजु भगति चहै हरि केरी ॥ १ ॥
उर आनहि प्रभु-कृत हित जेते। सेवहि ते जे अपनपौ चेते ॥ २ ॥
दुख-सुख अरु अपमान-बड़ाई। सब सम लेखहि बिपति बिहाई ॥ ३ ॥
सुनु सठ काल-ग्रसित यह देही। जनि तेहि लागि बिदूषहि केही ॥ ४ ॥
तुलसिदास बिनु असि मति आयै। मिलहिं न राम कपट-लौ लाये ॥ ५ ॥
मैं जानी,हरिपद-रति नाहीं। सपनेहुँ नहिं बिराग मन माहीं ॥ १ ॥
जे रघुबीर चरन अनुरागे। तिन्ह सब भोग रोगसम त्यागे ॥ २ ॥
काम-भुजंग डसत जब जाहीं। बिषय-नींब कटु लगत न ताही ॥ ३ ॥
असमंजस अस हृदय बिचारी। बढ़त सोच नित नूतन भारी ॥ ४ ॥
जब कब राम-कृपा दुख जाई। तुलसिदास नहिं आन उपाई ॥ ५ ॥
सुमिरु सनेह-सहित सीतापति। रामचरन तजि नहिंन आनि गति ॥ १ ॥
जप,तप,तीरथ,जोग समाधी। कलिमत बिकल,न कछु निरुपाधी ॥ २ ॥
करतहुँ सुकृत न पाप सिराहीं। रकतबीज जिमि बाढ़त जाहीं ॥ ३ ॥
हरति एक अघ-असुर-जालिका। तुलसिदास प्रभु-कृपा-कालिका ॥ ४ ॥
रुचिर रसना तू राम राम राम क्यों न रटत।
सुमिरत सुख-सुकृत बढ़त, अघ-अमंगल घटत ॥ १ ॥
बिनु श्रम कलि-कलुषजाल कटु कराल कटत।
दिनकरके उदय जैसे तिमिर-तोम फटत ॥ २ ॥
जोग,जाग,जप,बिराग,तप सुतीरथ-अटत।
बाँधिबेको भव-गयंद रेनुकी रजु बटत ॥ ३ ॥
परिहरि सुर-मनि सुनाम, गुंजा लखि लटत।
लालच लघु तेरो लखि, तुलसि तोहि हटत ॥ ४ ॥
राम राम,राम राम,राम राम, जपत।
मंगल-मुद उदित होत, कलि-मल-छल छपत ॥ १ ॥
कहु के लहे फल रसाल, बबुर बीज बपत।
हाहरि जनि जनम जाय गाल गूल गपत ॥ २ ॥
काल,करम,गुन,सुभाउ सबके सीस तपत।
राम-नाम-महिमाकी चरचा चले चपत ॥ ३ ॥
साधन बिनु सिद्धि सकल बिकल लोग लपत।
कलिजुग बर बनिज बिपुल, नाम-नगर खपत ॥ ४ ॥
नाम सों प्रतीति-प्रीति हृदय सुथिर थपत।
पावन किये रावन-रिपु तुलसिहु-से अपत ॥ ५ ॥
पावन प्रेम राम-चरन-कमल जनम लाहु परम।
रामनाम लेत होत, सुलभ सकल धरम ॥ १ ॥
जोग,मख,बिबेक,बिरत,बेद-बिदित करम।
करिबे कहँ कटु कठोर, सुनत मधुर,नरम ॥ २ ॥
तुलसी सुनि, जानि-बूझि, भूलहि जनि भरम।
तेहि प्रभुको होहि, जाहि सब ही की सरम ॥ ३ ॥
राम-से प्रीतमकी प्रीति-रहित जीव जाय जियत।
जेहि सुख सुख मानि लेत, सुख सो समुझ कियत ॥ १ ॥
जहँ जहँ जेहि जोनि जनम महि, पताल,बियत।
तहँ-तहँ तू बिषय-सुखहिं, चहत लहत नियत ॥ २ ॥
कत बिमोह लट्यो,फट्यो गगन मगन सियत।
तुलसी प्रभु-सुजस गाइ, क्यों न सुधा पियत ॥ ३ ॥